Book Title: Nyayamanjari Part 01
Author(s): K S Vardacharya
Publisher: Oriental Research Institute
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्या य म अरी (प्रथमसंपुटः) हिमान ननस VERS OF MYSORE प्राच्य विद्या संशोधनालय: मैसूरुविश्वविद्यानिलयः, मैसूरु Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमञ्जरी NYAYAMANJARI Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNIVERSITY OF MYSORE ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE SERIES GENERAL EDITOR Dr. G. MARULASIDDAIAH, M.A., Ph.D. Director, Oriental Research Institute University of Mysore. Mysore. Published by "The Oriental Research Institute University of Mysore Mysore-5 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE SERIES No. 116 NYA YAMAÑJARI OF JAYANTABHATTA WITH TIPPANI-NYĀYASAURABHA BY THE EDITOR Vol. 1 . CRITICALLY EDITED BY Vidvan, K. S. VARADACHARYA Research Assistant Oriental Research Institute, Mysore ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, MYSORE 1969 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition 1969 Copyright : The Oriental Research Institute, Mysore, 1969, Price: Rs. 42-00 PUBLISHED AT THE ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, MYSORE BY THE DIRECTOR AND PRINTED BY THE SUPERINTENDENT AT THE GOVERNMENT TEXT-BOOK PRESS, MYSORE. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्यविधासंशोधनालयग्रन्थमाला ११६ श्री जयन्तमकता न्या य म अरी संपादकप्रथितन्यायसौरभाख्यटिप्पणीसमन्विता माग १ संपादकः विद्वान् के. एस्. वरदाचार्यः, रिसअसिस्टेन्ट्, प्राच्यविद्या संशोधनाख्यः, मैक. प्राच्यविद्यासंशोधनालयः मैसरुविश्वविद्यानिळया मैसूर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममुदणम् -१९६९ भारक्षिताः सर्वेऽप्यस्याधिकाराः मूल्यम्-रु. ४२-०७ मैसूर प्राध्यविद्या संशोधमालयात प्रकाशितम् मैसूहाजकीयपठ्यपुस्तकमुद्रणालये तदधिकारिभिर्मुद्रितम् 1969 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE We are happy to place before the world of scholars, the present critical edition of Nyāyamañjarī of Jayantabhatta, who, as an intellectual titan of the Nyäya Philosophy occupies the foremost position along with Dharmakīrti Kumārila, and Vācaspatimiśra. The editions of the text of the work published in the · Vijayanagaram Sanskrit Series in 1895 and the other in the Chowkhamba Sanskrit Series in 1936, do not fulfil the needs of the students of Nyâya. The condition of the two.editions referred to above are subjected to the non-availability of more manuscripts. Hence with the object of providing a critical edition of the work based on manuscripts that were not available to the earlier editors, the present edition has been taken ap in the Oriental Research Institute Sanskrit Series. This new edition is based upon the two manuscripts of the text, one acquired by the Oriental Research Institute, Mysore, and the other kindly lent by the late Mahāvidwan Atmakur Dikṣācārya, Retired Professor of Vedānta, Maharaja's Sanskrit College, Mysore, with a comparative method along with the above printed texts. The two manuscripts, on scrutiny, found to contain some unknown passages of the text, that are highly valuable for a clear understanding of some doubtful points in Nyāya Philosophy. A brief tippani also has been provided for clear understanding of the difficult points in the text as desired by the soholars. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) Jayantabhatta's scholastic and cultural heritage is very great. His great-grandfather Śaktisvāmin who was the minister of king Muktāpida of Kashmir, performed a Vedic sacrifice called 'Sangrahani' and got the village Gauremulke as a gift. (Ref. p. 653). His son Kalyāņas vāmin, a master of yogic practices was the father of Candra, who is the father of our author. Jayantabhatta was also a staunch heliever in the Vedas and was a versatile scholar in Karmamimnāzisā. He bore the title Vrttikara' (commentatur on Nyāya) and was a devotee of Siva for he makes obeisance to God Siva in the beginning and in the end of the work. Regarding the date of Jayantabbațţa, fortunately we have some definite information. Jayantabbatta's acquintance with Dhvani Theory as systematised by Ananda vardhana who flourished in the days of Avantivarman (ruled Kashmir between 855-883 A.D.), his mention of Sankaravarman (Ref.p.649-IV Anbika) who ruled Kashmir between 883 to 902 A.D. proves that he lived after that date. Jayantabhatta may therefore be assigned to the beginning of the 10th Century A.D. In this connection, the circumstances under which Jayantabhatta wrote this masterpiece is worth noting. While Dharmakīrti Kumārila and Vācaspatimiára received royal patronage, Jayantabhatta was a victim of the cruel tyranny of a royal despot whose name is not mentioned in the text. Jayantabbațța was imprisoned by this royal despot and he wrote Nyāyamañjari as a diversion (VI Adhika).in prison. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (is) His innate charity and goodness is so great that he has not a harsh word against the royal tyrant. We are thankful to the authorities of the Ganganatha Jha Research Institute, Allahabad, for their valuable help in permitting us to take a microfilm copy of the manuscript of Nyāyamañjarī in their collection for collation purposes. We express our deep sense of gratitude to the late Mahāvidwān Atmakur Dikṣācārya for his kind help. Vidwan K. S. Varadacharya, the editor of the work has done a great service in providing the Tippaņi on all difficult points or portions of the text. We are also thankful to the Superintendent, Mysore Government Text-Book Press, for the nice printing and co-operation. MYSORE Dated 30th July 1969 G. MARUL ASIDDAIAH Director Oriental Research Institute Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना _ 'अक्षपादमताम्भोधिपरिमर्शरसोत्सुकाम्। ' विगाहन्तामिमां सन्तः प्रसरन्तीं सरस्वतीम् ॥' -न्यायमञ्जरी, उपोद्धातश्लो. ५ इति श्री जयन्मभट्टवचनेनैव आह्वयामः दर्शनविमर्शनरसिकान् पण्डितप्रवरान् इमां प्रसन्नसलिलां-सम्यकपरिशोधितां, परिष्कृततटां-विषयविभागादिसहितां, परिकर्मितसोपानावतारा-टिप्पणेन संयोजितां श्रीजयन्तमुखप्रसृतां सरस्वतीमवगाह्य प्रमोदन्तामिति ॥ यद्यप्ययं ग्रन्थः 1895 वत्सरे विजयनगरसंस्कृतग्रन्थमालायां, 1936 वत्सरे काशीचौखाम्बासंस्कृतग्रन्थमालायां च प्रकटितपूर्व एव। अथापि लमी वीनमातृकाऽलाभादितः, अन्यतो वा कुतश्चि-कारणात् अयं ग्रन्थः अतीव शोधनपरिष्करणाद्यपेक्ष एव वर्तत इति एतदध्ययनाध्यापननिरतानां पण्डितप्रवराणामतिरोहितमेव ॥ बहुषु स्थलेष्वप्रतिपत्तिविप्रतिपत्त्यन्यथाप्रतिपत्त्यादिभिः अयं प्रन्थः विदुषामतीव क्लेशावह एवं वर्तते। ग्रन्थस्तु न केवलं न्यायदर्शने, संस्कृतदर्शनवाङ्मय एवासाधारणं स्थानं वहते ॥ एतादृशस्यास्य पुनः परिष्करणाय तदा तदा सहृदया मित्रभूना विद्वांसः प्रेरयन्त एवासन् । अतः द्विवारं मुद्रितस्याप्यस्य पुनसंस्करणे आदरो निबद्धः अनेन संशोधनालयेन। एवं संशोधनाय प्रवृत्तानामस्माकं अस्मिन्नेवालये उपलब्धा मातृका प्रायः शुद्धाऽतीवोत्तम्भयामासास्मदुत्साहम् ॥ एवं मातृकान्तरान्वेषणाय प्रवृत्तानामस्माकं, 'महीशूरपुर. विराजमानश्रीपरकालमठे एका मातृका वर्तने' इति श्रुतवतां, तत्संग्रहणायोपसर्पितवतां सा मातृका मरुमरीचिकेव हस्तापचयमप्राप्ताऽतीव खेदयामास मनः। परन्तु तन्मातृकामूलतः संशोधितः कश्चन ग्रन्थः इदानीं कीर्तिमूर्तीनां आस्थानमहाविदुषां आत्मकरु श्रीदीक्षाचार्यवर्याणां सन्निधौ वर्तत इति शास्व किञ्चिदिव समाश्वसितमभून्मनः ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतादृशमातृकाद्वयावलम्बनेनाय प्रन्थः संशोधितः । यद्यपि मद्रपुरीयलिखितग्रन्थभण्डारगतः कोशः, अडयाप्रेन्थभण्डारगतश्चापरः कोशोऽपि परिशीलितोऽस्माभिः । अथापि सदन्थयोः आरम्भभागालांभात् एतत्सम्पुटसजीकरणे नोपकार: अलामि ॥ प्रन्थश्चायं सरलशैल्या प्रथितोऽपि विषयगांभीर्यतः अमेघ इव वर्तते मध्यमाधिकारिणाम्। अतः पण्डितानामाप्तानामादेशानुगुणं लघुटिप्पण्या च समयोजि ॥ यद्यपि ग्रन्यरत्नमिदं, एतत्कर्तारं जयन्तभट्ट चायिकृत्य विस्तरेण. वक्तव्यं वर्तते, अथापि तत्ल द्वितीयसम्पुटे निवेदयामः ॥ अत्र च(1) एतत्संशोधनालयस्थः कागदपत्रात्मकः कोशः 'क' संक्षया योजितः। (2) मुद्रितकोश एव तुलनात्मकसंशोधनोपयोगार्थ 'ख' संक्षया योजितः। (3) महाविदुषां श्री आत्मकरु दीक्षाचार्याणां सकाशाल्लब्धः 'ग' संशया संयोजितः ।। एवमयं परिष्कृतो ग्रन्थः कियानुपकारको दर्शनविमर्शनरसिकानामित्यत्र त एव प्रमाणम। अधिकं च पश्चाविचारयाम इति विरम्यते ॥ 'तदियं वाङ्मयोद्यानलीलाविहरणोधमैः . विदग्धैः क्रियतां कर्णे चिराय न्यायमञ्जरी ॥'. -न्या. म. उपो. " मम्यमालामिंजन:, घरदाचार्यः (K. 8. VARADACHARYA) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पुटमा ... [प्रथममाह्निकम्-प्रमाणसामान्यपरीक्षा 1-10] उपोद्धातप्रकरणम् 1-11 मङ्गलाचरणम् ग्रन्थावतरणम् शास्त्राणामावश्यकस्वम् चनुदंशविद्यास्थानानि विद्यास्थानेषु न्यायशास्त्रस्य स्थानम् । 'विद्यास्थान 'शब्दार्थः न्यायशास्त्रे गौतमीयन्यायशास्त्रस्य स्थानम् भान्वीक्षकीशब्दार्थः मीमांसाशास्त्रतो न्यायशास्त्रस्य वैशिष्टयम् . शास्त्राधिकारिनिरूपणम् उद्देशसूत्रविवरणम् ..12-29 षोडशपदार्थोद्देशः 12 अनुबन्धचतुष्टयकथनम् 13 अनुबन्धकथने पक्षभेदाः षोडशपदार्थानां स्वरूपकथनम् .... 17 उद्देशसूत्रे समासविषयकविचारः .... षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानस्य निःश्रेयसोपायस्वोपपादनम् सौत्र तत्वज्ञान पदविचारः शास्त्रप्रवृत्तिप्रकारः प्रमाणसामान्यपरीक्षा प्रमाणसामान्यलक्षणम् 31 सामग्रयाः करणत्वनिरूपणम् प्रमातृप्रमेययोः करणवाभावे हेतुः .... सामप्रयाः प्रत्येकापेक्षयाऽतिरिकरवानतिरिकत्वविचारः (iii) . 15 19 22 25 .....29-30 34 84 85 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 42. 43 44 51 पुटसध्या करणस्वरूपविषये पक्षान्तरम् .... 37 बौद्धसम्मतप्रमाणस्वरूपपरिशीलनम् बौद्धकदेशिसम्मतप्रमाणस्वरूपपरिशीलनम बाबैकदेश्यन्त रमतपरिशीलनम् .... मीमांसकसम्मतप्रमाणस्वरूपविवार मीमांसकैः ज्ञातता(प्राकव्य समर्थनम ज्ञाततानिरासः ज्ञानस्य क्रियारूपत्वाभावः ज्ञानस्य नित्यानुमेयत्वनिरासा .... फलनिर्वर्तकत्वमेव कारकरवं, न तु क्रियानिवर्तकरवमिति • समर्थनम् पाकादिक्रियास्वरूपनिरूपणम् .... क्रिया-फलयोर्भेदः मात्मनः निष्क्रियत्वम् भावनायाः पुरुषव्यापारस्वनिरासः ज्ञानस्य धा वर्थत्वेऽपि क्रियारूपत्वाभावः प्राकट्यस्वरूपपरिशीलनम् गृहीतग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य प्रामाण्यम् धारावाहिज्ञानस्वरूप विचार: स्मृतेः प्रमात्वाभावे हेतुः स्मृतेः अर्थाजन्यत्वनिरूपणम् .... प्रतिभाशः स्मृतितो वैलक्षण्यम् .... धर्मकीर्युक्तपमाणसामान्यलक्षणविचारः सांख्यामिमतप्रमाणसामान्यलक्षणविचारः प्रमाणविभागः .....71-74 प्रमाणस्य चतुर्विधस्वम् .... 71 सूत्रस्य लक्षण-विभागपरत्वम् .... 72 सूत्रस्योभयपरत्वेऽपि वाक्यभेददोषाभाव: .... 74 . 52 AO KA 69 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75-87 .... 75 76 81 .... 87 .... 87-93 R 88 91 92 94-130 प्रमाणसहयाविचारः प्रमाणसंख्याविषये विपतिपत्ति: बौद्धैः प्रमाणद्वैविध्यसमर्थनम् .... बौद्धोक्तप्रमाणद्वैविध्यनिरासः । विषयभानकाले ज्ञानाभानसमर्थनम् .... सांस्यसम्मनप्रमाणत्रित्वनिराप्त: .... प्रमाणसप्लवसाधनम् प्रमाणसंप्लवस्यादोषत्वम् चौद्धोक्तप्रमाणविषयव्यवस्थानिरामः.... प्रमाणसंप्लगभावे अनुमानाप्रवृत्तिवर्णनम् प्रमाणसंप्लवस्यावश्यकस्वम् प्रमाणसंप्लोऽपि प्रमाणस्वरूपन्यवस्था मापत्तिप्रकरणम् प्रमाणसङ्ख्याविषये पक्षभेदाः अर्थापत्तेः प्रमाणान्तरत्वपूर्वपक्ष: .... अर्थापत्तेः षट् प्रभेदाः अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावासंभवः .... श्रुतार्थापत्तिः भर्थापत्तेः प्रमाणान्तरस्वनिरासः ..... प्रसङ्गात् शक्तेरतिरिक्तत्वसाधननिरासी शक्तेरतिरिक्तत्वे बाधकप्रदर्शनम् .... अतिरिक्तशक्तयनङ्गीकारे हान्यभावः .... भापत्तानुमानरूपत्वोपसंहारः .... अर्थापत्तिविषये प्राभाकरमतनिरूपणम् प्राभाकरमतप्रक्षेप: अर्थापत्तिस्थले व्याप्तयुपपादनम् .... भ्रतार्थापत्तेरप्यनुमानान्तर्भाव: .... मामाकरोकश्रुतार्थापत्तिनिरासप्रकार: 94 94 95 97 101 106 107 111 113 114 117 118 119 121 124 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभाकरैः अर्थाध्याहारसमर्थनम् .... ध्वनिनिराकरणम् अनुग्लब्धिप्रकरणम् अनुपलब्धेः प्रमाणान्तरत्वाक्षेपः .... मीमांसकैः अभावस्यैन्द्रियकरवनिरासः भभावस्यानुमानागम्यत्वम् अनुपलब्धेः प्रमाणान्तरत्वनिरासः .... अमावस्यैन्द्रियकत्वसमर्थनम् अभावस्येन्द्रिय सन्निकर्षनिरूपणम् योग्यतातिरिक्त सन्निकर्षावश्यकता .... अभावस्याप्रत्यक्षत्वनिरासः अभावप्रकरणम् बौद्धैः अभावनिराकरणम् भभावग्रहणे सन्निकर्षासंभवकथनम् .... परिणामवाद्यक्ताभावस्वरूपनिराकरणम् अभावस्वरूपानुपपत्तिः अभावस्यानावश्यकता अभावानभ्युपगमेप्ये कादशविधानुपलब्धिसंभवः । अनुपलब्धेः स्वभावहेतावन्तर्भावः .... भभावस्यातिरिक्तत्वसाधनम ..... अभावप्रतीतेप्रमात्वम् भभावस्य निरुपाख्यत्वनिरासः अभावग्रहणे सन्निकर्षसमर्थनम् भभावस्य वस्तुस्वम् माभाकरोक्ताभावनिराकरणनिरास: भभावस्यावश्यकता भभावप्रभेदाः संभवैतिह्यप्रकरणम् प्रमाणविषये चार्वाकमतविचार: पुटरमा ... 125 .... 129 130-115 130 133. 135. 136 138. ... 140 .... 141 .... 142 145-167 .... 145 .. 145 ... 147 ... 148 148 150 152 154 166 157 159 161 163 .... 165 166 -167-168 168-170. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rii [द्वितीयमाह्निकम्-प्रत्यक्षादिपरीक्षा 171-395] पुटमा स्वपक्षः 171-234 300 .... .... .... 171 171 174 175 181 184 180. 189 .... .... .... .... 190 191 प्रत्यक्षलक्षणम् प्रत्यक्षलक्षणसूत्रार्थयोजना प्रत्यक्षस्य प्रवृत्त्यादिहे नुस्वाक्षेपः प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिहेतुत्ववर्णनं पक्षभेदेन प्रत्यक्षेणापि सुखसाधनस्वनिश्चयः .... प्रमाणफलयोरभेदनिरासः .... प्रमाणत्रमेयामित्यभेदनिरासः 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पर 'पदप्रयोजनम् इन्द्रियार्थपदविवरणम् सन्निकर्षभेदाः सनिकांसद्धारे प्रमाणम् मुखादीनां मानसत्वम् 'ज्ञान.'पदप्रयोजनम् सुखादीनां ज्ञानमिन्नत्वम् ज्ञानसुखादीनां स्वप्रकाशवाभावः ज्ञानसुखयोः भिन्नकारणजन्यस्वम् .... सुखस्यापि व्यभिचारसमर्थनम् ... "भव्यपदेश्य 'पदप्रयोजनम् .... शब्दानुविद्धप्रत्यक्षनिरासः .... • ऐन्द्रियकप्रत्यक्षेऽपि शब्दभानसंभवः.... निर्विकल्पकसविकल्पकवलक्षण्यम् .... 'भन्यपदेश्य 'पदप्रयोजने पक्षभेदाः .... 'भन्यभिचारि 'पदप्रयोजनम् ... भ्रमे भालम्बनपरीक्षा 191 193 .... 194 195 196 198 .... 200 202 209 212 216 2:20 225 226 228 मानसभ्रमाः Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii निराकम्बनभ्रमा 'व्यवसायात्मक 'पदप्रयोजनम 'प्रत्यक्ष 'पदव्याख्यानम् पुटसध्या 228 280 233 -282 235 236 238 239 240 ..... 240 - 241. 243 प्रत्यक्षलक्षणे परपक्षः धमकीयुक्तप्रत्यक्षलक्षणम् विकल्पानामप्रामाण्यम् विकल्पानामनिन्द्रियजन्यत्वम् विकल्पद्वैविध्यम् विकल्पानामर्थासंस्पर्शित्वम् विपणभेदाः विकल्पानां विपर्यवलक्षण्यम् धर्मकीर्युक्तप्रत्यक्षलक्षणदूषणम् विकल्पानामप्रामाण्यनिरास: निर्विकल्पवद्विकल्पानामपि स्वातन्त्र्यम् निर्विकल्पविषयवस्तुविचारः स्वलक्षणमात्रस्य निर्विकल्पविषयत्वनिरास: सन्मात्रस्य निर्विकल्पविषयत्वनिरास: निर्विकल्पे सूक्ष्मशब्दानुवेधनिरासः .... शबलितस्य निर्विकल्पविषयत्वनिरासः सांख्योक्तप्रत्यक्षलक्षणदूषणम् .... मीमांसकोक्तप्रत्यक्षलक्षणदूषण म्..... योगिप्रत्यक्षसमर्थनम् प्राति भज्ञानप्रामाण्यम् भाषज्ञानादिभ्यः प्रतिभाया वैलमण्यम् योगिनां सर्वज्ञस्वसंभवासंभवविचारः वैशेषिकोक्तप्रत्यक्षलक्षणनिरासा | सांख्योक्तप्रत्यक्षलक्षणनिरास: 244 250 250 253 254 254 255 259 259 268 274 276 277 280 281 . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 296 पुटसाया अनुमानपरीक्षा 282-312 भनुमानलक्षणम् हेतोः पञ्चलक्षणस्वम् 283 हेतुदोषाः 283 हेतोः बौद्धोक्तविलक्षणस्वनिरासः .. 284 पक्षसमर्थनम् 289 व्यातः स्वरूपम् बौद्धः व्याप्तेः सदाम्यतदुरपत्तिरूपत्ववर्णनं, समिराकरण च 296 व्यातेरद्विष्ठत्वम् 299 कार्यलिङ्गकानुमानसमर्थनम्। 306 बौद्धमते.अनुमानासंभवापादनम् .... 308 ग्यालेस्सहजत्वम् 308 ग्याप्तिस्मृतेरेवानुमितिहेतुत्वम् । 308 'अनुमितेः स्मृतिरूपत्वपक्षः 309 अनुमेयविषयनिर्णयः 309 अनुमानप्रामाण्यपरीक्षा 312-327 मनुमानप्रामाण्याक्षेपः 312 व्याप्तेर्दुर्ग्रहत्वम् 318 मनुमानप्रामाण्यस्य निरूपत्वम् 316 भनुमानप्रामाण्यसमर्थनम् 317 ज्याप्स्सुमहत्यवर्णनम् 319 व्याप्तिग्रहणप्रकारे पक्षभेदाः .... 320 व्यतिरेकनिश्चयस्यापि व्याप्तिनिश्श्योपयोगः पक्षधर्मतास्वरूपम 324 भनुमानप्रामाण्यदूषणोद्धारः 324 भनुमानद्वैविध्यपक्षः, तमिरासस .... अनुमानलक्षणादिविचारः 27-373 अनुमानलक्षणसूत्रार्थविचारः 321 326 827 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 359 361 पुटरच्या पूर्ववदनुमानम् 335 बौद्धोक्तकार्यानुमानात् पूर्ववदनुमानस्य लक्षण्यम् 336 शेषवदनुमानम् 341 सामान्यतोदृष्टानुमानम् 344 प्रकारान्तरेण पूर्ववदाद्यनुमाननिरूपणम् 346 प्राभाकरोक्तपामान्यतोदृष्टानुमानम् , निराकरणं च 351 :: क्रियायाः प्रत्यक्षत्वम् 353 क्रियाया अतिरिक्तत्वम् 354. परसम्मतानुमानलक्षणनिरासः । 358 अनुमानस्य कालत्रयविषयत्वम् कालप्रत्यक्षस्वपक्षः कालानुमेयत्वपक्षः 364 कालस्यातिरिकत्वम् 365 कालोपाधिः 369 दिशोऽतिरिक्तस्वम् उपमानपरीक्षा 373-395 उपमानलक्षणम् 373 उपमानस्य शब्दानिरिक्तस्वम् . .... 374 . उपमानविषये दिङ्नागाद्याक्षेपः, समाधान च उपमानस्य प्रत्यक्षाद्वैलक्षण्यम् . 380 उपमानस्य मनुमानाद्वलक्षण्यम् .... 381 उपमानप्रयोजनम 383 मीमांसकोक्तोपमानस्वरूपम् 384 मीमांसकोत्तोपमाननिरासः 386 [तृतीयमाह्निकम-शब्दारीक्षा 396-572] . शब्दलक्षणविचारः 396-400 शन्दलक्षणम् .... 396 372 377 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसाया .... 398 .... 399 401-411 .... 401 .... 404 407 ... 411 412-419 उपदेशपदार्थः माप्तस्वरूपम् शब्दस्यातिरिक्तप्रमाणत्वत शब्दस्यानुमानरूपताक्षेपः शब्दस्यानुमानाद्वेलनण्यम् शब्दानुमानयोः सामग्रीमेदः शब्दानुमानयोर्विषयभेदः शब्दप्रामाण्यपरीक्षा बन्दमामाण्याक्षेपः । शब्दानामर्थासंस्पर्शित्वम् शब्दार्थयोरसम्बन्धानुपपत्त्यादिः शब्दानामर्थासंस्पर्शित्वनिरासः अर्थासंस्पर्शस्याप्रामाण्यासाधकत्वम् ... प्रामाण्यस्वतस्त्वपरतस्त्वपरीक्षा .... प्रामाण्यविचारोपक्षेपः प्रामाण्यस्वतस्त्वपरतस्स्वे पक्षभेदाः .... प्रामाण्यस्वतस्त्वपक्षः प्रामाण्य प्रति दोषाभावस्याहेतुस्वत .... प्रामाण्ये कारणान्तरानपेक्षत्वम् गुणज्ञानासंभवः प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वं अनिवार्यम् प्रामाण्यनिश्चयस्य प्रवृत्यनजत्वम् प्रामाण्यनिश्चयस्य परतस्त्वासंभवः अप्रामाण्यस्य तु परतस्त्वम् अप्रामाण्यहेतुः भममाहेत्वभावमात्रात प्रामाण्यम् .... परता मामाण्यसाधनम् 412 412 413 416 .... 418 419-454 419 420 423 423 424 425 126 428 429 430 431 432 435 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटसहवा ___436 436 412 .... . 443 .... 445 450 450 454-48 454 . प्रामाण्यनिश्चयस्थ प्रवृत्या त्वम .... प्रामाण्यज्ञप्तौ स्वतस्स्वासंभवः .... प्रामाण्योत्पत्तौ स्वतस्त्वासंभवः .... प्रामाण्यहेतोगुणस्य सनावे प्रमाणम् प्रामाण्यस्य परतस्त्वेऽनवस्थापरिहार: प्रामाण्यावामाग्ययोः परतस्त्वम् प्रामाण्यग्रहे जैनमतनिरासः । गुरुमतरीत्या प्रामाण्यस्वतस्वम् ज्ञानस्य सर्वस्यापि प्रमास्वमेव ज्ञानस्य बाधासंभवः ख्यातिवादः अख्यातिवादः भ्रमस्वरूपविषये पक्षभेदाः असत्ख्यातिः, तन्निरासश्च भारमख्यातिः, तन्निरासश्च अख्यातिनिराकरणपूर्वकविपरीतख्यातिसमर्थनम अख्याते१रुग्पादत्वम् विपरीतख्यात्युपपादनम् स्वप्नादीनां विपरीतख्यातित्वम विपरीतख्यातेः अमरख्यातिविलक्षणत्वम् बाधपदार्थः भ्रमे अलौकिकवस्तुमानपक्षनिरासः .... वेदप्रामाण्यस्यापि परतस्त्वम् शाब्दज्ञानप्रामाण्यस्य स्वतस्वासंभवः वेदानां ईश्वरप्रणीतत्वम् ईश्वरवादः ईश्वासद्भावाक्षेप ईश्वरसजावे प्रमाणाभावः .... 456 158 160 465 466 468 469 472 476 478 ... 481 482 484 C ,484-512 ...... 484. .. ... ..... 484 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरसत्रया .... 484 .... 486 487 488 489 490 491 401 501 502 502 504 505 ईश्वरानुमाननिरासः ईश्वरस्य स्रष्टत्वासंभवः ईश्वरस्य व्यापारासंभवः सृटेर्दयामूलकत्वनिरासः लीलया जगत्सृष्टिरितिवादनिरासः सृष्टिप्रलययोः ईश्वरकृतस्थासंभवः श्रुत्यापि नेश्वरसाधनम् ईश्वरानुमानस्थापनम् . ईश्वरानुमाने दोषोद्धारः ईश्वरानुमानान्तरे . ईश्चरे इतरवलक्षण्यसिद्धिप्रकारः ईश्वरस्य सर्वज्ञत्वम् जीवानामज्ञत्वे निदानम् - ईश्वरज्ञानस्यैकरवं, नित्यत्वं च ईश्वरेच्छाया नित्यत्वेऽपि सर्गप्रलयाद्युपपत्ति: ईश्वरः मशरीरोऽपि स्रष्टा ईश्वरस्य सृष्टिप्रयोजन सृष्टिप्रलययोरुद्देश: सृष्टिप्रलययोरुपपत्ति: कर्मणामावश्यकत्वम् शब्दानित्यत्वसाधनम् घेदपौरुषेयत्वाक्षेपः शब्दस्यानित्यस्वे प्रमाणाभावः, नित्यत्वे प्रमाणं च शब्दानित्यत्वहेतवः, तमिरासश्च .... शब्दनित्यत्वे हेतुः वधारणक्रमः शब्दानित्यत्वे सम्बन्धग्रहणासंभवः .... गत्वादिजातिनिरास: 505 506 507 508 509 510 512 513-572 .... ... 513 513 514 517 517 518 Fon Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiv • i... 535 536 541 : 558 पुटसध्या शब्दस्य मिरवयवस्वादि 524 शब्दनित्यत्वेऽपि ग्रहणनियमासंभवाक्षेपः, तत्परिहारच 527 शब्दनित्यत्वानित्यत्वपक्षयोाषवविमर्शः 5:33 नैयायिकोक्तशब्द प्रहणप्रकारनिरासः .... 534. शब्दस्य द्रव्यत्वम् । सांख्योक्तशब्दग्रहणप्रकारदूषणम् .... जैनोक्तशब्दग्रहणप्रकारदूषणम् 536 बौद्धोक्तशब्दग्रहणप्रकारदूषणम् 5.7 सिद्वान्ते शब्दनित्यत्वनिरासः गस्वादिजातिसाधनम् 542 शब्दनित्यत्वयुक्तीनां निरासः 552 शब्देक्यप्रत्यभिज्ञाया: साजात्यालम्बनवम् 551 प्रत्यमिज्ञास्वरूपम् 555 शब्दनित्यत्वे ग्रहणनियमस्य दुरुपपादत्वम् तीव्रत्वादीनां शब्दधर्मस्वम् 561 सिद्धान्त एव शब्दग्रहणसंभवोपपादनम् 564 शब्दस्य गुणत्वम् 566.. शब्दानित्यत्वे सौत्रहेतवः 569 वार्तिकोक्तशब्दानित्यत्वसाधनप्रकारः..... 570 चतुर्थमाह्निकम्-शब्दपरीक्षा 573-703] वेदपौरुषेयत्वसाधनम् 573-590 वेदपौरुषेयत्वानुमानम् .573 वेदपौरुषेयत्वाक्षेपः, तमिरासश्च 576 वेदपौरुषेयत्वानुमाने दोषोद्धारः 578 वेदपौरुषेयत्वस्य दुरपहवत्वम् 581 जगत्कर्तुरेव वेदोपदेष्टुत्वम् 587 वेदानामेककर्तृकत्वम् 587बेदानामीश्वरोपदेशरूपत्वम् 590 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xv पुटाया 591-603 591 591 592 595 595 603-614 603 604 605 605 610 .... 613 शब्दार्थसम्बन्धनिरूपणम् शब्दार्थयोः सम्बन्धाक्षेपः शब्दार्थयोः सम्बन्धे विकल्पाः शब्दार्थयोरविनाभावसम्बन्धपक्षः .... समयस्यैव शब्दार्थसम्बन्धत्वसिद्धान्तः अविनाभावादेः शब्दार्थसम्बन्धत्वनिरास: वेदप्रामाण्यनिर्धारणक्रमः वेदप्रामाण्यहेतोरातोक्तत्वस्यासंभवशङ्का अनुमानेनासोक्तत्वनिश्चयसमर्थनम् .... आयुर्वेदादिदृष्टान्ताद्वेदप्रामाण्यनिरूपणम् मायुर्वेदमामाण्ये हेतुः मीमांसकोतवेदप्रामाण्यसाधनप्रक्रिया वेदानां प्रवाहतोऽनादित्वम् अथर्ववेदप्रामाण्यनिरूपणम् भथर्ववेदस्य वेदत्वाक्षेपः वेदानां त्रयीरूपत्वम् भट्टोक्ताऽथर्ववेदस्य वेदत्वसाधनप्रक्रिया सिद्धान्तोक्ताऽथर्ववेदस्य वेदस्व साधनप्रक्रिया . मथर्ववेदस्य वेदत्वं श्रुत्यादिसिद्धम् .... अथर्वणो वेदत्वं स्मृतिकारसम्मतम् .... अथर्वणो वेदस्वं शास्त्रकारसम्मतम् .... अथर्वणस्नय्यनन्तर्गतत्वेऽपि मावेदत्वम् मथर्वणस्यीरूपत्वम् अथर्वणो ब्रह्मवेदत्वम् अथर्वणो ऋग्वेदस्वपक्षः अथर्ववेदश्रेष्ठयम् मागमप्रामाण्यम् भागमप्रामाण्याक्षेपः .... 614.629 .... 614 614 615 615 617 618 619 620 621 623 625 .... 626 629-649 .... 629 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvi पुरसहया 630 631 631 632 633 6:34. 6365 6:36 .. मन्वाग्रागमप्रामाण्यम् श्रुतिस्मृत्योर्विरोधे श्रुतिप्रावस्यपक्षः .... श्रतिस्मृत्योर्विरोधे समप्रामाण्यपक्षः मन्वादिस्मृतीनों बाह्यस्मृतिवैलक्षण्यम् वेदानां स्मृतीनां च वैलक्षण्यम् इतिहासपुराणप्रामाण्यम् शैवागमप्रामाण्यम् पञ्चरात्रप्रामाण्यम् भागमधर्माणां वैदिकरत्रम् महाजनापरिग्रहात बौद्धःगमामामाण्यम् मह जनशब्दार्थः अधिकारिभेन सर्वागमप्रामाण्यपक्षः सर्वागमानामीश्वरकृतत्वपक्षः बुद्धस्य भगवदवतारस्वम् . सर्गगमानां वेदमूलकत्वपक्षः लोकायतस्थानुपादेयत्वम् कल्पितागमानामप्रामाण्यम् अनृतादिभिः वेदप्रामाण्याक्षेपः, परिहारश वेद अनृतादिदोषापादनम् वेदे अनृतदोषपरिहारः क्रियाफलविधिफलयोर्विशेषः मीमांसकोक्तः भनृतदोषपरिहारक्रमः मीमांसकोक्त: कर्मत्रैविध्यपक्षः मीमांसकपक्षनिरासः धर्माधर्मयो: स्वरूपम् इतरदार्शनिकसम्मतधर्माधर्मस्वरूपम् । धेदे व्याघातदोषपरिहार: वेदे पुनरुक्तदोषपरिहार 640. 644 644 645 617 648 , 655 656 656 658 663 661 665 668 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvii पुटसङ्ख्या 667-678 667 668 671 674 675 677 679-686 अर्थवादानां प्रामाण्यम् मर्थवादप्रामाण्याक्षेपः अर्थवादाप्रामाण्यापादनम् अर्थवादानां विध्येकवाक्यत्वात्प्रामाण्यम् । अर्थवादाप्रामाण्यहेतूनां निरासः सिद्धान्ते अर्थवादेष्वर्थाबाधः मर्थवादभेदाः मन्त्राणां प्रामाण्यम् गस्वरूपविचार: मन्त्राणामर्थप्रत्यायकत्वम् मन्त्रैः अर्थप्रत्यायनक्रमः नामधेयानां प्रामाण्यम नामधेयप्रामाण्याक्षेपः नामधेयप्रामाण्यसमर्थनम् सिद्ध व्युत्पत्तिप्रतिपादनम् कार्य एव न्युत्पत्तिरिति पूर्वपक्षः सिद्धऽपि ग्युत्पत्तिसाधनम् वक्ततात्पर्यानुमानपक्ष:, तन्निरासच सर्वत्र न क्रियाध्याहारसंभव: सर्वेषां पदानां न क्रियान्वयनियमः सिद्धस्य साध्यशेषत्वनिबन्धाभावः .... मात्मज्ञानफलनिरूपणम् सर्वकर्मणां आत्मज्ञानाङ्गत्वम् सर्वविधीनां आत्मावाप्तौ पर्यवसानम् .... .... 679 681 .... 684 686-690 .... 686 .... 689 691-702 691 692 695 697 699 700 700 702 702 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xviii अवधेयम् 211-18 पङ्क्तो-'सन्निप्रकाशः' इत्यत्र प्रकाश इति प्राह्यम् । 484-21 पङ्क्ती-नात्रत्यादि-नात्र कश्चित् विशिष्य पूर्वपश्नी। किन्तु मीमांसः योगायिकादीनाइति पठनीयम् । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजयन्तभन विनारितानि न्यायसूत्राणि (१-४ अहानि) 1 प्रमाणप्रमेयमशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्त यवतर्क निर्णयगदजल्पवितण्डाहेत्वाभापरछल जातिनि ग्रह-यानानां तत्वज्ञानानिश्रेयसाधिगमः .... १-1-1 12 2. प्रत्यक्ष नुमानोपमानशब्दा: प्रमाण नि .... 1-1-131,71 3. इद्रियार्थमनिकों पचं ज्ञानमध्यपदेश्यमन्यमिचरि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् 1-1-1 171 4. तत्पूर्वक विविधमनुम नं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो. 1-1-५ 282 5. प्रसिद्धमाारसाध्यसाधनमुपमानम् .... 1-1-6 373 6. मातोपदेशः काम्दः .... --- 396 7. 'मादिमरगदैन्द्रियकत्वात्कृतकवदुपचाराचानित्यः शब्दः .. .... २-२-१ 569 8. प्रागू वंमुधारणादनुग्लम्धेः भावरणानुपरम्धेश्च २-२-१८ 569 9. सद्विविधो दृष्टादृष्टार्थम्वात . ... 1-1-८ 609 10. . मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवञ्च तत्प्रामण्यमातप्रामाण्यात २-१-६९ 609 11. तदप्रामाण्यमनमग्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः पुत्रकामेष्टिहवनाभ्यासेषु .... -२-५६ 652 12. नकर्मकर्तृसाधनवैगुण्यात् । .... १-२-५० 652 (xix) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्केताक्षरविवरणम् अथ. सं.-अथर्वसंहिता मा. श्री. सू.-भापस्तम्बश्रौतसूत्रम् क्र. सं.-ऋक्संहिता कठ.-कठोपनिषत् क. सू. कल्पसूत्रम् कल्पसू. पसूत्रम् कुमारसं.-कुमारसंभव: कौस्तुम.-मीमांसाकौस्तुभः गी.-गीता गो. ना.—गोपथब्राह्मणम् गौ. ध. सू.-गौतमधर्मसूत्रम् छा. उ.-छान्दोग्योपनिषत् जै. सू. जैमिनिसूत्रम् तं. वा.–तन्त्रवार्तिकम् ता. ब्रा,- ताण्ड्यब्राह्मणम् . तै. सं.-तैत्तिरीयसंहिता ते. भा.-तैत्तिरीयारण्यकम् तै: उ. तैत्तिरीयोपनिषत् ना. है-तैत्तिरीयनारायणीयम् नारा. ते. ग्रा.-तैत्तिरीयब्राह्मणम् न्या. बि.-न्यायविन्दुः येषां ग्रन्थानां पूर्ण नामोद्धतं, न ते अत्र क्रोडीकृताः । (४) . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxi न्या. वि. टी.-- न्यायबिन्दुटीका न्या. भा. न्यायभाष्यम् ग्या. र. स्फोट. न्यायरवाकर:-स्कोटवादः न्या. र. म्या. वा. न्यायवार्तिकम् न्या. सू.-न्यायसूत्रम् पा. सू.-पाणिनीयसूत्रम् प्र. प. नय.-प्रकरणपश्चिकानयवीथी प्र. भा.-प्रशस्तपादभाष्यम् . प्र. भा. कर्म.-प्रशस्तपादभाष्यम् – कर्ममकरणम् प्र. भा. द्रव्य.-प्रशस्तपादभाष्यम्-द्रव्यप्रकरणम् प्र. वा.-प्रमाणवार्तिकम् प्र. स.-प्रमाणसमुच्चयः वृ.-बृहदारण्यकोपनिषत् बोधि. प्रज्ञापार.-बोधिचर्यावतार-प्रज्ञापारमिता अ. सू.-ब्रह्मसूत्रम् मनु. स्मृ.-मनुस्मृतिः म. भा. अनु.-महाभारतम्-अनुशासनपर्व म. भा. भा.-महाभारतम्-आदिपर्व म. भा. वन.-महाभारतम्-वनपर्व म. भा. शा.-महाभारतम्-शान्तिपर्व मु.-मुण्डकोपनिषत् याज्ञ. स्मृ.-याज्ञवल्क्यस्मृतिः मो. सू. योगसूत्रम् रा. भर.—ामायणम्-मरण्यकाण्डः रा. बा.-रामायणम्-बालकाण्डः रा.म.-रामायणम्-सुन्दरकाण्ड Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxii बा. सं.-वाजसनेयसंहिता वि. पू.-विष्णुपुराणम् वै. म.-वैशेषिकसूत्रम् शत. प्रा.-सातपयन मणम् शा. दी.-शास्त्रदीपिका भा. भा.-श:बरभाष्यम् लो. वा.-श्लोकवार्तिकम लो. ग. अनु.-श्लोकवार्तिके–अनुमगनप्रकरणम् श्लो. वा. मी.---श्लोकवार्तिक-मर्थापत्तिप्रकरणम् . लो. वा. उप.-श्लोकार्ति-उपमानप्रकरणम् श्लो. वा. चित्रा. परि.-श्लोकवार्तिक-चित्राक्षेपपरिहारः भो. वा. चोद.-श्लोकवार्तिक - चोदनासूत्रम् श्लो. वा. निग.-श्लोकवार्तिक–निरालम्बनवादः लो. वा. न्या. स्फोट - श्लोकवार्तिकण्याच्या स्फोटवादः । लो वा. शब्द.-श्लोकवार्तिक-शदप्रकरणम् लो. वा. सम्ब. परि.-श्लोकवा के सम्बन्धाक्षेपपरिहारः लो. वा. स्फोट..-श्लोकवार्तिक-स्फोटगदः थे.-ताश्वतरोपनिषत् पति प्रा.-षडविंशवाह्मणम् सा.प्रा.-सामग्रामणम् Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमञ्जरी (प्रथमा संपुट) न्यायसौरमाख्याटिप्पणीसमन्विता Page #35 --------------------------------------------------------------------------  Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीः श्रीमजयन्तभट्टविरचिता न्यायमञ्जरी न्यायसौरभाख्यटिप्पणीसंयुता [प्रथममाह्निकम्-प्रमाणसामान्यपरीक्षणम्] [मङ्गलाचरणम्] • नमः शाश्वतिकानन्दज्ञानेश्वर्यमयात्मने। सङ्कल्पसफलब्रह्म'स्तम्बा'रम्भाय शम्भवे ॥ १॥ विश्वं सृजन् करुणया परिपालयन् यः विश्वक्रियासु यमयत्य खिलान्तरात्मा। . विद्यास्वयंवरपतिर्विदधातु सोऽयं .. विश्वस्य मङ्गलममेयमहाविभूतिः॥ अनुगृह्णन्तु सद्भावपवित्रितजगत्रयाः । माघ्राय मञ्जलं न्यायमञ्जर्याः सौरभं बुधाः ॥ इह खल्वनन्यसाधारणशेमुषीविभवसमाकृष्टसकलसुधीजनहृदयः श्रीमान जयन्तभट्टः प्रारीप्सितप्रबन्धस्य निर्विघ्नपरिसमाप्तिप्रचयगमनायथं स्वेष्टदेवतानमस्काररूपं मङ्गलमारचयति-नम इत्यादि । नात्र विकारार्थे मयट् , ब्रह्मणो निर्विकारस्वात् ; किन्तु प्राचुर्यार्थे । ननु तर्हि ब्रह्मण्यज्ञानादयोऽपि प्रसज्येरन् । सुखप्रचुरजीवनतात्पर्येण प्रयुक्ते हि ‘सुखमयं जीवनम् ' इत्यादी 'स्तम्भा-ख. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थावतरणम् न्यायमचरी नमामि यामिनीनाथलेखाऽलङ्कत कुन्तलाम। भवानी भवसन्तापनिर्वापणसुधीनदीम् ॥२॥ सुरासुर शिरोरत्नमरीचिखचिताये। विनान्धकारसूर्याय गणाधिपतये नमः ॥ ३॥ जयन्ति पुरजिद्दत्तसाधुवादपवित्रिताः । निदानं न्यायरत्नानां अक्षपादमुनेगिरः ॥४॥ [ग्रन्थावतरणम्] अक्षपादमताम्भोधि परिमर्षरसोत्सुकाम। विगाहन्तामिमां सन्तः प्रसरन्तीं सरस्वतीम् ॥ ५ ॥ नानागुणरसास्वादखिन्नाऽपि विदुषां मतिः। आलोकमात्रकेणेममनुगृह्णातु नःश्रमम ॥ ६ ॥ दुःखापेक्षयैव प्राचुर्यस्य सुखे बोधनात्-उच्यते-प्राचुर्य हि द्विविधं - स्वसमानाधिकरणविजातीयाल्पत्वसापेक्षं, स्वव्यधिकरणसजातीयाल्पत्वसापेक्षं चेति। भायं सुखमयं जीवनमित्यादौ। तत्तु न प्रकृते। द्वितीयं च सूर्यप्रकाशप्राचुर्यतात्पर्यके 'प्रचुरप्रकाशः सविता' इत्यादौ। न हि तत्र सूर्यगताप्रकाशांशापेक्षया सूर्यगतप्रकाशांशप्राचुर्य बोध्यते ; सूर्ये अप्रकाशांशस्यासम्भवात् । किन्तु सूर्यव्यतिरिक्तलौकिकसर्वतेजोगतप्रकाशापेक्षया सूर्यप्रकाशप्राचुर्यमेव । प्रकृतेऽपि जीवगतानन्दाद्यपेक्षया ब्रह्मानन्दस्य प्राचुर्यमेव मयडा बोध्यत इति न दोषः। ननु भोः ! सिद्धान्ते, ब्रह्मण्यानन्दस्याप्यनङ्गीकारात कथमिदम् ? अत्यल्पमेतत् - किं 'आनन्दो ब्रह्म' इत्यादिश्रुतिरेव सैद्धान्तिकैर्न श्रुता ? श्रृंतापि न प्रमाणं वा? युक्त एव तथा व्यपदेशः। निर्वाहस्तु स्वायसरे भविष्यति ॥ १॥ यामिनीनाथेत्यादि । ईश्वरस्यार्धनारीत्वात् , पार्वत्याः भवानीत्वाद्वा तथा वर्णनम्। चन्द्रकलायाः वामभाग एवं सत्त्वेन अर्धनारीमूतौं पार्वत्या वामार्धगतत्वेन वा तथोक्तिः ॥ २ ॥ जयन्तीत्यादि । एतच्छलोकार्थः ग्रन्थकारेणैव प्रन्थान्ते 'न्यायोद्गारगभीरनिर्मलगिरा गौरीपतिस्तोषितो वादे येन' इत्यादिश्लोकेन किञ्चिदिव विवृतः। तथोक्तं शैवपुराणे उमासंहितायां द्वितीयाध्यायेगौतममधिकृत्य--'तुतोष, भगवानाह, ग्रन्थकर्ता भविष्यसि । वत्साक्षय्या कुण्डलाम्-क. परिशर्म-क. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाविकम् १] ग्रन्थावतरणम् न्यायौषधिवनेभ्योऽयमाहृतः परमो रसः।। इदमान्वीक्षकीक्षीरात् नवनीतमिवोद्धतम् ॥ ७ ॥ कुतो वा नूतनं वस्तु वयमुत्प्रेक्षितुं क्षमाः । वचोविन्यासवैचित्र्यमात्र'मत्र' विचार्यताम् । ८ ॥ तैरेव कुसुमैः पूर्वमसकृत्कृतशेखराः। अपूर्वरचने दाम्नि दधत्येव कुतूहलम् ॥ ९ ॥ यद्वा निर्गुणमप्यर्थे अभिनन्दन्ति साधवः । प्रणयिप्रार्थनाभङ्ग संविधानम शिक्षिताः ॥ १० ॥ तदियं वाङ्मयोद्यानलीलाविहरणोद्यतैः । विदग्धेः क्रियतां कर्णे चिराय न्यायमञ्जरी ॥ ११ ॥ अक्षपादप्रणीतो हि विततो न्यायपादपः । सान्द्रामृतरसस्यन्दफलसन्दर्भनिर्भरः ॥ १२॥ च ते कीर्तिः त्रैलोक्ये प्रभविष्यति । अक्षयं च कुलं तेऽस्तु महर्षिमिरलकृतम् । भविष्यसि ऋषिश्रेष्ठ सूत्रकर्ता ततस्ततः । इत्येवं शङ्करात् प्राप वरं मुनिवरस्स वै । त्रैलोक्ये विततश्चासीत् पूज्यश्च यदुनन्दन।' इति ॥ ४ ॥ न्यायौषधीत्यादि। पूर्वोत्तरार्धे मिन्नवाक्ये॥७॥ पूर्वश्लोकोक्तमेव समर्थयति-कुतो वेत्यादि ।। ८ ॥ अनपूर्वत्वेऽनुपादेयता स्यादित्यत्राह--तैरेवेत्यादि ॥ ९॥ यद्वेत्यादि । 'साधवः-सुसंस्कृतमनस्काः निर्गुणमप्यर्थमभिनन्दन्ति । अशिक्षितास्तुअसंस्कृतमनसः प्रणयिप्रार्थनाभङ्गसंविधानमेवामिनन्दन्तीत्यर्थः । अथ वा प्रणयिप्रार्थनाभङ्गसंविधानमित्यत्र विषयत्वरूपं कर्मत्वं द्वितीयार्थः। प्रणयिनां प्रार्थनाया भङ्गाचरणविषये अशिक्षिता:-अनभिज्ञा इति साधवो विशेष्यन्ते सामिप्रायम् । यतस्तादृशाः साधव: अतो निर्गुणमप्यभिनन्दन्त्येवेति ॥ ५० ॥ एवं साधूनभिनन्द्य स्वप्रार्थनां कथयति--तदियमित्यादिना ॥ ११ ॥ माक्षपादीयेषु कतिपयसूत्रेष्वेव कुत: पक्षपात: ? प्रतिसूत्रं कुतो न व्याख्याति भवान् ? इत्याशङ्कामपनुदति-अक्षपादेत्यादित्रिभिः श्लोकैः। गभीरं न्यायपादपं पङ्गुरहमारोढुं कथं प्रभवेयम् । तद्वैभवप्राग्भागगतातिशयं द्रष्टुमपि 1 मेतव-क. संविधानाम-खा. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्राणामवश्याध्येयत्वम् न्यायमचरी वयं मृदुपरिस्पन्दाः तदारोहणपङ्गवः । न तद्विभूतिप्राग्भारमालोकयितुमप्यलम् ॥ १३ ॥ तदेकदेशलेशे तु कृतोऽयं विवृतिश्रमः। तमेव चानुगृह्णन्तु सन्तः प्रणयवत्सलाः ॥ १४ ॥ असङ्खयैरपि नात्मीयैः अल्पैरपि परस्थितैः। गुणैस्सन्तः प्रहृष्यन्ति चित्रमेषां विचेष्टितम् ॥ १५ ॥ परमार्थभावनाक्रमसमुन्मिषत्पुलकलाञ्छितकपोलम। स्वकृतीः प्रकाशयन्तः पश्यन्ति सतां मुखं धन्याः ॥१६॥ . [शास्त्राणामवश्याध्येयत्वम्] इह प्रेक्षापूर्वकारिणः पुरुषार्थसंपदमभिवाञ्छन्तः तत्साधनाधि: गमोपायमन्तरेण तदवाप्तिममन्यमानाः, तदुपायाव'गम निमित्तमेव प्रथममन्वेषन्ते। दृष्टादृष्टभेदेन च द्विविधः पुरुषार्थस्य पन्थाः। 'तत्र' दृष्ट विषये 'सुचिर प्ररूढवृद्धव्यवहारसिद्धान्वयव्यतिरेकाधिगतसाधनभावे भोजनादावनपेक्षितशास्त्रस्यैव भवति प्रवृत्तिः । न हि 'मलिनः स्नायात्' 'बुभुक्षितो वाऽश्नीयात्' इति शास्त्रमुपयुज्यते । अदृष्टे तु स्वर्गापवर्गमात्रे नैसर्गिकमोहान्धतमसविलुप्तालोकस्य लोकस्य शास्त्रमेव प्रकाशः। तदेव सकलसदुपायदर्शने दिव्यं चक्षुरस्मदादेः, न योगिनामिव योगसमाधिजशानाधुपायान्तरमपीति। तस्मादस्मदादेः शास्त्रमेवाधिगन्तव्यम् ॥ . नालमहम् । अतस्तदेकदेश एव मम सर्वोऽपि परिश्रमो विश्राम्यति इति समुदितार्थः ॥ १४॥ परमार्थत्यादि । परमार्थभावनाक्रमसमुन्मिवत्पुलकलान्छितकपोल सतां मुखं स्वकृती: प्रकाशयन्तो धन्याः पश्यन्ति । ये तु प्रन्थकर्तारः, स्वग्रन्थोक्ततत्त्वार्थपरिशीलनविकसितं सतां निर्मत्सराणां मुखं पश्यन्ति, त एच धन्या इत्याशयः। निमत्सरा विद्वांसस्सुदुर्लभा इति यावत् ॥१६॥ उपयुज्यत इति । स्वविषयप्रवर्तनायेति शेषः । सानभोजनादेः रागप्राप्तत्वादिति हेतुरूह्यः। योगसमाधिजेत्यादि । योगिनो यतीन्द्रिय 1गत-ख. तहिविधिः-ख. ३ तस्य-ख. रुचि-ख. 'ज्ञानाभ्यु-क. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] चतुर्दशविद्यास्थानानि विद्यास्थानानि तच 'चतुर्दशविधं, यानि विद्वांसः चतुर्दशविद्यास्थानान्याचक्षते ॥ वेदाः] तत्र वेदाश्चत्वारः। प्रथमोऽथर्ववेदः, द्वितीय ऋग्वेदः, तृतीयो यजुर्वेदः, चतुर्थः सामवेदः। एते चत्वारो वेदाः साक्षादेव पुरुषार्थसाधनोपदेशस्वभावाः, 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' 'आत्मा ज्ञातव्यः' इत्यादिश्रुतेः॥ . धर्मशास्त्राणि स्मृति शास्त्रमपि मन्वाद्युपनिबद्ध अष्टकाशिखाकर्मप्रपाप्रवर्तनादिपुरुषार्थसाधनोपदे श्येव दृश्यते । अश्रूयमाणफलानामपि कर्मणां फलवत्ता विधिवृत्तपरीक्षागं वक्ष्यते-सर्वो हि शास्त्रार्थः पुरुषार्थपर्यवसायी न स्वरूपनिष्ठ इति ॥ धर्माधर्मादिकमपि पश्यन्तीति शास्त्रमर्यादा। न तथा वयमयोगिनः शक्कम इत्यस्मदादेः शास्त्रमेव चक्षुरित्यर्थः ॥ . विद्यास्थानानीति। साक्षात् परंपरया वा पुरुषार्थोपकारकाणि विधास्थानानीत्यर्थः । विद्यास्थानपदार्थः ग्रन्थकृताऽनुपदमेव प्रदर्यते ॥ अथर्ववेदस्य प्राथम्यं ग्रन्थकृतैव शब्दपरीक्षायां स्थापयिष्यते । अग्निहोत्रमित्यादि तु अनुमितश्रुतिवाक्यम्, अर्थानुकरणं वा। पूर्वोत्तरकाण्डयो. रविशेषेण प्रामाण्यज्ञापनाय वाक्यद्वयमुपात्तम् ॥ - स्मृतिशास्त्रं-धर्मशास्त्रम् । विधिवृत्तपरीक्षायामिति । पञ्चमालिके विध्यर्थविचारावसरे अश्रृमाणफलानामपि नित्यकर्मणां अन्तत: प्रत्यवायादिपरिहारो वा फलं वर्तत एवेति साधयिष्यते। अतः शास्त्रार्थस्सर्वोऽपि न स्वरूपतः पुरुषार्थः, किन्तु पुरुषार्थपर्यवसाय्येवेति ॥ .. 1 चतुर्विध-क. शास्त्रं-क. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशविद्यास्थानाने [भ्यायमचरी [पुराणेतिहासौ ... इतिहासपुराणाभ्यामपि 'उपाख्यानादि'वर्णनेन वैदिक एवार्थः 'प्रायः प्रतन्यते । यथोक्तम्-(म. भा. आ. 1-265) 'इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदः 'मामयं प्रतरिष्यति' इति । तदेवं वेदपुराणधर्मशास्त्राणां स्वत एव पुरुषार्थसाधनोपदेश- . स्वभावत्वाद्विद्यास्थानत्वम् ॥ .. [अङ्गानि अङ्गानि व्याकरण'कल्पज्योति शिक्षाछन्दोनिरुक्तानि वेदार्थोः . पयोगिपदादिव्युत्पादनद्वारेण विद्या स्थानत्वं प्रतिपद्यन्ते । तेषा मङ्गसमाख्यैव तदनुगामितां प्रकटयति ॥ . [मीमांसा विचारमन्तरेणाव्यवस्थितवेदवाक्या नवधारणात् मीमांसा वेदवाक्यार्थविचारात्मिका वेदाकरस्येतिकर्तव्यतारूप'मनुभवन्ती' विद्यास्थानतां प्रतिपद्यते। तथा च भट्टः--- . , ___ इतिहासपुराणाभ्यामिति। उपाख्यानादिवर्णनमुखेन वैदिकार्थप्रतिपादकत्वरूपार्थसामान्यात् 'पुराणतर्कमीमांसा' 'पुराणं धर्मशास्त्रं च' इत्यादौ पुराणपई इतिहासमपि संगृह्णानाति भावः। उपाख्यानवर्णनोपयोगितया इतरवर्णनादीनामपि प्रसक्तत्वात प्राय इत्युक्तम् ॥ . ननु व्याकरणादीनामपि धर्मशास्त्रादीनामिव स्वत एव पुरुषार्थोपदेशित्वं कुतो न स्यादिति शङ्कायामाह-तेषामिति ॥ - अव्यवस्थितेति। 'उदिते जुहोति' 'भनुदिते जुहोति' 'सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ' "असद्वा इदमन आसीत्' इत्यादिवाक्यानामित्यर्थः । 1 उपाध्याय-क. प्रायेण ख. ' ममायं-ख. 'ज्योति-ख. 5 स्थानं-क. स्थितवाक्या-ख. 'मनुबिभ्रतीति-ख. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् १] विद्यास्थानपदार्थः 'धर्मे प्रमीयमाणे तु वेदेन कर त्मिना। इतिकर्तव्यतामागं मीमांसा पूरयिष्यति' इति ॥ । अत एव सप्तममङ्गमिति न गण्यते मीमांसा ; प्रत्यासन्नत्वेन वेदैकदेशभूतत्वात्। विचारसहायो हि शब्दः स्वार्थ 'निराकाक्षं प्रबोधयितुं क्षमः॥ न्यायविस्तर: न्यायविस्तरस्तु मूलस्तम्भभूतः सर्वविद्यानां, वेदप्रामाण्य'रक्षाहेतुत्वात् । वेदेषु हि दुस्तार्किकरचितकुतर्कविप्लावितप्रामाण्येषु • 'शिथिलितास्थाः कथमिव बहुवित्तव्ययायासादिसाध्यं वेदार्थानुष्ठानमाद्रि येरन् साधयः । किं वा स्वामिनि परिम्लाने तदनुयायिना मीमांसादिविद्यास्थानपरिजनेन कृत्यमिति। तस्मादशेषदुष्टतार्किकोपमर्दद्वारकदृढतरवेदप्रामाण्यप्रत्ययाधायिन्यायोपदेश -- क्षममक्षपादोपदिष्टमिदं न्यायविस्तराख्यं शास्त्रं 'शास्त्रप्रतिष्ठान'निबन्धनं इति धुर्य विद्यास्थानम् ॥ [किं नाम विद्यास्थानत्वम् विद्यास्थानत्वं नाम चतुर्दशानां शास्त्राणां-पुरुषार्थसाधनमानोपायत्वमेयोच्यते। "वेदनं -विद्या, तच्च न घटादिवेदनं, अपितु धर्म इत्यादि। धर्मप्रमितौ वेदा: करणम् । करणस्य इतिकर्तव्यताप्रकार मीमांसा बोधयति । उद्यमननिपातनादीतिकर्तव्यतानभिज्ञस्य वास्यादिकरणं न हि फलाय कल्पेत। एवं वेदार्थनिर्णायकत्वादेव तस्या वेदैकदेशत्वमनुपदमुच्यते ॥ वेदप्रामाण्यशैथिल्येन मीमांसादीनां किमागतमित्यत्राह-किं वा स्वामिनीति। स्वामी-अङ्गी वेदः । शास्त्रप्रतिष्ठाननिबन्धनं- स्वेतरसर्वशासजीवनाधारभूतम् । धुर्य-तत्कार्यनिर्वाहात् अग्रयम् ॥ न घटादिवेदनमिति। एतत् ज्ञानमिति प्रोक्तं अज्ञानं यदतोऽन्यथा' (गी.), 'तत् ज्ञानमज्ञानमतोऽन्यदुक्तम्' (वि. पु.) इत्यादौ पुरुषार्थसाधन 'प्रबो-क. हेतुत्वात्-स्व. शिक्षितास्था:-क. प्रतिष्ठान-ख. 'इति पदं-ख. 'यतो वेदनं-क. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायपदार्थ: न्यायमचारी पुरुषार्थसाधनवेदनं ; विद्यायाः स्थानं आश्रयः-उपाय इत्यर्थः । तश्च पुरुषार्थसाधनपरिज्ञानोपायत्वं कस्यचित् साक्षात् , कस्यचि. दुपायद्वारेण । तानीमानि चतुर्दश विद्यास्थानानीत्याचक्षते । यथोक्तम्-(या-स्मृ. 1-3) 'पुराणतर्कमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः । वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश' इति । अन्यत्राप्युक्तम् 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश' इति ।। _[गौतमप्रणीतन्यायशास्त्रमेव विद्यास्थानगणपरिगणितम् | पूर्वत्र तर्कशब्देनोपात्तं उत्तरत्र च न्यायविस्तरशब्देनैतदेव' शास्त्रमुच्यते। न्यायः-तर्कः-अनुमानम्, सोऽस्मिन्नेव शास्त्रे व्युत्पाद्यते ॥ यतः-साङ्ख्याहतानां तावत् क्षपणकानां कीदृशमनुमानोपदेशकौशलं? 'कियदेव तत्तण' वेदप्रामाण्यं 'रक्ष्यत इति 'नासाविह' गणनाहः॥ बादास्तु यद्यपि अनुमानमार्गावगाहन नैपुणोद्धरां 'कन्धरामुद्वहन्ति' ; तथाऽपि वेदविरुद्धत्वात्तत्तर्कस्य कथं वेदादिविद्याज्ञानस्यैव ज्ञानत्वेन, तदतिरिक्तस्याज्ञानत्वेन च वर्णनादित्याशयः। लोकेऽपि हि तत्तदसाधारणकार्यनिर्वाहकस्यैव तत्तद्वस्तुत्वेन निर्देशः। यथा सत्पुत्रः, असत्पुत्र इत्यादाविति भावः। धर्मस्य चेति । धर्मस्य च स्थानानीत्यन्वयः॥ पूर्वत्र-पुराणतर्केत्यादिश्लोके । पूर्वत्र तर्कशब्देनोपात्त एतदेव शास्त्रम् । उत्तरत्र च न्यायविस्तरशब्देनोच्यत इत्यन्वयः ॥ . ननु तर्कावलम्बिषु सांख्याहतबौद्धचार्वाकवैशेषिकनैय्यायिकेषु षट्सु घटतर्कीति प्रसिद्धेषु सत्सु, न्यायशास्त्रमेव पुराणतत्यादौ परिगण्यत इत्यत्र किं विनिगमकम् ? इत्यत्राह-यत इत्यादि। इह-विद्यास्थानेषु ॥ नैपुणोद्धरां कन्धरामित्यादि। स्वस्यैव महातार्किकत्वाभिमानेन उद्धृतग्रीवा गच्छन्तीति हास्योक्तिरियम् ॥ 1 कियदिव तकेंण-क. नेहासौ-क. अनुमानावगाहन-क. 'उद्हन्ति-क. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] आन्वीक्षिकीपदव्युत्पत्तिः स्थानमध्ये पाठः। अनुमानकौशलमपि कीदृशं शाक्यानामिति पदे पदे दर्शयिष्यामः॥ - चार्वाकास्तु वराकाः प्रतिक्षेप्तव्या एव; कः क्षुद्रतर्कस्य तदीयस्येह गणनावसरः? । वैशेषिकाः पुनरस्मदनुयायिन एवेत्येवमस्यां जनतासु प्रसिद्धायामपि षदतक्यों इदमेव तर्कन्यायविस्तरशब्दाभ्यां शास्त्रमुक्तम् ॥ इयमेवान्वीक्षिकी चतसृणां विद्यानां मध्ये न्यायविद्या गण्यते.. 'आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती' इति ॥ आन्वीक्षिकीशब्दन्युत्पत्तिः प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्य अन्वीक्षण-अन्वीक्षा : अनुमानमित्यर्थः ; तद्वयुत्पादकं शास्त्रं आन्वीक्षिकी ॥ ननु चतस्रश्चेद्विद्याः तत्कथं चतुर्दश दर्शिताः–नैष विरोधः -वार्तादण्डनीत्योईटेकप्रयोजनत्वेन सर्वपुरुषार्थोपदेशिविद्यावर्गे गणनानर्हत्वात् , त्रय्यान्वीक्षिक्योश्च तत्र निर्देशाश्चतुर्दशैव विद्याः ॥ यद्यपि चार्वाका: प्रत्यक्षातिरिक्तं प्रमाण नाभ्युपगच्छन्तीति प्रसिद्धं, तथापि स्वपक्षनिर्धारणाय तैरप्यपरित्याज्य एव तर्कः। अमुमाशयं सूचयति 'पराक' शब्दः। वस्तुतस्तु सुशिक्षितचार्वाका अनुमानमपि प्रमाणमुररीकुर्वन्तीति स्वावसरे प्रकाशयिष्यते ॥ अस्मदनुयायिन इति। तथा च तेऽप्यत्र क्रोडीकृत। एवेति भावः ॥ ननु 'आन्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती। विद्याश्चतस्र एवैताः' इत्यादिवचने आन्वीक्षिक्या एव गणनात् कथं न्यायविस्तरस्य विद्यास्वमिति शायां, तयोः पदयोः पर्यायत्वं सव्युत्पत्तिप्रदर्शनं दर्शयति--इयमेवेत्यादिना। मन्वीक्षिक्यमिन्ना इयं न्यायविद्यैव चतसृणां विद्यानां मध्ये गण्यते इत्यन्वयः ॥ .. कथमिति। चतस्र इति खलु वक्तव्यमित्यर्थः । दृष्टैकप्रयोजनत्वेनेति। बोकस्य जीवनहेतुप्रतिपादिका हि वार्ता, 'वार्ता तु जीवनम्' इति - भान्वीक्षकम्-ख. 'कथं-ल. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमीमांसयोः प्रवृत्तिमेद: न्यायमचरी मीमांसाशास्त्रेण नेदं शास्त्रं चरितार्थम् । ___ ननु वेदप्रामाण्यनिर्णयप्रयोजनश्चेन्नयायविस्तरः कृतमनेन, मीमांसात एव तत्सिद्धेः। तत्र ह्यर्थविचारवत् प्रामाण्यविचारोऽपि कृत एव-सत्यम-स त्वानुषङ्गिकः। तत्र मुख्यस्त्वर्थविचार एव । पृथक् प्रस्थाना हीमा विद्याः। सा च वाक्यार्थविद्या, न 'प्रमाण'विद्येति । न च मीमांसकाः सम्यक् वेदप्रामाण्यरक्षणक्षमां सरणिमवलोकयितुं कुशलाः। कुतर्ककण्टकनिकरनिरुद्धसञ्चारमार्गाभासपरिभ्रान्ताः खलु ते इति वक्ष्यामः। न हि प्रमाणान्तरसंवाददाढ्यमन्तरेण प्रत्यक्षादीन्यपि प्रमाणभावं भजन्ते, किमुत तदधीनवृत्तिरेष शब्दः ? शब्दस्य हि समयोपकृतस्य बोधकत्वमात्रं स्वाधीनं, अर्थतथात्वेतरत्वपरिनिश्चये तु पुरुषमुखप्रेक्षित्वमस्यापरिहार्यम् । कामन्दकोक्तेः। तद्विघ्ननिवारणार्था च दण्डनीतिः। एवञ्चानयोः दृष्टार्थत्वं । स्पष्टम् । विद्यास्थानानि तु सर्वपुरुषार्थसाधनोपदेशीनि इति भावः ॥ आनुषङ्गिक इति। प्रत्यक्षादिप्रमाणैरेव धर्मस्वरूपादिनिर्णयसम्भवे किं वेदार्थविचारेणेतिशङ्कायां तद्वयुदसनाय प्रमाणस्वरूपविचारं संक्षेपतः कृत्वा वेदैकसमधिगम्यो धर्मः इत्येतावन्मात्रं तत्र प्राधान्येन विवक्षितम् , न स्वतिरिक्तमपि। एवञ्च जैमिनिसूत्रेषु प्रमाणस्वरूपादिकथनं एतच्छास्त्रसिद्धार्थानुवादमात्रमिति भावः । वाक्यार्थविद्येति । पदशास्त्रं व्याकरणं, वाक्यशास्त्र मीमांसा, प्रमाणशास्त्र न्याय इति हि प्रामाणिकी प्रसिद्धि रिति भावः। न च मीमांसका इत्यादि। कुतर्ककुशलवेदाप्रामाण्यवादिपुरुषव्याघ्रभीताः खलु मीमांसकमृगाः किंकर्तव्यतामूढाः स्वरक्षणाय द्राविडप्राणायामादिकमारचयन्तीति 'अहो बत इमे श्रोत्रियाः' इत्यादिना तत्र तत्र निरूपयिष्यत इति भावः । किमुतेति। सर्वप्रमाणाग्रणीत्वेन प्रसिद्धमपि प्रत्यक्षं शुक्तिरजतादिज्ञाने अर्थ व्यभिचरत् स्वप्रमाण्ये तर्कमेव सहायमपेक्षते चेत् विप्रलम्भकादिभूयिष्ठे जगति सुलभप्रमादस्य शब्दस्य विषये हि सुतरां तर्कापेक्षा। तच्च शब्दप्रामाण्यं यक्षानुरूपो बलि:' इतिन्यायेन कुतर्कनिराकरणक्षममहातार्किकैकसंरक्ष्यं, न केवलसांप्रदायिकेनेति वेदप्रामाण्यं तर्कशास्ाधीनमेवेति । समयः-सङ्केतः, शक्तिरिति यावत्। अर्थतथात्वेतरत्वे---यथार्थत्वायथार्थत्वे॥ 'पुराण-क. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] शास्त्राधिकारिनिरूपणम् 11 तस्मादाप्तोक्तत्वादेव शब्दः प्रमाणीभवति, नान्यथेत्येतश्चास्मिन्नेव शास्त्रे व्युत्पादयिष्य ते॥ ' ननु अक्षपादात् पूर्व कुतो वेदप्रामाण्यनिश्चय आसीत् ? अत्यल्पमिदमुच्यते-जैमिनेः पूर्व केन · वेदार्थो व्याख्यातः ? पाणिनेः पूर्व केन पदानि व्युत्पादितानि? पिङ्गलात् पूर्व केन छन्दांसि 'रचितानि' ? आदिसर्गात्प्रभृति वेदवदिमा विद्याः प्रवृत्ताः । संक्षेपविस्तरविवक्षया तु तांस्तान् तत्र तत्र कर्तृनाचक्षते ॥ [शास्त्राधिकारिण: ननु वेदप्रामाण्यं निर्विचारसिद्धमेव साधवो मन्यन्ते-इति किमत्र विचारयत्नेन ? न संशयविपर्यासनिरासार्थत्वात्। यस्य हि वेदप्रामाण्ये संशयाना विपर्यस्ता वा मतिः, तं प्रति शास्त्रारम्भः। न हि विदितवेदार्थ प्रति मीमांसा प्रस्तूयते । तदुक्तम् 'नान्यतो वेदविद्भयश्च सूत्रवृत्तिक्रियेष्यते' इति ॥ नन्वित्यादि। अक्षपादैस्तर्कशास्त्रप्रणयनात्पूर्व परीक्षकाः वेदप्रामाण्यादिकं कथमरक्षन् ? विनवाक्षपादशास्त्रं तैः वेदप्रामाण्यसंरक्षणे सैव रीतिरिदानीमप्यनुस्रियता, किमाक्षपादेन शास्त्रेणेति प्रश्नाशयः । एवं धाष्टर्यात्पृच्छन्तं प्रति प्रतिबन्दिमाह-जैमिनेरित्यादि। ऋजु समाधानमाह -आदिसर्गादित्यादि। निर्विचारसिद्धमेवेति । ये तु साधवश्शतशश्चालनेऽपि श्रद्धादाात वेदप्रामाण्ये न संशेरते, तान् प्रति तत्प्रामाण्यसाधनप्रयासो व्यर्थ एव । ये च मूर्खाश्शतशो बोधनेऽपि नास्तिक्यात् वेदप्रामाण्ये न श्रद्दधते, तान् प्रत्यपि तस्प्रयासो व्यर्थ एवेत्यधिकारिणोऽभावादनारंमणीय शास्त्रमित्याक्षेपाशयः । सत्यं मुनिरसौ निश्चितार्थेभ्यः नोपदिशति ; किन्तु विपर्यस्तान् शिक्षयति युक्त्या, मज्ञसन्दिहानावुद्धरतीति समाधानाशयः ॥ तदुक्तमिति । श्लोकवार्तिके (1-4-43) मट्टपादैरिति शेषः । वार्तिकस्थायमर्थः। अन्यत:-प्रकारान्तरेण वेदविद्यः-वेदार्थमवगतवझ्यः । .... विरचितानि-क. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्राधिकारिनिरूपणम् [ न्यायमश्वरी भवति च चतुष्प्रकारः पुरुषः ; अज्ञः, सन्दिग्धः, विपर्यस्तः, निश्चितमतिश्चेति । तत्र निश्चितमतिरेष मुनिः अमुना शास्त्रेण अक्षस्य ज्ञानमुपजनयति, संशयानस्य संशयमुपहन्ति, 'विपर्यस्यतो' विपर्यासं व्युदस्यतीति तान् प्रति युक्तः शास्त्रारम्भः ॥ कुतः पुनरस्य 'मुनेः' निश्चितमतित्वं जातम् ? उच्यते भवति तावदेष निश्चितमतिः ; स तु तपःप्रभावाद्वा देवताराधनाद्वा 'शास्त्रान्तराभ्यासाद्वा' भवतु । किमनेन ? तत्रैतत् स्यात्, तत एव शास्त्रान्तरादस्मदादेरपि तत्त्वाधिगमो भविष्यतीति किमक्षपादप्रणीतेन शास्त्रेण ? - परिहृतमेतत् -. सङ्क्षेपविस्तरविवक्षया शास्त्रप्रणयनस्य साफल्यात् । विचित्रचेतसश्च भवन्ति पुरुषा इत्युक्तम् । येषामित एवाज्ञानसंशयविपर्यया विनिवर्तन्ते, तान् प्रत्येतत्प्रणयनं सफल मितीदं प्रणीतवानाचार्यः || तत्रेदमादिमं सूत्रम् — प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डा हेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः ॥ 11 9-9-9 11 12 3 सूत्रस्य तद्वत्तेर्वा प्रणयनं नेष्यते, किन्तु तद्व्यतिरिक्तान् प्रत्येवेति । भवति चेति । उद्योतकारैरप्युक्तं वार्तिके - 'पुरुषः पुनश्चतुर्धा मिद्यते--प्रतिपन्नोऽप्रतिपद्मः सन्दिग्धो विपर्यस्तश्च' इति ॥ किमनेनेति । किमनेन काकदन्तपरीक्षणेनेत्यर्थः । ननु नेदं काकदन्त परीक्षण अपि तु येनोपायेन स मुनिनिश्चितमतिरासीत्तमेवोपायं वयमप्याश्रयेमहीति किमनेनशास्त्रेण इति प्रश्नाशयं स्फुटयति - तत्रैतत्स्यादिति । पेत्यादि । तावत्तत्त्वज्ञानोत्पादनक्षमः तपःप्रभावो देवताराधनं वा न 1. सर्वेषां सुशकं ; तदपेक्षया परकल्पिततडाकोपजीवनन्यायेनैतच्छास्त्राध्ययनमेव वरं, को हि सुमतिः सिद्धमन्नं परित्यज्य मिक्षामटेत् — इत्यप्युपलक्षणम् ॥ 1 विपर्यस्तस्य क. 2 ऋषेरपि - क. 3 शास्त्र (न्तराद्वा - क. 4 तस्वावगमो - क. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 आडिकम् १] भनुबन्धनिरूपणम् [शाबारम्भे गमिधेयप्रयोजनकथनमावश्यकम् ] ननु किमर्थोऽयमादिवाक्यारन्भः? कोऽयं प्रश्नः? शास्त्रं चेदारम्भणीय क्रमवृत्तित्वाद्वाचः प्रथममवश्यं किमपि वाक्यं प्रयोक्तव्यम्। न ह्यादिवाक्यमकृत्वा द्वितीयादिवाक्यप्रणयनमुपपद्यत इति ग्रन्थकरणमेवाघटमानं स्यात् ॥ . आह-न खल्वेवं न जाने ! किन्तु यदेव शास्त्रे व्युत्पाद्यत्वेन स्थितं तदेव व्युत्पाद्यताम् । किमादौ तदभिधेयप्रयोजनकीर्तनेन? उच्यते--आदिवाक्यं प्रयोक्तव्यमभिधेयप्रयोजने। प्रतिपादयितुं श्रोतृप्रवाहोत्साहसिद्धये ॥ १७ ॥ अभिधेयफलज्ञानविरहास्तमितोद्यमाः। श्रोतुमल्पमपि ग्रन्थ माद्रियेरन्' न सूरयः ॥ १८ ॥ को हि नाम विद्वान् अविदितविषये निष्प्रयोजने च कर्मणि प्रवर्तेत । आह च भट्टः-(श्लो. वा. 1-1-12). . 'सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यते ' इति ॥ [प्रयोजनपरिज्ञानसंभवाक्षेपपरिहारौ] ननु प्रयोजन परिज्ञान'मादौ श्रोतृणां कुतस्स्यम? इति चिन्त्यम्-किमस्मादेव वाक्यात् ? उत युक्तितः? .. प्रष्टुराशयमजानन्निव पृच्छति-कोऽयमिति। प्रष्टुराशयं उद्घाटयति आहेति। प्रमाणशास्त्रं खल्विदमित्युक्तं, तर्हि 'प्रत्यक्षानुमान ....' इति सूत्रेणैव प्रथमतो भाव्यं, कुतोऽत्र नि:श्रेयसादिफलोपदेशस्य प्रसक्तिरित्याक्षेपाशयः। समाधत्ते-उच्यत इति । अभिधेयप्रयोजने प्रतिपादयितुं इत्यन्वयः। विरहात् अस्तमिता उद्यमा येषां ते तथा। उक्तार्थेऽमियुक्तोक्तिं संवादयतिमाहेति । श्लोकवार्तिकारंभ इति शेषः । इदं चोपलक्षणम्-'भमिधेयसम्बन्ध प्रयोजनप्रतिपादनार्थत्वं प्रथमसूत्रस्य' इति तात्पर्यटीकाया भपि ॥ 1 माद्रियन्ते-ख. प्रतिपादन-क. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 उद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमञ्जरी ___ 'वाक्यं तावदनिश्चितप्रामाण्यं कथं प्रयोजननिश्चयाय प्रभवति। संशयाद्वा प्रवृत्ती वेदार्थेऽपि तथैव स्यादिति शास्त्रमनारब्धव्यं स्यात् ॥ युक्तितः प्रयोजनावगमः शास्त्रे सर्वस्मिन्नधीते सति सम्भवति, नेतरथेति तदवगमपूर्विकायां प्रवृत्तौ इतरेतराश्रयः-शास्त्राधिगमात् । प्रयोजनपरिज्ञानं, प्रयोजनपरिज्ञानाच्च 'शास्त्रश्रवणे प्रवृत्तिः-- उच्यते-भादिवाक्यादेव श्रोतुः शास्त्रप्रयोजनपरिक्षानं; अर्थसंशयाञ्च श्रवणे प्रवृत्तिः। घेदे हासिद्धप्रामाण्ये महाक्लेशेषु कर्मसु । नानर्थशङ्कया युक्तं अनुष्ठानप्रवर्तनम् ॥ १९॥ अनिश्चितप्रामाण्यमिति। 'न हि प्रमाणान्तरसंवाददाढर्थमन्तरेण प्रत्यक्षादीन्यपि प्रमाणभावं भजन्ते, किमुत तदधीनवृत्तिरेष शब्दः' इति खलूक्तम् । तो भादिवाक्यश्रवणमात्रात् न प्रयोजननिर्णयो भवेदित्यर्थः । वेदार्थेऽपि तथैव स्यादिति । वेदप्रामाण्यनिश्चय एतच्छास्त्राधीन इति. पूर्वमुक्तम् । एतच्छास्त्रे प्रामाण्यसंशयेऽपि यदि कश्चिदधीयीतेम शास्त्रं, तर्हि वेदे प्रामाण्यनिश्चयाभावेपि तदर्थानुष्ठानायैव यतताम्, मध्ये किमनेन संशयग्रहप्रस्तप्रामाण्येन शास्त्रेणेत्याशयः। सर्वस्मिन्नधीत इति । न ह्यादिमवाक्यार्थज्ञानमात्रात् युक्तीनां अवगमः संभवति, किन्तु शास्त्राध्ययनानन्तरमेव युक्तिपरिज्ञानं भवेदिति । वेदे हीति । यद्यपि शास्त्राध्ययनारंभकाले प्रयोजनज्ञानं निर्विचिकित्सं न जातमेव ; अथाप्यापाततः प्रयोजनज्ञाने जाते प्रवृत्ताः पुरुषाः प्रामाण्यं तद्वैपरीत्यं वा स्वयमेव जानन्ति । वेदार्थानुष्ठानस्य तु अतिक्लेशसाध्यत्वात् न केवलमत्यायाससाध्ये तादृशे कर्मणि आपातप्रतीत्या बुद्धिमान् प्रवर्तेत इति तत्र प्रामाण्यनिश्चयः प्रथममावश्यकः । सुकरे तु शास्त्राध्ययने सामान्यत: प्रयोजनपरिज्ञानादपि प्रवृत्तियुक्तैवेति समाधान ग्रन्थाशयः। वेदे प्रामाण्ये असिद्धे सति महाक्लेशमयेषु कर्मसु, निष्प्रयोजनस्वशङ्कायां अनुष्ठाने प्रवृत्तिर्न युक्तेत्यर्थः। महाक्लेशेष्विति बहुव्रीहिः ॥ 1 वाक्याव-क. शास्त्राधिगमे-ख. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 माद्विकम् १] भनुबन्धनिरूपणम् बहुवित्तव्ययायासवियोगसुगमेऽध्वनि । प्रवृत्तिरुचिनोदारफले लघुपरिश्रमे ॥ २० ॥ शृण्वन्त एव जानन्ति सन्तः कतिपयैर्दिनैः । किमेतत्सफलं शास्त्रं उत मन्दप्रयोजनम् ॥ २१ ॥ सूक्ष्मेक्षिका तु यद्यत्र क्रियते प्रथमोद्यमे । असौ सकलकर्तव्यविप्रलोपाय कल्पते ॥ २२ ॥ आतॊ हि भिषजं पृष्ट्वा तदुक्तमनुतिष्ठते। तस्मिन् सविचिकित्सस्तु व्याधेराधिक्यमामुयात् ॥ २३ ॥ तेनादिवाक्याद्विक्षाय साभिधेयं प्रयोजनम् । तत्सम्भावनया कार्यः तच्छास्त्रश्रवणादरः ॥ २४ ॥ [उपादेयताज्ञानजनकमादिमवाक्यमिति पक्षः] येरप्यादिवाक्यमित्थं व्याख्यायते किल-'अनन्वितपदार्थक वाक्यमनुपादेयं- दशदाडिमादिवाक्यवत् । अन्वितपदार्थकमपि बहुवित्तेत्यादि। बहुवित्तव्ययायासरहितत्वात्सुगमे, लघुपरिश्रमे, अथापि उदारफलेऽध्वनि शास्त्राभ्यासे प्रवृत्तिरुचिता। आपातप्रतीत्या प्रवृत्तेरनङ्गीकारे बाधकमाह-सूक्ष्मेक्षिका त्विति । प्रवृत्त्यारम्भकाल एव इदं सफलमेवेति सूक्ष्मविचारणापूर्वकनिर्णयः यदि सर्वत्रापेक्ष्येत तदा जगति किचिदपि कार्य न निवर्तेत। विप्रलोपः-विनाशः। इसमेवार्थ दृष्टान्तेन विशदयति-आ? हीति । भिषजा औषधे उपदिष्टे प्रथममेव व्याधिनिश्शेष विनश्यत्येवेति न सर्वे प्रवर्तन्ते । अपि तु इदमपि भुञ्जाम इत्येव । रोगनिवृत्तौ च प्रामाण्यनिश्चय इत्यनुभवः । वैद्य एव संशयीत चेत् ब्याधिरेव वर्धेत। एवं लोको निर्व्यापारः प्रसज्येत। अतः फलसंभावनयाऽपि प्रवृत्तिरङ्गीकार्यैवेति । प्रकारान्तरेण भादिमवाक्यं व्याकुर्वता मतमुपन्यस्य समाधत्तेयैरपीति। व्यापकानुपलब्ध्येति। यदुपादेयं तत् सप्रयोजनमिति Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमचरी निष्प्रयोजनमनुपादेयमेव - सदसद्वायसदशन विमर्शवाक्यमिव । तदिह उपादेयताव्यापकप्रयोजनाद्यनुपलम्भादनादरणीयमिति व्याप- . कानुपलब्ध्या 'प्रत्यवतिष्ठमानः परः' प्रयोजना द्यभिधायिना' आदिवाक्येन निवृत्ताशङ्कः क्रियत इति-तैरपि प्रयोजनप्रतिपादनमेवादिवाक्यस्यार्थ इत्युक्तं भवति । तत्प्रतिपादनेनैव व्यापकानुपलब्धिपरिहारादाशङ्का निवारिता भवतीति ।। [अर्थसंशायकतया प्रवर्तकत्वमादिवाक्यस्येति पक्षान्तरम्] . - यदपि प्रवृत्तिहेतोरर्थसंशयस्य, तोपरनाम्न औचित्यस्य वा : समुत्पादनमादिवाक्येन क्रियत इति केचिदाचक्षते--तदपि प्रयोजनाभिधानद्वारकमेव। प्रयोजन विषयो हि संशयो वा संभावनाप्रत्ययो वा प्रवृत्त्यङ्गभूतस्तेनोत्पादनीय इति तदुत्पत्ती प्रयोजनाभिधानमेवादिवाक्यस्य व्यापारः। संशयस्तु वस्तुवृत्तोपनत एव, पुरुषवचसा द्वैविध्यदर्शनात् । शौचसमाचारसाधुतादिना तु तस्मिन् सम्भावनाप्रत्ययोऽपि लोकस्य भवतीति। तस्मात् प्रयोजनप्रतिपादनार्थमेवादिवाक्यमिति सूक्तम् ॥ व्याप्ती व्यापकस्य प्रयोजनस्याभावे व्याप्यस्योपादेयत्वस्यापि निवृत्तिरावश्यकी, व्यापकाभावे व्याप्याभावादिति ।। सन्दिग्ध एवार्थे विचारावतारात्, एतच्छास्त्रप्रतिपाद्यार्थः पूर्वमेव निर्णीतश्चेत्प्रवृत्तिनं भवेत् । आद्यवाक्येन अर्थे प्रदर्शिते तेन तदर्थे सन्दिहाना: तनिर्णयाय, शास्त्रे प्रवर्तन्ते इति अर्थसंशय एवादिवाक्य कृत्यमिति मन्यता मतमाह--यदपीति । आदिवाक्यश्रवणसमनन्तरं न संशयनैय्यत्यम् ; तस्य कोटिद्वयोपस्थित्यधीनत्वादित्यत:---तर्केत्यादि। तथा च संशयाभावेऽपि संभावनाप्रत्ययो भवितुमर्हतीति भावः । वस्तुवृत्तोपनत इति । न तु भादिवाक्याधीन इति यावत् । समाचारः-सदाचारः। अपिशब्दस्तस्य संभावनाद्योतक:॥ ____1 प्रत्यवतिष्ठमान:-ख.मिधायिना-स. 3 संभावनाप्रियो लोको-क. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 माहिकम् १] षोडशपदार्थोद्देश: यश्च श्रोतृप्रवृत्त्यङ्गं तद्वक्तुं युक्तमादितः। न च प्रयोजनशानादन्यदस्ति प्रवर्तकम् ॥ २५॥ अभिधेयकथनमपि तत्साध्यप्रयोजनोपपादनाय श्रोतबुद्धिसमाघानाय च कर्तव्यमेव ॥ अर्थाक्षिप्तस्तु सम्बन्धः फलशास्त्राभिधेयगः । तन्निर्देशेन सिद्धत्वात् न स्वकण्ठेन कथ्यते ॥२६॥ अभिधेयस्य शास्त्रस्य च वाच्यवाचक'भावलक्षण सम्बन्धः, शास्त्रार्थस्य निःश्रेयसस्य च साध्यसाधनभावलक्षणः सम्बन्धः तदाश्रयनिर्देशादेव सिद्धः ॥ . . षोडशपदार्थोद्देशः] अभिधेयास्तु प्रमाणादयो निग्रहस्थानपर्यन्ताः षोडश पदार्थाः प्रथमसूत्रे निर्दिष्टाः; तेषां स्वरूपमुपरिष्टावक्ष्यते ॥ अर्थपरिच्छित्तिसाधनानि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि। ____ भादिमवाक्यप्रयोजनविचारमुपसंहरति-यच्चेति। श्रोतृप्रवृत्यङ्गं यत् तदेवादितो वक्तुं युक्तं, न च प्रयोजनज्ञानापेक्षयाऽतिरिक्तं किञ्चित् श्रोतृप्रवर्तकं वर्तते; अत: प्रयोजनकथनपरमेव प्रधानत आदिमवाक्यमिति निर्णय इति । नम्वेवमस्तु, अथापि 'अमिवेयप्रयोजने प्रतिपादयितुमादिवाक्यम्' इति कथमित्यत्राह-अभिधेयकथनमपीति। तत्साध्यं-अभिधेयसाध्यं यत् प्रयोजनं तदुपपादनाय। नन्वेवं सम्बन्धोऽपि प्रथमं वक्तव्य एवेत्यत्राहअक्षिप्तस्त्विति । स्वकण्ठेन-स्पष्टोक्त्या। तदाश्रयेति । वादशाविषयेत्यर्थः ॥ . वक्ष्यत इति। परीक्ष्यत इत्यर्थः। तेन प्रमाणादिस्वरूपप्रतिपादनपराणां उत्तरवाक्यानां न विरोधः। अथ वा-उपरिष्टात' इत्यनेनोत्तरवाक्यसन्दर्भ एव विवक्षितः। तथा च प्रमाणादीनां स्वरूपमात्रमिदानी कथ्यते, तस्परीक्षणं च पश्चादिति भावः। अर्थस्वरूपनिष्कर्ष:-अर्थपरिच्छित्तिः । भाव:-ख. NYAYAMANJABI Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. उदेशसूत्रविवरणम् म्यायमचरी तत्परिच्छेद्य'मात्मादि प्रमेयम् । नानार्थावमर्शः संशयः। हिताहितप्रातिपरिहारौ, तत्साधनं च प्रयोजनम्। हेतोः प्रतिबन्धावधारणं दृष्टान्तः। प्रमाणतोऽभ्युपगम्यमानः सामान्यविशेषवानर्थः सिद्धान्तः । परार्थानुमानवाक्यैकदेशभूताः प्रतिक्षादयोऽवयवाः । .. सन्दिग्धेऽर्थेऽन्यतरपक्षानुकूलकारणदर्शनात् तस्मिन् सम्भा वनाप्रत्ययस्तर्कः। साधनोपलम्भजन्मा तत्त्वावबोधो निर्णयः। वीतरागकथा वस्तुनिर्णय'फला' वादः। विजिगीषुकथा तु पुरुषशक्तिपरीक्षणफला जल्पः । तद्विशेषो वितण्डा। अहेतवो हेतुवदाभासमानाः हेत्वाभासाः। . अर्थविकल्पैर्वचनविघातः छलम् । हेतुप्रतिबिम्बनप्राय प्रत्यवस्थानं जातिः। सत्यवस्त्वप्रतिभासः विपरीतप्रतिभासश्च निग्रहस्थानम् ॥ तत्परिच्छेद्य-प्रमाणे: परिच्छेद्य-निर्णेयम्। प्रतिबन्धः-व्याप्तिः । यस्मिनधिकरणे हेतोाप्तिर्निश्चीयते स दृष्टान्त इत्यर्थः । सामान्यविशेषवानिति । 'सामान्यविशेषवदर्थाभ्यनुज्ञा सिद्धान्तः' इति वार्तिकमनुसृत्येदमुक्तम् । प्रत्येकमप्यवयवव्यवहारसत्वात्--एकदेशभूता इत्युक्तम् । सर्कफलभूतो निर्णयः। वितरागकथा इति लक्षणत् । वस्तुनिर्णयफल इति प्रयोजनवाक्यम् । न हि जल्पे वस्तुनिर्णयो नियमेन सम्भवति ; प्रामाणिकोऽपि सन् अकस्मादप्रत्यवस्थाने जल्पे निगृह्यते, अत एवोक्तं पुरुषशक्तिपरीक्षणफला इति । विजिगीषुकथा इति विशेष्यवाचकम्। तद्विशेष:-जल्पविशेषः, विजिगीषुकथात्वात् पुरुषशक्तिपरीक्षणफलत्वाच। स्वपक्षस्थापनाहीमा वितण्डेति तु विशेषः ॥ मात्मादि-ख. राग-ख. 'फलो-ख. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् १] सत्वशानपदविग्रहः [सौत्रसमासकथनम्] तत्र वक्ष्यमाणलक्षणसूत्रनिर्देशानुसारेण कानिचित् 'एकपचनान्तानि, कानिचिबहुवचनान्तानि पदानि विगृहीतव्यानि । प्रमाणावयवहेत्वाभासानां बहुवचनेन विग्रहो दर्शयितव्यः, शेषाणामेकवचनेन; लक्षणसूत्रषु तथा निर्देशात् । एवञ्चो देशलक्षणयोरेकविषयता नितरां दर्शिता भवति। इतरेतरयोगे द्वन्द्वस्समासः। प्रमाणादीनां तत्त्वमिति सम्बन्धमात्रे षष्ठी। तत्त्वस्य ज्ञान, निःश्रेयसस्याधिगम इति कर्मणि पष्ठयो, तत्त्वस्य शायमानत्वेन निःश्रेयसस्य चाधिगम्यमानत्वेन कर्मत्वात्॥ . [सूत्रे समासासम्भवाशङ्का] नन्वेवं व्याख्यायमाने 'तत्त्वपदस्य प्रमाणादिपदसापेक्षत्वेनासमर्थत्वात् असमासः प्राप्नोति। सापेक्षमसमर्थ भवतीत्याहुः । न चेदं प्रधानं सापेक्षम् , येन भवति वै प्रधानस्य सापेक्षस्यापि . कानिचिदिति। प्रमाणप्रमेयेत्यादिसूत्रे विग्रहकाले प्रमाणावयवहेत्वाभासपदानि बहुवचनान्तानि, इतराणि तु एकवचनान्तानि च ग्राह्यानि, उत्तरत्र सूत्रकृता तथा निर्देशात् । सूत्रे कुतस्तथा निर्देश इति चेत्, तत्तत्तदवसरे स्पष्टीभविष्यति । एवं च-लक्षणसूत्रानुगुणवचनमहणेन च । उद्देशलक्षणयोः-उद्देशलक्षणवाक्ययोः । . ननु तत्वज्ञानादिति समासो न सम्भवति । तत्त्वपदस्य प्रमाणादिपदेन साकं सापेक्षत्वेन समासासम्भवात् । 'समर्थ: पदविधिः' इति खलु पाणिनीयं सूत्रम्। तत्र सामर्थ्य नाम निराकांक्षार्थप्रतिपादनक्षमत्वम् । 'तत्त्वज्ञानात्' इति पदं च साकांक्षतत्त्वपदघटितस्वेन न निराकांक्षबोधजननक्षमम् । मतः 'प्रमाण....निग्रहस्थानतत्त्वज्ञानात्' इति 'प्रमाण....निग्रहस्थानानां तत्त्वानां ज्ञानात्' इति वा वक्तव्यम् । न हि राजन्यन्वयतात्पर्येण ऋद्धस्य राजमातङ्गाः इति प्रयोक्तुं युक्तमिति शङ्कते-नन्विति । ननु वृत्तिघटकेऽपि पुरुषेऽन्वयतात्पर्येण राजपुरुषः शोभन इति प्रयोगात् प्रकृतेऽपि तथाऽस्त्विति शङ्कतेन चेदमिति। इदं तस्वपदं सापेक्षमपि प्रधानमिति च न इत्यर्थः । तेन प्रकृते को लाभ इत्यत्राह-येनेति। येन-एवमङ्गीकारेण सापेक्षस्यापि 1 एकवचनान्तानि पदानि विग्रहे ग्रहीतव्यानि-ख. तस्वस्य-कः तस्व-ख. 2* Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 . उद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमचरी समास इति राजपुरुषः शोभन इतिवत् समस्यते; उत्तरपदार्थप्रधानत्वात् षष्ठीतत्पुरुषस्य । ज्ञानमेवात्र प्रधान, तत्त्वमुपसर्जनम् ; अतश्च ऋद्धस्य राज्ञः पुरुष इतिवदसमास एव युक्तः॥ ननु ज्ञानमपि प्रमाणादिसापेक्ष भवत्येव, तद्विषयं हि तदिति-- न-तत्त्वपदेनास्य निराकाङ्क्षीकृतत्वात्-, तत्त्वस्य शानमिति । तदि दानी तत्त्वमेव सापेक्षं वर्तते-कस्य तत्त्वमिति । तस्मात्तत्त्वस्योपसर्जनस्य सतः सापेक्षत्वादसमास एव ॥ [अत्र केषाञ्चित्समाधानम्, तद्दषणं च] इत्येवमभिशङ्कमाना. केचन-तत्त्वं च तत् शानं च इति कर्मधारयं व्याचवक्षिरे-तत्पुनरयुक्तम्-ज्ञानस्य स्वतस्तत्वातत्वविभागाभावात् । विषयकृतो हि ज्ञानानां तथाभावोऽतथाभावो वा। तदेतत् तत्त्वविषयज्ञानं भवति, न स्वतस्तत्त्वस्वभावम् ॥ [स्वमतरीत्या समाससमर्थनम् । किं पुनरिदं तत्त्वं नाम ? सतोऽसतो वा वस्तुनः प्रमाणपरिनिश्चितस्वरूपं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं तदित्युच्यते । तस्य भावस्तत्त्वमिति। तच्च ज्ञानेन निश्चीयते । तत् परिच्छिन्द्यत् शानं प्रधानस्य समासो भवत्येवेति । तत्पुरुषश्चोत्तरपदार्थप्र । अते उत्तरपदार्थभूतपुरुषेऽन्वयतात्पर्येण तथा प्रयोगो युज्यते, न त्वप्रधानभूतपूर्वपदार्थान्वयतात्पर्येणेत्यर्थः। दृष्टान्तं स्वयं प्रदर्य समाधत्ते-राजपुरुष इति । पुरुषपदार्थे शोभनान्वयतात्पर्येण युक्तोऽयं प्रयोगः । राजनि विशेषणान्तरान्वयतात्पर्येण तु न युक्तः। यथा ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः इति बोधतात्पर्येण ऋद्धस्य राजपुरुष इति प्रयोगः इति भावः ॥ तत्त्वमेव। अप्रधानभूतमिति शेषः॥ - तदेतदिति । तस्मात् एतत् तत्त्वज्ञानं तत्त्वविषयज्ञानमेव भवतीति घट्टकुट्यां प्रभातमित्यर्थः ॥ . सत इत्यादि । तथा च भाष्यं, 'किं पुनस्तत्त्वम् ? संतश्च समावः, असतश्चासदाव:' इति । परिच्छिन्द्यत्-विषयीकुर्वत्-निष्कर्षयदिति यावत्। ननु विषयपरिच्छेदकं चेत् ज्ञानं, तज्ज्ञानं केन परिच्छित ? यवन्येन, तीनवस्था। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाडिकम् १] तत्त्वज्ञानपदविग्रह: 21 तत्त्वज्ञानमित्युच्यते । ज्ञानस्यापि तद्वपं ज्ञानान्तरपरिच्छेद्यमेव भवति । निर्णीत तत्वाश्च प्रमाणादय इति व्यतिरेकनिर्देश एव युक्तः। न चासमासप्रसङ्गमात्रात् अन्यथा वर्णनमुचितम् । ईदृशानां समासानां सामर्थ्यानपायेन बहुशो दृष्टत्वात्-देवदत्तस्य गुरुकुलमिति । उपसर्जनं नोपसर्जनमिति न कारणमेतत् समासे । विग्रहवाक्यसमानार्थतया समासो भवति, सा चेह विद्यत एव । वैय्याकरणा अपि ईशि पदानि समस्यन्त्येव । 'अथ शब्दानुशासनं, केषां शब्दानाम् ? लौकिकानां वैदिकानां च' इति । तस्माद्यथाभाष्यमेव षष्ठीत्रयव्याख्यानमनवद्यम् ॥ यदि न केनापि, ताई विषयोऽपि तथैव भवतु। एवञ्च ज्ञानस्य विषयनैयत्याभावात् तस्य तत्त्वभावः स्वत एवेति तत्त्वविषयकमेव ज्ञानं तत्त्वज्ञानमिति म युक्तमिति शङ्कायामाह-ज्ञानस्यापीति । निराकरिष्यते निर्विषयकं ज्ञानं, परिहरिष्यते चानवस्था उत्तरत्रेति भावः । उपसर्जनमित्यादि । प्रधानमप्रधानं वेत्यर्थः। वैटयारणा अपीत्यादि। लौकिकानां वैदिकानां च शब्दानुशासनमिति खल्वन्वयो वक्तव्यः , अतः सति तात्पर्य नैकदेशान्वयो दोष इत्यर्थः। यदि च केषां शब्दानामित्यत्रैव व्यस्तानुशासनपदान्तराध्याहारेण लौकिकानां वैदिकानामित्यादेः व्यस्ताभ्यां 'शब्दानां' 'अनुशासनं' इति पदाभ्यामन्वयानैष दोषः। उक्तं च तथा भाष्यप्रदीपे कैय्यटेन–'उत्तरपदार्थान्तर्गतस्यापि पूर्वपदार्थस्य बुध्या प्रविभागात् प्रत्यवमर्शः' इति चेत् ; ताहि किं तत्रैवाध्याहारः कर्तुं शक्यत इति विचारयतु भवान्। श्रुतानां शब्दानां गतिरस्मामिरुक्ता । अध्याहारस्तु सर्वत्र सुलभ इति भावः । अत्रेदमवधेयम्प्रमाणादीनां तत्वानां ज्ञानादित्यत्र प्रमाणादीनां तत्वानामिति न समानाधिकरणे पदे; येन समासानुपपत्तिः स्यात्, परस्परं तयोरनन्वयश्च । किन्तु प्रमाणादिगतं यत् तत्त्वं याथात्म्य, तस्य ज्ञानात इत्यर्थो विवक्षितः । न हि यथा कथञ्चित् प्रमाणादिज्ञानं निःश्रेयसायालम् , किन्तु प्रमाणादिवस्तुयाथात्म्यज्ञानमेव। एवञ्च 'चैत्रस्य गुरुकुलं' 'शरैः शातितपत्रोऽयं' इत्यादाविव एकदेशान्वयो न दोषाय । समासघटकाप्रधानार्थेनाभेदान्वय एव विरुद्धः, 'ऋद्धस्य राजमातङ्गाः' इत्यप्रयोगात् । न तु भेदसम्बन्धेनान्वयोऽपि । अतश्च प्रकृते न कोऽपि दोषः। एवं सामानाधिकरण्यभ्रमव्युदासायैव च भाष्यकारेण 'प्रमाणादीनां तत्त्वस्य इत्येकवचनान्ततत्त्वपदं प्रयुक्तं इति । षष्ठीत्रयेति-प्रमाणीदीनां तत्त्वस्य तद्रूपं तत्-क. निर्णेय-ख. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशस्त्रविवरणम् न्यायमजरी षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमोपपादनम् ] ननु षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानस्य कथं निश्रेयसाधिगमहेतुत्वमिति वक्तव्यम्। वेदप्रामाण्यसिद्धयर्थ 'चेदं शास्त्रमिति' तावन्मात्रमेव व्युत्पाद्यतां, किं षोडशपदार्थकन्थाग्रन्थनेन-उच्यते - १. आत्मापवर्गपर्यन्तद्वादशविधप्रमेयज्ञानं तावत् अन्यशाना नौपयिकमेव साक्षादपवर्गसाधनमिति वक्ष्यामः। तत्वज्ञानान्मिथ्याज्ञाननिरासे सति तन्मूलः संसारो निवर्तत इति प्रमेयं तावदवश्योपादेयम् ॥ २. तस्य तु प्रमेयस्यात्मादेरपवर्गसाधनत्वाधिगम आगमैक निबन्धनः॥ तस्य प्रामाण्यनिर्णीतिरनुमान निबन्धना। आप्तोक्तत्वं च तल्लिङ्गमविनाभावि वक्ष्यते ॥२७॥ प्रतिबन्धग्रहे तस्य प्रत्यक्षमुपयुज्यते।। कोऽन्यस्सन्तरणे हेतुरनवस्थामहोदथेः ॥ २८ ॥ आयुर्वेदादिवाक्येषु दृष्ट्वा प्रत्यक्षतः फलम्। वचः प्रमाणमाप्तोक्तमिति 'निर्णीयते' यतः ॥ २९ ॥ उपमानं तु क्वचित् कर्मणि सोपयोगं-इत्येवं चतुष्प्रकारमपि प्रमाणं प्रमेयवदुपदेष्टव्यम् ॥ ज्ञानं, नि:श्रेयसस्याधिगमः' इति भाष्योक्तरीत्येति शेषः ॥ आत्मेति। यद्यपि प्रमाणान्येव प्रथम उपादेयानि, अथापि प्रमाणानां प्रमेयसिद्धयर्थमेवोपादेयत्वेन प्रमेयशेषत्वात् प्रथम प्रमेयमेवोपात्तम् ॥ अन्यज्ञानानोपयिकमेव-अद्वारकमेवेति यावत् ॥ तस्य-वेदस्य। अनुमाननिबन्धनेति। प्रामाण्यस्य परतस्त्वादिति शेषः । तल्लिङ्गं-प्रामाण्यलिङ्गम् । अविनाभावि-ग्यातं, प्रामाण्यव्याप्तमित्यर्थः। कोऽन्य इत्यादि। 'परश्शतपरिक्षोदात् परस्तादपि वादिभिः । उपलम्भबले स्थेयम् ' इति ह्यभियुक्ताः। एवं उत्तरोत्तरोपजीव्यत्वेन शब्दानुमानप्रत्यक्षाणामुपादेयत्वेऽपि उपमानफलं किमित्यत्राह-कचिदिति। गवयालम्भादिचोदनार्थानुष्ठान इति ग्रन्थकार एव वक्ष्यति । शास्त्रमिति-ख. तावज्ज्ञाना-क. उदष्टं-क. 'निणीयता-ख. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 पातिकम् १] षोडशपदार्थतस्वज्ञानस्योपयोगः ३. संशयादयस्तु पदार्था यथासम्भवं प्रमाणेषु 'प्रमेयेषु' चान्तर्भवन्तोऽपि न्यायप्रवृत्तिहेतुत्वात् पृथगुपदिश्यन्ते। न्यायश्च वेदप्रामाण्यप्रतिष्ठापनपूर्वकत्वेन पुरुषार्थोपयोगित्वमुपयातीति दर्शितम् ॥ तत्र नानुपलब्धेऽथै न निर्णीते प्रवर्तते। किन्तु संशयिते न्यायः, तदङ्गं तेन संशयः ॥ ३०॥ ४. प्रयोजनमनुद्दिश्य न च न्यायं प्रयुञ्जते। ५.. दृष्टान्तः पुनरेतस्य सम्बन्धग्रहणास्पदम्॥३१॥ ६. सिद्धान्तोऽपि धर्मि प्रापणेनाश्रयासिद्धितामपोद्धरत् न्यायं प्रवर्तयति ननु संशयपदेन न्यायविषयं सन्दिग्धं धर्मिणमभिदधता आश्रयासिद्धिरपोद्धतैव-सत्यम्-क्वचित्तु विषये संशयमन्तरेणापि न्यायप्रवृत्तिदर्शयिष्यत इति संशयितैकविषयन्याय नियमाभावात् सिद्धान्तोऽपि वक्तव्यः॥ ७. न्यायाभिधानेऽवयवाः परं प्रत्युपयोगिनः। . परार्थमनुमानं च तदाहुायवादिनः ॥ ३२॥ यथासंभवमिति। तत्र संशयस्य बुद्धौ, प्रयोजनस्य फले, दृष्टान्तस्य यथायथमारमादिषु, क्वचित् प्रमाणेष्वपि, सिद्धान्तस्यापि तथैव, अवयवस्य शब्दप्रमाणे, तर्कनिर्णययोः बुद्धौ, वादजल्पवितण्डानां शब्दे, हेत्वाभासानां यथासंभवं, छलजात्यो: शब्दे, निग्रहस्थानानां यथासंभवं चान्तर्भावः। तथा च पदार्थो द्विविधः, प्रमाणं प्रमेयं चेति। अत: इतरेषां पृथक् ग्रहणमयुक्तमित्या. मेपाशयः। सत्यम् ; फलविशेषामिप्रायेण पृथक्कथनमिति समाधानाशय: ॥ तत्रेत्यादि । सर्वथा भगृहीते, निर्णीते चार्थे न्याय: न प्रवर्तते, किन्तु संशयित एवार्थे न्यायः प्रवर्तते। तेन हेतुना संशय: तदङ्ग-न्यायाङ्गम् ।। सिद्धान्तस्य पृथक् निर्देशमाक्षिपति--नन्विति । क्वचिदिति। श्रोत्रियोऽपि सन् श्रुत्युक्तार्थदााय विचारे प्रवर्तत एव। न हि तस्य श्रुत्युक्तार्थे संशयोऽस्तीति वक्ष्यते । न्यायाभिधान इति। न्यायामिधाने प्रसक्त इति यावत् ॥ 'प्रमेये-ख. धर्म-ख. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 उद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमचरी . ननु प्रतिशोदाहरणाभ्यां तदभिधेयो सिद्धान्तदृष्टान्तौ गम्येते एव; किं पृथगुपादानेन ? –'न-यद्येवं' हेत्वाख्येनावयवेन तदभिधेयसिद्धरनुमानमपि पृथक् न वक्तव्यं स्यात् । एवं भवतु किं नश्छिन्नम्-मैवम-अभिधेये न्याये निरूपणीये तदभिधायिनामवयवानामवसर इति तदर्थः पृथक् प्रतिपादनार्हो भवति । इतरथा अवयवमात्रोपदेश एव शास्त्रं समाप्येत ॥ . . .. ८. तर्कः-संशयविज्ञानविषयीकृततुल्यकल्पपक्षद्वयेऽन्यतरपक्षशैथिल्यसमुत्पादनेन तदितरपक्षविषयं प्रमाण अक्लेशसंपद्यमानप्रति-. पक्षव्युदासमनुगृह्णाति मार्गशुद्धिमादधान इति पृथगुपदिश्यते। . प्रतिशोदाहरणाभ्यां सिद्धान्तदृष्टान्ताविस्यत्र यथासङ्घयमन्वयः । तदभिधेयसिद्धरिति। व्याप्तस्यैव हेतुत्वादिति भावः। इष्टापत्तिरेव तत्रास्माकमित्याह--एवं भवत्विति । 'न्याये. निरूपणीये-न्याये निरूपणीयत्वेन प्राप्ते तदानीमवयवाः प्रयोक्तव्याः; सिद्धान्ताद्यधीनप्रवृत्तिकत्वाच न्यायस्य सिद्धान्तादयः पृथग्वक्तव्या इत्यर्थः । तदभिधायिनांतस्प्रतिपादकानाम् । पृथक्प्रतिपादनाह इत्यस्य प्रतिज्ञादिरिति शेषः । अवयवमात्रोपदेश इति। सर्वस्यापि शास्त्रार्थस्य न्यायवाक्य एवं परिसमाप्तत्वादिति भावः ॥ ___ अक्लेशसंपद्यमानप्रतिपक्षव्युदासं इति क्रियाविशेषणं विधेयविशेषणं वा। मार्गशुद्धिमिति। प्रतिबन्धादिनिरसने प्रमाणप्रवृत्तिं सुलभां करोति तर्क इत्यर्थः । यथा-मात्मा नित्यः? उतानित्यः ? इति संशये 'प्रजापति: प्रजा असृजत' 'न जायते म्रियते वा' इत्याद्यागमानामुभयपक्षानुगुण्यादागमेनाप्यनिर्णये, हेतोरनुपलभेनानुमानस्याप्यप्रवृत्ती, प्रत्यक्षस्य सुतरामप्रवृत्तौ च तर्क एव प्रमाणे प्रवर्तयति-यद्यात्माऽनित्य: स्यात् तर्हि कृतहानाकृताभ्यागमप्रसङ्गः, यदि नित्यः तर्हि स्वकृतं स्वयमुपभुञ्जयादिति तर्कानुगृहीतमनुमानं-आत्मा नित्य: विचित्रनिग्नतफलभोक्तृत्वात्-इत्येवंविधं प्रवर्तते। तर्काननुगृहीतं तु दुर्बलमेव। भतश्च तर्कः स्वयं प्रमाणमभवदपि प्रमाणानुग्राहकः । याव-ख. प्रथमं व्युत्पादनाहों-ख. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 पातिकम् १] षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानस्योपयोगः स चाशयशुद्धिमुपदर्शयितुं वादे 'प्रयोक्ष्यते ॥ . ___९. अन्यतराधिकरणनिर्णय मन्तरेण न पर्यवस्यति न्याय इति न्यायो परमकारणत्वेन तस्य प्रवर्तको निर्णयः। इतरथा निरवसानमनासादितफलं को नाम न्यायमारभेत ॥ तित्वज्ञानपदेन न निर्णयलाभ: ननु तत्त्वज्ञानपदेन गतार्थत्वान्न पृथक् वक्तव्यो निर्णयः । निर्णयो हि तत्त्वज्ञानमेव-अस्त्येतत्-किन्तु षोडशपदार्थतत्त्वशानं प्रमाणान्तरकरणकमपि भवति । न तस्य न्यायोपरमहेतुत्वम् । एष तु साधनदूषणसरणिक्षोदजन्मा निर्णयः तदुपरमहेतुः पृथगुपादानमन्तरेण न लभ्यते ॥ ननु यदि न तर्क: स्वतन्त्रं प्रमाण तर्हि 'प्रमाणतर्कसाधनोपालंभः' इति पादलक्षणे कथं विशेषणदानम्। प्रमाणैः तश्च स्वपक्षसाधनं परपक्षोपालंभश्चेति खलु तदर्थः। अतश्च तर्कोऽपि स्वतन्त्रं प्रमाणमेवेति चेत् तत्राहस चेति।. विषयशुद्धयर्थमेव तर्कापेक्षा। न तु स स्वतन्त्रं प्रमाणम् । प्राधान्यात्तु तस्यापि सहपाठः। यदि तर्कोऽपि प्रमाण, तर्हि सूत्रकारः प्रमाण वर्कश कथं पृथक् निर्दिशेत्। अत: वादेऽपि विषयशुद्धयर्थमेव तर्कः। वादसूत्रवार्तिकेऽप्ययमर्थः स्पष्टीकृतः उद्योतकारेण ॥ अन्यतराधिकरणनिर्णय-अन्यतरसिद्धान्तनिर्णयम्। तस्य-न्यायस्य ।। प्रमाणान्तरकरणकं-आप्तवाक्यजन्यम् । श्रुत्यादिवाक्यैरपि तस्वज्ञानं जातमेव, तहााय खलु न्यायमपेक्षते पुरुष इति न्यायेनैवाविकम्प्यो निर्णयो भवितुमर्हति । उक्तं च 'भाष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना। यस्त•णानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः' इति। तदुपरमहेतु:-न्यायोपरमहेतुः। पदार्थतत्त्वज्ञानात पदार्थतत्त्वनिर्णयः किञ्चिद्विशिष्यत इति पृथनिर्देश आवश्यक इत्यर्थः॥ मन्तरेण न पर्यवस्यति न्यायो-ख. मन्तरेण पर्यवस्यति 'प्रयोक्ष्यत इति-स्व. न्याय इति न्यायो-क, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमचरी [अनुमानपदेनापि न निर्णयलाभः] ननु अनुमानपदादेष तर्हि यथाभिलषितो लप्स्यते 'निर्णयः। प्रतिबद्धाल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं, स एव न निर्णयःतदयुक्तम्-अनुमानफलं निर्णयः, नानुमानम्। करणस्य प्रमाणत्वान्निर्णयोपादानमन्तरेण तदनुमान मफलमपर्यवसितं स्यात् ॥ [तत्वज्ञानानुमानपदाभ्यामपि न निर्णयलाभ: उभाभ्यां तर्हि तत्त्वज्ञानानुमानपदाभ्यां अयमाक्षेप्स्यते निर्णयः; अनुमानस्य तत्त्वज्ञानान्तत्वात्-न-निर्णयोपादानाद्विना तदन्तत्वासिद्धः; लिङ्गाभाससमुत्थतत्त्वज्ञानाभाससम्भवात्.॥ . [तत्त्वज्ञानानुमानसंशयपदैरपि न निर्णयलाभः! ___ ननु संशयपूर्वकत्वादनुमानस्य 'सामर्थ्यात् निर्णयान्ततैष भविष्यति इति संशयानुमानतत्त्वज्ञानपदैर्गतार्थो . निर्णयःमैवम्-संशयपूर्वकत्वेऽप्यनुमानस्य तदाभासोपजनितनिर्णयाभाससम्भवात् ॥ नैष नियमः-संशयपूर्वकमनुमानमिति। तस्मादनुमानस्य 'विशिष्टनिर्णयावसानत्वलाभाय निर्णयपदमुपादेयमित्यलं प्रसङ्गेन । ___अनुमानफलमिति। अनुमितिर्हि भनुमानफलं। भनुमितिरेव निर्णयरूपः, प्रत्यक्षानुमित्युपमितिशाब्दज्ञानानामेव निर्णयपदार्थत्वादिति ॥ गतार्थो निर्णय इति। संशयानन्तरं तर्कादिजन्मा हि निर्णयः म साभासरूपः स्यादित्यभिमानः। तादृशमभिमानमेवापनुदति-मैवमिति ॥ तदाभासः-अनुमानाभासः ; व्याप्तिभ्रम इति यावत् ॥ नैष नियम इति। 'श्रोतव्यो मन्तव्यः' इत्युक्तश्रवणानन्तरभाविमननस्यानुमानात्मकस्य संशयपूर्वकत्वाभावादित्यर्थः। विशिष्टति। उक्ततत्त्वज्ञानविलक्षणेत्यर्थः॥ षतो-क. निर्णय:-ख. फळ-क. 'निर्णया-क. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् १] षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानस्योपयोगः 27 १०. वादे त विचार्यमाणो न्यायः संशयच्छेदनेनाध्य'वसितावोधं अध्यवसिताभ्यनुज्ञा' च विदधत् तत्त्वपरिशुद्धिमादधातीति वीतरागैः शिप्रासब्रह्मचारिभिस्सह वादः प्रयोक्तव्यः ॥ ११-१२. जल्पवितण्डे तु दुष्टतार्किकोपरचितकपटदूषणाडम्बरसन्त्रास्यमानसरलमतिसमाश्वासनेन तद्धदयस्थतत्त्वज्ञानसंरक्षणाय क्वचिदवसरे वीतरागस्याप्युप'युज्यते' इति वक्ष्यामः । १३. हेत्वाभासाः सम्यन्यायप्रविवेकोपकारद्वारेण तदुपयोगिनः। हेत्वाभासस्वरूपावधारणे हि सति तद्विलक्षणतया हेतवस्सुखमवगम्यन्ते ॥ नन्वत्र विपर्ययो दृश्यते ; हेत्ववगमे सति तदितरहेत्वाभास व्यवस्थापनात्--सत्यमेवम्-तथाऽपि प्रयोक्तुं परिहर्तुं च द्वयमपि क्षेयम्। हेतवः प्रयुज्यन्ते, हेत्वाभासाश्च परिह्रियन्त इति ॥ ___ यच्च निग्रहस्थानपरिगणिता अपि हेत्वाभासाः पुनरुपदिश्यन्ते, तत् वादे चोदनीया भविष्यन्तीत्याशयेन ॥ वादस्य स्वरूपं । तदावश्यकतोपपादनद्वारा संक्षिप्य कथयति-वादे विति। अध्यवसितावबोधं-अध्ववसितरूपं अवयोधं-संशयोत्तरसत्वनिर्णयमिति यावत् । अध्यवसिताभ्यनुज्ञां-पूर्वमवगतार्थसंवादम् । धकारो वाऽर्थे । ननु वादस्य कथञ्चिद्वीतरागैः परिग्रहेऽपि विजिगीपुकथारूपस्य जरूपस्य, स्वपक्षस्थापनाहीनपरपक्षदूषणरूपवितण्डायाश्च कथं वीतरागपरिग्राह्यस्वमित्यत्राह-जल्पवितण्डे विति । तथोक्तं-' तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत्' (4-2-50) इति। तद्धदयस्थेति । सरलमतिहृदयस्थेत्यर्थः । तदुपयोगिनः-सम्पङ्ग्यायोपयोगिनः, तत्वज्ञानोपयोगिनो वा ॥ . हेतवः-सद्धतवः। चोदनीयाः-उद्भावनीयाः ॥ मध्य-क. 'भ्यनुज्ञातं-ख. 'युज्यन्ते-ख. विचार्यमाणे-ख. प्रयोक्तुं च-स. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.8 उद्देशस्त्रविवरणम् न्यायमचरी १४-१६. छलजातिनिग्रहस्थानानि जल्पवितण्डोपकरणानि । तेषामवधृतस्वरूपाणां स्ववाक्ये परिवर्जनं, क्वचिदवसरे प्रयोगः, परप्रयुक्तानां च प्रतिसमाधानं, इत्यादि शक्यक्रियम् । अतस्तान्यपि जल्पवितण्डाङ्गत्वात् ज्ञातव्यानीति पृथगुपदिश्यन्ते ॥ दुशिक्षितकुतकांशलेशवाचालिताननाः। शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपपण्डिताः॥ ३३॥ गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः। मा गादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः ॥ ३४॥ तदेवमुपदेष्टव्याः पदार्थाः संशयादयः । तन्मूलन्यायनिर्णेयवेदप्रामाण्य सिद्धये ॥ ३५॥ तेनागमप्रमाणत्वद्वाराऽखिलफलप्रदा। इयमान्वीक्षिकी विद्या विद्यास्थानेषु गण्यते ॥ ३६॥ माह च भाष्यकार: 'प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयस्सर्वधर्माणां विद्योद्देशे परीक्षिता॥' जल्पवितण्डोपकरणानि-जल्पवितण्डयोरुपकरणानि। क्वचिदिति । स चावसरः 'दुष्टतार्किक' इत्यादिना अनुपदमेवोक्तः। जल्पवितण्डयोरावश्यकतामुपपादयति-दुश्शिक्षितेत्यादि । सुशिक्षित इतिवत् दुशिक्षित इति । दुशिक्षितानां कुतार्किकानां ये कुतकांशलेशाः, तै: वाचालितानि 'वाचालो बहुगर्हवाक् ', भाननानि येषां तादृशाः. वितण्डाटोपपण्डिताः भन्यथाजल्पवितण्डे विना जेतुं शक्या: किम् ? न कथञ्चिदपीत्यर्थः। तत्प्रतारितःवितण्डाटोपपण्डितवञ्चितः। तेनेत्यादि। सर्वपुरुषार्थरत्नाकरे वेदे प्रामाण्यस्थापनात् इयमपि विद्या अखिलपुरुषार्थसाधनमिति भावः ॥ प्रदीप इत्यादि । प्रमाणमेव खलु परीक्षकाणां चक्षुः । प्रमाणशास्त्रं चेदं सर्वविद्यानां भवति प्रदीपतुल्यम् । एवं अहरह:प्रवृत्तीनां सर्वासामपि अनुमानमूलत्वात् सर्वकर्मणामुपाय: । भोजनादावपि हि ह्योदृष्टेष्टसाधनत्वनिश्चयात्प्रवर्तन्ते सर्वे। अत एव सर्वधर्माणां माश्रय:-आधार:-- 1 संविदे-ख. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 पातिकम् १] aষসমূলিসাৎ: इत्येष षोडशपदार्थनिबन्धनेन निःश्रेयसस्य मुनिना निरदेशि पन्थाः । अन्यस्तु सन्नपि पदार्थगणोऽपवर्गमार्गोपयोगविरहादिह नोपदिष्टः॥३७॥ इति उद्देशसूत्रविवरणम् [त्रेधा शास्त्र प्रवर्तते] त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः- उद्देशः, लक्षणं, 'परीक्षा ति'। 'नामधेयेन पदार्थाभिधानमुद्देशः। उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवस्थापको धर्मो लक्षणम्। लक्षितस्य तल्लक्षणमुपपद्यते न वेति विचारः परीक्षा [चतुर्थोऽपि प्रकारोऽत्रैवान्तर्भवति ननु च विभागलक्षणा चतुर्थ्यपि प्रवृत्ति'रस्त्येव । मेदवत्सु प्रमाणसिद्धान्तच्छलादिषु तथा व्यवहारात्-सत्यम-प्रथमसूत्रो'द्दिष्टे' भेदवति पदार्थे भवत्येव विभागः; उद्देशरूपानपायात्तु उद्देश एवासौ। सामान्यसंशया कीर्तनमुद्देशः, प्रकारभेदसंशया कीर्तनं विभाग इति । तथा चोद्देशतयैव तत्र तत्र भाष्यकारो व्यवहरति 'अयथार्थः प्रमाणोद्देशः'-इत्याक्षेपे-'तस्माद्यथार्थ एव प्रमाणोद्देशः' इति समाधानमभिदधानः । तस्मात् त्रिविधैव प्रवृत्तिः ॥ सन्यायग्युत्पादनात् । तथोक्तं-'भाष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । पस्तकेंणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः' इति। अत इयं भान्वीक्षिकी विद्यास्थानेषु गण्यत इति । प्रकीर्तिता इति प्रायः पाठः । न्याख्याभेदास्तु वार्तिक-टीकादिषु अन्यः-द्रव्यगुणकर्मादिः ॥ सत्यमित्यादि। अयं भाव:--सावान्तरभेदो हि पदार्थ उद्देशसूत्रे उदिष्टः । अत: उद्देशे विभागोऽप्यन्तर्भूत एव । किञ्च निर्विशेषं न सामान्यमिति न्यायात् भेदवानेव पदार्थो निर्दिश्यते। तदेवोपपादयति-सामान्येत्यादि। विभागस्याप्युद्देशरूपत्वे भाष्यसम्मतिमाह-तथा चेति । अयथार्थ इत्यादि। परीक्षेति-ख. 'नामधेय-क. भवत्येव-क. 'पदिष्टे-ब.. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 शासप्रवृत्तिप्रकारः (न्यायमचरी [उद्देशादीनां क्रमः] तत्रोद्देशः प्रथममवश्यं कर्तव्यः। अनुद्दिष्टस्य लक्षणपरीक्षानुपपत्तेः। सामान्यविशेषलक्षणयोरपि, पौर्वापर्यनियमोऽस्त्येव । अलक्षिते सामान्ये विशेषलक्षणावसराभावात्। 'परीक्षा तु' लक्षणोत्तरकालभाविनीति तत्स्वरूपनिरूपणादेव गम्यते। विभागसामान्यलक्षणयोस्तु नास्ति पौर्वापर्यनियमः। पूर्व वा सामान्य- . लक्षणं ततो विभागः, पूर्व वा विभागः ततस्सामान्यलक्षणमुच्यत.. इति। तदिहोदेशस्तावद्वयाख्यातः। अस्माभिस्तु लक्षणसूत्राण्येव व्याख्यास्यन्ते। परीक्षासूत्रसूचितं तु वस्तु सोपयोगलक्षणवर्णनावसर एव यथाबुद्धि दर्शयिष्यते; न पृथक् परीक्षासूत्रविवरणश्रमः करिष्यते। अत एव प्रथम सूत्रानन्तरं 'दुःखजन्म-' इत्यादि. द्वितीयसूत्रं लक्षणानौपयिकत्वान्नेह विवृतम्। अपवर्गपरीक्षाशेषभूतत्वात्तु तदवसर एव निर्णयिष्यते ॥ द्वितीयाध्यायद्वितीयाहिकोपक्रमभाष्यमिदम् । अयमर्थः—'न चतुष्टमैतिह्यार्थापत्तिसंभवाभावप्रामाण्यात्' इतिसूत्रमवतारयति भाष्यकार:-अयथार्थ इति । 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इति निर्देशो न युक्तः, ऐतिह्यादीनां प्रमाणानां बहूनां सत्त्वात्। अतः पूर्वमुक्त: प्रमाणोद्देशः अयथार्थ:--- न वस्तुस्थित्यनुगुण इति भाष्यस्यार्थ: । एवमाक्षेपे कृप्तेष्वेव तेषामन्तर्भावमुक्ता उपसंहरति भाष्यकारः --तस्मादिति। अत्र बहूनां प्रमाणानां सत्वात चत्वारि प्रमाणानीति विभागो न युक्त इति वक्तव्ये 'प्रमाणोद्देशेः' इति कथनेन, उपसंहारेऽपि तथैव कथनेन च विभागोऽप्युद्देशविशेष एवेति भाष्यकाराशय स्पष्ट इति भावः ॥ नास्तीत्यादि। आद्यस्योदाहरणं-'आप्तोपदेशः शब्दः ''स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात् ' इत्यादि। द्वितीयस्योदाहरणं--'प्रत्युक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इति। अनेन सूत्रेण विभागे प्रतिपादिते सामान्यलक्षणजिज्ञासायो प्रमाणपदावृत्त्या तत्पदं प्रमाणसामान्यपरं व्याख्यातं भाष्ये ॥ ___अस्माभिस्त्वित्यादि। अत एवोक्तमुपक्रमे-'तदेकदेशलेशे तु कृतोऽय विवृतिश्रमः' इति। निर्णयिष्यते-णयधोतो रूपमिदम् ॥ . 1 परीक्षा-क. पूर्व-क. प्रथम-ख. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् १] प्रमाणसामान्य लक्षणम् प्रमाणसामान्य लक्षण विभाग सूत्रं त्वयसरप्राप्तत्वादिदानीमेव विवियते प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि॥१-१-३॥ . प्रमाणसामान्यस्वरूपलक्षणाक्षेपः] ___ अत्रेदं तावद्विचार्यते-किं प्रमाणं नाम? किमस्य स्वरूपम्? किं वा लक्षणमिति ? ततः सूत्रं योजयिष्यते ॥ [प्रमाणस्वरूपलक्षणकथनम् ] तदुच्यते-अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् । बोधाबोधस्वभावा 'सामग्री हिं तस्य स्वरूपम् । अव्यभिचारादिविशेषणार्थोपलब्धिसाधनत्वं लक्षणम् ॥ सामग्रया: प्रमाणत्वाक्षेप:] · · ननु च प्रमीयते येन, तत् प्रमाणमिति करणसाधनोऽयं प्रमाणशब्दः। करणं च साधकतमम् । तमबर्थश्चातिशयः। स चापेक्षिकः। साधकान्तरसंभवे हि तदपेक्षयाऽतिशययोगात् किञ्चित्साधकतममुच्यते । सामग्रयाश्चैकत्वात् तदतिरिक्तसाधकान्तरानुपलम्भात् किमपेक्षमस्या अतिशयं ब्रूमः॥ प्रमाणेत्यादि । सामान्यलक्षणं विभागं च प्रतिपादयत् सूत्रमित्यर्थः ।। अव्यभिचारिणीमित्यादि। भव्यभिचारिणीमिति भ्रमन्यावृत्त्यर्थम् । असन्दिग्धामिति संशयव्यावृत्यर्थम् । अर्थोपलब्धि विदधतीति घटादिव्यावृत्यर्थम् । बोधाबोधस्वभावेति। अबोधरूपं हीन्द्रियं प्रत्यक्षे करणम् । बोधरूपाणि हि अनुमानोपमानशब्दज्ञानानि भनुमित्युपमितिशाब्देषु यथासंख्यं करणानि । कवाक्यं विवेचयति-बोधेत्यादि । ___ 'सामग्री प्रमाणम्' इत्युक्तिमाक्षिपति-नन्विति। सामग्रन्याचे कत्वादिति। निखिलकारकसमुदायस्यैव सामग्रीपदार्थत्वात् सदतिरिकस्य लक्षणं-ख. सूत्रे-स्व. 'हि-ख. 'मस्याति-क. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 प्रमाणपरीक्षा [न्यायमचरी अपि च कस्मिन् विषये सामग्रयाः प्रमाणत्वम् ? प्रमीयमाणो हि कर्मभूतो विषयः सामग्रय'न्तर्भूतत्वात् सामग्रयेवेति करणतामेव यायात् । निरालम्बनाश्चेदानी सर्वप्रमितयो भवेयुः, आलम्बनकारकस्य चक्षुरादिवत् प्रमाणान्तःपातित्वात् ॥ कश्च सामग्रया प्रमेयं प्रमिमीते ? प्रमाताऽपि तस्यामेव लीनः। एवञ्च यदुच्यते 'प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति चतसृषु विधासु तत्त्वं परिसमाप्यते' इति, तद्याहन्यते । न च लोकोपि सामग्रथाः करणभावमनुमन्यते तस्यां करणविभक्तिमप्रयुञ्जानः। न ह्येवं वक्तारो भवन्ति लौकिकाः, सामग्रथा पश्याम इति ; किन्तु दीपेन पश्यामः, चक्षुषा निरीक्षामह इत्याचक्षते। तस्मान्न सामग्री कारणम् , अकारणत्वाञ्च न प्रमाणमिति नेदं साधु प्रमाणस्वरूपम् ॥ [सामग्रयाः करणत्वसिद्धान्त:] अत्रोच्यते यत एव साधकतमं करणं, करणसाधनश्च प्रमाणशब्दः, तत एव सामग्रयाः प्रमाणत्वं युक्तम् ; तयतिरेकेण कारकान्तरे कचिदपि तमबर्थसंस्पर्शानुपपत्तेः। अनेककारकसन्निधाने तत्कारणत्वप्रसक्तेरेवाभावे न ह्यतिशय उपपादयितुं शक्येत। विदुषोहि द्वयोः कश्चनातिशेते, न तु विद्वदविदुषोः। प्रत्येकं तु कारणानां साधकत्वमेव नास्ति इति भावः ॥ .. निरालम्बना इति। कर्मकारकस्यापि सामग्रीगोष्टीनिविष्टत्वेन सामग्रथाः करणत्वे कर्मणोऽपि करणत्वप्राप्तया कथं ज्ञानं करणविषयकं स्यादिति ज्ञानं निरालम्बनं प्रसज्येतेत्यर्थः ॥ तस्यामेव-सामग्रयामेव। तथा च प्रमातुरपि करणत्वमेव, न तु कर्तृत्वमिति भावः । यदुच्यत इति । उपोद्घातभाष्यार्थानुवादोऽयम् । अथ प्रतीतिविरोधमप्याह--न च लोकोऽपीति । अकारणत्वादिति । कारणत्वस्यैवाभावे किमुत करणत्वमिति भावः। करणं, भकरणत्वादित्येव वा पाठः ॥ तयतिरेकेण-सामग्रीव्यतिरेकेण । कारकान्तरे- प्रत्येकं कारके । भतिशयपदार्थ विवृण्वन् सामग्रया एव साधकतमत्वमुपपादयति-अनेकेति । निखिलेत्यर्थः । यस्मिन् सति कार्य निष्पद्यते, यस्मिनसति न, तदेव साधकतमं भवति । प्रत्येकं कारकाणां सत्वेऽपि कार्य न हि निष्पयते । न्तरीभूतत्वात्-ख. 'सामग्रया:-क. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसामान्यलक्षणम् आह्निकम् १] 33 कार्य घटमानं अन्यतरव्यपगमे च विघटमानं कस्मै अतिशयं प्रयच्छेत् ? न चातिशयः कार्यजन्मनि कस्यचिदवधार्यते, सर्वेषां तत्र व्याप्रियमाणत्वात् ॥ सन्निपत्यजनकत्वमतिशय इति चेन्न-आरादुपकारकाणामपि कारकत्वानपायात् । ज्ञाने च जन्ये किमसन्निपत्यजनकम्? सर्वेषामिन्द्रियमनोऽर्थादीनामितरेतरसंसर्गे सति ज्ञाननिष्पत्तेः ॥ अथ सहसैव कार्यजनन मतिशयः; सोऽपि कस्याश्चिदवस्थायां करणस्येव कर्मणोऽपि शक्यते वक्तुं-यथा अविरलजलधरधाराप्रबन्धबद्धान्धकारनिवहे बहुलनिशीथे सहसैव स्फुरता विद्युल्लताssलोकेन कामिनीज्ञानमादधानेन तजन्मनि सातिशयत्वमवाप्यते, एवं मितरकारककदम्बसन्निधान सत्यपि सीमन्तिनीमन्तरेण तदर्शनं न संपद्यते, आगतमात्रायामेव तस्यां भवतीति तदपि कर्मकारकमतिशययोगित्वात् करणं स्यात् ॥ कारक्राणां समग्रभावे च निष्पद्यते कार्यम्, अत: कारकसाकल्यापरपर्यायसामग्रयेव करणमिति युक्तम् । प्रत्येकं कारकाणि कारणानि, तत्समुदायश्च करणमिति तु सारम् । कस्मा इति। सकलकारणसमवायान्तराऽन्यस्मै कस्मै इत्यर्थः । कस्यचिदिति। प्रत्येकं तु नापि कारणेन कार्य न जन्यते, सर्वमेलने सति जन्यते ; तदा अतिशयः प्रत्येकं किंनिष्ठ इति न हि निर्णेतुं शक्यत इत्यर्थः ॥ सन्निपत्त्य-व्यापारोपरि भारं निधाय, व्यवधानेनेति यावत् । आरादुपकारकाणां-अद्वारकारणाना। अवान्तरापूर्वद्वारा परमापूर्वफलकं हि प्रोक्षणादि पन्निपत्योरकारकं, साक्षात्परमा पूर्वफलकं च प्रयाजादि आरादुपकारकम् । अयं भावः- व्यापारवत्कारणस्येव करणत्वात् व्यापाररूपातिशय एव तमबर्थः इति न युक्तम ; कारकत्वं हि क्रियावेशमन्तरा न संभवतीति सर्वत्रेद समानम्। चक्रभ्रमणादीनां तु व्यापाराणां साक्षात् घटादिजनकानामपि कारकत्वमविशिष्टमिनि व्यापारावेशमादाय वैलक्षण्यं दुर्वचमेवेति । ज्ञाने तु सुतरां तदुर्वचं वैलक्षण्यमित्याह -शाने चति । इतरेतरेति। संयोगरूपव्यापारस्य द्विनिष्ठत्वेन इन्द्रियमेव करणं, घटादि च कर्म इति नियमासंभव इति भावः ॥ करणस्य--करणत्वेन त्वत्सम्मतस्य। आदधानेनेति । विद्यु लता लोकेनेत्यस्येदं विशेषणम् । तज्जन्मनि-कामिनीप्रत्यक्षोत्पत्तौ ॥ गमे-क. 'मिततर-क. NYAYAMANJARI Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 प्रमाणपरीक्षा न्यायमञ्जरी तस्मात् फलोत्पादाविनाभाविस्वभावत्वमवश्यतया कार्यजनकत्वमतिशयः। स च सामग्रयन्तर्गतस्य न कस्यचिदेकस्य कारकस्य कथयितुं पार्यते। सामग्रघास्तु सोऽतिशयः सुवचः। सन्निहिताचेत् सामग्री संपन्नमेव फल मिति सैवातिशयवती॥ [प्रमातृप्रमेययोः साधकतमत्वाभावान करणत्वम् | ननु मुख्ययोः प्रमातृप्रमेययोरपि तदविनाभावित्वमतिशयोऽ. स्त्येव, प्रमितिसम्बन्धमन्तरेण तयोस्तथात्वाभावात्। प्रमिणोतीति 'प्रमाता भवति, प्रमीयत इति च प्रमेयम्-सत्यमेतत्-किन्तु साकल्यप्रसादलब्धप्रमितिसम्बन्धनिबन्धनः प्रमातृप्रमेययोर्मुख्यस्वरूपलाभः। साकल्यापवये प्रमित्यभावात् गौणे प्रमातृप्रमेये । संपद्यते। एवञ्च साकल्यमन्तरेण यदि प्रमितिरवकल्पेत भवेद्य भिचारः, न त्वसौ तथा दृश्यते इति प्रमित्यन्यभिचारात् साकल्यमेव सातिशयमिति तमबर्थयोगात् तदेव करणम् ॥ ___निष्कृष्टमतिशयस्वरूपं प्रदर्शयति-फलोत्पादेति । फलोत्पादाविनाभाविस्वभावत्वं यत् अवश्यतया कार्यजनकत्वं, तदेवातिशय इत्यर्थः। एकस्य कारकस्येति । एकस्यैव कारकस्येत्यर्थः । सैवातिशयवतीति । सामग्रथा एव फलोत्पादाविनाभाविस्वभावत्वादित्यर्थः ॥' तदविनाभावित्वमिति । प्रमितिरूपफलाविनाभावित्वमित्यर्थः । प्रमातुः प्रमातृत्वं, प्रमेयस्य प्रमेयत्वं च प्रमितिसम्बन्धनिबन्धनमेवेत्येतदुपपादयति-प्रमिणोतीतीति । तथा च प्रमातृप्रमेययोरपि साधकतमत्वात् करणत्वमापन्नमिति प्रमाणप्रमेयादिविभागः कथमित्यर्थः । साकल्यस्यसामग्र्याः प्रसादात्-सामर्थ्यात् लब्धेत्यर्थः। गौणे इति। प्रमित्याश्रयः प्रमातृपदस्य मुख्यार्थः। यदा च प्रमितिरेव नोत्पमा तदा प्रमित्याश्रयत्वम् आत्मनो न संभवति; यथा सुषुप्तयादौ। तत्र च भूतपूर्वगत्याद्याश्रयणेन प्रमातृत्वं गौणमेव वक्तव्यम् , अपचत्यपि देवदत्ते ‘पाचकोऽयम् ' इत्यादिवदिति ॥ प्रमाता-क. प्रमितितमबर्थयोगात्-ख. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] सामग्रयाः प्रमाणत्वसमर्थनम 35 [सामग्रथाः साधकतमत्वोपपादनम्] यत्तु 'किमपेक्षं सामग्रयाः करणत्वमिति-तत् अन्तर्गतकारकापेक्षमिति ब्रूमः। कारकाणां धर्मः सामग्री न स्वरूपहानाय तेषां कल्पते ; साकल्यदशायामपि तत्स्वरूप प्रत्यभिज्ञानात् ॥ प्रत्येकापेक्षया सामग्री भिन्ना ? उताभिन्ना?] ननु समग्रेभ्यः' सामग्री भिन्ना चेत् कथं पृथङ्नोपलभ्यते ? अभेदे तु सर्वकारकाणि करणीभूतान्येवेति कर्तृकर्मव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः-मैवम्-समग्रसन्निधानाख्यधर्मस्य प्रत्यक्षमुपलम्भात् । ___ करणत्वं-साधकतमत्वम् । अन्तर्गतेति । सामग्री नाम यावरकारणसमुदायः। करणत्वं च तदन्तर्गतप्रत्येककारकापेक्षमित्यर्थः। ननु अन्वयव्यतिरेकवशात् सामग्रया: करणत्वावधारणेऽपि प्रत्येककारकसत्वे कार्यानुत्पादेन व्यमिचारात् प्रत्येकं कारकाणां कारणत्वासंभवेन न तदपेक्षः अतिशयः सामग्रया वक्तं शक्य इत्यत्राहकारकाणामिति। अयं भावः समग्राणां भावः बलु सामग्री। एवञ्च कारकाणां समुदायविशेषः सामग्री। समुदायश्च समुदाय्यनतिरिक्तः। ततश्च समुदायेषु विद्यमानो धर्मः न हि समुदायिनां कारणत्वं हन्ति । तथा सति प्रत्येकं कारणत्वाभावेन समुदितस्यापि कारणत्वं न स्यात् । किञ्च प्रत्येकं कारणत्वस्यैवाभावे तेषां कारकत्वमेव न स्यात्, कार्यनिर्वर्तकस्यैव कारकत्वात् । ननु प्रत्येक कारकाणां कार्यव्यभिचारात् कथं तेषां कारणत्वावधारणमिति चेत्, लोक एव प्रष्टव्यः। पामरोऽपि हि तन्तूनां प्रत्येकं सतामपि पटकारणत्वं प्रत्येति। अतश्च यत्सत्त्वे यत्सत्वं, यदभावे यदभावः इति सहचारग्रहः सर्वानुभवसिद्धः। न हि तत्र यन्मात्रसत्वे यत्सत्वमित्यन्वयः। अतः प्रत्येकमपि कारणत्वं वर्तत एवेति॥ . . समुदायसमुदायिनार्भेदाभेदं विकल्प्य दूषयति-नन्विति । करणीभूतान्येवेति । सामग्रयाः करणत्वस्योपपादितत्वात् कारकाणां तदमिन्नत्वे कर्तृकर्मकारकादीनामपि करणकारकत्वापत्तिरितीतरकारकोच्छेदप्रसङ्ग इत्यर्थः। समुदायसमुदायिनो_लक्षण्यं वर्तत एवेत्यभिप्रायेण समाधत्तेमैवमित्यादि । ननु तर्हि तन्तुपटयोरिव यदि भेदस्तदाऽपसिद्धान्त इत्याशङ्कायां HALHAREL ___1किमपेक्ष्य-क. तत्वरूप-ख. असमग्रेभ्य:-क. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपरीक्षा न्यायमञ्जरी पृथगवस्थितेषु हि 'स्थालीजलज्वलन'तण्डुलादिषु न समग्रताप्रत्ययः; समुदितेषु तु भवतीत्यतः तन्तुपटलपरिघटित पटाद्यवयविवत् कारककलापनिष्पाद्यद्रव्यान्तगभावेऽपि समुदायात्मिका सामग्री विद्यत एवेति समुदाय्यपेक्षया करणतां प्रतिपद्यते। तस्मान्न परिचोदनीयमिदं कस्मिन् कर्मणि सामग्री करणमिति । समुदायिनां सामग्रयवस्थायामपि स्वरूपानपायात् समुदायिविशेषे कर्मणि सामग्री करणम् । अत एव प्रमितेर्न निरालम्बनत्वम् ॥ एतेन 'प्रमात्रादिः पृथगुपदर्शित इति विधाचतुष्टयमपि समाहितम् ॥ यत्त्वभ्यधायि सामग्रयाः करणविभक्तिनिर्देशो न दृश्यत इतितत्रोच्यते-सामग्री हि संहतिः। सा हि. संहन्यमानव्यतिरेकेण न व्यवहारपदवीमवतरति तेन 'सामग्रया पश्यामीति न व्यपदेशः॥ -न तथाऽत्र, किन्तु सेनावनन्यायेन भेदव्यवहार इत्याह - तन्त्विति । द्रव्यान्तराभावेऽपि---सामग्रीरूपावयव्यन्ताराभावेऽपि। तथा च प्रत्येकविवक्षया इमे वृक्षा इति व्यवहारेऽपि बुद्धिविशेषविषयत्वकृतः इदं वनमिति यथा, तथा प्रकृतेऽपि प्रत्येकविवक्षया कर्मादि कारकतां प्रमिती भजते । समुदायापेक्षया तु सामग्रयेव प्रमितिकरणमिति भावः। समुदायिविशेषेसमुदायघटककारकविशेषे ॥ एतेन-प्रत्येकं कर्मकारकताधनपायेन । विधाचतुष्टयम् | प्रमाण, प्रमाता, प्रमेयं, प्रमितिरिति चतुष्टयम् ॥ करणविभक्तीति। सामग्रया पश्यामीति निर्देश इत्यर्थः । तेनेत्यादि। सामग्रयाख्यातिरिक्तपदार्थस्याभावेन न तथा निर्देश इति भावः ॥ . नन्वभ्युपगच्छामः-सामग्रया: प्रत्येकानतिरेकात् सामग्रथा पश्यामीति न निर्देश इति ; किन्तु- सामग्रयाः करणत्वमुक्तं, मामग्री च प्रत्येकामिन्ना। ततश्च सामग्रयन्तर्गतांनां सर्वेषामपि करणत्वं प्राप्तम् । एवञ्च चक्षुषा पश्यामीतिवत् घटेन 'घटा-ख. सामग्री-ख. 'प्रमाता-ख. __1 स्थालाज्वलनजल-ख. 5 सामग्री-ख. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणस्वरूपे एकदेशिमतम् [केषाञ्चिदेव करणत्वव्यवहारे हेतुः । यस्तु दीपेन्द्रियाणां तृतीयानिर्देशः, स फलोपजननाविनाभाविस्वभावत्वाख्यसामग्रीसरूप समारोपणनिबन्धनः । अन्यत्रापि च तद्रूपसमारोपेण स्थाल्या 'पचतीति व्यपदेशो हृदयते एव । तस्मादन्तर्गतकारकापेक्षया लब्धकरणभावा (सामग्री प्रमाणम् ॥ आह्निकम् १] 37 [ प्रकारान्तरेण करणस्वरूपनिरूपणम् ] • अपरे पुनराचक्षते सामग्री नाम समुदितानि कारकाणि । तेषां द्वैरूप्यमहृदयङ्गमम् । 2 'अथ च तान्येव' पृथगवस्थितानि कर्मादिभावं भजन्ते, अथ च 'तान्येव समुदितानि' करणी भवन्तीति कोऽयं नयः ? तस्मात् कर्तृकर्मव्यतिरिक्तम् अव्यभिचारादिविशेषणकार्थप्रमाजनकं कारकं करणमुच्यते । तदेव तृतीयया व्यपदिशन्तिदीपेन पश्यामि चक्षुषा निरीक्षे, लिङ्गेन बुद्धथे, शब्देन जानामि, मनसा निश्चिनोमीति । ननु त्रीण्येव कारकाण्यस्मिन् पक्षे भवेयुः - ज्ञानक्रियायां तावत् एवमेवैतत् यथा भवानाह । पाकादिक्रियासु क्रियाश्रय पश्यामि इत्यपि व्यवहारः कुतो न ? इत्याशङ्कय परिहरति — यस्त्वित्यादि । फलोपजननाविनाभावित्वाख्यः तमबर्थः यः अतिशय तं दीपादावभ्यर्हिततमत्वात् भारोप्य लोके दीपेन पश्यामीत्यादिव्यपदेशः ; विषये सत्यप्यन्धकारादौ प्रत्यक्षानुत्पस्या तन्त्रालोकस्याभ्यर्हिततमत्वात् । एवं भालोके सत्यपि चक्षुषो निमीलने न प्रत्यक्षमिति चक्षुषोऽभ्यर्हिततमत्वप्रतीत्या चक्षुषा पश्यामीति व्यवहारः । अत एव स्थाल्यां पचतीत्यत्र स्थाली सौष्टवादिविवक्षायां सत्यां स्थाल्या पंचति, स्थाली पचति इात, काष्ठसौष्ठवविवक्षायां काष्ठं पचतीत्यादिश्च प्रयोगः । . अतो न दोष इति परिहाराशयः ॥ तेषां समुदायाभिन्नानां समुदायिनाम् । द्वैरूप्यमेवोपपादयति - अथ चेति । अथ चेति विरोधद्योतकम् || त्रीण्येवेति । अपादानादीनामपि वर्तृकारकेणैव क्रोडीकारापत्तेरित्यर्थः । तथा च कर्तृकर्म करणमिति त्रीण्येव कारकाणि भवेयुरिति । ज्ञानक्रियायां - ' पचन्तीति-क. 2 अथ तान्येव - क. अथ च तानि - ख. 3 समुदितानि - क. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 प्रमाणरीक्षा [न्यायमञ्जरी धारणाद्युपकार भेदपर्या लोचनया भवत्वधिकरणादिकारकान्तरव्यवहारः। प्रमितो तु मनोदीपचक्षुरादेः न लक्ष्यते विशेष इति 'तत्सर्व' करणत्वेन सम्मतम् ॥ कस्तेषु तमबर्थ इति चेत् ? अस्ति कश्चित्--यदयं लोकः 'अहं मया जानामि' 'घटेन घटं जानामि' इति न कर्तृकर्मणी विस्मृत्यापि करणत्वेन व्यपदिशति, नयनमनोदीपशब्दलिङ्गानि तु. तथा व्यपदिशति ; सोऽयमेषां पश्यति कर्तृकर्मवैलक्षण्यं चक्षुरादीनाम्। तद्वै लक्षण्यमेव च तेषामतिशय इति तदयमिह प्रमाणं, प्रमाता, प्रमेयं, प्रमितिरिति चतुर्वर्ग' एव व्यवहारः परिसमाप्यते। तस्मात् कर्तृकर्मविलक्षणा संशयविपर्ययरहितार्थबोधविधायिनी बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणमिति युक्तम् ॥ [बौद्धसम्मतप्रमाणस्वरूपनिराकरणम् ] य तु बोधस्यैव प्रमाणत्वमाचक्षते-न सूक्ष्म दर्शिनस्ते'। बोधः खलु प्रमाणस्य फलं, न साक्षात्प्रमाणम्। करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः, ममीयते अनेनेति प्रमाणम् । प्रमीयत इति कोऽर्थः ? प्रमा जन्यत इति । प्रमाणादवगच्छाम इति वदन्तो लौकिकाः ज्ञानरूपक्रियायाम् । यद्यपि ज्ञानं गुणः, अथापि जानामीत्यादिधातुवाच्यत्वात् क्रियात्वोक्तिः। ज्ञानस्थले हि आत्मन एवोपादानत्वेन, फलित्वेन, अधिकरणत्वेन च कर्मकरणकारकव्यतिरिक्तसर्वकारकत्वमात्मन एव । तेषु-मनोदीपचक्षुरादिषु । . कर्तृकर्मकारकातिरिक्तत्वात् करणस्य, सजातीयवस्त्वपेक्षयैव तमबर्थस्योपपादनीयत्वादित्यर्थः । अनुभवसाक्षिकोऽयं विशेष इत्यभिप्रायेणाह- यदयमित्यादि ॥ बोधस्यैवेति । प्रमा प्रमाणमिति पर्यायतया लोके प्रयोगात् ज्ञानस्य प्रामाण्यमित्यादिव्यवहाराञ्च ज्ञानरूपमेव प्रमाणम् । तथा च बोधाबोधस्वभावेत्यसङ्गतमित्याशयः । उत्तरत्र प्रमाया अपि प्रमाणपदवाच्यत्वकथनादत्र साक्षादित्युक्तम्। अधिकमुत्तरत्र स्पष्टीभविष्यति ॥ सर्व-ख. वर्गेणैव-ख. दर्शनास्ते-ख. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 आह्निकम् १] बौद्धामिमतप्रमाणस्वरूपनिरासः करणस्यैव प्रामाण्यमनुमन्यन्ते। यस्तु प्रमा प्रमाणमिति प्रमाणशब्दः, स प्रमाणफले द्रष्टव्यः। तथा च संशयविपर्ययात्मकं 'अप्रमाणफलमपि ज्ञानं आत्ममनोऽनुमाने तद्विशेषणार्थपरिच्छेदे वा विशिष्टप्रमा जननात् प्रमाणतां प्रतिपद्यते। अव्यभिचारादिविशेषणोपपन्नमपि ज्ञानमफलजनकं अप्रमाणमेव। केवलप्रमास्वभावं प्रमाणाद्विमिन्नं फलमिति प्रत्यक्षलक्षणे वक्ष्यामः॥ . . अथ व्यतिरिक्तफलजनकमपि बोधरूपमेव प्रमाण'मुच्यते-- • तदयुक्तम् - सकलजगद्विदितबोधेतरस्वभावशब्द लिङ्गदीपेन्द्रियादि परिहारप्रसङ्गात् । तस्मात् सामग्रयनु प्रविष्टो' बोधः विशेषणज्ञानमिव क्वचित्प्रत्यक्षे, लिङ्गज्ञानमिव लिङ्गि प्रमितौ, सारूप्यदर्शनमियो यस्त्विति। कुत्रचित् प्रयुज्यत इति शेषः। प्रमाणफल इति । तथा च अन्नं प्राणा इतिवत् प्रमाणजन्यायां प्रमायां प्रमाणव्यपदेश उपचारादिति भावः। , अस्य व्यवहारस्य मुख्यत्वे बाधकमप्याह-तथा चेति । ज्ञानेच्छादीनामात्मलिङ्गत्वेन, तत्र संशयविपर्ययज्ञानयोरप्यात्मानुमितिसाधनत्वेन तयोरपि प्रमाकरणत्वात् प्रमाणत्वप्रसङ्गः, सिद्धान्ते तु तदुभयव्यतिरिक्तत्वस्य प्रमाणलक्षणे निवेशितत्वान हानिरिति भावः। ज्ञानं इत्यस्य प्रमाणतां प्रतिपद्यत .इत्यनेनान्वयः। ननु यदि प्रमाकरणमेव प्रमाण, तदा कदाचिदनुमित्याद्यनुपधाय'कस्य न्याप्तिज्ञानादेः प्रमाणत्वं न स्यात् , तेन प्रमाया अजननादित्याशङ्कामिष्टापत्या परिहरति-- अव्यभिचारादीत्यादिना ॥ · व्यतिरिक्तति । प्रमाणव्यतिरिक्तन्यर्थः। अनुमित्यादिस्थले प्रमाणप्रमित्यो: बोधरूपत्वं भवनामपि सम्मतमिति भावः। परिहार प्रसङ्गादिति । शब्दलिङ्गादीनां ज्ञानरूपत्वाभावेन प्रमाणपदवाच्यत्वाभावप्रसङ्ग इति यावत् । सामग्रयनुप्रविष्ट इति । बोधाबोधात्मकत्वात् सामग्रया: बोधोऽपि प्रमाणतां प्रतिपद्यते, न बोधमात्रमिति । बोध इति। अस्य प्रमाणतां प्रतिपद्यत इत्यग्रिमेणान्वयः। क्वचित् - विशिष्टप्रत्यक्षे ॥ 'प्रमाणफलमिति-ख. 'प्रमाण-ख. प्रमाण-ख. प्रविष्ट-ख. 'प्रतीतौ-ख. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 प्रमाणपरीक्षा [न्यायमञ्जरी पमाने, शब्दश्रवणमिव तदर्थज्ञाने प्रमाणतां प्रतिपद्यते। अत एव बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणमित्युक्तम् ॥ [बौद्धैकदेशिमतनिराकरणम् अन्ये तु तुल्यसामग्रयधीनयोः ज्ञानार्थयोः ग्राह्यगाहकभावं वदन्तः बोधं प्रमाणमभ्युपागमन् । क्षणभगिषु पदार्थेषु सहकार्युपादानकारणापेक्ष'श्रणान्तर'सन्ततिजननेन च लोकयात्रामुद्हत्सु. .. ज्ञानजन्मनि ज्ञानमुपादानकारणम् , अर्थः सहकारिकारणम; अर्थजन्मनि च अर्थः उपादानकारणं, ज्ञानं च सहकारिकारणमिति-ज्ञानं . च ज्ञानार्थजन्यम् , अर्थश्च अर्थज्ञानजन्यो भवतीत्येवमेकसामग्रन्य. धीनतया तमर्थमव्यभिचरतो ज्ञानस्य तत्र प्रामाण्यमिति । तदिदमनुपपन्नम् -- अफलजनकस्य प्रमाणत्वानुपपत्तरित्युक्तत्वात् । अपि च कर्मणि ज्ञानं प्रमाणमिष्यते। यथोक्तम् 'सव्यापारमिवाभाति व्यापारेण स्वकर्मणि' इति । स चायमर्थक्षणो ज्ञानसमकालः ततःपूर्वाभ्यां ज्ञानार्थलक्षणाभ्याम् उपजनित इति तत्कर्मतां प्रतिपद्यतां, न पुनः स्वसमानकालप्रसूतशानक्षणकर्मतामिति ॥ ननु च तुल्यसामग्रयधीनतया ममानकालतया च तदव्यभिचार सिद्धौ सत्यां क्व' कर्मत्वमुपयुज्यते ? हन्त तर्हि सहोत्पन्नयोः समानसामग्रीकयोः प्राग्राहकनियमः किंकृत इति वक्तव्य ? कर्मणीति। ज्ञानस्य हि प्रामाण्यम् विषययाथायें पर्यवस्यतीत्यर्थः । यथोक्तमिति। भवतैव प्रमाणसमुच्चये इति शेषः । तत्कर्मता-- पूर्वक्षणगतार्थक्षणकर्मकताम् । कारणस्य पूर्ववर्तित्वमेव, न समानकालिकत्वं इति भावः॥ क्वोपयुज्यत इति। ज्ञानार्थयोस्तु अन्यभिचारः सिद्धः, तुल्यकालत्वात् तुल्यसामग्रयधीनत्वाच्च । कर्मत्वं यत्किञ्चिन्निष्ठं भवतु, किमनया काकदन्तपरीक्षयेति भावः । सिद्धान्ती परीक्षाया. फलं विशदयनि-हन्त तीति । 'क्षणान्तरं-क. चारतो-क. वकर्मणा-ख. 'सिद्धों क-ख. वर्तव्य-ख. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] बौद्धाभिमतप्रमाणस्वरूपनिरास: 41 शानं 'स्वप्रकाश स्वभावमिति ग्राहम्, अर्थो जडात्मेति ग्राह्यम्इति चेत्-अयमपि विशेषस्तुल्य कालयोः कुतस्त्यः ? उपादानसहकारिकारणभेदादिति चेत्, न-तस्य क्षणभङ्गभङ्गे निराकरिष्यमाणत्वात् ॥ बौद्धकदेशिमतान्तरनिराकरणम् ] येऽपि निराकारस्य बोध स्वरूपस्य' नीलपीताद्यनेकविषयसाधारणत्वात् , जनकत्वस्य च चक्षुरादावपि भावेनातिप्रसङ्गात्, 'तदाकारत्वकृतमेव ज्ञानकर्मनियममवगच्छन्तः "साकारं ज्ञानं प्रमाणमिति प्रतिपेदिरे तेति विज्ञानाद्वैतसिषाधयिषयेवममिदधानाः तन्निरासप्रसङ्ग एव निरसिष्यन्ते । न होकमेव साकारं शानं ग्राह्य ग्राहकं च भवितुमर्हतीति वक्ष्यते ॥ अर्थस्तु साकारज्ञानवादिनो न समस्त्येवः स हनुमेयो वा स्यात् ? प्रत्यक्षो वा ? नानुमेयः; सम्बन्धग्रहणाभावात् । अर्थे हि सति साकारं निराकारं तदत्यये। 'नित्यानुमेय' बाह्यार्थवादी ज्ञानं क दृष्टवान् ॥ ३८ ॥ पुनश्शङ्कते-ज्ञानमिति,। अयमपि विशेष इति। तुल्यकालसामग्रथोमध्ये ज्ञानमेव स्वप्रकाशम् अर्थस्तु जड इति कथं निर्णय इति भावः। नन्वस्ति वैलक्षण्य, ज्ञानमुपादानम्, अर्थ: सहकारीति शङ्कत --उपादानेति । .. तदाकारत्वेति। ज्ञानं यदाकारं भवति, स एव तत्र विषयः, ज्ञानस्य हि भाकारो विषयाधीन इति कर्मत्वव्यवस्था भवतीत्याशयः। विज्ञानाद्वैतसिषाधयिषयेति। ज्ञानाकारान्यथानुपपत्याऽर्थाकारस्य कर्मणः सिद्धिरिति वदतां हि अयमाशयः। अर्थस्य प्रत्यक्षत्वनिराकरणपूर्वकमनुमेयत्वसमर्थनेन लोकेऽनास्थायां जातायाम्, अनन्तरं सम्बन्धानुपपत्त्यादिभिः अर्थस्यापह्नवे विज्ञानमेकमेवावशिष्यतेनि भिक्षुपादप्रसरणन्यायेन विज्ञानाद्वैत एव हार्दोऽभिमान इति । वक्ष्यत इति । नवमाह्निक इति शेषः ।। . सम्बन्धग्रहणं-व्याप्तिग्रहणम्। उक्तमर्थमुपपादयति - अर्थ इति । अर्थो हि नित्यानुमेयः, एवं तर्हि ज्ञानस्य अर्थस्य च कुत्र व्याप्तिग्रहणं सम्भवेदित्यर्थः। सति-गृहीते सति ॥ 'प्रकाश-ख. कारणयो:-ख. ये हि-ख. 'रूपस्य-ख. तदाकार-क. साकारविज्ञानं-ख. ' नित्यानुमेये-क. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण परीक्षा [न्यायमञ्जरी नापि प्रत्यक्षोऽर्थः; आकारद्वयानुपलम्भात्। अभ्युपगमे चानवस्थाप्रसङ्गात्। अर्थाकागे हि निराकारज्ञानगम्यो न भवतीति ज्ञानेनाकारवता गृह्यते ; सोऽयमिदानी ज्ञानाकारोऽपि ग्राह्यत्यात् अन्येनाकार' वता' गृह्यते, सोऽप्यन्येनेति ॥ अथ वा अगों निराकार ज्ञानग्राह्यतां नोपयातीति स्वग्राहके ज्ञानात्मनि समर्पितात्मा भवतीति' साकारं ज्ञानमेवेदं संपन्नमिति पुनरर्थोऽन्यः कल्पनीयः, सोऽपि ग्राह्यत्वात स्वग्राहकस्य साकारत्वसिद्धये तत्रैव लीयत इति साकारं ज्ञानमेवावशिष्यत इति 'पुनरन्योऽर्थ इति' इत्थमगवस्था। प्रतिकर्मव्यवस्था तु जनकत्वनिबन्धना भविष्यति, वस्तुस्वभावस्यापर्यनुयोज्यत्वात् । साकारपक्षेऽपि पर्यनुयोगसाम्यमित्यादि सर्व उपरिष्टात् सविस्तरमभिधास्यते। साकारपक्षेऽपि च न प्रमाणात् व्यतिरिक्त फलमुपदर्शितमि त्यसत्यक्ष' एवायम् ॥ . प्राकट्यलिङ्गेन ज्ञानमनुमीयत] , शाबरास्तु ब्रुवते- य एते बोधप्रामाण्यवादिनो विज्ञानादभिन्नमेव फलमभिदधति, ते बाढं निरसनीया भवन्त्येव ; वयं तु विज्ञानात् भिन्नमेव फलं दृष्टताख्यम् अभ्युपगच्छामः । तेनैव तदनुमीयते आकारद्वयं-अयमर्थाकारः, अयं ज्ञानाकार इति विषयं विषयिणं च न हि कश्चित् पृथगुपलभत इत्यर्थः। अनवस्थामेवोपपादयति--अर्थाकारो हीति ॥ प्रकारान्तरेणानवस्थामुपपादयति--अथ वेति ॥ निरसनीया इति। विज्ञानाद्वैतमतं त्वस्माकमपि निरसनीयमेव, क्रियारूपस्य बोधस्यैव फलत्वं तु न संभवतीत्यर्थः। दृष्टता-ज्ञातता प्राकटयाद्यपरपर्याया वस्तुवृत्तिधर्मः। तेन-विज्ञानफलेन प्राकट्येन तत्विज्ञानमनुमीयते। कार्येण कारणानुमानादित्यर्थः। ननु ज्ञानस्य फलरूपत्वेन ____वत्ता-ख. • भवति-क. 5 अर्थदृष्टताख्यं-ख. तेनैतदेवानु-क. पुनरर्थोऽन्य इति-ख. 'त्यस्मत्पक्ष-क. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] मीमांसकः शाततासमर्धनम् ज्ञानं हि नाम कियात्मकं, क्रिया च फलानुमेया; ज्ञातृव्यापारमन्तरेण फलानिष्पत्तेः ॥ 43 संसर्गोऽपि कारकाणां क्रियागर्भ एव भवति । तदनभ्युपगमे किमधिकृत्य कारकाणि संसृज्येरन् । न चासंसृष्टानि तानि फलवन्ति । क्रियाशवशाच्च कारकं कारकं भवति । अपरथा' हि तत् वस्तुस्वरूपमात्रमेव स्यात्, न कारकम् । ततश्च न फलार्थिभित्पादीयेतेति व्यवहारविलोपः । तस्मात् यथा हि कारकाणि तण्डुलसलिलानलस्थायादी सिद्धस्वभावानि साध्यं धात्वर्थमेकं पाकलक्षणमुररीकृत्य संसृज्यन्ते, संसृष्टानि च हियामुत्पादयन्ति तथाऽऽत्मेन्द्रिय'मनोऽर्थसन्निकर्षे सति ज्ञानाख्यो व्यापार उपजायते । स च न प्रत्यक्षः ; अर्थस्यैव बहिर्देशसम्बद्धस्य ग्रहणात्, आकारद्वयप्रति तद्भिन्नत्वं फलस्य कथमित्यत्राह - ज्ञानं हीति । क्रियात्मकमिति । धात्वर्थत्वादिति भावः । पचतीतिवत् खलु जानातीति व्यपदेशः । फलानुमेयेति । चेतनस्यैन्द्रियकत्वाभावेन तत्क्रियाया अपि ऐन्द्रियकत्वं न संभवति । फलेनैवानुमेया ज्ञानरूपा चेतनक्रियेति क्रियारूपं ज्ञानं न फलं इत्यर्थः ॥ तथा च प्रकारान्तरेणापि ज्ञानस्य क्रियारूपत्वमुपपादयति- संसर्गोऽपीति । क्रियागर्भः क्रियाद्वारक इति यावत् । नानाविधानां हि कारकाणां कारकत्वं - क्रिया वेश मन्तरा न संभवति, स्वरूपस्य पूर्वमेव सिद्धत्वात् । तत्रापि कर्तृकर्म - करणादिकारकाणां हि कारकत्वम् एक क्रियो द्देशमन्तरा न संभवति । एवमेव आत्मेन्द्रियमनःप्रभृतीनां कारकत्वम् एकक्रियावसानकमेव वाच्यं, सैव क्रिया ज्ञानमित्युच्यत इति समुदितार्थः । ततश्च - कारकाणां क्रियावेशाभावेन कारकत्वस्यैMarera | अस्तु ज्ञानस्य क्रियात्वं, ततः किमित्यन्नाह - स चेति । अर्थो हि बाह्यः, ज्ञानं चान्तरं, तत्कथमुभयोरेकदा ग्रहणं स्यात् । किञ्च ज्ञानं खलु सविषयम् । भूतले घट इत्याद्यनुभवकाले, अयं ज्ञानांशः, अयं विषयांशः इति आकारद्वयाप्रतिभासात् प्रतीयमानः आकारः घटादिः बाह्य एव स्यात्, बहिष्ठत्वेन भासमानत्वात् इति । ननु ज्ञातता नाम ज्ञानविषयता एवं च ज्ञानरूपो व्यापारो 1 " तथेन्द्रिय-क. 'अपरथा-क. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 प्रमाणपरीक्षा न्यायमञ्जरी भासाभावात् , अगृहीतस्यापि तस्य चक्षुरादिवदुपायत्वात् परोक्षोऽपि चासो विषयप्रकाशतालक्षणेन फलेन कल्प्यते । तदाह भाष्यकारः 'न ह्यज्ञातेऽर्थे कश्चिदुद्धिमुपलभते, ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति' इति । वार्तिककृताऽप्युक्तम्-... 'नान्यथा ह्यर्थसद्भावो दृष्टस्सन्नुपपद्यत । ज्ञानं चेन्नत्यतः पश्चात प्रमाण'मुपकल्प्यते ॥ इति । तदेष फलानुमेयो 'ज्ञात व्यापारो ज्ञानादिशब्दवाच्यः प्रमाणम् ।। इन्द्रियादीनां तु तदुत्पादकतया इन्द्रियव्यापारे' ज्ञानमुपचरति, न साक्षादिति ॥ ज्ञानस्य नित्यपरोक्षत्वनिरासः] अत्र प्रतिविधीयते--अहो बत इमे केभ्यो बिभ्यतः श्रोत्रियाः परं किमपि वैक्लव्यमुपागताः ! न खलु नित्यं परोक्षं ज्ञानं यदि प्रत्यक्षतो न गृह्येत कथं तेन व्यापारेणार्थे ज्ञातताऽख्य प्रत्यक्षं फलमुपजायेतेत्याशङ्कां परिहरति--अगृहीतस्यापीति। अयं भाव:- ज्ञातता न ज्ञानविषयत्वरूपा, किन्तु ज्ञानजन्य: विषयनिष्ठः अतिशयविशेषः। तथा च ज्ञानस्यातीन्द्रियत्वेऽपि तजन्यज्ञात तायाः प्रत्यक्षत्वं युज्यत एव, यथाऽतीन्द्रियेणापि चक्षषा घटादिचाक्षुषमिति । नन स व्यापारः यदि सदा परोक्षः. तर्हि तत्सद्भाव एव किं मानमित्यत्राह--- परोक्षोऽपीति। नित्यपरोक्षोऽपीत्यर्थः । नीलो घट इत्यादिप्रत्ययाद्यथा नैल्यादिर्घटधर्मः सिद्धयति, तथा घटो ज्ञात इति प्रत्ययात् घटे ज्ञातत्वरूप: कश्चनातिरिक्तो धर्म: सिद्धः। स च ज्ञानविषयत्वनिवन्धन इति कार्यभूतया ज्ञाततया कारणभूतं ज्ञानमनमीयते। ज्ञातता प्राकटयं, प्रकाश इत्यवमादिः पर्याय इति । भाष्यकार:-शबरः। ओत्पत्तिकसूत्रभाष्ये शून्यवादगतमिदम् । वार्तिककृता-कुमारिलेन । नान्यथेत्यादि। ज्ञानं न स्याच्चेत दृष्टस्सन्नर्थसद्भावो भन्यथा-ज्ञानाभावे नोपपद्यते, इत्यतः पश्चात्- अर्थप्रकाशानन्तरमेव ज्ञाने प्रमाणं - - प्राकटयाख्यमुपकल्पत इत्यन्वयः। अर्थप्रकाशान्यथाऽनु पत्त्या ज्ञानं सिद्धयतीत्यर्थः ॥ बिभ्यत इति । भयं 'कश्वामियान् संत्रासः' इत्यत्र सूचयति । 'अयं घटः' इत्यादौ आकारद्वयानुपलंभात् ज्ञानाकारस्योभयसम्मतत्वात 1 मुपजायते-क. ज्ञान-ख. ३ उत्पादकतया-क. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] शाततानिराकरणम् 45 भवितुमर्हति, ज्ञातोऽर्थ इति क्वचित्तद्दिशिष्टार्थप्रत्यवमर्शदर्शनात् ; विशेषणाग्रहणे शुक्लः पट इातेवत विशिष्टप्रतीतेरनुत्पादात् ॥ "कश्चायमियान् संत्रासः! विषयग्रहणकाले विज्ञानाग्रहणमात्रकेण बाह्यार्थ निह्नववादिनः शाक्याः शक्याः शमयितुम् ॥ [ज्ञानं न क्रियारूपम्] यत्तु 'क्रिया स्वभावत्वात्तस्य परोक्षत्वं तदयुक्तम्-न हि क्रिया स्वभावं ज्ञानम् अपि तु फलस्वभावमेव ॥ [क्रियारूपमपि ज्ञानं न नित्यपरोक्षम अपि च क्रियाऽपि प्रत्यक्षद्रव्यवर्तिनी प्रत्यक्षव . भाट्टानां' प्रत्यक्षश्चात्मा; तत् किमनेनापराद्धं, यदेतदीयक्रियाया अप्रत्यक्षत्वमुच्यते । न चोत्क्षेपणादिभेद भिन्नपरिस्पन्दात्मकव्यापारव्यतिरेकेण बाह्यकारकेष्वपि सूक्ष्मा नाम काचिदस्ति किया। सा हि यदि नित्या जातिवत्, अथानित्या रूपवत् वस्तुधर्म 'इध्येत। तावतैव व्यवहारोपपत्तौ कल्पित एवार्थकारो न वास्तव इति बाह्यार्थमपलपन्तं प्रत्युत्तरयितुं खलु --'सत्यमेक एवाकार उपलभ्यते, परन्तु स आकारोऽर्थस्यैव, बहिष्ठत्वेन प्रतीतेः ; . न तावता ज्ञानापलापः, तस्यानन्तरमनुमेयत्वात्इत्यच्यते। किमर्थनेतावता ज्ञानस्य नित्यानुमेयत्वाङ्गोकरणम्, अर्थग्रहणकाले ज्ञानं ने गृह्यत इत्युक्तिमात्रेणैव तत्पक्षनिरासात् । तर्हि ज्ञानं दा गृह्यते इति चेदनुव्यवसायकाले इत्यन्यदेतत्। अतः बाह्यार्थसाधनबद्धकच्छै टैः संभ्रमादेव ज्ञानस्य नित्यपरोक्षत्वमङ्गीकृतमिति नर्मोक्तिगर्भदूषणसंपिण्डितार्थः । विशेषणाग्रहणे-ज्ञानरूपविशेषणबुद्धेरभावे ॥ शाक्याः - बौद्धाः ॥ फलस्वभावमिति । इन्द्रियव्यापारादिनिर्वात्मगतगुणरूपत्वादिति भावः॥ क्रियारूपत्वेऽपि न परोक्षत्वं ज्ञानस्येत्याह-अपि चेति। प्रत्यक्ष इति। औत्पत्तिकसूत्रश्लोकवार्तिके आत्मवादे अहंप्रत्ययविज्ञयो ज्ञाता न: सर्वदैव हि' इत्यादौ आत्मनः मानसप्रत्यक्षविषयत्वोक्तेरिति भाव: । अनेन-ज्ञानेन। वस्तुधर्म इत्येतत् जातिवदित्यत्रापि सम्बध्यते । 1 अक्रिया-क. 2 स्वभावशानमपि-क. भट्टानां-ख. इष्यते-क. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 प्रमाणपरीक्षा [न्यायमञ्जरी तत्र यदि नित्या, तर्हि सर्वदा वस्तुनः क्रियायोगात् सर्वदा फलनिष्पत्तिप्रसङ्गः। अथ कारक निर्वा क्रिया, साऽपीदानी कार्यत्वात् सव्यापारकारककार्या भवेदित्यनवस्था। निष्क्रियकारककार्यवे तु 'क्रियामिव फलमपि निष्क्रियाण्येव कारकाण कुर्युरिति किं क्रियया ? ननु करोतीति कारकम्। क्रियाs:वेशमन्तरेण च कारकत्वानुप- ' पत्तिः--सत्यं, करोतीति कारकं, तत्तु फलमेव करोति, न क्रियाम || -' ननु करोतीति यद्षे सेयमुक्तव क्रिया' भवति। 'चैत्रः कटं करोतीति चैत्रस्येव' कटस्येव करोत्यर्थस्याप्रत्याख्ययत्वात् . तत्कृतमेव चैत्रादीनां कारकत्वम्-उच्यते-नातीन्द्रियक्रियायोगनिबन्धनः कारकभावः, क्रियाया अतीन्द्रियत्वेन तद्योगकृतकारकत्वानधिगमे व्यवहारविप्रलोपप्रसङ्गान्। क्रियाऽऽवेशकृतं हि तत्कारकत्व मनव'गच्छन्तः कथं फलार्थिनस्तदुपाददीरन् । अनवस्थति। सूक्ष्मायाः क्रियाया अनित्यत्वेन, हेत्वपेक्षंणात् ; हेतावपि अतीन्द्रियसूक्ष्मक्रियाया अंगीकारस्यावश्यकोनानवस्थाप्रसङ्गः। निष्क्रियेति । उपलभ्यमानक्रियाऽतिरिक्तसूक्ष्मक्रियाशून्येत्यधः ॥ क्रियाऽऽवेशमिति। न हि तूष्णों स्थित: चैत्रादिः घटादिनिवर्तको भवति। न हि स्वयं क्रियाशून्यस्य क्रियानिर्वर्तकत्वरूपं कारकत्वं संभवतीत्यर्थः ॥ ननु फलं करोतीति सत्यं, परन्तु करोत्यर्थ: या क्रिया, तमाश्रयत्वं कारकस्यावर्जनीयं खलु, कर्तरि लकारादित्यभिप्रायेण पुनश्शङ्कते-नन्वित्यादि। उक्तैव--अम्मदुक्तैव। चैत्रस्येवेति। एतस्मिन् हि वाक्ये चैत्रपदस्य कटपदस्य च यथा यः कश्चनार्थो वर्तते, तथा करोतिपदस्यापि कश्चनार्थो वर्तत एवेति तादृशक्रियानिर्वर्तकत्वात् कारकत्वमिति सिद्धमेवेति। तत्कृतं-करोत्यर्थभूतक्रियानिवर्तकत्वकृतम। तथा च विषयत्वात् कर्मत्वं यथा, तथा तादृशक्रियाकर्तत्वात् चैत्रोऽपि कर्ता भवति । क्रियाऽऽवेशाभावे निरतिशयत्वेन कर्तृकर्मव्यवहारः कथं स्यादित्याशयः ॥ 1 अक्रियामिव -क. 'क्रियैव-क. चैत्रस्यैव-क. मनधि-क. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] शाततानिराकरणम् मत्पक्षे कारकत्वं हि नास्ति किञ्चिदतीन्द्रियम् । कारकत्वं स्वरूपस्य सहकार्यादिसन्निधिः ॥ ३९ ॥ • तावदेव विनिश्चित्य तदुपादीयतेऽर्थिभिः। तदेवापाददानश्च फलमप्यधिगम्यते ॥ ४०॥ निर्व्यापारस्य सत्त्वस्य को गुणः सहकारिभिः । 'सव्यापारस्य सत्त्वस्य को गुणः सहकारिभिः । ४१ ॥ अथ' व्यापार एवैष सर्वैस्सम्भूय साध्यते । किं फलेनापराद्धं वः तद्धि सम्भूय साध्यताम् ॥ ४२ ॥ भौतिकक्रियैव करोत्यर्थः] यत्तु 'करोत्यर्थस्या प्रत्याख्येयत्वादित्युक्तं-तत्रोच्यते--परि स्पन्द एवं भौतिको व्यापारः करोत्यर्थः। न हि वयं परिस्पन्दात्मकं परिदृश्यमानं व्यापारमपद्महे, प्रतिकारकं विचित्रस्य ज्वलनादे ापारस्य प्रत्यक्षमुपलम्भात् । अतीन्द्रयस्तु व्यापारो नास्तीति घूमहे ॥ . [भौतिकक्रियातिरिक्तकियासद्भावतदभावौ] ननु पाको नाम धात्वर्थः परिदृश्यमान ज्वलनादिव्यापारव्यतिरिक्त 'एषितव्य एव', तमन्तरेण फलनिष्पत्तेरभावात् । ____ सत्त्वस्येति । कारकस्येत्यर्थः ; 'द्रव्यासुव्यवसायेषु सत्वम्। किं सहकारिसान्निध्याहितो व्यापारः कारकेष्वतिरिक्तोऽस्ति ? उत न? आये पूर्व व्यापारस्यासरवे सहकारिभिर्वा किं क्रियेत ? यदि स्वतः सव्यापार:, तदा सहकारिमि: किं कर्तव्यम् । अथ सर्वैस्संभूय व्यापारमात्रं जन्यते, तर्हि • फलमेव जनयन्तु ते, किमन्तर्गडुनाऽतीन्द्रियेण व्यापारेणेत्यर्थः ॥ .. करोत्यर्थ इति । प्रयत्नविषये तु वक्तव्यमनुपदमेवोच्यते। अतीन्द्रियस्तु भूतनिष्ठः चेतन'नष्ठो वा व्यापारस्तु नास्त्येवेत्येतावदन वक्तव्यम् । अतीन्द्रियस्त्विति । ऐन्द्रियिकवस्तुवृत्तिरिति शेषः ॥ - 1 अथ-क. करोत्यर्थस्य-क. ३ परि-क. एषितव्यः-क.. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 प्रमाण परीक्षा न्यायमचरी असति च तस्मिन् किमधिकृत्य कारकाणि संपज्येरन्नित्युक्तम्तदयुक्तम् -यं तमेकं धात्वर्थ साध्यं बुध्यसे, स किं समुदितसकलकारकसम्पाद्यः? एकैककारकनिर्वयों वा? तत्राद्यपक्ष एकैकं भवेत्कारकमक्रियम् । एकैकनिष्क्रियत्वे 'च' साकल्ये ऽपि कुतः क्रिया ॥ ४३॥ . उत्तरस्मिन् पक्षे प्रत्येकमपि पाकक्रियायोगात् कारकान्तरनिरपेक्षादेकस्मात् कारकात फलनिष्पत्तिप्रसङ्गः । न च तथाविध धात्वर्थपुरस्सरः कारकाणां संसर्गः ॥ क्रियानिमित्तसंसर्गवादिनो हि द्वयी गतिः। सत्यां क्रियायां सम्बन्धः? सम्बन्धे सति वा क्रिया ॥ ४४ ॥ 'मेलनात् पूर्व सिद्धायां क्रियायां मेल नेन किम ? तथा च जन्येत फलं विभक्तैरपि कारकैः ॥ ४५ ॥ किमधिकृत्येति । पाकरूपैकक्रियोद्देशेन हि काष्ठादीनां ज्वलनादीति भावः। तत्राद्यपक्ष इत्यादि। पाकादिरूपायाः क्रियाया हि कारकसमुदायसंपाद्यत्वमुक्तम्, एवं तर्हि प्रत्येकं स्यात् । क्रियाशून्यत्वेनाकारकत्वे समुदितैरपि क्रिया न निर्व]त ; न हि शतमप्यन्धाः पन्थानं पश्यन्तीति भावः ॥ उत्तरस्मिन् पक्षे प्रत्येकमेव कारकैः पाकादिनिर्वर्त्यत इति पक्षे । तथाविधेति। काष्ठादिगतज्वलनाद्यतिरिक्त: अतीन्द्रियः पाकादिरूपः इत्यर्थः ॥ पाकादिक्रियानिमित्त एव कारकाणां मेलनमिति पक्षे, किं सिद्धया पाकादिक्रियया कारकाणि संसृज्यन्ते, उत असिद्धया-साध्यया क्रिययेति विकल्प्य दूषयति--क्रियानिमित्तत्यादि । मेलनादिति। आये पक्षे पाकादिक्रियायाः कारकमेलनात्पूर्व सिद्धत्वात् मेलनवैयर्थ्यम् । तथा च निखिलंकारकमेलना त्पूर्वमेव क्रियाया: सिद्धया प्रत्येकं कारकै: क्रियासिद्धिः स्वीकृता भवेत् । 1sपि-क. मील-ख. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 आह्निकम् १] शाततानिराकरणम् 'मेल'नात क्रियासिद्धौ पनरेकैकमक्रियम। नथा सति न काष्ठानि ज्वलेयुः पिठराद्विना ॥४६॥ 'ननु पिठराद्विना काष्ठानि ज्वलन्ति, न तु पचन्ति-मैवम् -सत्यपि पिठरे ज्वलन्त्येव काष्ठानि, नान्यत् कुर्वन्ति दृश्यन्ते । तस्मात् क्रियान्तराभावात फलमेवोररीकृत्य कारकाणि संसृज्यन्ते ॥ [फलमन्यत् , क्रिया चान्या] ननु फलमपि सिद्धं चेत् कः सर्वेषां सिद्धस्वभावानां द्वितीयं विकल्पं प्रत्याह-मेलनात्त्विति । मेलनानन्तरमिति यावत । न ज्वलेयुरिति । तण्डुलसलिलानलस्थाल्यादीनि हि मिलितान्येव क्रियानिर्वर्तकत्वात्कारकाणि भवेयुरिति प्रत्येकं सत्त्वे कारकत्वाभावात् क्रियाशून्यत्वापत्त्या विना तण्डुलादिकं काष्ठं न ज्वलेदित्यर्थः ॥ ननु पाकक्रिया अन्या, अन्या च ज्वलनक्रिया, तथा च प्रत्येक काष्ठादि पाकनिरूपितकारकत्वशून्यमपि, ज्वलननिरूपितकारकत्वविशिष्टत्वात् प्रत्येक ज्वलननिर्वर्तने न काऽप्यनुपपत्तिरिति शङ्कते- नन्विति । मैवमिति ! पाकादिक्रियानिवर्तनकालेऽपि हि काष्ठानां प्रत्येकं सतां यादृशी ज्वलनक्रिया, न ततो विलक्षणा दृश्यत इति अतिरिक्तातीन्द्रियक्रियासिद्धिर्न भवत्येवेति ॥ नन्विति । अयं भावः----कारकैः फलमेव निर्वय॑ते, न क्रियेति । • सिद्धान्तेऽपि सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याघातः समानः-किं सिद्धन फलेन कारकाणां सम्बन्ध: ? उतासिद्धेन ! आये फलस्य सिद्धत्वात् कारकव्यापारवैय्यर्थ्यम् । अन्त्येऽस्मत्पक्षादविशेषः, प्रत्येकं कारकैः फलनिष्पत्त्यभावेन कारकत्वासंभवात् । अतः उभयोः समानोऽयं दोष इति चेत्-- सत्यं-परन्तु दोषस्य समानत्वेऽप्यतिरिक्तातीन्द्रियक्रियाङ्गीकरण किमर्थमिति वक्तव्यम् ? यदि च तादृशक्रियाङ्गीकारे सर्वोऽपि दोषः सुपरिहरः स्यात्, अङ्गीकुर्मस्तदा तादृशीं क्रियाम् । 'भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो व्याधिः' इति न्यायेन तदङ्गीकारेऽपि दोषसाम्ये फलशून्यं तत् परित्यज्यताम् , क्लुप्तेनैव यथा निर्वाहो भवेत् तथा उपाय उभावप्यावामन्विष्यावः । कोऽयमुपाय इति चेत् ? प्रत्येकस्य समुदायानति 1 मिल-ख. काष्ठानि-ख. NYAYAMANJARI Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपरीक्षा न्यायमचरी सम्बन्धः? फलं सिद्धं, कारकाणि सिद्धानीति सम्बन्धाभावः । साध्यं चेत् फलं, सैव क्रिया परिस्पन्दव्यतिरिक्तति-मैवं वाचःफलस्य क्रियात्वानुपपत्तः। ओदनं हि फलं', न क्रिया; क्रियानानि तु क्रियमाणे न विवदामहे : [पचतीत्यादौ पाकशब्दार्थ:] ननु पाक इदानीं कः? न च पचेर्वाच्यशून्यतैव युक्तांउच्यते - समुदितदेवरत्तादिसकलकारकनिकरपरिस्पन्द एव विशिष्टफलावच्छिन्नः पाक इत्युच्यते : स एव हि पचेरर्थः । ता एव काष्ठपिठगदिक्रिया ज्वलनभरणादिस्वभावाः पृथक्तया. व्यवस्थित: 'तथात्वेनैवावभासन्ते; समुदितास्तु सत्यः फलान्तगवच्छेदात् रूपान्तरेण पाका दना परिस्फुरन्ति, व्यपदिश्यन्ते च। तथा च देवदतः पचतीतिवत् काष्ठानि पचन्ति, स्थाली रेकेण समुदायेन फलनिर्वर्तने प्रत्येकमपि तत् कारकं भवेदेवेति । अतिरिक्ता तु क्रिया न सिद्धा। यदि सिन्दा स्यात् तदा कथंचिन्निर्वाहो वाच्यः। “तद्धेतो. रेव तद्धेतुत्वे मध्ये किं तेन ?” इति न्यायेन कारकैः फलनिर्वतनमित्यंगीकार एव युक्तः, न तु मध्ये अतिरिक्ताया अतीन्द्रियायाश्च क्रियायाः सिद्धौ प्रमाण पश्याम इति । ननु कारकैः साध्यं तु किञ्चिदुभयसम्मतम् । तत् फलमिति भवन्तो ब्रुवते, क्रियेति तु वयम् । अत: कुतोऽस्मासु प्रद्वेषः इति चेत्, नैवं सति वयं विवदामहे । कारकस्य फलस्य च मध्येऽप्रामाणिकी अतिरिक्तां तु क्रियां नानुमन्यामह इति । सम्बन्धाभाव इति। सिद्धानि वस्तूनि निराकांक्षाणि। साध्यानां हि सिद्धकारकापेक्षेत्यर्थः ।।। इदानी-ज्वलनाद्यपेक्षयाऽतिरिक्तक्रियाया अनङ्गीकारे। पाकः क इति। पाकशब्दार्थ: क इत्यर्थः । पचेः-पचधातोः। विशिष्टफलावच्छिन्नःविक्लप्सयादिरूपविलक्षणफलोदृश्यकः । ननु यदि पचधातोरतिरिक्तोऽर्थो न स्यात् तदा देवदत्तः पचतीति पाकस्य देवदत्तक्रियात्वेन व्यवहारः कथम् ? काष्ठादि क्रियात्वं पाकस्य कुतो न स्यादिति शङ्कायां उभयोस्तौल्यमेवाङ्गीकरोति-- तथा चेति। ननु देवदत्त: कारैः स्थाल्यां तण्डुलं पचति इति प्रयोगात् न फल-क. ' तथैवा-क. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] ज्ञाततानिराकरणम् पचतीति व्यपदेशो दृश्यते। देवदत्तस्यापि दीविघट्टनादिरेव परिदृश्यमानस्तत्र 'व्यापारः, न ततोऽन्यः सूक्ष्मः ॥ आत्मनो न क्रिया] 'ननु देवदत्तादेौतिको व्यापारः आत्म'व्यापारपूर्वको भवितुमर्हति नैतदेवम्-न ह्यात्मनो व्यापारः कश्चिदस्ति । इच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्नवशादेव स भौतिकव्यापारकरणतां प्रतिपद्यते ॥ तस्मात् कारकचक्रेण चलता जन्यते फलम् । न पुनश्चलनादन्यो व्यापार उपलभ्यते ॥ ४७ ॥ चलन्तो देवदत्ताद्याः तदनन्तरमोदनः । एतावद्देश्यते त्वत्र न त्वन्या काचन क्रिया ॥४८॥ ~~..i mar. काष्ठादीनां करणत्वादिक सर्वसम्मतम्, विवक्षाभेदेन तु काष्टानि पचन्तीत्यादि प्रयोग इति पूर्वमेवोक्तम् । अत एव विविच्य प्रश्ने काष्ठानि ज्वलन्ति, न तु पचन्ती स्येवोच्यते, न तु कदाऽपि देवदत्त: न पचतीत्याशंकायामाह-देवदत्तस्यापीति। अयं भावः-देवदत्तः पचतीत्युक्ते देवदत्तो वा किं करोति ? दर्वी विघट्टयति, काष्ठानि चालयति, अग्निं ज्वालयति ; न त्वेभ्यो विलक्षणं पाकाख्यं किञ्चित्कर्म करोति। 'स्वतन्त्रः कर्ता' इतरकारकाणां कधीनत्वेन कर्तुः प्राधान्यात् देवदत्तनिष्ठत्वेन पाकस्य व्यवहारः। अत एव यत्र कर्तवैशिष्टयं विना सामग्रीवैशिष्ट्यादेव फलनिष्पत्ति:, तादृशस्थले करणादीनामपि प्राधान्यविवक्षया काष्ठानि पचन्ति, असिः छिनत्ति, चक्षु: पश्यति इत्यादिव्यवहारः। अतश्च पाकादिर्नातिरिक्ता सुक्ष्मा क्रियेति ॥ भौतिकः-शारीरकः। अचेतनव्यापारस्य चेतनव्यापारपूर्वकत्वात् मात्मव्यतिरिक्तोऽतीन्द्रियो व्यापारः सिद्ध एवेत्यर्थः । न हीति। विभोरात्मनः परिस्पन्दलक्षणक्रियाया असंभवादिति शेषः। सः-आत्मा। चलनं क्रिया ॥ 1 न्यापारः-ख. - लभ्यते-क. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 प्रमाणपरीक्षा न्यायमञ्जरी भावनाऽपि न पुरुषव्यापारः एतेन भावनाख्यः कगेत्यर्थः पुरुषव्यापारो वाक्यार्थ इति योऽभ्युपगतः सोऽपि प्रत्युक्तो वेदितव्यः ! न हि पुरुषव्यापारः कश्चिदुपलभ्यते। विशिष्टगुणसमवाय एवास्य कर्तृत्वम् । न च झानादयो गुणा एव व्यापार संज्ञावाच्याः, सिद्धस्वभावत्वात् । [ज्ञानं न क्रियारूपम् ननु क्रियावचनो धातुरिति जानातेरपि क्रियैव वाच्या स्यात्। सा च क्रिया ज्ञानात्मा पुरुषव्यापारः - नायं नियमः क्रियावचनो . धातुरिति । 'गडि वदनैकदेशे' इत्यपि दर्शनात् ।। ___ अपि च 'घटमहं जानामि' इत्यत्र भवतः किं प्रति भासते। घटमिति तावद्विषयः', अहमित्यात्मा; जानामीति तु चिन्त्यंक्रिमत्र प्रकाशन इति । न व्यापारः, परोझत्वात् । फलं यद्यत्रं प्रकाशत'-- तदेव तर्हि धातुवाच्यमभ्युपगतं भवति । तस्मान्न क्रियात्मकं ज्ञानम्॥ एतेन - अतीन्द्रियपुरुषव्यापारनिराकरणेन । अभ्युपगतः-भाट्टैरिति शंषः। पचतीत्यस्य खलु पाकं करोतीति विवरणम्। तेन आख्यातं करोतिसमानार्थकमुक्तम् । पाख्यानस्य च अर्थभावनाख्यः पुरुषव्यापारोऽर्थः। स च न प्रयनपदवाच्यः गुणः, किन्तु क्रिया इति तेषां मतम्। विशिष्टगुणसमवाय एवेति । 'प्रयते' इत्यनुन्यवसानियामकाकारविशेषविशिष्टप्रयत्नाख्यगुणवत्त्वमेव पुरुषम्य कर्तृत्वम् । प्रयत्नश्च न क्रियारूपः, किन्तु गुण इति न पुरुषव्यापारः अतिरिक्तः सिध्यतीति । सिद्धस्वभावत्वादिति। क्रिया हि साध्यस्वरूपा। ज्ञानादयस्तु घटादिवत् सिद्धपदार्थस्वरूपाः । अतः यत्नः न क्रिया, किन्तु गुण एव ॥ गडि वदनैकदेश इति। यद्यपि बदनैकदेशक्रियेव धात्वर्थ इत्युक्तं वैयाकरणैः; अथापि 'भू सत्तायां', 'अस भुवि' इत्यादौ सत्तादीनां सिद्धस्वरूपाणां धात्वर्थतायाः अवश्यवक्तव्यत्वेन प्रकृतेऽपि तथैवास्त्वित्याशयः ॥ क्रियाया एव धात्वर्थत्वमित्यत्र बाधकमप्याह-अपि चेत्यादि । परोक्षत्वादिति । भवत इति वर्तते ॥ प्रत्य-ख. 'घटमिति विषयः-क. प्रकाश्यते-क. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 आह्निकम् १] शाततानिराकरणम् यदि च क्रियात्मकं ज्ञानमभविष्यत , न भाष्यकारः क्रियातः पृथगेनं 'निरदेक्ष्यत'; निर्दिशति च 'बुद्धिकर्मणी अपि हि प्रत्यमिशायेते, ते अपि नित्ये प्रामुतः ' इति तस्मात् अन्यत् ज्ञानं, अन्या च क्रियेति न क्रियास्वभावत्वान्नित्यं परोक्षं ज्ञानम् ॥ [नित्यपरोक्षस्य ज्ञानस्यानुमेयत्वमपि न संभवति] यदि च नित्य परोक्षो 'ज्ञात'व्यापारः, स तर्हि प्रतिबन्धा. ग्रहणादनुमातुमपि न शक्यः। क्रियाविशिष्टबाह्यकारकसिद्धान्तस्य निरस्तत्वात् ॥ आत्माद्यनुमाने का वार्ता? इति चेत्-न तत्र सामान्यतो व्याप्तिग्रहणस्य संभवादिति वक्ष्यामः । इह तु बाह्यकारकेष्वपि न तत्पूर्वकं फलं दृष्टमित्युक्तम् ॥ न चार्थापत्तिरपि ज्ञातृव्यापारकल्पनायव प्रभवति ; इन्द्रियार्थसन्निकर्षवशादेवार्थदृष्ताया घटमानत्वात् ॥ प्राकट्यस्वरूपपरिशीलनम् • का चेयमर्थस्य दृष्ता नाम ? किं दर्शनकर्मता? किंवा प्रकाशस्वभावतेति ? तत्र दर्शनस्य परोक्षत्वात् कथं तत्कर्मता-- अर्थस्य दृष्टता गृह्येत। विशेषणाग्रहणे विशिष्टप्रतीतेरनुत्पादात् । अर्थप्रकाशतायास्तु सर्वान् प्रत्यविशेषात् सर्वे मर्वज्ञाः स्युः ॥ __ प्रतिबन्धाग्रहणादिति। न्याप्तिग्रहणासंभवादिति यावत्। ननु कुतोऽसंभवः, विशेषतो दृष्टस्यानुमानस्याभावेऽपि सामान्यतोदृष्टानुमानस्य संभवादित्यत्राह-क्रियेगि। ज्वलनभरणाद्यतिरिक्तायाः पाकादिकियाया निरस्तत्वात् तदृष्टान्तेन सामान्यतोदृष्टानुमानेनापि न साधनसम्भव इति भावः । . वक्ष्यामः-सप्तमाह्निक इति शे३ः। तत्पूर्वकम्-अतीन्द्रियक्रियापूर्वकम् ॥ यञ्चोक्त–'नान्यथा ह्यर्थसद्भावः' इत्यादि । तत्राह-न चेति ॥ विशेषणाग्रहणे विशेषणस्य-दर्शनस्य मतीन्द्रियत्वेन अग्रहणे । सर्वान् प्रत्यविशेषादिति । नीलादयो यर्थधर्माः सर्वसमानाः, न हि निरदेक्ष्यत्-क. नित्यपरोक्ष-ख. मर्थ-ख. दृष्टस्वात्-ख. नित्यो-क. बान-ख, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 प्रमाणपरीक्षा न्यायमञ्जरी - न स्युः, सम्बन्धितयोत्पादादिति चेत् - अकारणमेतत्'अर्थस्यैव हि' प्रकाशत्वमतिशयः दीपादेरिव', न पुरुषनियमेन व्यवतिष्ठते ॥ न च द्वित्वादिना साम्यं तस्मिन् नियमदर्शनात् । प्रकाश तु न दीपादौ सम्बन्ध नियमः क्वचित् ॥ ४९ ॥ यदपेक्षा धिया जातं 'द्वित्वं तस्यैव तद्हः। संवेदनमपि प्राज्ञैः कस्यातिशय उच्यते ॥ ५० ॥ 'ज्ञातुश्चदन्तराऽन्येन व्यापारेणास्य को गुणः । ननु नैव क्रियाशून्यं कारकं फलसिद्धये ॥५१॥ उक्तमत्र क्रिया ह्यषा यथादर्शन मिष्यताम्। ज्ञानं संवेदनं 'चेति' विद्मः पर्यायशब्दताम् । ५२ ॥ . संवेदनं तु ज्ञानस्य फलत्वेन न मन्महे। अर्थातिशयपक्षे च सर्वसर्वज्ञता पुनः ॥ ५३ ॥ नीलो घट: कंचित्प्रति नीलः, अन्यं प्रत्यनीलो भवेत् ; तद्वत् प्रकाशस्याप्यर्थधर्मत्वे सर्वान् प्रत्यविशेषप्रसंगेन सर्वे सर्वज्ञाः स्युः ॥ सर्वसर्वज्ञतापत्तिं परिजिहीर्षति-न स्युरिति। सम्बन्धितयोत्पादादिति । प्रकाशस्य सप्रतियोगिकपदार्थत्वात्, प्रकाशते इत्युक्ते के प्रति, कि प्रकाशते इति सम्बन्धाकाङ्क्षाया नियतत्वेन सर्वान् प्रति नाविशेषप्रसङ्गः। यथा खलु पदार्थधर्मोऽपि द्वित्वादिः न सधैर्गृह्यते तथेत्यर्थः । न व्यवतिष्ठत इति। न हि दीप: एकं प्रति प्रकाशते, तदैवान्यं प्रति न प्रकाशत इत्यर्थः । द्वित्वादिसाम्यं प्रकाशस्य परिहरति-न चेत्यादि। अयं भावःद्वित्वादिकं तु अपेक्षाबुद्धिजन्यं वयमिच्छामः। अतस्तेषां पदार्थधर्मत्वेऽपि प्रकाशरूपत्वाभावात् न सर्वसाधारण्यम् । प्रकाशाख्यस्तु धर्म: यदि वस्तुनः स्यात् स कथमन्यस्याप्रकाशरूपः स्यात् इति ॥ ___ केचित्तु प्रकाशस्थाने संवेदनाख्यमङ्गीकुर्वन्ति। तमपि पक्षं पूर्ववदेव विकल्प्य दूषयति : संवेदनमपीति । अन्तराऽन्ये नेति। पुरुषसंवेदनयोर्मध्ये ज्ञानाख्यातिरिक्तव्यापारेण किं प्रयोजनमित्यर्थ. ॥ __अर्थस्यैव-क. दीपादिरिव-क. 3 सम्बन्धि-क. धिया ज्ञातं-कः धियो जातं-ख. 5 द्वित्वमस्यैव-क.. ज्ञातुश्चदन्तर-क. 'वेति-ख. तु-ख. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम् १] शाततानिराकरणम् 55 भट्टपक्षात् विशेषश्च न कश्चित् कथितो भवेत् । नोभयातिशयोऽप्येषः दोषद्वितयसम्भवात् ॥ ५४ ॥ संवेदनं च तत् केन ग्राह्य ज्ञानानुमापकम् । अनवस्था भवेदस्य ज्ञाने संवेदनान्तरात् ॥ ५५ ॥ स्वसंवेद्या च संवित्तिः उपरिष्टान्निषत्स्यते । स्मृतिप्रमोष'वादे च' रजतस्मरणात्मिका ॥ ५६ ॥ कथं ते फलसंवित्तिः स्वप्रकाशा भविष्यति । नाभाति स्मृतिरूपेण न चाप्यनुभवात्मना ॥ ५७॥ न तृतीयः प्रकागेऽस्ति तत् कथं सा प्रकाशताम् । न च क्वचिदनाकारा संविनिरनुभूयते ॥ ५॥ इयं संविदयं चार्थ इति 'नास्ति हि मेदधी। अर्थाकारानुरक्ता तु यदि संवित् प्रकाशते ॥ ५९॥ भट्टपक्षादिति। संवेदनस्यार्थगतातिशयरूपत्वात् भासम्मत. प्राकटयस्थाने संवेदनं मूर्धाभिषिक्त नान्यो विशेष इत्यर्थः । उभयं-ज्ञाता, विषयश्च । - दूषणान्तरमाह -संवेदन मिति । ज्ञानानुमापकं तञ्च संवेदनं केन ग्राह्य इत्यन्वयः। यदि न केनापि, तर्हि लिङ्गज्ञानाभावान्नानुमानोदयः। यद्यन्येन, तीनवस्था । यदि च स्वप्रकाशं, तत्तृत्तरत्र दूष्यते इति दूषणाशयः । उपरिष्टात्-विज्ञानाद्वैतनिरासावसरे प्रामाण्यस्वतस्त्वनिराकरणावसरे च । ज्ञानानां स्वप्रकाशत्वे बाधकमप्याह - स्मृतीति । भ्रमस्थले अख्यातिवादिनस्ते एवं वदन्ति-शुक्तिप्रत्यक्षं रजतस्मरणं चेति ज्ञानद्वयरूपमेव इदं रजतमिति ज्ञापम् । तत्र रजतस्मरणं न स्मृतित्वेन गृह्यते इत्यख्यातिरुपपद्यत इति । एतस्मन् वादे स्मृतित्वस्याग्रहणं कथम् ? ज्ञानं खलु स्वप्रकाशम् । यदि च ज्ञारग्रहणेऽपि तद्गतं स्मृतित्वं न गृहीतं, तर्हि प्रामाण्यमपि तथेनि युक्तम् । ननु स्मृतत्वाकाराग्रहणेऽपि स स्वप्रकाशा भवत्येवेति चेत्--न--निर्धर्मकस्य ज्ञानस्य भागसंभवात् । स्मृतित्वं न गृहीतं, अनुभवत्वमपि न गृहीतं, तई केनकारेण तज्ज्ञानं भासते? यदि ज्ञानत्वमात्रेण, तदा प्रामाण्यमपि न भारत। किञ्च ज्ञानस्य सामान्यतो भानं तु न संभवति । निराकारज्ञानभानासंभवात् । विषयोपरागे च तदधीनं स्मृतित्वप्रत्यक्षत्वादिकमपि भासेत॥ ननु विषयोपरागातिरिक्तः ज्ञानाकार एव नास्ति। अतो विषयाकारेणैव वादेऽपि-क. नास्ति च-क. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 प्रमाणपरीक्षा [न्यायमजरी बाह्यार्थनिरस्ता त्वया सौगतवत् कृतः। स्वप्रकाशमते युक्तं न फलं संविदात्मकम् । तस्मात् फलानुमेयस्य व्यापारस्य न मानता ॥ ६० ॥ [गृहीतग्रहणेऽपि प्रामाण्यं वर्तत एव] यदपि प्रमाणविशेषणमनधिगतःर्थग्राहित्वमभिधीयते परैःतदपि न सांप्रतम् -प्रमाणस्य गृहीततदिनरविषयप्रवृत्तस्य प्रामाण्ये. विशेषाभावात् ॥ ननु 'गृहीत'विषये प्रवृत्तं 'प्रमाणं किं कुर्यात् ? अगृहीतेऽपि किं कुर्यात् ' ? 'प्रमामिति चेत्; गृहीतेऽपि तामेव 'विधत्ताम् । कृतायां करणायोगादिति चेत्-न -प्रमान्तर कर णात्। प्रमान्तरकरणे किं फलमिति चेत्-प्रमान्तर करणमेव फलम नच फलस्य फलं मृग्यम । न च प्रयोजनानुवर्ति प्रमाणं भवति। . ज्ञानस्यापि भानम्। अतश्च न स्मृतित्वभानापादनप्रसक्तिरिति चेत् सौगतसन्दर्शितोऽयं पन्थाः न वैदिकादरणमर्हति। अर्थाकारातिरिक्त; ज्ञानाकारो यतः नोपलभ्यते, अत: ज्ञानाकारार्थाकारयोरैक्यं सिद्धयेत् । तेन च मिथुपादप्रसरणन्यायेन सर्वसंप्रतिपन्नज्ञानाकारेणैव निर्वाहे अर्थाकारः कल्पितोऽप्युपपद्यत इति बाह्यार्थनिह्नव एव तदुक्तदिशा सिद्धयेत्। मत: अर्थाकारातिरिक्तः स्मृतित्वाद्याकार: एषितव्य एव । ज्ञानानां स्वप्रकाशत्वे च स्मृतित्वस्यापि ग्रहणावश्यंभावेन अख्याति(स्मृतिप्रमोष)वाद एव नवतिष्ठेतेति ज्ञानानां न स्वप्रकाशत्वं युक्तम् । न युक्तं च संवेदनप्राकट्याउनु मेयस्य ज्ञानस्य क्रियात्मकतेति ॥ परैः भाट्टैः। तथोक्तम्-'तस्मात् दृढं यदुत्पन्नं न च संवादमृच्छते। ज्ञानान्तरेण विज्ञानं तत्प्रमाणं प्रतीयताम् ' ॥ (श्लो. वा. 1-1-2 श्लो. 10) इति । तदितरेति । अगृहीतेत्यर्थः । नन्वस्ति विशेष. प्रयोजनतदभावरूप इति शङ्कते- नन्विति । नच प्रयोजनानुवर्ति प्रमाणमिति । तथा च न पर्यनुयोगावकाश इत्यर्थः । गृहीते-क. प्रवृत्तं प्रमाण-ख. कुर्यात्-ख. प्रमाणमिति क. विदधातुम् -ख. प्रमाणान्तर-क, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] प्रमाणे अगृहीतार्थमात्रविषयतानिरास: 57 'कस्य चैष' पर्यनुयोगः ? न प्रमाणस्य, अचेतनत्वात् । पुंसस्तु सन्निहिते विषये करणे च संभवन्ति ज्ञानानीति सोऽपि क्रिमनुयोज्यताम् ! किमक्षिणी निमील्य नास्से, कस्मात् दृष्टं विषयं पश्यसीति ? प्रमाणस्य तु न किञ्चिद्वाधं पश्यामः, येन तदप्रमाणमिति व्यवस्थापयामः। न च सर्वात्मना वैफल्यं, हेये अहिकण्टकवृकमकरविषधरादौ विषये पुनःपुनरुपलभ्यमाने मनस्सन्तापात् सत्वरं तदपहानाय प्रवृत्तिः; उपादेये'ऽपि' चन्दनधनसारहारमहिलादौ परिदृश्यमाने प्रीत्यतिशयः स्वसंवेद्य एव भवति ॥ धारावाहिविज्ञानानि समानविषयाण्येव यञ्चेदमुच्यते यत्रापि स्यात् परिच्छेदः प्रमाणैरुत्तरैः पुनः । • . नूनं तत्रापि पूर्वेण सोऽर्थो नावधृतस्तथा ॥ (श्लो. वा. 1-1-2. श्लो. 74) इति तदपि न हृदयङ्गमम् । यतःwww.rr प्रश्नानवसरमेवोपपादयति-कस्य चेति । किमक्षिणी निमील्य.... पश्यसीति अनुयोज्यतां किम् ? इत्यन्वयः। बाधः-नेदं रजतमित्यादिवदुत्तरकालिकः । एतदुक्तं भवति -ज्ञानं न पुरुषतन्त्रम्, अपि तु करणतन्त्रम् । तथा च दृष्टेऽप्यर्थे चक्षुः पुनः ज्ञानमुत्पादयत्येव । तस्य च बाधाद्यदर्शनात नाप्रामाण्यं वक्तुं शक्यम् । अन्यथा धारावाहिविज्ञानस्य प्रामाण्यं न स्यात् इति। अधिकमन्यत्र ॥ गृहीतग्राहिणोऽपि प्रयोजनमुपपादयति-न चेत्यादिना। 'जन्ममृत्युजरान्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्' इत्यादिना दोषानुदर्शनस्य वैराग्यहेतुत्वं भगवतोकम् । परिदृश्यमान इति। पुनःपुनरिति भावर्तते । तथा चोक्त भगवता-- 'ध्यायतो विषयान् पुंप: सङ्गस्तेषूपजायते' इति । स्वसंवेद्यः-- भात्मसाक्षिकः ॥ ____ यत्रापीति। यस्मिन् विषये उत्तरैः प्रमाणैः पुन: परिच्छेदःविषयीकरणं स्याश्चेत् , तत्रापि पूर्वेण ज्ञानेन तथा-अन्तत: तत्कालवृत्तित्वादिना वा नूनं नावहतः। उत्तरज्ञानविषयः कालादिः पूर्वज्ञाने न विषयो भवतीत्यनवगतार्थगन्तृत्वं धारावाहिज्ञानस्य वर्तत एवेत्याशयः ॥ 'कस्यैष-क. सन्निहिते-ख. कित्रिदृश्य-क. हि-क. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपरीक्षा [न्यायमचरी नैवाधिकपरिच्छेदः प्रमाणैरुत्तर वम् । धारावाहिकबोधेषु कोऽधिकोऽर्थः प्रकाशते ॥ ६१ ॥ . न हि स्वहस्ते शतकृत्वोऽपि 'परिदृश्यमाने केचन विशेषाः परिस्फुरन्ति ॥ ननु गृहीतेऽपि विषये प्रवर्तमान प्रमाणं कदा विरमेत् ? न हि तस्य विरतो "कश्चिदवधिमधिगच्छामः। प्रमो. त्पादस्त्ववधिरनेन लजित एव-उच्यते--विषयान्तरसम्पर्काता श्रमाद्वा' उपायसञ्जयाद्वा विरामो भविष्यति ॥ अनवस्थापि चेयं न मूलघातिनी। न हात्तरोत्तरविज्ञानोपजननं विना प्रथमज्ञानोत्पादो विहन्यते ॥ मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणम् । मूलसिद्धौ त्वरुच्याऽपि नानवस्था निवार्यते ॥ ६२॥ यदि चानुपलब्धार्थग्राहि मानमुपेयते । तदयं प्रत्यानिज्ञायाः स्पष्ट एव जलांजलिः॥१३॥ नैवेत्यादि। कालस्यातीन्द्रियत्वस्य साधयिष्यमाणत्वात् तत्तत्कालादिविषयत्वेन भेदोपपादनं न संभवत्येव । केचनेति अपूर्वा इति शेषः । लखित एवेति । एकदा प्रमोत्पादनेनैव करणानि हि चरितार्थानि । पुनःपुनरुत्पादने तु अवसानमेव न स्यादिति भावः ॥ । ननु एतावत्पर्यन्तं प्रमाऽनुवर्तत इति यदि न नियमः, कथं तर्हि व्यवस्था इति शङ्कायां एतादृश व्यवस्थाभावो न दोषायेति समाधत्तेअनवस्थापीति । उपजननं विना-उपजननाभावे। उत्पन्नं हि ज्ञानमुत्पन्नमेव, न तस्योत्तरत्रानुवृत्त्याऽननुवृत्त्या वा विघातसंभवः। यावत्कारणमनुवर्तताम् , का हानिरिति भावः। न हीति । योग्यविभुविशेषगुणा हि स्वानन्तरोत्पन्नविशेषगुणनाश्या इत्यर्थः ॥ जलाअलिरिति । तत्तांशे गृहीतग्राहित्वात् इति भावः। तथा च क्षणभङ्ग एव सिद्धयेदित्याशयः। विशिष्टवेषेणानधिगतार्थविषयकत्वमपि न-ख. तस्य-क. किश्चि-ख. दृश्यमाने-ख. 5 प्रमादादा-ख, न-क Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे अगृहीतार्थमात्र वेषयतानिरासः दानीन्तनास्तित्वप्रमेयाधिक्यलिप्सया । तस्याः प्रमाणतामाह सोऽपि वञ्चयतीव नः ॥ ६४ ॥ 'आविनाशक' सद्भावात् अस्तित्वं पूर्वया धिया । स्पष्टमेव, तथा चाह चिरस्थायीति गृह्यते ॥ ६५ ॥ तस्मादनुपलब्धार्थग्राहित्वे त्यज्यतां ग्रहः । आह्निकम् [१] [स्मृतेः प्रामाण्यवारणम् ] नन्वेतस्मिन् परित्यक्ते प्रामाण्यं स्यात् स्मृतेरपि ॥ ६६ ॥ न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृनम् । अपि त्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम् ॥ ६७ ॥ [स्मृतेरनर्थजत्वोपपादनम् ] ननु कथमनर्थजा स्मृतिः ? तदारूढस्य वस्तुनः तदानीमसत्त्वात । कथं तर्हि भूतवृष्यनुमानं नानर्थजम्; तत्र धर्मिणोऽनुमेयत्वात् तस्य च ज्ञानजनकस्य तत्र भावात् । नद्याख्य एव धर्मी वृष्टिमदुपरितन देशसंसर्गलक्षणेन धर्मेण तद्वाननुमीयते विशिष्टसलिलपूरयोगित्वात् । स चानुमानग्राह्यो धर्मी विद्यत एवेति नानर्थजमनुमानम् ॥ " 59 नोपपादयितुं शक्यमित्याह यश्चेति । आहेति । लोक इति शेषः । इतिः मिवक्रमः ॥ एतस्मिन् - अनधिगतार्थगन्तृत्वरूपे विशेषणे । समाधत्ते नेति ॥ अपवरकनिहितं घटं स्मृत्वा प्रवर्तमानस्यार्थलाभात् कथमनर्थजत्वं स्मृतेरित्याशङ्कते । नवति । समाधत्ते - तदारूढस्येति । स्मृतौ विषयीभूतस्येत्यर्थः । तदानीं स्मरणकाले । तद्वान् -धर्मवान् - वृष्टि - मदुपरितनदेश संसर्गवान् इति यावत् । इयं नदी वृष्टिमदुपरितन देश संसर्गवती, कलुषात्यन्त वेगवत्परिपूर्ण प्रवाहवत्त्वात् — इत्यनुमानाकारो बोध्यः ॥ 1 अविनाशक- क. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपरीक्षा न्यायमचरी प्रातिभं ज्ञानं अर्थजन्यमेव कथं तर्हि प्रातिभं अनागतार्थग्राहि 'श्वो मे भ्राताऽऽगन्ता' इति प्रत्यक्षमर्थजमिष्यते भवद्भिः ? तत्र देशान्तरे वर्तमानस्य भ्रातुः श्वोभाव्यागमनविशेषि'तस्यैव तथैव ग्रहणम् ; तेन च रूपेण गृह्यमाणस्य सतस्तस्य ज्ञानजनकत्वमिति अर्थजमेव प्रातिभम् । स्मरणं तु निर्दग्धपित्रादि वषयमनपेक्षितार्थमेव जायमानं दृष्टमिति 'अन्यत्र देशान्तरस्थितार्थस्मरणे तदर्थसत्त्वमकारणमेव ॥ तस्मादनर्थजत्वेन स्मृतिप्रामाण्यवारणात् । अगृहीतार्थगन्तृत्वं न प्रमाणविशेषणम् ॥ ६८॥ समानतन्त्रोक्तत्वात्-भवद्भिरिति । तथा च काणादं सूत्रम्- 'आप सिद्धदर्शनं च वेदेभ्यः' (1-2) इति । अत्र भाष्यम् - 'आम्नायविधातृणामृषीणां अतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु ...धर्मविशेषवशाद्यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यत तत् आर्षमित्याचक्षते। तत्त प्रस्तारेण (बाहुल्येन) देवर्षीणाम् । कदाचिदेव लौकिकानाम्- यथा “कन्यका ब्रवीति ‘श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयति' इति " इति। प्रातिभं च ज्ञानं 'प्रणिधानलिङ्गादिज्ञानाना....' (न्या. सू. 3-2-33) इति सूत्रभाष्यदर्शनेन नैय्यायिकानामपि सम्मतमेव ॥ तथैव ग्रहणमिति। श्वोभाब्यागमनविशिष्टत्वेनैव देवदत्तस्य ग्रहणात् अर्थजमेव तज्ज्ञानमिति। नन्वेवं स्मृतेरपि अतीतकालादिविशिष्टघटादिरेव विषय इति तस्याः कथमनर्थजत्वमिति शङ्कायामाह-स्मरणन्त्विति। तथा च विशिष्टस्यैवानुमानम् ; तत्र च धर्मिणः तदानीमपि सत्त्वात् नानर्थजं तत् । स्मृतिस्थले तु धर्म्यपि न तदानीमस्तीति अस्ति महान् भेद इति भावः । ननु प्रत्यक्षमप्यसदर्थविषयकं दृश्यत एव शुक्तौ इदं रजतमित्यादि । अतः क्वचित् अर्थजन्यत्वाभावमात्रेण सर्वत्राप्रामाण्यसाधने प्रत्यक्षादीनामपि भप्रामाण्यं स्यात् । निर्दग्धपितृस्मरणेऽपि पिता भूतकालवृत्तित्वेनैव स्मर्यते। तत्काले च पिता आसीदेव । अतः कथं स्मृतेरनर्थजत्वं तदानीं पित्रभावमात्रेण इति शङ्कायामाह--अन्यत्रेति । भयं भाव:---शुक्तिरजतादिभ्रमाणामपि 'प:-ख. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम १] धर्मकीय॑मिमतप्रमाणलक्षणशोधनम् 61 [भनधिगतार्थगन्तृत्वं प्रामाण्यस्वरूपं न जैमिनिसम्मतम् ] शब्दस्यानुपलब्धेऽथै प्रामाण्यं चाह जैमिनिः । सर्वप्रमाणविषयं भवद्भिर्वर्ण्य'ते' कथम् ॥ १९ ॥ [धर्मकीर्युक्तप्रमाणसामान्यलक्षणपरिष्करणम् ] . अपरे पुनः- अविसंवादकत्वं प्रमाणसामान्यलक्षणमाचक्षते। तदुक्तम्--प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्' इति ॥ __ अविसंवादकत्वं च प्रापकत्वमुच्यते । ज्ञानस्य प्रापकत्वं-- सुखदुःखसाधनसमर्थपदार्थप्राप्तिपरिहार हेतुभूतायाः' प्रवृत्तर्निमि'त्त प्रदर्शकत्वमेव ; ज्ञानप्रदर्शिते हि विषये प्रवृत्ती सत्यां प्राप्ति अर्थजत्वं ग्रन्थकृतैवोत्तरत्र निरूप्यते। अतो न तत्तौल्यं स्मृतेः। भत्रेदमवधेयम्-- पूर्वानुभवमन्तरा स्मृति: कदापि न जायत इति संप्रतिपनं सर्वेषाम् । मतः परमुखनिरीक्षणान स्मृतः प्रमात्वम् । यद्यप्यनुमानादीनामपि पूर्वानुभवापेक्षाऽस्त्येव ; अथापि अपूर्वाधविषयकत्वात् न स्मृतितौल्यम्। एवं तर्हि अपूर्वार्थविषयकत्वमेव प्रमात्वमित्यङ्गीक्रियतामिति तु न युक्तम्---धारावाहिविज्ञानानामप्रमात्वप्रसङ्गात् । वस्तुतस्तु प्रमाणलक्षणे 'अर्थोपलब्धि विदधती' इति विशेषणदानेनैव स्मृतिहेतो: प्रमाणत्वव्यावृत्तिः। अत एव प्रमालक्षणेऽप्यनुभवपदनिवेशः। अतश्च स्मृतेरनुभवत्वाभावादेव न प्रमात्वम् । किं बहुना ! शाब्दज्ञानस्य सम्बन्धग्रहणपूर्वकत्वेन सम्बन्धग्रहणकाले प्रतिभाताना.मेव शाब्दबोधे भानात् अनधिगतार्थगन्तृत्वं शाब्दबोधादौ दुरुपपादमेव ॥ : ननु ‘अर्थेऽनुपलब्धे तत्प्रमाणम्' इति जैमिनिभिः सूत्रणात् अनवगतार्थगन्तृत्वमेव प्रामाण्यं जैमिनिसम्मतमित्याशङ्कां वारयति-शब्दस्येति । वेदाख्यस्य शब्दप्रमाणस्य हि प्रामाण्यं तादृशं युक्तमेव, तत्तु न सर्वप्रमाणानुगतम् । शब्दसूत्र एव श्रवणादिति भावः ॥ . धर्मकीर्तिना प्रमाणवार्तिके 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् ; अर्थक्रियास्थितिः । अविसंवादनम्' इति कथितम् । धर्मोत्तराचार्यैश्च न्यायबिन्दुटीकायां चेदं लक्षणं सम्यक् समर्थितम् । तत्सर्वमानोड्य स्वयं तत् अतिविशदयतिअपरे पुनरित्यादि ॥ सुखदुःखेत्यादि। सुखदुःखसाधनसमर्थेत्यस्य यथासंख्यं पदार्थप्राप्तिपरिहारयोरन्वयः । निमित्तस्य प्रदर्शकत्वमित्यर्थः । अर्थप्रदर्शकत्वमेवोपपादयति-- ज्ञानेति। नन्विदमसम्बद्धमुच्यते-'प्रमाणस्य प्रदर्शकत्वमेव 1 तां-क. प्रमाणमविसंवादकत्वं-ख. भूताया:-ख. 'तं-ख. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपरीक्षा न्यायमचरी र्भवतीतिप्राप्तिं प्रति प्रमाणस्य प्रदर्शकत्वमेव व्यापारः । प्रदर्शयता हि तेन सोऽर्थः प्रापितो भवति, यथा 'हन्तव्यं प्रति राज्ञामाज्ञादानमेव 'हन्तृत्वम् । तदुक्तं "प्रापण शक्तिः प्रामाण्यम्' इति। लोकेऽपि च प्रदर्शितं 'वस्तु प्रापयतः प्रमाणत्वव्यवहारः ॥ ___ तच्च प्रापकत्वं 'प्रत्यक्षानुमानयोरुभयोरप्यस्तीति प्रमाणसामान्यलक्षणम् । तत्र प्रत्यक्षस्य वस्तुस्वलक्षणविषयत्वात् तस्य च क्षणिकत्वेन प्राप्तयसम्भवेऽपि तत्सन्तानप्राप्तेः सन्तानाध्यवसायजननमेव प्रापकत्वम्। अनुमानस्य त्वारोपितार्थविषयत्वेऽपि मूलभूतवस्तुक्षणपारम्पर्यप्रभवत्वात् मणिप्रभामणिबुद्धिवत् तत्प्राप्तया प्रापकत्वम् । न्यापार:' 'अर्थप्रापकत्वं प्रामाण्यमिति च' इत्यत्राह-प्रदर्शयता हीति । लोकेऽपीति। शुक्तौ रजतज्ञानं हि प्रदर्शितं रजतं न प्रापयतीति अप्रमेत्युच्यत इति शेषः ॥ क्षणिकवादे प्रदर्शितस्य प्राप्तिन संभवत्येवेति शङ्कायामाह तंत्रति । सन्तानाध्यवसायेति। ज्ञानस्य स्वलक्षणमात्रविषयकस्यैव प्रमात्वात् । अर्थस्य क्षणिकत्वेन प्राप्तिकाले दृष्टस्य नष्टत्वेन दृष्टस्य प्राप्त्यसंभवेऽपि तत्सन्तानघटकवस्तुप्राप्तः एकसन्तानविषयकाध्यवसायजननेनैव प्रापकत्व. मित्यर्थः। आरोपितेति । धर्मः धर्मिणो भिन्नश्चेत् हिमवद्विन्ध्ययोरिव सम्बन्धानुपपत्तिः । अभिन्नश्चेत्सुतरां सम्बन्धानुपपत्तिः, ' सम्बन्धस्य द्विनिष्ठस्वात् । अतो धर्मधर्मिरूपवस्तुद्वयं नास्त्येव। किन्तु वस्तुस्वरूपं धर्मधर्मिभावादिकल्पनाहीनमेव । तदेव स्वलक्षणमित्युच्यते। प्रथमाक्षपातसमनन्तरं यत् ज्ञानं प्राथमिकं तत् स्वलक्षणमात्रविषयकं निर्विकल्पं प्रमाणञ्च । अनन्तरं च एकस्यां प्रमदातनौ कामिनीत्वादिकमिव वासनया आकाराः कल्प्यन्ते । वासनाधीनत्वादेव आकारा: मिथ्याः । तद्विषयत्वाच्च सविकल्पकमप्रमाणम् । अनुमानमपि सविकल्परूपत्वादारोपितार्थविषयकमप्रमाणं च इति तेषां मतम् । मणिप्रभेति। तथोक्तं प्रमाणवार्तिके 'मणिप्रदीपप्रभयोः मणिबुद्धयाऽभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ॥ यथा, तथाऽयथार्थत्वेऽप्यनुमानतदाभयोः । ' अर्थक्रियाऽनुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ॥' इति ॥ हर्तव्यं-ख. हर्तृत्व-ख. प्रमाण-क. “प्रापयतः-क. प्रमाणा-क. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] धर्मकीर्त्यभिमतप्रमाणलक्षणशोधनम् तदिदमध्यवसितप्रापकत्वं प्रामाण्य अध्यवसितस्यावस्तुत्वेऽपि तन्मूलवस्तुप्राप्तया निर्वहति, यथाऽध्यवसित प्रापकं च प्रमाणमिति मतम् । अतश्च पीतशङ्खादिग्राहिणां शङ्खादिमात्रप्राप्ती सत्यामपि न प्रामाण्यम् , 'यथाऽध्यवसित स्याप्राप्तः। अवगतो हि पीतश्शङ्खः, प्राप्यते च श्वेत इति । तस्माद्यथाऽवगनार्थप्रापकत्वं-अविसंवादकत्वं प्रामाण्यमिति ॥ [धर्मकीर्युक्तप्रमाणसामान्यलक्षणदूषणम्] ___ तदेतदनुपपन्नम् - इदमेव तावद्भवान् ब्याचष्टाम्! किं प्रदर्शितप्रापकं प्रमाणम् ? उताध्यवसितप्रापकम् ? तत्रानुमाने 'प्रदर्शनमेव' नास्ति, का कथा तत्प्रापणस्य प्रत्यक्षेतु बाढं प्रदर्शनमस्ति, न तु प्रदर्शितं प्राप्यते; क्षणिकत्वेनातिकान्तत्वात् ॥ अध्यवसित प्रापकत्वमपि दुर्घटम्। अध्यवसायस्य भवन्मते वस्तुविषयत्वाभावात्; अवस्तुनश्च प्राप्नुमशक्यत्वात् । तदुक्तं भवद्भिः – “यथाऽध्यवसायम तत्वत्वात्', यथातत्त्वं चानध्यवसायात्" इति ॥. • मूलभूतवस्तुप्रानिस्तु काकतालीयम्। न तु तदन्यतरेणापि प्रमाणेनापि स्पृष्टम् , यद्गत्वा प्राप्यते ॥ व्याचष्टाम्। चक्षिङ् ब्यक्तायां वाचि, लोटि प्रथमैकवचनम् ॥ प्रदर्शनमेव नास्तीति। अनुमेयस्य वस्तुनः परोक्षत्वादिति भावः ॥ अतिक्रान्तत्वादिति । निर्विकल्पकस्य प्रमात्वेऽपि, न हि दृष्टमेव प्राप्तुं शक्यते, क्षणिकवाद्वस्तूनामित्यर्थः । वस्तुविषयत्वाभावादिति । तन्मते हि सविकल्पकगृह्यमाणं वस्तु न सत्यम्। विकल्पस्याप्रमात्वात् । यथेत्यादि । मध्यवसायगृहीतप्रकारेण हि वस्तु मिथ्या, यथाभूतं च वस्तु न विकल्पे भासत इत्यर्थः ॥ • ननु तर्हि विकल्पाधीनप्रवृत्तावपि फलं लभ्यत एवेति शङ्कायामाहमूलेति । अन्यतरेण-प्रत्यक्षेण, अनुमानेन वा ॥ . 1 प्रमाण-क. 'प्रदर्शितमेव-क. प्रापकत्वं च प्रामाण्यमिति-क. 3 यथाऽवगत-ख. अध्यवसिता-क. प्रापण-ख. 'तत्त्वात्-क. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणपरीक्षा न्यायमचरी सन्तानप्राप्तया तत्प्राप्तिरित्यपि न युक्तम्-सन्तानस्य मेदाभेदविकल्पाभ्यामनुपपन्नत्वात् । एतञ्च सविस्तरं क्षणभङ्गभङ्गे निरूपयिष्यते॥ [प्रमाणस्य सांवृतसत्यत्वनिरासः] ननु काल्पनिकेऽपि सन्ताने सति संवृत्त्या प्रमाणलक्षणमिदं 'निर्वक्ष्यते'; यथोक्तं.---'सांव्यवहारिकस्यैतत्प्रमाणस्य लक्षणम् , अयं भावः-प्रभायां मणिबुद्धिवत् विकल्पानामर्थप्रापकत्वेन यदि प्रामाण्यमुपपाद्यते, तर्हि प्रभायां मणिबुद्धरपि प्रमात्वप्रसङ्गः। न चेष्टापत्तिः ; तर्हि शुक्तौ रजतमितिबुद्धेः अतस्मिंस्तद्विषयायाः प्रमात्वप्रसङ्गः। न च . शुक्तिरजतबुद्धेः अर्थप्रापकत्वाभावान्न प्रमात्वमिति वक्तुं शक्यम ; 'रङ्गरजतयोरिमे रजतरङ्गे' इत्यादिभ्रमस्थले रजतप्राप्तेः सत्त्वेन प्रमात्वप्रसङ्गः। न च यत् दृष्ट्वा रजतमिति प्रवर्तते तत्प्राप्ती न रजतप्राप्ति;, रङ्गस्यैव प्राप्तेः । रजतप्राप्तिस्तु रजतस्याकस्मात्तत्र सन्निधानादाकस्मिकीति नार्थप्रापकत्वं रङ्गे रजतबुद्धेरिति वाच्यम् ; प्रकृतेऽपि यां प्रभां दृष्ट्वा मणिरिति प्रवृत्तः, तत्र तत्प्राप्तिः-प्रभायाः प्राप्तिः, न तु मणिप्राप्तिः ; मणिप्राप्तिस्त्वाकस्मिक्येवेति तुल्यम । न च प्रभामणिबुद्धग्र्थप्रापकत्व नियतमेवेति आकस्मिकत्वं कथमिति शंक्यम् ; अविनाभावकृत तन्नैय्यत्यम , न तु प्रभाज्ञानाधीनं तत् । अस्तु स एव विशेष इति चेत, पीतशङ्खभ्रमात् प्रवृत्ती शस्त्रस्य प्राप्तया कथं तस्य भ्रमत्वमुच्यते? ननूक्तं तत्र कारणं यथाध्यवसिताऽप्रापकत्वात् , मध्यवसित: पीत: शंखः, प्राप्यते तु श्वेतः शंख इति चेत्, प्रकृतेऽपि मणिप्रभायां मणिबुद्धी महत्त्वादिविशिष्टः अध्ववस्यने, प्राप्यते चाणुर्मणिः। न हि मणितत्प्रभयोराकारभेद एव नास्ति, अनुभवविरोधात् । अतश्च यथाध्यवसितार्थप्रापकत्वं कस्यापि विकल्पस्य नास्त्येवेति भ्रमप्रमाविभाग एव न निर्वोढुं शक्य इति ॥ भेदाभेदेति । सन्तानः किं सन्तानिनो भिन्नः? उताभिन्नः इति विकल्पाभ्यामित्यर्थः। अत्रायेऽपसिद्धान्तः ; अन्त्ये दोषापरिहारश्च ज्ञयः ॥ ननु प्रमाणानां परमार्थसत्यत्वाभावेऽपि सांवृतसत्यत्वं वर्तते । द्विविधं हि सत्यम् । तथोक्तं बोधिचर्यावतारे--'संवृतिः पस्मार्थश्च सत्यद्वयमिदं मतम् ' (बोधि. प्रज्ञापार. १) इत्यादि, इत्याशङ्कते-नन्विति ॥ . निर्वक्ष्यति-ख. 'संव्यव-क. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] शाखाधिकारिनिरूपणम् 65 वस्तुतस्त्वनाद्यविद्यावासनाऽऽरोपितग्राह्यग्राहकादिभेदप्रपञ्च शानमात्रमेवेदमिति किं प्राप्यते? को वा प्रापयति'-इति ॥ ' सोऽयं पलायनप्रकार इव प्रस्तूयते-केयं संवृतिनाम ? साऽपि सती, असती वेति विकल्प्यमाना नैव व्यवहारहेतुर्भवति॥ ___अविद्यावासनाकृतश्च न भेदव्यवहारः, किन्तु पारमार्थिक एवेति साधयिष्यते॥ 'सांवृत'सन्तानकल्पनायां वा जात्यवयविप्रभृतयोऽपि सांवृताः किमिति नेष्यन्ते? वृत्तिविकल्पादिबाधकोपहतत्वादिति चेत्, सन्तानेऽपि समानः पन्था इति कदाशालम्बनमेतत् । तस्मादसम्भवि दर्शितप्रापकत्वमित्यलक्षणमेतत् ॥ • . [अव्याप्तं च धर्मकीयुक्त प्रमाणलक्षणम्] अव्यापकं चेदं लक्षणम् । उपेक्षणीयविषयबोधस्याव्यभिचारादिविशेषणयोगेन लब्धप्रमाणभावस्थाप्यनेनासङ्ग्रहात् ॥ पलायनेति । वादाहवादीतस्येति शेषः। यस्तु वास्तविकं प्रमाणमपि नाभ्युपगच्छति स. हि वादेऽनधिकृतः। तथोक्तम्-'सर्वथा सदुपायानां वादमार्गः प्रवर्तते। अधिकारोऽनुपायत्वान्न वादे शून्यवादिनः' (श्लो. वा. 1-1-5 निरा. 128) इति ! अत्र उपायः-स्वपक्षसाधकं प्रमाणम् । तथा च वास्तविकप्रमाणानभ्युपगमप्रकटनं वादानिवृत्तीच्छासूचकमिति भावः ॥ साधयिष्यते-नवमाह्निके ॥ .. उपेक्षणीयेत्यादि । ज्ञानं हानोपादानान्यतरपर्यवसाय्येवेति न नियमः । सामग्रयधीनं हि ज्ञानं कदाचित प्रवृत्तिनिवृत्त्यपर्यवसायि भवत्येव ; तदेव उदासीनवस्तुविषयकबोध इत्युच्यते । तच्च नाप्रमाण-व्यभिचाराद्यभावात्, कारणदोषाभावाच्च । अतस्तत् प्रमाणमेव। तत्र च अर्थप्रापकत्वापरपर्यायमर्थक्रियाकारित्वरूपाविसंवादाभावादव्याप्तिरिति ॥ . ननु हेयः, उपादेयश्चेति विषयो द्विविध एव । 'परस्परविरोधे तु न प्रकारान्तरस्थितिः' इति न्यायेन, अनुपादेयत्वे हेयत्वमेव स्यात् । अतश्च 1संवृत-क. किं-क. चेत-क. .. NYAYAMANJARI Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमञ्जरी न्यायमीमांसयोः प्रवृत्तिभेद: - ननु कोऽयमुपेक्षणीयो नाम विषयः? स एपेक्षणीयत्वादेव नोपादीयते चेत् , स तर्हि हेय एव, अनुपादेयत्वादिति-नैतद्युक्तम --उपेक्षणीयविषयस्य स्वसंवेद्यत्वेनाप्रत्याख्येयत्वात् ।। हेयोपादेययोरस्ति दुःखप्रीतिनिमित्तता । यत्नेन हानोपादाने भवतस्तत्र देहिनाम यत्नसाध्यद्वयाभावात् 'उभयस्याप्य'साधनात् ताभ्यां विसदृशं वस्तु स्वसंविदिन मस्ति नः ॥ उपादेये च विषये दृष्टे रागः प्रवर्तते। इतरत्र तु विद्वेषः, तत्रोभावपि दुर्लभो ।। [अनुपादेयत्वमात्रान्न हेयत्वम् यत्तु अनुपादेयत्वात् हेय एवेति-तदप्रयोजकम् । न ह्येवं भवति ; यदेतन्नपुंसकं, स पुमान् , अस्त्रीत्वात् ; स्त्री वा नपुंसकं, अपुंस्त्वादिति । स्त्रीभ्यामन्यदेव नपुंसक, नथोपल म्भात् । 'एवमुपेक्षणीयोऽपि विषयो हेयोपादयाभ्यामर्थान्तरं, तथोपलम्भादिति ॥ उदासीनः कश्चन विषयो हेयातिरिक्तो नास्त्येवेति शङ्कते-नन्वित्यादिना। एवं वादिनो मुखमनुभवप्रदर्शनेनाच्छादयति-नैतद्युक्तमित्यादिना। वसंवद्यत्वेन-स्वानुभवसिद्धत्वेन ॥ उभयस्य-हानस्य, उपादानस्य च। ताभ्यां हेयोपादेयाभ्याम् । इतरत्र-हेये। विद्वषः-प्रवर्तत इत्याकर्षः । तत्र-उपेक्षणीये-उदासीने । उभावपि-रागः द्वेषश्च । पथि गच्छतः यत् तृणपर्णादिविषयकं ज्ञानं जायने, न तत्र नरस्येप्सा जिहासा वा भवतीत्यनुभवसिद्धमिदम् ॥ __ यत्त्विति। पथिगतं तृणपर्णादिकं हि पुरुषो नोपादत्ते, किन्तु जहात्येव । अतोऽनुपादेयत्वं हेयत्वरूपमेवेत्यर्थः । अर्थान्तरमिति । उपादित्सया यथोपादानं तथा जिहासया हानं स्यात् । उदासीने जिहासाया अभावात् न तत्र हानपदप्रयोगः। न हि परीक्षायामनुपविष्टः अनुत्तीर्णत्वेन व्यवहियते ॥ उभयस्यापि-ख. 'लभ्यमानत्वात्-ख. यदेतत्-क. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् १) ग्रन्थावतरणम् यदेतत् तृणपर्णादि चकास्ति पथि गच्छतः। न धीश्छत्रादिवत् तत्र न च काकोदरादिवत् ॥ * तस्मादुपेक्षणीयज्ञानस्य तमप्रापयतोऽपि प्रामाण्यदर्शनात् न प्रापकत्वं तल्लक्षणम् ॥ [अर्थप्रदर्शकत्वमात्रपर्यवसितं अर्थप्रापकत्वं तु ज्ञानस्य व्यमिचरितम् ननु यावान् 'प्रमाणस्य व्यापारः प्रापणं प्रति । तावान् 'उपेक्षणीयेऽपि विषये तेन साधितः ।। उक्तं हि-राक्षामादेष्ठत्वमेव हन्तृत्वं, प्रदर्शकत्वमेव ज्ञानस्य मापकत्वमिति-मैवम् — एवं प्रदर्शकत्वं स्यात् केवलं तस्य लक्षणम् । . . तच्च प्रचलदांशुजलज्ञानेऽपि दृश्यते ॥ उपेक्षणीये विषये दृष्टान्तं प्रदर्शयति--यदेतदित्यादि । छत्रादिवत्पथि गच्छतः छत्रं उपादेयं हि भवति। काकोदर:- पर्पः। तंउपेक्षणीयं विषयम् । तल्लक्षणं--प्रमाणलक्षणम् ।। नन्वित्यादि। प्रमाणभूतस्य संप्रतिपक्षस्यापि ज्ञानस्य अर्थप्रापकत्वंअर्थप्रदर्शकत्वमेव । पुरुषस्तु स्वप्रयत्नादर्थ प्राप्नोति । एवञ्च उपेक्षणीयज्ञानस्यापि स्वविषयप्रदर्शकत्वं वर्तत एवेति नाव्याप्तिः प्रमाणलक्षणस्येति माक्षेपाशय: । प्रमाणस्य अर्थप्रापणं प्रति यावान् प्रदर्शनरूपः व्यापारः तावान् व्यापारः उपेक्षणीयेऽपि विषये तेन उपेक्षणीयज्ञानेन साधित इत्यन्वयः। दण्डयितरि राजनि अपराधिपुरुषहन्तृत्वं नाम वधादेष्टुत्वमात्रं, न तु साक्षात् इन्तृत्वम् । तथा प्रमाणस्य प्रापकत्वं अर्थप्रदर्शकत्वमात्रमेवेत्यर्थः ॥ ___एवमित्यादि । एवं सति तस्य-प्रमाणस्य प्रदर्शकत्वं केवलं लक्षणं स्यात्। न त्वर्थसत्यतायां निर्बन्धः स्यात। तच्च लक्षणं मरीचिकाजलज्ञानेsसदर्थविषयेऽपि समानमिति तत्रातिव्याप्ति: स्यात् । यदि च परंपरयाऽर्थप्राप्तिहेतुत्वमपि विवक्षितं, तदा उपेक्षणीयज्ञानेऽम्यातिः। सेयमुभयतःपाशा रज्जुरित्यर्थः ॥ प्रामाण्यस्य-ख. उपेक्षणीयज्ञानस्य तमप्रापयतोऽपि प्रामाण्य-ख. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ग्रन्थावतरणम् [न्यायमञ्जरा [अन्ततः स्वलक्षणज्ञानस्यापि प्रामाण्यं दुरुपपादम] ननु तत्र विपरीताध्यवसायजननादप्रामाण्यम् । दर्शनं हि मरीचिस्वलक्षणविषयमेव सलिलाध्यवसायं तु जनयदप्रमाणीभवति । तथा हकमेव दर्शनं अनुकूलेतरविकल्पोपजनन तद नुत्पादभेदात् त्रिधा कथ्यते प्रमाण, अप्रमाणं, प्रमाणं च न भवतीति । नीलज्ञानं हि नीलं प्रति प्रमाणम् ; नीलमिद मित्यनुकूलविकल्पोप: जननात् । नीलाव्यतिरेकि क्षणिकत्वमपि तेन गृहीतमेव । तत्र' तु प्रमाण न भवति, अनुकूलेतर विकल्पानुत्पादात् । स्थैर्य तु तदप्रमाण, विपरीता'ध्यवसाय कलुषितत्वादिति ॥ . यद्येवमस्मिन् प्रक्रमे सुतरामिदं प्रमाणलक्षणं दुस्स्थमसन्तानाध्यवायः प्रापणं प्रति प्राणस्य व्यापार इति च वर्णितंवानसि। अतश्च यथा मरीचिस्वलक्षणदर्शनमुदसाध्यघसायजन: नादप्रमाणम् , एवं स्वलक्षणदर्शनमपि तद्विपरीतसन्तानाध्यवसाय'जननादप्रमाणीभवेदिति। सन्ताने च काल्पनिके व्यवसिते दृश्याभिमुखः किमिति प्रवर्तते ? ननु स्वलक्षणविषयं दर्शन प्रमाणभूतं कथपप्रमाणं च भवतीत्याशंकायां आह-तथा हीति। अनुकूलते। अनुकूलविकल्पः, इतरविकल्पश्चेत्यर्थः । हानोपादानप्रयोजकविकल्प इत्यर्थः। नीलं प्रतीति । • स्वलक्षणांश इति यावत्। तन्मते स्वरूपातिरिक्तधर्मानङ्गीकारान नीलाव्यतिरेकी ति , अनुकलेतरेति । अस्थिरमप्यनुकूलं भवति, स्थिरमपि प्रतिकूलं. भवति । अतश्च क्षणिकत्वं नानुकूलप्रतिकूलविकल्पप्रयोजकमिति भावः । विपरीतेति । क्षणिकत्वविपरीनेत्यर्थः। क्षणिकत्वमेव वस्तूनां स्वरूपम् । तथा च एकमेव स्वलक्षणदर्शनं स्वलक्षणांशे प्रमाणं, स्थैर्यांशेऽप्रमाणं, क्षणिकत्वांशे तूदासीनमिति अंशभेदात्प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्न विरोध इत्युक्तं भवति ॥ प्रक्रमः--प्रयत्न इति यावत् दृश्याभिमुख इति । स्वलक्षणं वस्तु दृश्यं, विकल्पविषयभूतं तु विकल्प्यम् । आद्यं सत्यं, द्वितीयं मिथ्या। एवञ्च विकल्पविषयस्य सन्तानस्य मिथ्यात्वात, दृश्यस्य च 'क्षणिकत्वेनाति 1 नि-क. 'न-क. अनुकूल-ख. 'वसाय-ख. दर्शना-क. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 आह्निकम् १] अनुबन्धनिरूपणम् दृश्यविकल्प्यावावेकीकृत्य प्रवर्तते यदि वा। अविवेकात् प्राप्तिः स्यात् , प्रमाणमपि दूरतस्तस्याः ॥ तस्मान्न प्रापकं प्रमाणम् ॥ [बौद्धामिमतप्रमाणलक्षणदूषणोपसंहारः] अपि च प्राप्त्यप्राप्ती पुरुषेच्छा'मात्रहेतुके' भवतः। अर्थप्रतीतिरेव प्रमाणकार्याऽवधार्यते तस्मात् ॥ मानस्य लक्षणमतः कथयद्भिस्तद्विशेषणं वाच्यम् । न पुनः प्रापणशक्तिः प्रामाण्यं कथयितुं युक्तम् ॥ साङ्ख्यामिमतप्रमाणलक्षणम्] साङ्ख्यास्तु'- बुद्धिवृत्तिः प्रमाणं इति 'प्रतिपन्नाः। विषयाकारपरिणतेन्द्रियादिवृत्त्यनुपातिनी बुद्धिवृत्तिरेव पुरुषमुपरञ्जयन्ती प्रमाणम्। तदुपरक्तो हि पुरुषः प्रतिनियतविषयद्रष्टा संपद्यते ॥ क्रान्तत्वात् दृश्यवस्तूद्देशेन प्रवृत्तिः कथं घटताम् । यदि च दृश्यस्य स्वलक्षणस्य, विकल्प्यस्य सन्तानस्य च भेदाग्रहात् पुरुषः प्रवर्तत इत्युच्यते, तदा अज्ञानात् प्रवृत्तिरुक्ता भवति। न चेष्टापत्तिः। ज्ञानस्यैव प्रवृत्तिहेतुस्वेन तस्याप्रामाणिकत्वादिति । तस्याः -अविवेकात्प्राप्तेः प्रमाणमपि दूरतः ॥ ___अपि चेत्यादि। ज्ञानं ह्यर्थ प्रदर्शयति, न तु प्रापयति । प्राप्त्यप्राप्ती तु पुरुषेच्छादिमूलकप्रयत्नमूलके भक्तः । अतस्तावन्मानं लक्षणं वक्तव्यम् । एवं सति असदर्थप्रकाशकस्यापि मरीचिकाजलज्ञानादेः प्रामाण्यं स्यादित्युक्ते तद्वारणमात्रं वक्तव्यम्--उक्तश्च क्रम: अव्यभिचारिणीमर्थोपलब्धि विदधती प्रमाणमिति । एतत्परित्यज्य प्रापणशक्ति: प्रामाण्यमित्यादिकं कथयितुं न युक्तम् । उक्तदूषणजालावतारादिति सङ्केपः ॥ बुद्धिवृत्तीत्यादि । साम्यावस्थापन्नं गुणत्रयमेव प्रकृतिः। तद्विकारभूतं महत्तत्त्वमेव पुरुषसंसारापवर्गोंदिहेतुः। तच्च महत्तत्त्वं सात्त्विकराजसतामसभेदात् त्रिविधम् । तत्र यदा सत्त्वसमुद्रेकस्तदा बुद्धितत्त्वसंज्ञां लभते 'मात्रके-क. येते-ख. सांख्यस्तु-ख. ' प्रतिपन्न: ख. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 उद्देशसूत्र विवरणम् [तन्निरास: ] तदेतदहृदयङ्गमम् -- यो हि जानाति, बुध्यते, अध्यवस्यति, न तस्य तत्फलमर्थदर्शनं, अचेतनत्वान्महतः । यस्य चार्थदर्शनं न स जानाति, न बुध्यते, नाध्यवस्यति इति भिन्नाधिकरणत्वं प्रमाणफलयोः । ज्ञानादिधर्मयोगः प्रमाणं पुंसि न विद्यते, तत्फलमर्थदर्शनं बुद्धौ नास्तीति ॥ अथ स्वच्छतया पुंसो बुद्धिवृत्त्यनुपातिनः । बुद्धेर्वा चेतनाकारसंस्पर्श इव लक्ष्यते ॥ एवं सति स्ववाचैव मिथ्यात्वं कथितं भवेत् । चिद्धर्मो हि मृषा बुद्धौ, बुद्धिधर्मश्चितौ मृषा ॥ साकारज्ञान' वादाच्च' नातीवैष विशिष्यते । त्वत्पक्ष इत्यतोऽमुष्य तन्निषेधन्निषेधनम् ॥ निरसिष्यते च सकलः कपिलमुनिप्रक्रियाप्रपञ्चोऽयम् । तस्मान्न तन्मतेऽपि प्रमाणमवकल्पते किञ्चित् ॥ [ न्यायमरी प्रकाशहेतुत्वात सत्त्वस्य ; ज्ञानस्यापि तादृशत्वात् । इदं च बुद्धितत्वं इन्द्रियद्वारा बहिर्निर्गत्य विषयमुपसर्पत्, विषयमावृण्वत् विषयाकारपरिणतं भवति । एवं विषयाकारपरिणतेन्द्रियवृत्यनुसारिणी बुद्धिवृत्तिः सन्निहिते स्वच्छे पुरुषे प्रतिफलिता भवति । एवं प्रतिफलिता बुद्धिवृत्तिः प्रमाणम् । इदमेव प्रतिफलनं चिच्छायापत्तिः, पुरुषोपराग इत्यादिशब्दैर्व्यवहियते । एवं प्रतिफलने सति पुरुष: प्रमातेत्युच्यते इति तन्मतसंक्षेपः ॥ प्रमाणफलयोर्व्यधिकरणत्वात् अयः पिण्डौष्ण्यवत् प्रमातृत्वं मृषैव स्यादिति दूषयति-यो हीत्यादिना । य:- महानू - महत्तत्त्वमिति यावत् । तत्फलं - अध्यवसायफलम् । नाध्यवस्यतीत्यनन्तरं - निर्लिप्तत्वात्पुरुषस्य, अध्यवसायादयो हि महदपरपर्यायाया बुद्धेरेव धर्मा इति शेषः ॥ साकारज्ञानवादः – 41-42 पुटयोः निरूपितः ॥ वादवि-ख. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] विद्यास्थानपदार्थः 71 [प्रमाणसामान्यलक्षणपरीक्षोपसंहारः] तीर्थान्तराभिहितरूपमतः प्रमाणं नैवापवादरहितं प्रतितर्कयामः । तेनामलप्रमितिसाधन मिन्द्रियादि. साकल्यमेव निरवद्यमुशन्ति मानम् ॥ इति प्रमाणसामान्यलक्षणपरीक्षा [प्रमाणविभागः] . तच्चतुर्विधं प्रमाणम् । तदाह 'सूत्र'कार: प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ॥ इह हि भेदवतः प्रथम सूत्रोद्दिष्टस्य त्रयं वक्तव्यं सामान्यलक्षणं, विभागः, विशेषलक्षणं च । तत्र विशेषलक्षणप्रतिपादकानि चत्वारि सूत्राणि भविष्यन्ति--'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नम्....' इत्यादीनि । इह तु विभागसामान्यलक्षणे प्रतिपाद्यते ॥ एकेनानेन सूत्रेण द्वयं चाह महामुनिः । प्रमाणेषु चतुस्लङ्ख्यं तथा सामान्यलक्षणम् ॥ - [प्रमाणेयत्तानिर्णय: : प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दसन्निधाने प्रमाणश्रुतिरुञ्चरन्ती चत्वायेव प्रमाणानीति दर्शयति । तीर्थ-शास्त्रम्। अपवादरहितमित्यनन्तरं इतिकरणं द्रष्टव्यम् , विधेयविशेषणं वा। प्रतितर्कयामा-विभावयामः। अमलप्रमितिसाधनं-अव्यभिचार्यसन्दिग्धार्थप्रमितिसाधनं इन्द्रियादिसाकल्यमेव निरवा मानमिति ॥ इह--अस्मिन् सूत्रे ॥ प्रत्यक्षानमानोपमानशब्दसन्निधाने - प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्द - वाचकपदसमुदायसन्निधाने ॥ भाष्य-क. प्रथम-ख. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 चतुर्दशविद्यास्थानानि न्यायमञ्जरी ननु न ‘चत्वारि प्रमाणानि' इति सङ्ख्यावचनः शब्दः श्रूयते; नापि प्रत्यक्षादीन्येवेत्यवधारणश्रुतिरस्ति । तत्कुत इयत्तानियमावगमः? शब्दशक्ति स्वभावादिति ब्रमः। गर्गान् भोजय, यशदत्तदेवदत्तावानय इति विना सङ्ख्या शब्दमेकवारं च भवत्येव द्वित्वादिनियमावगमः। एवमिहापि 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि' इत्युक्ते सामर्थ्यात् न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदोऽधधार्यते-- इत्येवं. तावत् विभागावगमः ॥ ___सामान्यलक्षणन्तु प्रमाणपदादेव समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यसहितादवगम्यते ॥ प्रमीयते येन तत् प्रमाणमिति करणार्थाभिधायनःप्रमाणशब्दात् प्रमाकरणं प्रमाण मित्यव'गम्यते । तच्च प्रागेव दर्शितम् ॥ 'प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम्' इति च मध्ये साध्यसाधनग्रहणमुपाददानः सूत्रकारः सर्वप्रमाणसाधारणं रूपमिदं परिभाषते-यत्साध्यसाधनस्य प्रमाकरणस्य प्रमाणत्वमिति ॥ न श्रूयते इत्यन्वयः॥ शब्दशक्तिस्वाभाव्यादिति। असति बाधके सर्व वाक्यं सावधारणमिति हि लौकिकाः परीक्षकाश्च । यदि चातिरिक्तं प्रमाणमभिमतं स्यात् तदा 'आदि'प्रभृतिपदं प्रयुज्यतेति भावः । गर्गान्---गर्गगोत्रोद्भवान् । कपिञ्चलाधिकरणन्यायेन त्रयाणामेव बुद्धौ सन्निधानादित्यर्थः ॥ एवमित्यादि। ननु प्रमाणानीति बहुवचनं पञ्चत्वादीनामपि वाचकम् । उत्सर्गतस्तु त्रित्वं प्राप्तम् । एवं सति कथं चतुष्टनियम: ? इति चेत्-उक्तमत्र प्रत्यक्षादिप्रमाणचतुष्टयवाचकपदचतुष्टयसन्निधानात् बहुत्वं चतुष्टे विश्राम्यतीति ॥ समाख्यानिर्वचनम्-योगव्युत्पत्तिनिर्वचनम् ।। पूर्वोक्तप्रमाणसामान्यलक्षणस्योत्सूत्रत्वशङ्कां निराकरोति --- प्रमीयत इत्यादिना ॥. सर्वेति। उपमानप्रकरणेऽपि वक्ष्यति-'साध्यसाधनशब्देन करणस्य प्रमाणताम्। ब्रवीति, एतच्च मन्तव्यं सर्वत्र परिभाषितम्' इति ॥ 1 स्वाभाव्याव-क. गर्गास्त्रीन्-क. ख. 'वचन-क. 'मव-ख. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] प्रमाणसामान्यलक्षणम् __78 अशुद्धप्रमितिविधायिनस्तु प्रामाण्यं प्रसज्यत इति 'स्मृतिसंशय विपर्ययजनकव्यवच्छेदाय प्रत्यक्षसूत्रात् अर्थोत्पन्नमिति अव्यभिचारीति व्यवसायात्मकमिति च पदत्रयमाकृष्यते, तद्धि प्रमाणचतुष्टय साधारणम् । 'अर्थोत्पन्न पदेन फलविशेषणेन स्मृतिजनकम् , अव्यभिचारिपदेन विपर्ययाधायि, व्यवसायात्मकपदेन संशयजनक प्रमाणं व्युदस्यते ॥ अतश्चैवमुक्तं भवति-अर्थविषयमसन्दिग्धं अव्यभिचारि च ज्ञानं येन जन्यते तत् प्रमाणं---इत्येवमेकस्मादेव सूत्रात् सामान्य लक्षणं विभागश्चावगम्यते ॥ - [एकस्यैव सूत्रस्य विभाग-सामान्यलक्षणपरत्वं युज्यत एवं] ननु ! एकस्य सूत्रस्य विभागसामान्यलक्षणपरत्वेन वाक्यभेदः । अथैकत्वाच्चैकं वाक्यं युक्तम् ? उच्यते श्रुत्यर्थद्वारकानेकवस्तुसूचनशालिषु । सूत्रेष्वनेकार्थविधेः वाक्यमेदो न दूषणम् ॥ . . प्रमाणान्तरसंस्पर्शशून्ये शब्दैकगोचरे । ननु प्रत्यक्षलक्षणसूत्रोक्तानां कथं इतर साधारण्यम् ? इत्याशङ्कायामाहतद्धीति। फलं-ज्ञानम् ॥ . ननु सूत्रमिदं फलभूतज्ञानलक्षणपरम् । एवञ्चैषां विशेषणानां प्रमाणपरत्वं कथं व्याख्यायते- अव्यभिचारिणीं-अर्थोपलब्धि विदधतीति-इति शङ्कायामाह-अतश्चेति । एवञ्च येनेतिपदाध्याहारेणायमों लब्ध इत्यर्थः ॥ ... वाक्यभेदः। विभागार्थमेकवारं पठनीयं, सामान्यलक्षणार्थं च प्रमाणपदं पुनरिति वाक्यभेदः। तथोक्तं जैमिनिना---' अर्थैकत्वादेकं वाक्यं साकाङ्क्ष चेद्विमागे स्यात्' (जै. सू. 2-1-16) इति । प्रकृते च प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः; प्रमाणानि इति विभागे पूर्ववाक्यस्योत्तरपदाकाङ्क्षा नियतैवेति एकवाक्यतैव युक्तेति ॥ श्रुतीत्यादि । सूत्राणि खलु श्रुत्युक्तार्थविषयाणि ; न त्वपूर्व किञ्चिद्धोधयितुं प्रवृत्तानि । अतश्च सूत्राणि श्रुतिप्रतिपन्नार्थोपस्थापनद्वारा नानार्थसूचकानि भवन्त्येव । अतश्च श्रुतावेव वाक्यभेदादि दूषणं, न सूत्रे ॥ 'संशय-क.. साधनम्-क. अर्थोत्पत्ति-क. . . . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमरी प्रमेये वाक्यमेदादिदूषणं किल दूषणम् । अर्थद्वयविधानं हि तत्रैकस्य न युज्यते । [सूत्रे वाक्यभेददोषाभावोपपादनम् ] 'राजा स्वाराज्यकामो वाजपेयेन यजेत' इति गुणविधिपक्षे--- स्वाराज्यं प्रति यागो विधातव्यः, यागं प्रति च वाजपेयगुणो विधातव्यः-इत्येकस्य वाक्यस्य परस्परविरुद्धविध्यनुवादादिरूपापत्तेः अर्थद्वयविधानतिदुर्घटम्॥ इह पुनःप्रमाणान्तरपरिनिश्चितार्थ'सूचनचातुर्यमहाघेषु' सूत्रेषु नानार्थविधानं भूषणं भवति, न दूषणम् । अनेकार्थसूचनादेव सूत्रमुच्यते। एतदेव सूत्रकाराणां परं कौशलं, यत् एकेनैव वाक्येन स्वल्परेवाक्षरैः अनेकवस्तुसमर्पणम्। अध्याहारेण वा तन्त्रेण वा आवृत्त्या वा तमर्थ प्रत्याययिष्यति सूत्रमिदमिति न दोषः। [विभागसामान्यलक्षणयो: कथने न पौर्वापर्यनियमः] विभागसामान्यलक्षणयोर्विधाने पौर्वापर्यनियमो 'विशेषलक्षणव नास्तीति तन्त्रेण 'युगपदुभयाभिधानमपि न विरुद्धयते। विशेषलक्षणं अनुक्ते सामान्य लक्षणे वक्तुमयुक्तमिति तत्रैष नियमः । सामान्यलक्षणविभागयोस्तु यथारुचि प्रतिपादनम्---आदौ विभागः, ततः सामान्यलक्षणम् ; आदी वा सामान्यलक्षणं, ततो विभागः । ननु कुतस्तत्रैव वाक्यभेदो दोष इत्याशंकायामाह अर्थद्वयविधानमिति। यत्र शब्देनैवार्थद्वयमवगन्तव्यं तत्र सकृदुचरितः शब्दः सकृदेवार्थ गमयतीति न्यायात् एकेनैव शब्देन उचरितेन युगपत अर्थद्वयबोधनं न भवेत, अत: अर्थान्तरबोधनाय वाक्यमावर्तनीयमिति भवति वाक्यभेदः । प्रकृते तु सूत्रपदैः प्रमाणान्तरावगतार्थसूचनमेव, न विधानमिति न वाक्यभेद इति भावः ॥ ननु सामान्यलक्षणकथनानन्तरमेव विभागो वक्तन्यः। सामान्यतो विदिते हि विभागशङ्का। एवञ्च एकन सूत्रेणोभयमेकदा कथमवगन्तुं शक्यते ? इत्यत्राह-विभागेत्यादि । समान्यलक्षणविशेषलक्षणयोरेवायं नियमः | महाघेषु-क. 2 विशेषणलक्षव-ख. 'युगपदभि-क. ' लक्षणविभागयोस्तु-ख. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 'आह्निकम् १] षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानस्योपयोगः सिद्धान्तच्छलवदुभयं वा युगपदेव प्रतिपाद्यते-इति तन्त्रेण आवृत्त्या वा तदुपपादने न कश्चिद्दोष इति ॥ [प्रमाणसङ्ख्याविषयविप्रतिपत्ति: आस्तां तावदिदं सूत्रे तन्त्रावृत्त्यादिचिन्तनम् । चतुस्सङ्ख्या प्रमाणेषु ननु न क्षम्यते परैः॥ न्यूनाधिकसङ्ख्याप्रतिषेधेन हि चत्वारि प्रमाणानि प्रतिष्ठा. प्येरन् ; स च दुरुपपादः। तथा हि--प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति चार्वाकाः। प्रत्यक्षातुमाने द्वे एवेति बौद्धाः। प्रत्यक्षमनुमानमाप्तवचनं चेति 'त्रीणि प्रमाणानीति साङ्ख्याः'। आधिक्यमपि प्रमाणानां मीमांसकप्रभृतयः प्रतिपन्नवन्तः। तत्कथं चत्वार्येव प्रमाणानीति विभागनियमः? [समाधानम्] उच्यते--अनुमानप्रामाण्यं वर्णयन्तः बार्हस्पत्यं तावत् उपरिष्टात् प्रतिक्षेप्स्यामः । शब्दस्य चानुमानवैलक्षण्यं तल्लक्षणावसर एव वक्ष्यत इति शाक्यपथोऽपि न युक्तः॥ न तु सामान्यलक्षणविभागयोरित्यर्थः । तत्र महर्षिसंवादमेवाह-सिद्धान्तछलवदिति । सिद्धान्तस्य छलस्य च स्वरूपलक्षणपरसूत्रे यथा तथेत्यर्थः । व्यक्तीभविष्यतीदं तत्प्रकरणे ।। आस्तामित्यादि। इदं तन्त्रावृत्त्यादिचिन्तनमित्यन्वयः। द्वे एवेति बौद्धा इति। यद्यपि वैशेषिका अपि कक्षीकर्तव्याः, तथापि न्यायवैशेषिकयोस्समानतन्त्रत्वस्य सम्मतत्वात्परित्यागः। मीमांसकप्रभृतय इति । प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दार्थापत्तयः पञ्चेति प्राभाकराः। तैस्सहानुपसन्धिरपीति षडिति भाट्टाः। एवं ब्रह्मविवर्तवादिप्रमुखाः प्रभृतिपदेन गृह्यन्ते ॥ - अनुमानेति । उपरिष्टात्तावदनुमानप्रामाण्यं वर्णयन्तः वयं बाईस्पत्यं प्रतिक्षेप्स्याम इत्यर्थः। उपरिष्टात् अनुमानप्रामाण्यसमर्थनेन चार्वाकमतं निरस्तं भविष्यतीति भावः। तल्लक्षणावसरे-शब्दलक्षणविचारावसरे ॥ सांख्या :-क. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 उद्देशसूत्रविवरणम् न्यायमक्षरी [अत्र बौद्धानामाक्षेपः, प्रमाणद्वैविध्यनिदानम् नन्वेतत् भिक्षवो न क्षमन्ते ते हि प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणं द्विविधं जगुः । नान्यः प्रमाणभेदस्य हेतुर्विषयमेदतः॥ विषयश्च प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन स्वलक्षण सामान्यभेदेन वा द्विविध एव। परस्परपरिहारव्यवस्थितात्मसु पदार्थषु तृतीयराश्यनु प्रवेशाभावात् ॥ __तृतीयविषयासत्त्वपरिच्छेद एव कुतस्त्य इति चेत्-प्रत्यक्षमहिम्न एवेति ब्रूमः । नीले प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं नीलं नीलतया परिच्छिनत्तीति तावदविवाद एव । तदेव प्रत्यक्षमनीलमपि व्यवच्छिनत्ति, नीलसंविदि तस्याप्रतिभासात् । नीलज्ञानप्रतिभास्य हि नीलं-इति तदितरदनील मेव भवति ॥ . . __ तृतीयमपि राशि अत एव तदपाको त । सोऽपि हि राशिः नीलसंविदि भाति ? न वा ? ते हीत्यादि । तथोक्तं प्रमाणवार्तिके 'मानं द्विविधं विषयद्वैविध्यात्, शक्तयशक्तितः। अर्थक्रियायाम् ' इति 'अर्थक्रियासमर्थ ग्रत् तदन परमार्थसत् । अन्यत् संवृतिसत् प्रोक्तं, ते स्वसामान्यलक्षणे ' इति च । स्वसामान्यलक्षणेस्वलक्षणं सामान्यलक्षणं चेत्यर्थः । स्वलक्षणं-प्रत्यक्षस्य, सामान्यं-- अनुमानस्य च विषयः। सामान्यमेव सामान्यलक्षणमित्यप्युच्यते ॥ परिच्छेदः-निर्णयः । तस्य-अनीलस्य। ज्ञानं हि विषय तदितरव्यावृत्तमेव गृह्णाति, विषयपरिच्छेदरूपत्वात् ज्ञानस्य । एवञ्च यानि वस्तूनि पुरतो भासन्ते तानि सर्वाणि प्रत्यक्षाणि, इतराणि तु परीक्षाणि जगदन्तर्गतं सर्वमपि एकस्य प्रत्यक्ष वा स्यात् परोक्षं वा। एतद्राशिद्वयानन्तर्भूतं हि किंञ्चिदपि न वक्तुं शक्यमिति प्रत्यक्षपरोक्षरूपद्वैविध्यं सुस्थिरमिति सङ्गहः। नीलमित्यमिलापसोक्र्यात सर्वप्रदर्शनार्थम् ॥ . 'सामान्यभेदे वा-ख येताव-क. मिव--ख. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] तत्त्वज्ञानपदविग्रहः 77 भाति चेन्नीलमेव स्यात् न प्रकारान्तरं तु तत् । नो चेत् तथाऽप्यनीलं स्यात् न प्रकारान्तरं हि तत् ॥ इदमेव हि नीलानीलयोर्लक्षणम्-यत् नीलज्ञानावभास्यत्वानवभास्यत्वे नाम ॥ एवं च प्रत्यक्षं स्वविषये प्रवृत्तं तं प्रत्यक्षतया व्यवस्थापयति, तत्राप्रतिभासमानं परोक्षतया, तृतीयमपि प्रकारं पूर्ववदेव प्रतिक्षिपतीति ॥ . एवं स्वलक्षणसामान्यव्यतिरिक्तविषयनिषेधेऽप्येष एव मार्गोsनुगन्तव्यः। एवं हि प्रत्यक्षेण स्वविषयः परिनिश्चितो भवति । तदुक्तं--"तत् परिच्छिनत्ति, अन्यत् व्यवच्छिनत्ति, तृतीयप्रकाराभावं च सूचयतीत्येकप्रमाणव्यापारः" इति ॥ अन्यथा विषयस्यैव स्वरूपापरिनिश्चयात् । कोपादानपरित्यागौ कुर्युरर्थक्रियार्थिनः ॥ तदुक्तम्-‘अनलार्थ्यनलं पश्यन्नपि न तिष्ठेन्न प्रतिष्ठत' इति ॥ भातीत्यादि। मीलमित्याकारे यद्यत् भासते तत्सर्व नीलमेव खलु स्यात् । अनीलत्वे नीलमित्याकारासंभवात् । धर्मधर्मिभेदस्तु नास्त्येव । यच्च तस्मिन् न भासते तदनीलमेवेति न प्रकारान्तरसम्भवः । प्रकारान्तरं'नीलानीलाभ्यामन्यः प्रकारः । इदमेवेति । विषयाकार: खलु ज्ञानाकारानु मेयः॥ .. एष एवेत्यादि । प्रत्यक्षेण हि स्वलक्षणमात्रं गृह्यते, सामान्य स्वनुमानविषयः। एवञ्च केचित् स्वलक्षणरूपा:, केचिच्च सामान्यरूपा इति तृतीया विधा वस्तुषु दुर्निरूपेत्यर्थः। अतश्चैकस्यैव प्रमाणस्य प्रवृत्तिः त्रिमुखा भवति। निरूपितं चेदं पूर्वमेव । तत्तद्वस्तुस्वरूपं स्वलक्षणशब्दार्थः । वस्तु याद्यनुगताकारः सामान्यशब्दार्थः। अन्यथा-एवमेक्स्यैव प्रमाणस्य तथा व्यवच्छेदकत्वानङ्गीकारे। क्व-किमधिकृत्य हेयोपादानन्यवहारौ कुर्युः इत्यर्थः। अर्थक्रियार्थिनः इति कर्तृवाचकं पदम ॥ उक्तमर्थ सदृष्टान्तं संवादयति---- तदुक्तमिति । न तिष्ठेदित्यादि । अर्थपरिच्छेदाभावेन न निवर्तेत; नापि प्रवर्तेतेत्यर्थः॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 उद्देशस्त्रविवरणम (न्यायमचरी [निर्विकल्पस्य त्रिमुखत्वाभावेऽपि न दोषः] यद्यपि निर्विकल्पकं प्रत्यक्ष पुरोऽवस्थित'वस्तुस्वलक्षण प्रदर्शनमात्रनिष्ठितल्यापारं अविचारकमेव- तथापि तत्पृष्ठभाविनां विकल्पानामेव च दर्शनविषये कृतपरिच्छेद-तदितरविषयव्यवच्छेदतृतीयप्रकाराभावव्यवस्थापनपर्यन्तव्यापारपाटवमवगन्तव्यम् , इतरथा व्यवहाराभावात् ॥ ___ [उक्तार्थेऽनुमानोपन्यासः एवं च परस्पर परिहारव्यवस्थितस्वरूपपदार्थव्यवच्छेदिप्रत्यक्ष प्रभावावगतविरोधित्वात् प्रत्यक्षेतरविषययोः तृतीयविषयासत्त्वपरि निश्चयेऽनुमानमपि प्रवर्तितुमुत्सहते विरुद्धयोरेकतरपरिच्छेदसमये द्वितीयनिरसनमवश्यं भाति, विरुद्धत्वादेव, शीतोष्णवत् । तृतीयविषयोऽपि तद्विरुद्ध एव, तद्द्धावप्रतिभासमानत्वात् ॥ ननु निर्विकल्पे स्वरूपमात्रमेव भासते, तत्कथं तेन इतरव्यवच्छेदादिकं कर्तुं शक्यमित्याशंकते --यद्यपीत्यादि। अविचारकमेव--अविमर्शात्मकमेव, प्रकारभानाभावादित्याशयः। व्यवहाराभावात् --- व्यवहाराभावप्रसङ्गात्। व्यवहारः खलु ज्ञानाधीनः । . ज्ञानं च ज्ञेयपरिच्छेदः । परिच्छेदश्च नियमेन त्रिमुखः ॥ एवञ्चेत्यादि । परस्पराभावरूपतया व्यवस्थितस्वरूपाणां पदार्थानां न्यवच्छेदकस्य प्रत्यक्षस्य प्रभावात् अवगतविरोधयोः प्रत्यक्षपरोक्षविषययोः, तृतीयविषयासत्वनिश्चये सति वक्ष्यमाणदिशा अनुमानमपि प्रवर्तितमुत्सहत इत्यर्थः । तद्विरुद्ध एवेति । शीतमिति बुद्धौ यत् भासते तत् शीतमेव, यन्न भासते तत् तद्विरुन्द्वमेव, तच्चोष्णं वा स्यात्, अन्यद्वा स्यात्, परन्तु तत्, तद्विरुद्धं चेत्येतदपेक्षया तृतीया कोटिस्तु नास्त्येवेत्यर्थः ॥ . 1 वर्ति-क. लक्षणं-ख. परस्परं-ख. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशपदार्थस्य प्रयोगः [तस्वतदन्यत्वाभ्यां तृतीयो राशिर्नास्त्येव ] ननु न त्वं द्वितीयमिव तृतीयं कदाचिदपि विषयमग्रहीः ? ग्रहणे हि विषयद्वयवत्' तस्यापि सत्वं स्यात् । अगृहीतस्य च 'विरोधमविरोधं' वा कथं निश्चेतुमर्हसीति ॥ भोः साधो ! नात्र पृथक् ग्रहणमुपयुज्यते, तद्बुद्धयनवभास'मात्रेणैव' तद्विरोधसिद्धेः । विरुद्धं हि तदुच्यते, यत् तस्मिन् गृह्यमाणेन गृह्यते । तदिदमग्रहणमेव विरोधावहमिति न पृथग्ग्रहणमन्वेषणीयम् ॥ आह्निकम् १] एवं इतरेतरपरिहार व्यवस्थितानामर्थानां न तृतीयो राशि - रस्तीति सर्वथा सिद्धं विषयद्वैविध्यम् ॥ 'एवमेव सदस नित्यानित्यक्रमयौगपद्यादिषु प्रकारान्तरपराकरण 79 मवगन्तव्यम् ॥ तत्र प्रत्यक्षे स्वलक्षणात्मनि विषये प्रत्यक्षं प्रवर्तते ; परोक्षे तु सामान्याकारेऽनुमानमिति - तृतीयराशिन्धवच्छेद इति न वक्तुं शक्यते, सिद्ध्यसिद्धिभ्यां व्याघातादिति शङ्क- नन्विति । त्वं द्वितीयमिव तृतीयं विषयं कदाचिदपि नाग्रहीः किम् ? एवञ्च – अगृहीतस्य विरोधमविरोधं वा कथं निश्चेतुमर्हसि । यदि च तृतीयं कदाचिदग्रही तर्हि ग्रहणे विषयद्वयवत् तृतीयमप्यङ्गीकर्तव्यमेव, गृहीतस्य निषेधायोगात् इत्याशङ्कामिप्राय: || समाधत्ते - भोः ! साधो इति । पृथग्ग्रहणं स्वातन्त्र्येण प्रतियोगिविध. यानुयोगिविधया वा ग्रहणम् । विशिष्याग्रहणेऽपि तद्विरुद्धत्वेन तद्व्यतिरिक्तं सर्व क्रोडीक्रियत इत्यर्थः । तथा च तृतीयो राशिर्नास्तीत्युक्ते सर्व राशिद्वयान्तर्भूतमित्येतावन्मात्रं विवक्षितमिति न दोष इति भावः ॥ इति विषयद्वयवेदने प्रमाणद्वयसिद्धे इत्युत्तरश्लोकेनैकं वाक्यम् । ' विषयवत्-क. 2 विरोधं बाक. 3 मात्रेण - क.. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रप्रवृत्तिप्रकारः [न्यायमजरी प्रमाणद्वयसिद्धे च विषयद्वयवेदने । वद कस्यानुरोधेन तृतीयं मानमिष्यताम् । परोक्षे शब्दादीनां नावकाशः न चास्मिन्नेव परोक्षे 'सामान्यात्मनि विषये'ऽनुमानमिव शब्दाद्यपि प्रमाणान्तरं प्रवर्तते इति वक्तुं युक्तम्, 'एकस्मिन् विषये विरोधविफलत्वाभ्यां अनेकप्रमाणप्रवृत्त्यनुपपत्तेः। पूर्वप्रमाणावगतरूपयोगितया तस्मिन् वस्तुनि पुनः परिच्छिद्यमाने प्रमाणमुत्तर'मफलमेव स्यात्। एवं ह्याहुः-'अधिगतमर्थमधिगमयता प्रमाणेन पिष्टं पिष्टं स्यात्' इति । अन्यरूपतया तु तद्गहणं उत्तरप्रमाणेन 'दुश्शकम, आद्य'प्रमाणविरुद्धत्वादिति ॥ अत एव न संप्लवमभ्युपगच्छन्ति नीतिविदः। एकस्मिन् विषये अनेकप्रमाणप्रवृत्तिः संप्लवः। स च तथाविधविषयनिरासादेव निरस्तः। न च प्रत्यक्षानुमाने परस्परमपि संप्लवेते; स्वलक्षणे - नुमानस्य सामान्ये प्रत्यक्षस्य च प्रवृत्त्यभावात् ।।' प्रमाणेति । एवं विषयद्वैविध्यानुरोधेन प्रमाणद्वये सिद्धे सति, तृतीयविषयस्याभावेन कीदृशविषयानुरोधेन तृतीयं प्रमाणमङ्गीकर्तव्यमित्यधिक्षेपे ॥ ___ नन्वास्तां वि श्यद्वैविध्यम्। अथापि प्रामाण्यद्वैविध्यं कुतः? परोक्षमेव विषयमधिकृत्यानुमा स्येव शब्दस्यापि प्रवृत्तिसंभवादिति शङ्कते-न चेति । समाधत्ते--- एकस्मिन्निति । वैफल्यमुपपादयति- पूर्वेत्यादि । तस्मिन्एकरूपवत्तया पूर्वमेव परिच्छिन्ने वस्तुनि पूर्वप्रमाणावगतरूपयोगितया पुनः परिच्छिद्यमाने सति उत्तरं प्रमाणमफलं स्यात् परिच्छेगाभावादित्यर्थः। ननु पूर्वप्रमाणावगतरूपवत्त्वेन ग्रहणे खलु वैफल्यं, अन्यरूपतया ग्रहणे को दोष इति शङ्कायामाह-अन्यरूपतयेति। क्षणभङ्गवादिनामयं सिद्धान्त: स्मतव्यः ॥ एकत्र प्रमाणद्वयप्रवृत्तौ विरोधमुपपादयति-अत एवेति । तथा. विधेति । प्रमाणद्वयप्रवृत्तियोग्येत्यर्थः ॥ एकत्र-ख. मफलम-ख. 'दुश्शक्यम् , आदि-ख. -विषये-क. माने एव-क. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — आह्निकम् १] सौगतसाधितप्रमाणद्वैविध्यम् 81 सम्बन्धग्रहणापेश्नमनुमानं स्वलक्षणे । सजातीय विजातीयव्यावृत्त वर्ततां कथम् ॥ ८० ॥ प्रत्यक्षमपि सद्वस्तुसंस्पर्शनियतव्रतम्। विकल्पारोपिताकारसामान्यग्राहकं कथम् ॥ ८१ ॥ यच्च शब्दोपमानादि प्रमाणान्तरमिष्यते । तदेवं सति कुत्रांशे प्रतिष्ठामधिगच्छतु ॥ ८२ ॥ वस्तु स्खलक्षणं तावत् प्रत्यक्षेणेव मुद्रितम् । ततोऽन्यदनुमानेन सम्बन्धापेक्षवृत्तिना ॥ ८३ ॥ नानाप्रमाणगम्यश्च विषयो नास्ति वास्तवः । तद्वानवयवी जानिरिति वाकभद्रिका ॥ ८ ॥ यदि च प्रत्यक्ष वेषये शब्दानुमानयोरपि वृत्तिरिप्यते तर्हि प्रत्यक्षसंवित्सदृशीमेव 'ते अपि' बुद्धिं 'विदधाताम् । न चैवमस्ति । तदाहुः समानविषयत्वे च जायते सदृशी मतिः। न चाध्यक्षधिया साम्यं एति शब्दानुमानधीः॥ उक्तमर्थमुपपादयति-सम्बन्धेत्यादि । सम्बन्धग्रहणापेक्षमनुमानं : सातीयविजातीयव्यावृत्ते स्वलक्षणे कथं वर्ततां-प्रवर्तताम् ? सदर संस्पर्शनियतवतं-सन्मात्रग्राहि प्रत्यक्षमपि कथं विकल्पारोपिताकारमामान्यग्राहकम् ? एवं सति, यञ्च शब्दोपमानादि प्रमाणान्तरमिष्यते, तत्-प्रमाणान्तरं कुत्रांशे विषये प्रतिष्ठामधिगच्छतु इत्यन्वयः। मुद्रितमिति उत्तरार्धेऽप्यन्वेति, परिच्छिन्नमित्यर्थः। ननु अन्यरूपतया तु तद्गहणं उत्तरप्रमागेन दुश्शकं, आद्यप्रमाणविरुद्वत्वात् ' इत्युफिन युक्ता ; कालभेदेन विरोधपरिहारात । दृश्यते खलु भवयविजातिप्रभृतयः पदार्था: कालद्वयसम्बन्धिनः एकदा प्रत्यक्षाः, अन्यदा चानुमानिका: इति शङ्कायां तादृशं वस्त्वेव नास्तीत्या:-नानेत्यादि। तद्वान्-नानाप्रमाणसम्बन्धी, कालद्वयसम्बन्धी वा॥ प्रत्यक्षसंवित्सदृशीमेव बुद्धि ते अपि-शब्दानुमाने भपि विदधातामित्यन्वयः । 1ते-क. विदध्याताम्-ख. NYAYAMANJARI Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 प्रमाणसं ख्याविचारः तेजोऽन्यदेव नक्षत्रशशाङ्कशकलादिषु । उद्घाटितजगत्कोशमन्यदेव रवेर्महः ॥ आह च [ न्यायमञ्जरी अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यः शब्दस्य गोचरः । शब्दात् 'प्रत्येति' भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्ष'मीक्षते ॥ अपि च अन्यथैवाग्निसम्बन्धात् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः संप्रतीयते ॥ तस्मादुक्तेन वर्त्मना विषयद्वैविध्यनिश्चयात् न तृतीयं प्रमाण -- मस्ति, न च संप्लव इति ॥ प्रत्यक्षानुमानयोः प्रमाणत्वाविशेषेऽनि महान् विशेषो वर्तत इत्याहतेज इति । नक्षत्रादितेजः अनुमानस्य, रवेर्महः प्रत्यक्षस्य च दृष्टान्तः । सूर्या लोकमध्यवर्तिनं हि अप्रसक्तसंशयं गृह्णाति । " एवं प्रत्यक्षेण गृहीते स्वलक्षणे न सन्देहावकाशः, प्रकाराणामभानात् । नक्षत्रालोकमध्यवर्ति तु विकल्पितमेव गृह्येतेति भावः ॥ भिन्नाः - अन्धः शब्दात अर्थ यद्यपि अवगच्छति, परन्तु तमर्थ प्रत्यक्षतया नेक्षते । अतो परोक्षोऽर्थः परोक्ष एव, 'प्रत्यक्षश्च प्रत्यक्ष एवेति एकस्मिन्नर्थे न प्रमाणसंप्लव इति । अन्यथैवेत्यादि 1 अग्निसम्बन्धात् दग्धः पुरुषः दाई अन्यथैव केवलदाइशब्दार्थापेक्षया विलक्षणतयैव । मिमन्यते । दाहशब्देन तु दाहरूपः अर्थः अन्यथैव संप्रतीयते । दादशब्दादुपस्थित: दाहरूपः अर्थः न शरीरव्यथादिकं करोति, अग्निसम्बन्धादनुभूतस्तु दाहरूपः अर्थः शरीरमतीव व्वथयतीति महान् भेदः प्रत्यक्षपरोक्षयोरिति भावः । दग्धः पुरुष: दाहं अन्यथैवामिमन्यते, दाहशब्देन दाहरूपार्थस्तु अग्निसम्बन्धापेक्षया अन्यथैव संप्रतीयत इति वा अन्वयः । तस्मादिति । प्रत्यक्षत्वं परोक्षत्वं चाधम । प्रत्यक्षः सदा सर्वस्य प्रत्यक्ष एव । एवं परोक्षोऽपि । यथा नील: सदा सर्वान् प्रति नील एव । भतो विषयद्वैविध्यात् प्रमाणं द्विविधमेवेति ॥ 2मीक्ष्यते - क. ' प्रतीति-क. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 आह्निकम् १] प्रमाणवैविध्यनिरासः [सिद्धान्तः अत्राभिधीयतेयत्तावदिदमाख्यायि राश्यन्तरनिगकृतौ । प्रत्यक्षस्यैव सामर्थी इत्येतन्नोपपद्यते ॥ ८५ ॥ पूर्वापरानुसन्धानसामर्थ्यरहितात्मना । भारः कथमयं वोढुं अविकल्पेन पार्यते । ८६ ॥ विकल्पाः पुनरुत्प्रेक्षामात्रनिष्ठितशक्तयः। तेभ्यो वस्तुव्यवस्थायाः का कथा ? भवतां मते ॥ ८७ ॥ अथवा भवतु नाम नीलादावुक्तेन प्रकारेण राश्यन्तरनिराकरणम् । प्रत्यक्षपरोक्ष'भावनिर्णये तु नंष प्रकार योजयितुं शक्यते। विषये हि प्रवृत्तं प्रत्यक्षं विषयस्वरूपमेव परिच्छिनत्ति, न पुनस्तस्य प्रत्यक्षतामपि। नीलमिद मिति हि संवेद्यते, न पुनः प्रत्यक्षभिद मिति। तथा हि-किमिदं विग्यस्य प्रत्यक्षत्वं नाम ? किमक्षविषयत्वम् ? उत अक्षजज्ञानविषयत्वमिति ? तत्राक्षविषयत्वं तावदन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यमेव, न प्रत्यक्षगम्यम् । तथाऽऽह भट्टः (औत्पत्तिकसूत्रे अनुमानप्रकरणे श्लो. वा. 60) ___ यद्यपीत्यादिना (पु.७८) प्रदर्शिते समाधाने विद्यमानं दौर्बल्यं प्रदर्शतियत्तावदित्यादिना। भवतां हि मते निर्विकल्पकं असमर्थमेव इतरव्यवच्छेदे। सर्वमपि सविकलाकन्तु अप्रमाणमेवेति केन वस्तुव्यवस्था ? इति सारम् । अविकल्पेन-निर्विकल्पकेन- स्वलक्षणप्रत्यक्षेणेति यावत् ॥ वैभवेनाप्याह-अथवेति । अयं प्रत्यक्षः, अयं परोक्षः इति विषययो: प्रत्यक्षस्वपरोक्षत्वे अनुव्यवसायैकगम्ये ; न तु प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वे विषयासाधारणधौं । एवञ्च अषयत्वं अक्षजन्यज्ञानविषयत्वं वा प्रत्यक्षस्वं, तद्विलक्षण च परोक्षत्वमिति वक्तव्यम् । तद्विषयकहानोपादानाद्यन्वयव्यतिरेकवशादेव इन्द्रियविषयत्वं निश्चेतुं शक्यम् । एवञ्च अक्षविषयत्वं विषयप्रतिभासकाले न गृहीतुं शक्येत । अक्षजन्यज्ञानविषयत्वमपि विषयप्रतिभासकाले न गृहीतुं शक्येत, विषयप्रतिभासकाले ज्ञानस्याप्रतिभापात् । ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्व - 1निर्णये-ख. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसंख्याविचारः [न्यायमञ्जरी 'न हि 'श्रावणता' नाम प्रत्यक्षेणावगम्यते। 'साऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञायते बधिरादिषु' इति ॥ अक्षजज्ञानकर्मत्वमपि प्रत्यक्षत्वं तदानीं परिच्छेत्तमशक्यमेव, विषयप्रतिभासकाले तत्प्रतिभासस्याप्रतिभासात्। तद्गहणमन्तरेण च तत्कर्मताग्रहणासंभवात् ॥ [विषयभानदशायां ज्ञानं न भाति] कथं पुनर्विषयग्रहणकाले 'तत्प्रतिभासस्याप्रतिभासः'? नैव युगपदाकारद्वितयं प्रतिभासते ; इदं ज्ञानं, अयं चार्थः इति भेदानुपग्रहात्। एकश्चायमाकारः प्रतिभास्यमानः ग्राह्यस्यैव भवितुमर्हति; न ग्राहकस्येति वक्ष्यते ॥ [ज्ञानाप्रतिभासेऽपि विषयप्रतिभासो युज्यत एव] . ननु च नागृहीतं ज्ञानमर्थप्रकाशनकुशलं भवति । आहुः__ 'अप्रत्यक्षोपलंभस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति, इति । निरापपूर्वकं अनुव्यवसायवेद्यत्वं स्थापयिन्यते। एवञ्च प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वयो. विषयधर्मस्वाभावात् तदादाय प्रमाणवैविध्यस्थापनं न शक्यमिति संपिण्डितार्थः । सा-श्रावणता । श्रोत्रेण शब्दे गृह्यमाणे तद्गतं श्रावणत्वं न गृहीतुं शक्यते । किन्तु अयं शब्दः श्रुतो न वा ? इति संशये अन्वयव्यतिरेकाभ्या व निर्णयः। अन्वयव्यतिरेको-प्रवृत्त्यप्रवृत्ती। बधिरादीत्यादिना अनवहितचित्तपरिग्रहः। तत्प्रतिभासस्य-ज्ञानप्रतिभासस्य । तद्ग्रहणं - ज्ञानग्रहणम् ॥ कथमिति। विषयप्रतिभासकाले विद्यमानस्य ज्ञानस्य कुतो न भानमित्यर्थः। अनुभवाभावादिति समाधत्ते-नैवेति । अस्तु आकारद्वयाग्रहणं, स अर्थस्यैवेति कथमित्यत्राह-न ग्राहकस्येति। वक्ष्यतेविज्ञानवादनिरासावसरे ॥ अप्रत्यक्षत्यादि। प्रत्यक्षः उपलंभ: यस्येति बहुव्रीहिः, अनन्तरं नजसमास:। घटादिविषयकोपलम्भः यस्य न प्रत्यक्षः तस्यार्थदर्शनमिति न सिद्ध्यत्येव । ज्ञानस्यैवानवभासे ज्ञानभास्यस्य विषयस्य प्रतिभासासंभवादि. प्रमाणता-क. ना-ख. तज्ज्ञानस्यानवभास:-ख. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 आह्निकम् १] प्रमाणद्वैविध्यनिरास: 'तदयुक्तम् । अप्रत्यक्षोपलंभस्यैवार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति। प्रत्यक्षोपलम्भस्य 'तु नार्थदृष्टिः। उप'लम्भ एव प्रत्यक्ष इति, द्वितीयाकारानवभासात् कुतोऽर्थदृष्टिः? ___यदि च गृहीतं ज्ञानं अर्थ प्रकाशयेत् न द्वयीं गतिमतिवर्तत । तद्धि ज्ञानं . ज्ञानान्तरग्राह्य वा भवेत् , स्वप्रकाशं वा। ज्ञानान्तरग्राह्यत्वे त्वनवस्था, मूलक्षतिकरी चेयमित्यन्धमूकं जगत् स्यात् उपलम्भप्रत्यक्षतापूर्वकार्थप्रत्यक्षवादिनः । नापि स्वप्रकाशं ज्ञानं, शेयत्वातु, नीलपीतादिवत्। विस्तरतस्तु स्वप्रकाशं विज्ञान विज्ञानवादिनिराकरणे निराकरिष्यामः। न च ज्ञानस्याप्रत्यक्षतायां तदुत्पादानुत्पादयोरविशेषात् अज्ञत्वं सर्वज्ञत्वं वा परिशङ्कनीयम्; विज्ञानोत्पादमात्रेण ज्ञातुः ज्ञातृत्वसिद्धेः। विषयप्रकाशनस्वभावमेव ज्ञानमुत्पद्यत इति कथमुत्पन्नमनुत्पन्नान्न विशिष्यते ? यथा च नीलादिविषयज्ञानोत्पत्त्या अस्य ज्ञातृत्वं तथा सुखादिविषयज्ञानोत्पत्त्या भोक्तृत्वमिति तत्रापि नातिप्रसङ्गः ॥ त्यर्थः । तदयुक्त मत्यादि। आकारद्वयाननुभवात् यदि भासमानः आकार: ज्ञानस्य, तर्हि अर्थप्रतिभातो न स्यादेव। अतः ज्ञानभानशून्यनादशायामेवाथभानं भवेदिति सुष्टुक्तं 'अप्रत्यक्षोपलंभस्यैवार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति' इति । अन्यथा दोषमाह--यदि चेत्यादि। प्रामाणिक्या अनवस्थाया अदोषत्वात् मूलक्षतिकरीति। व्यवहारप्रवृत्तिरूपमूलस्यैव क्षतिकरीत्यर्थः । ननु कथं ज्ञानस्य ज्ञेयत्वम् ? ज्ञानविषयत्वं हि ज्ञेयत्वम् ! एवञ्च मात्माश्रयादिः इति शङ्कायामाह-विस्तरस्त्विति ॥ -विषयेति । तथा च विषयप्रकाशसद्भावाबाविशेषप्रसङ्ग इत्यर्थः । ननु तर्हि सुखादेरपि स्वप्रकाशत्वं न स्यात्। सुखादिकं झुत्पन्नं सत् स्वयं भासत इत्यनुभवसिद्धमिति शङ्कायां तत्रापि सुखादिज्ञानोत्पत्त्यैव सुखादिप्रकाशः इति समाधत्ते-यथा चेति ॥ । प्रत्यक्षो-ख. उप-ग. शे-क. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसंख्याविचार: [न्यायमारी तस्मात् विषयविज्ञानकाले तद्विशा'ना'ग्रहणात् न तत्कर्मत्वकृतं विषयप्रत्यक्षत्वमवभासते, तदप्रतिभासे च न परोक्षव्यवच्छेदः, न च तृतीयप्रकारासत्त्वसूचनमिति कथं प्रत्यक्षं विषयद्वित्वसिद्धौ प्रमाणम् ? [विषयद्वैविध्यसाधकानुमानदूषणम्] यच्चानुमानमप्युक्तं विषयद्वयसिद्धये। तत् प्रत्यक्षपरिच्छिन्नतद्विरोधनिबन्धनम् ॥ ८८ ॥. . विगेधवोधसामर्थ्य प्रत्यक्षस्य च दूषितम् । . तदग्रहे च तन्मूलमनुमानं न सिद्धयति ।। ८९ ॥ एवञ्च विषयद्वित्वसाधनानुपपत्तितः। तत्कृतस्त्यज्यतामेष प्रमाणद्वित्वदोहदः ॥ ९०॥ .. • [विषयद्वैविध्यमपि न प्रमाणद्वैविध्यनियामकम् ] अथ वा सत्यपि विषयद्वैविध्ये, 'सामग्रीभेदात् फलभेदाच्च प्रमाणभेदो भवन् कथमपाक्रियते ! अन्ये एव हि सामग्रीफले प्रत्यक्ष लिङ्गयोः। अन्ये एव च सामग्रीफले शब्दोपमानयोः ॥ २१ ॥ इति वक्ष्यामः । तेन तद्भेदादपि प्रमाणभेद सिद्धः न द्वे एव प्रमाणे ॥ तद्विज्ञानाग्रहणात्-विषयविषयकविज्ञानाग्रहणात् । तत्कर्मत्वकृतंतादृशविज्ञानविषयत्वकृतम् ॥ ___ यच्चानुमानमिति । 'विरुद्धयोरेकतरपरिच्छेदसमये द्वितीयनिरसनं अवश्यं भाति, विरुदत्वादेव' इत्यनुमानमित्यर्थः प्रत्यक्षपरिच्छिन्नेत्यादि। तेन सह विरोधः यत्र प्रत्यक्षेणैव परिच्छिन्नः, यथा वह्नि जलादौ, तत्रैव भवदुक्तरीत्याऽन्यतरपरिशेषः। प्रकृते तु विषयग्रहणकाले प्रत्यक्षत्वादिधर्माणामग्रहणात् तयोर्विरोधोऽपि न गृहीत इति नानुमानप्रवृत्तिरित्यर्थः ॥ पुनरपि वैभवेनाह-अथ वेति । प्रत्यक्षलिङ्गयोः-प्रत्यक्षानुमानयोः । प्राचीनमते ज्ञायमान लिङ्गस्यैवानुमितिकरणत्वात् तथोक्तिः । यथा प्रत्यक्षानुमानयोः प्रमाणत्वाविशेषेऽपि सामग्रीफलयोर्भेदात् भेदः, तथा शब्दोपमाने अपि सामग्रीफलभेदात् भिद्यते एवेति वक्ष्यत इत्यर्थः ॥ 'न-ख. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 आढिकम् १] प्रमाणसंप्लवसाधनम् [साङ्ख्यसम्मतप्रमाणत्रित्वनिरासः] एतेन त्रीणि प्रमाणानीति साङ्ख्यव्याख्याताऽपि तत्सङ्ख्या प्रत्याख्याता; सामग्रीफल भेदेन उपमानस्य चतुर्थप्रमाणस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् ॥ . [प्रमाणसंप्लवो न दोषः] यत्पुनः एकस्मिन् विषये अनेकप्रमाणप्रसरं निरस्यता सौगतेन संप्लवपराकरणमकारि-तदपि मतिमोहविलसितम् ; असति संप्लवे अनुमानप्रामाण्यप्रतिष्ठापनानुपपत्तेः॥ न ह्यविज्ञातसम्बन्धं लिङ्गं गमकमिष्यते । सम्बन्धधीश्च सम्बन्धि'द्वयावगतिपूर्विका ॥ ९२ ॥ सामान्यात्मकसम्बन्धिग्रहणं' चानुमानतः। तस्मादेव यदीष्येत व्यक्तमन्योन्यसंश्रयम् ॥ ९३ ॥ अनुमानान्तराधीना सम्बन्धिग्रहपूर्विका। सम्बन्धाधिगतिर्न स्यात् मन्वन्तरशतैरपि ॥ ९४ ॥ ... तेन दूरेऽपि सम्बन्धग्राहकं लिङ्गलिङ्गिनोः । प्रत्यक्षमुपगन्तव्यं तथा च सति संप्लवः ॥ ९५ ॥ सालयव्याख्याता-साङ्खयाभिहितेति यावत् ॥ न हीत्यादि । सम्बन्ध:-व्याप्तिरूप: अनौपाधिकः संबन्धः । अयमर्थ:ग्याप्यत्वेन ज्ञायमानं लिङ्गं हि अनुमि तकरणम्। व्याप्तिश्च सम्बन्धरूपा इत्युक्तम् । सा च द्विनिष्ठा। एवं तादृशसम्बन्धरूपप्रकारविशिष्टत्वात् तत् सामान्यरूपमेव, न तु स्वलक्षणरूपम् । सामान्यं चानुमानस्यैव विषयः । - एतादृशसम्बन्धिद्वयज्ञानं किं अनेनैवानुमानेन गृह्यते ? उत अनुमानान्तरेण ? उत प्रत्यक्षेण? आये - अन्योन्याश्रयः, अनेनानुभानेन सम्बन्धिग्रहणे सत्यनुमानप्रवृत्तिः। अनुमानप्रवृत्त्यनन्तरमेव च सम्बन्धिज्ञानं इति । द्वितीये-अनवस्था। तृतीये - प्रमाणसंप्लवः । यः सम्बन्धी अनुमानेन गृह्यते स एव प्रत्यक्षेणापि ग्राह्य इति प्रत्यक्षानुमानयोरेकविषयत्वात् इति ॥ - 'ग्रहणं-क. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणसंख्याविचार: न्यायमजरी [चौद्वमते अनुमानोपपत्तिवर्णनम्, तन्निराकरणं च] तत्रैतत्स्यात् - अविदितसौगतकृतान्त नामेतच्चोद्य, । 'ते'हिविकल्पविषये वृत्तिमाहुः शब्दानुमानयोः ।। तेभ्यः संबन्धसिद्धौ च नानवस्था, न संप्लवः ॥ ९६ ॥ तथा हि -दर्शनममनन्तरोत्पत्त्यवाप्तदर्शनच्छायाऽ,रज्य. मानव विकल्याः प्रत्यक्षायन्ते। तदुल्लखितकाल्पनिकतदिनरपरावृत्त स्वभाव मामान्याकारप्रनिटोऽयमनुमान व्यवहारः पारम्पर्येण मणिप्रभामणिबुद्धि त् तन्मूल इति तत्प्राप्तयेऽवकल्पते, न पुनः प्रत्यक्षकसमधिगम्यं वस्तु स्पृशति कुतः संप्लव ? कुतो वाऽनवस्था? तदेतद्वञ्चनामात्रम्। यो हि तादाम्यतदुत्पत्तिस्वभाव प्रतिबन्ध इष्यते स किं वस्तुधर्मः ? विकल्पागे पताकारधर्मो वा? तत्र न यमागेपितधर्मो भवितुमर्हति । वस्तु वस्तुना जन्यते, वस्तुच एतच्च द्यम-असति -संप्लवे अनुमानानुत्थित्याक्षेपः । तेभ्यःविकल्पेम्य । दर्शनत्यादि । प्रत्यक्षं निर्विकल्पसविकल्पभेदभिन्नम्। तत्र प्रथमाक्षसन्निपातजन्यं यत् निर्विकल्पकादिपदवाच्यं स्वलक्षण वषयकं ज्ञानं. तदेव मुख्य प्रत्यक्षं, प्रमाणभूत च। तदनन्तरक्षणादिषु । जायमानं विल्पिशब्दवाच्य सामान्यविषयकं ज्ञानं तु, प्रत्यक्षपदाच्यस्वलक्षणज्ञानानुविशयित्वात् प्रत्यक्षपदवाच्यं न प्रमाणम् किन विकल्परूपं तत् अनुमानादिकमपि विकल्परूपमेव । अथापि- मणिप्रभायां मणिबुद्धया प्रवृत्तस्य परंपरया यथा मणिलाभ:- तथा विकल्पात् प्रवर्तमान: पुरुष तन्मूलभूतस्वलक्षणज्ञानविषय वस्प्राप्नोति परंपग्या, इति अनुमानस्य प्रत्यक्षस्य च विषयभेदात् न प्रमाणसंप्लव इति भावः ।। वञ्चनामात्रमिति। तादात्म्यतदुत्पत्तिरूपा व्याप्तिः किं वस्तुन एव धर्म: ? उत विकल्पविषयस्यावस्तुनः ? नान्त्य:-क्षणिकपरंपराया: सत्यत्वेन वायकारणभावादेरवस्तुधर्मत्वासं - वात् । अवस्नो हि कुत: कारणापेक्षा ? न हि रजुसर्प: कारगजन्यः। एवञ्च व्याप्ति: वस्तुधर्म एवेति वक्तव्यम् । तथा च वस्तु विकल्पविषयो न भवति, तद्धर्मः प्रतिबन्धः परं विकल्पेन गृह्यत इति डिम्भप्रलो- नमिति ॥ ___ तथा-क. त्ति-ख. 'तु-ख. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 आह्निकम् १] प्रमाणसंप्लवसाधनम् वस्तुम्वभावं भवेत् । तस्माद्वस्तुधर्मः प्रतिबन्धः । विकल्पैश्च वस्तु न स्पृश्यते, तत्प्रतिबन्धश्च निश्चीयत इति चित्रम् ॥ - इदं च 'सु'भाषितम् ! वस्तुनोः प्रतिबन्धः तादात्म्यादि:, गम्यगमकत्वं च विकल्पारोपितयोरपोहयो; तदेवं अन्यत्र प्रतिबन्धः अन्यत्र तद्हणोपायः ; 'अन्यत्र प्रतीतिः, अन्यत्र' प्रवृत्तिप्राप्ती इति सर्व केतवम्। न च दृश्यसंस्पर्शशून्यात्मनां विकल्पानां दर्शनच्छाया काचन संभवति । इदन्तान हित्व'संस्पष्टत्वाद्यपि वस्तुसंस्पर्शरहितम किश्चित्करं अप्रमाणत्वानपायात् ॥ अप्रमाणपरिच्छिन्नः प्रतिबन्धश्च, तत्वतः । न परिच्छिन्न एवेति ततो मिथ्याऽनुमेयधीः ॥ ९७ ॥ ' अथाभिमतमेवेदं बुद्धयारूढत्ववर्णनात् । हन्तं ! तात्त्विकसंबन्धसाधनव्यसनेन किम् ? ॥ ९८ . उक्तमर्थ सोपालम्भं प्रकटयनि-इदं ति। इदमिति किम् ? इत्यत्राई -वस्तुनोनित्यादि। अपोहयोरिति। विकल्पो हि सामान्यविषयकः, सामान्यं चापोहरूपमित्यत एवमुक्तम् । अन्यत्र प्रतिवन्धःवस्तुनोतिः। अन्यत्र तद्हणोपायः - अवस्तुनो अपोहयोर्गन्यगमकभावः। अन्यत्र प्रतीतिः- अवस्तुविषयः विकल्पः । अन्यत्र प्रवृत्तिप्राप्ती-अवस्तु(सामान्य )विषयिणी प्रवृत्तिः । प्रतिस्तु वस्तु. विषयिणीति। विकल्पानां दर्शनच्छायानुरञ्जनात् दर्शनपदवाच्यत्वमित्यशं दूषयति-न चेति। जपाकुसुमादिहि स्वसंबद्ध एव स्फटिके लौहित्यमापादयति। विकल्पानां तु दर्श-विषयवस्तुसम्बन्ध एव नास्ति । यदि स्यात् तदा प्रमाणसंप्लवो जागरूकः । एवञ्च विन्ध्यहिमाचलयोरिव सर्वथा संम्बन्धशून्ययोः कथं छायानुवृतिरिति । ननु विकल्पे प्रकारभानेऽपि निर्विकल्पविषयस्य विशेष्यस्यापि भानात्-अस्त दर्शनच्छायापत्तिर्विकल्पस्येत्यत्राहइदन्तति। इदन्ताया. विकले कलुषितत्वेन वस्तुरूपत्वं नास्त्यवेत्यर्थः ॥ भन्तत: अनुमानोपपादनमेव न शक्यमित्युपसंहरति-अप्रमाणेति ॥ 'म-ख. नः-क. दि-ख. 'अन्यत्र-ग. स्प-खं. त-क. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 प्रमाणसंख्याविचार: [अनुमाने प्रमाणसंप्लवः सर्वथा दुर्वार: ] यथा च सामान्यविषये प्रत्यक्षाभ्युपगममन्तरेण सम्बन्धग्रहण - मरमानमिति विसंष्टुलमनुमानं, एवं अवगतसम्बन्धस्य द्वितीयलिङ्गदर्शनमपि दुरुपपादमिति ततोऽपि संप्लवापलाविनामनुमानमुत्सीदेत् ॥ न ह्यसाधारणांशस्य लिङ्गत्वमुपपद्यते । विना न चानुमानेन सामान्यमवगम्यते ॥ ९९॥ [ न्यायमश्वरी सैवावस्था तत्रापि स एवान्योऽन्यसंश्रयः । स एव च विकल्पानां सामर्थ्यशमनक्रमः ॥ १०० ॥ अतः सम्बन्ध विज्ञानलिङ्गग्रहणपूर्वकम् । अनुमानमनिहत्य कथं संप्लवनिह्नवः ॥ १०१ ॥ [विषयद्वैविध्याङ्गीकारेऽपि प्रमाण संप्लवः दुर्वारः ] अपि च विषय द्वैविध्यसिद्धावपि प्रत्यक्षानुमाने एव परस्परमपि संप्लवेयाताम् । यतः -, प्रत्यक्षत्वं परोक्षोऽपि प्रत्यक्षोऽपि परोक्षताम् । देशकालादिभेदेन विषयः प्रतिपद्यते ॥ १०२ ॥ द्वितीयेति । महानसादौ व्याप्तिग्रहणकाले प्रथमं लिङ्गदर्शनम् । ततः पर्वतादौ तादृशव्याप्तिविशिष्टधूमदर्शनं द्वितीयमावश्यकम् । व्याप्तिरूपप्रकार शून्यो हि केवलधूमः न बहिमनुमापयेत् । अतश्च पुनरपि प्रमाणसंप्लवो दुर्वार इति भावः ॥ 6 एतदेवोपपादयति--न ह्यसाधारणेत्यादि । असाधारणांश:स्वलक्षणमात्रम् । सामान्यं -- व्याप्यत्वादिरूपम् । न हि महानसदृष्ट एव धूमः पर्वते वयनुमितिहेतुर्भवितुमलमिति यावत् । सेवेत्यादि । नावज्ञातसम्बन्धं' इत्यादिनाऽभिहिता इत्यर्थः । अतश्चानुमानमामाण्यवादिनां प्राणवर्जनीय इत्युपसंदरति- -अत इति । सम्बन्धविज्ञानलिङ्ग. ग्रहगेति द्वंद्वः । अधिकं पूर्वभेव निरूपितम् । अनिहृत्य - अङ्गीकृत्येति यावत् ॥ प्रत्यक्षत्वमित्यादि । परोक्षोऽपि विषयः प्रत्यक्षत्वं प्रत्यक्षोऽपि विषयः परोक्षतां देशकालादिभेदेन प्रतिपद्यते । दूरात् धूमेन वह्निमनुमाय Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] प्रमाणसंप्लव साधनम् क्षणभङ्गं निषेत्स्यामः सन्तानो यश्च कल्पितः । दर्शितप्राप्तिसियादौ संप्लवेऽपि स तादृशः ॥ १०३ ॥ 91 [जात्यवयविप्रभृतीनां स्थिराणां सत्वात्ममाणसंलत्रः दुर्वारः ] यदपि जात्यादिविषयनिषे 'घ' मनोरथैः संप्लवपराकरणमध्यवसितं - तत्र जात्यादिसमर्थन मेवोत्तरी करिष्यति । तावकैर्दूषणगणैः कालुष्यम पनीयते । तद्वानवयवी जातिरिति वार्तै' व' भद्रिका ॥ १०४ ॥ [गृहीतग्राहित्वेऽपि नाप्रामाण्यम् ] यदपि विरोधवैफल्याभ्यां न संप्लव इत्युक्तं -- तत्र वैफल्यं, अनधिगतार्थ गन्तृत्व विशेषणनिवारणेनैव प्रतिसमाहितम् । विरोधोऽपि नास्ति ; पूर्वज्ञानोपम'दैन' 'नेदं रजतम्' इतिवत् उत्तरविज्ञानानुत्पादात् । अनेकधर्मविसरविशेषितवपुषि धर्मिणि कदाचित् केनचित् कश्चिन्निश्चीयते धर्मविशेष इति को विरोधार्थः ? पर्वतं गच्छन् तमेव वह्निं प्रत्यक्षीकरोति । एवं जलान्तस्थः स्फटिकः परोक्षः स एव बहिःस्थः प्रत्यक्ष, इति । ननु वस्तुनः प्रतिक्षणं भङ्गात् अनुमानविषय: अन्यः, अन्य एव च प्रत्यक्षस्येति कथं देशकालादिभेदेन संप्लवः ? इत्यत्राह - क्षणभङ्गमिति । किञ्च दर्शितप्राप्तिसिद्धीनां निर्वाहाय यदा सन्तानः कल्पितः, - तदा तेनैव प्रमाण संप्लवः सिद्ध इत्याह- सन्तान इति ॥ 'अवयवी जातिरिति वार्तैकभद्रिका' इत्युक्तं निराकरोति - यदपीति । तद्वान्- नानाप्रमाणगम्यत्वेनापनीतदोषः । अवयवी जातिश्चेति वार्ता साधीयस्येवेत्यर्थः ॥ प्रतिसमाहितमिति । अनधिगतार्थगन्तृत्वस्य प्रमाणलक्षणत्वे हि तच लक्षणं नास्माक , एकेन प्रमाणेनावगते प्रमाणान्तरप्रवृत्तिर्विफलेति दोषः मिति न दोष इति भावः । उपमर्दः - बाधः । विसरः – समुदायः । अनेकधर्मविशिष्टो हि धर्मी । स च कदाचिदेकाकारेण, कदाचिच्चाकारान्तरेण गृह्यत इति न विरोध इत्यर्थः ॥ 1 धन- ख. क-ख. 3 दें-क. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 प्रमाणसंख्याविचार: न्यायमरी [समानविषयत्वेऽपि शब्दलिङ्गयो: विलक्षणप्रतीतिजनकत्वम् ] यदपि प्रत्यक्षस्य शब्द लिङ्गयोश्च समानविषयत्वे सति सदृशप्रतीतिजनकत्वमाशङ्कितम्-तत्र केचिदाचक्षते-विषयसाम्येऽप्युपायभेदात् प्रतीतिभेदो भवत्येव ; दूराविदूरदेशव्यवस्थित पदार्थप्रतीतिवत् ॥ ___ अन्ये तु मन्यन्ते-नोपायभेदात् प्रतीतिभेदो भवति, अपि तु विषयभेदादेव। सन्निकृष्टविप्रकृष्टग्रहणेऽपि विषयौ भिद्यते । दुरात् सामान्यधर्ममात्रवि शिष्टस्य धर्मिणो ग्रहणम् : अदूरात्तु सकल'तद्तविशेष'साक्षात्करणम्। 'दिमाः प्रत्यक्षानुमानशब्द. प्रमितयः प्र'मेय भेदात् भिद्यन्ते ॥ विशेषधर्मसंवद्धं वस्तु स्पेशति नेत्रधीः। व्याप्तबोधानुसारेण तन्मात्रं तु लैङ्गिकी । १०५॥ . शब्दात् तत्तदवच्छिन्ना' वाच्ये सञ्जायते मतिः । शब्दानुवेधशून्या हि न शब्दार्थे मतिभवेत् ॥ १०६॥ ___ 'समान विषयत्वे च जायते सदृशी मति:' इत्युक्तं प्रतिसमाधत्तेयदपीति । उपायभदात् इन्द्रिय-व्याप्तिज्ञान-सादृश्यज्ञान-शब्दरूपोपायभेदादित्यर्थ ॥ ननु एकस्यैव सतः वातुन: कथं सन्निकर्षविप्रकर्षभेदात् भेदः इत्यत्राह-- दूरादिति। सकलोत । योग्यसकलेत्यर्थः ॥ प्रत्यक्षानुमानादीनां विविच्य विषयान् दर्शयति ---विशेषेति । तद्वन्मात्रं - व्याप्त्यवगतधर्ममात्र विशिष्टधर्मिण लैङ्गिकी मति. स्पृशतीत्य वयः । तत्तदच्छिन्ना - तत्तद्वाचकशब्दावच्छिन्न।। शब्देनार्थोपस्थितिवेलायां तत्तदर्थस्य तत्तच्छब्दवाच्यतयोपस्थितिरिति भावः। एतदेवोपपादयति -- शब्देति । शब्दार्थ-शब्दोपस्थापितेऽर्थे ॥ ननु द्वितीयेऽस्मिन् पक्षे कथं संप्लवः ? प्रत्यक्षादीनां विषयव्यवस्थाया । विशेष-ख. य-ख. ' तीति-क. ' वदवच्छिन्ना-ख. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 03 आह्निकम् १] प्रमाणसंप्लवव्यवस्थे [प्रत्यक्षादीनां विषयवैलक्षण्येऽपि संप्लवोऽप्यस्त्येव] कथं तर्हि तेषां संप्लवः ? सर्वत्र विषय भेदस्य दर्शितत्वात्सत्यम्-धर्म्यभिप्रायेण संप्लवः कथ्यते । इमो तु पक्षी प्रत्यक्षलक्षणे विस्तरशो विचारयिष्यते। सर्वथा तावदस्ति प्रमाणानां संप्लव इति सिद्धम् ॥ ... [भाष्योक्तप्रमाणसंप्लवोदाहरणम् तदुदाहरणं तु भाष्यकार: प्रदर्शितवान्–'अग्निराप्तोपदेशात् प्रतीयते, अमुत्रेति ; प्रत्यासीदता धूमदर्शनेनानु'मीयते ; प्रत्यासन्नतरेण उपलभ्यते' इत्यादि ॥ . [भाष्योक्तप्रमाणव्यवस्थोदाहरणम् ] क्वचित्तु . व्यवस्था दृश्यते-यथा “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यस्मदादेगिमादेव ज्ञानं, न प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् । स्तनयित्नुशब्दश्रवणात् तद्धेतुपरिज्ञानमनुमानादेव, न प्रत्यक्षागमाभ्याम् । 'स्वहस्तादौ प्रत्यक्षादेव प्रतीतिः, न शब्दानुमानाभ्याम्" इति । तस्मात् स्थितमेतत्-प्रायेण प्रमाणानि प्रमेयमभिसंप्लवन्ते, कचित्तु प्रमेये व्यवतिष्ठन्तेऽपीति || .[प्रमाणसंप्लवोपसंहारः] इत्युद्धताखिलपगेदितदोषजात. संपातभीतिरिह संप्लव एष सिद्धः । सर्वाश्च सौगतमनम्सु विरप्ररूढाः भग्नाः प्रमाणविषयद्वयसिद्धिवाञ्छाः ॥ १०७॥ उक्तत्मात्, इति शङ्कते कथमिति। धर्म्यभिप्रायेणेति। धर्मभेदेन विषयव्यवस्थायामपि तत्तत् माणगम्यधर्मविशिष्टधर्मिणः सर्वत्रानुगतत्वादस्त्येव संप्लव इत्यर्थः । इमो पक्षौ–केचित्पक्षः, अन्ये तु पक्षश्च ॥ - अग्निरित्याद्यर्थानुवादमात्रम् ॥ व्यवतिष्ठन्त इति गन्धादी विषये द्रष्टव्यम् , घ्राणैकग्राह्यत्वात् गन्धस्य॥ संपात:--'धारा संपात आसारः'। इह-अस्मिन् सहर्शने । प्रमाणेति । प्रत्यक्षानुमानरूपप्रमाणद्वय-स्वलक्षणसामान्यरूपविषयद्वयसिद्धी वाम्छा येषां ते तथा ॥ 1 तेषां-क. विचारयिष्येते-ख. मिमी-ख. स्वहस्तौ द्वौइतित-ख Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 प्रमाणसंख्याविचारः न्यायमजरी [प्रमाणसंख्याधिक्यपरीक्षा एवं तावत् न्यूनत्वं सङ्ख्यायाः परीक्षितम्, आधिक्य मिदानीं परीक्ष्यते ॥ तत्र अर्थापत्या सह प्रत्यक्षादीनि पञ्च प्रमाणानीति 'प्राभाकरः ॥ अभावेन सह षडिति भाट्टः॥ संभवैतिह्याभ्यामष्टाविति केचित् ॥ अशक्य एव प्रमाणसङ्ख्या नियम इति सुशिक्षितचार्वाकाः ॥ [अर्थापत्तेरतिरिक्तप्रमाणत्वम् । तत्र भाट्टास्तावदित्थमर्थापत्तिमाचक्षते दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोsन्यथा नोपपद्यत इत्यर्थान्तरकल्पना अर्थापत्तिः। दृष्ट इति--प्रत्यक्षादिभिः पञ्चभिः प्रमाणैः, श्रुत इति-कुतश्चन लौकिकाद्वैदिकाद्वा शब्दादवगतोऽर्थः। ततोऽन्यथाऽनुपपद्यमानार्थान्तरकल्पनाऽर्थापत्तिः-इत्येवं षट्प्रमाणप्रभवत्वेन षवेधाऽसौ भवति ॥ पश्चेति। तथाऽऽह शालिकनाथः प्रकरणपञ्चिकायाम् -- 'तत्र पञ्चविधं मानं प्रत्यक्षमनुमा तथा । शास्त्रं तथोपमानार्थापत्ती इति गुगेर्मतम्' इति ॥ ___ अभावः-अनुपलब्धिः । षडिति । 'प्रत्यक्षादेश्च षट्कस्य ' 'प्रमाणषटकविज्ञात: ' इत्यादि वार्तिकम् ॥ सुशक्षितेति। प्रथा च 'प्रत्यक्षमेकं चार्वाका:' इति पूर्व मुक्तं तु अशिक्षितचार्वाकविषय मिति भावः ॥ दृष्ट इत्यादि-'यद्यपि दृष्टः श्रुतो वा' इत्यादिः भाष्ये दृश्यते । भाष्य च भाट्टा भाकरसाधारणम् । अतः ‘भाः' इत्युल्लेख : न युज्यत इव । अथापि भट्टानुय यिमिः पार्थसारथिमित्रै: विरचितायां शास्त्रदीपिकायां भाष्यानुपूर्वीतौल्यदर्शन त् एतत्प्रकरणे शक्ति निराकरणरंभस्य दर्शनाञ्च पार्थसारथ्यादि. मतमेवात्र दूषितमिति प्रतिभाति । अतएव 'भाट्टाः' इत्युक्तं, न तु 'भट्टः' इति । गुरुमतं तु प्रत्येकं विचार्यते । नोपपद्यत इति । इतिशब्दः हेतुवचनः । दृष्टः श्रुतो वा इत्युक्तं विवृणोति---दृष्ट इति । ततः-श्रुतात् अर्थात् । भस्य कल्पना' इत्यत्रान्वयः। षट्प्रमाणेति-प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दार्थापत्यनुपलब्धिरूपेति शेषः ॥ प्रभाकरः-स्त्र. 'मानाद-ख. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अर्थापत्तरतिरिक्तप्रमाणत्वम् 95 [श्रुतार्थापत्तेः वैलक्षण्यम् ] दृष्टवचनेनोपलब्धिवाचिना गतार्थत्वेऽपि श्रुतार्थापत्तेः 'पृथगभिधानं प्रमाणैकदेशविषयत्वेन प्रमेयविषयार्थापत्तिपञ्चकविलक्षणत्वात् ॥ [प्रमाणषट्कपूर्विकाः षडापत्तयः] ___ तत्र प्रत्यक्षपूर्विका तावदर्शपत्तिः-प्रत्यक्षावगतदहनसंसर्गोद्गतदाहाख्यकार्यान्यथाऽनुपपत्त्या वढेर्दाहशक्तिकल्पना ॥ अनुमानपूर्विका--देशान्तरप्राप्तिलिङ्गानुमितमरीचिमालिगत्यन्यथाऽनुपपत्त्या तस्य गमनशक्तिकल्पना ।।। ___ उपमानपूर्विका--उपमानज्ञानावगत गोरिण्डादिसारूप्यविशिष्ट गवयादिप्रमेयाऽन्यथाऽनुपपत्त्या तस्य तज्ज्ञानग्राह्यत्व'शक्तिकल्पना' इति॥ _ ननु दृष्ट इत्यत्र दर्शनपदं न प्रत्यक्षमात्रपरम् , अनुमानादिपरत्वस्यानुपदमेव वर्णितत्वात् ; किन्तु प्रमाणसामान्यपरम् । एवञ्च शब्दस्यापि तेनैव गतार्थत्वात् दृष्टः श्रुतो वा इति विभागः किं निबन्धन इत्याशङ्कय समाधत्तेदृष्टेति । प्रमाणकदेशविषयत्वेनेति । इतरत्र अर्थकल्पनम्, अत्र तु प्रमाणस्य शब्दस्य कल्पनमित्यर्थः । स्पष्टीकरिष्यते चेदमुपरिष्टात् ॥ 'तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञाताहाहाहहनशक्तता। वह्नेः-' इति श्लोक वार्तिकोक्तं मनसि कृत्वाऽऽह - प्रत्यक्षावगतेति । अस्य दाहाख्यकार्ये अन्वयः। अत एवास्याः प्रत्यक्षपूर्वकत्वम् ॥ '.. अनुमितात् सूर्ये यानात तच्छक्तियोग्यता' इत्युक्तं स्मृत्वाऽऽह --- देशान्तरेति । देशान्तरप्राप्तिरूपात् लिङ्गात् अनुमिता या मरीचिमाले:सूर्यस्य गति:, तदन्यथानुपपत्त्येत्यन्वयः। तस्य-सूर्यस्य । - 'गवयोपमिताया गोः तज्ज्ञानग्राह्यता मता' (श्लो-वा-अर्था.) इत्युक्त स्मरमाह-उपमाने ति। उपमानज्ञानावगतं यत् गोपिण्डसारूप्यं, तद्विशिष्टगवयेत्यन्वयः । तस्य-गवयस्य । तज्ज्ञानग्राह्यत्वेति । गवयपदजन्यज्ञानविषयत्वेत्यर्थः ॥ - पृथग्वि-ख. न्यगत्य-क. गवयसारूप्यविशिष्टगोपिण्डादिप्रमेयाऽ-ख. 'कल्पना-क. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 अर्थापत्तिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी तदिमास्तावदतीन्द्रियशक्तिविषयत्वादापत्तयः प्रमाणान्तरम् । शक्तेः प्रत्यक्षपरिच्छेद्यत्वाऽनुपपत्तेः तदधीनप्रतिबन्धाधि'गम'वैधुयेणानुमानविषयत्वायोगात् ॥ अन्वयव्यतिरेको हि द्रव्यरूपानुवर्तिनौ । शक्तिस्तु तद्गता सूक्ष्मा न ताभ्यामवगम्यते ॥ १०८॥ शब्दोपमानयोस्तु अत्र संभावनैव नारतति अर्थापत्तेरे वैष विषयः॥ अर्थापत्तिपूर्विका यथा'-शब्दकरणिकार्थप्रतीत्यन्यथाऽनुप पत्त्या शब्दस्य वावकशक्तिमवगत्य तदन्यथाऽनुपपत्त्या तस्य नित्यत्वकल्पना। सा चेयं शब्दपरीक्षायां वक्ष्यते ॥ अभाव पूर्विका' तु भाष्यकारेणोदाहृता-जीवतश्चैत्रस्य गृहाभावमवसाय तदन्यथाऽनुपपत्त्या बहिर्भावकल्पना-इति ॥ ननु कार्यदर्शनादर्शनाभ्यां शक्तेरनुमेयत्वसंभवे कथमनुमानाविषयत्वम् ? इत्यत्राह-अन्वयेति। अयमर्थः-अन्वयव्यतिरेकदर्शनं च न शक्ति कार्ययोः संभवति। किन्तु द्रन्यस्वरूपकार्ययोरेव । न हि वह्निशक्तिसत्वे दाहः, तदभावे तदभाव: इति वक्तुं शक्यते ; शक्तेरतीन्द्रियत्वात्। अतश्च यथा प्रत्यक्षेण न शक्तिसिद्धि' तथाऽनुमानेनापि ; किन्वर्थापत्त्यैवेति । अत्रशक्तिसिद्धौ॥ 'अभिधानप्रसिद्धयर्थमर्थापत्त्यावबोधितात् । शब्दे बोधकसामर्थ्यात तन्नित्यत्वप्रकल्पनम्' इति वार्तिकमनुसन्दधन्नाह - अर्थापत्तीति। तदन्यथानुपपत्त्या-वाचकत्वशक्तिमत्त्वान्यथाऽनुपपत्त्या । शब्देऽनित्ये तन्नाशे शक्तरपि नाशात् कालान्तरे तत्पदात् शाब्दबोधानुपपत्तिरित्यादिकं शब्दनित्यत्वाधिकरणेऽभिधास्यत - इति वार्तिकोक्तं स्वयमप्यनुसरन् माह-सा चेयमिति॥ भाष्यकारेण - शबरस्वामिना ॥ 1 गत-क. ' त्वात्-क. का-क. 'परीक्षः-क. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ११ अर्थापत्तेरतिरिक्तप्रमाणत्वम् 97 [अर्थापत्ति: नानुमानम्] ननु दृष्टेन 'अदृष्टसिद्ध'रनुमानमेवेदं स्यात्-न नुमानं-सामग्रयभावात् । पक्षधर्मतादि सामग्रया यज्ञान'मुत्पद्यते तदनुमानमिति तार्किकस्थितिः। सा चेह नास्ति। बहर्भावविशिष्टे चैत्रे, 'चत्रविशिष्टे' बहिर्भावे वाऽनुमेये कस्य लिङ्गत्वमिति चिन्त्यम् । गृहाभावविशिष्टस्य वा चैत्रस्य? चैत्राभावविशिष्टस्य वा गृहम्य! गृहे चैत्राभावस्य वा? 'तत्र चैत्रादर्शनस्य वा? न चैषामन्यतमस्यापि पक्षधर्मत्वमस्ति। न हि गृहं वा, चैत्रो वा, तदभावो वा, तददर्शनं वा चैत्रस्य धर्मः, तहिर्भावस्य वेत्यपक्षधर्मत्वादन्यतमस्यापि न लिङ्गत्वम् ॥ .. [प्रमेयानुप्रवेशाच अर्थापत्तिर्नानुमानम् ] अपि च प्रमेयानुप्रवेशप्रसङ्गादपि नेदमनुमानम् । तथा हिआगमावगतजीवनस्य गृहाभावेन चैत्रस्य बहिर्भावः परिकल्प्यते, इतरथा मृतेनानैकान्तिको हेतुः स्यात् । अभावश्च गृहीतः सन् बहिर्भावमवगमयति, नागृहीतः; धूमवत् । अभावग्रहणं च ___ 'ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनात् एकदेशान्तरेऽसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमान' इति मीमांसकैर्लक्षणात् तार्किकेत्युक्तम्। 'बहिर्देशविशिष्टेऽर्थे देशे वा तद्विशेषिते । प्रमेये, यो गृहाभाव: पक्षधर्मस्वसौ क्थम् ? तदभावविशिष्टं तु गृहं धर्मो न कस्यचित् ' - इतिवार्तिकोक्तमुपपादयति-बहि वेत्यादि । यद्यप्यर्थापत्तिसामान्यस्यैवानुमानानन्तर्भावो वर्णनीयः, अथापि अभावपूर्विकां दृष्टान्तीकृत्य शावरभाष्येऽतिरिक्तत्वसाधनात् स एव क्रमोऽत्राप्यादृत: । बहिर्भावचैत्रयो: पक्षसाध्ययोर्विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहेणानुमानद्वयमुपन्यस्तम् । एवमुत्तरप्रकरणं सर्व श्लोकवार्तिकमनुसृत्यैव वर्णितमिति पृथक्पृथक् न वार्तिकं सर्वत्र प्रदर्श्यते, ग्रन्थविस्तरमियेत्यवगन्तव्यम् ॥ ___'जीवतश्च गृहाभावः पक्षधर्मोऽत्र कल्प्यते। तत्संवित्तिर्बहिर्भावं न चाबुध्वोपजायते'-इत्यादिवार्तिकोक्तमनुवदति-अपि चेत्यादिना। प्रमेयानुप्रवेशो नाम प्रमाणेन गम्यस्य प्रमेयस्य प्रमाण एव क्रोडीकरणम् । चैत्रः, सिद्धसिद्धे-ख. 'सामग्रया हि-क. मुपजन्यते-ख. 'वत्राभावविशिष्टे-स्व. चैत्रा-ख. त५ ख. NYAYAMANJARI Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 अर्थापत्तिप्रकरणम न्यायमञ्जरी सकलसदुपलम्भकप्रमाणप्रत्यस्तमयपूर्वकम् । इह तु सदुपलम्भक मस्त्येव जीवनग्राहि प्रमाणम् । जीवनं हि क्वविदस्तित्वमुच्यते । अप्रत्यस्तमिते तु सदुपलम्भके प्रमाणे कथमभावः प्रवर्तेत ?' इति प्रवामान एवासौ सदुपलम्भकं प्रमाणं पृथग्विषयमुपस्थापयति---- यहिरस्य भावः, गृहे त्यभाव इति । तेन जीवतो बहिर्भावव्यवस्थापनपूर्वकगृहाभावग्रहणोपपत्तेः प्रमेयानुप्रवेशः॥ ___ अनुमाने तु धूमादि लिङ्गग्रहणसमये न मनागपि तदनुमेयदहनलिङ्गयनुप्रवेशस्पर्शो विद्यत इति ॥ ननु अर्थापत्तावपि किं प्रमेयानुप्रवेशो न दोषः ?-न दोष इति ब्रूमः--प्रमाणद्वयसमर्पितैकवस्तुविषयाभावभावसमर्थनार्थमर्थापत्तिः प्रवर्तमाना प्रमेयद्वयं परामृशत्येव, अन्यथा तद्धटनायोगात् । बहिर्वर्तते, गृहेऽसत्वादित्युक्ते मृते व्यभिचारात, शास्त्राद्यवगतजीवनस्य गृहेऽसत्वादित्येव हेतुर्वाच्यः। गृहे अभावग्रहश्च प्रतियोगिग्राहकसर्वप्रमाणाप्रवृत्तावेव संभवेत् । भागमाथवगतत्वात् चैत्रसद्भावस्य प्रतियोगिग्राहकप्रमाणप्रवृत्त्या अभावाग्रहणे प्रसक्ते, गृहे चैत्रे प्रवर्तमानं अनुपलब्धिरूपं प्रमाणं, सत्त्वग्राहक प्रमाणं अन्यविषयं नियोजयति, सत्त्वस्य बहिर्विषयत्वादिति । एवञ्च अनुमानेन निर्णेयः यः बहिःसद्भावरूपोऽर्थः स लिङ्गज्ञान एवं विषयो भवत्येव। आगमात्तु सत्त्वं गृहीतं, अनुपलब्ध्या त्वसत्वं ; न युभयमेकस्य संभव ; नाप्यन्यतराप्रामाण्यं, तुल्यत्वात, अतः इदं प्रमाणद्वयं विषयभेदेन परस्परविरोधं व्यवस्थापयति-गृहेऽभावः, बहिःसत्त्वमिति । एवञ्च हेतुज्ञानकाल एव साध्यस्यापि स्वयं व्यवस्थापनात् न प्रमाणान्तरापेक्षाऽस्तीति अर्थापत्तिर्नानुमानमिति । न ह्येवमनुमाने लिङ्गज्ञानकाल एव साध्यस्यापि भानम् । मतो विलक्षणेयमापत्तिः ॥ 'भन्यथानुपपत्तौ तु' इत्यादिना वार्तिकोक्तं वैलक्षण्यमुपपादयितुं स्वयमाक्षिपति, नन्विति। तत्रापि हि प्रमाणप्रवृत्तिकाल एव प्रमेयनिर्णयः उक्तरीत्याऽवर्जनीयः । ततश्च अर्थापत्त्या गम्यं किमन्यदस्तीत्यर्थः। प्रमाणद्वयंभावाभावप्राहक प्रमाणद्वयम् । परामृशत्येवेति । एतदुक्तं भवति -अयमेव 1र्तते-ख. तल्लिात-ख. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलिकम १] अर्थापत्तरतिरिक्तप्रमाणत्वम अतश्च येयमागमादनियतदेशतया क्वचिदस्तीति संवित्तिरभूत् , सैवेयं गृहाभावे गृहीते बहिरस्तीति संवितिर धुना संवृत्ता। तातो वैलक्षण्यात् नानुमानमर्थापत्तिः॥ [अर्थापत्तिस्थले व्याप्तिग्रहणमपि न संभवति] अतश्चैव-सम्बन्धग्रहणाभावात्भावाभावी हि नैकेन युगपद्वह्निधूमवत् । प्रतिबद्ध'तया 'बोर्बु शक्यौ गृहब हैःस्थितौ ॥ १०९ ॥ अन्यथाऽनुपपत्त्या च प्रथमं प्रतिबन्धधीः। पश्चाद्यद्यनुमानत्वं उच्यते, काममुच्यताम् ॥ ११ ॥ नन्वस्त्येव गृहद्वारे वर्तिनः सङ्गतिग्रहः। . भावेना भावसिद्धौ तु कथमेष भविष्यति ॥ १११ ॥ यत्र गृहे चैत्रस्य भावमवगम्य तदन्यथाऽनुपपत्या तदन्यदेशेषु नास्तित्वमवगम्यते-तत्र देशानामानन्त्यात् दुरधिगमः प्रतिबन्धः ।। प्रवृत्तिक्रमः अपत्तिप्रमाणस्य । अयमेव च विशेषोऽस्येतरप्रमाणेभ्यः । मत एवेयमंतिरिक्तं प्रमाणमुच्यतेऽस्मामिः । अतोऽयमपर्यनुयोज्यः- व्याप्त्यादिकमन्तराऽपि इन्द्रियं कथमर्थमवगमयतीत्यादिवत् । तत्तत्प्रमाणानामसाधारण्यं तु सर्वसम्मतमिति ।। सम्बन्धग्रहणाभावात् इत्यस्य ' प्रतिबद्धतया बोद्धं न हि शक्यौ' इत्यनेनान्वयः । अन्यथेत्यादि। यदि च, प्रतिबन्ध (सम्बधः-ज्याप्तिः)ग्रहणं प्रथमतः अर्थापत्त्यैव, ततश्चानुमानं प्रवर्तत इत्युच्यते--- तदा सिद्धमर्थापत्तेरतिरिक्तत्वमित्यर्थः। तदेतदुक्तं वार्तिक--'तेन सम्बन्धवेलायां सम्बन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् । अर्थापत्त्याऽवगन्तव्यः पश्चादस्त्वनुमानता' इति ॥ ननु सम्बन्धग्रहः अर्थापत्त्यैव संभवेदिति नायं निर्बन्धः । गृहद्वारे स्थितः पुरुषः बहिर्गच्छन्तं देवदत्तं पश्यन् युगपदेव देवदत्ते बहिर्भावं गृहेऽभावं च प्रत्यक्षेणैव गृह्णाति यदा तदा तयोः प्रत्यक्षेणैव सातिग्रहः सुलभ इति शङ्कतेनन्विति । समाधत्ते -भावेनेति । एष.--सङ्गतिग्रहः ॥ ___ उक्तमेोपपादयति-योति । एवञ्चोक्तस्थलेऽर्थापत्तिमन्तरा निर्वाहेऽपि भावेनाभावनिर्णयस्थले अर्थापत्तिरेव शरणीकरणीयेति भावः॥ 1-ख. 'द-ख. ध-ख. रोडं-ख. न-ख. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 अर्थापत्तिप्रकरणम् न्यायमजरी अनग्निव्यतिरे'कस्य' निश्चये धूमस्य का वार्तेति चेत्-उच्यतेतत्र धूमज्वलनयोः अन्वयग्रहणसंभवात् न व्यतिरेकग्रहणमाद्रियेरन् । भूयोदर्शन सुलभनियमज्ञानसंपाद्यमानसाध्याधिगम निर्वृत्तमनसां किमनग्निव्यतिरेकनिश्चयेन ? इह पुनरन्वयावसायसमय एव गम्यधर्मस्य दुरवगमत्वमुक्तं, अनन्तदेशवृत्तित्वात् ॥ अनुपलब्ध्या तन्निश्चय इति चेत्-न-मन्दिरव्यतिरिक्तसकलभुवनतलगततदभावनिश्चयस्य नियतदेशयाऽनुपलब्ध्या कर्तुमशक्यत्वात् । तेषु तेषु देशान्तरेषु परिभ्रमन् अनुपलब्ध्या तदभावं निश्चेष्यामीति चेत् --मैवम् -- गत्वा गत्वाऽपि तान् देशान् नास्य जानामि नास्तिताम् । कौशाम्ब्यास्त्वयि निष्क्रान्ते तत्प्रवेशादिशङ्कया ॥ ११२ ॥ तस्मादभूमिरियमसर्वज्ञानामित्यर्थापत्त्यैव तन्निश्चयः॥ ननु इत्थममुमर्थमनुमानान्निश्चेष्यामः-देशान्तराणि, चैत्रशून्यानि, चैत्राधिष्ठित देशव्यतिरिक्तत्वात् , तत्समीपदेशवदिति -न-प्रत्यनुमानोपहतत्वात्-देशान्तराणि, चैत्राव्यतिरिक्तानि, तत्समीपदेशव्यतिरिक्तत्वात् , चैत्राधिष्ठितदेशवत् इति। तस्मानियतदेशोपलभ्यमानपरिमितपरिमाणपुरुषशरीरान्यथाऽनुपपत्त्यैव तदितरसकलदेशनास्तित्वावधारणं तस्येति सिद्धम् ॥ अनग्नीति । न ह्मनग्निः सर्वो देशः सुगम: । अग्निशून्यदेशव्यावृत्तताज्ञानाभावे च धूमे व्यभिचारसंशयः स्यादेवेति शेषः। तत्र व्यतिरेकव्याप्तेरन्वयव्याप्त्युपष्टंभकत्वमेव, न स्वातन्त्र्येण वस्तुसाधकत्वमिति समाधत्तेतत्रेति ॥ तन्निश्चयः--देशान्तरासत्त्वनिश्चयः। तत्प्रवेशः--कौशाम्बीप्रवेशः । न हि सकलं भुवनतलं युगपदेवनामादृशेनोपलब्धं शक्यमिति भावः । इयं-भावेनाभावसिद्धिः । ___ तत्समीपदेशव्यतिरिकत्वादिति । चैत्रशून्यत्वेनास्मदिन्द्रियादिगोचरदेशव्यतिरिक्तत्वादित्यर्थः ॥ क-ख. मन-ख. न्य-ख. इति-क. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतार्थापत्तिनिरूपणम् [ श्रुतार्थापत्ति: ] पीनो दिवा च नातीति साकाङ्क्षवचनश्रुतेः । तदेकदेशविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ॥ ११३ ॥ इहैवंविधाकाङ्क्षवचनश्रवणे सति संमुपजायमानं रजनीभोजन विज्ञानं प्रमाणान्तरकरणकं भवितुमर्हति प्रत्यक्षादेरसन्निधानात् । न प्रत्यक्षं क्षपाभक्षणप्रतीतिक्षमम्, परोक्षत्वात् । नानुमानं, अनवगतसम्बन्धस्यापि तत्प्रतीतेः । उपमानादेस्तु शव नोदेति । तस्मात् शाब्द एव रात्रिभोजनप्रत्ययः ॥ किम् १] अत्र शब्दश्च न श्रूयमाण इममर्थममिवदितुमलम्, एकस्य वाक्यस्य विधिनिषेधरूपार्थद्वय समर्थन शून्यत्वात् । राज्यादिपदानामश्रवणात् अपदार्थस्य वाक्यार्थत्वानुपपत्तः । न च विभावरीभोजनलक्षणोऽर्थः दिवावाक्यपदार्थानां भेदः संसर्गे वा ; येनायमपदार्थोऽपि प्रतीयेत ॥ 1 101 ; पीन इत्यादि । कुमारिलोऽप्याह - 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्येवमादिवचः श्रुतौ । रात्रिभोजनविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ' इति । परन्तु प्रमेयमर्मविज्ञान चतुरो ग्रन्थकारः श्रुतार्थापत्तिप्रवृत्तिमूलं सूचयितुं पूर्वपक्षमलङ्कृत्य किञ्चिदन्यथा व्याचख्याविति बोद्धव्यम् । आकाङ्क्षा चात्र अर्थविषयिणी । क्षपाभक्षणं - रात्रिभोजनम् । सम्बन्धः - व्याप्तिः । शङ्कव नोतीति । उपमानस्य शक्तिमात्र ग्राहकत्वादिति शेषः । शाब्द एवेति । तस्मात् वाक्यान्तरेणायं बुद्धिस्थेन प्रतीयते इति वार्तिकमपि स्मर्तव्यम् ॥ ण-ख. ननु पदादनुवस्थितस्यापि संसर्गादेः वाक्यार्थत्वं सिद्धान्तेऽङ्गीक्रियते, एवं प्रकृतेऽप्यस्तु शाब्द एव बोधः इत्याशङ्कय समाधत्ते - न चेत्यादिना । अपदार्थोऽपि भेदः, संसर्गे वा वाक्यार्थो भवितुमर्हति न तदतिरिक्तः रात्रिभोजनादिरित्यर्थः । भेदः - विशेषः, व्यक्तिविशेष इति यावत् । घटत्वादिशक्तानां घटादिपदानां 'घटमानय' इत्यादौ व्यक्तिविशेष बोधकत्वं तात्पर्यवशात् इति व्यक्तिविशेषः परस्परसंसर्गश्च वाश्यार्थः सर्वैरभ्युपेयः । प्रकृते च रात्रिभोजनादिमन्यतररूप इति न शब्दस्तद्बोधक इति भावः ॥ 2 नां- क. च Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 अर्धापत्तिप्रकरणम् न्यायमजरी तस्मात् कल्प्यागमकृतं नकमत्तीति वेदनम् । तद्वाक्यकल्पनायां 'च' प्रमाणं परिचिन्त्यताम् ॥ ११४ ॥ नाऽध्यक्षमनभिव्यक्तशब्दग्रहणशक्तिमत् । न लिङ्गम् ; अगृहीत्वाऽपि व्याप्तिं तदवधारणात् ॥ ११५॥ क्वबिनित्यपरोक्षत्वात् व्याप्तिबोधोऽपि दुर्घटः । विनियोकी श्रुतिर्यत्र' कल्प्या प्रकरणादिभिः ॥ ११६॥ विनियोक्री हि श्रुतिः' सर्वत्र प्रकरणादौ वाक्यविद्भिरभ्युप.. गम्यते। यथोक्तम् 'विनियोकी श्रुतिस्तावत् सर्वेष्वेतेषु सम्मता' इति । तस्याश्च नित्यपरोक्षत्वात् दुरधिगमस्तत्र लिङ्गस्य प्रतिबन्धः। न च निशापदवचनस्य सत्ताऽनुमातुमपि शक्या, तस्यां साध्यायां भावान भावोभयधर्मकस्य हेतोरसिद्धावरुद्धानैकान्तिकत्वेनाहेतुत्वात् । न चात्र धर्म:' कश्चिदुपलभ्यते; यस्तेन तद्वान् , पर्वत इवाग्निमान् अनुमीयते ॥ 'तस्मात् वाक्यान्तरेणायं बुद्धिस्थेन प्रतीयते। तस्य चागमिकत्वेऽपि यत्तद्वाक्यं प्रतीयते । प्रमाणं तस्य वक्तव्यं प्रत्यक्षादिषु यद्भवेत् । न ह्यनुचारिते वाक्ये प्रत्यक्षं तावदिष्यते। नानुमानं न चेदं हि दृष्टं तेन सह क्वचित् ' इत्यादिवार्तिकोक्तं परिष्कृत्यानुवदति-तस्मादित्यादि। तस्मात् ... भेदसंसर्गातिरिक्तविषयकशाब्दबोधं प्रति पदजन्यपदार्थोपस्थितेः कारणत्वात् । अध्यक्ष अनमिव्यक्तशब्दग्रहणशक्तिमत् न इत्यन्वयः । मीमांसकमते शब्दस्य नित्यत्वात् अभिव्यक्तस्यैव श्रोत्रेण ग्रहणात् तथोक्तिः। न लिङ्गं - नानुमानम् । प्राचीनमते ज्ञायमानलिङ्गस्यैव अनुमितिकरणत्वेनानुमानशब्दवाच्यत्वम् । अत्र हेतुः-अगृहीत्वेति। व्याप्तिमगृहीत्वाऽपीत्यन्वयः। कल्प्यतां व्याप्तिज्ञानमित्यत्राह-कचिदिति ॥ ___शब्दस्य कुत्रचित् नित्यपरोक्षत्वमेवोपपादयति-विनियोक्रीत्यादिना। यत्र-यद्विषये। प्रकरणादिभिः यद्विषयिणी विनियाकी श्रुति: कल्प्या, तस्याः श्रुतेर्नित्यपरोक्षवं सिद्धमेवेत्यर्थः। प्रकरणादिभिरित्यादिना लिङ्गवाक्यस्थानसमाख्यानां ग्रहणम् । उक्तमर्थमुपपादयति -विनियोक्री हीत्यादि। वाक्यविद्भिः-मीमांसकैः। विनियोक्रीत्यादि। "श्रुतिलिङ्गवाक्य तु-ख. स्प-क. हि-क. मी-ख. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] भ्रतार्थापत्तिनिरूपणम् 103 न च दिवावाक्यं, तदर्थो वा' निशावचनानुमाने लिङ्गतां प्रतिपत्तुमर्हति अश्रते हि निशावाक्ये कथं तद्धर्मताग्रहः। श्रुते तु तस्मिन् तद्धर्मग्रहणे किं प्रयोजनम् ? ॥ ११७ ॥ दिवावाक्यपदार्थानां तिष्ठतु लिङ्गत्वं, अनुपपद्यमानतयाऽपि न निशावाक्यप्रत्यायकत्वमवकल्पते । पदार्थानां हि सामान्यात्मकत्वात् विशेषमन्तरेणानुपपत्तिः स्यात् , न वाक्यान्तरमन्तरेण । तस्मात् श्रूयमाणं वाक्यमेव तदेकदेशमन्तरेण निराकाङ्क्षप्रत्ययोत्पादकस्वव्यापारनिर्वहण सन्धिमनधिगच्छत् तदेकदेशमाक्षिपतीति सेयं प्रमाणैकदेशविषया श्रुतार्थापत्तिः ॥ प्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ' (जै. सू. ३-३-१४) इनि सूत्रवार्तिकस्थोऽयं श्लोकः। एतेषु प्रकरणादिषु सर्वेष्वपि स्थलेषु श्रुतिस्तावत् विनियोक्री-विनियोजिका सम्मता इत्यन्वयार्थः । अयं भावः । विनियोजकप्रमाणेषु श्रुत्यादिषु मध्ये पूर्वपूर्व प्रबलम्। उत्तरोत्तरं दुर्बलम । लिङ्गादीनि हि न साक्षाद्विनियोजकानि, किन्तु श्रुतिकल्पनयैव । धर्मस्य चोदनालक्षणत्वेन श्रुत्येकसमधिगम्यत्वात् । एवञ्च सर्वत्रापि लिङ्गादिषु श्रुतिकल्पनैव । सा च श्रुतिनित्यानुमेयैवेति तद्विषयकच्याप्तिग्रहणं दुर्घटमेव । अत्र वार्तिके सर्वे वेतेष्विति दृष्टया 'सर्वत्र प्रकरणादौ' इत्युक्तम् । यद्यपि लिङ्गादिग्वित्येव वक्तव्यं, प्राथम्यात् ; अथापि प्रकरणसमाख्ययोः बलाबलविचारप्रकरणस्थत्वात् अस्य वार्तिकस्य, 'प्रकरणादौ' इत्युक्तम् ।। दिवावास्यं, तदर्थो वा निशावाक्यानुमाने लिङ्गमिति विकल्प्य दूषयतिनचेत्यादिना। दिवावाक्य-दिवा न भुङ्क्त इति वाक्यम् । तद्धर्मताग्रहःनिशावाक्यधर्मत्वेन ज्ञानं दिवावाश्य य कथम् ? इत्यर्थः। धर्म:-लिङ्गम् । यदि च निशाभोजनवाक्यं श्रुतम् , ताई तदनुमानं नोत्तिष्टत्येवेति ॥ ____तदर्थो वा? इति द्वितीयकल्पं प्रतिवक्ति-दिवावाक्यपदार्थानामिति। सामान्यं हि पदार्थ: । विशेषश्च वाक्यार्थः। सामान्यानां विशेष विनाऽनुपपद्यमानत्वात् विशेषप्रत्यायनायालं भवेदा तत्पदार्थः, न तु वाक्यापस्थापनाय । मतमात्र निशावास्योपस्थिति: प्रमाणान्तराधीनैवेत्यर्थापत्तिसिद्धिरित्यर्थः।। 'ऽपि-ख. 'णं-ख. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 अर्थापत्तिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी [श्रुतार्थापत्तिस्थले अर्थानुमानमपि न संभवति] ननु ! अर्थादेव कथमर्थान्तरं न कल्प्यते? पीवरत्वं हि नाम भोजनकार्यमुपलभ्यमानं स्वकारण भोजनं, अनलमिव धूमः समुपस्था'पयतु तच्च वचसा कालविशेषे निषिद्धं तदितरकालविशेषविषयं भविष्यतीति किं वचनानुमानेन ? वचनमपि नादृष्टार्थ, अपि तु अर्थगत्यर्थमेव। तत् अस्य साक्षादर्थस्यैव कल्प्यमानभ्य को दोषः? यद्यवधानमाश्रीयते-उच्यते शब्दप्रमाणमार्गेऽस्मिन् अनभिज्ञोऽसि बालक! प्रमाणतैव न ह्यस्य साकाङ्क्षज्ञानकारिणः ॥ ११८ । पुरोऽवस्थितवस्त्वंशदर्शनप्राप्तिनिर्वृति। प्रत्यक्षादि यथा मानं न तथा शाब्दमिष्यते ॥ ११९ ॥ . वाक्यार्थे हि समग्राङ्गपरिपूरण सुस्थित । विधाय धियं नास्य व्यापारः पर्यवस्यति । १२० ॥ . तावन्त बोधमाधाय प्रामाण्यं लभत वचः। तदर्थवाचकत्वाञ्च तद्वाक्यं वाक्य मिष्यते ॥ १२१ ॥ तञ्च-भोजनं च। कालविशेषे-दिवा । तदितरकालः-रात्रिः । अर्थगतिः-अर्थावगतिः। वचनं खलु अर्थावगत्यर्थमेवापेक्षणीयं, अर्थावगतेरेवानुमानतः सिद्धौ मध्ये किं तेन ?. इत्यर्थः। तत्-तस्मात् । अस्यअनुमितेन शब्देनाभिधेयस्य ॥ समाधत्ते - उच्यत इति । . न हीत्यादि। निराकांक्षबोधजनकं वाक्यमेव प्रमाणम् । न तु यथाकथञ्चिद्यत्किञ्चिदर्थोपस्थापकम्, उन्मत्तवाक्यानामपि प्रामाण्यापत्तेः। प्रत्यक्षं तु पुरोवस्थितवस्तुनि साशानवगाहनेऽपि यावद्गहण प्रमाणं भवितुमर्हति । न तथा शब्दः। शब्दस्य व्यापारो हि यावताऽर्थपरिसमाप्तिः तावत्पर्यन्तं भवस्येव, एवं च श्रृतार्थापत्तिस्थले, श्रुतेन वाक्येन पूर्णस्य बोधस्यानिर्वाहात् , तद्वाक्यस्य प्रामाग्यरक्षणायैव वा वाक्यान्तरमेव कल्पनीयं, न स्वर्थमात्रं यथाकथञ्चित् । एवञ्च वाक्यान्तरकल्पनस्यैवाव परप्राप्तत्वे मध्ये त पूर्व अथकल्पनायाः का प्रसक्तिः? इति समुदितार्थः । त्था-क. दु-क. भि-ख. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 आह्निकम् १] श्रुतार्थापत्तेरावश्यकता शब्दैकदेशश्रुत्याऽतः तदंशपरिपूरणम् । कल्प्यं, प्रथममर्थस्य कुतस्तेन विना गतिः ? ॥ १२२ ॥ प्रायः श्रुतार्थापत्या च वेदः कार्येषु पूर्यते । तत्रार्थः कल्प्यमानस्तु न भवेदेव वैदिकः ॥ १२३ ॥ यो मन्त्रैरष्टकालिङ्गैः तद्विधिः' परिकल्प्यते । श्रुतिर्लिङ्गादिभिर्या च कल्प्यते विनियोजिका ।। १२४ ॥ विश्वजित्यधिकारश्च यागकर्तव्यताश्रुतेः । उत्पत्तिवाक्यं सौर्यादावधिकारविधिश्रुतेः ॥ १२५ ॥ तदंशेति। अश्रुतांशेत्यर्थः । कल्प्यमित्येतदनन्तरं एवञ्चेति शेषः । तेन विना-शब्दन विना अर्थस्य प्रथमं कुतः-केन प्रमाणेन गतिः-अवगति:निश्चय इति यावत् । ननु श्रुतार्थापत्तिस्थले कल्प्यमानस्यार्थस्य शाब्दरूपत्वानङ्गीकारे का हानि:? इति शङ्कायां 'प्रायशश्चानया वेदे व्यवहारो व्यवस्थितः । सोऽवैदिकः प्रसज्येत यथेषा मिद्यते ततः' इति वार्तिकोक्तमेव समाधानमाहप्राय इत्यादि । वार्तिकस्यायमर्थः-अनया-श्रुतार्थापत्यैव प्रायः सर्वोऽपि व्यवहारो वेदे वर्तते। केवलश्रोतार्थापेक्षया श्रुत्यर्थापत्तिसिद्धार्था एव वेदेषु बहवः । एवं स्थिते तेऽर्था यदि अनुमानगम्याः, तर्हि वेदगम्या न स्युः; तथा च तेषां धर्मत्वमपि न स्यात् । चोदनालक्षणत्वाद्धर्मस्येति । वैदिक:वेदैकगम्यः ॥ पूर्व कार्येषु ' इत्युक्तार्थे निदर्शनान्याह-यो मन्त्ररित्यादि। अष्टकाश्राद्धलिङ्गभूतैः मन्त्रैः अष्टकाश्राद्ध विधि: कल्पनीया। तथा च स्मृत्यधिकरणशाबरभाष्यम्-'अष्टकालिङ्गाश्च मन्त्रा वेदे दृश्यन्ते-तेषु वैदिकशब्दानुमानमिति' इति। श्रुतिरित्यादिः। अयमंश: पूर्वमेव 'विनियोकी श्रुतिस्तावत्' इत्यत्र विवृतः। विश्वजितीत्यादिः। विश्वजिदधिकरणे (४-३-५) 'तस्मात् श्रुत्येकदेशः सः' इतिश्रुतिखण्डभाष्यायुक्तोऽयमर्थः । भधिकारः-फलसम्बन्धः। फलमन्तरा कर्तव्यत्वविधिर्न संभवतीति फल विधिरनुमेयेति यावत् । सौर्यादाविति । 'सौर्य चळं निर्वपेत् ब्रह्मवर्चसकामः' इत्यस्य कर्मस्वरूपबोधकोत्पत्तिविध्यभावे वैयर्थ्य मिति दर्शपूर्णमासादिविधे ध:-स्व.. लि-क. ख. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 [न्यायमजरी अर्थापत्तिप्रकरणम् ऐन्द्रानादिविकारेषु कार्यमात्रोपदेशतः। यश्च प्रकृतिवद्भावो विध्यन्त उपपाद्यते ॥ १२६ ॥ तदेवमादौ सम्बन्धग्रहणानुपपत्तितः । श्रुतार्थापत्तिरेवैषा निस्सपत्नं विजृम्भते ॥ १२७ ॥ 'तया' श्रुत्यैकदेशश्च सर्वत्र परिकल्प्यते । अर्थकल्पनपक्षे तु न स्याद्वेदैकगम्यता ॥ १२८ ॥ . इत्यर्थापत्ति'रुक्कै पा षट्प्रमाणसमुद्भवा । [अर्थापत्ति: न प्रमाणान्तरम् , किन्तु अनुमानमेव] एषा विचार्यमाणा तु भिद्यते नानुमानतः " १२९ ॥.. प्रतिबन्धाद्विना वस्तु न वस्त्वन्तरबोधकम् । यं कश्चिदर्थमालोक्य न यः कश्चित् प्रतीयते ॥१३०॥ प्रतिबन्धोऽपि नाशातः प्रयाति मतिहेतुताम् । न सद्योजातबालादेः उद्भवन्ति तथा धियः ॥ १३१ ॥ रतिदशेन कल्पनमित्युक्तं सप्तमचतुर्थपादे। ऐन्द्राग्नेत्यादि । 'ऐन्द्राग्नमेका. दशकपालं निर्वपेत् प्रजाकामः' इति विहिताया इष्टेः दर्शपूर्णमासोकाङ्गातिदेश इति ‘इष्टिषु दर्शपूर्णमासयोः प्रवृत्तिः स्यात् ' (८-२-५) इत्यत्रोक्तम् । प्रकृतिवद्भाव:-प्रकृतिवत् भावः स्वरूपावाप्तिरित्यर्थः । विध्यन्तशब्दस्त्वेवं भाषित: शबरस्वामिभि:-'दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत' इति विध्यादिः। विध्यन्तोऽपि 'प्रधानविधिवर्जितं कृत्स्नं पौरोडाशिकं ब्राह्मणम्' इति (७-४-२०)। मर्थापत्तिपूर्वपक्षमुपसंहरति --इत्यर्थापत्तिरिति ॥ 'भिद्यते नानुमानतः' इत्युक्तमाक्षिपति- प्रतिबन्धादित्यादि । यः कश्चित् अर्थ इति शेषः । न हि घटं पश्चन् पटं कश्चिनिश्चिनोतीत्यर्थः । सद्योजातेति । न हि सद्यो जातो बालः धूमात् वह्नि प्रतिपत्तमलम् । अतः अज्ञात: प्रतिबन्ध: न निर्णय हेतुरित्यर्थः। तथा च पूर्वोदाहृतस्थले चैत्रस्य बहिर्भावादेः पूर्वमनवगतत्वेन कथं व्याप्तिग्रह इत्यर्थः। उक्तमर्थ 'तथा-क. रेवै क. ३ यत्कि-ख. 'व्य-क. च-ख. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम १] अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावः 107 न विशेषात्मना यत्र संबन्धमानसंभवः । तत्राप्यस्त्येव सामान्यरूपेण तदुपग्रहः ॥ १३२॥ अपि च-तेन विना नोपपद्यत इति 'कल्पनमपत्तिः । तेन विना नोपपद्यत इति च व्यतिरेकभणितिरियम्। व्यतिरेकश्च प्रतीतः, तस्मिन् सत्युपपद्यते इत्यन्वयमाक्षिपति। अन्वयव्यतिरेको च गमकस्य लिङ्गस्य धर्म इति कथमपत्तिः नानुमानम् ? केवलव्यतिरेकी हेतुरन्वयमूल एव गमक इति वक्ष्यामः॥ [शक्तिकल्पकार्थापत्तिनिराकरणम्] याश्च प्रत्यक्षादि पूर्विकाः शक्तिकल्पनायामर्थापत्तय उदाहृताः ताश्च शक्तेरतीन्द्रियाया अभावात् निर्विषया एव ॥ स्वरूपादुद्भवत् कार्य सहकार्युपवृह्मितात् । न हि कल्पयितुं शक्तं शकिमन्यामतीन्द्रियाम् ॥ १३३ ॥ [अतिरिक्तशक्तिसाधनम्] ननु शक्तिमन्तरेण कारकं का'रकमेव न भवेत् । यथा पादपं छत्तमनसा परशुरुद्यम्यते, तथा पादुकाद्यप्युद्यम्येत । प्रतिवक्ति-न विशेषात्मनेति। यद्विषये विशेषतो दृष्टं जिन संभवति, तत्राऽपि सामान्यतो दृष्टेनेव तदुपपत्तिरित्यर्थः। 'प्रतिबन्धाद्विना' इत्यारभ्यैव सिद्धान्तोपपादनं वा। संबन्धवानं-व्याप्तिज्ञानम् ॥ यद्यप्यर्थापत्तौ नान्वयन्याप्तिसंभवः, अथापि न्यतिरेकच्याप्तिरियमित्याहअपि चेत्यादि। ननु अभावयोरेव परस्परं व्याप्तिः, तेन च प्रतियोगिनः कथं सिद्धिः? न ह्यन्यत्र व्याप्तिः, मन्यस्य सिद्धिरित्युपपद्यते इति शङ्कायामाहव्यतिरेकश्चेति। तथा च व्यतिरेकन्याप्तिरप्यन्वयदायायैवेति । तथैवोक्तं कुसुमाञ्जली उदयनाचार्यैरपि ॥ - स्वरूपादित्यादि। सहकार्युपबृमितात स्वरूपात्-कारणवस्तुनः उन्नवत् कार्य अन्यां अतीन्द्रियां शक्तिं कल्पयितुं न हि शक्तमित्यन्वयः ॥ 'च-ख. क्ष-क. 'का-ख. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 अर्थापत्तिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी शक्तेरनभ्युपगमे हि द्रव्यस्वरूपाविशेषात् सर्वस्मात् सर्वदा सर्वकार्योदयप्रसङ्गः। तथा हि-विषदहनयोर्मारणे दाहे च शक्तावनिष्यमाणायां मन्त्रप्रतिबद्धायां स्वरूपप्रत्यभिज्ञायां सत्यामपि 'स्वकाय? दासीन्यं यत् दृश्यते, तत्र का युक्तिः ? न हि मन्त्रेण स्वरूपसहकारिसान्निध्यं प्रतिवध्यते तस्य प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्। शक्तिस्तु यतिबध्यत इति सत्यपि स्वरूपे सत्स्वपि सहकारिषु कार्यानुत्पादो युक्तः ॥ किञ्च सेवाध्ययनादिसाम्येऽपि फलवैचित्र्यदर्शनात् । अतीन्द्रियं किमपि कारणं कलिलतमेव धर्मादि भवद्भिः। अतः शक्तिरतीन्द्रिया तथाऽभ्युपगम्यतामिति ॥ शक्तेरतिरिक्तत्वनिराकरणम् ] तदेतदनुपपन्नम्-यत्तावदुपादान नियमादित्युक्तं-तत्रोच्यते। न हि वयमद्य किश्चिदभिनवं भावानां कार्यकारणभावमुत्थापयितुं पादपच्छेदाय कथं पादुकोद्यमप्रसक्तिरिति शङ्कायामाह-शक्तरित्यादि । परशुगदुकयोरुभयोरपि पादपच्छेदनानुगुणशक्तिशून्यत्वाविशेषे कुतः पादुका नोद्यम्यते पादपच्छेदाय? अत: शक्तिमत्त्वतदभावाभ्यामेव निर्वाहो वाच्य इत्यर्थः। मन्त्रेण प्रतिबद्धं विषदहनयो: स्वरूपमेव पूर्वस्वरूपापेक्षया मित्रं कुतो न स्यादिति शङ्कायामाह-स्वरूपप्रत्यभिज्ञायां सत्यामपीति । स्वरूपेत्यादि। स्वरूपस्य सहकारिणो वा सान्निध्यमित्यर्थः । पूर्व यादृशं स्वरूपं यादृशसहकारिसहकृतं दाहादिजनकमासीत, मन्त्रादिप्रयोगानन्तरं तत्र स्वरूपे महकारिषु वा सन्निहितानां 'तदेवेदं' इति प्रत्यभिज्ञासत्वात् शक्तिनाशमन्तरा कार्यानुदयो न निर्वोढुं शक्य इति भावः। अतिरिक्तशक्त्यङ्गीकारे वा कथं प्रतीकार: ? इत्यत्राह-शक्तिस्त्विति ॥ सेवा-गुरुशुश्रूषा। फलवैचित्र्यं-ज्ञानतारतम्य, शिष्यस्येति शेषः । अतः-- उक्तन्यायात् । तथेति । यथा चेतने धर्मः अतीन्द्रियः अङ्गीकृतः, तथा अचेतनेऽपि कार्यानुकूल: कश्चनाङ्गीकार्य एव । अन्यथा धर्माधर्मावपि न सिद्धयेतां इत्यर्थः ॥ उपादाननियमः पादपच्छेदनाय परशुरेवोपादीयते, न पादुकादीति नियमः। उपादानं-ग्रहणम् । न हीत्यादि। अयं भावः-अन्वयम्यतिरेको . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् । शरतिरिक्तपदार्थत्वनिरासः 109 शक्नुमः, किन्तु यथाप्रवृत्तमनुसरन्तो व्यवहरामः। न ह्यस्मदिच्छया आपः शीतं शमयन्ति, कृशानुर्वा पिपासाम् ॥ तत्र छेदनादावन्वयव्यतिरेकाभ्यां वा वृद्ध'व्यवहाराद्वा परश्वधादेरेव कारणत्वमध्यवगच्छाम इति तदेव तदर्थन उपाइनहे, न पादुकादीति ॥ [सर्वस्मात् सर्वदा सर्वोत्पत्तिप्रसङ्गवारणम् ] न च परश्वधादेः स्वरूपसन्निधाने सत्यपि सर्वदा कार्योदयः, स्वरूपवत् सहकारिणामप्यपेक्षणीयत्वात् , 'सहकारिसन्निधानस्य सर्वदाऽनुपपत्तः। सहकारिवर्गे च धर्मादिकमपि निपतति; तदपेक्षे कार्योत्पादे कथं सर्वदा तत्संभवः? धर्माधर्मयोश्च 'जगद्वैचित्र्यकार्यबलेन कल्पनमपरिहार्यम् । तयोश्च न शक्तित्वादतीन्द्रियत्वम् ; अपि तु स्वरूपमहिनैव; मनःपरमाण्वादिवत्॥ हि कार्यकारणभावज्ञापकौ, न तु कार्यकारणभावकल्पको। यथानुभवं लोक: प्रवर्तते। एवञ्च शक्तेरभावेऽपि परशुरेव छेदनायोपादीयते, तथानुभवात् । भन्यथा छेदनानुगुणा शक्तिः परशुमेवाश्रयते, न पादुकामिति कुत: अवगतम् ? भनुभवात्तथेति चेत् . सेनैवानुभवेनोपादानादिकमप्यस्तु, मध्ये किं शक्तिकल्पनयेति ॥ .. अशक्तत्वाविशेषात् सर्वस्मात् सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसन्न इति दोषं परिहरति-न चेति । ननु यादृशाद्वः दाहः, तादृशादेव मन्त्रादिप्रतिबद्धात् न दाहः । तदानीं च स्वरूपं सहकारिसान्निध्यं च तदवस्थमेवेति कथं न दाह इति शङ्कायां, सहकारिषु कालेश्वरादृष्टानामतीन्द्रियाणामप्यन्तर्भावात्, तदन्यतमलोपः संभावनाई इति न तेन शक्तिसिद्धिरित्याह-सहकारिवगै चेति ॥ - नन्वङ्गीकृतः अतिरिक्त: अतीन्द्रियः पदार्थः। तस्य शक्तिरिति वा धर्म इति वा यथेच्छं नाम क्रियताम् । न हानिरित्यत्राह-धर्माधर्मयोश्चेति। धर्माधौं हि चेतनगतावतिशयौ जगद्वैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्त्या सर्वैरप्यवश्यकल्प्यौ । तेनैव चेतनगतातिशयेन दाहादिप्रकृतकार्योत्पत्तेर्निर्वाहे भूतधर्मः शक्त्याख्यः भपूर्व: न कल्प्य इति भावः। ननु वयमप्यतीन्द्रियं सहकारिविशेषमेव शक्ति धूमः! को विशेषः । इत्यत्राह-तयोश्चेति ॥ 1वृद्ध-ख. सहकार्यादि-ख. वै-स्त्र. . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 अर्थापत्तिप्रकरणम् न्यायमजरी यदपि विषदहनसन्निधाने सत्यपि मन्त्रप्रयोगात् तत्कार्यादर्शनम् ,-तदपि न शक्तिप्रतिबन्धननिवन्धनम् ; अपि तु सामग्रधन्तरानुप्रवेशहेतुकम् ॥ ननु मन्त्रण' प्रविशता तत्र किं कृतम् ? न किञ्चित् कृतम् : सामग्रयन्तरं तु संपादितम् । काचिद्धि सामग्री कस्यचित् कार्यस्य हेतुः॥ स्वरूपं तदवस्थमेवेति चेत् ; यद्येवं अभक्षितमपि विषं कथं न हन्यात् ? तत्राऽऽस्यसंयोगाद्यपेक्षणीयमस्तीति चेत्, मन्त्राभावोऽ. प्यपेक्ष्यताम् । दिव्यकरणकाले धर्म इव मन्त्रोऽप्यनुप्रविष्टः कार्य प्रतिहन्ति ॥ शक्तिपक्षेऽपि वा मन्त्रस्य को व्यापारः १ मन्त्रेण हि शक्त शो वा क्रियते? प्रतिबन्धो वा ? न तावत् नांशः; . मन्त्रापगमे पुनस्तत्कार्यदर्शनात् ॥ . सामग्रथन्तरं-- विपरीता सामग्री ॥ तत्र-कारणस्वरूपे। काचिदिति। काचिदेव मन्त्राद्यघटिता सामग्री दाहादिकार्यस्य हेतुः । मन्त्रघटने च मन्त्राद्यघटितसामग्री शिथिला, मन्त्रादिघटितसामग्रयन्तरं चापतितम् , अतो न दाह इत्यर्थः ॥ तदवस्थमेवेति। न हि मन्त्रेण पूर्वतनसामग्रीस्वरूपे वैकल्यादिकमापादितम् । एवञ्च कुतो न दाइः इत्याशयः। अभक्षितमिति। विषस्य हि विनाशहेतुत्वं स्वरूपम् , एवं न अभक्षितं विषं कुतो न हन्ति ? यदि अभक्षिते हननशक्ति स्ति, तर्हि शक्तिरेव न सिद्धयेत्, अतः तत्र आस्यसंयोगोऽपि सहकारिसमुदायगतमङ्गीकर्तव्यम् । एवं प्रकृतेऽपि मन्त्राभावः सहकारिसमदायघटकः। मन्त्रसन्निधाने च मन्त्राभावरूपसहकारिण: वैकल्यं जातम। एवञ्च पूर्वतनसामग्री नष्टेति न दाहः । एवमेवोपपत्तौ किं भतीन्द्रियशक्तिकल्पनेनेत्यर्थः। एवमनङ्गीकारे शक्तयङ्गीकारेऽपि न निर्वृतिरित्याह-शक्तिपक्षेऽपीति । पुनरिति । अयं भाव:-ननु मन्त्रापगमे शक्तिः पुनरुत्पना। एवं चोपपद्यते कार्यदर्शनमिति चेत् - पूर्व प्रतिबन्धेन नष्टायाः शक्तेः मन्त्रिणा-ख. का-क. रो-क. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] शंकर तिरिक्तपदार्थत्वनिरास: प्रतिबन्धस्तु स्वरूपस्यैव शक्तेरिवास्तु ॥ स्वरूपस्य किं 'जातम् ? शक्तेरपि किं जातम् ? कार्योंदासीन्यमिति चेत्, तदितरत्रापि समानम् ॥ स्वरूपमस्त्येव, दृश्यमानत्वात् इति चेत ; शक्ति' रप्यस्त्येव', पुनः कार्यदर्शनेनानुमीयमानत्वादिति ॥ [शक्तेः नित्यत्वानित्यत्वविकल्पनेन दूषणम् ] किञ्च शक्तिरभ्युपगम्यमाना पदार्थस्वरूप वन्नित्या अभ्युपगम्येत ? कार्या वा ? नित्यत्वे --सर्वदा कार्योदयप्रसङ्गः । सहकार्यपेक्षायां तु स्वरूपस्यैव तदपेक्षाऽस्तु, किं शक्तया ? कार्यत्वे तु - शक्तेः पदार्थस्वरूपमात्र कार्यत्वं वा स्यात् ? सहकार्यादिसामग्री कार्यत्वं वा ? 111 पुनस्तत्रोत्पादे हेतु: वक्तव्यः । यदि कारणस्वरूपमात्रं शक्तेर्हेतुः ; तर्हि प्रतिबन्धककालेऽपि कारणस्वरूपस्य शक्तिहेतोः सच्चे कथं तन्नाशः । यदि च प्रतिबन्धकाभावविशिष्टं स्वरूपमेव शक्तेर्हेतुः तर्हि प्रतिबन्धकाभाव विशिष्टं स्वरूपं कार्यस्यैव हेतुरङ्गीक्रियतां किमन्तर्गडुना शक्तया ? इति ॥ प्रतिबन्धकेन शक्तिर्न नाश्यते, किन्तु तस्याः कार्यो मुख्यमात्रं वार्यते इति द्वितीयकल्पं प्रतिवक्ति - प्रतिबन्ध इति । कारणस्वरूपमेव प्रतिबन्धकसमवहितं चेत् कार्यविमुखं भवतीति कल्प्यताम् । किमन्तर्गडुना शक्त्या ? इति भावः ॥ ननु स्वरूपं प्रतिबन्धेन नाशयितुं न शक्यम् एवञ्च स्वरूपं प्रत्यकिञ्चिस्कारिणा प्रतिबन्धेन कथं कार्यनिरोध इति शङ्कते - स्वरूपस्येति । एवमाक्षेपपरिहारौ शक्तिपक्षेऽपि तुल्यावित्याह शक्तेरपीति । भतिरिक्तातीन्द्रियशक्तिकल्पनागौरव परमवशिष्यत इति शेषः ॥ अनुमीयमानत्वादिति । शक्तिनाशपक्षस्वनुपदमेव प्रतिक्षिप्त इत्यर्थः ॥ नित्येत्यादि । अत्र नित्यत्वं न सदातनत्वं, असंभवात् । किन्तु यावत्स्वरूपभावित्वमेव । ' पदार्थ स्वरूपवत्' इत्यनेनायमर्थः सूचितः । सहकार्य पेक्षायामिति । नित्याया अपि शक्तेः कार्यकरणार्थ सहकार्यन्तरापेक्षायामित्यर्थः । पदार्थस्वरूपमात्रेति । शक्त्युत्पत्तौ किं पदार्थस्वरूप 1 जातम् - ख. , 2 तोड़-ख. 'रप्यस्ति - ख. 4 दर्शनेनानुमेयत्वाद - क. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 अर्थापत्तिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी स्वरूपमात्रकार्यत्वे-पुनरपि सर्वदा कार्योत्पादप्रसङ्गः; सर्वदा शरुत्पादात्। सामग्रीकार्यत्वे तु 'कार्यमेव सामग्रीकार्यमस्तु किं अन्तरालवर्तिन्या शक्तया? [अतिरिक्तशक्त्यङ्गीकारे अनवस्थाऽप्यपरिहार्या] अशक्तात कारकात् कार्य न निष्पद्यत इति चेत् ; शक्तिरपि कार्य, तदुत्पत्तावप्येवं शक्तयन्तरकल्पनादनवस्था ॥... भनवस्थापरिहारशङ्का] आह-दृष्टसिद्धये ह्यदृष्टं कल्प्यते, न तु दृष्टविघाताय । शक्तयन्तरकल्पनायां शक्तिश्रेणीनिर्माण एव क्षीणत्वात् कारकाणां कायेविघातः स्यादिति एकैव शक्तिः कल्प्यते ; तत् कुतोऽनवस्था ? [एवमपि अक्तिरन्यथासिदैव अत्रोच्यते-यद्यदृष्टमन्तरेण दृष्टं न सिद्धयति, काममष्टं कल्प्यताम् । अन्यथाऽपि तदुपपत्तौ किं तदुपकल्पनेन? दर्शिता चान्य थाऽप्यु'पपत्तिः॥ मानं कारणम् ? उत तदतिरिक्ता सहकारिसामग्री? आये, यावत्स्वरूपं कार्योदयप्रसङ्गः । सहकार्यन्तरापेक्षायां प्रतिबन्धकाभावविशिष्टं स्वरूपं शक्ति प्रति कारणमिति खलु वक्तव्यम् । तत् कार्य प्रत्येवं कारणमित्यङ्गीकारेणैवोपपत्तौ मध्ये किं शक्तिकल्पनयेत्यर्थः ॥ . शक्तिरपीति । शक्तेरपि कारणाधीनत्वेन तादृशकारणस्यापि शक्तिमत्वावश्यंभाव इति क्रमेणानवस्थेत्यर्थः ॥ अनवस्थां परिजिहीर्षनि-दृष्टसिद्धय इति। कार्यनिर्वहणायैव कल्प्यमाना शक्तिस्तदनुरूपैव सिद्धर्यात । अनवस्थायां तु कथं तया कार्य निरुह्येतेति धर्मिग्राहकप्रमाणादेवानवस्थापरिहार इति भावः ।। दर्शिता चेति। 'मन्त्राभावोऽप्यपेक्ष्यताम्' इत्यादिनेत्याशयः ॥ 'वे-क. कार्य-ख. तस्क-क. थो-ख. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १ | शक्तेरतिरिक्तपदार्थत्वनिरास: 113 कल्प्यमानमपि चादृष्टं तत् कल्प्यतां यत् अनवस्थां नाव 'हेत' ; धर्मादिवत् ॥ अपि च व्यापारोऽप्यतीन्द्रियः शक्तिवदिष्यते भवद्भिः ; अन्यतरकल्पनयैव कार्योपपत्तेः किमुभयकल्पना गौरवेण ॥ • [शक्त्यनङ्गीकारेऽपि कारकाणां कारकत्वं निर्वहत्येव ] शक्तमव्याप्रियमाणं न कारकं कारकमिति चेत् ; तच्छतमिति 'तदा' कथं जानामि ? कार्यदर्शनात् ज्ञास्यामीति चेत्; व्यापारादेव कार्य सेत्स्यति ॥ पादुकादेर्व्याप्रियमाणादपि न पादपच्छेदो दृश्यत इति चेत्; प्रत्यक्षस्तर्हि व्यापारः, नातीन्द्रियः ; यतः कार्यदर्शनात्पूर्वमपि तत् - तादृशम् । यथा कल्पने अनवस्था नापादयितुं शक्या तथेत्यर्थः ॥ ननूक्तं तथैव धर्मिग्राहक मानादिति – इत्यत्राह - अपि चेति । उपपादितमेतत् पूर्वमेव ॥ 9 ननू भयमप्यावश्यकमेव । न हि शक्तमपि कारकं क्रिया वेशमन्तरा कार्यनिर्वर्तकम् | छेदनशक्तोऽपि परशुरुद्यमनादिरिक्तं कथं छेदकम् ? अत उभयमध्यावश्यकमेवेति शङ्कते -- शक्तमिति । जानामि -- जानीयां - श्रद्दध्यामिति यावत् । तत् कारकं, अथवा तस्मिन् कार्ये शक्तमित्यर्थः । कारकम्' इति पूर्ववाक्यादाकृष्टव्यन् । शक्तमन्याप्रियमाणमित्याद्यास्ताम् । प्रथमं 'शक्तं ' इति सिद्धौ उपरितनं सेत्स्यति । अतस्तदेव प्रथमं वक्तव्यं इत्यर्थः ॥ I व्यापारादेवेति । कार्यदर्शनात् व्यापार एवानुमीयताम् । कथं तावता शक्तिसिद्धिरित्यर्थः ॥ व्यापृतादप्यशक्तात् पादु ननु व्यापारादेव कार्यसिद्धिरनुभवविरुद्धा । कादेः छेदनासंभवात् । अत: शक्तिरप्यावश्यकीति शङ्कते - पादुकादेरिति । न दृश्यत इत्यन्वयः । तथा च पादपच्छेदानुगुणशक्तिः परश्वधादौ वर्तते, न पादुकादाविति कल्प्यमित्यर्थः । एवं तर्हि अतीन्द्रिया अतिरिक्ता च शक्तिः व्यापारश्चेत्युभयं न सिद्धये देवेत्याह- प्रत्यक्षस्तदति । व्याप्रियमाणत्वं हि उद्यमननिपातनादिक्रियान्वयित्वम् । तच प्रत्यक्षमेव । छेदनरूपकार्यस्यैव 1 हते क. NYAYAMANJARI 2 तथा - ख. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 अापत्तिप्रकरणम् न्यायमञ्जरी व्याप्रियमाणत्वं शातमायुष्मता। कार्यानुमेयो हि व्यापार: 'कार्य। विना न शायेतैव। कार्य त्वन्यतरस्मादपि घटमानं नोभयं कल्पयितुं प्रभवति-इत्यलं प्रसङ्गेन। प्रकृतमनुसरामः। तस्मादतीन्द्रियायाः शक्तरभावात् निर्विषया यथोदाहृताः ता अर्थापत्तयो भवन्ति ॥ [सिद्धयन्त्यपि शक्तिः अनुमानेनैव, न स्वर्थापत्या] अपि वा शक्तिरतीन्द्रिया अनुमानस्यैव विषयः । कार्यस्य कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तिग्रहणात्, स्वरूपमात्रस्य च कारणत्वानिहणात् अधिकं किमप्यनुमास्यते; सा शक्तिरिति ॥ शब्दनित्यत्वसिद्धौ तु याऽर्थापत्तिरुदाहृता। . . तस्याः शब्दपरीक्षायां समाधिरभिधास्यते ॥ १३४॥ [भभावपूर्विकाया अर्थापत्तरप्यनुमानान्तर्भाव:) अभावपूर्विकाऽप्यर्थापत्तिग्नुमानमेव । जीवतो गृहाभावेन लिङ्गभूतेन बहिर्भावावगमात् । चैत्रस्य गृहाभावों धर्मी, बहिर्भावेन तत्रानिष्पत्या छेदनेन न हि तदनुमेयम् । एवञ्च कार्यानुमेयः अतीन्द्रियो व्यापारी नास्त्येव। परिदृश्यमानादप्यतिरिक्त ऽतीन्द्रियो व्यापारः अस्ति चेत् , मलं शक्तिकल्पनया। कार्यानुरोधेन कल्पनायां अन्यतरेणेव कार्यस्योपपत्तः भन्यतरदेव सिद्धयेत् , नोभयमपीति । सिद्धान्ते च अतीन्द्रियेणादृष्टादिनेव सर्वनिर्वाहात् शक्तिरनुपयुक्तैवेति॥ शक्तिसाधनायार्थापत्तिरपि नावश्यकीत्याह-अपि वेति । कारणत्वानिर्वहणादिति । प्रतिबन्धकसमवधानकाले स्वरूपमात्रेण कार्यानुदयादिति भावः॥ उदाहृतेति। अर्थापत्तिपूर्वकार्थापत्तिनिरूपणप्रकरणे (१६ पु.) इत्यर्थः। तस्याः समाधिरित्यन्वयः॥ गृहाभावः-गृहे अभाव इत्यर्थः। चैत्रप्रतियोगिकः गृहानुयोगिक: मभाव इति यावत् । एवमुत्तरत्र मनुष्यगृहाभावत्वादित्यादावपि बोध्यम् । धर्मी-पक्षः। तथा च चैत्रप्रतियोगिकगृहानुयोगिक: अभाव:, बहिर्गत । कार्यात्-क. वाहात्-क. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावः 115 तद्वान् इति 'साध्यो धर्मः'; जीवन्मनुष्यगृहाभावत्वात्, पूर्वोपलब्धवं विधगृहाभाववत् । यथा धूमो धर्मी, वह्निमानिति साध्यो धर्मः ; धूमत्वात् , पूर्वोपलब्धधूमवदिति ॥ अतश्च गृहादीनां लिङ्गत्वाशङ्कनं, अपाकरणं च आडम्बरमात्रम्॥ . [प्रमेयानुप्रवेशदोषपरिहारः]] यत्पुनः प्रमेया'नुप्रवेशदूषणमभ्यधायि--तदपि न सांप्रतम् ॥ 'किं प्रमेयमभिमतमत्रभवताम् ? किं सत्तामात्रम् ? उत बहिर्देशविशषितं सत्त्वम् ? . सत्तामात्र तावदागमादेवावगतमिति न प्रमाणान्तरप्रमेयतामवलम्बते । बहिर्देशविशेषितं तु सत्त्वं भवति प्रमेयम् । तस्य तु तदानीमनुप्रवेशः कुतस्त्यः ? गृहाभावग्राहकं हि प्रमाणं गृह एव सदुपलम्भकप्रमाणावकाशमपाकरोति, न बहिस्सदसत्त्वचिन्तां प्रस्तौति ॥ मृतस्य जीवतो दूरे तिष्ठतः प्राङ्गणेऽपि वा। . गृहाभावपरिच्छेदे न विशेषोऽस्ति कश्चन ॥ १३५ ॥ चैत्रपतियोगिकः, जीवन्मनुष्यप्रतियोगिकगृहानयोगिकाभावत्वात्, यत्र जीवन्मनुष्यप्रतियोगिकगृहानुयोगिकाभावत्वं तत्र बहिर्गतमनुष्यप्रतियोगिकत्वं, यथा जीवन्मैत्रप्रतियोगिकगृहानुयोगिकाभावे इति अनुमानाकार निष्कर्षः ॥ आगमात् ज्योतिश्शास्त्रादिरूपात् , लौकिकाद्वा मातोश्चरितात् । एवञ्च सत्त्वपामान्यं न पुनरनुमीयते, येन प्रमेयानुप्रवेशः आपायते। बहिर्देशे सत्त्वं स्वनुमेयं भवति। अस्य त्वनुमानकाले कथमनुप्रवेशः ? इत्यर्थः । गृहाभावग्राहकमिति । गृहे अभावग्रहणं प्रति जीवनग्राहि प्रमाण न हि बाधकम् । गृहेऽभावग्राहकस्य गृहे सत्त्वग्राहकेणैव विरोधः। अतः गृहेऽभावग्रहणकाले बहिस्सत्त्वरूपस्य प्रमेयस्य नानुमवेशमसङ्ग इति भाव: ॥ गृहेऽभावग्रहणकाले बहिस्सदसत्त्वस्यासंबन्धं उपपादयति-मृतस्येति। मृतस्य वा दूरे-देशान्तरे जीवतो वा मागणे-बहिः यत्र कुत्रचित् तिष्ठतोऽपि वा 'साध्योऽर्थ:-ख. धर्मी-ख. प्रवेशा-ख. सां-क. वृत्तस्य-ख. . ... . + Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 अर्थापत्तिप्रकरणम् न्यायमचरी जीवन विशिष्टस्त्वसौ गृह्यमाणो लिङ्गतामश्नुते, व्यभिचारनिरासात्। न च विशेषणग्रहणमेव प्रमेयग्रहणम्। जीवनमन्यत् , अन्यञ्च बहिर्भावाख्यं प्रमेयम् ॥ [जीवनमन्यत्, अन्यश्च बहिर्भाव:] ननु जीवनविशिष्टगृहाभावप्रतीतिरेव बहिर्भावप्रतीतिः। नैतदेवम् - जीवनविशिष्टगृहाभावप्रतीतेः बहिर्भावस्य प्रतीतिः', न तत्प्रतीतिरेव बहिर्भावप्रतीतिः । न हि दहनाधिकरणे धूमप्रतीतिरेव दहनप्रतीतिः ॥ 'ननु' धूमादन्य एव दहनः । इहापि गृहाभावजीवनाभ्यामन्य एव बहिर्भावः॥ ___पर्वतहुतवहयोः सिद्धत्वात् मत्त्वर्थमात्रं तत्रापूर्वमनुमेयम : एव महापि बहिर्देशयोगमात्रमपूर्वमनु'मेयम् ॥ यदि तु तदधिकं प्रमेय मिह नेष्यते, तदा गृहाभावजीवनयोः स्वप्रमाणाभ्यामवधारणादानर्थक्यमर्थापत्तः। तस्मात् प्रमेयान्तरसद्भावात तस्य च तदानीमननुप्रवेशात् न प्रमेयानुप्रवेशो दोषः॥ गृहेऽभावपरिच्छेदे न कश्चन विशेषोऽस्तीति । गृहे अभावग्राहकेण नैतेषां ग्रहणसंभवः, प्रमाणान्तरावसेयानि तानीति भावः ।। प्रमेयाननुमवेशमेव स्पष्टयति-जीवनेति ॥ नन्विति। तथा च जीवनविशिष्टगृहाभावबहिर्भावयोर विशेषात् जीवनग्रहणकाले बहिर्भावस्यापि ग्रहणात् प्रमेयानुपवेशो दुर्वार इति भावः : उभयमपि नैकं, किन्तु ज्ञाप्यज्ञापकभावापने ते इत्याह जीवनेति ॥ __ ननु वह्निधूमयोः भेदसत्त्वात् धूममतीतिरेव न दहनप्रतीतिरूपा। प्रकृते तु जीवनविशिष्टगृहाभाव बहिर्भावयोर्न विशेषोऽस्तीति शक्कते --- नन्विति। ममाधत्ते-इहापीति ॥ पुनः शङ्कते-पर्वतेति। समाधत्ते-एवमिहापीति ॥ उभयोरभेदे अर्थापत्तिरपि निरर्थिकेत्याह-यदि ‘त्विति । यदि 1व: प्रतीत:-ख. किन्तु-ख. 'मानम्-क. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभाकरमतम् माहिकम् १] 117 अर्थापत्तावपि च तुल्य पवायं दोषः, तत्राप्यर्थात् अर्थान्तरकल्पनाऽभ्युपगमात्। 'दृष्टः श्रुतो पाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यर्थकल्पना' (शा. भा. १-१-५) (शा. दी. १-१-५) इत्येवं' ग्रन्थोपनिबन्धात् । तस्य तस्मात् प्रतीतिरिति यत्र व्यवहारः, तत्रा'वश्यं तत्प्रतीतौ तदनुप्रवेशो दोष एव । स्वभावहेताविव तद्बुद्धिसिद्धघा तत्सिद्धः प्रमाणान्तरवैफल्यादिति ।। - [प्रभाकरोक्त: अर्थापत्तरतिरिक्तत्वसाधनप्रकारः] प्रभाकरास्तु प्रकारान्तरेणानुमानाद्भेदमत्राचक्षते। अनुमाने गमकविशेषणमन्यथाऽनुपप'नम', अनलं विना धूमो हि नोपपद्यते; इह तु विपर्ययः, गम्यो गमफेन विना नोपपद्यते। गम्यः--. बहिर्भावः, स जीवतो गृहाभावं विना नोपपद्यते, गृहानिर्गतो जीवन् बहिर्भवतीति ॥ जीवतो गृहाभावप्रतीतिरेव बहिर्भावमनीतिः स्यात्, तर्हि व्यथैवार्थापत्तिः जीवनस्य शास्त्रण गृहाभावस्यानुपलब्ध्या च ग्रहणात्, तदतिरिक्तस्य च प्राशस्य ममेयस्यानङ्गीकारात् इत्यर्थः ॥ ननु वहिधूमौ विलक्षणौ स्वतन्त्रौ पदाथौं, प्रकृते तु धम्यक्यमेवेत्यस्ति विशेष इति चेत् तत्राह-अर्थापत्तावपीति। अयं-प्रमेयानुमवेशः । अर्थादित्यादि। यदि चोभयोरभेदः तदा स्ववचनविरोध: अर्थादर्थान्तरकल्पनेति लक्षणकथनात् । अतश्वोभगोरान्तरस्वापलपनेऽपसिद्धान्त एवेति । दोष एवेति। तस्मात् यस्य प्रतातिः, तत् कारणभूतं तदेव कथं स्यादित्याशयः। स्वभावहेताविवेति। इदमुत्तरत्र व्यक्तीभविष्यति। तद्द्धीति । हेतुज्ञाने जाते तदेव यदि साध्यज्ञानरू स्यात् तदा साध्यस्य हेतुज्ञानकाल एव सिद्धत्वात् कुत: प्रमाणान्तरगवेषणमित्यर्थः ॥ गमकविशेषण-गमकं-ज्ञापकं तद्रूपं विशेषण-धर्मः हेतुः-ज्ञापको हेतुरिति यावत् । अन्यथा-साध्यं विना! गृहाभाव मिति । गमकमिति शेषः । नोपपद्यत इति । धूमः खलु गमकमात्रं, न तु धूमाधीनो वहिः, तत्र-ख.. 'वाच्य-ख. प्रत्वम्-ख. . गृहा-क. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . माक्षपः] 118 अर्थापत्तिप्रकरणम् न्यायमजरी - भाष्यापप्येवं योजयन्ति–दृष्टः श्रुतो वार्थः अर्थकल्पना; अर्थान्तरं 'कल्प'यतीत्यर्थः। यतः सा कल्पना प्रमेयद्वारिकाऽन्यथा पपद्यत इत्यर्थः। एवं गम्यगमकयोरनुपपद्यमानत्वविपर्ययात् भुमानात् प्रमाणान्तरमियमर्थापत्तिरिति बहिर्भावोऽन्यथानोपपद्यते', स च गम्य इति ॥ [प्रभाकरपक्षप्रतिक्षेप:] एतदपि ग्रन्थवेषम्योपपादनमात्र, न तु नूतनविशेषोत्प्रेक्षणम गम्ये तावदगृहीते सति तद्तमनुपपद्यमानत्वं कथमवधार्यत? गृहीते तु गम्ये किं तद्तानुपपद्यमानत्वग्रहणेन ? साध्यस्य सिद्धत्वात॥ पुरा तद्तमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वं गृहीतमासीदिति चेत् - अहो ! महाननमानाविशेषः। इदं हि पूर्व प्रतिबन्धग्रहणमुक्त स्यात् ॥ अयोगोलके व्यभिचारात् प्रकृते तु जीवतो गृहेऽभावः न केवलं गमकं, अपि तु एतदधीन एव बहिर्भाव इति अनुमानाद्विशेषः ॥ योजयन्तीति । तथा च बृहती -" ननु च दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इति गमकस्यान्यथाऽनुपपद्यमानतां दर्शयति । अग्रन्थज्ञो देवानां प्रियः । दृष्ट श्रुतो वाऽर्थोऽर्थकल्पना । किमिदमर्थकल्पनेति ? दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽर्थान्तरस्य प्रमाणमित्यर्थः। अन्यथा नोपपद्यत इति केन सम्बध्यते ? प्रमित्येति वदामः; अन्यथाऽनुपपद्यमानत्वमापादयन् अर्थान्तरं गमयति " इति। अत्र नन्वित्यादिराक्षेपः, . भग्रन्थज्ञ इत्यादिः समाधान म्। कलानाशब्दोऽत्र प्रमितिपरः' इति ऋजुविमलायां शालिकनाथः । कल्पना- कल्पकः ; प्रमितिरेव हि कल्पनापदार्थः। प्रमेयद्वारिका--- जीवतो गृहेऽभावाधीना ।। एतदपीत्यादि । बहिर्भाव: जीवतो गृहेऽभावं विना नोपपद्यते इति कथने हि बहिर्भावज्ञानमप्यावश्यकमेव प्रथमम्, धर्मिण एवाज्ञाने तत्रानुपपद्यमानस्वरूपधर्मग्रहणासंभवात्। पूर्व तद्हणे तु अन्तत: व्याप्तिग्रहण एव पर्यवस्यतीति नास्त्यनुमानाद्विशेष इत्यर्थः ॥ जन-क. नोपमबते कक्प्यमानाऽर्थोऽन्यथा नोपाचते-ख. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अर्थापत्तिस्थले ब्याप्तयुपपादनम् 119 अपि च बहिर्भावस्य गृहाभावं विनाऽनुपपत्तिरित्युक्ते तस्मिन् सति तस्योपपत्तिर्वक्तव्या। सा च का? किमुत्पत्तिः? झप्तिर्वा ? यदि शप्तिः, सा चानुमानेऽपि। 'गम्यं गमकं विना' नास्ति, तस्मिन् सत्यस्तीति समानः पन्थाः॥ . उत्पत्तिस्तु गृहाभावात् बहिर्भावस्य 'दुर्भणा। प्राक्सिद्ध हि गृहाभावे तदुत्पादः क्षणान्तरे ॥ १३६ ॥ कारणं पूर्वसिद्धं हि कार्योत्पादाय कल्पते । तेनेकत्र क्षणे जीवन् न गृहे न बहिर्भवेत् ॥ १३७ ॥ तस्माद्यत्किञ्चिदेतत् ॥ [अर्थापत्तौ हेतो: कारकत्वमपीति पक्षान्तरनिराकरणम् ] एवञ्च यदेके शप्त्युत्पत्तिकृतमिह वैलक्षण्यमुत्प्रेक्षितवन्तःधूमेनाग्निर्गम्यत एव, गृहाभावेन बहिर्भावो जन्यतेऽपीति-तदपि प्रत्युक्तं भवति । [अर्थापत्तिस्थले व्याप्त्युपरादनम् ] यसु सम्बन्धग्रहणाभावादित्युक्तं तदपि न सुन्दरम्मन्दिरद्वार वर्तिनस्तदुत्पत्तेः ।। 'यत: सा कल्पना प्रमेयद्वारिका' इत्यंशं दूषयति-अपि चेति । सा च-उपपत्तिश्च ॥ सम्मतमर्थ दूषयति-उत्पत्तिरिति। कारकहेतुहेतुमद्भावस्थले हि पूर्वक्षणे कारणम्, अनन्तरक्षण एव च कार्यमिति संप्रतिपन्नम्। प्रकृते तु एकस्मिमेव काले गृहावच्छेदेन अभावः, बहिरवच्छेदेन भाव इति भावाभावयोः न कालभेदः । अतः एकस्मिन्नेव क्षगे अनयो: न उत्पाद्योत्पादकभावसंभव इत्यर्थः। तेनेति । गृहेऽभावस्य पूर्वसिद्धत्वाभावात् तेन बहिर्भावः नोस्येतेति ॥ ____शप्तीति । ज्ञप्त्युत्पत्तिभ्यां कृतमित्यर्थः। प्राभाकरैः सम्मुग्धतया उक्तार्थस्यैव स्वेन विकल्प्य दूषणात् अस्य रक्षस्य स्वत एव निरास इति भावः ।। ___ उक्तमिति । पूर्व ९९ पुटे द्रष्टव्यम् ! तदुत्पत्तेः -सम्बन्धग्रहणोस्पत्तेः॥ । गम्यस्य गमकं-क. दुर्वला-क. राशुद्धं द्वारा-ख. . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 अर्थापन्तिप्रकरणम् न्यायमञ्जरी पतञ्च स्वयमाशङ्कय न तैः प्रतिसमाहितम् । उदाहरणमन्यत्तु व्यत्ययेन प्रदर्शितम् ॥ १३८ ॥ गृहभावेन बहिरभावकल्पनमिति, 'तत्रैतदेव वक्तव्यम् । इयमभावपूर्थिका न भवत्येवार्थापत्तिः। षडापत्तीः प्रतिज्ञाय इमामभावपूर्विका अर्थापत्तिमुक्ता उपनैय्यायिक केसरिकटाक्षपातभीतां इह गहने हरिणीमिव यदुपेक्ष्य गम्यते- तदत्यन्तमत्रभवतामनार्यजनोचितं चेष्टितम् ॥ त्वदेकशरणां बालामिमामुत्सृज्य गच्छतः। कथं ते तर्कयिष्यन्ति मुखमन्या अपि स्त्रियः!॥ १३९ ।। भावेनाभावक ल्पना तु प्रत्यक्षपूर्विकैवार्थापत्तिः। तस्या अपि च न दुरवगमः सम्बन्धः । असर्वगतस्य द्रव्यस्य नियतदेशवृत्ते'क्लेशन तदितरदेशनास्तित्वावधारणात् । अनग्निव्यतिरेकनिश्चये च धूमस्य भवतां का गतिः ? या तत्र वार्ता सैवेदापि नो भविष्यति ॥ न च भूगेदर्शनावगम्यमानान्वयमात्रैकशरणतया-- स्वयमाशङ्कयेति । 'गृहद्वारि स्थितो यस्तु बहिर्भावं प्रकल्पयेत्' इत्यादिना वार्तिककृतेत्यर्थः। व्यत्ययेनेति। 'यदैकस्मिन्नयं देशे न तदान्यत्र विद्यते' इतीति शेषः । अवतारितं चेदं भट्टोम्बेकेन-'उदाहरणान्तरपरिग्रहेण परिहारमाइ' इति । इयमित्यादि। किन्तु भावपूर्विकैवेति शेषः। एवं प्रतिज्ञातदृष्टान्तपरित्यागिनं सोपहासमुपालभते -उपनैय्यायिकेत्यादि। गौतमादिमहर्षिभ्यस्तु भीतिः न्याय्येति उपहासः॥ प्रत्यक्षपूर्विकैवेति। गृहे विद्यमानत्वस्य प्रत्यक्षत्वादित्यर्थः। इयमपि नार्थापत्तिः, अपि तु अनुमानमेवेत्याह-तस्या अपीति। तदितरेति। तादृशद्रम्पदेशेतरेत्यर्थः । अनग्नोति। अनग्नेय॑तिरेकः। व्यतिरेकव्याप्तिर्हि प्रकृतहेतोरेवोपोद्वलकः । तथा च वह्नयभाववतो व्यावृत्यवगमरूपन्यतिरेकव्याप्तेरपि भवदृष्टयाऽर्थापत्तिरूपत्वेन अनुमानस्याप्यर्थापत्तावेवान्तर्भावः स्यादिति ॥ अन्वयसहचारदर्शनमात्रेणानुमानमवृत्तेः व्यतिरेकव्याप्तयभावेऽपि न क्षतिरिति शक्ते-न नेति। अस्य कथयितुमुचितमित्यनेनान्वयः । तत्रैव-ख. कटाक्ष-स्व. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] भ्रतार्थापत्तिरप्यनुमानमेव 121 "यस्य वस्त्वन्तराभावो गम्यस्तस्यैव दुष्यति। मम त्वदृष्टिमात्रेण गमकाः सहचारिणः॥” (श्लो.वा.) इति कथयितुमुचितम्। अनिश्चितव्यतिरेकस्य साध्यनिश्चयाभावादिति दर्शयिष्यामः॥ ___ पक्षधर्मान्व'यवत्' व्यतिरेकोऽपि 'ना'गृहीतोऽनुमानाङ्गम् । बहिर्भावसिद्धो चानुमानप्रयोगः स एव, यस्त्वया दर्शितः। तस्य तु प्रति प्रयोगः प्रत्यक्षादिविरुद्धत्वात् हेत्वाभास एवेत्यलं प्रसङ्गेन ॥ [श्रतार्थापत्तिरप्यनुमानमेव श्रुतार्थापत्तिरपि वराकी नानुमानात् भिद्यते। वचनैकदेशकल्पनाया अनुपपन्नत्वात् , अर्थस्य च 'कार्यलिङ्गगम्यस्य सत्त्वात् । यथा क्षितिधरकन्धराधिकरणं धूममवलोक्य तत्कारणमनलमनुमिनोति भवान् , एवमागमात् पीनत्वाख्यं कार्यमवधार्य तत्कारणमरिभोजनमनुमिनोतु । कोऽत्र विशेषः । तत्कार्यतया भूयोदर्शनतः प्रतिपन्नत्वात्। लिङ्गस्य तु क्वचित् प्रत्यक्षेण ग्रहणम्, क्ववित् वचनतः प्रतिपत्तिरिति नैष महान भेदः॥ दर्शयिष्याम इति। अनुमानसूत्र इति शेषः॥ .. ननु व्यतिरेकव्याप्तिः स्वरूपसत्येवालमित्यत्राह-पक्षधर्मेति । अन्यथा पक्षधर्मताया अपि ज्ञानमनपेक्षितं स्यादिति भावः। स पवेत्यादि । पूर्वपक्षकाले भवता प्रदर्शित एवास्मरसम्मत: दूषणोद्धारात् निरवद्यः स्थापितः । भतस्तस्य प्रतिप्रयोग: निरवकाश इति भावः ॥ - दृष्टार्थापत्तेरेवानुमानान्तर्भावे किमुत श्रुतार्थापत्तरित्यमिप्रायेण आहेवराकीति। अर्थस्य चेति । कार्यरूपलिङ्गाम्यस्य अर्थस्य -- पीनत्वाख्यस्य । विशेष इति । अनुमानादिति शेषः । ननु तत्र धूमस्य दर्शनमेव, अत्र तु पीनस्वस्य प्रतीतिः शब्दादित्यस्ति विशेषः इति शङ्कां वारयति-लिङ्गस्येति ॥ प्रतिपक्ष-ख. कार्यलिङ्गस्य-ख. 'याद, य-ख. 'न-क. पीवर-क. को-क. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 'अर्थापत्तिप्रकरणम न्यायमजरी [श्रुतार्थापत्तेरावश्यकत्वाक्षेपपरिहाग] ननु वचनमपरिपूर्णमिति प्रतीतिमेव यथोचितां जनयितुमसमर्थम किं पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यतो न भवति तत्पीनताप्रतीतिः? नन भवति, साकाङ्क्षा तु भवति। न च साकाङ्क्षप्रतीतिकारिणस्तस्य प्रामाण्यम् ---इति तदेव तावत् पूरयितुं युक्तम् ॥ ... तदसत्--कस्यात्र साकाङ्क्षत्वम् ? किं शब्दस्य? किं वा तदर्थस्य ? उत वित्तदवगमस्य : इति ॥ शब्दस्य तावदर्थ निरपेक्षस्य न काचिदाकाङ्क्षा, अनभिव्यक्त-. शब्दवत् ॥ अर्थस्तु साकाङ्क्षस्सन् अर्थान्तरमुपकल्पयतु ; कोऽवसरो वचनकल्पनायाः? अवगमो'ऽप्यर्थविषय एव साकाङ्खो भवति, न शब्दविषयः । श्रोत्रकरणकः। तस्मादवगमनैराकालयसिद्धये , तदर्थकल्पनमेव 'प्रमाणतैव न ह्यस्य साकाङ्क्षज्ञानकारिणः' (104 पु.) इत्युक्तं स्मारयतिनन्विति। असमर्थ मिति। तथा च निराकासबोधसिद्धयर्थ वाक्यान्तरापेक्षवास्ति, पदजन्यपदार्थोपस्थितेरेव शाब्दबोधं प्रति कारणत्वादिति विशेषः । सिद्धान्ती शोधनाय पृच्छति-किमिति । पूर्वपक्षी समाधत्ते-न न भवतीति। भवत्येवेत्यर्थः। अस्तु निराकाङ्क्षबोध: अन्यसापेक्षः, अथापि सोऽर्थः शब्दादेवो. पस्थापयितव्य इति कुत इत्यत्राह-तदेवेति। वचनमेवेत्यर्थः । पदजन्यपदार्थोपस्थितेरेव शाब्दबोधजनकत्वात् । न चायं शाब्दबोध एव नेति वाच्यम् ; पीनत्वाद्यर्थानां शब्दत एवोपस्थितत्वादिति भावः ।। समाधत्ते --तदसदिति अवगमस्य-ज्ञानस्य ॥ तदवगम इत्यत्र तृतीयकल्पे तच्छब्दार्थ: किम् अर्थः ? उत शब्द ? इति विकल्प्य दूषयति-अवगमोऽपीति। शब्दविषयः---शब्दविषयकः । इन्द्रियं खलु विद्यमानयथाभूतार्थग्राहि नाधिकमर्थमपेक्षत इति भावः । तस्मादित्यादि। न च पदजन्यपदार्थोपस्थित्यभावे कथं तस्य पीनो देवदत्तः ' गम्यो -ख. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] श्रुतार्थापत्तिगम्यार्थानां वैदिकत्वोपपादनम् युक्तम | | वचनैकदेशकल्पनमपि अर्थावगतिसिद्धयर्थमेवेति तत्कल्पनमेवास्तु किं सोपानान्तरेण ? [श्रुतार्थापत्तेरनुमानत्वेऽपि तद्गम्यार्थानां नावैदिकत्वम् ] यत्तु कल्प्यमानस्यार्थस्यावैदिकत्वं प्राप्नोतीति- -तत्र वचनकल्पनापक्षे सुतरामर्वेदिकः सोऽर्थः स्यात् : कल्प्यमानस्य वचनस्य वेदादन्यत्वात् ॥ श्रुतः, अनुमितद्विविधः स वेद एवेति चेत्; श्रीतार्थः, श्रीतार्थानुमितः द्विविधः स वेदार्थ एव भविष्यतीति किं वचनसोपानान्तरकल्पनया ? तेन श्रूयमाणवेदवचनप्रतिपाद्यार्थ सामर्थ्यलभ्यत्वा'देव तस्य' वेदार्थता भविष्यति । सर्वथा न वचनैकदेशविषया श्रुतार्थापत्तिः श्रेयसी । श्रुत्येक देशकल्पनापक्षप्रतिक्षेपाच्च ॥ [अर्थस्यातीन्द्रियत्वेऽपि व्याप्तिग्रहः संभवत्येव ] तदतीन्द्रियतया सम्बन्धग्रहणमघटमानमिति यदुक्तं - तदपि प्रत्युक्तम - अर्थे तु सामान्येन सम्बन्धग्रहणमपि सूपपादम् । तत्र तत्र ज्यादेरर्थस्याधिकाराद्यर्थान्तर' सम्बद्धस्य दृष्टत्वादिति ॥ 123 इत्यादिशब्दजन्यज्ञाने भानमिति शङ्कयम् - क एवमाह, तस्मिन्नेव बोधे रात्रिभोजनभानमिति । पाणिकस्तु स बोधः, न शाब्द इति । श्रुतार्थापत्तिकल्पिक भीतिमपनुदति यत्वित्यादि । वेदादन्यत्वादिति । वेदस्यापौरुषेयत्वेन कल्पयितुमशक्यत्वादिति भावः ॥ शङ्कते - श्रुत इति । प्रकृतेऽपीदं तुल्यमित्याह - श्रौतार्थेत्यादि । 'तेनेत्यादि । भवता कल्पितेन शब्देन प्रतिपाद्यत्वापेक्षयाऽपि साक्षाद्वेदप्रतिपाद्यार्थ सामर्थ्य लभ्यत्वमेव अर्थस्य वैदिकत्वं प्रापयेदिति भावः ॥ सामान्येनेत्यादि । विशेषतो दृष्टाऽनुमानाभावेऽपि सामान्यतोदृष्टानुमानं वर्तत एव । अन्यथा 'विश्वजिता यजेत ' इत्यादौ अधिकारविधि - कल्पनैव न स्यात् इति भाव ॥ 1 देवदत्तस्य क. 2 रा-ख. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 अर्थापत्तिप्रकरणम् न्यायमजरी [माभाकरोक्तश्रुतार्थापत्तिनिराकरणप्रकारः] भाकरास्तु दृष्टः श्रुतो वा' इतिभाष्यं 'लौकिकमभिधानान्तरमेवेदमुपलब्धिवचनम्' इति घर्णयन्तः श्रुतार्थापत्ति प्रत्याचक्षते । श्रूयमाणस्यैव शब्दस्य तावत्यर्थे सामर्थ्य मुपगच्छन्तः तमर्थ शाब्दमेव प्रतिजानते। वाक्यस्य दूराविदूरव्यवस्थितगुणागुणक्रियाद्यनेककारककलापोपरक्तकार्यात्मकवाक्यार्थप्रतीतौ इषोरिव 'दीर्घदी?' व्यापारः। अविरतव्यापारे च शब्दे सा प्रतीतिरुदेति, तद्यापारविरतौ नोदेति। तदुत्पादककारकाभावात् । वृद्धव्यवहारतश्च शब्देषु व्युत्पद्यमानो लोकः तथाभूतवाक्यव्यवहारिणो वृद्धान् पश्यन् वाक्य'स्यैव' तादृशवाक्यार्थे सामर्थ्यमवधारयति ।। तदनुवर्तीनि तु पदानि तस्मिन्नमित्तिके निमित्तानि भवन्ति ॥ . श्रुतार्थापत्तिगम्यस्यार्थस्य साक्षादेव वैदिकत्वं वदतां प्राभाकरांणां मतमुपन्यस्यति-प्राभाकरास्त्वित्यादि । तथा.हि बृहती- 'दृष्टः श्रुतो वेति दर्शनश्रवणोपन्यासः किं कारणान्तरव्युदासाय.? नेति वदामः, उपलब्धोऽर्थ इत्यर्थः । श्रुतग्रहणमिदानी किमर्थम् ? दृष्ट इत्येव वक्तव्यमउच्यते-अमिधानान्तरमेवेदमुपलब्धेर्वाचकम्' इति । अत्र शालिकनाथ. मिश्रा:-'अस्यार्थः-दृष्टशब्दमात्रेण न सर्वपरिग्रह , किन्तु श्रुतशब्दसहितेन ; तेन श्रुतग्रहणं नानर्थकम् । कथं पुनः श्रुतग्रहणरहितेन दृष्टशब्देनोपलब्धं नोच्यते-श्रूयताम् ---दृष्टशब्देन यद्यप्युपलब्धिमात्रमुच्यते ; तथाऽपि श्रुतशब्दसन्निधानात् गोबलीवर्दन्यायेन शब्दप्रमितव्यतिरिक्तमुच्यते। नन्वेतस्य गोबलीवर्दन्यायस्याश्रयणे किं प्रयोजनम् ? उच्यते - लौकिका वयम् । लोकश्वेत्थमपि व्यवहरमाणो दृश्यते। न च लोके पर्यनुयोगावकाशोऽस्ति अनादित्वात्' इति । लौकिका हि न मयेदं दृष्टं श्रुतं वा' इति व्यवहरन्ति, न त्ववगतिपदप्रयोगमात्रेण तृप्यन्ति इत्याशयः। ननु श्रयमाणस्यैव शब्दस्य कथं ततोऽप्यधिकबोधजनकत्वम् ? इत्यत्राह वाक्यस्येति । तथाविधेति ।. दूरादूरग्यवस्थितपदार्थबोधकेत्यर्थः । तदनुवर्तीनि-तादृशसामर्थ्यावधारणानुयायीनि । तस्मिन्नित्यादि । अर्थावगत्यर्थो हि शब्दः । अतश्च प्रधानभूतार्थावगतौ अप्रधानं शब्दः प्रधानानुरोध्येव भवेदित्यर्थः ॥ ___ दीघों-क. 'म्युत्पाद्यमानो-ख. 'स्य च-ख. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 आह्निकम् १] प्राभाकरेण श्रुतार्थापत्तिनिरसनम् नैमित्तिकानुकूल्यपर्यालोचनया क्वचिदथ्यमाणान्यपि तानि निमित्ततां भजन्ते-विश्वजिदादी स्वर्गकामादिपदवत् ॥ क्वचित् श्रूयमाणान्यपि तदननुकूलत्वात् परित्यज्यन्ते" यस्योभयं हविरार्तिमाछेत्" इतिवत् ॥ क्वचिदन्यथास्थितानि तदनुरोधादन्यथैव स्थाप्यन्ते"प्रयाजशेषेण हवींष्यमिधारयति" इतिवत् ॥ तस्मात् प्रथमावगतैकघनाकारवाक्यार्थानुसारेण सतामसतां वा पदानां निमित्तभावव्यवस्थापनात् अथ्रयमाणतथाविधैकदेशादपि वाक्यात् तदर्थावगनिसंभवात् किं श्रुतार्थापत्त्या? अत एव न सोपानव्यवहितं तस्यार्थस्य शाब्दत्वम् , साक्षादेव तत्सिद्धः ॥ . पदाश्रवणेऽपि अर्थोपस्थित्युपपादनम् ] ननु अथ्रयमाणेषु निमित्तषु कुतस्तदर्थमवगच्छामः ? अनवगच्छन्तश्च कीदृशं नैमित्तिकमवकल्पयामः ?-उच्यते-श्रुतेष्वपि पदेषु तेषां निमित्तभावो न स्वमहिम्नाऽवकल्पते, किन्तु नैमित्त. नैमित्तिकस्य • यत् आनुकूल्यं, तत्पर्यालोचनया-कीदृशेन व्यापारवता नैमित्तिकं प्रधानं अनुकूलितं स्यादिति पर्यालोचनयेत्यर्थः ॥ . यस्योभयमिति । श्रुतस्य विधिप्रत्ययस्यार्थ: त्यज्यत इत्यस्योदाहरणमिदम् ॥ प्रयाजशेषेणेति। विधिप्रत्ययाश्रवणेऽपि तस्कल्पनाया उदाहरणमिदम् ॥ - तस्मात्-शब्दस्य अर्थशेषत्वात् । एकघनेति। श्रुतेषु पदेषु भयमंशः अनेन पदेन प्रत्याय्यते - इति विवेचनमन्तरा शाब्दबोधस्य आहत्य तावत्पदजातत्वात् तावानप्यर्थः तच्छन्दगम्य एव, न तु कल्पितपदान्तरगम्य इत्यर्थः । सोपानं-कल्पितशब्दः ॥ कीदृशामिति । निमित्तभेदात् खलु प्रत्यक्षादिनैमित्तिकभेदः सिद्धयति । प्रकृते च निमित्तस्यैवाभावे नैमित्तिकं शाब्दमिति कथं निर्णयेतेत्यर्थः । स्वमहिम्ना- स्वरूपत इति यावत्। नैमित्तिक-पदार्थस्मरणादि । एव-क. न च-ख. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 अर्थापतिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी कानुसारद्वारक इत्युक्तम् । एवमश्रुतेष्वपि भविष्यति । न यजौ करणविभक्तिं शृणुमः : न स्वर्ग 'कर्म'विभक्तिम् ; नाग्नचिदादिषु क्किप्प्रत्ययम् ; नाधुनादिषु प्रकृतिम् ; न समासतद्धितेषु यथोचितां विभक्तिम् अपि च प्रतीम एव तदर्थम । __एवं विश्वजिदादावपि 'यजेत' इति नैमित्तिकबलादेव स्वर्गकामादिपदार्थ प्रत्येष्यामः। नियोगगर्भत्वाच्च विनियोगस्य लिङ्गादीनि श्रुतिकल्पनामन्तरेणापि नियोग व्यापारं परिगृह्य तेन' वस्तुनि विनियोजकतां प्रतिपत्स्यन्ते ॥ एतन्मते मुख्यगौणादिन्यवहारनिर्वाहः) नन्वेवं सति सर्वत्र शब्दव्यापारसंभवात् ।। मुख्यस्यापि भवेत् साम्यं गौणलाक्षणिकादिभिः ॥ १४० ॥ एवमित्यादि। पदाश्रवणेऽपि प्रकारान्तरेण उपस्थितस्यार्थस्य शाब्दबोधे भानसंभवादिति भावः। अत्र दृष्टान्तान्याह-न, यजावित्यादि। शृणुम इत्युत्तरवाक्येष्वप्यन्वेति । 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादौ हि यागस्य करणत्वावगमकतृतीयाभावेऽपि करणत्वं बोध्यत एव ; यागस्वर्गयोः साध्यसाधनभावस्य वेदैकगम्यत्वात् । एवं स्वर्गस्य भाव्यत्वमपि तत्रैव बोध्यते । 'अग्निचित्' इत्यादौ च ' अग्नौ चे:' इति क्विबो विधानेऽपि न शृणुम एव प्रत्ययम्। 'अधुना' इत्यत्र च 'अधुना' इति निपातनात् प्रत्ययमात्रमेव शिष्यते। किं बहुना लोकिकेष्वपि समासादिषु राजपुरुष इत्यादौ राजादिपदात् षष्ठयाद्यभावेऽपि तदर्थप्रतीतिः परं वर्तत एव। अतः पदादनुपस्थितस्यापि शाब्दे भानं युज्यत एवेति प्रघट्टकार्थः ॥ एवं सति--पदादनुरस्थितस्यापि शाब्दबोधविषयत्वे । शब्दव्यापार : ----अर्थोपस्थितिः। एवञ्च गौणस्य लाक्षणिकस्याप्यर्थस्य शाब्दबोधविषयत्वेन मुख्यापेक्षया को विशेषस्तयोः। एवं श्रुतिलिङ्गादीनामङ्गताग्राहकाणां प्रमाणानां परस्परविरोधे पूर्वपूर्वप्राबल्यं यत् भवद्भिवण्यते तदपि न स्यात्। तत्र अर्थोपस्थितिं प्रति श्रुतिकल्पनाया मावश्यकत्वेन पूर्वपूर्वप्रमाणमुत्तरोत्तरं कल्पयित्वा क्रमेण श्रुतिं कल्पयतीति वक्तव्यम्। एवञ्च यावत् अनन्तर करण-क. 'व्यापारपरिगृहीते-क. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] प्राभाकरण श्रुतार्थापत्तिनिरसनम् 127 श्रतिलिङ्गादिमानानां विरोधे यच्च वर्ण्यते। पूर्वपूर्वबलीयस्त्वं, तत् कथं वा भविष्यति ? ॥ १४१ ॥ - उच्यते-सत्यपि सर्वत्र शब्दव्यापारे तत्प्रकारभेदोपपत्तेरेष 'न दोषः । न हि पदानां सर्वात्मना निमित्तभावमपहायव नैमित्तिकप्रतीतिरुपप्लवते । तदपरित्यागाच्च तत्स्वरूपवैचित्र्यमनुवर्तत एव ॥ अन्यथा सिंहशब्देन मतिः केसरिणीसुते । अन्यथा देवदत्तादौ प्रतीतिरुपजन्यते ॥ १४२ ।। गङ्गायां मजतीत्यत्र गङ्गाशब्दो निमित्तताम् ।। उपयाति यथा, नैवं घोषादिवसतौ तथा ॥ १४३ ॥ श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानामपि अर्थसनिकर्षविप्रकर्षकृतोऽस्त्येव विशेष इति तत्रापि न विनियोगसाम्यम् । श्रृंति लिङ्गादिमिर्योऽपि कल्पयेद्विनियोजिकाम। तस्यापि तस्यास्तुल्यत्वात् बाध्यबाधकता कथम् ? ॥१४४ ॥ प्रमाणं श्रुति कल्पयितुं पर्वर्तते, तावत्येव पूर्वप्रमाणेन श्रुतेः कल्पितत्वात् अनन्तरमप्रमाणं इति हि स्थितिः। एवञ्च वाक्यकल्पनां विनैवार्थोपस्थितिमात्रमेव यदि शाब्दबोधहेतुः, तर्हि कथं प्राबल्यदौर्बल्ये वर्णयितुं शक्यतेत्याक्षेपाशयः ॥ ____ तत्प्रकारभेदेति । शब्दव्यापारमकारविशेषेत्यर्थः। विशेषश्चानुपदमेवोपपाद्यते। न हीत्यादि । न हि वयं सर्वेषामपि शाब्दबोधविषयाणामर्थानां यथाकथञ्चिदुपस्थितिं ब्रूमः । किन्त्वथैकदेशस्यैव । लक्षणास्थले हि भवाच्यानामप्यर्थानां बोधविषयत्वं सर्वसम्मतं, न तावता शक्तेरेव लोपः । बोधस्यानुभवसिद्धत्वे तदनुगुणा सामग्री यथाकथञ्चिदुपपादनीया परं, न तूत्पादनीया। एवञ्च न कोऽपि दोष इति ॥ - मुख्यलाक्षणिकबोधयोर्विशेषमाह-अन्यथेत्यादि। 'सिंहोऽयम' इत्यत्र सिंहपदेन, 'सिंहो देवदत्तः' इत्यत्र च तत्पदेन विलक्षणौ बोधौ सर्वानुभवसिद्धौ, एवं गङ्गायां मजति' 'गङ्गायां घोषः' इत्यादौ गङ्गापदाभ्याम् । वैलक्षण्यनियामकं च मानभाविकस्मारकशक्तिभेदो वा अन्यद्वेत्यन्यदेतदिति ॥ . एवमेव श्रुतिलिङ्गादिष्वप्यूह्यम् । अन्यथा भवन्मते वा कथं निर्वाह इस्याह-- श्रुतीत्यादि। तस्यापि-लिङ्गादेरपि। तस्याः-श्रुतिकल्पनाया. सर्वैरपि श्रुतिरेव कल्प्यते चेत् कथं प्राबल्यदौर्बल्यनिर्णयः ? विलम्बा थो यश्च-ख. दोष:-क.. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 अर्थापत्तिप्रकरणम् न्यायमञ्जरी अथ तत्कल्पने तेषां विदुरान्तिकवृत्तिता। स एवार्थगतो न्याय इति तत्कल्पनेन किम् ? ॥ १४ ॥ पेन्द्रामादिषु वैकृतेषु कर्मसु न प्राकृतविध्यन्तवचनानुमानम् , अपि तु चोदकव्यापारेण तस्यैव प्राप्तिः। वैकृतस्य विधेः 'का'चिदाकाङ्क्षा चोदक इत्युच्यते ॥ अर्थाध्याहारेऽपि उपदेशातिदेशयोबेलक्षण्यम् ] नन्वेवमुभयत्र तदवगमाविशेषात् उपदेशातिदेशयोः को विशेषः ? न नियोगावगमे कश्चिद्विशेषः ; किन्तूपदेशे यथोपदेशं. कार्यम् , अति देशे तु यथाकार्यमुपदेश इत्येतयोर्विशेषः ॥ ननु यथाकार्यमुपदेशेऽनुपयुज्यमानकृष्णलचर्ववघातादेः प्राप्तिरेव न भवेदिति को बाधार्थः?-न अखण्डमण्डलविध्यन्तविलम्बाभ्यां निर्णयश्चत् प्रकृतेऽपि तथाऽस्तु । श्रुत्या हि शीघ्रमेवामिमतार्थोपस्थिति:, लिङ्गेन तु विमर्शपूर्वकत्वात् तत: किञ्चिद्विलम्बन, वाक्येन तु ततोऽधिकविमर्शसापेक्षत्वात् तत: किञ्चिद्विलम्बनेत्येवंरीत्याऽर्थोपस्थितौ विलम्ब. स्यानुभवसिद्धत्वात् । एवं विकृतिषु प्रकृत्यङ्गाति देशस्थलेऽप्यङ्गानामेवातिदेशः, न तु तद्विधायकवाक्यानां, वैय्यर्थ्यात्। अग्निविधिहि स्वयमेवाङ्गानेवाक्षिपति, न तु तद्वाक्यान् । अतः सर्वत्रार्थस्यैवोपस्थितिः, न तु शब्दस्येति ॥ ___ को विशेष इति । उभयत्रापि परमुखनिरीक्षाया अनावश्यकत्वादिति भावः । नियोगावगमे-विधिरूपार्थावगताविति यावत् । न हि साभ्यागन्तरि गृहिणि भुञ्जति उभयोः भोजनफले वैषम्यमिति । उपदेशस्थले उपदेशानुरोधेन कार्यत्वावगतिः, अति देशस्थले तु विध्या कार्यत्वावगतो सत्यां कथंभावाकाङ्क्षया अङ्गप्राप्तिरिति विशेष: ।। नन्वेवं सति-दशमे बाधाध्याये अतिदेशप्राप्तकृष्णलचर्वपयोग्यवघातादेः अनुपयोगात् बाध इत्युक्तिर्न संगच्छते। अतिदेशाद्वाक्यप्राप्ती सत्यां खलु अवहननप्राप्तिरिति तद्वाधवर्णनमावश्यकं, यदि च कार्यानुगुणैवोपदेशकल्पना तर्हि कृष्णलचर्षवहननस्य कार्यानुगुण्यं नास्तीति स्वयमेवाप्राप्तौ कुतो बाधावतारः ? इति शङ्कते-नन्विति। समाधत्ते-- नेति । अखण्डे. त्यादि । अखण्डं मण्डलं येषां विध्यन्तानामिति विग्रहः । विध्यन्तः -- 1 कदा-ख. देशेनु-क. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 आदिकम् १] चनेरतिरिक्तवनिरासः काण्डप्राप्तेः। न मंशांशिकया चोदक: प्रवर्तत इत्यलमनया प्रसक्तानुप्रसक्तथागतशास्त्रान्तरगर्भकथाविस्तरप्रस्तावनया ॥ [एवं श्रुतार्थापत्तिप्रतिक्षेमृप्रभाकरपक्षोपसंहारः] इति प्रसङ्गाड्याख्यातं लेशतो वाक्यविन्मतम् । एतस्य युक्तायुक्तत्वपरिच्छेदे तु के वयम'! ॥ १४६ ॥ श्रुतार्थापत्तिरस्माकं दूषणीयतया स्थिता।। तद्दषणं च पूर्वोक्तवीथ्याऽनेन पथाऽस्तु वा ॥ १४७ ॥ [मालकारिकपक्षपतिक्षेपः] एतेन शब्दसामर्थ्यमहिमा सोऽपि वारितः। यमन्यः पण्डितंमन्यः प्रपेदे कंचन ध्वनिम् ॥ १४८॥ • विधेर्निषेधावगतिविधिबुद्धिनिषेधतः। यथा-- भव धम्मिय वीसत्थो मा स्म पान थ! गृहं टिश | १९ ॥ मानान्तरपरिच्छेद्यवस्तुरूपोपदेशिनाम् । ., शब्दानामेव सामर्थ्य तत्र तत्र तथा तथा ॥ २५०॥ भङ्ग इत्युक्तम् । कृत्स्नाङ्गसमुदायस्यैव प्राप्तेरित्यर्थः । अंशांशिकयाएकैकदेशेन । तथा चातिदेशकाले कृत्वमपि प्राप्नुयादव ; प्राप्तयनन्तरमेव च उपयोगानुपयोगचिन्तया बधाद्यवतारः, न तु पूर्वमेवेति ॥ : श्रुतार्थापत्ते निरसनीयत्वेनैतत्पक्षस्यायुक्तताविचारे औदासीन्यादाहके वयमिति ॥ सोऽपि-ध्वनिरपि । विधेनिषेधावगतेरुदाहरणम्-भव धम्मियेति । भत्र 'सिंहस्तत्रास्ति, विनब्धो मा भव' इति ध्वन्यते । 'भव धम्मिय वीसत्थो सो सुणो मज मारिओ देण। गोलाणई कच्छकुडङ्गवासिणा दरिमसीहेण ॥' [छाया-भव धार्मिक ! विस्रब्धः स शुनकोऽद्य मारितस्तेन । गोदावरीनदीकूललतागहनवासिना दृप्ससिझेन ॥] निषेधत: विधिबुद्धेरुदाहरणंमा स्म पान्थेति । 'न कोऽप्यस्ति गृहे, रात्रिरियं गाढा च वार्षिकी । एकाकिन्यहमप्यस्मि' इत्याद्यपादत्रयम् । अत्र : गृहं विश' इत्यर्थः ध्वन्यते । ध्वने: पार्थक्याभावे हेतुमाह-मानान्तरेति । शाब्दबोधे हि तात्पर्य - - - केवलम-ख. NYAYAMANJARI Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 अनुपलब्धिप्रकरणम् (न्यायमञ्जरी अथवा नेहशी चर्चा कविभिः सह शोभते ।। विद्वांसोऽपि विमुह्यन्ति वाक्यार्थगहनेऽध्वनि ॥ १५१ ॥ तदलमनया गोष्ठया विद्वजनोचितया चिरं परमगहनस्तर्कज्ञानामभूमिरयं नयः। प्रकृतमधुना तस्मात् ब्रूमो न भात्यनुमानतः । तनुरपि सतामर्थापत्तर्विशेष इति स्थितम् ॥ १५२॥ . . [अनुपलब्धेः प्रमाणान्तरत्वाक्षेपः] आह-अभावस्तर्हि प्रमाणान्तरमस्तु :सत्परिच्छेदकं यत्र न प्रमाणं प्रवर्तते । तदभावमिती मानं प्रमाणाभाव उच्यते ॥ १५३॥ . ज्ञानमेव मुख्य कारणम् । तात्पर्यनिर्णयवेलायामेव अर्थो निर्णीत एव । तत्प्रतिपादनाञ्च शब्दानां तावदर्थबोधकत्वं शक्त्या लक्षणया वा अङ्गीकरणीयमेवेति कुप्तशब्दवृत्तिभ्यामेव बोधनिर्वाह इति भावः। ननु यदि मानान्तर. परिच्छेद्यवस्तुस्वरूपोपदेशकत्वं शब्दानां तर्हि स्मृतेरिव शाब्दबोधस्यापि प्रमात्वं न स्यादिति चेत्-तुल्यमिदमनुमितावपि । तत्र न्याप्तिग्रहणवेलायामेव धूमत्वसामान्यात् वह्नित्वसामान्यस्यापि निश्चितत्वावश्यंभावात् । यदि च सामान्यात्मना निश्चयेऽपि विशेषामनाऽनिश्चयात् पक्षधर्मताज्ञानात् व्यक्तिविशेषे विश्राम्यन्ती अनुमिति: न स्मृतिरूपा भवितुमर्हतीत्युच्यते, तर्हि प्रकृतेऽपि सैव रीतिः। न हि प्रमाणान्तरसंवाददाय॑मन्तरेण प्रत्यक्षादीन्यपि प्रमाणभावं भजन्ते' (पु. १०) इति कथितमप्यत्रानुसन्धेयम् । एतद्विचारस्य प्रकृतेऽनतिप्रयोजनकत्वात् सोपहासमुपसंहरति-अथवेति। तदलमित्यादि। अयं परमगहनो विषयः तर्कज्ञानामपि दुनिर्णेय एव । अनुभवशरणास्तु वयं अर्थापत्तेरनुमानात् तनुमपि विशेषं न प्रतीम इत्यर्थः ॥ __ अभावः-उपभाभावः-- अनुपलब्धिरिति यावत्। यत्र भूतलादौ सतो घटादेः परिच्छेदकं - ज्ञापकं प्रमाणं न प्रवर्तते तत्र तादृशघटाभावप्रमितौ प्रमाणाभावः --- उपलंभाभावः मानम् । प्रतियोग्य नुपलम्भ एव अभावोपलम्भे कारणमिति यावत ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अनुपलब्धरतिरिक्तप्रमाणत्वम् 131 . इह घटो नास्तीति घटं प्रति सदुपलम्भकप्रमाणप्रवृत्तिर्नास्तीति असौ प्रमाणाभावः घटाभावं परिन्छिनत्ति ॥ _ 'तत्र च घटविषयज्ञातृव्यापारानुत्पाद एव दृश्यादर्शन'वाच्यः' प्रमाणं, नास्तीति बुद्धिः फलम ॥ अथ वा घटाभावग्राही ग्रहीतृव्यापार सदुपलम्भकप्रमाणाभावजनितो नास्तीति 'प्रत्ययस्वभावः प्रमाणम् , फलं तु हानादशानं भविष्यति । तदुक्तम् 'प्रत्यक्षादरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते। साऽऽम परिण मो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि' इति । अन्यवस्तुशब्दन घटाभाव एवोक्तः। स्वयं व्याकरोति - इहेत्यादि । प्रमाणफले विविच्य दर्शयति-तत्र चेति । ज्ञातृव्यापार ज्ञानम् । अन्धकार वटाभा प्रत्यक्षानुदयात योग्यानुपलब्धेरेव कारणत्वेन दृश् त्युक्तम् । दृश्यादर्शन- योग्यानुपलब्धिः॥ हापादानयोरेव मुख्यफलत्वात् 'नास्तीति बुद्धिः फन म' इति न स्वरसमित्यत आर-अथ वेति। घटाभावविषयकः प्रतियोग्यनुपलब्धिजन्य: नास्तीति प्रत्ययात्मक: यः ज्ञ तृव्यापार. स एव प्रमाणम् , हानोपादान साधनत्वात् इत्यर्थः । . प्रत्यक्षादेरिति। प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दार्थापत्तीनामनुत्पत्तिरेव अभावाख्यं प्रमाण मुच्यते : प्रमाणाभावः-प्रमाणरूप अभाव: उपलंभाभावो वा। ननु आत्मनः सर्वप्रमाणानुत्पत्ति. किंरूपा ? इत्गत्राह-सेति । भाः मात्मनो नित्य र पि सविकारत्वमङ्गीकृतम् । तथोक्तं 'विक्रिया ज्ञानरूपाऽस्य न नित्यत्वे विरोम्यते' इति ; 'नानित्यशब्दवाच्यत्वमात्मनो विनिवार्यते । विक्रियामानवाचित्वे न झुच्छेदोऽस्य तावता' इति च। एतच घटादिज्ञाने जाते आत्मनोऽपि घटज्ञातृरूपतया परिणामः घटादिज्ञानानुत्पत्तो च तज्ज्ञातृरूपपरिणामो नास्तीति अपरिणामी आत्माऽवतिष्ठते इति। ननु तर्हि सुषुप्तिरेव स्यात् : जाग्रहशायां यत्किञ्चिद्विषयभानस्य नियतत्वेन आत्मन परिणामाभावो न वक्तुं शक्य इति चेदाह-विज्ञानं वेति। न सर्वथा परिणामाभावः । किन्तु यत्किञ्चिद्वस्तु भासत एव । किं तदन्यवस्त्वित्यत्राह-अन्यवस्तुशब्देनेति ॥ शब्द:-क. प्रतीति-क. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपलब्धिप्रकरणम् ( न्यायमञ्जरी तत्र तावदिदं नास्तीति ज्ञानं न प्रत्यक्षजनितम्, इन्द्रियार्थसन्निकर्षाभावात् । सन्निकर्षो हि संयोगसमवायस्वभावः, तत्प्र'भव' मेदो वा 'संयुक्तसमवायादिरिह नास्त्येव । संयुक्तं विशेषणभावोऽपि न संभवति, कुम्भाभावस्य भूप्रदेशविशेषणत्वाभावात् । न ह्यसंयुक्तसमवेतं वा किञ्चिद्विशेषणं भवति । संयुक्तस्य दण्डादेः समवेतस्य शुक्लगुणादेः तथाभावदर्शनात् । अभावश्च न केनचित्संयुज्यते, अद्रव्यभावात् । न कचित् 'स'मवैति गुणादिवैलक्षण्यादिति ॥ 132 यदि च संयुकविशेषणभावसन्निकपकृतं चक्षुरभावं गृह्णाति, तर्हि तदविशेषात् संयुक्तद्रव्य 'वृत्तीन्' रसादीनपि गृह्णीयात् ॥ 'अयोग्यrara गृह्णातीति चेत् तदभावमपि मा ग्रहीत्, अयोग्यत्वाविशेत् | योग्यायोग्यत्वकृतग्रहणाग्रहणनियमवादे वा अभावस्य प्रत्यक्षाद्यगम्यत्वमुपपादयति-तत्र तावदिति । संयुक्तसमवायादिरित्यादिना अवशिष्टयपरिग्रहः । नास्तीति । असंभवादेवेत्यर्थः । विशेषणताया: सन्निकर्षत्वं निराकरोति - संयुक्तविशेषणभाव इति । अद्रव्यभावात् द्रव्यरूपत्वाभावात् । द्रव्ययोरेव खलु संयोगः ॥ बाधकमप्याह-यदि चेति । रसादीनपीति । घटाभावस्य चक्षुसंयुक्त भूतलविशेषणत्वात् चक्षुषा ग्रहणं चेत् चक्षुस्संयुक्तखण्डशर्करादिविशेषणत्वात् रसादेरपि चक्षुषा ग्रहणं कुतो न स्यादित्यर्थः ॥ अयोग्यत्वाविशेषादिति । रसादिवत् चक्षुर्ब्रहणायोग्यत्वादित्यर्थः । ननु योग्यत्वा योग्यत्वे कार्यानुमेये । एवं चानुभवानुरोधात् अभावः चक्षुर्योग्य एव, रसादिश्व तदयोग्य इति कल्पयाम इत्यत्राह – योग्यायोग्यत्वेति । किम् ? इत्यधिपे । 'योग्यं गृह्यते, अयोग्यं न गृह्यते ' इत्येवं मुखपिधाने 1 भाव - ख. भवो - ग. ' तदभाव - ख. 2 संयोग- क. 3 स स-ख. 4 वर्तीन् - ख. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] अनुपलब्धेर तिरि क्तप्रमाणत्वम् योग्यतैव सन्निकर्षो भवतु किं षट्कघोषेण ? तस्मान्न घटाभावज्ञानं चाक्षुषम् ॥ [ अभावस्यैन्द्रियकत्वनिरास: ] ननु भूप्रदेशं च घटाभावं च विष्फारिते चक्षुषि निरीक्षामहे ; निमीलिते तु तस्मिंस्तयोरन्यतरमपि न पश्यामः । तत्र समाने च तद्भावभावित्वे भूप्रदेशज्ञानं चाक्षुषम्, अभावज्ञानं तु न चाक्षुषमिति कुतो विशेषमवगच्छामः ? सन्निकर्षाभावादेव | न ह्यसन्निकृष्टं बाढमवगच्छामः चक्षुरवगतिजन्मने प्रभवति ॥ तद्भावभावत्वं' त्विदमन्यथा सिद्धम् ; विदूरदेश'व्यवस्थितस्थूलज्वालावलीजटिलज्वलनगतभास्वररूपोपलम्भानुवर्तिनगोष्णस्पर्शज्ञानत्रत् । तत्र यथा रूपानुपीयमानस्पर्शवेदने नयनान्वयव्यतिरेका'नु' विधानमन्यथासिद्धम्, एवमिहापि भूप्रेदेशोपलम्भाविनाभाविनि कुम्भाभावग्रहणे 'तत्कृत' मिन्द्रियान्वयव्यतिरेका'नु'विधानमिति न चाप घटाभावप्रतिभासः । तदुक्तम् 'गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ' इति ॥ 133 संयुक्तविशेवणतादिषडिधसन्निकर्षवर्णनं किमर्थमित्यर्थः । तस्मात् - योग्यत्वायोग्यत्वकृत वैषम्यस्य दुर्वचत्वात् ॥ तद्भावभावित्वे तस्य भावे सति भावित्वं इत्यन्वयः, अवधारणविवक्षया च तस्याभावे सत्यभावित्वमिति व्यतिरेकश्च लभ्यते, तथा चचक्षुस्संयोगान्वयव्यतिरेकानुविधायित्व इति यावत् ॥ अवगतिजन्मने - ज्ञानोत्पादनाय ॥ विदूरेत्यादि । विदूरदेशव्यवस्थितः स्थूलज्वालावलीजटिलश्च यः ज्वलनः तद्गतभास्वररूपोपलंभानुवर्ति यत् तद्गतोष्णस्पर्शज्ञानं तद्वदित्यर्थः । तादृशज्वलनदर्शनकाले एव तद्गतोष्णस्पर्शज्ञानं जायत एवं, अथापि न तच्चाक्षुषं, एवमेव भूतलदर्शने सति घटाभावज्ञानमित्यर्थः । तत्कृतं - अविनाभावकृतम् ॥ स्वोक्तार्थे भट्टाचार्यसम्मतिमाह - तदुक्तमिति । वस्तु-अभावाधि 1 तं-ख. 2 शेख. 3 वय -ख. 4 अविनाभावकृत - ग. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 अनुपलब्धिप्रकरणम् न्यायमजरी अतश्चैव प्रसन्नहितस्यापि क्वचिद्गहणम्'। स्वरूपमात्र केण गौरमूलक,पलब्धवाः ततो देशान्तरं गतस्य तत्र केनचित् गर्गोऽस्ति व ? नास्त वा? इ त पृष्टस्य सत स्वरूपमात्रं गृहीतम । गौरमूलकमनुस्मरतः तदानीमसन्निकृष्टऽपि गगम्य भावे तदैव तम्य ज्ञानमुदेति। तत्र इन्द्रियकथाप नास्तीति न तस्य प्रत्यक्ष त्वम'। [भभावस्यानुमानागम्यत्वम्] न चानुमानगम्योऽयमभावः; भूप्रदेशस्य, तद्गतघटादर्शनस्य वा लिङ्गमानापत्तः। न भूप्रदेशो लिङ्गम् ; अगृहीतसम्बन्धम्यापि नत्प्रनीतः, अनेकान्तिकत्वात , अपक्षधमत्वात् , तदविकरणाभावानन्त्येन सम्बन्धग्रहणासंभवाच। नापि घटादर्शनं लिङ्गम् ; करणभूतं वस्तु । एवञ्च प्रानय गिस्माणलीनाधिकरणदर्शनाविनाभूतमपि अग्न्युष्णस्पशज्ञानवत् नैन्द्रियिकमभावज्ञानं, अपि तु मानसमेवेति ॥ एवं तनावभावित्वमभ्युपगम्य तस्यान्यथासिद्विरुक्ता ; वस्तुतस्तु तद्भावभावित्वमेव तस्य नास्तं त्याह अतश्चति । यत अभावज्ञानमधिकरण ज्ञानं च मिनप्रमाणजन्यम् , अत एव कुत्रचित् अधिकरणग्रहणव्यवधानेनाप्यभाव. ग्रहणं दृश्यत इत्यर्थः । अत्र वार्तिको तार्थे स्वयं दृष्टान्तमाह- स्वरूपमात्रणेत्या दि। अभावरूपविशेषणग्रहणं विनेत्यर्थः गौरमूलकमिनि स्वपितामहग्रामस्य नाम -तथा च वक्ष्यति - 'अस्मपितामह एव ग्रामका-: सांग्रहणीं कृतवान् ; स इष्टिसमाप्तिसमनन्तरनेव गौग्मूलकं ग्राममवाप' इति । तत्रदेशान्तरे गर्गोऽस्ति वेति गौरमूलकग्राम इति शेषः। असनिकृष्ट इति । इन्द्रियेणेति शेषः। तस्य-गर्गाभावस्य। न च प्रातरवगतोऽभावस्तदा स्मयंत इति वाच्यम्, प्रतियोगिनस्तदानीं कथंचिदपि बुद्धावनारोहात् ' इति शास्त्रदीपिकावचनमपीह योजनीयम् ॥ ननु असकृत् घटयुक्तं भूतलं, तद्रहितं च तत् पश्यन् यदा शुद्धं भूतलं पश्यति तदा घटाभावमनुमिनोति भूयोदर्शनवशादिति शङ्कते-न चेति । लिङ्गं शिकल्प्य दूषयति-भूप्रदेशस्येति । अगृहीत। व्याप्तिज्ञानशून्यस्येत्यर्थः । तदभवहेतुमाह-अनैकान्तिकत्वादिति । घन साकमपि भूतलस्य बहुशस्सहचारदर्शनादिति शेषः। अपक्षधर्मत्वात्भू 'लस्य भूतलधर्मस्वाभावात् । तदधिकरणेति । घटाभावाधिकरणेत्यर्थः । 'गदर्शनाव-ख. न-क. म्-क. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम १] अनुपलब्धेरतिरिक्तप्रमाणत्वम् 135 अपक्षधर्मत्वात् । घटादर्शनं घटस्य धर्मः, न तदभावस्य । घटाभावप्रतीतिं प्रति व्या प्रियमाणत्वात् तद्धर्मत्वमस्येति चेत् -नइतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । तद्धर्मत्वे सति लिङ्गप्रतीतिजनकत्वं, प्रतीतिजन्मनि सति 'तद्धर्मत्वमिति । असिद्धायां च घटाभावप्रतीतौ तद्धर्मता ज्ञानमदर्शनस्य दुर्घटमेव । सिद्धायां तु किं पक्षधर्मताशानेन? साध्यप्रतीतेः सिद्धत्वात् ।। ____ अपि चेदमदर्शनाख्यं लिङ्गमावदितव्याप्ति कथमभावस्यानु मापकं भवेत् ? व्याप्तिग्रहणं च धूमाग्नवत् उभयधर्मि ग्रहणपूर्वकम् । तत्र व्याप्तिग्रहणवेलायामेव तावत् कुतस्त्यमभावाख्यधर्मिहणमिति चिन्त्यम् ॥ ___ तत एवानुमानादिति यद्युच्यते, तदितरेतराश्रयम् । अनुमानान्तरनिवन्धने' तु तद्हणेऽनवस्था ॥ घटस्य धर्म इति । घटस्य दर्शनमित्युक्ते हि दर्शने घटधर्मत्वं विषयीक्रियते, घटस्य रूपमितिवत् । एवं अदर्शनमपि तथैव विषयीक्रियत इत्यनुभवसिद्धमेतत् । ननु धर्मत्वं, बहुविधं, यथा हि आत्मधर्मोऽपि ज्ञान सम्बन्धान्तरेण घटधर्मों भवति, यथा वा वह्निव्याप्यो धूमः वह्निधर्मोऽपि भवति तथा घटाभावप्रतीतिजनकत्वादेव अदर्शनं घटाभावधर्मोऽपि भवितुमर्हत्येवेति शङ्कते-घटाभावेति ॥ उभयधर्मीति । व्याप्यव्यापकरूपधर्मीत्यर्थः । एवञ्च घटाभावरूपस्य ग्यापकस्य घटादर्शनरूपस्य व्याप्यस्य च प्रथमं स्वरूपद्रहणमन्तरा व्याप्तिग्रहणमेव न संभवेत्। प्राथमिकं च तत् घटाभावज्ञानं केन प्रमाणेन जायत इति वक्तव्यम् । यदि तेनैवानुमानेन, तर्हि, अनुमानेन धर्मिग्रहणं, धर्मिम्हणे चानुमानप्रवृत्तिरित्यन्योऽन्याश्रयः। यदि चानुमानान्तरेण तर्घनवस्था । प्रत्यक्षस्य च प्रसक्तिरितैवेति ॥ - किञ्च घटादर्शनमपि घटदर्शनाभावरूपं, स च हेतुभूतः दर्शनाभाव: केन गृह्यत इति यथोक्तदोषानतिपातः ॥ न चेदं शाब्दादिरूपं, तन्निमित्तानां शब्दादीनां सर्वथाऽप्रवृत्तः । अतः अभाव: मभावाख्येन प्रमाणान्तरेणैव गम्य इति प्रघट्टकार्थः ॥ तिव्या-क तदर्मता-ख. धे-क. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 अनुपलब्धिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी - अदर्शनाख्यं लिङ्गमपि दर्शनाभावस्वभावमिति तत्स्वरूपपरिच्छेदचिन्तायामप्ययमेव पन्थाः । अतो दूरमपि गत्वा तदवगमसिद्धये प्रमाणान्तरमभावपरिच्छेदनिपुणमवगन्तव्यनिति तत एव तदवगमसिद्धेर्न तस्यानुमेयत्वम् ॥ न चेदं 'इह घटो नास्ति' इति शानं शब्दोपमानार्थापत्त्यन्यतमनि मनगाशङ्कितमपि युक्तमिति सदुपलम्भकप्रमाणातीतत्वादभावस्यैव भूमिरभाव इति युक्तम् ॥ अपि च प्रमेयं अनुरूपेण प्रमाणेन प्रमातुमुवितम् - भावात्मके 'प्रमेय हि नाभावस्य प्रमाणता । अभावेऽपि प्रमेय स्यात् न भावस्य प्रमाणता ॥ १५४ ॥. न प्रमेयमभावाख्यं निहतं 'बौद्धवत् त्वया । प्रमाणमपि तेनेदं अभावात्मकमिष्यताम् ॥ १५ ॥ [भभावाख्यातिरिक्तप्रमाणनिराकरणम् ] अत्राभिधीयते-सत्यभावः प्रमेयमभ्युपगम्यते, प्रत्यक्षाधवसीयमानस्वरूपत्वात्तु न प्राणान्तरमात्मपरिच्छित्तर मृगयते। अदरमेदिनीदेशवर्तिनस्तस्य चक्षुषा'। परिच्छेदः परोक्षस्य कावन्मानान्तरैरपि ॥ १५६ ॥ भावात्मक इत्यादि । प्रमेये भावरूपे प्रमाणोऽपि भावरूप एव स्यात् । अभाव: यदा प्रमेयः, तदा प्रमाणमप्यभावरूपम् । गन्धादिग्राहक्राणामिन्द्रियाणां गन्धवत्त्वादिनाऽऽनुरूप्यस्य सम्मतत्वात् । अभावाख्यं प्रमेयं स्वतिरिक्तमङ्गीकृतम् , एवं सति तेन सहातिरिक्तं प्रमाणमप्यङ्गीकार्यमेव । दु:खं माऽस्तु, सुख परं भवत्विति कोऽयं न्याय इति भावः ॥ सत्यमित्यादि। न वयं प्रमाणं विना प्रमेयमात्रमङ्गीकुर्मः, परन्तु प्रमाणेन क्लृप्तातिरिक्तेनैव भाव्यमिति कुतो भर्त्स यति भंवान् ? समीपस्थस्याभावस्येन्द्रियेण ग्रहण, परोक्षस्य तु यथासंभवमनुमानादिनाऽपि इति नातिरिक्तप्रमाणापेक्षेति ॥ 'स्य-ख. प्रमाणे-क. - बोधयत्-ख. -ख. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतिकम् १] अनुपलब्धेरतिरिक्तप्रमाणस्वनिरास: 137 तथा च 'इह घटो नास्ति' इति ज्ञानमेकमेवेदम् ‘इह कुण्डे दधि' इति ज्ञानवत् , उभयालम्बनमनुपरतनयनव्यापारस्य भवति । तत्र भूप्रदेशमात्र एव नयनजं ज्ञानम, इतरत्र प्रमाणान्तरजनितमिति कुतस्त्योऽयं विभागः? अत्राग्निरिति युक्तोऽयं अनक्षजः प्रतिभासः। धूमग्रहणानन्तरं अविनाभावस्मरणादिबुद्धयन्तरव्यवधानसंभवात् । इह तु तथा नास्त्येव । अव्यवहितैव हि भूप्रदेशवत् घटनास्तिताऽवगतिरविच्छेदेनानुभूयते। न च क्षितिधराधिकरणपरोक्षाशुशुक्षणिवदनीक्षणविषयता भव'त्य'भावस्य : तद्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् तत्प्रतीतेः। तत्र हि व्यापृताक्षोऽपि न पर्वतवर्तिनमनलमवलोकयितुमुन्सहते; इह तु घटाभावमपरिम्लाननयनव्यापार एव पश्यतीति चाक्षुषमभावशानम् , तद्भावभावि'त्वानुविधानात् ॥ अभावाधिकरणयोरेकप्रमाणगम्यत्वमुपपादयति-तथा चेत्यादिना। 'इह कुण्डे दधि' इति ज्ञानं हि विशेष्यविशेषणोभयविषयकं चाक्षुषमेव । एवं भूनले घटाभावः इत्यत्रापि उभयोरप्येकेन प्रमागेन ग्रहणं युक्तम् । न झेकमेव ज्ञानं विशेष्यांशे चाक्षुषं विशेषणांशे मानसमिति संभवेत्, प्रमाणभेदे प्रमितिभेदावश्यंभावात् । न वेदं विभिन्नमेव ज्ञानद्वयम्, अननुभवात् । भत: ज्ञानेक्ये अनुभवसिद्धे प्रमाणपरिशीलनायां विशेष्यग्रहणार्थमावश्य केन चक्षुषैव विशेषणग्रहणमकामेनापि वाच्यमिति ॥ ननु योकस्मिन्नेव ज्ञाने एकांशे परोक्षत्वं अपरांशेऽपरोक्षत्वं च नाङ्गीक्रियेत तर्हि 'पर्वतो वहिमान्' इति ज्ञानं कथम् ? तत्र हि पर्वतः अपरोक्षः, वहिश्च परोक्षः । एवं प्रकृतेऽपि भूतलांशे ऐन्द्रियिकम् , अभावांशे अनैन्द्रियिकमिति कुतो न स्यादिति शङ्कायां, ‘पर्वतो वह्निगन्' इति विशिष्टमेकं ज्ञानं परोक्षमेव , पर्वतो धूमवान् इति पक्षधर्मताज्ञानं परमपरोक्षम् । अतो नानुपपत्तिरित्याह-अत्राग्निरित्यादि । इह-- भूतलं घटाभाववदित्यत्र : तथाबुद्ध यन्तरव्यवधानम्। अनीक्षणविषयता-- चक्षुरिन्द्रियाग्राह्यता। अपरिम्लानेति । अनुपरतेत्यर्थः । तद्भावभावित्वेति । अस्य अनन्यथासिद्धेत्यादिः । ति-ख. विधानाव-ख. स्ववि-ख.. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 अनुपलब्धिप्रकरणम् न्यायमजरी - नच'दुरस्थित'हुतवहरूपदर्शनपूर्वकस्पर्शानुमानवदिदमन्यथासिद्ध तद्भावभावित्वम् । तत्र हि बहुशः स्पर्शदर्शनकौशलशून्यत्वमवधारितं चक्षुषः, स्पर्शपरिच्छेदि च कारणान्तरं त्वगिन्द्रियमवगतम् ॥ ____ अविनाभाविता च पुरा तथाविधयो रूपस्पर्शयोरुपलब्धेत्यनुमेय एवासौ स्पर्श इति युक्तं तत्रान्यथासिद्धत्वं चक्षुर्व्यापारस्य | प्रकृते तु नेदृशः प्रकारः समस्ति। न चेकत्र तद्भावभावित्वमन्यथासिद्ध मति सर्वत्र तथा कल्प्यते । एवं हि रूपमपि चाक्षुपतामवजह्यात् ॥ [वैभवेन अभावस्य चाक्षुषत्वसमर्थनम् ] ननुनीरूपस्यासंबद्धस्य च चाक्षुषत्वमभावस्य कथमभिधीयते? चक्षुर्जनितज्ञानववाद्धि चाक्षुषत्वम्, न रूपवत्त्वेन । रूपवतामपि परमाणूनाम चाक्षुषत्वात् । नीरूपस्यापि रूपस्य चाक्षुषत्वाच्च ।। संबद्धमपि न सर्व चाक्षुश्म, आकाशस्य तथात्वेऽपि तदभावात् ।। अनन्यथासिद्धत्वमेवाशंक्योपपादयति-न चेति। स्पर्शदर्शनकौशलं स्पर्शविषयकप्रत्यक्ष जननसामर्थ्यम् || तथाविधयो:-ज्वालावलीजटिलेत्याद्यक्तविधयोः ॥ एवमिति । परमाणौ रूपसत्वेऽपि चक्षुषाऽग्रहणात् रूपं चाक्षुषे कारणं न स्यात् । यदि तत्राग्रहणमन्यथासिद्धं प्रकृतेऽपि तथा। तस्मादकैव रीतिः सर्वत्र वक्तुमशक्येति भावः ॥ असम्बद्धस्येति । चक्षुषेति शेषः । एवमुत्तात्र सर्वत्रापि ॥ चक्षुर्जनितेत्यादि । चक्षुषा गृह्यत इत्यस्मिन्नर्थे ‘शेषे' इति सूत्रात् शैषिकेऽण्प्रत्यये खलु 'चाक्षुषम् ' इति पदनिष्पत्ति: । एवञ्च चक्षुरिन्द्रियजन्यज्ञानविषयत्वं चाक्षुषपदप्रवृत्तिनिमित्तम् । न तु रूपवत्त्वम् , अन्वयतो म्यतिरेक श्च न्यभिचारात् इत्यर्थः ॥ एवं नीरूपस्य, असम्बद्धस्य-इत्युक्तयो: नीरूपत्वस्यान्यथासिद्धि मुक्ता द्वितीयस्य तामाह-सम्बद्धमपीति । विभोः खल्वाकाशस्य चक्षुस्सम्बन्ध अवर्जनीय इति भावः ॥ दरम्यवस्थित:-ख. स्वाचा-ख. चाक्षुषत्वात-ख. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अभावस्य चाक्षुषत्वोपपादनम् ननु असम्बद्धस्प चक्षुषा ग्रहणे दूरव्यवहितस्य विभीषणादेरवि चाक्षुषत्यप्रसङ्गः - उच्यते भावे खल्वयं नियमः, यत् असम्बद्धस्य चक्षुषाऽग्रहणम्, अभा वस्त्वसम्बद्धोऽपि चक्षुषा गृहीष्यते ॥ प्रकारसन्निकर्षवर्णनमपि भावाभिप्रायमेव, सम्बद्ध हि यत् गृह्यते तत् पणां सन्निकर्मणामन्यतमेन सन्निकर्षेणे ते ॥ प्राप्यकारित्वमपीन्द्रियाणां वस्त्वभिप्रायमेवोच्यते । तस्मादवस्तुत्वादभावस्य तेन सन्निकर्षमलभमानमपि नयनमुपजनयति तद्विषयमवगममिति न दोषः ॥ न चासम्बद्धत्वाविशेषत् देशान्तरादिषु सर्वानावग्रहणमाशङ्कनीयम्, आश्रयग्रहणसापेक्षत्वादभावप्रतीतः; आश्रयस्य च सन्नहितस्यैव प्रत्यक्षत्वात् ॥ 139 [ स्वपक्षेन अभावस्य प्रत्यक्षत्वोपपादनम् ] अथवा संयुक्त विशेषण' भावाख्यसन्निकर्षोपकृतं चक्षुरभावं ग्रहीष्यति । यथा समवाय प्रत्यक्षत्ववादिनां पक्षे समवायमिति ॥ विभीषणस्येदानीमपि लङ्कायां राज्यकरणस्य पुराणप्रसिद्ध्या विभीषणादेरित्युक्तम् । यद्वा दूरम्यवधानं कालतो देश तश्चेति कृत्वा तथोकम् । इन्द्रियसम्बन्धं विनाऽपि चाक्षुत्रत्वे देशान्तरकालान्तरव्यवहितस्यापि चाक्षुषत्वं स्यादित्यर्थः ॥ ननु यदि अभावः इन्द्रियसन्निकर्षं विनाऽपि गृह्येत तर्हि विशेषणताख्यसन्निकर्षः किमर्थमिति शङ्कायां समवायप्रत्यक्षे तदुपयोक्ष्यते, एवञ्च षड्विध. सन्निकर्षोऽपि भावविषयक एवेत्याह - षट्प्रकारेति । सम्बद्धमिति । इन्द्रियेणेति शेष ॥ ननु तर्हि इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं भज्येतेति कथं बौद्धपराकरणम् ? इति शङ्कायामाह – प्राप्यकारित्वमिति । वस्त्विति । भावरूपेत्यादिः । भवति, अस्ति इति प्रतीतिविषयत्वमिति यावत् । वस्तुत्वादिति । भभावरूपत्वादित्यर्थः । तेन - अभावेन || देशान्तरादिष्वित्यादिना कालान्तरपरिग्रहः । आश्रयेति । निष्प्रतियोगिकः यथा वाभावो नास्ति, तथा निरनुयोगिकोऽपि नास्तीति भावः ॥ . एवं वैभवेनोक्त्वा वस्तुगत्याऽऽद्द -- अथवेति । तथा च प्रत्यक्षलक्षणसूत्र न्यायवार्तिकम् - 'समवायेऽभावे च विशेषणविशेष्यभावात्' इति । समर्थितं चैतत् तात्पर्यटीकायां वाचस्पति मिश्रः ॥ पक्षे-नैयायिकपक्षे | ष-क. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 अनुपलब्धिप्रकरणम् [न्यायमञ्जरी संयुक्तविशेषणनासन्निकर्षम्यावश्यकत्वम् ननु 'तदि'दमसिद्धमसिद्धस्य दृष्टान्तीक्रियते-मैवम्भवताऽपि द्रव्यगुणयोवृत्तरपरिहार्यत्वात् । मेदबुद्धया सिद्ध मेदयोः असम्बद्धयोश्च द्रव्यगुणयोरदर्शनात् अवश्यं काचिद्धत्तिरेषितव्येति अलमर्थान्तरचिन्तनेन ॥ ___ [अभावस्य सम्बन्धोपपादनम्] यत्तृक्तं संयोगसमवाययोरभावात् अभावो न भूप्रदेशस्य विशेषणमिति-तदप्यसाधु-संयोगसमवायाभ्यामन्यस्येव विशेषणविशेष्यभावनानः सम्बन्धस्य अदूर एव प्रतीतिबलेन दयिष्यमाणत्वात् ॥ [संयुक्तविशेषणतायाः सन्निकर्षत्वे उक्तातिप्रसङ्गपरिहारः] यस्तु संयुक्तविशेषणभावे सन्निकर्षे रसादिभिरतिप्रसङ्ग उद्भावितः, सोऽयं संयुक्तसमवायाख्ये चक्षूरूपसन्निकर्षेऽपि समानो : दोषः॥ संयुक्तसमवायोऽपि तर्हि मा भृत् सन्निकर्षः ; किं नश्छिन्नम् ? तकि असम्बद्धमेव रूपं गृह्णातु चक्षुः! न हि संयुक्तसमवायादन्यः चक्षुरूपयोः सम्पन्धः॥ असिद्ध मिति । समवायस्यैव तन्मतेऽसिद्धत्वात् । वृत्तः-सम्बन्धस्य । ननु भाहानामस्माकं द्रव्यगुणयो त्यन्तभेदः, किन्तु भेदाभेदे एवेति शङ्कायां, तस्याः परिहारस्य बहुग्रन्थसाध्यत्वेन संक्षेपात् 'परिहारमाह--भेदबुद्धयति । 'घट: रूपवान् , न तु रूपम्' इति प्रतीतेरित्यर्थः॥ . अदूर इति । बोद्धाक्षेपप्रतिवचनावसर इत्यर्थः ॥ आंतप्रसङ्ग इति । चक्षुस्संयुक्तरसखण्डादौ रसस्य विशेषणत्वादित्यर्थः । चक्षुरूपेति । चक्षुष: रूपेण सहेत्यर्थः। चक्षुस्संयुक्तघटादिसमवायः रूपे रसे चाविशिष्टः, अथापि चक्षुषा रूपमेव गृह्यते न रस इति यथा, तथा प्रकृतेप्यस्त्वित्यर्थः॥ . ननु के प्रत्युच्यते, न वयं संयुक्तसमवायमभ्युपगच्छामः-- इति भावेन वक्ति -संयुक्तेति । प्रतिवक्ति -- तत्किमिति । नन्वस्तु सम्बन्धः, स भवदुक्त एवेति कथमित्यत्राह---न हीति ॥ 'तडी-ख. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 आह्निकम् १] सन्निकर्षाणामावश्यकत्वम् [सन्निकर्षाणामावश्यकता ननु ! अर्थग्रहणात्पको व्यापार एव चक्षुषः सन्निकर्षों योग्यता वा। तद्वशादेव रूपस्य तत् ग्राह'क'मुपेयते, न च संयुक्तसमवायादिनेति-स तर्हि व्यापारः, सा वा योग्यता कथमभावमपि प्रति तस्य न स्यात् । प्राप्यकारीणि चेन्द्रियाणि कारकत्वादिष्यन्ते, सन्निकर्षश्च नियते इति विप्रतिषिद्धम् ॥ तस्मात् षट्प्रकारा सन्त्रिकर्षानुगामिनी योग्यता वक्तव्या, न योग्यतामात्र एव विश्रम्य स्थातव्यम्। यत्र योग्यता तत्र सन्निकर्षोऽप्यस्ति, न तु यत्र सन्निकर्षः तत्रावश्यं योग्यतेत्येवमभ्युपगच्छतां न रसाधतिप्रसङ्गचोदना धुनोति मनः। रसादेः सत्यपि सन्निकर्षे योग्यत्वाभावादग्रहणम् ॥ योग्यतामात्रवादेऽपि नाभावस्यास्त्ययोग्यता । भवद्भिर्वस्तुधर्मोऽस्य को वा नाभ्युपगम्यते ? ॥१५७॥ सर्वोपाख्यवियुक्तत्वात् नास्त्येवेत्येष वोच्यताम् । अभावश्चाक्षुषशानविषयो वाऽभ्युपेयताम् ॥ ॥ १५८॥ ___ ननु इदमसङ्गतम्, अन्यस्यैव सन्निकर्षत्वात् । तथोक्तं ---'व्यापारो न यदा तेषां तदा नोत्पद्यते फलम्" इति । उक्तं चात्रैव भट्टोम्बेकेन–'योग्यतालक्षण एव सन्निकर्षः, योग्यता व कार्यानुमेया' इति । तदिदं शङ्कते-नन्विति । समाधत्ते - स तहीनि। तस्य-इन्द्रियस्य । प्राप्यकारीणीत्यादि । 'ससंप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां' इत्यनेन खलु इन्द्रियसंयोगः वस्तूनामुच्यते, संयोगश्चानेकविध इति सूचनाय 'संप्रयोग' इति च ; एवं सति कथं सन्निकर्षों नियत इति भावः ॥ . षट्प्रकारा योग्यता इत्यन्वयः।।। · एवं सन्निकर्षेणैव योग्यताया उपपादनीयत्वेन सग्निकर्षावश्यकत्वमुक्त्वा केवलयोग्यतापक्षेऽपि नानुपपत्तिरित्याह-योग्यतामात्रवादेऽपीति । घटादरिव सर्वोऽपि धर्मः तैरभावस्याङ्गीक्रियते। एवञ्च अभावस्यैतान् धर्मान् प्रतिषिध्य शशशशादिवत् निरुपाख्यत्वरूपावस्तुत्वमेवाङ्गीक्रियतां, चाक्षुषत्वं वाऽङ्गीक्रियताम् ; न तु अभावं वस्तुरूपमङ्गीकृत्य तस्यानेन्द्रियिकत्वाङ्गीकरणं युक्तमित्यर्थः ॥ कत्व-ख. 'प्रति-क. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 अनुपलग्धिप्रकरणम् न्यायमधरी [भभावस्याप्रत्यक्षत्वे पूर्वोक्तयुक्तिनिराकरणम् ] यदपि"खरूपमात्रं 'दृष्वाऽपि' पश्चात् किञ्चित् स्मरन्नपि । तत्राम्यनास्तितां पृष्टः तदैव प्रतिपद्यते ॥" इत्युक्तं तदपि न युक्तम्-वस्त्वन्तरविविक्तगौरमूलकस्वरुपग्रहण समय एव तत्रासन्निहितसकलपदार्थाभावग्रहणस्य मेचकबुद्धया सिद्धत्वात् इदानीं तद्तगर्गाभावस्मरणं न तस्य परोक्षस्यानुभवः । तथा हि-'तदानी गर्गस्तत्र नासीत् ' इत्येवं असौ स्मृत्वा सत्यवादी वदति', इदानीमस्तित्वनास्तित्वे प्रति संशेत एवासी'; गर्गस्य कुतश्चिदागतस्येदानीं तत्रास्तित्वसंभवात् ॥ ननु ! न पूर्व सर्वाभावग्रहणमनुभूतवानसौ गौर'मूलके इति चेत्'-अननुभूयमानमपि तदस्य बलात् कल्प्यतेऽभ्यस्तविषयेऽविनाभावस्मरणवत् । तथा हि-तेन तेनानुयुक्तः तस्य तम्याभावं. स्मृत्वोत्तरमसौ सर्वेभ्य आचष्टे । स्वरूपमात्रमित्यादि। एतत्तात्पर्य पूर्वमेव (134 पुटे) विवृतम् । इन्युक्तमिति। कुमारिलभट्टपादैः श्लोकवार्तिक इति शेषः। वस्त्वन्तरविविक्तेति । ' स्वरूपमा ' इति श्लोकखण्डानुवादः । मेचकबुद्धयाअप्रातिस्विकबुद्धया। एवञ्ज्ञ सामान्यतो गौरमूलके निखिलाभावग्रहणं पूर्वमेव जातम् , यदा च प्रतियोगिविशेषोपस्थिति तदा विशिष्य तदभावस्मरणम् । ‘निर्विशेषं न सामान्यम् ' इति न्यायात् । पूर्व गौरमूलकगतत्वेन खलु अभावमयं व्यवहरति, न तु न्यवहारकालेऽपि तत्र गर्गस्यासत्वं प्रतिज्ञ तुं प्रभवति । एवञ्च पूर्वगृहीताभावस्मरणमेवेदमित्यर्थः ॥ न पूर्वमनुभूतवानिति । पूर्व गौरमूलके न हि सर्वाभावप्रत्यक्षं जातमित्यर्थः । अननुभूयमानं-अनुव्यवसायागम्यम् । तत्-सर्वाभावग्रहणम् । कथं अननुभूतस्य कल्पनं, न हि तदा निर्विकल्पकमासीत् । तस्य संस्काराहेतुत्वात् इत्यत्राह-अभ्यस्तेति । अनभ्यस्तविषये व्याप्तिस्मरण स्मरति-ख. एवास्य-क. 'मूलके-ख., दृष्ट्वा च-ग. मुबके इति चेत्र-क. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतिकम् १] अभावस्य चाक्षुषत्वसमर्थनम् 143 ननु ! मेचकवुद्धया सकलाभावग्रहणे सहसैव 'सकलाभाव'स्मृतिरुपजायेत-मैवम्-यत्रैव प्रश्नादिस्मरणकारणमस्य भवति तदेव स्मरति, न सर्वमविद्यमानस्मरणनिमित्तम् । 'क्रमोपलब्धेष्यपि वणेषु युगपदन्त्यवर्णानुभवसमनन्तरं स्मरणम, अन्यत्र तु युगपदुपलब्धेऽपि क्रमेण स्मरणं भविष्यतीति न मेचकबुद्धावयं दोषः ॥ किश्च स्वरूपमात्रं दृष्टमिति वदता भवताऽपि मेचकज्ञानमभ्युपगतमेव ; मात्रग्रहणेन तदन्या भावग्रहणसिद्धः। एवं हि भवानेवा. भ्यधात् 'अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः। नैष वस्त्वन्तराभावसंवित्त्यनुगमादृते' इति ॥ तस्मात् गौरमूलका वगम समय एव तत्रासन्निहितस्य गर्गादेरभावग्रहणात् नेदानीं परोक्षाभावग्रहणमभावकार णक मभ्युप. गन्तव्यमिति प्रत्यक्षगम्य एवायमभावः ।। परिशीलनादिमिः विलम्ब संभाग्येत । असकृदभ्यस्तविषये हि अनुमितिरपि प्रत्यक्षवदेव शीघ्रं जायते । एवं प्रकृतेऽपि पूर्वज्ञानस्य शीघ्रमुपजासत्वेन नानुभवः । यथा हि भावविषयेऽपि कदाचित् रथ्यायां गच्छन् गर्ग पश्यन्नपि तदानीमेव नास्य तज्ज्ञानानुभव:, देशान्तरे च पुरुषान्तरेण 'किं गर्गः इतोऽगच्छत् ? ' इति पृष्टः तदानी गर्ग किञ्चिञ्चिन्तनया प्रतिसन्धाय 'मा: सत्यं गतः' इति प्रतिवदति । तदानी गर्गस्मरणमेव, न त्वपूर्वानुभव इति सर्वैरास्थेयमेव। एवं अयं न्यायः तुल्यः अभावविषयेऽपि इति ॥ .. यत्रत्यादि। भूतले यदा घटो गृह्यते, तदा तदितरयावत्प्रतियोगिकाभावः सामान्यतो गृह्यत एव । अत एव कालान्तरे तत्र पट मासीद्वेति प्रश्ने तदा पटस्य विशिष्य प्रतियोगिन उपस्थित्या विशिष्य पटाभावः स्मर्यते इतीदं सर्वानुभवसिद्धमेवेति । अत्र दृष्टान्तमाह -क्रमेति । व्यतिरेकदृष्टान्तोऽयम् ॥ . इदं तेषामप्यपरिहार्यमित्याह-किश्चेति। अयमेवेति । अयमेवेति यः भावविषयक एष निर्णयः भवति, एष निर्णयः एवकारार्थत्वेन गर्गाभाव-क. • मेव तयोष-क. अन्यत्र तु युगपदुप-ख. वेश-ख. ण-ख. तदन्यथा-क. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 अनुपलब्धिप्रकरणम् न्यायमधरी चझवात निश्चयः। [अभावस्यानुमेयत्वाभावः कुत्रचित्सम्मत एव] यत्पुनरननुमेयत्वं 'इह घटो नास्ति' इति प्रकृताभावविषयम यायि-तत् अस्माकममि'मतमेव' . कश्चित्पुनरसन्निकृष्टदेशवृत्तिरनुमेयोऽपि भवत्यभावः -यथा सन्तम से सलिलधाराविसरसिक्त सस्यमूलमभिवति देवे धनपवनसंयोगाभागोऽनुमीयते; यथा वा अर्थापत्ताबुदाहृतं गृहाभावेन. चैत्रस्य बाहेरभावकल्पन मिति ॥ आगमादप्यभावस्य कचिद्भवति निश्चयः। चोरादिनास्तिताशानं अध्वगानामिवाप्ततः ॥१५९॥ प्रमाणप्रमेययोरानुरूप्यं न नियतम् ] यत्पुनः -अनुरूपेण प्रमाणेन प्रमेयं प्रमीयते, प्रमेयत्वात्, भावात्मकप्रमेयवदिति-एतदप्यप्रयोजक साधनम्॥ अभावः पटलादीनां प्रत्यक्षस्य प्रपद्यते। . विपक्षवृत्त्यभावश्च लिङ्गस्य सहकारिताम् ॥ १६० ॥ पुरुषोक्तिषु दोषाणामभावश्चोपयुज्यते । साम प्रयन्तर्गतात् तस्मात् अभावादपि भावधीः ॥ १६ ॥ वस्त्वन्तराभावग्रहणमन्तरा नैव भवति इत्यर्थः । एवञ्च स्वरूपमात्रं गृह्यते चेत् इतरत् किञ्चिदपि विशेषणं न गृहीतमेवेति मेचकबुद्धया यावदभावः गृह्यत एवेति ॥ ___ केषाञ्चिदभावानामनुमेयत्वस्याप्युत्तरत्र वक्ष्यमाणत्वात् सामान्यतः अभावानुले गत्वनिरासः नाभ्युपगन्तुं शक्य इत्यतः-प्रकृतेति। अभिमतमेवेति । " इह घटो नास्ति' इति प्रतीते: प्रत्यक्षत्वादित्यर्थः ॥ सर्वथाऽनुमेयत्वसूचनाय-सन्तमस इति ॥ पटलः-- नेत्ररोगविशेषः। प्रत्यक्षस्येति । उत्तरार्धगतं ‘सहकारिता' इति पदमत्राप्याकर्षणीयम् । विपक्ष इति । विपक्षावृत्तित्वं हि .लिङ्गस्याङ्गम्। वेदे दोषाप्रसक्ते: ---पुरुषोक्तिविति । लौकिकपुरुषोक्तिग्वित्यर्थः। दोषाणां-विप्रलम्भकत्वादीनाम् । तस्मात्__ मतम्-ख. स-क. 'क्तस्य, क्तस-क. 'प्रयक्ष प्रतिपयते-ख. क्षे व-ख. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 • आह्निकम् । अमावनिराकरणम् अभावश्च क्वचिलिङ्गमिष्यते भावसंविदः। वृष्टयभावोऽपि वाय्वभ्रसंयोगस्यानुमापकः ॥ १६२ ॥ • तस्माद्युक्तमभावस्य नाभावेनैव वेदनम् । न नाम यादृशो यक्षो बलिरप्यस्य तादृशः ॥ १६३ ॥ इति अभावास्यप्रमाण नरसनम् [बौद्धोक्ताभावनिराकरणप्रकारः] अत्र रक्तपटाः प्राहुः प्रमेये सति चिन्तनम् । युक्तं नाम प्रमाणस्य, तदेव त्वतिदुर्लभम् ॥ १६४ ॥ अभावो नाम प्रतीयमानो न त्वतन्त्रतया 'घटादिभावस्वरूपवदमुभूयते, अपि तु देशकालप्रतियोगिविशिष्टत्वेन । तथा ह्येवं प्रतीतिः 'इदमिदानी मिह नास्ति' इति । स चेत्थमवगम्यमानोऽपि यदि तैः सम्बद्ध एव भवेदभावः, क एनं द्विष्यात् । न त्वसौ तत्संबद्धः। न हि देशेन कालेन प्रतियोगिना सहास्य कश्चित् सम्बन्धः, संयोगसमवायादेरनुपपत्तः। न च सम्बन्धरहितमेव विशेषणं भवति ॥ . विशेषणविशेष्यभावस्य सम्बन्धत्वनिराकरणम्]. . ननु! विशेषणविशेष्यभाव एव सम्बन्धः, किं सम्बन्धान्तरापंक्षया ?-मैवम् –सम्बन्धान्तरमूलकत्वेन तदवगमात्। संयुक्तं कारणात् । अभावेन भावानुमिती दृष्टान्तमाह-वृष्टीति। अत्र गगनं, वावभ्रसंयोगवत्, अत्र वृष्ट्यभावादिति । न नामेति । सर्वत्रेति शेषः ॥ रक्तपटा:-बौद्वाः। प्रमाणस्य चिन्तनमित्यन्वयः। तदेवअभावरूपं प्रमेयमेव । अन्त्रितया- स्वतन्त्रतया। इदमिति प्रतियोगि, इदानीमिति कालः, इहेत्यनुयोगि चोच्यते । तैः-देशकालप्रतियोगिमिः । संयोगेति । द्रव्ययोरेव संयोगात, अवयवावयव्यादीनामेव समवायादित्यर्थः ।। तदवगमात्-विशेषणविशेष्यभावावगमात् ॥ ... ......... घटाभान-ख..... NYAYAMANJARI Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभावप्रकरण 146 न्यायमचरी समवेत वा विशषण भवति । दण्डी देवदत्तः, नीलमुत्पलमिति। अतश्च न वास्तवः स्वतन्त्र एव विशेषणविशेष्यभावः सम्बन्धः ॥ पुरुषेच्छया विपर्यस्यन्तमप्येनं पश्यामः। विशेषणमपि विशेष्यीभवति, विशेष्यमपि विशेषणीभवतीति काल्पनिक एवायं सम्बन्धः, न वस्तुधर्मः॥ भिभावप्रतियोगिनोः प्रतियोगित्वं न सम्बन्धः] प्रतियोगिना सह नतरामभावस्य सम्बन्धः, असमानकालत्वात्। यदा हि घटः, न तदा तदभावः ; यंदा वा तदभावः, न तदा घट इति॥ विरोधा'ख्यः सम्बन्धो भविष्यतीति चेत् , को विरोधार्थः? यदि हि प्राक् सिद्धो घटाभावः आगत्य घटं विरुन्ध्यात् भवेदपि तद्विरोधी, 'घटमुद्रयोरिव; न त्वेवमस्ति, तयोरसमानकालत्वात् । अभ्युपगमे वा घटतदभावयोः घटमुद्गरयोरिव वध्यघातुकयोः साहचर्यमनुभूयेत । घटाभावः किं कुर्वन् घटं विन्ध्यात्? अकिञ्चित्करस्य विरोधित्वऽतिप्रसक्तिः । . अभावान्तरकरणे त्व'नवस्था। मुद्रादयो 'घटाभावस्य हेतवो न भवितुमर्हन्ति । भावस्य स्वत एव भङ्गरत्वेन विनाशहेत्वनपेक्षत्वात् ॥ एन-विशेषणविशेष्यभावम् । घटवत् भूतलमित्यत्र हि घटो विशेषणं, भूतलं विशेष्यं ; भूनले घट इत्यत्र तु घटो विशेष्यः, भूतलं विशेषणमिति विपर्यासो दृश्यते। एवं घटाभाववत् भूतलमित्यादावपीत्यर्थः ॥ विगेधः-प्रतियोगिताऽपरपर्यायः। अभ्युपगम इति । समानकालिकत्वेत्यादिः । अतप्रसक्तिः-पटाभावस्यापि घटेन साकं विरोधापत्तिः। ननु अभावं भावं करोति चेदुपलंभायापत्तिः, अभावकरणे तु को दोषः ? इत्यत्र ह --अभावान्तरति। ननु मुद्रेण खलु घटध्वंसो जन्यते, तेन घटध्वंसमुद्रयोः कार्यकारणभावो वाच्यः। असम्बद्धयोश्च कार्यकारणभावो न स्यात् । एवञ्च भावाभावयोः सम्बन्धः सिद्ध एव । अथ तयोः कार्यकारणभाव एव सम्बन्ध:, नातिरिक्त इति चेत् - प्रतियोग्यभावयोरपि निरूपकनिरूप्यभावादिरेव यः कश्चित्सम्बन्धोऽस्तु । भावाभावयोस्तु सम्बन्धः अभ्युपगत एव इति शङ्कयां तयोः कार्यकरणभाव एव नास्तीति, न प्रतियोग्यभावयो. सम्बन्धो युज्यत इत्याह-मुद्रादय इति । भङ्गुरत्वेन-प्रतिक्षणं नश्यमानत्वेन ॥ स्य-ख. न-ग णत्वे-ख. 'घटस्य नामावहेतवो भवतु-ख. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अमावो न मावान्तर हेरः 14 भावो विनश्वगत्मा चेत् , कृतं प्रलयहेतुमिः। अथाप्यनश्वरात्मा चेत् , कृतं प्रलयहेतुभिः ॥ १६५ ॥ तस्माद्विजातीयकपालादिसन्ततिजनन एव मुद्रादिकारकव्यापारः; सामग्रयन्तरानुप्रवेशे सति सन्तत्यन्तगत्पादः, न पुनरभावस्य ततो निष्पत्तिः। स हि घटात् वस्त्वन्तरं चेत् किमायातम् ? यदसौ न पूर्ववदुपलभ्यते । तद्विरोधित्वादिति चेत् , प्रत्युक्तमेतत् । अनन्त'रत्वे तु घटस्यैव मुद्गरकार्यत्वं स्यात् ॥ परिणामवाद्युक्ताभावस्वरूपनिराकरणम् ] . ननु ! यानि मुद्रेण कपालानि जन्यन्ते, स एव घटाभावः । हन्त तर्हि काला स्फोटने सति घटाभावस्य विनष्टत्वात् घटस्योन्मजनं प्राप्नोति ।। ___किञ्च अकिञ्चित्कराणि कपालानि घटस्याभाव इति यधुच्यते, पटस्यापि तथोच्येरन् । "किञ्चित्कारकत्वं तेषां पूर्ववत् प्रतिक्षेप्तव्यम् ॥ भाव इति। घटादिः यद्यनित्यस्वभावः, तर्हि नाशोऽपि स्वतो भविष्यत्येव । · यद्यविनाशस्वभावः, तदा मुद्रादयो वा किं कुर्युः? मत उभयथाऽपि न विनाशकारणापेक्षेत्यर्थः ॥ . तर्हि मुद्रेण किं क्रियत इत्यत्राह-तस्मादिति । विजातीयेति । घटसन्तानात् विलक्षणस्य कपालसन्तानस्य जनन एव मुद्रोपयोग इत्यर्थः । सा-घटनाशः । किमायातमिति । घटवत् घटनाशाख्यं स्वतन्त्रं वस्त्वन्तरं जातं चेत् , उभयमप्युपलभ्यतां कामम् । विरोधित्वान्नोभयोपलब्धिरिति चेत् . सः अनुपदमेव निरस्त:। घटनाशस्य घटादनन्तरत्वे घटनाशको मुद्गरो घटहेतुः स्यात् । अतो नाशः न स्वतन्त्रः कश्चित्पदार्थः ॥ - ननु घटस्य ध्वंसो नाम कपालावस्थाप्राप्तिरेव । सा च भवद्भिरप्यङ्गीकृता, एवञ्च कुतो विवाद: ? इत्याशङ्कते-- नन्विति ॥ समाधत्ते--हन्तेति । कपालावस्थैव यदि घरध्वंसरूपा, तर्हि कपालस्य नाशे घटध्वंसस्यापि नाशात पुनर्घटोन्मजनं स्यात् । वयं तु ध्वंसमेव नाङ्गीकुर्म इति नास्माकं दोष इत्यर्थः ॥ .. अकिञ्चित्कराणि----अनिरूपकाणीति यावत। तथा-नाशत्वेन ।। रे-क. स-ख किन का-ख. .... ___10* Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 भभावप्रकरणम् न्यायमरी [भभावस्वरूपानुपपत्तिः अपि चायमभावो भवनधर्मा वा स्यात् ? अभवनधर्मा वा? भवनधर्मत्वे भावोऽसौ भवेत् , घटादिवत् । अभवनधर्मा तु यद्यभावोऽस्ति, स नित्य एवासौ तर्हि भवेत् ॥ [भभावस्य सप्रतियोगिकत्वनिरासः] स चायमेकपदार्थसम्बन्धी वा स्यात् ? सर्वपदार्थसम्बन्धी वा? तत्र एकभावसम्बन्धित्वे न तस्य नियमकारणमुत्पश्यामः । सर्वभावसम्बन्धित्वे तु सर्वपदार्थप्रतिकूलस्याभावस्य नित्यत्वात् 'नित्यसन्निहितत्वात् सकृदेव त्रैलोक्यलोपप्रसङ्गः। तस्मात् न नित्योऽनित्यो वा कश्चि'दभावो नामास्ति ॥ [भभावानभ्युपगमेऽपि न साकर्यम्] . ननु ! अभावानभ्युपगमे भावानामितरेतरसङ्करात् अखिलव्यवहारविप्लवः प्राप्नोति । यदाह 'क्षीरे दधि भवेदेवं दन्नि क्षीरं घटे पटः। शशे शृङ्गं पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्ति रात्मनि ॥ इति ॥ प्रकारान्तरेणाभावं निराकरोति-स चेति। अभावः किं एकप्रतियोगिकः ? उत सर्वप्रतियोगिकः? आये-विनिगमनाविरहः, द्वितीये-सकृदेव सर्वाभावस्य सिद्ध्या त्रैलोक्यनिवृत्तिप्रसङ्ग इति भावः। अनित्यो वेति। अनित्यत्वे हि सार्वत्रिकस्य अभावव्यवहारस्य विलोपप्रसङ्ग इति भावः ॥ ____ इतरेतरसाकर्यमेवाह-क्षीर इत्यादि । श्लोकवार्तिकोऽयम् । अतिरिक्ताभाववादिशान्तरक्षितविरचिततत्त्वसङ्ग्रहेऽपि अयमर्थः प्रकारान्तरेण दृश्यते। यद्यभावाख्यः कश्चन पदार्थो न स्यात् तदा जगति विरोध एवोपपादयितुमशक्यः । विरोधस्याभावरूपत्वात् । एवञ्च विरोधाभावे च सर्व सर्वरूपं स्यात् । क्षीरे हि दनः प्रागभावो वर्तते, यदि प्रागभावो न स्यात्, क्षीरे दधि स्यात् । एवं दधि क्षीरध्वंसो वर्तने, यदि ध्वंसो न स्यात्, तर्हि दन्यपि क्षीरं स्यात् । एवं घटे पटान्योन्याभावो वर्तते, यदि अन्योन्याभावो न स्यात्, तर्हि घटोऽपि पटः स्यात् । एवं शशे शृङ्गाभावो वर्तते, यद्यत्यन्ताभावो न स्यात्, तर्हि शशेऽपि शृङ्गं स्यात्। अतः भावानां सार्यवारणायाभावः अवश्यमङ्गीकरणीयः इति ॥ 1 नियस्सन्नित्यो वा कनि-ख. सत्वे सति-क. ३ मा-क. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १]। अभावानभ्युपगमेऽपि न क्षतिः 149 अभावाभ्युपगमे तु भावानामितरेतराभावात् असङ्कीर्णता सेत्स्यति-तदेतदसाधु-स्वत एव भावानामसङ्कीर्ण स्वभावत्वात्॥ अभावकारणकसङ्करपरिहारकथने तु सुतरां विप्लवःभावो भावादिवान्यस्मात् अभावांशापि ध्रुवम् । असङ्कीर्णोऽभ्युपेतव्यः स कथं वा भविष्यति? ॥१६६ ॥ अन्योन्य मध्य भावानां यद्यसङ्कीर्णता स्वतः। भावैः किमपराद्धं 'व', परतश्चेत् , कुतो नु सा?॥१६७॥ भावेभ्यो यद्यपेयेत भवेदन्योन्यसंश्रयम् । अभावान्तरजन्या चेत् अनवस्था दुरुत्तरा ॥१६८॥ अभावस्वभावतायाश्च सर्वान् प्रत्यविशेषात् प्रतिषेध्य निबन्धन एव तद्भेदः । प्रतिषेध्याश्च भावाः परस्परेण भिद्यमानास्तं मिन्दन्तीतिं प्रत्युत भावाधीनमभावानामसार्य वक्तुमुचितम्, नतु विपर्ययो युक्तः। तत् अखिलपदार्थव्यवस्थाविसंष्ठुलीभावभयादपि नाभायाभ्युपगमो युक्तः ॥ भाव इत्यादि । घटादिर्भाव: अन्यस्मात् पटादिभावात् मिद्यते, तथा अभावादपि स मियत एवेति वक्तव्यम , अन्यथा भावाभावयोः साङ्कर्यप्रसङ्गः। अभावप्रतियोगिंकान्योन्याभावाङ्गीकारे त्वनवस्था किञ्च घटाभावः पटाभावाद्भिद्यत एव। तयोरन्योन्याभावाङ्गीकारादनवस्था। यदि अभावस्थले भन्योन्याभावमन्तरा स्वत एव भेदभ्यवहारनिर्वाह', तर्हि भावयोगपि तथैव स्वत: असङ्कीर्णव्यवहारोऽस्तु । यद्यभावय: परस्परभेदः प्रतियोगिभूतघटपटादिभेदादेवं सिद्धयतीत्युग्यते-तान्योन्याश्रयः भावयोः घटपटयोः भेदो हि अभावात् सिद्धति, अभावयोस्तु भावात् सिद्धयतीति। अत: स्वलक्षणस्वभावानां भावानां भेदः स्वत एवास्त्विति नातिरिक्ताभावसिद्धिः इत्यर्थः । - प्रत्युत विपर्यय एवेत्याह-अभावेति। प्रतियोगिनिरूप्या प्रभावाः प्रतियोगिभेदादेव परस्परविलक्षणा वाच्याः, अभावानां निराकारत्वात् । प्रतियोगिनस्तु घटपटादयो विलक्षणा: स्वत: प्रत्यक्षत एव सिद्धा । अतः अभावानां सार्यवारणाय भावा अङ्गीकार्या इति कथनं युज्येतापि, न तु भावानां भसाकर्याय अभावोऽङ्गीकार्य इति भावः ॥ 1 भावादसङ्कीर्ण-ख. माप-ख. वा-ख. .." Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 अभावप्रकरणम [न्यायमभरी [अतिरिक्ताभावानभ्युपगमपक्षे नमर्थः] नन्वभावप्रतिक्षेपे नमः किंधाच्यं ? उच्यताम् ! नैव शब्दानुसारेण वाच्यस्थितिरुपेयते ॥ १६९ ॥ बौद्धाः खलु वयं लोके सर्वत्र ख्यातकीर्तयः। विकल्पमात्रशब्दार्थपरिकल्पनपण्डिताः ॥ १७० ॥ . क्वचिन्नामपदप्राप्तवृत्तिना जन्यते नत्रा। निषेधपर्युदस्ता'न्य विषयोल्लेखिनी मतिः ॥ १७ ॥ ... क्वचित्त्वाख्यातसम्बन्धमुपेत्य विदधात्यसौ । तदुत्तक्रियाऽऽरंभनिवृत्त्युल्लेखमात्रकम् ।। ७२ ॥ अभावानभ्युपगमेऽप्येकादशविधानुपलब्धिनिर्वाहः] . ननु ! चानेन मार्गेण यद्यभावो निरस्यते। एकादशप्रकारैपाऽनुपलब्धिः क्व गच्छतु ॥ १७३ ॥ १. स्वभावानुपलब्धियथा-नेह घटः, अनुपलब्धेः- इति ॥ बौद्धाः खलु वय मिति । बुद्ध्या परिकल्पितेन वस्तुनैव व्यवहार निर्वहामः । अतो वयं बौद्धाः । अत: सर्वस्यापि शब्दस्यार्थः वास्तविक एवेति न नियमः । एवञ्च अभ वाख्यवस्तुन अभावेऽपि नव्यवहारो युज्यत एवेत्यर्थः । एतदेवाह-कचिदित्यादि। नजों हि द्विविधः; पर्युदासः, प्रतिषेधश्च । तंत्र पर्युदासे -'न घटः पटः' इत्यादौ हि अन्योन्याभावो भासते। स च परस्परापोहरूप एवेति नातिरिक्तः । प्रतिषेधे-चैत्रः कटं न करोति इत्यादौ च क्रियानिवृत्तिरेव बोध्यते । सा च स्वरूपमेव कुत्रचित, कुत्रचिञ्च वस्त्वन्तररूपेति न ततोऽप्यभावसिद्धिरिति ॥ एकादशप्रकाति। न्यायबिन्द्वादौ धर्म फीांद्युक्तेत्यर्थः। धर्मोत्तरा. चार्य श्चेमा अनुपलब्धयः विशदं व्याख्याता: ॥ अत्र 'स्वभाव' इत्यादौ 'प्रतिषेध्यस्य' इत्यादिः। प्रतिषेध्यस्य यः । स्वभाव इति । . एवमेवोत्तरत्रापि । इह इति पक्षः, न घट इति साध्यः, अनुपलब्धेरिति हेतु: । धूमवह्नयोरिव घटस्य स्वेन साकं कार्यकारणभावाभावात् स्वभावानुपलब्धिः ॥ स्मि -ख. 2 अदि-स Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति॥ भाडिकम् १] अभावानभ्युपगमेऽपि न क्षति: 161 ___२. कारणानुपलब्धिर्यथा-नात्र धूमः, दहनानुपलब्धेः-इति । ३ व्यापकानुपलब्धिर्यथा-'नात्र शिंशपा, वृक्षानुपलब्धेः ४. कार्यानुपलब्धिर्यथा-नात्र निरपवादा धूमहेतवः सन्ति, धूमानुपलब्धेः-इति ॥ ५. स्वभावविरुद्धोपलब्धियथा-नात्र शीतस्पर्शः, पावकोपलब्धेः इति ॥ ___६. स्वभावविरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा – नात्र शीतस्पर्शः, धूमोपलब्धेः-इति ॥ ____७. विरुद्धव्याप्तोपलब्धियथा - न 'ध्रुव'भावी भूतस्यापि भावस्य विनाशः, हेत्वन्तरापेक्षणात् इति ॥ ८. कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा--नात्र शीतकारणमप्रतिबद्धसामर्थ्यमस्ति, ज्वलनोपलब्धेः-इति ॥ ___९. व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा-नात्र तुहिनस्पर्शः, कृशानुदर्शनात् इति ॥ द्वितीये-धूमं प्रति दहनस्य कारणत्वात् कारणानुपलब्धिः ॥ __ तृतीये-शिंशपापेक्षया वृक्ष: व्यापकः ॥ .. चतुर्थे-धूमकारणानां धूमः कार्यः । कारणे सति कार्येण भवितव्यमेवेति न निबन्धः, प्रतिबन्धकाद्यपवादे सति कार्यानुत्पत्तेः । अत: 'अप्रतिबद्धसामर्थ्यानि ' इति न्यायबिन्दूक्तमेव 'निरपवादाः' इत्युक्तम् ॥ पञ्चमे-शीतस्पर्शविरुद्धत्वं पावकस्य ॥ षष्ठे–स्वभावविरुद्धस्य वह्ने कार्य: धूमः ॥ सप्तमे-ध्रुवभावित्वविरुद्वेन अध्रुवभावित्वेन हेत्वन्तरापेक्षणं व्याप्तम्। एतद्विचारः क्षणभङ्गे भविष्यति ॥ अष्टमे - शीतकारणस्य यत् कार्य शीतस्पर्शादि, तद्विरुद्धः ज्वलनः ॥ नवमे-तुहिनस्पर्शव्यापकशीतस्पर्शविरुद्धः कृशानुः॥ नात्र शीतस्पर्शः पावकोप-ख. 'धूमोपलब्वे:-क. ध्रुव-..' Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1152 अभावप्रकरणम् . न्यावमजरी . २०. कारणविरुद्धोपलब्धिर्यथा-नैतस्य रोमहर्षदन्तवीणादि. विशेषाः सन्ति, सन्निहितहुत'वह'विशेषात्-इति ॥ ११. कारणविरुद्धकार्योपलब्धिर्य था-प्रवृत्तदन्तवीणादि विशेषपुरुषाधिष्ठित 'एष' देशो न भवति, धूमवत्त्वात् इति ।। __सत्यम् , एकादशविधाऽनुपलब्धिरिहे ष्यते । -: सा त्वसह्यवहारस्य हेतुः नाभावसविदः ॥ १७४ ।। __ [अनुपलब्धेः स्वभावहेतावन्न वो युज्यते] ननु ! अनुपलब्धेः स्वभावहेतावन्तर्भाव उक्तः, स्वभावहेतौ च साध्यसाधनयोर व्यतिरेक इष्यते। असद्यवहारश्च ज्ञानाभिधानात्मकत्वात् तत एव पृथगिति कथं तद्विषयतां यायात् - सत्यमेवम्-. किन्तु नासद्यवहार स्तया साध्यते', अपि तु तद्योग्यता। योग्यता च न ततोऽन्तरमिति न स्वभावहेतुत्नहानिः ॥.. दशमे-रोमहर्षादिकारणशीतस्पर्शविरुद्धः हुतवहः ॥ .. एकादशे--दन्तवीणादिकारणविरुद्धस्य वह्नः कार्यभूतः धूमः ॥ एकादशविधानुपर ब्धि: असद्व्यवहारस्य हेतुरिष्यत इत्यन्वयः। अभावसंविदा-अभावाख्यप्रमेयनिर्णयस्य । बौद्धमते असद्व्यवहारस्येष्टत्वात् व्यवहारमात्रात् नार्थसिद्धिरित्यर्थः ॥ अन्तर्भाव इति । यद्यपि धर्मकीर्तिना हेतुबिन्दौ 'बीण्येव च लिङ्गानि, अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति' इति अनुपलब्धिः पृथगुक्ता; अथापि उत्तरत्र तत्रैव 'अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ, एकः प्रतिषेधहेतुः' इत्युक्तम् । तेनैव प्रमाणवाति केऽपि 'स्वभावकार्यसिद्धयर्थं ' इत्यादिना हेतुद्वैविध्यं प्रतिपाद्य 'हेतुस्वभाव. न्यावृत्त्यैवार्थच्यावृत्तिवर्णनात् । सिद्धोदाहरणेत्युक्ताऽनुपलब्धि: पृथक् न तु' इत्युक्तम् । तदनुयायिना मोक्षाकरगुप्तेनाऽपि तर्कभाषायां ; प्रथम लिङ्गत्रैविध्यमुक्त्वा ‘ननु ! यद्यनुपलब्धेरपि तादात्म्यतदुत्पत्ती एव सम्बन्धी, कथं तर्हि कार्यस्वभावाभ्यामनुपलब्धेर्भेदः ? प्रतिषेधसाधनात् भेदः, न वस्तुतः' इत्युक्त्वा पूर्वोक्तधर्मकीर्तिवाक्यमेव प्रमाणतयोपन्यस्तमिति ज्ञेयम् । तद्योग्यता-व्यवहारयोग्यता। ततः --वस्तुस्वभावात् ॥ वहाधिष्ठित-ख. ' षत्वात-क. 3 एव-क. वा-क.. 5 स्साध्यते-क. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् १] अभावानभ्युपगमेऽपि भ्यवहारनिर्वाह: 153 ननु ! योग्यता भावात्मिका, अनुपलब्धिस्त्वभावस्वभावेति कथमनर्थान्तरत्वम् ?-नैतदेवम्-न ह्युपलब्धिप्रतिषेधात्मिकामभावस्वभावामनुपलब्धिमनुपलब्धिविदो 'वदन्ति', किन्तु प्रतिषेधपर्युदस्त वस्त्वन्तरोपलब्धिमेवार्थाभावस्वभावामिति ॥ __अत एवेदमपि न चोद्यम्-अनुपलब्धेरभावात्मकत्वात् अनुपलब्ध्यन्तरपरिच्छेद्यत्वादनवस्थेति ; यस्मात् वस्त्वन्तरोपलंभात्मिकाऽनुपलब्धिः स्वसंवेद्यैवेति ॥ - [अनुपलंभमात्रात् न अतीन्द्रियाणां अभावच्यवहारः सिद्धयेत् ननु! अनुपलब्धः असद्यवहारसिद्धौ अदृश्य स्थापि तथात्वं सिद्धयेत्-न-दृश्यत्वधिशेषणोगदानादुपलब्धिलक्षण प्राप्तस्यानुपलब्धेरसद्यवहारः, न यस्य कस्य चिदिति। तत्र घटादेः पूर्वदृष्टस्य दृश्यत्वपरिनिश्चयात् । असत्त्वव्यवहारो हि सिद्धयत्यनुपलब्धितः ॥ १७ ॥ एकान्तानुपलब्धेषु विहायःकुसुमादिषु । . 'दृश्यत्वयोग्यता'योगात् असत्त्व परिनिश्चयः ॥ १७६ ॥ अनन्तरत्वं-भावरूपाया योग्यताया इति शेषः। प्रतिषेधेत्यादि। प्रतिषेधेन पर्युदस्तं व्यावर्तितं यत् वस्त्वन्तरं तदुपलब्धिमेव पूर्ववस्त्वभावस्वभावामित्यर्थः । केवलभूतलोपलंभ एव अभावोपलंभ इति भावः ॥ स्वसंवेद्यवेति । उपलम्भस्य ज्ञानरूपत्वेन तस्य स्वप्रकाशत्वादित्यर्थः । अदृश्यस्य -अतीन्द्रियस्य पिशाचादेः। दृश्यत्वविशेषणेति । तथोक्तं हेतुबिन्दौ 'प्रतिषेधसिद्विरपि यथोक्ताया एवानुपलब्धेः' इति । व्याख्यातं च धर्मोत्तराचार्येण-प्रतिषेधव्यवहारस्य सिद्धिः यथोक्ता यादृश्यनुपलब्धिः तत एव भवति' इति ॥ ___ तदानीमदृश्यत्वाविशेषेऽपि घटगगनकुसुमपिशाचाद्यभावानां विशेषानाह--घटादेरित्यादि। कालान्तरे दृष्टस्यैव घटादेः इदानीमनुपलंभादिदानी मसत्त्वमात्रं निश्चीयते, न तु सर्वदाऽसत्त्वम्। गगनकुसुमादेस्तु 1 जानन्ति-क. ३ अदृष्ट-ख. ३ ऽनवधारणात्-ख. (उत्तरपुटे). " स्वा-ग. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 अभावप्रकरणम् न्यायमचरी पिशाचादेस्तु दृश्यत्वनिश्चयोऽनवधारणात् । न शक्योऽनुपलम्भेन कर्तुं नास्तित्वनिश्चयः ॥ १७७ ॥ तत्रापि त्वपिशाचोऽयं चैत्र इत्येवमादिषु । तादात्म्यप्रतिषेधेषु दृश्यत्वं नोपयुज्यते ॥ १७८ ॥ पिशाचेतररूपो हि चैत्रः प्रत्यक्षगाचरः।। ताप्यनिश्चये तस्य किं फलं तद्विशेषणम् ॥ १७९ ॥ इत्यसद्यवहारस्य सिद्धरनुपलब्धितः। न भाववदभावाख्यं प्रमेयमवकल्पते ॥ १८० ॥ बौद्धमतप्रतिक्षेपः] अत्राभिधीयते-हः तावत्सकलप्राणिसाक्षिक संवेदनद्वयमुपजायमानं दृष्टं 'इह घटोऽस्ति' 'इह नास्त' इति। तत्रः विकल्पमात्र संवेदनमनालम्बनम्? आतांशावलम्बनं वा ? इत्यादि यदभिलप्यते, तत् नास्तित ज्ञान 'इच' अन्तताज्ञानेऽपि समानम् । अतो द्वयोरपि प्रामाण्यं भवतु ! 'द्वयोरपि वा मा भृत् ! यत्तु-अस्ती ते ज्ञानं प्रमाणम् इतरत्त्वरमाणमिति कथ्यते - तदिच्छामात्रम् । अस्तीतिज्ञानसमानयोगक्षेमत्वे च नास्तीतिज्ञानस्य विषयश्चिन्तनीयः ।। सर्वदाऽनुपलम्भात् सर्वदाऽसत्त्वं निश्चीयते। विशाचादेस्तु अस्मादृशैरनुपलंभेऽपि मांत्रिकयोगिप्रभृतिभिरुपलं भात . अनुपलंभ मात्रान नास्तित्वं निश्चेतुं शक्यम् । एवमत्यन्ताभावस्थल एव प्रतियोगिदृश्यत्वमपेक्षितम् , अन्योन्याभावस्थले तुअनुयोगियोग्यत्वमेव । यथा 'चैत्र: पिशाचो न' इत्यादौ हि पिशाचस्यादृश्यत्वेऽपि तद्भेदः चैत्रे सर्वैः गृह्यत एवेति सङ्केपः॥ विकल्पेत्यादि । अनालम्बन एव विकल्पः सर्वोऽपीति माध्यमिकाः, आत्मावलम्बन इति योगाचाराः। आत्मशब्दः स्वशब्दपर्यायः, नैरात्म्यवादिनो हि ते। स्वशब्दश्च संवेदनपरामर्शी। विषयस्य बाह्यत्वात् आत्मांशेत्युक्तम्। परन्तु 'अस्ति' 'नास्ति' इति ज्ञानद्वयमपि विकल्परूपमेव । एवं सति ‘अस्ति' इति प्रतीतिविषयः कल्पितो वाभावः अङ्गीक्रियते, 'नास्ति। इति प्रतीतिविषय भभावः परं नेत्यतिविचित्रमेतदिति ॥ • . (पूर्वपुटात् ). ! इह-क... इयमपि-क. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकरणमात्र नाभावः [न भूतलमा अभाव: ] ननु ! घटविविक्तभूतलोपलम्भभावे घटानुपलम्भ इत्युक्तम्तदयुक्तम्- - केयं घटविविकता ? सा भूप्रदेशादभिन्ना ? भिन्ना वा ? अभेदे भूप्रदेशाविशेषात् घटसन्निधानेऽपि 'घटो नास्ति' इति प्रतिपत्तिर्जायेत । मेदेऽपि नाम्नि विवादः स्यात् ॥ आडिकम् १] भेदाभेदेन चिन्त्या च घटादपि विविक्तता । अभेदे घट एव स्यात् भेदे चाभाव एंव सा ॥ १८१ ॥ तत्' इह घटो नान्ति' इति घटविविक्तभूतलालम्बनतायासंविदः, 'इह' इति तावदस्मिन् संविदंशे 'देश आ'लम्बनमित्यविवाद एव ' इह घटोsस्ति' इति भावप्रतीतिसमयेऽपि तत्र तदवभासाभ्युपगमात् । 'घटो नास्ति' इत्यत्र तु यदवभासते, तत् न भूतलमात्रमेव; 'भावप्रतीति'सम'यवत्' तदतिरिक्त प्रतिभास पूर्वोक्तं ( 153 पुटे) भक्षिपति - नन्विति । विविक्तता, राहित्यं, कैवल्यं वा । घरविविक्तं भूतलमित्यत्र घटविविक्तताख्यः कश्चन धर्मः भूतले अङ्गीक्रियते उत नेति विकल्प्य, द्वितीये उभयोरभेदे घटकालेऽपि घटविविक्तताभूलत्वात् 'घटो नास्ति' इति व्यवहारापत्तिः; यदि च स अतिरिक्तो धर्मः तर्हि सिद्धः भूतातिरिक्तः अभाव इत्याह- केयमित्यादिना ॥ प्रकारान्तरेणापि विकल्प्य दूषयति-- भेदाभेदेने ते । घटातू, तद्विविक्तता, अतिरिक्ता ? न वा ? आधे अभावसिद्धिः । द्वितीये घट एव घटाभावरूपः स्यात् । न चेष्टापत्ति:; तर्हि घटे सत्येव घटाभावप्रतीत्यापत्तिः । भेदाभेदपक्षस्तु व्याहत एवेत्याशयः ॥ 'इह घटो नास्ति ' इत्यस्याः संविदः घटविविक्तभूतलालम्बनतायां सिद्धायामित्यन्वयः । इत्यस्य देशालम्बनत्वे प्रमाणं दर्शयतिइह घटोऽस्तीति । तदवभासेति । देशप्रतिभा नेत्यर्थः । भावप्रतीतिसमयवदिति 'इह घट: ' इत्यत्र यथा इहशब्दार्थापेक्षया घटशब्दार्थः पृथग्भूतः, तथा 'इइ न घट: ' इत्यत्रापि इद्दशब्दार्थापेक्षया न घर इत्यंशः अतिरिक्त एवेति भावः ॥ , 2 प्रतीति-क. 1 आ-क. 165 6 ह 3 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 अभावप्रकरणम् . . न्यायमजरी स्यावश्यभावित्वात्। तदतिरिक्तं तु प्रतिभासमानं घटविविक्ततेति वा कथ्यतां, घटाभाव इति वा! नात्र वस्तुनि विशेषः ॥ [अभावप्रतीतिर्न मिथ्या] ननु ! 'घटो नास्ति' इति विकल्पमात्रमेतत्-न-दर्शनानन्तरप्रवृत्तत्वेन विधिविकलातुल्यत्वात् ॥ यथाऽनुभवमुत्पत्तुमर्हन्ति किल कल्पनाः ।। प्रतिषेधविकल्पस्तु न विध्यनुभवोचितः ॥ १.२॥ [अभावविकल्पाः भावविकल्पतुल्या एव] ननु ! नैव विकल्पानां वयं प्रामाण्यवादिनः। 'काम' विधिविकल्पानामपि मा भूत् प्रमाणता ॥ १८३ । । प्रामापं दनानां चेत् त्वविकल्पानुसारतः। ‘इहापि तेषामेवास्ति त्वधिकल्पानुसारतः ॥ १८ ॥ वस्तुप्राप्तया विधिविकल्पानां प्रमाणव्यवहार इति चेत , इहापि तत्प्रप्तयव निषेधविकलानामस्तु प्रामाण्यव्यवहारः। किमत्र वस्तु प्राप्यत ? इति चेत् , तत्रापि - किं प्राप्यते? नीलमिति चेत् ! प्रवृत्तत्वेन- उत्पन्नत्वेन । ननु कथमुभयोस्तौल्यम् ? घटोऽस्तीति विकल्प: अन्य ; अन्यश्च घटो नास्तीति - इति शङ्कायामाह-'यथेति । यद्यपि प्रतिषेधविकल्पः, विधिविकल्पश्च विषयतो विलक्षण एव। अथाऽपि घटपटविकलयोरिव अनुभवत्वेन तौल्यमप्यनुभवसिद्धमेवापलपितुमशक्यमिति भावः ॥ नन्विति । तथा च प्रतिषेधविकल्पा: अर्थशून्या इत्यर्थः । समाधत्ते-- काममिति । तथा च नीलादिकमपि न सिद्धयेदित्यर्थः । शङ्कते--प्रामाण्यमिति। निर्विकल्पपृष्टभावित्वात् विधिविकल्पानां न प्रतिषेत्र विकल्पतौल्यमिति चेत् - प्रकृतेऽपि स समाधि: कुतो न स्यादिति समाधत्ते-इहापी त ॥ ___ ननु विधिविकल्पैः प्रवर्तमानः घटादिकं वस्तु प्रामोतीति युक्तं विधिविकल्पानां प्रामाण्यमिति शङ्कते-वस्तुप्राप्तयेति । तत् प्रकृतेऽपि तुल्य. मित्याह-इहेति । अत्र--अभावविकल्पाधीनप्रवृत्तिस्थले। तत्र - भावविकल्पाधीनप्रवृत्तिस्थले। नीलं-घटादि । ननु केयमभावप्राप्तिः? को वा 1कथं-क. तदि-ग. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] अभावः न निरुपाख्य: 'सेय' भवस्यापि प्राप्तिर्भवत्येव । नीलं हि प्राप्यमाणं तदभावाविनाभूतपीतादिव्यवच्छिन्नरूपं प्राप्यते । सा चेयं तथाभूतनीलप्राप्तिभवन्ती इतराभावाप्तिरपि भवति, अन्यथा हि नीलगतरेव न स्यादिति । एतच्च लाक्षणिक विरोधमाचक्षाणर्भवद्भिरेवोपगतम् ॥ सुखदुःखसमुत्पत्तिरभावे शत्रु मित्रयोः । कण्टकाभावमालक्ष्य पदं पथि निधीयते ॥ १८५ ॥ प्रागुत्पत्तेर्घट भावं बुद्धा तत्कारणादरः । व्याध्यभावपरिच्छेदात् भैषज्यविनिवर्तनम् ॥ १८६॥ 157 हा भाव तष्ठानव्यवहारपरम्पराम् । पश्यन् अभाव को नाम तिह्नवीत सचेतनः ॥ १८७ ।। [ अभावः न निरुपाख्यः ] नंनु ! नाजनक मालम्बनं भवति ज्ञानस्य । अभावस्तु सकलोपाख्यविनिर्मुक्तस्वरूप इति न ज्ञानजननपटुः । अतः कथं तदालम्बनम् ? उच्यते--- सौगतानां तावत् न किश्चिजनकं वस्तु प्रतिभासते । द्वित्रिक्षणावस्थितिप्रसङ्गेन क्षणभङ्गव्रतविलोपप्रसङ्गात् । अभावप्राप्तये. यतते ? इत्यत्रानुभवं प्रमाणयति -- नीलं हीति । अन्यथा - यदि नीलप्राप्तिः पीताद्यभावप्राप्तिरूपा न स्यात्, तर्हि नीलार्थ प्रवृत्तः पीतप्राप्तावपि तृप्येतेत्यर्थः । लाक्षणिकं विरोधमिति । लक्षणवाक्येष्वपि हि 'कल्पनापोढं ' 'अभ्रान्तं ' इत्यादिपदैः लक्षणमपातरव्यावृत्तिरूपमम्युपगतमेव । एवञ्च सिद्धः इतरेतराभाव इत्यर्थः ॥ अभावानां भाववदेवार्थक्रियाकारित्वमप्यनुभवसिद्ध मित्याह - सुखेत्यादि । शवभाव: सुखकारणं मित्राभाव: दुःखकारणमित्यन्वयः । सचेतनः - विवेकी ॥ ननु ! लक्षणं इतरव्यावृत्तिरूपमेव । परन्तु व्यावृत्तेः तुच्छ चेन न पदार्थत्वमिति शङ्कते नन्विति । ज्ञानस्य अजनकं ज्ञानस्यालंबनं न भवतीत्यन्वयः । अधिपति मँह कार्यालम्बनममनन्तरप्रत्ययेषु आलम्बनप्रत्ययः विषय:, स एव ज्ञानजनक इति तन्मतम् । क्षणिकवादे जन्यजनकभाव एवानुपपन्न इति, कथं ज्ञानजनकत्वमर्थानामित्याह -- उच्यत इत्यादिना । द्वित्रीति । कार्यक्षगे कारणसत्वस्यावश्यकत्वादिति भावः । उपत्यपेक्षया द्विक्षणत्वं, 1 a Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 अभावप्रकरणम् [ न्यायमञ्जरी उत्पद्यते च, अर्थज्ञानं च जनयति, जातेन तेन गृह्यते च-- इत्यासां क्रियाणामेककालत्वाभावात् । तस्मात् अकारक एवं भावः प्रतिभासते ॥ आकारार्पणपक्षं च प्रतिक्षेप्स्यामः । एवं भाववदभावोऽप्यजनक: प्रतिभासताम् ॥ अस्माभिस्तु भाववदभावोऽपि ज्ञानजनन समर्थ इयते । न हि . निश्शेषसामथ्यरहितत्वमभावलक्षणम; अपि तु नास्तीतिज्ञानं, गम्यत्वम् । सत्प्रत्ययगभ्यो हि भाव इयते, असत्प्रत्ययगम्यस्त्वभाव इति । तदिदमुक्तम्- 'सदसती तस्वम्' इति ॥ [[ भावाभावयोर्विशेषः ] ! ननु ! भाववदेष ज्ञानजनकस्सन् अभावो न भावाद्विशिष्यते"। अहो निपुणदर्शी देवानांप्रियः ! प्रतीतिभेदश्चास्ति ? 'न च' प्रतीयमानौ भावाभावौ भिद्येते' इति कथमेवं भवेत् ? अपे रे मूढ ज्ञानजनकत्वाविशेषेऽपि रूपरसौ कथं भिद्येते ? प्रतीतिभेदादिति चेत्; भावाभावावपि जनकत्वधर्म सामान्येऽपि प्रतीति भेदादेव भिद्येयाताम् । न हि प्रतिभः स्यभेदमन्तरेण प्रतिभासभेदो भवतीति भवताऽप्यभ्युपगतम् । यथोक्तम्' - ज्ञानापेक्षया तु त्रिक्षणत्वमित्याह - उत्पद्यते चेत्यादि । अकारक:अकिञ्चित्कारी । कारणतारहित इति यावत् ॥ ननु समाहितोऽयं दोषः धर्मकीर्तिना प्रमाणवार्तिके --' भिन्नकालं कथं ग्रा ? इति चेत् ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युक्तिज्ञा: ज्ञाताकारार्पणक्षमम्' इति – इत्यत्राह – आकारार्पणपक्ष मिति ॥ - उक्त मिति । न्यायभाष्य इति शेषः ॥ न विशिष्यत इति । उभयोरपि ज्ञानजनकत्वाविशेषादित्यर्थः समाधने - अहो इति । देवानांप्रेिय इति । 'देवानांप्रिय इति च मूर्खे' इति वार्तिकादलुक् । न चेति । न मियते इति च कथमित्यन्वयः । नीलप्रतीतेः पीताद्यभावप्रतीतिरूाताया उक्तत्वेन पीताभावम्यैव नीलरूपत्येन भावातिरिक्तः अभावो नास्त्येव तन्मते । परन्तु विषयभेदमन्तरा प्रतीतिभेदस्य सर्वथा दुर्निरूप ३ न भिद्येते - ख. 1 प्रयेत क. तत्र - ख. 4 गतमूख. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभावस्य सम्बन्धोपपादनम् प्रामाण्यं वस्तुविषयं द्वयोरर्थमिदां जगौ । प्रतिभासस्य चित्रत्वात्, एकस्मित्त योगतः ॥ इति ॥ 'तस्मात् 'अस्ति' इति 'प्रतीतेरिव' भावः, 'नास्ति' इति प्रतीतेरभावो 'भूमिरित्यभ्युपगम्यताम् ॥ अथवा विज्ञानवाद एव सुम्पटमास्थीयताप । अन्तरावस्थानं तु न सांप्रतम् । अर्थक्रियासामर्थ्यमपि तस्य दर्शितमेव ॥ स्वज्ञानाख्य क्रियाशक्तिरमुष्य दुरपह्नवा । अर्थकियाsन्यजन्या तु न भावेनापि जन्यते ॥ १८८ ॥ एवं च सति यः पूर्व शक्तिवादोऽत्र वर्णितः । स प्रत्यक्षविरुद्वत्वात् कण्ठशोषाय केवलम् ॥ १८९ ॥ [ अभावस्य सम्बन्धोपपादनम् ] तथा, सम्बन्धाभावादिति यदुक्तम्-तत्र देशेन सह तावत् अभावस्य विशेषणविशेष्यभावः सम्बन्धः । स तु सम्बन्धान्तरमूल इति भावेऽयं नियमः, नाभावे ॥ आह्निकम् १] · . 159 श्वेन, यदि भावाभावप्रतीत्योर्भेदः तर्हि भावाभावयोरपि भेदः दुर्निवार' एवेति सिद्धान्त्याशयः ॥ प्रामाण्यमिति । वस्तुविषयं प्रामाण्यं द्वयोरर्थयोर्भिदां जगौ - न्यरूपयत् । कुतः प्रतिभासस्य चित्रत्वात् इति । प्रतीतेर्भावः भूमिरिव इत्यन्वयः । भूमिः विषयः ॥ विज्ञानातिरिक्तभावपदार्थमङ्गीकुर्वतो वैभाषिकस्य तवं प्रतीति साम्ये अभावानङ्गीकरणमयुक्तमित्याह —– अथवेति । तस्य- अभावस्य । दर्शितमिति । ' सुखदुःखसमुत्पत्ति:' इत्यादिना (पु. 157) पूर्वमित्यर्थ: ॥ ननु न सर्वेषामभावानां सुखदुःखाद्यर्थक्रियाकारित्वमनुभवसिद्धं -- इति शङ्कायां स्वविषयक ज्ञानाख्यार्थ क्रियाकारित्वमन्ततः सर्वेषामभावानां वर्तत एव । भावानामपि षाञ्चिदेवमेव भवताऽपि वक्तव्यमित्याह - स्वज्ञानेति । अन्यजन्या - ज्ञानातिरिकयप गया। एवमतिरिक्तोऽभाव, तस्य कारणत्वमपि यदा विद्धं तदा प्रतिबन्धका भावस्य अभावरूपत्वेन कारणत्वासंभवात् शक्तिसिद्धिरित्यपि न युज्यत इति स्मारयति - एवश्चेति ॥ 1 'प्रतीनेरेव क. प्रतीतिरेव-ख. ऽभूदि. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 अभावप्रकरणम् न्यायमचरी यद्वा' भावेऽप्येष 'न नियमः। न ह्ययं भवति ---'यत्' सम्बद्धं 'तत् विशेषणमेव । पादपीडिते, शिरसि वा धार्यमाणे दण्डे, 'दण्डी' इति प्रत्ययानुत्पादात् । नाप्येवम्, यत् विशेषणं तत् सम्बन्धमेति; समवायस्य सत्यपि विशेषणत्वे सम्बन्धान्तराभावात् । तस्मात् सम्बन्धान्तररहितोऽपि, प्रतिबन्ध इव, वाच्यवाचकभाव इव, विशेषणविशेष्यभावः स्वतन्त्र एव' सम्बन्धः तथाप्रतीतेरवधार्यते ॥ उभयोरुभयात्मकत्वात् कदाचित् कस्यचित् तथा प्रतिभासात् पुरुषेच्छानुवर्तनेन व्यत्ययप्रत्यय सत्त्वेऽपि न दोषः। तस्मात् विशेषणविशेष्यभाव एव सम्बन्धो 'देशेन' भूतलादिना सहाभावस्य ॥ एवं कालेनापि सह स एव वेदितव्यः। क्रियया कर्तृ'स्थया वा गमनादिकया, कर्मस्थया' वा मेदनादिकया सह संयोगाद्य'भावेऽपि विशेषणविशेष्यभाव एव सम्बन्धः, तद्वदभावस्यापि भविष्यतीति ॥ प्रतियोगिना तु सह विरोधोऽस्य सम्बन्धः । अयमेव च विरोधार्थः, यदेकत्रोभ'योर"समावेशः । अतश्चैकविनाशे न सर्वविनाशः ; घटाभावस्य घटेकप्रतियोगिकत्वात् ॥ . पादपीडिते इत्यस्य दण्डे इत्यनेनान्वयः । तस्मात-विशेषणविशेष्यभावस्य सम्बन्धान्तरानधीनत्वेऽपि स्वतस्सम्बन्धत्वसम्भवात् । अत्र दृष्टान्तमाह--प्रतिबन्ध इति। वह्निधूमयोर्यथाव्याप्यव्यापकभावः तथा प्रकृतेऽपि । वह्निधूमयोः यद्यपि संयोगोऽस्ति तथापि स न व्याप्यव्यापकभावप्रयोजकः । तादृशोऽपि सम्बन्धः शब्दार्थयोर्नास्तीति विशेषः ॥ 'पुरुषेच्छया विपर्यस्यन्तमप्येनं पश्याम: ' (पु. 146) इत्येतत्समाधत्ते-- उभयोरिति। किमुत ! पुरुषापेक्षा दण्डो विशेषणं, रूपाद्यपेक्षया तु तदैव दण्डो विशेष्य:-'नीलदण्डवान् पुरुषः' इत्यादी इत्यप्यूह्यम् ॥ ___149 पुटे उक्तं समाधत्ते अतश्चेति ॥ न चं, यश्च-क. नि-क. तत्-क. 'यत्-क. एव-क. स्खे-ख. ' देशे-ख. भावस्म सम्बन्धः-ख. ' स्सया-ख. 10 दि-ग. " यो:-क. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 पातिकम् १] अमावस्य वस्तुत्वम् भिवनधमैवाभावः ___यत्त-भवनधर्मा ? अभवनधा वा ? इति विकल्पितम्-तत्र भवनधर्मेवाभावोऽभ्युपगम्यते। भवनधर्मत्वेऽपि चाभावो न भावान भिद्यते ; प्रतिभासभेदस्य रूपरसादि''पदर्शितत्वात्। भवनधर्मत्वं चास्य हेत्वन्वयव्यतिरेकित्वात् भवति। घटो हि मृत्पिण्डदण्डादी'निव जन्मनि, विनाशेऽपि मुद्रादीननुवर्तते हेतून् । - विजातीयसन्ततिजननपक्षेऽपि सशसन्तानजनिकायाः शक्तेरभावः क्रियत एव । अन्यथा मुद्रा पनिपातेऽपि विजातीयेव सजातीय सन्ततिरपि जायेत । सजातीयविजातीयोभयसन्ततिजनन· शक्तियुक्तो घट इति चेत् ; मुद्रादियोगात् पूर्वमपि कपालसन्तति. जननम् , तद्योगेऽपि वा सति घटसन्ततिजननमनियमेन दृश्यतेति । विजातीय क्षणोत्पादनस्वभावे च घटे मुद्गरादिवैय्यर्थ्यमेव स्यात् ॥ ___ हेत्वन्वयव्यतिरेकित्वात्-हेतुसत्त्वे अभावसत्त्वं, हेत्वभावे भभावस्याप्यभाव इत्यन्वयन्यतिरेकवत्त्वात् । एवञ्च कारणाधीनत्वात् 'भवति' इति प्रतीतिविषयत्वमप्यस्त्यभावे, ' इदानीं घटध्वंस उत्पन्नः' इति प्रतीतेरिति ॥ ननु! मुद्रादीनां अभावजनकत्वं नास्ति, किन्तु विजातीयसन्तानजनकत्वमेवेति पूर्वमव (147 पु.) उक्तम् । एवञ्चाभावः न हेतुजन्यः इत्यत्राहविजातीयेति । सर्वस्यापि भावस्य स्वसदृशसन्तानारम्भकशक्तिमत्वमेव वक्तव्यम् । अन्यथा घटसन्तानात् पटसन्तानस्याप्युत्पत्त्यापत्तिः। एवञ्च घटसन्तानजनकशक्तिमत: घटक्षणात् कपालरूपविजातीयसन्तानोत्पत्तिकाले पूर्वविद्यमानायाः शक्तरुपमर्दः अवश्यं वाच्यः। एवञ्च शक्तिनाशस्य मुद्गरहेतुकत्वं सिद्वमिति सिद्धमभावस्य हेतुजन्यत्वम् । न च सजातीयविजातीयोभयसन्तान. जननशक्तिर्वर्तत एव घटादिक्षणस्येति उभय वेधशक्तिसत्वादुभयं उपपद्यते, न तदर्थ अन्यतरशक्तिनाश: अपेक्षणीयः इति वाच्यम् ; एवं तर्हि पूर्व घटपरंपरा, मनन्तरं मुद्गरनिपातात्परमेव कपालपरंपरेति व्यवस्थैव दुर्वचा। न च मुद्गरनिपातापग्मेवेति न, किन्तु क्षणस्यैव एवं स्वभाव इति शवयम् ; एवं तर्हि मुद्रादीनां वैग्यापात:। संपूर्णस्वभाववादे च पूर्वोत्तरक्षणयोरपि कार्यकारणभावो न स्यादिति अघहकार्थः ॥ NYAYAMANJANI 11 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1162 अभावप्रकरणम् .. न्यायमञ्जरी तदुत्पादस्वभावे हि न किश्चिन्मुद्रादिना । अतदुत्पादकत्वेऽपि न किञ्चिन्मुद्रादिना ॥ १९० ॥ मुद्रोपनिपाताच्च यात्पन्नं क्षणान्तरम् । घटक्षणस्य किं वृत्तं? येन नाभाति पूर्ववत् ॥ १९१ ॥ नन्वस्याभवनं वृत्तं, स एवार्थोऽयमुच्यते । घना किमपराद्धं 'वः' किं वाऽप्युपकृतं ब्युटा ॥ १९२ ॥ ननु! उक्तं न तस्य किञ्चिद्भवति, न भवत्येव केवलमिति--- तदयुक्तम्-यदसो न भवति स एवास्याभावः॥ .. १ . - ननु! स न, न तु तस्याभावः-मैवम्-स नेतिशब्दयोनियोश्च विषयभेदात्। स इति ज्ञानस्य स्मर्यमाणो घटादिविषयः नेति तु ज्ञानस्य अभावो भूमिरित्यलमलीक विदग्धविरचितविफलवक्रवचनविमर्दैन । तदुत्पाद:-विजातीयसन्तत्युत्पादकत्वम् । अतदुत्पादकत्वेऽपिविजातीयसन्तत्यनुत्पादकस्वभाववत्त्वेऽपि । . उभयथा च मुद्रव्यापारो व्यर्थ एवेत्यर्थः । मुद्रेत्यादि । ननु मुद्रेण कपालरूपक्षणान्तरं नूतन मुत्पादितम् ; न तु पूर्वक्षणस्य, तच्छक्तेर्वा नाशः अनेन कृतः इति चेत् ? तर्हि घटक्षणः कुत्र गत:? न कुत्रापीति चेत्, पूर्ववत् कुतो नोपलभ्यते ? ननु घट एतावत्पर्यन्तं भवनासीत् , इदानीमस्य अभवनमेव संवृत्तं, अतो नोपलभ्यत इति चेत्, अहो मेधाविन् ! घट्टकुट्यां प्रभातम् !! ‘अभावः' इति घजन्तेन यं वयं अब्रम, स एव अभवनम्' इति ल्युडन्तेन त्वयोच्यत इति महान् भेदः ! इति भावः॥ ... न तस्येति। घटस्य न किञ्चिद्भवति ; घटो न भवतीत्येतावन्मात्रमित्यर्थः ॥ नन्विति । स नेत्येतावदेवोच्यते । न तु किञ्चिदस्तीति । अतः कथमभावसिद्धिरित्यर्थः । सैव प्रतीतिरभावसाधिकेत्याह-स नेतीति । ज्ञानभेदसाधकः शब्दभेदः इति सूचनाय, दृष्टान्ताय च-शब्दयोरिति ॥ एवमभावाख्यमतिरिक्तं प्रमेयं प्रसाधितम् ।... अथ तत्प्रमाणभूताया अनुपलब्धेरनुमानेऽन्तर्भावः न संभवत्येव, किन्तु अनुपलब्धिसहकृतन्द्रिय बा-ख. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् १] प्राभाकरमतनिरासः [बौद्ध मतनिरासोपसंहारः ] तस्मादित्थमभावस्य प्रमेयत्वोपपादनात् । न ह्ययवहाराय कल्पन्ते ऽनुपलब्धयः ॥ १९३ ॥ न स्वभावानुमाने च तदन्तर्भावसम्भवः । मेयं पृथगभावाख्यं अमूषामुपपादितम् ॥ १९४ ॥ कारणानुपलब्ध्यादेः बाढमस्त्वनुमानता । स्वभावानुपलब्धिस्तु प्रत्यक्षमिति साधितम् ॥ १९५ ॥ 163 या चेयमेकादशानुपलब्धिवधूशुद्धान्तमध्ये विरुद्धव्याप्तोपलब्धिरुदाहृता - "न ध्रुवभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशः, हेत्वन्तरापे'क्षणात्' इति — सेयं इदानीमेव साध्वी दूषिता; विस्तरस्तु क्षणभङ्गपक्षे दूषयिष्यते ॥ [प्राभाकरमत परिशीलनम् ] यैस्तु मीमांसकैः सद्भिरभावो नाभ्युपेयते । प्रमादेनामुना तेषां वयमप्यद्य लज्जिताः ॥ १९६ ॥ घटो हि न प्रतीयते, न तु तदभावः प्रतीयते इत्येवंवदद्भिरेभिदर्शनादर्शने एव पदार्थानां सदसत्त्वे इति कथितं स्यात् । एतच्चा ग्राह्यत्वादभावस्य प्रत्यक्षत्वमेवेत्याह-न स्वभावानुमान इति । तत्र हेतुमाह - मेयमिति । अमूषां - अनुपलब्धीनाम् । केषाञ्चित्वभावानामनुमेयत्वमिष्टमेवेत्याह- कारणेति ॥ रूपत्वस्य एवं कारणानुपलब्ध्यादेः अनुमानेऽन्तर्भावस्य स्वभावानुपलब्धेः प्रत्यक्षच कथनेन पूर्वोक्तैकादश । नुपलब्धीनां सम्मतत्वं सिद्धमिव । एवं सति विरुद्धव्याप्तोपलब्ध्या क्षणिकत्वमपि भावानां सिद्धयेत् इति चेत् . तत्राह - या चेति । सेयं साध्वी इदानीमेघ दूषिता इत्यन्वयः । 1 ध्वंसस्य मुद्गरादिसापेक्षत्वस्य स्थापितत्वादिति शेषः ।। यैः प्रभाकराद्यैः । तेषां वैदिकमूर्धन्यत्वात् सद्भिरिति ॥ दर्शनादर्शने इति । 'न तु तदभावः प्रतीयते ' इत्यनेन हि अभावाप्रतिपत्तिमात्रात् अभावापलापः प्रतीयते तच्चायुक्तमिति भावः ॥ 2 नपे - ख. नाधु-ख. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 अभावप्रकरणम् न्यायमञ्जरी युक्तम्-दर्शनादर्शनाभ्यां हि सदसत्त्वे निश्चीयेते, न तु दनादर्शने एव सदसत्त्वे ॥ न चाप्रतीनिमात्रेण तदभाव नबन्धनाः । व्यवहाराः प्रकलपन्त, मृदान रित यवत् ॥ १०.७ ॥ खपुषस्य पिशाचस्य मृदन्तरित गण । न खल्व पलभ्यत्वे शिः प्रतिभाति नः ॥ १९८ ॥ मर्वदाऽपलम्भो हि कुर्वन्नास्तित्वनिश्चयम् । विशिष्यते मृदन्तस्स्थसलिलानुपलब्धितः ॥ १०९ ॥ अगमायुक्तितश्चापि मत्स्व संभावनां गतः। सवदाऽनुपलब्बोऽपि न पिशाचः खपुष्पवत् ॥ २०० ॥ [अनुपलब्धः स्वतस्सिद्धत्वनिराकरणम् ] अतश्च यदुच्यते - अनुपलब्धेः पुन: अनुपलब्धिरेवानुपलब्धिरिति तद्गणितिमात्रम् । वपुष्पादेस्तु सविशेषणतया ऽनुपलब्ध्याऽ. भाव एव निश्चीपते, न तस्यानुपलब्धमात्र । तदप्रतीतिमात्र न तदभावमवगमयितुमलमितीममर्थ सदृष्टान्तमुप. पादयति-न चेत्यादि। ननु तर्हि अप्रतीयमानत्वाविशेषात् वपुष्पमपि सिद्धयेत् इत्यत्राह --खपुष्पेत्यादि । 'न: न खलु प्रतिभाति !' इति काकः। खपुष्पस्य, पिशाचस्य, मृदन्तरितजस्य चाप्रतीयमानत्वाविशेषेऽपि प्रतीतिषु विशेषः अनुभवसिद्ध एवेत्याह - सर्वदेत्यादि ख पुष्पादयो हि पर्वदाऽनुपलभ्यमानाः सन्तः नास्तीतिप्रतीतिविषया भवन्ति। मृदन्तरिततोयानुपलब्धिस्तु न तथेति अनुभवसिद्वो विशेष इत्यर्थः सर्वदाऽनुपलम्भी हि नास्तित्वनिश्चयं कुर्वन् , मृदन्तरितसलिलानुपलब्धित: विशिष्यत इत्यन्वयः । एवं शब्दादिनाऽवगतसद्भाव: पिशावादिः सर्वदा चक्षुरादिभिरनुपलब्धोऽपि न खपुष्पतुल्यः। अतः अप्रतीनिसाम्येऽपि नाविशेष. एतेषामिति ॥ ननु ! 'घटस्यवानुपलब्धिः , न तु तदभावस्योपलब्धि:' इति वदता अनुपलब्धि: गृह्यत इनि. वक्तव्यम; एवञ्च अभाव: सिदः, अनुपलब्धेरभाव रूपत्वात् । यद्यनुपलब्धिरेव न कनापि प्रमाणेन सिद्धः, तहि घटानुपलब्धरग्रहणे घटोपलम्भप्रसङ्ग . इनि शङ्कायां अनुपलब्धे स्वत एव सिद्धिरिति यदुक्तं तत्प्रतिवदति-अतश्चति । सविशेषणतया-विशिष्टत्वेन । आकाशं, पुष्पं च प्रत्येकं प्रसिद्धमेव, विशिष्ट स्वप्रसिद्ध मिस्यर्थः ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाडिकम् १] भभावानभ्युपगमे पापककपनम् 166 [अभावानभ्युपगमे बाधकम् ] अनिष्यमाणे चाभावे भावानां प्रतियोगिनि । नित्यतैषां प्रसज्येत न ह्येते क्षणिकास्तव ॥ २०१॥ मुद्रादेश्च किं कार्य ? कपालपंटलीति चेत् । घटम्त_विनष्टत्वात् स्वकार्य न क ोति किम् ? ॥ २० ॥ अदर्शनादिति चेत्; तदानीमेव दृष्टस्य स्थिरस्यामुष्य किं कृतम् ? सर्वेन्द्रयादिमामग्रीसन्निधानेऽप्यदर्शनम् ॥ २०३ ॥ तस्मात् तदभावकृतमेव तदानीं तस्यादर्शनम् ॥ स्वप्रकाशा च नास्तीति संिित्तर्भवतां मते। न.निरालम्बना चेयं अस्तीति प्रतिपत्तिवत् ॥ २०४॥ विकल्पविषयाः शब्दा यथा शौद्धोदनेगृहे। . गीयन्ते भवता नैवमिति नञ् च्यमुच्यताम् ॥ २०५ ॥ प्रतियोगिनि-विरोधिनि। एषां-भावानाम् । प्रागभावप्रध्वंसाभावयोरेव. पूर्वतरावधिरूपत्वेन, तयोरभावे पूर्वोत्तरावध्यभावसिद्धया भावानां नित्यत्वमेव स्यादिति । ननु अभावानभ्युपगमेऽपि बौद्धयथा भावानां नित्यत्व वारित, तथा वयमपि । प्राभाकरा:) वारयामः इत्यत्र, नर्हि तहदेव भावानां क्षणिकत्वमभ्युपगन्तव्यम् । ने हि अहेतुविनाशवादिनः वस्तूनां क्षणिकत्वं स्वभाव इति वदन्ति इत्याह-न ह्यत इति ॥ . अदर्शनादिति। विद्यमानोऽपि घट न किञ्चित्करोति, तत्कार्यस्यादर्शनादिनि भावः । अदर्शनं किंकृतमित्यन्वयः। तथा च तत्सत्त्वे किं प्रमाणमिति भावः ॥ स्वप्रकाशा चेत। 'नास्ति' इति संवित्तिरित्यन्वयः । गुरुमिः ज्ञानस्य स्वप्रकाशस्वमुच्यते। 'भस्ति इति प्रतिपत्तिः यथा न निरालम्बना, तथा 'नास्ति' इति प्रतीतिरपि न निरालम्बना। अतश्च विषयो वक्तव्य:। न च बौद्धवत् असद्विषयत्वं वक्तुं शक्यम् , तर्हि वेदजन्यज्ञानस्यापि निर्विषयत्वसंभवात् वेदस्यैवाप्रामाण्यापत्तेः । अतः नम्वाच्यं किम् ? उज्यताम् ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 अभावप्रकरणम् प्रसिद्धिश्व परित्यक्ता, न चाभावः पराकृतः । उपेक्षितश्च भाष्यार्थः इत्यहो नयनैपुणम् ॥ २०६ ॥ अलं च बहुनोक्तेन विमर्दोऽत्र न शोभते । महात्मनां प्रमादोऽपि मर्षणीयो हि मादृशैः ॥ २०७ ॥ तस्मात् 'नास्ति' इति प्रत्ययगम्योऽभाव इति सिद्धम् ॥ [अभावप्रभेदाः ] चतुर्विध स च द्विविधः - प्रागभावः, प्रध्वंसाभावश्चेति । इत्यन्ये इतरेतराभावः, अत्यन्ताभावः, तौ च द्वाविति । षट्प्रकार इत्यन्ये - अपेक्षाभावः, सामर्थ्याभावः, ते च चत्वार इति ॥ [प्रागभावादीनां स्वरूपाणि ] ——— [ न्यायम तत्र च - प्रागात्मलाभान्नास्तित्वं प्रागभावोऽभिधीयते । उत्पन्नस्यात्महानं तु प्रध्वंस इति कथ्यते ॥ २०८ ॥ प्रागभावादन्ये तु भिद्यन्ते परमार्थतः । स हि वस्त्वन्तरोपाधिरन्योऽन्याभाव उच्यते ॥ २०९ ॥ " • प्रसिद्धिश्व परित्यक्तेति । तथा च बृहती अस्ति चेयं प्रसिद्धिः मीमांसकानां षष्ठं किलेदं प्रमाणम्' इति । न चास्य ग्रन्थतो लोकतश्व प्रमाणताऽवसीयते । अतो न विद्मः प्रसिद्धेः किं बीजमिति... वटयक्षप्रसिद्धिवत् " इति । 'वयक्षप्रसिद्धिवदिति । व्यामोहपूर्विकेयं प्रसिद्धिरिति यावत्' इति च पञ्चिका । 'अलं' इत्यादिरूपहासोक्तिः ॥ द्विविधः - इति स्वमतेन । अनुपदमेतद्विव्रियते इतरेतराभावःअन्योन्याभावः ॥ अपेक्षाभावः - इदानीमत्र घटोऽस्ति, तत्र तु नास्ति इत्येवं देशकालापेक्षया प्रतीयमानः । एतत्प्रक्षे वायाँ रूपाभावादिरेव अत्यन्ताभावः । सामर्थ्या: - बीजादौ अङ्करकरणाकरणयोर्निर्वाहाय । तेन च कुर्वद्रूपत्वनिराकरणम् । एवं बह्रौ दाहतदभावनिर्वाहाय च । तेन च शक्तिनिराकरणम् ॥ भावः आत्मलाभात् प्राक् इत्यन्वयः । अन्ये - प्रध्वंसात्यन्तान्योन्यापेक्षासामर्थ्याभावा: । उक्तमर्थमुपपादयति स हीति । ' अत्र न' इति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम्। संभवैति ययोः प्रमाणान्तरत्वाभावः JAST से एवाधिशून्यत्वात् अत्यन्ताभावतां गतः । अपेक्षाभावता तस्य देशोपाधिनिबन्धना । २१० ॥ .. - सामर्थ्य पूर्वसिद्धं चेत् प्रध्वंसे तदभावधीः । नो चेत् तर्हि विशेषोऽस्य दुर्लभः प्रागभावतः ॥ २११॥ उत्पन्नस्य विनाशो वा तदनुत्पाद एंव वा। अभावस्तत्त्वतः, अन्ये तु भेदास्त्वोपाधिका मताः ॥ २१२ ॥ तस्मादभावाख्य मिदं प्रमेयं, तस्येन्द्रियेण ग्रहणं च सिद्धम् । अतः प्रमाणेषु जगाद युक्तं चतुष्टमे'षां' मुनिरक्षपादः ॥ २१३ ॥ [संभवैतिर्थी प्रमाणान्तरे ननु ! नाद्यापि चतुष्टुमें षा'मवतिष्ठते ; संभवैनिहो इति द्वयोः प्रमाणान्तर भावात् ॥ संभवों नाम-समुदायेन समुदायिनोऽवगमः ; संभवति खाद्रोणः, संभवति शते सहस्रमिति ॥ प्रतीतिः प्रागभावः, 'अयं न' इति प्रतीतिश्च अन्योन्याभावः इतीयानेव विशेषः । अवधिशून्यः--कालाधवधिशून्यः । समवायिकारणे प्रागभावप्रध्वंसयोः प्रतीति:, इतरत्र च अत्यन्ताभावप्रतीति: इति खलु विवेकः । तत्र समवायिकारणे आगामितायाः, गततायाश्च प्रतीत्या तावुभावभावौ अवधिमन्तौ । अत्यन्ताभावस्तु न तथा, न हि भूतले घटो न' इत्यत्र भूतले. घटोत्पत्तिः, तत्प्रध्वंसो वा; तयोरुपादानगतत्वात् । अतः अवधिशून्यः - अत्यन्ताभावः । अंत एवेमं त्रैकालिकाभावं व्यवहरन्ति । यद्यप्येवं एषां अस्ति सूक्ष्मो भेदः, अथापि निषेधाधिकरणभेदादेव तदुपपत्ती व्यर्थः पार्थक्यकल्पनमिति भावः । प्रागभावप्रध्वंसापेक्षयाऽत्यन्ताभाववैलक्षण्यरक्षणायैव 'ध्वंसप्रागभावाधिकरणे नात्यन्ताभावः' इति प्राचीना: । 'तयोविरोधे मानाभावः' इति:च नवीनाः। एषां दृष्टयैव त्रयाणामेकजातीयतासंभवो ज्ञेयः । : अपेक्षाभावश्चानुपदमेवोपपादितः। तस्य -प्रागभावस्य, अत्यन्ताभावात्मकप्रागभावस्व वा। निष्कृष्य वदति-उत्पन्नस्येत्यादि। प्रमेयं-सिद्धं इत्याकर्षः ॥ .. समुदायेनेति-भनेनास्यानुमानाद्वैलक्षण्यसिद्धिः । अनुमान हि कार्यात् कारणादेः । न ह्यन तथा समुदायसमुदापिनो: वक्तुं शक्यमित्यभिमानः ॥ तत-ख. व-ख. रा-क. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 (न्यायमधरी मनिर्दिष्टप्रवक्तृकप्रपादपरंपरा चैतिखम् ; 'पटे पक्षः प्रतिवसति' इति। न चायमागमः ; आप्तस्योपदेष्टुरनिश्चयादिति ॥ [संभवैतिहो भनुमानरूपे एव] 'तदिदमनु'पपन्नम्भिन्नः संभव एष न ह्यनुमितेराख्यायि खार्यां खलु' द्रोणः संभवतीति सेयमविनाभावात् मतिलैंगिकी। ऐतिह्य तु न सत्यमत्र हि वटे यक्षोऽस्ति वा नेति वा. को जानाति? कदा? 'क'? केन कलितं ? यक्षस्य कीदृग्वपुः?॥ सत्यमपि चागमात् पृथङ्नैतिह्यम् , उपदेशरूपत्वात् । आप्त'ग्रहणं सूत्रे न लक्षणायेति वक्ष्यामः ॥ ... [प्रमाणसङ्ख्याविषये चार्वाकमतम् ] : चार्वाकधूर्तस्तु-'अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः' इति प्रतिज्ञाय प्रमाणप्रमेयसङ्ख्यालक्षणनियमाशक्यकरणीयत्वमेव तत्त्वं व्याख्यातवान् । प्रमाणसङ्ख्यानियमाशक्यकरणीयत्वसिद्धये च प्रमितिमेदान् प्रत्यक्षादिप्रमाणानुपजन्यानीदृशानुपादर्शयत् अनिर्दिष्टति। 'मातोपदेशः शब्दः' इति हि लक्षणम् । ऐतिहस्य च भनिर्दिष्टप्रवक्तकत्वात् न मातोपदेशरूपशब्दप्रमाणतेत्यमिमानः ।। भिन्न इति । अयं भावः - न हि सर्वत्र कारणात् कार्यानुमानमेव ; इदं दन्यं पृथिवीत्वात, रूपवान् रसात-इत्याद्यनुमानानामपि दर्शनात् । भविना भूतयोाप्तिः। अविनाभावश्च कार्यकारणभावतो वा नियतसामानाधिकरण्यावा, घटकघटितभावादिनेवेत्यन्यदेतत् । अतश्च संभवोऽप्यनुमानमेव ॥ ऐतियस्थलेऽपि तादृशवाक्यस्य अर्थसाहित्य शब्द एवान्तर्भा, राहिल्ये चन प्रमाणतेवेत्याह-ऐतिह्यमित्यादि । भनिर्दिष्टप्रवक्तकस्य ऐतिह्यस्य कथं आप्तोपदेशरूपशब्दत्वम्' इत्यत्राह - आप्तग्रहण बिति । उत्तरत्र शब्दनिरूपणोपक्रम एवेदं स्पष्टीभविष्यति ॥ प्रमाणन्यादि। प्रमाणानां प्रमेयाणां च संख्यानियमस्य लक्षणनियमस्य चनशक्यकरणीयस्वमित्यर्थः। प्रमाणानुपजीव्यान्-प्रमाणानधीनान् । तदनु-ख. अतः-ख. 'च-ख. 'ग्रहणमत्र-क. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किम् १)] वियमा मातं बाङ्गलि: प्रविरलाकुलिरेष पाणिः इस्य स्त धीः तमसि मीलितचक्षुषो वा । नेयं त्वगिन्द्रियकृता, न हि तत्करस्थं तत्रैव हि प्रमिनिमिन्द्रियमादधाति ॥ २१५ ॥ दूरात्करोनि निशि 'दीप' शिखा च 'दृष्टा' पर्यन्तदेशविस्तृतासु मर्त प्रभासु ! धं धियं पवनकम्पितपुण्डरीक 'डे' वा भुवि दूतेऽपि गन्धे । २१६ ॥ स एवंप्राय संवित्तिसमुत्प्रेक्षणपण्डितः । रूपं तपस्वी जानाति न प्रत्यक्षानुमानयोः । २१७ ॥ चाक्षुषप्रत्यक्षानुपजीव्यत्वबोधनाय - तमसि लिरित्यादि । मीलितचक्षुषो वा इति । वाकारः किं तम: पर्यन्तानुधावनेन इति र्यार्थः । । अस्तु घीः किं तेन ? इत्यत्राह नेयमिति । अत्र हेतुमाह - न हीति । तत्करस्थं इन्द्रियं तत्रैव प्रमिति न ह्यादधाति - इत्यन्वयः । एतदुक्तं भवति - निमीलितचक्षुषामप्यस्माकं ' मम अङ्गुलिः वक्र: ', 'ममाङ्गुली विरलौ' इत्यादिप्रतीतिरनुभवसिद्धा । दण्डादिषु हि हस्तस्पर्शवशात वक्रत्वादिकं वन्द्रियग्राह्म भवेदपि । अङ्गुलिः स्वगतं वकत्वं कथं स्वयं गृह्णीयात् । न हि चक्षुरिन्द्रियं आत्मन भाश्रयं गोलकं गृह्णाति । अत इयं प्रतीतिर्दुर्निरूपैव । एवं ‘विग्लौ अङ्गुली' इत्यत्रापि । वरल्यं च हस्तान्तरेण स्पर्शमन्तऽपि स्वयमेव भासत एव । एतदपि दुर्निरू | मेवेति ॥ 169 एवं निशि दूरात् दृष्टा दीपशिखा च पर्यन्त देशविसृतासु प्रभासु - विषयसप्तमी, मतिं करोति 'अहो पर्यन्तप्रसृनप्रभाभाग्यं दीपशिखा' इति । तत्र पर्यन्तदेशस्य अकाशरूपस्य दूरादग्रहणेऽपि तत्र प्रसृमरत्वं तु दैव गृह्यते । इयं च प्रतीतिः नानुमानरूपा ; हेतुज्ञानादीनामदर्शनात् । अत इदमपि विलक्षण प्रत्यक्षम् । एवं गन्धे प्राणेन्द्रियेण गृहीते दूरगनेऽपि वाय्वनुकूल प्रदेशवर्तिनि पवनकम्पितपुण्डरीकवने --तद्विषये धियं धत्त, पुरुष इति शेषः । नात्र प्राणेन पुण्डरीकवनग्रहणं संभवीत्यर्थः । ' सुरमि• 1 दी- ख. 3 दृष्ट्वाक, पण्डो-ख. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 [ न्यायम प्रमाणसम् [ चार्वाकमतनिरासः ] प्रत्यक्षाद्विरल कराङ्गुलप्रतीतिः व्यापित्वाद कुशलमिन्द्रियं न तस्याम् । आना मेस्तुहिनजलं जनैः पिबद्भिः तत्स्पर्शः शिशिरतरोऽनुभूयते ऽन्तः ॥ २१८ ॥ संयोगबुद्धिश्व यथा तदुत्था तथैव तज्जा तदभावबुद्धिः । क्रियाविशेषग्रहणाच्च तस्मात् आकुञ्चितत्वावगमो ऽङ्गुलीनाम् ॥ पद्ममोदविदूरदीपक विभाबुद्धिः पुनलैङ्गिकी व्याप्तिज्ञानकृतेति का खलु मतिर्मानान्तरापेक्षिणी । सङ्ख्याया नियमः प्रमाणविषये नास्तीत्यतो नास्तिकैः तत्सामर्थ्यविवेकशून्यमतिभिः मिथ्यैव विस्फूर्जितम् ||२२०|| इयत्त्वमविलक्षणं नियतमस्ति मानेषु नः प्रमेयमपि लक्षणादिनियमान्वितं वक्ष्यते । अशक्यकरणीयतां कथयता तु तत्त्वं, सतां समक्षममुनाSSत्मनो जडमतित्वमुक्तं भवेत् ॥ २२१ ॥ इति जयन्तभट्टकृतौ न्यायमञ्जय प्रथममाह्निकम् चन्दनम् ' इत्येवमादिज्ञानानामपीदमुपलक्षणम् । एवञ्च ज्ञानज्ञेययोर्व्यवस्थैव दुर्वचेति प्रमाणप्रमेयसंङ्ख्या नियमः अशक्यकरणीय एवेति ॥ एतत्सर्वं समाधत्ते -- प्रत्यक्षादिति । इन्द्रियं अकुशलं न किन्तु समर्थमेवेत्यर्थः । चक्षुरिन्द्रियेण स्वाश्रयगतगुणाद्यग्रहणेऽपि स्वगिन्द्रियं स्वाश्रयगतजलादिसंयोगं गृह्णातीत्यनुभवसिद्धम् । तच्चेन्द्रियं शरीरव्यापकम् । अतश्च अङ्गुलिगतवैरल्यं तद्द्वतत्वमिन्द्रियं गृहीतं समर्थमेव । त्वचो व्यापकत्वं साक्षात्स्वसंयुक्तग्राहकत्वं चोपपादयति- आनाभेरिति ॥ तदुत्था - त्वगिन्द्रियजन्या । ' येनेन्द्रियेण यो गृह्यते तेनेव तदभावोऽपि गृह्यते ' इति स्वाश्रयगतसंयोगाभावोऽपि त्वचैव गृह्यते । एवं त्वचा स्वाश्रयगतक्रियाग्रहणस्यापि संभवात् आकुञ्चितत्वग्रहणमपि स्वचैवेत्यर्थः ॥ तत्सामर्थ्य --प्रमाणसङ्ख्यानियमनिश्चयसामर्थ्यम् ॥ अविलक्षणं - सर्वसम्मतम् । सतां समक्षमित्यन्वयः ॥ इति प्रथममाह्निकम् Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाह्निकम् २] प्रत्यक्षलक्षणसूत्रव्याख्यानम् 171 द्वितीयमाह्निकम्-प्रत्यक्षपरीक्षा [प्रत्यक्षलक्षणम् एवं प्रमाणानां सामान्यलक्षणे, विभागे च निर्णीते सति, अधुना विशेषलक्षणवर्णावसर इति, सकलप्रमाण मूलभूतत्वेन पूर्वपठितत्वेन ज्यैष्ठयात् प्रथम प्रत्यक्षस्य लक्षणं प्रतिपादायतुमाहइन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदे श्यामव्यभि चारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ॥ १.१.४॥ प्रत्यक्षमिति लक्ष्यनिर्देशः; इतरल्लक्षणम् । समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थः । समानजातीयं प्रमाणतयाऽनुमानादि, विजातीयं प्रमेयादि । ततो व्यवच्छिन्नं प्रत्यक्षस्य लक्षणमनेन सूत्रेणोपपाद्यते ।। [सूत्रस्यायुक्तताऽऽक्षेपः] . अत्र चोदयन्ति-इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वादिविशेषणः स्वरूपं वा विशेष्यते ? सामग्री वा ? फलं वा? विभागे-चतुष्टयत्वेनेति शेषः ॥ समानेति । सजातीयविजातीयव्यावृत्तिः लक्षणस्य प्रयोजनमित्यर्थः ।। - चोदयन्तीति । अयमाशयः। अस्मिन् सूत्रे 'प्रत्यक्ष' इति पदं लक्ष्यवाचकम् , अत एव विशेष्यम् । प्रत्यक्षशब्दश्च अफलरूपे अकरणरूपे च कंवलज्ञाने, तादृशज्ञानकरणे इन्द्रियादौ, फलरूपे ज्ञाने च वर्तते । तदत्र प्रत्यक्षपदं कि केवलज्ञानस्वरूपमात्रपरम् ? उत ज्ञानकरणपरम् ? उत फलभूतज्ञानपरम् ? तत्राद्ये पक्षेऽव्याप्तिरतिव्याप्तिश्च । तदा हि अकरणस्याफलस्यैव च लक्षणमिदमिति भवति। तथा च फलरूपज्ञाने, इन्द्रिये च प्रमाणत्वेन वर्णनीये लक्षणा 1 पूर्व-क. प्रत्य-क. श-ख. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 प्रत्यक्षलक्षणम् म्याबमधरी तत्र स्वरूपविशेषणपक्षे, यत् एवंस्वरूपं ज्ञानं तत प्रत्यक्षमिति तत्स्वरूपस्य विशेषतत्वात् , 'फलवि'शरणानुपादानाच्च लक्षणमव्याप्तयतिव्याप्तिभ्यामुपदतं स्यात् : अव्याप्तिस्ता बत-अतथाविधस्वरूपस्य बोधम्य, इन्द्रगारेश्च निलफलजनकतया लब्धप्रमाणभावस्यापि प्रामाण नोक्त भवेत। अतिव्या तश्च-तथा विधम्ब रूपम्यापि ज्ञानस्याकारका वा संस्कारकारिणो वा स्मृति जनयतो वा संशयमाद नस्य वा विपी यमुत्पादय गे वा प्र णत्व प्राप्नति, फलम्याविशेषितत्वात् ।। तद्विशेषणाभिधाने पुनः अश्रतसूत्रान्तगध्याहारप्रसक्तिः, अव्याप्तिश्च नदव थेति न स्वरूपविशरणपश्नः॥ नाप सामग्रीविशेषणपक्ष-तत्रह- इन्द्रियार्थसन्निकषोंत्पन्नम इन इन्द्रियापन्नित्पिन्नं मगमग्रयं इन व्याख्यानव्यम्। ज्ञ नं, अध्यपश्यम अ० भचारि, व्यवसायाम कमिति च तजनक स्वादुपचारेण तथा माकल्यं वर्णनीय मति क्लिष्ट फलाना.॥ समन्वयः। तथा चानेन मूत्रेण संग्राह्यानामप्यसंग्रहप्रसङ्ग । एवं प्रमाजनकस्य यथाऽसंग्रा: तथा प्रमा जन 5 नव्याप्त । मस्कागदीनां प्रमास्वाभावेन तजनकं हि न प्र राण-वेन ग्राह्य ।। एवं यन कर ग न किञ्चिदपि फरमादधानि तदपि न प्रमाणवेन संग्राह्य र उक्तं तु म्वरूाल अग तत्र वर्तत र त्यनिव्याप्तिः॥ सामग्र मनि । कागशब्दाय कार्य मदत, सामग्रीशब्दस्य सामग्रयशब्दः प्रति टिभूत एतदुक्तं भवनि प्रत्यक्षपदं यद्यपि करणव्युत्पत्त्या सामग्रीपरं वक्त शक्यम्, परन्तु सामग्रया: इन्द्रियार्थसन्निकर्षादिरूपाया तजन्यत्वामभवेन ज्ञानरूपत्वाभावेन च इन्द्रियार्थसा . क पन्नज्ञाननिष्टकार्यतानिरूपकमिति व्याख्येयमित । । बि-क उपपाद-क. पत्रम्-ख. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम् २) प्रत्यक्षलक्षणसूत्रार्थः 113 फलविशेषणपक्षोऽपि न सङ्गच्छते-ज्ञानप्रत्यक्ष शब्दयोः फलकरणवाचिनी: सामानाधिकरण्यप्रसङ्गात् अम्मान धिकरण माणलक्षणप्रस्तावात् प्रत्यक्ष प्रमाणमुच्यते। तच्च करण मनतम्। ज्ञानं तु तदुपज नत फलः ति कथमकाधि रयम? तस्मात् पश्नत्रयम्या८. युक्त त्वात् पक्षान स्थाप्यसंभवाद क्तं नत्र म त ॥ __ [सूत्रार्थपमर्थनम् ] अत्रोच्यते-स्वरूपसामी वशषणपनी नावत यथोक्तदोषोपहतत्वात नाभ्युपगम्यते । फल वशेषणपक्षमेव मन्य महे तत्र च यत् वैय्य धिकरणं नादित, नत् 'यतः 'शब्दाध्याहारेण परहरिप्याम अतः एवं विशरण वशि, ज्ञान र फ भनि, तत् प्रत्यमित स्वार्थः इत्थं च न कवितव्या तर तव्याप्तिा. न कावित क्लिष्ट लपना । यतः ' शब्दाध्याहारमाण िरवद्यलक्षणोपवर्णनसमर्थसूत्रपदमङ्गतिसंभवात् ॥ - सामाना करण्यप्रसङ्गादिति । फलविशेषणपक्षे ज्ञानपदं प्रत्यक्षपदं च सामान्यविशेषभ वापन्नं, अत एव विशेणविशेयभावापन्न वाच्यमित्यर्थः । अस्तु तथैव, का हानि: ? इत्यत्राह अममान धिकरणे ते । पूर्व · प्रत्य तानुमानोपमान शब्दा: प्रमाणानि' इत्युद्दिष्ट नां ग्वलु लक्षणमुच्यते । तत्र च सूत्रे कागवाच्यनुमानादिपदसनभिपाहत प्रत्यक्षपदमपि करणपरमेव । एवं च फलबाचिनो ज्ञानपदस्य, करणवाचिन प्रत्यक्षपदस्य च ३थं विशेषणविशेष्यभावरूपसामानाधि हरण्यसंभव इति भावः ॥ . . यतश्शब्दाध्याहारेणेति । एवमेव वाच पनि मिश्रा अपि-" अत्र 'यत:' इत्यध्याहृत्य यत्तदोनित्याभिषम्बन्धात 'तत् प्रत्यक्षम्' इति प्रमाणवाचिप्रत्यक्षपदं योजनीयम्" इति आहुः तात्पर्यटीकायाम् । निरवद्यलक्षणोपवर्णनसमर्थानि यानि सूत्रघटकपदानि तेषां सङ्गतिसम्भवात् नासाङ्गस्यमित्यर्थः ॥ यो:-. इवियुक-ख. यदि-ख. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 प्रत्यक्षलक्षणम् [न्यायमचरी [स्वव्याख्याने बीजवर्णनम् ] ननु समानाधिकरणे एव ज्ञानप्रत्यक्षपदे कथं न व्याख्यायेते! किं यतः' शब्दाध्याहारेण ? उक्तमत्र-करणस्य प्रमाणत्वात् ज्ञानस्य च तत्फलत्वात् फलकरणयोश्च स्वरूपभेदस्य सिद्धत्वात् ॥ प्रमाणतायां सामग्रथाः तज्ज्ञानं फलमिष्यते । तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः॥ [प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिनिवृत्ति हेतुत्वाक्षेप:] ननु स्मृत्याद्यनेकवुद्विव्यवधानसंभवात् कथमिन्द्रियार्थ: सन्निकर्षोत्पन्नमालोचनाशानं हानादिफलं भवेत् ? तथा हिकपित्थादिजातीयमर्थ इन्द्रियादिसन्निकर्षादिसामग्रीत उपल'भ्य' तद्गतं सुखसाधनत्वमनुस्मरति--‘एवंजातीयकेन मम पूर्व सुखमुपजनितमभूत्' इति । ततः स्मृत्यनन्तरं परामर्शज्ञानमस्योपजायते'अयं स कपित्थजातीयः' इति । तत उपादेयताज्ञानमुत्पद्यते'यत एष सुखसाधनं कपि स्थादिजातीयः पदार्थः, तस्मादुपादेयः' इति। अत्रान्तरे प्रथमस्येन्द्रियसन्निकर्षजन्मनः कपित्थालोचनाज्ञानस्य नामापि नावशिष्यत इति कथमस्य तत्फलत्वमिति ॥ नन्विति। इदं करणलक्षणपरमिति विस्मृत्य एतत्सूत्रमात्रद्रष्टुरियमाशङ्का ॥ प्रमाणतायामित्यादि। प्रमाणपदं करणार्थकत्वे सामग्रीपरम् । भावार्थकत्वे प्रमितिपरम् । तत्राये ज्ञानमेव फलम् । द्वितीये प्रवृत्तिनिवृत्त्यादिनिश्चयः फलमित्यर्थः ।। आलोचनाशानम-साक्षात्काररूपं सविकल्पकज्ञानम्। हानादिफलंहानादिफलकम् । उपलभ्येति । इयमुपलब्धिरेब आलोचनाज्ञानम् । तद्गतंकपित्थगतम् । 'तत:' इत्यस्य विवरणम्-स्मृत्यनन्तरमिति । परामर्शशानमिति । इदमेव शास्त्रे कुत्रचित् विकल्प इत्युच्यते । एष कपित्यादिजातीय इत्यन्वयः। कथमिति । हानोपादानादेरनुमानमूलकत्वात् इत्यर्थः ॥ 1 भ्यते-क. त्य-क. त-क. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 आह्निकम् २] प्रत्यक्षस्य प्रवृत्त्यादिहेतुत्वोपपादनम् . .. [प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिहेतुत्वे वाचस्पतिमतम् ] , अत्राचार्यास्तावदाचक्षते-साधु चोदितम्। सत्यम् , ईदृश एवायं ज्ञानानां क्रमः । न वयं प्रथममालोचनाज्ञानस्य उपादानादिषु प्रमाणतां ब्रूमः । तथा हि-प्रथम मिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमालोचनाशानं इन्द्रियार्थसन्निकर्षादिसामग्रीस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य प्रमाणस्य फलमेव, न तु स्वयं प्रमाणतां प्रतिलभते ; स्मृतिजनकत्वात् । तदनन्तरं हि सुखसाधन त्वानुस्मृतिर्भवतीति सेयमनुस्मृतिरप्रमाणफलमपि सती प्रत्यक्षं प्रमाणं संपद्यते, 'तथाऽयं कपित्थादिजातीयः' इतीन्द्रियविषय परामर्शोत्पत्तौ इन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह व्याप्रियमाणत्वात् ॥ स पुनः परामर्शप्रत्ययः प्रत्यक्षजनितः धूमज्ञानवत् अनुमानं प्रमाणमुच्यते,परोक्षस्याग्नेरिव सुखसाधनसामर्थ्यस्य ततः अवगतेः॥ प्रमाणतां-करणताम् । प्रत्यक्षस्य प्रमाणस्य-इन्द्रियाख्यस्य । स्मृतिजनकन्वादिति। प्रमाणं ह्यनुभवजनकम् । एवञ्च स्मृतिजनकत्वात् आलोचनाज्ञानं इन्द्रियाख्यप्रमाणस्य फलमेव, न तु प्रमाणमित्यर्थः । अप्रमाणफलमपि सती-प्रमाणफलं अभवत्यपि। साक्षात् इन्द्रियाद्यजन्यमपीत्यर्थः। ननु पूर्वानभवजनितसंस्कारादुत्पन्नाया सुखसाधनत्वानुस्मृतेः कथं प्रत्यक्षप्रमाणत्वम् ? इति शङ्कायामाह - तथेति । नात्र स्मृतेः प्रत्यक्षप्रमाणत्वमुक्तं, किन्त अनुस्मृतेः । इदन्तांशे तस्याः प्रत्यक्षत्वं वर्तत एव इन्द्रियसापेक्षत्वात् । प्रत्यभिज्ञा ह्यनुस्मृति: । प्रत्यभिज्ञा च प्रत्यक्षमेवेत्यर्थः । इन्द्रियेत्यादि । इन्द्रियविषयवस्तुविषयकपरामर्शेत्यर्थः ॥ - स पुनरित्यादि । धूमज्ञानं यथा वहयनुमितिहेतुः, तथा 'सोऽयं कपित्थजातीयः' इति परामर्श: सुखसाधनसामर्थ्यानुमितिहेतुर्भवतीत्यर्थः । प्रत्यक्षजनितः- सुखसाधनत्वानुस्मृतिजनितः। परंपरया प्रत्यक्ष ननितो वा। स्वानुभवजनित इति यावत् । तथा च उपादानादिषु सुखसाधनत्वानुस्मृति: प्रत्यक्षं प्रमाण, परामर्शश्चानुमानरूपं प्रमाणमिति विवेकः। प्रकृते उपादेयं वस्तु ऐन्द्रियिकं, अनुमानस्थले तु तत् परोक्षमिति विशेषः अनन्तरवाक्येषु स्पष्टः॥ त्व-ख. शेष-ख. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 प्रमालक्षणम् [म्यायमचरी ____ यद्यपि न काचिदतीन्द्रिया शक्तिरस्मन्मते विद्यते; तथाऽपि स्वरूपसहकार्यादिप्राइष्टकारणसमूहसन्निधानस्वभावमपि सामर्थ्यमतीन्द्रियमेव ॥ ___तम्मा करिथादि जातीयोऽर्थः सुखसाधन मिति वह्निम-पर्वत. प्रती वत् नजातीयलिङ्गकमानुमानिकमिदं ज्ञानम तदिदमनुमानफलमपि सुखसाधनत्व निश्चयात्मकं ज्ञानं इन्द्रिय विषये कपित्थादा. . वुपादेयज्ञानं इन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह जनयत् प्रत्यक्षं प्रमाणं भवति। . तदेव च हृदि व्यवस्थाप्य भाष्यकृत् बभाषे– 'यदा ज्ञानं वृत्तिः तदा हानो पादानोपेक्षा'बुद्धय. प्रमि तः' इति ॥ [आलोचनाज्ञान मुख्य प्रमाणमेव] व्याख्यातारस्तु ध्रुवने-नायमीदृशो ज्ञानानां क्रमः; आद्यमालोचनाज्ञान सुखमाधनत्वानुस्मृति उपजनयतीति-सत्यम् .. स्मृत्या च तस्य निश्यत्ता ; विनश्यदवस्थ चेन्द्रियविषये कवित्थादौ सुख माधनत्वनिश्चयमादधाति, सुखमाधनत्वज्ञानमेव चोपादेयताज्ञानमुच्यते, नान्यत् । परामर्शस्तु न कश्चिदन्तराले 'संवेद्यते । ननु कथं सुम्बसाधनसामर्थ्य भवन्त्रतेऽनुमेयम् ? अतीन्द्रियस्य शक्त्यपरपर्यायस्य सामर्थ्यस्यानभ्युपगमादिति आशङ्कय समाधत्ते- यद्यपीत्यादि । अतीन्द्रियधर्माधर्मादिघटितत्वात् सामग्र्या. अतीन्द्रियमेव सामर्थ्यमित्यर्थः ॥ ननु तर्हि प्रवृत्तिहेतु: अनुमानमेवेति प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिहेतुत्वं न सिद्धमेवेत्यत्राह-त.ददमिति। अस्य ज्ञानेऽन्वयः । इन्द्रयविषय इति इदं ममोपादेयमिति हि उपादयताज्ञानं ; तच्च प्रत्यक्षकपित्थविषयमेवेति इन्द्रियार्थसन्निकर्षापेक्षा वर्तत एवे त हानोपादानयोः इन्द्रियं प्रमाणं भवत्येवेति । बभाष इति। प्रमाणविभागसूत्र इति शेषः। वृत्तिः व्यापारः ॥ स्मृत्या - सुखसाधनत्वानुस्मृत्या। तस्य - आलोचनाज्ञानस्य । विनश्यत्ता योग्यविभुविशेषगुणानां स्वोत्तर पन्नगुणनाइयत्वनियमादित्यर्थः । पर:मर्शः–'सोऽय कपित्थजातीयः' इत्येवंरूपः पूर्वोक्तः। अन्तरालेआलोचनाज्ञान-उपादेयताज्ञानयोर्मध्ये ॥ 1पेक्षे-च. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम २] प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुत्वे मतभेदः 177 तदेव साध्यं दर्शितम्। इन्द्रियार्थसन्निकर्षजनितमुपादेयताज्ञानफलकं अवकल्पते-इति' किमसंवेद्यमान ज्ञानकन्था कल्पनेनेति ॥ ननु ! परामर्शोऽनुभूयत एव, न तु कल्प्यते। धूमज्ञानानन्तरमविनाभावं यत्र धूमस्तत्राग्निः' इत्यनुस्मृत्य परामृशत 'तथा चायं धूमः' इति । असति तु परामर्शे न लिङ्गज्ञानं लिगिनि प्रमाणतां प्रतिपद्येत ; स्मरणजनकं हि तत् । न च स्मृतिजनकं प्रमाण मिष्यते । स्मरणानन्तरं च लिङ्गप्रतीतिर्भवन्ती नोपलभ्यानुवादेन भवेत्'अयमग्निमान्' इति ॥ अपि च तथा व कृतकः शब्दः' इति यत् उपनयवचनमवय. वेषु पठ्यते, तस्य किं वाच्यं भविष्यति परामर्शापलापवादिनाम् । स्वप्रतिपत्तियच्च पर प्रतिपत्तिरवयवर्जन्यते इति वक्ष्यामः। तस्मादप्रत्याख्येयः परामर्श इति ॥ कल्पनायां खलु दोषः । अनुभवात् सिद्धौ न वयं अपराधिन इत्याशयवान् शकते-नन्विति। कुतः प्रमाणतां न प्रतिपद्यतेत्यत्र हेतुः-स्मरणजनकमिति । तत्-लिङ्गज्ञानम् । लिङ्गज्ञानं हि 'एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम् ' इतिरीत्या स्वव्यापकत्वरूपसम्बन्धिनः वः स्मृतिजनक सत् व्याप्तिस्मृतिजनकम् । स्मृतिजनकं च लिङ्गज्ञानं न प्रमाणं भवितुमर्हति, भनुभवजनकस्यैव प्रमाणत्वात्। विवेचितं चैतत् पूर्वमेव । अतः पूर्वोत्पनं लिङ्गज्ञानं न प्रमाणम्। किन्तु व्याप्तिस्मरणानन्तरमेव लिङ्गस्य प्रतीतिः कल्पनीया। सैव लिङ्गपरामर्श इत्युच्यत इति मध्ये परामर्शकल्पनमावश्यकमेवेति । उपलभ्येति। लिङ्गप्रतीति: 'अयमग्निमान्' इतिरीत्या अनुमेयं वस्तु पूर्वमेव प्रदर्शयन्ती न भवेत्, किन्तु 'वद्विजातीयव्याप्यधूमजातीयवानयं' इत्येवं भवेत् । न च तावता प्रकृतेष्टसिद्धि रिति भावः ॥ ननु परार्थानुमानमिदमुच्यते भाद्भिः । वयं तु स्वार्थानुमाने ब्रूमः इति चेत् तत्राह-स्वप्रतिपत्तिवच्चेति ॥ 'इति-ख. (पूर्वपुटात) ज्ञान-क. मशानम्-ख. 'परा-ख. NYAYAMANJARI 12 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [न्यायमभरी 178 प्रत्यक्षलक्षणम् [परामर्शस्य अनपेक्षता] अत्र यदन्ति-- न तायदन्तरा कश्चित परामर्शोऽनुभूयते । अनुमेयमितेः पूर्व ऊर्ध्वं च निय'म'स्मृतेः ॥ २॥ अत एपार्थमालोक्य विनैव हि दवीयसा। विलम्बेन व्यवस्यन्ति ग्रहणादिषु लौकिकाः ॥ ३ ॥ लिङ्गमानं च विनश्यदवस्थमनुमेयप्रतीतो व्याप्रियमाणं प्रमाणतां प्रतिपत्स्यते । तत्कृतवोपलभ्यानुवादेन लिङ्गवुद्धिर्भविष्याते। तस्मात् कपित्यादिपदार्थदर्शनस्य परामर्शसोपानमनारोहत एवोपादेयज्ञानफलता वक्तुं युक्तेति ॥ ___ अपि च अनुमेयविषये घवयादौ सुखसाधनत्वानुस्मृतिकृतमुपादेयताशानं तव न समस्येव । ततश्च तत्रापि तथा चायं ज्वलनजातीयः' इतिपरामर्शो भवताऽभ्युपेय एव। स च किंकरणकः? इति निरूपणीयम्। न नादिन्द्रियद्वारकः, पाव कस्य परीक्षत्वात्। शब्दोपमाने त्वाशदितुमपि तत्र न युक्ते। ... अनुमेयमितिः-अनुमेयविषये मिनि:, अनुमितिरिति यावत। दवीयसा-अधिरेन विलम्बेन विनैव-विलम्ब विनैव ग्रहणादिषु--- उपादानादिपु, भादिना हानपरिग्रहः । तथा च प्रत्यनस्थले . अनुमानस्थल इव न विलम्बोऽनुभूयत इनि ऐन्द्रियिकमेवोपादेयताज्ञानम् । अन्यथा अनुमित्यधीनोपादेयताज्ञानात् प्रत्यक्षस्थले वैलक्षण्यं दुर्वच स्यादिति ॥ तत्कृतैव-ताशश्माणस्वकृतका न समस्त्येवेति । प्रत्यक्षे प्रथमं वस्तुग्रहणमात्रं, सुखसाधनस्वनिर्णयन परामर्शाधीन इति यथोच्यते, तथा अनुमितिस्थलेऽपि भनुमानेन धर्मिमात्रं गृह्यते। इष्टसाधनत्वनिर्णयश्च पाश्चात्य इति खलु वक्तव्यम्। एवञ्चानुमित्या हानोपादानादिकं न स्यादेवेति । मन्वंतदिष्टमेव, यतः तत्रानुमानान्तरद्वौरव प्रवृत्यादिरित्यत्राह .ततश्चेति । न युक्ते इति। शब्दस्योपस्थित्यभावेन, उपमानस्य शक्तिग्राहकत्वेन चेति शेषः। ननु अग्नेः परोक्षत्वेऽपि प्रत्यक्षो धूम एव प्रथमं वहि, ततस्तस्य सुखसाधनत्वं चावगमयतीति न दोष इति शंकते--- मे-ख. शान-क. तथा च-ख. य:-क. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] प्रत्यक्षस्यैव साक्षात् प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुत्वम् 179 धूमाख्याल्लिङ्गादेव स उत्पद्यत इति चेत्-न-लिङ्गस्य परामर्शाविषयीकृत स्यानुमेयमितिजनननैपुण्यानभ्युग्गमात् । धूमावमर्शस्य तदानीमतिक्रान्तत्वात् । तथा हि-प्रथमं लिङ्गज्ञानं, ततो व्याप्तिस्मरणम् , ततो धूमपरामर्शः, ततो वह्निज्ञानम, तेन धूमपरामर्शस्य विनश्यत्ता, ततोऽग्नौ सुखसाधनत्वानुस्मरणम् । तदा च धूमपरामर्शस्य विनाश एवेति तस्मिन् विनटे न केवलो धूमस्तदानीमनलपरामर्श जनयितुमुत्सहते॥ अग्नौ र खसाधनत्यानुस्मरणानन्तरं पुनः धूमज्ञानं इन्द्रियादुत्पद्यत इति चेत्--मैवम् -- अननुभवात् । भवतु वा धूमज्ञानम् , तथाऽपि धूमज्ञानानन्तरं पुनातिस्मृतिः, पुनः धूमपरामर्शश्चावश्यं भवेत्, इत्यत्रान्तरे हुतभुजि सुखसाधनत्वानुस्मृतिरतिक्रान्नेति तत्सहायपरामर्शजन्य सुखसाधनत्व निश्चयोत्पादो न स्यात् । सुखसाधनत्वानुस्मरणेन हि विनश्यवस्थेन जन्यमानः प्रत्यक्षविषयोऽसौ दृष्ट इति ॥ धूमेति। लिङ्गस्य --लिङ्गस्वरूपस्य । अनभ्युपगमात् । परामृश्यमान. लिङ्गस्यवानुमितिकरणत्वात् इत्यर्थः। ननु प्रथममेव परामर्शस्य निष्पन्नत्वेन पररामृश्यमानं लिङ्गमस्त्येवेति का हानिरित्यत्राह--धूमाघमर्शस्येति। तदा-- सुखसाधनत्वानुस्मरणकाले। केवलः- परामर्शाविषयः। अनलपरामर्श'तथा चायं ज्वलनजातीयः' इति परामर्श उपादेयत्वहेतुभूतम् ॥ ननु पूर्वधूमज्ञानस्य नारोऽपि ज्ञानान्तरं कल्प्यत इति शङ्कतेअग्नाविति। इन्द्रियादिति। न हि स्मरणस्य मध्ये संभवः, तस्योदोधकाद्यपेक्षत्वादि त्याशयः । अननुभवात् पुनः ज्ञानान्तरस्याननुभवात् । ननु फलबलेन कल्प्यताम् , अनुभवस्त्वतिसूक्ष्मः विना शपथं न हि निरसितुं शक्य इत्यत्राइ-भवतु वेति । व्याप्तिस्मृतिरिति । सुखसाधनत्वाकार. विशिष्टवह्निव्याप्तिस्मृतिरित्यर्थः । अतिक्रान्ते त-सुखसाधनत्वानुस्मृत्यनन्तरं खलु पुनः धूमज्ञानादिपरंपरा कल्पितेति परामर्शकाले तादृशानुस्मृतिनाशोऽनिवार्य एवेति भावः ॥ 1 मशिन-ख. न्या-ग. ये-ख. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 प्रत्यक्षलक्षणम् न्यायमजरी [परामर्शस्य अवसरोऽपि नास्ति। अथ मन्यसे 'न तदानीं' पुनधूमज्ञानव्याप्तिस्मरणतत्परामर्शीस्दादिज्ञानशृङ्खलाऽभ्युपेयते, किन्तु प्राक्तन एव धूमपरामर्शः कृशानौ सुखसाधनत्वानुस्मरणानन्तरं स्मरिष्यते ; तेन स्मृति विषयवर्तिना सता 'तथा चायनिजातीयः' इति ज्वलनपरामर्शो जनयिष्यते इति-एतदप्ययुक्त - अग्निशानानन्तरं युगपत्स्मरण- . द्वयोदयप्रसङ्गात्-तदैव सुखसाधनताऽनुस्मृतिः, तदैव धूमपरामर्शस्मृतिरिति । न हि क्रमोत्पादे किञ्चित्कारणमस्ति। ज्ञानयोगपधं च शास्त्रे प्रतिषिद्धम् ॥ [परामर्शस्य दुर्घटता भवतु वा क्रमोत्पादः; तथाऽपि स्मरणद्वयसमनन्तरमुपजायमानः पावकपरामों नोपलभ्यानुवादेन जायते। क्रमाक्षेऽपि च वह्निशानानन्तरं तद्गतसुखसाधनत्वानुस्मरणमेव पूर्व भवेत् , ततो धूमपरामर्शस्मरणम्, तेन तस्य विनश्यत्ता, ततोऽग्मै तजातीयत्वपरामर्शः, तेन सुखसाधनत्वस्मृतर्विनाश एवेति पुनरपि सा विनष्टा स्मृतिविषयवर्तिनेति । सुखसाधनस्वाकारविशिष्टेन चेत्यर्थः। स्मरणद्वयमित्युक्तं ; किं तत् द्वयम् ? इत्यत्राह-तदैवेति ! अग्निज्ञानानन्तरक्षण एवेत्यर्थः। अस्तु तर्हि क्रमेणैव स्मरण-गोत्पत्तिरित्यत्राह - न हीत्यादि । अग्निज्ञानानन्तरक्षणे सुखसाधनत्वस्मृतिस्तु सम्मत एव, धूमपरामर्शसंस्कारस्य सत्वेन धूमपरामर्शस्मृतिरपि तदैव भवेदिति कथं क्रमः नियम्यत इति। ननु भस्तु योगपद्यं स्मृतिद्वयस्येत्यवाह--शानेति। एतत्तत्वं च मनःप्रकरणे स्पष्टीभविष्यति ॥ __ननु संस्कारस्य सस्वमात्रान्न स्मरणोत्पत्तिः ; किन्तु उद्योधकसमवधानादेव । मदृष्टादीनामप्युद्धोधककोटिप्रविष्टत्वेन तत्समवधानाऽपमवधाने कार्यानुमेये इति शङ्कायामाह-भवतु वेति। उपलभ्येति । अनुमितवहिव्यक्तयन्तभावेने. स्यर्थः। पूर्व भवेदिति । अनलार्थिनः खलु धूमदर्शनात् वयनुमितिः । तस्य च प्रथमं सुखसाधनत्वस्मरणमेव जायेत। एवञ्च न प्रकृतेष्टसिद्धिरिति । नेदानी-क. 'दित-क. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] मुखसाधनत्वमपि प्रत्यक्षेणैव गृह्यो 181 सती सुखसाधनत्व निश्चयजन्मनि न व्याप्रियेतेति। न च धूम. लिङ्गानुमितवजिज्ञानानन्तरं धूमस्मरणमुचितम्, अनलमुपलभ्य हि तद्गतसुखसाधनत्वमनुस्मरति लोकः, न धूममिति । तेनानुमानविपये परामोऽतिदुर्घटः । प्रत्यक्षविषयेऽप्येवं, किमनेन शिखण्डिना?॥४॥ [उपनयवाक्यस्य सार्थक्यम् यत्पुनः-उपनयवचनमभिधेयरहितमप्रयोज्यं प्रसज्यत इति परिचोदितम्---तत् - अवविप्रसङ्ग एव (१० भाति के) निरूपयिष्यामः। तस्मादन्तरावर्तिनः परामर्शज्ञानस्याभावात् आद्यमालोचनाज्ञानमेव हेयादिज्ञानफलं यथोकरीत्या भविष्यतीति ॥ • [सुखपाधनत्वनिश्चयः प्रत्यक्षरूपोऽपि भवत्येव ननु च! प्रत्यक्षफलमिह मीमांस्यं वर्तते, स चायं सुखसाधनस्वाल्लिङ्गादुद्गम्यमानः आनुमानिक इते न प्रत्यक्षफलतामवलम्बतेसत्यमेतत्-किन्तु सम्बन्धग्रहणसमये सुखसाधनवनिश्चयः प्रत्यक्ष जनितोऽपि समस्ति, यतोऽनुमान प्रवर्तते ; महानसादौ धूमाग्निनिश्चयजन्मनि --निश्चयोत्यत्तौ। वस्तुरस्तु वह्निनिश्चयानन्तरं पुनः धूमस्मरणकल्पनमध्ययुक्तमित्याह-न चेति । उपसंहरति-तेनेति। एवमिति । अनुमानस्थले मध्ये परामर्शमन्तराऽपि प्रवृत्तिनिर्वाहे प्रत्यक्षलेऽपि किं परामर्शकल्पनयेति भावः । शिखण्डिना-नपकेन-प्रयोजनरहितेनेति यावत् । परामर्शेगेति शेषः॥ अप्रयोज्यं-प्रयोक्तुननर्हम् ॥ ननु अनुमानस्थले यथा तथा वाऽस्तु, प्रत्यक्षे तु न तथा वक्तुं शक्यमिति शकते.- नन्विति । प्रत्यक्षस्य फलमिनि विग्रहः। न हि सु वसाधनत्वं प्रत्यक्षग्राह्यो धर्मः। प्रतिपुरुषं सुखस्य वैचित्र्येण, तस्य वस्तुधर्मस्वासंभवात् । अतः पूर्व तजातीयं वस्तु सुखसाधनत्वेनानुभूय तजातीयत्वलिङ्गात खलु पुरोवर्तिनि सुखसाधनत्वं निश्चिनोति । अतस्तत्र परामर्शादिकमावश्यकमेवेति शङ्काशयः। सत्यमिति। अयमाशयः--कुत्रचित् प्रत्यक्षस्थलेऽनुमानात्सुखसाधनस्वनिश्च येऽपि सर्वत्राप्येवमिति न निर्बन्धः । अन्यथा तादृशानुमितिहेतुभूतस्य व्याप्तिग्रहणस्यैव दुर्घटत्वात् । महानसादौ प्रत्यक्षतः Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 प्रत्यक्षलक्षणम् [ न्यायमञ्जरी दर्शनवत् । अतः सम्बन्ध' ग्रहणकाल 'भाविनं सुखसाधनत्वनिश्चयं चेतसि विधाय भाष्यकार स्तत्फलत्वं' प्रत्यक्षज्ञानस्य वर्णितवः न् इति ॥ [प्रत्यक्षेण सुखमाधनत्वनिश्वयाक्षेपः, समाधानं च] ननु ! सम्बन्धग्रहणकालेऽपि सुखसाधनत्वशक्तेरतीन्द्रियत्वात् कथं प्रत्यक्षगम्यता ? तज्जातीयत्वाल्लिङ्गादेव तदाऽपि तद्गुहणे इष्यमाणे ततः पुनः सम्बन्धग्रहणादनवस्था । सुखादेव कार्यात् तदा तदवगम इति चेत्, तदाऽपि नाज्ञातसम्बन्धमवगतिजननसमर्थमिति तत्संबन्धग्रहणवेलायामपि शक्तिग्रहणे प्रत्यक्षस्याक्षमत्वात् अनुमानान्तरापेक्षायामनवस्था तदवस्था - उच्यते-न खल्वतीन्द्रिया शक्तिः अस्माभिरुपगम्यते । यया सह न कार्यस्य सम्बन्धज्ञान संभवः ॥ ५ ॥ स्वरूप सहकारिसन्निधानमेव शक्तिः, सा च सुगमैव ॥ + [ सिद्धान्ते शक्तेरैन्द्रियकत्वसंभवः ] ननु ! सहकारिणां मध्ये अदृष्टमप्यनुप्रविष्टम् । न च तत् प्रत्यक्षगस्यम अतीन्द्रियत्वाद्धर्मस्येति साऽपन सुरंगमा शक्तिः-नैतत् - 'न धर्मादि शक्तित्वादतीन्द्रियम; अपि तु तत् नैसर्गिकमेव । जग हैचित्र्येण तदनुमानं वक्ष्यामः । तदेवं तदितरसहकारिस्वरूप गृहीतव्याप्तिस्यैव पर्वतादौ वह्नयनुमितिसंभवः । यदि व्याप्तिग्रहणमप्यनुमानात् तर्ह्यनवस्था । अतः यत्रकुत्रचित् सुखसाधनत्वं प्रत्यक्षेण गृह्यत एवेत वक्तव्यम् । तदभिप्रायेण भाष्यं प्रवृत्तमिति ॥ व्याप्तयाख्यसम्बन्धग्रहणकालेऽपि यद्यनुमानादेव सम्बन्धग्रहणं, तर्ह्यनवस्थेति दूषणं न युक्तम्, यतः प्रत्यक्षेण सम्बन्धग्रहणमेव न संभवतीति शङ्कते - नन्विति । तदापि सम्बन्धग्रहणकालेऽपि । ननु तज्जानीयत्वाल्लिङ्गान्न सुखसाधनत्वशक्त्यनुमानं, किन्तु सुखरूपकार्यादेव तत्कारणभूतशक्तेरनुमानं घूम इति शङ्कते - सुखादेवेति । अक्षमत्वात् - शक्तेरतीन्द्रियत्वेनेति शेषः ॥ साऽपि - अनतिरिक्ताऽपि । अस्य शक्तिरित्यत्रान्वयः । तदितरेति । अदृष्टादिकं कार्यसामान्यकारणम् । न तस्य प्रत्येकानुमानेन कारणत्वं ग्राह्यम्, ध-क. 3 सु-क. ' काल - क. 2 स्तत्फलं - ख. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • आह्निकम् २] सुखसाधनत्वनिश्चय: मानस: 183. सन्निधानात्मिकायाः शक्तेः प्रत्यक्षग्राह्यत्वसंभवात् उपपन्नं तजातीयत्व लिङ्गस्य संबन्धग्रहणम् ॥ [मानसप्रत्यक्षेण सुखसाधनस्वनिश्श्रयसंभवः] ननु ! कपित्थादिकार्यस्य सुखस्येदानीं न चक्षुह्यत्वमिति 'तत्सम्बन्धग्रहणाभावात् कथं चाक्षुषप्रत्ययगम्यः सम्बन्धः? न चाक्षुपगम्यः सम्बन्धः, किन्तु मानसप्रत्यक्ष गम्यः। सुखादि मनसा बुध्दा कपित्थादि च चक्षुषा । तस्य कारणता तत्र मनसवावगम्यते ॥ ६॥ मनसा सुखसाधनत्वग्रहणेऽतिप्रसङ्गपरिहार:] ननु.च! मनसा कपित्थादेः सुखसाधनत्वग्रहणाभ्युपगमे पाह्यविषयप्रमितिषु मन एव निरङ्का करणमिदानी संवृत्तमिति कृतं चक्षुरादिभिः । अतश्च न कश्चिदन्धो वा बधिरो या स्यात्नैष दोषः--प्रथमप्रवृत्तसमनस्कव होन्द्रिय जनितविज्ञानविषयीकृतवपुणे वाह्यस्य वस्तुनो मनोग्राह्यत्माभ्युपगमात्, तस्यैव नियामकस्वात् 'नोच्छ सलमन्तःकरणं वाह्यविषये प्रवर्तते ॥ धर्मिग्राहकानुमानग्राह्यस्वात्। अतः तद्यतिरिक्तसहकारिसन्निधानमेवात्र ग्राह्यम्। तस्य च प्रत्यक्षवं संभवत्येवेति ! सम्बन्धग्रहणमिति। प्रत्यक्षेगेति शेषः॥ .. ननु कपित्थं हि चाक्षुत्रं, सुख त्वचाक्षुषम् ' कथमुभयोः कार्यकारणभावरूपसम्बन्धः चक्षुर्गम्यः ? सम्बन्धिनोग्ग्रहगे च कथं सम्बन्धग्रहणमिति शक्ते - नन्विति। ननु मानसत्वं वा कथम् ? सुखस्य मानसस्वेऽपि कपित्थस्य मानसत्वाभावात्, इत्यत्राह--सुखादीति करित्थादेः-पित्यादिनिष्टस्य । कृतमित्यादि । सुखसाधनत्वं हि कपित्थधर्मः, अत एव बाह्य इति तम्य मनसा ग्रहणे, तद्वदेव सर्वमपि बाझं मनसा गृह्येत चेत् बाह्येन्द्रियाणि ग्यर्थान्येवोते। अतश्चेति। चक्षुरेन्द्रियविनाशेऽपि मनसा रूपमाणे को वाऽन्धः स्यादित्यर्थः । समनस्केति । मनस्सहकृतेत्यर्थः । अयं भावः-मनः सर्वथा न बाझे विषये स-ख. य-क. नाश-ख. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 प्रत्यक्षलक्षणम् [सर्वत्र सुखसाधनत्वं न मानसं भवितुमर्हति ] ननु च ! सम्बन्धग्रहणकाले यदि मानसेन प्रत्यक्षेण सुखसाधनत्वावधारणं, तर्हि तत्काल इव व्यवहारकालेऽपि मानसप्रत्यक्ष एव सुखसाधनत्वनिश्चयोऽस्तु, किं तज्जातीयत्व लिङ्गापेक्षणेनेति - मैत्रम् - शब्द लिङ्गेन्द्रियाद्युपरतौ केवलमन्तःकरणं करणं कल्प्यते, परिदृश्यमानायाः प्रतीतेरपह्नोतुमशक्यत्वात् । लिङ्गाद्युपायान्तरसंभवे तु यदि मन एव केवलं कारणमुच्यते तन्मानसमेवैकं प्रमाणं स्यात्, न चत्वारि प्रमाणानि भवेयुरित्यलं प्रसङ्गेन ॥ तस्मात् सम्बन्धग्रहणकाले यत्तत्कपित्थादिविषयमक्षजं ज्ञानं तत् उदेयादिज्ञानफलनिति भाष्यकृतश्चेतसि स्थितम् । सुखसाधनत्वज्ञान मेवोपादेयादिज्ञानमित्युक्तम् ॥ [ न्यायमञ्जरी [प्रमाण- फल योरभेदवादिमतम् ] आह- किमर्थमयमीदृशः क्लेश आश्रीयते ? प्रमाणादभिन्नमेव फलमस्तु ! तदेव चक्षुरादिजनितं कपित्थादिपदार्थदर्शनं विषयप्रकाशेन व्याप्रियमाणमिवाभातीति करणमुच्यताम्, तदेव विषयानु भवस्वभावत्वात् फलमिति कथ्यताम् । इत्थं च प्रमाणफले न भिन्नाधिकरणे भविष्यतः, अन्यत्र प्रमाणं, अन्यत्र फलमिति । तदुक्तम् (प्रमाणसमुच्चये—९)— 'सव्यापारप्रतीतित्वात् प्रमाणं फलमेव सत्' इति ॥ प्रवर्तत इति न वक्तुं शक्यम्, घटादिविषयक स्मरणादीनामनुपपत्तेः । अत: प्राथमिकग्रहणमेव केवलेन मनसा न संभवतीति वक्तव्यमिति प्रकृते न दोष इति ॥ व्यवहारकाले -- हानोपादानादिव्यवहारकाले । गत्यन्तरासंभव एवायं न्याय इत्याह- मैवमिति । इन्द्रियादीत्यादिना उपमानपरिग्रहः ॥ उपादेयादिज्ञानं : -- उपादेयत्व - हेयत्वप्रकारकज्ञानम् ॥ दिङ्नागोक्तमनुवदति – आहेति । ननु प्रमाणं च सिद्धरूपं फलं तु साध्यस्वरूपम् । तदुभयमेकं कथं भवेत् ? इत्यत्राह - तदेवेति । अस्य दर्शनमित्यनेनान्वयः । विषयमुखतः दर्शनं करणं, स्वरूपतस्तु फलं भवतीत्यर्थः । सव्यापारेति । 'प्रमाणत्वोपचारस्तु निर्व्यापारे न विद्यते ' Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् २] प्रमाणफलयोमैदः 185 तदिदमनुपपन्नम्-प्रमाणस्य स्वरूपहानिप्रसङ्गात् करणं हि प्रमाणमुच्यते-प्रमीयते चानेनेति। न च क्रियैव कचित् करणं भवति । क्रियायां साध्यायां कारकं किमपि करणमुच्यते। तत्र यथा 'दा'त्रेण चैत्रः शालिस्तम्लु नाति' इति कर्तृकर्मकरणानि कातो मिन्नान्युपलभ्यन्ते, तथेहापि 'चक्षुपा घटं पश्यति' इति दशन क्रयातः पृथग्भाव एव तेषां युक्तः, न दर्शनं करणमेवेति। प्रमा, प्रमाणमिति तु फले प्रमाणशब्दस्य साधुत्वाख्यानमात्र ; कृतिः, करण इतिवत् ॥ [प्रमाणफलयोः सामानाधिकरण्यं नाम किम् । यत्त-न भिन्नाधिकरणे प्रमाणफले इत्थं भविष्यतः इतिसेयमपूर्ववाचोयुक्तिः। किमत्राधिकरणं विवक्षित ? यदि तावइत्युत्तरार्ध ज्ञेयम् । अत्रैवं वृत्ति:--'व्यापारेण सह प्रतीतत्व दित्यर्थः । अत्र प्रमाणत्वोपचारनिमित्तं प्रमाणफलमेव भवतीति प्रमाणप्रतीति. फलम् । अत्र बाह्यानां यथा प्रमाणात् फलं अर्थान्तरं तथा न भवति' इति । ज्ञान विनाऽर्थस्य, अर्थ विना ज्ञानस्य चाननुभगत् अन्यतरपारिशंध्ये आवश्यके अन्तरङ्गेन ज्ञानेनैव सर्वनिर्वाहे, षियाभिमुखं तदेव प्रमाणं, स्वाभिमुख तु फलमिति हार्द आशयः॥ . - प्रमाणफलयो में सनिदर्शनमुपपादयति --तदिदमित्यादि। त्रि.यातःरूवनरूपक्रियातः। तेषां- कर्तृकर्मक णानाम् । ननु तर्हि करणार्थव्युत्पश्वस्य प्रमाणपदस्य प्रमापदस्य च पमानो निर्देश कमित्यत्राह- प्रमनि। साधुस्वाख्यानमात्रमिति । फलेऽपि प्रमाणशब्दः प्रयुक्तः साधुत्व। न तावता फलकरणयोरभेदसम्भवः । व्युत्पत्तिवैचित्र्येण एहस्य पदस्यार्थद्वयसाधारण्येऽपि मार्थद्वयैक्यं संभवति । यथा- 'स्त्रियां क्तिन् ' इति सूत्रेण भावार्थक्तिनन्तः कृतिशब्दः, 'त्युद च' इतिवि हेतभावार्थकल्युडन्तकरणशब्दन समानार्थकोऽपि करणार्थकल्युडन्तकरणशब्देन सानार्थो न हि भवति। तथा प्रकृतेऽपि भावार्थकल्युडन्तप्रमाणशब्दस्य भावार्थकाङन्तप्रमाशब्दस्य च समानत्वेऽपि करणार्थकल्युडन्तप्रमाणशब्दस्य न समानत्वमिति भावः । ___यत्त्वित्यादि उक्तिदूषणम्। अयं सङ्गहः फलं करणं च भिन्नविषयक म भवतीत्यर्थः ? उत भिन्नालयं न संभवतीत्यर्थः ? भाये इष्टापत्तिः । ___1-क. सम्भं-क. मि-क. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 प्रत्यक्षलक्षणम् [न्यायमञ्जरी द्विषयः? तदस्त्येवैकविषयत्वम्। यद्विषयं हि दर्शनम्, स एव चक्षुरादेः करणस्य विषयः। आश्रयोऽस्त्वधिकरणमिति बौद्धगृहे तावदवाचको ग्रन्थः। क्षणिकत्वेन सर्वकार्याणां निराधारत्वात् ॥ ___ अस्मत्पक्षे तु भिन्नाश्रययोरपि फलकरणभावः पाककाष्ठयो. दृष्टः। तथा चक्षुर्मानयोरपि भविष्यतीति । क्वचित्त भिन्न योरपि ज्ञानयोः फ'ल'करणत्वेन स्थितयोः लिङ्गलिङ्गिज्ञानयोरिव विशेषण विशष्यज्ञानयोरिव चैकात्म्याश्रयत्वमस्ति। न त्वनेन समानाश्रयस्वेन प्रयोजनम, चक्षुरादाव नर्वहणात् ॥ __ अथ एकफलनिष्पत्ती व्यापार'समानाश्रयत्वमुच्यते, तदपि भवतु कार कान्तराणां ; न तु फलस्वभावस्य ज्ञानस्य फलनिष्पत्ती व्यापारः संभवति ॥ यदपि सव्यापारप्रतीनित्वादित्युच्यते तदपि प्रमाणफलयोनितामेव सूचयति। न हि स्वरूपनिष्पत्तो' सव्यापारत्वमुपपयते ; अपि तु पृथग्भूतफलनि वृत्तावेवेति ॥ इन्द्रियस्य ज्ञानस्य च एकविषयत्वात् । न द्वितीयः, बौद्धमते उभयाश्रयस्य एकस्य वस्तुनः अनङ्गीकारात् इति ॥ ननु व्यधिकरणयोः प्रमाप्रमाणयोर्वा साध्यसाधनभावः यथमित्यत्राह--- अस्मत्पक्ष विति । एत मिन्नाश्रययो: साध्यसाधनभावमुक्ता भिन्नविषययो समानाश्रययोरपि तमाह-कनिदिति। एकात्म्येति । एकात्मवृत्तिस्वमिति यावत् । किन्तु एतादृशं समानाश्रयत्वं निरुपयोगीत्याह-- न त्वननेतिः। चक्षुरादापिति। मिन्नाधिकरणकयोः चक्षुर्दर्शनयोः साधनसाध्यभावदर्शनादित्यर्थः॥ व्यापारममानाश्रयत्वमिति। चक्षुर्दर्शनयोः भिन्नाधिकरणत्वेऽपि तयोर्व्यापारस्य विषये समानत्वात तस्कृतं सामानाधिकरण्यमस्त्येव। दर्शनस्य तु विषयत्वं सम्बन्धः, चक्षुषस्तु संयोगस्सम्बन्ध इति विशेषः ॥ भिन्नतामेवेति । - सव्यापारस्वनिर्व्यापारत्ववैलक्षण्यस्य भवतैवोक्त. स्वादित्यःशयः॥ 1ला-क. :-ख. निघतौ-ख. , -क. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाह्निकम् २] प्रमाणफलयोरमेदः अनुभवविरत: 187 [प्रमाणफलयोरभेदः अनुभवविरुद्धः] ननु ! वस्तुस्थित्या फलमेव 'ज्ञानं, फलमपितु भव । विषयानुभवं प्रति व्यापृतमिति। अयि 'मुग्ध वुद्धे ! विषयानुभव एव शान'. मुच्यते, न तु विषयानुभवः सिषयानुभवे सन्यापारो भवति ॥ अथ मनुषे ? विषयाधिगमाभिमानः त स्मन् सति भवतीति ? कोऽयमभिमानो नाम? विषयानुभवात् भिन्नः? अभिन्नो वा? अभेदे सति, तस्मिन् सति भवतीत्यसङ्गता वाचो युक्तिः। भेदे त्वस्मन्मतानुप्रवेशः ॥ • अपि च ज्ञान विषयाधिगमे व्यापृतमिति 'कृत्या विषयाधिगमाभिमानमुपजनयति ? उत विषयाधिगमस्वभावत्वा देव' ? इति विचारे विषयाधिगमात् पृथग्भूतस्य तत्र व्याप्रियमाणस्यानुपलभात् विषयाधिगमस्वभावमेव ज्ञानमवधायते। तत्कृतश्चानिमान इत फलमेव ज्ञानमवकल्पते न करणमिति। तथा च लोक फनत्यमेव शानस्यानुमन्यते, न करणत्वम्। तथा ह्या वद ते, चक्षुषा पश्यामि, लिङ्गन जानामी त; न तु मानेन जानामीति व्यप दशन कश्चिदश्यते ॥ विषयानुभव एति। न हि निर्विषयं किञ्चित् ज्ञानं क्वचिदृष्टमित्यर्थः ॥ . विषयाधिगम-पविषयत्वम् । तस्मिन् मति--सविषयतादशायाम् । सविषयत्वं खलु ज्ञानस्य ज्ञानस्ववत् कश्चन धर्मः। एवञ्च सविषयत्वाभावेऽपि ज्ञानत्वं कुतो निवर्तेत। नैल्याभावेऽपि घटे घटत्ववत् अतश्च सविषयत्वकृतं प्रमाणत्वं, ज्ञानत्वकृतं फलत्वमिति सिद्धं सामानाधिकरण्यमिति बौद्धाशयः । सिद्धान्ते तु सविषयं वस्तु करणं, तदमिमानः फलं इति चेत, सिद्ध करणफलत्वयोः वैयधिकरण्यमित्याशयः ॥ भपि च सविषयस्वं नैयादिवत् न निरूपितस्वरूपविशेषणधर्मः, किन्न कम्युग्रीवादिवत् स्वरूपनिरूपकधनः। अतस्तदभावे तत् ज्ञान मेव न स्यात् । भतः फलकरणयोरक्यं न संभवत्येवेति चाह-अपि चेत्यादिना॥ शान-ख. मूढ-क. वि-क. दिव-क. . . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 प्रत्यक्षलक्षणम् न्यायमरी ननु ! सस्वपि चक्षुरादिषु विषयज्ञान'मनु'पजनयत्सु न करण व्यपदिशति लोकः, जनयत्सु च व्यपदिशतीति लोके करणो. त्पादकत्वादेव तेषां कर णत्वव्यपदेशः, न साक्षात् करणत्वादिति - तदयुक्तम्-चक्षुराद्येव करणं, न तु तेनान्यत् करणमुपजन्यते। किं हि तदन्यत् करणम् ? ज्ञानमिति चेत्-कस्यां क्रियायां तत् करणनिति परीक्ष्यतामेतत् । न ह्यात्मन्येव किञ्चित्करणं करणं भवतीति॥ ___यतु ज्ञान मनुजनयति चक्षुगदौन करणतामाचष्टे लोकःनयुक्त मेव । न हि क्रियोत्पत्तावच्यारियमाणं करणं कारकं भवति । तेन चक्षुरादेनिक्रियामुपजनयतः करणत्वम, ज्ञानस्य तु फलवमेवेति युक्तस्तथा व्यपदेशः॥ प्रमाणम्य प्रमाणत्वं तस्मादभ्युपगच्छताम् । भिन्नं फलमुपेतव्यं एक त्वे' तदसंभवात् ॥ ७ ॥ ननु 'चक्षुषा पश्यामि' इति व्यवहार: घटाद्यनुभववेलायामेव । अतश्च चक्षुष करण घटादिदर्शनाधीनं जातमित्यौपाधिकमेव चक्षुरादः करणस्वमिति शङ्कने... नन्विति । यद्यपि ज्ञानजनकत्वकृतं चक्षुरादेः करणत्वं ज्ञानशेवत्वात् ज्ञानाधीनं, तथापि नेदमौपाधिकम् । साधनं हि स्वत: साध्य. शंषभूतम् । दण्डादीनामपि हि घटकरणत्वं घटाधीनमेव, न तावता दण्डादेः करणवोव औपाधि मिति वक्तु श इयाशयवान् समाधत्ते -तदयुकमिति न हाति। करणं किञ्चित् आत्मन्येव न हि करणं भवति इत्यन्वयः । अनुमितिदृष्टया करणभूतमपि लिङ्गज्ञानादिकं चक्षुरादिदृष्टया न करणं भवति, अपि तु चक्षुषः फलमेव धूमः शनम् । अत: स्वस्मिन् स्वं करणं न भवस्येवेत्यर्थः ॥ ननु तर्हि ज्ञानमजन पन: चक्षुरादेः काणत्वं न स्यात् । कार्यजनक हि करणमिति शङ्कामिष्टापत्या परिहरति-यत्त्वित्यादि । पाकक्रियां वर्वति रूति पाचक ऽयमिति व्यवहारः इतरकाले तथा व्यवहारस्तु उपलक्षणतशा, स्वरूपयोग्यतया वा नेय इति भवः ॥ 'मु-क. 'मुप-क., म-ख. स्य-ख. 'वं-क. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 आह्निकम् २] इन्द्रियार्थसत्रिकर्षात्पन्नपदप्रयोजनम् [प्रमाणप्रमेयप्रमितीनामभेदनिरास:] ___ यस्तु मूढतरः प्रमाणप्रमेयफलव्यवहारमेकत्रैव ज्ञानान्मनि निर्वाहयितु मुद्यच्छति (प्रमाणसमुच्चये ११) 'यदाभासं प्रमेयं तत् प्रमाणफरते पुनः । ग्राहकाकारसंबित्त्योः त्रयं, नातः पृथक कृतम ॥' इति - तमपवाहिके ज्ञानाद्वैतदलनप्रसङ्गन दुगवारं निर्भप्यिा मह इत्यलं विस्तरेण। तस्मात् सुष्ठक्तं - 'यदा ज्ञानं प्रमाण तदा हानादिवुद्धयः फलम्' इति ॥ [प्रत्यक्षलक्षणपरीक्षोपसंहारः] तदेवं 'फलविशेषणपक्षे यतः' शब्दाध्याहारेण वाचकं सूत्र-- यत इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नत्वादिविशेषणविशेषितं झानाख्यं फलं भवति, तत् प्रत्यक्षमिति ॥ . [ इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नम् ' इतिपदस्य प्रयोजनम् ] तत्र इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नपदं अर्थानपेक्षजन्मनः स्मृत्या द. ज्ञानस्य, अर्थजनितस्यापि च परोक्षविषयस्यानुमानादिज्ञानस्य व्यवच्छेदार्थम् । अतः तजनकस्य न प्रत्यक्षता प्रसज्यते । ननु इन्द्रियार्थसन्निकर्षीत्पन्नमिन्द्रियगत्यनुमानमप्यस्ति । तद्धि इन्द्रियार्थसन्निकण लिङ्गभूतेन जन्यते, देशान्तरप्रप्तयेव तपनगमनानुमान मिति कथमनेन पदेनानुमानमपाकि त- यस्तु मूढतरः-दिङ्नागादिः। यदाभासमि ते। अग्र वृत्ति:-'योगाचारास्तु बाह्यार्थमपलपन्तः ज्ञानस्यैवानादिवासनोपप्ल वित: नीलपीतादिविषयाकारः प्रमेयम् , स्वाकारः प्रमाणम् , स्वसंवित्तिः फल मिति मन्यन्ते । यथाऽऽहु:--' यदाभासं.......पृथक्कृतम्' इति ॥ तजनकस्य- स्मृत्यादिजनकस्य । प्रतक्षता-प्रत्यक्षप्रमाणता ॥ लिङ्गभृतेनेति । लिङ्गस्यानुमितिकरणस्यादित्यर्थः । मदीयं चक्षुः, गमनशालि, दूरस्थेन घटेन संयु करवात , इत्यनुमानाकारः। अत्र च नुमाने __वि-क. 'नानु-क. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकश्यम् [ न्यायमञ्जरी नैतदेवम् - इन्द्रियेण स्वविषयसन्निकृष्टेन सता तत्रैव यद्विज्ञानमुत्पद्यते तत् इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमिह ग्रूमहे । न चेहरामिन्द्रियगत्यनुमानम् ॥ कुतो विशेषप्रतिलम्भ इति चेत् उत्पन्नग्रहणादिति ब्रूमः । उत्पन्नग्रहणेन हि सन्निकर्षस्य कारकत्वं ख्याप्यते । तच्चापीन्द्रियforest ज्ञानमुलादयतो निर्वहति । इन्द्रियगत्यनुमाने तु न सनिक कारकमाहुः, अपि तु ज्ञापकम् । अत एव स्वग्रहणसापेक्षः तदनुमने व्यप्रियते, न रूपादिप्रमिता 'विव तम्निरपेक्ष इति ॥ [इन्द्रियार्थपदविवरणम् ] इन्द्रियाणि घ्राणरसननयनस्पर्शन श्रोत्राणि पृथिव्यादिभूतपञ्चकप्रकृतीनि वक्ष्यन्ते ( ८ अ ह्निके)। अर्थास्तु गन्धरूपरसस्पर्शशब्दाः " गन्धत्वादिस्वजात्यवच्छिन्नाः, तदधिकरणानि पृथिव्यतेजांसि द्रव्याणि, तदधिष्ठानाः सङ्ख्यादयो गुणाः, उत्क्षेपणादीनि कर्माणि तद्वृत्तीनि इन्द्रियार्थसन्निकर्ष एव हेतुरिति लिङ्गविधया इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यत्वं एतदनुमाने वर्तत इत्यर्थः । तत्रैवेति । यत्र इन्द्रियं संयुक्तं, तद्विषयकं ज्ञानं अन विवक्षितम् । उक्तानुमाने तु इन्द्रियार्थयोः सन्निकर्षेण इन्द्रियगतेरनुमानं न तु सन्निकर्षविषयस्येति । तथा च इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिष्ठकारणतानिरूपितं यत् स्वविषयविषयक निष्टं कार्यस्वं तद्वदित्यर्थः ॥ विशेषेति । कार्यताविशेष इत्यर्थः । इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिष्ठकारणतानिरूपित कार्यतादिति सामान्यतोऽर्थस्तत्पदाद्भवति । तत् कथं कार्यंतायां इन्द्रियविषयविषय कनिष्टत्वं लभ्यते ? इति शङ्क शयः । ख्याप्यत इति । उत्पत्तिशब्दस्य तादृशकार्य एव मुख्यत्वात् । ज्ञापकमिति । हेतुः द्विविधः कारकः, ज्ञापत्रश्च । आद्यः मुख्यः, दण्डात् घटः इत्यादौ । द्वितीयः गौणः, धूमात् वह्निमान् इत्यादौ । एवञ्च इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य मुख्यं हेतुत्वं कारकत्वरूपं स्वतः प्राप्तमिति । अत एव ज्ञापकत्वादेव । असौ - इंन्द्रियार्थसन्निकर्षः ॥ भूतपञ्चक प्रकृतीनि भूतपञ्चकसमवायिकारणकानि । अर्था - इन्द्रियविषयाः । पृथिव्यतेजांसीति । वायो: स्पर्शानुमेयत्वादेवमुक्तिः । तद्वृत्तीनि 1 1 विवेतरनि- ख. 2 ग्द- ख. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] सन्निकर्षनिरूपणम् 191 सामान्यानि, येषां सर्शनेन चक्षुषा ग्रहणं कणव्रतमते निरूपितं तेऽर्थाः। प्रागुक्तश्चाभावोऽप्यर्थ एव ; विचार्य गम्यमानत्वात ॥ [सत्रिकर्षभेदः] सन्निकर्षस्त्विन्द्रियाणामर्थैः सह पट्यकारः। तत्र द्रव्यं चक्षुषा त्वगिन्द्रियेण वा संयोगात् गृह्यत । तद्तो रूपानिर्गुणः संयुक्तसमवायात्। रूपत्वादिसामान्यानि संयुक्तसमवेतसमवायात् गृह्यन्ते। चक्षुण संयुक्तं द्रव्यं, तत्र समवेतं रूपं, रूपे च समवेतं रूपत्वमिति। समवायाच्छन्दो गृह्यत। श्रोत्रमाकाशद्रव्यम, तत्र समवेतः शब्दः । शब्दत्वं समवेतसमवायात गृह्यते; श्रोत्राकाशसमवेते शब्दे तद्धि समवेतमिति । संयुन विशेषणभावाभावग्रहणं व्याख्यातम् (पु. १५०)। इह घटो नास्त लिचक्षुषा संयुक्तो भूप्रदेशः, तद्विशेषणीभूनश्चाभाव इति ॥ _[सत्रिकर्षसत्वे प्रमाणम् ] ननु ! सन्निकर्षावगमे किं प्रमाणम् ? व्यवहितानुपलब्धिरिति ग्रमः । यदि ह्यसनिकृष्टमपि चक्षरादीन्द्रियं अर्थ गृह्णीयात् ; व्यवहितोऽपि ततोऽर्थ उपलभ्येत, न चोपलभ्यते ; तस्मादस्ति सन्निः पः॥ : भग्यवधानमात्रं न प्रत्यक्षप्रयोजकम् ] ननु! अव्यवधानमेवास्तु, किं सन्निकर्षण?--मैवम्द्रव्याणकर्मवृत्तीनि । स्पर्शनेन-वगिन्द्रियेण । विचार्य गम्यमानत्यादिति-घटोऽस्ति न वेति संशये निर्णयार्थ प्रवर्तमानः घटं तदभावं वा निश्चिनोति । अत्र यथा घटः पदार्थः, तथा घटाभावोऽपि पदार्थ एवेत्यर्थः ॥ आकाशद्रव्यं-आकाशरूपं द्रव्यम् । एवं 'श्रोत्राकाश' इत्यत्रापि ॥ ध्यवहितानुपलब्धिः-कुडयादिग्यवहितवस्स्वनुपलब्धिः। सन्निकर्षाभावे कुड्यग्यवहितस्याप्युपलब्धिप्रसंगः । व्यवहितः-कुड्यादिनेति शेषः ॥ मनु तर्हि अग्यवधानमेव प्रत्यक्षस्वप्रयोजकं करुप्यतां, किं सन्निकण ? न च कुड्यादिव्यवधानाभावेऽपि चक्षुर्निमीलनदशायां प्रत्यक्षापत्तिरिति शङ्कयम् ; पक्ष्मचर्मण एव तत्र व्यवधानत्वात् इति शङ्कते-नम्विति। चक्षुरुन्मीलनदशायां अनवधानात् प्रत्यक्षामावस्तु मतदमेऽपि समान इति भावः । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकृत्यम् न्यायमञ्जरी इन्द्रियाणां कारकत्वेन प्राप्य कारित्वात् । संसृष्टं च कारकं फलाय कल्पत इति कहानीयः संमः। पतञ्च इन्द्रियपरीक्षायां निपुणं निर्णेध्यते (८ श्राह्रिके) इ.न नेह विविच्यते । रसस्पर्शनयोश्च स्पएं प्राप्य. कारित मुपलभ्यते इनितम्मामान्यादिन्द्रियान्तरेष्वपि कल्पनीयमिति॥ ननु एवं मत्याक्षिप्तः कारकत्वादेव मन्निकर्ष इति स्वकण्ठेन कस्मादुच्यते? पड़धत्वज्ञापनार्थीमत क्तम् ॥ 'उत्पन्नग्रहणेन इन्द्रियार्थयोनि जनकत्वं दर्शयति । तत्रं , इन्द्रिय करणत्वेन जनवम्, अर्थस्तु' कर्मत्वेन ॥ ननु ! अस्य शानजनकत्वं कुतोऽवगम्यते ? तद्विष यशानोत्पादादेव । स्वतस्साकारत्वस्य निराकृतन्वात् (४१-४२ पु.)। प्रकारान्तरेण प्रतिकर्मव्यवस्थाया असिद्धेः ॥ ननु! 'प्रयोजनमेतत्, प्रमाण पृष्टोऽसि, तबहि-उच्यतेएतदेव प्रमाणम्-अन्यम्यापि वीरणादेः कर्मकारकस्य कटादि. कार्योत्तात्तो प्रत्यक्षानुपलंभप्रतिपन्नाभ्यांमन्वयव्यतिरेकाभ्यां यथा कारकत्वेनेति न हि क्रियावेशमन्तरा कारकत्वं निर्वहतीत्यर्थः। संसृष्टस्वविषयेगेति शेषः। __ननु मन्निकर्षमन्तरा इन्द्रियाणां कारकत्वमेव यदि न भवति, तर्हि 'इन्द्रियोत्पन्नम्' इत्येवालं, किमर्थ 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नम्' इति-इति शङ्कते-नन्वित। सन्निकर्षः अर्थाक्षिप्त इत्यन्वयः। अर्थाक्षिप्तःअर्थादव सिदः-अन्यथाऽनुपपत्त्या सिद्ध इति यावत् । स्वकण्ठेनस्ववाचकशब्दन। अत्र स्वशब्दः सन्निकर्षपरः। पधिवेत्यादि । प्रमेयानुरोधात खलु इन्द्रियषटककल्पनमिति भावः ॥ अथ उत्पन्नपदप्रयोजनमाह-उत्पन्नग्रहणेनेति। तदनन्तरत्वादिक विहायेति शेषः । एतेन अर्थानां काल्पनिकत्वं निरस्तमित्याशयः ॥ शङ्कते विति। कुतः- कथम्? तद्विषयेति। अर्थविषयकेत्यर्थः। प्रतिकर्मव्यवस्था प्रतिनियतविषयव्यवस्था । एतद्विस्तरस्त नवमाह्निके द्रष्टव्यः॥ प्रमाणं पृष्टोऽसीति। न तु प्रयोजन मिति शेषः।, वीरणंसृणविशेषः। प्रत्यक्षानुपलं मेति । दर्शनादर्शनेस्यर्थः। स्वानुभवैकवेधत्वे. अर्थस्तु-ख. यो-क. मप्र-क. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] 'सुखादे: मानस प्रत्यक्षविषयत्वम् 193 कारणत्वमवधार्यते, तथाऽर्थ 'स्यापि ज्ञानोत्पत्तौ । यथा हि देवदत्तार्थी कश्चित् गृहं गतः, तत्रासन्निहितं न पश्यति देवदत्तम्, क्षणान्तरे चैनमायान्तं पश्यति, तत्रान्वयव्यतिरेकाभ्यां देवदत्तसदसत्वानुवर्तिनी ज्ञानोत्पादानुत्पादाववधार्य मानसेन प्रत्यक्षेण चन्दन सुखदस्य' तत्कारणतां प्रतिपद्यते ॥ ननु ! वीरणकटयोः पृथगुपलंभात् युक्त एष न्यायः, 'अर्थस्तु ' ज्ञानात् पृथक् न कदाचिदुपलभ्यत इति 'दुरधिगमौ ' तत्रान्वयव्यतिरेकौ - उच्यते-अयमेव पृथगुपलंभः, यदसन्निहितेऽर्थे न द्विषयमबाधितं ज्ञानमुत्पद्यत इति । तदलमस्मिन्नवसरे ज्ञानवादगर्भचोद्योद्विभावविषया; भविष्यत्येतदवसरे (९ आह्निके) इति ॥ [' उत्पन्न' पदप्रयोजनम् ] यथा चेन्द्रियाणां करणानां अन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञानकारणत्वं, एवमर्थस्य कर्मणोऽपीत्युत्पन्नग्रहणेन दर्शितम् ॥ [सुखादयोऽपि मानसप्रत्यक्षविषयाः ] ननु ! इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नपदेन सुखादिविषयं प्रत्यक्ष न सङ्गृहीतम् - न न सङ्गृहीतम् - - मनस इन्द्रियत्वात् सुखादेरर्थस्य , चन्दन सुखदृष्टान्तः । अस्य विषयस्य । यथा चन्दनसुखं मानसप्रत्यक्षवेद्यं, तथा विषयस्य प्रत्यक्ष कारणत्वं स्वानुभवसिद्ध मित्यर्थः ॥ 'सहोपलं भनियमात् अभेदो नीलतद्वियो:' इति वदन् पृच्छति - नन्विति । वीरणं - तृणविशेषः । यदि ज्ञानार्थयोर्भेदः, तर्हि कुत्रचित् ज्ञानं जातं अर्थ व्यभिचरेदिति भावेन - अबाधितमिति । यथा चेत्यादि । अर्थस्य ज्ञानजनकत्वं कथमवगम्यते ? इति पृच्छता हि, इन्द्रियाणां ज्ञानजनकत्वं संभवति इत्यङ्गीकृतम् । तत्र यत् प्रमाणं तदेवात्रापीति भावः ॥ न सङ्गृहीतमिति । सूत्रे ' घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्छ्रोग्राणि भूतेभ्यः' इति कथनात् एभिरिन्द्रियैः सुखादेरग्रहणात् 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यस्वं ' सुख5 करणे - ख. ' स्य क. त्-क. 3 अर्थ:- ख. + दुर्गमौ - ख. NYAYAMANJARI B Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकृत्यम् न्यायमञ्जरी तद्भाह्यत्वात् । भौतिकघ्राणादीन्द्रियधर्मवैलक्षण्यान्तु मनसस्तद्वर्गे परिगणनं न कृतमिति ॥ [सनिकर्षाणामुपयोगप्रकारः ] तश्चेदं प्रत्यक्षं चतुष्टय-त्रय-द्वयसन्निकर्षात् प्रवर्तत । तत्र बा रूरादौ विषये चतुष्टयसन्निकर्षात् ज्ञानमुत्पद्यत - आत्मा मनसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेनेति । सुखादौ तु सन्निकर्षात् ज्ञानमुत्पद्यते, तत्र चक्षुरादिव्यापाराभावात् । आत्मनि तु.. योगिनः द्वयोरात्ममनसोरेव संयोगात् ज्ञानमुपजायते; तृतीयस्य ग्राह्यस्य 'ग्राहकस्य वा नत्राभावात् । तस्मात् सुखादिज्ञानसङ्गहात् इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमिति युक्तमुक्तम् । आत्ममनसोस्तु सदपि ज्ञानजनकत्वमिह न सूक्तिम्, सर्वप्रमाणसाधारणत्वात् ॥ [' ज्ञान 'पदप्रयोजनम् ] ज्ञानग्रहणं विशेष्य निर्देशार्थम् । तस्य हि इन्द्रियार्थसन्नि कर्षोत्पन्नत्वादीनि विशेषणानि । तान्यसति विशेष्ये कस्य विशेषणानि स्युगित ॥ अथवा सुखादिव्यावृत्त्यर्थ ज्ञानपदम् । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं सुखमपि भवति । तत्र तज्जनकं कारकचक्रं प्रमाणं मा भूत, ज्ञानजनकमेव प्रमाणं यथा स्यादिति ज्ञानग्रहणम् ॥ प्रत्यक्षे नास्तीत्यव्याप्तिरित्यर्थः । ननु यदि मनः इन्द्रियं तर्हि इन्द्रियसूत्रे कुतः न पठितमित्यत्राह --- भौतिकेति । वैलक्षण्योपपादकतया भौतिकेपदम् ॥ आत्मेति । आत्ममनइन्द्रियार्थानां चतुर्णामत्र सन्निकर्षः । त्रयेति । प्रत्ये आत्मा, मनः, सुखादिरिति त्रयं बोध्यम् । योगिन इति । सर्वेषामपि स्वात्मा विषयीभवत्येव, अथापि यथाऽवस्थितात्मसाक्षात्कारः योगिनामेव । अन्यथा सर्वेषामपि तस्वज्ञानित्वप्रसङ्गः ॥ ► अव्याप्त्यतिव्याप्त्यसंभवान्यतमत्रारणायैव पदप्रयोगः लक्षणवाक्ये युक्त इत्याशयेनाह – अथवेति । सुखमपि भवतीति । अन्ततः तस्यापि मनस्सन्निकर्ष जन्यत्वादित्यर्थः ॥ बा-क. 2- ख. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २० ज्ञानपदप्रयोजनम 195 [सुखादीनां ज्ञानरूपत्वाक्षेपः अत्र शाक्याश्चोदयन्ति-न ज्ञानपदेन सुखादिव्यवच्छेदः कर्तु युक्तः, शक्यो वा ; सुखादीनामपि ज्ञानस्वभावत्वात् । ज्ञानस्यैवामी भेदाः, सुख दुःखं इच्छा द्वेषः प्रयत्न इति। कारणाधीनो हि भावानां मेदो भचि तुमर्हति। समानकारणानामपि तु भेदेऽभिधीयमाने 'न कारणकृतं पदार्थानां नियतं रूपमिति तदाकस्मिकत्वप्रसङ्गः। तदुक्तम् (प्रमाणवार्तिक-3-251) 'तदतपिणो भावाः तदतद्रूपहेतुजाः। तत्सुखादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम्' इति । तस्मात् , ज्ञान रूपा:-सुखादयः -तदभिन्नहेतुजत्वात्--इति ॥ . . सुखादीनां ज्ञानरूपत्वनिराकरणम्] तदिदमनुपपन्नम्-प्रत्यक्षविरुद्धत्वाद्धेतोः। सुखादि संवेद्यमानमानन्दादिरूपतयाऽनुभूयते, ज्ञानं विषयानुभवस्वभावतयेति प्रत्यक्षसिद्धभेदत्वात् कथममेदे अनुमानं क्रमते ? सुखादिकं ज्ञानस्यैवाकारविशेष इति वादिनो बौद्धस्य मतमुपक्षिपतिअत्रेति । ज्ञानस्यैवामी मेदा इति । तथा च प्रमाणवार्तिक-- 'सुखदुःखामिलाषादिभेदा बुद्धय एव ताः' (3-449) इति । अत्र युक्तिमाह- कारणाधीन इति। नियतं रूपं-तत्तद्वस्तुप्रतिनियत: भाकारः । तदाकस्मिकत्वप्रसङ्गःकार्यवैलक्षण्यस्य निर्हेतुकत्वापत्तिः। तदतदिति । यथासंख्यमन्वयः । तद्रूपहेतुजाः तपिणो भावाः, अतद्रूपहेतुजाः अतपिणो भावाश्च भवन्ति । मृत्पिण्ड जातीयादुत्पन्नं मृजातीय, तद्विजातीयाचोत्पन्न कार्य तद्विजातीयमेव भवति। एवञ्च यादृशेन कारणेन आत्ममनस्संयोगादिना ज्ञानमुत्पद्यते, तादृशेनैव कारणेनोत्पद्यमानं सुखादि अज्ञानं--ज्ञानविलक्षणं भवति किम् ? तदभिन्नहेतुजत्वात्-ज्ञानेन सार्क अभिन्नहेतुजत्वात ; ज्ञानहेतुजातीयहेतुजन्यत्वादिति यावत् ॥ कार्ययोः वैलक्षण्यस्यानुभवसिद्धत्वात् तदमिनहेतुजत्वं नास्तीत्युपपादयति-सुखादीति । ज्ञानं हि बाह्य विषयमपि कोडीकरोति, न तथा सुखम् ॥ का-क. रूपा:-क. वे-क. 139 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 प्रत्यक्षलक्षगघटकदलकृत्यम् न्यायमचरी अत एवेदमपि न वचनीयम्-एकमेवेदं संविद्रपं हर्षविषादाधनेकाकारविवर्त पश्यामः, तत्र यथेष्टं संक्षाः क्रियन्तामितिसंघिदो विषयानुभवस्वभावतयैव प्रतिभासात्, सुखादेश्च विषयानुभ'वस्वभावस्यानुस्यूतस्या प्रतिभासात्। शानमेव विषयग्रहणरूपं प्रकाशते; न मुखं, दुःखं वा ॥ यस्तु सुखक्षानं दुःखशानमिति प्रतिभासः, सः ज्ञानस्वभाव. मेदकृत एव, संशयज्ञानं विपर्ययज्ञाममितिवन --उक्तमत्रसंशयविपर्ययादी विषयानुभवस्वभावत्वमनुस्यूतमवभाति। संशयो हि विषयग्रहणात्मकोऽनुभूयते, अनिश्चितं तु विषयं गृह्णाति। विपर्ययोऽपि विषयग्रहणात्मक एव, विपरीतम सन्तं वा विषयं गृहाति। न तु विषयग्रहणस्वभावं सुखं दुःखं चानुभूयते । अतः अन्य एवायं ग्राहकस्वभावः आन्तरो धर्मः सुखदुःखादिरिति घटज्ञानव. द्विषयतयैव ज्ञानं मिनत्ति, न स्वभावभेदेन संशयशानवदिति ॥ ज्ञानसुखादयः न स्वप्रकाशा:] तत्रैतत् स्यात्-स्वप्रकाशत्वात् सुखादेः न ग्राह|कस्वभावत्वम् । अतश्च ग्राह्यग्रहणोभयधभावत्वात् मानमेव तदिति--मैवं वोचः-स्वप्रकाशन्वं शानेऽपि प्रतिक्षिप्तम् (पु. 11), 'प्रतिक्षेप्स्यते (९ भाहिके) च। तत कुतः सुखादी भविष्यति। न हि ग्रहणस्वभावं कश्चित् सुखमनुभवति ज्ञानवदिति॥ अत एव-ज्ञानसुखयोः सर्वथा विलक्षणत्वादेव । ननु न ज्ञानमेव सुखं, किन्तु ज्ञानस्याकारभेदः; अत: प्रतिभासभेदो युक्त इत्यत्राह-सुखादेरिति । यथा हि मृदाकारविशेवे घटे ‘मृदयम्' इति प्रतिभासः, तथा ज्ञानस्य आकारभूतं यदि सुखं, तहिं विषयानुभवस्वभावं प्रतीयेतेत्यर्थः । अनुस्यूताकारप्रतिभासं शङ्कने - यस्त्विति । समाधत्ते उक्तमिति । ग्राहीकस्वभावः-विषयमात्ररूपः : अवधारणेन ज्ञानवत् विषयित्वं व्यवच्छिद्यते। घटज्ञानवदिति। सुखज्ञानमिति हि घटज्ञानमितिव्यवहारतुल्यमित्यर्थः ।। स्वप्रकाशवस्यैव निर्वचनं ..ग्राह्यग्रहणोभयस्वभावत्वादिति । विषयाणां घटादीनां ज्ञानेनैव भानम् । ज्ञानस्य तु स्वत एव । अतः ज्ञानं बानुस्यूतस्या-ख. 'सा-क, वाद-क. 'शे-क. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् २] ज्ञानमुखादीनां स्वप्रकाशस्वाभावः 197 [सुखादयः ज्ञानेनैव गृणन्ते ननु ! 'अस्य' प्रकाशत्वानभ्युपगमे सुखादेरुत्पादानुत्पादयौरविशेषात् सर्वदा मुखित्वं, न कदाचिद्वा स्यात--इति नैतदेवम् --उत्पन्नमेव सपदि सुखं गृह्यते ज्ञानेनेति कथमनुः त्पन्नान्न विशिष्यते । प्रत्युत स्वप्रकाशसुखवादिनामेष दोषः, स्वप्रकाशसुखोत्पादात तेनैव स्वप्रकाशेन 'सुखेनान्योऽपि 'सुखी स्यात्, स्वप्रकाशस्य दीपादेः सवान् प्रत्यविशिष्टत्वात् । क्वचित् सन्ताने स्वप्रकाशसुखोत्पादात् तेनैव स्वप्रकाशेन अन्योऽपि सुखी स्यात्', यस्यापि सुखं नोत्पन्न मिति ॥ किञ्च किमेकं एवं ज्ञानं सर्वसुखदुःखाद्यशेषाकारभूषितमिष्यते ? उत किञ्चित्सुखात्मकं, किश्चिदुखात्मकमिति ? ___ आधे पक्षे, सर्वाकारखचितज्ञानोपजननादेकस्मिन्नेव क्षणे परस्परविरुद्धसुखदुःखादिधर्मप्रबन्ध संवेदनप्रसन्नः ॥ ... उत्तरस्मिस्तु, किञ्चित्सुखज्ञानं, किञ्चिदःखचान मिति यत्किश्चिदसुखदुःखखचितं विषयानुभवस्वभावमपि शानमनुभूयमानमेषितव्य. विषयमिव आत्मानमपि विषयीकरोति । इदमेव स्वप्रकाशत्वम् । उत्पलं हि सुखं स्वयं गृह्यत एव । ___अविशेषादिति । उत्पन्नस्य हि सुखादेः स्वतो भान न संभवति, भस्वप्रकाशत्वात् । ज्ञानेन ग्रहणाङ्गीकारे तस्यापि ज्ञानस्य-अस्वप्रकाशत्वेन ज्ञानान्त. रगवेषणात् अनवस्था। मतः उत्पादानुत्गस्योरविशेष एयेति। सुस्वित्वमिति । 'स्यात्' इत्याकर्षः। कदाचिद्वा इत्यनगरं 'सुखित्वं' इत्यनुषङ्गः। तथा च संदैकरूपत्वमेवात्मन: स्यादित्यर्थः ॥ ... ननु द्वित्वादिवद्भवतु, का हानिः ? इत्यत्राह-किञ्चेति ॥ आद्य इत्यादि। आद्यपक्षे एकव ज्ञानं ; द्वितीये तु नानाज्ञामम् । किञ्चित ज्ञानं सुखात्मकं, अन्यश्च किंचित् ज्ञानं दुःखात्मकमित्यर्थः ॥ ___ असुख दुःखखचित-सुखदुःखाखचितं-उदासीनस्वभावम् । एषित. व्यमेवेति । सर्वमपि सुखदुःखान्यतरोपरकमेव भवतीति न हि प्रतिज्ञा स्व-क. अ-क. स्वात-क. 'वे-ख. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षणषटकदलकृत्यम् 198 न्यायमञ्जरी मेव। तश्च न स्वच्छमः अपि तु केनचिद्घटादिना विषयेणोपरक्तं, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां च घटाधुपजननापायेऽपि बोधस्वभावमनुवर्तमानं प्रतीयते। तदिदानीं सुवज्ञानमप्यनुभूयमानं सुखेन विषयभावजुषा घटादिनेवोपरज्यते इति गम्यते, न स्वरूपेणैव सुखात्मकम् । ततो भिन्नरूपस्य बोधमात्रस्वभावस्य ज्ञानस्यान्यदा दृष्टत्वादिति । तस्मात् न बोधरूपाः सुखादयः॥ ज्ञानसुखयो: सजातीयकारणजन्यत्वं नास्त्येव अभिन्नहेतुजत्वादिति चायमसिद्धो हेतुः; समवायिकारणस्यात्मनः, असमवायिकरणस्य चात्ममनस्संयोगस्य चाभेदेऽपि निमित्त कारणस्य सुखत्वज्ञानत्वादेर्भिन्नत्वात् ॥ ननु 'सुखोत्पादात्पूर्वमनाश्रयं सुखत्व सामान्यं कथं तत्र स्यात् ? कश्चा'स्य' सुखहतुभिः कारकैः संसर्गः? असंसृष्ट 'वा' कथं कारकं स्यात् ?--उच्यते--सर्वगतानि सामान्यागि साधयिष्यन्त (५ आह्नि के) इति सन्ति तत्रापि सुखत्वादीनि। योग्यतालक्षण एव चैषां सुखहेतुभिः कारकैः संसर्गः, धर्माधर्मवत्। धर्माधर्मो हि सर्वस्य प्राणिनां सुखदुःखहेतोः जायमानस्य शाल्यादेः कार्यस्य कारणम् । शक्यमिति भावः। स्वच्छं--विषयानुपरक्तम। विषयानुपरक्तस्य ज्ञानत्वासंभवादिति हेतुरुह्यः। अपि स्वित्यादि । एतदुक्तं भवति । ज्ञानं हि घटादिना विषयेणोपरक्तं घटज्ञानं, परज्ञानं इत्यादिना व्यवहियते। घटज्ञाने पटस्य पटज्ञाने घटस्य चाविषयीकरणेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां हि घटस्य ज्ञानस्य च भेदः सिद्धयत्येव । एवमेव हि सुखाद्युपरक्तं ज्ञानं सुखज्ञानमित्यनुभूयते। तत्रापि घट-ज्ञानयोरिव सुख-ज्ञानयोर्भेद आवश्यक एव, सुखदु:खानुपरक्तस्य ज्ञानस्यानुभवादिति। अन्यदा-सुखदुःखानुपरागकाले ॥ सुखत्वज्ञानत्वादेरिति । अयभाशयः-दण्डचक्रसलिलकुलालमृदादिभिस्सजातीयैरेव कारणैरुपजायमानोऽपि एको घटो भवति, अपरः मणिकः, अन्यः शरावः। तत्र हि स्वरूपभेदापादक: जातिभेद एव कार्यभेदनियामकः । तद्वदत्रापि। न च तत्र मृदयमित्येकाकारानुवृत्तिः दृश्यत एवेति वाच्यम् । दन्यसमवायिकारणके गुणे तादृशदन्यत्वानुवृत्तेरदर्शनात् इति ॥ सुखत्वसामान्य-सुखत्वरूपा जाति: । तत्र-सुखरूपकार्योत्पत्तिस्थले एषां-सुखस्वादिजातीनाम् । सुखदुःखहेतोः शाल्यादेर्जायमानस्यत्यन्वयः । 1 असु-क. ख-क. पि-ख. 'च-ख. हेतौ-क. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् २] ज्ञानमुखयोः भिन्न कारणजन्यत्वम् 199 तयोश्च तत्कारणैः बीजक्षितिजलादिभिस्सह योग्यतैव संसर्गः । एवं मुखत्वादीनामपि स्यात् । तस्मात् निमित्तकारणमेदात् भिन्नानि जानसुखादीनि कार्याणि ॥ निमित्तकारणान्यत्वमपि कार्यस्य मेदकम् । विलक्षणा हि दृश्यन्ते घटादी पाकजा गुणाः ॥ ८॥ अपि च ज्ञानमिच्छन्ति न सर्वे ज्ञानपूर्वकम् । सुखदुःखादि सर्व तु विषयज्ञानपूर्वकम ॥९॥ . विषयानुभवोत्पाद्याः यत्रापि न सुखादयः। तत्रापि तेषामुत्पत्ती कारणं विषयस्मृतिः ॥१०॥ ___क्वचित्त सङ्कल्पोऽपि सुखस्य कारणतां प्रतिपद्यते। तस्मात् 'सर्व सुखादि ज्ञानपूर्वकमेव ॥ तादृशशाल्याद्युत्पत्त्यर्थमिति भावः। यद्वा सुखदुःखहेतोरिति पञ्चम्यन्तम् । तयोः-धर्माधर्मयोः ॥ घटादाविति । पाकजगुणान् प्रति घटो हि समवायिकारणम् । अपि चेत्यादि। ज्ञानं हि स्वोत्पत्तौ पूर्व घटादिविषयमपेक्षते, न ज्ञानान्तरम् । सुखमपि यदि ज्ञानरूपं तर्हि स्वोत्पत्तौ विषयमपेक्षेत । लोके तु सुख पूर्व अनुकूलत्वज्ञानमेवापेक्षते। एवञ्च सुखं, न ज्ञानरूपं, ज्ञानजन्यत्वादिति । ननु विषयज्ञाने जातेऽपि कुत्रचित् सुखानुत्पत्त्या न तयोः कार्यकारणभाव इति चेत्--- सुखादीनां झुत्पत्तौ न विषयज्ञानमात्रं हेतुः, किन्त्वनुकूलत्वस्मरणमपि । एतदभावाच न. विषयज्ञानमात्रात् सुखाद्युत्पनिरिति । यद्यपि सिद्धान्ते ज्ञानात ज्ञानान्तरोत्पत्तिरिष्यते। अथापि न सर्व ज्ञानं ज्ञानसापेक्षं, अनुष्यवसाय एक एव ज्ञानापेक्षः। सुखं तु सर्व ज्ञानापेक्षमेवेत्यस्ति ज्ञानसुखयोर्विशेषः । नन्वेवमपि ज्ञानानां द्विक्षणावस्थायित्वनियन सर्वत्रापि पूर्वज्ञानापेक्षा उत्तरज्ञानस्य वर्तत एवेति चेत् -- इदमपि धागवाहिज्ञानस्थल एव। न हि तत्रापि बौद्धमत इव ज्ञानात् ज्ञानान्तरोत्पत्तिः ; किन्नु स्वकारणादेव । एवञ्च ज्ञानस्य न नियमेन ज्ञानान्तरापेक्षा, सुखस्य त्वस्त्येवेति ज्ञानसुखयो।लक्षण्यं दुरपह्नवमिति । अनुपदमेव च स्पष्टीकृतं इदं ग्रन्थकारेण ॥ __ सङ्कल्पः-मनोवृत्तिः, अमिमान इति यावत् । सानपूर्वकमेव, न तु विषयपूर्वकमिति एवकारार्थः ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकृत्यम् [ न्यायमञ्जरी ज्ञानमपि ज्ञानपूर्वकमेवेति चेत् न - उपरिष्टान्निराकरिष्यमाणत्वात् । न हि गर्भादौ मदमूर्छाद्यनन्तरं वा ज्ञानमुपजायमानं ज्ञानान्तरपूर्वकं भवतीति वक्ष्यामः (७ आह्निके) । तेन 'ज्ञानसुखाatri वैलक्षण्योपपादनात् 'सुखादिनिवृत्त्यर्थ ज्ञानग्रहणमर्थवत् ॥ 200 [अव्यमिचारिपदेन न ज्ञानपदवैय्यर्थ्यम् ] ननु ! एवमपि न ज्ञानग्रहणेन कृत्यम्, अव्यभिचारिपदादेव सुखादि' व्यवच्छेदस्य सिद्धत्वात् । व्यभिचाराव्यभिचारौ हि ज्ञानस्य धर्मो न सुखादेः । अतस्तदुपादानात् तद्धर्मयोगि ज्ञानं लभ्यत एव । किं ज्ञानग्रहणेन ? नैतदेवम्-सुखस्यापि सव्यभिचारस्य दृष्टत्वात् । किं पुनस्सुखं व्यभिचारवत् दृष्टम् ? यदेतत् परदाराभिमर्शादिनिषिद्धाचरणसंभवं सुखं तद्यभिचारि ॥ [ ज्ञानवत् सुखमपि व्यभिचरितं अस्त्येव ] ननु ! सुखस्य कीदृशो व्यभिचारः ? ज्ञानस्यापि कीदृशो व्यभिचारः १ अतस्मिंस्तथाभावः -- सुखस्यापि अतस्मिंस्तथाभाव एव ॥ किं परपुरन्ध्रीपरिरंभ संभवं सुखं सुखं न भवति ? किं शुक्तिकायां रजतज्ञानं ज्ञानं न भवति ? ज्ञानं भवति, किन्तु मिथ्या - इदमपि सुखं भवति, किन्तु मिथ्या ॥ ज्ञानमपीति । बौद्धमते उत्तरज्ञानं प्रति पूर्वक्षणिक विज्ञानस्य कारणत्वात्, सिद्धान्तेऽपि कुत्रचित्तथाऽङ्गीकारादिति भावः ॥ तद्धर्मयोगि- व्यभिचाराग्यभिचारधर्मयोगि । किं- कीदृशम् ॥ लो ह्यनुभूयमानं सुखं कदाप्यसुखं न भवतीति कथं सुखस्य व्यभिचार इति शंकां ज्ञानप्रतिबन्दिदानेन निराकरोति - नन्वित्यादिना । अत्र पूर्ववाक्यं आक्षेप :- उत्तरवाक्यं समाधानम् । एवमुत्तरत्रापि ॥ ' सर्व सुखादि ज्ञानपूर्वकमेवेति चेव - क. ( पूर्व पुटाव) 3 सुखादि - ख. "सुखादीनां - ख. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखस्यापि व्यभिचारित्वापपादनम् आह्निकम् । 201 ननु ! न सुखं मिथ्या, तदपि ह्यानन्दस्वभावमेव-ययेवं शुक्तिकायां रजतज्ञानमपि न मिथ्या, तदपि हि विषयानुभवस्वभावमेव ॥ ननु! विषयानुभवस्वभावमपि तज्ज्ञानं विषयं व्यभिचतिसुखमपि तहींदमानन्दस्वभावमपि स्वहेतुं विषयं व्यभिचरत्येव ॥ किमसुखसाधनेन तजनितम् ? ज्ञानमपि किं अज्ञानसाधनेन जनितम् ? ननु ! ज्ञान ज्ञानसाधनेन जनितं असत्येन प्रत्य बाधितेन रजतादिना-सुखमाप सुखसाधनेन जनितं असत्येन तु शास्त्र. बाधितेन परवनितादिना ॥ किं परवनितादि न सत्यम् ? तत्रापि ज्ञानजनकं 'न सत्यम् ? असत्यं, प्रत्यक्षबाधितत्वात् ; परवनिताद्यपि सुखसाधनमसत्यं, शास्त्रवाधितत्वात् ।। ननु! शास्त्रेण किमत्र बाध्यते ? ज्ञानेऽपि प्रत्यक्षेण किं बाध्यते ? विषयो मिथ्येति ख्याप्यते; शास्त्रेणापि सुखस्य हेतुर्मिथ्येति ख्याप्यते॥ किं स विषयस्मुखहेतुर्न भवति ? यथा त्वेष विषयः कलुषस्य ज्ञानस्य हेतुः, तथा सोऽपि कलुषस्य कटुवपाकस्य सुखस्य हेतुरिति तथाविधं सुखमपि व्यभिचारि भवत्येवेत्यलमतिकेलिना ॥ . तस्मात् समानन्यायत्वात् सुख व्यभिचारताऽस्तीति अव्यभिचारिपदात् ज्ञानं न लभ्यते ॥ __ तदपि--परदारोपभोगजसुखमपि ज्ञानसाधनेने त्यस्य विशेषणं असत्येनेत्यादि । एवं सुखसाधनेनेत्यत्रापि ॥ ज्ञानजनकं-शुक्तिकादि । निरधिष्ठानस्तु भ्रमः नास्त्येव ॥ अलमिति । अयमत्र सार:। अन्यथाख्यातिरेव सिद्धान्ते, न त्वसत्ख्यातिः । एवज शुक्तौ इदं रजतमित्यादौ रजतं न सर्वथा मिथ्या, आपणे सत्वात् । किन्तु तादात्विकप्रत्यक्षजनकत्व विशिष्टवेषेणैव मिथ्यात्वम् । एवञ्च परदारादेरपि बलवदनिष्टाननुबन्धित्वविशिष्टसुखपाधनस्वविशिष्टयेषेणापि तथात्वमेवेति ॥ सत्यम्-ख. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 प्रत्यक्षलक्षणयटकदल कृत्यम् न्यायमरी 'व्यवसायात्मक इति पदेन सुखादिव्यावृत्तिशङ्का] अपर आह-किमनेन डिम्भकलहेन' मा भूदव्यभिचारिपदात् । स्य लाभः! तथाऽपि व्यवसायात्मकपदात् लभ्यत एव ज्ञानम् । न हि सुखदुःखादयो व्यवसायात्मकाः भवन्ति', किन्तु ज्ञानमेव तथाविधमिति ॥ __ संशयव्यवच्छेदार्थ तत्पदमिति चेत्-सत्यम्-सुखादिव्यवच्छेदमपि कर्तुमलमेव भवति, व्यवसायात्मकत्वस्य सुखादिष्व संभवादिति ॥ [ज्ञानपदप्रयोजननिगमनम्] तदेवं सिद्धऽपि सुखादिव्यवच्छेदे कर्तव्यमेव ज्ञानग्रहणम्, विशेष्य निर्देशार्थत्वात् तस्य हि सर्वाण्यमूनि विशेषणान्युपास्तानि तदनुपादाने निरालम्बनानि भवेयुः । श्रोतुश्च बुद्धिर्न समाधीये तेति । तेन बलाद्गम्यमानमेव कर्तव्यामेव ज्ञानग्रहणम्। अर्थाक्षिप्तस्यावचने . प्रत्यक्ष प्रत्यक्षमित्येतावन्मात्रमभिधेयं स्यात; अन्यदथोल्लभ्यत एव । तस्मात धर्मि निर्देशार्थ युक्तं ज्ञानपदम् ॥ . भग्यपदेश्यपदप्रयोजनम् । शब्दानामर्थसंस्पर्शि शाक्यमतनिरालेन साधयिगत (३ भाहिके) इति शब्दानुप्रवेशवशेन व्यपदेश्य ,नाम ज्ञानमुपपद्यत हते तयवच्छेदार्थ मध्यादेश्य पदम् ॥ . तथाविधं-व्यवसायात्मकम् । तत्पदं-न्यवमायात्मकपदम्। २३० पुटे एतदुपपाद्यते। ततश्च प्रयोजनान्तराय तदुपातं, न तु सुखव्यावृत्तये इति भाव: । अस्तु तत् तेनैवेदमपि निरस्तं भवत्वित्याह -- सत्यमिति। कमल भिति-तत्पदमित्याकर्षः । उपात्तानि सर्वाण्यमूनि विशेषणानीत्यन्वयः । बलादेव गम्यमानमित्यन्वयः। न तु स्वरसतो झटिति प्रतीयत इति भावः । एवकार: अप्यर्थको वा। यथाकथञ्चिदर्थात्प्राप्तिमात्रेण वैयपिादने अनिष्टप्रसङ्गमाह - अर्थाक्षिप्तस्येति । अवचने आपाद्यमाने इति षः ॥ 1 तुच्छ संभवन्ति -क. मध्यपदेश--ख. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यपदेश्यपदप्रयोजनम् [ भाष्योक्तं अव्यपदेश्यपदप्रयोजनम् ] तत्र वृद्धनैयायिकास्तावदाचक्षते - व्यपदिश्यत इति व्यपदेश्यं शब्दकर्मतापनं ज्ञानमुच्यते । यत् इन्द्रियार्थसन्निकर्षादुत्पन्न सत् विषयनामधेयेन व्यपदिश्यते रूपज्ञानं रसज्ञानमिति, तत् व्यपदेश्यं ज्ञानं प्रत्यक्षफलं प्रत्यक्षं मा भूदिति अव्यपदेश्य ग्रहणम्तदिदमनुपपन्नम् न हि नामधेयव्यपदेश्यत्वमप्रामाण्य कारणं भवति । यदि हि तत् रूपज्ञानं रसज्ञानं' च विषयाव्यभिचारि, निस्संशयं च तत् कथमप्रमाणफलमुच्यते । व्यभिचारादिदोषयोगे वा पदान्तरेण तत्प्रतिक्षेपात् किमव्यपदेश्यपदेन ? आह्निकम् २ ] , प्रमाणफलं च तद्विज्ञानं इदानीं किंप्रमाणप्रभवं भवतु' ? न प्रत्यक्षफलम् एतत्पदं प्रतिक्षिप्तत्वात् । नानुमानादिजन्यम्, तद्वैलक्षण्यात् । नास्ति किञ्चित् पञ्चमं प्रमाणम् । असङ्गूहोऽस्य लक्ष्यस्य लक्षणेनेति प्रज्ञाप्रमादः । तस्याख्यानमेतन ॥ वृद्धनैयायिकाः- वात्स्यायन महर्षयः । शब्दकर्मतापन्नं - नामधेय - शब्देनाभिलप्यमानम् । अव्यपदेश्यग्रहणं इत्यनन्तरं इतिकरणं द्रष्टव्यम् । तथा च शब्दानुविद्धस्य प्रत्यक्षस्य वारणाय 'अव्यपदेश्य 'पदमिति भावः । पदान्तरेण - अव्यभिचारिपर्देन || ननु न तस्याप्रामाण्यमुक्तं, किन्तु तस्यात्रा लक्ष्यत्वमात्रं चेत् तत्राह-प्रमाणफलमिति । किं प्रमाणेति । अयमर्थ: - यदि चतत् ज्ञानं मव्यपदेश्यपदेन व्यावर्त्यते, तहींदे ज्ञानं किं रूपमिति वक्तव्यम् । प्रत्यक्षरूपत्वं तु निराकृतमेव अनुमानादिरूपत्वं तु सुतरां न संभवति । अतः ज्ञानलक्षणाप्रत्यासत्तिवशात् शब्दस्य प्रत्यक्षे भानं तत्र वक्तव्यम् । एवञ्च 'सुरभि चन्दनं ' इतिवत् अलोकिक लोकिकसन्निकर्षाभ्यामुत्पन्नं एकं ज्ञानं तदिति वक्तव्यम् । तथा तदपि लक्ष्यमेव अन्यत्र कुत्राप्यनन्तर्भावात् ॥ भाष्यकृतस्तु — सूत्रे इन्द्रियार्थसन्निकर्ष पदोपादानेन इदं सूत्रं केवललौकिकसन्निकर्षजन्यप्रत्यक्षलक्षणपरमेव । न लौकिकः सन्निकर्षः इन्द्रियार्थ - सम्बन्धरूपः । अतश्व लौकिकालौकिकसन्निकर्ष द्वयजन्यस्य शब्दानुविद्ध - 1 203 रूपज्ञानं-क. 2 भवत् भवति - ख. ३ प्र-ख. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 प्रत्यक्षलक्षणघटकइलकृत्यम् न्यायमचरी [अव्यपदेश्यपदस्य मतान्तरेण प्रयोजनवर्णनम्] व्यवच्छेद्यान्तरमपदेश्यपदस्य वर्णयाञ्चकराचार्याः। शब्दा. थेषु 'स्थविरव्यवहारतः' व्युत्पद्यमानो जनः संशयावगम समये संज्ञोपदेशकादयं पनस उच्यत इति वृद्धोदीरितात् वाक्यात् पुरोवस्थितशाखादिमन्तमर्थ पनसशब्दवाच्यतया जानाति । तदस्य ज्ञानमिन्द्रियजमपि न केवलेन्द्रियकरणकं भवितुमुचितम् , असति संज्ञोपदेशिनि शब्दे तदनुत्पादात । तेन शब्देन्द्रियाभ्यां संभूय जनितत्वात् उभयजमिद ज्ञानं व्यपदेशाजातमिति व्यपदेश्यमुच्यते। तत् अव्यपदेश्यपदेन व्युदस्यते ॥ न चेदं पञ्चमं प्रमाणमवतरति, किन्तु शाब्दमिवैतदनुमन्यते लोकः तथा च-कथं पुनर्जानीते भवान् पनसोऽयमिति ? इति पृष्टः प्रतिवक्त--'मम देवदत्तेनाख्यातं, पलसोऽयमिति' इति । न पुनरेवं विस्मृत्यापि ब्रवीति 'चक्षुषा प्रया यतिपन्नं पनसोऽयमुच्यत इति' प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वेऽपि वा नात्र लक्ष्यत्वमिति तस्य भव्यपदेश्यपदेनैव म्यावृत्तिर्वक्तव्येत्याशयः । ननु तर्हि तस्य कुत्रान्तर्भाव इति चेत् , यत्र कुत्रापि वा यथा वं भवतु । अन्यथा हि ईश्वरप्रत्यक्षस्य नित्यस्य इन्द्रियार्थसनिकर्षजन्यत्वाभावेनान्याप्तथापत्या तम्यालक्ष्यतायां वाच्यायां, तस्य कुत्रान्तर्भाव इत्यपि प्रश्नः समुदेत्येव। समाधिस्तु तुल्यैव--'इत्याशयः ॥ स्थविरः-वृद्धः । संशोपदेशात्-संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञापकात् ! अस्य वाक्यादित्यत्रान्वयः। अयमत्र भाव:-श्रुतपनसपदेन पुरुषेण वृक्षसामान्ये प्रत्यक्षतो गृहीते कोऽयं वृक्षः इति संशये सति विशेषसंज्ञायोधकशब्दश्रवणवशात् पनसशब्दवाच्यत्वप्रकारकं पुरोवर्तिवृक्षविशेष्यकं च 'अयं पनसः' इति ज्ञानं जायते। नेदं केवलं प्रत्यक्षं, शब्दश्रवणस्याप्यपेक्षणात्। अत: शब्द-इन्द्रियोभय जज्ञानग्यावृत्यर्थं अन्यपदेश्यपदमिति ॥ ननु इन्द्रिय-संस्काराभ्यां जातं प्रत्यमिज्ञानं यथा प्रत्यक्ष, तथेदमपि कुतो न स्यात् ? यदिदं ज्ञानं न प्रत्यक्षं तर्हि कुत्रान्तर्भाव इति भाशय शाब्दऽ. न्तर्भावं वदति-न चेत्यादि । तथा च प्रतिवक्ति इत्यन्वयः । 1व्यवहारतः-क. संशयापगम-ग. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणिकम २ ] इति । करणम् ॥ अत एव सूत्रकृता शब्दलक्षणं वर्णयता नेन्द्रियानुप्रवेशप्रति धाय किमपि विशेषणमुपरचितम् ; 'उपदेशः शब्दः' इत्येतावदेव लक्षणमभिहितम् । अतश्चेन्द्रियानुप्रवेशेऽपि शाब्दतामस्य मन्यते अव्यपदेश्यपदप्रयोजनम् 205 तत् इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाने सत्यपि शब्द एवात्र सूत्रकारः ॥ इह पुनः अव्यपदेश्यविशेषणपदोपादानेन शब्दानुप्रवेशप्रतिपेधात् न प्रत्यक्षमेतत् ज्ञानम् । तस्मादेवंविधव्यपदेश्य ज्ञानव्यवच्छेदार्थमव्यपदेश्य पदमिति ॥ [उक्तमतनिराकरणम् ] तदेतत् व्याख्यातारो नानुमन्यन्ते - यद्युभयजं ज्ञानं अव्यप देश्य पदेन व्युदस्यते, तदपि नाप्रमाणम्, अप्रमाणलक्षणातीतत्वादिति, प्रमाणं भवत् कस्मिन् अनुविशतामिति चिन्त्यम्- " ननु ! शाब्दमिदं ज्ञानं तद्भावानुविधानतः । भवत्वक्षजमप्येतत् तद्भावानुविधानतः ॥ ११ ॥ शाब्दं चोभयजं चेति विरुद्धमभिधीयते । प्रमाणान्तरमेव स्यात् इत्थं तदपि पूर्ववत् ॥ १२ ॥ तत् तस्मात् । शब्द एवेति । प्रत्यभिज्ञायां हि संस्कारसह कृतमिन्द्रियं 'करणमिति तत् प्रत्यक्ष मुच्यते । तथाऽत्रापि इन्द्रियसहकृतः शब्द एव करणमिति शाब्द एवायम् ॥ अत एव - कुत्रचित् शाब्दबोधविशेषे अंशतः इन्द्रियस्याप्यपेक्षणादेव || शब्दन्द्रियो भयजन्यं प्रदर्शित ज्ञानं कथं शाब्दम् ? एवं सति तस्य प्रत्यक्षत्वमपि यदि निराक्रियते तर्हि पञ्चममेव ज्ञानमेतत् स्यात् । अत इदं प्रत्यक्षमेवेति न तद्व्यावृत्त्यर्थं अव्यपदेश्यपदोपादानमिति युक्तमिति समाधत्ते --- तदेतदिति । अव्यपदेश्यपदेनेति । अन्यभिचारिपदेन वारणे हि तस्य म्यभिचारित्वात् अप्रामाण्यमिति स्यात् । नेदानीं तस्याव्यभिचरितत्वात् ॥ पुर्वोतमनुवदति--नन्विति । तद्भावः - इन्द्रियसद्भावः । पूर्ववत्भाष्यकारपक्षोक्तशब्दानुविद्ध प्रत्ययवत् ॥ भक. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकृत्यम् [न्यायमचरी ननु! लोकः शाब्दतामस्य व्यपदिशति--'देवदत्तेनाख्यातं पनसोऽयमिात' इति व्यवहारादित्युक्तम्। अहो ! लोक'वत्सलः' श्रद्दधानो महानुभावः! न खलु लोकस्य व्यपदेशैकशरणा वस्तुस्थितयो भवन्ति । लोको हि यथारुचि व्यपदिशति । नानामुनिजनसाधारणमपि तीर्थ नन्दिकुण्डपिति किं न 'श्रुतवान् भरान् ? हन्त ! तर्हि सूत्रकाराशरमनुसरन्तः शाब्दमिदं ज्ञान प्रति- . पद्यामहे ; यदयं सूत्रकारः प्रत्यक्ष शब्दानुप्रवेशव्यवच्छेदाय विशेषण. मिदमुरदिशाति, शब्दे तु नेन्द्रियदासाय किञ्चिद्विशेषणमुपादत्त,स पश्यति 'कारणान्तरानुप्रवेशेऽपि शाब्दमेतत् ज्ञानमिति । उच्यते मनुवत् सूत्रकारोऽप न धर्मम्योपदेशकः। . ये तदनुरोधेन तस्य ब्रूयाम शाब्दताम् ॥ १३॥ : वस्तुस्थित्या तु निरूप्यमाण मिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि.. त्वादिदं विज्ञानं न प्रत्यक्षफलतामतिवर्मते । ततश्च व्युदस्यमानं प्रमाणान्तरतामेव स्पृशत् ॥ स्विमतेन भव्यपदेश्यपदप्रयोजनकथनम् | तस्मादुभयजज्ञानव्युदासानुपपत्तितः। व्याख्या भङ्गयन्तरेणास्य पदस्ययं विधीयते ॥ १४ ॥ असम्भवदोषव्यवच्छेदार्थमव्यपते श्यपदोपादानम् । एवं हि परो मन्यते - सति लक्ष्ये लक्षणवर्णनमुचितम् । इह तु अहो इत्यादि। तेन हि व्यवहारेण संज्ञासंज्ञिसम्बन्धनिश्चयमात्रं, न तु पनसप्रत्यक्ष तजन्यमित्यवधेयम् । इदं च उत्तरत्र (२२० पु.) स्पष्टीभविष्यति॥ सूत्रम्बारस्यानुरोधेनास्य शाब्दत्वं ब्रूम इति पूर्वोक्तमेवानुवदतिहन्तेत्यादि। सः-एवं वदन् सूत्रकारः। पश्यति-अभिप्रैतीति यावत् । मनुवदित्यादि । अयं भावः---शब्दैकसमधिगम्ये धर्मादौ शब्देन यथा बोध्यते, तथैव प्रतिपत्तव्यम् । प्रत्यक्षविषयवस्तुविषयकविचारे तु यथाप्रमाणं शब्दो नेय इात । व्युदस्यमानं प्रत्यक्षेऽनन्तर्भाव्यमानम् ।। 'वत्सः-ख. ' श्रुतवानिति-क. 'शानं इति-ख. ' करणा-ख. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] अन्यपदेश्यपदप्रयोजनम् 207 लक्ष्यमाणं प्रत्यक्षमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं नाम न किञ्चिदस्ति। गौरित्या दि'झानानां शब्दाच्छिन्नवाच्यविषयत्वेन शाब्दत्वात् । इह हि विषयव्य तिरेकेण ज्ञानानामतिशयो दुरुपपादः, बोधस्वभावस्य सर्वान् प्रत्य विशिष्टत्वात् । तत्र .यथा दण्डीति शुक्ल इति वा प्रत्ययो विशेषणावच्छिन्नविशेष्यविषयता सातिशयत्वमश्नते, तथा गौरित्यादिप्रत्ययोऽपि वाचकावच्छिन्नवाच्यविषयत्वात् सातिशयत्वं भजते; शब्दावच्छिन्नवाच्यविषयत्वाच शाब्द एष प्रत्ययः, तद्यतिरिक्तकरणकार्यत्वानुपपत्तः ॥ न हीन्द्रियकरणकमिदं ज्ञानं भवितुमर्हति, चक्षुणे विपणाविषयत्वात् , विशेष्ये च श्रोत्रस्यासामर्थ्यात् । न च युगपदिन्द्रियद्वयद्वारकमेकमुत्पद्यमानं ज्ञानं क्वचित् दृष्टम् ॥ 'तत्तत्स्यात्-मानसमिदंशानं सुगन्धिबन्धूकबोधवद्भविष्यति। उक्तमत्र--शब्दलिङ्गादिकरणान्तरव्यापारविरतो कार्यमुपजायमानं केवलमनःकरणमिति कल्प्यते, न तत्संभवेऽपि। तथा हि सति ____ अतिशयः-विशेषः। विशेषणेत्यादि । दण्डिनं शुक्लं च पुरुषं दृष्टा कदाचित् दण्डीति, कदाचित्तु शुक्ल इति बुद्धिर्जायते । तत्र बुद्रयोर्भेदः न म्वरूपतः, उभयोरपि ज्ञानस्वात् । नापि विशेष्यभेदात् ; तदभावात् । अत विशेपणभेदादेव । शब्दश्च सर्वत्र विशेषणतया भासत एव । एवञ्च शब्दावच्छिन्नविषयत्वात ज्ञानानां शब्दैरेव सातिशयत्वं वक्तव्यमिति शाब्दमेव सर्व ज्ञानम् इति ॥ · ननु प्रत्यक्षे विषयस्यापि भानात, तदंशे इन्द्रियापेक्षणात् प्रत्यक्षं तत् कुतो न स्यात् इत्यत्राह-न हीत्यादि। विशेषणाविषयत्वातशब्दाग्राहकत्वात् । विशेष्ये-घटादौ। ननु एवमपि विशेषणविशेष्ययोरुभयोरपि इन्द्रियग्राह्यत्वमस्त्येवेति इन्द्रियद्वयजन्यं तत् ज्ञानं कुतः प्रत्यक्षं न भवतीत्यत्राह-न चेति । युगपदिन्द्रियद्वयेन मनसस्सन्निकर्षासंभवादित्यर्थः । 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' इति हि सूत्रम् ॥ __शकते -- तत्रेति । मानसमिति । सुरभि चन्दनमित्यादिप्रतीतिरपि दृष्टान्ततया बोध्या। समाधत्ते-उक्तमिति। तत्संभवे-शब्दादिकरणाम्तरसंभवे । तथा हि सति-शब्दादिकरणान्तरसन्निधानेऽपि केवलमानस दीना-क. नै-क. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 प्रत्यक्षलक्षणघटकद लकृत्यम् [न्यायमञ्जरी मानस मेवैकं प्रमाणं स्यादिति । अस्ति चात्र शब्द एव करणम् । स हि सहस्रकिरणवदात्मानं च विषयं च प्रकाशयति' इति । तस्मादिन्द्रियविषयेऽपि गौरित्यादिज्ञानमुत्पद्यमानं शाब्दमेवेत्यवचार्यते ॥ [अतीतोऽपि शब्दः ज्ञानगोचरो भवेदेव ] ननु ! सङ्केतावगमममये गौरित्यादिशब्दः श्रुत आसीत् । स इदानीन्त इति कथं तत्कृत एष प्रत्ययः स्यात् - उच्यते'तानी' मश्रूयमाणस्य शब्दस्य स्मृत्यारूढस्य तत्प्रत्यय हेतुत्वात् ॥ तच्छ्रुतावपि किं सर्वे वर्णाः प्रत्यक्षगोचराः । विशेषः कोऽन्त्यवर्णेन गृहीतेन स्मृतेन वा ॥ १५ ॥ तदेवं स्मृतिविषयीकृतशब्दजनित एष प्रत्यय इत्यभ्युपेतव्यः । 'यथा परोक्षेऽपि शब्द उच्चरित आत्मानं प्रकाशयति, अर्थ च ; तथा प्रत्यक्षे विषये स एव स्मर्यमाणः आत्मानमर्थं च प्रकाशयतीति : वाचकावच्छिन्नवाच्य प्रतिभासश्चैवंविधासु बुद्धिषु नूनमेषितव्यः । यथाSSह 'भट्टः ' - 'संज्ञित्वं केवलं परम्' इति ॥ भावप्रत्ययः संज्ञित्वमिति मत्वर्थीय' प्रत्ययान्तादुत्पन्नः संबन्धमाचष्टे। संज्ञासंज्ञिसंबन्धः संशित्वमिति । ' कृत्तद्धितसमासेषु स्वाङ्गीकारे । ननु विशेष्यांशे इन्द्रियस्यापेक्षणात् कथं इतीत्यत्राह - स हीति । एतदुक्तं भवति । शब्दो हि श्रूयमाण: अर्थमप्युपस्थापयेदेव | न तथा चक्षुः अर्थेन साकं शब्दमुपस्थापयेत् । एवञ्च शब्देनैव विषयभानस्यापि निर्वाहे माsस्त्विन्द्रियापेक्षा | शब्दविवर्ता एव शदे-ख. इति ॥ तत्कृतः शब्दजन्यः । स्मृतेन शब्देन ज्ञानजनने मानस मेवेदं संवृत्तमित्यत्राइ – तच्छ्रुतावपीत्यादि । अयमर्थः - शब्दा हि द्विक्षणास्थायिन: । अन्तिमवर्णश्रवणकाले पूर्वपूर्ववर्णा नष्टा एव । एवञ्च नष्टानां वर्णानां स्मरणादेव बोधः सर्वत्र अनेकवर्णकपदस्थले वाच्य इति नायं दोष इति । परोक्षेऽपीति । विषय इति शेषः ॥ 2 इदानी क. शब्द एव परोक्षोऽपि क.. , “ 'वृद्ध:- ख. 'प्रत्ययादु-क. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाहिकम् २] অ বসযজন 209 सम्बन्धाभिधानं भावप्रत्ययेन' (हरिटीका) इत्यभियुक्तस्मरणात् । संज्ञा च शब्दः । सोऽयं शब्दविशिष्टार्थप्रतिभास उक्तो भवति ॥ न च शब्दानुसन्धानरहितः कश्चित् प्रत्ययो दृश्यते , अनुल्लिखित'शब्दकेष्वपि' प्रत्ययेप्वन्ततः सामान्यशब्दसमुन्मेषसंभपात्, तदुल्लखव्यतिरेकेण प्रकाशात्मिकायाः प्रतीतेरनुत्पादात् । तथाऽऽह भर्तृहरि: न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यश्शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव जानं सर्व शब्देन गृह्यते ॥' (वाक्यपदीय--1-24) इति। तस्मात् प्रत्यक्षस्य 'लक्ष्यस्याभावात् कस्येदं लक्षणमुपकान्तमिति असंभवदोषमाशङ्कयाह सूत्रकारः-अव्यपदेश्यमिति ॥ ___ - [भव्यपदेश्यपदेन शब्दानुवेधपक्षनिरासप्रकार:] यदिदं अविदितपदपदार्थसम्बन्धस्य ज्ञानमुत्पद्यते, विदितसम्बन्धस्यापि वा यत् प्रथमाक्षसन्निपातसमय एव ज्ञानमनुल्लिखितशब्दकं शब्दानुस्मरणे हेतुभूतमुपजायते, तत् अशब्दम--अशब्दावच्छिन्नविषयमव्यपदेश्यमिन्द्रियार्थसन्निकर्षककरणमविकल्पं प्रत्यक्षम्। न च शब्दकृता बुद्धीनां प्रका'शस्वभावता', स्वत एव ___ ननु भज्ञातवाचकपदानां बालानामपि घटादिप्रत्यक्षं जायत एव । तत् कथं सर्वत्र शब्दानुवेध: ? इत्यत्राह-न चेत्यादि । सामान्यति । मन्तत: वस्त्वादिशब्दानां भानादित्यर्थः। ननु वस्त्वादिपदमप्यजानानां स्तनन्धयाना, पश्वादीनां च प्रत्यक्षे का गतिरिति चेत् , तत्रापि सूक्ष्मः शब्दः भायात् . कामम् । अथवा तेषां भ्रमादीनामिव लक्ष्यतैव मा भूत् । परीक्षकप्रत्यक्षस्यैव लक्ष्यत्वात् । अधिकमन्यत्र ॥ अविदितपदपदार्थसम्बन्धस्येति । स्तनन्धयादेरित्यर्थः। पूर्वोक्तदिशा परीक्षकाणां प्रत्यक्षमेव लक्ष्यभूतमित्यङ्गीकारेऽप्याह-विदितसम्बन्ध. स्थापीति । अशब्दावच्छिन्नविषयं-शब्दानवच्छिन्नवस्तुविषयकम् । अत एव–इन्द्रियार्थसन्निकर्षेककरणमिति। स्वत एव-शब्दानुवेध शम्देष्वपि-क. गर्म विना-क. सदा-ख. 'ता-क. NYAYAMANJARI 14 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 प्रत्यक्षरूभणषटकदलकृत्यम् न्यायमच तासामेरूपत्वात् । न च निर्विकल्पकसमये यत्किञ्चिदिदमित्यादिसामान्य शब्दोलखः कोऽपि' केश्चिदनुभूयते। तस्मात् गौरित्यादिज्ञानानां शादत्वेऽपि तथाविधस्य ज्ञानस्य लक्ष्यस्य 'सद्भावात् न व्यर्थ लक्षणमित्येवमसंभवदोष निराकरणार्थमव्यपदेश्यपदमिति ॥ गौरिस्यादिज्ञानानां न शाग्दत्वम्] तदेतदाचार्या न क्षमन्ते। न गौरित्यादिज्ञान मिन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नमपि इदं शामिति वक्तुं युक्तम्। न चात्र शब्दावच्छिन्नार्थः प्रकाशते, तथाविधार्थग्रहणे कारणाभावात् । विशेष्यार्थप्रमितो तावत् शब्दः करणम्। विशेषणी भूतस्य तु शब्दस्य ग्रहणे किं करणमिति निरूप्यतार। न थोत्रम्, विरस्यव्यापारासंवेदनात् । सम्बन्धग्रहणादुर्घ च स्मर्यमाणशब्दयोजनया जायमाने गौरित्यादिज्ञाने श्रोत्रं करणमाशङ्कितुमपि न युक्तम्। नापि मानः बाह्यकरणनिरपेक्षं बाह्य विषये धियमाधातुमलम् , अन्धाधभावप्रसङ्गात् ॥ ननु शब्द एव करणमित्युक्तम्, तत् किम्फ्स्क रणाशङ्कनेन ? मैवम - एकस्य कारकस्य एकस्यामेव क्रियायां कर्मकरणभावानुपपत्तेः। सवितप्रकाशयत् इति चेत् , न, क्रिया मेदात् । मन्तराऽपि । एवंरूपत्वात्-- प्रकाशरूरूपत्वात् । 'अनुल्लिखितशब्दकेष्वपि' इत्युक्त प्रतिवक्ति --न चेति । तथाविधस्य-- शब्दाननुविद्धस्य प्रत्यक्षस्य ॥ 'गौरित्यादिज्ञानानां शाग्दत्वात ' इत्युक्तिरेवायुक्ततिवादिनो मतमाह--- तदेतदिति। न युक्तं इत्यन्वयः। दिरम्येति। विशेष्यग्रहणाय प्रवृत्तस्य इन्द्रियान्तग्व्यापारस्य विच्छित्ति विना श्रोत्रेन्द्रियव्यापारो न हि भवेत, विच्छित्तिस्तु नानुभूयत इत्यर्थः। आशङ्कितुमपीति। शब्दमरणे सर्वथा श्रोत्रानपेक्षणादित्यर्थः। अन्धादीति । विनैव चक्षुः मनसेव रूपादिग्रहणसंभवादिति हेतुः ॥ कर्मकरणभावेत्यादि। शब्दो हि प्रतीतौ विशेषणतया भासते इति कर्मस्व सिद्धम् , तर्हि तस्यैव करणस्वं' कथमित्यर्थः । सवित्रिति। सूर्य शब्दो र कश्चित-क. भा-क. पा-ख. 'ग-ख. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] अभ्यपदेश्यपदप्रयोजनम 211 यत्रासौ करणं, न तत्र कर्म ; यत्र वा कर्म, न तत्र करणमिति । घटादिविषयः मितिजन्मनि करणमेव तरणिप्रकाशः, न कर्म; तद्हणकाले तु कर्मवासी, न करणम् ॥ किं तर्हि तत्र करणमिति चेत् , केवलमेव चक्षुरिति घूमः । आलोकग्रहणे चक्षुषः प्रकाशान्तरनिरपेक्षत्वात् कथमेवमिति चेत् , अपर्यनुयोज्या हि वस्तुशक्तिः। घटादिग्रहणे चक्षुरुद्योत. मपेक्षते, नोद्योतग्रहण इति कमनुयुञ्जनहे। सोऽयं सूर्यप्रकाशः प्रकाशान्तरनिरपेक्षचक्षुरिन्द्रियप्रथम गृहीतः चिरमवतिष्ठमानः तदिन्द्रियग्राह्य एव' विषये गृह्यमाणे करणतामुपयातीति युक्तम् ॥ शब्दस्तु क्षणिकः श्रोत्रन्द्रियग्राह्यः तदितरपरिच्छेद्य विषये तदवगमक्रियायां करणीभूय, भूयस्तस्यामेव क्रियायां कथमिव कर्मभावमनुभवेत् । शब्दोहि धृमादिवदुपाय एव, नोपेयः । स उपायत्वात् प्रथमं गृह्यतां नाम ; नोपेयग्रहणकाले पुनर्ग्रहणमर्हति--- धूमवदेवेति । एवं स्मर्यमाणोऽपि शब्दो यत्रार्थप्रतीतिकारणं तत्रापि प्रथमं शब्दस्मरणं, ततः शब्दार्थसम्प्रत्ययो भवति । न तरां तत्रार्थप्रतीतिवेलायां शब्दग्रहणं संभाव्यते। तस्मात् नास्ति वाचकविशेषितघाच्यप्रतिभासः॥ सन्निप्रकाशो हि स्वप्रत्यक्षे स्वयमेव हेतुः, एवञ्च स्वस्य कर्मत्वं करणस्वं च 'सिद्धमेवेति । क्रियाभेदमुपपादयति- यत्रेत्यादि। तद्हणकाले-प्रकाशग्रहणकाले। घटादिग्रहणकाले तु करणमेवेत्यर्थः ॥ तत्र-प्रकाशग्रहणे । केवलं-प्रकाशनिरपेक्षम् । कथमेवं--घटादयो हि प्रकाशसापेक्षेणेन्द्रियेण गृह्यन्ते, प्रकाशस्तु प्रकाशनिरपेक्षेणैवेन्द्रियेण गृह्यत इति कथमित्यर्थः । नन्वथाऽपि स्वग्रहणकाले कर्मणः प्रकाशस्य घटादिग्रहणं प्रति वा कथं करणत्वम? घरग्रहणकाल एव प्रकाशग्रहणस्यावश्यकस्वात। एवञ्च प्रकाशघटयोः एकदैव ग्रहणेन प्रकाशस्य तदैव कर्मस्वं करणत्वं चावर्जनीयमिति शङ्कां, कालभेदन क्रियाभेदमुपपादयन्नपाकरोति-प्रथमगृहीत इत्यादि । शब्द तु न तथा कालभेदेन क्रियाभेदोपपादनं संभवतीत्याह-शब्दस्तु क्षणिक इति ॥ । एक-व. दे-ख. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकृत्यम् (न्यायमजरी अपि च गौरित्यादिक्षानं इन्द्रियार्थसन्निकर्षान्वयव्यतिरेकानुविधायि प्रसभं तत्कथं शाब्दमित्युच्यते ॥ शब्दस्मरणसापेक्षं यस्योत्पादकमिन्द्रियम् । तदेव यदि ते शाब्दं अहो नैयायिको भवान् ! ॥ १६ ॥ ऐन्द्रियिकप्रत्यक्षेऽपि शब्दभानसंभव:] ननु ! शब्दावच्छिन्नमर्थ न चक्षुःश्रोत्रयोः अन्यतरदपि करणं प्रहीतुमलमित्युक्तम्। भोःसाधो! चक्षुरेवैनं ग्रहीष्यतीति कथं न श्रूषे ? ननु ! नाविषये युक्तमिन्द्रियस्य प्रवर्तनम। .. सेन शब्दविशिष्टाक्षानं नेन्द्रियजं वे ॥१७॥ मरीचिषु जलज्ञानं कथमिन्द्रियजं तव? तत्रापि हि न तोयेन सन्निकर्षोऽस्ति चक्षुषः ॥१८॥ ननु ! च स्मृत्युपारूढं उदकं तत्र गृह्यते । 'इहापि' स्मृत्युपारूढः शब्दः कस्मान्न गृह्यते ! ॥ १९ ॥ ननु ! शब्दोन नेत्रस्य कदाचिदपि गोचरः । प्रसभमुच्यते इत्यन्वयः । शब्दस्मरणसापेक्षमिन्द्रियं यस्योत्पादक मित्यन्वयः। नैयायिक इति। विचारचर इति यावत्। अथवा एकदेशिभिः पूर्व ‘गौरित्यादिज्ञानानां शाब्दरवेऽपि' इत्यनेन शब्दानुवेधस्य कुत्रचिदङ्गीकारादेकदेशी वा नैयायिकः । पूर्व 'न हीन्द्रियकरणकनिदं' इत्यादिनोक्तमाशय समाधत्तेनन्वित्यादिना ॥ ___अविषये-स्वाविषये-स्वेन गृहीतुमशक्य इति यावत् । विशेष्य. विशेषणयोरुभयोरपि इन्द्रियेण, तत्रापि एकेनैव ग्रहणमिति नायं नियम इति स्फुटयितुं सिद्धान्ती पृच्छति-मरीचिष्विति। पूर्वपक्षी समाधत्ते-- नन्विति । ममापि तथैवेत्याह-तत्रापीति। स्मृत्युपारूढं-- स्मृत्युपस्थापितम् । कदाचिदपीति । मरीचिर्हि चक्षुर्योग्यः, शब्दस्तु न तथेत्यस्ति वैषम्यमित्यर्थः । इदं वैषम्यमप्रयोजकं, चक्षुर्योग्यमपि सर्व सर्वत्र न हि भासते, तत्र असतोऽपि घटस्य तत्र भानप्रसङ्गात् । अत: इन्द्रिय 'तत्रापि-क. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माडिकम् २] अम्यपदेश्यपदप्रयोजनम् 213 असन्निहितमप्यम्बु किं या मवति गोचरः ॥ २०॥ ननु ! एकेन्द्रियवादः शत् चक्षुषा शब्दवेदने। अत्रापि सर्वबोधः स्यात् असनिहितवेदने ॥ २१ ॥ [प्रत्यक्षं इन्द्रियासनिकृष्टवस्तुविषयकमपि भवति] ननु च ! मरीविजलज्ञान भ्रान्तमिति 'कथ'मिह दृष्टान्तीक्रियते । कथमस्य भ्रान्तत्वम् ? किमनिन्द्रियजत्वात् ? उत व्यभिचारित्वात् ? तत्रानिन्द्रियजत्वेनास्य भ्रान्ततायां इन्द्रियार्थसन्निकर्षोन्पन्नपदेनैव निरासात् अव्यभिचारिपदमनुपादेयमिति । तदुपादानात् व्यभिचारित्वेनास्य भ्रान्तत्वमिति नूनमिदमिन्द्रियज. मसन्निहितसलिलज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् ॥ यथा चाविषये तस्मिन् नारे नयनजामतिः। तथा वाचकसंस्पृष्टे वाच्ये किमिति नेष्यते ? ॥ २२ ॥ यथा च तव कालादि नीरूपमपि चाक्षपम् । तथा शब्दानुरक्तोऽपि किमित्यर्थो न चाक्षुषः १ ॥ २३ ॥ एवं हि इन्द्रियव्यतिरेकानुविधानमत्र न बाधितं भविष्यति । ननु! चाक्षुषतां शब्दे न जीवन् वक्तुमुत्सहे। त्यजनं याचकोपेतवाच्यावगमदुर्ग्रहम् ॥ २४ ॥ सनिकृष्टमेव भासत इति वक्तव्यम् । तच्च मरीचिषु शब्दे च समानम् । अत: शानलक्षणाप्रत्यासत्त्यैवोभयमपि निर्वाह्ममिति न पर्यनुयोगावकाश इति समाधत्ते -असन्निहितमित्यादिना ॥ - अविषये-इन्द्रियासन्निकृष्टे। तस्मिन् नीरे -मरीचिकाजले । कालादीति । इदानी घट इत्यादाविति शेषः । इन्द्रियेत्यादि । इन्द्रियाभावेऽपि जायमानत्वं न प्रत्यक्षत्वबाधकम् । विशेष्येन्द्रियसनिकगर प्रत्यक्षस्वनिर्वाहात् , प्रत्यमिज्ञावदिति । एवञ्च भ्रान्तिज्ञानस्य, इन्द्रिया. सनिकृष्टभानांशमाने प्रकृतोदाहरणमिति भावः। 'प्रसभमुच्यते' इति स्वोकि सत्यापयति-नम्विति । समाधत्ते-स्यजेति। दुर्ग्रहः-दुराग्रहः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 प्रत्यक्षलक्षणघटक दल कृत्यम् [ न्यायमभरी [' गौरवम्' इत्यादिज्ञानानां शाब्दत्वासंभवः ] अपि चामुष्य शाब्दत्वे सम्बन्धग्रहणं कथम् ? न चागृहीतसम्बन्धः शब्दो भवति वाचकः ॥ २५ ॥ निर्विकल्पक विज्ञानविषये न च तद्गुहः । शाब्दपक्षे तु निक्षिप्तं भवता सविकल्पकम् ॥ २६ ॥ सम्बन्धः शक्यते बोद्धुं न च मानान्तराद्विना । शाब्दज्ञानेन तद्बोधे भवेदन्योन्यसंश्रयः ॥ २७ ॥ न च शब्दोपरक्तेऽर्थे सम्बन्धं बुद्धयते जनः । गोशब्दवाच्यो गोशब्द इति हि ग्रहणं भवेत् ॥ २८ ॥ वाच्यस्य हि गवादेः गोशब्दविशेषितस्य वाच्यत्वात् वाच्योऽर्थ : इव गोशब्दोऽपि वाच्यतामवलम्बते ॥ यदि च स्वानुरागेण वाचकात् वाच्यवेदनम् । लिङ्गादपि भवेत् बुद्धिः स्वावच्छेदेन लिङ्गिनि ॥ २९ ॥ अथ धूमान्वितत्येन न वह्निरवगम्यते । इहापि शब्दयोगेन गवादिनैव गम्यते ॥ ३० ॥ सम्बन्धः - शक्तिः । निर्विकल्पेत्यादि । भयं भावः – सविकल्पकः सर्वोऽपि हि भवतां शब्दानुविद्ध एव । तत्र शब्दस्य शक्तिग्रहपां न निर्विकल्पकेन, तस्य बालमूकादिविज्ञानसदृशत्वात् । नापि सविकल्पकान्तरेण, अनवस्थानात् । नापि तंनैत्र, आत्माश्रयात् । नापि वाक्यादिना सम्बन्धबोधः, सम्बन्धज्ञाने जाते वाक्यप्रयोगः, वाक्यप्रयोगे सति सम्बन्धज्ञानमित्यन्योन्याश्रयात् । अत: ' गौरयं' इत्यादिः न शाब्दप्रत्यय इति । अनुभवविरोधश्च; वाच्यस्य – अर्थस्य हि गोशब्दविशेषितस्यैव भानमिति गोशब्दविशिष्टस्य गोशब्दवाच्यत्वे विशेषणस्य गोशब्दस्यापि गोशब्दवाच्यत्वप्रसङ्ग इति ॥ यदि चेत्यादि । वाचकात् - शब्दात् वाच्यस्य वेदनं - बोधनं स्वानुरागेण - स्वोपरकत्वेन - स्वावच्छिन्नत्वेनैव यदि इत्यन्वयः । शब्दः स्वावच्छिन्नमेवार्थ बोधयेद्यदीति शङ्कार्थः । प्रतिबन्धा समाधत्ते - लिङ्गान्दपीति । शङ्कते -- अथेति । समाधत्ते - इहापीति । ननु वाध्यत्वं हि वस्तुधर्मः, वस्तुनो वाय्यत्वात् । अतः वस्तुनो भाने तद्धर्मस्यापि भानं युक्तमिति नेयं, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाडिकम् २] मध्यपदेश्यपदप्रयोजनम् न चास्ति वस्तुनो धर्मो 'वाच्यता' नाम कश्चन । यदि स्यात्, निर्विकल्पेऽपि प्रतिभासेत रूपवत् ॥ ३१ ॥ अर्थासंस्पर्शिनः शब्दान् कथयन् दुष्टसौगतः । प्रत्यक्षात्रेण भेत्तव्यः स कथं हन्यते स्वया ॥ ३२ ॥ प्रत्यक्षविषये वृत्तिः शब्दानां भवतः कुतः ? तेषां यद्विषये वृत्तिः तद्धि शाब्दीकृतं त्वया ॥ ३३ ॥ [सर्वत्र वाचकभानाङ्गीकारे शब्दविवर्तवादावतारः स्यात् ] अपि च विषयभेदेन प्रतिभासमेदो भवतीति दुराशया शब्द विशिमर्थ निर्विकल्पात् सविकल्पस्य विषयमधिकं पश्यति भवान् ! अनेनैव च वर्त्मनाऽवतरन् परं शब्दाभ्यासं न पश्यतीति कोऽयं व्यामोहः १ स त्वं वचनीयोऽसि संवृत्तः दुर्बुद्धे ! प्रपातं नैव पश्यसि " इति ॥ (6 'मधु पश्यसि तस्मात् गौरिति विज्ञानं प्रत्यक्षमवधार्यताम् । . शब्दस्मरण सापेक्षचक्षुरिन्द्रियनिर्मितम् ॥ ३४ ॥ प्रतिबन्दी युक्तेतिशङ्कां परिहरति न चेत्यादिना । रूपवत् वस्तुस्वरूपवत् । अथवा, विशिष्टबुद्धिं प्रति विशेषगज्ञानस्य कारणत्वात् प्राथमिक निर्विकल्प के नीलरूपादिग्रहणानन्तरमेव 'नीलो घटः ' इति प्रतीत्या, रूपपदं नीलादिपरं वा । अथ शब्दानुविद्धसर्व प्रत्ययवादे बाधकमाह - अर्थेति । अर्थशून्यस्यापि शशशृङ्गादिशब्दस्य दर्शनात, सर्वोऽपि शब्दः तथा कुतो न स्यात् इति वादी बौद्ध: - शब्द विनाऽपि घटाद्यर्थानां प्रत्यक्षसिद्धत्वात् अर्थाः नापलपितुं शक्याः इति खलु निप्राह्यः । एवञ्च प्रत्यक्ष सिद्धं कञ्चनार्थ प्रसाध्य तत्र शब्दप्रवृत्तिरूपवर्णनीया प्रत्यक्षस्यापि भवता शाब्दत्वं यद्यङ्गीक्रियते, तर्हि शब्दप्रतीतिरेवार्थ प्रतीतिर्जातेति शब्दातिरिक्तार्थ सद्भावे भवता प्रमाणं दुरुपदं स्यात् ॥ 1 215 अनेनैवेति । यदि सविकल्पकं सर्वमपि वाक्यपदीयो दिशा शब्दाध्यासप्रसङ्ग । त्यर्थः । ' योग्यता - क. ' यः-क. शब्दानुविद्धमेव स तथैव प्रपात:--' प्रपातस्तु तटो Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 प्रत्यक्षलक्षणषटकदल कृत्यम न्यायमवर मानसत्वं तु यद्यस्य नेष्यते युक्तमेव तत् । तद्भावानुविधायित्वात् बाह्येन्द्रियजमेव तत् ॥ ३५॥ [सविकल्पके शब्दानुवेधाभावे निर्विकल्पकादवलक्षण्यापादनम् अत्र पुनः प्रवराः प्राहुः--ननु ! एवं गॉरित्यादिगोधेषु वाचकावच्छिन्नवाच्यप्रतिभासे सर्वप्रकारमपाक्रियमाणे प्रथमाक्षसन्निपातसमयसमासादितसद्भावनिर्विकल्पावेदनवैलक्षण्यं कथमेषां भवेत्। न हि विषयातिशयमन्तरेण प्रतिभासातिशयो भवितुमर्हति । दण्डीति दण्डविशिष्टः पुरुषः प्रतिभासते, इतरथा न केवलपुरुषप्रतीतेरेषा प्रतीतिविशिष्यत। उभयप्रतिभासेऽपि न दण्डपुरुषाविति प्रती'तेः'। विशेषणविशेष्यभावस्य नियामकत्वात् ॥ पूर्वापरचिरक्षिप्रक्रमाद्यवगमेष्वपि। दिकालादिविशिष्टोऽर्थः स्फुरत्यतिशयग्रहात् ॥३६॥ . प्रत्यक्षः किं स कालादिः ? प्रतीतिं पृच्छ, किं मया? गृह्यते तद्विशिष्टोऽर्थः, स च नेत्येतदद्भुतम् ॥ ३७॥ भृगुः'। मधुग्रहणलोभात् अधस्स्थितं महागर्तमपि न जानासीत्युपहासः । तद्भावः-बाधेन्द्रियसद्भावः॥ सर्वप्रकारं इति क्रियाविशेषणम्। विषयातिशयः--विषयवैलक्षण्यम् । एषा-दण्डविशिष्टपुरुषविषयिणी । म विशिष्यतेत्यन्वयः । दण्डपुरुषोभयविषयत्वमेव प्रत्येकविषयकप्रतीतेलक्षण्यमित्यपि न युक्तमित्याह- उभयेति । दण्डपुरुषाविति प्रतीतेः दण्डीति प्रतीनि विशिष्यतेत्यन्वयः । किं तर्हि तत्र नियामकमित्यत्राह-विशेषणेत्यादि ।। पूर्वापरशब्दो दैशिकपरत्वापास्वपरौ। चिरक्षिप्रशम्मी कालिकपरत्वापरत्वपरा। ऋमः -- कारणकायें। दिकालममवायानां यथासंख्य निदर्शनम् । एतादृशप्रत्ययेवपि अन्ततः तत्तकालादीनां वा विशेषणतया भानादस्त्येव विषयलक्षण्यमिति। मयेति । पृष्टेनेति शेषः। कालादिविशिष्टोऽर्थः गृह्यते, स तु कालादिः न गृह्यत इत्येतदत्यद्भुतम्। विशेषणाग्रहणे कथं तद्विशिष्टबुद्धिः स्यादित्याशयः। दिकालयोः प्रत्यक्षत्वं वक्ष्यति अनुमानपरीक्षायाम् ॥ । यत्तस्य-ख. 'ध्यते-ख. ति:-क. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् २] अध्यादेश्यपदप्रयोजनम् 217 कालवत् समवायोऽपि प्रस्यशः] , एतेन समवायेऽपि प्रत्यक्षत्वं प्रका ितम्। इहेति तन्तुसम्बद्धपटप्रत्ययदर्शनात् ॥ ३८॥ अयं पट इति प्रत्ययात् इह तन्तुषु पट इति विलक्षण एष प्रत्ययः। तन्तुपटसम्बन्धस्य विशेषणस्याप्रत्यक्षतायां न केवलपट प्रत्ययात् विशिष्यतेति ॥ [सामग्रोभेदमात्रान प्रतीतिभेदः] अथ मतं--उपायभेदात् प्रतीतिभेदो भवति; दुराघिदूरदेशव्यवस्थितस्थाण्यादिपदार्थप्रतीनिवत् , संस्कृतासंस्कृताश करणविष'यबोध'वद्वति-तदसांप्रतम्- उपायभेदेऽपि तद्भदासिद्धः । उपायो वुद्धावतिशयमादधाति, न विषये ॥ विषयावगतिसमये च न बुद्धिरवभातीति नैयायिकाः । तदयमतिशयः यदधिकरणः, सा न प्रतिभासते बुद्धिः । यच्च तदानीमवभासते विषयः, तत्रातिशयो नास्ति; दृश्यते चातिशयसंवेदनमिति सङ्कटः पन्थाः। न च दूराविदूरदेशवर्तिनि पदार्थे प्रती तिरुपायभेदात् भिद्यते । साऽसिह विषयभेदादेव भिद्यते ॥ केवल पटप्रत्ययादिति। एष प्रत्यय इत्यनुकर्षः॥ सिद्धान्तिच्छायया शङ्कते-अथ मतमि त। देशस्यापि प्रतीत्युपाय. स्वात्-दूरेत्यादि। भेदासिद्धिमुपपादयति-उपाय इ त । वह्निविषयकमेव प्रत्यक्षमनुमानं च, न हि तत्र विषये विशेषः इत्यर्थः ॥ ननु बुद्ध्यधीनमेव विशेष- अन्ततः प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वादिरूप --विषये . मः-इति चेत्-तत्राह-विषयेनि। न कस्मिन्नेव समये ज्ञानार्थयो: प्रतिभास: संभवी, अननुभवात् । लोके भयं घट इत्यादिप्रतिभासकाले, भयं अर्थस्य भाकारः, अयं ज्ञानस्येति न विविच्यानुभूयते । मतोऽयमन्यतरप्रतिभास एवेति, अर्थप्रतीतिकाले न ज्ञानप्रतीतिः, ज्ञानप्रतीतिकाले च नार्थप्रतीति:, भाकारद्वयाप्रतीतेरिति अभ्युपगन्तम्यमित्यर्थः । इदं सर्वमभ्युपगम्योक्तमित्याहन चेति ॥ ___य-क. 'म-क. काश-क. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षणषटकदककृत्यम् 218 न्यायमधरी दूर द्धि वस्तुसामान्यं धर्ममात्रोपलक्षितम् । अदूरतस्तु विस्परविशेषमवसीयते ॥ ३९ ॥ यथा माघेन वर्णितम् (शिशुपालवधे १-३) "चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् । विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः" इति । क्रियान्तराणां वैचित्र्ये यद्वा तद्वाऽस्तु कारणम् । मेदो ज्ञानक्रियायास्तु कर्मभेदनिबन्धनः ॥ ४० ॥ [उपायभेदादेव निर्विकल्पकसविकल्पक_लक्षण्यम् ] . . तदेतदाचार्याः प्रतसमादधते --न विषयभेदादेव प्रतिभासभेदः, किन्तु उपायभेदात् भवत्यव ॥ यश्च चोदितम्-विषयप्रतिभासकाले तत्प्रतिभासाप्रतिभासात् अतिशयवचने सङ्कटः पन्था इति-तविदितनैयायिकदर्शनम्यव चोद्यम्। ज्ञानोत्पाद एव विषयस्य प्रत्यक्षतेत नो दर्शन, न ज्ञानग्रहण मिति। तत्र यथा पुरुष इति निरतिशयज्ञानमात्रोत्पादे तावन्माविषयप्रत्यक्षता भवति, न तत्र ज्ञान प्रकाशते, अगृह्यमाणेऽपि शाने विषय एवं प्रतिभासते; एवं दण्डीति, शुक्ल वासा इति विशेषणशानाभ्युपायवशात् सातिशय प्रत्ययजनने तदग्रहणे स एव विषयोऽवभासते इति कियानेष सङ्कटः पन्थाः ! तथा च धर्ममात्रेति। धर्मसामान्येत्यर्थः। ननु छेदनभेदनादिक्रियासु उपायाधीन एवं भेदो दृष्ट इति शङ्कायामाह-क्रियान्तराणामिति ॥ उपायभेदादेव इत्यन्वयः ।। तत्प्रतिभासेति। अर्थविषयकज्ञानप्रतिभासेत्यर्थः। न ज्ञानेति। ज्ञानं स्वयं गृहीतमेवार्थ प्रत्याययतीति नेत्यर्थः । एवञ्च ज्ञानाप्रतिभाऽपि विषयप्रतिभासाङ्गीकारे न बाधकमित्यर्थः। तदेवोपपादयति-तत्रेति ! निरनिशयेति। दण्डी पुरुष इति ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः। तावन्मात्रेति। पुरुषमात्रेत्यर्थः। तद्ग्रहणे-प्रत्ययाग्रहणे । स एव-सातिशय एव-दण्डोपरक्त Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकम् २] भव्यपदेश्यपदप्रयोजनम् 219 दण्डीति पुरुषप्रवणैव मतिः। को दण्डी पुरुषः? कः पुरुषो दण्डी ? इति 'सामानाधिकरण्येन' निस्सन्दिग्धस्य पुंस एव प्रतिभासात् । एवं दण्डिनं भोजय, दण्डिने देहीति भोजनादिकार्ययोगित्वं न दण्डे दृश्यते, अपि तु पुंस्येव ॥ [विशिष्टबुद्धेः विशेष्यप्रवणत्वम् ननु ! दण्डी पर्वतमारोहति दण्डेऽपि कार्यान्वयो दृश्यते लोके वेदेऽपि 'दण्डी मैत्रावरुणः प्रैषानन्याह' इति प्रैषानुवचनस्य वचनान्तरतः प्राप्तेः 'दण्ड विधानार्थमेतद्वाक्यं भवति । यथा 'लोहितोष्णीषा ऋत्विजः प्रचरन्ति' इति श्येनादौ ऋत्विजां प्रकृतिबद्भावेन प्राप्तानां लोहितोष्णीषविधानमात्रमेतत् भवति उच्यतेभवत्वेवं, किन्तु, दण्डमवलम्ब्य पुरुषः पर्वतमागेहति, न दण्डो निश्चेतनः। वेदेऽपि दण्डपाणिः पुरुषः प्रेषाननुभाषत, न दण्डः न लोहिता उष्णीपाश्चरन्ति, किन्तु अन्यपदार्थीभृता ऋत्विज एवेति सर्वत्र विशेष्यप्रवणैव मतिः। उभयप्रतिपादने तु दण्डपुरुषाविति स्यात्, न दण्डीति ॥ विशेषणविंशष्यभावस्य नियामकत्वादिति चेत् , सेयं विशेष्यप्रवणा मंतिरुक्तैव भवति, विशेषणस्य विशेषणत्वेनैवोपसर्जनत्वात् । दण्डः अस्य अस्तीति पुरुष एघोच्यते, न दण्डपुरुषो॥ ___ एवं पूर्वापरादिप्रत्ययाः, चिरक्षिप्रादिप्रत्ययाः, इह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययाश्च दिक्कालसमवायग्राहिणः। त इमे दिकालसमवायाःसामग्रयन्तर्गतास्सन्तःप्रत्ययातिशयमादधति, न तद्विषयीभवन्ति पटादिद्रव्यवत् ।। . दण्डयेवेति यावत्। पुरुषप्रवणवेति । न तु दण्डप्रवणेत्यर्थः । तत्र . प्रमाणमाह-को दण्डीत्यादि । . . लोहितोष्णीषा इत्यस्य बहुव्रीहित्वात्- अन्यपदार्थीभूता इति । उभयप्रतिपादने-विशेषणविशेष्ययोरुभयोरपि सममाधान्येन प्रतिपादने ॥ दिक्-काल-समवांगाः यथासंख्य उक्तप्रतीतित्रयविषयाः। सामग्रयन्तर्गता इति। तेषां तन्त्र विषयत्वादित्यर्थः । न तद्विषयीभवन्ति -- केवलघटप्रतीत्यपेक्षया 'इह इदानी घटः' इति प्रतीतेलक्षण्यात् ॥ 1सामान्याधिकरणस्य-क. दण्डि-ख. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकुलम् [न्यायमञ्जरी एवं पतनाद्यतुमे गुरुत्वादिकारणभेदजनिताः 'गुरुः पाषाणः इत्यादिप्रत्ययाः परोक्षविशेषणं विशेष्यमवलम्बन्ते इत्यलं विस्तरेण ॥ तस्मात् गौरित्यादिज्ञानं न वाचकावच्छिन्नवाव्यविषयम् । अतश्च न शाब्दं तत् । अपि तु सुस्पष्टं प्रत्यक्षमेव । तस्मिंश्च 'लक्ष्ये' सनि लक्षणवैयर्थ्यशङ्काकरणाभावात् नासंभव शेष निराकरणार्थमध्यपदेश्यपदम् ॥ 220 [ स्वमतेन 'अग्यपदेश्य 'पदप्रयोजनवर्णनम् ] किमर्थं तद्ददमस्तु ? उक्तमाचा:- -उभयजज्ञानव्यवच्छेदार्थ मिति ॥ [ वाचकावच्छिनत्राव्यविषयकं ज्ञानं शाब्दमेव ] ननु ! तदपि प्रत्यक्षमेवेति ; अनपोह्यमुक्तम् । पुरोवस्थितगवादपदार्थस्वरूपमात्रग्रहण निष्ठितसामर्थ्यमंत्र प्रत्यक्षम् । गोशब्दवाग्यतायां तु संज्ञाकर्मोपदेशी शब्द एव प्रमाणम् ॥ यद्यपि शब्दार्थ सम्बन्धपरिच्छेदे गत्यन्तरमपि संभवति ; तथापि यत्र तात् संज्ञितं निर्दिश्य संज्ञा वृद्वैरुपदिश्यते गोशब्दवाच्योऽयं, पनसशब्दवाच्योऽयमिति तंत्र तद्वाच्यता परिच्छेदे स एव करणम् ॥ • अत एव च लोकोऽपि शाब्दत्व मिह' मन्यते । शब्दो परचिता पूर्वशा नातिशयतोषितः ॥ ४१ ॥ अतीन्द्रियस्यापि अनुमितस्य विशेषणतया भानं युक्तमित्याह - एवमिति । पक्षविपणमिति बहुवीहिः । परोक्षार्थस्य प्रत्यक्षे भानं तु ज्ञानलक्षणया प्रत्यासत्त्या, मनसा वेति वक्ष्यते ॥ उभयजं - शब्देन्द्रियजं पूर्वमुपपादितं 'अयं पनसः' इति ज्ञानम् ॥ अनपोहा-निह्नोतुमशक्यम् । अनपोह्यत्वं विषयांश एवेत्याह--पुर इति । पदाथस्वरूपेति विशेष्यस्वरूपेति यावत् ॥ i गत्यन्तरम् - ज्ञानलक्षणप्रत्यासत्तिरूपम्, मन एव वा । सः शब्दः ॥ उभयजज्ञानं यदि न प्रत्यक्षं, तर्हि किंरूपमित्यग्राह - अत इत्यादि । शाब्दत्वे हेतु: - शब्दोपरचितेत्यादि । इदं च लोकस्य विशेषणम् । 1 क्षिते - ख. ३ मभि- ख. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाडिकम् २] अव्यपदेश्यपदप्रयोजनम् 221 तच्छन्दवाच्यतानप्तिः विना संशोपदेशिनः । शब्दान्नेति स एवात्र सत्यप्यक्षे प्रकर्षभाक् ॥ ४२ ॥ अतः सूत्रकृताऽप्यत्र शब्दातिशयद'शिना'। व्यधायि तद्यवच्छेदः न तु धर्मोपदेशिना ॥४३॥ तस्मात् उभयजशानव्यवच्छेदार्थमेवेदं पदमिति ॥ . [भाप्योक्तस्य 'अव्यपदेश्य 'पदप्रयोजनस्य समर्थनम्] . अन्ये तु मन्यन्ते-यदि सङ्केतग्रहणकाले भाविनःसंशोपदेशकवचनजनितस्योभय जमानस्य व्यवच्छेदकमिदं वर्ण्यते पदम, तदा तद्यवहार कालेऽपि यत् 'अयं गौः' इति सङ्केतग्रहणकालानुभूतदेवदत्ताधुदीरितसंज्ञोपदेशकववनस्मरणपूर्वकं विज्ञानमुत्पद्यते, तदप्युभयजमेवेति कथमनेन न व्युदस्यते ॥ ननु! तत्र शब्दस्मरणं कारणं, न शब्दः। सङ्केतकालेऽपि शब्दस्मरणमेव कारणम्। न हि क्रमभाविनो वर्णा युगपदनुभवितुं पार्यन्ते। एतदेवोपपादयति-तदिति । संज्ञोपदेशिन:- वृद्धस्य शम्दाद्विना तच्छब्दवाच्यताज्ञप्तिः शब्दात् न, इति-इति हेतोरित्यन्वयः। प्रकर्ष इति। प्रकर्षों हि कालदेशपुरुषविशेषाद्यपेक्षक इत्यर्थः । तथा चायं शाब्द एवेति भावः। न तु धर्मोपदेशिनेति। धर्मो हि न त निर्णेयः । मतस्तत्र यथाशास्त्रज्ञवचनं अङ्गीकार एव युक्तः । ' अयं तु न तादृशः, अतोऽस्ति विचारस्यावकाश इति पूर्व (पु. २०६) उक्तस्योत्तरमिदम् ॥ . नन्वेवं सति, ज्ञानलक्षणप्रत्यासत्या शब्दोपस्थितौ तद्विशिष्टं यत् 'गौरयम्' इत्यादिज्ञानं तदपि शाब्दमेव स्यात् । न अनुपदमुक्तात् वृद्धो. दीरितवाक्यविशेषणकादस्य विशेषः ! अतः तस्यवच्छेदार्थमेवेदं लक्षणमित्युच्यतामित्याशङ्कतां मतमाह-अन्ये विति। तद्यवहारः-सङ्केतव्यवहारः॥ न शब्द इति । प्रकृते तु श्रूयमाण एव शब्दो विशेषणतामभुते, सत्र नु स्मृत इत्यस्ति विशेष इत्याशयः । पुनरप्यवैलक्षण्य मेवोपपादयति...सङ्केतेति । न हि पार्यन्त इति । शब्दानां द्विक्षणावस्थायित्वादित्याशयः । नाव-स्त्र. मवहार-क.. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकृत्यम् न्यायमचरी अन्त्यवणे तु 'गृह्यमाणे स्मर्यमाणे वा किं शब्द'व्यापारो विशिष्यते? ननु ! व्यवहारकाले गवादिनामधेयपदमात्रमेव स्मर्यमाण. मिन्द्रियेण सह सविकल्पप्रत्ययोदये व्याप्रियते । सङ्केतकाले तु संज्ञोपदेशिवृद्धवाक्यं-इति चेत-मैवम्--व्यवहारकालेऽपि संशो. पदेशकं वृद्धवाक्यमेव स्मयते, तदस्मरणे तच्छब्दवाच्यताऽनवगमात्। 'अस्य गौरिति नाम देवदत्तनोपदिष्टमासीत्' इत्येवमनु.. स्मृत्य • गोशब्दवाच्यतयैवं व्यवहरतीति वाक्यस्मरणज'मेवेदं' ज्ञानम् तस्मादस्यापि तद्वाक्यं संशाकर्मोपदेशकम् । हेतुतामुग्यातीति शाब्दमेतदपीप्यताम् ॥ ४४॥ एवमस्त्विति चेत् शान्तमेवं सति तपस्विनाम् । नैयायिकानामुत्पन्नं प्रत्यक्षं सविकल्पकम् ॥ ४५ ॥ यत्र मार्गान्तरेणापि सङ्केतज्ञानसभवः। तत्राप्यनेन न्यायेन शाब्दता न निवर्तते ॥ ४६॥ नैयायिकानां च सविकल्पप्रत्यक्षमयाः प्राणाः। तस्मान्नोभयजस्य शाब्दत्वं ज्ञानस्य वक्तव्यम् ॥ ननु व्यवहारकाले कृत्स्रस्यापि शब्दस्य स्मरणं, प्रकृने तु अन्तिमवर्णोऽनुभूयत एवेत्याशङ्कायामाह-अन्त्यवर्णे विति । किं विशिष्यत इति । न हि अन्तिमवर्णग्रहणमानं बोधजनकं, किं तु तेन कृत्स्नवर्णस्मरगेन पदोपस्थित्या खलु बोधो निर्वाह्यः। तथा च को विशेष इत्याशयः॥ पुनरपि सिद्धान्ती वैलक्षण्यमुपपादयति नन्विति। तदस्मरणेवृद्धवाश्यास्मरगे। अस्य-प्रत्ययस्य । इष्टापत्तौ बाधकमाह -शान्तमिति । सविकल्पक प्रत्यक्षं शान्तमित्यर्थः । कुत इत्यत्राह - यत्रेत्यादि । वाच्यत्वं हि केवलान्वयि । अतः सविकलर सर्व वाचकावच्छिन्नमेवेति शाब्दमेव स्यात् । स्रविकल्पकप्रत्यक्षहानी च नैयायिकमतमेवोच्छिद्येत । नेयायिकाः खलु भेदवादिनः । गृखमाणे वा शह-क. -क. मेव-क. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् २] अव्यपदेश्यपदप्रयोजनम 223 ___ सम्बन्याधिगमस्तु नानाप्रमाणकः। तत्र स्वे म्वे विषये सत्तत्प्रमाणं प्रवर्तते। यथाऽऽह भट्टः ‘सम्बन्धः त्रिप्रमाणकः' (श्लो. वा. सम्ब. परि-१४१) इति। तस्मान्नैकस्य शब्दस्य भारः आरोपणीयः। प्रत्यक्षं तु सङ्केतग्रहणकालेऽपि स्वविषय ग्राहकमिति नोभयज'शान'व्यवच्छेदपक्षो निरवद्यः। तस्माद्वरं जरनैयायिककथितशब्दकमतापनशानव्यवच्छेदपक्ष इनि स एवाश्रीयताम्। तत्र सावत् कर्मणि कृत्ये कृते व्यपदेश्यशब्दो यथार्थतरो भवति ॥ . [शब्दन्द्रियजज्ञानस्य न पञ्चमप्रमाणत्वम] मनु तत्र नोदिनं ; न तादृशं शानमप्रमाणं, न पञ्चमं प्रमाण मिति ...सत्यम् अयन्तु तपामाशयः। रूपा देविषयग्रहणाभिमुह भेदश्च सविकल्पविषयः । निर्विकल्पस्य वस्तुद्वयविषयकवाभावात्। भतश्च सविकल्पप्रत्यक्षहानौ भेदवादिनो नैयायिकस्य प्राणोच्छेद एवेति ॥ नानाप्रमाणकः -प्रत्यक्षानुमानादिप्रमाणकः। ननु कथमेकस्मिन्नेव विषये एकदेव नानाप्रमाणप्रवृत्तिरित्यत्राह-स्वे स्वे इति । सम्बन्ध इति । मर्थानुवादोऽयम् । वृद्धव्यवहाराच्छक्तिग्रहणोपपादनप्रकरणगतमिदम्। तथा हि-- 'शब्दवृद्धाभिधेयांश्च प्रत्यक्षेणात्र पश्यति । श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वमनुमानेन चेष्टया। अन्यथाऽनुपपत्त्या . बुद्यच्छक्ति द्वयाश्रिताम् । अर्थापत्त्याऽव. बुधन्ते संबन्धं निप्रमाणकम्' इति वार्तिकम्। भयमर्थ:--म्युत्पित्सु लः, वाचकं शब्द, तत्प्रयोक्तारं प्रयोजकवृद्ध, तदर्थं च गवादिकं प्रत्यक्षेणेव जानाति ; तय शठई श्रोत्रेण, इतरी चक्षुषेति विशेषः। अनन्तरं स एव म्युत्पित्सुः गवानयनादौ प्रवर्तमानस्य श्रोतु:-प्रयोज्यवृद्धस्य अर्थज्ञानं गवानयनादिव्यापारेणानुमिनोति । ततः अस्य शब्दस्यास्मिन्नर्थे शक्तिमन्तरा अर्थज्ञानमेव न स्यादिस्यापत्त्या वाच्यवाचकभावरूपा शक्तिं गृह्णानि। एवं शक्तिज्ञानस्य प्रत्यक्षअनुमान-अर्थापत्त्यधीनस्वेऽपि अर्थापत्तिरभ्यर्हिततम उपायः। न हि हेतूनां सर्वेषां दण्डचक्रनमणादीनामेकल्पमेव हेतुन्वं संभवति । अत एव 'त्रिप्रमाणकम् ' इत्युक्तम् । अत्र यद्यपि अर्थापत्तिर्नातिरिक्तं प्रमाण, अथापि प्रमाणमेवेति न विरोधः। भारः- शक्तिग्राहकत्वम्। जरनैयायिका:भाष्यकाराः। कृत्ये 'अहे कृत्यतृचश्च' इत्युक्तकृत्यप्रत्यये। यथार्थतरा-शब्दकर्मकत्वादन्वर्थः ॥ तेषां ---भाष्यकाराणाम् ॥ 'वानपक्ष-क. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 प्रत्यक्षलक्षणम कदलस्यम् [ न्यायमञ्चरी तदक्षजं ज्ञानं 'प्रमाण' फलं घोच्यते । यदा तु तदेव शब्देनोच्यते रूपज्ञानं रसज्ञानमिति, तदा रूपादिज्ञानविषयग्रहणव्यापारलभ्यां प्रमाणतामपहाय शब्दकर्मतापत्तिकृतां प्रमेयतामेवावलम्बत इति न तस्यां दशायां तत्प्रमाणमिति कुतः पञ्चमप्रमाणप्रसङ्ग इति ॥ [ मतान्तरेण 'अव्यपदेश्य 'पदप्रयोजनवर्णनम् ] अपर आह-- सविकल्पकस्य शब्दसङ्कल्पकस्य शब्दसंसर्गसापेक्ष जन्मनः प्रत्यक्षज्ञानस्य शाब्दतां पूर्ववदाशङ्कय तस्यैवशाब्दत दर्शयत्यव्यपदेश्यपदेन सूत्रकारः । प्रत्यक्षमेव तत् ज्ञानम, इन्द्रियास्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्, अव्यपदेश्यं - अगाब्दमित्यर्थः ॥ स्पष्टत्वात् वाचकाभावात् इन्द्रियानुविधानतः । लोकस्य सम्मतत्वाच्च प्रत्यक्षमिदमिष्यते ॥ ४७ ॥ शब्दानुस्मृतिजन्वेऽपि न शाब्दं ज्ञानमीदृशम् । शब्दस्मृतिः सहायः स्यात् इन्द्रियस्य प्रदीपवत् ॥ ४८ ॥ [निर्विकल्पकस्य सूत्रारूढत्वोपपादनम् ]. नन्वेवं सविकल्पस्य प्रत्यक्षत्वे प्रसाधिते । नेदानीं सगृहीतं स्यात् प्रत्यक्ष निर्विकल्पकम् ॥ ४९ ॥ 'यस्तु' शब्दानुवेधेन शाब्दत्वं सविकल्पके | कश्चिदाशङ्कते, तस्य प्रतिशब्दोऽयमुच्यते ॥ ५० ॥ यत्र शब्दानुवेधेऽपि प्रत्यक्षं ज्ञानमिष्यते । तत्र तत्स्पर्शशून्यस्य तथ त्वे का विचारणा ॥ ५१ ॥ निर्विकल्पकवत्तस्मात् प्रत्यक्षं सविकल्पकम् । समग्रहीच्च तदिदं पदेनानेन सूत्रकृत् ॥ ५२ ॥ , I स्पष्टत्वात् - इतर प्रमाणापेक्षया संशयावकाशविरदत्वात् स्पष्टत्वम् । वाचकाभावात् - वाचकभानरहितत्वात् । यस्त्विति । अस्य ' आशङ्कते इत्यनेनान्वयः । प्रतिशब्दः - प्रत्युत्तरम् । सविकल्पकस्यैव प्रत्यक्षत्वे निर्विकरूपकस्य प्रत्यक्षत्वं कैमुतिक सिद्धमित्याह यत्रेति । यत्र - सविकल्पके। तत्रनिर्विकल्प । तत्स्पर्श:- शब्दभानम् । निर्विकल्पकस्य प्रत्यक्षत्वं कैमुतिकसिद्धमिति तस्य दृष्टान्तत्वाभिधानम् ॥ 1 प्रमाणं बा-ख. ' शब्दसं-क. ग. mar यत्र - क. यतु-ख. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 आह्निकम् २] अव्यभिचारिदलप्रयोजनम् इत्याचार्यमतानीह दर्शितानि यथाऽऽगमम् । यदेभ्यः सत्यमाभाति सभ्यास्तदवलम्ब्यताम् ॥ ५३ ॥ 'थम्यमिचारि पदप्रयोजनम्] . भन्यमिचारिग्रहणं व्यभिचारिशानव्यवच्छेदार्थम् । यथाग्रीष्मे तपति ललाटन्तपे तपने तन्मरीचिषु चतुरमूषरभुवमभिहस्य समुत्फलितेषु तरङ्गाकारधारिषु यत् 'वारिशानं, सत् अतस्मिस्तदितिग्रहणात् व्यभिचारि भवति। तत् अनेन पदेन व्यवच्छिद्यते, न तत् प्रत्यक्षमिति ॥ तत्र निर्विकल्पकमपि प्रथमनयनसन्निपात ज्ञानमुदक'सविकल्पकचानजनकं उदकग्राह्येव' न यथा, 'तथा तथा गताः कथयन्ति । मरीचिविषयमविकल्पकं ज्ञानं उदकविकल्पकजननात् अप्रमाणमिति। निर्विकल्पावस्थायामविचार यत एव प्रथमो. न्मीलितचक्षुषो झटिति सलिलप्रतिभासात् ॥ चतुरं इति प्रतिफलनक्रियागः विशेषणम्, भभिहननस्य वा। न तत् प्रत्यक्षमिति । प्रत्यक्षप्रमाणस्य खलु लक्षणमुध्यत इत्यर्थः ।। . ननु मरीचिषु प्रथमाक्षपातजं हि ज्ञानं निर्विकल्परूपं प्रमाणमेवेति : कथमुच्यते तस्य व्यावृत्त्यर्थं भव्यभिचारीतिविशेषणमित्यत्राह-तत्रेति । प्रथमनयनसन्निपातजमपीत्यन्वयः। उदकग्राह्येव नेति। न ह्यदकेन साकं चक्षुषस्सन्निकर्षः, किन्तु मरीचिमिरेवेति हेतुः। ननु तर्हि मरीचिविषयकं तज्ज्ञानं कथमप्रमाणमित्यत्राह-मरीचीत्यादि। अन्यथा हि उदकसन्निकर्षजोदकज्ञानस्य मरीचिसन्निकर्षजोदकज्ञानस्य च वैलक्षण्यमेव दुर्वच स्यादित्याशयः। वस्तुतस्तत्र निर्विकल्पमपि न मरीचिविषयकमित्याहनिर्विकल्पेति । अविचारयत इति प्रथमाक्षसन्निपातजत्वोपपादनाय ।। बारिधि-ख. ज-ख. ग्राह्येव-क. तथा-क. साव-ख. वन-क. NYAYAMANJARI Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षणघटकदलकुल्यम् 228 न्यायमगरी - अथवा याचकोल्लेखपूर्षिका अपि संविदः नैवेन्द्रियार्थजन्यत्वं जहति इत्युग्पादितम् । तस्मात् सविकल्पकमविकल्पकं वा यत् अतस्मिस्तदिति ज्ञानमुत्पद्यत तत् व्यभिचारि । नञ्चह व्यावर्त्यमिति ॥ (इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नपदेनैव भ्रमव्यावृत्तिशङ्का, समाधानं च] ननु! मरीचिषु 'जलज्ञान'मविद्यमानस लिलावभासित्वात् अनिन्द्रियार्थसन्निकर्षजम् । अतश्चन्द्रियार्थमन्निकर्षे त्पन्नपदेन तयदास सिद्धः किमव्यभिचारपदेन ? नैतदेवर-- तस्येन्द्रियार्थजन्यत्वं सिद्धं तद्भावभावतः । न ह्यनुन्मीलिताक्षस्य मरौ म ल लवेदन ॥ ५४ अर्थोऽपि जनकस्तस्य, विद्यत नासतः प्रथा। [भ्रमस्थले विषयभानप्रकार चिन्ता] । तदालम्बनचिन्तां तु त्रिधाऽऽचार्याः प्रचाकरे ॥ ५ ॥ कैश्चिदालम्बनं तम्मिन् रक्तं मूर्यमरीचयः । निगूहितनिजाकाराः सलिलाकारधारिणः ॥ ५६ ॥ __ तुष्यत्वित्यादिन्यायेनाह -- अथवेति । वाचकोल्लखेत्यादि : मरीचिका पश्यपि भ्रान्त. 'उदकमिद ' इति ग्खलु जानाति । अतः अतस्भिस्तद्पन्वं दुरपह्नव नेवेत्याशयः ॥ तद्भव वितः—इन्द्रियार्थसन्निकर्षे सत्येवोत्पादात् । किं ततः? इत्यत्राह -- अऽपीति। असदर्थविषयकत्वमेव कुतो न स्यादित्यत्राहबिद्यत इति । प्रथा-प्रकाश , प्रतीतिरिति यावत् । उक्तं इति विधेयप्राधान्यात्कथनम् ॥ ननु स्वासाधारणाकारतिरोभावमात्रेणान्याकारस्य कथं तत्र भानम् ? न हि सलिलेन्द्रिय सन्निकर्षस्तत्रोपपादयितुं शक्य इति शङ्कायामाह मान-क. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २ ] तत्र तरङ्गादिसामान्यधर्मग्रहणे सति न स्थाणुपुरुषवत् उभयविशेषाः स्मरणपथमवतरन्ति । न च सन्निहितमरीचिविशेषाः स्मरणपथमवतरन्ति । किन्तु पूर्वोपलब्धविरुद्ध सलिलवर्तिनो विशेषः । तत्स्मरणाच्च स्थगितेषु स्त्रविशेषेषु मरीचयः स्वरूपमुपदर्शयितुमशक्नुवन्तः तोयरूपेणावभासन्ते ॥ भ्रमस्वरूपे पक्षभेदा: [ मतान्तरेण भ्रमोपपादनम् ] अन्ये त्वालम्बनं प्राहुः पुरोऽवस्थितधर्मिणः । सादृश्यदर्शनोद्भूतस्मृत्युपस्थापितं पयः ॥ ५७ ॥ 227 . यत्र किल ज्ञाने यत् रूपमुपप्लवते, तत् तस्यालम्बनमुच्यते, न 'सन्निहितम् ; भूप्रदेशस्य तदारंभकाणां च परमाणूनां तदालम्बनत्वप्रसङ्गात् । इदं च सलिलावभासि विज्ञानम् । अतस्तदेवास्या - लम्बनम् । तच्च नेह सन्निहितम्' । न चैकान्तासतः खपुष्पादेः ख्यातिरवकल्पत इति देशान्तरादौ विद्यमानमेव सलिलं सदृशदर्शनप्रबुद्धसंस्कारोपजनितस्मरणोपारूढ महावलम्बनीभवति ॥ तत्रेत्यादि । तरङ्गादीति । तरलत्वादीति यावत् । ननु तर्हि संशयरूपत्वं कुतो न ? इत्यत्राह - न स्थापिवति । अत्र नमः स्मरणपथमवतरन्तीत्यनेनान्वयः । मरीचेस्तथैव कुतो न भानम् ? इत्यत्राह - न चेति । पूर्वोपलब्धं यत् मरीचित्वं, तद्विरुद्वा ये सलिलवर्तिनो विशेषाः सलिलत्वादय: ते न स्मरणपथमवतरन्तीत्यन्वयः । तत्स्मरणात् सलिलत्वादिस्मरणात् । स्थगितेषु - आच्छादितेषु । स्वविशेषेषु - मरीचित्वादिषु ॥ धर्मिणः इत्यस्य सादृश्य पदार्थेनान्वयः । ननु इन्द्रियसन्निकर्षस्तु मरीचे, आलम्बनखं तु पयस इति कथं घटतामित्यत्राह--यत्रेत्यादि । अयं भाव: - इन्द्रियसन्निकर्षमात्रं न ज्ञानविषयताप्रयोजकम् पुरोवर्तिधर्म्यतिरिक्तानां भूप्रदेश- तदुपादानपरमाणूनां च इन्द्रियसन्निकर्षे सत्यपि ज्ञानाविषयत्वात् । ' इदं जलम् ' इत्येव खलु ज्ञानस्याकारः । अत्र ' अयं देशो जलवान्' इति देशस्याप्यालम्बनत्वं कदाचित संभवेत्, परमाणूनां तु तदपि 1 सन्निहितम् - ज्ञ 15* Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षलक्षणघटकदल कृत्यम् 228 न्यायमरी (तत्रैव पक्षान्तरोपपादनम्] अन्यदालम्बनं चान्यत् प्रतिभातीति केचन । आलम्बनं दीधितयः तोयं च प्रतिभासते ॥ ५८ ॥ कर्तृकरणव्यतिरिक्तं ज्ञानजनकमालम्बनमुच्यत इति न परमाण्वादौ प्रसक्तिरिति। तदिदं पक्षत्रयमपि उपरिष्टानिपुणतरं निरूप. यिष्यते (३ आह्निके) ॥ तदेवं बाह्येन्द्रियार्थान्वयव्यतिरेकानुविधायिनां विभ्रमाणामिन्द्रियार्थ सन्निकर्पोत्पन्नपदेन निरसितुमशक्यत्वात् युक्तमव्यभि चारिपदोपादानम्॥ [मानसविभ्रमाः] 'ये तु'-मानसाः विभ्रमाः बाह्येन्द्रियानपेक्षजन्मानः---तेषामिष्यत एवेन्द्रियार्थसन्निकर्षपरेन पर्युदसनमिति न तदर्थमव्यभि-. चारिपदोपादानम्। सद्यथा घिरहोद्दीपितोद्दामकामाकुलितदृष्टयः । . दूरस्थामपि पश्यन्ति कान्तामन्तिकवर्तिनीम् ॥ ५९ ॥ [मानसविभ्रमहेतवः] - ननु! एवंप्रायेषु निरालम्बनेषु विभ्रमेषु कुतस्त्यः आकारः प्रतिभाति? उच्यतेनेति । अतो यत् प्रकाशते तदेवालम्बनम् । प्रकृते च सलिलमेव प्रकाशत इति तदेवालम्बनम् । एवमालम्बनत्वे सिद्धे तस्योपस्थितियथाकथञ्चित वक्तव्येति स्मरणमेवोपस्थापकं कल्प्यत इति ॥ कर्तृकरणेति । एवञ्चास्मिन् मते यत् प्रकाशते तदेवालम्बनमिति न नियमः। एवञ्चात्र प्रथमपक्षे मरीचीनामेव विषयत्वं, तोयभानं तु ज्ञानाख्यप्रत्यासत्या। द्वितीयपक्षे तयैव प्रत्यासत्या तोयानामेव विषयत्वम्। तृतीयपक्षे तु विषयत्वं अन्यस्य, भानं चान्यस्येति नायं दोष इति विशेषः॥ निरालम्बनेष्विति --मरीचिजलज्ञानादौ हि पुरोवस्थितासु मरीचिषु जलप्रतिभास इति साधिष्टानकोऽयं भ्रमः। कामुककान्तादर्शनादौ कस्मिन् पुरोवर्तिनि कान्ताप्रतीति:। न हि निरधिष्ठानको भ्रमः सिद्धान्तेऽङ्गीकर्तुं शक्यते । शून्यवादावतारप्रसङ्गात् इति भावः ॥ यत्त-ख. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलिकम् २] भ्रमहेतव: आकारः स्मृत्युपारूढः प्रायेण स्फुरति भ्रमे । स्मृतेस्तु कारणं किञ्चित् कदाचित् भवति क्वचित् ॥ ६०॥ क्वचित् सदृशविज्ञानं कामशोकादयः क्वचित् । 'क्वचित्तु' दर्शनाभ्यासः तिमिरं चक्षुपः क्वचित् ॥ ६१ ॥ चिनिद्रा कचिचिन्ता धातूनां विकृतिः क्वचित् । अलक्ष्यमाणे तद्धेतौ अदृष्टं स्मृतिकारणम् ॥ ६२ ॥ बालस्येन्दुद्वयज्ञानमस्ति नास्तीति वेत्ते कः । अस्तित्वेऽपि स्मृनौ हेतुमदृष्टुं तस्य मन्यते ॥ ६३ ॥ नूनं नियमसिद्धयर्थं जनकस्यावभासनम् । न चैकान्तासतो दृष्टा ज्ञानोत्पादनयोग्यता ॥ ६४ ॥ 'न च सन्निहितं वस्तु तत्रास्ति वनितादिकम् । तेनेदं स्मृत्युपारूढं अवभातीति मन्वते ॥ ६५ ॥ तत्राद्येन पदेनैताः स्वान्तःकरणसं भवाः । निरस्ता भ्रान्तयोऽक्षादिसंसर्गरहितोदयाः ॥ ६६ ॥ 'याः पुनः पीतशङ्खादिमरुनी। दिबुद्धयः । जास्तदासाय सूत्रे पदमिदं कृतम् ॥ ६७ ॥ 229 स्मृत्युरूढ इति । एवञ्च पुरोवर्तित्वांशे परं भ्रम इति भाव: । अलक्ष्यमाण इति । तद्धेतौ भ्रमहेतौ अलक्ष्यमाणे- प्रत्यक्षतोऽगृह्यमाणे मष्टं वा स्मृतिकारणं कल्पनीयमित्यर्थः । ननु बालस्य कथं पूर्वोक्तदोषाणां प्रसङ्गः ? कथं वा तस्य भ्रमोत्पत्तिः ? इत्यत्राह - बालस्येति । स्मृताविति । 'आकार: स्मृत्युपारूढः' इत्यत्रोक्तायां भ्रमहेतुभूतायां स्मृतौ इत्यर्थः । नियमसिद्धयर्थ - कार्यकारणयोर्व्याप्तिसिद्धयर्थं अत्रापि जनकस्य - भ्रमहेतोः अवभासनं नूनमङ्गीकर्तव्यम् । अन्यथा कुत्रापि कार्यात् कारणानुमानं न स्यादित्यर्थः । नमु निरधिष्ठान एव वनितादिभ्रमः कुतो न स्यादित्यत्राह - -न चेति । आद्येन पदेन - इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पपदेन । पदम् । एवञ्च भ्रमः द्विविधः - अम्तर्गताकारे एव वस्तुनि आकारान्तरविषयक इति सर्वोऽपि भ्रमः सालम्बन एवेति || 1 कचिश्व - ख. इदं पदं - अव्यभिचारिबहिष्टत्वविषयकः, बहिर्गत Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 प्रत्यक्षलक्षणयटकदलकृत्यम् न्यायमञ्जरी [व्यवसायात्मक'दलप्रयोजनम् दुरात स्थाणुपुरुषसाधारणं धर्ममारोहपरिणाहरूपं उपलभमानस्य तयोरन्यतरत्र वर्तमानान् वक्रकोटगदीन् कर'चरणादीन्' वा विशेशनपश्यतः समानधर्मप्रबुद्धसंस्कारतया चोभयवर्तिनोऽपि विशेषाननुस्मरतः पुरोऽवस्थितार्थविषयं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयज्ञानमुपजायत । तत् इन्द्रियार्थसन्निकर्षोतानत्वादिविशेषणयुक्ताप न प्रत्यक्षफलम्। अतस्तद्यवच्छेदाय व्यवसायात्मक ग्रहणम् ॥ ['इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न'पदेन न संशयव्युदाससंभव: ननु! मानसत्वात् संशयज्ञानस्य इन्द्रियार्थसन्निकर्षीत्पन्नग्रहणेन निरासः सिद्धयत्येव ; किं पदान्तरेण ? तथा च भाष्यकार:'स्मृत्यनुमानागमसंशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहसुखादिप्रत्यक्षं इच्छा दयश्च मनसो लिङ्गानि' (न्या. भा. १-१-१६) इति वक्ष्यति । मैवम्-स्थाण्वादिसंशयस्य बाह्येन्द्रियान्वयव्य तिरेकानुविधा. यित्वात्। कश्चिद्धि मानसः संशयः समस्त्येव; यथा---- दैशिकस्य ज्योति णकादेः एकदाऽन्यदा चासम्यगादिश्य तृतीय पदे पुनरादिशतः संशयो भवति--किमयमम्मदादेशः संवदेत् ? उत विसंवदेत्?' इति। स भाष्यकृतश्चेतसि तयोः-स्थाणुपुरुषयोः। उभयवर्तिनोऽपि विशेषाननुस्मरत इत्यनेन भ्रमवैलक्षण्यमुक्तम् ॥ मानसत्वादिति। इन्द्रियेण धर्मिणि गृहीतायां साधारणधर्मयोः स्मरणे च पश्चाजायमानः संशयो मानसिक एव। न हि तत्र वस्तुद्वयेन साकमिन्द्रियसन्निकर्षों वर्तत इत्यर्थः। संशयस्य मानसत्वे संवादमाह- तथा चेति। कार्यात् खलु कारणानुमानमिदम् । तेन च संशयस्य मनःकारणकत्वमुक्तं भवतीत्यर्थः । बाह्यन्द्रियेति । तथा च चाक्षुष एवायं स्थाणुपुरुषसंशय इत्यर्थः । ननु तर्हि मानस: सशय एव नास्ति किम् ? इत्यत्राहकश्चिदिति। दैशिकः-ग्रामीणः। भाष्यमप्येतद्विषयमित्याह - स भाष्यकृत 1 चरणान्-ख. बक्ष्यते -क. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माठिकम् २] व्यवसायात्मकदलप्रयोजनम् 231 केवलमनःकरण इति स्थितः। यस्तु विष्फारिताक्षस्य 'स्थाणुर्वा ? पुरुषो वा ? ' इत्यादिः संपद्यते संशयः तमनिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं को नामाचक्षीत! [अव्यभिचारि पदेनापि न संशयव्युदाससंभवः] ननु! अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं व्यभिचारि व्याख्यातम् । एकरूपं च पुगेऽवस्थितनर्थ अनेकरूपतया स्पृशति संशयः-'स्थाणुर्वा ? पुरुषो वा?' इति । सोऽयमतस्मिंस्तथाभावात् विपर्यय एवेति पूर्वपदव्युदस्तत्वात् न पदान्तरव्यवच्छेद्यतामहतीति । नैतदेवम्स्वरूपभेदात् 'कारण मेदाच्च। 'एकमेव विरुद्धमाकारमुल्लिखन् विपर्ययो जायते-स्थाणौ पुरुष इति, पुंसि वा स्थाणुरिति। अनियताकारद्वयोलेखी तु संशयो भवति-स्थाणुर्वा स्यात् ? पुरुषो वेति । सोऽयं स्वरूपभेदः प्रत्यात्मसंवेद्यः॥ ___ कारण भेदश्च'-विरुद्धविशेषस्मरणप्रभवो विपर्ययः-शुक्तिकायां सन्निहितायां रजतविशेषान् , मीचिषु सन्नहितेषु सलिलगतविशेशननुस्मरतः विपर्ययो भवति ; उभयविशेषस्मरणजन्मा तु संशय इति-पदान्तरनिरसनीय एवायम् ॥ इति। एवं मानससंशयसत्वेऽपि संशयसामान्यस्य मानसत्वाभावात् इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नपदेन न व्युदासः ॥ . नन्विदं अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं कथं भवेत् । तत्र हि पुरोवर्तिनि स्थाणुत्वं पुरुषत्वं वा वर्तत एवं खल्वित्यत्राह- एकेति। स्थाणुत्वपुरुषत्वान्यतरवत् तदन्यतराभावोऽपि तत्र वर्तत एव, तयोविरुद्वस्वादित्यतस्मिंस्तदिति ज्ञानमेव तदिति । स्वरूपभेदादिति । विपर्ययापेक्षयेति शेषः । एकमेवेति आकारविशेषणम् ॥ पदान्तरेत्यादि। अव्यभिचारिपदेन न मंशयव्युदास इत्यर्थः । एतदुक्तं भवनि। प्रतीतः आकारो यदि धर्मिणि नास्ति, तदा तत् ज्ञानं ग्यमिचरितमित्युच्यते । संशयस्थले तु प्रतीतः एकः भाकारः धर्मिण्यस्त्येवेति संशयः व्यभिचरित इति न वक्तुं शक्यत इति ॥ 1 करण-क. 'एवमेव-ख. मेदस्त-स. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 प्रत्यक्षलक्षणघटकदककृत्य ['अव्यपदेश्य' पदेनैव 'व्यवसायात्मक' पदं न चरितार्थम् ] ननु ! संशयविपर्यययोरपि निर्विकल्पयोरसंभवात् अव्यपदेश्यपदेनैव प्रवरपक्षे प्रतिक्षेपः सिद्धयेत् । पुरोऽवस्थित स्थाण्वादिधर्मिदर्शनमात्रमेव निर्विकल्पक मिन्द्रियव्यापारजम् । अनन्तरन्तु उभयान्यतर' विशेषणस्मरणजन्मनो रुल्लिखित शब्दयोरेव संशय विपर्य.. ययोरुत्पादः । तत्र विशेषस्मृत्यैव शब्दानुवेधस्याक्षेपात् । अतः पदद्वयमपि तद्व्युदासाय न कर्तव्यम् ॥ [ न्यायमञ्जरी - 'देव' तावद्वक्तव्यम् । प्रघरपक्षः प्रतिक्षिप्त एव यतः शब्दानुवेधजातमपि प्रत्यक्षमुपपादितम् ॥ [' इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न' पदेनापि न संशयविपर्ययव्युदाससंभवः ] ननु ! भवतु प्रवरपक्षः प्रतिक्षिप्तः । सदृशदर्शन निष्ठिते तु नयनव्यापारे, विशेषस्मृते रूर्ध्वमुपजायमानौ संशयविपर्ययौ नेन्द्रियजाविति प्रथमपदेनैव निरस्तौ भवतः - सदसत् - स्मृते रूर्ध्वमपी निर्विकरूपयो: --- शब्दाननुविद्धयोः । प्रवरः- भाष्यकारः । ' यक्षपादः प्रवरो मुनीनां' इति वार्तिकोक्तेः तथा निर्देशः । असंभवदोषनिरासकतया अध्यपदेश्यपदस्य स्वेन व्याख्यातस्वात् ' प्रवरपक्षे' इत्युक्तम् । अव्यपदेश्यपदेन तयोर्निरासमेवोपपादयति-- पुरोऽवस्थितेत्यादि । उभयान्यतरे ति यथाक्रमं संशयविपर्ययाभिप्रायम् । अव्यपदेश्यपदेन संशयविपर्ययग्युदाससूचनाय - उल्लिखितशब्दयोरिति । उल्लिखित शब्दयोरिस्य प्रमाणमाह-- तत्रेति । उपपादितं - ( पूर्व २०५, २१५ पुटे) : तथा च नानेन संशयव्यावृत्तिः ॥ 2 अत्र तदेव स्व नविन - - यद्यप्यनुपदमेव संशयविपर्यययोरौद्रयिकत्वमुक्तं, तथाऽपि तदेवाक्षिप्यत इति मन्तव्यम् । पूर्वं हि इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात् ऐन्द्रियकत्वमुक्तम् । इन्द्रिय व्यापारस्तु सदृशदर्शने पर्यवस्यतीत्याक्षेपः । सदृशदर्शन निष्ठिते - सहगदर्शन एवं विश्रान्ते । एवञ्चानन्तरमिन्द्रिय व्यापाराभावात् कथं तयोरिन्द्रियार्थसन्निकर्षं जन्यत्वम् ? न हि संशयविपर्यययोः ' जन्मनो-क Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालिकम् २] प्रत्यक्षपदनिर्वचनम् 233 न्द्रियव्यापारानुवृत्तरित्युक्तत्वात् । एतचाम्वयव्यतिरेकाभ्यामव. गम्यते, निमीलितचक्षुषस्तदनुत्पादात् । न च तदानीमन्त:सङ्कल्परूपेणापि शब्दोल्लेखः । उत्पन्ने तु संशये विपर्यये च वाचकस्मरणं भविष्यतीति सम्यग्ज्ञानवत् संशयविपर्ययावपि शब्दोल्लख. शून्यौ संवेद्यते । विशेषस्मृतिस्तु विशेषविषयत्वात् तानेवाक्षिपतु । शब्दस्य किं वर्तते? वाचकशब्दस्मृतिस्तु शब्दमुपस्थापयति । सा च न ताव'दुत्पन्नेति॥ . सम्यक्प्रत्ययवत्तस्मात् वाचकोल्लेखवर्जितौ। अक्ष'व्यापारजौ न स्तः न संशयविपर्ययौ ॥ ६८ ॥ ईशयोः कथमनयोराद्यपदव्युदसनीयता? तस्मात् । सदपाकृतये युक्तं पदद्वयस्याप्युपादानम् ॥ ६९ ॥ • ["प्रत्यक्षं ' इति पदम्याख्यानम् ] एवं लक्षणपदानि । लक्ष्यपदं तु 'प्रत्यक्षम्' इति ज्ञानविशेष रूल्यैव प्रवर्तते; योगस्य व्यभिचारात् । प्रति गतमशं प्रत्यक्षमित्यक्षरार्थः। स चायं सुखादावपि संभवतीति रूढिरेव साधीयसी॥ प्रकारतया भासमाने वस्तुनि इन्द्रियसम्बन्धोऽस्ति । अन्यथा म्याप्तिग्रहणकाले बढेरेन्द्रियिकत्वात् अनुमानेऽपि वढेरैन्द्रियिकत्वं स्यादिति भावः। स्मृतेरनन्तर. मपि कुतः इन्द्रियव्यापारापेक्षेस्यत्र अनुभवं पृच्छेति वदति-एतच्चेति। तदनुत्पादात--संशयविपर्यययोरनुत्पादात् । तयोः प्रकारांशे इन्द्रियसविकर्षाभावेऽपि, विशेष्यांशे अस्स्येव सः। ततश्च प्रत्यभिज्ञावत् तावपि प्रत्यक्षावेवेति म निराससंभवः। सम्यग्नानं-शब्दाननुविद्धप्रमात्मकसविकल्पकज्ञानम् । तानेव--विशेषानेव। एवकारेण शब्दन्यवच्छेदः। अक्षव्यापारजौ न स्त इति न इत्यन्वयः ॥ ज्यभिचारमेवोपपादयति-प्रति गतमिति। इन्द्रियसम्बद्धमित्यर्थः । सम्बन्धश्च जन्यजनकभावः। एवञ्च सुखादीनामपि मामसत्वादतिम्याप्तिः । बायेन्द्रियमात्रविवक्षायामात्मप्रत्यक्षादावग्याप्तिप्रसाः ।। 1 दुपपन्नेति-ख. व्यापारजन्मानौ तस:-ख. ..' Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 984 प्रत्यक्षलक्षणविचारनिगमनम न्याचमारी __ [सूत्रे 'प्रत्यक्ष पदं यौगिकमपि स्यात् ] अथवा ज्ञानपदस्य सूत्र निर्देशात् योगपक्षोऽप्यस्तु। न चासौ दृश्यमानो निहोतुं युक्तः। योगरूढिस्तु नाम न सातैव विदुषाम्। यत्रापि हि द्वयं दृश्यते तत्रापि शब्दप्रवृत्तौ प्रयोजकमेव भवति ॥ कथं पुनः अक्षं प्रति गतं ज्ञानमिप्यते ? न संयोगित्वेन; अञ्जनादेः प्रत्यक्षप्रसङ्गात् । न समवायित्वेन ; अक्षवर्तिनां रूपादीनां . तथात्वप्रसङ्गात् । न जनकत्वेन; अक्षारंभकाणां परमाणूनामपि ..थाभावप्रसक्तेः। तस्मात जन्यत्वेनैव ज्ञानमक्षं प्रति गतमिति व्याख्येयम् ॥ अव्ययी विव्याख्यानं तु न युक्तम् । प्रत्यक्षः पुरुषः, प्रत्यक्षा स्त्री, इत्यादिव्यवहारदर्शनात् -- इत्यलमतिप्रसङ्गेन ) . . अर्थपोष्कल्ये संभवति डिस्थादिण्दव वलसाङ्केतिकत्वं न युक्तमित्यत भाह- अथवेति । तर्हि सुखादौ कथं व्यभिचारवारणमित्यत्राह -- झानपदस्यति। दृश्यमानः- प्रतीयमानः। ननु कुत. योगरूढयोर्विकरणदरणं, अस्तु तयोस्समुच्चयेन बोध इत्यत्राह--योगरूढिस्त्विति। एतत्तत्त्वं शब्दप्रकरणे स्पष्टीभविष्यति । द्वयं--योग: रूटिश्च । प्रयोजकमेवेति । अन्यतरदिति शेषः । पङ्कज नकर्तृत्वसाम्यात भेकादिषु पङ्कजपदप्रयोगवारणाय परं रूब्यपेक्षा, न त्वर्थबोधायेति । प्रत इत्यस्य विवरणं गतमिति ॥ प्रत्यक्षप्रसङ्गात्- प्रर क्षत्वप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षपदवाच्यत्वमसङ्गादिति वा॥ न युक्तमिति । अत्र-यद्यपि भाष्ये ' अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्ति: प्रत्यक्षम्' इति कर्थनादब्ययीभावपक्षः भान्योक्त इति ग्रन्थकृदभिप्रेतीव ; परन्तु वार्तिके, ‘नायं समापः, किन्तु स्वरूपकथनमात्रम् । समासे खलु द्वितीयैव स्यात् , म षष्ठी। भतः प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षमिति प्रादिसमासो द्रष्टव्यः'' इत्युक्तमत्र स्मरणीयम् । प्रत्यक्षसूत्रे यतः'शब्दाध्याहारः पूर्वमेयोक्तः ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] बौद्धसम्मत प्रत्यक्षलक्षणविचार : तेनेन्द्रियार्थजत्वादिविशेषणगणान्वितम् । यतो भवति विज्ञानं तत् प्रत्यक्षमिति स्थितम् ॥ ७० ॥ इति विगतकलङ्कमस्य धीमान् अकुरुत लक्षणमेतदक्षपादः । न तु पररचितानि लक्षणानि क्षणमपि सूक्ष्मदृशां विशन्ति चेतः ॥ ७१ ॥ इति प्रत्यक्षसूत्रव्याख्यानप्रकरणम् [परसम्मत प्रत्यक्षलक्षणपरीक्षा] [ तत्र धर्मकयुक्त प्रत्यक्षलक्षणविचारः ] यत्तावत् कल्पनापोढमभ्रान्तमिति लक्षणम् । प्रत्यक्षस्य जग भिक्षुः तदत्यन्तमसांप्रतम् ॥ ७२ ॥ शब्दसंसर्गयोग्यार्थप्रतीतिः किल कल्पना । अस्याश्च केन दोषेण प्रामाण्यं न विपाने ॥ ७३ ॥ 235 'न तु पररचितानि लक्षणानि ' इत्युक्तमेव विवृणोति - यदित्यादि । यद्यपि दिन 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढं ' इतिमात्रमुक्तम् । परन्तु एवं सति • तिमिरादिदोषदूषितचक्षुत्रः प्रथमसन्निकर्षजन्मनां शुक्तिरजतादिज्ञानानां कल्पनापोढत्वादतिव्याप्तिरित्यालोच्य धर्मकीर्तिः अभ्रान्तप योजयामास । शुक्तिरजतज्ञानस्य भ्रान्तत्वात् निरासः । अभ्रान्तत्वमात्रोक्त अनुमानादावतिव्याप्तिः तेषां भ्रमत्वव्यवहाराभावात् । अत: कल्पनापोढ नति । तेषां पनारूपत्वेन व्युदासः । 'स्वलक्षणमेव परमार्थसत् । तदेव प्रत्यक्षे विषयः । सामान्यलक्षण तु अपरमार्थसत्, तच्चानुमानस्य विषयः' इति न्यायबिन्दुः । धर्मोत्तरचार्यस्तु ‘असत्यभ्रान्तग्रहणे गच्छदृक्षदर्शनादि कल्पनापोढत्वात् प्रत्यक्ष स्यात्' इत्याह ॥ 7 भिक्षुः - बौद्धभिक्षुः धर्मकीर्तिः । जगाविति । न्यायबिन्दाविति (१-४) शेषः । शब्देत्यादि । ' अमिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रनीति: कल्पना ' (१-५) इति म्यायबिन्दुवाक्यामुवादोऽयम् । इदं च न्यायबिन्दुवचनमेवं व्याख्यातं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 न्यायमचारी बौद्धसम्मतप्रत्यक्षक्षणविचार: [विकल्पानामप्रामाण्योपपादनम्] ननु ! अमिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासत्वादपि कमन्यं दोष मृगयते भवान् ! असदर्थ विषयत्वमेवेदमुक्तं' भवति, शब्दार्थस्य वास्तवस्याभावात् । स्वलक्षणस्य सजातीयेतरव्यावृत्तात्मनः सम्बन्धाधिगमसव्यपेक्षप्रवृत्तिना शब्देन विषयीकर्तुमशक्यत्वात् । तयतिरिक्तस्य वस्तुनोऽनुपलम्भात् ॥ धर्मोत्तराचार्येण --' अभिलप्यतेऽनेनेत्यभिलाप:- वाचकः शब्दः। अभिलापेन . संसर्ग: अभिलापसंसर्ग:-एकस्मिन् ज्ञानेऽभिधेयाकारस्याभिधानाकारेण सह . ग्राह्याकारतया मिलनम् । ततो यदैकस्मिन् ज्ञानेऽभिधेयाभिधानयोः कारो सन्निविष्टौ भवतः, तदा संसृष्टे अभिधानाभिधेये भवतः । (तथा च वाच्यवाचक- ' योरेकज्ञानविषयत्वं संसर्ग इत्युक्तं भवति)। अमिलापसंसर्गाय योग्य: अभिधेयाकारप्रतिभासः- यस्यां प्रतीतो सा तथोक्ता इति। अधिकं तत्रैव द्रष्टग्यम् ॥ कुत: उक्तस्य दोषस्वमित्यत्राह-असदर्थे त्यादि। स्वलक्षणज्ञानस्यातो वैलक्षण्यमाह-स्वलक्षणस्येति। निर्विकल्पविषयो वस्तुस्वरूपमात्रंस्वलक्षणम् । तद्यतिरिक्तस्य-स्वलक्षणव्यतिरिक्तस्य । वस्तुनः-परमार्थ. भूतस्य। भत्र ‘यस्यार्थस्य सविधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदः तत् स्खलक्षणम् । तदेव परमार्थसत्' (१-१३) इति न्यायबिन्दूक्तं स्मर्तव्यम् । एतदुक्त भवति। पुरोवर्तिनि वस्तुनि प्रथमाक्षसन्निपातसमनन्तरं यत् वस्तुस्वरूपमात्रविषयकं ज्ञानं तदेव निर्विकल्पं प्रमाणम् । अनन्तरं भासमानानां धर्माणां वासनाधीनत्वेन तद्विषयकं ज्ञानं सविकल्पमप्रमाणमेव, कल्पिताकारविषयत्वात् । तथोक्तम्-'परिवाटकामुकशुनामेकस्यां प्रमदातनौ । कुणपः कामिनी भक्ष्यमिति तिम्रो विकल्पनाः' इति । एवञ यनिर्विकल्पं नामजात्यायगोचरं तदेव प्रमाण येत् नामजात्यादिगोचर सविकल्पमप्रमाणमेवेति कल्पनापोडं प्रत्यक्षमिति । शिष्टदलप्रयोजनं तु स्पष्टीभविष्यति । 1विषयस्यागे तस्वमुता-ब. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् २) बोझैः विकलानां अप्रामाण्योपपादनम् 237 न चेन्द्रियार्थसन्निकर्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी कल्पना बुद्धिः; तमन्तरेणापि भावात् , तस्मिन् सत्यपि च पूर्वानुभूतवाचकशब्दयोजनं विनाऽनुत्पादात् । यदि च इन्द्रियार्थसत्रिकर्षः तज्जनको भवेत् , प्रथममेव तथाविधां धियं जनयेत् , न च जनयति। तदयं शब्दस्मृतेर्वमपि न जनक इति मन्यामहे ॥ तदुक्तम्“यः प्रागजनको बुद्धेः, उपयोगाविशेषतः। स पश्चादपि, तेन स्यादापायेऽपि नेत्रधीः॥" इति ॥ अपि च-सत्यपीन्द्रियार्थसंसर्गे 'स्मृत्यपेक्षायां' सोऽर्थस्तयैव व्यवहितः स्यात्। आह च "अर्थोपयोगेऽपि पुनः स्मात शब्दानुयोजनम् । अक्षधीयद्यपेक्षेत सोऽथों व्यवहितो भवेत् ॥” इति । - भावादिति। शुक्तिरजतादिविकल्पानामुत्पसेरित्यर्थः। तस्मिन्इन्द्रियार्थसनिकर्षे। प्रथममेव-निर्विकल्पककाल एव । शब्दम्युत्पत्ते: पूर्वमेवेति वा । तथाविधां-भमिलापसंसर्गादिवतीम् ॥ . यः प्रागित्यादि। य: इन्द्रियसनिकर्षः प्रा-वाचकशब्दोपस्थितेः पूर्व बुद्धेः-विकल्पास्मिकाया भजनकः-जननासमर्थ इति यावत् ; स: समिकर्षः पश्चादपि-शब्दस्मृत्यनन्तरमपि उपयोगाविशेषतः तदधीनोपयोगे विशेषाभावात् अजनक एव। अत: अर्थमन्तराऽपि विकल्प उदेतुं प्रभवत्येवेति। उपयोगः-उपकारः ॥ - तयैव-स्मृत्यैव । अर्थोपयोगेऽपीति । अक्षधी:-प्रत्यक्ष अर्थेविषये उपयोगेऽपि - अर्थग्रहणण्यापूतावपि, यदि मध्ये स्मार्त शब्दस्मृत्यधीनं शब्दानुयोजन-अभिलापसंपर्ग यद्यपेक्षेत, तर्हि अर्थः तया स्मृत्या ग्यवहितो भवेदिति। तथा च शब्दस्मृत्या व्यवधानात् इन्द्रियं कथं सविकल्पं जनयेत् । स्मृत्यधीनं च सविकल्पं कथं वा प्रमाण म्यादिति भावः ॥ स्मत्यपेक्षया-ख. स्वथैव-क. . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणविचार: न्यायमचारी [विकल्पानामनिन्द्रियजस्वम् सङ्केतस्मरणसहकारिसव्यपेक्षमक्षमीदृशीं वुद्धिं जनयतीति चेत्-न-व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तोपकारादिविकल्पैः सहकारिणो निरसात्वात्। किञ्च दण्डीत्यादिविकल्पविज्ञानं नेन्द्रियापातवेलायामेव जायते ; किन्तु बहुप्रक्रियापेक्षम्। यदाह-(प्र. वा. 3-1-15) “विशेषणं विशेष्यं च संबन्धं लौकिकी स्थितिम । । गृहीत्वा 'सकलं चैतत् तथा प्रत्येति नान्यथा ॥” इति ॥ ननु शब्दस्मरणस्य स्वातन्त्र्येण प्रत्यक्षकरणत्वं नास्त्येव, किन्तु समिकर्षवत् इन्द्रियसहकार्येवेति न तेन व्यवधानमिति शङ्कते-- सङ्केतेति । व्यतिरिक्तत्यादि। वस्तूनां क्षणिकत्वसाधनावसरे कथितोऽयं विचारों बौद्धैः। कुसूलस्थत्रीजैः अंकुराकरणात क्षेत्रस्थत्रीजैरकुरकरणाच करणाकरणयोरेकत्र विरोधात् कुसूलस्थवीजमन्यत, क्षेत्रस्थवीजं चान्यदिति वक्तव्यम्। सहकारिसमवधानवशात् कुसूलस्थं बीजमेवार जनयतीति तु न वक्तुं युक्तम् । सहकारिण: किं बीजस्योपकुर्वन्ति? उत स्वातन्त्र्येणाङ्करं जनयन्ति ? उत किञ्चिदपि न कुर्वन्ति ? न तृतीयः, सहकारित्वासंभवात् । न मध्यमः, बीजस्याकरणत्वं तदा ह्यापद्येत । न प्रथमः, सहकारिभिः संपाद्यमान उपकारः किं बीजस्वरूपादतिरिक्त: ? उत न ? यदि न, तर्हि बीजस्वरूपातिरिक्तोपकाराकरणात् व्यर्थाः सहकारिणः, बीजस्वरूपं हि पूर्वमेव सिद्धम्। यदि चातिरिक्तः, तर्हि ये महकारिणः बीजातिरिक्तमुपगारमतिशयं वा संपादयन्ति ते स्वातन्त्र्येण कार्य मेव निर्वतयन्तु, किं मध्ये बीजेन कर्तव्यम् । 'तद्धेतोरेव तद्धेतुत्वे मध्ये किं तेन' इति न्यायात् । तथा चान्वयव्यतिरेकवशात् सहकारित्वेनाभिमतानामेव करणत्वं समायास्यतीति । अयं च न्यायः प्रकृतेऽपि तुल्य इति विकल्पा: नेन्द्रियजन्या इति । इन्द्रियापात:--प्रथमाक्षसन्निपात:। लौकिकी स्थिति मिति। पादादिसुंयुक्ते सति दण्डे दण्डीति व्यवहारामावात, यादृशरीत्या सम्बन्धे विशिष्टव्यवहारः लोकसम्मत: तादृशवैलक्षण्यं चेति तात्पर्यम् । तथा--- दण्डीत्यादिरीत्या ॥ संकनम्तव इति प्रमाणवातिकपाठः। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाविकम् २] बौरोत कस्पाईविष्यम् 239 नयती प्रक्रियां प्रथमनयनोपनिपातजातमविकल्प शानमुद्रोदु नममित्याह-(प्र. वा. 3-174) '" सङ्केतस्माणोपायं दृष्टसङ्कलनात्मकम् । . पूर्वापरपरामर्श'शून्ये तवाक्षुरे' कथम्” इति ॥ [विकल्पद्वैविध्यम्] तत्रैतत् स्यात् द्विविधा विकरुणा, छात्रमनोरथविरचिताः, इदन्ताग्राहिणश्च नीलमित्यादयः। तत्र पूर्व मा भूवन् प्रमाणम् । कस्तेष्वर्थनिरपेक्षजनासु प्रामाण्येऽभि निविशेत' ! इदन्ताग्राहिणां त्वांविनामृतत्वात् कथं न प्रामाण्यम ? इति-- उच्यते-सर्व एवामी वालाः परमार्थतोऽर्थ न स्पृशन्त्येव । स हि निर्विकल्पकेनैव सर्वात्मना परिच्छिन्नः। तदुक्तम् "एकस्यार्थस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः स्वयम् । कोऽन्यो नदृष्टो भागः स्थात् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते” इति ॥ इयती प्रक्रियामिति । विलम्बहे मिति यावत् । संकेतेत्यादि । नामविकल्पाभिप्रायेण संवे.तस्माणमत्रोक्तम् । सविकल्पकं हि संकेतस्मरणाग्रुपायजन्यम् । चाक्षुषं तु पुरोवृत्तिस्वलक्षणवस्तुमात्रविषयकं, इन्द्रियसन्निकर्षः तावस्येव खलु विश्रान्तः । अत: नामादिकल्पनानां चाक्षुषे निर्विकल्पके कथभवकाश इत्यर्थः। उपायपदं नपुंसकलिङ्गेऽपि बौद्धसम्मतम् ॥ - छात्रा:-बाला इति यावत् । अमी विकल्पाः -छात्रमनोरथकल्पिताः इदन्ताग्राहिणश्च । सः- परमार्थभूत: अर्थः। सर्वात्मनेति । स्वरूपस्य निर्विकल्पेनैव गृहीतत्वात् स्वरूपातिरिक्तस्य च धर्मादेः कल्पितत्वात न हि ज्ञातव्यान्तरमवशिष्यत इति भावः । एकस्येत्यादि। वस्तूनां स्वरूपं त्वेकरूपमेव, तच्च स्वरूपं प्रत्यक्षेण गृहीतम् । स्वरूपातिरिक्तं तु किञ्चिदपि नास्त्येव । अतश्च प्रत्यक्षेणागृहीतस्यांशस्य स्वरूपेऽसंभवात् कुतः प्रमाणान्तरगवेषणमित्यर्थः। नदृष्टः इत्येक पदम् ॥ शून्यं तश्चानुषं-ल. निवेश:-. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 बाधसम्मतप्रत्यक्षलक्षणविचार: न्यायमरा करुपनानामांसंस्पर्शिस्वम् । ... ___ यत्तु केषांञ्चिद्वकल्पानामिदन्ताग्राहित्वस्पष्टत्वादि रूपं तत् अर्थाविनाभाविनिर्विकल्पकदर्शन पृष्ठभावित्वावाप्ततच्छायासंसर्गज - नितं, न तु तेषामर्थस्पर्शः कश्चिदस्ति । अर्थात्मनो निर्विकल्पेनैव मुद्रितत्वात् ॥ तस्मादतास्विकाकारसमुल्लखपुरस्सगः । न यथावस्तु जायन्ते कदाचिदपि कल्पनाः ॥ ७४॥. कल्पनाभेदाः पञ्च चैते कल्पना भवन्ति-जातिकल्पना, गुणकल्पना, क्रियाकल्पना, नामकल्पना, द्रव्यकल्पना चेति। ताश्च क्वचिदभेदेऽपि भेदकल्पनात् , कचिच्च मेदेऽप्यभेदकल्पनात् कल्पना उच्यन्ते ॥ जातिजातिमतोमैदोन कश्चित्परमार्थतः।। भेदागेपणरूपा च जायते जातिकल्पना ॥ ७५ ॥ इदमस्य गोर्गोत्वमिति न हि कश्चिद्भेदं पश्यति । सेनामेदे मेदकल्पनेव॥ एतया सदृशम्यायान्मन्तव्या गुणकल्पना। तत्राप्यभिन्नयोभैदः कल्प्यते गुणतद्वतोः ॥ ७६ ॥ तथा चाहुः एष गुणी रूपादिभ्योऽर्थान्तरत्वेन 'नास्मानं नो दर्श'यति ; तेभ्यश्च व्यतिरेकं वाञ्छसीति चित्रम् ॥ ___ पृष्ठभावित्वेति । निर्विकल्पकेण स्वरूपे गृहीते हि विकल्पानामवसरः । स्वरूपस्यैवाग्रहणे आकाराणां कुन कल्पना ? निरधिष्ठानस्य भ्रमस्यासंभवात् । माध्यमिकातिरिक्कैः बौद्धैः निरधिष्ठानो भ्रमो नाङ्गीक्रियत इति स्मर्तव्यम् ॥ अस्य गोः इदं गोत्वं इत्यन्वयः। न हि कश्चिद्भदं पश्यतीति । घटपटयोरिवेति भावः। यद्यपि भेदं व्यवहरति. तथापि न पश्यति । व्यवहारस्त्वन्यथासिद्ध इति भाव: । एवमुत्तरत्रापि ॥ तेभ्यः--रूपादिभ्यः। व्यतिरकं-स्वस्य गुणिन इति शेषः ॥ नारमात्नं दशे-न. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · आद्विकम् २) कल्पनामेदाः 241 मेदारोपणरूपैव गुणवत्कर्मकल्पना। तत्स्वरूपातिरिक्ता हि न क्रिया नाम काचन ॥ ७७ ॥ 'गच्छति देवदत्त इति देवदत्तस्यैवान्यूनानतिरिक्तस्य प्रतिभासात् ॥ विभिन्नयोस्त्वभेदेन प्रवृत्ता नामकल्पना । चैत्रोऽयमित्यभेदेन निश्चयो नामनामिनोः ॥ ७८ ॥ चत्र इत्ययं शब्दः, अयमित्यर्थः ; कीदृशमनयोस्सामानाधिकरण्यम् ॥ एवं दण्ड्ययमित्यादिमन्तव्या द्रव्यकल्पना । सामानाधिकरण्येन भेदिनोग्रहणात्तयोः ॥ ७९ ॥ [विपर्यग्र इव बाधकप्रत्ययाभावेऽपि कल्पनानां मिथ्यात्वम् ] ननु! यद्यभेदे मेदं, भेदे चाभेदं आरोपयन्त्यः कल्पनाः प्रवर्तन्ते-तत्कथमासु बाधकः प्रत्ययो न जायते, 'शुक्तिका रजत बुद्धिवत् उच्यते-यत्र वस्तु वस्त्वन्तरात्मनाऽवभासते तत्र . तत्स्वरूपेति । कर्मवद्वस्तुस्वरूपेत्यर्थः। अन्यूनानतिरिक्तस्येति । न हि तिष्ठतो देवदत्तात् गच्छन् देवदत्तः न्यूनः, अतिरिक्तो वा दृश्यते । ‘स एवायं देवदत्तः इति प्रत्यभिज्ञा हि भवतां प्रमा इति भावः ॥ - विभिन्नयोः इत्यत्रापि नामनामिनोरित्यस्याकर्षः। कीदृशं इत्यधिक्षेपे ॥ ... एवमिति । यद्यप्यत्र दण्डोऽयमिति न प्रतीतिः, किन्त्वयं दण्डीति । अथापि दण्ड एव खलु विशेषणं, अतोऽस्ति भेद इत्यभिमान:। इममेवोत्तरत्र (पु. 249) निराकरोति ॥ यत्रेत्यादि। अयं भाव: --व्यवहारदृष्टया भ्रमो हि द्विविध:--- एकःपुरोवत्यैव एकं वस्तु वस्त्वन्तरात्मनाऽवभासते. यथा शुक्तिः रजततया । भपरस्तु- अविद्यमान एवं विद्यमान इव। यथा वेशोण्डकादि । तत्राद्यः धर्माध्यास:, द्वितीयस्तु धर्मिण एव । तत्राद्ये बाधको युक्तः - नेदं रजतं, शुक्तिर्वा-क. .... NYAYAMANJARI Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणविचारः न्यायमञ्जरी बाधको भवति, मरीचिष्विव जलवुद्धौ । इह तु न जात्यादि वस्वन्तरमस्ति, यतो वस्त्वन्तरात्मनाऽस्य ग्रहो भवेत्। व्यक्तिविषया एवैते 'सामान्यादि विकल्पाः। तस्माद्वस्त्वतरानवभासिप्वेषु न बाधकः प्रत्ययो जायते । तस्मान्न विपर्ययात्मानो विकल्पाः ॥ विपर्ययाद्वैलक्षण्येऽपि विकल्पानामप्रामाण्यमेव] न चैते प्रमाणम्, एतदुलिख्यमानस्य जात्यादेरपारमार्थिकत्वात्। अत एवं प्रमाणविपर्ययाभ्यामयमन्य एव चिाल्प इत्याचक्षत इत्यलं विस्तरेण ॥ एवमेताः प्रवर्तन्ते वासनामानिर्मिताः। . . कल्पितालीकभेदादिप्रपञ्चाः पञ्चकल्पनाः ॥ ८॥ एवं च पश्यता तासां प्रामाण्या मोद मन्दताम् । भिक्षुणा लक्षणग्रन्थे तदपोढपदं कृतम् ॥ ८१ किन्तु शुकिरिति ! द्वितीये न तथा ज्ञातुं शक्यते कस्याप्याकारल्यापरिशेषात् । यदा च सर्वविकल्पनिवृत्ति:, तदा त्वसौ परिनिवृत्त एव ; न तदाऽपि बाधकप्रत्ययावकाश इति। व्यक्तिविषयाः-- स्वरूपविषयाः । विपर्ययःविपरीतभानम् । तथा च एकत्र विद्यमानमन्यथावभासते। अन्यत्र तु अविद्यमानमेव भासत इति न तयोस्साम्यमिति ॥ ___न चैतावता विकल्पा: प्रमाणानि- - तौल्यनिषेधस्तु बाधकप्रत्ययवारणा. त्याइ नचत इति । अयमाशयः -यत्र बाधकप्रत्ययोदयः तत्रैवाप्रामाण्यमिति न निर्बन्धः। यादृशभ्रमविशेषस्थले कान्तारमध्यसकृद्दष्टरज्जुसादाबाधकप्रत्यय एव नोदति तेषां भ्रमत्वाभावप्रसङ्गात् । अतश्च असदर्थविषयत्वमेव भ्रमत्वमिति वक्तव्यम् । तच्च प्रकृतेऽपि तुल्यमिति । प्रमाण-- स्वलक्षणं निर्विकल्पात्मकम् । तथा सविकल्पकं- शुक्तिरजतज्ञान ल्यं, न वा स्वलक्षणज्ञानतुल्यन् । किन्तु उभयविलक्षणमेति । भेदादीत्यादिना अभेदपरिग्रहः। तदपोढपद-कल्पनापोढपदम् । तथा च प्रत्यक्षप्रमाण सामानाधिकरण्यवैयधिकर०५-ख. भेद-ख. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् 243 ---धर्मकीयुक्तप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् [ सविकल्पकानां प्रामाण्यसाधनम् ] अत्र प्रतिविधीयते-तदिदं संकीर्णप्रायमतिबद्ध विलपता भवता न नियतं किमपि विकल्पानामप्रामाण्य'कारण मिति स्पष्टमावेदितम्। तदुच्यताम्. किं शब्दार्थावभासित्वगीकृतमसदर्थवाचित्वं तदप्रामाण्यकारणमभिमतय ? उत संङ्कतस्मृत्यपेक्षोपनतमनिन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वम् ? 'उत विशेष ग्रहणाद्यपेक्षावाप्तं बहुप्रयाससाध्यत्वम् ? उत पूर्वापरपरामर्शशून्यचाक्षुपवैलक्षण्यवाचोयुक्तिसमर्पित विचारकत्वम् ? उत निर्विकल्पकपरिच्छिन्नवस्तुग्राहितानिबन्धनमधिगताधिगन्तृत्वम् ? उत भेदाभेद समारोपभणितमतस्मिंस्तदितिग्राहित्यम् ? ___उत वृत्तिविकल्पादिवाधितसामान्यग्रहणसूचितं बाध्यत्वमेवेति ॥ लक्षणे विकल्पवारणाय कल्पनापोढपदम् । विपर्ययवारणाय अभ्रान्तपदं इ भिक्षुणा धर्मकीर्तिना कृतमिति ॥ संकीर्णेति । प्रमाणभूतनिर्विकल्पकलक्षण्यमुच्यते, उच्यते चाप्रमाणभूतभ्रमबैलक्षण्यमिति विकल्पानां प्रामाण्याप्रागण्यसांकर्यमुक्तं भवतीत्यर्थः । पूर्वापरेति। पूर्वापरपरामर्श शून्यं यत् चाक्षुपं स्वलक्षणमात्राविषयक निर्विकल्प प्रमाणभूतं ज्ञानं तद्वलक्षण्योपपादनसामर्थ्यात् प्राप्तं यत् विचारकत्वमित्यर्थः । वृत्तिविकल्येति। अयमर्थः - सामान्य स्वाश्रये किं कास्न्थेन वर्तत? उतैकदेशेन ? आये घटत्वस्य एकस्यामेव घटव्यक्तौ परिसमाप्तया बटान्तरं घटत्वं न स्यात् । नान्त्यः, सामान्यस्य निरवयवत्वात । प्रत्येकं घटे घटत्वजात्यकदेशस्यैव सत्त्वेन यावद्धटत्वजातेरसत्त्वेन च तस्य 1 करण-ख. विशेषण ल. 16* Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमञ्जरी विकल्पाप्रामाण्यापादकप्रथमहेतुनिरास: तत्र तावन्न शब्दसंसर्गयोग्यार्थग्रहणद्वारकमसदर्थग्राहित्वमेषामप्रामाण्यकारणमभिधातुं युक्तम् , शब्दार्थस्य वास्तवस्य (३ भाहिके) समर्थयिष्यमाणत्वात् ॥ कः पुनरसाविति चेत् ? य एव निर्विकल्पके प्रतिभासते ॥ किं निर्विकल्पके सामान्यादिकमवभासते ? बाढमवभासत . इति (५ आह्निके) वक्ष्यामः ॥ अत एव बाध्यत्वमपि न प्रामाण्यापहारकारणमेषां वक्तव्यम: वृत्तिविकल्पादे'बर्बाधक'स्य (५ आह्निके) परिहरिष्यमाणत्वात् । बाधकान्तरस्य च नेद मिति प्रत्ययस्य शुक्तिकारजतज्ञानादिवत् . भवतैवानभ्युपगमात् ॥ [तत्रैव द्वितीयकल्पनिरासः नाप्य नन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यत्वं । सङ्कतंग्रहणकालानुभूतशब्दस्मरणापेक्षणादस्य वक्तव्यम् : सहकार्यपेक्षायामपि तद्व्यापाराविरतेः॥ घटपदार्थतैव न स्यात् । न हि पटेकदेशभूततन्तुमति पुरुषे पटवानिति प्रतीतिः ममा भवेत् । अत: सामान्यस्यैव दुर्निरूपत्वेनावस्तुत्वात् तद्विषयको विकल्प: भ्रान्तिरेवेति । वृत्तिविकल्पादीत्यत्रादिपदार्थः सामान्यप्रकरण एव द्रष्टव्यः ॥ असौ-शब्दार्थः॥ एकोक्त्या सप्तमकल्पोऽपि दूषित एवेत्याह । अत एवेति । यतो निर्विकल्पेऽपि सामान्यादिकमवभासते तत एव सविकल्पस्यापि निर्विकल्पवदेव बाध्यत्वमपि न भवेदेवेति । वृत्तिविकल्पादेरिति। कात्स्येन वर्तते ? उतैकदेशेन वर्तते ? इत्यादिपूर्वोक्तविकल्पस्येत्यर्थः ॥ __ द्वितीयं दूषयति-- नापीनि । सहकारी शब्दस्मरणादिरूपः। तयापारः-इन्द्रियव्यापारः। पूर्वोक्त(पु. 237)श्लोको विपरिणमय पठनीय धि-ख. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २ ] विकल्पानां प्रामाण्यसमर्थनम् यः प्रागजनको बुद्धेः स लब्ध्वा सहकारिणम् । कालान्तरेण तां बुद्धिं विदधत् केन वार्यते ? ॥ ८२ ॥ व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तोपकारकरणादिविकल्पास्तु ( ७ आह्निके) निराकरिष्यन्ते ॥ रूपग्रहणे च चक्षुषः प्रदीपाद्य'पेक्षायां दुष्परिहारास्ते . विकल्पाः । 'न वै किञ्चिदेकं जनकम्' इति भवन्तोऽपि पठन्ति ! इति भवत्पक्षेऽपि तुल्यास्ते । यद्युभयोर्दोषः, न तेनैकश्चोद्यो भवति । तस्मात् ' उपयोगा विशेषतः' इत्यसिद्धो हेतुः । अयमेवोपयोगविशेष:, यत् इन्द्रिया' लोकमनस्कार' विषयव'द्वाचकस्मरणमपि सामग्रय'न्तर 'मेतत्प्रत्ययजन्मनि व्याप्रियत इति न वाचकस्मरणजनितत्वेन स्मार्तत्वादप्रमाणं विकल्पः । रूपस्मृत्याख्य समनन्तरप्रत्ययनिर्मितस्य निर्विकल्पस्य रूपज्ञानस्यापि तथात्वप्रसङ्गात् ॥ इत्याह - य इति । यः - हेतुः प्राक् - सहकारिसमवधानात् प्राक् बुद्धेरजनक आसीत् स एव हेतु: सहकारिणं कालान्तरेण लब्ध्वा तामेव बुद्धिं विदधत् केन वारयितुं शक्यत इत्यर्थः ॥ ननु सहकारिणोऽप्यसंभव उपपादितः -- इत्यत्राह - व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तेति । इदं उपकारविशेषणम् || 1 देर-ख. 245 क्षणभङ्गभङ्गे ज्ञान सहकार्यपेक्षणमात्रात् करणत्वं नापैतीत्यत्र निदर्शन प्रतिबन्दी चाह ---- रुपेत्यादि । अधिपतिसहकारिसमनन्तरालम्बनप्रत्ययाश्चत्वार्यपि साधनानीति खलु तैरुच्यन्ते । तत्र दीपादय: सहकारिप्रत्ययाः भवन्मते कथं सहकारिणो भवेयुः इति । किश्चिदेकं न वै जनकं इत्यन्वयः । एकमेव फलोपधायकं न भवति, किन्तु मिलितमेवेत्यर्थः । ते - उक्त विकल्पाः । इन्द्रियेत्यादि । अधिपत्यादीनां यथासंख्यं अन्वयः । तत्र प्रकृते मनस्कारः समनन्तरप्रत्ययः रूपाद्यालोचनाज्ञाने । रूपस्मृतीति । न हि रूपाविषयकं चाक्षुषं किञ्चिदुदेतुमध्यलम् । रूपाप्रतीतौ हि वस्तु कथं प्रतीयेत । अतश्च रूपस्मृत्याख्य समनन्तरप्रत्ययं विना निर्विकल्पोऽपि न भवेदवेत्याशयः ॥ 2 विशेषादिन्द्रिया - ख. ३ विषयत्वव- ख. 4 न्तर्गत-ख. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमञ्जरी [इन्द्रियसनिकर्षस्य फलेनाव्यवधानोपपादनम] यच्चेदमुच्यते--सोऽर्थो व्यवहितो भवेत्' इति - तन्न विद्मः, कीदृशं व्यवधानमर्थस्येति । न हि दीपेन वा मनसा वा विज्ञानहेतुना कदाचिदर्थो व्यवधीयते। मनोवञ्च' वाचकस्मृति रपि सामप्रयन्तर्गता सती तत्प्रतीतो व्याप्रियत इति कथमर्थ व्यवदधीत ॥ स्मृतिविषयीकृतः शब्दः तमर्थ व्यवधत्त इति चेत्--नशब्दस्य तत्प्रकाशकत्वेन ज्ञानवत् दीपवता व्यवधायकत्वाभावात् । न चेन्द्रियव्यापारतिरोधानं व्यवधानम्। तस्याधुनाप्यनुवर्तमानत्वात् ॥ यथा तद्भावभावित्वादाद्यं विज्ञानमक्षजम्। . . तथा तद्भावभावित्वादुत्तरं ज्ञानमक्षजम् ॥ ८३ ॥ न हि वाचकस्मरणानन्तरं अक्षिणी निमील्य विकल्पयतिपटोऽयमिति ॥ अथ. यावद्वाचकविज्ञानं हृदयपथमवतरति तावत्सोऽर्थः क्षणिकत्वादतिक्रान्त इति व्यवहित उच्यते -- तदपि दुराशामात्रम् । क्षणभङ्गस्योपरिटानिराकरिष्यमाणत्वात् (७ आलिके) ॥ तत्प्रतीतो--अर्थप्रतीतो। व्याप्रियत इति । तथा च शब्दस्मरणस्यापि सामग्रथन्तर्गतत्वेन तस्य व्यवधायकत्वं न संभवतीत्यर्थः ।। व्यवधत्त इति । इन्द्रियसन्निकर्षादेरिति शेषः । अनुपदोक्तमजानानं प्रति तदेव स्पष्टयति-शब्दस्येति । तत्प्रकाशकत्वेन-अर्थप्रकाशकत्वेन । अव्यवधायकत्वे दृष्टान्तः - जानवदीपवदिति । ननु व्यवधान इन्द्रियव्यापारव्यवच्छेद एवेत्याशङ्कय समाधत्ते न चेति ॥ तद्भावभावित्वात् -- इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् । आद्यं विज्ञान--निर्विकल्पकम् । उत्तरं-- सविकल्पकमपि ॥ हृद्गतं प्रकाशयति --अथेति । यावत्तावच्छब्दौ कालावधिपरौ । 'वत्-क. 'रप्यसा-ख. त-क. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांह्निकम् । विकल्पानां प्रामाण्यसमर्थनम 247 अपि च प्रदर्शितप्राप्त्यादिव्यवहारवलन्तानद्वारकमिहापि तद्हणं भविष्यती ते सर्वथा न व्यवधानम्। तदेवं समयस्मरणसापेक्षत्वेऽपि नेन्द्रियार्थसलिकर्पोत्पन्नतामतिवर्तते सविकल्पकं विज्ञान मिति कथमप्रत्यक्षम् ? [ तृतीयविकल्पनिरासः] यापुनः विशेषणविशेष्यग्रहणादिसामग्रयपेक्षत्वेन बहुप्रयाससाध्यत्वमप्रामाण्यकारणमभिधीयते -तदतीव सुभाषितम् ! न हि बहुक्लेशसाध्यत्वं नाम प्रामाण्यमुपहन्ति। उक्तं च 'न हि गिरिश्टङ्गमारुह्य यद्गृह्यते तदप्रत्यक्षम्' इति। रसादिज्ञानापेक्षया च 'रूपादिशा'नस्य दीपाद्यालोकाहरणप्रयाससाध्यत्वादप्रामाण्यं स्यात्॥ .. [चतुर्थविकल्पनिरासः] यदपि पूर्वापरपरामर्शरहितचाक्षुषविज्ञानवैपरीत्येन विकल्पज्ञानानां विचार कत्वादप्रामाण्यमुच्यते--- तदपि न सम्यक । सर्वत्र ज्ञानस्थ विचारकत्वानुपपत्तः। विचारको हि प्रमाता। स हि पश्यति, स्मरति, अनुसन्धत्ते, विचारयति, इच्छति, द्वेष्टि, यतते. गृह्णाति, जहानि, वस्त्रमनुभवतीति वक्ष्यामः। अर्थ च स्पृशतो विज्ञानस्य विचारयतोऽपि कथनप्रामाण्यं स्यात् ॥ प्रदर्शितति । इन्द्रियादिनेति शेषः। लोके ह्यभिमतमर्थ पश्यन प्रवृत्तस्तमेव प्रामोनीत सर्वसिद्धम् । क्षणभङ्गे च तत्सन्तानक्यान्निर्वाह्यम् । तत्र दृष्टस्यातिकान्तत्येऽपि यथा संतानक्यात् दृष्टस्यैव प्राप्तिरुच्यते भवद्भिः, तथा प्रकृतेऽप्यस्त्विति भावः। समयः- शन्तिः । वाचकशब्द इति यावत ॥ रसादीति। रसादिप्रत्यक्षं हि विषयेन्द्रियसम्बन्धातिरिक्तं नापेक्षते, रूपप्रत्यक्षं तु वदतिरिकालो कादिसंपादनमपेक्षत इति तस्याप्रामाण्यं स्यादिति ॥ सर्वत्रेति । ज्ञानं हि विचारात्मकं, न तु विचारकम् ; विचारकस्तु पुरुष एवेत्यर्थः। अस्तु तौंपचारिकमेव ज्ञानस्य विचारकत्वम् -- इत्यत्राप्याह-- अर्थ स्पृशत इति। अर्थजन्यस्येति यावत् । रूपक्षा- ख माता-ख. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमञ्जरी पञ्चमविकल्पनिरास: ] अथास्य निर्विकल्पेनैव सर्वात्मना स्पृष्टत्वात् पिष्टपेषणमयुक्त. मिति सविकल्प'मधि'गतार्थग्राहित्वादप्रमाणमिति मन्यसे, तदपि न साधु -पूर्वमेव (पु. 56) परिहतत्वात् । न ह्यनधिगताधिगन्तृत्वं प्रामाण्यमित्युक्तम। गृहीतग्रहणेऽपि प्रमाणस्य प्रमाणत्वाननिवृत्तः ॥ [षष्ठविकल्पनिरास:] यत्त्वभ्यधायि-भिन्नेष्यभेदं अभिन्नेषु च भेदं कल्पयन्त्यः कल्पनाः, अतस्मिस्त'द्हणे प्रामाण्यमवहजतीति-तद्युक्तम् अतस्मि'स्तद्गहो' भवत्यप्रमाणत्व'कारणम् ; तत्त्विह नास्ति । तस्य हि बाधकप्रत्ययो पसन्निपातान्निश्चयः । न च भवदुपवर्णितासु पञ्चस्वपि जात्यादिकल्पनासु बाधकं किञ्चिदस्तीति नातस्मिस्तद्गाहिण्यः कल्पना भवन्ति ॥ जातिर्जातिमतो भिन्ना गुणी गुणगणात् पृथक् । तथैव तत्प्रतीतेश्च कल्पनोक्तिरबाधिका ॥ ८४ ॥ एतच्चोपरिष्टान्निणेप्यते ॥ द्रव्यनानोतु भिन्नयोभैदेनैव प्रतीतिः, नाभेदकल्पना। न हि 'देवदत्तशब्दोऽयम्' इत्येवं तद्वाच्यः प्रतीयते ॥ ननु 'देवदत्तोऽयं' इति संज्ञासंश्यभेदव्यवहारो दृश्यत एवेति चेत्न, शब्दविशिष्टतद्वाच्या वगतिरेषा, · न शब्दोऽस्यामर्थारूढोऽवभासते। न शब्दविवर्तरूपेणार्थः परिस्फुरतिः किं तर्हि ? कथमत्राप्रामाण्य कारणाभावनिश्चय इत्यत्राह-तस्येति । तस्य---अप्रामाण्यस्य॥ तथैव-पृथक्वेनैव । अबाधिकेति । प्रामाण्यं प्रतीति शेषः॥ घटम्य रूपं, गवि गोत्वमित्यादौ गुणगुणिनोः भेदप्रतीतावपि, नीलो घटः, गौः इत्यदिसामानाधिकरण्यप्रतीतिरप्यस्ति । द्रव्यनाम्नोस्तु तदपि नास्तीति कथं तत्र अभेदकल्पनेति 'तु'शब्देन सूचितम् । दृश्यत इति। देवदत्तपदं हि तत्र मपि-ख. ' द्हे-ख. स्तद्हणे-ख. ण-क. पनि-ख. 'इत्येवं तद्वाच्या-ख. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] विकल्पानां प्रामाण्यसमर्थनम 249 शब्दस्मृत्याख्यसामग्रयसामर्थ्यातिशयोद्भवः। प्रत्ययातिशयः मोऽयं इत्येवं प्राक् प्रसाधितम् ॥ ८५ ॥ दण्डयय मिति द्रव्याभेदकल्पना तु मन्दमतिभिरेवोदाहृता। न हि दण्डोऽयमिति देवदत्ते प्रतीतिः, अपितु दण्डीति । तत्र च प्रकृतिप्रत्ययौ पृथगेवोपलभ्येते-दण्डोऽस्यास्तीति 'दण्डीति। तदिह यथैव वस्तु तथैव तदवसाय इति नाभेदारोपः॥ कर्मणि 'तु द्वयमपि नास्ति; 'नाभिन्ने भेदकल्पना ; न च भिन्नेऽप्य भेदकल्पना॥ क्रिया हि "तद्वनो' भिन्ना भेदेनैव च गृह्यते । चलतीत्यादिबोधेषु तत्स्वरूपावभासनात् ॥ ८६ ॥ तेन क्रियांगुणद्रव्यनामजात्युपरञ्जितम् । विषयं दर्शयन्नति विकल्पो नाप्रमाणताम् ॥ ८७ ॥ विपर्ययात्समुत्तीर्ण इति साधु सहामहे। प्रमाणात्तु बाहर्भूतं विकल्पं न क्षमामहे ॥ १८ ॥ क्वचिद्वाधकयोगेन यदि तस्याप्रमाणता । निर्विकल्पेऽपि तुल्याऽसौ द्विचन्द्राद्यवभासिनि ॥ ८९ ॥ संज्ञाबोधकम्। प्राक्-अव्यपदेश्यपदकृत्यविचारावसरे ॥ प्रतीत्योलक्षण्यमुपादयति-तत्रेति। तदवसायः-- तज्ज्ञानम् ।। कर्मणि विति। अयं गौः, नीलोऽयमित्यादौ सामानाधिकरण्यप्रतीतिर्वा वर्तते, कर्मणि तु तदपि नास्तीति सूचनाय तु शब्दः ॥ ... तत्स्वरूपेति। आश्रयातिरिक्तक्रियास्वरूपेत्यर्थः। धातोः क्रिया अर्थः, आख्यातस्य आश्रय: । न हि चलतीति प्रत्ययः सदाऽस्तीति क्रियातद्वतोभैंद इत्यर्थः। विषयं दर्शयन् विकल्प: अप्राणतां नैति इत्यन्वगः । विपर्ययादिति। विकल्पोऽयं विपर्ययविलक्षण इति सम्मतमेव, अप्रामाण्यं तु नेत्यर्थः। द्विचन्द्रेति। तस्यापि प्रथमाक्षपातजत्वादित्यर्थः। ननु तर्हि ' दण्डी-ख. तत्-ख. नाभेदे-क. तस्वतो-ख. -क. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमञ्जरी मनोराज्यविकारताना काममस्त्वप्रमाणता। यथास्नु प्रतानां न त्यसावक्षजन्मनाम् ॥ १० ॥ विकल्पा अपि स्वतन्त्राः] न च निर्विकल्पपृष्टभावित्वकृतमेषामेतद्रपम् ; 'विषयसंस्पर्श'मन्तरेण स्वतस्स्वच्छरूपाणां ज्ञानानामेवमाकारत्वानुपपत्तः कि निर्विकल्पपृष्ठभाविता करिष्यति ? तदनन्तरभाविनी हि स्मृतिरपि क्वचिदृश्यत पव; न च सा तच्छायावती इति दुराशामात्र मेतत् ॥ ननु निर्विकल्पकेनैव वस्तुसर्वस्वं गृहीतं एकस्यार्थस्वभावस्येति चर्णितम् प्रतिविहितमेतत्-गृहीतग्रहणेऽपि प्रामाण्यानपायात् ।। . निर्विकल्पविषयवस्तुनि विप्रतिपत्तयः] . . 'किञ्च किं' निर्विकल्पके न गृह्यत इत्येतदेव न जानीमः ।। भवन्तो निर्विकल्पस्य विषयं संप्रचक्षते । सजातीयविजातीयपरावृत्त स्वलक्षणम ॥ ९ ॥ भ्रान्तिज्ञानमेव नास्तीत्यत्राह-मनोराजोति! काकस्य सर्वत्र कामिनीदर्शनरूपाणामित्यर्थः। एवं पाञ्चित् स्वप्नानां च । यथावस्तु-वस्त्वनतिक्रम्य । असौ--अप्रमाणता ॥ निर्विकासमनन्तरभावित्वकृतमेव विकल्पानां इंदन्ताग्राहित्वादीति यदुक्तं तत्प्रत्याह---न चेति । पषा-सविकल्पानां । एतन्-स्पष्टत्वं इदन्ताग्राहिस्वादि। विषयेति। अयमर्थः ... तन्मते हि ज्ञानं स्वतो निराकारम् । विषयोलेखवशादेव साकारज्ञानानुभवः। एवञ्च विकल्पानां निर्विकल्पाधीनत्वेऽपि साकारत्वं विषय बन्धाधीनमेव वक्तव्यमिति निर्विकल्पपृष्टभावित्वं किं वा तत्र करिष्यतीति विकल्पानां विषयसंस्पर्शोङ्गीकरणीय एवेति । निर्विकल्प पृष्ठभाविनीषु स्मृतिषु इदन्ताग्राहित्वस्पष्टत्वादेरभावात व्यभिचरित चेदमित्याह-तदनन्तरेति। क्वचिदिति। यथा विशेषानवगाहि स्वरूपमात्रावगाहि निर्विकल्पं प्रथमं जायते, ततश्च तत्र विशेषभानादिकं ; एवं स्मरणस्थलेऽपि कदाचित् प्रथमं स्वरूपमात्रस्मरणं, ततस्तत्र विशेषचिन्तन 1 विधा-क. किश्च-क. 'किच-क Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] निर्विकल्पविषयविचार: 251 महासामान्यमन्ये तु सत्तां तद्विषयं विदुः । वाग्रूपमपरे तत्त्वं प्रमेयं तस्य मन्वते ॥ २२ ॥ मित्यनुभूयत एव तथा च निर्विकल्पानुभवाजायमानापि स्मृतिः न स्पष्ट रूपा वा इदमिति ग्राहिणी वोपलभ्यत इति न निर्विकल्पृष्ठभावित्वकृतं तदिति ॥ अन्ये विति। ब्रह्मविवर्तवादिन इत्यर्थः । श्लोकवार्तिके प्रत्यक्षसूत्रे भट्टपादैः---'अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम्' इत्यारभ्य 'महासामान्यमन्यैस्तु द्रव्यं सदिति चोच्यते। सामान्यविषयत्वं च प्रत्यक्षस्यैवमाश्रितम् । विशेषास्तु प्रतीयन्ते सविकल्पकबुद्धिभिः' इत्यादिनोक्तान्यपक्षप्रत्यभिज्ञानायैवात्रापि ' महासामान्यमन्ये तु' इत्युक्तम् ॥ तच्च वार्तिकं . न्यायरत्नाकरे पार्थसारथिमित्रैः एवमवतारितम्'वेदान्तिनस्तु महासामान्यमेव सत्ता-द्रव्यशब्दाभिलप्यं निर्विकल्पस्य विषयमाहुः' इति ॥ भट्टोम्बेकैश्च तात्पर्यटकापां-'वेदान्तवादिनस्तु महासामान्यं निर्विकल्पस्य विषयमाहुः। तच्च केचित् सत्तामाहुः, अपरे द्रव्यमित्येतद्दर्शयति' इत्यवतारितम् । काशिकायां सुचरितमित्रैश्च 'अद्वैतवादिनस्तु सन्मात्रविषयं निर्विकल्पक प्रत्यक्षमित्याचक्षते, तदेतदुपन्यस्यति' इति स्पष्टमेवाभिहितम् ॥ ___अयञ्च पक्षः मण्डनमिश्रकृतब्रह्मसि द्वौ तर्ककाण्डान्ते 'यथानुवृत्तव्यवहारसिद्धिं यथाऽव भास कथयन्ति बाह्या: । तथैव भेदव्यवहारयोगं वदन्ति वेदान्तविवेकभाज:' इत्यत्र वर्णित: । बाह्याः बौद्धा: सकलव्यावृत्तं वस्त्वेव निर्विकल्पप्रत्यक्षविषय इति वदन्ति। वयन्तु सकलानुवृत्तं सत्तामात्रमेव तद्विषय इति वदामः इति तदर्थः ॥ सुरेश्वराचार्यैः बृहदारण्यकसम्बन्धवात : (918) 'वस्तुस्वरूपसंस्पर्शिचक्षुरादिभ्य उस्थितम् । भेदस्पृक् नाक्षजादि ......' इत्यत्रायमर्थ उक्त: । एतद्विस्तरश्च संक्षेपशारीरकाद्वैत सिद्धयादिषु द्रष्टव्यः ।। अयं च पक्षः प्रथमं हरिणा वाक्यपदीये उपक्षिप्तः । अपरे--शब्दविवर्तवादिनः । तथा ह्यक्तं हरिणा वाक्यपदीये--.'अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरं । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः' इति । एवञ्च पूर्वोक्ता: ब्रह्मविवर्तवादिनः। हरिस्तु शब्दविवर्तवादीत्येतावाने व विशेषः । इतरत्सर्वमपि प्रायः तयोस्तुल्यम् ।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमधरी केचिद्गुणक्रियाद्रव्यजातिभेदादि'रूषितम्। शबलं वस्तु मन्यन्ते निर्विकल्पकगोचरम् ॥ ९३ ॥ प्रत्यक्षविषयेऽप्येताः चित्रं विप्रतिपत्तयः। परोक्षार्थे हि विमतिः प्रत्यक्षेणोपशाम्यति ॥ ९४॥ प्रत्यक्षे हि ममुत्पन्ना विमतिः केन शाम्यति ? इदं भाति न भातीति संविद्विप्रतिपत्तिषु।। परप्रत्यायने पुंसां शरणं शपथाक्तयः॥९५॥ केचित् -भाट्टाः । तथा च बार्तिकम्-'निर्विकल्पकबोधेऽपि यात्मक- ' स्यैत्र वस्तुनः। ग्रहणं' इति (प्रत्यक्ष-118)। अत्र न्यायरत्नाकरः'ब्यात्मकस्य --सामान्यविशेषात्मकस्येत्यर्थः । सामान्यावभासोऽपि. प्रतीतिसिद्ध एव। न हि निर्विकल्पकेनागृहीतस्य सविकल्पकेनापि ग्रहणं संभवति । न वाऽगृहीते सामान्ये व्यक्त्यन्तरे प्रत्यभिज्ञा संभवति। तस्मात् सामान्य विशेषश्च निर्विकल्पेऽपि प्रकाशत एव' इति.॥ .. एवमाकृतिवादे च –' यदा तु शबलं वस्तु युगपत् प्रतिपद्यते । तदाऽन्यानन्यभेदादि सर्वमेव प्रलीयते' इत्युक्तम् । एतच्च निर्विकल्पविषयमिति तयाख्यायां उक्तम् । एतच्छलोकप्रत्यभिज्ञापनायैवात्रापि श्लोके 'शबल' शब्दप्रयोगः । अधिकमुत्तरत्र द्रष्टव्यम् ॥ एवञ्च भाट्टैः जातिव्यत्योर्गुणगुणिनोश्च भेदाभेदापरपर्यायस्य तादात्म्यस्यैवांगीकारात् निर्विकल्पे सामान्यविशेषोभयात्मकं वस्तु भासत इत्यङ्गीक्रियते । तथोक्तमाकृतिवादे--- 'तेन नात्यन्तभेदोऽपि स्यात्सामान्यविशेषयोः' इति । अत एव शतदूषिण्यां निर्विशेषविषयनिर्विकल्पभगवादे-'जातिगुणादिविशिष्टमेव द्रव्यं निर्विकल्पे भासते। परन्तु जातिगुणाद्यात्मकमपि वस्तु न तथा निर्विकल्पे विविच्यते। विकल्पे तु तदेव जातिगुणाद्यात्मना विकल्प्यते' इति अभिहितम् । इदं च मतं कौमारिलानामिति तयाख्यायां चण्डमारुते महाचायरुक्तम् । अधिकमन्यत्र ग्राह्यम् ॥ परेति । एवं वादिषु विप्रतिपद्यमानेषु अनुभवे शरणीकरणीये सर्वेऽपि वादिनः स्वानुभवमपि तथा तथा माचक्षत इति अन्ततः शपथकरणमेवावशिष्यत दूषितम्-ख. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्विकम् २] निर्विकल्पविषयविचार: 253 न तु शपथशरणा एव निरुद्यममास्महे। मार्गान्तरेणापि तत्प्रमेयं निश्चिनुमः ॥ निर्विकल्पानुसारेण सविकल्पकसंभवात् । 'ग्राह्यं तदानुगुण्येन निर्विकल्पस्य मन्महे ॥ ९६ ॥ [स्वलक्षणमात्रं न निर्विकल्पविषयः] तत्र न तावत्सकलसजातीयव्यावृत्तं स्खलक्षणं प्रत्यक्षस्य विषयः॥ गृहीते निर्विकल्पेन व्यावृत्ते हि स्वलक्षणे । अकस्मादेव सामान्यविकल्पोल्लसनं कथम् ॥ ९७ ॥ निर्विकल्पानुसारेण हि विकल्पाः प्रादुर्भवितुमर्हन्ति । अपि च -- विजातीयपरावृत्तविषया यदि कल्पना। व्यावृत्तिरूपं सामान्यं गृहीतं हन्त ! दर्शनैः ॥ ९८ ॥ इति । शपथोऽपि यदि क्रियेत तदा का गतिरिति चेत् तत्राह-न स्वित्यादि । सकलेतरव्यावृत्तं स्वरूपमेव निर्विकल्पे भासते इत्युक्ते तत्र इतरपदार्थ:सजातीयो विजातीयश्च । तत्र सजातीयव्यावृत्ताकारभाने बाधकमाह-- सजातीयेति । गृहीत इत्यादि। अयमर्थः । निर्विकल्पेन सकलेतरव्यावृत्तं रूपमेव गृह्यते, सामान्यं तु विकल्पस्यैव विषय इति खलु तव मतम् । अत्रेदं पृच्छामः-सामान्य अन्यत्र कदापि गृहीतं अन विकल्पे भासते? उत कुत्रापि न? कुत्राप्यभातस्य भानं तु न संभवत्येव, न हि शशशृङ्गादिः कुत्रचिद्भासते। अन्यत्र भातं चेत् , किं विकल्पे? उत निर्विकल्पे? यदि विकल्पे तर्हि पुनरनवस्था। यदि निर्विकल्पे तर्हि सिद्ध नः समीहितमिति । 'व्यावृत्ते स्वलक्षणमात्रे निर्विकल्पेन गृहीते सति सामान्यविषयविकल्पः आकस्मिक एव कथं स्यात् ' इत्यर्थः ।। अथ विजातीयव्यावृत्ताकारभाने दोषमाह-विजातीयेति। सामान्य हि भवन्मते अन्यापोहरूपम् । तथा च निर्विकल्पे सामान्यभानमंगीकृतमेवेति। ननु 'प्रायान्तरा-क. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् [न्यायमञ्ज व्यावृतान्ननु नैवान्या व्यावृत्तिः परमार्थतः। पावृत्तग्रहणेनैव सुतरां तद्गहो भवेत् ॥ ९९ ।' सामान्य ग्रहणेऽप्येवं तद्वया'पागव'कल्पनात् । स्वलक्षणपरिच्छेद निष्ठं तन्नावतिष्ठते॥:०० ॥ नापि सन्मानं निर्विकल्पस्य विषयः] नापि सत्ताद्वैतवादिसम्मतसत्ताख्यो निर्विकल्पस्य विषयो युक्तः ॥ सत्ताग्रहणपक्षेऽपि विशेषावगतिः कुतः। सा भाति भेद स्पृष्टा चेत् सिद्धमद्वैतदर्शनम् ॥ १२ ॥ न च भेदं विना सत्ता गृहीतुमपि शक्यते। नाविद्यामात्रमेवेद मिति च स्थापयि प्यते ॥ १०२ ॥ . निर्विकल्पे सूक्ष्मशब्दानुवेधोऽप्ययुक्त:] वाक्तत्त्वप्रतिभालोऽपि प्रतिक्षिप्तोऽनया दिशा। वस्तुनः सकलतरव्यावृत्तत्वेपि तेनाकारेण वस्तु न गृह्यते, किन्तु व्यावृत्त्याश्रयं वस्तुमात्रमिति चेत् तत्राह-व्यावृत्तादिति। न हि स्वरूपातिरिक्तो धर्मो नामास्ति भवतामित्यर्थः। एवं चास्मिन् मतेऽपि सामान्यग्रहणेऽपि निर्विकल्पप्रवृत्तिसंभवात् स्वल झगमात्रविषयकं निर्विकल्पकमिति न क्षोदक्षममिति ।। विशेषेत्यादि । निर्विकल्पेन सामान्यं न गृह्यत एवेतिं पक्षे---अज्ञातस्य सामान्यस्य विकल्पेऽपि भानासंभवादियो दोष उक्तः, तादृशः प्रकृतेऽपि जागरूकः। निर्विकल्पेन विशेषाग्रहणे तर्हि केन विशेषो गृह्यत इति वक्तव्यम् । न नापीति चेत् भानसेव न स्यात् । विकल्पेनैवेति चेदनवस्था। निर्विकल्पेनैवेति चेत् भेदविषयो निर्विकल्प: मिद इति अद्वैतासिद्धिः। 'सिद्धमतदर्शन' इनि नोक्तिः। किञ्च समानानां भावस्यैव सामान्यरूपत्वात् व्यक्तिविशेषाणामग्रहणे तदाश्रित सामान्यमपि न गृह्येत । न च भेदाः सन्त्येव, परन्तु कल्पितास्ते--- इति चेत् , तदेतत् नवम्मालिक निगकरिष्यते ।। अनया दिशेति। ब्रह्मविवर्तवादाभ्युपगतब्रह्मापर पर्यायमहामान्य स्थानापन्नमव शब्दतत्त्वमिति पूर्वमेवोत्तम्। एवञ्च शब्दतत्त्वमेकमेव सर्वानुगतं सत्यं निर्विकल्पविषयः। व्यक्तयस्तु मिथ्या एवेत्युक्तम् । 1 पारवि-ख. 'संस्पृष्टा-क. ति-क. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह्निकम् २ निर्विकल्पविषयविचारः 255 कथं च चाक्षुषे ज्ञाने वाक्तत्त्वमवभासते ॥ १०३ ॥ अगृहीते तु सम्बन्धे गृहीते वाऽपि विस्मृते । Tagsपि संस्कारे वाचकावगतिः कुतः १ ॥ १०४ ॥ [जात्यादिश चलितमपि न निर्विकल्पस्य विषयः ] चित्रताऽपि पृथग्भूतैर्थ मैस्तत्समवायिभिः । जात्यादिभिर्यदीष्येत धर्मिणः काममस्तु सा ॥ १०५ ॥ तदात्मता तु नैकस्य नित्यं तवानुपग्रहात् । अंश निष्कर्षपक्षे तु धर्म मेदो वलाद्भवेत् ॥ १०६ तथोक्तं च - (वाक्यपदीयो 3-32) 'सत्यासत्यों तु यौ भावों प्रतिभावं व्यवस्थितौ । सत्यं यत् तत्र सा जातिरसत्या व्यक्तयः स्मृताः । सम्बन्धिभेदात्सत्वभिद्यमाना गवादिषु । जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः । सानिया सा महानात्मा' इति । एवञ्च ब्रह्मविवर्तवादे प्रदर्शिता दोषा अत्रापि समानाः | कथमिति । शब्दो हि श्रावण इति भावः । ननु ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्या शब्दभानं भवताप्यङ्गीकृतं, कः प्रद्वेषोऽस्मासु । इत्यत्राह – अगृहीत इति । सत्यमङ्गीकृतमस्माभिः, विकल्पस्थले पूर्वमेव गृहीतशक्तिकस्य तद्युज्यते । न तु प्राथमिकप्रत्यये । विकल्पस्थलेऽपि वाचकवाव्दस्याज्ञाने, ज्ञातेऽपि संस्कारमोवशासरणे, सत्यपि संस्कारे उद्बोधकासमधाने वा कथं शब्दभानं स्यात् । सूक्ष्मशब्दभानादिकं तु स्फोटवादे विचार्यते ॥ , चित्रतेत्यादि । अयमर्थः । एकस्मिन् धर्मिणि विद्यमानाः जातिगुणकिवात्मका धर्माः प्रथमग्रहणेऽपि गृह्यन्त एव । परन्त्वर्य धर्मी, अयं गुणः, इयं जाति, इय क्रियांत विविच्य न भासते । अतस्तन्निर्विकल्प मित्युच्यते । धर्मधर्मिणोश्च भेदाभेदविवेति पूर्वमेवोक्तम् । तत्र निर्विकल्पेऽभेदांशस्यैयौ स्कटयम् । तदनन्तरं च पुरुषापेक्षानुगुणं जातिः गुणो वा धर्मिणः पृथगुद्धतं सत् गृह्यते । प्रयोक्ता कुतिबारे भेदेभ्योऽनन्यरूपेण सामान्यं गृह्यते यदा । मात्रेण वस्तु प्रत्यवभासते । तदुद्भूत्या च सामान्य तद्भावानुगुणं स्थितम् । सदप्यग्राह्यरूपत्वादसद्वत्प्रतिभाति न । विशेधानपि सामान्याचदा भेदन बुध्यते । तदा सामान्यमात्रत्वमेवमेव प्रतीयते । यदा तु शबलं वस्तु युगपत्पद्यते । तदान्यानन्य भेदादि सर्वमेव प्रलीयते' इति ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमचर। 'यत्र' यत्र यदोद्भूतिः जिघृक्षा चेति कथ्यते । तदात्मकत्यं धर्माणामुच्यते चेत्यसङ्गतम् ॥ १०७ ॥ देशभेदस्तु धर्माणां अस्माभिरपि नेष्यते । धर्मी हि तेषामाधारो न पुनस्स तदात्मकः ॥ १०८ ॥ [निर्विकल्पकविचारोपसंहारः] तस्माद्य एव वस्त्वात्मा सविकल्पस्य गोचरः। . स एव निर्विकल्पस्य शब्दोल्लेखविवर्जितः ॥ १८९ ॥ अत्रैवं पृच्छयते-नामजात्यादिशवलं वस्तु निर्विकल्पे भासत इत्यत्र, किं. धर्मिणोऽत्यन्तं भिन्नैः धर्मिणि वर्तमानैर्नामजात्यादिभिः शबलितं वस्तु ? उतात्यन्ताभिन्नैः तादृशैः? उत भिन्नाभिन्नैः ? आयेऽस्मदिष्टापत्तिः। द्वितीये तु . अभिन्नयोधर्मधर्मिभावः कथम् ? न हि स्वयमेव धर्मः धर्मी च भवितुमर्हति । एवं च एकस्यैव धर्मिणः तत्वेन-धर्मात्मकत्वेनाग्रहणात् धर्माणां धात्मकत्वं. धर्मिणो धर्मात्मकत्वं वा कथम। नान्त्यः--भेदाभेदयोः परस्परविरुद्धत्वेनैकत्रासंभवात् । ननु उपपादकांशभेदाद्विरोधं परिहराम:-- तथोक्तं - 'एवञ्च परिहर्तव्यः भिन्नाभिन्नत्वकल्पना । केनचित् स्यात्मनैकत्वं नानात्वं चास्य केनचित् ' इति ॥ अत्र न्यायरत्नाकरः- 'यत्तु अन्यानन्यतैव कथमेकस्येत्युक्तं तत्राहएवञ्चेति । एतदेव दर्शयति-कनचिदिति । गोत्वं हि शाबलेयात्मना बाहुलेयाद्भिद्यते, स्वरूपेण च न भिद्यते। तथा व्यक्तिरपि गुणकर्मजात्यन्तरात्मना गोत्वाद्भिद्यते, स्वरूपेण च न भिद्यते। तथा व्यक्तयन्तगदपि व्यक्तिर्जात्यात्मना न भिद्यते, स्वरूपेण च भिद्यत । अपेक्षाभेदाच्चाविरोधः ' इत्यादि । तथा च को दोष.? इति चेत् -- एवं तर्हि अनुवृत्तांशव्यावृत्तांशभेदस्य सिद्धत्वाद्धर्मधर्मिभेद एव दृढीकृतो भवति। अपेक्षावशात् यत्र यस्य धर्मस्य उपादित्सा तस्य तत्रोद्भवः ग्रहणं चेत्युच्यते, अभेदश्च तयोरुच्यत इति विचित्रमिदम् । अतोऽयमपि पक्षो न युक्तः ॥ यस्य-ख. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] अभ्रान्तपदवैयर्थ्यांपपादनम् किमात्मकोऽसाविति चेद्यद्यदा प्रतिभासते । वस्तुप्रमितयश्चैव प्रष्टव्या न तु वादिनः ॥ ११० ॥ कचिजातिः कचिद्दव्यं कचित्कर्म कचिद्गुणः । देव सविकल्पेन तदेवानेन गृह्यते ॥ १११ ॥ इह शब्दानुसन्धानमात्रमभ्यधिकं परम् । 'विषये न तु भेदोऽस्ति सविकल्पा विकल्पयोः ॥ ११२ ॥ अतः शब्दानुसन्धानवन्ध्यं तदनुबन्धि वा । जात्यादिविषयग्राहि सर्व प्रत्यक्षमिष्यते ॥ ११३ ॥ तस्माद्यत्कल्पनापोढपदं प्रत्यक्षलक्षणे । भिक्षुणा पठितं तस्य व्यवच्छेद्यं न विद्यत ॥ ११४ ॥ [' अभ्रान्त' पदप्रयोजनदूषणम् ] अभ्रान्तपदस्यापि व्यावर्त्य न किंचन' तन्मते ' पश्यामः ॥ ननु ! तिमिर-आशुभ्रमण - नौयान-संक्षोभाद्याहितविभ्रमं द्विचन्द्रअलातचक्र चलत्पादपादिदर्शनम पोह्यमस्य परैरुक्तम - सत्यमुक्तम्, ननु शब्दानुले खिनी प्रतीतिः कीदृशी स्यादित्यत्र - अनुभवं पश्येति वदति - वस्त्वित्यादि ॥ • 257 इह - सविकल्पे । शब्दः-वाचकशब्दः । तस्मादिति - नामजात्यादि विषय प्रत्यक्षस्यापि प्रत्यक्षप्रमाणत्वेन तद्व्यावृत्यर्थं कल्पनापोढपदमिति न युज्यत इत्यर्थः ॥ 'तिमिराशुभ्रमणनौयान संक्षोभाद्यनाहितविभ्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ' इति न्यायबिन्दुः | अत्र 'संक्षोभः - वातपित्तश्लेष्मणाम् । तेन ज्वलितस्तंभादिभ्रान्ति : ' इति धर्मोत्तरटीका । संक्षोभ : - चित्तसंक्षोभ इति यावत् । द्विचन्द्र - इत्यादीनां यथासंख्यमन्वय: । अलातं अर्धदग्धकाष्ठः । तस्याशुभ्रमणेन चकार भ्रान्तिविषयः चक्रं अलातचक्रमुच्यते । एवञ्च द्विचन्द्रभ्रमे तिमिरं दोष:, अलातचक्रभ्रमे आशुभ्रमणं, चलत्पादपभ्रमे नौयानं दोष:, आदिपदग्राह्यपिशाचभ्रमादौ संक्षोभादिरिति ग्राह्यम् || 2 सन्मतेन - ख. 1 विधेये-क NYAYAMANJARI 17 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 बौद्धसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणम् न्यायमअरा अयुक्तं तु-कल्पनाऽपोढपदेनैव तयुदाससिद्धः। तत्रापि निर्विकल्पकं ज्ञानं एकचन्द्रादिविषयमेव, विकल्पास्तु विपरीताकारग्राहिणो भवन्ति ; यथा मरीचिग्राहिणि निर्विकल्पके सलिलावसायी विकल्प इति ॥ [अभ्रान्तपदप्रयोजनसमर्थनं - तन्निराकरणं च] ननु ! तिमिरेण द्विधाकृतं चक्षुरेकतया न शक्नोति शशिनः . ग्रहीतुं इति निर्विकल्पकमपि 'द्विचन्द्रादि'ज्ञानम्-यद्येवं तरल तरङ्गादि सादृश्यरूषितं ऊपरे मरीचिचक्रं चक्षुषा परिच्छेत्तुमशक्यमिति तत्रापि निर्विकल्पकमुदकग्राहि विज्ञानं किमिति नष्यते ? . अभ्युपगमे वा सदसत्कल्पनोत्पातादिकृतः प्रमाणेतरव्यवहारो न स्यात् ॥ [ज्ञानानां भ्रमत्वनिदानम्] अपि च न बाधकोपनिपातमन्तरेण · भ्रान्तताऽवकल्पते ज्ञानानाम् । न च क्षणिकवादिमते बाध्यबाधकभावो बुद्धीनामुपपद्यत इत्यलं विमर्दैन । ____ पूर्वोक्तं (पृ. 235) दलकृत्यं शङ्कते-नन्वित्यादि । तिमिरादिदोषदुष्टमपि चक्षुः प्रथमसन्निकृष्टं चन्द्रं गृह्णाति । दोषवशात् नयनद्वयगतरश्मिद्वयं स्वतन्त्रं चन्द्रसंयुक्तं पृथक्पृथक् चन्द्रं गृह्णाति । अतः द्वित्वप्रतिभासः । परन्तु प्रत्येकं प्रत्येकं यथावस्थितवस्तुग्रहणात् न तत्र कल्पनावकाशः । अतश्च कल्पनापोढत्वात् द्विचन्द्रभ्रमेऽतिव्याप्तिः। अतः अभ्रान्तपदम् । यद्यपि शुक्तिरजतादिज्ञानेऽप्यतिव्याप्तिर्वक्तुं शक्या, परन्तु कल्पनापोढपदेनैव तैभिरिकज्ञानस्य स्पष्टनिरस्यत्वप्रतीतये द्विचन्द्रज्ञानमुपात्तम्। समाधत्ते-यद्येवमिति । मरीचिज्ञानमपि अभ्रान्तपदेनैव वारयाम इति चेत्तत्राह--अभ्युपगम इति । तथा च अभ्रान्तपदेनापि व्यावृत्तिर्दुवचैव स्यात् । प्रथमाक्षसन्निपातप्रभवत्वेन निर्विकल्पवदेव हि तेषामपि प्रामाण्यमेव वक्तव्यं स्यादित्याशयः ॥ न चेति । ज्ञानानां क्षणिकत्वेन बाधकज्ञानकाले बाध्यं ज्ञानं स्वयमेव नष्टमिति कथमनयोर्बाध्यबाधकभाव इति भावः ॥ 1द्विचन्द्र-ख. तरङ्गादि-ख. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] सांख्यमीमांसकप्रत्यक्षलक्षणनिरास: इति सुनिपुण बुद्धिर्लक्षणं वक्तुकामः पदयुगलमपीदं निर्ममे नानवद्यम् । भवतु, मतिमहिम्नश्चेष्टितं दृष्टमेतत् जगदभिभवधीरं धीमतो धर्मकीर्तेः ॥ ११५ ॥ [सांख्योक्तप्रत्यक्षलक्षणदूषणम् ] श्रोत्रादिवृत्तिरपरैर विकल्पकेति प्रत्यक्षलक्षणमवर्णि तदप्यपास्तम् । 'साम्यान्न' यस्य, न च सिद्धयति बुद्धिवृत्या द्रष्टृत्वमात्मन इति प्रतिपादितं प्राक् ॥ ११६ ॥ [जैमिन्युक्तप्रत्यक्षलक्षणदूषणम् ] 'सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यमानोपलंभनत्वात्' इत्येतत्सूत्रं जैमिनीयै: 'साक्षात्प्रत्यक्षलक्षण दिङ्नागस्तु 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढं ' ( प्रमाणसमुच्चये) इत्येतावन्मात्रं लक्षणमुक्तवान् । तत्र दोषं पश्यन् अभ्रान्तपदेन तत् परिष्कृतवान् धर्मकीर्ति - रिति निपुणबुद्धिरिति नर्मोक्तिः । नायं तदपराध:, किन्तु मतिवैभवयेत्याह-- भवत्विति ॥ 259 श्रोत्रादीति । युक्तिदीपिकायां श्रोत्रादिवृत्तेः प्रत्यक्षप्रमाणत्वमुपपादितम् । सृष्टिप्रक्रियायां श्रोत्रेन्द्रियस्याद्यत्वात् तस्योत्कीर्तनम् । प्रमाणभूतप्रत्यक्षबोधनाय अविकल्पकपदम् । नयस्य साम्यात्--' न तु पररचितानि लक्षणानि क्षणमपि सूक्ष्मदृशां विशन्ति चेत:' इति न्यायस्य साम्यात् । दोषमप्याह - न चेत्यादि । प्राक् 69-70 पुटयोरिदं द्रष्टव्यम् ॥ 2 . सदित्यादि । अत्र ' तत्प्रत्यक्षं ' इत्यन्तं लक्षणवाक्यम् । एतादृशं • प्रत्यक्षं धर्मं प्रति अनिमित्तम् - अप्रमाणम् - प्रत्यक्षेण धर्मः ग्रहीतुं न शक्यत इत्यर्थः । तत्र हेतुः - विद्यमानेति । प्रत्यक्ष खलु वर्तमानमात्र ग्राहकम् धर्मस्तु अतीतः अनागतश्च वर्तते । तयोः कथं प्रत्यक्षेण ग्रहणं स्यात् । अतः विधिरेव (वेद एव) धर्मे प्रमाणं ; नान्यदित्यर्थः ॥ माध्यात्र क. साक्षालक्षण- ख. 17 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 मीमांसकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरास: न्यायमञ्जरी परत्वेन न व्याख्यातम् ; 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' इति प्रकृतप्रतिज्ञासङ्गत्यभावात् । अपि तु-धर्म प्रति प्रत्यक्षमनिमितं, एवं लक्षणकत्वादिति 'अनुवादभङ्गया लक्षणे योजितम् । यथोक्तम्___ एवं सत्यनुवादत्य' लक्षणस्यापि संभवेत्' इति। (श्लो. वा. 1-1-4-39) तदेतल्लक्षणवर्णने सूत्रयोजनमसमीचीनम् ; अतिव्याप्तिदोषानतिवृत्तेः! . तथा हि -इन्द्रियाणां 'सति संप्रयोगे पुरुषस्य जायमाना बुद्धिः प्रत्यक्षमिति सूत्रार्थः । तथा चातिव्याप्तिः--संशयविपर्ययबुद्धयोरपि इन्द्रियसंयोगजत्वेन प्रत्यक्षत्यप्रसङ्गात् ॥ सङ्गत्यभावादिति। इदं नैकं सूत्रं, किन्तु तत् प्रत्यक्षमित्येकं लक्षण- . परं-- अन्यच्च भिन्नं सूत्रमिति व्याख्यातवन्तं भवदासं दूषयद्भिः भट्टपादैरपि 'वर्ण्यते सूत्रभेदेन येन प्रत्यक्षलक्षणम्। तेन सूत्रस्य सम्बन्धो वाच्यः पूर्वप्रतिज्ञया' इति सङ्गत्यभाव एव दूषणमुक्तम्। धर्मविचार: खलु प्रतिज्ञात:, तस्य नेदं प्रत्यक्षलक्षणं साक्षात्संगतमिति ।। एवं लक्षणकत्वादिति--प्रत्यक्षस्येति शेषः। एवमिति। अस्य लक्षणवाक्यस्य अनुवादरूपत्वमपि संभवेत् । लोकसिद्धलक्षणानुवादेन धर्मे प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वमुच्यत इत्यर्थः। अनतिवृत्तरिति । पार्थसारथिमित्रैः न्यायरत्नाकरे ‘भवदासेन हि सता संप्रयोग इत्युक्तं, संप्रयोगशब्दश्च सकलसम्बन्धवचनो व्याख्यातः। अतस्तस्यानुमानादिषु आभासेषु चातिव्याप्तिर्भवति, नास्मध्याख्याने इत्युक्तं ' न युक्तमित्यनेन सूचितम् ॥ . सतीत्यादि । 'सति इन्द्रियार्थसम्बन्धे' इति शाबरं भाष्यम् । यद्यपि अत्र-इदं वाक्यं न विग्रहपरं, किन्तु व्याख्यानमात्रम् । विग्रहस्तु संश्चासौ संप्रयोगश्च हत्येवेति ‘अविद्यमानसंयोगात प्रत्यक्षत्वनिराकृतिः' (1-1-1, 36) इति वार्तिके, तद्व्याख्यासु चाभिहितम् , परन्तु ग्रन्थकृतां सप्तमीतत्पुरुष एवात्र भाष्यकारसम्मत इति अभिप्रायः। 'सप्तमीपक्ष एव न त्यज्यते' इत्यनुपदं वदन्ति च । अयमाशयो ग्रन्थकृताम्- इदं च सूत्रं न प्रत्यक्षलक्षणपरं, किन्तु धर्मे प्रत्यक्षाप्रवृत्तिनिरूपणपरमिति सम्मतमेय। धर्म अनुवादत्वं--ख. सत्संप्रयोगे सति -ख. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] जेमिनयुक्त प्रत्यक्षलक्षणनिरासः अथ सत्संप्रयोग इति सतां संप्रयोग इति व्याख्या 'स्यते'तथाऽपि निरालम्बनविभ्रमा एवार्थनिरपेक्षजन्मानो निरस्ता भवेयुः, न सालम्बनौ संशयविपर्ययौ ॥ अथ सति संप्रयोग इति सप्तमीपस एव न त्यज्यते ; संशयविपर्ययच्छेदी च संप्रयोग इत्युपसर्गो वर्ण्यते । यथोक्तम्- 'सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्प्रयोगनिवारणः । दुष्टत्वाच्छुक्तिकायगो वार्यतामक्षजेक्षणात् ॥ ' इति । (श्लो. वा. 1-1-4-39) तथाऽपि प्रयोगसम्यक् स्यातीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षानवगम्यत्वात् कार्यतोऽवगतिर्वक्तव्या । कार्य त्र ज्ञानम् । न च तदविशेषितमेव प्रयोगस्य सम्यक्तामवगमयति । न च तद्विशेषणपरमिह पदमपि, 261 प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ हेतुः विद्यमानोपलंभनत्वादिति । प्रत्यक्षस्य विद्यमानोपलंभनत्वमेवा सिद्धमित्याशंका 'सत्संप्रयोगे' इत्यनेन वार्यत इति कथनमेव सुन्दरम् इदं च कर्मधारयाश्रयणे कथं वा सिध्येत् ? आर्थिकं तदिति चेत्, ततो वरं शाब्दस्वकल्पनम् । असतां संप्रयोगस्यासंभवात् सदिति व्यर्थमिति धर्मकीर्तिदूषणभीत्या कर्मधारयाश्रयणमपि न युक्तम्, सूत्रस्यानुवादकत्वेन लक्षण - परत्वाभावेनैव तन्मुखपिधानात् । कर्मधारयाश्रयणेऽपि हि सत्पदं व्यर्थमेव । संप्रयोगे' इत्यस्य निमित्त सप्तमीत्वेन विद्यमानस्यैव निमित्तत्वसंभवात् तेनैव विद्यमानत्वं लभ्येत । परमते अविद्यमान संप्रयोगजन्ययोगिप्रत्यक्षवारणाय तदिति वर्णनमपि न चारुतरम् । परमतदृष्ट्या लक्षगे विशेषणदानस्यासंभवात् । अतः प्रकृतात्यन्तोपयुक्ततत्पुरुषाश्रयणमेव वरम् ॥ 1 संशयविपर्ययाविति । एतयोः इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यत्वं पूर्व (पु. 232-233) उपपादितम् ॥ दुष्प्रयोगः --असत्सन्निकर्षः । अतीन्द्रियत्वेनेति । शुक्तिरजतसत्यरजतसन्निकर्षयोर्हि वैलक्षण्यं न तदानीभनुभवसिद्धम् । अविशेषितं - दुष्टज्ञानवारकविशेषणासहितं, तत् ज्ञानम् । ज्ञानं सम्यक् चेत् कारणमपि सम्यक, नो चेन्न - इत्येव वक्तव्यमित्यर्थः ॥ 1 यते-ख. 2 सत्स- ख. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीमांसकसम्मत प्रत्यक्षलक्षणनिरास: [न्यायमञ्जरी अक्षरमपि मात्रामपि वा सूत्रे पश्यामः । सतां संप्रयोग इति च 'पद' निरालम्बन' ज्ञान निवृत्तये वर्णितम् । सप्तम्यैव गतार्थत्वादनर्थकम् ॥ 'सति' इति तु 'सति 262 लोकत एव कार्यविशेषावगमात् प्रयोगसम्यक्तमवगमिष्यामः इति चेत्-लोकत एव प्रत्यक्षस्य सिद्धत्वात् किं तलक्षणे सूत्र - सामर्थ्य योजनाक्लेशेन ॥ [उपवर्षो क्तप्रत्यक्षलक्षणवर्णनम् ] यदप्यत्र 'भगवान्' वृत्तिकारः प्राह-यत् प्रत्यक्षं न तद्यभि चरति, ''यत् व्यभिचारि न तत्प्रत्यक्षम् । किं तर्हि प्रत्यक्षम् ? तत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत् प्रत्यक्षम् । यद्विषयं ज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्द्रियाणां पुरुषस्य बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् । यत् अन्यविषयकं ज्ञानमन्यसंप्रयोगे भवति न तत् प्रत्यक्षमिति ' इत्येवं तत्सतोर्व्यत्ययेन लक्षणमनपवादमवकल्पत इति - तदपि वृथाऽटाट्यामात्रम् ; संशयज्ञानेन व्यभिचारानतिवृत्तेः । तत्र हि यद्विषयं ज्ञानं तेन संप्रयोग इन्द्रियाणामस्त्येव ॥ · ननु ज्ञानं न तथा विशेष्यते । अथापि अर्थप्राप्तयप्राप्तयो:, लोकसिद्धत्वात् तदादायैव सन्निकर्षसदसत्त्वं निर्णेष्याम इति शङ्कते - लोकत एवेति । तर्हि प्रत्यक्षस्वरूपादिकमपि लोकत एव प्रतिपद्यतां, किं तलक्षणाद्यभिधानेनेति समाधानग्रन्थाशयः ॥ अनपवादं - असद्विषयक भ्रमव्यावृत्तम् । वृथाऽटाट्या वृथाभ्रमणम् ॥ 1 परं - ख. , 2 विज्ञान - क्र. 3 सप्तम्यैव - ख. 4 भवान् क, ख. 5 यद्व्यभिचारि न तत्प्रत्यक्षं यत् प्रत्यक्षं न तद्व्यभिचरनि । तत्संप्रयोगे(शिष्टं यथानिवेशितमेव ) - क. यद्व्यभिचारि न तत् प्रत्यक्षं यत् प्रत्यक्षं, यद्विषयं ज्ञानमन्यसंप्रयोगे भवति न तत्प्रत्यक्षं इत्येवं - ख. 6 संप्रयोगे इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत्प्रत्यज्ञं तदन्यविषयं ज्ञानं अन्यसंप्रयोगे भवति न तत् प्रत्यक्षमस्त्येव - ख. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] जैमिन्युक्तप्रत्यक्षलक्षणनिरास: 263 [संशयस्येन्द्रियजन्यत्वोपपादनम् ] ननु ! उभयविषयं ज्ञानम् ; न चोभाभ्यां संप्रयुक्तमिन्द्रियम् --- मैवम् न हि धवखदिरवत् द्वावपि संशयसंविदि प्रतिभासेते। किं तु स्थाणुर्वा पुरुषो वेति अनिर्धारितैकतरपदार्थतत्त्वावमर्शी संशयो जायते । नूनं च तयोरन्य'तरेणेन्द्रियं संप्रयुक्तमेवेति । उभयावमर्शित्वाच्च संशयस्य येन संप्रयुक्तं चक्षुः तद्विषयमपि तज्ज्ञानं • भवत्येवेति नातिव्याप्तिः परिहृता भवति ॥ [सूत्रस्यानुवादकत्वोपपादनं परैः] अथ व्रयुः-किमनेन परिक्लेशेन ? 'न लक्षण वर्णनमस्माकमभिमतम् , अनुवादपक्षनिक्षिप्तत्वात् । अपि तु लोकप्रसिद्धप्रत्यक्षानुवादेन धर्म प्रत्यानिमित्तत्वमेव विधीयते ! न धर्म प्रति प्रमाणं प्रत्यक्षं, विद्यमानोपलंभनत्वात्-विद्यमानार्थग्राहित्वादित्यर्थः । धर्मश्च न वर्तमानः ; त्रिकालानवच्छिन्नस्य तस्य 'यजेत' 'दद्यात्' 'जुहुयात् ' इत्यादिशब्देभ्यः प्रतीतेः ।। तर्हि 'सत्सं'प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम्' इति किमर्थो ग्रन्थ इति 'चेत्-न-विद्यमानोपलंभनसमर्थनाथेत्वात्। यदि विद्यमानो पलंभनत्वमसिद्ध मिति परो यात्-स वक्तव्यः-विद्यमानोपलंभनं प्रत्यक्षं, सत्संप्रयोगजत्वादिति ॥ : ननु यावद्विषयसंयोग एव विवक्षणीयः। अन्यथा हि भ्रमेऽपि धयंशे सन्निकर्षसत्त्वात् कथं वारणम् ! तथा च संशयव्युदास इति शङ्कते.-. नन्विति । ज्ञानं- संशयः। धवखदिरवदिति । समुच्चयात्मकज्ञान इव इति यावत् । तद्विषयमपीति । अन्यतरस्यैव प्रकारत्वेन तदंशे इन्द्रियसन्निकर्षोऽस्त्येव । अन्यथा प्रत्यभिज्ञाद्यपि न प्रत्यक्षं स्यादित्यर्थः ॥ ___ यथार्थमाशयमनुवदति- अथेति। त्रिकालेति। न हि कालविशेष एव विधायको विधिरित्यर्थः । भूतो भविष्यंश्च धर्मों वर्तत एव ॥ किमर्थ इति । 'प्रत्यक्षमनिमित्तं, विद्यमानोपलंभनत्वात्' इत्येतावतैवोक्तार्थलाभादित्यर्थः ॥ 1 तरेण-क. - लक्षण-ख. मपि-क. तत्सं-क. चेन्न विद्यमानो-ख. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 मीमांसकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरासः न्यायमञ्जरी - प्रत्यक्षग्रहणमपि हेतुनिर्देशार्थमेव। सत्संप्रयोगस्यासिद्धतां ब्रुवन्ननेन प्रत्याख्यायते सत्संप्रयोगजं प्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वादिति । तदुक्तम् (श्लो. वा 1-1-4-21) 'प्रत्यक्षत्व'मदोहे 'तुः शेषं हेतुप्रसिद्धये' इति । स्वातन्त्र्येणापि प्रत्यक्षत्वं धर्मग्राहकत्वनिषेधाय वक्तव्यम् । न. धर्मग्राहि प्रत्यक्षं, प्रत्यक्षत्वात् , अस्मदादिप्रत्यक्षवत् इत्येवमन्यत्रैव सूत्र तात्पर्यात् नातिव्याप्त्यादिदोषावसर इहेति ।। [अनुवादकत्वेऽपि सूत्रस्य दोषकथनम् ] .. .. तदेतदपि न प्रामाणिकमनोऽनुकूलम्। कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं प्रतिपाद्यते? किमस्मदादिप्रत्यक्षस्य ? योगिप्रत्यक्षस्य वा? तत्र अस्मदादिप्रत्यक्षस्य तथात्वे सर्वेषामविवाद एवेति किं तत्रेयता श्रमेण ! योगिप्रत्यक्षस्य तु भवतामसिद्धत्वात् कस्य धर्म 'प्रत्यनिमित्तत्व' प्रतिपादनम् ? प्रत्यक्षेति। तदनिमित्तम्' इत्येवालमित्यर्थः । अदोहेतु -सत्संप्रयोगजत्वे हेतुः। तथा हि व्याख्यातं मित्रैः-'सत्संप्रयोगजत्वस्यैव कुत: सिद्धिरित्यत आह-प्रत्यक्षत्वमिति । तदेते त्रयः प्रयोगाः, प्रत्यक्षमनिमित्तं, विद्यमानोपलंभनत्वात् ; विद्यमानोपलंभनत्वं च सत्संप्रयोगजत्वात् ; सत्सं. प्रयोगजत्वं च प्रत्यक्षत्वादिति' इति । शेषं सूत्रं विद्यमानोपलंभनत्वरूपहेतोरसिद्धयाशंकायां हेतुसिद्धयर्थ प्रवृत्तमित्यर्थः । प्रत्यक्षत्वं-प्रत्यक्षलक्षणम् । प्रत्यक्षं न धर्मग्राहक इति वक्तव्ये, कुत इति प्रश्ने, प्रत्यक्षस्यैवंरूपत्वादिति खलु वक्तव्यमित्यर्थः । अन्यत्रैव-लक्षणादन्यस्मिन्ननुवाद एव ।। तथात्वे-प्रत्यक्षं प्रत्यप्रमाणत्वे। योगीति। तथोक्तं वार्तिके'अस्मदादी प्रसिद्धत्वायोग्यर्थमभिधीयते' (1-1-1-21) इति ॥ 'मतो हे-क, ख. 2 शेषहेतु-क. ' मन्यसूत्र-क. 'प्रत्यप्रमाणता-ख. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त प्रत्यक्षलक्षण निरास: एवं च धर्मिणोऽभावादाश्रयासिद्धतां स्पृशेत् । विद्यमानोपलभत्वप्रत्यक्षत्वादिसाधनम् ॥ ११७ ॥ आह्निकम् २ ] परप्रसिद्धा तत्सिद्धिरिति चेत्-केयं प्रसिद्धिर्नाम ? प्रमाणमूला ? तद्विपरीता वा? आधे पक्षे प्रमाणस्यापक्षपातित्वात् परस्येव तवापि सिद्धिर्भवतु । अप्रमाणमूलत्वे तुन कस्यचिदप्यसौ प्रसिद्धिः ॥ योगज्ञानं परेषां यत् सिद्धं तदनुभाषणे । . प्रतिज्ञापदयोरेव व्याघातस्ते प्रसज्यते ॥ ११८ ॥ परैर्हि धर्मग्राहि योगिज्ञानमभ्युपगतम् । अतस्तदनुभाषणे धर्मग्राहकं न धर्मग्राहकमित्युक्तं स्यात् ॥ परसंसिद्धमूलं च नानुमानं प्रकल्पते । उक्तं भवद्भिरेवेदं निरालम्बन' दूषणे ॥ ११९ ॥ धर्मिणः – उभयसंप्रतिपन्नस्य पक्षस्य । लौकिकप्रत्यक्षस्य धर्मं प्रत्यप्रमाणत्वसाधने सिद्धसाधनम् ; योगिप्रत्यक्षस्य भवदनभिमतत्वात् पक्षत्वमेव न संभवतीत्युभयथापि सूत्रं व्यर्थमित्यर्थः ॥ 265 • तवापीति । न हि प्रमाणसिद्धस्यापह्नवः केनापि कर्तुं शक्य इत्यर्थः ॥ व्याघात इति । परसम्मतं हि योगिप्रत्यक्ष धर्मग्रहणशक्तम्, तत्कथं परंसम्मतं सिद्धवत्कृत्य तस्य धर्मग्राहकत्वमात्रं नाङ्गीक्रियत इत्यर्धजरतीत्यर्थः । एतदेवोपपादयति - परैहत्यादि । तथोक्तं ' अतीतानागतेऽप्यर्थे सूक्ष्मे व्यवहितेऽपि च । प्रत्यक्ष योगिनामिष्टं कैश्चित् (श्लो. वा. 1-1-4-26) इत्यादि । परे - शाक्या र्हतादयः ॥ पर संसिद्धमूलं - परमतमात्र सिद्ध पक्षकभू । उक्तमिति । तथा हि वार्तिकम् (श्लो. वा. 1-1-5- निरा. 45 ) 'अथापि रूढिरूपेण प्रत्ययः स्यात् तथापि तु । प्राकं वस्तु सिद्धं नः प्रत्ययोऽन्यस्य वस्तुनः । तमभ्युपेत्य पक्षश्चेत् अभ्युपेतं विरुध्यते ' इत्यादि । अयं भावः । सर्वोsपि प्रत्ययः मिथ्या, 2 माणले - क. 1 प्रमाणपक्ष-क्र. 3 दूषणम - ख. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 मीमांसकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरास: न्यायमरी साध्यसिद्धिर्यथा नास्ति परसिद्धन हेतुना। तथैव धर्मिसिद्धत्व परसिद्धया न युज्यते ॥ १२०॥ [सूत्रस्य तर्करूपत्वोपपादनं, तन्निराकरणञ्च तत्रैतत्स्यात्-प्रसङ्गसाधन मिदम् । प्रसङ्गश्च नाम परसिद्धन परस्यानिष्टापादनमुच्यते। परस्य च विद्यमानोपलंभनं सत्संप्रयोगजन्यं च प्रत्यक्षं सिद्धम् । अतस्तेनैव हेतुना धर्मानिमित्तत्वं तस्योपपाद्यत इति को दोषः?-नैतदेवम् प्रसङ्गसाधनं नाम नास्त्येव परमार्थतः । तद्धि कुड्यं विना तत्र चित्रकर्मेव लक्ष्यते ॥ १२१ ॥ न हि नभःकुसुमस्य सौरभासौरभविचारो युक्तः ॥ . अथापि 'किं न एतेन'! भवत्वेवं प्रसङ्ग साधनम् । तदपि तु . व्याप्तिमूलं भवति ॥ न च संभवति' व्याप्तिप्रतीतिरिह मादृशाम् । .. न धर्मग्राहि सर्वेषां प्रत्यक्षमिति वेत्ति कः? । १२२ ।। प्रत्ययत्वात् , इत्यनुमाने पक्षत्वेन लोकप्रसिद्धः प्रत्यय एव विवक्षित इति कथनेऽपि अन्यस्य ग्राहकात् ज्ञानात भिन्नस्य वस्तुनः. ग्राहकं आत्मधर्मभूतं वस्त्वेव प्रत्ययशब्दार्थ इति अस्माकं प्रसिद्धम्। तस्यैव पक्षीकरणे च अभ्युपगमविरोध:--अस्माभिः अर्थग्राहकत्वेन प्रमाणत्वेन चाभिमत प्रत्यय पक्षत्वेनांगीकृत्य पुनस्तस्य अर्थाविषयस्वादप्रामाण्यसाधनं व्याहतमिति । एवञ्च परपक्षसिद्धस्य पक्षीकरणं न युज्यत इति भवद्भिरेव कथितमिति प्रकृते परमतसिद्धस्य योगिप्रत्यक्षस्य पक्षीकरणं न युक्तम् । धर्मी-पक्ष: ।। प्रसङ्गेत्यादि। कन्दल्यामप्ययं पक्षः प्रस्तुत्य निरस्तः ।। मादृशां-असर्वज्ञानाम् । प्रत्यक्षं हि ज्ञानं तत्तदात्ममात्रसाक्षिकम । एवं स्थिते सर्वेषामपि प्रत्यक्षं न धर्मग्राहीति को वा वेत्ति ? यदि कश्चित् वेत्ति तर्डि स एव सर्वज्ञः योगिपदवाच्यः संजातः। सर्वशेन च तेन धर्मोऽपि तथैव गृह्येत ॥ । किं तेन-क. विदं-ख, साधनम्-ख. 4 तदत्रापि न तु--ख. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] जैमिन्युक्तप्रत्यक्षलक्षणनिरास: 267 मत्प्रत्यक्षमक्षमं धर्मग्रहण इति भवान्न जानीते, त्वत्प्रत्यक्षमपि न धर्मग्राहीति नाहं जाने, अन्यस्य प्रत्यक्षमीदृशमेवेति उभावण्यावां न जानीवहे ॥ त्वया तु यदि सर्वेषां प्रत्यक्षं ज्ञातमीदृशम् । तर्हि त्वमेव योगीति योगिनो द्वेक्षि किं वृथा ? ॥ १२३ ॥ प्रामाणिकस्थितिं तस्मादित्थं श्रोत्रिय ! बुध्य से ! परोक्तेऽतीन्द्रिये ह्यथै मा वादीर्दूषणं पुनः ।। १२४ ॥ प्रमाण सिद्ध हतशक्ति दूषणं प्रमाणशून्येऽपि वृथा तदुक्तयः । निरस्य चोद्यव्यसनं तु मृग्यतां अतीन्द्रिये वस्तुनि साधनं पुनः ॥ १२५ ॥ स चेत् पर्यनुयुक्तः सन् वक्तुं शक्नोति साधनम्। ओमिति प्रतिपत्तव्यं नो चेन्नास्त्येव तस्य तत् ॥ १२६॥ उक्तमेव विवृणोति-मत्प्रत्यक्षेति । उभाविति । स्वप्रत्यक्षस्य धर्मग्रहणासामर्थ्यात् तद्दृष्टान्तेन इतरेषामपि प्रत्यक्ष तादृशमेवेत्यनुमिनुमः-इति चेत् स्वेनावगतमेवान्येनाप्यवगम्येतेति वा, स्वेनानवगतमन्यस्याप्यनवगतमेवेति वा न वक्तं शक्यमिति ग्रन्थकृदेव सप्तमाह्निके क्षणभङ्गे वक्ष्यति । यथा—' यदहं न वेद्मि तत् परोऽपि न वेदेति चेत्' इत्यादिना । वुध्यसे इति । अवगच्छेति यावत् ॥ . सर्वेषां प्रत्यक्ष ईदृशमिति त्वया यदि ज्ञातं इत्यन्वयः ॥ . प्रमाणसिद्धेऽर्थे दूषणमकिञ्चित्कर, प्रमाणशून्येऽपि तथेत्यर्थः । अयं भावः-- अतीन्द्रियं तु वस्तु भवतामपि सम्मतम्। तत्र च प्रमाणं केवलं मृग्यम्। न रवन्येनोक्ते प्रमाणे केवलदूषणकथनं युक्तम् । शब्दोऽपि हि लोकावगतसामर्थ्यः अत्यन्तलोकविलक्षणेऽतीन्द्रिये वस्तुनि कथं प्रमाण स्यादिति ॥ सचेदिति। अतीन्द्रियसाधकं प्रमाणमवगन्तुमशक्तेन त्वया पृष्टः सःयः कश्चित् तत्साधनं वक्ति चेत्, सूष्णीमभ्युपगम्य सन्तोष्टव्यमायुष्मता। यदि नांगीकरोषि तर्हि अतीन्द्रियसाधनं न शक्यमेव ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 मीमांमकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिराम: न्यायमञ्जरी योगिप्रत्यक्षे प्रमाणम्] ___ आह-शिक्षिताः स्मः प्रामाणिकवृत्तम्। न दूषणं ब्रूमः। भवन्तमेवानुयुज्महे ; तदेतर्हि कथ्यताम्-धर्माधिगमनिपुणयोगिप्रत्यक्षसिद्धौ किं प्रमाणमिति-इदमुच्यते-दर्शनातिशय एव प्रमाणम् । तथा ह्यस्मदादिरपेक्षितालोकोऽवलोकयति निकटस्थितमर्थवृन्दम् । । उन्दुरु'वैरिणस्तु सान्द्रतमतमःपङ्कपटल विलिप्तदेशपतितमपि संपश्यन्ति। संपातिनामा च गृध्रराजो योजनशतव्यवहितामपि दशरथनन्दनसुन्दरीं ददर्शेति श्रूयते रामायणे। सोऽयं दर्शनातिशयः शुक्लादिगुणातिशय इव तारतम्यसमन्वित इति 'गम यति परमपि निरतिशयमतिशयम् । अतश्च यत्रास्य परः प्रकर्षः, ते योगिनो. गीयन्ते । दर्शनस्य च परोऽतिशयः सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टभूत.. भविष्यदादिविषयत्वम् । स्वयमज्ञश्चत् परोक्तमेव शरणीकर्तव्यमित्युक्तो वादी सावहेलनमधिक्षिपति --शिक्षिताः स्म इत्यादिना। अपेक्षितालोकः-आलोकरूपसहकारिविशिष्टः अस्मदादिरित्यर्थः। उन्दुरुवैरिणः--मार्जाराः। तत्सुरवैरिण इति पाठे -राक्षसाः-इत्यर्थः । निशाचरा हि ते। , परं-सर्वापेक्षया अन्तिमसीमवर्तिनम् । नन्वस्तु तथा । तथाऽपि सर्वदर्शित्वं कथं सिद्धमित्यत्राह-दर्शनस्येति । एतदुक्तं भवति । लोके कश्चिदेकं पश्यति, अन्यस्ततोऽधिकं, अपरश्च ततोऽप्यधिकमिति दर्शनं लोके तरतमभावापन्न दृष्टम् । तस्य च तारतम्यस्य कुत्रचिद्विश्रान्तिर्वाच्या। कतिपयदर्शित्वं तु सर्वसमानम् । अतः तादृशोऽतिशयो निरतिशयो न स्यात् । आपेक्षिककतिपयदर्शित्वप्रतिकोटि तु सर्वदर्शिस्वमेव । तत्र यदि सर्वशब्दे संकोचोऽङ्गीक्रियते तर्हि पुनस्सैव गतिः। अतः देशतः कालत: स्वरूपतश्च संकोचरहितसर्वदर्शित्वमेव वक्तव्यमिति सिद्धं सूक्ष्मत्रिकालवर्तिसर्वदर्शित्वं केषाञ्चिदिति ॥ 1 तत्सुर-क. कथ-क. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] या गिप्रत्यक्षसमर्थनम् [दयोsपि योगिप्रत्यक्ष विषयाः ] ननु ! स्वविषयानतिक्रमेण भवतु तदतिशयकल्पना । धर्मस्तु चक्षुषो न विषय एव । तदुक्तम्- (लो. वा-1-1-2-114) 'यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूर सूक्ष्मादिदृष्टौ स्यात् न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥ अपि च- ' येऽपि चातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधाबलै' नृणाम्' | स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ' ॥ इति । एतदयुक्तम्-यतः, यद्यपि नास्मदादिनयनविषयो धर्मः --- तथापि योगीन्द्रियगम्यो भविष्यति । तथा हि-योजनशतव्यवहितं, अन्धकारान्तरितं वा नास्मदादिलोचनगोचरतामुपयाति, संपातिपृषदंशदृशोस्तु विषयो भवत्येव ॥ [ चक्षुषैव योगिनां धर्मग्रहणम् ] नन्वेवमविषये प्रवृत्तं योगिनां चक्षुर्गन्धरसादीनपि गृह्णीयात् । यथोक्तम्- (. वा. 1-1-2-112) 'एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते । नूनं 'स' चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यंत ' इति ॥ स्वं तत्तदिन्द्रियाणि । श्रोत्रवृत्तिता - श्रोत्रस्य वृत्तिः - यस्मिन् तत् श्रोत्रवृत्ति, तस्य भावः । यद्विषयकप्रवृत्तिमत् श्रोत्रं तत्तेत्यर्थः । श्रोत्रग्राह्यतेति यावत् ॥ 269 स्तोकस्तोकान्तरत्वेनेति । एकापेक्षयाऽन्यस्य पुरुषस्येन्द्रियाणां सन्नप्यतिशयः किञ्चित्किञ्चिदन्तरवानेव स्यात्, न तु अतीन्द्रियार्थग्रहणरूपादतियो महदन्तरो दृष्ट इत्यर्थः । व्यवहितं इत्यस्य 'वस्तु' इति विशेष्यम्, एवमुत्तरत्रापि ॥ 1 नरा:-क. ----! प्रमाणेन—प्रमाकरणेनेन्द्रियेणेति यावत् । चक्षुषैव यदि सर्वं जानीयात् तर्हि रसादिग्राहकत्वमपि चक्षुष एव स्यादिति इन्द्रियव्यवस्थैव न स्यादिति ॥ 2 जैव-क. ७ च - ख. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 मीमांसकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरासः न्यायमञ्जरी नैतदेवम् - रसादिग्राहीण्यपि योगिनामिन्द्रियाणि चक्षुर्वदतिशयवन्त्येवेति न रसादिपु चक्षुर्व्यापारः परिकल्प्यते । धर्मेऽपि न तर्हि' कल्पनीय इति चेत्-न-तस्य रसादिवत् तदविषयत्वाभावात् ॥ अपि च योगीन्द्रियाविषयत्वं धर्मस्य कथमवगतवान् भवान् ? अविषयत्वं तद्भावेऽपि तदनवगमादवगम्यते-यथा नयनसद्भा: वेऽपि शब्दाश्रवणात् तदविषयता शब्दस्यावसीयते-न चैवं योगिचक्षुषि सत्यपि धर्मस्याग्रहणं अवगन्तुं शक्नोति भवान् , उभयस्यापि भवतः परोक्षत्वात् इत्य विषयस्स 'तस्येति न ते वक्तुं युक्त मिति ॥ [धर्मः योगिप्रत्यक्षविषय एव] ननु ! कर्तव्यतारूपः त्रिकालस्पर्शवर्जितः । चक्षुर्विषयतामेति धर्म इत्यतिसाहसम् ॥ १२७ ॥ नैतदिति। अयं भाव:--चक्षुषैव रसादिग्रहणापादनं, योगिनां रसनेन्द्रियादीनामभावादुच्यते ? उत सतामपि तादृशशक्त्यभावात् । नांद्य:, इन्द्रियाणां सद्भावात् । अन्त्ये किं रसादिग्रहणशक्तिः पूर्व विद्यमाना योगिनां नष्टा ? उतातीन्द्रियरसादिग्रहणशक्तिर्नास्तीति ? प्रथमे अस्मादृशामयोगिनामिन्द्रियस्य विद्यमानं सामर्थ्यमपि योगिनामिन्द्रियस्य नास्तीति चित्रमिदम् । द्वितीये चक्षुर्वदेव रसनादिकमपि योगप्रभावादतीन्द्रियरसादिग्रहणशक्तं वर्तत एवेति किं चक्षुष उपरि भारारोपगेनेति । तीति । यथा लोके रसस्य चक्षुषा कुत्राप्यग्रहणात् योगिचक्षुषोऽपि तत्रासामर्थ्य कल्पना, तथैव धर्मस्य कुत्रापि चाक्षुषत्वादर्शनात् धर्मेऽपि असामर्थ्यकल्पनमेव न्याय्यमित्यर्थः । समाधत्ते--तस्येति । तविषयत्वेति । चक्षुरविषयत्वस्यासिद्धेरिनि भावः॥ ननु चक्षुर्विषयत्वं वा कथं सिद्धमित्याशङ्कायां बाधकामावादेव सिद्धमित्याह-अपि चेति । उभयस्य ----योगिचक्षुषः धर्मस्य च ॥ त्रिकालेति। तथाक्तं (श्लो.वा. 1-1-2-1:3) 'श्रेयस्साधनता ह्येषां नित्य वेदात् प्रतीयते। तादृप्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः' इति ॥ 1 पि तर्हि-क. यता शब्दस्या-ख. इति-ख. "तस्य नेति नैव-ख. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २ ] धर्मादीनां योगिप्रत्यक्षविषयत्वसमर्थनम् सत्यं साहसमेत मम वा चर्मचक्षुषः । न त्वेष दुर्गमः पन्था योगिनां सर्वदर्शिनाम् ॥ १२८ ॥ [त्रिकालानवच्छिन्नोऽपि धर्मः प्रत्यक्ष एव ] • यच्च त्रिकालानवच्छिन्नो यजेतेत्यादिलिङादियुक्तशब्देकशरणागमो धर्मः कथं ततोऽन्येन प्रमाणेन परिच्छिद्यतामित्युच्यतेतदपि प्रक्रियामात्रम् । किमिव हि त्रिकालस्पर्शास्पर्शाभ्यां कृत्यम् ? यथा वयं गमनादिक्रिया'णां' देशान्तरप्राप्त्यादिप्रयोजनतां जानीमः - तथा अग्निहोत्रादिक्रियाणां स्वर्गादिफलतां ज्ञास्यन्ति योगिन इति किमत्र साहसम् ? [ अन्तत: धर्मादयो मनसा वा गृह्यन्त एव भावनाबलजप्रत्यक्षवत् ] यदि हि बाह्येन्द्रियेष्वमर्षः, न तेष्वतिशयो विषह्यते, तदलमनुबन्धेन ॥ ' मनःकरणकं ज्ञानं भावनाभ्याससंभवम् । भवति ध्यायतां धर्मे कान्तादाविव कामिनाम् ॥ १२९ ॥ न हि सर्वविषयं न तस्याविषयः कश्चिदस्ति । अभ्यासवशाच्चातीन्द्रियेष्वप्यर्थेषु परिस्फुटाः प्रतिभासाः प्रादुर्भवन्तो दृश्यन्ते । यथा' ss: (प्र. वा. 3-282). कोशः ॥ 'कामशोकामयोन्मादचोरस्वमा' युपद्रुताः ' अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ॥ शरणं - उपायः । ततः - शब्दात् । यद्यपि अत्र त्रिकालानवच्छिन्नत्वमात्रं न धर्मस्य शब्दै गम्यत्वे हेतु:, अनुमानस्यापि कालत्रयविषयत्वात् किन्तु . प्रत्यक्षागम्यत्व एव । अथापि सर्वथाऽप्रत्यक्षे नानुमानमपि प्रवर्तेतेत्याशयः । प्रक्रिया --- उपपादनप्रकारः || अनुबन्ध: - दोषोत्पादनम् | 271 'यां- क. 2 मनो हि - क. , 'दोषोत्पादेऽनुबन्ध: स्यात् 4 इति 3 यदा - क. 'द्युपप्लुता - इति प्रमाणवार्तिकपाठः । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 मीमांसकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरास: न्यायम जरी [भावनावल जप्रत्यक्ष धर्मप्रत्यक्षे दृष्टान्तो भवत्येव] ननु ! एतेषां मिथ्याज्ञानन्वात् न योगिविज्ञाने दृष्टान्तत्वं युक्तम्-न-'स्फुटावभासमात्र तया दृष्टान्तत्वोपपत्तेः। न हि शब्दघटयोरपि सर्वात्मनाऽतुल्यत्वम्। तत्र कामशोकादिभावनाभ्यासभुवां प्रतिभासानां बाधकवैधुर्यादप्रामाण्यं भविष्यति, नेतरेषाम, तदभावात् । 'स्फुटाभासत्व तूभयत्रापि तुल्यम् ॥ [पत्यक्षस्यातिश. अतीन्द्रियार्थविषयत्वरूपो युक्त एव] ननु ! अभ्यासोऽपि' क्रियमाणो नात्यन्तमपूर्वमतिशयमावहति, . लङ्घनाभ्यासवत् । 'योऽपि हि' प्रतिदिनमनन्यकर्मा लङ्घनमभ्यस्यति सोऽपि कतिपयपदपरिमितमवनितलमभिल वयति; न तु पर्वत मम्बुधिं वेति-उच्यते लङ्घनं देह धर्मत्वात् कफजाड्यादिसंभवात् । मा गात् प्रकर्ष, ज्ञाने तु तस्य का प्रतिबन्धकः १३१ ॥ लङ्घनादौ तु पूर्वेयुः प्रयत्नसमुपार्जितः । न देहेऽतिशयः कश्चिदन्येद्यरवतिष्ठते ॥ १३२ ॥ तत्र केवलमभ्यासात् प्रक्षये कफमेदसोः । शरीरलाघवं लब्ध्वा लयन्ति यथोचितम् ॥ १३३॥ एतेषां कामशोकादिपीडितपुरुषदर्शनानाम् । ननु परस्परमत्यन्तविलक्षणयोर्यत्किञ्चित्माम्यमात्रेण यदि दृष्टान्तत्वं, तर्हि शब्दघटयोरपि यत्किञ्चिदंशे दृष्टान्तत्वप्रसङ्ग इति शङ्कामिष्टापत्त्या परिहरति-न हीति । यथा घटः भनित्यः तथा शब्दोऽप्यनित्य इति प्रतीतिस्संभवत्येवेत्यर्थः । बाधकवैधुर्यात्-- बाधकप्रत्ययापहृतविषयत्वात् ॥ तस्य -- प्रकर्षस्य । ज्ञानस्य महिमा तु निरवधिरित्यर्थः ॥ लङ्घनाभ्यामस्य दृष्टान्तत्व पेव न संभवनीत्याह -- लङ्घनादाविति । अयं भावः । लङ्घनाभ्यासेन खलु शरीरे नातिरिक्तः अतिशय उत्पाद्यते। किन्तु 1 स्फुटामामात्र-क. 2 स्फुटाभत्व-क. 3 अभ्यास:-क. 4 यो हि-क. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २ धमादीनां योगिप्रत्यक्षविषयत्वसमर्थनम् 273 इह विज्ञानजन्यस्तु संस्कारो व्यवतिष्ठते । क्रमोपीयमानोऽसौ पतिशयकारणम् ॥ १३४॥ यथाऽनुवाकाहणे संस्थाऽ'भ्यसन'कल्पितः । स्थिरः करोति संस्कारः पाठस्मृत्यादिपाटवम् ॥ १३५ ॥ यथा का पुटपाकेन शोध्यमानं शनैश्शनैः । हेम निष्प्रति काशं तद्याति कल्याणतां पराम् ॥ १३६॥ नथैव भावनाभ्यासात् योगिनामपि मानसम् । ज्ञानं सकलविज्ञयसाक्षात्कारक्षम भवेत ॥ १३७॥ अस्मदा देश्च रागादिमलावरणधूसरम । मनों न लभते ज्ञान प्रकर्षपदवीं पराम् ॥ १३८ ॥ 'प्रत्यहं भावनाभ्यासक्षपिताशेषकल्मषम् । योगिनां तु मनः शुद्धं कमवा न पश्यति ॥ १३९ ॥ यथा च तेशं रागादिप्रहा णमवकल्पते । तथाऽपव चिन्तायां विस्तरेणाभिधास्यते ॥ १४० ॥ तदेव क्षीणदोगणी ध्यानावहितचेतसाम् । निर्म सवि ग्यं ज्ञानं भवति योगिनाम् ॥ १४१ ॥ शरीरलाघवप्रतिबन्धककफाडि परिहारमात्रं तेन क्रियते । प्रकृते तु निदिध्यासनवशादपूर्व एवं संस्कारातिशय आत्मन्युत्पद्यते । यथा वेदमधीयानो वटुः पुन पुनरावृत्या स्थिरतरं संस्कारं संपादयति तथेति । विज्ञानेति । विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानम् । यथेति। संस्था-धारणा। अनुवाकग्रहणे सति धारणाभ्यासन स्थिरीकृत संस्कार: पारस्मृत्यादिषु पाटवं यथा करोतीत्यर्थः । निम्प्रतिकाश निम्समम् । निष्प्रतीकाश मिति वक्तव्ये 'अपि मा मषं कुर्यात् छन्दाभॉन कारयेत् ' इति न्यायात्तथोक्तम् ॥ शाने-ख. . 4.रे-ख. .. ज्ञान-क. 'भ्यासेन- क. काशे-क.. " प्रत्यूह -ख. 'मा-ख. NYAYAMANJARI 18 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 मीमांसकसम्मत प्रत्यक्षलक्षणनिरास: [न्यायमञ्जरी [अस्त्येवास्मदादीनामपि भविष्यद्विषयं प्रातिभं ज्ञानम् ) अपि चाना'गत'ज्ञानमस्मदादेरपि क्वचित् । प्रमाणं प्रातिभं, वो मे भ्राताऽऽगन्तेति दृश्यते ॥ १४२ ॥ नानर्थजं, न सन्दिग्धं, न बाधविधुरीकृतम् । न दुष्टकारणं चेति प्रमाणमिदमिष्यताम् ॥ १४३ ॥ कचिद्वाधक योगश्चेत् अस्तु तस्याप्रमाणता । यत्रापरेद्युरभ्येति भ्राता तत्र किमुच्यताम् ॥ १४४ ॥ काकतालीयमिति चेत्, न प्रमाणप्रदर्शितम् । वस्तु तत्काकतालीयमिति शङ्कितुमर्हति ॥ १४५ ॥ [प्रातिभं ज्ञानं प्रमाणमेत्र ] ननु ! अनर्थ जमिदं ज्ञानं भ्रातुस्तजनकम्य तदानीमसत्वात् । स्यादेतदेवं - यदि तदाऽस्तित्वेन भ्रातरं गृह्णीयात् । किन्तु भवन'नं गृह्णाति । भावित्वं च तदाऽस्यास्त्येवेति कथमनर्थजं तज्ज्ञानम् ॥ प्रशस्तपादभाष्यादिषूक्तं कालत्रयविषयकं प्रातिभं ज्ञानं प्रमाणभूतमिति, तदेतदाह-अपि चेति । तत्तु प्रस्तारेण देवर्षीणां कदाचिदेव लौकिकानां ' इति भाष्यात् क्वचिदित्युक्तिः । अनर्थजं - अर्थाजन्यम् । बाधेत्यादि । बाधज्ञानापहृत विषयकमिति यावत् । एवमपि यस्मिन् शुक्तिरजतज्ञाने कारणान्तरवशात् बाघ एव नोपन्नः तत्तौवं कुतो न स्यादित्यत: -- न दुष्टेत्यादि । प्रातिभानुविधायिभ्रात्रागमनादिरूपं वस्तु प्रमाणप्रदर्शितमपि काकतालीयमिति शङ्कमपि नार्हतीत्यन्वयः । एवं सति सर्वेषामपि प्रमाणानां एवं शङ्कितुमर्हत्वात् शून्यवाद एव परिशिष्येतेत्यर्थः ॥ तज्जनकस्य -- प्रातिभज्ञानजनकस्य । तथा च भ्रान्तिरूपमेवेदं प्रातिभं ज्ञानमिति भाव: । यदीत्यादि । अन्यथा भूतवस्तुविषयकानुमानमपि तदानीमनर्थजन्यमेव स्यात्, एवं शब्दोऽपीति । अतश्च प्रातिभमर्थजन्यमेवेति न दोषः ॥ 1 गतं - ख. ३ तये-क. 2 यं भवि - क, यमिति भवि - ख. क्ष-क. न्त-क. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] प्रतिभाया प्रत्यक्षत्वोपपादनम् 275 ननु ! भावितया ग्रहणमघटमानम् । भावित्वं हि नाम सावधिः प्रागभावः । ' अभावस्य च भावेन' भ्रात्रा सह कः सम्बन्धः ? वस्त्ववस्तुनोर्विरोधात् तदेतदसम्यक् तद्देशसम्बन्धस्य तत्र प्रागभावः, न तु धर्मिणः । स हि विद्यत एव प्राग'वगतः। स च कुतश्चित् भोजनोत्कण्ठादेः कारणात् स्मरणपदवीमुपारूढः श्वस्तनागमनविशिष्टत्वेन प्रतिभातीति प्रातिभस्य स एव जनक इति । · तस्मादनर्थजत्वाभावात् प्रमाणं प्रातिभम् । प्रमाणं च सत् प्रत्यक्षमेव, न प्रमाणान्तरम् ; शब्दलिङ्गसारूप्यनिमित्तानपेक्षत्वात् ॥ [प्रातिभं प्रत्यक्षमेव ] - मनस ननु ! प्रत्यक्षमपि मा भूत, इन्द्रियानपेक्षत्वात्मैवम् - एव तंत्रन्द्रियत्वात् । पूर्वोत्पन्नवाक्षुष विज्ञानविशेषणस्य बाह्यस्य अघटमानं भवतीति शेषः । अयं भावः - प्रागभावः खलु भविष्यतीति प्रतीतिगम्यः । एवं च भ्रातुर्भविष्यत्त्वेन ग्रहणे भ्रातृप्रागभाव एव सिध्यति । तथा च भ्राता तदानीं नास्तीत्यनर्थजत्वं सिद्धं प्रातिभस्येति । सावधिः ज्ञातोत्तरावधिरिति यावत् । कस्सम्बन्ध इति । प्रतियोगित्वं तु नात्र वक्तुं शक्यम्, अभावग्रहणकाले प्रतियोगिनस्सत्त्वाऽसंभवेन विवक्षितार्थासिद्धेः । प्रतियोगिताऽन्वये हि प्रत्यक्षा प्रागभावप्रतीतिः, न तु प्रातिभं तत् । विशेषणविशेष्यभावेन खल्वत्रोपस्थितिरावश्यकी । तदा चोभयोरपि सत्त्वमावश्यकम् । तच्च न वटत एव प्रतियोगितयाऽन्वये । प्राक् पूर्वकाले । अयमर्थ:- न ह्यत्र भ्राता भविष्यति इति प्रतीतिः, किन्तु आगमिष्यति इति - भ्रातुरागमनं भविष्यतीत्यर्थः । एवञ्च नायं भ्रातृप्रागभावः, किन्तु भ्रात्रागमनप्रागभावः । तथा च एतद्देशसम्बन्धप्रागभावविशिष्टस्य भ्रातुरेव ग्रहणात्, विशेषणविशेष्ययोश्च तदानीं सत्वान्नानर्थजं प्रातिभमिति ॥ अन्यथा इन्द्रियेति । बाह्येन्द्रियेत्यर्थः । विशेषणविशेष्ययोस्त्वेऽपि न हि चक्षुरुसन्निकर्षो वर्तत इत्यर्थः । ननु मनः बाह्यविषये न स्वतन्त्रम् । अन्धोऽपि रूपं गृह्णीयादित्यत्राह पूर्वेति । न हि मनः अपूर्वं बाह्य गृह्णाति, ! अभावेन-क. 2 प्राक. ; भाव-ख. 18* Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 मीमांसकसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरामः न्यायमञ्जरी वस्तुनो मनो 'ग्राहक मिति नान्धाद्यभाव इत्युक्तम् । शब्दाद्यपायान्तरविरतौ च जायमानमनवा ज्ञानं मानसं प्रत्यक्षं भवति । सुरभि केतककुसुमम् , मधुरा शर्करेति ज्ञानवदित्यप्युक्तम् । अत एव नानियतनिमित्तकं ज्ञानं प्रतिभेति वक्तव्यम्। प्रत्यक्षनिमित्तत्वात् ॥ [भाषज्ञानमन्यत, अन्या च प्रतिभा] न चार्ष नाम ज्ञानं प्रतिभा ; प्रत्यक्षातिरिक्तस्यार्पनाम्नः प्रत्ययस्याभावात् । 'ऋषीणामपि यज्ज्ञानं तदप्यागमपूर्वकम्' इति किन्तु पूर्वावगतिजसंस्कारसचिवं सत् वस्तूपस्थापयतीति नोक्तदोष इत्यर्थः । प्रातिभस्य प्रामाण्ये सिद्धे, इतरानन्तर्भावाञ्च तस्य प्रत्यक्षत्वं स्वतस्सिदमेवेति। । प्रत्यक्षनिमित्तत्वादिति बहुव्रीहिः ॥ 'आर्ष सिद्धदर्शनं च धर्मेभ्यः' (क. सू..9-2) इति माहर्षसूत्रम् । अत्र प्रशस्तपादाचार्याः ‘आम्नायविधा तृणांमृषीणां अंतीतानागतवर्तमानेध्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु ग्रन्थोपनिबद्धे ग्वनुपनिबद्धेषु चात्ममनसोस्संयोगात् धर्मविशेषाञ्च यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत्तु प्रस्तारेण देवर्षीणां, कदाचिदेव लौकिकानां- यथा कन्यका ब्रवीति-- 'श्वो मे भ्राताऽगन्तेति हृदयं मे कथयति' इति, इति । अत्र ‘सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरं' इत्यादिना सिद्धदर्शन प्रत्यक्षानुमानान्यतरान्तर्भतमेवेति वदतां प्रशस्तपादानां आर्ष अतिरिक्तं प्रमाणमिति सम्मत मिव भाति । न्यायकन्दल्यां श्रीधराचार्याश्च अन 'तत् प्रत्यक्षार्षयोरन्यतरस्मिन्नन्तर्भूतं ' इति वदन्त इममर्थ द्रढयन्ति । तदेतन्निराकरोति-न चेत्यादि । अयं भावः ‘आर्ष सिद्धदर्शन च धर्मेभ्यः' इत्यत्राएं ज्ञानं प्रातिभमिति यदुक्तं तदिष्टमेव । परन्तु न तदतिरिक्त प्रमाणम् । एकसूत्रनिर्दिष्टयोः चकारेण समुञ्चितयोरुभयोर्मध्य एकस्यातिरिक्तत्वेऽन्यस्यानतिारेक्तत्वे च न सौत्रं विनिगमकं पश्यामः। अतस्सर्वोऽप्ययं प्रत्यक्षविशेष एवेति । ऋषीणाम पीति । तथा च आर्षज्ञानस्य शब्दाद्यधीनत्वेऽपि शाब्दत्वं तु न संभवत्यवेति अन्ततः तत् मानसप्रत्यक्षरूपमेव वक्तव्यम् । अतश्च आर्ष प्रातिभं च प्रत्यक्षप्रभेद इत्यर्थः ॥ नग्राहक-क. 'शानं-ख. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् २] प्रत्यक्षस्य कालत्रयविषयत्वसमर्थनम् 27 हि बदन्ति । आगमग्रहणं च निदर्शनार्थम्। अनुपायस्य ज्ञानस्य तेषामसत्त्वात् ॥ [सिद्धदर्शनमपि न प्रतिभा न च सिद्धदर्शनं प्रतिभा; अस्मदादेरपि भावात् । तस्मान्न प्रमाणान्तरं प्रातिभम् , अपि तु प्रत्यक्षमेव ।। [प्रत्यक्षमपि कालत्रयविषयकमरत्येव] ननु ! प्रत्यक्षमपि नेदं भवति । तद्धि वर्तमानकविषयम् । यथोक्तम्-(श्लो. वा. 1-1-4-84) 'संबद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना' इति । ___ तथा –'एष प्रत्यक्षधर्मश्च वर्तमानार्थ तैव यत्' इति च। मैवम्अनागतग्राहिणः प्रत्यक्षस्य प्रदेशान्तरे स्वयमेवोक्तत्वात् ॥ 'रजतं गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते ' ' इति च' भवानेवावोचत् । तस्मात् प्रत्यक्षमनागतग्राहि 'श्वो मे भ्राताऽऽगन्ता' इति सिद्धम् ॥ एवञ्चास्मदादीनामिवानागते भ्रातरि, योगिनां भविष्यति धर्मे प्रत्यक्षं प्रवत्स्य॑तीति । तस्मात् यत् सर्वशनिषधाय कथ्यते 'यजातीयैः प्रमाणैस्तु यजातीयार्थदर्शनम् । . भवेदिदानी लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ॥' (श्लो. वा 1-1-3-113) इति तदपास्तं भवति ॥ योगिनां सर्वज्ञत्वसंभवाक्षेपपरिहारौ] तत्रैतत्स्यात्-सर्वज्ञता योगिनां किमेकेन ज्ञानेन ? बहुभिर्वा ? कथ्यत इति । रूपग्राहकजातीयैः चक्षुरादिभि: यजातीयस्य वस्तुन इदानीं ग्रहणं कालान्तरेऽपि तत्तथैव स्यात। प्रमाणस्वभावः सर्वकरूप एव इति वार्तिकार्थः। अतश्चातीन्द्रियार्थदर्शनं योगिनामपि न स्यादिति भावः ।। तत्र- सर्वज्ञसिद्धौ। एतत्--आक्षेपजालम् । यद्यपीति शेषः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 मीमांसकसम्म प्रत्यक्षलक्षणनिराम: [न्यायमञ्जरी न तावदेन न ह्येकस्मिन् ज्ञाने परस्परविरोधिनोऽर्थाः शीतोष्णवदवभासन्ते ॥ : नापि बहुभि -- तानि हि क्रमेण वा भवेयुः ? युगपद्वा ? न युगपज्ज्ञानानि संभवन्ति सूक्ष्मान्तःकरणसापेक्षत्वात् । क्रमभावि भिस्तु ज्ञानैरशेष त्रिभुवन कुहर निहित निखिलपदार्थ सार्थ साक्षात्करणमेषां मन्वन्तरकोटिभिरपि दुर्घटमिति कथं सर्वज्ञा योगिनः ? उच्यते युगपदेकयैव बुद्धया सर्वत्र सर्वानर्थान् द्रक्ष्यन्ति योगिनः । यत्तु विरुद्धत्वा दिति, तदप्रयोजकम् - विरुद्धानामपि नीलपी तादीनामेकत्र चित्र प्रत्ययेव भासनात् । एकत्र च मेचकप्रत्यये सन्निहितपदार्थव्यतिरिक्तसकलवस्त्वभाव' ग्रहणस्य पूर्व' (पु. 143) दर्शितत्वात् । शीतोष्णयोरपि क्वचिदवमरे भवति युगपदुपलंभः - तद्यथाप्रतपति हुतवहविस्फुलिङ्ग निकरानुकारिकिरणे तरुणोमणि ग्रीष्मे हिमशकल शिशिरपयसि सरसि निमग्नन भिन्नदेहस्य पुंसः युगपदेव सरस्सलिलसूर्यातपवर्तिनौ शीतोष्णस्पर्शावनुभवपथमवतरतः । नहीति । न हि नीलो घटः संभवतीत्यर्थः ॥ पी: पट इतिवत् नीलपीतो घट इति प्रतीतिः सूक्ष्मेति । 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् ' इति हि वक्ष्यत इत्यर्थः । क्रमेत्यादि । इदमुपलक्षणम् - अभ्युपगमे वा एतादृशं सर्वज्ञत्वं सर्वेषामपि संभवेदेव ॥ विरुद्धानामिति । वस्तुनोर्हि नीलपीतयोर्विरोधः, न तु ज्ञामेन साकं तयोः । समूहालम्बने अत्यन्तविरुद्धानामपि भानात् अन्यथा 'नीलपीत इति वक्तुमप्यसंभवात् । अतः ज्ञाने न कस्यापि विषयस्य विरोध इत्यप्यूह्यम् । युगपदिति । यद्यपि युगपत् ज्ञानद्वयं नाङ्गीक्रियत एव, अथापि अत्यन्त - विरुद्धत्वेन ज्ञायमानयोः शीतोष्णयोरुभयोरपि एकज्ञानविषयत्वं न केवलं शाब्दा दिघीमादायैवोपपादनीयं, ऐन्द्रियकानुभवमादायापति प्रतिपादनार्थमिदम् । शीतोष्णयोरुभयोरपि त्वगिन्द्रियग्राह्यत्वात् युगपदुभयविषयानुभवः संभवत्येव ॥ 1 प्रत्यये - ख. ग्रहणपूर्वस्य--ख. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] मीमांमकमम्मलप्रयक्षलक्षणनिरामोपसंहारः 279 योगिनां सर्वज्ञत्येऽपीश्वराद्विशेषः] ननु ! एकेन ज्ञानेन सर्वानान् भूतभाविनः परोक्षानपि पश्यन्तो योगिनः कथमखिलत्रैलोक्यवृत्तान्तदर्शिनः सकलजगद्गुरोरीश्वराद्विशिष्येरन्। अस्ति विशेषः - ईश्वरस्य तथाविधं नित्यमेव शानं, योगिनां तु योगभावनाभ्यासप्रभवमिति ॥ अपूर्वमपि वस्तु भावनावशात् योगिप्रत्यक्षविषयः] . ननु ! नादृष्टपूर्वेऽर्थे क्वविद्भवति भावना । आगमात्तु परिच्छिन्ने धर्मे भावनयाऽपि किम् ?॥१४६॥ चोदनैव धर्म प्रमाणमिति सावधारणप्रतिज्ञार्थः, प्रथममागमादवगतधर्मस्वरूपेषु सत्स्वपि योगिषु न विप्लवत एवेति--उच्यतेयोगिष्वस्त्येवायं प्रकारः। पश्चादपि प्रवर्तमाने धर्मग्राहिणि प्रत्यक्षे चोदनैवेत्यवधारणं शिथिलीभवत्येव। अपि चेश्वरज्ञानं सांसिद्धिकमेव विशिष्येरन् - मिचेरन् , विलक्षणा भवेयुः। अस्तीति। एवञ्च ईश्वरज्ञानं नित्यं, स्वाभाविकं च ; योगिज्ञानं तु अनित्यं, नैमित्तिकं चेति विशेष इति भावः ॥ · नन्वित्यादि। भावना नाम अनुभवजन्या स्मृतिहेतुश्च। एवञ्चातीन्द्रियवस्तुविषयकानुभवस्य पूर्वमसंभवेन कथं तद्भावना ? कथं वा ततो योगिनामपूर्ववस्तुप्रत्यक्षम् ? यदि च वेदादतीन्द्रियार्थज्ञानाधीना भावनेत्युच्यते, तर्हि धर्मादिः वेदादेव निर्णीतस्वरूप इति ततो भावनया किं प्रयोजनम् ? इत्यर्थः । न विप्लवत एवेति । एतादृशयोगिष्वङ्गीकृतेष्वपि चोदनैव धर्म प्रमाणमिति प्रतिज्ञाया नोपरोधः ! योगिभिर्हि प्रथमावगतये वेद एव शरणीकरणीयः संपन्न इत्यर्थः । शिथिलीभवत्येवेति । गृहीतग्राहित्वं न प्रामाण्यं व्याहन्तीत्युक्तं पूर्वमेव । एवञ्च वेदाधीनत्वेऽपि योगिप्रत्यक्षस्य धर्म प्रामाण्यं वर्तत एवेति चोदनैव प्रमाणमिति भवदवधारण व्याहतमेवेति । ननु प्रामाण्यमत्र स्वातन्त्र्येण विवक्षितम् । योगिनां धर्मप्रत्यक्षप्रामाण्यं तु वेदाधीनमेवेति न दोष इति शङ्कायामाह-अपि चेति । सांसिद्धिकमिति । तस्य नित्यसर्वज्ञत्वमन्यथा Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 वैशेषिकसम्मत प्रत्यक्षलक्षणनिरामः कारणभूतं वक्ष्यामः । धर्मविषयं वेदस्य चोदनैवेत्यवधारणार्थ सिद्धिः ॥ (न्यायमञ्जरी तस्मिन्नपि सति न [जैमिनिसूत्र निराकरणोपसंहारः) तस्मात् 'न धर्मग्राहकं योगिप्रत्यक्षं विद्यमानोपलम्भनत्वात्, सत्संप्रयोगजत्वात् इत्यादिसाधनमप्रयोजकम् ॥ प्रमाणान्तरविज्ञातप्रमेयप्रतिपादकः । धर्मोपदेशकः शब्दः शब्दत्वात् घटशब्दवत् ॥ १४७ ॥ प्रत्यक्षः कस्यचिद्धर्मः प्रमेयत्वात् घटादिवत् । इत्यादयश्च सुलभाः सन्त्येव प्रतिहेतवः ॥ १४८ ॥ प्रतियुक्तिसाधितां योगबुद्धिम खिलार्थदर्शिनीम् । किं विमुच्यते सुधा दुष्टहेतुनिकुरुम्बराम्बरम् ॥ तदित्थमपि जैमिनीयं सूत्रमसङ्गतार्थम् । लक्षणपरत्वं त्वस्य. निरस्तमेव ॥ [वैशेषिकसम्मत प्रत्यक्षलक्षण निरासः ] यदपि कैश्चित् प्रत्यक्षलक्षणमुक्त - 'आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्नि कर्षादुत्पद्यते ज्ञानं तदन्यदनुमानादिभ्यः प्रत्यक्षम' इति -- तदपि यद्वयसन्निकर्षजन्मनां सुखात्मादिज्ञानानां अव्यापकं, अतिव्यापकं च व्यभिचार्यादिबोधानामित्युपेक्षणीयम् ॥ न स्यादित्यर्थः । ननु ईश्वरो नास्माभिरङ्गीक्रियत इति अनभ्युपगतदूषणमित्यत्राह - वक्ष्याम इति ॥ प्रमाणान्तरेत्यादि । 'अर्थ' बुढा शब्दरचना' नि खलु न्याय इति भावः । ननु तर्हि यदि शब्दः प्रमाणान्तरावगतमेवार्थं बोधयेत् तहिं तस्य स्मृतितौल्यमेवेति कथं तस्यातिरिक्तप्रमाणत्वमिति चेत् तदेतत् शब्दपरीक्षायां व्यक्तीभविष्यति || मपीत्यर्थः ॥ सूत्रमपि इत्यन्वयः । नास्य लक्षणपरत्वासंभवमात्रं, असंगतार्थकत्व आत्मेत्यादि । आत्मा मनसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियमर्थेन, ततः प्रत्यक्षम् -- इति क्रमादित्याशयः । त्रयद्वयेति । अर्थसन्निकर्ष वर्जयित्वा त्रयं सुखप्रत्यक्षे, अर्थेन्द्रियद्वयं वर्जयित्वा द्वयं आत्मप्रत्यक्षे कारणम् । यभिचार्यादीत्यादिना संशयपरिग्रहः । तेषामपीन्द्रियजन्यत्वमुक्तमेव ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] सांख्यसम्मतप्रत्यक्षलक्षणनिरास: 281 [सायाभिमतप्रत्यक्षलक्षणदूषणम् ] ईश्वरकृष्णस्तु 'प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्' इति प्रत्यक्षलक्षणमवोवत् । तदपि न मनोज्ञम्-अनुमानादिज्ञानानामपि विषयाध्यवसायस्वभावत्वेनातिव्याप्तेः॥ . [युक्तिदीपिकाकार प्रदर्शितव्याख्यानासामञ्जस्यम् ] यत्त राजा व्याख्यानवान् .. 'प्रतिराभिमुख्ये वर्तते, तेनाभिः मुख्येन विषयाध्यवसाय: प्रत्यक्षम' इति । तदप्यनुमानादावस्त्येव । घटोऽयमितिवत् अग्निमान पर्वत इत्याभिमुख्येनैव प्रतीतेः। स्पष्टता 'तु सर्वसंविदा स्वविषये विद्यत एव ॥ [इन्द्रियसन्निकर्षजन्यत्वमन्तरा नान्यत् प्रत्यक्षलक्षणम् ] अथ मन्यसे ! सामान्य थिहितस्य विशेषेण बाधात् अनुमानादिव्यावृत्तिः सेत्स्यति । सामान्येनाध्यवसाय उत्सृष्टः, स लिङ्गशब्दाभ्यां विशेषितः इति तदितरोऽध्यवसायः प्रत्यक्षमिति स्थास्यति । यद्येवं प्रत्यक्षलक्षण मिदान मव्याकरणीयमेव। शब्द लिङ्गग्रहणे वर्णिते सति तद्वैलक्षण्यादेव प्रत्यक्ष ज्ञास्यत इति। तस्मादिन्द्रियार्थसन्निकर्षपदो. पादानमन्तरेण 'नानुमानादिव्यवच्छेद उपपद्यत इति इदमपि न प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यम् ।। विषयेति। अध्यव पायो हि निर्णयः। तद्रूपत्वं चानुमानादेरप्यस्तीत्यर्थः । प्रतिरिति। न झनुमानादिकं विषयमभिमुखीकृत्य प्रवर्तते, किन्तु परोक्षं विषयमधिकृत्येति भावः। आभिमुख्यनैवेति। ज्ञानस्याभिमुख्यं नामविषयीकरणमेव । तच्च सर्वत्र वर्तत एषति भावः॥ ... उत्सृष्टः-उत्सर्गप्राप्तः। तथा च---प्रत्यक्षलक्षणे 'दृष्ट' इति, अनुमानलक्षण ‘लिङ्ग' इति, शब्दलक्षा ‘शब्दः' इति च विशेष्यवाचकं पदम् । लिङ्गशब्दाभ्यां अनुमानशब्दयोः निर्देशात् दृष्टस्य प्रत्यक्षस्य वैलक्षण्यं सिद्धमेवेत्यर्थः । यदीत्यादि। दृष्टादिपदैव तद्व्यावृत्तिवर्णने तावदेव लक्षणमलं, प्रतिविषयेत्यादिविवरणमनपेक्षितमेव । यदि तेषां पदानां लक्ष्यमात्रपरत्वात् 1 अन-क. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 अनुमान परीक्षोपक्रम 'अलमतिविस्तरेण परदर्शन गीतमतः विगतकलङ्कमस्ति न हि लक्षणमक्षधियः । तदलमक्षपादमुनिनैव निबद्धमिदं हरति मनांसि लक्षणमुदारधियाम् ॥ १५० ॥ इति प्रत्यक्षम् न्यायमञ्जरी [ अथानुमानम् ] तत्पूर्वकं च त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामा न्यतो दृष्टं च ॥ ५ ॥ एवं प्रमाण्ज्येष्ठेऽस्मिन् प्रत्यक्षे लक्षिते सति । कथ्यतेऽवसर प्राप्तमनुमानस्य लक्षणम् ॥ १५१ ॥ तत्रानुमानस्वरूपं ब्रूमहे । ततस्तत्र सूत्रं योजयिष्यामः ॥ पञ्चलक्षणका लिङ्गात् गृहीतान्निय' म' स्मृतेः । परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञानं अनुमानं प्रचक्षते ॥ १५२ ॥ अत्रापि लिङ्गविषयं ज्ञानं ज्ञानविषयीकृतं वा लिङ्ग प्रतिबन्धस्मरणसहितं प्रमाणम् ; 'लिङ्गिज्ञानं फलम्, लिङ्गिज्ञानस्य वा प्रमाणतायां पूर्ववदुपादानादिज्ञानं फलमुपवर्णनीयम्;. करणस्य हि प्रमाणत्वमिति स्थितमेवैतत् ॥ इतरत् लक्षणप्रतिपादकं आवश्यकमेवेत्युच्यते, तर्हि लक्षणमतिव्याप्तमेव । अतः इन्द्रियजन्यत्वादिकं निवेशनीयमेव ॥ विषयशुद्धिमन्तरा पठ्यमानं वाक्यं विपरीतमध्यर्थं बोधयेदिति मत्वाऽऽह-तत्रेति । पञ्चति । पक्षसत्वादीनि पञ्चलिङ्गान्यनुपदमेव वक्ष्यन्ते । गृहीतादिति लिङ्गविशेषणम् । लिङ्गात् — लिङ्गज्ञाप्यायाः नियमस्मृतेरित्यर्थः । नियमस्मृतिसहकृतात् लिङ्गादिति वा । लिङ्गी -- अविनाभाव ( व्याप्ताख्य ) सम्बन्धेन लिङ्गविशिष्ट:-- साध्य इत्यर्थः ॥ • अत्रापीति । प्रत्यक्षलक्षणे यथा, तथाऽत्रापि प्रमाणफले ज्ञेये ॥ 1 मे - ख. 2 लिङ्ग-ख. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् २ हेतो: पलक्षणत्वनिरूपणम् [लिङ्गशब्दनिर्वचनं, तस्य पञ्चलक्षणत्वं च ] तत्र परोक्षोऽर्थो लिङ्गयते-- गम्यतेऽनेनेति लिङ्गम् । तच्च पञ्चलक्षणम् । कानि पुनः पञ्चलक्षणानि ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षधर्म'त्वम् विपक्षाध्यावृत्तिः, अबाधितविषयत्वम् असत्प्रतिपक्षत्वं चेति ॥ सिषाधयिषित धर्मविशिष्ट धर्मी पक्षः, तद्धर्मत्वं तदाश्रितत्वमित्यर्थः ॥ साध्यधर्मयोगेन नितिं धर्म्यन्तरं सपक्षः, तत्रास्तित्वम् ॥ साध्यसंस्पर्शशून्यो धर्मी विपक्षः, ततो व्यावृत्तिः ॥ अनुमेयस्यार्थस्य प्रत्यक्षेणाऽऽगमेन वाऽनपहरणं अबाधित विषयत्वम् ॥ 283 संशय बीजभूतेनार्थेन प्रत्यनुमानतया प्रयुज्यमानेनानुपहतत्वसत्प्रतिपक्षत्वम् ॥ एतैः पञ्चभिर्लक्षणैरुपपन्नं लिङ्गं अनुमापकं भवति ॥ [हेतुदोषाः ] एतेषामेव लक्षणानां एकैकापायात् पञ्च हेत्वाभासा वक्ष्यन्ते ॥ पूर्ववदिति प्रमाणतायां सामप्रयाः ' इत्यादिना पूर्व (पु. 174 ) 'उपपादितदिशेत्यर्थः ॥ लिगि- गताविति धातुः । गत्यर्थाश्च ज्ञानार्थकाः ॥ . सिषाधयिषितो यो धर्मः -- वह्नयादि:, तद्विशिष्ट इत्यर्थः ॥ साध्यरूपधर्मवत्वेन निर्णीतमित्यर्थः ॥ अपहरणमिति । विषयापहारो हि बाधः ॥ प्रत्यनुमानतया प्रयुज्यमानेन संशयबीजभूतेनार्थेन - ( साध्यतदभावसाधारणत्वात्) अनुपहतस्वमित्यर्थः । तुल्यबल प्रत्यनुमानाभावः । अ 'संशय ' पदप्रयोगेन अबाधितत्ववैलक्षण्यम् ॥ 1 क्षे स-क. 2 वं- क. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 हेतुस्वरूपविचारः न्यायमञ्जरी ' यस्य पक्षधर्मता नास्ति---असावसिद्धो हेत्वाभासः। यथानित्यः शब्दः, चाक्षुषत्वात् ॥ __ साध्यविपर्ययव्याप्तस्तु विरुद्धः। स यथा--नित्यः शब्दः, कृतकत्वात् , आकाशवत् ॥ 'विपक्षेऽसत्त्वं यस्य नास्ति सोऽनैकान्तिकः। यथा-नित्यः शब्दः, प्रमेयत्वादिति ॥ यस्याबाधितविषयत्वं नास्ति स कालात्ययापदिष्टः। यथाअनुष्णः, तेजोऽवयवी, कृतकत्वात्, घटवदिति ॥ यस्य निष्प्रतिपक्षता नास्ति स प्रकरणसमः। यथा-- अनित्यः, शब्दः, नित्यधर्मानुपलब्धेः, घटवत; नित्यः, शब्दः, अनित्यधर्मानुपलब्धेः, आकाशवदिति। सोऽयं एतेषु पञ्चसु लक्षणेष्वविनाभावो लिङ्गस्य परिसमाप्यते ॥ [अबाधितत्वस्य पृथक् हेतुलक्षणताऽऽक्षेपः] . ननु ! त्रिलक्षणके हेतावविनाभावः परिसमाप्यते। न च तथाविधे बाधा संभवति ; बाधाविनाभावयोर्विरोधात् ॥ साध्यविपर्यय इति। सपक्षः साध्यवान् - तत्र सत्त्वस्य विरुद्धसाध्याभाववत्येव सत्त्वमित्यर्थः। नैयत्यविवक्षणादनकान्तव्यावृत्तिः । अनेन हेतोः नियमेन साध्याभावव्याप्तेरेव सत्त्वेन सपक्षसत्त्वं नास्तीत्युक्तम् । अविनाभावः - व्याप्तिः। परिसमाप्यते--निर्णीयत इति यावत् । प्रकरणसमप्रभृतिशब्दान् तदवसरे निर्वक्ष्यामः ॥ 'त्रिरूपाल्लिङ्गात् यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानं ' (3-3), 'त्रैरूप्यं पुनर्लिगस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एव सत्त्वं, असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम्' (3-5) इत्यादिना न्यायबिन्दौ धर्मकीर्युक्तं उपक्षिपति-नन्विति । विरोधादिति । बाधायां सत्यां त्रिलक्षणकत्वस्यैवासंभवादित्यर्थः ॥ स-क, ख, Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम २१ हतुषाः 285 बाधितत्वं पक्षस्येव, न हेतोः] यञ्चेदमग्न्यनुष्णत्वसाधने कृतकत्वं त्रिलक्षणमपि बाधकविधुरितविषयमित्युदाहृतम्-तत् असमीक्षिताभिधानम् ; अत्र त्रैलक्षण्यानुपपत्तेः । पक्षधर्म एव तावदयं न भवति । प्रत्यक्षाद्यनिराकृतो हि पक्ष उच्यते । न चायमीदृश इत्यपक्ष एव। तो हेतुः कथं पक्षधर्मः स्यात् ॥ नाप्ययमन्वयी हेतुः; अन्वयग्रहणसमय एव तद्विप्लवावधारणात् । अन्वयो हि गृह्यमाणः सक्षिपेण --यद्यत् कृतकं, तत्तदनुष्णम् -इत्यवं गृह्यते। ततश्च तद्गहणसमय एव - अयमुष्णोऽपि कृतक इति हृदयपथमवतरति तनूनपात् - इति कथमन्यय. ग्रहणम्? . ___ ननु कृतकत्वस्य वही सत्त्वात् कथमत्र पक्षधर्मताविरहः? इत्याशंक्य वह्नः पक्षत्वमेव न संभवतीति हेतोः पक्षवृत्तित्वं नास्त्येवेत्युपपादयति-- यच्चदमित्यादि। पक्षधर्मः पक्षवृत्तिरिति यावत् । प्रत्यक्षादीति । तथोक्तं न्यायबिन्दौ-- ‘स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृत: पक्षः' (3-38) इति । व्याख्यातं च ग्रन्थ कारेणैव-- य: साधयि नुमिष्टोऽप्यर्थः प्रत्यक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनैर्निराक्रियते, न स पक्ष: ' (18) इति । धर्मोत्तराचार्योऽप्याह ... ' प्रत्यक्षादिभिरनिराकृतः इति । अपक्ष इति । साध्यवत्तया गृहीते पक्षे सत्वं हि लक्षणम् । प्रकृते च वह्वा अनुष्णत्वं प्रत्यक्षबाधितमेवेति कथं तत्य पक्षत्वमित्यर्थः। तथा च अयं बाध: पक्षदोष एव, न तु हेतुदोषः, हेतोस्तु पक्षधर्मत्वाभाव एव दोषः, न बाध इति ॥ . ननु पक्षे साध्यस्यासि द्वया नैवं दूपयितुं शक्यमिति शङ्कायाम् - तात्र बाधाभावेऽस्य प्रसज्यमानं हेतुत्वं किमन्वयरूपम् ? उत व्यतिरकरूपम् ' इति विकल्प्य दूषयांत - नापीत्यादिना। सर्वाक्षेपेण--- उत्सर्गत:-- सर्व क्रोडीकृत्येति यावत् । अयं तनून पात् इत्यन्वयः । अयं भाव:----यद्यत् कृतकं तत्तदनुष्णं यथा घटादि--इति खलु व्याप्तिग्राह्या। तत्र कृतकसामान्यस्यैव व्याप्तौ भानमनुभवसिद्धम् । कृतकसामान्यान्तर्गते च वह्नावनुप्णवं प्रत्यक्षबाधितमेवेति यद्यत् कृतकं तत्तदनुष्णमिति व्याप्ते रुन्मेष एव नास्ति । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 हेतुस्वरूपविचार: न्यायमञ्जरी यदि त्वनलमुत्सृज्य घटादावन्धयग्रहः । - नान्तर्व्याप्तिहीता स्यात् साध्यसाधनधर्मयोः ॥ १५३॥ ततश्चैवंविधातोः स्वसाध्यनियमोयितान।। साध्याभिलाष इत्येवं षण्डानुनयदोहदः ॥ १५४॥ अन्वयपूर्वकत्वाच्च व्यतिरेकग्रहणस्य तन्निराकरणे तदपाकरणमवगन्तव्यम् ॥ अपि च सिषाधयितधर्मवैपरीत्येन वह्नः प्रत्यक्षतो निश्चयात् वस्तुवृत्तन स एव विपक्ष इति न ततो व्यतिरेकः कृतकत्यस्येति । तस्मात् लक्षण्यापायादेव हेत्वाभासोऽयमिति न रूपान्तर. मबाधितावषयत्वमपेक्षते ।। हेतोरबाधितत्वमपि दुरधिगमम्] कथं चेदमबाधितत्वं निश्चीयते ? न ह्यदर्शनमात्रेण बाधाविरहनिश्चयः । सर्वात्मना हि नास्तित्वं विद्यः कथमयोगिनः ॥ १५५ ॥ अनिश्चिने तदङ्ग च न हेतोहेतुता भवेत् । यथैव पक्षधर्मादिरूपाणामनुपग्रहे ॥१५६ ॥ तस्मादबाधितत्वं रूपान्तरमवचनी यमिनि ॥ अनुमितेन्तु न तराम् । एवं स्थिते कस्याहतोतुत्ववारणायाबाधितत्वं पृथक संपादनीयमिति॥ ननु पक्षान्तर्भावेण कथं व्यभिचारापादन ? इति शङ्कायामाह---. यदीति। अन्ताप्तिरिति। पक्षे साध्यसिध्यनुकूला व्याप्तिः इत्यर्थः । यो हेतुमान् स साध्यवान् इति व्याप्तौ यदि पक्षः सामान्यतो वा कदाचिदपि धर्मितया न भासेत, तर्हि प्रकृतसाध्यनिरूपितव्याप्तयभावन पझे साध्यसाधनासमर्थाद्धेतोः साध्यसाधनप्रयासः पुत्रावाप्तये षण्डानुनयप्रायासायेतेति । अन्वयेति । व्यतिरेकव्याप्तिरपि अन्वयव्याप्तिपोषणायेव । वस्तुनः वृत्त-शीलं स्वभाव इति यावत् ॥ नास्तित्व बाधाभावः । अयोगिनः- असर्वज्ञाः । तदङ्ग---हतो. रङ्गभूतेऽबाधितत्वे। यथा हेतोः पक्षवृत्तित्वादिज्ञानविरहे स हेतुरसाधकः, एवं सर्वोऽपि हेतु: अबाधितत्वस्य ग्रहीतुमशक्यतया असाधक एव स्यादिति ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • आह्निकम् २] अव्यपदेश्यपदप्रयोजनम् [अबाधितत्वं हेत्वङ्गमेव अत्राभिधीयते यदुक्तं --अन्वयग्रहणं सर्वाक्षेपेणेति तद्रूहणवेलायामेव सिषाधयिषित धर्मविपर्ययाध्यासित हुतवहस्वरूपपरिस्फुरणादन्वयशून्योऽयं हेतुरिति-तदहृदयङ्गमम् । अन्वयः सत्यं सर्वाक्षेपेण गृह्यते, न पुनः एकैकधर्मिसमुल्लेखेन । एवं हि तदानन्त्यात् अन्वयो गृहीतुमेव न शक्येत । अनुमानस्य च वैफल्य मित्थं भवेत्, अग्नितां धूमवतां सर्वधर्माणां अन्वयावगमकाल एव गृहीतत्वात् ॥ 287 धूमो हि यत्र यत्रेति सामान्येनैव गृह्यते । न पुनः पर्वतेऽरण्ये गृहे वेत्येवमिष्यते ॥ १५७ ॥ एवञ्च सत्याक्षेपवाचोयुक्तिरुपपन्ना भविष्यति । न चैवं सति वक्तव्यं षण्डानुनय मार्गणम् । न हि तद्वमित्येवं व्याप्तिग्रहणमिष्यते ॥ १५८ ॥ तदानन्त्यात्-- धर्मिणामानन्त्यात् । तद्गुहणं- अन्वयग्रहणम् । न शक्येतेति । वह्निधूमयोर्व्याप्तिर्हि - यो धूमवान् स वह्निमान् इति सामान्यत एव गृह्यते, न तु धूमवत् महानसं वह्निमत्, धूमवान् पर्वतो वह्निमान् इति प्रत्येकं धर्मिव्यक्तीनां भानपूर्वकम्, व्यक्तीनामानन्त्येन व्याप्तिग्रहणस्य दुर्लभत्वापत्तेः । एवं पर्वतादेः प्रातिविकत्वेन ग्रहणे तत्र - वह्निमत्ताया. तदैव सिद्ध्याऽनुमानवैयर्थ्यं च । किन्तु पर्वतादिकं व्याप्तौ सामान्यतः - धूमवस्येन वह्निमत्त्वेनैव च क्रोडीक्रियते । व्याप्तिर्हि साध्यसाधनयोरेव, न तत्राधिकरणव्यक्तिविशेषभान निर्बन्धः । एवञ्च प्रकृतेऽपि यद्यत् कृतकं तत्सर्वमनुष्णं दृष्टमिति व्याप्तौ न किञ्चिदपि बाधकमिति । इत्थं - भवदुक्तावेवानुमानवैयर्थ्य, नास्मदुत्तरीतावित्यर्थः ॥ एवञ्चेत्यादि । एवं सति चेत्यन्वयः । पक्षादीनां सामान्याकारेण व्याप्तौ भानेनैव सर्वाक्षेपेण व्याप्तिर्गृह्यत इत्युक्तिर्निरूढैवेति को दोषः इत्यर्थः । तद्वर्ज - पक्षवर्जम् ॥ ननु यद्यपि व्याप्तिः ग्रहणकाले पर्वतादिग्क्षवर्ज न गृह्यते । अथापि 'यो धूमवान् स वह्निमान्' इति सामान्यतो व्याप्तिग्रहणे कथं पर्वताद्यधिकरणविशेषे वह्निविशेषस्य सिद्धिस्तया व्याप्तथा वक्तुं शक्येत, तथाऽग्रहणादिति Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 हेतुस्वरूविचारः न्यायमञ्जरी सामान्येन च व्याप्तिहीता सती सिपाधयिषितधर्म्य'पेक्षया सैवान्तातिरुच्यते यैव च नगलग्नाम्यनुमानसमधे तद्यतिरिक्तकान्तारादिप्रदेशवर्तिनी बहियातिरभूत् सैव कालान्तरे कान्तारवर्तिनि वह्नावनुमीयमाने ऽन्तर्व्याप्तिरवतिष्टते। तदिहापि यत् कृतकं तदनुष्णमिति सामान्यतः परिच्छेदात् न तदानीमनलोन्मेष इति सिद्धोऽन्वयः॥ व्यतिरेकोऽपि कार्य तेजोऽवयविनि पक्षीकृते कृतकत्वस्य तेजःपरमाणुभ्यः॥ शङ्कायामाह-सामान्येनेति । अयं भावः--- यद्यपि व्याप्तिस्सामान्यत एव गृह्यते, अथापि ‘पर्वतो धूमवान्' इति पक्षधर्मताज्ञानानन्तरं खलु एंक- . सम्बन्धिज्ञानविधया व्याप्तिस्मरणं जायते। तथा च स्मरणकाले सामान्यतः स्मृताऽपि व्याप्ति: पक्षधर्मताज्ञानबलात् प्रकृतपक्षादिविषयिणी विश्राम्यतीति सैव विशेषव्याप्तिरूपाऽपि पर्यवस्यतीति अधिकरणविशेषे साध्यविशेषनिर्णयो भवत्येवेति । अन्तर्व्याप्ति:-सन्तरङ्गभूता व्याप्तिः -विशेषच्याप्तिरिति यावत् । वहिाप्तिः -- बहिरङ्गभूता व्याप्तिः---सामान्ययाप्तिरिति यावत् । तदानीं-सामान्यतो व्याप्तिग्रहकाले। अनलोन्मेषः - वह्नः प्रातिस्विकतयोपस्थितिः। तथा च व्याप्तिग्रहणकाल एव . वह्निविशेषाभानात प्रत्यक्षबाध: पूर्वोक्तरीत्या न वक्तुं शक्य इत्यर्थः ॥ . . . 'अन्वयपूर्वकत्वाच्च व्यतिरेकग्रहणस्य' इत्याद्यपाकरोति-व्यतिरेकोऽपीति। ‘कृतकत्वस्य व्यतिरेकोऽपि सिद्धः' इत्यन्दयः ॥ ननु नित्यस्य तेज:परमागोरुभयवादिसंप्रतिपन्नत्वे तत्र कृतकृत्वस्य व्यतिरका सिद्धयेत्, ये तु नित्यं परमाणु नाभ्युपगच्छन्ति वेदान्तिप्रभृतयः तेस्सह विवाद कः प्रतीकार इति चेत्, तर्हि चन्द्रे, तारकासु वा ज्योतिषु व्यतिरेको ग्रहीयते, शास्त्रत: तेषां तेजोगव्यत्वस्य निर्णीतत्वात्। अथ यदि बिधुतार कादयो न तेजांसि, अपि तु सहस्त्रकरणमरीचिनिफलनवादालोद नियुच्येत, तर्हि मा भवन्तु तानि तेजालि। अथापि न नो हानि: : तदा हि विपक्ष इति कश्चिदेव नास्तीत्युक्तं भवति। तथा च विपक्षावृत्तित्वं हेतोस्सिद्धर्भवेत्याह--- पेक्षायां-ख. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] पक्षस्यानावश्यकत्वाशङ्का 289 विधुतारकपरमाण्वनभ्युपगमे तु विपक्ष एव नास्तीति तदभावात् सुतरां तत्रावृत्तिर्भवतीति। न हि सपक्ष इव विपक्षे वृत्तिरिष्यते, येन यत्नतः तत्सिद्धये यतेत। अग्निरेव विपक्ष इति चेत्-मैवम्न हि पक्ष एव विपक्षो भवितुमर्हति ॥ [पक्ष इति कश्चन नास्त्येवेत्याक्षेपः] ननु ! वस्तूनामद्विरूपत्वात् पक्षो नाम परमार्थतो नास्त्येव । साध्यधर्माधिकरणभूतश्चेत् मोऽर्थः, तत्सपक्ष एव; विपर्यये तु न. विपक्षतामतिवर्तते । न च क्रमद्वययोगित्वं रूपद्वयरहितत्वं वा वस्तुनः समस्तीति ॥ . विध्वित्यादि। · अत्रेदमवधेयम् - यादृशपुरुषविशेषेणैतावता उष्णस्पर्श एवं नानुभूत: · तादृशेन पुरोवर्तिवह्निमधिकृत्यैवं प्रयोगे विपक्ष एव अप्रसिद्धः । परन्त्वस्मिन् प्रयोगे अनुष्णत्वं--स्पर्शगत जातिविशेष एव, न तूष्णत्वाभावरूपम् , उष्णस्पर्शस्यैव तेनाननुभूतत्वात् । यस्तु चन्द्रतारकादिषु परमाणो वा शास्त्राच्चोष्णस्पर्श निश्चिन्वन्नेव पुरोवर्तिभौमवह्निमधिकृत्य तथा प्रयुक्ते, तदा परमाण्वादिकमेव विपक्ष इति। ननु यदि विपक्ष एव नास्ति तर्हि विपक्षा. वृत्तित्वं वा कथं प्रसिद्धयेत् ?. इत्यत्राह-न हीति। दुष्टहेतुषु यत् प्रसिद्धं विपक्षवृत्तित्वं तदभावः प्रसिद्धयेदेवेति भावः। ननु अनुष्णत्वसाधने तदभाववानग्निरेव विपक्ष इति, तस्मात् व्यावृत्तिः हेतोः कृतकत्वस्य नास्तीति कथं व्यतिरेकः ? इत्यत्राह---अग्निरेवेति । व्याप्तिज्ञानकाले न तत्र तदभावनिर्णयसंभव इत्यनुपदमेवोक्तम् ॥ ननु लोके हि वस्तु कोटिद्वयान्तर्गतं, घटः--तद्भिन्नश्चेत्येवंरीत्या। तथा च प्रकृते वस्तुसामान्यं साध्यवद्वा भवेत् , साध्याभाववद्वा। एतदन्यतरकोटावेव सर्वमपि वस्त्वन्तर्भूतम्। तत्र साध्यवांश्चेत् सः सपक्ष एव, साध्याभावांश्चेत् स विपक्ष एव। को हि नामेदानी पक्षः तृतीयः परिशिष्यत इति शङ्कते -- नन्विति। ननु कश्चन साध्यवानेव, अन्यश्च साध्याभाववानेव, एभ्यस्तृतीय उभयवान् कश्चन कुतो न स्यादित्यत्रोक्तं-वस्तूनामद्विरूपत्वादिति। तत्-तस्मात्। तथा चोभयात्मकमेकं न स्यादिति तृतीयो राशि - स्त्येव। ननूभयात्मकत्वस्य विरोधेन तृतीयराश्यसंभवेऽपि उभयानात्मकत्येनैव एको राशिरस्तु ; अथवा कालभेदेन तत्तदभाववद्वस्त्वेको राशिरस्त्येवेति कथं राशिद्वयमेवेत्यत्राह-न चेति। भयं भाव:--अस्तु कालभेदेनोभयात्मकत्वो NYAYAMANJARI 19 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 हेतुस्वरूपविचार: न्यायमञ्जरी [पक्षः कश्चिदस्त्येव] तदयुक्तम्-अनुमागेच्छेदप्रसङ्गात् । अद्विरूपत्वेऽपि वस्तूनां निसर्गविषयीकृतः अर्थः कश्चित् पक्ष एषितव्यः। तदभावे तदपेक्षस्वरूपयोः सपक्षविपक्षयोरप्यभावः स्यात् । तदस्य पक्षस्य सतो 'वि'पक्षत्वमारोप्य यत्तेन व्यभिचारचोदनं तेनानधनुमानमपि विप्लवेत ॥ [पर्वते वह्नयनुमानस्य वह्नयनुष्णत्वानुमानस्य च वैलक्षण्यशङ्कापरिहारौ ननु ! पर्वतादिर्धी न ज्वलनाख्यसाध्यधर्मशून्यतया तत्र निश्चितः। तेजोऽवयवी तु अनुष्णत्ववैपरीत्येन प्रत्यक्षतो निश्चित : इति-तस्किमिदानी पर्वतादिः अग्निमत्तया निश्चितः? तथाभ्युपगमे । वा किमनुमानेन ? पपादनम्। अथापि नैषः तृतीयो राशिः; तत्काले तु प्रथमराशि:, तदभावकाले तु द्वितीयो राशिरिति कुत इष्टसिद्धिः। उभय नात्मकत्वं तु शशशृङ्गादिवत्तुष्छत्वे विश्राम्येतेति स्मर्तुमप्ययोग्यम् । तथा च द्वैराश्यमेव सुप्रतिष्ठितमिति पक्षो नाम कश्चिन्नास्त्येवेति ॥ अनुमानोच्छेदमेवोपादयति तदभाव इति । पक्षस्यैवाभाव इत्यर्थः । सपशेत्यादि। पक्ष पदृशः खलु सपक्षः, पक्षविरुद्धश्च विपक्षः। एतदुभयं पक्षस्यैवाभावे कथं प्रतितिष्ठेतेत्यर्थः। अग्नयनुमानमपीति। पर्वतो वह्निमान् धूमादित्यादावपि पक्षस्यैवाभावे तदनुमानमपि नावतिष्ठतेत्यर्थः ॥ ननु वढेरनुष्णत्वं प्रत्यक्षबाधित, पर्वते वह्निस्तु न तथेति वैलक्षण्यमस्त्येव । तथा चाद्यानुमानतौल्यं न वह्नयनुमानादीनामिति शङ्कते-- नन्विति । समाधत्ते-तत्किमिति। पर्वतो वह्निशून्यतया न निश्चित इति चेत् , तर्हि पर्वतो वह्निमत्वेन निश्चित इत्यायातम् । तथा च सिद्धसाधनम् इत्यर्थः। तथा--भग्निमत्वेन निश्चित इति ॥ 1ऽपि स-ख. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २। पक्षस्यावश्यकत्वसमर्थनम् 291 [पक्षानङ्गीकारे अनुमानोच्छेदः स्यात् ] ननु ! न पर्वतोऽग्निमत्तया निश्चितः; नापि तद्वैपरीत्येन । किन्तु सन्दिग्ध एवास्ते। यद्येवं सन्दिग्धेऽपि विपक्षे वर्तमानो धूमादिरहेतुरेव स्यात् । निश्चितविपक्षवृत्तिवत् सन्दिग्धविपक्षवृत्तरपि अहेतुत्वात् सर्वमनुमानमुत्सीदेत् । तस्मात् पक्षेण व्यभिचारचोदनमनुचितमिति व्यतिरेकवानेवायं हेतुः ॥ [बाधः न पक्षमात्रदोषः, किन्तु हेतोरपि] - यत्पुनरभिहितं - अनिराकृतपक्षवृत्तित्वमस्य नास्तीति - तत्सत्यम्-वयमप्यमुं पक्षं अध्यक्षबाधितमिच्छाम एव। 'स तु न पक्षमात्रपर्यवसितो बाधः, किन्तु हेतुमपि स्पृशति ॥ ____ आस्तं इति। प्रकृते तु वह्निः उष्णत्वेन निश्चित इति शेषः । समाधत्ते यद्यवमिति। साध्यतदभाववत्त्वेन सन्दिग्धश्चेत् सः पक्षोऽपि भवितुमर्हति, तथा सन्दिग्धविपक्षोऽपि भवितुमर्हति । हेतोस्तद्वत्तित्वज्ञानं च-. "हेतुः किं साध्यवद्वत्ति: ? उत साध्याभाववद्वत्तिः' इत्येवंरूपं पर्यवस्यति । अयं च व्यभिचारसंशय एव । तथा चेदृशदोषस्य सर्वत्र संभवात अनुमानमेवोच्छियेतेति ॥ ननु पक्षे साध्यस्य सन्दिग्धत्वेऽपि न तस्य सन्दिग्धविपक्षत्वं संभवति, यत: सर्वमप्यनुमानमुच्छेद्येत । सन्दिग्धसाध्यवान् खलु पक्षः। स च संशयः सर्वत्र सुलभ एव। पक्षान्तर्भावेण व्यभिचारसंशय: साध्यसंशय एव पर्यवस्येत्। धूमः किं वह्निमत्पर्वते वर्तते? उत वह्वयभाववत्पर्वते ? इति संशये पर्वते वह्निसत्त्वे आद्यः पक्षः, वढेरसत्त्वे द्वितीयः पक्षः प्रत्यवतिष्टेत । तथा च पर्बतो वह्निमान? उतन? इत्याकारः पर्यवसन्नः । स च पक्षतारूप इति पक्षान्तर्भावेण व्यभिचारसंशयः गुण एव, न दोष इति चेत्, प्रकृतेऽपि इमं 'न्यायं पश्यतु भवानिति । पक्षण-पक्षान्तर्भावे ॥ अनिराकतेति । प्रत्यक्षाद्यबाधितेत्यर्थः । तथा च पक्षे साध्यः प्रत्यक्षबाधित:, न तु हेतुरिति बाधः न हेतुदोष इति भावः । सत्यं इत्यर्धाङ्गीकारे। अयं पक्षदोष इत्यभ्युपगच्छामः, हेतुदोषो न भवतीति तु नाभ्युपगच्छामः । पक्षनिष्ठोऽपि दोषः हेतुमपि दूषयेदेवेति । स तु बाधः इत्यन्वयः॥ 1 यत्तु-क. 19* Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमजत 292 हेतुस्वरूपविचारः न हेतुनिरपेक्षात्मा पक्षो नामास्ति कश्च ।। प्रसाधयितुमिष्टो हि हेतुना पक्ष उच्यते ॥ १५९ ॥ स न साधयितुं शक्यः प्रत्यक्षे प्रतियोगिनि । साध्यापहारद्वारेण हेतुर्भवति बाधितः ॥ १६० ।। अबाधितानुमेयत्वमत एवास्य लक्षणम्। न तु हेतुरसिद्धोऽयं ज्वलने वृत्तिसंभवात् ॥ १६२ ॥..' अबाधितत्वं न दुरवगमम् ] 'यत्त्वबाधितता ज्ञातुं शक्या नेति विकल्पितम्।। पक्षस्यापि महाभाग! कथं तां प्रतिपस्यसे ॥ १६२ . प्रयत्ने क्रियमाणेऽपि यदि बाधा न दृश्यते। नास्त्येवेत्यवगन्तव्यं व्यवहारो हि नान्यथा ॥ १६३॥ . अतस्त्रिलक्षणेऽपि हेतौ बाधसंभवादबाधितत्वं रूपान्तर वक्तव्यम् ॥ एतदेवोपपाश्यति-न हेत्वित्यादि। अयमर्थः- वह्निरनुःणः कृतक स्वादित्यादौ यद्यपि पक्षे साध्यवत्त्वमेव प्रत्यक्षबाधितं, न तदानीं हेतोरुल्लखः । अथापि पक्षसाध्यायल्लेख श्वानुमितिस्थल एव। अनुमि तश्च हेतुशरणैव । हेतौ प्रतिष्ठिते सर्व प्रतिष्टेत, तस्मिन्नप्रतिष्ठिते न किञ्चित्प्रतिष्ठेत। केनचिद्धे गुना कुत्रचिदधिकरणे कस्यचित्साध्यस्य साधनेऽभिमते खलु तत्र भवता प्रत्यक्षबाधाद्युत्कीर्तनम् ! तादृशदोषोत्कीर्तने च स दोषः बाधितसाध्यकत्वादिरूपः स्पृशत्येव हेतुम् । अन्यथा खलु अयं सद्वेतुन्यपदेशाह एव स्यात्। न हि एतदपेक्षयाऽतिरिक्तः असिद्धयादिस्तत्र हेतौ वर्तते। अतः अबाधितमाध्यकत्वं सद्ध तोरावश्यकमेवेति ॥ पक्षस्यापीति। न हि बाधस्य दोषत्वं नास्तीति भवानप्यवोचत्, किन्तु पक्षस्यायं दोष इत्येव। तथा च पक्षे अबाधितत्वज्ञानं भवताऽपि संपादनीयम् । तथा च 'यश्चोभयो: समो दोष: तमेव त्वं ब्रीषि माम् । तत्त्वजिज्ञासु प्रत्याह-प्रयत्न इति । नान्यथेति। सर्वत्रैवं संशये पुरुषप्रवृत्तिरेव न स्यात्। अतश्च संशयात्मा विनश्यति' इति सत्यमुकम् ॥ । यत्तु बा-ख. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम २] हेतदोषा: 293 एवञ्च यदुच्यते-बाधाविनाभावयोर्विरोधादिति-तत्कथञ्चिशुक्तं, कथञ्चिदयुक्तम् । पञ्चलक्षणके लिङ्गे यः परिसमाप्तोऽविनाभावः तत्र नास्त्येव बाध इत्येवं युक्तमेतत्। त्रिलक्षणकलिङ्गाभिप्रायेण त्वयुक्तमिति ॥ [भागमबाधितो हेतुः] * एवमागमबाधितोऽपि हेतुर्द्रष्टव्यः। यथा-ब्राह्मणेन सुरा पेया अदुष्टत्वात् , क्षीरवदिति ॥ [अनुमानेनानुमानस्य विरोधासंभव:] ननु! प्रत्यक्षागमविरुद्धवदनुमानविरुद्धमनुमानं कस्मानोदाहियते ? असम्भवादिति ब्रूमः-न हनुमानविरुद्धमनुमानमवकल्पते । अनुमानयोहि तुल्यबलयोर्बाध्यबाधकभावः ? अतुल्यबलयो ? तत्र तुल्यबलयोस्तुल्यबलत्वादेव न बाध्यबाधकभावः। समाने हि वीर्य किं कस्य बाधकम् ? बाध्यं वा ? अतुल्यबलत्वपक्षेऽपि- यत्कृतमल्पबलत्वमन्यतरस्य तत एव तदप्रामाण्यसिद्धः किमनुमानबाधया ? तस्मान्नानुमानविरुद्धमनुमानं बुद्धयामहे ॥ अत एवानुमान विरुद्धमनुमानमपश्यता भाष्यकारेणोक्तम्'यत्पुनरनुमानं प्रत्यक्षागमविरुद्ध न्यायाभासस्सः' (न्या. भा. 1-1) इति ॥ कथंचिदित्यादि। 'बाधाविनाभावयोर्विरोधः' इति सामान्यत उक्तिर्न दुष्यति ; पञ्चलक्षणके हेतावुभयोमेलनासंभवात् ; त्रिलक्षणक हेत्वमिप्रायेणोच्यते चेत् वह्वयनुष्णत्वानुमानादावुभयं संभवतीति न विरोध इत्यर्थः ॥ आगमः-'ब्राह्मणो न सुरां पिबेत् ' इत्यादिः ॥ यत्कृतमिति। प्रत्यक्षेणागमेन वोपोदलितत्वादेवानुमानस्य प्राबल्यं वक्तव्यम्। दौर्बल्यं च प्रत्यक्षागमविरोधादेव । तथा च प्रत्यक्षविरोधात् भागमविरोधाच्च प्राथमिकमनुमानं मृतमिति तेन किं कर्तुं शक्यम् ? * एतदारभ्य 295 पुटे * अङ्कितमागपर्यन्तं ख पुस्तके नास्ति ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 हेतुस्वरूपविचार: न्यायमक्षरी असत्प्रतिपक्षत्वमपि हेत्वङ्गमेव] यत्र तु तुल्यबले द्वे अनुमाने निपततः स सत्प्रतिपक्षस्य विषयः इति। असत्प्रतिपक्षत्वं पञ्चमं लिङ्गलक्षणमुपदिश्यते ॥ [परस्परविरुद्धहेतुद्वयसमावेशो भवत्येव ] ननु ! वस्तूनामद्विरूपत्वात् कथमेकत्र धर्मिणि परस्परविरुद्ध- . धर्मद्वयाक्षेपिप्रयोजकहेतुद्वयसन्निपातो भवेत् । अत एव विरुद्धाव्यभिचारी नाम न हेत्वाभास इहेष्यते। तदतिदुर्लभः सत्प्रतिपक्षी हेतुरिति कमपहर्तुं पञ्चम मिदं हेतुलक्षणमुपदिश्यत इति-- . सत्यमेवम्-किन्तु संशयबीजं यत् विशेषाग्रहणं, तदन्यतरनिर्णयाय भ्रान्त्या प्रयुज्यमानं सत्प्रतिपद्यते -स्थाणुरयं पुरुषधर्मानुपलब्धेः, ' पुरुषोऽयं स्थाणुधर्मानुपलब्धेरिति । अन्यतरविषयानुपलंभ एवायं . यत्रेति । नन्वनुपदमेवोक्तं तुल्यबलानुमानद्वयामेलनं, इदानीमस्ति तदित्युच्यत इति कथमिदम् ? उच्यते-अनुमानयोस्तुल्यबलत्वे. बाध्यबाधकभावो नास्तीत्येतावदेवोक्तम् , न तु तादृशानुमानासंभवः। ननु उभयोमलने परस्परबाधः कथं न स्यादिति चेत्-न तत्र परस्परबाधः---किन्त्वनिर्णय एव । भाष्यकारोऽप्याह-'उभयपक्षसाम्यात् प्रकरणसमो निर्णयाय न प्रकल्पते' (न्या. भा. 1-2-7) इति ॥ धर्मद्वयाक्षेपि-साध्यद्वयसाधनम् । अत एव-तादृश हेतुद्वयमेलनासंभवादेव। प्राचीनबौद्वैः दिङ्नागादिभिः संशायकतया विरुद्धाव्यभिचारिणोऽङ्गीकारेऽपि, धर्म कीर्त्यादिभिरेव तन्निरासात् (न्या. बि. 3-110) सर्वसंप्रतिपन्नमेतदिति भावः । विरुद्धाव्यभिचारिशब्दश्च एवं निरुक्तः धर्मोत्तरेण-'विरुद्ध न व्यभिचरतीति विरुद्धाव्यभिचारी। विरुद्धश्चासौ अव्यभिचारी चेति वा' (न्या. बि. 3-110) इति । कन्दलीकारोऽपि ‘विरुद्धं प्रत्यनुमानं न व्यभिचरति---- नातिवर्तते' (243 पु.) इत्याह । स्वसाध्यबिरुद्धसाधकहेतुमानिति फलितार्थः । इदं विस्तरशः कन्दल्यां द्रष्टव्यम् । कमपहर्तु-कं दोषं वारयितुम् । भ्रान्त्येति। अन्यतरधर्मस्य सद्भावावश्यकात् धर्मद्वयस्याप्यनुपलंभ: दोषमूलत्वात् भ्रान्तिरित्युच्यते । तथा च वस्तुन: अध्यात्मकत्वेऽपि अनुप- . लंभस्य संभवात् , विशेषादर्शनात् संशयादिप्रसक्तिरिति भावः। अस्तु सर्व । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् २] हेतोः पञ्चलक्षणकत्वोपसंहार: 295 संशयाधायी पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकोपपत्तिभ्रमेण हेतुरिति प्रयुज्यमानः सत्प्रतिपक्षो भवतीति प्रकरणसमहेत्वाभासचिन्तायां विस्तरेण निरूपयिष्यते। पुरुषप्रशाप्रमादमूलत्वाञ्च वस्तुनो यात्मकत्वमिति तत्रैव वक्ष्यते ॥ लक्षणान्तरमतः कथनीयम् प्रत्यनेकविकलत्वमवश्यम् । तेन लिङ्गमनुमानपथक्षाः पञ्चलक्षणकमभ्युपजग्मुः ॥ १६३॥ . पञ्चलक्षणकाल्लिङ्गात्' इतिपद्यस्थ गृहीतात् 'इतिपदव्याख्यानम् ] पञ्चलक्षकाल्लिङ्गादिति व्याख्यातम्। व्याप्तिग्रहणसमयसमधिगतस्वरूपस्यापि लिङ्गस्य पुनर्मिणि क्वचिदनवधृतवपुगे नास्याध्यवसांयसाधनत्वमिति द्वितीयं लिङ्गदर्शनपेवापेक्षणीयमिति गृहीतादित्युक्तम्। लिङ्गं हि ज्ञापकं ; न चक्षुरादिवत् कारकम् । शापकस्य चायं स्वभावः, यत् शतं अनु ज्ञापयतीति। व्याप्तग्रहणकालगृहीतमेव व्याप्तिवत् स्मर्यमाणतयैव लिङ्गं लिङ्गिनं गमयिष्यतीति चेन्न-ग्रहणमन्तरेण व्याप्तिस्मृतेरप्यभावात् *'इत्यलं' प्रसङ्गेन ॥ वस्तुनः कथं यात्मकत्वम् ? इत्यत्राह-पुरुषेति । वस्तुनः एकात्मकस्यैव पुरुषबुद्धिदोषवशात् यात्मकत्वप्रतिभासमात्रमित्यर्थः। तत्रैव-हेत्वाभासचिन्तायामेव (११ भाढिके)। लक्षणान्तरं-असत्प्रतिपक्षस्वरूपम् ॥ व्याप्तीत्यादि । महानसादौ वह्निव्याप्यत्वेन गृहीत स्यापि धूमस्य, पुनः कालान्तरे पर्वतादौ ग्रहणमन्तरा न वह्नयनुमापकत्वं, ज्ञायमानं हि लिङ्गमनुमितिकरणम् , न स्वरूपसत्- इत्यतो गृहीतात् इत्युक्तमित्यर्थः। क्वचित् धर्मिणि-पक्षे। अनवधृतवपुषः-अनवगतस्येति यावत् । अध्यवसायःअनुमितिः। द्वितीयं-व्याप्तिग्रहणकालिकं प्रथम, पक्षधर्मताज्ञानकालिकं द्वितीयमित्यर्थः। अपेक्षणीयमेव इत्यन्वयः। यथा महानसादौ गृहीता व्याप्तिः कालान्तरे स्मृतैवानुमितिहेतुः, तथा धूमोऽपि स्मृत एवानुमितिहेतुः कुतो न स्यादित्याक्षिपति-व्याप्तीति । समाधत्ते-ग्रहणमिति। पूर्व * 293 पुटे द्रष्टव्यम् । त्रिलक्षणकलिकाविनामावामिप्रायेण स्वदुक्तमेतदित्यल-ख. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 म्याप्तिस्वरूपपरीक्षा न्यायमभरी ['नियमस्मृतेः' इत्यस्य व्याख्यानम् ] नियमस्मृतेरिति। विवियतां! कोऽयं नियमो नाम ? व्याप्ति:-अविनाभावः-नित्यसाहचर्यमित्यर्थः ॥ नियमो नाम क:? आह - नैतावत्येव विरन्तुमुचितम्। तस्य तदविनाभावित्वमित्यत्र हि निमित्तमन्वेषणीयं तार्किकैः ॥ [तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां व्याप्तिनिरूपणम् ] तच्च तादात्म्यतदुत्पत्तिरूपमीक्षितवन्तो भिक्षवः। यो हि . यदात्मा भावः स कथं तमुत्सृजति ? वृक्षात्मिकैव हि शिंशपा तेन वृक्षवमनुमापयति। सोऽयं स्वभावहेतुरुच्यते, वृक्षोऽयं शिशपा- . त्वात् इति। तत्र तादात्म्यं प्रतिबन्धः ॥ . गृहीतायाः व्याप्तेः स्मृतौ उद्बोधकं खलु वक्तव्यम् । 'एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम्' इतिविधया धूमज्ञानं स्वाविनाभावसम्बन्धिनः वहः स्मारकं भवतीति खलु व्याप्तिस्मृतिर्वक्तव्या। तत्र यदि धूमज्ञानमेव स्मृतिरूपं, तर्हि वह्निज्ञानमपि तादृशमेव स्यात् । तथा च अनुमिति: स्मृतिरूपा वक्रव्या तञ्च न युक्तमेव। पर्वते वढेः पूर्वमननुभूतत्वेनेदानीं स्मृतेरयोगात् । अत: धूमस्मरणान् न पर्वते वह्नयनुमितिनिर्वाहः ॥ एतावत्येव एवमुत्तरदान एव। तार्किकैरिति। न हि श्रद्धाजडास्तार्किका इति भावः ॥ भिक्षवः-धर्मकीर्त्यादयः। तथोक्तं प्रमाणवाति के धर्मकीर्तिना..... 'कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमा, दर्शनान्न नदर्शनात्' इति। अयमर्थ:--अविनाभावस्य नियमः-निर्णयः, नियताविनाभावो वा, नियामकात्-तादृशनियमहेतुभूतात् कार्यकारणभावात् स्वभावाद्वा भवति। न तु कदापि अन्वयदर्शनात् व्यतिरेकदर्शनाद्वा भवति । व्यक्तीनामनन्तत्वेन असर्वज्ञदुज्ञेयत्वेन अन्वयव्यतिरेकसहचारग्रहस्यासंभवादिति भावः। यो हि भावः-पदार्थः यदात्मा-यादृशस्वभावकः । तं--- . स्वभावम् । तादात्म्यं प्रतिबन्धः-'द्रव्यं घटः' इत्यादी सामान्य Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] तादाल्यतदुत्पत्योाप्तिगमकत्वं न संभवति 297 कार्य नाम कारणाधीनात्मलाभमेव भवति, न कारणानपेक्षमिति । तदुपलभ्यमानं तदनुमापयति-अग्निरत्र धूमात्-इति कार्यहेतौ तदुत्पत्तिः प्रतिबन्धः। एवं हि द्विविधं प्रतिबन्धमनुमेयाव्यभिचारनिबन्धनमनुक्ता केवलसाहचर्यनियममात्रवर्णनं यत् 'पादप्रसारिका सैवेति ॥ उच्यते-पादप्रसारिकैव साधीयसी स्थूलदृष्टिभिरवलम्बिता घरं, न सूक्ष्मदृष्टिभिः उत्प्रेक्षिताः तादात्म्यादिप्रतिबन्धाः॥ तादात्म्ये तावद्गमकाङ्गे हेतुसाध्ययोरव्यतिरेके गम्यगमकभाव एव दुरुपपादः। न खल्वगृहीतं लिङ्गं लिङ्गिप्रतीतिमाधातुमर्हति । तत्र लिङ्गबुद्धौ लिङ्गी प्रतिभासते? न वा? अप्रतिभासे तद्बद्धया तदग्रहणात् कथं तस्य तदात्मकत्वम् ? प्रतिभासे तु लिङ्गवत् प्रत्यक्ष एव सोऽर्थ इति किमनुमानेन ? विपरीतसमारोपव्यवच्छेदार्थमनुमानमिति चेत्-तत्स्वरूपग्रहणे विपरीतारोपणावसराभावात् । न हि शिरःपाण्यादिविशेषदर्शने सति स्थाणुसमारोपः प्रवर्तते। तत्र तद्भेदादुपपद्येतागि । विशेषयोः तादात्म्यं सर्वसम्मतम्। विशेष सति सामान्यं यत्र घटत्वं, तत्र द्रव्यत्वमिति। इयं व्याप्तिधर्मयोः। एवं धर्मिणोर्व्याप्तिस्तु तादात्म्यमूलैव । यो घटः स द्रव्यमेवेति । यो विशेषात्मा स सामान्यात्माऽपि भवतीति यावत् ॥ तत्-कार्यम् । तत्-कारणम् । पादप्रसारिकैवेत्यादिः नर्मोक्तिः ॥ गमकाङ्गे-व्याप्तिनिश्चायकाङ्गभूते सति । अव्यतिरेके-सति चेति शेषः । उक्तमेवोपपादयति-न खल्विति । तदग्रहणात्-लिङ्गिन:-साध्यस्याविषयीकरणात् । प्रत्यक्ष एवेति। उभयोरभेदादित्यर्थः । एतदुक्तं भवतिहेतुसाध्ययोरभेदे, पक्षे हेतुदर्शनदशायामेव हेत्वभिन्नं साध्यमपि सिद्धमेव । तयोर्भेदे च तादात्म्याध्याप्तिरिति भग्नमेवेति ॥ विपरीतेति । अवृक्षत्वव्यवच्छेदार्थमित्यर्थः । ननु तत्र अवृक्षत्वमस्ति चेत् तन्न निषेढुं शक्यम् , नास्ति चेत् निषेधो व्यर्थ इति चेत्तत्रोक्तम् - समारोपेति । अरोपितं तत् ग्यवच्छिद्यत इत्यर्थः । अभावस्थले सर्वत्रेय त्तिप-व. प्र-ख. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा न्यायमञ्जरी न हि शिरःपाण्यादय एव पुरुष इति तद्हणेऽप्यपुरुषारोपः कामं भवेत्। इह वृक्षत्वशिंशपात्वयोरभेदात् शिंशपात्वग्रहणे सति का कथा वृक्षेतरसमारोपस्य! अपि च वृक्षत्वग्रहणे सति सामान्यधर्मग्रहणात् विशेषानध्यवसायात् कदाचिदर्शि'शपागेपः स्यात् । न तु शिंशपात्वग्रहणे सति अवृक्षत्वसमारोपो युक्तः॥ प्रमातुः शिंशपात्वं हि यस्य प्रत्यक्षगोचरः। परोक्षं तस्य वृक्षत्वमिति नातीव लौकिकम् ॥ १६४॥ किञ्च साध्यसाधनयोरव्यतिरेकात् यथा शिंशपात्वे च वृक्षत्वमनुमीयते तथा वृक्षत्वेनापि शिंशपात्वमनुमीयेत, तादात्म्याविशेषात् । तथा च प्रयत्नानन्तरीयकत्वेनानित्यत्वं साध्यते, तद्वदनित्य- ' मेव गतिः। भूतले घटोऽस्ति चेत् तन्न निषेध्यम्, नास्ति चेत् निषेधो व्यर्थः, अतश्च भूतले घटो नास्तीति प्रतीतिप्रयोगादयो विलुप्येरन् । अतः निषेधस्थले सर्वत्र प्रतियोगिप्रसक्तिः अरोपात्मिकैव। वस्तुतः वयमपि दृष्टान्त: प्रकृताननुगुण इत्याह-तत्रेति। अभेदादिति। यद्यपि सिद्धान्ते वृक्षत्वं परा जाति:, पृथिवीत्ववत् ; शिंशपात्वं चापरा, घटत्ववत् इति तयो भेदः ; तथापि जाति मनङ्गीकुर्वतां स्वलक्षणमात्रं वस्तुस्वरूपमभिदधतां वृक्षत्वशिंशपात्वयोरुभयोरपि स्वरूपानतिरेकात्तयोरभेद एव । · अत एव स्वरूपस्य तादात्म्यहेतुरिति व्यवहारः ॥ __ स्यात्-संभाब्येत। ननु घृतादौ घृतत्वे गृहीतेऽपि इयं पृथिवी ? उत जलम् ? इति संशयदर्शनात् विशेषग्रहणेऽपि संशयो युज्यत एवेत्यत्राहप्रमातुरिति। नातीव लौकिकमिति। अत्यन्तं लोकविरुद्धमित्यर्थः । घृतादौ कदाचिद्धनीभावस्य, कदाचिद्दवत्वस्य च दर्शनायुज्यते संशयः इयं पृथिवी? उत जलं इति। प्रकृते तु शिंशपां पश्यन् को वा तन वृक्षत्वे संशयीतेत्यर्थः॥ शिक्षकपुरुषप्रमादात् कदाचित् कस्यचित् सामान्यमनवगतमपि स्यादित्यत भाह-किश्चेति। तादाम्यहेतुः खलु अयम् । प्रयत्नानन्तरीयकत्वम्-- 1 चिदपि शिं-क. नना-ख. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299 आह्निकम् २] तादात्म्यतदुत्पत्त्योः नियमे पर्यवसानम् वेनापि तत्साध्येत। ततश्च सपशव्याप्तयव्याप्तिभ्यां कृतकत्वप्र'यत्नानन्तरीय'कत्वयोर्यो भेदः उक्तः स हीयेत ॥ [व्यातेरद्विष्ठत्वम् , तादात्म्यस्य नियमे पर्यवसानं च] ननु च! अन्यः संबन्धः, अन्यश्च प्रतिबन्धः। द्विष्ठः संबन्धः, प्रतिबन्धस्तु परायत्तत्वलक्षणः। तत्र शिंशपात्वं वृक्षत्वे प्रतिबद्धम, न वृक्षत्वं शिंशपात्वे । प्रयत्नान'न्तरीयकत्वमपि अनित्यत्वे नियतम्, न त्वनित्यत्वं तत्रेति । तथा धूमस्याग्नौ प्रतिबन्धः, न त्वमेधूमे । सत्यमेवम् - किन्त्वेवमुच्यमाने. नियम एवाङ्गीकृतो भवेत् , न तादात्म्यम् । तादात्म्ये हि यथा शिंशपा शिंशपां विना न दृश्यते तथा वृक्षत्वमपि शिंशपारहितं न दृश्येत', दृश्यते च खदिरादौ शिंशपारहितं वृक्षत्वं, विद्युदादौ च प्रयत्नान'न्तरीयकत्वरहितमनित्यत्वमुपलभ्यत इति कथमभेदः ? (4-201) प्रयत्नानन्तरकालोत्पन्नत्वम् । अस्य स्वभावानुमानरूपत्वं प्रमाणवार्तिकधर्मोत्तरटीकादौ (न्या. बि. टी. 2-21 ) उपपादितम् । कृतकत्वेत्यादि। शब्दे अनित्यत्वेन कृतकृत्वसाधने सपक्षव्याप्तं, तत्रैव प्रयत्नानन्तरीयकत्वसाधने तत सपक्षे विद्युदादौ अव्यातं इति भेदः तत्र तत्रोक्तः ॥ - ननु ! एकसम्बन्धिज्ञानविधया हेतोस्साध्योपस्थापकत्वेऽपि हेतुसाध्ययो. वर्तमानः सम्बन्धः न संयोगादितुल्यः; येन हस्तिदर्शने हस्तिपस्मरणवत्, हस्तिपदर्शने हस्तिस्मरणवच्च, धूमदर्शनेन वयपस्थितिवत्, वद्विदर्शनेन धूमोपस्थितिराशङ्कयेत । किन्तु धूमादेव वह्नयनुमितिः, न तु वढेधूमानुमिति. रिति संप्रतिपन्नम्। एवञ्च प्रकृतेऽपि शिंशपात्वेन वृक्षत्वमात्रमेव सिद्धयेत्, न तु वैपरीत्येनापीति शङ्कते-नन्विति। न विति। विद्युदादौ व्यभिचारात इति हेतु: । पूर्वपक्ष्युक्तं व्याप्तेः संयोगादिवलक्षण्यमङ्गीकरोति-सत्यमिति। शिंशपारहित-शिंशपावं विनेति यावत् ॥ लना-ख. ' दृश्यते-ख. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा न्यायमचरी विना साधनधर्मेण साध्य'धर्मो ऽयमस्ति हि । दृष्टस्तयतिरेकेण तदात्मा चेति कैतवम् ॥ १६५ ॥ अथ विद्युदाद्यनित्यत्वादन्यदेव घटाद्यनित्यत्वं, यत् प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभिन्नमुच्यते; तर्हि धर्मिभेदेन धर्माणां भेदेऽन्वयग्रहणानुपपत्तेः सर्वमनुमानमुत्सीदेत् । धूमाग्न्योस्तु कार्यकारणयोर्भेदात् युक्तं वक्तुम्-धूमस्याग्नौ प्रतिबन्धः, न त्वग्नेधूमे। इह तु साध्यसाधनयोरव्यतिरेकात् न तथा शक्यते वक्तुम् । तथाऽभिधाने वा नाव्यतिरेकः। सर्वथा तादात्म्यं वा त्यज्यताम , वृक्षत्वानित्यत्वाभ्यां शिंशपात्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वे वा अनुमीयताम्', नान्तराऽवस्थातुं शक्यते॥ [स्वभावहेतुकानुमानान्तरनिराकरणम् यश्चायं-अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति स्वभावहेतुरुदाहृतःस कथं स्वभावहेतुः? इदं हि चिन्त्यताम्। · अनित्यत्वं नाम साध्यहेत्वोः पक्षविशेषणत्वात् 'धर्मेण' इत्युत्कीर्तनम् । हि-यस्मात् साधनं विनापि साध्यं कुत्रचिद्वर्तते ततस्साधनन्यतिरेकेण वर्तमान: साधनस्वरूप इति वचनामात्रमित्यर्थः । अन्वयः-यत्र धूमस्तत्राग्निरितिरूपः । अनुपपत्तेः-व्यक्तीनां व्याप्तौ भानासंभवेन सामान्यत एव व्याप्तिग्रहणं वक्तव्यम् । न हि पर्वतीयधूमवयोः व्याप्तिग्रहणसंभवः । उत्सीदेत् । अयोगोलकादौ धूमव्यभिचारित्वेऽपि वढेः, तदतिरिक्तवढेरेव व्याप्तिरित्यपि वक्तुं शक्यतया सदसद्धेतुविभागस्य दुर्वचत्वादप्यनुमानप्रामाण्यमुत्सीदेदित्यपि बोध्यम् । धूमे इत्यनन्तरं इतिकरणं द्रष्टव्यम् ॥ __उदाहृतः-न्यायविन्द्वादौ (3-11) इति शेषः। ननु अनित्यत्वादयो हि स्वरूपरूपाः । अतः तस्य स्वभावहेतुत्वमिति चेत्-तत्राह-इदं हीति । कथमिति। धर्माणां स्वरूपरूपत्वेऽपि तन्निरूपकभेदाद्वाऽवश्यं भेदः एषितव्यः, नो चेत् सर्वपदानां पर्यायतैव स्यादिति भावः ॥ - धर्मा-ख. स्नना-ख. येताम्-ख. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] बौद्धोक्तस्वभावानुमाननिरास: किमुच्यते ? किं च कृतकत्वम् ? इति । तत्रानित्यत्वं विनाशयोगः, उत्पत्ति योगश्च कृतकत्वम् । उत्पन्नस्य च भावस्य विनाशः; न तूत्पाद एव विनाश इति कथं साध्यसाधनयोरव्यतिरेकः ? 301 [परैः स्वभावहेतुकानुमानसंभवसमर्थनम् ] अत्र चोदयन्ति - विनाशयोगे ह्यनित्यत्वे 'विनाशी' शब्द इति शिखरिण बुद्धि: स्यात्, नानित्य इति । एष्या च सा मिथ्या बुद्धिः, 'इव' कृशानुविशेषितस्य विनाशवतः शब्दस्य गृहीतुमशक्यत्वात् ॥ अभावेन हि धर्मेण तद्वत्ता' धर्मिणः कथम् ? अभावग्रहवेलायां धर्मिणोऽनुपलम्भनात् ॥ १६६ ॥ अनित्यत्वमिति च भावप्रत्ययः कथमभावे भवेत् ? विरुद्धत्वात् । तस्मादुभयान्तपरिच्छिन्ना वस्तुसत्ताऽनित्यत्वमुच्यताम् । कृतकत्वमपि सत्व, कारणोत्पादिता धारा सती कथ्यत इति । एवञ्च सत्तेव साध्यं साधनं चेति सिद्धं स्वभावहेतुत्वम् ॥ [सिद्धान्तिना तन्निराकरणम् ] तदिदमनुपपन्नम् । साध्यसाधनयोस्तथात्वेनानवभासनात् । एवं ह्युच्यमाने शब्दः सत्तावान् सत्तावत्त्वादिति प्रतीतिः स्यात् । न चैवं दृश्यते । अपि तु - अनित्यः शब्दः, कृतकत्वादिति । 11 विनाशेति । अनित्यत्वस्य विनाशयोगरूपत्व इति यावत् । सा बुद्धिः मिथ्या इत्यन्वयः । तत्र हेतुं सदृष्टान्तमाह - शिखरिण इति । यथा वा वह्निरूपविशेषणविशिष्टः पर्वतः दृश्यते, तथा विनाशविशिष्टः शब्दः न हि गृह्यते, विशेष्यस्य नष्टत्वात् । अत: अभावग्रहवेलायां धर्मिणः शब्दस्य नष्टत्वेन धर्मिणः अभावाख्येन धर्मेण कथं वैशिष्टयम् ? विशेषणविशेष्ययोः समकालत्वाभावात् । निकालयोरपि विशेषणविशेष्यभावे व्यवहारसामान्यमुच्छृङ्खलं स्यादिति । विरुद्धत्वादिति । अभावे भावसत्ताया इति शेषः । अन्तः - अवधिः । पूर्वोत्तरावधिद्वयमिति यावत् । वस्तुसामान्यस्य क्षणिकत्वात्-धारा इत्युक्तम् ॥ तथात्वेन - अभिन्नत्वेन यद्वा, सत्तारूपत्वेन ॥ ३ ततो- ख. 1 विनाशे - ख. 2 एव- ख. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा [न्यायमरी ___अथोभयान्तपरिच्छिन्ना सत्ता साध्या, कारण निर्वाऽऽश्रयसमवायिनी च साधनमुच्यते-तदेतदघटमानम्-विनाशरूपस्यान्तस्य तदानीमविद्यमानत्वेन सत्तापरिच्छेदकत्वाभावात् ॥ बुद्धिस्थेनाथ तेनास्याः परिच्छेदोऽभ्युपेयते । शब्दस्यैव परिच्छदो विनाशेनास्तु तादृशा ॥ १६७ ॥ धर्मः समानकालोऽपि बुद्धयैव विषयीकृतः। तद्विशेषणतां याति तथा भाव्यपि यास्यति ॥ १६८ ॥ तदेवं विनाशी शब्द इति विशेषणविशेष्यभावसिद्धेः किं . सत्तासाध्यकल्पनया ॥ [अभावपदादपि भावप्रत्ययो युज्यत एव] यत्पुनरभिहितम् -अभावे भावप्रत्ययस्त्व'तलादिन स्यादिति तदत्यन्तानभिज्ञस्य चोद्यम् । शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य तत्र भाव समवायिनीति। सत्तेति आकृष्यते । अयं भावः-सत्ताया ऐक्येऽपि अवच्छेदकभेदाभेदव्यवहारः। पूर्वोत्तरावध्यवच्छिन्ना सत्ता अनित्यत्वम् । मध्यकालावच्छिन्ना सत्ता कृतकत्वमिति । तदानीं- वस्तुसत्ताकाले। उत्पत्तियद्यपि वस्तुन्यन्वेति । आद्यक्षणसम्बन्धस्यैवोत्पत्तिपदार्थत्वात् । सम्बन्धस्य च वस्तुनिष्ठत्वात् । विनाशस्तु वस्तुकाले नास्त्येवेति तस्य कथं सत्तापरिच्छेदकत्वम् ? शङ्कते-बुद्धिस्थेनेति । समाधत्ते-शब्दस्यैवेति । तदानी. मसताऽपि वुद्धिस्थेन सत्त्वेन यदि विनाशस्य संस्पर्शः, तर्हि तादृशेनैव शब्देन विनाशस्य सम्बन्धोऽस्तु; किं बकबन्धनप्रयासेन ? 'अतीतेन धर्मिणा धर्मस्य यथा योगः, तथा भविष्यताऽपि धर्मेण धर्मिणोऽपि सम्बन्धोऽपि युज्यत एवेति । एवञ्चासमानकालिकयोरपि विशेषणविशेष्यभावसम्भवेन सत्तान्वेषणप्रयासो विफल एवेत्यर्थः ॥ तादि-ख. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबिकम् २ बौद्धोक्तस्वभावानुमाननिरासः 303 प्रत्ययेनाभिधानात्-तस्य गुणस्य हि भावात् द्रव्ये तच्छब्दनिवेश इति । अभावेऽपि अभावत्वमिति दर्शनात् । तस्मात् बुद्धिस्थविनाशयोग एवानित्यत्वम् । कृतकत्वमप्युत्पत्तियोग एव, न सत्ता । कारणोत्पादिताश्रयावच्छेदे तु तस्या इष्यमाणे धर्मिण एव तदवच्छेदो भवत्विति किं सोपानान्तरेण ॥ [वस्तुभेदेन धर्मा अपि भियन्त एवेत्याक्षेपः] .. ननूत्पादविनाशाख्यं न धर्मद्वयमन्वयि । यद्धटे, नास्ति तच्छब्दे ; यच्च शब्दे, न तद्धटे ॥ १६९ ॥ गुणस्य-धर्मस्य । द्रव्ये-वस्तुनि। वस्तुनि विद्यमानं कञ्चन धर्म निमित्तीकृत्य शब्दस्य प्रवृत्त्या-स धर्मः प्रवृत्तिनिमित्तमित्युच्यते। अभावे च अभावत्वधर्ममादाय अभावशब्दस्य प्रवृत्तिरिति को दोष इत्यर्थः॥ . कारणेत्यादि । कृतकत्वं हि नित्यात् धर्मिण व्यावर्तयति। तत्र धर्मिनिष्ठायाः . सत्तायाः कारणोत्पादितघटादिनिष्टत्वमुपपाद्य, तादृशविलक्षणस्य सत्तायाः नित्येभ्यः व्यावर्तकत्वापेक्षया कृतकत्वं साक्षाद्धर्मिणमेव नित्येभ्यो व्यावर्तयतु, न तु तदवच्छिन्नसत्तावच्छेदात्-इत्यर्थः। युक्तं चैतत्-नैल्यपदेन नीलवृत्तिधर्मबोधने प्राप्ते, नीले घटे विद्यमानः गन्धादिरूपः धर्मः न हिनीलपदेन बोधयितुं शक्यः। भवदृष्टया तु कारणो पन्नघटवृत्तिसत्तायाः कृतकत्वपदार्थ वे हि नीलवृत्तिगन्धधर्ममपि नीलत्वपदं बोधयतु। अत: तत्तच्छब्दप्रवृत्तिनिमित्तभेदनिर्वाहाय धर्माणां साक्षादेव व्यावर्तकत्वं एषितव्यम् ॥ नन्वित्यादि। कृतकत्वादीनां साक्षात् व्यावर्तकत्वं दुर्वचमेव । सर्वानुगतं सत्तादिधर्म न्यावर्त्य, तस्याः सत्तायाः विशिष्टवेषेणेतरण्यावर्तकत्वानङ्गीकारे, कृतकत्वं हि कृतके तटे पर्याप्तम् । एवं अनित्यत्वमपि। तथा च यत् कृतकं, तदनित्यं इति सामान्यव्याप्तिर्न स्यात् । व्यक्तिभेदेन धर्मभेदात्। सत्ता तु सर्वानुगता॥ ____ यदि च–कृतकत्वमपि कृतकेषु सर्वेषु अनुगतं एकमेव । कृतकस्य वस्तुनः यो भावः तद्धि कृतकत्वं ; तच कृतकेषु सर्वेषु स्यादेव। सर्वेषु तेषु कृतकशब्दप्रयोगे हि प्रवृत्तिनिमित्तमपि सर्वत्र स्यादेवेति ब्यासयुपपद्यत इत्युच्यते Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा न्यायमक्षरी - अथैक एव धर्मः सर्वभावसंबन्धी इध्येत, तर्हि एकभावसमुत्पादे सर्वोत्पादः प्रसज्यते । एकप्रलयकाले च सकलप्रलयो भवेत् । १७० ॥ तस्मात् सत्तापक्ष एव वरम् ॥ [धर्मिभेदेऽपि धर्माणामनुगतत्वं युक्तम् ] नैतदेवम्-धर्मिभेदेऽपि धर्माणां तुल्यरूपाणां अवभासात् ॥ न घटादिस्वरूपं हि नाश इत्यवकल्पते। येनानन्वयदोषः स्यात् तद्भदोपनिबन्धनः ॥ १७१ ॥ एकत्वमपि धर्मस्य नास्ति सर्वेषु धर्मिषु। येनैकध्वंससमये सकलध्वंससङ्करः॥ १७२ ॥ भिन्नत्वेऽपि च धर्माणां समानरूपत्वेनावभासमानत्वात् अन्वयग्रहणादि कार्या'विरोधः। अत एव सामान्यमन्तरेणापि ---तर्हि घटपटादिषु सर्वत्र विद्यमानं कृतकत्वं एकमेवेति, घटे उत्पन्ने घटगतकृतकत्वस्य उत्पत्त्या, पटगतकृतकत्वस्य तस्य चाभेदात् पटगतकृतकत्वमप्युत्पन्नमेवेति, एकस्य उत्पादे सर्वोत्पादः। एवं विनाशेऽपि । यद्यपि केवलस्य सत्वस्य सर्वत्रैक्यात व्यावर्तकत्वं न संभवति, अथापि तत्सामअयधीनस्वरूपविशेषणभेदात विशिष्टवेषेण व्यावर्तकत्वसंभवः। व्याप्तिस्तु' सामान्यात्मनेति गत्यन्तराभावादङ्गीक्रियते- इति आइत्यार्थः ॥ तद्भेदः---धर्मिभेदः। एकत्वमपि नेति। 'तुल्यरूपाणां धर्माणां' इति ह्यनुपदमुक्तम् । एतदेवोपपादयति-भिन्नत्वेऽपीत्यादि। अयं भाव:यद्यपि कृतकत्वादयो धर्माः आश्रयभेदेन भियन्त एव, अतः न एकस्योत्पनी सर्वोत्पत्तिप्रसङ्गादिः। व्याप्तिस्तु सर्वेषां कृतकत्वानां अनुगतेक रूपेण संभवः । अनुगतरूपं तु सर्वत्र जातिरेवेति न निबन्धः। घंटवत्त्वेन रूपेण निखिलानां घटवद्भूतलानामुपस्थितौ हि घटवत्त्वमेवानुगतं रूपं, तच्च न जातिरूपम् । एवं प्रकृतेऽपि यत्र यत्र कृतकपदं प्रयुज्यते, तत्र सर्वत्रापि न कृतकपदभेदः । सर्वथा भेदे सति ककारादीनामप्यानन्त्यात्, सर्वो व्यवहारः उच्छिंद्येत। यदा कार्य-व Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धोक्त कार्यानुमाननिरास: 305 समानधर्ममूलान्वयादिव्यवहारोपपत्तेः तत्र न सूत्रकारेण सामान्यग्रहणं कृतम्। अपि तु साधम्यग्रहणमुपात्तम् -" उदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुः 39 66 'साध्यसाधर्म्यात् तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् " इति । तेन विनाशोत्पादधर्मयोः साध्यसाधनभावात्, तयोश्च भेदात् अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति न स्वभावहेतुरिति सिद्धम् ॥ किम् २] , [ कार्यानुमानमपि न संभवति ] कार्यहेतुरपि न संभवति । भवतां हि पक्षे क्षणयोर्वा कार्यकारणभावो भवेत् ? सन्तानयोर्वा १ क्षणयोर्नेति वक्ष्यामः क्षणभङ्गनिराकृतौ । संभवन्नपि 'दुर्लक्ष:' सूक्ष्मत्वाच्च तयोरसौ ॥ १७३ ॥ धूमाग्निसन्तानयोस्तु अवास्तवत्वादेव नास्ति कार्यकारणभावः । अर्थक्रियाकारित्वमेव वस्तुत्वम् । यदि धूमः कार्यत्वादनलमनुमापयेत् — कटुमलिनगगनगामित्वादिधर्मैरपि तस्य गमको भवेत् । च पदानि अभिन्नानि, उच्चारणभेदमात्रं, तदा प्रवृत्तिनिमित्तमपि तदनुरूपमेव वक्तव्यम् । तदादाय व्याप्युपपत्तिः । सत्ताद्वारकपक्षे च यस्या अनुगतत्वं तस्याः न व्यावर्तकत्वं यस्याश्च व्यावर्तकत्वं न तस्या अनुगतत्वमिति दोष: 'दुर्वार एव । सोपानान्तरकल्पनं परमवशिष्यत इति ॥ संभवन्नपीति । पूर्वोत्तरार्धयोः कार्यकारणभाव इति वर्तते । अथवा 'असौ' इति धर्मी । तयोः - क्षणयोः ॥ " 'धूमाग्निसन्तानयोः - धूमसन्तानस्याग्निसन्तानस्य च । अवास्तवत्वात्मिथ्यात्वात् । अतिरिक्तस्य वास्तवस्य सन्तानस्याभावादिति भावः । अथैति । न्यायबिन्द स्वलक्षणस्वरूपमभिधाय ' तदेव ( स्वलक्षणमेव ) परमार्थसत् 'अर्थक्रियासामर्थ्य लक्षणत्वाद्वस्तुनः ' इति खलुक्तम् । सन्तानश्च न स्वलक्षणरूपः । कटुत्वं- श्वासरोधकत्वम् । धर्मैरिति — वैशिष्टयं तृतीयार्थः । तस्य - वह्नेः । कार्य यादृशं दृष्टं, तादृशमेव कारणं हि तदनुमापयेत् । यथा नील: पटो नीक 1 दुर्लक्ष्य:- ख. NYAYAMANJARI 20 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा [न्यायमञ्जरी न च कथञ्चित् तत्कार्यत्वं कथञ्चिदतत्कार्यत्वं च धूमस्योपपन्नम् । सर्वात्मकस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि'प्रभवत्वात् ॥ अथ सर्वात्मनाऽपि तत्कार्यत्वे धूमत्वमात्रमेवाग्निसहचारीति मन्यसे । सहचारित्वमेवास्तु तदुत्पत्तिकथा वृथा ॥ १७४॥ सिद्धान्ते कार्यलिङ्गकानुमानमुपपद्यत एव] ननु भवद्धिरपि कार्यानुमानमङ्गीकृतमेव । यथा शेषवत्' इति व्याख्यास्यते । यथाऽऽह कणवतः-'कार्य कारण संयोगि समवायि विरोधि चेति लैङ्गिकम्' (वै.सू. 9-2-1) इति-न-साहचर्योपलक्षणार्थत्वात्। धूमाग्न्योर्नदीपूरयोर्वा न कार्यकारणभावात् गमकत्वं यथोक्तन्यायेन ; अपि तु नित्यसाहचर्यान्नियमादेवेति ॥ . तन्तुमित्यर्थः। सर्वात्मकस्य-यावद्वस्तुस्वरूपस्य । - धूमस्वरूपमेव सर्व अन्वयव्यतिरेकाधीनवह्निहेतुकम् । न तत्रांशभेदो दृश्यते ॥ . . अपिः भिन्नक्रमः ; तत्कार्यत्वेऽपीत्यन्वयः । धूमत्वेत्यादि। अयमर्थः--- धूमस्वरूपमात्रस्यैव वह्वयधीनत्वेऽपि धूमत्वाकारमानं वहिसहचरितं, न कटुत्वाद्याकारोऽपि । यस्मिन्नंशे सहचरितो गृह्यते, तदंशमात्रम्य कार्य सिद्धिः, नातिरिक्तस्येति चेत् एवं सति साहचर्यनियम एवं शरंणीकर्तव्य इति तेनैव व्याप्तिनिश्चयः। कार्यकारणभावनिर्णयार्थ भवताऽपि तस्यावश्यापेक्षणीयस्वादिति भावः ॥ कणवतः-कणादः । अनेन समानतन्त्रसंवादः प्रदर्शितः । साहचर्येति। यद्यपि कार्यानुमानमस्त्यस्माकं वस्तुस्वरूपपर्यालोचनया। गमकत्वं तु न कार्यकारणभावस्य, किन्तु तयोस्साहचर्यस्यैवेति न विरोध इत्यर्थः ॥ उपर्युक्तकणादसूत्रे विरोधिनोऽपि लिङ्गत्वमुक्तम् । तत् कथं घटताम् ? विरोधिनोस्साहचर्यासंभवादिति शङ्कते-विरोधिनोरिति । उक्तमेवोपपादयति-विगेधिनोरिति । 'परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थिति:' इति न्यायादित्यर्थः। तयोः भावाभावयोः इत्यन्वयः ॥ 1प्रस-क. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहचर्यस्यैव व्याप्तिगमकत्वम् [कणादसूत्र समर्थनम् ] विरोधिनोः कथं साहचर्यमिति चेत्; सदसतोर्गम्यगमकभावात्, विरोधिनोरेकतरदर्शनात् अन्यतरस्याभावोऽनुमीयते । भावाभावयोश्च साहचर्य तयोरस्त्येव । कणादसूत्रे कार्यादिग्रहणं चोपलक्षणम् ॥ आह्निकम् २] अन्येषामपि हेतूनां भूम्नां जगति दर्शनात् । सूर्यास्तमयमालोक्य कल्प्यते तारकोदयः ॥ १७५ ॥ पूर्णचन्द्रोदयाद्बुद्धिरम्बुधेर वगम्यते । उदितेनानुमीयन्ते सरितः कुम्भ' योनिना' ॥ १७६ ॥ शुष्यत्पुलिन पर्यन्तविश्रान्तखगपङ्क्तयः । पिपीलिकाण्डसञ्चारचेष्टानुमितवृष्टयः ॥ ९७७ ॥ भवन्ति पथिकाः पर्णकुटीर करणोद्यताः । अन्येऽपि 'सौगतगीत प्रतिबन्धद्रयोज्झिताः ॥ १७८ ॥ कियन्तो बत! गण्यन्ते हेतवः साध्यबोधकाः । लोकप्रसिद्धाः तादात्म्यतदुत्पच्यवधीरणात् ॥ १७९ ॥ डिम्भवाकसदृशं स्वमत्या तत्समर्थनम् । अतश्च -- तत्स्वभावस्तत्कार्यमित्यादि व्यसनमात्रकम् ॥ १८० ॥ 307 केषामुपलक्षणमित्यत्राह -अन्येषामिति । अन्येषां - कारकहेतुभावरहितानामपि हेतूनां ज्ञापक हेतूनाम् । शुप्यत्पुलिन .... पङ्क्तयः इति विधेयविशेषणम् । अगस्त्योदये जलाशयाः प्रसन्ना भवन्तीति प्रसिद्धम् । प्रसादश्च जलस्यानाविलत्वं, तच्च वृष्टिशान्तौ भवेत् । अतः अगस्त्योदये सति वृष्टयु परतिनुमीयत इति तात्पर्यम् ॥ सञ्चाररूपा चेष्टा इत्यर्थः । अन्येऽपीति । किं बहुना ! तादात्म्यतदुत्पत्तिरहिताः केवलसाहचर्यमात्रशालिनो हेतवो बहवो वर्तन्त एव । कृत्तिको दया हिण्युदयादिरूपा इति तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामेव व्याप्तिसिद्धिरिति न युक्तमिति सारम् । उपसंहरति - अतश्चेति ॥ 1 योनिनः - ख. 2 न्योऽपि - क. 20* Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा न्यायमअरी (बौद्धमते सर्वथा व्याप्तिग्रहः न संभवति] अपि च-व्यावृत्त्योलिङ्गलिङ्गित्वं, प्रतिबन्धश्च वस्तुनोः । विकल्पैर्ग्रहणं तस्य, कथं सङ्गच्छतामिदम् ? ॥ १८१ ॥ उक्तं चैतत् प्रथम एवाहिके (पु. 88-89) इत्यलं प्रसङ्गेन । तस्मादनुमितिहेतुः सम्बन्धः साहचर्यमिति सिद्धम्। न तु शौद्धोदनिशिष्यपरिकल्पितमुभयमप्येतत् ॥ [साहचर्य तु सहजमेव] यत्त्वभ्यधीयत परैः किमधीनमस्य तत्साहचर्यमिति तत्र विधिःप्रमाणम्। तादात्म्यतजननगरपि चैष तेषां । तुल्योऽनुयोग इति किं विफलैः प्रलापैः १८२ ॥ [अनुमितिकाले व्याप्ते: स्मरणमेव, न त्वनुभवः] नियमो व्याख्यातः। स्मृतेरिति कोऽर्थः ? उच्यतेनियमो हि गृहीतोऽङ्गं अनुमेयप्रमा प्रति । न नारिकेलद्वीपस्थो धूमादग्निं प्रपद्यते ॥ १८३ ॥ साध्यानुमितिवेलायां न चास्ति नियमग्रहः। , नियमग्रहकाले च न साध्यमनुमीयते ॥ १८४ ॥ साहचर्य. साहचर्यरूपः सम्बन्ध इत्यन्वयः। विधिः-नियतिः । वढेरोष्ण्यं, न जलस्येति कुतः ? इत्याक्षेपतुल्योऽयमिति भावः । अन्यथा--- अनयोरेव तादात्म्यतदुत्पत्ती, नान्ययोरिति कथम्? इत्येषः अनुयोग: तेषामपि तुल्य एवेति-'यश्चोभयोस्समो दोषः' इतिन्यायः स्मर्तव्य इति भावः ॥ - नारिकेलद्वीपस्थ इति । सर्वथाऽननुभूत वह्निधूमस्वरूप इति यावत् । अस्तु व्याप्तेः ज्ञाताया एवानुमितिजनकत्वम् । व्याप्तिज्ञानं स्मरणरूपमेवेति कुतोऽयं निर्बन्धः? इत्यत्राह-साध्येति । न नास्तीति । न हि तदानीं व्यापक: वह्वयादिः प्रत्यक्षः। यत्र च महानसादौ व्याप्लेग्रहणं, तत्र न वयाद्यनुमितिः। अतोऽगत्या पर्वते वयनुमितिकाले व्याः स्मरणमेवेति ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलिकम् २] ___ व्याः स्मृतिरेवानुमितिहेतुः 309 तेन पूर्वगृहीतस्सन् इदानीं स्मृतिगोचरः । नियमः प्रतिपत्त्यङ्गं, तथाऽवगतिदर्शनात् ॥ १८५॥ - द्वितीयलिङ्गदर्शने सत्यपि नियमस्मरणमन्तरेण साध्यप्रमिते. रनुत्पादात् ॥ यत्रापि विषयेऽभ्यस्ते नैव सञ्चेत्यते स्मृतिः। तत्राप्यनेन न्यायेन बलात् सा परिकल्प्यते ॥ १८६ ॥ [अनुमितिः स्मृतिरूपेति पक्ष:] अत एव केचन प्रत्युत्पन्न कारणजन्यां स्मृतिमेवानुमानमुक्त वन्तः ॥ [परोक्षे लिङ्गिनीतिपदप्रयोजनम्] प्रत्युत्पन्नं च कारणं कुत्रचिनि*णि धर्मान्तरसहचरित लिङ्गदर्शन मिति परोक्षे लिङ्गिनीत्युक्तम् ॥ - [साध्यविशिष्टपक्ष एवानुमेयः, न साध्यमात्रम् ] तंत्र लिङ्गी तावदुच्यते-धर्मविशिष्टो धर्मी साध्यः, स एव लिङ्गीति। न धर्मिमात्र साध्यम् ; पर्वतादिधर्मिणः सिद्धत्वात्। न ___ 'तथाऽवगतिदर्शनात' इत्येतद्विवृणोति-द्वितीयेति । ननु असकृदभ्यस्तविषये लिङ्गदर्शनादेवानुमितिः। यथा भोजनस्य तृप्तिसाधनत्वानुमितिः । बुभुक्षितः अन्न पश्यन्नेव भोक्तुमारभते। न हि तत्र मध्ये पूर्वानुभूतान ग्रुपस्थितिपूर्वकं व्याप्तिस्मरणमनुभवसिद्धं इति चेदाह –यत्रापीति। सञ्चत्यतेस्पष्टमनुभूयते। एवञ्च अभ्यासबलात् जायमानं ज्ञानं सुशीघ्र जातत्वात् अनुमितिवन भासते। वस्तुतस्तु स निर्णयः अनुमितिरूप एवेत्यर्थः ॥ केचनेति। 'एके तावद्वर्णयन्ति, लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धस्मृतिरनुमानमिति' इति न्यायवार्तिकं, वाचस्पतिना 'आचार्यदेशीयमतमाह-एके तावदिति' इत्यव. तारितं द्रष्टव्यम् ॥ तत्रेति। लिङ्गी इत्येतयाख्यायते इत्यर्थः। धर्म:--साध्यः, धर्मी * एतदारभ्य 312 पुटे * एवंचिह्नितान्तो भागः स्त्र पुस्तके लुप्तः । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 व्याप्तिस्वरूपपरीक्षा न्यायमचरी धर्ममात्रम् ; अग्नेरपि यत्र तत्र सिद्धत्वात् । न च द्वयोस्साध्यत्वम् ; स्वतन्त्रयोस्तयोरपि सिद्धत्वादेव । तस्मादेकस्य द्वयोर्वा स्वातन्त्र्येणानुमेयता नावकल्पते इत्यवश्यमन्यतरविशिष्टोऽन्यतरः साध्यो वक्तव्यः ॥ [पक्षविशेष्यकानुमितिरेव स्वारसिकी] तत्रापि तु धर्म विशिष्टो धर्मी साध्यो युक्तः, न धर्मिविशिष्टो धर्मः। तथा हि-देशविशिष्टे वह्नौ साध्ये षोडशविकल्पाः संभवेयुः। (१) सर्व एवाग्निः सर्वदेशविशिष्टः? (२) अनिर्धारितदेशविशेषविशिष्टः ? (३) पूर्वानुभूतमहानसादिदेशविशिष्टः ? (४) संप्रत्युपलभ्यमानपर्वतादि देशविशिष्टो वा? अनुमेयः स्यात् ? (५) अनिर्धारितविशेषो वा कश्चिदग्निः सर्वदेशविशिष्टः ? (६) अनिर्धारितदेशविशिष्टः? (७) पूर्वानुभूतदेशविशिष्टः? (८) परिदृश्यमानदेशविशिष्टो वाऽनुमेयः स्यात्.? (९) पूर्वानुभूतो वाग्निः सर्वदेशविशिष्टः ? (१०) अनिर्धारितदेशविशिष्टः ? (११) प्रादृष्टदेश विशिष्टः ? (१२) उपलभ्यमानदेशविशिष्टः अनुमेयः स्यात् ? (१३) एवं सिपाधयिषितो वाऽग्निः सर्वदेशविशिष्टः ? (१४) प्रागनुभूतदेशविशिष्टः? (१५) इदानी नुभूयमानदेशविशिष्टो वाऽनुमेयः? इति ॥ तत्रैते पञ्चदशपक्षाः प्रत्यक्षविरोधसिद्धसाधनत्वादिदोषोपहता इत्यनादरणीया एव ।। पक्षः। अन्यतरेतिः पर्वते वह्निः, पर्वतो वह्निमान् ---इति द्वेधाऽप्यनुमितेः सम्मतत्वादित्यर्थः ॥ 'सर्व एवाग्निः'. इत्येतदुत्तरविकल्पनयेऽपि योज्यम् ॥ अनिर्धारितविशेष इति । विशेषश्चात्र ताणत्वादिः, महानसीयत्वादिः, तव्यक्तित्वादिकं वा। इदं उत्तरविकल्पवयेऽपि संबध्यते ॥ प्रत्यक्षेत्यादि। अत्र आदिना व्याघातग्रहणम् । तत्राद्यपक्षपञ्चके Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' आह्निकम् २] साध्यविशिष्टपक्षस्यैवानुमेयत्वम् 311 यश्च षोडशः पक्षः (१६) एतद्देशविशिष्ट एषोऽग्निरिति तत्रापि देशविशेषावच्छेदमन्तरेणैव वह्विरिति गृहीतुमेव न शक्यत एवेति प्रथमं देश एव गम्यते। तस्य च पूर्वप्रतिपन्नत्वात् इदानीमनवगतदहनविशिष्टस्यानुमातुं योग्यत्वात् स एव साध्यो युक्तः ॥ अपि चाग्नेः साध्यतायां अनुपलब्धतद्धर्मः कथमनुमापकः स्यात् ? अनुपलब्धे तु ज्वलने न तद्धर्मतया धूमो गृहीतुं पार्यते । उपलब्धे तु हुतभुजि भवदपि निष्फलमेव धूमस तद्धर्मताग्रहणम् । अनुमेयस्य तदानीमभावात् । तस्मादग्निविशिष्टः परिदृश्यमानो देश एव साध्यः । स च स्वरूपतः प्रत्यक्षोऽद परोक्षधर्मविशिष्टतया अनुमेय इति धूमधर्मयोगात् अग्निधर्मवान् स एवानुमीयते। सोऽनुमानस्य विषयो लिङ्गीत्युच्यते। परोक्षग्रहणं चैतदभिप्रायमेव॥ ['परोक्षे' इति विशेषणमावश्यकम्] क्वचित्तु व्याप्तिस्मरणसमनन्तरमेव प्रत्यासीदतः प्रमातुः झटिति समुन्मिषन्नकस्मादेव प्रत्यक्षीभवति विभावसुरिनि न तद्विशिष्ट प्रत्यक्षविरोध: स्पष्टः। सर्वदेशवृत्तित्वत्य एकस्मिन् वहौ, सर्वेषु वा वद्विषु बाधितत्वात् । षष्ठे सिद्धसाधनम् । सप्तमे अष्टमे च व्याघातः। नवमे बाधः। दशमे व्याहतिः। एकादशे सिद्धसाधनम् । द्वादशे व्याहतिः । त्रयोदशे चतुर्दशे च बाधः। पञ्चदशेऽसिद्धिः ॥ . न शक्यत इति। विशिष्टवैशिष्टयावगाहिबुद्धौ विशेषणतावच्छेदकनिर्णयस्य कारणत्वादिति भावः। एवञ्च देश एव प्रथममवगतः, तक्ष च वह्नि नवगत इति अवगतस्य देशय विशेष्यत्वं अनवगतस्य वह्नविधेयत्वमेव च युक्तमिति ॥ अनुमेयस्याभावात् अनुमेयत्वविशिष्टवढेरभावात् । तदानीं बड़ेः सिद्धत्वादित्यर्थः । ननु परिदृश्यमानस्य देशस्य कथमनुमेयत्वमित्यत आह ...स चेति। 'अरोगोऽयं निष्पन्नः' इत्यादौ तथा व्यवहारादिति भावः । एतदभिप्राय - विशेषणस्य परोक्षत्वात् विशिष्टस्यापि परोक्षत्वतात्पर्यकम् ॥ तद्विशिष्टतया-साध्यविशिष्टतया। यत्र यवनिकाद्यन्तरितः यः पुरुषः धूमं पश्यन् यावत् ग्याप्तिं स्मरति, तावदेव यवनिकापगमादिना वहीन्द्रिय Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 अनुमानप्रामाण्याक्षेपः [ न्यायमक्षरी तयाऽपि धर्मिणः परोक्षत्वमवकल्पत इति तद्वद्यावृत्तये परोक्षग्रहणम् । नित्य* परोक्षस्यापि चेश्वराहऐन्द्रियादेरनुमेयतां वक्ष्यामः॥ तस्माद्यथोचिताल्लिङ्गात् यथोक्त नियमस्मृतेः । यथोक्तलिङ्गिविज्ञानमनुमानमिति स्थितम् ॥ १८७ ॥ [ अनुमानप्रामाण्याक्षेपः ] ननु ! सत्यनुमानस्य प्रामाण्ये, लक्षणाश्रयः । कार्यो विचारः, न पुनः प्रामाण्यं तस्य युज्यते ॥ १८८ ॥ तथा चाहुः - प्रामाण्यस्यागौणत्वात् अनुमानादर्थं निश्चयो दुर्लभः । पक्षधर्मादिरूपं हि लिङ्गस्य बलाद्गौण्या वृत्त्या दर्शयितव्यम् । धर्मे हि साध्येन हेतोः पक्षधर्मत्वम्, अग्निधर्मत्वात् धूमस्य । धर्मिणि. साध्ये हेतोरनन्वयित्वम्, न हि यत्र धूमः तत्र पर्वत इत्यन्वयः । द्वये तु साध्ये द्वयमपि नास्ति । न हि दहनमहीधयोः धूमो धर्मः ॥ संयोगात् वह्निप्रत्यक्षं तत्र तस्य जायते । तत्रांव्यवहितपूर्वक्षणे व्याप्तिस्मृतेस्सस्वेन तज्ज्ञानस्यानु मानत्ववारणाय परोक्षपदमित्यर्थः । ननु परोक्षत्वं चानुमितिकालिकमेव वक्तव्यम् । अन्यथा व्याप्तिस्मरणस्यैवासंभवात् । एवञ्चातीन्द्रियवस्तुनः कदाऽप्यननुभवेन तत्र व्याप्तिस्मरणमेव कथमिति चेत् तत्राह - नित्येति । प्रसक्तमुपसंहरति — यथोचितादिति ॥ लक्षणाश्रयः - लक्षणविषयकः विचारः कार्यः -- कर्तुमर्दः । अगौणत्वात्-यत अगणं तदेव किल प्रमाणम्, अन्यथा लौकिकलिपिपत्रताम्र शासनादीनामपि प्रमाणत्वप्रसङ्गः । प्रमाणज्ञापकत्वमात्रात् खलु तेषां प्रमाणत्वम् । अन्यथा प्रमाणेयत्तैव दुर्वचा स्यादिति भावः । अनुमानस्य गौणत्वमेव विस्तरशः उपपादयति-- पक्षधर्मेत्यादि । धर्मे - केवलवह्नयादौ । अग्निधर्मत्वादिति । एकसम्बन्धिविधया ह्यनुमानप्रवृत्तिः । तत्र वह्निव्याप्यत्वात् धूमस्य व्याप्तयाख्यसम्बन्धानुयोगित्वात् वह्निधर्मः धूम इत्युक्तिः । धर्मिणि - केवलपर्वतादौ । न हीत्यादि । वह्निव्याप्यो हि धूमः, न तु पर्वतव्याप्यः । संयोगसम्बन्धमात्रं तु गगनेऽप्यस्तीत्यप्रयोजकम् ॥ * 309 पुटे द्रष्टव्यम् । 1 र्य:- क. 2 नार्थ - ख. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] व्याप्ते?हस्वराशा 313 नाप्येवमन्वयः-यत्र धूमः तत्र पर्वताग्नी इति । धर्मविशिष्टे धर्मिणि साध्ये, तदुभयमघटमानमेव ॥ - नाप्यग्निविशिष्टधराधरधर्मतया धूमः प्रथममुपलब्धुं शक्यते ॥ न चाप्येवमन्वयः-यत्र धूमः तत्राग्निमान् पर्वत इति। तस्मादवश्यं पक्षधर्मत्वान्वयव्यवहारसिद्धये धर्मविशिष्टे धर्मिणि रूढः पक्षशब्दः तदेकदेशे धर्मिणि गोण्या वृत्त्या वर्णनीयः। अन्वयप्रदर्शनसमये च तदेकदेशे तथैव योजनेऽतिगौणलक्षणत्वादिन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्वादिवदगौणलक्षणत्वाभावादनुमानमप्रमाणम् ॥ . न्याप्तिरपि दुर्ग्रहा अपि चविशेषेऽनुगमाभावात् सामान्ये सिद्धसाधनात् । तद्वतोऽनुपपन्नत्वात् अनुमानकथा कुतः ? ॥ १८९ ॥ [साहचर्यमपि न व्याप्तिग्राहकम् ] . साहचर्ये च सम्बन्धे विनम्भ इति मुग्धता। शतकृत्वोऽपि तदृष्टौ व्यभिचारस्य संभवात् ॥ १९ ॥ अघटमानमिति । वैशिष्टयाभानात् इति हेतुः ॥ प्रथम-एतदनुमानात वह्रौ पर्वतीयत्वनिर्णयात् पूर्वम् ॥ न चेत्यादि। तत्र अग्निमान् पर्वत इत्युक्ते हि पर्वतस्याप्यधिकरणभूतमन्यत् भासेत। स चानुभवविरुद्धः। अन्वयः- यत्र धूमः तत्राग्निरिति। पक्षशब्द एव गौणश्चेत् , तमादाय हेतो: पक्षधर्मत्वं तु ततोऽपि गौणमापनमिति भावः। एतादृशपमधर्मत्वादि(पु. 282)विशिष्टलिङ्गस्यानुमानरूपत्वे तु गौणमेव प्रमाण तत् ॥ विशेष इत्यादि । पर्वतीयवह्निधूमयोर्न व्याप्तिग्रहसंभवः। सामान्यत: यत् धूमवत् , तत् वह्निमदिति तु महानसादौ सिद्धमेव। अत: एतादृशवलिम्याप्यधूमवान् पर्वत इति परामर्शोऽपि न घटत एवेति अनुमानकथैव गलहस्तिता ॥ मुग्धता-मौख्यम्। संभवात्-पार्थिवस्वलोहलेख्यत्वयोः शतशः सहचारदर्शनेऽपि वज्रमणौ व्यभिचारात्। उक्कार्थे पूर्वपक्षिसम्मतिमाह Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 अनुमानप्रामाण्याक्षेपः न्यायमारी देशकालदशाभेदविचित्रात्मसु वस्तुषु। अविनाभावनियमो न शक्यो 'वक्तुं', आह च ॥ १९१ ॥ अवस्थादेशकालादिमेदाद्भिन्नासु शक्तिषु। . भावानामनुमानेन प्रसिद्धिरति दुर्लभा॥ १९२ ॥ [व्याप्तिः असर्वज्ञैर्न गृहीतुं शक्या भवन्नप्यविनाभावः परिच्छेत्तुं न शक्यते। जगत्रयगताशेषपदार्थालोचनादुिना। १९३ ॥ न प्रत्यक्षीकृता यावद्धमाग्निव्यक्तयोऽखिलाः। तावत्स्यादपि धूमोऽसौ योऽनग्नेरिति शङ्कयते ॥ १९४ ।। [सवज्ञानां तु नानुमानापेक्षा] ये तु प्रत्यक्षतो विश्वं पश्यन्ति हि भवादृशाः । किं दिव्यचक्षुषामेषामनुमानप्रयोजन'म ॥ १९५॥ [सामान्यद्वाराऽपि न व्याप्तिग्रहसंभवः]. सामान्यद्वारकोऽप्यस्ति नाविनाभावनिश्चयः। वास्तवं हि न सामान्य नाम किञ्चन विद्यते ॥ १९६॥ आह चेति। देश-काल-अवस्थाभेदैः एकमेव वस्तु विविधविरुद्धविचित्रशक्तियुक्तं दृश्यते। एवं वस्तुस्वरूपे अनियते नियमरूपव्याप्तिः कथम् ? तेन भावानां-वस्तूनां सिद्धिश्च कथम ? उक्तमेवोपपादयति-न प्रत्यक्षीकृतेति। यथा अग्निमत्सु बहुषु सधूमेषु सत्स्वपि अयोगोलके व्यभिचारः, तथा धूम्वति कुत्रचित् वह्निरपि व्यभिचरितः स्यादिति भावः ॥ भवादृशा इति नर्मोक्तिः। अनुमानेन प्रयोजनं किम् ? इत्यन्वयः॥ ननु व्यक्तीनामनन्तत्वेऽपि सर्वव्यक्त्यनुगतसामान्यस्यैकस्य सत्त्वेन यत्र धूमत्वविशिष्टं, तत्र वह्नित्वविशिष्टमितिरीत्या सामान्य द्वारैव व्याप्तिग्रहीष्यते इति चेत् तत्राह---सामान्येति । तत्र हेतुमाह-वस्तवमिति। एतत्तत्त्वं सामान्यप्रकरणे व्यक्तीभविष्यति ॥ 1 वस्तुं-ख. श:-ख. क-क Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् २] भूयोदर्शनादीनां न्यानिगमकत्वासंभवः 315 [भूयोदर्शनेनापि न व्याप्तिनिश्चयः भूयोदर्शनगम्याऽपि न व्याप्तिरवकल्पते । सहस्रशोऽपि तदृ'यौ' व्यभिचारावधारणात् ॥ १२.७ ।। बहुकृत्वोऽपि वस्त्वात्मा तथेति परिनिश्चिंतः। देशकालादिभेदन दृश्यते पुनरन्यथा ॥ १९८ ॥ भूयो दृष्टया' च धूमोऽग्निसहचारीति गम्यताम् । अनग्नौ तु स नास्तीति न भूयोदर्शनाद्गतिः ॥ १९९ ॥ [साहचर्यनियमोऽपि दुर्ग्रहः] न चापि दृष्टिमात्रेण गमकाः सहचारिणः । तत्रैव नियतत्वं हि तदन्याभावपूर्वकम् ॥ २०० । नियमश्चानुमानाङ्गं गृहीतः प्रतिपद्यते । ग्रहणं चास्य नान्यत्र नास्तितानिश्चयं विना ॥ २०१॥ . व्यभिचारेति। पार्थिवत्वलोहलेख्यत्वयोः शतशस्सहचारदर्शनेऽपि वज्रमणो व्यभिचारात् । पूर्व(श्लो. 190) क्वचित्सहचारदर्शन दूषितं, भय तु भूयोदर्शनमिति न पौनरुक्तयम् । वस्तूनामस्थिरत्वादपि भूयोदर्शन व्यभिचरत्येघेत्यप्याह-बहुकृत्व इति। बहुशः तथेति--तादृशशक्तिविशिष्टोऽयमितिरीत्या परिनिश्चितः ॥ एवं व्यतिरेकसहचारोऽपि न भूयोदर्शनेनावगन्तुं शक्य इत्याहअनग्नाविति । गतिः-अवगतिः ॥ ___ बहुषु उभयव्यतिरेकदर्शनेऽपि यत्र कुत्रचित् व्यभिचारे, भूयोदर्शनं निरुपयोगमेव। यावत्संभवं ग्रहणं त्वनुपयुक्तमित्याह-न चापीति । वास्तविकसहचारवतो: कुत्रचित्तथा ज्ञानमात्रान्न व्याप्तिनिश्चयः। न हि साहचर्यमानं व्याप्ति:, किन्तु नियतसाहचर्यमेवः नियमश्च ज्ञात एवानुमितिहेतुः, न तु स्वरूपतः। नियमज्ञानं च साध्याभाववति सर्वत्र हेतोरभावज्ञानादेव। अतश्च पूर्वोक्तदोषो दुरतिक्रम एव। ननु वह्निमति महानसादौ धूमदर्शनात् वल्यभाववति हृदादौ धूमादर्शनात् 'टे-ख. दृष्ट्वा-ख. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 अनुमानप्रामाण्यसमर्थनम् न्यायमखरी दर्शनादर्शनाभ्यां हि नियमग्रहणं यदि । तदप्यसत् , अननो हि धूमस्येष्टमदर्शनम् ॥ २०२॥ अनग्निश्च कियान् ? सर्व जगजलनवर्जितम् । . तत्र धूमस्य नास्तित्वं नैव 'पश्यन्त्य योगिनः॥ २०३ ॥ तदेवं नियमाभावात् सति वा शप्तथसंभवात् । अनुमानप्रमाणत्व दुराशा परिमुच्यताम् ॥ २०४॥ [अनुमानानां प्रामाण्यं दुर्निरूपमेव] अनुमानविरोधोऽपि यक्चेिशविघातकृत् । . विरुद्धाव्यभिचारो वा सर्वत्र सुलभोदयः ॥ २०५॥.. अत एवानुमानानामपश्यन्तः प्रमाणताम् । तद्वितंभनिषेधार्थ इदमाहुर्मनीषिणः ॥ २०३ ॥ हस्तस्पर्शादिनान्धेन विषमे पथि धावता। अनुमानप्रधानेन विनिपातो न दुर्लभः॥.२०७ ॥ अपि चयत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ॥ २०८ ॥ [अनुमानप्रामाण्यसमर्थनम्] अत्राभिधीयते-किमयमनुमानस्वरूपाक्षेप एव क्रियते ? उत 'तत्तत्तार्किकोपलक्षिततल्लक्षणाक्षेपः ? - इति ॥ . वह्निमत्येव धूमो वर्तत इति नियमः ज्ञायत एवेत्यत्राह-दर्शनेति। कियान्अनवधिक इत्यर्थः। तदेव वित्रियतेऽनन्तरपादेन । नैवेति । न हि तत्र सामान्य मुखेनापि ग्रहणं भवेत् । न हि अनग्नित्वं नाम कश्चनानुगतधर्मोऽस्ति, येन तत्पुरस्कारेण वा नियमो गृहीतः स्यादित्यर्थः ॥ एवमनुमानस्यासाधकत्वमुक्त्वा, बाधकत्वमपि तस्य न संभवतीत्याहअनुमानविरोध इति। अनुमानस्यानुमानाद्विगेधाङ्गीकारे तु तादृशप्रत्यनुमानं सर्वत्र सुलभ इति पूर्वमेवोक्तम् (293 पु.)। अनुमानप्रधानेनअन्धविशेषणमिदम् । यत्नत्यादि। अत्र 'नैषा तर्केण मतिरापनेया' (कठ. 2-9) 'तर्काप्रतिष्ठानात् ' (अ.सू. 2-1-16) इत्यादिकमप्यनुसन्धेयम् ॥ 1 पश्यन्ति-क. वा-क. ता-क. . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमानस्य दुरपह्नवत्वकथनम् 317 आडिकम् २] तत्रानुमानस्वरूपं चाशक्यनिह्नवमेव, सर्वलोकप्रसिद्धत्वात् ॥ अबलाबालगोपालहालिकप्रमुखा अपि। बुद्धयन्ते नियतादर्थात् अर्थान्तरमसंशयम् ॥ २०९ ॥ अनुमानापलापे तु प्रत्यक्षादपि दुर्लभा । लोकयात्रेति लोकाः स्युः लिखिता इव निश्चलाः ॥ २१० ॥ प्रत्यक्षदृष्टमपि पदार्थजातं तज्जातीयत्वलिङ्गव्यापारेण सुखसाधनं इतरकारणमिति वा निश्चित्य तदुपाददते, जहति वा लौकिकाः॥ - [अनुमानलक्षणाक्षेपसमाधानम् ] अथाविचारितरमणीयतैव तत्त्वं, न तु लक्षणनियमः शक्यक्रियस्तस्येति लक्षणाक्षेपोऽयमुच्यते-सोऽप्ययुक्तः। यतः यं कञ्चिदर्थमालोक्य यः कश्चिन्नावगम्यते । कश्चिदेवाक्षिपत्यर्थमर्थः कश्चिदिति स्थितिः॥२११ ॥ तत्र वस्तुस्वभावोऽयमिति पादप्रसारिका। दृश्यते ह्यविनाभूतादर्थादर्थान्तरे मतिः ॥ २१२ ।। अतो यहर्शनाधंत्र प्रतीतिरुपजायते । तयोरस्त्यर्थयोः कश्चित् सम्बन्ध इति मन्महे ॥ २१३॥ तदात्मतातदुत्पत्ती न श्रद्दधति तद्विदः। साहचर्य तु सम्बन्ध इति नो हृदयङ्गमम् ॥ २१४ ॥ हालिकः - हलं वहतीत्यर्थे ठक। कृषीवल:-पामर इति यावत् । अनुमानमन्तरा केवलात् प्रत्यक्षात् लोकयात्राऽनिर्वाहमेवोपपादयति-प्रत्यक्षेति। इतरकारणं-- दुःखसाधनम् । न हि पुरतोवय॑नस्य तृप्तिसाधनत्वं तदानीं प्रत्यक्षमिति शेषः॥ अस्त्यनुमानं लोके, परन्तु तत्स्वरूपहेत्वादिकं त्वनिर्वचनीयमिति विकल्पं द्वितीयं प्रतिवक्ति --अथेति। यं कञ्चिदिति। न हि घटं दृष्ट्वा पटं प्रत्येति मनुजः, धूमं दृष्टा तु वह्नि सर्वोऽपि प्रत्येत्येव । अतोऽस्त्यनयो विशेषः । स एवाविनाभाव इति म्याप्तिरिति चोच्यत इति भावः । तद्विदः-तयोस्सम्बन्ध Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 अनुमानप्रामाण्यसमर्धनम् न्यायमञ्जरी तस्मिन् सत्येव 'भवनं न विना भवनं ततः । अयमेवाविनाभावो नियमः सहचारिता ॥ २१५ ॥ किंकृतो नियमोऽस्यास्मिन्निति चेदेवमुत्तरम् । तदात्मतादिपक्षेऽपि नैष प्रश्नो निवर्तते ॥ २१६ ॥ ज्वलनाजायते धूमः न जलादिति का गतिः ? एवमेवैतदिति चेत्, साहचर्येऽपि तत्समम् ॥ २१७ ॥ . तर्कस्य यावान् विषयः स तावति निरूप्यते। वस्तुखभावभेदे तु न तस्य प्रभविष्णुता ॥२१८॥ अयं च विषयो युक्तः, यदुक्तं नियमाद्विना । नार्थादर्थान्तरे ज्ञानं अतस्तस्य प्रकल्पनम् ॥ २१९ ॥ ततः परं तु नियमोऽप्येष किंकृतः? इति न युक्तिः प्रभवति। तादात्म्यतदुत्पत्त्योरनुपपन्नत्वात् । अतो नियम एव विर'म्यते ॥ न च प्रतिभामात्रमानुमानिकी प्रमितिरिति वक्तुं युक्तम् ; विदः। साहचर्यमेव विशिनष्टि - तस्मिन्निति। ततो विना-इत्यन्वयः । एष प्रश्न:--किंकृतस्तयोरेव तादात्म्यं तदुत्पत्तिश्चेति प्रश्नः । प्रतिपक्षी उत्तरं वदति-एवमिति । तथानुभवादिति भावः। तुल्योऽयं समाधिरस्माकमपीत्याह-साहचर्यऽपीति। ननु अनुमानप्रामाण्यं . तर्कविरुद्धं, ताश्च पूर्वमुपपादिताः; इत्यत्राह-तर्कस्येति । स्वभावभेद:--स्वभावविशेषः । तर्कोऽपि सर्वत्र नैकरूपः प्रवर्तेत, न हि 'यदि वह्निद्रव्यं तर्हि पृथिव्यादिवन्न दहेत्' इति तर्कः प्रवर्तितुमलम् । धर्मिग्राहकप्रमाणात् तत्तदसाधारणधर्मविशिष्टधर्मिसिद्धिं तर्को न निवारयेत् । नियममन्तरा एकज्ञानात् अन्यस्य ज्ञानं न भवतीति यदुक्तं, अयमव युक्तः-- तर्कस्य विषयः। विधेयप्राधान्यात् पुल्लिङ्गत्वम्। तथा च न तर्कस्य निरवकाशत्वमित्यर्थः ।। ततः परं--एवमनुभवान्नियमसिद्धयनन्तरम् ॥ ननु भोजनोत्कण्ठादः भविष्यद्रात्रागमनज्ञानं पूर्वमुक्तम , न हि तत्र नियतसाहचर्य शपथमन्तरेण शक्यम् , एवसवानुमानमप्यनिर्वचनीयहेतुकमेव कुतो न स्यादित्यत्राह--न चेति । प्रतिभास्थलेऽथसत्यत्वनिर्बन्धो नास्ति 1 भवने-ख. मो-ख. ज्यते-ख. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] व्याप्तेः सुग्रहत्ववर्णनम् 319 नियतात् कुतश्चिदेव वस्तुनि प्रतीतिदर्शनादित्युक्तत्वात् : नियमश्च यद्यगृहीत एव प्रतीत्यङ्गं भवेत् , नारिकेलद्वीपवासिभिरपि धूमदर्शनात् कृशानुरनुपीयेत। न चैवमस्तीति नियमग्रहण'मपेक्षणीयम् ॥ [मानस व्याप्त्यवधारणम् यञ्च विकल्पितं अशक्यं तद्ग्रहणमिति-तत्र केचिदाचक्षते--.. मानसे प्रत्यक्ष प्रतिवन्धग्राहीति। प्रत्यक्षानुपलंभाभ्यां अनलसहचरितमनग्नश्च व्यावतमानं धूममुपलभ्य विभावसो नियतो धूम इति लनसा प्रतिपद्यते ॥ मनश्च सर्वविषयं केन वा नाभ्युपेयते । असन्निहितमप्यर्थ मवधारयितुं क्षमम् ॥ २२० ॥ . सामान्यद्वारा व्याप्तिः] न च सकलत्रिभुवनविरनिरुद्धधूमाग्निव्यक्तिसार्थसाक्षात्करणमुपयुज्यते, ज्वलनत्वादिसामान्यपुरस्सरतया व्याप्तिग्रहणात् ॥ - यत्तक्तं-सामान्यं वास्तवं नास्तीति तत् शब्दार्थचिन्ताप्रसङ्गे प्रतिसमाधास्यते (४ आह्निके) अत्र वस्तीति प्रतिभातोऽनुमानमत्यन्तविलक्षणमित्यर्थः। नारिकेलद्वीपवासिमि:- कदाप्यदृष्टवह्निधूमस्वरूपैः ॥ प्रत्यक्षानुपलंभाभ्यां -वह्निमत्येव दशनेन वह्नयभाववत्यदर्शनेन च । उत्तरत्र यथासंख्यमिदमन्वेति । अनलसहचरितं-इत्यस्य धूमं इत्यनेनान्वयः। विभावसौ नियतः-वह्निनिरूपितनियमवान्। ननु मनसः बहिर्विषयेऽस्वातन्त्र्यात् कथं प्रतिबन्धग्रहणं मानसमित्यत्राह-मनश्चेति । वहिधूमयोः बाह्यत्वेऽपि तयोर्नियस ज्ञान आन्तरमेवेति भावः ।। निरुद्धति । अन्तर्गतेत्यर्थः ॥ 1मपी-ख. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 अनुमानप्रामाण्यसमर्थनम् [न्यायमचरी [यौक्तिकप्रत्यक्षात् व्याप्तयवधारणरूपपक्षः ! अपरे पुनः योगिप्रत्यक्षकसं यौक्तिकं सम्बन्धग्राहि प्रत्यक्षं प्रतिपेदिरे किल । धूमत्वाग्नित्वसामान्यपुरस्कारेण व्याप्यव्यापकयोरन्वयो नाम गृह्यताम् , व्यतिरेकस्त्वनग्निभ्य: धूमस्य ग्रहीतव्यः । अनग्नयश्चाति वितताः। न च तेष्वनग्नित्वं नाम सामान्यमस्ति । तेन समस्तत्रैलोक्यान्तर्गताग्न्यनग्निगतान्वयव्यतिरेकग्राहिप्रत्यक्षव्यतिरेकेण न प्रतिबन्धोऽवधृतो भवेत् । अनववृतश्च न प्रमाङ्गम् । अस्ति च प्रमेति 'युक्ति बलात् प्रतिबन्धग्राहकमेकस्मिन् क्षणे प्रत्यक्षमिदमशेषव्यक्तिविषयमसंवेद्यमानमपि कल्पितमिति यौक्तिकमुच्यते॥ [व्यतिरेकसहचारनिश्चयं विनापि व्याप्तिनिर्णीयते अन्ये पुनः अत एव तत्कल्पनाभयात् भूयोदर्शनपरिच्छिन्नसामान्यपुरस्सरान्वयमनपेक्षितव्यतिरेकनिश्चयमेव लिङ्गं गमकमभ्यु. पागमन् । यथोक्तम्-(श्लोक. वा. 1-1-5, अनु. 134-137) 'मम त्वदृष्टिमात्रेण गमकाः सहचारिणः' इति ॥ योगीति । योगिनो हि सर्व साक्षात्कुर्वन्तीति श्रूयते। इन्द्रियासमिकृष्टस्य कथं प्रत्यक्षत्वमिति शङ्कायां, कार्यानुरोधेन कारणस्य कल्पनीयतया योगप्रभावजनितमदृष्टविशेष कारणमामनन्ति । एवमेवात्रापि यत्र धूमस्तत्राग्निः इति व्याप्तिः सर्वानुभवसिद्धा। अन्वयग्रहणं यद्यपि सामान्यद्वारा भवेत् । अनग्निष्वनुगतसामान्याभावात् व्यतिरेकग्रहणं तु न तथा भवेत्। दृश्यते त्वनुमितिः। व्याप्तिग्रहणस्यानुमितिमूलकत्वे त्वनवस्था। अत: गत्यन्तराभावात् फलबलेन युक्तिमूलकमेव व्याप्तिप्रत्यक्षं प्रथमतः कल्पनीयम्। न चैकस्मिन्नेव क्षणे युक्तिवशाद्वा सर्वव्यक्तिप्रत्यक्षं नानुभवसिद्ध मिति शङ्कयम् । ज्ञानस्यातिसूक्ष्मत्वेन दुर्विज्ञेयत्वादज्ञाततौल्यं भवेत् । ज्ञानद्वयादनुमितिस्थले यथा वा विशिष्टं ज्ञानं फलबलेन कल्प्यते तथात्राप्युपपद्यते । अतो यौक्तिकप्रत्यक्षगम्य: प्रतिबन्ध इति ॥ अत एवेत्यस्यैवं प्रपञ्चः --तत्कल्पनाभयादिति । भूगेदर्शनपरिच्छिन्न: सामान्यपुरस्सरः अन्वयः यस्येति बहुव्रीहिः। अदृष्टिमात्रेण युक्त-ख. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यतिरेकसहचारग्रहस्थावश्यकत्वम् आढकम् २] 821 अयमाशयः-भूयोदर्शनतस्तावत् उदेति मतिरीदृशी । __ नियतोऽयमनेनेति 'सकल'प्राणिसाक्षिका ॥२२१॥ तावता च गमकत्वमौत्सर्गिकं सिद्धति । .मीमांसकानां तु विपक्ष दर्शनं बाधकः प्रत्ययः। न च सोऽस्ति, नाद्य यावदनग्नौ धूमो दृष्टः। अनुत्पन्नेऽपि बाधके तदाशङ्कनमयुक्तमित्युक्तं तैः-- ... 'दोषज्ञाने त्वनुत्पन्ने न शङ्कया निष्प्रमाणता' इति ॥ (श्लो. वा. १-२-६०) [व्यतिरेकनिश्चय: आवश्यक: एतत्त न चारु । व्यतिरेकनिश्चयमन्तरेण प्रतिबन्धग्रहणानुपपत्तरित्युक्तत्वात्। ज्ञापकत्वाद्धि नियमः स्वग्रहणमपेक्षते । नियमश्चायमुच्यते यत् तस्मिन् सति भवनं, ततो बिना न भवनमिति । भूयोदर्शनतश्च' तस्मिन् सति भवनमित्यन्वयमात्रपरिच्छेदादर्धगृहीतो नियमः स्यात् , ततो बिना न भवनमित्यस्यार्थस्यापरिच्छेदादिति ॥ यत्र कुत्रचिद्वह्निधूमयोरदर्शनत एव; न तु अवह्निषु सर्वत्र तन्निर्णयः अपेक्षित इत्यर्थः । सहचारिणः--निर्णीतसाहचर्यमात्रवन्तः ॥ • ननु व्यतिरेकानिश्चये कथं नियतसाहचर्य गृह्येत । न हि साहचर्यमानं • ग्याप्तिः, व्यभिचारात्। अत: अन्वयग्रहणमात्रान्न प्रतिबन्धावधारणमित्यत्राह ---अयमाशय इति । औत्सर्गिकमिति । एतदुक्तं भवति । मनग्नीनां सर्वेषां दुज्ञेयत्वेऽपि कुत्राचेद्धदादौ व्यभिचारादर्शनात् तावन्मात्रग्यतिरेकग्रहसहकृतादन्वयग्रहादेव व्याप्तिः यावद्वाधं निर्णेष्यत एव। बाधस्य कुत्राप्यदर्शनात् गृहीता व्याप्तिस्तावत्पर्यन्तं तथैवावतिष्ठत इति । अयमेवार्थ: विवियते - अनन्तरवाक्यैः ॥ उक्कमेवोपपादयति-ज्ञापकत्वादिति । ज्ञापकत्वं - एकसम्बधिज्ञानविधया इतरज्ञानजनकानां अयं स्वभाव:- स्वयं ज्ञातानामेव ज्ञापकत्वमिति इत्यर्थः ॥ मकला-क. न तच्च-ख. NYAYAMANJARI 21 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 828 अनुमानप्रामाण्यसमर्थनम् न्यापमचारी [म्यतिरेकोऽपि गृहीतुं शक्यत एव] अपरे पुनः अनग्नित्वसामान्यमन्तरेणापि योगिप्रत्यक्षकल्पनामकुर्वन्त एव मानसप्रत्यक्षगम्यमन्वयव्यतिरेकमाहुः। धूमाग्निसामान्ये तावत्सहचरिते उपलब्धे, तद्वत्तदभावावपि सहचरितावुपलभ्येते एव। धूपत्वसामान्यस्यानग्नौ जलादावदर्शनात् । सर्वगतत्वेऽपि सामान्यानां वृत्तिभेदो नियामक इति वक्ष्यते ॥ .. __यद्यपि चानग्नि'त्वाद्यभाव'सामान्यं नास्ति; तथाऽपि प्रतिषे- ' ध्याग्नित्वसामान्यानुगमसिद्धथैव तदभावानुगमग्रहणं सिद्धयति । [स्वपक्षेण न्याप्तिग्रहसमर्थनम्] सकलव्यक्तिविज्ञानमनङ्गं व्याप्तिनिश्चये। भावसामान्ययोर्यद्वत् तथैव तदभावयोंः ॥२२२॥ . पूर्वोक्त(320 पु.)पक्षात् वैलक्षण्यसूचनाय—योगिप्रत्यक्षेत्यादि । धूमाग्निसामान्ये-धूमाग्योः सामान्ये। तद्वत्-धूमत्ववतित्वद्वारैव । वह्नयभावो नाम वद्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिकाभावः, एवं धूमाभावः-धूमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकः। एवञ्च भावयोरिवाभावयोरपि धूमत्वादिकमेवानुगमकं भवितुमर्हति। अनग्नौ जलादौ धूमत्वावच्छिन्नस्यादर्श ने स व्यतिरेकः अन्वयवदेव वह्नयभावधूमाभागदिकं सामान्यद्वारा क्रोडीकुर्यादेवेति, । ननु धूमत्वादिकं सर्वगतमिति भवता सिद्धान्तः । अतश्च जलादौ कथं तदभाव:, तदवच्छिन्नाभावो वा? इत्यत्राह-सर्वगतत्वेऽपीति। जाते: सर्वगतत्वेऽपि समवायेन सा यत्र वर्तते तत्रैव स्वाभावप्रतीति निरुणद्धि, न तु स्वरूपतो यत्र वर्तते तत्र । समवायेन जाति: व्यक्तिष्वेव वर्तते। अतस्तत्र तत्प्रतीतिः व्यक्तेर्जातिव्यञ्जकत्वात्। अन्यत्र तु व्यञ्जिकाया व्यक्तेरभावेन तदभावप्रतीतिरित्यादिकं तत्प्रकरणे वक्ष्यत (४ आह्निके) इत्यर्थः ॥ तद्वदित्याद्यनुपदोक्तं स्फुटयति—यद्यपीत्यादिना ॥ भावयोरिति वक्तव्ये, व्याप्स्सामान्यप्रधानकत्वेन भावसामान्ययोरित्युक्तम्। यथा अन्वयग्रहणकाले व्यक्तीनां प्रातिस्विकभानं नोपयुक्तं तथा Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् २] व्याप्तेः सुप्रहस्व निरूपण निगमनम् भावयोः साहचर्य यत् अन्वयं तत् प्रचक्षते । व्यतिरेकं तु मभ्यन्ते साहित्यं तदभावयोः ॥ २२३ ॥ साध्यसाधनभावस्तु भवेद्यत्राप्यभावयोः । तयोरेवान्वयस्तत्र व्यतिरेकस्तु भावयोः ॥ २२४ ॥ तदेवमभावान्वयवद्भावयतिरेकोऽपि प्रत्यक्षगम्यो भवत्येव ॥ इयानेव विशेषस्तु भावयोर्यादृशी ययोः । व्याप्यव्यापकता सैव व्यत्यस्ता तदभावयोः ॥ २२५ ॥ अभावयोस्तु गम्यगमकभावे भावयोर्व्याप्तिव्यत्ययो द्रष्टव्यः । एवञ्च प्रतिषेध्यां 'नुगमपूर्वक सामान्याभावद्वयानुगमप्रत्ययोपपत्तेः अन्वयव्यतिरेकनिश्चये ऽपि न योगिप्रत्यक्षमुपयुज्यते ; भावाभावसाहचर्यमवधार्य मनसा नियमज्ञानसिद्धेरित्यलं निर्बन्धेन ॥ तस्मात् नियमवत् तद्गृहणोपायोऽप्यस्तीति सिद्धम् ॥ व्यतिरेकग्रहणकालेऽपि तदनुपयुक्तमित्यर्थः । ननु 'भावयोस्साहचर्यमन्वय:, अभावयोरसाहचर्य व्यतिरेकः ' इति न युक्तं ; अभावसाध्यकस्थले वैपरीत्यव्यवहारादिति शङ्कायां आई - साध्येति । तथा च भावपदं साध्यहेतुपरं, अभावपदं च तदभावपरमिति भावः । धूमाभाववान् वह्नयभावात् इत्यादौ पत्र- वह्नयभावः तत्र धूमाभावः इत्यन्वयः, यत्र धूमः तत्र वह्निरिति व्यतिरेकः ; धूमाभावाभावादेः धूमादिरूपत्वात् । अभावान्वयवद्भावव्यतिरेकोऽपि इत्येतत् अभाव साध्यहेतुकस्थलाभिप्रायेणोक्तम् ॥ 323 ययोर्भावयोः इत्यन्वयः । व्यत्यस्तेति । अन्वयस्थले हेतुः व्याप्यः, साध्य: व्यापकः । व्यतिरेकव्याप्तौ साध्याभावः व्याप्यः, हेत्वभावः व्यापकः, व्यापकाभावात् खलु व्याप्याभाव इत्यर्थः । एतदेवोपपाद्यतेऽनन्तरवाक्येन । प्रतिषेध्येति । प्रतियोगिनोः वह्निधूमयोः अनुगमात् तत्प्रतियोगि कयोरभावयोरप्यनुगतत्वसिद्धया अन्वयव्यतिरेकनिश्चयः सुलभ एव । परं तु व्यतिरेकसाहचर्यस्य प्रकृते आरोपात्मकत्वस्वारस्यात् तदंशे मानसमेव ज्ञानं विवक्षितम् ॥ धा-क. 2 'न्य-ख. 3 तब-ख. 21* Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 अनुमानप्रामाण्यतमर्थनम् - न्यायभारी (पक्षधर्मताज्ञानस्यावश्यकत्वम्] . गृहीने नियमे यावत्पुनः क्वचिद्धर्मिणि धूमादेलिङ्गस्य ग्रहणं न वृत्तं, तावन्न भवति लिनिनोऽवगतिरिति सम्बन्धग्रहणकालापेक्षया द्वितीयं तल्लिङ्गदर्शनमपेक्षितव्यम् । सैवेयं पक्षधर्मतोच्यते । पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकनिश्चये 'सत्यपि प्रत्यक्षागमविरोधेन प्रतिपक्षोपनिपातेन वा न गमकत्वमिति तदपरं लक्षणद्वयमुपदिष्टं-. अबाधित वपयत्वं असत्प्रतिपक्षत्वं चेति। तदेवमनुभवसिद्धत्वात् अनुमानस्वरूपमिव तस्य लक्षणमपि तान्त्रिक कथित मप्रत्याख्येयम्॥ अपि च यदि तान्त्रिकविरचित'मवाचकं लक्षणं तत् स्वयमन- . वद्यमावेद्यताम् । न तु तद्देषेण लक्ष्यमप्यनुमानं निह्नोतुं युक्तम् ॥ (पक्षपदस्य गौणत्वेऽपि प्रमाणस्य न गौणत्वम् ] यत्पुनरभाणि (312 पु.) प्रमाण'स्या गौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ इति-तन्न बुद्ध्यामहे-न हि प्रमाणस्य किश्चिगौणत्वमिह पश्यामः । पक्षधर्मादिपदानि यदि नाम व्याख्यातभिः गौणान प्रयुक्तानि किमेतावता प्रमाणं गौणीभवेत् ! . शब्दान्तरेण हि तल्लक्षणाभिधाने न कश्चिद्गौणतादिप्रमादः॥ कचिद्धर्मिणि-पर्वतादौ। द्वितीयं--प्रथम केवलधूमदर्शन, तत: व्याप्तिस्मृतिः, तत: व्याप्यस्य हेतोः प्रकृतपक्षवृत्तित्वानुसन्धान वहिव्याप्यधूमवांश्चायं इत्येवंरूपं द्वितीयम्। न गमकत्वं-नानुमापकत्वं, लिङ्गस्येति शेषः। तान्त्रिकः - तन्त्रं शास्त्रं सिद्धान्तं वा वेत्तीति। तान्त्रिको ज्ञातसिद्धान्तः' इत्यमरः॥ सिद्धान्त क्तलक्षणस्य दुष्टत्वमभ्युपेत्याह-अपि चेति। अवाचक-- विवक्षितार्थबोधनाय नालम्। पूर्वमुक्त(316 पुटे)विकल्प: अत्र स्मर्तव्यः ॥ तन्न बुध्यामह इति। गौणत्वं मुख्यत्वं वा शब्दगतावलिशयो, न स्वर्थनिष्ठौ तौ। अत: अर्थस्य गौणत्वं नाम को दोष इति न जानीम इत्यर्थः ॥ ननु ‘गौगार्थः, मुख्यार्थः' इत्यादिव्यवहारात् शब्दवत् अर्थेऽपि गौणत्वमस्त्येवेत्यत्राह-शब्दान्तरेणेति। गौणवृत्त्या योधितः अर्थः गौणः, 'च-7. 2 विचित-ख. तं लक्षण-ग. 'स्य--ख. रे-क. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আক্তিক ২]। ध्याप्तिग्रहविरोधिनिरसनम् 325 अनुमानप्रामाण्यदूषणप्रतिवचनम् ] यदप्यवादि (पु. 313)-'विशेषेऽनुगमाभावात् सामान्ये सिद्धमाधनात्' इति तदप्यसाधु-साध्यस्य मत्वर्थस्य दार्शतत्वात् ॥ यदपि 'अवस्थादेशकालादिभेदात्' इत्यभ्यधायि (314 -- पु.) तदपि न भगवहम्--सम्यगवधूतायां व्याप्तौ विप्लवाभावात् । प्रमातुरेव तत्र तत्रापराधः, नानुमानस्येति ॥ यदपि व्याहारि (316 पु.)-विरुद्धानुमानविरोधयोः सर्वत्र संभवात् कुत्रचिच विरुद्धाव्यभिचारिण इष्टविघातकृतश्च सुलभत्वादिति-तदप्यालजालम-प्रयोजकहेतौ प्रयुक्ते सत्येवंप्रायाणामनवकाशत्वात् ॥ सद्वितीयप्रयोगास्तु न भवन्ति प्रयोजकाः। उत्प्रेक्षामात्रमूलत्वाद्धत्वाभासा भवन्ति ते-इति वक्ष्यामः ॥ मुख्यवृत्त्या बोधितः मुख्यार्थ इति शास्त्रकारैः उपचारात् सङ्केताद्वा उच्यते, न तु गौणत्वादिरर्थधर्मः। 'गङ्गायां घोषः' इत्युक्ते गौण्या योऽर्थः गङ्गातीरादिर्बोध्यते स एवार्थः 'गङ्गातीरे घोषः' इत्यत्र मुख्यो भवति। अत: गौणत्वमुख्यत्वे नार्थधर्मों, किन्तु शब्दधर्मावेव। एवं प्रकृतेऽपि पक्षपदस्थाने साध्यविशिष्टधर्मिपदप्रयोगे प्रमाणमगौणं भवति । अतः किमिदं दूषणम् ! साध्यस्येति। यद्यपि धूमसामान्यावह्निसामान्यं यत्र कुत्रचिसिद्धम् , भथापि प्रकृतपक्षे वह्निसम्बन्धः असिद्ध इति तत्साधनमवशिष्यत एवेति । अयमेव सम्बन्धः 'वह्विमान्' इत्यत्र मतुबा बोध्यते ॥ विरुद्धेति । यद्यप्ययं पूर्व नोक्तः, अथापि सोऽपि तत्र अर्थसिद्ध इति भावः। आलजालं-अतिवारजालमिति यावत् । प्रयोजकहेतौ-- अप्रयोजक शंकायां तद्वारकसत्तर्कविशिष्टसाधकहेतावित्यर्थः। सद्वितीय प्रयोगाः समानद्वितीयहेतुप्रयोगमात्रम् । अप्रयोजकत्वे हेतुः-उत्प्रेक्षेति। न हि द्वितीयहेतुप्रयोगमात्रेण हेतोस्सप्रतिपक्षत्वं, सद्धेतावपि तादृशहेत्वाभासप्रयोगसंभवात्। किन्तु तुल्यबलम्ब एव। उत्प्रेक्षामात्रमूलत्वात् प्रतिहेतोः अप्रयोजकशंकावारकतर्कासंभवेन न ते प्रयोजकहेतवः॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 अनुमानप्रामाण्यसमर्थनम् न्यायमञ्जरी [विरुद्धाव्यभिचारी न सर्वत्र सुलभः] न विशेषविरुद्धश्च न चास्तीष्टविघातकृत् । हेतौ सुप्रतिबद्ध हि नैताः सन्ति विडम्बनाः ॥ २२७ ॥ तादृशा चानुमानेन पुंसोऽर्थमधिगच्छतः। नान्धेन तुल्यता हस्तस्पर्शानुमितवर्मना ॥ २२८ ॥ यत्नेनानुमितो योऽर्थः कुशलैरनुमातृभिः। .. अभियोगशतेनापि सोऽन्यथा नोपपाद्यते ॥ २२९ ॥ __ [मतान्तरेणानुमानद्वैविध्यवर्णनम्] सुशिक्षिततराः प्राहुः--द्विविधमनुमानम्; किञ्चिदुत्पन्नप्रीति, किश्चिदुत्पाद्यप्रतीति । ईश्वराद्यनुमानं तूत्पाद्यप्रतीति ॥ तत्र धूमानुमानादेः प्रामाण्यं केन नेष्यते? अतो हि साध्यं बुद्धयन्ते तार्किकैरक्षता अपि ॥ २३० ॥ यत्त्वात्मेश्वरसर्वशपरलोकादिगोचरम्। अनुमानं न तस्येएं प्रामाण्यं तत्त्वदर्शिभिः ॥ २३१ ॥ - हेतौ समीचानव्याप्तिविशिष्टे सति एता विडम्बना न सन्ति—न संभवन्ति। अतश्च 'हस्तस्पर्शादिनान्धेन' (316 पु.) इत्युक्तिर्न युक्तिमती। अतश्च 'यत्नेनानुमितः' (316 पु.) इत्यादिश्लोकोऽपि किञ्चियंत्यस्थ पठनीय इत्याहयनेनेति। अभियोग :-कलहाह्वानम् ॥ . द्विविधमित्यादि । अयमर्थ:- कानिचिदनुमानानि स्वतस्सर्वेषामनुभवसिद्धानि-यथा धूमाद्वयनुमानम् । कानिचित्तु अन्येनोपदिष्ट एवमिदं स्यादिति प्रवृत्त्या भवन्ति- यथेश्वराद्यनुमानानि। न हीश्वरानुमानं आबालगोपाल. सिद्धम् ; अत इदं उत्पाद्यप्रतीतिकम् । माद्यं तु उत्पन्नप्रतीतिकं प्रमाणमेव । द्वितीयं तु न प्रमाणम्। एतदेवानन्तरश्लोकैरुपपाद्यते । केन-पुरुषेण, हेतुना वा। अतः-धूमादेः । अस्यानुमानस्योत्पन्नप्रतीतिकत्वमुपपादयति-तार्किकैरिति । अक्षताः- अपीडिताः। 'पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं ', 'यः सर्वज्ञः' इति श्रुति स्मरन्नाह-आत्मेश्वरेत्यादि। यत्तु ईश्वरपरलोकादिगोचरं अनुमानं, तस्य प्रामाण्यं तत्त्वदर्शिमिर्नेष्टम् । यतस्तद्विषये दुष्टतार्किककुशिक्षणमन्तरा ऋजुमतीनां अनुमितिन जायते ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 आदिकम् २] वषटकतत्पूर्वकपदव्याख्यानम् ऋजूनां जायते तस्मात् न तावदनुमेयधीः । यावत्कुटिलितं चेतो न तेषां विटतार्किकैः ॥ २३२ ॥ [उक्तपक्षनिराकरणम्] . एवं तु कथयद्भिस्तैः परं नास्तिफ्यमात्मनः।। ख्याप्यते स्म, जडत्वं वा, नानुमानाप्रमाणता ॥ २३३ ॥ न हि सम्बन्धग्रहणोपायवैचित्र्यादप्रमाणता भवितुमर्हति । आगमेनानुमानेन तर्कव्युत्पादनेन वा। प्रत्यक्षेण गृहीतो वा सम्बन्धो न विशिष्यते ॥ २३४ ॥ ईश्वराद्यनुमानानां तत्प्रसङ्गे सविस्तरम्। द्रढिमानं च वक्ष्यामः, इत्यलं बहुभाषितैः ॥ २३५ ॥ प्रमाणमुपगम्यतां तदनुमानमेवंविधैः ... अविप्लुतपराक्रमं भवदुदीरितैर्दूषणैः। अनभ्युपगमे पुनर्विगतचेष्टिताः प्राणिनः भवेयुरुपलोपमा इति हि पूर्वमावेदितम् ॥ २३६ ॥ [अनुमानलक्षणपरसूत्रव्याख्यानम् ] - अथेदानी सूत्रमनुसरामः। तत्पूर्वकमित्यादि। अनुमानमिति लक्ष्यनिर्देशः। तत्पूर्वकमिति लक्षणम् । तदिति सर्वनाम्ना प्रक्रान्तं प्रत्यक्षमवमृश्यते। तत् पूर्व-कारण यस्य तत् तत्पूर्वकम्॥ नास्तिक्यं ईश्वरपरलोकानुमाननिराकरणात् । तेषामनुमानैकगग्यवं स्वावसरे निरूप्यते। उपायवैचित्र्य -- एकत्र स्वयंग्रहात्, अन्यत्र तार्किको. पदेशाच्च । उपायवैचित्र्यमेवाह-आगमेनेत्यादि। भागम:-'वहिव्याप्यो धूमः' इत्याप्तवाक्यरूपः, न्यायावयवरूपो वा। अनुमानं-धूमः वहिव्याप्य: पावद्वयधिकरणवृत्तित्वादित्यादिः। तर्क:- यदि धूमः वहिग्याप्यो न स्यात् तर्हि वहयभाववद्वत्ति: स्यात् इत्यादिरूपः। एवंविधषणः इत्यन्वयः । पूर्व-317 पुरे ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 अनुमानस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वनिरूपणम् न्यायमञ्जरी - एतावत्युच्यमाने निर्णयोपमानादी तत्पूर्व के प्रसङ्गो न व्यावर्तत इति तद्यावृत्तये द्विवचनान्तेन विग्रहः प्रदर्शयितव्यः, ते-द्वे प्रत्यक्षे पूर्व यस्येति। यदेकं अविनाभाविप्रत्यक्ष व्याख्यातं, यञ्च द्वितीय लिङ्गदर्शन, ते द्वे प्रत्यक्षे अनुमानस्यैव कारणम् , नोपमानादेः। तत्र प्रतिबन्धमा हे प्रत्यक्षं स्मरणद्वारेण तत्कारणम्, लिङ्गदर्शनं तु स्वत एव॥ ननु ! प्रत्यक्षमात्रस्य प्रकृतत्वात् प्रकृतावमर्शित्वा सर्वनाम्नः कुतोऽयं विशेषप्रतिलाभः ? उच्यते--उदाहरणसाधात् साध्यसाधनं हेतुरिति वक्ष्यते । हेतुरेव चानुमान-यदिह लक्ष्यं निर्दिष्टम्। न चागृहीत नुदाहरणसाधर्म्य तद्वैधर्म्य वा साध्यसाधनं भवतीति तद्हणोपायोऽपेक्षितव्यः। प्रत्यक्षव्यतिरिक्ततदवगमोपायपरिकल्पते चानवस्थादूषणमसकृदभिहितमिति प्रत्यक्षस्यैव तदुपायत्वम् । अतोऽजुमानकारणभूतप्रत्यक्षापेक्षया प्रत्यक्षमात्रप्रक्रमेऽपि सर्वनाम्ना तद्विशेष आक्षिप्यते यत् प्रतिबन्धग्राहि. प्रत्यक्षम्, यच्च द्वितीयं लिङ्गदर्शन मिति ॥ नेदं लक्षणमतिघ्याप्तम्] - ननु! प्रत्यक्षविशेषद्वयपूर्वकत्वानुमानाभासेष्वपि सव्यभिचारविरुद्धादिषु संभवतीत्यतिव्याप्तिः - मैवम् - हेतुलक्षणे(न) साध्यसाधनग्रहणेन तत्प्रतिक्षेपात् । प्रतिबन्धस्वरूपं हि तत्रैव निर्णयोपमा नेति। दूरात् किञ्चित्पश्यन् सामान्यतस्तदवगव्य समीपं गतस्तन्निर्धारयति । तदेतन्निर्धारणं प्रत्यक्षपूर्वकमेव । एवमुपमानमपि सादृश्यदर्शनमूलकमेव । प्रसंगः-लक्षणस्येति शेषः, अतिप्रसङ्ग इति यावत् । ते इति । वार्तिकेऽप्येवमेव विगृहीतम् ॥ विशेषः-वैलक्षण्यं एतादृशविलक्षणप्रत्यक्षद्वयपूर्वकत्वरूपम्। हेतुरेवेति-परामृश्यमानं लिङ्गं हि करणम्। तदवगमः-- साधर्म्यवैधावगमः । अत:-प्रकृतत्वात् बुद्धिस्थत्वाच्च ॥ . हेतुलक्षण इनि। 'उदाहरणसाधासाध्यसाधनं हेतुः' इतिसूत्रोक्त इत्यर्थः। हेत्वाभासानां साध्यसाधकत्वं नास्त्येवेति भावः। तत्र--- हेतुसूत्रव्याख्यानावसरे । वस्तुतस्त्वतिव्याप्तिकथनस्यावकाश एव नास्तीत्याह Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] सौत्रानुमानलक्षणस्य निर्दुष्टत्वसमर्थनम् 329 निपुणमभिधास्यते ; इह तु तद्हणोपायमात्रमुच्यते। सम्यक्प्रवृत्त च प्रतिबन्धग्राहिणि प्रत्यक्ष व्याप्तिविप्लवाभावान्नानुमानाभासप्रसङ्गः । सामान्यलक्षणानुवादेन च विशेषलक्षणे वर्ण्यमाने तत एव प्रमाणाभासयुदाससिद्धः केवलमिदानी समानजातीयोपमानादिव्यवच्छेदो वचनीय इति स एव तत्पूर्वकपदेनोपात्तः। 'अर्थोत्पन्नमव्यभिचारि व्यवसायात्मकम्' इति फलविशेषणानां सर्वप्रमाणेष्वनुवृतेः ॥ युगपञ्च क्वचिन्नास्ति व्यापारः शब्दलिङ्गयोः । असे नाव्यपदे'श्यत्व'विशेषणमिहार्थवत् ॥ २३७ ॥ द्वयोरपि च शब्दलिङ्गयोः ज्ञापकत्वेन स्वरूपग्रहणापेक्षत्वात् , ज्ञानायोगपद्येन च युगपद्रहणासंभवात् ॥ . [नाप्यव्याप्तमिदं लक्षणम् ] ननु! एवं निरस्य तामतिव्याप्तिः ; अव्याप्तिस्तु कथं निरसिष्यते ? आगमादिपूर्वकाणां अनुमानानामसङ्ग्रहात् ॥ सामान्येति । तत एव सामान्यलक्षणानाक्रान्तत्वादेव । व्यवच्छेद: केवलमित्यन्वयः॥ . ननु 'अव्यपदेश्य' इत्यस्य कुतोऽत्र नानुवृत्तिरित्यत्राह--युगपदिति। उक्कमेव विवृणोति-द्वयोरिति । अयमर्थः--प्रत्यक्षस्थले इन्द्रियं करणं, इन्द्रियं च न ज्ञातं सत् करणं, किन्तु स्वरूपसदेव । तथा च नामस्मरणइन्द्रियरूपसामग्रीद्वयमेलनं तत्र संभवतीति ‘पनसोऽयं' इत्यादिशब्दविशेषण प्रत्यक्षं युज्यत इति तद्वारणायाव्यपदेश्यपदं प्रत्यक्षलक्षणे आवश्यकम्। अनुमितिशाब्दस्थले तु लिङ्गस्य शब्दस्य चोभयो: ज्ञातयोरेव करणत्वम् । तदा च नामस्मरणरूपं ज्ञानं न भवितुमर्हति, युगपत् ज्ञानद्वयानुत्पत्ते: इति तादृशज्ञानमेव नोत्पद्यत इति तद्विशेषणानुवृत्तिर्मास्तु ॥ आगमादीत्यादिना अनुमानपरिग्रहः। न हि तत्स्थले प्रत्यक्षद्वयपूर्वक व. मनुमानेऽस्तीत्यर्थ: ॥ 1 शत्व-त. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 अनुमानस्य प्रत्यक्षपूर्वकस्वनिरूपणम् न्यायमधरी तेष्वपि मूलभूतं प्रत्यक्षमेव कारणमिति केचिदाहुः । यथोक्तम (श्लो.वा. 1-1-5, अनु. 170) 'यत्राप्यनुमिताल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ग्रहणं भवेत् । तत्रापि मौलिकं लिङ्गं प्रत्यक्षादेव गम्यते' इति ॥ यद्वा प्राधान्याभिप्रायेण प्रत्यक्षपूर्वकत्वमुच्यते, न नियमार्थमिति नाव्याप्तिः॥ [प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकाण्यप्यनुमानानि सन्ति] तानीति वा पुनः तावदवबोधाय विग्रहः कर्तव्यः। तानिप्रत्यक्षादीनि पूर्व यस्येति । यद्यपि प्रत्यक्षमेव लक्ष्यन्वेन प्रस्तुतम्। तथापि व्यवच्छेद्यतयाऽनुमानादीनामपि प्रकृतत्वं न वार्यते ॥ . तत्पूर्वक 'पदार्थशोधनम्] अत्र चोदयन्ति । तदिति करणावमर्शो वा स्यात् , फलावमर्शो वा। करणावमर्श इन्द्रियादिकरणपूर्वकं ज्ञानं तत्फलं तत्पूर्वक चानुमानमिति पूर्वशब्दस्य द्विः पाठः स्यात् । स चाच'त: मौलिक-मूले भव, प्राथमिकमिति यावत् ॥ ननु यथाकथञ्चित्प्रत्यक्षमूलकत्वं सर्वप्रमाणसाधारणम् ; प्रत्यक्षं हि सर्वज्येष्ठम् । अतो नेदमनुमानासाधारणमित्यत आह-यद्वेति । अयमाशयःतत्पदं यद्यपि प्रत्यक्षपरं, अथापि इतरप्रमाणानामपि तदुपलक्षक, प्राधान्यात्तु तदुपात्तम् । नात्र तस्य लक्षणेऽपि प्रवेशः॥ लक्षणवाक्यघटकस्य लक्षणघटनमेव वरमित्यत आह-तानीति। तावदवबोधाय-तावद्विवक्षितार्थलाभाय । यद्यपीति। तत्पदं प्रकृतपगमर्शितन्त्र लक्ष्यत्वेन प्रत्यक्षं प्रकृतं, इन्द्रियार्थसन्निकर्षपदव्यवच्छेद्यतयाऽनुमानं प्रकृतं, भव्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यतया शब्दोऽपि प्रकृत इति तत्पदेन तेषां ग्रहणं भवत्येवेति । तथा च तत्पदं बुध्या प्रकृतस्य परामर्शकमित्युक्तं भवति ॥ करणेत्यादि-प्रत्यक्षपदं हि करणवाचि, फलवाचि चेति पूर्वमेवोक्तं, प्रकृतत्वमप्युभयोरस्ति । अतस्तत्पदग्राह्य किमिति भवत्येव संशयः। द्विः पाठ इति । अनुमानं हि व्याप्तिज्ञानं, तश्च इन्द्रियपूर्वकलिङ्गदर्शनपूर्वकम् , म स्विन्द्रियपूर्वकम्। एवं च इन्द्रियपूर्वकपूर्वकमिति ‘पूर्वक' पदस्य द्विः पाठ स्वा-ख. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] सौत्रानुमानलक्षणस्य निर्दुष्टत्वसमर्थनम् 331 कल्पनीयः । फलावमर्शे तु प्रत्यक्षफलपूर्वकमनुमान' फलं भवेत्, नानुमानमिति' तत्पूर्वकशब्दस्य फलवचनस्यानुमानशब्देन करणवाचिना सह सामानाधिकरण्यं न स्यात् – तत्पूर्वकमनुमानमिति । प्रत्यक्षफलेन हि लिङ्गदर्शनेन परोक्षार्थप्रतिपत्तिरुपजन्यते ; सा चानुमानफलं नानुमानमिति - उच्यते - उभयथाऽपि न दोषः । 'क'रणावमर्शे तावत् इन्द्रियादिकरणपूर्वकं तत्फलं लिङ्गदर्शनं यत् तदेव परोक्षार्थप्रतिपत्तौ करणमनुमानमिति न द्विः पूर्वकशब्दस्य पाठ उपयुज्यते । फलेऽप्यवमृश्यमाने प्रत्यक्षफललिङ्गदर्शनपूर्वकं यत् अविनाभावस्मरणं तदनुमानं करणमेव, ततः परोक्षार्थप्रतिपत्तेः ॥ यदुक्तं ( 309 पु. ) - प्रत्युत्पन्नकारणजन्या स्मृतिरनुमानमिति, तत्र स्पष्टमेव सामानाधिकरण्यम् ॥ . [सौत्रं अनुमानपदं अनुमितिपरं वा ] फले वाऽनुमानशब्दं वर्णयिष्यामः - अनुमितिः अनुमानमिति ॥ आवश्यक इति । अनुमानफलं - अनुमितिः । अनुमितेः प्रत्यक्षपूर्वकत्वव्यपदेश: सर्वसंप्रतिपन्नः । अतः अनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकपूर्वकं इति कथने सामानाधिकरण्यमबाधितम् । प्रत्यक्षपदस्य फळपरत्वे लिङ्गदर्शनस्यैव प्रत्यक्षपदार्थत्वं वक्तव्यं - तत्पूर्विका चानुमितिरेव, नानुमानभिति ' तत्पूर्वकमनुमानं ' इति. बाधितमिति ॥ उभयथापीति । अयमर्थः -- तत्पदस्येन्द्रियपरत्वे अनुमानपदं लिङ्गदर्शनपरं, ज्ञायमानलिङ्गस्यानुमितिकरणत्वेन लिङ्गज्ञानस्याप्यनुमितिकरणत्वानपायात् । उक्तं च तथा (पु. 282 ) । तत्पदस्य प्रत्यक्षज्ञानपरत्वे लिङ्गदर्शनं तत्पदार्थः, तत्पूर्वकं च व्याप्तिस्मरणं, तदेवानुमानपदवाच्यमिति न कश्चिद्दोषः || स्पष्टमेवेति । स्मृतेः प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात् ॥ व्याप्तिस्मृतेः करणत्वस्य 'अन्ये तु 'पक्ष एवोक्तत्वात्, स्वमते परामृश्यमानलिङ्गस्यैव करणत्वात् प्रत्यक्षपदस्य ज्ञानपरत्वे ' तत्पूर्वकमनुमानं ' इति सामानाधिकरण्यहानिः स्वपक्षे - इत्यत आह-फले वेति । भावार्थकप्रत्य - 1 मिति - ख. 2 स्यात् - क. 3 'का-ख. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 अनुमानस्य प्रत्यक्षपूर्वकस्वनिरूपणम् न्यायमअरी .. यतश्शब्दं वाऽध्याहरिष्यामः--प्रत्यक्षफलपूर्वकं परोक्षार्थ. प्रतिपत्तिरूपं फलं यतो भवति तदनुमानमिति ॥ ['तत्पूर्वकं' इत्येतावदेव लक्षणपरम् ] अत्र हि प्रथमं लिङ्गदर्शनं, ततः प्रतिबन्धस्मरणं, ततः केषाचिन्मते परामर्शज्ञानं, ततः साध्यार्थप्रतीतिः, ततः प्रत्यक्षलक्षणावसरवर्णितेन क्रमेण हेयादिज्ञानमितीयति प्रतीतिकलापे यथोपपत्ति कार्यकारणभावो वक्तव्य इत्येवं तत्पूर्वकपदमेव केवलं अनुमानलक्षणक्षममिति गुरवो वर्णयाञ्चक्रुः॥ . सर्व सूत्रं लक्षणपरमिति अन्ये] अन्ये पुनः उपमानाद्यतिव्याप्तिव्युदासाय त्रिविधग्रहणं व्याख्यातवन्तः। 'तत्पूर्वकमनुमानम्' इत्युच्यमाने सति उपमानादौ प्रसङ्ग इति त्रिविधग्रहणम् ॥ लिङ्गं वक्ष्यमाणकार्यादिभेदाद्वा त्रिविधं, पक्षधर्मादिरूपत्रययोगाद्वा त्रिरूपं त्रिविधमुच्यते। लिङ्गे च त्रिविधे सति तदालम्बन ज्ञानमुपचारात् त्रिविधमभिधीयते । तेन प्रत्यक्षपूर्वकं त्रिविधलिङ्गालम्बनज्ञातमनुमानमित्युक्ते सति नातिव्याप्तिः ॥ . . यान्तस्वेऽनुमानपदमेवानुमितिपरमिति सामानाधिकरण्यमुपपद्यत इति ॥ अनुमानपदस्य करणे प्रसिद्धयनुरोधादाह-यत इति ॥ _ 'लिङ्गविषयं ज्ञानं, ज्ञानविषयीकृतं वा लिङ्गं प्रमाणं' (पु. 282) इति स्वेन कथनात् -केषाञ्चित् इति । गुरवः-~भाष्यकारादयः ॥ प्रसङ्ग:--अतिप्रसङ्गः। तेषामपि सादृश्यदर्शनमूलकत्वादित्यर्थः ॥ कार्यादीति। कार्यानुमानं, कारणानुमानं, सामान्यतोदृष्टानुमानमित्यर्थः। पक्षधर्मेत्यादि । पक्षे सत्वं, सपक्षे सत्त्वं, विपक्षेऽसत्त्वमित्यर्थः । नन्वनेन लिङ्गे विध्य उक्तं, न स्वनुमाने - इति चेदाह--लिङ्गे चेति। तदालम्बनं-तद्विषयकम् । ज्ञायमानलिङ्गस्यानुमानत्वे तु नायं क्लेशः । नातिव्याप्तिः। उपमानस्य लिङ्गाविषयकत्वात् ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् २] सौत्रानुमानलक्षणस्य निर्दुष्टत्वसमर्थनम् 333 [सूत्रादेव हेतोस्विविधत्वलाभः] ननु ! पूर्ववदादिभिः शब्दैः कार्यादिभेदवर्णनं ज्ञास्यामः। पक्षधर्मादिरूपत्रयं तु कथभेभिः शब्दैः प्रतिपाद्यत इति। अत्राहु:वादादिकथात्रयेऽपि पूर्वमुपादीयमानत्वात् पक्षः पूर्वशब्देनोच्यते; सोऽस्यास्त्याश्रयत्वेनेति पूर्ववत् लिङ्गमित्येवमनेन पदेन पक्षधर्मत्वमुक्तं भवति। पक्षे उपयुक्ते सति शेषः सपक्षो भवति। सोऽस्यास्त्याश्रयत्वेनेति शेषवत् । एवमनेन रूपक्षे वृत्तिरुक्ता भवति । सामान्यतोदृष्टमित्यनेन विपक्षात् व्यावृत्तं लिङ्गमुच्यते। कथम् ? अकारप्रश्लषात् सामान्यतः अदृष्टमिति। तिष्ठतु तावद्विशेषः, सामान्यतोऽपि न दृष्टम् । केति ? पक्षपक्षयोवृत्तरुक्तत्वात् परिशेपात् विपक्षे सामान्यतोऽपि न दृष्टमित्यवतिष्ठते । इत्थं त्रिरूपं लिङ्गं पभिः शब्दैरुक्तं भवति । तदालम्बनं ज्ञानमनुमानम् ॥ सूत्रस्य सर्वस्यापि लक्षणपरत्वं न युक्तम्] तदेवं लक्षणे कश्चित् सर्व सूत्रमयोजयत् । . एवं तु ख्यापितं न स्यात् सूत्रकारस्य कौशलम् ॥ २३८ ॥ किञ्च पश्चलक्षणामिह शास्त्रे अभ्युपगम्यते इति त्रिरूपे तस्मिन् वर्ण्यमाने कालात्ययापदिष्टप्रकरणसमयोः प्रसङ्गो न व्यावर्तत इति । तस्मात् तत्पूर्वकपदमेव लक्षणप्रतिपादनार्थमनवद्यम् ॥ शास्याम इति। पूर्ववदिति कारणेन कार्यानुमानं, शेषवदिति कार्येण कारणानुमान, एवं कार्यकारणभावरहितस्थले रूपेण रसानुमानादि सामान्यतोदृष्टं—इत्यादिरीत्या भाष्यादिषु तथा वर्णितम् । कथात्रय इति । वादः, जल्पः, वितण्डा चेति कथा त्रिविधा वक्ष्यते। उपयुक्ते-निरूपिते। उक्तादन्यः खलु शेषः । तदर्थलाभप्रकारमाह-तिष्ठत्वित्यादि । विशेषः ... पक्षवृत्तित्वादिः ॥ सर्व सूत्र लक्षणे अयोजयत् इत्यन्वयः। एवं त्वित्यादि। अनुमानप्रभेदादीनां वक्तव्ये, उपमानादिव्यावृत्तेः अस्मदुक्कदिशा सुलभत्वे च तदर्थ एतावत्पदप्रयोग: सूत्रकारस्य न युक्त इत्यर्थः ।। न व्यावर्तत इति। यद्यपि वाचस्पतिमित्रैः-तात्पर्यटीकायां विपक्षम्यतिरेकात् असत्पतिपक्षत्वाबाधितविषयत्वयोः संग्रहो वर्णितः, भथापि Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 अनुमानत्रैविध्यम् [न्यायमचरी त्रिविधग्रहणं तस्य विभागप्रतिपादकम् । भेदाः पूर्ववदित्यादिग्रन्थेन कथितास्त्रयः॥ २३९ ॥ तत्पूर्वक'पदोदीत निर्मलन्यायलक्षणः। परिम्लानादरोऽन्यत्र सूत्रकृद्वाक्यलाघवे ॥२४० ॥ 'त्रिविधं' इत्युक्तिस्तदा विरुद्धयेतैव, पञ्चविधत्वात् हेतोः। विधाशब्दश्व विभाग एव स्वरसः। पूर्वोक्तदोषस्तु वर्तत एवेदानीमपि इत्युपेक्षितम् ॥ एवं लक्षणपरं ' तत्पूर्वक 'पदं ब्याख्यातम् । अथ शिष्टे सूत्रे 'त्रिविध'. पदं विभागप्रतिज्ञापरं, शिष्टं विभागपरमित्याचष्टे-त्रिविधेति । त्रयः भेदाः कथिता इत्यन्वयः॥ अत्र भाष्य -- 'विभागवचनादेव त्रिविधमिति सिद्धे त्रिविधवचनं महतो महाविषयस्य न्यायस्य लघीयसा सूत्रेणोपदेशात् परं वाक्यलाघवं मन्वानस्यान्यस्मिन् वाक्यलाघवेऽनादरः। तथा चायमित्थंभूतेन वाक्यविकल्पेन प्रवृत्तः सिद्धान्ते छले शब्दादिषु च बहुलं समाचारः शास्त्र इति । अयमर्थः–'पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो दृष्टं च' इति विभागवाक्यादेव 'अनुमानं त्रिविधं' इति स्पष्टमवगम्यमाने 'त्रिविधं' इति संख्यावाचकशब्दग्रहणपूर्वकमभिधानं किमर्थम् ? इति चेत्--अतिक्लिष्टस्यानुमानलक्षणस्य 'तत्पूर्वकं' इति सूक्ष्मपदेन लक्षणात् तत्स्मरणजहर्षवशात् इदमत्यल्पं गौरवं गौरवत्वेन न मेने सूत्रकारः। एतादृशेन वाक्यविन्यासेनैवास्मिन् शास्त्रे सिद्धान्तादिलक्षणपरेषु समाचार:-विचाररीति: बहुलं प्रवृत्तो दृश्यते इति । एतत्सर्वमभिप्रेत्याह--तत्पूर्वकेत्यादि । 'तत्पूर्षक' इत्येकेनैव पदेन कथितं निर्मलं-निर्दोष यत् महतो न्यायस्य-अनुमानाख्यस्य लक्षणं येन, स: सूत्रकृत् अन्यस्मिन् वाक्यलाघवे परिम्लप्नादरः इत्यर्थः॥ एतेन - पूर्ववदादिवाक्यमभ्युपेत्य त्रिविधपदपरित्यागलाघवापेक्षया त्रिविधपदेनैव विवक्षितार्थलाभे पूर्ववदादिपदपरित्यागलाघवस्य महत्त्वात्, तत्परं भाष्यं ब्याचल्युर्वाचस्पतिमिश्रा:-'त्रिविधमिति विभागवचनादेव त्रिविधे पूर्ववदादौ सिद्धे किमर्थ पूर्ववदाद्युपादानम्' इति तदेतद्न्थकारेणोपेक्षितं मन्तव्यम्। 'त्रिविधं' इत्येतावन्मात्रात् नार्थपूर्तिर्भवेत्-विभागजिज्ञासाया भशान्तत्वात् । नापि 'त्रिविधं ' इतिपदं विभागवाक्यं, किन्तु तत्प्रतिज्ञापरम् । मतो नेदं भाष्यानुगुणमपि-इत्यादिहेतुरत्रोद्यः। एवं वैभवेन प्रवृत्तं भाष्यं 1 दादीत-क. णा:-क. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिकम् २] - पूर्ववदनुमानम् 335 विभागवचनात्सिद्धं त्रैविध्यं स्वगिरा भवेत् । तथा च शब्दसिद्धान्तच्छलेष्वेवमदीशत् ॥ २४१॥ ___[पूर्ववदनुमानम्] पूर्ववदिति। यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते-यथा जलधरोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरिति ॥ [पूर्ववत् पदस्य कारणपरत्वाक्षेपः] अत्र चोदयर्या त-पूर्व हि कारणमुच्यते । पूर्वमस्यास्तीति पूर्ववत् कार्य 'वक्तुं युक्तम् । तेन कार्यात् कारणानुमानमिहोदाहर्तव्यम, न कारणात् कार्यानुमानम् ॥ कारणेन कार्यमनुमातुमप्यशक्यम् ] न च कारणेन कार्यमनुमातुमपि पार्यते । कार्यस्य तावत् पक्षत्वमयुक्तम् ; सिद्धयतिद्धिविकल्पानुवृत्तेः। सिद्ध हि कार्ये किमन्यदनुमेयम् ! असिद्ध खपुष्पवन्न पक्षत्वम् ॥ __अपि च अस्ति-कार्य-कारणस्यास्तित्वात् इति व्यधिकरणो हेतुः; अनित्यः शब्दः काकस्य काादितिवत् ॥ उक्ता हार्द भावमाह--विभागेति। विभागवचनात् सिद्धमेव त्रैविध्यं स्वगिरा कण्ठत उक्तं भवेत्-अन्यथा 'इतोऽपि विभागान्तरं स्याद्वा' इति संशयानतिवृत्तः। तथैव सूत्रकारशैल्यपि दृश्यते-'आप्तोपदेश: शब्दः' ‘स द्विविधः दृष्टादृष्टार्थत्वात् ', 'तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थितिः सिद्धान्तः' 'स च तुर्विधः सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् ', 'वचनविघातः अर्थविकल्पोत्पत्त्या छलम्' 'तत् त्रिविधं वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं चेति' इत्यादौ नियमार्थ त्रिविधादिग्रहणम् ॥ मेघस्यौनत्यं नाम कार्याव्यवहितप्राक्कालीनावस्थाविशेष एव ॥ पूर्व- पूर्वपदार्थः । कार्य अनन्तरं, कारणं हि पूर्व भवतीति भाव : ॥ ‘भत्र कारणस्य सत्त्वात् कार्येणापि भाव्य ' इति खलु वक्तव्यम् । अत: कार्य-अस्तित्ववत् कारणस्य सत्त्वादिति वक्तव्यं, तदपि न संभवतीत्याह-- अपि चेति ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 भनुमानौविष्यम् न्यायमञ्जरी सत्तायां च साध्यायां भावधर्मस्य हेतोरसिद्धत्वम् , अभाव. धर्मस्य विरुद्धत्वम्, उभयधर्मस्यानैकान्तिकत्वमिति कथं साधयितुं शक्यते? तदुक्तम्.. 'नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति, व्यभिचार्युभयाश्रयः। धर्मो विरुद्धोऽभावस्य, सा सत्ता साध्यते कथम् ? ' इति ॥ न च कारणमात्रस्य हेतुत्वं युक्तम्, विना च प्रतिबन्धादिना व्यभिचारसम्भवात्। कारणविशेषश्च न कश्चिद्विपश्चिताऽपि निश्चेतुं शक्यः। चलदचलविपुलवपुषामुत्पलदलमलीमसत्विषामपि पयोमुचाममुक्तपयसामुपरमदर्शनात् ॥ यदि त्वन्त्यदशावर्ति कारणं लिङ्गमिष्यते। व्याप्तिस्मरणवेलायां कार्यप्रत्यक्षता भवेत् ॥ २४२ ॥' [सौगतमते कारणात्कार्यानुमानसंभवः] ननु ! सौगतैरपि कारणात् कार्यानुमानमङ्गीकृतमेव । 'हेतुना यः समग्रेण कार्योत्पादोऽनुमीयते। ' अर्थान्तरानपेक्षित्वात् स खभावोऽनुवर्णितः॥ इति (प्र.वा. 1-8)॥ अथ हेतुदोषानाह-सत्तायामित्यादि । सत्तायाः साध्यत्वेनासिद्धत्वात् सत्तायाः हेतोरपि सत्तारूपत्वात् स्वरूपासिद्धिः। . अभावधर्मत्वे तु साध्याभावव्याप्तत्वाद्विरुद्धः । उभयधर्मत्वे साधारणानैकान्त्यम् ॥ हेतुभूतं कारणमपि न निर्वक्तुं शक्यमित्याह-न चेति। न हि मृत्पिण्डवत्सु देशेषु सर्वत्र घटस्योत्पत्तिः संभाव्यते। निश्चेतुमशक्यत्व वाई-- चलदिति। चलदचलवत् विपुलपरिणामवतां नीलरोचिषामपि मेघानां अमुक्तपयसां सतामेवोपरमदर्शनात् । उपरमः--अवर्षणम्। तथा ह्याभाणकोऽपि–'अश्वप्लुतं वासवर्जितं च स्त्रीणां च चित्तं पुरुषस्य भाग्यम् । अवर्षणं चाप्यतिवर्षणं च देवो न जानाति कुतो मनुष्यः' इति ॥ ननु कार्याव्यवहितप्राक्काले कारणं यादृग्रूपविशिष्टं स्यात् , तापविशिष्टस्यैव कारणस्य कार्यानुमापकत्वमिष्टमिति चेत्-तत्राह--यदि विति । प्रत्यक्षता भवेत् -तदानीं कार्यस्योत्पन्नत्वात् ॥ समग्रेणेति । समग्रात् खलु हेतोरनन्तरस्मिन्नेव क्षणे कार्योऽवर्जनीयः, कारणान्तरानपेक्षणात् । कारणान्तरापेक्षायां हि समग्रत्वमेव न स्यात् ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] पूर्वबदनुमानम् 337 'अग्रन्थ'शो देवानां प्रियः ! उत्पाद्यतेऽस्मादित्युत्पादो योग्यता कथ्यते। सा चात्रानुमेया; अत एव तस्याः वस्तुनोऽनन्यत्वात् स्वभावानुमानमिदमिष्यते 'स स्वभावोऽनुवर्णितः' इति ॥ [सिद्धान्ते कारणात् कार्यानुमानसमर्थनम्] अत्राहुः--सर्वमिदमविदितानुमानप्रयोगक्रमस्य दुर्मतेश्वोद्यम् । न कार्यमत्र पक्षीक्रियते। न सत्ता साध्यते। न व्यधिकरणो हेतुः प्रयुज्यते । अपि तु पयोधरा एव धर्मिणः अदरकालभाविन्या वृष्टया तद्वन्तः साध्यन्ते विशिष्टोन्नतिरूपधर्मादियोगेनेति न पूर्वकथितदोषावसरः॥ यथा अग्निमानयं धूमः बहुलपाण्डुतादिधर्मयोगित्वात्महानसावधृतधूमवदिति धूम एवाग्निमत्तयाऽनुमीयते। एवं समनन्तरोत्पादितवृष्टयोऽमी जीमूताः, सातिशयोन्नत्यादिधर्मयोगित्वात्, पूर्वोपलब्धपर्जन्यवत् इति जलधरा एव भविष्यदृष्टिमत्तयाऽनुमीयन्ते । यथाऽऽह भट्टः-(श्लो. वा. 1-1-5-47) 'तस्माद्धर्मविशिष्टस्य धर्मिणः स्यात् प्रमेयता। सा देशस्यानियुक्तस्य, धूमस्यान्यैश्च कल्पिता' इति ॥ देवानांप्रियः- देवानांप्रिय इति मूर्खे' इति निपात:। देवानां क्रीडासक्तत्वेन मूर्खत्वात् तत्प्रियस्यापि मूर्खत्वमिति कैय्यटः । देवानां प्रियस्य छागस्याज्ञत्वाद्वा तथा। योग्यता-सामर्थ्यम् । तस्याः-योग्यतायाः ॥ तद्वन्तः - वृष्टिमन्त:, कीदृशवृष्टिमन्त:--अदूरकालभाविन्या वृष्टया वष्टिमन्तः । अनुमानाकारस्त्वनुपदमुच्यते ॥ कार्यस्य सिद्धप्रायत्वात्-समनन्तरोत्पादितेति । पूर्वोपलब्धेति । एतत्पूर्वमनुभूतेत्यर्थः। सा देशस्येति । अत्र न्यायरत्नाकरः-'सा च देशस्यैव, धर्मित्वादित्याह---सा देशस्येति। नैय्यायिकास्तु धूममेव धर्मीकृत्य तस्यैवाग्निविशिष्टस्यानुमेयतामाहुरित्याइ-धूमस्येति ॥ ग्रन्थ-ख. दि-क. 3 सस्य-ख. NYAYAMANJARI Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 अनुमानत्रैविश्वम् न्यायमचरी कारणात् कार्यानुमानोपपादनम्] यत्तु-पूर्व कारणमुच्यत इति-तत्सत्यम्। पूर्वमस्यास्तीति पूर्ववत् कारणगतमुन्नतत्वादिधर्मजातमुच्यते; तदेव लिङ्गमिति प्रन्थदोषोऽपि न कश्चित् । न च कारणमात्रस्य हेतुत्वं ब्रूमः, येनास्य विधु'प्रत्ययोपनिपातादिकृतः व्यभिचारः स्यात् । अपि च विशिष्टमेव कारणं हेतुः। न च कारणविशेषो दुरवगमः ; . गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिन्नगिरिगह्वराः। रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः ॥ २४३ ॥ 'तुङ्गत्तटिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः। वर्षि व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः ॥ २४४ ॥ अनभ्युपगमे चैव'म'नुमानस्य जीवितम् । न स्यात् धूमविशेषाणामपि बोद्धमशक्तितः ॥ २४५॥ कारणगतेत्यादि। 'पूर्वमस्यास्ति' इत्यत्र षष्ठ्याः सम्बन्धसामान्य. मर्थः-सम्बन्धश्च धर्मधर्मिणोः। अतश्च धर्मसम्बन्धी यथा धर्मी, तथा धर्मिसम्बन्धी धर्मो भवति । तथा च विशेष्यतया धर्मिविशिष्टः धर्मः पूर्ववत्पदार्थ इति भावः । ग्रन्थ शेषः-शब्ददोषः। विधुग्प्रत्ययः--विरोधिसामग्री। स्वरूपमात्रस्य कारणत्वे हि विरोधिसामग्रीकालेऽपि तस्मात् कार्य स्यात् । वयं तु न तथा ब्रमः । कारणमात्रं न फलोपधायक, अपि तु किञ्चिद्रपविशिष्टमेवेत्यर्थः । अपि च-अपि तु॥ __विशेषस्य सुगमत्वमेवाह --गंभीरेत्यादि। आरंभः-उपक्रमः । कार्ये दृष्टान्ता:-रोलम्बादयः। गवल:-महिषशृङ्गः। तुङ्गत् इति क्विबन्त:, विज़ुभन्त्य इत्यर्थः । अस्य सर्वस्यापि पयोमुचः इति विशेष्यम् । न स्यादित्यादि । धूमावह्नयनुमानं सर्वानुभवसिद्धम् । धूमोत्पत्यनन्तरक्षणे वनिर्वाणेऽपि उपरिदेशे धूमोपलंभात् वह्नयनुमितौ जातायां तत्र वनष्टत्वेन व्यभिचारात् धूमाद्वढ्यनुमितिर्वा कथं भवेत् । अतः कारणान्तरमूलकः क्वाचिस्कव्यमिचारः न दोषावह इति कारणात् कार्यानुमानमपि भवत्येव ॥ त्या-ख. नैव प्राय:-ख. 'मा-क. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाह्निकम् २] पूर्ववदनुमानम् 339. • [अनुमेयस्य परोक्षत्वम् ] यदपि कार्यप्रत्यक्षत्वमाशङ्कितम् (पु. 359)-तदप्ययुक्तम्न हि वृष्टयनुमानसमय एव शिरसि सलिलकणाः पतन्तः पयोदमुक्ता दृश्यन्ते ॥ 'परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम्' इति च विशेषणोपादानात् यत्र तत्र न तदानीमेव वृष्टिः प्रत्यक्षीभवति, तदुदाहरणं भविष्यति॥ अपि च अनु'प'जातावयवक्रियतयाऽनाशङ्कयमानविनाशेऽन्त्यतन्तौ जातया क्रियया पटनिष्पत्त्यनुमाने क्रियमाणे 'न पट'प्रत्यक्षता; काल'व्यवधानसम्भवात्। तथा हि-एकतस्तावदन्त्यतन्तौ क्रिया पयोदमुक्ताः सलिलकणाः इत्यन्वयः। कालस्यातिसूक्ष्मत्वात् किञ्चिदिव व्यवधानमपि संभाव्यमेवेति भावः॥ वस्तुतस्त्वेतदाशङ्काया अवसर एव नास्तीत्याह-परोक्ष इति । यत्र तत्र-यत्र क्वचित्। यद्वा-'यत्र न तदानीमेव वृष्टिः प्रत्यक्षीभवति तत्र' इत्यन्वयः। अयमर्थः --न हि स्वशीर्षोपरि मेघं पश्यत एवेदमनुमानं-- अनुमानस्य परोक्षविषयकत्वेन दूरोंत्तादृशमेधं दृष्ट्वा वृष्टयनुमानात् । अतश्चानुमितिकाले न वृष्टिप्रत्यक्षम् ॥ ननु स्वशीर्षोपरि मेघं पश्यतोऽप्यनुमानमनुभवसिद्धम्। मार्गे गच्छन् स्वोपरि कृष्णमेघ पश्यन् , अचिरागविष्यदृष्टिमनुमिमानः शीघ्रं गच्छति, निवर्तते वा। अनुमानकाले वृष्टेरभावात् तदानीं परोक्षविषयकत्वं निर्भधम् । अतश्च अनुमानकाले कार्यप्रत्यक्षापत्तिरूपो दोषो दुरपह्नव एव । न चैतदोषः प्रथमकल्पेऽनुपदमुक्ते नास्तीति स एवास्त्विति वक्तुं शक्यं ; कार्यसमर्थस्य कारणस्य कालक्षेपायोगात्। यदा सामग्री संपूर्णा तदा तदनन्तरक्षणे कार्य भवेदेव यावत्पर्यन्तं कार्य न दृश्यते तावत् सामग्री न मिलितेत्येव वक्तव्यम् । ततश्च व्यवधानपक्षोऽपि न साधीयान् इति शङ्कायां सदृष्टान्तं तं साधयतिअपि चेत्यादिना। अन्त्यतन्तौ क्रियोत्पत्तावपि अवयव्यन्तरे पटनाशकक्रियोत्पद्येत चेत् पटस्यैव नाशः स्यादित्यत:-अनुपजाते त्यादि । एकतः 'मान-क. पट-ख. काले-ख. 22* Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 अनुमानौविष्यम् न्यायमञ्जरी दर्शनम् , अविनाभावस्मरणम् , परामर्शज्ञानम् , अनुमेयप्रतीतिरिति त्रिचत्वारः क्षणाः। अन्यतस्तु-क्रिया, क्रियातो विभागः, विभागात्पूर्वसंयोगनिवृत्तिः, तत उत्तरसंयोगोत्पादः, ततः पट. निष्पत्तिः। निष्पन्ने पटे क्षणान्तरे रूपादिगुणारंभः-रूपादिजन्मनि पटस्य समवायिकारणत्वात् कारणस्य कार्यादवश्यं पूर्वकालभावित्वम् , अतो निष्पन्नोऽपि नूनमेकस्मिन् क्षणे नीरूपः पटो भवतीति न तदैव प्रत्यक्ष:-ततः क्षणान्तरे रूपोत्पादात् रूपवद्दव्यमिन्द्रिय सन्निकर्षात् प्रत्यक्षं भविष्यतीति अतिबहव एने क्षणाः। अतो न कार्यप्रत्यक्षत्वम् ॥ अनुमित्युत्पत्तौ। मध्ये परामर्शाङ्गीकारपक्षे चत्वारः क्षणाः, तदनङ्गीकारे तु प्रयः। अन्यतः-पटप्रत्यक्षोत्पत्तौ । निष्पन्न इति । पटस्य निष्पत्तिमात्रादपि न तत्प्रत्यक्षं, चाक्षुषप्रत्यक्षे रूपस्य कारणत्वेन तत्र रूपोत्पादस्यावश्यकत्वात् इत्यर्थः। क्षणान्तरे-पटोत्पत्त्यनन्तरक्षणे। ननु नेदमनुभवसिद्धम् , परः उत्पन्नः, तत्र रूपं स्वनिष्पन्नमिति । तादृशस्य पटस्य केनापि कुत्राप्यदर्शनात् । उत्पन्न: खलु पटः पटत्वविशिष्ट इव रूपादि वशिष्ट एवोत्पद्येत । अत: पटोत्पत्त्यनन्तरक्षण एव रूपोत्पत्तिर्न युक्तेत्यत्राह-रूपादिजन्मनीति । अयं भाव:-कार्यसामान्यं प्रति द्रव्यं समवायिकारणं, अतश्च पटगतरूपं प्रति पट एव समवायिकारणम् । कारणत्वं च नियतपूर्ववृत्तिल्वम् । ततश्च पटरूपोत्पत्तेः पूर्वक्षगे पटेन भाव्यमेव । तादृशस्य परस्य कुत्राप्यदर्शनात' इत्युक्तिरतिरमणीया! रूपशून्यं पटं को वा पश्येत् ? ननु पूर्वक्षणे तन्तव: अनन्तरं एटः, अनन्तरं पटे रूपं, अनन्तरं पटेन्द्रियसन्निकर्षः, अनन्तरं पटप्रत्यक्ष इतीयति क्रमे तन्तुकालानन्तरं मध्यकाले पटस्याप्रत्यक्षत्वेऽऽपादिते कः समाधिः । न हि मध्ये किञ्चित्कालं पट एव न दृश्यत इत्यनुभवसिद्धमेतदिति चेत् ; एकस्मिन् क्षणे उत्पलपत्रशतभेदन इव कालस्यातिसूक्ष्मत्वेन मध्येऽन्तरालाग्रहण पपत्तेः। अत: ‘उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठति' इति सुष्टकम् । अतिबहवः -- अष्टौ। एवञ्च अनुमितिश्चतुर्थक्षणे · जायते, प्रत्यस्तु अष्टमक्षणे जायते । अनुमितिक्षणे पटस्याभावाच न तत्प्रत्यक्षापत्तिः । अयमेव न्यायः कार्यस्थले सर्वत्र द्रष्टव्य इति ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलिकम् २] शेषवदनुमानम् 311 नापि विधुरप्रत्ययादिना कार्यानुत्पत्तिः। अनुत्पन्नावयवक्रियत्वविशेषणोपादानेन तद्विनाशाशङ्कनात्। क्रियातश्चोत्तरोत्तरकाणामवश्यं भावित्वात् ॥ कारणात् योग्यतानुमानं न साधु] यदपि ‘हेतुना य: समग्रेण' इत्यादिना योग्यताऽनुमान व्याख्यातम्-तदप्यसाधु-स्वभावानुमानस्य निरस्तत्वात् । लोकश्च कारणादविकलात् कार्यमेव कल्पयति, न योग्यतामित्यलं प्रसङ्गेन ॥ . [ 'शेषवत् 'पदव्याख्यानम् शेषवदिति-यत्र कार्येण कारणमनुमीयते-यथा नदीपूरेणोपरितने देशे वृष्टिरिदि। अत्रापि वृष्टिमदुपरितनदेशसंसर्गलक्षणो नदीधर्म: तद्धर्मेणैव विशिष्टन पूर्णतादिनाऽनुमीयते। वृष्टिमत्पृष्ठ देशसंसृष्टा इयं नदी - फेनिल कलुषत्वादिविशिष्टपूरोपेतत्वात्पूर्वोपलब्धैवंविधधुनीवत् ॥ अयं देशो वा वृष्टिविशिष्टदेशान्तरसंसृष्टः विशिष्टनदीपूरवत्त्वेनानुमीयत इति प्राक्तनचैयधिकरण्यादिवोद्यचक्रस्येहापि नास्ति प्रसरः॥ .. तद्विनाशाशङ्कनादिति । तेन हि विशेषणेन विरोधिसामग्रयभावः प्रदर्शित: इत्यर्थः। ननु भवता विशेषणदाने किं विरोधिसामग्री बिभ्येत ? इत्यत्राह-क्रियात इति। क्रियायाः क्षणचतुष्टयावस्थाननियमेन स्वकार्यस्य चावश्यनिर्वर्तनीयत्वेन मध्ये क्रियान्तरं न प्रविशेत्। एकस्यां हि शाखायां क्रियायामुत्पन्नायां क्रियायाश्चलनरूपत्वेन विभागपूर्वसंयोगनाशोत्तरसंयोगा: अनतिक्रमणीया एव । ननु तक्रियाया अव्यवहितपूर्वक्षणे विरोधिक्रियायां सत्यां कः प्रतीकारः ? इति चेत्, विरोषिक्रियाया भपि क्षणचतुष्टयावस्थानेन उक्तयुक्तीनां तुल्यत्वात् ॥ अनुमीयते । इत्यनन्तरं तत् शेषवदिति पूरणीयम्। 'सिद्धे हि कारणे नानुमेयं, असिद्धे खपुष्पवनानुमेयं' इत्यादिदूषणाभासं स्मरनाह-अत्रापीति। तद्धर्मेणैव-नदीधर्मेणैव ॥ विशिष्टेति। फेनिलकलुषत्वादिविशिष्टेत्यर्थः ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 अनुमानत्रैविण्यम [न्यायमचरी फलतस्त्वियं वाचो युक्तिः-कार्येण कारणमनुमीयते 'कारणेन कार्यमनमीयत इति: परमार्थतस्तु धर्मी धर्मवत्त्वेन धर्मवाननुमीयत इति स्थितिः। यदाह भट्टः (श्लो. वा. 1-1-5 अनु. 24) ‘स एव चोभयात्माऽयं गम्यो गमक एव च । असिद्धेनैकदेशेन गम्यः सिद्धन बोधकः' इति ॥ ननु सूत्रभाष्यादौ, 'कारणात् कार्यानुमानं पूर्ववत्, कार्यात् कारणानुमानं शेषवत्' इति कथ्यते ; भवता तत्तद्धर्मविशिष्टस्य धर्मिणः, देशत्य वाऽनुमानं तदित्युच्यत इति कथमिदमिति शङ्कायामाह--फलत इति। धर्मीत्यादि । कश्चिद्धर्मी केनचिद्धर्मेण किञ्चिद्धर्मवाननुमीयत इत्यर्थः । स एवेत्यादि । सोऽयं पक्ष एव उभयात्माहेतुविशिष्टस्वरूपः साध्यवत्स्वरूपश्चेति स एव गम्यः गमकश्च । एकस्यैव कथमुभयमित्यत्राह-असिद्धनेति। असिद्धेनैकदेशेन---धर्मेण, विशिष्टवस्तुन एकदेशो हि विशेषणम् , सः गम्यः-साध्यः, सिद्धेन चैकदेशेन-धर्मेण सः बोधकः-गमकः। अतश्च 'एकदेशविशिष्टश्च धर्खेवावानुमीयते ' (27 श्लो.)॥ अत्र 'रोधोपघातसादृश्येभ्यो व्यभिचारादनुमानमप्रमाणम् ' (२-२-३७) 'नैकदेशवाससादृश्येभ्योऽर्थान्तरभावात् ' (३७) इत्यत्र महर्षिणा अदनुमानपरीक्षणं कृतं तदत्रैव प्रसक्तत्वात्प्रदर्यते, न हि ग्रन्थकारेण सूत्रक्रम आद्रियते-- सूत्रयोश्चायमर्थः-कार्यात् कारणानुमानं न घटते । तद्धि, नदीपूरेण, पिपीलिकाण्डसंचारेण मयूररुतेन वा वृष्टयनुमानम् । एतत्सर्व व्यभिचरितमेव । नदीप्रवाहस्योपरि देशे सेतुबन्धादिनिरोधादपि वृष्टिशून्यकाले प्रवत् नदी। नीडोपघातादपि पिपीलिकाण्डसंचारो दृश्यते। मयूरवत् मनुष्येण कूजनमपि संभवेत् । अतो व्यभिचरितत्वात् कार्येण कारणानुमानं न संभवतीति प्रथमसूत्रार्थः ॥ अत्र प्रतिविधीयते द्वितीयसूत्रेण-नेति । कुतः ? प्रकृतानुमानहेतुभूतस्य नदीपूरस्य, पिपीलिकाण्डसंचारस्य, मयूरवाशितस्य च व्यभिचारिभ्यः एक देशवाससादृश्येभ्यो विलक्षणत्वात् । रोधोपघाताजातः खलु प्रवाह: एकदेशः-अल्पः, यावान् यथा च प्रभूतवर्षात् नदी प्रवहति न तथा रोधेन । वृष्टे: प्राक् पिपीलिकाण्डसंचार: यादृशः न तादृशः सार्वत्रिकः त्रासात् भवति । इति-ख. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडिकम् २] शेषषदनुमानम् 348 [कार्यानुमाने दोषोद्धारः] यत्तु सेतुभङ्गहिमविलयनादिनाऽपि नदीपूरोपपत्तिदृष्टेतितत्राप्युच्यते आवर्तवर्तनाशालिविशालकलुषोदकः । कल्लोलविकटास्फालस्फुरत्फेटच्छटाश्चितः ॥ २४६ ॥ वहद्बहलशैवालवनशाद्वलसङ्कलः। नदीपूरविशेषोऽपि शक्येत न 'न' वेदितुम् ॥ २४७ ।। प्रमातुरपराधोऽयं विशेष यो न पश्यति । नानुमानस्य दोषोऽस्ति प्रमेयाव्यभिचारिणः ॥ २४८ ॥ रोधोपघातसादृश्यव्यभिचारनिबन्धनम्। अनुमानाप्रमाणत्वमतो वक्तुमसांप्रतम् ॥ २४९ ॥ पारंपर्येण वृष्टिश्च नदीपूरस्य कारणम्। पतद्धनपयोबिन्दुसन्दोहस्यन्दनक्रमात् ॥ २५० ॥ यादृशं मयूरवाशितं, न तादृशं पुरुषस्य । मन्दमतिभिरेषां वैलक्षण्याग्रहणे पुरुषस्यापराधोऽयं न हेतोः । अत: विलक्षणात् कार्यात् कारणानुमान युक्तमेवेति द्वितीयसूत्रार्थः ॥ - तदेतत्सर्व संगृह्णाति-यत्त्वित्यादि । प्रतिरुद्धस्य जलस्य प्रवहणहेतुः उक्तः-सेतुभङ्गः । एवमन्यदप्यूह्यमित्याह-हिमेत्यादि । सेतुभंगप्रावाहापेक्षया प्रवर्षजवृष्टे_लक्षण्यमाह-आवर्तेत्यादि । वर्तना--स्थितिः । ननु वृष्टेः प्रवाहस्य च कार्यकारणभावो नास्त्येव। वर्षणं नाम माकाशात् जलकणिकापतनम् । तस्य च कथं महाप्रवाहहेतुत्वम्। वृष्टिः खलु भूप्रदेशे। तस्मात्प्रसूतानां कुल्यादीनां नयां पतने नदी प्रवहते। अत: उभयोः कार्यकारणभावाभावात् कथमेतदनुमानम् ? इत्यत्राह-पारंपर्येणेति । पारंपरिकत्वमात्राम कारणत्वहानिः, व्यवहाराधीनत्वात् कार्यकारणभावस्य । म्यवहरति च तथैव सर्वोऽपि लोक इत्यर्थः ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 अनुमानत्रैविध्वम् [न्यायमचारी [सामान्यतोदृष्ट' पदव्याख्यानम्] - सामान्यतोदृष्टं तु-यत् अकार्यकारणभूताल्लिङ्गात् 'तादृशस्यैव लिङ्गिनोऽनुमानम्-यथा कपित्थादौ रूपेण रसानुमानम् । रूपरसयोः समवायिकारणमेकं कपित्थादिद्रव्यम् , न तु तयोरन्योन्यं कार्यकारणभावः॥ शाक्यदृष्टयाऽपि वर्तमानयोः क्षणयोः इतरेतर कार्यकारणता न सम्भवत्येव ॥ धर्मिणश्च रूपवत्त्वेन रसवत्ताऽनुमानात् असिद्धयादिचोद्यानां पूर्ववदनवकाशो वक्तव्यः ॥ [भाष्यमदर्शितसामान्यतोदृष्टानुमानविमर्शः] यन्पुनर्भाष्यकारेण भास्करस्य देशान्तरप्राप्तया गत्यनुमानमुदा. हृतं-तदयुक्तम्-देशान्तरमार्गति'कार्यत्वात् कार्येण' कारणानुमानं शेषवदेवेदं स्यात् ॥ तादृशस्य कार्यकारणभावशून्यस्य ॥ शाक्येत्यादि । धर्मधर्मिभावमनभ्युपगच्छतोऽपि बौद्धस्य रूपक्षणरसक्षणयोः परस्परं कार्यकारणभावो न सम्मत इति चेत,' धर्म्यतिरिक्त धर्ममभ्युपगच्छतां सैद्धान्तिकानां का कथेति भावः॥ धर्मिण इत्यादि। कश्चिद्धर्मी केनचिद्धर्मेण किञ्चिद्धर्मवानेवानुमीयत इत्यादि पूर्वमेवोक्तम् ॥ गत्यनुमानं-- एकस्मिन् देशे दृष्टस्य देशान्तरे दर्शनं तद्वस्तुनः क्रिया. मनुमापयति । प्रात: पूर्वदिशि दृष्टस्य सूर्यस्य सायं पश्चिमदिशि दर्शनं सूर्यस्य देशान्तरमाप्तिमूलकं, तच्च गतिपूर्वक मिति–सूर्यः गतिमान् पूर्वकालिकदर्शनावच्छेदकदेशमिनदेशावच्छेदेन दर्शनविषयत्वात् -- इत्यनुमानं भाष्ये उक्तम् ॥ 1 तल्लि-क. कारणता-क, पौ-क. कार्येण-क. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 345 आह्निकम २ सामान्यतोदृष्टानुमानम् अपि च देशान्तरप्राप्तिर्देशान्तरसंयोगः। न च दशशतांशोदेशान्तरेण शैलादिना संयोगः संभवति। नभला तु भवन्नपि दिशा वा दुर्लक्ष्यः, प्रत्यक्षेतरवृत्तित्वात् ; पवनवनस्पतिसंयोगवत् मातृगर्भसंयोगवद्वा॥ ____ अथ देशान्त'रे' तरणिदर्शनं हेतुरुच्यते, तस्यापि गतिकार्यता पारम्पर्येण विद्यत एव-गत्या प्राप्तिः, प्राप्तया च तत्र दर्शन मिति ॥ अथ देशान्तरे तपन दर्शनं पक्षीकृत्य दर्शनत्वेन च, दर्शनशब्दवाच्यत्वेन 'वा तस्य गतिपूर्वकत्वमनुमीयते-देशान्तरे दिवाकरदर्शनं गतिपूर्वकम, देशान्तरदर्शनत्वात्-तच्छब्दवाच्यत्वाद्वा, देवदत्तदेशान्तरदर्शनवदिति ; तथापि पारम्पर्येण गतिकार्यता न निवर्तत एव । न हि दर्शनत्वं गोत्वादिवत् सामान्यमस्ति; किन्तु भावप्रत्ययेनात्र दर्शनोत्पादिका शक्तिरुच्यते। सा च नातीन्द्रिया वस्तुत: सूर्यस्य देशविशेषप्राप्तेहेतुत्वमेवासंभवीत्याह-अपि चेति । दशशतांशुः-सहस्रकिरणः सूर्यः। उदयाचलायभिप्रायेण-शैलादिनेत्युतम्। अयमर्थः ---अत्र देशपदार्थः भूविशेषः? उताकाशः ? उत दिक् ? नाय: तपोसम्बन्धाभावात् । नान्त्यौ, आकाशदिशोरतीन्द्रियत्न संयोगिनोरन्यतरस्यातीन्द्रियत्वे तत्संयोगस्याप्यतीन्द्रियत्वात् । वायुवृक्षसंयोगवत् , मातृगर्भसंयोगवद्वा। तथा च देशान्तरप्राप्तेरतीन्द्रियत्वेन न तेन सूर्यगत्यनुमानं संभवेत् । नभसा दिशा वा तु–इत्यन्वयः ॥ अथेति । देशपदार्थः यः कोऽपि भवतु, देशान्तरे दृष्टस्य देशान्तरे दर्शनं तु दुरपह्नवमित्यर्थः ॥ पूर्वोक्तदिशा देशान्तरस्यैवातीन्द्रियत्वे देशान्तरदर्शनमप्यसंभवीत्यत:दर्शनशब्दवाच्यत्वेनेति। न ह्यत्र गतिपूर्वकस्वस्य दर्शनस्य च कार्यकारणभावोऽस्ति, दर्शनं प्रतीन्द्रियादेरेव कारणस्वादिति भावः । गतिकार्यतेति । हेतुभूतस्य दर्शनत्वस्येति शेषः । पारंपर्येण गतिकार्यत्वं दर्शनत्वस्योपपादयति-. न हीति। दर्शनत्वं-देशान्तरे दिनकरदर्शनम् । तथा च ज्ञानत्वं प्रत्यक्षत्वं वा जातिरूपं भवेदपि, देशान्तराधिकरणकदिनकरविषयकचाक्षुषस्वरूपं 'र-क. उपवने-ख, तप-क. च वा-ख. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 प्रकारान्तरेण अनुमानत्रैविध्यम न्यायमञ्जरी नित्या काचित् ; अपि तु स्वरूपसहकारिस्वभावैवेति 'दृश्यमानं स्वरूपमपि शक्ति वर्ग पतति । दृश्यमानं च देशान्तरप्राप्तयात्मकमिति गतिकार्यम् ॥ ___ एवं दर्शनशब्दवाच्यत्वेऽपि हेतूकृते वक्तव्यम् । गत्या देशान्तरप्राप्तिर्जन्यते, तया तत्र दर्शनम् , तेन शब्दप्रयोगः, स एव वाच्यत्वमिति भावप्रत्ययेनोक्तः। तस्मात् सर्वथा गतिकार्यत्वानपायात् शेषवदेवेदमनुमानम्॥ तदेतद्भाष्यकारीयमुदाहरणमीदृशम् । .. रूपाद्रसानुमानं तु तस्माद्युक्तमुदाहृतम् ॥ २५१ ॥ अकार्यकारणप्रायहेतूनां च प्रदर्शितः। भदन्तकलहेऽस्माभिरुदाहरणविस्तरः ।। २५२ ॥ [प्रकारान्तरेण सूत्रव्याख्यानम् ] एवं तावन्मतुब्ब्याख्यया त्रैविध्यमनुमानस्य वर्णितम्। एतत्त फल्गुणाय मिव मन्यन्ते । नियमात्मकसम्बन्धबलादेव लिङ्गस्य गमकत्वमुक्तम , न कार्यादिस्वरूपेण । तत्किमीशत्रैविध्येन दर्शितेनेति वतिप्रत्ययमाश्रित्यान्यथा व्याचक्षते ॥ तादृशदर्शनत्वं तु नीलघटस्वादिवत् न जाति:, अन्यथा देवदत्तदेशान्तरदर्शनस्वादीनामपि जातिरूपताप्रसङ्गः ॥ शेषवदेवेति । वाचस्पतिमिश्नोऽप्येवमेवाह । परन्तु सूर्यगतेः नित्यातीन्द्रियत्वेन न कदापि तत्र गतिदेशान्तरप्राप्तयादीनां कार्यकारणभावः गृहीतुं शक्य इत्येतावन्मात्रेण तस्य सामान्यतोदृष्टत्वमुक्तं भाष्ये। उत्तरत्रापि (पु. 348) इदं द्रष्टव्यम् ॥ भदन्तकलहे-बौद्धमतनिराकरणे (पु. 307) ॥ न कार्यादीति । तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामनुमान बौद्धानामेव, तत्तु खण्डितमेवेति वस्तुगत्या पन्नपि कार्यकारणभावः प्रकृतेऽनुपयुक्त एवेत्यर्थः ॥ 1दृश्यमानं-ख. क-क. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २ ] प्रकारान्तरेण पूर्ववदावनुमानम् 347 पूर्ववदिति । अत्र सम्बन्धग्रहणकाले लिङ्गलिङ्गिनोः प्रत्यक्षतः स्वरूपमवधार्य पुनस्तादृशैव लिङ्गेन तादृगेव लिङ्गी गम्यते, तत् पूर्वेण तुल्यं वर्तत इति पूर्व' वदनुमानम् । यथा - महानसे धूमानी सहचरितौ दृष्ट्वा पुनः पर्वते ॥ धूमाग्नयनुमानम् [' पूर्ववत्' इत्यत्र ' वति' प्रत्ययोपपादनम् ] ननु ! प्रत्यक्ष प्रतीत्या विषयगत सकल विशेष साक्षात्करणक्षमया तुल्या नानुमानिकी मतिरिति कथं क्रियातुल्यत्वम् ? तदभावात् कथं वतिः ? सत्यमेवम - तथाऽपि बहेरेव तादृशस्य वैलक्षण्यापादक. विशेषावच्छिन्नस्य लिङ्गेन ग्रहणात् अदूरविप्रकर्षेण क्रियातुल्यत्वमुपपत्स्यते ॥ . पूर्वेणेति- -- तथा च ' तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः' इति हि वतिः ॥ ननु 'क्रिया चेत्' इति सूत्रणात् क्रियाप्रयुक्ततौल्यमेव तत्र विवक्षितम् । प्रकृते च प्रत्यक्षस्य विषयप्रकाशनक्रिया यादृशी न तादृशी अनुमानस्य । प्रत्यक्ष हि स्वविषयं विशदत्तममुपस्थापयेत, अनुमानं तु विशदतरमेव । प्रत्यक्षस्यापरोक्षज्ञानत्वात् प्रत्यक्षेण वह्निग्रहणकाले तद्गतपरिमाणरूपस्पर्शसंख्यादिविशिष्ट भासते, न तथाऽनुमाने । अनुमानं हि परोक्षप्रमितिजनकम् । अतस्तुल्यक्रियत्वाभावान्न तुल्यार्थे वतिः प्रकृते युज्यते इति शङ्कते -- नन्विति । सत्यमिति । अयं भावः -! - पुरोवस्थितधर्मिणि यावन्तो धर्मा वर्तन्ते ते सर्वेऽपि न प्रत्यक्षेsपि भासन्ते । अतीन्द्रियाणां गुरुत्वादीनां तत्र भानासंभवात् । ऐन्द्रियकेष्वपि न सर्वे भासन्ते, किन्तु पुरुषापेक्षानुगुणमेव । न हि वह्निप्रत्यक्षत्वस्थले सर्वत्र तद्गततार्णत्वादिकमपि भासते । एवञ्च यावदपेक्षितधर्मविशिष्ट धर्मी प्रत्यक्षे भासते । अनुमितावपि तादृश एव भासते । प्रत्यक्षदृष्टवह्निसजातीयवह्निः खल्वनुमेयः । एवञ्च प्रत्यक्षानुमानयोरिदमेकमेव परं वैलक्षण्यं, आद्यं अपरोक्षजनक, द्वितीयं परोक्ष जनकम् । एवं स्वरूपवैलक्षण्ये सत्यपि विषयप्रकाशनांदो नात्यन्तवैलक्षण्यम्, संशयविपर्ययाद्यतीतप्रारूपत्वादुभयोरपि । अतश्च प्रत्यक्षानुमानयो: विप्रकर्षः - वैलक्षण्यं विषयप्रकाशन – नाती वर्तत इति पूर्ववत् - प्रत्यक्षतुल्यं अनुमानं भवत्येव ॥ ' पूर्व-क. 2 क्षात्का - क. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 अनुमानत्रैविध्यम् न्यायमारी [' शेषवत् 'पदव्याख्यानम् ] शेषवनाम परिशेषः। स च प्रसक्तप्रतिषेधे अन्यत्राप्रसङ्गात शिष्यमाणे संप्रत्ययः। यथा-क्वचित्प्रदेशे धूमेनाग्निमात्रेऽनुमिते, किमिन्धनोऽयमग्निः इति विमर्श प्रसक्तानां तृणपर्णकाष्ठादीनां अग्रसङ्गाच्च गोमयेन्धनोऽग्निः परिकल्प्यते। यथा वा-शब्दे द्रव्यकर्मत्वप्रतिषेधात सामान्यादावप्रसङ्गाच्च गुणत्वानुमानं वक्ष्यते ॥ .. [सामान्यतोदृष्ट' पदव्याख्यानम्] - सामान्यतोदृष्टं तु-यत्र सम्बन्धकालेऽपि 'लिङ्गि'स्वरूपमप्रत्यक्षं-नित्यपरोक्षमेव सामान्यतो व्याप्तिग्रहणादनुमीयते- यथा शब्दाधुपलब्ध्या श्रोत्रादि करणम्। इन्द्रियाणामीन्द्रियत्वात न कदाचित् प्रत्यक्षगम्यत्वम् । अथ च छेदनादिक्रियाणां परश्वधादिकरणपूर्वकत्वेन व्याप्तिग्रहणात् शब्दाद्युपलब्धिक्रियाणां 'करणपूर्वकत्वमनुमीयते ॥ [अनुमानानां प्रत्यक्षपूर्वकत्वेऽपि त्रिविधत्वोपपादनम् ] अत्र 'वति 'व्याख्याने चोदयन्ति । पूर्ववदेवमेकमनुमानमुक्तं स्यात्, न त्रिविधम् । यतो न तावदनवगतव्याप्तिकं लिङ्गं अग्निमात्रे--- अग्निसामान्ये । गोमय --- 'गोश्च पुरीषे' इति मयट् । प्रकृते शुष्कं गोमयं -- करीषो विवक्षितः । अयं परिशेषः प्रत्यक्षमूलक एव बहुल इत्यतो दृष्टान्तान्तरमाह-द्रव्येत्यादि । शब्दो गुणः द्रव्यादिषट्कानात्मकत्वे सति पदार्थत्वात् इति परिशेषानुमानम्। तत्र, शब्दो न द्रव्यं, एकद्रव्यसमवेतत्वात् ; न कर्म स्वसजातीयशब्दान्तरजनकत्वात् ; न सामान्यादि: जातिमत्वात् इत्यनुमान ज्ञेयम् । विस्तरस्तु तत्प्रकरणे वक्ष्यते ॥ सम्बन्धकाले -- सम्बन्धग्रहणकाले। सम्बन्धः-ध्याप्तिः। कदाचित्-कदाचिदपि। छेदनादि परश्वधादि इति निदर्शनार्थम् । तथा च क्रियाणां करणपूर्वकत्वनियमादित्यर्थः। क्रिया-धास्वर्थः ॥ एवं-'पूर्ववत् 'पदस्य एवं व्याख्याने । पूर्वोक्तं सर्वमप्यनुमान लिङ्ग-ख. 'करणपूर्वकत्वेन व्याप्तिग्रहणात् शम्दाधुपलग्धिक्रियाणां करण-क. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] अनुमानत्रैविध्याक्षेपपरिहारौ गमकं भवति । विशेषाणामनन्तत्वेन च तदन्वयव्यतिरेकयोर्दुरवगमत्वात् सर्वत्र सामान्येनैव व्याप्तिग्रहणम् । यच्चेत्थं व्याप्तिज्ञानं तत्तुल्यं त्रितयेऽपि । अतः सर्व पूर्ववदेव स्यात् ; वतेः सर्वत्र संभवात् ॥ तदेतदयुक्तम् - अवान्तर विशेषस्य सुस्पष्टस्य भावात् । 'व्याप्तिपूर्वकमनुमानम्' इत्येतावता यद्येकविधमुच्यते - तत्सत्यमेवं प्रकारमेवेदम् । तस्मिन् सत्यपि तु साम्ये भेदान्तरसंभवात् वैविध्यमस्य प्रतिपाद्यते ॥ 349 तथा हि-धूमज्वलनयोः पूर्व प्रत्यक्षेण ग्रहणात् इदानीं तेनैव धूमेन स एवाग्निरनुमीयत इति पूर्ववदिदमनुमानमुच्यते - यत् प्रत्यक्ष पूर्वकमिति प्रसिद्धम् ॥ प्रत्यक्षपू.कमेव, दृष्टम्, पूर्वदर्शनानुरोधेनैवानुमानप्रवृत्तेः सर्वं पूर्ववदेवेति इत अनुमाने नावशिष्येते इत्यर्थः । ननु पूर्ववदनुमानं वह्निधूमादिव्यक्तिविषयकं, सामान्यतोदृष्टं तु न व्यक्त्याश्रितं, किन्तु सामान्याश्रितमित्यस्ति विशेष इति चेत् तत्राह - विशेषाणामिनि । वह्निधूमव्यक्तीनाम सर्वज्ञदुर्विज्ञेयत्वेन तत्रापि व्याप्तिः सामान्याश्रितैवोपपादिता पूर्वमेव ॥ अवान्तरेत्यादि । अयं भावः - ' । पूर्ववत्' पदेन प्रत्यक्ष पूर्व कत्वमात्रं नोच्यते ; तस्य सामान्यलक्षणरूपत्वेन अनुमानत्रयानुगतत्वात् । किन्तु प्रत्यक्षपूर्वकत्वेऽपि किञ्चित्किञ्चिद्वैलक्षण्यात् विभागः प्रदर्शितः । विभागस्थले सर्वत्रापि खल्वेवमेव । तत्र यज्जातीययोर्व्याप्तिदर्शनं तज्ज्ञातीयस्यैव साध्यस्य सिद्धि: पूर्ववदित्युच्यते । महानसे दृष्टजातीयस्यैव वह्नेः पर्वतेऽनुमानात् । नात्र साध्यं सर्वदाऽतीन्द्रियम् ; व्याप्तिग्रहणवेलायां, पर्वतसमीपगमने वा प्रत्यक्षमेव तत् । • सामान्यतोदृष्टानुमाने तु साध्यं सर्वदाऽतीन्द्रियमेव, दृष्टसजातीयमपि न । न हि यादीनां छेदन करणत्वं यादृशं तादृशमेव उपलब्धिकरणत्वं श्रोत्रस्य । छेदनक्रियातोऽत्यन्तविलक्षणा हि ज्ञानरूपक्रिया । अतस्तत्र दृष्टसजातीयत्वं नास्त्येव । नदियो धूमवान् स वह्निमान् इतिवत् यः शब्दसाक्षात्कार: स: श्रोत्रकरणकः इति हेतुसाध्यव्यक्तयोर्व्याप्तिरवगन्तुं शक्यते श्रोत्रेन्द्रियस्यातीन्द्रियत्वात् । तथा च पूर्ववदनुमाने व्यक्तयोरेव व्याप्तिः, अनुगमकतया तु सामान्यं प्रविशते । सामान्यतोदृष्टानुमाने तु सामान्यमेव पुरतो भाति, आश्रयतया परं व्यक्तिभानमिति अनुभववैलक्षण्यमस्तीति । परिशेषानुमानस्य वैलक्षण्यं तु स्पष्टमेव ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 अनुमानत्रैविध्यम् ( न्यायमभरी • ननु ! धूमान्तरेण वह्नयन्तरानुमानं किं न प्रत्यक्षपूर्वकम् ? क एकमाह-न पूर्ववदिति । कथं तहींदमुच्यते - तेनैव धूमेनेति ? जात्यभिप्रायमेतदुच्यते, न व्यक्तयभिप्रायम् ॥ ननु ! सामान्यतस्तर्हि तत्परिच्छेदात् सामान्यतोदृष्टमेवेदं स्यात् न-- सामान्यतोदृष्टस्य नित्यपरोक्षानुमेयैक विषयत्वात् ॥ प्रसक्तप्रतिषेधादिना च नियतसाध्यपरिच्छेदहेतुः परिशेषानु-मानमुच्यते - यथा गोमयेन्धनदहनानुमानमुदाहृतम्, शब्दे वा गुणत्वकल्पनम् ॥ सामान्यतोहं तु नित्यपरोक्ष विषयमुदाहृतमेव श्रोत्राद्यनुमानम् । तदेवं भेदसंभवात् त्रिविधमनुमानमिति युक्तम् ॥ [ एकस्मिन्नपि विषये त्रिविधानुमानसंभवः ] आस्तां वा उदाहरणभेदः । एकत्राप्युदाहरणे वैविध्यमभिधातुं शक्यते । यथा - इच्छादिकार्य-आश्रितम् कार्यत्वात् घटवत् इत्याश्रयमात्रे साध्ये पूर्ववदनुमानम् ! प्रसक्तशरीरेन्द्रियाद्याश्रयप्रति ' तेनैव धूमेन' इत्यादेस्तद्व्यक्तिपरत्वं भ्राम्यन् पृच्छति - नन्विति ॥ अत्र आदिपदेन अन्यत्राप्रसङ्गस्य ग्रहणम्, प्रतिषेधमात्रं तु तुच्छस्यापि वर्तते । यथेत्यादि । अयं वह्निः गोमयेन्धन तृणाद्यजन्यत्वे सति इन्धनजन्यत्वात् ; शब्दः, गुणः, द्रव्यायनात्मकत्वे सति प्रमेयत्वात् इत्यादौ हि हेतु माध्यव्यक्त्योर्व्याप्तिरेव नास्ति, नापि अतीन्द्रियसाध्यकत्वम् । परिशेषस्वरूपं तु तत्प्रकरणे (१० आह्निके) परीक्ष्यते ॥ इच्छादीति । इच्छादिकं आत्माश्रितं आत्मव्यतिरिक्तानाश्रितत्वे सति आश्रितत्वात् इति परिशेषानुमाने विशेष्यासिद्धिवारणाय - इच्छादि, आश्रितं, कार्यत्वात् घटवत् इति प्रयोगे इदं पूर्ववदनुमानम् । अत्र - -यदितरानाश्रयत्वे सति आश्रितत्वं यत्रं तत्र तदाश्रितत्वं, कपालेतरानाश्रितः आश्रितश्च घटः कपालाश्रितः इति व्याप्तेः प्रयोगात् सामान्यतोदृष्टमपि भवति, विशेषव्याप्तेदुर्वचत्वात् साध्यनिविष्टः आत्मा हि अतीन्द्रियः । यद्यपि तत्तदात्मा तस्य तस्य प्रत्यक्षः, अथापि भात्मसामान्यस्यैव साध्ये निविष्टत्वात्तदती Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] प्रभाकरोक्तसामान्यतादृष्टानुमानम् 361 षेधेन विशिष्टाश्रयकल्पने तदेव परिशेषानुमानम्। अनुमेयस्य नित्यपरोक्षत्वात् तदेव सामान्यतो'दृष्टं च ॥ तह परिशेषानुमानस्य सामान्यतोदृष्टस्य च को विशेषः ? उच्यते --परिशेषानुमानप्रवृत्तावन्यः पन्थाः; सामान्यतोदृष्टस्यान्यः । इच्छादिकार्य देहादिविलक्षणाश्रयम् - शरीरादिषु बाधकप्रमाणोपपत्तौ सत्यां कार्यत्वादिति सामान्यतोदृष्टस्य क्रमः। परिशेषानुपानस्य वित्थं प्रवृत्तिः--इच्छादेराश्रयत्वेन प्रसक्तानि शरीरेन्द्रियमनांसि निषिध्यन्ते, दिक्कालादौ च तत्प्रसङ्गो नास्ति, तत्पारिशेष्यादात्मैव तदाश्रय इति। परिशेषानुमाने च सर्वत्र नैध नियमः-- साध्यस्यातिपरोक्षत्वमिति; गोमयाग्निकल्पनादिदर्शनात् । सामा. न्यतोदृष्टं तु नित्यपरोक्षविषयमेवेति सूक्तं वैविध्यम् ॥ __ . [प्रभाकरोक्तसामान्यतोदृष्टानुमानम् ] अपरे पुनः अदृष्यस्वलक्षणविषयं शक्तिकियानुमानं सामान्यतोदृष्टमुदाहरन्ति; देवदत्तादावपि क्रियायाः परोक्षत्वात् । न्द्रियत्वम् । विशिष्टाश्रयः-आत्मरूपः ॥ को विशेष इति । हेतुमाध्यव्यक्त्योाप्तयग्रहणेन पूर्ववतो वैलक्षण्यसत्वेऽपि सामान्तोदृष्टान्न विशेषः, अतीन्द्रियसाध्यकस्य तौल्यादित्यर्थः । अन्यः पन्था इत्यादि। प्रसक्तप्रतिषेधः परिशेषानुमानस्यासाधारणं कृत्यम् । '. तेन शिष्यमाणे संप्रत्ययश्च । सामान्यतोदृष्टे तु अन्यप्रसक्तिरेव न इति विशेषः ॥ शबरस्वामिना--'तत्तु द्विविध ; प्रत्यक्षतो दृष्टसम्बन्धं, सामान्यतो दृष्टसम्बन्धं च' इत्युक्त भाष्ये । एतयाख्यातृभिः प्रभाकरमित्रैः बृहत्या-'अदृष्टस्वलक्षणविषयमनुम नमस्ति क्रियादिषु' इत्युक्तम् । बृहतीव्याख्यातृभिः शालिकनाथश्च'क्रियादिषु क्रियायो शक्तौ च इत्यनेन बृहत्युक्तेन 'आदि पदेन शक्तेस्संग्रहः प्रदर्शितः। प्रकरणपञ्चिकायां च अयमर्थ: विस्तरेण निरूपितः । एतत्सर्वमालोड्याह -अपरे पुनरिति । स्वलक्षण-स्वासाधारणं स्वरूपम् । ननु भाष्ये 'सामान्यतोदृष्टसम्बन्धं यथा-- देवदत्तस्य गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्तिमुपलभ्यादित्यगतिस्मरणम्' इति कथनात् देवदत्तक्रियायाः प्रत्यक्षत्वमुक्तम् , तत कथं क्रियाया अनुमेयत्वम् ? इत्यत्राह-देवदत्तादावपीति । 'संख्य, 'दृष्टमुच्यते-क. ननु परिशेषस्य-ख. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 अनुमानत्रैविध्यम् [न्यायमञ्जरी चलतीति प्रत्यये हि न देवदत्तस्वरूपातिरिक्तक्रियातत्वप्रतिभासः ॥ य एव देवदत्तात्मा तिष्ठत्प्रत्ययगोचरः। चलतीत्यपि संवित्तौ स एव प्रतिभासते ॥ २५३ ॥ अविरलसमुल्लसत्संयोगविभागप्रबन्धविषयत्वाञ्चलतीतिप्रत्य - यस्य न सर्वदा तदुत्पादः ॥ __ कथं तर्हि नित्यपरोक्षे क्रियास्वलक्षणेऽनुमानं क्रमत इति चेत् ? कार्यस्य कादाचित्कत्वेन कारणपूर्वकत्वात् परिदृश्यमानस्य द्रव्य स्वरूपस्य कारणत्वे सर्वदा कार्योत्पादनप्रसङ्गात् सर्वदा तत्स्वरूपसद्भावात् , न च सर्वदा कार्यमुत्पद्यत इति तदतिरिक्तक्रियानुमानम्॥ भावात् ' (1-1-20) इति सूत्रभाष्ये 'बुद्धिकर्मणी' इति प्रकृत्य न हि ते प्रत्यक्षे' इति स्पष्टं बुद्धेरिव कर्मणोऽप्यप्रत्यक्षत्वमुक्तम् । भाष्यकारोऽपि आद्यानुमाने 'प्रत्यक्षत' इति विशेषयन्निदं द्रढयति । अतश्च प्रकृते देवदत्तक्रियाऽप्यनुमेयैव भाष्यकारसम्मता : लोके सवैनिश्चितत्वात् तस्या दृष्टान्तत्वेनोपादानम् । अत्र च ' उपलभ्य' इति पदं देशान्तरप्राप्तिमात्रेऽन्धेति । 'धूमावह्निमुपलभ्य' इत्यादाविवानुभवसामान्यपरं वा । अत: कर्माप्रत्यक्षमित्येव भाष्यकारसम्मतमिति । ननु लोके क्रियाविषयिणी चलतीत्यादिप्रतीतिर्दृश्यते । भाष्यकारो वा अनुभवविरुद्धं कथं ब्रयादित्यत्र-कर्मप्रत्यक्षत्वं युक्तिविरुद्धमिन्याह-- चलतीत्यादि। न हि चलतीति प्रत्ययमांत्रेण देवदत्ते उपचयो वाऽपचयो वा कश्चन अतिरिक्तो विशेषो दृश्यते । अतः. देवदत्ते कर्म न प्रत्यक्षम् । किन्तु तस्य तद्धस्तादेर्वा देशान्तरप्राप्तिः प्रत्यक्षा, तया च क्रियाऽनुमीयत इति ॥ ननु यदि तिष्ठञ्चलदेवदत्तयोर्न कोऽपि विशेषः तर्हि तिष्टत्यपि देवदत्ते चलतीति प्रत्ययापत्तिः---इत्यत्राह -- अविरलेति । एकस्यां क्रियायामुत्पन्नायां हि क्रिया, क्रियातो विभागः, तत: पूर्वसंगोगनाश:, तत उत्तरदेशसंयोग इति शृंखलाऽवर्जनीया। अत उक्तं अविरलेति प्रबन्धेतिच। एवञ्च विभागोत्तरदेशसंयोगादिकं परं प्रत्यक्षं न तु तदतिरिक्ता काचित्क्रिया प्रत्यक्षा । उत्तरदेशसंयोगश्च उत्तरदेशप्राप्तिरेव । अतस्सुष्टुक्तं देशान्तरप्राप्तया क्रियाऽनुमीयत इति । नित्यं परोक्षे इत्यर्थः । एवं तर्हि क्रियाया अनङ्गीकारे वा का हानिः इति भावः। समाधत्ते--कार्यस्येत्यादि। देशान्तरप्राप्ति- . रूपस्येति शेषः । द्रव्यस्वरूपस्य-द्रव्यस्वरूपमात्रस्य । तथा च उत्तरदेश Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम् २] क्रियायाः प्रलक्षत्वसमर्थनम् 363 एवं शक्तावपि द्रष्टव्यम्। क्रियाशक्तिस्वरूपस्य च नित्यपरो. क्षत्वात् तददृष्टस्वलक्षणविषयमनुमानमुच्यते, न तु विशेषविषयम; विशेषव्याप्तग्रहणस्यासंभवादिति ॥ [क्रियायाः प्रत्यक्षत्वम् ] तदिदमनुरपन्नम्-परिस्पन्दरूपस्योत्क्षेपणादिभेदवतः कर्मणश्चलत्यादिप्रतीतौ प्रकाशमानत्वेन प्रत्यक्षत्वान् न तस्य नित्यानुमेयत्वम्। संयोगविभागालम्बनत्वे तु संयुज्यते, विभज्यते, इति प्रतीतिः स्यात् , न चलतीति; यथाविषयं प्रत्ययोत्पादात् । संवेदनानुसारिणी च विषयव्यवस्था। अन्यथा घटप्रत्ययेऽपि 'पट'स्यालम्बनता स्यात् । संयोगविभागालम्धनत्वे सति तिष्ठत्यपि चलत्प्रत्ययः प्राप्नोति; तत्रापि संयोगविभागसंभवात्। स्थाणी च श्येन संयोगविभागवति चलतीतिप्रतिभासो भवेत्। अविरलतदुपजननप्रवन्धेऽपि भूतभाविनोः संयोगावभागयोः परोक्षत्वात् संयोगविभागादिहेतुतयैव क्रिया सिद्धयतीति भावः । क्रियाशक्ति- इत्यत्र दृष्टान्ततया क्रियोपादानम् ॥ ___एवं क्रियाया अतीन्द्रियत्वं प्राभाकरानुसारेण पूर्वपक्षितम् । कुमारिलभट्टैस्तु --.' प्रत्यक्षदृष्टः सम्बन्धः गतिप्राप्त्योस्तथैव हि ' (१३८ श्लो.) इत्यादिना क्रियाया: प्रत्यक्षत्व क्तम्। तत्र सुचरितमित्रैर्बह्वथा युक्तयः प्रदर्शिताः । तद्रीस्यैव सिद्धान्तेऽपि क्रियायाः प्रत्यक्षत्वं साधयितुमुपक्रसते-तदिदांमत्यादि। चलत्यादिप्रतीतो- चलतीत्यादिप्रतीतौ। संयोगविभागालम्बनत्वे-- चलतीतिप्रत्ययस्येति शेषः। घटप्रत्यये-घटोलेखिप्रत्यये। तत्रापीति । तिष्ठत्यपि वस्तुनि भूतकालिकयोः संयोगविभागयोस्सत्त्वादित्यर्थः। ननु तयोर्वर्तमानत्वमावश्यकमिति चेत् तदाप्याह- स्थाणाविति। ननु सकृत्तयोरुत्पत्तिमात्रान चलतीतिप्रतीतिः, किन्तु निरन्तरतत्परंपरोत्पत्तावेवइति चेत् तत्राह-अविरलेति। तादृशप्रबन्धे चलतिप्रत्ययविषयत्वेनांगीकृतेऽपीत्यर्थ । अथवा अविरलः तादृशप्रबन्धः- अनुवृत्ति: यस्मिः इति बहुव्रीहिः। वस्तुनि तयोस्संभवेऽपि अतीतानागतयोर्ग्रहणं न संभवतीति भावः । एतादृशाविरलसंयोगाद्युत्पत्तिरपि सर्वत्र शपथमात्रनिणेयेति सूचनाय-अपि 1 पर-ख. NYAYANANJARI 23 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 अनुमानत्रैविध्यम् [म्यायमञ्जरी वर्तमानयोर्ग्रहणम् । तौ च नलित्वाऽपि स्थिते देवदत्ते स्त इति तत्रापि कथं न चलतीति प्रत्ययः ॥ निरन्तरं च संयोगविभागश्रेणिदर्शनात् । भूमावपि भवेद्वद्धिः चलतीति मनुष्यवत् ॥ २५४ ॥ [क्रिया न संयोगविभागरूपा] अथ मनुषे यत्क्रियाजन्यत्वं संयोगविभागयोः - तत्रैव चलतीत्यादिबुद्धिः, नान्यत्र । देवदत्तक्रियया च तौ जन्येते, न निष्क्रियया भूम्येति न तस्यां तथा प्रत्ययः । यद्येवं-क्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात् क्रियालम्बन एवायं प्रत्ययः, न संयोगविभागालम्बनः । तदालम्बनन्वे हि तयोर्द्वयवृत्तित्वाविशेषात् विशेषे कारणं वाच्यम् । येन पुरुष एवायं प्रत्ययः, न भूमाविति । देवदत्तक्रियाजन्यत्वेन तु न विशेषः, यतः क्रियायाः परोक्षत्वे सति तदेव न विद्मः-किमसौ देवदत्ताश्रया क्रिया ? किं वा भूम्याश्रितेति ? संयोगविभागकार्यानुमानस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् । न च देवदत्ते गच्छति भूमौ, अनवरतवह'दहल'संयोगविभागवत्यपि वा तरङ्गिणीतीरपाषाणे शब्दः । आस्तां वर्तमानयोरेवेत्यादि । तथा च किं प्रकृते ? इत्यत्राह- तौ चेति। पूर्व ‘अपि 'शब्देन सर्वत्र तदसंभवे सूचिते, यत्र संभवेत्तत्र तथास्तु इति वदन्तं प्रत्याह-निरन्तरमिति । असंख्येयजङ्गमवर्गसंकुले भूतले न तहर्लभं, चलतीति प्रतीतिस्तु नास्ति । अतस्तावन्मात्रविषयत्वं न तत्प्रतीतेरिति ॥ प्राणिसंयोगादिना भूम्यादौ चलतीतिमत्ययाभावं समर्थयति- अथेत्या. दिना। यत्क्रियेति- यदीयक्रियेत्यर्थः । समाधने–यद्यवमिति । द्वयेति। संयोगविभागौ हि द्विनिष्ठौ । विशेषे–देवदत्त एव चलतिप्रत्ययः, न भूमावित्यत्र । ननूक्तं यदीया क्रिया, तत्रैव चलतिप्रतीतिरितीति चेत् तत्राहदेवदत्तति । अयं भावः-क्रिया ह्यतीन्द्रिया तव, सा च संयोगविभागानमेया। संयोगविभागौ तु द्विनिष्ठौ। हेतुभूतौ तौ एकत्रैव क्रियामनुमापयतः, न तूभयत्रेत्यत्र न किञ्चिद्विनिगमकम् । क्रियायास्त्वनुमेयत्वान्न विनिगमकत्वम् । अतोऽगत्या क्रियायाः प्रत्यक्षत्वमेवाङ्गीकरणीयमिति । 'न विद्मः' इत्यत्रोक्तं वेदनं विवृणोति-किमसाविति । तरङ्गिणीत्यादि। नदीप्रवाहाधीनजल दात-ख. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] क्रियाया अतिरिक्तत्वसाधनम् चलतीति प्रत्ययो दृष्टः । तस्मात् क्रियाविषय एव चलतीतिप्रत्ययः, न संयोगविभागालम्बनः ॥ संयोगविभागाग्रहणेऽपि च निरालम्बे विहायसि विहरति विहङ्गमे चलतीति संवेदनं दृश्यते । न च गंगनसंयोगः प्रत्यक्षः, प्रत्यक्षेतरवृत्तित्वात् गन्धवह महीरुहसंयोगवत् ॥ विततालोकावयव्याकाशः, तत्संयोगश्च पत्रिणः प्रत्यक्ष इति चेत्-नैतदेवम् 355 तमालनीलजीमूतसमूह पिहिताम्बरे । निशीथे सान्धकारेsपि चलत्खद्योतदर्शनात् ॥ २५५ ॥ न तत्रालोकावयवी 'कश्चन' तिमिरावयवी वा विद्यते इति केन संयोगो-गृह्यते ? विभागो वा ? संयोगविभागा हि अनवरतं तत्तीरगते पाषाणे वर्तन्ते ॥ अथ चलतीति प्रत्ययस्य संयोगविभागालम्बनत्वमपि न संभवतीत्याह-संयोगेति । संयोगविभागयोर्ह्रिनिष्टत्वेन तत्र द्वितीयं वस्त्वेवैन्द्वियिकं नास्तीति सूचनाय -- निरालम्ब इत्युक्तम् ॥ ननु तत्र पक्षिणि क्रिया हि भवतोऽपि सम्मता । क्रियायां जातायां हि विभागसंयोगाववर्जनीयाविति पूर्व भवतैवोक्तम् । तथा च तत्र संयोगविभाग• योरभावो न वक्तुं शक्यते । एवं सति ' निरालम्बे ' इति कथमिति चेत्-अस्ति तत्र संयोगादिः आकाशप्रदेशेन सह । परन्त्वाकाशस्यातीन्द्रियत्वेन संयोगप्रत्यक्षासंभवात् संयोगप्रत्यक्षहेतुभूतस्य संयोगाधारस्य प्रत्यक्षद्रव्यस्याभावात् निरालम्बत्वम् । तथा च तत्र क्रियातः संयोगविभागानुमानम्, न तु संयोगविभागाभ्यां क्रियानुमानमिति द्रष्टव्यम् । एतदेवोच्यते - न चेत्यादिना । नन्वस्ति तत्राप्यालोकः प्रत्यक्षः इति शङ्कते - विततेति । मालोकानामतीन्द्रियत्वेन -- अवयवीत्युक्तम् । नक्षत्रालोकस्याप्यसंभवद्योतनाय - तमालेत्यादि । आलोकावयवी - चलत्खद्योतालोक संयोगाश्रयः । ननु तिमिरेण सहास्ति संयोग: खद्योतप्रकाशस्येति चेत् तत्राह -- - तिमिरेति । तिमिरं खल्वभावरूपमित्यर्थः ॥ परमाणुरूपाणा न च कथन- ख. 23* Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । 356 अनुमानविष्यम् न्यायमचरी . भूकम्पोत्पाते च जाने चलति वसुमतीति मतिरस्ति ; न तत्र संयोगविभागौ गृह्येत, बहुलनिशीथे च न तगम् । तस्मान्न संयोगाद्यालम्बना चलतीति मतिः, अपि तु क्रियालम्बनैवेति ॥ न च नित्यपरोक्षा क्रियाऽनुमातुमपि शक्या, कार्यस्य कारणपूर्वकत्वेन भवन्मते सम्बन्धग्रहणानुपपत्तेः । न हि ते द्रव्यस्वरूपं कारणम् ; अपि तु क्रियाविशिष्टम्। क्रियायाश्च परोक्षत्वान्न तदाविष्टद्रव्य ग्रहणं सुघटमिति कारणत्वाग्रहणात् घटादावपि दुर्घटा. . व्याप्तिप्रतीतिः॥ आत्माऽनुमाने तु नायं दोषः; घटादेः कार्यस्याश्रितस्य प्रत्यक्षमुपलम्भात् । तस्मान्न कार्यानुमेया क्रिया ॥ [संयोगेनापि क्रिया नानुमातुं शक्या] न च संयोगानुमेया; 'संयोगान्तं कर्म' इतिन्यायात् । वर्तमानायाः क्रियायास्तेनानुमातुमशक्यत्वात् । क्रियाऽनुमान ननु आलोकादीनां रूपादिवत् स्वपरनिर्वाहकत्वं सर्वसम्मतम् । न हि दीपप्रत्यक्षे दीपान्तरमपेक्ष्यम्। अत: खद्योतालोकस्यापि स्वपरनिर्वाहकत्वमस्तीति उपपद्यते तत्प्रत्यक्षं इति चेत् तत्राह--भूकम्पेति । भूकम्परूप: उत्पात:---महाभूतविकारः। ननु तत्रापि गृहमहीरुहभेदनादिदर्शनात् संयोगविभागप्रत्यक्षं शस्यशङ्कमित्यत्राह- बहुलनिशीथ इति । कृष्णपक्षरात्रौ, घनान्धकारे वेत्यर्थः॥ __ तन्मते क्रियाऽनुमानमप्यसंभवीत्याह न चेति । 'भवन्मते' इत्यनेन सचितं विशेष विशदयति-न हीति । 'द्रव्यस्वरूपस्य कारणस्वे सर्वदा तदुत्पादप्रसङ्गः' इत्यादि (पुट 352) खलूक्तमित्यर्थः। नन तर्हि नित्यातीन्द्रियस्यात्मनः कथमनुमानं भवन्मते ? इत्यत्राह -- आत्मानुमान इति। न हि तत्र हेतुसाध्ययोाप्तिरदृष्टा। आश्रितत्वसामान्यस्य साध्यत्वेन कार्यत्वसामान्यस्य च हेतुत्वेन तयोः घटादौ प्रत्यक्षतस्सहचारदर्शनात् युज्यत आत्मानुमानमिति ॥ संयोगविभागात्मक देशान्तरमाप्त्या क्रियानुमानं निरस्य केवलसंयोगेन क्रियानुमानं दूषयति-न चेति। संयोगान्तं कति। उत्तरदेशसंयोगोस्पत्त्यां सत्यां क्रियाकार्य निवृत्तमिति क्रियोपरमः सम्मत: इत्यर्थः। संयोगाननुमेयत्वे हेतु:---वर्तमानाया इति । क्रिया हि संयोगोत्परया उपरता । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 357 आह्निकम् २] अनुमानत्रैविध्यविचारोपसंहारः वादश्च सामान्यलक्षणे (पु. 45) विस्तरेण निरस्तः ॥ अतीन्द्रियशक्त्यनुमानमपि न समीचीनम् ] एतेन शक्तयनुमानमपि व्युदस्तं वेदितव्यम् । पुरा च सविस्तरमतीन्द्रियशक्तिनिराकरणं (. 107-114) कृतमेव ।। तेनादृष्टक्रियाशक्तिखलक्षणमिति 'क्षमम्' । नेदं सामान्यतोदृष्टं इति पूर्वोक्तमेव सत् ॥ २५६ ॥ इति मतुपि वतौ वा प्रत्यये 'वर्ण्य माने त्रिविधमिद मिहोक्तं युक्तमेवानुमानम् ॥ परकविरचितानां लक्षणानां त्वमुष्मिन् सति न भवति शोभा भास्वतीवेन्दुभासाम् ॥ २५७ ॥ संयोगदर्शनकाले तु किया नास्त्येव । प्रनीतिस्तु 'चलति' इति वर्तमानकालिकी क्रियां प्रदर्शयतीति भावः। तथा च क्रियाकाले संयोगस्यानुत्पत्तः संयोगकाले क्रियाया नाशाच्च वर्तमानकालिकक्रियानुमान दुर्घटम् ॥ एतेन---चलतीति प्रतीति: क्रियाविषयिण्येव, न संयोगविभागविषयिणी । अतश्च न पूर्वोक्त (पुट. 353) दोषावकाश:। ज्ञानानुमेयत्ववादिना भाट्टानां मते 'अहं ज्ञानवान्' इति प्रतीतिर्यथाऽनुमितिरूपा तथा चलतीति प्रतीतिरप्यनुमितिरूपैव । ' अतश्च ‘संयुज्यते' इत्यादिप्रतीतितो वैलक्षण्यं उक्तप्रतीते. स्सुलभमिति न कोऽपि दोष इति-निरस्तम ; क्रियाया अनुमेयत्वे चलतीति वर्तमानताप्रतीतेर्दुर्घटत्वात् ॥ - एतेन--नित्यातीन्द्रियानुमानासंभवोपपादनेन क्षमम्- समर्थ - निरवयं-क्षोदक्षममिति यावत् । मतुपीति--सूत्रघटकपूर्ववत्पद इत्यूह्यम् । लक्षणानां शोभा - इत्यन्वयः ॥ एतावता सौत्रमनुमानलक्षणं साङ्गमुपवर्णितम् । अथ प्रत्यक्षपरीक्षायामिपात्रापि परसम्मतान्यनुमानलक्षणानि कुतो न दूष्यन्ते ? इति शङ्कायां आह---- 'क्रमम्-क. तत्-ख. वर्त-ख. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 परसम्मतानुमानलक्षणनिरास: न्यायमजरी बौद्धोक्तप्रतिबन्धदूषणदिशा तल्लक्षणं दूषितम् भूयोदृष्टमितान्वयैकशरणं शोच्यं पुनः शाबरम् । साङ्ख्यानां तु कुतोऽनुमानघटनोपादानरूपा यतः - तेषां जातिरसौ च तद्विकृतिवद्भिन्नेति दुःस्थोऽन्वयः ॥ बौद्धत्यादि। 'नान्तरीयकार्थदर्शनं तद्विदोऽनुमानम्' इति दिङ्नागः। यमन्तरा यो न भवति स नान्तरीयकः, तादृशार्थविज्ञानं तद्विदः- तादृशनान्तरीयकत्वज्ञानवतः यजायते तदनुमान मेत्यर्थः । 'त्रिरूपालिङ्गात् यत् अनुमेये ज्ञानं तदनुमानम्' (न्या. बि.) इति धर्मकीर्तिः । पक्षसत्त्वादिकं त्रैरूप्यं पूर्वमेव वर्णितम् । एतल्लक्षणद्वयमपि अविनाभावगर्भितम्। स च तादात्म्य- . तदुत्पत्तिभ्यां उक्तः । तादात्म्यतदुत्पत्ति निबन्धनाविनाभावस्य निरस्तत्वादेव तन्मूलकं तदीयलक्षणमपि निरस्तमेव, पृथक् न दूष्यत इत्यर्थः। भूयोदृष्टभूयोदर्शनम्। शाबरमिति। 'अनुमानं ज्ञातसम्बन्धस्य एकदेशदर्शनात् एकदेशान्तरेऽसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः' इति शाबरंभाष्यम् । अत्र सम्बन्धश्च न्याप्तिरूपा। 'भूयोदर्शनगम्या च न्याप्तिः' (श्लो. वा.)। एवं सत्यन्वयव्याप्तिमात्र मुक्तं स्यात् । न चान्वयमात्राब्याप्तयवधारणं संभवति किन्तु व्यतिरेकोपोदलितादन्वयात् इत्युक्तम् (321-पु.)। अतश्चैतदपि न समीचीनम् । सिद्धान्ते तु तत्पूर्व के ' इति सामान्यत उक्तम् । तेन चान्वयव्यतिरेकदशने क्रोडीकृते इति न दोषः। सांख्यानामिति । अनुमानघटना कुत: ?. सर्वथा न संभवतीत्यर्थः। तत्र हेतुः-यतः तेषां जातिः उपादानरूपा इति। अस्तु तथा। ततः किमित्यत्राह-असौ जाति: तद्विकृतिवत् उपादानजन्यविकृतिवत् भिन्नेति अन्वयः-व्याप्त्यनुगमः दुस्स्थः। एतदुक्तं भवति - व्यक्तीनामननुगतत्वेन ब्याप्तेर्दुर्ग्रहत्वे प्राप्ते जातिरेवानुगमिका वक्तव्या। निरूपितं चैतत्पुरस्तादेव । सांख्यमते च जाति म न काचिदतिरिक्ताऽस्ति। अनुगतव्यवहारश्च उपादानद्रव्यनिबन्धनः तन्मते ॥ ननूपादानस्य मृदः ऐक्येऽपि घटशरावादिनानाविधकार्यदर्शनात् घटशरावादिषु एक एवानुगतधर्मः स्यात् । तथा च अयं घटः, अयं शराव इति विविक्तप्रतीतिः कथमिति चेत् ; अतिरिक्तजातिवादे वा एकमृत्पिण्डारब्धे घटे शरावे च घटत्वशरावत्वयोः प्रतिनियमः कथमिति वक्तव्यम् । आकृतिभेदादिति . चेत् ; आकृति: किं करोति ? इति वक्तव्यम् । कार्यभेदमिति चेत् तदस्माकमपि Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडिकम् २] अनुमानस्य कालत्रयविषयकत्वम् 359 [अनुमानं कालत्रयविषयम् इदमिदानी चिन्त्यते। यदेतदिन्द्रियादिसन्निकर्षजत्वादिना लक्षितमस्मदादिप्रत्यक्षं तत्किल प्रायशो वर्तमान कालविशिष्टवस्तुविषयम् । एवमिदमनुमानमपि किं तद्गोचरमेव? किं वा कालान्तरपरिच्छेदेऽपि क्षमम् ? इति। तदुच्यते-त्रिकालविषयम मानमिति। कस्मात् ? त्रैकाल्यग्रहणात् । त्रिकालयुक्ता अर्था अनुमानेन गृह्यन्ते । भूता नदीपूरेण वृष्टिरनुमीयते ; सैव भविष्यन्ती मेघोन्नत्या; धूमेन वर्तमानोऽग्निरिति ॥ . अतश्च यन्मीमांसकैरुच्यते-चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितुं, नान्यत् किञ्च इति-तदयुक्तम्-चोदनावत् प्रमाणान्तरस्याप्येवं जातीयकविषयत्वोपपत्तेः । प्रत्यक्षमपि योगिनां त्रिकाल विषयमुक्तम् । अस्मदादीनामपि क्वचित्- इति ॥ तुल्यम् । सुखदु:खमोहात्मकं हि जगत् आहरणधारणादिकार्यभेदविशिष्टमेव दृश्यते ।तादृशकार्यानुगमाञ्च अनुगतव्यवहारो निर्वहतीति न कापि हानिरिति ॥ एवञ्चैतस्मिन् मते · सुखदुःखमोहात्मकोपादानद्रव्यमेव जातिस्थानापन्नं वक्तव्यम् । सुखदुःखादिकार्याणां तद्धेतुभूतसत्वादिगुणानां च तत्तद्वयक्तावेव पर्याप्तत्वेन विकृतिवत् नानात्वमेवेति नानुगमकत्वं तेषां संभवतीति अनुगत. न्याप्तिग्रहः सर्वथा न संभवत्येवेति ॥ 'सद्विषयं प्रत्यक्षं, सदसद्विषयं चानुमान। कस्मात् ? त्रैकाल्यग्रहणात्' इति भाष्यं स्मरन् परीक्षामुपक्रमते-इदमित्यादि। योगिप्रत्यक्षस्य प्रतिभायाश्च त्रिकालविषयत्वस्य पूर्व (277 पु.) स्थापितत्वात् ---प्रायश इति ॥ एवमनुमानस्य त्रिकालविषयत्वेन चोदनासूत्रशाबरभाष्यं स्वयं गलितमित्याह-अतश्चेति। शाबरभाष्ये उपरितनवाक्यानन्तरं 'नेन्द्रियम् ' इति वर्तते । तच्च 'नान्यत्किञ्च इत्यस्यैव सनिदर्शनविवरणपरं व्याख्यातं प्रदर्शनार्थमत्रोक्तमिन्द्रियं' इत्यनेन भट्टपादैः । तदपि न युक्तमित्याह-प्रत्यक्षमपीति। अतश्च 'अतीतानागतेऽप्यर्थे सूक्ष्मे व्यवहितेऽपि च । प्रत्यक्षं योगिनामिष्टं कैश्चित' इति पूर्वपक्षवार्तिकोक्तमेव साधीय इत्युक्तं भवति । कचित्----प्रतिभायाम् ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 कालपरीक्षा [न्यायमअरी कालसजावाक्षेपः] अत्र चोदयन्ति। काले सति त्रैकाल्यग्रहणं चिन्त्यम् । स एव तु दुरुपपादः। तदभावे कस्य वर्तमानादि विभागो निरुप्यते ? • न तावद्गृह्यते कालः प्रत्यक्षेण घटादिवत् । विरक्षिमा दियोधोऽपि कार्यमात्रावलम्बनः ॥२५२ ॥ न चामुनैव लिङ्गेन कालस्य परिकल्पना। प्रतिबन्धो हि दृष्टोऽत्र न धूमज्वलनादिवत् ॥ २६०॥ । प्रतिभासातिरेकस्तु कथञ्चिपपत्स्यते । प्रचितां काश्चिदाश्रित्य क्रियाक्षणपरम्पराम् ॥ २६१॥ . न चैष ग्रहनक्षत्रपरिस्पन्दस्वभावकः । कालः कल्पयितुं युक्तः क्रियातो नापरो ह्यसौ ॥२६२॥ तदभावे--कालस्यैवाभावे। ननु · चिरक्षिप्रादिप्रतीतिरेव काले प्रमाणमित्यत्राह न तावदिनि। रूपवतो घटादेः प्रत्यक्षत्वं युज्यते, न स्वरूपस्य कालस्य । उक्तप्रतीतिस्तु कालोपाधित्वेन भवत्सम्मतकार्यवस्तुविषयतयाऽन्यथासिद्धः। कालाङ्गीकर्तृमतेऽपि विभोः कालस्याखण्डत्वेन उपाधिमन्तरा क्षणादिव्यवहारो न निर्वहेत । ततश्च तद्धेतोरेव तद्धेतुत्वे मध्ये किं तेन? ननु कार्यस्वरूपस्य भानकाले सर्वत्र कालव्यवहाराभावान् ततोऽतिरिक्तं किञ्चित् तादृशव्यवहारनियामकमनुमास्यामः इत्यत्राह-न चामुनेति । चिर क्षिप्रादिव्यवहारः कालविषयकः, कालातिरिक्ताविषयकत्वे सति सविषयत्वात् । स व्यवहार: कालातिरिक्तद्रव्यस्वरूपाद्यविषयकः, परस्परविलक्षणप्रतीतिविषयत्वात्-इत्याद्यनमानमत्र ग्राह्यम् । धूमेति-नित्यातीन्द्रियेऽनुमानाप्रवृत्तरित्यर्थः। प्रतीतिस्त्वन्यथासिद्धेत्युक्तम् । ननु स्वरूप कालप्रतीत्योवैलक्षण्यमनुभवमिद्धमित्यत्राह - प्रतिभासेति । तत्तद्विशेषणभेदात् यथा एक एव घट: नीलः, महान् , एक: इत्यादिप्रतिभासहेतुर्भवति तथा प्रकृतेऽपि युज्यते। ननु कोऽयं विशेषणभेदः प्रकृते इति चेत--सूक्ष्मा क्रियैव। उक्तं खल्वनुपदमेव-'तद्धे तोरेव तद्धेतुत्वे मध्ये किं तेन कालेन' इति । ननु क्रिया क्षगच दुष्टयमाघ्रपरिमिता। ततोऽधिकम्यवहारः कथमिति चेत् , प्रतिक्षणमुपचीयमानक्रियापरंपरयेवेति गृह्यताम्। काल इति। अतिरिक्त इति Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्य प्रत्यक्षत्वपक्ष: 361 माह्निकम् २] मुहूर्तयामाहोरात्रमासर्वयनवत्सरैः। लोके काल्पनिकैरेव व्यवहारो भविष्यति ॥ २६३ ॥ यदि त्वेको विभुर्नित्यः कालो द्रव्यात्मको मतः । अतीतवर्तमानादिभेदव्यवहृतिः कुतः? ॥ २६४ ॥ [काल: प्रत्यक्षगम्यः इति पक्षः] एवमाक्षिप्ते सति प्रत्यक्षगम्यतामेव केचित् कालस्य मन्वते । विशेषणतया कार्यप्रत्यये प्रतिभासनात् ॥ २६५ ॥ कमेण, युगपत् , क्षिप्रं, चिरात् कृतमितीदृशाः। प्रत्यया नावकल्पन्ते कार्यमात्रावलम्बनाः ॥ २६६ ॥ न हि विषयातिशयमन्तरेण प्रतिभासातिशयोऽवकल्पते । शेषः । सूर्यादिग्रहाणां अश्विन्यादिनक्षत्राणां परिस्पन्दाधीनः दिनादिव्यवहारः । तेषां परिस्पन्दो नाम क्रियैव। ततश्चातिरिक्तः कालः कुत्र सिद्ध इति । अतिरिक्तकालाङ्गीकारेऽपि मूहूर्ता दिव्यवहारस्य पूर्ववदेव निर्वाह्यत्वेन भक्षितेऽपि लसुने न शान्तो व्याधिरित्याह -- यदि वितिः कालस्याविभुत्वेऽनेकत्वेऽनित्यत्वे च तदङ्गीकरणमेव निरर्थकमिति भावः। कुत इति । यद्यपाधिमिः, तमुक्तः ‘भक्षितेऽपि' इति न्यायः ।। केचिदिति । 'कालश्चैको विभुर्नित्य प्रविभक्तोऽपि गम्यते। वर्णवत् सर्वभावेषु व्यज्यते केनचित क्वचित्' इति (श्लो. वा. 1-1-6 शब्द 303) कुमारिलः । अत्र पार्थसारथिः - ' ननु नायं कालः स्वातन्त्र्येण गम्यते । तत: किमस्य सदावे प्रमाणम् ? अत आह-सर्वेति । भावेषु गृह्यमाणेषु तद्विशेषणतया केनचित्पूर्वत्वेनापरत्वेन वा गृह्यते। इदं पूर्व, इदमुत्तरं इति प्रत्ययः भावमात्रमनालम्बमानः वस्स्वन्तरमवस्थापयति, स एव कालः ॥ विषयेति--क्रियादीनां तद्विषयत्वं तूत्तरत्र निराक्रियते ॥ . Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 कालपरीक्षा न्यायमजरी [अरूपस्यापि कालस्य प्रत्यक्षत्वम् ] अरूपो नन्वयं कालः कथं गृह्येत चक्षुषा? रूपमेव 'तवा'रूपं कथं गृह्येत चक्षुषा ? ॥ २६७ ॥ कथं वा रूपवन्तोऽपि परोक्षाः परमाणवः ? तस्मात् प्रतीतिरन्वेष्या किं निमित्तपरीक्षया ? ॥ २६८ ॥ ननु ! द्रव्येऽयं नियमः, न रूपादौ। द्रव्येऽपि नायं नियमः . यत् रूपवत् तत् प्रत्यक्षमिति-येन परमाणूनां तथाभावः स्यात् । किन्तु यत् प्रत्यक्षं, तत् रूपवदिति । तदुक्तम्-'त्रयाणां प्रत्यक्षत्वरूपवत्त्वद्वत्वादीनि' (प्रश-भा-द्रव्य) इति ॥ नेदं दैविकं वचनं-यदनतिक्रमणीयम्। न च वचनेन । प्रत्यक्षत्वमप्रत्यक्षत्वं वा व्यवस्थाप्यते । प्रत्यक्षत्वं हि ऐन्द्रियिकप्रतीतिविषयत्वमुच्यते। तच्चेदस्ति कालस्य, नीरूपस्यापि प्रत्यक्षता केन वार्यते ! रूपवत्त्वं तद्रव्याणामस्तु, तथा दर्शनात ॥ अरूपमिति। न हि रूपे रूपान्तरं वर्तते। अथापि तत् प्रत्यक्षमेव । रूपवतामपि परमाण्वादीनां अप्रत्यक्षत्वेन, अरूपाणामपि रूप-संख्यादीनां प्रत्यक्षत्वेन प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वयोः प्रतीतिरेव शरणीकर्तव्या ॥ ' द्रग्यचाक्षुष एव रूपं कारणं, न तु रूपादिगुणचाक्षुषे इति शकते --- नन्विति । परमावाद्यप्रत्यक्षत्वं समर्थयति - द्रव्येऽपीति । 'धूमवान् वह्निमानिति कथिते-न हि वह्निमान् धूमवान् इत्यपि संभवतीति भावः । उक्तार्थे प्रशस्तपादाचार्यसम्मतिमाह-तदुक्तमिति । अत्र पृथिव्यप्तेजसामेव प्रत्यक्षत्वकथनात् कालादीनामप्रत्यक्षत्वं सिद्धम् । अत्र चात्मादिषु वारणाय प्रत्यक्षपदं बाह्यप्रत्यक्षपरं व्याख्यातं कन्दल्यां श्रीधरेण ।। - इदं--प्राशस्तपादिकम् । तद्व्याणां- रूपवद्रव्याणां । कार्यकारणभावनिर्णये अनुभव एव हि प्रमाणमित्यर्थः । कालस्य प्रत्यक्षत्वेऽनुभव तथा-क. पि-ख. -क. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आह्निकम् २] कालस्य प्रत्यक्षवपक्षः 363 न चानुद्घाटिताक्षस्य क्षिप्रादिप्रत्ययोदयः । तद्भावानुविधानेन तम्मात् कालस्तु चाक्षुषः ॥ २६९ ॥ खतन्त्र एव तर्हि घटादिवत् कस्मान्न गृह्यते काल इति चेत् -- वस्तुस्वभाव एष न पर्यनुयोगार्हः। रूपिद्रव्यविशेषणतां गतस्य 'तस्य ग्रहणम्, न दण्डादिवत् स्वतन्त्रस्यापीति । गगनादेस्त्वन्यविशेषणतयाऽपि न ग्रहणमस्तीति तस्याप्रत्यक्षत्वम् , न त्वरूपत्वात्॥ [प्रत्यक्ष रूपं अप्रयोजकम्] .. अथ वदेत्-विशेषणस्यापि रूपवत एव दण्डादेः चक्षुषा ग्रहणम , न कालादेरिति-तदयुक्तम्-अरूपस्यापि सामान्यादेः विशषणस्य चक्षुषा ग्रहणात् । द्रव्ये नियम इति चेत् ; उक्तमत्र, यदेव नयनकरणकावगमगोचरे संचरति तदेव चाक्षुष रूपवदरूपं वा, द्रव्यमद्रव्यं वेति ॥ माह-न चेति। तद्भावः --चक्षुरिन्द्रियसद्भावः। तथा च कालो यदि न चाक्षुषस्तर्हि निमीलिताक्षस्यापि चिरक्षिप्रादिप्रत्ययापत्तिः ॥ ____ननु यदि काल: प्रत्यक्षः तदा स्वातन्त्र्येण तत्प्रत्यक्षं स्यात् प्रत्यक्षद्रव्यत्वात्, घटादिवत् । न च भूतलं घटवदित्यादौ घटादेरपि विशेषणतयैव भानमस्तीति शंक्यम् ; सर्वत्र भूतलभानानियमात् ! भूतलभानेऽपि घटप्रत्यक्षं प्रति तद्भानस्याप्रयोजकत्वात् । कालस्तु कदाऽपि न स्वतन्त्रः प्रत्यक्षो दृष्ट इति कालो न प्रत्यक्षद्रव्यमिति शङ्कते--स्वतन्त्र इति । ननु अरूपवतामपि प्रत्यक्षत्वे गगनस्यापि प्रत्यक्षत्वापत्तिरिति शङ्कायां, भवन्मते रूपवतां परमाण्वादीनामप्रत्यक्षत्वाद्रूपवत्वमानं यथा न प्रत्यक्षप्रयोजक तथास्माकं अरूपवत्त्वमपि न प्रत्यक्षप्रयोजकम् । प्रतीतिरेव प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वे प्रमाणमिति वदतिगगनादेस्त्विति ॥ उक्तमिति। अयं भाव:-चाक्षुषप्रत्यक्ष प्रति रूपं कारणमित्युक्ते सामान्ये व्यभिचारे आपादिते 'द्रव्यचाक्षुषं प्रति' इति संकोचे किं प्रमाणम् ? यद्यनुभवः, तर्हि कालप्रत्यक्षत्वस्याप्यनुभवात् 'कालभिन्नद्रव्यचाक्षुषं प्रति' इति संकोचः क्रियताम्, न हि भवदिच्छैव नियामिकेति ॥ ग्रह-क. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 [ न्यायमरी एवं 'गुरु द्रव्यम्' इति कार्तस्वरादौ प्रतिभासात् गुरुत्वमपि प्रत्यक्षं न पतनानुमेयमेव ॥ काळपरीक्षा तस्मात् स्वतन्त्रभावेन विशेषणतयाऽपि वा । चाक्षुषज्ञानगम्यं यत् तत्प्रत्यक्षमुपेयताम् ॥ २७० ॥ अत एव प्रत्यक्षः कालः । एवं समानन्यायत्वात् पूर्वापरादिप्रत्ययगम्या दिगपि प्रत्यक्षा वेदितव्येति ॥ [कालस्यानुमेयत्वपक्ष:] अन्ये मन्यन्ते - दण्डी देवदत्तः, नीलमुत्पलं इति' व 'द्विषयातिरेकस्याग्रहणात् प्रत्ययातिशयस्य च परोक्षकालपक्षेऽपि तत्कारणकस्योपपत्तेरनुमेय एव कालः ॥ ननु प्रतीति मात्राद्यदि प्रत्यक्षत्वं तर्हि 'गुरु द्रव्यम्' इत्यादिप्रत्ययात् गुरुत्वमपि प्रत्यक्ष स्यात् इति शङ्कामिष्टापत्त्या परिहरति- एवमिति । एवकारेण प्रत्यक्षत्वमपि कुत्रचिदिति सूचितम् । अतश्च प्राथमिकगुरुत्वग्रहणस्यानुमानाधीनत्वेऽपि असकृदनुभूतस्थले तत्प्रत्यक्षमपि भवतीति सूचितम् । उक्तन्यायं दिश्यभ्यतिदिशति - एवमिति । 'पूर्वस्यां घटः' इत्यादिप्रतीतेस्सत्वादिति शेषः ॥ स्वसिद्धान्तमाह- अन्य इति । विषयातिरेक इति । केवलदेवदत्तप्रतीत्यपेक्षया दण्डी देवदत्त इत्यादौ देवदत्तस्वरूपातिरिक्तो विषयः दण्डादिर्यथा स्पष्टभा तथा कालादिर्नातिरिक्तः स्पष्टमवभासत इति कालो न प्रत्यक्ष इत्यर्थः । ननु चिरचिप्रादिप्रतीतिस्सर्वसिद्धा । नेयं प्रतीतिः स्वरूपमात्रालम्बना, स्वरूपभानकाले सर्वत्र तथाऽनवभासात् । अतश्चातिरिक्तकालविषयकत्वं तादृशप्रतीतीनां सिद्धमिति चेत ; तत्राह - प्रत्ययेति । अयं भावः । अस्ति चिरक्षिप्रादिप्रतीतिविषयः द्रव्यस्वरूपातिरिक्तः कालः । न हि वयं कालमेव निषेधयामः, किन्तु तत्प्रत्यक्षतामेव । स च काल: अनुमेयोऽपि प्रतीताववसितुमष्ट एव । न हि प्रत्ययविषयः सर्वोऽपि प्रत्यक्षविषय: । 'ज्ञातो घट: इत्यादिषु अनुमितस्यापि ज्ञानस्य मानदर्शनात् । अतः कालोऽस्ति, परन्त्वनुमेस्स इति । तत्कारणकस्य - परोक्षकालकारणकस्य । इदं प्रत्ययातिशयविशेषणम् ॥ त-क. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] कालस्यानुमेयत्वपक्षः 365 अप्रत्यक्षत्वमात्रेण न च कालस्य नास्तिता। युक्ता पृथिव्यधोभागचन्द्रमापरभागवत् ॥ २७१॥ ___ अप्रतिभासमानोऽपि कालः संस्कार इवेन्द्रियसहचरितः प्रत्यभिज्ञां क्षिप्रादिप्रतीति जनयिष्यति। कृतश्च प्रत्यक्षलक्षणे (पु. 217-218) महान् कलि:- किं विषयमेदादेव प्रतिभासमेदः? उतोपायमेदादपि ? इति। तदलं पुनस्तद्विमर्दैन । [ कालस्यातिरिक्तत्वसाधनम्] प्रमाण मिति निर्णीतं प्रत्यक्षं सविकल्पकम् । तस्मान्न कल्पनामात्रं चिरक्षिप्रादिसंविदः ॥ २७२ ॥ 'नवासां परिदृश्यमानकारणविनिर्मितत्वमुपपद्यते ; क्रियमाणस्य पटादेः कार्यस्य, तदुत्पादकस्य च तन्तुतुरीवेमशलाकाकुविन्दादिकारणवृन्दस्य साम्येऽपि क्वचित्तूर्ण कृतम , क्वचिञ्चिरेण कृतमिति प्रतिभासभेददर्शनात् निमित्तान्तरं चिन्तनीयम् ॥ ननु एकस्मिन्नेव प्रत्यये विशेष्यस्य द्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वं, विशेषणस्य कालस्यानुमेयत्वमिति 'कथं घटतामित्यत्राह- अप्रतिभासमान इति । इन्द्रियसहचरितः संस्कारः प्रत्यभिज्ञामिव इत्यन्वयः । इदमुक्तं भवति-क्षिप्रं गच्छीति ज्ञानं न सांशं, येन विशेष्यांश: विशेषणांश इति व्यवहियेत ; किन्तु संस्कार-इन्द्रिय जन्यप्रत्यभिज्ञेव विशिष्टमेकं ज्ञानम् । सामग्रीद्वयजन्यं ज्ञानं कथमेकं भवतीत्यादिकं तु पूर्व (पुट. 218) मेव विचारितम् कलि:-कलहः॥ · द्रव्यकल्पनावत् कालकल्पनाया अपि अप्रमाणत्वेन कालासिद्धिं ब्रुवन्तं सौगतं प्रत्याह-प्रमाणमिति। आसां-चिरक्षिप्रादिसंविदाम् । परिदृश्यमानकारणं-क्रियादिरूपम् । चिरक्षिपनिवर्त्यमानयो: पटयो: न हि क्रियावर्गे न्यूनाधिकभाव: वक्तुं शक्यः, सामग्रीतौल्यात् । अत: चिरक्षिप्रादिप्रतीति: क्रियातिरिक्तनिबन्धनैव वाच्यति ॥ न च संपरि-ख. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 कालपरीक्षा [न्यायमचरी [न देवदत्तादिक्रियालम्बना: चलतीत्यादिप्रत्ययाः] ननु! परिस्पन्दादिक्रियाभेद एवात्र निमित्तम् । कश्चित्परिस्पन्दश्चतुरः, कश्चिन्मन्थर इति क्वचित् क्षिप्रबुद्धिः, क्वचिच्चिरबुद्धिरितिनैतचारु - परिस्पन्दगतयोरपि चातुर्यमान्थर्ययोनिमित्तान्तरकार्यत्वात् । परिस्पन्देऽपि-चिरेण गच्छति, शीघ्रं धावतीति चिरक्षिप्रादिप्रतीतिदृश्यते ॥ [न सूर्यादिपरिस्पन्दालम्बनाः चलतीत्यादिप्रत्ययाः] आह-न देवदत्तादिपरिस्पन्दनिबन्धनाः क्रमाक्रमादिप्रत्ययाः, किन्तु ग्रहनक्षत्रादिपरिस्पन्दनिबन्धनाः। स एव च ग्रहतारादिपरिस्पन्दः काल इत्युच्यते। तत्कृत एवायं यामाहोरात्रमासादिव्यव. हारः। तस्य स्वत एव भेदादीपाधिकभेदकल्पनाक्लेशो न भविष्यति । भेदपरिच्छेदे नालिका'प्रह'रादिरुपायः-इयती नालिका, इय ननु क्रियावर्गसाम्येऽपि क्रियास्वरूपेऽस्तिं विशेषः प्रत्यक्षसिद्धः इति शरते-नन्विति। क्रिययोर्विशेषमुपपादयति-कश्चिदिति। अलसः पुरुषः यावदेकवारं हस्तं चालयति तावत्येव चतुर: चतुःपञ्चवारं हस्तं चालयति। अतश्च क्रियासाम्येऽपि चतुरालसपुरुषाधीन: क्षिप्रचिरादिव्यवहार इति नातिरिक्तकालसिद्धिरित्यर्थः। परिस्पन्देत्यादि। अयमर्थ:-सत्यं पुरुषाधीनः चिरक्षिप्रादिभेद इति । परन्त्विदमत्र वदतु भवान् ।' चतुर: अलस इति पुरुषभेदः किमधीन इति। यावदेकवारं पदं निक्षिपत्यलस:, तावञ्चतु:पञ्चवारं पदं निक्षिपति चतुर इति स्वलु तनिरूपणीयम् । अत्र यावत्तावच्छब्दार्थः कः ? यदि स्वरूपातिरिक्त: कालो नाम न स्यात् परिमितकाले चतुःपञ्चपदनिक्षेपात शैघ्रयं, तावत्येव च काले एकपदनिक्षेपात चिरत्वं चोपपादनीयं कथमुपपायेत ? अतः क्रियातिरिक्तोऽस्ति काल इति ॥ ननु भावानमिज्ञो भवान् । चिरक्षिप्रादिप्रतीतानां न परिदृश्यमानक्रियाविषयत्वं ब्रूमः। किन्तु सूर्यादिपरिस्पन्दादिविषयत्त्वम । एकस्माद्देशात देशान्तरं गच्छति सवितरि, तदैव कश्चित् क्रोशमेकं गच्छति। अन्यस्तु कोशद्वयमिति चिरक्षिप्रप्रत्ययो स्यातामिति शङ्कते- आहेति । ननु तर्हि कुतः 1प्रहा-ख. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] कालस्यातिरिक्तत्वसमर्थनम् 367 , मुहूर्तम् इयान् प्रहरइति । तत्रैकस्मिन् मुहूर्ते प्रहरे वा निर्वर्त्य - मानेषु बहुषु कार्येषु युगपदिति भवति मतिः; मुहूर्तान्तरापेक्षेषु क्रमेणेति । तस्मात् ग्रहादिपरिस्पन्द एव तैस्तैर्निमित्तैरुपलक्ष्यमाणप्रमाणः काल इति । कालविदश्च ज्योतिर्गणकास्त एवैनं बुध्यन्ते ॥ तदसांप्रतम् चन्द्रादिग्रहपरिच्छेदेऽपि क्रमादि' प्रतीतिदर्श नात्॥ चिरेणास्तं गतो भानुः शीतांशुः शीघ्रमुद्गतः । उदिताविव दृश्येते युगपद्धौमभार्गवौ ॥ २७३ ॥ इति दृश्यते प्रतिभासः । न च ग्रहान्तरपरिस्पन्दकारणक एष शक्यते वक्तुं ; अनवस्थाप्रसङ्गात् । तस्मान्न ग्रहादिपरिस्पन्दः कालः, किन्तु वस्त्वन्तरम्, यत्कृतोऽयं क्रमाक्रमादिव्यवहारः ॥ [काल: स्वपरनिर्वाहकः ] aa ! भवत्कल्पितोऽपि कालः किं स्वत एव 'क्रमाक्रम' स्वभावः ? हेत्वन्तराद्वा ? स्वतस्तस्य तत्स्वभावत्वे कार्यस्यैव पटादेः परिदृश्यमानस्य तत्स्वाभाव्यं भवतु ! किं कालेन ? हेत्वन्तरपक्षे वनवस्था, तस्यापि हेत्वन्तरापेक्षत्वादिति कोsपि क्रियाकालपदौ पर्यायेण न व्यवहरति ? इति शङ्कायामाह - तेस्तैरित्यादि । एकस्यैव प्रदेशस्य पुरुषबुद्धिकल्पितोपाधिभेदैः नल्वक्रोश• गव्यूत्यादि विलक्षणव्यवहारवदिति शेषः । ननु कानि तानि निमित्तान्युपाधि'भूतानीत्यत्राह - कालविद इति ॥ चिरेणेति । वसन्त अहः प्रमाणाधिक्यात चिरेण सूर्यास्तमयः । हेमन्त रात्रिप्रमाणाधिक्यात् शीघ्रं चन्द्रोदयः ॥ अथ 'इदानीमेक क्षण: गत: ' इत्यादौ कालस्यापि कालान्तरसम्बन्धः प्रतीयते । तथा चानवस्था । एकस्यैव स्वपरनिर्वाहकत्वे तत् क्रियादीनामेवास्त्विति शङ्कते - नन्विति ॥ 1 क्रिया- ख. 2 क्रमादि - त्र. क्रम-ख. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 काळपरीक्षा न्यायमचरी तदेतद्वालिशचोद्यम्-शुक्लगुणादावप्येवं वक्तुं शक्यत्वात् । गुणस्य स्वतः शुक्लस्वभावत्वे द्रव्यस्यैव तद्भवतु ! किं गुणेन ? गुणान्तरकल्पने त्वनवस्थेति ॥ ___ अथ तत्र तथा दर्शनात् नेदं चोद्यम् ; तदिहापि समानम् । कार्येषु पटादिषु निमित्तान्तरकृतः क्रमादिव्यवहारः, 'निमित्तान्तरे निमित्तान्तरं न मृग्यमित। तस्मादस्ति युगपदादिव्यवहारहेतुः . कालः॥ अतश्चैवम् दृष्टः परापरत्वस्य दिक्कृतस्य विपर्ययः। युवस्थविरयोः सोऽपि विना कालं न सिद्धयति । २७४॥.. दूरतरदिगवच्छिन्नो देवदत्तादिः पर इति प्रतिभासते, निकटदिगवच्छिन्नस्तु अपर इति। ते एते दिक्ते परत्वापरत्वे विपरिवर्तमाने दृश्येते। दूरस्थो हि युवा अपर इत्युच्यते, निकटस्थोऽपि स्थविरः पर इति। तदत्र न कालव्यतिरिक्तं कारणमुपपद्यते इत्यतोऽनुमीयते कालः॥ तथा दर्शनात्-द्रव्यस्वरूपातिरिक्ततया दर्शनात् । कार्यस्यैव स्वपरनिर्वाहकत्वे हेतुमाह---कार्येष्विति। दर्शनस्यान्यथाऽनुपपत्त्या तदुपपादकपदार्थान्तरनिर्णयसमये निर्णीयमानः स पदार्थः सर्वाक्षेपसमाधानसमर्थशक्ति विशेषविशिष्ट एव निर्णीयेत । विनिगमनाविग्हात् दृष्टेषु वस्तुषु अतिशयाङ्गीकारासंभवाच परिदृश्यमानानां तदुपपादकत्वं न संभवति । यथा ईश्वरानु. मानादौ। अतः कार्याणां स्वपरनिर्वाहकत्वं न संभवति। सिध्यस्तु काल: तादृश एव सिध्यति ॥ ___ कालसद्भावे प्रमाणान्तरमप्याह --- दृष्ट इति । दिकृतस्य परापरत्वस्य विपर्ययः युवस्थविरयोदृष्ट इत्यन्वयः। विपर्ययमेवोपपादयति-दुरतरेत्यादिना। दूरस्थ इत्यादि। देशापेक्षया परः युवा कालापेक्षया अपरः । देशापेक्षया अपरोऽपि स्थविरः कालापेक्षया परः । अत: वस्तुस्वरूपायति. रिक्तः काल एषितन्य एव ॥ नि-क. तदत्र-च. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादिकम् २] कालस्य एकत्वेऽपि वर्तमानादिम्यवहारोपपत्तिः 360 कालः एक एव] स चायमाकाशवत् सर्वत्रैकः कालः। यथाऽऽकाशलिङ्गस्य शब्दस्य सर्वत्राविशेषात् विशेषलिङ्गाभावाश्चैकः, तथा ॥ सर्वत्र तयवहाराद्विभुः। अवयवाश्रयानुपलंभात् निरवयवः, अनाधितश्च। अनाश्रितत्वादेव द्रव्यम्। अत एवावयवविभागादिनाशकारणानुपपत्तनित्य इति !! . [एकस्यापि कालस्य वर्तमानादिभेदोपपत्तिः) ननु ! एवश्चैकत्वात् कालस्य कुतो वर्तमानादिविभागः? तदभावात् कथं त्रिकालविषयमनुमानमुच्यते ? -- उच्यते -न तात्विकः कालस्य भेदो वर्तमानादिः। किन्त्वसनप्यसो व्यवहारसिद्धये केनचिदुपाधिना कल्प्यते ॥ कालोपाधिः] कः पुनरसावुपाधिः? क्रिपति बमः । ननु तम्या अपि न स्वतो वर्तमानादिभेदः; तद्भावे वा सैव तथा भवतु ! कि कालेन?मेवम् --उत्पत्तिस्थिति नरोधयोगिफलावच्छेदेन नानाक्षणपरम्परामिका क्रियेत्युच्यते, 'सा वर्त'मानादिभेदवती च। तथा हिस्थाल्यधिश्रयणात् प्रभृति आतदवतरणादुत्पद्यमानौदनाख्यफला एक इति । कार्यानुरोधादनुमाने एकत्वेऽपि कार्योपपत्ते इति हेतुरूयः ॥ . अवयवाश्रयः-अवयवरूपः आश्रयः। अत एव अवयवानाश्रितस्वादव । विभागादि-आदिना नाशपरिप्रहः ॥ - तदभावात्-विभागाभावात् । तात्त्विकः तत्त्वकृत:। एक एव क्षणः स्वपूर्वक्षणापेक्षया भविष्यन्निति, स्वापेक्षया वर्तमान इति, अनन्तरक्षणापेक्षया भूत इति च व्यवहियते। अतो भूतत्वादिः न स्थिरो धर्मः, किन्तु बुध्यपेक्ष एवेति न काले भेदः॥ तथा भवदभिमतकालस्थानापन्नः। उत्पत्तीत्यादि। क्रियायामपि अस्ति सूक्ष्मो भेदः । एका ह्युत्पमा क्रिया द्वितीयक्षणे विभागं, तत: पूर्वसंयोगनाश, तत: उत्तरदेशसंयोगं चोत्पाद्य पञ्चमे क्षणे नश्यति। नेते वन्य वर्त-क. NYAYAMANJARI Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37C कालपरीक्षा [ न्यायम ; चच्छेदात् किया वर्तमानोच्यते ' पचति' इति तदवच्छेदात् घटाकाशवत् कालोऽपि तावान् वर्तमान इत्युच्यते । अभिनिर्वृत्तफलावच्छेदात्मा परिस्पन्दसन्ततिर तीता भवति - 'अपाक्षीत् ' इति तदवच्छेदात् कालोऽप्यतीत उच्यते । च्छेदात् भविष्यन्ती क्रियोच्यते 'पक्ष्यति' इति ; तथा कालोऽपी त्येव' मौपाधिकः काले' वर्तमानादित्रयव्यवहारः ॥ अनारब्धफलाव [ वर्तमानकालसमर्थनम् ] , अतश्च यदुच्यते - वृक्षात् पततः पर्णस्य भूतभविष्यन्तावध्वानों दृश्येते न वर्तमानः । तस्माद्वर्तमानः कालो नास्तीति -- तदसम्ब द्धम् — अध्वव्यङ्गयत्वाभावात् कालस्य । न ह्यध्वव्यङ्ग्यः कालभेदः । किन्तु यथोक्तक्रमेण क्रियाव्यङ्गय एवेति । क्रियापरिकल्पितभेद-: निबन्धनश्चायं क्षणलवकाष्ठा कलानालिकामुहूर्त यामाहोरात्रमा सव -. यन संवत्सरयुग मन्वन्तरकल्यव्यवहार इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ तमं परित्यक्तुं शक्यम् । एवञ्च एकस्या एव क्रियायाः स्थितिकाले मध्ये भवान्तर सूक्ष्मभेदात्, ततः - ततः इति अस्ति भेदः । अत एतावती दीर्घशरीरा क्रिया न क्षणोपाधिर्भवितुमईति । तत्राप्यवान्तरभेदात् अतीतादिभेद. सहजः । अतः तत्रातीता दिव्यवहारः उपाध्यन्तरेण चेदनवस्था । येन उपा धिना परिच्छिन्ना क्रियेत्युच्येत तत्स्थाने काल एव भवतु । अतः सर्वत्र एताशव्यवहाराय कल्प्यः कालः अखण्डः कल्पयितुं शक्यः । क्रियायास्तु अखण्डत्वं अनुभवविरुद्धम् । अतः सार्वदिक सार्वत्रिक व्यवहारहेतुः कालः अतिरिक्त एव ॥ " अथ 'वर्तमानाभावः पततः पतितपतितन्यकालोपपत्तेः' (न्या- सू-२ १ ४० ) इतिसूत्रोक्तं विचारं प्रदर्शयति - अतश्चेत्यादि । 'वृक्षात्' इत्यस्य स्थाने 'वृन्तात् ' इति भाष्ये क्वचित् पाठः । वृन्तात्प्रच्युतस्य भूमिं प्रत्यासीदतः फलस्य वृक्षस्य च मध्ये यो देश :- अध्वा सः भूतः फलस्य भूमेश्च मध्ये यो देशः - अध्वा स भविष्यन्, एतदतिरिक्तः देशो न हि कश्चित् तृतीय उपलभ्यते । अतः वर्तमानकाल इति कश्चिन्नास्त्येवेति पूर्वपक्ष्याशयः । नाध्वव्यङ्गयः कालः, किं तर्हि ? क्रियान्यंग्यः' इति भाष्यमनुसृत्याह - अध्वेति । भूतभविष्यन्निर्देशश्च · 1 सोपाधिकः काल एव - ख. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाकम् २] कालोपाषयः 371 [कालभेदपरिज्ञानस्य प्रयोजनम्] तिथ्यादिभेदावधारणं च वैदिककर्मप्रयोगाङ्गम् , 'पौर्णमास्यां पौर्णमास्यां यजेत' 'अमावास्यायाममावास्यायां च' इति । एवं वसन्ताधतुभेदोऽपि तदङ्गम् ; 'वसन्ते ब्राह्मणोऽग्नीनादधीत , ग्रीष्मे राजन्यः, शरदि वैश्यः, वर्षासु रथकारः' इति ॥ - [ऋत्वादिभेदः स चायमृतुतिथ्यादिविभागः क्रिययेच ज्योतिश्शास्त्रोपदिष्टविशिष्टराशिसंसृष्टचन्द्रादिग्रहगतया लक्ष्यते, लौकिकेन च लक्ष्मणा तेन तेनेति । तद्यथा चञ्चनचुम्बिताताम्रचूताङ्करकदम्बकैः । कथ्यते कोकिलैरेव मधुर्मधुरकूजितः ॥ २७५ ॥ दिवाकरकरालातपातनिर्दग्धवीरुधः । मार्गास्समल्लिकामोदा भवन्ति ग्रीष्मशंसिनः ॥ २७६ ॥ शिखण्डिमण्ड'लारब्धचण्डताण्डवडम्बरैः । प्रावृडाख्यायते मेघमेदुरैर्मेदिनीधरैः ॥ २७७ ॥ मौक्तिकाकारविस्तारितारानिकरचित्रितम् । शरत्पिशुनतां याति यमुनाम्भोनिभं नमः ॥ २७८ ॥ आयामयामिनीभोगसफलाभोगविभ्रमाः। हेमन्तम भिनन्दन्ति सोष्माणस्तरुणीस्तनाः ॥२७९ ॥ मध्यस्थवर्तमानापेक्षयैव। तथा च तादृशफलस्य यो देश: तदपेक्षयैव वर्तमानकालसिद्विः । अन्यथा वर्तमानकालस्याप्यभावे तयोरप्यभाव एव । न च तर्हि मा स्तां तौ इति शंक्यम्-क्षणभङ्गभङ्गेन वर्तमानमात्रस्यासिद्धेः ॥ मेदिनीधराः-- पर्वताः । . शरत्पिशुनतां -शरत्कालसूचकत्वम् । आयामेति। हेमन्तौ हि रात्रिपरिमाणः अहःपरिमाणापेक्षयाऽधिकः । आभोगः-परिपूर्णता॥ नारम्भोदण्ड-ख. 242 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 [ न्यायमश्वरी दिश: अतिरिक्त स्वसमर्थनम् आस्कन्दनदलत्कुन्दकलिकोत्करदन्तुराः । वदन्ति शिशिरं वाताः तुषारकणकर्कशाः ॥ २८० ॥ तस्मादेकोऽव्ययं कालः क्रिया भेदाद्विभिद्यते । एतेन सदृशन्यायात् मन्तव्या दिक् समर्थिता ॥ २८९ ॥ [[दिशो ऽतिरिक्तत्वम् ] पूर्वपश्चिमादिप्रत्ययानां केवलवृक्षादिप्रत्ययवैलक्षण्येन कारणान्तरानुमानात् । दिग्लिङ्गावशेषादेकत्वेऽपि दिशो दशविधाः । प्रदक्षणावर्त परिवर्तमानमार्तण्डमण्डलमरीचिनिचयचुम्न्यमानकाञ्चः नाचलकटक संयोगोपाधिकृतः पूर्वपश्चिमादिभेदः कल्यते - पूर्वा, पूर्वदक्षिणा, दक्षिणा, दक्षिणपश्चिमा, पश्चिमा, पश्चिमोत्तरा, उत्तरी, उत्तरपूर्वा, अधस्तनी, ऊर्ध्वा चेति । देवतापरिग्रहवशाच्च पुनरेषैव दिक् दशवोच्यते - ऐन्द्री, आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, कौबेरी, ऐशानी, नागीया, ब्राह्मी चेति ॥ · [ दिकालयोरेकत्वे प्रमाणम् ] ननु च ! येनैव प्रत्ययेन प्रत्यक्षेण लिङ्गेन वा सता दिक्कालाववगम्येते तेनैव तयोर्भेदग्रहणात्कथमेकत्वम् ? तदवगमसमय एव तथा भेदप्रतिभासात् - उक्तमत्र - सर्वत्र तत्प्रत्ययाविशेषादिति ॥ व्यत्ययदर्शनाच्च यैकत्र पूर्वा दिक्, सैवान्यत्र दक्षिणेति गृह्यते - ' प्राग्भागो यः सुराष्ट्राणां, मालवानां स दक्षिणः -- इति ॥ कालेऽपि चिरक्षिप्रादिविभागश्चाव्यवस्थित एव दृश्यते--यो हि अनागत इति परिस्फुरति कालः, स एव वर्तमानो भवति, भूतो दिग्लिङ्गेति । सर्वत्र हि प्राच्यादिव्यवहार एकरूप एव दृश्यत इत्यर्थः । नागीया- नागसम्बन्धिनी । ब्राह्मी ब्रह्मसम्बन्धिनी । नागलोको हि सर्वाधस्ताद्वर्तते ब्रह्मलोकश्च सर्वोपरिष्टादिति पुराणप्रसिद्धिः ॥ कालदिशो रेकत्वं धर्मिग्राहकप्रमाणविरुद्धमिति शङ्कते - नन्विति । सर्वत्रति । न हि दिग्व्यवहारे देशभेदेन वैलक्षण्यं दृष्टमित्यर्थः ॥ व्यत्ययेति । तथा च प्राक्कादिकस्य प्रतिनियतत्वाभावोऽपि दिवैक्यगमकः ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् २) सपमानलक्षणम् 373 भवति च। तथा च चिरमपि शीघ्रीभवति, शीघ्रमपि चिरीभवति । तस्मात्तद्भदोऽप्यौपाधिक इति सिद्धम् ॥ , समानतन्त्रे दिक्कालौ वैतत्यन विचिन्तितौ ।। तन्नेह लिख्यते, लोके द्वेष्या हि बहुभाषिणः ॥ ·८२ ॥ सिद्धः कालश्चाक्षुषो लैङ्गिको वा तन्नानात्वं सिद्धौपाधिकं च । तस्माद्युक्तं निश्चिकाय त्रिकालप्राहीत्येवं सूत्रकारोऽनुमानम् ॥ २८३ ॥ इत्यनुमानपरीक्षा __अथोपमानम् [उपमानलक्षणम् ] अनुमानानन्तरमुपमानं विभागसूत्रे पठित मिति तत्क्रमेण तस्य लक्षणमुच्यतेप्रसिद्ध साधात् साध्यसाधनमुपमानम् ॥ १-१-६॥ चिरमिति। चतुरपुरुषस्य गमन क्रियापेक्षया मन्द क्रियायाश्विरत्वेऽपि इयं मन्दतरपुरुषक्रियापेक्षया शीघ्रा भवतीति चिरत्वशीघ्रत्वादि वा भतीतानागतत्वादि वा न प्रतिनियतमिति दिक्कालावेकैकावेव ॥ समानतन्त्रे-वैशेषिकदर्शने ॥ .. विभागसत्र इति । तत्र वा उपमानस्य शब्दात्प्रथम निर्देशे किं बीजमिति चेत् --- अत्र केचित्-सूचीकटाइन्यायेन अल्पग्रन्थत्वादुपमानस्य प्राथम्यम् । न च तावता प्रत्यक्षापेक्षयाऽपि प्रथम निर्देशापत्तिशङ्कासंभवः; प्रत्यक्षानुमानयो: सर्वप्रमाणमूर्धन्यत्वात् , बहुवादिसम्मतत्वाच्च न तत्र क्रमे विवादः इति वदन्ति । वस्तुतस्तु प्रत्यक्षानुमानयोर्यथोपजीव्योपजीवकभावः क्रमनियामकः स एव प्रत्यक्षोपमानयोः, शब्दोपमानयोरपि । उपमानं हि शक्तिग्राहक प्रमाणम् , न हि शक्ति ज्ञानमन्तग शाब्दबोधसंभवः । अतः शन्दारपूर्व तनिर्देश: । एवं उपमानप्रवृत्तेः सादृश्यदर्शनादिमूलकत्वात् प्रत्यक्षानुमानोपजीवकत्वमप्यस्तीति बदनन्तरं उपमाननिर्देश: ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 उपमानपरीक्षा । न्यायमञ्जरी ___ . अत्र वृद्धनैयायिकास्तावदेवमुपमानस्वरूपमाचक्षते-संशासंशिसम्बन्धप्रतीतिफलं प्रसिद्धतरयोः सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेवोपमानम् । गवयार्थी हि नागरिकोऽनवगतगवयस्वरूपस्तदभिज्ञमारण्यकं पृच्छति 'कीहक् गवयः? ' इति। स तमाह 'यादृशो गौस्तादृशो गवयः' इति । तदेतद्वाक्यमप्रसिद्धस्य 'प्रसिद्धन गवा सादृश्यमभिदधत्तद्वारकमप्रसिद्धस्य गवय'संशाभिधेयत्वं ज्ञापयतीत्युपमानमुच्यते ॥ [उपमानस्य शब्दप्रमाणातिरिक्तत्वम् | ननु ! शब्दस्वभावत्वादस्य 'आप्तोपदेशः शब्दः' इत्यनेन गतार्थत्वान्नेदं प्रमाणान्तरं भवेत् । न च संज्ञासंशिसम्बन्धपरिच्छेदफलत्वेन प्रमाणान्तरता वक्तव्या; फलवैविध्येण प्रमाणानन्त्यप्रसङ्गात् । लौकिकानि हि वचनानि वैदिकानि च विधिनिषेधबोध-. कानि नानाफलान्यपि भवन्ति, न शब्द तामतिकामन्ति -- उच्यते-यत्र शब्दप्रत्ययादेव, · तत्प्रणेतृपुरुषप्रत्ययादेव वा अर्थतथात्वमुपायान्तरानपेक्षमवगम्यते, स आगम एव ; 'तत एवं . वृद्धनैयायिकाः-भाष्यकाराः। प्रसिद्धतरयो:-प्रसिद्धस्य गो:, अप्रसिद्धस्य गवयस्य च। तद्दारकं- सादृश्यज्ञानोत्पादनद्वारेत्यर्थः ॥ 'तद्वारक' इत्यनेन सूचितमर्थमजानाना: 'तस्यागमाबहिर्भावात्' (श्लो.वा.उप.२.) इत्याहुः । तदलकरोति-नन्विति । अस्य -अर्थबोधनस्य । प्रमाणानन्त्यप्रसङ्गमेवोपपादयति - लौकिकानीति। हानोपादानादिनानाफलकानि खलु वाक्यानि। अत: फलभेदान प्रमाणभेदः ॥ उच्यत इत्यादि। सत्यं अतिदेशवाक्यस्मरणात या सादृश्यप्रतीतिः स शाब्दः। उपमितिस्तु तदुत्तरोद्भवा तादृशसादृश्यविशिष्टगवयपिण्डविषयिणी प्रतीतिः । गवयपिण्डस्याननुभूतत्वात् नेयं स्मृतिः। तद्विषये शब्दस्याव्यापृते: न शाब्दी। शब्द: खलु सादृश्योद्बोधनमात्रे विश्राम्यति । अत: इयं प्रमितिरतिरिक्तवेति प्रमाणमप्यतिरिक्तमेवेति सारम् । शब्दप्रत्ययादिति स्वत:प्रामाण्यपक्षे । तत्प्रणेतृपुरुषप्रत्ययादिति स्वपक्षे। प्रणेता .. उच्चारयिता॥ . 1गवय-क. 2 तत:-ख. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] उपमानस्य शम्दातिरिक्तत्वम् 375 तदर्थप्रतीतेः। यत्र तु पुरुषः प्रतीत्युपायमपरमुपदिशति, तत्र तत एवोपायात्तदर्थावधारणम् । उपायमात्रावगमे तु शब्दव्यापारः॥ यथा परार्थानुमाने-अग्निमानयं पर्वतः, धूमवत्त्वात् महानसवदिति। अत्र हि न पुरुषोपदेशविश्वासादेव शैलस्य कृशानुमत्तां प्रतिपत्ता निमित्तान्तरनिरपेक्षः प्रतिपद्यते ; अपि तु तदवबोधकधूमाख्यलिङ्गसामथ्यादेव। तदिह यद्याटविको नागरिकाय गवयार्थिने तदवगमोपायं प्रसिद्धसाधर्म्य नाभ्यधास्यत् , तर्हि तदुपदेश आगम एवान्तरभविष्यत् । तदुपदेशात्त तत एव तदर्थावगम इति सत्यपि शब्दस्वभावत्वे प्रमाणान्तरमेवेदम् । प्रतिपत्ताऽपि नागरिको नारण्यकवाक्यादेव तं प्राणिनं गवयशब्दवाच्यतया बुद्धयते; किन्तु सारूप्यं प्रसिद्धन गवा तस्य पश्यति ॥ ___किमारण्यकवाक्येन न संप्रत्ययो नागरकस्य-न मो न संप्रत्यय इति ; किन्तु सारूप्यमुपायान्तरं तदवगतावसावुपदिष्टवानिति ततोऽवगतिर्भवन्ती न निहोतुं शक्यत इति न शाब्दी सा प्रतीतिः, अपि त्वौपमानिकीति वचनमपि भवदिदमुपमानं प्रमाणान्तरमिति युक्तम्। भाष्याक्षराण्यपि चैतत्पक्षसाक्ष्यच्छायामिव वदन्ति लक्ष्यन्ते। तानि तु ग्रन्थगौरवभयान योज्यन्ते-इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ निमित्तान्तरं-परामर्शादिकम् । नाभ्यधास्यत्, किन्तु विना सादृश्योपदेशं 'अयं गवयपदवाच्यः' इत्यभ्यधास्यत्- इति शेषः ॥ 'नारण्यकवाक्यादेव' इत्युक्तं शृण्वन् पृच्छति--किमित्यादि । तदेवगतौ-संज्ञासंज्ञिसम्बन्धावगतौ-- गवयावगतौ वा। ततः-सारूप्य रूपादुपायान्तरात् शब्दविलक्षणात। वदन्तीव लक्ष्यन्ते इत्यन्वयः । यथा गौरेवं गवयः इत्युपमाने प्रयुक्त' इत्यादिभाष्यमत्र द्रष्टव्यम् ॥ अयं च भाष्यकारपक्ष: कुमारिलै:-'कीदृग्गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकैर्यदि । ब्रवीत्यारण्यको वाक्यं यथा गौर्गवयस्तथा। एतस्मिन्नुपमानत्वं प्रसिद्धम् ' (श्लो. वा. 1-1-5 उप. 1) इत्यत्रोपपादितः। अनुपदमुच्यमानः वार्तिकपक्षस्तु-'श्रुतातिदेशवाक्यानामारण्ये गवये मतिः। या सोपमान केषाञ्चित गोसादृश्यानुरञ्जिता' (6) इत्यत्रोक्तः ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 रूपमानपरीक्षा [उपमानस्वरूपे वार्तिकपक्षः ] अद्यतनास्तु व्याचक्षते - श्रुतातिदेशवाक्यस्य प्रमातुर ' प्रसिद्धे' पिण्डे प्रसिद्धपिण्डसारूप्यज्ञानमिन्द्रियजं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धतिपत्तिफलमुपमानम् । तद्धीन्द्रियजनितमपि धूमज्ञानमिव तदगोचरप्रमेयप्रमिति साधनात् प्रमाणान्तरम । श्रुतातिदेशवाक्यो हि नागरकः कानने परिभ्रमन् गोसदृशं प्राणितमवगच्छति । ततो वनेचरपुरुषकथितं यथा गौस्तथा गवयः' इतिवचनमनुस्मरति ; स्मृत्वा च प्रतिपद्यते -' अयं गवयशब्दवाच्यः' इति । तदेतत्संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध ज्ञानं तज्जन्य' मित्युपमानफलमित्युच्यते ॥ · [ न्यायमञ्चरी प्रत्यक्षं तावदे तस्मिन् विषये न कृतश्रमम । वनस्थगवयाकारपरिच्छेदफलं हि तत् ॥ १ ॥ अनुमानं पुनर्नात्र शङ्कामप्यधिरोहति । क लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धः ? क संज्ञासंज्ञिता मतिः ॥ २ ॥ आगमादपि तत्सिद्धिः न वनेचरभाषितात् । तत्काल संज्ञिनों नास्ति गवयस्य हि दर्शनम् ॥ ३ ॥ न्यायवार्तिके तट्टीकायां चोक्तं भट्टानूदितपक्षमुपक्षिपति - अद्यतनास्त्विति । अतिदेशवाक्यार्थ स्मरणमकृतं पुरोवर्तिनि गवये यत्सादृश्यप्रत्यक्ष तदुपमानमित्यर्थः । ननु तर्हि तत् सादृश्यदर्शन प्रमाणफलं, न तु प्रमाणं, इन्द्रियजन्यत्व दित्यत्राह - तद्धीति । तद्गोचरेति । धूमज्ञानाविषये त्यर्थः । तथा च धूमप्रत्यक्षं स्वविषयापेक्षया फलरूपमपि स्वाविषयवह्निप्रतिपत्तौ यथा प्रमाणं तथा प्रकृते ऽपीत्युक्तं भवति ॥ अस्मिन् पक्षे – ' प्रत्यक्षो गवयस्तावत् सादृश्यस्मृतिरत्र तु' इत्यनेन भट्टपादोक्तं बौद्धोक्तं च दूषणं प्रत्याह- प्रत्यक्षमिति । न हि वयप्रमिति फलं वदामः । वनस्थगत्रयप्रमितिस्तु प्रत्यक्षरूपा । संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध परिच्छेदफलं तूपमानमुच्यते । अतो नेदं प्रत्यक्षमित्यर्थः । तत्-प्रत्यक्षम् । वनेचरभाषितात आगमादित्यन्वयः । तत्कालं वनेचरभाषणकाले । संशिनो गवयस्येत्यन्वयः ॥ 1 सिद्धे - ख. 2 ज्ञानजन्य--क. अवैतम् - ख. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिकम् २] बौद्धोकोषमाननिरासानुवादः 377 संज्ञासंझिनोश्च परिच्छेदे सति तत्सम्बन्धः सुशको भवति नान्यथा। अत एव प्रत्यक्षपूर्वकं संशाकर्मत्याचक्षते ॥ (उपमानविषये दिङ्नागादिबौद्धानामाक्षेप:] एतदाक्षिति - ननु! नागरकप्रश्नमनुरुध्य वनेचरः। ब्रूते ऽतिदेशक वाक्यं यथा गौर्गवयस्तथा ॥४॥ अस्यायमर्थः, यस्य त्वं गोसादृश्यं निरीक्षसे। तमेव गवयं विद्याः स चायं संशिनो ग्रहः ॥ ५॥ सम्पन्धकरणं चेह विशेषेषु न युज्यते । आनन्त्यात् , किन्तु सामान्ये, तश्वत्थमवधारितम् ॥ ६ ॥ प्रत्यक्षपूर्वकं संज्ञाकमेति न हि वैदिकी । चोदना, किं त्यवच्छेदः संझिनोऽत्र विवक्षितः॥ ७ ॥ ___ननु वनेचरभाषणकाले संज्ञिनो गवय स्याप्रत्यक्षत्वेऽपि गवयपदगवययोः संज्ञासंज्ञिपरिज्ञानं कुतो न भवति ? अतीन्द्रियार्थविषयकशब्दप्रयोगः शान्दबोधश्च सर्वानुभवसिद्धः। अत: उपमाननमागेन किं फलं साधनीयमवशिष्यते ? इत्याशङ्कायामाह -- संज्ञेत्यादि। परिच्छेदे - प्रत्यक्षतः परिच्छेदे। एतत्तत्वं तु उत्तरत्र (359) पुटे) व्यक्तीभविष्यति। आचक्षतेतथा च वाचस्पतिमिश्राः-यावदयमसो गयय इति साक्षात्प्रतीते सम्बन्धिनि संज्ञां न निवेशयति तावदयं परिप्लतमति: माता कश्चित् खलु द्रक्ष्यामि तारशं पिण्डं, यत्र गवय संज्ञा प्रतिपत्स्ये' इति प्रमोत्सुक एवोदीक्षते' इति । ___ प्रमाणसमुच्चये दिङ्नागोतं अनुवदति---त दाक्षिरतीति । अस्यवनेचरवाश्यस्य । स चायमिति। तथा चाप्तवाक्यस्यापि शक्तिग्राहकत्वात् सिद्धः शक्तिग्रहः। शक्तिरेव च सम्बन्धः। अत उपमानस्य कृत्यमेव नाम्तीत्यर्थ । ननु वनेचरेण सामान्यतः कथनेऽपि गवयविशेष सम्बन्धग्रहण गवयदर्शनकाल एवानुभवपिढे, तदेतदुपमानफलमिति चेत, तत्राहसम्बन्धकरणमिति। विशेषेषु व्यक्तिषुः आनन्त्यात्-व्यक्तीनामिति शेषः । इत्थं-'यस्य गोसादृश्यं निरीक्षसे त्वं तमेव गवय विद्याः' इत्यर्थकारयकवाझ्यात् । वैदिकी चोदना इत्यन्वयः। अवच्छेद:--अवधारणं, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 उपमानपरीक्षा न्यायमभरी स तु प्रत्यक्षतो वाऽस्तु, प्रमाणान्तरतोऽपि वा। स्मर्य'माणेऽपि चार्थे 'ऽस्ति सङ्केतकरणं क्वचित् ॥ ८ ॥ योऽसौ तत्र त्वया दृष्टः प्राणी स रुरुरुच्यते । क्वचित्तु कैश्चिनिर्दिश्य परोक्षमुपलक्षणैः ॥९॥ संझिनं व्यहारः तत्र संज्ञां नियुञ्जते । दन्तुरो रोमशः श्यामो वामनः पृथुलोचनः ॥ १० ॥ यस्तत्र चिपिटग्रीवस्तं चैत्रमवधारयः । एवमत्रापि गोपिण्डसारूप्येणोपलक्षिते ॥ ११ ॥ वाच्ये वाचकसम्बन्धबोधनं नैव दुर्घटम् । अथ सोपप्लवा वाक्यात् बुद्धिरित्यभिधीयते ॥ १२ ॥ उपप्लवोऽपि सम्बन्धे न कश्चिदनुभूयते। यस्त्वस्ति गवयाकारं प्रति कीदृगसाविति ॥ १३ ॥ सोऽपि प्रत्यक्षतो दृष्टे गवये विनिवर्तते।' प्रत्यक्षागमसिद्धेऽर्थे तस्मान्मानान्तरेण किम् ? ॥ १४ ॥ पूर्व गृहीतस्यैव दृढीकरणमिति यावत् । किं बहुना ? प्रमाणकोव्यप्रविष्टया स्मृत्याऽपि सम्बन्धदृढीकरणं दृश्यत इत्याह-स्मर्यमाणोऽपीति । रुरु:कृष्णसारमृगः । उच्यते इत्यनन्तरं 'इत्यादौ' इति शेषः । एवं 'अवधारयेः' इत्यनन्तरमपि । सर्वथाऽदृष्टचरेऽपि सम्बन्धनिर्णयो युज्यत एवेत्याहक्वचिदिति । दन्तुरः-उन्नतदन्तः । चिपिटग्रीवः-नतनासाविशिष्टग्रीवः । भारण्यकवाक्यात् सोपप्लवा बुद्धिः, उपमानात्तु निरुपप्लवा भवतीत्येतदपि न युक्तमित्याह-अथेति । यस्त्विति । मारण्यकवाक्यश्रवणात् जातेऽपि संज्ञासंज्ञिनिर्णये गवयाकारं प्रति य उपप्लव:-'कीदृगसौ स्यात्' इत्युपप्लवोऽस्ति, सः न सम्बन्धविषयकः। किन्तु विस्मयहेतुकदर्शनौत्सुक्यमूलकः। तच्चौत्सुक्यं गवयदर्शने निवर्तते। अतोऽत्र उपमानस्यातिरिक्तस्यावसर एव नास्तीत्यर्थः ॥ माणोऽपि चार्थो-ख. ते का-स्त्र. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] बौद्धांताक्षेपसमाधानम् 379 - [उक्ताक्षेपसमाधानम् , उपमानस्य शब्दातिरिक्तत्वं च] अत्राहुः-नाटविकरटि'तात्। वाक्यात् विस्पष्टः संज्ञासंशिसम्बन्धप्रत्ययो भवितुमर्हति, संज्ञिनस्तदानीमप्रत्यक्षत्वात् । यद्यपि गोसारूप्यविशिष्टतया तदवगम उपपादितः; तथाऽपि सोपल वेव भवति तदानीं बुद्धिः ॥ न निराकाङ्क्षताबुद्धिस्तदानीमुपजायते । तदुत्पादनपर्यन्तः शब्दव्यापार इष्यते ॥ १५ ॥ न चासौ निर्वहत्यत्र वाच्यसंवित्त्यपेक्षणात् । शब्देन तदनिर्वाहात् न स्वकार्य कृतं भवेत् ॥ १६ ॥ सम्बन्धप्रतिपत्तिश्च सामान्ये 'यद्यपीष्यते । तदप्यविदितव्यक्ति न सम्यगवधारितम् ॥ २७ ॥ गवयाकारवृत्तिश्च तदानीं बुद्धयुपप्लवः । सम्बन्धेऽपि द्यधिष्ठाने दधाति श्यामलां धियम् ॥ १८ ॥ आटविकः -आरण्यकः। विस्पष्टः--निरुपप्लवः। उपपादित:--- भारण्यकवाक्यादिति शेषः ॥ निराकाङ्क्षतेति । वाक्यजन्यजाने निराकाङ्क्षताबुद्धिर्न जायत इत्यर्थः । तदुत्पादनं-निराकाङ्क्षताबुद्धयत्पादनम् । श्यामलां-सकलां, सोपलवामिति यावत् ॥ अयमत्र प्रघट्टकार्थः--आरण्यकवाक्यात सामान्यतः अर्थप्रतिपत्तावपि भाकारविषयकजिज्ञासायाः सत्त्वात् निराकाङ्क्षः प्रत्ययो न भवेत्। गवयदर्शनानन्तरं जायते च सः। स च न शब्दकरणकः, शब्दव्यापारः खलु पूर्व मेवोपरतः । नैन्द्रियिकः, गवयस्यैन्द्रियिकत्वेऽपि सम्बन्धनिर्णयस्यानेन्द्रियिकत्वात् । भादौ सामान्यत: शक्तिप्रदेऽपि न स निरुपप्लवः । सामान्यस्याकारव्यङ्गयत्वेन आकारजिज्ञासायां सत्यां तदभिव्यङ्गयसामान्यस्यापि स्पष्टं प्रतीत्यसंभवात्। सामान्यस्यास्पष्टत्वेन च द्विनिष्ठः संज्ञासंजिसम्बन्धोऽप्यस्पष्ट एव स्यात् । अत: गवयप्रत्यक्षानन्तरमेव निरुपप्लव: सम्बन्धनिर्णयः शक्यः । त-ख. वेव-ख. यदि वेष्यते-ख. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 उपमानपरीक्षा न्यायमचरी प्रत्यक्षपूर्वकं तस्मात् संज्ञाकर्मेति गीयते । कचित्तदेव प्रत्यक्षं स्मृतिद्वारेण कारणम् ॥ १९ ॥ पूर्वदृष्टे कुरङ्गादी सम्बन्धो दर्शितो यथा। चत्रे प्रत्यक्षवत् सिद्धिः दन्तुरादिविशेषणैः ॥ २० ॥ इह पुनरतिदेशवचनसमये गोमादृश्यमात्रोप'देश्ये' सत्यपि संक्षिनि न निवर्तत एवोपप्लवः, प्रमाणान्तरपरिच्छेदसापेक्षकसंज्ञिरूपोपदेशात ॥ [उपमानस्य प्रत्यक्ष द्वैलक्षण्यम्] यत्र गोसादृश्यं पश्यसीति प्रत्यक्षादेव तहस उप'प्लयो विरंस्यतीति चेत्-न-प्रत्यक्षम्येन्द्रिय सन्निकर्षादिस्वभावस्य संज्ञासंज्ञिसम्बन्धबोधकरणासमर्थत्वात् ॥ प्रत्यक्षफलमेतन समर्थ, सत्यमिष्यते। तस्यैव च वयं चूम उपमानप्रमाणताम् । २१ । यथा प्रत्यक्षफलमपि धरणिधरकुहरंभुवि धूमदर्शनान'न्द्रियविषय विभाव'सुबोधसाधनत्वादनुमानम् , एवं गोसारूप्य-. विशेषितविपिनगतगवयपिण्डदर्शनमध्यक्षफलमपि तदनयगतसंज्ञा अतः प्रत्यक्षपूर्वक एव सर्वत्र निरुपप्लवः सम्बन्धनिर्णयः। प्रत्यक्षा मितिपूर्वकत्वात् न प्रत्यक्षत्वम्। प्रत्यक्षपूर्वकं ह्यनुमानादि न हि प्रत्यक्षम् । अतः प्रत्यक्षागमाभ्यां विलक्षणमुपमानम् ॥ प्रकृते उक्तस्थलद्वयवैलक्षण्यमाह-इहेति । . गोसादृश्येत्यादि । गोसादृश्यमानं उपदेश्यं यस्य तावन्मात्रपरिज्ञेये पनि वस्तुनीत्यर्थः ॥ पश्यतीति - एतदर्थकत्वात् अतिदेशवाक्यस्येत्यर्थः ।। ननु यद्यपि इन्द्रियसन्निकर्षादिरूपं प्रत्यक्षं न सम्बन्धबोधने समर्थ, अथापि तत्फलभूतं (तजन्य) यत् सादृश्यदर्शनं-सादृश्य विशिष्टपिण्डदर्शन वा तत् संज्ञाकरणसमर्थ-- उपप्लवनिराकरणसमर्थ---भविष्यतीति शङ्कने--प्रत्यक्षेति । प्रत्यक्षफलं त्वित्यन्वयः । तत्रेष्टापत्तिमाह - सत्यमिति। विशिष्टमेकं वाक्य वा। सत्यमित्यर्धाङ्गीकारे। साध्यमंशमाह - तस्यवे त ॥ सर्वाशे अनुमानं दृष्टान्तयन् अतिरिक्तप्रमाणतामुपमानस्याह-यथेत्यादिना । तदनवगतेति। उक्तपिण्डदर्शनानवगतेत्यर्थः ॥ 'देशे-ख. उप-ख. 'न्द्रिय -स्व. 'सुबोध-क. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाडिकन् २] उपमानस्य प्रत्यक्षानुमानाभ्यां वैलक्षण्यम् 381 संशिसम्बन्धबोधविधानादुपमानमुच्यते। यथा च तत्र पूर्वावगतधूमाग्निप्रतिबन्धस्मरणं सहकारितामुपैति, तथेहापि पूर्वश्रुतारण्यकवाक्यार्थस्मरणम्। यथा च तत्र व्याप्तिवेलायामनालीढविशेषा बुद्धिरधुना पक्षधर्मतावलाद्विशेषे व्यवतिष्ठते --अत्राग्नि रेति, तथाऽत्राप्यनवगतवाच्यविशेषात् वाक्यात् बुद्धिरिदानी वाच्यविशेषे दृष्टे निरुपप्लया जायते-अयं स गवयशब्दाभिधेय इति ॥ . [उपमानस्यानुमानाद्वैलक्षण्यम्] नैतावताऽनुमानमेवेदमित्याशङ्कनीयम्; अनपेक्षित पक्षधर्मा'न्वयव्यतिरेकादिसामग्रीकस्य तत्प्रत्ययोत्पादात् ॥ ' तस्मादयं स गवयो नामेत्येवंविधा मतिः । उपमानैकजन्यैव, न प्रमाणान्तरोद्भवा ॥२२॥ . न चैषा नास्ति, सन्दिग्धा, बाध्यते, कल्पनामात्रं वेति । सर्वथैतस्याः प्रमितेः साधनमुम्मानं प्रमाणनिति सिद्धम् ॥ - तदिदमाह, प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् ॥ एवं सर्वात्मनाऽनुमानसाम्ये तद्यनुमानमेवेदमिति 'प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षसिद्धेः' इत्यादिसूत्रोक्तामाशङ्कामुपक्षिपति-नैतावतेति। 'नाप्रत्यक्षे गवये प्रमाणार्थमुपमानस्य पश्यामः' इतिसूत्रोक्तं सिद्धान्तमाह--पक्षेत्यादि। पक्षधर्मताज्ञानं, अन्वयन्यतिरेकन्याप्तिज्ञानं चेत्यर्थः । उक्तं भट्टपादैरपि न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसंभवात्' इति । उक्तसूत्रस्य चायमर्थः---उपमानस्य प्रमाणार्थ --- प्रमाणप्रयोजनं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धपरिच्छेदरूपं अप्रत्यक्षे गवये न पश्याम इति । एवज पक्षधर्मताज्ञानाभाव उक्तो भवति ॥ ननु वाक्यश्रवणकाले गवयस्याप्रत्यक्षत्वेऽपि गवयदर्शनकाले पक्षधर्मताज्ञानं भवेदिति चेत्-तत्रोक्तं -ज्याप्तिज्ञानाभावादिति। न हि तदानीं लिङ्गप्रत्यक्षमस्तीति भावः ॥ धर्मा-ख. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 उपमानपरीक्षा (न्यायमचरी [सूत्रार्थवर्णनम्] प्रसिद्धसाधादिति कर्मधारयः, तृतीयासमासः, बहुव्रीहिर्वा। प्रसिद्धं च तत् साधर्म्य, प्रसिद्धन गवा वा साधर्म्य गवयस्य, प्रसिद्ध वा साधर्म्य यस्य सः प्रसिद्धसाधो गवयः-तस्मात् प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम्। साध्यः-'संज्ञासंज्ञि'सम्बन्धः, तस्य साधनं बोधनम् ; संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानं वा साध्यं, तस्य साधनं जननमित्यर्थः । एवं प्रसिद्धसाधर्म्यज्ञानमुपमानं, फलं संज्ञासंझिसम्बन्धज्ञानमित्युक्तं भवति ॥ साध्यसाधनशब्देन करणस्य प्रमाणताम् । ब्रवीति, एतच्च मन्तव्यं सर्वत्र परिभाषितम् ॥२३॥ अत एव मध्ये लिखितमिदं -यदुभयतः प्रमाणलक्षणानि व्याप्स्यतीति ॥ कर्मधारय इति । भाष्ये तृतीयासमासः प्रदर्शितः, वार्तिके बहुव्रीहिः। वार्तिके तृतीयासमासस्यानिषेधात् सोऽपीष्ट एव वार्तिककृत इति टीका। एवं समासद्वयेन साकं स्वामिमतः कर्मधारयोऽपि क्रोडीकृतः। साध्य इति । साध्यपदस्य संज्ञासंज्ञिसम्बन्धपरत्वे वस्य साधनं-बोधनम् ; संज्ञासंजिसम्बन्धज्ञानपरत्वे तस्य साधनं-जननमित्यर्थः ॥ पदान्तरं विहाय साध्यसाधनपदप्रयोगफलमाह--साध्यति । साधकतम हि करणमिति भावः। ननु तर्हि इतरप्रमाणलक्षणसूत्रेष्वेवमनिर्देशात् तेषां प्रमाणत्वं न स्यादिति शङ्कायां इदं पदं इतरसूत्रेष्वपि सम्बध्यत इति महर्षिणो मतमित्याह --एतच्चति। कथमिदमवगम्यत इत्यत्राह --- अत एवेति । चतुर्यु प्रमाणेषु मध्यगतमनुमानं, उपमानं च । अनुमानस्य प्रमाणत्वे शाक्यानां न विप्रतिपत्तिरिति उपमानसूत्रे तत्पदं निवेशितम्। तच्च देहलीदीपन्यायेन पूर्वोत्तरत: सम्बध्यत इति भावः ॥ । संज्ञि-ख. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] उपमानप्रयोजनकथनम् 383 अत्यन्तप्रायसाधर्म्यविकल्पादिनिबन्धनः । क्षिप्तः सूत्र'कृता' साक्षादुपमानस्य विप्लवः ॥ २४ ॥ येन सदृशप्रतीतिजन्यते तत्सादृश्य मिति किमत्यन्तसादृश्यादिविकल्पैः॥ [सामान्यमेव न सादृश्यम् । अभिन्नप्रत्यये हेतुर्यथा सामान्यमुच्यते । सदृशप्रत्यये हेतुः तथा सादृश्यमुच्यते ॥ २५ ॥ [उपमानप्रमाणप्रयोजनाक्षेप:] . ननु ! उपमानलक्षणमस्मिन् मोक्षशास्त्रे कोपयुज्यते ? आगमा तावत आत्मज्ञानं मोक्षसाधनं सेतिकर्तव्यताकमवगम्यते, अनुमानादागमप्रामाण्यनिश्चयः, प्रत्यक्षादनुमानस्य व्याप्तिपरिच्छेद इति त्रयमेवोपदेष्टव्यम् ॥ अधिकं सूत्रभाष्ययोर्व्यक्तमित्याह-अत्यन्तेति । अत्र भादिना एकदेशसाधर्म्य विकल्पपरिग्रहः। तथा च सूत्रं 'अत्यन्तप्रायैकदेशसाधादुपमानासिद्धिः' इति । अत्र भाष्यम्-'अत्यन्तसाधादुपमानं न सिध्यति, न चैवं भवति--यथा गौरेवं गौरिति । प्रायसाधादुपमानं न सिध्यति, न हि भवति यथाऽनडानेवं महिष इति। एकदेशसाधादुपमानं न सिध्यतिन हि सर्वेण सर्वमुपमीयते, यत्किञ्चित्साधर्म्यस्य सर्वत्र सत्त्वात् ' इति । अतश्च साधयं निर्वस्तुमशक्यमिति भावः । अत्र प्रतिवक्ति-'प्रसिद्धसाधादुपमानसिद्धेः यथोक्तदोषानुपपत्तिः' इति । भाष्यम्- ' न साधर्म्यस्य कृत्स्नप्रायाल्पभावमाश्रित्योपमानं प्रवर्तते। किं तर्हि ? प्रसिद्धसाधर्म्यात साध्यसाधनभावमाश्रित्य प्रवर्तते। यत्र चैतदस्ति, न तत्रोपमान प्रतिषेद्धं शक्यम् । तस्माद्यथोक्तदोषो नोपपद्यत इति' इति । तथा च साधयॆयत्तायां लोक एव प्रमाणमिति भावः ॥ - सामान्यमेव न सादृश्यम् , विजातीययोरपि मुखचन्द्रयोस्सादृश्यदर्शनात्। न च तत्रान्ततो दव्यत्वादिकमेव सामान्यमस्तीति शंक्यम , मुखघटयो स्सादृश्यादर्शनादित्याह-अभिनेति । भिन्नयोरिति शेषः सदृशेति । न हि सादृश्यप्रतीतिस्थले समानजातिमत्त्वनिर्बन्ध इत्यर्थः ॥ तत्सदृश-ख. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 पमान परीक्षा [ उपमानप्रमाणप्रयोजनम् ] सत्यमेवम् । उपमानमपि क्वचित् गवयालम्भादिचोदनार्थानुष्टाने सोपयोगम् | अनवगतगवयस्वरूपे तदालम्भाभावात् । यथा मुस्तम्भः तथा मुद्गपर्णीति मुद्रपर्ण्याद्यौषधिपरिज्ञानेऽपि तदुपयोगि भवति ॥ [भ्यायमधारी सर्वानुग्रहबुद्वधा च करुणार्द्रमतिर्मुनिः । मोक्षोपयोगाभावेऽपि तस्य लक्षणमुक्तवान् ॥ २६ ॥ ननु ! एवं सति यागौषधाद्युपयोगि अन्यदपि बहुपदेष्टव्यं स्यात्--न- प्रमाणशास्त्रत्वादस्य; प्रमाणमेवार्थपरिच्छित्तिसाधन मिहोपदिश्यते । तच्चतुर्विधमेव, न न्यूनम् अधिकं वेति निर्णीतम् । प्रमेयं तु मोक्षाङ्गमेवोपदिश्यत इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ [मीमांसकसम्मतोपमान स्वरूपम् ] जैमिनीयास्त्वन्यथोपमान स्वरूपं वर्णयन्ति - 'यद' श्रुतातिदेशवाक्यस्य वने गवयपिण्डदर्शनानन्तरं नगरं गतं गोपिण्डमनुस्मरत एतेन सदृशो गौरिति ज्ञानं तदुपमानम् । तस्य विषयः 'संप्रत्यवगम्यमान गवयसादृश्यविशिष्टः परोक्षो गौः, तद्वति वा भाष्यसूचितं प्रयोजनमाह-यथा मुद्ग इति । मोक्षोपयोगाभावेऽ-पीति । साक्षादिति शेषः । अत एवानुपदं यागौषधादि इत्याशङ्कासंगतिः ॥ एवं सति साक्षात् मोक्षोपयोगाभावेऽप्युपदेशे । प्रमेयं त्विति । तथा चास्ति व्यवहारः न्यायशास्त्रं प्रमाणशास्त्रम्, वैशेषिकं प्रमेयशास्त्रम्' इति अत एवानयोः समानतन्त्रत्वम् ॥ * ܕ जैमिनीया इति । अत्रेदं शावर भाष्यं - उपमानमपि सादृश्यं असमि कृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति, यथा गवयदर्शन गोस्मरणस्य ' इति । अश्रुतातिदेशवाक्यस्य अश्रुतातिदेशवाक्यस्यापि । अत एवेत्थं वार्तिकं श्रुतातिदेशवाक्यत्वं न चातीवोपयुज्यते । येऽपि श्रुतद्वाक्याः तेषामेव भवत्ययम् । प्रत्यक्षष्टगोत्वानां वने गवयदर्शिनाम्' इति । अतश्च अतिदेशवाक्यं न नियतमित्यर्थः । एतेनेत्यादि -- तथा च वार्तिकं । तस्माद्यस्मर्यते तत्स्यात् 1 यदा-- ख. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् २] उपमानस्यानुमानवैलक्षण्यमू 385 गवयसादृश्यम्। अत एव न तज्ज्ञानं प्रत्यक्षजन्यम् ; परोक्षगोपिण्डविषयत्वात्। अश्रुतातिदेशवाक्यस्य भावान शाब्दम् ॥ न च स्मरणमेवेदं प्रमेयाधिक्यसंभवात् । गवयेन हि सादृश्यं न पूर्वमवधारितम् ॥ २७ ॥ भूयोऽवयवसामान्ययोगो यद्यपि मन्मते। . सादृश्यं, तस्य तु ज्ञप्तिः गृही ते प्रतियोगिने ॥ २८ ॥ [उपमानं नानुमानम्] न चानुमानिकमिदं ज्ञानम् ; अनपेक्षितपक्षादिधर्मकस्य भावात् । न च गवयगतं सारूप्यं तत्र लिङ्गम् , अपक्षधर्मत्वात् । सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम्' इति । अन न्यायरत्नाकर:-'यस्मादेव प्रत्यक्षे गवये न किञ्चिदुपमानस्य प्रमेयमस्ति, तस्मात्स्मर्यमाणैव गौर्गवयसादृश्यविशिष्टा, तद्विशिष्टं वा सादृश्यं उपमानस्य प्रमेयम्' इति! तथा च गोसदृशो गवय इति ज्ञानं उपमानं सिद्धान्ते । मीमांसकमते तु गवयसदृशो गौरिति ज्ञानमिति बोध्यम् । 'अत एव' इत्यस्यैव प्रपञ्च:-परोक्षेत्यादि । भावात्-उत्पत्तेः॥ . प्रमेयाधिक्यमेवाह-गवयेनेति। गवयनिरूपितसादृश्यविशिष्टगोरेव स्मरणम् । तत्र गवयस्य पूर्वमदृष्टत्वेन तत्सादृश्यविशिष्टत्वेनापूर्वत्वं वर्तत एव । तथोक्तं 'विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमानप्रमाणता' इति । ननु कथं पूर्व सादृश्याज्ञानम् ? भवन्मते हि सादृश्यं 'भूयोऽवयवसामान्ययोगः' (श्लो. वा. उप. 18)। तञ्च गोः प्रत्यक्षकाले गृहीतमेवेत्यत्राह --भूय इत्यादि । तस्येति। तादृशावयवसन्निवेश: गृहीत एव पूर्व, अथापि सादृश्यस्य सप्रतियोगिकत्वेन गवयापरिज्ञाने गवयसादृश्यं कथमिव गृहीतं स्यादित्यर्थः ॥ ... बौद्धाः पुन: उपमानमनुमानेऽन्तर्भावयन्ति । तदेतन्मतं वार्तिककार:'न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसंभवात्' इत्यादिना निराचकार। तदेतदनुवदति-न चेति । यद्यपि उपमानस्यातिरिक्तत्वं पूर्वमेव प्रसाधितम् । अथापि प्रकारभेदसत्त्वात्पुनरप्याह-अनपेक्षितेत्यादि। पक्षधर्मताज्ञानादिरहितस्येति यावत् । अपक्षधर्मत्वादिति। गवयगतं हि सादृश्यं गवये स्यात् , । एता-ख. स्या-ख. NYAYAMANJARI 25 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 [ न्यायमञ्जरी " नापि गोगतम् असिद्धत्वात् प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वाच्च । विषागाववयवजातमपि न गोगतं लिङ्गम्; इदानीं वनस्थस्य तद्ग्रहणाभावात् । अगृहीतस्य च लिङ्गत्वानुपपत्तेः । गवयगतमपि तदलिङ्गमेव पूर्वचदपक्षधर्मत्वात् । तस्माद्भवयसादृश्यविशेषितनगरगत परोक्षगोपिण्डज्ञानं काननवर्तिनः प्रमातुः प्रमाणान्तरं भवतीति अभ्युपगन्तव्यम् ॥ ÷ उपमानपरीक्षा [मीमांसकसम्मतोपमानपरिशीलनम् ] तदिदमनुपपन्नम् एवंविधप्रतीत्यभावात् ॥ प्रसिद्धेन हि सादृश्यं अप्रसिद्धस्य गम्यते । गवा गवयपिण्डस्य, न तु युक्तो विपर्ययः ॥ २९ ॥ तथा हि---अश्रुतातिदेशको नागरकः कानने परिभ्रमेन पूर्व गोर्श प्राणिनमुपलभमान एवं बुद्धयते ; ब्रवीति च - 'अहो नु T न तु गवीत्यर्थः । असिद्धत्वात् - उपमानात्पूर्वमिति शेषः । कथमसिद्धत्वं, asardarata सादृश्यस्य सिद्धत्वादित्यवाह - प्रतिज्ञति । गौः - पुरोवृत्तिपिण्डशा -- एतन्निरूपित्तसादृश्यवत्त्वादित्युक्ते, सादृश्यस्य भूयोऽवयवसामान्ययोगरूपस्य सिद्धत्वेsपि गवयनिरूपित्तत्वस्यासिद्धत्वेन हेतुत्वं न संभवतीति । प्रतिज्ञायैकदेशत्वादिति बहुव्रीहिगर्भः । ननु तर्हि विशेषणं त्यक्ता विषाणादिभूयोऽ-. वयव सामान्यवत्वमेव हेतुरस्तु । पुरोवर्तिनि पिण्डे दृष्टे नगरस्थे गवि विषाणाद्यaratमरणे च जाते हि सादृश्यप्रतीतिरनुभवसिद्धा । न च विषाणाद्यवयवेषु गक्ययावयवसारूप्यप्रतीतिमन्तरा कथं गवये सादृश्यधीजनकत्वं भूयोवयव ज्ञानस्वेति वाच्यम् - सत्यमस्त्यवयवेषु सारूप्यबुद्धि: । नैतत्साध्यम्, अवयविगतं हि तत् साध्यम् । तथा च गवयवावयवसदृशावयववत्त्वाद्गवयवसादृश्यमनुमीयत इति न कापि हानिरित्यत्राह - विषाणादीति । तद्ग्रहणाभावात्वनस्थस्य खलु गौ: परोक्षः । उपमानस्य स्वार्थत्वेन परार्थानुमानरूपत्वं तु न संभवत्येवेत्यत्र शेषः ॥ गवयपिण्डस्य गवा सादृश्यं लोके प्रसिद्धम् । न तु गवयेन सादृश्यं गोरिति विपर्ययों न युक्तः । श्रुतातिदेशवाक्यस्य 'कश्चन प्राणी' इत्यनिर्धारितविशेष: प्रत्ययो न भवति, किन्तु 'गवयोऽयं ' इत्येवेत्यतः - अश्रुतेत्यादि ॥. 1 अप्रसि-ख. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] मीमांसकसम्मतोपमानस्वरूपनिरास: 387 गवा सदृश एष कश्चन प्राणी' इति। न त्वनेन सदृशो गौरिति ज्ञानमभिधानं वा कस्य चिदम्तीति। अतः प्रमितेरेवाभावात् किं प्रमाणचिन्तया? ____ भवतु वैषा बुद्धिः--'अनेन सदृशो गौः'. इति; तथाऽपि स्मृतित्वान्न प्रमाणफलम् ॥ [मीमांसकसम्मतमुपमानं स्मरणरूपमेव] 'ननु'! गोपिण्डमात्रे सत्यं स्मृतिरेवैषा। संप्रत्यवगतगवयसादृश्यविशिष्टत्वं तु तस्य पूर्वमनुपलब्धमधुनैव गम्यते इति न तस्मिन्नेषा स्मृतिः-मैवम् -- गवयसादृश्यस्यापि तत्र पूर्व ग्रहणात् ॥ ननु ! अनवगतगवयेन. गवि गवयसादृश्यमवगतमिति 'चित्रम् - न चित्रम् - व्यक्तितिरस्कृतस्य ग्रहणात् ॥ ननु ! इदमपि चित्रतरम् । गृहीतं च व्यक्तितिरस्कृतं चेति । व्यक्तिर्हि ग्रहणमेव, तत्तिरस्कारे च नास्त्येव ग्रहणम्- उच्यते--.. ___ गोपिण्डमात्रे-विशेष्यांशमात्रे । तथोक्तं वार्तिके-'प्रत्यनेणावबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते। विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमानप्रमाणता' इति । पूर्व ग्रहणादिति । 'प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि सादृश्ये' इति वदता सादृश्यग्रहणमङ्गीकृतमेवेति भावः ॥ ननु गवयगतं गोसादृश्यं प्रत्यक्षमित्युक्तम् । गोगतं गवयसादृश्य तु उपमानविषय इत्याह-नन्विति । व्यक्तीति । तद्व्यक्त्या तिरस्कृतस्येत्यर्थः । अयं भाव: -- सादृश्यं नाम भूयोऽवयवसामान्ययोग इति भवन्मतं, तभिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वमित्यस्माकम्। उभयथापि वस्तुग्रहणकाले स्वरूपतः सादृश्यं गृहीतमेव । परन्तु तद्हणस्य व्यक्तिविश्रान्तत्वेन सादृश्य प्रत्ययो न जायते । सादृश्यप्रतीतिर्हि प्रतियोगिग्रहणसापेक्षा। एवं तदा सादृश्यप्रतीत्यभावात् सादृश्यं व्यक्तितिरस्कृतमित्युच्यते। यथा तमसः तेजोऽभावरूपत्वेऽपि तेजोरूपप्रतियोग्युपस्थित्यपेक्षयाऽभावरूपः प्रकाशते, नान्यथेत्युच्यते, तथा प्रकृतेऽपि गृहीतमपि सादृश्यं प्रतियोग्युपस्थित्यपेक्षया तथा व्यवहियते। अन्यदा तु स्वरूपत इति सादृश्यमपि पूर्व गृहीतमेवेति ॥ नन्वत्र-ख. 'चित्रम्-ख. 25* Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 उपमानपरीक्षा न्यायमचरी नैतदपि चित्रतरम्। तथा हि-वने गययमालोक्य नागरिको न करेणुमनुस्मरति, न करभम , न तुरङ्गम् ; अपि तु विशिष्टमेष पिण्डम् । न च निर्निबन्धनमेवेदं विशिष्टविषयस्मरणमुत्पत्तुमर्हति । तस्मात् यत्रैव परिदृश्यमानपिण्डसादृश्यं पूर्वमवगतं स एवं 'पिण्डो'ऽस्मिन् दृश्यमाने स्मरणपथमवतरति, नेतर इति। सादृश्यग्रहणमसंवेद्यमानमप्यभ्यस्तविषयाविनाभावस्मृतिवत् बलात्परिकल्प्यते। पूर्व च गवयग्रहणाद्विना गवयसदृशीयं गौरिति प्रामीणस्यानुभवो न भवतीति व्यक्तितिरस्कृतं तत्सादृश्यग्रहणमुख्यत इति न किञ्चिचित्रम। तस्मात् स्मृतिरेवेयम् तथा हि प्रतीतिः 'अनेन सदृशो गौर्मया नगरे दृष्टः' इति । न तु 'अद्यैत. सहशो गौश्यते' इति बुद्धिः॥ प्रतियोग्यग्रहणेऽपि सादृश्यप्रहणसंभवः] ननु ! प्रतियोगिग्रहणाद्विना कथं ग्रांन्यस्य . साश्यग्रहणम् ? अत्र भवतेवात्मनः प्रतिकूलममिहितम् (श्लो. वा. उप. ३५) -- सामान्यवञ्च सादृश्यं एकैकत्र समाप्यते। . प्रतियोगिन्यदृष्टेऽपि तस्मात्तदुपलभ्यते ॥ ३०॥ स व भूयोऽषयवसामान्ययोगोऽगृहीतगवयवेनापि नागरकेण प्रहीतुं शक्यते ॥ नागरिक:-- अष्टपूर्वगवय इति यावत् । एवं सर्वत्र । विशिष्टमिति। विक्षणावयवसनिवेशविशिष्टमित्यर्थः । यत्रैव-पिण्ड इति शेष: । मनु व्यक्तिग्रहणेऽपि सादृश्यप्रतीतिर्न दृश्यत इत्यत्राह-- सादृश्येति । भावस्त्वनुपदमेवोकः। प्रतीतिः- स्मृतिरिति यावत् ॥ किममिहितं प्रतिकूलमित्यत्राह-सामान्यवदिति । एवञ्च प्रतियोग्यज्ञानेऽपि साश्यग्रहणं भवतैवोपपादितमित्यर्थः। अतिरिक्ताभावानङ्गीकर्तमते अन्योम्याभावरूपा जातिः, प्रतियोगिग्रहणे सत्यन्योन्याभावरूपतया, तदभावे व स्वरूपतो गृह्यत इत्युच्यते। सोऽयं न्याय: अत्रापि स्मर्तव्यः ।। 1 पिण्डे-क. पति-स. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] मीमांसकसम्मतोपमानं नेष्टमापकम् 389 - अथ तदा तदग्रहणेऽपि सति न तस्य सदृशप्रत्ययः--न तर्हि भूयोऽवयवसामान्ययोगः सादृश्यम् ; किन्तु सहशप्रत्ययहेतुः सादृश्यम्' । यथोक्तम् -'सादृश्यं सहशप्रत्यय हेतुत्वमेव '। भूयोऽवयवसामान्ययोगे च तल्लक्षणे चित्रादावव्याप्तिः। अतिव्याप्तिश्च, प्राण्यन्तरेषु विसदृशेष्यपि तदवयवसामान्यानां खुरादीनां भावात् । भूयस्त्वं तु कियत्तेषामिति न विनः। यावता सादृश्यप्रत्ययोत्पत्तिरिति चेत् , तर्हि सहशप्रत्ययहेतुत्वमेव साहश्यमस्त्विति युक्तम् । तस्मात् गवयदर्शनात्पूर्वमपि गव्यनमिव्यक्तसाहश्यग्रहणोपपत्तः स्मृतिरेवेयम् ॥ मीमांसकसम्मतोपमानस्य फलाभाव:] अथ मतं यथा नैयायिकानां अतिदेशवाक्यवेलायां सोपप्लवा संशासंझिसम्बन्धबुद्धिः उप'मानानि रुपालवीभवति, एवमियमपि-- योऽसौ पूर्व · व्यक्तितिरस्कृता गवि गवय सादृश्यबुद्धिरभूत , सेदानी उपमानाद्यक्तीभविष्यतीति ॥ नेतदस्ति--गवयग्राहिणा प्रत्यक्षेणैव तत्स्पष्टतासिद्धः। यथा भगिनैयायिका उक्ताः (श्लो. वा. उप. ९)-- 'अथ त्वधिकता काचित् प्रत्यक्षादेव सा भवेत् इति तथा नैयायिका अपि युष्मान वक्ष्यन्ति ॥ : सादृश्यस्याम्यादृशस्वेऽपि नास्माकं हानिरित्याह-अथेति । अव्याप्तिरिति। गोगवययोर्निरुच्यमानसादृश्यापेक्षया अभ्याप्यतिम्यासी शेये । तस्मात्-एवं प्रतियोगिस्मरणमन्तरापि सादृश्यप्रतीते: संभवात् ॥ . ननु स्वरूपत. सादृश्यं यद्यपि गृह्यताम् । प्रतियोगिस्मरणघेलायामेव सादृश्यामिभ्यक्तिर्भवतीति भवतेवोक्तम् । तर्हि तदेवोपमानप्रयोजनमस्थिति शकते-अथेति । सोपालवा-ग्यक्तिविशेषापरिज्ञानात्। स्पष्टतासिद्ध:-.. न्यक्तिविशेषस्य दृष्टस्वादित्यर्थः। तथेत्यादि । 'पूर्ववाक्यार्थविज्ञानानाधिस्वं गवये यदि। स्मरणादविशिष्टत्वात् सङ्गतेन प्रमाणता' इति पूर्वतनवासिकम् । संगति:-संवादः -- अनुवादः। अतिदेशवाक्यादनधिकार्यस्वे अनुवादरूपस्वाद सादृश्यम् -ख. हेतुत्वमेव सादृश्यम् -ख. मानं नि-ख. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 उपमानपरीक्षा न्यायमजरी ननु ! वनस्थप्रमातुर्गवयविषयं प्रत्यक्षं कथं ग्रामवर्तिनि गवि सारश्यबुद्धेः स्पष्टतामादधीत ? किं कुर्मः ? तदर्शनानन्तरं सुस्पष्टतत्सादृश्यविशिष्टगोपिण्डस्मरणात् ॥ मीमांसकोक्तोपमानस्य प्रमाणान्तरत्वासंभवः] ननु ! अत एवेदमुपमानं प्रमाणान्तरमुच्यते, प्रत्यक्षस्य सन्निहितगवयस्वरूपमात्रनिष्ठत्वात् । परोक्षे च 'गवि गवय'सादृश्यप्रत्ययस्य विस्पष्टस्यान्यतोऽसिद्धेरिति । उक्तमत्र-स्मृतिरेवेयम् , तथाऽवभासनात्। अनधिगतार्थग्राहि च प्रमाणमुपगच्छन्ति भवन्तः॥ मीमांसकोक्तमुपमानमन्ततोऽनुमानमेव] . भवतु वा स्मृतिविलक्षणेयं प्रतीतिः। तथाऽप्यनुमानजन्यत्वात् न प्रमाणान्तरमाविशति। स्मर्यमाणो गौः धर्मी, एतत्सदृश इति साध्यो धर्मः, एतदवयवसामान्ययोगित्वात् , सन्निहितद्वितीयगवयपिण्डवत् । तदसन्निधाने सामान्येन व्याप्तिदर्शयितव्या --- यत्र यदवयवसामान्ययोगित्वं तत्र तत्सादृश्यम् , यथा यमयोरिति । विशिष्टस्य तद्योगस्य हेतुत्वान्नानैकान्तिकत्वम् । सामान्ययोगोऽन्यः, प्रमाणमुपमान, अधिकार्थत्वे प्रत्यक्षमित्यर्थः। अयं दोषः भवताऽपि स्मर्तव्य इत्यर्थः ॥ सादृश्यबुद्धः-पूर्व गवि स्वरूपतोऽवंगताया इति शेषः। कथं आदधीत इत्यन्वयः । तथा च इदानी गोरप्रत्यक्षत्वेऽपि तत्स्मरणादेव पूर्व गृहीतं सादृश्यं स्पष्टीकृतं भवतीति ॥ मत एवेत्यस्यैव विवरणम् --प्रत्यक्षस्येत्यादि । इयं प्रतीतिः- अनेन सदृशो गौरिति प्रतीतिः। सन्निहितेति । संप्रतिपन्नेति यावत् । तत् इति द्वितीयपिण्डपरम् । यमयोः--यमलयोर्धात्रोः। ननु गवयगतपादशृङ्गाद्यवयवसामान्ययोगो महिषादावप्यस्तीति व्यमिचरितोऽयं हेतुरिति शङ्कायां, अस्य दोषस्य सर्वमतसाधारण्येन विलक्षणस्यावयवसामान्ययोगस्यैव विवक्षणीयतया न व्यभिचार इत्याह-विशिष्टस्येति । नन्वेवमपि हेतुसाध्ययोरैक्यादसिद्धिस्सिद्धसाधनं वेत्यत्राह-सामान्येति । तादृश 1 गवय -ख. भवतु-ख. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] मीमांसकोक्तं उपमानफलम् अन्यश्च सादृश्यमित्युक्तत्वात् न प्रतिज्ञार्थकदेशो हेतुः । अभ्युत्पन्नस्य' नारिकेलद्वीपवासिनः, बालस्य वा तत्प्रत्ययानुत्पादात् न व्याप्तिनैरपेक्ष्येण सा प्रतीतिरिति वक्तव्यम् । तस्मादित्यमनुमानजन्यत्वात् स्मृतित्वाद्वा पूर्वोक्तादसंभवादेव वा नेयमवगतिरुपमानकार्येति सिद्धम् ॥ [मीमांसकस्योपमानप्रयोजनस्यानुवादः ] कश्चास्य भवदुपमानस्य स्वतन्त्रोपयोगः ? एवं ह्याहुर्भवन्तः-(लो. वा. शब्द. ७) 'अपरीक्षामिषेणापि लक्षणानि वदन्नयम् । " न स्वतन्त्रोपयोगित्वनिरपेक्षा णि जल्पति ॥ د 391 प्रतीतेर्व्याप्तिजन्यत्वे प्रमाणमाह अभ्युत्पन्नस्येति । वृद्धोऽप्यन्युत्पन्न: कश्चित् व्युत्पन्नोऽपि गवयगन्धरहितदेशान्तरवासी कश्चित् एतदेशवापि बाल: कश्चित् । एषां तादृशप्रतीत्यनुयात् न शब्दं न प्रत्यक्ष, किन्त्वनुमानमेवेदमित्यर्थः ॥ स्वतन्त्रः--वेदः । क एवमाह ? वेदोपयोग्येवात्र निरूप्यत इति । अत्राह - अपरीक्षेति । अत्र स्वतन्त्र पदार्थः वेद इति पार्थसारथिमिश्रैः सुचरितमिश्रैश्चामिहितम् । अत्रेदमितिवृत्तम्- 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः ' इत्यनेन धर्मस्य श्रुत्येकसमधिगम्यत्वे कथिते, प्रत्यक्षादीनां कुतस्तत्र प्रमाणत्वासंभव इति शङ्कायां प्रत्यक्षादीनामेवंलक्षणकत्वान्न तानि धर्मे प्रमाणीभवितुमर्हन्तीति स्थापनाय प्रत्यक्षादीनां लक्षणानि कथनीयान्यापतितानि । तत्र प्रत्यक्षस्यानुमानस्य च लक्षणं कथितम् । शब्दस्य लक्षणं वक्तव्ये भाष्यकारस्तु शब्दसामान्यस्य लक्षणमनुक्का शब्दविशेषस्य शास्त्रस्यैव लक्षणं वदति -- शास्त्रं च शब्दविज्ञानासनिकृष्टेऽर्थे विज्ञानम् इति । तदिदमसङ्गतम्, शब्द सामान्यलक्षणस्यैव वन्यत्वात् । नच वाच्यं - भाष्यकारः ऐदम्पर्येण न प्रमाणविचारे प्रवृतवान्। श्रुतेरेव प्रकृतवचारणीयत्व स्थापनाय प्रत्यक्षादीनामपरीक्षणीयत्वं कथनीयं संवृत्तमिति प्रमाणनिरूपणदम्पर्याभावात् नार्य महान् दोष इति इति शङ्कायामाह -- अपरीत्यादि । यद्यप्यपरीक्षणीयत्वार्थमेव प्रत्यक्षादीनि लक्षितानि । अथापि नभाकारः स्वैरं वदति। किन्तु वेदविचारस्य प्रकृतत्वात् तदुपयोभ्येव विषय निरूपणीय:, नानुपयोगीति शास्त्रलक्षणमुक्तवान इति । एान ' Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 उपमानपरीक्षा न्यायमञ्जरी मीमांसकोक्तप्रयोजनवर्णनम्] ननु ! उक्त एवोपयोगः सौर्ये चरौ द्रव्यदेवतासारूप्यादाग्नेयविध्यन्तलाभः । 'आग्नेयोऽष्टाकपालः' इत्युप'दिष्टदृष्टादृष्टेति'कर्तव्यताकलापतया निराकाङ्क्षो विधिः। 'सौर्य चळं निर्वपेत् ब्रह्मवर्चसकामः' इत्यत्र प्रधानमात्रोपदेशाद्विध्यादिरस्ति, न तु विध्यन्तः - इतिकर्तव्यताऽभिधानम्। न चानितिकर्तव्यताकं कर्म प्रयोगयोग्यम्। अत: किमियमितिकर्तव्यताजातमिह गृह्यतामित्यपेक्षायां चरुपुरोडाशयो/ह्याद्यौषध साध्य त्वेन द्रव्यसादृश्यात्सूर्याग्न्योश्च तेजस्वितया देवतयोः सारूप्यादाग्नेयेतिकर्तव्यता सौर्य क्रियत इत्युपमानाद्गम्यते ॥ __अपि च क्वचिच्चोदितद्रव्यादावलभ्यमाने प्रतिनिध्युपादानेन. कर्मसमापनात् प्रतिनिधिमात्रोपादाने प्राप्त व्रीहिसदृशनीवारोपावेदोपयोग्येव निरूप्यत इति प्रतिज्ञातम् । तथा चोपमानस्य कः वेदोपयोगः? इति वक्तव्यम् ॥ ___ विध्यन्तः- अङ्गम् । कर्मस्वरूप मेधक: उत्पत्तिविधिः विध्यादिः । सच अङ्गविधौ निराकाङ्क्षः । अतः अङ्गविधिः विध्यन्तः । जैमिनिसूत्रे 'विध्यन्तो वा प्रकृतिवत्' इत्यादावयं शब्दः प्रयुक्तः। अधिकं भाष्ये द्रष्टव्यम् । इति विधिः इत्यन्वयः। सारूप्यादिति। 'यस्य . लिङ्गमर्थसंयोगात्' 'ऐकाऱ्यांद्वा नियम्येत' (जै. सू. 8-1-28) इति सूत्रभाष्ययोः अयं न्यायः प्रदर्शितः। पार्थसारथिमित्रैः शास्त्रदीपिकायां 'सादृश्यविशेषात्त्वेकदेवत्ये सौर्यादौ एकदेवत्यस्याग्नयस्य प्रवृत्तिः' इत्युक्तम् । खण्डदेवेनापि भादीपिकायां सौर्यादिषु औषधद्रव्यकत्वविशिष्टैकदेवताकत्वरूपविशेषसादृश्यादामेयविकारत्वम् ' इत्युपपादितम् ॥ __ प्रयोजनान्तरमप्याह-अपि चेति । क्वचित्-दर्शपूर्णमासादौ। चोदितद्रव्यं-बीह्यादि । प्रतिनिधिः नीवारादिः । प्रतिनिधिमात्रं-प्रतिनिधिसामान्यम् । अयं च न्यायः-'सामान्य तच्चिकीर्षा हि' (जै.सू. 6-3-7) इत्यत्र दर्शितः। अयमर्थः - विहितस्य व्रीह्यादेरलाभे तत्प्रतिनिधित्वेन स्वैरं यत्किञ्चित् गृहीतुं शक्यं, नियामकाभावात् इति चेत्-न-सामान्य 1दिष्टादृष्टेति-ख. साधन-स्व. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] मीमांसको कोपमानफलस्यासामन्जस्यम् 393 दानमुपमानात्प्रतीयत इति। तदाह (श्लो. वा. उप. ५२, ५३)---- 'भिन्नानुमानादुपमेयमुक्ता - सौर्यादिवाक्यैन सहायि दृष्टम् । सादृश्यतोऽग्न्यादियुतं कथं नु प्रत्याययेदित्युपयुज्यते नः । प्रतिनिधिरपि चैवं व्रीहिसादृश्ययोगात् भवति तदपचारे यत्र नीवारजाती। तदपि फलमभीष्टं लक्षणस्योपमाया: 'प्रकृतिरपि च गौणैर्बाध्यते यत्र चान्यैः ॥' मीमांसकोक्तोपमानप्रयोजनपराकरणम् ] तदेतदसमञ्जसम-- प्रसिद्धनाप्रसिद्धस्य सादृश्यमवगम्यते' इत्येषभवद्भिरुत्सृष्टः पन्थाः। विपर्ययस्त्वाश्रितः॥ __ यदप्यदृष्टेन नूतनेनाप्रसिद्धन गवयेन वाक्यसिद्धस्य गोः सादृश्यमुपमानात् प्रतीयत इति--तदिहापि निशातेतिकर्तव्यताकेन गोवत्प्रसिद्धनाग्नेयेन सौर्यस्य गवयवदप्रसिद्धस्य सादृश्यमवगम्यते; मादृश्यमेव नियामकं तत्र, यतस्सामान्यविषयिणी हि चिकीर्षा । सर्वेषां शब्दानामाकृतिपरत्वात् । आकृतेरमूर्तत्वेन क्रियान्वयानहत्वेन तदाश्रयस्य वीह्यादिद्रव्यस्य ग्रहणम् । तत्र पूर्णावयवसामान्ययोगः ब्रीही, ततः किञ्चिन्नयूनतद्योगः नीवारे। इतरत्र च ततोऽपि न्यूनसामान्ययोगः । एवश्व नीवाराणां सदृशतमत्वात् तेषामेव ग्रहणम् । अधिकमन्यत्र ॥ .. उतार्थद्वयं श्लोकवार्तिकेन संवादयति-तदाहेति। उत्सृष्टः-परित्यक्तः। अथवा उत्सर्गेण प्रापित:- उपदिष्टः । अप्रसिद्धगवयसादृश्यं गवि गृह्यते इति खलूपमानफलं भवद्भिरुक्तम् । इदानीं च प्रसिद्धाग्नेयसादृश्यं सौर्ये वर्ण्यत इति विपर्ययः ॥ विपर्ययमेवोपपादयति-यदिति। उक्तमिति शेषः। यत् इति यथेत्यर्थकं वा। एवं उत्तरत्र 'तत् इत्यत्रापि। गवयेन अस्य सादृश्येनान्वयः। एवमुत्तरत्र 'आग्नेयेन' इत्यत्रापि । निर्मातेति । सम्यक् ख पुस्तके नास्ति । त-क. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 उपमानपरीक्षा [ न्यायमअरी न तु गवयेन गोः - सौर्येणाग्नेयस्य । तदिह यस्य 'विध्यन्तार्थता न तत्रोपमानात्सादृश्यावगमः ; यत्र वा तदवगमः, न तत्रेतिकर्तव्यताऽर्थित्वम् ॥ [ अन्तत: मीमांसकोक्तमुपमानं स्मृतिरेव ] ननु ! सौर्ये विध्यन्तार्थिनि प्रतीयमाने द्रव्यदेवतासारूप्यादेराग्नयः स्मरणपथमवतरतीति तत एवासौ विध्यन्तमधिगच्छतीति- एवमपि स्मरणमात्रात् सिद्धेऽर्थे किमुपमानेन ? आग्नेयस्मरणादेव' तदितिकर्तव्यता सौर्ये उपादास्यते । स्मृतिविशेष एंव विषयाधिक्यादुपमानमुच्यते इति चेत्, प्रतिविहितमेतदित्यलं प्रसङ्गेन ॥ [ मीमांसकसम्मतोपमानस्य वैयर्थ्यम् ] किञ्चोपमानप्रतिपादितार्थः न चोदनालक्षणतां बिभर्ति । . तस्मान्न युज्येत ततोऽधिगन्तुं आग्नेयविध्यन्तविशेषलाभः ॥ ३१ ॥ प्रतिनिधिरपि चैवं नास्ति नीवारजातेः न हि भवदुपमानात् ब्रीहिसादृश्यबुद्धिः / ज्ञातेत्यर्थः । न तु' इत्यनन्तरं 'भवन्मते ' इति शेषः । प्रकृते का हानिः ? इत्यत्राह - तदित्यादि । अङ्गापेक्षा हि सौर्येष्टे :ग्रहणं तु आग्नेये, अप्रसिद्ध सादृश्यं खलु प्रसिद्धे गृह्यत इति भवन्मतम् ॥ ननु तावता :- सादृश्य ननु सौर्यसादृश्यस्याग्नेये प्रतीतौ तुल्यवित्तिवेद्यतया आग्नेयसादृश्यं सौर्ये उपस्थाप्यत एवेति भङ्गलाभः संभवतीति शङ्कते नन्विति । विषयाधिक्यादिति । उपपादितमिदं पूर्व (384-385 पुढे ) प्रतिविहितमिति । पूर्वं (पुट. 385) इति शेषः ॥ प्रथमदृष्टान्ते .बाधकमप्याह – किञ्चति । उपमानप्रमाणादेव विध्यन्तलाभे तस्य कथं चोदनै कगम्यत्वमित्यर्थः ! ततः -- उपमानात् ॥ द्वितीयदृष्टान्तस्याप्यसांगत्यमाह - प्रतिनिधिरिति । प्रतिनिधित्व मि-. न हीति । अप्रसिद्धसादृश्यं खलु प्रसिद्धे ग्राह्यं भवताम् । त्यर्थः । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] उपमानपरीक्षोपसंहारः 395 भवति तु मतिरेषा ब्रीहयस्तत्सदृक्षाः इति, न च फलमस्याः किञ्चिदस्ति प्रतीतेः ॥ ३२ ॥ स्वमतोपसंहारः] भवत्यङ्गं यागे वचन गवया'लम्भन मतः तदाकारमाने प्रतिनिधिविवेके च कृतिनाम् । उपायत्वं युष्मत्कथितमुपमानं न भजते; परिग्राह्य तस्मात् प्रवरमुनिगीतं सुमतिभिः ॥ ३३ ॥ इत्युपमानम ॥ इति द्वितीयमाह्निकम् ॥ तत्सदृक्षा.-नीवारसदृशाः। नीवारसादृश्यं व्रीहिषु गृह्यते चेत् नीवारप्रति निधित्वेन व्रीहि त। अधिकावयवसामान्ययोग: व्रीहिषु, ततो न्यून: नीवारेषु इत्युच्यते । एवं सति व्रीहिसादृश्यमेव नीवारेषु गृह्येत। वर्ण्यते च भवद्भिरुपमान वैपरीत्येनेति ॥ अतश्च प्रसिद्धसादृश्यमप्रसिद्ध उपपादयतां सैद्धान्तिकानां मत एव प्रतिनिधिग्रहणादिकं सूपपादमित्युपसंहरति--भवतीत्यादि । लम्बन-क. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 शब्दपरीक्षा तृतीयमाह्निकम् - - शब्द परीक्षा [शब्दलक्षणम् ] उपमानानन्तरं शब्दस्य विभागसूत्रे निर्देशात्तस्य लक्षणं प्रतिपादयितुमाह - [ न्यायमञ्जरी आप्तोपदेशः शब्दः | १–१–७॥ उपदेशः शब्दः इत्युच्यमाने पर्यायमात्रोच्चारणात् अकारके शब्दमात्रे प्रमाण्यप्रसक्तिरिति । तद्विनिवृत्तये पूर्वसूत्रात् साध्यसाधनपदमाकृष्यते । तथाऽपि शब्दान्तर जनके प्रसक्तिरिति प्रत्यक्षसूत्रात् ज्ञानपदस्य, स्मृतिजनकस्य व्यवच्छेदार्थे चार्थग्रहणस्य, संशय विपर्ययजनकनिराकरणाय च व्यवसायात्मकाव्यभिचारिपदयो-. रनुवृत्तिरित्येवमव्यभिचारादिविशेषणार्थप्रतीतिजनक उपदेशः शब्द ८ 1 इत्युक्तं भवति ॥ तदेवं पर्याय मेवोपदेशशब्दं शब्दलक्षणमपेक्षितपूर्वसूत्रोपान्तविशेषणपदं केचिद्याचक्षते । आप्तग्रहणं च लक्षणनिश्चयार्थमाहुः । 'प्राणरसनत्वक्चक्षुः श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः' इत्यत्र भूतग्रहणं वक्ष्यते । एवं तिह्यस्य न प्रमाणान्तरता भविष्यति, उपदेशरूपत्वाविशेषादिति ॥ क्षुण्णं किञ्चिज्जयन्तस्य वर्त्म चेतावतैव नः । सुदूरमस्ति गन्तव्यं गच्छामः स्वरितं ततः ॥ अकारके - बोधाजनके घट, कलश, कुम्भ, इत्यादिरूपे । शब्दान्तरजनके – वीचीतरङ्गन्यायेन शब्दान्तरजनके पूर्वशब्दे । ज्ञानपदस्येति । एवं प्रत्यक्षसूत्र इव 'यत: ' शब्दोऽप्यध्याहर्तव्यः । एतादृशं ज्ञानं यत:, स शब्द इत्यर्थः ॥ एवं पर्याय - उक्तार्थकम् । लक्षणनिश्वयार्थ - उक्तार्थस्य परिचाययावत् । वक्ष्यते इति । अष्टमाहिके तत्सूत्रविवरणवेलायां कमिति " 'भूत' ग्रहणं स्पष्टार्थमिति सहेतुकमुक्तम् । एवं एवं सत्येव । अन्यथा 1 प्रत्यक्ष सूत्रात्- ख. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] सूत्रोक्तशब्द लक्षणविचार: 397 [स्त्रयोजनायां पक्षान्तरम् अन्ये तु ब्रुवते-युक्तमुपदेशपदमेव शब्दलक्षणम् । युक्तं च तन्निश्चयार्थमाप्तग्रहणम्। पूर्वसूत्रोपात्तविशेषणपदानुवृत्तिस्तु नोपयुज्यते, सामान्यलक्षणानन्तरं विशेषलक्षणप्रक्रमात् । सामान्यलक्षणेन च स्मृत्यादिजनकसकलप्रमाणाभासव्युदासे कृते सजातीयप्रत्यक्षादिव्यदच्छेद एव केवलमिदानी वक्तव्यः। तत्र च पर्याय'तया पर्याप्तमुपदेशपदमेव बुद्धयादिपदवदिति किं विशेषणानुवृत्तिक्लेशेन ? इति ॥ [माप्तपदमपि लक्षणघटकमिति पक्ष:] ___ अपर आह-अनवलम्बितसामान्यलक्षणानुसरणदैन्यमनध्याहृतप्राक्तनविशेषणपदमाप्तोपदेशश्शब्दलक्षणम् । न चाकारकेण शब्दान्तरकारिणा वा स्मृतिजनकेन वा संशयाधायिना वा शब्देन किञ्चिदुपदिश्यत इति निर्वचनसव्यपेक्षात् उपदेशग्रहणादेव तन्निवृत्तिः सिद्धा। मिथ्योपदेशे तु रथ्यापुरुषादिवचसि विपरीतप्रतीतिकारिणि प्रसङ्गो न निवर्तत इति तत्प्रतिक्षेपार्थमाप्तग्रहणम् । ऐतिह्य यथार्थप्रतीतिहेतावातानुमानान प्रमाणान्तरत्व'मिति तस्माद्यथाश्रुतमेव सूत्र शब्दलक्षणार्थ युक्तम् ।। ऐतिह्यस्य अज्ञातप्रवक्तृकत्वेन आप्तोपदेशरूपत्वाभावात् अतिरिक्तप्रमाणताsपत्तिः। सूत्रे तु चत्वार्येव प्रमाणानि निर्दिष्टानि । तेन गम्यते आप्तपदं न लक्षपघटकभिमतं सूत्रकर्तुरिति भावः ॥ . . अन्ये त्वित्यादि। प्रमाणसामान्यलक्षणेनैव अकारकशब्दादावतिप्रसङ्गवारणात् न साध्यसाधनादिपदानामाकर्ष इत्याशयः। पर्यायपदनिर्देशेन कथं लक्षणप्राप्तिः? इति शङ्कायां, सत्रकारस्येयं शैलीत्यत्र निदर्शनमाह -बुध्यादीति । 'बुद्धिरुपलब्धिनिमित्यनान्तरम्' इतिवदिस्यर्थः। शिष्टं बुद्धिपरीक्षायामेव दाग्यम् ॥ ___ अनवलम्बित-इत्यादिनाऽनुपदोक्तपक्षवैलक्षण्यं, अनध्याहृत-इत्यादिना प्रथममुपपादितपक्षवैलक्षण्यम् । न च उपदिश्यते इत्यन्वयः । प्रसंगः- अतिप्रसङ्गः। आप्तानुमानादिति। अत एव खलु वेदोप ता-ख. ऐतिह्य-क. ३र-क. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 शब्दपरीक्षा न्यायमअरी [उपदेशपदस्यार्थानुपपत्तिः] भवत्वेवम ! उपदिश्यत इति कोऽर्थः ? अभिधानक्रिया क्रियते। केयमभिधानक्रिया नाम ? प्रतीतिरिति चेत् ; चक्षुरादेरपि तत्करणत्वादुपदेशत्वप्रसङ्गः॥ स्वावगतिपूर्विका प्रतीतिरिति चेत्, धूमादेरप्युपदेशताप्रसङ्गः। चक्षुरादेरपि तत्करणत्वात् उपदेशत्वप्रसङ्गः। स्वसादृश्येन प्रतीतिरिति चेत्, बिम्बस्यापि पादाद्यनु- ' मितावुपदेशत्वप्रसङ्गः, शब्दे च तदभावादनुपदेशत्वं स्यात् । शब्दावच्छिन्ना प्रतीति रिति चेत्, श्रोत्रस्य तजनकत्वादुपदेशत्वप्रसङ्गः, शब्दस्य च स्वावच्छेदेन प्रतीतिजनकत्वनिषेधादनुपदेश त्वंभवेत् । नापि शब्दकरणिका प्रतीतिः ; · अभिः धानक्रियाविवक्षायां, आकाशानुमाने वा तस्योपदेशत्वप्रसङ्गा'. दित्यभिधानक्रियास्वरूपानिश्चयात् न तस्याः करणमुपदेशः॥ . देष्टतया ईश्वरसाधनम्। ऐतिह्येऽपि यथार्थे सामान्यत भातमूलकत्वानुमानालक्षणोपपत्तिः। अयथार्थस्य तु न लक्ष्यतेवेति शेषः ॥ . तत्करणवात्-प्रतीतिकरणत्वात् । स्वावगतीति । शब्दः किल ज्ञात. सन्नेव प्रतीतिकरणं, इन्द्रियं तु अज्ञातमेव स्वरूपसत् । उपदेशपदं च एतादृशविलक्षणार्थकं, प्रयोगरूख्या इत्यर्थः । धूमादेरिति। ज्ञायमानमेव खलु लिङ्गं अनुमितिकरणम् । स्वसादृश्येनेति। अनुमितौ करणं धूमः, प्रमितिस्तु तद्विजातीयवह्निविषयिणी। शब्दे तु यद्विषयको बोधः, तद्विषयक एव शब्दोऽ. पीति अमिमानः। बिम्बस्येति। प्रतिबिम्बस्येत्यर्थः। पूर्णप्रतिबिम्बस्थले अनुमानस्याप्रसरात्। 'यत्र पादादिबिम्बेन गतानामनुमीयते' इति (शब्द-२८) कुमारिलवचनं च स्मरन् आह-पादादीति । प्रत्युतासंभव एवेत्याह-- शब्दे चेति । बोधस्तु घटस्वावच्छिन्नस्य । करणे तु शब्दे, शब्दज्ञाने वा न हि घटत्वं स्थातुमलम् । अतः भत्रापि न सादृश्यलेश इति भावः । शब्दावच्छिन्नति । अयं पक्षः प्रत्यक्षपरीक्षायां वर्णितः। प्रत्युत असंभव एवेत्याह-शब्दस्य चेति। इदमपि प्रत्यक्षलक्षणे अव्यपदेश्यपदप्रयोजन. विचारावसरे प्रतिपादितम् । अभिधानेत्यादि। अभिधानक्रियां प्रत्यपि. 1 स्वसादृश्येन-ख. वप्रसङ्गा-ख. . Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] आप्तलक्षणविचार: 399 [उपदेशपदस्यार्थः] उच्यते-श्रोत्रग्राह्यवस्तुकरणिका तदर्थप्रतीतिरमिधानक्रिया, इत्थं लोके व्यवहारात् । उक्तः, अभिहितश्च स एवार्थों लोके व्यपदिश्यते, यस्तु तथाविधप्रतीतिविषयतां प्रतिपन्नः । श्रोत्रग्राह्यस्य वर्णराशेरेवार्थप्रतीतिकरणत्वात् ; न तु श्रोत्रप्रत्यय विषयः स्फोटत्मा शब्दः। श्रोत्रग्रहणे ह्यर्थे शब्दशब्दः प्रसिद्धः। वर्णा एव च श्रोत्रग्रहणाः। यतोऽर्थप्रतीतिः स शब्द इति तूच्यमाने धूमादिरपि शब्दः स्यात् । अगृहीतसम्बन्धश्च शब्दः शब्दत्वं जह्यात् , अर्थप्रतिपत्तेरकरणात् ॥ केयं अभिधानक्रिया नाम ननु ! प्रतीतेः संविदात्मकत्वात् नाभिधानक्रिया नाम काचिदपूर्वा संविदन्या विद्यते। तत्करणस्य चोपदेशतायामतिप्रसङ्ग इत्युक्तम् ---सत्यम- संविदात्मैव सर्वत्र प्रतीतिः। सा चक्षुरादिकरणिका प्रत्यक्षफलम् , 'लिङ्गकरणिकाऽनुमानफलम् । श्रोत्रग्राह्यकरणिका शब्दफलम्। न हि-दृश्यते, अनुमीयते, अभिधीयत इति पर्याय शब्दाः। तत्प्रतीतिविशेषजनने च शब्दस्योपदेशत्वमुच्यते। आकाशानुमानविवक्षादौ तु तस्य लिङ्गत्वमेवेत्यलं प्रसङ्गेन ॥ [आप्तस्वरूपम्] .. आप्तो भाष्यकृता व्याख्यातः- 'आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषाप्रयुक्त उपदेष्टा च' इति ॥ शब्दस्य उपदेशरूपत्वप्रसङ्गः। शब्दाश्रयत्वेन आकाशानुमाने, तत्र करणस्य शब्दस्य उपदेशरूपत्वप्रसङ्गः॥ श्रोत्रग्रहणे-श्रोत्रग्राह्य इति यावत् । शब्दशब्द:-शब्द इति शब्दः॥ लिङ्गत्वमेवेति। शब्दकरणकप्रतीतित्वेऽपि तस्य, न हि 'अभिधीयते' इति तत्र व्यवहारः ॥ ननु 'साक्षात्कृतधर्मा' इति पदेन धर्मोपदेष्टुरेव आप्तत्वं भाति। एवं सति लौकिकं वाक्यं सर्वमप्रमाणमापतति। एवं अनुमानादिना निर्णीतार्थवक्तरि ' विषयविशेषः-ख. श्रोत्रग्राह्यकरणिका-ख. शब्दः-ख. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 शब्दपरीक्षा [न्यायमञ्जरी धर्म इत्युपदेष्टव्यः कश्चिदर्थो विवक्षितः। साक्षात्करणमेतस्य यथार्थमुपलम्भनम् ॥१॥ न तु प्रत्यक्षेणैव ग्रहणमिति नियमः, अनुमानादि निश्चितार्थोप. देशिनोऽप्याप्तत्वानपायात् ॥ चिख्यापयिषया युक्त इत्युक्ता वीतरागता । उपदेष्टेत्यनेनोक्तं प्रतिपादनकौशलम् ॥२॥ . वीतरागोऽपि मूकादिरुपदेष्टुमशक्तः किं कुर्यात् ? वक्तुं शक्तोऽपि साक्षात्कृतधर्माऽप्यवीतरागो न वक्ति, तूष्णीमास्त इति ॥ तस्य च प्रतिपाद्येऽर्थे धीतरागत्वमिष्यते। सर्वथा वीतरागस्तु पुरुषः कुत्र लभ्यते ॥३॥ . .. ऋष्यार्यल्मेच्छसामान्यं वक्तव्यं चाप्तलक्षणम्। एवं हि लोकेऽप्याप्तोक्तथा व्यवहारो न नत्यति ॥ ४॥ [ दोषक्षय: आप्तत्वं' इति पक्षविमर्श:] येऽप्याप्तिं दोषक्षयमाचक्षते-- तैरपि दोषक्षयः प्रतिपाद्याथेष्वेव वर्णनीयः ; अन्यथा लीके दृश्यमानस्याप्तोक्तिनिबन्धनस्य व्यवहारस्य निहवः स्यात्॥ आप्तत्वं न स्यात् इति शंकायामाह--- धर्म इति । धर्मपदं उपदेष्टव्यपदार्थसामान्योपलक्षकम् । एवं साक्षात्कारपदं सुदृढप्रमाणसामान्योपलक्षकमिति भावः । वाचस्पतिस्तु ‘धर्मा:-पदार्थाः' इत्येव व्याख्यातवान्। वीतरागतेति इच्छायामुपाध्यन्तरानुक्तेः । अवीतरागः-चिख्यापयिषाशून्यः ॥ इतीति । एतदुभयमपि आप्तत्वप्रयोजकम् । प्रतिपाद्येऽर्थ इति । प्रतिपाद्यमानेनार्थेन स्वानिष्टादिकं ज्ञात्वा, यद्यन्यथा वदेत् , स कथं आप्तः । अतः प्रतिपाद्यविषये निर्मत्सरत्वं विवक्षितम् । न तु रागसामान्यामाव:, तादृशस्य शब्दप्रयोगस्याप्यसंभवात् । अन्ततः लोकानुग्रहेच्छ: वा अस्त्येवेति भावः । वस्तुतस्तु–इच्छा अन्या, अन्यश्च रागः। तत्र राग एव कालुण्यापादक इति पूर्णवीतरागाणामपि इच्छया उपदेपसंभव इत्यन्यत्र विस्तरः॥ प्रतिपाद्येष्वर्थेषु प्रतिपाद्यार्थविषयकपक्षपातादिरूपदोषक्षयः इति भावः ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शम्दस्यानुमानरूपत्वाशा 401 अथवा वेदप्रामाण्यसिद्धयर्थत्वाच्छास्त्रस्य तत्प्रणेतुराप्तस्येश्वरस्य यथाश्रुतमेवेदं लक्षणम् , स साक्षात्कृतधर्मेव, धर्मस्येश्वरप्रत्यक्षगोचरत्वात् ॥ [कृपयैव भगवता वेदानामुपदेशः] चिख्यापयिषाप्रयुक्त इति । कारुणिक एव भगवानिति वक्ष्यते। उपदेष्टा च, वेदाद्यागमानां तत्प्रणीतत्वस्य (४ आढिके) समर्थयिष्यमाणत्वात् ॥ [शब्दस्यानुमानेऽन्तर्भावाशङ्का] · आह--आस्तां तावदेतत् ! इदं तु चिन्त्यताम् ! किमर्थमिदं पुनश्शब्दस्य पृथग्लक्षण'मुपदिश्यते' ? शब्दस्य खलु पश्यामो नानुमानाद्विभिन्नताम् । अतस्तल्लक्षणाक्षेपात् न वाच्यं लक्षणान्तरम् ॥५॥ परोक्षविषयत्वं हि तुल्यं तावद्दयोरपि । सामान्यविषयत्वं च सम्बन्धापेक्षणाद्दयोः ॥६॥ अगृहीतेऽपि सम्बन्धे नैकस्यापि प्रवर्तनम् । सम्बन्धश्च विशेषाणामानन्त्यादति दुर्गमः ॥ ७ ॥ अथवेत्यादि । ग्रन्थारम्भ एव न्यायशास्त्रस्य परमं प्रयोजनं वेदप्रामाण्यसंरक्षणमेवेत्युक्तत्वात् , इममर्थमविस्मरन् भाष्यकार: प्रकृतानुगुणतयाऽऽप्तं लिलक्षयिषुः 'धर्म' पदं प्रयुक्तवानितीयं चर्चा वृथैवेति भावः ॥ प्रमाणसमुच्चय वार्तिकादौ दिङ्नागधर्मकीाद्युक्तं संकलय्यानुवदतिआहेति। तल्लक्षणाक्षेपात्-अनुमानलक्षणेनैव आक्षेपात्-स्वतः प्राप्ते। परोक्षेति। एकपम्बन्धिज्ञानविधयैव हि अनुमानस्य प्रवृत्ति:। शाब्देऽपि अयं क्रम एव सिद्धान्ते। वाच्यवाचकभावाख्यवृत्तः सम्बन्धरूपता सम्मतैव । सामान्येति । व्याप्ति: शक्तिग्रहश्चेत्युभयं सामान्यद्वारैवेति हि सिद्धान्त:। ननु अविनाभावरूपसम्बन्धः व्याप्ति:, वाच्यवाचकभावलक्षणश्च सम्बन्ध: शक्तिः। एवं विलक्षणसम्बन्धमूलयोः कथमक्यमिति शंकायामाहसम्बन्धश्चेति। सम्बन्धश्च सर्वत्र नैकरूपो भवतुमर्हति। अन्ततः 'मुपवर्ण्यते-ख. NYAYAMANJARI 26 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 शब्दस्यातिरिक्तप्रमाणत्वपरीक्षा | न्यायमजरी यथा प्रत्यक्षतो धूमं दृष्ट्वाऽग्निरनुमीयते । तथैव शब्दमाकर्ण्य तदर्थोऽप्यवगम्यते ॥ ८ ॥ अन्वयव्यतिरेकौ च भवतोऽत्रापि लिङ्गवत् । यो यत्र दृश्यते शब्दः स तस्यार्थस्य वाचकः । ९ ॥ पक्षधर्मत्वमप्यस्ति शब्द एव यतोऽर्थवान् । प्रकल्पयिष्यते पक्षो धूमो दहनवानिव ॥ १० ॥ 'तत्र धूमत्वसामान्यं यथा वहति हेतुताम् । गोत्वादिशब्दसामान्यं तद्वदत्रापि वक्ष्यति ॥ २६ एवं विषयसामग्रीसाभ्यादेकत्वनिश्चये । न विलक्षणतामात्रं किञ्चिदन्यत्वकारणम् ॥ ६२ ॥ पूर्ववर्णक्रमोद्भूतसंस्कार सहकारिता । पुरुषापेक्षवृत्तित्वं विवक्षानुसृतिक्रमः ॥ १३ ॥ इत्यादिना विशेषेण न प्रमाणान्तरं भवेत् । कार्यकारणधर्मादिविशेषोऽत्रापि नास्ति किम् ? ॥ १४ ॥ यथेष्टविनियोज्यत्वमपि नान्यत्वकारणम् । हस्तसंज्ञादिलिङ्गेऽपि तथाभावस्य दर्शनात् ॥ १५ ॥ · अन्वयव्यतिरेकादिभेदात् व्याप्तेरपि यथा भेदः, तथाऽयमध्येकः सम्बन्धविशेषोऽस्तु । प्रत्यायन क्रमस्तु तुल्य एव । अयमेवार्थ: अनन्तरश्लोकैः उपपाद्यते । गोत्वादीति । गकारोत्तरत्वादिरूपं सामान्यं निखिलगोशब्देषुअस्त्येव ॥ विलक्षणता - अनुमिनोमि, शाब्दयामि इत्याद्यनुभवरूपं वैलक्षण्यम् । तथा सति हि हस्तचेष्टादीनां अर्थसूचकानामपि प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गः । शब्द। प्रमाणवैलक्षण्यमेवाह -- पूर्वेत्यादि । एवं सालक्षण्यमप्याह -- कार्येत्यादि । यथेष्टेत्यादि । धूमात् वह्नयनुमानादिकं न पुरुषतन्त्र, शब्दस्तु पुरुषतन्त्रः । 'स्वायते शब्दप्रयोगे इत्यादिर्हि न्यायः । तथाभावस्य स्वायत्तस्त्रस्य ननु अनुमाने महानसादिदृष्टान्तापेक्षा नियता, न तथा शाब्दबोधे इति शङ्कायां असकृदभ्यस्तविषये अनुमानेऽपि न दृष्टान्तापेक्षा नियता । अनभ्यस्तु सा - तत्र घूमत्वसामान्य - ख. 2 वक्ष्यते - ख. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 403 आह्निकम् ३] शम्दस्यानुमानरूपत्वं वैशेषिकस्यापि सम्मतम् दृष्टान्तनिरपेक्षत्त्वमभ्यस्ते विषये समम्। अनभ्यस्ते तु सम्बन्धस्मृतिसापेक्षता द्वयोः॥१६॥ अनेकप्रतिभोत्पत्तिहेतुत्वमपि विद्यते । अस्पष्टलि) कस्मिंश्चिदश्व इत्यादिशब्दवत् ॥ १७॥ स्फुटार्थानवसायाश्च प्रमाणाभासतो यथा । लिङ्गे तथैव शब्देऽपि नानार्थभ्रमकारिणि ॥ १८ ॥ अपि च प्रतिमामात्रे शब्दाजानेऽपि कुत्रचित् । आप्तवादत्वलिङ्गेन जन्यते निश्चिता मतिः ॥ १९ ॥ [शब्दस्यानुमानरूपता समानतन्त्रानुमता] अत एव हि मन्यन्ते शब्दस्यापि विपश्चितः । आप्तवादाविसंवादसामान्यादनुमानताम् ॥ २०॥ समानवेत्याह-दृष्टान्तेति। ननु एक एव अश्वादिशब्दः, श्रोतृप्रतिभानुगुणं, मृगविशेष-श्वोऽभवित्राद्यर्थान् बहून् प्रत्याययति, न तथा धूमः नानाऽर्थान् प्रत्याययति किन्तु वह्निमेकं। एवं स्फुटार्थत्वास्फुटार्थत्वादिभेदः शब्दे दृश्यते, न धूमादौ। अतः अस्ति महदन्तरं इति शंकायामाह -- अनेकेत्यादि । अस्पष्टलिङ्ग इति। धूमधूलीपटलसाधारणाकारज्ञानात्, एकस्य वयनुमितिः, अपरस्य सेनाद्यनुमितिरिति दृश्यत एव अनुमितावपि प्रतिपत्तिभेदः। इदं च वैभवेन, स्पष्टलिङ्गकेऽपि विवक्षानुगुणं प्रतिपत्तिभेदः दृश्यत एव । यथा धूमात् . वह्नयनुमितिः, तथैव कदाचित् तृणादेः, मनुष्यसद्भावस्य वाऽनुमानं यथाऽपेक्षं भवत्येव। एवं स्पष्टास्पष्टप्रतीत्यादिकमपि यथाऽनुभवं तुल्यमेव। अनुमानापेक्षत्वस्य शब्देऽवर्जनीयतया, ततोऽपि तस्य न स्वतन्त्रप्रमाणतेत्याहअपिचेति॥ विपश्चित:-कणादप्रशस्तपादादयः। एतेन शाब्दं व्याख्यातम्' (९.२-३) इत्यादिसूत्रभाष्य-कन्दल्यादिषु अस्य विस्तरो द्रष्टव्यः । 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानं' इति कथनात, शब्दस्य प्रामाण्यं यत् अविसंवादरूपं, तत् आप्तत्वमूलमेव वक्तव्यम् । तत्परित्यज्य शब्दो न प्रमाणमेव इति कथं युज्येत ? एवञ्च अनुमानवत् शब्दोऽपि स्वप्रामाण्ये परमुखमेव निरीक्षत इति इदमनुमानमेवेत्यर्थः । यद्यपीयं प्रक्रिया औद्धानाम् , 'आप्तवादाविसंवादात ' इत्यायधं च दृश्यते प्रमाणवार्तिके (1-225-228); अथापि विषयतौल्यं वैशेषिकबौद्धयोरस्मिन् । अथवा विपश्चित इति धर्मकीर्त्यादय एव उच्यन्ते ॥ 26* Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 शब्दस्यातिरिक्तप्रमाणस्वपरीक्षा न्यायमञ्जरी [शब्दस्यानुमानान्तर्भावे युक्तयन्तरम् किञ्च शब्दो विवक्षायामेव प्रामाण्यमश्नुते । न बाहो; व्यभिचारित्वात् तस्यां चैतस्य लिङ्गता ॥ २१ ॥ [शब्दस्यातिरिक्तप्रमाणत्वसाधनम् ] 'तत्राभिधीयते। द्विविधः शब्दः, पदात्मा वाफ्यात्मा चेति । तत्र वाक्यमनवगतसम्बन्धमेव वाक्यार्थमवगमयितुमलम् । अभिनव-.. विरचितश्लोकश्रवणे सति पदसंस्कृतमतीनां तदर्थावगमदर्शनात् । अतः सम्बधाधिगममूलप्रवृत्तिनाऽनुमानेन तस्य कथं साम्य- . संभावना ॥ पदस्य तु सम्बन्धाधिगमसापेक्षत्वे सत्यपि सामग्रीभेदात् : विषयभेदाच्चानुमानाद्भिन्नत्वम्। विषयस्तावद्विसदृश एवं पदलिङ्गयोः। तद्वन्मात्रं पदस्थार्थ इति च स्थापयिष्यते (५ आह्निके) । । अनुमानं तु वाक्यार्थविषयम् ---अत्राग्निः, अग्निमान् पर्वत इति ततः प्रतिपत्तेः। उक्तं च (पु. 311) तत्र धर्मविशिष्टो धर्मी साध्य इति ।। किञ्चत्यादि। 'एतदर्थशेधेच्छया भयं शब्दः प्रयुक्तः ' इति खलु जानाति लोकः शब्दश्रवणसमनन्तरम् । अनेन शब्दस्य वक्तृगतेच्छाविशेषानुमापकत्वं स्पष्टम् । अतः तादृशेच्छायां शब्दः लिङ्गम् । न तु बाहो .... घटादौ। अतद्बोधेच्छया उच्चरितेन शब्देन तद्बोधस्यापि जननात् । अतः इच्छानुमानमन्तरा शब्दो न बोधमितुमलम् । इच्छायो चानुमितायां तद्विषयतयाऽर्थप्रतीति: । अतः शब्दः नार्थाशे प्रमाणम्। इच्छाया आन्तरस्वात् बाझा'. इति पदम् ॥ अनवगतसम्बन्धमेवेति, वाक्ये शत्यनङ्गीकारात् । तस्य- वाक्यस्यः तद्वन्मात्रं --जातिविशिष्टव्यक्तिमात्रम् । मात्रचा परस्परान्वयव्युदासः । स तु संसर्गमर्यादालभ्य इति वक्ष्यते । एवञ्च वाक्यात अर्थप्रतीतौ तावति शक्तरभावात् सम्बन्धाभावामानुमानप्रसरः। पदेन तु व्यक्तिमात्र बोध्यते, नान्वयादिः। अतस्तत्रापि पदस्य वाक्यार्थस्य च च कश्चन सम्बन्ध इति नानुमानप्रसर इत्यर्थः ॥ 1 अत्रा -क. -गमन-ख. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 आह्निकम् ३] शब्दस्यानुमानद्वैलक्षण्यवर्णनम् [पदानामन्वयबोधकत्वविचार ननु पदान्यपि वाक्यार्थवृत्तीनि सन्ति--गोमान , औपगया. कुम्भकार इति--सत्यम्-फिन्तु तेष्वपि साकाङ्क्षताऽस्त्येव : पदान्तरमन्तरेण निराकाङ्क्ष'प्रत्ययानुत्पादात्। गोमान् कः? इत्याकाङ्क्षाया अनिवृत्तेः ॥ अपि च पर्वतादिविशेष्यप्रतिपत्तिपूर्विका पावकादिविशेषणाव गतिर्लिङ्गादुदेति। पदात्तु विशषणावगतिपूर्विका विशेष्यावगतिरिनि विषयभेदः ॥ [शब्द: हेतुरेव, न पक्षः) ननु ! उक्तं- यथाऽनुमाने धर्मविशिष्टो धर्मी साध्यः, एव. मिहार्थविशिष्टः शब्दः साध्यो भवतु- मैवम्-शब्दस्य हेतुत्वात् । । न च हेतुरेवं पक्षो भवितुमर्हतीति ॥ [शब्दस्य हेतुत्वेऽपि अनुमानासंभवः] ननु ! यथाऽग्निमानयं धूमः, धूमत्वात् महानसधूमवदित्युक्तं.. पदानीति। गोमान् इति पदेन हि गोस्वामिरूपः गोविशिष्टपुरुषरूप: विशिष्टोऽर्थः प्रतीयते। तत्रं गोपदार्थस्य पुरुषस्य च स्वत्वस्वामिस्वादिकमपि नेनैव पदेन प्रत्याय्यम् । अतः पदमपि अन्वितमेवार्थ वाक्यार्थरूपं बोधयत्येव । ततश्च 'तद्वन्मात्र' पदस्यार्थ, अनुमान तु वाक्यार्थविषकं' इति गतमेवेत्याशयः । इदं च 'सुप्तिङन्तं पदं' इति पदलक्षणामिप्रायेण। 'शक्तं पदं इति, सिद्धान्ते तु 'गोमान्' इति विशिष्टे नैका शक्तिः, अतश्च योधकत्वमपि न विशिष्टस्येति नायमाक्षेपः ॥ __ अनिवृत्तरिति । ततश्च न तावन्मानं शब्दप्रमाणं, विचारस्तु तदधिकृत्यैव। 'गोमान्' इत्यत्र प्रकृतिप्रत्ययभावात् कथञ्चित् विशिष्टबोधजननेऽपि, अनुमिते: पक्षसाध्यादिविशिष्टप्रतीतिरूपत्वात् , तादृश: बोधः न एकेन पदेन संभवति, वाक्ये तु शक्तिर्नास्तीति पूर्वोक्त युक्तमेवेति भावः ॥ विशेषणेति। पार्णिक एव खलु विशिष्टबोधः॥ अग्निमा निति । व्याप्तेः सम्बन्धरूपत्वात् एवं व्यवहारः पूर्व (पु-311) मप्युपपादितः। नैय्यायिकास्तु धूममेव धर्मीकृत्य तस्यैवाग्निविशिष्टता ' साकाईता-ख, मईति-स्व. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 शब्दस्यातिरिक्तपमाणत्वपरीक्षा न्यायमञ्जरी 'सा देशस्याग्नियुक्तस्य, धूमस्यान्यैश्चकल्पिता' (श्लो-वा-अनु-48) इति । एवं गोशब्द एवार्थवत्वेन साध्यताम! 'गोशब्दत्वादित्यादि सामान्यं च हेतूक्रियताम् ! इति-एतदपि दुर्घटम्-शब्दस्य धर्मिणः किं अर्थविशिष्टत्वं वा साध्यते ? प्रत्यायनशक्तिविशिष्टत्वं वा? अर्थप्रतीतिविशिष्टत्वं वा? न तावदर्थविशिष्टत्वं साध्यम् ; शैलज्वलनयोरिव शब्दार्थयोः धर्मधर्मभावाभावात् ।। अथार्थ विषयत्वाच्छब्दस्यार्थविशिष्टतेत्युच्यते । तदप्ययुक्तम्। तत्प्रतीतिजननमन्तरेण तद्विषयत्वानुपपत्तेः। प्रतीतौ तु सिद्धायां किं तद्विषयत्वद्वारकेण तद्धर्मत्वेन? यदि तु तद्विषयत्वमूला तद्धर्मत्व• पूर्विकाऽर्थप्रतीतिः, अर्थप्रतीतिमूल तद्विषयत्वम, तदितरेतराश्रयम्।। तस्मानार्थविशिष्टः शब्दः साध्यः ॥ नाप्यर्थप्रत्यायनशक्तिविशिष्टः ; तदर्थितया शब्दप्रयोगाभावात्।। न शक्ति सिद्धये शब्दः कथ्यते श्रूयतेऽपि वा। . अर्थगत्यर्थमेवामुं शृण्वन्ति च वदन्ति च ॥ २२ ॥ नाप्यर्थप्रतीतिविशिष्टः शब्दः पक्षतामनुभवितुमर्हति ; सिद्धयसिद्धिविकल्पानुपपत्तेः॥ असिद्धयाऽपि तद्वत्त्वं शब्दस्थार्थघिया कथम? सिद्धायां तत्प्रतीतौ वा किमन्यदनुमीयते ॥२३॥ मनुमेयामाहुरित्याह -धूमस्येति" इति न्यायरत्नाकरः। अन्तरेणेति न हि शब्दः बुध्यादिवत् सविषय: पदार्थः । सिद्धायामिति। तदेव खल्वद्य विचार्यते । अतः तथा विवक्षा न संभवति। विवक्षायां च अन्योन्याश्रयो जागरूकः। अर्थस्य शब्दधर्मत्वसिद्धौ, बोधसंभवः। बोधे जात एव तन्नि बन्धनतद्वर्मत्वसिद्धिः इति । तदर्थितया- तदपेक्षया-तदिच्छया ॥ विशिष्ट इति। वैशिष्टयं चात्र न जन्यजनकभावरूपं, किन्तु पूर्वोत्तरकालसम्बन्धित्वमात्रम् । तेन अनुपदोक्तात् इतरेतराश्रयग्रस्तपक्षात विशेषः॥ 1 गोत्वादि-क. यथार्थ-क. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दानुमानयोः सामग्रीभेदादपि भेदः 407 ज्वलनादावपि तुल्यो विकल्प इति चेत् । न हि तत्राग्निधूमेन जन्यते, अपि तु गम्यते । इयं त्वर्थप्रतीतिर्जन्यते शब्देनेत्यस्यामेव सिद्धासिद्धत्वविकल्पावसरः। तस्मात् विधाऽपि न शनस्य पक्षत्वम् ॥ शब्दस्य पक्षस्वमसम्मवि च] अपि च गोशब्दे धर्मिणि गत्वादिसामान्यात्मकस्य हेतोग्रहणं, ततो व्याप्तिस्मरणम्, ततः परामर्शः, ततोऽर्थप्रतिपत्तिरिति कालदाघीयस्त्वात् धर्मी तिरोहितो भवेत्। न पर्वतवदवस्थितिः तस्य'। अपि तूचरितप्रध्वंसि त्वं शब्दस्य। न च शब्दमर्थवत्वेन लोकः प्रतिपद्यते, किन्तु शब्दात् पृथगेवार्थमिति न सर्वथा शब्दः पक्षः । अतो धर्मविशिष्टस्य धर्मिणः साध्यस्येहासंभवाच्छब्द लिङ्गयोर्महान् विषयभेदः॥ [शब्दानुमानयोः सामग्रीभेदादपि वैलक्षण्यम्] सामग्रीमेदः खल्वपि- --पक्षधर्मान्वयादिरूपसापेक्षमनुमान व्याख्यातं, शब्दे तु न तानि सन्ति रूपाणि । तथा च शब्दस्य ज्वलनादाविति। - अग्निविशिष्टधूमस्य पक्षत्वात् साध्यस्य पक्षेऽन्तर्भावः समान एव। न हीति। अग्निवैशिष्ट्यं च धूमे व्याप्यन्यापक. भावतः, न तु जन्य जनकभावतः। तादृशं च लिङ्गं अग्नेर्गमकमिति न भन्योन्याश्रयस्य, सिध्यसिद्धिविकल्पस्य वा प्रसक्तिः। प्रकृते तु शब्दाधीनबोधस्य शदविशेषणत्वात् दोष एव । अत एव वाच्यवाचकभावसम्बन्धात अर्थविशिष्टः शब्दः अर्थस्य ग़मको भवस्विति शंकाऽपि निरस्ता। वाच्यवाचकमावस्यैव गमकत्वरूपत्वात्, तस्यैव विचार्यमाणत्वात् ॥ ... गत्वादि-अत्र आदिना तदुत्तर'ओत्व'मादिग्रहणम् । धर्मी-शब्द।। ननु तर्हि शब्दस्य पक्षत्वं कुत्रापि न स्यात्, ततश्च शब्दानित्यत्वाद्यनुमानानामपि जलाअलिरित्यतः अनुभवविरोधमाह-न चेति । यद्यपि लोकेऽपि अर्थवानयं शब्दः, निरर्थकोऽयं शब्द इत्यादिरस्ति व्यवहारः, अथापीदमभ्युच्चयदृषणं भवतु, मुख्यदूषणं तु आदावेवोक्तम् ॥ 1 तस्या:-ग. 2 त्वाच्छशब्दस्य-क. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 शब्दस्यातिरिक्तप्रमाणत्वपरीक्षा न्यायमञ्जरी पक्षत्वप्रतिक्षेपान्न तद्धर्मतया गत्वादिसामान्यस्य लिङ्गता। न चार्थस्य धर्मित्वम: सिद्धयसिद्धिविकल्पानुपपत्तेः। न च तद्धर्मत्वं शब्दस्य शक्यते वक्तुम् । तत्र वृत्त्यभावात् । प्रतीतिजनकत्वेन तद्धर्मतायामुच्यमानायां पूर्ववदितरेतराश्रयः; पक्षधर्मादिवलेन प्रतीतिः, प्रतीतौ च सत्यां पक्षधर्मादिरूपलाभः ॥ शब्द: न सर्वथाऽर्थधर्मः] अपि च यद्यर्थधर्मतया शब्दस्य पक्षधर्मत्वं भवेत्, तदाऽनवगतधूमाग्निसम्बन्धोऽपि यथा धूमस्य पर्वतधर्मतां गृह्णात्येव, तथाऽनवगतशब्दार्थसम्बन्धोऽपि अर्थधर्मतां शब्दस्य गृह्णीयात् . न च गृह्णातीत्यतो नास्ति पक्षधर्मत्वं शब्दस्येति ॥ [अनुमानसामग्रीरूपत्वमपि दुर्वचम् अन्वयव्यतिरेकावपि तस्य दुरुपपादौ ; देशे काले च शब्दाथंयोरनुगमाभावात्। न हि यत्र देशे शब्दः तत्रार्थः। यथोक्तं श्रोत्रियैः--'मुखे हि शब्दमुपलभामहे, भूमावर्थम्' इति। वयं तु कर्णाकाशे श्रोत्रमुपलभामहे-इत्यास्तामेतत् ॥ नापि यत्र काले शब्दः तत्रार्थः ; इदानीं युधिष्ठिरार्थाभावेऽपि 'युधिष्ठिरशब्दसद्भावात् । अर्थशब्दार्थयोः अन्वयाभावेऽपि तद्वद्धयो'रन्वयो ग्रहीष्यते इत्युच्यते । तर्हि वक्तव्यं- किं अर्थबुद्धावुत्पन्नायामन्ययो गृह्यते? अनुत्पनायां वा? अनुत्पन्नायां तावत् ___ननु ‘गोपदवाच्यः कः ?' इति तात्पर्येण 'कः.गौः?' इति प्रश्न:, 'अयं गौः' इत्युत्तरं च सर्वानुभवसिद्धम्। अतः कथञ्चित् शब्दार्थयो: सम्बन्ध उपपादनीयः । तमादायैव अर्थस्य पक्षत्वमुपपादयामः-इति शंकायां आह-- अपि चेति । उक्तप्रश्नगतगवादिपदानि वाच्यपर्यन्तं उपचरितानि । अन्यथा व्याप्तिमजानतोऽपि, प्रथमं वा धूमवान् पर्वत इतिवत् वाच्यवाचकनामजानतोऽपि 'अयं गौः' इति प्रत्ययः स्यात् । अतः शब्दः नार्थधर्मः ॥ चकारः घाऽर्थे । वयं त्वित्यादि । 'भूमावर्थम्' इति तु स्थितमेव । 1 तबुद्धयो-ख. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३) शम्दसामग्रया: अनुमानसामग्रीवलक्षण्यम् 409 खरूपासत्त्वात् कुतोऽन्वयग्रहणम् ? उत्पन्नायां त्वर्थबुद्धौ किमन्वयग्रहणेनेति नैष्फल्यम्। तत्पूर्वकत्वे तु पूर्ववदितरेतराश्रयम्। एतेन व्यतिरेकग्रहणमपि व्याख्यातम् ॥ [शब्दार्थयोरन्वयव्यतिरेकसमर्थनं, तहषणं च] ननु ! आवापोद्वापद्वारेण शब्दार्थसम्बन्धे निश्चीयमाने उपयुज्यते एवान्वयव्यतिरेको। यथोक्तम् (श्लो. वा. 1-1-7-160) 'यत्र योऽन्वेति यं शब्दमर्थस्तस्य भवेदसौ' इतिसत्यमेतत्-किन्तु समयबलेन सिद्धायामर्थबुद्धौ समयनियमार्थावन्वयव्यतिरेको शब्दे ; नान्वयव्यतिरे'ककृता' च धूमादेरिवाग्नेः ततोऽर्थबुद्धिः॥ अपि च धूमादिभ्यः प्रतीतिश्च नैवावगतिपूर्विका। ... इहावगतिपूर्वव शब्दादुत्पद्यते मतिः ॥ २४ ॥ आवावेत्यादि। आवापोद्वापाभ्यां शक्तिग्रह इति सिद्धान्तेऽपि सम्मतम् । शक्तिग्रहो नाम अयं शब्दः एतदर्थवाचीत्येवंरूपः वाच्यवाचकभावग्रह एव। तथा च तत्र शब्दार्थयोरन्वयव्यतिरेको दृष्टावेवेत्यर्थः । समयबलेनेति । 'गामानय' इतिवाक्यश्रवणपमनन्तरं गवानयने प्रवृति पश्यतः सामान्यतः 'इदं गवानयनं एतच्छब्दमूलं' इति शक्तिग्रहे सिद्ध 'कस्य पदस्य गौः अर्थः ? कस्य आनयनम्.' इत्यनवगमे,-'घटं आनय' 'अश्वं बधान' इत्याद्यावापोद्वापाभ्यां सामान्यतो गृहीतां शक्तिं विशिष्य जानाति बालः। नात्र शक्तिग्रहः भावापोद्वापात्, किन्तु तेन नियममात्रमिति नानुमान रूपमिति भावः ॥ ननु सामान्यशक्तिरपि अन्वयव्यतिरेकाधीनकार्यकारणभावग्रहमूलैव वक्तव्येति चेत् -तर्हि अनुमानासामान्यशक्तिग्रहः, ततो नियमज्ञानं, ततशक्तिनिश्चयः, ततः शाब्दबोधः कालान्तरेऽपि-इति अनुमानपूर्वकोऽयं शाब्दबोध: नानुमानं भवितुमर्हतीत्याह-अपि चेति ॥ 1काकृता-क. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 शब्दस्यातिरिक्तप्रमाणत्वपरीक्षा न्यायमजरी स्थविरव्यवहारे हि बालः शब्दात् कुतश्चन । दृष्ट्वाऽर्थमवगच्छन् । स्वयमप्यवगच्छति ॥ २५ ॥ यत्रा'प्येवं समयः क्रियते, एतस्माच्छब्दादयमर्थस्त्वया प्रति पत्तव्य इति-तत्रापि प्रतीतिरेव कारणत्वेन निर्दिष्टा द्रष्टव्या। तस्मादन्यो लिङ्गलिङ्गिनोरविनाभावो नाम सम्बन्धः, अन्यश्च शब्दार्थयोः समयापरनामा वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः 'प्रती.. त्यङ्गम् । एवंविधविषयभेदात् सामग्रीभेदाच्च प्रत्यक्षवदनुमानादन्यः । शब्द इति सिद्धम् ॥ शब्दानुमानयोनविलक्षण्यम् ] यत्त पूर्ववर्णक्रमापक्षणादिवलक्षण्यमाशय दूषितम (पु. 402) -कस्तत्र फल्गुणाये निर्बन्धः॥ ननु ज्ञायमानो धूम एव करणमित्युक्तम् ? इति शङ्कायां स्वाशयं विवृणोनिस्थविरेत्यादि कुतश्चन शब्दात्-इत्यन्वयः। व्यवहाराच्छक्तिग्रहस्यानुमानिकत्वं सर्वसम्मतमेव। तथा च धूमावह्नयनुमानस्थले महानसादौ प्रत्यक्षादेव धूमवयोः अविनाभावरूपसम्बन्धनिर्णय: प्रकृते तु वृद्धव्यवहारकाले ऽनुमानात वाच्यवाचकभावरूपसम्बन्धनिर्णयः । ततश्चानुमानाधीनप्रवृत्तिकः शब्दः कथं अनुमान स्यात् ? ननु अनुमानपूर्वकमप्यनुमानं भवितुमर्हति, धूमात वह्ननुमाने, तेन तत्र पुरुषानुमानात् इति चेत् ; तथापि अनुमानात् वाच्यवाचकभावस्यैवावगमः । वाच्यवाचकभावश्च नाविनाभावरूपः । शब्दार्थयोरविनाभाव: निराक्रियत एवेति । किञ्च धूमवह्नयोः सम्बन्धः न सङ्केतमूलकः, किन्तु स्वाभाविकः ॥ प्रतीतिः --तादृशप्रतिपत्तव्यत्वविषयकप्रतीतिः । अन्यः-विलक्षणः । प्रत्यक्षवदिति । यत्किञ्चित्सम्बन्धमूलकत्वमात्रात् क्रोडीकारे इन्द्रियार्थसम्बन्धमूलकं प्रत्यक्षमपि अनुमान स्यादित्याशयः ॥ 'इत्यादिना विशेषेण ' (पु. 402) इति पूर्वपक्षिणैव वैलक्षण्यकथनात् नास्मामि: वक्तव्यमवशिष्यत इत्यभिप्रायेणाह-फल्गुप्राय इति ॥ । तत्रा-ख. अविनाभावो नाम सम्बन्धः अन्यश्च शब्दार्थयो: “ समयापरनामा वाच्यवाचकभाव: सम्बन्ध: कारणत्वेन निर्दिष्टा द्रष्टव्या तस्मादन्यो लिलिनिनोरविना-. भावात्-ख. 'स वाच्यवाचकभावः सम्बन्धप्रतीत्यङ्गम्-क. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आब्लिकम ३] शम्दानुमानयोविषयमेद: 411 [शब्दानुमानयोर्विषयभेदादपि भेदः] यत्पुनरभिहितम् (पु. 403) (श्लो. वा.-१-३-५. शब्द. २३)'आप्तवादाविसंवादसामान्यादनुमानता'. इति-तदतीव सुभाषितम् ! विषयभेदात् । आप्तवादत्वहेतुना हि शब्दार्थबुद्धः प्रामाण्यं साध्यते ; न तु सैव जन्यते। यदाह (श्लो. बा. 1-1-7-244, 246) .. 'अन्यदेव हि सत्यत्वमाप्तवादत्वहेतुकम् । वाक्यार्थ'श्चान्य' एवेह ज्ञातः पूर्वतरं च सः ॥ ततश्चेदाप्तवादेन सत्यत्वमनुमीयते । वाक्यार्थप्रत्ययस्यात्र कथं स्यादनुमानता ॥ जन्म तुल्यं हि बुद्धीनामाप्तानाप्तगिरां श्रुतौ । जन्माधिकोपयोगी च नानुमायां त्रिलक्षणः' इति ॥ न च प्रामाण्य निश्चयाद्विना प्रतिभामात्रं तदिति वक्तव्यम् । शब्दार्थसंप्रत्ययस्यानुभवसिद्धत्वात् ॥ साध्यतेनिश्चीयते। सैव-अर्थविषकबुद्विरेव। उक्तमेव उपपादयति कुमारिलवाक्यैः यदाहेति । 'इदं वाक्यं सत्यम् ? उत न?' इति संशये भाप्तोक्तत्वनिश्चये सत्यरवनिश्चयः। तद्वाक्यात् प्रथमं अर्थप्रतीतिर्जातैव । अतः माप्तोक्तत्वं प्रामाण्यनिश्चयहेतुः, न तु शादवोधहेतुः। आप्तानां अनाप्तानां वा वाक्ये श्रुते शाब्दबोधः भविशेषेण जायत एव। अतः आप्तत्वसंवादात् न बोधजननम् । 'अनुमायां च त्रिलक्षणो हेतु: जन्माधिकोपयोगीन' इत्यन्वयः । तथा च बोधजननं न त्वदुक्तहेतुजन्यमिति शब्दो नानुमानम् । पूर्वपक्षिणः बौद्धस्य दृष्टया 'विलक्षणः' इति । तत्-शाब्दानुभवरूपं ज्ञानम् । प्रामाण्यनिश्चयात पूर्व जातं ज्ञानं केवल भानमात्रं, न तु वास्तविकमिति वक्तुं न शक्यं, अनुभवविरुद्धत्वात् ॥ श्वान्य-क. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 शब्दप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमञ्जरी [शब्दः न विवक्षामात्रानुमापकः] एतेन विवक्षाविषयत्वमपि (पु. 404) प्रत्युक्तम् । न हि विवक्षा नाम शब्दस्य वाच्यो विषयः, किन्त्वर्थ एव तथा ॥ विवक्षायां हि शब्दस्य लिङ्गत्वमिह दृश्यते । आकाश इव कार्यत्वात् न वाचकतया पुनः ॥ २६ ॥ शब्दादुच्चरिताच्च वाच्यविषया तावत्समुत्पद्यते संवित्तिस्तदनन्तरं तु गमयेकामं विवक्षामसौ । अर्थोपग्रह वर्जितात्तु' नियमान्सिद्धवमा जीवता तद्वाच्यार्थ विशेषिता त्वविदिते नैषा तदर्थे भवेत् ॥ २७॥ . [शब्दप्रामाण्याक्षेपः] ननु ! सिद्धे प्रमाणत्त्वे भेदाभेदपरीक्षणम। क्रियते, न तु शब्दस्य प्रामाण्यमवकल्पते ॥ २८ ॥ [शब्दानां अर्थासंस्पर्शित्वम् । अर्थप्रतीतिजनकं प्रमाणमिति वर्णितम् । विकल्पमात्रमूलत्वात नाथ शब्दाः स्पृशन्त्यमी ॥ २९ ॥ नवाच्यः विषयः--वाच्यतया न विषय इति भावः । विवक्षाया. मित्यादि । शब्दस्य कार्यत्वात् समवायिकारणतया यथा शब्दः आकाशानुमाने हेतुर्भवति, तथा इच्छामन्तग शब्दप्रयोगासंभवात् तच्छन्दोच्चारणेच्छामनुमापयेत शब्दः, न त्वर्थम् । शब्दादर्थप्रतीतेरेवाभावे 'एतदर्थबोधेच्छया उच्चरितः' इति कथं वक्तुं शक्यम् । नानार्थकस्थलेऽपि बोधा: प्रथमं जायन्त एव। एषु का प्रयोक्तुरभिमतः इति संशये परं तात्पर्यापरनामिका इच्छाऽन्वेषणीय प्रकरणादिभिः । अतश्च आप्तोक्तत्ववत् इदमपि न शाब्दबोधहेतुः । शाब्दबोधजननानन्तरमपेक्षणीयमस्तु कामम् ॥ विकल्पेति । नियमेन प्रवृत्तिनिमित्तपूर्विका शब्दप्रवृत्तिः । तेन नामजात्यादिकल्पनामूलकत्वमनिवार्यमिति शब्दानां यथार्थविषयत्वं नास्त्येव ॥ 1 वर्जिता तु-ख. 2जीविता-ख. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् ३] शब्दप्रामाण्याक्षेपः 413 413 [जात्यादीनां शब्दार्थत्वानुपपत्तिः] अर्थो निरूप्यमाणश्च को वा शब्दस्य शक्यते? वक्तुं, न जातिन व्यक्तिः न तद्वान्नाम कश्चन ॥ ३० ॥ शब्दार्थयोः संबन्धोऽपि दुर्वच:] सम्बन्धोऽप्यस्य नार्थेन नित्योऽस्ति समयोऽथ वा? शक्यः, सन्नपि वा बोद्धमर्थे कथमतीन्द्रिये? ॥ ३१ ॥ वाक्यानामर्थप्रत्याययकत्वं दुर्वचम् वाक्यार्थोऽपि न निर्णेतुं पार्यते पारमार्थिकः । नियोगभावनामेदसंसर्गादिस्वभावकः ॥ ३२ ॥ तत्प्रतीत्यभ्युपायश्च किं 'पदार्थः' पदानि वा ? वाक्यं वा व्यतिपक्तार्थ स्फोटो बेति न लक्ष्यते ॥ ३३ ॥ सिद्धायामपि तद्बुद्धौ तस्या ढिमकारणम् । नित्यत्वमाप्तोक्तत्वं वा न सम्यगवतिष्ठते ॥ ३४ ॥ न जातिरिति । जातिमात्रस्य शब्दार्थत्वे, व्यक्तिबोधो न स्यात् । म्यक्तिमात्रस्य तथात्वेऽननुगमात व्यत्यन्तरबोधनं न स्यात् । जातिमान् पदार्थस्तु कश्चन नास्त्येव, कृत्स्नैकदेशादिविकल्पदुस्स्थत्वात् ॥ समयः-संकेतः शक्त्यपरपर्यायः। स नित्यश्चेत् शब्दस्यापि नित्यत्वप्रसङ्गः । अनित्यश्चेदनवस्थादुस्स्थितिः। अतीन्द्रियेऽर्थे च तादृशसम्बन्धग्रहणं कथम् ? कुत्रापि केनापि 'अयमस्यार्थः' इति प्रदर्शयितुमशक्यत्वात् ॥ — एवं प्रत्येक पदानां बोधकत्वासंभवे, विशिष्टवाक्यार्थः नियोगादिरपि न संभवतीत्याह-वाक्यार्थोऽपीति। नियोगः वाक्यस्यार्थ इति प्राचीनमीमांसकाः, भावनेति नवीनाः । परन्तु पदैर्वा, पदवाच्यैरथैर्वा, वाक्याद्वा, स्फोटेन वा तादृशार्थ: न कस्याप्यनुभवसिद्धः । कथञ्चिट्ठोधनेऽपि तादृशवाझ्यार्थे प्रामाण्यं कथम् ? नित्यत्वादिकृतं तु दुर्वचमेवेत्यर्थः॥ 1पदार्थाः-क. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 शम्दप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमञ्जरी [वेदानां प्राप्तोक्तत्वकृतं प्रामाण्यमपि दुर्वचम् ] पदे नित्येऽपि वैदिक्यो रचनाः कर्तृपूर्विकाः? नित्या वा? कृतकत्वेऽपि कृताः केनेति दुर्गमम् ॥ ३५ ॥ कर्ताऽस्ति स च निर्द्वन्द्वः स चैकः स च सर्ववित् । स च कारुणिको वेति प्रतिपत्तुं न शक्यते ॥ ३६॥ . [व्याघातादिभिः न वेदा: प्रमाणम् ] परस्परविरुद्धाश्च सन्ति भूयांस आगमाः। तेषां कस्येश्वरः कर्ता कस्य नेति न मन्महे ॥ ३७ ।। वेदे दोषाश्व विद्यन्ते व्याघातः पुनरुक्तता। फलस्यानुपलभश्च तथा फलविपर्ययः ॥ ३८॥ . . कीदृशश्वार्थवादानां विरुद्धार्थाभिधायिनाम् । मन्त्राणां नामधेयादिपदानां वा समन्वयः ॥ ३ ॥ [वेदे व्युत्पत्तिरपि दुस्स्थिता सिद्धकार्योपदेशाच्च वेदे संशेरते जनाः। किमस्य कार्ये प्रामाण्यं सिद्धेऽर्थे योभयत्र वा ? ॥ ४० ॥ तेन वेदप्रमाणत्वं विषमे पथि वर्तते। जीविकोपायबुद्धया वा श्रद्धया वाऽभ्युपेयताम् ॥ ४१ ॥ पद इति । पदानां नित्यत्वेऽपि तद्रचनाविशेषरूपाणां वेदवाक्याना कथं नित्यत्वम्॥ ____ 'तदप्रामाण्यं मनृतव्याघातपुनरुक्तेभ्यः' (न्या. सू. 2-1-58) इत्युक्तं संगृह्णाति-परस्परेति । 'उदिते जुहोनि' 'अनुदिते जुहोति' इति विरुद्धयोर्मध्ये कस्य ईश्वर: कर्ता ? कस्य न ? अन्यतराप्रामाण्ये तदृष्टान्तेनेतराप्रामाण्यं जागत्येव । एवं पुत्रेष्टौ कृतायामपि कदाचित्फलं व्यभिचरति इत्यनृतत्वम् । 'त्रि:प्रथमामन्याह' इत्यादि: पुनरुक्तिः ॥ सिद्ध इनि। वैदिकेष्वेवास्ति विवादः, किं वेदानां सिद्धपरत्वम् ? उत कार्यपरत्वम् ? इति । एतादृशानवस्थादुस्स्थत्वात् शब्द: न प्रमाणम् । यद्यपि शब्दसामान्याप्रामाण्यसाधन एवोपक्रमः, अथापि वेदप्रामाण्यरक्षण एव शब्द. प्रामाण्यसमर्थनस्य परमोद्देश्यतेति ज्ञेयम् ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्विकम् ३] शब्दप्रामाण्यसमर्थनम् 415 [वेदप्रामाण्यस्थापनम्] अत्राभिधीयते-सर्व एवैते दोषा यथाक्रम परिहरिष्यन्त 'इत्यलमस'माश्वासेन। सुप्रतिष्ठमेव वेदप्रामाण्यमवगच्छत्वायुष्मान् ॥ [शब्दसामान्यस्याप्यर्थाजन्यत्वं स्वभावः] ननु! अर्थासंस्पर्शित्वमेव तावत्कथं परिहियते। न हि बाह्येऽर्थे शब्दाः प्रतीतिमादधति। ते हि दुर्लभवस्तुसंपर्कविकल्पमात्राधीनजन्मानः स्वमहिमानमनुवर्तमानास्तिरस्कृतबाह्यार्थसमन्वयान् विकल्पप्रायान् प्रत्ययानुत्पादयन्तो दृश्यन्ते-'अमुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते' इतीतिस्वभाव एव शब्दानामर्थासंस्पर्शित्वम् ॥ - . [शब्दस्य चक्षुरादिवैलक्षण्यम्] चक्षुरादीनामपि अलीककचकूर्चकादिप्रतीतिकारणत्वमस्ति, न च ते गमर्थासंस्पर्शित्वमिति चेत् : 'न; तेगं हि तिमिरादिदोषकलुषितवपुषां तथाविधविभ्रमकारणत्वम, न तु स्वमहिम्नेव । इहापि पुरुषदोषाणामेष महिमा, न शब्दानामिति चेत, मैवम ; दोषवतोऽपि पुरुषस्य मुकादेरनुचारितशब्दस्येशविप्लवोत्पादनपाटवाभावात् । असत्यपि व पुरुषहृदयकालुष्ये यथाप्रयुज्यमानान्यङ्गुल्य ग्रादिवाक्यानि विप्लवमावहन्त्येवेति शब्दानामेवैप स्वभावः, न वक्तदोसणाम् । . अडल्यग्रइत्यादि। न ह्यस्मात् वाक्यात् बोध एव न भवतीति वक्तं शयम , व्युत्पन्नानां तस्यानिवार्यत्वात् । किन्तु जातो बोधः प्रमा वा ? इति विचारः स्यात् । स बन्यो विषयः । शब्दास्तु असत्यपि अर्थे बोधमुत्पादयितुमल मिति तु दुरपह्नवम् ।। ___ ननु चक्षुरादिकमपि कदाचिदलीकरजतादौ प्रवर्तत एवेति प्रत्यक्षमपि न प्रमा स्यादित्याशंश्य, शब्द-चक्षुषोवैलक्षण्यमाह चक्षुरादीनामिति । यथा प्रमुज्यमानेति। लीलया, यदृच्छया, प्रमादाद्वेति हेतुः। तथाचान्वय इस्यतं स-ख. 2 तेषां-ख. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 शब्दप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमचरी [बाधकज्ञाने सत्यपि शब्दः प्रवर्तते] ____ अपि च न चक्षुरादि वाधकज्ञानोदये 'सति न' विरमति: विपरीतवेदनजन्मनःशुक्तिकारजतादिबुद्धिषुविभ्रमस्यापायदर्शनात्। शब्दस्तु शतकृत्वोऽपि वाध्यमानो यथैवोच्चरितः ‘करशाखा शिखरे करेणुशतमास्ते' इति तथैव तथाभूतं भूयोऽपि विकल्पमयथार्थमुत्पादयत्येवेति विकल्पाधीनजन्मत्वाच्छब्दानामेवेदं रूपं यत् अर्था- . संस्पर्शित्वं नामेति । तदुक्तम् 'विकल्पयोनयः शब्दाः विकल्पाः शब्दयोनयः। तेषामन्योन्यसम्बन्धे नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यमी' इति ॥ .. [शब्दानां अर्थासंस्पर्शित्वं न स्वभाव इति सिद्धान्तः] अत्राभिधीयते-भवेदेतदेवं ; यदि न कदाचिदपि यथार्थ शब्दः प्रत्ययमुपजनयेत्, अर्था संस्पर्शियमेवास्य स्वभाव इति गम्येत। भवति तु गुणवत्पुरुषभाषितात् 'नद्यास्तीरे फलानि सन्ति' इति वाक्यात् अतिरस्कृतवाह्यार्थों यथार्थः प्रत्ययः; ततः प्रवृत्तस्य तदर्थप्राप्तेः । न चेयमर्थप्राप्तिरर्थस्पर्शशून्यादपि शब्दविकल्पात् पारंपर्येण मणिप्रभामणिबुद्धिवदवकल्पत इत्युपरिष्टात् वक्ष्यामः॥ ननु ! गुणवद्वक्तकादगुल्यादिवाक्यात् दृष्ट एवासमीचीनः प्रत्ययः-मैवम-गुणवतामेवंविधवाक्योच्चारणचपलाभावात ॥ व्यतिरेकतः शब्दानामयं स्वभावः, अर्थमन्तरापि प्रवृत्तिः इति । शुक्तिरजतादौ अधिष्ठानतया वाऽर्थसंस्पोऽस्तिीति अलीककेशादिनः निरधिष्ठानभ्रमविषयत्वेनावगतस्य कथनम् ॥ न न विरमति-इत्यन्वयः। अपायः-निवृत्तिः ॥ गुणवदिति। गुणाः-प्रमादप्रतारणाद्यभावरूपाः ।। अङ्गल्यादिवाक्यात्-अङ्गुल्यमे हस्तियूथशतमास्ते इत्यादिवाक्यात् । 1 सती--ग. अर्थ-ख. अवगम्यते-ख Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाडिकम् ३) शब्दानामोसंस्पर्शित्वं न स्वाभाव: 417 [भप्रमाणवाक्यानुवादकवाक्यं नाप्रमाणम् ] यत्त आप्तोऽपि कं चिदनुशास्ति ...'मा भवानभूता) वाक्यं धादीः अङ्गलिकोटी करिघटाशतमास्ते इति' इनि, तत्रेतिकरणाव. च्छिन्नस्य दृष्टान्ततया शब्दपरत्वेनोपादानात्मतिषेधैकवाक्यतया यथार्थमेव । अर्थपरत्वे तु निषेधकवाक्यतैव न स्यादिति । तस्मादातवाक्यानामयथार्थत्वाभावान स्वतोऽर्थासंस्पर्शिनः शब्दाः पुरुष दोषानुपङ्गकृत एवायं विप्लवः ॥ [वक्तृगुणदोषावेव शब्दस्यार्थसंस्पशतदभावयोमलम् ) · ननु ! आप्तैरेवंविधवाक्याप्रयोगेऽपि सन्दिग्धो व्यतिरेकःकिं शम्दानां तदृशस्वभावाभावादयथार्थप्रत्ययानुत्पादः? उत वक्तदोषाभावादिति । नैतदेवम-- अनुश्चरितशब्दोऽपि पुरुषो विप्रलंभकः। हस्तसंज्ञाद्युपायेन जनयत्येव विप्लवम् ॥ ४२ ॥ [चेष्टया शब्दानुमानासंभवः ] न च हस्तसंज्ञादिना शब्दानुमानम् , तत्कृतश्च विप्लव इति पकव्यम् । इत्थमप्रतीतेः। उत्पन्ने स क्वचिन्नयादिवाक्याद्विज्ञाने तरङ्गिणीतीरमनुसरन्ननासादितफलः प्रवृत्तबाधकप्रत्ययः पुरुषमेवा . दृष्टान्ततयेति--निरर्थकवाक्यदृष्टान्ततयाऽनुवादमात्रमित्यर्थः । न स्यादिति-- अर्थपरत्वे सिद्ध निरर्थकवाक्यनिषेधनदृष्टान्तता कथमित्यर्थः। भूतले पो नास्तीत्यादावपि खलु 'भूतले घटः' इत्येतावान् भागः न स्वपरः, किन्तु निषेध्यममर्पणपरः॥ पूर्व (415 पु) 'दोषवतोऽपि पुरुषस्य मूकादेः' इत्युक्तं अन्यथयन् पुरुषगुणदोषयोरेव शब्दानां अर्थान्यमिचारव्यभिचारयोर्निदानमित्याह---- अनुच्चरितेत्यादि । सत्कृतः-शब्दकृतः । तथा च शब्दस्यैवाय दोषः, न पुरुषस्येति भावः । इत्थमप्रतीतेः। चेष्टातः शब्दानुमानाननुभवात् । तद्धेतोरेवतद्धे तुरवे मध्ये किं तेन, इति न्यायेन अर्थानुमानस्यैव न्याय्यत्वात् । अथवा हस्थ ... शब्ददोषत्वेनेत्यर्थः । अस्मिन्नर्थे अनुभवमाह---उत्पन्नपीति ।। NYAYAMANJARI 27 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 शधप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमचरी विक्षिपति--धिक ! हा! तेन दुरात्मना विलब्धोऽस्मि' इति । म शब्दम्। प्राप्तफलश्च पुमांसमेव दयाधते 'साधु साधुना तेनोपदिष्टम्' इति। अतः पुरुषदोषान्वयानुविधानात् पुरुषदोषकृत एव शब्दाद्विप्लवः, न स्वरूपनिबन्धनः। तदभावकृत एव आप्तेषु तूष्णीमा मीनेषु विभ्रमानुत्पाद इति न सन्दिग्धो व्यतिरेकः ॥ अर्थासंस्पर्श: नाप्यप्रामाण्यसाधकः] ननु! पुरुषदोषास्तत्र किं कुर्युः! पुरुषस्य हि 'गुणवतो दोषवतो वा शब्दोच्चारणमात्र एव व्यापारः। ततः परं तु कार्य शध्दायत्तमेवेति तत्स्वरूपकृत एवायं विभ्रमः ॥ हम्त! तर्हि वक्तरि गुणवति सति 'सरितस्तीरे फलानि सन्ति' इति सम्यक्प्रत्ययेऽपि शब्दस्यैव व्यापारात् पुरुषस्योञ्चारणमात्र चरितार्थत्वाकान्ततः शब्दस्यार्थासंस्पर्शित्वमेव स्वभावः। युक्तचैतदेव-यदीपवत्प्रकाशत्वमात्रमेव शन्नस्य स्वरूपम् ; न यथार्थत्व. मयथार्थत्वं धा। विपरीतेऽप्यर्थे दीपस्य प्रकाशत्वानतिवृत्तः । अयं तु विशेष:-प्रदीपे व्युत्पत्तिनिरपेक्षमेव प्रकाशत्वम्, शब्दस्य तु व्युत्पस्यपेक्षमिति। प्रकाशात्मनस्तु शब्दस्य वक्तगुणदोषाधीने साधुः---अजुमतिः । आप्तेषु तूष्णीमासीनेषु इति शब्दष्यति रेकोपपादनार्थम् ॥ 'किं कुर्युः?' इत्यस्यैव विवरण-पुरुषस्येत्यादि। ज्ञाना प्रमावतदभावों हि करणस्वरूपाधीनौ। शाब्दबोधेच करणं शब्द एवं । तत प्रभास्वतदभावौ तदधीनावेव वक्तव्यो। पुरुषगुणदोषौ तत्र किं कुर्यास्ताम् ? नहि दाहहेतुरमिः प्रयोजकपुरुषानुगुणं व्यस्यस्यति इति भावः ॥ धक्तरीत्यादि। अयमाशयः -- सत्यं करणाधीनावेव तौ । परन्तु पुरुषदोषात् करणमपि दुष्टं भवत्येव । न हि एतानि करणानि स्वतन्त्राणि । चक्षुरादावपि हि तुल्यैव रीतिः । अतः बोधजनने शब्दानां साम्येऽपि, प्रमावतभाषी अम्वयव्यतिरेकाम्या वक्तृगुणदोषाधीनी इति शब्दाना भार्या संस्पर्शित्वं न स्वभावकृतम् ।। पापवतो-क. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 आदिकम् ३} प्रामाण्यस्वतस्स्वपरतस्त्वविचारोपक्षेपः यथार्थेतरवे। अत एवालिशिखराधिकरणकरेणुशतवचसि पाधितेऽपि पुनः पुनरुश्चार्यमाणे भवति विभ्रमः, प्रकाशत्वरूपान. पायात। न त्वेष शब्दस्य दोषः ।।। पदार्थानां तु संसर्गमसमीक्ष्य प्रजल्पतः । वक्तुरेव प्रमादोऽयं न शब्दोऽत्रापराध्यति ॥४३॥ तदुक्तम् --प्रमाणान्तरदर्शनमत्र बाध्यते, न पुनहस्तियूथशतमिति शाब्दोऽन्वयः। पुरुषो हि स्वदर्शनं शब्देन परेषां प्रकाशयति । तत्र तदर्शन 'च इष्ट, दुष्टः शाब्दप्रत्ययः। अदुष्टं चेत्, अदुष्ट इति गुणवतः पुरुषस्यादुष्टं दर्शनं भवति, दोषवतो दुष्टमिति । अदृष्टाऽपि वस्तु यदुपदिश्यते सोऽपि बुद्धिदोष. एव । तस्मात् पुरुषगतगुणदोषान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् तत्कृते एव शाब्दयथार्थत्वायथार्थस्वे। तदुक्तम्-'तत्त्वमपि भवति वितथमपि भवति' इति ॥ . [उपसंहारः] तेनाभिधातृदौरात्म्यकृतेयमयथार्थता। प्रत्ययस्येति शब्दानां नार्थासंसर्शिता स्वतः ॥ ४ ॥ या तु जात्यादिशब्दार्थपराकरणवर्मना । अर्थासं स्पर्शिता प्रोक्ता', सा पुरस्तानिषेत्स्यते ॥ ४५ ॥ [मामाण्यस्वतस्त्वपरतस्त्वविचारोपक्षेपः] . प्रमाणत्वं तु शब्दस्य कथमित्यत्र वस्तुनि । जैमिनीयैरयं तावत्पीठबन्धो विधीयते ॥ ४६॥ प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा सर्वविज्ञान'गोचरः। स्वतो वा परतो वेति प्रथमं प्रविविच्यताम् ॥ ४७ ॥ प्रमाणान्तरं-शब्दप्रयोगहेतुभूतं प्रत्यक्षादि। अर्थ बुध्या हि शब्दरचना ॥ निषेत्स्यते-पञ्चमार के जातिसमर्थनादिभिः ।। शब्दस्य वस्तुनि प्रमाणत्वं--इस्यन्वयः। अथवा, इत्यत्र वस्तुनिहस्यस्मिन् विषये। प्रामाण्यमिति । 'सर्वविज्ञान विषयं इदं तावत्परीक्ष्यताम् । चेत-क. पश्रितोच्येत-क. गोचरम्-क. 27* Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 प्रामाण्यस्वतस्त्वरतत्वविचार: न्यायमरा प्रामाण्यविचारप्रसङ्गसमर्थनम्। तत्र पक्षभेदाच] मनु ! शब्दप्रामाण्य चिन्तावसर सालप्रमाप्रामाण्य विचारस्य का प्रसङ्गः न स्वातन्ध्येण परीक्षण, अपितु तदर्थ मेष, समानमार्गत्वात। गथाऽन्येषा स्वतः परतो वा प्रामण्यं, तथा शब्दस्यापि भविष्यतीति। न हि तस्य स्वरूपमिव प्रामाण्यमपि तद्विसहशामिति ॥ तदुच्यते---किं विज्ञानानां प्रामाण्यप्रामाण्यं चेति द्वयमपि स्वतः उत तदुभय'मपि परता? आहोस्विदप्रामाण्यं स्वतः, प्रामाण्यं तु परतः? उन स्वित् प्रामाण्यं स्वतः, अप्रामाण्यं तु परतः। इनि तत्र सोख्यमतदूषणम् तत्र द्रयमपि स्वत इति तावद सांप्रतम', प्रवृत्तस्य विसंवादনা। যতি চুি মামাত্যনিনা কর এ ফ্লাহ যান, तहि शुक्ती रजतज्ञान प्रमाणतया या प्रतिपन्नम् ? अन्यथा वा ? प्रमाणत्वाप्रमाणस्ये स्वतः किं परतोऽथा ?' इति (श्लो. वा-मोद-33) महवाक्य अत्र स्मरणीयम् ॥ तदर्थमेवेति। वेदप्रामाण्यसंरक्षणमेवास्य शास्त्रस्य परमं प्रयोजनामिति उपक्रमे(पु. 7) इक्कमपि स्मर्तव्यम् । किमित्यादि। माधः पक्ष सांस्यानाम् । द्वितीय सिद्धान्तिनां । तृतीयः सौगतानाम् । चतुर्थः मीमांसकानाम् । प्रामाण्यस्य स्वतम्त्वपरसस्वकोटयोः उत्पत्तिज्ञप्तिभेद नापि भवः । प्रामाण्यं स्वत: उत्पद्यते, स्वत: ज्ञायते च; एवं परत: उत्पद्यते, परत: ज्ञायते ॥ इति । ज्ञानोत्पादकसामग्रथैव प्रामाण्यमपि ज्ञारे उत्पद्यते इति सती स्वतस्वर । ज्ञानप्राहकसामनयैव प्रामाण्यमपि गृह्यते इति ज्ञप्ती स्वतस्त्वम् । एवं झानसामान्यसामाग्यपेक्षया विशिसामग्रथा प्रामाण्य उत्पद्यते इति उनी परतस्वन् , ज्ञानग्राहकसामनयतिरिक्तसामग्रव प्रामाण्यं गृह्यत इति परतस्त्वम् ॥ . द्वयमपि स्वत इति। अयं भावः सांख्यानो --वृत्तरेव विषयाकार पारणामात् तस्य च भ्रमप्रमास्थले तुल्यत्वात् उभयाप स्वत एवेति ॥ . 'अथा-ख. 'उभय-ख. 'शाश्वतम्-क. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठिकम ३] सांस्यादिपक्षनिरास: 421 प्रमाणस्वपरिच्छित्तौ विसंवदति तत्कथम् ? अप्रामाण्य गृहीती या तस्मिन् कस्मात् प्रवर्तते ? ॥ ४८ (तनबौद्धमतदूषणम् पतेन तृतीयोऽपि पक्षः प्रत्युक्तः -- यदप्रमाण्यं स्वतः, 'प्रामाण्यं तु' परत इति। स्वतो ह्यप्रामाण्ये निश्चिते प्रवृत्तिन प्राप्नोतीति ! किन अपामाण्यमुत्पत्ती करणदोषापेक्षम् । निश्चये बाधकज्ञाना पेक्षभ। सत् कथं स्वतोभवितुमईति? प्रामाण्यस्यावस्तुस्वनिरासः] .. यश ''अप्रामाण्य'मवस्तुत्वान्न स्यात् कारण दोषतः ' (लोपा । २.89) इति कैश्चिदुच्यते, तदपि यत्किञ्चित् । संशयविपर्ययात्मनः 'प्रमाणस्य' वस्तुत्वासद्तमप्रामाण्यमपि वस्त्रे घेति । परतस्तु प्रामाण्यं यथा नावकाते, तथा विस्तरेणोच्यते । [प्रामाण्यापामाण्ययोः परतस्त्वाऽसंभवाक्षेपः एवञ्चायं तुम्मपि परत इति द्वितीयपक्षप्रतिक्षेपोऽपि भविष्यति । अतथात्वप्रकाशकं हि प्रमाण मित्युक्तम् । तस्य स्वप्रमेयाध्यभिचारित्वं नाम प्रामाण्यम्। अतश्च परापेक्षायां सस्यां हि परत इति कशयितु चितम् । न चास्य परापेक्षा कचिद्विद्यते । सा हि भवन्ती उत्पत्तो वा स्यात् ? स्वकार्यकरणे घा? प्रामाण्यांनश्चये वा? उत्पत्तीकारकस्वरूपमात्रापेक्षा? ___ अप्रामाण्यं स्वतः - भप्रामाण्यं हि प्रामाण्याभावः अभावस्तु निरुपाण्यः न कारणजन्य.। प्रामाण्यं गुण-संवाद-अक्रियायधीममिति युक्तं परतः। 'एतेन ' इत्यस्यैव विवरणं स्वतो हीत्यादि उच्यते---अनूयते परतस्त्त्वि ते । गतसम्मतमिति शेषः । मीमांसकः प्रत्यवतिष्ठते - एवञ्चति । स्वकार्य ---- अर्थप्रका गमरूप प्रमाणफलम् । प्रथमकरूपेऽपि विकल्प प्रदर्शयति कारकेत्यादि । किन्नक. गृही. क. मामा-ख. 'स्मा-क. करा-ख 'भप्रामाण्यस्य -ख. 'भप्रमाण-पा. *स चाय-क. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 प्रामाण्यस्वतस्त्वपरतस्त्वविचारः न्यायमजरी तदतिरिक्ततद्गतगुणा'पेक्षा वा ?' कारकस्वरूपमात्रापेक्षायां सिद्ध. साध्यत्वम् । असत्सु कारकेषु कार्यस्य ज्ञानस्यात्मलाभाभावात् कस्य प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा विन्त्यते? - [गुणानां सद्भावे न किञ्चिरप्रमाणम् ] - कारकातिरिक्ततदधिकरणगुणापेक्षणं तु दुर्घटम् । अप्रामाणिकत्वेन कारणगुणानामाकाशकुशेशयसहशवपुषां अपेक्षणीयत्वा.. भावात न कारणगुणग्राहि प्रत्यक्षमुपपद्यते। चक्षुरादेः परोक्षत्वात् प्रत्यक्षास्तगुणाः कथम ॥ ४९ । लिङ्गं चादृष्टसम्बन्धं न सेपामनुमापकम् । यथाऽर्थबुद्धिसिद्धिस्तु निर्दोषादेव कारकात् ॥ ५० ॥ ज्ञानसामान्यसामप्रयाः अन्यतररूपत्वं अवर्जनीयम् ] यदि हि यथाऽर्थत्वायथाऽर्थत्यरूपद्वयरहितं किञ्चित उपलब्ध्याख्यं कार्य भवेत् , ततः कार्यत्रैविध्यात् कारणत्रैविध्य मवश्यमवसीयेत-यथाऽर्थोपलब्धेः गुणवत्कारकं कारकं, अयथाऽ अॅपलब्धेः दोषकलुषं कारकं कारकम्, उभयरहितायास्तु तस्याः स्वरूपावस्थितमेव कारकं कारक मिति । म त्वेवमस्ति। द्विविधैव खल्वियमुपलब्धिः --यथाऽर्थत्वयथाऽर्थत्वभेदेन ॥ सिद्ध साध्यत्वं-अस्यैवास्मरसम्मतस्वतस्त्वरूपत्वात् । आत्मालामःउत्पत्तिः ॥ परोक्षत्वात्-अतीन्द्रियत्वात् । ननु ज्ञानसामान्यसामग्रीमात्राधीनं यदि प्रामाण्यं, तर्हि अप्रमायामपि सामान्यसामग्रयाः सत्वात् तदपि स्वत एवं स्थादित्यत्राह-यथार्थति। तथा च दोषाः अप्रामाण्यज्ञाने विशेषसामग्री, भतो न तत् स्वतः । दोषाभावमात्रादेव सामान्यसामग्री प्रमाजनिवेति न दोषः ।। कार्यत्रैविध्यं विशदयति----यथार्थोपलब्धेरित्यादि। . 1पेक्षा-क. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् ३] प्रामाण्यं स्वतः, अप्रामाण्यं परत इति पक्ष: 23 [प्रामाण्यस्य स्वतस्वं, अप्रामाण्यस्य परतस्व. च] तत्रायथाऽर्थोपलब्धिस्तावद्दष्टकारककायैव दृष्टा । 'दृष्टः कुटिलकुम्भादिसंभवो दुष्टकारणात् । तथा मानान्तर'शाता त्तिमिरादेविचन्द्रधीः ॥ १॥ अयथाऽर्थोप लब्धा च दुष्टकारककार्यत्वेन सिद्धायामिदानी तृतीयकार्याभावात यथाऽपिलब्धिः स्वरूपावस्थितेभ्य पथ कारकेभ्योऽवकल्पत इति न गुणकल्पनाय प्रभवति ॥ अनुमाने च यव पक्षधर्मान्वयादिसामग्री ज्ञानस्य जनिका सैव प्रामाण्यकारणत्वेन दृष्टा। नंच स्वरूपस्थितानि कारणानि कार्यजन्मन्युदासत एव, येन यथाऽपलब्धिजनेन नेपा' गुणकारिता 'कल्प्येते त्यतो न सन्ति कारणगुणाः ।। दोषाभावः न कारककोटौनिविष्टः मर्मल्यव्यपदेशस्तु लोचनादः काचकामलादिदोषापायनियन्धन एष, न स्वरूपातिरिक्तगुणकुतः । अअनाथुपयोगोऽपि दोषनिहरणायेव, न गुणजन्मने । तस्मादवितथा संवित् स्वरूपस्थितहेतुजा। दोषाधिकैस्तु तैरेव जन्यते विपरीतधीः ॥५२॥ : मनु ज्ञान वैविध्यात् सामग्रोद्वैविध्यमावश्यकमेवेति, भस्मदिष्टसिद्धिरेवेति शंकायां माह-तत्रेति । दुष्टकारणात्---कुलालहस्तदोषादिरूपात । गुणसभावे प्रमाणाभावस्योपपादितत्वात्, तद्वैलक्षण्यार्य मानान्तरक्षातादिति ॥ गुणकल्पनाये - यथार्थोपलब्धिकारणत्वेन गुणरूपस्यातिरिजकारणामुमानाय । गुणकारिता---गुणकार्यता ॥ __मनु निर्मलं चक्षुरेव प्रमाजनकं दृष्टम् । अतश्च दोषाभाव एवं प्रमाया अतिरिक्ता सामग्री सिद्धेत्यत्राह - नर्मल्येति । सथा च दोषाभावादिः करणस्वरूपसंरक्षणमात्रोपयोगी, म स्वतिरिकातिशयजमन इति गुणानां म प्रमाहेतुस्थसिद्धिः। मिता-ख. 'येषा-क. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 421 प्रामाण्यस्वतरस्वपरतस्त्वविचार: अत एवाप्रमाणत्वं परतोऽभ्युपगम्यते । जन्मन्यपेक्षते दोषान् बाधकं च स्वनिश्वये ॥ ५३ ॥ तस्मान्नोत्पत्तौ गुणापेक्षं प्रमाणम् ॥ [स्वायमजरी [कार्येऽपि न कारकाम्वरापेक्षा ] , नापि स्वकार्यकरणे किञ्चिदपेक्षते अर्थप्रकाशनस्वभावस्यैष तस्य स्वहेतोरुत्पादात् । अर्थप्रकाशनमेव च प्रमाणकार्यम प्रवृत्यादे:पुरुषेच्छानिबन्धनत्वात् ॥ तथा चोक्तम नैव वा जायते ज्ञानं जायते या प्रकाशकम्। अर्थप्रकाशने किञ्चित् न तुत्पन्नमपेक्षते ॥ ५४ ॥ 'मृद्दण्डचक्रसूत्रादि घटो जन्मन्यपेक्षते । उदाहरणे त्वस्य तदपेक्षा न विद्यते ' इति ॥ अथवा - सापेक्षत्वं घटस्यापि सलिलाहरणं प्रति । यत्किञ्चिदस्ति, न त्वेवं प्रमाणस्योपपद्यते ॥ ५५ ॥ मन्त्र स्वग्रहणापेक्षं ज्ञानमर्थप्रकाशकम् । तस्मिन्ननवबुद्धेऽपि तत्सिद्धेश्चक्षुरादिवत् ॥ ५६ ॥ अपेक्षते । प्रमाणज्ञानमिति शेषः । ज्ञानस्य स्वरूपमेव हि तादृशं अतः तत्र न कारणान्तरापेक्षा ॥ ननु ज्ञानस्य परमं फलं प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा । तच्च प्रमाणेनैव भवितुमर्हति । न हि ज्ञानपामान्यात् पुरुषः प्रवर्तते इति अस्ति दोषाभावस्याप्यपेक्षेत्यत्राह--प्रवृत्त्यादेरिति । नैवेति । जातं ज्ञानं अर्थप्रकाश रूपमेव जायेत, अथवा न जायते । तस्मादुत्पन्नं ज्ञानमर्थप्रकाशने म स्वरूपसामप्रयतिरिक्त कारणान्तरमपेक्षते । सदपेक्षा- कारकान्तरापेक्षा ॥ ननु तर्हि पुरुषव्यापारमन्तराऽपि घटः उदकमाहरेत् इति शङ्कायामाह -- अथवेति । घटस्य जडत्वात् अस्ति जलाहरणे पुरुषाद्यपेक्षा । ज्ञानं तु स्वतः अर्थप्रकाशनसमर्थं तत्र न कारणान्तरमपेक्षते । न चान्ततः ज्ञानं स्वयं गृहीत मेव अर्थप्रकाशकमिति, तत्रास्ति कारणान्तरापेक्षेति वाच्यम्, ज्ञानग्रहणमन्तराऽवि विजयभानोपपत्तेः । भाद्वैतयाङ्गीकारात् । प्रकरणं सर्वमिदं श्लोकवार्तिक Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् ३) मीमांसकोक्तं प्रामाण्यनिश्चयस्य स्वतस्त्वम 425 उक्तं च -'न ह्यज्ञातेऽथें कश्चिद्बुद्धिमुपलभते जाते स्वनु. मानादवगच्छति' (शा-भा-1-1-5) इति । तस्मात् स्वकार्यकरणेऽपि म स्वग्रहणापेक्षं प्रमाणम ॥ [प्रामाण्यनिश्चयः न स्वरूपसामग्रयतिरिक्तकारणाधीन: नापि प्रामाण्य निश्चये किश्चिदपेक्षते; अपेक्षणीयाभायात् । तथा हि-अस्य कारणगुणज्ञानाद्वा प्रामाग्यनिश्चयो भवेत् ? बाधकामावज्ञानाद्वा? संवादाद्वा? म तावत्कारणगुणज्ञानात् । कारणगुणानामिदानीमेव निरस्तभ्वात् ॥ [गुणज्ञानस्यासंभावः] अपि च न'कारण'गुणज्ञान मिन्द्रिय करण'कम्। अतीन्द्रियकारकाधिकरणत्वेन परोक्षत्वाद्गुणानाम् । अपितूपलव्याख्यकार्यपरिशुद्धिसमधिगम्यं गुणस्वरूपम्। अप्रवृत्तस्य च प्रमातुर्न कार्यपरि शुद्धिर्भय त 'तन्ने'दानी प्रामाण्य निश्चयपूर्वका प्रवृतिर्भवेत् । अन्यथा वाऽनि श्चतप्रामाण्यादेव ज्ञानात् प्रवृत्ति सिद्धौ किं पश्चास. निश्चयेन प्रयोजनम् ? . निश्चितप्रामाण्यात प्रवृत्ती दुतिक्रमः चककक्रकचपातः-प्रभृत्तौ सत्यां कार्यपरिशुद्धिग्रहणम , कापरिशुद्धिग्रहणात् कारणगुणावगतिः, कारणगुणावगतेः प्रामाण्यनिश्चयः, प्रामाण्यनिश्चयात प्रवृत्तिरिति ॥ विवरणरूपं भवगन्तव्यम् । विस्तर भयात् श्लोका नोदाह्नियन्ते । अज्ञातेऽर्थ इति। तथाच ज्ञानाप्रहेऽपि अर्थग्रहो भवितुमर्ह येव ॥ कार्य शुद्धिसमधिगम्य ज्ञानप्रामाण्यनिश्चयानुमेयम। अप्रवृत्तस्येति। सफलप्रवृत्तिजनकत्वात् खलु प्रामाण्य निश्चयः । इदनीमर्थप्रकाशाधीनप्रवृत्तिसमये। एतत्मवृत्यनन्तरं, फलप्राप्स्या ज्ञानस्य प्रामाण्यमनुमाय, सद्धेतुतया गुणः अनुमेय इति गुणज्ञानं कुत्र उपयुज्यत इति भावः। अन्यथा वा इत्यस्यैवविवरणं अनिश्चितेत्यादि । 'कारक-ख. 'कारण-ख. तो-क. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 प्रामाण्यस्वतत्वपरतस्त्वविचार: [न्यायमरी [बाधकामावज्ञानं तु असंभव नापि बाधकाभावपरिच्छेदात प्रामाण्यनिश्चयः। स हि नात्कालिको पा स्यात् ? कालान्तरभावी घा? सात्कालिको न पर्याप्तः प्रामाण्यपरिनिश्चये। कूटकार्षापणादौ किञ्चित्कालमनुम्पन्नबाधकेऽपि कालान्तरे तदुत्पाददर्शनात ॥ सर्वदा सदभावस्तु नासर्वक्षस्य गोचरः ॥ १७ ॥ संवादादपि न प्रामाण्यनिश्रयः अथ संवादात्प्रामाण्यनिश्चय उच्यते? सहाच्यताम् - कोऽयं संवादो नाम ? किं उत्तरं तद्विषयं ज्ञानमात्रम? उतार्थान्तरक्षानम' आहो स्विदर्थक्रियाज्ञानमिति ? ___ आये पक्षे कः पूर्वोत्तरज्ञानयोर्विशेषः, यत उसरज्ञानसंवादात् पूर्व 'पूर्व ज्ञान प्रामाण्य मनवीत? . यत्र कुत्र वा प्रामाण्यं स्वत इत्यास्थेयमेव] .. अपि चोत्तरसंवादात पूर्वपूर्वप्रमाणताम् । बदन्तो नाधिगच्छेयुरन्तं युगशतरपि । ५० ॥ सुदूरमपि गत्वा तु प्रामाण्यं यदि कस्य चित। स्वत एवाभिधीयेत को द्वेषः प्रथमं प्रति ॥ ५५ ॥ यदाह--- कस्य चित्तु यदीष्येत स्वत एव प्रमाणता। प्रथमस्य तथाभावे विद्वषः किंनिबन्धनः। (श्लो. वा. चोद-76) इति । [समानविषयस्यैव संवादकत्वम् अथान्यविषयज्ञान मन्यस्य' संवाद उच्यते--तदयुक्तम- अदशनात्। न हि स्तम्भज्ञानं कुम्भज्ञानस्य संघादः॥ कालान्तर इति । तथाचेतादृशमाधकज्ञानाभावः अप्रयोजन । का विशेष इति। तदिदं अन्धेनाधाय मार्गदर्शनतुल्यमिति भावः ॥ शानं-क. मप्यस्य-ख. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् ३] संवादात् प्रामाण्यनिश्चयः न संभवति 427 संवादः दुरधिगमश्च अथार्थक्रियाज्ञानसंवादात्प्रथमस्य प्रवर्तकस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यमिष्यते तदपि धन्वसितप्रामाण्यं कथमादिमस्य' प्रामाण्यमवगमयेत् ? कश्चार्थ क्रयाशानस्य पूर्वस्माद्विशेषः, . यदेत दायत्तस्तस्य प्रामाण्याधिगमः। अथक्रियाशानत्वमेव विशेष इति चेत्, किल सलिलज्ञानमाद्यमविद्यमानेऽपि पयसि पूष दीधितिषु प्रवर्तकं रएमिति न भवति विनंभभूमिः ।। भप्रमाया भपि प्रवर्तकत्वादि समम् . इदं पुनरर्थ कयासंवेदनं अम्बुमध्यवर्तिनः पानावगाहनादिविषय मुदेती'त्यनवधारितव्यमिनार'तया तत्प्रामाण्य निश्चयाय करत इति तदसत्-स्वप्ने पानावगाहनस्थापि व्यभिचारोपलब्धेः ।। [भप्रमाया अपि अर्थक्रियाकारित्वं दृश्यते) किञ्च चरमधातुविसोऽपि स्वप्ने सीमन्तितीमन्तरेण भवतीति महानेष व्यभिचारः॥ ___ अथ रागोद्रेकनिमित्तत्वेन पित्तादिधातुविकृतिनिबन्यनत्वेन या तद्विसर्गस्य न स्वसाधनव्यभिचार इत्युच्यते तदसमञ्जसम्---- मसकृदनुभूतयुवतिपरिरीभाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधा यत्वेन तत्कार्यस्वावधारणात् ॥ . अर्थक्रियेत्यादि। वस्तुनः अथक्रियाकारित्वं स्वरूपत: न प्रामाण्यनिश्चयहेतुः, किन्तु तन्निश्चय एव । तत्र 'ध प्रामाण्य केन निर्णीतम् ? विशेषः--मामाण्यस्वरूपांश । एतदायत्तः --अर्थक्रियाज्ञानाधीनः । किल इति ग्रन्थकारशैली प्रतिकामात । ज्ञानस्य फलं प्रवृत्तिरित्यनुपदमुक्तम् ।। दृशमर्थक्रियाकारित्वं विवक्षितमिति शङ्कते---इदं पुनरिति। एताशस्वित्यर्थः ॥ ननु भवदुक्तं पानादिप्रतिमासमात्रं, न तु पानादिकम् । न हि स्वाप्नअलावगाहनेन शरीरं आई भवतीतिशङ्कायां, तत्रापि दृष्टान्तमाह-किञ्चति सत्कार्यत्वं-युवतिपरिरंभकार्यस्वम्। चरमधातु निसर्गभ्येति कोषः । 'माघस्य क. दधीन-क. पीयूष क. *मपी-ख. चार-ख. 'वस्त्रामाण्य-क. 'नवधारणाव-क. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 प्रामाण्यस्वतस्त्वपरतस्त्वविचारः न्यायम तस्मादर्थक्रियाज्ञानव्यभिचारावधारणात् । सत्प्रामाण्यपरीक्षायामनवस्था न शाम्यति ॥ ६ ॥ [प्रामाण्यनिश्चयः म प्रवृत्यङ्गम् ] अथवाऽऽप्तफलत्वेन किं तत्प्रामाण्यचिन्तया? प्रथमेऽपि प्रवृत्तत्वात् किं तत्प्रामाण्यचिन्तया?' ॥ ११ ॥ न चेदमर्थक्रियाक्षानमप्रवृत्तस्य पुसस्लमुङ्गवति । मत्र प्रामा ण्यावधारणपूर्विकायां प्रवृत्ती कारणगुणनिश्चयप्रामाण्यचर्चाबद्धचक्रकककचचोद्यप्रसङ्गस्तदयस्थ एव ___अनिश्चितप्रामाण्यस्य तु प्रवृत्ती पश्चात्तानर्णयो भवन्नपि कृतक्षौरस्य नक्षत्रपरीक्षावत् अफल पवेत्युक्तम् । - [प्रामाण्यनिश्चयस्य माद्यप्रवृत्ती महस्वाक्षेपः] सतैमास्यात्-द्विविधा हि प्रवृत्ति:-आधा च, आभ्यासिकी च। सलाद्या यथा - विनिहितसलिलावसिकमसृणमृदि शरावे शाल्यादिवीजशक्ति परीक्षणाय कतिपय बीज कणावापरुपा। नतस्तत्र तेषामङ्करकरण कौशलमबिकलमवलोकयन्तः कीनाशा दिगई केदारेषु तानि बीजान्यावपन्तीति सेयमाभ्यासकी प्रवृतिः । एवमिहापि प्रथमपरीक्षितपण भावा देव हा कुलश्चिकाचितिपश्चिदपि व्यवहरंस्त यवहार पर स्तत्त फल ज्ञाने तस्य प्रायमय गच्छन् पुनस्तथाविधे जाते सति सखमेव प्रवृत्यादि के बहारमशङ्कितकालप्यः करिष्यतीति न सत्मिना ययति॥ आलफलत्वेन ... फलम प्रयनन्तरं प्रामाण्यविचारणेन कि साध्य मिति. घेत प्राथमिकज्ञानेन प्रवृत्ते ने अपनत्वेन अनन्तरं वा तद्विचारकि साध्य ? मतः प्रामाण्यस्य परतस्त्वं निस्वकाशम् । एतदेवोपपादयति --न थेद मित्यादिना॥ . आद्या---प्राथमिकी कीनाशाः कर्षका ॥ किं तत्प्रामाण्यचिम्नया- ख रस्वफ-क. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यस्य परस्त अवस्था या 429 [भाधप्रवृत्तावपि प्रामाण्यनिक्षमा माङ्गम् | उच्यते धिषमोऽयं दृष्टान्त सज्जातीयतया बीजं शक्यते यदि वेदितुम् । सत्र तनिश्चयाधुक्तं निर्विशङ्क प्रवर्तनम् ॥ १२ ॥ जाने तथाविधवं तु बोधरूपाविशेषतः। कार्यादा कारगावाऽपि ज्ञातव्यं न स्वरूपतः ६३॥ इति । {प्रामाण्यनिश्चयस्य प्रमाणान्तरेण दुस्संपादत्वम् । कारणानां परोक्षत्वात् न तद्दारा सदागतिः । 'कार्य तु नाप्रवृत्तस्य भवतीत्युपवर्णितम ॥ ६४ A . तस्माद्वैयर्थ्यचोद्यस्य नायं परितिक्रमः । पवं नार्थक्रियाज्ञानात की प्रामाण्यनिश्चयः ॥ १५ ॥ अमर्थकारणज्ञानस्यापि न प्रामाण्यनिश्चायकत्वम् । .. समर्थकारणानात् योऽपि प्रामाण्यनिश्चयम् । - घूते सोऽपि कृतोद्धाहस्तत्र लग्नं परीक्षते ! ६६ ५ किलाति कसितंकुसममकरन्द पानमुदितमधुकरकुले कस्मिश्चिदुधाने धाधमानायां वीणायां निरन्तरलतासन्तानान्तरितवपुषि विदूरादनवलोक्यमाने वार के वीणावनिसंधिदि रोलम्बनादसन्देह. दूषितायां तदमिपुखमेव प्रतिष्ठमानः श्रोता परिवाद के दर्शनपथमपतीणे स्वरानुकूलकारणनिश्चयात् तनातीतो संशयनिवृतेः प्रामाण्यं निश्चिनोतीत्येष सरथकारणज्ञानकनः प्राण्यनिश्चयः । .. तथाविधत्वं- यथार्थत्वम। कार्यात - फलप्रापयादिरूपात् । कारगात दुष्टेन्द्रियादिरूपात् ।। तदा - माद्यप्रवृक्षो। चैयर्थ्य चोय च प्रामाण्यविषयकम् । समर्थकारणशानादित्यादिकं विवृणोति-आतविकसितेति । इदं च रोलम्बनाइसन्देहा. पादनाय । परिवादके-धीणावाद । समर्थ --- सरकार्यानुकूलसामध्यविशिष्ट कार्यातु-ख. Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 प्रमाण्यस्वतस्त्वपरतस्त्वविचार: [न्यायमचरी तत्रापि नाप्रवृत्तस्य हेतुसामर्थ्यदर्शनम्। एवमेव प्रवृत्ती तु निश्चितेनापि तेन किम् ॥ ६७ ॥ तन्निश्चयात् प्रवृत्तौ वा पुनरन्योन्यसंघटम् । तन्निश्चयात् प्रवृत्तिः स्यात् प्रवृत्तेस्तद्विनिश्चयः ॥ ६८ ॥ [प्रामाण्यस्वतस्त्वोपसंहारः] तदेवं 'न कुतश्चिदपि प्रामाण्यनिश्चयः चक्रकेतरेतराश्रयानघस्थावैयादिदूषणातीतस्थितिरस्तीत्यतः प्रामाण्यनिश्चयेऽपि न किञ्चिदपेक्षते प्रमाणम् । 'अतश्चोत्पत्ती, स्वकार्य करणे, स्वप्रामाण्यनिश्चये च निरपेक्षत्यादपेक्षात्रयरहितत्वात्स्वतःप्रामाण्यमिति सिद्धम्। तदुक्तम् (श्लो. वा. चोद-47)--- 'स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गृह्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते' । [अप्रामाण्यपरतस्त्वोपसंहारः] . अप्रामाण्यं तूत्पत्तौ दोषापेक्षत्वात्, स्वनिश्चये बाधकप्रत्ययादिसापेक्षत्वात् उभयत्रापि परत इत्युक्तमेव। तस्मात् पक्ष त्रयस्या. उनुपपतेश्चतुर्थ एवायं पक्षः श्रेयान्-प्रामाण्यं स्वाः, अप्रामाण्यं परत इति । [मामाण्याप्रामाण्ययोः परतस्त्वशङ्का मनु! चोत्पत्तिवेलायां न विशेषोऽवधार्यते। प्रमाणेतरयोस्तेन बलाद्भवति संशयः । ६९ ॥ पत्कारण, तदनुमानात् प्रामाण्यमव्यभिचरितं निश्चीयत इति भावः । पवमेव-प्रामाण्यनिश्चयात् पूर्वमेव ॥ प्रामाण्यनिश्चयेऽपीति । यदा कुतश्चिदपि प्रामाण्यनिश्चयः असंभवी, भनुभूयते च प्रामाण्यं, सतः तस्य स्वतस्त्वं अर्थवलादेव सिद्धमित्यर्थः ॥ प्रमाणेतरयोः--प्रामाण्याप्रामाण्ययोः विशेषः इत्यम्बयः । उत्तमुप 'कुत-क. तत-ख. त्रयस्यानु-ख. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' आडिकम पामाण्यस्य स्वतस्त्वेऽप्यप्रामाण्यस्य परतरत्वम -181 परिच्छित्तिमात्र प्रमाणकार्यम! सच यथाऽर्थेतरप्रमितिसाधारणं रूपं। साधारणधर्मग्रहणं च संशयकारणमिति प्रसिद्धः पन्थाः। एवं स्थिते - प्रमाणान्तरसंवादविसंवादी विना कथम ? प्रमाणेतरनिर्णीतिः, अतश्च परतो द्वयम् ॥ ७० ॥ [प्रामाण्याप्रामाण्ययोः परतस्त्वासंभवः] .. तदेतदचतुरस्रम। सत्यं, परिच्छित्तिरेव प्रमाणकार्यम् । मा पुनरुपजायमानव न सन्देहादिदूषिततनुरुपलभ्यते इत्योत्सर्गिक प्रामाण्यमेव सा भजते । अर्थपरिच्छेदाच प्रवर्तमानः प्रमाता प्रमाणेनैव प्रवर्तितो भवति न संशयात्प्रवृत्तः। स्थिते चैव सौत्सर्गिके प्रामाण्ये, यत्र तस्यापवादः क्वचिद्भवति तत्रापामाण्यम् ॥ [अप्रामाण्यहेतुः ___अप्रमाण्ये चावश्यंभाव्यपवादः। द्विविध एवापवादा-बाधकप्रत्यया, कारणदोषज्ञानं च। तदुक्तं भाष्यकृता (शाव. मा. 1-1-5) 'यत्र दुएं करणम् , यत्र च मिथ्येति प्रत्ययः, स एवासमीचीन: प्रत्ययः; माः ' इति। वार्तिककारोऽवाह - (लो. वा. चोद. 533; 'तस्माद्वाधात्मकत्वेन प्राप्ता बुद्धः प्रमाणता। अर्थान्यथात्वहेतूत्थदोषशानादपोद्यते' इति । तत्र बाधकशानं पूर्वज्ञानोपद्वारेणेव तस्मिन् विषये जायत इति समानविण्यत्वात् सप्टमेव बाधकम् ॥ पादयति-परिच्छित्तीति । शेयपरिच्छेद एव हि ज्ञानस्य कृत्यम् । शेयं सत्र सवेत् प्रमा, नो क्षेत् अप्रमेति ॥ संदेहेत्यादि। म हि पुरुषः सर्वत्र 'ममोरपत्रं ज्ञानं प्रमा? मवा?' इति विचिकित्सत इत्यनुभवसिद्धमेव । प्रमाणेनैव-प्रामाण्यविशिष्टज्ञानेनैव । स्थितिश्चव-ख. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 पामाण्यस्वतस्थपरतस्त्वविचार: [न्यायमरी [असमानविषयत्वेऽपि करणदोषज्ञानस्य बाधकरवम् ] करणदोषज्ञानं तु भिन्नविषयमपि कार्यक्याद्वाधकता प्रतिपद्यते। यथा 'चमसेनापः प्रणयति' इति दर्शपूर्णमासाङ्गत्वात् त्वर्थश्चममः। 'गोदोहनेन शुकामम्य प्रणयेत्' इति काम्यमानपशुनिर्देशात 'पुरुषार्थो गोदोहनमित्येवं मत्वर्थपुरुषार्थतया भिन्नविष्यस्वेऽपि चमसगोदोहनयोः प्रणयन ख्यकार्यमेकमिति गोदोहनेन निवृत्ते सस्मिंश्चमलो निवर्तते। एवामह कारणदोषज्ञानं दोषविषयमपि दोगा.' णामयथाऽर्थशानजननस्वभावत्वात्तस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यं बाधते । तदुक्तम् (श्लो. वा. चोद. 58) 'दुष्टकारणबोधे तु 'जातेऽपि विषयान्तरे। अर्थात्तुल्यार्थतां प्राप्य बाधो गोदोहनादिवत्' इति ॥ . [बाधकाभावमात्रमेव प्रामाण्यावधारणे अलम् ] यत्र पुनरिदमपवादद्वयमपि में दृश्यते, तत्र सदोत्सर्गिक प्रामाण्यमनमोदितमास्त इति न मिथ्यात्वाशङ्कायां निमित्तं किश्चित् । यदाह (श्लो. वा. चोद. 60)--- 'दोषशाने स्वनुत्पन्ने नाशवधा निष्प्रमाणता' इति । तथा हि ... कश्चिदुत्पन्न एवेह स्वसंवेद्योऽस्ति संशयः। स्थाणुर्वा पुरुषो वेति को नामापवीत तम ॥ ७९ ॥ कार्यक्यात--यज्ज्ञान प्रामाण्यं गृहीतं त स्मन्नेव भप्रामाण्यनिश्चया. घानात्। यथेत्यादि। पूर्वमीमांसायां तृतीयस्य षष्ठे तृतीयाधिकरणे विचारितमिदम् । निवृत्ते इति। प्रणयन इति शेषः ॥ मिथ्यात्वं मप्रामाण्यम् । स्वसंवेद्य इति। उत्पन्न: संशयः स्वयं ज्ञायत एव सः चोरो वा ? स्थाणुर्ग? ' इति सन्दिहान: न हि उपरि गच्छतिः अतः तत्र संशयत्वं स्वसंवेद्यमेव । तद्वत् ज्ञानात् प्रवृत्तेर्दर्शनेन प्रामाण्यमपि गृहीतमित्येव वक्तव्यम् । मनु सईि पप्रामाण्यमपि स्वत स्पर्धगोदोहनेन-ख 'सिद्धेऽपि-- ति मीमांसकपाठः । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् ३] कुत्रचित संशयोत्पत्ति: न प्रामाण्यस्वतस्त्यबाधिका 433 हठादुत्पाद्यमानस्तु हिनस्ति सकलाः क्रियाः। स्वभार्यापरिरंमेऽपि भवेन्मातरि संशयः ॥ ७२ ॥ विनाशी संशयात्मेति पाराशर्योऽन्यभाषत। 'नायं लोकोऽस्ति कौन्तेय ! न परः संशयात्मनः ॥७३॥ इति ॥ [स्थलविशेषे संशयोत्पत्तावपि न प्रामाण्यस्वतस्त्वहानिः यत्रापि च कचिद्वाधकप्रत्यये संशयो जायते तत्रापि तृतीयमानापेक्षणान्नानवस्था। न च तावता स्वतःप्रामाण्यहानिः। यत्र प्रथमविज्ञानसंवादि तृतीयज्ञान'मुत्पद्यते तत्र प्रथमस्य प्रामाण्यमौत्सर्गिकं स्थितमेव । द्वितीयविज्ञानारोपितालीककालुष्यशङ्कानिराकरणं त्वत्य तृतीयेन क्रियते ; न त्वस्य संवादात् प्रामाण्यम् ॥ इत्स्यायास्यतीति चेत् , संशयत्वं-अप्रमात्वमिति न पर्यायः । अतो न दोष इति भावः। ननु सामान्यत उत्पन्नेऽपि ज्ञाने 'इदं ज्ञानं प्रमा ? न वा ? ' इति संशयस्य कुत्रचित् दर्शनात् , प्रमात्वे गृहीते तादृशसंशयानुत्पादात् , सर्वत्र संशयः कल्पनीय इति शङ्कां तीक्ष्णोक्तिभिः समाधत्ते-- हठादिति। अत्र संशय इत्याकर्षः । मातरि---विषयसप्तमी। भार्यायामिति शेषः । पाराशयः-ग्यासः। 'संशयात्मा विनश्यति' (गी. 4-40) इति क्रमः । नायमिति। 'नायं लोकोऽस्ति न परः न सुख संशयात्मनः' (गी. 4-40) इति प्रायः पाठः ॥ ___ बाधकप्रत्यये इति निमित्तसप्तमी। तेन प्रामाण्यस्यैवौत्सर्गिकस्वमुक्तम् । कुतो न हानिः ? इत्यत्राह-योति। आद्य रजतज्ञानं, द्वितीयं'ममोत्पन्न ज्ञानं प्रमा? न वा ? ' इति संशयरूपम्, तृतीयं आद्यज्ञानसंवादि 'रजतमेवेदम्' इति । अनेन द्वितीयज्ञानारोपिताप्रामाण्याशङ्कानिवर्तनमानं क्रियते, न तु नूतनतया प्रामाण्यग्रहः। यदा च तृतीयं ज्ञानं 'नेदं रजतं' इत्येवंरूपं, तदा तत् बाधकज्ञानरूपमेवेति तेनाप्रामाण्यमेव गृह्यते । अप्रामाण्यस्य परतस्त्ववादिनां तु तदिष्टमेव ॥ 'मुत्पाद्यते-क. NYAYAMANJARI Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 प्रामाण्यस्वतस्त्वपरतस्त्वविचारः न्यायमञ्जरी - यदितु द्वितीयज्ञानसंवादि तृतीयं शानं तदा प्रथमस्याप्रामाण्यम् । तञ्च परत इष्टमेव । द्वितीयस्य तु ज्ञानस्य न तृतीयसंवादकृतं प्रामाण्यम् ; अपि तु संकल्प्यमानकुशङ्काऽऽचमनमात्रे तस्य व्यापारः। उक्तं च (श्लो. वा. १-१-२-६१)-- 'एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः। प्रार्थ्यते, तावत'वैकं' स्वत:प्रामाण्यमश्नुते' इति ॥ .. [शब्दस्यापि स्वत:प्रामाण्यम्] तदेवं सर्वप्रमाणानां स्वतःप्रामाण्ये सिद्ध समानन्यायतया शब्दस्यापि तथैव प्रामाण्यं भवति। न च नैसर्गिकमर्थासंस्पर्शित्वमेव शब्दस्य स्वरूपमिति परीक्षितमेतत् (पु. 416)। किन्त्वर्थबोधजनकत्वात्तस्य नैसर्गिके प्रामाण्ये सति पुरुषदोषानुप्रवेशकारितः क्वचिद्धि विप्लवः। तदुक्तम् (श्लो. वा. १:१-२-६२)'शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्तधीन इति स्थितम्' इति ॥ लौकिकवैदिकशब्दानां सर्वेषां स्वतः प्रामाण्यम्] तत्र पौरेषेये वचसि गुणवति वक्तरि तद्गुणापसारितदोषतया तत्प्रामाण्यमौत्सर्गिकमनपोदितं भवति। न तु गुणकृतं तत्प्रामाण्यम , अनङ्गत्वात्प्रामाण्ये गुणानाम् । बोधकत्वनिबन्धनमेव तदित्युक्तम् । ननु तृतीयज्ञानेन आयज्ञानेऽप्रामाण्ये गृहीते तेन द्वितीयं ज्ञानं प्रमेत्या वेदितं भवत्येव । ततश्च प्रामाण्यमपि परत एवेत्यत्राह-द्वितीयस्य विति । प्रथमज्ञानार्थमेवोत्पन्नं तृतीयज्ञानं द्वितीयज्ञाने न व्यापारयेदिति भावः । जन्मनः इति पञ्चमी। तृतीयज्ञानं निर्दुष्ट चेत् तावतैव आद्यज्ञाने प्रामाण्यनिर्णयः । यदि च तृतीयज्ञानेऽपि दोषशङ्का, तदा चतुर्थज्ञानेन द्वितीयं ज्ञानं संरक्ष्यते इति तदपरि संवादापेक्षा नास्त्येव. यतः पञ्चमज्ञानेन साध्यं द्वितीयेनैव साध्यते । नैसर्गिके--औत्सर्गिके ॥ तत्-प्रामाण्यम् । अर्थप्रकाशकत्वे प्राते प्रामाण्यमपि प्राप्यत एवेत्युक्त 1वैके-क. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 435 आह्निकम् ३] परतःप्रामाण्यसाधनोपक्रमः वेदे तु प्रणेतुः पुरुषस्याभावात् दोषाशङ्केव न प्रवर्तते, वक्तधीनत्वादोषाणान। न च बाधकप्रत्ययोऽद्य यायवेदार्थे कस्य चिदुत्पन्न इति निरपवादं वेदप्रामाण्यम्। आह च (श्लो. वा. १-१-२-६८) 'तत्रापवादनिर्मुक्तिर्वक्त्रभावाल्लधीयंसी। वेदे तेनाप्रमाणत्वं न शङ्कामधिगच्छति' इति॥ तदिदमुक्तम्-'तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात् ' (जै. सू. 1-1-5) इति ॥ [दोषाभावमात्रं प्रामाण्यप्रयोजक, न गुणोऽपि] गिरां मिथ्यात्वहेतूनां दोषाणां पुरुषाश्रयात्। . अपौरुषेयं सत्यार्थमिति युक्तं प्रचक्षते ॥ ७४ ॥ गिरां सत्यत्वहेतूनां गुणानां पुरुषाश्रयात् । पौरुषेयं तु सत्यार्थमित्ययुक्तं तु मन्यते ॥ ७५॥ . न हि पुरुषगुणानां सत्यतासाधनत्वं वचसि खलु निसर्गादेव सत्यत्वसिद्धिः । गुणमपि नरवाचां विप्लवाधायिदोषप्रशमनचरितार्थ सङ्गिरन्ते गुणज्ञाः ॥ ७६ ॥ --परतः प्रामाण्यसाधनोपक्रमः [वेदे प्रामाण्यनिश्चयस्यावश्यकता] अत्राभिधीयते-प्रत्यक्षादिषु दृष्टार्थेषुप्रमाणेषु प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेणैव व्यवहारसिद्धस्तत्र किं स्वतः प्रामाण्यम् ? उत परतः ? इति विचारेण न नः प्रयोजनम् ; अनिर्णय एव तत्र श्रेयान् । अदृष्ट पूर्वम् (पु. 424)। अनपेक्षत्वात् -स्वप्रामाण्ये परापेक्षाभावात् ॥ कुतस्तथा मन्वते ? इत्यत्राह - न हीति । गुणमिति । क्वचिदिति शेषः॥ 1 पौरुषेयं तु-ग. 28* Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 परत. प्रामाण्यसमर्थनम् [ न्यायमरी तु विषये वैदिकेष्वगणितद्रविणवितरणादिक्लेशसाध्येषु कर्मसु तत्प्रामाण्यावधारणमन्तरेण प्रेक्षावतां प्रवर्तनमनुचितमिति तस्य प्रामाण्यनिश्चयोऽवश्यकर्तव्यः । तत्त्र परत एव वेदस्य प्रामाण्यमिति वक्ष्यामः ॥ [ प्रत्यक्षादावपि स्वतः प्रामाण्यं किं उत्पत्तौ ? उत ज्ञप्तौ ?] 'यच्चेद'मियता विस्तरेण स्वतः प्रामाण्यमुपपादितं, तत् व्याख्येयम् । स्वतः प्रामाण्यमिति कोऽर्थः ? किं स्वत एव प्रमाणस्य प्रामाण्यं भवति उत स्वयमेव तत् प्रमाणमात्मनः प्रामाण्यं गृहाति ? इति ॥ [ ज्ञातौ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वं न संभवति ] न तावत् स्वयमेव प्रामाण्यग्रहणमुपपन्नम् ; अप्रामाणिकत्वात् । तथा हि-यदेतन्नीलप्रकाशने प्रवृत्तं प्रत्यक्षं तन्नीलं प्रति तावत् प्रत्यक्ष, प्रमाणं तावदिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमिति जान्रीम एवैतत्; किमत्र विचार्यते ? प्रामाण्यपरिच्छेदे तु किं तत् प्रमाणमिति चिन्त्यताम् । प्रत्यक्षम् ? अनुमानं वा ? प्रमाणान्तराणामनाशङ्कनीयत्वात् ॥ वक्ष्याम इति । अत्रैवाह्निके विपरीतख्यातिसमर्थनानन्तरं वक्ष्यति ॥ , नीलं प्रतीति । विषयं प्रति प्रकाशरूपं तत् नात्मानं प्रतीत्यर्थः । ज्ञानानुमेयतावादिनां भाट्टानामेवात्र पूर्वपक्षित्वमिति स्मर्तव्यम् । ज्ञानस्वप्रकाशत्ववादस्तु नवमाह्निके परीक्ष्यते । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वात् स्वरूपतः प्रमाणम् । एतदुभयांशे न चर्चा । प्रामाण्यं उत्पत्तावपि परत एवेति आद्य: कल्पः उपरिष्टात् विचार्यते । ग्रहणस्यैव मुख्यत्वात् बुध्या सन्निहितत्वाद्वा एतत्कल्पस्य प्रथमं विचारः ॥ प्रमाणान्तराणामित्यादि । उपमानं शक्तिग्राहकं प्रमाणम्, अतिदेशवाक्यमूलकं च । शाब्दस्थले तु परत एव प्रामाण्यमित्यनुपदमुक्तम् ॥ 1 तच्चद-क. 2 चिन्त्यम्-क. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] प्रामाण्यस्वतस्त्वसाधकप्रमाण नायक 4:37 [प्रत्यक्षेण स्वगतप्रामाण्यग्रहणासंभवः | न तावत् स्वप्रामाण्यपरिच्छेदे नत्प्रत्यक्ष प्रमाणम्, तद्धि ज्ञानम्य वा प्रामाण्यं गृह्णीयात् तत्फलस्य वा तत्र ज्ञातृव्यापारात्मनो शानस्य भवन्मते नित्यपरोक्षत्वान , प्रत्यक्षम्य म्वतः परिच्छेदानुपपत्तौ तत्प्रामाण्यस्यापि कथं प्रत्यक्षेण ग्रहणम ॥ फलस्याप्यर्थप्रकाशनाख्यस्य संवेदनात्मनो नन्द्रसंसर्गयोग्यता विद्यते, येन तद्गतमपि यथाऽथत्वलक्षणं प्रामाण्य मिन्द्रियव्यापारलब्धजन्मना प्रत्यक्षेण परिच्छित ॥ न च मानसमपि प्रत्यक्षं फलगतयथाऽर्थतावसायसमर्थमिति कथनीयम् , तदानीमननुभूयमानत्वात् । न हि नीलसंवित्प्रसवसमनन्तरं यथाऽर्थेयं नीलसंवित्तिरिति संवेदनान्तरमुत्पद्यमानमनुभूयते । अनुभवे वा ततो द्वितीयात्प्रथमोत्पन्ननीलज्ञानयाथार्थ्यग्रहणान्न स्वतःप्रामाण्यनिश्चयः स्यात् । तस्मान्न प्रत्यक्षस्यैष विषयः॥ [अनुमानेन स्वगतप्रामाण्यग्रहणासंभवः] अनुमानेनापि कस्य प्रामाण्यं निश्चीयते? ज्ञानस्य ? फलस्य वा ? इति पूर्वव'द्वाच्यम् । फलस्य तावत्तन्निश्चये लिङ्गत्वमेव तावन्न कस्यचित्पश्यामः। ज्ञातृव्यापरात्मनो ज्ञानस्य तु स्वकार्य भवेदपि लिङ्गम , फलस्य क्रियामात्रव्याप्तिग्रहणात्स्वरूपसत्तामात्र - भवन्मते - भट्टमते। ज्ञानसामान्यं अतीन्द्रियं, ज्ञाततालिङ्गकानुमितिग्रामिति मते प्रत्यक्षं आत्मानमप्यगृह्णत् स्वगतं प्रामाण्यं कथं स्वयं गृह्णीयात् ? . अननुभूयमानत्वात् । ज्ञानानामयोगपद्यात्। ननु ज्ञानायोगपद्यऽपि तद्गत्वादुत्तरस्य मानसप्रत्यक्षस्य तद्गत प्रामाण्यं गृह्यत एवेति चेत्, तर्हि परत: प्रामाण्यमेवागतमित्याह --- अनुभवे वेति ॥ फलस्य तावदिति । फलं हि स्वकारणानुमाने लि. भवितुमर्हति, कार्येण कारणानुमानात् । न तु फलस्यानुमानेऽन्यलिङ्गं, भवेत् । स्वकार्यउक्तज्ञानफलम् । क्रियामात्रति । फलेन हि तद्वेतुभूत नरूपक्रियामात्र 1 द्वाथम्-ख. 2 तावतुनिश्चये-क. ३ भवदपि-क. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 परतःप्रामाण्यसमर्थनम् न्यायमञ्जरी . मनुमापयितुमुन्सहते, न यथाऽर्थत्वलक्षणं प्रामाण्यम्। तद्धि फलं निर्विशेषणं वा स्वकारणस्य 'ज्ञातृ'व्यापारस्य प्रामाण्यनुमापयेत् ? यथार्थत्वविशिष्टं वा ? आये पक्षे यतः कुतश्चन फलात् तत्प्रामाण्यानुमाने नेदानि किश्चिदप्रमाणं भवेत् । उत्तरोऽपि नास्ति पक्षः, फलगतयाथाऽर्थ्यपरिच्छेदोपायाभावादित्युक्तम् ॥ . [प्रमाण्यस्य स्वतस्त्वे यथार्थायथार्थज्ञानयोरविशेषापत्तिः] .. ननु ! 'स्वानुभव एवात्रोपायः। तद्धि नीलसंवेदनतया फलं स्वत एव प्रकाशते । नीलसंवेदनत्वमेव चास्य यथाऽर्थत्व, नान्यत्-यद्येवं शुक्तिकायामपि रजतसंवेदने समानो न्यायः । न हि रजतसंवेदनादन्या यथाऽर्थत्वसंवित्तिरिति ॥ [प्रामाण्यग्रहस्यौत्सर्गिकत्वं न युक्तम्] ननु! तत्र बाधकप्रत्ययोपनिपाते'नायथा'ऽर्थत्वमुपनीयते । नूनं चास्य मिथ्यादर्शनेषु देशान्तरे वा शुक्तिकारजतादिक्षाने, कालान्तरे कूटकार्षापणादिप्रतीतो, पुरुषान्तरे वा जाततैमिरिके द्विचन्द्रप्रतीतो, अवस्थान्तरे पीतशङ्खादिप्रतिभासे भवति बाधक प्रत्ययः। तदसत्वे न तच्छङ्का युक्तिमतीत्युक्तमेव ॥ मेवानुमातुं शक्यं, न तु तद्गतप्रामाण्यमपि । एतदेव विशदयति-तद्धीति । निर्विशेषणं फलं-यत्किञ्चित्फलम् । यतःकुतश्च नेति । भ्रमात्मकज्ञानस्यापि तदनुगुणं फलं अस्त्येव । उक्तं, अनुपदमेव॥ नीलसंवेदनतयेति । न हि संवेदनमात्रं फलं ; असंभवात् , अप्रयो जकत्वाच। शुक्तिकायामपीति। न हि शुक्तिरजतज्ञानसत्यरजतज्ञानयोरत्पत्तिकाले कश्चन विशेष: अनुभवसिद्ध इत्यर्थः ॥ ननु यत्रानन्तरं बाधकज्ञानमनुत्पन्नं तत्राप्रामाण्यग्रहः कथम् ? इति शक्लायां, देशान्तरे, कालान्तरे, पुरुषान्तरे, अवस्थान्तरे वा बाधकप्रत्ययः स्यादेवेत्याह--नूनं चेति । उक्तमेव-'दोषज्ञाने स्वन्ने' (पु-432.) इत्यादि । शान-क. सोऽनुभव-ख. न यथा-क. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] प्रामाण्यसंशयः न प्रवृत्तिप्रतिबन्धक: 439 सत्यमुक्तमयुक्तं तु। एवं हि वदता बाधकाभावज्ञानाधीनं प्रामाण्यमभिहितं भवति। तच्च तात्कालिक ? कालान्तरभावी वा? इति कल्प्यमानं नोपपद्यत इति दर्शितम (पु-426)। तस्मादुत्पद्यमानमेव प्रमाणमात्मनः प्रामाण्यं निश्चिनोतीति न युक्तमेतत् ।। [प्रामाण्यसंशयादेव प्रवृत्तियुज्यते ] ... यदि तु प्रसवसमय एव ज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चिनुयामः, तर्हि ततः प्रवर्तमाना न क्वचिदपि विप्रलभ्ये महि'; विप्रलभ्यामहे तु । तेन मन्यामहे - न निश्चितं तत्प्रामाण्यं, संशयादेव व्यवहराम इति ॥ [प्राथमिकज्ञानं एकतरकोटिकसंशयरूपमेव] ननु ! संशयोऽपि तदा नानुभूयत एव 'किमिदं रजतम् ? उत न रजतम् ? ' इति ; अपि तु रजतमित्येव प्रतीतिः। न हि संशयानाः प्रवर्तन्ते लौकिकाः; किन्तु निश्चिन्वन्त एव विषयमिति किमननुभूयमान एवारोप्यते संशयः? एकतरग्राह्यप्ययं प्रत्ययः, तनिश्चयोपायविरहात संशयकोटिपतित एव बलाद्भवति, यथा- अस्ति कूपे जलमिति भिक्षवो प्रसवसमयः-उत्पत्तिक्षणः । पूर्व हि प्रामाण्य निश्चयस्य प्रवृत्त्यमगत्वं साधितमेव । तत्रैवं प्रवृत्यर्थमपि प्रामाण्यनिश्चयानपेक्षणात्, प्रवृत्त्यनन्तरं तु सुतरा तदनपेक्षणात, ज्ञानोत्पत्तिकाल एव यदि न गृहीतं प्रामाण्य, तर्हि कदापि ग्रहणं न स्यादित्यतः प्रामाण्यं स्वत इति सिद्धं-इति खलु तेषां वादः । एवञ्च प्रामाण्यनिश्चयस्य प्रवृत्त्यनङ्गत्वात्, तदानीं तदप्रहणमपि युज्यत एव । तर्हि कदापि तद्हण न स्यादित्येतत्तु पृथग्विधारयामः । परन्तु ज्ञानोत्पत्तिकाले प्रामाण्याग्रहणमित्येव युक्तमिति भावः ॥ रजतमित्येवेति ! न हि तत्र कोट्यन्तरोपस्थितिदृश्यते ॥ संशयकोटिपतित एवेति । अयमत्र निष्कर्षः - ‘एवं भिक्षवो मन्यन्ते !' इति कथने, वाक्यात् कोठ्यन्तरानुल्लेख नेऽपि अस्स्येव मानसिकी कोठ्यन्तरोपस्थितिः। कुत्रचित् अन्यतरकोटेः औत्कटयादपि कोट्यन्तरानु । विप्रलमेमहि-क. 2 रजतम्-ख. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 परतः प्रामाण्यसमर्थनम् [ न्यायमरी मन्यन्ते - इति । एवं रजतमिदमित्येक पक्षग्राह्यपि तदानीं प्रतिभासः वस्तुवृत्तेन संशय एव । यदि हि प्रमाणतयाऽसौ गृह्येत, कथं क्वचिद्विसंवदेत् ? अप्रमाणतया तु गृह्यमाणः कथं पुमांसं प्रवर्तयेत् ? उभाभ्यामपि रूपाभ्यां अथ तस्यानुपग्रहः । सोऽयं संशय एव स्यात् इति किं नः प्रकुप्यसि ? ।। ७७ ।। [ प्राथमिक ज्ञानस्य संशयात्मका पर्यवसानम् ] यत्तु नानुभूयते संशय इति - सत्यम् - अननुभूयमानोऽपि न्यायादभ्यस्ते विषयेऽविनाभावस्मरणात् स परिकल्प्यते ; निश्चयनिमित्तस्य तदानीमविद्यमानत्वात् । संशयजननहेतोश्च सामग्रयाः सन्निहितत्वात् । तथा हि-यथाऽर्थेतरार्थसाधारणो धर्मो बोधरूपत्वमूर्ध्वत्वादिवत् तदा प्रकाशत एव । न च प्रामाण्याविनाभावी विशेषः कश्चन तदानीमवभाति । तदग्रहणे च समानधर्माधिगमप्रबोध्यमान' वासनाधीना' तत्सहचरितपर्यायानुभूतविशेषस्मृतिरपि संभवत्येवेतीयतीयं सा संशयजननी सामग्री सन्निहितैवेति कथं तज्जन्यः संशयः न स्यात् ? [प्राथमिकज्ञाने तत्काले तत्र विशेषग्रहणासंभवः ) ननु ! प्रमाणभूते प्रत्यये जायमान एव तद्वतो विशेषः परिस्फुरतीति कथं विशेषाग्रहणमुच्यते ? लेखः, कुत्रचित्तु कोटयन्तरानुल्लेखः भवसराभावादपि । इदमेव ज्ञानं संशयक्षमं अवधारणात्मकं प्राथमिकप्रवृत्तिहेतुः । न 'कोटिद्वयानवमर्शात् ' ( पु - 441 ) इति वक्ष्यमाणेन न विरोधः । 442 पुटोऽपि द्रष्टव्यः ॥ उभाभ्यां प्रामाण्याप्रामाण्याभ्याम् ॥ संशयः संशयरूपः । अभ्यस्ते - असकृदनुभूते । इतरस्थलेषु तथानुभवात् इत्यर्थः । इतरार्थः भयथार्थः ॥ जायमान एवेति । अयमर्थः ( 430 पु) पूर्वमुपपादितः ॥ 1 वासना - क. एताशेषु Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् ३] प्राथामेकं ज्ञानं अनवधारणरूपम् 441 भो महात्मन् ! कथ्यतां सः विशेषः। न हि तं वयमनुपदिष्ट कृशमतयो जानीमः। यदि तावत् स्पष्टता विशेषः । शुक्तिकायामपि रजतावभासः स्पष्ट एव! न हि तत्रानध्यवसायकालुष्यं किञ्चिदस्ति ॥ अथ निष्कम्पता, शुक्तिकायामपि रजतावभासो निष्कम्प एव । न ह्यसौ जायमान एवामुल्यग्रादिवाक्यकरणबोधवत्कम्पमानो जायते ॥ ___ अथ निर्विचिकित्सता, शुक्तिकायामपि रजतावभासो निर्विचिकित्स एव, किंस्विदिति कोटि द्वयानवमर्शात् ॥ अथ यस्मिन् सति बाधा न दृश्यते सोऽस्य विशेष इति, नन्वेतदेव पृच्छामि- कस्मिन् सति बाधा न दृश्यत इति; सर्वावस्थस्य बांधदर्शनात् । न चासो चिरमपि चिन्तयित्वा 'विशेषो दर्शयितुं शक्यः ॥ अथ स्वविषयाव्यभिचारित्वमेव विशेषः; स तदानीं नावमालत इत्युक्तम् (पु 427)। अपि च यदि तथाविधोऽपि विशेषः समस्ति, तर्हि यत्र ज्ञानेऽसौ न दृश्यते, ततः किमिति प्रवर्तते ? तद्विशेषदर्शी वा प्रवर्तमानः कथं विप्रलभ्येतेत्युक्तम् ॥ प्राथमिकज्ञानस्यानिर्णयात्मकत्वेऽपि न प्रवृत्त्यादिविरोधः] यदयं स्थाणुपुरुष संशय वदसंवेद्यमानोऽपि तदानीमस्त्येव बोधे यथाऽर्थतरत्वसंशयः ॥ स्पष्ट एवेति । न हि विषयप्रकाशनांशे वैलक्षण्यं दृश्यते ॥ निष्कम्पता--विषयाचाञ्चल्यम् , निष्कम्पप्रवृत्त्यङ्गतोपयुक्तम् ॥ निर्विचिकित्सता - असंशयरूपता, इयं च प्रवृत्त्योक व्यप्रतिबन्धिका । यस्मन्नित्यादि-बाधदर्शनानहतेति यावत् । सर्वावस्थस्यति। वस्तुतः प्रमात्मकमपि ज्ञानं कदाचित् विप्रलंभकवाक्यादिभि: अगृहीतदोषैः बाध्यत एव ॥ किमिति--कथम् ? भाद्यज्ञानविषये (439 पुटे टीका) पूर्वोक्तं अभिसन्धायाह-स्थाणुपुरुषेत्यादि । । विशेषयितु-ख. 2 स्थाणुर्नपुरुष:-ख. (अनन्तरपुटानुवर्ति) निश्चय-ग. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 परत:प्रामाण्यसमर्थनम् न्यायमञ्जरी न चासौ कल्प्यमानोऽपि व्यवहारस्य लोपकः । तेनैव व्यवहारस्य सिद्धत्वात्सर्वदेहिनाम् ॥ ७८ ॥ अतश्च संशयादेव व्यवहारं वितन्वताम् । लौकिकानां प्रयोक्तव्याः नाभिशापपरंम्पराः ॥ ७९ ॥ प्राथमिकज्ञानं अनवधारणरूपम् ] न च सर्वथा संशयसमर्थनेऽस्माकमभिनिवेशः। प्रामाण्यं तु ज्ञानोत्पत्तिकाले गृहीतुमशक्यमिति नः पक्षः। प्रामाण्याग्रहणमेवानध्यवसायस्वभावं संशयशब्देनेह व्यपदेक्ष्यामः। प्रामाण्याग्रहणं च प्रदर्शितम्। प्रत्यक्षेणानुमानेन वा सता प्रमाणेनात्मनः प्रमाणत्वपरिच्छेदायोगात् । तस्मात् स्वयं प्रामाण्यं गृह्यत इत्येष दुर्घटः पक्षः ॥ प्रामाण्यं स्वत उत्पद्यत इति पक्षोऽपि न युक्तः] अथ स्वतः प्रामाण्यं भवतीत्येष पक्ष आश्रीयते, सोऽप्ययुक्तः । कार्याणां कारणाधीनजन्मत्वात् , प्रामाण्यस्य च कार्यत्वात् । अस्ति च प्रामाण्यम् , वस्तु च तत् , न च नित्यम्, इति कार्यमेव तत् । कार्य च कार्यत्वादेव न स्वतो भवितुमर्हति इति ॥ [प्रमाणज्ञानं न ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यम् ) अथोत्पत्तौ स्वकारकातिरिक्तगुणानपेक्षित्वमेव प्रामाण्यस्य स्वतोभवनमुच्यते, न पुनरकार्यत्वमेवेति- तदप्यसम्यक् सम्यग्रूपस्य कार्यस्य गुणवत्कारकव्यतिरेकेणानिष्पत्तः। द्विविधं कार्य ननु संशयात् प्रवृत्तिः कथमित्यत्राह-न चेत्यादि । तेनैवअनवधारणात्मकज्ञानेनैव । क्वचिदनधिकव्ययायाससाध्ये, मतादृशेऽपि उत्साहाचतिशये सति वा, संशयादपि प्रवृत्ति: लोके दृश्यत इत्यप्यवधेयम् ॥ कार्याणामित्यादि। ‘स्वत उत्पद्यते' इत्युक्ते शब्दतः कारणसामान्यापेक्षाभावः प्रतीयते इति इदं दूषणमुक्तम् ॥ ____ 'स्वत उत्पद्यते' इत्यस्य तरसम्मतमर्थमनूय दूषयति-अथेति । स्वं-ज्ञानम् ॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] प्रामाण्यस्य गुणाधीनत्वम् 443 भवति, सम्यगसम्यग्वा। तत्र गुणवता कारणेन सम्यक्कार्यमुत्पद्यते, दोषवता त्वसम्यगिति ॥ [सामान्यसामग्रीजन्यं तु कार्य कुत्रापि न भवति निर्दोषं निर्गुणं धाऽपि न समस्येव कारणम् । अत एव तृतीयस्य न कार्यस्यास्ति संभवः ॥ ८ ॥ सम्यज्ज्ञानोत्पादकं 'कारकं धर्मि स्वरूपातिरिक्तस्वगतधर्मसापेक्ष कार्यनिर्तकमिति साध्यो धर्मः, कारकत्वात् , मिथ्याशानोत्पादककारकवत् । सम्यज्ज्ञानं वा धर्मि, स्वरूपातिरिक्तधर्म सम्बद्ध कारक निष्पाद्यमिति साध्यो धर्मः, कार्यत्वात् , मिथ्याज्ञानवत् ॥ प्रमाहेतोः गुणस्य सद्भावे प्रमाणम् ] आयुर्वेदागमाच्चेन्द्रियगुणान् प्रतिपद्यामहे । यदगी वैद्याः स्वस्थवृत्तरोषधोपयोगमुपदिशन्ति, तत् गुणोपयोगायैव; न दोषशान्तये । दृश्यते च तदुपदिष्टौषधोपयोगादिन्द्रियातिशयः। तद्विषय निर्दोषमित्यादि । 'निर्विशेष न सामान्यम्' इति हि न्यायः। नीलपीतादियावद्धटविशेषा एव हि घटसामान्य नाम। नीलपीतादिविशेषरहितं घटो नाम सामान्य किञ्चिन्नास्त्येव। अत एव घटोत्पत्तिस्थले नीलायन्यतरविशेषसामग्री आवश्यकी। तत्परित्यज्य घटसामान्यसामग्रीति न काचिदऽस्ति। यद्यपि सामान्यकार्यकारणभाव: विशेषकार्यकारणभाव: इत्यादिव्यवहारोस्ति, परन्तु इदं निरूपणमात्रम् । विषयदृष्टया तु विशेषसामग्रीमन्तरा सामान्यसामग्री न तिष्ठेदेव। न हि नीरूपः कश्चित्कपालः तिष्ठेत्। एवं ज्ञानं प्रमाभ्रमभेदमिन्नं चेत , तयोस्सामग्रीभेदोऽपि दुरपह्नवः। अतश्च ज्ञानसामान्यसामग्रयैव प्रमाया उत्पत्तिरिति बालिशभाषितम् ॥ सम्यज्ञानेत्यादि। आद्यं अनुमान सामग्रीपक्षकं, द्वितीयं सामग्र्य (कार्य) पक्षकम् ॥ आयुर्वेदपदं संज्ञाऽत्र। ननु आयुर्वेदः रोगरूपदोषनिवृत्तिमेव वक्ति, न तु गुणमपीति चेत्तत्राह-स्वस्थवृत्तेरिति । रोगनिवृत्त्यनन्तरमपि हि पुष्टयादिगुणलाभायाप्यौषधमुपदिश्यत एव ॥ कारकर्मि-ख. सम्बन्धवत्कारक-ख. वेदाच्च-ख.. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 परतः प्रामाण्मसमर्थन म् [ न्यायमञ्जरी एव च लोके नैर्मलयव्यपदेशः, न दोषाभावमात्रप्रतिष्ठ इत्यलं विमर्देन । तस्मादुत्पत्तौ गुणानपेक्षत्वात् स्वतःप्रामाण्यमिति यदुक्तं तदयुक्तम् ॥ [केवलस्य प्रमाणस्य स्वकार्ये न परानपेक्षत्वम् ] यदपि च स्वकार्यकरणे प्रमाणस्य परानपेक्षत्वमुच्यते - तदपि व्याख्येयम् । किं प्रमाणं स्वकार्यकरणे निरपेक्षम् ? सामग्री वा ? तदेकदेशो वा ? तजन्यं वा ज्ञानमिति ॥ तत्र सामग्रयाः सत्यं स्वकार्यजन्मनि नैरपेक्ष्यमस्ति । न तु तावता स्वतः प्रामाण्यम्, तत्परिच्छेदस्य परायत्तत्वात् ॥ सामग्रथन्तर्गत कारकस्य स्वकार्ये परापेक्षत्वमपरिहार्यम् ; एकस्मात् कारकात्कार्यनिर्वृत्त्यभावात् ॥ ज्ञानं फलमेव न प्रमाणमित्युक्तम् (पु. 182 ) । न च फलात्मनस्तस्य स्वकार्य किञ्चिदस्ति, यत्र सापेक्षत्वमनपेक्षत्वं वाऽस्य चिन्त्येत । पुरुषप्रवृत्यादौ तु तदिच्छाद्यपेक्षत्वं विद्यत एवेति यतिञ्चिदेतत् ॥ [प्रामाण्यनिश्चयस्य पराधीनत्वम् ] यदपि प्रामाण्यनिश्रये नैरपेक्ष्यमभ्यधायि (पु. 425 ) - तदपि न सांप्रतम् । प्रामाण्यनिश्चयस्य हि द्वयी गतिः, नास्तित्वम्, कारणा'पेक्षिता वा' ; न पुनरस्ति च प्रामाण्यनिश्चयः, कारणानपेक्षश्चेति किं प्रमाणमिति । प्रमाणपदं हि प्रमायां तत्करणे च वर्तते । प्रमाकरणमपि यावत्सामग्रीरूपं, प्रत्येकशोऽपि प्रत्येकमपि करणत्वानपायात् । तथा च सामग्रयाः स्वकार्यकरणे नैरपेक्ष्यमुच्यते ? उत प्रत्येकं करणस्य तत्त्वमुच्यते ? उत फलरूपप्रमायाः तत्त्वमुच्यते इति विकल्पः ॥ सत्यं नैरपेक्ष्यमिति । इतरापेक्षायां हि सामग्रीवैकल्यं सिद्धमेव । न विति । प्रमासामी हि प्रमां जनयेत् न तु प्रमात्वमवगमयेत् ॥ 6 पूर्वं तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः' (पु. 171 ) इत्युक्तं स्मरंन्नाह-- पुरुषेति ॥ द्वयी गतिरिति । तृतीया तु गतिः सदातनत्वरूपाऽननुभवपराहता । पेक्षिता-क. 2 कारणता - क. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] परतःप्रामाण्ये नान्योन्याश्रयादिदोषाः 445 शक्यते वक्तुम् । तत्र प्रथमप्रवर्तकप्रतिभासप्रसवसमये तावन्नास्त्येव प्रामाण्यनिश्चय इत्युक्तम् (पु. 140)। न हि नीलग्राहिणा प्रमाणेन 'नील'स्वरूपमिव स्वप्रामाण्यमपि तदानीं निश्चतुं शक्यत इति । कालान्तरे तत्प्रामाण्यनिश्चयः सत्यमस्ति, न तु तत्र नैरपेक्ष्यम् , प्रवृत्तिसामर्थ्याधीनत्वात्तन्निश्चयस्य ।। ज्ञानानामस्थिरत्वेऽपि प्रामाण्यं परतोग्रहीतुं शक्यम् ] ननु। क्षणिकत्वाकालान्तरे ज्ञानमेव नास्ति, कस्य प्रामाण्यं निश्चिनुमः ? शिशुचोद्यमेतत्-अप्रामाण्यमपि बाधकप्रत्ययादिना कालान्तरे कस्य निश्चिनुमः? क्षणिकत्वेन ज्ञानस्यातीतत्वात् । अतिक्रान्तस्यापि स्मर्यमाणस्य ज्ञानस्य', 'तदुत्पादकस्य वा वर्तमानस्य कारकचक्रस्येति चेत् ---प्रामाण्यनिश्चयेऽपि समानोऽयं पन्थाः ॥ . [प्रामाण्यस्य परतोग्रहणेऽपि नान्योन्याश्रयादिः] यत्पुनः कालान्तरे तन्निश्चयकरणे दृषणम् --इतरेतराश्रयत्वं वा? मुण्डितशिरोनक्षत्रान्वेषणवद्वैयर्थ्य वेति वर्णितम् (पु. 428)तत्रादृष्टे विषये प्रामाण्यनिश्चयपूर्विकायाः प्रवृत्तरभ्युपगमान्नेतरेतराश्रयं चक्रकं वा। दृष्टे विषये ह्यनिर्णीतप्रामाण्य एवार्थसंशयात् प्रवृत्तिरूपम, अनर्थसंशयाच्च निवृत्त्यात्मकं व्यवहारमारभमाणो दृश्यते लोकः। एतदेव युक्तमित्युक्तं (पु. 139) न प्रामाण्यनिश्चयपुरस्सरं प्रवर्तनमिति कुत इतरेतारश्रयम् ॥ प्रवृत्तीत्यादि। न हि कालान्तरेऽपि पूर्वोत्पन्नममाणसामग्री अवतिष्ठेत॥ - अप्रामाण्यमपीति । अप्रामाण्यं परत इति हि तन्मतम् । पूर्णसामग्रयाः सत्त्वे कार्यावश्यंभवात् , कार्यस्य पूर्वमेव निष्पन्नत्वात् वर्तमानस्य कारकच. कस्येत्युक्तम् ॥ अनर्थसंशयात्- बलवदनिष्टानुबन्धित्वसंशयात् । प्रवर्तनं नोक्तं इत्यन्वयः ॥ 3 लीन-ख. । स्मर्यमाणस्य-क. ख. तदुत्पादस्य-ख. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 परतःप्रामाण्य समर्थनम् न्यायमजरी - वैयर्थं तु दृष्टे विषये सत्य मिष्यते, किन्तु तत्र प्रवृत्तिसामर्थ्येन प्रामाण्यं निश्चिन्वन् आप्तोक्तत्वस्य हेतोः प्रामाण्येन व्याप्तिमवगच्छतीति अदृष्टविषयोपयोगिवेदादिप्रमाणप्रामाण्यपरिच्छेदे पारंपर्येणोपायत्यात् स्वविषये व्यर्थोऽप्यसौ तत्र सार्थकतामवलम्बत इस्यदोषः॥ [प्रवृत्तिसामर्थ्य नाम अर्थक्रियाज्ञानमेव] .. . कि पुनरिदं प्रवृत्तिसामर्थ्य नाम ? यतः प्रामाण्यनिश्चयमाचक्षते नैय्यायिकाः--उच्यते-पूर्वप्रत्ययापेक्षोत्तरा संवित् प्रवृत्तिसामर्थ्य, विशेषदर्शनं वेति पूर्वाचार्यैस्तत्स्वरूपमुक्तम्। तत्पुनर्नातीव हृदयङ्गममिति भाष्यकृतैव-'समीहा प्रवृत्तिरित्युच्यते, सामर्थ्य पुनरस्याः फलेनाभिसम्बन्धः' इति वदताऽर्थक्रियाख्यफलज्ञानमेव प्रवृत्तिसामर्थ्यमिति नितिम् ॥ __ [अर्थक्रियाज्ञाने प्रामाण्यगवेषणमनपेक्षितम] __ यत्पुनः अर्थक्रियाज्ञानस्यापि पूर्वस्मात् को विशेषः ? तस्यापि 'चान्यत: प्रामाण्यनिश्चयापेक्षायानवस्थेत्युक्तम् (पु. 427)--- तदपि सकलप्राणभृत्प्रतीतिसाक्षिकव्यवहारविरोधित्वादसम्बद्धाभि ननु तर्हि लोकोऽपि कुत्रचित् दृश्यमानायाः प्रामाण्यनिश्चयार्थप्रवृत्तः का गतिः? इति चेत्, न सर्वथा वैय्यर्थ्यमित्याह-किन्त्विति । आप्तोक्तत्वस्यभालोक्तत्वरूपस्य ॥ आचक्षते-'प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम् ' इति उपक्रमभाष्यम् । पूर्वप्रत्ययेत्यादि । संवादरूपेति यावत् पूर्व। (पु. 427) उपपादितदिशा संवादात् प्रामाण्यग्रहः दुर्घट इत्यतः-विशेषदर्शनं वेति। अर्थ,क्रयाज्ञानस्यापि विशेषदर्शनविशेषत्वात् तादृशं स्वसम्मतमेव । परन्तु संशयोत्तरस्तले संशयनिवर्तकं यत् विशेषधर्मदर्शनं, तत्त न साक्षात् प्रामाण्यनिश्चायकम् , अपितु अर्थक्रियाज्ञानद्वारैवेति भस्यैव प्रामाण्यनिश्चायकत्वं युक्तमित्यभिप्रायेण-अतीवेति॥ नाम्यन्तः-क. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] परतःप्रामाण्ये नानवखादिः 447 धानम् ; अपरीक्षणीयप्रामाण्यत्वादर्थक्रियाशानस्य । प्रवर्तक न सर्वज्ञान प्रवृत्तिसिद्धये परीक्षणीयप्रामाण्यं वर्तते । फलज्ञाने तु सिद्धप्रयोजनत्वात् प्रामाण्यएरीक्षापेक्षैव नास्तीति कुतोऽनवस्था? [अर्थक्रियाज्ञानस्य साक्षादनुभवरूपत्वेन प्रामाण्यनिश्चयानपेक्षत्वम् ] संशयाभावाद्वा तत्प्रामाण्यविचाराभावः। प्रवर्तकं हि प्रथममुदकज्ञानमविद्यमानेऽपि नीरे मिहिरमरीचिषु दृष्टमिति तत्र संशेरते जनाः। अर्थक्रियाशानं तु सलिलमध्यतिनां भवत् तदविनाभूतमेव भवतीति न तत्र संशयः। तदभावान्न तत्र प्रामाण्यविचारः, विचारस्य संशयपूर्वकत्वात् ॥ भिर्थक्रियाज्ञान विशेषदर्शनरूपं च __विशेषदर्शनाद्वा फलज्ञाने प्रामाण्य निश्चयः। कः पुनरयं विशेष इति चेत्, योऽयं शौचाचमनमजनामरपितृतर्पणपटक्षालनश्रमतापनोदनविनोदनाद्यनेकप्रकारनीरपर्यालोचनप्रबन्धः, न ह्ययमियान् कार्यकलापो मिथ्याशानात्प्रवृत्तस्य क्वचिदपि दृष्टः॥ [स्वाप्निकार्थक्रियाज्ञानात् जाग्रदर्थक्रियाज्ञानं विलक्षणम् | स्वप्नेऽप्यस्य प्रबन्धस्य दर्शनमस्तीति चेत्-न-स्वमदशाविसदृशविस्पष्टजाग्रदवस्थाप्रत्ययस्य संवेद्यत्वात्। एषोऽस्मि, - प्रामाण्यापेक्षानपेक्षयोः संभावितं विनिगमकमाह-प्रवर्तकमिति । बहुवित्तव्ययायाससाध्ये यागादौ प्रवर्तकज्ञानं प्रामाण्यमपेक्षत एवेत्यनुपदमुक्तत्वात्-सर्वपदम्। सिद्धप्रयोजनत्वात्-पिपासाशान्त्यादोः स्पष्ट अनुभवात् ॥ प्रवर्तक-फलज्ञानयोवैषम्यमेवोपपादयति प्रकारान्तरेण-संशयाभावाद्वेति । तदविनाभूतं-अविनाभूतं ; न हि मरीचिकाजलेन पिपासाशान्ति:, शरीरक्लेदो वा संभाव्यतेत्याशयः ॥ स्वप्नदशाविसदृशेति। स्वामिकजलादिना स्वामिकशरीरक्लेदादिरनुभूयत एव। जाग्रत्कालिकशरीरक्लेदस्तु नास्त्येवेति अस्ति महत् वैलक्षण्यम् । यद्यपि 'चरमधातुविसर्गोऽपि स्वप्ने सीमन्तिनीमन्तरेण भवति' इत्युक्तम् (पु. 427); अथापि, अधीरप्रकृतीनां रजौ सर्पज्ञानमेव यथा भय-कम्प Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 परत:प्रमाण्यसमर्थनम् [न्यायमचरी जागर्मि, न स्वपिमि-इति स्वप्नविलक्षणमनिद्राय'माणमानसः प्रत्यक्षमेव जाग्रत्समय सकलो जनश्चेतयते । न च तस्मिन्नवसरे सलिलमन्तरेणैताः क्रियाः 'पवर्तमाना' दृश्यन्त इति तद्विशेषदर्शनात् सुज्ञानमर्थक्रियाज्ञानप्रामाण्यम ॥ कारणदोषाभावाच्च अर्थक्रियाज्ञाने प्रामाण्यम् । कारणपरीक्षातो वा तस्मिन् प्रामाण्यं निश्चेष्यामः। यथोक्तं भवद्भिरेव-'प्रयत्नेनान्विच्छन्तो न चेद्दोषमवगच्छेम तत्प्रमाणाभावात् , अदुमिति मन्येमहि ' (शा.भा ]-1-5) इति । तथा हि --- विषयस्य चलत्वसादृश्यादिदोषविरहः, आलोकस्य भलीमसत्वादिकारणवैकल्यं, अन्तःकरणस्य निद्राद्यदूषितत्वम् , आत्मनः क्षुत्प्रकोपाद्यनाकुलत्वम , ईक्षणयुगलस्य तिमिरपटलादिविकलत्वमित्यादि स्वयं च कार्यद्वारेण, परोपदेशेन च सर्व सुज्ञानम् । अतो निरवद्यकारणजन्यत्वात् प्रमाणमर्थक्रियाज्ञानमिति विद्मः ॥ प्राथमिकज्ञानेऽपि कारणदोषाभावनिश्चये प्रामाण्यं गृह्यत एव] यद्येवं प्रथमे प्रवर्तक एव प्रत्यये कस्मात् कारणपरीक्षवेयं न क्रियते? किमर्थ क्रियाज्ञाने ? न -आयुष्मन् ! आद्येऽपि झाने कारणपरीक्षायां क्रियमाणायां कः प्रमादः? किमेवं सति स्वतः प्रामाण्यं सिद्धयति तव ? मम वा परतः प्रामाण्यमपहीयते? किन्तु लोकः प्रवर्तकज्ञानानन्तरं फलप्राप्ति प्रति यथा सोद्यमो दृश्यते, न मरणादिहेतुर्भवति, तथाऽत्रापि तादृशानुभव एव तत्कारणम् । अनुभवश्व सत्य एव। न हि कश्चित् ‘मम सर्पज्ञानमेव न जातम्' इति मनुते ; किन्तु भकाण्ड एव तज्ज्ञानं जातम्' इत्येव । अतश्च ज्ञानमेव स्थलविशेषे अर्थक्रियाकारीति न दोषः। अधिकं ९ आह्निके ॥ ___ कारणदोषानेवाह तथा हीति । अप्रगल्भानां--परोपदेशेन चेति। चकारः वाऽर्थे । क्रियाज्ञाने-'अर्थक्रियाज्ञाने। अस्तु परतः प्रामाण्यं, तथाऽपि प्राथमिकज्ञाने कारणदोषाभावनिश्चयेनाऽपि प्रामाण्यनिश्चयस्य प्रतिद्धमशाक्यत्वे 'माणः-ख. वर्तमाना-ख, Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांडिकम् :) परतःप्रामाण्येऽनक्खापरिहार: 449 तथा तत्कारणपरीक्षा प्रति। फलज्ञानमेवेत्थं परीक्ष्यते । आद्यस्य हि ज्ञानस्य फलज्ञानादेव प्रामाण्यसिद्धिः। कश्च नाम निकटमुपायमुपेक्ष्य दूरं गच्छेदिति ! [प्रकारान्तरेण प्राथमिकज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयोपपादनम् ] अथ वा संशयोत्पत्तिसामर्यादेव यथार्थेतरत्वनिश्चयः फलशानेन लप्स्यते। संशयो हि नाम द्वैविध्यदर्शनाद्विना न भवत्येव । म हि स्थाणुपुरुषसाहचर्यमूर्खताख्यस्य धर्मस्य यो न जानाति, स तं दृष्ट्वा 'स्थाणुर्वा स्यात् ? पुरुषो वा ?' इत संशेते । एवमूर्ध्वस्वव'द्वोध रूपत्वस्य व्यभिचारित्वाव्यभिचारित्याभ्यां सहदर्शनमवश्यमाश्रयणीयम्, अन्यथा तद्विषयसंशयानुत्पादात् । अतः पूर्वमव्यभिचारित्वदर्शने सिद्धे यस्तदा तत्परिच्छेदोपायः, स पश्चादपि भविष्यतीति सर्वथा सिद्धयत्यव्यभिवारित्वनिश्चयः ॥ 'फलज्ञानादेव' इति शपथः कुत:? इत्यत्राह--कश्चेति । यद्यप्यस्मत्सिद्धातभङ्गभीत्या 'फलज्ञानादेव' इाते न वदामः । किन्तु तस्वस्थितिमनुरुध्यैव । पुरोवर्तिवस्तुनि दृष्टे, मनुष्यस्य प्रवृत्ति: प्रथमं जायते। फलपाप्त्यप्राप्तिभ्यां तु उत्पन्नज्ञाने प्रामाण्यतदभावौ निश्चिनोति इत्युत्सर्गः। प्राथमिकज्ञाने डोलायमानरूपे सति यदि तन्त्र प्रामाण्यनिश्चयमपेक्षते, तदाऽपि, 'किं चर्चया? समीपमुपसप्यैव निणे यामः' इति अर्थक्रियाज्ञानार्थमेव प्रवर्तते, न तु क्लेशसाध्ये दोषाभावनिश्चये इत्यप्युत्सर्ग एव इत्याशयः। गत्यन्तरविरहे तु अस्तु तथैव । परत: प्रामाण्यं तु अनपोह्यमेवेति च भावः ॥ संशयोत्पत्तिसामर्थ्यात्-प्राथमिकज्ञाने 'इदं प्रमा? न वा!' इति संशयोत्पादनक्षमत्वात् इति यावत । साहचर्य-साधारण्यम् । सहदर्शनं साधारण्यज्ञानम् । अयं भावः--प्राथमिकं ज्ञानं तु संशयक्षममिति अनुभवसिद्धम् । संशयश्च कोटिद्वयसाधारणधर्मज्ञानात् । प्रमात्वतदभावरूपकोटिद्वयसाधारणबोधत्वरूपधर्मज्ञानमेव तत्र संशयहेतुः वाच्यः। सेन च पूर्व कदाचित् बोधत्वस्य व्यभिचरितज्ञाने, भव्यभिचरितज्ञाने च परिचयः भावश्यकः। तदा च भनवस्थादिभिया फलज्ञानमूल एव अव्यभिचरितस्व NYAYAMANJARI 29 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 বতমালা (শামজা - मिनिश्चितप्रामाण्यमपि फलज्ञानं भावज्ञाने प्रामाण्यनिधायकम् ] अनिश्चितप्रामाण्यादपि वा फलज्ञानात् प्रवर्तकस्य प्रामाण्यनिश्चयो युक्तः, न तु स्वतः ; उत्पत्ती प्रमाणतदाभासयो विशेषा'प्रहणात् । फलक्षाने च तद्विशेषप्रतिभासात् ॥ (परतः प्रामाण्ये अनघस्थादोषपरिहारः यत्त--विशेषज्ञानं निश्चितप्रामाण्यमनिश्चितप्रामाण्यं वेति विकभन्यानवस्थापादनं, अप्रतिपत्ति प्रहतता कथनं वा (434-436 पु.)-- तत् दृष्टविरुद्धत्वात् प्रलापमात्रमित्यलमलीकोक्तविकल्पकलापनिर्मथनोदितदुरामोदाखादनेन ॥ __ [मामाण्याप्रामाण्ययोः परतस्त्वोपसंहारः] स्थितमेतत् अर्थक्रियाशानात्प्रामाण्यनिश्चय इति । तदिद. . मुक्तम्-- 'प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत्प्रमाणम् (म्या. भा. 1-1-1) इति। तस्मादप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमपि' 'परापेक्षामित्यतो द्वयमपि परत इत्येष एव पक्षः श्रेयान् ॥ (प्रामाण्यग्रहणविषये जैनमतप्रतिक्षेपः) __ यत्तु कश्चित्प्राज्ञमानी वदति--- अभ्यस्ते विषये स्वतःप्रामाण्यम, अनभ्यस्ते तु परत:---इति, सोऽयं अभ्यस्ते विषये' इति च प्रवीति, निश्चयो वाग्यः। एवञ्च पूर्व फलज्ञानेनैव अभ्यभिचरितत्वरूपप्रामाण्यनिश्चयस्य अनुभवसिद्धत्वात सर्वत्रापि तथैव प्रामाण्यनिश्चय इति सिध्यतीति ॥ : ___ अनिश्चितेति। अगृहीताप्रामाण्यादपीति बोध्यम् । प्रवर्तकस्य, ज्ञानस्येति शेषः । इदं रजतं इति प्राथमिकानुभवो हि शुक्किरजतसत्यरजतस्थले च एकरूप एवोपलभ्यते । फलज्ञाने, सतीप्ति शेषः तद्विशेषः-प्रमात्वतदभावरूपः॥ विद्यानन्दिना तत्त्वार्थवार्तिके ' तत्राभ्यासात प्रमाणत्वं निश्चित स्वत एवं नः। मनभ्यासे तु परतः' (1-10-125) इत्युक्तम् । · सदनुसृत्यान्येऽपि माणिक्यनन्दिप्रभृतयः। तदेतदन्य दूषयति यत्विति । विशेष-च पर्यन्तता-क. 'प्रामाण्यमपि-ख. परोक्ष-ख. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् । परतःप्रामाण्यसाधनोपसंहारः 451 स्वतश्च प्रामाण्यं मन्यत इति स्वयमेवात्मानं 'वश्चयमानं न चेतयते। अभ्यासो हि नाम पुनःपुनः प्रयोगः क्रियाया अभ्यावृत्तिः, विषयस्य चाभ्यस्तता भूयोभूयः प्रवृत्तिः। अतश्च स्वशरीरग्रहे, निजगृहकुड्यस्तम्भादिप्रतिभासे वा सहस्रकृत्वः 'प्रवृत्त'संवादशानजन्मना प्रामाण्य निश्चय उक्तो भवति । स्वतः अभ्यस्तत्वं चान्यथा न भवेदिति यत्किञ्चिदेतत् । तस्मात् परतः प्रामाण्यमिति सिद्धम्॥ [प्रामाण्यविचारस्यानुपयुक्तस्वनिरासः यत्पुनः कैश्चिचोद्यते-प्रमाणानां न परीक्षणमुपपद्यते। तद्धि प्रमाणैः क्रियेत? अप्रमाणैर्वा ? प्रमाणैरपि परीक्षितैः ? अपरीक्षितैर्वा ? नत्रन नाम 'अप्रमाणः प्रमाण परीक्षणं शक्यक्रियम् ॥ प्रमाणैरप्यपरीक्षितैः तत्करणे, वरं व्यवहार एव तादृशैः क्रियताम् ! कि परीक्षणेन ? | परीक्षितैस्तु तत्परीक्षाकरणमपर्यवसितम्। अनवस्थाप्रसङ्गात् इत्यादि ॥ . तदप्युक्तेन न्यायेन परिहृतं भवति । दृष्टे विषये प्रमाणपरीक्षा विनैव व्यवहारात् । अदृष्टे तु परीक्षाया अवश्यकर्तव्यत्वादुप. पत्तेश्चति ॥ तस्माददृष्टपुरुषार्थपदोपदेशि . मान मनीषिभिरवश्यपरीक्षणीयम् । प्रामाण्यमस्य परतो निरणायि चेति घेतःप्रमाथिभिरलं कुविकल्पजालैः ।। ८१ ॥ अख्यातिसाधनोपक्रमः] सुशिक्षितास्त्वाचक्षते-युक्तं, यदमी मीमांसकपाशाः काशकुसुमराशय इव शरदि मरुद्भिरतिदुरात्समुत्सायन्ते दुष्टतार्किकैः । सुशिक्षिताः-गुरवः। अमी मीमांसका:-भाट्टाः। के ते मीमांसकाः ? इत्यत्राह-ये हीति। भख्यातिवादिनो हि गुरवः 'यथार्थ 'वाच्यमानं-ख. 'नासहस-क. 'प्रवृत्ति-ख. 'प्रमाणः प्रमाण-क. · प्रमाण-ख. 29* Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 गुरुमतोक्तस्वतःप्रमाण्यपरीक्षा न्यायमधरी ये हि किलाभ्युपयन्ति च विपरीतख्यातिवाद अकृतास्त्राः, प्रामाण्यं व स्वत इति च वदन्ति, तेषां कुतः कौशलम् विपरीतख्यातावभ्युपगम्यमानायां बाध्यबोधसन्दर्भसुभिक्षे सति तत्वाधादनुत्पन्नबाधकेऽपि बोधे दुष्परिहरः संशयः। संशये च 'संवादाद्यन्वेषणमपि ध्रुवमवतरतीति परतः प्रामाण्यमनिवार्यम् । [बाध्यस्य ज्ञानस्यैवानङ्गीकारे तु प्रामाण्यं स्वत एव स्यात ] ___यदातुन बाध्यो नाम जगति कश्चिदपि बोधः, तदा किंसाधयात् संशेरतां प्रमातार: ? असंशयानाश्च किमिति परमपेक्षन्ताम् ! अनपेक्षमाणाः कथं परतः प्रामाण्यं प्रतिपद्यन्तामिति निश्चलं स्वत पर. प्रामाण्यमवतिष्ठते॥ कथं पुनर्बाध्यो नाम नास्ति बोधः? शुकिकादौ रजतादिप्रत्ययाः प्राचुर्येण बाध्यमाना दृश्यन्ते--अनमिनो भवान बाधस्य- नदि में बाध्याः प्रत्ययाः॥ [बाधपदार्थः] इदं हि निरूपप्यताम् क इवोत्तरशानेन पूर्वज्ञानस्य याचा? बाधार्थमेव न विद्मः। यदि तावन्नाश एव बाधः, स न तेषामेव । बुद्धर्बुद्धयन्तराद्विरोध इति सकलबोधसाधारणत्वात ।। सर्वमेवेह विज्ञानं ' (प्र.प.नय--) इति वदन्ति । अतस्तम्मते बोधय प्रमाप्रमासाधारणं वक्तुमशक्यमिति तज्ज्ञानात् संशयो दुरुपपादः। अन्यथाख्यानि पादिनः भट्टस्य मते तु बाधस्य बाध्याबाध्यज्ञानसाधारणत्वात् संशयः अनिवार्य इति, तत्परिहाराय परत एव मामाण्यं बलादङ्गीकर्तव्यम् । अकृतास्त्राः --अशिक्षिततर्काः, तर्काकुशला इति यावत् ।। . भहमतात स्व(गुरु)मतवैलक्षण्यमाह-यदा विति। किंसाधातकी शसाधारणधर्मज्ञानात् । परं--प्रामाण्यनिश्चायकप्रमाणान्तरम् । स्वरया गच्छतः क्वचिद्रथ्यादृष्टशुक्तिरजतज्ञानस्य बाधाऽप्रसस्तया प्राचुर्यणेति । बाघस्य अनभिज्ञ:---बाधपदार्थानमिज्ञः ॥ तेषां---शुक्तिरजतज्ञानानाम् । बुद्धरिति। योग्यविभुविशेषगुणा हि स्वोत्तरोत्पन्नताहशगुमनाश्याः !! संवादा-क. