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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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वा (गांधीनगर) पि. .. MBERRHESHURRASSASSSSSSSSsssbsessociasansode
di
॥ श्रीः॥ *श्रीमद्वाग्भटविरचित
और सिदा
पोपलो बाज
अष्टावदया
MEY
Su0536658236566655585865555566583283ssociated
......
* अर्थात् है वाग्भट।
00000000000
NalanceOINONatoTOBासाठ
OUT
मथुरानिवासि-श्रीकृष्णलाल कृत भाषानुवाद
साहित । * जिसको
किशनलाल द्वारका प्रसाद ने "बबई भूषण" यंत्रालय में छापकर
प्रकाशित किया।
.
.
RoRosrore.
.
.
-0003e
BOcbedded8081680CPOESUCTET
सन् १९१०
er Printer B. Kishanlal Bombay Bhushan Press
MUTTRA. Registered under Act XXV of 1867.
OSROO
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RUAUAYAYAURIYAYRLAYGUR
निवेदन।
046382 gyanmandir@kobatirth.org
AURUAURIRURYABRYALABRURURAYRAGUGUALIS
में उस सर्वशक्तिमान परमात्मा को धन्यवाद देता हूं जिसने अपनी १ अपार कृपासे आज वह दिन दिखाया है, जिसको में खपुष्पवत् समझता कथा जिसके लिये केवल स्वप्नदर्शन का सा आभास होता था । चरक
संहिता और सुश्रुतसंहिता का अनुवाद छपजाने के पश्चात् कई दैवी दुर्घटना ऐसी होगई, जिनसे संसार शून्यवत् प्रतीत होने लगा, मेरी 5 लेखनी भी थकित और उत्साह भंग होकर गाढ निद्रा में प्रलीन होगई । परंतु इस दशा में बैठे बैठ जी और भी अधिक बेचैन हो उठा तब अपनी चिरजात इच्छा को पूरी करने के लिये संकल्प करके 'अष्टांगहृदय' का अनुवाद करने में प्रवृत हुआ । वह इच्छा भगवत्कृपा से आज पूर्ण हुई।
चरक सुश्रुत वाग्भटादि ग्रंथों के विषय में कुछ लिखना वा उनकी प्रशंसा से पत्र के पत्र भरदेना सूर्य को दीपक दिखाना है, क्योंकि पठित आर्यसतान कोई भी ऐसी न होगी जो इनके नामसे, वा इनके गुण से परचित न हो, रहा अनुवाद, उसकी तारीफ करना अपने मुंह मियां मिळू बननाहै. उसका गुण दोष तो विद्वानों के हाथों में पहुंचने पर ही विदित होगा, क्योंकि स्वर्ण की परीक्षा कसौटी पर ही होती है ।
अब सब सज्जन महाशयों से यही प्रार्थना है कि आप इसको ग्रहण कर अन्य ग्रंथों के प्रकाश करने में भी मेरा उत्साह बढायेंगे ।
AYRURURYALAYALGPAGAYRYGER GRLAYRUQYAYAYAYGUAN
आपका
श्रीकृष्णलाल पुस्तक मिलने का पतापं० श्रीधरशिवलाल जी
किशनलालद्वारका प्रसाद | লালমাল মষ।
बंबईभूषण छापाखाना
मथुरा (यू. पी.) TURURAYALAURLAAYRALAUALARYA;
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॥ ओ३म् ॥
वाग्भट का परिचय |
महात्मा तुलसीदासजी ने अपने सर्वमान्य रामायण ग्रंथ में लिखा है "पडा भूमि चह गहन अकाशा" बही दशा मेरी भी है, ऊपरः का शीर्षक देकर मुझे लज्जास्पद होना पडता है कि मैं वाग्भट का क्या परिचय दूंगा, मैं भी केवल अपने पूर्वजों के शब्दों का हेरफेर करके आपके साम्हने रखदूंगा । जब हमारे ऋषि महात्माओं की यही प्रणाली थी कि वे अपना परिचय किसी भांति में अपनी लेखनी से नहीं देते थे अपने होने का समय अपने पिता, पितामह, माता मतामही आदि का नाम लिखते ही न थे, अपने जन्मस्थान का परिचय देनाही नितान्त अनावश्यक समझते थे । इस दशा में उनका परिचय प्राप्त करना तीक्ष्ण कृपाण की धार पर पांव रखना है, इस सबका कारण यही प्रतीत होता है कि वे संसार को तुच्छ समझते थे, उनकी दृष्टि में प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा के समानथी, उन्हें बन वास में ही परमानन्द का आभास होताथा, तपश्चर्या ही संपूर्ण संसार का विभव था ।
इस दशा में चाग्भट के जन्म, काल आदि का परिचय देना महा कठिन ही नहीं किन्तु दुःसाध्य भी है । इतना अवश्य है कि वाग्भट के नामको भारतवर्ष के संपूर्ण विद्वान् चिकित्सक अच्छी तरह जानते हैं और उनकी बनाई हुई अष्टांगहृदय संहिताका पश्चिमीय भारत में अच्छी रीति से पठन पाठन होता है ।
वाग्भट के जन्म के विषय में अद्भुत अद्भुत किंवदन्तियां प्रचलित हैं "कोई इन्हें साक्षात धन्वन्तरि का अवतार मानते हैं, कोई: समुद्रमथन से उत्पन्न हुए रत्नों में से बताते हैं और कोई इनको कलियुग का महर्षिः गाते हैं "अत्रिः कृतयुगे चैव, द्वापरे सुश्रुतो मतः कलौवाग्भट नामाच, यह अत्रि संहिता में लिखा हुआ है ।
कोई कोई इन्हें गौत्तमबुध का अवतार कहते हैं और कोई यह कहते हैं कि यह एक बड़ा स्त्रैण ब्राह्मण था और किसी नीच जाति की स्त्री के प्रेम में फंसगया था ।
माधव, शार्ङ्गधर, चक्रदत्त और भावमिश्र वाग्भट को बडा प्रामाणिक मानते हैं और लोगों ने बहुधा अपने ग्रंथों में वाग्भट के वाक्य उद्धृत किये हैं, इससे यह जाना जाता है कि वाग्भट उक्त ग्रंथकारों से पहिले हुआ है कहते हैं कि माधव ऋक्संहिता के
इन
2
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( २ )
प्रसिद्ध टीकाकार सायणाचार्य का भाई था और वह प्रायः नौसौ वर्ष हुए होंगे विजयानगर के किसी राजा का प्रधान मंत्री था । इससे यह जाना जाता है कि बाग्भट नौसौ वर्षसे पहिले किसी समय में हुआ था । इसने अपने ग्रंथ में कई स्थान पर जिन भगवान् के प्रयोगों का वर्णन किया है इससे जानने में आता है कि इसका जन्म बुद्धदेव के पीछे किसी समय में हुआथा |
कोई २ कहते हैं कि वाग्भट वौद्धमताबलंबी था परंतु इसका निराकरण इस बात से होता है कि एक स्थल पर वाग्भट ने लिखा है " न चैत्यं गच्छेत्" अर्थात् बौद्धों के मंदिर में कदापि न जाना चाहिये । दूसरी बात यह है कि जो मंत्र इसमें लिखे गये हैं वे सब वैदिक हैं इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्धमत की अपेक्षा वह वैदिक धर्म में दृढ विश्वास रखता था ।
उसने स्वयं अपने जन्म का परिचय इस भांति दिया है कि
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भिषाग्वरो वाग्भट इत्यभून्मे पितामहो नामधरोस्मियस्य । सुतो भवतु तस्य च सिंहगुप्तस्तस्याप्यहं सिंधुषु जातजन्मा || अर्थात मेरे पितामह का नाम वाग्भट था, मेरे पिता का नाम सिंहगुप्त था मैंने अपना नाम भी वाग्भट ही रक्खा और मेरा जन्म सिंधु देश में हुआथा ।
वाग्भटालंकार, कबिकल्पतरु और रसरत्नसमुच्चयादि ग्रंथ इसी के बनाये हुए हैं । उक्त बातों के सिवाय वाग्भट के विषय में और कोई बात जाननेमें नहीं आती है ।
श्रीकृष्णलाल
* इति
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..
___....
....
४ सेर
धान्य
...
तिल
धानक
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द्रव्यों की तोल | हमने अपने इस ग्रन्थ में द्रव्यों के प्रमाण के नाम संस्कृत ही में रहने दिया है अव यहां सबके समझने के लिये अकारादिक्रमसे लिखते हैं । अक्ष .... .... .... .... .... १ तोला | तिण्डुक .... - १ कर्ष अष्टमान .... .... .... १६ तोला | तुला .... -१०-पल वा४०० तोला अष्टीमका .... .... २ तोला | तोलक .... .... ९६ रत्ती अमेण-द्रोण .... .... मेर| द्रक्षण .... .... आधातोला माषक
द्रोण ___ .... १६ सेर आहक
| द्रोणी .... .... ६४ सेर आम = एकपल ...
धारण .... पलदशमांश २४ रत्ती अंडका
.... ४ यव अजली
..... १६ जो उन्मान-द्रोण ....
निष्क
पावतौला उदुम्बर ....
४ तोला .... .... १ तोला | पलार्द्ध
... २ तोला कलश= द्रोण .... .... १६ सेर | पाणितल
१ तोला कवलग्रह, कवड वा कवडग्रह १ तोला | पात्र
.... ४ सेर कुडव ......... १६ तोला ।
पिचु कुम्भ .... .... ३२ सेर पकुंच .... कोल .... - आधातोला / प्रस्थ .... १ सेर कंस = १आढक .... .... ४ सेर
प्रसत
८ तोला खारी = २द्रोण .... ....२५६ सेर
८ माषा गड्यालक .... ....६४वा ४८रती | वाह - ... ३२ सूर्प गद्याणक ___.... ....६४वा ४८रत्ती । विडालपद .... २ तोला गुंजा १ रत्ती
.... १ पळ घट-द्रोण - .... १६ सेर | वंशी - -३० परिमाणु चतुर्थिका - १पल भारीवाभार २० तुला वा २९० सेर तंडुल ___ ... ८ सषेप । मराचि
- -छःशीवं
पक
कर्ष
..
तोला
१ तोला
बदर
बिल्व
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। २ कोल
१ सेर
१ पल
१
सूर्प
मानिका एक सेर ४ यव
१ गुज मापक एकमासा ४ गुजा
१ माषा मुष्टि
एकपळ | ४ माषा
१ शाण बव छःसर्पप २ शाण
१ कोल रक्तिका १ रत्ती
१ कर्ष वा तोला लल्वन १ द्रोण २ कर्ष
१ अर्द्धावपाद शराव
२ अविपाद शरावाई आधासेर २ पल
१प्रसृति शाण ४ मासा | २ प्रसृति
१ अंजलि युक्ति ४ तोला २ अंजलि
१मानिका षोडाशका १ पल २ मानिका
१ प्रस्थ सर्षप ३राई ४ प्रस्थ
१ आढक सुवर्ण , कर्ष ४ आढक
१ द्रोण सूर्प
३२ सेर २ द्रोण १ मासा २ सूर्प
१ द्रोणी त्रसरणु
३० परिमाणु ४ द्रोणी मानविषयमें ठाकुर साहव ने एक, उत्तम । १०० पल
१ तुला चक्र दिया है उसे लिखते है । यह बहुत स- | २००० पल
१ भार हायक होगा।
यहां १ तोला अंग्रेजी तोल से १८० ग्रेन ६ त्रसरेणु
१ मरीचि का होता है। ६ मरीचि
१ राजिका | कालिङ्गमान का चक्र । ३ राजिका १ सर्षप | १२ सर्षप
१ यव ३ सौंप १ यव २ यव
१ गुंजा माषक-सुश्रुतकेमतसे मागधमानमें मा- | ३ गुंजा
१ वल षारत्ती काहै चरक के मतसे छःवा आठ ८ गुंजा
१ माषक रत्ती कोह सुश्रुत के मत से कालिगमान १ माषक
१ शाण ५ वा ७ वा ८ रत्ती काहै अन्य वैद्यक । ६ माषक
१गद्याणक ग्रन्थों में १० रत्ती काहै ज्योतिष और १०माषक
१ कर्ष स्मृतिमें १२ रत्ती का माना है - वंगाली | ४ कर्ष
१ पल वैद्य १२ रत्ती का मानकर काम चलातेहै | २ पल
१ खारी
१कुडव
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विषय
मंगलाचरण
आयुष्कामीयनाम प्रथमोऽध्यायः आयुर्वेद जाननेका कारण आयुर्वेद की उत्पत्ति
इसग्रंथ के बनानेका कारण
ओश्म
अष्टांगहृदय की अनुक्रमणिका ।
।
अंगों के नाम तीनों दोषों का वर्णन दोषों की शक्ति व्यापकदोषों के स्थान
दोषका काल जठराग्नि का स्वरूप चार प्रकार के कोष्ठ
प्रकृति का स्वरूप बातादिदोषों के गुण धातुओं का वर्णन मलों के नाम वृद्धि ओर अपचय रसों का वर्णन रसो के गुण द्रव्य को त्रिविधत्व द्रव्य का वीर्य द्रव्य का विपाक द्रव्य के गुण
रोगका कारण रोगारोग्यलक्षण तथा भेद रोग का अधिष्ठान मानसिकरोग का हेतू. रोग परीक्षा
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रोगाविषेश की परीक्षाका उपाय देश भेद
सूत्रस्थानम् । पृष्टांक. | विषय १
२
33
"
३
33
""
""
"
४ परिचारक के चारगुण रोगी के चारगुण
सुखसाध्य व्याधि
कृच्छ्रसाध्य व्याधि
99
35
"
५ याप्यव्याधि
53
33
"
"3
33
33
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भूमिदेश का वर्णन औषधयोजन का काल
औषध के भेद
औषध का विषय
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७ चिकित्सितस्थान के अध्याय
कल्पस्थान के अध्याय
33
मानसिक दोष को परमौषध
चिकित्स के चार पाद
""
वैद्यके चार गुण
औषध के चारगुण
""
प्रत्याक्षेप व्याधि
त्याज्य रोगी के लक्षण अध्यायों का अनुकम
सूत्रस्थान के नाम शरीरस्थान के अध्याय निदानअध्याय के नाम
""
८ उठनेका समय निरूपण
उत्तरस्थान के अध्याय
दिनचर्थ्यानाम द्वितीयोऽध्यायः ।
दन्तधावन विधि दन्तधावन निषेध नेत्रों में सुर्माकी विधि
सौतांजने का विधान नस्यादि कर्म
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पृष्ठांक
१०
""
03
39
19
११
===
१२
= = = = = ===
१४
१५
3 0 2 22:
१५
१६
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विषय
तांबूल के अयोग्य मनुष्य अभ्यंग विधि
अभ्यंग का निषेध
व्यायाम के गुण
व्यायाम का निषेध
व्यायाम की योज्यना और काल
व्यायाम के पीछे कर्त्तव्य कर्म
अति व्यायाम के अवगुण अति जागरणादि से हानि उबटने के गुण स्नान के गुण गर्म जल से स्नान स्नान का निषेध मूत्रादि वेगों के रोकने को निषेध
गुणागुण
धर्म पर दृढता
मित्र शत्रु का विवेक हिंसादि पापों का त्याग प्राणि मात्र पर समदृष्टि अन्य उपयोगी कर्म
सुखदुख में समभाव वोलने आदि पर उपदेश अन्य के साथ व इन्द्र का नियम कर्म की रीति अन्य नियमोपनियम त्याग के योग्य अन्यकर्म
लोक अनुसार काम की विधि
सद्व्रत के लक्षण
रात्रीदिन का विचार अचार का फल
सूत्रस्थानकी
पृष्टांक- विषय १६ | स्नानादि
भोजनादि स्त्रीसेवन
ऋतुचर्य्या नाम तृतीयोऽध्यायः
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छः ऋतुओं के नामादि
बल का आदान और विसर्ग काल बल विसर्ग का कारण ऋतु परता से बल की प्राप्ति
हेमंत में जठराग्नि का प्रावल्य हेमंत में सेवनीय रस हेमंत की दिन चर्य्या अभ्यांगादि
33
99
१७ | रहने का घर
शिशिर चर्या
"
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१८ ग्रीष्म चर्या
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१९ | ग्रीष्म का मध्यान्ह काल
ग्रीष्म की रात्रिका विधान
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33
वर्षा च
वर्षा ऋतु भोजनादि की विधि
33
वर्षा में अन्यविधि
२० वर्षा में अकर्त्तव्य कर्म
"3
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शरद चय
२१
शरद में भोजन २२ | हंसादक
39
वसंत चर्या
कफ जीतने के उपाय
अन्य उपाय
बसंत का मध्यान्यकाल
बसंत में त्याज्यरस
"3
२३
""
ग्रीष्म के कतर्व्य कर्म
ग्रीष्म का भोजन
ग्रीष्म में पानविधि
ग्रीष्म में जलपान
ग्रीष्म में रात्रि भोजन
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"" ऋतु चर्या ' का संक्षिप्त वर्णन
संक्षिप्त भोजन विधि
"
"
शरद का सायंकाळ
शरद में त्याज्य
ऋतु सांध
वेगों के रोकने का प्रतिषेध
बात रोध में रोग
39
मन रोकने के रोग
""
२४ | मूत्ररोध के रोग और उपाय
पृष्टांक.
२४
रोगानुत्पाद नीयनाम चतुर्थोऽध्यायः
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अनुक्रमाणका।
विषय पृष्टांक. | विषय
घृष्टांक. मलरोध में उपाय
| गौ के दूधके गुण मूत्ररोध में उपाय
भैस के धके गुण डकार के रोग
बकरी के दूधके गुण छींक रोकने के रोग
| ऊंटनी के दूधके गुण तृषा के रोग
स्त्री के दुग्ध के गुण भूख के रोग
| भेड़ के दुग्ध के लाभ निद्रा के रोग
हथनी और घोडी के दूध खांसी के रोग
कच्चे पक्के द्धके गुण श्वास के रोग
दही के गुण जंभाई के रोग
तक के गुण आंसुभों के रोग
दही के तोडके गुण वमन रोकने के रोग
नवनीत के गुण वीर्य और मूत्र रोकने के रोग
दुधके माखन के गुण त्यागने के योग्य रोगी
घृतके गुण वेगरोध जन्यरोगों में कर्तव्य
पुराने घृतके गुण रोकने के योग्य वेग
| किलाटादि के गुण वातादि का यथाकाल शोधन
गौ के द्ध को उत्कृष्टता रसायन प्रयोग
इक्षु के गुण पथ्यादि विधि
अन्य गुण पूर्वोक्त क्रम का फल
अन्य ईखके गुण आगन्तुक रोगों का उपाय
गुडकी राव के गुण अध्याय का संक्षिप्त वर्णन द्रव द्रव्य विज्ञानीय नाम पंचमोऽध्यायः ।
गुड़ के गुण गंगावं के गुण
३६
मिश्री आदि के गुण गांग तथा सामुद्रजलके लक्षण
जवासे की शर्करा के गुण गांग जलके प्रभाव में कर्त्तव्यता
अन्य शर्कराओं के गुण न पीने योग्य जल
शर्करा और फाणित के अन्तर अपेय आंतरीक्ष जल
मधुके गुण नदियों का जल
उष्ण मधु के गुण जलपान के अयोग्य रोगी
शहद का विधान भोजन में जल पीनकै गुणागुण
तैल बर्गः शीतल जलपान के गुण
तैलंक सामान्य गुण उष्ण जल के गुण
अरंडी के तेल के गुण क्वचित शीतल जलके गुण
लाल अरंड के गुण नारियल के जल के गुण
सरसों का तेल क्षीरवर्गः
बहेड़े का तेल दूधके सामान्य लक्षण
नीम का तेल
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अष्टांगहृदयकी।
पृष्टांक
विषय
पृष्टांक विषय अलसी और कसूम का तेल
मूंग के लाभ वसादि के गुण
कुलथी के गुण मद्य के सामान्य गुण
राजशीवी के गुण नये पुराने मद्य के गुण
उरद के गण मद्यपान का निषेध
कटभी और कोच के गण सुरा के गुण वारुणी के गुण
तिल के गण वहेड़े का मध
अलसी और कसूम के बीज के गण यवसुरा के गुण
नये धान्यादि अरिस्ट के गुण
मण्ड के गुण द्राक्षा रस का मद्य
पेया के गण खजूर का मद्य
बिलेषी के गुण शर्करा के मद्य
भात के गण गुड़ का मद्य सीधुमध के गुण
मांसरस के गुण महुआ का मद्य
मूंगके यूष के गुण शुक्त के गुण
कुलथी के यूष के गुण अन्य शुक्त
तिल के पदार्थों का गुण शांडा की का गुण कांजी के गुण
शिखंड के गंण गौ आदि के मुत्र के गुण
पानक के गुण अध्याय का उप संहार
धाना के गुण अन्नस्वरूप विज्ञानीय नाम षष्टोऽध्यायः । पृथुकादि के गण चांवल का वर्णन
४८ सत्त के गण चांवलों के गुण
विण्याक के गण अन्य चांवलों के गुण
वेसवार के गुण साठी चांवल के गुण चांवलों की अन्य जाति
रोटी आदि के गुण पाटल के गण
मांस वर्गः मग वर्गः तृणधान्यो के गण
विष्करों के नाम कंगु और कोद्रव के गुण
प्रतुदनर्ग और बिलेशप जौ के गुण
प्रसह बर्ग जौ की अन्य जाति
महा मृगों के नाम गेहूं के लाभ
जलचर वर्ग गेहू के भद
मृत्स्य वर्ग शिंधी धान्यों के सामान्य गुण
" मिश्र वर्ग
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अनुक्रमणिका।
पृष्टांक
पृष्टांक विषय
कलम्वादि घिल्ली शाक के गुण जयन्ती और अरणी साठी आदि के गुण करंजादि के गुण शतावरी के अंकुर वांस के अफर पत्तर | कासमद । कस्म का शाक सरसो का शाक मूली के गुण पिण्डालु के गुण
कुठेरादि
बिषय जांगलादिक संज्ञा जांगल वर्ग के गुण शशक मांस तीतरादि के मांस का गण अन्य पक्षीयों का मांस बिलेशयादि का मांस महामृगादि के गुण बकरेके मांसका गुण भेड़का मांसके गुण गोमांस के गुण भेसाके मांसका गुण वाराहमांस के गुण मत्स्यमांस के गुण सर्वोत्तम मांस त्याज्यात्याज्य मांस नरमादा का मांस शाकवर्ग, शाकोके गुण ऊपरके शाकाके के विशेष गुण मकोय और चांगेरी पटोलादि के गुण परबल और दोनोकटेरी अडूसा के गुण करेले के गुण बेगन के गुण करील के गुण तोरई और बाबची चौलाई और मुंजात पालकोई चचु बिदारीकंद जीवती के गुण , कूष्मांडादि के सामान्य गुण कूष्मांड और खीरा तूं आदि के गुण शीर्णत के गुण कमलनाल का गुण
तुलसी के गुण हरे धनिये के गुण लहसन के गुण पलांडु के गुण गाजर के गुण जमीकंद के गुण पत्ते आदि के गुण शाको को बरावरत्व फलवर्ग-द्राक्षा अनार के गुण मोच फलादि ताल फलादि के गुण बेलगिरी के गुण कैथ के गुण जामन के गुण आम के गुण वृक्षाम्ल के गुण शम्या और पलि बीजौरे के गुण
भिलावे के गुण , पालवतादि ,, । दाख और फालसे
६१ कोलादि
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अष्टांगहृदयकी।
७१
बिषय इमली आदि लकुच को अवरत्व त्यागने के योग्य शाक फलादि विविधि औषध वर्ग-लक्षण सेंधानमक संचल नमक विडनमक सामुद्रनमक उद्भिद नमक काला नमक काच नमक लवण का प्रयोग जवाखार के गुण सर्जकादिक्षार हींग के गुण हरड के गुण आमले के गुण चहेडे के गुण त्रिफला के गुण चार्तुजात और विजात मिरच के गुण पीपल के गुण सोंठ के गुण अदरख के गुण चव्य पपिलामूल चीते के गुण पंचकोल महापंचमूल लघुपंचमूल मध्यम पंचमूल जीवन पंचभूल तृण पंचमूल उध्याय का उपसंहार
सप्तमोऽध्यायः । वैद्यका स्थान विष से अन्नपान की रक्षा
पृष्टांक | बिषय
पृष्ठांक | विषदूषित भातके लक्षण विषदूषित शाक विषदूषित अन्य पदार्थों की परीक्षा , | विष देनेवाले के लक्षण विषदक्षित अन्नकी अग्नि में परीक्षा पक्षियों द्वारा विषपरीक्षा विषस्पर्श का फल | मुखमें लगा हुआ विष
आमाशयस्थविष ताम्रचूर्ण प्रयोग हेमचूर्ण के गुण विरुद्ध भोजन दुध के विरुद्ध फल दुग्ध विरुद्ध धान्य दुग्ध विरुद्ध शाक अन्य विरुद्ध मांसादि पीपल के विरुद्ध पदार्थ अन्य विरुद्ध द्रव्य दूध के विरुद्ध शहत के विरुद्ध असमान शहत धी तिलकल्क और पोई बगुला के विरुद्ध पदार्थ तीतरादि मांस और अरंड हारित और हारिद्र विरुद्ध का शमन विरुद्ध सेवन के योग्य शरीर बिरुद्ध भोजन के योग्य पथ्यापथ्य की सेवन त्याग विधि , सहसा पथ्या पथ्य के त्याग का फल ,, क्रमका फल अहिता हार सेवन का परित्याग दीर्घायु की विधान
आहार योजना ७१ निद्रा की आवश्यकता "! अनियमत निद्रा का फल
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अनुक्रमणिका ।
पृष्टांक
बिषय रात्रिजागणादि दिन में सोने का परिणाम निद्रा का निषेध कुसमय निद्रा का परिणाम अति निद्रा की चिकित्सा निद्रा नाशका परिणाम अर्द्ध निद्रा का विधान मंद निद्रा वालोका कर्तव्य ब्रह्मचर्य का वर्णन काम सेवा का समय अन्यथा स्त्री गमन नियमानुसार स्त्री गमन रतोद में कर्तव्य वैद्य को शरीर का स्वामित्व
अष्टमोऽध्यायः । मिताहार का विधान गुरु लघु द्रव्यों की मात्रा होनाति मात्रा का फल अति मात्रा का फल अलसक का लक्षण विशूचिका का लक्षण विशूचिका में उपद्रव अलसक दंडालसक आम बिष का लक्षण अलसक में चिकित्सा प्रपल विसूचिका में उपाय अजीर्ण वाले का उपाय औषध का समय औषध का भेद औषध की यथा योग्यता अन्य रोगों में चिकित्साक्रम अजीर्ण की व्याधियां त्रिविध अजीर्ण की चिकित्सा बिलविका रोग की उत्पत्ति रसशेषा जीर्ण के लक्षण
दृष्टांक / बिषय
| अजीर्ण के सामान्य लक्षण अजीर्ण के अन्य हेतु आमवर्द्धक अन्य द्रव्य भोजन का क्रम त्याज्य भोजन किलाटादि का निषेध सेवन योग्य द्रव्य भोजन के आदि मध्यांत में कर्तव्य भोजन का प्रमाण । भोजन के पश्चात् अनुपान अनुपान का संक्षिप्तवर्णन अनुपान का कर्म अनुपान के अयोग्य रोग पानके अयोग्य रोगी | भोजन का समय
नवमोऽध्यायः । द्रव्य की प्रधानता द्रव्य की अनेक रसत्य रसों में गुर्बादि गुण पार्थिवद्रव्य के गुण जलीय द्रव्य के गुण अग्नेयद्रव्य पवनात्मक द्रव्य अकाशात्मक द्रव्य द्रव्यों का अंधो र्ध्वगमित्व बार्य की प्रवलता चरका चार्य का मत गुर्वादिकोकोवीर्य का प्रतिपादन रसादि में अवयित्व | अन्य आचार्यों का मत
सयुक्ति कारण उभयवर्यि के लाभ विपाक का लक्षण रसों का विपाक
भिन्नभिन्नविपाकों के कर्म ४६ रसादि में उक्तर्षता ,प्रभाव का लक्षण
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अष्टांगहृदयकी
१०१
विषय प्रभाव का निदर्शन ग्रंथकार का वचन
दशमोऽध्यायः । रसादि की उत्पत्ति छारसों के लाभ मधुरस के कर्म अम्लरस के गुण लवणरस के गुण तिक्तरस के गुण कटुरस के गुण कषायरस के गुण मधुरवर्ग के द्रव्यों के नाम अम्लवर्ग के द्रव्य लवणवर्ग के नाम तिक्तवर्ग के नाम कंटुवर्ग के नाम कषायवर्ग के नाम मधुरद्रव्यों के लाभ अम्ल और लवणवर्ग तिक्तकटु वर्ग कषायवर्ग के नाम रसों में शीतोष्णवीर्यता रसों की रूक्षता रसों की स्निग्धता रसका भारीपन रसका हल्कापन रसका संयोग रससंयोग के भेद तिरेसटरस भेदों का वर्णन रसकी सूक्ष्म कल्पना
एकादशोऽध्यायः । वातादिदोषों के कर्म धातु का कर्म मलका कर्म वृद्धवायु का कर्म वृद्धपित्त का कर्भ
पृष्टांक. | विषय
पृष्टांक. ९३ वृद्धकफ का कर्म
वडेहुएरसरक्त का कार्य १०२ वृद्धमांस का कर्म वृद्धमेद का कर्म वृद्धअस्थि का कर्म बड हुई मज्जा का कर्म वडेहुएवीर्य का कर्म वडेहुएपुरीष का कर्म वडेहुए अन्नका कर्म वढेहुए पसीने अन्यमल क्षीणवातादि के लक्षण रसादि की क्षीणता मलकी क्षीणता घ्राणादिमल की क्षीणता दोषादि की सामान्य क्षयवृद्धि मलकी क्षीणता का उपद्रव दोषों का आश्रय क्षयवृद्धि का उपचार रक्तादि की चिकित्सा पुरीषादि की चिकित्सा धातु क्षयबृद्धि का कारण क्षयवृद्धि की परंपरा दोषादि विगडने का क्रम ओजका लक्षण ओज का क्षय ओज की वृद्धि वृद्धि और क्षय की सामान्यचिकित्सा १०८ वृद्धि क्षय का कारण अन्य लक्षण दोषों को समान रखना
द्वादशोऽध्यायः। वायु का स्थान पित्त का स्थान कफ का स्थान प्रोणवायु
०५ : ५०
१०६
१०७
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अनुक्रमणिका।
पृष्टांक.
हीन मात्र संशोधन
"
विषय
पृष्टांक. | विषय
नामरहित रोग उदान वायु ११०
११९
रोगों के नाम न होने का कारण , ब्यान वायु
विकारा नुसार चिकित्सा समान वायु
रोगकी दश विधि परीक्षा अपान वायु
गुरुलघु व्याधि की परीक्षा पित्त के भेद
कुवैद्य की भूल रंजकादि पित्त कफके भेदादि निरूपण
अल्प व्याधि में गुरु औषध का निषेध ,, उपसंहार
११२ अवश्य रोग नाशक औषध वायु का चय कोपशमन
दोष की वृद्धि के भेद पित्त का चय कोपादि
क्षीणदोष के गुण कफका चयकोपादि
क्षयवाद्ध और समता के भेष चयादि के लक्षण
दोष भेदों में असंख्यता दोषके संचय भादिका काल
त्रयोदशोऽध्यायः । दोष संचय का हेतु
| वायु का उपचार दोष संचयादिका अन्य कारण | पित्त का उपचार दोष की व्याप्ति और निवृति ।
कफका उपचार दोष कोप के अन्न हेतु
दोषों के उपचार की विधि १२४
अन्य उपचार रोग के अन्य हेतु
उपचार का काल
१२५ हीनमिथ्यादि योग का स्वरूप
विरोधी चिकित्सा न करने का कारण ,, कालका हीन मिथ्यादि रोग
शाखाओं में दोषों का आना जाना " कर्म का हीन मिथ्यादि रोग
कोष्ठ में दोषों का कर्म १२६ दोष का निदान
दोषों के कुपित होने का कारण वाह्यभाग में होनेवाले रोग
परस्थान गत दोष की चिकित्सा कोष्ठगत रोग
तिर्यक स्थानगत दोष मध्यमरोग मार्ग
साम तथा निराम मलके लक्षण घायु के कर्म वायु के कर्म
आम का लक्षण कफके कर्म
अन्य मत रोगी को बार बार देखने का कारण , साम का अर्थ व्याधि की उत्पत्ति का प्रकार
बाहर न निकालने योग्य सामदोष , उक्त तीनों के लक्षण
आम दोष में कर्तव्य त्रिविध व्याधि की चिकित्सा
दोषों के निकट वर्ती स्थान व्याधि के प्रकारान्तर
दोषो के रोकने का निषेध स्वतंत्रादि व्याधि के लक्षण
वर्हिगमनोन्नुख दोषों में कर्तव्य , परतंत्र व्याधियों की शमनोपाय ११९ । दोष शोधन का काल ।
"
११६
१२७
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अष्टांगहृदयकी
३
बिषय पृष्टांक. बिषय
पृष्टांक. संचय काल में दोष शाद्ध का निषेध ,, | पित्तनाशक द्रव्य शोधन का अन्य काल
कफनाशक द्रव्य अति शीतोष्ण काल में कर्तव्य
जीवनीय गण औषध का समय
विदारी गण रोग परत्व से औषधि काल
सारिवादि गण ... चतुर्दशोऽध्याय |
दुग्ध वर्धक द्रव्य दो प्रकार के उपचार
तृषादिनाशक औषध स्नेहआदि कर्म को द्विविधत्व
विषादि नाशक अपतर्पण के भेद
कफादि नाशक द्रव्य संशोधन के लक्षण और भेद
गुडूच्यादि गण शमन के लक्षण
आरग्वधादि गण वायु आदि का शमन
असनादि गण . वृहण के योग्यमनुष्य
वरणादि गण वृहण औषध
ऊषकादि गण लंघन के योग्य मनुष्य
बरितरादिगण शोधन का निरूपण
रोधादिगण वृहाय और लंघनीय १३३
अर्कादिगण हित लंधित के लक्षण
सुरसादिगण लंधित के लक्षण
| मुश्ककादिगणं लंघन वृहण की अनपेक्षित मात्रा
वत्सकादिगण अति स्थाल्यौदि का वर्णन
बचहारिद्रादिगण अति स्थौल्यादि की चिकित्सा १३४
प्रियांबादि, अयष्ठादि अन्य औषध अति लंघन से उत्पन्न रोगों का वर्णन ,
मुस्तादिगण
न्यग्रोधादिगण कृशता को श्रेष्ठत्व
एलादिगण दसरा कारण
श्यामादिगण कृश की औषध
प्रयोगबिधि मांस खाने से स्थूलता
पानादि प्रकार से रोगनाशत्व स्थूलकश की सामान्य चिकित्सा , चिकित्सा को द्विविधत्व
षोडशोऽध्यायः । पंचदशोऽध्यायः ।
स्नेह विरूक्षण का स्वरूप यमन कारक द्रव्य
१३६
स्नेहनमें घृतादि की उत्तमता वैरैचनिक द्रव्य
१३७
घृतादि को पित्तनाशकता निरूहण द्रव्य
घृतकी अपेक्षा तैलादिको गुरुत्व शिरोविरेचन द्रव्य
यमकस्नेहादिका निरूपण वातनाशक द्रव्य
।। स्नेहनयोग्यों का निरूपण
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विषय
स्नेहन के अयोग्य व्यक्ति चारों स्नेह का हितकारित्व
भिन्नभिन्नस्नेहन का काल रात्रि में स्नेहन विधि स्नेह के उपयोग की विधि
स्नेह की ६४ विचारणा
अच्छपेय स्नेह
स्नेह की त्रिविध मात्रा बुभुक्षित को स्नेहोपयोग रसादिसहस्नेह प्रयोग
स्नेहपान का फल उष्णोदकपान विधि स्नेहपानान्तर भोजनादि
सेहपान की विधि स्निग्ध के लक्षण स्नेह के अनुचित प्रयोग का फल स्नेह विधि विभ्रंश में कर्त्तव्य विरूक्षण के कृताति कृत लक्षण स्नेहन के पीछे का कर्म मांसल स्नेह योग्यों का निरूक्षण बातवद्धदि का सद्यः स्नेहकरण अनुद्वेजक योगों का वर्णन कुष्ठादि में निषेध कुष्ठादि की स्नेहन विधि बारबार स्नेह का फल
सप्तदशोऽध्यायः ।
स्वेद के चार प्रकार
तापस्वेद का लक्षण उपनाहस्वेद के लक्षण स्वेदो पायभूतचर्मपट्टादि
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अनुक्रमणिका ।
पृष्टांक, | विषय
99
13
१४५ अतिस्वेद से हानि
"3
39
स्वेदन स्तंभन औषधि स्तंभन औषधि का रस स्तंभित के लक्षण
"3
१४६ अति स्तंभित के लक्षण अस्वेद्यरोगी
33
१४७
""
33
""
१४८
१४८
१४८
33
93
33
22
१५०
""
39
""
१५१
33
53
ܕ
33
१५२
ऊष्मारव्य भद्
द्रवस्वेद अवगाहन स्वेद स्वेदविधि
33
कफरोग में स्वेद विधि आमशयादि व्याधेि में स्वेद व १५४
क्षणादि स्थान में स्वेद बोध स्वेदित पुरुषों का कर्त्तव्य
53
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""
अग्निरहित स्वेद स्वेदनका मुख्य कर्म अष्टादशोऽध्यायः ।
वमनावरेचन विधि
वमनोपयोगी रोगी अवमनीय रोगी
विष में बमन विधान
उक्तरोगियों को गंडूषादि निषेध विरेचन के अयोग्यं रोगी
विरेचन के योग्य रोगी
वमन करने की विधि
वमन करने वाले को परिचय दोषानुसार वमन विधि
वमन के हीन वेगमें कर्त्तव्य
अयोग का लक्षण
33
१५३ मित को विरेचन
सम्यक् योगा तियोग का लक्षण
सम्यक् वमन का पश्चात् कर्म मित व्यक्ति के लिये पथ्य
पृष्टांक'
कोष्ठा नुसार विरेचन क्रम
वातादि दोष में विरेचन
विरेचन होने में कर्त्तव्य अष्टकोष्ठ में कर्त्तव्य
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११
पेयादि का क्रम
पेयादि क्रम का फल
वमन विरेचनादि के वेग का नियम
वमन विरेचन का अन्त
वमन विरेचन का माप
१५४
35
""
95
१५५
33
19
12
१५६
55
93
39
१५७
""
""
१५८
35
55
१५९
33
33
१६०
33
33
33
६५
१६१
33
',
१६२
35
33
"
33
33
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१२
बिषय
विरेचन का अयोगायोग लक्षण विरेचन के अतियोग का लक्षण विरेचन के पीछे का उपचार औषधि सेवनान्तर उपनावादि संशोधन के पीछे पेयादि पेयादि कृम के अयोग्य रोगी औषधि के वचने की अनावश्यकता वमन विरेचन की विरुद्धता में कर्त्तव्य स्वतः विरेचन का उपचार दुर्बल की औषधि
दुर्बल के अल्पदोष की चिकित्सा मंदाग्नि और कूट कोष्ट का शोधन रूक्षादि का विरेचन
एकोनविंशोऽध्याय |
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नेत्र की दवाई
नेत्र की मु
नेत्र के छिद्र का प्रमाण
अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक, | विषय १६३
नेत्र काका आदिकी योजना
वस्तिके अभाव में कर्तव्य निरूहवस्ति की मात्रा अनुवासनवस्तिकी मात्रा
अनुवासन का प्रकार बस्ति प्रयोग की विधि वस्ति के पीछे की क्रिया स्नेह निवृति
स्नेह निवृति के पीछे का कर्म
93
23
अनुवासन का काल निरूह का काल निरूह की कल्पना
33
१६४ | दोष परता में स्नेह का प्रमाण
59
33
33
33
""
१६५
""
35
""
पथ्य का कारण
विष पीडित व्यक्ति का विरेचन बिरेचन का प्रकार स्नेहादि का बार बार प्रयोग
अनुवासन देने का काल
33
अनुवासित के लक्षण
शोधन औषध द्वारा मलका निकालना १६६ अनुवासन का सम्यकू योग
स्नेह स्वेद विना शोधन से हानि
23
संशोधन का फल
अनुवासन की संख्या अनुवास्तनवस्ति वाले का भोजन बातरोग में वस्ति
पित्तरोग में वस्ति
25
१६७ कफरोग में वस्ति
वस्ती के भेद
निरुण वस्ती के अयोग्य रोगी अनुवासन के योग्य रोगी
निरूह तथा अन्वासन यंत्र के लक्षण,
33
""
33
"5
""
१६९
33
१६८ | अन्य कारण
""
""
स्नेह निवृति का काल
स्नेह के न निकलने पर कर्त्तव्य
33
अन्य नियमादि
वस्ति की योजना
33
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33
सन्निपात में वस्ति चौथी बस्ति का निषेध
उपसंहार
मात्र वस्ति के लक्षणादि
55
१७१ | उत्तर वस्ति का विधान
उभयपक्ष में प्रमाणत्व
पृष्ठाक;
अन्यमत
निरूहण के पीछे का कर्म निरूह की अवधि
33
स्वयं निरूह के निकलने पर कर्त्तव्य १७४
निरूह के लक्षण और पथ्यादि
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33
उत्तर वस्ति के नेत्र का परिमाण
उत्तर वस्ति की मात्रा
उत्तर वस्ति के प्रयोग की विधि
22
१७२
.""
