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Gāthā 69 Exposition of the Categories of Karmic Dispositions (Kaṣāya-Upayoga-Vargaṇā) 179. The categories of karmic dispositions (kaṣāya-upayoga-vargaṇā) are of two types: kāla-upayoga-vargaṇā and bhāva-upayoga-vargaṇā. 180. The kāla-upayoga-vargaṇā refers to the gradations of the duration of the operation of the karmic dispositions. 181. The bhāva-upayoga-vargaṇā refers to the gradations of the intensity of the arising of the karmic dispositions. 182. Now, the exposition of these two types of vargaṇās, their measure, and their relative paucity or abundance should be stated. Thus ends the elucidation of the third gāthā.
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________________ गा० ६९ ] कषाय- उपयोगवर्गणा-निरूपण ५७९ araणाओ दुविहाओ कालोवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ य' । १७९. कालोजोगवग्गणओ णाम कसायोवजोगडाणाणि । १८०. भावोव जोगवग्गणाओ णाम कसायोदयङ्काणाणि । १८१. एदानिं दुविहाणं पि वग्गणाणं परूवणा पमाणमप्पाबहुअं च वत्तव्यं । १८२. तदो तदियाए गाहाए विहासा समत्ता । दो प्रकारकी है -- कालोपयोगवर्गणाएँ और भावोपयोगवर्गणाएँ । कषायोके उपयोगसम्बन्धी कालके जघन्य उत्कृष्ट आदि स्थानोको कालोपयोगवर्गणाऍ कहते है ॥ १७५-१७९॥ विशेषार्थ - क्रोधादि कपायोंके साथ जीवके सम्प्रयोग होनेको उपयोग कहते है । कषायों के उपयोगको कषोयोपयोग कहते है । इसप्रकार के कषायोपयोगके कालको कपायोपयोगकाल कहते हैं । वर्गणा, विकल्प, स्थान और भेद ये सब एकार्थवाची नाम हैं । कषायके जघन्य उपयोगकालके स्थानसे लेकर उत्कृष्ट उपयोगकालके स्थान तक निरन्तर अवस्थित भेदोको कालोपयोगवर्गणा कहते हैं । चूर्णिसू०-कषायोके उदयस्थानोको भावोपयोगवर्गणा कहते हैं ॥ १८० ॥ विशेषार्थ - भावकी अपेक्षा तीव्र - मन्द आदि भावोंसे परिणत कषायोंके जघन्य विकल्पसे लेकर उत्कृष्ट विकल्प तक षड्-वृद्धिक्रमसे अवस्थित उदयस्थानोको भावोपयोगवर्गणा कहते हैं । वे कषाय-उदयस्थान असंख्यात लोकोंके जितने प्रदेश हैं, तत्प्रमाण होते हैं । वे उदयस्थान मानकषायमे सबसे कम हैं, क्रोधकषायमे विशेष अधिक हैं, मायाकपायमे विशेष अधिक हैं और लोभकषायमे विशेष अधिक होते हैं । । चूर्णि सू० - [0- इन दोनो ही प्रकारकी वर्गणाओंकी प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पत्रहुत्व कहना चाहिए । इस प्रकार तीसरी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई ।। १८१-१८२॥ १ उवजोगो णाम कोहादि - कसाएहि सह जीवस्स सपजोगो, तस्स वग्गणाओ वियप्पा भेदा ति एयट्ठो । जहण्णोवजोगट्ठाण पहुडि जाव उक्कस्सोवजोगट्ठाणे त्ति गिरतरमवट्ठिदाण तव्वियप्पाणमुवजोगवग्गणाववसोत्ति वृत्त होइ । सो च जहण्णुक्कस्तभावो दोहिं पयारेहिं संभवइ कालादो भावदो च । तत्थ कालदो जहणोवजोगकालप्पहुडि जावुक्कस्सोवजोगकालो त्तिणिरतरमर्वादाण वियप्पाण कालोव - जोगवग्गणा त्ति सण्णा; कालविसयादो उवजोगवग्गणाओ कालोवजोगवग्गणाओ त्ति गहणादो । भावदो तिव्व मदादिभावपरिणदक्षण कसायुदयठाणाण जहण्णवियप्प पहुडि जावुक्कस्सवियप्पो त्ति छवड्ढिकमेणावट्ठियाण भावोवजोगवग्गणा त्ति ववएसो, भावविसे सिदाओ उवजोगवग्गणाओ भावोवजोगवग्गणाओ ति विवक्खियत्तादो । जयध० २ को हादिकसायोवजोगजहण्णकालमुक्कस्सकालादो सोहिय सुद्धसेसम्म एगरूवे पक्खित्ते कसायोवजोगट्ठाणाणि होति । जयध० ३ कोहादिकसायाणमेक्वेक्कस्स कसायस्स असखेजलोगमेत्ताणि उदयठाणाणि अस्थि । ताणि पुण माणे थोवाणि, कोहे विसेसाहियाणि, मायाए विसेसाहियाणि, लोभे विसेसाहियाणि । एदाणि सव्वाण समुदिदाणि सग-सगकसायपडिबद्धाणि भावोवजोगवग्गणाओ णाम; तिव्वमदादिभावणिबधणत्तादो न्ति । जयघ
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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