Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
13. If the pradeshagra (the uppermost limit) of the sthitika (state of existence) of the karma that is situated in the last samayuttara (one samaya more) of the udayavali (series of rise) has become less than the jhaṇiyā (minimum) āvādhā (duration of stay) of the samayuttara, then that pradeshagra can be utkarpana (elevated) to the extent of the jhaṇiyā āvādhā and can be nisiñcita (deposited) in the next higher sthiti.
14. If the karmastiti (state of karma) has become less than the dvīsamayāhikā (two samaya more) āvādhā, or less than the trissamayāhikā (three samaya more) āvādhā, then by proceeding in this way, if the karmastiti has become less than the vārṣa (year), vārsaprathakatva (multiple of years), sāgaropama (ocean-measure), sāgaropamaprathakatva (multiple of ocean-measure), all that pradeshagra is akṣīṇasthitika (not depleted in state) from the point of view of utkarpana.
________________
२१५
गा० २२]
क्षीण-अक्षीणस्थितिक-अर्थपद-निरूपण १३. समयुत्तराए उदयावलियाए तिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तस्स पदेसग्गरस जइ जहणियाए आवाहाए समयुत्तराए अणिया कम्महिदी विदिकंता तं पदेसग्गं सक्का आगाधामेत्तमुक्कड्डिदुमेकिस्से द्विदीए णिसिंचिदु। १४. जइ दुसमयाहियाए आवाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिकंता, तिसमयाहियाए वा आवाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिकंता, एवं गंतूण वासेण वा वासपुधत्तेण वा सागरोवमेण वा सागरोवमपुधत्तेण वा ऊणिया कम्मट्टिदी विदिक्कता तं सव्वं पदेसग्गं उक्कड्डणादो अज्झीणहिदियं ।
चूर्णिसू०-समयोत्तर उदयावलीमे, अर्थात् एक समय-अधिक उदयावलीके अन्तिम समयमे जो स्थिति अवस्थित है, उस स्थितिके जो प्रदेशाग्र है, उस प्रदेशाग्रकी यदि समयाधिक जघन्य आवाधासे कम कर्मस्थिति बीत चुकी है, तो जघन्य आवाधाप्रमाण प्रदेशाप्रका उत्कर्पण किया जा सकता है और उसे उपरिम-अनन्तर एक स्थितिमे निपिक्त किया जा सकता है । यदि उस कर्म-प्रदेशाग्रकी दो समय-अधिक आवाधासे कम कर्मस्थिति वीत चुकी है, अथवा तीन समय-अधिक आवाधासे कम कर्मस्थिति वीत चुकी है, इस प्रकार समयोत्तर वृद्धिक क्रमसे आगे जाकर वर्पसे, या वर्पपृथक्त्वसे, या सागरोपमसे, या सागरोपमपृथक्त्वसे, कम कर्मस्थिति व्यतिक्रान्त हो चुकी है, सो वह सर्व कर्म-प्रदेशाग्र उत्कर्पणसे अक्षीण-स्थितिक है, अर्थात् उनका उत्कर्पण किया जा सकता है और अनन्तर-उपरिम स्थितिमे उसे निपिक्त भी किया जा सकता है ॥१३-१४॥
विशेषार्थ-किसी भी विवक्षित कर्मके बंधनेके पश्चात् जब तक उसका कमसे कम जघन्य आवाधाकाल व्यतीत न हो जाय, तबतक उसका उत्कर्पण नही किया जा सकता है। एक समय अधिक जघन्य आवाधाकालके व्यतीत होनेपर उसका उत्कर्पण किया जा सकता है और उसे अनन्तर स्थितिमे निषिक्त भी किया जा सकता है। इसी बातको स्पष्ट करते हुए चूर्णिकारने बतलाया कि इस प्रकार एक-एक समय अधिक करते हुए जिस कर्मप्रदेशाप्रकी स्थिति वर्ष-प्रमाण बीत चुकी हो, वर्ष-पृथक्त्वप्रमाण बीत चुकी हो, अथवा शतवर्ष, सहस्र वर्प, लक्ष वर्ष, सागरोपम, सागरोपम-पृथक्त्व, गत सागरोपम, या सहस्र सागरोपम, या लक्ष सागरोपम, या कोटिसागरोपम, या कोटिपृथक्त्व सागरोपम, या अन्तः कोडाकोड़ी-पृथक्त्व सागरोपम भी व्यतीत हो चुकी हो, फिर भी उस कर्मकी जो स्थिति अवशिष्ट रही है, वह उत्कर्पणके योग्य है, क्योकि उसकी आवाधाप्रमाण अतिस्थापना भी संभव है
और एक समय अधिकसे लेकर बढ़ते हुए समयाधिक आवली और उत्कृष्ट आवाधासे कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमित निक्षेप भी संभव है।
इस प्रकार उदय-स्थितिसे पूर्व कालमे ये हुए कर्म-प्रदेशांका उत्कर्पणके योग्यअयोग्य भाव बतलाकर अब उदयस्थितिमे उत्तर कालमे बँधनेवाले नयकबद्ध समयप्रबद्धोके प्रदेशाग्रोके उत्कर्पणके योग्य-अयोग्यभावका निम्पण करते -