१७६
33
33
१७३
.""
33
"
,"
""
""
29
१७५
33
33
""
"3
""
ग्रंथकार का मत
कर्म वस्तियों की संख्या
काल वस्ति तथा योग वस्ति
55
एक प्रकारकी वस्तिओंके सेवनका योग,,
""
19
१७६
""
39
33
१७७
39
""
39
33
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अनुक्रमणिका ।
-
-
विषय.
पृष्टांक.
६
.
"
पृष्टांक. विषय. उत्तरवास्ति की संख्या
| प्रतिमर्श का काल और मात्रा १८५ स्त्रियों को उत्तर वस्ति
प्रतिमर्श का फल नेत्र का परिमाण
पय परत्व से नस्यादि का नियम उत्तरवस्ति की मात्रा
प्रतिमर्श का सदा सेवन स्त्रियों को उत्तर वस्ति की विधि प्रतिमर्श में तेल को श्रेष्ठत्व फिर वस्ति का प्रयोग
मर्श और प्रतिमर्श का भंतर वस्ति देने का नियम
अणु तैल बस्ति को प्रयोजन
नस्य सेवन के गुण वायु का प्राधान्य
एकविंशतितमोऽध्यायः । घस्ति को वायु का शमनत्व
धूमपानकी आवश्यकता वस्ति का महत्व
धूमपान के भेद विंशोऽध्यायः ।
धूम के अयोग्यरोगी नस्य साध्य विकार
धूमपान के उपद्रव और उनकी वि० १८८ नस्य के भेद
धूमपान का काल विरेचन नस्य
। धूमपान की नली का स्वरूप बृहण नस्य
धूमपान के नेत्र की लवाई शमन नस्य
धूमपानकी विधि नस्य की औषधे
धूमपान का क्रम नस्य के अन्य भेद
१८१ धूमपान का नियम अब पीड नस्य
"दिनमे धूमपान की संख्या प्रधाननस्य
मृदु का धूमपान मर्शस्नेह का परिमाण
मध्यम धूमपान के द्रव्य नीचेलिखे मनुष्यों को नस्यदेनी चाहिये ,,
तीक्ष्ण धूमपान के द्रव्य नस्य के अयोग्य रोगी
धूमवर्ति का विधान नस्य को काल और दोष
धूमपान का अन्य प्रकार ऋतु परता से नस्य काल
धूमपान का फल दोष परत्व से नस्य काल नस्य का विधि
- द्वाविंशतितमोऽध्यायः । नस्य की मात्रा
गंडूष के भेद और विधि नस्य जन्य मूर्छा का प्रतिकार दंत हर्षादि रोग में गंडूष विरेचन नस्य के पीछे के कर्म
सामान्य गंडूष नस्य के सम्यक् योग का लक्षण
ऊषादाहादिक में गंडूष नस्य का रनक्ष योग
मधु गंडूष धारण के गुण अनिस्निध्ता के लक्षण
धान्याम्ल गंडूष के गुण सुविरिक्त और दुर्विरिक्त
अलषण धान्याम्ल के गुण प्रतिमर्श का विषय
१८५ । क्षारजल के गंडुष
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अष्टांगहृदयकी
anRIA
१९९
१९३
विषय. पृष्ठांक. | विषय.
पृष्टांक. मुखोष्णोदक गंडा
क्षालन विधि गडूषधारण प्रकार
शोधन प्रकार गंड्यधारणका प्रकार
कंडू आदि में तीक्ष्ण अंजन मन्यारोगादि की बिकित्सा
चतुर्विशोऽध्यायः । प्रतिसारण के भेद
तर्पण की योजना मुखलेप के भेद और प्रयोग
मेत्र में घृत डालना
२०० मुखलेप के प्रमालादि
राध्यंध में कर्तव्य कर्मादि मुखलेप के अयोग्यरोग
अपांग देशमें द्वाकरणादि सुयोजित मुखलेप के गुण
बातादि रोगमें प्रतिदिन तर्पण ऋतुः परता से छः लेप
तर्पणं के लक्षण मुखलेप का फल सिरमे तेल के चार प्रकार
पुटपाक का विधान
वातादि में स्नेहनादि पुटपाक अभ्यांगादि का प्रयोग
स्नेहपुटपाक की कल्पना शिरोवस्ति की विधि
लेखन पुटपाक की कल्पना पीछे का कर्तव्य कर्म
प्रसादनपुट पाक की कल्पना कर्णपूरण मात्रा का प्रमाण
पुटपाक की कल्पना
१९५ मूर्द्ध तैल के गुण
पाकान्त में कर्तव्याधि त्रयोविंशोऽध्यायः ।
अंजनादि के प्रयोग की आवश्यकता , नेत्ररोग में आश्चोतन
पंचर्विशोतितमोऽध्यायः । आश्चोतन की विधि
यंत्रों का स्पष्टविवरण अन्युष्ण आश्चोतन के रोग
यंत्रों के रूप और कर्म
स्वस्तिक यंत्र युक्ति पूर्वक प्रयुक्त औषध का फल अंजन प्रयोग
कंकमुख, सिंहास्य, ऋक्षुमुख, काकमुख
तरक्षु मुख अंजन के भेद
संदंश यंत्र
२०४ अंजन की शलाका का प्रकार
मुचुंडी यंत्र ताल यंत्र अंजन की विविध कल्पना
नाड़ी यंत्र तीक्ष्णादि चूर्ण का प्रमाण
अन्य नाड़ी यंत्र राज्यादि में अंजन का निषेध
शल्य निर्धातनी नाड़ी अन्य आचार्यों का मत
शल्यदर्शनार्थ अन्य नाडी अन्य मत में दूषण
अशीयंत्राणि इसमें दृष्टांत
भगंदर यंत्र रात्रि में तीक्षणांजन का निषेध
अशांयत्र अंजन के अयोग्यव्यक्ति
| शमी यंत्र म लगाने योग्य अंजन
नासा यंत्र अंजन के पीछे का कर्तव्य " | अंगुलिमालाडक यंत्र
.
..
१९८
२०६
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OF
२१६
२१८
विषय. योनिद्रा क्षण यंत्र पडंगुल यंत्र उदकोदर में नलिका यंत्र धूमादि यंत्र शृंगी यंत्र तुवी यंत्र घंटी यंत्र इलाका यंत्र शंकुयंत्रं गर्भशंकु सर्पकण यंत्र शरपुंख यंत्र छः प्रकार की श्लाका क्षाराग्नि कर्मो पयोगी श्लाका क्षार कर्म में श्लाका मेढ़शोधन शलाका उन्नोस प्रकार के अनुयुत्र यंत्रों के कर्म कंकमुखयंत्रों को प्रधानता
षडविंशोऽध्यायः। शस्त्रों का वर्णन मंडलाग्न शस्त्र वृद्धि पत्रादि के शस्त्र सपास्यशस्त्र एषण्यादि शस्त्र कुशपत्रादि कुठारी शस्त्र शलाका शस्त्र अंगुलि शस्त्र बडिश यंत्र करपत्र शस्त्र कर्तरी शस्त्र नखशस्त्र दंतलेखनशस्त्र सूचीशस्त्र कूर्चशस्त्र खजशस्त्र
पृष्टांक. विषय.
पृष्टांक. कर्णब्यध शस्त्र
२१५ २८७ आराशस्त्र
कर्णवेधनी सूची | अलौहशस्त्र शस्त्रो का कार्य
शस्त्रों का दोष २०८ शस्त्रोके पकड़ने की विधि
शस्त्रकोश जलौका विधान सविधा जोक निर्विष जोक
त्यागनेयोग्य जोक २०९ जोकक लगाने का नियम . ..
जोकका स्वभाव जोकका वमन विधान ओकोका अनेकपात्रों में रखना अशुद्धरक्त में कर्तव्य अशुद्धरक्तका फिर निकालना अलावु और घटिका यंत्रप्रयोग शृंग का प्रयोग
प्रच्छान विधि २११ प्रच्छानादि के अन्य प्रयोग गरमजूत का सेवन
सप्तविंशोऽध्यायः । २१२ शुद्धलोहित का स्वरूप
ख़ितरधिर के विकार | सिराव्यध का निषेध
रोगविशेष शिरा विशेषका बंधन सिराव्यध के पाहिले का कर्तव्य २२१ | वेधन विधि
२२२ ब्रीहिमुख से फिर वेधना उपनाखि का सिराव्यध जिह्ववास्यसिरा का व्यध
ग्रीवास्थित सिराव्यध २१४ हाथकी सिराका वेधन
| पसली और मेढ़ाकी सिरा
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अष्टांगहृदयकी।
२२३
२३२
विषय पृष्टांक. | विषय
पृष्टांक. पाद सिराव्यध
अशय शल्यों के यंत्र
२२९ मांसलेश में ब्रीहिमुखयंत्र
अन्य यंत्रों का प्रयोग अतिविद्धिाविद्ध के लक्षण.
| शस्त्र से छेदन रक्तस्राव न होने के हेतु :, सिरादिस्थ शल्यों का निकालना , सम्यगूसम्यक स्राव हेतु
| अस्थ्यादिकेशल्योंके निकालनकीरीति २३० दूषितरक्त का स्त्राव
| फूले हुए शल्य का निकालना যুক হ্মা পাৰ
२२४ अ य रीति मृीमें यंत्रका खोलना
,विरैक चूर्षेणादि से निकालना वातादिदोष से रक्तके लक्षण " कंठ स्त्रोतो गत शल्य अशुद्धरक्त के स्रावका परिमाण , अन्य शल्य अतिस्त्रत में उपाय
*केश गच्छ से शल्य निकालना रक्तस्त्राव का पश्चात्कर्म
मुखतासिका और कंट के शल्य पुनः स्त्राव
अक्षिगत शल्य सायमें संश्यका प्रतिकार
उदर से जल निकालना शेषरक्त का उपाय
कानसे जल निकालने का उपाय रक्त न रुकने पर स्तंभनाक्रिया
कान से कीडे निकालना अन्य उपाय
लाख के शल्य का निकालाना रक्तस्राव के पीछेका कर्म
काष्ठादि शल्य का न निकालना अग्निकी रक्षाकी आवश्यकता
विषाणादि शल्य का आविलयन् रोगोंके स्वस्थानमें जानेके लक्षण २२६ मांस व गाढ का निकालना अष्टदिशोऽध्यायः ।
शल्य निकालने में शान शल्यों की पांचगति
एकोनविंशोऽध्यायः । शल्य के जानने की रीति
सूजन का उपचार त्वचा और मांसगत शल्यके लक्षण , आमशोफ का लक्षण पेशोस्नायु और लिरागतशल्य । पच्यमान शोफ का लक्षण स्रोत, धमनी ओर अस्थिगतशल्य २२७ शोफ को पक्कावस्था अस्थ्यादिगत शल्य
अनिलादि विना शूलादि असंभव शल्य का रोहिणादि
अत्यंत पाक में छिद्रादि
२३४ त्वचा नष्टशल्य का परिक्षान मांसादि नष्टशल्य का परिशान
रक्त पाक के लक्षण शल्यस्थान की सामान्य परीक्षा
सूजन में दारणादि
आमशोफ के छेदन में उपद्रव अदृष्टशल्य की आकृति
अंतस्थ शयको सिरादाहकता शल्यकर्षण के उपाय
अलमीक्षा कारी वैद्य की निंदा अनिपातनीय शल्य
शस्त्रकर्म से पूर्वकर्तव्य न निकालने योग्य शल्य
शस्त्रकर्म की विधि हस्तादि में लगेहुए शल्योंका निकालना, 'व्रण का प्रदेश
२३५
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अनुक्रमणिका।
पृष्टांक.
२४
२४७
विषय.
पृष्टांक. | विषय. वैद्य का शस्त्र कर्म में शौर्यत्व २३६
त्रिंशोऽध्यायः । तिर्यक छेदन के योग्य स्थान , क्षारकर्म को श्रेष्ठत्व
२४३ शस्त्र कर्म में रोगी को अश्वासन क्षार के उपयुक्त विषय
२४४ घाव में बत्ती का प्रवेश
क्षार का निषेध घाव के पीछे का कृत्य
क्षार की क्रिया घाव में पट्टी आदि का फल २३७ मृदुतीक्षण क्षार
२४५ ब्रण का रक्षण
। उक्त क्षारों का प्रयोग गरम जल के उपचारादि
क्षार के गुण वण में वर्ण्य कर्म
अंतरानुग व द्वार से क्षार के गुण घाव में भोजनादि
क्षार सुयोग की विधि पथ्य का हितकारत्व
क्षार के मार्जन की विधि व्रण में नव धान्यादि
૨૩૮ क्षारकर्म में भोजनादि घाव में वालोशीर व्यंजनादि
क्षार दग्धस्थान पर लेप. धाव के धोने का नियम
प्रणरोपण तिलकल्क अतिस्निग्धादि बत्तियों का निषेध , सम्यक् दग्धादि के लक्षण घाव में बत्ती लगाने का कारण २३९ अतिदग्ध गुदा के उपद्रब २४८ कच्चों में नश्तर लगाने का उपचार , क्षाराति दग्ध नाक कान चौड़े मुख वाले व्रणो का सेवन . , क्षारदग्ध में कांजी आदि की उपयोगिता... सीने के पूर्व कर्म
क्षार से अग्निकर्म को श्रेष्ठता रोगी को अश्वासन
त्वचा में अग्निदाह घाय का फिर सीमना
मांसदाह पट्टी बांधने का स्वरूपादि
सिरादाह ककादि अन्य व्याधि में बंधन
भग्निदाह के अयोग्यस्थान वंधन का प्रकार
सुदग्ध में कर्तव्य बंधनों का गाढा वा ढीला बांधना २४१
सुदग्ध के लक्षण पित्तरतोत्थ घार्यों में बंधन
दुर्दग्ध के लक्षण
प्रमाद दग्ध के चार भेद पट्टी न बांधने का फल
तुत्थ दग्ध की चिकित्सा वंधन के गुण
दुर्दग्ध की चिकित्सा पांच प्रकार के व्रण
सम्यक् दग्ध की चिकित्सा स्थिरादि प्रणों का वर्णन
अतिदग्ध की चिकित्सा न बांधने के योग्य व्रण
नेह दग्ध की चिकित्सा कृमि वाले घावों का वर्णन
सूत्रस्थान की समाप्ति कृमियों की चिकित्सा
शारीरस्थानम् । भीतर दोषवाले घाव रोपित ब्रण में वर्जितकर्म
प्रथमोऽध्यायः । वबै को उपदेश
गर्भ होने का कारण
२४३ /
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अष्टांगहृदयकी
२५६
विषय.
पृष्टांक. विषय. गर्भाशय में जीवकी वृद्धि २५२ | गर्भको अवस्था गर्भाशय में गत जीवका न दीखना २५३ पुंसवन प्रयोग सीवकी अनेक योनि में दृष्टांत
अन्य प्रयोग स्त्रीपुंसादि का जन्म
सफेदकटेरी की जड़ एक काल में अनेक गर्भ
पुत्रोत्पादन में अन्य प्रयोग विकृत गर्भ का कारण
गर्भणी का उपचार प्रतिमास में रजात्राव
२५४ गर्भणी को त्याजकर्म वीर्यवान संतानोत्पत्ति में कारण , बातलादि अहार का, निषेध ।। शुक्रार्तव संयोग में गर्भकी अनुत्पत्ति । मृदु औषधों का सेवन वातादि दोषज शुक्र का ज्ञान
गर्भके दूसरे मासके लक्षण शुक्रार्तव का साध्यासाध्य विचार २५५ त्यक्तगर्भ के लक्षण वातादिसंज्ञक शुक्रार्तव की चिकित्सा, गर्भणी के हिताहित पथ्यका विचार , कुणप की चिकित्सा
तीसरे महिने में गर्भका लक्षण....... २६३ प्रंथिसंज्ञक शुक्रकी चिकित्सा
गर्भके वढाने का प्रकार पूय शुक्र की चिकित्सा
" चौथेसे सात महिनेतक गर्भकीदशा ,, क्षीण शुक्र की चिकित्सा
गर्भणी के कंइवादि पुरीष संक्षक शुक्र की चिकित्सा ,
उक्तकाल में उपचार
२६४ ग्रंथ्यानक की चिकित्सा
अष्टममांस में तेज संचार कुषप पूय शोगित की चिकित्सा
अष्टममांस का उपचार शुद्धशुक्रावर्व के लक्षण २५७
गर्भप्रसव का काल गर्भस्थित होने के पहिले कर्तव्यता
नवममास का उपचार पुरुष का उपक्रम
पुत्रादि होने के लक्षण स्त्री का उपक्रम
नपुंसक होने के लक्षण गर्भग्रहण का काल
गर्भिणी का सूतिकाग्रह में आश्रय २६६ ऋतुकाल से पीछे योनिसंकोच
आसन्न प्रसवा के लक्षण वायुको कारणता
उपस्थितगर्भा के साथ कर्तव्य ऋतुकाल में स्त्रीका वर्तन
उक्तकर्म का फल ऋतुकाल का परिमाण
गर्भिणी का खट्वागपादि पुत्रेष्टियक्ष
गर्भसंग में धूपनादि स्त्रीका गुप्तसेवन
अनुवासनादि दंपती के पुत्रचिंतन का प्रकार
मकल्लरोग में उपाय पुत्रविधि का पश्चात्कर्म
प्रसूती का उपचार मंत्रपाठ
पेथपान की विधि मंत्र पाठान्तरकर्म
२६० विशित का अनुपयोग लघोगर्भा के लक्षण
प्रसूती का यत्नपूर्वक उपचार
२६५
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अनुक्रमणिका।
HomaadammarAmermanand
૨૮૨
"
२७४
२७५
विषय. पृष्टाक. | विषय.
पृष्टांक. उक्तविधि सेवन का काल
जीवन के दश स्थान द्वितीयोऽध्यायः । शरीर में जालादि की संख्या गर्भिणी के पुष्पर्शन में कर्तव्य २७०
अस्थियों की संख्या
२८३
धन्वंतरि और आत्रेय का मत स्त्रीकी स्नान विधि
२८४
२८५ तीनमहीनेके भीतर पुष्पदर्शन में कर्तव्य२७१स्नायु और पेशी की संख्या मर्भपात के पीछे के कर्तव्य
सिराभों का संख्या
२८६
| शास्वागतअवध्यसिराभों का वर्णन २८७ सुसाविष्टकगर्भ के लक्षण नागोदरगर्भ के लक्षण .
कोष्टगत अवेध्यसिराओं का वर्णन २८८
जत्रुसे ऊपर की सिराओं का वर्णन , उक्तगर्मों में उपचार. . लीनगर्भो की चिकित्सा
ग्रीवा की अवध्यसिरा विपरीत आचरण का फल २७३
हनुगत अवध्य सिरा
जिहा गत अवेध्य सिरा उदावर्त का उपाय
नासागत अबेध्य सिरा उदर में मृतगर्भ के लक्षण
नेत्रगत अवेध्य सिरा मृतगर्भा का उपचार
ललाट गत भवेध्य सिरा शस्त्रद्वारा मूढगर्भ का उपाय
कान की अवेध्य सिरा गर्भकी छेदन की विधि
मूर्दागत अवेध्य सिरा मूढ गर्भ की सामान्य चिकित्सा
प्रवेध्यसिराओं की संक्षिप्त वर्णन जीवित गर्भके छेदन का निषेध सिराओं से रक्तादि का वहना उपेक्षा के योग्य मूढ गर्भा
वातादि जुष्ठसिराओं का लक्षण सान के पीछे चूर्णादि का प्रयोग।
शुद्ध रक्तके लक्षण मूढगर्भा का कर्तव्य
नाभि संबंध सिराओं का वर्णन बला तेल
दृष्य अदृश्य श्रोतों का निरूपण १९१ गर्भरक्षा के सात योग
सोतों की भाकृति अष्टमादि मास में गर्भरक्षा
आहारादि से स्रोतों का दूषित होना गर्भ विषय में अशानों का मत ___, स्रोतों की दुष्टिका लक्षण
२९२ तृतीयोऽध्यायः।
स्रोतों के द्वार अंमों के भाग
स्त्रोतोंव्यधक अवगुण पंच महा भूतो के गुण
धन्वंतरि और अभेय का मत महा भूतो के देह के उत्पत्ति
ग्रहणी का वर्णन देहमें मातृज पितृज भाग २७९ पक्व अन्न के गुण
२९३ सातम्यज निरूपण
ग्रहणी और अग्नि का अयोन्य संबंध , रसज निरूपण
अग्निद्वारा अन्नपान रक्तसे सात त्वचामों की उत्पत्ति २८० शरीर में पाक का प्रकार कलाओं का वर्णन
अग्निसमीपस्थ अन्न की अवस्था. २९४ आशयों का वर्णन
२८१ / अन्य अग्नियों के कर्म
"
"
२७
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक.
२२
विषय.
पृष्टांक. विषय. मूल गुणों का पोषण
गुल्फ संध्यादि में मर्म पक्व अन्नके भेद
गंधादि के मर्मों के नाम रसादि की उत्पत्ति का क्रम २९५ हाथी के मर्म के नाम रसादि की उत्पत्ति का क्रम
स्थूलांत्र वद्ध के नाम रसादि धातुओं का किट्ट ।
बस्त्यारव्य मर्म रसादि धातुओ को द्विविधस्य
हृदय के मर्म आहार की परिणति का काल
स्त्रोतों के मर्म योग्यधातुओं की वृणति
बक्षस्थल के पार्श्व में मर्म वृश्यपदार्थो को सद्यवीर्यात्पादकता २९६ पीठ के बांसे के मर्म अहोरात्रस्वकर्म कर्तव्य ।
पीठ के बांसे के पाव में मर्म जठराग्नि द्वारा आहार की प्रेरणा कटि वा पार्श्व के मर्म दोषों का भी एक देशम प्रकोपम नितंव मर्म जठराग्नि के पालनादि कर्म
पार्श्व संधि मर्म जठराग्नि के पालनादि कर्म
बृहती मर्म जठराग्नि के चार भेद
असफल का मर्म चर्तुविधि अग्नि के लक्षण
अंस मर्म बलके भेद और लक्षण
नील और मन्या मर्म देशको त्रिविधत्व
मातृ का मर्म देह में मज्जादि का प्रमाण
कृकाटि का मर्म सात प्रकार की प्रकृति
विधुर का मर्म यातको प्रधानता वात प्रकृति के लक्षण
२९९
फण मर्म पित्त प्रकृति के लक्षण
अपांग मर्म कफ प्रकृति के लक्षण
३००
शणं मर्म द्धन्द्ध प्रकृति के लक्षण
उत्क्षेप और स्थपनी मर्म सात्वादि प्रकृति का निरूपण
शंगाटक मर्म सात्वादि प्रकृतियों का शान
सीमंत मर्म शरीर का परिमाण और लक्षण ३०२
अधिपमर्म पीठ आदि के लक्षण
मोके सामान्य लक्षण शरीरके शुभलक्षण
३०३
मांसप्रमेह से मर्मके लक्षण बल के प्रमाण का ज्ञान,
मों की अनेकता सत्वादि प्रकृति वाले को दुख सुख का. मांसगत मर्मों की संख्या अनुभव
अस्थिगत आठ मर्म शरीर का प्रधान फलदायी लक्षण ३०४ स्नायुंमों के नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
धमनीगत मर्मों के नाम मर्मों की संख्या
सिराश्रित मोके नाम विशिष्ट संशा वाले मर्म
, संधिमों के नाम
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अनुक्रमणिका ।
ra
पृष्टांक
३
बिषय
पृष्ठांक |
विषय अन्य आचार्यों के मत
३१० गंधादि विपर्यय चिन्ह मांसादि मम का व्यध लक्षण
स्वरविकृति का निरूपण अस्थिमर्म विद्ध के लक्षण
छाया का द्विरूपता स्नायुमर्म विद्ध के लक्षण
प्रतिच्छाया का वर्णन धमनीगतमर्म विद्ध के लक्षण
पंचमहाभूतों की छाया सिरामर्म विद्ध के लक्षण
प्रभाके सात भेद संधिमर्म विद्ध के लक्षण
छाया और प्रभा का अन्तर जीवित नाश में काल का नियम
छाया और प्रभाकी व्याप्ति अपस्तंभादि ममों का काल
अभ्यरिष्ट चिन्ह अंगवैकल्य कारक मर्म
ग्रीवादि में शीतल स्वेद घेदना कारक मर्म
अल्पदृष्टयादि मर्मों का यथायथ प्रमाण
स्वभाव में विपरीतिती अन्य मर्मों का प्रमाण
भक्त्यादि के निवर्तन चिन्ह मर्माभिघात में मरण विधि
कचोत्पाटनादि चिन्ह मर्मभिघात में चिकित्सा
सहसाविकार के चिन्ह अमर्मविद्धका जीवन
ज्वरविकार में चिन्ह माहत मे सावधानी
रक्तपित्त में विकृति के चिन्ह पंचमोऽध्याय ।
श्वासकास में चिन्ह मृत्यु का चिन्हरिष्ट
राज्यक्ष्मा के चिन्ह रिष्टा के लक्षण
| धमन से मृत्युका लक्षण कृष्णात्रेय का मत
तृषा से मृत्यु के चिन्ह रिष्ट के लक्षण
मदात्यय चिन्ह केशादि में रिष्टके चिन्ह
अर्श चिन्ह इन्द्रियविकृति में रिष्टचिन्ह
अतिसार के विकार ओष्टादि में रिष्ट चिन्ह
अश्मरी के चिन्ह शिर आदि में रिष्टं चिन्ह
प्रमेह चिन्ह ललाटादि में रिटचिन्ह
पिटिका चिन्ह सिरादि में रिष्टचिन्ह
गुल्म चिन्ह मूर्धादि में रिष्टचिन्ह
उदव्याधि निमित्त रिष्ट वक्षःस्थल में रिष्टचिन्ह ३१६
पांडुरोग के रिष्ट आकस्मिक रिष्टाचन्ह
शोफ के रिष्ट यूकादि के चिन्ह
ज्वरादिकों को मृत्युचिन्ह पिटकादि युक्त के चिन्हें
पादस्थ शोथ के चिन्ह विपरीत चिन्हों का वर्णनं
मुख्यादि में शेष चिन्ह अरुंधतियों का चिन्ह
,कुष्ठ में चिन्ह श्रोतेन्द्रिय में विकृतिक चिन्ह , विसर्प चिन्ह
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अष्टांगहृदयकी
३२५
३३२
विषय पृष्टांक | बिषय
पृष्टांक वायु के चिन्ह
दूतके आनेका अशुभकाल ३३१ सर्वरोग चिन्ह
दूतकी वातों के समय अशुभनिमित्त , वातादि रोगी
अन्य अशुभ निमित्त बलमांस क्षयादि
अन्य अशुभ चिन्ह बाताष्टीला के चिन्ह
पुरुषादि पंक्षियों का शुभाशुभत्व , अंगविशेष में वायु के चिन्ह
खगमृगादि का शुभाशुभत्व माझ्यादिगत वायु
| अशुभ पक्षियों का वर्णन पशुकागग्रत वायु
कोलादिकों का कर्तिन में शुभत्व ३३३ शरितिज्वर संतापादिक
इन्द्रधनुष का शुभाशुभत्व लेपज्वरादि के चिन्ह
अग्नि पूर्ण पात्रोका शुभाशुभत्व पिटिकाद्वारा मृत्युचिन्ह ३२७ ग्रहप्रवेश में शुभाशुभ निमित्त विस्फोटक चिन्ह
घेद्यको उपदेश कामलादि चिन्ह
आरोग्यता के लक्षण
स्वप्न कथनम् विवृष्टत्रण के चिन्ह
स्वप्न में मद्यपान से अशुभत्व वातजण के चिन्ह
३२७
रक्तपित्त से मृत्यु भगंदर के चिन्ह
यक्ष्मा के हेतु जानुघट्टनांदि चिन्ह
कटकादि को अशुभत्व रोगी की चेष्ठादि
नग्नता से अशुभत्व तिलव्यंगादि चिन्ह
प्रमेह से मरण उर्चश्वास के चिन्ह
उन्माद से मरण सहसाविकारादि
मृगीरोग से मरण वैद्यके चिन्ह
गर्दभादियात से मृत्यु औषधि के चिन्ह
मृत्यु को अन्य स्वप्न औषधादि का वर्ण विपर्पय
अन्य अशुभ स्वप्न मृत्यु के अन्य चिन्ह
स्वप्न में कृष्णादिस्त्रियों को देखना ३३६ आत्रेय का मत
स्वप्न भेद मृत्यु सूचक वाक्यों का निषेध
उक्तस्वप्नों का फलाफलत्व चिकित्सा के निष्फल होने में कर्तब्य ,
अशुभ स्वप्र में दानादि रिष्टज्ञानादर में हेतु
दुखस्वप्न के पीछे सुखस्वप्न
सौम्य स्वप्नो का वर्णन पुण्यादि क्षयले मरण षष्टोऽध्यायः ।
आरोग्य के लक्षण पाखंडादि भूलों की शुभाशुभ सूचना ,
शारीरस्थान की निरुक्ति निषिद्ध दूतो का वर्णन . ३३०
निदानस्थानम्। वैधके लक्षणों से मृत्युकी सूचना ,
प्रथमाऽध्यायः । देश विशेष से दूत विचार
| रोगके पर्यायवाची शब्द ३३९ रोगी के दूतकी चेष्टा
३३१ । रोगविज्ञान के पांच प्रकार
३२८
३३५
३३७
३३८
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अनुक्रमणिका।
३३१
३५३
३४२
विषय पृष्टांक बिषय
पृष्टांक निदानके पर्याय
आगंतुज ज्वर के चार भदे ३५० आग्रूप के लक्षण
अभिधातज के लक्षण रूपके लक्षण पर्यादि
३४०
अभिषगंज के लक्षण उपशय के लक्षण
ग्रहादि ज्वर में सन्निपात अनुपशय के लक्षण
३४१ / शायाभिचारज ज्वर संप्राप्ति के लक्षण
मंत्रोत्पन्न ज्वर के लक्षण संप्राप्ति के भेद
संक्षेप से ज्वर के दो भेद विकल्प लक्षण
शारीर मानस ज्वर प्राधान्य लक्षण
सौम्य और तीक्ष्ण ज्वर वलावल कथन
अंतम्वहिराथय ज्वर व्याधि का काल
प्राकृत वैकृत ज्वर के लक्षण रोगोत्पत्ति का हेतु
वर्षादि ऋतुओं में ज्वर का कारण ३५२ तीन प्रकार का आहेत सेवन
बसंत में ज्वर का कारण वायुके कोप का कारण
साध्यासाध्य ज्वर के लक्षण पित्तके कोप को कारण
:सामज्वर के लक्षण कफके कोप का कारण
पच्यमानज्वर के लक्षण
३५३ सन्निपात का कारण
३४४ निरामज्वर के लक्षण दोषों का विकारकारित्व
ज्वर के पांच भेद द्वितीयोऽध्यायः ।
संततज्वर की संप्राप्ति के लक्षण
ज्वरकी स्थिति और अवधि ज्वर का निर्देश
सतत ज्वर में दीर्घ कालकी अनुवृत्ति ,, ज्वर के भेद
३४५
विषमज्वर के सामान्य लक्षण ज्वर की संप्राप्ति
| दोषकी प्रवृति निवृति ३५५ ज्वरका पूर्वरूप
ज्वरकी रसादि में लीनता यातज ज्वर के लक्षण
उक्त विषय में युक्ति पित्तज्वर के लक्षण
३४७ विषमज्वर का स्वरूप कफज्वर के लक्षण
रक्ताश्रय दोष को सततज्वर के करस्व३५६ दोषों के सामान्य लक्षण
अन्येद्य में विषमज्वर के लक्षण सामान्य से भिन्न दो लक्षण
| ठतीयक ज्वर संसर्गज ज्वर के लक्षण
चतुर्थक ज्वरकी उत्पत्ति वात पित्तज ज्वर के लक्षण ३४८ | विषमज्वर के तीनभेद बात कफ के लक्षण
दोषों के बलाबल से ज्वर कफ पित्तज्वर के लक्षण
ज्वर मोक्षकाल का लक्षण सन्निपात ज्वर के लक्षण
विगत ज्वर के लक्षण साध्यासाध्य लक्षण
तृतीयोऽध्यायः। अन्य प्रकार का सत्रिपात ज्वर सन्निपात के भेद
रक्तपित्त के दुषित होने का कारण ३५८ शीतादि और दाहादि वर का अंतर | रक्त की विकृति
"
३५४
३५७
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अष्टांगहृदयकी
-
३६०
३६४
विषय पृष्टाक; | विषय
पृष्टांक, अधिक रक्तका कारण
यमला के लक्षण
३६६ रक्तपित्त के पूर्वरूप
महा हिध्मा के लक्षण रक्तपित्त के तीन भेद
गंभीरा के लक्षण ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त के कर्तव्य ३५९ | हिचकियों में साध्या साध्यत्व अधोगामी रक्तपित्त को याप्यत्व
उक्तरोगों में चिकित्सा कर्त्तव्य ३६७ उभयगामी रक्तपित्त को असाध्यत्व
पञ्चमोऽध्यायः ।। उक्त कथन का कारण
राज यक्ष्मा के चार नाम रक्तपित्त में संशमन का अभाव
राजयक्ष्मादि संज्ञाओं का कारण दोषानुगमन के लक्षण
राजयक्ष्मा के हेतु कास को आशुकारित्व
उक्तचार हेतुओं में वायु का प्रधानता , खांसी के पांच भेद
राजयक्ष्मा का पूर्व रूप खांसी को क्षयोत्पादक
राजयक्ष्मा के ग्यारहरूप कास का पूर्णरूप
पीनसादि के सात उपद्रव ३६९ कास रोग की संप्राप्ति
बातादि के लक्षण खांसी में अनेक शब्द
धातु क्षय में युक्ति वात कास का निदान
यक्ष्मा रोगी का पुरोषाधार जीवन ३७० पित्त कास का निरूपण
यक्ष्मा का साध्या साध्य विचार कफ की खांसी का निरूपण
स्वरभेद के छः प्रकार क्षतकास का निदानादि क्षतकास का लक्षण
पातस्वर भेद के लक्षण अन्य खांसीयों का साध्यासाध्य
पित्तजस्वर भेद कास रोग में शीघ्रता
कफजस्वर भेद
त्रिदोषजस्वर भेद चतुथोऽध्यायः।
क्षयजस्वर भेद . श्वास के निदानादि
मेदोजस्वर भेद पंचविधि श्वास की संप्राप्ति
स्वर भेद में साध्या साध्यत्व श्वास का पूर्व रूप
३६५ अरुषि की उत्पति क्षुद्र श्वास के लक्षण
बातजादि अरोचक के लक्षण तमक श्वास के लक्षण
छर्दिका निदान प्रतमक श्वास के लक्षण
छार्दका पूर्वरूप छिन्न श्वास के लक्षण
बातज बमन महा श्वास के लक्षण
पित्तज बमन उर्व श्वास के लक्षण
कफज बमन श्वास का साध्यासाध्यत्व
सनिपातज वमन हिमा का स्वरूप
द्विष्टार्थ योगज वमन भक्तोद्भया के लक्षण
कृम्यादिजन्य छर्दि का प्रकरण क्षुद्दा के लक्षण
३६६ / हृद्रोग लक्षण
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अनुक्रमणिका ।
बिषय
३७९
३८०
पृष्टांक. | बिषय
पृष्टांक. यातज हृद्रोग लक्षण ३७२ | ध्वंसक के लक्षण
- ३७८ पित्तज हृद्रोग के लक्षण ३७३ | विक्षय के लक्षण कफज हृद्रोग
मद्यपान न करने का फल त्रिदोषज हृद्रोग
| तीन प्रकार के रोग कृमिज हृद्रोग
मद के भेद तृषा रोग का निरूपण
वातज मद तृषा की उत्पत्ति
पित्तज मद तृषा का सामान्य लक्षण
कफज मद वातज तृषा का लक्षण
सन्निपातज मदवा, पित्तज तृषा
रक्तज मद कफज तृषा
मद्यजमद त्रिदोषज तृषा
विषज मद बात पित्तज सृषा
रक्तादि में वातादि की पहिचान पित्तजा तृषा
वातज मूछी का लक्षण कफजा तृषा
३७५
पित्तज मूी का लक्षण क्षयजा तृषा
कफज पूर्छा के लक्षण उपसर्गजा तृषा
सनिपात से निश्चेष्टता षष्टोऽध्याय:।
सन्यास के लक्षण मदात्यय का निदान
सानिपातक सन्यास मध के गुण
शीघ्र चिकित्सा से जीवन घेतोविकार का प्रकार
मद्य से मद्य का उपसंहार ३८१ मद की निंदनीय अवस्था
अन्य युक्ति उक्त अवस्था में दुर्गति
सप्तमोऽध्याय : । मदकी तीसरी अवस्था
| भर्श का नाम निर्वचन मद्य से धर्मा धर्म का अन्नान
अर्श के दो भेद अति मद्यपान का फल
गुदा की अवलियों का वर्णन मद्य से त्रिवर्ग का नाश ३७७ उक्त कथन में हेतु मद्य का पेयत्व
अर्श लक्षादि गुण उक्त लक्षणों से विपरीत का फल , उत्तरजात अर्श के भेद चार प्रकार के मदात्यय
अर्श की उत्पत्ति मदात्यय के सामान्य लक्षण
अर्श का पूर्वरूप
३८३ पातिक मदात्यय
३७८ मर्श रोगी का रक्षण पैत्तिक मदात्यय
वातार्श के लक्षण श्लैस्मिक मदात्यय
पित्तज अर्श के लक्षण त्रिदोषज मदात्यय
| कफज अर्श के लक्षण वंसक विक्षय व्याधि
(खपृष्ट और निचय अर्श
३८६
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२६
बेषय रक्तज अर्श
मुद्रादि सेवन से वातादि का प्रकोप
अर्श का साध्या अध्यत्व कृच्छसाध्य अर्श सुखसाध्य अर्श द्रादि जन्य अर्श के लक्षण
नाभिज अर्श
चर्मकील के लक्षण वातजादि चर्मकील अर्श में उपाय
अष्टमोऽध्याय: ।
अतिसार के छः भेद अतिसार की उत्पत्ति अतिसार का पूर्वरूप वातज अतिसार के लक्षण
पित्तातिसार के लक्षण कफातिसार के लक्षण सान्निपातिक अतिसार भयज और शोकज अतिसार अतिसार के दो भेद साम के लक्षण रामातिसार
ग्रहणीरोग के लक्षण अतिसार और ग्रहणी में अंतर
ग्रहणदोष का स्वरूप ग्रहणी के भेद ग्रहणी का पूर्वरूप
ग्रहणी का सामान्य लक्षण
बातज ग्रहणी पित्तज ग्रहणी
कफज ग्रहणी
सान्निपातज ग्रहणी ग्रहणी में अग्निको हेतुत्व ग्रहणी के महारोग
नवमोऽध्यायः ।
काश्रित में शराबयव
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक | विषय
३८६ मुनाघात की उत्पत्ति बातज मूत्रकृच्छ्र के लक्षण पित्तज मूत्राघात
33
३८७
33
23
33
23
""
33
33
૧૮૮
"3
33
33
३८९
93
33
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33
""
"2
33
३९०
"3
33
"3
32
33
"
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कफज मूत्राघात त्रिदोषज मूत्राघात
अश्मरी के लक्षण
अश्मरी का पूर्वरूप
अश्मरी के सामान्य लक्षण वातअश्मरी के लक्षण
53
शुक्राश्मरी की उत्पत्ति शर्करा का लक्षण बातवस्ति का लक्षण
बाताष्ठीला का लक्षण बातकुंडलिका का लक्षण
मूत्रातीत के लक्षण
मुत्रजठ का स्वरूप
मूत्रोत्सर्ग का स्वरूप मूत्रथि का स्वरूप विड़विघात का लक्षण
ऊष्णवात का लक्षण मूत्रक्षय का स्वरूप
मूत्रसाद का स्वरूप
अध्याय का उपसंहार
33
३९१ कफ से प्रमेोत्पा
पित्त से प्रमेोत्पत्ति
बात से प्रमेहोत्पत्ति
प्रमेह का साध्यासाध्य बिभाग
प्रमेह के भेद
प्रमेह की उत्पत्ति
दशमोऽध्यायः ।
प्रमेह के सामान्य लक्षण प्रमेह के भेदों की कल्पना ३९२ | उदकमेह के लक्षण
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पृष्ठांक
३९२
33
पित्तज अश्मरी कफाश्मरी के लक्षण
"3
उक्तअश्मरियों की बालकों में उत्पत्ति ३९४
19
32
33
35
३९३
33
"2
33
33
33
37
३९५
53
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33
73
३९६
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३९७
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23
33
"3
३९८
"3
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अनुक्रमणिका ।
२७
विषय
पृष्टांक'
इक्षुमेह के लक्षण सांद्रमेह के लक्षण सुरामेह के लक्षण पिष्टमेह के लक्षण शुक्रमेह के लक्षण सिकतामेह के लक्षण शीतमेह के लक्षण शर्नेमेही के लक्षण लालामह के लक्षण क्षारमेह के लक्षण नीलमेह के लक्षण कालमेह के लक्षण हरिद्रामह के लक्षण मांजिष्ठामेह के लक्षण रक्तमेह के लक्षण वासामेह के लक्षण मज्जामेह के लक्षण हस्तिमेह के लक्षण मधुमेह का वर्णन मधुमेहका कष्ट साध्यत्व सबको मधुमेहत्व कफजमेह का उपद्रव पित्तजप्रमेह का उपद्रव पातिक मेह के उपद्रय प्रमेह पिटिकाओं के नाम शराविका के लक्षण कच्छपिका के लक्षण जालिनी के लक्षण विनता के लक्षण अलजी के लक्षण मसूरिका के लक्षण सपा के लक्षण पुत्रणी के लक्षण विदारिका के लक्षण विद्रधि के लक्षण पिटकाओं का साध्यासाध्यत्व प्रमेहं से पिटिकाओं में दोषोद्रेक
पृष्टांक, विषय
३९८ प्रमेह से पिटिकाओ की उत्पत्ति ४०२ ३९९ रक्त पित्त में हरिद्रण : प्रमेह का पूर्वरूप
४०३ प्रमेह में द्विविध विचार मे प्रेहों का साध्यासाध्यत्व
एकादशोऽध्यायः । बिद्रधि के छः भेद छः प्रकार की विद्रधि के दो भेद विद्रधि के स्थान पातज विद्रधि के लक्षण पित्तज विद्रधि के लक्षण कफज विद्रधि के लक्षण त्रिदोषज्ञ विद्रधि वाप्तयांना विद्रधि का विभाग रक्तज विद्रधि के लक्षण क्षतज विद्रधि के लक्षण विद्रधियों में उपद्गव विशेष विद्रधि को शोफतुल्यता उत्पत्तिस्थान भेद से विद्रधि विद्रधि में व्रण के समान दोषोंद्रेक , विद्रधि का साध्यासाध्य विभाग , स्त्रियोंकी स्तन विद्रधि | बृद्धिराग का वर्णन वृद्धि रोग की संख्या वातज वृद्धि के लक्षण पित्तज वृद्धि कफज वृद्धि रक्ता वृद्धि मेदोज वृद्धि मूत्रज वृद्धि अत्रज वृद्धि गुल्म के लक्षण और भेद गुल्म निदान
बात गुल्म के लक्षण , । वातगुल्म के उपद्रव
४०९
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(२८)
अष्टांगहृदयकी।
पृष्टांक.
