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English translation preserving Jain terms:
26. The division of words (padacchedo) is as follows - 'Padadiye mohaniJJa vihatti' - this indicates the first artha-adhikara, i.e. Prakriti-vibhakti (1).
27. 'Taha tthidi chedi' indicates the second artha-adhikara, i.e. Sthiti-vibhakti (2).
28. 'Anubhage ti' indicates the third artha-adhikara, i.e. Anubhaga-vibhakti (3).
29. 'Ukkassanukkassam ti' indicates the fourth artha-adhikara, i.e. Pradesha-vibhakti (4).
30. 'Jhinamajhinam ti' indicates the fifth artha-adhikara, i.e. Kshina-akshina (5).
31. 'Tthidiyam va ti' indicates the sixth artha-adhikara, i.e. Sthityantika (6).
32-33. Now, we will explain the Prakriti-vibhakti. Prakriti-vibhakti is of two types - Mula-prakriti-vibhakti and Uttara-prakriti-vibhakti.
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गा० २२ ]
चतुर्थमूलगाथार्थ - निरूपण
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२६. पदच्छेदो । तं जहा - पयडीए मोहणिजा विहत्ति त्ति एसा पयडि - विहत्ती (१) । २७. तह ट्ठिदी चेदि एमा ठिदिविहत्ती ( २ ) । २८. अणुभागे ति अणुभागविहत्ती (३) । २९. उक्कस्समणुक्कस्सं त्ति पदेसविहत्ती ( ४ ) । ३०. झीणमझीणं त्ति ( ५ ) । ३१. ठिदियं वा त्ति ( ६ ) । ३२. तत्थ पयडिविहति वण्णस्साम । ३३. पयडिविहत्ती दुविहा मूलपयडिविहत्ती च उत्तरपयडिविहत्ती च ।
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चूर्णि सू [० - अब इस गाथासूत्रका पदच्छेद- पदोका विभाग - उसके अर्थ - स्पष्टीकरण के लिए करते है । वह इस प्रकार है- 'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती' इस पदने यह प्रकृतिविभक्ति नामक प्रथम अर्थाधिकार सूचित किया गया है (१) ॥२६॥
विशेषार्थ - - पद चार प्रकारके होते है- अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद और व्यवस्था - पद । जितने अक्षरोसे अर्थका ज्ञान हो, उसे अर्थपद कहते है । वाक्य भी इसीका दूसरा नाम है । आठ अक्षरोके समूहको प्रमाणपद कहते है । सोलह सौ चौतीस कोटि, तेरासी लाख, अट्ठत्तर सौ अट्ठासी ( १६३४८३०७८८८ ) अक्षरोका मध्यमपद होता है । इसका उपयोग अंग और पूर्वोके प्रमाणमे होता है । जितने वाक्यसमूह से एक अधिकार समाप्त हो, उसे व्यवस्थापद कहते हैं । अथवा सुबन्त और तिडन्त पदोको भी व्यवस्थापद कहते है । प्रकृतमे यहॉपर व्यवस्थापदसे प्रयोजन है, क्योकि, उससे प्रकृत गाथाका अर्थ किया जा रहा है।
चूर्णिसू० - गाथा - पठित 'तह हिदी चेदि' इस पदसे स्थितिविभक्ति नामक द्वितीय अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( २ ) । ' अणुभागे त्ति' इस पद से अनुभागविभक्ति नामक तृतीय अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ३ ) । ' उक्तस्समणुकस्सं ति' इस पद से प्रदेशविभक्ति नामक चतुर्थ अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ४ ) । 'झीणमझीणं ति' इस पदसे क्षीणाक्षीण नामक पंचम अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ५ ) । 'ठिदियं वा त्ति' इस पदसे ‘'स्थित्यन्तिक' नामक छठा अर्थाधिकार सूचित किया गया है ( ६ ) ॥२७-३१॥
विशेपार्थ - इस प्रकार यतिवृषभाचार्यके अभिप्रायसे इस गाथाके द्वारा उक्त छह अर्थाधिकार सूचित किये गये है । किन्तु गुणधराचार्य के अभिप्राय से स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति नामक दो अर्थाधिकार ही कहे गये है । उक्त दोनो आचार्योंके अभिप्रायोंमे कोई मतभेद नही समझना चाहिए, क्योकि, गुणधराचार्य सूत्रकार है, अतएव उनका अभिप्राय संक्षेपसे कहने का है । किन्तु यतिवृषभाचार्य वृत्तिकार है, अतएव वे उसी बात को विस्तार के साथ कह रहे हैं ।
चूर्णिस् [0- अब इन उपयुक्त छह अर्धाधिकारों से पहले प्रकृतिविभक्तिको वर्णन करेगे। प्रकृतिविभक्ति दो प्रकारकी है - मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति ।। ३२-३३॥
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