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Verse 22]
Elucidation of the Ownership of the State of Being
243
73. Just as the mithyatva (false belief) of a certain soul is created by the appropriate niseka (impression), so also the samyaktva (right belief) of that very soul is created by the appropriate niseka. The only difference is that in the last moment of the exalted state of samyaktva, the minimum niseka-sthiti (duration of impression) of the samyag-drishti (right believer) of the last moment is two pradesas (space-points).
74. What is the minimum niseka and udaya (rise) of the samyaktva of whom?
75. The minimum niseka and udaya of the samyaktva of the first-moment samyag-drishti who has come after the upasama-samyaktva (equanimous right belief) and is tainted with the utkarsha-sanklesha (exalted defilement) is two pradesas.
76. The minimum aniseka (non-impression) of samyaktva is as described earlier. Similarly, the description of the minimum aniseka of samyag-mithyatva (mixed right and wrong belief) is also given. The only difference is that in the last moment of the exalted state of samyag-mithyatva, the minimum aniseka-sthiti of samyag-mithyatva is two pradesas.
77. What is the minimum niseka and udaya of the samyag-mithyatva of whom?
78. The minimum niseka and udaya of the samyag-mithyatva of the first-moment samyag-mithya-drishti who has come after the upasama-samyaktva and is tainted with the utkarsha-sanklesha is two pradesas.
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गा० २२ ]
स्थितिक स्वामित्व निरूपण
२४३
७३. जेण मिच्छत्तस्स रचिदो अधाणिसेओ तस्स चैव जीवस्स सम्मत्तस्स अधाणिसेओ कायaat | णवरि तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तवाए चरिमसमए तस्स चरिमसमयसम्माइट्ठिस्स जहण्णयमधाणिसेयट्ठि दिपत्तयं । ७४. णिसेयादो च उदयादो च जहण्णयं द्विदिपत्तयं कस्स १७५. उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयमम्माइट्ठि - स्त तप्पा ओग्गउकस्ससंकि लिटुस्स तस्स जहण्णयं । ७६. सम्मत्तस्स जहण्णओ अहाणिसेओ जहा परूविओ तीए चेव परूवणाए सम्मामिच्छत्तं गओ, तदो उक्कस्सियाए सम्मामिच्छत्तद्धाए चरिमसमए जहण्णयं सम्मामिच्छत्तस्स अधाणिसेय ट्ठिदिपत्तयं । ७७, सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णिसेयादो उदयादो च द्विदिपत्तयं कस्स १७८ सम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स तप्पा ओरगुक्कस्स संकिलिट्ठस्स ।
उवसम
सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तक होकर, विश्राम कर और विशुद्धिको प्राप्त होकर सम्यक्त्वको प्राप्त किया । इस प्रकारके जीवके एकेन्द्रियो से निकलकर सम्यक्त्वको प्राप्त करने तक यद्यपि अनेक अन्तर्मुहूर्त हो जाते है, तथापि उन सब अतिलघु अन्तर्मुहूतों का योग एक अन्तर्मुहूर्त के ही भीतर आ जाता है, इसलिए उपयुक्त कथनमें कोई विरोध या बाधा नहीं समझना चाहिए । चूर्णिसू०-जिस जीवने मिथ्यात्वका यथानिषेक रचा है, उस ही जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका भी यथानिषेक कहना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि उस सम्यक्त्व प्रकृति के उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमे वर्तमान उस चरमसमयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥ ७३ ॥
शंका-सम्यक्त्वप्रकृतिका निषेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिप्राप्त प्रदेशाय किसके होता है ? ||७४ ||
समाधान-उपशमसम्यक्त्वको पीछे करके आये हुए, तथा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश से युक्त ऐसे प्रथमसमयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वप्रकृतिका निषेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाय होता है ।। ७५ ॥
चूर्णिलू० - जिस प्रकारसे सम्यक्त्वप्रकृति के जघन्य यथानिषेककी प्ररूपणा की, उसी ही प्ररूपणा से सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा भी की हुई समझना चाहिए । उससे यहॉपर केवल इतना भेद है कि उत्कृष्ट सम्यग्मिथ्यात्व कालके चरम समयमे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य यथानिषेक स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥७६॥
शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका निषेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिप्राप्त प्रदेशाय किसके होता है ? ॥७७॥
समाधान- उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आये हुए, तथा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त, ऐसे प्रथमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका निपेकसे और उदयसे जघन्य स्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है ॥ ७८ ॥