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English Translation (preserving Jain terms):
Ga. 85]
Exposition of the Four-Fold Depositum
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7. There should be the depositum of the two. 8. That is as follows. 9. The depositum of the name-place, the depositum of the establishment-place, the depositum of the substance-place, the depositum of the region-place, the depositum of the half-place, the depositum of the consideration-place, the depositum of the high-place, the depositum of the restraint-place, the depositum of the activity-place, and the depositum of the state-place. 10. The Nairgamika accepts all these places. 11. The Samgraha and Vyavahara Naya reject the depositum of the consideration-place and the depositum of the high-place.
Specific meaning:
The designation 'name-place' is given to the eight 'modes' (bhanga) arising from the conjunction of the jiva, the ajiva, and their combination, as they are independent of any extraneous cause. The 'establishment-place' is the positing of any substance, real or unreal. The 'substance-place' is of two kinds: Agamic and Non-Agamic. The 'region-place' refers to the natural abodes of the upper, middle, and lower worlds. The 'half-place' denotes the divisions of time like moment, row, and muhurta. The 'consideration-place' refers to the places of the consideration of the bondage of status. The 'high-place' means the elevated regions like mountains. The 'restraint-place' signifies the places of attainment of the vows, like the state of partial control. The 'activity-place' denotes the restlessness of mind, speech, and body. The 'state-place' is of two kinds: Agamic and Non-Agamic. The Agamic state-place is self-evident. The Non-Agamic state-place refers to the places of the rise of passions like attachment, etc.
The Churnika now expounds the division of these various depositums through the Naya doctrine:
Churni-sutra - The Nairgamika accepts all the above-mentioned places, as it comprehends the general and the specific substances. The Samgraha and Vyavahara Naya reject the depositum of the consideration-place and the depositum of the high-place, i.e., they accept the rest of the places.
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गा० ८५ ]
चतुःस्थान- निक्षेप - निरूपण
६०७
७. द्वाणं णिक्खिविदव्वं । ८. तं जहा । ९. णामट्ठाणं टुवणट्ठाणं दव्वद्वाणं खेत्तट्ठाणं अडाणं पलिवीचिट्ठाणं उच्चद्वाणं संजमद्वाणं पयोगद्वाणं भावद्वाणं च । १०. णेगमो सव्वाणि ठाणाणि इच्छ । ११. संगह बवहारा पलिवीचिद्वाणं उच्चद्वाणं च अवर्णेति । दारु आदि स्थानोकी, अथवा क्रोधादि कषायोकी एक-एक करके नाम, स्थापना आदिके द्वारा प्ररूपणा करनेको एकैकनिक्षेप कहते है । तथा इन्ही लता, दारु आदि विभिन्न अनुभाग-शक्तियोके समुदायरूपसे वाचक 'स्थान' शब्दकी नाम, स्थापना आदिके द्वारा प्ररूपणा करनेको स्थाननिक्षेप कहते हैं । इनमेसे एकैकनिक्षेपका अर्थात् क्रोधादि कपायोका ग्रन्थ के आदिमे 'कसाय- पाहुड' या 'पेज्जदोस - पाहुड' का अर्थ- निरूपण करते समय पहले विस्तार से कई वार निक्षेपण और प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहाँ पुनः नहीं कहते हैं । अब चूर्णिकार स्थाननिक्षेपका वर्णन करते है -
चूर्णिसू० (० - स्थानका निक्षेप करना चाहिए । वह इस प्रकार है - नामस्थान, स्थापनास्थान, द्रव्यस्थान, क्षेत्रस्थान, अद्धास्थान, परिवीचिस्थान, उच्चस्थान, संयमस्थान, प्रयोगस्थान और भावस्थान ॥७-९॥
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विशेषार्थ-जीव, अजीव और तदुभय के संयोग से उत्पन्न हुए आठ' भंगोकी निमि'त्तान्तर- निरपेक्ष 'स्थान' ऐसी संज्ञा करनेको नामस्थान कहते हैं । यह स्थान है, इस प्रकार सद्भाव या असद्भावरूपसे जिस किसी पदार्थ में स्थापना करना स्थापनास्थान है । द्रव्यस्थान आगम और नोआगमके भेद से दो प्रकारका है । इनमे आगम द्रव्यस्थान, तथा नो आगमद्रव्यस्थानके ज्ञायकशरीर और भाविभेद पूर्वमे अनेक वार प्ररूपित होने से सुगम हैं भूमि आदिमें रखे हुये हिरण्य-सुवर्ण आदिके अवस्थानको नोआगम द्रव्यस्थान कहते हैं । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक आदि के अपने-अपने अकृत्रिम संस्थानरूपसे अवस्थानको क्षेत्रस्थान कहते है । समय, आवली, मुहूर्त आदि कालके भेदोको अद्धास्थान कहते है । स्थितिबन्धके वीचारस्थान, सोपानस्थान या अध्यवसायस्थानोको पलिवीचिस्थान कहते है । पर्वत आदि के उच्चप्रदेशको या मान्य स्थानको उच्चस्थान कहते हैं । सामायिक, छेदोपस्थापना आदि संयम के लब्धिस्थानोको, अथवा संयमविशिष्ट प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानोको संयमस्थान कहते हैं । मन, वचन, कायकी चंचलतारूप योगोको प्रयोगस्थान कहते है । भावस्थान आगम नोआगमके भेद से दो प्रकारका है । आगमभावस्थानका अर्थ सुगम है । कषायोके लता, दारु आदि अनुभाग-जनित उदयस्थानोको, या औदयिक आदि भावोंको नो आगमभावस्थान कहते हैं। अब चूर्णिकार इन अनेक प्रकार के स्थाननिक्षेपोंका नय- विभागद्वारा वर्णन करते हैं
I
चूर्णिसू० - नैगमनय उपर्युक्त सभी स्थानोको स्वीकार करता है, क्योंकि वह सामान्य और विशेषरूप पदार्थको ग्रहण करता है । संग्रह और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानका अपनयन करते है, अर्थात् शेष स्थानोको ग्रहण करते हैं ।। १०-११ ॥
१ वे आठ भग इस प्रकार हैं- एक जीव, एक अजीव, अनेक जीव, अनेक अजीव, एक जीवअनेक अजीव, अनेक जीव एक अजीव, एक जीव एक अजीव और अनेक जीव अनेक अजीव ।