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112 Kasaya Pahuda Sutra
[145. What is the status (utkarsa or anukarsa) of the sixteen kasayas for the jiva with the highest bondage of the karma of mithyatva? 146. It is both utkarsa and anukarsa. 147. The anukarsa status is from one samaya less than the utkarsa status up to one asankhyata-bhaga less than a palya. 148. The status of stri-veda, purusa-veda, hasya and rati is always anukarsa. 149. The anukarsa status is from one antarmuhurta less than the utkarsa status up to antahkodakodi sagaropama. 150. What is the status (utkarsa or anukarsa) of nasya-veda, arati, soka, bhaya and jugupsa? 151. It is both utkarsa and anukarsa.
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११२ कसाय पाहुड सुत्त
[३ स्थितिविभक्ति १४५. सोलसकसायाणं किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? १४६. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । १४७. उक्कस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि कादण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणा त्ति । १४८. इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदीणं णियमा अणुक्कस्सा | १४९, उक्करसादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । १५०. णसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं विहत्ती किमुक्कस्सा किमणुकस्सा ? १५१. उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ।
चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धवाले जीवके अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोका स्थितिसत्त्व क्या उत्कृष्ट होता है अथवा क्या अनुत्कृष्ट होता है ? उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है ॥१४५-१४६॥
विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके वॉधते समय सोलह कषायोका उत्कृष्ट स्थितिबंध हो, तो स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट होगा। और यदि उत्कृष्ट स्थितिबंध न हो तो स्थितिसत्त्व अनुत्कृष्ट होगा।
चूर्णिसू०-वह अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट स्थितिमे एक समय कमको आदि करके पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम स्थिति तकके प्रमाणवाला होता है ॥१४७॥
विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके सोलह कपायोका अनुत्कृष्ट स्थितिबंध अधिकसे अधिक एकसमय कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम होता है। पुनः इससे नीचे दोसमय कम, तीन समय कम, चार समय कम, इस प्रकारसे घटता हुआ एक समय-हीन अवाधाकांडकसे कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तकका कमसे कम अनुत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। एक अबाधाकांडका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवा भाग होता है । इससे नीचे उक्त मिथ्यावष्टि जीवके सोलह कषायोका अनुत्कृष्ट स्थितिबंध संभव नही है ।
चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबंध करनेवाले जीवके स्त्रीवेद, पुरुपवेद, हास्य और रति, इन चार प्रकृतियोका स्थितिसत्त्व नियमसे उत्कृष्ट होना है ।।१४८॥
विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्यात्व वा अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कपायोका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध होते समय इन चारो प्रकृतियोका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध नहीं होता है, क्योकि, ये प्रशस्तरूप हैं।
चूर्णिसू०-वह अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उत्कृष्ट स्थितियोसे एक अन्तर्मुहूर्त कमको आदि करके अन्तःकोडाकोडी सागरोपम तकके प्रमाणवाला होता है ॥१४९।।
चूर्णिसू०-मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध करनेवाले जीवके नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन पांच प्रकृतियोंकी स्थितिसत्त्वविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है, अथवा क्या अनुत्कृष्ट होती है ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है ॥१५०-१५१।।
विशेपार्थ-इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिकेचांधते समय यदि सोलह कपायोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता है, तो इन नपुंसकवेदादि पांची नोकपायांका