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## Chapter 15:
**Verse 85:**
The term "Prabhrit" is explained here.
**Verse 86:**
What is the meaning of "Prabhrit"? The term "Prabhrit" refers to something that is full, complete, or abundant in meaning.
**Explanation:**
The term "Prabhrit" refers to the scriptures established by the supreme Tirthankaras. Alternatively, it can refer to the scriptures explained or interpreted by the most excellent and knowledgeable Acharyas. The scriptures related to the "Kshaya" (passions) are called "Kshaya Prabhrit". Alternatively, the scriptures that are full of meaning related to "Kshaya" are called "Kshaya Prabhrit". Similarly, the scriptures that explain "Raga" (attachment) and "Dvesha" (aversion) are called "Pejjadosapahud" or "Prayodvepa Prabhrit", which is another name for "Kshaya Prabhrit". Thus, the discussion of "Kshaya Prabhrit" ends here.
Now, the author of the "Gatha Sutra" first points out the "Adha-Parimana" (half-measure), which is essential for understanding the authority of the present text and is common to all fifteen chapters.
The "Anākara Darshanopāyoga" (use of non-form perception), "Chakshu" (eye), "Shrotra" (ear), "Ghrana" (nose), and "Jihva" (tongue) - related "Avagrahajnana" (knowledge of perception), "Manoyoga" (mental application), "Vachanayoga" (verbal application), "Kayayoga" (physical application), "Sparshanendriya" (sense of touch) - related "Avagrahajnana", "Avayajnana" (knowledge of obstacles), "Ihajnana" (knowledge of this world), "Shrutajnana" (knowledge of scriptures), and "Uchchvas" (exhalation) - all these have a progressively increasing duration, but they are all measured in terms of "Avali" (a unit of time).
**Explanation:**
The duration of "Anākara" (non-form perception) is the shortest compared to all the other terms mentioned. However, it is still measured in terms of "Avali". The duration of "Chakshu" (eye) - related "Avagrahajnana" is longer than "Anākara". The duration of "Shrotra" (ear) - related "Avagrahajnana" is longer than "Chakshu" - related "Avagrahajnana".
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गा० १५]
अद्धापरिमाण-निर्देश ८५. संपहि णिरुत्ती उच्चदे । ८६. पाहुडेत्ति का णिरुत्ती १ जम्हा पदेहि पुदं (फुडं ) तम्हा पाहुडं।
आवलिय अणायारे चक्खिदिय-सोद-घाण-जिभाए।
मण-वयण-काय-पासे अवाय-ईहा-सुदुस्सासे ॥१५॥ दर्शक, वीतराग तीर्थकरोके द्वारा उपदिष्ट, और भव्यजीवोके हितार्थ निर्दीप आचार्य-परम्परासे प्रवाहित, द्वादशांग वाणीके वचनसमूहको, अथवा उसके एक देशको परमानन्ददोग्रन्थिकप्राभृत कहते है । इसके अतिरिक्त सांसारिक सुख-सामग्रीके साधक पदार्थोके समर्पणको आनन्दमात्रप्राभृत कहते है । सर्प, गर्दभ, जीर्ण वस्तु और विप आदि द्रव्य कलहके कारण होते हैं । ऐसे द्रव्योका किसीको भेट-स्वरूप भेजना कलहपाहुड कहलाता है । इसे ही अप्रशस्तनोआगमभावप्राभृत कहते है। यहाँ प्राकृतमे इन उपयुक्त अनेक प्रकारके प्राभृतोमेसे स्वर्ग और मोक्ष-सम्बन्धी आनन्द और परम सुखके कारणभूत दोग्रन्थिकप्राभृतसे प्रयोजन है। .
उत्थानिकाचू०-अब 'प्राभृत' इस पदकी निरुक्ति कहते है ॥८५॥ शंकाचू०–प्राभृत-इस पदकी निरुक्ति क्या है ?
समाधान चू०-जो अर्थपदोसे स्फुट, संपृक्त या आभृत अर्थात् भरपूर हो, उसे प्राभृत कहते हैं ॥८६॥
विशेषार्थ-प्रकृष्टरूप तीर्थंकरोके द्वारा आभृत अथवा प्रस्थापित शास्त्रको प्राभृत कहते है । अथवा, प्रकृष्ट श्रेष्ठ विद्या-वित्तशील आचार्योके द्वारा अवधारित, व्याख्यात अथवा, आगत शास्त्रको प्राभूत कहते है। कपाय-विपयक श्रुतको-शास्त्रको-कपायप्राभृत कहते है । अथवा, कपाय-सम्बन्धी अर्थपदोसे परिपूर्ण शास्त्रको कषायप्राभूत कहते है। इसी प्रकार, राग और द्वेषके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको पेज्जदोसपाहुड या प्रयोद्वेपप्राभूत कहते है, जो कि कपायप्राभृतका ही दूसरा नाम है । इस प्रकार कपायप्राभृतका उपक्रम समाप्त हुआ।
अव, जिसके जाने विना प्रस्तुत ग्रन्थके अधिकारोका ठीक ज्ञान नहीं हो सकता, और जो पन्द्रहो अधिकारोमे साधारणरूपसे व्याप्त है, उस अद्धा-परिमाणका गाथासूत्रकार सबसे पहले निर्देश करते है
अनाकार दर्शनोपयोग, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा इन्द्रिय-सम्बन्धी अवग्रहज्ञान, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, स्पर्शनेन्द्रिय-सम्बन्धी अवग्रहज्ञान, अवायज्ञान, ईहाज्ञान, श्रुतज्ञान और उच्छ्वास, इन सब पदोंका जघन्यकाल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक है, तथापि वह संख्यात आवलीप्रमाण है ॥१५॥
विशेषार्थ-अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोगका जघन्यकाल आगे कहे जानेवाले सर्वपदोकी अपेक्षा सवसे कम है, तथापि वह अनेक आवलीप्रमाण है। इस अनाकार उपयोगसे चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्य काल विशेप अधिक है। चक्षुरिन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानके जघन्यकालमे श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्धी अवग्रहज्ञानका जघन्य काल विशेप