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Darsana Mohaniya-ksapaka-sthityadhi - Alpa-bahutva-nirupana
90. Thus the explanation is complete.
91. In the supreme moment of the Darsana-mohaniya-ksapaka, after removing the initial non-performance, up to the point when the first-moment-accomplished becomes established, in this interval, I shall explain the minimum and maximum of the following: Anubhaga-khandaka and Sthiti-khandaka - Utkirana-kalas, the minimum and maximum of Sthiti-khandaka, Sthiti-bandha and Sthiti-sattva, the minimum and maximum of Avadha, and the minimum and maximum of other substances as well.
92. That is as follows:
93. The minimum Utkirana-kala of Anubhaga-khandaka is the least everywhere.
94. The maximum Utkirana-kala of Anubhaga-khandaka is specially distinguished.
95. The minimum of both Sthiti-khandaka-Utkirana-kala and Sthiti-bandha are multiplied by countless times.
96. The maximum of both these two are specially distinguished.
97. The duration of the Krtakrtyaveda is multiplied by countless times.
98. The duration of the destruction of Samyaktva-prakrti is multiplied by countless times.
99. The duration of Aniyata is multiplied by countless times.
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गा० ११४ ]
दर्शन मोहक्षपक-स्थित्यादि - अल्पबहुत्व-निरूपण
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९०. एवं परिभासा समत्ता ।
९१. दंसणमोहणीयक्खवगस्स परमसमए अपुच्चकरणमादि काढूण जाव पढमसमयकद करणिज्जो त्ति एदम्हि अंतरे अणुभागखंडय -ट्ठिदिखंडय -उक्कीरणद्धाणं जहण्णुकस्सियाणं द्विदिखंड पट्ठिदिबंध -ट्ठिदिसंतकम्माणं जहण्णुक्कस्सयाणं आवाहाणं च जहण्णुक्कस्सियाणमण्णेसिं च पदाणमप्पा बहुअं वत्तहस्सामा । ९२. तं जहा । ९३. सव्वत्थोवा जहणिया अणुभागखंडय - उक्कीरणद्धा । ९४. उक्कस्सिया अणुभागखंड कीरणद्धा विसेसाहिया । ९५ हिदिखंडय - उकीरणद्धा ट्ठिदिबंधगद्धा च जहणियाओ दो वि तुलाओ संखेज्जगुणाओ । ९६. ताओ उक्कस्सियाओ दो वि तुलाओ विसेसाहियाओ । ९७. कदकरणिज्जस्स अद्धा संखेज्जगुणा । ९८. सम्मत्तक्खवणद्धा संखेज्जगुणा । ९९. अणिय डिअद्धा संखेज्जगुणा । १००. अपुव्वतत्पश्चात् ही लेश्याका परिवर्तन होगा, इसके पूर्व नहीं । शुभ लेश्याके परिवर्तित होनेके पश्चात् पूर्वबद्ध आयुके कारण वह यथायोग्य अशुभ लेश्यासे परिणत होकर यदि मरण कर मनुष्यगति में जायगा, तो नियमसे भोगभूमियाँ मनुष्योमे उत्पन्न होगा । यदि तिर्यग्गति में जायगा तो भोगभूमियाँ तिर्यंचोमें उत्पन्न होगा और यदि नरकगतिमे जायगा, तो प्रथम पृथिवीमें ही उत्पन्न होगा, अन्यत्र नही ।
चूर्णिसू० - इस प्रकार गाथासूत्रोंकी परिभाषा समाप्त हुई ॥९०॥
विशेषार्थ - सूत्र - द्वारा उक्त या सूचित अर्थके व्याख्यान करनेको विभाषा कहते हैं । तथा जो अर्थ सूत्रमे उक्त या अनुक्त हो, अथवा देशामर्शकरूपसे सूचित किया गया हो उसके व्याख्यान करनेको परिभाषा कहते हैं । दर्शनमोहक्षपणा - सम्बन्धी पाँचो गाथा- सूत्रोंमें जो अर्थ कहा गया है, अथवा नहीं कहा गया है, अथवा सूचित किया गया है, वह सब उपर्युक्त चूर्णिसूत्रों के द्वारा व्याख्यान कर दिया गया, ऐसा इस चूर्णिसूत्रका अभिप्राय जानना चाहिए । यहाॅ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि यहाँतक चार गायासूत्रोंकी परिभाषा की गई है, क्योकि पॉचवें गाथासूत्रकी परिभाषा चूर्णिकारने आगे की है ।
चूर्णिसू० - दर्शनमोहनीयक्षपकके प्रथम समयमे अपूर्वकरणको आदि करके जब तक प्रथम समयवर्ती कृतकृत्यवेदक होता है, तब तक इस अन्तराल मे अनुभागकांडक और स्थितिकांडक - उत्कीरण कालोके, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकांडक, स्थितिबन्ध और स्थिति सत्त्वोंके, जघन्य वा उत्कृष्ट आबाधाओके, तथा जघन्य और उत्कृष्ट अन्य भी पदो के अल्पबहुत्वको कहेगे । वह इस प्रकार है । जघन्य अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल सबसे कम है । इससे उत्कृष्ट अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है । इससे जघन्य स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और जघन्य स्थितिबन्धकाल, ये दोनो परस्पर तुल्य होते हुए भी संख्यातगुणित हैं । इनसे इन्हीं दोनोके उत्कृष्टकाल परस्पर तुल्य होते हुए भी विशेष अधिक है। इससे कृतकृत्यवेदकका काल संख्यातगुणित है । कृतकृत्यवेदकके कालसे सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपणका काल संख्यातगुणित है । सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षपणके कालसे अनि