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Explanation of the Jain terms:
1. Sthitik-swamitva-nirupan: Determination of the ownership of the state (of karmic matter).
2. Samayaprabaddha: Karmic bondage in a single moment.
3. Agradvidiya: The foremost state.
4. Nishitta: Established, fixed.
5. Utkarshen: Eminently, supremely.
6. Agradvidipattayam: Attainment of the foremost state.
7. Adhanisey-diddipattayam: Attainment of the unexcelled state.
8. Sandarsana: Exposition, explanation.
9. Udayad: From the rise (of the karmic matter).
10. Jhaṇṇayam: Minimum, least.
11. Avahama-mettam: To the extent of the lowest limit.
12. Osakkhiyun: Descending, going down.
13. Samayottarae avahae: In the next higher limit.
14. Paliovoam-vagga-mulan: The square root of the number of Palyopama.
15. Nilleppam: Absolute detachment, freedom from karmic matter.
16. Kshapitakāṃśika: The one who has destroyed a part (of karmic matter).
The translation preserves the Jain terms as requested.
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ર૭
गा० २२]
स्थितिक-स्वामित्व-निरूपण स्सयं समयपबद्धस्स अग्गद्विदीए जत्तियं णिसित्तं तत्तियमुक्कस्सेण अग्गद्विदिपत्तयं । १७. तं पुण अण्णदरस्स होज्ज । १८. अधाणिसेयडिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? १९. तस्स ताव संदरिसणा । २०. उदयादो जहण्णयमाबाहामेत्तमोसक्कियूण जो समयपबद्धो तस्स णत्थि अधाणिसेयहिदिपत्तयं । २१. समयुत्तराए आवाहाए एवदिमचरिमसमयपबद्धस्स अधाणिसेओ अत्थि । २२. तत्तो पाए जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि तावदिमवढ़ाते जाना चाहिए, जबतक कि उत्कृष्ट समयप्रबद्धकी अग्रस्थितिमे जितने प्रदेशाग्र निपित किये है, वे सब प्राप्त न हो जावे । 'इस प्रकारसे चरमनिपेक-सम्बन्धी एक समयप्रवद्धगत जितने प्रदेश प्राप्त होते है, उतने सबके सब उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्तक कहलाते है । वह उत्कृष्ट अग्रस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र किसी भी जीवके हो सकता है ।।१६-१७॥
विशेपार्थ-इस सूत्रका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जो मिथ्यात्वकर्मका प्रदेशाग्र कर्मस्थितिके प्रथम समयमे बन्धको प्राप्त होकर और सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमित कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागकाल तक अवस्थित रहकर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण उत्कृष्ट निर्लेपनकालके अवशिष्ट रह जानेपर प्रथम समयमे शुद्ध होकर अर्थात् कर्मरूप पर्यायको छोड़कर आत्मासे निर्जीर्ण होता है, पुनः उसके उपरिम अनन्तर समयमै शुद्ध होकर निर्जीर्ण होता है, इस प्रकार उत्तर-उत्तरवर्ती समयोमे कर्मपर्यायको छोडकर उसके निर्लेप होते हुए कर्मस्थितिके पूर्ण होनेपर एक परमाणुका भी अवस्थान सम्भव है, दो परमाणुओका अवस्थान भी सम्भव है, तीन परमाणुओका भी अवस्थान सम्भव है, इस प्रकार एक एक परमाणुकी वृद्धि करते हुए अधिकसे अधिक उतने कर्म-परमाणुओका पाया जाना सम्भव है, जितने कि — समयप्रबद्धकी अग्रस्थितिमे उत्कृष्ट प्रदेशाग्र निपिक्त किये थे। यहॉपर समयप्रवद्धसे अभिप्राय उत्कृष्ट योगी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके द्वारा बाँधे हुए समयप्रबद्धसे है, अन्यथा अग्रस्थितिमे उत्कृष्ट निपेकका पाया जाना सम्भव नहीं है। मिथ्यात्वके इस उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त प्रदेशात्रका स्वामी कोई भी जीव हो सकता है, ऐसा सामान्यसे कहा गया है, तो भी क्षपितकांशिकको छोड़ करके ही अन्य किसी भी जीवके उसका स्वामित्व जानना चाहिए, क्योकि क्षपितकाशिक जीवके उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त प्रदेशाग्रका पाया जाना सम्भव नहीं है। __ शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिप्राप्तक किसके होता है ? ॥१८॥
समाधान-इसका संदर्शन (स्पष्टीकरण) इस प्रकार है-उदयने, अर्थात मिथ्यात्वके यथानिपेकस्थितिको प्राप्त स्वामित्वके समयसे जघन्य आवाधाके कालप्रमाण नीचे आकरके जो बद्ध समयबद्ध है, उसका प्रदेशाग्र विविक्षित स्थिति में यथानिपेकस्थितिको प्राम नहीं होता है। एक समय अधिक आवाधाके व्यतीत होनेपर इम अन्तिम नमयप्रबद्धका यथानिपेक होता है । इस एक समय अधिक जघन्य आवाधाकालसे आगे चलकर बँधे हुए समय प्रबद्वने लेकर नीचे जितने असंरयात पल्योपमके प्रथमवर्गमूलीका प्रमाण है, उतने ममयोंने बँधे हुए समयप्रबद्धोका यथानिक विवक्षित स्थितिम नियमसे होता है ।।१९-२०।।