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Pratiprahasthanas (Receptacles) and Sankramasthanas (Transference)
[Verse 35] Twenty-nine Prakritis (psychic states) should be understood to transfer to the five-Prakritis Pratiprahasthana (receptacle). Eighteen Prakritis should be understood to transfer to the four-Prakritis Pratiprahasthana. Fourteen Prakritis should be understood to transfer to the six-Prakritis Pratiprahasthana. Thirteen Prakritis should be understood to transfer to the six and five-Prakritis Pratiprahasthanas.
[Verse 36] Five Prakritis should be understood to transfer to the five and four-Prakritis Pratiprahasthanas. Twelve Prakritis should be understood to transfer to the five, four, and three-Prakritis Pratiprahasthanas. Ten Prakritis should be understood to transfer to the five and four-Prakritis Pratiprahasthanas. Nine Prakritis should be understood to transfer to the three-Prakritis Pratiprahasthana.
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गा० ३६] प्रतिग्रहस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण
२६७ पंचसु च ऊणवीसा अट्ठारस चदुसु होति बोद्धव्वा । चोहस छसु पयडीसु य तेरसयं छह-पणगम्हि ॥३५॥ पंच चउक्के बारस एकारस पंचगे तिग चउक्के । दसगं चउक-पणगे गवगं च तिगम्मि बोद्धव्वा ॥३६॥
उन्नीस-प्रकृतिक स्थानका संक्रम पांच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें होता है। अट्ठारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें होता है । चौदहप्रकृतिक स्थानका संक्रम छह-प्रकृतियोंवाले प्रतिग्रहस्थानमें होता है। तेरह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम छह और पांच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोमें जानना चाहिए ॥३५॥
विशेषार्थ-इस गाथामे उन्नीस, अट्ठारह, चौदह और तेरह-प्रकृतिक चार संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थान बतलाये गये है। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण-उपशामकके आनुपूर्वी-संक्रमणका प्रारम्भ हो जानेके कारण लोभसंज्वलनके संक्रमणकी योग्यता न रहनेसे और नपुंसकवेदके उपशम हो जानेसे उन्नीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संज्वलन-चतुष्क और पुरुपवेदरूप पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। इसी उपयुक्त जीवके स्त्रीवेदका उपशम कर देनेपर और पुरुपवेदके प्रतिग्रहरूपसे व्युच्छेद कर देनेपर अट्ठारह-प्रकृतिक संक्रमस्थानका संज्वलनचतुष्करूप चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले अनिवृत्तिकरण-उपशामकके पुरुषवेदके नवकवन्धकी उपशमन-अवस्थामे पुरुपवेद, संज्वलनलोभको छोड़कर शेष ग्यारह कपाय और दर्शनमोहनीयकी दो, इन चौदह प्रकृतिरूप संक्रमस्थानका संज्वलन-चतुष्क, सम्यग्मिथ्यात्व
और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप छह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। उपर्युक्त जीवके द्वारा पुरुषवेदका उपशम कर देनेपर शेष तेरह प्रकृतिरूप संक्रमस्थानका उक्त छह-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रम होता है। इसी ही जीवके संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमे एक समय कम तीन मावलीकालके शेप रहनेपर तेरह प्रकृतिरूप संक्रमस्थानका संज्वलनमान, माया, लोभ, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप पाँच-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमे संक्रमण होता है। अथवा अनिवृत्तिक्षपकके द्वारा आठ मध्यस कपायोके क्षय कर देनेपर शेप तेरह प्रकृतियोका संज्वलनचतुष्क और पुरुषवेद, इन पॉच प्रकृतिरूप प्रतिग्रहस्थानसे संक्रमण होता है। किन्तु यह संक्रमण आनुपूर्वीसंक्रमके प्रारम्भ होनेके पूर्व तक ही होता है ।
वारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रय पॉच और चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। ग्यारह-प्रकृतिक स्थानका संक्रम पॉच, चार और तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानों में होता है। दश-प्रकृतिक स्थानका संक्रम पॉच और चार-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें होता है। नौ-प्रकृतिक स्थान का संक्रम तीन-प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें जानना चाहिए॥३६॥ १ पचहु एगुणवीसा अद्यारस पचगे चउक्के य । चोदस छसु पगडीसु तेरसग छक्क पणगम्मि ॥ १८॥ २ पच चउक्के वारस एक्कारस पचगे तिग चउक । दसगं चउक्क-पणगे णवग च तिगम्मि बोद्ध व्वं ॥१९॥
कम्म१० स०