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Darsana-moha-ksapana-prasthapaka-svaru pa-nirupana
(60) In the birth in which the ascetic establishes the destruction of darsana-moha, he does not transgress the other three births as a rule. When darsana-moha is destroyed, he is liberated from the three births as a rule. (113)
(61) As a rule, the number of Samyag-drstis who have destroyed moha is a thousand in the case of the remaining gatis (other than the one in which darsana-moha is destroyed). In the remaining gatis, the number of Samyag-drstis who have destroyed moha is innumerable. (114)
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गा० ११४ ] दर्शनमोह-क्षपणाप्रस्थापक-स्वरूप-निरूपण ___ ६४१ (६०) स्ववणाए पट्ठवगो जम्हि भवे णियमसा तदो अण्णो ।
___णाधिच्छदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥११३॥. (६१) संखेजा च अणुस्सेसु खीणमोहा सहस्ससो णियमा ।
सेसासु खीणमोहा गदीसुणियमा असंखेजा (५) ॥११४॥ कि यदि वह मनुष्य चरम अवमे वर्तमान है, तो आयुकर्मका तो सर्वथा ही बन्ध नही करेगा। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोका स्व-प्रायोग्य गुणस्थानोमे बन्ध-व्युच्छित्ति हो जानेके पश्चात् बन्ध नहीं करेगा।
दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ करनेवाला जीव जिस भवमें क्षपणका प्रस्थापक होता है, उससे अन्य तीन भवोंको नियमसे उल्लंघन नहीं करता है । दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर तोल भवये नियमसे मुक्त हो जाता है ॥११३॥
विशेषार्थ-दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करनेवाला जीव संसारमें अधिकसे अधिक कितने काल तक रहता है, यह बतलानेके लिए इस गाथाका अवतार हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जिस भवमें दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करता है, उस भवको छोड़कर वह तीन भव और संसारमे रह सकता है, तत्पश्चात् वह नियमसे सर्व कर्मोंका नाशकर सिद्धपदको प्राप्त करेगा। इसका खुलासा यह है कि दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ कर यदि वह जीव वद्धायुके क्शसे देव या नारकियोमे उत्पन्न हुआ, तो वहाँ दर्शनमोहके क्षपणकी पूर्ति करके वहाँसे आकर मनुष्य भवको धारण कर तीसरे ही भवमे सिद्ध पदको प्राप्त कर लेगा । यदि वह पूर्ववद्ध आयुके वशसे भोगभूमियाँ तिर्यंच या मनुष्योमे उत्पन्न होवे, तो वहाँसे मरण कर वह देवोमे उत्पन्न होगा, पुनः वहॉसे च्युत होकर मनुप्योमे उत्पन्न होकर सिद्ध पदको प्राप्त करेगा। इस जीवके क्षपण-प्रस्थापनके भवको छोड़कर तीन भव और भी संभव होते है, अतः गाथाकारने यह ठीक कहा है कि दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर प्रस्थापन-भवको छोड़ कर तीन भवसे अधिक संसारमें नहीं रहता है ।
मनुष्योमें क्षीणमोही अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि नियमसे संख्यात सहस्र होते हैं । शेष गतियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव नियमसे असंख्यात होते हैं ॥११४॥
विशेषार्थ-यद्यपि इस गाथामे प्रधानरूपसे चारो गति-सम्बन्धी क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंकी संख्या बतलाई गई है, तथापि देशामर्शक रूपसे क्षेत्र, स्पर्शन आदि आठो ही अनुरोगद्वारोकी सूचना की गई है, अतएव पखंडागममे वर्णित आठो प्ररूपणाओके द्वारा यहॉपर क्षायिकसम्यग्दृष्टियोका वर्णन करना चाहिए, तभी दर्शनमोह-क्षपणासम्बन्धी सर्व कथन पूर्ण होगा।
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