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## Verse 62: **Topic:** Udirana (Awakening) - Ownership - Explanation **519** **384.** The Udirana (awakening) of the original nature (Mulaprakriti) should be understood through the twenty-four Anuyoga-Dwaras (gates of knowledge) starting from Samutkirtan (enumeration) and ending with Alp-Bahutva (few and many). **385.** Similarly, the Udirana of the subsequent nature (Uttaraprakriti) should also be understood through the twenty-four Anuyoga-Dwaras starting from Samutkirtan and ending with Alp-Bahutva. **386.** Here, the ownership (Swamitva) is being explained. **387.** Whose is the Udirana of the highest state of Mithyatva (false belief)? **388.** It is of the Mithyadristi (false believer) who is on the verge of accepting Samyama (self-control) at the end of his life, and who will accept both Samyaktva (right belief) and Samyama in the future. **389.** Whose is the Udirana of the highest state of Samyaktva (right belief)? **390.** It is of the Samyagdristi (right believer) who is free from the influence of the Akshinadarshanamohi (delusion of the eternal vision) and who has attained the state of Vedak (knowledge of the scriptures).
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________________ गा० ६२ ] पदेस - उदीरणा-स्वामित्व-निरूपण ५१९ ३८४. मूलपडिपदेसुदीरणं मग्गियूण । ३८५ तदो उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च समुकित्तणादि-अप्पा बहुअंतेहि अणि ओगद्दारेहि मग्गियन्वा । ३८६, तत्थ सामित्तं । ३८७. मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स १३८८. संजमा हिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स । से काले सम्मत्तं संजमं च पडिवजमाणगस्स' । ३८९. सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदीरणा कस्स १३९०. समयाहियावलिय- अक्खीणदंसणमोहणीयस्स' । प्रदेश-उदीरणा । पहले मूलप्रकृति प्रदेश - उदीरणाका अनुमार्गण कर (व्याख्यानाचार्योंसे जानकर ) तदनन्तर उत्तरप्रकृतिप्रदेश- उदीरणा समुत्कीर्तनाको आदि लेकर अल्पबहुत्व- पर्यन्त चौबीस अनुयोगद्वारोसे जानना चाहिए ॥ ३८३-३८५ ॥ 0 चूर्णसू० - उनमे से समुत्कीर्तनादि अनुयोगद्वारोंके सुगम होनेसे उनका वर्णन न करके स्वामित्वनामक अनुयोगद्वारका वर्णन करते है ॥ ३८६ ॥ शंका- मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा किसके होती है ? ॥ ३८७ ॥ समाधान - संयम ग्रहण के अभिमुख चरमसमयवर्ती मिध्यादृष्टि जीवके होती है, जो कि तदनन्तर समय में सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ ग्रहण करनेवाला है ॥ ३८८ ॥ विशेषार्थ - जो वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके योग्य मिध्यादृष्टि अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरणको करके संयम ग्रहण करनेके अभिमुख हुआ है, उसके अन्तर्मुहूर्त तक अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होकर चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिरूपसे अवस्थित होनेपर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा होती है, क्योकि उसके ही तदनन्तरकाल मे सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होने के कारण सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि देखी जाती है । यहाँ यह आशंका नहीं करना चाहिए कि उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमको ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिके समयाधिक आवलीमात्र शेष रह जानेपर उत्कृष्ट प्रदेश - उदीरणा क्यो नही बतलाई ? क्योकि, पूर्वोक्त संयमाभिमुख चरमसमयवर्ती मिध्यादृष्टिकी अपूर्वकरण - परिणाम-जनित विशुद्ध इसकी विशुद्धि अनिवृत्तिकरण - परिणामके माहात्म्यसे अनन्तगुणी देखी जाती है । इसका समाधान यह है कि उपशमसम्यक्त्व के साथ संयमको ग्रहण करनेवाले जीवकी अपेक्षा वेदकसम्यक्त्वके साथ संयमको ग्रहण करनेवाले जीवके ही संयमकी प्रत्यासत्तिके बसे अपूर्वकरण-जनित भी परिणामविशुद्धि बहुत अधिक होती है । अतः सूत्रोक्त स्वामित्व ही युक्ति-संगत है । शंका-सम्यक्त्वप्रकृति की उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा किसके होती है ? || ३८९ ॥ आवलीकालसे युक्त अक्षीणदर्शनमोही कृतकृत्यवेदक समाधान - समयाधिक सम्यग्दृष्टिके होती है ॥ ३९०॥ १ जो मिच्छाइट्ठी अण्णदरकम्म सिओ वेदगसम्मत्तपाओग्गो अधापवत्तापुव्वकरणाणि काढूण सजमाद्दिमुहो जादो, तस्स अतोमुहुत्तमणतगुणाए विसोहीए विसुज्झिदूण चरिमसमयमिच्छाइट्टिभावॆणावठ्ठिदस्स पयदुक्कस्ससामित्त होइ । से काले सम्मत्तेण सह सजम पडिवजमाणस्स तस्स सव्वुक्कस्सविसोहिदादोत्ति एसो एदस्य सुत्तस्स समुदायत्यो । जयध २ जो दसणमोहणीयक्खवगो अण्णदरकम्मंसिओ अणियट्टिद्धाए सखेज्जेसु भागेषु गदेसु असखेजाण
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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