४२०
विषय
पृष्टांक. | विषय पित्त गुल्म के लक्षण
४०९
त्रयोदशोऽध्यायः। कफजगुल्म के लक्षण
४१० पांडुरोग के लक्षण गुल्म को रुककरत्व
पांडुरोग के भेद द्वंद्वज गुल्म
पांडुरोगके पूर्वरूप त्रिदोषज गुल्म
वातज पांडुरोग का लक्षण रक्तज गुला की उत्पत्ति
पित्तज पांडुरोग रक्त गुल्म के उपद्रव
कफाज पांडुरोग रक गुल्म में विलक्षणता ४११ सानिपातज पांडुरोग गुल्म और विद्रधि का भेद
पांडुरोग के कारणादि आनाह के लक्षण
कामला की उत्पत्ति अष्ठीला और प्रत्यष्ठीला
कुंभ कामला तूनी प्रतूनी के लक्षण
हलीमक के लक्षण गुल्म के पूर्व रूप
शोफ का वर्णन द्वादशोऽध्याय ।
सूजन की उत्पत्ति
सूजन के नौ भेद उदर की उत्पत्ति
सूजन को द्विविधत्व उदर रोग की संप्राप्ति
शोफ का सामान्य हेतु उदर रोग के आठ भेद
स्थान विशेष में शोफोत्पत्ति उदर रोग पीडित के लक्षण
शोफ का पूर्वरूप उदर रोग का पूर्व रूप
वातज शोफ अतोय उदर के लक्षण
पित्तज शोफ वातोदर के लक्षण
४१४ कफज शोफ पित्तोदर लक्षण
द्वंद्वज शोफ कफोदर का लक्षण
सान्निपातज शोफ त्रिदोषज उदर रोग
अभिघातज शोफ प्लीहोदर के लक्षण
विषज शोफ प्लीहोदर में वातादि
शोफ को साध्या साध्यत्व यकृति के लक्षण
विसर्प का निदाग
विसर्प का अधिष्ठान वद्धोदर के लक्षण छिद्रोदर के लक्षण
विसर्प में दोषों का विसर्पण दकोदर के लक्षण
अतंराश्रित विसर्प उदर रोग में जलकी उत्पत्ति
वातज विसर्प उदर रोगमैं कृच्छसाध्यासाध्यत्व
पित्तज विसर्प वक्षतोदर का मारकत्व
कफज विसर्प सर्बजात सलिलस्यमारफत्व
बिसर्प की उपेक्षा का फल जन्मसे उदर रोग को कृच्छता , द्वंद्वज विसर्प के लक्षण
४२२
४२४
४१७
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अनुक्रमणिका । .
-
-
-
-
४३२
विषय. पृष्टांक. | विषय.
पृष्ठांक. ग्रंथिविसर्प के लक्षण ४२६ | कृच्छ्रसाध्य श्वित्रके लक्षण कदम विसर्प
श्वित्रका साध्यासाध्यत्व सनिपातज विसर्प
सवरोगों को संचारित्व विसर्प के कारण
कृमियोंके दो भेद विसपों का साध्यासाध्य विचार , जन्म से कीडोके चारभेद चतुर्दशोऽध्यायः ।
वाहकीडों का वर्णन कुष्ठकी उत्पत्ति
४२७ आभ्यंतर कृमि कुष्ठनाम का कारण
पुरीषज कृमि कुष्ठ के भेद
कफजकृमियों का निरूपण दोषानुसार कुष्ठके नाम
रक्तज कृमि कोष्ठ का पूर्वरूप
४२८
पिडभेदादि पांच प्रकार के कृमि कापालकुष्ठ के लक्षण
पंचदशोऽध्यायः । उदुंवर के लक्षण
| अर्थार्थ में वायुका हेतुत्व मंडल के लक्षण
पाचुके हेतुरूप होने में कारण बिचार्चकाके लक्षण
वातका कर्म ऋक्षजिहब के लक्षण
वायुका फोप चर्मकुष्ट के लक्षण
बातव्याधि को कष्टसाध्यता एककुष्ठ के लक्षण
आमाशय के उपद्रव किटिभ के लक्षण
श्रोत्रादि और त्वचा के उपद्रव सिध्म कुष्ठ
रक्त के उपद्रव
४३६ अलसक के लक्षण
मांसदोगतवायु के उपद्रव विपादिकां के लक्षण
अस्थिगत वायु दद्रुके लक्षण
मज्जागत वायु शतारन के लक्षण
शुक्रागत वायु पुंडरीक के लक्षण
| सिरागत वायु विस्फोटक के लक्षण
स्नायुगत वायु पामा के लक्षण
| संधिगत वायु चर्मदल के लक्षण
सवागगत वायु काकण के लक्षल
धमनीगत वायु कुष्ठमें दोषोंकी अधिकता
अपतंत्रक वायु कुष्ठविशेष में चिकित्सा त्याग
अपतानक की उत्पत्ति कुष्ठमें साध्यासाध्य विचार __, अंतरायाम के लक्षण त्वचादिगत के लक्षण
वहिरायाम के लक्षण रकादि में यथापूर्व लक्षण
व्रणायाम के लक्षण श्वित्रकुष्ठ का निरूपण ४३२ गतबेग में स्वस्थता वातजादिशुक्र के लक्षण
.., । हनुांस के लक्षण
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३०
विषय. जिवास्तंभ के लक्षण अर्दित के लक्षण सिरामह के लक्षण
एकांग रोग का लक्षण
सर्वांग रोग का लक्षण पक्षाघात् असाधत्व दंडक का लक्षण अववाहुक का लक्षण
विश्वाचक के लक्षण
खंज और पंगु कड़ाय खंज
उस्तंभ का निदान कोशीर्षक का निदान arre का निदान सी का निदान
खल्लीवात का निदान
पादहर्श का निदान पाददाह का निदान
षोडशोऽध्यायः ।
वातरक्त का निदान
वातरक्त का लक्षण
वातरक्त का सब देह में फैलना
यातरक्त के दो भेद उत्तान के लक्षण गंभीर के लक्षण वाताधिक वातरक्त रक्ताधिक्य वातरक पित्तानुविद्ध बातरक्त कफानुविद्ध वातरक्त
द्वंदज वातरक्त
वातरक्त का साध्यत्व
वातरक्त को मारकत्व प्राणवायु का कर्म उदान वायुका कर्म
व्यानवायु का कर्म समान वायुके कर्म
अपानवायु के कर्म सामनिरास वायु का लक्षण
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक. | विषय.
४३८ वायुके अवरण का वर्णन पित्तावरण के लक्षण
"
४३९ कफावृत वायु
रक्तावृत वायु
22
"
25
59
૪૩૦
"
,
"
33
39
४४१
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33
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39
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४४३
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23
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33
"
૪૩
22
33
Je
"
"3
मांसावृत वागु मेदसावृत वायु
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अस्थ्यावृत वायु
मज्जावृत वायु
शुकावृत वायु
अन्नावृत वायु
सूत्रावृत वायु
पुरीषावृत वायु सर्वधात्वा वृत वायु
पित्तावृत उदान वायु पित्तावृत पान वायु
पित्तावृत समान वायु
पित्तावृत अपान वायु
कफावृत प्राण वायु
कफावृत उदान वायु
कफावृत समान वायु
प्राणादि वायुका परस्पर आवरण
आवरण के चिन्ह
उदानावृत प्राणके लक्षण आवरण का दिग्दर्शन प्रणादि वायु का जिवित्व
आवरणों को कष्ट साध्यत्व
आवरणों से विद्रधि की उत्पत्ति
चिकित्सितस्थानम् ।
प्रथमोऽध्यायः ।
ज्वरादिमैं लंघन वलकी रक्षा के हेतु लंघन के गुण
सामज्वर में वमन
वमनकारक द्रव्य
वमन में विशोषण ज्वरी को उपवास
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पष्टांक
35
४४५
99
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४४८
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13
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अनुक्रमणिका।
तज्वर में औषध
४६०
विषय. पृष्टांक. | विषय.
पृष्टांक. बात कफ जबर में ऊष्ण जल पान ४५० | वात पित्तज्वर में औषध
४५८ पित्तज्वर में ऊष्ण जल का निषेध ४५१ | ज्वर औरं दाह की आध उद्रिक्त पित्त में शीतल जल
कफवात में औषध ज्वर में पित्त विरुद्ध का त्याग , अन्य प्रयोग ज्वर में स्नानादि का निषेध
अन्य प्रयोग सामज्वर में शूलधन औषधि का निषेध- कफ पित्तज्वर में औषध
| सन्निपातज ज्वर की चिकित्सा उरर्दादि ज्वर में स्वेद
| वात कफाधिक्य ज्वर में चिकित्सा , स्नेह विधि पालन
सर्व ज्वर पर कपाय
अन्य कषाय मलों के पाचक द्रव्य ज्वर में लंघन का अपवाद
जीर्ण औषध में कर्तव्य अवलंधित और लंधित की पहचान ४५३
तंत्रकार का मत ज्वर रोगी का पेया द्वारा उपचार ,
ज्वर में रक्तादि चांवल पेयाका उपक्रम
कफाधिक्य ज्वर में पथ्य अन्यरोगों में पेया
ज्वर को ओदन विधि हिमादि में पेयापान
ज्वर नाशक यूष विवद्ध कोष्ट में पेया
ज्वर में हितकारी रस परिकीर्तन कोष्ठ में पेया
अवस्था विशेष में सितामधुयुक्त रस , रसादि करण विधि
रुचिकर व्यंजन
४६१ विशेष स्थल में पेया निधेष
ज्वर में अनुपान मद्यध्मावादि में कर्तव्य
ज्वर में भोजनकाल उक्त तर्पण के जीर्णहोने पर कर्तव्य
यथोचित काल में भोजन
४६१
वृतपान का काल छः दिन की विधि
जीर्ण ज्वर को अनुवृत्ति कषाय का प्रयोग
जीर्ण ज्वर में घृतपान पित्तज्वर में तिक्त कषाय
वात पित्तोत्तर जीर्ण ज्वर में घृत तरुण ज्वर में कषाय निषेध
ज्यरोप्मा में घृत औषध के प्रयोग में मतभेद औषध देने में कारण
मलानुसार सघृत कषाय का प्रयोग ,
अन्य काथ औषध के प्रयोग का काल
अन्य प्रयोग औषध विधि
वातज पित्तज ज्वर में घत ४६३ उक्त कषायों का यथायोग प्रयोग संततादि ज्वर की चिकित्सा
कफज्वर में घत वातज ज्वर में औषध
जीर्णज्वर नाशक पांचस्नेह पित्तज्वर में कपाय
परिणत रसमें घत भोजन कफज्वर में औषध
४५८ যার জাহাজ घात कफज्वर में औषध
। शमनाभाष में समन
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३२
विषय. त्रिफलादि द्वारा विरेचन के साथ त्रिफला
कादि का संसर्गी कर्त्तव्य
ज्वरोहिष्ट मलकी उपेक्षा आम संग्रह का निषेध
आमज्वर में आम हरण का निषेध ज्वर क्षीण में कर्तव्य
क्षणचित को क्षीर
देह धारण मैं दूध को उत्कृष्ठता
संस्कृत दूध का ग्रहण शुठ्यादि द्वारा संस्कृत दूध
द्राक्षादि संस्कृत दूध पंचमूल संस्कृत दूध एरंड सिद्ध दूध शोफ पर शुठयादि दुग्ध
अन्य दुग्ध पक्वाशय गत दोष में निरूह
विरेचनादि प्रयोग
अनुवासन का प्रयोग ज्वर नाशक वस्ति अन्य वस्त
ज्वर में अनुवासन अन्य वस्त
विरेचन नस्य धूमादि प्रयोग
अरुविनाशक द्रव्य
स्वगाश्रित जोर्ग ज्वर में कर्तव्य शह में अभ्यंग
दाह ज्वर में तैल विशेष
उक्त तैलका मस्तक पर लेफ अवगाहन विधि
दाहनाशक औषध
दाह ज्वर की औषध.
तैल से अभ्यंजन
पूर्वोक्त द्रव्यों का लेप
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक. ४६४
"
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४६५
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93
3)
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""
"
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६६७ | महोत्थज्वर में कर्त्तव्य
95
""
४६९
"7
विषय. स्वेदारि विधि
सन्निपात की चिकित्सा
सन्निपात के अंत में कर्णमूल
">
करीमूल की चिकित्सा
कर्णमूल में सिरामोक्षण विषमज्वर में उक्त विधि
विषमज्वर नाशक क्वाथादि
विषमज्वर में अन्य विधि
वषमज्वर में अन्य प्रयोग विषमज्वर में त्रिफलादि घत
८.
faपमज्वर में अन्य उपाय
घत स वमन
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C
अन्य उपाय
"3
४६८ वासादि के कोप के अनुसार
विषमज्वर में अंजन विषमज्वर में नस्य
विषमज्वर में धूप
अन्य धूप
देवाय औषध
विषमज्वर में सिराव्यध
बाराजादि ज्वर में सर्पिप्पान
औषधी व
क्रोधादि ज्वर का उपाय
क्रोधज ज्वर
शायज ज्वर
ज्वर रोग में अहारादि की कल्पना
ज्वर के काल की स्मृति का नाश करुणाई मन को ज्वर नाशकता
पृष्टांक.
४६९
४७०
द्वितीयोऽध्यायः ॥
ऊर्ध्वगामी रक्त पित्त का उपचार
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#3
35
33
"
99
५
39
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""
5,
""
""
"
४७३
77
"
23
"
22
ર
33
29
31
ज्वर में व्यायामादि का त्याग
22
ज्वर मुक्त को सर्व अन्न का ४७४
ज्वरी को उचित औषध
औषधों को ज्वरघ्नत्व
33
"
22
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अनुक्रमणिका।
३३
पृष्टांक.
४७६
४८२
४८३
विषय.
पृष्टांक. | विषय. अधोगामी रक्त पित्त का यापान , गुदागामी रक्त में पस्ति रक्त पित्त में चिकित्सा का विचार ४७५ नासागामी रक्त मे नस्य रक्त पित्तज विरेचनादि
अन्य औषध ऊर्ध्वगामी रक्त पित्त में रसादि
साधारण उपाय अधोगामी में वृंहण
तृतीयोऽध्यायः । उर्ध्वगामी में तर्पणादि
कासस्नेहादि उपचार अशुद्ध रक्तके धारण में निषेध । स्नेहो का वर्णन रक्त पित्त में अवलेह
अन्य धृत अन्य औषध
अन्य घृत अधोगामी रक्त पित्त की चिकित्सा ,, कास पर विदार्यादि घत शुद्ध होने के पीछे की विधि
कास पर अवलेह मंथ वनाने की विधि
विडंगादि चूर्ण पेया की विधि
४७७ | घातम कास में दुरालभादिलेह मांस के सिद्ध करने की रीति
उक्त रोग पर दुःर्पशादि चूर्ण रक्त पित्त में शूक शिवी धान्यादि
अन्अ चूर्ण पानी का प्रकार
अन्य उपाय शशादि का मांस
कास पर धूम पान रक्त पित्त में वर्जित
४७८ कास में आहार अन्य उपाय
बातज कास में पेया रक्त पित्त में तीन क्वाथ
अन्य पेया ढाक की छाल का काढा
| मांसयुक्त पेया अथित रक्त पित्त में अवलेह
बातज खांसी में वास्तुकादि अतिस्त्रावी रक्त पित्त की चिकित्सा पित्तकास में बमन रक्त पित्त माशक कषाय ४७९ पित्तकास में निसोथ रस्क की अति प्रवृति का उपाय
हृतदोष में पेयादि क्रम इक्षुजल
पित्तकास में अवलेह अन्य कषाय
अन्य अवलेहं छांगादि पय
अन्य उपाय मुत्रमार्ग गामी रक्त की चिकित्सा कफान्वित वित्त में शाल्यादि पुरीष मार्ग गामी रक्त का उपाय ४८० पित्तकास में काकोल्यादि अन्य चिकित्सा
अन्य चिकित्सा कषाय पानांतर भोजन
शठ्यादिरस अन्य धूत
पित्तकास में अवलेह रक्त पित्त पर अन्य घृत
कफकास की चिकित्सा रक्त विशेष में उपाय
अन्य उपाय अन्य अवलेह
कफकास नाशक तीन प्रयोग
"
४८६
४८७
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अष्टांगहृदयकी।
-
-
विषय.
पृष्ठाक.
+ + + + +
४९५
+ +
४९७
पृष्टांक. | विषय. अन्य प्रयोग
४८७ श्वदृष्टादि घृत देवदादिक तीन अवलेह
रक्त गुल्मादि समसक्त दाडमादि चूर्ण
यक्ष्मादि नाशक घत गुडादि चूर्ण
पित्ताधिक में अवलेह पथ्यादि पाचन
| वीर्यवर्धक चूर्ण दीप्याकादि क्वाथ
कूस्मांडाख्य रसायन अन्य प्रकार
नागवलादि कल्प अन्य उपाय अन्य प्रयोग
नागयला घत विडंगादि घृत
दीप्तन्यादि में कर्तव्य पुनर्नवादि घृत
अगस्ति विहित रसायन कंटकारी घृत
वाशिष्ठोक रसायन दुर्नामादिजित् अवलेह
सैंधवादि चूर्ण कफकासादि धूमपान
खांडव धूमपान की विधि
क्षत में अन्य कर्तव्य तमक की चिकित्सा
धूम पान का विधान वात कफकी खांसी में कर्त्तव्य
धूम वर्ति अन्य उपाय
| धूमपान की अन्य विधि उरक्षित चिकित्सा
अन्य विधि पाश्र्थादि वेदना में कर्तव्य
क्षयजादि कास में कर्त्तव्य उररक्षत में दूध विशेष
विरेचन बिध ज्वरदाह में पान
धातुक्षय में धूत कास में सर्पिशपान
मूत्रोपद्रव में चिकित्सा पर्वास्थिशूल युक्त खांसी
कासरोग में अनुवासन पौष्टिक गुटका
कासरोग में मांसादि सेवन रक्त निष्ठीवन में सांठ का चूर्ण
अन्य कास नाशक घृत मुखादि विनतरक्त में उपाय
कासमर्दादि घृत मुढ वात में कर्तव्य क्षामादि में चिकित्सा
रसकल्पादि घृत अन्य अवलेह
क्षयकास पर चव्यादि घृत मांसादि वर्द्धन औषध
श्वास कास पर विशेष स्नेह
अन्य प्रयोग क्षतोरास्कादि में घृत विशेष
अन्य प्रयोग अभ्यांगादि
४९२ अन्य प्रयोग जीवनीय घृत
क्षय खोसियो पर मूंगका यूष क्षतकास में घूत विशेष
अन्य यूष थसूत प्राश अवलेह
" क्षयकासे मैं सानुपान धृमादि
४९८
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अनुक्रमणिका।
,
५०२
५०९
विषय पृष्टांक. | विषय.
पृष्टांक. सान्निपातक कास
५०१ / उक्त रोगों के शमन में हेतु चतुर्थोऽध्यायः ।
उक्त रोगों में परस्पर उपचार श्वास और हिध्मा की समानता ,
पंचमोऽध्यायः । श्वास और हिचकी में स्वेदन
| यक्ष्मा में शोधन कर्म स्वेदन के पीछे आहारादि
वमनविधि कफनिकलने पर सुख प्राप्ति
राजयक्ष्मा में विरेचन अन्य उपाय
| वृहणदीपनावीधे उक्त उपाय का फल
राजयक्ष्मा में मांस सेवन उपरोक्त हेतुमे दृष्टांत
पित्त कफादि में हित द्रव्य धूमपान की विधि
पीनसादि में बकरे का मांसरस स्वेदन योग्यों का स्वेदन
स्रोत शोधनार्थ जीर्ण मद्यपान उद्धत वायु में कर्तव्य
राजयक्ष्मा पर घत उक्तरोगो में कषाय
राजयक्ष्मा पर अन्यघत उक्तदशा में कर्तव्य मधुरादि द्रव्य का प्रयोग
अन्यघत उक्तरोगों पर मांस यूष
अन्यघृत उक्तरोगों में पेया
अन्यघत कषाय और पेया
गुल्मादि रोगपर घत अन्य औषध
शोषरोग पर घृत उक्त रोगों पर सत्त उक्त औषध पर आहार
अश्वगंधादि घृत उक्त रोगों पर पेयद्रव्य
मांसघृत
रासायनिक घृत उक्त रोगों पर तक
अन्य कर्तव्य अन्य पेय औषध
त्वगेलादि चूर्ण अन्य पेय द्रव्य
अन्य प्रयोग अन्य उपाय
स्वरसाह में चिकित्सा अन्य उपाय
क्षयीरोग वा बद्रीपत्र जीवप्यादि चूर्ण
नस्यविधि शुठ्यादि चूर्ण
उक्तरोग पर अनुपान अन्य चूर्ण और नस्य
पित्तोद्भवस्वरक्षय की चिकित्सा लशुनादि नस्य
वलादिसिद्ध सर्पि उक्त रोगों पर धत विशेष
पित्तजस्वरसादि में नस्यादि अन्य उपाय
५०७ कफजस्वरभेद में चिकित्सा अन्य घृत
अन्य उपाय अन्य उपाय
| उच्चभाषण से अभिहतस्वर हिचकी श्वासकी सामान्य चिकित्सा , | अरोचक में उपाय
" | अन्य
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक.
५२०
५१५
विषय. अरुचि में अन्य उपाय अन्य उपायं बातजअरोचक में चिकित्सा पैत्तिकअरोचक में उपाय कफजअरोचक में उपाय अन्य चूर्ण अन्य चूर्ण तालीसपत्रादि चूर्ण वमन में लंघनादि वमनरोग में विरेचनविधि वमनरोग में पथ्यविधि वातजवमन का उपचार नस्यादि का प्रयोग रक्त मोक्षण राजयक्ष्मा में प्रदेह राजरोग में अभ्यांगादि अन्य उपाय राजयक्ष्मी में पुरीष की रक्षा यक्ष्मा का अनावकाश मद्यपानादि का विधान स्नानादि का नियम पौष्टिक उबटना स्नानादि की उत्कृष्टता
षष्ठोऽध्यायः । वमन में लघंनादि बमनरोग में विरेचन बिधि वमन रोगमै पथ्य बिधि धातज वमन का उपचार पित्तज वमन का उपचार अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग कफज बमन का उपचार द्विष्टार्थ वमन का शमन कृमिज वमन छर्दि में स्तम्भन वृहण वातज हृद्रोग में तैलपान
पृष्टांक.| विषय ".५१३ | सैंधवादि युक्त तैल
अन्य तैल ५१४
शुठियादि घृत सौवर्चलादि घृत पंचकोलादि घृत वातज हृद्रोग में स्वेदादि पंचमूलादि साधित जल वातज हृद्रोग में चिकित्सा हृद्रोग में अन्य तैल महास्नेह धूत दीप्ताग्नि हृद्रोग में कर्तव्य
हृद्रोग में वर्जित द्रव्य ५१८ कफानुबंधी हृद्रोगरोग में कर्तव्य
पैत्तिक हृद्रोग पितज हृद्रोग में घी अन्यघृत कफज दृद्रोग में धमनादि अन्यविधि कफज हृद्रोग में वमनादि
अन्यचिकित्सा ५१७
अन्यउपाय शूलयुक्त हृद्रोग में उपाय शूल में विरेचन वायुका अनुलोमन कृमिज हृद्रोग की चिकित्सा तृषा रोगमे उपाय तृषारोग में चिकित्सा | वातजतृषा की चिकित्सा पित्तजतृषा की चिकित्सा कफज तृषा की चिकित्सा | आमज और सन्निपातज तषा
अन्नात्मज तृषा का चिकित्सा श्रमजन्य तृषा में कर्तव्य वासपजन्य तृषा शीतस्त्रान जन्य तृषा
५१८
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अनुक्रमणिका।
बिषय
पृष्टांक
५३४
५३५ ३३६
५३७
पृष्टांक विषय मद्यज तृषा
५२७ सन्निपातजमदात्यय में चिकित्सा तीक्षणाग्नि में शीतल जल
सब मदात्ययों में रुच्यपानक अजीर्ण की तृषा में गरम जल
मदात्यय में हर्षणी किया स्निग्धतृपा में कर्तव्य
मदात्यय मे दूध गुरु अन्न की तृषा में कर्तव्य
मद्यक्षीण में दूधका कारण क्षयज तृषा में कर्तव्य
अल्प मद्य विधि कृशादि को तृषा में चिकित्सा
विद्रक्षयादि में कर्तव्य ऊर्धवात में चिकित्सा
मद्य संयोग में कारण उपर्सगजरोग में चिकित्सा
सुरा के गुण तृषा की चिकित्सा में प्रधानता विधियुक्तमय के गुण सप्तमोऽध्यायः ।
निगदमद्यपान की विधि मदात्यय में चिकित्सा विधि ५२८
भुक्तमाल में मद्यपान उक्त विधि में हेतु
पुनःमद्य की विशेषता मद्यज व्याधि में मद्य से शांति
मद्यके गुण मद्य से मद्य की शांति में शंका
मद्यको उत्कृष्टता विधि पूर्वक मद्यपान की उत्कर्पता ५२९ | मद्यको पेयत्व उक्त कार्य में हेतु
मद्यपान की विधि मद्य को धातु सामान्य करत्य
मद्यपान के पीछेका कर्म पानात्यय औषध का काल
मद्यकी प्रशंसा रोगानुसार औषध
मद्यपान के पीछे शयन बातज मदात्यय का चिकित्सा
मद्यपान की देवस्पृहणीयता पित्तज मदात्यय
व्यवस्था पूर्वकर्मद्यपान पित्तज मशत्यय में भोजन
धनीलोगों की विधि पित्तज मदात्यय में बमनादि
मद्यपान से विरति कासावित उक्त रोग में चिकित्सा ,
बाताधिक्य में मद्यविधि यातपित्त की अधिकता में कर्तव्य ,
पित्ताधिक्य में मद्यपान
कफाधिक्य में मद्यपान तृषामें अल्प मद्यपान जलीयधातु की क्षीणता में कर्तव्य
बातादि में मद्यपान मदात्यय में मुखाले
५३२
मद्यपान का काल
मदमें बातपित्तनाशनी क्रिया अन्य उपाय कफाधिक्य मदात्यय में कर्तव्य उक्तरोगों में उपचार अन्य उपाय
प्रसक्तरोग में कर्तव्य उक्तरोग में भोजनादि
दोषवलानुसार क्रिया यथाग्नि पथ्यादि
मदादि में नस्यादि कफप्रायमदात्यय में अष्टांगलवण ५३३ सन्यासोक्त क्रिया कफज मदात्यय में जागरणादि , सन्यस चिकित्सा
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अष्टांगहृदयकी।
-
पृष्टांक
दुरालभारिष्ट
बिषय
पृष्टांक. | बिषय अन्य उपाय
५४१ अन्य प्रयोग - अष्टमोऽध्यायः।
अन्य औषध मर्शमें यंत्रप्रयोग
अन्य उपाय वहवर्श में कर्तव्य
५४२ अन्य उपाय
५४९ सुदग्धअर्श के लक्षण
बलवद्धक पान वस्तिशूल में कर्तव्य
अन्य प्रयोग
५४९ विष्टा ओर मूत्रके प्रतीघातमें चिकित्सा,,
अभ्यारिष्ट दाहयोग्य गुदकीलक में कर्तव्य
दन्त्यरिए अर्शमें धूमपानादि
५४४ अर्शमें बत्ती
भोजन से पहिले घृतादि अन्य वत्ती
अन्य घृत अर्श पर लेप
पलासयादि घृत अन्य लेप
पंचको लादि घृत भन्य लेप
चांगेर्यादि घृत अनुवासिक लेप
मांसरसादि का प्रयोग अभ्यंजनादि
मंदाग्नि की चिकित्सा धूनी से बिगडे रुधिर का निकालना ,
पान विधि मस्सों से रुधिर निकालना
अर्श में अनुलोमन का विधान रक्तानकालने का कारण
अर्श में अनुवासन अर्शमें गोरस पानादि
अनुवासन की विधि अन्य पानादि
निरूह का प्रयोग भन्य उपाय
रक्तार्श का वर्णन अर्शमें यवशक्त
वातकफानुबंध के लक्षण तक की उपयोगिता
दूषित रक्त में लंघनादि
दोषों की कलुषता में रक्त साध तक्रके प्रयोग का काल तकका त्रिविध प्रयोग
रक्तस्त्रति के पीछे तिक्तद्रव्य का सेवन , तक प्रयोग के गुण
५४७
रक्तस्त्राव में चिकित्सा सके पीछे अन्नादि सेवन
पित्ताधिक्य रक्त का स्तंभन तक्रविशेष का सेवन
फफानुगत रक्त में कर्तव्य तकके अरिष्ट का पान
अन्य औषाध तक्रविशेष की विधि
उक्तरोग पर अवलेह अन्य विधि
अन्य अवलेह जठराग्नि से दीपनस्नेहादि ५४८ अन्य उपाय गाढपुरीष की चिकित्सा
अन्य प्रयोग अर्श पर कंजेके पत्ते
अन्य प्रयोग सगुड शुठीपान
" } यवान्यादि चूर्ण
५४६
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अनुक्रमणिका।
५६१
३
विषय उक्त द्रव्य द्वारा सिद्ध अन्य घृत अन्य औषध अर्श पर पेयादि वाताधिक्य अर्श में कर्तव्य अर्श में शीतोपचार अन्य उपाय पिच्छावस्ति अनुवासन विधि मधुकादि घत व्यत्यास में मधुराम्ल योजना उदावत में स्वेदादि गुदा में उक्त द्रव्यों चूर्ण स्निग्धावस्ति प्रयोग कल्याणक क्षार अन्य उपाय मस्सो की चिकित्सा अर्श पर चुक अर्श नाशक औषध अन्य प्रयोग अन्य उपाय त्रिकुटाद्य वलेह अर्श पर जमीकंद गुडादि गुटका जमीकंद का अन्य प्रयोग अन्य चूर्ण कलिंगादि वटिका तक्रपान शुष्क अर्श पर औषध औषध विचार अग्नि की रक्षा कर्त्तव्य
पृष्टांक / बिषय
पृष्टांक. ५५५ अतिसार में वमन दोष विशेष में पथ्यसेवन
५६२ संग्राही औषध की निषेध विवद्ध दोष मे चिकित्सा मध्य दोषासिसार में चिकित्सा अल्पदोषातिसार में कर्तव्य बधादि पक्व जल
क्षुत्क्षामातिसार में पथ्य | अतिसार पर पान
अतिसार रोगी को भोजनादि ५५७ कफ पित्ताधिक अतिसार में पेया
बहुदोषातिसार में चिकित्सा आमातिसार में चिकित्सा पक्कातिसार पर यवागू प्रवाहिका की औषध अन्य औषध अन्य प्रयोग बाल विल्वादि लेह अन्य प्रयोग क्षीर सौहित्य का उपयोग वेदना युक्त आम की दवा प्रवाहिका पर पिप्पल्यादि चूर्ण निरामरूप में घतपान तैल प्रयोग अन्य तैल अन्य तैल वायु को विगुणता का हेतु ५६७ तैल का ही सेवन घत का प्रयोग
घत का अन्य प्रयोग , गुदशूल में स्नेह वस्त्यादि
अनुवासन वस्ति पानाभ्यंग द्वारा तैल प्रयोग पित्तज गुदभ्रंश में चिकित्सा पित्तातिसार में चिकित्सा
AN
नमोऽध्यायः ।
८८
अतिसार में लंघन
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अष्टांगहृदयकी
-
SIMHATRENDIDEOS
बिषय पृष्टांक, विषय
पृष्टाक; पित्तातिसार में अष्टांग जलपान ५६८ | अन्य उपाय अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
कपित्थाष्टक चूर्ण अन्य प्रयोग
५६९ दाडि माइक चूर्ण पक्वातिसार पर काढा ५६९ कफातिसार पर खल अन्य प्रयोग
अन्य उपाय अन्य प्रयोग
वातकफ विबंध में पिच्छायस्ति निरामातिसार में दूध
कफवातात में अनुवासन अन्य प्रयोग
क्षीणककादि में कर्तव्य त्रायमाण पर प्रयोग
वातनाशक क्रियाओं का वर्णन शूल में अनुवासन
शांतोदर के लक्षण पिच्छा बस्ति
दशमोऽध्यायः । पित्तातिसार में वस्ति
ग्रहणी में अजीर्ण के उपचार सर्वातिसार पर प्रयोग अन्य औषध
भोजन के समय यवागू आदि अतिसार में रस विशेष
आम मैं पेयादि
ब्रहणी में तक विधि अन्य प्रयोग पित्तातिसार में अन्य प्रयोग
आमनाशक पानादि
आमपुरीष में उपाय अन्य रसादि रक्तातिसार पर पेया
छादि में उपायं बलिष्ठ रक्त में उपाय
अग्निवर्द्धक पिप्पल्यादि चूर्ण अन्य उपाय
पाचनगुटका सान्निपातक अतिसार
तालीस पदि चूर्ण अन्य उपाय
बात ग्रहणो रोगकी चिकित्सा अन्य उपाय
अनुबासमा प्रयोग अन्य प्रयोग
घृतका प्रयोग गुददाहादि में उपाय
अन्य धूत रक्तातिसार में पिच्छा वस्ति
अभ्यंग के लिये तैल अन्य प्रयोग
उक्तद्रव्यों का चूर्ण अनुवासन वस्ति
पित्तज ग्रहणी की चिकित्सा रक्तातिसार में अवलेह
पित्तज ग्रहणी पर चूर्ण अन्य अवलेह .
अन्य चूर्ण ऊर्व रक्त में उपाय
नागरादि चूर्ण फफातिसार में कर्तव्य
चंदनादि घृत अन्य प्रयोग
कफज ग्रहणी में चिकित्सा कफातिसार पर अन्य औषध
" | कफज ग्रहणी में पेया.. अन्य उपयोग
५७४ कफज ग्रहणी में आसव
५७९
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अनुक्रमाणकी।
४१
बिषय पृष्टांक | विषय
पृष्टांक, अन्य आसव
.५८१ पैत्तिकं मूत्राघात में उपाय अन्य आसव
अन्य उपाय ग्रहणीपर क्षार
अन्य उपायं अन्य क्षार
अन्य उपाय अन्य क्षार
कफज मूत्राघात में उपाय अन्य बटिका
अन्य प्रयोग मातुलुंगादि चूर्ण
अन्य अवलेह कफजग्रहणी में घृत
सान्निपातक मूत्राघात अन्य घृत
अश्मरी में कर्तव्य सन्निपातज ग्रहणी में कर्तव्य
पथरी के पूर्वरूप में कर्तव्य प्रतिदोषानुसार चिकित्सा
अश्मरी में स्नेह विधि नेह की उत्कृष्टता
बाताश्मरी का भेदन पान घृतका अन्य प्रयोग
पित्ताश्मरी की चिकित्सा अन्य प्रयोग
कफज अश्मरी की चिकित्सा रोक्ष्य में स्नेहपान
क्षाणादि विधि स्नेह से हुई मंदाग्नि के उपाय
शर्करा का उपाय उदावत में उपाय
शर्करा का अन्य उपाय दोषाधिक्य में मंदाग्नि
अश्मरी पर चूर्ण व्याधियुक्त मंदाग्नि मार्गादि भ्रमण में मंदाग्नि
अश्मरी पर काथ
अश्मरी पर क्षार दीर्घकाल की मंदाग्नि स्नेहादि अग्नि वर्द्धक
अश्मरो पर कपोतका अग्नि वर्धन में दृष्टांत
मूत्राघात में क्रिया विभाग। भोजानाति भोजन में नष्ठाग्नि
सब प्रकार के मूत्राघात की चिकित्सा,, अग्निवर्धक प्रकार
बेघदादि पान भस्मक अग्नि का शमनोपाय
धन्वयासरसादि पान अंजीर्ण में भोज्यदि
अन्य उपाय मेदका मांस
अन्य उपाय दुधका विधान
शुक्राश्मरी की चिकित्सा चिकित्सा का संक्षेप वर्णन
अश्मरी के इलाज में राजाज्ञा उक्त कथन का हेतु
प्रश्न की रीति विरुद्ध अन्नका वर्णन
शस्त्र कर्म में कर्तव्य एकादशोऽध्यायः । रोगी को स्नानादि
५९२ मूत्राघात में स्वेदादि ५८७ मून संशोधन
५९३ शूल नाशक तेल
व्रण प्रक्षालन अन्य प्रयोग
ब्रण पर स्वेदन उक्तरोग पर मद्यपान
" । अन्य उपचार
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अष्टांगहृदयकी
६००
"
विषय अश्मरी में बर्जित अंग
द्वादशोऽध्यायः। प्रमेह में वमन विरेचन अनुबंध की रक्षा में शमनादि शमन का प्रयोग शमन औषध कफ पर तीन तीन योग पित्तज प्रमेह पर तीन प्रयोग प्रमेह पर अन्नपान विधि वात प्रमेह में चिकित्सा विधि प्रमेह में पथ्य विधि सक्तपानादि कफापित्त प्रमेह पर पान प्रमेह पर तैलादि धान्वन्तर घृत रोधासव अयस्कृति प्रमेह में उद्वर्तनादि प्रमेह पर रसायन निर्धन प्रमेही का उपाय कृश की औषधि प्रमेह पिटका की चिकित्सा विडिका के पूर्वरूप में कर्तव्य तैलादि विधि पाठादि अवलेह प्रमेह पर शिलाजीत
त्रयोदशोऽध्यायः । विद्रधि की चिकित्सा बातज विद्रधि की चिकित्सा व्रणरोपिणी क्रिया पैत्तिक विद्राध कफज विद्राध रक्तादिजन्य विद्राध अंतर विद्रधि में पान अन्य प्रयोग
पृष्टांक बिषय
पृष्टांक अन्य उपाय
विद्राध पर प्रायत्यादि काढा ५१४
अन्यघूत अन्यचूत शृंगादि रक्तमोक्षण विद्रधि में उपमाह विद्रधि का भेदन भीतर का विद्रधि के चिन्ह विद्राधे में दोष विशेष की अपेक्षा विद्रधि पर यूष दशदिन पीछे शोधनादि उक्तरोग में गुल्मवत चिकित्सा विद्राधे पर गुग्गुलयोग पाक निवारण स्तनविद्रधि में उपाय
वृद्धि चिकित्सा ५९७ बातनाशक निरूहादि
| पित्तज वृद्धि का उपाय कफजवृद्धि में उपाय मेडोजवृद्धि में उपाय
६०३ ५९८ मृत्रजवृद्धि में उपाय
अंत्रजवृद्धि में उपाय सुकुमारनामक रसायन उक्तरोग में नस्यादि
६०४ अग्निकर्म में भिन्नमत
चतुर्दशोऽध्यायः । पातजगुल्म की चिकित्सा गुल्म में स्नेहपान बातिकगुल्म में वृहण गुल्म में सानुवासन निरूहण गुल्म पर वस्ति कर्म बातगुल्म पर घत अन्य घत
६०६ दाधिक घस ! अन्यघृत
६०५
६०७
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विषय
अन्यघत
गुल्म नाशक
बात गुल्म में कफोन
शूलादि में काथादि अन्य चूर्ण
कफ बातगुल्म में वाटिका
हिंग्वादि चूर्ण लवणादि चूर्ण शार्दूल चूर्ण सिंधूत्थ चूर्ण
चू
अन्य चूर्ण अन्य प्रयोग शुठयादि चूर्ण
अन्य प्रयोग
गुल्म में विरेचनादि अन्य प्रयोग
गुल्म पर तैल
कादि क्वाथ
पुष्करादि क्वाथ अन्य प्रयोग
शिलाजीत का प्रयोग
अन्य धृत
निलिनी घृत गुल्म पर कुक्कुटादि पथ्य विधि
पैत्तिक गुल्म में विरेचन पित्तगुल्म में संशमन
आत्ययिक गुल्म में विरेचन
अन्य घृत
द्राक्षादि पान अन्य प्रयोग
पैत्तिक गुल्म में अभ्यांगादि विदाह पूर्व गुल्म रक्त मोक्षण में कारण तदशेष में घृतपान
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अनुक्रमणिका ।
विषय
पाकोन्मुख गुल्म में कर्त्तव्य पित्तज गुल्म में उपाय
पृष्टांक. ६०७
33
33
39
""
६०८
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६०९
33
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99
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६१०
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33
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६११
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33
कफज गुल्म में उपाय
कफज गुल्म का सशोधन
अन्य घृत
भल्लातक घृत स्वेदन विधि
33
स्नेह स्वेदन को उत्कृष्टता
कफ गुल्म प्रलेपादि
मिश्रित स्नेह
81 अन्य प्रयोग
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नीलिका घृत
दंत्यादि चूर्ण अन्य चूर्ण अचूर्ण गुल्मनाशक निरूह
क्षार प्रयोग कफाधिक्य गुल्म
अन्य क्षार
"
अम्य प्रयोग ६१२ | योनि विरेचन
33
अन्य प्रयोग
गुल्म में दाह
दाह विधान
क्षारद्वारा कफका अद्यःपतन
आसवादि का प्रयोग पथ्याविधान
आमान्वय में कर्त्तव्य
स्त्रीको स्नेह विरेचन
रक्तज गुल्म मैं तिल का काढा
मैं क्षार
योनि विरेचन विधि
वर्तमान रुधिर कर्त्तव्य
प्रवृत्त रक्त में कर्त्तव्य
पंचदशोऽध्यायः ।
39
उदर रोग में विरेचन ६१३ | उदर रोग म स्निग्ध विरेचन
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४३
पृष्टांक.