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाधस्वरूपविचार: डिकम् ३] अबाधितानामपि अथ सहानवस्थानम. ज्ञानानां सहावस्थानासंभवात् ॥ अथ संस्कारोच्छेदो बाधः, सोऽपि तादृगेष; संम्यक्प्रत्ययोप जनित संस्कारस्याप्युच्छेददर्शनात् । कञ्चिद्भवदभिमतबाध्य ' बोधाऽ'हितोऽपि संस्कारः सत्यपि बाधकप्रत्यये नोच्छेदमुपगच्छति ; कालान्तरे तत्कारणतद्विषयस्मरणदर्शनात् ॥ 453 तदपि समानम् : अथ विषया'पहारो बाधः, सोऽपि दुर्घटः । प्रतिभात 'स्थेन विषयस्यापहर्तुमशक्यत्वात् । न हि बाधकं ज्ञानमित्यमुत्तिष्ठति -- यस प्रतिभात तन्न प्रतिभातमिति ॥ अथ तदभावग्रहो बाधः-स तात्कालिकः ? कालान्तरभावी वा ? कालान्तरभावितद्भावग्रहणस्य बाधकत्वे प्रागवगतमुङ्गरदलितघटा ग्राहिणोsपि विज्ञानस्य तद्वाधकत्वप्रसङ्गः । तदैव तु तदभाव ग्रहणे प्रत्ययद्वय समर्पित रूप द्वितययोगादुभयात्मकमेव तदस्तु वस्तु ! किं कस्य बाध्यं बाधकं वा ? अथ फलापहारो बाधः, सोऽपि न संभवति, संविदः प्रमाण: फलस्य उत्पन्नत्वेनानपहरणीयत्वात् । न हि यदुत्पन्नं तदनुत्पन्नमिति वदति बाधकः ॥ अथ हानादिफलापहारो बाधः, न तस्य प्रमाणफलत्वाभावात् ॥ हानादिव्यवहारो हि पुरुषेच्छा निबन्धनः । न सेनापतेनापि प्रमाणं बाधितं भवेत् ॥ ८२ । तस्मान्न बाधो नाम कश्चित् ॥ सहानवस्थानासंभवात् अत्र युगपत् ज्ञानद्वयस्य उत्पादासंभवः हेतुः ॥ ताह - सकलबोधसाधारणः । वस्तुतस्तु सोsपि नास्ति मम पूर्व शुक रजतज्ञानं जातं इत्येवं कालान्तरे स्मरणदर्शनादित्याह - कश्चिदिति । अस्य' संस्कारः इत्यनेनान्वयः ॥ : म हीत्यादि । रजतस्य तत्राभावात् न स्वम्यादृश: अपहार: वक्तुं शक्यः ॥ घटाभावसंपादनाय - मुद्गरदलितेति । तद्वाधकत्वं घटवताबुद्धिबाधकत्वम् किमिति । अन्यथा कथमुभयोरेकदा ग्रहणम् ? अभिमतं फलपदार्थ स्फुटयति हानादीति । पुरुषेच्छेति । ' आस-ख. प्रत्यय-क... बोधाभि-क. ' विषयस्या - व. यद्यपि पते-क Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम न्यायमचरी [प्रकारान्तरेणापि बाध्यज्ञानासंभवोपपादनम् ] इतश्च नास्ति। स हि समान विषययोर्वा ज्ञानयोरिष्यते ? भिन्न विषययोर्वा ? न समानविषययोः, धारावाहिज्ञानेश्वदृपत्वात । नापि भिन्नविषययोः, स्तम्भकुम्भोपलम्भयोस्तदनुपलम्भात्। यदि चोत्तरेण ज्ञानेन पूर्व'ज्ञान'गृहीतादर्थादर्थोऽन्य इदानीं गृहीतः, तत्पूर्वज्ञानं किमिति बाधितमुच्यते? ___अपि च पूर्वस्मिन् प्रत्यये प्राप्तप्रतिष्ठे सति आगन्तुरुत्तरः प्रत्ययः बाधितुं युक्तः, न पूर्वः। न चैव दृश्यते। तस्मान्न याध्यं नाम विज्ञानमस्ति । तदभावान्न तत्साधर्म्य निबन्धनः संशयः। तदभाषासंवादाद्यनन्वेषणान्न परतः प्रामाण्यम् । [भख्यात्यवतार: ननु ! एवं बाधे निराक्रियमाणे किममी शुक्तिकारजतादिग्राहिणो विपरीतप्रत्यया अबाधिता एवासताम् ?-- आः कुमते ! नामी विपरीतप्रत्ययाः। न हीदृशानां विपर्ययाणामुत्पत्तौ किमपि कारणमुत्पश्यामः॥ पूर्व (पु 174) — तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः' इत्युनम् , अथापि हानादिप्रवृत्तिः पुरुषेच्छामन्तरा न भवत्येव । यदि च पुरुषः उदासीनः, तदा हानस्य वा, उपादानस्य असंभवेन तदधीन: बाधोऽपि दुरुपपादः । सः-बाध्य बाधकभावः । तदनुपलंभात्-बाध्यबाधकभावादर्शनात् ॥ प्राप्तप्रतिष्ठ इति । पूर्व हि ज्ञानं तदुत्पत्तिकाले कस्यापि बाधकस्याभावात उत्पसमेव । द्वितीयं तु ज्ञानं सजातविरोधित्वात् उत्पत्तमेव नालम् । न चोत्तरत्वमेव बाधकरवप्रयोजकम् , तदा उत्तरस्वाविशेषात् सर्व सर्वत्र बाधक भवेदिति न किमपि प्रतिष्ठितं भवेत्। उत्तरज्ञानस्य प्रमात्वं न सार्वत्रिकम् । भतः पूर्वज्ञानमेवोत्तरं. प्रति बाधकं भवेत् । तत्साधर्म्यनिबन्धनः-बाध्यज्ञानेम सह यत् साधय बोधस्वादि, तस्कृतः॥ शानेन-ख. बाधेऽपि-ख. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भाढिकम् । अस्यातिवाद: 455 न सावदिन्द्रियमेवंविधबोधविधायि भवितुमईति, सर्वदा तदुत्पादप्रसङ्गात् ।। नापि दोषकलुषित, दुष्टं हि कारणं स्वकार्यकरण एव कुण्ठितशक्ति जात मिति तदेव मा जीजनत् , विपरीतकार्यकरणस्य किं वर्तते? न हि दुष्टानि शालिबीजानि यवाकुरकरणकोशलमवलम्बेरन् । तस्मात् कारणामावादपि न विपरीतप्रत्ययास्ते ॥ - [भ्रमस्थले ज्ञानद्वयमेव, नैकं ज्ञानम् तरिक सम्यक्प्रत्यय एव शुक्तिकायर्या रजतप्रतिभासः?--अयि मूढ ! नायमेकः प्रत्ययः--इदं रजतमिति ; किन्तु द्वे पते ग्रहण स्मरणे। इदमिति पुरोऽवस्थितभास्वराकारधर्मिप्रतिभासः, रजत. मिति तु भास्वररूपदर्शनप्रबोध्यमानसंस्कारकारणकं तत्साहवर्यादवगतरजतस्मरणम् ॥ .. [भ्रमस्थले धर्मज्ञानस्य स्मृतिरूपत्वे युक्तिः अतश्चेदं स्मरणं-यतः प्रागनवगतरजतस्य न जायते, विदित. रजतस्यापि रजन्यामन्यदा वा सादृश्यदर्शना'द्विना न भवतीति । न तावदित्यादि। विपरीतप्रत्ययोत्पादनमेवेन्द्रियस्य स्वभावश्चेत्, कदाऽपि सत्यप्रमितिर्न स्यात् ॥ दोषकलुषितं, इन्द्रियमिति वर्तते। दुष्टानि- स्वाङ्करजनन एवासमर्यानि ॥ ढे इति । इन्द्रियसंयोगस्तु शुक्त्या सह । ज्ञानं तु रजतविषयकम् । कथमिदं प्रत्यक्षरूप एकं ज्ञानं स्यात् ! अतः विदोष्यांशे इन्द्रियमेव कारण, विशेषणांशस्तु स्मृत्यैवोपस्थापनीय इति बलात वक्तव्यम् । ततस प्रत्यक्षस्मरणरूपं ज्ञानद्वयमेव 'इदं रजतम् इति । मनु सत्य रजतं दृष्ट्वा यादृशः प्रत्ययः तदुत्पत्तिकाले अनुभूयते, तदविशेषमेव शुक्किं दृष्ट्वा जातोऽपि भनुभूयत इति कथं रजतस्मरणमुज्यते? इत्यत्राह Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम् न्यायमञ्जरी [धर्मस्मरणस्य स्मृतित्वेन ख्याति स्ति] स्मरणमपि भवदिदमात्मानं तथा न प्रकटयतीति प्रमुषितमुच्यते । स्वरूपेण चाप्रतिभासमानायां स्मृतावनुभवस्मरणयोविवेको न गृहीतो भवतीत्यग्रहणमख्यातिरुच्यते ॥ [भ्रमस्थले वादिविप्रतिपत्तयः सथा हि भ्रान्तबोधेषु प्रस्फुरद्वस्तुसंभवात् । चतुष्प्रकारा विमति'रुदपद्यत वादिनाम् ॥ ३॥ - विपरीतख्यातिः, असत्ख्यातिः, आत्मख्यातिः, अख्यातिरिति । [भन्यथाख्यातेः असरख्यातावेव पर्यवसानोपपादनोपक्रमः] तत्र विपरीतख्यातिस्तावत्कारणाभावादेव निरस्ता। अपि वं विपरीतख्यातो त्रयी गति:-रजतं वाऽन्यदेशकालमत्रालम्बनम्? शुक्तिका वा निगृहितनिजाकारा सती परिगृहीतरजताकारा छ ? अथवा अन्यदालम्बनं अन्यच्च प्रतिभाति? [शुक्तिरजतज्ञानं न रजतविषयकम्] .. तत्र यदि रजतमालम्बनं, तदियमसत्ख्यातिरेव ; न विपरीतख्यातिः, असतस्तत्र रजतस्य प्रतिभासात् ॥ . अथान्यदेशकालं तत् अस्त्यवेत्यभिधीयते। , इहासन्निहितस्यास्य तेन सत्त्वेन को गुणः?॥ ८४॥ स्मरणमिति । भवदपि इत्यन्वयः । विपरीतण्यातिपक्षेऽपि हि स्मरणमेव रजतोपस्थापकं इष्टं ; न हि एतत् अनुभवसिद्धम् । यदि च स्मरणं विषयमात्रं समर्पयति, न स्वात्मानमपि स्मरणत्वेन प्रकाशयति-इत्युच्यते; तर्हि अस्मन्मतमेव तत् । कुतस्तर्हि एतत्सोपानमतीत्य विपरीतख्यातिकल्पनम् ? तथाहीत्यादि। भ्रान्तिस्थले इयमत्र समस्या-इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात्. साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायदर्शनाञ्च शुक्तिरजतज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं वक्तव्यम् । इन्द्रियशुक्तिसन्निकर्षस्तु वर्तते. ज्ञानं तु रजतविषयकं जायते ! कथमिदम् ? भन्येन सन्निकर्षः, अन्यस्य ज्ञानम् ? 1 रुपपद्येत-ख. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘श्राद्विकम् ३] परीतस्यातिनिरास: 457 अपि च-देशकालावपि कि सन्तो प्रतिभासेते? उतासन्तो? इति । यदि सन्तो, तर्हि 'तद्देश'कालमेवेदं रजतमवभातमिति न भ्रान्तिरेषा स्यात् । असन्तौ तूभावपि रजतवत् नालम्बनं भवितुमईतः॥ स्मृत्याख्यसन्निकर्षेणैव रजतभानं तु म संभवति अथ स्मृत्यारूढं रजतमस्यां प्रतीतौ परिस्फुरतीत्युच्यते, सहि स्मृत्युपारूढमिति कोऽर्थः? स्मरणममि ज्ञानमेव, तदपि कथ. मसदर्थविषयं स्यात्। स्मृतेरनर्थजस्वमेव स्वरूपमिति चेत ; अस्तु कामम् ! तत्सामान्यादत्राप्येवं प्रयोग इत्येतदपि तावन्न धूमः। तथा त्वनर्थजन्यया स्मृत्या सोऽर्थः कथमिह सन्निधापयितुं पार्यते। सा हि न स्पृशत्येवाऽर्थम् । तस्मादसन्निहितरजतालम्बना विपरीतख्यातिरसत्ख्यातेने विशिष्यत एव ॥ [शुक्तिरजतज्ञानं न शुक्तिविषयकम् । अथ स्थगितनिजवपुरुषगृहीतरजतरूपा शुक्तिकाऽत्र प्रकाशत इति नेयमसख्यातिरुच्यते: तदिदमपूर्व किमपि नाटकं, इयमस्मिन कृत्या सीता प्रवृत्तेति । तथा हि-किमत्र'शुक्तिरिति प्रतीतिः? उत रजत मिति? शुक्तिकाप्रतीतो तु'शुक्तौ शुक्तिरेव प्रतीयते', न 'रजतं इति भ्रमार्थः कः? रजतप्रतीतौ तु शुक्तिरसावित्यत्र किं . एतरसमस्यापरिहाराय दार्शनिकाः यथायथं प्रयतन्ते----पुरोवर्ति शुक्तिसंयुक्तं चक्षुः रजतस्मरणसहकृतं सत् 'इदं रजतं' इति विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहिज्ञानं जनयतीति विपरीतख्यातिवादिनः नैय्यायिकाः, भाट्टाश्च । 'विपरीतमेव मया गृहीतम्' इति बाधानन्तरं अनुसन्धानात तथा व्यवहारः ॥ ... तथात्विति। स्वयं मधसंस्पर्शशून्या कथं तदा अर्थमुपस्थापयेदित्यर्थः ॥ कृत्या सीता-माया सीतेति यावत्। श्रीमद्रामायणे युद्धकाण्डे इन्द्रजिता मायासीताप्रदर्शनं कृतं, तद्वदत्र किमिदं कापव्यमित्यर्थः । असौविषयः । किंप्रमाणमिति । यदा रजतं प्रतीयते, तदा रजतविषयकं ज्ञानमित्य . 'उद्देश-क. 'शुक्तीति-व. 'शक्तिरेव-क. ख. ' रजतभ्रमार्थ:-क, रजतमत्र-ख. . Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 प्रमस्वरूपपरिशीलनम् न्यायमजरी प्रमाणम् ? बाधकप्रत्ययादेवमवगतं इति चेत्, मेवम्-न हि शानान्तरेणास्याः प्रतीतेविषयो व्यवस्थापयितुं युक्तः। बाधकेन हि ज्ञानेन पूर्वज्ञानगृहीतस्य वस्तुनोऽलत्त्वं नाम ख्याप्यताम् , न तु तस्य विषयो निरूप्यते। अनर्थित्वाद्वा, कदाचिदप्रवृत्तस्य पुंसो बाधकानुस्पत्ती वा कोऽस्याः प्रतीतेविषयं व्यवस्थापयिष्यति। तस्माद्यदेवास्यां चकास्ति, सदेव रजतमस्या विषय इति युक्तं वक्तुम् । शुक्तिस्तु निगृहितनिजवपुरिति दुर्विदग्धपाचोयुक्तिरियम् ॥ .. [शुक्तिः विषयः, रजतस्य प्रतीतिरिति तु उपहास्यम् ये त्वालम्बनतां शुक्तेः रजतस्यावभासनम् । वदन्त्यस्मिन भ्रमशाने तेषामतितरां भ्रमः ॥ ८५ ॥ म ह्यालम्बनता युक्ता सन्निधाननिबन्धना । सत्रैव भूप्रदेशस्य तथाभावप्रसङ्गतः ॥ ८ ॥ नदेवालम्बनं बुद्धर्यदस्यामवभासते। . अन्यदालम्बनं चान्यद्भातीति भणितिने वा? ॥ ८७ ॥ अतो रजतमेवैतद्वद्धिग्राह्यमसच तत् । एवं विपर्ययख्यातिरसत्ख्यातन भिद्यते ॥ ८८ ॥ [असरख्यातिनिरासः सत्किमसख्यातिरेव साधीयसी? तामेवाभ्युपगच्छामःमैवम--साऽपि नोपपद्यत एव । असत्ख्यातिरिति कोऽर्थः ? प्रकम्प्यम् । ततश्च तस्य शुक्तिविषयत्वं कथम् ? शुक्तया सहैव हि इन्द्रियं संयुक्त इति चेत्, न हि तदा शुक्तेर्भानन्। बाधानन्तरं सत् ज्ञायेतेति चेत्---यः प्रतीयते स एव तत्र विषयः इत्येव लोको मन्यते । न तु भत्र प्रमाणान्तरापेक्षा। बाधादर्शनस्थले तु शुक्तरेव विषयस्वे प्रमाण दुर्वचमेव सरां। अतो रजत. विषयकस्वे सिद्धे नत्रासतः रजतस्य भानात् मसरख्यातावेव विश्रान्तिः । भनार्थत्वात---ज्ञानस्यं स्वविषयनिर्णये ज्ञानाम्तरानपेक्षणात् । अप्रवृत्तस्य---- उदासीनस्य ॥ तथाभावप्रसङ्गत:----आलम्बनवप्रसङ्गतः । तदेवेति। गत भासते तदेवालम्बनं युक्त। न सुमन्यदासम्बन, अन्यस्य प्रतिमास इति ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् ३ असत्ख्यातिनिरास: 459 किमेकान्तासन एवार्थस्य प्रथनम् ? अथ देशान्तरादौ विद्यमानस्येति? उत्तास्मिन् पक्ष विपरीतख्यातिरेवैषा, परैरपि तत्र रजतस्य 'सत्वानभ्युपगमात्। देशान्तरादौ तु तत्सत्तायास्त्वयाऽपि प्रतिपन्नत्वात्। एकान्तासतस्त्वस्य ख्यातिरिति न पेशलम: आकाशनलिनीपल्लवादेरप्रतिभासनात्। वासनाभ्यासादसतामपि प्रतिभासा भविष्यन्तीति चेत्, न, अर्थमन्तरेण वासनाया अप्यनुपपत्तेः । अर्थानुभवसमाहितो हि संस्कारो वासना कथ्यते। सा कथमसदर्थप्रतिभासहेतुः स्यात् ।। भवत्वन्या वा भवद भिमता काचन वासना, साऽपि स्वसस्वा विशेष किमिति रजत'मति'मुपजनयति, नगगननलिनप्रतीति. मिति कुतस्त्यो नियमः? तदलमनया ! नात्यन्तमसतोऽर्थस्य सामर्थ्यमवकल्पते । व्यवहारधुरं वोदुमियतीमनुपप्लुताम् ॥ ८२ ॥ ___ अपि च सत्त्वेन प्रतिभातीति असख्यातिरपि न विपरीतख्यातिमतिवर्तते ॥ एकान्तासतः---शशशृङ्गादितुल्यस्य । ननु देशकालान्तरवर्तित्वेऽपिपुरतोऽभावात् असरख्यातिरेवैषा, न तु विपरीतख्यातिरिति शङ्कायामाहपरैरिति । निरुपाविकतया असत: ख्यातिरिति वक्तुमक्यत्वात् , न सर्वथाs. सरख्याति: संभवति । ननु तईि शशशृङ्गादिप्रतीतेर्वा असरख्यातित्वमङ्गीकरणीयमिति चेत्-तादृशस्यानुभवस्य कस्याप्यदर्शनात् । यत्र कचन दृष्टस्याम्यत्र कुत्रचिदानस्यैव सर्वानुभवसिद्धत्वात् ॥ असतां-सर्वथाऽसता केशोण्डकादीनाम् । तथोक्तं भवेद्यवेदका. कारा यथा भ्रान्तैर्निरीक्ष्यते। तथा कृतव्यवस्थेय केशादिज्ञानभेदवत् ' (प्र.वा 3.331) इति। - अनुपलता-असंकीर्णा इयती व्यवहारधुरं वोर्नु अत्यन्तासतोऽर्थस्य सामध्ये नावकल्पते ॥ वस्तुतस्त्वियमसरख्यातिः विपरीतख्यातिरेयेस्याह --- अपि चेति । सवेन, पुरत इति शेषः ॥ _ 'सस्वाभ्यु-क. वासनाऽपि-ख सत्ता-क. मिति- क.ख. असत्वेन-क. अळ्याति-ख. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम न्यायमधरी [आत्मख्यात्युपपादनम् तस्माद्वरमात्मख्यातिरस्तु--- विज्ञानमेव खल्वेतत् गृह्णात्यात्मानमात्मना । बहिनिरूप्यमाणस्य ग्राह्यस्यानुपपत्तितः ॥ ९० ॥ बुद्धिः प्रकाशमाना च तेन तेनात्मना बहिः । 'उद्वह'त्यर्थशून्यांपि लोकयात्रामिहेदशीम ॥ २१ ॥ [भारमख्यातिनिरासः] उच्यते-नात्मख्यातिरपि युक्तिमती। विज्ञानात्मनो हि प्रतिभासे 'अहं रजतम' इति प्रतीतिः स्यात्, न 'इदं रजतम्' इति । . किञ्च-..' यदन्तईयरूपं हि बहिर्वदवभासते' (प्र-स) इत्यभ्युप-: गमादियमपि विपरीतख्यातिरेव स्यात् । असत्ख्यातिरपि चेय भवत्येव, बहिर्बुद्धरसत्त्वात् । बुद्धिरस्त्येवेति चेत् , बहिष्ट ताई । चिन्त्य---'सत असता? इति । न तावत् सत्, बुद्धे बर्बाह्यत्वाभापात। असत्वे त्वसत्ख्यातिरित्युक्तम् ॥ तस्मात् ख्यातिप्रयेऽप्यस्मिन अन्योऽन्यानुप्रवेशिनि । युक्तथा विरुध्यमाने च श्रेयस्यख्यातिरेव सा ॥ १२ ॥ अख्यातिः सर्वैर्वादिमिरप्रत्याख्येया] ख्यातित्रयवादिभिरपि चेयमप्रत्याख्येया 'नूनमख्यातिः । आत्मख्यातो तावत् आत्मतया विज्ञानस्य ख्याति स्ति, विच्छेदप्रतिभासादित्युक्तत्वात् ॥ तस्मात-विपरीतख्यातेः, असरख्यातेश्च परस्परसांकर्यादिभिः दुर्निरूपत्वात्। अहमिति। आत्मा हि अहंप्रस्ययगोचर इति सर्वेषामनुभवः । विज्ञानरूपस्य तस्येव रजतात्मना माने तत्र आरमन एवाधिष्ठानस्थात् 'अहं रजतं इस्येवानुभवः स्यात् । मनु प्रत्यक्तांशस्यापि संवृस्याऽऽवरणात 'इदं ' इति पराक्केन भानमित्यत्राह-किञ्चति । बहिष्ट्वं--पराक्तम् ॥ आत्मतया---प्रत्यक्तया। विच्छेदः - विस्छित्तिविशेषः : हदं' इति पराक्तमिति यावत् ॥ तह-ख. सदसत्वादिति-ख Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् २] अख्यातेर वर्जनीयत्वोपपादनम् असत्यातावपि सत्वमर्थस्य नैव प्रतिभासते, प्रवृत्यादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् ॥ विपरीतख्यातावपि रजतस्य सन्निहितस्य ज्ञानजनकरवम्, अजनकस्य च प्रतिभासो नेष्यत एव। अतः तंत्र रजतस्मृत्युपस्थापितं रजतमवगतिजनकमुपगतम् । अतश्च रजतस्मृतिरपरिहार्या । सा च रजतस्मृतिर्न तदा स्वेन रूपेण प्रकाशते, 'स्मरामि' इति प्रत्ययाभावात् ॥ तस्मात् प्रमुषितामेनां स्मृतिमिच्छन्ति तार्किकाः । अभ्यस्ते 'विषये' लिङ्ग' प्रतिबन्ध' स्मृतिं यथा ॥ ९३ ॥ सोऽयं स्मृतिप्रमोषः तत्त्वाग्रहणं अख्यातिरुच्यते ॥ एवं सतीयमख्यातिरिष्यते सर्ववादिमिः । तथा प्रकटयद्भिस्तु पीतं प्राभाकरैर्यशः ॥ ९४ ॥ ज्ञानजनकत्वं नेष्यत एव इत्यन्वयः । असन्निहितत्वमेव हेतुः । सनिहितत्वात ज्ञानजनकरवे असंभाविते सति, ज्ञानाजनकत्वात् रजतस्य प्रतिभासोऽपि न स्यात् । प्रतिभासते सु रजतं । अतस्तत्र रजतस्य सान्निध्य उपपादनीयम् । तञ्च तत्र स्मृस्यैवोपपादनीयमिति भावः । स्वेन रूपेणस्मृतित्वेन रूपेण ।। एनां रजतभासनां । प्रमुषितां अगृहीतस्मृतिस्वधर्मिका स्मृति - स्मृतिरूप इच्छन्ति तार्किकाः वर्ककुशलाः । न तु नैय्यायिकाः । मयमेव स्मृतिप्रमोषवादः । तत्र दृष्टान्त: ----अभ्यस्त इति । असकृदभ्यस्ते भोजनादौ तृप्तिसाधनत्वं पुरत मोदनदर्शनमात्रेणैव पूर्वेयुरनु भूतेष्टसाधनत्वनिश्वयात् पुरोवर्तिन्यपि इष्टसाधनत्वं प्रत्यक्षेणैव गृहीतमिव भासते । अथापि सत्र इष्टसाधनत्वस्मृतिरेवास्ति । स्मृतित्वं तु असकृदभ्यासात् तिरोहितमभूत् । तादृशस्मृतिमिवेत्यर्थः । तत्त्वाग्रहणं स्मृतिस्वाग्रहणम् ॥ असरख्या तिपदं भख्यातिपदमपि ' विषये-ख. 461 यथा सर्वथाऽसदर्थख्यातिपरं व्याख्यातं, सर्वथा ख्यात्यभावपरमेवेति 'प्रतिबन्ध - ख. मन्यान तथ भाक्षिपति Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम् न्यायमझरी अिख्यातिपदार्थः ननु ! रजतमिति स्मृतेः स्वरूपोल्लेखो मा भूत् ! इदमित्यत्र पुरोऽवस्थितर्मिप्रीतभासात् कथमख्यातिः। उच्यते-न पुरोऽवस्थितधर्मो शुक्ति केयमिति स्पष्टतया गृह्यते, तथाचाभ्युपगमे भ्रमाभावप्रसङ्गात । किन्तु तेजस्वितादिविपरीतं धर्मिमात्रमवभासते। धर्मसारूप्याच तदानी रजतं स्मयते। ते एते ग्रहणस्मरणे विविक्ते अपि विविक्ततया न गृह्यते इति विवेकाग्रहणमख्यातिः; न तु'सर्वेण सर्वात्मना'ऽप्रति पत्तिरेव । व्यधिकरणयोश्च ग्रहणस्मरणयोवैयधिकरण्यं 'चेन्न' गृहीतं, किमन्यदस्तु सामानाधिकरण्यम्।। न तु यदेवेदं, तदेव रजतमिति सामानाधिकरण्येन ग्रहणमस्ति। सा हि विपरीतख्यातिरेव स्यात्-वैय्यधिकरण्यानुपग्रहादेव प्रमातुः प्रवृत्तिः। अविवेकात्साधारण्याभिमानेन प्रवृत्तिरिति फलत इयं वाचोयुक्तिः॥ सामानाधिकरण्येन केचित्तत्पृष्ठभाविनम् । परामर्शमपीच्छन्ति तन्न श्रद्दध्महे वयम् ॥ ९५ ॥ अख्यातिपक्ष एवं हि हीयेतैकत्ववेदनात् । पकैश्च वितथाख्यातिः अक्षरः कथिता भवेत् ॥ ९६ ॥ नन्विति। स्वरूपोल्लेखः-स्मृतित्वाग्रहणम् । विविक्ते' समुच्चयानात्मके। ध्यधिकरणयोः --मिन्नविषयकयोः। ननु तयोः विशेषणविशेष्ययोः न वैयधिकरण्याग्रहणमात्रं, सामानाधिकरण्यमपि गृह्यत एवेति चेत्तत्राह-न विति। __ वैय्यधिकरण्येत्यादि । यद्यपि सामानाधिकरण्यमपि भासत इवैवानुभवः, परन्तु सः वैयधिकरण्याग्रहणकृत एव; भारापगमे 'सुरुषहम्' इत्यादौ दुःखापगममात्रात् सुस्त्रीतिवदिति भावः ॥ केचित् -- एकदेशिनः । तत्पृष्ठभाविनं. ....- स्मृतिप्रमोषानन्त. रभवं परामर्शः - विशिष्टवैशिष्टयावगाहिज्ञानम् । एकत्ववेदनात्-- शानद्वय इति शेषः । धनः अक्षरैः--पर्यायशब्दैः। वितथाख्यातिः-- भन्यथाख्यातिः सर्वेण सर्वा-ख. पचा एव-पा, चेतिक करण्याव-क. ख. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अख्यात्यैव सर्वविधभ्रमनिर्वाह: [ अख्यातिपक्षे बाधकज्ञानकृत्यम् ] ननु । एवमख्यातिपक्षे प्रतिष्ठाप्यमाने 'नेदं रजतम् इति पूर्वावगतरंजन' प्रतिषेध' बोधी वाधकप्रत्ययो दृश्यमानः कथं समर्थ'यिष्यते ? अप्रतीतिज्ञो देवानां प्रियः । न ह्यनेन रजतनिषेधो विधीयते किन्तु प्रागगृहीतो विषेकः प्रख्याप्यते । न इदं रजतः यदेवेदं तदेव रजतमित्येतन्नः इदमिदं रजतं इति ॥ आह्निकम् ३] 463 एतदुकं भवति - इदमन्यत्, रजतमन्यदिति सोऽयं विवेकः 'पितो' भवति ॥ [ स्वामानुभवस्यापि ग्रहणस्मरणात्मकत्वम् ] ; मनु ! एवं, ' इदं रजतम्' इत्यादी स्मरणानुभवयोर्भवतु विवेकाग्रहणम् खमे तु कथमेतद्भविष्यति । भीगे ! किं जातं स्वप्ने ? विवेकेन न गृह्येते स्मरणानुभवौ कचित् । स्वप्ने तु स्मृतिरेवैका तथात्वेन न गृहाते ॥ ९७ ॥ सहशदर्शनाद्विना स्मृतिरेव कुतस्त्येति चेत्-न- नानाकारणवात्स्मरणस्य निद्राकषायितमप्यन्तःकरणं स्मरणकारणं भवत्येव ॥ • चन्द्रमादीनामपि ख्यातिरूपत्वम् ] यद्येवं द्विचन्द्रतिक्तशर्करादिप्रत्ययेषु कथं स्मृतिप्रमोषः ? आ. कुण्डशेखर ! कथमसकृदभिहितमपि न बुध्यसे स्वत्विति । जाग्रदवस्थायां सत्यरजतमिथ्यारजतयोरनुभव: उक्तया युज्यते । स्वमस्तु सर्वोऽपि भ्रम एव । तत्र स्वप्रदर्शन किमधिष्ठानकम् ? किविषयकम् ? कथमख्यातिः ? इति प्रश्नार्थः । समाधत्ते - विवेकेनेति कचित्अप्रत्काले । स्मृतिरेकैवेति । स्वप्ने एकैव स्मृति: स्मृतित्वेन न गृह्यते । अदृष्टविशेषवशात् दर्शनसमानाकारतां चापद्यते। अतश्चाख्यातिरेव । स्वामानुभवस्य स्मृतिरूपत्वे स्मृतिहेतोः संस्कारस्योद्बोधकं किमिति पृच्छति --- सदृशेति । नानेति । अन्ततः अदृष्टादिकमेव उद्बोधकम् ॥ कुण्डशेखर - 'अमृते जारजः कुण्ड, जारजापशदेति यावत् । ' प्रतिबोध-स्व इष्यते-ख. ख्यातिता-ख. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम् न्यायमचरी न सर्वत्र स्मृतेरेव प्रमोषोऽभ्युपगम्यते। किन्त्वख्यातिः, अतश्चासौ कथञ्चित्कस्य चित्कचित् ॥९८॥ भवति, अनुभवस्मृत्योविवेकाग्रहणं कचित् । कचित्तु स्मर्यमाणस्य तथात्वेनानुपग्रहः ॥ ९९ ॥ द्विधा कृता क्वचिद्वत्तिर्नेत्रस्य तिमिरादिना । न हि ग्रहीतुमैक्येन शक्नोति शिशिरत्विषम् ॥ १०० । .. क्वचिद्रसनसंपृक्ते पित्ते तिक्तत्ववेदनात्। . परिच्छेत्तुं न शक्नोति माधुर्यं शर्करागतम् ॥ १०१ । गृह्णाति यत्तु तिक्तत्वं वस्तुतः पित्तवति तत् । तथा तु न विजानाति निगिरन्नेष शर्कराम ॥ १०२ ॥ एतेन पीतशङ्खादिख्यातयोऽपि व्याख्याताः ॥ [अख्यातिवादोपसंहारः तत्प्रयोजनकथनेन तदेवं सति सर्वत्र सम्यगग्रहण भ्रमः। .. न मिथ्याप्रत्ययः कश्चिदस्ति शङ्कानिबन्धनम् ॥ १०३ ॥ अजातमिथ्याशङ्कश्च न संवादमपेक्षते । तस्मान्न कश्चित् परतः प्रामाण्यमधिगच्छति ॥ १०४ ॥ एवं स्वतः प्रमाणत्वे सिद्धे वेदेऽपि सा गतिः । अपवादद्वयाभावः वक्तव्यश्चात्र पूर्ववत् ॥ १०५॥ कचित-शुक्तिरजतभ्रमादौ । कचित्त-स्वप्मे तु । तथात्वेन-स्मर्यमाणत्वेन । नहीति। एकश्चन्द्र इति ज्ञानवतामपि अङ्गल्यवष्टंभादिना द्वौ चन्द्रौ' इति प्रनीतिदुरतिक्रमा। अत: द्विचन्द्रज्ञाने अन्ततः भिन्न देशत्वाभावामदए।। पित्तेपित्तदोषे। तथाचात्र तिक्तस्बे पित्तवृत्तित्वाग्रहः सर्वेषामपि पीतः शङ्खः'. इत्यत्रापि पीतिम पित्तगतं, तद्गतत्वेन न गृह्यते ॥ सम्यगिति। सम्यक्त्वं यथावस्थितत्वम् । एवमख्यातिवादाकीकारस्य मूलहेतुं प्रकटयति---न मिथ्येत्यादि । शङ्कानिबन्धन-इदं प्रमा? नवा? इतिशङ्कानिदानम्। अपवादद्वयं--पूर्व (पू. 431) प्रतिपादितम् ॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] अख्यातिनिरास: . 465 [अख्यातिनिराकरणम् [शुक्तिरजतज्ञानं न ज्ञानद्वयरूपम् ] अत्र प्रतिविधीयते । यदुक्तं-इदं रजतमितिस्मरणानुभवस्वभावे विवेकेनागृह्यमाणे द्वे एते शाने इति-तदसांप्रतम्प्रत्यमिशावदेकत्वेनैव संवेद्यमानत्वात् । यदेवेदं पुरोऽवस्थितं भास्वररूपाद्यधिकरणं धर्मिसामान्यं, तदेव रजतमिति विशेषतः प्रतिपाद्यते; यदिदमग्रतः स्थितं, तद्रजतमिति सत्यरजतप्रतीतिवत्। अनुभूततया हि न रजतमत्र प्रकाशते, किन्त्वनुभूयमानतया । भनुभूतताग्रहणं च स्मरणमुच्यते, नानुभूयमानताग्रहणम् ॥ [भख्यातिरपि विपरीतख्यातौ पर्यवस्थति] स्वप्रकाशा च संवित्तिरिति भवतां दर्शनम्। तत्रैषा रजतसंवित्तिः केन रूपेण प्रकाशतामिति चिन्त्यम् । यदि स्मरणात्मना, कः प्रमोषार्थः? अथानुभवात्मना, तदियं विपरीतख्यातिरेव । स्मृतेरनुभवत्वेन, 'शुक्तेरिव रजतत्वेन प्रतिभासात् ॥ .. [अख्यातिः दुरुपपादा च] अथ संविन्मात्रतयैव प्रकाशते, तदपि न युक्तम् रजतविषयोल्लेखात् । स्मरणानुभवविशेषरहितायाश्च विषयसंवित्तेरनु प्रत्यभिज्ञावदिति । प्रत्यभिज्ञाया भपि ग्रहणस्मरणात्मकत्वे क्षणिकवादावतारमसङ्ग इति तत्प्रकरणे (७ माह्निके) विशदीभविष्यति ।। . नानुभूयमानताग्रहणम्। न च तत्र अनुभूतत्वाग्रहणमात्रं, तावतेव भनुभूयमानताग्रहणमिव भवतीति वक्तुं शक्यम् ; सत्यरजतप्रतीत्यपेक्षया वेलक्षण्याननुभवात्। तत्रापि वर्तमानतायामगृहीतायां प्रवृत्तिरेव न स्यात् । भवर्तमानत्वाग्रहणमात्रात्प्रवृत्युपपादने च, अन्तत: भ्रमप्रमाविभागोऽपि दुर्वच एवं स्यात् ॥ प्रकाशतां-इति तिङन्तम् । कः इत्यधिक्षेपे ॥ - ननु न केवलं संविन्मात्रतया प्रकाशते, अपि तु रजतसंवित्त्वेनेस्यत्राहस्मरणेति। 'निर्विशेषं न हि सामान्यम्'। ननु पुरोवर्तित्वांशे प्रत्यक्षत्वं 1प्रतिभासाद-ख. NYAYAMANJARI 30 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 अमस्वरूपपरिशीलनम न्यायमचरी पपत्तः। न चेयमप्रतिपत्तिरेवेति वक्तुमुचितम ; मदमुर्छादिदशा विसहशस्वप्रकाशसंवेदनानुभवात । यथा इदमित्यंशे स्वप्रकाश संवेदनं, तथैव रजतमित्यत्रापि ॥ [इदमंशस्थ प्रत्यक्षत्वं रजांशस्य स्मृतित्वं च दुर्वचम् ] अपि च द्वयोश्चशियोः समाने संवेदने तत्रैकं प्रत्यक्षलब्धं, अपरं स्मरणफलमिनि 'कुतस्त्यो' विभागः? इदमित्यत्र च किमवा भामत इति निरूप्यताम्। यदि शुक्तिकाशकलं, सकलस्वगत. विशेषखचितमवभाति, तदा तद्दर्शने सति रजतस्मरणस्य कोऽवसरः? भवदपि वा सादृश्यकृतं स्मरणं न तदविवेकाय कल्पते, देवदत्तदर्शनानन्तरोद्गततत्सदृशपुरुषान्तरस्मरणवत ॥ . . अथ धर्मिमात्र इदमितिप्रत्यये प्रतिभाति, न शक्तिशाल। . तद्वामिष्यते। तदेव चेदं सामान्यधर्मग्रहणवशविरुद्धसंस्कारोपनिबन्धनविरुद्ध विशेषस्मरणकारणकं इदं रजतमिति सामान्योपक्रमे विशेषपर्यवसानं ज्ञानम् । यदिदं तद्रजतमिति सामानाधिकरण्याधमर्शात् । रजतानुभवाभिमानेनैव च रजतार्थी तत्र प्रवर्तते ॥ भख्यातिवादः बौद्धमतमूलकः] ननु ! स्मरणानुभवयोर्विवकमप्रतिपद्यमानः प्रवर्तत इत्युक्तम्-.. श्रुतमिदम् , यदत्र भवद्भिः धर्मकीर्तिगृहादाहृतम्--‘दृदयविकल्पावर्थावेकीकृत्य प्रवर्तते' हति ॥ गृह्यत एवेति, तदुपरागमात्रात रजतांशेऽपि स्मृतित्वाग्रहणेऽपि दिवेलक्षण्यं सिद्धमित्यत्राह-यथेति ॥ सामान्यधर्मेत्यादि । सामान्यधर्मग्रहस्य वश:-- अधीनं ; तदुवुद्धः इत्यर्थः; यः विरुद्ध संस्कारः, तदुपनिबन्धनं यत् विरुद्धविशेषस्मरणं तत्कारणकं ज्ञानमित्यन्वयः। विरोधश्चात्र भसामानाधिकरण्यम् । रजतानुभवाभिमानेनैव, म तु शुक्तित्वाज्ञानमात्रात् ।। 'कुतस्ते-ख. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् ३) अख्यामिनिरास: 467 किच चौर्यमपीद न कथञ्चन स्वार्थ पुष्णाति। यावद्धि 'दृश्यं गृहीतम्' इति न जातः प्रत्ययः, तावत् कथं दृश्यार्थिनस्तत्र प्रवृतिः। एवमिहापि यावत् 'रजतं गृहीतम्' इति न जाता प्रत्ययः, तावत् कुतस्तदथिनां प्रवृत्तिः? तस्मादस्ति रजतग्रहणम्। न तु तत्स्मरणप्रमोषमात्रम् ॥ रजतस्मरण च रजततया ग्रहणार्थमपेक्षितम् ] ननु ! रजतस्मरणं विपरीतख्यातिवादिभिरप्यङ्गीकृतमित्युक्तम्। सत्यम्-रजतगतविशेषस्मरणमभ्युपगतम् । यथा हि पुरोऽवस्थिते धर्मिण्यू'यत्वा दिसाधारणधर्मग्रहणात् स्थाणुपुरुषगतविशेषानहणादुभयविशेषस्मृतेः संशयो भवति, एवमिहापि तेजस्वितादिसामान्यधर्मग्रहणाद्विशेषाग्रहणात् रजतगतविशेषस्मृतेश्च तस्मिन् धर्मिणि रजतप्रत्ययो भवति विपर्ययात्मकः। संशये ह्यभयविशेष. स्मरणं कारणम् । इह त्वन्यतरविशेषस्मरणमिति विशेषः। अत एव घागृहीतरजतस्येदं शानं नोत्पद्यते, सदृशाग्रहणे वा निशीथादाविति । रजतस्मरणमात्रात् न शुक्तिरजतप्रतीतिः न त्वेतावता स्मरणमात्रमेवेदमितीयति स्थातव्यम्। स्मरणअन्यस्य विपर्ययप्रत्ययस्यापि संवेदनात् । अत एघ तत्पृष्टभावि कारणकार्ययोविवेकमजानान: पृच्छति-नन्विति। सत्यमित्यादि । पुरत: शुक्तेरेव सत्वात् विशेषोपस्थापनाय रजतस्मृतिरपेक्ष्यते । नेयं स्मृतिरेव भ्रमपदवाच्यः, किन्तु भ्रमकारणम्। एवं रजतस्वोपस्थित्या पुरोवर्तिनमपि तारशं विश्वसिति पुरुषः । नात्र स्मृतिप्रमोषः, स्मृतेः कारणावस्थायां विरमात , 'इदं रजतं' इति ज्ञानस्य ततो भिन्नत्वात् । अगृहीतेति--पूर्वमपरिचितेत्यर्थः। निशीथादी तेजस्विताद्यग्रहणात् सदृशाग्रहणे तादृशः भ्रमः नोत्पद्यते ॥ एवं कारणभूता स्मृतिः, न कार्यभूतविपर्ययपदवाच्या इत्यनुपदोक्तमेवोपपादयति--न विति। तत्पृष्ठभाविपरामर्शः--- तादृशस्मृतिजन्यविशिष्ट - ता-क, Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमस्वरूपपरिशीलनम् [ न्यायमरी परामर्शवादिनो वरं सत्यवाचः । ते हि प्रतिभासं न निह्नुवते ॥ [ अन्यथाख्यातौ कारणोपपादनम् ] यत्तु विपर्ययावगतेः कारणं विकल्पितम्, तत्रोक्तमेव प्रामा 468 णिकैः 6 कार्य चेदवगम्येत किं कारणपरीक्षया ? कार्य नागस्येत किं कारणपरीक्षया ?' इति ॥ कार्याकस्मिकताऽनुपपत्तेश्च कल्प्यतां कारणम् ! तच्च क्लृप्तमेव दोपसहितमिन्द्रियम्- - यथा संस्कार सहकारि प्रत्यभिज्ञायामिति ॥ [दुष्टं इन्द्रियमेव भ्रमकारणम् ] सुवते शालयेो दुष्टा न यद्यपि यवाङ्कुरम् । शालिकार्य त्वपूपादि जनयन्त्येव कल्मषम् ॥ १०६ ॥ तस्माद्दोष कलितादिन्द्रियात् पुरोऽवस्थितधर्मिगतत्रिकोणत्वादिविशेषावमर्श कौशलशून्यात् सामान्यधर्मसहचरित पदार्थान्तरगतविशेषस्मरणोपकृताद्भवति विपरीतप्रत्ययः । सम्यज्ज्ञानापेक्षया च तद्दुष्टमुच्यते । स्वकार्ये तु विपर्ययज्ञाने तत्कारणमेव न दुष्टम् । तस्मात् रजतमित्यनुभव एव, न प्रमुषितस्मृतिः ॥ वैशिष्टयावगाहि ज्ञानम् । वरं श्रेष्ठाः । अत्र हेतु: --- सत्यवाच इति । प्रतिभासं - रजतभानम् ॥ कार्यमित्यादि । अनुभवसिद्धे किं वृथा चर्चया ? तदनुगुणं समर्थकारणं कल्पतामिति भावः । आकस्मिकता - हेत्वनधीनता । संस्कारसहकारि, इन्द्रियमित्यनुकर्षः ॥ ' न हि दुष्टानि ' इत्याद्युक्तं (पु. 455) समाधत्ते - सुवत इति । कल्मषं बीजानरूपं कार्यमित्यर्थः । बीजं ह्यङ्कुरजननाय कृप्तम् । त्रिकोणत्वादिधर्माः शुक्तिगताः । ननु काचादिदुष्टं चक्षुर्न स्वकार्यक्षमं दृष्टं तत् कथं दुष्टं इन्द्रियं भ्रमहेतुः ? इति शङ्कां - दोषवैचित्र्यात् परिहरति- सम्यगिति । तदेव कारणं इत्यन्वयः । एवं स्मृत्यपेक्षायामपि प्रत्यभिज्ञावत् भ्रमः प्रत्यक्षानुभव एवेति निगमयति - तस्मादिति ॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३) अन्यथाख्याख्यातिसमर्थनम् 469 [बाधस्वरूपपर्यालोचनया शुक्तिरजतभ्रमे रजतभानोपपादनम् ] अपि च, नेदं रजतमिति बाधकज्ञानं पूर्वानुभवविषयीकृतरजतनिषेधमधिगमय दुत्पद्यते । नेदं रजतमिति- यदहमद्राक्षं तद्रजतं न भवति' इति । प्रसक्तस्य चायं निषेधः। अननुभूतं त्वप्रसक्तमपि प्रतिषिध्यमानं, रजतमिव 'कनकमपि किमिति न प्रतिषिभ्यते ? अख्यातवाद्युक्तस्य बाधज्ञानकृत्यस्य निरसनम्) यत्तु व्याख्यातम् (पु. 463)-प्रागनवगतस्मरणानुभवविवेकप्रतिपादकं बाधकज्ञानमिति--तत् व्याख्यानमात्रमेव, तथाऽननुभवात् । न ह्येवं बाधक'मुत्पद्यते 'यदविविक्तं तद्विविक्तं ' इति । अतो यत्किञ्चिदेतत्। तस्मान्न रजत'स्मरणं, रजते वा कदाचिदनुभवोऽभूदिति स्मरणमभिधीयमानं नात्यन्तमलौकिकम् ॥ [स्वमानुभवस्य अख्यातिरूपत्वासंभवः] स्वप्ने तु स्वशिरच्छेदादेः अत्यन्ताननुभूतस्य स्मृतिरिति कथ्यमानमेव पाकरम् । जन्मान्तरे निजमस्तकलवनमनुभूतमनेनेति चेत्, इदमपि 'सुभाषिततरम्-यत् जन्मान्तरानुभूतं स्मर्यते । तत्र च कुतस्त्य एष नियमः --यत् कदाचिदेव स्मर्यते, न सर्वदा सर्वमिति ॥ [स्वप्नोऽपि नासद्विषयक:] ननु ! भवताऽपि असत्ख्याति निरस्यता स्वप्नज्ञानेषु तादृक्षु किं वक्तम् ? यद्वक्तव्यं, 'तत् तत्रैव श्रोष्यसि (९ आह्निके) । असन्न प्रतिभातीत्युच्यते, न त्वननुभूतमिति ॥ _ 'नेदं रजतम्' इत्यस्यैव विवरणं, तद्पानुभवो वा-यदहमित्यादि । अपिः यद्यर्थकः। अथवा-प्रतिषिध्यमानं-प्रतिषिध्यते चेत् ॥ 'प्रागनवगत' इत्यस्य विवेकेऽन्वयः। रजते इति विषयसप्तमी । मलौकिकं नेति न—लोकानुभवविरुद्धमेवेत्यर्थः ।। 1 कमपि-क. मुद्धाट्यते-ख. रजतमिति-क. स्व-ख. 'मसारम्-ख. 'तत्रैव-ख.... ...... Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम् म्यायमचरी [स्वेनाननुभूतस्यापि वस्तुनः सत्त्वं युक्तमेव] ननु ! अननुभूतं सत् कथं जानीये? सदिति चेत् शानं ; तद. नुभूतमिति-चम-मया तन्नानुभूतं, अन्येनानुभविष्यते । परानुभूतं च सदिति शक्यते वक्तुम् । परानुभूते तु स्मरणमघटमानमिति नावयोरत्र 'वस्तुनि' समानयोगक्षेमत्वम ॥ स्विमस्य विपरीतल्यातिरूपत्वं अनिवार्यम् । ___ अपि च भवन्मते स्वमस्मृतेः स्मृतित्वेनाग्रहणे, केन रूपेण ग्रहणमिति चिन्त्यम्। रूपान्तरेण ग्रहणे विपरीतख्यातिः। सर्वात्मना त्वग्रहणे स्वप्नसुपुप्त्योरविशेषप्रसङ्गः। अनुभवप्रत्ययश्च स्वप्ने संवेद्यने, न स्मरणानुल्लेखमात्रमिति दुरभिनिवेश एव स्मृति: प्रमोषसमर्थनं नामेति ॥ [द्विचन्द्रज्ञानादीनां अण्यातिरूपत्वासंभवः] द्विचन्द्रादिप्रत्ययेषु कथमख्यातिः । ननु ! उक्तं (पु. 464)-'तिमिरसीमन्तिता नयनवृत्तिः एकत्वेन गृहीतुं न शक्नोति शशाङ्क---इति । भोः श्रोत्रिय! तादृशी शो वृत्तिः एकत्वमिन्दोर्मा ग्रहीत् ; द्विन्यानुभवं तु भान्तं' व प्रच्छादयामः॥ ननु चक्षुर्वृत्तौ तद्वित्वं, तद्गतत्वेन तु यत्तस्याग्रहणं स एव भ्रम:-नैतदेवम्-नेत्रवृत्तेः सर्वत्र परोक्षत्वात् ।। किमेकचन्द्रबोधेऽपि वृत्त्येकत्वं प्रतीयते ? इयं ह्यगृह्यमाणैव चक्षुत्तिः प्रकाशिका ॥ १०७ ॥ नन्विति । यद्यननुभूतं भाति, तर्हि कथं तस्य सत्त्वमवगतम् ? यदि च सत्वज्ञानं तदा, तनुभूतमेव तत्, माननुभूतमित्युभयथाऽपि दोष इत्यर्थः । स्मरणं, स्वस्येति शेषः। वस्तुनि-विषयदृष्टयेति यावत् ॥ अपि चेत्यादि । संविन्मात्रतया भानं तु पूर्वभेव (पु. 465) निरस्त्रम् ॥ तिमिरसीमन्तिता-तिमिरेण दोषेण प्रत्येकं कृतमर्यादा ॥ वस्तुनि-क. सपिरभित्रा-स्व. प्रान्तं-ख. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माडिकम् ३ अन्यथाख्यातेरेवावर्जनीयत्वम् 471 एवमुच्यमाने च एकचन्द्रग्रहणेऽपि वृत्येकत्वाग्रहणादख्यातिरेव भवेत् ॥ तिक्तशर्कराप्रत्ययस्याप्यख्यातिरूपत्वासंभवः] यदपि---तिक्तशर्करादिप्रत्ययेश्वख्यातिसमर्थनकदाशया पितवृत्तस्तिक्तत्वस्य संवेद्यमानस्य तत्स्थत्वेनाग्रहणमुपवर्णितम् तदधि कुशकाशावलम्बनप्रायम् ॥ मोहात पित्तगतत्वेन तिक्तता चेन्न गृह्यते । मा ग्राहि, शर्करायां तु किंकृता तिक्ततामतिः? १०८ ॥ 'सामानाधिकरण्येन हि 'तिक्ता शर्करा' इति तदधिकरणा तिक्तताप्रतीतिरुपजायते। पित्तं त्विन्द्रियस्थं तिमिरवदगृह्यमाणमपि भ्रममुपजनयति, . शरीरस्थमिव ज्वरं शिरोऽत्यादिरोगमित्यलं प्रसङ्गेन.॥ अख्यातिसाधनमात्रेण न स्वत:प्रामाण्यसिद्धि:) एवं सर्वत्र नाख्यातिनिर्वहन्तीव लक्ष्यते । न चैतयाऽपि परतःप्रामाण्यमुप हन्यते ॥ १०९। रजतेऽनुभवः किं स्यात् ? उत प्रमुषिता मतिः ? द्वैविध्यदर्शनादेवं भवेत्तत्रापि संशयः ॥ ११ ॥ ननु मत एवं द्वित्वं तद्तत्वेन न गृह्यत इति वदाम इति खेत, नई एतादृश्यख्यातिः प्रमायामपि सुलभेत्याह-एवमिति ॥ शर्करायां - शर्करागतत्वेनेति भावः। तदधिकरणातिरिक्ततापित्तमिन्नशर्करावृत्तिता। शरीरस्थं ज्वरं यथा शिरोवेदनामुपजनयति तथेत्यर्थः। पद्यपि ज्वरं सर्व न सर्वथाऽतीन्द्रियं, अथापि अस्ति साशमपि ज्वरं कचित् ॥ रजते----रजतत्रिषयिणी मतिरित्यन्वयः । सर्वस्यापि ज्ञानस्य वस्तुगत्या पथार्थत्वेऽपि, शुक्तिरजताद्यनुभवस्य सस्थरजतानुभवापेक्षया लक्षणयं वक्तव्यमेव । एवञ्चानुभववैविध्यदर्शनात, प्रमाभ्रमपदार्थत्वस्य याश वादशत्वेऽपि संशयः अनतिकमणीय एव अतः संवादाथपेक्षायाः मरवेल परतः प्रामाण्य दुष्परिहरम् । पित्त विन्द्रियस्थ-ख. भप-ब. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 भ्रमस्वरूपरिशीलनम् [न्यायमारी संशयानश्च संवादं नूनमन्वेषते जनः। तदपेक्षाकृतं तस्मात् प्रामाण्यं परतो ध्रुवम् ॥ १११॥ [ शून्यवाद ने रासाय सर्वेषां ज्ञानानां यथार्थत्वं न वक्तव्यम् ] न चैष शून्यवादस्य प्रतीकारक्रियाक्रमः। अनर्थजा हि निर्दग्धपित्रादौ भवति स्मृतिः ॥ ११२ ॥ दृष्टान्तीकृत्य तामेव शून्य वादी समुत्थितः। भ्रमापह्नवमात्रेण प्रतिहन्तुं न शक्यते ॥ ११३ ॥ [एवं परतःप्रामाण्यखण्डनेन शून्यवादिनिरासो न भवति अथास्ति काचित्परतः प्रामाण्यस्य निषेधिका । शून्यवादस्य या युक्तिः सैव 'वाच्या किमेतया ? ॥ ११४ ।। तस्माद्यथार्थमस्याः संश्रयणं 'तन्न' निषिद्धमख्यातेः।। संविद्विरोध एव प्रकटित इति धिक् प्रमादित्वम् ॥ ११५॥ तदुक्तम् ‘कृतश्च , 'शील विध्वंसः न चानङ्गश्च सङ्गतः। आत्मा च लाघवं नीतः तच्च कार्य न साधितम्' इति ॥ [अन्यथाख्यातेः असत्ख्यातावपर्यवसानम् ] ... यत्पुनर्विपरीत ख्याती पक्षत्रयमाशय दूषितम्. (पु. 456)तदपि न युक्तम्-अस्तु तावदयमेव आद्यः पक्षः 'रजतमालम्बनं, तदेव चास्यां प्रतीतो परिस्फुरति' इति ॥ . ... ननु पुरतः अविद्यमानस्यैव रजतादे नाङ्गीकारे, एवं अर्थमन्तरैव सर्वोऽपि प्रत्यय उत्पन्नो भवतीति वदन् शून्यवादी कथं निरसितुं शक्यः ? इत्यत्राह--न चेति। शुक्तिरजतभ्रममादायैव न शून्यवादः प्रसञ्जितः । किन्तु अर्थमन्तराऽपि स्मृतेर्दर्शनात् तदृष्टान्तेनैव । अधिकं परस्तात् (९ माहिके) अत: शून्यवादिनो भीत्या नाख्यातिरङ्गीकरणीया ॥ ____ अथेति । शून्यवादस्य निषेधिकेत्यनुकर्षः। यदि परतः प्रामाण्यनिषेधेन शून्यवादो निरस्यः, तदा सफल: प्रयासः। तत्तु न | अतः किमेतया चर्चया ॥ ___ वादे-ख. वान्या-क. 3 तत्-ख. शूल-ख. 5 परीता-क. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] अन्यथाख्यातेः असत्ख्याति रूपत्वाभावः 473 ननु ! अत्र चोदितं (पु. 456) 'असत्ख्यातिरेव सा भवेत् ' इति नैतत् साधु । देशान्तरादौ रजतस्य विद्यमानत्वात् । 'असत्ख्यातिपक्षे हि एकान्तासतोऽर्थस्य प्रतिभानमङ्गीक्रियते । इह तु देशान्तरादौ विद्यमानस्येति महान् भेदः ॥ 'नु ! तत्रासतोsर्थस्य किं देशान्तरचिन्तया ? किं कुर्मः ? तादृशस्यैव वस्तुनः ख्यातिदर्शनात् ॥ ११६ ॥ यस्तु देशान्तरेऽप्यर्थी नास्ति कालान्तरेऽपि वा । न तस्य ग्रहणं दृष्टुं गगनेन्दीवरादिवत् ॥ ११७ ॥ अयमेव च द्वयोरसत्त्वयोर्विशेषः, यत् एकस्य ग्रहणं दृष्टं, इतरस्य न दृष्टमिति ॥ [ तत्रासतोऽपि भानसंभवोपपादनम् | ननु ! उक्तं (पु. 459 ) तत्र असतोऽर्थस्य कथं ज्ञानजनकत्वम् ? अजनकस्य वा कथं प्रतिभासः ? उक्तमत्र (पु. 457 ) सदृशपदार्थदर्शनोद्भूतस्मृत्युपस्थापितस्य रजतस्यात्र प्रतिभासनमिति । न चास्योपस्थापनं पशोरिव रज्वा संयम्य ढौकनम् अपि तु हृदये परिस्फुरतोऽर्थस्य बहिरवभासनम् । न चैतावतेयमात्मख्यातिः, असत्ख्यातिर्वेति वक्तव्यम् ; विज्ञानात् विच्छेदप्रतीते:, अत्यन्तासदर्थप्रतिभासाभावाच्चेति ॥ ر [शुक्तिरजतभ्रमे शुक्तरालम्बनत्वेऽपि न क्षति: ] ' अथवा ' पिहितस्वाकारा परिगृहीतपराकारा शुक्तिकैवात्र प्रतिभातीति भवतु द्वितीयः (पु. 457 ) पक्षः ॥ तत्रासत इति । तत्र यदि नास्ति, तर्हि देशान्तरस्थितिः कुत्रोपयुज्यते । तत्रासत्तु भासत एवेति पूर्वार्धस्य भावः । सर्वथाऽसतः कुत्राप्यभानात् देशान्तरावस्थितिरेव प्रकृतभानप्रयो जिवेति समाधानम् । तत्रासतः । ग्रहणं, अन्यत्रेति शेषः । न दृएं, कापीति शेषः ॥ ढौकनं - ढौगताविति धातुः । विच्छेदप्रतीते:--- ज्ञानं तु अन्तमुखतया भाति, विषयस्तु बहिष्ट्रेन ॥ एकस्य असत्ख्यातिपक्षे हि ख. 2 तत्रैकान्ता - ख 3 अत एव ख. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम [न्यायमनरी ननु ! उक्तं (पु. 457) कृत्यासीतावत् किमिदं वेशभाषापरिवर्तनम् ? कथं च रजतक्षाने शुक्तिकावभासितुमर्हतीतिश्रुतमिदं नाटकम्-न तु वयमत्रोपहासपात्रम्। शुक्तिकेति यस्तुस्थितिरेषा कथ्यते । परोऽवस्थितं धर्मिमा भास्वररूपादिसादृश्योपजनितरजतविशेषस्मरणमत्र प्रतिभातीति ब्रमः-'यदेतत्पुरः किमपि वर्तते तद्रजतम् इत्यनुभवात् । वस्तुस्थित्या तु शुक्तिरेव सा त्रिकोणत्वादिविशेषग्रहणाभावाच निगृहितनिजाकारेत्युच्यते, रजनविशेषस्मरणाश्च परिगृहीतरजताकारेति ॥ भ्रमद्वैविध्यम्] एतच्च विषयेन्द्रियादिदोष'प्रभवेषु शुक्तिकारजतावभासभास्करकिरणजलावगमजलदगन्धर्वनगरनिर्वर्णनरज्जुभुजगग्रहण -- रोहिणीरमणद्वयदर्शन-शङ्खशर्करापीततिक्ततावसाय केशकूचकालोकनादिविभ्रमेष्वभ्युपगम्यते। मनोदोषनिबन्धनेषु तु मिथ्याप्रत्ययेषु निरालम्यनेषु स्मृत्युल्लिखित 'एव आकार प्रकाशत इति ॥ शुक्तिरालम्बनं, भानं तु रजतस्येति पक्षेऽपि न दोषः यस्तु तृतीयः पक्षः (पु. 458) 'अन्यदालम्बनं, अन्यच प्रतिभाति' इति कैश्चिदाश्रितः तत्रापि न सन्निहितस्यालम्बनत्वमुच्यते, येन भूप्रदेशस्यापि तथात्वमाशङ्कथेत ॥ . नापि 'जनकस्यालम्बनत्वम्, यश्चक्षुरादावपि प्रसज्येत । किन्तु इदमित्यङ्गुल्या निर्दिश्यमानं कर्मतया यज्ञानस्य अनकं, तदालम्बनमित्युच्यमाने न कश्चिद्दोषः ॥ [देशकूर्चादिभ्रमेषु आलम्बन व्यनम्]. ननु ! केशोण्डूकशाने किमालम्बनकारणम् ? किञ्चित्त तिमिरं रोमराजिरिव नयनधाम्नो मध्य एवास्ते । तेन द्विधाकृता नयनवृत्तिः पुरोऽवास्थनमिति। यदवलम्ब्य ज्ञानमुपद्यते, तदेवालम्बनमिति शुकावष्टम्भेनैव रजतमानात् शुक्तिरेवालम्बनं वाध्यमित्यर्थः ।। निगलम्बनेषु-बाबालम्बनशून्येषु ॥ किश्चित्तु --विलक्षणं, यादृशं तिमिरं चाक्षुषप्रत्यक्षवरोधि प म स्यात मपु-क. निराकार:-. 'आलम्बनस्थाजनकत्वम्-ख. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 475 आह्निकम् ३) भ्रमशानालम्बनकथनम् द्वित्वेन चन्द्रमसं गृह्णाति । किश्चिनु तिमिरं तत्र विवरवदन्तराऽन्तरा तिष्ठति चक्षुषः । तेन विरलप्रसृता नयनाश्मयः सूक्ष्माः सूर्यांशुभिहाहन्यमानाः शकूर्चकाकारा भवन्तीति तदेवालम्बनम् । अनुदितेऽस्तमिते या सवितरि केशोण्डूकप्रत्ययस्यानुत्पादात् ।। गन्धर्धनगरक्षाने जलदाः पाण्डुरत्विपः । आलम्रनं गृहालप्रकाराकारधारिणः ॥ ११८ ॥ तस्मान निपरीतख्याती पनत्रयमपि निरवद्यम ॥ . ख्यातिसाङ्कर्यपरिहार: यः पुनः इतरेतरसङ्करः ख्यातीनामुदाहारि (पु. 400)-तत्र आत्मख्यात्यख्याती अपवर्गाह्निके (९तमे) वयमपि विज्ञानद्वित. मपाकरिष्यन्तः पराकरिष्याम इति किं तश्चिन्तया ? 'विपरीत ख्याती तु तत्साङ्कय परिहतम् । . (अख्याते: विपरीतख्यातिहेतुत्वम् ] यत्पुनरवादि- 'सर्ववादिभिः स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगत एव । प्राभाकरैस्तु यशः पीतम्" इति (पु. 460)-तत्र वाद्यन्तराणि तावत् यथा भवन्ति, तथा भवन्तु । वयं तु स्मृत्युपारूढरजताद्याकारप्रति • भासमभिवदन्तो बाढं स्मृतिप्रमोपमभ्युपगतवन्तः। किन्तु न तावत्येव विश्राम्यति मतिः। अपि तु रजताद्यनुभवोऽपि संवेद्यत इति · न स्मृतिप्रमोपमात्र एव घिरन्तव्यम् । अतो विपरीतख्यातिपक्ष एव निरवद्य इति स्थितम्॥ निरवद्य इति । यद्यपि 'तद्धेतोरेव तद्धेतुत्वे मध्ये किं तेन ?' इति म्यायात विपरीतख्यातिहेतुनैव अख्यात्या भ्रमनिर्वाहे सोपानान्तरारोहणं गौरवप्रस्तम् -- परन्तु रजतप्रतीतेरनुभवसिद्धत्वेन न गौरवलाघवचर्चाया अवकाशः । यथोक्तममियुक्त :-- 'स्वारस्यमन्ययाव्यातावख्यातो छाघवं स्थितम'। (न्या. प. 1-1) इति॥ विपरीता-क. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 भ्रम स्वरूपपरिशीलनम् न्यायमञ्जरी [विषयापहारस्यैव बाधरूपत्वम् ] यस्तु बाधप्रकारःप्राग्विकल्पितः -- तत्र सहानवस्थानसंस्कारोच्छेदादिपक्षा अनभ्युपगमेनैव निरस्ता इत्यस्थाने कण्ठशोष आयुष्मताऽनुभूतः। विषयापहारस्तावदस्तु बाधः। विषयस्य च न प्रतिभातत्वमपह्रियते, किन्तु प्रतिभातस्यासत्त्वं ख्याप्यत इत्यपहारार्थः। असत्यमपि नेदानीमुपनतस्य ख्याप्यते, येन 'पूर्वदृष्ट द्रुघणभग्नकुम्भाभावप्रतिभासवदबाधः स्यात् । न च तदानीमप्यभावग्रहणे वस्तुनो यात्मकत्वमाशङ्कनीयम् ; पूर्वावगताकारोपमर्दद्वारेण बाधकप्रत्ययोत्पादात् ; यन्मया तदा रजतमिति गृहीतं तद्रजतं न भवति, अन्यदेव तद्वस्त्विति ॥ [प्रतीतयः न वर्तमानमात्र विषयिण्य:] ननु ! स्वकालनियतत्वात् ज्ञानानां कथमुत्तरस्य ज्ञानस्य पूर्वज्ञानोत्पादकालावच्छिन्नतद्विषयाभावग्रहणसामर्थ्यम?-किं कुर्मः? तथा प्रत्ययोत्पादात् । न भन्नघटवदिदानी तन्नास्तिता गृह्यते, अपि तु तदैव तदसदिति प्रतीतिः। यथा च न वर्तमानकनिष्ठा एव विषयप्रतीतयस्तथा क्षणभङ्गभङ्गे (9 आह्निक) वक्ष्यामः ॥ [फलापहारस्य बाधत्वपक्षोऽपि युक्तः] अथवा फलापहारो भवतु बाधः । प्रमाणफलत्वं च हानादिबुद्धीनां प्रत्यक्षलक्षणे वर्णितमिति (पु. 174) तदपहरणात् प्रमाण बाधितं भवत्येव। किंकुर्वता बाधकेन प्रमाणफलमपहृतमिति चेत् इदानीं-बाधप्रत्ययकाले उपनतस्य, असत्त्वस्येति शेषः । न हि कालभेदेन सत्वासत्वयोर्विरोधः । तदानीं भ्रमकाले। द्यात्मकत्वमिति । भ्रमकाले सत्त्वेनैव भानात् , तदानीमेवासत्त्वस्यापि भानाञ्चेति भावः । पूर्वेत्यादि । तदानीमसत्वं न हि तदानीमेव भातम् , येन यात्मकता स्यात् इति भावः ॥ __स्वकालेत्यादि.। ज्ञानं हि वर्तमानकविषयं, प्रत्युत ऐन्द्रियिकम् । अतीतादिविषयकं तु स्मृतिरेव । अतश्च प्रत्यक्षं वर्तमानैकग्राहीति अनन्तर कालिकः बाधप्रत्ययः पूर्वकालिकासत्त्वं कथमवगमयेदित्यर्थः ॥ 1 दृष्टपूर्व-ख. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] सिद्धान्ते बाधस्वरूपम् 477 गायता नृत्यता वाऽपि जपता जुह्वताऽपि वा। तच्चत् कार्य कृतं तेन किमवान्तरकर्मणा? ॥ ११९॥ . ' तदभ्युपगमे वाऽपि तत्किं विदधता कृतम् ? ' तच्च किं कुर्वतेत्येवमवधिः को भविष्यति ? ॥ १२० ॥ तदलममुनाऽवान्तरप्रश्नेन । 'सर्वथा' बाधकप्रत्ययोपजनने सति हानादिरूपं पूर्वप्रमाणफलं निवर्तत इति तेन तद्वाघितमुच्यते ।। [बाधकज्ञानस्य विषयकथनम् ] समानासमानविषयविकल्पोऽपि (पु. 454) न पेशल:- एकस्मिन् विषये विरुद्धाकारग्राहिणोनियोबाध्यबाधकभावाभ्युपगमात। चित्रादिप्रत्यये कथं न बाध इति चेत् ; पूर्वज्ञानोपमर्दनोत्तरविज्ञानानुत्पादात् ॥ __अत एव एकंत्रापि धर्मिणि बहूनां धर्माणामितरेतरानुपमर्दैन वेद्यमानानामस्त्येव समावेशः ॥ - पूर्वज्ञानेनोत्तरज्ञानस्य न बाधसंभवः] पूर्वोपमर्दे'नोत्तर विज्ञान जन्मतश्च एतदपि प्रत्युक्तं भवति, यदुक्तं (पु. 454)-'पूर्वस्मिन् प्रत्यये प्राप्तप्रतिष्ठे सत्यागन्तु ज्ञानमुत्तरं वाध्यताम्' इति--यतः पूर्वोपमर्देनैव तदुत्तरं ज्ञानमुदेति ; विषय. सहायत्वात् , प्रमाणान्तरानुगृह्यमाणत्वाच्च उत्तरमेव ज्ञानं बाधक बाधकं ज्ञानं किं करोति ? इति प्रश्न:-'गाति' इत्युक्ते, तत्र किं कृत्वा गातीति प्रश्नतुल्य इत्याह -- गायतेति। उत्तरोत्तरत्र क्रियान्तरान्वेषणे भनवस्थाप्रसङ्गः। - अत एव-परस्परानुपमर्दैनोत्तरविज्ञानोत्पादादेव । एकत्रापीत्यादि। 'घटोऽयं नीलः, महान् , एकः, पटसंयुक्तश्च इत्यादिप्रतीति: अत्र प्रमाणम् ॥ यत इत्यादि। पूर्वज्ञानं असञ्जातविरोधित्वात् प्रबलमिति चेत् , सत्यम्। परन्तु ज्ञानस्य करणाधीनत्वेन पुरुषतन्त्रत्वाभावात् जायमानं ज्ञानं पूर्वमुपमृद्यैव जातमिति ततोऽपि उत्तरं ज्ञानमेव प्रबलम् । अन्यथासिद्धात् पूर्वात् परमेव धनन्यथासिद्धं प्रबलम् । अङ्गगुणविरोधन्यायस्यासनातविरोधन्या___ मर्वत्र -ख. 2 निवर्तयत-क. नेतर-ख. 'नाजननाच्चैतदपि-ख.. Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 भ्रमरूपरिशीलनम् [ न्यायमञ्जरी मिति युक्तम् । तस्मादस्ति ज्ञानानां वाध्यबाधकभावः । स चायं बाधव्यवहारो विपरीतख्यातिपक्ष एव सामर्थ्यमस्खलितं दधातीति स एव ज्यायान् ॥ [ भ्रमे अलौकिकरजतादिभानपक्षः ] अक्षः कोऽपि नाम मीमांसकस्त्वाह येयं शुक्तिकायां रजतप्रतीतिर्विपरीतख्यातिरिति तद्वादिनामभिमता, सा तथा न भवतौति, सत्यरजत प्रतीतिवदत्राप्यवभास्यरजतसद्भावात् । लौकिकालौकिकत्वे तु विशेषः । रजतज्ञानावभास्यं हि रजतमुच्यते, तथ किञ्चित् व्यवहारप्रवर्तकं किञ्चिन्नेति । तत्र व्यवहारप्रवर्तकं लौकिकमुच्यते, ततोऽन्यदलौकिकमिति । यच्च शुक्तिकाशकलमिति भवन्तो वदन्ति तदलौकिकं रजतम् । रजतज्ञानावभास्यत्वात् ' रजतं तत् व्यवहाराप्रवृतेरलौकिकमिति ॥ -- [ भ्रमे अलौकिक रजत भानपक्ष निरास: ] तदेतदपरामृष्टसंवेदनेतिवृत्तस्याभिनयपदार्थसर्गप्रजापतेरभिधानम् । बाधकप्रत्ययेन तत्र रजताभावस्य ख्यापनात् । नेदं रजतमिति हि रजतं प्रतिषेधत्येष प्रत्ययः, न विद्यमानरजतस्यालीकिकत्वमवद्योतयति इति ॥ अथ नेदं लौकिकमिति व्याख्यायते ; हन्त ! वाक्यशेषः क्रियतां 'संयजरङ्गानि' इतिवत्। सोऽयं श्रोत्रियः स्वशास्त्र वर्तनीपापवादत्वं मीमांसकै (कौस्तु. 3-3-1 ) रप्यङ्गीकृतमेव । विपरीतख्यातिपक्ष एवेति । भख्यातिपक्षे ज्ञानद्वयस्यापि यथार्थत्वेन नेदृशं बाधनं स्वरसतो वर्णितुं शक्यमित्यर्थः ॥ किं नाम लौकिकत्वमलौकिकत्वं च ? कश्च तयोस्साधारणां धर्म: : इत्याहरजतज्ञानेत्यादि । व्यवहारः कटकनिर्माणादिः । वदन्ति इत्यत्र काल इति शेषः । प्रतीतिकाले तु रजतमित्येव भानाव रजतज्ञानावभास्यत्व - रूपं रजतत्वसामान्यं तत्रास्त्येव । न्यायकन्दल्यामप्ययं पक्षः ( पु 181 ) प्रदर्शितः ॥ रजतं --- रजतसामान्यम् । विद्यमानस्य तदानीं भातस्येति भावः ॥ व्याख्यायते, बाधकप्रत्यय इति शेषः । संयजत्रैरित्यादि । अननुषङ्गाधिकरण (2-1-49) विषयोऽयम् । 'सं ते प्राणो वायुना गच्छतां Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाडिकम् । भ्रमविषयस्यालौकिकस्वनिराकरणम् 479 मिहापि 'नना त्यजति ; न तु तस्या अयमवसरः। अगृह्यमाणे तु रजताख्येऽन्यधर्मिणि कथं तद्धर्मत्वेन लौकिकत्वं गृह्यते? रजताभावग्रहणेन्वेष न दोषः। भावतदभावयोः धर्मर्मिभावाभावात्। स्मयमाणप्रतियोग्यवच्छिन्नो हि अभावो गृह्यत एव। तस्मादत्र नास्त्येव रजतं, न पुनरलैकिकं तदस्ति । लौकिकालौकिकरजतसामान्य न प्रामाणिकम् ] ___न व रजतज्ञानावभास्यत्वमा रजतलक्षणम् ; अपि तु अबाधितरजतज्ञानगम्यत्वम् ॥ वस्तुनि लौकिकालौकिकविभागोऽप्यप्रामाणिक अपि च लौकिकालौकिकप्रविभागः प्रतिभासनिबन्धनो धा स्यात्। व्यवहारसदसद्भावनिबन्धनो वा ? न तावत् प्रतिभासनिपन्धनः. 'तथा प्रतीत्य'भावात। क्वविद्धि रजतं, क्वविञ्च तद्भावः प्रतीयते ; न तु लौकिकत्वमलौकिकत्वं वा। अथ व्यवहारप्रवृत्त्यप्रवृत्तिभ्यां लौकिकालौकिकत्वे व्यवस्था प्येते. तद्वक्तव्यं कोऽय व्यवहारो नामेति । ज्ञानाभिधानस्वभावो हि व्यवहारः; 'सच' तद्विपयो नास्तीत्युक्तम्। तदर्थक्रियानिसंयजत्रैरङ्गानि' इत्यत्र 'हे पशो' ते प्राणो वायुना संगच्छता, अङ्गा नि यजत्रै:---- यागविशेषैः संगच्छन्ताम् ' इत्यर्थे वर्णनीये 'गच्छतां ' इत्यस्यैवानुषङ्गः वचनविपरिणामेन युक्तः --इति पूर्वपक्षे, 'गच्छता' इत्यस्यैकवचनान्तत्वेन श्रौत पदं नानुषक्तुं शक्यं, किन्तु 'गच्छन्तां' इति लौकिको वाक्यशेषः कर्तव्यः इति सिद्धान्तितम् । लौकिकत्वं कथं गृह्यते. अग्रहणे कथं तस्य निषेधः? इति तात्पर्यम् । ननु भवन्मते वा रजतनिषेधः कथम्? पूर्व रजतं न गृहीतमेव, धसत्वात् । भगृहीतस्य च निषेधो न भवत्येवेत्यत्राह --भावतदभावयोरि ति। निषेधस्तु अविद्यमानस्यैव, नागृहीतस्येति सारम् न पुनः-न तराम् ॥ तथा-लो.ककत्वेनालौकिकत्वेन वा।। ज्ञानाभिधाने--ज्ञानं व्यवहारश्च तद्विषयः- रजतादिविषयः । तदर्थक्रियति । तत्संपाद्यार्थक्रियेत्यर्थः । अर्थक्रियायाः-जलाहरणादिरूपाया। नक वेव-क यथाप्रतीति-ख. 'स-ख . .. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 भ्रमस्वरूपपरिशीलनम् - [न्यायमञ्जरी वर्तनं व्यवहार इति चेत्, तर्हि स्वप्ने परिरभ्यमाणाया योषितः, कुटकार्षापणस्य च लौकिकत्वं प्राप्नोति । उत्पद्य नष्टे घटे अर्थक्रियाया निवृत्तेरलौकिकत्वं स्यात्॥ ___ अपि च यः शुक्तिकायां रजतव्यवहारं न करोति, स रजताभावमेव बुद्धा; न रजतस्य सतस्तस्यालौकिकताम् ॥ [अलौकिकरजतभानमतेऽपि अन्यथाख्यातिरवर्जनीया] - यदि चेदमलौकिकं रजतं तत् किमर्थ मिह तदर्थक्रिया प्रवर्तते? अलौकिकं लौकिकत्वेन गृहीत्वेति चेत्-सैवेयं तपस्विनी विपरीतख्यातिरायाता। तस्मात् विपरीतख्यातिद्वषेण कृतमीदृशा। अत्रापि लोकसिद्धैव प्रतीतिरनुगम्यताम् ॥ स्वित:प्रामाण्यसाधनायाख्यातिवादः न पर्याप्तः ] न वा मीमांसका एते स्वभार्यामपि वेश्मतः । निस्सारयितुमिच्छन्ति स्वतःप्रामाण्यतृष्णया ॥ १२१॥ न चैवमपि तत्सिद्धिः बुद्धिद्वैविध्यदर्शनात् । संशये सति संवादसापेक्षत्वं तथैव तत् ॥ १२२॥ क्लेशेन तदमुनाऽपि स्वार्थस्तेषां प्रसिद्धयति न कश्चित् । यद्भवति 'दैव'गत्या राजपथेनैव तद्भवतु ॥ १२३ ॥ अपि चेत्यादि । भ्रान्तः यां शुक्तिं दृष्ट्वा रजतं जानाति, तदैव तां अभ्रान्तो रजततया न व्यवहरतीत्यत्र, तेन तथाऽज्ञानमेव हि हेतुर्वाच्यः, न तु तत्रालौकिकरजतसत्तां जाननेव लौकिकरजताभावं निश्चित्य तां शुक्तिका न्यवहरति! अत: अलौकिकरजतभानं अनुभवविरुद्धम् ॥ ईशा द्वेषेण कृतं-- अलमित्यर्थः ॥ न वा इच्छन्ति इति काकुः । स्वतःप्रामाण्यव्यामोहेन अलौकिकमेव व्यवहरन्तीति कृत्याकृत्यमपि न जानन्तीति वा उपहासः। वुद्धिद्वैविध्यं प्रमाभ्रमभेदेन । - स्वार्थ:-स्वामिमतम् । यद्भवतीत्यादि। यत्त सर्वथाऽनिवार्य, तत् हार्दमेव स्वीकुर्मः। न तु दौर्बल्येन अपथे गन्तव्यमिति भावः ॥ 1 चैव-ख. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] वेदानां परत एव प्रामाण्यम् 481 [ख्यातिवादोपसंहारः] नात्मख्यातिर्बाह्यतयाऽर्थप्रतिभासात् नासत्ख्यातिनं ह्यसतां धीविषयत्वम । उक्तोऽख्यातो दूषणमार्गो विपरीतख्यातिस्तस्मादाश्रयणीया मतिमद्भिः॥ १२४॥ [ वेदानां प्रामाण्यं परत एव] स्थिते च तस्मिन् विपरीतवेदने ___ तदीयसाधर्म्यकृतोऽस्ति संशयः। तदा च संवादमुखप्रतीक्षणात् भजन्ति 'वोधाः परतः प्रमाणताम् ॥ १२५ ॥ 'प्रत्यक्षादिप्रमाणानां तद्यथाऽस्तु तथाऽस्तु वा। शब्दस्य हि प्रमाणत्वं परतो मुक्तसंशयम् ॥ १२६ ॥ .[वेदे प्रामाण्यनिश्चयमन्तरा तद्विहितेषु न प्रवृत्तिसंभव:] दृष्टे हि विषये प्रामाण्य निश्चयमन्तरेणैव लघुपरिश्रमेषु कर्मसु प्रवृत्तिरिति तदुपयोगिप्रत्यक्षादिप्रमाणप्रामाण्य निश्चये दुरुपपादे कोऽभिनिवेशः ? शब्दे पुनः अदृष्टपुरुषार्थपथोपदेशिनि प्रामाण्यमनिनिश्चत्य महाप्रयत्ननिर्वानि ज्योतिष्टोमादीनि न प्रेक्षापूर्वकारिणो यज्वानः प्रयुञ्जीरन्नित्यवश्यं निश्चेतव्यं तत्र प्रामाण्यम्। तच्च परत एवेति ब्रूमः॥ - [शब्दानां परत:प्रामाण्ये हेतुः] शब्दस्य वृद्धव्यवहाराधिगतसम्बन्धोपकृतस्य सतः प्रतीतिजनकत्वं नाम रूपमवधृतम्। तत्तु नैसर्गिकशक्तथात्मकसम्बन्ध अस्ति संशयः- बोधस्वरूपसाधारणधर्मकृतः सर्वत्रापि ज्ञाने 'इदं प्रमाण न वा?' इति भवत्येव। मुक्तसंशयं इति क्रियाविशेषणम् ॥ ___ अदृष्टपुरुषार्थोपदेशिनि शब्दे-वेदे। दृष्टार्थविषयकलौकिकशब्दस्य तु अनुपदोक्तप्रत्यक्षतुल्या गतिरिति भावः ॥ 'वेदा:-ख... NYAYAMANJARI Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 वेदानां परत एत्र प्रामाण्यम् न्यायमञ्जरी महिम्ना वा, पुरुषघटितसमयसम्बन्धवलेन वेति विचारयिष्यामः (४ आह्निकम् ) । प्रकाशकत्वमानं तु दीपादेरिव तस्य रूपम् । 'यथा' हि दीपः प्रकाशमानः शुचिमशुचिं वा यथासन्नितहितमर्थमवद्योतयति, तथा शब्दोऽपि पुरुषेण प्रयोज्यमानः श्रवणपथमुपगतः सत्येऽनृतेऽवा, समन्वितेऽसमन्विते वा, सफले निष्फले वा, सिद्धे कार्ये वाऽर्थे प्रमितिमुपजनयतीति तावदेवास्य रूपम्। अयं तु दीपाच्छब्दस्य विशेषः-यदेष सम्बन्धव्युत्पत्तिमपेक्षमाणः प्रमामुत्पादयतीति, दीपस्तु तन्निरपेक्ष इति ॥ वक्तृगुणदोषाधीने एव शब्दप्रामाण्याप्रामाण्ये] तस्याः' शब्दजनितायाः प्रमितेः यथार्थतरत्वं 'पुरुषदर्शनाधीनम्'--सम्यग्दर्शिनि शुचौ पुरुष सति सत्यार्था सा भवति प्रतीतिः, इतरथा तु तद्विपरीतेति। तत्र यथा नैसर्गिकमर्थसंस्पर्शित्वं शब्दस्य रूपं इति समर्थितं, एवमस्य स्वाभाविकं सत्यार्थत्वमपि न रूपम् । एवमभ्युपगम्यमाने विप्रलम्भकवचास विसंवाददर्शनं न भवेत्। तस्मात्पुरुषगुणदोषाधीनावेव शाब्दे प्रत्यये संवादविसंवादौ ॥ [शब्दे गुणदोषयोः सौलभ्यम् ] न चेन्द्रियादाविव तत्र दुर्भणा गुणा:--रागादयो दोषाः, करुणादयो गुणाः पुरुषाणामतिप्रसिद्धा एव। पुरुषगुणा एव शब्दस्य गुणाः न स्वशरीरसंस्थाः चक्षुरादेरिवेति। तत्र यदि पुरुषगुणानां प्रामाण्यकारणता नेष्यते, दोषाणामपि विप्लवहेतुता मा भूत् ॥ __अयं तु विशेष इति। इदमुपलक्षणम्-प्रत्यक्षे चक्षुरेव करणम् , दीपस्तु सहकारी। अत्र शब्द एव करणम् , शाब्दबोधः खल्वयम् ॥ . - पुरुषदर्शनाधीनं - शब्दप्रयोक्तृपुरुषदर्शनानुगुणम् । शुचौविप्रलम्भकत्वादिदोषरहिते। एवमभ्युपगम्यमाने यथार्थत्वमपि शब्दस्य स्वाभाविकमित्यङ्गीक्रियसाणे सति ॥ पूर्व (422 पु.) उक्तं स्मरन् समाधत्ते---न चेत्यादिना। स्वशरीर संस्थाः -शब्दस्वरूपनिष्ठाः। दुर्भणा:-दुर्वचाः ॥ 1 तथा-ख. सत्योऽनृतो-ख. तस्यास्तु-क. 4 पुरुषाधीनं-ख. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] वेदेऽपि प्रामाण्यं गुणाधीनमेव 483 [गुणज्ञानं दोषाभावनिश्चयायैवेत्यप्ययुक्तम् ] यत्त दोषप्रशमनचरितार्था एव पुरुषगुणाः प्रामाण्यहेतवस्तु न भवन्तीति (पु. 435)---अत्र शपथशरणा एव श्रोत्रियाः। न च बाधानुत्पत्तिमात्रेण वैदिक्याः प्रतीतेः प्रामाण्यं भवितुमर्हति, 'पक्ष्मलाक्षीलक्षमभिरमयेत् विद्याधरपदकामः' इत्यादावपि प्रामाण्य'प्रसङ्गात्। उक्तं च केन चित् “यथा हि स्वप्नदृष्टोऽर्थः कश्चिद्वीपान्तरादिषु । असंभवद्विसंवादः श्रद्धातुं नैव शक्यते ॥ तथा चोदनयाऽप्यर्थ बोध्यमानमतीन्द्रियम्। 'असंभवद्विसंवादं न श्रद्दधति के चन” इति ॥ तत्र स्वप्नज्ञाने हेतुः निद्रादिदोषोऽस्तीति दुष्टकारणशानादप्रामाण्यमिति चेत्-लोलाक्षीलक्षवाक्ये किं वक्ष्यसि? प्रभवस्तस्य न शायत इति चेत्-न तरामसौ वेदेऽपि त्वन्मते ज्ञायत इति को विशेषः? महाजनादिपरिग्रहोऽस्य नास्तीति चेत्-अन्वेषणीयं तर्हि प्रामाण्यकारणम् , न बुद्ध यत्पादकत्वादेवौत्सर्गिकं प्रामाण्यमिति युक्तम् ॥ साक्षाद्दष्टनरोक्तत्वं शब्दे यावन्न निश्चितम् । बाधानुत्पत्तिमात्रेण न तावत्तत्प्रमाणता ॥ १२७ ॥ [अपौरुषेयत्वाद्वेदस्य दोषाभावप्राप्त्या स्वत: प्रामाण्यमित्यपि न] यदपि वेदे कारणदोषनिराकरणाय कथ्यते (श्लो. वा 1-2-63) 'यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः' इति-तदप्यसांप्रतम्-असति वक्तरि प्रामाण्यहेतूनां गुणानामप्यभावेन तत्प्रामाण्यस्याप्यभावात् । न च वेदे वक्तुरभावः सुवचः-तथा ह्येतदेव तावद्विचारयामः, किं वेदे वक्ता विद्यते न वेति ॥ असंभवद्विसंवादः-अप्राप्तविसंवादोऽपि। तस्य प्रभवः-तद्वाक्यस्य मूलम् । त्वन्मते-अपौरुषेयः खलु वेदस्तव ॥ 1 दर्शनात्-.. असंवाद वि-ख. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 ईश्वरसद्भावाक्षेपः [न्यायमअरी [वेदानां परमेश्वरप्रणीतत्वम् ] ननु वेदे प्रमाणान्तरसंस्पर्शरहितविचित्रकर्मफलगतसाध्यसाधनभावोपदेशिनि कथं तदर्थसाक्षाही पुरुष उपदेष्टा भवेत् ? उच्यते वेदस्य पुरुष: कर्ता न हि यादृशतादृशः। किन्तु त्रैलोक्यनिर्माणनिपुणः परमेश्वरः ॥ १२८॥ स देवः परमो ज्ञाता नित्यानन्दः कृपान्वितः। क्लेशकर्मविपाकादिपरामर्शविवर्जितः ॥ १२९ ॥ . ईश्वरसद्भावाक्षेपः] अत्राह-किं ब्रूषे ? त्रैलोक्यनिर्माणनिपुणमतिरिति ! अहो तव सरलमतित्वम् ! न हि तथाविधपुरुषसद्भावे किञ्चन प्रमाणमस्ति ॥ (ईश्वरः न प्रत्यक्षः] . तथा हीश्वरसद्भावो न प्रत्यक्षप्रमाणकः। न ह्यसावक्षविज्ञाने रूपादिरिव भासते ॥१३०॥ न च मानलविज्ञानसंवेद्योऽयं सुखादिवत् । योगिनामप्रसिद्धत्वात् न तत्प्रत्यक्षगोचरः ॥ १३१॥ [ईश्वरः नानुमानिकः] प्रत्यक्षप्रतिषेधेन तत्पूर्वकमपाकृतम् ।। अनुमान, 'अनिर्माते तस्मिन् व्याप्त्यनुपग्रहात् ॥ १३२॥ यादृशतादृशः- यः कश्चित्सामान्यशक्तिमान् ॥ अत्राहेति। नात्र विशिष्य कश्चित् पूर्वपक्षी, प्रमाणचतुष्टयोपन्यासात् । किन्तु मीमांसकैः ईश्वरनिराकर्तृणां चार्वाकबौद्धजैननैयायिकादीनां वादान संगृह्य उपन्यस्त: पूर्वपक्ष: प्रकृतानुगुणमनूदितः ॥ ___ सुखादिवदिति । स्वात्म-तत्समवेतगुणा एव हि मनोग्राह्या इति भावः । योगिनामिति। यद्यपि योगिप्रत्यक्षं पूर्व (दु. 268) प्रसाधितम् ; तदनभ्युपगमेनात्राक्षेपः॥ 1 अविज्ञाते-ख. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 485 आह्निकम् ३] अनुमानेनेश्वरसाधनासंभवः [घटादिदृष्टान्तेन जगत: सकर्तृकत्वं नानुमातुं शक्यम्] न च सामान्यतो दृष्टं लिङ्गमस्यास्ति किञ्चन । क्षित्यादीनां तु कार्यत्वमसिद्ध सुधियः प्रति ॥ १३३ ॥ शैलादिसन्निवेशोऽपि नैष कनुमापकः। कर्तृपूर्वककुम्भादिसन्निवेशविलक्षणः ॥ १३४ ।। दृष्टः कर्षविनाभावी सन्निवेशो हि यादृशः। तादृङ्नगादौ नास्तीति कार्यत्ववदसिद्धता ॥ १३५ ॥ [सकर्तृकत्वसाधककार्यत्वहेतु: तृणादौ व्यभिचरितः] सिद्धत्वेऽपि 'न हेतुत्वं' अनैकान्त्यात्तणादिमिः । अकृष्टजातैः, कर्तारमन्तरेणाप्तजन्मभिः ॥ १३६ ॥ तेषामुत्पत्ति समयप्रत्यक्षत्वेन लभ्यते । कर्तुर्दश्यत्व'मपि, एवं' अभावोऽनुपलब्धितः ।। १३७ ॥ [दृष्टातिरिक्तं कारणं कुत्रापि कल्पयितुं न शक्यम् ] न च क्षितिजलप्रायदृष्टहेत्वतिरेकिणः। कस्यापि कल्पनं तेषु युज्यतेऽतिप्रसंङ्गतः ॥ १३८ ॥ 'नैष कर्चनुमापकः' इत्यत्र साभिप्रायविशेषणं शैलसन्निवेशस्य कर्तृपूर्वकेत्यादि। सनिवेशः-अवयवसंस्थानम् । वैलक्षण्यमेवोपपादयति-दृष्ट इत्यादि। तथा च घटादिसन्निवेशसाम्यस्यैव नगादावसिध्या, तेन कार्यत्वमपि न सिध्यति॥ अकृष्टजातैः-कर्षणमन्तरापि जातैः । तेषां-सकर्तृकाणां कुम्भादीनाम् । तेषां सकर्तृकत्वं यदा येन प्रमाणेनावगतं, तदा तेनैव कर्तुर्दश्यत्वमपि । प्रकृते तथाऽनुपलब्धे: कर्तुरभाव एवेत्यर्थः। अथवा तेषां-तृणादीनां उत्पत्तिसमयप्रत्यक्षत्वं यतो न लक्ष्यते, तथा कर्तुरपि दृश्यत्वं न लक्ष्यत इति अनुपलब्धेः कर्तुरभाव: । ४९५ पुटो द्रष्टव्यः॥ क्षितिजलेति। तृणादीनां कारणं हि क्षेत्र, जलं इत्यादि यत् दृष्टं तदेवालं हेतुत्वे । अन्यथा कुत्रापि कार्यकारणभावानिर्णयः, प्रत्यक्षस्य 1 न सिद्धत्वं-ख. समये प्रत्यक्षत्वं-ख. 3 लक्ष्यते-ख. 'मित्येवं-क Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 ईश्वरसद्भावाक्षेपः न्यायमञ्जरी तेन कर्तुरभावेऽपि सन्निवेशादिदर्शनात् । अनैकान्तिकता हेतोः विप्रत्वे पुरुषत्ववत् ॥ १३९ ।। [घटादिदृष्टान्तेन कुलालतुल्य एवेश्वरः स्यात् किञ्च व्याप्त्यनुसारेण कल्प्यमानः प्रसिद्धयति । कुलालतुल्यः कर्तेति स्याद्विशेषविरुद्धता ॥ १४०॥ व्यापारवानसर्वज्ञः शरीरी क्लेशसंकुलः। घटस्य यादृशः कर्ता ताडगेव भवेद्भवः ॥ १४१ ॥ विशेषसाध्यतायां वा साध्यहीनं निदर्शनम् । कर्तृसामान्यसिद्धौ तु विशेषावगतिः कुतः ? ॥ १४२ ॥ [ईश्वरः सशरीरः? उताशरीरः१] अपि च सशरीरो वा जगन्ति रचयेदीश्वरः? शरीररहितो वा? 'शरीरमपि च तदीयं कार्य ? नित्यं वा भवेत् ? सर्वथाऽनुपपत्तिः ॥ अशरीरस्य कर्तृत्वं दृश्यते न हि कस्य चित् । देहोऽप्युत्पत्तिमानस्य देहत्वाञ्चैत्रदेहवत् ॥ १४३ ।। दूरीकृतत्वादित्यर्थः। तेन–एतादृशाकर्तृकतृणादिदृष्टान्तेन । अविने पुरुषत्ववदिति अकर्तृके कार्यत्वस्य दृष्टान्तः ॥ विशेषविरुद्धतेति । विशेषः--साध्य हेतुर्वा साध्यं हेतुर्वा यादृशं लोके दृष्टं, तादृशमेव पक्षे तेन हेतुना तादृशं सिद्धयेत् । नो चेत् तादृशविशेषविरुद्धता। ततश्च घटादौ यादृशं सकर्तृकत्वं दृष्टं, तादृशमेव नगादावपि सिद्धयेत् । अन्यथा तु विरोध एव । यद्यपि विशेषविरुद्धताया हेत्वाभासता निराकरिष्यते (११ आह्निके), अनुमानसामान्योच्छेदप्रसङ्गादिति ; अथापि पूर्वपक्षिणस्तस्येष्टत्वात् स दोषस्तस्य सम्मतः। 'क्लेशकर्मविपाकाशयापरामृष्टः' इति पूर्व (484 पु) कथनात शरीरक्लेशसंकुलः इत्युक्तम्। विशेषसाध्यतायां-- तादृशकर्तृविशेषस्य साधने। विशेषः -केशायपरामर्शः॥ अशरीरस्येति । तथाच अनित्यशरीरवत्वपक्ष एव शिष्टः । स 1 तदीयं शरीरं-ख. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] ईश्वरस्य जगत्स्स्रष्टत्वासंभवः 487 कार्यमपीश्वरशरीरं 'तत्कर्तृकं वा स्यात् ? ईश्वरान्तरकर्तृकं वा? तत्र- स्वयं निजशरीरम्य निर्माणमिति साहसम। कर्वन्तरकृते तस्मिन्नीश्वरानन्त्यमापतेत् ॥ १४४ ॥. भवतु, को दोषः ? इति चेत् -प्रमाणाभाव एव दोषः । एकस्यापि तावदीश्वस्य साधने पर्याकुलतां गताः; किं पुनरनन्ता नाम ? [ईश्वरः सव्यापारः ? उत निर्व्यापारः ?] . किञ्च व्यापारेण वा कुलालादिरिव कार्याणि सृजेदीश्वरः ? इच्छामात्रेण वा ? द्वयमपि दुर्घटम् व्यापारेण जगत्सृष्टिः कुतो युगशतैरपि । तदिच्छां चानुवर्तन्ते न जडाः परमाणवः ॥ १४५॥ [ईश्वरः प्रयोजनमुद्दिश्य जगत्सृजति ? उत अनुद्दिश्य ?] अपि च किं किमपि प्रयोजनमनुसन्धाय जगत्सर्गे प्रवर्तते प्रजापतिः? एवमेव वा? निष्प्रयोजनायां प्रवृत्तावप्रेक्षापूर्वकारित्वादुन्मत्ततुल्योऽसौ भवेत् । पूर्वोऽपि नास्ति पक्षः अवाप्तसर्बानन्दस्य रागादिरहितात्मनः । जगदारभमाणस्य न विद्मः किं प्रयोजनम् ॥ १४६॥ एवानन्तरं निरस्यते। तत्कर्तृकं-तच्छरीरस्वामीश्वरकर्तृकम् । ईश्वरान्तरेति न हि ईश्वरस्य शरीरं मादृशैः कर्तुं शक्यमिति भावः ॥ साहसं-सशरीर: स्वशरीरं सृजति ? उताशरीरः ? आये आत्माश्रयादिः। अन्त्ये पूर्वोक्तदोषाणां पुनः प्राप्तिः ॥ कुत इति। सृज्यानामानन्त्यं हेतु: । जडा:---न वा परमाणवः ईश्वरशरीरं इत्यर्थः ।। ___ एवमेव वा इति । सृष्टेनानेन जगता यथा न किञ्चित्प्रयोजन भवदीश्वरस्येदानी पश्यामः, तथैव सृष्टयादावपि वेत्यर्थः ॥ क. 2 एवमेव-क. उत्तरोऽपि-क. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरसद्भावाक्षेप: न्यायमञ्जरी [दयया जगत्सृजतीश्वर इत्यप्ययुक्तम् ] अनुकम्पया प्रवर्तत इति चेत्-मैवम् सर्गात् पूर्व हि निश्शेषक्लेशसंस्पर्शवर्जिताः। नास्य मुक्ता इवात्मानो भवन्ति करुणास्पदम् ॥ १४७ ॥ परमकारुणिकानामपि दुस्सहदुःखदहनदन्दह्यमानमनसो जन्तूनवलोकयतामुदेति दया, न पुनरपवर्गदशा'वत् अशेष'दुःखशून्यानिति॥ करुणामृतसंसिक्तहृदयो वा जगत्सृजन् । . कथं सृजति दुर्वारदुःखप्राग्भारदारुणम् ॥ १४८॥ [सर्वज्ञस्य सर्वशक्तस्येश्वरस्य करुणया सुखमयजगत्सृष्टिरेव युक्ता] अथ केवलं सुखोपभोगप्रायं जगत् स्रष्टुमेव न जानाति, सृष्टमपि' वा न चिरमवतिष्ठते -- इत्युच्यते -तदप्यचारु ---निरतिशयस्वातन्त्र्यसीमनि वर्तमानस्य स्वेच्छानुवर्निसकलपदार्थस्थितेः परमेश्वरस्य किमसाध्यं नाम भवेत् ? कर्मणां वैषम्यादिकारणत्वे ईश्वर एव माऽस्तु] नानात्मगतशुभाशुभकर्मकलापापेक्षः स्रष्टा प्रजापतिरिति चेत् ; कर्माण्येव हि तर्हि सृजन्तु जगन्ति, किं प्रजापतिना! कर्मप्रेरणार्थमपि नेश्वरापेक्षा] . . अथाचेतनानां चेतनानधिष्ठितानां स्रष्टत्वमघटमानमिति तेषामधिष्ठाता चेतनः कल्प्यत इति चेत्-न-तदाश्रयाणामात्मनामेव चेतनत्वात् त एवाधिष्ठातारो भविष्यन्ति, किमधिष्ठात्रन्तरेणेश्वरेण? सर्गात्पूर्वमिति । 'यथा सुदीप्तात् पावकात् विष्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः। तथाऽक्षरात् विविधा: सोम्य! भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति' (मुण्डक-२-१-१) इति हि सृष्ट्यादौ ईश्वरसकाशात् तत्सदृशानामेव सृष्टिरुक्तेति भावः ॥ दर्शनमात्रेणैव दुःखावहत्वसूचनाय--प्रारभार इति ॥ 1वदेषा-ख. अचे-क. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 489 आह्निकम् ३] ईश्वरस्य जगत्संहर्तृत्वमपि न संभवति जीवकर्मानुरोधेनैव जगत्सृष्टौ ईश्वरस्य स्वातन्त्र्यभङ्गः] तस्यापि तादृशा परकीयकर्मान्तरापेक्षासङ्कोचितस्वातन्त्र्येण किमैश्वर्येण कार्यम् ? राज्यमिव मन्त्रिपरवशमैश्वर्य कोपयुज्यते ताइक् ? यत्रापरनिरपेक्ष रुच्यैव न रच्यतेऽमिमतम् । अन्येनाप्युक्तम्-'किमीश्वरतयेश्वरो यदि न वर्तते स्वेच्छया न हि प्रभवतां क्रियाविधिषु हेतुरन्विष्यते' इति । [लीलया जगत्सृजतीश्वर इति न तरामयुक्तम् ] अथ क्रीडार्था जगसगै भगवतःप्रवृत्तिः, ईदृशा च शुभाशुभरूपेण जगता सृष्टेन क्रीडति परमेश्वर इत्युच्यते-तर्हि क्रीडासाध्यसुखरहितत्वेन सृष्टेः पूर्वं अवाप्तसकलानन्दत्वं नाम तस्य रूप'मप' हीयेत ॥ न च क्रीडाऽपि निश्शेषजनताऽऽतङ्ककारिणी। आयासबहुला चेयं कर्तुं युक्ता महात्मनः ॥ १४९ ॥ तस्मान्न जगतां नाथ ईश्वरः स्रष्टा संहर्ताऽपि भवति ॥ . . [ईश्वरस्य जगत्संहर्तृत्वमपि न घटते] न ह्यस्य ध्रियमाणेषु पूर्यते जन्तुकर्मसु । सकृत् समस्तत्रैलोक्यनिर्मूलनमनोरथः ॥ १५० ॥ ननु अज्ञानां जीवानां स्वीयकर्मज्ञानस्यासंभवेन, न तत्प्रेरकत्वं तेषां संभवीति चेत्-तत्राह-तस्येति। तस्य-ईश्वरस्य। प्रभवतां सर्वशक्तानाम् ॥ परेषामातङ्ककारित्वेऽपि स्वस्य किमायातमित्यत:- आयासेति। अनन्तकोटियुगकालं अनन्तसाधनगी क्रीडामविच्छेदेन को वा कुर्यात् ? ध्रियमाणेषु-अनुवर्तमानेविति यावत् । अस्य मनोरथ इत्यत्रान्वयः । कर्मफलोपभागस्यापि सृष्टयद्देश्यत्वात् विचित्रकर्मणां युगपदुपरमासंभवादिति भावः ॥ 'मव-ख. पूर्यन्ते-ख. रथा-ख. Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 ईश्वरसद्भावाक्षेपः न्यायमअरी कर्मोपरमपक्षे तु पुनः सृष्टिर्न युज्यते । न कर्मनिरपेक्षो हि सर्गवैचित्र्यसंभवः ॥ १५१ ॥ [सृष्टिमलययो: ईश्वरकृतत्वासंभवः] अथ ब्राह्मण मानेन संवत्सरशतनिष्ठामधितिष्ठति परमेष्ठिनि महेश्वरस्य संजिहीर्षा जायते । तया तिरोहितस्वफलारम्भशक्तीनि कर्माणि संभवन्तीति संपद्यते सकलभुवनप्रलयः। पुनश्च तावत्येव रात्रिप्राये काले व्यतीते सिसृक्षा भवति भगवतः। तयाऽभिव्यक्तशक्तीनि कर्माणि कार्यमारन्भते इति तदप्ययुक्तम् उद्भवाभिभवौ तेषां स्यातां चेदीश्वरेच्छया । तर्हि सैवास्तु जगतां 'सर्ग संहारकारणम् ॥ १५२॥ . . किं कर्मभिः ? एवमस्त्विति चेत्--न-ईश्वरेच्छावशित्वपक्षे हि त्रयो दुरतिक्रमा दोषाः। तस्यैव ताक्महात्मनो निष्करुणत्वंअकारणमेव दारुणसर्गकारिणः। तथा वैदिकीनां विधिनिषेधचोदनानामानर्थक्यम्-ईश्वरेच्छात एव शुभाशुभफलोपभोगसंभवात्। अनिर्मोक्षप्रसङ्गश्च--मुक्ता अपि प्रलयसमय इव जीवाः पुनरीश्व. रेच्छया संसरेयुः। तस्मान्नेश्वराधीनो जगतां सर्गः, संहारो वा ।। [उपमानं तु नेश्वरसाधकम्] . . इत्यनन्तरगीतेन नयेनेश्वरसाधने । नानुमानस्य सामर्थ्यमुपमाने तु का कथा? ॥ १५३ ॥ . संवत्सरशतेति । 'सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यत् ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ' (8-17) इति गीता ॥ मुक्ता अपीति। इच्छायां कर्माद्यपाधेरनङ्गीकारात् ईशः मुक्तान् संसारेण न योजयेत्, किन्तु संसारिजीवानेवेति विनिगमकस्य दुर्वचत्वादिति हेतुः॥ का कथेति। उपमानं हि केवलं शक्तिग्राहकं प्रमाणम् ॥ 'सर्व-क. चेत्-क. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आदिकम् ३] ईश्वरे प्रमाणोपपादनम् 491 [वेहोऽपि ईश्वरसद्भावं बोधयितुं नालम् ] अगमस्यापि नित्यस्य ततारत्वमसांप्रतम्। ' तत्प्रणीते तु विभः कथं भवतु मादृशाम् ? ॥ १५४ ।। किञ्चागमस्य प्रामाण्यं तत्प्रणीतत्वहेतुकम्। तत्प्रामाण्याच्च तत्सिद्धिरित्यन्योन्याश्रयं भवेत् ॥ १५५ ।। अन्यथाऽनुपपत्त्या तु न शक्यो लब्धुमीश्वरः । न हि तद्दश्यते कार्य तं विना यन्न सिद्धयति ॥ १५६ ।। तस्मात् सर्वसद्विषयप्रमाणानवगम्यमानस्वरूपत्वादभावएवेश्वरस्येति सिद्धम् ॥ [लोकव्यवहारमानान्नेश्वरसिद्धिः न च प्रसिद्धिमात्रेण युक्तमेतस्य कल्पनम् । निर्मूलत्वात्तथा चोक्तं प्रसिद्धिर्वटयक्षवत् ॥ १५७ ॥ अत एव निरीक्ष्य दुर्घट जगतो जन्मविनाशडम्बरम् । न कदाचिदनीदृश जगत् कथितं नीतिरहस्यवेदिभिः ।। १५८ ॥ ईश्वरे प्रमाणोपपादनम् [अनुमानमेवेश्वरे प्रमाणम्] : अत्र वदामः-यत्तावदिद'मगादि-नगादि निर्माणनिपुणपुरुषपरिच्छेददक्षं प्रत्यक्षं न भवतीति-तदेवमेव । प्रत्यक्षपूर्वक मनुमान नित्यस्य-अपौरुषेयस्य । शब्दप्रामाण्यं वत्कृपामाण्याधीनमित्युक्तं प्राक् (पु. 482)। माशां-ईश्वरमेवानभ्युपगच्छताम्। अन्यथाऽनुपपत्त्याथर्भापत्या-तादृग्रुपतर्केणेति वाऽर्थः। योग्यानुपपरेव ईश्वारासत्वे प्रमाणत्वात् योग्यतोपपादनाय सर्वस द्विषयेत्यादि। अनीश-यादृशं दृश्यते, तद्विलक्षणं- ईश्वरकर्तृकमिति यावत् । नीतिः-चार्वाकतन्त्रम् , नीति:--नयः तर्कः। ब्रह्मणस्तर्कागोचरत्वरूपरहस्यसूचनाय वा एवमुक्ति: ॥ 'मगादि-क. पू-क. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [न्यायमञ्जरी मपि तेनैव पथा प्रतिष्ठितमिति तदप्यास्ताम् । सामान्यतोदृष्टं तु लिङ्गमीश्वरसत्तायामिदं घूमहे-पृथिव्यादिकार्थ धर्मि, तदुत्पत्तिप्रकारप्रयोजनाद्यभिज्ञकर्तृपूर्वकमिति साध्यो धर्मः, कार्यत्वात् घटादिवत् ॥ पृथिव्यादीनां कार्यत्वम् दुरपह्नवम् ] ननु! कार्यत्वमसिद्धमित्युक्तम्। क एवमाचष्टे ? चार्वाकः ? शाक्यः? मीमांसको वा ? | __ चार्वाकस्तावत् वेदरचनाया रचनान्तरविलक्षणाया अपि कार्यत्वमभ्युपगच्छति यः, स कथं पृथ्व्यादिरचनायाः कार्यत्वमपडवीत? ____ मीमांसकोऽपि न कार्यत्वमपोतुमर्हति, यत एवमाह-. 'येषामप्यनवगतोत्पत्तीनां रूपमुपलभ्यते, तन्तुव्यतिषक्तजनितोऽयं पटः, तद्व्यतिषङ्गविमोचनात् तन्तुविनाशाद्वा नङ्ख्यतीति कल्प्यते' इति । एवमवयवसथोगनिर्वय॑मानवपुषः क्षितिधरादेरपि नाशसंप्रत्ययः संभवत्येव । दृश्यते च क्वचिद्विनाशप्रतीतिः, प्रावृषेण्यजलधरधारासारनिलुठित एव पर्वतैकदेशे ‘पर्वतस्य खण्डः पतितः' इति । वस्तुगतयोश्च कार्यत्वविनाशित्वयोः समव्याप्तिकता वार्तिककृताऽप्युक्तैव (श्लो. वा. 1-1-5 अनु. 9)-- 'तेन यत्राप्युभी धर्मों व्याप्यव्यापकसम्मतौ। तत्रापि व्याप्यतैव स्यादङ्गं न व्यापितामतिः' इति वदता। तस्माद्विनाशित्वेनापि कार्यत्वानुमानात्तन्मतेऽपि न कार्यत्वमसिद्धम्॥ शाक्योऽपि कार्यत्वस्य कथमसिद्धतामभिदधीत? येन नित्यो नाम पदार्थः प्रणयकेलिष्वपि न विषह्यते। तस्मात् सर्ववादिभिः अप्रणोद्यं पृथिव्यादेः कार्यत्वम् । ईश्वरनिराकारः त्रिविधा:-प्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाणाभावात्तन्निरासवादिनः, वेदप्रामाण्यानभ्युपगमात्तदसिद्विवादिनः, वेदप्रामाण्याभ्युपगमेऽपि युक्तया तग्निरामवादिनश्च इति मत्वाऽऽह-क एवमित्यादि ।। तेनेत्यादि । उभयोस्समन्यातत्वेऽपि हेतौ व्याप्यत्वमेव गमकं, न तु न्यापकत्वमित्यर्थः ॥ नित्यो नामेति । यद्यपि नित्यवस्तुवादिनोऽपे केचित् बौद्धास्सन्तीति Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवम् आह्निकम् ३] ईश्वरसाधकानुमानस्य निर्दुष्टत्वम् 493 [सन्निवेशविशेषवत्वाद्वा पृथिव्यादीनां कार्यत्वम् ] अथवा सन्निवेशविशिष्टत्वमेव हेतुमभिदध्महे; यस्मिन् प्रत्यक्षत उपलभ्यमाने सर्वापलापलम्पटा अपि न केचन विप्रतिपत्तुमुत्सहन्ते । तस्मान्नासिद्धो हेतुः ।। (घटभूधरयोः सन्निवेशभेदात् तेन कार्यत्वानुमानाक्षेपः] ननु ! कत्रविनाभावितया यथाविधस्य सन्निवेशस्य शरावादिषु दर्शनं, तादशमेव सन्निवेशं उपलभ्य क्वचिदनुपलभ्यमानकर्तृके कलशादौ कत्रनुमानमिति युक्तम्। अयं त्वन्य एव कलशादिसन्निवेशात् पर्वतादिसन्निवेशः। नात्र सन्निवेशसामान्यं किश्चिदुपलभन्ते लौकिकाः। सन्निवेशशब्दमेव साधारणं प्रयुञ्जते । न च वस्तुनोरत्यन्तभेदे सति शब्दलाधारणतामात्रेण तदनुमानमुपपद्यते। न हि पाण्डुतामात्रसाधारणत्वेन 'धूमादिव ककोल रजोराशेरपि कृशानुरनुमातुं शक्यत इति । तदुक्तम् (प्र-वा-2-11, 12) 'सिद्धं यादृगधिष्ठातृ भावाभावानुवृत्तिमत् । सन्निवेशादि तत्तस्मात् युक्तं यदनुमीयते ॥ वस्तु भेदे प्रसिद्धस्य शब्दसाम्यादभेदिनः । न युक्ताऽनुमितिः पाण्डुद्रव्यादिव 'हुताशने ' इति ॥ सर्वार्थसिध्यादितः (1-8) अवगम्यते, तथापि बौद्धैरेवास्य पक्षस्य खण्डितत्वात् न गणना। तथा युक्तं शान्तरक्षितेन-'केचित्त सौगतंमन्या भप्यात्मानं प्रचक्षते' (श्लो. 336) इत्यादिना। कमलशीलोऽपि तत्पञ्जिकायां'केचित्-वात्सीपुत्रीयाः। ते हि सुगतसुतमात्मानं मन्यमाना अपि.... वितथाऽऽत्मदृष्टिमभिनिविष्टाः' इत्याद्याह ॥ कक्कोलेति । किञ्चित्पीतश्वेतवर्णवत्फलविशेषः। 'पाण्डुद्रव्यादिव' इति प्रमाणवार्तिकोक्तस्य विवरणतयेदमुक्तम् । शब्दसाम्यादिति । येन केनापिसाम्यं पर्याप्तं चेत् , रूपसाम्यमादायातिप्रसङ्ग इति भावः ॥ 1 धूमादिवन्मुकुल-ख. भेद-ख. हुताशनः-क. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [न्यायमञ्जरी [घटभूधरयो: सन्निवेशगतं सामान्यमस्त्येव] उच्यते-यागिति न बुद्धयामहे। धूमो हि महानसे कुम्भदासीफूत्कारमारुतसन्धुक्ष्यमाणमन्दज्वलनजन्मा कृशप्रायप्रकृतिरुपलब्धः। स यदि पर्वते प्रबलसमीरणोल्लसितद्भुतवहप्लष्यमाणमहामही. रुहस्कन्धेन्धनप्रभवो बहुलबहुलः खमण्डलमखिलमाक्रामन् उपलभ्यते, तत्किमिदानीमनलप्रमितिं मा कार्षीत् ॥ __ [हेतौ विद्यमानविशेषाकारणां न गमकाङ्गत्वम् ] अथ विशेषरहितं धूममात्रमग्निमात्रेण व्याप्तमवगतमिति ततस्तदनुमान ; इहापि सन्निवेशमात्रं कर्तृमात्रेग व्याप्तमिति ततोऽपि तदनुमीयताम् ॥ [घटभूधरसन्निवेशयोः न शब्दसाम्यमात्रम् ] ननु! सन्निवेशशब्दमात्रसाधारण्यमत्र, न वस्तुसामान्य किश्चिदस्ति -भिक्षो! धूमोऽपि भवदर्शने किं 'वस्तुसामान्य मस्ति । मा भूद्वस्तुसामान्यम्, 'आकाशकालादि व्यावृत्तिरूपं तु संव्यवहारकारणमस्त्येव - हन्त ! तर्हि प्रकृतेऽपि असन्निवेशव्यावृत्तिरूपं भवतु सामान्यम् , आकाशकालादिविलक्षणरूपत्वात् पृथिव्यादेः ॥ कुम्भदासी- परिचारिका। 'दासी तु चेटिका चेटा वडबा कुम्भधारिका' इति वैजयन्ती। कुम्भधारिकैव कुम्भदासी । तत्किमिति । अस्ति महदन्तरं माहानसाग्निप्रभवधूमदावाग्निप्रभवधूमयोः। अथापि अनुमितिरनुभवसिद्धा। तथा घटभूधरसन्निवेशयोरत्यन्तान्तरवत्वेऽपि कार्यत्वानुमान युज्यत एव ॥ विशेषरहितं-अल्पत्वबहलत्वादिरहितम् ॥ भवदर्शन इति । सामान्यनिषेधकाः खलु बौद्धाः ॥ आकाशेति । आकाशः, कालश्च यथा तुच्छः, न तथा धूमादिः। अतः धूमादिविषयकः व्यवहारः-संव्यवहारः। · आकाशादिन्यावृत्तत्वमेव सत्त्वादि. रूपं सामान्यमित्यर्थः । 'अन्यव्यावृत्ति' इति पाटे तु सुलभोऽर्थः ॥ 1 वस्तुमात्र-क. अन्य-क, Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३]] ईश्वरानुमानस्य निर्दुष्टत्वम् 495 [धूमत्वादिवत् सन्निवेशत्वसामान्यमप्यस्त्येव] ननु ! तत्र धूमो धूम इत्यनुवृत्तविकल्पबलेन कल्पितमपोहस्वभावं. सामान्यमभ्युपगतम्-इहापि सन्निवेशविकल्पानुवृत्तेः 'त्वत्प्रक'ल्पितमपोहरूपमेव सामान्य मिष्यताम् ! [गोपुरादिषु घटदृष्टान्तेन सकर्तृकत्वसाधकसन्निवेशत्वं सर्वसम्मतम् ] अपिच, सकर्तृकत्वाभिमतेष्वपि संस्थानेषु न सर्वात्मना तुल्यत्वं प्रतीयते। न हि घटसंस्थानं चतुश्शालसंस्थानं च सुसमिति । संस्थानसामान्य तु पर्वतादावपि विद्यत एवेति सर्वथा यादृगित्यवाचको ग्रन्थः॥ [तृणादिकमपि सकर्तृकमेव] यदपि व्यभिचारोद्भावनं अकृष्टजातैः स्थावरादिभिरकारि (पु. 485) तदपि न चारु-तेषां पक्षीकृतत्वात् । पक्षेण च व्यभिचारचोदनायां सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गः ॥ . [तृणादीनां सकर्तृकत्वं अनुपलब्धिहतमित्याक्षेपः] ननु च पृथिव्यादेरुत्पत्तिकालस्य परोक्षत्वात् कर्ता न दृश्यत इति (पु. 485) तदनुपलब्ध्या तदसत्त्वनिश्चयानुपपत्तेः कामं संशयोऽस्तु ! वनस्पतिप्रभृतीनां तु प्रसवकाल मद्यत्वेन वयमेवप्रश्यामः। न च यत्नतोऽप्यन्वेषमाणाः कर्तारमेषामुपलभामहे । तस्मादसौ दृश्यानुपलब्धेनास्त्येवेत्यवगच्छामः ॥ _ तृणादीनां पक्षकोटिप्रवेशनमप्ययुक्तम् ] अपि च येन येन वयं व्यभिचारमुद्भावयिष्यामः तं तं चेत्पक्षी. करिष्यति भवान् सुतरामनुमानोच्छेदः, सव्यभिचाराणामप्येवमनुमानत्वानपायात् ॥ असौ-तृणादिकर्ता। दृश्यानुपलब्धेः-योग्यानुपब्धेः॥ सव्यभिचाराणां-अयं विप्रः पुंस्त्वात् ; घट: नित्यः प्रमेयस्वात् 1त्वत्क-ख. मघत्वे-क. 3 मान-ख. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [न्यायमञ्जरी [योग्यानुपलब्ध्यभावात् तृणादीनां सकर्तृकत्वाभावः न सिध्यति] उच्यते-स्थावराणा'मुत्पत्तिकाल'प्रत्यक्षत्वेऽपि कर्तुरदृश्यत्वमेव, अशरीरत्वनिश्चयात् । 'अशरीरस्य तर्हि तदुत्पत्तावव्याप्रियमाणत्वात् कर्तृत्वमपि कथमिति चेत् ; एतदग्रतो निणष्यते (पु. 507)। अदृश्यस्य च कर्तुरनुपलब्धितो नास्तित्वनिश्चयानुपपत्तेः नाकृष्टजातवनस्पतीनामकर्तृकत्वमिति 'न विपक्षता॥ [दृष्टकारणैरेव तृणाद्युत्पत्त्यसंभवः] यत्तुक्तं परिदृश्यमानक्षितिसलिलादिकारणकार्यत्वात् स्थावराणां किमदृश्यमानकर्तृकल्पनयेति--तदपेशलम् -परलोकवादिभिरदृश्यमानानां कर्मणामपि कारणत्वाभ्युपगमात् । बार्हस्पत्यानां तु तत्समर्थनमेव समाधिः ॥ [कर्मणामधिष्ठातृतयेश्वरसिद्धिः] अथ जगद्वैचित्र्यं कर्मव्यतिरेकेण न घटत इति कर्मणामदृश्यमानानामपि कारणत्वं कल्प्यते तत्र ; यद्येवमचेतनेभ्यः कारकेभ्यश्चतनानाधिष्ठितेभ्यः कार्योत्पादानुपपत्तः कर्ताऽपि चेतनस्तेषामधिष्ठाता कल्प्यताम् । तस्मात् स्थावराणामकर्तृकत्वाभावात् न विपक्षतेति न तैर्व्यभिचारः ॥ [तृणादीनां पक्षत्वाङ्गीकारे नानुमानोच्छेदः] । यदप्युक्तम्-येन येन व्यभिचार उद्भाव्यते, स चेत्पक्षेऽन्तवियिष्यते, क इदानीमनुमानस्य नियम इति एतदपि न साधुयदि हि भवान् निश्चिते विपक्षे वृत्तिमुपदर्शयेत् कस्तं पक्षेऽन्तर्भावयेत् । न हि विप्रत्वे पुंस्त्वस्य, नित्यतायां वा प्रमेयत्वस्य व्यभिचारे इत्युक्ते अबिप्रे, अघटे वा व्यभिचारापादने कृते, यदि तयोरपि पक्षत्वमुच्येत तद। कः समाधिरिति भावः ॥ तत्समर्थन - परलोकसमर्थनम्। इदं च ७ आह्नि के स्पष्टीभविष्यति ॥ तत्र-जगत्सृष्टौ। कारकेभ्यः-तादृशकर्मभ्यः ॥ 1मुत्पत्ति-ख. शरीरस्य-क. 3 विपक्षता-ख. Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] तृणादीनामपीश्वरसृत्वसमर्थनम् 197 चोद्यमाने वेधसाऽपि विपक्षः पक्षीकर्तुं शक्यः, वादीच्छया वस्तुव्यवस्थाया अभावात् । इह तु स्थावरादौ कर्बभावनिश्चयो नास्तीत्युक्तम् ॥ [प्रसङ्गात् सपक्षविपक्षातिरिक्तस्य पक्षस्यावश्यकत्वकथनम् ] ननु ! स्थावरेषु पक्षीकृतेष्वपि व्यभिचारो न निवर्तत एव । न हि 'सपक्षविपक्ष व्यतिरेकेण तात्त्विकः पक्षो नाम कश्चिदस्ति, वस्तुनो द्वैरूप्यानुपपत्तेः। वस्तुस्थित्या सकर्तृकाश्चेद्वनस्पतिप्रभृतयः सपक्षा एव ते। 'नो चेत्तर्हि विपक्षा एव । न राश्यन्तरं समस्तीतिउच्यते--पक्षाभावे सपक्षविपक्षवाचोयुक्तिरेव तावत्किमपेक्षा ? पक्षानुकूलो हि सपक्ष उच्यते, तत्प्रतिकूलश्च विपक्ष इति ॥ . . [पक्षसपक्षविपक्षाणां स्वरूपम् ] यद्येवं, वक्तव्यं तर्हि कोऽयं पक्षो नामेतिसाध्यधर्मान्वितत्वेन द्वाभ्यामप्यवधारितः। सपक्षः, तदभावेन निश्चितस्य विपक्षता ॥ १५९ ॥ विमतो यत्र तु तयोः तं पक्षं संप्रचक्ष्महे । वस्तुनो यात्मकत्वं तु नानुमन्यामहे वयम् ॥ १६० ॥ वादिबुद्धयनुसारेण स्थितिः पक्षस्य यद्यपि । तथाऽपि व्यवहारोऽस्ति वस्तुतस्तन्निबन्धनः ॥ १६१ ॥ पक्षीकृतेषु-पक्षत्वेनाभिमतेविति भावः। न हीत्यादि। सपक्षश्व निश्चितसाध्यवान् । तृणादिषु अकर्तृकत्ववत् सकर्तृकत्वमपि न निश्चितम् । मतश्च तेषां सपक्षत्वासंभवे, तृतीयराश्यभावात् विपक्षवं सिद्धमेवेति व्यभिचार: वर्तत एवेत्यर्थः॥ द्वाभ्यां-वादिप्रतिवादिभ्याम् । ननु वस्तुनोऽध्यात्मकत्वात् , 'विमतः पक्षः' इत्युक्ते साध्यवत्वेन स वादिनो निश्चित इति सपक्ष एव। प्रतिवादिनश्च साध्याभाववत्त्वेनैव निश्चितत्वात् विपक्ष एव। ततश्च पक्षः कुत्रावशिष्यते इति चेत् तत्राह - वादीत्यादि। यद्यपि वाद्युक्तमेवान्ततः पर्यवस्यति, वस्तुन-ख. 1 सपक्ष-क. 'न-ख. NYAYAMANJARI Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् न्यायमञ्जरी __ सन्दिग्धे हि न्यायः प्रवर्तते, नानुपलब्धे न निर्णीत इत्युक्तमेतत् । सन्दिह्यमान एव चार्थः पक्ष उच्यते। किञ्चित्कालं तस्य पक्षत्वं, यावन्निर्णयो नोत्पन्नः। तदुत्पादे तु नूनं सपक्षविपक्षयोरन्यतरत्रानुप्रवेक्ष्यत्यसौ। अतश्च पक्षावस्थायां तेन व्यभिचारोद्भावनमसमीचीनम् ॥ व्यभिचारसंशयस्यादोषत्वम् ] ननु ! निश्चितविपक्षवृत्तिरिव सन्दिग्धविपक्षवृत्तिरपि न हेतु. रेव । तदेवं वीरुधादिषु सन्दिग्धेऽपि कर्तरि सनिवेशस्य दर्शनादहेतुत्वम-नैतत्सारम्-सद सत्पावकतया पर्वते सन्दिग्धे विपक्षे वर्तमानस्य धूमस्याहेतुत्वप्रसङ्गात् । सर्व एव च साध्यांशसंशयाद्विपक्षा एव जाता इति पक्षवृत्तयो हेतव इदानीं विपक्षगामिनो भवेयुरित्यनुमानोच्छेदः॥ [सपक्षे व्याप्तिनिश्चय एव अनुमानाङ्गम् ] अथ पक्षीकृतेऽपि धर्मिणि सदसत्साध्यधर्मतया 'सन्दिग्धेऽपि वर्तमानो धूमादिः अन्यत्र व्याप्तिनिश्चयात् गमक इष्यते, तर्हि सदसत्कर्तृकतया सन्दिग्धेऽपि वसुन्धरावनस्पत्यादौ वर्तमान कार्यत्वमन्यत्र व्याप्तिनिश्चयात् गमकमिष्यताम् । विशेषो वा वक्तव्यः ॥ [भूधरादीनां अकर्तृकत्वं न्याप्तिग्रहणवेलायामेव सिद्धमित्याक्षेपः] अन्ये मन्यन्ते-किमकृष्टजातस्थावरादिव्यभिचारस्थानान्वेषणेन, पृथिव्यादिभिरेवात्र व्यभिचारः, अस्य व्याप्तिग्रहणस्य प्रतिघातात् । तथापि व्यवहारकाले वादिप्रतिवादिविप्रतिपत्तिनिबन्धनः पक्षव्यव्यवहारोऽपि वस्तुतोऽस्त्येव। एतदेवोपपादयत्यनन्तरवाक्यैः ॥ सन्दिग्धे विपक्षे-सन्दिग्धविपक्षरूपे पर्वते । सर्व इति। सन्दिग्धे हि न्यायः प्रवर्तत इत्यनुपदमुक्तम् ॥ अन्यत्र-महानसादौ । अन्यत्र---घटादौ। विशेषः-उक्तानुमानयो: वैलक्षण्यम् ॥ सन्दिग्धे-ख. Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] ईश्वरानुमाननिरासेऽतीन्द्रियवस्तुसाधनं दुश्शकम् 499 व्याप्तिर्हि गृह्यमाणा सकलसपक्षविपक्षकोडीकारेण गृह्यते। इत्थं च तस्यां गृह्यमाणायामेव 'यद्यत्सन्निवेशविशिष्टं, तत्तद्बुद्धिमत्कर्तृकं' इत्यस्मिन्नेवावसरे सन्निवेशवन्तोऽपि कर्तशून्यतया शैलादयश्चेतसि स्फुरन्ति । यथा कृतकत्वेन वह्नेरनुष्णताऽनुमाने 'यद्यत् कृतकं तत्तदनुष्णम् ' इति व्याप्तिपरिच्छेदवेलायामेव वह्नि रुष्णोऽपि' कृतक इति हृदयपथमवतरति । तद्वर्ज तु व्याप्ती गृह्यमाणायां तो हेतोः षण्डादिव पुत्रजननमघटमानमेव साध्यानुमानमिति ॥ . व्याप्तिग्रहणे अधिकरणविशेषभानानपेक्षणादुक्ताक्षेपनिरासः] . तदेतदनुपपन्नम् - विशेषोल्लेखरहितसामान्यमात्रप्रतिष्ठितस्य व्याप्तिपरिच्छेदस्यानुमानलक्षणे निर्णीतत्वात् (पु. 319)। अग्न्यनुष्णताऽनुमाने हि न व्याप्तिग्रहणप्रतीघातादप्रामाण्यम् , अपि तु प्रत्यक्षविरोधादित्युक्तमेतत् ॥ [पृथिव्यादीनां सकर्तृकत्वं यदि नानुमातुं शक्य, तर्हि इन्द्रियाणामप्यसिद्धिः] ___ अपि चायं पृथिव्यादौ कत्रनुमाननिरासप्रकारः, 'शब्दाद्युपलब्धयः, करणपूर्विकाः, क्रियात्वात् , छिदिक्रियावत्' इत्यत्र श्रोत्रादिकरणानुमानेऽपि समानः। प्रतिबन्धावधारणवेलायामेव करणशून्यानां शब्दाधुपलब्धिक्रियाणां अवधारणात् ताभिरेव व्यभिचारात् । पक्षेण च पृथिव्यादिनाव्यभिचारचोदनमत्यन्तमलौकिकम् ॥ कर्बनुमान करणानुमानतुल्यमेव] ननु ! वस्तुस्थित्या पर्वतादयोऽपि विपक्षा एव; त्वया तु तेषां पक्ष इति नाम कृतम् । न च त्वदिच्छया वस्तुस्थितिविपरिवर्तते ॥ विपक्षेति--व्यतिरेकसहचारग्रहणाय ! इदमपि अन्वयदाायेत्युक्तम् ॥ अपि विति । वह्नौ औष्ण्यस्य पूर्व प्रत्यक्षसिद्धत्वादेव हि व्याप्तिग्रहवेलायां स्वयं तस्य वर्जनम्, प्रकृते तु न तथा भूधरादौ अकर्तृकत्वं पूर्व सिद्धम् ॥ 1 रुष्णोऽ-ख. तत्र यति-ख. 32* Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 ईश्वर सद्भावसमर्थनम [न्यायमञ्जरी नन्वेवं शब्दाद्युपलब्धयोऽपि वस्तुस्थित्या विपक्षा एव; तासामपि पक्ष इति नामकरणमेव स्यात्-न-तासां 'करणाभाव'निश्चयानुत्पादान विपक्षत्वम् ॥ पर्वतादावपि कर्बभावनिश्चयानुत्पादान विपक्षत्वम् ॥ तेषु कर्ता नोपलभ्यत इति चेत; शब्दाधुपलब्धिक मपि नोपलभ्यत एव॥ ___ 'करण'मदृश्यमानत्वादेव नोपलभ्यते, न नास्तित्वात् इति चेत् ; कर्ताऽप्यदृश्यत्वादेव नोपलभ्यते, न नास्तित्वात् ।। अनुमानात् करणमुपलभ्यते, तद्व्यतिरेकेण क्रियाऽनुपपत्तेरिति चेत् ; कर्ताऽप्यनुमानादुपलप्स्यते, कर्तारमन्तरेण कार्यानुपपत्तेः ॥ [पृथ्व्यादेः सकर्तृकत्वानुमानं धूमावढ्यनुमानतुल्यम् ] तेनानुमानगम्यत्वान्न कर्तुर्नास्तिताग्रहः। तभावाद्विपक्षत्वं क्षित्यादेरपि दुर्भणम् ॥ १६२ ॥ लिङ्गात्पूर्व तु सन्देहो दहनेऽपि न वार्यते । तथा सति प्रपद्येत धूमोऽप्यननुमानताम् ॥ १६३ ॥ अथास्य लिङ्गाभासत्वं क्षित्यादौ कत्रदर्शनात्।। धूमेऽपि लिङ्गाभासत्वं तत्र देशेऽग्नयदर्शनात् ।। १६४ ॥ ननु तं देशमासाद्य गृह्यते धूमलाञ्छनः। . अनयैव धिया, साधो! 'वर्धस्व शरदां शतम् ॥ १६५ ॥ यत्पश्चाद्दर्शनं तेन किं लिङ्गस्य प्रमाणता ? अनर्थित्वाददृष्टे वा कृशानौ किं करिष्यसि ? ॥ १६६ ॥ तस्मात्सर्वथा नायमनैकान्तिको हेतुः ॥ तयतिरेकेणकरणमन्तरा। क्रिया-उपलब्धिरूपा ॥ लिङ्गं—अनुमानम् । तत्र देशे-दूरात् धूमदर्शनदेशे। अनयैवेति । कार्य पश्यन् , तत्कारणमनुमाय, कारणदेशं गतः कारणमुपलभते नरः। एवं जगत्कारणभूतं वस्तु तथैव तद्देशे द्रष्टुं अनवरतं यतस्व । प्रकृतमनुसरतियदिति। पश्चाद्वह्निदर्शनेनैव पूर्वमुत्पन्नमनुमानं प्रमाणमिति न हि- कस्यापि सम्मतमित्यर्थः। अत्रापि हेतुमाह- अनर्थित्वादिति। वढ्यनपेक्षत्वादित्यर्थः । करणभाव-ख. कारण-ख. चरस्व-ख, Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] ईश्वरानुमाने बाधादिनिरास: 501 [विशेषविरुद्धत्वस्य हेत्वाभासत्वाभावः] यदपि विशेषविरुद्धत्वमस्य प्रतिपादितं (पु. 486)—तदप्य.. समीक्षिताभिधानम् - विशेषविरुद्धस्य हेत्वाभासस्याभावात् (११ आह्निके)। अभ्युपगमे वा सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गात्। श्रोत्राद्यनुमानेऽपि यथोदाहृते शक्यमेवमभिधातुम्। यादृगेव लवनक्रियायां दात्रादिकरण काठिन्यादिधर्मकमवगतं तादृगेव श्रोत्रादि स्यात्। तद्विलक्षणकरणसाध्यतायां तु साध्यविकलो दृष्टान्तः, छेदनादिक्रियाणामतीन्द्रियकरणकार्यत्वादर्शनादिति ॥ . यावद्विरोधमेव विशेषाणामनुगम:] अथ क्रियामात्रं करणमात्रेण व्याप्तमवगतमिति तावन्मात्रमनुमापयति, तदिहापि सन्निवेशमात्रमधिष्ठातृमात्रण व्याप्तमुपलब्धमिति तावन्मात्रमेवानुमापयतु। विशेषाणां तु न तल्लिङ्गं, अस्ति यत्र' बाधकम् । अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्ययमपि श्रावणत्वादि शब्दस्य विशेषजातं बाधत एव। धूमोऽपि पर्वताग्निविशेषान् कांश्चिन्महानसाग्नावदृष्टानपहन्त्येव। तस्माद्यथानिर्दिष्टसाध्यविपर्ययसाधनमेव विरुद्धो हेतुः, न हि विशेषविपर्ययावहः। प्रकृतहेतुश्च' साध्यविपर्ययस्याकर्तृपूर्वकत्वस्य न साधकः, अश्वोऽयं विषाणित्वादितिवत्। तस्मात् न विरुद्धः॥ [भूभूधरादिसकर्तृकत्वानुमानस्य बाधाभावः] नापि कालात्ययापदिष्टः, प्रत्यक्षागमयोर्बाधकयोरदर्शनात् । प्रत्युतागममनुग्राहकमिहोदाहरिष्यामः॥ [भूभूधरादिसकर्तृकत्वानुमाने सत्प्रतिपक्षत्वाभावः] नापि सत्प्रतिपक्षोऽयं हेतुः, संशयबीजस्य विशेषाग्रहणादेरिह हेतुत्वेनानुपादानात् ॥ . तेजस्वित्वादिविशेषाणां वह्नया समं भानात्-अस्ति यत्र बाधकमिति। श्रावणत्वादीति । न हि दृष्टान्ते घटादौ श्रावणत्वादिकमस्ति। पर्वताग्निविशेषान्–अन्ततः पर्वतीयत्वादीन्। यथानिर्दिष्ट-वह्नित्वावच्छिन्नम् ।। 1यन-ख. 2 प्रकृतश्च-क. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [नापीदमनुमानं प्रतितर्कपराहतम् ] नामप्रयोजको हेतुः, यथा परमाणूनामनित्यत्वे सति मूर्तत्वमभिधास्यते । न हि मूर्तत्वप्रयुक्तमनित्यत्वम् । इह तु कार्यत्वप्रयुक्तमेव कर्तृकत्वं तत्र तत्रोपलब्धमिति । अत एवानुमान - विरोधस्येष्ट्रविघातकृतश्च न कश्चिदिहावसरः । प्रयोजके हेतौ प्रयुक्ते तथाविधपांसुप्रक्षेपप्रयोगानवकाशात्। तस्मात्परोदीरिता-. शेषदोषविकल कार्यानुमानमहिम्ना नूनमीश्वरः कल्पनीयः ॥ 502 सकललोकसाक्षिक'मपि चानुमान' प्रामाण्यमपीक्षणीयम् । अनुमानप्रामाण्यरक्षणे च कृत एव परिकरबन्धः प्रागिति (२ आह्निके) सिद्ध एवेश्वरः ॥ [ ईश्वरसाधकानुमानान्तरे ] अन्यदपि तदनुमानमन्यैरुक्तम् । महाभूतादि व्यक्तं चेतनाधिष्ठितं सत् सुखदुःखे जनयति, रूपादिमत्त्वात्; सूर्यादिवत् । तथा, पृथिव्यादीनि भूतानि चेतनाधिष्ठितानि सन्ति धारणादिक्रियां कुर्वन्ति युग्यादिवदिति । अत्रापि दोषाः पूर्ववदेव परिहर्तव्याः || [ न्यायम [आगमादेव जगत्स्रष्टु इतरचेतन वैलक्षण्यसिद्धिः ] यत्पुनरवादि (पु. 486 ) - - ' कर्तृसामान्य सिद्धौ वा विशेषावगतिः कुतः ?' इति तत्र केचिदागमाद्विशेषप्रतिपत्तिमाहुः 'विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुख विश्वतो बहुत विश्वतस्पात् | संवाहुभ्यां धमति संपतत्रैः द्यावाभूमी जनयन् देव एकः' (ते. ना - ३-२ ) इति । तथा 'अपाणिपादो जवनो गृहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: । स वेत्ति सर्व न हि तस्य वेत्ता तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम्' (श्वे-३-१९) इति श्रुतौ पठ्यते । ततः सर्वस्य कर्ता सर्वज्ञ ईश्वरो ज्ञाप्यते ॥ नहीति । किन्तु हेत्वधीनत्वप्रयुक्तमिति शेषः । कल्पनीयः - अनुमेयः ॥ 1 मनुमान - ख. 2 मति बाहुभ्यां - ख Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] ईश्वरस्य जीववैलक्षण्यसिद्धिप्रकारः 503 सिद्धेऽपि वस्तुनि वेदानां प्रामाण्यम् ] न च कार्य एवार्थे 'वेदाः' प्रमाणात मन्त्रार्थवादानामतत्परत्वमभिधातुमुचितम् ; कार्य इव सिद्धेऽप्यर्थे वेदप्रामाण्यस्य वक्ष्यमाणत्वात् (४ आह्निके)। न चेतरेतराश्रयम् (पु. 491); आगमैकशरणत्वाभावादीश्वरसिद्धः ॥ - [परिशेषानुमानात् ईश्वरस्येतरचेतनवैलक्षण्यसिद्धिः] __ अन्ये तु-अन्वयव्यतिरेकिहेतुमूलकेवलव्यतिरेकिबलेन विशेषसिद्धिमभिदधति । देहादिव्यतिरिक्तात्मकल्पन मिव सुखदुःखादिगतेन कार्यत्वेन वर्णयिष्यते-पृथिव्यादिकार्य अस्मदादिविलक्षणसर्वककर्तृकम् , अस्मदादिषु बाधकोत्पत्तौ सत्यां कार्यत्वादिति ।। [पक्षधर्मताबलात्तदनुगुणविशेषाः ईश्वरे स्वयं सिध्यन्ति] अपरे--पक्षधर्मतावलादेव विशेषलाभमभ्युपगच्छन्ति। न हीदृशं परिदृश्यमानमनेकरूपमपरिमितमनन्तप्राणिगतविचित्रसुखदुःखसाधनं भुवनादिकार्य अनतिशयेन पुंसा कर्तुं शक्यमिति ।। यथा चन्दनधूममितरधूमविसदृशमवलोक्य चन्दन एव वह्निरनुमीयते, तथा विलक्षणात् कार्यात् विलक्षण एव कर्ताऽनुमास्यते ॥ . कार्य एवेति--वृद्धव्यवहाराच्छक्तिग्रहे तत्र आनयनादिकार्यान्वित एव शक्तिप्रहात् , सिद्धार्थबोधकवाक्यानां न स्वार्थे प्रामाण्यमिति मीमांसकाः । 'अयं घटः' इत्यादिसिद्धपरवाक्यैरपि बोधानुभवात् सिद्धपरवाक्यान्यपि स्वार्थे प्रमाणानीति सिद्धान्तः ॥ अन्ये विति। हेत्वसिद्धिपरिहाराय कार्यत्वादीनामप्यनुमानेन साधनीयत्वात् , कार्यत्वानुमानस्यान्वयव्यतिरेकित्वात् तन्मूलकं परिशेषानुमानम् । सुखदुःखादीति। 'इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् ' (1-1-10) इति सूत्रम् । ७ आह्निके इदं व्याख्यास्यते । अस्मदादौ बाधकोत्पत्तिश्च प्रत्यक्षादेव ।। विलक्षण एव कर्तेति। निखिलजगद्वेतुतया सिध्यन् हीश्वरः तदनुगुणज्ञानशक्त्यादिविशिष्ट एव खलु सिध्येत् । अतः धर्मियाह के नानमानेनैव ईश्वरस्येतरचेतनवैलक्षण्यसिद्धिः ॥ - वेद:-ख Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् न्यायमञ्जरी __यथा प्रावरकेभ्य' इव तत्कुशलः कुविन्दः, यथा च कुलाल: सकलकलशादिकार्यकलापोत्पत्तिसंविधानप्रयोजनाद्यभिज्ञो भवंस्तस्य कार्यचक्रस्य कर्ता, तथेयतस्त्रैलोक्यस्य निरवधिप्राणिसुखदुःख साधनस्य सृष्टिसंहारसंविधानं सप्रयोजनं बहुशाख जाननेव स्रष्टा भवितुमर्हति महेश्वरः। तस्मात्सर्वज्ञः॥ परमात्मनः सर्वज्ञत्वं स्वतस्सिद्धम् ] . अपि च यथा नियतविषयवृत्तीनां चक्षुरादीन्द्रियाणामधिष्ठाता क्षेत्रज्ञः तदपेक्षया सर्वज्ञः, एवं सकलक्षेत्रज्ञकर्मविनियोगेषु प्रभवन्नीश्वरः तदपेक्षया सर्वज्ञः । तथा चाह व्यासः (गी. 15-16, 17) 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽभर उच्यते ॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ . मन्त्रश्च तदर्थानुवादी पठ्यते (मु. 3-1-1) (श्वे. 4-6)'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्यो अभिंचाकशीति' इति ॥ अतश्च सर्वज्ञ ईश्वरः ॥ प्रावरकं-यवनिकादि। सप्रयोजनमिति। वक्ष्यते चानुपदमेव प्रयोजनं सृष्टिसंहारादेः ॥ तदपेक्षया-तच्छरीरापेक्षया। द्वाविमावित्यादि । 'उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तः देहेऽस्मिन् पुरुषः परः' (गी-13-22) इत्यादेरपीदमुपलक्षणम् । तदर्थानुवादी-तदुपबंहितार्थः । तथा च व्यासः-'इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत् । बिभेत्यल्पश्रृंताद्वेद: मामयं प्रतरिष्यति' (म-भा मा. 1-265) इति ॥ 'सुचेलरकेभ्य-ख Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् ३] ईश्वरस्य नित्यसर्वशत्वम् 505 [जीवानामज्ञत्वे परमात्मनः सर्वज्ञत्वे च निदानम् ] पुंसामसर्ववित्त्वं हि रागादिमलबन्धनम् । न च रागादिभिः स्पृष्टो भगवानिति सर्ववित् ॥ १६७ ॥ इष्टानिष्टार्थसंभोग'प्रभवाः खलु देहिनाम् । रागादयः कथं ते स्युर्नित्यानन्दात्मके शिवे ॥ १६८ ॥ मिथ्याज्ञानमूलाच रागादयो दोषाः; ते कथं नित्यनिर्मलज्ञानवतीश्वरे भवेयुः? [ईश्वरस्य नित्यसर्वज्ञत्वम् ] नित्यं तज्ज्ञानं कथमिति चेत् तस्मिन् क्षणमप्यज्ञातरि सति तदिच्छाप्रेर्यमाणकर्माधीननानाप्रकारव्यवहारविरमप्रसङ्गात्। प्रलयवेलायां तर्हि कुतस्तन्नित्यत्वकल्पनेति चेत्-मैवम्-आप्रलयात्सिद्धे नित्यत्वे तदा विनाशकारणाभावात् अस्य आत्मन इव तज्ज्ञानस्य नित्यत्वं सेत्स्यति । पुनश्च सर्गकाले तदुत्पत्तिकारणाभावादपि नित्यं शानम् ॥ [ईश्वरज्ञानस्य एकत्वे प्रमाणम्] एवञ्च तदतीतानागतसूक्ष्मव्यवहितादिसमस्तवस्तुविषयं, न भिन्नम ; क्रमयोगपद्यविकल्पानुपपत्तेः। क्रमाश्रयणे कचिदज्ञातृत्वं स्यादिति व्यवहारलोपः। योगपद्येन सर्वज्ञातृत्वे कुतस्त्यो ज्ञानभेदः? मिथ्याज्ञानमूला इति । भाष्यमपि 'ज्ञातारं हि रागादयः प्रवर्तयन्ति पुण्ये, पापे वा। यत्र मिथ्याज्ञानं तव रागद्वेषो' (1-1-18) इति ॥ . अशातरि–ज्ञानशून्ये। पुनश्चेति । 'धाता यथापूर्वमकल्पयत्' (तै-ना-१२) इत्यादौ 'यथापूर्व' पदात् सृष्टिप्रलयो स्त एव । यद्यपि प्रलये कर्माधीननानाव्यवहाराभावात् तत्प्रेरणार्थ ज्ञानापेक्षाऽपि न, अथापि पुनः सृष्ट्यर्थ तेषां परिपाकादिज्ञानं सृष्टेः पूर्वमेवावश्यक मेति प्रलयकालेऽपि ईशः सर्वज्ञ एव ॥ 'प्रभवः-क. 2 नित्यत्वं तज्ज्ञानानाम्-ख. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [ ईश्वरज्ञानस्य इन्द्रियाजन्यत्वेऽपि प्रत्यक्षत्वम् ] प्रत्यक्ष साधर्म्याच्च तज्ज्ञानं प्रत्यक्षमुच्यते, न पुनरिन्द्रियार्थ - सन्निकर्षोत्पन्नत्वमस्यास्ति; अजनकानामेवार्थानां सवितृप्रकाशेनेव 'तेन ग्रहणात् ' ॥ [ईश्वरगुणानां सर्वेषां नित्यत्वम् ] ज्ञानवदन्येऽप्यात्मगुणा येऽस्य सन्ति, ते नित्या एव मनस्संयोगानपेक्षजन्मत्वात् । दुःखद्वेषास्तस्य तावन्न सन्त्येव । भावनाख्येन संस्कारेणापि न प्रयोजनम् ; सर्वदा सर्वार्थदर्शित्वेन स्मृत्य - भावात् । अत एव न तस्यानुमानिकं ज्ञानमिष्यते । धर्मस्तु भूतानुग्रहवतो वस्तुस्वाभाव्याद्भवन्न वार्यते । तस्य च फलं परार्थनिष्पत्तिरेव । सुखं त्वस्य नित्यमेव, नित्यानन्दत्वेनागमात् प्रतीतेः । असुखितस्य चैवंविधकार्यारम्भयोग्यताऽभावात् ॥ न्यायमञ्जरी [ईश्वरेच्छाया नित्यत्वेऽपि सृष्टिप्रलयाद्युपपत्तिः ] 'ननु' ज्ञानानन्दवदिच्छाऽपि नित्या चेदीश्वरस्य, तर्हि सर्वदा तदिच्छासम्भवात् सर्वदा जगदुत्पत्तिरिति जगदानन्त्यप्रसङ्गः । सर्गेच्छानित्यत्वाच्च संहारो न प्राप्नोति । संहारेच्छाया अपि नित्यत्वाभ्युपगमेन नक्तंदिनं प्रलयप्रबन्धो न विरमेदेव जगतामिति - पुनरिति । अन्यथा तस्यानित्यत्वप्रसङ्गः । ननु विषयाणां प्रत्यक्षकारणत्वात् यदि ईश्वरज्ञानं सविषयकं तदा विषयजन्यत्वमनिवार्यमित्यत्राह - अजनकानामिति । सवितृप्रकाशेनेवेति । नूतनतयोत्पन्नोऽपि घटः यथा सूर्यप्रकाशेन क्रोडीक्रियते तथेत्यर्थः । ज्ञानं नाम अर्थविषयक : प्रकाश इत्युक्तम् ॥ न वार्यते इत्यनेन तदनभ्युपगमे हान्यभावः सूचितः । भूतानुग्रहस्य स्वभावत्वात् न धर्मस्य तत्रापेक्षा । आगमात् - 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्यादेः । एवं विधेति । परार्थैकफलेत्यर्थः ॥ ' ग्रहणात - ख. 2 परमार्थ - ख. 'न-क. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् ३] अशरीरस्यापीश्वरस्य स्रष्टत्वसंभवः 507 नैष दोषः- अनात्ममनस्संयोगजत्वादिच्छा स्वरूपमात्रेण नित्याऽपि कदाचित्सर्गेण कदाचित्संहारेण वा विपयेणानुरज्यते। सर्गसंहारयोरन्तराले तु जगतः स्थित्यवस्थायां अस्माकर्मण इदमस्य संपद्यतामितीच्छा भवति प्रजापतेः॥ प्रयत्नस्तस्य सकल्पविशेषात्मक एव। तथा चागम:--'सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः" (छा-ड-८-१-५) इति। 'कामः' इतीच्छा उच्यते, 'संकल्पः' इति प्रयत्नः। ... ईश्वरस्य आत्मविशेषरूपत्वम्] . तदेवं नवभ्य आत्मगुणेभ्यः पञ्च ज्ञानसुखेच्छाप्रयत्नधर्माः सन्तीश्वरे। चत्वारस्तु दुःखद्वेषाधर्म संस्कारा न सन्तीत्यात्मविशेष ऐवेश्वरो न द्रव्यान्तरम् । आह च पतञ्जलिः- 'क्लशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' (यो-सू-१-२५) इति। सोऽय-. मागमात्, अनुमानात्, पक्षधर्मतो वा विशेषलाभ इति स्थितम् ॥ [अशरीर एवेश्वर:] यत्पुनर्विकल्पितं (पु 486)-'सशरीर ईश्वरः सृजति जगत् ? अशरीरो वा ? इति-तत्राशरीरस्यैव स्रष्टत्वमभ्युपगच्छामः ॥ . [अशरीरस्यापीश्वरस्य कर्तृत्वं युज्यते] : ननु ! क्रियाऽऽवेशनिबन्धनं कर्तृत्वं, न पारिभाषिकम् । तत् अशरीरस्य क्रियाविरहात् कथं भवेत् ? कस्य च कुत्राशरीरस्य कर्तृत्वं दृष्टमिति-उच्यते-शानचिकीर्षाप्रयत्नयोगित्वं कर्तृत्वमा . अनात्ममनस्संयोगजत्वात्--आत्ममनस्संयोगाजन्यत्वात् । अनु. रज्यते--संयुज्यते ॥ संकल्पेति । 'संकल्प: कर्म मानसम्'। यद्यपि मनोऽपेक्षा नास्ति । अथापि · इदं कुर्याम्' इत्याकारक: कश्चन धर्मः अस्त्येव, प्रत्यक्षवत् । मत एव 'विशेष' पदम् ॥ आहेति। 'पुरुषविशेष' पदं प्रयुञ्जान इति शेषः ॥ शानेति । यद्यपि कृतिमत्वमात्रं कर्तृत्वम् , अथापि तादृशकृतिहेतुत्वे Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [ न्यायमअ चक्षते । तञ्चेश्वरे विद्यत एवेत्युक्तमेतत् । स्वशरीरप्रेरणे च दृष्टमशरीरस्याप्यात्मनः कर्तृत्वम || [ जगत्सर्गे ईश्वरस्य केशाभावः ] इच्छामात्रेण च तस्य कर्तृत्वात् अनेकव्यापार निर्वर्तनोपात्तदुर्वहक्लेशकालुष्य विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः ॥ [ अशीरस्यापीश्वरस्य परमाणुप्रेरणं सङ्गच्छते ] ननु ! अत्रोक्तम् (पु. 487 ) — 'कुलालवच्च नैतस्य व्यापारो यदि कल्प्यते । अचेतनः कथं भावः तदिच्छा मनुवर्तते ?' इति ॥ अस्माभिरप्युक्तमेव यथा ह्यचेतनः कायः आत्मेच्छामनुवर्तते । - तदिच्छामनुवन्ते तथैव परमाणवः ।। १६९ ॥ [ स्वप्रयोजनं विनाऽपि ईश्वरस्य स्रष्टृत्वम् ] यस्तु प्रयोजनविकल्पः- किमर्थं सृजति जगन्ति भगवान् ? इति - सोऽपि न पेशलः । स्वभाव एवैष भगवतः - यत् कदाचित् सृजति, कदाचिच्च संहरति विश्वमिति ॥ कथं पुनर्नियतकाल एषोऽस्य स्वभाव इति चेत् — आदित्यं पश्यतु देवानांप्रियः ! यो नियतकालमुदेत्यस्तमेति च । प्राणिकर्मसापेक्षमेतद्विवस्वतो रूपमिति चेत्-ईश्वरेऽपि तुल्यः समाधिः ॥ नाविनाभावात् ज्ञानचिकीर्षे अपि क्रोडीकृते । जानाति, इच्छति, यतते इति किल क्रमः ॥ अचेतनः:- जडः भावः - पदार्थ : - परमाणुः ॥ प्राणिकर्मसापेक्षमिति । प्राणिनां तत्तत्कर्मानुभवाय आदित्यादयः स्वस्वकृत्यं कुर्वन्ति चेत् ईश्वरोऽपि तथैव । एतस्य फलं त्वनुपर्द स्पष्टी भविष्यति ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] संघिसंहारयोः प्रयोजनम् 509 [लीलयाऽपि जगत्सृष्टिरुपपद्यते क्रीडार्थेऽपि जगत्सर्गे न हीयेत 'कृतार्थता' । प्रवर्तमाना दृश्यन्त न हि क्रीडासु दुःखिताः ॥ १७० ॥ [दययैव वा जगत्सृष्टिः] अथवा अनुकम्पयैव सर्गसंहारावारभतामीश्वरः ॥ [दयया जगत्सर्गेऽपि सुखदुःखादिवैषम्योपपत्तिः] नन्वत्र चोदितम् (पु. 488) 'न तथाविधाः प्राणिनोऽनुकम्प्या भवन्ति । केवलसुखस्वभावा वा सृष्टिरनुकम्पावता क्रियेतेतिसत्य चोदितम्-अनुपपन्नं तु; अनादित्वात्संसारस्य । सृष्टिसंहारयोः परमं फलम्] . शुभाशुभसंस्कारानुविद्धा एवात्मानः। ते च धर्माधर्मनिगडसंयत त्वादपवर्गपुरद्वारप्रवेशमलभमानाः कथं नानुकम्प्याः१ अनुपभुक्तफलानां कर्मणां न प्रक्षयः। सर्गमन्तरेण च 'तत्फलोपभोगासंभव इति शुभफलोपभोगाय स्वर्गादिसर्ग, अशुभफलोपभोगाय' नरकादिसृष्टिमारभते दयालुरेव भगवान् । उपभोगप्रबन्धेन परिश्रान्तानामन्तराऽन्तरा विश्रान्तये जन्तूनां भुवनोपसंहारमपि करोतीति सर्वमेतत्कृपानिबन्धनमेव ।। . कृतार्थता-भवाप्तसमस्तकामत्वम्। अवाप्तसमस्तकामैरेव क्रीडारसः अनुभवितुं शक्यते। 'मायासबहुला चेय' (पु. 489) इत्यस्योत्तरंउत्तरार्धम् । 'न च क्रीडाऽपि निश्शेष' (पु. 489) इत्यस्योत्तरं तु सृष्टेर्दयामूलकत्वसाधनावसरे स्वयं प्राप्येतेति अत्र नोक्तम् ।। निगड:-'अथ शृङ्खला। अन्दुको निगडोऽस्त्री स्यात् । न प्रक्षय इति। 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि'। यद्यपि प्रायश्चित्तादिनाऽप्यस्ति नाश:, एवं ब्रह्मज्ञानादपि ; अथापि तद्व्यतिरिक्तविषयं वचनम् ॥ 1 क्रियार्थता-ख. ' अनुपपन्नं तु-ख. ३ संवृत-ख. + तत्फलभोगाय-ख. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 ईश्वरगद्धावसमर्थनम् न्यायमरी [सृष्टिप्रलयोपपत्ति] ननु च युगपदेव सकल जगत्प्रलयकरणमनपपन्नम्, अविनाशिनां कर्मणां फलोपभोगप्रतिबन्धासंभवादिति चोदितम् (पु. 489)-न युक्तमेतत्-ईश्वरेच्छाप्रतिबद्धानां कर्मणां स्तिमितशक्तीनामवस्थानात् । तदिच्छाप्रेरितानि कर्माणि फलमादधति। तदिच्छाप्रतिवद्धानि च तत्रोदासते। कस्मादेवमिति चेत्-अचेतनानां चेतनानधिष्ठितानां स्वकार्यकरणानुपलब्धेः॥ जीवानां कर्माधिष्ठातृत्वासंभवः] ननु ! तेषामेव कर्मणां कर्तार आत्मानश्चेतना अधिष्ठातारो. भविष्यन्ति। यथाह भट्टः (श्लो. वा. 1-1-5 सम्ब-परि ७५) 'कर्मभिः सर्वजीवानां तत्सिद्धेः सिद्धसाधनम्' इति नैतदेवम्--नैतेऽधिष्ठातारो भवितुमर्हन्ति ; बहुत्वात्, विरुद्धाभिप्रायत्वाच्च। तथा ह्येक एव कश्चित् स्थावरादिविशेषो राजादिविशेषो वा प्राणिकोटीनामनेकविधसुखदुःखोपभोगस्य हेतुः, स तैर्बहुमिरव्यवस्थिताभिप्रायैः कथ'मारमेत? तेषामेकत्र संमानाभावात् । मठ परिषदोऽपि क्वचिदेव सकलसाधारणोपकारिणि कार्य भवत्यैकमत्यम् , न सर्वत्र । महाप्रासादाद्यारंभे बहूनां तक्षादीनामेकस्थपत्याशयानुवर्तित्वं दृश्यते । पिपीलिकानामपि मृत्कूटकरणे तुल्यः कश्चिदुपकारः प्रवर्तकः, स्थपतिवत् एकाशयानुवर्तित्वं वा कल्प्यम् । इह तु तत्स्थावरं शरीरं केपाश्चिदुपकारकारणं, इतरेषा कर्मभिरित्यादि। सर्वजीवानामपि तसिद्धेः जगत्कर्तृत्वसिद्धेः । कर्मभिः द्वारभूतैः। सम्मान--सम्मति:, ऐकमत्याभावादित्यर्थः । मठपरिषदः- मठीयपरिषदः। सर्वत्र-यदुद्देशेन प्रवृत्तो मठः, परिषद्वा, तब्यतिरिक्तविषये। मृत्कूटं-वल्मीकादिः। स्थपतिवदिति । अस्ति वल्मीकादौ नियामकः कीटराजः, राज्ञी वा; यदधीनाः सर्व एवेतरे कीटाः स्वस्वकार्येषु असंकीर्णा व्यापृण्वन्ति, यस्मिंश्च मृते सर्वे स्वैरं चरन्त: नश्यन्तीति प्रत्यक्षसिद्धमेव ॥ 1 मारभ्येत-ख. शठ-ख. Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम ३] सृष्टिप्रलयवत् स्थितेरपीश्वराधीनत्वम 511 मपि भूयसामपकारकारणमिति कथं तैः संभूय सृज्यते । अनधिष्ठितानान्त्वचेतनानामारम्भकत्वमयुक्तमेव। तस्मादवश्यमेकस्तेषां कर्मणामधिष्ठाता कल्पनीयः, यदिच्छामन्तरेण भवन्त्यपि कर्माणि न फलजन्मने प्रभवन्ति ॥ [ईश्वरस्य एकत्वम् ] अत एवैक ईश्वर इष्यते, न द्वौ, बहवो वा; भिन्नाभिप्रायतया लोकानुग्रहोपघातवैशसप्रसङ्गात् । इच्छाविसंवादसंभवेन च ततः कस्य चित् सङ्कल्पविघातद्वारकानैश्वर्यप्रसङ्गात् इत्येक एवेश्वरः । तदिच्छया कर्माणि कार्येषु प्रवर्तन्ते इत्युपपन्नः सर्गः। तदिच्छाप्रतिबन्धात् स्तिमितशक्तीनि कर्माण्युदासत इत्युपपन्नः प्रलयः॥ . . [सर्गप्रलयसद्भाव:] एवञ्च यदुक्तं (श्लो. वा. 1-1-5 सम्ब-परि ११३) 'तस्मादद्यवदेवात्र सर्गप्रलयकल्पना । समस्तक्षयजन्मभ्यां न सिद्धयत्यप्रमाणिका' इति-एतदपि ' असांप्रतम् ॥ सृष्टिप्रलयाभावेऽपि स्थितेरपीश्वरायत्तत्वम् ] तिष्ठतु वा सर्गप्रलयकालः ! अद्यत्वेऽपि यथोक्तनयेन तदिच्छा: मन्तरेण प्राणिनां कर्मविपाकानुपपत्तरवश्यमीश्वरोऽभ्युपगन्तव्यः, इतरथा सर्वव्यवहारविप्रलोपः। तदुक्तम् (म. भा, वन. 30-28) 'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा' इति ॥ भवन्ति-वर्तमानानि ॥ वैशसं-व्यसनम् । सृष्टिविषयाणामनिष्टमुक्ता तत्कर्तृणामपि तदाह-- इच्छेति ॥ तिष्ठतु-माऽस्त्विति यावत्। अद्यत्वेऽपि · इदानीमपि ।। 1 न सांप्रतम्-क. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 ईश्वरसद्भावसमर्थनम् [न्यायमञ्जरी कर्मणामावश्यक वम्] ___ ननु ! एवं तर्हि ईश्वरेच्छैव भवतु की संहीं च। किं कर्मभिः!-मैवम्-कर्मभिर्विना जगद्वैचित्र्यानुपपत्तेः । कर्मनरपेक्ष्य पक्षेऽपि त्रयो दोषा दर्शिता एव (पु. 490)-ईश्वरस्य 'निर्दयत्वं, कर्म'चोदनानर्थक्यम् , अनिर्मोक्षप्रसङ्गश्चति। तस्मात् कर्मणामेव. नियोजने स्वातन्त्रयमीश्वरस्य, न तन्निरपेक्षम् ॥ [कर्मानुगुणं जगत्सर्जनेऽपि ईश्वरस्य न स्वातन्त्रयहानिः] किं तादृशैश्वर्येण प्रयोजनमिति चेत्-न-न प्रयोजनानुर्ति प्रमाणं भवितुमर्हति । किं वा भगवतः कर्मापेक्षिणोऽपि न प्रभुत्व मित्यलं कुतर्कलवलिप्तमुखनास्तिकालापपरिमर्दैन! ईश्वरवादोपसंहारः] तस्मात् कुतार्किकोद्गीतदूषणाभासवारणात् । सिद्धस्त्रैलोक्य निर्माणनिपुणः परमेश्वरः ॥ १७१ ॥ निरीश्वरवादिसंभाषणस्यापि पापत्वम् ] ' ये त्वीश्वरं निरपवाददृढप्रमाण सिद्धस्वरूपमपि नाभ्युपयन्ति मूढाः। पापाय तैस्सह कथाऽपि वितन्यमाना जायेत नूनमिति युक्तमतो विरन्तुम् ॥ १७२॥ यस्येच्छयैव भुवनानि समुद्भवन्ति तिष्ठन्ति यान्ति च पुनर्विलयं युगान्ते। तस्मै समस्तफलभोगनिबन्धनाय नित्यप्रबुद्धमुदिताय नमः शिवाय ॥१७३॥ किं वेति। कुतो वेत्यर्थः। तक्ष्णः तक्षणादिन्यापारेषु वास्याद्यपेक्षायाः सत्वेऽपि न हि स्वातन्त्र्यभङ्गः। अन्यथा तक्षा कतैव न स्यात् । स्वतन्त्रः खलु कर्ता। अतः सापेक्षत्नमात्रं न स्वातन्त्र्यभञ्जकम् ।। एवं निरीश्वरवादिभिस्सह कथायाः पापत्वेन, तत्प्रायश्चित्ततया भगवन्तं स्मरति-यस्येति । निबन्धनाय-हेतवे। नित्यप्रबुद्धमुदितायनित्यज्ञानानन्दस्वरूपाय ॥ 1निर्दयकर्म-ख. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दस्यानित्यत्वे प्रमाणाभाव: 513 -वेदपौरुषेयत्वसाधनप्रकरणम्[ईश्वरस्य जगत्स्रष्टत्वेऽपि वेदानां तत्कृतत्नाक्षेपः) ननु ! त्रैलोक्यनिर्माणनिपुणे परमेश्वरे। सिद्धेऽपि तत्प्रणीतत्वं न वेदस्यावकल्पते ॥१७४ ।। पदे शब्दार्थसम्बन्धे वेदस्य रचनासु वा। कर्तृत्वमस्याशङ्कथेत तच्च सर्वत्र दुर्वचम् ॥ १७॥ वर्णराशिः क्रमव्यक्तः पदमित्यभिधीयते । वर्णानां चाविनाशित्वात् कथमीश्वरकार्यता॥ १७६॥ सम्बन्धोऽपि न तत्कार्यः स हि शक्तिखभावकः । शब्दे वाचकशक्तिश्च नित्यैवान्नाविवोष्णता ॥ १७७॥ रचना अपि वैदिक्यो नैताः पुरुषनिर्मिताः । कविप्रणीतकाव्यादिरचनाभ्यो विलक्षणाः ॥१७८ ॥ एवं च बेदे स्वातन्त्र्यमीश्वरस्य न कुत्रचित् ।। कामं तु पर्वतानेष विदधातु भिनत्त वा ॥१७९॥ स्वतःप्रामाण्यसिद्धौ तु वेदे वस्त्रनपेक्षताम् । वदामो न तु सर्वत्र पुरुषद्वेषिणो वयम् ॥ १८०॥ अनपेक्षत्वमेवातो वेदप्रामाण्यकारणम् । युक्तं, वक्ताऽपि वेदस्य कुर्वन्नपि करोतु किम् ? ॥ १८१॥ [शब्दस्यानित्यत्वे प्रमाणाभावः, नित्यत्वे च प्रमाणम् ] कथं पुनरमी वर्णाः श्रुतमात्रतिरोहिताः । नित्या भवन्तु, कोऽयं वा शब्दस्वातन्त्र्यदोहदः? ॥ १८२॥ सर्वत्र-त्रिष्वपि । वर्णानां नित्यत्वात् --क्रमव्यक्त इति। सर्वत्रपौरुषेयवाक्येषु। अनपेक्षत्वमिति। 'तत्प्रमाणं बादरायणस्य, अनपेक्षत्वात्' (जै. सू. 1-1-5) इति हि सूत्रम् । एवं इतरानपेक्षतयैव तेन स्वप्रामाण्ये संरक्षिते वेदस्येश्वरकृतत्वेन किं साधनीयमित्यर्थः॥ सिद्धान्तिच्छाययाऽऽक्षिपति-कथमिति। श्रुतमात्रतिरोहिताःश्रवणसमनन्तरं नश्यन्तः। एवं वर्णाः पुरुषप्रयत्नोत्पाद्यमानाः श्रूयन्ते, प्रयत्नविरतौ च विरमन्ते । अथापि ते न पुरुषाधीनाः, किन्तु स्वतन्त्रा:नित्या इति किमिदमित्याश्चर्यद्योतनाय-शब्दस्वातन्त्र्यदोहद इति। NYAYAMANJARI 33 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमारी उच्यते शब्दस्य' न ह्यनित्यत्वे युक्तिःस्फुरति काचन । प्रत्यक्षमापत्तिश्च नित्यतां त्वधिगच्छतः ॥ १८३ ॥ [शब्दस्यानित्यत्वसाधनानुवादः] तथा हि-अनित्यत्वहेतव इमे किल कथ्यन्ते, प्रयत्नानन्तरमुपलब्धेः कार्यः शब्द इति । कार्यत्वानित्यत्वयोः परस्पराविनाभावात् एकतरसिद्धावन्यतरसिद्धिर्भवत्येवेति क्वचित् किञ्चित् साधनमुच्यते प्रयत्नप्रेरितकौष्ठयमारुतसंयोगविभागानन्तरमुपलभ्यमानः शब्दस्तकार्य एवेति गम्यते। उच्चारणादूर्ध्वमनुपलब्धेः अनित्यः शब्दः। न ह्येनमुञ्चरितं मुहूर्तमप्युपलभामहे। तस्माद्विनष्ट इत्यवगच्छामः॥ : व्यवहारादपि शब्दः अनित्यः] : करोतिशब्दव्यपदेशाच्च कार्यः शब्दः। 'शब्दं कुरु', 'शब्द मा कार्षीः' इति व्यवहारः प्रयुञ्जते। ते नूनमवगच्छन्ति कार्यः शब्द इति ॥ [अनेकदेशेषु उपलम्भात् शब्दस्य नानात्वानित्यत्वे] . नानादेशेषु च युगपदुपलम्भात् 'तेषु तेषु देशेषु शब्देन व्यवहारात् सर्वत्र युगपदुपलभ्यते शब्दः। तदेकस्य नित्यस्य सतोऽनुपपन्नम्। कार्यत्वे तु बहूनां नानादेशेषु 'क्रियमाणानामुपपद्यतेऽनेकदेशसम्बन्ध इति ॥ अधिगच्छत :--अधिगमयत:॥ पूर्वमीमांसायाः प्रथमाध्यायाद्यपादे षष्टाधिकरणोक्तरीत्या शब्दनित्यत्वं निरूपयिष्यन् पूर्वपक्षसिद्धान्तौ तदधिकरणसूत्रभाष्यवार्तिकोक्तौ अनुवदति तथा हीत्यादि। कथ्यन्त इति। 'मादिमत्त्वादेन्द्रियकत्वात्कृतकवदुपचाराच' (न्या-सू-2-2-13) इत्यादिष्विति शेषः। ताल्वादौ कोष्ठे भवः-कौष्ठयः ॥ एकस्येति। यदा नित्य: सार्वत्रिकश्च शब्दः, तदा गगनादिवदेक एव स्यात् । नित्यस्य सत: अनेकत्वं तु अनवस्थादिग्रस्तम् ॥ - 1 न हि-ख. स्फुटति-ख. देशत्वाच्च-क. 4 तेषु तेषु देशेषु-ख. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 515 आह्निकम् ३] शब्दानित्यत्वहेतूनामप्रयोजकत्वम् [विकारित्वाचानित्यः शब्दः] शब्दान्तरविकार्यत्वाचानित्यः शब्दः। दध्यत्रेति इकार एव यकारीभवतीति सादृश्यात् स्मृतेश्चावगम्यते। विकार्यत्वाच्च द्राक्षेक्षुरसादिवदनित्यत्वमस्येति॥ वृद्धिहासभाक्त्वाचानित्यः शब्दः) कारणवृद्धया च वर्धमानत्वात् । बहुभिर्महाप्रयत्नरुच्चार्यमाणो महान् गोशब्द उपलभ्यते, अल्पैरल्पप्रयत्नरुच्चार्यमाणोऽल्प इत्येतच तन्तुवृद्धया वर्धमानः 'पट इव शब्दोऽपि हेतुवृद्धया वर्धमानः कार्यो भवितुमर्हतीति ॥ . . . [शब्दानित्यत्वहेतूनामसाधकत्वम्] . त एते सर्व एवाप्रयोजका हेतवः। तथाहि-प्रात्यभिज्ञातः । सिद्ध नित्यत्वे प्रयत्नानन्तरमुपलभात् अभिव्यक्तिः प्रयत्नकार्या शब्दस्य, नोत्पत्तिरिति गम्यते। तदेवं व्यङ्गयेऽपि प्रयत्नानन्तरमुपलम्भसंभवादनैकान्तिकत्वम्। अभिव्यञ्जकानां च पवनसंयोगविभागानामचिरस्थायित्वान्न चिरमुच्चारणादूर्ध्वमुपलभ्यते शब्दः॥ प्रयोगाभिप्रायश्च करोति'शब्दव्यपदेशोऽस्य भविष्यति गोमयानि कुरु, काष्ठानि कुर्वितिवत्। तस्मात्सोऽपि नैकान्तिकः॥ नानादेशेषु युगपदुपलम्भनं एकस्य स्थिरस्यापि शब्दस्य विवस्वत इव सेत्स्यति ॥ स्मृतिः-व्याकरणं 'इको यणचि' इत्यादिरूपम् । महानिति । महत्वाल्पत्वे बहुदूरश्राव्यत्वाश्राम्यत्वे ॥ प्रात्यभिज्ञातः-स्वार्थिकः प्रत्ययः । स एवायं ककारः इति प्रत्यभिज्ञा ॥ गोमयानि कुर्विति। गोमयैरग्निमिन्धयेत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि ॥ नानादेशेष्विति। युगपत्सर्वैरनुपलम्भोऽपि अभिव्यक्तितदभावाभ्यामेवोपन्नः॥ 1 पट: शात:-ख. शम्दस्य-क. 33* Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमञ्जरी [वर्णानामविकारित्वम्] विकार्यत्वं त्वसिद्धमेव, शब्दान्तरत्वात्। दधिशब्द इकारान्तः संहिताव्यतिरिक्तविषयवृत्तिः। यकारस्त्वयमन्य एव अचि परतः संहिताविषये प्रयुज्यमानः। न पुनरिकार एवायं यकारीभूतः क्षीरमिव दधिभूतमुपलभ्यते। न ही यशास्तालव्या इति स्थानसादृश्यमात्रेण तद्विकारत्ववर्णनमुचितम, अप्रकृतिविकारयोरपि नयनोत्पलपल्लवयोः सादृश्यदर्शनात्। 'इको यणचि' इति पाणिनिस्मृतेरपि नायमर्थः--इकारो यकारीभवति, क्षीरमिव दधी भवतीति। किन्त्वस्मिन् विषयेऽयं वर्णः प्रयोक्तव्यः, अस्मिन्नयमिति सूत्रार्थः । सिद्ध शब्देऽथै सम्बन्धे च तच्छास्त्रं प्रवृत्तमिति ॥ ___ अपि च क्षीरं दधित्वमुपैति, न तु दधि भीरताम् । इह तु यकारोऽपि क्वचिदिकारतामुपैति- विध्यतीति संप्रसारणे सति । तस्मादसिद्ध एव वर्णानां प्रकृतिविकारभावः ।। [वृद्धि हासभाक्तमपि शब्दस्य नास्ति] नापि कारणवृद्धया वर्धते शब्दः। बलवताऽप्युच्चार्यमाणानि, बहुभिश्च, तावन्त्येवाक्षराणि। ध्वनय एव तथा तत्र प्रवृद्धा उपलभ्यन्ते, न वर्णा इति ॥ __अन्य एव, न तु इकार एव तथा विकृत इत्यर्थः । 'नयनेत्यादि। 'बाले ! तव मुखाम्भोजे चक्षुरिन्दीवरद्वयम् ' इत्यादाविदं दृष्टम्। क्षीरं दधीभवतीव इत्यन्वयः। सिद्ध इत्यादि। 'सिद्ध शब्देऽर्थे सम्बन्धे च लोकतोऽर्थप्रयुक्त शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः' इतिवार्तिकसङ्गहोऽयम् । 'अर्थेनात्मप्रत्यायनाय प्रयुक्तः - अर्थप्रयुक्तः' इति प्रदीपः। 'धर्माय नियमः, धर्मार्थो वा नियमः, धर्मप्रयोजनो वा नियम:-धर्मनियमः' इति भाष्यम् । धर्मः-विधिः॥ विध्यतीति । 'अहिज्यावयिव्यधि'--इत्यादिना यकारस्य संप्रसारणसंज्ञायां, 'संप्रसारणाच' इति पूर्वरूपे व्यधधातो रूपम् ॥ ध्वनय एवेति । तथा च वृद्धिहासादिकं वर्णेन सहगतस्य नाद. विकारस्य ध्वनेरेव धर्मः ॥ भवति-ख. शब्दे -क. Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दानामनित्यत्वे शक्तिमहासंभवोपपादनम् 517 [शब्दनित्यत्वम्] तस्मादनित्यताऽसिद्धिः नैवं प्रायैरसाधनैः। शब्दस्य नित्यतायां तु सैषाऽर्थापत्तिरिष्यते ॥ १८४ ॥ शब्दस्योच्चारणं तावदर्थगत्यर्थमिष्यते । न चोच्चारितनष्टोऽयमर्थ गमयितुं क्षमः ॥ १८ ॥ सर्वेषामविवादोऽत्र शब्दार्थव्यवहारिणाम् । 'यद विज्ञातसम्बन्धः शब्दो नार्थस्य वाचकः ॥ १८६ ॥ वेद्यमानः स सम्बन्धः स्थविरव्यवहारतः। द्राधीयसा न कालेन विना शक्येत वेदितुम् ॥ १८७॥ . [वृद्धव्यवहारात् शब्दार्थसम्बन्धावधारणक्रमः] तथा हि-'गां शुक्लामानय' इत्येकवृद्धप्रयुक्तशब्दश्रवणे सति चेष्टमानमितरं वृद्धमवलोकयन् बालस्तटस्थः तस्यार्थप्रतीति तावत्कल्पयति-आत्मनि तत्पूर्विकायाश्चेष्टाया दृष्टत्वात् , प्रमाणान्तरासन्निधानादेतदृद्धप्रयुक्तशब्दसमनन्तरं च प्रवृत्तेः तत एव शब्दात् किमप्यनेन प्रतिपन्नमिति मन्यते। ततः क्षणान्तरे तमर्थ तेन वृद्धेनानीय मानमुपलभमान एवं बुद्धयते-अयमर्थोऽमुतश्शब्दादनेमावगत इति । स चार्थोऽनेकगुणक्रियाजातिव्यक्तयादिरूपसंकुल उपलभ्यते । शब्दोऽप्यनेकपदकदम्बकात्मा श्रुतः। तत्कतमस्य वाक्यांशस्य कतमोऽर्थांशो वाच्य इत्यावापोद्वापयोगेन बहुकृत्वः ___अर्थगतिः-अर्थज्ञानम् । उच्चारितनष्टः–अकिञ्चित्कुर्वन्निति यावत्। तर्हि शब्दः किं करोतीत्यत्राह-सर्वेषामिति । कुत्राविवाद इत्यत्राहयदिति। एवञ्च सम्बन्धस्मरणद्वाराऽर्थावगतिः शब्दोच्चारणफलम् ।। चेष्टमानं-गवानयनाय चलन्तम् । इतरं-मध्यमम् । अर्थप्रतीतिचलनहेतुभूतं यत्किञ्चिदर्थज्ञानम् । आत्मनि-- स्वस्मिन् । तत्पूर्विकायाःज्ञानपूर्विकाया:। अनेन-मध्यमवृद्धेन ॥ 1 यदि-ख. वृद्धेनानुमीय-क. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् म्यायमअरी शृण्वन् गुणक्रियादिपरिहारेण गोत्वसामान्यमस्मन्मते, त्वन्मते वा तद्वन्मानं गोशब्दस्याभिधेयं निर्धारयतीति ॥ एवं दीर्घावसापेक्षसम्बन्धाधिगमावधि । शब्दस्य जीवितं सिद्धमिति नाशुविनाशिता ॥ १८८॥ [शब्दनित्यत्वाभावे शाब्दबोध एव न घटेत __ भवतु वा विनश्वर'स्यापि शब्दस्य सम्बन्धग्रहणम् । तथापि . तस्मिन् गृहीतसम्बन्धे शब्दे विनष्टे सति कथमनवगतसम्बन्धादभिनवादिदानीमन्यस्माच्छब्दादर्थप्रतिपत्तिः॥ अन्यस्मिन् ज्ञातसम्बन्धे यद्यन्यो वाचको भवेत्। वाचकाः सर्वशब्दाः स्युरेकस्मिन् ज्ञात सङ्गतौ ॥ १८९॥ न च वक्ता व्यवहरमाणः तदैव शब्दं चोच्चारयति, सम्बन्ध करोति च, एतं च व्युत्पादयति, परं च व्यवहारयतीति । न हि युगपदिमाः क्रिया भवितुमर्हन्ति ; एवमदर्शनात् ॥ .. [सर्वेषु शब्देषु साजात्यात् न शक्तिग्रहणसंभवः] . अथ आदौ सम्बन्धग्रहणे वृत्ते, तस्मिन् विनष्टेऽपि गोशब्दे, तत्सदृशमभिनवकृतमपि शब्दमुपश्रुत्यार्थ प्रतिपत्स्यन्ते व्यवहार इत्युच्यते तदपि न चतुरश्रम्-सादृश्यस्याग्रहणात् । न हि गोशब्द इवायमिति प्रतीतिदृष्टा, अपि तु गोशब्द एवेति। न च ___तद्वन्मात्रं-जातिविशिष्टव्यक्तिमात्रम् । जातिस्तु अनुगमिकैवेति पक्षाभिप्रायेणेदम् ॥ ननु शब्दस्य नाशेऽपि नष्टशब्दमूलकत्वं तच्छब्दकालिकव्यवहारस्य अनुमातुं शक्यमिति चेत्, एवं शक्तिनिर्धारेऽपि अनित्यात् शब्दात बोध: न भवत्येवेत्युपपादयति-भवतु वेत्यादिना । अन्यस्मात् शब्दात्-कालान्तरपुरुषान्तरप्रयुक्तात् — गां शुक्लामानय' इत्यादेः। न चेत्यादि। एकदैवोचरितेन शब्देन न हि सर्वे स्वपरव्यवहारादयः निर्वोदुं शक्या इत्यर्थः॥ 1 नश्वर-ख. जात-ख. 3 गोशब्दः स एवेति-ख. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दानां साजात्यात् शक्तिग्रहसंभवनिरासः 519 भूयोऽवयवसामान्ययोगरूपं सादृश्यं वर्णानामनवयवानामुपपद्यते । अभिनवस्य शब्दस्य स्वयमर्थवत्त्वानवधारणात् 'कथमयममुतः श्रोता प्रतिपद्येत' इति शङ्कमानो वक्ता कथं प्रयोगं कुर्यात् ? [सादृश्यमूलकशक्तिग्रहणेऽतिप्रसङ्गश्च ____ अथ सोऽप्यर्थवत्सदृश मेव' प्रयुङ्क्ते, नार्थवन्तं ; तर्हि यत्सदृशमसौ प्रयुङ्क्ते तस्याप्यन्य सादृश्यादेवार्थवत्तेति जगत्सर्गकालकृतस्य मूलभूतस्यार्थवतः शब्दस्य 'स्मरणं स्यात्, तन्मूलत्वाद्यवहारस्य । न चैवमस्ति । न च ततःप्रभृत्यद्ययावत् सादृश्यमनुवर्तते ; 'तत्सादृश्य कल्पनायां मूलसादृश्यविनाशात् । विशेषतस्तु शब्दानाम् ॥ _ [वर्णेषु सादृश्यमेवातिप्रसक्तम्] भिन्नैर्वक्तमुखस्थानप्रयत्नकरणादिभिः। न निर्वहति सादृश्यं शब्दानां दूरवर्तिनाम् ॥ १९० ॥ अनवयवानामिति। मीमांसकानां तु वर्णा नित्याः, सिद्धान्ते तु गुणाः । जातिः खलु आकृतिव्यङ्गया। भाकृतिश्चावयवसंस्थानमेव । यद्यपि रूपत्वादि सामान्य रूपाद्याकृतिव्यङ्ग्यम् ; अतश्च निरवयवेऽपि संस्थानमस्त्येव । अन्यथा हि आत्मत्वजातिरपि न स्यात्---तथाऽपि निरवयवस्य संस्थानासंभवपक्षाभिप्रायेणेदम् ॥ अर्थवत्सदृशं-गृहीतीर्थकशब्दतुल्यम् । अर्थवन्तं-गृहीतार्थकम् । मूलसादृश्यविनाशादिति । 'स्वभावविलक्षणेषु वस्तुषु सत्यामपि सादृश्यपरंपरायां स्तोकस्तोकभेदेनैव दूरमागतस्य मूलसादृश्यमत्यन्तमेव नश्येत् । विशेषतस्तु शब्दे-स्तोकविशेषादेवार्थान्यत्वं भवति, स्वरभेदादेव बहुव्रीहितत्पुरुषार्थभेदात् । किं पुनर्व्यञ्जन-मात्रा क्रमादिभेदात् ' इति पार्थसारथिः (1-1-6-268)॥ भिन्नैरित्यादि। ताल्वादिवैचित्र्यात् प्रतिपुरुषं उच्चरितेषु वर्णेष्वपि महदन्तरं प्रत्यक्षसिद्धम् ! एवं परस्परं असन्निहितानामपि यत्किञ्चित्सादृश्यमादायार्थप्रतीतिनिर्वाहे च नीहारादपि वह्नयनुमानं प्रमाणं स्यात् ॥ 1 स्तमसौ-ख. 2 तस्याप्यन्य-स्त्र. ३ स्मरणं-ख. तत्सदृशसदृश-ख, Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमचरी ' सादृश्यजनितत्वे च मिथ्यैवार्थगतिर्भवेत् । धूमानुकारिनीहारजन्यज्वलनबुद्धिवत् ॥ १९१॥ तस्मात् सादृश्यनिबन्धनार्थप्रतीत्यनुपपत्तः गोशब्द एव स्थायीत्यभ्युपगमनीयम् ॥ [गकाराद्यनुगतं गोशब्दत्वादिसामान्यं तु नास्त्येव] ननु! यथा धूमव्यक्तिभेदेऽपि धूमत्वमतिमवलम्ब्य सम्बन्धग्रहणादिव्यवहारनिवहनिर्वहणं, एवमिह गकारादिवर्णव्यक्तिभेदेऽपि सामान्यनिबन्धनस्तन्निर्वाहः करिष्यत इति-- मैवं तत्र हि धूमत्वसामान्यं विद्यते ध्रुवम् । शब्दत्वं व्यभिचार्यत्र गोशब्दत्वं तु दुर्घटम् ॥ १९२ ॥ भिन्नरयुगपत्कालैरसंसृष्टैर्विनश्वरैः । वर्णैर्घटयितुं शक्यो गोशब्दावयवी कथम् ? ॥ १९३ ॥ अनारब्धे च गोशब्दे गोशब्दत्वं क्व वर्तताम् ? , पटत्वं नाम सामान्यं न हि तन्तुषु वर्तते ।। १९४ ॥ [गत्वादिजातिनिरासः ननु ! मा भूत् गोशब्दत्वं सामान्यं, भिन्नाकारगकारादिव्यक्ति'वृत्तिभिरेव वा' गत्वादिजातिभिः कार्य पूर्वोक्तमुपपद्यते-एतदपि नास्ति-गत्वादिजातीनामनुपपत्तः। भेदाभेदप्रत्ययप्रतिष्ठो हि व्यक्तिजातिप्रविभागव्यवहारः। इह चायमभेदप्रत्ययो वर्णैक्य दुर्घट-तदा हि नीलधूमत्वमपि जातिः स्यात्। गोत्वं तु वस्तुगतं, न शब्दगतम् । ननु गोशब्दत्वं नाम नाखण्ड: धर्म:, किन्तु गकारायवयवसमुदायरूपं तदित्यत्राह-भिन्नैरित्यादि। गोशब्दावयवी--गोशब्द. रूपावयवी। अनारब्धे-निरवयवे ॥ मेदाभेदेति । भेदप्रत्ययप्रतिष्टो व्यक्तिव्यवहारः, अभेदप्रत्ययप्रतिष्टो जातिव्यवहारः। अभेदप्रत्यश्च यदा अन्यथासिद्धः, तदा न जातेः सिद्धिः ॥ 1 वृत्तिभिरेव-ख. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] निबन्धन एव, न जातिकृतः । भेदप्रतिभासस्तु' व्यञ्जक' मेदाधीन इति कुतो जातिव्यक्तिव्यवहारः ? गत्वादिजातिनिरास: [गोत्वजाते: गत्वादेश्व वैलक्षण्यम् ] गोत्वादिजातिनिराकरणेऽप्येष प्रकारः समान इति चेत्-नव्यक्तिभेदस्य सुस्पष्ट सिद्धत्वेन व्यञ्जकाद्युपाधिनिबन्धन' त्वानुपपत्तेः । परस्परविभक्तस्वरूपतया हि शाबलेयबाहुलेयपिण्डाः प्रत्यक्षमुपलभ्यन्ते । स्थिते च व्यक्तिभेदे सर्वत्र गौरिति तदभेदप्रत्ययस्थानन्यविषयत्वादिष्यत एव गोत्वजातिः । इह पुनः कारव्यक्तयो भिन्नाः शाबलेयादिपिण्डवत् । क नाम भवता दृष्टाः येनासां जातिमिच्छसि ? ॥ १९५ ॥ शिशौ पठति वृद्धे वा स्त्रीजने वा शुकेऽपि वा । वक्तृभेदं प्रपद्यन्ते न 'वर्ण'व्यक्तिभिन्नताम् ॥ १९६ ॥ तथा च गर्गः पठति, माठरः पठतीत्युच्चारयितृभेद एव प्रतीयते, अमुं गविशेषमेष पठतीति नोच्चार्यमाणमेदः ॥ ' व' प्रयोगेऽपि तस्यैवोच्चारणं पुनः । गङ्गागगनगर्गादौ न रूपान्तरदर्शनम् ॥ १९७ ॥ द्रुतादिभेदबोधोऽपि नादभेद निबन्धनः । न व्यक्ति मेद ' जनितः ' शाबलेयादि' बोधवत् ॥ १९८ ॥ 1 [गत्वजात्यङ्गीकर्तृभिरपि द्रुतादिभेदात् न गादिभेदः वक्तुं शक्यः ] अभ्युपगतेऽपि त्वसामान्ये तस्य द्रुतादिमेदप्रतिभासे सत्यपि न भिन्नत्वमेषितव्यम् । औपाधिक एव तस्मिन् भेदप्रतिभासो 521 'शाबलेयबाहुले यशब्दौ कर्बुरनीलरूपवद्वाचको व्यक्तिभेदपरिचायकौ ॥ ननु उच्चारयितृभेदात् गादिभेदे, एकोश्च्चरितेषु गकारेषु भेदप्रतीति: कथमित्याशङ्कां उच्चारणभेदबोधनायैव उच्चारयितृभेद उक्त इति समाधत्ते - एकेत्यादि ॥ " भासस्य - ख. 6 'कर्तृ - ख. ' मनिता - क. 2 भेदधी सुस्पष्ट - ख. 7 भेदवत् - ख. 3 खोपपत्तेः - ख. 4 वर्ण - क. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् [ न्यायमश्री वर्णनीयः । सोऽयं गकारव्यक्तावेव कथं न वर्ण्यते - तस्या 'एवै-' कत्वादेकप्रत्ययः, भेदभ्रमस्तु व्यञ्जकाधीन इति । एवं हि कल्पना लघीयसी भवति । तस्मान्न नानागकारवृत्तिगत्वसामान्यं नाम किञ्चिदस्ति ॥ [ग्यजनानां ह्रस्वदीर्घ रूपाणां स्वरोपाधिकभेदवत् स्वरभेदोऽप्योपाधिक एव] अपि च गोगुरुगेहादौ भिनाजुपश्लेषकारित एव व्यञ्जनेषु बुद्धिभेदः परोपाधिरवधार्यते । सोऽयमक्ष्वपि परोपाधिरेव भवितुमर्हति, वर्णाश्रितत्वात् व्यञ्जकभेदप्रत्ययवदिति । तस्मात् गत्ववत् अत्व सामान्यमपि नास्ति || , [ अष्टादशविधस्वरभेदा औपाधिका एव ] यत्पुनः अष्टादशभेदं अवर्णकुलमुच्यते- तदौपाधिकमेव : ह्रस्वदीर्घप्लुतसंवृतविवृतादिबुद्धीनां ध्वनिभेदानुविधायित्वात् ॥ विवृतः संवृतादन्यो 'न' गकाराद्वकारवत् । अपि त्वकार एवासौ प्रतिभाति यथा तथा ॥ १९९ ॥ तस्याः - गकारव्यक्तेः । तथा च जगत्येक एव गकारादिः, भेदस्व पाधिक एव ॥ अचू गोगुरुगेहादाविति । ग गा गि गी इत्यादिष्वित्यर्थः । भिन्नाजुपश्लेषः - अ आ इ ई इत्यादिसम्बन्धः । अक्षु — अकोरादिस्वरेषु । शब्दस्य सुपि रूपम् । परोपाधिः -- उच्चारणभेदाधीनः । सः -- बुद्धिभेदः 1 अष्टादशभेदमिति । एकैकोऽपि ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदेन त्रिविधः । सोऽपि हस्वादिः प्रत्येकं उदात्तानुदात्तस्वरितस्वरभेदेन भिन्नः । सोऽपि पुनः अनुनासिकाननुनासिकभेदेन भिन्नः । एवञ्च एक एव अकारः अनुनासिकोदात्त-' ह्रस्वरूपः, अननुनासिकोदात्तहस्वरूपः - इत्येवं क्रमेण अष्टादशविधः । संवृतविवृतेति । एक एव ह्रस्वः अकारः प्रयोगकाले संवृत इति, प्रक्रियायां विवृत इति च संज्ञाभेदं प्रतिपद्यत इति संप्रतिपन्नत्वात् दृष्टान्तत्वेनोपन्यासः । इदमेव स्पष्टीकरोति - विवृत इत्यादि ॥ 1 एव-क. 2 मिन्नान्या - क. 3ना - क. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] अत्वादिजातिनिरास: 523 [अकारयोः ध्वनिभेदादेवार्थभेद:] कथं तर्हि शब्दभेदाभावे भिन्ने अर्थप्रतिपत्ती--अरण्य आरण्यमिति; ध्वनिकृते एव ते भविष्यतः। अशब्दधर्मस्य दीर्घत्वादे कथमर्थप्रतीत्यङ्गत्वमिति चेत् ; तुरगवेगवद्भविष्यति ॥ यथा तुरगदेहस्थो वेगः पुंसोऽर्थसिद्धये। . परधर्मोऽपि दीर्घादिरेवं तस्योपकारकः ॥ २०० ॥ [अत्वादिजातिनिरासः] ___इतश्चैतदकारसामान्यमनुपपन्नम्। अत्वं हि न दीर्घप्लतयोरेनुगतं भवति, 'आत्वं न ह्रस्वकृतयोः, आत्वं' न ह्रस्वदीर्घयोरिति । तस्मादेकत्वाद्वर्णानां नावान्तरजातयः संभवन्ति। शब्दत्वं तु नियतार्थप्रतिपत्तौ व्यभिचारीत्यतो नात्र धूमादिन्यायः॥ [शब्दादर्थबोधान्यथाऽनुपपत्त्या शब्दनित्यत्वसाधनम् ] तेनार्थप्रत्ययः शब्दादन्यथा नोपपद्यते । न चेन्नित्यत्वमित्यस्मिन् अर्थापत्तेः प्रमाणता ॥ २०१॥ [अर्थापत्तेरनुमानरूपत्वे, अनुमानेन शब्दनित्यत्वसिद्धिः] अनुमानादन्यथात्वमर्थापत्तेन दृश्यते। 'तेना'नुमानमप्येतत्प्रयोक्तुं न न शक्यते ॥ २०२॥ ननु यदि हस्वदीर्घादिभेदः अकारे नास्ति, तर्हि अरण्य-भारण्यशब्दयो: कथं वाच्यभेद: १ ताभ्यां बोधभेदो वा इति शङ्कते-कथमिति । परधर्मः-- ध्वनिधर्मः॥ . अत्वं-हस्वगतम्। आत्वं-बीगतम् । आत्वं-प्लुतगतम् । नात्र जातिभेदः, एकस्यैव अकारस्य अष्टादशभेदवर्णनात् । तस्मात्हस्वदीर्घादिभेद: ध्वनिकृत एव, न जातिभेदकृत इति सिद्धिः। शब्दत्वमिति । यद्यपि शब्दस्वं जाति:, परन्तु तत् सर्वसाधारण इति न विलक्षणबोधोपयोगि ॥ तेनेति । शब्दस्य नित्यत्वं न चेत्, अन्यथा-प्रकारान्तरेण, गत्वादिसामान्यद्वारेण शब्दादर्थप्रत्ययः नोपपद्यते इत्यन्वयः ॥ ____ अस्व-ख. 2 ततोऽ-क. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 मीमांसकै: शब्दनित्यत्वसाधमम् [न्यायमञ्जरी तदिदमुच्यते-शब्दो धर्मी, नित्य इति साध्यो धर्मः, सम्बन्धग्रहणसापेक्षार्थप्रतिपादकत्वात् , धूमादिजातिवत्। तदिदमुक्तं 'नित्यत्वं तु स्यादर्शनस्य परार्थत्वात्' (जै. सू. 1-1-18) इति । एवं सम्बन्धग्रहणात्प्रभृति आर्थप्रतिपत्तेरवस्थितस्य विनाशहेत्वभावादात्मादिवन्नित्यत्वम् ॥ [निरवयवत्वात् शब्दः न नश्यति न ह्ययमवयवविनाशानश्यति ब्दः, निरवयवत्वात् । तदेव कथमिति चेत् - उच्यते स्वल्पेनापि प्रयत्नेन यदि वर्णः प्रयुज्यते । यदि वा नानुभूयेत, शकलो नानुभूयते ॥ २०३॥ सावयवे हि वस्तुनि द्विधा अवयवा दृश्यन्ते, आरब्धकार्याश्चानारब्धकार्याश्चेति । इह पुनरारब्धकार्या . 'अनारब्धकार्या वा नित्यत्वमिति । शब्दस्येति शेषः। 'दर्शनं- उच्चारणं ; तत् परार्थ --परं अर्थ प्रत्याययितुम् । उच्चरितमात्रे हि विनष्टे शब्दे न चान्योऽन्यान् अर्थ प्रत्याययितु. शक्नुयात् ' इति शाबरं भाष्यम् । अत्र 'नित्यस्तु' इति भाष्यादिपाठः। ननु तर्हि शब्दस्यार्थबोधनपर्यन्तमवस्थानेनाप्यलं, कुतो नित्यत्वम् ? इत्यत्राह-एवमिति । सम्बन्धग्रहणात् प्रभृतीति। अयमाशय:शक्तिग्रहणकाले यः गवादिशब्दः श्रुतः स एव कालान्तरे. गवादिबोधं जनयितुं शक्तः, न त्वन्यः, भगृहीतशक्तिकत्वात् । गत्वादिजातीनां च निरासात् न जातिद्वारा सर्वेषु गवादिशब्देषु पूर्वमेव शक्तिप्रहसंभवः। अतश्च बोधपर्यन्तमपि स एव शब्दो वर्तत इत्यङ्गीकार्यम् । शक्तिग्रहणकाले श्रुतस्य, मध्यकाले अश्रयमाणस्यापि गवादिशब्दस्य बोधकाले पुन: श्रवणपर्यन्तं अवस्थानं सिद्धमेव। तेन च भश्रयमाणा अपि शब्दाः सदा वर्तन्त एव, तदा तदा तूचारणादमिव्यक्तिरेवेत्यवशादङ्गीकर्तव्यमिति शब्दनित्यत्वसिद्धिः ॥ नानुभूयेत। ‘यावता हि प्रयत्नेन एको घटो निष्पाद्यः, तावति प्रयत्ने अकृते न हि घटनिष्पत्तिः, दर्शन वा उपलभ्यते। ननु सर्वथाऽनुपलब्धि: नापादयितुं शक्या, स्वल्पस्य प्रयत्नस्य कृतत्वादित्यत्राह-शकल इति। अक्षरैकदेशः इत्यर्थः। वा-क. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दनित्यत्वहेतवः 525 पटे तन्त्वादय इव वर्णे न क्वचिदवयवा उपलभ्यन्ते। न चानुमीयन्ते, लिङ्गाभावात् ॥ अश्रयविनाशात् शब्दविनाशासंभवः] नाप्यश्रयविनाशाद्विनाशः, शब्दस्य आत्मादिवदनाश्रितत्वात् । आकाशाश्रितपक्षे वा तन्नित्यत्वात् । 'न चान्यः कश्चन शब्दनाशस्य हेतुरस्ति । क्षयो यथोपभोगेन शस्त्रादिच्छेदनेन वा। संभाव्यते पटादीनां नैवं शब्दस्य कर्हि चित् ॥ २०४॥ तस्मात्तिरोहितोऽप्यास्ते, यदि शब्दः क्षणान्तरम् । मृत्योर्मुखा दपक्रान्तः पुनः केनैष' हन्यते? ॥ २०५॥ .. [सङ्ख्याभावाच्च शब्दः नित्यः] इतश्च नित्यः शब्दः-सङ्ख्याभावात्' (जै. स्. 1-1-20)। अष्टकृत्वो गोशब्द उच्चारित इति वदन्ति, न त्वष्टौ गोशब्दा इति (शा. भा. 1-1-20)। तेनैकत्वमवगम्यते । योऽयं क्रियाभ्यावृत्तिगणने विहितः कृत्वसुच्प्रत्ययः, स क्रियावतामभेदे भवति । तेनोच्चारणावृत्तिमात्रम् । तदुक्कम (श्लो. वा. 1-1-6-367) ‘क्रियावता मभेदे हि क्रियाऽऽवृत्तिषु कृत्वसुच । तत्प्रयोगात् ध्रुवं तस्य शब्दस्यावतते क्रिया' इति ॥ 'क्रियाभ्यावृत्तिसत्तायामभेदे च क्रियावताम्' संख्याभिधायिनः शब्दात् कृत्वसुच्प्रत्ययं विदुः ॥ २०६॥ पटे तन्त्वादय इवेति । पार्थिवशरीरे जलादिरिवेति अनारम्भकावयवदृष्टान्तोऽप्यूह्यः । अयमंशः ८ आह्निके स्पष्टीभविष्यति ॥ मीमांसकमते शब्दस्य निरवयवद्रव्यत्वात्-आत्मादिवदित्युक्तम् ॥ तस्मात्-उक्तहेतोः। अयमाशय इत्यादिना टीकायामनुपदमिदं विवृतम् ॥ क्रियावतामिति। 'दशकृत्वः देवदत्त मागतः' इत्यादाविदं दृष्टम् । 'संख्यायाः क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृत्वसुच् ' (पा. सू. 5-4-17)॥ 1 न चान्यः-ख. तस्मात्तिरोहितो-ख. दु:खा-ख. 5 प्रयुक्त-ख. मभेदो-ख. 'संख्यावताम्-ख. 4 केनैव-क. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 [ न्यायम मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् [प्रत्यभिज्ञाबलादपि शब्दनित्यत्वसिद्धिः ] तदनेन प्रकारेण प्रत्यभिज्ञानमुच्यते । प्रमाणं शब्दनित्यत्वे सकलश्रोतृसाक्षिकम् ॥ २०७ ॥ तथा ह्यस्ति स एवायं गोशब्द इति वेदनम् । श्रौत्रं करणकालुष्यबाधसन्देहवर्जितम् ॥ २०८ ॥ [' सोऽयं गकार: ' इत्यादिप्रत्यभिज्ञाया अनन्यथासिद्धत्वम् ] श्रोत्रेन्द्रियव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधानात् श्रौत्रमिदं विज्ञानम् । न चैतजनकस्य करणस्य किमपि दौर्बल्यमुपलभ्यते । न च किंखिदिति कोटिद्वय संस्पर्शितया इदं विज्ञानमुपजायते । न च नैतदेवमिति प्रत्ययान्तरमस्मिन् बाधकमुत्पश्यामः । इदानीं तनास्तित्वप्रमेयाधिक्यग्रहणाश्चदमनधिगतार्थग्राह्यपि भवितुमर्हति । भवन्मते च गृहतग्राहित्वेऽपि प्रत्यभिज्ञायाः प्रामाण्यमिष्यते। न हि तदप्रामाण्यं वक्तुं शक्यते ; शाक्यैरिव भवद्भिः क्षणिक पदार्थानभ्युपगमात् ॥ [' सोऽयं गकार: ' इति प्रत्यभिज्ञा न साजात्यमूला ] न सादृश्यनिमित्तत्वं वक्तुं तस्याश्च युज्यते । सामान्यविषयत्वं वा यस्यापि निषेधनात् ॥ २०९ ॥ कैश्चित्तिरोहिते भावादित्यप्रामाण्यमुच्यते । तदसत्तत्प्रतीत्यैव तिरोधाननिषेधनात् ॥ २१० ॥ ननु अनधिगतार्थगन्तृत्वरूपप्रामाण्यवादिनस्तव कथं प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यंमित्यत्राह - इदानींतनेति । वर्तमानकालसम्बन्ध इति यावत् । तदुक्तम् 'कालश्चैको विभुर्नित्यः प्रविभक्तोऽपि गम्यते । वर्णवत्, सर्वभावेषु व्यज्यते केन चिक्कचित् ' ( श्लो. वा. 1-1-6-303 ) इति ॥ द्वयस्य - सादृश्यस्य, जातेश्च । निषेधनात्, अनुपदमेवेति शेषः । तिरोहिते - विनष्ट इति भावः । ज्ञानकर्मणोः द्वित्रक्षणावस्थानेऽपि ज्ञानक्रियान्तरोत्पत्तावपि प्रत्यभिज्ञा दृश्यत इत्यर्थः । ' बुद्धिकर्मणी भपि प्रत्यभिज्ञायेते' (शा. भा. १-१ - ६ ) इत्याद्यत्रानुसन्धेयम् । तत्प्रतीत्यैव - तादृशप्रत्यभिज्ञयैव । अयं भावः - प्रत्यभिज्ञा हि वस्त्वैक्यविषयिणी जात्यैक्यविषयिणी वाश्व । सोऽयं गकारः इत्यादौ जात्याद्यनालम्बनतायाः उक्तत्वात्, Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 527 आह्निकम् ३] शब्दानां नित्यत्वेऽपि ग्रहणनियमाक्षेपः जीवति त्वन्मतेऽप्येष शब्दस्त्रिचतुरान् क्षणान् । प्रत्यभिज्ञा च कालेन तावता न न सिद्धयति ॥ २११ ॥ एकक्षणायुषि त्वस्मिन् प्रतीतिरतिदुर्लभा। न खल्वजनकं किञ्चित् वस्तु ज्ञानेन गृह्यते ॥२१२॥ इति क्षणभङ्गभङ्गे (९ आह्निके) वक्ष्यते ॥ [ग्रहणात्पूर्वमपि शब्दा वर्तन्त एव] 'अपि च यथा निशीथे रोलम्बश्यामलाम्बुदडम्बरे। प्रत्यभिज्ञायते किश्चित् अचिरद्युतिधामभिः । २१३ ॥ तथाऽविरतसंयोगविभागक्रमजन्मभिः। प्रत्यभिज्ञायते शब्दः क्षणिकैरपि मारुतैः ॥ २१४ ॥ • [शब्दनित्यत्वे तस्य ग्रहणनियमासंभवाक्षेपः। अत्राह (श्लो-वा-1-1-6-51)-मारुतैरित्युपोद्धातेन साधु स्मृतम्। तिष्ठतु तावत्प्रत्यभिज्ञानम् ! प्रथममेव शब्दस्य यन्नियतग्रहणं, तदभिव्यक्तिपक्षे दुर्घटम् ॥ नित्यत्वात् व्यापकत्वाच्च सर्वे सर्वत्र सर्वदा। शन्दाः सन्तीति भेदेन ग्रहणे किं नियामकम् ? ॥२१५॥ ध्वनयो हि नाम संयोगविभागविशेषिता वायवः, बाधकाभावाच्च वस्त्वैक्यमेव विषयः । उक्तप्रत्यमिज्ञायाः क्वचित् त्वयाऽपि वस्स्वैक्यालम्बनत्वमङ्गीकार्यमित्याह--जीवतीति। त्रिचतुरानिति । अयं विषय: अग्रे सिद्धान्ते स्पष्टीभविष्यति । ननु क्षणिकवादे साजात्यालम्बनस्वमेव वक्तमित्यत्राह-एकक्षणेति। ज्ञानक्षणे विषयस्यैवाभावादिति हेतुः ॥ शब्दस्य ग्रहणप्रकार विचारयिषुः, तदुपक्षेपार्थ कादाचित्केनापि व्यञ्जकेन पूर्वतनस्यैव व्यञ्जनं 'मेधान्धकारशर्वां विद्युजनितदृष्टिवत्' (श्लो. वा. 1-1-6-41) इत्युक्तमुपपादयति-अपि चेत्यादिना। प्रत्यभिज्ञायतेविद्यमान एव ज्ञायते-अमिन्यज्यत इति यावत् ॥ भेदेन कालदेशपुरुषभेदेन मिन्नतया। ध्वनयः-नादाः। 'संयोग Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् [न्यायमरी वायुवृत्तयो वा संयोगविभागाः । ते हि शब्दस्य व्यञ्जका इष्यन्ते। तैश्च करणं वा संस्क्रियते ? कर्म वा? द्वयं वा? सर्वथा च प्रमादः ॥ [अमिव्यञ्जकसामग्रया श्रोत्रसंस्कारासंभव:] करणे संस्कृते तावत् सर्वशब्दश्रुतिर्भवेत् । गकारायैव संस्कार इत्येष नियमः कुतः? ॥२१६ ॥ अपिच-स्तिमितसमीरणापसरणमेव करणस्य संस्कारः । स चायं तद्देशव्यवस्थितसकलतद्विषयसाधारण एव ॥ यथा जवनिकाप्रायप्राप्तप्रसरमीक्षणम् । रङ्गभूमिषु तद्देशमशेषं वस्तु पश्यति ।।२१७॥ तथा प्रसरसंरोधिसमीरोत्सारणे सति। श्रोत्रं तद्देशनिःशेषशब्दग्राहि भविष्यति ॥२१८ ॥ [श्रोत्रसंस्कारपक्षे श्रोत्रनियमश्वं दुर्वचः] आकाशं च श्रोत्रमाचक्षते भवन्तः। तच्च विभु निरवयवं चेति क्वचिदेव तस्मिन् संस्कृते सति सर्वे च तदैव संस्कृतकरणाः संपन्ना इति सर्व एव शृणुयुः इति बधिरेतरव्यवस्था दुस्थिता ॥ विभागा: नैरन्तर्येण क्रियमाणा: शन्दमभिव्यञ्जयन्तः नादशब्दवाच्याः' (शा-मा1-1-17), 'वायवीया हि ध्वनयः अभिग्यञ्जकाः' (न्या-रा-1-1-6-41)। साधारणवायो: ध्वनिरूपत्वासंभवात् वायुवृत्तयो वेति। करणं वेत्यादि । विद्यमान एव शब्दः, एतावताऽगृह्यमाणोऽपि इदनीमेव गृह्यत इत्यनुभवसिद्धम् । तत्र एतावता कालेन तादृशशब्दग्रहणाशक्तं श्रोत्रं, इदानीमेव व्यञ्जकसामग्रीप्रभावात् संस्कृतं सत् इदानीं शब्दं ग्रहीतुं समर्थमभूदित्युच्यते ?. उत इन्द्रियं तथैवावतिष्ठते, किन्तु शब्द एव आरोपितातिशयः इदानीं गृह्यते ? उत श्रोत्रे, शब्दे च अतिशयः प्रापय्यते ? सर्वशब्देति। यदा च श्रोत्रं संस्कृतं, तदा तेन गकार एव गृयेत, न तु चकार इति कथं नियमः? न हि घटग्रहणायोन्मीलितं चक्षुः पटं न गृह्णीयात् ! ननु संस्कार एव प्रत्यक्षरं भिन्नः स्यादित्यत्र, तथा न वक्तुं शक्यमित्याह - अपि चेति। स्तिमितः -- निश्चलः-प्रतिबन्धकीभूत इति यावत् (न्या-र. 1-1-6-123)। इदमेवोपपादयति-यथेति ॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् ३] शम्दानां नित्यत्वे तीव्रत्वमन्दत्वाचसंभवाक्षेपः 529 [शब्दसंस्कारपक्षस्याप्ययुक्तता विषये तु संस्क्रियमाणे तस्यानवयवस्य व्यापिनश्च संस्कृतत्वात् सर्वत्र श्रवणमिति मद्रष्वभिव्यक्तो गोशब्दः कश्मीरेष्वपि श्रूयेत । न हि तस्याधारद्वारकः संस्कारः, आकाशवदनाश्रितत्वात्। आकाशाश्रितत्वपक्षेऽपि तदेकत्वात्। नापि भागशः संस्क्रियते गोशब्दः, तस्य निरवयत्वात् । उक्तं हि (श्लो-वा-1-1-5-स्फोट-10) _ 'अल्पीयसा प्रयत्नेन शब्द मुञ्चरितं मतिः । . यदि वा नैव गृह्णाति वर्ण या सकलं स्फुटम' इति॥ [श्रोत्र-शब्दसंस्कारपक्षस्याप्यसंभव:] उभयसंस्कारपक्षे तु दोषद्वयस्याप्यनतिवृत्तिः-सर्वेषां ग्रहणं, सर्वत्र श्रवणमिति । न च समानदेशानां समानेन्द्रियग्राह्याणां च भावानां प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गयत्वमुपलब्धम् ॥ गृहे दधिघटी द्रष्टुं आनीतो गृहमेधिना। . अपूपानपि तद्देशान् प्रकाशयति दीपकः ॥ २१९ ॥ तस्मात् कृतकपक्ष एव नियतदेशं शब्दस्य ग्रहणं परिकल्पते, नाभिव्यक्तिपक्ष इति ॥. - शब्दनित्यत्वपक्षे तीव्रमन्दविभागाद्यसंभवश्च] : अपि च-अभिव्यक्तिपक्षे तीव्रमन्दविभागः, अभिभवश्व शब्दस्य शब्दान्तरेण न प्राप्नोति । न हि शब्दस्तीवो मन्दो वा कश्चित् , स्वतस्तस्य भेदाभावात्। संस्कारस्य च तदभिव्यक्तिहेतोः न काचन तीव्रता, मन्दता वा; यदनुसारेण विषये तथा बुद्धिः स्यात् ॥ सर्वत्रेति । वार्तिकन्यायरत्नाकरयो: (1-1-6-51-64) शब्दसंस्कारपक्षेऽपि सर्वैः ग्रहणमप्युक्तम् ॥ स्वत इति। शब्दो हि नित्यः, एकः, विभुश्चेति तन्मतम् ।। मुच्चारित-ख. NYAYAMANJARI Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 मीमांसकः शब्दनित्यत्वसाधनम् [तीव्रत्वमन्दत्वादे: वायुधर्मत्वासंभवः ] पवनधर्मो वा तीव्रादिर्भवन् कथं श्रोत्रेण गृह्येत ? सावयवे हि वस्तुनि सकलविशेषग्रहणाग्रहणसंभवात् तदपेक्षया प्रतीतिभेदो भवेत् । इह तु निरवयवे शब्दे न तथोपपद्यते इति । तस्मात् कृतकपक्ष एव श्रेयानिति ॥ [ न्यायमभरी [शब्दनित्यत्वेऽपि श्रोत्रसंस्कारपक्षः युक्त एव ] अत्रोच्यते - करणसंस्कारपक्ष एव तावदस्तु । तच्च करणं किञ्चिदेव मरुद्भिरुपा हितसंस्कारं कञ्चिदेव शब्दं गृह्णाति ॥ यथा तावादिसंयोग विभागा भवतां मते । उत्पादकतयेष्यन्ते केचिद्वर्णस्य कस्यचित् ॥ २२० ॥ तथा तद्वायुसंयोगविभावाः केचिदेव नः' । कस्यचिद्ग्रहणे 'शक्ताः श्रोत्रं कुर्वन्ति संस्कृतम् ॥ २२९ ॥ यथा च तेषामुत्पत्तौ सामर्थ्य नियमस्तव । तथैवैषामभिव्यक्तौ सामर्थ्यनियमो मम ॥ २२२ ॥ व्यञ्जकानां नियमो न दृष्ट इति चेत्-क एवमाह सहस्राक्षः ? तथा हि- पृथिव्यामेव वर्तमानो गन्धः समानदेशो भवति, समानेन्द्रियग्राह्यश्च वाणैकविषयत्वात् । तस्य च नियतव्य अक' व्यङ्गयता दृश्यत एव ॥ कथमिति । पवनधर्मा हि त्वचा गृह्येरन्, न श्रोत्रेण । प्रतीतिभेदःकतिपय - यावदवयग्रहणानुरोधेन तीव्रमन्दत्वादिभेदप्रत्ययः ॥ तावादीति । इचुयशानां तालव्यत्वेऽपि इकारोच्चारणाय प्रवृत्तः न हि चकार मुच्चारयति । अतः स्थानसाम्यं स्थूलदृष्ट्या, भेदस्त्वस्त्येव सूक्ष्म: । तथा कृतेऽपि ॥ 'गृहे दधिघटीं द्रष्टुं' इत्यादि समाधत्ते - व्यञ्जकानामित्यादि । समानेन्द्रियेति । सर्वेषामपि हि प्रागेन्द्रयं पार्थिवमेव, गन्धश्च पृथिवीनिष्ठः । अथापि ग्रहणनियमोऽस्त्येव ॥ 1 विभागाः केचिदेव नः - ख. 2 शक्तं- ख. 3 नियतस्तद्व्यञ्जक - ख. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् ३] शब्दन्त्यित्त्रेऽपि ग्रहणनियमसमर्थनम् 531 क्वचित्पावकसंपर्कादांशुस्पर्शतः क्वचित् । क्वचित्सलिलसंसेकात् गन्धोऽभिव्यज्यते भुवः ॥ २२३ ॥ न च स्तिमितपवनापनोदनमात्रं करणस्य संस्कार इष्यते, यः सर्वसाधारणः स्यात् । किन्तु अन्य एवं नियतः प्रतिविषयं योग्यतालक्षणः ॥ [श्रोत्रस्याकाशरूपत्वेऽपि ग्रहणनियमः] यत्पुनरभ्यधायि-नभसि श्रोत्रेऽभ्युपगम्यमाने सर्वप्राणिनामेकमेव' श्रोत्रं भवेदिति-तदप्यसाधु-धर्माधर्मयोर्नियामकत्वात् । आकाशस्यापि घटाकाशवदन्यावच्छेदोपपत्तः धर्माधर्मनिबन्धन एव बधिरेतरविभागः ॥ [ मीमांसकानां आकाश एव न श्रोत्रम् ] अपि च भवतामेवैष दोषः, येषामाकाशमेव श्रोत्रमित्यभ्युपगमनियमः। मीमांसकानां तु नावश्यमाकाशमेव श्रोत्रम, कार्यार्थापत्तिकल्पितं तु किमपि करणमात्रं प्रतिपुरुषनियतं श्रोत्रमिति नातिप्रसङ्गः। तथा च भर्तृमित्रः पवनजनित संस्कारमेव श्रोत्रं मन्यते ॥ . क्वचिदिति। सर्जरसादौ पावकसंयोगात् , मरीच्यादा सूर्यमरीचिसम्बन्धात् , उशीरादौ सालेलसंसेकाच्च गन्धामिन्यक्ति: दृश्यते। अन्यःकार्यैकोन्नेय: ॥ धर्माधौं किं कुरुतः ? इत्यत्र, तत्तत्पुरुषप्रतिनियतं कर्णशष्कुल्याद्युपाधिमुत्पाद्य विषयव्यवस्थां कुरुत इत्याह - आकाशेति ॥ . नावश्यमिति । 'नावश्यं श्रोत्रमाकाशमस्मामिश्चाभ्युपेयते' (1-16-66) तेनाकाशैकदेशो वा यद्वा वस्त्वन्तरं भवेत् । कार्यार्थापत्तिगम्यं नः श्रोत्रं प्रतिनरं स्थितम् ' (68) इति वार्तिकम् । किमपीति। चक्षुरादिवदतिरिक्तमेवेत्यर्थः । भर्तृमित्र इति । 'केचित्तु पण्डितम्मन्याः' (श्लो. वा. 1-1-6-131) इति वार्तिकन्याख्याने न्यायरत्नाकरे 'अत्र भर्तृमित्रो वदति, ध्वनिजन्यः संस्कारः श्रोत्रमिति' इत्युक्तम् ॥ 'प्राणिनामेव-क. संस्कारपक्षो भवतु-ख. (अनन्तरपुटानुवति). 34* Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमार्ग [शब्दसंस्कारपक्षोऽपि साधीयान् ] मथ वा विषयसंस्कारपक्षो भवतु', तथाऽपि नातिप्रसङ्गः । नियतदेशस्यैव तत्र संस्कारात्। न चास्य भागशः संस्कारः निरवयवत्वात् । तथाऽपि जातिवदस्य ग्रहणनियमो भविष्यति । तथाच भवतामेव पक्षे यथा सर्वगता जाति: पिण्डदेशैव गृह्यते। न च कायंगृहीताऽपि पिण्डेऽन्यत्र न दृश्यते ॥ २२४ ॥ तथा सर्वगतः शब्दः नाद देशेषु गृह्यते । कात्स्न्ये न च गृहीतोऽपि पुनरन्यत्र गृह्यते ॥ २२५॥ पिण्डोऽभिव्यञ्जको जातेः शब्दस्य व्यञ्जको ध्वनिः । आश्रितानाश्रितत्वादि विशेषः क्वोपयुज्यते ॥ २२६॥ [तीव्रत्वमन्दत्वादयः ध्वनिधर्माः, न शब्दधर्माः] सर्वगतत्वनिरवयत्वाविशेषात तीव्रमन्दत्वादयश्च ध्वनिधर्मा अपि भवन्तः शब्दवृत्तितयाऽवभान्ति । यथा स्थूलत्वकृशत्वादयः पिण्डधर्मा अपि जातिवृत्तित्वेन क्वचित गृह्यन्तो दृश्यन्ते', अगृहीतशाबलेयादिविशेषस्य 'कृशा गावः' इत्यादिप्रतिभास. दर्शनात् ॥ पिण्डदेशः-बहुव्रीहिसमासः। एकस्मिन् घटे कात्स्न्येन गृहीतमपि घटत्वं घटान्तरेऽप्युपलभ्यत एव। पटादौ तु न गृह्यत एव । एवमनुभवानुरोधेन प्रकृतेऽपि ग्रहणनियमादिः। नाददेशेष्विति । तथैव यत्समीपस्थैः नादैः स्याद्यस्य संस्कृतिः। तैरेव श्रयते शब्दः' 'नादा हि प्रादेशिकाः स्वदेशावच्छिन्नमेव तस्य विभोरपि संस्कारं कुर्वन्ति' इति वार्तिकं (1-16-85) व्याख्या च । आश्रितेत्यादि । जातिः किञ्चिदाश्रिता, शब्दस्तु स्वतन्त्रः इति वैलक्षण्यं ग्रहणविषये न किञ्चित्करम् ॥ सर्वगतत्वादिकं शब्द इव ध्वनावप्यङ्गीक्रियते । एवमोपाधिकग्रहणे दृष्टान्तमाह-यथेति। गोत्वपुरस्कारेण व्यवहारोपपादनाय --अगृहीतेत्यादि। । संस्कारपक्षो भवतु-ख. (पूर्वपुटात्) - शेषेषु-ख. . गृमन्ते-ख. Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] तीव्रत्वमन्दत्वादीनां ध्वनिधर्मत्वम् 533 तीव्रत्वमन्दत्वादयः बुद्धिकल्पिता एव वा] यहा न तीव्रमन्दादेः वर्णधर्मतया ग्रहः। बुद्धिरेव तथोदेति व्यञ्जकानुविधायिनी ।.२२७ ।। तावन्त एव ते वर्णाः प्रचयापचयस्पृशः । एवं चाभिभवोऽप्येषां स्वतो नास्ति परस्परम् ॥ २२८ ॥ मरुद्भिरभिभूयन्ते मारुता इव दुर्बलाः। तेजोभिरिव दीप्तांशोः दिवा दीपप्रभादयः ॥ २२१ ॥ [श्रोत्र-शब्दसंस्कारपक्षोऽप्यदुष्टः ] द्वयसंस्कारपक्षोऽप्येवं समाहितो भवति, उभयेषामपि दोषाणा मुत्सारणात् । तस्मात् प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययप्रभावसिद्धनित्यत्वस्य शब्दस्य अभिव्यक्तिरेव साधीयसी ॥ - [शब्दनित्यत्वानित्यत्वपक्षयोः गौरवलाधवविमर्शः] इदं चालोच्यतामार्याः! कार्याभिव्यङ्ग्यपक्षयोः । शब्दस्य ग्रहणे गुर्वी लध्वी वा कुत्र कल्पना? ॥ २३० ॥ तथा हि भवन्तः, वैशेषिकाः, सांख्याः; जैनाः, सौगताश्च कार्यशब्दवादिनः। चार्वाकास्तु वराकाः, कस्यैवंविधासु गोष्ठीषु स्मृतिपथमुपयान्ति! 'संस्कारानुकृतेः सोऽपि महत्त्वाद्यवबुध्यते ' (श्लो. वा. 1-1-5. स्फोट. 40) 'यो हि वैशेषिक: गकारादिषु व्यक्ति-जातिभेदमिच्छति, सोऽपि शब्देषु महत्त्वाल्पत्वयोः गुणतां नाभ्युपैति, निर्गुणत्वात् गुणानां, शब्दस्य च गुणत्वात् । अतः यथा तत्राविद्यमानमेव महत्वादिकं ध्वनिसंस्कारानुसारिण्या बुध्या गृह्यते, तथा द्रुतत्वादिकमपि ' इत्यादिवार्तिकव्याख्यानयोरुक्तं स्मरन्नाह-यद्वेत्यादि । वार्तिके (1-1-8-88) प्रतिपादितं विचारमुपक्षिपति-इद मिति । पक्षद्वये प्रतिपादितयोः शब्दग्रहणप्रकारयोः कुत्र कल्पनालाघवगौरवे? Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 मीमांसकैः शन्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमञ्जरी [नैय्यायिकवैशेषिकमतयोः शब्दग्रहणप्रकारानुवादः] तत्र भवतां, 'वैशेषिकाणां च 'शब्दस्य श्रवणे तावदेषा तुल्यैव कल्पना। 'संयोगाद्वा विभागाद्वा शब्द उपजायते। जातश्चासौ तिर्यगूर्वमधश्च सर्वतोदिक्कानि कदम्बगोलकाकारेण सजातीयनिकटदेशानि शम्दान्तराण्यारभते, तान्यपि तथेत्येवं वीचीसन्तानवृत्त्यारम्भप्रबन्धप्राप्तोऽन्त्यः श्रोत्राकाशजन्मा शब्दः तत्समवेतस्तेनैव गृह्यते इति ॥ [वीचीतरङ्गन्यायेन शब्दात् शब्दान्तरोत्पत्तिरित्यस्य निरास:] तदियं तावदतिघर्घरा कल्पना ॥ शब्दः शब्दान्तरं सूत इति तावदलौकिकम् । कार्यकारणभावो हि न दृष्टस्तेषु बुद्धिबत् ॥ २३१॥ जन्यन्तेऽनन्तरे देशे 'शब्दाः स्वसदृशाश्च ते । तिर्यगूर्ध्वमधश्चेति केयं 'वः श्रद्दधानता ? ।। २३२ ।। शब्दान्तराणि कुर्वन्तः कथं च विरमन्ति ते ? ' न हि वेगक्षयस्तेषां मरुतामिव कल्प्यते ॥ २३३ ।। कुड्यादिव्यवधाने च शब्दस्या करणं कथम् ? व्योम्नः सर्वगतत्वाद्धि कुड्यमध्ये व्यवस्थितिः ।। २३४ ॥ · भवतामिति । 'आदिमत्त्वादैन्द्रियकत्वात्' (न्या.स. 2-2-13) इत्यादिसूत्रभाष्यवार्तिकादिष्विदमुपपादितम् । वृत्त्यारम्भः-- विस्तरारम्भः। तत्समवेतन-श्रोत्रसमवेतेन ॥ ‘निरस्तश्चायं शब्दसन्तानः ज्ञानसन्ताननिराकरणन्यायेन' (न्या. र. 1-1-6-95) इत्युक्तं स्मरबाह-बुद्धिवदिति। मरुतामिवेति । वायोव्यत्वेन वेगादिकमुपपद्यते, न तु गुणस्य शब्दस्य ॥ संयोगात्-ख. 'शब्दै:-ख. वा-ख. 'वैशेषिकाणां-ख. कल्पते-ख. वरण--ख. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दस्य द्रव्यत्वम् 535 अथावरणात्मककुड्यादिद्रव्यसंयोगरहितमाकाशं शन्दजन्मनि समवायिकारणमिष्यते, तदत्र प्रमाणं विशेषे वक्तव्यम् । तुल्यारम्भे च तीवेण मन्दस्य जननं कथम्? श्रूयते चान्तिकात्तीवः शब्दो मन्दस्तु दूरतः ॥ २३५ ॥ वीचीसन्तानतुल्यत्वमपि शब्देषु दुर्वचम् । मूर्तिमत्त्व क्रियायोगवेगादिरहितात्मसु ॥ २३६ ॥ [शब्दो द्रव्यमेव, न गुणः] • यदप्युच्यते-सजातीयजनकः शब्दः, गुणत्वात्, रूपादिवदिति--तदिदमसिद्धमसिद्धेन साध्यम्, गुणत्वस्यासिद्धत्वात् ॥ ___ न शब्दः पारतन्त्र्येण कदाचिदुपलभ्यते । द्रव्यस्थ इव रूपादिरतोऽस्य गुणता कुतः? ।। २३७ ।। अपि च न शब्दान्तरारम्भकः शब्दो गुणत्वात् रूपवत् । शब्द नारभते शब्दः शब्दत्वाच्छोत्रशब्दवत् ॥ न संयोगविभागौ शब्दस्य जनकौ, संयोगविभागत्वात्, अन्यसंयोगविभागबदित्यादयः प्रतिहेतवोऽप्यत्र सुलभा इति यत्किञ्चिदेतत्॥ विशेषे-आकाशमान न कारणं, किन्तु आकाशविशेष इत्यत्र । तुल्यारम्भ इति । कारणतुल्येन हि कार्येण भाव्यम् । क्रियायोगः-क्रियावत्त्वम् ॥ पारतन्त्र्येणेति। परतन्त्रैकस्वभावत्वं गुणलक्षणम् । रूपवदिति । भारम्भवाद एव हि कारणगतरूपं कार्यगतरूपजनकम् । मीमांसकास्तु अवस्थाभेदवादिनः। 'तन्तुगुणा एव हि तन्तुषु पटीभूतेषु पटगुणतां भजन्ते' (न्या-1-1-1-6-103) इति युक्तम् । अतः रूपमपि न रूपान्तरजनकम् । तथा च दृष्टान्त एवासिद्धः। प्रत्यनुमानमप्याह-शब्दमिति। 'शब्द नारभते शब्द: शब्दत्वात् अन्त्यशब्दवत्' (1-1-6-106) इति वार्तिकसदृशं वाक्यमिदम् । अन्यसंयोगविभागवत्-तन्त्वादिसंयोगविभागवत् ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 मीमांसकै: शन्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमन्जरी [साङ्खयोक्तशब्दग्रहणप्रकारदूषणम् ] कापिलास्तु वते-श्रोत्रवृत्तिः शब्ददेशं गच्छति, सा शब्देन विक्रियत इति - तत्र श्रोत्रस्य व्यामिश्रत्वान्निकटदेशेनैव शब्देन तद्वृत्तिर्विक्रियते, न दूरदेशेनेत्यत्र को नियमः ? नियमाभावाच कान्यकुब्जप्रयुक्तो गोशब्दः गौरमूलकेऽपि श्रूयेत । अमूर्ता च श्रोत्रवृत्तिः प्रसरन्ती न मूतैः कुड्यादिभिरभिहन्तुं शक्यत इति व्यवहितस्यापि शब्दस्य श्रवणं स्यात् ॥ वायौ शब्दानुकूले च न तस्य श्रवणं भवेत् । गच्छन्त्याः प्रतिकूलो हि श्रोत्रवृत्तेः स मारुतः ॥ २३८॥ रेऽपि अनुवातं शब्दस्य श्रवणं यदृष्टं, प्रतिवातं च निकटेऽपि यदश्रवणं, तदस्मिन् पक्षे विपरीतं स्यात् ॥ वृत्तिवृत्तिमतो दो नास्तीतीन्द्रियवद्भवेत् । व्यापिका वृत्तिरित्येवं कथं सर्वत्र न श्रुतिः ॥ २३९ ॥ [जैनोक्तशब्दग्रहणप्रकारदूषणम्] आईतास्त्वादुः---सूक्ष्मैः शब्दपुद्गलैरारब्धशरीरः शब्दः स्वप्रभवभूमेः निष्क्रम्य प्रतिपुरुषं कर्णमूलमुपसर्पतीति--तदेतदतिसुभाषितम् वर्णस्यावयवाः सूक्ष्माः सन्ति केचन पुद्गलाः। तैर्वर्णोऽवयवी नाम जन्यते पश्य कौतुकम् ।। २४० ॥ तेषामदृश्यमानानां कीदृशो रचनाक्रमः। केन तत्सन्निवेशेन कः शब्द उपजायताम् ।। २४१ ॥ सा-श्रोत्रवृत्तिः। वृत्ते: विषयसमानाकारतापत्तिमेव प्रमाण मन्वते ते।' ज्यामिश्रत्वात्-सर्वसम्बन्द्वत्वात् । आकाशाप्यायनकृतैव हि वृत्तिः, आकाशश्च सर्वसम्बद्ध एव । गौरमूलकं-ग्रन्थकारग्रामनाम । शब्दानुकूलेशब्दग्रहणायानुकूले । 'उक्तमुपपादयति-- रेऽपीति । शब्दोत्पत्तिदेशात् पुरुषदेशाभिमुखतया वायौ आगच्छति शब्दस्य शीघ्रश्रवणं, विपरीते वैपरीत्य च दृश्यते। यदा च श्रोत्रवृत्ति: शब्ददेशं गच्छति, तदा श्रोत्रवृत्तेः तदमिमुखत्वात् ब्याहतिः, विलम्बश्च स्यादेव । ततश्च सर्व विपरीतं स्यात् ॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शम्मनित्यत्वपक्षे लाघववर्णनम् 537 लघवोऽवयवाश्चैते निबद्धा न च केनचित् । न चैनं कठिनं कर्तुं वर्णावयविनं क्षमाः ॥२४॥ कृशश्च गच्छन् स कथं न विक्षिप्येत मारुतैः। दलगो वा न भज्येत वृक्षाद्यमिहंतः कथम् ? ॥२४३॥ प्रयाणकावधिः कश्च गच्छतोऽस्य तपस्विनः । एकश्रोत्रप्रविष्टो वा स श्रूयतापरैः कथम् ? ॥२४४॥ निष्कम्य कर्णादेकस्मात् प्रवेशः श्रवणान्तरे । यदीष्येत कथं तस्य युगपद्बहुभिः श्रुतिः ॥ २४५॥ श्रोतृसंख्यानुसारेण न नानावर्णसंभवः । वक्तुस्तुल्यप्रयत्नत्वात् 'श्रोतृभेदतदैक्ययोः ॥ २४६ ॥ ततलं परिहासस्य महतो हेतुभूतया। मनक्षपणकाचार्यप्रशाचातुर्यचर्चया ।। २४७॥ बौद्धोक्तशब्दग्रहणप्रकारदूषणम्] शाक्यप्रायास्त्वाचक्षते-अप्राप्त एव शब्दः श्रोत्रशक्तया गृह्यत इति-तदेतदतिव्यामूढभाषितम्-अप्राप्ति तुल्यतायां दूरव्यवहितादीनामश्रवणकारणाभावात्। प्राप्यकारिताख्यकर्मधर्माप्रसङ्गाश्च । न च चार्वाकवदपरीक्षित एवायमर्थ उपेक्षितुं युक्तः ॥ इति कार्यत्वपक्षेऽमूः श्रतास्तार्किककल्पनाः । अथाभिव्यक्तिपक्षेऽस्य शृणु श्रोत्रियकल्पनाम् ॥ २४८॥ [शब्दनित्यत्वपक्षे लाघववर्णनम् विषक्षापूर्वकप्रयत्नप्रेर्यमाणस्तावद्वेगवत्तया क्रियावत्तया च कौष्ठयो बहिर्निस्सरति समीरण इति सुस्पष्टमेतत् । प्रत्यक्षनिकट'. पवनवादिनां पक्षे पवनसमये वक्तृवदननिकट निहितहस्तस्पर्शेनैव प्रत्यक्षनिकटपवनवादिनां-वक्सनिकृष्टपवनप्रत्यक्षत्ववादिनामित्यर्थः॥ - शिक्षा । श्रोतभेदे तदत्यवे-स्व. अप्राप्तवा-ख. प्रत्यक्ष-ख. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 मीमांसकैः शन्दनित्यत्वसाधनम् न्यायमरी स उपलभ्यते। अनुमेयमारुतपक्षेऽपि तदानीमास्यसमीपसन्निधापिततूलककर्मणा सोऽनुमीयते ॥ स गच्छन् सर्वतोदिकः स्तिमितानिलनोदनम् । करोति, कर्णाकाशे च प्रयाति श्रुतियोग्यताम ॥२४९ ॥ स च प्रयत्नतीव्रत्वमन्दत्वेन तदात्मकः । . शब्दे तथाविधज्ञप्तिहेतुतामवलम्बते ॥२५०॥ स चैष गच्छन्नुद्दामवेगयोगाहितक्रियः। शरवद्वेगशान्त्यैव न दूरं गन्तुमर्हति ॥ २५१॥ स मूर्तः प्रसरन्मूर्तेः अपरैः प्रतिबध्यते । कुडयादिभिरतो नास्य श्रुतिर्व्यवहितात्मनः ॥२५२॥ : स वेगगतियोगित्वात् आगच्छति यतो यतः । श्रोता ततस्ततः शब्दं आयान्तमभिमन्यते ॥ २५३॥ स तु शङ्खादिसंयोगप्रेर्यमाण: समीरणः । शब्दस्यावर्णरूपस्य भवति व्यक्तिकारणम् ॥ २५४॥ शब्दो' यद्यपि 'वर्णात्मा श्रोत्रग्राह्यो न विद्यते । तथाऽपि तत्र शब्दत्वं श्रवणेन ग्रहीष्यते ॥२५५॥ तदिह न कदाविदस्माभिरधिका कल्पना कृता, मारुतगते. रस्याः सर्वलोकप्रसिद्धत्वात् । कर्णाकाशसंस्कारमात्रमदृष्टं कल्पितम्। तदपि कार्यार्थापत्तिगम्यत्वान्नापूर्वमिति ॥ तदात्मकः-तीव्रमन्दात्मकः । मूर्त:-शब्दो हि द्रव्यम् । यतो यतः --यद्याद्दशः । अवर्णरूपस्य-ध्वनिरूपस्य । शब्द इति । ध्वनिपदवाच्यः नाद एव श्रोत्रग्राह्यः । तदारूढत्वात् कौथ्यमारुताभिव्यक्तः वर्णोऽपि श्रोत्रग्राह्य . इवाभाति इति वार्तिकतड्याख्ययोः स्पष्टम् (1-1-6.223-224)। 'द्विविधो हि शब्दः-वर्णः ध्वनिश्च । द्वयोरनुगतं शब्दत्वम् । वर्णत्वं ध्वनित्वं च तस्सामान्ये। वर्णविशेषाः गकारककारादयः, ध्वनिविशेषाः शङ्खघोषादयः । ध्वन्यात्मकश्च शब्दः वायुगुणः। स एव च वर्णात्मकानां ककारादीनामभि 1 यद्वा-ख. 2 अवर्णात्मा-क Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाह्निकम् ३] शग्दैक्यप्रत्यभिज्ञाया: निर्दुष्टत्वम् 539 अपक्ष'पातिनः' सभ्याः सत्यमुत्पत्त्यपेक्षया। शब्दस्य कल्पनामाहुः अभिव्यक्तौ लघीयसीम् ॥२५६॥ तदेवमभिव्यक्तिपक्षे नियतग्रहणोपपत्तः प्रत्यभिशाप्रत्ययप्रामाण्यात् नित्यत्वमेवोपगन्तव्यम् ॥ सोऽयंगकार इत्यादिमत्यभिज्ञाया: अनन्यथासिद्धत्वम] या त्वनैकान्तिकत्वोक्तिः धीकर्मप्रत्यभिज्ञया। प्रत्यक्षे चोद्यमानाऽसौ दर्शयत्यतिमूढताम् ॥२५७ ॥ ज्याकः । स च कदाचित् वर्णरहितः केवलो गृयते शङ्खघोषादिषु, कदाचित् वर्णानमिन्यञ्जयन् तदुपश्लिष्टः प्रतीयते' (श्लो. वा. व्या. १-१-५ स्फोट ३९) इति पार्थसारथिवाक्यान्यपि अत्रावधेयानि ॥ _ 'बुद्धि-कमर्णी अपि प्रत्यभिज्ञायते । ते अपि नित्ये प्राप्नुतः । नैष दोषः । न हि ते प्रत्यक्षे। अथ प्रत्यक्षे नित्ये एव' (शा. भा. 1-1-6. 20) इत्यायनुवदति-या त्विति। न हि ते प्रत्यक्षे। अथ प्रत्यक्षे नित्ये एव' इति सिद्धान्तभाष्यस्याशयमाह-प्रत्यक्ष इति । शब्दस्तु प्रत्यक्षः। बुद्धिकर्मणी त्वतीन्द्रिये। अतश्च तत्र प्रत्यभिज्ञा न प्रत्यक्षरूपा, किन्तु अनुमानरूपैव वाच्या। कालद्वयविषयकमनुमानं भवितुमर्हत्येव । तथा च परोक्षेयं प्रत्यभिज्ञा न स्वदृष्टान्तेन शब्दविषयप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षं बाधितुं समर्थम् । शब्दवदेव तयोरपि यदि स्यात् प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षं, तदा स्यातां कामं ते अपि नित्येइति समाधानभाष्याशयः ॥ ____ कुमारिलस्तु-'अथ प्रत्यक्षे, नित्ये एव ' इति भाष्यं प्रत्यक्षत्वमानं नित्यत्वापादनक्षमपरं भाति । तत्तु प्रत्यक्षे घटादौ नित्यत्वाभावात् व्यभिचरितम् । भतो भाष्यमिदं यथाश्रुततयाऽसम्बद्धमिव - इत्याक्षिप्य ; नात्र प्रत्यभिज्ञया शब्दनित्यत्वं साध्यते, येन बुद्विकर्मणोः व्यभिचारः स्यात् । किन्तु शब्दानित्यत्वे प्रत्यभिज्ञाविरोध एव। एवञ्च 'तर्हि बुद्धिकर्मणोरपि तथा प्रत्यभिज्ञानात् अनुभवसिद्धमनित्यत्वं विहाय नित्यत्वमेवाङ्गीकर्तन्यं स्यात्' इति सिद्धान्तिसम्मतार्थन्तरदूषणे कृते, 'शब्दस्य प्रत्यक्षत्वात् तन्नित्यत्वमपि प्रत्यक्षमेव । अतस्तस्यानित्यत्वे उक्ते प्रत्यभिज्ञाविरोधः। बुद्धिकर्मणी तु पतिता:-क. प्रत्यक्ष क. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 मीमांसकैः शब्दनित्यत्वसाधनम् [न्यायमजरी तेनानुमानदोषेण प्रत्यक्षं न हि दृष्यते। सिद्धान्तान्तरचिन्ता तु भवेत् भृशमसङ्गता ॥ २५८॥ निर्वाधं प्रत्यभिज्ञानमस्ति चेत् बुद्धिकर्मणोः । तयोरप्यस्तु नित्यत्वं नो चेत् का शब्दतुल्यता ॥२ ९॥ तस्मानित्यः प्रत्यभिज्ञाप्रभावात् सिद्धः शब्दः पश्यतां तार्किकाणाम् । अर्थापत्तिः पूर्वमुक्ता च तस्मिन् अस्थायित्वे युक्तयश्च व्युदस्ताः॥२६०॥ अस्ति च वेदे वचनं सिद्धा'मनुवदति यद्धृवां वाचम् । तल्लिङ्गदर्शनादपि नित्यः शब्दोऽभिमन्तव्यः ॥ २६१ ॥ शिक्षाविदस्तु पवनात्मकमेव शब्दं आचक्षते तदसमञ्जसमप्रतीतेः । अर्हन्मतप्रथितपुद्गलपर्युदास- . नीत्या च वाय्ववयवा अपि वारणीयाः ॥२६२ ॥ येऽपि स्थूलविनाशदर्शनवशायुः क्षणध्वंसिनः भावांस्तेऽपि न शक्नवन्ति गदितुं शब्दस्य विध्वंसिताम् । अन्ते हि क्षयदर्शनात् किल तथा तेषां भ्रमोऽस्मिन् पुनः शब्दे नान्तपरिक्षयाविति कथं कुम्भादिवद्भङ्गिता? ॥२६३॥ स्वरूपतोऽनुमेये। अतश्च तयोनित्यत्वानित्यत्वेऽपि अनुमानविचार्ये एव । अतस्तद्दष्टान्तोऽत्र विषमः' इति सिद्धान्तभाष्याशयः---इति व्याख्यातवान् (श्ल'. वा. 1-1-6-375-378, 389--392)। स एष वृथा क्लेशः, अस्मदुक्तरीत्या सुव्याख्यत्वादित्याह-सिद्धान्तान्तरेति । सिद्धान्तान्तरंसिद्धान्तिसम्मतमर्थान्तरमित्यर्थः ।। पश्यतां तार्किकाणां इत्यनादरे षष्ठी उपहासार्था ।। 'लिङ्गदर्शनाच' (जै.सू. 1-1-6-23) इति सूत्रभाष्योक्तमनुवदतिअस्ति च वेद इति। 'वाचा विरूपनित्यया' इति वचनं विवक्षितम् ।। 'प्रख्याभावाच्च योगस्य' (जै. सू. 1-1-6-22) इति सूत्रभाष्योक्तमनुवदति-शिक्षाविद इति ॥ । सिद्ध-क. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३} शम्दानित्यत्वसमर्थनोपक्रमः 541 – शब्दानित्यत्वसिद्धान्तः - शब्दनित्यत्वे प्रत्यक्षार्थापत्योरप्रमाणत्वप्रतिज्ञा] अत्र महे-न खलु भवदभिहितमेत् प्रमाणद्वयमपि शब्दनित्यतां प्रसाधयितुमर्हति ॥ [अर्थापत्त्या शब्दनित्यस्वसिद्धिदूषणम् ] यावता यदर्थापत्तिरवादि(पु. 517)-दर्शनस्य परार्थत्वादिति-सा क्षीणैव, अर्थप्रतीतेरन्यथाऽप्युपपन्नत्वात् ॥ गत्वादिजातिद्वारैव शक्तिग्रहः बोधश्च] तत्र सादृश्यमण्यनभ्युपगतमेव दूषित (पु. 518) मित्यस्थाने क्लिष्टा भवन्तः ॥ गत्वादिजातीराश्रित्य सम्बन्धग्रहणादिकः । अर्थावगतिपर्यन्तः व्यवहारः प्रसेत्स्यति ॥ २६४ ॥ [गत्वादिजातिसिद्धयसिद्धयधीनत्वं शब्दानित्यत्वनित्यत्वयोः] ननु गत्वे प्रतिक्षिप्त एतदेव परीक्ष्यताम् । अस्मिन् समाप्यते वादः 'मर्म स्थानमिदं च नः ॥ २६५ ॥ प्रतिक्षिप्त च गत्वादौ नाथसंप्रत्ययोऽन्यथा। प्रत्यभिज्ञानभूमिश्च नान्याऽस्तीति वयं जिताः ॥२६६ ॥ सिद्धे तु गत्वसामान्ये तत एवार्थवेदनम् । तदेव प्रत्यभिज्ञेयमिति यूयं पराजिताः ॥ २६७ ॥ अन्यथा-शब्दनित्यत्वमन्तराऽपि । नित्यत्वाङ्गीकारेऽपि हि यावद्वोधं शब्दः श्रोत्रे परिचङ्क्रममाणो न ह्यनुभूयते॥ प्रतिक्षिप्त इत्यादि। अन्यस्मिन् गोशब्दे शक्तिग्रहः, अन्यस्माच बोध इत्यनुपपत्तिः गत्वादिजातिमूलैव परिहरणीया। तथा 'सोऽयं गकारः' इति प्रत्यभिज्ञाऽपि साजात्यमूलैव हि निर्वाह्या। प्रत्यभिज्ञेयं-प्रत्यमिज्ञाविषयः ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 शम्दानामनित्यत्वसमर्थनम [न्यायमरी तेनान्यत्सर्वमुत्सृज्य वादस्थानकडम्बरम्। गत्वादिजातिसिद्धयर्थमथातः प्रयतामहे ॥ २६८ ॥ गत्वस्य जातित्वसाधने उपोद्धातरचनम् ] तत्रेदं विचार्यताम्-य 'एष' गकारभेदप्रतिभासः, स किं व्यञ्जकभेदकृतः ? उत वर्णभेदविषयः? इति ॥ व्यञ्जकभेदकृते तस्मिन् एकत्वाद्कारस्य किंवृत्ति गत्वसामान्य स्यात् ? वर्णभेदविषयत्वे तु तद्भेदसिद्धरभेदप्रत्ययस्य विषयो मृग्य इति तद्ग्राह्यमपरिहार्य गत्वसामान्यम् ॥ [गकारादिभेदप्रतिभासः न व्यञ्जकभेदकृत:] तदुच्यते-नायं व्यञ्जकभेदकृतः गकारभेदप्रत्ययः। यदि हि व्यञ्जकभेदाधीन एष भेदप्रतिभासः, 'तर्हि यरलवादिवर्णमेदप्रत्ययोऽपि तत्कृत एव किमिति न भवति ? ततश्च सकलवर्णविकल्पातीतमेकमनवयवं 'शब्दब्रह्म वैयाकरणवदभ्युपगन्तव्यम् ॥ [यरलवादिभेदवत् गकाराणामप्युच्चारणभेदात् भेद एव] अथ मनुषेयरलवादीनामितरेतरविभक्तस्वरूप'परिच्छेदाद्विषयभेदकृत एव भेदप्रत्ययः, नोपाधिनिबन्धन इति-तर्हि गङ्गागगनगर्गादौ गकारभेदप्रतिभासोऽप्येष न व्यञ्जकमेदाधीनो भवितुमर्हति, तत्रापि परस्परविभिन्नगकारस्वरूपप्रतिभासात् । शुकसारिकामनुष्येषु हि वक्तृभेदे सति व्यञ्जकनानात्वसंभावनया ___एकत्वादिति। बहूनामनुगमाय किल जातिः। अत एव एकन्यक्तिवृत्तेन जातित्वम् ॥ तदग्राह्य-अभेदग्रहविषयः। 'सैवेय दीपज्वाला' इत्यादिः दृष्टान्तः ॥ ननु उक्तमेवासकृत् 'शब्दो यद्यपि वर्णात्मा श्वोत्रप्राह्यो न विद्यते' (पु 538) इति, इतिचेत्तत्राह-ततश्चति । ततश्च स्पोटनिरासस्तव अर्थरहित एव॥ 1 एव-ख. 2 शब्दतत्त्वं-ख. 3 प्रतिभासात-ख. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 आह्निकम् ३) गकारादिभेदसमर्थनम् वर्णभेदप्रत्ययस्य तत्कृतत्वं काममाशङ्कयेतापि। वक्त्रेकत्वे तु गगनादौ कुतः तत्कृतो भेदः ? [गकाराणामुच्चारणभेदौपाधिक: भेद इत्यपि न युक्तम् ] ननु ! तत्रापि मरुतो भिन्ना एव व्यञ्जकाः, मुखं त्वेकं भवतु ! किं तेन ? तदपि वा भिन्नमित्येके। उच्यते-स तर्हि मरुतां भेदः यरलवादिष्वपि तुल्य इति मा भूत्तेषामपि मेदः ॥ . [यरलवादिभेदाभावेऽपि गकारद्वयभेदः घटद्वयभेदवत् प्रत्यक्षसिद्धः] ननु ! यरलवानां विशेषप्रतीतिरस्ति, गकारे तु सा नास्तीत्युक्तं, (पु 535) उच्चारणस्यैव तत्र भेदः, नोच्चार्यस्येति। नैतत् सारम् - मा भूदेष विशेष इति प्रतीतिः, भेदबुद्धिस्तु विद्यत एव। अन्या च विशेषबुद्धिरुच्यते, अन्या च भेदबुद्धिरिति। विशेषाप्रतिभासेऽपि क्वचिद्विच्छेदप्रतीति विशेषात् ॥ जात्यैक्येऽपि व्यक्तिभेदः गृह्यत एव ननु! अनोच्यते (521) दृश्यते शाबलेयादिव्यक्तयन्तरविलक्षणा । बाहुलेयादिगोव्यक्तिः तेन भेदोऽस्ति वास्तवः॥२६९॥ . गगनादौ-गगनपदादौ। तत्र हि गकारद्वयं एकेनैवोच्चरितम् । तस्कृत:-व्यञ्जकभेदकृतः॥ भिन्ना मरुत इति। प्रत्युच्चारण व्यञ्जकावायवाः भिद्यन्त एव। तदपिमुखमपि। यादृशसन्निवेशविशेषविशिष्टोऽवयवसमुदायात्मा मुखपदवाच्यः शब्द, मभिव्यञ्जयति, तादृशसन्निवेशविशेषाः प्रत्युच्चारणं भियन्त एव हि ॥ एष विशेष इति। गकारद्वयश्रवणे यरलवानां श्रवण इव 'अत्रायं विशेषः' इति विशेषस्य सुनिरूपत्वाभावेऽपि समानयोर्घटयोरिव व्यक्तिभेदप्रतीतिस्तु वर्तत एव। किञ्चित्साजात्यं तु शषसानामप्यस्त्येव । अन्येति । विशेषो हि ब्यावर्तकाकारः घटत्वपटस्वादिः। भेदस्तु घटयोरपि विद्यमानः तब्यक्तित्वरूपः ॥ 1दर्शनात्-ख. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न तु द्रुतादिभेदेन निष्पन्ना संप्रतीयते । गव्यक्तयन्तरविच्छिन्ना गव्यक्तिरपरा स्फुटा ॥ २७० ॥ इति नैतद्युक्तम्- शाबलैयादौ प्रतिव्यक्ति सास्नाखुरककुदाद्यवयववर्तिनो विशेषाः प्रतिभासन्ते । ते च स्थूलत्वात् सुगमा भवन्ति । यत्र तु तिलतण्डुलकुलत्थादौ प्रतिसिक्थं विशेषा न प्रतिभासन्ते, तत्र विशेषप्रतीत्यभावेऽपि विच्छेदप्रतिभासो विद्यत एव, सिक्थात् सिक्थान्तरत्वेन प्रतिभासात् । एवमिहाप्येष गकारविशेष इति प्रतिभासाभावेऽपि विच्छेदग्रहणात् गकारनानात्वम् ॥ 544 [ व्यक्तिभेदग्रहणे असाधारणाकारापेक्षाऽपि नास्ति ] ननु ! तण्डुलादावपि सिक्थात् सिक्थान्तरे विशेषाः प्रतिभासन्त एव । तदप्रतिभासे भेदस्यापि ग्रहीतुमशक्यत्वात् – मैवं वादी :- यत्ने सति चतुरश्रत्रिकोणवर्तुलत्वादिविशेषा अप्यमुत्र प्रतिभासिष्यन्ते । एवं गकारेष्वपि । प्रयत्नं विनाऽपि तु 'प्रथमाक्ष'निपात एव विच्छेदबुद्धिरुत्पद्यत इति तयैव नानात्वसिद्धिः ॥ [असाधारण्यग्रहणाभावेऽपि भेदग्रहणोपपत्ति: ] ननु ! नैवानधिगतविशेषस्य विच्छेद बुद्धिरुत्पत्तमर्हतीति विशेषबुद्धिरेव विच्छेद बुद्धि: - नैतदेवम् - भ्रमणादिकर्मक्षणानां सूक्ष्मविशेषाप्रतिभासेऽपि विच्छेदप्रतिभासात् ॥ [ न्यायमञ्जरी गव्यक्तिः - एको गकारः । सिक्थं अपक्कः पुलाकः । ' स्थालीपुलाकवत्' इत्यादौ द्रष्टव्यम्। प्रतिसिक्थं - तण्डुलानामेव परस्परम् ॥ विशेषाः -- तत्तद्व्यक्तयसाधारणाः आकाराः । एताशा विशेषाः कावपि परस्परं सन्त्येव सूक्ष्ममतिप्राह्याः । नेदानीमस्माभिरिदमुच्यते । तण्डुला हि दर्शनमात्रेणैव पृथक्पृथग्भिन्ना एवोपलभ्यन्ते ; न तु सर्वे तण्डुला एकत्वेनेति समाधत्ते यत्ने सतीति ॥ भ्रमणादीति ! 'भ्रमणरेचनस्पन्दनोर्ध्वज्वलन तिर्यक्पतननमनोम नादयः गमनविशेषाः, न जात्यन्तराणि ' ( प्र भा - कर्म ) इति भ्रमणादीनां परस्परभेदप्रतीतिः दृष्टैव ॥ 1 प्रथमाक्षर-क. 12 भेद- क. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] गकारादिभेदस्यानोपाधिकत्वम् 545 [तब्यक्तित्वरूपविशेषस्तु गकारद्वयेऽप्यस्त्येव] ननु ! तत्रापि विशेषग्रहणं कल्प्यते, अन्यथा 'विच्छेद'प्रतीत्यनुपपत्तः। यद्येवं वर्णेष्वपि गगनादौ विच्छेदप्रतीतिदर्शनात् कल्प्यतां विशेषग्रहणम् ॥ [गकारद्वयगततव्यक्तित्वस्यानोपाधिकत्वम् ननु! अस्त्येव तत्, किन्त्वौपाधिकं स्फटिके रक्तताप्रत्ययवत्विषमो दृष्टान्तः। स्फटिकस्य शुद्धस्य दृष्टत्वाल्लाक्षाद्युपाधिनिमित्तको भवतु रक्तता प्रत्ययः। वर्णानां तु नित्यमेवोदात्तादिविशेषवतां प्रतिभासात्, तद्रहितानामनुपलब्धेश्च नैसर्गिक एवायं मेदः। तद्यथा बुद्धीनां घटपटादिविषयविशेषशून्यानामसंवेदनात् प्रतिविषयं नानात्वं, तथा वर्णानामपि प्रत्युदात्तादिविशेषं नानात्वम्। 'नच बुद्धिरेकैव नित्या च, विषयमेदोपाधिनिबन्धनस्तद्भेद इति 'साम्प्रतम्'–स्वयमेव 'बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्' (जै. सू. 1-1-5) इत्यभिधानात् । अस्माभिश्च बुद्धिनित्यताया उपरिष्टानिराकरिष्यमाणत्वात् (८ भाढिके) ॥ विषयमेदाश्च तद्भेदाभिधाने विषयस्यापि कुत इदानीं भेदः ? बुद्धिमेदादिति चेत्-इतरेतराश्रयप्रसङ्गः। तदिमाः स्वत एव भेदवत्यो बुद्धयः, विषयाणामपि स्वत एव भेदो भवति; 'स तु बुद्धिभिः शायत इत्यलमर्थान्तरगमनेन ॥ ननु भ्रमणरेचनयोः गतिभेदरूपविशेषग्रहणमस्त्येवेति चेत्, गकारेऽपि . प्रत्युधारणं तथाविशेषः भासत एवेत्याह-तत्रापीत्यादि। औपाधिकं-उच्चारणभेदप्रयुक्तव्यञ्जकवायुभेदाधीनम् । असंवेदनात्-अननुभवात् ।। __इदानी-विषयभेदस्यानिर्णयकाले ॥ रकता-ख. विच्छिन्न-क. 5स च-ख. ननु-क. शान्तम्-क. NYAYAMANJARI 35 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न्यायमजरी [शुक्लादिगुणभेदवत् गकारादिभेदः] ___ यथा च शुक्लगुणस्य भास्वरधूसरादिमेदवतो नानात्वं, तथा वर्णस्याप्युदात्तादिमेदवतः। शुक्लगुणोऽप्येक एव, आश्रयमेदातु तद्भेद इति चेत् ; अहो रससमारूढो भट्टः! कमैकं बुद्धिरप्येका जगत्येकः सितो गुणः । 'तचैतन्नित्यमित्येताः स्त्रीगृहे कामुकोक्तयः ॥ २७१॥ . [गकारभेदाभावे आत्मभेदोऽपि न स्यात् ] अपि च एकात्मवादोंऽप्येवमेवावतरेत् , सुखिदुःख्यादिभेदस्य । शरीरमेदेनाप्युपपत्तेः। अद्वैतस्य च नातिदवीयानेष पन्था इत्यल.. मलीकविकत्थनेन ॥ तस्मात् बुद्धयादिवत् सर्वदा सविशेषाणामेव वर्णानां ग्रहणानानात्वम् ॥ [गगनपदादिषु अजुपश्लेषभेदाधीन: गकारभेदः न वक्तं शक्यः] तवैतत्स्यात्-गगनादावकारोपश्लेषकृत एव भेदप्रत्ययः, न स्वरूपमेद इति (पु. 522) तदयुक्तम्-अकारस्यापि भवन्मते . भास्वरधूसरेति। शुक्लरूपवतोः द्वयोः पटयोः भेदे दृष्टे तद्गतशुक्लगुणस्यापि दृश्यमानः भेदः दुरपहवः । न च शुक्लरूपे भेद एव नास्ति; भन्तत: दीप-पटगतयोर्वा शुक्लयोर्भेदावश्यम्भावात् । कामुकोक्तयःभस्वाधीनबुद्धिकस्योक्तयः। कामुको हि स्त्रियं वशीकर्तुं स्वैरं प्रलपति पुण्यपापादिविभागादिकमपलपन् ॥ अपि चेत्यादि । आत्मनां हि नानात्वं नित्यत्वं च आत्मवादे (श्लो. 1-1-5) स्थापितं तैरपि । गगनादौ-'गगनं' इत्यादिपदे। अकारस्यापीति। गोगुरुगेहादौ मिन्नाः स्वराः सन्ति, न तु गगनपदे इति भावः। भकारोपश्लेषमन्तरा 1 तैश्च-ख. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] गकारादिभेदस्योपाधिकत्वे दोष: 547 मेदाभावात् । अविद्यमाने च तदुपश्लेषे दिगजः, दिग्गज इति मेदेन प्रतिभासो भवत्येव । तथा च समदः-सम्मदः, पट:-पट्टः, आसनंआसन्नं, मल:-मल्लः, अविकः-अविक्कः, पतिः–पत्तिः, पतनंपत्तनं इत्यादावपि वर्णभेदप्रतीतिः। अर्थप्रतीतिमेदोऽपि दिगजदिग्गजादौ शब्दान्तरनिमित्तको भवितुमर्हति, न द्विरुञ्चारणकृतः । प्रन्थाधिक्यादर्थाधिक्यम्, नोच्चारणमेदात् ; शतकृत्वोऽपि प्रयुक्ते गोशब्दे सानादिमदर्थव्यतिरिक्तवाव्यसंप्रत्ययाभावात्। तथा च दिग्गज इति द्विगकारको निर्देश इत्याचक्षते शब्दविदः, न द्विर्गकार उच्चारित इति ॥ [गकारादिभेदस्यौपाधिकत्वे घटादिभेदस्याप्यौपाधिकरवापत्ति:] ननु! गोगुरुगिरिगेहादावज्मेदेऽपि गकारप्रत्ययानुवृत्तेरेक एवायं गकारः-मैवं वोचः-एष एव हि भेदप्रत्ययः अस्माभिरुपदर्शितः। विनाऽपि च अजुपश्लेषं दिग्गजादो भेदप्रत्ययो वर्णितः । न च वयममेदप्रत्ययमपङमहे, किन्तु मेदप्रत्ययस्याप्यबाधितस्य भावात् , अनन्यथासिद्धत्वाञ्च गवादिवत् सामान्यविशेषरूपतां अमः। व्यञ्जकमेदनिबन्धनत्वं तु यरलवादावपि वक्तुं शक्यमित्युक्तमेव ॥ . उच्चारणमेव न भवतीति नेत्याह-अविद्यमान इति। ननु दिग्गजः इत्यादावपि गकारस्य द्विरुच्चारणात् उच्चारणभेद एव, न तु वर्णभेद इति चेत्, तत्राह-अर्थप्रतीतिभेदोऽपीति। प्रन्थः -- गकाररूपः ॥ . गो-गुरु-गेहादिपदेषु अज्भेदात् भेदस्यानुभवसिद्धत्वमपि निराकरोतिनन्वित्यादिना। एष एवेत्युक्तं विवृणोति-विनाऽपीति । ननु ‘स एवायं गकारः' इत्यभेदप्रत्ययोऽप्यस्त्येवेति भेद एव कुतोऽन्यथासिद्धो न स्यादिति शङ्कायां, अस्ति प्रतीतिद्वयमपि। किन्तु भेदे सत्यभेदप्रतीतेः साजात्याद्यालम्बनत्वेनास्ति बहुला दृष्टान्ता: ; न तथा अभेदे भेदप्रत्यये । भन्यथा गवादिष्वपि भेद औपाधिकः स्यादित्याह-न चेत्यादिना। सामान्यविशेषः-सामान्य भिन्नम् , विशेषश्च मिन एव ॥ 35* Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न्यायमञ्जरी ...अपि च शाबलेयादिभेदप्रत्ययस्यापि व्यञ्जकमेदनिबन्धनत्वात् एक 'एवासौ स्यात्॥ गोत्वगत्वजात्योरविशेष:] ननु ! तत्र को व्यञ्जकः, यद्भेदकृतः पिण्डभेदप्रत्यय इष्यते ? आह च (श्लो. वा. 1-1-5. स्फोट. 36) "न पिण्डव्यतिरेकेण व्यञ्जकोऽत्र ध्वनिर्यथा। पिण्डव्यङ्गयैव गोत्वादिजातिनित्यं प्रतीयते' इति ॥ ... तदयुक्तम-गोत्वजातेः गत्ववदिदानीं 'अविवादास्पदीभूतत्वात्। पिण्डमेदप्रत्ययस्य चक्षुर्व्यापारमेदादप्युपपत्तेः॥ [गकारादिभेदप्रतीतेः गवादिभेदप्रतीस्यविशेषः] ननु ! सकृदपि व्यापृतलोचनस्य परस्परविभक्तपिण्डप्रतिभासो भवति-मैवम् तदानी गोमात्रप्रतीतिः। एष शाबलेयः', 'एष बाहुलेयः' इति तु विशेषग्रहणे चक्षुर्व्यापारमेदोऽपरिहार्यः॥ [प्रत्यक्षेणैव गवि गकारादौ च विशेषस्य ग्रहणम् ] - यदि च आद्यगोपिण्डभेदे प्रथमाक्षसन्निपातजा बुद्धिः सुभगतां गता-गकारभेदे तर्हि किं कृतमस्या दौर्भाग्यम? तत्रापि प्रथमश्रोत्रव्यापारवेलायामनवगतव्यञ्जकविभागस्यापि . गगन-गङ्गादौ गकारमेदः प्रतिभासत एवेत्यलं प्रसङ्गेन ॥ व्यञ्जकः यथा शब्दे ध्वनिः । न पिण्डेति । अत्र-शब्दे । एवं जातिव्यञ्जकस्य पिण्डस्याप्यभेदे भेदप्रतीतेरालम्बनमेव दुर्वचम् । अत: पिण्डैक्यमसम्भवि। तथा च शब्दनानात्वे पिण्डनानात्वं न दृष्टान्तीभवितुमर्हति इति भावः। उभयोर्भेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् तावन्मात्रे दृष्टान्तत्वमित्याह-गोत्वजातेरिति । मात्र पदेन विशेषव्यावृत्तिः। सामान्यमगृहीत्वा विशेषः कथं गृह्येत ॥ - वस्तुस्थितिमनुसृत्याह—यदीत्यादि। सुभगतां-अबाधितताम् ॥ 1 गौ:-क. ना-क. ३ विवादा-ख. ... Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 549 आडिकम् ३] गस्वादीनां गोत्वादिवज्जातित्वम् [गोस्वादिवत् गत्वादिसामान्यसाधनोपसंहारः] , तदयं वस्तुसंक्षेपः-उपेक्ष्यतां वा सर्वत्र सामान्यविशेषव्यवहारः! इष्यतां वा गोत्वादिवत् गकारमेदवृत्ति गत्वसामान्यम् ॥ [अस्वादिकमपि गत्वादिवत् जातिरेव] अत्वमपि गत्ववदप्रत्याख्येयम् । इतरेतरविलक्षणानामकाराणां हस्वदीर्घप्लुतादिमेदेन प्रतिभासात्। यः पुनः 'आकारे'ऽप्यकारप्रत्यमिक्षानं ब्रूयात्, तस्य ईकारोकारप्रतीतिध्वपि अकारस्यैव प्रहणप्रसक्तिः, अच्त्वाविशेषात् ॥ अथ तदविशषेऽपि अवर्णात् इवर्णस्य मेदः इष्यते, स ताकारस्य न निह्रोतव्यः। एवञ्च सति अरण्यारण्यशब्दाभ्यां मिन्नार्थप्रतीतिरुपपत्स्यते ॥ उदात्तानुदात्तस्वरितसंवृतविवृतादिमेदोऽपि शब्दविदा प्रत्यक्ष एव, गीतशानामिव, स्वरग्रामभाषाविभागः। तस्मात् अष्टादशमेदं हस्वदीर्घेति। अकारादयः प्रत्येकमष्टादशधा पूर्वमुक्ताः। यः 'पुनरिति । अयं च भाकारः न अकारः दीर्घः, किन्तु तदतिरिक्त एवेत्याशय: वस्तुतस्तु - यद्यपि अकारस्यैव प्रभेदः भाकारः (पु. 522); तथाऽपि वर्णमालायां भाकारस्य पृथग्रहणात् मात्वं अत्वात् मिश्चमित्याशयः। ईकारेति। अकारस्यैवायं प्रपञ्चः सर्वेऽपि वर्णा इत्यविवादमेव । भोकारादौ अकार-उकारद्वयरूपत्वं प्रत्यक्षत एव सिद्धम् ॥ एवं अकार-आकारयोर्भेदसाधनस्य फलमाह-एवञ्च सतीति॥ उदात्तत्यादि। उदात्तादिभेदात् अर्थभेदः 'इन्द्रशत्र 'पदादिषु स्पष्ट एव। इन्द्रस्य शत्रुरिति विवक्षायां हि अन्तोदात्तः, इन्द्रः शत्रुः यस्येति विवक्षायां तु आधुदात्त:। ग्रामः-स्वरसमूहविशेषः ।। अकारे-ख. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न्यायमजरी अकारमाचक्षते। अत्वं च तत्सामान्य अवर्णकुलशब्देन 'व्यवहरन्तीति॥ हिस्वदीर्घत्वादयो वर्णधर्मा एव, न ध्वनिधर्माः] यत्तु ध्वनिधर्मस्यापि दीर्घादेः अर्थप्रतिपत्त्यङ्गत्वं तुरगवेगवदुक्तम् (पु. 523)-तदप्यहृदयङ्गमम् । शब्दादर्थ प्रतिपद्यन्ते लोकाः, न मरुद्भयः॥ अथ मरुतामपि तथा व्युत्पत्तेः अर्थप्रतीतिहेतुत्वं, तर्हि व्युत्पत्तिरेव प्रमाणं स्यात्, न शब्दः, व्युत्पत्तरव्यभिचारात्, शब्दस्य च व्यभिचारात् इत्यास्तामेतत् ॥ तस्मात् गत्वादिसामान्यैः अर्थसंप्रत्ययात्मनः। कार्यस्य परिनिष्पत्तेः न वर्णव्यक्तिनित्यता ॥२७२ ॥ [शब्दरवजात्यसिद्धिशङ्का] अपर आह-तिष्ठतु तावत् दूरत एव गत्वाद्यपरसामान्यम्, महासामान्यमपि शब्दत्वं वर्णेषु नोपपद्यते ॥ व्यक्तयन्तरानुसन्धानं यत्रैकव्यक्तिदर्शने । तत्रैकरूपसामान्यं इष्यते तत्कृतं च तत् ॥ २७३॥ गकारचतिवेलायां न वकारावमशनम् । बाहुलेयपरामर्शः शाबलेयग्रहे यथा॥२७४॥ प्रमाणं-अर्थप्रतीतिजनकम् । अर्थसंप्रत्ययात्मनः कार्यस्य इत्यन्वयः। अत्र ‘अस्मिन् समाप्यते वादः मर्मस्थानमिदं च नः' इत्युक्तं (पु. 541) भनुसन्धेयम् ॥ . व्यक्तयन्तरेत्यादि। यदा एक घटं पश्यति, तदा देशान्तरकालान्तरदृष्टं घटान्तरं स्मरेत् चेत्, तत् किमिवन्धनम् ? इति शङ्कायां हि अनुगतधर्मसिद्धिर्वाच्येत्यर्थः। तत्-ज्यक्तयन्तरानुसन्धानम्। तस्कृतं-सामान्यकृतम् । 1 व्यवहरन्तीति-ख. Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दत्वसामान्यसाधनम् 561 शब्दः शब्दोऽयमित्यवं प्रतीतिस्त्वप्रयोजिका । एषा हि श्रोत्रगम्यत्वं उपाधिमनुरुध्यते ॥ २७५॥ [शब्दत्वजातिसिद्धिः] तदेतन्निरनुसन्धानस्याभिधानम्। अनुसन्धानप्रत्ययस्य सामान्यसिद्धावप्रयोजकत्वात्। अनुसन्धानं हि सारूप्यात् विजातीयेष्वपि भवति, गवयग्रहणसमये गोपिण्डानुसन्धानवत् । तस्मात् अबाधितैकरूपप्रत्ययप्रतिष्ठ एव सामान्यव्यवहारः॥ समानबुद्धिग्राह्येऽपि सामान्येऽवस्थिते, क्वचित् । भवत्यन्यानुसन्धान, कचिद्वा न भवत्यपि ॥२७६॥ तदस्ति खण्डमुण्डादौ पिण्डसारूप्यकारितम्। . · गकारादिषु वर्णेषु तदभावात्तु नास्ति तत् ॥२७७॥ -न तु सामान्याभावात् ॥ - [सामान्यं न सारूप्यमात्रम् ] न' च सारूप्यमेव सामान्य साङ्ख्यवदभिधातुं युक्तम् । विजातीयेष्वपि गोगवयादिषु तस्य दृष्टत्वात् ॥ __ यदि च 'शब्दः शब्दः' इत्यनुवृत्तबुद्धेः श्रोत्रगम्यत्वोपाधिकतत्वमुच्यते, तर्हि गवादावप्येकबुद्धेः वाहदोहाघेकार्थक्रियाकारित्व. अप्रयोजिकेति। 'रामसुग्रीवयोरैक्यं देव्येवं समजायत' (रा.सु. 36-52) इत्यादौ हि ऐकमत्यप्रयुक्तमपि ऐक्यं दृश्यते, तथेति भावः ॥ · निरनुसन्धानस्य-अविमर्शकस्य । सारूप्यात् इति । किशिदित्यादिः। विरोधादिनिबन्धनमपि स्मरणं कंसस्मरणे कृष्णस्येव दृष्टमत्र प्रायम् । अवस्थितेऽपि इत्यन्वयः। अन्येति। म्यक्त्यन्तरेत्यर्थः । तदभावात्-सारूप्याभावात् ॥ - विजातीयेष्वपीति । घटपटयोः सारूप्याभावेऽपि पृथिवीत्वद्रग्यस्वादिसामान्यं दृश्यत एव । यदि च तत्र तदनुगुणं सारूप्यमुपपायते, प्रकृतेऽपि तच्छक्यम् । एवमनभ्युपगमे कुत्रापि सामान्यं न सिध्येदिति बौद्धविजयप्रसङ्गः॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 शम्दानामनित्यत्वसमर्थनम् [न्यायमजरी निबन्धनत्वात् गोत्वादिजातिनिह्नवः बौद्धवन्मन्तव्यः। न चैतदेवम् ; तत् गोत्ववत् शब्दत्वमपि न प्रत्याख्येयम् ॥ [ब्राह्मणत्वादिजातीनां प्रत्यक्षगम्यत्वम् ] ... एतेन ब्राह्मणत्वादिसामान्यमपि समर्थितं वेदितव्यम् , उपदेशसहायप्रत्यक्षगम्यत्वात् । न चोपदेशापेक्षणात् अप्रत्यक्षत्वं तस्य भवितुर्महति ; गोत्वादिप्रत्ययस्यापि सम्बन्धग्रहणकाले तदपेक्षत्वदर्शनात्। उक्तं च 'न हि यत् गिरिशृङ्गमारुह्य गृह्यते तत् अप्रत्यक्षम्' इति ॥ ___ [ब्राह्मणत्वादिकं न औपाधिकम् ] __न चौपाधिकः पैठीनसिपैप्पलादिप्रभृतिषु ब्राह्मणप्रत्ययः, उपाधेरग्रहणात् । औपाधिकत्वस्य गोत्वादापि वक्तुं शक्यत्वात् ॥ अपि च उपदेशनिरपेक्षमपि चक्षुः क्षत्रियादिविलक्षणां सौम्याकृर्ति ब्राह्मणजातिमवगच्छति-इत्येके। तदलमनया कथया ॥ ..[शब्दानित्यत्वेऽप्यर्थबोधोपपत्तिः] "प्रकृतमुच्यते-गत्वादिभिर्जातिभिरेव अर्थसंप्रत्ययोपपत्तेः, यदुक्तं ‘दर्शनस्य परार्थत्वात्' इति (पु. 524)-पतदयुक्तम्॥ एतेन सर्वत्र योगपद्यादित्येतदपि प्रत्युक्तम् , सम्बन्धनियमस्य गत्वादिभ्य एव सिद्धेः ॥ . [शब्दभेदप्रतीति: न उच्चारणभेदावलम्बना] . . यदपि सङ्ख्याभावात् कृत्वसुचप्रयोगदर्शनमुदग्राहि-(पु. 525) तदपि व्यभिचारि गिरिशृङ्गेति। तादृशोभतस्थानारोहणं हि प्रत्यक्षसहकारि। तद्वदेवात्रोपदेशोऽपीत्यर्थः ॥ वस्तुतस्तु ब्राह्मणत्वं न केवलशरीरनिष्ठम् , कर्तृत्वादीनामप्येवं प्रसङ्गात् । एवं नात्ममात्रनिष्ठम् , भात्मनि विशुद्ध तादृशजात्यादीनामसंभवात् । - मत उभयगतं विलक्षणमिदं ब्राह्मणत्वादिकं आरमापरोक्षज्ञान्येकगम्यमित्ययं विचारोऽतिसूक्ष्म इत्याशयेनाह–अलमिति ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] गकारादिमेदस्य प्रत्यक्ष सिद्धत्वम् ( कृतं कान्तस्य तन्वङ्गया त्रिरपाङ्गविलोकनम् । चतुरालिङ्गनं गाढं अष्टकृत्वश्च चुम्बनम् ' इति-तद्भेदेऽपि दर्शनात् ॥ अथ तत्र स्त्रीपुंसयोरमे दे चुम्वनादिक्रियांमात्र भेद एवेत्युच्यतेतथाऽप्यपूर्वेषु ब्राह्मणेषु भुक्तवत्सु 'पञ्चकृत्वो ब्राह्मणा भुक्तवन्तः ' इति व्यवहारो 'दृश्यते ॥ [ शब्दभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वम् ] एवं शब्देऽपि तत्सङ्ख्याव्यवहारो हि दृश्यते' । कविना सदनुप्रासे निबद्धेऽक्षरडम्बरे ॥ २७८ ॥ गकारो बहवो दृष्टाः इति व्यवहरन्ति हि । यदपि प्रत्यभिज्ञानं तद्दारकमुदाहृतम् ॥ २७९ ॥ तस्यापि सिद्धे प्रामाण्ये जात्यालम्बनत्ता भवेत् । नृत्ताभिनयचेष्टादिप्रत्यभिज्ञानतो वयम् ॥ २८० ॥ न शब्दप्रत्यभिज्ञानमुत्तारयितुमीश्महे । विशेषं प्रत्यभिज्ञाने न पश्यामो ' मनागपि ॥ २८१ ॥ तद्भेदेऽपि – संख्याश्रयवस्तुभेदेऽपि । दर्शनात् कृत्वसुच्प्रत्ययस्येति शेषः ॥ , 1 ननु उच्चारणकर्मीभूतस्य शब्दस्यैक्यात् यथा 'अष्टकृत्व उच्चरितः शब्दः इति व्यवहारः, तथा चुम्बनकर्मीभूतस्यैक्या देवात्रापि कृत्वसुच्प्रयोग इत्याशंक्य समाधते - अथेति । अपूर्वेषु - प्रतिवारं मिन्नेषु ॥ 1 553 तद्द्द्वारकं - ऐक्यद्वारकम् । 'पूर्वमुञ्चरितो गकार: नष्टः, अन्योऽयं पुनरुश्चरित:' इत्येव सूक्ष्ममतीनां अनुभवात् - सिद्धे प्रामाण्य इति । 'यो यदौषधं दत्तं, तदेवाद्यापि दत्तम्' इत्यादौ तथा दर्शनादित्यर्थः । ' कैश्चित्तिरोहिते भावात् ' (पु. 526) इत्यादि समाधत्ते - नृत्तेति । उत्तारयितुं - विवेचयितुम् । अत्र हेतुमाह - विशेषमिति । तथा च शब्द- बुद्धि-क्रियाणां प्रत्यभिज्ञासु नास्ति कश्चिद्विशेष इति एतेऽनित्या एव । एवं तर्हि प्रत्यभिज्ञा दृश्यते - ख. 2 ' मनागपि - ख. ( उत्तरपुटेऽनुवर्तते ). Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् स्तम्भादिप्रत्यभिज्ञासु न तदैव विनाशधीः । क्षणभङ्गप्रतीकारं तेन ताः कर्तुमीशते ॥ २८२ ॥ शब्दस्य प्रत्यभिज्ञानवेलायामेव दृश्यते । शब्दरूपस्य विध्वंसः इति तन्नित्यता कुतः ॥ २८३ ॥ [ स्तम्भादिप्रत्यभिज्ञायाः शब्दप्रत्यभिज्ञायाश्च विशेषः ] यद्यपि क्षणभङ्गभङ्गे प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यमस्माभिरपि समर्थयिष्यते - तथापि स्तम्भादिप्रत्यभिज्ञायाः शब्दप्रत्यभिज्ञाया एष एव विशेषः, यदत्र ' ध्वस्तः शब्दः इति तदैव प्रत्ययों जायते । अत एव तिरोहितेऽपि भावादियं अप्रमाणं प्रत्यभिज्ञेत्याहुः ॥ [शब्दप्रत्यभिज्ञायाः वस्त्वैक्यालम्बनत्वा संभवः ] यद्यपि प्रियतेऽस्माकं शब्दो द्वित्रानपि क्षणान् । प्रत्यभिज्ञां तु कालेन तावता नावकल्पते ॥ २८४ ॥ [ न्यायमञ्जरी तथाहि - शब्द उत्पद्यते तावत् । ततः स्वविषयं ज्ञानं जनयति, अजनकस्य प्रतिभासायोगात् । ततः तेन ज्ञानेन शब्दो गृह्यते । ततः संस्कारबोधः । ततः पूर्व ज्ञातशब्द' स्मरणम् । ततस्तत्सचिवं श्रोत्रं मनो वा शब्द प्रत्यभिज्ञानं जनयिष्यति । 'तदा' शब्दों ग्रहीष्यत U सामान्यस्याप्येवं निर्वाहे कथं क्षणभङ्गभङ्गः ? इत्यत्राह - स्तम्भादीति । तदैव - प्रत्यभिज्ञाकाल एव । तेन - तस्मात् । तथा च केवला प्रत्यभिज्ञा एकस्य वस्तुनः नित्यतां, अनित्यतां वा न साधयितुमलम् । किन्त्वबाधितैव । शब्दप्रत्यभिज्ञायामस्ति तदैव बाध:, न स्तम्भप्रत्यभिज्ञायाम् । क्षणभङ्गवादस्याप्यवसर इति भावः ॥ एवञ्च न क्षणभङ्गभङ्गे – इति निमित्तसप्तमी । तत्प्रकरण इति वा ॥ 'जीवति स्वन्मतेंsपि' (पु. 527) इत्यादि समाधत्ते – यद्यपीति । द्वित्रानपि इत्यनास्थायाम् ॥ 1 ज्ञान-क. 2 तथा - ख. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडिकम् ३] शक्यप्रत्यभिज्ञाया: साजाल्यालम्बनत्वम् 555 इतीयत् कुतोऽस्य दीर्घमायुः ? प्रत्यभिशाप्रामाण्यादेव तावदायुस्तस्य कल्प्यत इति चेत् ; सत्यं कल्प्येत, यदि विनाशप्रत्ययः तदैव न स्यात् ॥ ___ अपि च 'गोशब्दोऽयम्' 'अश्वशब्दोऽयम्' इति तदभिधानविशेषोल्लेखात् नानानुस्मरणं तस्य तदैवावश्यमापतेत् । विज्ञानायोगपद्याश्च कालो दीर्घतरो भवेत् ॥२८५ ।। [ग्रहणात् पूर्व शब्दस्थित्यसंभवः] यदप्युदितमुद्दाममेघश्यामासु रात्रिषु। साम्यं सौदामिनीधामजन्यया प्रत्यभिशया ॥ २८६॥ • तदसत् , कालदैर्येण तदव स्थित्य'संभवात् । विद्युद्दष्टे च वृक्षादी नाशसंवित्त्यसंभवात् ॥ २८७ ॥ प्रत्यभिज्ञाया: ऐन्द्रियकत्वपक्षः] प्रत्यभिज्ञा नाम स्मर्यमाणानुभूयमानसामानाधिकरण्यग्राहिणी संस्कारसचिवेन्द्रियजन्या प्रतीतिरिति केचित् ॥ प्रत्यभिज्ञायाः केवलमानसत्वपक्षः] ___अन्ये मन्यन्ते-स्मर्यमाणपूर्वज्ञानविशेषितार्थवाहित्वात् प्रत्यभि- शब्दप्रत्यमिज्ञाने न केवलमक्षरमात्रानुसन्धानापेक्षा, अपि तु अर्थस्यापीति, सर्वथा तावत्कालं शब्दासत्त्वात् प्रत्यमिज्ञा नैक्यावगाहिनीत्याह-अपि चेति। नानेति । वाच्यसम्बन्धादीत्यर्थः । विज्ञानायौगपद्यात् इति प्रायोवादामिप्रायम् । स्मृतेः संभवात् ॥ 