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कसाय पाहुड सुत्त [५ संक्रमण-अर्थाधिकार १७. पयडिसंकमे पयदं । १८. तत्थ तिणि सुत्तगाहाओ हवंति । १९ तं जहा । संकम-उवकमविही पंचविहो चउव्विहो य णिवेवो। णयविहि पयदं पयदे च णिगमो होइ अट्ठविहो ॥२४॥ एक्काए संकयो दुविहो संकमविही य पयडीए । संकमपडिरमहविही पडिरगहो उत्तम-जहण्णो ॥२५॥ पयडि-पयडिट्ठाणेसु संकमो अॅकमो तहा दुविहो । द्वाविहो पडिस्गहविही दविहो अपडिग्गहविही य ॥२६॥
चूर्णिसू०-यहाँ एकैकप्रकृतिसंक्रम प्रकृत है। उसमे तीन सूत्रगाथाएँ निबद्ध हैं । वे इस प्रकार है ।। १७-१९ ।।
विशेषार्थ-मूलप्रकृतियोका संक्रमण नहीं होता है, अतः यहॉपर उत्तरप्रकृतियोके संक्रमणके ही दो भेद किये गये है-एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थान्संक्रम। मिथ्यात्व आदि पृथक्-पृथक् प्रकृतियोंका आलम्बन करके जो संक्रमणकी गवेषणा की जाती है, उसे एकैकप्रकृतिसंक्रम कहते है। तथा एक समयमे जितनी प्रकृत्तियोका संक्रमण सम्भव हो, उनको एक साथ लेकर जो संक्रमणकी मार्गणा की जाती है, उसे प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते है । यहॉपर 'स्थान' शब्दको समुदायका वाचक जानना चाहिए ।
संक्रमकी उपक्रम विधि पाँच प्रकार की है, निक्षेप चार प्रकारका है, नयविधि भी प्रकृतमें विवक्षित है और प्रकृतमें निर्गम भी आठ प्रकार का है। प्रकृतिसंक्रम दो प्रकार का है-एक एक प्रकृतिमें संक्रम अर्थात् एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिमें संक्रमविधि अर्थात् प्रकृतिस्थानसंक्रम | संक्रममें प्रतिग्रह विधि होती है और वह उत्तम अर्थात् उत्कृष्ट और जघन्य होती है ।।२४-२५॥
विशेषार्थ-प्रथम गाथाके द्वारा प्रकृतिसंक्रमके उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम रूप चार प्रकारके अवतारकी प्ररूपणा की गई है। दूसरी गाथाके पूर्वार्धके द्वारा आठ निर्गमोमेसे प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम इन दोका और उत्तरार्धके द्वारा प्रकृतिप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह इन दोका, इस प्रकार चार निर्गमोका निर्देश किया गया है ।
प्रकृतिमें संक्रम और प्रकृतिस्थानमें संक्रम, इस प्रकार संक्रमके दो भेद हैं । इसी प्रकार से असंक्रम भी दो प्रकारका होता है-प्रकृति-असंक्रम और प्रकृतिस्थानअसंक्रम । प्रतिग्रहविधि दो प्रकारकी होती है-प्रकृति-प्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह । इसी प्रकार अप्रतिग्रहविधि भी दो प्रकारकी होती है-प्रकृति-अप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थान-अप्रतिग्रह । इस प्रकार निर्गम के आठ भेद होते हैं ॥२६॥