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## Haradu (Chapter 94)
**Description of the A-Poorva-Karana**
65. The lowest purity of a soul at the beginning of the A-Poorva-Karana is the least compared to the purities described later.
66. The highest purity in that same first time period is infinitely greater than the lowest purity.
67. The lowest purity in the second time period is infinitely greater than the highest purity of the first time period.
68. The highest purity in the second time period is infinitely greater than the lowest purity of the second time period.
69. In each time period, there are countless Lokas (worlds) and countless Parinaama-Sthaanas (stages of evolution).
70. This continues until the Nirvaagana-Khaandaka (the final stage of the A-Poorva-Karana).
71. This is the characteristic of the A-Poorva-Karana.
**Explanation:**
The lowest purity of a soul who enters the Adho-Pravritta-Karana (the stage of downward evolution) is infinitely less than the purity of a soul who enters the Adho-Pravritta-Karana with a higher purity. The purity of the soul who enters the Adho-Pravritta-Karana with a higher purity is infinitely greater than the purity of the soul who enters the Adho-Pravritta-Karana with a lower purity. This continues until the final time period of the Adho-Pravritta-Karana.
The purity of a soul in the Adho-Pravritta-Karana increases infinitely with each passing time period. This is because the soul is constantly evolving and becoming more pure.
The A-Poorva-Karana is characterized by the fact that the purity of a soul increases infinitely with each passing time period. This is because the soul is constantly evolving and becoming more pure.
**Note:**
The text mentions a "Nirvaagana-Khaandaka" which is a term related to the final stage of the A-Poorva-Karana. It is not directly translated here as it requires further context and explanation.
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હરડું
गा० ९४]
अपूर्वकरण-स्वरूप-निरूपण - ६५. अपुव्यकरणस्स पडमसमए जहणिया विसोही थोवा । ६६. तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा । ६७. विदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । ६८. तत्थेव उक्करिसया विसोही अणंतगुणा । ६९ समये समये असंखेज्जा लोगा परिणामट्ठाणाणि* ७०. एवं णिव्वग्गणा च । ७१. एदं अयुधकरणस्स लक्खणं ।। करणका संख्यातवा भाग अर्थात् निर्वर्गणाकांडकका अन्तिम समय न प्राप्त हो जाय । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके संख्यातवे भागको प्राप्त प्रथम जीवके जो विशुद्धि होगी, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस दूसरे जीवके प्रथम समयमे होगी जो कि उत्कृष्ट विशुद्धिके साथ अधःकरणको प्राप्त हुआ था। इस दूसरे जीवके प्रथम समयमे जितनी विशुद्धि होती है, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस प्रथम जीवके होती है जो कि एक निर्वर्गणाकांडक या अधःप्रवृत्तकरणके संख्यातवे भागसे ऊपर जाकर दूसरे निर्वर्गणाकांडकके प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धिसे वर्तमान है। इस प्रथस जीवके इस स्थानपर जितनी विशुद्धि है, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस दूसरे जीवके दूसरे समयमें होगी। इससे अनन्तगुणी विशुद्धि प्रथम जीवके एक समय ऊपर चढ़नेपर होगी। इस प्रकार इन दोनो जीवोको आश्रय करके यह अनन्तगुणित विशुद्धिका क्रम अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय-सम्बन्धी जघन्य विशुद्धिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । उससे ऊपर उत्कृष्ट विशुद्धिके स्थान अनन्तगुणित क्रमसे होते हैं । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणमे विद्यमान जीवके परिणामोकी विशुद्धि उत्तरोत्तर समयोमे अनन्तगुणित क्रमसे बढ़ती जाती है।
अब अपूर्वकरणका लक्षण कहते हैं
चूर्णिसू०-अपूर्वकरणके प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धि वक्ष्यमाण पदोंकी अपेक्षा सबसे कम होती है। इसी प्रथम समयमे जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धिसे द्वितीय समयकी ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। ( इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरण-कालके अन्तिम समय तक चलता है । ) अपूर्वकरणके कालमें समय-समय अर्थात् प्रतिसमय असंख्यात लोक-प्रमाण परिणामस्थान होते है। इस प्रकार वह क्रम निर्वर्गणाकांडक तक चलता है। यह अपूर्वकरणका लक्षण है ॥६५-७१॥
विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणके कालमे जिस प्रकार अनुकृष्टि रचना होती है उस
ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस सूत्रको सूत्र न० ६८ की टीकामें सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १७१३, पक्ति १४ ) । पर उक्त स्थलकी टोकासे तथा ताडपत्रीय प्रतिसे उसकी सूत्रता सिद्ध है।
+ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह सूत्र इस प्रकार मुद्रित है-'एवंणिचगणाच जत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण णिरुद्धसमयपरिणामाणमणुकट्टी वोच्छिज्जदि, तमेव णिव्वग्गणखंडयं णाम' । (देखो पृ० १७१३ ) पर 'जत्तिय' पदसे आगेका अश टीकाका अग है, जिसमें कि निवर्गणाकाडकका स्वरूप वतलाया गया है।