६१३
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"9
"
33
६१४
""
***
13
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95
$3
33
13
६१६
33
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33
६१७
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3: "
"
६१८
33
31
33
"
39
33
६१९
33
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४४
विषय विरेचन विधि
अन्य घृत अन्य प्रयोग
अन्य घृत अन्य घी
घृतपान के पीछे विरेचन
अन्य चूर्ण
गवाक्षादि चूर्ण नारायण चूर्ण पुषादि चूर्ण नलिन्यादिक चूर्ण उदर रोग में दुग्धपान
अन्य चू
स्नुही घृत अन्य घृत अन्य विधि
पेया पान
घृत पचने पर कर्त्तव्य
बार बार घृत प्रयोग घी के प्रयोगका विधान
आनाह पर घी
दोष दूर होने पर पथ्य उदर रोग में हरीत की सेवन अन्य प्रयोग
प्रवृद्ध उदर की चिकित्सा उदर रोग में भोजन पार्श्वशूलादि की चिकित्सा अरण्डी के तैलका प्रयोग
उदर पर प्रलेप उदर का परिषेक उदर वेष्टन
आध्मान में निरूहण
आध्मान में वस्ति
सदर चिकित्सा की समाप्ति घातोदर की चिकित्सा संसर्ग के पीछे दूधपान
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक | विषय
33
उदर रोग में वस्ति प्रयोग उदररोग में अनुवासन
33
६२० पित्तज उदर रोग में चिकित्सा
दुर्बल को अनुवासन वस्ति
53
दूध और बस्ति का वार वार प्रयोग ६२६ फोदर की चिकित्खा
फोदर में निरूहादि
""
33
33
"3
99
"3
""
६२१ उदर रोग में उपनाह
""
29
"
६२२ | हृदोष में कर्त्तव्य
55
93
33
""
33
६२३
73
""
"3
93
35
33
27
"
""
13
33
कफोदर रोग पर क्षार
उदर रोग में अरिष्टपान
"
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वद्धोदर की चिकित्सा
33
६२४ छिद्रोदर की चिकित्सा
उदकोदर की चिकित्सा
अन्य चिकित्सा
उदकोदर शस्त्र प्रयोग
19
faraiदर की चिकित्सा
त्रिदोषज जठर में चिकित्सा स्थावर विषका प्रयोग
जठर में हथनी का दूध tories की चिकित्सा उक्तरोग में क्षार पानादि
जल के साथ चूर्ण fasगादि सेवन
अन्य प्रयोग कमलादि रोगों पर दवा
अन्य प्रयोग
प्लीहा पर तैल
अन्य प्रयोग
पैत्तिक प्लीहा का उपाय
यकृत की चिकित्सा
अस्त्र प्रयोग विधि
अन्य जलोदरों का उपाय
जलोदर की अन्य चिकित्सा
आहार में वर्ज्या वर्ज्य
सर्वोदर चिकित्सा
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पृष्ठांक
६२५
در
11
"
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६२७
93
"
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23
६२८
2-2-20
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39
६२९
و
11
31
57
--
६३०
J.
६३१
:::
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विषय: उदर रोग में पथ्य उदर में यवागूआदि उदर रोग त्याज
उदर में पान व्यवस्था बातककादि में तक को श्रेष्ठता
तक का प्रयोग दूध को श्रेष्ठता
षोडशोऽध्यायः ।
पांडुरोग में कल्याणक घृत
अ भ्य घृत
पांडुरोग में वमनादि अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
अन्य अवलेह
अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
व्योषादि चूर्ण पांडुरोग पर टिका अन्य गुटिका
ताप्यादि चूर्ण काजादि चूर्ण
द्राक्षादि भवलेह अन्य प्रयोग
पांडुरोग की सामान्य चिकित्सा दोषानुसार चिकित्सा अन्य विधि
मृतिका के पांडुरोग में उपाय केसरादि घृत
अन्य उपाय
दोषानुसार औषध का प्रयोग कामला में पित्तनाशक घृत
कामला पर वृत अन्य va अन्य चूर्ण अन्य प्रयोग
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अनुक्रमणिका ।
विषय.
अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
अन्य चिकित्सा
कुंभ कामला की चिकित्सा
पृष्ठांक.
६३२
ܕܪ
"
33
६३३
६३४
35
99
""
33
33
,"
33
६३६
33
वातज सूजन की चिकित्सा
39
पित्तज सूजन की चिकित्सा
१३५ पित्तज सूजन पर क्वायादि
कफज सूजन पर तैल
"
19
33
33
33
हलीमक की चिकित्सा
पांडुरोग में सूजन की चिकित्सा सप्तदशोऽध्यायः ।
25
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सूजन में चिकित्सा क्रम
मन्दाग्नि में तपान अन्य प्रयोग
शोफ पर वृत
अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
सृजन में पथ्य
सूजन पर पेया
""
अन्य प्रयोग
६३७ क्षतोत्थ शोफ में कर्त्तव्य
सूजन पर अभ्यञ्जनादि
एकांग शोफ पर लेप
अन्य उपाय
अन्य
पद
सूजन पर स्नान विधि
एकांग शोफ पर लेप दोषानुसार शुद्धि त्रिदोषज शोफ में चिकित्सा
शोफ में वर्जित मांसादि अष्टदशोऽध्यायः ।
बिस में लंघनादि
C
बिस में बमनादि
बिस में विरेचनादि
अल्प दोष में शमनंबिधि
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४५
पृष्टांक.
६३८
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J.
६३९,
39
31
६४०
30
39
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15
६४१
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V
39
६४२
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36
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31
६४३
33
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22
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33
६४४
13
27
"
36
23
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अष्टांगहृदयकी
ODU
H
पृष्टाक.
६४४
विषय.
पृष्टांक, विषय. दुरालभादि पान
कुष्ठ में आप्यायन दाादि सेवन
६४५ वजूक घृत विसर्प में रक्त मोक्षण
महा वजूक घृत घृत सेवन
वैरेचनिक घृत विसर्प पर लेपादि
| अन्य उपाय वात विसर्प की चिकित्सा
। अन्य उपाय पेत्तिक विसर्प की चिकित्सा
कोढ में पथ्य अन्य लेप
अन्य औषध कफ विसर्प पर लेप
६४६ जितेद्रियों की कोढ का उपाय अन्य लेप
अन्य प्रयोग उक्त द्रव्यों द्वारा सेकादि
कुष्ठ पर त्रिफलादि लेह सामवायु में लेप
त्वचा रोग पर काढा संसृष्ट दोष में कर्तव्य
अन्य प्रयोग आग्नि विसर्प की चिकित्सा
अन्य प्रयोग ग्रंथि विसर्प की चिकित्सा
अन्य प्रयोग ग्रंथि विसर्प में परिषेक
अन्य प्रयोग अन्य प्रलेपादि
अन्य प्रयोग दंत्यादि लेप
कृच्छ कुष्ठ की चिकित्सा ग्रंथि के भेदन का उपाय
कोढ पर रसायन ग्रंथि के शांत न होने में दाह
चंद्रशकला गुटिका ग्रंथि में रक्त मोक्षण
६४८ अन्य प्रयोग प्रण के समान चिकित्सा
शशांक लेखा अवलेह रक्त हरण में हेतु
पथ्यादि गुटिका विसर्ग में हेतु
विडंगादि प्रयोग विसर्प मैं घृत का निषेध
कुष्ठ पर सितादि अवलेह
कुष्ठ पर चूर्ण एकोनविंशोऽध्यायः ।
कुष्ठ पर लेप कुष्ठ में स्नेहपान
कुष्ठ पर क्षार प्रयोग वातोत्तर कुष्ठ में तैलादि
कुष्ठ विशेष में लेप पित्त कोढ का उपाय
कुष्ठ में स्वेदन महा तिक्तक घृत
अन्य प्रयोग कफ प्रधान कुष्ठ की चिकित्सा मुस्तादि क्वाथ सर्व कुष्ठ चिकित्सा
६७० अन्य क्वाथ अन्य चिकित्सा
अन्य लेप कुष्ठ पर अभ्यंजन
अन्य लेप कुष्ठ में शोधनादि
कुष्ठ में उद्वर्तन कुष्ठ में शिरावेधन
॥ ददु नाशक चूर्ण
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अनुक्रमणिका ।
-
-
-
-
=
=
विषय विधर्चिका की चिकित्सा अन्य प्रयोग सिध्म पर लेप अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग वज्रक तेल महावज्रक तैल अन्य तैल कवादि की औषध लाक्षादि लेप चित्रकादि लेप पित्तकर्फ कुष्ट पर लेप कुष्ट पर घृत विशेष अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग लेपों की सिद्धि का कारण कुष्ठ को साध्यता वहुदोष कुष्ठ को संशोधनत्व कुष्ठ रोगी का वमनादि काल कुष्ठ रोगी का दोष हरण मुष्ठ में वृतादि
विंशोऽध्यायः । वित्र को भयानकत्व श्वित्र में शोधनादि फोडों का कांटों से भेदन उक्त रोग पर कल्क उक्त रोग में गोमूत्रपान अन्य प्रयोग उक्त रोग पर लेप अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग भिलावे का प्रयोग अन्य लेप सवर्ण कारक लेप अन्य लेप
पृष्टांक. | विषय.
पृष्टांक. ६५७ भल्लातकादि लेप | कृमि चिकित्सा
६६३ मूर्धागत कृमि की चिकित्सा | कृमि रोग में पेयापान कृमिरोग में शिरीषादि रस अन्य अवलेह नस्थार्थ चूर्ण अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग तैल प्रयोग पुरीपज कृमि में चिकित्सा कफज कृमिरोग में कर्तव्य रक्तज कृमि की चिकित्सा कृमिरोग में क्षीरादि
एकविशोऽध्यायः । वातव्याधि में होपचार स्वेदन के गुण उक्त विषय पर दृष्टांत हर्षादि का शमन स्नेह प्रयोग का फल अन्य प्रयोग औषध का प्रयोग बातरोग पर घृत वायु के अनुलोमन में हेतु विरेचन के योग्य को निरूहण आमाशय गतवायु में कर्तव्य ऊधो नाभिस्थ वायु में अवपीड़क कोष्ठस्थ वायु में कर्तव्य हृदयादि गत वायु में कर्त्तव्य त्वचागामी वायु मे कर्तव्य
रक्तस्थ वायु में कर्तव्य ६६२ मांस मेदस्थ वायु मे कर्तव्य
अस्थि मज्जागत वायु | शुक्रस्थ वायु में कर्तव्य
रुद्धमार्ग शुक्र में कर्तव्य ., ( वायु द्वारा शुष्क गर्भ में कर्तव्य
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४८
विषय.
स्नायु गतवायु में कर्त्तव्य अंग के संकुचित होने पर कर्त्तव्य रक्तस्राव में लेप
अपतानक में चिकित्सा
उक्तरोग में नस्यादि
वात नाशक स्नेह स्वेद वेगार मे शिरोविरेचनादि वाताधिक्य में घृत
बात नाशकं अन्य घृत अभ्यविधि
शुद्ध अपतानक की चिकित्सा कफयुक्त अपतानक की चिकित्सा आयाम में चिकित्सा विवर्णता का फल
मंदवेग में चिकित्सा जिह्वास्तम्भ की चिकित्सा
अर्दित रोग की चिकित्सा पक्षाघात में चिकित्सा अबवाहू में नस्यादि ऊरुस्तम में नस्यादि उक्त रोग में लेहादि अन्य प्रयोग
वायु के शमन का प्रयोग
उक्त रोग में व्यायामादि
शेष अंगों की चिकित्सा
अन्य प्रयोग
रास्नादि घृत अन्य प्रयोग
शिरोगत अन्य प्रयोग अन्य तैल
अन्य तैल
वायु में नस्य
अन्य प्रयोग
यात कुंडलिकादिनाशक तैल बलातैल
उत तैलों पर फल
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक. | विषय. ६६८ | वस्ति प्रयोग
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६६९
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डरोग पर प्रयोग
६७१ वाह्या चिकित्सा का विधान
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दशमूलादि घृत ६७२ स्तंभादि उपाय
33
६७४
बात रक्त में रक्त हरण
रुधिर निकालने की विधि
रुधिर निकालने का निषेध
बातरक्त में विरेचन
द्वाविंशोऽध्यायः ।
वात प्रधान बात रक्त घृत
अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
पित्तजवातरक्त की चिकित्सा बातरक्त में विरेचन अन्य प्रयोग
वातरक्त में क्षीर वस्ति
कफो लवण वातरक्त में चिकित्सा
स्नेहन के पीछे रूक्षण
शूलयुक्त वातरक्त की चिकित्सा
अन्य क्वाथ
पकाई हुई राल
पिंड़
""
६७३ | बातरक्त में लेप
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अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग
परिषेक की औषध
अन्य उपनाह
अन्य लेप
अन्य लेप
अन्य घृत
5 अन्य प्रयोग
दाद नाशक उपाय
बातरक्त में उपनाहन
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पृष्टांक.
६७५
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६७६
35
23
73
21
20
32
६७७
33
53
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23
17
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६७८
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39
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६७९
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अनुक्रमणिका।
पृष्टांक..
६८४
विषय.
पृष्टांक, | विषय कफोत्तर वातरक्त में चिकित्सा ६७९ | मेन फल के सेवन की विधि वातकफाधिक्य की चिकित्सा
अन्यप्रयोग बातकफाधिक्य में परिषेक
हृद्दाह में फल उत्तान बातरक्त की चिकित्सा , कफछादि में मेनफल गंभीर वातरक्त की चिकित्सा | कफाभिमूत आग्नि में बमान वातकफोत्तर में लेप
बमन में लेह विशेष पित्तरक्तोसर में लेप
अन्य उपाय वातरक्त में तैल
फूल सूघने से यमन अन्य तैल
न्य फल वातरक्त में स्नेहनादि
जी दूतादि का प्रयोग घ्राणादि चिकित्सा
अन्य प्रयोग शुद्धवात की चिकित्सा
तुवीमादि की कल्पना अंगशोषादि में चिकित्सा
पित्तकफज्वर में चूर्णादि पित्तावृतवायु में कर्तव्य
पित्तज्वर में पानादि उक्तरोग में वस्ति
इक्ष्वाकु का प्रयोग उक्तरोग में परिषेक
इक्ष्वाकु के दूध का प्रयोग कफावृत्तवायु में चिकित्सा
| अन्य प्रयोग संसृष्ट वायु का उपाय
अन्य प्रयोग रक्तसंसृष्ट बात का उपाय
मंथ का प्रयोग मांसावृत वायु
अन्यप्रयोग आढयबात की चिकित्सा
अन्य प्रयोग रेतसावृतवायु की चिकित्सा
अवलेह का प्रयोग अन्नावृत में कर्त्तव्य
पित्त सह कफ में कर्त्तव्य मूत्रावृत में कर्तव्य
विषरोग पर धाम्यादि कल्क बर्चसा वृत में कर्तव्य
अन्य प्रयोग विभाग वायु का स्वभागानयन
वेड का प्रयोग पित्तरक वर्जित सर्व वरण
आनूप मांस का प्रयोग पित्तावृत में चिकित्सा
अन्य प्रयोग रक्तावृत में चिकित्सा
कुटज का प्रयोग आयुर्वेद की फलभूत चिकित्सा
अन्य प्रयोग औषध के पर्याय
वमन में अन्याअन्य औषध कल्पस्थानम् ।
द्वतियो ऽध्यायः । वमन विरेचन की प्रधान औषध .६८४ निसोथ का स्वरूप व्याधि के योग से जीमत की विशिष्टता , निसोथ को सर्व रोग जितत्व बमन में मैन फल का योग , निलोथ की जड के दो भेद
६८३
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'अष्टांगहृदयकी
९
विषय. श्यामा के लक्षण निसोथ की अड लाने की रीति वात रोग में निसोथ का प्रयोग वैरेचनिकलेह अन्य अवलेह विरेचन में ईख की गंडेली विरेचनार्थ चूर्ण गुल्मादि रोग पर अबलेह कल्याणकडगुड अन्य गोली अन्यविरेचन शरद ऋतु में विरेचन हेमंत में विरेचन ग्रीष्म में विरेचन स्निग्ध के लिये विरेचन रूक्ष पुरुषों को विरेचन ज्वर में राजवृक्ष का प्रयोग अन्य प्रयोग अमलतास का ग्रहणादि अमलतास के प्रयोग की विधि अमलतास का काढा अन्य प्रयोग अमलतास का अन्य प्रयोग लोध का अवलेह थूहर के दूध का निषेध थूहर का प्रयोग सुधा गुटका घृत के साथ निसोथपान व्योषादि सेवन कफरोग में चिकित्सा अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग विसर्प की चिकित्सा त्रिवृतादि की प्रधानत्व हरीतकी का ग्रहण विरेचन के लिये मोदक
पृष्टांक. । विषय. ६९० संश्लेषादि में कर्तव्य विरेचन में तृषा और केसर
___ तृतियो ऽध्यायः । अधोगत वमन में पुर्नवमनः अजीर्ण में पूर्ववत कर्तव्य ६९७ विना स्वेदनके स्वेदनकी औषध निषेध,, उत्क्लष्ट त्रिदोष में अनुवासन आध्यमान में कर्त्तव्य शूलनाशिनी यवागू प्रवाहिकादि में विधल्यादि कुपितवात के कर्म उक्त अवस्था में वमन प्रयोग अति वमन का उपाय वातनाशक स्वेदादि का प्रयोग विरेचनादि योग में कर्तव्य । विरचनातियोग में चिकित्सा विरेकाति योग नाशक औषध बमनाति योग की चिकित्सा जिह्वा के भीतर घुसजाने में चिकित्सा ,, वाग्ग्रहादि मै यवागू जीवरक्त की परीक्षा तृषादि में प्राण रक्षण क्रिया उक्त रोग में दुग्धपान गुदभ्रंश की चिकित्सा संज्ञानाश में गायन श्रवण
चतुर्थो ऽध्यायः । सर्वगदप्रमाथी वस्ति निरूहण वस्ति बलादि निरूहम अन्य प्रयोग पित्तरोग नाशिनी वस्ति अन्य वस्ति कफज रोगों में निरूहण सुकुमारों को निरूहण वात नाशक वस्ति | वात नाशक वस्ति
७००
७०१
७०२
"
७०३
७०४
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अनुक्रमणिका।
-
पृष्टांक.
विषय.
विषय. अभिष्यान्दादि नाशक वस्ति विट्संगादि माशक वस्ति शुक्र कारक वस्ति । सिद्ध वस्तियों का वर्णन प्रमेह नाशक वस्ति नेत्रों को हितकारक वस्ति पायवादि रोग नाशक वस्ति निरूहण की कल्पना युक्तरथ नामा वस्ति दोष नाशक वस्ति सिद्ध वस्ति कफााद नाशक वस्ति शुक्रवर्द्धक वस्ति मयूरादि की कल्पना तीतरादि की कल्पना गोधादि की वस्ति केचकी फली के साथ पथ्य मेह वस्ति अन्य स्नेह वस्ति आनूप जीवों की वसा अन्य तैल अन्य घृत प्रयोग पौष्टिक अनुवासन अन्य अनुवासन कफ नाशक तेल तीक्ष्णादि वस्ति वस्ति को मृदु तक्षिणत्व
द्ध वस्ति का फल वस्ति योजना का प्रकार विशोधन के योग्य
पंचमोऽध्यायः । अस्निग्ध देह में पस्ति का प्रयोग उक्त दशा में कर्त्तव्य वस्ति से वायु रोध फल वर्ति का प्रयोग वेग संरोध में पस्ति का फल
पृष्टांक. ७०४ | उक्त अवस्था में कर्तव्य
अग्युष्ण वस्ति का फल पत्तिक में कर्तव्य
७१२ स्नेहानुवासन का वर्णन घाताधिक योग में चिकित्सा
पित्तावृत वस्ति में उपाय ७०५ कफावृत स्नेह वस्ति में उपाय
अन्यशनावृत स्नेहवस्ति का उपाय " पुरीषावृत स्नेह वस्ति अयुक्तादि में स्नेह वस्ति अएकस्नेह में उपाय
७१४ अन्य उपाय शीघ्र प्रणीति में चिकित्सा पीडयमान बस्ति में चिकित्सा अति पीडित वस्ति पुटक दमनादि में रक्ष
उक्तदशा में चिकित्सा ७०७
विकृत को प्रकृति पर लाना प्रकृति गत के लक्षण
षष्टोऽध्यायः । प्रशस्त भेषज के लक्षण औषध लाने की विधि पयआदि का ग्रहण प्रकार कषाय योनि पांचरस स्वरस के लक्षण कल्क के लक्षण
क्वाथ के लक्षण ७०९
शीतकषाय के लक्षण फाट के लक्षण योजना विधि स्वरस का मध्यम पान कल्कादि का मध्यम पान क्वाथ का प्रमाण शीत कषाय का प्रमाण फाट का प्रमाण । स्नेह पाक का प्रमाण
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अष्टांगहृदयकी।
विषय.
पृष्टांक.
७३०
७२१
पृष्ठांक. | विषय. शौनक कामत
७१८ सत्रमा
सूत्रस्थापन पाक के लक्षण
दांत निकलने पर कर्तव्य स्नेह पाक का अन्य लक्षण
वालक को मोदक पाक के तीन भेद
सोम्यौषध मान संज्ञा
७१९ बालक को त्रास निषेध नीले सूखे द्रव्यों की योजना .
वस्तादि द्वारा रक्षण अनुक्त द्रव में पानी की योजना ,
घृत पान विधि द्रव्य में अनुक्त परिमाण में कर्तव्य , अन्य प्रयोग वाटकादि संज्ञा
सारस्चत घृत शेल भेद से द्रव्य विशेष
अन्य घृत
चार योग उत्तरस्थानम् ।
वचादि का प्रयोग प्रथमोऽध्यायः ॥
द्वितीयोऽध्यायः। जनाने ही बालक का शोधन स्वस्थीभूत बालक के कर्म
त्रिविध बालक तालु उठाने की विधि
शुद्ध द्धके लक्षण अन्य अवलेह
७२२ बातदुष्टदूध के लक्षण गर्भाग वमन
पित्तदुष्ठ के लक्षण बालक का जात कर्म
कफ दुष्ट दूध के लक्षण स्तन्य प्रवर्तन में हेतु
सान्निपातक द्धके लक्षण बालक का प्रथम दिन का बर्तन उक्त दूध पीने के लक्षण दूसर तीसरे दिन की विधि
रोने से पीडा का ज्ञान उत्तम स्तन्यका प्रकार
अवयब विशेष मेरोग स्तन्यनाश का कारण
सिर की पीड़ा का ज्ञान दूधको रोग का हेतुत्व
धात्री का उपचार दूधके अभावमें कर्तव्य
वातनाशक घृत छटीरात का विधान
घालक के लिये अवलेह दसवें दिनका कर्तव्य
पित्त दूषित स्तन्य में चिकित्सा आयु परीक्षा
घी और अवलेह बालक का माणिधारण
७२४ कफात्मक स्तन्य की चिकित्सा पांचव छटे महिने में कर्तव्य
घाव की बमन कर्ण व्यध का काल
त्रिदोष दुष्टस्तन्य के उपद्रव कर्णव्यध कीरीति
उक्त रोग में चिकित्साक्रम सिराव्यध मे रागादि
अन्य उपाय रागादि की चिकित्सा
७२५ पाठादि का प्रयोग उचित स्थान में विधने का फल अनुबंधानुसार चिकित्सा
९
A
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अनुक्रमणिका।
%
--
-
पृष्टांक.
__७३०
७३७
बिषय
पृष्टांक | विषय दंतोद्भेद को रोगों का हेतुत्व
तृतीयोऽध्यायः । दंतोद्भव में पीड़ा पर दृष्टांत , बारह प्रकार के ग्रह दोषानुसार प्रयोग
ग्रहों के नाम खालक की चिकित्सा
ग्रहों द्वारा ग्रहणी के लक्षण बालकों को मृदु बचन
प्रहों का सामन्य रूप स्तन्य तृप्तको बभन
स्कदं गृहीत के लक्षण पेया पान वाले को बमन
विशाखा गृहीत के लक्षण विरेचन साध्य में कर्त्तव्य
मेष गहीत के लक्षण स्तन्य दोष नाशक लेह
पूर्वग्रह गहीत के लक्षण दंतपाली का प्रतिसारण
पित्त ग्रह गहीत के लक्षण लावादि चूर्ण
शकु निग्रह के लक्षण दांतो के निकलने में घी
पूतनाग्रह के लक्षण रजन्यादि चूर्ण का लेह
शीत पूतना के लक्षण अन्य प्रयोग
अंध पूतना के क्षलण दंतोद्भव में अति यंत्रणा का निषेध ७३२
मुखमंडिता के लक्षण बालक को अरोचकादि
रेवती के लक्षण उक्तअवस्था में उपाय
शुष्क रेवती के लक्षण अन्य प्रयोग
ग्रहों के असाध्य लक्षण अन्य प्रयोग
शुष्करेवती द्वारा वध अन्य घृत
प्रहग्रहण के लक्षण
हिंसात्मक ग्रह के लक्षण अन्य घृत
रतिकामी ग्रहोंके लक्षण अन्य प्रयोग अभ्यंजन के लिये तैल
अर्चाकामी ग्रहों के लक्षण बालक की खांसी आदि में लेह
उक्त रोगों की चिकित्सा लाक्षादि तेल
धूपन विधि
। अन्य धूप अन्य अवलेह अन्य घी
दशांग धूप
अन्य धूपं दांत वाले बालक की चिकित्सा
अन्य प्रयोग तालुकंटक
अन्य घृत उक्त रोग में उपाय
अन्य घत अन्य औषध
अन्य धूप तान्नु कंटक की दवा
भूत विद्याके द्रव्य' वमनादिक रोग
स्नानार्थ जल उक्त रोग कर्त्तव्य
७३५ बाल रोग में उपचार विधि घ्रण लेपन
चतुर्थो ऽध्यायः । भन्य लेह
" भूतग्रह के लक्षण अन्य प्रयोग
। भूत ग्रह के भेद
७३९
१
७४
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अष्टांगहृदयकी
विषय
पृष्टांक
७५३
भूतोनुषंग में हेतु ग्रह के ग्रहण में हेतु भूत ग्रहण का काल दैव गृह गहीत के लक्षण दैत्य ग्रह के लक्षण मंधर्व ग्रह के लक्षण सर्व ग्रह के लक्षण यक्ष ग्रह के लक्षण ब्रह्मराक्षसके लक्षण पिशाचगहीत के लक्षण पिशाच के लक्षण प्रेत गहीत के लक्षण कुष्मांड गहीत के लक्षण निषाद गहीत के लक्षण
औकरण के लक्षण बेताल गहीत के लक्षण पित्तगृह के लक्षण सामान्य लक्षण असाध्य लक्षण
पंचमो ऽध्यायः । आहंसक भूतों का उपाय ग्रहनाशक प्रयोग अन्य प्रयोग अन्य उपाय अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग स्कंदादिनाशक धूनी भूतरावाहवये घूत महाभूत राव घृत ग्रह ग्रहण में बलदानादि ग्रहनुसार दानादि अन्य द्रव्यों का दान विशेष विधि देवताओं की वलि घृतपानमें ग्रह मोचन ग्रह मोचनार्थ नस्यांजन दैत्य ग्रह की शांति
पृष्टांक | बिषय
नागग्रहों की घलि
यक्षों की वलि ७४३
अन्य प्रयोग ब्रह्मराक्षसों की वलि घृत का प्रयोग
रक्षों की वलि ७४४
नस्यायंजन प्रयोग घृत का प्रयोग पिशाचग्रह की वस्ति घृत का प्रयोग नस्य प्रयोग वा वयं ग्रहों में प्रति कूला चरण निषेध सर्व गृहार्थ जयाविशेष महा विद्या श्रवण भूतेश की पूजादि अन्य हितकारक कर्म
षष्टोऽध्यायः । उन्माद के छः भेद उन्माद का स्वरूप वातज उन्माद के लक्षण पित्तज उन्माद के लक्षण कफज उन्माद के लक्षण
सन्निपातज उन्माद ७४७
पित्तज उन्माद
विषज उन्माद ૭૪૮ बातज उन्माद में उपाय
कफ पित्तज उन्माद तक्षिण नस्यांजन प्रयोग अन्य घृत ब्राह्मी घृत कल्याणक घृत महा कल्याणक घृत महा पेशाचिक घूत अन्य प्रयोग उन्माद में अव पीडन अन्य प्रयोग
"
७५५
७५६
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अनुक्रमणिका।
बिषय पृष्ठांक | विषय
पृष्टांक, अन्य धूनी
७५७ कृच्छोन्मील के लक्षण ७६३ पेत्तिक उन्माद में उपाय
निमेषाख्य रोग
७६४ उन्माद में सिराव्यध
वात हत रोग निर्जल कूप में डालना
कुंभी संशक पिटिका उक्त क्रियांका विधान
७५८ पित्तोक्लिष्ट रोग इष्ट विनाश जन्य उन्माद
पक्ष्मसात के लक्षण कामादिज उन्माद में कर्तव्य
पोथकी का लक्षण भूतो न्माद में कर्तव्य
कफो लिष्ट रोग उन्माद में बलि प्रदान
लगण रोग उन्माद की अप्राप्ति
७५९ उत्संग के लक्षण विंगत उन्माद के लक्षण
उक्लिष्ट वत्मरोग सप्तमोऽध्यायः ।
नेत्रार्श के लक्षण अपस्मार के भेष
आंजन पिटका अपस्मार का पूर्व रूप
विसबर्म के लक्षण बातज अपस्मार के लक्षण
उक्लिष्टवर्म पित्तज अपस्मार
श्याववर्ती के लक्षण
शिलस्थवर्क्स के लक्षण कफज अपस्मार
सिकतावम वमनादि प्रयोग
कदम रोग दोषानुसार विरेचनादि ७६१ वहल रोग का वर्णन संशमन भौषधियों का विधान
कुकूणक का लक्षण अपस्मार नाशक घृत
वर्म संकोचादि महत्पंचगव्य घृत
अलजीनामक ग्रंथि उन्माद पर अन्य घृत
अर्बुदका लक्षण उक्त रोग पर तेल
वर्म संशयी रोगों की संख्या बात पित्तज अपस्मार का उपाय
उक्त व्याधियों का साध्या साध्य त्य,
पक्ष्म सदन का उपाय अन्य प्रयोग
७६७ अन्य प्रयोग
नबमोऽध्यायः। नस्यका प्रयोग
कृच्छोन्मीलन की चिकित्सा अन्य तेल प्रयोग
कुंभीका वम का उपाय अन्य प्रयोग
वर्म के विलेखन की राति धूम प्रयोग
सुलिखित वर्म के लक्षण
७६८ लशुनादि तेल
अतिलेखन के उपद्रव असाध्य की चिकित्सा
अतिलेखन में उपाय कुत्सित वाक्यों का निषेध
अन्य उपाय अष्टमोऽध्यायः ।
कठोर पिटिकाकी चिकित्सा नेत्ररोग की संप्राप्ति
उक क्रमका विधान ,...
७६२
७६३
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अष्टांग हृदयकी।
७७१
विषय पित्त रक्ताक्लिष्ट में कर्तव्य पक्ष्मसातकी चिकित्सा पक्ष्मसात में भंजन कंफोक्लिष्ट का उपाय लगण का उपाय कुकूणक का उपाय उक्त रोग विरेचन कुचोपरलेप क्वाथ पान लिखित वर्म में परिषेक वमन को श्रेष्टत्व बमन की विधि बमन विरेचन अन्य प्रयोग अन्य बर्ती पक्ष्म रोध चिकित्सा अशांति में दाहादि सांधिरोगो का वर्णन कफनावका लक्षण उपनाह के लक्षण रक्त सव के लक्षण पर्वगी के लक्षण पूयास्त्राव के लक्षण श्यालस के लक्षण मलजी के लक्षण कृमि ग्रंथि के लक्षण शस्त्र साध्या साध्य रोग शुक्ति का रोग शुक्लार्मक के लक्षण बलास प्रथित के लक्षण पिष्टक के लक्षण शिरोत्पात के लक्षण सिरा हर्ष का लक्षण लिराजाल का लक्षण शोगितार्म के लक्षण
पृष्टाक; | विषय
पृष्टांक, अर्जुन के लक्षण
७७४ प्रस्तधर्म के लक्षण प्रस्तायम के लक्षण स्लाम के लक्षण अधिमांसार्म के लक्षण सिरासंज्ञक पिटिका उक्त तेरह रोगों की साधन विधि वर्जित रोग क्षत शुक्रक का लक्षण शुद्ध शुक्र के लक्षण आज का लक्षण सिरा शुक्र के लक्षण तीव्र वेदना युक्त शुक्र वज्यं शुक्र कृष्ण मंडलगत रोगों की संख्या उपनाह की चिकित्सा सधिरोग लेखादि पूयालस की चिकित्सा अन्य प्रयोग कृमि नाथ का उपाय शुक्लाख्य रोग का उपाय कफ ग्रंथित और पिष्टक अन्य प्रयोग शिरोत्पात का उपाय उक्तरोगों में विशेषता अर्म की चिकित्सा अर्म में शस्त्र चिकित्सा छेदन की गति छेदनान्तर बंधनादि तिमिरादि पर अंजन तिमिर नाशक अंजन सिराजाल की चिकित्सा शुक्र की चिकित्सा
क्षत शुक्र में पवधूत पानादि ७७४क्षत शुक्र नाशक पत्ती
दांतो का बत्ती
७७२
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विषय सर्व शुक्रनाशक वर्त्ति
अन्य अंजन
निम्न शुक्रोत्रमन शुद्ध शुरू में कर्त्तव्य
शुक्र नाशक गोली अन्य प्रयोग
शुक्र पर घर्षण
फुली पर अंजन
शुक हर्षण में अंजन
मुद्रांजन
ए शुक्र नाशक बदिका
शुक्र का लेखन
सिरा शुक्र अन्य बर्ति
शस्त्र प्रयोग
की चिकित्सा
असाध्य अजका में कर्त्तव्य
असाध्य शुक्र में अंजन अजक में बंधनादि पक्व घृत प्रयोग
द्वादशोऽध्यायः ।
तिमिररोग के लक्षण दूसरे पटल में प्राप्त हुए के लक्षण
तृतीय पटलगत के लक्षण चतुर्थ पटल के लक्षण . बातज तिमिर के लक्षण वात से द्रक सिरा संकोचन पित्तज तिमिर के लक्षण
कफज तिमिर के लक्षण रक्तज पित्त के लक्षण संसर्गज तिमिर के लक्षण
मांध के लक्षण दिवादर्शन में युक्ति उष्ण विदग्धा दृष्टि विधग्धाला ष्टि धूमर रोग के लक्षण
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अनुक्रमणिका ।
पृष्टांक विषय
७८०
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29
33
13
७८१
31
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79
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29
25
७८२
29
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19
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७८४
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"3
७८३ || भिनतार नेत्र का चूर्ण
अंधे का भी दृष्टि प्रदान
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अंधों को दृष्टिवर्द्धक रस क्रिया अप्रतिसाराख्य अंजन
39
तिमिर नाशक गोली.
तिमिर नाशक योग
दृष्टिरोग नाशक चूर्ण
„
दृष्टि बल कारक मस्य
७८५ नेत्र रोग में स्नेहादि
>>
"3
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atarर्गक कलिंग नाशक
दृष्टि मंडल के २७ रोग त्रयोदशोऽध्यायः ।
तिमिर की चिकित्सा में शीघ्रता
तिमिर नाशक के घृत
काच नाशक वृत
त्रिफला घृत
99
"2
द्वितीय भास्करांजन दृष्टिवर्द्धक नीलाथोथा सीसे की शळाका
गिद्ध दृष्टि कारक योग
महाफलघृत
गारुडी दृष्टि प्राप्त करने का अवलेह
तिमिर रोग पर त्रिफला
अन्य प्रयोग तिमिर रोग में पायस
सर्व तिमिर नाशक अंजन तिमिरादि शांति कारक अंजन
कफामय नाशक चूर्ण. सर्व रोग पर अंजन भास्करांजन
ऊर्ध्व जत्रु नाशक नस्य
55
अन्य प्रयोग
७८६ अंजन में व्याघ्र की वसा
तिमिर नाशक प्रयोग
पृथक चिकित्सा का उपदेश
बाज तिमिर का चिकित्सा
पृष्टांक.
७८६
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37
७८७
39
31
ઉ
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در
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७८९.
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५८
अष्टांगहृदयकी
७९८
विषय पृष्टांक | बिषय
पृष्टांक तर्पण प्रयोग
. ७९३ अन्य प्रयोग सर्पण में घृत को श्रेष्ठता
अन्य प्रयोग अन्य तर्पण
उक्त रोग चिकित्सा अन्य प्रयोग
अन्य नेत्ररोगों में कर्तव्य पुटपाक विधि
नेत्ररक्षा कारक बातज तिमिर में अनुवासनादि नेत्ररोग में त्रिफला पैत्तजा तिमिर की चिकित्सा
नेत्ररोग में अहिताशन त्याग उक्त रोग में बिरेचन
चर्तुदशो ऽध्यायः । नेत्र रोग में परिपेकादि
कफजन्यलिंगनाश में कर्तव्य ७९९ सारिबादि वर्ती
वेधन का हेतु अन्य अंजन
| श्लेष्मादिकलिंगमाशक के लक्षण पक्वत की नस्य
आवत की दृष्टि कफज तिमिर की चिकित्सा
शर्करा दृष्टि तैल की नस्य
राजीमती दृष्टि कोकिला वर्ती
७९५ विषमा दृष्टि तिमिर शुक नाशनी वत्ती
चंद्र की दृष्टि रक्तज तिमिर की औषध
छत्र की दृष्टि रक्तज तिमिर का उपाय
अविद्य दृष्टि संसर्गज तिमिर की चिकित्सा | दक्षिणादि व्यध प्रकार नस्य और मुखलेप
सुविद्ध के लक्षण . नस्य और शिरो वस्ति
सात दिन तक बर्जित कर्म अन्य अंजन
शक्ति के अनुसार लंघनादि सान्निपातक तिमिर में अंजन
अति सूक्ष्म दर्शन निषेध काच रोग में कर्त्तव्य
मुख प्रलेप थंजन का चयापान
अन्य प्रयोग रंतोध का अंजन
आश्चोतन विधि रंतोष नाशक वर्ती
अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
सिरामोक्षादि अन्य प्रयोग
विद्धनेत्र में पति अन्य प्रयोग
विद्धनेत्र में पिंडाजन अन्य प्रयोग
| अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
पञ्चदशो ऽध्यायः । अन्य उपाय
वातज नेत्रभिप्यद के लक्षण धूमरादि रोग की चिकित्सा
अधिमंथ में कर्णनादादि अन्य अञ्जन
हताधि मंथ . घृतकी नस्य
। अन्यतोवातके लक्षण
.
.
