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Gāthā 22] Exposition of Sthiti-vibhakti, Ownership
231. Those who have serpent-like, less, fixed, and inexpressible vibhaktis, their artha-pada is this. 232. As many as are the sthiti-vibhaktis (modifications of the duration-karmas) in the present moment, if they become less in the immediately following moment, this is the serpent-like vibhakti. 233. If they become more in the following moment, this is the less vibhakti. 234. If they remain the same in the following moment, this is the fixed vibhakti. 235. If they arise from the unmanifest state, this is the inexpressible vibhakti. 236. This is the meaning of the artha-pada. 237. Ownership. 238. The jīva who has the serpent-like, less, and fixed vibhaktis of mithyātva (false belief) is innumerable times more than the jīva of the lowest degree of jīva-alpa-bahutva (the lowest degree of the number of living beings). Of these, the jīva who has the least sthiti-vibhakti of all the delusion-prakṛtis is the lowest. The jīva who has the least sthiti-vibhakti of the twenty-six prakṛtis is innumerable times more than the jīva of the lowest vibhakti. The jīva who has the least sthiti-vibhakti of samyaktva (right belief) and samyag-mithyātva (mixed right and wrong belief) is innumerable times more. This is explained in comparison to the Ogha (stream). For the details of the alpa-bahutva (the number of living beings) in comparison to the Ādesa (command), one should refer to the Jaydhavala commentary.
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गा० २२] स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण
१२३ २३१. जे भुजगार-अप्पदर-अवहिद-अवत्तव्वया तेसिमट्ठपदं । २३२. जत्तियाओ अस्सि समए हिदिविहत्तीओ उस्साकस्साविदे अणंतरविदिक्कतेसमए अप्पदराओ बहुदरविहत्तिओ, एसो भुजगारविहत्तिओ । २३३. ओसक्काविदे बहुदराओ विहत्तीओ, एसो अप्पदरविहत्तिओ । २३४. ओसक्काविदे तत्तियाओ चेव विहत्तीओ, एसो अवट्टिदविहत्तिओ। २३५ अविहत्तियादो विहत्तियाओ एसो अवत्तव्यविहत्तिओ। २३६. एदेण अट्ठपदेण । २३७. सामित्तं । २३८. मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदविहत्तिओ को करनेवाले जीव असंख्यातगुणित है । जघन्य जीव-अल्पबहुत्व की अपेक्षा सर्व मोहप्रकृतियोकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे कम है। इनमेसे छब्बीसप्रकृतियोकी अजघन्य स्थितिविभक्ति करनेवाले जीव जघन्यविभक्तिवालोसे अनन्तगुणित है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति करनेवाले असंख्यातगुणित है। यह ओघकी अपेक्षा वर्णन किया गया है । आदेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्वके लिए विशेप जिज्ञासुओको जयधवला टीका देखना चाहिये।
चूर्णिसू०-जो जीव भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्ति करनेवाले हैं, उनका यह अर्थपद है । अर्थात् अब इन चारो प्रकारकी विभक्तियोका स्वरूप कहते हैं । इस वर्तमान समयमे जितनी स्थितिविभक्तियाँ अर्थात् स्थितिसम्बन्धी विकल्प है, उनके उत्कर्पण करनेपर अनन्तर-त्यतिक्रान्त अर्थात् तदनन्तरवर्ती द्वितीय समयमे यदि वे अल्पतर स्थितिविकल्प बहुतरविभक्तिवाले हो जाते है,तो यह भुजाकारविभक्ति करनेवाला जीव है । अर्थात् , जो जीव वर्तमान समयमे जितने स्थिति-भेदोका वन्ध कर रहा है, वही जीव यदि आगामी द्वितीय समयमे उन्हें बढ़ाकर बहुतसे स्थिति-भेदोका वन्ध करने लगता है, तो वह जीव भुजाकारविभक्ति करनेवाला कहलाता है। बहुत स्थितिविकल्पोके अपकर्पण करनेपर जो अल्पतर स्थितियाँ वॉधने लगता है वह अल्पतरस्थितिविभक्तिक जीव है। अर्थात् , जो जीव अतीत समयमे जितनी स्थितियोका बन्ध कर रहा था, वही जीव यदि उनका स्थितिकांडकघात अथवा अधःस्थितिगलनके द्वारा अपकर्पणकर वर्तमान समयमे कम स्थितियोको बाँधने लगता है, तो वह अल्पतरविभक्ति करनेवाला कहलाता है। अपकर्पण अथवा उत्कर्पण करनेपर भी यदि उतनी अर्थात् पूर्व समयके जितनी ही स्थितियोको बांधता है, तो यह अवस्थित विभक्तिवाला कहलाता है । अविभक्तिकसे यदि विभक्तिक होता है तो यह अवक्तव्यविभक्तिक है । अर्थात जो जीव पूर्वसमयमे विवक्षित प्रकृतिके वन्ध और सत्त्वसे रहित था, वह यदि वर्तमान समयमे उसका बन्धकर उसके सत्त्ववाला हो जाता है, तो वह जीव अवक्तव्यविभक्ति करनेवाला कहलाता है । इस अर्थपदक द्वारा अब स्वामित्व अनुयोगद्वारको कहते हैं-मिथ्यात्वकी भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिको करनेवाला कौन जीव होता है । कोई एक नारकी तियंच, मनुप्य अथवा देव होता है । यहाँ इतना विशेप जानना चाहिए कि भुजाकार और अवस्थितविभक्ति मिथ्यादृष्टि जीवके ही होती है। किन्तु अल्पतर विभक्ति मिथ्याष्टिके