'यथा निशीथे' (पु. 527) इत्यादि समाधत्ते--यदपीति। कालदैर्येण - चिरकालपर्यन्तमिति यावत्। तदवस्थिति:--शब्दस्थितिः॥ स्मर्यमाण-पूर्वकालदेशसम्बन्धादि। अनुभूयमानं-एतत्कालदेशसम्बन्धादि ॥ स्मर्यमाणेत्यादि। ‘सोऽयं' इत्यत्र हि तच्छन्देन पूर्वकालविशिष्टं 'स्थिति-ख. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 शम्दानामनित्यत्वसमर्थनम् [न्यायमचरी शायाः, तद्विशेषणस्य च अर्थस्य बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वानुपपत्तेः स्तम्भादावपि मानसी प्रत्यभिशेति ॥ निर्बन्धस्त्विह नास्माकं, सा यथाऽस्तु तथाऽस्तु वा। शब्दे विनाशज्ञानात्तु न सा नित्यत्वसाधिका ॥ २८८ ॥ [ऐक्यप्रत्यभिज्ञापेक्षया विनाशप्रत्यक्षं प्रबलम् ] बाध्यबाधकभावे तु नियमो ननु किंकृतः ? शब्दस्य प्रत्यभिज्ञानविनाशप्रतिभासयोः ॥ २८९ ।। उच्यते, प्रत्यभिज्ञानमन्यथाऽप्युपपद्यते । गत्वादिजातिविषयं, यद्वा सादृश्यहेतुकम् ॥ २९० ॥ [शब्दविनाशप्रत्यक्षस्य अन्यथासिद्धत्वासंभवः] 'नन्वभि'व्यञ्जकध्वंसात् नाशधीरपि सेत्स्यति । तदसावपि बाध्याऽस्तु, यद्वा भवतु संशयः ॥ २९१ ॥ मैवं : 'विनाशिता बुद्धिः भेदबुध्युपहिता । . सा चेयं चान्यथासिद्ध इति वक्तुमसांप्रतम् ॥ २९२ ॥ वस्तु साक्षान्न वाच्यः ; गतस्य तस्य तदाऽभानात्। किन्तु पूर्वोत्पन्नतादृशज्ञानविषयत्वेनैव। एवञ्च प्रथमपक्षे पूर्वकालसम्बन्धो विशेषणं, द्वितीयपक्षे च तद्विषयकज्ञानं इति विशेषः। अधिकं परस्तात् । पक्षद्वयं चेदं सप्तमाह्निके विस्तरश: विचारयिष्यते इत्यभिप्रायेणाह-निर्बन्ध इत्यादि। ननु विनाशप्रत्यय एवान्यथासिद्धः कुतो न स्यादित्यत्राह-बाध्यबाधकभाव इति ॥ नन्वित्यादि। दृश्यते हि वाय्वभिव्यक्षिकायाः व्यजनक्रियाया नाशे वायुनाशप्रतीतिः। न केवलं विनाशप्रत्ययमात्रात् शब्दस्य नानात्वं ब्रमः। किन्तु प्रतीतिकाले शब्दः पूर्वश्रुतगकाराद्भिन्नतयैव भासत इति नानात्वस्यानपह्नवत्वे, तन्मूलतया विनाशोऽपि अनपह्नव एवेत्याह-मैवमिति। ननु नानात्वमप्यौपाधिकं कुतो न स्यादिति तु, अनवस्थाऽन्योन्याश्रयादिग्रस्तं तदित्याह-सा चेत्यादि । न त्वमि-ख. विनाशता-क. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 567 आदिकम् ३] शब्दैक्यप्रत्यभिचाया अन्यथासिद्धत्वम् प्रत्यभिज्ञा च सापेक्षा निरपेक्षा त्वभावधीः। तेनैवमादौ विषये प्रत्यभिव बाध्यते ॥ २९३ ॥ 'शब्दाभावस्य 'शगिति ग्रहणात्' । तत्प्रत्यभिज्ञायाश्च पूर्वानुसन्धानादिसव्यपेक्षत्वात् ॥ [प्रत्यभिज्ञाया अन्यथासिद्धिरेवौत्सर्गिकी] अपि च प्रत्यभिज्ञा व्यभिचरन्ती' कर्मादिषु गृह्यते । तेनास्यां शब्देऽप्यभावप्रत्ययोपहतवपुषि कः समाश्वासः? न चेदं प्रत्यक्षेऽपि अनेकान्तिकत्वोद्भावनम् ; अपि तु 'विनाशक प्रत्ययप्रतिहतप्रभावा प्रत्यभिशा नित्यत्वं, कर्मादिग्विव, शब्देऽपि न साधयितुं प्रभवतीति 'दृष्टान्त एष प्रदर्श्यते ॥ . . [प्रत्यक्षस्थलेऽपि दृष्टान्तापेक्षा] ननु प्रत्यक्षेऽपि दृष्टान्तस्य कोऽवसरः? सत्यम्-'ग्राहकास्तु भवादृशाः स्वयमनवबुध्यमाना एवं बुध्यन्ते ॥ [इद्धिकर्मणोः सर्वथा नित्यत्वासंभवः] यत्तु प्रवृद्धरभसतया बुद्धिकर्मादावपि नित्यत्वसमर्थनम्तत् अत्यन्तमलौकिकमित्युक्तम् ॥ किं नाम शब्दनित्यत्वसमर्थनतृषाऽऽतुरः।. ... ... जङ्गमं स्थावरं चैव सकलं पातुमिच्छसि ॥ २९४ ॥ तस्मादलमतिरभसप्रवृत्ताभिः बुद्धिकर्मादिनित्यत्वसमर्थनकथाभिः ॥ विनिगमकान्तरमप्याह-प्रत्यभिज्ञा चेति ॥ नन्वेवं तर्हि प्रत्यक्षं सर्वमपि एवमेवेति किं तव सम्मतम् ? इति चेन्नेत्याह-न चेदमिति ॥ एवं दृष्टान्तमुखेन ॥ 1 ग्रहणात-ख. प्रत्यभि-स्ख... ३ व्यभिचरति-ख... ' विनाश-ख. दान्तस्य-ख.. 'ग्राहिकास्तु-ख. ........ ......... Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न्यायमञ्जरी [शब्दनित्यत्वे नियतग्रहणसमर्थनं न युक्तिमत् यत्पुनः अभिव्यक्तिपक्षे-शब्दस्य ग्रहणे नियमाभावमाशङ्कय, श्रोत्रसंस्कारेण, विषयसंस्कारेण, उभयसंस्कारेण वा नियतं ग्रहणमुपवर्णितम् (पृ. 530-533)-तद्वञ्चनामात्रम् समानदेशानां समानेन्द्रियग्राह्याणां प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गथत्वादर्शनात् ॥ [शब्दनित्यत्वे ग्रहणनियमासंभवः] ये पुनरत्र गन्धा उदाहृताः (पु. 530)-ते समानेन्द्रियग्राह्या भवन्ति, न समानदेशाः॥ एकभूम्याश्रितत्वेन तुल्यदेशत्वकल्पने। भवेत् समानदेशत्वं हिमवद्विन्ध्ययोरपि ॥ २९५॥ . एकत्वेऽपि भुवो भान्ति पदार्थाः पार्थिवाः पृथक् । व्यज्यन्ते तदधिष्ठानाः गन्धास्तैस्तैर्निबन्धनैः ॥ २९६ ॥ भवन्त्वनाश्रिताः शब्दाः, यदि वाऽऽकाशसंश्रिताः। सर्वथा भिन्नदेशत्वं एषां वक्तुं न शक्यते ॥ २९७ ।। [औपाधिकाकाशभेदादपि ग्रहणनियमासंभवः] ननु यथैकत्वेऽपि नभसः तद्भागकल्पनया प्रतिपुरुषं श्रोत्रेन्द्रियमेदः, एवं तद्भागकल्पनयैव शब्दानामपि असमानदेशत्वात् नियतव्यअकव्यङ्गयता भविष्यति नैवमुपपद्यते-यत्रैव वक्तमुखाकाशदेशे, श्रोतृश्रोत्राकाशदेशे वा गोशब्द उपलब्धः तत्रैवाश्वशब्द इदानीमुपलभ्यते; न पुनरतिमुक्तकुसुमे य उपलब्धो गन्धः, स बन्धूके, मधूके वा कदाचिदुपलभ्यत इति ॥ तस्मात् समानदेशत्वात् न व्यक्ती नियमो भवेत् । उत्पत्तौ तु व्यवस्थायां तद्भेद उपपद्यते ॥ २९८ ॥ न समानदेशाः। न हि गकारादिः यथा नित्या, एकश्च ; तथा गन्धोऽपि। यदि वा-यदि च ॥ तत्रैवेति। न हि शब्दोत्पत्तः, श्रवणस्य वा देशस्य भेदः अत्रास्ति। 'अतिमुक्तः पुण्डूकः स्यात् वासन्ती माधवी लता'। एवं बन्धूकादयोऽपि पुष्पभेदाः । 'उत्पत्ती तु' इति तुकारेण तन्मते तदसंभव: बोत्यते । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 559 आह्निकम् ३] शब्दनित्यत्वे ग्रहणनियमः दुर्वच एव नादैः संस्क्रियतां शब्दः श्रोत्रं वा द्वयमेव वा। सर्वथा नियमो नास्ति व्यञ्जकेष्विति निश्चयः ॥ २९९ ॥ - व्यवस्था व्यञ्जकानां चेत् उच्यतेऽदृष्टकारिता।। उत्पत्तौ दृश्यमानायां दृष्टमप्यविरोधकम् ॥ ३०० ॥ [श्रोत्रसंस्कारपक्षः न युक्तः] न च स्तिमितमारुतापनयनव्यतिरिक्तः कश्चन श्रोत्रसंस्कारो विद्यते। तत्र चातिप्रसङ्ग उक्तः। एतदतिरिक्त संस्कारकल्पनायां तु अदृष्टकल्पना। स्थिरे च शब्दसंस्कार ग्राहिणि सति पुनरभिव्यक्तस्यापि गोशब्दस्य श्रवणं स्यात् । तद्ग्रहणहेतोः संस्कारस्य स्थिरत्वात्। तत्क्षणिकत्वे तु शब्दक्षणिकतैव साध्वी, प्रतीयमानत्वात् ॥ . [श्रोत्रेन्द्रियस्य संस्काररूपत्वासंभवः] यत्तु भर्तृमित्रः तमेव संस्कार श्रोत्रेन्द्रियमभ्युपैति, (पु. 531) तदिदमपूविकं किमपि पाण्डित्यम्। इन्द्रियस्य हि 'संस्कार्यस्य संस्कारः, न संस्कार एवेन्द्रियम्; लोकागमविरुद्धत्वात् । प्रतिपुरुषं यावच्छब्दं भिन्नस्य क्षणिकस्य चेन्द्रियस्य कल्पनमनुपपन्नम्। अनश्वरत्वे तु शश्वदेव शब्दकोलाहलप्रसङ्ग इति यत्किञ्चिदेतत् । भट्टेनैव सोपहासमेष दूषितः पक्ष इति किमत्र विमर्दैन! .[भट्टोक्ता भर्तृमित्रनिराकरणप्रक्रिया न साधीयसी] . यदपि भट्ट आह (श्लो. वा. 1-१-६-१४९) "यदि ववश्यं वक्तव्यः तार्किकोक्तिविपर्ययः। - ततो वेदानुसारेण कार्या दिश्रोत्रतामतिः ॥” इति ; दृश्यमानायामिति प्रकृतहेतुसंपादकम् ॥ सिद्धान्ते आकाशस्यैव श्रोत्रत्वात् तदमिप्रायेण-न पुरुषभेदमात्रात् इन्द्रियभेदः स्यात, किन्तु क्षणभेदादपीत्यभिप्रायेण वा-प्रतिपुरुषमिति । 'केचित्तु पण्डितमन्या: ' इत्येतत्स्मरनाह--सोपहासमिति ॥ नैय्यायिकं निराकुर्वन्तं भर्तमित्र प्रत्युक्ति:-यदि त्ववश्यमित्यादि । वेदः-'दिशः श्रोत्रम् ' (ते. प्रा. ३-६-६) इत्यादिः॥ एवातिरिक्त-ख. ग्रहणमिति-ख. स्थितत्वात्-क. 'संस्कार्यस्य-क. त्ववश्य-क. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् [न्यायमधरी -तदप्यसांप्रतम् दिशां कार्यान्तराक्षेपात् आगमान्यपरत्वतः । आहोपुरुषिकामाचं दिग्द्रव्यश्रोत्रकल्पनम् ॥ ३०१॥ इन्द्रियाणां भौतिकत्वस्य साधयिष्यमाणत्वात् । दिशश्च अमूर्तत्वात् नेन्द्रियप्रकृतित्वम् । व्यापकत्वाविशेषे वा कालात्मनोरपि तथाभावप्रसङ्गः। तयोरन्यत्र व्यापारकत्वात् नेन्द्रियप्रकृतित्वमिति चेत्, दिग्द्रव्येऽपि तुल्यमेतत् । आगमस्त्वन्यपर एव । यथा हि 'सूर्य चक्षुर्गमयतात्। ...दिशःश्रोत्रम्' (ते. प्रा. ३-६-६) इति पठ्यते, एवं 'अन्तरिक्षमसुम्' (ते. ब्रा. ३-६-६) इति च पठ्यत एव । न चासवोऽन्तरिक्षप्रकृतिकाः, पवनात्मकत्वात् । तस्मात् कृतं दिशा। आकाशदेश एव कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नः शब्द निमित्तोपभोगप्रापकधर्माधर्मोपनिबद्धः श्रोत्रमित्युक्तम् ॥ [नित्यशब्दाभिव्यक्तिव्यवस्था न धर्माधर्मार्थीना युक्ता] ननु ! धर्माधर्मकृतश्रोत्रनियमवत् अभिव्यक्तिनियमोऽपि शब्दस्य तत्कृत एव भविष्यति। किमिति तदनियमो नित्यत्वपक्षे चोद्यत इति? . नैतद्युक्तम्-चक्षुरादीन्द्रियाणां वैकल्यं अदृष्टनिबन्धनं अन्धकारप्रभृतिषु दृश्यते, न पुनः पदार्थस्थितिरदृष्टवशात् विपरिवर्तते। व्यञ्जकधर्मातिकमे हि हिममपि शैत्यं स्वधर्ममतिकामेत् । व्यञ्जकेषु नियमो न दृष्ट इत्युक्तम् । दृष्टे च वर्णभेदे नियतोपलब्धि हेतौ संभवति सति किमयमदृष्टमस्तके भार आरोप्यते ? आहोपुरुषिका-'आहोपुरुषिका तावत् गर्वादात्मनि गौरवम्' इति वैजयन्ती। ननु दिगाकाशयोरुभयोः व्यापकत्वाद्यविशेषात् श्रोत्रं दिक्प्रकृतिकमेव भवतु इत्यत्राह-व्यापकत्वेत्यादि। अन्यत्र-अन्यस्मिन् कार्ये। तुल्यम् , दिशोऽपि दैशिकपरत्वापरत्वनिर्वाहकतयैव सिद्धेः। तत्तत्प्रकृतिकत्वाभावेऽपि अभिप्रायान्तरादिभिस्तथा व्यपदेशो बहुलं दृश्यत इत्याह-यथा हीति। असवः-प्राणाः ।। श्रोत्रनियमवदिति। विभु आकाशं हि श्रोत्रं सिद्धान्ते। नैतर्युक्तमित्यादि । न हि ब्यापकं भाकाशं वयं श्रोत्रं ब्रूमः, किन्तु कर्णशष्कुल्युपहितमेव । न हि तव शब्दे तथा, पदार्थस्थिते: भदृष्टाधीनत्वाभावात्। तद्ग्रहणादिकं Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] तीव्रत्वादीनां श६धमल्वम् 561 [शब्दनित्यत्वे तीव्रमन्दादिविभागः दुर्निर्वहः] कथं चाभिव्यक्तिपक्षे तीव्रम विभागः ? (पु. 532)। तीव्रतादयो हि वर्णधर्मा वा स्युः? ध्वनिधर्मावा? वर्णधर्मत्वे 'तीव्रात् । गकारात् अन्यत्वं मन्दस्येत्यस्मन्मत नुप्रवेशः ॥ ध्व नधर्मत्वपक्षे तु श्रोत्रेण ग्रहणं कशम् ? न हि वायुगतो वेगः श्रवणेनोपलभ्यते ॥ ३०२ ।। [तीव्रत्वमन्दत्वादेः ध्वनिधर्मत्वासंभवः] . यत्तु व्यक्तिधर्माः कृश वस्थूलत्वादयः जातात्रुपलभ्यन्ते इति दर्शितम् (पु. 32)-तत् काममुपपद्येनापि। जातेः, व्यक्तः, तद्धर्माणां च समानेन्द्रियग्राह्यत्वात् ॥ इह तु स्पर्शनग्राह्यः पवनोऽतीन्द्रियोऽथ वा । तद्धर्माः श्रवणे शब्दे गृह्यन्त इति विस्मयः ॥ ३०३ ।। [तीवत्वमन्दत्वादेः बुद्धिधर्मस्वाभावः] यत्त बुद्धिरेव तीव्रमन्दवतीति (पु. 533)-तदतीय सुभाषितम् । असति विषयभेदे बुद्धिभेदानुपपत्तेः ।। किञ्च नित्यपरीक्षा ते बुद्धिरेवं च नादवत् । तदग्रहे न तीव्रादितद्धर्मग्रहसंभवः ॥ ३०४ ॥ कामं अदृष्टायत्तोपाध्यादिवशादिति युक्तम् । अदृष्टादेव साक्षात् व्यवस्था तु दुरुपपादैवेति ॥ . वायुगत इति। 'द्विविधो हि शब्दः वर्णों ध्वनिश्च । द्वयोरनुगतं शब्दत्वम् । वर्णत्वं ध्वनित्वं च तदवान्तरसामान्ये । वर्णविशेषाः गकारादयः, ध्वनिविशेषा: शङ्खघोषादयः । ध्वन्यात्मकश्च शब्दः वायुगुणः' इति न्यायरत्नाकरे (1-3-, स्फोट. ३९) वर्णितं द्रष्टव्यम् ॥ नित्यपरोक्षति । प्राकटयेनानुमेयं हि ज्ञानं तेषां मते । 1 तीव्र-ख. तदग्रहात्-ख. NYAYAMANJARI Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 [ न्यायमञ्जरी शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् अहो तीव्रादयस्तीत्रे प्रपाते पतिता अभी । यो गृह्यते, न तद्धर्मा; यद्धर्मा, स न गृह्यते ॥ ३०५ ॥ [शब्दनित्यत्वे तीव्रेण मन्दस्याभिभवोऽपि (पु. 533 ) दुर्निरूपः ] यश्चाभिभववृत्तान्तः त्वन्मते मरुतामसौ । अनिले चाभिभूतेऽपि शब्दो न श्रूयते कथम् ? ॥ ३०६ ॥ दीपेऽभिभूते रविणा न हि रूपं न गृह्यते । नियतव्यञ्जकत्वं तु प्रतिक्षिप्तमदर्शनात् ॥ ३०७ ॥ [ध्वनौ वायुगुणे शब्दत्वग्रहणासंभवः ] यत्तु शङ्खादिशब्दानां श्रोत्रग्राह्यत्वसिद्धये । शब्दत्वं तत्र तद्ब्रू।ह्यं इत्यवादि (पु. 538) तद्व्यसत् ॥ ३०८ ॥ सत्यं वदत दृष्टं वा श्रुतं वा कचिदीदृशम् । आश्रयस्य परोक्षत्वे तत्सामान्योपलम्भनम् ॥ ३०९ ॥ शब्दो न तेऽस्त्यवर्णात्मा न शङ्खो वर्णसम्भवः । न नादवृत्ति शब्दत्वं इति तद्ग्रहणं कथम् ? ।। ३१० ।। यो गृह्यत इति । शब्दस्तु गृह्यते, परन्तु तीव्रत्वादिर्न तद्धर्मः; तीव्रत्वादिधर्मास्तु बुद्धेः, सा तु न गृह्यते ॥ दीप इति । व्यञ्जकस्य दीपस्य सूर्यप्रभयाऽभिभवेऽपि न हि व्यङ्गयं रूपं न गृह्यत इत्यर्थः । ननु तत्र उभयव्यङ्गयं रूपं एकमेव । अतः एकस्याभिभवेऽपि न रूपाग्रहणप्रसङ्गः । प्रकृते तु तत्तदनिलाभिव्यङ्गययोः शब्दयोरपि तदनुगुणं भिन्नत्वात् तत्राप्यभिभवो युज्यत एवेत्याशंक्य तर्हि उभयोरसमाने मेलने किं कस्याभिव्यञ्चकं इत्यादिनियमः दुर्निरूप इति पूर्वमेवोक्तमित्याह नियतव्यञ्जकत्वमित्यादि ॥ आश्रयस्य - शब्दस्य । नाद एव हि तेषां श्रोत्रग्राह्यः, न तु शब्दः । अथापि शब्दत्वं नादे श्रोत्रेण गृह्यत इति ते वदन्ति । एतदेवोध्यतेऽनन्तरश्लोकेन ॥ ननु तर्हि सिद्धान्ते आकाशस्याप्रत्यक्षत्वेऽपि तदाश्रितस्य शब्दस्य प्रत्यक्षत्वं कथमिति चेत्; आकृतिव्यङ्गयत्वाजातेः तत्रैवायं नियमः, नान्यत्र ; तथाऽनुभवात् ॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दनित्यत्वे पूर्वोक्तं लाघवमप्रयोजकम 563 [शब्दनित्यत्वपक्षे लाघवोपपादनमप्रयोजकमेव] यत्पुनः 'संप्रधारितं' व्यङ्गयकार्यपक्षयोः क्व शब्दग्रहणे गुर्वी कल्पना भवति ? व वा लध्वी? इति (पु. 533)-तदपि मौलप्रमाणविचारसापेक्षत्वात् अप्रयोजकम् ॥ यदि मोलप्रमाणेन साधिता नित्यशब्दता। त्वदुक्ता कल्पना साध्वी मदुक्ता तु विपर्यये ॥ ३११ ॥ [शब्दनित्यत्वपक्षे शब्दस्य सर्वदिक्षु ग्रहणासंभवः] कौष्ठयेन बहिः प्रसरता समीरणेन सर्वतः स्तिमितमारुतापसरणं क्रियते (पु. 537) इत्येतदेव तावदलौकिकं कल्पितम् । . 'अग्नेरूप्रज्वलनं, वायोस्तिर्यग्गमनं, अणुमनसोश्चाद्यं कर्मत्यदृष्टकारि तानि' (वै.सू. ५-२-१४) इति मरुतां तिर्यग्गमनस्वभावत्वात् ऊर्ध्वमधश्च शब्दश्रवणं न भवेत् ॥ यावन्न वेगिनाऽन्येन प्रेरितो मातरिश्चना। तावनैसर्गिको वायुःन तिर्यग्गतिमुज्झति ॥ ३१२ ॥ अधोमुखप्रयुक्तोऽपि शब्द ऊर्ध्व प्रतीयते । उत्तानवदनोक्तोऽपि नाधो न श्रूयते च सः ॥ ३१३ ।। कदम्बगोलकाकारशब्दारम्भो हि संभवेत् । न पुनदृश्यते लोके तादृशी मरुतां गतिः ॥ ३१४ ।। आकण्ठानद्धनीरन्ध्रचर्मावृतमुखोदितः । शब्दो यः श्रूयते तत्र न कौष्ठयानिलसर्पणम् ॥ ३१५ ।। ... मौलप्रमाणेति । मूलभूतप्रमाणेत्यर्थः । अप्रयोजकत्वमेवाहयदीति ॥ यावदित्यादि । दृश्यते हि जलेऽपि प्रवाहद्वयसंघटनया ऊर्ध्वगतिः । अकण्ठेत्यादिकं कौष्टयन समीरणेन स्तिमितमारुतापसरणासंभवोपपादनाय ॥ सन्धारितं-ख. 36* Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 561 शब्दानामनित्यत्व समर्थनम् न्यायमञ्जग कुड्यादिप्रतिवन्धेन वायोरप्रसरणं भवद्भिरपि कथितमेव । निर्विवरचर्मपुटोपरुद्धोऽप्यसौ न प्रसरेत् ॥ कोष्टयमारतस्य शब्दाभिव्यञ्जकत्वासंभवः] अपि च सर्वतोनिरुद्धसर्वद्वारस्यापि जठरे गुराशब्दो मन्दाग्नेः श्रूयते। अत्र कुनो व्यञ्जकानां कौष्ठ्यपवनानां निस्सृतिः ? रोमकृमनिस्सृतानामपि सूक्ष्मतया स्तिमित बाह्यवाय्वपसरणसाम-. •भावः॥ कौष्ठयमारुतस्य बाह्यवाय्वपसरणे शक्तिरपि न भवति किञ्च मनागपि वहिवायौ वाति न शब्दश्रय गं स्यादिति । दुर्वलोऽपि बाह्यः पवनः प्रवलादत कोष्टयवायोः वलीयान भवतीति कथं तेनापसार्यत? [प्रसिद्ध ब्राह्मवाय्वपेक्षया विलक्षणा: शब्दावारकवायवो न सन्त्येव अन्य एव सूक्ष्मा वायवः शब्दावर णकारिणः, न पुनरेते परिदृश्यमानाः श्यामाकलतालास्योपदेशिनः मातरिश्वान इनि चेत्-न--विशेष प्रमाणाभावात्। यं च सूक्ष्मा अपि वायवः तिरादधति, तं सुतरां वलीयांसोऽपि विवृणुयुरिति यत्किञ्चिदेतत् ॥ सिद्धान्तोक्तशब्दग्रहणप्रकार एव साधीयान् ] तस्मात् सजातीयशब्दसन्तानारम्भपक्ष एव युक्तयनुगुणः । तथाहि --सजातीय गुणारम्भिणः गुणास्तावदृश्यन्त एव रूपादयः। अमूर्ताऽपि च बुद्धिः बुद्धयन्तरमारभमाणा दृश्यते। देशान्तरेऽपि सव कार्यमारभते, पथि गच्छतो देवदत्तादः एकस्मादायप्रदेशात् प्रदेशान्तरे बुद्धयुत्पाददर्शनात् । कार्यारम्भविरतिरपि भवति; अदृष्टाधीनसंसर्गाणां सहकारिणामनवस्थानात् ।। भवद्भिः कथितमिति । 'आरम्भप्रतिबन्धोऽस्य न च कुड्यादिभिभवेत् ' (श्लो. वा. :-५-६.६६) इत्यादौ तथोक्तं तैः ॥ श्यामाकलतालास्योपदेशनः तासां ईपञ्चलनहेतवः ॥ 'शब्दः शब्दान्तरं सूते इति तावदलौकिकम्' इत्यायुक्त (पु. 534) समाधने-तथाहीत्यादि। सैव-पूर्वोत्पन्नैव बुद्धिः। पथि गच्छत इत्यादि। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दस्य गुणत्वसमर्थनम् 565 तीवेणापि शनैरेवं अतीवारम्भसम्भवः । सीदत्सचिवसामर्थ्यसापेक्षक्षीणवृत्तिना ॥ ३१६ ॥ वीचीसन्तानदृष्टान्तः किञ्चित्साम्यादुदाहृतः । न तु वेगादिसामर्थ्य शब्दानामस्त्यपामिव ॥ ३१७ ॥ [निरावरणमेवाकाशं शब्दोत्पत्तिकारणम्] यत्त कुड्या दिव्यवधाने किमिति विरमति शब्दसन्तानारम्भ इति (पु. 534)--नैष दोषः --निरावरणस्य हि व्योम्नः शब्दारम्भे समवायिकारणत्वं तथादर्शनात् कल्प्यते, नाकाशमात्रस्येति ॥ [शब्दस्य आश्रितत्वात गुणत्वसाधनपक्षः, तन्निराकरणं च] यदपि गुणत्वमसिद्धं शब्स्ये ति (पु. 5:34)-तत्र केचित् अश्रितत्वात् गुणत्वमाचक्षते-तदयुक्तम् आश्रितत्वं गुणत्वे हि न प्रोजकमिष्यते। . पण्णामपि पदार्थानां आश्रितत्वस्य संभवात् ॥ ३१८ ॥ दिक्कालपरमाण्वादिनित्यद्रव्यातिरेकिणः । . आश्रिताः षडपीप्यन्ने पदार्थाः कणभोजिना ॥ ३१९ ॥ न च व्योमांश्रितत्वमपि शब्दस्य प्रत्यक्षम ; अप्रत्यक्षे नभसि तदाश्रितत्वस्याप्यप्रत्यक्षत्वात् ।। [आकाशाप्रत्यक्षस्वेऽपि शब्दप्रत्यक्षत्वमुपपद्यते] कथमाधारपारोक्ष्ये शब्दप्रत्यक्षतेति चेत् । यथैवाऽऽत्मपरोक्षत्वे बुद्धयादेरुपलम्भनम् ॥ ३२०॥ एतदेवासिद्धमिति चेत् ; अलं वादान्तरगमनेन। उपरिष्टानिर्णेष्यमाणत्वात् (७ आह्निके.) ॥ विभोरात्मनः देहदेशावच्छेदेनैव हि ज्ञानमुत्पद्यते। सचिवाः-सहकारिणः ।। पणाम पीति । 'द्रव्याश्रितत्वं चान्यत्र नित्य द्रव्येभ्यः (प्र. भा.) इति हि काणादा.॥ एतदेव-आत्मनोऽप्रत्यक्षत्वेऽपि तद्गुणानां प्रत्यक्षत्वमित्येतदेव ।। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 शब्दानामनित्यत्वममर्थनम् न्यायमञ्जरी किमेतर्हि शब्दस्य गुणत्वे प्रमाणम् ? परिशेषानुमान मिति ब्रूमः। प्रसक्तयोः द्रव्यकर्मणोः प्रतिषेधे सामान्यादावप्रसङ्गाच्च गुण एवावशिष्यते शब्दः॥ [शब्दस्याद्रव्यत्वम् ] कथं पुनः ? न द्रव्यं शब्दः, एकद्रव्यत्वात्। अद्रव्यं वा भवति द्रव्य, आकाशपरमाण्वादि-अनेकद्रव्यं वा-यणुकादि कार्यद्रव्यम्। एकद्रव्यं तु शब्दः, एकाका शाश्रितत्वात् । तस्मान्न द्रव्यम् ॥ [शब्दस्य कर्मादिभिन्नत्वम् ] __ नापि शब्दः कर्म, शब्दान्तर जनकत्वात् । कर्मणो हि समानजात्यारम्भकत्वं नास्ति॥ सत्ताशब्दत्वादिसामान्यसम्बन्धाच्च सामान्यादि'त्रय'प्रसङ्गोऽस्य नास्तीति पारिशेष्यात् गुण एव शब्दः॥ [शब्दस्य गुणत्वसाधनम् ] . . ननु ! गुणत्वसिद्धौ सत्यां आकाशाश्रितत्वं शब्दस्य भविष्यति; गुणस्य द्रव्यानाश्रितस्या दर्शनात् पृथिव्यादीनां च शब्दाश्रयत्वानु पपत्तेः। ततश्च गुणत्वे सति एकद्रव्यन्वं, एकद्रव्यत्वे सति गुणत्वमितीतरेतराश्रयत्वम् ॥ तथा च समानजातीयारम्भकत्वमपि गुणत्वसिद्धिमूलमेव। गुणत्वे सति शब्दस्याकाशाश्रितत्वात् तदात्मकेन श्रोत्रण ग्रहणम्। तच्च देशान्तरगतसंयोगविभागप्रभवस्य शब्दस्य सन्तानमन्तरेण श्रोत्रदेशप्राप्तयभावात् न सिध्यतीति गुणत्वसिद्धिमूला एकद्रव्यत्वादित्यस्योपपादनं --अद्रव्य मिति। द्रव्यासमवायिकारणक. मित्यर्थः॥ समानजात्यारम्भकत्वं-'समानजाति' इत्यत्र बहुव्रीहिः। यद्यपि द्रव्यं द्रव्यान्तरमारभते, अथापि जातिभेद एव घटकपालादौ कार्यकारणतावच्छेदकः॥ इतरेतराश्रयत्वान्तरमप्याह-तथा चेति ॥ त्रिये-क. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दस्य गुणत्वसमर्थनम 567 सन्तानकल्पना, सन्तानकल्पनायां च समानजात्यारम्भकत्वात् कर्मव्यवच्छेदे सति गुणत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वमेव॥ उच्यते-नोभयत्राप्येष दोषः। श्रोत्रग्राह्यत्वादेव शब्दस्याकाशाश्रितत्वं कल्प्यते, समानजातीयारम्भंकन्वं च गुणत्वात् । आकाशैकदेशो हि श्रोत्रमिति प्रसाधितमेतत् । प्राप्यकारित्वं चेन्द्रियाणां वक्ष्यते (आह्निके ८) । न चाकाशानाश्रितत्वे शब्दस्य श्रोत्रेण प्राप्तिर्भवति ; न चाप्राप्तस्य ग्रहणमिति तदाश्रितत्वं कल्प्यते॥ ... एवं समानजातीयारम्भकत्वमपि तत एव श्रावणत्वात् दूरवर्तिनः शब्दस्य श्रवणे सति कलप्यते, न तु गुणत्वादिति नेतरेतराश्रयम् ॥ [शब्दस्य कार्यत्वादप्याकाशाश्रितत्वं साधयितुं शक्यम् ] कार्यत्वादाकाशाश्रितत्वं कल्यत 'इत्येके ॥ ननु ! कार्यत्वादप्याकाशाश्रितत्वकल्पनायां तदवस्थमेवेतरेतराश्रयम ; कार्यत्वादाकाशाश्रितत्वम् , आकाशाश्रितत्वे सति नियतग्रहणपूर्व पूर्वरीत्या कार्यत्वमिति-नैतदेवम-भेद विनाशप्रतिभासाभ्यामेव कार्यत्व सिद्धेः॥ किमर्थस्तर्हि नियतग्रहणसमर्थनाय अयमियान प्रयासः क्रियते ? नियतग्रहणमपि कार्यपक्षानुगुणमिति दर्शयितुम, न पुनरेषैव कार्यत्वे युक्तिरित्यलं सूक्ष्मेक्षिकया ॥ [शब्दस्य कर्मभिन्नत्वं प्रत्यक्षसिद्धमिति पक्षः] अपर आह–परिस्पन्दविलक्षणत्वस्य प्रत्यक्षत्वात् अकर्मत्वं शब्दस्य साध्यते, न समानजात्यारम्भकत्वात् इतीतरेतराश्रयस्पर्शोऽपि नास्तीति । तस्मात सर्वथा परिशेषानुमानात् शब्दस्य गुणत्वसिद्धिः॥ उभयत्र---गुणत्वे सजातीयारम्भकत्वे च ॥ भेदेति । अभेदे सति आकाशादिवत् नित्यत्वं स्यात। भेदे सत्यपि परमाण्वादिवत् नित्यत्वं तु न संभवति, विनाशप्रतिभासात् ।। 1इत्यन्ये-क. Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 शब्दानामनित्यत्वसमर्धनम् न्यायपअरी शब्दस्य गुणत्वेऽपि · महान् ', ' अल्पः ' इत्यादिव्यवहारः नायुक्तः कथं तह्यस्य महत्त्वादियोगः : 'निर्गुणा गुणाः' इति हि काणादाः। अस्ति हि प्रतीतिः 'महान् शब्दः' इति-समानजातीयगुणाभिप्रायं तत् कणादवचनमिति न दोषः। तस्मादाकाशगुणः शब्दः॥ अपि च यथाऽऽत्मगुणता हीच्छाउपादेरुपपत्स्यते । शब्दो नयेन तेनैव भविष्यति नभोगुणः ॥ ३२१॥ [शब्दस्य शब्दान्तरजनकत्वं युक्तमेव] ये तु समानजातीयशब्दारम्भकत्वनिषेधहेतवः, 'शब्दत्वात्' इत्यादयः परैरुपन्यस्ताः (पु. 535)-तेषामप्रयोजकत्वात् न साधनत्वम् ॥ इत्थं सन्तानवृत्त्या च शब्द ग्रहणसम्भवे । कल्पना ऽल्पतराऽरमाकं न शब्दव्यक्तिवादिनाम् ॥ ३२२ ॥ शाक्यका पलनिर्ग्रन्थग्रथितप्रक्रियां प्रति । यत्त दूषणमारयातं अस्माकं प्रियमेव तत् ॥ ३२३॥ समानजातीयेति । तेशं गुणरहितत्वं स्वात्मनि गुणान्तरानारम्भकत्वात् । तदनारम्भकत्वं च रूपादिपु रूपाद्यन्तरानुपलब्धेः, अनवस्थानाच' इत्येव श्रीधरेण कन्दल्यां (पु. ९४) युक्तिकथनात् रूपे रूपं नास्तीत्येवमङ्गीकारेऽपि संख्याद्यङ्गीकारे न हानिरिति भाव । ननु तर्हि गुणोऽपि द्रव्यवत् समवायिकारणं स्यात् इति चेत् । इष्टापत्तिः। अथवा इदं वैभवेनोक्तम् । महत्त्वादिकं शब्दोत्पत्तिहेतुभूनाभिघातापसंयोगोपाधिकं स्यात्, तथैवानुभवात् ॥ एवमनङ्गीकारे आकाशवत् आत्माऽपि न सिध्येदित्याह-अपि चेति ॥ इच्छाद्वेषादयो हि शरीरेन्द्रियाद्यपाधिका एव दृष्टा इति आत्माऽपि आकाशवदन्यथासिद्धः स्यात् ॥ अप्रयोजकत्वादिति । पूर्वोक्तदिशा शब्दस्य शब्दान्तरजनकत्वस्यानिवार्यत्वात् , अन्यथा आत्मगुणानामपि ज्ञानादीनां तथात्वप्रसङ्गादित्यर्थः । आत्मगुणानां तु तथात्वं तत्प्रकरणे साधयिष्यते ॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ३] शब्दानित्यत्वे सौत्रहेतवः 569 तस्मात् कार्यपक्षे नियतग्रहणोपत्तः, अभिव्यक्तिपक्षे च तदभावात् कार्य एव शब्द इति स्थितार । 'तदिदमुक्तं सूत्रकृता -- 'आदिमत्त्वाइन्द्रियकत्वात् कृतकवदुपचाराचा नित्यः शब्दः' (न्या.सू. २-२-१३) इति ।। आदिमत्वादिति संयोगविभागादीनां शब्दे कारकत्वं, न व्यञ्जकत्वमिति दर्शितम्। अतश्च न प्रयत्नानन्तरीयकत्वं अनेकान्तिकम् ॥ . ऐन्द्रियकत्वादिति कार्यपक्ष एव शब्दस्य नियतं ग्रहणमित्युक्तम्। प्रतिपुरुषं प्रत्युच्चारणं च शब्दभेदस्यैन्द्रियकत्वादिति वा हेत्वर्थः। तेन प्रत्यभिज्ञादुराशा श्रोत्रियाणामपाकृता भवति । कृतकवदुपचारादिति तीवमन्दविभागाभिभवादिव्यवहारादर्शनात् सुख दुःखादिवदनित्यः शब्द इति दर्शितम् ॥ तथा'प्रागूर्ध्वमुच्चारणादनुपलब्धेः आवरणानुपलब्धेश्च' (न्या.तू. २-२-१८) • इत्यनेन सूत्रेण शब्दाभावकृतमेव तदग्रहणमित्युक्तम्। न हि स्तिमिता वायवः शब्दमावरीतुमर्हन्ति । मूर्ने हि मूर्तेन व्यवधीयते, नामूर्त, आकाशादिवत्। न च प्रकृत्यैवाकाशादिवदतीन्द्रियः शब्दः। तस्मात् क्षणिकप्रतीतेस्तत्कालमेव शब्दस्यावस्थानमिति अस्थानहेतोरपि नान्यथासिद्धत्वम् ॥ प्रागृ@मिति। उच्चारणात् प्राक्, उच्चारणादूचं इत्यन्वयः ॥ अस्थानहेतोरिति । 'अस्थानात् ' (जै. सू. १-१-७) इति पूर्वपक्षसूत्रे-उत्पन्नस्य शब्दस्य अवस्थित्यदर्शनात् विनष्टः शब्दः इत्यनित्यत्व मुक्तम् अस्य समाधानं 'सतः परमदर्शनं विषयानागमात् ' (जै. सू. १-१-३३) इति । विद्यमानस्यैव शब्दस्याग्रहणं इन्द्रियदेशाप्राप्तथैव, न त्वविद्यमानत्वात् । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न्यायमञ्जरी वार्तिकोक्तशब्दानित्यत्वसाधनप्रकारः] वार्तिककृता शब्दानित्यत्वे साधनमभिहितं ‘अनित्यः शब्दः, जातिमत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वात्, घटवत्' (न्या. वा. २-२-१४) इति ॥ कुमारिलोक्तवार्तिकदृषणस्योद्वारः] यत्तु अत्र जातीनामपि जातिमत्वादनैकान्तिकत्वमुद्भावितम् -'एकार्थसमवायेन जातिर्जानिमती यतः (हि वः)' (श्लो. वा. १-१-६-३-३९) इति-तत् अत्यन्तमनुपपन्नम्-निस्सामान्यानि 'सामान्यादीनीति' सुप्रसिद्धत्वात् । न हि घटे घटत्वपार्थिवत्वे स्तः इति घटत्वसामान्येऽपि पार्थिवत्वसामान्यमस्तीति शक्यते वक्तुम् , अतो निरवद्य एवायं हेतुः॥ शब्दस्तु नित्यः, वायवीयसंयोगविभागाभिव्यङ्ग्यः ।, ततश्च ताल्वादिसंयोगविभागात् वायौ सूक्ष्मा: संयोगविभागा जायन्ते । ते च क्रमशः श्रोत्रं प्राप्य तत्रापि शब्दमभिव्यञ्जयन्ति। श्रोत्रेण च वायुस्संयुक्तः, तत्समवेतश्च ध्वन्यात्मकः शब्दः। स एव च वर्णानामभिव्यञ्जकः । तथा च संयुक्तसमवायात् शब्दग्रहणम् (न्या. र. स्फोट. ३९+शब्दानित्य-३४)। एवञ्च शब्दाभिव्यञ्जकवायवीयसंयोगविभागानां श्रोत्रदेशाप्राप्तया शब्दस्याग्रहणम्, न तु अस्थानात् । यथा वा सत एवाकाशस्य कूपरूपस्य मृत्पूरणेऽग्रहणं तिरोधानादेव, न त्वस्थानात तथेति ' कूपपूरणयत्नेन ख तिरोधीयते यदा। अस्थानादित्ययं हेतुः तदाऽनैकान्तिको भवेत् ' (श्लो. वा. १-१-६-३८) इत्युक्तं न युक्तम्--इत्यर्थः ॥ जातिमत्त्वे सति इति सामान्यादिवारणाय । आत्मवारणाय बाह्यपदम् ॥ न हीत्यादि । एकार्थसमवायो हि सामानाधिकरण्यविशेषः । सामानाधिकरण्यसम्बन्धश्च न विशिष्टवैशिष्टयव्यवहारहेतुः। तर्हि एकभूतलवृत्तित्वमात्रादपि 'दण्डी' इत्यादिव्यवहारापत्ति: । यद्यपि 'एक रूपम्' इत्यादौ सामानाधिकरण्यस्यापि तथात्वमङ्गीकृतम्, अथापि जातिद्वयस्य तथात्वं तु न भवत्येव । जातिर्हि विलक्षणप्रतीतिनिर्वाहकतया सिद्धा। यदि एका जाति: अन्यत्रापि सामानाधिकरण्येन स्यात्, तर्हि कथं वैलक्षण्यनिर्वाहः इत्यागृह्यम् ॥ 1 सामान्यानीति-क. Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 571 आह्निकम् ३] शब्दानित्यत्वविवारनिगमनम तेन यदुच्यते-(श्लो. वा. १-१-५, अनु. २१) 'जातिमत्त्वैन्द्रियत्वादि वस्तुसन्मात्रबन्धनम् । शब्दानित्यत्वसिध्यर्थ को वदेत् ? यो न तार्किकः ॥' इति तदविदिततार्किकपरिस्पन्दस्य व्याहृतम् ॥ [मीमांसकोक्तशब्दनित्यत्वहेतूनामेवाप्रयोजकत्वम् ] इह त्वप्रयोजका हेतवो भवन्ति ह्यस्तनोच्चारितस्तस्मात् गोशब्दोऽद्यापि वर्तते। गोशब्दज्ञानगम्यत्वात् यथोक्तोऽद्यैष गौरिति ॥ ३२४॥ विज्ञानग्राह्यता नाम वस्तुस्वाभाव्यवन्धना। नित्यत्वे कृतकत्वे वा न खल्वेषा प्रयोजिका ॥ ३२५ ॥ अप्रयोजकता चैवंप्रायाणां चैवमुच्यते । स्वयं चैते प्रयुज्यन्ते हेतुत्वेनेति किं विदम् ॥ ३२६ ।। [शब्दानित्यत्वविचारनिगमनम् ] एवं नित्यत्वे दुर्बलो युक्तिमार्गः तस्मान्मन्तव्यः कार्य एवेति शब्दः। वाचोयुक्तित्वे वैदिको योऽनुवादः न्याये 'प्रत्युक्ते' किंफलस्तत्प्रयोगः ॥ ३२७ ।। कृतकत्वसावयवत्वादिप्रयुक्तेऽनित्यत्वे वक्तव्ये, वस्तुसत्तामात्रनिबन्धनं सर्ववस्तुसाधारणं जातिमत्त्वैन्द्रियकत्वादि तार्किकादन्यः को वदेत्-इत्युपहासः । अविदितेत्यादि । परिस्पन्दः-व्यवहार इति यावत् । न हि तार्किकाः जातिमत्त्वं, ऐन्द्रियकत्वं वा सर्ववस्तुसाधारणं वदन्ति ॥ __वस्तुस्वाभाव्यबन्धनेति। ज्ञेयत्वं हि केवलान्वयि ; न तु जाति मत्वादि॥ - प्रयुक्त-ख. Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 शब्दानामनित्यत्वसमर्थनम् न्यायमञ्जरी शब्दस्यास्थिरत्वोपसंहारः क्षणभङ्गिभावस्याभावादपि शब्दस्य क्षणिकतां न वक्तुमलम् । स्थूल विनाशभावादिति यदुक्तं (पु. 540)-'तदप्यनृतम् सूक्ष्मविनाशापेक्षी नाशः स्थूलस्थिरस्य कुम्भादेः। * प्रकृतितरलस्य नाशः शब्दस्य स एव हि स्थूलः ॥ ३२८ ॥ सत्त्वाद्यदि क्षणिकतां कथयेत्, पुरा वा शब्दस्तदैप कथमक्षणिकोऽभिधेयः। युक्तयन्तरादि तदेव हि तर्हि चिन्त्यम् + किं प्रौढिवादबहुमानपरिग्रहेण ॥ ३:९ ॥ अलमतिविततोक्तया त्यज्यतां नित्यवादः कृतक इति नयज्ञैः गृह्यतामेष शब्दः। सति च कृतकभावे तस्य कर्ता पुराणः कविरविरल शक्तिः युक्त एवेन्दुमौलिः ॥ ३३० ।। इति श्रीजयन्तभट्टकृती न्यायमञ्जयाँ तृतीयमाह्निकम् * प्रकृति। निरवयवस्य शब्दस्य नाशः न ह्यवयवनाशाधीन इत्यर्थः ॥ __ + स्थूल विनाशभावादित्येतत् अंगीकृत्यवाद इंति चेत्, तत्राहकिमिति॥ इति न्यायसौरभे तृतीयमाह्निकम् तदपि नृत्तम्-ख. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] वेदपौरुषेयत्वानुमानम् 573 573 चतुर्थमाह्निकम् --शब्द परीक्षा वेदानां पौरुषेयत्वानुमानम्]. एवं कृतकत्वे वर्णानां साधित सात वर्णात्मनः पदात् प्रभृति *सर्वत्र पुरुषस्य स्वातन्त्र्यं सिद्धं भवति ॥ पिद नित्यत्वपक्षेऽपि वाक्ये तद्रचनात्मके। कर्तृत्वसंभवात् पुंसः, वेदः कथमकृत्रिमः॥१॥ . तथा च वैदिक्यो रचनाः कर्तृपूर्षिकाः, रचनात्वात् , लौकिकरचनावत्। एष च पञ्चलक्षणो हेतुः, प्रयोजकश्चति गमक एव, न हेत्वाभासः॥ वेदपौरुषेयत्वानुमाने दूषणोद्धारः । न तावदयमसिद्धो हेतुः ; 'शन्नो देवीरभिष्टये' (अथ.सं. १-६-१) इत्यादिषु वेदवाक्यसन्दर्भेषु पदरचनाया. स्वरक्रमादिविशेषवत्याः प्रत्यक्षत्वेन पक्षे हेतोः वर्तमानत्वात् ॥ नापि विरुद्धः; 'कर्तृपूर्वकत्व'वति सपक्षे कुमारसम्भवादौ रचनात्वस्य विद्यमानत्वात् ॥ . नाप्यनैकान्तिकः ; 'कर्तृरहितेषु गगनादिषु', गगनकुसुमादिषु वा रचनाया अदृष्टत्वात् ॥ (एतदाह्निके टिप्पणीस्थलानां बिरलत्वात् सुज्ञानार्थ तानि चिह्नयोंजितानि) *सर्वत्र ----वाक्यादिषु । वर्णानामेवानित्यत्वे वाक्यानां अनित्यत्वं कैमुतिकसिद्धमिति भावः ॥ पदेत्यादि। यद्यपि 'वर्णनित्यत्वपक्षेऽपि ' इति वक्तु मुचितम् ; परन्तु मीमांसकैः, औत्पत्तिकसूत्रे शब्दार्थयोस्सम्बन्धस्य सहजत्वं स्थापितम्। तत्र प्रसक्तः शब्दः पदरूप एव । अतश्च तदनन्तरे शब्दनित्यताधिकरणे पदात्मकस्यैव नित्यत्वं साधितमिति एवमुक्तम् ॥ पञ्चलक्षणः--पक्षसत्त्वादि (पु. 282) युक्तः ॥ 1 कर्तृत्व-ख. गगनादिषु -क. Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 वेदपौरुषेयत्वसाधनम् न्यायमञ्जरी नापि कालात्ययापदिष्टः ; प्रत्यक्षेण, आगमेन वा वेदे वक्रभावनिश्चयानुत्पादात् ॥ ___ नापि सत्प्रतिपक्षः ; *प्रकरणचिन्ताहेतोः स्थाणुपुरुषविशेषानुपलब्धेरिव हेतुत्वेनानभिधानात् ॥ नपि परमाण्वनित्यतायामिव मूर्तत्वं अप्रयोजकमिदं साधनम; रचनाव्यापाराणां कर्तृव्यापारसाध्यत्वावधारणात् । यथा धूमस्य ज्वलनाधीन आत्मलाभः; शप्तिस्तु धूमादग्नेः-तथा कर्बधीना रचनानामभिनिर्वृत्तिः, प्रतीतिस्तु ताभ्यः कर्तुरिति । तस्मात् प्रयोजक एवार्य हेतुः ॥ [वेदपौरुषेयत्वानुमानस्य ससत्प्रतिपक्षत्वाशङ्कानिरासः] ननु ! सत्प्रतिपक्षत्वे 'विवदन्ते। तथा च मीमांसकेः प्रतिहेतुरिह गीयते (श्लो. वा. १-१-७-३६६ ...... . * 'वेदस्याध्ययनं सर्व गुर्वध्ययन पूर्वकम्। वेदाध्ययनवाच्यत्वात् अधुनाऽध्ययनं यथा' इति-नैतद्युक्तम्-एवंप्रायाणां प्रयोगाणामप्रयोजकत्वात् । न हि तिच्छब्दवाच्यत्वकृतं अनादित्वमुपपद्यते ॥ . *प्रकरणचिन्तेति। 'यस्मात्प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः' (न्या. सू. १-२-७) सौत्रलक्षणानुरोधेन एवमुक्तिः। प्रकरणं-पक्षप्रतिपक्षी, तावधिकृत्य चिन्तेत्यर्थः ॥ ननु कर्तृपूर्वकत्वे रचनात्वं हेतुरिति कथम् ? रचनायां हि कर्ता हेतुः, न तु कर्तरि रचना हेतुरित्यत्राह-यथेति। तथा च कारकहेतोः, कार्य ज्ञापकहेतुर्भवतीत्यर्थः ॥ वेदस्येत्यादि । नन्वेतावताऽपि कथं वेदनित्यत्वसिद्धिरिति चेत्, एवमेव सर्वेषामध्ययनानां तत्तदध्ययनपूर्वकत्वे सिद्धे महाप्रलयानङ्गीकारात् संसारस्यानादित्वसिध्या वेदानादित्वसिद्धिः ॥ $ तच्छब्दः--वेदाध्ययनशब्दः ॥ विवदन्ते च-ख. Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] वेदे कर्लस्मरणं न सकर्तृकत्व विरोधि 575 अनैकान्तिकश्चायं हेतु:, भारतेऽप्येवमभिधातुं शक्यत्वात् । भारताध्ययनं सर्वे गुर्वध्ययनपूर्वकम्, भारताध्ययनवाच्यत्वात्, इदानीर्तनभारताध्ययनवत् इति ॥ [वेदस्य पौरुषेयत्वे भारतादेरप्यपौरुषेयत्वप्रसङ्गः ] ननु ! भारत कर्तृस्मृतिरविगीता विद्यते; यद्येवं वेदेऽपि प्रजापतिः कर्ता * स्मर्यत एव ॥ + अथ वैदिकमन्त्रार्थवादमूलेयं प्रजापति' कर्तृत्वस्मृति:'; 'प्रजापतिना चत्वारो वेदा 'असृज्यन्त', चत्वारो वर्णाः चत्वार आश्रमा:' इति तत्र पाठादिति - उच्यते - हन्त तर्हि भारतेऽपि 'तत्रत्यवचन' मूलैव पाराशर्यस्मृतिरिति शक्यते वक्तुम् ॥ [ पौरुषेयत्वा पौरुषेयत्वयोः वेद भारतयोस्तौल्यम् ] यथा प्रजापतिर्वेदे तत्र तत्र प्रशस्यते । भारतेऽपि तथा व्यासः तत्र तत्र प्रशस्यते ॥ २ ॥ अथ प्रणेता वेदस्य न दृष्टः केनचित् क्वचित् । द्वैपायनोऽपि किं दृष्टः भवत्पितृपितामहैः ॥ ३॥ * सर्वेषामविगीता चेत् स्मृतिः सत्यवतीसुते । प्रजापतिरपि स्रष्टा लोके सर्वत्र गीयते ॥ ४ ॥ 'स्मर्यते । तथा च प्रदर्शयिष्यत्युत्तरत्र ॥ 1. अथेति । मन्त्राणामर्थवादानां च न स्वप्रतिपाद्यार्थे प्रामाण्यम् । अपि वादिस्मृतयो हि वेदानुसारादेव प्रमाणानि । वेदस्तु स्वविषये स्वयं कथं प्रमाणं भवेत् । न हि विप्रतिपत्तिस्थले विप्रतिपन्नवाक्यमेव प्रमाणीकर्तुं शक्यमिति भावः ॥ तत्रत्येति । भारतस्थेत्यर्थः ॥ 1 स्मृतिः - ख. 2 असृजन्त-क. ' तत्र वचन - ख. प्रवचन - ग. Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 वेदपौरुषेयत्वसाधनम् [न्यायमञ्जरी [वेदपौरुषेयत्वासंभवपूर्वपक्षः] आह - किमिति सदसद्विवेकविकल शाकटिकादिप्रवादविप्रलब्धः एवं भ्राम्यसि ? कि ल स्वल्पमपि कर्म पित्रा मात्रा वोपदिश्यमानं तद्वचनप्रत्ययादनुष्ठीयते। तदयमियान् अनेकक्लेशवित्तव्यमादिनिर्धयों वैदिकः कर्मकलापः । एवमेव तदुरदेशिनमाप्तं संस्मृत्वैव क्रियते इति महान् प्रमादः ॥ एवञ्च सति उच्चावचकविचितजरत्पुस्तकलिखितकाव्यवत् अस्मर्यमाणकर्तृकेण वेदेन व्यवहारानुपपत्तेः अवश्यस्मरणीयः तत्र कर्ता स्यात् । न च कदाचन वेदेषु व्यवहारविच्छेदः संभाव्यते, येन तत्कृतं जरत्कृपारामादिष्विव तेषु कत्रस्म णं स्यात् । तस्मा- . दवश्यं स्मर्यंत कर्ता।' न च संस्मयते, स्मतुं शक्यते वा? स्मृतिर्हि भवन्ती तदनुभवमूला भवति। न च मूलेऽपि कनुभवः कस्यचिजातः, सर्गादेरभावात् । भावे वा कर्तुर शरीरत्वेन दर्शनयोग्यत्वाभावात्॥ | वेदानां पौरुषेयत्वेऽप्यनादित्वमवर्जनीयम् । . सशरीरत्वपक्षे वा पुरुषः कोऽपि तादृशः। तदानीं दृश्यमानोऽपि वेदं कुर्वन्न दृश्यते ॥ ५॥ ||अधीयमाने दृऐऽस्मिन् तदा संशेरते जनाः। किमेष रचयेद्वेदं उत वाऽन्यकृतं पठेत ॥ ६ ॥ * शाकटिका- शकटेन जीवतीत्यर्थे टक्, पामर इति यावत् ॥ +एवमेवेति। न ह्येवं लोके दृश्यते, संभवि वेत्याशयः ।। * एवञ्च सति-- बेदस्य सकर्तृकत्वेऽङ्गीकृते सति ॥ तत्कृतं --- विच्छेदकृतम्॥ ||अधीयमान इति । 'लटः शतृशानचौ इति शानच । आदिपुरुषे वेदं पठति सतीत्यर्थः ॥ न चासा-क. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह्नकम् ४ अस्मयमाणककत्वहेतोरप्रयोजकत्वम 577 यत्कृतं वा पठेदेषः तस्मिन्नपि हि संशयः । माया चेदमनादित्वं *उन्मीलदिव दृश्यते ॥ ७ ॥ असत्यादिप्रमाणे च कर्तृताऽनुभवं प्रति । स्मृतिः प्रवन्धसिद्धाऽपि स्पृशत्यन्धपरम्पराम् ॥ ८॥ योगिभिर्ग्रहणं कर्तुः इत्येतदपि दुर्वचम् । कर्तृता हिदि दुर्वाधा कथं गृह्येत तैरपि ? ॥ ९ ॥ योगि भस्सा गृहीतेति वियमेतन्न मन्महे । अमन्वानाच गच्छेम विस्रब्धास्तत्पथं कथम् ? ॥ १० ॥ वेदात् कर्बववोध तु स्पष्टमन्योन्यसंश्रयम् । ततो वेदप्रमाणत्वं वेदात् कर्तुश्च निश्चयः ॥ ११ ॥ तस्मात् पौर्वापर्यपालोचनारहितयथाश्रुतमन्त्रार्थवादमूला भ्रान्तिरेपा, न पुनः परमार्थतः कश्चित् कञ्चित् वेदस्य कर्तारं स्मरति । तस्मात् अकृतका वेदाः: अवश्यस्मरणीयस्यापि कर्तुः अस्मरणात् । न च व्यधिकरणो हेतुः; अस्मयमाणकर्तृकत्वादित्येवं साधन प्रयोगात् ॥ अस्मर्याणकर्तृकत्वात् न वेदानादित्व सिद्धिः] अत्रोच्यते-अपि तत् गुर्वध्ययन पूर्वकत्वं साधनमुपेक्षित याज्ञिकैः ! अयमभिनवो** हेतुः अस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् इति प्रयुक्तः ! * उन्मीलदिव---अङ्कुरायमाणमिव ॥ । असति इति पदविभागः ॥ हृदि दुर्बोधा मनसाऽपि प्रतिपत्तुमशक्या ॥ वयं-अयोगिनः इतरे ॥ । एषा -- वेदपौरुषेयत्वस्मृतिः ॥ ' व्यधिकरण इति। कर्तुः अस्मरणादित्युक्ते हि स्मरणाभावो हेतुः प्राप्तः। स च चेतनगतः, न तु पक्ष इति हेतुसाध्ययोर्वैयधिकरण्यम् ॥ ** अभिनव इति हेत्वन्तररूपनिग्रहस्थानोपादकम् ।। NYAYAJANJARI Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 वेदतौ रुषेयत्वसाधनम् [न्यायमअरी तस्मादस्तु नाम ! नैनान् हेत्वन्तरोपन्यासिनः निगृह्णीमः। *अनुदकथेयं प्रस्तुता ॥ अयमपि अर्यमाणकर्तृकत्वादिति हेतुः किं । स्वतन्त्र एवाकर्तकत्वसिद्धये 'प्रयुज्यते?' उत अस्मदुपरचित रचनात्वप्रतिघाताय? इति ॥ [अनुमानस्य अनुमानेन बाधासंभवः) तत्र न तावदनुमानं अनुमानान्तरपरिपन्थि कथयितुमचितम् ||प्रत्यक्षागमवत् अनुगानस्याप्यनुमान बाधकत्वानुपपत्तेः । न हि तुल्यबलयोः अनुमानयोः बाध्यबाधकभारः, तुल्यबलत्वादेव। अतुल्यबलत्वे तु यत्कृतं अन्यतरस्य दौवल्यं, तत एव तदप्रामाण्य सिद्धेः किमनुमानवाधया? * अक्षुद्रा-महती उपहासोऽयम् ॥ . स्वतन्त्रः--रचनात्वहेतुकसकर्तृकत्वानुमानवत् स्वसाध्यसाधनक्षमः ।। * अस्मदित्यादि । अस्माभिर्वर्णिते रचनात्वहेती सप्रतिपक्षत्वसंपादनाये. त्यर्थः॥ 8 सूचीकटाहन्यायेन द्वितीयकल्पं निराकरोति तत्रेति ॥ | प्रत्यक्षागमवत् इति व्यतिरेकदृष्टान्तः॥ . . पायकृतमिति । प्रत्यक्षविरोधात् वह्नयनुष्णत्वानुमानं, आगमविरोधात नरशिरःकपालशौचाद्यनुमानं च दुर्बलं वक्तव्यम् । तथा च प्रत्यक्षं आगमश्चेति द्वयमेव बाधक, न त्वनुमानं अनुमानस्य, तौल्यादिति सिद्धम् । ननु तर्हि शुक्तिरजतप्रत्यक्षस्य नेदं रजतमिति प्रत्यक्षं बाधकं सर्वसम्मतम्। एवं शब्देऽपि अपरीक्षकवाक्यस्य परीक्षकवाक्यं बाधकं दृष्टम् । प्रत्यक्षत्वाद्यविशेषे कथमन्यतरस्य बाधकत्वं बाध्यत्वं वेति चेत् ; न हि वयं प्रत्यक्षत्वं शब्दत्वं वा बाधकत्ये बाध्यत्वे वा प्रयोजकं वदामः । निरवकाशं यत् तत् बाधकं, सावकाशं चेत् बाध्यमित्यव निष्कर्षः। ननु तर्हि अनुमाने ऽपि कुतस्तथा नास्ताति चेत्, अनुमानस्य सावकाशत्वनिरवकाशत्वे हि प्रत्यक्षागमाधीने एवं दृष्टे । दृष्टे विषये प्रत्यक्ष, अदृष्टे आगमश्चेति द्वयमेव स्वतन्त्रं प्रमाणम् । 'प्रयोज्यते-ख. चरित-ख. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] 579 डिम्बनार्थं तदभिधानमिति चेत् तदप्ययुक्तम् । एकत्र धर्मिणि युगपदितरेतराविरोधिधर्म द्वयप्रयोजक हेतुद्वयोपनिपातायोगात् । न हि यात्मकानि वस्तूनि भवितुमर्हन्ति इत्यवश्यमन्यतरः तत्रा' प्रयोजकहेतुः । अप्रयोजकत्वादेव तस्यागमकत्वे किं विडम्बनार्थेन हेत्वन्तरेण प्रयुक्तेन । विरुद्धाव्यभिचार्यपि नाम न कश्विद्धेत्वाभास इति वक्ष्यामः (११ आह्निकं ॥ [ सत्प्रतिपक्षस्थलेऽपि नानुमानेनानुमानस्य बाधः ] प्रकरण समोsपि न यः कश्चित् सत्प्रतिपक्षो हेतुरिष्यते, अपि तु संशय बीजभूतः अन्यतरविशेषानुपलम्भः भ्रान्त्या हेतुत्वेन प्रयुज्यमानः तथोच्यत इति दर्शयिष्यामः ( ११ आह्निके) । तस्मात् परोदीरितं हेतुं निरा चिकीर्षता' वादिना तद्गतपक्षवृत्तितादिधर्मपरीक्षणे मनः खेदनीयम् । न हि प्रति हेत्वन्वेषिणा वृथाया कर्तव्या ॥ रचनात्वहेतोरप्रयोजकत्वासंभवः [ रचनात्व हेतुकानुमानस्याप्रयोजकत्वासंभवः ] ननु ! कतरदनयोः साधनयोरप्रयोजकं रचनात्वात्, अस्मर्यमाणकर्तृकत्वादिति च - उच्यते - रचनात्वमेव प्रयोजकम् । न हि पुरुषमन्तरेण कचिदक्षरविन्यास इष्टव्य ॥ भो भगवन्तः सभ्याः ! केदं दृष्टं क वा श्रुतं लोके । यद्वाक्येषु पदानां रचना | नैसर्गिकी भवति ॥ १२ ॥ अनुमानं तु ' तत्पूर्वकं' इति निर्दिष्टमेव । अतश्च अनुमानस्य बाधकत्वं यादृशप्रत्यक्षागममूलकत्वकृतं तादृशप्रत्यक्षागमयोरेव पूर्वानुमान बाधकत्वमिति अनुमानेन नानुमानबाधसंभव इत्याशयः ॥ * वक्ष्याम इति । पूर्वमनि (पु. 993-994 ) इ ई सामान्यतो विचारितम् ॥ + मनः खेदनीयं - परिश्रमः करणीय इति भाव: । अधिकं तु ११ माह्निकं स्पष्टीकृतं द्रष्टव्यम् ॥ नैसर्गिकी - पुरुषनिरपेक्षा || 1 तथा - ख. 2 लम्भे- ख. चिकीर्षिता - ख. हतुत्वा-ख. 37* Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 वेदपौरुषेयत्वसाधनम् यदि स्वाभाविकी वेदे पदानां रचना भवेत् । * पटे हि हन्त तन्तूनां कथं वैर्विकी न सा ? ॥ १३ ॥ 'शन्नो देवीरभिष्टये ' (अथ. सं. 1--6-1), 'नारायणं नमस्कृत्य (म. भा. आ. 1-1), ' अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' ( कुमारसं. 1-1 ) इति तुल्ये रचनात् कचित् कर्तृपूर्वकत्वं अपरत्र तद्विपर्यय इति महान् व्यामोहः । एवं हि धूमोऽपि कश्चित् अनशिक इत्यपि स्यात् ॥ [वेदस्य पौरुषेयत्वेऽपि न लौकिक काव्याद्यवैलक्षण्यम् ] किमिदानीं कुमारसंभवतुल्योऽसौ वेदः संपन्नः ? + सर्वास्तिकधुर्येण वेदामाण्यं साधितं तैयाचिकेन ! [न्यायमझरी [वेदस्य पौरुषेयत्वसंभवशङ्का ] ननु ! या: कालिदासादिताः कर्तृपूर्विकाम। ताभ्वो विलक्षणैवेयं रचना भाति वैदिकी ॥ १४ ॥ अलमुपहासेन ! रचनामात्रमेव तुल्यं वेदस्य कुमारसंभवेत, नान्यत् । न चेयतोपहसितुं युक्तम् । किमस्य शब्दत्वसामान्यं शङ्खशब्दसाधारणं नास्ति ? सत्तासामान्यं वा सर्वसाधारणमिति ॥ इहाध्ययनवेलायां रूपादेव प्रतीयते । अत्रत्वं वेदस्य भेदेस्तैस्तैरजन्यगैः ॥ १५ ॥ नामाख्यातोपसर्गादिप्रयोगगतयो कनवाः । स्तुतिनिन्दापुराकल्पपरकुत्यादि गीतयः ॥ १६ ॥ शब्दत्वं- ख. अहो ! * प्रत्यक्षापलापोऽयमित्याशयेनाह - पट इत्यादि ॥ 1 सर्वास्तिकेत्यादि । वेदप्रामाण्यरक्षणं नैयायिकानामेव भारः इति क्त (पु. 7 - 10 ) इति भावः ॥ 1 नवा :- लोके अपरिचिताः ॥ 1 एवं - ख. गीता ख. Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] वेदोपदेषुः लोकविलक्षणत्वम् 581 *शाखान्तरोक्तसापेक्षविक्षिप्तार्थीप'वर्णना। इत्यादयो न दृश्यन्ते लौकिके सन्निबन्धने ॥ १७॥ तेनाध्येतृगणाः सर्वे रूपात् वेद कृत्रिमम् । मन्यन्त एव लोके तु पीतं मीमांसकैर्यशः ।। १८ ॥ वेदा न पठिता यैस्तु त्वादशैः कुण्ठबुद्धिभिः । कार्यत्वं ब्रुवते तेऽस्य रचनासाम्य मोहिताः ॥ १९ ॥ [वेदानां पौरुषेयत्वं दुग्पह्नवम् ] • उच्यते-मीमांसका: यशः पिबन्तु ! पयो वा पिबन्तु ! बुद्धनाड्यागनयनाय बालीवृतं ना पिरन्तु ! वेदस्तु पुरुषप्रणीत एव, नात्र भ्रान्तिः ॥ . यथा घट दिसंस्थानात् भिन्नमप्यचलादिषु । संस्थान करीमत् सिद्धं वेदेऽपि रचना तथा ॥२॥ यच्चात्र किञ्चिद्वक्तव्यं, तत् पूर्वमेव (पु. 491) सविस्तरमुकम् ॥ [वेदानां रचनावैलक्षण्यात् तस्कर्ताऽपि विलक्षण एव ] अपि च यद्विलक्षणेयं रचना, तद्विलक्षण एव कर्ताऽनुगीयताम् ! न पुनस्तदपलायो युक्तः इत्यप्युक्तम् (पु. 503)॥ याश्चैताः निर्विवाद सिद्ध कर्तृकाः कालिदासादिरचना: चमत्कारिण्यः, तासामन्योन्यविसदृशं रूपमुपलभ्यत एव ॥ • * शाखान्तरेत्यादि। एकंवा रूपसंयोग चोदनाख्याऽविशेषात् ' (जै. सू. 2-4-9), 'सर्ववेदान्तप्रत्ययं चोदनाद्यविशेषात्' (ब्र. सू. 3-5-1) इत्यादौ हि शाखान्तरोक्तार्थानामप्युपसंहारादिनिरूपितः। अल्पबुद्धिमतां वाक्यं नैतावद्विस्तृतं भवेत्। अत एव सन्निवन्धने इत्युक्तिः ॥ +भिन्नं-विलक्षणम् । रचनासु वैलक्षण्यमात्रेण कथमकर्तृकत्वसिद्धिरित्यर्थः । वर्णनम्-ख, रचनाः-ख. Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 वेद पौरुषेयत्वसाधनम् न्यायमञ्जरी अमृतेनेव संसिक्ताः चन्दनेनेव चर्चिताः । चन्द्रांशुभिरिवोन्मृष्टाः' कालिदासस्य सूक्तयः ॥ २१ ॥ 'प्रकट रसानुगुणविकटाक्षररचनाचगत्कारितसकलकविकुलाः बाणस्य वाचः। प्रतिकाव्यं च तानि तानि वैचित्र्याणि दृश्यन्त एव । नामाख्यातादि चियमात्रेण कत्रभावो वेदे रूपादेव प्रतीयत इति नूतनेयं वाशेयुक्तिः ॥ भनित्यवस्तुसंयोगादपि चेदा: न नित्याः ___ अपि च यदि रूपे समाश्वसिति भवतो मनः-तदा आदि. मदर्थाभिधानमपि वेदस्य रूपं कथं न परीक्षसे? 'बबरः प्रावाहणि रकामयत' (तै. सं. ७-१-१०), 'कुसुरबिन्द बहालकिरकामयत' (तै. सं. ७-२-२), 'पुरूरवो मा प्रपतः (ऋ. १०-९५-१५) इति ॥ प्रतिसर्ग वेदानां भिन्नत्वं स्मृत्युक्तम् प्रतिसर्ग पुनस्तेषां * भावात् अनादित्वमिति चेत्, प्रतिसर्ग तहि वेदान्यत्वमपि भविष्यति। यथोक्तम 'प्रति मन्वन्तरं चैषा थुतिरन्याऽभिधीयते' इति । +'रूपाद'कृत्रिमत्त्वे च कल्पना कल्पिनैव सा ।। आदिमद्वस्तुबुद्धिस्तु वाचकैरक्षरैः स्फुटैः ॥ २२ ॥ , तेषामन्यथाव्याख्यानं तु व्याख्यानमेव। पठन्त एव त्यध्येतारः तत आदिममोऽर्थान् बहून् अवगच्छन्तीति नानादिर्वेदः। तस्मान्न रचनात्वमप्रयोजकम् ॥ * भावात् ---अभिव्यक्तेः । + रूपादिति। अनित्यवस्तुसम्बन्धात् किल अनित्यत्वं, तानि वस्तूनि नित्यान्येव यदि, तदा को दोष इति चेत् : सा कल्पना कल्पितैव -सर्वथा न साधीयसी। यत: अमित्यवस्तुसंयोगश्च स्वरसत एव प्रतीयते ॥ नेपां--उक्तवाक्यानाम्। अन्यथा-अभिव्यक्तिपरत्वादिना । । दधृष्टाः--ख. ' प्रकृत-क.मन्वन्तरे-ख. रूपाद्य-ग. मत्त्व-ख. Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदे कर्त्रस्मरणमप्यसिद्धम् [वेदे स्मरणमसिद्धमेव ] स्मरणमेव त्वप्रयोजकम्, * असिद्धत्वात् । सिद्धमपि वा वेदे कर्त्रस्मरणमन्यथासिद्धम् । वेदकरणकालस्य अतिदवीयस्त्वात्, तत्प्रणेतुश्च पुंसः सकलपुरुषविलक्षणत्वात् नियतशरीरपरिग्रहाभावात् 'इदन्तयाऽस्य' पाणिनिपिङ्गलादिवत् स्मरणं नास्ति न तु स नास्त्येव । अनुमानागमाभ्यां तदवगमात् कथं पक्षधर्मतया ग्रहीतुं शक्यते कर्त्रस्मरणम् ? • आह्निकम् ४] f येक पुरुष सम्वन्धि व्यभिचरति । सर्वपुरुष सम्बन्धि तु दुरवगमम् । सर्वे पुमांसः कर्तारं वेदस्य न स्मरन्तीति कथं जानाति भवान् ? न हि तव सकललोकहृदयानि प्रत्यक्षाणि ; सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् । न च यत् त्वं न जानासि तत् अन्योऽपि न जानातीति युक्तम् : \ अतिप्रसङ्गात् । तस्मादस्मर्यमाणकर्तृकत्वं दुर्बोधमेव ॥ 583 | वेदे कर्तृस्मरणमन्तरा प्रामाण्यमेव न निश्श्रीयेत ] अपि च कर्तुरस्मरणे सति सुतरां वेदार्थानुष्ठानं प्रेक्षावतां शिथिलीभवेत् । नाकर्तृक ए-पदेशः संभवति । संभवन्नपि वा प्रामाण्यनिश्चयनिमित्ताभावात् कथं विस्रंभभूमिग्सौ भवेत् । 'बाधकाभावमात्राच्च न प्रामाण्यानश्चयो वचसामित्युक्तं प्राक् (पु. 483 )। तस्मात् प्रत्ययादेव निर्विचिकित्स वेदार्थानुष्ठानं 'सप्रतिष्ठान' * असिद्धत्वात् - रचनात्वेन सामान्यतः कर्तुरनुमानेन तत्स्मरणसत्वात् । सिद्धमपि - इति तु न हि लोके कोऽपि कमपि वेदकर्तारं निर्दिश्य व्यवहरतीत्यभिप्रायेण । समाधानवाक्येष्वयमर्थ: स्पष्टः । दृश्यते Mast बहूनि वस्तूनि अज्ञानकर्तृकाणि ॥ +तत् -- कर्त्रस्मरणम् । व्यभिचरति, अन्येन स्मरणसंभवात् ॥ 1 दुरवगमत्वस्यैवोपपादनं --- सर्व इत्यादि ॥ [ अतिप्रसङ्गादिति । 1 इदन्तया-क. 2 तद्धयेत्पुरुष - ख. एतादृशोऽतिप्रसङ्गः पूर्व ( पु. 26 ) मध्युक्तः ॥ 3 सप्रतिष्ठानां ख.. Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 वेदपौरुषेयत्वसाधनम् न्यायमञ्जरी संभवनि, नान्यथेति। तस्मान्न कत्रस्मरणस्य रचनात्वप्रतिपक्षत योपन्यासः उपपन्नः॥ कर्चस्मरणमात्रात न वेदस्याकर्तृकत्वसिद्धिः __ *नापि स्वतन्त्रमेवेदं कभावस धनं भवितुमर्हति : अनुपलब्धिरियमनेन प्रकारेण किलोच्यते । साऽशुपाना, 'अनुमानेन' कर्तु रुपलम्भात् । अनुमानेनापि यदुपलव्ध तदुपलब्धमेव भवति ॥ वेदसकर्तकत्वानुमानस्याबाधितत्वम् | ननु कत्रभावस्मरणवाधितत्वात् अनुमान मिदं अयुक्तम्-... इतरेतराश्रयप्रसङ्गात्- अनुपलब्धौ सिद्धायः अनुमाननिरासः, अनुमान निरासे च सति अनुपलब्धिसिद्धिः॥ अनुमानप्रामाण्येऽपि । समानो दोष इति चेत् -न-तस्य * पूर्व पु. 578)मुक्तं प्रथमविकल्यं प्रत्याइ नापीति। कः अस्मरण नाम स्मरणाभावः। तथा च स्मरणाभावः अनुपलम्भे निधाम्मलि। सच बाधितः इत्यर्थः ॥ अनुमानेनेति । अन्यथा हि धूमात् पर्वने वयनुमानकाले पर्वते वह्न: इन्द्रियेणानुपलंभमादायानुमानस्यैवानुस्थितिर्वक्तव्या स्यात् । अतोऽत्र उपलभपदं अनन्यथासिद्धज्ञानसामान्यपरमेव ॥ . *ननु सकर्तृकत्वं च रचनात्वहेतुमूलम् । कस्मरण तु स्वतस्सर्वेषां सिद्धम्। अतः अनुमानोस्थितिः कथम् ? वह्नयनुमानस्थले तु गैनं वयभावस्योपस्थितिः, पर्वते वते: सन्दिग्धत्वेन तदभावानिर्णयात् । अन्ततस्तस्यैव वह्न: समीपस्थेनो पलंभाच्च । अतः अनुमानेन अस्मरणबाधकथनमयुक्तम् । प्रत्युतास्मोनैवानुमानबाधो युक्त इति शङ्कते---नन्विति ॥ अनुपलब्धौ-- कर्वभावनिर्णये॥ सिद्धायां-निश्शक़ जातायाम् । अस्त्यत्रापि पर्वते वह्ने रिव संशय इत्यर्थः ।। समानो दोष इति ! सर्तकत्वानुमानस्य प्रामाण्ये सर्तकत्वसिद्धिः सकर्तृकत्वाबाध एव च अनुमानप्रामाण्यमित्यन्योन्याश्रय इत्यर्थः ।। मानेन-ख. Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४) वेदसककत्वानुमाने दोषोद्धारः 585 *प्रतिवन्धमहिना प्रामाण्यसिद्धेः। न हि तस्यानुपलब्धिनिरासापेक्षं प्रामाण्यम् ॥ सिकर्तकत्वानुमानेन कर्चस्मरणं बाध्यत एव] तत्रतत् स्यात--- न वयं कत्रमावे प्रामाण्यं ब्रूमः। सकललोकपदार्थव्यवहारिणो हि मीमांसकाः। परं तु वेदस्य पौरुषेयतां ब्रुवाणं प्रमाणं पृच्छामः। तच्चास्य नास्तीति बलादनुपलब्ध्या तदभावनिश्चयो व्यवतिष्ठत इति-स्यादेतदेवम् -- यद्यनुमानं न स्यात्। उक्तं च 'रचनात्वात्' इत्यनुमानम्॥ . [रचना बहेतोः सकर्तृत्वसाधने पर्याप्तत्ववर्णनम् ] ___ यत्पुनरवादि-वेदेषु पुरुषस्य कर्तृत्वमशक्यं ग्रहीतु मिति (पु. 513). तदप्यसाधु---परोक्षस्य कुविन्दादेरभिनव'प्रावरक'पटादौ कार्ये कथं कर्तताऽवगम्यते ? *प्रतिबन्धमहिम्ना--व्याप्तिबलेन । अन्यथा तु एतादृशदोषः धूमात् वह्नयनुमानेऽपि समान इत्यर्थः । ___ अथवा--सकर्तकत्वानुमानस्य प्रामाण्ये कर्चस्मरणस्य बाधः, कर्बस्मरणस्य बाधे सिद्ध एव तादृशानुमानप्रामाण्यमित्यन्योन्याश्रयः । प्रतिबन्धेत्यादि। अनुमानप्रामाण्यं तु अनौपाधिकसम्बन्धाधीनम् । सम्बन्धश्च साध्यहेत्वोदेव। अनुपलभस्तु साध्यस्य पक्षे वक्तव्या। अतश्चेयमनुपलब्धि: न व्याप्तिग्रह उपरोद्भुमलम्। ननु तर्हि ह्रदे धून वह्नः साधने कथं बाधस्य दोषत्वमिति चेत्-तत्रानुपलम्भः अप्रत्यक्षरूपः, न तु अस्मरणादिरूपः । अतः तेन तत्र पक्षे बाधे पर्यवसानम् : नैवमत्र वेदे कनुपलभः कस्यचिद्वर्तते। अत एव खलु भवताऽप्यस्मरणमेव हेतूकृतम्। अस्मरणं तु अन्यथासिद्धमित्युपपादितमेव। अत इयमनुपलब्धिः न व्याहिं निरोद्धमलमिति भावः ॥ जानीमो वयमिदम्। न हि वयं धूमात् वह याद्यनुमानमेव निराकुर्मः । किन्तु वेदस्य पौरुषेयत्वे प्रमाणाभावात्, कर्तुरस्मरणाञ्च वेदपौरुषेयत्वं स्वतःसिद्धं बदाम इत्याशयवान् शङ्कते- तत्रेत्यादि।। कभावे-कञभावनिर्णये सत्येव । यदधीना अन्योन्याश्रयादिप्रलक्तिरुक्ता॥ । सवरक-ख. (पु. 501). Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 वेदपौरुषेयत्वसाधनम् न्यायम पटादिरचनां दृष्ट्वा तस्य चेत् साऽनुमीयते । वेदेऽपि रचनां दृष्ट्वा कर्तृत्वं तस्य गम्यताम् ॥ २३॥ (ईश्वरस्य सशरीरस्य वेदोपदेष्टुत्वेऽपि न काऽपि हानिः । शरीरपरिग्रहमन्तरेण प्राणिनामुपदेशस्य कर्तुमशक्यत्वात *कदाचिदीश्वरः शरीरमपि गृह्णीयादिति कहप्यते। नियतशरीरपरिग्रहाभावाच्च व्यासादिवदसौ न स्मर्यते। ततश्च अद्य सद्यः कविः काव्ये यथा कर्तेति मीयते। तथा तत्काल जैः पुंभिः सोऽपि कर्तेति मास्यते ॥ २४ ॥ यथा परकृता शङ्का तस्मिन् काव्ये व्यति ते। वेदेऽप्यन्यकृता शङ्का तथा तेषां व्यपैष्यति ॥ २५ ॥ 'परोक्षमनुमानेन यच्च बुध्यामहे वयम् । प्रत्यक्ष योगिनां तच्चेत्युक्तं प्रत्यक्षलक्षणे ॥ २६ ॥ प्रत्यक्षमनुमानं च तदेवं कर्तृता मितौ । मूलप्रमाणमस्तीति *स्मृतौ 'नान्ध'परंपरा ॥ २७ ॥ मन्त्रार्थवादमूलत्वं तत एव न तत्स्मृतेः। . यथोदितानुमानादिप्रमाणान्तरसंभवात् ॥ २८॥ , * कदाचित्- सृष्टयादौ, धर्मग्लान्यादौ वा । + नियतेति। दिव्यमानुषादिप्रतिनियतेत्यर्थः । * अद्येत्यादि। दृश्यन्ते हीदानीमपि काश्चिद्वचना: अज्ञातकर्तृकाः पौकषेयत्वेन च संप्रतिपन्ना: प्रपञ्चहृदयाद्याः॥ तस्मिन् - तत्पुरतो रचिते ॥ । तेषां सर्गाद्यकालिकानां पुंसाम् ।। " वेदानामीश्वरकृतत्ये प्रत्यक्षमप्यस्तीत्याह-परोक्षमिति ॥ ** स्मृतौ-पौरुषेयत्वे इति शेष: कर्तृस्मृताविति वा ॥ 1 निन्दा-ख. Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम ४] जगत्स्रष्टुरेव वेदोपदेष्टृत्वम् [ईश्वरस्यानुमानिकत्वेन नान्योन्याश्रयादिः ] यदपि इतरेतराश्रयमभाषि (पु. 191 ) – पुरुषोके वेदेप्रामाण्यं, वेदमाण्यात् पुरुषसिद्धिरिति तदपि न सम्यक् पूर्व (पु. 503) परिहृतत्वात् । अनुमानात् प्रसिद्धे कर्तरि वेदवाक्यैः * तत्प्रतीतेपोलन मिष्यते, न त्वागमैकशरण एव कर्तवगमः । उक्तं च पूर्वमपि (पु. 491) पृथिव्यादिना कार्येण कर्तुरनुमानम् ॥ 587 [ जगत्कर्तुरेव वेदोपदेष्टृत्वम् ] किं येनैव कर्त्रा पृथिव्यादिकार्य निर्मितं, तेनैव वैदिकयो रचना निर्मिताः । इति चेत् - ओमित्युच्यते । किमत्र प्रमाणम् ? इति चेत्उच्यते, तर्हि सर्वज्ञः स्रष्टुं प्रभवतीदृशम् । विचित्रं प्राणिभृत्कर्मफलभोगाश्रयं जगत् ॥ २९ ॥ तत्कर्मफल सम्बन्धविदा + तदुपदेशिनः । तेनैव वेदा रचिताः इति नान्यस्य कल्पना ॥ ३० ॥ + एकेनैव च सिद्धेऽर्थे द्वितीयं कल्पयेम किम् ? कल्पनाबीजं न हि किञ्चन विद्यते ॥ ३१ ॥ [वेदोपदेष्टः एकत्वम् ] जगत्सर्गे तावत्, एक एवेश्वर इप्यते न द्वौ बहवो वा । भिन्नाभिन्नाशय कल्पने, एकत्र वैयर्थ्यात् । || इतरत्र व्यवहारवैशसप्रसङ्गेन, तत एकस्येश्वरत्व विघातात् । तथा हि अनेकेश्वरवादो हि नातीव हृदयङ्गमः । ते चेत् सदृशसङ्कल्पाः, कोऽर्थो बहुभिरीश्वरैः ? ॥ ३२ ॥ * तत्प्रतीतेः - अनुमानप्रमितेश्वरप्रतीतेः ॥ + तदुपदेशिनः वेदाः इत्यन्वयः ॥ एकेनैव ईश्वरेण ॥ 8 उपस्थितिसामीप्यात् । व्युत्क्रमेण समाधानमाह – एकत्रेति । अमिन्नाशयत्वे इत्यर्थः ॥ || इतरत्र - आशयभेदे । अस्यैव विवरण तथा हीत्यादि ॥ . Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 वेदपौरुषेयत्वसाधनम् [न्यायमरी संकल्पयति यदेकः शुभमशुभं वाऽपि सत्यसङ्कल्पः । तत्सिध्यति तद्विभवात् इत्यपरस्तत्र किं कुर्यात् ॥ ३३॥ भिन्नाभिप्रायतायां तु कार्यविप्रतिषेधतः । नूनमेकः स्वसङ्कल्पविहत्याऽनीश्वरो भवेत् ॥ ३४॥ एकस्य किल सङ्कल्पः राजाऽयं क्रियतामिति । हत्यतामिति चान्यस्य तौ समाविशतः कथम ॥ ३५॥ राज्यसङ्कल्पसाफल्ये विहता वधकामना । तस्याः सफलतायां वा राज्यसङ्कल्पविप्लवः ॥ ३६॥ तेन चित्रजगत्कार्यसवाहानुगुणाशयः । एक एवेश्वरः स्रष्टा जगतामिति साधितम् ॥ ३७॥ एवं *जगत्सर्गवत् स एव वेदानामप्येकः प्रणेता भवितुमर्हति।' नानात्वकल्पनायां प्रमाणाभावात् , कल्पनागौरवप्रसङ्गाश्च ॥ तेन यदुच्यतेनन्वेकः सर्वशाखानां कर्तेत्यवगतं कुतः? , बिहवो बहुभिर्ग्रन्थाः कथं न रचिता इमे? ॥ ३८ ॥ इति- तत्परिहृतं भवति ॥ [ वेदानामेककर्तृकत्वे प्रमाणान्तरम् . अतश्च एककर्तृका घेदाः, यतः परस्परव्य तिषक्तार्थीपदेशिनो दृश्यन्ते । * एकमेव हि कर्म वेदचतुष्टयोपदिष्टैः पृथग्भूतैर प्येकार्थ * जगत्सर्गस्येव-जगत्सर्गवत् ॥ ___ बहव इति । बहुभिः कृताः वेदा अपि न एकग्रन्थरूपा इत्यर्थः । कर्तृभेदेऽपि कादम्बर्यादौ ऐकग्रन्थ्यदर्शनादेवमुक्तम् । सिद्धान्ते ईश्वरकृतत्वात्सर्वदोषपरिहारः॥ एकमेवेत्यादि। 'एकं वा संयोगरूपचोदनाख्याऽविशेषात् ' (जै. सू. 2-4-9) 'सर्ववेदान्तप्रत्ययं चोदनाद्यविशेषात्' (व. सु. ३-३-९) इत्यादौ शाखाभेदेऽपि कर्मणः उपासनस्य च ऐक्यं साधितमेव पूर्वोत्तरमीमांसकैः । संयोगः--फलसंयोगः। रूपं- स्वरूपम्। चोदना-- विधिः । आख्या---नाम। एतेषामविशेषात् एकमेव कर्मेत्यर्थः ॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 589 आह्निकम् ४] सर्ववेदानामेककर्तृकत्वम् समवायिभिरङ्गैः अन्धितं प्रयुज्यते । तत्र हि हौत्र ऋग्वेदेन, यजुर्वेदेनाध्वर्यवं, औद्गात्रं सामवेदेन, ब्रह्मत्वमथर्ववेदेन च क्रियते । पैप्पलादिशाखाभेदोपदिष्टं च तत्तदङ्गजातं तत्र तत्रापेक्ष्यते। तत्र सर्वशाखाप्रत्ययं एकं कर्मत्याहुः। एतच्च अदूर एव अग्रे (पु. 50) निर्गप्यते ॥ एकाभिप्रायबद्धत्वं तेन सर्वत्र गम्यते । भवेद्भिन्नाशयानां हि कथमेकार्थमीलनम् ? ॥ ३९ ॥ समस्यापूरणादावपि कत्रैक्यमेव काव्यसमस्यापूरणे का वार्ता? इति चेत्-- तत्रापि प्रथमस्यैव कवे स्तद्वस्तुदर्शनात् । तदभिप्रायवेदी तु सोऽन्यस्तमनुवर्तते ॥ ४०॥ अन्यथाऽनन्वितं काव्यं स्या द्विश्ववसुकाव्यवत् । अन्वितत्वे तु सा नूनं आद्यस्यैव कर्मतिः॥४१॥ इहाप्येकाशयाभिज्ञद्वितीयेश्वरकल्पने। एकाभिप्रायतैव स्यात् , 'किं च'तत्कल्पने फलम्? ॥४२॥ तस्मादेक एव कर्ता सर्वशाखानाम्। काठकादिव्यपदेशस्तु प्रष्टाध्ययननिबन्धनो भविष्यतीति भवद्भिरप्युक्तम् ।। _. * तद्वस्तु ---पूरणीयं वस्तु । एवञ्च समस्यापूरणे द्वितीयेन प्रथमाभिमतार्थप्रकटनमात्रं, न तु नूतनार्थकल्पनमित्यर्थः ॥ +विश्ववसुः -कश्चित्कविः ॥ वेदेऽपि तादृशा एव वा बहवः कुतो न स्युरित्यत्र, तथाऽवश्यकता नास्तीत्याह---इहापीति ॥ प्रकृष्टेति। दृश्यते हि लोकेऽपि पूर्वमेव स्थितस्य ग्रामस्याभिवर्धनादिभिरेव ' कृष्णराजनगरम् ' इत्यादिराजनाम्ना व्यपदेशः ॥ किं स्यात्-ख. Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 शब्दार्थयोस्सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमञ्जरी [सर्वशाखाप्रत्ययन्यायस्य युक्तत्वकथनम् | * अपि च यथा तरोविक्षिप्ताः शाखा भवन्ति, न च कृत्स्नं पुष्पफल पत्रमेकस्यां शाखायां सन्निहितं भवति, किन्तु 'कस्याञ्चित्कस्याश्चित् ; एवं वेदस्यापि शाखाः पृथगङ्गकर्मोपदेशिन्यो विक्षिप्ताश्च ॥ तासां च वृक्षशाखानां एकस्माजन्मबीजतः। तथैव सर्वशाखानां एकस्मात् पुरुषोत्तमात् ॥ ४३॥ .. [वेदा ईश्वरोपदेशरूपा:] कर्ता य एव जगतामखिलात्मवृत्ति__ कर्मप्रपञ्चपरिपाकविचित्रताज्ञः । विश्वात्मना तदुपदेशपराः प्रणीताः तेनैव वेदरचना इति युक्तमेतत् ॥ ४॥ आप्तं तमेव भगवन्तमनादिमीशं . __ आश्रित्य विश्वसिति वेदवचस्सु लोकः । तषामकर्तृकतया न हि कश्चिदेवं विस्रम्भमेति मतिमानिति वर्णितं प्राक् ॥ ४५ ॥ एवञ्च पदवाक्यरचनादौ तावत् वेदेषुपुरुषापेक्षित्वमुपपादितम् ॥ शब्दार्थसंकेतकरणार्थमीश्वरापेक्षाऽस्त्येव यदपि सम्बन्धकरणे पुरुषानपेक्षत्वमुच्यते- चित्रभानोरिव * अपि चेत्यादि। आम्रवृक्षे हि एकस्यां शाखायां पुष्पमात्रोद्गमः । अपरस्यां च फलदर्शनम् । अथापि तत्रैक्यं यथा तथेत्यर्थः ॥ +ननु तत्र मूलस्य बीजस्यैक्यादेक्यमिति चेत्, तत् वेदेऽपि तुल्यमित्याह-तासामिति ॥ + तदुपदेशपरा:--स्वोपदेशपरा इति यावत् ॥ $ वेदाख्यशब्दस्य स्वरूपे पुरुषापेक्षाभागन्नित्यत्वमित्यशो निरस्तः । अथ शब्दार्थयोः सम्बन्धस्यापि नित्यत्वेन सङ्केतकरणार्थमपि पुरुषापेक्षा नास्तीत्यपौरुषेयत्वं सम्बन्धभाष्यवार्तिकादिषूक्तं (शा. भा. 1-1-5) अनूय दूषयति-यदपीति ॥ कस्यचि-क. Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] शब्दार्थयोरसम्बन्ध पक्षभेदा: 591 दहनशक्तिः शब्दस्य नैसर्गिकी वाचकशक्तिः । व्युत्पत्तिस्तु वृद्धेभ्य एव व्यवहरमाणेभ्य उपलभ्यत इति किमत्र पुरुषः करिष्यति ? इति तदप्यघटमानम् - पुरुषपरिवटित समय सम्बन्धव्यतिरेकेण शब्दादर्थप्रत्ययानुपपत्तेः ॥ - [ प्रसङ्गात् शब्दार्थयोः सम्बन्धाक्षेपः ] ननु ! नैव शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः कश्चिदस्ति । कस्येदं पुरुषसापेक्षत्वं वा, निरपेक्षत्वं वा चिन्त्यते ? न हि शब्दार्थयोः कुड्य बदरयोरिव संयोगस्वभावः, तन्तुपटयोरिव समवायात्म वा सम्बन्धः 'प्रत्यक्ष' उपलभ्यते । तन्मूलत्वाच्च सम्बन्धान्तराण्यपि न सन्ति । तदुक्तं ' मुखे शब्दमुपलभामहे, भूवम्' इति ॥ नाप्यनुमीयते शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः; क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणानुपलम्भात् । न च शब्ददेशे अर्थः संभवति, न चार्थदेशे शब्दः; स्थानकरणप्रयत्नानां तद्धेतूनां घटाद्यर्थ प्रदेशे ऽनुपलम्भात् । व्यापकत्वं तु शब्दस्य प्रतिषिद्धमेव ॥ [शब्दार्थयोस्सम्बन्धे विकल्पाः ] उच्यते—न संश्लेषलक्षणः शब्दार्थसम्बन्धः अस्माभिरभ्युपगम्यते । * तत् किं कार्यकारणनिमित्तनैमित्तिकाश्रयाश्रयिभावादयः शब्दस्यार्थेन सम्बन्धाः ? एतेऽपि न तराम ॥ न नास्ति शब्दस्यार्थेन न तर्हि तस्य कश्चिदर्थेन सम्बन्धः ? सम्बन्धः प्रत्ययनिमित्तहेतुत्वात्; धूमादिवत् ॥ तत् किं शब्दार्थयोरविनाभावः सम्बन्धः ? सोऽपि नास्ति ; एवं हि शब्दोऽनुमानमेव स्यात् ॥ कस्तर्हि ? समय इति ब्रूमः ॥ * तत्कि इत्यादी पूर्ववाक्यमाक्षेपपरं, उत्तरं च समाधानपरम् ॥ प्रत्यक्ष - ख. 12 देशे - ख. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592 शब्दार्थयो: सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमरी . समयाख्यशब्दार्थसम्बन्धस्वरूपशोधनम] ___ कोऽयं समयो नाम ? अभिधानाभिधेय नियमनियोगः समय उच्यते ॥ * यद्येव किमनाशङ्कनीयसंश्लेषपरिचोदनेन ? तद्दषणेन च ?--- उच्यते - शब्दार्थाभेदवादिनां हि वैयाकरणानां एष 'संश्लेषरूपः सम्बन्धो बिलादापततीति त एव प्रतिक्षेप्यन्ते ॥ . [शब्दार्थयोरविनाभाव एव सम्बन्ध इत्याक्षेपः] आह-यदि वैयाकरण वर्णितो न: संश्लग उपपत्तिमान्, समयोऽयमनुपपन्न एव। स हि पुरुषकृतः सङ्केतः। न च पुरुषेच्छया वस्तुनियमोऽवकल्पते, तदिच्छाया ६ अव्याहतप्रसरत्वात् ॥ . अर्थोऽपि किमिति वाचको न भवनि, शब्दश्च वाच्य। न चैवमस्ति-दहनमनिच्छन्नपि पुरुषः धूमात् न तं प्रत्येति ; जलं वा तत इच्छन्नपि प्रतिपद्यते । तत्र यथा धूमाग्नयोः नैसर्गिक एवाविनाभावो नाम सम्बन्धः, "ज्ञप्तये तु भूयोदर्शनादि निमित्तमाश्रीयते एवं शब्दार्थयोः सांसिद्धिक एव शक्तयात्मा सम्बन्धः, तात्पत्तये तु वृद्धव्यवहारप्रसिद्धिसमाश्रयणम् ॥ *यद्येवमित्यादि। यदि समय एव शब्दार्थयो: सम्बन्धः, तर्हि वृथा किमर्थः अप्रसक्तसंश्लेषादिपक्षविचारोपक्षेपः -- इति शङ्काऽऽशयः। अस्ति कश्चन पक्ष: तादृश इति नाप्रसक्त नराकरणमिति सम धानाशयः ॥ बिलादिति । शब्दार्थयोस्तैरविनाभाववर्णनात् ॥ * संश्लषः -- तादात्म्यम् । शब्दविवर्तवादिनो हि ते ॥ 8 अव्याहतप्रसरत्वात्---उच्छृङ्खलत्वादिति भाव: ॥ || अर्थोऽपीति। पुरुषेच्छाया उच्छृङ्खल वादेव । न चेष्टापत्ति:, नियमस्य लोके दर्शनात् । नियम एव च व्याप्तिः, स एव च अविनाभावः। ततश्च शब्दार्थयोः सम्बन्धः अविनाभाव इति स्वयमापतितमित्याशयः ॥ वैयाकरणवत्-ग. 3 न भवति-ख. 1 संशेष उपपत्तिमान्-ख. 4 तद्व्युत्पत्तये-क. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] समयस्य शम्दार्थसम्बन्धत्वासंभवाशङ्का 593 [शब्दस्य ज्ञातस्य सत: अर्थबोधजनकत्वम् ] ‘स्वाभाविके सम्बन्धे सति दीपादिवत् किं तद्युत्पत्त्यपेक्षणेनेति 'चेत्-न-शब्दस्थ ज्ञापकत्वात् । ज्ञापकस्य धूमादेः एतत् रूपं, यत् सम्बन्धग्रहणापेक्षं स्वज्ञा प्यज्ञापकत्वम्। 'उद्योतादयस्तु *प्रत्यक्षसामग्रयन्तर्गतत्वात नव्युत्पत्त्यपेक्ष्या भवन्ति । शक्तिस्तु नैसर्गिकी यथा रूपप्रकाशिनी दीपादेः, तथा शब्दस्यार्थप्रतिपादने । तस्मात् न समयमात्रात् अर्थप्रातपत्तिः ॥ [समयस्य अर्थनिष्ठत्वाभावेन शब्दार्थसम्बन्धत्वासंभव:] __ _ीच अभिधानाभिधेय नियमनियोगरूपः समय: ज्ञानमेव, न ततोऽर्थान्तरम्। ज्ञानं चात्मनि वर्तते, न च शब्दार्थयोरिति न तयोः सम्बन्धः स्यात् ॥ [समयेन शाब्दबोधनिर्वाहासंभवः] किञ्च समयः क्रियमाणः, प्रत्युञ्चारणं वा क्रियते? प्रतिपुरुषं 'वा? सर्गादौ वा सकृदीश्वरेण ? इति ॥ प्रत्युच्चारणं प्राक्तन एव क्रियते? नूतनो वा? नवस्य तावत् क्रियमाणस्य कथमर्थप्रत्यायनसामर्थ्य मवगम्यते ? तदवगतौ वा किं तत्करणेन? पूर्वकृतस्य 'तु' कृतत्वादेव पुनः करणमनुपपन्नम् । एकस्य वस्तुनः ज्ञप्तिरसदावर्तते, नोत्पत्तिः॥ प्रतिपुरुषमपि सम्बन्धःमिन्नः? अभिन्नो वा क्रियते? * प्रत्यक्षसामग्रीति। प्रत्यक्षस्थल एवेन्द्रियादेः स्वरूपसत एव कारणत्वम् । परोक्षस्थले तु लिङ्गादेः ज्ञातस्य सत एव कारणत्वमित्यनुभवबलादङ्गीकर्तव्यम् ॥ कथमिति । नूतनत्वमेवात्र हेतुः ॥ * किं तत्करणेनेति। नूतनेनैतावताऽनवगतेन यद्यर्थप्रतीतिः, तर्हि केवलेन शब्देनैव तथा बोधोऽस्त्वित्यर्थः ॥ व्युत्पस्यपेक्षा-ख. 'वा-क. 1 चेत्-क. 'तयोग्यतादयस्तु-ख. तदवगमे-क. तदा-ख. NYAYAMANJARI Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594 . शम्दाथया: सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमञ्जरी मेदपने कथ मेकार्थसंज्ञानम् ----गोशब्दस्य रसास्मादिमानर्थः, केसरादिमानश्वशब्दस्य ? इति ॥ अमेदेऽपि तथैव कृतस्य करणायोगात् ज्ञानमेव सम्बन्धस्य करणम् ॥ सर्गादावपि सकृत्सम्बन्धकरणभयुक्तम् । तथाविधकालासम्भवादेव। न हि शब्दार्थव्यवहाररहितः कश्चित्काल उपपद्यते । तस्मानित्यस्यय सम्बन्धस्य लोकतो व्युत्पत्तिः, न पुनः करणम् ॥ [पाब्दार्थयो: स्वाभाविकसम्बन्धपक्षस्य निर्दुष्टत्वम् | व्युत्पतिपक्षेचन करणपक्षाभिहिता दोषाः स्पृशन्ति, प्रत्यक्षा सिद्धत्वात् । प्रत्यक्षं हीदमुपलभ्यते। वृद्धानां हि स्वार्थे व्यवहरमाणानां उपशृण्वन्तो बालाः ततस्ततः शब्दात तं तमर्थ प्रतियन्ति । तेऽपि वृद्धा यदा वाला आसन् , तदा अन्येभ्यः वृद्धभ्यः तथैव प्रतिपन्नवन्तः। तेऽप्यन्येभ्य इति नास्त्यादिस्संसारस्यति । समयपक्षेऽपि शब्दार्थयोगसम्बन्धस्य स्वाभाविकत्वमवर्जनीयम् अपि च समयमात्रशरणः शक्तिशून्यः शब्दः कथमक्षिनिकोचहस्तसंज्ञादिभ्यः भिधेत? स हि तदानी कशाङ्कशप्रतोदाभिघातस्थानीय एव भवेत् । तथा च शब्दादर्थ प्रतिपद्यामह इति लौकिको व्यपदेशो बाध्येत, समयादर्थ प्रतिपद्यामह इति स्यात् । समयपक्ष च यदृच्छाशब्दतुल्यत्वं सर्वशब्दानां प्रानोति। तेन 'गवाश्वादि'शब्दानां नियत विषयत्वं न स्यात् ॥ * एकाति। द्वयोरपि परस्परं शब्दभेदात् कृतसमयभेदात् द्वाभ्यां परस्परं एकवस्तुविषयकाकव्यवहारः कथमित्यर्थः ।। अशिनिकोचः--अक्षिचेष्टाविशेषः ॥ कशाङ्कशेत्यादि। ध्वन्यादिवदिति भावः। भयङ्करध्वन्यादिश्रवणे दृश्यत एवापसर्पणादिकम् ॥ यतनछाशब्दः----ध्वन्यादिवत् रूढः शब्दः । गवावादीना-ख. Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] समयस्यैव शम्दार्थसम्बन्धत्वस्थापनम् 595 देशभेदेनार्थभेदः न समयाधीनः] यत्पुनरुच्यते--'जातिविशेषे चानियमात्' (न्या. सू २-१-५७) समयरूपः सम्बन्ध इति --- *जातिशदनात्र देशो-विवक्षितः। किल क्वचिद्देशे कश्चिच्छब्दः देशान्तर'प्रसिद्ध'मर्थ मुत्सृज्य ततोऽर्थान्तरे वर्तते। यथा ' चोरशब्दस्तस्करवचनः, ओदने दाक्षिणात्यैः प्रयुज्यते । एतच समयपक्षे युज्यते, नित्ये तु सम्बन्धे कथं तदर्थव्यभिचार इति --'तदप्ययुक्तम्-सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात् क्वचिदेशे केनचिदर्थन व्यवहारः ॥ अत एव चानवगतसम्बन्धे श्रुते सति सन्देहो भवति-कमर्थ प्रत्याययितुमनेनायं शब्दः प्रयुक्तः स्यात्' इति। असत्यां हि शक्ती अकृतसमये निरालम्पना प्रत्यायकत्वाऽऽशङ्केति ॥ भार्यप्रसिद्धार्थस्यैव म्हणं युक्तम् ] ___ अथवा आर्यदेशप्रसिद्ध एव शब्दानामर्थः, इतरस्तु म्लेच्छजनसम्मतोऽनादरणीय एव। तस्मात् समयपक्षस्यातिदौर्बल्यात् अकृत्रिम एव शब्दार्थयोः सम्बन्ध इति.न तत्र पुरुषस्य प्रभविष्णुता । [शब्दार्थयोः सम्बन्धः समयातिरिक्तः वक्तुं न शक्यः इति सिद्धान्तः] अत्रोच्यते-न नित्यः सम्बन्ध उपपद्यते ; शब्दवत् अर्थवञ्च तृतीयस्य तस्य प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन अप्रतीयमानत्वात् ॥ • [शक्ते: शब्दार्थसम्बन्धरूपत्वासंभवः] ननु ! शक्तिरूपः सम्बन्ध इत्युक्तम्। शक्तिश्च तदाश्रितेति कथं धर्म्यन्तरवत् पृथक्तया 'प्रतीयेत? --नैतत्लांप्रतम्-स्वरूपसह * उक्तस्यैव विवरणभ-जातीत्यादि ॥ + वक्ष्यमाणविवरणानुसारेण-देशो विवक्षित इति ॥ चोरशब्द इति। यद्यपि वेचन 'शोर' इति वदन्ति, परन्तु 'चोर' इत्यपि बदन्ति केचन, विशिष्य केरलीयाः। हिन्दीभाषायां मन्न्याक्षरस्यार्धाक्षरत्वेनैव उच्चारणम् ॥ प्राप्तप्रसिद्ध-ख. चोर-ख. एतद-क. 'प्रतीयते-ख. 38* Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596 शब्दार्थयोः सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमजरा कारिव्यतिरिक्तायाः शक्तेः सूक्ष्मायाः प्रागेव (पु. 107-114) विस्तातः प्रतिक्षिप्तत्वात् । न च शक्तिः प्रत्यक्षगम्या; द्रव्यस्वरूपवदनुपलम्भात । नानुमेया : कार्याणा न्यथाऽपि घटमानत्वात् ' कल्पयित्वा त्र शक्ति *अपरिहार्यः समयः: समयमन्तरेणार्थप्रतिपत्तरसिद्धः । सिद्ध च समये तत पवार्थसिद्धेः किं नित्यसम्बन्धाश्रयणेन ? समयत्य सम्बन्धत्ये अव्यवस्थापरिहार: यत्ततम --- समरस्य पुरुषेच्ाधीनत्वात् , तस्याश्च अव्याहतप्रसरत्वात यायवाचक व्यत्यय: स्यात् इति (पु.592)-तदयुक्तम्-. शिश्त्यभावे शब्दस्यैव वाचकत्वे योग्यत्वात्। का पुनः शनयभावे योग्यताऽसति चेत् । योऽयं गत्वादिजातियोगः क्रम विशेषोपतः। गत्वौत्वादिसामान्यसम्बन्धी हि यस्य भवति स वाचक योग्य इति, इतर स्तु याच्यात्।। 'यथा द्रव्यत्वाद्यवि. षेऽषि वीरणत्वादि सामान्यवतां कटनिष्पत्ती, तन्तुत्वादिसामान्यबतांजपटनिप्पत्ती । न च तक्तिरसतीत्युक्तम् : न च कारणे कार्य गदिति साङ्खथरिव भवद्भिरिष्यत् । तस्यामसत्यामपि शक्ती सामान्य शेषसम्बन्धस्य नियामकत्वात् न वाच्यवाचकयोळ यय इति न शक्तिरूपः शब्दार्थयोः सम्बन्धः । . शब्दार्थयो: सम्बन्ध स्थाविनाभावरूपत्वासंभवः न च तयोरदिनाभावो धूमाग्नयोरिव सम्पन्धः । तत्र हि सम्बन्धः प्रतीयमान एवं प्रतीयते 'धृतोऽग्निं विना न भवति' इति । इह पुनः ‘अयमस्मात् प्रतीयते' इति । एतावत्येव' * अपरिहार्य इनि। शके तीन्दियस्येन. 'इदं पदमत्र शक' इति समगनव शक्तिपरिज्ञानसंभवात् ॥ शक्तयभाव इति । शक्तिपझे मा शक्तिः शब्द एव वर्तते, न त्वर्थे इति अनुभवेनैव हि निर्णय । शक्त्यभाये च वारकत्वं शब्द एवास्त, तभाऽनुभवात ॥ गत्वौत्वादि कारोत्तरौकारादि ।। तन्तुःवादि ऋ. पट-क. भावे-ख. पतावदेव-ख. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविनाभावाः शब्दार्थसम्बन्धवासंभवः 597 पुत्पता विमानम् । अत एव *अवातिपूर्वि कैवावगतिरिहेत्यतु मानात् शब्दस्य भेद उक्तः ॥ प्रकाशकत्वमपि शब्दम्य समयप्रसादोपनतमेव, न स्वाभाविकम् । सांसिद्धिके हि तथात्वे भ्रमित्वादिप्रयुक्तात् , अन्यतो वा यतः कुतश्चित् अभिनवादपि दीपादिव शब्दादर्थमतीतिः स्यात् ॥ शब्दार्थसम्बन्धस्य व्याप्त्याख्यसम्बन्धाद्विलक्षणत्य] __ यत्त नैसर्गिकेऽपि प्रकाशकत्वे शब्दस्व धूनादेरिव ज्ञापकत्वात् सम्बन्धग्रहणसापेक्षत्वमुक्तम् (पु. 595)-स ए.प विषम उपन्यासः । न हि धूमादेः प्रत्यायकत्वं स्वाभाविकम, अनलाविनाभावित्वं तु तस्य नि बलम् । तत्र चागृहीते तस्मिन् प्रतीतिरेव न जायते इति युक्तं तद्भहणं प्रतीत्यर्थम्। इह तु प्रतीतिशक्तिरेव स्वाभाविकी भवताsभ्युपगम्यते । सा चेत् स्वाभाविकी, किं व्युत्पत्यपेक्षणेन ? इिति ॥ शब्दार्थसम्बन्धस्य अर्थात् समयरूपत्वे पर्यवसानम् । 'यदि चोच्यते--प्रत्यायक इति प्रत्ययं दृष्टाऽवगच्छामः, न प्रथमश्रवण इति। यावत्कृत्वः श्रुतेन 'इयं संज्ञा, अयं संज्ञी' इत्यवगम्यते, तावत्कृत्वः श्रुतादर्थावगम इति- सोऽयं समयोपयोग एवं कथितो भवति। संज्ञामशिसम्बन्धो हि समय एवोच्यते । तदुपयोगमन्तरेण प्रत्यायकत्वानवगमात् न स्वाभाविकी शक्तिः ।। सिमयस्य विषयनिष्ठन्वोपपत्तिः] - यत्त्वभ्यधायि-समयस्य ज्ञानात्मकत्वात् आत्मनि वृत्तिः, न ___*अवगतपूर्विकेति। धूमवयोधविनाभावः न पुरुषकल्पितः, किन्तु - सहजः । . गब्दार्थयोस्तु सम्बन्धः न तथा सहज , किन्तु कल्पितः । ततश्व . 'अस्मात् पदादयमों बोद्धव्यः' इत्याकारकस्य संकेतम्य परिज्ञानमन्तरा न शाब्दबोधसंभव इति भावः। । किं व्युत्पत्त्यपेक्षणेनेति। अनुपदमेवोक्तः दीपादिदृष्टान्तः ॥ प्रत्ययं दृष्यति। तथा च प्रत्यायनशक्तेः कार्यानुमेयत्वेन न दीपादितौल्यम्॥ यचोच्यते-ख Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 598 शब्दार्थयोः सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमरी शब्दार्थयोरिति (पु. 593)--एतदप्य चतुरश्रम्-तदाश्रयत्वाभावेऽपि शानस्य *तद्विषयत्वोपपत्तः ॥ [शाब्दबोधस्य समयाधीनत्वेऽपि शब्दस्यैव तत्र हेतुत्वम् ] ___ यदप्यमा णे-समयमात्रशरणे सृषिप्रतोदनोदननिर्विशेषे शब्दे शब्दादर्थ प्रतिपद्यामह इति व्यपदेशः न स्यादिति (पु. 591). तदपि यत्किञ्चित। नैसर्गिकशक्तिपक्षेऽपि शक्रय प्रतिपद्यामहे, 'न शब्दात्' इति व्यपदेशः स्यात् । अविनाभावादग्नि प्रतिपद्यामहे, न धूमात्" इति स्यात् । तदङ्गत्वादविनाभावादेः न तथा व्यपदेश इति चेत् ; तदितरत्रापि समानम् ॥ धूमे हि व्याप्तिपूर्वत्वं शब्दे समयपूर्वता । नानयोस्तदपेक्षायां करणत्वं विहन्यो । ४६॥ [समयस्य शब्दार्थसम्बन्धत्वे लोकव्यवहारोऽपि प्रमाणम् ] अपि च लौकिको व्यपदेशः समयपक्षसाक्षिता मेव' भजते । देवदत्तेनोक्तं 'अमुतः शब्दादमुमर्थ प्रतिपद्यस्वेति' इत्येवं हि व्यपदिशति लोकः । तस्मात् समय एव ॥ अतश्चैवं देशान्तरे सङ्केतवशेन ||तत एव शब्दादर्थान्तरप्रतिपत्तिः॥ * तद्विषयत्वोपपत्तः-ज्ञानात्मकत्वेऽपि विषयतासम्बन्धनार्थनिष्ठत्वात् ॥ +सृणीति । 'अङ्कुशोऽस्त्री सृणिः स्त्रियाम्' इत्यमरः ॥ इष्टापत्तावाइ- अविनाभावादित्यादि। तदङ्गत्वात्-धूमानत्वात् । अविनाभावः खलु सम्बन्धः । स चाश्रयभपेक्षत एवेति न धूमपरित्यागसंभव इति चेत् , तत् शब्देऽपि समानमित्यर्थः ॥ || तत एव-देशान्तरीयसङ्केतवशादेव ॥ शब्दात्-चोरादिशब्दात् ॥ 1 न किञ्चित-ख. 'न धूमात्-ख. 3 मिव-ख. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम ४] अविनाभावादेः शन्दार्थसम्बन्धस्वासंभवः 599 सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनश क्तमत्त्वं न घटते ननु! अत्रोक्तं सर्वे शब्दाः सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्ता इति केनचिदर्थेन क्वचिद्यवहार इति (पु. 595) तदेतदयुक्तम्-शक्तीनां मेद भेद बिकल्पानुपपत्तः। न शब्दस्वरूपात भिन्नाः शक्तयः तथाऽनवभासात् । अन्यतिरेके च एकस्माच्छब्दादनन्यत्वात् परस्परमव्यतिरेकस्तासां स्यात् । न च मिनकार्यानुमेया भिन्नाः शक्तयः; कार्यभेदस्या न्यथाऽप्युपपत्तेः । सर्वशक्तियोगे च सर्वार्थप्रत्ययप्रसङ्गः। समयोपशेगो नियामक इति चेत् ; स एवास्तु कि शक्तिभिः [सादृश्यमेवार्थसंदेहकारणम् , न तु पदानां सर्वशक्तिमत्त्वम् ] ___ यदप्यगादि--शब्दश्रवणे सति सर्वार्थविषयसन्देहदर्शनात् सर्वत्र तस्य शक्तिः कल्प्यत इति (पु. 505) तदप्यसारमन हि शक्तिकृतः सन्देहः, किन्तु गत्वादिवर्णसामान्य निबन्धनः। तथा च गत्वादिजातिमतां वर्णानां अर्थ वाचकत्वमवगतम् । 'अमी तज्जातियोगिनो वर्णाः 'कस्यार्थस्य' वाचकाः स्युः ? ' इति भवति सन्देहः ॥ [म्लेच्छजनमसिद्धार्थस्यापि कुत्रचित ग्रहणं मीमांसकसम्मतम् ] यत्पुनरवादि-स एव शब्दस्यार्थः, यत्रनमार्याः प्रयुञ्जत, न म्लेच्छजनप्रसिद्ध इति (पु. 525)-तदेतत् कथमिव शपथमन्तरेण प्रतिपद्यमहि । न हि म्लेच्छदेशेऽपि तदर्थप्रत्ययो न जायते, बाध्यते वा, सन्दिग्बो वेति कथं न शब्दार्थः ? ___आर्यप्रसिद्धिर्वाधिकेति चेत् आर्यप्रसिद्धरपि म्लेच्छप्रसिद्धिः कथं न बाधिका? अक्षादिवञ्च विकल्प्यमानार्थोपपत्तेः व्यस्थितविषय एव विकल्पो भविष्यति ।। * तासां स्यादिति। तथा च देशभेदेनार्थभेदो न स्यात् ॥ + अन्यथाऽपि-शक्तिभ्रमादिनाऽपि ॥ 1 सर्वार्थप्रत्ययप्रसङ्गः इत्यत्र 'सर्वशब्दात्' इति शेषः ।। अक्षादिवदिति। लक्षशब्दः इन्द्रियवाची युतविशेषवाची च ॥ 1 यस्यार्थस्य-क. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 शम्दार्थयो: सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमअरी * पिकनेमतामरसादिशब्दानां च भवद्भिः म्लेच्छप्रयोगात् अर्थनिश्चय आश्रित एव । अवेट्यधिकरणे (जै. सू. २-३-३) 'राज'शब्दं आन्ध्रप्रसिद्धेऽर्थे वर्णितवन्तो भवन्त इति अलमवान्तरचिन्तनेन । तस्मात् समय एव सम्बन्ध इति युक्तम् । तदुक्तं 'जातिविशेषे चानियमात्' (न्या. सू. २-५-५७) इति॥ [सर्गादौ सकृदेव शब्दानां समयकरणम् ] अथ यदुक्तं -समयः प्रत्युच्चारणं, 'प्रतिपुरुष, सर्गादौ सकृत् क्रियते ? इति (पु. 503) -प्रत्युच्चारणं, प्रतिपुरुपं च तत्करणं' अनभ्युपगतमेव दूषितम। सर्गादौ सकृदेव समयकरण मिति नः पक्षः ॥ अत एव न सर्वशब्दानां यदृच्छातुल्यत्वन। केषाश्चिदेव शब्दानां अस्मदादिभिरद्यन्ने सङ्केतकरणात तत एव यदृच्छाशब्दा उच्यन्ते। सर्गादिश्च समर्थित एव (पु. 510। ईश्वरसिद्धावप्य'विकल'मनुमानमुपन्यस्तम (पु. 191-52) [पूर्वपक्षिसिद्धान्तिनो: विशेषः] एष एव चावयोर्विशेषः --यदेष शब्दार्थसम्बन्धव्यवहार: तवानादिः, मम तु जगत्सर्गात् प्रभृति प्रवृत्त इति। अद्यत्वे तु शब्दार्थसम्बन्धव्युत्पत्तौ तुल्य एवावयोः पन्थाः। तत्रापि त्वयं विशेषः--- यत तव शक्तिपर्यन्ता व्युत्पत्तिः, मम तु तिमिति। ' 'पिकेत्यादि । पिकनेमाधिकरणे (१-३-५) अविरोधे सति म्लेच्छप्रसिद्धिरपि ग्राह्येति सिद्धान्तितम् । 'पिक इति कोकिलो ग्राह्यः, नेमोऽध, तामरसं पद्म, सत इति दारुमयं पात्रं, परिमण्डलं शतच्छिद्रम्' इति शाबरभाष्यम् (१-३-५)॥ आन्ध्रप्रसिद्ध इति । 'जनपदपुरपरिरक्षणवृत्तिमनुपजीवत्यपि क्षत्रिये राजशब्दमान्ध्राः प्रयुञ्जते । आन्ध्राणां प्रयोगो न विरोत्स्यते' इति तत्रत्यं शाबरं भाष्यम् ॥ . तर्जमिति। अर्थपर्यन्तैव हि व्युत्पत्तिः, 'तद्धेतोरेव तद्धे तुरवे मध्ये किं तेन' इतिन्यायात् मध्ये शक्तिकल्पनं व्यर्थम् ॥ राज्य-ख. 'प्रतिपुरुषं-ख. 'तत्कारणं-ख. 'विकल्प-ख. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाडिकम् ४] शब्दार्थसम्बन्धस्येश्वरकृतस्वम् 601 [शक्तेः शब्दार्थसम्बन्धस्वे लोकानुभवविरोधः ] तथा चेमियती व्युत्पत्तिः लोके दृश्यते-- यत् अयमस्य वाच्यः, अयमस्य वाचक इति, न पुनः शक्तिपर्यन्ता व्युत्पत्तिरस्ति। तथा हि --यत्र शृङ्गग्राहिकया शब्दमर्थ च निर्दिश्य सम्बन्धः क्रियते, तत्रेयन्तमेवैनं क्रियमाणं पश्यामः--अयमस्य वाच्यः, अयमस्य वाचक इति॥ यत्रापि च वृद्धेभ्यः व्यवहरमाणेभ्यः व्युत्पद्यते, तत्रापीयदेवासी जानांत-अयमथ: अनुतः शब्दात् अनेन प्रतिपन्न इति, न वन्याऽस्य काचिन्छक्तिरस्तीति । इयत्यैव च व्युत्पत्त्या शब्दादर्थप्रत्ययोपपत्तः, अस्याश्चापरिहार्यत्वात् , अधिककल्पनाबीजाभावाच्च न नित्यः शब्दार्थसम्बन्धः ॥ सम्बन्धग्रहणविषये सिद्धान्तस्य मीमांसकमताद्विशेषः] अत एव च सम्बन्धः *त्रिप्रमाणकः' (श्लो. वा. १-१-५ सम्ब. परि. १७१) इति यत् त्वयोच्यते तदस्माभिर्न मृष्यते। ‘शब्दवृद्धा भिधेयांश्च प्रत्यक्षेणात्र पश्यनि ' इति सत्यम्। 'श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वं अनुमानेन चेप्टया'. इत्येतदपि सत्यम्। 'अन्यथाऽनुपपत्त्या तु वेत्ति शक्तिं द्वयात्मिकाम्' इत्येतत्त 'न सत्यम्'; अन्यथाऽप्युपपत्तरित्युक्तत्वात्। तस्मात् द्विप्रमाणकः सम्बन्ध निश्चयः, न त्रिप्रमाणकः ॥ - तदेवं शब्दस्य नैसर्गिकशक्तयात्मकसम्बन्धाभावात ईश्वर विरचितसमयनिबन्धनः शब्दार्थव्यवहारः नानादिः ॥ ...* त्रिप्रमाणक इति। इदं च प्रकरणं पूर्वमेव (पु. 223) विचारितम् । तत्र यद्यपि भापक्षः स्वसम्मतत्वेनोक्त इव ; अथापि सम्बन्धाधिगमस्य नानाप्रमाणगम्यत्वमात्रे सम्मतिः पूर्व प्रदर्शितेति मन्तव्यम् ॥ द्विप्रमाणक इति । प्रत्यक्षानुमानप्रमाणकः, न स्वर्थापत्तिरपेक्ष्यत इत्यर्थः ।। 'सत्यम्-क. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 शब्दार्थयोः सम्बन्धनिरूपणम् न्यायमञ्जरी शब्दार्थयोस्सम्बन्धस्थानित्यत्वेऽनवस्थापरिहार:] ननु ! ईश्वरोऽपि सम्बन्धं कुर्वन् अवश्यं केनचित् शब्देन करोति । तस्य केन कृतः सम्बन्धः ? शब्दान्तरेण चेत , तस्यापि केन कृतः? तस्यापि केन? इति न कश्चिदवधिः। तस्मादवश्यमनेन सम्बन्धं कुर्वता वृद्धव्यवहारसिद्धाः केचित् अकृतसम्बन्धा एव शब्दा अभ्युपगन्तव्याः। *अस्ति चेत् , व्यवहारसिद्धिः; किमीश्वरेण? किं वा तत्कृतेन समयेन ? 'इत्यनादि'पक्ष पव श्रेयान्उच्यते--- अस्त्रमायुष्मता शातं विपयस्तु न लक्षितः । अस्मदादिषु दोषोऽयं ईश्वरे तु न युज्यते ॥ ४७ नानाकर्मफलस्थानं इच्छयैवेदृशं जगत्। : स्रष्टुं प्रभवतस्तस्य कौशलं को विकल्पयेत् ॥४८॥ इच्छामात्रेण पृथिव्यादेरियतः कार्यस्य करणमस्मदादीनां यन्मनोरथपदवीमपि नाधिरोहति, तदपि यतः संपद्यते, तस्य कियानयं प्रयासः। तदत्रेश्वरसद्भावे परं विप्रतिपत्तयः। तस्मिस्तु सिद्धे क एवं विकल्पानामवसरः ? उक्तं च तत्सिद्धौ निरपवादमनुमानम्। वयं तु न कर्तार एव सम्बन्धस्य, यत एवमनुयुज्येमहि ॥ अङ्गभ्यग्रेण निर्दिश्य कश्चिदर्थ पुरःस्थितम् । व्युत्पादयन्तो दृश्यन्ते बालानस्मद्विधा अपि ॥ ४२ ॥ तस्मात् ईश्वरविरचितसम्बन्धाधिगमोपायभूतवृद्धव्यवहारलब्धतद्वयुत्पत्तिसापेक्षः शब्दः अर्थमवगमयतीति सिद्धम् ॥ * अस्ति चेत्--अवशात्तादृशशब्दसत्त्वमंगीक्रियत इति चेत् ॥ +व्यवहारसिद्धिरिति । अस्य भवत्समयमन्तराऽपीत्यादिः। एतदनन्तरं च 'ततश्च' इत्यप्यध्याहार्यम् ॥ *अयं दोषः-शब्दान्तरेण सङ्केतकरणेऽनवस्थादिः। कुतो नास्ति--- इत्यत्रैवोत्तरं अनन्तरश्लोकः । तथा च इच्छयैव सङ्केतकरणमिति नानवस्था ॥ इत्यनाथ-ख. Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] ईश्वरोक्तत्वादेव वेदानां प्रामाण्यम् 603 [शब्दार्थयोः सम्बन्धस्यानित्यस्वेऽपि न शब्दानामर्थासंस्पर्शित्वम्] * न च नित्यसम्बन्धाभावेऽपि शब्दस्यार्था' संस्पर्शित्वं', समयबलेनार्थप्रत्ययस्याबाधितस्य सिद्धरित्युक्तत्वादित्यलं विस्तरेण ॥ तस्मात् पदे च वाक्ये च सम्बन्धे च स्वतन्त्रता । पुरुषस्योपपन्नति वेदानां तत्प्रणीतता ॥५०॥ तस्मादाप्तोक्तत्वादेव वेदाः प्रमाणम्, न नित्यत्वात् ॥ वेदानामाप्तोनत्वनिश्चयासंभवशङ्का ननु! आप्तोक्तत्वस्य हेतोः पिक्षधर्मत्वं कथमवगम्यते ? न प्रत्यक्षेण क्षोणीधरधर्मत्वमिव धूमस्य वेदानामाप्तरणीतत्वमवगम्यते; श्रवणयुगलबललब्धजन्मनि प्रत्यये वेदाख्यशब्दराशेरेव प्रतिभासात् । न चोदात्तादिवत् वर्णधर्मत्वेन आप्तोतत्वं गृह्यते ।। नाप्यनुमानमस्मिन्नर्थे : लिङ्गाभावात् । प्रामाण्ये हि वेदस्य आप्तोक्तत्वं लिङ्गम् । आप्तोक्तत्वानुमितो तु न लिङ्गान्तरमुपलभामह इति कुतस्त्यः पक्षधर्मत्वनिश्चयः .. [अनुमानादेव वेदानामासोक्तावनिश्चयः) उच्यते-अल सरस्वतीक्षोदेन ! उक्त एव पक्षधर्मत्वनिश्चयोपायः। तथा हि शब्दस्य साधितं तावदनित्यत्वं सविस्तरम् । रचनाः कर्तृप्रत्यश्च रचनात्वादिति स्थितम् ॥ १॥ कर्ता सर्वस्य सर्वज्ञः पुरुषोऽस्तीति साधितम् । - कार्येणानुगुणं कल्प्यं निमित्तमिति च स्थितम् ॥ ५२॥ - *न चेत्यादि । शब्दार्थयोः सम्बन्धस्यानित्यत्वे अर्थमन्तराऽपि शब्दस्य स्थितिमंभवेन अर्थशून्योऽपि शब्दः कश्चिदङ्गीकर्तव्यः-इत्याक्षेपाशयः । सम्बन्धानित्यत्वेऽपि शब्दस्यापि तथात्वेन शब्देन साकमेव समयसिद्धया नार्थशून्यत्वं शब्दानामिति समाधानाशयः ॥ पक्षधर्मत्वं-वेदरूपपक्षवृत्तित्वम् ॥ स्पर्शित्वं-ख. करण-स. Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 तोक्तत्वादेव वेदानां प्रामाण्यम न्यायमञ्जरी प्रत्यक्षादिविसंवादः वेदे *परिहरिष्यते । व्याघातपीनरुक्तयादिदोषाश्च वचनान्तरे । ५३॥ विध्यर्थवादमन्त्राणां उपयोगश्च वक्ष्यते । न मात्रामात्रमप्यस्ति वेदे किञ्चिदगार्थकम् ॥ ५ ॥ शब्दब्रह्मविवादिकल्पनाश्च पुरोदिताः। सर्वाः परिहरिष्यन्ते कार्यत्वस्य विरोधिकाः ॥ ५५॥ इत्थं च स्थिते किमन्यदवशिष्टं वेदेष्वाप्तोक्ततानिश्चयस्य ? सोऽयं सकलशास्त्रार्थस्थिती सत्यां पक्षधर्मत्वनिश्चयः हेतोः आप्तोक्तत्वस्य गीयते ॥ यत्तु प्रत्यक्षमनुमानं वा तन्निश्चयानिमित्तमिति विकल्पितम् (पु. 575)--तत्र प्रत्यक्षमास्ताम् ! अनुमानादीनि च यानि रचनात्वादीन्युक्तानि, यानि च पिरदर्शनदिषि वक्ष्यन्ते, तानि सर्वाण्याप्तोक्ततायाः पक्षधर्मतासिद्धयोपयिकानीत्यलं विस्तरेण ॥ वेदे भाप्तोक्तत्वहेतोः ग्याप्तिग्रहणप्रकारः] व्याप्तिः पुनरस्य हेतोः आयुर्वेदादिवाक्येषु निश्चीयते । पिप्पलीपटोलमूलादेरप्यौषधस्य इत्थमुपयोगात् इदमभि'मतमासाद्यते । अस्य च क्षीर चुकादि विरोध्यशनस्य परिहारादिदमनिष्टमुप शाम्यतीत्यादिध्वायुर्वेदशास्त्रषु प्रत्यक्षेण तस्यार्थस्य तथा निश्चयाव अर्थाविसंवादित्वं नाम प्रामाण्यं प्रतिपन्नं ; तच्चदमाप्तवादप्रयुक्तम् । 'अतः यत्राप्तवादत्वं तत्र प्रामाण्यमिति व्याप्तिह्यते ॥ * परिहरिष्यते-- अत्रैवाहिके उपरिष्टात् ॥ +परदर्शनविषि-परपक्षासम्मतानि । भायुर्वेदादिदृष्टान्तरयमर्थः समनन्तरमेव वक्ष्यते ॥ + अस्येत्यादि। उक्तस्योषधस्य पथ्योपदेशोऽयम् ॥ चुकं--तिन्त्रिणीकं व चुकं घौं इत्यमरः । | इदमपि-क. विरोधा-क. यतः-ख. Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] आयुर्वेदवदेव वेदानां प्रामाण्यम् 605 तथा मन्त्राणां प्रयोगे वृश्चिकभुजगदष्टस्य भक्षितविषस्य वा निर्विषत्वं, अपस्मारपिशाचरूपिकागृहीतस्य तदुन्मोचनं, अतिरभसोजिहानेषु दुष्टमेघेषु सस्यरक्षणमित्येवमुपलब्धम् । अतस्तेषां विषभूता'शनिशमन'कुशलानां आप्ता उपदेशार इति तत्रापि तथैव व्याप्तिनिश्चयः ॥ आयुर्वेदादीनां प्रामाण्य माप्तोक्तत्वमूलमेव ननु ! आयुर्धेदादी प्रामाण्यं प्रत्यक्षादिसंवादात् प्रतिपन्नम् , नाप्तप्रामाण्यात। अतः . कथमाप्तोक्तत्वस्य तत्र व्याप्तिग्रहणम् ? नैतदेवम्-प्रत्यक्षादिसंवादात् तन्निश्चीयतां नाम प्रामाण्यम् ! * उत्थितं तु तत् आप्तोतत्वात् । प्रत्यक्षादावप्यर्थक्रियाज्ञानसंवादात् प्रामाण्यस्य. ज्ञप्तिः। उत्पत्तिस्तु गुणवत्कारककृत्येत्युक्तम् (पु. 442)॥ नद्यादिवाक्यानि च विप्रलम्भकपुरुषभाषितानि विसंवदन्ति लोके दृश्यन्ते। तेनाप्तप्रणीतत्वमेव तेषां प्रामाण्यकारणम् , कारणशुद्धिमन्तरेण सम्यक्प्रत्ययानुत्पादात् । निश्चयोपायस्तु प्रत्यक्षं भवतु, न तु तत्कृतमेव प्रामाण्यम् । अतः युक्तमाप्तोक्ततायाः आयुर्वेदादौ व्याप्तिग्रहणम् ॥ . [आयुर्वेदादौ संवादादेव प्रामाण्यमित्याशङ्का) ननु! एवमपि न युक्तम्, आप्तोक्तत्वस्य तत्र परिच्छेत्तमशक्यत्वात् । अन्वयव्यतिरेकमूलमेव आयुर्वेदवाक्यानां प्रामाण्यम्, नाप्तकृतम्। अन्धयव्यतिरेको च यावत्येव दृश्येते, तावत्येवार्थे प्रामाण्यम् -- यथा हरीतक्यादिवाक्याथै। यत्र तु तथोरदर्शनं तत्राप्रामाण्यम्-यथा सोमराज्युपयोगे समाः सहस्रं जीव्यते इति। आप्ते तु कल्प्यमानेऽर्धजरतीयं स्यात् । अर्धे तस्याप्तत्वम् , अर्धे च कथमनाप्नत्वमिति॥ - * उत्थितमिति। भाप्तोक्तत्वज्ञानादेव हि तादृशौषधसेवनादौ प्रवर्तते पुरुषः। फलप्राप्त्या च तदाख्यं भवति । न स्वाप्तोक्तत्वज्ञानमेव संवादाधीनम् ॥ + सोमराजी -..' अवल्गुजः सोमराजी सुवल्लिः सोमवल्लिका' इत्यमरः॥ 'शयनिशमन-क. Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 आप्तोसत्वादेव वेदानां प्रामाण्यम् न्यायमञ्जरी [भायुर्वेदादौ संवादस्य दुरधिगमत्वनिरूपणम् ] तदिदमनुएपन्नम्-अन्वयव्यतिरेकयोः ग्रहीतुमशक्यत्वात् । तौ हि * स्वात्माने वा ग्रहीतुं शक्यते' व्यक्तयन्तरे वा? व्यक्तयन्तरेऽपि, सर्वत्र ? क्वचिदेव वा व्यक्तिविशेषे? सर्वथा संकटोऽयं पन्थाः। व्याधीनां, तन्निदानानां, 'तदुपचयापचयानां' तदुपशमोपायानां, औषधानां, तत्संयोगवियोगविशेषाणां. तत्परिमाणानां, तसवीर्य विपाकानां. देशकालपुरुषदशाभेदेन शक्तिभेदस्य एकेन जन्मना ग्रहीतुमशक्यत्वात् । जन्मान्तरानुभूतानां च भावानां अस्मरणात् ॥ जनोऽनन्तस्तावन्निावधिरिह व्याधिनिवहः नख्यातुं शकमा बहुगुणरसदागतयः । विचित्राः संयोगाः परिणति पूर्वेति च कुतः चिकित्सायाः पारं तरति युगलौरपि नरः ॥५६॥ धदेव द्रव्यमेकस्य धातोर्भवति शान्तये । योगान्तरात्तदेवास्य पुनः कोपाय कल्पते ॥ ७॥ या द्रव्यशक्तिरेकत्र पुंसि नासौ नरान्तरे । हिरीतक्यापि नोतवातकुष्ठ विरेच्यते ॥ ५८॥ शरधुद्रिक्तपित्तस्य ज्यराय दघि कल्पते। . तदेव भुक्तं वर्षासु ज्वरं हन्ति दशान्तरे ॥ ५९ ॥ न चोपलक्षणं किञ्चित् अस्ति तच्छक्तिवेदने । ये कत्र गृहीताऽसौ मर्वत्रावगता भवेत् ॥ ६० ॥ यो वा ज्ञातुं प्रभवति पुरुषः तत्लामयं निरवधिविषयम् । स्यात् सर्वक्षः स इति न धिमांतः तस्मिन् कार्या स्विवचन कथिते ॥ * स्वात्मनि-येन तदोषधं संचितं तादृशे स्वस्मिन् ॥ हिरीतकीति। हरीतक्याः विरेचकत्वं प्रसिद्धम् ।। स्ववचनेति । भवतैवोच्यते 'तादृशः कश्चित् स्यात् पुरुषः' इति, निषिध्यते चेश्वरः, किमिदं विचित्रम् ! यतः स एवेश्वरो नः॥ । तदुपचयानां-ख. कथितः-ख. Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् ४] आयुर्वेदस्य प्रामाण्यनिरूपणम् 607 [भनादिपरम्परासिद्धस्वमात्रानामुर्वेदादिमामाण्यनिर्णयः] 'अथोच्येत'-अनादिरेवैषा चिकित्सकस्मृतिः, व्याकरणादिस्मृतिवत् । संक्षेपविस्तरविवशयैश चरकादयः कर्तारः, न तु ते सर्वदर्शिनः। न च स्मृतावन्धपरंपरादोषः, समूलत्वात् । यथा व्याकरणस्मृतेः शिष्टप्रयोगो मूलं, एवमिहान्वयव्यतिरेको। शिष्टविरोधे सति यथा मूलविरोधिनी पाणिन्यादिस्मृतिरप्रमाणम्, तथा चाहुः 'इह न भवत्यनभिधानात्' (वार्तिकम् ) इति। एवं वैद्यस्मृतिरपि अन्वयव्यतिरेकविरुद्धा न प्रमाणमिति --तदेतदयुक्तम्-- अन्वयव्यतिरेकयोर्यथोक्तनयेन परिच्छेदासम्भवेन तन्मूलत्वा'नुपपत्तेः ॥ [काचित्कसंवादात सर्वाशे प्रामाण्यं न निर्णेतु शक्यम् ] यदि ह्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां अशेषद्रव्यशक्तीनिश्चित्य चरकादिमिविरचितं शास्त्रमितीदृशमन्वयव्यतिरेकित्वमुच्यते-तदप्ययाकृतम् -- 'अद्यत्वे' यावन्तावन्वयव्यतिरेको वयमुपलब्धुं शक्नुमः, तावद्भयां ताभ्यां एकदेशसंवादात् प्रामाण्य कल्पनात् * तत्र 'प्रवर्तताम्; न तु तो तावन्तौ शिास्त्रस्य मूलं भवितुमर्हतः; सवैरस्मदादिभिस्तादशशास्त्रप्रणयनप्रसङ्गात् ॥ [आयुर्वेदादीनां वेदवत् नानादित्वम्] . अनादित्वमपि शास्त्राणां वेदवदनुपपन्नम् ; चरकादिकर्तृस्मृतेः कालिदासादिस्मृतिवदविगीतत्वात्। न च चिकित्सास्मरणप्रबन्धएवाय'मनादिः ; तथात्वे अन्धपरंपग, कारणानवधारणात्। न च तदुक्तं ' उन्मूलं भवितुमर्हति, व्युदस्तत्वात्। तस्मात् सर्वक्षप्रणीत एवायुर्वेदः॥ * तत्र तावत्येव एकदेशे ॥ + शास्त्रस्येति। कृत्स्नस्येति शेषः॥ सर्वज्ञः-तत्तच्छास्त्रोपयोगियावदर्थसाक्षात्कारवान् ॥ 4 अब तु-क. 1 अयोच्यते-ख. परिच्छेद-क. कल्पना-क. प्रवर्तनम्-ख. एव-स. 3 उन्मूलत्वा-क. तन्मूलं-ख. Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 आप्तोक्तत्वादेव वदाना प्रामाण्यम् [न्यायमचरी [भायुर्वेदादिकर्तृणां तदुपयोग्यर्थदर्शन प्रत्यक्षमेव] ननु अविदुषामुपदेशो नायकल्पत इति विद्वांसः चरकादयः कल्प्यन्ताम्। ते तु *प्रत्यक्षेणैव सर्व विदितवन्त इत्यत्र किं मानम् ? उच्यते--अन्वयव्यतिरेकयोनिरासात् नानुमानस्यैष विषयः। वेदमूलत्वमापे मन्वादिस्मृतिवत् अयुक्तं कल्पयितुम, किर्तृसामान्या संभवादिति वाय ज्यामः (पु. 632)। पुरुषान्तरोपदेशपूर्वकत्वे केणव किमपराद्धम् ! उपमानमनाशकनीयमेवास्मिन्नथें । अर्थापत्तिस्तुं न प्रमाणान्तरम् । अप्रामाण्यं तु नास्ति, बहुकृत्वः संवाददर्शनात् । अतः परिशेषात् प्रत्यक्षीकृतदेशकालपुरुषदशाभेदानुसारिसमस्तव्यस्त पदार्थसार्थ शक्तिनिश्चयाः चरकादयः इति युक्तं. कल्पयितुम् ॥ आयुर्वेदायुक्तफलेषु व्यभिचाराद्यप्रसक्तिः यद्येवं कथ त सोमराज्यादिवशक्यपु व्यभिचार: ? व्यभिचारे चार्थजरतीयमित्युक्तम् नेय दोषः-कर्म कर्तसाधनवैगुण्यात् एषु व्यभिचारो भविष्यति। वैदिकेषु च कर्मसु मीमांसकस्य समानो 'गुण':॥ कार्यादौ का ते वार्ता? यस्यां न स्यादिष्टौ वृष्टिः । वैगुण्यं चेत् कादीनां, अत्राप्येवं शक्यं वक्तुम ॥६॥ __ * प्रत्यक्षेण वेति। तादृशशास्त्रप्रणयनोपयोगिज्ञानं प्रत्यक्षरूपमेवेति कुत इत्यर्थः । कर्तसामान्यासंभवादिति। ये वैदिकधर्माधिकारिणः, त एव मन्वादिस्मृत्युक्तार्थाधिकारिण इति उभयविधधर्मकों: साधारणत्वात् मन्वादिस्मृतीनामपि वेदमूलत्वं कल्प्यते। न ह्येवमायुर्वेदादो वक्तुं शक्यं, विषयस्यैव विलक्षणत्वादित्यर्थः। समानो गुणः ... समानो योगक्षम इति भावः। वस्तुतस्तु शतसहस्रादिपदानि बहुपर्यायान्ये वेति सोमराज्युपयोगवचनमपि न बाधितम् ॥ . 'सामर्थक. दोषः-ख. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60g आधिकम् ४ भाप्तमूलस्वाद घेदप्रामाण्योपसंहारः यदि विधुरमभुक्तं कर्म शास्त्रीयमन्यत् फलविघटनहेतुः कम्प्यते सोऽपि तुन्यः । कचिदथ फलसंपत् रश्यते तत्प्रयोगे तदिह दृढशरीराः सन्ति दीर्घायुषः ॥ ६३ ॥ आयुर्वेद स्तस्मात् आप्तकृतो नाम्यमूल इति सिद्धम् । एवंफलवेदादी प्रकाशमाप्तप्रणीतत्वम् ।। १४ ।। . तस्मात् आप्तोक्तत्वस्य सिद्धमायुर्वेदादी ख्यातिप्राणम् । व्याप्तिप्रदर्शनायैष सूत्रकृता'स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात् ' (न्या. सू. १-१-८) इत्युक्तम। दृष्टार्थशग्दे गृहीताविनाभावं भाप्तोकस्वं मरार्थेऽपि प्रामाण्यं साधयतीति । मत एवोकं 'मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवञ्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्' (न्या. सू. २-१-६९) इति ॥ [भायुर्वेदादिकर्तणामतीतस्वेऽपि ग्यातिप्रहसंभवः] मन्यत्रापि न वैध विरचयन् दृष्टो मुनिः सर्ववित् तयाप्तिग्रहणं जमे यदि, पृथाऽऽयुर्वेदसंकीर्तनम् । सत्यं, किन्तु दृढा तथापि चरकाचा तस्मृति'वैद्यके नासौ 'चान्य'निबन्धनेति कथिता तस्येह दृष्टान्तता ।। ६५ ॥ *विधुर-फलविकलम्। यदि विधुरं इति माक्षेपवाक्यम् । एतावाऽवत्तफलस्य सस्य तत्समये फलोन्मुल्येन प्रकृतफलविघटन ययुध्यते, गई प्रकृतेऽपि तुल्यम् ॥ प्रकाशं-स्पष्टम् ॥ नम्वित्यादि । चरकापीमामतीतत्वात, इदानीं तापपुवादर्शनात वयं व्याप्तिग्रहः ? अतीतचरकादिविषयिण्वेव यदि प्यातिः, तदाऽतीतवस्तु म तस्मात्-ख. 'माप्तोकस्वार-क. मिस्सते-क. 'चार्य-स. NYAYAMANJARI 39 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 610 मीमांसकोक्तवेदप्रामाण्यप्रक्रिया न्यायमचरी इत्यायुर्वेदवाक्यप्रभृतिषु भवति व्याप्तिराप्तोक्ततायाः पूर्वोक्तेन क्रमेण स्फुटमकथि तथा पक्षधर्मत्वमस्याः। न प्रत्यक्षागमाभ्यामपहृतविषया नानुमानान्तरेण व्याधूता वेति सैषा भजति गमकतां * पञ्चरूपोपपत्तेः ॥ १६ ॥ अमपेक्षतया न वेदवाचां घटते 'निष्प्रतिमः' प्रमाणभावः । क गिगमयथार्थतानिवृत्तिः पुरुषप्रत्ययमन्तरेण दृष्टा ॥६७ ॥ तत्प्रत्ययात् बहुतरद्रविणव्ययादि साध्येषु कर्मसु तपस्सु च वैदिकेषु । युक्तं प्रवर्तनमधाधन केन नैव' .. तत्सिद्धिरित्यलमसम्मत एष मार्गः ॥ ६८ ॥ तस्मादातोक्तस्वादेव वेदाः प्रमाणमिति सिद्धम् ॥ . [मीमांसकमते वेदप्रामाण्यवर्णनप्रकारः] . अन्ये तु अन्यथा वेदप्रामाण्यं वर्णयन्ति । तस्य हि प्रामाण्ये अभ्युपगतपरलोकः, अनभ्युपगतपरलोको वा परो विप्रतिपद्यते ? तत्रानभ्युपगतपरलोकं प्रति तावत् आत्मनित्यतादिन्यायपूर्वक परलोकसमर्थनमेव विधेयम् ॥ ज्ञानात् वयमपि सर्वज्ञा जाता इति, भस्माकं परमुखनिरीक्षणं व्यर्थमिति मायुर्वेदादिदष्टान्तकथनं वृथेति चेत् ; . न-अतीतानां ' चरकादीनां इदानीमप्रत्यक्षत्वेऽपि तेषां ज्ञानं शब्दात् भनुमानेन वा भवत्येच । भनुमान हि त्रिकालविषयम् । अत: आलोक्तत्वस्याप्तिस्सुगमैव ॥ * पश्चरूपाणि पूर्ण(पु. 28:3)मुक्तानि ॥ +अबाधनकेन-बाधादर्शनमात्रेण । भयमर्थः पूर्वमेव (पु. 16) 'मार्तो हि मिषजं दृष्ट्वा' इत्यादावुपपादितः ।। भिसम्मतः--सतामिति शेषः । यद्धा, मसम्मत:-- सत्ताममनः ॥ गावरभाष्यसूचिता, श्लोकवार्तिकपोषितां प्रक्रियाममुवति-- अन्ये विति ॥ पनि प्रतिमा-क. मात्रकेण-क. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाविकम् ४१ मीमांसकोक्तवेदप्रामाण्यप्रकिया 611 - परलोकवादिनां तु मते यदेतत् सुखि दुःस्यादिमेवेन जगतो वैचित्र्यं दृश्यते, तदवश्यं कर्मवैचित्र्यनिबन्धनमेव । कर्मामि खाननुष्ठितानि * नात्मानं लभन्ते। अलब्धात्मनां च नभाकुसुमनिभानां कुतो विचित्रसुखदुःखादिफलसाधनत्यम् ! तस्मात् अनुष्ठानमेषामेषितव्यम् । अनुष्ठानं च नाविदितस्वरूपाणां कर्मणामुपपन्नम् । अजानन् पुरुषः तपस्वी किमनुतिष्ठत् ? सदवश्य जात्याऽनुष्ठेयानि कर्माणि ॥ तदिदानीं तेषां परिक्षाने कोऽभ्युपायः ! ___न प्रत्यक्ष भस्मवादीनां स्वर्गायदृष्टपुरुषार्थसाधनानि कर्माणि दर्शयितुं प्रभवति ॥ नाप्यनुमानम् ; अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तृतिमोजमयोरिष स्वर्गयागयोः साध्यसाधनसम्बन्धानवधारणात् ॥ नाप्यर्थापत्तिः; जगद्वैचित्र्यान्यथाऽनुपपस्या तु विचित्रं +कारणमात्रमनुमीयते। न च तावताऽनुष्ठानसिद्धिः। उक्त व (श्लो. वा. १-४-१०५) 'अधर्मे धर्मरूपे वाऽप्यविभक्त फलं प्रति । किमप्यस्तीति विज्ञानं नराणां कोपयुज्यते?' इति ॥ उपमानं त्वत्र शङ्कयमानमपि न शोभते ॥ नापि परस्परमुपदिशम्तो लौकिकाः कर्माणि परलोकफलानि जानीयुरिति वक्तं युक्तम् ; अज्ञात्वा उपपादयतां आतत्वायोगात् । शानं तु लौकिकानां दुर्घटम् ; प्रमाणामावादित्युक्तत्वात् । एवमेव हि पुरुषोपदेशपरंपराकल्पनायां अन्धपरंपरान्यायः स्यात् । तस्मादवयं अभ्युपगतपरलोकैः परलोकफलानि कर्माणि कुर्वद्भिः शास्त्रात् * नात्मानं लभन्ते--स्वरूपनिष्पत्तिरेवानुष्ठानमन्सरा न भवतीत्यर्थः ॥ कारणमात्रं-कारणसामान्यम् । न तु विशेषसिद्धिरित्यर्थः ॥ कोपयुज्यत इति। फलविशेषकर्मविशेषाणां, मधिकारानषिकारावीन शानमन्तरा प्रवृत्तेरसंभवादिति हेतुः ॥ 39* + ++ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 812 मीमांसकोकवेदप्रामाण्यप्रक्रिया न्यायमचरी कर्मावबोधोऽभ्युपगन्तव्यः। शास्त्रं च *वेदा एवेति सिर तस्प्रामाण्यम् ॥ [लोकप्रसिद्धपा धर्माधर्मस्वरूपावगमः न संभवेत् ननु ! लोकप्रसिद्धित एव धर्माधर्मसाधनानि कर्माणि शास्यन्ते ; किं शास्त्रेण ? उपकारापकारौ हि धर्माधर्मयोर्लक्षणमिति प्रसिद्ध मेवैतत् । तथाऽऽह व्यास: 'इदं पुण्यमिदं पापं इत्येतस्मिन् पदइये। भाचण्डालं मनुष्याणां अल्पं शालप्रयोजनम् ॥' इति-नैतक्तम-लोकप्रसिद्धनिर्मुलायाः प्रमाणत्वानुपपत्तेः । लोकप्रसिद्धिर्नाम लौकिकानामविच्छिन्ना स्मृतिः। स्मृतिश्च प्रमबन्ती प्रमाणान्तरमूला भवति, न स्वतन्त्रेत्यवश्यमस्या मूलमन्वे. षणीयम्। तब प्रत्यक्षादि नोपपद्यते इति नूनं शास्लमूलैव लोकप्रसिद्धिः। विरुद्धानेकप्रकारवाच लोकप्रसिद्धः न तस्या स्वतन्त्रायां समाश्वसिति लोकः ॥ न'चोपकारापकारक'मानलक्षणावेव धर्माधर्मों वक्तुं युज्यते ; अपयशीधुपानादी तदभावात् । गुरुवारगमनादौ च विपर्ययादि. त्वपश्यं शासशरणावेव तावेषितम्यौ ॥ वैदिकधर्माधर्मनिर्णयः न लोकतो भवितुं शक्या , अपि च इदमिष्टिमन्त्रादिकं एवंफलम् , अयमस्मिन् मधिकृत इति; इयमितिकर्तव्यता, एष देशः, एष कालः, इमे ऋत्विजः * वेदा एवेति। वेदाध्यास्त्र परं नास्ति' (म. भा. मनु.) इति प्रसिद्धमेव ॥ शीधु:-'मैरेयमासवः शीधुः' इत्यमरः ।। #विपर्ययादिति। उपकारापकारयोः पुरुषबुध्यैव निर्णये अपकारेऽपि उपकारस्वबुद्धिः स्यात् कस्यचित् । इन्द्रेण दूषिता हि महल्या 'कृतार्थाऽस्मि' (रा. बा. ४८-२०) इति वदति। शाखादेवोपकारापकारनिर्णये भस्म. विरसिद्धिः॥ 1 चोपकारक-स. देश-ख. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहिकम् ४] सिताम्तोतवेदप्रामाण्यप्रक्रियायास्ताधीयत्वम् 618 इत्यादि किं लोकप्रसिद्धरधिगन्तुं शक्यते? तस्मादवयं शास्त्राधीन एव विशिष्टकर्मावबोध एषितव्यः। शास्त्रं च वेद पवेत्युक्तम् । मतस्तस्य निर्विवादसिद्धमेव प्रामाण्य मिति ॥ सिद्धान्त्युक्तवेदप्रामाण्यप्रक्रियैव युक्ततरा __एवं तु वर्ण्यमाने संसारानादित्वं तावदुक्तं स्यात् । वेदस्यामादित्वं कर्मज्ञानानादित्वात् । ततश्च मीमांसकवर्मनैव प्रमाणता सिध्यति, नाप्तवादात्। तस्माधथोदाहस एव मार्गः प्रमाणतायामनुषर्तनीयः॥ वेदानामनादित्वं प्रवाहत एव, न स्वरूपता अथवा---वयमपि *न 'न शिष्मो ऽनादिसंसारपक्षं युगपदखिलसर्गध्वंसवादे तु मेदः । अकथिं च रचनानां कार्यता तेन सर्गात प्रभृति भगवतेदं वेदशास्त्रं प्रणीतम् ॥ १९ ॥ अनादिरेवेश्वरकर्तृकोऽपि सदैव सर्गप्रलयप्रबन्धः। सर्गास्तरेष्वेव च कर्मबोधः वेदान्तरेभ्योऽपि जनस्य सिभ्येत् । अन्यत्वे किं प्रमाण ? ननु तव, सुमते ! किं तदेक्ये' प्रमाणं? ध्वस्तं तावत् समस्तं भुवनमिति तदा वेदनाशोऽप्यवश्यम् । एकस्त्वीशोऽ'विशिष्टः स च रचयति वा प्राक्तनं संस्मरेता . घेदे स्वातस्य मस्मिन् नियत मुभयथाऽप्यस्ति चन्द्रार्धमोलेः॥ एकस्य तस्य मनसि प्रतिभासमानः वेदस्तदा हि कृतका विशिष्यतेऽसौ। प्रत्यक्षसर्वविषयस्य तु नेश्वरस्य युक्ता स्मृतिः, किरणमेव ततोऽनवधम् ॥ ७२ ॥ *न शिष्म इति न-शासु भनुशिष्टौ, लरः उत्तमपुरुषबहुवचनम् । अन्यत्वे-पूर्वकल्पगतवेदात् एतस्कल्पगतवेदस्य भेदे॥ उभयथाऽपि स्वातन्त्र्यं इत्यन्वयः ।। करणं-मूतनतया रचनम् ॥ विशिष्मो-ख. तदैक्य-ख. शि:-ख. 'मस्मात-ब.. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 अथर्ववेदस्य वेदस्वाक्षेप: শিক্ষা तेनाप्तनिर्मिततयैव निरत्ययार्थ संप्रत्ययोपजननाय जनस्य वेदे । शास्त्रं सुविस्तरमपास्तकुतर्क मूलमोहप्रपञ्चमकरोत् मुनिरक्षपादः ॥ ७३ ॥ [भथर्ववेदस्य चतुर्थवेदत्वाक्षेपः]] अत्र कश्चिदाह-युक्तमितरेतरव्य तिषक्तार्थोपदेशित्वेनैककत . कत्वानुमानद्वारकं त्रिवेद्याः प्रामाण्यम् । अथर्ववेदस्य तु। *अय्यानातधर्मोपयोगानुपलब्धेः त्रयीबाह्यत्वेन 'न तत्समान'. योगक्षेमत्वम् ॥ भिधर्ववेदस्य स्वतन्त्रप्रमाणत्वासंभवः . अनपेक्षत्वलक्षणप्रामाण्यपक्षऽपि (पु. 435) विक्षिप्तशास्त्रान्त रोपदिष्टविशिष्टज्योतिगोमाद्यनेककर्मानप्रविष्ट हौवाध्वर्यवादिव्यापार. व्यतिषङ्गदर्शनात् तदर्था त्रय्येव यथा प्रमाणभावभागिनी भवितु. मईति, न तथा । पृथग्व्यवहारा आर्यणश्रुतिः ॥ [वेदानां त्रित्वमेव श्रुतिसम्मतम् | तथा च लोके चतन इमा विद्याः प्राणिनामनुग्रहाय प्रवृत्ताः-- आन्धीक्षकी, त्रयी, वार्ता, दण्डनीतिरिति प्रसिद्धिः। श्रुतिस्मृती अपि तदनुगुणार्थ एव दृश्येते। श्रुतिस्तावत्-.'ऋग्भिः प्रातर्दिवि देव ईयत्ते। यजुर्वेदेन तिष्ठति मध्येऽह्नः। सामवेदेनास्तमेति । वैदेरशून्यस्त्रिभिरेति सूर्यः (ते. ब्रा.. ३-१२-९) इति। तथा 'प्रजापतिरकामयत बहुस्यां प्रजायेयेति स तपोऽतप्यत। स तपस्तता। इमान् लोकानसृजत पृथिवीमन्तरिक्ष दिवमिति। तान् लोकानभ्यतपत् तेभ्यस्त्रीणि ज्योतीष्यजायन्त। अग्निरेव पृथिव्या अजायत बायुरन्तरिक्षात् दिव आदित्य इति। तानि ज्योतीष्यभ्यतपत् । *अय्याम्नाति । शान्तिकपीष्टिकाभिचारादिप्रधानः खलु अथर्ववेदः ॥ पृथग्व्यवहारा - इतरनिरपेक्षेति यावत् ।। 1 तश्समान-ख. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम् ४] अथर्ववेदस्य वेदत्वनिरूपणम् 615 तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त। आनेक्रग्वेदः। वायोर्यजुर्वेदः। आदिस्यात्सामवेदः' (मत. बा. ११-४-११)। तथा 'सैषा विद्या त्रयी तपति' (नारा. १२-२) इति ॥ स्मृतिष्वपि वेदानां त्रित्वमेव कीर्यते ] स्मृतिरपि मानवी–प्रतिवेदं द्वादशवार्षिकब्रह्मचर्योपदेशिनी उश्यते (मनुस्मृ. ३-1) 'षत्रिंशद्वार्षिकं चर्य गुरौ 'वेदिकं तम्' इति ॥ . आद्धप्रकरणेऽपि (मनुस्मृ. ३-१४५)--- . 'यत्नेन भोजयेच्छाद्धे बढ़चं वेदपारगम्। शाखान्तगमथाध्वर्यु छन्दोग वा समाप्तिगम् ॥ इति त्रिवेदपारगानेव श्राद्धभुजः ब्राह्मणान् दर्शयति, नाथर्षवेदाध्यायिनः। प्रत्युत निषेधः क्वचिदुपदिश्यते --'तस्मा दाथर्वणं न प्रवृअयात् ' (कल्पसू.) इति ॥ [भथर्वणो वेदत्वं भट्टमतरीस्या] एवंमाक्षेपे सति केचिदाचक्षते (तं. वा. १-३-२)-- 'यदि यज्ञोपयोगित्वं नेहास्त्याथर्वणश्रुतेः । अर्थान्तरे प्रमाणत्वं केनास्याः प्रतिहन्यते ? शान्तिपुश्यभिचारार्थाः एकब्रह्मविंगाश्रिताः। क्रियास्तया प्रमीयन्ते 'प्रयी वात्मीयगोचरः' इति ॥ - [स्वपक्षण भथर्वण: वेदस्यसमर्थनम् ] एतत्त' सर्व न साध्वभिधीयते। तथा हि-तत्प्रमाण बादरायणस्यानपेक्षत्वात्' (जै.सू. १-१-५) इति य एष वेदप्रामाण्या * प्रवृअयादिति। ‘वृजि वर्जने ' इति धातुः। प्रवर्गे माथर्वणं न नियोजयेदित्यर्थः॥ एकब्रह्मेत्यादि । एक एव ब्रह्मा ऋस्विक् च शान्तिकपौष्टिकाभिचारिकेषु ॥ * यः पन्थाः -अनपेक्षस्वहेतुक इत्यर्थः । । त्रैवेष-स. दापर्वणेन-ख. येवा-ख. + एवं ततु-ख. Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 अथर्ववेदस्य वेदस्वसमर्थनम् न्यायमचरी घिगतौ जैमिनिना निरदेशि पन्थाः, यो वा अक्षपादेन, कणादेन च प्रकटितः-तद्वचनादानायप्रामाण्यम्' (वै. स. १०-२.९) इति, 'मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्' (म्या.स्. २-१-६९) इति, स चतुर्वपि वेदेषु तुल्यः। तत्र *विशेषतुषोऽपि न कश्चिदतिप्रयत्नेनान्धिष्यमाणः प्राप्यते । म हि मीमांसकपक्षे एवं वक्तुं शक्यते-- अय्येवानादिमती, नाथर्वश्रुतिः ; तस्यां कर्तृस्मरणसंभवादिति ॥ नापि नैयायिकपक्षे एवं वक्तुं शक्यम-आप्तप्रणीताः प्रयो वेदाः, चतुर्थस्नु नासप्रणीत इति । तेन प्रामाण्याधिगमोपायाविशेषात समानयोगक्षेमतया चत्वारोऽपि वेदाः प्रमाणम ॥ __व्यवहारो हि सर्वेषां सारेतरविचारचतुरचेतसां चतुर्भिरपि धेदैः, चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां, चतसृषु विश्नु, चतुब्धिमेखलायामवनौ प्रसिद्ध इति कोऽयमत्रान्यथात्वभ्रमः ? श्रुतिस्मृतिमूलश्चार्यावर्तनिवासिनां भवति घ्यवहारः। ते व श्रुतिस्मृती चतुरोऽपि वेदान् समानकक्ष्यानभिवदतः। प्रायजुस्साम वेदेष्वपि अथर्ववेदाशंसीनि भूयांसि वचांसि भवन्ति । तद्यथा शतपथे 'अथ तृतीयेऽहन्' (शत. प्रा. १३-४-३-७) इत्युपक्रम्य' अश्वमेधे पारिप्लवाख्याने 'सोऽयमाथर्वणो घेदः' इति श्रूयते । छाम्दोग्योपनिषदि च 'ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थः' (ला. उ. ७.1.1) इति पठ्यते ॥ [अथर्ववेदस्य इतिहासपुराणतुल्यस्वनिरासः] ननु ! 'इतिहासपुराणः पञ्चमः' (छा. उ. ७-१-४) इति तय पठ्यत एव ॥ * विशेषतुषोऽपि-विशेषलेशोऽपि । +सारेतरेति । सारासारेत्यर्थः । चतुर्मिरपि वेदैः व्यवहारः प्रसिर इत्यन्धयः ।। अत्र--अथर्ववेदें। सोऽयमिति। मनुवादोऽयम्। एषमन्यत्रापि पयते ॥ दस्ति-ख. क्रमस्य-खा. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिकम् । भवर्षण: वेद वे इत्यादिसम्मतिः 617 किचात:? किमियताऽथर्वणश्चतुर्थो न भवति घेदः ? * चतुर्थशब्दोपादानात् इतिहासादितुल्योऽसौ, न वेदसमान कक्ष्य इति चेत् ; केयं कल्पना? चतुर्थशब्दोपादानादप्राधान्ये 'त्रयो वेदा असृज्यन्त' (शत. बा. १-४-११) इत्यादौ त्रित्वसंख्योपादानात तेऽपि न प्रधानतामधिगच्छेयुः। इतिहासादिभिर्वा सह परिगणनं भनाधान्यकारणं यदुच्यते, 1 तदपि सर्ववेदसाधारणमिति यत्किञ्चिदेतत् ।। [अथर्ववेदस्य घेदस्वे श्रुतिसम्मतिः • तथा शताध्ययने ऽपि 'चो वैध्रह्मणः प्राणाः' इस्यभ्युपक्रम्य 'आथर्वणो वै ब्रह्मणः समानः इति पठ्यते ॥ तथा “येऽस्य प्राञ्चो रश्मयः ता एवास्य प्राच्यो मधुनान्यः, ऋच एव पुष्पम' (छा. उ. ३-१-२) इत्युपक्रम्य पठित-अथ येऽस्योपञ्चो 'रश्मयः ता एवास्योदीच्यः मधुनाड्यः अथर्वाङ्गिरस एव मधुकृतः' (छा. उ. ३-४-१ इति ॥ तथा तैत्तरीये 'तस्माद्वा एतस्मात् प्राणमयात्। अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः' (तै उ. २) इति प्रस्तुत्य 'तस्य यजुरेव शिरः । ऋग्दक्षिणः पक्षः। सामोत्तरः पक्षः। आदेश आन्मा। अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा' (ते. उ. २) इति पठ्यते ॥ ** चतुर्थशब्दोपादानादिति। ऋग्वेदादो संख्याया अनिर्देशाद, इनिहासपुराणयोः पञ्चमपदोपादानाञ्चेति शेषः । - सिंख्यानिर्देशमानं तस्य जघन्यतां न गमयेदित्याशयेन समाधत्ते --- केयमिति ॥ तिदपीति । इतिहासपुराणो द्वौ यथा समुचितो, न तथा ताभ्यां अथर्ववेदः, किन्तु स पृथगेव परिगणितः । ननु त्रयीनिर्देशानन्तरं चतुर्थत्वेनास्य पृथनिर्देशस्तर्हि कुत इति चेत्, त्रस्यपेक्षया किश्चिद्वैलक्षण्यात्तथा निर्देशः। बैलक्षण्यं च वक्ष्यति (पु. 625) ॥ येऽस्योदलो Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 अथर्ववेदस्य वेदत्वसमर्थनम् न्यायमञ्जरी तथाऽन्यत्र 'ऋचां प्राची महती दिगुध्यते। दक्षिणामाहुयंजुषाम् । साम्नामुत्तराम्। अथर्वणामङ्गिरसां प्रतीची महती दिगुच्यते' (ते. ब्रा. ३-१२-९) इति । शतपथे ब्रह्मयज्ञविधिप्रक्रमे मध्यमे ‘पय आहुतयो ह वा एता देवानां यहचः' (शत. ब्रा. ११-५-६-४) इत्युपक्रम्य, 'मेद आहुतयो ह वा एता देवानां यदथर्वाङ्गिरसः स य एवं विद्वानथर्वाङ्गिरसोऽ. हरहः स्वाध्यायमधीते मेद आहुतिभिरेव तहवान् स तर्पयति त एनं तृमास्तर्पयन्ति' (शत. बा. 12-५-६-७) इति ।। [मन्त्रवर्णोऽपि भथर्वणो वेदत्वगमक:] मन्त्रा अपि तदर्थप्रकाशनपरा अनुथ्रयन्ते त्यामग्ने पुष्करादभ्यथी निरमन्थत ' (तै. सं. ३-५-११) इत्यादयः। न चैषां अर्धा नाम कश्चिदपिरित्यवंप्रकारं व्याख्यानं युक्तम् ; * अन्यत्राप्यसमाश्वासप्रसङ्गात् । इत्यवञ्जातीयकास्तावदुदाहताः श्रुतिवाचः॥ [अथर्वणो वेदस्थे स्मृतिवाक्यानि स्मृतिवाक्यानि खल्वपि। मनुस्तावत् (मनुस्मृ.।१-३३)---- "श्रुतीरथर्वाङ्गिरसीः कुर्यादित्यविचारयन्' इति श्रुतिशब्देन 'त्रयीवदिह' व्यवहरति ।। याज्ञवल्क्यः चतुर्दशविद्यास्थानानि गणयन् (यांश.स्म्म. १-३)-- 'पुराणतर्कीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः। वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश' इति चतुर एवं वेदानावेदयते ; नान्यथा हि बनुर्दशसंख्या पूर्यते॥ - स्मृत्यन्तरे च स्पष्टमेयोक्तम् * अन्यत्रापि-यजुरारिपदेष्वपि ॥ + स्मृत्यन्तर इति । इतिहासपुराणयोरपि विपश्नया स्मृतित्वमस्स्व । अथवा समानानुपूर्वीक स्मृत्यन्तरमेव वेलम् ॥ प्रयीवत्-स्त्र. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अवेण: वेदवे शास्त्रकारसम्मति: 819 'अनानि वेदाश्चत्वारः मीमांसान्यायविस्तरः। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या घेताश्चतुर्दश' इति ॥ 'अन्यत्राप्युक्तम् ‘पुराणं धर्मशास्त्रं मीमांसा न्यायः अत्यागे वेशः षडङ्गानीति चतुर्दश विद्यास्थानानि' इति ।। शातातपोऽप्याह'अक्सामयजुरलानां भथर्वाङ्गिरसामपि। अणोरप्यस्य विज्ञानात योऽनूचानः स नो महान् ' इति ॥ तथाऽन्यत्र ‘चत्वारश्चतुर्णां वेदानां पारगाः धर्मपाः परिषत् ' इस्युक्तम् ॥ शङ्खलिखितौ च 'ऋग्यजुस्सामाथर्व विदः षडङ्गयित् धर्मवित् वाक्यवित् नैयायिको नैष्ठिको ब्रह्मचारी पश्चाग्निरिति दशावरा परिषत् ' इत्यूचतुः॥ प्राचेतसे 'चत्वारो वेदविदः धर्मशास्त्रविदिति पञ्चावरा परिषत् ' इत्युक्तम् ॥ तथा च *पतिपावनप्रस्तावे चतुर्वेदषडङ्गवित् ज्येष्ठसामगोऽथर्वाङ्गिरसोऽप्येते पतितपावना गण्यन्ते। तदयमेवमादिवेदचतुष्यप्रतिष्ठाप्रगुण एव प्राचुर्येण धर्मशास्त्रकाराणां व्यवहारः।। [अथर्वणः वेदस्वं शास्त्रकाराणामपि सम्मसम्] अन्येऽपि शास्त्रकाराः तथैव व्यवहरन्तो दृश्यन्ते । 'तथा चमहाभाष्यकारो भगवान् पतञ्जलि: अथर्ववेदमेव प्रथममुदाहृतवान् 'शो देवीरभिष्टये' अथर्वसं. 1) इति ॥ ... मीमांसाभाष्यकारेणापि वेदाधिकरणे ‘काठकं कालापं मौहलं पैप्पलादकम्' (शा. भा. १-१-८) इति यजुर्वेदादिवत् अथर्ववेदेऽपि * पक्तिपावनेति । 'भर्वाङ्गिरसोऽध्येता' इस्युपक्रम्य 'एते वै पङ्गिपावनाः' (पाय. स्वर्ग. ३५ शङ्ख. १४-७) इत्यादि तत्र तत्र पख्यत एव ॥ यथा-ल. Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 820 अथर्ववेदस्य वेदखसमर्थनम् न्यापारी पैप्पलादकमुदाजहे। सर्वशाखाधिकरणेऽपि (भा. भा. २.८-२) वेदान्तरशाखान्तरवत् मौलपैप्पलादकारणे अथर्थशाचे अप्युदाहत्य विचारः कृतः। तथा च प्रथमयज्ञो नाम *चतुषु न कशिदस्ति' इस्यधिकरणान्त एव लिखितम् । एवं श्रुतिस्मृतिविशिष्टाचारव्यवहारविदां अत्र विप्रतिपत्तिसंभावनैव नास्ति ॥ त्रिय्यां भथर्वणः भगणनं तस्य नावेदरवं गमवेत . आह--न ब्रमः अथर्ववेदो न प्रमाणमिति, किन्तु यीबाह्य इति ---उच्यते-'प्रख्यपीयं अथर्ववेदबायेव । न केवलमेवं, प्रख्यामपि परस्परबाशत्वमस्त्येव--सामबाधानि यजूषि, यजुस्सामबाह्या मचः, अग्यजुर्वाह्यानि सामानीति कियानयं दोषः ? सर्वभावानामि तरेतरसार्यसहितत्वात् ! ये हि शब्दात्मानः ग्रन्थसन्दर्भखभावाः, ये च तदमिधेया अर्थवभावाः, ते सर्वेऽन्योन्य समिश्रितात्मान एव। न च परेणात्मानं संमिश्रयन्तोऽपि ते स्वरूप'मपहारयम्तीति॥ सर्वशाखाप्रत्ययन्याय: अथर्ववेदमपि क्रोडीकरोत्येव अयोध्येत-नेशं प्रयीबाह्यत्वमथर्ववेदे विवक्षितम् , अपितु यदेषन त्रयीप्रत्ययं कर्मोपदिशति, न तत्सम्बद्ध किंचिदिति, तदस्य प्रयीवाद्यत्वमिति-पतदपि न साधूपदिष्टम्-इष्टिपश्वकाहाहीनसमादिकर्मणां तत्रोपदेशदर्शनात् । 'सर्वशाखाप्रत्ययमेकं कर्म' इति ... 'चतुर्विति । त्रय्या एव वेदत्वे 'चतुषु' इति निर्देश: कथमित्यर्थः ॥ सर्वभावानामिति । जगत एव पाञ्चभौतिकत्वात् सर्व सर्वत्र वर्तत एव! अथापि सर्वाण्यपि वस्तूनि परस्परविलक्षणान्येव । एतत् तस्मिन्नाम्तभवति । तद्वा न एतस्मिन् ॥ *स्वरूपं - स्वस्य रूपम् । अपहारयन्ति---प्रग्यावयम्सीति यावत ।। यीप्रत्ययं---वेदत्रयप्रतिपाथम् ॥ प्रयीयं-ख. रहित-क. न्योन्या-क. 'मपि-स. Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माडिकम् ४] अथर्ववेदस्य अपीरूपस्यम् 621 न्यायात् । अय्युपदिष्टेऽपि कर्मणि 'सम्बद्ध'मथर्ववेदात् "किमपि सम्यत एष। अथर्ववेदापेक्षत्वं त्रय्या वस्त्येव] ननु ! भवति सर्वशाखाप्रत्ययमेकं कर्म । तत्पुनः त्रिवेदी सम्बद्ध सर्वशाखाप्रस्ययमेव, नाथर्वशाखाप्रत्ययं; यतः सोमयागादिकर्मणां ऋग्वेदेन होत्रं, यजुर्वेदेनाध्वर्यवं, समावेदेनौगात्रं कियते, नाथ वेदेन किञ्चिदिति-तदयुक्तम्--मथर्ववेदेन ब्रह्मत्वस्य करणात् । तथा च गोपथब्राह्मणम्-'प्रजापतिस्लोमेन यक्ष्यमाणो वेदानुवाच । कं वो होतारं वृणीयमिति (गो. मा. २-२४) इति प्रक्रम्य, 'तस्मारग्विदमेव होतारं वृणीष्व, सहि हौत्रं वेद', 'यजुर्विदमेवाध्वर्यु वृणीष्व, स हि आध्वर्यवं वेद', 'सामविदमेवोदातारं वृणीष्व, सहि औद्रात्रं वेद.', 'अथर्वाङ्गिरोविदमेव ब्रह्माणं वृणीष्व, स हि ब्रह्मत्वं पद (गो. मा. २-२४) इत्यमिधाय, पुनराह "अथ चेनैवविध होतारे मध्वर्युमुद्रातारं ब्रह्माणं वा घृणुते पुरस्तादेव वैषां यशो 'रिष्यत' इति तस्मादग्विदमेव होतारं कुर्यात्, यजुर्विदमेवाभ्वयु, सामविदमेघोदातारं, अथर्वा निगेविदमेव ब्रह्माणम्' (गो. मा. २.६४) इति । तथा 'यद्नं च विरिएं च यातयामं च करोति तदथर्वणां तेजसा 'प्रत्याप्याययेत् ' ' (गो. मा. १-२२) इति, गर्ने प्रावणिरोभ्यः सोमः पातव्यः' (गो. मा. १-२८) इति ॥ मिथर्ववेदस्य त्रयीरूपत्वम्] नन्वेताः श्रुती: अथर्वाण एषाधीयते, मान्ये त्रयीविदः । हे स्वेचं पठन्ति ‘यरचा होत्रं क्रियते यजुषाऽऽध्वर्यवं सामा ... * किमपीति। तस्किमित्यन्त्र उत्तरं समनन्तरमेव वक्ष्यति ॥ + 'अथ घेत्' इत्यादिकमाहत्यानुवादः । नते-न मते इति पदविभागः ॥ रिष्यतीति-स. रिसी-सा । सम्बन्ध-ख. ग्राह्मणं-स्व. प्रमा-क. जवानन्ते-कस. Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 अथर्ववेदस्य वेदत्वसमर्थमम् न्यायमरी औद्रात्रं अथ केन ब्रह्मत्वं क्रियते इति अय्या विद्ययेति ब्रूयात् ' इति । तथा च 'यहचैव हौत्रमकुर्वत यजुषाऽऽध्वर्यवं साम्नौना यदेव जय्यै विद्यायै शुक्र तेन ब्रह्मत्वम' इति---उच्यतेवयमप्येवमादीनि वाक्यानि 'न नाधी'महि। किं त्वेषामयमेवार्थ:--अथर्वाङ्गिरोविदेव ब्रह्मेति । कथम? यतो न अयी नाम किमपि वस्त्वन्तरम; अपि तु त्रयाणां बेदानां * समाहार इति । समाहारश्च समाह्रियमाणनिष्टो भवति । समाद्वियमाणाश्च ऋग्वेदादयः त्रयः हौत्रादि परत्वेन चरितार्थाः, न पुनस्तत्र भेदमईन्ति । एकैकशः चरितार्थानां समुदायोऽपि चरितार्थ एव । समुदायबुद्धौ हि विभज्यमानायां समुदायिन एव स्फुरन्ति, नावधिवदर्थान्तरम् , ते चान्यत्र व्यापूताः ॥ ऋग्वेदामध्येतृणां ब्रह्मत्वेऽनधिकार: किं नु खलु ऋग्वेदादीनां ब्रह्मत्वं कुर्वतामतिभारो भवति? न ब्रूमः अतिभार इति । किन्तु यात्मकत्वेन ब्रह्मत्वकर्तव्यतोपदिश्यते। यात्मकश्चान्यतमोऽपि तेभ्यो न भवति वेदः। अथर्ष वेदस्तु च्यात्मक पव। तत्र हि ऋचों यजूंषि सामानीति त्रीण्यपि सन्ति । तेन ब्रह्मत्वं क्रियमाणं त्रय्या कृतं भवति ॥ ननु ! यस्त्रीन् वेदानधीते, तेन चेत् ब्रह्मत्वं क्रियेत, तर्तिक 'त्रय्या' न कृतं भवति? यादमित्युच्यते-सोऽपि 'एकस्मै वा कामायाऽन्ये यक्षतवः समाधीयन्ते', 'सर्वेभ्यो ज्योतिष्टोमः', 'सर्वेभ्यो दर्शपूर्णमासौ' इति श्रुतावपि योगसिद्धयधिकरण न्यायेन ___ *समाहार इति-- ऋक्स्वादिकं हि न साङ्केतिकम् । वक्ष्यति च तेषां निर्वचनम् (6625 पु.)। एवञ्चाथर्षवेदस्यापि त्रस्यन्तर्भाव: सुषच एव । तन्त्र : हौत्रादिषु ऋग्वेदादीनां चरितार्थत्वात भथर्ववेदस्य ब्रह्मस्वपरत्वं स्वतःसिद्धमिति भावः ।। योगसिध्यधिकरणन्यायेनेति । अश्वमेधस्य सर्व फल कस्न सकृष्ठनुवानमात्रेण सर्व फलसिद्धिर्भवमित्याशय, फलकामनाया एवाधिकारसंपाद नानधी-क. परत्वे-ख. तेषा-स. तया-ख Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम् ४] अथर्ववेदस्य ब्रह्मवेदत्वम् 623 (जै. सू. ४-३-११) अन्यतममेव बुद्धावाधाय विदयात् , न समुदाय बुद्धाचारोपयितुं शक्नुयात् इत्येके नव तस्कृतं भवति, न अय्येति ॥ [अथर्वशाखिना इतरशाखि तुल्यत्वम् ] ननु ! *अन्येऽपि यात्मका वेदाः-यद्येवं सुतरामथर्ष वेदो न पृथक्करणीयः, सर्वेषां रूपाविशेषात् । तेषां पृथक्प्रतिष्ठैः स्वैः स्वैः ऋगादिमिरेव व्यपदेश इति न ते समुदायशब्दव्यपदेश्याः । [अथर्ववेदस्य त्रयीसारस्वम्] - यत्तु वाक्यान्नरे 'अय्यै विद्यायै शुक्रं, तेन ब्रह्मत्वम्' इति : तंत्रयं चतुर्थी षष्ठयाः स्थाने प्रयुक्ता। शुक्रमिति सारमाचक्षते। तेन त्रयीविद्यायाः सारेण . ब्रह्मत्वं क्रियत इत्युक्तं भवति । नम अय्येव अय्याः शुक्रं भवति। न चात्यन्तं ततोऽर्थान्तरमेष । तेनेदमथर्ववेदात्मकमेव अय्याः शुक्र इति मन्यामहे। यात्मकस्वादिति मन्यामहे । त्र्यात्मकत्वादिति' शुक्रमिति च गुह्यमाहुः । अथर्वशब्दोऽपि रहस्यवचनः । 'यशाथर्वाणं वैदिकस्या इष्टयः' इति । तेन त्रयी-शुक्ररूपेणाथर्ववेदेन ब्रह्मत्व मितीत्थमथर्ववेदस्य न त्रयी बाह्यस्थम् । इत्थं सर्वशास्त्राप्रत्ययमेकं कर्म' इत्यत्र न सर्वशब्दः सकोचितो भवति ॥ - [भथर्ववेदः ब्रह्मवेदः] अत एव ब्रह्मवेदः अथर्ववेद इति पूर्वोत्तरब्राह्मणे पठ्यते 'ऋग्वेदो यजुर्धेदः सामवेदो ब्रह्मवेदः' (गो. ना. ३-२-१६) इति । तथा च काठकशताध्ययने ब्राह्मणे ब्रह्मौदने श्रूयते 'ब्रह्मवादिनो वदन्ति · पुरोधा औहालकिरारुणिमुवाच ब्रह्मणे स्वा प्राणाय जुष्टं निर्वपामि करवेन ' निर्विशेषं न सामान्यम्' इति न्यायेन सर्वफलकामनाया असंभवन तसरफलकामनया पृथक् पृथगेघानुष्ठेयो याग इति सिद्धान्तितम् ॥ * अन्येपि-अगादयोऽपि । ऋग्वेवादावपि वक्ष्यमाणलक्षणकग्रामणादिवाक्यानां दर्शनादिति भावः ॥ न-ख. यतो-क. शुक्र-स. Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 अथर्ववेदस्य वेदत्वसमर्थनम् [म्यायमधरी ब्रह्मणे त्वा न्यानाय जुष्टं निर्वपामि' इत्युपक्रम्य, 'आथर्वणी वै ब्रह्मणःसमानोऽथर्वणमेवैतज्जएं निर्वपति चतुश्शरावो भवति चत्वारो हीमे वेदाःतानेव भागिनः करोति मूलं वै ब्रह्मणो घेदाः वेदानामेतम्मूलं यरत्विजः प्राश्नन्ति तब्रह्मौदनस्य ब्रह्मौदनत्वम्' इति ॥ · तथा सामवेदे पृष्ठयस्य चतुर्थेऽहन्यार्भवे पवमाने अथर्वणे साम्नो गानं यत्, तबिधाने श्रूयते 'चतुर्विधमाथर्वणं भवति चतूरात्रस्य सूत्यै चतुष्पदामानुष्टुभाऽनुष्टुभमेवैतदहर्यश्चतुर्थ मेषजं वाऽथर्वणं तद्धि भैषज्यमेव तत्करोत्याथर्वणानि यागमेषजानि' (सा. बा. ५-1) इत्यतदालम्बनेयं स्तुतिः। अत एव प्रागुक्तं यज्ञे यदूनं च विरिएंध यातयामं च करोति तदथर्वणां तेजसाऽऽप्याययति' (गो. बा. १-२२.) इति । तस्मादाथर्वण एव ब्रह्मेति । एतच्च शालान्तरे विस्तरेणाभियुक्तः युक्तिभिरुपपादित मिति नेहात्यन्ताय 'प्रतायते ॥ आयर्वणः अपरिहरणीयत्वम्]. पत्न-'नावणेन प्रवृअपात्' ति, तत् कम्पसूत्रवाक्यत्वात वेदविरुदमित्यनाइतम् । अथापि श्रौतमिदं वाक्य, सदाऽपि', प्रकरणा पीतं चेत् , तत्रैव कचित्कर्मणि निवेक्ष्यते। पिनारम्यवादपक्षेऽपि पूर्वोक्तवाक्यविसदृशार्थत्वात् अथर्ववेदस्य च 'ग्य'बापस्पेन संपर्कपरिहारानईत्वात् नियतविषय मेष व्याख्यास्यते ॥ उस्स्वादयो मन्त्रधर्माः, न वेदधर्माः. यदप्युच्यते--' उचक्रंचा क्रियते उच्चस्सानोपांशु यजुषा.' इतिवत् अथर्वधर्मोऽपि न कश्चिदानात इति--तदप्यसारम्-- भंप्रमों ह्ययमुपदिश्यते, न वेदधर्मः । मन्त्रब्राह्मणसमुदायस्वभाषा *प्रकरणाधीतं--प्रकरणविशेषेऽधीतम् ॥ भिनारभ्यवाद:-सामान्यवादः। सामाम्मत: कपनेऽपि विषयानुरोधात् विषयविशेष नियन्तम्यामित्यर्थः ।। प्रत्थाम्यते. पौन-क, 'अय-स. तरपिक. अर्थ-. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .आह्निकम् ] अथर्वणो वेदत्वेऽवप्रतिपत्ति: 625 हि चत्वार इमे वेद प्रन्याः । मन्त्रास्तु 'वस्तुनो' गद्यपद्यभेदात् द्विविधा एव। गद्ययन्यो यजुरुच्यते, पद्ययन्धः ऋगिति । गीति निबन्धनं तु भेदान्तरं सामेति । अत एव जैमिनिना मन्त्रविभागं प्रस्तुत्य-'तेपामृग्यत्रार्थवशेन पाव्यवस्था' (जै. सू. २-१-१५), 'गीनिषु सामाख्या' (३६), 'शेपे यजुश्शब्दः (३७), इत्यमेव तेपां त्रैविध्यनुपपादितम् । तपामेय चायमुच्चस्त्वादि धर्मः, न वेदशब्दवाच्यानां मन्त्रव्राह्मण समुदायात्मनां ग्रन्थानाम् ! अथर्ववेदेऽ. पीयं त्रिविधैव मन्त्रजातिरिति तत्रातीदं धर्मजातमुपदिष्ट भवति । 'मन्त्रविभागकृत एवायं त्रयीपदेश इति । 'अतश्च' 'सैपात्रयी विद्या तपति' इत्याद्यपि न विरोत्स्यते । एवं ऋग्यजुस्सामसमुदायात्मकमन्त्रोपबन्धात् त्रय पन्तर्गतश्चार्यवेदः। पृथग्व्यवस्थितग्रन्थ. सन्दर्भ स्वभावत्वाच्च भिन्नः स इति सिद्धम् ॥ . [अथर्वणः ऋग्वेदत्वपक्षः] ___ अन्ये पुनः-ऋक्प्रचुरत्वात् , प्रविरलयजुर्वाश्यत्वात् , अगीयमानसाममन्त्रतावशाच्च ऋग्वेदमेवाथर्ववेदमाचक्षते। अग्मपि पक्षोऽस्तु, *न कश्चिद्विरोधः॥ [अथर्वणः वेदस्वेन प्य म्हारे विप्रतिपत्त्यभाव ] यत्युनभिधीयते-वेद शब्दः त्रयाणामेव वाचकः, न चतुर्थस्येति-सोऽयमत्युत्कटो द्वेपः । वृद्धव्यवहारो ह्यत्र प्रमाणम् । 'वेदोऽयम्', 'ब्राह्मणोऽयम् ' इति तत्र तत्र वेदशदे उच्चारिते चत्तारोऽपि प्रतीयन्ते। वे मयाऽधीतः' इति वान्तं पृच्छन्ति व्यवहर्तारः ‘कनमस्त्वाऽधीतो वेदः' इति । स आह 'अथर्ववेदः' इति । न तमेवमाक्षिपन्ति 'नासो' वेदः, यस्त्वया पठतः' इति । सोपपदोऽथर्ववेदे वेदशब्द इति चेत्, वेदान्तरेयपि तुल्यमेतत् 'ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदः' इति। निरुपपदोऽपि तेपु वेदशन्दः, * न कश्चिद्विरोधः, प्रामाण्ये वेदरवे चेति शेषः ॥ 1 ते-ख. दिधैव-ख. रादि-ख. च-ख. ध भाव-ख. 'नानासौ-क. NYAYAMAŅJARI Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 626 अथर्ववेदस्य वेदत्वसमर्थनम न्यायमञ्जरी प्रयुज्यत इति चेत् , तदितरत्रापि समान मित्युक्तम् । चतुर्वेदाध्यायी भरद्वाज इति च *प्रसिद्धमंव। 'सर्वथा' तु सोपपद एवायुर्वेदादिषु घेदशब्द इति न तत्तुल्यकक्ष्यताऽधिक्षेपक्षेत्रतामथर्ववेदो नेतव्यः॥ ब्रह्मयज्ञे अथर्ववेदविनियोगः सर्वसम्मत:] ब्रह्मयज्ञविधिश्च श्रौतः चतुर्वप्यविशिष्ट इत्युक्तम् । 'स्मार्तोऽपि तथाविध एवास्ति। यथाऽऽह याज्ञवल्क्यः (या.स्म १-४४)-. 'मेदसा तर्पयेद्देवान् अथर्वाङ्गिरसः पठन् । पितृ॑श्च मधुसर्पिल् अन्वहं शक्तितो द्विजः' इति। सांप्रदायिकमध्यापनाध्ययनादि सर्वमभिन्नमेवेत्यलं प्रसङ्गेन ॥ तेन प्रमाणतायां, वेदस्वाध्यायशब्दवाच्यत्वे, पुरुषार्थसाधनविधावपि चत्वार: समा वेदाः ।। [अथर्ववेदस्यैवेतरवेदापेक्षया.श्रेष्ट्यम् ] यदि पुनः औित्तराधर्येण विना न परितुष्यते, तत् अथर्ववेद एव प्रथमः, ततः परमस्य मंत्रस्य ब्रह्मणः प्रणवस्याभिव्यक्तेः। तथा च श्रुतिः –'ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत्' (गो. ब्रा. १-१) इत्युपक्रम्य, 'आथर्वणं वेदमभ्यश्राम्यदभ्यतपत् समतपत्तस्माच्छान्तात् 'तप्तात् सन्तप्तात्' ओमिति मन एवोर्ध्वमक्षरमुदक्रामत्' (गो. ब्रा. १-५) इत्यादि । तथा महाव्याहृतीनां शाखान्तरप्रसिद्धानां, अप्रसिद्धानां च बृहदित्यादीनां तत एवोत्थानम् ॥ [अथर्ववेदाध्ययनस्य प्रत्यकोपनयनाधिकारिकत्वम् ] अथर्ववेदकृतोपनयनसंस्कारस्य वेदान्तराध्ययनमविरुद्धम् । अन्यवेदोपनीयमानस्य तु नाथर्वणोपनयनसंस्कारमप्रापितस्याथर्व * प्रसिद्धमेवेति। तैत्तरीयकाठकान्ते अयमर्थः स्पष्टः।। + औत्तराधर्येणं-उच्चनीचभावेन ॥ * अन्यवेदेति। एतेनेतरवेदापेक्षयाथवेवेदस्यैव श्रेष्ठयमुक्तं भवतीत्यर्थः ।। 1 सर्वदा-क. स्माते-क. 3 दियजनादि-ख. सन्तप्तात्-ख. Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] अथर्ववेदस्येतरवेदेभ्यः श्रेष्ठयम् 627 वेदाध्ययनेऽधिकारः। तदुक्तम् 'भृग्वगिरोविदा संस्कृतोऽन्यान् वेदानधीयीत, नान्यत्र संस्कृतो भृग्वङ्गिरसोऽधीयीत '(गो. बा. १-२९) इति । त्रय्येकशरणैरपि तदवश्याश्रयणीयं अथर्ववेदविहितं स्वकर्मभ्रंशे प्रायश्चित्तमाचरद्भिरित्यथर्ववेद एव ज्यायान् ॥ अिथर्वणो वेदत्वे स्मृतयो न प्रतिकूलाः) यत्त मानवं वाक्यमुदाहृतं पत्रिंशदाब्दिकं, तत त्रिवेदाध्ययनविषयं वैकल्पिकम् । 'वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाऽपि यथाक्रमम्' (मनुस्मृ. ३-२) इति एकस्मिन् वेदे द्वादशवर्षाणि व्रतम् , द्वयोः चतुर्विंशतिः, त्रयाणां षट्त्रिंशदिति । यस्तु चतुरो वेदानधीते, तस्य 'अष्टचत्वारिंशद्वर्षे वेदब्रह्मचर्यमुपासीत' इति स्मृत्यन्तरमस्ति, न च तदा दृतम्। तत्र त्रिवेदाध्यायिनामेव प्रतिवर्षे षोडशवर्षाणि व्रतं चरेदिति व्याख्यानमसङ्गतम्, उपक्रमविरोधात् , अनुपयोगाच्च। तेन वेदान्तराध्ययनकृत एवायं विकल्पविधिः, . न द्वादशषोडशवर्षापेक्ष इत्यनादरोऽप्यस्यां स्मृतौ 'कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत' इति श्रुतिविरोधकृतः, नाथर्ववेदाध्ययन निषेधगर्भ इति ॥ त्रैवेदिकबह्मचर्यस्मृतिरपि चेयं अथर्ववेदाध्ययनपर्युदासमेव विषयीकरोति, न च वेदान्तराध्ययननिषेधमिति अत्रापि न विशेषहेतुरस्ति । त्रिषु वेदेश्विदं व्रतम् , न पुनरेष्वेव त्रिष्विति नियामकं वचनमस्ति॥ [अथर्वविदः श्राद्धभोजनेऽधिकारः अस्त्येव] यदपि श्राद्धप्रकरणे ‘यत्नेन भोजयेत्' इति 'त्रिवेदी पारगपरिकीर्तन (पु. 615) तत् वेदपारगम्' इति, 'शाखान्तगम्' इति, समाप्तिगम्' इति विशेषणपदपर्यालोचनया ऋग्वेदायेकदेशाध्यायिनामनधिकारमेव श्राद्धे सूचयति । अथर्वणस्तु अथर्वशिरो*ऽध्ययनमात्रलब्धपतिपावनभावस्यैकदेशपाठिनोऽपि तत्राधिकार उपपद्यते । * अध्ययनमात्रेति। अध्ययनैकदेशेत्यर्थः ॥ 1 त्रिवेद-ख. 10* Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 अथर्ववेदस्य वेदत्वसमर्थनम् म्यायमजरी दर्शितं चायशिरोध्ययनमात्रारिपडपावनत्वम्। पतिपावनश्च थाद्धभोजनेऽनधिकृत इति विप्रतिषिद्धम् ॥ [इतरवेदेकदेशाध्यायिनः श्राद्धभोजनेऽनधिकारः] यस्तु 'ज्येष्ठ सामगस्त्रिमधुस्त्रिसुपर्णिकः' इति वेदान्तरैकदेशाध्यायिनामगि श्राद्धभोजनाभ्यनुज्ञानं तत् अनुकल्प रूपमिव भाति, * प्रथमकल्पेन समग्र वेदाध्ययनोपदेशादिति । तस्मात् नाथ निषे. धार्यमेतद्वाक्यनिति ॥ [अथर्वप्रामाण्ये कुमारिलोक्तं न हृदयङ्गमम् ] ___ तदेवम स्थते यत् वार्षिक कारेण भयादिव, द्वेपादिव, मोहादिय. सानुकम्ममिव वा इदमुच्यते 'यदे यज्ञोपोगित्यम्' इत्यादि (पु. 615)तदहृदयङ्गमन -अथर्ववेदे पूर्वोत्तरव्राह्मणे विस्पर्ष इटिपश्वाहाहीनसत्राणामुपदेशात् । वेदान्तरेषु तच्चोदनाभाघात् किमथर्ववेदे त दुपदेशेनेति चेत्-सुभापित मिदन एवमपि हि चकुं शक्यं-अथर्ववेदे तच्चोदनाया दर्शनात् किं वेदान्तरेषु तदुपदेशन ? इति ॥ न च जाने कस्यैप पर्यनुयोगः? किं नित्यस्य वेदस्य ? किंवा तत्तणे तुरीश्वरस्य? इति । द्वायपि तावानुयोज्यायित्युक्तम् । अर्थान्तरश न्तिपुष्टयभिचारादि वेदान्तरेष्यपि न न दृश्यते । श्यनो हि सामवेद उत्पन्न ; अद्भुत शान्त्यादयश्च यजुर्वेद इति तदपि समानम् ॥ [एक ब्रह्माश्रितत्वं आथर्वणार्मणामिति न क्षोदक्षमम् ] एकवयिगाश्रिता इत्येतदपि न सत्यम। यत एवं तित्र पच्यते-ढे यज्ञवृती भवतः चैहारिकी च पाकयज्ञवृत्तिश्चति। तत्र धैहारिकी नाम अनेकलिंगाश्रितानां एक क्रियाणामुपदेशः श्रुती। एकब्रह्मलिंगाश्रितास्तु शान्त्यादिक्रियाः स्मृतावित्य भूमिज्ञाक्तिरेषा ॥ * प्रथमकल्पः-मुख्यकल्पः ॥ + पूर्वोत्तरब्राह्मणे-गोपथस्य पूर्वग्राह्मगे उत्तरब्राह्मगे च । तित्र--अथर्ववेदे॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् ४ आगमप्रामाण्यापा 629 [वेदचतुष्टयेऽपि वैदिकानामभिमानः सम न:] त्रय्येव आत्मीयगोचरेत्यतदपि परममाध्यस्थ्यम् । न ह्यात्मीयः परकीयो वा कश्चिदस्ति दार्थः, सर्वशाखाप्रत्ययत्वादेकस्य कमणः । तस्मात् समानयोगक्षेमत्वात् सर्ववेदानां एकस्य ततः पृथकरणं वदनिन्दाप्रायश्चित्तनिर्भयधियामेव चेतसि परिस्फुरति, न साधूना. मित्युपरम्यते ॥ . [अथर्ववेदप्रामाण्योपसंहार:] .इति तुल्यप्रभावर्द्धिवर्धमानोचितम्तवाः। विविधाभिमतस्फीतफलसंपादनोद्यताः ॥ ७४।। चत्वारोऽपि पराक्षेपपरिहारस्थिरस्थितिम् । भजन्ति देदाः प्रामाण्यलक्ष्मी हरि भुजा इव ।। ७५ ।। चतुरस्कन्धोपेतः प्रथितपृथगरवयवैः कृतान्योन्यश्लपैः उपचितवपुः वेद विटपी'। प्रतिस्कन्धं शाखाफल कुसुमसन्दर्भसुभगाः . प्रकाशन्ते तस्य द्विजमुखनिपीतोत्तमरसाः। ७६ ॥ [भागमपामाण्याक्षेविकल्पः] आह-किमेतदित्थं प्रामाण्यं वेदानामेव साध्यते । 'उतांगमान्तराणां वा सर्वेषामियमय दिक् ॥ ७ ॥ किचातः? __ आये पक्षे रेपोवं ब्रुवाणेषु किमुनरम् ? उत्तरत्र तु मिथ्या स्युः सर्वेऽन्योन्यविरोधिनः ।। ७८ ॥ ... * हरिभुजा इव-इरहि चत्वारो भुनः॥ • +द्विजा:-ब्र झणाः, पक्षिणश्च ॥ दिक वा--- इत्यन्वयः ।। रुपरेषु-वेदबाह्येषु ।। [[अन्योन्येति । यद्यपि वैदिप्वप्यागमेषु परस्परविरोधः प्रतीयत इव परन्तु नास्ति वास्तविको विरोध इत्याशयः ॥ विटप:-ख. तन्त्रा -ख. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 आगमप्रामाण्यनिरूपणम् [न्यायमञ्जरी [भागमद्वैविध्यम् ] कानि पुनरागमान्तराणि चेतसि विधायैवं वत्सः पृच्छति ? पुराणेतिहासधर्मशास्त्राणि वा? शैवपाशुपतपञ्चरात्रबाद्धार्हतप्रभृतीनि वा? _ मन्वाद्यागमानां वेदमूलत्वात् प्रामाण्यम् ] तत्र शैवादीनि तावन्निरूपयिष्यामः। मन्वादिप्रणीतानि धर्मशास्त्राणि वेदवत् तदर्थानुप्रविष्टविशिष्टकर्मोपदेशीनि प्रमाणमेव । कस्तेषु विचारः ? तेषां तु प्रमाणत्वं वेदमूलत्वनैव केचिदाचक्षते॥ तथा हि--न तावन्मन्वादिदेशनाः भ्रान्तिमूलाः संभाव्यन्ते, बाधकाभावात्। अद्ययावदपरिम्लानादरैः वेदविद्भिः तदर्थानुष्ठानात् ॥ नाप्यनुभवमूलाः*, प्रत्यक्षस्य त्रिकालानवच्छिन्नकार्यरूपधर्मपरिच्छेददशासामर्थ्यासंभवात् ॥ . न च पुरुषान्तरोपदेशमूलाः, पुरुषान्तरस्यापि तदवगमे प्रमाणाभावात् । भावे वा मनुना किमपराद्धम् ? असति हि मूलप्रमाणे पुरुषवचनपरंपरायामेव कल्प्यमानायां अन्धपरंपरास्मरणतुल्यत्वं दुर्निवारम् ॥ न च विप्रलम्भका एव भवन्तो मन्वादयः एवमुपदिशेयुरिति युक्ता कल्पना ; बाधकाभावात् , साधुजनपरिग्रहाच्चत्युक्तम्॥ तस्मात् पारिशेष्यात् वेदाख्यकारणमूला एव भवितुमर्हन्ति मन्वादिदेशनाः, तद्धयनुगुणं समर्थ च कारणमिति। तदाह भट्टः (तं. वा. १-३-२) भ्रान्तेरनुभवाद्वाऽपि पुंवाक्याद्विप्रलंभकात्। दृष्टानुगुण्यसामर्थ्यात् चोदनैव लघीयसी' इति ॥ * अनुभवमूलाः इत्यादौ संभाव्यन्ते' इत्यस्यानुवृत्तिः॥ | भ्रान्तरित्यादि । स्मृतीनां दर्शनानुगुण्यमेव यतः सामर्थ्य, तत: स्मृतिमूले किञ्चित्कल्पनीये साधकाभावात् भ्रान्तेः, प्रत्यक्षस्य च धर्माग्राहकत्वात् पौरुषेयवाक्यस्याविश्वसनीयत्वात, विप्रलंभमूलकत्वेऽपि प्रमाणाभावात् एतेषां चतुर्णामपि अष्टकादिस्मृतिमूलत्वासंभवे चोदनामूलकत्वमेव वक्तव्यमित्यर्थः ॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आह्निकम् ४) आगमप्रामाण्ये पक्षभेदाः . 631 [मन्वाद्यागमानां वेदमूलकत्वे पक्षभेदाः] तत्र केचित् परिदृश्यमानमन्त्रार्थवादबलोनीतविधिमूलत्वं मन्यन्ते । अन्ये विप्रकीर्णशाखामूलत्वम् । अपरे पुनः उत्सन्नशाखामूलत्वमिति ॥ __ अनेन च विशेषविवरणेन न नः प्रयोजनम्। सर्वथा यथोपपत्ति वेद एव तत्र मूलं प्रकल्प्यताम् , न मूलान्तरम् , अप्रमाणकत्वात्। वेदमूलत्वपक्षेऽपि चेयमखिलजगद्विदिता * स्मृतिसमाख्याऽनुगृहीता भविष्यति । प्रत्यक्षमूलत्वे हि वेदवदत्रापि कः स्मृतिशब्दार्थः ? . [श्रुतिस्मृतिविरोधे श्रुतेः प्राबल्यम् ] किञ्च वेदमूलत्वे सति स्मृतेः श्रुतिविरोधे सति तदतुल्यकक्ष्यत्वात् बाध्यत्वं. सुवचं भवति । क्लप्त मेकत्र मूलं , इतरत्र कल्प्यम् । यावदेव भवान् स्मृतेः श्रुतिं कल्पयितुं व्यवस्यति, तावदेतद्विरोधिनी प्रत्यक्षश्रुता श्रुतिरवतरति हृदयपथमिति कथं तदा मूलकल्पनायै स्मृतिः प्रभवेत् । तदाह (तं. वा. ३-३-३) 'सोऽयमाभाणको लोके यदश्वेन हृतं 'पुरा'। तत्पश्चात् गर्दभः प्राप्तुं केनोपायेन शक्नुयात् ? ' इति ॥ [श्रुतिस्मृत्योः साम्यमिति पक्षान्तरम् ] __ अपर आह-विकल्प एवात्र युक्तः। किल द्विविधो वेदःश्रूयमाणः, अनुमीयमानश्च । श्रूयमाणश्च श्रुतिरित्युच्यते। अनुमीयमानश्च स्मृतिरिति । द्वावपि चेतावनादी इति किं केन - - *स्मृतिसमाख्येति । तथा च वेदाः अनुभवमूलाः, स्मृतयस्तु वेदमूलाः इति भावः ॥ +एकत्र-वेदे॥ 1 इतरत्र-मन्वादिस्मृतौ ।। 1पुर:-क. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 633 आगमप्रामाण्यनिरूरणम न्यायमञ्जरी वाध्यते ? व्यक्ताव्यक्तो हि वेद एवासो। अत एव न *मन्त्रार्थवादादिमूलकत्वकलानं युक्तम्, स्मर्यमागम्य वेदस्यानादित्वात् ॥ _ [मन्वादिस्मृति बाह्यस्मृत्योर्केलक्षण्यम् ] ननु ! एवं वेदमूलत्वेन प्रामाण्ये वर्ण्यमाने याह्यस्मृतीनामपि प्रामाण्यं वदन्तः 'प्रवादुकाः' कथं प्रतिवक्तव्याः? उच्यते--प्रत्युक्ता पव ते तपस्विनः। उक्तं हि भगवता जैमिनिना-'अपि वा कर्तृसामान्यात् प्रमाण मनुमानं स्यात् ' (जै. सू. १-३-२) इति ॥ कर्तृसामान्यादिति कोऽर्थः ? एकाधिकागवगमादिति । य एव वेदार्थानुष्ठानेऽधिकृताः कर्तारः, त एव स्मृत्यर्थानुष्ठाने। आच मना दस्मार्तपदार्थसंबलिततयैव वेदिस्तरणादिवैदिकपदार्थप्रयोगदर्शनात । न त्वमेकाधिकागवगमो बाह्यस्मृतिषु विद्यते । तस्त्रात् मन्वादिस्वृतय पर प्रमागं, न बाह्यस्मृतयः ।। [सिद्धान्ते तु मन्वादिस्मृतीनां प्रत्यक्षमूलकत्वादेव प्रामाण्यम्] ननु ! मन्वादिस्मृतयोऽपि वेद मूलत्वात् प्रमाण, नान्यत इति -~~-अत्रोच्यते-तदेतद्वादमूलतया प्रामाण्यं योगिप्रत्यक्ष धर्मग्राहकममृधमाणाः किलाचक्षते भवन्तः। एतच्च न युक्तम् - या हि भगवानीश्वरः सर्वम्य कर्ता, सर्वम्येशिता, सर्वदी, सर्वानुकम्पीच वंदानां प्रणेता समर्थितः, तथा योगिपत्यमपि धर्मग्रहणे निपुणमस्मदादिप्रत्यक्षविलक्षण प्रत्यक्षलक्षणे (पु-268) . समर्थितमेव । तस्मात् तन्मूला एव मन्वादिदेशनाः भवन्तु ॥ . *मन्त्रार्थवादादि इत्यादेः, मन्वादिस्मृतीनामिति शेषः ।। +अनुमान-अनुमिता श्रुतिः। संब स्मृः मूलं प्रमागमित्यर्थः ॥ न त्यमित्यादि । तथा च आचमनादिस्मातकर्मणां, वेदिस्तरणादिश्रौनकर्मणां च परस्पर संबलनदर्शनात् वैदिकमन्वादिविरचितत्वमेव बाह्यस्मृत्यपेक्षया वलक्षण्यं पर्याप्तमित्यर्थः ।। वेदमूलत्यादिति। तथा च तेषां धर्मे प्रामाण्यवर्णनमुपहास्य इत्याशयः॥ प्रावादुका:-ख. नन्मेव-क. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रादिकम् ४] घेदागमयोवैल्क्षण्यन् C33 [धर्मस्यापि प्रत्यक्षरवसंभव:] यतु * त्रिकालानवच्छिन्नः कथं प्रत्यक्षगम्यो धर्मः स्यादिति (पु. 630) चोदनव तत्र प्रमाणमुच्यते-प्रतिविहितं तत् ईश्वर प्रत्यक्षसमर्थनेन। साध्यसाधनसम्बन्धस्य स्वर्गाग्नहोत्रादिगतस्य यथा ग्राहकमीश्वरप्रत्यक्षं', एवं अष्टमादिगतस्य तस्य ग्राहकं मन्त्रादिप्रत्यक्षं भविष्यतीति किमत्र त्रिकालानवच्छेदेन, अवच्छेदन वा कृत्यम् ? __ [वेदानां स्मृतीनां च वैलक्षण्यम् ] 'यद्येवं अप्रकादिकर्मणां धर्मन्य ग्रहणात्' असर्वज्ञ ईश्वरः स्यात्। शान्या वाऽनुपदिशन् अकारुणिको भवेत-नेर दोषःसर्व जानात्येव . भगवान् । किश्चित् स्वयमुपदिशनि, किञ्चित् पररनुपदेशयी ते हि स्यानुग्राह्या भगवतः। तेणं च तदनु. ग्रहकृतव तथाविधज्ञानप्राप्तिः। मन्यादीनां प्रत्यक्षो धर्म इति वेदेऽपि पिठ्यते ॥ [श्रुतिस्मृत्योः प्रत्यक्ष चूलकरयाविशेषात् न कुत्रापि तयोबाध्य बाधकभावः] ननु ! एवं प्रत्यक्षमूलत्वाविशेगत् श्रुतिस्मृत्योर्विरोधे विकलाः प्रामोति, बृहद्रथन्तरविध्योरिव ; न बाध्यवाधकभावः । न हीश्वर . *त्रिकालेत्यादि। वर्तमानकविषयं प्रत्यक्षं त्रिकालानवच्छिन्नं धर्म कथं गृह्णीयादिस्यर्थः ॥ ___ + किमत्रेति। त्रिकालावच्छेदानवच्छेदादिकं न प्रत्यक्षत्वे प्रतिबन्ध प्रयोजक वा ।। पठ्यत इति । 'यबै किञ्च मनुरवदन तद्भेषजम् ' (ते.सं. २-२-१०) इति श्रुतिः। मनूक्तत्वेनैव तद्वचनस्य प्रामाण्यमुच्यते, न स्वन्यापेक्षयेत्याशयः॥ बृहदिति। 'वृद्वा साम, रथन्तरं वा साम भवति' ( ? ) इत्यत्र विकला प्रतिपादितः ॥ प्रत्यक्षं यथाऽग्निहोत्रादेधर्मस्वस्य ग्राहक-ख. यागे-ख. 'पाहत्वाव-ख. Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 आगमप्रामाण्यनिरूपणम् प्रत्यक्षस्य योगिप्रत्यक्षस्य च प्रामाण्ये कश्विद्विशेषः । हार्यकृतस्तु भविष्यति । किं तेन ? उच्यते - भवतु विकल्पः । को दोषः ? वेदमूलत्ववादिभिरपि कश्चिद्विकल्पो व्याख्यात एव । विषयविभागेन वा विकल्पो व्याख्यास्यते । न च श्रुतिस्मृतिविरोधोदाहरणं किञ्चिदस्तीति स्वाध्यायाभियुक्ताः । तस्मादाप्तप्रत्यक्षमूलत्वेन वेदानामिव धर्मशास्त्राणामपि प्रामाण्यम् ॥ [ इतिहासपुराणानामपि साक्षादेव प्रामाण्योपपादनम् ] एतेन इतिहासपुराणप्रामाण्यमपि निर्णीतं वेदितव्यम् । इतिहासपुराणं हि पञ्चमं' वेदमाहुः । उक्तं च- (म. भा. आ. १ - २६५) 'इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदः मामयं प्रतरिष्यति' इति ॥ [सर्वस्मृतीनां वेदमूलकत्वेनैव प्रामाण्यमिति पक्षः ] अथवा किमस्माकं दुरभिनिवेशेन ? वेदमूलत्वात् स्मृतीनां, स्मृतिवत् पुराणानामपि भवतु 'प्रामाण्यम् । प्रामाण्ये तावदविवादः । सदाचारस्याप्यनुपनिबद्धस्य वेदमूलत्वादेव भवतु प्रामाण्यम् ' ॥ 不 [ विद्यास्थानेषु षण्णां प्राधान्यं इतरेषामङ्गत्वम् | सर्वथा तावत् वेदाश्चत्वारः, पुराणं, स्मृतिरिति षडिमानि विद्यास्थानानि साक्षात्पुरुषार्थ साधनोप देशीनि पूर्वोक्तरीत्या प्रमाणम्' । व्याकरणादीनि तु षडङ्गानि अङ्गत्वेनैव तदुपयोगीनि योगिनां तु आहार्य – तपःप्रभाव संपाद्यम् ॥ [ न्यायमञ्जरी * नैसर्गिका • नैसर्गिकेति । विशेष इत्यनुवर्तते । ईश्वरप्रत्यक्ष नैसर्गिकम्, + व्याख्यात एवेति । तन्त्रवार्तिके 'वैष्टुतं वै वासः' इति शाख्याय निब्राह्मणोदाहरणपूर्वकं ' ततश्च श्रुतिमूलत्वात् बाध्योदाहरणं न तत् । विकल्प एव हि न्याय्यस्तुल्यकक्ष्यप्रमाणतः' (तं. वा. १-२-४) इत्युक्तम् ॥ 1 हि पञ्चमं ख 2 1 अनुपनिबद्धस्य - स्मृतिरूपनिबन्धाविषयस्य - तद्विषयक स्मृति रहितस्य ॥ 4 देशीनि - ख. प्रामाण्यम् - ख. 3 'साक्षात्कृत पुरुषार्थ-क. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' आह्निकम् ४] आगमद्वैविध्यम् 635 न साक्षाद्धर्मोपदेशीनि । कल्पसूत्रेष्वपि विक्षिप्तकर्मक्रमनियमसंग्रहमात्रम् , नापूर्वोपदेशः। मीमांसा वेदवाक्यविचारात्मिका । वेदप्रामाण्यनिश्चयहेतुश्च न्यायविस्तर इत्यामुख एवोक्तम् (पु. 7-10)। तदिमानि चतुर्दशविद्यास्थानानि प्रमाणम् । . कानिचित् साक्षादुपदेशीनि, कानिचित् तदुपयोगीनीति सिद्धम् ॥ [आगमद्वैविध्यम्] यानि पुनरागमान्तराणि परिदृश्यन्ते, तान्यपि द्विविधानिकानिचित् सर्वात्मना वेदविरोधेनैव प्रवर्तन्ते, बौद्धादिवत्। कानिचित् तदविरोधेनैव कल्पितव्रतान्तरोपदेशीनि, शैवादिवत् ॥ [शैवागमानां प्रामाण्यम् ] तत्र शैवागमानां तावत् प्रामाण्यं ब्रूमहे; तदुपजनितायाः प्रतीतेः सन्देह-बाधकारण-कालुष्यकलापस्यानुपलम्भात् । ईश्वरकर्तत्वस्य तत्रापि स्मृत्यनुमानाभ्यां सिद्धत्वात् । मूलान्तरस्य लोभमोहादेः कल्पयितुमशक्यत्वात् । न हि तत्र इदंप्रथमता स्मयते । वेदवदेकदेशसंवादाश्च भूम्ना दृश्यन्त इति कुतो मूलान्तरकल्पनावकाशः । शैवागमा अपि वैदिकधर्मप्रतिपादका एव] न च वेदप्रतिपक्षतया तेषामवस्थानम् ; वेदप्रसिद्धचातुर्वर्ण्यादिध्यवहारापरित्यागात् ॥ मन्वादिचोदनान्याय: स यद्यपि न विद्यते । शेवागमे तथाऽप्यस्य 'न न युक्ताऽप्रमाणता ॥ ७९ ॥ * पूर्व (पु. 630) मन्वादिस्मृतीनामागमत्वेन निर्देशात् आगमान्तराणीति ॥ + इदं प्रथमतेति। अनादिपरंपराप्राप्ताः ते भागमा इत्यर्थः ।। ननु मन्वाद्यक्तशौचाचमनादीनां वैदिकधर्मैः संवलनदर्शनात् , आगमोक्तधर्मेषु त्रयीबाह्यानामप्यधिकारात् अप्रामाण्यमेव शैवपाञ्चरात्राद्यागमानां इति शंकायां (तं. वा. १-३-४) आह–मन्वादीति ॥ ननु-ख. Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 आगमत्रामाण्यनिरूपणम [न्यायमञ्जरी सपनपदामर्थाः निःश्रेयसपदस्पृशः । विविच्यमाना दृश्यन्ते ते हि तत्र पदे पदे ॥ ८०।। ये च वेदविदामनपाः कृष्णद्वैपायनादयः।प्रमाणमनुमन्यन्ते 'तेऽरिशैवादिदर्शनम्' ॥ ८१ ॥ [पञ्चरात्रप्रामाण्यम्] पिञ्चगवेऽपि तेनैव प्रामाण्यमुपवर्णितम् अप्रामाण्यनिमित्तं हि नास्ति तत्रापि किञ्चन ॥ ८२ ॥ तत्र च भगवान् विष्णुः प्रणेता कथ्यते। स चेश्वर एव ॥ [शैववैष्णव कलहस्य निर्मूलत्वम् ] एकस्य कस्यचिदशेषजगत्यसू ने__ हेतोरनादिपुरुषस्य महायिभूतेः।। सृष्टिस्थितिप्रलयकार्यविभागयोगात् । ब्रह्मति विष्णुरिति रुद्र इति प्रतीतिः ॥ ८३ ।। शैवपञ्चरात्रोक्तधर्माणां वैदिकम् ] घेदे च पदे पदे 'एक एव रुद्रोऽवतस्थे न द्वितीयः' (अथ. ३), 'इदं विष्णुर्विचक्रमे' (तै.सं. १-२-१३, ऋ.सं. १-२२-७) इति रुद्रो विष्णुश्च पठ्यत। तद्योगाश्च तदाराधनोपाया वेदेऽपि चोदिता एव। शैवपञ्चायोस्तु तद्योगा एवा न्यथोपदिश्यन्ते। न चैप *तऽपीति । 'सांस्यं योगः पञ्चरात्रं वेदा: पाशुपतं तथा। आत्मप्रमाणान्येतानि न हन्तव्यानि हेतुभिः' (म. भा. शा. ३५०-६३) ॥ पञ्चरात्र इति । वैखानसागमे विवादाभावादकथनम् । व्याससूत्रेऽपि हि तर्कपादे पाशुपतपञ्चरात्रस्पर्शेऽपि न वैखानसस्पर्श इत्यवधेयम् ॥ 'सृष्टिस्थित्यन्तकरणी ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् । स संज्ञां याति भगवान् एक एव जनार्दनः' (वि.पु. १-२-६६) इत्याद्यप्यत्र द्रष्टव्यम् ॥ $ 'तद्योगाः' इत्यस्यैव विवरण-तदाराधनोपाया इति ॥ || अन्यथा-प्रकारान्तरेण । माहुश्च शंकरभगवत्पादा भपि दर्शनाव-क. Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 637 आह्निकम् ४] बौद्धापागमानामपि प्रामाण्यम् एव वेदविरोध ; वैक यात्वादुगयानाम् । अतः आप्तप्रणीतत्वात् , .वेदाविरुद्धत्वाचन तयोरप्रामाण्यम् ॥ _ [बौद्वागमानामप्रामाण्यम् ] ये तु सौगत संसारमोचकागमाः पापकाचारोपदेशिनः, कस्तेषु प्रामाण्यमार्योऽनुमोदते ? बुद्धशास्त्रं हि विस्रष्टा दृश्यते वेदवाह्यता। *जातिधर्मोचिताचारपरिहारावधारणात् ॥ ८४ ॥ संसारमोचकाः पापा: प्राणि हिंसापरायणाः। मोहप्रवृत्ता एवेति न प्रमाणं तदागमः ॥ ८५ ॥ निषिद्ध लेवनप्रायं यत्र कर्मोपदिश्यते । प्रामाण्य कथने तस्य कस्य जिह्वा प्रवर्तते ? ॥ ८६ ॥ तितो यद्य पसिद्धिः स्यात् कदाचित् कस्यचित् क्वचित् । ब्रह्महत्यार्जितग्राम्यभोगवन्नरकाय सा ॥ ८७ ॥ निषिद्धाचरणोपात्तं दुष्कृतं केन शाम्यति ? अतः कालान्तरेणापि नरके पतनं पुनः॥ ८८॥ [बौद्धयैदिकागमयोāलक्षण्यम्] यत्त्वत्र चोरितम् (पु. 629)--परेषु पूर्वोक्तक्रमेण बुद्धाद्याप्तकलानां. कुर्वत्सु किं तिविधेयमिति-तत्रोच्यते---महाजनप्रसिद्धयनुग्रहे हि सति सुवचमाप्तोक्तत्वं भवति, नान्यथा ॥ . [वैदिवागमानां महाजनपरिग्रहात् प्रामाण्यम् ] महाजनश्च वेदानां, वेदार्थानुगामिनां च पुणधर्मशास्त्राणां, वेदाविरोधिनां च केपांचिदागमानां प्रामाण्यमनुमन्यते; न वेद'भभिगमनोपादानेज्यास्वाध्याययोगरूपपञ्चकर्मणां ईश्वराराधनरूपरवं श्रौतस्वं च' (शं. भा. २-२-४२)। * वेदबाह्यत्वमेवोपपादयति-जातीत्यादि । ततः–बौद्धाद्यागमोक्तमार्गानुष्ठानात् । श्रूयन्ते च बौद्धाईतादिषु बहुविधसिद्धिमन्तः ॥ ........ .. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह 638 आगमप्रामाण्यनिरूपणम् [न्यायमअरी विरुद्धानां बौद्धाद्यागमानामिति कुतस्तेषामाप्तप्रणीतत्वम् ? मूलान्तरं हि तत्र सुवचं अज्ञानलोभादि --- इत्येवमभिधाय वेदस्पर्धिनो बौद्धादयः निषेद्धव्याः ॥ ___ कोऽयं महाजनो नाम ?] कोऽयं महाजनो नाम ? किमाकारः? किमास्पदः ? किंसंख्यः? किंसमाचारः? इति व्याख्यातुमर्हसि ॥ ८९ ॥ अपि च बौद्धादयो बुद्धादीनातान् स्वागमप्रामाण्यसिद्धये वदन्ति ते महाजनमपि निजम् । तत्सिद्धये 'वन्दकादिकं वदेयुरेव । कस्तत्र प्रतीकारः ? उच्यते-चातुर्वर्ण्य, चातुराश्रम्यं च यदेतदार्यदेशप्रसिद्धं, स महाजन उच्यते । आकारस्तु तस्य कीदृशं पाणिपादम् ? कीदृशं शिरोग्रीवं वा? कियती तस्य संख्या ? इति पुरुषलक्षणादीनि गणयितुं न जानीमः ॥ . चातुर्वर्ण्यचातुराश्रम्यरूपश्चैष महाजनः वेद पथ प्रवृत्तः आगमान्तरवादिमिरप्रत्याख्येय एव। तथा चैते बौद्धादयोऽपिदुरात्मानः वेदप्रामाण्यनियमिता एव चण्डालादिस्पर्श परिहरन्ति । निरस्ते हि जातिवादावलेपे कः चण्डालादिस्पर्श दोषः ? येऽपि अन्ये केचित् अशुचिभक्षणागम्यागमनादिनिर्विकल्पदीक्षाप्रकारमकार्यमनुतिष्ठन्ति, तेऽपि चातुर्वर्ण्यमहाजनभीताः 'तत्कर्म रहसि कुर्वन्ति, न प्रकाशम् । निर्विशङ्के हि तच्छास्त्रप्रत्यये किमिति चौर्यवत् तदानुष्ठानम् ? अत एव न निजो महाजनः *निज मिति । वदन्तीत्यनुकर्षः ॥ विन्दकादि-'वन्दा वृक्षादिनी 'इत्यमरः । स्वार्थ कुत्सायां वा कन् । . वृक्षोपरि यदृच्छया जात: वृक्षः । प्रक्षिप्तवचनादीत्यर्थः । अथवा वन्दका-भिक्षुकी। तादृशं जनं स्वागमप्रामाण्यसिद्धये महाजनं वदेयुरेवेत्यर्थः ॥ 1 आगमान्तरेत्यादि । वैदिकैरुक्तानेव धर्मान् प्रकारान्तरेण तेऽप्यङ्गीकुर्वन्त्येवेत्यर्थः ॥ 1 वृन्दादिकं-ख. प्रथम-ख. क-ख. +तं तं-ख. Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] वैदिक-बौद्धागमयोवेलक्षण्यम् 639. उत्थापयितुं शक्यते 'वन्दकादिः', किं त्वयमेव *चातुर्वर्ण्यादिमहाजनः । स चैष महाजनः वेदविरुद्धमागमं परिहरत्येव, नानुमोदते॥ संसारमोचकं स्पृष्टा शिष्टाः स्नान्ति सवाससः। बौद्धैरपि सहैतेषां व्यवहारो न कश्चन ॥ १० ॥ वेदधर्मानुवर्ती च प्रायेण सकलो जनः। वेदबाह्यस्तु यः कश्चित् आगमो वञ्चनैव सा ॥९१ ॥ (वेद बाह्या अपि वैदिकाभासा एव] ईदृशश्चार्य अनन्यसामान्यविभवो महाभागो वेदनामा ग्रन्थराशिः, यदन्ये बाह्यागमवादिन एवमेव स्पर्धन्ते। ते हि स्वागमप्रामाण्यमभिवदन्तः, वेदरीत्याऽभिदधति। वेदे यथातथा प्रवेष्टमी हन्ते॥ . . ___ वैदिकानर्थान् अन्तराऽन्तरा स्वागमेषु निबध्नन्ति। वेदस्पर्श पूतामिवात्मानं मन्यन्ते। तेषामप्यन्तहृदये ज्वलत्येव वेदप्रामाण्यम्। अंत एवं विधाया महाजनप्रसिद्धः आगमान्तरेष्वदर्शनात् न तेषामाप्तप्रणीतत्वम् ॥ __ [महाजनपरिग्रहाद्वेदप्रामाण्येऽपि न्यायशास्त्रस्यावश्यकता] आह1. महाजनप्रसिद्धयैव वेदप्रामाण्य निश्चयात् । किमर्थः कण्ठशोषोऽयं इयानार्येण संश्रितः ? ॥९२॥ वेदप्रामाण्यसिद्धयर्थं हि इदं शास्त्रमारब्धमिति गीयते। वेदप्रामाण्यस्य च महाजन प्रसिद्धयैव' सिद्धत्वात् किं शास्त्रेण ? · अलं क्षुद्रचोथैरीदृशैः ! * चातुर्वर्ण्यति । तथा च वर्णाश्रमधर्मनिष्ठा एव महाजना इति निश्चितम् ॥ अियं कण्ठशोषः--एतावता वेदप्रामाण्यस्थापनार्थ कृतः श्रमः ॥ वृन्दकादि:-ख. ज्वलतीव-ख, 3 सिद्धयैव-ख. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 बागमप्रामाण्यनिरूरणम (म्यादमधरी महाजन'प्रसिद्धिं हि *केचिद्विप्लवयम्त्यपि। अतस्तदुपघाताय शास्त्रमन्त्रं प्रयुज्यते ॥ ९३ ॥ तस्मात् पूर्वोक्तानामेव प्रामाण्यमागमानां, न वेदशाह्यानामिति स्थितम् ॥ [पर्वागमप्रामाण्यपक्षः] अन्ये सर्वागमानां तु प्रामाण्य प्रतिपेदिरे। सर्वत्र विाधसन्देहरहितप्रत्ययोदयात् ॥ ९४ ॥ सवत्र वेदयत् कर्तुः आप्तस्य परिकल्पना॥ हार्थेष्वेकदेशेषु प्रायः संवाददर्शनात् ।। ९ ।। आगमानो न परस्पर विरोध:] यत्पुनरत्रोक्तम्-सर्व एवागमाः परस्परविरुद्धार्थी पदेशि स्वादप्रमाणं स्युरिति-तत्रोच्यते -आप्तप्रणीतत्वेन तुल्यकक्ष्यत्यात् अन्यतमदौर्बल्यनिमित्तानुपलम्भाच्च न कश्चिदागमः किञ्चित् वाधत। विरोधमात्रं त्वकिञ्चित्कार ! , प्रमाणत्वानिमतेषु वेदवाक्ये वापि परस्परविरोधदर्शनात् । पुरुषशीर्षस्पर्शनसुगमहगवालम्भादिचोदनासु वचनान्तरविरुद्धमर्थजातमुरविष्टमेव ।। [अधिकारिभेदन सर्वागमानां यथाकथञ्चित् श्रेयस्साधनत्वम् किश्चामानां विरोधोऽपि नातीय विद्यते, 'प्रमाणे पुरुषार्थे वा सर्वेपामविवादात् ॥ नानाविधरागपमार्गभेदैः आदिश्य पाना बहवोऽभ्युपायाः। एकत्र ते श्रेयसि संपत न्त सिन्यौप्रवाहाइव जाह्नवीयाः ॥१६॥ * केचित् -मन्दमतयः. हैतुका या॥ जवाधेत्यादि --- सत्तदधिकारिणामिति शेषः। दृश्यन्ते हि बौद्धजैनेष्वपि विचित्रसिद्धिमन्तः पुरुषाः॥ । प्रसिद्ध-ख. पदेश-ख. प्रमाणाना-ख. Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व मानामधिकारिमेदेन प्रामाण्यम् [ उपायोपेविषये सर्वागमानामैककण्ठ्यन् ] तथा ह्यपवर्ग उपेतः सर्वशास्त्रेषु 'निर्दिश्यते । तदुपायः सर्वत्र ज्ञानमुपदिश्यते' । ज्ञानविषये तु विवदन्ते । तत्रापि प्रायशः आत्मविषयतायां बहूनामविप्रतिपत्तिः ॥ मह्निकम् ४] 1 प्रकृतिपुरुष विवेकज्ञानपक्षे तु प्रकृतेर्विविक्कतया पुरुष एव ज्ञेयः ॥ नैरात्म्यव दिनस्तु * आत्म शैथिल्यजननाय ' तथोपदिशन्ति ' स्वच्छं तु ज्ञानतत्त्वं यरिष्यते; तत् स्वातन्त्र्यात् अनाश्रितत्वात् आत्मकलामेव । कूटस्थनित्यत्वे प्रवाहनित्यत्वे च विशेषः ॥ [form अनैककषयं न दोषाय ] एवं प्रधानयोस्तावत् उपायोपेययोग विवादः । क्रिया तु विचित्रा प्रत्यागमं भवतु नाम । भस्मजटापरिग्रहो वा दण्डकमण्डलुग्रहण वा, रक्तपटधारणं वा, दिगम्बरता वाऽवलम्ब्यताम ! कोऽत्र विरोधः ? वेदेऽपि किमल्पीयांसः पृथगितिकर्तव्यता कल. पखचिताः स्वर्गेपायाच्चोदिताः ? तस्मात् परस्परविरोधेऽपि न प्रामाण्यविरोधः ॥ [ भागमप्रवक्तां सर्वज्ञत्वं समानम् ] अतश्च यदुच्यते- 611 'कपिलो यदि सर्वज्ञः सुगतो नेति का प्रमा? भावपि सर्वज्ञौ मतभेदस्तयोः कथम् ?" इति तदपास्तं भवति - प्रधाने सति भेदाभावात् । कविय * आत्मशैथिल्येति-अहंकारादिकलुषितस्यात्मनः शमिल्यं अहंकारप्रन्थिविश्लेषणम् ॥ 1 कूटस्थेत्यादि । कूटस्थनित्यः - स्वतः स्वरूपत एवं एकरूप: नामा वैदिकानाम् । बौद्धादीनां तु क्षणिकत्वादात्मनः प्रवाहत: नित्य बारमा | शून्य दिनान्त्वनिर्वचनीय एवेति न चर्चाविषय आत्मा ॥ 1 ' निर्दिश्यते - ख. KYATAMANJARI 'अशिन्ति Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642 आगमप्रामाण्यनिरूपणम् |न्यायमभरी तद्भाये प्रामाच्याविरोधात्। न च *'हृदयक्रोशन हेतुकर्मोपदेशात् आगमान्तराणामप्रामाण्यम् ; तस्यामामाण्यतायां अप्रयोजकत्वात् ॥ विचिकित्सा हि नृशिरःकपालाद्यशनेषु या । साऽप्यन्यदर्शनाभ्यासभावनोपनिवन्धना ॥९७॥ तथा च शान्त चत्तानां सर्वभूतदयावताम् । पेदिकीप्वरि हिंसासु विचिकित्सा प्रवर्तते ॥९८.॥ [हिंसोपदेशमात्रात् नाप्रामाण्यम् ] अभिचारादिहिंसायां चैदिक्यामपि भवतु हृदयोत्कम्पः। किरणांशोपनिपातिनी हिंसेति लिप्सातस्तस्यां प्रवृत्तिः॥ या तु अग्नीषोमीयादिपशुहिंसा इतिकर्तव्यतांशस्था, यस्यां फत्वर्थो हि शास्त्रादवगम्यते इनि वैधी प्रवृत्तिः, तस्यामपि कारुणिको लोकः सविचिकित्सो भवति । वदति च 'यत्र प्राणियधो धर्मस्वधर्मः तत्र कीदृशः ? ' इति। न चैतावता येदस्याप्रामाण्यम् । एयमागमान्तरेयपि भविष्यति ॥ [विधिनिषेधादिकं तसदागमप्रतिनियसम्] यत्तु आगमान्तरेभ्यः कौलादिभ्यः खेचरताद्यर्थसिद्धावपि निषिद्धाचरणकृतः कालान्तरे प्रत्यवायोऽवश्यंभावीत्युक्तम् --तदपि *हृदयक्रोशनं--हृदयस्याक्र-दनम् । श्रूयते हि कुत्रचिदागमेषु नरबल्यादिकमपि ॥ + विचिकित्सेत्यादि। अस्मदनभ्यासमात्रात इतरेष्वाचारेषु यद्यपि विचिकित्सा भवेत्। अथापि नाप्रामाण्यं तदागमस्य। अन्यथा वैदिकस्यापि सदुलमतेः यज्ञीयपशुइिंसायामपि हृदयं माक्रन्दत एवेत्यप्रामाण्यं स्यात् ॥ किरणांशे त। सोमप्रकृति के श्येने पशुहिंसनं शत्रुहिंसायाः साधनम् । भग्नीषोमीयादौ तु याग एव साधनं, पशुहिंसा तु इतिकर्तव्यतान्तर्गतेति विशेषः॥ क्रोशन-स. गत-ख. वैदी-ब. . Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भातिकम् ४] बौद्धाचागमानां वेदविरोधारिहार: 648 न युक्तम्-सस्यार्था *तदागमनिषिद्धत्वाभावात्। आगमान्तरनिषिद्धत्येऽपि वैकलिकत्वकलानोत्तः। पुरुगर्थप्राप्त्युपायत्वाच्च तस्य तस्मिम् सिद्ध कुतः प्रत्यवायः? निषिद्कर्मोपदेशमात्रं नाप्रामाण्यहेतुः मरतु वा कालान्तरे ततः प्रत्यवायः! तथाप्यधिकारिभेदेन तत्फले कर्मणि चोद्यमाने श्येनादाविव नागमप्रामाण्यमत्र हीयते। 'श्येनेनाभिवरन् यजेत' इत्यत्र 'अभिचरन्' इति +'शता' लावेत. निषेधमधिकारिणमाचष्टे। तस्य च शेनयागः चोदतः। स च तत्प्रयोगात् कृतयः प्रत्यवत्येव, न च वेदस्याप्रामाण्यम। उक्तं च 'उभयमिह चोदनया लक्ष्यते अर्थोऽनईश्व' (शा.भा. १-१-२) इति । अधिकारभेदाच्च विचित्रकर्मचोदना नानुपपन्ना। माणकामस्य सर्वखारः चोक्तिः, आयुष्कामस्य कृष्गलचरुः। तस्मादेतदरि नापाताण्यनिमित्तम् ॥ बौद्धागमस्य वर्णाश्रमधर्मनिषेधे न तात्पर्यम् ] यदपि बौद्धागमे जातिवादनिराकरण, तदपि सर्वानुग्रहप्रवणकिरुणातिशयप्रशंसापरं न च यथाथुतमवगन्तव्यम्। तथा च तत्रैतत्पठ्यते न जाति कार्यदुशान् प्रवाज येत्' इति । तस्मात् सर्वेगमागमानां आप्तैः कपिलसुगताइनभृतिभिःप्रणीतानां प्रामाण्यमिति युक्तम् ॥ . * तदागमेति । कौलायागमेत्यर्थः। आगमान्तरनिषेधः भागमाम्वरोक्तधर्मे नाधमत्वमावहे देति भावः ।।। शता-शतृप्रत्ययः । शतृपत्ययेन वर्तमानकालबोधनात् तद नी भमिपारे. प्रवृत्तस्वसिया लडितनिषेधशास्त्रः पुरुषः लभ्यते ॥ . सर्वस्वारः। विशेषः ज्योतिष्टोमप्रकृतिकः। 'मरणकामो मेतेन यजेत यः कामयेतानामयः स्वर्ग लोकमियामिति' (शा.भा. १०-२-५७) ॥ करुण तिशयेति । 'शुनि चैत्र श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः' (गी. ५-१८), 'मां हि पाये ग्याश्रित्य येऽपि स्युः पापयो नयः। खियो वैश्याः त्रा-क. काय-व. Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 आगमप्रामाग्यनिरूपणम् बावमारी [सर्वागमानामपीश्वरकृतरवपनः) अन्ये मन्यन्ते-सर्वागमानामीश्वर एव भगवान् प्रणेतेति। स हि सकलप्राणिनां कर्मविधा अनेकप्रकारमवलोकयन् करुणया ताननुग्रहीतुं अपवर्गप्राप्तिमार्ग बहुविधमुत्पश्मन आशयानुसारेण कैवांचित् काचेत् कर्म ण योग्यतामवगम्य तं तमुपायमुपदिश्यति । स्वविभूतिमहिम्ना च गानाशरीरपरिग्रहात् स एव संज्ञाभेदानुषः गच्छति। अन्निति, कपिल दृसि, सुगत इति स एवोच्यते. भगवान् । नानालकल्पनायां यत्नगौरवासनात् ॥ बुद्धस्य भगवदवतारस्वम् ननु ! वुद्धः शुद्धोदनस्य'राज्ञ'ऽपत्यम् स कथमीश्वरो भवेत् ? परिहतमेतत् भगवता कृष्णद्वैपायनेन (गी. ४----- 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मा सृजाम्यहम्' इति ॥ शरीरमेव शुद्धोदनस्यापत्य, नान्मा । अतः प्रतियुगं विष्णुरेव भगवान् धरूपाव तरतीत्यागमविदः प्रतिपन्नाः ॥ वैदिकबोदाद्यागमयोविशेषः ननु! वेदसमानकतरेषु पिआगमान्तरेषु कथं तिाहशो महाजन प्रत्ययो ना स्त? एवं नास्ति - तेन वर्मना भगवता कतिपये प्राणिनः अनुगृहीताः, ये तादृश आशयो लक्षितः। वैदिकेन या शूद्र : तेऽपि यान्ति परां गतिम्' (गी. ९-४.), 'अपि चेत् सुद्गगारः मते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः' (गी, ९-४२) इत्यादिवदित्यर्थः । * धर्मरूपेणेति 'रामो विग्रहवान धर्मः' (रा.बर. ३८-९३), 'कृष्णं धर्म सनातनम् ' इत्याद्यत्र स्मर्तव्य । । + आगमाननरेपु-चौदाद्यागमे ।। ताश.....यादृशो वेदस्य तादृशः । अपत्यम् Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् ४] सागमानामपि वेदमूत्रत्वसंभवः 645 तु वर्त्मना निस्संख्यकाः प्राणिनोऽनुगृहीताः इति तत्र महानादरा, आगमान्तरेषु कृश इति ॥ एककर्तृके परस्परविरोधः कथमिति चेत्, वेदैरेवात्र वर्णितः समाधिः। तेष्वपि भूम्नः परस्परविरोधस्य दर्शनादित्युक्तम् । वसादीश्वरप्रणीतत्वादेव सर्वागमानां प्रामाण्यम् । . सर्वागमाना वेदमूलत्वात् प्रामाण्यमिति पक्षः] अरे पुनः वेदमूलत्वेन सर्वागमभामाण्यमभ्युपगमन् । यो हि मन्वादि'देशनानां' वेदमूलतायां न्याय उक्तः-तं. वा. :-३-२) 'भ्रान्तेरनुभवाद्वाऽपि पुंवाफ्याद्विप्रलम्भकात् । दृष्टानुगुण्यसामर्थ्यात् चोदनय लघीयसी' । इति स सर्वागमेंषु समानः। न च मन्वादिस्मृतीनां मूलभूता युतिः उपलभ्यते । अनुमानेन तु तत्कल्पनमागमान्तरेऽवपि तुल्यम॥ [दागमामामपि वेदमूलकत्वसंभवः) ननु च! उक्तं अपि पा कर्तसामान्यात् प्रमाणमनुमान स्यात् ' (जै. सू. १-३-२) इति-तिचेह नास्ति, इति कथं श्रुत्यनु• मानम् ? नैष दोषः-- .. एकाधिकारावगमः न प्रामाण्ये प्रयोजकः। . मिश्रानुष्ठानसिद्धौ तु काम भवतु कारणम् ॥ ९९ । * अपि चति । अपि वेति सिद्धान्तभूचनाय । अनुमान--स्मृतिः कर्तृ.. सामान्यात् - वेदोक्तानां स्मृत्युक्तानां च धर्माणां कर्तुः साधारणत्वात्, ये वैदिककर्माधिकारिणः, त एव स्मृत्युक्तकर्मण्यपीति स्मृति: प्रमाणम् । + तत्-- एकाधिकारिकत्वम् ।। मिश्रानुष्ठानसिद्धौ-वेचित केबलवैदिकाः, बेदित केवलरमार्ताः, वेचित्तु उभयरूपा इति विषये ॥ 1देशनाया-क. Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 আমমানালিগ ग्यायमचरी . न च पृथगनुष्ठीयमानमपि कर्म न प्रमाणमूलं भवति, *णी. श्रमभेदानुथ्यकर्भवत् ।। कढसामा शून्यत्वात् अथ लान्तरोदयः । तदसत, नाधभावात्, भ्रान्त्यादिप्रतिषेधनात् ॥१०॥ प्रत्यक्षमुलताया तु गुर्वी भवति कल्पना। वदस्वतन्न शाखस्यात् मूलं तत्र 'सुसंगतम् ॥ १०॥ . पिङगमानामपि श्रतिमुलस्वम् नम्बर दमूल वेपो वेदवि कधम? गत्या त एव पृच्छयन्ता साक्षय यदि विद्यते ॥ १०२॥ गोयधे या कथं तेरा द्वेषः सुस्पष्ट दिले ? प्रत्युक्तं च विरुद्धत्व, शाखानन्त्याच दुगमम् ॥ १०६॥ किमिय वेदसवस्वं यावदस्मन्मुख स्थितम् । शाखान्तराद्वा संवादः न लभ्यतेति का प्रमा ? ॥ १० ॥ तथा च सांख्यशास्त्र प्रसिद्धत्रिगुणात्मकप्रकृतिसूचनपर अजामेकां लोहिन शुक्ल ष्णा' (ले. ना. १०२, थे. ४-५) इति चदिकं लिङ्गमुलभ्यते ॥ *वर्गाश्रति एन वन नाश्रमिणा वाऽनुष्टीयमाने कर्मणि न झन्येषामधिकारः। मूलान्तरोदय:--म्रान्स्यारमूलकरकरूपना । अन बौद्धायाग द्वषः इत्यन्वयः ।। साक्ष -- सामरस्य भावः, पाण्डित्यमिति यावत् ॥ गोवध इति । श्रयने हि सवाल गदालंभं सन्यास पलपैतृकम् । देवराञ्च सुतोत्पत्ति कलौ पञ्च विवर्जयेत्' इनि चैदिकस्यापि त्यागोपदेशः । मत: न तावन्मात्रात अप्रामाण्यम् । । स्वसंगतम्-ख. येषां देशादि-ब. Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाहिकम ४] 647 * निग्रन्थकथित 'तपस्सचिवत 'स्वज्ञानशंसी चामनुवादो दृश्यते ' मुनयो वानरशनाः' ( तै. आ. २७) इति । एवं रक्तपदपरिग्रहभस्मकपालचारणादिमूलमप्यभियुक्ता लभन्त एव ॥ मन्वादिस्मृतिवत कर्तृसाम्यस्यासंभवेऽप्यतः । प्रमाणं वेदमूलत्वात् वाच्या ' सर्वागम'स्मृतिः ॥ १०५ ॥ कोकावतानमाप्रामाण्यम् ततश्व 66 'यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः । सर्वोऽभिहितो वे सर्वज्ञानमयो हि सः " इत्यत्र यथा मनुग्रहणं गौतम-यम- आप संवर्तकादिस्मृतिकारोप'. लक्षणम्, एवं अईत्- कपिल-सुगता द्युपलक्षणपरमपि व्याख्येयम् ॥ [लोकायत मतस्य अनुपादेयत्वम् ] नतु च ! लोकायता द्यागमेऽव्येवं प्रामाण्यं प्राप्नोति । 'विज्ञानघन एवतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति' (बृ. ४-४ -१३) इति वेदमूलदर्शनात् । ततश्च लोकायतदर्शने प्रमाणभूते सति स्वस्ति सर्वागमेभ्यः ! उच्यते 1 न हि लोकायते किञ्चित् कर्तव्यमुपदिश्यते । वैतण्डिककथैवासौं न पुनः कश्चिदागमः ॥ २०६ ॥ ननु च ! 'यावज्जीवं सुखं जीवेत्' इति तत्रोपदिश्यते । एवं 'स्वभावसिद्धत्वेत, अत्रोपदेशवेफल्यात्', 'धर्मेो न कार्यः ', निर्मन्थाः -- जैनाः ॥ + वातरशताः दाताशनाः -- तपस्विनः ॥ न हीत्यादि । तथा च पारलौकि रुकर्तव्यानुपदेशात् लोकायतं न श्रमाणमित्यर्थः । ननु वस्तु अतिमन्दाधिकारी पारलौकिकर्माधिकृतः, स तु ऐहिकाद्वा न प्रच्युतो भवेदिति कहगयैव लोकायतोपदेश इति कुतो न स्वादिति बेद, अस्तु कामं तथैव । न तावता इतराप्रामाण्यम् ॥ 1 वचसः चित्त-ख. बागमो - ख. 5 प्रमाण-स्त्र. " सर्वागमा - ख. ३ कातिकादिस्मृत्यन्तरोप- ख. 6 'न-ख. Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 आगमनाम ग्यनिरूपणम् শামী 'तदुरदेशेषु न प्रत्येतव्यम्' इत्येर वा यदुपदिश्यते. तत् प्रतिविहिलमेष, पूर्वपक्षवचन मूलत्वात् लोकायतदनस्य। तथा च तत्र उत्तरब्राह्मण भवारे 'नवा अरे अहं मोवी मे अविनाशी या अरेऽस्मारमा मात्रासंसर्गस्त्वस्य गवति' (बृ. ४-४-१२-१३) इति । तदेवं पूर्वपक्षवचनमूलत्वात् लोकायतशास्त्रमपि न स्वतन्त्रम् । उतरवाक्यप्रतिहतत्वात्तु दनादरणीयम् । बौदाद्यागमधाकिमतया बैलक्षणयम शास्त्रान्तराणां तु पूर्वपक्षवाक्यमूलत्वल्पतं अयुक्ता। समनन्तरमेव तत्प्रतिपक्षवचनानुपलम्धेः इत्यतः वेद मूलत्याद 'सगमाः' प्रमाणम्। | [ মালাশা কবিতামানা ও কম ] सर्वागमम्माणत्वे नन्येवमुपादिते । अहमप्यद्य यत्कञ्चिन्न आममं वयामि चेत ॥ १०७ ॥ तस्यापि हि प्रमाणन्यं दिनः कतिपय भवेत : तस्मन्नपि न *पूर्वोकन्यायो भवति दुर्वचः ॥ १०८ ॥ जगत्पुस्तक लेखित यद.पे तदगि शिञ्चिांदेदानी केनापि धूर्तेन 'प्रख्याप्यते-- मह नयागम इति। तत्राप्याप्त पय प्रणेता कल्प्य. साम ! यादृशं तादृश बांदकं वचनमुव्यता मूलभूत म त..... नैतदस्त्यविगीतां ये प्रसिद्धि प्रापुरागमाः। कुतश्च बहुभिर्यवां शिरिह परिग्रहः ।। १८९५ अद्य प्रवर्तमानाश्च नापूर्या इव भान्ति ये। येषां न मन लोभादि ये नोजिते ज॥ ११.!" * पूर्वोक्तन्यायः -- शास्त्रान्तरादा संवादः' इत्या अनुपदभेवन । + नैतदित्यादि। अयमाशयः-प्राचीनो वा नवीनो वा भागमः विषानुगुगो यः स एव स्वयं प्रतिहितो भवति. अननुगुगश्च स्त्रय नइ पर, वेति अनाद्यनुभवसिद्धेऽस्मिन् विषये नास्मानितन्य किञ्चिदिति । 'सर्वागम: स्व. अन्याय-ख. महाजनसमूहे ये--व. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 649 मादिकम् ४] व्यापातादिमिः वेदप्रामाण्याक्षेपः तेषामेव प्रमाणत्वं आगमानामिहेष्यते । न मृष्यते तु यत्किञ्चित् प्रमाणं 'कुट्टनी'मतम् ॥ १११ ॥ तथा हि--- अमितैकपटनिवीतानियतस्त्रीपुंसविहितबहुचेयम् । नीलाम्बरव्रतमिदं किल कल्पितमासीत् विटः कैश्चित् ॥ ११२३ तदपूर्वमिति विदित्वा निवारयामास धर्मतत्त्वज्ञः। राजा शङ्करवर्मा न पुनर्जनादिमतमेवम् ॥ १३ ॥ वेदागममामाण्योगसंहारः] इत्याप्तोक्तत्वहेतोः परिमुषितपरोदीरिताशेषदोषात् एषां वेदागमानां सुदृढमुपगते मानभावे *प्ररोहम। 'उन्मलत्वात्तयार दुरुपवचनतो वाऽस्तु शास्त्रान्तराणां तिहारेणापि वक्तुं न खलु कलुरता शक्यते वेद'वाचाम् । - [मनृतम्बाधातादिमि: वेदप्रामाण्याक्षेपः ननु ! नाद्यापि वेदस्य प्रामाण्यं 'सुव्यवस्थितम् । स्वदेहसंभवैरेव दोषैरनृतादिभिः ॥ ११५ ॥ 'चित्रया यजेत पशुकामः', 'पुत्रकामः पुत्रेष्टया यजेत' इति 'थ्यते । न चेष्टयनन्तरं पुत्रपश्यादिफल नुपलभ्यते । तस्मात् असत्याः चित्रादिचोदनाः॥ *प्ररोह-अप्रतिरोधमिति भावः ।। पुरुषयवनतः--पौरुषेयवाश्यत्वात् ॥ सहारेमापीति। न हि सिद्धान्ते पौरुषेयत्वं बप्रामाज्यहेतुः, किन्तु दोषमूलत्वमेव ।। तमामाण्यमनायाघातपुनरुक्तदोषेभ्यः' (न्या. सू. २-१-५८) इत्याधुकं विचारं प्रदर्शयति-ननु नाद्यापीत्यादिना ॥ कुटनी-ख. 'तन्मूल-ख. 'वाच्या -क. 'सुस्थपद-ख. Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 अतृत्वादिभिः वेदप्रामाण्याक्षेत्र: न्यायमञ्जरी ___ [चित्रादिकर्मणां फलव्यभिचारसमर्थनम् ] ननु च ! यः पशुकामः स इटिं कुर्गत् -इतीयागेय वाक्यार्थः। तत्र यागात् पशो भवन्तीत्यतत्व * 'दुरुपपादन । ते च भवन्तोऽ. प्यनन्तरमेव भवन्तीत्येतत् दुरुपादतरम्'। अतः कथं न सत्यार्थत्वं चित्रादिवोदनानाम् उच्यते- यावजीवं यजेत' 'यावजो जुहुगत्' इति जीवनवत् । असाध्य मानाशुकामनैव नाधिकारि विशेषणं भवितुम कि। पशूनां ततः कर्मणः सिद्धिमनव. बुध्यमानस्य तत्राधिकार पत्र न संय इति निप्यने एतत् । अनन्तयमपि कर्मस्वभावार्ग टोचनेनैव गम्यते, समनन्तरफलत्वेत कर्मगां दृष्टत्वात् । प्राइच यहा तावदियं विद्यमानाssसीन, तदा फलंन दत्तवती यदा फटमुत्पद्यते तदाऽसौ नास्ति, असती कथं फलं दास्यति?' इति ॥ अपि च कालान्तरे फटस्थात् प्रत्यक्षं कारणमुपलभ्यतेसेवादि। मिश्च कारणे हसनिको नाम सक्षनाएः अदृष्टं चित्रादिकारण कल्पयेत? तस्मादसत्या:चित्रादिचोदनाः, प्रत्यक्षा दुरूपपादमिते। न हि तत्र गागस्य पशुसासन अक्षरतो लभ्यते। भार्थिकत्वे च जन्मान्तरीय सपि फलं भवितुमतीति कथं व्यभिचार इत्यर्थः । अपाध्यनाने जीवनात पशु: न हि सिद्धः, किन्तु साध्यः। अतः साध्यमा-पालनव ओषणं, न स्वसाध्यमानपशुकामना। यतश्च पशुस्साध्यमानः, यतश्च तरकामनावताऽनुष्टीयते. तत एव यागस्य पशुसाधनस्त्वं सिद्धमित्यर्थः ।। अस्तु साध्यसाधनमाय: तु कालान्तरफले वापि घटरः इत्यत्राहआनन्तर्यमपीति। न हि जन्माभरपदेशेन यज्ञामनुतिग्रन्तीति भावः । आह चेति। लोक इति शेषः॥ || अन्यत् कारणं इत्यन्वयः ।। लेवा - राज सेवा ॥ ताबदुपाच-स्त्र. न भवन्ती-क. 'पादनम-ख. 'एव इति-स्वा. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्विजन ४ विसंवादादेदप्रामाण्याक्षेपः 651 दिप्रमाणपरिच्छेदयोग्यार्थोपदेशित्वे सत्यपि तत्संबादशून्यत्वात्। एवंविधविप्रलभकवाक्यवत् ॥ - [चित्रादिष्टान्तेन अग्निहोत्रादीनामप्यफलस्वं सिध्यति] वित्रादिवचसामेवं अपवारस्य दर्शनात् । अनाश्वासोऽग्नहोत्रा दिवोदनास्वपि जायते ॥ ११६ ॥ अग्निहोत्रत्रोदना, मिथ्या-वेदैकदेशत्वात् , चित्रादिचोद. नावत् । तदत्र तावदसंवादात् अप्रामाण्यम् ॥ एवं 'पुत्रकामः पुत्रप्रया यजेत' इत्येवमादायपि असंवादोद्रष्टव्यः॥ कुत्रचित् विसंवादश्च] विसंवादोऽपि क्वचित् दृश्यते प्रीते *यजमाने पापचयनाख्यं कोपदिश्य एवमादिश वेदः ‘स पप यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्ग लोकमंति' इति । तत्र 'पपः' इति तावत् आत्मनो निर्देशः क्लिष्ट एव, पिरोक्षत्वात, फ्यकालादियनायुधसंबन्धाभावाच कायरत्वेष निर्दिश्यते, स न स्वर्ग लोकं याति- इति ; तद्विपरीतभस्मीभावोपलं. भादति विसंवादः। एवञ्च असंवादविसंवादाभ्यां अप्रमाणं वेदः॥ . वेदवाक्येषु परस्परग्याहतिश्च] व्याघाताच-'उरित होतव्यम्', 'अनुदित होतव्यम् ', 'समयाध्युषि । हातव्या' इति होमकालत्रयमपि विधाय निन्दार्थवाद: तदेव निषेधनि-'श्यामो वा अस्याहुतिमभ्यवहरति, य उदिते जुहोति। शवलो वा अस्याहुतिमभ्यवहरति, योऽनुदिते जुहोति । श्यामशबलावस्याहुतिमभ्यवहरतः, यः समयाध्युषिते जुहोति' ॥ न चार्थवादमात्रमादति वक्तव्यम् । यतः-- विधानं 'कल्प्यते स्तुत्या निन्दया च निषेधनम्। विविस्तुत्योः समा वृत्तिः तथा निन्द निषेधयोः ॥ ११७ ॥ * यजमानः--आहिताग्निः। दशमे (जै सू.१०) इद चिन्तितम् ।। +परोक्षत्वादिति । एषः' इति हि प्रस्यक्षवनिर्दिश्यते॥ वृत्तिः-- व्यापारः। तथा च स्तुत्या विधे:, निन्दया निषेधस्य च प्रतीतौ सिद्ध एवं न्याघात कत्सत-ख. Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 653 वेदप्रामाण्याक्षेपसमाधानम् न्यायमरी ___न हि निन्दा निन्दितुमुपादीयते, किन्तु निन्दितादितरत् प्रशंसितुमित्ययमपि प्रकारोऽत्र न संभयति; कालत्रयस्याप्यत्र निषेधात् कस्यान्यस्य तन्निन्दया प्रशंसा विधीयते? तस्मात् परस्परविरुद्धार्थोपदेशलक्षणात् व्याघातात् अप्रमाणं वेदः . पौनरुक्यं च वेदे दृश्यते पौनरुकन्याञ्च-'त्रिः प्रथमामन्वाह विरुत्तमाम्' इत्यभ्यास चोदनायां प्रथमोत्तमयोः सामिधेन्योः त्रिर्वचनात् पौनरुक्तयम् । सकृदनुवचनेन तत्प्रयोजनसंपत्तेः अनर्थकं त्रिर्धचनम्। तस्मात् इत्थमनृतव्याघातपुनरुकदोषकलुषितत्वात् अप्रमाणं वेदः। तदाह' सत्रकार: "तदपामाण्यमनतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः पुत्रकामेष्टिहवनाम्पासेषु' (न्या. सू. १-२-५६) इति ॥. [वेदप्रामाण्यावरोधिदोषपरिहारः] अब समाधिनाह'न कर्मकर्तृसावनवैगुण्यात्' (न्या. सू. १-२-५७) इति॥ . अयमाशयः-अप्रामाण्यसाधनं अनृतत्वं परैरुक्तम्। अनृतत्वे च साधनं फलादर्शनम्। एतञ्चानैकान्तिकम, अन्यथाऽपि फलादर्शनोपपत्तः। किं वेदस्यासत्यार्थत्वादत्र फलादर्शनम्? उत कादिवैगुण्यात् ? इति न विशेषहेतुरस्ति ॥ * 'तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुतदोषेभ्यः' इत्येतावदेव प्रसिद्धः सूत्रपाठः। - 1ववाह-ख. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदे दोषपरिहार: [कार्यादौ प्रत्यक्षादेव फलनिश्चयः ] ननु ! न कदाचिदपि कर्मसमनन्तरमेव फलमुपलब्धमिति, तददर्शनमेव तदनृतत्वकारणम्, न कारणवैगुण्यमिति तदयुक्तम्अविगुणायां काय प्रयुक्तायां सद्य एव वृठेर्दर्शनात् । न च तत् काकतालीयम; आगमेन, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां च * तत्कारणत्वदर्शनात् ॥ आडिकम् ४] पुत्रादिस्त्वैहिकमपि फलं वस्तुस्वभावपर्या टोचनयैव न सद्यो भवितुमर्हति । न हि नभसस्तदानीमेव वृष्टिरिव निपतति पुत्रः, स्त्रिपुस संयोगकारणान्तरसभ्यपेक्षत्वात् 'तदुःपत्तेः' । पश्वादि'प्रातस्तु कस्यचित् 'अदूर' कालेऽपि दृश्यते, प्रतिग्रहादिना । तथा ह्यस्मत्पितामह एवं ग्रामकामः सांग्रहण कृतवान् स इष्टिसमाप्तिसमनन्तरमेव गौरमूलकं ग्राममवाप ॥ T [ यागजन्यफलस्य दृष्टकारणकत्वं न वक्तुं शक्यम् ] ननु ! एवं तर्हि प्रतिग्रहाद्येव दृएं कारणमस्तु पश्वादेः । पुत्रस्य च स्त्रीपुंसयोग ' । किनिष्टेः कारणत्वकल्पनया ? इति - मै बोच:- सत्स्वपि च दृप्रेषु कारणेषु तददर्शनात् इतिप्रयोगानन्तरं चैतद्दर्शनात् इष्टिकृतं स्त्रीपुंसयोगादिकारण ' त्वमिति ' निश्चीयते । किञ्च - 'नाद' साम्येऽपि फलभेदतः । कुं न युक्त तत्प्रतिः दृकारण नात्रजा ॥ ११८ ॥ 653 * तत्कारणत्वदर्शनात्, कारीर्या इति शेषः ॥ + स्त्रीपुंसेति । ' भचतुरविचरखीपुंस' इति निपातः ॥ ग्राममवाप, प्रतिग्रहादिति शेषः । गौरमूलमिति ग्रामनाम ॥ 5 S सरस्वपीति । इष्टयनुष्ठानपर्यन्तं यानि कारणानि दृष्टान्यासन् बैः फलादर्शनात्, इष्टयनुष्ठानानन्तरं तैरेव फलदर्शनाच्च प्रतिग्रहस्थले इष्टिकृतः ग्रामदानुः तादृशबुद्धिसंयोग इत्येव वऋव्यमित्यर्थः ॥ || इष्टिकृतं - इष्टिसमनन्तरकृतम् ॥ 'उत्तर- ख. ' उत्पत्तेः-क. 'कृष्णध्ययनादि - क. 3 पुंयोग:- क. " मिति-क. Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 654 वेदप्रामाण्याक्षेपसमाधानम् न्यायमजरी * भूतस्वभाववादादि पुरस्तात् प्रतिषिध्यते । तस्मान्न मुपेतव्यं अबान्यदपि कारणम् ॥ ११९ ॥ तदुक्तं-'तञ्चैव हि तित्र कारणम् , शब्दश्च' (शा. मा. १-१-५) इति ॥ फलादर्शनस्थले प्रतिबन्धकं उह्यते यत्र पुनः अविगुणेऽपि कर्मणि प्रयुज्यमाने कालान्तरेऽपि पुत्रपश्वादिफलं न दृश्यते, तत्र तीव्र किमी प्राक्तन कर्म प्रतिबन्धक कल्पनीयम् । यत्रोक्तम् श्लो.वा. १-२.५ चित्रा. परि.)-- 'फलनि यदि न सर्व तत्कदाचित्तदेव ध्रुवमपरमभुक्तं कर्म शास्त्रं यमास्ते' इति। कर्मादिगुण्यग्रहणमुगलक्षणार्थ ऋषिणा प्रयुक्तः। न तु वेदस्याप्रामाण्श्कल्पना साध्वी, साद्गुण्ये कर्मणः प्राचुरेण फलदर्शनात् । ___ अपि च-वित्रातः पशवो भवन्ति-इत्येतावानेव शास्त्रार्थः । आनन्तये तु न किञ्चित्रमाणमस्ति। तदयं प्रत्यक्षादिविसवादः आनन्तर्यविषयः। चित्रादिचोदना तु अनिर्दिएकालविशेषविषयेति विषयभेदान सा तेन वाध्यते। तदाह भट्टः (श्लो, वा. ५-१-५चित्रा. परि. ४) 'आनन्तर्यविसंवादः नाविशेषप्रवर्तिनीम्। चोदनां बाधितुं शक्तः स्फुटाद्विषयभेदतः' इति ॥ * भूतस्वभाववाद:-बस्स्व भाववाद:-कार्याकस्मिकतावादः।। +तत्र-कालान्तरीणावादिफले चित्रैव कारणम् ; चित्राविधिरेवान प्रमाणमित्यर्थः ॥ * ननु अनृतदोषे आपादित कर्मवैगुण्यादिकथनेन किं साधितम् ? पूर्वपक्षोक्तवैफल्यमङ्गीकृतमेव खल्विति शङ्कायामाह-कर्मादी त। कस्यार्थस्योपलक्षण. मित्यत्राह-न वित्यादि। अनुपदोक्तप्रतिबन्धकदृष्टया प्राचुणेति ॥ आनन्तर्ये-समनन्तरभावित्वे। तेन--प्रत्यक्षविसंवादन ।। 1 संवादः-१. आनन्तर्याप-स्व. Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् ४] वेदेऽनृतत्वदोषपरिहारः 655 [क्रियाफलविधिफलयोर्विशेषः] यत्तु *कर्म स्वभावार्यालोचनया चित्रादेरनन्तरफलत्वमुक्त, यत्कालं हि मर्द, तत्कालं भईनसुखमिति तदेतदत्यन्तमनभिज्ञ स्याभिधान-विधिफलानां क्रियाफलतुल्यत्वामुपपत्तेः। इह किञ्चित् विधिफलं भवति, किञ्चित् क्रियाफलम्। कृप्यादौ तु भूमि'पाटनादि 'क्रियाफलम् ; लस्यसमात्तिस्तु विधिफलम्॥ ___ कापुनः कृप्यादौ विधिः? अस्ति वा विद्यायां, वृद्धोपदेशो वा कश्चिद्विधिः। अन्वयन्यतिरेको वातत्र विधिस्थानीयौ भविष्यतः ॥ . लोकेऽपि वेतनकामः परति' इत्यादौ पाकक्रियाफलं ओदनः, विधिफलं तु वेतनम् । तत्र क्रियाफलाना मेवैप नियमः, यत् क्रियानन्तरभारित्वक्ष । विधिफलानां तु वेतनादीनां नास्ति काल नियमः। इशावपि हविकारादि कियाफ सद्यो भवत्येव। पशुपुत्रादि तु विधिफलं अनवच्छिन्न कालम् । अत एव मदनसुखं क्रियाफलमिति सद्यो भवति । मृगनसुपुंसः सेवाफलमनियत कालम् ॥ ग्रामकामो महीपालं सेवतेत्येवमादिषु।। लौकिकेषु विधिष्वस्ति न कालनियमः फले ॥ १२० । आयुर्वेदोपदिष्टानामन्यौपधविधीनां न कियावत् सद्य एव फलदर्शनम् । अपि तु कालापेक्षमेवेति न फलानन्तर्ये किञ्चित्रमाणम् ॥ * कर्मस्वभावः-कर्मणां समनन्तरफलकत्वस्वभावः मर्दनादौ दृष्टः ॥ भूमिपाटनादी त। कृषधान कर्षणार्थः । यदि च यावद्वान्यप्राप्ति ग्यापार एव कृषिपदार्थः, पाकादिवत् (पु. 50), तदा फलमपि दृश्यत एव । तथा च विधि:-परमातुल्य: प्रको। म हि पाको नाम एका क्रिया, किन्तु क्रियासमुदायः॥ ... वेतनमिति। तदुद्देशेनैव पाककरणात् । भोजनोद्देशेन करणे तु भोजनमेव विधिफलम् ॥ नत्र-क. फलाक्रियाना-क. ___ पाटवादि-ख. 2 पदेशे-ख. 5 भवति-च. फलम्-ख. Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 656 वेदप्रामाण्याक्षेपसमाधानम् [ पुरुषेच्छानुगुणा फलसिद्धिर्न भवति ] यत्तु * पशुविरह ' कृतकशतादिदो' दूयमानाधिकारिस्वरूपपर्यालोचनया सद्यः फलत्वमुच्यते - तदपि न सांप्रतम् - पुरुषेच्छा मात्रमेतत् न प्रमाणवृत्तम् ॥ 9 [ ऐहिकानामपि फलानां न क्रियासमनन्तरभावित्वनियमः ] 3 अपि च ऐहिक फस्य तावता सेत्स्यति न पुनः क्रियाफलवत् सद्यस्त्वम् । सन्ति चैहिकफलान्यपि कालान्तरसव्यपेक्षाणि कर्माणि । यथा- - ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्ये विप्रस्य पञ्चमे इति । न तत्र पञ्चमवर्षे उपनीतमात्र एव माणवकः ब्रह्मवर्चस संपन्नो भवति, कालान्तरे तु भवतीति । एवं + वीर्यकामा दिष्वपि इष्टव्यम् । तस्मात् विधिफलानां आनन्तर्यनियमाभावात् न तद्विसंवाशे दोषाय । कालान्तरेऽपि यत्र फलादर्शनं, तत्र क्रियावैगुण्यकर्मान्तरप्रतिबन्धादि कारणमित्युक्तम् ॥ [मीमांसकोक्तानृतत्वपरिहारक्रमः ] अन्ये कर्षादिवैगुण्यकल्पनाननुमोदिनः । इहाफलस्य चित्रादेः फलमा मुत्रिकं जगुः ॥ १२१ ॥ [ न्यायमरी सर्वाङ्गोपसंहारेण काम्यक प्रयोगात कोऽवसरः कर्मवैगुण्य कल्पनायाम् ? जन्मान्तरे तु तत्फलमिति युक्ता कल्पना' ॥ [ फलकालभेदात् कर्मणां त्रिविधत्वम् ] तथा च त्रिविधं कर्म - किञ्चिदैहिकफलमेव, किञ्चिदामुष्मिकफलमेव, किञ्चिदनियतफलमेव' - इहामुत्र वा तत्फलप्रदम्-इति कल्पना ॥ * पशुविरहेति । पश्वभावकृतं यत् कदशनं कुत्सितं अशनं - कद, तेन दूयमानः चित्रेष्टयधिकारी | दधिक्षीराद्यभावेन समीचीनभोजनाभाव विनमनसः पश्वर्थ चित्रायां प्रवृत्तिः ॥ + वीर्य कामादिष्विति । ' राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येद्दार्थिनोऽष्टमे ' इति मनुः (2-37 ) । ईदा - कृभ्यादिव्यापारः वैश्यधर्मः ॥ ' कृतकदर्शनादि दोष-क. किश्चिदामुष्मिकफकमेव-ख. 2 कराना-ख. दिनियमेव Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माडिकम् ४] कमैत्रैविध्यपक्षः 667 तत्र कार्यादि तावत् ऐहिकफलमेव । तद्धि सकलजनपद सन्तापकारिणि महत्यवग्रहे प्रस्तूयते । वृष्टिलक्षणं च तत्फलं स्वभावत एव *सकललोकसाधारणम्। आसन्नतयैव तदमिलषणीमिति सद्य एव भवितुमर्हति। वचनानि च तत्र ताश्येव दृश्यन्ते-'यदि वर्षेत्, तावत्येवेर्षि समापयेत्। यदि न वर्षेत् श्वोभूते जुहुयात् '--इति ॥ ___ आमुष्मिकफलं तु कर्म ज्योतिष्टोमादि फलस्वभावमहिम्नेव पारलौकिकं भवति ॥ . स्वर्गो निरुपमा प्रीतिः देशो वा तद्विशेषणः । - भोक्तुं नोभयथाऽप्येषः देहेनानेन शक्यते ॥ १२२ ॥ चित्रादि तु अनियतफलं कर्म, तत्फलस्य पश्वादेः इह वा परत्र वा लोके सम्भवात् ॥ . चित्रादीनां जन्मान्तरीयपश्वादिफलकत्वं युक्तमेव अवश्यं चैतदेवं विज्ञेयम्। तथाहि-अकृतचित्रायागानामपि इह जन्मनि पशवो दृश्यन्ते । ते परिदृश्यमानसेवाप्रतिग्रहादिकारणका एवेति कथ्यमाने किर्मनिमित्तत्वहानेः बृहस्पतिमतानुप्रवेशप्रसङ्गः । कर्मनिमित्तकत्वे तु तेषां पशूनामुपपादकं किं कर्म ? इति निरूपणीयम् न हि ब्रह्मवर्चसादिफलात् कर्मणः पशवो निष्पद्यन्ते । चित्रा च पशुफला इह जन्मनि तेर्न कृतैव । पूर्वजन्मकृता तु तस्मिन्नेव जन्मनि फलं दत्तवतीति नियतैहिकफलाभ्युपगमादिति कुतः पशुसंपत् ? ... ज्योतिष्टोमादिकर्मशेषफलत्वं ऐहिकपश्चादीनां न युक्तम् ] ननु ! गौतमवचनप्रामाण्यात् पूर्वकृतभुक्तशिष्टज्योतिष्टोमादि__ * सकललोकेति। तस्कर्तृमात्रस्य वृष्टिफलमाक्स्वाभावात् जन्मान्तरीयं वृष्टयादि फलं न कल्पयितुं पाक्यमित्यर्थः ॥ किर्म-प्राचीनं कमा परिश्श्यमानसेवादिमात्रफलकत्वे सर्वत्रैवं प्राचीनकर्मापकापसंभवेन चार्वाकमतप्रवेश: स्यात् ।। NYAYAMANJARI Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 वेदप्रामाण्याक्षेपसमांथानम् (न्यायमजरी कर्मनिमित्तकः स पशुलाभो' भविष्यति । यथोक्तम्- *वर्णा आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफल मनुभूय पतन्तः 'ततश्शेषण +विशिष्टदेशश्रुतवृत्तवित्तादियुक्तं जन्म प्रतिपद्यन्ते (गौ-प्र-सू-११-३१)। नैतत् यथाथुतं बोद्धं युक्तम्--- न ह्यन्यफलकं कर्म दातुमीष्ट फलान्तरम्। साध्यसाधनभावो हि नियतः फलकर्मणाम् ॥ १२३ ॥ तस्मात् समूहापेक्षा शेषवाचोयुक्तियाख्येया-बहूनि हि कर्माणि वर्णा आश्रमाश्च कृतवन्तः। ततः कर्मसमूहात् ज्योतिटोमादिफलं प्रेत्यानुभूयते। ततः शेषेण चित्रादिना कर्मणा विशिष्टं जन्म प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः। तस्मात् पूर्वजन्मकृतचित्रादिनिबन्धनः इह जन्मनि पशुलाभः, नाकर्मनिमित्तकः, नान्यकर्मनिमित्तक इत्येवमनियतफलत्वात् चित्रादेरिह जन्मनि फलादर्शनेऽपि नानृतत्वं तचोदनानाम् , जन्मान्तरे हि ता इष्टयः फलं दास्यन्तीति ॥ पूर्वोक्तकर्मत्रैविध्यासंभवसिद्धान्त:] .. ___ अत्रोच्यते-किं वाचनिकमेतत् कर्मणां त्रैविध्यम् ? उत पुरुषे. च्छाधीनम् ? इति ॥ तत्र वचनं तावत् विविधविभागप्रतिपादकं नास्ति‘कारीरी निर्वपेत् वृष्टिकामः', 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत'', 'चित्रया पशुकामः' इत्येतावन्मात्रश्रवणम् । न ह्यत्र ऐहिकत्वं, पारलौकिकत्वं, अनियतत्वं वा क्वचित् फलस्य पठितम् ॥ ___*वर्णा आश्रमाश्च-मर्शभायजन्त:--तत्तद्वणिनः, तत्तदाश्रमिणश्च । एवमुत्तरत्रापि ॥ + विशिष्टेति --- उत्समेति यावत् ॥ चित्रयेति । . यजेतेत्यस्यानुवृत्तिः। विधिसम्छायानि ग्रन्थकर्तुरेवेमानि वाक्यानि ॥ शेषेण-ख. पशुलाभा-ख. वर्णाश्रमाश्व-ख. फल-ख. 5 बहूनि स्व. यजेतेति-ख. पठितव्यम्-ख. Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४] कर्मविध्यनिराकरणम् 659 * विधिवृत्तमपि इयदेव - यत् । 'सप्रत्यय प्रवर्तनं नाम । तत्र इदमेकामेन कर्तव्यमित्येतावान् लिङर्थः । अपुरुषार्थरूपे व्यापारे प्रवर्तकत्वलक्षणस्वव्यापार निर्वहणमनधिगच्छन् विधिः S अधिकारि विशेषणस्य कामस्य', काम्यमानस्य स्वर्गादेः, भावार्थस्य च यागादेः साध्यसाधन' सम्बन्धमेव अवबोधयति'; न काम्यमानस्य सद्यः, कालान्तरे वा निष्पत्तिमाक्षिपतीति ॥ फलस्वरूपपर्यालोचनया तु सत्यं स्वर्गस्य पारलौकिकत्वमवगम्यते, न तु पश्वादेरनियमः ' ॥ पुरुषेच्छा तु पुरुषेच्छेव, न तया शाखार्थो व्यवस्थापयितुं शक्यः । तस्मात् निष्प्रमाणकं त्रैविध्यम् ॥ [चित्राया: फलकालानियमे कार्या अपि तथैव स्यात् ] यस्तु चित्रादीनामनियतफलत्वे न्याय उक्तः (लो-वा-१-१-५चित्रा - परि- १५ ) 'चित्रादीनां फलं तावत् || क्षीणं तत्रैव जन्मनि ' इत्यादिः स कारयमपि निश्चितैहिकफलायां योजयितुं शक्यः । 6 raratri काय न हि देवो न वर्षति । जन्मान्तरकृता तत्र 'कारीरी किं न' कारणम् १ ॥ १२४ ॥ * विधिवृत्तं विधे: स्वभाव: ॥ + सप्रत्ययं - सश्रद्धम् ॥ --- + अपुरुषार्थेति । पुरुषार्थपर्यवसामि हि शास्त्रम् । शास्त्र – शासनं विधिरेव || 5 अधिकारिविशेषणं - -कामनावतः अधिकारे कामना सम्र विशेषणम् ॥ || क्षीणं, तज्जन्मनियतफलकत्वे इति शेषः । तथा च इदानीमकृतचित्राणामपि पशुदर्शनात् पूर्वजन्मन्यदत्तफलं चित्रादि करूप्यमिति तस्या अनियतकाल फलकत्व सिद्धिरित्यर्थः ॥ 1 4 सत्प्रत्यय-ख. 2 विशेषणस्य - ख. 3 सम्बन्धमाक्षिपति - ख. 1 नियम: -ख. 5 कारीरी किं नु क. 42* Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 ইমামল্যাঞ্জীবনাখাল न्यायमचरी _* तस्मात् साऽप्यनियतफला भवतु ॥ [चित्राकारीयों: न कश्चन विशेषः 1 अथ सस्यसंपत्संपाचसुखसंभोगसाधनभूतादृष्टनिमित्ता 'वृष्टिः अद्याकृतायामपि कार्यामिति. मन्यसे ; तर्हि दधिक्षीरादिभक्षण सुखाश्शेषिकर्मनिमित्तकः पशुलाभो भविष्यति अकृतचित्रायागानाम् । ||कारीर्यधीन ओदनः, 'चित्राधीनं दधीति, दध्योदनभोजनसुखसाधनाइष्टकारिता पशुवृष्टिसृष्टिर्भवतु ॥ [चित्राकारीर्योः वैलक्षण्यशङ्का, समाधानं च] अथ शृङ्गग्राहिकया पशुफला चित्रेतिरुपदिश्यते, तेन न सुखसामान्या क्षेपककर्मनिबन्धनः पशुलाभः; एवं तर्हि वृष्टावपि शृङ्गप्राहिकया कारीरी पठ्यत एवेति वृष्टिरपि सामान्यादृष्टनिबन्धना मा भूत् ॥ [कारीरीष्टेः नियतकालस्वेऽपि सर्वेषां तथा न वक्तुं शक्यम् ] अथ 'न यदि वर्षेत् , श्वोभूते जुहुयात्' इत्यादिवचनपर्यालोचनया तस्यामैहिकफलत्वमुच्यते ; यद्येवं यत्र ताशं वचनं नास्ति 'यो वृष्टिकामः स सौभरेण स्तुवीत' (ता. बा. ८-८-१८) 'यदि * तस्मात्-तुल्यन्यायत्वात् ॥ +सापिकारीर्यपि। * वृष्टे: अष्टविशेषवशालाभो वक्तं शक्यते, वृष्टेः देशसामान्यफलत्वात् । चित्रा तु न तथेति शङ्कते -अथेति ॥ सुखाक्षेपीति। तादृशमुखान्यथानुपपत्तिप्राति यावत् । सुखप्राप कति वा॥ . किमुत ! एकादृष्टाधीनस्वमपि पशुवृष्टयोर्भवितुमर्हतीत्याह-कारीरीति। कारीरीसाध्यः यः ओदमः, स इत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि ॥ ॥ शृङ्गग्राहिकया-ऐदंपर्येण ।। 1कारीरीष्टि:-ख. चित्रादीनां-ख. 'क्षेपकर्म-ख. Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह्निकम् ४] चित्रादेरनियतफलस्वनिरास: 661 " C कामयेत वर्षुकः पर्जन्यः स्यादिति ★ नीचैः सदो मिनुयान् ' (मै, सं. ३-८-९) इत्यादी, तत्र पारलौकिकफलत्वं स्यात् । +' यदि च श्वोभूते जुहुयात्' इति वचनमहिम्नैव फले सद्यस्त्वमात्रमधिकं, 'भवतु, न तु तादृशवचनरहितानां कर्मणां विस्पष्टसिद्धमcherrori raर्तते ॥ 1 [ साधारणत्वमपि वृष्टिपश्वोः समानम् ] यत्पुनः बहुसाधारणत्वेन वृधेरैहिकत्वमुच्यते - तदपि पश्वादौ समानम् - न ह्यात्मम्भरिरेव ) यजमानो भवति तस्यापि ' || ' स्ववासिनी' कुमारातिथिभृत्यादिभोजनपूर्वक || स्वभोजननियमोपदेशात्। बहुतरोपकारकत्वं तु प्रेरित्यलं तुलया || प्रत्यासत्वमपि फलद्वयस्य समानम् ] प प्रत्यासन्नत्वेन काम्यमानत्वात् वृष्ठे रैहिकत्वं' कथ्यतेतदपि तादृगेव - पश्वादेरपि तथैव काम्यमानत्वात् । तत्रावग्रह विहितसन्तापतया प्रत्यासन्नत्वेन वृष्टिरभिलष्यते : इहापि दौर्गत्यो 本 * नीचैर्मिनुयात् किञ्चिन्नीचैः प्रमाणकं कुर्यात् ॥ +' यदि च' इत्यादिः 'यदि न वर्षेत्' इत्यादि: पूर्वोक्तवाक्यस्य . (पु. 657 ) स्वकल्पितः संग्रहः । एवमुत्तरत्रापि यथायथं प्राह्मम् ॥ I 1 ' सद्यस्त्वमात्रं ' इत्यत्र मात्रपदार्थस्यैव विवरणं न त्वित्यादि । कारी परं यागसमनन्तरमेव वृष्टिरिति वचनबलात् भवतु । परं तु तारशवचनाभावमात्रात् चित्रादीनां अनियतफलकत्वं तु न कल्पयितुं शक्यमित्यर्थः ।। 8 यजमानः - चित्रायजमानः ॥ || स्ववासिनी - ' चिरण्टी तु स्ववासिनी -- प्राप्तयौवना पितृमेहस्था कन्या ।। || नियमोपदेशात् ' एक: स्वादु न भुञ्जीत', 'पुत्रैर्दारख भूत्यैख स्वगृs परिवारितः । स एको मृष्टमभातु' (रा. मा. ०५-३४) इति एकाकि भोजननिषेधो दृश्यते ॥ 