७९७
८०३
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अनुक्रमाणकी।
पृष्टांक
८०३
बिषय
पृष्टांक विषय वात विपर्य के लक्षण
श्रेष्ठाञ्जन पित्ताभिष्यंद के लक्षण
सिरा ब्याधादि पित्ताधिमथ के लक्षण
८०४
शूल नाशक परिषेक कफाभियंद के लक्षण
आश्चोतन में क्वाथ रक्ताधिमथं के लक्षण
संधावप्रयोग अधिमंथ को विशेषता
अन्य प्रयोग सूजनवाला नेत्रप्रयोग
अन्य प्रयोग अक्षि पाकात्य रोग
दाह नाशक प्रयोग अम्लोषित के लक्षण
शोधनाशक प्रयोग सर्व नेत्ररोगों की संख्या
अन्य प्रयोग असाध्य रोग
आश्चोतन दृष्टिनाशक में काल परिमाण
घर्षादिनाशक गुटिका षोडशो ऽध्यायः ।
शोफनाशक अन्य प्रयोग प्रारूप में कर्त्तव्य
अम्लोषित की चिकित्सा दाहशांति में विडालादि कारण
उत्लष्टादिक १८ रोग चूर्ण व गुंठन
" पिल्लीभूत की सामान्य चिकित्सा अन्य चूर्ण
पिल्लुनाशक सेक मेत्र में औषध धारण सर्व दोषों में परिषेक
पिल्ल में अंजन
अन्य अंजन नेगपीड़ा पर सहजने का रस नेत्ररोग पर सक्तु पिण्डिका
अन्य प्रयोग वातज अभिष्यंद में आशचोतन
पिल्ल शुक्रनाशक घर्ति रक्त पित्ताभिप्यद की औषध
अन्य प्रयोग दाहादि नाशक रोग
पिल्लमें रोमवर्द्धक चूर्ण पित्तादिनाशक प्रयोग
पिल्ल रोपण काजल कफाभिष्यंद में कर्तव्य
अन्य कर्तव्यादि त्रिदोषज अभिष्यंद में कर्तव्य
स्वस्थनेत्र में सेवनविधि अन्य प्रयोग
बेग संरोधादिक वर्जन लेपादि प्रयोग
पाद शिराओं कीनेत्रों संलग्नता तिमिरादि में यथायोग चिकित्सा उपानहादि सेवन भ्रवादि दाह
सप्तदशोऽध्यायः । वातादि रोग नाशिनी वर्ती पित्तरक्त नाशिनी वर्ति
कान में दर्द का हेतु कफाक्षिरोगनाशिनी वर्ति
पित्त से दाहादि पाशु पात नामक योग
| कफज कर्णरोग शुष्काक्षिपाक की चिकित्सा
रक्तज कर्ण शूल उक्त रोगमेजन
सान्निपातक कर्ण शूल
Co0
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक
विषप कर्णनाद के लक्षण बाधरक्त का कारण प्रतीनाह का लक्षण कंडू शोफ रोगों के लक्षण प्रति कर्ण के लक्षण कृमिकर्णकके लक्षण कर्ण विद्रधि कर्णाश और कर्णावुद कृचिकर्ण रोग कर्ण पिप्पली विदारिका के लक्षण पाली शोष तंत्रका के लक्षण परिपोट के लक्षण उत्पात के लक्षण गल्लिर के लक्षण दुः खवर्द्धन के लक्षण लेह्या के लक्षण साध्यासाध्य विचार
, अष्टादशोऽध्यायः । बातज कर्णशूल में कर्तव्य कर्णशूल पर महा स्नेह वेल अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग पित्तज शूल में कर्तव्य शुल नाशक तेल कर्ण लेपन कफजकर्ण शूल की चिकित्सा कर्ण पूरण प्रयोग शूल नाशक रस बिजोरे का रस अन्य प्रयोग रक्तजकर्ण शूल की चिकित्सा पक्व कर्णशूल की चिकित्सा पिचुवर्तिका प्रयोग
पृष्टांक. | विषय ८१४ शूलादिनाशक विधि
साब नाशक प्रयोग नाद वार्यि का उपाय अन्य तेल वेदनादि नाशक तेल अन्य तेल अन्य प्रयोग कर्ण सुप्तीकी चिकित्सा अन्य उपाय बर्जित रोगी प्रतिनाह में कर्ण शोधन कटूष्ण लेपन पूति कर्णादका उपाय कर्ण बिद्रधि का उपाय अर्बुदकी चिकित्सा कर्ण विदारिका का उपाय पाली पुष्टतेल अन्य प्रयोग पाली छेदन अन्य विधि उम्पात में शीतल लेप अन्यजनमें तैलादि उन्मथकी चिकित्सा दुर्बिद्ध में पाली सेचन परिलेहिका की चिकित्सा छिन्नकर्ण की चिकित्सा कर्ण रोगविधान कर्ण वर्धन की शीति कर्ण वर्धन अभ्यंग नासा संधान छिन्नाष्ठ में करीन्य
एकोन बिंशोऽध्यायः । दोषों को प्रति श्याय जनक त्व बातज प्रति श्याय के लक्षण
पित्तज प्रतिश्याय के लक्षण , कफज प्रतिश्याय के लक्षण
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अनुक्रमणिका ।
पृष्टांक.
८२४
८२९
विषय. त्रिदोषज प्रति श्याय दुषितरक्त से प्रति श्याय दुष्ट प्रति श्याय के लक्षण पक्क प्रति श्याय के लक्षण भृश क्षवके लक्षण नासिका शोष के लक्षण नासानाह के लक्षण घ्राण पाक घ्राणस्राव रोम अपीनस रोग का लक्षण दीप्ति के लक्षण पूंति नासा के लक्षण पूय रक्त के लक्षण पूट के लक्षण अर्थोऽर्बुद के लक्षण उक्त रोगो के उपद्रव दुष्ट पीनस कोयापनत्व
विंशोऽध्यायः । पीनस में स्नेहनादि पीनसादि नाशक औषध धूमपान विधि स्नानादि निषेध बातज प्रतिश्याय में कर्तव्य पित्तरक्तज प्रतिश्याय नस्यकर्म का प्रयोग कफज प्रतिश्याय में उपाय सान्निपातक प्रतिश्याय दुष्ट पीनस की चिकित्सा नालिका द्वारा धूमपान पुटपाक का उपाय क्षवपुट नाशक प्रयोग नासां शोष का उपाय नासा पाकादि का उपाय पूति नासा का उपाय वमन प्रयोग
पृष्टाक. विषय.
| अन्य प्रयोग | नवीन पूयरक्त का उपाय अशीबुद चिकित्सा
एक विंशोऽध्यायः । " मुख रोग का हेतु
खडौष्ट के लक्षण
ओष्ठ की स्तब्धता पित्त पित ओष्ट कफदोषत ओष्ठ सन्निपात दूषित ओष्ठ रक्तोपरसृष्ट औष्ट के लक्षण मांसोपसृष्ट ओष्ट के लक्षण मेदो दुष्ठ ओष्ट के लक्षण गडालजी के लक्षण शीतरोग दंत हर्ष के लक्षण | दंत भेद के लक्षण चालाख्य रोग कराल रोग अधिदेत के लक्षण पूतिगध रोग के लक्षण कपालिका के लक्षण श्याव के लक्षण प्रलूनका लक्षण शीताद के लक्षण उपकुश के लक्षण दंत पुप्पुट के लक्षण दंत विद्राध के लक्षण सुषिर के लक्षण महा सुषिर रोग अधिमांसक रोग पांच प्रकार की मति वातादि दूषित जिहवा के लक्षण
अलसके लक्षण | अपि जिहवा के लक्षण | उप जिहवा के लक्षण
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अष्टांगहृदयकी।
पृष्टांक.
६
विषय. तालु पिटका के लक्षण गल शुडिका के लक्षण तालु संहति अवुद के लक्षण कच्छपके लक्षण पुप्पुट के लक्षण तालु पाक के लक्षण तालु शोष के लक्षण रोहिणी के लक्षण वात रोहिणी के लक्षण पित्त रोहिणी का कर्म कफजरोहिणी का कर्म रक्तजरोहिणी का कर्म सन्निपातक रोहिणी का कर्म कंठशाळूक रोग वृन्दा रोग तुंडि केटिका रोग गलोय का रोग वलय रोग गलायु का रोग शतध्न रोग गल विद्राधि रोग गलार्बुद रोग वातगलगंड रोग कफजगलगंड रोग मेदोगल गंड श्लेष्म गलगंड़ मुखपाक का लक्षण ऊर्ध्वगद पित्तज मुखपाक के लक्षण रक्तजमुखपाक कफजमुखपाक कफज अर्बुद सन्निपातक मुखपाक
पृष्टांक. विषय ८३४ | असाध्य रोगा का वर्णन
द्वाविंशोऽध्यायः । खंडोष्ट चिकित्सा अन्य उपाय नस्य प्रयोग वातज ओष्ठकोप का उपाय महास्नेह द्वारा प्रतिसारण वातोष्ठ में स्वेदन उक्तरोग में नस्यादि पित्तज ओष्ठक में रक्तस्राव उक्तरोग में प्रति सारण उक्तरोग में अभ्यंजन अन्यविधि रक्तज ओष्ठ प्रकोप का उपाय मेदोज ओष्ठ कोप का उपाय जलावुद की चिकित्सा अलजी का उपाय शीतदंत कीचिकित्सा दंतभेदादि का उपाय दांतों के हिलने का उपाय अधिक दंतका उपाय शर्करा नाशक उपाय कपालिका का उपाय कृमिदंत का उपाय अन्य प्रयोग | गंडूष विधि अन्य उपाय
नस्य प्रयोग ८३८ दांत उखाडने का उपाय
शीताद का उपाय उपकुश का उपाय दंतपुप्पुट का उपाय दंतविद्रधि का उपाय सौपिर का उपाय
आधिमांस का उपाय | विदर्भ का उपाय
मुखदाँध
रोगों की संख्या
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विषय.
दंतवाली का उपाय वातकंटक की चिकित्सा पित्त जिह्वा को उपाय कफज जिह्वा कंटक
नवीन जिव्हाळसका उपाय
अधि जिह्वा का उपाय उप जिल्हा का उपाय शुडिका का उपाय वृद्धगल शुंडिका का उपाय सम्यक छिन में कर्त्तव्य पाद का उपाय
अपक्व तालु पाक की चिकित्सा
पक्व तालु पाक का उपाय तालु शोष में कर्त्तव्य
कंठरोग में कर्त्तव्य कंठरोग में प्रतिसारण
उक्त रोग पर लेप
बाज रोहिणी का उपाय पित्तज रोहिणी की चिकित्सा
रक्तज रोहिणी का उपाय कफज रोहिणी का उपाय वृन्दादि की चिकित्सा विधि की उपाय बातज गलगंड की चिकित्सा गलगंड में तैल पान
कंफज गलगंड का उपाय उक्तरोग में क्षार पानादि मेदोभव गलगंड का उपाय अशान्ति में कर्त्तव्य
मुखपाक का उपाय
मुखपाक का उपाय रक्तज और कफज मुखपाक पिटिकाओं का विलेखन
सन्निपातक मुख
नवीन अर्बुद का उपाय पूति मुख का उपाय
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अनुक्रमणिका ।
पष्टांक | विषय.
८४३ | कंठरोग नाशक गोली सर्व रोग नाशक तैल
८४४
मुख का उद्वर्तन
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19
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अन्य प्रयोग
33
दंत दृढीकरण गंडूष ८४६ | मुखरोग में रक्तस्राव
उक्त रोगों में संशोधन मुखरोगों में पथ्य
मुखरोग के उपाय में शीघ्रता त्रयोविंशोऽध्यायः ।
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अन्य गुटका
अन्य तैल
अन्य प्रयोग
मुख नाशक अन्यप्रयोग उक्त रोगों पर चूर्ण कालक चूर्ण पीतक चूर्ण
गल रोग नाशनी गुटिका
हरीत की सेवन
मुखपाक नाशक काथ मुख रोग नाशक कषाय
मुखपाक नाशक प्रयोग
शिरो रोगं का कारण
बातज शिरो रोग अद्धा भेदक के लक्षण
कफज शिरोऽभिताप
रक्तज शिरोभिताप सन्निपातक शिरो भिताप
सिरकंप के लक्षण पित्तप्रधान दोषों के रोग सूर्यावर्त के लक्षण
कमाल गत नोव्याधि उपशिर्षिक रोग
पिटिकादि के लक्षण
दारुणक के लक्षण
इन्दुलुप्त के लक्षण
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पृष्टांक.
33
८४९
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अष्टांगहृदयकी
विषय
पृष्टांक. विषय. खलित के लक्षण
श्वेत केशों की चिकित्सा बातज खलित
जल सेकका निषेध पलितका कारण
केश वर्धन प्रयोग पलित के लक्षण
अन्य उपाय शिरो रोग पलित
पलित नाशक नस्य असाध्य खलितादि
अन्य प्रयोग पलितादि में रसायन
अन्य लेप
अन्य प्रयोग चर्तुविंशोऽध्यायः ।
केश वर्धन प्रयोग वातजशिरोभि तापकी चिकित्सा
पालत में चूर्णा दिक अन्य उपाय
अन्य प्रयोग शिरो रोग में नस्य
शिरारोग नाशक तेल उक्त रोगमें घृतपान
अन्य नस्य अन्य नस्य
मायूर घृत रक्त पित्तज शिरोरोग
महा मायूर घृत अर्द्धव भेदक का उपाय
अन्य प्रयोग उक्तरोग में नस्यादि
रोगोंकी संख्या सूर्यावर्तकी चिकित्सा
उक्त रोगकी चिकित्सा में शीघ्रता पित्तज शिरोमि तापका उपाय
बैद्य को उपदेश रक्तज शिरो रोगका उपाय
पंचविंशोऽध्यायः । कफज शिरो रोगकी चिकित्सा
| व्रणको द्विविध त्व कृमि शिरोरोगका उपाय
दुष्ट व्रणकी आकृति नस्य विधि
दुष्ठव्रण के भेद कृमि नाशक योजना
बातज व्रणके लक्षण नस्य व्यों का धुआं
पित्तज व्रणके लक्षण रक्तमोक्षण का निषेध
कफज व्रण के लक्षण कंपकी चिकित्सा
रक्तज ब्रणके लक्षण पित्तज शिरोभितापका उपाय
संसर्ग ब्रण के लक्षण आमादि का उपाय
शुद्ध ब्रणके लक्षण अरूषिका का उपाय
व्रणको दुस्साध्यत्व अन्य प्रयोग
सुसाध्य के लक्षण उक्त रोग में तैल मर्दन
कष्टसाध्य घाव उक्त रोग वमनादि
अन्यदुस्साध्य व्रण दारुणाक का उपाय
असाध्य व्रण इन्दूलुप्तकी चिकित्सा
साध्य ब्रण को असाध्यता अन्य औषध
घाप भरने के लक्षण
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अनुक्रमणिका।
८७२
"
विषय. घाव में शोधन शोफावस्था में शीतोपचार सूजन और घाव में रक्त हरण नाव के पीछे लेपादि शोफनाशक प्रदेह दाहादि नाशक लेप मेद वेदना में स्वेदादि सूजन पर उपनाहादि उपनाहन में सत्त का गोला सूजन में विदारण प्रयोग पक्व शोफ में विदारक द्रव्य पूय गर्भ सूजन का पीडन लेप विशेष कलायादिक प्रपीडन अन्य प्रयोग व्रण में धोने में काथ घाव के शुद्ध करने वाला लेप घाव के शोधन में वत्ती बातज व्रणों में धूपन पित्तादि ब्रण में कर्तव्य गंभीर व्रण में उत्साहनादि अन्य अवसादन उत्सन्न ब्रों का शोधन घाव में अग्निकर्म घाव को पुराने वाले द्रव्य घाव तिलका कल्क तिलको श्रेष्ठता जौ का कल्क घाव में घृत का प्रयोग रोपण तेल धाव में चूर्ण अन्य चूर्ण त्वचा को शुद्ध करनेवाला लेप सर्वण कारक लेप रोमोद्भव लेप घाव में पथ्य
पृष्टांक. | विषय.
पृष्टांक. वाताधिक्य में बात नाशक प्रयोग ८७१ ब्रण में यथायोग्य औषध घृत का प्रयोग
षडविंशोऽध्यायः । व्रण जुष्ठ आठ प्रकार के अंग ८६७ आठों के लक्षण
सद्योब्रण में सेवन
घाव की गर्मी पर लेप | आपत व्रण की चिकित्सा संसरभ ब्रण का शोधन घृष्टादि की चिकित्सा विक्षत में नहपानादि सात दिन के पीछे का विधान घृष्ट व्रण में चूर्ण
८७३ अवकृत्त की विकित्सा अविलंवित का उपाय स्फुटित नेत्र में कर्तव्य | नेत्र रोग पर घृत | नेत्र का अन्य प्रयोग कान में सीमन छिन्नक करिका में सीमन उक्त रोग में घृत परिषेक हाथमें सीवनादि बिलंवि मुष्कस्य सीवनादि उक्त रोग में तेल छिन्नशाखा का दग्ध करना सिर में वर्ति प्रयोग शल्य निकलने पर स्नेह बस्ति ८७५ गहरे घावों का उपाय | भिन्न कोष्ट में उपाय
आमाशयस्थ रुधिर में कर्त्तव्य | पक्वाशयस्थ रुधिर अभित्राशय का रुधिर से भरना अंत लोहितादि का वर्णन | भामाशयस्थरक्त में वमनादि
"
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अष्टांगहृदयकी
विषय. पृष्टांक. विषय,
पृष्टांक. अन्य विधि
८७६ अंसंधि भग्न में कर्तव्य रक्तपान विधि
भग्न के न पकने का उपाय कोष्ट भेदन में दो विधि
भग्न में स्नह प्रयोग भिन्न कोष्ठ में जीवन के लक्षण
भग्न में मात्रादि द्वारा उपचार अंत्र प्रवेश में मत
भग्न में निषिद्ध द्रव्य मंत्र के भीतर प्रवेश करने का विधि , बात पितज दोषों पर गंधतेल मंत्र व्रण सीवन
. अष्टाविंशोऽध्यायः । अन्य उपाय
भगंदर के लक्षण मेदोवर्ति के निकलने मे कर्त्तव्य ८७७ भगंदर की क्रिया घाव में रोपण तेल
भगंदर के भेद गूढ प्रहार में कर्तव्य
पिटिका और भगंदर का अन्तर तैल को द्रोर्णी में निवास
भगंदर जमक पिटका सप्तविंशोऽध्यायः ।
बातज पिटिका के लक्षण भंग के दो भेद
पित्तज पिटिकाके लक्षण ८७८
कफज पिटिकाके लक्षण दुःसाध्यभंग
बात पित्तज पिटिका अन्य बर्जित अस्थि
बात कफज पिटिका अन्य बर्जित अस्थिभंग
त्रिदोषज पिटिका दुास में वर्जन
उक्त पिटिकाओं में प्रमाद का फल अन्य दुःसाध्य भंग में चिकित्सा की गति
उष्टग्रीव भगंदर
परिस्राबी भगंदर मध्यम प्रकार के वंधन की रीति ,
परिक्षेपी भगदर शिथिल और गाढ बंधन
ऋजु संज्ञक भगंदर ऋतु विशेष में मोचन काल
अशा भगदर संधि पर परिषेक
शंकावर्त भगंदर चक तैल पर प्रयोग
उन्मार्गी भगदर शीतल परिषेक
भगंदर में वेदनादि गृष्टि क्षीर पान
भगंदर का साध्या साध्य विचार सत्रण भग्नकी चिकित्सा
पिटकाके न पकने का यत्न वण का संधान
| भगंदर का अवलोकन व्रण पर अवचूर्णन
अंतर मुखादि में उपाय साध्या साध्य घाव
शत पोनक भगंदर का यत्न संधिको स्थरता का काल
परिक्षेपी का उपाय कस्यादि भग्न में कर्तव्य ८८१
अर्शीभगंदर की चिकित्सा पट्टा खोलने की विधि ।
वहुछिद्र भंगदर विरविमुक्त संधि में स्नेहन
गोतीर्थादि के लक्षण
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अनुक्रमणिका।
-
पृष्टां .
८९२
८८७
विषय.
पृष्टांक. | विषय. भगंदर में अग्निदाह
८८६ बातज नाड़ी के लक्षण भगदर में कोष्ठ की शुद्धि
पित्तज नाड़ी के लक्षण घाव पर लेप
कफज नाड़ी के लक्षण अभ्यंगार्थ तेल
त्रिदोषज नाड़ी अन्य तेल
शल्यज नाड़ी भगंदर पर लेह
त्रिंशोऽध्यायः। पिटिकादि पर औषध
अपक्व ग्रंथि की चिकित्सा स्वायं भुवाख्य गूगल
ग्रंथि पर स्नेहादि वातरोग नाशक औषध अन्य प्रयोग
ग्रंथि का स्वेदादि अन्य भगंदरों की यथायोग्य चिकित्सा ,,
अपक्व ग्रंथि का छेदनादि रूढ भगदर में चर्जित कर्म
ग्रंथि में अग्निकर्म . एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
मारुज ग्रंथि ग्रंथि की उत्पत्ति
मेदोज ग्रंथि का उपाय भ्रंथि के नौ भेद
सिरा ग्रंथि की चिकित्सा बातजग्रंथि
अर्बुद की चिकित्सा पित्तज ग्रंथि
बातज श्लीपद का उपाय कफज ग्रंथि
पित्तश्लीपद की चिकित्सा दोष दुष्टरक्त की ग्रंथि
कफजश्लीपद कीचिकित्सा दूषित मांस की ग्रंथि
अपचीकी चिकित्सा मेदो ग्रंथि के लक्षण
अपक्व ग्रंथियों पर लेप अस्थि ग्रंथि के लक्षण
लेप की विधि सिरा ग्रंथि के लक्षण
पाकोन्मुख ग्रंथि का उपाय व्रण ग्रंथि
! गंड माला की चिकित्सा साध्या साध्य ग्रंथियों का वर्णन अपची पर तेल अर्बुद के भेदादि
कुष्ठादिनाशक तेल रक्ताबुर्द के लक्षण
अपची नाशक अन्यतैल श्लीपद के लक्षण
अन्य प्रयोग बातज श्लीपद
अन्य तेल पित्तज और कफज श्लीपद
तेल का लेप श्लीपद का साध्या साध्य बिचार दाहबिधि हाथ में श्लीपद
निमि मुनि का मत गंडमाला की उत्पत्ति
सुश्रत का मत असाध्य गंडमाला
अन्य आचार्यों का मत नाड़ी विज्ञान
बात नाड़ी में शस्त्र प्रयोग नाड़ी के भेद
पित्तज नाड़ी
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६८
विषय. कफज नाड़ी शल्यजा नाड़ी
छेदना योग्य नाड़ी का दारण
नाड़ी का उपाय नाड़ी व्रण पर लेप
नाड़ी व्रण पर कल्क
गतिनाशक उपाय
एक त्रिंशोऽध्यायः ।
अज गल्लिका के लक्षण
यव प्रख्या कच्छपी पिटिका
पनसिका के लक्षण
पाषाण गर्दभ
मुखदूषिका के लक्षण
पद्म कंटका के लक्षण विवृता पिटिका
मसूरिका के लक्षण
विस्फोटा के लक्षण
विद्धा के लक्षण गईभी पिटिका
कक्षा पित्तज कक्षा गंधनामा पिटिका
राजिका के लक्षण जालगर्दभ पिटिका अग्निरोहिणी के लक्षण इरि वेल्लिका विदारी पिटिका
शर्कराबुर्द के लक्षण बल्मीक पिटिका
कदर के लक्षण रूद्ध गुद के लक्षण अक्षत रोग के लक्षण
कुनख के लक्षण अलस के लक्षण तिलकालक के लक्षण
के लक्षण
भाष
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अष्टांगहृदयकी
पृष्ठांक. | विषय ८९७ | चर्म कील के लक्षण
जतु मणि के लक्षण
लांछन के लक्षण
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75
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33
33
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८९८
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13
33
अजगलिका का उपाय
यव प्रख्या का उपाय
पाषण गदर्भ का उपाय मुखदूषिका की चिकित्सा पद्मकंटक में उपाय
33
८९९ विवृतादि की चिकित्सा
to गर्दभ में कर्त्तव्य
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प्रसुप्ति के लक्षण कोढ के लक्षण छत्तीस क्षुद्ररोग
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द्वात्रिंशोऽध्यायः ।
व्यंग और नीलिका
39
बातादि दोष जन्य व्यंग के लक्षण ९०२
विदारिका की चिकित्सा शर्करार्बुद की चिकित्सा वल्मीक को असाध्यता
अन्य वल्मीक रोग पर लेप
पक्ववल्मीक का उपाय
कदर का उत्कर्तनादि
चिप्प की चिकित्सा
दुष्टनख में कर्त्तव्य
अललक की चिकित्सा तिलकालकादि की चिकित्सा
चर्मकील और जतुमणि
लांछनादि का उपाय
व्यंगादि में लेपन
व्यंगनाशक लेप
अन्य लेप
अन्य लेप
सर्व कारकलेप
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उवटना
अभ्यंग
अन्य अभ्यंग
मीलिकादि नाशक नस्य
पृष्ठांक
९०१
33
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93
९०५
ༀ རྨ ྐ རྒྱུ ༢༠
९०६
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अनुक्रमणिका ।
विषय व्यंगादि नाशक औषध नस्य प्रयोग प्रसुप्ति की चिकित्सा उत्कोठ की चिकित्सा
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः । उपदशाद २३ रोग उपदेश के भेद वातज उपदंश के लक्षण पित्तज उपदंश कफज उपदंश रक्तजउपंदश त्रिदोषज उपदंश उपदंश में साध्यासाध्यता मांस कीलक का वर्णन सर्षपिका पिटिका अवमंथ के लक्षण कुंभी का पिटिका अलजी के लक्षण उत्सम पिटिका पुष्कारिका के लक्षण संध्यूढ पिटिका मृदित के लक्षण अष्ठीलिका के लक्षण निवृतसंज्ञक रोग अषपाटिका निरुद्धमणि रोग ग्रंथिताख्य रोग स्पर्शहानि रोग शतपोनक के लक्षण त्वपाक रोग मांसपाक रोग रक्ताद मोसार्बुद के लक्षण तिलकालक के लक्षण वर्जितरोग
पृष्टांक विषय
पृष्टांक, ९०६ योनिके २० भेद
योनिसंबंधीवात की व्यापत
अतिचारण योनि | प्राकरण उदावृत्ता व्यापत् जातनी व्यापत अंतर्मुखी योनि सूचीमुखी योनि
शुष्काच्यापत् " वामनी के लक्षण
पंडसंक्षक योनि महायोनि पैत्तिकी व्यापत् रक्तयानि श्लेष्मकी व्यापत् | लोहितक्षया
परिलता व्यापत् | उपप्लुता योनि | विप्लुता योनि | कणिनी के लक्षण
सन्निपात का व्यापत् गर्भके ग्रहण करने का कारण
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः । | नवीन उपदंश की चिंकित्सा
धौने का क्वाथ | उपदंश पर लेप | उपदेश पर रोपण प्रतिदोष चिकित्सा पाक के अभाव में अलियन छिन्नदग्ध में उपदंशवत क्रिया अवमंथ की चिकित्सा कुंभीका की चिकित्सा
अलजी की चिकित्सा ... ! उत्तमा की चिकित्सा
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक
बिषय पुष्कर व्यूढकी चिकित्सा लकपाक की चिकित्सा मृदित की चिकित्सा अष्ठीला की चिकित्सा निवृतरोग की चिकित्सा अवपाटिका में कर्त्तव्य निरुद्धमाण की चिकित्सा ग्रंथित की चिकित्सा शतपोनक का उपाय रक्ताबुंद का उपाय अवस्थानुसार उपचार योनिव्यापत् में चिकित्सा उक्त क्रिया में हेतु वलातैलादि का प्रयोग वमनादि का प्रयोग घृतका प्रयोग अन्य औषध वृषकादि पान रास्नादि दुग्ध योनिमें परिषेक योनि में पिचु प्रयोग पित्तल योनियों का उपाय योनिदोष पर अवलेह रोगनाशक घूत वातपित्त योनि रोग रक्तयोनि की चिकित्सा पुष्यानुग चूर्ण कफदूषित योनि का उपाय योनिशूलनाशक तेल यवान्नादि प्रयोग विशदता कारक चूर्ण दुर्गंधादि युक्त योनिका उपाय मृदुता कारक प्रयोग दुर्गधिर योनि में काढा कफ दुष्ट योनि में वस्ति
पृष्टांक बिषय ९१५ | सन्निपातज योनि रोग
शुद्धयोनि में गर्भाधान | दुष्ट शुक्र की परीक्षा योनिशुक्र दोष पर घृत
पंचत्रिशोऽध्यायः । विषकी उत्पत्ति स्थावर विष का वर्णन जंगम विषका वर्णन विष और गर का अन्तर विषके गुण विषको प्राणनाशकत्व प्राणनाशका हेतु प्रथम बेगके लक्षण दूसरा वेग तीसरा बेग चौथा वेग पंचम बेग छटा वेग सातवां वेग प्रथम वेग की चिकित्सा द्वितीय वेग की चिकित्सा तीसरे वेग की चिकित्सा चौथा वेग पांचवां बेग छटा बेग सातवां वेग सर्व विषनाशक यवागू पया का विधान चन्द्रोदय औषध दूषी विष पीडित के लक्षण रसस्थ बिषके लक्षण | दूषी विष पीडित के लक्षण
|दूषी विष पर अवलेह " | दूषी विष नाशक औषध
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अनुक्रमणिका।
पृष्टांक.
..
..
विषय
पृष्टांक. विषय विष लिप्त शस्त्र से बिद्ध के लक्षण ९२५ | रक्त में मिलकर विषका वढना शल्याकर्षण मे कर्तव्य
सर्पागाभिहत के लक्षण विष लिप्त शस्त्रविद्ध की चिकित्सा
शंका विषके लक्षण दुर्गेधित व्रण का उपाय
सविषनिविष दंश के लक्षण विषदेने बालों का वर्णन
दर्वीकरादि का प्रथम बेग गरके लक्षण गर पीडित के लक्षण
दर्वीकर के द्वितीय वेग गर पीडित का नाश
मण्डलिदष्ट के वेगों का लक्षण
राजिमान् के वेगों के लक्षण गर पीडित का कृत्य
बेगों का साध्या साध्यत्व गर विष पर अवलेह
जल के सर्पो का वर्णन गरो पहताग्नि का उपाय
त्याज्य विष दष्ट के कक्षण बिष जन्य तृषा का उपाय
अन्य लक्षण सौमें एक का जीवन
अन्य लक्षण क्षुधादि द्वारा विषकी वृद्धि ९२८
अन्य लक्षण शरद में विष की मंद बीर्यता
विष शांति में शीघ्रता . वैद्य को उपदेश
विषके लने का काल फफज विषमे कर्तव्य पैत्तिक विष में कर्तव्य
देश का उत्कर्तन
दष्टपुरुष का कर्तव्य वातिक विष का उपाय
दंशस्थान पर बंधन विष में घृत को उत्तमता
दंशका उद्धरण विषको साध्यासाध्यत्व
दंश दहनादि ___षत्रिशोऽध्यायः ।
अगद से बारबार लेपन
विषफैलने पर सिराज्यध सों के तीन भेद
सविषरुधिर के लक्षण द-करादि के विष के गुण विषोल्बणतां का काल
अदृष्यसिराओं में रक्तमोक्षण दर्वी कर सौ के लक्षण
सूतशेषरक्त का स्तंभन मंडली के लक्षण
अस्कन्नादि रक्तमें मुछी राजिमान के लक्षण
स्कन्नरुधिर में शांति गोधर के लक्षण
विषशांतहोने पर घृतपान व्यंतरा के लक्षण
विषार्त को वमन सर्प के काटने का कारण
सुजंग दोषाधनुसार क्रिया कारणानुसार चिकित्सा
किरदष्ट में पानादि व्यंतर सर्पका मार्ग में बैठना
कालेसांप की दवा दष्टका साध्यासाध्य विचार
" । राजिमान सोको दवा
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अष्टांगहृदयकी
me
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विषय
:
२
:::
पृष्टाक; बिषय
पृष्टांक, मण्डलीसपों की भौषध ९३६ मध्यमविष विच्दुओं के लक्षण ९४१ हिमवान औषध
महाविषविच्छुओं के लक्षण मंडलीदष्ट पर पान
महाविषदष्ट के लक्षण गौनसविष की औषध
उष्टधूमक विच्छू राजीमान् सोंकी दवा
कीडों को दोष परता कांडचित्रा का दंश
दोषानुसार चिकित्सा व्यंतरदष्ट की चिकित्सा
बातिकविषं के लक्षण भुजंगदष्ट पर पानादि
पित्तोल्बणविष के लक्षण तक्षकट पर पान
कफाधिक्यविष के लक्षण दर्वीकरके प्रथमवेग की चिकित्सा ,
बातिक.विष का उपाय द्वितीयवेग की चिकित्सा
पैत्तिाविप में उपाय तृतीयवेग की चिकित्सा
श्लौमिकविश में उपाय मंडलीसर्पके वेगों का उपाय
त्रिविधकीटों की चिकित्सा राजिमान् के वेगोंमें कर्तव्य
विषमधूपन अनुक्तवेगों में कर्तव्य
विषनाशक विधि गर्भिण्यादि की चिकित्सा
कीरवृश्चिक का उपाय सर्पविषनाशक पान
कीटविष में पान भातों का अंजन प्रलेपादि
कीट विषनाशक लेप विषापगम में कर्तव्य
अन्य लेप शंकाविष में कर्तव्य
विष नाशक औषध पान कतनादि धारण
वृश्चिक दंशा पर चक्र तेल छादि धारण
घृत परियेक
देश पर उपनाह सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।
चूर्ण द्वारा प्रतिसारण चार प्रकार के कीट
देश पर लेपादि बातजकीट के लक्षण
वृश्चिक विषनाशक औषध पैत्तिककीटदष्ट के लक्षण
अन्य गोली कफजकीट के दशके लक्षण
दंश लेपन सान्निपातिककोर्ट का लक्षण
दारुण पीडा पर लेप कीटदष्टके वेगों का वर्णन
उन विष पर घृत पान सर्वदेशों में कर्णिकादि
बील के विष पर लेप वृश्चिकदंश के लक्षण
उच्चटिंग की चिकित्सा तीनप्रकार के विच्छ
अन्य उपाय मंदविष विच्छूमो के लक्षण
। अन्य प्रयोग
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अनुक्रमणिका ।
mmmmmmaramane
९५१
विषय पृष्टांक | विषय
पृष्टांक विषसंक्राति कृत अगद
सैंधवादि प्रयोग मकड़ियों की संख्या
कर्णिका पात में वृंहण उक्त विषय में हेतु
लूता विष में नेहन लूता विषका साध्यासाध्यत्व
लूता विष पर तीन प्रयोग पैत्तिक देश के लक्षण
लूता नाशक पानादि कफज दंश के लक्षण
अष्टत्रिंशोऽध्यायः । बातिक दंश के लक्षण
| चूहों के अठारह भेद दोषानुसार विभाग लक्षण
चूहाँ के विष की प्राप्ति असाध्य के लक्षण
चूहे के बिष में संवदेह का फैलना , असाध्य के तीन भेद
मूषक विष के असाध्य लक्षण मकडी के दंश के लक्षण
आखु दूषित वर्ण्य के लक्षण मकडी के श्वास से विष
वावले कुत्ते के लक्षण मकड़ी के श्वास से विष वमन
वावले कुत्ते के काटने के लक्षण मकड़ी आदि के दंश स्थान
वावले शृगालादि मकड़ी के प्रथम दिनका लक्षण ९४७
सविष देष के लक्षण दूसरे दिनका लक्षण
रोगीका मरण चतुर्थ दिनका प्रकार
त्रास संज्ञ दष्ट का निषेध पंचम दिन का प्रकार
आखु विष पर दाह छटे सातवें दिनका प्रकार
दग्ध देश का विस्त्राव तीक्ष्ण विष के उक्त लक्षण
चूहे का विषनाशक लेप विष शमन का काल
दंश का धोना मकड़ी के दंशोद्धरण
उक्त रोग में बमन दंश छेदन का निषेध
धमनकारक चूर्ण दग्ध देश पर लेप
अन्य चूर्ण रक्त हरणादि
उक्तरोग पर विरेचन पद्मक नामक अगद
उक्तरोग में अंजन चपक नामक औषध
उक्त रोग पर अपलेह अन्य प्रयोग
पक्क घृत पान मंदर और गंध मादन
अन्य क्वाथ विष नाशक विशोधन
उक्त रोग पर चूर्ण कफ में बमन
आखु विष नाशक कल्क उक्त रोग में विरेचन
अन्य प्रयोग दाद निवृति में कर्तव्य ९४९ अन्य उपाय अन्य प्रयोग
i: , अन्त प्रयोग
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अष्टांगहृदयकी
पृष्टांक
९५३ / अन्य प्रयोग
९८
बिषय
पृष्टांक | विषय अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग चिकित्सा की विधि
चीते का प्रयोग कुत्ते के काटने पर लेप
चीते का प्रयोग उक्त रोग पर विरेचन
अन्य अवलेह अन्य उपाय
भल्लातक प्रयोग विष मालर्क भेदक पान
भल्लातक स्वरस प्रयोग रोगी को स्नान
अमृतरस तुल्यपाक चतुस्यदादिकों का दंश
कुष्ठ नाशक तेल उक्त रोग पर लेप .
अन्य भल्लातक प्रयोग एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः । अमृतकल्प भल्लातक
भिलावे की प्रशंसा रसायन से दीर्घ जीवनादि
९५५ भलीतक में वर्जित्त द्रव्य रसायन प्रयोग
सर्व कुष्ठ नाशक तैल रसायन का निष्फल होना
अन्य प्रयोग रसायन के दो प्रयोग
द्विशतायुस्कर तेल रसायन में स्थान
सर्वकुष्ठ नाशक तेल रसायनरम्भ में कर्तव्य
अन्य प्रयोग विरेचन विधि
९५६
द्विशता युश्कर तेल यावक प्रयोग
त्रिशतायुस्कर तैल रसायन प्रयोग
पिप्पल प्रयोग ब्राह्म रसायन
अन्य प्रयोग अन्य रसायन
अन्य प्रयोग अन्य रसायन
कासादि नाशक प्रयोग च्यवनप्राश
अन्य प्रयोग त्रिफला रसायन
शुंठी प्रयोग अन्य रसायन
रसायन कोद्धी गुण प्रकर्ष अन्य प्रयोग
घाकुची अवलेह पंचार विद रसायन
अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग पार्द्धक्य नाशक रसायन
लहसन की विधि अन्य अवलेह
लहसन को श्रेष्ठत्व शाक्त वर्द्धक प्रयोग
लहसन के सेवन का काल अन्य प्रयोग
| लहसन को प्रयोग
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अनुक्रमणिका ।
पृष्टांक
बिषय
पृष्टांक. | विषय वेदना मैं स्वदादि
| बालों का काला करने वाला अवलेह ९१३ शेषरस का प्रान
अन्य प्रयोग शीतल लेपादि
शिलाजतु प्रयोग लहसन की मात्रा का परिमाण | अन्य प्रयोग लहसन पर पथ्य
अन्य प्रयोग तृषा में मद्यादि सेवन
| मंडक पर्णी प्रयोग लहसन के कल्क का सेवन
अन्य प्रयोग लहसन के सेवन का अन्य प्रकार
नरसिंह धृत लहसन को उत्तमता
अन्य प्रयोग लहसन को बिपजनकत्व लहसन के प्रयोग में विरेचन
अन्य प्रयोग शिलाजीत का कल्क
साध्यासाध्य रसायन शिलाजीत के लक्षण
भृष्ट रसायन में कर्तव्य उत्तम शिलाजीत के लक्षण
रसायन रूप पुरुष शिलाजीत की भावना विधि
रसायन सेवी के लक्षण भावना की विधि
शास्त्रानुसारी रसायन शिलाजीत का प्रयोग शिलाजीत का विविध प्रयोग
चत्वारिंशोऽध्यायः। शिलाजीत को रसायनत्व
बाजी करण औषध का फल शिलाजीत को सर्वरोग नाशकता , वाजीकरण का अर्थ फुटीप्रवेश विधि
ब्रह्मचर्य की श्रेष्ठता बातातप विधि
स्निग्ध को निरूहणादि ठंडेजल का पीना
व्यवायकाल हरीत का सेवन
स्निग्ध को निरूहणादि अन्य प्रयोग
अपत्यहीन की निंदा जरा विकार नाशक लेह
अपत्वलाभ का महत्व तारुयादि कारक योग
वाजीकरण के योग्य देह बलकारक अवलेह
बाजीकरण प्रयोग बिडंग प्रयोग
अन्य चूर्ण अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग जरानाशक प्रयोग
अन्य प्रयोग अन्य प्रयोग
अन्य प्रयोग मूर्वादि प्रयोग
९७२ अन्य चूर्ण विकार नाशक घृत
| अन्य प्रयोग असगंध का प्रयोग
अन्य प्रयोग काले तिलों का प्रयोग ९७३ / अन्य प्रयोग
९
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७६
अष्टांगहृदयकी।
विषय अन्य प्रयोग दही की मलाई का प्रयोग अन्य प्रयोग पौष्टिक प्रयोग संभोग विधि शब्दस्पर्शादि का सेवन शब्दादि युक्त स्त्री सेवन योग्य स्त्रीके लक्षण काम शास्त्रोक्त रतिचा बाजीकरण प्रयोग फा त्पादक प्रयोग आत्मसंग्रह अग्निवेश का प्रश्न प्रश्न का स्वरूनय प्रश्न का उत्तर उक्त उत्तर में दृष्टांत उपायसाध्यों को सिद्धत्व
पृष्टांक. विषय
पृष्टांक. ९७९ दैववैगुण्यसे सिद्धत्व न होना
उक्तसिद्धांत का प्रतिपादन चिकित्सा तंत्रके फलत्व में हेतु चिकित्सा में संशय त्याग शस्त्र का अकांड मृत्यु पाश छेदनत्व , चिकित्सा शस्त्र को अमरत्व , भिषक् पाश का त्याग सुवैद्यों की भद्रता चिकित्सा शास्त्र का मंत्र वत्प्रयोग उक्त ग्रंथ का फल इस ग्रंथ को श्रेष्ठत्व
उक्त कथन में हेतु ९८२ आद्य ग्रंथों के पाठ से लाभ न होना ९८७ ९८३ | उक्त कथन में कारण
उक्त कथन में अन्य युक्ति सुभाषित ग्रंथ का आदर संसार का मंगल कामना
इतिश्री अष्टांगहृदयानुक्रमणिका समाप्ता ।
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सिंहास्यपत्र
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श्वेतास्ययंत्र
क्रौञ्चास्ययंत्र कर्णावमलनास्य
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ॐॐॐ
॥ श्रीहरिवन्दे || श्रीवृन्दावनविहारिणेनमः ।
॥ अष्टाङ्गहृदयम् ॥
* भाषाटीका समेतम् * सूत्रस्थानम् ॥
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* मङ्गलाचरण
नत्वा श्रीस्वर्गसद्वैद्यान् धन्वन्तरिमुखान्मुहुः गुरूदयप्रकाशाख्यान्महर्षीश्चकृपार्णवान्।। गीर्वाणभाषा सुकुमारबुद्धयोयेदृष्टुकामाऋषिभिर्विनिम्मितान् ग्रन्थानहं जातुकृते चतादृशाम् व्याख्यामितान्मर्त्यंगिरायथामति ॥ १ ॥
ग्रंथकारका मंगलाचरण |
रागादिरोगान सततानुषक्ता
नशेष कायप्रसृतानशेषान् । मौत्सुक्यमोहारतिदान् जघान
योऽपूर्ववैद्याय नमोऽस्तुतस्मै ॥ १ ॥ अर्थ - मन और देह दोनोंको सन्ताप पहुंचानेवाले राग, द्वेष और लोभादि रोग, जो स्वाभाविकही निरन्तर प्राणियोंके संग लगेहुए हैं और जो संपूर्ण शरीरमें व्याप्त होगये हैं अथवा गजतुरगोरगादि सबशरीरमें विशेष रूपसे व्याप्त होगयेहैं और जो औत्सुक्य ( विषयोत्कंठा ), मोह ( कार्यकी अनभिज्ञता ), और अरति ( अनवस्थिति ) देनेवाले हैं ऐसे रागादि अ
१
शेष अर्थात् समूल रोगोंको जिसने नाशकर दियाहै उस अपूर्व वैद्यको नमस्कार करताहूं १ प्रथमोऽध्यायः ।
अथात आयुष्कामीयमध्यायं व्याख्यास्या मैंः । इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ॥
अर्थ - तदनन्तर आत्रेयादिक महर्षि कहने लगे कि अब हम यहांसे आयुष्कामीय अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
( १ ) अथ शब्द आनन्तर्यार्थ बोधक है अर्थात् पहिले किसी अन्य प्रकरण पर व्याख्यान होरहाथा उसके अनन्तर आयुष्कामीय प्रसंग पर व्याख्यान प्रारंभहुआ ( २ ) अथ शब्द अधिकार बोधक है अर्थात् अब यहां से
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अष्टाङ्गहृदये।
जो कुछ व्याख्यान कियाजायगा उस सबमें दीर्घजीवनकी अभिलाषा करनेवालोंको आयुआयुको स्थिर करने की इच्छा करने वालोंके वैदिक शास्त्रोंके उपदेशों पर अत्यन्त आदर रखलिये हितकारी उपायोंका वर्णन कियाजायगा | ना उचितहै अर्थात् उसमें कहेहुए उपदेशों ( ३ ) अथ शब्द मंगलसूचकहै, कहाभी है को अच्छी तरह समझकर उनके अनुसार व्यव" ओंकारश्चाथशब्दश्चद्वावेतौ ब्रह्मणःपुरा । हार करनेसे आयु बढतीहे और आयुके बढने गण्डौ भित्वाविनिर्यातौ तेनेमोमंगलौ स्मृतौ " से धर्मअर्थ और ( तादाविक तथा आत्यन्तिओंकार और अथ ये दोनों शब्द प्रथमही ब- क ) दोनों मुखोंकी प्राप्ति होतीहै । मके कंठको भेदकर निकलेहैं इसलिये ये दोनों अब आयुर्वेदका गौरव प्रतिपादनके लिये मंगलसूचक हैं । ग्रन्थकारने अपने ग्रन्थके आगमशुद्धि दिखाते हैं :--- प्रारंभमें अथ शब्दका प्रयोग इस ग्रन्थके पढ़ने आयुर्वेद की उत्पत्ति । पढ़ानेवालोंकी मंगलकामनाके लिये कियाहै। ब्रह्मास्मृत्वायुषो वेदं प्रजापतिमजिग्रहत्। ___ आत्रेय धन्वन्तरि आदि महर्षियोंका नाम सोश्विनौ तौ सहवाक्षं सोत्रिपुत्रादिकालेनेसे ग्रन्थकारका यह प्रयोजनहै कि जो कुछ न्मुनीन् ॥ ३ ॥ तेऽभिवेशादिकांस्ततुधृथ इस ग्रन्थमें कहागयाहै वह आगमत्रागाण्यसे तंत्राणितेनिरे। कहागयाहै, लोक पर अनुकंपा करके जो कुछ । अर्थ-प्रथमही ब्रह्माने आयुर्वेदका स्मरण उक्त महर्षियोंने कहाहै उसीका क्रममात्र बद- करके दक्षप्रजापतिको समझाया, दक्षने अश्विलकर इसग्रन्थमें वर्णन कियाहै अपनी ओर नीकुमारोंको, अश्विन कुमारने इन्द्रको, इन्द्रने अएक मात्राभी न्यूनाधिक नहीं की है और न त्रिकेपुत्रधन्वन्तरि, निमि, काश्यपादिको पढाया कोई बात कपोलकल्पित है।
इन अत्रिपुत्रोंने अग्निवेशादि छ:मुनियोंको पदाया ग्रन्थकारने उक्त वास्यमें प्रथम मंगलाच- और इन छ: मुनियों ने अपने अपने नामस अग्निरण करके प्रस्तुत अध्यायका विषय और प्र- वेश, भेड, जातूनार्ण पराशर, हारीत और स्तुत विषयमें आत्रेयादि ऋषियोंका प्रमाण ये क्षारपाणि नामकी जुदी जुदी संहिता रची। तीन बातें दिखाइहैं । इन तीन बातोंको पुरस्सर | इस ग्रन्थके बनानेका कारण । करके ग्रन्थके अधिकारियोंका ध्यान आकर्षित तेभ्योऽतिविप्रकीर्णेभ्यः प्रायः सारतकरनेके लिये कहताहै ।
रोच्चयः ॥ ४॥ क्रियतेऽष्टांगहृदयनाति ___ आयुर्वेद जाननेका कारण । संक्षेपविस्तरम् । आयुः कामयमानेनधर्मार्थसुखसाधनम् । अर्थ-ऊपर कहेहुए बड़े २ ग्रन्थोंके विआयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः ॥२॥ द्यमानहोते इस प्रन्थके बनानेका यह कारण है। ___ अर्थ-धर्मअर्थ और सुख इन तीनकी प्राप्ति । कि उक्त ग्रन्थोंका विषय बहुत भिन्न२ है एक आयुसे होतीहै । इस आयुकी इच्छा करनेवाले | बात एक ग्रन्थमें लिखीहै तो दूसरी बात दूसरे अर्थात् धर्म अर्थ और सुखकी प्राप्तिके निमित्त । ग्रन्थमें लिखीहै जैसे शल्यचिकित्सा सुश्रुतमें
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सूत्रस्थानं भाषाटीका समेत ।
लिखा है वैसी अग्निवेश में नहीं है; ऊर्ध्वगचिकित्सा जैसी जनक प्रणीत ग्रन्थ में वर्णित है वैसी सुश्रुतादिमें नहीं है । इत्यादि कारणों से इन सब ग्रन्थोंसे सार सार विषयों का संग्रह करके बहुत विस्तारपूर्वक न बहुत संक्षेपसे यह " अष्टांगहृदय" नामक ग्रन्थर है । इस ग्रन्थका यह नाम ' यथानाम तथा गुण' के अनुसारहै, यथा शरीरके सब अवयवोंमें हृदय प्रधान वैसेही अष्टांग आयुर्वेद में यह ग्रन्थ प्रधान अथवा अष्टांग आयुर्वेद के प्रत्येक अंग का सार सार ग्रहणकरके यह ग्रन्थरचा है सो यहसव अंगों का सारभूत अष्टांगहृदय है ।
आठ अंगों के नाम | काय बालग्रहोर्ध्वगशल्पदंष्ट्राजरानृषान५ अष्टावंगानितस्याहुश्चिकित्साय पुंसविता
अर्थ - कायचिकित्सा, बालचिकित्सा, ग्रह चिकित्सा, ऊर्ध्वगचिकित्सा, शल्यचिकित्सा दंष्ट्रा चिकित्सा, जराचिकित्सा, और वाजीकरण ये आयुर्वेद के आठ अंग हैं । जिस अवस्था में दोष, धातु, और मलका अच्छी तरह संचय होजाता है उस अवस्थामें देहकी काय संज्ञा होती है । इस तरह संपूर्ण शरीर के उपतापक आमाशय और पक्काशय स्थानोंसे उत्पन्नज्वर, रक्त, पित्त, अतिसार आदि रोगों के शमन करने के उपाय जहां लिखे हैं उसे कायचिकित्सा कहते है । संपूर्ण वल, सत्व और धातुओंसे युक्त होनेके कारण यौवनावस्थाका उपयोगी अंग सब से प्रथम कहा गया है ।
असंपूर्ण बलधातुवाला अपक अवस्थावाले बालकोंके होनेवाले रोग और उनकी शान्ति के उपायवाला बालचिकित्सा नामक दूसरा
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( ३ )
अंग पृथक् कहागयाहै इसके पृथक् करनेका कारण यह है कि बालक और युवावस्थाकी देह के रोगोंके हेतुओं में बड़ा अंतर है और उनके उपायोंमें भी बड़ा अंतर है ।
इसी तरह प्रसंगानुसार एकके पीछे एकअंग वर्णन किया गया है ।
तीनों दोषोंका वर्णन । वायुः पित्तकफश्चेतित्रयोदोषाः समासतः ६
1
अर्थ - वायु, पित्त और कफ ये तीन दोष संक्षेपसे कहे गये हैं, और संसर्ग, सन्निपात, क्षय, समता, आदि भेदोंसे ये दोष अगणित हैं । कोई कोई कहते हैं कि ये देहमें प्रस्तुत रहते हैं इससे इनको धातु कहना उचित है । ऐसाही हो, किन्तु रसादिकोंके दूषित होनेही से ये विकार उत्पन्न कर सकते हैं, यही दिखानेके लिये बातादिक की दोष संज्ञा है । चरकसंहितामें भी इनकी दोष संज्ञाही लिखी है " वायुः पित्तकफरचोक्तं शरीरेदोवसंग्रहः " 1 मूल ग्रन्थमें वायु, पित्त और कफ, ये तीनों पद अलग अलग दिये हैं इससे इन तीनों को ही प्राधान्य है । कोई कोई कहते हैं कि जैसे दोषों के स्थान, लक्षण, कार्य, विकार और चिकित्सा कहेगये हैं वैसेही रक्तके भी हैं इसलिये रक्तकी चौथे दोपमें गणना होनी चाहिये परन्तु यह बात ठीक नहीं है क्योंकि वातादिक स्वतंत्र हैं इसीसे इनको प्रधानता है और इसीसे ये रक्तादि को दूषित करते हैं परन्तु रसादिक परतंत्र होने से कुछ भी नहीं कर सकते । दोषों की शक्ति |
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विकृताऽविकृता देहं घ्नंति ते वर्तयंति च । अर्थ-ज - जब बातादिक दोष बिगड जाते हैं
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( ४ )
तब मनुष्यके जीवनका नाश करदेते हैं और जब विकार रहित होजाते हैं तब फिर देहको स्वस्थावस्थामें ले आते हैं ।
व्यापक दोषोंके स्थान । ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्पोरघोमध्योर्ध्वसंश्रयाः ॥ ७ ॥
अष्टांगहृदये |
दिखलाती है । कहा भी है “ आदौ षड्समप्यन्नं मधुरीभूतमीरयेत् । फेनीभूतं करुं वातं विदाहादम्लतां ततः ॥ पित्तमामाशयात्कुर्य्याच्च्यवमानं च्युतं पुनः । अग्निना शोषितं पकं पिंडितं कटुमारुतं " ॥ जठराग्निका स्वरूप | तैर्भवेद्विषमस्तीक्ष्णोमंदश्चाभिः समैः समः ८ अर्थ- वातादिक दोषोंके संर्सगसे जठराग्नि चार प्रकारका होता है, जैसे वातके उत्कर्ष से अग्नि विषम, पित्तके उत्कर्षसे तीक्ष्ण, कफ के उत्कर्षसे मंद और दोषोंकी समानता से अग्नि सम होता है । जहां एकही कालमें दो दोषोंका उत्कर्ष होता है वहां वैद्यको अपनी aussोरात्रिभुक्तानां तेंत मध्यादिगा : बुद्धिसे बिचारना उचित है जैसे वातपित्त इन क्रमात् । दो दोषोंके उत्कर्षसे वायुके योगवही होने के कारण अग्नि तीक्ष्ण, वात और कफके उत्क र्षसे मन्द और कफ तथा पित्तका उत्कर्ष होने से आहारके अनुसार कभी तीक्ष्ण और कभी मंद होता है ।
दोषका काल ।
अर्थ- ये दोष सदाही देहमें रहते हैं परन्तु इनमें विशेषता इस प्रकार होती है, यथा मनुष्यकी आयुके पिछले भाग में वायुका कोपकाल होताहै मध्य भागमें पित्तका और आदि भाग में कफका कोपकाल होता है । इसी प्रकार दिन और रात्रिके पिछले भागमें वायुका, मध्य भामें पित्तका और प्रथम भागमें कफका कोपकाल होताहै । इसीतरह भोजन करनेके पीछे आहार के पचनेकी अवस्थामें वायुका, पचने से पहिले विदाही अवस्था में पित्तका और भोजTh करतेही जिसमें आहारका मधुरीभाव रहai ककका कोपकाल होता है । यद्यपि जठराग्निके संयोगसे आहारकी बहुतसी सूक्ष्म अवस्थाओंका होना संभव है परन्तु इन्हीं का बहुत उपयोग होनेसे इन तीनोंकाही वर्णन है और येही तीन अवस्था अपने अपने कामको
अर्थ-ये वातादिक दोष संपूर्ण देहमें व्यापक हैं तथापि उनके विशेष स्थान इस रीति सेहैं - वायुका स्थान नाभिसे नीचे के अंगोंमें है, नाभि और हृदय के बीच में पित्तका स्थान है और कफका स्थान हृदयसे ऊपरके अंगों में है ।
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चारप्रकारका कोष्ठ । कोष्ठः क्रूरोमृदुर्मध्योमध्यः स्यात्तैः समैरपि । अर्थ - वातादि दोषोंसे कोष्ट क्रमसे क्रूर, मृदु और मध्य होता है, जैसे वातके उत्कर्ष क्रूर, पित्तके उत्कर्षसे मृदु, कफके उत्कर्ष से मध्य तथा जब तीनों दोष समान भाव होते हैं।
( १ ) योगवाहीका यह अर्थ है कि वायु जिससे जा मिलता है उसीके गुणकी वृद्धि करता है जैसे वायुके उत्कर्ष में अग्नि तीक्ष्ण है परन्तु जब वह मन्दप्रकृतिवाले कफुसे मिलत है तो उसकी मन्दताको बढाता है । ..
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । तब कोष्ठ मध्य हाताहै । इनके विशेष लक्षण | अर्थ-इन तीनों दोषोंमें वायु रूक्ष, लघु
आगे वमनविरेचन विधिमें वर्णन कियेजांयगे। ( हलका ) ठंडा, कठोर, सूक्ष्म ( छोटे से - प्रकृतिका स्वरूप । । छोटे छिद्रोंमें प्रवेश करनेवाला,) चल ( एक शुकार्तवस्थैर्जन्मादौ विषेणेवविषाक्रिमेः।९।। स्थानसे दूसरे स्थानमें गमनशील है ) योगवा तैश्चतिस्रः प्रकृतयोहीनमध्योत्तमाःपृथक् । ही होने पर भी दोनों कामकरती है कहा है समधातुः समस्तासु श्रेष्टा निंद्या द्विदो- “ योगवाहः परंवायुः संयोगादुभयार्थकृत । षजाः ॥१०॥
दाहकृत्तेजसा युक्तः शीतकृत्सोमसंश्रयात् ,, अर्थ-जन्मसे पहिले गर्भाधानकालमें पि- वायुका स्वभाव शीतलहै इसलिये दाहोदय ताके वीर्यकी दो तीन बूंदोंसे माताके आर्तव | होने पर भी अपने शीतल गुणको नहीं त्या( रजोधर्म संबंधीरक्त ) की दो तीन बूंदोंके गतीहै और उष्ण उपचारसे उष्ण न होकर संयोगकालमें वातादिक तीनों दोष रहतेहैं पर शांत होजातीहै। वे गर्भका नाश नहीं करतेहैं जैसे विषसे उत्प- पित्त-कुछ चिकनाई लिये होताहै, तीक्ष्ण न्न हुए कीडेको विष नहीं मारताहै और वे ( सुईकीतरह भेदनकरनेवाला तेज, ) गर्म, तीनों दोष गर्भकी प्रकृतिको अपने अपने | हलका, विस्त्र (मत्स्यमांसके सदृश दुर्गन्धित ) अनुसार करलेतेहैं । जब वीर्य और रुधिरमें सर ( ऊपर नीचे गमनशील ) और पतलाहै । वायुकी अधिकता होतीहै तब प्राणी की हीन कफ-चिकना, शीतल, भारी, मन्द ( देर प्रकति. पित्तकी अधिकतासे मध्यप्रकृति, और में कार्यकरनेवाला, ) श्लक्ष्ण ( ल्हसदार ) कफकी अधिकतासे उत्तम प्रकृति होतीहै । मृत्स्न ( उंगलीसे चिपटनेवाला पिच्छिलगुण तथा गर्भाधानके समय जो वीर्य और रुधिरमें युक्त ) और स्थिर होताहै । इन तीनों दोषों तीनों दोष समानहों तो समप्रकृति होतीहै । | में से दो दो दोष अपने प्रमाण से बढकर वा इन सब प्रकृतियोंमें समप्रकृति सबसे उत्तम घटकर मिलें तो इनके मिलने को संसर्ग कहते होतीहै परन्तु वातपित्त, वातकफ और कफ- हैं और जो तीनों दोष अपने प्रमाण से न्यून पित्त इन दो दो दोषोंसे उत्पन्न हुई प्रकृति | वा अधिक होकर मिलेंतो सन्निपात कहलाताहै। निन्दित होतीहै क्योंकि ऐसी प्रकृतिवाले शरीर | धातुओं का वर्णन । रोगादि उपद्रवों के स्थान बने रहतेहैं। रसासभासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणिधा
वातादि दोषों के गुण । तवः । सप्त दूष्याः -- तत्रलक्षोलघुःशीत खरःमूक्ष्मश्चलोऽनिलः। अर्थ-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, पिसंसस्नेहतीक्ष्णोष्णंलघुवित्रंसरंद्रवम्११ मज्जा और वीर्य इन सातों की धातु संज्ञा है स्निधः शीतो गुरुमंदः श्लक्ष्णो मृत्स्नः । क्योंकि ये शरीरको धारण करतीहै और वातास्थिरः कफः । संसर्गः सभिपातश्च तद्वि- दिकदोष इनको दूषित कर देतेहैं इसलिये इन त्रिक्षयकोपतः॥१२॥
को दूष्य भी कहते हैं । याद रखने की बात
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अष्टाङ्गहृदये । है कि रसादिकों के बिना वातादिकों की दोष । लवण ( नमक ), तिक्त ( कड़वा ), ऊषण संज्ञा नहीं हो सक्ती और बातादिकों के बिना । ( कड़वा ), कषाय ( कसला ) ये छः रसहैं रसादिक दूव्य नहीं कहला सकते इनके ये और ये छःओं रस पंचभूतात्मक अर्थात् पृथ्वी नाम अन्योन्याश्रय हैं।
जल, अग्नि, वायु और आकाशमें रहतहैं । मलोंके नाम।
| इनमेंसे यथापूर्व प्राणियों को बल देनेवालहैं मला मूत्रशकृत्स्वेदादयोऽपिच १३ | जैसे कषायसे ऊषण, ऊषणसे तिक्त, तिक्तसे अर्थ-मूत्र, विष्टा और स्वेदादिक की मल लवण, लवणसे अम्ल और अम्लसे मधुर बलसंज्ञा है और इनकी दूष्य संज्ञा भी है क्योंकि दायकहै । ये रसनेन्द्रिय ( जिव्हा ) से ग्रहण ये रसादिक धातुओंसे दूषित होते हैं । जैसे किये जातहैं इसलिये रस कहलातेहैं । गुड रसादिक धातुसंज्ञक और दूष्येसंज्ञक है वैसेही । बूरा आदि मधुरहै, इमली, विजारा आदि खट्टे; मूत्रादिक भी मलसंज्ञक और दूष्यसंज्ञक है। सेंधा, सांभर आदि नमकीन; नीम आदि तिक्तः
वृद्धि और अपचय । कुटकी मिरच आदि ऊषण और हरड आदि वृद्धिः समानैः सर्वेषां विपरीतैर्विपर्ययः । कषाय होतेहैं । __ अर्थ-शरीरमें स्थित संपूर्ण दोष धातु
रसांके गुण । और मलादिक तुल्यसद्भावसे और अपने । तत्राद्यामारुतं घ्नति त्रयस्तितादयः कअपने प्रमाणमें होतो इनकी बृद्धि होती है फम् ॥१५॥ कषायतिक्तमधुराःपित्तमन्ये और जो अपने अपने प्रमाण से घटबढ जाते | तु कुर्वते । हैं तो इनका क्षय होता है । कहा भी है सर्वेषां अर्थ-इन रसों से पहिले तीन स्वादु, सर्वदा वृद्धिस्तुल्यकर्मगुणक्रियैः । भावैर्भवति अम्ल और लवण वातको नष्टकरतेहैं और पिभावानां विपरीतैः विपर्यायः ॥ समान द्रव्य छले तीन तिक्त, ऊपण और कषाय वातको गुण क्रियावाले पदार्थों से पदार्थों की वृद्धि | कुापित करतहैं। तिक्त, ऊषण, कषाय यह तीनों होती है और विपरीत गुणद्रव्य क्रियावाले | कफको नष्ट करतहे और स्वादु, अम्ल, लवण पदार्थों से उनका क्षय होता है। जैसे जलात्म- ये तीनों कफको प्रकुपित करतेहैं । कषाय, कजल जलात्मक कफकी वृद्धि करता है। वैसे तिक्त और मधुर ये तीनों पित्तको नष्टकरतेहै । ही दूधसे उत्पन्न घृत वीर्यको वढाताहै इसी शेष तीन अम्ल, लवण और कटुक पित्तको तरह और भी जानना चाहिये ।
प्रकुपित करतेहैं । रसोंका वर्णन ।
इसका सारांश यह हुआ कि मधुररस बात रसाःस्वाद्वम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः तथा पित्तका नाश करनेवाला और कफको ॥१४॥ षड़ द्रव्यमाश्रितास्ते तु यथापूर्व बढानेवालाहै । अम्लरस वातनाशक और कफ बलासः।
तथा पित्तका वर्द्धकहै । लवण वातनाशक ६नाई । मिष्ठ ), अम्ल (खट्टा ), और कफपित्तवर्द्धकहै । तिक्त कफपित्तनाशक
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सूत्रस्थान भाषाटीका
(७)
और वातवर्द्धकह ऊषण कफनाशक और वात | अन्य गुणोंके होनपर भी उष्ण और शीत पित्तवर्द्धकहै, कषाय कफपित्तनाशक और बात गुणके उत्कर्षसे द्रव्यमें दोही प्रकारका वीर्य बर्द्धकहै।
कहाहै एक उष्णवीर्य, दूसरा शीतवीर्य । द्रव्यको त्रिविधत्व !
द्रव्यका विपाक । शमनं कोपनं स्वस्थहितं द्रव्यमितित्रिधा त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वाद्वम्लकटु
अर्थ--द्रव्य शमन कोपन और स्वस्थहित | कात्मकः ॥ १७॥ इन भेदोंसे तीन प्रकारका होताहै । अन्य प्र- अर्थ-यद्यपिरस छःहैं परन्तु द्रव्योंका विकारसे तो दो अथवा अनेक प्रकारका होता पाक स्वादु, अम्ल और कटुक इन तीनही है । जो पित्तादिक दोषोंको शमन करताहै। प्रकारका होताहै । " जाठरणाग्निना योगाबह शमन कहलाताहै । जैसे तेल स्नेह, औदार्य द्यदुदेति रसांतरम् । रसानांपरिणामान्तो स
और गौरव गुणोंके योगसे विपरीत गुणवाले विपाक इति स्मृतः” ॥ जाठराग्निके योगसे वायुका शमन करताहै । घृत मधुर, शीतल रसोंके परिणामान्तमें जो अन्य रस उत्पन्न
और मन्द गुणोंके योगसे विपरीत गुणवाले होताहै उसे विपाक कहतेहैं । मधुर और पित्तको शमन करताहै । मधु रौक्ष्य, तीक्ष्ण लवण रसका विपाक मधुर; अम्लरसका अम्ल कषाय गुणोंक योगसे तद्विपरीत गुणवाले कफ और तिक्त कटु कषायका कटावेपाक होता है को शमन करताहै ।
द्रव्यके गुण । जो द्रव्य वातादिक दोष, रसादिक धातु गुरुमंदहिमस्निग्धश्लक्ष्णसांद्रमृदुस्थिराः। और मूत्रादिक मलोंको प्रकुपित करताहै वह गुणाः ससूक्ष्मविशदा विंशतिः सविपकोपन कहलाताहै जैसे:-यवक पटलादि।। र्ययाः ॥ १८ ॥ . जो द्रव्य दोष, धातु, और मलोंको अपने अर्थ--१गुरु, २ मन्द, ३ हिम, ४स्निग्ध, प्रमाणमें स्थित रखकर स्वस्थताका अनुवर्तन ५ श्लक्ष्ण, ६ सान्द्र, ७ मृदु, ८ स्थिर, करताहै वह स्वस्थहित अर्थात् तन्दुरुस्त पु- ९ सूक्ष्म और १० विशद । तथा इनमें से रुषोंके लिये हितकारी होताहै जैसे रक्तशाली, प्रत्येकके विपरीत गुणवाले ११ लघु, १२ साठीचावल, जौ, गेंहू, जांगलमांसादिक । । तीक्ष्ण, १३ उष्ण, १४ रूक्ष, १५ खर, द्रव्यका वीर्य ।
१६ द्रव, १७ कठिन, १८ सर, १९ स्थूल ॥ ११ ॥ उष्णशीतगुणोत्कर्षात्तत्र वीर्य आर २० पिच्छिल इस तरह सब मिलाकर द्विधा स्मृतम् ।
द्रव्यमें वीस गुण होते हैं। .. ___ अर्थ-द्रव्यमें अनेक गुण होतेहैं, परन्तु रोग का कारण । संपूर्ण जगत् अग्नि और सोमात्मक इनदोही कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिगुणोंसे व्याप्तहै, इसलिये संपूर्ण वस्तुओंके मात्रकः । सम्यग्योगश्च विज्ञेयो रोगामुख्यदोही विभाग होसकतेहैं उष्ण और शीत। रोग्यैककारणम् ॥ १९
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(८)
अष्टांगहृदये। अर्थ-शीत, उष्ण और वर्षा इन भेदों | कायिक और मानसिक हीनातिमिथ्या योगों से काल तीन प्रकार का हैं । शब्द, स्पर्श, को जानना चाहिये। रस, रूप, गंध, ये पंचभूतात्मक इन्द्रियों के रोगारोग्यलक्षण तथाभेद । विषय हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक ये | रोगस्तुदोषवैषम्यंदोषसाम्यमरोगता।निइन्द्रियोंके कर्म हैं। इन काल अर्थ और कर्मो जागंतुविभागेन तत्ररोगाद्विधास्मृताः । का हीन, मिथ्या और अतियोग रोगों के | अर्थ-वातादिक दोषोंके अपने प्रमाणसे कारण हैं। और इनका समान योग आरोग्य- घटजाने तथा बढजानको रोग कहतेहैं । ताका कारण है । कालका हीनमिथ्यातियोंगः-- | और दोषोंकी समता अर्थात् अपने प्रमाणमें हीन शीतता, [ सर्दी की ऋतु में कम सर्दी | रहनेका नाम अरोग है । इनमेंसे निज और होना ] मिथ्याशीतता [ शीतकालमें गर्मी | आगंतुक इन दो भेदोंसे रोग दो प्रकारके होते होना ] अतिशीतता [ जितनी सर्दी होनी हैं । जो रोग वातादि दोषोंसे उत्पन्न होतेहैं चाहिये उससे अधिक सर्दी 7 ये रोगके का । उन्हें निज और जो वाह्य हेतुओंसे उत्पन्न रण हैं । इसीतरह हीनउष्णता, मिथ्याउष्ण होतेहैं उन्हें आगन्तु कहतेहैं । आगन्तु रोग ता, अतिउष्णता, हीनवर्षा, मिथ्यावर्षा, अति शस्त्राघात चोट आदिसे शरीरके बाहर उत्पन्न वर्षा, ये सब रोग के प्रधान कारण हैं । और होकर पीछे वातादिक दोषोंको कुपित करके इनका समानयोग समानशीतता, समान उ- शरीरको कष्ट पहुंचातेहैं । ष्णता, और समानवर्षा, आरोग्यताके कारण | रोगका अधिष्ठान । हैं। इसी तरह इन्द्रियोंका अपने २ विषयों | तेषांकायमनोभेदादधिष्टानमपिद्विधार. से हीन मिथ्यातियोग रोगों का कारण हैं अर्थ-इन निज और आगन्तु रोगोंकेशऔर सम्यक् योग आरोग्यताका कारण हैं। रीर और मन दो अधिष्ठानहैं । ज्वर, रक्तपित्त जैसे जिव्हाके साथ रसका हीनातिमिथ्यायोग खांसी आदिका स्थान शरीरहै । मद, मूर्छा, अर्थात् कमस्वाद आना, वा सर्वथा न आना | सन्यास, ग्रह, भूत, उन्माद, अपस्मार, राग, अथवा अधिक आना रोगका कारण है और | द्वेषादिका अधिष्ठान मनहै । जिव्हा तथा रसका सम्यक् योग आरोग्यता | मानसिक रोगको हेतु । का कारणहै । इसी तरह कमों में हीनप्रवृत्ति, | रजस्तमश्च मनसो द्वौच दोषाबुदाहृतौ । अतिप्रवृत्ति और मिथ्या प्रवृत्ति रोगका कारण ___अर्थ- रज, और तम ये दोनों मानसिक है और समान प्रवृत्ति आरोग्यताका कारणहै। | दोष हैं ये अविद्यासे उत्पन्न होते हैं और हीन भाषण,मिथ्याभाषण(खाने पीनेमें बोलना) वातादिक दोष भी मनमें विकार उत्पन्नकरके अतिभाषण ( अत्यन्त चिल्ला चिल्लाकर बोलते | उन्मादादिक रोगों को उत्पन्न करते हैं। रहना ) ये रोगके कारणहै तथा समान भा
रोग परीक्षा । असे भाषण आरोग्यताका कारणहै इसी तरह दर्शनस्पर्शनप्रश्नःपरीक्षेताथरोगिणम्२१
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सूत्रस्थान भाषाकासमेत ।
अर्थ-देखने छूने और पूछने से रोगी / उपशय है । जैसे कोई कहै कि एक समय की परीक्षा करै । जैसे खांसी प्रमेह आदि
भोजन करने से हमारी प्रकृति ठीक रहतीहै रोगों की परीक्षा उनका रंग देखने से, ज्वर
तो इस से जाना गया कि उस के मंदागुल्म आदि नाडी देखने तथा टटोलने से
स ग्निहै । अत एव एक समय खाना उपशयहै । शूल रोचक आदि का वृत्तान्त रोगी से पूछ
__प्राप्ति, निवृत्ति, संप्राप्ति, आगति और ने पर जाना जाता है।
जातिये संप्राप्तिके पर्यायवाची शब्द हैं रोगविशेष की परीक्षा का उपाय।
जैसे अमुकदोष अमुकरीतिसे दूषित होकर रोग निदानप्रायूपलक्षणोपशयाप्तिभिः । अर्थ-निदान, पूर्वरूप, लक्षण, उपशय
अमुकस्थान में स्थित होगया है, अथवा और संप्राप्ति इन पांच प्रकारों से रोग की
| अमुक मार्गसे अमुक कुचेष्टा होनेस रोग उत्पपरीक्षा करनी चाहिये । रोगके कारण वा
| न्न हुआहै इस कल्पना का नाम संप्राप्ति है हेतु को निदान कहते हैं। यह निदान आस
देशभेद । न्न ( निकटवर्ती ) और विप्रकृष्ट ( दूरबर्ती)
भूमिदेहप्रभेदेन देशमाहुरिह द्विधा ॥२२॥ इन भेदों से दो प्रकार का है । आसन्न
___ अर्थ- आयुर्वेद के आचार्यों ने देश दे। निदाक के भी दो भेद हैं एक निकट, दूसरा प्रकार के कहे हैं एक देह देश, दूसरा भूमि अतिनिकट । जैसे किसी पदार्थ के देश । हाथ, पांव, सिर, आदि में देहदेश हैं। खाने से बात दोष कुपित होकर विकार क
भूमिदेश का वर्णन । रता है तो वह पदार्थ निकट का कारण है
| जागलं वातभूयिष्ठमनूपं तु कफोल्बणम् ।
साधारणं सममलं विधाभूदेशमादिशेत् २३ और वात दोष अतिनिकट का कारण है।
| अर्थ--भूमिदेश तीन प्रकार का होता है इसी तरह अजीर्ण में भोजन करना आमवात
जल वन त मोटे होते का कारण है । परन्तु उस भोजन से पहिले । हैं उसे जांगलदेश कहते हैं। जांगलदेश अजीर्ण, पछि अतिसार और पीछे आमवात में वादी वहुत होती है और इस देश में उत्पन्न उत्पन्न होता है । इस से यह दूर का होने वाले पशु पक्षी औषधादिक वातकारण है।
प्रधान होते हैं । ____ व्याधि का अप्रकाशित चिन्ह उसका जहां जल और वृक्ष वहुत होते हैं, । पूर्वरूप है जैसे ज्वर व्याधि है और ज्वर से । वायु कम चलती है, धूप कम आती है उसे पहिले होने वाले आलस्य, अंगडाई, नेत्रदा- आनूपदेश कहते हैं. यह देश कफप्रधान हादिक पूर्वरूप है। व्याधि के प्रकाशित होता है तथा यहां उत्पन्न होने वाली औषधा अर्थात् स्फुटरूप को लक्षण कहते हैं जैसे । दिक कफकारक होती हैं। ज्वर में देहका गर्म होना ज्वर के लक्षण हैं। जिस के लक्षण जांगल और आनूपदेश
सुखानुबन्धी आहार के उपयोगका नाम दोनों के मिले हुए हैं, जहां वातादिक दोष
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अष्टांगहृदये ।
( १० )
समान रीति पर स्थित हैं उसे साधारणदेश
कहते हैं ।
औषधयोजन का काल ! क्षणादिर्व्याध्यवस्था च काले भेषजयोगकृत् अर्थ - आयुर्वेद में औषधों की सम्यक् योजना के लिये दो प्रकार का काल कहा गया है एक क्षणादि, दूसरा व्याधि की अवस्था का काल ।
क्षणादि से लब, त्रुटि, मुहूर्त, याम, दिन, रात, पक्ष, महिना, ऋतु, अयन और संवत्सर का ग्रहण है । यथा: - " पूर्वाह्णे वमनं देयं मध्यान्हे तु विरेचनं । मध्यान्हे किंचिदावृते वस्ति दद्याद्विचक्षणः I
"
साम, निराम, मृदु, मध्य, तीक्ष्णआदि से औषध्यादिक का प्रयोग व्याधि अवस्था का काल है, जैसे लंघनं स्वदेनं कालो यवागूस्तिक्तको रसः । मलानां पाचनानि स्युर्यथा वस्थं क्रमेणवा || ज्वरेपेयाः कषायाश्च सर्पिः क्षीरं विरेचनं । अहं वा षडहं युंजयाद्भीक्ष्य दोषवावलम् || मुदुर्ज्वरो लघुर्देह: चलिताश्च मलायदा । अचिरज्वरितस्यापि भेषजं योज येत्तदा " ||
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औषध का बिषय |
शरीरजानां दोषाणां क्रमेण परमौषधम् । बस्तर्विरेको वमनं तथा तैलं घृतं मधु । २५ अर्थ - शरीर में उत्पन्न होनेवाले वातादिक दोषोंकी शोधनकर्ता तीन प्रधान औषध यथा, बादीका शोधन करनेवाला तेल वा क्वाथादिक की पिचकारी गुदामें लगाना । पित्तका शोधन करनेवाली औषध वैरेचनिक औषधहैं जो मुखद्वारा पीने से भीतर वाले मवादको गुदाद्वारा बाहर निकाल देती हैं । कफको शोधन करनेवाली वमन करानेवाली औषधि हैं जो मुग्वद्वारा पीनसे उसीके द्वारा दोषको बाहर निकालकर फेंक देती है ।
शमनकर्ता, जैसे वादीको तेल, पित्तको घी, और कफको शहद मुख्य औषध हैं । मानसिक दोषको परमौषध । धीधैर्य्यात्मादिविज्ञानं मनोशेषषधं परम् । अर्थ - मनके रज और तम दोषोंके लिये बुद्धि और धैर्य परम औषध हैं और आत्मिक विकारोंके लिये योगाभ्यास, समाधि, परमात्मा के स्वरूप आदिका विज्ञान परम औषध हैं। भला बुरा, हित अनहित इनका विवेक बुद्धिसे होता है । चित्तको दृढ रखना धैर्य से होता है । इर्ष्या, मद, मोह, कामादि जन्यादि विकारोंकी गणना मानसिक विकारों में है ।
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|
औषधके भेद | शोधनं शमनं चेति समासादौषधं द्विधा २४ अर्थ - औषधोंके अनेक भेद होनेपर भी संक्षेप रीतिसंशोधन और शमन दोही प्रकार की है । जो औषध प्रकुपित दोषको वाहर निकाल कर रोगको शान्त करदेती है उसे संशोधन औषध कहते हैं और जो वहांका वहीं रोगको शान्त करदेती है उसे संशमन कहते हैं |
चिकित्सा के चार पाद भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् २६ चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ।
अर्थ-- चिकित्सा के चार प्रधान अंग हैं, ( १ ) वैद्य, ( २ ) औषध, [१] परि
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
चारक, और हर एक चार चार गुणवाला है । इस तरह वैद्य लोग चिकित्सा को सोलह गुणवाली कहते हैं ( इन में से एक भी ठीक न होने से चिकित्मा में अंतर आजाता है ।
वैद्यके चार गुण | दक्षस्तीर्थात्तशास्त्रार्थोदृष्टकर्मा शुचिर्भिषक अर्थ- दक्षः ( अपने काममें चतुर ), तीर्थात्तशास्त्रार्थः ( गुरुसे अच्छी तरह शास्त्र को पढ़ा हुआ ],दृष्टकर्मा [ सैंकड़ों प्रकार के रोगी और रोगों को देखकर अभ्यास प्राप्त किया हुआ, अर्थात् अनुभवी ] शुचि [ मन बाणी शरीर से मलीन व्यापार न करने वाला अर्थात् धनोपार्जन के लिये चिकित्सा न करनेवाला और केवल धर्म के लिये चिकित्सा करनेवाला ] ये वैद्य के चार गुण हैं।
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४ रोगी । और इनमें से
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औषध के चार गुण । बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् । अर्थ - बहुल [ स्वरस, काथ, चूर्ण आदि अनेक प्रकार के रोगनाशक कल्पजिससे बन सकते हैं ] बहुगुण : अनेक रोगों को नाश करनेवाले गुरु मन्दादिक
अनेक गुणों से युक्त ], संपन्न [ प्रशस्त भूमिदेश में उत्पन्न हुई अनेक पाकादि संस्कार की संपत्तियुक्त ] और योग्य [ व्याधि, देश, काल, दोष, दूष्य, देह, वयबल आदि को जानकर देने योग्य ] । ये चार गुण औषध के हैं ।
परिचारक के चार गुण । अनुरक्तः शुचिर्दक्षो बुद्धिमान्परिचारकः २८
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( ११ )
अर्थ --अनुरक्त ( रोगी से प्रेम रखने वाला, शुचि ( मन, बाणी और शरीर से पवित्र, ) दक्षः [ सब काम में चतुर ] और बुद्धिमान [प्रवीण ] ये परिचारक के चार लक्षण हैं ।
रोगी के चार गुण |
आढ्यो रोगी भिषग्वश्यो ज्ञापकः सत्ववानीप अर्थ--रोगी के चार गुण हैं: - आढय ( धनवान ), भिपग्वश्य (वैद्यका आज्ञाकारी), ज्ञापक ( रोग, आहार, विहार के फेरफार तथा विदान आदि को वैद्य से कहने में समर्थ ); तथा सत्यवान ( धीरजवाला और मोह रहित ) |
सुखसाध्य व्याधि |
सर्वोक्षमे देहे यूनः पुंसो जितात्मनः ॥ २९ ॥ अमर्मगोऽल्पहेत्वग्ररूपरूपोऽनुपद्रवः । अतुल्यदूष्यदेशर्तुप्रकृतिः पादसम्पादे ॥३०॥ ग्रहेष्वनुगुणेष्वेकदोषमार्गो नवः सुखः ।
अर्थ - ( १ ) उस रोगी के देह में उत्पन्न हुई व्याधि सुख साध्य है जिसका शरीर तीक्ष्ण, मध्य, मृदुरून, अनेक देशों में उत्पन्न हुई, संशमन कर्ता, संशोधन कर्ता और विष क्षारादि, प्रयोग को सहसक्ता है । ( २ ) तरुण अवस्था वाला रोगी । ( ३ ) रोगी पुरुष हो स्त्री न हो ( स्त्रियों का निषेध इस लिये है कि ये डरपोकनी और मूर्ख होती है इस लिये रोगी के यथोक्त गुण नहीं होते और सुकुमार होने के कारण तीक्ष्ण उष्ण आदि औषधियों को नहीं सह सकती ); ( ४ ) जिसने अपना मन अपने बस में कर रक्खा हो और विषयादि की
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(१२)
अष्टांगहृदये ।
अभिलाषा छोडदी हो । (५) अमर्मगः ] व्याधियां सुखपूर्वक चिकित्सा के योग्य । हैं ( जिसका रोग सिर हृदय वस्ति आदि मर्म | कृच्छ्रसाध्य व्याधि । स्थानों में न पहुंचाहो ) । (६) अल्प हे- शस्त्रादिसाधनः कृच्छ्रः सङ्करे चततोगदः३१ त्वम रूप रूपः (जिस व्याधि में निदान, अर्थ-जो रोग शस्त्रादि से अच्छा हानेके पूर्वरूप और लक्षण थोड़े और कम उपद्रव योग्य हैं वह कृसाध्य होतेहैं । शस्त्रादि करने वालेहों) (७) अनुपद्रव (जिस व्या- साधन से चारने फाडने का प्रयोजनह इसे धि में कोई उपद्रव न हुआहो, एक रोग में / अंगरेजी में ऑपेरशन(Operation)कहतहैं। दूसरे रोगका खडा होजाना उपद्रव कहलाता जो रोग कठिन और बड़े बड़े उपायों से है कहाभी है व्या वेरुपरि यो व्याधिर्भव- बहुत काल में अच्छे हातहैं वे कृच्छ्रसाध्य त्युत्तरकालजः । उपक्रम विघातीच सा कहलाते हैं । मूल में जो आदि शब्द दिया पद्रव उच्यते ) (८) अतुल्य दूष्यदेशतु प्र- गया है उससे क्षारकर्म, अग्नि कर्म और कृतिः * (जिसकी दूष्य, देश, ऋतु और विपलेपादिका ग्रहण हैं अर्थात् जिन रोगों में प्रकृति समान नहीं ) (९) पादसंपदि ( जहां क्षारकर्म ( तेजाब लगाना अर्थात् Caustic चार चार गुण वाले वैद्य औषध, परिचारक ( कास्टिक ) का प्रयोग कियाजाता है, अ. और रोगीहों) । (१०) ग्रहेष्वनुगुणेषु ग्निकर्म गर्म लोहशलाका आदिसे दग्ध (सूर्यादिक ग्रहोंका अनुकूल होना ) (११) करना ) और विषलेपादिका प्रयोग किया एक दोष मार्गः ( जो व्याधि वातादिक तीन माताहै वे भी कृच्छ्साध्य होते हैं । इसी दोषोंमेंसे किसी एक दोषके कारण शास्त्रोक्त तरह पूर्वोक्त साध्य लक्षणों की संकीर्णता वाह्य, अभ्यंतर और मध्य मामी में से एक (अल्पता ) वा विपर्यय होनेपर भी रोग कृमागे द्वारा उत्पन्न होतीहै ) १२) नवः ( जो । च्छ्रसाध्य होताहै । इसी तरह रागी युवाहो वहुत दिनकी पुरानी न हुई हो ) ये सव पर मनको वश में न रख सकताहो अथवा ___ * इस विषय में हम सर्वांग सुन्दरा टीका के वाक्य उद्धृत करते हैं:-“यथा दूप्ये मेंदोमज्जादावनूपदेशे शीतर्तावातुरो वातप्रकृतिस्तस्य कुपितं पित्तं सुखसाध्यमिति । अतुल्यदूप्यो यथा श्लेष्मणाशीतेन रक्तमुष्णं दूषितं । अतुल्य देशो व्याधिर्यथा । अनूपदेशे पित्तसंभूतं । अतुल्यर्तुयथा । शरदि कफोद्भवः । अतुल्य प्रकृतिर्यथा पित्त प्रकृतेः श्लेष्मोद्भवो व्याधिः । नन्वतुल्य दूप्यदेशर्तुप्रकृतित्वादसौ कृच्छ्रसाध्यो यथा वा प्राप्तो न सुखसाध्योऽनेकसुखोपक्रमसाध्यत्वात् । यतो दूष्यादीनामतुल्यत्वात्प रस्परमन्य एवोपक्रमः । एक सुखोपक्रमः सुखसाध्यो व्याधिः अतएव साध्ययाप्य परित्याज्या मेहाः श्लेष्म पित्त वातोत्थाः समासमक्रियतया महात्ययबत्तयापि चेत्येवं निर्दिशति । अत्रोच्यते । तथा प्रभावत्वात्प्रमेहास्यस्य व्याधेर्यदुत श्लेष्म प्रमेहः समक्रियत्वात्साध्यः । पित्त प्रमेहो विषमक्रियत्वाद्यान्यः । महात्ययत्वाञ्च वातप्रमेहः प्रत्याख्येयः ।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
मनको बशमें रखभी सकताहो पर रोग मर्म त्याज्य रोगी के लक्षण । स्थानमें होय तोभी रोग कच्छ्रसाध्यहोताहै। । त्यजेदात भिषग्भूपैर्दिष्टं तेषां द्विषं द्विषम्३३ 'याप्प व्याधि।
हीनोपकरणं व्यग्रमविधेयं गतायुषम् ।
चण्डं शोकातुरंभीरुं कृतघ्नं वैद्यमानिनम्३४ शेषत्वादायुषो यान्यः पथ्याभ्यासाद्विपर्यये
अर्थ-वैद्य और राजा जिससे द्वेष करते अर्थ-जो रोगी की आयु शेषहो और
हैं, धा जो बैद्य और राजा से द्वेष करता हो, वह निरन्तर पथ्यसेवन अर्थात् हितकारी आ
जो आपही अपना शत्रु हो, जो चिकित्साके हार विहार करताहै तो साध्यलक्षणों से विरु
योग्य उपकरणों से हीन हो जिसका चित्त द्ध लक्षण वाला रोगभी याप्य होजाता है।
वहुत से कार्यों में लगा हो, जो वैद्यकी प्रत्याक्षेय व्याधि।
आज्ञाका पालन न करता हो, जिसकी जीअनुपक्रम एव स्यात् स्थितोऽत्यन्तविपर्यये३२ औत्सुक्यमोहारतिकदृष्टरिष्टोक्षनाशनः।
वन शक्ति क्षीण हो गई हो, इसी तरह ___ अर्थ-ऊपर कहे हुए याप्य लक्षणों के अ
क्रूर कर्म करने वाला, शोकातुर, डरपोक, त्यन्त विपर्यायहोने से अर्थात् आयुके शेष न । कृतघ्न ( उपकार को न माननेवाला), रहने पर, हितकारी आहार विहारादिके निय- और वैद्याभिमानी चिकित्सा शास्त्रको न मोंकी रक्षा न करने पर और मज्जा शुक्रादि जानकर भी अपने को वैद्य मानने वाला)। गंभीर धातुओंमें रोगके पहुंचने पर अथवा म- ऐसे रोगियों की चिकित्सा करना कदापि मस्थान रोगके होने पर व्याधि आचकित्स्य उचित नहीं है । होजाती है । इसी तरह औत्सुक्य ( गर्वादि अध्यायों का अनुक्रम | विषयोंत्कंठा ), मोह ( चित्तकी अस्थिरता )
तन्त्रस्यास्य परश्चातो वक्ष्यतेऽध्यायसंग्रहः ।
____ अर्थ-अब हम इस तंत्र के अध्यायों का और अरति ( उठने बैठने आदिमें चैन न
संग्रह अर्थात् उनके नाम लिखते हैं । पडना ) पैदाकरने वाली व्याधि भी अचिकि
सूत्रस्थान के नाम । स्य होती है । तथा जिसरागमें रिष्ट अर्थात्
आयुष्कामदिन-हारोगानुत्पादनद्रवाः ३५ मरणसूचक चिन्ह दिखाई देतेहों अथवा | अन्नशानान्नसंरक्षामात्राद्रव्यरसाश्रयाः । जिसरोगके होतेही आंख कान नाक आदि दोषादिज्ञानतद्भदतचिकित्साद्युपक्रमः॥३६ इन्द्रियोंका नाश होगयाहो, ये सब रोग असा
शुद्ध्यादिस्नेहनस्वेदरेकास्थापननावनम् ।
धूमगण्डूषडक्सेकतृप्तियन्त्रकशस्त्रकम् ।३७। ध्य होते हैं इन रोगों की अच्छी तरह परीक्षा
शिराविधिःशल्यविधिःशस्त्रक्षाराग्निकर्मका: करके चिकित्सा करना आरंभकरै, ऐसा न सूत्रस्थान इमेऽध्यायास्त्रिंशत् शारीरमुच्यते करने से वैद्यके स्वार्थ और यश की हानिहो (१) आयुष्कामीय २ दिनचर्या ३ तीहै कहाभी है " व्याधि पुरा परीक्ष्यैव मार ऋतुचर्या ४ रोगानुत्पादनीय ५ द्रवद्रव्यविज्ञाभेत ततः क्रियाम् । स्वार्थविद्यायशोहानि. | नीय ६ अन्नस्वरूपविज्ञानीय ७ अन्नरक्षा मन्यथा ध्रुवमाप्नुयात्" | .