1 भवतु - ख. स्ववासिन:- क. 3 रैहिक का रिस्वं क Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 वेदप्रामाण्याक्षेपसमाधानम् न्यायमरी द्वगाल आमप्यतयैव पशवः काम्यन्ते । तम्मान 'वारिदः तृप्तिमामोति सुसमक्षयमनदः' इत्यादिवननोपदिप्रसामान्यसुखसाधनादृष्टनिबन्ध नैवेयं इहाकृतकर्मणां वृष्टिपश्वादि'संपत्तिरिति' न बृहस्पति मतवत् अकर्मनिमित्तं फलम। नाए कर्मफललाध्यसाधनभावनियमव्यवहारोल्लनभिति ।। [कारीर्या अपि भनियतकालफलकत्वमेव। यश्च कार्याः क्वचित्फलावसंवादे समाधानमुक्तं (श्लो-वा-चित्रापरि-१-१-५/---- 'फलति यदि न स तत्कदाचित्तदेव ध्रुवमपरमभुक्तं कर्म शास्त्रीयमास्ते' इति तेन साऽप्यनियतफलैव स्यात् । न हि तत्कर्मान्तरं +आसंसारं प्रतिबन्धक भवन्ति। फलोपभोगाद्धि तम्यावश्यं क्षयेण भवितव्यप। प्रतिबन्धके च क्षीणे कारी वफलं तदा दातत्यमेव । साऽप्यदत्तकला न श्रीयन पवेत्यधं जन्मान्तरे तत्फल संभवात् तस्या अपि अनियतफलत्वम् ॥ अनेन व कारेण चित्रादेरप्यनियनफलत्वं अस्माभिरिष्यत एव, यत्र सम्यक्प्रयुक्तायामपीष्टौ कर्मान्तरप्रतिबन्धादेव पशूनामनुपलम्मः कल्प्यते। मिर्वथा सद्यःफलत्वमात्र समानयोगक्षेमा कार्या चित्रष्टिः ॥ [ऐहिकफलानां सर्वेषामप्यनियतकालफलकत्यमेव ] एनेन ब्रह्मवर्चसवीर्यानाद्यनामादिकामेष्योऽपि व्याख्याताः। तस्मात् यथाश्रुतं गौतमं बोद्धव्यम ॥ * न ह्यन्यफलकं कर्म' (पु. (558) इत्यादेः समाधान-नापीति ॥ + आसंसार--माप्रलयमिति यावत्। तदा- प्रतिबन्धकक्षये ॥ । सर्वथेत्यादि कारीरी सयः फलप्रदा, चित्रा तु अन्तत: एतजन्मनि इत्येतावानेव विशेषः, न तु अनियतफलस्वादिकमित्यर्थः ॥ यथाश्रुतं --मोदक्षमम। जन्मान्तरकृतचित्रादिमिरव तसरफललाभादिति हेतुः। गौतमसूत्र कर्मपदं कमसामान्यपरमिति वा ॥ संपदिति-ख. तस्या-ख Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाह्निकम् ४] पौधयोः स्वरूपम् 668 [समग्राङ्गोपसंहारेऽपि कर्मणां वैगुण्यसंभव: ] . यदप्यभ्यधायि-समनाङ्गोपसंहारेण काम्यकर्मप्रयोगात् कुतः कर्मणो वैगुण्यावसर इति-तदप्यसारम्-सर्वाङ्गोपसंहारेण प्रवृ. त्तावपि प्रमादात् असंवेद्यमानवैगुण्यसंभवात। स च विचित्रः *भाष्यकारेण प्रदर्शितः। तस्मात् पूर्वोक्त (पु. 652) पव प्रतिसमाधानमार्गः श्रेयान् ॥ सिद्धान्ते धर्माधर्मस्वरूपनिर्णयः) यत्पुनः पूर्वपाक्षिकेण कथितम्-कालान्तरे कर्माभावात् कुतः फलमिति (पु. 650)-तदपि न सम्यक् यद्यप्याफलनिष्पत्तः कर्मणो नास्त्यवस्थितिः । तथाप्यस्त्येव संस्कारः पुरुषस्य तदाहितः ॥ १२५ ॥ कर्मजन्यो हि संस्कारः पुंसो बुद्धयादिवगुणः । तस्य चाफलसंयोगात् अवस्थितिरुपेयते ॥१२६ ।। .. — यथेन्द्रियादिसंयोगात् आत्मनो बुद्धिसंभवः । तथा यागादिकर्मभ्यः तस्य संस्कारसंभवः ॥ १२७ । बुद्धिस्तु भङ्गुरा तस्य संस्कारस्तु फलावधिः। साध्यसाधनभावो हि नान्यथा फलकर्मणोः ॥ १२८॥ . स्मृतिबीजं तु संस्कारः ६ तस्यान्यैरपि मृष्यते । तथैव फलसंयोगबीजं सोऽस्य भविष्यति ॥ १२९ ॥ *भाष्यकारेणेति। 'कर्मवैगुण्यं--समीहाभ्रेषः। कर्तृवैगुण्यं - मावि'द्वान् प्रयोक्ता, कपूयाचरणश्च । साधनवैगुण्य-हविरसंस्कृतम्' (ग्या-भा२-१-५९) इत्यादिष्विति शेषः ॥ ननु चित्राया पनियतफलस्वनिराकरणे तदनृतस्वं कथं परिहरणीय. मित्यत्राह-तस्मादिति ॥ *आफलसंयोगात्-इति पदम् ।। तस्य-भारमनः॥ . Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 वेदप्रामाण्याक्षेपसमाधानम् [न्यायमश्री *स यागदानहोमादिजन्यो धर्मगिरोच्यते । ब्रह्महत्यादिजन्यस्तु सोऽधर्म इति कथ्यते ॥ १३० ॥ [इतर दार्शनिकरीत्या धर्माधर्मस्वरूपम् ] कापिलास्तु अन्तःकरणस्य बुद्धेः वृत्तिविशेषं धर्ममाहुः । आईताः पुण्यपुद्गलान् धर्मत्वेन व्यपदिशन्ति । शाक्य भिक्षवः चित्तवासनां धर्ममाचक्षते । | वृद्धमीमांसकाः यागादिकर्मनिर्वर्त्य अपूर्व नाम धर्ममभिवदन्ति । यागादिकमैव + शावरा ब्रुवते । वाक्यार्थ व नियोगात्मा अपूर्वशब्दवाच्यः, धर्मशब्देन च स पचोच्यते इति \ प्राभाकराः कथयन्ति || [पुद्गलादिवादानां असामञ्जस्यम् ] तत्र पुण्य पुद्गल - वृत्तिपक्षयोः कपिलाई गन्धक स्थितयोः तन्मतनिरासादेव निरासः ॥ आत्मनश्च समर्थयिष्यमाणत्वात् तस्यैव वासना, न चेतस इति सौगतपक्षोऽप्ययुक्तः ॥ स्वर्गयागान्तरालवर्तिनश्च स्थिरस्य || निराधार स्थापूर्वस्य निष्प्रमाणकत्वात् जरजैमिनीयप्रवादोऽप्यपेशलः । 'अपि च फलस्य दुत्पत्स्यमानदशा, यागस्य वा शक्तिः अपूर्व शब्देनोच्यते ॥ अपि च-ग * सः - संस्कारः ॥ + वृद्धमीमांसकाः - जैमिनिप्रमुखाः ॥ + शाबरा इति । 'द्रव्य क्रियागुणादीनां धर्मत्वं स्थापयिष्यते' वा. १-९-२-१३ ) इति वार्तिकम् || ई प्राभाकराः --- प्रकरणपञ्चिकायां वाक्यार्थमातृकाप्रकरणे विस्तरेणेदं निरूपितम् ॥ || निराधार इति । अपूर्वः खलु नात्मधर्मस्तन्मते । आत्मधर्मस्तु अस्भत्सिद्धान्त एव । अपूर्वं स्वतंत्रमेव तन्मते । एतदेवोपपादयश्स्यनन्तर वाक्येन ॥ 1 उत्पत्स्यमानदशा- नैयायिकानां प्रागभाव एव सः ॥ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किम् ४] array विसंवादादिपरिहारः 665 १ 'न च नियोगः' वाक्यार्थ एव अपूर्वशब्दवाच्यः तस्योपरिष्टादपाकरिष्यमाणत्वात् (५ आह्निके) || नापि यो यागमनुतिष्ठति, तं धार्मिक इत्याचक्षत इति यागादिसामानाधिकरण्येन प्रयोगात् स एव धर्मशब्दवाच्य इति युक्तं वक्तुं तस्य क्षणिकत्वेन कालान्तरे फलदातृत्वानुपपत्तेः । सामानाधिकरण्यप्रयोगोऽपि चैकान्ततो नास्त्येव ॥ - यागदानादिना धर्मो भवतीत्यपि लौकिकाः । प्रयोगाः सन्ति ते चामी संस्क्रियापचसाक्षिणः ॥ १३१ ॥ - एवं 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ' ( तै. सं. ३-५-३६) इति वैदिकोऽपि प्रयोगः तद्विषय एव व्याख्येयः ; तस्य स्थायित्वेन कालान्तरे फलदान योग्यतोपपत्तेः ॥ संस्कारो नुगुणः स्थायी तस्माद्धर्म इति स्थितम् । तस्माच्च फलनिष्पत्तेः न चित्रादौ मृषार्थता ॥ १३२ ॥ [ यज्ञायुधिवाक्ये विसंवादपरिहारः ] raft carrierra प्रत्यक्षविरुद्धत्वमुपपाद्यते स्म - भस्मी - भावोपलम्भात् कायस्येति (पु. 651 ) - तदद्व्यसमीचीनम् - एष इति शरीरा मेदोपचारेण आत्मन एव निर्देशात् । तस्य च स्वर्गगमनं भवत्येव । गमनं च तदुपभोग एव तस्योच्यते - यथा शरीरादियोगवियोगी जन्ममरणे इति । न तु व्यापिनः परिस्पन्दात्मक क्रियायोग उपपद्यते । ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नसमवायश्च तस्य कर्तृत्वमिति वर्णयिष्यते (९ आह्निके) । यज्ञायुधसम्बन्धोऽपि स्वस्वामिभावादिः * तद्विषय:- स्थायिसंस्कारविषयः । तथा च तादृशधर्मसाधनत्वात् दीनामपि धर्मस्वयपदेश इत्याशयः ॥ + ननु यदि आत्मन: क्रियैव नास्ति, तर्हि कथं करोतीत्यादिव्यपदेश इस्याह - ज्ञानेति ॥ ' न चानियोग: Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 वेदप्रामाण्याक्षेपसमाधानम् न्यायमभरी तस्यैव व्यापकत्वाविशेषेऽपि *व्यवस्थयोपपद्यत इति न कश्चिदत्र विरोधः । तस्मात् सर्वत्र निरवकाशमनृतत्वादिदूषणम् ॥ [हवनवाक्यविरोधपरिहारः] योऽपि हवनकालविधौ व्याघातदोषो दर्शित: (पु. 651)सोऽपि न दोष एव ।। तत्रानुष्ठानभेदेनो कालत्रितय'चोदना'। यो यस्य चोदितः कालः लङ्घनीयो न तेन सः ॥ १३३॥ . ततश्चान्यतमं कालं अभ्युपेत्यैनमुज्झतः। निन्देति न विरोधोऽत्र कश्चिद्विधिनिषेधयोः ॥ १३४॥ [पुनरुक्तदोषपरिहारः] . अभ्यासे पौनरुक्तयं च कार्यार्थत्वाददूषणम् । . संपाद्यं पाश्चदश्यं हि सामिधेनीषु चोदितम् ॥ १३५ ।। 'इममहं पञ्चदशारेण वज्रेणापबाधे योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः' इति श्रूयते । एकादशसामिधेन्य ऋचस्तु पठ्यन्ते। तत्राभ्यासमन्तरेण पाञ्चदश्यं नावकरूपत इत्येवमवश्यकर्तव्योऽभ्यासः । स चायमनियमेन प्राप्तः वचनेन नियम्यते-प्रथमोत्तमे ऋची त्रिरुञ्चारणीये--इति। तस्मात् तत्प्रयोजनार्थत्वात् न पुनरुक्ततादोषः। * व्यवस्थया- तत्तद्धर्माधर्माधीमयेति शेषः । अनुष्ठानभेदेनेति। न ह्येकोद्देशेन वाक्यत्रयं प्रवृत्तम् , किन्तु भधिकारिभेदेन। अतो न विरोध इत्यर्थः ॥ वचनेन-'त्रिः प्रथमामन्वाह निरुत्तमाम् ' इति वचनेन। तथा च पञ्चदशस्वं प्रासं, तस्य च शत्रुनाशकत्वात् 'एबदशारेण वज्रेण' इत्युक्तिः । इदं च १०-५-८ अधिकरणे चिन्तितम् ।। 'चोदनाव-ख. Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम ४] अर्थवादप्रामाण्याक्षेपः 667 अभ्यासे *फलरहिते हि पौनरुक्तथं दोषः स्यादिह तु न तस्य निष्फलत्वम् । व्याघातानृतपुनरुक्ततादि तस्मात् वेदस्य श्लथयति न प्रमाणभावम् ॥ १३६॥ इयं च वाक्यार्थविचारणाऽपि प्रामाण्यसिध्यौपयिकीति मत्वा । . चके स्वशास्त्रे मुिनिनेह वेदप्रामाण्यनिर्वाहणदीक्षितेन ॥ १३७॥ [अर्थवादवाक्यानामप्रामाण्याक्षेपः ] ननु ! नाद्यापि वेदस्य भवद्भिनिपुणैरपि । स्वदेहसंभवा दोषाः निखिलाः परि पिञ्जिताः' । १३८ ॥ तथाहि-'सोऽगेदीत् यदरोदीत् तद्रुद्रस्य रुद्रत्वम् ' (तै.सं. १-५-१), 'प्रजापतिरात्मनो वपामुदक्खिदत् । तामग्नौ प्रागृहात् । ततोऽजस्तूपर| उदगात्' (तै.सं. २-१-१), 'देवा वै देवयजनमध्यवसाय दिशो न प्राजानन्' (तै.सं. ६-१-५) इत्येवमादीनामर्थवादानां किं . यथाश्रुतवस्तुपरत्वम् ? उत तेभ्यः कार्यरूपार्थोपदेशपरिकल्पनम् ? उत लिङादियुक्तवाक्यान्तरप्रतिपाद्यमानकार्यरूपार्थोपयिकत्वम् ? इति चिन्त्यम् ॥ , * फलरहित इति। लोकेऽपि हि त्वरादिविवक्षया ‘गच्छ गच्छ' इत्याधभ्यासो दृश्यते ॥ + मुनिना-गौतमेन। सूत्राणि च पूर्वमेव प्रदर्शितानि॥ 'भाम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम् ' (जै.सू. १-२-१) इत्यायुक्तं विचार प्रकृतानुगुणरीत्योपक्षिपति-नन्वित्यादि । एतत्प्रकरणोदाहतानां श्रुतिवाक्यानामानुपूर्ध्या ग्रन्थकृता नैर्भर्य न स्वीकृतमिति द्रष्टव्यम् ।। परिपिञ्जिताः--पिजि हिंसायाम् । परिहृता इति यावत् ॥ ॥ तूपरः -- 'अजातशृङ्गो गौः कालेऽप्यश्मश्रा च तूपरौ' इत्यमरः ।। | यथावतेति। किमेतेषां स्वार्थ एव पर्यवसानम् ? उत तेभ्यो विधिकल्पनम् ? उत विधिवाक्यशेषत्वमिति विकल्पनयार्थः ।। 'पुचिताः -क. Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थवादप्रामाण्याक्षेपः [अर्थवादानां स्वार्थे प्रामाण्यासंभव: ] सर्वथा च प्रमादः । स्वरूपपरत्वे तावत् प्रमाणान्तरविरुद्धादेशात् अप्रामाण्यमेवावतरति, रोदनव पोरखेदनदिङ्मोहादेरर्थस्य * तथात्वे निश्चयाभावात् ॥ 668 [ अर्थवादानां विरुद्धार्थप्रतिपादकत्वादप्रामाण्यम् ] किञ्च 'स्तेनं मनोऽनृतवादिनी वाक्' इत्येवञ्जातीयकानामर्थवादवाक्यानां विस्पष्टमेव प्रमाणान्तरविरुद्धार्थ प्रतिपादकत्वम् । न हि निसर्गत एव सर्वप्राणिनामनृतवादिनी वाक् भवति, स्तेनं वा मनः। 'अपि च ' 'धूम एवाग्नेर्दिवा ददृशे नार्चिः । तस्मादर्चि: रेवतं दृश्यते न धूम:' ( तै. बा. २-१-२ ) इति प्रत्यक्षविरुद्धममि धीयते, नक्तं दिनं द्वयोरपि इन्द्रियार्थसन्निकर्षे सति ग्रहणात् ॥ किञ्च "एतन्न विद्मः यदि ब्राह्मणाः स्मोऽब्राह्मणा वा ( गो. बा. ५ - २१ ) इति ब्राह्मणजातेरुपदेश सहाय प्रत्यक्ष गम्यत्वात् 'तद्विरुद्ध ' एषोऽर्थवादः ॥ 5 [म्यायमभरी शास्त्रविरोधोऽप्यस्ति --' को हि तद्वद यद्यमुहिम लोकेऽस्ति वा नवा (तं. सं. ६-१-१) इति । शास्त्रे स्वर्गादिफलानां ज्योतिटोमादिकर्मणां उपदेशात् केयमनवक्लृप्तिः $ ॥ अपि च गर्गत्रिरात्रब्राह्मणमधिकृत्य श्रूयते - ' शोभतेऽस्य मुखं य एवं वेद' (ता. बा. २० - १६ - ६ ) इति । न हि कस्यचित् एवंविदतः सुखं शोभत इति प्रत्यक्षविरोधः ॥ अन्यकर्मानर्थक्यशंसी च कश्चिदर्थवादो भवति - ' पूर्णाहुत्या सर्वान् कामान् अवाप्नोति', 'पशुबन्धयाजी सर्वान् लोकानभिजयति', * तथात्वे- रुद्रादिसम्बन्धिरवे ॥ + द्वयोः - अग्निधूमयोः ॥ + प्रत्यक्षगस्यत्वादिति । पूर्वमेव (पु. 552 ) प्रतिपादितमिदम् ॥ $ अनवक्लृप्तिः - अनिर्णयः ॥ प्रत्याय - ख. 2 तस्मात् क.. 3 अक्षा-क. 1 एतत् क. 5 बिश्य-क. Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाडिकम् ४] अर्थवादानां स्वार्थे प्रामाण्यासंभव: 669 'तरति मृत्यु तरति पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते * यश्चैवं वेद' इति । यदि पूर्णाहुत्यैव सर्वकामावाप्तिः, पशुबन्धयागेनैव सर्वलोकजयः, अश्वमेघवेदनेनैव तत्फलावाप्तिः, तत्किमर्थमन्यकर्मोपदेशः? उपदिष्टान्यपि तानि बहुक्लेशसाध्यानि कर्माणि व्यर्थानि भवेयुः, *अनेनैव लघुनोपायेन तत्फलप्राप्तेर्दर्शनात् ॥ ___ अपि च 'न पृथिव्यामग्निश्चतव्यः नान्तरिक्षे न दिवि' (ते. सं. ५-२-७) इति वेदे चयन निषेध एवात्र भङ्गया भवेत् । दिवि चान्तरिक्षे च तावत् चयनप्रयोग एव नास्ति, किं तनिषेधेन? पृथिवीचयननिषेधार्थ च यद्वाक्यं, तत् चयनप्रतिषेधार्थमेव भवेत् , प्रपृथिव्यधिकरणकस्य चयनस्यानुपपत्तः॥ अपि च यजमानः प्रस्तरः' (. सं. २-६-५), 'आदित्यो यूपः' ते. ब्रा. २-१-५) इत्येवंजातीयकानां प्रत्यक्षविरुद्धार्थाभिधायिनां मर्थवादानां का परिनिष्ठेति । तस्मान स्वरूपपरत्वं तेषामुपपद्यते ॥ [भर्थवादेभ्य एव विधिकल्पनमपि न संभवति] नापि तेभ्य एव कार्यरूपार्थपरिकल्पनं उपपन्नम् , अशक्यत्वात्। 'सोऽरोदीत् यदरोदीत तद्रुद्रस्य रुद्रत्वं' (ते. सं. १-५-१) इत्यत्र कार्य कल्प्यमानमेवं कल्प्येत--रुद्रः किल रुरोद, अतोऽन्येनापि रोदि. तव्यम् इति-तञ्चाशक्यम-प्रियविप्रयोगजनितसन्तापवशेन हि बाष्पमोचनं रोदनमुच्यते । न तत् चोदनोपदेशात् कर्तुं शक्यते ॥ प्रजापतिरात्मनो वपामुश्चिखेद ; तस्मादन्योऽप्येवमुत्खिदेत् मात्मनो वधामिति दुरनुष्ठानोऽयमर्थः। को हि नाम आत्मनो वपामुखि देत् ? कस्य वा वपाहोमे सति समनन्तरमेव ' हुतभुजः' पशुस्तूपर उद्गच्छेत् ? इति ॥ * अनेन-पूर्णाहुत्यादिना ॥ चयननिषेध इति । तथा च चयनविधिविरोधः ॥ अशक्यमिति। रोदनादिकं हि विषयाधीनं, न तु विध्यधीनम् ।। हुतभुज इति पञ्चमी ॥ 1 अज:-ख. Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थवादप्रामाण्याक्षेप: [ न्यायमञ्जरी देवा दिशो नाज्ञासिषुः, अतः अन्योऽपि न जानीयात् इति अशक्योपदेशः ; न हि दिङ्मोहो नाम उपदेशात् कर्तुं शक्यः ॥ न च सर्वस्मादर्थवादात् विधिः कल्पयितुं शक्य इति मध्यमोsपि न सत्पक्षः ॥ * 670 [अर्थवादानां विधिशेषतया प्रामाण्यमपि न ] नापि तृतीयः पक्षः संभवति - वाक्यान्तरविहित कार्यरूपार्थीपयिकत्वं हि तदुपयोगिद्रव्य देवतादिविधानद्वारकं भवति - यथा अग्निहोत्रं जुहोति' ( तै. सं. १-५ - ९ ) इत्यत्र ' दना जुहोति', 'पयसा जुहोति' इति द्रव्यविनियोग विधेः यदग्नये च प्रजापतये च सायं जुहोति' ( तै. बा. २) इति देवताविधेर्वा । न चायमर्थवादेषु प्रकारः संभवति । न चैभिः 'बीहीनवहन्ति', 'व्रीहीन् प्रोक्षति' इतिवत् erse वा काचिदितिकर्तव्यतोपदिश्यते । तस्मात् न तेषां दौपयिकत्वम् ॥ [प्रवृत्त्युत्तं भनरूपफलमप्यर्थवादानां न समस्ति ]. ननु ! + प्रेक्षावतां प्ररोचनातिशयकरणेन प्रवृत्त्युत्साहमा वहन्तः अर्थवादाः तदुपयोगिनो भविष्यन्ति - नैतदपि सम्यक् प्रवृत्त्युत्साहो fe thषांचिन्मते निरपेक्षशब्द प्रत्ययादेव सिध्यति । अस्मन्मते तु तत्प्रणेतृपुरुषप्रत्ययादिति किं प्ररोचनया ? ' एवंकाम इदं कुर्यात् इत्युक्ते, यस्तत्र न प्रवर्तते स प्ररोचनयाऽपि न प्रवर्तेतैवेति यत्किञ्चिदेतत् ॥ 3 तदेवं प्रकारत्रयेणापि अर्थवादपदानामनन्वयात् एकदेशा क्षेपण सर्वाक्षेप एव क्रियत इति अप्रमाणं वेदः ॥ * सर्वस्मादिति । 'वायव्यं श्वतमालभेत भूतिकामो वायुर्वै पिष्ठा 'देवता' ( तै.सं. २-१-१ ) इति अर्थवादस्य विधिशेषत्वं स्पष्टं प्रतीयते । न हि तत्र अर्थवादे पृथग्विधिकल्पनं शक्यमित्यर्थः ॥ + प्रेक्षावतां-अनुन्मत्तानाम् || 1 केषाञ्चित्-मीमांसकानाम् । निरपेक्षत्वमेवास्याः प्रामाण्यप्रयोजकमित्युक्तं प्राक् (पु. 435) ॥ १ सर्वाक्षेपः -- निखिलवेदानामपि एतद्दृष्टान्तेनाप्रामाण्याक्षेपः ॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् । ‘अर्थवादप्रामाण्यनिरूपणम् 671 : [अर्थवादानामप्रामाण्ये तदृष्टान्तेन वेदसामान्याप्रामाण्यसिद्धिः] , ननु ! यावत्येव प्रमाणान्तरविरुद्धत्वमुपलभ्यते, तावत्येवाप्रामाण्यमस्तु । सर्वत्र तु कुतस्त्या तदाशका? इति-मैवम् ---- तत्सामान्यात् अन्यत्राप्यनाश्वासः। मीमांसकपक्षे हि अर्थवादरहितकेवलवेदग्रन्था*नुपलम्भात् , तदनुषनेण सर्वत्र सापेक्षत्वमवतरति । नैयायिकमते तु वेदप्रणेतुरीश्वरस्य क्वचित् वितथवादित्वे दृश्यमाने, कथमन्यत्र सत्यवादितायां दृढः प्रत्ययो भवेत् ? इत्यप्रामाण्यं सर्वचेति ॥ . [अर्थवादानां विध्येकवाक्यत्वात्मामाण्यस्थापनम् ] अत्रामिधीयते-विध्येकवाक्यतयैव भूम्ना तावदर्थवादपदानि पठ्यन्ते-'वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकामो वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता वायुमेव स्वेन भागधेयेनोपधावति स एवैनं भूतिं गमयति' (ते.सं. २-१-१) इति । तेषां तदेकवाक्यत्वादेव प्रामाण्यम् । वायुर्वै क्षेपिष्ठा' देवता' इत्यतः यद्यपि क्रिया नावगम्यते, नापि तत्सम्बद्धः किश्चिदर्थः ; तथाऽपि विध्युद्देशेनैकवाक्यत्वं तस्य प्रतीयते । 'भूतिकामः' इत्येवमन्तो विध्युद्देशः। तेनैकवाक्यभूतो 'वायु क्षेपिष्ठा' इत्येवमादेः॥ . [अर्थवादानां स्तुतिरूपत्वम् ] . कथमेकवाक्यभावः? पदानाम् साकाङ्गत्वात् ॥ ननु ! ‘भूतिकामः' इत्येवमन्तेन वाक्येन विधेयं विहितम् । उत्पादितं प्रतिपत्तरनाकालत्वम् कृतश्च शब्दकर्तव्यमिति, 'किमन्येन'-क्षेपिष्ठा'इत्यादिना प्रयोजनम् ?-तदर्थस्यैव स्तुतिरिति ब्रूमः ॥ . * अनुपलंभादिति । विधिवाक्यानि हि अत्यन्तं विरलानि ॥ कश्चिदर्थः-द्रन्यदेवतादिः ॥ *कथमेकवाक्यभाव इत्याक्षेपः। पदानां इत्यादि समाधानम् ।। $ किमन्येनेति । उक्तार्थानुपयोगिनेत्यर्थः । उक्तेऽर्थे । सर्वोऽपि शालार्थः परिसमाप्त एवेत्याशयः ॥ 1 तावत्-क. देवता-ख. प्रतीयते-ख. किमनेन-ख. Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672 . .. अर्थवादानां प्रामाण्यम् [म्यायनरी [सार्थवादविधेरेव प्रेरकत्वम्] ननु! 'स्तुत्याऽपि' किं प्रयोजनम् ? 'स्तुतोऽस्तुतश्च *तावानेव सोऽर्थः'-मैवम-सस्तुतिपदे हि वाक्ये स्तुतिपदसहितं विधायक विधायकं भवति ॥ किमिदानीं केवलं लिडादियुक्तं वाक्यं न विधायकमुच्यतेयदि स्तुतिपदानि न श्रृयन्त तत् बादं भवति विधायकम् । एतेषुच सत्सु तत्सहितं तद्विधायकं भवति, न केवलम् ; तथा प्रतीतेः। स्तुतिपदसम्बन्धे सति भिन्नवाक्यता मा भूदिति विधिपदेन स्तुति पदेन च संभूयार्थो विधीयते ; तथाऽवगमात् । अन्यथा हि प्रतीयमानः पदार्थान्वयः त्यज्येत ; वाक्यभेदो वा कल्प्येत। तस्मान्न : स्तुतिपदानामानर्थक्यम् ॥ [अर्थवादवाक्यप्रयोजनाक्षेपः, समाधानं च] ननु ! केवलस्यापि विधिवाक्यस्य सामर्थ्यात् किमर्थ स्तुतिपदानि प्रयुञ्जते ? इति - उच्यते-अपर्यनुयोज्यो जैमिनीयानां मत शब्दः ; अस्माकं च भगवानीश्वरः । उक्त सति प्रतिपत्तारो वयं वेदस्य ; न कर्तारः। प्रतिपत्तौ च क्रमो दर्शितः ॥ [ द्रव्यदेवताथसमर्पकत्वेऽप्यर्थवादानां नानर्थक्यम् ] , एवञ्च यद्यपि द्रव्यदेवतेतिकर्तव्यताविधानद्वारकं अङ्गविधिवदर्थवादवाक्यानां कार्योपयिकत्वं नास्ति; तथापि प्रतीत्यस्त्वं . न निवार्यते॥ * तावानेवेति। न हि स्तुतो गर्दभः अश्वो भवेत् , मस्तुतो वाऽश्व: गर्दभो भवेत् ॥ विधायकं-विधिवाक्यम् ॥ * ईश्वर इति । अपर्यनुयोज्य इत्यस्यानुवृत्तिः ॥ प्रतीति:-विधिवाक्यप्रतिपक्षयागकर्तम्बत्वबुद्धिः॥ 1 स्तुत्या-ख. स्तुतस्तुत्या-क. नोऽर्थ:-क. 'विधायक-क. . Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्निकम् ४ अर्थवादानां प्रयोजनम् 673 [मर्थवादानामावश्यकता] अत एव 'प्रमाणो पयोगित्व मेषामाचक्षते', न प्रमेयोपयोगित्वम् । केवलविधिपदश्रवणे हि न तदाद्रियन्ते यज्वानः। तत्र विधि विभक्तिरवसीदति । तां निमजन्तीमिव अर्थवादजनितकर्मप्राशस्त्यप्रत्ययः उत्तनाति। 'सर्वजिता यजेत' इत्यतः न तथाविधः श्रद्धातिशयो भवति, यथाविधः 'सर्वजिता वै देवाः सर्वमजयन् सर्वस्याप्तयै सर्वस्य जित्यै सर्वमेवैतेन सर्व जयति' (ता.बा. २६-७-२) इत्यर्थवादपदेभ्यः। लोकेऽपि 'इयं गौः क्रेतव्या' इत्यतः न तथा क्रेतारः प्रवर्तन्ते, यथा 'एषा बहुस्निग्धक्षीरासुश्लीला, सापत्या, 'अनघ'प्रजा च' इत्येवमादिभ्यः स्तुतिभ्यः। स्वानुभवसाक्षिकोऽयमर्थः॥ [अर्थवादाश्रवणस्थलेऽपि अर्थवादकल्पनम् ] अत एव केचित् अश्रुतार्थवादकेऽपि विधिवाक्ये तत्कल्पना मिच्छन्ति, यथा कचित् अर्थवादात् विधिकल्पनमिति । यथोक्तम् (तं. वा. १-४-१३)___ 'विधिस्तुत्योः संदा वृत्तिः 1 समानविषयेष्यते' इति । अनधिगम्यमान विधि सम्बन्धाच्च अर्थवादात् विधिरुन्नीयते, न गम्यमानसम्बन्धात् ॥ * अवसीदति-क्लेशसाध्यत्वादिज्ञानेन, न निरङ्कुशा भवति । विचित्--'प्रतितिष्ठन्ति ह वा य एता रात्रीरुपयन्ति' इत्यादी। विधिः, रात्रिसत्रस्येति शेषः॥ समानेति। यत्र केवलं विधिः, तत्रार्थवादेनापि भाग्यम् । यत्र केवलमर्थवादः, तत्र विधिनापि भाष्यम् ।। ननु तईि 'वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता' इत्यादावपि विधिः कल्पनीय स्यादित्यत्राह--अनधिगम्यमानेति ॥ विभक्तेः शक्ति-ख. 4 अनव-ख. 1 प्रामाण्यो-ख. माचक्षते-ख. अनधि-ख. "विधिवाक्य-ख. NYAYAMANJARI 43 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674 अर्थवादानां प्रामाण्यम् [न्यायमधरी [अर्थवादैः स्तुतिप्राप्तिप्रकारः] अत एव च 'सोऽरोदीत्' इत्येवमादिभ्यः ‘न रोदितव्यम् इत्यादिविधिकल्पन मिष्यते। मुधैव पूर्वपक्षिणा तदाशतितम् । विध्यन्तरेणैकवाक्यत्वं हि प्रत्यक्षमिहोपदिश्यते। * 'बर्हिषि रजतं न देयम्' (तै. सं. १-५-1) इत्यस्य विधेः शेषोऽयं ‘सोऽरोदीत्' इत्यादिः-'रुद्रो रुरोद । तस्य यदश्रु अशीर्यत, तद्रजतमभवत् । यो हि बर्हिषि रजतं ददाति, पुराऽस्य संवत्सरात् गृहे रोदनं भवति' इति। तस्मात् 'बर्हिषि रजतं न देयम्' इति ॥ 'प्राजापत्यमजं तूपरमालमेत' (तै.सं. २-१) इत्यस्य विधेः शेषः 'प्रजापतिरात्मनो वपामुदक्खिदत्' इति । वपाहोममाहात्म्यप्रदर्शनार्थमुच्यते--अग्नौ वै प्रगृहीतमात्रायां वपायां अजस्तूपर उदगादिति ॥ 'आदित्यः । प्रायणीयश्चरुः' (ते. सं. ६-१-५) इत्यस्य विधेः शेषोऽयं 'देवा वै देवयजनमध्यवसाय दिशोन प्राजानन्' (तै.सं.६-१५) इति'; व्यामोहानामांदिस्यश्च शयिता, यथा दिल्योहस्येति। एवं तत्र तत्र विधिशेषत्वं अर्थवादानां वेदितव्यम् ॥ [मर्थवादानामसत्यार्थकरवनिरासः] कथं पुमरिदमसत्यमेवोच्यते ? 'रुद्ररुदितात् रजतमजायत', 'प्रजापतिहोमसमिद्धादग्नेः अजस्तूपर उद्गात्' इति उच्यतेनेदमसत्यम् , यदस्य वाक्यस्य प्रतिपाद्य, तत्र सत्यार्थमेवेदम् । न चास्य यथाअतोऽर्थः प्रतिपाधः, किन्तु विधेयो निषेध्यो वा कश्चिदर्थः। इहान्याख्याने द्वयमापतति-यश्च वृत्तान्तमानम् , यच कस्मिश्चिदर्थे प्ररोचना द्वषो धा। तत्र वृत्तान्तज्ञानं न प्रवर्तकम्, न निवर्तकमिति प्रयोजनाभावात् अनर्थकमनादरणीयम् । प्ररोचना * बहि:-यज्ञः॥ प्रायणीय इति इष्टे म (जै. सू. ९-४-१२)॥ अन्वाख्यानं-अर्थवादरूपानुवादवाक्यम् ।। अनर्थकमिति प्रकृतस्तुतिनिन्दामिप्रायम्। वक्ष्यति च (पु. 677) तयोरपि फलम् । । इति स-क, इत्थं स देषी-ख. Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिकम् ४] अर्थवादेषु विरोधादिपरिहार: 676 द्वेषौ 'प्रवृत्तिनिवृत्त्य'ङ्गत्वात् तदर्थों गृहीत्वा प्ररोचनायाः प्रवर्तेत, द्वेषाभिवर्तेतेति। तत्र तत्प्रतिपाद्यसत्यार्थ एवार्थवादः ॥ [अर्थवादानामर्थविरोधे गौणार्थकत्वम् ] ___ यत्तु अरुदति रुद्रे कथं तद्रोदनवचनम? अरोदनप्रभवे वा रजते कथं तदुद्भवताऽभिधानम् ? इति-गुणवादमात्रम्-गौण एष वादः श्वेतवर्णसारूप्यादिना रोदनप्रभवं रजतं निन्दितुमुच्यते ॥ एवं पशुयागे वपाहोमप्रशंसायै 'प्रजापतिरात्मनो वपामुदक्खिदत्' इति वृत्तान्ताख्यानं योजनीयम् ॥ आदित्यचरुप्रशंसायै 'देवा वै देवयजनमध्यवसाय दिशो न प्राजानन्' इति ॥ [सिद्धान्ते भर्थवादानां यथाश्रुतार्थत्वे न विरोधः] अथवा नैयायिकानामनेक प्रकार *पुरुषातिशयवादिनां यथाश्रुतेऽप्यर्थे नात्यन्तमसंभवः । रुद्रस्य रुदितात् रजतजन्म, प्रजापते पोत्खेदः, तद्धोमात् तूपरपशूद्रमः, देवानां देवयजनाध्यवसाने दिमोह इत्येवंजातीयकमपि सत्यमस्तु! को दोषः? तत्सर्वथा 'नार्थवादा न प्रमाणम् ॥ [मर्थवादेषु प्रत्यक्षादिविरोधपरिहारः] ' एवं 'स्तेनं मनोऽनृतवादिनी वाक्' इति गौण एष वादः । प्रच्छन्नतया स्तेनं मन उच्यते। बाहुल्याभिप्रायेण चानृतवादिनी वाक् इति ॥ . * पुरुषातिशयेति। सर्वैरपि कर्ममिः पुरुष एव कमनातिशयः धर्माधर्माख्यः आधीयते इति सिद्धान्तः। ततश्च तदनुगुणतया विचित्राइशक्तयः क्रियाच सुलभतया निर्वोढुं शक्यन्त इत्यर्थः ॥ प्रच्छन्नतयेति। स्वममस्यन्तः किमस्तीति स्वेनापि हि न ज्ञातुं शक्यते। एवं 'भाल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते' इति वचने न हि जिहा विशीर्यते ॥ प्रत्य-स्व. प्रकार:-क. अर्थवादानां प्रामाण्यम्-ख. 43* Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 अर्थवादानां प्रामाण्यम् न्वावमबरी 'धूम एवाग्लेर्दिवा ददृशे नाचिरचिरैवाग्नेर्नक्तं दहशे न धूमः' (ते. बा. २-१-२) इति "दरभूयस्त्वाभिप्रायेण फस्नैचित् प्रयोजनाय सायंप्रातहोमदेवतास्तुतय कथ्यते ॥ 'न चैतद्विद्मो यदि ब्राह्मणाः स्मः, अब्राह्मणा वा' (गो. मा. ५-११) इति प्रवरानुमन्त्रणप्रशंसाय संशय इव दर्शितः। भवामणोऽपि यजमानः प्रवरानुमन्त्रणेन ब्राह्मणः स्यादिति ॥ _+'कोहि वै तद्वेद, यदभुमिल्लोकेऽस्ति वाम वा (ते.सं. 4-1-1) इति अदृष्टफलं किमपि कर्म स्तोतुमुच्यते ॥ 'शोभतेऽस्य मुखं य एवं वेद' (ता. पा. २०-१६-६) इति विद्याप्रशंसैषा शोभत इति शिष्यरुद्वीक्ष्यमाणस्य मुखमिति ॥ 'सर्वान् कामानामोति' इति सर्वत्वं प्रकृताऽपेक्षम् । स्तुत्यर्थ चाश्वमेधाध्ययने तत्फलवचनम् ॥ 'हिरण्यं निधाय चेतव्यम्' इति स्तुत्यर्थतया दिव्यन्तरिक्षे पृथिव्यां च चयनं प्रतिषिध्यते। अनुपहितहिरण्यायां पृथिव्यां अग्निर्न चेतव्यः, न पुनर्न चेतव्य एव तस्यामिति ॥ ___ आदित्यो यूपः' (नै.ग्रा. २-१-५) 'इति अअने' सति तेजस्तितया यूपस्य आदित्यरूपता स्तुतये कथ्यते ॥ तत्कार्यकारित्वाञ्च यजमानः प्रस्तर उच्यते। न हि मुख्ययैव वृत्त्या लोके शब्दाः प्रवर्तन्ते ; गोण्याऽपि वृत्त्या 'तद्यवहार * दूरभूयस्त्वेति। दूरस्थैः दिवा धूम एव गृथते रात्रौ तु मर्चिरित्य. स्त्यनुभवः ॥ को हीति। अत्रानवश्लूप्तिसूचनं च विप्रकृष्टकासफलत्वात् ॥ तस्यां--पृथिन्याम् ॥ अञ्जने-घृतेन लेपने ॥ इत्थमनने-ख. व्यवहार-ख. Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिकम् ४] कचिदर्थवादाविधिकल्पनम् 677 दर्शनात् । एवं वेदेऽपि तेषां तथा प्रयोगो भविष्यति। इत्थं च मन्त्रेष्वपि पेन्या गार्हपत्योपस्थानमविरुद्धम् ॥ [परकृतिपुराकल्परूपार्थवादानामपि प्रामाण्यम्] एवं स्तुतिनिन्दास्वरूपास्तावदर्थवादाः विध्येकवाक्यत्वेन प्रमाणम्। 'परकृति'पुराकरूपस्वरूपा अपि तथैव योज्याः ॥ .. [कुत्रचित् अर्थवादैः विधिकल्पनमपि दृश्यते] कचित्पुनः अर्थवादेनैव कश्चिदंशः पूर्यत इति न तु प्रतीत्यङ्गत्वमेव नस्य, कार्याङ्गत्वमपि भवति । यथा-'प्रतितिष्ठन्ति ह वा य एता रात्रीरुपासते ' (ते.सं. ७-३-१०) इति अश्रूयमाणाधिकारस्य रात्रिसत्रविधेः अधिकारांशोऽर्थवादादेव लभ्यते। यथोक्तं-'फलमात्रेयो निर्देशात्' (जै. स. ४-३-१८) इति । तत्र हि-प्रतिष्ठाकामाः सत्रमासीरन्'-इत्यर्थवादवशात् गम्यते वाक्यार्थः ॥ - *दर्शनात् - अग्निर्माणवकः' इत्यादौ ।। .. इत्थं च-वेदेऽपि गौणप्रयोगसत्वाच्च । इन्द्रपदं रूच्या इन्द्रवाचकमपि, ऐश्वर्यविशेषविवक्षया गार्हपत्यवाचकमपि स्यात् ॥ * परकृतीत्यादि। 'स्तुतिनिन्दा परकृतिः पुराकरुप इत्यर्थवादः' (न्या.सू. २.१.६५) इति सूत्रम् । अर्थवादाश्चतुर्विधाः। तत्र दृष्टान्ता भाष्य एवं प्रदर्शिता:--" स्तुति:--'सर्वजिता वै देवा: सर्वमयजन् सर्वस्याप्तयै सर्वस्य जित्यै सर्वमेव तेनामोति सर्व जयति' (ता.बा. १६-७-.) इत्यादि। अनिष्टफलवादो निन्दा वर्जनार्था-'स एष वाव प्रथमो यज्ञो यज्ञानां यज्ज्योतिष्टोमो य एतेनानिष्ठाऽन्येन यजते गर्ने पतस्ययमेवैतज्जीयते वा प्रमीयते वा' इत्येवमादि । बन्यकर्तृकस्य न्याहतस्य विधेर्वादः परकृतिः - 'हुत्वा वपामेवाग्रेऽमिबारयन्ति, भय पृषदाज्यं, तदु ह चरकाध्वर्यव: पृषदाज्यमेवाग्रेऽभिधारयन्ति, बने: प्राणा: पृषदाज्यमित्येवमभिदधति' इत्येवमादि । ऐतिहसमाचरितो विधिः पुराकल्प इति-'तस्माद्वा एतेन ब्राह्मणा बहिष्पवमानं सामस्तोममस्तोषन् पोने यज्ञं प्रतनवामहे' इत्येवमादि" ॥ फलं-प्रतिष्ठारूपं इदं भर्थवादवाक्यं विवक्षत्येव, तत्र तत्फलस्य 'पुराकृति-क.ख. योग्या:-क. Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 अर्थवादानां प्रामाण्यम् [म्पायमवरी कचिदर्थवादानां संशयनिवर्तकत्वम् ] कवित् विधिवाक्यस्यार्थसन्देहे अर्थवादात्मकात् वाक्यशेषात् तनिश्चयो भवति । यथा- 'अक्ताः *शर्करा उपदधाति' (ते. प्रा. ३-१२-५) इत्यञ्जनद्रव्ये घृततैलवसादिमेदेन संविद्यमाने 'तेजो वे घृतम्' (ते. प्रा. ३-१२-५) इत्यर्थवादात् घृतेनाकाः शर्करा उपर्षया इति गम्यते ॥ [भर्थवादविचारोपसंहारः] इत्यर्थवादा विधिनैक्यभावात् तिद्वत्प्रमाणत्वममी भजन्ते । अस्ति प्रतीत्यन्वयिता हि तेषां क्वचिश्व कार्यान्वयिता तु दृष्टा ॥ १३९ ॥ यद्वा स्वरूपपरतामपि संस्पृशन्त.' . प्रामाण्य वर्म त इमे न परित्यजन्ति। . नैयायिका हि पुरुषातिशयं वदन्तः वृत्तान्तवर्णनमपीह यथार्थमाहुः॥ १४० ॥ आदित्ययूपषचनादिषु तु स्वरूप याथार्थ्य मित्थमुपपादयितुं न शक्यम्। . गौणी तु वृत्तिमवलम्ब्य कृता तदर्थ व्याख्येति तेष्वपि न विप्लवनावकाशः ॥ १४१ ॥ निर्देशात् , मप्रातत्वाचेत्यर्थः। मात्रेयग्रहणं पूजार्थम् ॥ * शर्कराः--इष्टकाः ॥ तत्-विधिवाक्यवत् ॥ कवित्-'प्रतितिष्ठन्ति ह' इत्यादौ ॥ पुरुषातिशयेति। महष्टविशेषाधीनदेवताविग्रहायणीकागत् तदेशे स्वरूपपरत्वेऽपि न हानिरित्यर्थः । संस्पृशन्ति-स. वर्म-ख. Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 070 • भाविकम् ४] मबाण प्रामाण्याक्षेपः | লোকৰিআ]। * मथेदानी मन्त्रा विचार्यन्ते-कं भर्थप्रकाशनद्वारेण विष्यर्थोपयोगिता तेषाम ! उतोचारणमात्रेण ? । इति ।। | সেফবিশ্বাবাসনহা, মামান] ननु ! उभयथाऽपि प्रामाण्याविशेषात् किं तद्विचारेण? न ही शास्त्रं घेदस्यार्थविचाराय मीमांसावत् प्रवृत्तम्। थपि तु प्रामाण्यनिर्णयायैवेति-सत्यम्, प्रामाण्य'निर्णयायैवेदं शा प्रवृत्तम्भविषक्षितार्थत्वे तु मन्त्राणां अप्रतिपादकत्वलक्षणमप्रामाण्यमेव भवेत् । सामान्यात वेदनाह्मणवाक्यानामपि तथाभावप्रसङ्ग इति वेदस्य कर्मावबोधार्थत्वं हीयेत। न च संशयविपर्ययजननमेवाप्रामाण्यम् ; $ अज्ञानजनकत्वमप्यप्रामाण्यमेव ।। [चारणमाबादेव सार्थक्यं मन्त्राणामिति पूर्वपक्षः] तदुच्यते-उधारणमात्रोपकारिणो मन्त्राः, कुतः१ तथा विनियोगोपदेशात् - 'उरु प्रथा उरु प्रथस्व इति पुरोडाशं 'प्रथयति' (वा. सं. 1-२२) इति । यद्यर्थप्रकाशनोपकारिणो मन्त्राः , सामथ्यादेव प्रथनोपयोगी मंत्रोऽयमिति किमर्थ प्रथने विनियुज्यन्ते वचनेन! यथा ||साक्षः पुरुषः परेण चेन्नीयते, नूनमक्षिभ्यां न पश्यतीति गम्यते ॥ 'अग्नीदनीन् विहर' इति च करोत्यवासी ऋत्विक् पाअग्निविहरणम् , किं पचनेन ? उधारणमात्रोपकारिणि मन्त्रे तदुधारणादेवार किञ्चित् उपकारजातं कल्प्यते ॥ ... तदर्थशामात्' (जै.सू. १-२-३१) इत्यायुक्तं विचारं संगृह्णातिमथेत्यादि। उच्चारणमात्रेणेति । विभ्यर्थोपयोगिता इत्यावर्तते ।। सामान्यात् --वेदस्वसाम्यात् ॥ भज्ञानजनकत्व-ज्ञानाजनकत्वम् ॥ || साक्षः-भक्षशब्दोऽत्र चक्षुर्गोलकपरः॥ पा अनिविहरणं-मनीन्धनादि। पतदेव कार्य मनीष:-माविविशेषस्व ॥ 1निर्णयायेद-ख. प्रथयति-ख. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680 मन्त्रप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमञ्जरी वाक्यक्रमनियमाञ्चाविवक्षितार्थान मन्त्रानवगच्छामः । नियतपदक्रमा हि मन्त्राः पठ्यन्ते । यद्यर्थप्रतिपादनेनोपकुर्युः, नियतक्रमाश्रयणमनर्थकं स्यात , कमान्तरेणापि तदर्थावगमसंपत्तेः । [मन्त्राणामर्थविवक्षाऽपि क्वचित् न संभवति] इतश्चाविवक्षितार्था मन्त्राः। अविद्यमानार्थप्रकाशिनो हि केचिद्दश्यन्ते। यथा 'चत्वारि शृङ्गाः त्रयो अस्य पादाः द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मानाविवेश' (ते. ना. १० -१) इति। न हि चतुःशृङ्गं त्रिपाद विशिरस्कं लप्तहस्तं किश्चिद्यक्षसाधनमस्ति, यदनेन 'प्रकाश्येत '॥ अचेतने चेतनवब्यवहारः विरुद्धः] इतश्चैवम्। अचेतन प्रैषप्रदर्शनात्- 'ओषधे त्रायस्वैनम्' (ते. सं. १-१-२) इति। न ह्योषधिर्बुध्यते-त्राणाय नियुक्ताऽस्मीति। 'शृणोत ग्रावाणः' (ते. सं. १-३-१३) इति चोदाहरणम् । न ह्यचेतनाः प्रावाणः श्रोतुं नियुज्यन्ते ॥ [अर्थविप्रतिषेधश्च क्वचित्] अपि च ' अदितिौरदितिरन्तरिक्षम् ' (ते. भा. १-१३) इति विप्रतिषिद्धमभिवदन्ति मन्त्राः। कथं सैव द्यौः, तदेवान्तरिक्ष भवितुमर्हति ॥ क्वचिन्मन्त्राणामर्थ एव नास्ति] केषाश्चिञ्च मन्त्राणां अर्थो ज्ञातुमेव न शक्यते । ते कथमर्थप्रकाशनेनोपकुर्युः? 3 'अम्यक्सात इन्द्र ऋष्टिः' (ऋ.सं.२-४) इति । 'सृण्येव जरीतुर्फरीतु' (ऋ.सं. ८-६-२) इति । 'इन्द्रः सोमस्य 'काणुका'' (ऋ.सं. ३-३-९१) इति च । तस्मादविवक्षितार्था मन्त्राः ॥ * यशसाधनं--द्रव्य, देवता वा ।। * प्रैषः-नियोग इति वक्ष्यसि (पु. 684)॥ 1 प्रकाश्यते-क. 'मत--ख. अस्य क्षात-ख. 'कारका-ख. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भातिकम् ४] मन्त्राणामपि प्रामाण्यम् 681 __ मन्त्राणामुच्चारणस्यावर्जनीयत्वात्तावदेव तेषां फलम् ] अपि च उच्चारणमुभयथाऽपि* कर्तव्यं मन्त्राणां : अष्टष्टाय वा? अर्थप्रत्यायनाय वा? 'यतोऽर्थमपि नानुचरिताः शब्दाः प्रत्याययितुमुत्सहन्ते । तदवश्यकर्तव्येऽस्मिनचारणे तत एव यज्ञोपकारे सिद्धे कि अर्थप्रतिपादनद्वारपरिग्रहेण प्रयोजनमिति ? [मन्त्राणामर्थप्रत्ययार्थत्वसिद्धान्तः] तत्रोच्यते-किं मन्त्रेभ्योऽर्थप्रतीतिरेव नास्ति ? किं वा भवन्त्यपि +निर्निमित्ताऽसौ ? उत सन्निमित्ताऽपि ग्रहैकत्वप्रतीतिवत् अविवक्षिता ? इति ॥ मन्त्रैरर्थप्रतीतिर्न संभवतीति न युक्तम् ] न तावत् प्रतीतिरेव नास्ति ; शब्दार्थसम्बन्धव्युत्पत्तिसंस्कृतमतीनां 'बर्हिदेवसदनं दामि' (मै. सं. १-१-२) इत्येवमादिमन्त्रश्रवणे सति तदर्थप्रतीतेः स्वसंवेद्यत्वात् ॥ नाप्यसौ निर्निमित्ता; लोकवत् पदानामेवात्र निमित्तत्वात् । व्युत्पत्तिरपि न नास्ति; य एष लौकिकाः शब्दाः, त एव वैदिका , त एव तेषामा इति लोकव्यवहारतस्तव्युत्पत्तिसंभवात् ॥ नापि भवन्स्यपि मन्त्रेभ्योऽर्थप्रतीतिः || ग्रहैकत्वप्रतीतिव. दविवक्षिता भवितुमर्हति ; अविवक्षानिबन्धनस्य कचिदप्यभावात् । ग्रहादिवचनान्तरनितिसंख्यत्वात् सोमावसेकनिर्हरणस्य च ___ * उभयथा-अर्थप्रत्यायकत्वेऽप्रत्यायकत्वे च ॥ निर्निमित्ता-मन्त्रघटकपदाजन्या, यादृच्छिकीति यावत् ॥ ग्रहैकत्वेति। 'ग्रहं सम्मार्टि' इत्यत्र एकत्वमविवक्षितमिति ग्रहैकस्वाधिकरणे (जै. सू. ३-1-७) सिद्धान्तितम् ॥ य एवेति। लोकवेदाधिकरणे (जै.सू. ३-१-७) सिद्धान्तितमिदम् ॥ || प्रहः- सोमरसाधारपात्रविशेषः। 'ग्रहं संमार्टि' इत्यत्र एकवचन अर्थमपि-क. तस्माद-ख. संभव-ख. . Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682 मन्नप्रामाण्यपरीक्षा पापमयरी सम्माकार्यस्य सर्वग्रहसाधारणत्वात् 'प्रह' इतिविभव कर्मकारकसमर्पणमात्रेणापि सार्थक्योपपत्तेः युक्तमेकत्वमविवक्षितमिति कथपितुम्। इह तु 'बर्हिर्देवसदनं दामि' इत्येवमादिवाक्य क्रियमाणऋतूपयोगिद्रव्यादि प्रकाशनस्य' विध्यपेक्षितत्वात् मन्त्रेण स्मृतं *कर्म करोति। तथा क्रियमाणं भभ्युदयकारि भवतीति न यज्ञामप्रकाशनमविवक्षितम् । अतो नोचारणमात्रोपकारिणो मन्त्राः ॥ [केषाश्चित्तु मन्त्राणामुच्चारणमात्रे चारितार्थ्यम्] . जपमन्त्राणां तु 'पायमानी 'जपेत्', 'वैष्णवीं जपेत्" इति विधिनैव तावन्मात्राक्षेपणात् नार्थेन प्रकाशितेन प्रयोजनमिति किं तत्र क्रियते? यत्र तु 'जपेत्' इति विधिन श्रूयते, म तत्र तदर्थः प्रतीयमानः, अपेक्ष्यमाणश्चोपेक्षितुं युक्तः॥ [स्वाध्यायविधेस्स्वर्थज्ञानपर्यन्ताध्ययनपरत्वमेव] मनु ! यदि ‘जपेत्' इति विधेः वैष्णव्यादिषु नार्यः विवक्ष्यते, तर्हि 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' इति अक्षरग्रहणमात्रविधानात् सर्वस्यैव वेदस्याविवक्षितार्थत्वं स्यात् - 'मैवम् - स्वाध्यायाध्ययन विधेः दृिष्टो हि तस्यार्थः कर्मावबोधनमिति दृष्टार्थत्वेन विवक्षितार्थत्वात् । एतच शास्त्रान्तरे (ज.सू. 1-1-1) विस्तरतो निर्णीतम्। इह तु वितम्यमानं अस्माकमवान्तरविचारवाचालतामाविष्करोतीति न प्रतम्यते । [मन्त्राणामर्थविवक्षाऽस्त्येव] यस तदर्थविनियोगोपदेशादिति अविवक्षितार्थत्वमुक्तम्-- तत्र 'उरु प्रथा उरु प्रथस्व' (वा. सं. १-२२) इति लिलादेव प्रथनसत्त्वेऽपि विषयस्ष्टया पात्रबहुत्वात् एकवचनमविवक्षितमिति (जै. सू.३-१-७) सिदान्तितम् ॥ *कर्म-पहिस्सादनादिकम् ॥ राष्टफलकल्पमाया अभ्याम्यत्वात् मध्ययनस्यार्थज्ञानपर्यन्तस्वं साधितम् (जै. स. 1-1-1)॥ 1 क्रियमाण-ख. प्रकाशनं तस्य-ख. जपेत-ख. 'एतच-ख. Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातिकम् । मत्राणां मर्षवलम् 688 विनियोगे मन्त्रस्य सिद्धे, काम तद्विधायकं *वचनं अनर्थक भवतु, प्राप्तानुवादकत्वात् ; न तु प्रतीयमानः मन्त्रादर्थः त्यक्तुं युक्तः। तरिक पचनमनर्थकमेव ? नानर्थकम् , प्रतिपनार्थविषयं तु तत् ॥ अर्थवादार्थ वा तद्वचनम् ; 'यज्ञपतिमेव तत् 'प्रथयति' इति । यदनेन मन्त्रेण पुरोडाशं प्रथयति', तपक्षपति यजमानमेव प्रजया पशुमिः प्रथयतीति ॥ कचित् गुणार्थ विधानम्। यथा-+'तां चतुर्भिरादत्त' (वै. सं. ५-१-१) इति । एवं 'अग्नीदग्नीन् विहर' इत्यादावपि द्रष्टव्यम् ॥ [मन्त्राणामुच्चारमात्रार्थत्वं न युक्तम्] यत्तु नियतपदक्रमत्वात् उच्चारणमात्रोपयोगिनो मन्त्रा इतितदप्यसाधु-मीमांसकानामनादित्वावदस्य, तत्क्रमलखनानुपपत्तः। यथोक्तम् (लो. वा. १-१-३-१५०) + अन्यथाकरणे चास्य बहुभ्यः स्यानिवारणम्' इति ॥ अस्माकमपि यादृक् ईश्वरप्रणीतः, तदन्यथाकरणे किमध्येतृणां स्वातन्त्र्यमस्ति? तस्मानार्थविवक्षायै मन्त्रक्रमः प्रभवति ब्राह्मणवाक्यक्रमवत् ॥ [चत्वारि शृङ्गाः' इत्यादिमन्त्राणामर्थः] यदपि चत्वारि वृक्षाः' इत्यविद्यमानार्थवचनमाशङ्कितम्* वचनं-'इति पुरोडाशं प्रथयति' इति वाक्यम् ॥ * तां चतुर्भिरिति । अत्र चतुष्टरूपगुणलाभार्थ तथा विधानम् । एवं 'मनीदनीन् विहर' इत्यत्र संस्कारोबोधनार्थत्वमुक्तम् (जै. स. १-२-७)। अन्यथेत्यादि। वेदस्य एकपुरुषाधीनस्वे तत्तेन कदाऽप्यन्यथाऽपि कियेत। बहमीनत्वे तु एकेनान्यथा पाठेऽपि इतरे तत्परिहरेयुः। मत: बेदः मनादिपरंपरया बहुभिः पव्यत इत्यनादिर्वेदः ॥ तदन्यथाकरणे-माम्ययाकरणे ॥ विनियोग-ख. सिदे:-ख. प्रथयति-ख. 'राधते-ख. Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 684 मम्मामापपरीक्षा [नामी तदप्यनभिज्ञतया-पक्षस्य वैष गुणवादेन संस्तवः। * चस्वारि शृक्षा इति घेदा उक्ताः, त्रयोऽस्य पादा इति सपनानि, छे शीर्षे इति दम्पतीयजमानी, सप्तहस्तास इति छन्दांसि, त्रिधा बख इति मन्त्रब्राह्मणकल्पैः निबद्धः, वृषभ इति कामान् वर्षति, रोरवीतीति स्तोत्रशस्त्रप्रयोगबाहुल्यात् शब्दायमानः, 'महो देवो' मानाविवेशेति मनुष्यकर्तृक इत्येवमेष यज्ञः स्तुतो भवति। तद्यथा चक्रवाकमिथुनस्तनी, हंसदन्तावली, शवाल केशी, काशवसनेति' नदी स्तूयते ॥ 'ओषधे प्रायस्वैनम् ' (ते. सं. १-१-२) इति चेतनवनियोग तस्याः स्तुत्यर्थः ॥ __ 'शृणोत ग्रावाणः' (ते. सं. 1-३-१३) इति प्रातरनुवाकस्तुतिः । इत्थं नामैषः प्रातरनुवाकः प्रशस्यः, यदचेतना प्रावाणोऽपि शृणुयुः इति ॥ 'अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षम् ' (ते.ना. १-१३) इति गुणवादाद. प्रतिषेधः। तद्यथा लोके-स्वमेव मे माता, स्वमेव मे पिता, स्वमेव मे भगिनी, त्वमेव मे नातेति ॥ प्रसिद्धार्थकमन्त्राणामर्थप्रत्यावनक्रमः] यत्त केषाश्चिन्मन्त्राणामर्थो न झायत इति स पुरुगपराधः संभवति, न मन्त्रापराधः । अर्थावगमोपायेषु बहुषु सरस्वपि तदन्वेषणालसः पुरुषः नार्थमवगच्छति ; न पुनमन्त्रोऽत्रापराध्यति ब्राह्मणवाक्यवत् उपायतस्तदर्थावगमदर्शनात्। उपायश्च प्रथमस्तावत् वृद्धव्यवहार एव, तुल्यत्वाल्लोकवेद शब्दार्थानाम्। य एष ले किकाः शब्दाः, त एव वैदिकाः; त एव चैषामा इति ॥ ___* गोपथब्राह्मणोक्तविवरणमनुसृत्य अबरेण (मा. मा, १-२-16) विवृत्तोऽर्थोऽभूदितः ॥ किं पुनर्विद्वांसो माक्षणा इति शेषः ।। महादेवो-क. 5 लोके वेद-ब. लेनेर-4. सनीति-. 'पुरुषापराष:--. Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 685 गाविस ४] मवानामर्थपतम् एष कौकिका: बन्दा; त एव वैदिका: * पपि च 'मग्निर्वृत्राणि जानत्' (ते. प्रा. ३-५-६) इति मेरे कृतणत्वं अग्निशन्दं पठन्ति । 'उत्ताना वै देवगवा वहन्ति' (मा. श्री. स. १...६) 'वनस्पते हिरण्यपर्ण प्रदिवस्ते अर्थम्' इति लोकिकवैदिकयोः शब्दयोः, 'भर्थयोच नानात्वमिवाशङ्कयते । तथाऽपि 'तथास्व'प्रत्यमिशानेनावधार्य, ईषद्विकृतास्त एव वेदे इति लोकित्येव व्युत्पत्तिः॥ . लोकप्रसिद्धिविप्रतिषेधे तु शास्त्रवित्प्रसिद्धिः प्रमाणीक्रियते। . यथा 'यवमयश्चरुः,' 'वाराही उपानही' (तै. सं. १-७-९) वैतसे कटे प्राजापत्यान् सचिनोति' इति यववराहवेतसशब्दाः दीर्घशूकसकरवचलकेषु शिष्प्रसिद्धधा नियम्यन्ते, न प्रियङ्गकृष्णशकुनिबम्यूविति॥ यत्र तु शिष्टप्रसिद्धिर्नास्ति, तत्र म्लेच्छेभ्योऽपि तदर्थव्युत्पत्तिराश्रीयते। यथा-पिकनेमतामरसशब्देषु ॥ .. "मग्येव जभरी' इतिमंत्रार्थः] म्लेच्छप्रसिद्धरप्यभावे निगमनिरुक्तव्याकरणवशेन धातुतः मर्थः परिकल्पनीयः। तेन आश्विनमुक्तप्रक्रमात् जरण'भरणनिमित्तौ 'जर्भरीतुर्फरीतू' इति द्विवचनान्तसरूपावेतो शब्दो अश्विनोर्वाचकाविति गम्यते । एवमन्यत्राप्युत्प्रेक्षणीयम्॥ * प्रसङ्गत: लोकवेदाधिकरण(जै. सू. १-३-५)विषयमपि संगृला पदर्शयितुमुपक्षिपति-यधपीति ॥ प्रकृतोपयोगित्वात् यववराहाधिकरण(जै.सू. १-३-४)मपि संगृह्णातिलोकेति ॥ प्रकृतोपयोगिस्वादेव यववराहाधिकरण(जै.सू. १-३-५)मपि संगृहातियत्र स्विति । पिकनेमतामरसपदानां कोकिल-अर्ध-पद्मपरत्वं प्राह्यम् ॥ एवं प्रसङ्ग समाप्य प्रकृतमनुसरति-म्लेच्छेत्यादि। || अश्विनोरिति । सृणि:----अशः, समन्तिौ सृग्यौ-कजरौ । अब-क. तथा-ख. मरण-. Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 नामधेयप्रामाण्यपरीक्षा [न्यायमञ्जरी [मन्त्रवाक्यविचारोपसंहारः] तदनेनापि निमित्तेन न मन्त्राणामविवक्षितार्थत्वं वक्तव्यम् ॥ अमी तस्मादर्थप्रकटनमुखेनैव दधति क्रियार्थत्वं मन्त्रा न तु पठनमात्रेण जपवत् । न तदारेणापि श्लथयितुमतः शक्यत इदं प्रमाणत्वं वेदे सकलपुरुषार्थामृतनिधौ ॥ १४२ ॥ नामधेयविचारः) * इदमिदानी परीक्ष्यते । 'उद्भिदा यजेत' (ता. बा. १९-७-३), 'चित्रया यजेत पशुकामः' (तै. सं. २-४-६) 'अग्निहोत्रं जुहुयास्वर्गकामः', 'श्येनेनाभिचरन् यजेत' (षड्विं.बा. ३-४) 'वाजपेयेन स्वाराज्यकामो यजेत' इति श्रयते । तत्र किं उद्भिदेति, चित्रयेति, अग्निहोत्रमिति, श्येनेनेति, वाजपेयेनेति गुणविधय पते? तत्तकर्मनामधेयानि? इति ॥ किमनेन परीक्षितेन प्रयोजनम् ? उभयत्रापि प्रामाण्यं नोपपद्यत इति तदर्थमेवेदं परीक्ष्यते॥ [उद्भिदादिवाक्यानां गुणविधिस्वं न संभवति] यदि तावत् 'व्रीहिभिर्यजेत', 'दना, जुहोति' इतिवत् गुणः कश्चिदुद्भिदादिपदैर्विधीयते-अनेन द्रव्यविशेषेण ग्रागः कर्तव्य ताविव अस्यर्थ जृम्भमाणौ-जर्भरी। तुर्फरीतू-हिसन्तौ इति तन्त्रवार्तिके (1-२-४१) म्याख्यातम् । एवं 'सम्यक्सात' (पु. 680) ममा इति साहित्यार्थकमन्ययम्। भमा भवतीति-अम्यक् । रिष्टिः-आयुधविशेषः। इन्छ सम्बुध्येयमुक्तिः। एवं सोमस्य पूर्णानि पात्राणि इन्द्रः काका-कामयमामः-इति तृतीय ऋगर्थ: ॥ ___ * प्रसङ्गात् नामधेयविचारमपि (जै. सू. १-४-१) संगृहातिइदमित्यादिना ॥ गुण इति। मत्र माधवाक्यत्रयविषयकाणां त्रयाणामप्यधिकरणानां गुणविधित्वपूर्वपक्षसाम्यातानि क्रोडीकस्यात्र एकपूर्वपक्षः प्रदर्शितः। तत्र उद्भिद्यते भूमिरनेमेति उजित्-अनित्रम्। प्रकरणमा ज्योतिष्टोममनूब सनिब्रगुण Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ आहिकम ४] नामधेयप्रामाण्याक्षेपः 687 इति-तदा भावार्थस्य यज्यादेः अभ्यतोऽवगतिम॒ग्या, अनवगतार्थ भाषार्थे गुणविधानस्यानुपपन्नत्वात् । 'आग्नेयोऽष्टाकपालो भवति' (ते.सं. २-६-३), 'अग्निहोत्रं जुहोति' (तै.सं. १-५-९) इति विध्यन्तरेण भावार्थे चोदिते, तत्र 'बीहि मिर्यजेत', 'दंधा जुहोति' इति ॥ [उङ्गिदादिवाक्यानां विशिष्टविधिस्वे वाक्यभेददोषः] ननु ! 'वाजपेयेन स्वाराज्यकामो यजेत' इत्यनेनैव वाक्येन यागास्यो भावार्थः चोदयिष्यते, गुणश्च तस्मिन् वाजपेयाख्यो विधास्यते इति को दोषः ? · कथं न दोषः? अर्थद्वयविधानेन | वाक्यमेदप्रजात्'वाजपेयेन स्वाराज्यं कुर्यात्' इत्येकोऽर्थः, 'वाजपेयेन गुणेन यागं कुर्यात्' इति द्वितीयोऽर्थः । न च सकृदुश्चरितं वाक्यं मइयविधानाय प्रभवति ॥ विधिरिति. पूर्वपक्षः । एवं अग्नीषोमीयपशुमन्य चित्रात्वस्त्रीत्वरूपगुणविधिरिति द्वितीयाधिकरणपूर्वपक्षः। एवं भग्नये होत्रं भस्मिमिति भमिहोत्रपदेन अग्नि देवतारूपो गुणः दर्विहोममन्य विधीयत इति तृतीयाधिकरणपूर्वपक्षः ॥ भावार्थ:- यजिभारवर्थः। यजिः- यशः, इक्षणस्य इक्षतिपदेन निर्देशवत् ॥ ... इति गुणविधिः यथा प्रवर्तत इति शेषः ॥ . - * एवमधिकरणत्रयमपि कोरीकृस्य पूर्वपक्षवर्णनात् , एतदधिकरणत्रयोपर्यापेण प्राप्तं वाजपेयाधिकरणं (१-४-३) त्रयसाधारणतया प्रदर्शयतिनन्विति। गुण इति। वाज-अ, पेयं--सुरा। तदुभयमित्यर्थः ॥ ... को दोष इति। तथा च उभिदादिस्थलेऽपि गुणविशिटयागविधिरेवास्त्विति पूर्वपक्षाशयः ॥ |यागस्याप्राप्तस्वात यागोऽप्यनेनैव वाक्येन वाजपेयेन यागेन स्वर्ग भावयेत् ' इति विधेयः । एवं वाजपेयाश्यगुणस्याप्यप्राप्तरवेम ‘वाजपेयेन यागं भावयेत्' इति भनेनैव वाक्येन गुणोऽपि विधेयः । यजेत इति पदं तु सकदेव अयते। सकृदुचरितः शब्दः सकृदेवार्थ गमयतीति न्यायेन यजतिधात्वर्थस्य स्वर्गसाधनवं धा वाग्यं, वाजपेयसाध्यस्वं वा चाव्यम्। पुनरावृत्तिकरणे व वाक्यहर्ष स्वतन्त्रमेवेषितम्यम्। वाक्यप्रवृत्तिशैली तु मानानुकूलेसि भाषः ॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 688 नामधेयप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमभरी वाक्यभेदस्य दोषत्वोपपादनम्] * ननु ! 'यजेत' इति रूपसाम्यात् उभयत्रापि सम्बध्यते 'यजेत स्वाराज्यकामः वाजपेयेन च' इति तुल्यमस्योभयत्रापि रूपम-न-रूपसाम्यस्यासिद्धत्वात्। स्वाराज्यं प्रति यजिरप्राप्त त्वात् विधीयते, गुणं च प्रति प्राप्तत्वात् अनूद्यते। अनवगते च कर्मणि गुणविधानमघटमानमिति अवश्यं गुणविधिपक्षे गुणं प्रति यजिः प्राप्तत्वादुद्देश्यो भवति, प्रधानं च। स एव स्वाराज्यं प्रति विधेयत्वात् उपादेयो गुणश्चेति विरुद्धरूपापत्तेः, न यजिरुभाभ्यां युगपत् सम्बद्धुमर्हति । यः स्वाराज्यं साधयितुमिच्छेत् , स यजेतेत्यन्यद्रपम् ; यद्यजेत, तत् वाजपेयेनेत्यन्यद्रूपम् । तस्मात् भावार्थप्राप्तौ प्रमाणान्तरापेक्षणात् गुणविधिपक्षे तत् अप्रमाणं वचनम् ॥ . [उद्भिदादिपदानां नामधेयत्वे वैफल्यम् : ___ अथैष दोषो मा भूदिति नामधेयपक्ष आश्रीयते; तदैषामुद्भिदादिपदानां विस्पष्टमेवानर्थक्यम्।। यावदेवोक्तं भवति : यजेत' इति, तावदेव 'वाजपेयेन यजेत' इति । एवमानर्थक्यात् अन्यत्राप्यसमाश्वांसः॥ * ननु यजनीत्यत्रास्ति अंशद्वयम्-धातुः, आख्यातश्च । भूतार्थवाचिना धातुना सिद्धः यागः स्वर्गसाधनत्वेन बोध्यते । आख्यातेन च भाग्यत्वेन स एव बोध्यत इति गुणान्वयसंभव इति न दोष इति शङ्कते-नन्विति । रूपसाम्यात् , शब्दस्वरूपस्यै क्यमयुक्तात् । . असिद्धत्वमेवोपपादयतिस्वाराज्यमित्यादिना। यदा च यागः स्वर्गार्थं विधीयते, तदा तत्र अपूर्वत्वं, विधेयत्वं, प्राधान्यं इति त्रयो धर्माः संभवन्ति । यदा च वाजपेयगुणविधानं, तदा यागे प्राप्तत्वं, अनुवाद्यस्वं, अप्राधान्यं = गुणत्वं इति त्रयो धर्माः तत्रैव भवन्ति । एते च परस्परविरुद्धा इति स्वरूपत एव ज्ञायते । अतः एकदा स्वरूपविधिः, गुणविधिः इत्युभयमपि सर्वथा न संभवत्येव ॥ आनर्थक्यम्-न हि नामधेयनिर्देशमात्रात् यागस्वरूपे कश्चन भतिशयः प्रामोति ॥ * अन्यत्र-इतरवैदिकवाक्येष्वपि एवमेवानर्थत्वशङ्काप्रसङ्गः ॥ 1वाजपेयेनेति-ख. Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडिकम् ४] उद्धिदादिपदानां नामधेयत्वम् 689 सद्धिदादिपदानां नामधेयत्वसिद्धान्तः] अत्रोच्यते-गुणविधिपक्षे यथा भवानाह, तथैव । नामधेयपक्ष एव तु श्रेयान् इत्यभ्युपगम्यते। तथा हि-भावार्थस्य फलं प्रति करणत्वात् तत्सामानाधिकरण्येन तृतीया 'प्रयुज्यते तत्र 'वाजपेयेन' इति, साध्यश्च भवन् भावार्थः करणभावमनुभवतीति । साध्यत्वापेक्षया तत्सामानाधिकरण्येन कचित् द्वितीयाऽपि प्रयुज्यते'अग्निहोत्रं जुहोति' इति ॥ [उद्भिदादिनाम्नां न विधानम् ] ननु! गुणवन्नामापि विधातव्यमेव, अनभिहितस्यानवगमात् । ततश्च गुणविधिपक्षस्पृशः वाक्यनेदादिदोषाः तदवस्था एवनैतदेवम-*नास्य कर्मणः इदं नाम वेदितव्यमिति संथासंज्ञिसम्बन्धं वेदो विदधाति । योगेन तु केनचित् प्रवर्तमानं नामधेयमवगम्यत एव। उद्भेदनमनेन पशूनां क्रियत इति उद्भिदिदम् ॥ 'दधिमधुपयोघृतं धानास्तण्डुला उदकं तत्संसृष्टं प्राजापत्यम्' इति नानाविधविचित्रद्रव्यसाध्यत्वात् चित्रा॥ . अग्नये होगमस्मिन्नित्यग्निहोत्रम् ॥ ... 'यथा वै श्येनो निपत्यादत्ते, एषमनेन द्विषन्तं भ्रातृव्यमादत्ते' (पदविंबा. ३-८) इत्यर्थवादात् श्येन इव श्येनो यागः॥ वाज-अन्नं पीयते अस्मिन्निति वाजपेयो यागः। तस्मात् कर्मनामान्येतानि ॥ * न हीति। अत्रेदं शाबरं भाष्य-'न नामधेयं विधायिष्यते । अनुवादा युद्भिदादयः । कुतः प्राप्तिरिति चेत्-उच्छब्दसामर्थ्यात् मिच्छब्दसामर्थ्याचोमिच्छब्दः क्रियावचनः । उद्भेदन-प्रकाशनं पशूनामनेन क्रियत इस्युद्भित यागः' (शा. भा. १-४-१) इति । अयमेव न्याय उत्सरत्रापि योजनीयः ।। 1 युज्यते-क. इत्यर्थवादा:-क. NYAYAMANJABI Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 690 नामधेयप्रामाण्यपरीक्षा न्यायमचरी [नामधेयपरत्वे पूर्वोक्तानर्थ न्यशक्कानिरासः] यत्तु नामधेयपक्षे नैरर्थक्यमाशङ्कितं-तदपि न चारु - नामापि गुणफलोपलब्धेः अर्थवदित्यभियुक्तैः* परिहृतत्वात्। एवंनामेदं कर्मेत्यवगम्यते। तत्र गुणः द्रव्यदेवतादिः। फलं च तस्य स्वर्गः पश्चादवगम्यत इति। तस्मानामधयपदानामविरुद्धोऽन्वयः॥ क्वचित् वाक्यभेदपरिहाराय विशिष्टविधिः] कचित्पुनरप्राप्त भावार्थे सगुणमेव तत्कर्म चोद्यते । यथा-- 'आग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां च पौर्णमास्यां चाऽच्युतो भवति' (तै. सं. २-६-३) इति। यथा वा एतस्यैव रेवतीषु वारवन्तीयमग्निष्टोमसाम कृत्वा पशुकामो ह्येतेन यजेत' (ता.बा. १७.७-१) इतीत्यलं शस्त्रान्तरोदार'गहनकथाविस्तरेणेति नास्ति नामधेयद्वारेणापि प्रमाणताऽऽक्षेपः। सर्वप्रकारेणापि सिद्ध वेदप्रमाणत्वमिति ॥ वेदप्रामाण्य सिध्यर्थमित्थ मेताः कथाः कृताः।. न तु मीमांसक'च्छातपारमिथ्याभिधानतः ॥ १४३॥ * अभियुक्तरिति। 'नामापि गुणफलोपबन्धेनार्थवत्' (शा.भा. :-४-१, इति भाष्यम्। एवंनामकोऽयं यागः, एतद्गुणकः, एतत्फलक:--इति रीत्या गुणफलायन्वयार्थ स्वेन नाम्नः सार्थक्य । यदि नामेव न स्यात्, तदा कस्य को गुणो विधेयः स्यात्, फलं वा ॥ आग्नेय इति। अत्र आग्नेयपदं किं गुणपरम् ? उस कर्मनामधेयमिति संशय्य, 'अप्राप्ते शास्त्रमर्थवत्' इति न्यायमनुरुध्य ---तणास्तु विधीयेरविभागाद्विधानार्थे न चेदन्येन शिष्टाः' (जै.सू.१-४.९) इतिन्यायेनोभयविधिरिति सिद्धान्तितम् ! एवं 'एतस्यैव रेवतीषु' इत्यत्र एतस्यैवेति प्रकरणप्राप्त अग्निष्टतमनूद्य पशुफलाय रेवतीरक्सम्बन्धिवारवन्तीयसामगुणकत्व विधीयते ? उत तादृशगुणविशिष्टः अपूर्वः यागः विधीयत इत्याशंक्य, ताशगुणविशिष्टं कर्मान्तरमेव विधीयत इति सिद्धान्तितम् (जै सू. २-३.१२)॥ न त्वित्यादि। छातं-छिन्नं पारं येन, सः छातपारः, मिनमर्याद इत्यर्थः। मीमांस केषु अयं मर्यादोल्लङ्घाति मिथ्यामिधानतः “इत्यर्थः । मीमांसकानां मर्यादां भेत्तायमिति वृथाख्यात्यर्थ न कथाः कृता इति यावत् ॥ स्तरोक्त-ख. प्रामाण्या-ख. स्याति प्राप्ताऽस्माभिमानतः-स. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकम् ४] कार्यपरशब्दानामेव प्रामाण्यमित्याक्षेपः 691 __ [पदानां कार्य एवार्थे व्युत्पत्तिः ? उत सिद्धेऽपि] ननु ! एवं विध्यर्थवादमन्त्रनामधेयानां कार्योपयिकत्वदर्शनात कार्य एवार्थे वेदः प्रमाणमित्युक्तं स्यात्। ततः किम् ? सिद्धेऽर्थे तस्य प्रामाण्यं हीयते ? ततोऽपि किम् ? . भ्यान् * भूतार्थाभिधायिग्रन्थराशिरुपेक्षितो भवेत्। सकलस्य च वेदस्य प्रामाण्यं प्रतिष्ठापयितुमेतत् प्रवृत्तं शास्त्रम् + ॥ ... [कार्य एव पदानां व्युत्पत्तिरिति मीमांसकरीस्था पूर्वपक्षः] अत्र केचिदाहुः-सर्वस्यैव वेदस्य कार्येऽर्थे प्रामाण्यम्तथा हि-गृहीत सम्बन्धः शब्दः अर्थमवगमयति। सम्बन्धग्रहणं चास्य वृद्धव्यवहारात्। वृद्धानां च व्यवहारः 'पानीयमानय', 'गां बधान', 'ग्रामं गच्छ ' इति कार्यप्रतिपादकैरेव शब्दैः प्रवर्तत इति तत्रैव व्युत्पद्यन्ते बालाः। प्रयोजनोद्देशेन हि वृद्धा वाक्यानि प्रयुञ्जते। न च सिद्धार्थाभिधायिना प्रवृत्तिनिवृत्ती अनुपदिशता शब्देन किञ्चित् प्रयोजनममिनिर्वर्तत इति तस्य न 'प्रयोगयोग्यत्वम् । अप्रयुज्यमानस्य च न सम्बन्धग्रहणम्। अगृहीतसम्बन्धस्य च न प्रतिपादकत्वम् । अप्रतिपादकस्य च || न प्रामाण्यम् ॥ [क्रियारहितं वाश्यं प्रयोक्तुं नाहम् 'अपि च आख्यातपदोच्चारणमन्तरेण निराकाङ्क्षप्रत्ययानुत्पादात् अवश्यमाख्यातयुक्तं वाक्यं प्रयोकव्यम्। आख्यात पदेन च * भूतार्थ:--सिद्धार्थः। कार्य-भम्य, सिद्ध-भूतमिति म्यवहारः ॥ एतच्छास्त्रं-न्यायशास्त्रम् ॥ . * सम्बन्धः--शक्तयाख्यः ॥ 8 'प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा। पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रममिधीयते' (श्लो. वा. १-१-५, शब्द. ४) इति भट्टः ॥ ॥ न प्रामाण्यमिति। प्रमाकरणं हि प्रमाणम् ॥ 1 गम्यस्वम्-क. पदेन-ख. 44* Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 692 सिद्धे व्युत्पत्तिसमर्थनम् [न्यायमचरी साध्यरूपोऽर्थ उच्यते। 'नाम'पदेन च सिद्धः। भूतभव्यसमुशारणे * भूतं भव्यायोपदिश्यत इति वाक्यस्य साध्यार्थनिष्ठतेति न भूतार्थविषये तस्य प्रामाण्यम् । अतश्च कार्येऽर्थे शब्दस्य प्रामाण्यम् , यतश्च कार्यरूपोऽर्थः शन्दस्यैव विषय इति तत्र' शब्दः प्रमाणतां लभते। सिद्धोऽर्थः' प्रसिद्धत्वादेव प्रमाणान्तरपरिच्छेदयोग्य इति तत्प्रतिपादने तत्प्रमाणान्तरसव्यपेक्षः शन्दो भवति। ततश्च तग्राहिणः प्रमाणान्तरस्यैव तत्र प्रामाण्यं स्यात्, न शब्दस्य । शब्दश्च तदुपस्थापनमात्र एव निष्ठः स्यात् । तस्मान् शब्दप्रामाण्यमिच्छता कार्य एवार्थे तत्प्रामाण्यमङ्गीकर्तव्यमिति ॥ [सिद्धेऽपि पदानां व्युत्पत्तिरिति सिद्धान्तः] अत्रोच्यते-यत् ब्रूषे कार्य एवार्थे वाक्यस्य व्युत्पत्तिरितितदयुक्तम् । एवं हि 'सिद्धरूपोऽयं तस्यार्थः' इति कथं त्वयोच्यते । न हलब्धव्युत्पत्तेः शब्दात् अर्थप्रत्ययो युज्यते। अर्थप्रतीतिश्च ततो दृश्यते, व्युत्पत्तिश्च तत्र नास्तीति चित्रम् ! न च कार्यपरैरेव शब्दैः लोके व्यवहारः; वर्तमानोपदेशकेभ्योऽपि || नद्यादिवाक्येभ्यः' व्यवहारप्रवृत्तेः तत्रापि व्युत्पत्तिर्भवत्येव ॥ _ * भूतं भव्यायेति। 'घटमानय' इत्यादौ हि घटपदं भानयनरूपक्रियाशेषभूतमेव। आनयनं न सिद्धं,. अतः तत् साध्य-भग्यं च । घटस्तु पूर्वमेव सिद्धः--भूतश्च ।। प्रमाणान्तरं-प्रत्यक्षावि ॥ तदुपस्थापनं-आनयनशेषतया घटसमर्पणम् ॥ एवं हीत्यादि। 'घटः सिद्धः' इति यदा उच्यते, तदा तस्य वाक्यस्य सिद्धवस्तुबोधकत्वं सिद्धमेव ॥ || नद्यादिवाक्यम्। 'नद्यास्तीरे फलानि सन्ति' इति वाक्यम् ॥ 1 नामधेय-ख. न च-ख. लभते-क. 'पदेशकेभ्यः-ख. Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडिकम् ४] सिद्ध व्युत्पत्त्युपपादनम् 698 [कार्योपदेशाभावेऽपि ग्युत्पत्तिः) अपि च अङ्गस्यादिना पुरोऽवस्थितमर्थ निर्दिश्य यदा कश्चित् कथयति 'अस्येदं नाम' इति तदा कार्योपदेशमन्तरेणापि भवत्येव व्युत्पत्तिः। 'अस्माच्छब्दादयमर्थः प्रतिपत्तव्यः' इति कार्योपदेश एवासाविति 'चेत्-न', तादृशानामक्षराणामश्रवणात्। 'अस्येदं नाम' इति हि श्रयते, न 'अस्मादयं प्रतिपत्तव्यः' इति । 'अस्येदं नाम' इत्येषामेवाक्षराणां एषोऽर्थ इति चेत्-न-अपदार्थस्य क्यार्थत्वायोगात् । न चैवं कल्पयितुमपि शक्यते, 'भस्येदंन म' इत्येतावतैव तत्प्रतिपत्तिसिद्धःप्रतिपत्तिकर्तच्यताऽभिधानस्य निष्प्रयोजनत्वात्॥ कार्यपरादपि शब्दात् व्युत्पत्तिर्भवन्ती न वाक्यार्थमात्रपर्यवसायिनी भवति; किन्त्वेकैकपदावापोद्वापद्वारकपदार्थपर्यन्ता सा भवति। पदार्थव्युत्पत्तिसंस्कृतमतेश्च भभिनवकविविरचितावर्तमानोपदेशश्लोकश्रवणेऽपि वाक्यार्थप्रतीतिदृश्यत एवेति नाव्युत्पत्तिकृतमप्रामाण्यम्॥ 'न चासौ भूतार्थप्रतिपादकशब्दजनिता प्रतीतिः बाध्यते, सन्दिग्धा वा; येन प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरकरणकप्रतीतिवत् प्रमाणफलमेव सा भक्तुिमईति ॥ (शब्दस्य प्रमाणान्तरसापेक्षत्वं गुण एव ] : यत्पुनरभ्यधायि-कार्येऽथै प्रमाणान्तरनिरपेक्षतया प्रमाणं भवति शब्दः, 'भूतार्थे तु नेति-तदसत्-शब्दस्य प्रमाणान्तरसापेक्षत्वानपायात्। प्रमाणान्तरेणानवगते ह्यर्थे शब्दः' . * निष्प्रयोजनत्वात्-प्रमाणतन्त्रं हि ज्ञानं, न पुरुषतन्त्रम् । अतः 'जानीहि' इति विधिमात्रेण न ज्ञानमुत्पद्येत॥ किन्त्वित्यादि। प्रत्येकं पदैरर्थोपस्थित्यनन्तरं हि वाक्यार्थः जायेत । तदा प्रत्येक सिद्धपदेनापि बोधः अनुभूयत एव ॥ विर्तमानोपदेशेति। सिद्धार्थप्रतिपादकेत्यर्थः । प्रत्यक्ष--इन्द्रियम् । तस्करणकः संशयादिः न प्रमाणम् ॥ 1 चेत-ख. न चार्थ-क. 'न सिद्धऽ प्रमाणान्तरसापेक्षत्वादिति सदसत्-ख. Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 694 सिद्धे व्युत्पत्तिसमर्थनम् न्यायमचरी प्रवर्तयितुमेव न शक्नोति इत्यवोचाम (पु. +81)। वक्ष्यामध वाक्यार्थचिन्तायामपि (५ आड्डिके)। प्रमाणान्तरसापेक्षत्वं तस्य * प्रत्युत प्रामाण्य मावहति, न प्रतिहन्ति' ॥ [प्रमाणान्तरसापेक्षत्वं नाप्रामाण्यावहम्] +किञ्चेदं सापेक्षत्वमिति वक्तव्यम् । किं सिद्धार्थाभिधायिनः शब्दस्य उत्पत्तावेव प्रमाणान्तरसापेक्षत्वम? उत तद्विषयस्य प्रमाणान्तरपरिच्छेदयोग्यत्वम् ? इत्युभयथाऽतिप्रसङ्गः। उत्पत्ती प्रमाणान्तरसव्यपेक्षतया यद्यप्रामाण्यं वर्ण्यते, हन्त ! हतमनुमानम् , तस्योत्पत्तौ प्रत्यक्षादिसापेक्षन्वात्। वर्णित च 'तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम्' (न्या. सू. १-१-५) इति । तद्विषयस्य प्रमाणान्तरग्रहणायोग्यतायां तु तदप्रामाण्ये, प्रत्यक्षादीनां सर्वेषां अप्रामाण्यं प्राप्नोति, प्रमाणसंप्लवस्य प्राक् (पु. 87) प्रतिपादितत्वात् ।। [विधिवाक्यानां कार्यपरत्वमसंभवि , अपि च विधियुक्तेष्वपि वैदिकेषु लौकिकेषु वाफ्येषु' अधीष्व', 'गां बधान' , 'ग्रामं गच्छ' इत्येवमादिषु अन्वयव्यतिरेकाभ्यां हिताहितप्राप्तिपरिहारसाधनसामर्थ्यावगमेन प्रवृत्तिसिद्धः विनियोगमात्रनिष्ठ एव विधिर्भवति। अप्रवृत्तप्रवर्तनात्मकनिरपेक्षनिज * प्रमाणान्तरावगतमेव यदा बोधयति, तदा संवादयत् प्रामाण्यं दृढीभवति ॥ +किं-कीदृशम् ॥ + प्रमाणसंप्लवस्ये ने । तथा च प्रत्यक्षमपि प्रमाणान्तरग्रहणयोग्य गृह्णात्येव ॥ विनियोगमात्रेति । न हि शतशः विधिश्रवणमात्रेण पुरुषः स्वेष्टसाधनस्वानिष्टनिवारकत्वज्ञानमन्तरा प्रवर्तते । अतः विधिः न साक्षात्प्रवर्तयितुमलमिति कार्यपरत्वेऽपि तदंशेऽनुवादकत्वमेव ॥ आवहति-ख. Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राह्निकम् ४ वेदानामपि कार्यपरत्वानिवन्धः 605 व्यापारवैधुर्यात् कार्यपरत्वानुपपत्तेः अनुवादमात्रं विधिवचन मिति कार्यार्थप्रामाण्यवादिनां सर्वमेव लौकिकं वाक्यं अप्रमाणं स्यात् ॥ सिद्धपरवाक्येषु विधिकल्पनमपि न युक्तम् ] ये तु भूतार्थवादिषु 'लौकिकवाक्येषु प्रवृत्ति निवृत्तिकारिषु विधिनिषेधौ कल्पयन्ति ते नितरामृजवा*-श्रूयमाणोऽपि विधिः अनुवादीभवति यत्र, तत्राश्रुतः कल्प्यत इति किमन्यदतः परमार्जवम? प्रवृत्ती तु तत्र विधिर प्रयोजक एव; अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुरुशार्थसाधनसामर्थ्यावगमात् , पुरुषप्रत्ययाद्वा लोकेषु प्रवृत्तिसिद्धः॥ [शब्दात वक्तृतात्पर्यानुमानपक्षनिराकरणम् ] तत्रैतत्स्यात्--लौकिकवाकानां विवक्षापरत्वात् न कार्यार्थत्वम् । यथोक्तं-'अपि च पौरुषेयाद्वचनात् एव मथं पुरुषो वेदेति भवति प्रत्ययः, नैवमर्थतेनि'। वैदिकानि पुनः अपौरुषेयतया कार्यपराण्येव वाक्यानि' इति–एतदपि न पेशलम-अपौरुषेयस्य वचसः प्रतिक्षिप्तत्वात् । वेदेऽपि कर्तुरीश्वरस्य साधितत्वात् ॥ न च पुरुषवचनमपि विवक्षापरमिति दर्शितम्। तथा हिन विवक्षा वाक्यार्थः, 'देवदत्त! गामभ्याज कृष्णां दण्डेन' इति पदग्रामे विवक्षावाचिनः पदस्थाश्रवणात् । अपदार्थस्य वाक्याथत्वानुपपत्तेः। न च ||विषभक्षणवाक्यस्येव परगृहे भोजननिवृत्ती, * ऋजवः इति उपहासोक्तिः ॥ + पुरुषप्रत्ययात्-वक्त: पुरुषस्यातत्वज्ञानात् ॥ * अयं पुरुषः-शब्दप्रयोक्तपुरुषः। एतारकार्थबोधनेच्छया इमं शाब्दं भयं प्रयुक्तवानिति यस्ति व्यवहारः ॥ पदैस्तथाऽबोधनेऽपि आहत्य वाक्येनास्त्वित्यत्राह-अपदार्थस्येति ॥ । 'परगृहे भोजनतो विषभक्षणमेव वरम्' इति वाक्येन हि विषभक्षणं न विधेयम् , किन्तु परगृहभोजननिषेध एव । स च म पदानामर्थः, मथापि 1 प्रवृत्ति-ख. भपि च-ख. मर्थप्रती :-ख. Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 696 सिजे व्युत्पत्तिसमर्धनम् সিং । पौरुषेयवचसः विवक्षायां तात्पर्यशक्तिरपि प्रभवति । न हि सर्वास्मनाऽमिधात्रीं शक्तिमवधीयैव तात्पर्यशक्तिः प्रसरति 'इति न' विवक्षापरत्वम् ॥ [अनुमानादेव वक्तृतात्पर्यनिश्चयः] कथं तर्हि पुरुषववनादुञ्चारितात् विवक्षावगम इति चेत् , अनुमानादिति ब्रूमः। कार्यत्वात् पदरचनायाः पुरुषेच्छापूर्वकत्वमनुमीयते। अर्थावगमपुरस्सरं च पुरुषवचनात् विवक्षानुमानं-- 'एवमयं वेद', 'पघमयं विवक्षति' इति। अर्थोपरागरहितस्य विवक्षा मात्रस्य *जीवतां 'निसर्गत एव सिद्धः। 'अय'मर्थोऽस्य' विवक्षितः' इत्यर्थोपरज्यमाना तु विवक्षा 'न शक्या अर्थेऽनवगतेऽवगन्तुम । अर्थश्चेत् प्रथममवगतो वाक्यात् , न तर्हि सत् । विवक्षापरम् , अर्थपरमेव भवितुमर्हति । लोकवाक्यानां विवक्षापरत्वे चाहोऽर्थे + सम्बन्धग्रहणासंभवात् वेदादपि वाक्यार्थावगमो न स्यादित्यलं प्रसङ्गेन । तस्मान्न कार्यपरत्वेनैव शब्दस्य प्रामाण्यम् ॥ .. [कार्यान्वयरहितवाक्यानामप्यस्ति प्रामाण्यम् ] यत्पुनरभाणि---नाख्यातशून्यं वाक्यं प्रयोगाहम् । तेन घिना नैराकाट्यानुपपत्तेः। आख्यातस्य च भव्यरूपः अर्थः, न नाम्न इव भूतः। भूतभव्यसमुच्चारणे च भूतं भव्यायोपदिश्यत इति सर्वत्र कार्यपरत्वमिति-तदपि न सांप्रतम्-'पुत्रस्ते जातः", 'कन्या ते वाक्यैबाध्यत इति कथमिति चेत्-न हि तत्र पदैरर्थप्रतीतिरेव न भवति । पदसंघातरूपातु वाक्यात् तावानेव हि बोध्येत । विवक्षाज्ञानं तु पाणिकमेवानुमानादिति समनन्तरमेव वक्ष्यते ॥ *जीवतां-चेतनानामिति यावत् । शब्दे श्रुते सति 'अयं किञ्चिद्विवक्षति' इति सामान्यत एव विवक्षाऽनुमातुं शक्या, न तु अर्थोपरागेण । अर्थस्य शाब्दबोधाधीनत्वेन, तत्पूर्व अर्थोपरागासंभवादित्यर्थः ॥ लोकतोऽवगतपदपदार्थव्युत्पत्तिकाः खलु वेदादप्यर्थं प्रतिपद्येयुः ॥ इति--क. मात्र-क. निसर्ग-क. “मों-स्त्र. न-क. Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकेऽपि शब्दानां कार्यपरत्वानियमः 697 गर्भिणी' इति सुखदुःखकारिणां अनुपदिष्टप्रवृत्तिनिवृत्तिकानां अनाख्यातानामपि वाक्यानां लोके प्राचुर्येण प्रयुज्यमानत्वात् ॥ [प्रमाणतन्त्रस्य छानसुखादे विषिसंभवः] ___ अथ 'सुखी भव', 'दुःखी भव' इति तत्र कार्यपरत्वं व्याख्यायते तदपिन युक्तम्-ईशानामक्षराणामश्रवणात् ; कल्पनायाच निष्फलत्वात्। न हि 'सुखी भव' इत्युपदेशात् असो सुखी भवति ; सुखीभवितुं वा क्वचित् प्रवर्तते । * उपाये पूर्वमेव प्रवृत्तत्वात् । । उपेये च प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। किन्तु पुत्रजन्मश्रवणत एवासी सुखीभवति ॥ _____तथा कस्यचित् उत्तरीयावगुण्ठिततनोः निद्रायमाणस्य क्वचित् केनचित् केलिना रजुवेष्टितवपुषः, पश्चात्प्रबोधसमये सहसा सरीसृपवलितमात्मानं मन्यमानस्य भयादनुन्मीलितचक्षुषः केनचित्प्रयुज्यमानं 'रज्वा वेष्टितोऽसि' इति वचः श्रवणपथमवतरति, तत् सिद्धार्थबोधकमपि प्रमाणम्। न च तत्र ‘मा भैषीः' इति प्रयोगकल्पनायाः प्रयोजनम् ; रजुवेष्टनप्रत्ययादेव भयनिवृत्तेः सिद्धत्वात् ॥ तथा च विषमविषधराधिष्ठितोऽयमध्वा', 'निधियुक्तोऽयं भूभागः' इति भूतार्थस्यापकं वचो दृश्यते ; न च तदप्रमाणम् । नच तत्र ‘मा गाः स्वमनेनाध्वना', 'निधि गृहाण' इति विधिनिषेध• परत्वं युक्तम् , एषां पदानामश्रवणात् ॥ . सर्वत्र कार्यपदाध्याहारः नापेक्षितः] ननु! वक्तुः प्रेक्षापूर्वकारितया निष्प्रयोजनवचनानुचारात् अवश्यं 'मा गाः', 'गृहाण' इति कार्याक्षराणि हृदये परिस्फरन्ति । कथञ्चिदालस्यादिना नोरितानीति--नैतद्युक्तम्--प्रेक्षापूर्वकारि * उपाय:-सुखदुःखहेतुवाक्यश्रवणम् ॥ + उपेयं-फलं सुख दुःखं वा। नैतत् विधेयम्, पुरुषानधीनस्वात्॥ प्रेक्षापूर्वकारित्वादेवेति । कदा कार्यपदं प्रयुक्कं चेत् सफलं भवेत् ? कदा प्रयोगाप्रयोगयोरविशेषः । इत्यादिज्ञानवस्वादेव ताशस्थले न कार्यपवं प्रयुक्त इत्यर्थः। म चाम्तत: तन्त्र 'सन्ति' इति वा क्रियापदमभ्या Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 698 सिरे व्युत्पत्तिसमर्थनम् [न्यायमचरी स्वादेव वक्तुः यथाऽवस्थितवस्तुस्वरूपमात्रख्यापकवचनोचारणमेव युक्तम् । अर्थात् प्रवृत्तिनिवृत्त्योः सिद्धत्वात् ; पराभिप्रायस्य चानवस्थितत्वेन नियतोपदेशानुपपत्तेः। सर्पबन्धजीविनो हि 'सपन्नग' एव पन्था उपादेयतयाऽवभाति । वीतरागस्य च ब्रह्मविदः वित्तेषणाव्युन्थितस्य गोविन्दस्वामिन इव निधिरपि हेयतया परिस्फुरतीति कस्मै किमुपदिश्यताम् ? वस्तुस्वरूपे तु कथिते यथाहृदयवर्तिरागद्वेषानुवर्तनेन कश्चित्तत्र प्रवर्तताम! कश्चित्ततो निवर्तताम! इति भूतार्थकथनमेव लोके प्रेक्षावान् करोति, न विधिनिषेधौ प्रयोकुमर्हतीति ॥ सर्वत्र ज्ञानविधानपक्षोऽपि अत एव निरस्तः] येऽपि त्रुवते-*सर्वत्र प्रतिपत्तिकर्तव्यताविधानमेवादौ वेदितव्यम् ; अविधिकस्य वाक्यस्य प्रयोगानईत्वादिति-तेऽपि न साधु बुध्यन्ते-विदितशब्दार्थसम्बन्धस्य पुंसा शब्दश्रवणे सति प्रतिपत्तः स्वतः सिद्धत्वेन अनुपदेश्यत्वात् । असिद्धायां वा प्रतिपत्ती प्रतिपत्तिकर्तव्यताऽपि कुतः प्रतीयेत? ___ कार्यद्वारव पदार्थानां सम्बन्धमानमिति न नियम:] ननु ! कार्यार्थप्रतिपादकं पदमन्तरेण पदान्तराणि संसर्गमेव न भजन्ते, कार्याकालानिबन्धनत्वात् सम्बन्धस्य। तेन सर्वत्र कार्यहार्यमिति वाच्यम् ; सत्ताया: सिद्धत्वेन क्रियात्वाभावात्। सन्तीति प्रयोगस्तु अनुवाद एव, असत्वशङ्कावारणायैव, नान्या क्रिया तत्र बोध्यत इति ॥ ___ * सर्वत्रेति। उक्तक्रमेण प्रेक्षावतः तावत्येव प्रवृत्तेः सर्वत्र तावन्मा विधेयमित्यर्थः ।। जन भजन्त इति। प्रत्ययमन्तरा पदं न प्रयुज्यत एव। प्रत्ययाब सुवादयः सप्तविधाः तत्तत्कारकपदोपरि भवन्ति। कारकत्वं च क्रियानिर्वतकत्वमेव। तथा चैकक्रियान्वयोद्देशेनैव सप्तविधकारकाणि प्रवृत्तानीति कथं कार्यपरित्यागः। परित्यागे वा कथं तेषां कारकत्वमित्याक्षेपः । अन्ततः साधुस्वार्थ संपन-क. Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडिकम् ४] कुत्रचिन्छब्दस्य कार्यपरस्यासंभवकथनम् 699 परत्वम्--उच्यते--नैप नियमः, कार्याकाङ्क्षागर्भ एव सर्वत्र सम्बन्ध इति ; वर्तमानापदेशकानामपि प्रेक्षापूर्वकारिवाक्यानां इतरेतरसंसष्टार्थप्रतीतिजनकत्वदर्शनात्। न हि * दशदाडिमादिवाक्यसदेशि वर्तमानापदेशीनि वचांसि भवन्ति । कार्यनिबन्धने हि सम्बन्धे तद्रहितानामनन्वय एव स्यात् । दर्शितश्चान्वयः पूर्वोदाहृतवाक्यानाम्॥ कार्यवाक्येऽपि सर्वेषां पदानां न क्रियान्वयनियमः) अपि च लिङन्तपदयुक्तऽपि वाक्ये पदान्तरार्थानां परस्परमन्वयो दृश्यत एव । स कथं समर्थयिष्यते? कार्याकाङ्क्षानिबन्धने हि कार्ये सर्वेषामन्वयः, न परस्परमिति 'ब्रुवन् यात्'-- सर्वथा कार्यसंबन्धे प्रथममवगते सति पश्चादरुणैकहायनीन्यायेन वाक्यीयः परस्परान्वयोऽपि सेत्स्यतीति-हन्त तर्हि परस्परान्वये कार्याकाङ्क्षाकारणम् ! तर्हि 'अरुणया पिङ्गाक्ष्या एकहायन्या सोमं क्रीणाति' इति द्रव्यगुणयोः विभक्तथा सोमक्रय प्रति युक्तत्वात्, प्रथम क्रयसंबन्ध एव तयोर्गम्यते। यश्च पाश्चात्यः परस्परान्वयः, तत्र कार्यपारतव्यापादिका विभक्तिः अकारणम; असत्यामपि || तस्यां 'शुक्लः पटः' इति सामानाधिकरण्यप्रयोगेणा. न्वसिद्धेः। तस्मात् कार्येक्यनिबन्धनोऽन्वय इति नियमो य उच्यते; स कल्पनामात्रप्रभवः, न प्रमाण वृत्त'गम्य इति ॥ मपि विभक्तिप्रयोगदर्शनात्, तत्र क्रियायाः सर्वथाऽप्रतीते: न कार्यान्वयो नियत इति समाधानाशयः॥ ... * दशदाडिमादीति। परस्परानन्वितार्थकानीत्यर्थः ॥ + पदान्तरार्थानां-नीलघटमानयेत्यादौ नीलादिपदार्थानाम ॥ अरुणैकहायनीन्यायेनेति । 'अरुणयैकहायन्या पिङ्गाक्ष्या गवा सोमं क्रीणाति' इत्यत्र प्रथमं 'मरुणया क्रीणाति', 'एकहायन्या क्रीणाति', 'पिङ्गाक्ष्या क्रीणाति' इतिक्रमेणैव बोधः। विशिष्टबोधस्तु पाणिकः इति तैरङ्गीकृतः॥ $ अकारणमिति । प्राथमिकान्वयबोधजननेनैव हि विभक्तिश्चरितार्था । ॥ तस्यां-क्रियायाम् । प्रातिपदिकार्थलिङ्गवचनमाने हि प्रथमा ।। 1 अब बयाव-ख. व्यवस्था-ख. Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700 कार्ये व्युत्पाचसमवनम् न्यायमञ्जरी सिदस्य साध्यशेषत्वनिर्बन्धोऽपि नास्ति] यत्त भूतभव्यसमुच्चारणे भूतं भव्यायोपदिश्यत इति-अयमपि न सार्वत्रिको नियमः ; * 'विपर्ययस्यापि 'वीहीन प्रोक्षति' इत्यादी दर्शनात् ॥ +अलं वा दर्शपूर्णमासप्रकरणनिवेशानुज्झितकार्यमुखप्रेक्षणदैन्येन व्रीहिपोक्षणोदाहरणेन ! 'आत्मा शातव्यः' इति तु सिद्धपर एव साध्योपदेशः। न ह्यत्र कर्म किशित्साध्यं प्रधानमुपदिश्यते, * अधिकाराश्रवणात् । न च विश्वजिदादिवत् भधिकारकल्पना काचिदुपपद्यते। न च कर्मप्रवृत्तिहेतुत्वं भात्मज्ञानस्येति वक्ष्यामः ( ९ माद्विके) ॥ [भार्थवादिकं फलमात्मज्ञानस्य न संभवति] ॥ अर्थवादस्त्वर्थवाद एव, नाधिकारिकल्पनाय प्रभवति । *विपर्ययस्येति । प्रोक्षणं हि नीयुद्देश्यकम् ॥ , ननु सर्वेषामपि परमापूर्वरूपकार्य निष्पत्यर्थत्वात् प्रोक्षणं न प्रीधामित्याशझ्याह-अलं वेति ॥ अधिकाराश्रवणात्-- फलकामनावान् अधिकारी । न ह्यत्र फलं किबिदस्ति ॥ कर्मप्रवृत्तीति। शरीरातिरिक्तनित्यारमशानमन्तरा स्वर्गाद्यर्थकर्मसु प्रवृत्तिर्न हि संभवेत् ॥ ! अर्थवाद इति। 'सर्वमायुरेति, नास्यापरपुरुषाः क्षीयन्ते, य एवं वेद' (ग. ४-११-२) इत्यादिः भानुषङ्गिकफलपरः। मारमोपासनस्य फलं हि मोक्ष एव। ननु तर्हि मोक्षकामनावानेवाधिकारी लग्धः - इति चेत्मोक्षस्य स्वस्वरूपरूपत्वेन साध्यत्वाभावात् । उपासना तु प्रतिवन्धकनिवृत्तावेव पर्यवसथा। प्रतिबन्धकनिवृत्तिस्तु न पुरुषार्थ इति भारमोपासनावाक्यं स्वरूपपरमेव । मधिकमत्रामस्तुतम् ॥ 1 विपर्यस्येत्यमि-क. अथवा-क. दिश्यते-ख. Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विकम् ४] उपनिषदा सिबपरत्वसमर्थनम् To1 तस्मात् अपहतपाप्मादिगुणयुक्तात्मस्वरूपनिष्ठत्वमेव तत्रावतिष्ठते । तस्मिन्नवगते *पुरुषान्तरमार्थनादैन्यानुपपत्तः स एव घुत्तमः पुरुषार्थः। स च सिद्ध एव, न साध्यः। यत्नस्तु कतबुद्धीनां अविद्योपरमायैवेति व्याचक्षते ॥ [भारमशानस्याविधेयस्वम्] _ शातव्यः' इति प्रतिपत्तिकर्तव्यतापरोऽयं विधिरिति चेत्-नप्रतिपत्तेः प्रमितित्वात् । प्रमितेश्च प्रमेयनिष्ठत्वात्। 'सातव्यः' 'इति च कर्मणि' कृत्यप्रत्यय निर्देशात् । कर्मणश्च ईप्सिततमत्वात् तत्परत्वमेवावगम्यते। विधिस्तत्र प्रसरन्नपि क प्रसरेत् ? फलं तावत् विधेःन विषय एव । यथाऽऽइ भट्टः (श्लो. वा. 1-1-२-२२२)'फलांशे भावनायाश्च प्रत्ययो न विधायकः' इति । उपायस्तु ज्ञानमेव । शानं च शेयनिष्ठमित्युक्तम् ॥ [नात्मज्ञानाङ्गोपदेशोऽपि प्रतिबन्धकनिवृत्तिपर्यवसाय्येव] यस्तु यमनियमादिप्रतिपत्तीतिकर्तव्यताप्रकारोपदेशः, सोऽपि * पुरुषान्तरं-इन्द्राग्न्यादि। भारमविद्विपये हि ‘स वेद प्रम। , सर्वेऽस्मै देवा बलिमावहन्ति' (ते.अ. १-५) इति श्रूयते ॥ प्रमेयनिष्ठत्वात् -प्रमेयाधीनत्वात् , पुरुषानधीनत्वादिति यावत् ।। तत्परत्वं-नामपरत्वम् । भारमा स्वस्वीप्सिततमः ॥ . शेयनिष्ठमिति । तथा चेदं वाक्यं न कार्यपरमिति सिद्धम् ॥ ॥ यमेत्यादि। यदि न किचिद्विधेय, तर्हि-'शान्तो दान्तः' (बृ. ४-४-२३) इत्यादिना उपासनाविधानं, ‘यमनियमासनप्राणायाम' (यो.सू. २-२९) इत्याद्यङ्गोपदेशमा किमर्थ: ? किमुदिश्यैतानि विधीयन्ते ? इति चेत् , प्रतिबन्धकनिवृत्त्यर्थमेवेत्यर्थः । 1 इति कर्मणि च-ख. प्रसरन्-ख. Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 702 • सिद्धे प्रामाण्यसमर्थनम् [न्यायमञ्जरी तथाविधात्मरूपाधिगतये * सत्यासत्यस्वभावनामरूपप्रपञ्चविला. पन'द्वारेण' तत्रोपयुज्यत इति सिद्धसाध्यम ॥ सर्वेषामपि कर्मणां वात्मज्ञानाङ्गत्वम् तिष्ठतु वा यमनियमप्राणायामप्रत्याहारधारणाद्यात्मशानोपयोगीतिकर्तव्यताविधिः! अन्येऽपि ज्योतिष्टोमादिविधयः तनिष्ठा एवेति वेदान्तवादिनः। साध्यस्य सर्वस्य क्षयित्वेनानुपादेयत्वात् , सिद्धस्य ब्रह्मण एव अनाद्यविद्यातीतस्यानपायिनः पुरुषार्थत्वात्, स्तोकस्तोकप्रपञ्चविलापनद्वारेण उत्तमाधिकारयोग्यत्वापादनात् ब्रह्मप्राप्तयौपयिका एव सर्वविधयः। तथा च मनुः-(म, स्मृ. २-११) 'स्वाध्यायेन व्रतहों मैः विद्येनेज्यया सुतः । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः' इति ॥ [सर्वविधीनामपि ब्रह्मप्राप्तिपर्यवसायित्वम् ] .. तदेवं सिद्ध एवार्थे वेदस्याहुः प्रमाणताम् । * सर्वा हि विधयो' ब्रह्मप्राप्तिपर्यवसायिनः ॥ १४४ ॥ आस्तां वाऽयं विषयः बहु वक्तव्यः, प्रमाणता तु गिराम् । सिद्धे कार्ये चार्थे तुल्यैव प्रमितितुल्यत्वात् ॥ १५ ॥ * सत्यासत्येति-जगतः स्वरूपतः सत्यत्वं, विकारतः असत्यत्वं च वेदान्तिमिः समर्थितम् ॥ वेिदान्तवादिन इति । 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यझेन दानेन तपसा' (बृ. ४-४-२२) इत्यादिना निष्काममनुष्ठितकर्मणां ब्रह्म- . ज्ञानोपयोगिस्वमुक्तम् ।। *साध्यस्य-प्रयत्नसाध्यस्य । ब्राह्मी-ब्रह्मसम्बन्धिनी ॥ 1द्वारा-ख. वेदान्तिन:-ख. प्रमाणताम् । सर्वस्तावदिषयो बहुवक्तभ्यः प्रमाणता तु गिराम्-ख. आस्ता वाऽयं विषयो-ग. Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भातिकम् । वेदविचारोपसंहारः 703 विदविचारोपसंहारः] *.कि तन्त्रता भवति कस्य तयोरितीयं चर्चा चिराय न महत्युपयुज्यते नः. संतोषवृत्तिमवलम्ब्य वयं हि वेद प्रामाण्यमात्रकथनाय गृहीतयत्नाः ॥ १४६ ॥ प्रामाण्यसाधनविधावुपयोगि यश्च वक्तव्यमत्र तदवादि यथोपयोगम् । वक्तव्यमिष्टमपि किञ्चिदिहाभिदध्मः तच्छयतां यदि न धीः परिखिद्यते 'वः ॥ १४७ ॥ इति मामजयन्तभट्टकृतौ न्यायमार्या चतुर्थमाह्निकम् * किं तन्त्रतेति। भूतं भन्याय वा, भग्यं भूताय वेति इयं चर्चा नातीवप्रयोजना, ग्यवहारस्यैतदनधीनत्वात् । तयोः-सिद्धसाध्ययोर्मध्ये कस्य किन्तन्त्रतेति चिराय चर्चा महति फले नोपयुज्यत इत्यन्वयः ॥ इति पण्डितरत्नेन विदुषा वरदायेंण विरचिते न्यायसौरमे चतुर्थमाडिकम् वा-क. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (WD 2770-GTBPM-1,000-5-10-1967) Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुबन्धः 1-2 3-4 I. अन्थकारादि सूची II. अन्थसूची III. प्रमाणानुक्रमणिका. .... IV. - श्लोकार्धानुक्रमणिका .... 5-18 19-53 Page #741 --------------------------------------------------------------------------  Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमञ्जरी ग्रन्थकारादिसूची 12 अक्षपादः . 2,3, 7, 10 / जरनैयायिकः 223 अभियुक्ताः 22, 475 | जैमिनि: 11, 61, 73, 664 अहल्या 612 जैमिनीयाः 259 भाचार्याः 175,210, 218, 220 दिङ्नाग: 189, 235, 29 1, 358, आईताः 8,536, 664 377, 401 612 धर्मकीर्ति: 61, 150, 152, 158, ईश्वरकृष्णः . . 281 235,243, 259, 261, 284, 294, उद्योतकरः 296, 358 कणादः 403 धर्मोत्तराचार्य: 61, 152, 235, कन्दलीकारः 24, 362, 568 236, 285, 294, कमलशीलः 493 299 कापिलाः .536, 664 | 684 | पार्थसारथि: 94. 251,260, 264, कालिदासः 582 | 361, 392, 512), 539 कुमारिल: (भट्टः) 11,13,83,101, 142,208, 223, 232 256, 260, 337, प्रशस्तपादः 276, 362, 403 342,. 353, 359, प्राभाकरः 75, 94, 117, 119, 361, 375, 376, ___124, 163, 351, 381, 539 353,664 कृष्णद्वैपायनः 644 | बाण: 582 कैयटः . 21 | बौद्धाः खण्डदेवः 392 | भट्टः (कुमारिल:) 11, 13, 83, गोविन्दस्वामी 698 101, 142, 208, गौतमः (अक्षपादः) 2, 120, 667 223, 256, 260, 337, 342, 353, गौतमः (धर्मसूत्रकारः) 657 359, 361, 375, गौरमूलक 376, 381, 539 चार्वाका: 9, 75 | भट्टोम्बेक: 120, 141, 251 प्रवरः 8, 75 653 45* Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 21. भरद्वाज: 626 | विश्ववसुः 589 भर्तमित्रः 531, 559 | वृत्तिकारः उरवर्षः) भर्तृहरिः 200, 251 वृद्धनैयायिकाः 203,374 भवदास: 260 वृद्धमीमांसकाः 664 भाहाः 45, 75, 94, 131, 133, वैयाकरणा: 140 वैशेषिकाः 9,75 भा यकार: 21, 28, 29, 30, | शंकरभगवत्पादा: 636 14,96, 203, 230, शंकरवर्मा 649 2.32, 293, 294, ! शबर: 106,351, 684 332, 344, 374, | शाक्यभिक्षवः 664 399, 663 शाक्यप्रायाः 537 भिक्षुः 77,235, 242,237 शाक्या: 45 मनुः 702 | शान्तरक्षितः 493 महाचार्याः 252 शाबराः . . 42,664 माघः 218 | शालिकनाथ: 94, 121,118,351 मोक्षाकरगुप्तः 152 शुद्धोदनः . . 644 योगाचारः 189 | शौद्धोदनिः _165 राजा 281 | | सांख्याः 8,75 वाचस्पतिः 173, 309, 333, । सुचरितमिश्रः 251, 353 334, 377, 400 / सुरेश्वराचार्याः . 251 वार्तिककृत् 44, 570 | सुशिक्षितचार्वाका: 9,94 विद्यानन्दिः ___450 | सुशिक्षिततराः 320 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमञ्जरी ग्रन्थसूची 251 अद्वैतसिद्धिः 251 न्यायभाष्यं 20, 30, 234,274, भामरः 324, 598, 604, 605, 334, 351, 359, 612, 638 382, 534 ऋजुविमला ___ 118 | न्यायरत्नाकरः 251, 266, 259, कन्दली 266, 276, 294, 362, 337, 385, 406, 478,568 529, 531, 561 काणादसूत्रं ___Go ! न्यायवार्तिकं 139, 231, 309, काशिका . 376, 534 कुसुमाञ्जलिः 107 प्रकरणपञ्चिका 94, 166, 351,864 गोपथब्राह्मणं प्रपञ्चहृदयं 506 गौतमत्रं 12, 31, 171, 282, | प्रमाणवार्तिकं 61, 62, 16, 152, 373, 396, 569, | 296,299, 403 609,652 प्रमाणसमुच्चयः 259, 377, 401 चण्डमारुतं 252 | प्रशस्तपादभाष्यं 60,274 तन्त्रवार्तिकं बृहती . 118, 116, 351 तभाषा 152 बृहदारण्यकवार्तिकं 251 तत्वार्थवार्तिक बोधिचर्यावतारः . . 64 तात्पर्यटीका 13, 376 | ब्रह्मसिद्धिः 251 तात्पर्यटीका(मीमांसा) 251 | भादीपिका 392 न्यायबिन्दुः 150, 151, 235, | महाभाष्यं 21,516 236,257, 284, | महाभाष्यप्रदीपः 21,516 285, 300, 305 | युक्तिदीपिका | 259 न्यायविन्दुटीका 61, 257 | वाक्यपदीयं 251 634 450 Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिकं (मीमांसा) 384, 529, | शाबरभाष्यं 358, 350, 516, 531, 532, 533, 664 524, 600, 689 वार्तिकं (व्याकरण) शास्त्रदीपिका 516 94, 134, 392 शैवपुराण 2 वार्तिकं (न्यायः) 96, 232, 328, श्लोकवार्तिकं 11, 142, 158, 251 382 संक्षेपशारीरकं 251 494 सर्वार्थसिद्धिः शतदूषणी 252 | हेतुबिन्दुः 152, 158 वैजयन्ती -493 Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायमञ्जरी प्रमाणानुक्रमणिका 65 77 598 भक्ताः शकरा उपदधाति 678 | अथातस्तत्त्वं व्याख्या 163 मक्षधीयद्यपेक्षेत 237 | अथापि रूढिरूपेण 265 भक्षस्याक्षस्य प्रति 234 अथोभावपि सर्वज्ञौ 641 अग्निराप्तोपदेशात् .93 अदितिौरदिति 680, 6S ! अग्निवत्राणि जङ्घनत् 685| अद्वैतवादिनस्तु 251 अग्निहोत्रं जुहुयात् 5, 93,686 अधर्मे धर्मरूपे वा 611 अग्निहोत्रं जुहोति 670, 687, 689 अधिकारोऽनुपायत्वात् भग्नीदग्नीन् बिहर 679, 683 | अनलार्थनलं पश्यन् अग्नौ चेः . 126 | अनादिनिधनं ब्रह्म . 251 अङ्कशोऽस्त्री सृणि | अनित्यःशब्दो जाति 570 अङ्गानि वेदाश्चत्वारः . 8, 619 | अनुदिते जुहोति । 6, 414 अचतुरविचतुर ___653 | अनुदिते होतव्यं 651 अजात शृङ्गो गौः 667 अनुमानं ज्ञातसम्ब 858 भजामेकां लोहित 646 | अनुमितासूर्ये अज्ञो जन्तुरनीशोऽयं 511 | अनुविद्वमिव ज्ञान 209 अणोरप्यस्य विज्ञानात् 619 अन्तरिक्षमसु 560 अतिमुक्तः पुण्डकः 568 अन्युको निगडो 509 अतीतेऽनागतेऽप्यर्थे 265, 359 अन्यत्संवतिसत् प्रोक्तं 16 अत्र भर्तृमित्र: 531 अन्यथाऽनुपपत्ती तु 98 अथ चेन्नैवविध 620 अयथाऽनुपपत्त्या तु 601 अथ तृतीयेऽहन् 616 अन्यदेव हि सत्यत्वं 411 अथ त्वधिकता काचित् 389 अपरीक्षामिषेणापि 391 अथ येऽस्योदञ्चो 617 | अपि चेत्सुदुराचारः 644 अथर्वाङ्गिरसोऽध्येता 619 | अपि वा कर्तृसामान्यात 632, 644 अथ शब्दानुशासनं 21 अप्रत्यक्षोपलंभस्य 95 81 (5) Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 627 842 463 680 0. 29 अप्रामाण्यमवस्तुत्वात् अभिगमनोपादान अभिधानप्रसिध्यर्थं अभिधेयप्रयोजन अभिलापसंसर्ग अभतानपि पश्यन्ति अभ्युत्थानमधर्मस्य अमावास्यायां अमृते जारजः कुण्डा अम्यक्सात इन्द्र भयथार्थः प्रमाणो अयमेवेति यो ह्येषः अरुणया पिङ्गाक्ष्या अर्थक्रियाऽनुरोधेन अर्थक्रियासमर्थं यत् अर्थात्तुल्यार्थतां प्राप्य अर्थान्तराऽनपेक्षत्वात् अथान्तरे प्रमाणत्वं अर्थान्यथात्वहेतूथ अर्थेनात्मप्रत्यायन अर्थेऽनुपलब्धे अर्थैकत्वादेकं वाक्यं अर्थोपयोगेऽपि पुन: अहे कृत्यतृचश्व अल्पीयसा प्रयत्नेन अवयवी जाति: अवलगुजः सोमराजी अविद्यमानसंयोगात् अवेद्यवेदकाकारा अश्वप्लुतं वासव अश्वालंभं गवालंभ 421 | अष्टकालिङ्गाश्च 105 637 | अष्टचत्वारिंशद्वर्ष 96 | असंभवद्विसंवाद 483 13 | असंभवाद्विसंवादः 235 असद्वा इदमन 6 271 असभुवि 644 | प्रसिद्धेनैकदेशेन 871 अस्ति ह्यालोचनाजानं 251 अस्त्युत्तरस्यां दिशि . 560 अस्थानात् 560 अस्मदादौ प्रसिद्धत्वात् 143 | अप्रत्ययविज्ञेयः . 699 62 . आ. 16 | आगोऽष्टाकपाल: 39:568,6:00 432 | आत्मा च लाघवं नी: 17:) 336 आत्मा ज्ञातव्य: 5,700 615 | आत्मेन्द्रियमनोऽर्थ 131 | आथर्वणो वै ब्रह्मणः , 617,621 516 आदित्यः प्रायणीय: 674 61 आदित्यो यूपः. 66, 676 515.1569 237 | आनन्तर्यविसंवादः ( 233 | आनन्दो ब्रह्म 529 आन्वीक्षकी यी वार्ता 9 91 भाप्तः खलु साक्षात् 399 605 | आप्तवादाविसंवादात् 40,111 260 | आपोपदेशः शब्दः 30, 168,335, 459 37-1, 396 336 भाम्नायविधातृणां 646 | माम्नायस्थ क्रियार्थ . 667 73 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभप्रतिबन्धोऽस्य 664 | उदिते जुहोति 6, 114 आई धर्मोपदेश च 5 , 29 | उदिते होतव्यं 651 अर्घ सिद्ध दर्शन च 60, 276 | उभिदा यजेत 686 आश्रयः सर्वधर्माणां 23 उपद्रष्टाऽनुमन्ता च 504 आहोपुरुषिका तावत् 560 उपमानमपि सादृश्य 384 उभयपक्षसाम्यात् 294 उभयमिह चोदनया 643 इको यणचि 515 उरु प्रथा उरु 679, 682 इच्छाद्वेषप्रयत्न 503 इतिहांसपुराणः 616 इतिहासपुराणाभ्यां 6, 504, 6:34 | ऋक्यामयजुरङ्गानां 619 इदं पुण्यमिदं पापं 612 ऋग्भिः प्रातर्दिवि 614 इदं विष्णुर्विचक्रमे . 636 ऋग्यजुस्सामाथर्व 619 इन्द्रः रोगस्य काणुका 680 ऋग्वेदो यजुर्वेदः _613, 623 इन्द्रशत्रु: - 549 ऋचां प्राची महती 618 इन्द्रियार्थ पन्जिकर्ष ऋचो थै ब्रह्मणः 617 इममहं पञ्चदशारेण . .666 ऋदस्य राजमातङ्गा 21 इटिषु दर्शपूर्ण 106 | ऋषीणामपि यत् ज्ञानं 276 इह न भवत्यनाभि 607 71 ई धरप्रेरितो गच्छेत् 581, 588 661 636 312 239 एकं वा रूपसंयोग 511 एक: स्वादु न भुञ्जीत एक एव रुद्रः एकदेशविशिष्टश्च 624 एकस्यार्थस्वभावस्य 504 एकार्थसमवायेन 21 | एके तावद्वर्णयन्ति 685 | एवेन तु प्रमाणेन 424 | एतत् ज्ञानमिति 305, 328 | एतन्न विद्मो यदि 120/ एतस्मिन्नुपमानत्वं उच्चेचा क्रियते उत्तमः पुरुषत्वन्यः उत्तरपदार्थान्तर्गत उत्ताना वै देवगवाः उदकाहरगे त्वस्य उदाहरणसाधात् उदाहरणान्तरपरि 570 303 269 668 - 375 Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतस्यैव रेवतीषु 690 | किमीश्वरतयेश्वरः 489 एतेन शाब्दं व्याख्यातं 403 | कुसुरुबिन्द औदाल 582 एते दै पङ्क्तिपावनाः 619 कूपपूरणयत्नेन 570 एवञ्च परिहर्तव्यः 256 कृतं कान्तस्य तन्वङ्गयाः 553 एवं विचतुरज्ञान 434 | कृतश्च शीलविध्वंसः 472 एवं सत्यनुवादत्वं 260 | कृतार्थाऽस्मि 612 एष प्रत्यक्षधर्मश्च 277 | कृत्तद्धितसमासेषु 208 कृष्णं धर्म सनातनम् 644 कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत 627 ऐकाऱ्यांद्वा नियम्येत 392 | केचित्तु पण्डितमन्या: 531 ऐन्द्राग्नमेकादश 106 | केचित् सौगतंमन्याः 498 केनचित् द्वयात्मनैकत्वं 256. ओ कोऽन्यो न दृष्टो भाग: स्यात् 10,288) ओषधे त्रायस्वैनं 650, 684 को हि तद्वेद यद्यमुष्मिन् 668, 676 क्रियाऽभ्यावृत्तिसत्तायां 525 क्रियावतामभेदे हि . 525 कपिलो यदि सर्वज्ञः 641 क्लेशकर्मविपाक 486, 507 कर्मभिस्सर्वजीवानां 510 क्रियास्तया प्रमीयन्ते 615 कर्मवैगुण्यं समीहा क्षीरे दधि भवेदेवं . , 148 कल्पनाशब्दोऽत्र 118 कस्यचित्तु यदीष्येत 426 काठकं कालापं 619 | गडिवंदनैकदेशे कामशोकभयोन्माद 271 | गययोपमिता या गौः कारीरी निर्वपेत् 658 | गीतिपु सामाख्या कार्य चेदवगम्येत 468 गृहद्वारि स्थितः 120 कार्य चेन्नावगम्येत 468 गृहीत्वा वस्तुसद्भावं 133 कार्यकारणभावाद्वा 296 गहीत्या सकलं चैतत् कालश्चैको विभुर्नित्य: 361, 526 गोदोहनेन पशु 432 किं पुनस्तत्त्वम् 20 गोश्च पुरीषे 348 कीदृग्गवय इत्येवं 375 | | ग्रहं सम्मार्टि 681 किमयमस्मदादेशः 230 | अहिज्या वयि 516 663 625 238 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राइकं वस्तु सिद्धं नः ग्राहकाकारसंचियोः 97 505 44 घ 265 | ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेश ___189 ज्ञातारं हि राग, दय: ज्ञानं चेन्नेत्यत: पश्चात् ज्ञानान्तरेण विज्ञानं 193, 395/ ज्येष्ठसामगस्त्रिमधुः ज्योतिष्टोमेन स्वर्ग 56 घ्राणरसनचक्षुः 628 658 351 27 चतुर्विधमाथर्वणं. 6:24 चत्वारश्चतुणां वर्णानां 619 तश्चैव हि तत्र कारणं 654 चत्वारि शृङ्गास्त्रयः। 680,683 तत् ज्ञानमज्ञानमतो चत्वारो वेदविदः . 619 तत् विविध वाक्छलं 335 उमसेनापः प्रणा 432 ततश्च श्रुतिमूलत्वात् 631 च्यस्त्विषामित्यव . 218 ततश्वेदाप्तवादेन 111 चरमधातुविमोऽपि 447 | ततो वेदानसारेण 559 चित्रया यजेत पशु 649,658, 686 | तत्तु द्विविध चित्रादीनां फलं तावत 659 | तत्तु प्रस्तरेण देव 274 चिरण्टी तु स्ववासिनी .661 तत्त्वमपि भवति 419 चैत्रस्य गुरुकुलं . . 21 तत्वाध्यवसायसंरक्ष • चोदनालक्षणोऽर्थों .. 260, 391 | तत्परिच्छिनत्ति 77 • चोददा बाधितुं शक्तः 654 तत्पश्चागर्दभः प्राप्त तत्पूर्वकं त्रिविध 282, 694 तत्प्रमाणं बादरायण 4:35, 13,615 जनपदपुरपरि 600 तत्ययोगाद्धृवं तस्य 525 जन्मतुल्यं हि बुद्धीनां 411 तत्र पञ्चविध मानं 94 जन्ममृत्युजराव्याधि 57 | तन्त्र प्रत्यक्षतो ज्ञानात् 95 जन्माधिकोपयोगी च 411 तवान्यनास्तितां पृष्टः 142 जीवतश्च गृहाभावः 97 तत्रापवादनिर्मुक्तः 435 जातिगुणादिविशिष्ट 252 तत्रापि मौलिकं लिङ्ग 330 जातिमत्वेन्द्रियवादि 571 | तत्रापि व्याप्यतैव स्यात् 492 जातिरित्युध्यते तस्यां 255 तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वम् 450 जातिविशेषे चानिय 600 | तत्सुखादि किमज्ञानं . 195 631 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 252 99 तथा च प्रथमयज्ञ: 620 | तस्य प्रमाणभावे तु 441,454 तथा चोदनयाऽप्यर्थ 483 | तस्य यजुरेव शिरः 617 तथैव यत्समीपस्थैः 532 तस्यागमाबहिर्भावात् 374 तदतपिणो भावाः 195 | तां चतुर्भिरादत्ते 683 तदपि फलमभीष्टं 393 ताप्येग च धर्मत्वं 270 तदप्रामाण्यमनृत 414, 649, 652 | तान्त्रिको ज्ञातसिद्धान्तः .. 324. तदर्थशास्त्रात् 679 तिन्त्रिणीकं च चुकं च 604 .. तदा विशेषमात्रेण 255 | तिमिराशुभ्रमण मण . 257 तदाऽन्यानन्यभेदादि 255 तुतोष भगवानाह . तदा सामान्यमानत्व 255 | तेजो वै घृतम् ..678 तदुद्भूत्या च सामान्य 255 | तेन तुल्यं क्रिया चेत् 317. तद्गुणास्तु विधीयेरन् 690 तेन नात्यन्तभेदोऽपि तद्वचनादाम्नायस्य 616 | तेन यत्राप्युभौ धौं 492 तन्तुगुणा एव हि 535 तेन सम्बन्धवेलांयां तन्त्राधिकरणाभ्युग्राम 335 | तेन सूत्रस्य सम्बन्धः 260 तमभ्युपेत्य पक्षश्चत् 265 तषां गुगरहितत्वं 668 तमेतं वेदानुवचनेन 702 | तेषामन्योन्यसम्बन्धे 416, 433 तरति मृत्यु तरति 669 | तेषामृग्यत्रार्थवशेन 625 तर्काप्रतिष्ठानात् 316 त्रयाणां प्रत्यक्षत्व । तस्मात् श्रुत्येकदेश: 105 | यो वेदा असृज्यन्त तस्मादाथर्वणं 615 | अय्यै विद्यायै शुक्र , 623 तस्माद्दग्विदमेव |त्रि: प्रथमामन्वाह 414,652,666 तस्मादृढं यदुत्पन्न 56 | त्रिरूपाल्लिङ्गात् 284, 358 तस्माद्बोधात्मकत्वेन 431 रूप्यं पुनर्लिङ्गस्य 284 तस्माद्यत्स्मर्यते 881 | त्वामग्ने पुष्करा 618 तस्माद्यथार्थ एव 29 तस्मादद्यवदेवात्र । 511 तस्माद्वा एतस्मात् 617 | दधिमधुपयोघृतं 689 तस्माद्वा एतेन 677 दना जुहोति 670, 686 . तस्माद्वाक्यान्तरेणायं 101, 102 | दर्शनस्य परार्थत्वात्। तस्माद्धर्मविशिष्टस्य 337 | दर्शपूर्णमासाभ्यां 362 617 6:21 विशिवस्य __106 Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 न 21 दासी तु चेटिका 4.04 | न चतुष्टमैतिह्य 30 दिशः श्रोत्रं 559 | न च प्रातरवगतः 131 दुःखजन्मप्रवृत्ति 30 न चैतद्विद्मः 676 दुष्टकारणबोधे तु 432 | न चैतस्यानुमानत्वं 381,385 दुष्टत्वाच्छुक्तिकायोगः 261 | न जातिकार्यदुष्टान् 643 दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यात् 269 | न जायते म्रियते वा दृष्टः श्रुतो वाऽङ्कः 94,117,124 ननु च दृष्टःश्रुतः 118 दृष्टानुगुण्यसामर्थ्यात् 630, 645 ननुनायं कालः 361 देवराञ्च सुतोत्पत्ति: 646 | न पृथिव्यामग्निः 669 देवानां प्रिय इति 158, 337 | न यदि वर्षेत् श्वोभूते 660 देवा वै देवयजनं 667; 674,675 | न युक्ताऽनुमितिः पाण्डु 493 दोषज्ञाने त्वनुत्पन्ने . 321, 432 | नर्ते भृग्वशिरोभ्यः 621 दोषोत्पादेऽनुबन्धः . 271 | न वा अरे अहं मोहं 648 द्रव्यक्रियागुणादीनां 664 न सोऽस्ति प्रत्ययः 209 द्रव्याश्रितत्वं चान्यत्र 564 न स्वतन्त्रोपयोगित्व 391 द्रव्यासुव्यवसायेषु ___47 न हि ते प्रत्यक्षे 539 द्वाविमौ पुरुषौ लोके. 504 | न हि श्रावणता नाम 84 द्वासुपर्णा सयुजा 504 / न हि स्वतोऽसती 430 द्विविधो हि शब्दः . .538, 561 ! न ह्यज्ञातेऽर्थे कश्चित् 44, 425 न ह्यविज्ञातसम्बन्धं नाथर्वणेन प्रवृ .624 'धर्माः-पदार्थाः 400 | नादा हि प्रादेशिका: 532 धर्मे प्रमीयमाणे नाध्वन्यङ्गयः कालः 370 धर्मो विरुद्धो भावस्य 336 | नानित्यशब्दवाच्यत्वं 131 धाता यथापूर्व 505 | नान्तरीयकार्थ 358 धारा संपात आसारः नान्यतो वेदविद्भ्यः 11 धूम एवाग्नेर्दिवा 668, 675 | | नान्यथा ह्यर्थसद्भावः ध्यायतो विषयान् 57 नाप्रत्यक्षे गवये 381 नाभुक्तं क्षीयते कर्म 509 नामापि गुणफल 690 न कर्मकर्तृसाधन 652 ] नायं लोकोऽस्ति न परः 430 90 93 44 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 280 नायं समासः किन्तु नावश्यं श्रोत्रमाकाशं नासिद्ध भावधर्मोऽस्ति नित्यत्वं तु स्याद्दर्शन निरस्तश्चायं शब्द निर्विकल्पकबोधेऽपि निर्विशेषं न सामान्य नूनं तत्रापि पूर्वेण नूनं स चक्षुषा सर्वान् नैकदेशत्रास नैयायिकास्तु धूम नैष वस्त्वन्तराभाव नैषा तर्केण मतिः न्यायोद्गारगभीर 24 342 405 प 234 | पुरूपयो मा प्रपत: 582 531 पुत्रकामः पुष्टया 60,651 336 पुत्रैर्दारैश्च भृत्यैश्च 661 524 पूर्ववाक्यार्थविज्ञानात् 531 | पूर्णाहुया सर्वान् 663, 676 252 पूर्वापरपरामर्श ... 250 165 पार्णमास्यां बजेत 371 प्रख्याभावाच योगस्य 540 269 प्रजापतिः प्रजाः प्रमापतिना चत्वारः 575 प्रजापतिर कामयत 614 143 | प्रजापतिरात्मनो ६07,671,675 316 प्रजापति: सोमेन 021 प्रणिधानंलिङ्गादि 60 प्रतिनिधिरपि चैवं 303 प्रत्यक्ष योगिनामिष्टं 265 483 | प्रदीपः सर्वविद्यानां 28 326 | प्रधानविधिवर्जितं 106 618 प्रपातस्तु तटो भृगुः । 215 670 प्रमाणतैव न ह्यस्य 122 22 प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्ती 150 236प्रमाणत्वोपचारस्तु 184 प्रमाणमविसंवादि 61,403 662 प्रमाणषटकविज्ञात: 94. 600 प्रमाणादीनां तत्त्वस्य 548 | प्रमाता प्रमाण 626 | प्रयत्नेनान्विच्छन्त: 418 101 | प्रयाजशेषेण - 125 6,619 | प्रवृत्तर्वा निवृत्तिर्वा 691 6, 615/ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थ 446 12 | प्रसिद्धसाधात् साध्य 873, 381 668 पक्ष्मलाक्षीमभिरमयेत् पतिं विश्वस्थ पय आहुतयो ह पयसा जुहोति परश्शतपरिक्षोदात् परिव्राटकामुकशुनां पशुबन्धयाजी सर्वान् पावमानी जपेत् पिक इति कोकिल: पिण्डव्यङ्गयैव गोत्यादि पितश्च मधुसर्पिभ्यां पीनो दिवा न भुते च पुराणं धर्मशास्त्रं च पुराणतर्कमीमांसा पुरुष: पुनश्चतुर्धा 21 : Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 674 प्रसिद्धसाधादुपमान 383 | बर्हिषि रजतं न देयं प्रतितिष्ठन्ति ह वै 673, 676, 678 | बहिर्देशविशिष्टेऽर्थे 97 प्रतिबद्धतया बोद्धं 69 | बाले तव मुखाम्भोजे 516 प्रतिमन्वन्तरं चैषा 582 | बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदः 634 प्रतिविषयाध्यवसाय: 281 बुद्धिकर्मणी अपि 352, 526, 539 प्रत्यक्षं कल्पनापोढं 235, 259 | बुद्धिजन्म प्रत्यक्ष 545 प्रत्यक्षत्वमदोहेतु: 264 | बुद्धिरुपलब्धिः 397 प्रत्यक्षदृष्टसम्बन्ध: 353 बृहद्वा साम रथन्तरं 633 प्रत्यक्षमेकं चार्वाका: 94 ब्रवीत्यारण्यको वाक्यं 375 प्रत्यक्षादिमिरनिरा 285 ब्रह्मवर्चसकामस्य 656 प्रत्यक्षादेरनुत्पत्ति: 113 ब्रह्म वा इदमने 626 प्रत्यक्षादेश्च षट्कस्य . .94 | ब्रह्मवादिनो वदन्ति 623 प्रत्यक्षानुमान 31, 71 प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्ष 381 प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि 387 भवदासेन हि सतः 260 प्रत्यक्षो गवयस्तावत् 376 | भवेदिदानी लोकस्य 271 प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे . 420 भिद्यते नानुमानतः 106 मागूर्ध्वमुच्चारणात् .. 569 भिन्नकालं कथं ग्राह्य 158 माग्भागो यः सुराष्ट्राणां - 372 भूयोदर्शनगम्या 358 प्राजापत्यं तूपरं 674 भूयोऽवयवसामान्य 385 मायशश्वानया 105 भूसत्तायां पार्थ्यते तावतेवैकं 484 भृग्वाङ्गिरोविदा 627 भेदेभ्योऽनन्यरूपेण भ्रमणरेचन 544 फलति यदि न 651, 662 | भ्रान्तेरनुभवाद्वाऽपि 630, 645 फलमात्रेयो निर्दे फलांशे भावनाया 701 मणिप्रदीपप्रभयोः 62 मधु पश्यसि दुर्बुद्धे 215 बबरः प्रावाहणिः 582 | मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्य 609, 616 बर्हिदेवसदनं दामि 681 | मम त्वदृष्टिमात्रेण 121, 320 52 255 677 म Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 251 मरणकामो ह्येतेन महायज्ञैश्च यज्ञेश्व महासामान्यमन्ये तु मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य मानं द्विविध विषय मानसं नास्तिताज्ञानं मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि मुखे हि शब्दमुप मृद्दण्ड चक्रसूत्रादि मेघान्धकारशर्वयों मेद आहुतयो वा मेदसा तर्पयेद्देवान् मैरेयमासवः शीधुः 108 613 | यत्रापि स्यात्परिच्छेदः 702 यत्राप्यतिशयो दृष्टः 269 यत्रापा नुमिताल्लिङ्गात् 530 643 | यथा तथा यथार्थत्वे 62 76 यथाऽनुवृत्तव्यवहार 251 133 यथार्थ सर्वमेवेह. . .151 62 यथा व श्धेनो निपत्य 680 यथा सुदीप्तात् 488 424 | यथा हि स्वप्नष्टोऽर्थः 483 527 यदक्षपाद: प्रवरः 232 618 यदग्नये च प्रजापतये 670 626 । यदन्त यरूपं हि . 460 612 | यदा तु शवलं वस्तु 252 यदाभासं प्रमेयं तत् . 189 यदा यदा हि धर्मस्य , 614 647| यदि कामयेत वर्षक: 660 237 यदि त्ववश्यं वक्तव्यः 559 | यदि वा नैव गृह्णाति 529 285 | यदि यज्ञोपयोगित्वं , 615, 628 277 | यदि वर्षेत्तावत्येव 657 623 | यदूनं च विरिष्टं 621 669 | यहचा हौत्रं क्रियते 665 | यदृचैव हौत्रमकुर्वत 622 624 | यदैकस्मिन्नयं देशे 120 256 यद्वा वक्तुरभावेन 183 615, 627 यद्वै किञ्च मनुस्वदत् 293 यमनियमासन 701 431 | यकायश्चरु: 685 398 यस्तकेंणानुसन्धत्ते 642 यस्मात्प्रकरणचिन्ता 574 409 | यस्य लिङ्गमर्थ 392 326 यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मः य: प्रागजनको बुद्धेः यः सर्वज्ञः यः साधयितुमिष्टः यजातीयैः प्रमाणैस्तु यज्ञाथर्वाणं वैदिक यजमान: प्रस्तरः यज्ञेन यज्ञमयजन्त यज्ञे यदूनं च विरिष्टं यत्तु अन्यानन्यतैव यत्नेन भोजयेच्छ्राद्धे यत्पुनरनुमान यत्र दृष्टं कारणं यत्र पादादिविम्बेन यत्र प्राणिवधो धर्मः यत्र योऽन्वेति तं शब्द 621 633 25 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 28 660 528 यस्य वस्त्वन्तराभाव: 121 | वर्णाश्चाश्रमाश्च. 658 यस्यार्थस्य सन्निधानात् 236 | वर्ण्यते सूत्रभेदेन 260 यस्योभयं हवि 125 वर्तमानाभावः पतत: 370 यावजीवं सुखं जीवेत् 647 | वस्तुभेदे प्रसिद्धस्य 493 यावत्प्रयोजनं नोक्तं . 13 | वस्तुस्वरूपसंस्पर्शि 251 या सोपमान केषांचित् 375 | वाक्यार्थप्रत्ययस्यात्र 411 युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिः 207, 278 वाश्यार्थश्चान्य एवेह 411 येऽपि चातिशया दृष्टा. 269 वाचालो बहुगर्हवाक् येऽस्य प्राञ्चो रश्मयः 617 वाचा विरूपनित्यया 540 योग्यतालक्षण एव . 141 | वाजपेयन स्वाराज्य 686, 687 यो वृष्टिकाम: स सौभ वायवीया हि ध्वनयः यो हि वैशेषिक: - 533 वायव्यं श्वेतमालभेत 670, 671 वायुवै क्षेपिष्ठा 671, 673 वाराही उपानही 685 रजतं गृह्यमाणं हि 277 वारिदस्तृप्तिमाप्नोति 662 राजा स्वाराज्यकामः 74 | वार्ता तु जीवन राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे . 656 | विकल्पयोनयः शब्दाः 416 रात्रिं युगसहस्रान्तां 490 विक्रिया ज्ञानरूपाऽस्य 131 . रामसुग्रीवयोरेन्य 551 विक्रियामात्रवाचित्वे 131 रामो विग्रहवान् धर्मः 644 | विज्ञानधन एव 647 ..रोधोपघातसादृश्य 342 विज्ञानमानन्दं ब्रह्म 506 विधिस्तुत्योः सदा वृत्तिः 673 विध्यन्तो वा प्रकृति 392 - लटः शतृशानचौ 576 | विनियोक्त्री श्रुतिस्तावत् 102, 105 लिङ्गदर्शनाच्च 540 | विवर्ततेऽर्थ भावेन 251 लौकिकमभिधाना 124 | विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धः 385 विशेषणं विशेष्यं च 238 विशेषानपि सामान्यात् 255 वचनविघात अर्थ 335 | विशेषास्तु प्रतीयन्ते 251 वर्णवत् सर्वभावेषु 361 | विशेषेऽनुगमाभावात् 313 वन्दा वृक्षादिनी 638 / विश्वजिता यजेत 123 NYAYAMANJARI 46 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 138 G6 वेदस्याध्ययनं सर्व 574 | शुनि चैव श्वपाके च 643 वेदाः स्थानानि विद्यार्या 68 शृणोत ग्रावाणः 680, 684 वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति 612 शेषे वेदाध्ययनपूर्वत्वात् 574 शेषे यजुश्शब्दः वेदानधीत्य वेदो वा 627 | शोभतेऽस्य मुखं 668,676 वेदान्तवादिनस्तु 251 | श्यामो वा अस्याहुति 651 वेदान्तिनस्तु महा 251 श्येनेनाभिचरन् 643, 686 वेदे तेनाप्रमाणत्वं शवाक्यानां वैतसे कटे प्राजा 655 | श्रुतातिदेशवाक्यत्वं .. 384 वैष्टुतं वै वासः 634 श्रुतिलिङ्गवाक्य । 102 वैष्णवीं जपेत् 682 | श्रुतीरथर्वाङ्गिरसीः व्यापारो न यदा तेषां श्रोतुश्च प्रतिपन्नत्वं . 601 व्रीहिभिर्यजेत 686, 687 | श्रोतव्यो मन्तव्यः वीहीन् प्रोक्षति 670, 700 | श्रेयःसाधनता ह्येषां . . 270 व्रीहीनवहन्ति 670 435 | 375 618 141 26 षत्रिंशद्वार्षिकं 615 शं नो देवीरभिष्टये 573,580, 619 शक्तं पदं 405 शब्दं नारभते शब्द: 535 संकल्पः कर्म मानसं 507 शब्दः शब्दान्तरं सूते 564 संकेतस्मरणोपाय . 239 शब्दे दोषोद्भवः 434 | संख्याभावात् 351, 525 शब्दवृद्धाभिधेयांश्च 223, 601 | संख्याभिधायिन: शब्दात् 525 शब्दानित्यत्वसिध्यर्थं 571 | संख्याया: क्रियाभ्यावृत्ति 525 शब्दो यद्यपि वर्णात्मा | संज्ञित्वं केवलं परम् शरैश्शातितपत्रोऽयं 21 सं ते प्राणो वायुना 478 शशे शृङ्गं पृथिव्यादौ 148 संप्रसारणाच 516 शाखान्तगमथाध्वर्यु 615 सं यजरङ्गानि 478 शान्तिपुष्टयभिचारार्थाः संयोगविभागाः 527 शान्तो दान्त: 701 | संवृति: परमार्थश्च शास्त्रं च शब्दविज्ञानात् 301 | संशयात्मा विनश्यति 512 208 615 64 433 Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 13 255 6 संस्कारानुकृतेः सोऽपि 533 | सर्वशाखाप्रत्ययं 620, 623 स एव, चोभयात्माऽय 312 सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य स एष यज्ञायुधी 651 | सर्वेभ्यो ज्योतिष्टोमः 622 स एष वाव प्रथमः 671 | सर्वेभ्यो दर्शपूर्णमासौ 622 स चतुर्विध: 335 स वेद ब्रह्म 701 सत: परमदर्शनं 569 | सव्यापारप्रतीतत्वात् 184 सति इन्द्रियार्थसम्बन्धे 260 सव्यापारमिवाभाति 40 सत्यं यत् तत्र सा जातिः 255 स संज्ञां याति भगवान 636 सत्यकामः सत्यसंकल्पः 507 स सर्वोऽभिहितो वेदे 647 सत्यासत्यौ त यो भावी 255 सहस्रयुगपर्यन्तं 490 सत्संप्रयोगे पुरुषस्य 141,259,263 | सहोपलं भनियमात 198 सदप्यग्राह्यरूपत्वात् . सांख्यं योगः पञ्चरात्रं 636 सदेव सौम्येदमने साऽऽत्मनोऽपरिणामो वा . 131 स द्विविधः दृष्टादृष्ट 30, 335, 609 | सा देशस्याग्नियुक्तस्य 337, 406 सद्विषयं प्रत्यक्षं 359 सादृश्यतोऽग्न्यादि 393 सन्निवेशादि तत्तस्मात् 193 साध्यसाधनशब्देन ___72 स पश्चादपि तेन स्यात् . 237 साध्यसाधात्तद्धर्म 305 . समयाध्युषिते होतन्थे . 651 सा नित्या सा महानात्मा 255 समर्थः पदविधिः 19 सान्वयव्यतिरेकाभ्यां 84 समवाये अभावे च 139 सामान्यं तच्चिकीर्षा 392 .समस्तक्षयजन्मभ्यां 511 सामान्यविशेष 18 समानविषयत्वे च 92 सामान्यविषयत्वं च 251 सम्बद्धं वर्तमान च 277 सिद्धं यागधिष्ठातृ 493 - सम्बन्धस्निप्रमाणकः - 223, 601 | सिद्धे शब्देऽर्थे 516 सम्बन्धिभेदात्सत्तैव 255 | सुखदु:खाभिलाषादि 195 सम्यगर्थे च संशब्दः 261 | सुप्तिङन्तं पदं 105 सर्वजिता वै देवाः 673, 677 | सूर्य चक्षुर्गमयतात् 560 सर्वथा सदुपायानां 65 | सृण्येव झर्भरी 6:0,685 सर्वमायुरेति 700 | सृष्टिस्थित्यन्तकरणी 636 सर्वविज्ञानविषयं 419 | सैषा त्रयी विद्या 615, 625 सर्ववेदान्तप्रत्यय 681,583 | सोऽयमाथर्वणः. 46* 616 Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 51 519 141 285 सोऽयमाभाणको लोके 631। स्वतन्त्रः कर्ता सोऽरोदीद्यदरोदीत् 667,669 | स्वभावविलक्षणेषु सोऽवैदिकः प्रसज्येत 105 स्वरूपमात्रं दृष्ट्वाऽपि सौर्य चळं निर्वपेत् 105, 3.2 स्वरूपेणैव स्वय स्तुतिर्निन्दा परकृतिः 677 | स्वर्गकामो यजेत स्तेन मनोऽनृतवादिनी 668,675 स्वलक्षणमेव परमार्थ स्तोकस्तोकान्तरत्वेन स्वाध्यायेन व्रतैहोमैः | स्वारस्यमन्यथाख्याती 185 स्त्रियां तिन् स्मरणादिविशिष्टत्वात् 269 स्मृत्यनुमानागम 230 | हेतुना य: समग्रेण स्वत: सर्वप्रमाणानां 430 | हुत्वा वपामेवाग्रे - 126 235 702 475 269 36, 341 677 Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 491 403 316 426 178 न्यायमञ्जरी श्लोकार्धानुक्रमणिका . अत एव निरीक्ष 255 अत एव हि मन्यन्ते 613 | अत एवानुमानानां 253 अत एवाप्रमाणत्वं 346 अत एवार्थमालोक्य 580 मतदुत्पादकत्वेऽपि .485 अतश्च संशयादेव 129 अतस्तदुपघाताय अतस्तल्लक्षणाक्षेपात् 2 अतीतवर्तमानादि 233 अतो नाव्यपदेश्यत्व अतो यदर्शनाद्यत्र मतो रजतमेवैतत् 255 अतो हि साध्यं बुध्यन्ते 101 अत्यन्तप्रायसाधर्म्य 602 अत्र रक्तपटाः प्राहुः 1508 | अत्रापि सर्वबोधः स्यात् 464 | अथ तत्कल्पने तेषां 6:37 | अथ धूमान्वितत्वेन 167 अथ प्रणेता वेदस्य 2.57 अथवा नेदृशी चर्चा 90 अथवाऽऽप्तफलत्वेन 221 | अथ न्यापार एवैषः । ": 20 | अथ सोपप्लवा वाक्यात् 413 | अथ स्वच्छतया पुंसः अंशनिष्कर्षपक्षे तु अकथि च रचनानां अकस्मादेव सामान्य अकार्यकारणप्राय . अकृत्रिमत्वं वेदस्य अकृष्टजातैः कर्तारं अभजास्तयुदासाय . अक्षपादप्रणीतो हि अक्षपादमताम्बोधि अक्षव्यापारजौ न स्त: अख्यातिपक्ष एवं हि अगृहीतार्थगन्तृत्वं . अगृहीते तु सम्बन्धे . • अगृहीतेऽपि सम्बन्धे अङ्गुल्यग्रेश निश्यि अचेतनः कथं भावः अजातमिथ्याशङ्कश्च अतः कालान्तरेणापि अतः प्रमाणेषु . अतः शब्दानुसन्धान अत: सम्बन्धविज्ञान अतः सूत्रकृताऽप्यस्य अत एव च लोकोऽपि अत एव तृतीयस्य 16: 442 640 400 361 829 317 458 326 . 462 60 38:) 145 213 128 214 575 130 428 47 378 70 (19) Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 537 484 90 .87 586 676 178 587 अथान्यदेशकालं तत् अथाप्यनश्वरात्मा चेत् अथाभिमतमेवेदं अथाभिव्यक्तिपक्षेऽस्य अथास्ति काचित्परतः अथास्य लिङ्गाभासत्वं अदूरतस्तु विस्पष्ट अदूरमेदिनीवर्ति अद्य प्रवर्तमानाश्व अद्य सद्यः कविः काव्ये अद्याकृतायां कारीयाँ अधीयमाने दृष्टेऽस्मिन् अधोमुखमयुक्तोऽपि अनग्निश्च कियान् दृष्टः मनग्नौ तु स नास्तीति अनपेक्षतया न वेद अनपेक्षत्वमेवात: अनभ्यस्ते तु सम्बन्ध अनभ्युपगमे चैव अनयैव धिया साधो अनर्थजा हि निर्दग्ध अनथित्वाददृष्टे वा अनवस्था भवेदस्य अनादिरेवेश्वर अनारब्धे च गोशब्दे अनाश्वासोऽग्निहोत्रादि अनिले चामिभुतेऽपि अनिश्चिते तदङ्गे च अनिष्यमाणे चाभावे अनुगृह्णन्तु सद्भाव अनुच्चरितशब्दोऽपि 456 । अनुमानं न तस्येष्टं 326 147 | | अनुमानं पुनर्नात्र 376 69 | अनुमानप्रधानेन 316 अनुमानप्रमाणत्व 316 472 अनुमानमनिळते 500 अनुमानमनिहृत्य 218 अनुमानविरोधोऽपि 316 136 अनुमानादन्यथात्वं 523 648 अनुमानान्तराधीना अनुमानापलापे तु 317 .659 अनुमानाप्रमाणत्वं 343 भनुमेयमितेः पूर्व . 563 | अनेक कल्पनाबीजं . 316 अनेकप्रतिभोत्पत्ति . 403 315 | अनेकेश्वरवादो हि -587 610 | अनैकान्तिकता हेतोः 486 513 | अन्ते हि क्षयदर्शनात् 540 403 अन्यत्वे किं प्रमाणं 613 338 | अन्यथा दाहशब्देन , 82 500 | अन्यथा देवदत्तादौ . 472 अन्यथाऽनन्वितं काव्य 500 अन्यथाऽनुपपत्त्या च 55 अन्यथाऽनुपपत्त्या तु 491 613 अन्यथा विषयस्यैव 520 अन्यथा सिंहशब्दस्य 651 अन्यथैवाग्निसंबन्धात् 82 562 अन्यदालम्बनं चान्यत् 228, 458 286 अन्यदेवेन्द्रियग्राह्य 165 अन्यस्तु सन्नपि पदार्थ ___1 मन्यस्मिन् ज्ञातसंबन्धः 417 | अन्ये एव च सामत्री 127 589 99 77 127 82 29 518 h Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 अन्ये एव हि सामग्री 86 | अबाधिताऽनुमेयत्वं अन्ये कादिवैगुण्य 656 | अभावः पटलादीनां अन्ये त्वालम्बनं प्राहुः 227 अभावग्रहवेलायां अन्येऽपि सौगतोद्गीत 807 | अभावश्च क्वचिल्लिङ्गं अन्येषामपि हेतूनां 307 अभावश्चाक्षुषज्ञान अन्ये सर्वागमानां तु 640 अभावस्तत्त्वतोऽन्ये तु अन्योन्यमप्यभावानां 149 अभावान्तरजन्या चेत् अन्वयव्यतिरेको च 402 | अभावेन हि धर्मेण अन्वयव्यतिरेको हि .96 | अभावेऽपि प्रमेये स्यात् अन्वितत्वे तु सा नून 589 अभिधाय धियं नास्य (पा.) अपक्षपातिनः स्भ्याः . 539 | अभिधेयफलज्ञान अपवादद्वयाभावः . 464 अभिन्नप्रत्यये हेतुः अपि च ज्ञानमिच्छन्ति अभियुक्ततरैरन्यैः अपि च प्रतिभामात्रे 403 | अभियोगशतेनापि अपि चं प्राप्त्यप्राप्ती 699 अभेदे घट एव स्यात् अपि चानागतज्ञानं 274 | अभ्यस्ते विषये लिङ्ग अपि चामुष्य शाब्दत्वे . 214 अभ्यासे पौनरुक्तयं च अपि चोत्तरसंवादात् 426 | अभ्यासे फलरहिते मपि त्वकार एवंासौ 522 अमन्वानाश्च गच्छेम अपि त्वनर्थजन्यवं अमितकपटनिवीत अपूपानपि तद्देशान् 529 | अमी तस्मादर्थ अपूर्वरचने दाग्नि अमृतेनेव संसिक्ताः अपेक्षाभावता तस्य 167 | अयं च विषयो युक्तेः अपौरुषेयं सत्यार्थ 435 अयमेवानिनाभावः अप्रत्यक्षत्वमात्रेण 365 अरूपो नन्वयं कालः अप्रबुद्धेऽपि संस्कारे 254 | अर्थकल्पनपक्षे तु अप्रमाणपरिच्छिन्न: 89 अर्थक्रियाऽन्यजन्मा तु अप्रयोजकता चैवं 571 | अर्थगत्यर्थमेवा, अप्रामाण्यगृहीतौ वा 421 | अर्थद्वयविधानं हि भप्रामाण्यनिमित्त हि 636 अर्थप्रकाशने किञ्चित् अबलाबालगोपाल 317 | अर्थप्रतीतिजनक 292 144 301 145 141 167 149 301 136 104 13 383 316 326 155 461 666 667 577 (649 686 582 318 318 362 106 159 406 74 424 412 59 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 17 54 41 377. अर्थप्रतीतिरेव अर्थाकारानुरक्ता तु अर्थाक्षिप्तस्तु सम्बन्धः अर्थातिशयपझे च अर्थापत्तिः पूर्व अर्थावगतिपर्यन्तः अर्थासंस्पर्शिता प्रोक्ता अर्थासंस्पर्शिनः शब्दान् भर्थे हि सति साकारं अर्थों निरूप्यमाणस्य अर्थोपग्रहवर्जितात् अर्थोऽपि जनकस्तस्य अर्हन्मतप्रथित अलं च बहुनोक्तेन अलक्ष्यमाणे तद्धती अलमतिविततोक्तया अलमतिविस्तरेण अवस्थादेशकालादि अवाप्तसर्वानन्दस्य अविधाय धियं नास्य अविनाभावनियम: अविवेकात् प्राप्ति: स्यात् अशक्यकरणीयतां अशरीरस्य कर्तृत्वं अश्रुते हि निशावाक्ये असंकीर्णोऽभ्युपेतव्यः असंख्यैरपि नात्मीयैः असत्त्वव्यवहारो हि असत्यादिप्रमाणे च असन्निहितमप्यम्बु असन्निहितमप्यर्थ 69 | असिद्धयाऽपि तद्वत्त्वं 406 55 | भनौ सकलकर्तव्य 15 अस्ति च वेदे वचनं 540 अस्तित्वेऽपि स्मृतौ हेतुं 229 540 अस्ति प्रतीत्यन्वयि 678 141 अस्त्रमायुष्मता ज्ञातं 602 419 अस्पष्टलिङ्गके कस्मिन् 403 215 अस्मदादिषु दोषोऽयं 602 अस्मदाश्च रागादि 273 413 अस्मिन् समाप्यते वादः 541 412 | अस्यायमों यस्य त्वं 226 | अस्याश्च के न दोषेण . 235 540 | अहमप्यद्य यत्किञ्चित् । 618 166 अहो तीव्रादयस्तीवे .. 562 229 आ . 572 282 आकण्ठानद्धनीरन्ध्र 563 314 आकार स्मृत्युपारूढः. 229 487 आकाश इव कार्यत्वात् । 412 आगमस्यापि नित्यस्य 491 314 आगमात्त परिच्छिन्ने 279 आगमादपि तसिद्धिः 376 170 आगमादप्यभावस्य 144 486 आघ्राय मञ्जुलं न्याय आगमायुक्तितश्चापि 149 आदित्ययूपवचन 4 | आदिमद्वस्तुबुद्धिस्तु 582 153 | आदिवाक्यं प्रयोक्तव्यं 13 577 | आये पक्षे परेष्वेवं 213 | आनन्त्यात्किन्तु सामान्ये 377 319 | आनाभेस्तुहिनजलं 170 104 69 . 2 103 164 678 (29 Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 568 190 678 106 154 225 280 581 402 649 610 600 93 29 533 252 आप्तं तमेव भगवन्त 590 | इत्थं सन्तानवृत्या च आप्तवादस्वलिङ्गेन 103 इत्यनन्तरगीतेन आप्तादाविसंवाद 403 | इत्यर्थवादविधिना आप्तोक्तत्वं च तल्लिङ्गं 22 | इत्यर्थापत्तिरुक्तव आयामयामिनीयाम 371 इत्यसद्व्यवहारस्य आयामबहुला चेयं 489 इत्याचार्यमतानीह आयुर्वेदस्तस्मात् इत्यादयश्च सुलभाः आयुर्वेदादिवाक्येषु 22 इत्यादयो न दृश्यन्ते आतॊ हि भिषजं पृष्ट्वा 15 | इत्यादिना विशेषण आलम्बनं गृडाट्टाल . 475 | इत्याप्तोक्तत्वहेतोः आलम्बनं दीधितयः . 228 | इत्यायुर्वेदवाक्य आलोकमात्रकेम . | इत्युद्धताखिल आवर्तवर्तनाशालि . 343 | इत्येष घोडशपदार्थ आविनाशकसद्भावात् 5) | इदं चालोच्यतामार्याः माश्रयस्य परोक्षत्वे ...562 इदं भाति न भातीति भाश्रितत्वं गुणत्वे हि 565 इद मान्वीक्षकीक्षीरात् आश्रिताः षडपीष्यन्ते .565 इयं संविदियं चार्थः आश्रितानाश्रितत्वादिः । 532 इयं ह्यगृह्यमाणैव आस्कन्दनदलत्कुन्द .. 372 इयत्त्वमविलक्षणं • आस्तां तावदिदं इयमान्वीक्षकी विद्या भास्तां वाऽयं विषयः | इयानेव विशेषस्तु आहो पुरुषिकामात्रं 560 इष्टानिष्टार्थसंयोग इह तु सर्शनग्राह्यः इह विज्ञानजन्यस्तु इतरत्र तु विद्वेषः । इह शब्दानुसन्धान इति कार्यत्वपक्षेऽमू: 537 इहाध्ययनवेलायां इति तुल्यप्रभावधि 629 | इहापि तेषामेवास्ति इति प्रसङ्गाब्याख्यातं 129 | इहापिशब्दयोगेन इति मनुपि वतौ वा 357 | इहापि स्मृत्युपारूढः इति विगतकलङ्क इहाप्येकाशयाभिज्ञ इति सुनिपुणबुद्धिः 259 इहाफलस्य चित्रादेः 3 55 470 170 28 75 702 66 323 505 561 273 257 580 '. 156 214 212 235 589 .656 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 इहाभावप्रतिष्ठान , इहासन्निहितस्यास्य इहेति तन्तुसम्बद्ध 378 381 127 157 । उपप्लवोऽपि सम्बन्धे 456 | उपमानकजन्यैव 217 | उपयाति यथा नैवं उपादेये च विषये उपायत्वं युष्मत् 233 उपेक्षितश्च भाष्यार्थः उभाभ्यामपि रूपाभ्यां 66 ई 395. ईदृशयोः कथमनयोः 166 440 588 527 610 304 558 304 301 उक्तं भवगिरेवेदं उक्तमत्र क्रिया ह्येषा उक्तोऽख्यातो दूषण उच्यते तर्हि सर्वज्ञः उच्यते प्रत्यभिज्ञानं उत्तरत्र तु मिथ्या स्युः उत्तानवदनोक्तोऽपि उत्पत्तिवाक्यं सौर्यादि उत्पत्तिस्तु गृहाभावात् उत्पत्तौ तु व्यवस्थायां उत्पत्तौ दृश्यमानायां उत्पन्नस्य विनाशो वा उत्पन्नस्यात्महानं तु उत्पादकतयेष्यन्ते उत्प्रेक्षामात्रमूलत्वात् उदाहरणमन्यत्तु उदिताविव दृश्येते उदितेनानुमीयन्ते उद्घाटितजगत्कोश उद्भवाभिभवौ तेषां उद्वहत्यर्थशून्याऽपि उन्मूलत्वात्तथात्वं उपदिष्टेत्यनेनोक्तं 265 ऋ 54 | ऋष्यार्यम्लेच्छसामान्य 481 587 556 | एक एवेश्वरः स्रष्टा 629 एकक्षणायुषि त्वस्मिन् . . 563 एकत्र ते श्रेयसि 105 | एकत्वमपि धर्मस्य 119 | एकत्वेऽपि भुवो भाति 558 एकप्रलयकाले च . 559 | एकभावसमुत्पादे एकभूम्याश्रितत्वेन . एकवक्तृप्रयोगेऽपि . 530 एकश्रोत्रप्रविष्टो वा 325 | एकस्त्वीशो विशिष्टः 120 | एकस्य कस्यचित् 367 | एकस्य किल संकल्पः 307 एकस्य तस्य मनसि 82 | एकादशप्रकारेषा 490 | एकाधिकारावगमः 460 | एकान्तानुपलब्धेषु 649 | एकाभिप्रायतैव स्यात् 400 | एकाभिप्रायबद्धत्व 167 166 558 521. 537 613 636 588 613 150 615 153 689 589 Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 48 400 378 222 242 430 464 318 106 551 168 106 267 एकेनैव च सिद्धेऽर्थे एकैकनिष्क्रियत्वे च एतच्च स्वयमाशंक्य एतया सदृशन्यायात् एतस्य युक्तायुक्तत्व एतावद्दश्यते त्वत्र एनेन पीतशङ्खादि एतेन शब्दसामर्थ्य एनेन सदृशन्यायात् एतेन समवायेऽपिः एवञ्च धर्मिणो भावात् एवञ्च पश्यता तासां एवञ्च विषयद्वित्व एवञ्च वेदे स्वातन्त्र्यं एवञ्च सति य: पूर्व एवञ्चाभिभवोऽन्येषां एवञ्चार्थक्रियाज्ञानात् . एवं तु ख्यापितं न स्यात् एवं दण्ड्ययमित्यादिः • एवं दीर्घावसापेक्ष एवं नित्यत्वे दुर्बल. एवं प्रदर्शकत्वं स्यात् एवं प्रमाणज्येष्ठेऽस्मिन् एवं फलवेदादौ एवं विपर्ययख्यातिः एवं विषयसामग्री एवं शब्देऽपि तत्संख्या एवं सति स्ववाचैव एवं सतीयमख्याति: एवं सर्वत्र नाख्यातिः एवं स्वतः प्रमाणत्वे 587 | एवं हि लोकेऽप्याप्तोक्तया | एवमत्रापि गोपिण्ड 120 | एवमस्त्विति चेच्छान्तं 240 एवमेताः प्रवर्तन्ते 129 एवमेव प्रवृत्तौ तु 51 एवमेवैतदिति चेत् एषा विचार्यमाणा 129 | एषा हि श्रोत्रगम्यत्वात् 372 217 265 ऐतिह्यं तु न सत्यं 242 | ऐन्द्राग्नादिविकारेषु 86 513 ओ 159 ओमिति प्रतिपत्तव्यं 533 423 333 | कञ्चिदेवाक्षिपत्यर्थ 241 कण्टकाभावमालक्ष्य 518 | कथं च चाक्षुषे ज्ञाने 571 कथं ते तर्कयिष्यन्ति 66 कथं ते फलसंवित्ति: कथं पुनरमी वर्णाः कथं वा रूपवन्तोऽपि 458 | कथं सृजति दुर्वार 402 कथमाधारपारोक्ष्ये 553 कथ्यते कोकिलैरेव 70 कथ्यतेऽवसरप्राप्त 461 | कदम्बगोलकाकार 471 | करणे संस्कृते तावत् 464 | करुणामृतसंसिक्त 317 157 255 120 282 609 55 513 262 488 565 371 282 563 528 488 Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 603 502 करोति कर्णाकाशे च कर्ता य एव जगतां कर्ता सर्वस्य सर्वज्ञः कर्ताऽस्ति स च निर्द्वन्द्वः कर्तृता हृदि दुर्बोधा कर्तृत्वमस्याशङ्कयेत कर्तृत्वसंभवात्पुंस: कर्तृपूर्वककुंभादि कर्तृसामान्यशून्यत्वात् कर्तसामान्यसिद्धौ तु कर्तसामान्यसिद्धौ वा . कर्तुर्दश्यत्वमप्येवं कर्जन्तरकृते तस्मिन् कर्मजन्यो हि संस्कार: कमैकं बुद्धिरप्येका कर्मोपरमपक्षे तु कल्पनाऽल्पतराऽस्माकं कल्पितालीकभेदादि कल्प्यं प्रथममर्थस्य कल्लोल विकटास्फाल कविना सदनुप्रासे कविप्रणीतकाव्यादि कश्चिदाशङ्कते तस्य कश्चिदुत्पन्न एवेद कस्यचिद्हणे शक्ताः कस्यापि कल्पनं तेषु काकतालीयमिति चेत् कामं तु पर्वतानेष: कामं विधिविकल्पानां कारकत्वं स्वरूपस्य कारणं पूर्वसिद्धं हि 538 | कारणानां परोक्षत्वात् 129 590 कारणानुपलब्ध्यादेः 163 603 कारीर्यादौ का ते वार्ता 608 414 कात्स्न्ये न च गृहीतेन 532 577 कार्यकारणधर्मादि 402 518 कार्यकारणभावो हि 534 573 | कार्यत्वं ब्रुवते तेऽस्य 581 485 | कार्यस्य परि निष्पत्ते: 560 616 । | कार्याद्वा कारणाद्वाऽपि 429) 486 कार्येणानुगुणं कल्प्यं | काय तु नाप्रवृत्तस्य 429) 485 कार्यों विचारो न पुन: 312 487 | कालः कल्पयितुं युक्तः 360 66: | कालान्तरेण तां बुद्धि . . 245 546 / किं कुर्प: तादृशस्यैव ..473 196 किंकृतो नियमोऽस्यास्मिन् 318 568 किञ्च नित्यपरोक्षा ते 561 242 किञ्च व्याध्यनुसारेण. 105 किञ्च शब्दो विवक्षायां 404 343 किञ्चागमस्य प्रामाण्यं 491 553 | किञ्चोपमानप्रति 394 513 | किं तन्त्रता भवति TO. 224 | किन्तु त्रैलोक्यनिर्माण 484 किन्तु संशयिते न्यायः 5:30 किन्त्वख्यातिरतश्चासौ 461 485 | किं दिव्यचक्षुषामेषां 314 274 | किं नाम शब्दनित्यत्व 513 | किं विडम्बयितुमुच्यते 280 156 | किंसंख्यः किंसमाचारः 638 17 | किं फलेनापराद्धं वः 47 119 | किमर्थः कण्ठशोषोऽयं 639 456 4:32 | 557 Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 470 . 15 576 | 538 *3 किमस्य कार्ये प्रामाण्यं किम त्मको पाविति चत् किमियद्वेदसर्वस्वं किमेकचन्द्रबोधेऽपि किमेतत्स फलं शास्त्रं किमेष रचये द्वेदं कियन्तो बत गण्यन्ते कीदृशश्वार्थवाद नां कुड्यादिभिरतो नास्य कुड्यादिव्यवधानेऽपि कुतो वा नूतनं वस्तु कुलालवच्च नैतस्य । कुलालतुल्यः कर्तेति कृतश्च बहुभिर्येषां कृशश्च गच्छन् स कथं केचिद्गुणक्रियाद्रव्य केन तत्सन्निवेशेन । कैश्चित्तिरोहिते भावात कैश्चिदालम्बनं तस्मिन् को जानाति कदा कोऽन्यस्सन्तरणे. हेतुः कोऽयं महाजनो नाम कौशाम्ब्यास्त्वयि निष्क्रान्ते • क्रमेण युगपत् क्षिप्रं . क्रमोपचीयमानोऽसौ क्रियते न तु शब्दस्य क्रियानिमित्तसंसर्ग क्रियान्तराणां वैचिव्ये क्रियाऽभ्यावृत्तिसत्तायां क्रियाविशेषग्रहणाच्च क्रिया हि तद्वतो भिन्ना 414 | क्रीडार्थेऽपि जगत्सर्गे 257 | क्लेशकर्मविपाकादि 646 | क्लेशेन तदमुनाऽपि क गिरामयथार्थता क्वचिजातिः क्वचिहृव्यं क्वचित्त देव प्रत्यक्ष 307 | क्वचित्तु कैश्चिन्निर्दिश्य 414 क्वचित्तु दर्शनाभ्यासः माणस्य 534 क्वचित्त्वाख्यातसम्बन्धं वचित्पावकसंपर्कात 508 क्वचित्सदृशविज्ञानं 486 क्वचित्सलिलसंसेकात् 618 | क्वचिदथफलसंपत् 537 | क्वचिद्धाधकयोगश्चत 252 | क्वचिद्धाधकयोगेन 536 क्वचिद्वसनसंपृक्ते क्वचिन्नामपदप्राप्त 226 क्वचिन्नित्यपरोक्षत्वात् 168 क्वचिन्निद्रा क्वचिञ्चिन्ता 22 क नाम भवता दृष्टाः 638 क लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धः 100 कोपादानपरित्यागौ क्षणभङ्गं निषेत्स्यामः 273 क्षणभङ्गप्रतीकारं 48 क्षणयोनेति वक्ष्यामः 218 क्षयो यथोपभोगेन 525 | क्षित्यादीनां तु कार्यत्वं 170 क्षिप्तः सूत्रकृता साक्षात् 249 | क्षुण्णं किञ्चिजयन्तस्य 509 484 480 610 257 380 378 229 464 150 531 229 531 609 271 249 464 150 102 229 521 376 526 361 77 91 412 554 305 525 485 383 396 Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 553 528 655 28 गृहे दधिघटीं द्रष्टुं 529 खपुष्पस्य पिशाचस्य 164 गृह्णाति यत्तु तिक्तत्वं 464 गृह्यते तद्विशिष्टोऽर्थः 216 गोस्वादिशब्दसामान्य 402 गकारव्यक्तयो भिन्नाः 521 | गोवधे वा कथं तेषां 646 गकारश्रुतिवेलायां 550 गोशब्दज्ञानगम्यत्वात् .. 571 . गकारादिषु वर्णेषु 551 गोशब्दवाच्यो गोशब्दः 214 गकारा बहवो दृष्टाः गोणी तु वृत्तिमव . 678 गकारायैव संस्कारः ग्रहणं चास्य नान्यत्र . 315. गङ्गागगनगर्गादौ 521 ग्रामकामो महीपालं गङ्गायां मजसीत्यत्र . 127 ग्राह्यं तदानुगुण्येन 253 गतानुगतिको लोकः . ग्राह्यान्तरानुगुण्येन 253 गत्वा गत्वाऽपि तान देशान् 100 रात्वा त एव पृच्छयन्तां 646. घ. गत्वादिजातिविषय 556 घना किमपराद्धं वः . 162 गत्वादिजातिसिध्यर्थ 542 घरक्षणस्य किं वृत्तं . 162 गत्वादिजातीराश्रित्य घटस्तीविनष्टत्वात् 165 गन्धर्वनगरज्ञाने घटस्य यादृशः कर्ता 486 गम्भीरगर्जितारम्भ 338 घटादेः पूर्वदृष्टस्य । 153 गवयाकारवृत्तिश्च गवयेन हि सादृश्य गवा गवयपिण्डस्य 386 | चक्षुरादेः परोक्षत्वात 422 गव्यत्तयन्तरविच्छिन्ना 514 चक्षुर्विषयतामेति 270 गायता नृत्यता वाऽपि 477 चन्च्वप्रचुम्बिताताम्र 371. गिरां मिथ्यात्वहेतूनां 435 | चतुष्प्रकारा विमतिः 456 गिरां सत्यत्वहेतूनां 435 चतुस्कन्धोपेतः 629 गीयन्ते भवता नैवं 165 चतुस्संख्या प्रमाणेषु गुणमपि नरवाचां चत्वारोऽपि पराक्षेप - 629 गुणैः सन्तः प्रहृष्यन्ति | चलतीत्यपि संवित्तौ 352 गृहामावपरिच्छेदे 115 | चलतीत्यादिबोधेषु 249 गृहीते निर्विकल्पेन 253 | चलन्तो देवदत्ताद्याः - 51 541 475 379 385 75 435 Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 307 66 चाक्षुषज्ञानगम्यं यत् 364 | ज्ञाने तथाविधत्वं तु 429 चिस्यापयिषया युक्तः 400 | ज्वलनाजायते धूमः 318 चित्रताऽपि पृथग्भूतैः 255 चित्रादिवचसामेवं 651 चिद्धर्मो हि मृषा बुद्धौ 10 डिम्भहेबाकसदृश चिरक्षिप्रादिबोधोऽपि 360 चिरेणास्तं गतो भानुः 367 चैत्रे प्रत्यक्षवसिद्धिः 380 तच्च किं कुर्वतेत्येवं 477 चैत्रोऽयमित्यभेदेन 241 तच्च तन्नित्यमित्येताः 546 चोदना त्विवच्छेदः 377 तच्च प्रचलदकांशु चोरादिनास्तिताज्ञानं 144 तच्चत्कार्यं कृतं तेन 477 तच्छब्दवाच्यताज्ञप्तिः । 221 तच्छ्रतावपि किं सर्वे 208 जगत्त्रयगताशेष 314 | तजातीयतया बीज 429 जगदारभमाणस्य - 487 | ततश्चान्यतमं कालं 666 जङ्गमं स्थावरं चैव 557 | ततश्चैव विधाद्धेतो 286 जनोऽनन्तस्तावत् 606 ततोऽन्यदनुमानेन जन्मन्यपेक्षते दोषान् 424 | ततो यद्यपि सिद्धिः स्यात् 637 जन्मान्तरकृता तत्रं 659 | ततो वेदप्रमाणत्वं 577 जन्यन्तेऽनन्तरे देशे 534 तत्कर्मफलसम्बन्ध जयन्ति पुरजिद्दत्त 2 | तत्कालं संज्ञिनो नास्ति 376 जातिजातिमतोमैदः । 210 | तत्कृतस्त्यज्यतामेषः 86 जातिधर्मोचिताचार 637 तत्पूर्वकपदोद्गीत 334 जातिर्जातिमतो भिन्ना 248 तत्प्रणीते तु विभः 491 जात्यादिभिर्यदीष्येत 254 तत्मतीत्यभ्युपायश्च 413 जात्यादिविषयमाहि 257 तत्प्रत्यक्षपरिच्छिन्न 86 जीवति स्वन्मतेऽप्येष: 527 तत्पत्ययाबहुतर 610 जीविकोपायबुध्या वा 414 तत्प्रामाण्यपरीक्षायां 428 ज्ञातुश्चेदन्तराऽन्येन 54 तत्प्रामाण्याञ्च तरिसद्धिः 491 ज्ञानं संवेदनं चेति 54 तत्संभावनया कार्यः 15 ज्ञानं सकलविशेय 273 | तसिध्यति तद्विभवात् - 588 81 587 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. 530 464 273 429 538 497 402 23 . 663 161 528 423 663 . 213. 527 213 .106 199 430 .. 49 तत्स्वभावस्तकार्य तास्वरूपातिरिक्ता हि तत्र केवलमभ्यासात् तत्र तास्पर्शशून्यस्य तत्र तन्निश्चयाद्युक्तं तत्र धूमत्वपामान्य तत्र धूमस्य नास्तित्वं तत्र धूमानुमानादेः तत्र नानुपलब्धेऽर्थे तत्र वस्तुस्वभावोऽयं तत्राद्येन पदेनैताः तत्रानुष्ठानभेदेन तत्रापि तेषामुत्पत्ती तत्रापि त्वपिशाचोऽयं तत्रापि नाप्रवृत्तस्य तत्रापि प्रथमस्यैव तत्रापि हि न तोयेन तत्राप्यनेन न्यायेन तत्रैकरूपसामान्य तत्रैव नियतत्वं हि तत्राद्यपक्ष एकैकं तत्राप्यभिन्नयोभैदः तत्राप्यस्त्येव सामान्य तत्रार्थः कल्प्यमानस्तु तत्रैकान्तासतोऽर्थस्य तत्रैव भूप्रदेशस्य तथा च जन्येत फलं तथा च शब्दसिद्धान्त तथा च शान्तचित्तानां तथा तत्कालजः पुंभिः तथा तद्भावभावित्वात् 307 | तथा तद्वायुसंयोग 241 तथा तु न विजानाति 272 तथाऽपवर्गचिन्तायां 224 तथाऽपि तत्र शब्दत्वं । तथाऽपि व्यवहारोऽस्ति । तथाऽप्यस्त्येव संस्कारः 316 तथा प्रकटयद्भिस्तु 326 ! तथा प्रसरसंरोधि तथा मानान्तरज्ञातात 317 | तथा यागादिकर्मभ्य. 229 तथा वाचकसंस्पृष्टे 666 | तथाऽविरतसंयोग तथा शब्दानुरक्तोऽपि 154 तथा श्रुत्यैकदेशश्व (पा.) तथा सति न काष्टानि 589 तथा सति प्रपद्येत 212 तथा सर्वगतः शब्दः 309 तथा हि भ्रान्तिबोधेषु . 550 तथा हीश्वरसद्भावः 315 तथा ह्यस्ति स एवायं 48 तथैव तत्प्रतीतेश्च 240 तथैव धर्मिसिद्धत्वं 107 तथैव फलसंयोग 104 तथैव भावनाभ्यासात् 473 | तथैव शब्दमाकर्ण्य 458| तथैव सर्वशाखाना 48 तथैवैषाम भिव्यक्ती तदग्रहे च तन्मूल 642 तदनहे न तीव्रादि 586 तदनेन प्रकारेण 246 | तदपाकृतये युक्तं 500 532 456 484 526 248 266 668 273 402 590 335 530 *86 561 233 Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 162 150 4 101 346 273 316 333 81 464 702 541 606 106 28 तदपि फलमभीष्टं तदपूर्वमिति विदित्वा तदपेक्षाकृतं तस्मात् तदप्यविदितव्यक्ति तदप्यसदनग्नौ हि तदभावमितौ मानं तदभावाद्विपक्षवं तदभिप्रायवेदी तु तदभ्युपगमे वापि तदयं प्रत्यभिज्ञायाः तदर्थवाचकत्वाच तदलं परिहोसस्य तदलमक्षपादमुनि तदलमनया गोष्ठया तदसत्कालदैर्येण तदसत्तत्प्रतीत्यैव तदसद्धाधकामावात् तदसावपि बाध्याऽस्तु तदस्ति खण्डमुण्डादौ तदा च संवाद तदात्मकत्वं धर्माणां तदात्मता तु नैकस्य तदात्मतादिपक्षेऽपि तदात्मता तदुत्पत्ती तदानीं दृश्यमानोऽपि तदानीमेव दृष्टस्य तदालम्बनचिन्तां तु तदिच्छां चानुवर्तते तदिच्छामनुवय॑न्ते तदियं वाङ्मयोद्यान तदुत्पादनपर्यन्ता: NYAYAMANJARI 393 | तदुत्पादस्वभावे हि 649 | तदुपात्तकियारम्भ 472 | तदेकदेशलेशे तु 379 तदेकदेशविज्ञानं 316 | तदेतद्भाष्यकारीयं 130 | तदेवं क्षीणदोषाणां 500 | तदेवं नियमाभावात् 589 | तदेवं लक्षणे कश्चित् 477 | तदेवं सति कुत्रांशे 58 | तदेवं सति सर्वत्र • 104 | तदेवं सिद्ध एवार्थे 537 | तदेव प्रत्यभिज्ञेयं 282 | तदेव भुक्तं वर्षासु 130 | तदेवमादौ सम्बन्ध 555 | तदेवमुपदेष्टव्याः 526 | तदेव यदि ते शाब्दं 646 | तदेवालम्बनं बुद्धेः 566 | तदेवोपाददानश्च 551 | तदूषणं च पूर्वोक्त 481 तद्धर्मा: श्रावणे शब्दे 256 तद्धि कुड्यं विना तत्र 255 | तद्भावानुविधानेन 318 | तद्भावानुविधायित्वात 317 | तद्वतोऽनुपपनत्वात् 576 | तद्वहत्यर्थशून्याऽपि (पा.) 165 | तद्वाक्यकल्पनायां च 226 | तद्वानवयवी जातिः 487 | तद्विशेषणतां याति 508 | तद्विस्त्रेभनिषेधार्थ 3 | तन्निर्देशेन सिद्धत्वात् 379 | तनिश्चयात्प्रवृत्तिः स्यात् 212 458 47 129 561 266 363 216 318 460 102 81,91 302 316 17 430 46 Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 59 381 26 206 540 87. तन्निश्चयात्प्रवृत्तो वा तन्नेह लिख्यते लोके तन्मूलत्वात्तथात्वं (पा.) तन्मूलन्यायनिर्णय तमालनीलजीमूत तमेव गवयं विद्याः तमेव चानुगृह्णन्तु तया श्रुत्येकदेशश्च तयोरप्यस्तु नित्यत्वं तयोरस्त्यर्थयोः कश्चित् तयोरेवान्वयस्तत्र तर्कस्य यावान् विषयः तर्हि त्वमेव योगीति तर्हि सैवास्तु जगतां तल्लिङ्गदर्शनादपि तस्मात्कल्ल्यागमकृतं तस्मात्कारकचक्रेण . तस्मात्कुतार्किकोद्गीत तस्मात् ख्यातित्रयेऽप्यस्मिन् तस्माच्च फलनिष्पत्तेः तस्मात्तिरोहितोऽप्यास्ते तस्मात्पदे च वाक्ये च तस्मात्प्रतीतिरन्वेष्या तस्मात्प्रमुषितामेनां तस्मात्फलानुमेयस्य तस्मात्समानदेशः स्यात् तस्मात्स्वतन्त्रभावेन तस्मादतात्त्विकाकार तस्माददृष्टपुरुषार्थ तस्मादनर्थजत्वेन स्मादनित्यतासिद्धिः 430 | तस्मादनुपलब्धार्थ 373 | तस्मादभावाख्यमिदं . 167 649 | तस्मादयं स गवयः तस्मादर्थक्रियाज्ञान 428 355 तस्मादवितथा संवित् 423 37 तस्मादस्यापि तद्वाक्य 222 : तस्मादित्थमभावस्य 163 106 तस्मादुभयजज्ञान तस्मादेकोऽप्ययं काल: .72 317 तस्मादेव यदीष्येत 323 तस्माद्गत्वादिसामान्यैः 550 318 तस्माद्गौरिति विज्ञानं 215 267 | तस्माद्य एव वस्त्वात्मा 256 490 तस्माद्यत्कल्पनापोढ - 257 540 | तस्माद्यथार्थमस्याः .. 472 102 तस्माद्यथोचिताल्लिङ्गात् 312 51 | तस्माद्यक्तं निश्चिकाय 373 512 तस्माद्युक्तमभावस्य 145 460 तस्माद्वैयर्थ्यचोद्यस्य 129 तस्मान कल्पनामात्र 525 तस्मान्न कश्चित्परतः 464. 603 तस्मान्न जगतां नाथः 489 362 तस्मान्न तन्मतेऽपि 161 तस्मान्न युज्येत तत: तस्मान्नित्य: प्रत्यभिज्ञा 540 558 तस्मान्नूनमुपेतव्यं 654 864 तस्मिन्ननवबुद्धेऽपि 424 240 तस्मिन्नपि न पूर्वोक्त 648 451 | तस्मिन् सत्येव भवनं 318 60 तस्मिन् सविचिकित्सस्तु 15 517| तस्मै समस्तफलभोग 512 665 365 ___70 394 56 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 338 535 587 174 82 533 486 249 588 127 87 280 309 414 तस्य कारणता तत्र 183 | तुङ्गत्तटिल्लतासङ्ग तस्य च प्रतिपाद्येऽर्थे 400 / तुल्यारंभा च तीवण तस्य चाफलसंयोगात 663 / ते चेत्सदृशसंकल्पाः तस्य प्रमाणभावे तु तेजोऽन्यदेव नक्षत्र तस्य प्रामाण्यनितिः 22 तेजोभिरिव दीप्तांशोः तस्याः प्रमाणतामाह 59 तेन कतुरभावोऽपि तस्याः शब्दपरीक्षायां 114 | तेन क्रियागुणद्रव्य तस्या: सफलतायां.वा 588 | तेन चित्रजगत्कार्य तस्यापि तस्यास्तुल्यत्वात् । तेन दूरेऽपि सम्बन्ध तस्यापि सिद्धे प्रामाण्ये 553 | तेन निष्प्रतिघयुक्ति तस्यापि हि प्रमाणत्वं 648 | तेन पूर्वगृहीत: सन् तस्येन्द्रियार्थजन्यत्वं 226 | तेन वेदप्रमाणत्वं तस्यैव च वयं ब्रूमः । 380 | | तेन शब्दविशिष्टार्थ तात्कालिको न पर्याप्तः 426 | तेनागमप्रमाणत्वात् तादात्म्यप्रतिषेधेषु 154 | तेनादिवाक्याद्विज्ञाय तादृङ्नगादौ नास्तीति 485 तेनादृष्टक्रियाशक्ति तादृशा चानुमानेन 326 तनाध्येतृगणा: सर्वे ताद्रप्यनिश्चये तस्य 154 तेनानुमानगम्यत्वात् ताभ्यां विसदृशं वस्तु 66 तेनानुमानदोषेण ताभ्यो विलक्षणैवेयं 580 तेनानुमानमप्येतत् .तावकैर्दूषणगणैः तेनानुमानविषये तावत्स्यादपि धूमोऽसौ तेनान्यत्सर्वमुत्सृज्य तावदेव विनिश्चित्य 47 तेनाप्तनिर्मिततयैव तावन्तं बोधमादाय 101 तेनाभिधातृदौरात्म्य तावन्त एव ते वर्णा: तेनामलप्रमिति तावनैसर्गिको वायुः तेनार्थप्रत्ययः शब्दात तावानुपेक्षणीयेऽपि 66 तेनेदं स्मृत्युपारूढं तासां च वृक्षशाखाना 590 तेनेन्द्रियार्थजत्वादि तियगूलमधश्चेति 53 तेनैकत्र क्षणे जीवन् तीर्थान्तराभिहित 71 | तेनैवमादौ विषये तीवेणापि शनैरेवं 565 तेनैव वेदा रचिता: 212 • 28 15 357 581 500 540 91 314 523 181 542 611 119 71 523 229 235 119 533 563 557 587 47* Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेनैव व्यवहारस्य 218 69 543 317 153 6. 485 423 368 300 तेभ्यः सम्बन्धसिद्धौ च तेभ्यो वस्तुव्यवस्थायाः तेषां कस्येश्वर: कर्ता तेषां यद्विषये वृत्तिः तेषामकर्तृ कतया तेषामदृश्यमानानां तेषामुत्पत्तिसमय तेषामेव प्रमाणत्वं ते हि प्रमाणद्वैविध्यात् तेरेव कुसुमैः पूर्व तैर्वर्णोऽवयवी नाम त्यजैन वाचकोपेत त्रिविधग्रहणं तस्य त्वत्पक्ष इत्यतोऽमुष्य त्वदुक्ता कल्पना साध्वी त्वदेकशरणां बाला स्वया तु यदि सर्वेषां 23 402 : 472 213 70 442 | दूराद्धि वस्तुसामान्यं । ___88 | दृश्यविकल्प्यावौँ । 83 | दृश्यते शाबलेयादि 41 | दृश्यते ह्यविनाभूतात् 215 | दृश्यत्वयोग्यतायोगात 190 | दृष्टः कञविनाभावी 536 | दृष्टः कुटिलकुंभादि 485 | दृष्टः परापरत्वस्य 619 दृष्टस्तव्यतिरेकेण 16 दृष्टान्तः पुनरेतस्य 3 दृष्टान्तनिरपेक्षत्वं 536 दृष्टान्तीकृत्य तामेव : दृष्टार्थेष्वेकदेशेषु 334 दृष्ट्वाऽर्थमंवगच्छन्तं देशकालदशाभेद 563 देशकालादिभेदेन 120 | देशभेदस्तु धर्माणां 267 देहोऽप्युत्पत्तिमानस्य दोषाधिकैस्तु तैरेव द्राधीयसा न कालेन 378 द्रुतादिभेदबोधेऽपि 316 द्रोणः संभवतीति 91 द्विधाकृता क्वचि दृष्टिः 537 | द्वैपायनोऽपि किं दृष्टः 565 | वैविध्यदर्शनादेवं : 216 371 560 | धत्ते धियं पवन 562 | धर्मः समानकालोऽपि 28 धर्म इत्युपदेष्टव्यः 169 | धर्मी हि तेषामाधारः 640 410 314 90, 315 256 486 423 517 521 . 168 464 575 471 दन्तुरो रोमश: श्यामः दर्शनादर्शनाभ्यां हि दर्शितप्राप्तिसिध्यादौ इल शो वा न भज्येत दिकालपरमाण्वादि दिक्कालादिविशिष्टोऽर्थः दिवाकरकरालात दिशां कार्यान्तराक्षेपात् दीपेऽभिभूतेरविणा दुश्शिक्षितकुतकांश . दूरात्करोति निशि , 165 ६02 400 256 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 306 धर्मोपदेशकः शब्दः . धारावाहिकबोधेषु धूमस्वमात्रमेवाग्नि धूमादिभ्यः प्रतीति धूमानुकारिनीहार धूमेऽपि लिङ्गाभासत्वं धूमे हि ग्याप्तिपूर्वत्वं धूमो हि यत्र यत्रेति ध्वनिधर्मस्वपक्षे तु 229 485 385 421 214 81 363 315 161 360 424 379 215 523 229 न कदाचिदनीदृशं न कर्मनिरपेक्षो हि न कारणगुणग्राहि न खल्वजनकं किञ्चित् न खल्वतीन्द्रिया शक्ति न खल्वनुपलभ्यत्वे .. नग्नक्षपणकाचार्य न घटादिस्वरूपं हि .. न च काय॑गृहीतेऽपि • न च क्रीडाऽपि निश्शेष न च क्वचिदनाकारा न च क्षितिजलप्राय न च द्वित्व दिना साम्यं न च प्रयोजनज्ञानात् न च प्रसिद्धिमात्रेण न च भेदं विना सत्ता न च मानसविज्ञान न च रागादिभिः स्पृष्टः न च शब्दोपरक्तेऽर्थे न च संभवति व्याप्ति 280 | न च सन्निहितं वस्तु 58 न च सामान्यतोदृष्टं न च स्मरणमेवेदं 409 न च स्वग्रहणापेक्ष 520 न चागृहीतसम्बन्धः 500 न चाध्यक्षधिया साम्यं 598 न चानुद्धारिताक्षस्य 287 न चापि दृष्टिमात्रेण 561 न चाप्रतीतिमात्रेण न चामुनैव लिङ्गेन न चासौ कल्प्यमानोऽपि 491 | न चासौ निर्वहत्यत्र 490 न चास्ति वस्तुनो धर्मः 422 न चेन्नित्यत्वमित्यस्मिन् 527 | न चैकान्तासतो दृष्ट्वा 182 न चैतयाऽपि परत: 164 न चैनं कठिनं कर्तुं 537 न चैवं सति वक्तव्यं 304 | न चैवमपि तत्सिद्धिः 532 | न चैवग्रहनक्षत्र 489 न चैष शून्यवादस्य 55 | न चोच्चरितनष्टोऽयं 485 न चोपलक्षणं किञ्चित् 54 न तद्वारेणापि श्लथ 17 | न तद्विभूतिप्राग्भारं 491 न तस्य ग्रहणं दृष्टं 254 न तावदन्तरा कश्चित् 484 | न तावद्गृह्यते कालः 505 | न तु द्रुतादिभेदेन 214 | न तु पररचितानि 266 न तु मीमांसकच्छात 471 537 287 480 360 172 517 C06 686 473 178 360 544 235 690 Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 274 150 न तु वेगादिसामथ्र्य 565 | ननु यावान् प्रमाणस्य 66 न तु हेतुरसिद्धोऽयं 292 | ननु शब्दो न नेत्रस्य 212 न तृतीयः प्रकारोऽस्ति 55 | ननु शाब्दमिदं ज्ञानं 205 न तेनापहृतेनापि 453 | ननु सत्यनुमानस्य । 312 न त्वेष दुर्गमः पन्थाः • 271 ननु सिद्धे प्रमाणत्वे 412 नदी पूरविशेषोऽपि 343 ननूत्पादविनाशाख्यं 303. न दुष्टकारणं चेति नन्वत्र वेदमूलत्वात् 646 न देहेऽतिशयः कश्चित् 272 नन्वत्रापि न वैद्यकं 609 न धीश्छत्रादिवत्तत्र 66 नन्वभावप्रतिक्षेपे न नादवृत्ति शब्दत्वं 562 नन्वभिव्यञ्जकध्वंसात् 556 न नाम यादृशो यक्षः 145 नन्वस्याभवनं वृत्तं 162 न नारि वेलद्वीपस्थः 308 | नन्वस्त्येव गहद्वारे . 99 न निराकाङ्क्षताबुद्धिः 379 | नन्वेकः सर्वशाखानां 588 न निरालम्बना चेयं 165 | नन्वेकेन्द्रियवादः स्यात् . 213 न निर्वहति सादृश्य 519 नन्वेतस्मिन् परित्यक्ते 59 ननु कर्तव्यतारूप: 270 नन्वेवं सति सर्वत्र 126 ननु गत्वं प्रतिक्षितं 541 नन्वेवं सविकल्पस्य 224 ननु च स्मृत्युपारूढं 212 न परिच्छिन्न एवेति । ननु चाक्षुषतां शब्दे 213 | न पिण्डव्यतिरेकेण , ननु चानेन मार्गेण 150 न पुनः प्रापणशक्तिः. 69 ननु चोत्पत्तिवेलायां 430 न पुनदृश्यते लोके. 563 ननु तं देशमासाद्य | न पुनश्चलनादन्यः ननु तन्नासतोऽर्थस्य 473 न प्रत्यक्षागमाभ्यां 610 ननु त्रैलोक्यनिर्माण 513 | न पुन: पर्वतेऽरण्ये 287 ननु नागरकप्रश्नं न प्रमेयमभावाख्यं 136 ननु नादृष्टपूर्वेऽर्थे न प्रागभावादन्ये तु 166 ननु नाद्यापि वेदस्य ____649, | न बाह्ये व्यभिचारित्वात् 404 ननु नाविषये युक्त 212 | न भाति स्मृतिरूपेण 555 ननु नैव क्रियाशून्य न भाववदभावाख्यं 154 ननु नैव विकल्पानां 156 नमः शाश्वतिकानन्द ननु याः कालिदासादि 580 न मात्रामात्रमप्यस्ति 604 548 500 51 54 1 Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 225 658 87 , 163 90 484 489 458 481 459 559 102 598 274 नमामि यामिनीनाथ न मिथ्याप्रत्ययः कश्चित् न मृष्यते तु यत्किञ्चित् नामाख्यातोपसर्गादि न यथावस्तु जायन्ते न लिङ्गमगृहीत्वाऽपि न वा मीमांसका एते न विलक्षणतामानं . न विशेषविरुद्धश्च . न विशेषात्मना यत्र . न व्यक्तिभेदजनित: न शक्तिसिद्धये शब्दः न शक्योऽनुपलम्भेन न शब्दः पारतन्त्र्येण न शब्दप्रत्यभिज्ञानं न सद्योजातबालादेः न सर्वत्र स्मृतेरेव न सादृश्यानिमित्तत्वं न स्मृतरप्रमाणत्वं . न स्यामविशेषाणां न स्वभावानुमाने च न हि कल्पयितुं शक्तं न हि ग्रहीतुमैक्येन न हि तदृश्यते कार्य न हिं तद्वमित्येवं न हि पुरुषगुणानां न हि लोकायते किञ्चित् न हि वायुगतो वेग: न हि वेगक्षयस्तेषां न हेतुनिरपेक्षात्मा न ह्यदर्शनमात्रेण 2 | न ह्यनुन्मीलिताक्षस्य 464 | न ह्यन्यफलकं कर्म 649 न ह्यविज्ञातसम्बन्ध 580 न ह्यसद्यवहाराय 240 न ह्यसाधारणांशस्य 102 न ह्यसावक्षविज्ञाने 480 | न झस्य ध्रियमाणेषु 402 न ह्यालम्बनता युक्ता ,326 नात्मख्यातिर्बाह्यतया 107 | नात्यन्तमसतोऽर्थस्य 521 | नादैः संस्क्रियतां शब्दः 406 | नाध्यक्षमनभिव्यक्त 154 नानयोस्त रपेक्षायां 535 | नानर्थ न सन्दिग्धं 553 नानर्थशङ्कया युक्तं 106| नानाकर्मफलस्थानं | नानागुणरसास्वाद 526 नानानुस्मरणं तस्य मानाप्रमाणगम्यश्च 338 नानाविधैरागम. 163 नानुमानस्य दोषोऽस्ति 107 नानुमानस्य सामर्थ्य 464 नान्तर्व्याप्तिर्गहीता 491 नान्धेन तुल्यता हस्त 287 | नान्यः प्रमाणभेदस्य 435 | नायं लोकोऽस्ति कौन्तेय 647 | नारायणं नमस्कृत्य 561 नार्थादर्थान्तरे ज्ञानं 534 | न विद्यामात्रमेवेदं 292 नास्य मुक्ता इवात्मानः 286वास्येवेत्यवगन्तव्य 602 464 2 555 59 81 640 3.13 490 286 326 76 43: 580 318 254 488 . 292 Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 47 355 637 निगूहितनिजाकाराः नित्यतैषां प्रसज्येत नित्यत्वमाप्तोक्तत्त्वं वा नित्यत्वाध्यापकत्वाच नित्यत्वे कृतकत्वे वा नित्यानुमेयबाह्यार्थ नित्या भवन्तु कोऽयं वा नित्या वा कृतकत्वेऽपि निदानं न्यायरत्नानां Hin: कालच ५.त न विरोधांऽत्र निमित्तकारणान्यत्वं 637 150 537 480 226 | निर्व्यापारस्य सत्त्वस्य 165 | निशीथे सान्धकारेऽपि 413 | निषिद्ध सेवनप्राय 527 | निषिद्धाचरणोपात्तं 571 | निषेधपर्युदस्तान्य 41 | निष्क्रम्य वर्णादेकस्मात् 513 | निस्सारयितुमिच्छन्ति 414 | नीलाम्बरव्रतमिदं जन नियालिर 08तवस्त्यविगीतां ये 666 नूनमेकः सुसंकल्प . नत्ताभिनयनेवानि नयायिका हिसुन्दा 512न सामान्यता दृष्ट 321 | नेदानी संगृहीतं स्यात् 309 | नेयं त्वगिन्द्रियकृता 308| नैतदस्त्यविगीतां ये 315. नैयायिकानामुत्पर 619 588 109 ना रु ग्रहाता नियतोऽयमनेनेति नियमः प्रतिपत्त्यङ्गं नियमग्रहकाले च नियमश्वानुमानाङ्गं नियमो हि गृहीतोऽ नियोगभावनाभेद निरन्तरं च संयोगः निरसिष्यते च सकलः निरस्ता भ्रान्तयोऽक्षादि गिरत्य चाद्यव्यसन 357 224 169 648 122 67 424 150 58 413 | नैव वा जायते ज्ञानं 354 | नैव शब्दानुसारेण 70 | नैवाधिकपरिच्छेदः . 229 | नो चेत्तथाऽप्यनील म्यात . . .. ...... . . .. :- v.. नमंन्यारवानास्माक नापफएमानुलारण. 440 नोभयातिशयोऽप्येषः पंचरीत्रानंद : ... ." ai निर्विकल्पकविज्ञान निर्विकल्पानुसारेण निर्विकल्पेऽपि तुल्यासौ 214 पथस्यापि महाभाग 253 | पञ्चरात्रेऽपि तेनैव 219 | पञ्चलक्षणकालिङ्गात् ७292 636 282 Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 170 पटत्वं नाम सामान्य पटादिरचनां दृष्ट्वा पटे हि हन्त तन्तूनां पतद्धनपयोबिन्दु पदार्थानां तु संसर्ग पदनित्यत्वपक्षेऽपि पदे नित्येऽपि वैदिक्य: पदे शब्दार्थसम्बन्चे पनामोदविदूर परकविरचितानां परधर्मोऽपि दीर्धादिः परप्रत्यायने पुंसां . . परमार्थभावनाक्रम - परसंसिद्ध मूलं च परस्परविरुद्धाश्च । परामर्शमपीच्छन्ति परार्थमनुमानं च । परिच्छेत्तुं न शक्नोति परिच्छेदः परोक्षस्य । परिम्लानादरोऽन्यत्र परोक्तेऽतीन्द्रिये ह्यर्थे परोक्षं तस्य वृक्षत्व परोक्षमनुमानेन परोक्षविषयत्वं हि परोक्षार्थे हि विमतिः परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञानं पश्चाद्ययनुमानत्वं . पश्यमभावं को नाम पापाय तैस्सह कथाऽपि पारंपर्येण वृष्टिश्च पिण्डन्यङ्गन्यैव गोत्वादि 520 | पिण्डोऽभिव्यञ्जको जातेः । 532 586 | पिपीलिकाण्डसञ्चार 307 580 | पिशाचादेस्तु दृश्यत्व 154 343 | पिशाचेतररूपो हि 154 419 | पीनो दिवा च नात्तीति 101 573 | पुसामसर्ववित्वं हि 505 414 पुरुषस्योपपन्नेति 603 513 पुरुषापेक्षवृत्तित्वं 402 पुरुषोक्तिषु दोषाणां 144 357 पुरोऽवस्थितवस्त्वंश 104 523 पूर्णचन्द्रोदयादृद्धिः 307 252 पूर्वदृष्टे कुरङ्गादौ 380 - 4 पूर्वपूर्वबलीयस्त्वं 127 265 पूर्ववर्णक्रमोद्भूत 402 414 पूर्वापरचिरक्षित 216 पूर्वापरानुसन्धान 83 23 पौरुषेयं तु सत्यार्थ (पा.) 435 464 प्रकल्पयिष्यते पक्ष: 402 136 प्रकृतमधुना तस्मात् 130 334 प्रकृतितरलस्य नाशः 572 267 प्रकाशे तु न दीपादौ 54 298 प्रचितां काञ्चिदाश्रित्य 360 586 प्रजापतिरपि स्रष्टा 575 401 प्रणयिप्रार्थनाभङ्ग 3 252 प्रतिक्षिप्ते च गस्वादौ 541 282 प्रतिज्ञापदयोरेव 265 99 प्रतिनिधिरपि चैवं. 393, 394 157 प्रतिपादयितुं श्रोत 13 प्रतिबद्धतया बोद्ध 343 प्रतिबन्धग्रहे तस्य 518 | प्रतिबन्धाद्विना वस्तु 106, 107 462 512 99 22 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 40 235 378 170 215 388 प्रत्यारो 539 215. 252 प्रतिबन्धोऽपि नाज्ञातः प्रतिबन्धो हि दृष्टोऽत्र प्रतिभासस्य चित्रत्वात् प्रतिभासातिरेकस्तु प्रतियोगिन्यदृष्टेऽपि प्रतिषेधविकल्पस्तु प्रतिस्कन्धं शाखाफल प्रथमेऽपि प्रवृत्तत्वात् प्रमाण प्रातिभ श्वो मे प्रत्यक्षं तावदेकस्मिन् प्रत्यक्ष योगिनां तच्च प्रत्यक्षः कस्यचिद्धर्मः प्रत्यक्षः किं स कालादिः प्रत्यक्षगम्यतामेव प्रत्यक्षत्वं परोक्षेऽपि प्रत्यक्षपूर्वकं तस्मात् प्रत्यक्षपूर्वकं संज्ञा प्रत्यक्षप्रतिषेधेन प्रत्यक्षफलमेतत्तु प्रत्यक्षमनुमानं च प्रत्यक्षमपि सद्वस्तु प्रत्यक्षमापत्तिश्च प्रत्यक्षमुपगन्तव्य प्रत्यक्षमूलतायां तु प्रत्यक्षविषयेऽप्येनाः प्रत्यक्षविषयेऽप्येवं प्रत्यक्षस्यैव सामर्थ्य प्रत्यक्षादिप्रमाणानां प्रत्यक्षादि यथा मानं प्रत्यक्षादिविसंवादः प्रत्यक्षसर्व विषयस्य 106 | प्रत्यक्षस्य जगौ भिक्षुः 363 | प्रत्यक्षागमसिद्धेऽर्थे 159 प्रत्यक्षाद्विरलकर 360 | प्रत्यक्षास्त्रेण भेत्तव्यः प्रत्यक्षे चोद्यमानाऽसौ 156 प्रत्यक्षे विषये वृत्तिः . 629 | प्रत्यक्षे हि समुत्पन्ना 428 | प्रत्यभिज्ञा च कालेन 274 | प्रत्यभिज्ञा च सापेक्षा 376 प्रत्यभिज्ञा तु कालेन 586 | प्रत्यभिज्ञानभूमिश्च 280 प्रत्यभिज्ञायते किञ्चित् 216 | प्रत्यभिज्ञायते शब्दः 361 प्रत्ययस्येति शब्दाना 90 प्रत्ययातिशयः सोऽयं प्रत्यया नावकल्पन्ते प्रत्यहं भावनाभ्यास 484 प्रत्युक्तं च विरुद्धत्वं 380 प्रमाणं वेदमूलत्वात् 586 प्रमाणं शब्दनित्यत्वे . 81 | प्रमाणतायां सामग्रयाः 514 प्रमाणतैव न ह्यस्य प्रमाणत्वं तु शब्दस्य 646 प्रमाणत्वपरिच्छित्तौ 252 | प्रमाणद्वयसिद्धे च . 181 प्रमाणमनुमन्यन्ते • 83 प्रमाणमपि तेनेदं 481 प्रमाणमिति निर्णीतं 104 प्रमाणसिद्धे हतशक्ति 604 प्रमाणस्य प्रमाणत्वं 613 | प्रमाणात्त बहिर्भूतं 380 377 527 557 554 541 527 527 419 249 361 273 646 647 526 174 . 104. 419 421 80 636 136 365 267 188 249 87 Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 298 343 588 460 315 15 483 प्रमाणान्तरमेव स्यात् 205 प्रमाणान्तरविज्ञात 280 प्रमाणान्तरसंवाद 431 | फलस्यानुपलंभश्च प्रमाणान्तरसंस्पर्श 73 प्रमाणेतरनिर्णीतिः 431 प्रमाणेतरयोस्तेन 430 प्रमातुः शिंशपात्वं हि बहवो बहुभिर्ग्रन्थाः प्रमातुरपराधोऽयं बहिर्निरूप्यमाणस्य प्रमादेनामुना तेषां 163 बहुकृत्वोऽपि वस्त्वात्मा प्रमेये वास्यभेदादि । 74 | बहुवित्तन्ययायास प्रयत्ने क्रियमाणेऽपि 292 | बाधानुत्पत्तिमात्रेण प्रयाणकावधिः कश्च 537 बाध्यबाधकभावे तु प्रयोगाः सन्ति ते चामी . 665 | बालस्येन्दुद्वयज्ञानं प्रयोजनमनुद्दिश्य 23 | बाहुलेयपरामर्शः प्रवर्तमाना दृश्यन्ते 509 बाहुलेयादिगोव्यक्तिः प्रवृत्तिरुचितोदार 15 | बाह्यार्थनिह्नवस्तहि प्रसङ्गसाधनं नाम 266 | बुद्धशास्त्रे हि विस्पष्टा प्रसाधयितुमिष्टो हि . 292 | बुद्धिः प्रकाशमाना च प्रसिद्धिश्च परित्यक्ता- 166 | बुद्धिरेव तथोदेति प्रसिद्धेन हि सादृश्यं 386 | बुद्धिस्तु भङ्गरा तस्य प्राक्सिद्धे हि गृहाभावे 119 | बुद्धिस्थेनाथ तेनास्याः प्रागात्मलाभ शास्तित्वं 166 | बुद्रेर्वा चेतनाकार प्रागुत्पत्तेर्घटाभाव 157 | बुद्ध्यन्ते नियतादर्थात् प्रामाणिकस्थिति तस्मात् बौद्धाः खलु वयं लोके प्रामाण्य दर्शनानां 156 बौद्धरपि सहतेषां प्रामाण्यं वस्तुविषय 159 बौद्धोक्तप्रतिबन्ध प्रामाण्यकथने तस्य 637 ब्रवीत्यतच्च मन्तव्यं प्रामाण्यमस्य परतः 451 ब्रह्महत्यादिजन्यस्तु प्रामाण्यसाधनविधौ 703 ब्रह्महत्यार्जितग्राम्य प्रायः श्रुतार्थापत्या च 105 | ब्रूतेऽतिदेशकं वाक्यं मावृडाख्यायते मेद्य 371 | ब्रूने सोऽपि कृतोद्वाहः 556 229 550 513 56 637 460 533 663 302 70 317 150 639 358 382 664 637 377 429 269 Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 149 149 147 257 242 188 168 588 393 520. 551 519 654 354 321 129/ 307/ -315 । भावैः किमपराद्धं वः 577| भावो भावादिवान्यस्मात् 62g| भावो विनश्वरात्मा चेत् 56 भिक्षुणा पठितं तस्य 346 भिक्षुणा लक्षणग्रन्थे 395 मिन्नं फलमुपेतम्यं 271 भिन्न: संभव एव 259 भिन्नाभिप्रायतायां तु 395 भिन्नानुमानादुपमा 464 भिन्नरयुगपत्कालैः | भिन्नैर्वक्तृमुख स्थान 205 | भूतस्वभाववादादि । 141] भूमावपि भवेद्बुद्धिः | भूयो दर्शनतस्तावत् भूयोदर्शनगम्याऽपि 250| भूयोदृष्टया च धूमोऽग्नि 558| भूयोऽवयवसामान्य 314 भेदाः पूर्ववदित्यादि 2 भेदाभेदेन चिन्त्या च 558| भेदारोपणरूपा च । 589 | भेदारोपणरूपैव . 77 | भेदो ज्ञानक्रियायास्तु 83 | भोक्तं नोभयथाऽप्येष: 575 | भो भगवन्तः सभ्याः भ्रमापहवमात्रेण . 322 136 | मत्पक्षे कारकत्वं हि 99 | मधु पश्यसि दुर्बुद्धे 99 मनःकरणकं ज्ञानं 149 | मनश्च सर्वविषयं भङ्गया चेदमनादित्वं भजन्ति वेदाः प्रामाण्य भट्टपक्षाद्विशेषश्च भदन्तकलहेऽस्माभिः भवति तु मतिरेषा भवति ध्यायतां धर्मे भवतु मतिमहिम्नः भवत्यङ्गं यागे भवत्यनुभवस्मृत्योः भवत्यन्यानुसन्धान भवत्वक्षजमप्येतत् भवद्भिर्वस्तुधर्मोऽस्य भव धम्मिय वीसत्यो भवन्ति पथिकाः पर्ण भवन्तो निर्विकल्पस्य भवन्त्वनाश्रिताः शब्दाः भवनप्यविनाभाव: भवानां भवसन्ताप भवेत्समानदेशत्वं भवेद्भिन्नाशयानां हि भाति चेन्नीलमेव स्यात् भारः कथमयं वोढुं भारतेऽपि तथा व्यासः भावयोः साहचर्य यत् भावसामान्ययोर्यद्वत् भावात्मके प्रमेये हि भावानामनुमानेन भावाभावौ हि नै केन भावेनाभावसिद्धौ तु भावेभ्यो यद्यपेयेत 815 385 334 155 240 241. 218 657 579 323 472 314 215 271 318 Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 586 163 49 48 520 556 384 637 471 371 647 533 166 106, 317 245 352 81 मनो न लभते ज्ञान मनोराज्यविकल्पानां मन्त्राणां नामधेयादि मन्त्रार्थवादमूलत्वं मन्यन्त एव लोके तु मन्वादिस्मृतिवत्कर्तृ मन्वादिचोदनान्यायः मरीचिषु. जलज्ञानं मरुद्भिरमिभूयन्ते . महाजनप्रसिद्धिं हि महाजनप्रसिद्धयैव महात्मनां प्रमादोऽपि महासामान्यमन्ये तु मा गात् प्रकर्ष ज्ञाने तु मा गादिति छलादीनि मा प्राहि शर्करायां तु मानसत्वं तु यद्यस्य मानस्य लक्षणमतः मानान्तरपरिच्छेद्य - मार्गास्समल्लिकामोदाः मिश्रानुष्ठानसिद्धौ तु मुख्यस्यापि भवेत् साम्यं मुद्रादेश्व किं कार्य मुद्रोपनिपाताच मुहूर्तयामाहोरात्रा मूर्तिमत्त्वक्रियायोग • मूलक्षयकरीमाहुः मूलप्रमाणमस्तीति मूलसिद्धौ त्वरुच्याऽपि मृतस्य जीवतो दूरे मृत्योर्मुखादपक्रान्तः 273 | मेयं पृथगभावाख्य 250 | मेलनात्तु क्रियासिद्धौ 414 मेलनात्पूर्वसिद्धायां | मैवं तत्र हि धूमत्व 581 मैवं विनाशिता बुद्धिः मोक्षोपयोगाभावेऽपि 635 | मोहप्रवृत्ता एवेति 212 | मोहात्पित्तगतत्वेन मौक्तिकाकारविस्तारि 640 639 यं कञ्चिदर्थमालोक्य 251 यः प्रागजनको बुद्धेः 272 य एव देवदत्तात्मा 28 | यच्च शब्दोपमानादि 471 | यच्च श्रोतृप्रवृत्त्यङ्गं 216 | यच्चानुमानमप्युक्तं 69 यतो भवति विज्ञानं 129 यत्किञ्चिदस्ति न त्वेवं 371 यत्कृतं वा पठेदेषः 645 | यत्तावत्कल्पनाऽपोढं 126 | यत्तावदिदमाख्यायि 165 यत्त दूषणमाख्यातं यत्त शतादिशब्दानां 361 यत्त्वबाधितता ज्ञातुं 535 यत्त्वभ्यधीयत परैः 58 | यत्वात्मेश्वरसर्वज्ञ 586 यनसाध्यद्वयाभावात् 58 | यत्नेन हानोपादाने 115 | यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः 525 | यत्नेनानुमितो योऽर्थः 17 86 235 424 577 235 83 162 568 562 292 309 326 66 66 316 326 - Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 312 586 2:2 553 54. 555 517 214 58 286 336. 530 213 361 530 विकल्पऽपि यत्पश्चादर्शनं तेन यत्र मानान्तरेणापि यत्र यत्र यदोद्भूतिः यत्र शब्दानुवेधेऽपि यत्रापरेधुरभ्येति यत्रापि विषयेऽभ्यस्ते यथा घटादिसंस्थानात यथा च तव कालादि यथा च तेषामुत्पत्ती यथा च तेषां रागादि यथा चाविषये तस्मिन् यथा जवनिकाप्राय यथा तद्भावभावित्वात् यथा ताल्वादिसंयोग यथा तुरगदेहस्थः यथाऽऽस्मगुणता हीच्छा यथा निशीथे रोलम्ब यथाऽनुभवमुत्पत्तुं यथाऽनुवाकग्रहणे यथा परकृता शङ्का यथा प्रजापतिर्वेदे यथा प्रत्यक्षतो धूमं यथार्थबुद्धिसिद्धिस्तु यथावस्तु प्रवृत्तानां यथा वा पुटपाकेन यथा सर्वगता जाति: यथा ह्यचेतनः कायः यथेन्द्रियादिसंयोगात् यथेष्टविनियोज्यत्वं यथैव पक्षधर्मादि यथैवात्मपरोक्षवे 500 | यथोक्तलिङ्गविज्ञानं यथोदितानुमानादि 256 | यदपि प्रत्यभिज्ञानं 224 | यदपेक्षाधिया जातं 274 | यदप्युदित मुद्दाम 309 यद विज्ञातसम्बन्धः । 581 | यदि च स्वानुरागेण 213 यदि चानुपलब्धार्थ यदि त्वनलमुत्सृज्य 273 | यदि त्वन्त्यदशावर्ति यदि त्वेको विभुनित्यः 528 | यदि मौलप्रमाणेन 246 | यदि वा नानुभवेत यदि विधुग्मभुक्तं 523 । यदि स्यानिर्विकलोऽपि 568 यदि स्वाभाविकी वेदे 527 यदीष्येत कथं तस्य 156. यदेतत्तणपर्णादि 273 | यदेभ्य: सत्यमाभाति नि | यदेव द्रव्यमेकस्य । 575| यदेव सविकल्पेन । 402 यद्धटे नास्ति तच्छब्दे 422 यद्भवति दैवगत्या 250 यद्यपि ध्रियतेऽस्माकं 272 यद्यप्याफलनिष्पत्ते: 532 यद्वाक्येषु पदानां • 508 | यद्वा न तीव्रमन्दादेः 663 | यद्वा निर्गुणमप्यर्थ 402 यद्वा यद्यपि वर्णात्मा 286 यद्वा स्वरूपपरतां 565 | यमन्यः पण्डितमन्यः 563 524 609 .215 580 537 66 ' ' 25 606 257. 303 480 554 663 579 533 538 678 129 Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 59 540 648 163 606 265 273 484 577 -685 577 562 141 105 402 666 378 यया सह न कार्यस्य यश्च प्रकृतिवद्भावः यश्चामिभववृत्तान्तः यश्चेदानीन्तनास्तित्व यस्तत्र चिपिटग्रीवः यस्तु देशान्तरेऽप्यर्थाः यस्तु शब्दानुवेधेन यस्त्वस्ति गवयाकार यस्य यत्र यदोद्भूति: (पा.) यस्येच्छयैव भुवनानि । याः पुनः पीतशङ्खादि यागदानादिना धर्मः या तु जात्यादिशब्दार्थ या स्वनैकान्तिकत्वोक्तिः या द्रव्यशक्तिरेकस्य यावन्न वेगिनाऽन्येन युक्कं नाम प्रमाणंस्य युक्त प्रवर्तनमबाध . युक्तं वक्ताऽपि वेदस्य । युक्ता पृथिव्यधोभाग युक्तयन्तराद्यदि तदेव युक्तया विरुध्यमाने च युगपञ्च क्वचिन्नास्ति युवस्थविरयोः सोऽपि ये च वेदविदामया: ये तु प्रत्यक्षतो विश्वं ये त्वालम्बनतां शुक्तेः ये त्वीश्वरं निरपवाद येनानन्वयदोष: स्यात् येनैकत्र गृहीताऽसौ येनकध्वंससमये 182 | येऽपि स्थूलविनाश 106 | येषां न मूलं लोभादि 562 | यैस्तु मीमांसकैः सद्भिः | योगान्तरात्त देवास्य 378 योगिज्ञानं परेषां यत् 473 | योगिनां तु मनश्शुद्धं 224 योगिनामप्रसिद्धत्वात् 378| योगिभिः सा गृहीतेति 256 योगिभिर्ग्रहणं कर्तुः 512 यो गृह्यते न तद्धर्मा 229 | योग्यतामात्रवादेऽपि यो मन्त्रैरष्टकालिङ्गैः 419 | यो यत्र दृश्यते शब्दः 539 | यो यस्य चोदितः कालः 606 | योऽसौ तत्र त्वया दृष्टः 563 145 610 513 रङ्गभूमि तद्देश 365 | रचना: कर्तृमत्यश्च 572 | रचना अपि वैदिक्यः 460 | रजतेऽनुभवः किं स्यात् 329 | रागादयः कथं ते स्युः 568| राजा शङ्करवर्मा 636 | राज्यसङ्कल्पसाफल्ये 314 रूपं तपस्वी जानाति 458 | रूपमेव तवारूपं 512 | रूपादकृत्रिमत्वे च 301 | रूपादसानुमानं तु 606 | रोधोपघातसादृश्य 304 | रोलम्बगवलव्याल 528 603 513 471 505 649 588 169 362 582 346 343 338 Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 513 376 272 613 518 536 513 500 लक्षणान्तरमत: लघवोऽवयवाश्चैते लहुन्नं देहधर्मत्वात् लङ्घनादौ तु पूर्वेद्यु: लिङ्गं चादृष्टसम्बन्धं लिङ्गात्पूर्व तु सन्देहः लिङ्गादपि भवेद्धद्धिः लिङ्गे तथैव शब्देऽपि लोकप्रसिद्धास्तादात्म्य लोकयात्रेति लोका: स्युः लोकस्य सम्मतत्वाच लोके काल्पनिकैरेव लौकिकानां प्रयोक्तव्याः लौकिकेषु विधिष्वस्ति 14 520 403 274 497 257 318 81 | वदामो न तु सर्वत्र 295 वनस्थगवयाकार 537 वयं मृदुपरिपस्न्दाः वयमपि न न शिष्मः 272 वर्णराशि: क्रमव्यक्तः 422 वर्णस्यावयवाः सूक्ष्माः वर्णानां चाविनाशिस्वात वर्णैटयितुं शक्यः वस्तु तत्काकतालीयं 307 वस्तुनो यात्मकत्वं तु 317 वस्तुप्रमितयश्चैव 224 वस्तुस्वभावभेदे तु . 361 वस्तु स्वलक्षणं तावत् 442 | वहदहलशैवाल .. 655 | वाक्यं वा व्यतिषक्तार्थ । वाक्यार्थे हि समग्राङ्ग वाश्यार्थोऽपि न निर्गतुं 703 वाक्तत्त्वप्रतिभासोऽपि 413 वाग्रूपमपरे तत्त्वं 653 वाचकाः सर्वशब्दाः स्युः 419 | वाच.युक्तित्वे वैदिकः 537 वाच्ये याचकसम्बन्ध 521 वादिबुध्यनुसारेण 22 वास्तवं हि न सामान्य | विकल्पमात्रमूलत्वात् 169 विकल्पमात्रशब्दार्थ | विकल्पविषयाः शब्दा: 80 विकल्पविषये वृत्ति 372 | विकल्पाः पुनरुत्प्रेक्षा . विकल्पारोपिताकार 458 विकल्पैर्ग्रहणं यस्य . व 343 413 104 413 254 251 518 571 378 497 314. वक्तव्यमिष्टमपि वक्तुं न जातिर्न व्यक्तिः वक्तुं न युक्ता तत्प्राप्तिः वक्तुरेव प्रमादोऽयं वक्तस्तुल्यप्रयत्नत्वात् वक्तृभेदं प्रपद्यन्ते वच: प्रमाणमाप्तोक्तं वचोविन्यासवैचित्र्य वक्राङ्गलि: प्रविरला वश्व वितथा ख्यातिः वद कस्यानुरोधेन वदन्ति शिशिरं वाताः वदन्तो नाधिगच्छेयुः वदन्त्यस्मिन भ्रमज्ञाने 412 462 150 165 88 83 426 विकल 81 303 Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 178 412 636 629 522 463 164 553 208 361 92 विगाहन्तामिमं सन्तः 2 | विलम्बेन व्यवस्यन्ति विघ्नान्धकारसूर्याय 2 विवक्षायां हि शब्दस्य विचिकित्सा हि नृशिरः 642 विविच्यमाना दृश्यन्ते विचित्रं प्राणिभृत्कर्म 587 विविधाभिमतस्फीत विचित्राः संयोगा: 606 विवृतः संवृतादन्यः विजातीयपरावृत्त 253 विवे केन न गृह्येते विज्ञानग्राह्यता नाम 571 विशिष्यते मृदन्त:स्थ विज्ञानमेव खल्वेतत् 460 विशेषप्रत्यभिज्ञाने विज्ञानायोगपद्याच 555 विशेषः कोऽन्त्यवर्णेन विदग्धैः क्रियतां कर्णे | विशेषणतया कार्य विद्यमानोपलंभत्व . 265 विशेषधर्मसम्बन्धं विद्युद्दष्टे च वृक्षादौ 555 विशेषमाध्यतायां वा विद्वांसोऽपि विमुह्यन्ति 130 विशेषेऽनुगमाभावात् विधानं कल्प्यते स्तुत्या 651 विश्वजित्यधिकारश्च विधिस्तुत्यो: समा वृत्तिः 651 विश्वात्मना तदुपदेश विधेये न तु भेदोऽस्ति (पा.) 257 विषयं दर्शयन्नैति विधेर्निषेधावगतिः . 129 विषयानुभवोत्पाद्याः विध्यर्थवादमन्त्राणां । 604 विषये न तु भेदोऽस्ति विना न चानुमानेन 90 वीचीसन्तानतुल्यत्वं विनाशी संशयात्मेति वीचीसन्तानदृष्टान्तः विना साधनधर्मेण 300 वृत्तस्य जीवतो दूरे विनियोक्त्री श्रुतिर्यत्र 102 वृत्तिवृत्तिमतो दः विपक्षवृत्यभावश्च 144 वृष्टिं व्यभिचरन्तीह विपर्ययात्समुत्तीर्णः 219 वृष्टयभावोऽपि वाय्वभ्र विभागवचनासिद्धं 335 वेदधर्मानुवर्ती च . विभिन्नयोस्त्वभेदेन 241 वेदप्रामाण्यसिध्यर्थं विमतो यत्र तु तयोः 497 वेदबाह्यस्तु यः कश्चित् विरहोद्दीपितोद्दाम 228 वेदस्त्वनन्तशाखत्वात् विरुद्धाव्यभिचारो वा 316 वेदस्य पुरुषः कर्ता विरोधबोधसामर्थ्य ___86 | वेदात् कर्बवबोधे तु विलक्षणा हि दृश्यन्ते 199 | बेदा न पठिता यैस्तु . NYAYAMANJARI 486 313 105 590 249 199 257 535 433 565 115 566 338 145 639 690 639 646 484 577 581 48 Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 14 28 520 वेदे दोषाश्च विद्यन्ते वेदेऽपि रचनां दृष्ट्वा वेदेऽप्यन्यकृताशङ्का वेदे ह्यसिद्धप्रामाण्ये वेद्यमानः स सम्बन्धः वैगुण्यं चेत्कादीनां वैतण्डिककथैवासी वैदिकीष्वपि हिंसासु व्यापारवानसर्वज्ञः व्यापारेण जगत्सृष्टिः व्यापिका वृत्तिरित्येवं . न्याप्तिबोधानुसारेण व्याप्तिस्मरणवेलायां व्याप्यन्यापकता सैव व्यावृत्तग्रहणेनैव व्यावृत्ताननु नैवान्या ग्यावृत्तिरूपं सामान्य व्यावृत्त्योर्लिङ्गलिङ्गित्वं न्युत्पादयन्तो दृश्यन्ते व्योम्नः सर्वगतत्वाद्धि व्यक्तयन्तरानुसन्धान न्यज्यन्ते तदधिष्ठानाः व्यतिरेकं तु मन्यन्ते व्यधायि तब्यवच्छेदः व्यवस्था व्यञ्जकानां चेत् व्यवहारधुरं वोढं व्यवहाराः प्रकल्पते । व्याख्या भङ्गयन्तरेणास्य व्याघातपौनरुक्तयादि व्याघातानृतपुन ग्याध्यमावपरिच्छेदात् 414 586 | शक्तिस्तु तद्गता सूक्ष्मा 96 586 | शक्यस्सन्नपि वा वोहुँ 413 शक्याः किमन्यथा जेतुं 517 शतकृत्वोऽपि तदृष्टौ 313 608 | शवलं वस्तु मन्यन्ते 252 647 | शब्दः शब्दान्तरं सूते 534 642 | शब्दः शब्दोऽयमित्यवं 551 486 | शब्दत्वं तत्र तद्गाचं 562 487 | शब्दत्वं व्यभिचार्यत्र 536 | शब्दनित्यत्वसिद्धौ तु 114 92 | शब्दप्रमाणमार्गेऽस्मिन् 104 336 शब्दब्रह्मविवादि 604 323 शब्दरूपस्य विध्वंस: - 564 254 शब्दसंसर्गयोग्यार्थ 235 254 | शब्दस्मरणसापेक्ष 212 253 शब्दस्मरणसापेक्ष 215 308 शब्दस्मृतिः सहायः स्यात् 224 602 शब्दस्मृत्याख्यसामग्रयं , 249 534 शब्दस्य कल्पनामाहुः 539 550 शब्दस्य खलु पश्यामः 401 558 शब्दस्य ग्रहणे गुर्वी 533 शब्दस्य जीवितं सिद्धं 518 221 | शब्दस्य न घनित्यत्वे 514 . 559 | शब्दस्य नित्यतायां तु 517 459 शब्दस्य प्रत्यभिज्ञान 554, 556 शब्दस्य साधितं तावत् 603 206 शब्दस्य हि प्रमाणत्वं - 481 604 | शब्दस्यानुपलब्धेऽथें 61 667 शब्दस्यावर्णरूपस्य 538 157 | शब्दस्यैव परिच्छेदः 302 323 164 Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 614 540 371 521 82 92 307 472 15 221 538 शब्दस्योच्चारणं तावत् शब्दाः सन्तीति भेदेन बाब्दात्प्रत्येति भिनाक्षः शब्दात्तत्तदवच्छिन्ना शब्दादुचरिताच शब्दानामेव सामर्थ्य शब्दानुवेधशून्या हि शब्दानुस्मृतिजस्वेऽपि शब्दान्तराणि कुर्वन्तः शब्दानेति स एवात्र शब्दे तथाविधज्ञप्ति शब्देन तदनिर्वाहात् शब्दे वाचकशक्तिश्च शब्दे विनाशज्ञानाच शब्दैकदेशश्रुत्याऽतः शब्दो न तेऽस्त्यवर्णात्मा शब्दो नयेन तेनैव । शब्दोपरचितापूर्व शब्दो यः श्रूयते तत्र शब्दो यद्यपि वर्णात्मा शरपिशुनतां याति शरद्युद्रिक्तपित्तस्य शरवद्वेगशान्त्यैव शरीरलाघवं लब्ध्वा शाक्यकापिलनिर्ग्रन्थ शाखान्तराद्वा संवादः शाखान्तरोक्तसापेक्ष शाब्दं चोभयजं चेति शाब्दज्ञानेन तद्वोधे शाजपक्षे तु निक्षिप्त शालिकार्य त्वपूपादि 517 | शास्त्रं सुविस्तरमपास्य 527 | शिक्षाविदस्तु पवन शिखण्डिमण्डलारब्ध शिशौ पठति वृद्ध वा 412 शुष्यत्पुलिनपर्यन्त 129 | शून्यवादस्य या युक्तिः 92 | शृण्वन्त एव जानन्ति 224 | शैलादिसन्निवेशोऽपि 534 | शैवागमे तथाप्यस्य भ्रतार्थापत्तिरस्माकं श्रुतापत्तिरेषा 379 श्रुतिलिङ्गादिभिर्या च 513 | श्रतिलिङ्गादिभिर्योऽपि 556 | श्रुतिलिङ्गादिमानानां 105 | श्रुते तु तस्मिन् तद्धर्म 562 श्रुत्यर्थद्वारकानेक 568 श्रयते गन्तिकात्तीव: 220 श्रोता ततस्ततः शब्दं 563 | श्रोतुमल्पमपि 538 श्रोतृसंख्यानुसारेण 371 | श्रोत्रं तदेहनिश्शेष 606 श्रोत्रादिवृत्तिरपरैः | श्रीनं करणकालुष्य 272 568 646 | षण्णामपि पदार्थानां 485 635 129 106 105 127 127 103 73 . 535 538 13 537 528 259 526 538 .565 581 588 205 214 | संकल्पयति यदेक: 214 | संकल्पसफलब्रह्म 468 | संख्याया नियमः प्रमाण 170 Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 322 377 81 87 254 609 संज्ञिनं व्यवहारः संतोषवृत्ति मवलम्ब्य संपाद्य पाञ्चदश्यं हि संबद्धः शक्यते बोर्बु संबन्धकरणं चेह संबन्धग्रहणापेक्षं संबन्धधी संबन्धि मंबन्धप्रतिपत्तिश्च संबन्धश्च विशेषाणां संबन्धाधिगतिर्न स्यात् संबन्धेऽपि ब्यधिष्ठाने संबन्धोऽपि न तत्कार्यः संबन्धोऽप्यस्य नार्थेन संभवनपि दुर्लक्षः संभाव्यते पटादीनां संयोगबुद्धिश्च यथा संविद्विगेध एव संवेदनं च तस्केन संवेदनं तुं ज्ञानस्य संवेदनमपि प्राज्ञैः संशयानश्च संवाद संशये सति संवाद संसारमोचकं स्पृष्ट्वा संसारमोचकाः पापाः संस्कारो नृगुणः स्थायी संस्थान कर्तृमत् सिद्धं स एवं प्रायसंवित्ति स एव च विकल्पानां स एव निर्विकल्पस्य म एवार्थगतो न्यायः स एवावधिशून्यत्वात् 378 | सकलव्यक्तिविज्ञानं 703 सकृत्समस्तत्रैलोक्य 489 666 | स गच्छन् सर्वतोदिक्कः 538 214 | स च कारुणिको वेति 414 स च प्रयत्नतीव्रत्व 538 स चेत्पर्यनुयुक्त: सन् 267 स चैषगच्छन्नुद्दाम 538 379 | सजातीयविजातीय 81, 250 401 सति च कृतकभावे 572 87 स तु प्रत्यक्षतो वास्तु 378 379 | स तु शंखादिसंयोग 538 513 | सत्ताग्रहणपक्षेऽपि : 413 सत्त्वाद्यदि क्षणिकतां 572 305 सत्परिच्छेदकं यत्र 130 525 सत्य किन्तु दृढा 170 सत्यं वदत दृष्टं वा 562 सत्य साहसमेतत्ते 271 सत्यमेकादशविधा 152 54 | सत्यां क्रियायां संबन्धः । 48 | सदृशप्रत्यये हेतु: । 383 472 स देवः परमो ज्ञाता 484 480 सद्वितीयप्रयोगास्तु 325 639 स न साधयित शक्यः 292 637 | सपक्षस्तदभावेन 497. 665 स प्रत्यक्षविरुद्धत्वात् 159 581 समग्रहीञ्च तदिदं 224 169 समर्थकारणज्ञानात् 429 समानतन्त्रे दिक्कालौ - 373 256 समानबुद्धिग्राह्येऽपि 551 128 समानविषयत्वे च 81 167 | स मूर्न: प्रसरन् मूतैः 472 55 54 90 583 Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 70 385 497 सम्यक्प्रत्ययवत्तस्मात् स यागदानहोमादि सर्गात्पूर्व हि निश्शेष सर्गान्तरेष्वेव च कर्म सर्वत्र बाधसन्देह सर्वत्र वेदवत्कर्तुः सर्वथा नियमो नास्ति सर्वथा मिन्नदेशत्वं सर्वथा वीतरागस्तु सर्वदा तदभावस्तु सर्वदाऽनुपलभो हि सर्वदाऽनुपलब्धो हि सर्वप्रमाणविषयं . सर्वा: परिहरिष्यन्ते सर्वागमप्रमाणत्वे सर्वात्मना हि नास्तित्वं सर्वानुग्रहबुद्धया च सर्वाश्च सौगतमनस्सु सर्वा हि विधयो ब्रह्म । सर्वेन्द्रियादिसामग्री सर्वेषामविगीता चेत् सर्वेषामविवादोऽत्र सर्वोपनिषदामर्थाः सर्वोपाख्यवियुक्तस्वात् स वेगंगतियोगित्वात् सव्यापारस्य सत्त्वस्य सशरीरत्वपक्षे वा सहचारित्वमेवास्तु सहस्रशोऽपि तदृष्टौ स हि वस्त्वन्तरोपाधिः सांख्यानां तु कुतः 233 | साकारज्ञानवादाच्च 664 साक्षात्करणमेतस्य 400 488 साक्षादृष्टनरोक्तत्वं 483 613 सा चेयं चान्यथासिद्ध 556 640 सा त्वसद्व्यवहारस्य 152 640 सादृश्यं तस्य तु ज्ञप्तिः 559 सादृश्यजनितत्वे च .. 520 558 सादृश्यतोऽग्न्यादियुतं 393 400 सादृश्यदर्शनोद्भत 227 426 साध्यधर्मान्वितत्वेन 164 साध्यसाधनभावस्तु 323 . 164 साध्यसाधनभावो हि 658, 663 .. 61 साध्यसाधनशब्देन 382 604 साध्यसिद्धिर्यथा नास्ति . 266 648 साध्यानुमितिवेलायां 308 286 साध्यापहारद्वारेण . 292 साध्याभिलाष इत्येवं - 286 93 सान्द्रामृतरसस्यन्द 702 सापेक्षत्वं घटस्यापि 424 165 साऽप्यन्यदर्शनाभ्यास 642 575 सा भाति भेदस्पृष्टा चेत् सामग्रयन्तर्गतात्तस्मात् 144 सामर्थ पूर्वसिद्धं चेत् 167 141 सामानाधिकरण्येन 241, 462 538 सामान्यग्रहणेऽप्येवं 452 47 सामान्यद्वारकोऽप्यस्ति 314 576 सामान्यवञ्च सादृश्यं .. 388 306 सामान्यविषयत्वंच 401 315 सामान्यविषयत्वं वा 526 166 सामान्यात्मकसम्बन्धि . 87 358 | साम्यं सौदामिनीधाम 555 384 254 517 636 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 550 410 432 481 273 224 59 702 साम्यान्नयस्य न च साहचर्य तु सम्बन्धः साहचर्ये च सम्बन्धे सिद्धः कालश्चाक्षुषः सिद्धकार्योपदेशाच्च सिद्धत्वेऽपि न हेतुत्वं सिद्धस्त्रैलोक्यनिर्माण सिद्धान्तान्तरचिन्ता तु सिद्धायां तत्प्रतीतौ वा सिद्धायामपि तद्बुद्धी सिद्धे कार्ये चार्थे सिद्धे तु गत्वसामान्ये सिद्धेऽपि तत्प्रणीतत्वं सीदत्सचिवसामर्थ्य सुखदुःखस मुत्पत्तिः सुखदुःखादि सर्व तु सुखादि मनसा बुधवा सुदूरमपि गत्वा त सुदूरमस्ति गन्तव्यं सुरासुरशिरोरत्न सुवते शालयोऽदुष्टाः सूक्ष्मविनाशापेक्षी सूक्ष्मेक्षिका तु यद्यत्र सूत्रेव्वनेकार्थविधेः सूर्यास्तमयमालोक्य सृष्टिस्थितिप्रलय सेवाध्ययनकृष्यादि सैवानवस्था तत्रापि सोऽपि प्रत्यक्षतो दृष्टे सोऽयं संशय एव स्यात् स्तंभादिप्रत्यभिज्ञासु 258) | स्तुतिनिन्दापुराकल्प 317 | स्थविरव्यवहारे हि 313 स्थाणुर्वा पुरुषो वेति 373 स्थिते च तस्मिन् 414 | स्थिरः करोति संस्कारः 485 स्पष्टत्वाद्वाचकाभावात् 512 स्पष्टमेव तथा चाह 540 स्फुटार्थानवसायाश्च 406 स्मर्यमाणेऽपि चार्थेऽस्ति . 41:3 स्मृतिः प्रबन्धसिद्धाऽपि स्मृतिप्रमोषवादे च 541 स्मृतिबीजं तु संस्कारः 513 स्मृतेस्तु कारणं किञ्चित् 565 स्रष्टुं प्रभवतस्तस्य 157 स्वकृतीः प्रकाशयन्तः 199 स्वज्ञानाख्यक्रियाशक्तिः 183 स्वतःप्रामाण्यसिद्धौ तु 426 स्वत एवाभिधीयेत. 396 स्वदेहसंभवा दोषाः स्वदेहसंभवैरेव स्वप्ने तु स्मृतिरेवैका स्वप्रकाशमते युक्तं स्वप्रकाशा च नास्तीति : 73 स्वभार्यापरिरंभेऽपि 636 स्वभावानुपलब्धिस्तु 653 स्वयं चैते प्रयुज्यन्ते .90 स्वयं निजशरीरस्य 378 स्वरूपादुद्भवत्कार्य 410 स्वर्गो निरुपमा प्रीतिः 554 | स्वलक्षणपरिच्छेदे 403 378 577 55 663 229 602 4 159 513 426 667 649 C C Nu 463 -56 165 433 307 163 571 487 107 657 254 Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 स्वल्पेनापि प्रयत्नेन स्वसंवेद्या च संवित्तिः 417 316 453 हठादुत्पद्यमानस्तु हन्त तात्त्विकसम्बन्ध हन्यतामिति चान्यस्य हरीतक्यापि नोगत हस्तसंज्ञादिलिङ्गेऽपि 524 | हस्तसंज्ञाद्युपायेन 55 हस्तस्पर्शादिनान्धेन हानादिव्यवहारो हि हेतुतामुपयातीति 433 | हेतौ सुप्रतिबद्धे हि 89 | हेम निष्प्रतिकाशं 588 हेमन्तमभिनन्दन्ति 606 | हेयोपादेययोरस्ति 402 ) ह्यस्तनोच्चरितस्तस्मात् 222 326 273 371 66 571 Page #795 --------------------------------------------------------------------------  Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तराणि Page #797 --------------------------------------------------------------------------  Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तराणि [अलहाबादनगरस्थ--गङ्गानाथझा रिसर्च इन्स्टिटयूट कोशागागत प्राप्तायः मातृकाया अनुसारेण पाठान्तराणि, शोधनानि च ग्रन्थमुद्रणानन्तरं प्राप्तत्वात् पृथगन दीयन्ते] [प्रथमसंख्या पुटं, द्वितीयसंख्या पंक्तिं च सूचयति] 44 प्रणयिवस्सकाः 37 1 उछेदनेनानध्यव 6. हि चेष्टितम् . 2 भ्यनुज्ञान 12 पुरुषस्य पन्थाः 28 12 विद्यास्थानं प्रगण्यते । .. 15 बुभुक्षितोऽश्नीयात् . | 29 15 प्रकारसंज्ञया. ... 16 स्वर्गापवर्गमार्गे 16 तत्र महाभाष्यकार: 5 6 त पते चत्वारो वेदा- | 347 प्रमितिसंभवमन्त . स्तावत् --9 प्रमेययोमुख्यः स्वरूप 6 14 वेदार्थस्य करणस्येति- 10 साफल्याभावे र प्रमिल कर्तव्यता . . .. 11 कल्पेत तर्हि भवेत 8 11 पूर्वत्र श्लोके . . । 37 सामग्रीखरूप . 16 मासायिह गणितः 40 19 ग्राहकभावनियमः . 17. नैपुणाभिमानोबुरा 41 1 ग्राहकम् , अर्थो ..9 3 क इव क्षुद्र 8 साकारं विज्ञानं .. 13. पुरुषार्थोपयोगिविद्या | 42 1 द्वयप्रतीत्यभावात् i07 मवलोकयितुं क्षमाः 2 अर्थो हि निराकार 125 कथं पुनरस्य नाकारवता ज्ञानेन ... 9. किमनेनाक्षपाद गृह्यते . 10 शास्त्रकरणस्य साफल्य | 43 1 ज्ञातापारमन्त 13 12 को हि नाम प्रेक्षावान् 5 बन्ति भवन्ति । क्रिया 245 पृथक् प्रथमं प्रति 448 कतया प्रामाण्य7 द्वयान्यतर मुपचरति 25 1 प्रयोक्ष्यत इति वक्ष्यते। | 47 6 व्यापारयोगिनोऽप्यस्थ 26 9 माससंभूततत्व 48 8 संख्याधात्वर्थ (1) Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TISSA 50 3 . न चोदनः क्रिया; 176 11 नीलादिविज्ञानप्रति 51 6 व्यापारकारणतां 13 अत एव एतदपाकरोति 10 एतावदृश्यते 78 3 प्रदर्शनमात्रैकनिष्ठित 537 क्रियाविष्टबाह्य 4 दर्शनाचषयीकृत 54 61 तद्गहः। न हि येनैव 79 13 प्रत्यक्षं स्वलक्षणात्मनि जनितो दीपस्तस्यैव विषये प्रवर्तते; परोक्षं तु तद्दः । संवेदनमपि 81 10 वातैव भद्रिका कस्यातिशय 83 10 परोक्षविभागनिर्णये इष्यते ॥५०॥ 88 9 सामान्याकारप्रतिष्ठोऽय .. 56 2 स्वप्रकाशमतो युक्तं 10 बुलियत् वस्तुमूल इति . 10 कृतायाः करणा 89 6 सर्व कैतवम्। यत्र प्रति- ' 57 1 न प्रमेयस्य, अचेतन । बन्धः स्वलक्षणे, तत्र . 6 प्रमाणं कथमुपरमेत् ? 'प्रतिबन्धप्रतीतिर्नास्ति 59 9 प्रामाण्यकारकम् ॥६७॥ यत्र तु विकल्पारोपिता60 3 देशान्तरे वेद्यमानस्य पोहे प्रतिबन्धप्रतीति7 तदर्थजत्वमकारण रस्ति, तत्र न प्रवृत्ति2 शब्दम्याप्युपलब्ध प्राप्ती। यत्र च स्वलक्षणे 8 भवान् पृष्टो न्याचष्टाम् । प्रवृत्तिप्राप्ती तत्र नास्ति 9 प्रदर्शितवस्तुप्रापर्क प्रतिबन्धप्रतीतिरिति सर्व । मपि भवन्मते दुर्घटम् । कैनवम्। न च दृश्य65 10 सम्भविप्रदर्शित संस्पर्श . . 67 3 तमर्थममापयतो 92 14 शब्दार्थमतिर्भवेत्॥१०॥ 68 2 विपरीतावपाय 957 वढेर्दाहकशक्ति 69 2 प्रमाणमतिदूरत 973 सामग्या हि यत् ज्ञान6 वधार्यते निपुणैः मुपलभ्यते 71 3 रहितं परितर्क 98 11 तत्संबन्धघटनायोगात । 72 5 शब्दमेवकारं च 99 12 यत्र देशे चैत्रस्य 73 11 लक्षणप्रतिपादनपरत्वे 100 7 निश्चयस्यानियत वाक्य 101 10 द्वयसमर्पणसमर्थन 75 15 शाक्यमिक्षुपक्षोऽपि | 103 10 स्पादनात्मकस्वग्यापार 765 सामान्यविषयभेदेन | 108 2 प्रपः। मपि च विष Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Co 108 2 शतावकरिष्य | 1522 सन्ति हुतवहाधिष्ठित5 सान्निध्यं निबध्यते; विशे 110° 4 मन्त्रेणानुप्रविशता 1556 प्रतीतिरुपजायते । 111 2 कार्योत्पादौदासीन्य 156 13 प्रामाण्यम्यवहार इति 116 6 भावप्रतीतिरेव वहि- 158 2 भजनक एव भाव: . विप्रतीतिर्भवति 159 9 पूर्व युक्तिवादोऽत्र 1178 प्राभाकरास्तु 160 9 ग्यत्ययप्रत्ययेऽपि 118 3 नोपपद्यत इत्यर्थः । न दोषः। 5 स च गम्यत इति । 164 13 सविशेषणयाऽनुप119 16 वर्तिनस्तदुपपत्तेः । बन्ध्या 121 10 कार्यलिङ्गगम्यत्वात् । | 167 10) संभवैतिशयोः प्रमाणा1226 ननु भवति, साकांक्षा '11) न्तरसंभवात् ॥ 1248 त्पादककारणाभावात् । | 170 3 मिन्द्रियं ननु स्यात् । 9 शब्दार्थे व्युत्पद्यमानो 16 इति भट्टजयन्तकृती 125 . 5 दन्यथैवावस्थाप्यन्ते- | 171 9 व्यवच्छेदः सूत्रार्थः । 8 पदार्थानां निमित्त 173 2 वाचिनो: ममामानाधि 126 2. तामिचिदादिषु 9 ध्याहारेण चोदयि. 130 6 पुनरपि संता ष्यामः। 131 6,7 हानादि भविष्यति । | 174 2 ज्ञानलक्षणपदे कथं -133 1 षट्कसन्निकर्षघोषणेन ? | 13 । तत्स्मृत्यनन्तरं 4 भूप्रदेशवत् घटाभावं 14) 'भयं च कपित्थजातीयः 138 11 ज्ञानविषयत्वाद्धि 15) इति परामर्शानन्तरं 1103 भवताऽपि समवायवृत्ते. सुखसाधनत्वनिश्चयो रपरि भवति। तस्मादेषु - 4 गुणयोवृत्तेरदर्शनात् सुखसाधनं एष कपि145 9 न स्वतन्त्रतया स्थादि। 147 5 चेत्, घटस्य किमायातम् | 175 3) क्रमः। कस्यचिदे 6 चेत्, प्रत्यक्षमेतत् । 4) ज्ञानस्य उपादानादि9 कपालानि युट्यन्ते, ज्ञानफलतां ब्रूमः । 13 किञ्चित्करत्वं तेषां 9 इतीन्द्रियविषये परा148 7 कारणस्वमुत्पश्यामः । 11 अनितोऽपि प्रमज्ञान Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 13 दवस्थं च तदिन्द्रिय । 192 3 रसनस्पर्शनयोश्च 177 1 तदेवमाद्यमेव दर्शनं | 1932 कधित् तद्गृहं गतः इन्द्रियार्थ । यसरे विज्ञानवाद 178 12 देयताज्ञानमस्त्येव ।। 12 व्यतिरेकलभ्य ज्ञाने 179 9 चेत्-न-एवमननुभवात् करणत्वं 18] 12) सुखसाधनतानिश्चयः । 19+ 7 ज्ञानमुपजायते, . . . . 13) तजातीयत्वानिश्चयादु- 8 ज्ञानमुत्पद्यते पवमान आनुमानिक' 16 ज्ञानपदोपादानम् । 182 ) चेतसि निधाय 19. न कारककृत 6 ग्रहणापेक्षणादमवस्था | 1961 म्यूतस्य तस्याप्रति सुखाइरेव 6 प्रतिभासः, स: सुखाः । 5 चाक्षुषप्रत्यक्षगम्यः देविषयभावात् , घट6 चाक्षुषप्रत्यक्षगम्य: • ज्ञानं पटज्ञानमितिवत् । . 1843 प्रत्यक्षनिबन्धन एवं कथं पुनग्दिमवगम्यते5 दियाथुपार्यावरती विषयत्वकृतोऽयं विशेष7 केवलं करणमुच्यते - प्रतिभासः न ज्ञानस्वभाव 185 6 न दर्शनमेव करणमिति | 197 ननु स्वप्रकाशवानभ्यु 186 1 न यद्विषयं हि 5 । यत्पुनः स्वप्रकाश 2 पाश्रयस्त्वधिकरण 8 त्पादात तथैव स्वप्रका12 सब्यापारमतीतत्वा शेन सुखेन अन्योऽपि 13 स्वरूपनिर्दृत्ती 14 ज्ञानमितिवत् किशि1889 माण कारकं कारक 15 विषयानुभवमात्रस्वभाव 1893 निवारयितुमुद्यच्छति19815,16 सर्वप्राणिनां 6 दलनप्रसङ्गे दुराचारं 201 16 भवति? अयमपि 10 तदेतदेवं फल विषय: किं ज्ञानहेतुर्न 15 परोक्षार्थविषयस्य भवति ? यथा त्वेष 190 2 मुत्पाद्यते तत् 19 सुखेऽपि ब्यमिचारिवा 191 1 येषां चक्षुषा स्पर्शनेन | 202 13 गम्यमानमपि कर्तव्य वा ग्रहणं 201 11, इति पर्यनुयुक्त: शब्द2 विधार्यमाणत्वात् ॥ 125 स्यैव कारणत्वं म्पप192 1 नासंसहं च कारक दिशति 'देवदत्तेन Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 206 207 1 209 8 प्रत्यक्ष फलमेतत् ज्ञानत्र । कस्मिन्नत्र निविश न प्रत्यक्षतामवि लक्ष्यमेव प्रत्यक्ष 3 विषयातिशयंग्यतिरेकेण 14 208 2 किरणादिप्रकाशवदा 12 यथा परोक्षविषये शब्द 13 प्रत्यक्षेsपि विषये 4 213 215 13 13 216 210 211 8 218 न तत्संभवति । तथात्वे हि सति लिखित विशेष शब्द hea 5 व्यतिरेकेण स्मृत्यात्म काया: 8. शब्देन गम्यते ॥ 16 किमपरशङ्काकरणेम रिन्द्रियेण प्रथमं गृहीत: 10 दितरेन्द्रियपरिच्छेद्ये 13 नाम ; न पुनरुपेयग्रहण 13 प्रकाशो हि स्वप्रत्यक्षे 5 मरीचिसलिलज्ञानं 5 6 12 5 प्रत्यक्षास्त्रेण हन्तव्यः तेषां यद्विषया वृत्तिः प्रपातं किं न पश्यसि क्रियमाणे प्रथमाणे प्रथमा 14 अतिशय वेदने सङ्कटः 19 ज्ञानाद्युपायातिशय वज्ञाव 5 219 220 224 225 226 227 228 229 230 231 232 2 धिकरण्ये मतिस्संयन्धिबन्धनस्य पुंस एव यथा दण्डिनं भोजय च्छेदे वृद्धोपदेश एव 3 16 7 16 6 9 13 तस्यैवाशब्दां निर्विकल्पकम् ॥ ४९ ॥ तदिदं चोद्यमेतस्य तत्राशचैव कीदृशी । सिद्धमेवाक्षजत्वेन प्रत्यक्षं निर्विकल्पकम् ॥ यस्तु शब्दानुवेधेन फलितेषु तरलतरङ्गाकार तत्र चार्य निर्विकल्प त्रिधाssचार्याः प्रच 14 4 16 क्षते ॥ ५५ ॥ तत्र तरळतरङ्गादि 1 7 वस्थितधर्मिणि । 9 किल ज्ञाने यत् रूप 9 लम्बनं न युज्यते, न 7 न्द्रियान्वयव्यति 11 तेषामिन्द्रियार्थसन्नि 12 कर्षोपपदेन 12 भवभातीति गम्यते ॥ ६५ ॥ भ्रान्तयोऽक्षार्थ संसर्ग समानधर्मदर्शन प्रबुद्ध सम्यगन्यदा एकदा चासम्यगादिशतः तृतीये 2 इत्यादिरुत्पद्यते संशयः 2 विपर्ययोरुभयोरपि Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 1 ग्यापारानतिवृत्त । 256 2 भेदात्मकत्वं धर्माणां 3 विपर्यये वा वाचक | 256 7 द्विचन्द्रग्राहि ज्ञानं 13 लक्षणपदानि ब्याख्या- 8 चक्षुषा स्वरूपेण परितानि । उछेत्त 2344 प्रयोजकमेकमेव |259 1 निपुणष्टिलक्षणं 25 2 प्रत्यक्षमिति स्मृतम् | 2617 वार्यते रजतेक्षणात ॥ | 2625 लोकत एव तर्हि प्रत्यक्षस्य 240 2 मिदन्ताग्राहकत्वं स्पष्ट 8) माह -- यद्यभिचरति न 4 तेषामर्थसंस्पर्शः 9) तत् प्रत्यक्षम् । यद 19 वान्छनीति चित्रम् ॥ प्रत्यक्ष न तत् न्यभि3 चलति देवदत्तः । चरति । किं तर्हि . 6 निश्चयात् नाम 263 द्वाबपि विरुद्धतया 242 1 बाधकः प्रत्ययो भवति | संशय 243 6 मसदर्थवाहित्वं तद | 12 लभनस्वाद12 निबन्धनमधिगनार्थ वर्तमानार्थ , 14 समारोपणभनिभणित 16 लंभनत्वसमर्थनार्थ 244 2 शब्दसंसर्गद्वारक 264 1 सत्संप्रयोगजस्याप्य8 मत एव बाधितत्वमपि सिद्धता 245 5 रूपग्रहणेऽपि चक्षुषः 5 प्रत्यक्ष धर्मग्राहकत्व 7 यश्चोभयोर्दोषः 13 प्रत्यक्षप्रमाणत्वप्रति12 निर्विकल्पस्य रसज्ञान पादनम् ? 246 12 न हि गाधकस्मरणा | 265 3 केयं परप्रसिद्धिर्नाम ? 247 3-4 सविकल्पं ज्ञानमिति । 7 तदनुभाषणात् । 218 अर्थस्य निर्विकल्पकेनैव | 11 परप्रसिद्धिमूल तत् 4) झनधिगतार्थगन्तृत्वं 1266 6 प्रत्यक्षं प्रसिद्धम् 55 प्रमाण विशेषणमि 268 3 तर्हि तदेव कथ्यताम्स्युक्तम् । 8 अनस्मिस्तद्हणेन 10 यशस्य ज्ञानस्य परः 14 तथैव तत्प्रतीतिश्च 274 9 काकतालीयतुल्यं भवि249 12 विषयं दर्शयन्नेति तुमर्हति ।। 255 वाचकावमरः कुतः 12 भ्रातरं इदं ज्ञानं गृही॥ १०४॥। यात्। तता Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 13 मानिनमेवैनं गृह्णानि न तु भ्रातु धर्मिणः । प्रतिभातीति प्रति 278 281 283 284. 286 287 289 4 295 6 297 भास्यः स एव 10 पदार्थसार्थव्यतिरिक्त 14 शब्दलिङ्गलक्षणे वर्णिते 15 सन्निकर्षोत्पन्नपदो 9 साध्यधर्मसंस्पर्श 2 3 अनित्यः शब्दः, सपक्षे सत्वं यस्य नास्ति स विरुद्धः । 5 विपक्षात् व्यावृत्तिर्यस्य नास्ति 5 पूर्वकत्वाश्च व्यतिरेकस्य 7. धूमवतां सर्वधर्मिणां 1 विधुतारकं - ( इति 290 291 1 8 9 वस्तुनः तत्वतः समस्तीति ॥ 292 1 294 .8 3 विमर्शविषयीकृत: नास्ति) न च रूपद्वययोगित्वं 1 298 10 धूमादिहेतुर हेतुरेव न हि हेत्वनपेक्षामा कमपाकर्तु पञ्चम मानं सत्प्रतिपक्षतां प्रतिपद्यते 3 मूलत्वाच्च न वस्तुनो 6 प्रत्यनीकविकलस्व 16 चेन - लिङ्गग्रहण 5 पादप्रसारिकैवेयमिति ॥ 8 रम्यतिरेकात् गम्य 300 302 306 307 15 310 17 313 316 320 321 323 324 319 1 325 326 5 शिशपासमारोपः 2 द्रष्टुस्तद्व्यतिरेकेण 5 10 328 329 विनाशो नास्तु तादृशः धूमाग्न्योर्नदी पुरवृष्टयो र्वा लोकप्रसिद्ध नादात्म्य विशिष्टः १ अनिर्धारित 9 विरुद्धान्यमिचारी वा 18 तान्त्रिकोत्प्रेक्षित 7 10 देशविशिष्टः तदेकदेशे योजने 5 धर्मयैव कुतश्चिदेव कचिदेव वस्तुनि सामान्यधर्मपुरस्परा 12 12 परिच्छेदादेव गृहीतो वस्तुनः 9 सामान्यादावद्वयानुगम 5 प्रत्यक्षावगमविरोधेन 9 विरचितमचारु लक्षणं 2 विशेषेऽनुगमाभाव: 3 सिद्धसाधनम् ' सोऽन्यथा प्रतिपद्यते ।। प्रतीति । धूमाद्यनुमानं सूत्पन्नप्रतीति ! ईश्वरा चतु तत्कारणम, लिङ्ग विशेषप्रति लंभः ? मानादिप्रमाणान्तरव्यव द्वितीयं 8 4 5 तत्पूर्वकपदेनोक्तः । 9 ज्ञापकत्वेन स्वग्रहणा Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्ति) 830 14 पूर्वकंशब्दस्य द्विः | 3592 दिन्द्रियार्थसनिकर्ष 331 8 फलेऽप्येवं दृश्यमाने | 362 10 नेदं वैदिकं वचने ---- 11 तत्र यतशब्दं वाऽध्या- 13 रूपवत्त्वं त्रयाणामस्तु हरिष्यामः, तत्र स्पष्ट | 365 12 कुविन्दादिकारकबृन्दस्य 332 1 'यतशब्दं वाऽध्या-3693 विशेषलिङ्गाभावाचकहरिष्यामः'- (हति माकाशं, एवं काल लिङ्गानां युगपदादि11 । तदतः 'तत्पूर्वक प्रत्ययानां . सर्वत्रा333 15 लक्षणकमिह शारे विशेषात् विशेषलिकालिंग मभ्युप भावश्चकः काल:॥. 335 1 स्वगिराऽब्रवीत् ।। 16 मिक्रिया एके- . 339 9 तन्ती जातया क्रियया . त्युच्यते, वर्त 340 8 मिन्द्रियार्थसनिकर्षात् 17 दुत्पद्यमानै छोदनाख्य 3436 स्फुरत्फेनच्छटा 30 12 क्षणलनिमेषकाष्ठा6 शैवाल शरशाद्वल 12 यामाहोरात्रपक्षमास 13 सन्दोहस्पन्दन 13 कल्पमहाकल्पग्यवहारः 344 2 भकारणभूताल्लिकात 372 16 सेनैव भेदवतोस्तयो. 8 असिद्धयादिवाधानां ग्रहणात् : 1 यत्र सम्बन्धग्रहण 19 गृह्यते, यदुक्तं4 पर्वते भूमेनाग्न्यनु "प्राग्भागः 348 4) तृणपर्णकाष्ठादीनां प्रति- 20 क्षिप्रादिन्यवहारः वर्त5) षेधात मृत्पाषाण (7) | मानादिविभाग . भावपसनाच | 3742 फलं प्रतीतिफलसिद्धे8 सम्बन्धग्रहणकालेऽपि तरयोः 349 यश्चेत्थं ग्याप्तिविज्ञानं 3. नागरको (एवमित350 2 एवमाह-न पूर्व रत्रापि) 354 11 जन्यत्वं तुन 6 गवयस्य प्रसिद्धन गवा 16 दहलजलसंयोग सारूप्यम - 365 6 पतत्रिण: प्रत्यक्षः 375 6 सदवबोधितधूमारण356 6 क्रियाऽऽविष्टम्। 376 6 प्राणिनमवलोकयति । .... 9 घटादेः कार्याश्रितस्य । - -8 'अयं समवय Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 9 सम्बन्धविज्ञानमनन्य- | 3927 मतः किमियमिति जयमित्युपमान- .. | 8 ह्याथोषधिसाध्यफलमित्युच्यते। 393 13 गवये प्राक् प्रसिद्धस्य कथं पुनरिदमनन्य गोः . करणकं ज्ञानम् ? 397 11 लक्षणम् । न हि उच्यते- - पर्यायमात्रोपदेश: 378 11 उपप्लवेऽपि सम्बन्धो शब्दः, किं तर्हि ? 379 6 न निराकाङ्क्षतः पुंस उपदिश्यतेऽनेनेस्तदानी त्युपदेशः। न चा3807 संज्ञिस्वरूपोपदेशात् ॥ कारकेण 9 स्येन्द्रियार्थसन्निकर्षादि 398 3 नाम अर्थप्रतीति381 9 प्रमाणशास्त्रस्य । रिति चेत् ; प्रस्तुतत्वात् |400 14 प्रतिपाद्यार्थविषय एव 385 8 अनपेक्षितपक्षधर्मादि- | 401 9) किमर्थमेवं शब्दस्य सामग्रीकस्य 10) पृथग्लक्षणमिष्यते। 386 5 प्रमाणान्तरकरणकं । (श्लो.) भवतीत्युपमान 402 4) वाचकः ॥९॥ यस्मिन . . 11 पर्यटनदृष्टपूर्व. : 5) दृश्यते चासौ न ... 387 2 मिधानं वा तदानीं तस्यार्थस्य वाचकः। ..... . कस्यचिद पक्षधर्मत्व. . : . 388 3 विशिष्टं स्मरणमुत्पत्तु 6 दहनवानिति ॥१०॥ ... 7 एवं च गवय 403 . 7 कविरचितश्लोक 7 सदृशोऽयं गौरिति 7 पदपदार्थसंस्कृत ... 17. अपि च भूयोऽवयव- 8 तस्य कैव साम्य ..... सामान्ययोगः सादृश्यं | 407 4 पक्षधर्मस्वम् ॥ ___ भवद्भिरभ्युपगम्यते। 408 3 सम्प्रनीतिजनकत्वेन ... स च भूयोऽवयव- 409 2 नैष्फरूपम् । उत्पन्ने तु 389 6 । यावता सहश पूर्व 12 भवति, एवमस्माकमपि | 111 14 शब्दादर्थसंपत्य यस्य 390 11 प्रमाणान्तरमाक्षिपति । | 416 - 16 अथातथाप्रयुज्यमाना ....15 विशिष्टस्य तद्योग्यस्थ | 416 16 प्राप्तिरर्थसंस्पर्श ... Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 417 । यथार्थत्वमेव। | 447 13 नौरकार्यालोचन.. 418 13 प्रकाशकत्वमात्र 448 2 जाग्रत्समये स्वयं (एवमुत्तरत्रापि) सकलो 16 समयम्युत्पत्त्यपेक्षमिति। 10 क्षुत्पिपासापको419 12 शाब्दे प्रत्यये यथार्थत्व | 454 . 8 भवितुं युक्तः, न पूर्वः; 420 स्वातन्त्र्येण 456 3 मानायां रजतादिस्मृता तस्परीक्षणम् , 6 प्रस्फुरद्वस्त्वसंभवात् । 421 6 कारणदोषापेक्षम् । 13 प्रतिभाति १ मालम्बन 4222 ज्ञानस्य स्वरूपलाभा शुक्तिका, रजतं च वेदात् प्रतिमातीति ॥ 18 यथार्थत्वायथार्थव | 457 16 सीता संवृत्तति। 423 10 कब्धिजनने तेषां गुण- | 459 4 सतस्त्वर्थस्य ख्यातिरेव सहकारि 14 अपि च असत् सस्वेन . 16 स्वरूपस्थितिहेतुजा। | 462 12 भविवेकासामानाधि426 10 उतार्थान्तरज्ञानमात्रम् करण्यामि , 427 11 स्वमेऽप्यनवगाहन- 463 16 कत्वात्स्मरणाभावस्म ज्ञानस्यापि 4642 किनवख्यातिरनन्तासौ 430 16 प्यनुपपत्तेः 465 7 प्रतिपद्यते। 436 12 अपौरुषेयं मिथ्यार्थ 469 16 कदाचिदेव किञ्चिदेव 437 16) लिगमेव न किञ्चित्प- . स्मर्यते 17) श्यामः। 470 16 भवं तु भवन्तं क 17) स्वकार्यफ भवदपि 471 - 16 प्रमुषिता स्मृतिः? ' 185 लिङ्गफलस्य 486 12 कर्तुदश्यत्वमिति । 441 5 वाक्यकरणकबोध 488 13 पदार्थसार्थस्थिते: 18 तदयं स्थाणुपुरुष 493 12 धूमादिवन्मकोल 442 10 तस्मात् स्वत: 500 5 पलब्धिकरणमपि प्रामाण्यं . 504 17 तयोरेकः पिप्पलं र सव्पस्य कार्यस्थ 510 15 तेषामेकत्र संगाना 443 12 वृत्तरप्योषधोपयोग 516 । 5 न हीचुयशा 447 7 सलिलमध्यवर्तिनी 21 2 जातिप्रविभागव्यवहारः Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 11 524 7 बयबविभागावश्यति | 630 3 संसारमोचकं दृष्ट्वा 646 1 भवति, वर्णा528 14 करणाः प्राणिनः संपना | 649 4 निबीतावियुतसीपुंस 535 3 तुल्यारंभेकमन्देन तीवस्य 650 10 माह-कर्मकाले च 537 16 तास्यकरणधर्मा फलेन भवितव्यम् । 540 1 प्रत्यक्ष न हि दूष्यते । यरकालं हि मर्दनं, 548 2 एक एव गौः स्यात् ॥ तत्काल मर्दनसुख557 19 प्रवृत्तामिः भाभि: बुद्धि मिति। अधिकार्यपि 5598 पुनरनभिग्यक्त पश्चापभावपरितप्य564. 15 । पञ्च सूक्ष्मा अपि मानमानस एवं कर्म569 12 व्यवहारदर्शनात् ण्यधिक्रियते। यदि 5746 .रचनाविशेषाणां कर्तृ मद्य एव ततः फल580 6 कश्चिदनिमान् कशिद मासादयेत् , कालाननिक न्तरेचकर्मणः प्रध्वं587 10 उच्यते, न सर्वशः सात् कुतः फलम् । 595 4. विदेशविशेषे कश्चि भाह'यदा 603 12 मस्मिन्नर्थे संभवति, | 656 15 वैगुण्यकारणाननुमोदिन: 658 15 त्रैविध्यम् ? भय विधि6087 घरकेण वा किमप वृत्तपरीक्षागम्यम् ? .. 619 23 यजुर्वेदाधिकरणे काठ- | भाहो फलस्वरूपकादिवत् अथर्व पर्यालोचनया सभ्यम् ? .. 627 16 वेदिकवतब्रह्मचर्य उत पुरुषे___633 14 वेदेऽपि पठ्यते । साक्षा- | 668 9 अपि च तस्मात् भूम स्कृतधर्माणो ऋषयो | 673 10 मादिभ्य: स्तुतिपदेभ्यः। बभूवुः। ते परेभ्यः | 683 15 ईश्वरप्रणीतो वेदः, अमाक्षात्कृतधर्मभ्य 697 8 प्रवृत्तत्वात्। भनुपावेच उपदेशेन मन्त्रान् | 701 2 पुरुषार्थान्तरप्रार्थना मंगहगिति वेदेऽपि 7 प्रतिपत्ते: सिस्वात् । पठ्यते ॥ Page #809 --------------------------------------------------------------------------  Page #810 -------------------------------------------------------------------------- _