८ मात्राशितीय ९ द्रव्यादिविज्ञानीय १.
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(१४)
- अष्टांगहृदये।
रसभेदीय ११ दोषादिविज्ञानीय १२ दोषभे । दान १५ वातव्याधिनिदान १६ वातशोणिदीय १३ दोषोपक्रमणीय १४ द्विविधोपक्रम त निदान इस तरह से १६ अध्याय निदानणीय १५ शोधनादिगणसंग्रह १६ स्नेहविधि स्थान में। १७ स्वेदविधि १८ वमनविरेचनविधि १९ चिकित्सित स्थान के अध्याय वस्तिविधि २० नस्यविधि २१ धूमपानविधि
चिकित्सितं ज्वरेरक्ते कासे श्वालेच यक्ष्मणि
वमौ मदात्ययेऽर्शःसु विशि द्वौद्वौच मृत्रिते। २२ गंडूषादिविधि २३ आश्चोतनांजनविधि
विद्रधौ गुल्मजठरपाण्डुशाकविसर्पिषु ।४२। २४ तर्पणपुटपाकविधि २५ यंत्रविधि २६ कुष्ठश्वित्रनिलव्याधिवातास्नेषुचिकित्सितम् शस्त्रविधि २७ शिराव्याधविधि २८ शल्या- द्वाविंशतिरिमेऽध्यायाः,कल्पसिद्धिरतःपरम् हरणविधि २९ शस्त्रकर्मविधि ३० क्षाराग्नि- (१) ज्वरचिकित्सित २ रक्तपित्ताचकर्मविधि इस प्रकार सूत्रस्थान के ये तीस कित्सित ३ कासचिकित्सित ४ श्व साहिकाअध्याय हैं।
चिकित्सित ५ राजयक्ष्मादिचिकित्सित ६ शरीरस्थान के अध्याय ।। छर्दिहृद्रोगचिकित्सित ७ मदात्ययचिकित्सित गर्भावक्रान्तितद्वयापदंगमर्मविभागिकम् । ८ अर्शश्चिकित्सित ९ अतिस रचिकित्सित विकृति तजं षष्ठम्,
१. ग्रहणीदोषचिकित्सित ११ मूत्राघातचि(१) गर्भावक्रांतिशारीर २ गर्भव्या- ! कित्सित १२ प्रमेहचिकित्सित १३ विद्रधिपच्छारीर ३ अंगविभागशारीर ४ मर्मविभाग वृद्धिचिकित्सित ११ गल्मचिकित्सित १५ शारीर ५ विकृतिविज्ञानीयशारीर ६ दूतादि
उदरचिकित्सित १६ पांडुचिकित्सित १७ विज्ञानीयशारीर ये छः अध्याय शारीरस्थान | श्वयथुचिकित्सित १८ विसर्पचिकित्सित
१९ कुष्ठचिकित्सित२० श्वित्रकृमिचिकित्सित निदानअध्याय के नाम । २१ वातव्याधिचिकित्सित २२ वातशोणि
निदानं सार्वरोगिकम्।३९॥ तचिकित्सित इस तरह इन २५ अध्यायों ज्वरासृवछ्वासयक्ष्मादिमदाद्यशोतिसारिणाम को चिकित्सितस्थान कहते हैं इस के अनं मूत्राघातप्रमेहाणां विद्रध्यायुपरस्य च ।४० । तरकल्पस्थान है। पाण्डुकुष्ठानिलार्तानां वातास्त्रस्य च षोडश,।
कल्पस्थान के अध्याय । (१) सार्वरोगनिदान २ ज्वरनिदान
कल्पो वमेर्विरेकस्य तत्सिद्धिर्वस्तिकल्पना ३ रक्तपित्तकासनिदान ४ श्वासहिक्कानिदान |
सिक
सिद्धिर्थस्त्यापदांषष्ठो, द्रव्यकल्पोऽतउत्तरम् ५ राजयक्ष्मादि बिदान ६ मदात्ययनिदान (१ ) वमनकल्प २ विरेचनकल्प ३ वमन७ अशनिदान ८ अतीसारग्रहणीनिदान ९ विरेचनव्यापसिद्धिकल्प ४ दोपहरणसाकमूत्राघातनिदान १० प्रमेहनिदान ११ विद्र- ल्यबस्तिकल्प ५ बस्तिव्यापत्सिद्धिकल्प ६ विवृद्धिगुल्मनिदान १२ उदरनिदान १३ | भेषजकल्प ऐसे ये छः अध्याय कल्पस्थान पांडुशोफविसर्पनिदान १४ कुष्ठश्वित्रकृमिनि- | में हैं इस के आगे उत्तरस्थान है ।।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
द्वितीयोऽध्यायः ।
उत्तर स्थान के अध्याय । | इत्यध्यायशतं बिशंषभिः स्थानैरुदीरितम्४८ बालोपचारे तद्वयाधौ तट्टहे द्वौ च भूतगौ | इस तरह सूत्रस्थान, शारीरस्थान, निदान उन्मादेऽथ स्मृतिभ्रंशे द्वौ द्वौद्मसु सन्धिषु | स्थान, चिकित्सितस्थान, कल्पस्थान और दृक्तमोलिङ्गनाशेषु त्रयो द्वौ द्वौ च सर्वगौ । उत्तरस्थान इन छः स्थानोंमें १२० अध्याय है । फर्णनासामुखशिरोवणे भग्ने भगन्दरे ॥४६॥ ग्रन्थ्यादौ क्षुद्ररोगेषु गुह्यरोगे पृथग्द्वयम् ॥ इति श्री अष्टाङ्गहृदये भाषाटीकायाँ विषे भुजङ्गे कोटेषु मूषकेषु रसायने ॥४॥
प्रथमोऽध्यायः । चत्वारिंशोऽनपत्यानामध्यायो बीजपोषणः।
(१) बालोपचरणीय २ बालामयप्रतिषेध ३ बालग्रहप्रतिषेध ४ भूतविज्ञान ५ भूतप्रति षेध ६ उन्मादप्रतिषेध ७ अपस्मारप्रतिषेध ८ वर्मरोगविज्ञानीय ९ वर्मरोगप्रतिषेध १. संधिसितासितरोगविज्ञानीय११संधिसि- अथातो दिनचर्याध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ तासितप्रतिषेध १२ दृष्टिरोगविज्ञानीय १३
अब हम यहांसे दिनचर्यानामक अध्यातिमिरप्रतिषेध १४ लिंगनाशप्रतिषेध १५ यका व्याख्यान करग, इस तरह आत्रयादक सर्वाक्षिरोगविज्ञान १६ सर्वाक्षिरोगपतिषेध महर्षि कहने लगे।
महाष कहन लग १७ कर्णरोगविज्ञानीय १८ कर्णरोगप्रतिषेध उठनेका समयादिनिरूपण १९ नासारोगविज्ञानीय २० नासारोगप्रति ब्राह्म मुहूर्ते उतिष्ठेत् स्वस्थो रक्षार्थमायुषः। षेध २१ मुखरोगविज्ञानीय २२ मुखरोग- |
शरिचिन्तां निर्वर्त्य कृतशोधविधिस्ततः१ प्रतिषेध २३ शिरोरोगविज्ञानीय २४ शिरो
निरोग मनुष्यको उचित्त है कि ब्राह्म *
मुहूर्त, अर्थात् चार घडी रात्रिरहेसे दो घडी रोगपतिय २६ व्रणविज्ञानीय प्रतिषेध २६
रात्रि रहेतक अपनी आयुकी रक्षाके लिये सदा सद्योत्रणप्रतिषेध २७ भंगप्रतिषेध २८
उदै, पीछे जीर्ण और अजीर्ण निरूपण आदि भंगदरप्रतिषेध २९ ग्रंथ्यर्बुदश्लीपदापीना
शरीर चिंतासे निवृत होकर मूत्र और मल डीविज्ञान ३० क्षुद्ररोगविज्ञान ३१ क्षुद्ररोग
आदिके त्यागकी विधि करैः समदोष सम प्रतिषेध ३२ गुह्यरोगविज्ञान ३३ गुह्यरोग
अग्नि समधातु मल क्रियावाले पुरुषको स्वस्थ प्रतिषेध ३४ विषप्रतिषेध ३५ ग्रंथ्यर्बुदश्ली
कहते हैं ॥१॥ पदापचीनाडी प्रतिषेध ३६ सर्पविषप्रतिषेध ३७ कीटलूतादिविषप्रतिषेध ३८ मूषिकाल- ४ (नोट) जब पिछली चार घडी रात
विषप्रतिषेध ३९ रसायन, और ४ • वाजी- | रह जाती है उसे ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं क्यों करणअध्याय । इस तरह ये चालीस अध्याय
कि यह समय ब्रह्मके ध्यानकरने तथा वेदा
ध्ययन करनेका होता है एक मुहूर्त में उत्तरस्थान में है।
दोघडी होती है।
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('६ )
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अष्टांगहृदये ।
दन्तधावन विधि अर्कन्यग्रोधखदिरकरञ्जककुभादिकम् ॥ प्रातर्भुक्त्वा च मृद्वग्रं कषायकटुतिक्तकम् २ भक्षहन्तवनं दन्तमांसान्यबाधयन् ॥
पीछे आक-बढ - खैर - करंजा - कौह आदि वृक्षकी दांतन प्रतिदिन प्रातःकाल करै । दांतन करने से पहिले उसके अग्रभाग को दांतोंसे चत्राकर बहुत नर्म कूंबी बनाले जिससे दांतों की जड और मसूड़े में किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचे | दांतनका स्वाद कसेला, कडवा और तीखा होना चाहिये जिस से मुखकी विरसता जातीरहे । दन्तधावन निषेध |
नायादमिथु श्वास का सज्वरार्दिती |३ तृष्णास्यपाकनेत्रशिरःकर्णामयी च तत् ॥
जिसको अजीर्ण, वमन, श्वास, कास, ज्वर, तृषा, मुखपाक, हृद्रोग, शिरके रोग, कर्णरोग हैं। वह मनुष्य दंतधावन न करै ।
नेत्रों में सुकी विधि । सौवीरञ्जनं नित्यं हितमक्ष्णोस्ततो भजेत् ४ पीछे प्रतिदिन सुरमाका अंजन नेत्रों में आजता है क्योंकि यह अजन नेत्रों के लिये हितकारी होता है ।
रसौत आंजने का विधान | चक्षुस्तेजोमयं तस्य विशेषात् श्लेष्मणो भयम् योजयेत् सतरात्रे ऽस्मात्त्रात्र गार्थे र साञ्जनम्
अर्थ - नेत्र तेजोमय होते हैं अर्थात् इनमें अग्निका स्वरूप होता है इसलिये कफका भय अधिक रहता है इसीसे नेत्रों में से पानी निकाल नेके लिये प्रत्येक सातवीं रातको रसौत आं. तर है ( दारुली काथमें बकरीका दूध पकाले इसीसे रसौत बनती है )
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नस्यादिकर्म |
ततो नावनगण्डूषधूमताम्बूलभाग्भवेत् ॥ अर्थ - तदनन्तर नावन ( सूंघने योग्य द्रव्य सूचना ) गंडूप ( कुल्ले आदि करना) धूम ( हुक्का आदि पीना ) और तांबूल भक्षण करै ( इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे लिखा जायगा ) |
तांबूल के अयोग्य मनुष्य । ताम्बूलं क्षतपित्तास्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम् ६ विषमूच्छी मदार्तानामपथ्यं शोषिणामपि ॥
अर्थ - क्षयी, रक्तपित्त, रूक्ष, उत्कुपित चक्षु (नेत्रों का दूखना ), विषभक्षण, मु. च्छ, मद ( शराव पीना ), राजयक्ष्मा इन रो गों से पीडित मनुष्य को पान खाना उचित नहीं हैं ।
अभ्यंग विधि |
अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवाता | ७ || दृष्टिप्रसादपुष्ट्यायुः स्वप्नत्वक्त्वा कृत् शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत् ॥ ८ ॥
अर्थ मनुष्यको उचित है कि प्रतिदिन अभ्यंग अर्थात् तैलमर्दन करतार है क्योंकि इससे बुढापा, थकावट तथा वातरोग नष्ट होजाते हैं दृष्टि निर्मल बनीरहती है शरीर पुष्ट रहता है आयु बढती है निद्रा सुखपूर्वक आती है, त्वचा सुन्दर और दृढ होजाती है । परन्तु इस तैलका प्रयोग सिर, कान, और पैर में विशेषता से करता है । ।
अभ्यंग का निषेध | वयऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृत संशुद्धयजीर्गभिः अर्थ- जो मनुष्य कफ से ग्रस्त है, अथवा वमनविरेचन ( जुल्ला ) देकर शुद्ध किया
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१७)
गयाहै अथवा जो अजीर्ण स पीडित है उस | करै जिस से देह को किसी प्रकार का कष्ट को तैलाईन न करे ॥
न पहुंचे। व्यायाम के गुण ।
अति व्यायाम के अवगुण । लायं कर्मसामर्थ्य दीतोऽग्निर्वेदसः क्षयः। तृष्णा क्षयः प्रतमको रक्तपितं श्रमः क्लमः। विभक्तवनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते ॥१०॥ असिव्यायामतः कासोज्वर छर्दिश्च जायते ____ अर्थ-कसरत करने से शरीर में हलका. । अर्थ-अत्यन्त कसरत करने से तृषा, पन, होता है काम करने की सामर्थ्य बढती क्षय, प्रतमक ( श्वास रोग का भेद ) रक्त है अर्थात् देह में फुर्ती और चुस्ती आजाती पित्त, थकावट, क्लान्ति, खांसी, ज्वर और है, जठराग्नि प्रवल होजाती है, मेद का क्षय | वमनरोग पैदा होजाते हैं। होता है, अंग के अवयव सुडौल और पुष्ट अति जागरणादि से हानि । होजाते हैं।
व्यायामजागराध्वस्त्रीहास्यभाष्याईसाहल व्यायाम का निषेध । | गज सिंह इवाकर्षन् भजन्नतिविनश्यति ।१४ वातपित्तामयी बालो बृद्धोऽजीवितं त्यजेत् अर्थ-अलपन्त कसरत करना अत्यन्त ___ अर्थ-जो मनुष्य वात पित्त रोगसे पीडित जागना, बहुत मार्ग चलना, अत्यन्त स्त्री है, तथा बालक वृद्ध और अजीर्ण वाले को | संग, अत्यन्त हंसना बोलना, अकस्मात् कसरत करना उचित नहीं है।
साहस के काम कर बैठना ! ऐसे २ कामों व्यायाम की योग्यता और काल । के करने वाला ऐसे नष्ट हो जाता है जैसे अर्धशक्त्यानिषेज्यस्तुयलिमिास्निग्धभौजिभिः हाथी को खींचने से सिंह नष्ट होजाता है । शीतकाले वसतेच मंदमेव ततोऽन्यता । ।
उबटने के गुण । अर्थ-बलवान् और स्निग्धभोजियों (चि
उद्धर्तनं ककहर मेदसः प्रविलापनम् ॥ कना पदार्थ खाने वाले ) को उचित है कि स्थिरीकरणभंगानां त्वक्प्रसादकरं परम्१५ अपनी आधी शक्ति के अनुसार कसरत अर्थ-3वटना ( पिठी आदि में सुगकरें अर्थात् इतनी कमरत न करै जिस से धित द्रव्य मिलाकर शरीर पर मलने का थकावट होजाय । कसरत करने का ठीक
करन का ठाक | नाम उवटना है ) करने से कफ जाता रहता समय जाड़े का मौसम और वसंत ऋतु है। रोग दर होजाता है अंग दृढ़ होजाते इन से अन्य ऋतुओं में थोडी कसरत करना है और शरीर की त्वचा बडी सुशोभित हो उचित है।
| जाती है। व्यायाम के पीछे कर्तव्य कर्म।।
स्नान के गुण । तं कृत्वाऽनु सुखं देहं मर्दयेच्च समंततः ॥१२ दीपनं वष्यमायष्यं स्नानमूर्जाबलादम् ॥
अर्थ-व्यायाम करने के पीछे शरीर के | कंडमलश्रमस्वदतंद्रातृड्दाहपामाजत्॥१२॥ चारों ओर ऐसी रीति से धीरे धीरे मर्दन अर्थ-स्नान करने स जठराग्नि प्रदीप्त
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(१८)
अष्टांगहृदये।
होती है, वीर्य और आयु बढते हैं उत्साह ) दूसरे काम में न लगे क्योंकि उस की उपेक्षा
और बल वृद्धि पाते हैं, तथा खुजली, मैल, करने से वह असाध्य हो जाता है । थकावट, पसीना, तन्द्रा, तृषा, दाद और | धर्म पर दृढता । पाप रूप दूर हो जाते हैं।
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः। गर्म जल से स्नान के गुणागुण ।।
सुखं च न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत्२० उष्णांबुनाधःकायस्य परिषेको बलावहः ॥
अर्थ-संपूर्ण प्राणियों की सब प्रवृत्तियां तेनैव चोत्तमांगस्य बलहृत्केशचक्षुषाम् १७ सुख के निमित्त होती हैं, और वह सुख बिना
अर्थ-यदि नीचे के अंग पर गर्म जल | धर्म के नहीं मिलता, इस लिये सदा धर्म में का तरेड़ा दिया जाय तो बल की वृद्धि होती तत्पर रहना उचित है । है और मस्तक पर गर्म पानी का सेचन मित्र शत्रु का विवेक । करना बाल और नेत्रों का बलनाशक है । | भक्त्या कल्याणमित्राणि सेवेतेतरदूरगः ॥ स्नान का निषेध ।
अर्थ-अपनी भलाई चाहने वाले मित्रों स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु ॥ का प्रेम से सेवन करे और शत्रुओं को दूर आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम्१८ ही से त्यागदे । अथे-अदित नामक बात रोगी को तथा
| हिंसादि, पापों का त्याग । जिस के नेत्र, मुख्न और कान में कोई रोग |
| हिंसास्तेयान्यथाकामं पैन्यं परुषानृते ।२१ हो, तथा जिस को अतिसार, पेट में अफरा,
N) | संभिन्नालापव्याशइमभिध्याग्विपर्ययम् ॥ और अजीर्ण हो तथा जो भोजन करके चुका पापं कर्मेति दशधा कायवाङ्मानसैस्त्यजेत् २२ हो उन को स्नान नहीं करना चाहिये । अर्थ-हिंसा:( प्राणियों का बध ) स्तय
मूत्रादि वेगोंके रोकनेको निषेध ।। ( चोरी करना, ) अन्यथाकाम ( अगम्या जीणे हितं मितं चाद्यान्न वेगानीरयेदलात स्त्रियों का समागम ) ये तीन कायिक पाप नवेगितोऽन्यकार्यस्यान्नाजित्वासाध्यमामयम् हैं। पैशुन्य (चुगली ) परुष ( कठोर वचन,) __ अर्थ-पूर्व खाये हुए अन्न के अच्छी अन्त (मिथ्या भाषण,)संभिन्नालाप ( अमतरह पचजाने पर भी शरीर की प्रकृति के र्याद बोलना, ये चार वाचिक पाप है । अनुसार हितकारी और प्रमाणयुक्त भोजन | व्यापाद ( औरों के अनिष्टका विचार,) करना चाहिये । बलपूर्वक मलमूत्रादि के वेगों अभिध्या ( पराये उत्कर्ष को न सहना, ) को न करै ( अर्थात् दस्त की इच्छा न हो / दृग्विपर्यय ( शास्त्र में कुतर्क ) इन दस पापों तो बलपूर्वक दस्त को न जाय ) अथवा को शरीर वाणी और मन से त्याग देना चाहिये। जिस को मलमूत्रादि का वेग हो रहा हो वह प्राणिमात्र पर समदृष्टि । किसी दूसरे काम के करने में प्रवृत्त न हो। अवत्तिव्याधिशोकानिनुवर्तेत शक्तितः॥ - इसी तरह साध्य रोगको दूर किये विना किसी आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकम२३
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ--जीविका हित, व्याधिग्रस्त, और बोलने आदि पर उपदेश । शोकपीडित मनुव्यों की यथाशक्ति सहायता | काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम् ॥ करता रहै । कीडेगकोड़े और चींटीपर्य्यन्त
पूर्वाभिभाषी सुमुखः सुशीलः करुणामृदुः२६
नैकः सुखी न सर्वत्र विश्रब्धो न च शंकितः। सत्र को सदा अपने ही समान देखे ।
न कंचिदात्मनःशत्रु नात्मानं कस्यचिद्रिपुम्। अन्य उपयोगी कर्म ।
| प्रकाशयेन्नापमानं न च निःोहतां प्रभोः ॥ चर्वयेद्देवगोधिप्रवृद्धवैद्यनृपातिथीन् ॥ अर्थ-प्रसंग आनेपर हितकारी, थोड़े, विमुखानार्थिनः कुर्यानावमन्यत नाशिोत् ।
सत्य, कामों को प्यारे और मीठे वचनों उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेऽन्यरौ ॥ अर्थ--देव, गौ, ब्राह्मण, वृद्ध (वयोवृद्ध,
से बोलना चाहिये । अपने पास आनेवालों शीलवृद्ध, ज्ञानवद्ध, ) वैद्य, राजा और अ
के साथ प्रथम आपही बोले उसके बोलने तिथि । भोजन के समय आनेवाला परदेशी
की अपेक्षा न करै । सदा हँसमुख रहै, सुमनुष्य ) इनका यथा योग्य सन्मान करता
शीन, दया और कोमल चित्तवाला रहै ।
अकेला ही सुख भोगने की इच्छा न रक्खै, रहै । याचकों को विमुख न जाने दे और
| सब में विश्वास और सबमें ही अविश्वास न कठोर वचन कहकर उनका तिरस्कार भी न करै । जो शत्रु भी अपने साथ बुराई करने
रक्खै । किसी के साम्हने प्रकट न करे में तत्पर हो तो भी उस के साथ उपकार
कि में अमुक मनुष्य का शत्रु हूं और अमुक करता रहै ।
मनुष्य मेरा शत्रु है । अपना निरादर वा सुखदुख में समभाव ।
अपने मालिक की अपने ऊपर प्रीति घटने 'संपद्विपत्स्क मना हेतावीर्येत्कले न तु २५ का किसी के सन्मुख प्रकाश न करै । अर्थ-संपत्ति और विपत्ति में सदा एक
अन्य के साथ वर्ताव । सा मन रखना चाहिये, संपत्ति में तो हर्ष से जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति २८
तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपंडितः ॥ फूलकर मदांध न हावे और विपत्ति में शो
___ अर्थ-मनुष्य की प्रकृतिको जानकर जो कातर और दीन न बन जाय । ईष्या हेतुपर
| जैसे प्रसन्न हो सक्ता हो उसको वैसेही प्रकरना उचित है फल पर न करनी चाहिये ।
सन्न करने का उपाय करै । जो दूसरे को इसका यह तात्पर्य है कि विद्यादिक गुणों से
| प्रसन्न करलेता है वही चतुर है । मान मिलता है तो उसके मान भंग करने
इन्द्रियों का नियम । की इच्छा न रख कर उस मान का हेतु जो | न पीडयहिंद्रियाणि न चैतान्यतिलालयेत्२९ विद्या है उसको अपने में लाकर उसके ब- | ___ अर्थ-जिव्हा आदि इन्द्रियों को कुत्सित राबर होने की इच्छा रखना उचित है। | अन्नादि के भक्षण से अत्यन्त पीडित न करै इस तरह करी हुई ईी दुर्गण नहीं किन्तु और न बहुमुल्य भोजनादि से उनका लाड़ गुणरूप है ।
प्यार करें।
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( २० )
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अष्टांगहृदये ।
कर्म की रीति ।
त्रिवर्गशून्यं नारंभं भजेत्तं चाविरोधयन् ॥ अर्थ - धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को लक्ष्य में रखकर काम का प्रारंभ करे और इन तीनों में परस्पर किसी प्रकार का विरोध पैदा न हो ऐसी रीति से काम करना उचित है । जैसे धर्मका काम करने में अर्थहानि और कामहानि न होने पावै, इसी तरह अर्थ प्राप्त करने में धर्महानि वा कामहा ने न हो और काम साधन में धर्महानि वा अर्थहानि न हो
अन्य नियमापनियप |
अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ३०| नीरोमनखश्मश्रुर्निर्मलांनिमलायनः ॥ स्नानशीलः सुरभिः सुवेषोऽनुल्बणोज्ज्वलः धारयेत्सततं रत्नसिद्ध मंत्रमहौषधीः ॥
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अपने आगे की चार हाथ पृथ्वी को देखता हुआ मार्ग में निकले । रात्रि में अथवा किसी संकट के काम में जब बाहर जाने की आवश्यक्ता हो तो लाठी लेकर सिरपर साफा बांधकर दो चार सहायकों को संग लेकर निकले, किसी आचार्य ने लाठी बांधने की प्रशंसा में लिखा है कि "स्खलतः संप्रतिष्ठानं शत्रूणां निषेधनम् । अवष्टंभनमा युष्यं भयन्नं दडधारणम् ॥ गिरते हुए को सहारा देने वाली, शत्रुओं को निवारण करने वाली, आधार देनेवाली, आयुवर्द्धक और भयनाशक लाठी होती है । चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छाया भस्मतुपाशुचीन् नाकामेच्छर्करालोष्टबलिस्नानभुवोऽचि । नदीं तरेन बाहुभ्यां नाग्निस्कंधमभिव्रजेत् ३४ संदिग्धनावं वृक्षं च नारोहेदुष्ट्यानवत् ॥
अर्थ- देवस्थानका वृक्ष, गुरुपुत्रादि पूज्य मूर्ति, ध्वजा, चांडालादिक की छाया, भरम का ढेर, अपवित्र विष्टारि कंकरीलीरेत, मिट्टी, बलिदान और स्नान करके स्थानों का उल्लं घन न करै । बाहुबल से नदी के पार न जाय, अग्नि के समूह के सम्मुख न जाय, जैसे खोटी सवारी पर नहीं चढते हैं वैसे ही संदेह पड़ जानेपर नात्र वा वृक्ष पर न चढे ।
अर्थ- संपूर्ण धर्मों के आचरण में मध्यम का अवलम्बन करना चाहिये । बाल, नख, डाढी, मूछ आदि को कटवा छटवा और मुड़वाकर ठीक और स्वच्छ रखे और हाथ, पांव, नाक, कान, आदि का मैल दूर कर के साफ़ रक्खै प्रतिदिन स्नान करके सुगंधित द्रव्यों को धारण किये रहे, स्वच्छ, निर्मल और उज्वल वस्त्रादि से भले आदमि यों का सा सुन्दर वेष धारण रक्खे, उद्धत वेष धारण करके छैठा बना न फिरे । रत्नाभरण, अपराजितादिक सिद्ध मंत्र और सह देवी आदि महा औषधियों को सदा धारण करे | सातपणो विचरेयुगमा ||१२|| निशि वात्ययि कार्ये दंडी मौली सहायवान्, अर्थ - छत्री लगाकर और जूता पहनकर
संवृतमुखः कुर्यात्युविहायविभग ३५ नासिकां न विकुष्णीयान्नाकराद्विलिरुद्ध वस् airage विगुणं नातोत्थतः ३६ देहवाचेतसां नेष्टाः प्राकू श्रमाद्विनिवर्तयेत् नोर्वानुश्चिरं तिष्ठेन्नतं सेवेत न द्रुमम् ३७ तथा चत्वरचैत्यांतश्चतुष्पथसुरालयान ॥ सुनावशून्य गृहश्मशानानि दिवापि न ३८
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२१)
अर्थ--मुख को हाथ वा वस्त्र से ढके । अन्य मादक द्रव्योंका लेना देना सर्वथा विना छींक लेना, हंसना वा जंभाई लेना । बर्जित है। उचित नहीं है । नासिका का मल निकालने
__ त्याग के योग्य अन्य कर्म। के समय के सिवाय कभी नासिका को न खेंचे । निष्प्रयोजन ठाली बैठे पृथ्वी पर ल
पुरोवातातपरजस्तुषारपरुषानिलान् ॥४०॥
अनृजुः क्षवथूगारकासस्वप्नानमैथुनम् ॥ कीर न खींचे वा नं खोदे ! हाथ पांव आदि
कूलच्छायानृपद्विष्टव्यालदष्ट्रिविषाणिनः ४१ अंगों से कुत्सित चेष्टा न करै । उकडू हीनानार्यातिनिपुणसेवां विग्रहमुत्तमैः ॥ आसन से न बैठे । थकावट पैदा होने से
संध्यास्वभ्यवहारस्त्रीस्वप्नाध्यायनचिंतनम् ४२ पहिले ही देह, वाणी और चित्त के व्यापार
शत्रुसत्रगणाकीर्णगणिकापागकाशनम् ॥
गात्रवनखैर्वाद्यं हस्तकेशावधूननम् ॥४३॥ को बन्द कर देना उचित है परों को ऊंचा | तोयाग्निपूज्यमध्येन यानं धूमं शवाश्रयम् ॥ करकं वहुत देर तक न बैठा रहै । रात में मद्यातसक्तिं विश्रंभस्वातंत्र्ये स्त्रीषुच त्यजेत् पेड के नीचे न सोवे क्योंकि रात्रि के सयय | अर्थ--पूर्व की वायु, तेज धूप, उडली हुई पेड में से नाइट्रोजिन निकलती है जो प्राण- धूल,तुषार कर्कश पवन इनका सेवन न करें। घातक होती है । चौराहा, देवस्थानका वृक्ष, शरीर को टेढा तिरछा किये विना समान बौद्धोंका मठ, तिराहा, और देवालय इन स्था सूधाही बैठे छींक, डकार और खांसी निषिद्ध नोमें रात्रि को न रहना चाहिये । बधस्थान,
है, सोना भोजन करना और मैथुन करना निर्जन स्थान, सूने घर और परवर में दिन
भी बुरा है । नदी के करारे की छायोंमें बैठना, में भी न रहना चाहिये ।
राजा से बैर करना अथवा राजा के बैरी से सर्वथेक्षेत नादित्यं न भारं शिरसा वहेत् ॥
मेल रखना, सर्प खिलाना, दांत वाले तथा नेक्षेत प्रततं सूक्ष्मदीप्तामेध्याप्रियाणि च ३९ सींगवाले जानवरों से सदा बचता रहै । नचि, " मद्यविक्रयसंधानदानादानानि नाचरेत् ॥ | अशिष्ट, और अत्यन्त चतुर की सेवा, और
अर्थ-सूर्यकी ओर किसी प्रकार से भी उत्तम मनुष्यों के साथ लडाई त्याग देनी चाहि. न देखे क्योंकि ऐसा करने से दृष्टिपर आ- ये । संध्याकाल में भोजन स्त्रीसंग, शयन, घात पहुंचता है, बोझ को सिरपर लादकर पठनपाठन और किसी विषय का चितवन न जाय, बहुत सूक्ष्म ( छोटी ) और अत्य- छोड़ देवै । शत्रु का दिया भोजन, यज्ञ का न्त चमकीली वस्तुओं को न देखे इससे भोजन, भाट चारणादि का भोजन, वेश्याका दृष्टिमारी जाती है ! अप्रिय और घिनोनी भोजन, और दुकानदारका भोजन न करै । अपवित्र वस्तुओं को न देखै इससे चित्त में | शरीर मुख और नखों को न बजावै, । हाथ विकार होकर अनेक रोग पैदा होजाते हैं। से सिर के बालों को पकड़ पकड़ कर न शराव वेचना, फलों का आसवनिकालना वा / खींचे, जल के बीच में, अग्नि के बीच में
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(२२)
अष्टांगहृदये।
तथा गुरुजनों के बीच में होकर न निकले । के आचार व्यवहारका वर्णन किया गया है। मुर्दे के धुंएका सेवन न करै । शराव बहुत जो इन नियमों के अनुसार चलते वे आयु, पीना छोडदे, स्त्रियों में बहुत विश्वास छोड
आरोग्यता, ऐश्वर्य, और यश प्राप्त करते हैं दे और उन को स्वतंत्र न छोड़े ॥
और मरने पर सद्गति को प्राप्त होते हैं । लोक के अनुसार काम की विधि । " आचार्यःसर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः | इत्यष्टाङ्गहृदये सूत्रस्थाने भाषाटीकायां अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः ४५
अर्थ-संसार के सब कामों में लोक ही द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ बडा आचार्य है इस लिये संसार के व्यवहार को देखकर बुद्धिमान मनुष्य को उचित है कि जैसे अन्य लोग काम चलाते हों वैसे ही
तृतीयोऽध्यायः। आपभी चलावै ॥ सव्रत के लक्षण ।
अथात ऋतुचर्याध्यायं व्याख्यास्यामः । आर्द्रसंतानतात्यागःकायबाक्चेतसां दमः।। अर्थ--तदनन्तर आत्रेयादिक महर्षि कहने स्वार्थबुद्धिःपरार्थेषु पर्याप्तमिति सद्रतम् ४६ लगे कि अब हम ऋतुचर्याध्याय की व्या___ अर्थ--संपूर्ण प्राणियों पर दयालुता, दान। ख्या करते हैं। शीलता, मन, वचन और शरीर का बस
छः ऋतुओं के नामादि । में रखना, पराये काम में ऐसी बुद्धि रखना मासैदिसंख्येर्माघायःक्रमातपडतवःस्मता कि यह मेरा ही काम है। ऐसे आचरण बाले शिशिरोऽथ बसंतश्च ग्रीष्मवर्षाशरद्धिमाः। पुरुष सद्बत कहलाते हैं ।
शिशिराद्यास्त्रिाभस्तैस्तु विद्यादयनमुत्तरम्। रात्रि दिन का विचार ।
आदानंचतदादत्ते नृणां प्रतिदिनं बलम् ॥२॥
___ अर्थ -माघ आदि दो दो महिने की एक नक्तदिनानि मे यांति कथंभूतस्य संप्रति ।। दुःखभाइन भवत्येवं नित्यं संनिहितस्मृतिः४७
एक ऋतु होती है जैसे माघ और फाल्गुन __ अर्थ--जो आदमी नित्य प्रति यह विचारते में शिशिर ऋतु, चैत्र वैसाख में वसंत, ज्येष्ट रहते हैं कि मेरे दिन और रात किस किस आषाढ में ग्रीष्म, श्रावण भाद्रपद में वर्षा काम के करने में वीतते हैं वे कभी दुख के आश्विन और कार्तिक में शरद तथा अगहन, भागी नहीं होते।
पौष में हेमन्त ऋतु होती है । इन में से शि
शिर वसंत और ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं का आचार का फल । इत्याचारः समासेन संप्राप्नोति समाचरन् । उत्तरायण काल कहलाता है यह पुरुष के आयुरारोग्यमैश्वर्य यज्ञो लोकांश्च शाश्वतान् बलका आदान कल है अर्थात् उत्तरायण में
अर्थ--इस तरह संक्षेप रीति से मनुष्यों । सूर्य प्रति दिन मनुष्य के वलको हरण करताहै।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२३).
-
बलका आदान और विसर्ग काल । | ऋतुपरता से बल की प्राप्ति । तस्मिन् हत्यर्थतीक्ष्णोष्णरुक्षामार्गस्वभावतः शीतेऽग्रथं वृष्टिधर्मेऽल्पं बलं मध्यंतु शेषयोः। आदित्यपवनःसौम्यान्क्षपयंतिगुणान् भुवः३ अर्थ-शीतकाल अर्थात् हेमन्त और शितिक्तः कषायःकटुको बलिनोऽपरसाक्रमात्। शिर में उत्तम बल की प्राप्ति होती है । वर्षा तस्मादादानमाग्नेयम्
और ग्रीष्म में अल्पबल तथा शरद और बसंत ___ ऋतवो दक्षिणायनम् ॥४॥ वर्षादयोविसर्गश्च यद्दलं विसृजत्ययम् ।
काल में मध्यम बल की प्राप्ति होती है। अर्थ--उत्तरायण काल में सूर्य का मार्ग बद- हेमंत में जठराग्नि का प्रावल्य । लेने के कारण से सूर्य और पवन अत्यन्त यलिनः शीतसंरोधाद्धमंते प्रबलोऽनलः ।। प्रचंड, गर्म और रूक्ष हो जाते हैं और पृथ्वी भवत्यल्पंधनो धातून् स पचेद्वायुनेरितः । के सौम्य गणों को नष्ट कर देते हैं और क्रम
___अर्थ -हेमंत ऋतु में बलवान पुरुष की से इन तुओं में तिक्त, कषाय और कटु ये
जठराग्नि प्रबल होजाती है, क्योंकि बाहर तीन रस बलवान् होजाते हैं अर्थात् शिशिर
चारों ओर शीत रहने के कारण अग्नि भीतर में तिक्त, वसंत में कषाय, और ग्रीष्म में कटु ।
रुकी रहती है । इसलिये इस समय में जो रस वलवान् होजाते हैं । इस कहे हुए हेतु
थोड़ा आहार मिले तो वह आहार रूप से बलका आदान अग्निरूप है, तथा इसके
ईंधन वायुप्रेरित अग्नि की प्रबलता से जलकर विपरीत वर्षा, शरद और हेमन्त ये तीन प्रत धातुओं को जला देता है । दक्षिणायन कहलाती हैं । इन तीन ऋतुओं
हेमन्त में सेवनीय रस । में पुरुष का बल पीछा आता है इसी से इस
| अतोहिमेऽस्मिन्सेवेतस्वादम्ललवणानसान्
अर्थ-इसलिये हेमन्त ऋतु में धातु पाक को विसर्गकाल कहते हैं।
। विरोधी मधुर अम्ल और लवण रसोंका सेवन बलविसर्ग का कारण । सौम्यत्वादत्र सोमो हि बलवान् हीयते रविः ।
करता रहै । मेघवृष्टयानलैः शीतैः शांतताये महीतले। हेमन्त की दिनचर्या । स्निग्धाश्चेहाम्ललवणमधुरा बलिन रसाः६ दानिशानामेतर्हि प्रातरेव बभक्षितः ।
अर्थ--मेघ की वृष्टि और ठंडे पवन के अवश्यकार्य संभाव्य यथोक्तं शीलयेदनु ।। चलने से पृथ्वी पुष्ट और शीतल होजाती है अर्थ-हेमन्त ऋतु में रात्रि बड़ी होतीहै
और इस शीतलता के कारण चन्द्रमा वलवान् | इस लिये प्रातःकालही भूख लगती है । भुक्त होजाता है और सूर्य हीनता को प्राप्त होता द्रव्य प्रायः अजीर्ण नहीं रहताहै, अतएव प्राहै और इस ऋतु में खट्टे खारे और मधुर रस तःकालही मलमूत्र त्याग आदि अवश्य कार्य वलवान् होजाते हैं जैसे वर्षा में खट्टा, शरद करके दिनचर्या में कहहुए दन्त धांवन, अमें लवण और हेमंत में मधुर रस बलवान्। भ्यंगादि संपूर्ण कामोंको करै। आवश्यक काहोजाते हैं।
| मोंको करके पीछे यथोक्त कामकरै; यद्यपि ऐसा
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(२४)
अष्टांगहृदये।
कहा है तथापि भूखेको पहिले भोजन करना रस अथोत् मधुराम्ललवण रसों के बने हुए चाहिये" कहाभाहै "आहार काले संप्राप्ते यो- पदार्थ, मोटे पशुओं का मांस, गुड़का बना न के वुभुक्षितः । तस्य सीदति कायाग्नि हुआ मद्य, अच्छसुरा ( सुरामंड ) मदिरा निरंधन इवानल इति"
| का सेवन करै । गेंहूं, साठीचांवल, उरद, ___ अभ्यंगादि ।
ईख, और दूध के वनाये हुए अनेक प्रकार वातघ्नतैलैरभ्यंग मूनि तैलं विमर्दनम् ।। के सुन्दर पदार्थों का भक्षण करै । नया नियुद्धं कुशलै सार्धपादाघातं च युक्तितः १० अन्न, शुद्धमांसका स्नेह जिसे चर्बी कहते हैं, ___ अर्थ-शीतकाल में वातनाशक बलातैला
और तेलका सेवन करै । शौ वादिकक्रिया दिका शरीर पर मर्दन करे । मस्तक पर विशेष अर्थात हाथ पांव के धोने के लिये गरम जरूपसे तैल लगावै । कुश्ती लड़नेवाले प्रवीण
ल काम में लावै । गलीचा, मृगछाला, रेशमी मनुष्यके साथ कुश्ती कर और युक्तिपूर्वक
वस्त्र अथवा कोमल कम्बल बिछाकर हलका पादाघात ( एकप्रकार की पांवोंकी क परतहै )
और गर्म वस्त्र वा रुई की सौड़ ओढकर करै । युक्तिपूर्वक इस लिये कहाहै कि जब
सोवे । सुहाती हुई धूप में बैठे । थोड़ा पतक शरीर में थकावट नहो तबतक इन का. सीनाले, और सदा जूते पहनता रहै । मोंको करै ।
स्त्री सेवन । स्नानादि ।
पीवरोशस्तनश्रोण्यः समदः प्रमदाः प्रियाः। कषायापहृतस्नेहस्ततः स्नातो यथाविधि । हरंति शीतमुष्णांग्यो धूपकुंकुमयौवनैः ॥१५॥ कुंकुमेन सदर्पण प्रदिग्धोऽगुरुधूपितः ।११। अर्थ- जिनके ऊरु ( जंघा ) और श्रोणि
अर्थ-कसरत करने के पीछ लोधादिक- देश पुष्ट, स्तन पानोन्नत, हों जो जवानी षाय द्वारा शरीरकी चिकनाई दूर करके विधि के मदसे मत्त, प्रेमासक्त, अगर आदिके धूआं पूर्वक स्नान करै, पीछे कुंकुम कस्तूरी का
से धूपित, कुंकुमआदिसे लेपित, तरुणाई की शरीर पर लेप करके अगरकी धूपसे शरीरको
| गर्मीसे गरम विलासिनी कामिनी हेमन्तके धूपितकरै अर्थात् अगरकी लकड़ी अग्निमें ज
शीतको हरतीहै अर्थात् इस कठिन शीतकाल लाकर उसका धुंआं ग्रहण करै । में ऐसी स्त्रियों का सेवन उचितहै । भोजनादि ।
रहने का घर । रसानस्निग्धान पलंयुष्टगोडमच्छसुरसुराम् अंगारतापसंतप्तगर्मभूवेश्मचारिणः । गोधूमपिष्टमाषेनुक्षीरोत्थविकृतीःशुभाः १२
शीतपारुप्यजनितो नदोषो जातु जायते १६ नवमन्नं वसा तैलं शौवकार्ये सुखोदकम् ।
___ अर्थ- जो हेमन्तकालमें प्रज्वलित अंगारों प्राधाराजिनकौशेयप्रवेणीकोचवास्तृतम् १३ उष्णस्वभावैलेधुभिः प्रावृतः शयनं भजेत् ।
से संतप्त गर्भगृह अथवा भूगर्भ में रहते हैं युक्त्याकिरणान् स्वेदं पादत्राणंच.सर्वदा।। उनके कठोर जाड़े से होनेवाला कोई रोग
अर्थ--स्नानादिसे निवृत होकर स्निग्ध उत्पन्न नहीं होसकताहै ।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
घरके भीतर जो घर होता है गर्भगृह और पृथ्वी के नीचे जो घर होता है उसे भूगृह वा पातालघर कहते हैं ।
शिशिरचर्या ।
“अयमेव विधिः कार्यः शिशिरेऽपि विशेषतः तदाहि शतिमधिकं रौक्ष्यं चादानकालजम् ।
अर्थ- हेमन्तकालकी अपेक्षा शिशिरऋतु जाड़ा विशेष पडता है, आदानकालकी रूक्षता विशेष होती है, इसलिये इस ऋतु में हेमन्त ऋतु की कही हुई दिनचर्याका अधिकरूपसे व्यवहार करना उचित है ।
वसन्तचर्या ।
कफश्चितो हि शिशिरे वसंतेऽशुतापितः हत्वाऽनिं कुरुते रोगानतस्तं त्वरया जयेत् ।
अर्थ - शिशिरऋतु में मधुर और स्निग्व भोजनों के करने से शरीर में कफ अतिशय संचित होजाताहै और वही वसंत ऋतु सूर्य के प्रभावसे पिघलकर जठराग्निका नाश करता है और रोगोंको उत्पन्न करता है इससे करुको जीतने का शीघ्र उपाय करना चाहिये ।
कफ जीतने के उपाय । तीक्ष्णैर्वमननस्याद्यैर्लघु रूक्षैश्च भोजनः । व्यायामोद्वर्तनाघातैर्जित्वा श्लेष्मा णमुल्बणम् खातोऽनुलितः कर्पूरचंदनागुरुकुंकुमैः । पुराणयवगोधूमक्षौद्र जांगल शूल्यभुक् । २०१,, सहकाररसोन्मिश्रातास्वाद्य प्रिययार्पितान् । प्रियास्य संगसुरभीन् प्रियानेत्रोत्पलाकितान् । सौमनस्यकृतो हृद्यान्ययस्यैः सहितः पिवेत् । निर्गदानास वारिसीधुमाळ किंमाधवान् २२
अर्थ - तीक्ष्ण वमन और तीक्ष्ण नस्यादि ( नस्यविरेचन ) लबै । हलके और रूखे भोजन करें, कसरत, तैयमन ( उव
४
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( २५ )
टना ) शरीरमर्दन आदि से बढे हुए कफका नाश करे । पीछे स्नानकरके चन्दन, कपूर, अगर, कुंकुम आदि सुगंधित द्रव्यों का लेपन करै तदनन्तर पुराने जौ या गेंहूं की रोटियां खाय, शहत और जांगल देश के पशु पक्षियों के मांस का शूल्य कांटे पर
भुना हुआ मांस अर्थात् कवच ) सेवन करे पीछे उत्तम सौरभयुक्त आम्ररसमिश्रित, अपनी प्रिया से आस्वादित ( चाखा हुआ ), तथा अपनी प्रिया के ओष्ठों के सर्श से सुगन्धीकृत और अपनी प्रणयिनी के नेत्र कमलों से प्रतिविम्वित प्रिया के नेत्रों के समान ललाई लिये हुए ) आसव, अरिष्ट, सीधु ( ईके रसका बना हुआ ), माक ( द्राक्षारस ) और माधव ( शहत का वना हुआ ) आदि प्रिया के हाथ से दिये हुए निर्दोष मद्य समान अवस्थावले बन्धु बान्धत्र और मित्रों के साथ बैठकर प्रसन्न चित्त होकर पान करे ।
अन्य उपाय |
"garia सria मवु जलांबु वा ।
अर्थ- सोंठका काथ, असन चन्दनादि डालकर सिद्ध किया हुआ जल, मधुमिश्रित जल अथवा मोथा डालकर पकाया हुआ जल पान करै 1
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वसन्त का मध्यान्हकाल | दक्षिणानिलशीतेषु परितो जलवाहिषु,, |२३| अदृष्टनष्टसूर्येषु मणिकुट्टिमकांतिषु । विचित्र पुष्पवृक्षेषु काननेषु सुगंधिषु । परपुष्टविष्टेषु कामकतभूमिषु ॥ २४ ॥ "गोष्ठी कथाभिश्चित्राभिर्म व्याहं गमयेत्सुखी
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अष्टांगहृदये |
(२६ )
अर्थ-जिस स्थान में सुशीतल दक्षिणका वायु मन्द मन्द बहताहो, जिसके चारों ओर जलकी नालियां बहती हों, जहां किसी जगह वृक्षोंकी शाखा प्रशाखाओं में होकर सूर्यकी किरणें पढ़तीहों अथवा विलकुलही न पड़ती हों, जहां वजू मरकतादि मणियोंकी कांतिके समान झिलमिलाहट करनेवाली सचिक्कण शिला पड़ीहों, जहां कोकिलोंके समूह कुहू कुहू शब्द करते हुए मधुर गान कर रहे हों, जहां कामकेलिके उपयुक्त सुन्दर भूमिहीं, जहां अनेक प्रकार के मनोहर पुष्पोंके वृक्ष सुशोभित हो रहेहौं और जिनकी सुगन्धिसे संपूर्ण उपवन महक रहाहो ऐसे उपवन में राग द्वेषादिसे रहित अनेक प्रकारकी आमोद प्रमोद जनक वातें करताहुआ मध्यान्ह कालको आनन्दसे व्यतीत करै ।
बसंत में त्याज्य रस | गुरुशीत दिवास्वमस्निग्धाम्लमधुरांस्त्यजेत् । अर्थ - इस वसंत ऋतु में गुरु, शीतल, स्निग्ध, अम्ल और मधुर रसका सेवन तथा दिनमें सौना त्याग देना चाहिये ।
ग्रीष्मचर्या ।
तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुग्रमे संक्षिपतीय यन् प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते । अतोऽस्मिन्पटु टुलव्यायामा र्क करांस्त्यजेत्
अर्थ - ग्रीष्म ऋतु में सूर्यदेव जगत के स्नेहपदार्थ अर्थात् सारांश को हरने के निमित्तही अत्यन्त तीक्ष्ण किरणों द्वारा पृथ्वी पर उतरते हैं । इसी से प्रतिदिन कफ का नाश और वायु की वृद्धि होती है । इसी से इस काल में तिक्त, कटु और अम्ल रसों
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धूप
का परित्याग उचित है तथा कसरत करना में चलना फिरना छोड़ देना चाहिये । ग्रीष्म के कर्तव्य कर्म भजन्मधुरमेवान्नं लघु स्निग्धं हिमं द्रषम् । सुशीतत्तोय सिक्कांगोलिह्यात्स क्लून सशर्करान मद्यं न पे पेयं वा स्वल्पं सुवहु वारि वा । अन्यथा शोकशैथिल्यदाहमोहान् करोतितत् अर्थ - इस ग्रीष्मकाल में मधुर, अन्न तथा हलका, स्निग्ध, ठंडा और द्रव पदार्थ
सेवन करना चाहिये | टंडेजल से स्नान कर के जलमें घोलकर शकर डालकर पीना सत्तू
चाहिये ।
इस ऋतु मद्यपान निषिद्ध है, वातकफ प्रकृति वाले को वातके क्षयके लिये पीना ही पडे तो बहुतसा जल मिलाकर बहुत थोडा पीना चाहिये । इस के विपरीत आचरण करने से शोध ( सूजन ) शैथिल्य ( देह में शिथलता ) दाह और अज्ञानता उत्पन्न होते हैं ।
ग्रीष्म का भोजन |
कुंदे दुधवलं शालिमश्नीया जांगलैः पलैः । अर्थ - कुंद के फूल और चन्द्रमा के समान सफेद शालीचांवल बनके पशुपक्षियों के मांस के साथ खाना चाहिये । म में पान विधि |
पिवेद्रसं नातिघनं रसालां रागखांडवौ ३० पानकं पंचसारं वा नवमृद्भाजनस्थितम् । मोचचोचदलैर्युक्तं साम्लंमृन्मयशुक्तिभिः ३१ अर्थ- -न बहुतगाढा न पतला मांसरस, रसाला, राग, खांडब, और पंचसार नामक पानक मिट्टी के नये पात्र में भरकर अम्लरस
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
मिलाकर केला और फनसके पत्तों में निकालकर मिट्टी के प्याले में भर चाहिये ।
भर कर पीना
इन सबके लक्षण अन्य ग्रन्थों में इस प्रकार लिखे हैं " सितामध्वादिमधुरारागास्त- | त्राच्छकांतयः । ते साम्ला: खांडवा लेह्यो: पेयाश्वांशुकगालिताः । स्वाद्वम्लपटु कष्ट्वाद्याः प्रलेहास्तत्र खांडवाः । गुडदाडिममांसाद्यारा गावांशुक गालिताः । हृद्यावृष्यारुचिकरा ग्राहिणो रागखांडबा इति । तथा । द्राक्षामधूकखर्जूरकाश्मर्यः सपरूषकाः तुल्यांशैः कल्पि - तं पूतं शीतं कर्पूर बासितं । पानकं पंचसा - राख्यं दाहनृष्णानिवर्तकम् । अन्यत्र चोक्तम् यथा | गुडदाडिमादियुक्त विज्ञेया रागखांडवा : त्रिजातमरिचाद्यैस्तु संस्कृताः पानकास्तथेति । अर्थात् राग और खांडव पीने तथा चाटने के पदार्थ होते हैं । शक्कर शहद आदि मधुर द्रव्यों का राग बनता है, इसी में इमली की खटाई डालने से खांडव बन जाता है । जो इनको गाढा रक्खै तो चाटने के योग्य होते हैं और पानी डाल कर वस्त्र में छान कर काम में लाया जाय तो पेय होते हैं । राग और खांडव हृद्य वृष्य रुचिकर और गाही होते हैं । दाख, मुलहटी, खिजूर खंभारी और परुपक समान भाग लेकर मसल कर छान ले और कर्पूरादि द्रव्यों से सुगंधित करले तो यह पंच साराख्य पानक कहाता है । यह दाह और प्यास मिटाता है दही, कुंकुम चीनी, शहत और कपूर को मिलाकर वस्त्र में छान लेने से रसाला वनती
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(२७ )
ग्रीष्म में जलपान |
" पाटलावासितं चांभः सकर्पूरं सुशीतलम् अर्थ - पाटल के पुष्पोंसे सुवासित और कपूर से सुगंधित मिट्टी के पात्रमें भरा हुआ जल पीने के योग्य है ।
ग्रीष्म में रात्रि भोजन । शशांककिरणान् भक्ष्यान् जन्यां भक्षयपिबेत् ससितं माहिषं क्षीरं चंद्रनक्षत्रशीतलम्,,, ।
अर्थ - रात्रि के समय शशांककिरण (कपूरनालिका ) नामक भक्ष्य पदार्थ खाकर ऊपरसे मेंसका दूध पीवै । यह दूब चन्द्रमा और तारागण की ज्योंतिके नीचे रखकर अच्छी तरह ठंडा कर लिया जाय और इसमें सफेद चीनी डाली जाय ।
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ग्रीष्म का मध्यान्ह काल | अभ्रंक महाशाल तालरुद्धोष्णरश्मिषु ॥ ३३॥ वनेषु माधवी लिष्ट द्राक्षा स्तवकशालिषु । सुगंधिहिमपानीयसिच्यमानपटालिके ॥३४॥ कायमाने चिते चूतप्रवालफललुंविभिः । कदलीदल कहारमृणाल कमलोत्पलैः ॥ ३५ ॥ कल्पिते कोमलैस्तल्पे हसत्कुसुमपल्लवे । मध्यदिने तापातः स्वयाद्वारागृहेऽथवा पुस्तस्त्रीस्तन हस्तास्यप्रवृत्तोशीरवारिणि ।
अर्थ- जिस स्थान में मेघों का स्पर्श करने वाले अर्थात् बड़े ऊंचे ऊंचे शाल और ताडके वृक्षोंले सूर्य की किरणें रुकी हुई है । जहां दाखों के गुच्छा में माधवी लता गुथरही है ऐसे उपवनमें बांसोंका मंडप बनावे, उस मंडप के चारों ओर परदे पड़े हों जिनपर पानी सींचा जाताहो और उस मंडपके चारों ओर आम के वृक्षोंके फल फूल और पत्ते पवन से झोटे ले रहे हों ऐसे मंडपके भी
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(२८)
अष्टांगहृदये।
तर केलेके पत्ते, कल्हार, कमलतन्तु, और हस्तमें धारण किये हुऐ इतस्ततःपादाविक्षेप पद्म पुष्पोंसे रचित शय्यापर सूर्यतापात व्यक्ति करती हुई कामिनीगण कमलपरिपूरित सजीव मध्यान्ह कालके समय शयन करै । अथवा | सरोबरके सदृश उपरोक्त हर्म्यतलस्थ व्यक्ति धारागृहमें शयन करै । धारागृह उसे कहतेहैं | के शारीरिक और मानसिक तापोंको दूर जहा फव्वारे चलतहों । लकडी वा धातुका | करती हैं। फव्वारा जिसका मुख स्त्रीके स्तन, वा हाथ
बर्षाचर्या । वा मुखके सदृश हो और उसमेंसे निरंतर
"आदानग्लानवपुषामग्निः सन्नोपिसीवति । उशीरका सुवासित जल निकले उसे पुस्तबर्षासु दोषैःदुप्यति तंबुलंबांबुर्देऽबरे ॥ ४२ कहते हैं।
सतुषारेण मरुता सहसा शीतलेन च ग्रीष्म की रात्रिका विधान । भूवाष्णाम्लपाकेन मलिनेनचवारिण॥४३॥
वह्निनैव च मंदन तेष्वित्यन्योन्य दायषु । "निशाकरकराकीर्णसौधपृष्ठेनिशासुच॥३७॥. आसना स्वस्थचितस्य चंदनाद्रस्य मालिनः। |
"| भजेत्साधारणसर्वमूष्मणस्तेजनंचयत्॥४४॥ निवृत्तकामतंत्रस्य सुसूक्ष्मतनुवाससः॥३८॥ अथे- आदान अर्थात् उत्तरायणकालमें जलाद्रोस्तालवृतानि विस्तृताःपमिनीपुटाः । मनुष्यका देह क्लान्त होजाताहै और कालके उत्क्षेपाश्चदूत्क्षेपाजलवाहिमानिलाः३९।
स्वभावसे अग्निभी मंद पडजातीहै वह अग्नि कर्पूरमाल्लंका माला हाराः सहरिचंदनाः।
वर्षाऋतु वातादिक दोषोंके कारण और भी अनोहरकलालापाःशिशवःसारिकाशुकाः।४० मृणालवलयाकान्ता प्रोत्फुल्ल कमलोज्ज्वला मंद पडजातीहै । और इसी वर्षाऋतुमें आजंगमाइवपदमिन्योहरंतिदयिताक्लमम्।४। काश बादलोंसे ढक जातेहैं, वायु जलकणोंसे अर्थ-- रात्रिके समय कामतंत्रसे निवृत्तहो
मिलने के कारण एकाएक शीतल होजाताहै स्वस्थचित्तसे ऐसे मकान की छत पर बैठे
तथा पृथ्वी की गर्मीको लियेहुऐ जलभी कीजहां चन्द्रमा की चांदनी छिटक रही हो,
चरयुक्त और मलीन होजाताहै । इन कारणों . वहां शरीर पर चन्दन लगावै गलेमें पुष्पोका
से विपाक खट्टा होता है और अग्नि मन्द हार डाले, बहुत पतले वस्त्र ओढे । जलसे
पडजातीहै इन्हीं कारणोंसे वातादिक तीनों भीगे हुऐ ताड़के अथवा कमलके पत्तोंक
दोष वर्षकालमें एक साथ कुपित होजातहैं पंखेसे मंदी मंदी हवा होताहो । ये पंखे ऐसे
इसतरह एक दूसरे को दूषित करनेवाले हों जिनके हिलाने में कुछ परिश्रम न पडता दोषोंका शमन करनेके लिये साधारण तथा हो, छोटे छोटे जलविन्दु उनमेंसे उडतहों अग्निवर्द्धक उपायों को करना चाहिये । कपूर और मोगराके फूलोंका हार, हरिचन्दन
बर्षाऋतु में भोजनादि विधि । चर्चित मुक्ताहार, मनोहर अव्यक्त मधुरभाषी
आस्थापनंशुद्धतनुर्जीर्णधान्यरसान्कृतान्,,। शिशु, शुक और शारिका पक्षी, विकसित जांगलंपिशितंयुषान्मध्वारिष्टं चिरंतनं॥४५॥ कमलवत कमनीय कमलकंकणको दक्षिण मस्तुलौवर्चलाढ्यं वा पंचकोलावचूाणतम् ,
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
दिव्यंकौपंशृतंचांभोभोजनंत्वतिदुर्दिने॥४६॥ तप्तानांसंचितंवृष्टौपित्तंशरदिकुप्यति ॥४९॥ व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु। तज्जयाय घृतं तिक्तं विरेको रक्तमोक्षणम् । ____ अर्थ-वमन विरेचनादि से शरीर को । अर्थ-वर्षाऋतुका शीत मनुष्यों के शरीर शुद्ध करके निरूह वस्तिका प्रयोग करै।। के सात्म्य होजाताहै और शरत्कालमें एकदम जौ, गेंहूं आदि पुराने अन्न, घी, कालीमि- सूर्यकी किरणोंसे संतप्त होजाताहै । इसलि. रच, सोंठ डाल कर तयार किए हुए मांसरस, ये वर्षाऋतु में संचित हुआ पित्त शरतकाल बनके पशु पक्षियों का मांस, मूंग और में प्रकुपित होजाता है । इसको शमन करने दाडिम आदिका यूष, पुराना द्राक्षाका मद्य के लिये तत्काल शास्त्र क्त तिक्त घृतका सेवन
और अरिष्ट, संचल नमक और पंचकोल विरेचन तथा रक्तमोक्षण ( फस्द खुलवाना) ( पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ) उचित है । डालकर दही, वर्षाका जल, कुआका जल, शरद में भोजन । तथा औटायाहुआ, जल पीना चाहिये । अ
| तिक्तंस्वादुकषायंच क्षुधितोन्नंभजेल्लघु॥५०॥ त्यन्त वर्षा और बादलके दिन बहुत थोडा
शालिमुद्रसिताधात्रीपटोलमधुजांगलम् ।
अर्थ-इस ऋतुमें अच्छी तरह भूख लगने नमक, और घी मिलाकर मधुमिश्रित हलका
पर तिक्त मधुर और कषाय रस युक्त हलका और सूखा भोजन करना उचित है ।
अन्न, शाठीचांवल, मंग, चीनी, आंवला, बर्षा में अन्य विधि ।
पटोल, मधु और वन के पशुपक्षियों का अपादचारांसुरभिः सततंधूपितांवरः ॥४७॥
मांस सेवन करना उचित है। हर्म्यपृष्ठे वसेद्वाष्पशीतशीकरवर्जिते। अर्थ-वर्षाऋतु में नंगे पांव घरसे बाहर
हंसोदक!
तप्तंतप्तांशुकिरणैःशीतंशीतांशुरश्मिभिः॥५१॥ न निकले, सुगंधित द्रव्योंका व्यवहार करता
समतादप्यहोरात्रमगस्त्योदय निर्विषम् । रहै । निरंतर धूपदिया हुआ वस्त्र धारण कर | शुचिहंसोदकंनाम निर्मलंमलजिजलम् ॥५२॥ तारहै । भूवाष्प आई और जलकणों नाभिष्यंदिनवा रूक्षं पानादिष्वमृतोपमम् । से वर्जित स्थानमें निवास करै ।। ___ अर्थ-जो जल दिनभर सूर्यकी किरणों __वर्षा में अकर्तव्य कर्म ।
से तपता है और रात्रिमें चन्द्रमा की शांत. नदीजलोथमन्या स्वप्नायासातपांस्त्यजेत ल किरणों से ठंडा होता है तथा अगस्त्य
अर्थ-नदीका जल, उदमन्थ, दिनमें सौ | नक्षत्रके उदयसे निर्विष होजाता है उसे न, व्यायाम और धूपका सेवन छोडदेना चा आयुर्वेद ग्रन्थकार हंसोदक कहते हैं । यह हिये । ( जलमें आलोडित घी मिलहुए स- जल पवित्र, निर्मल, वातादि दोषनाशक तूको उदमन्थ कहते हैं।
अनभिष्यन्दि (श्लेष्मा का उत्पन्न न करने शरदचर्या ।
वाला ) और रूक्षतारहित होता है । पीने वर्षाशीतोधितांगानां सहसैवार्क रश्मिभिः।। में यह जल अमृत के तुल्य होता है।
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अष्टांगहृदये।
शरद का सायंकाला तल अन्नपान गुणकारी है तथा हेमन्त शि. चंदनोशीरकर्पूरमुक्तास्त्रग्वसनोज्ज्वलः॥५३॥ | शिर वसंत और वर्षा ऋतुओं में उष्ण अन्न सौधेषु सौधधवलां चंद्रिका रजनमुखे।
पानका सेवन लाभदायक होताहै । ___ अर्थ-सांयकालके समय चन्दन, उशीर
नित्यं सर्वरसाभ्यासः स्वस्वाधिक्यमृतावृतौ (खस ) तथा कपूरादि सुगंधित द्रव्यों का ।
अर्थ-छा रसोंके सेवनका अभ्यास सदा लेपन करै, मातियोंका हार तथा सफेद वस्त्र
रखना चाहिये परन्तु जिस ऋतुमें जिस रस धारण करै । और महलके ऊपर चन्द्रमाके
का विधान किया गयाहै उस रसको उस ऋतु समान उज्वल चांदनीमें बैठे ( सायंकाल पीछे
में विशेष रूपसे सेवन करना उचित है । न बैठे क्योंकि जाड़ा पढ़ने लगताहै )
| ऐसा करना उचित नहीं है कि जिस ऋतुमें शरद में त्पाज्य ।
जिसका विधान कियाहै उसी रसको सेवन "तुषारक्षारसौहित्यदधितैलवसातपान्॥५४॥ तीक्ष्णमद्यदिवास्वमपुरोवातान् परित्यजेत् ।
करता रहै अन्य रसोंको सर्वथा त्यागदे । अर्थ-शरत्कालमें ओस, जवाखारादि
ऋतुसंधि। क्षार द्रव्य, पेट भरकर भोजन, दही, तेल, ऋत्योरेत्यादिसप्ताहावृतुसंधिरिति स्मृतः ।
तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्या सेवनीयोऽपराक्रमात् चर्वी, धूप, तीक्ष्णमय दिनमें सोना तथा पू
साना तथा असात्म्यजा हिरोगाः स्युःसहसात्यागशीलनात् दिशाका पवन इन सब बातोंका सेवनकरे। अर्थ-दोनों ऋतओंके वीच वाले पन्द्रह ऋतुचर्या का संक्षिप्त वर्णन
दिनको ऋतुसंधि कहतहैं अर्थात् पहिली शीतेवर्षासुचाद्यान्त्रीवसंतेऽत्यानसांभज र
ऋतुका पिछला सप्ताह और आने वाली ऋतु स्वादु निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् । __ अर्थ-अव संक्षेपस ऋतुचर्या करतेहैं:
का पहिला सप्ताह ये दोनों सप्ताह ऋतुसंशांत और वर्षा कालमें मधुर अम्ल और ल
| धि कहलातेहैं । इस समय में क्रम क्रम से वण रसका सेवन करै । बसन्त ऋतु में पि
पहिली ऋतुकी कही हुई विधिका त्याग और छले तीन कटु, तिक्त और कषाय रसका से.
आने वाली ऋतुकी कही हुई दिनचर्याका वन करै । ग्रीष्ममें मधुर रस, और शरत्काल
अभ्यास करता रहै । कारण यह है कि पूर्व से मधुर, तिक्त और कषाय रसका सेवनकरै। अभ्यस्त बिधिको सहसा त्याग करनेसे और संक्षिप्त भोजन विधि ।
अनभ्यास विधिका सहसा सेवन करनेसे अशरद्धसंतयो सशं शीतधर्मघनान्तयोः॥५६॥ साम्यजनित रोग उत्पन्न होजाते हैं। इस अन्नपानं समासेन विपरीतमतोऽन्यदा। लिये अभ्यस्त विधिका त्याग और अनभ्यस्त
अर्थ-शरद और वसंत ऋतुमें रूक्ष अ- का सेवन कमक्रम से करना चाहिये । नपान सेवनकर तथा अन्य हेमन्त, शिशिर । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां वर्षा और ग्रीष्म ऋतुमें स्निग्ध अन्नपान का सेवन गुणकारी है । ग्रीष्म और शरदमें शी- तृतीऽध्यायः ॥३॥
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
वातनाशक भोजन, किंचित् उष्ण जलपान, वस्तिकर्म तथा और भी वातानुलोमनकर्म ( वे उपाय जिनसे अधोवायु होनेलगे ) कर
ना चाहिये । अथातोरोगानुत्पादनीयाध्यायंठ्याख्यास्यामः वमन रोकने के रोग ।
अर्थ-अब हम यहां से रोगानुत्पादनीय शकृतः पिडिकोद्वेष्टप्रतिश्यायशिरोरुजः । नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । अर्थात्
ऊर्ध्ववायुःपरीक” हृदयस्योपरोधनम् ॥४॥
मुखेनविट्प्रवृत्तिश्चपूर्वोक्ताश्चामयाःस्मृताः। इस अध्यायमें उन बातोंका वर्णन है कि किन
___ अर्थ- मलके वेगको रोकनेसे पिंडिकोकिन कामोंके करने न करनेसे रोग उत्पन्न
द्वेष्टन ! जांधके पिछले भाग अर्थात् कूल्हेके होने के पीछे उनकी शान्ति किस प्रकार कर- मांसमें ऐंठा ), प्रतिश्याय ( मुख और नासिनी चाहिये ।
कासे जलस्राव ), शिरोवेदना ऊर्ध्ववायुः वेगोंके रोकनेका प्रतिषेध ।।
| ( हिचकी डकार आदि वायुका ऊपरको जा"वेगान धारयेद्वातविण्मूत्रक्षवतृक्षुधाम् ।
ना), परीकत ( गुदामें कैंचीसे काटनेकीसी निद्राकासश्रमश्वासजूभाश्रुच्छदिरेतसाम् १ अथे--अधो वायु, मल, मूत्र, छींक, प्या:
वेदना ), हृदयोपरोध ( छातीमें भारापन ), स, भूख, निद्रा, खांसी, श्रमश्वास ( मिहनत मुखसे विष्टाका निकलना, और वातनिरोध से चढाहुआ श्वास जिसे हांफनी कहते हैं ) | में कहेहुऐ गुल्मादिक रोग भी होजातेहैं । जंभाई, आंसू, वमन और बीर्यपात, इनके मत्ररोध के रोग और उपाय वोंको रोकना न चाहिये ।
| अंगभंगाश्मरीबस्तिमेढूवंक्षणवेदनाः ॥५॥
मूत्रस्य रोधात्पूर्वे च प्रायोरोगाःतदौषधम् । वातरोधमें रोग ।
वय॑भ्यंगावगाहाश्चस्वेदनंबस्तिकर्म च॥६॥ अधोवातस्य रोधेन गुलमोदावर्तरुक्लमाः । वातमूत्रशकृत्संगदृष्टयग्निवधगदाः ॥ २ ॥ __ अर्थ- मूत्रका वेग रोकनेसे हड़फूटन, __अर्थ--अधोवायुके रोकनेसे गुल्म, उदा- पथरी, वस्ति ( पेडू ) मे ( शिश्नेन्द्रियु वर्त, नामि आदि स्थानोंमें वेदना, बलान्ति, और अंडकोषों वेदना होने लगती है और वात, मूत्र, और मल की रुकावट, दृष्टिनाश, बहुधा वात और मलके रोकने से उत्पन्न जठराग्नि नाश और हृद्रोग उत्पन्न होते हैं । हुए रोगभा उत्पन्न होजाते हैं । इन रोगोंकी वातरोधमें रोग।
शान्तिके लिये फरवर्तियोंका प्रयोग, वातनेहस्वेदविधिस्तत्र वर्तयो भोजनानि च। नाशक तेलोंका मर्दन, अवगाह ( वातनाशक पाननिवस्तयश्चैवशस्तंवातानुलोमनम् ॥३॥ द्रव्यों के काथसे भरीहुई नाद में नाभि पर्य्यन्त ___ अर्थ--अधोवातके वेगके रोकनेसे उत्पन्न बैठना ) और स्वेदन तथा वस्तिकर्म करने हुए रोगोंमें स्नेह विधि, स्वेद विधि, फलवर्ती, J चाहिये ।
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(३२)
अष्टांगहृदये।
-
मलरोध में उपाय
छींक रोकने के रोग। भनयानं च विभेदि विदरोधोत्थेषयमसु ।, शिरोतीन्द्रिय दौर्वल्यमन्यास्तंभार्दितंक्षुतेः ।
अर्थ-मलके वेगको रोकनेसे हुए रोगोंमें तीक्ष्णधूमांजनाघ्राणनावनार्कबिलोकनैः ११० मलभेदक ( मलको पतला करनेवाले ) अन्न
| प्रवर्तयेत्झुर्तिलतां मेहस्वेदीव शालयेत् । पान तथा ऊपर कहे हुए फलवर्ती आदि उ.
___ अर्थ--छींक का वेग रोकनेसे सिरमें दर्द, पाय करने चाहिये।
| इन्द्रियोंमें दुर्वलता, मन्यास्तम्भ ( ग्रीवाके पिमूत्ररोधमे उपाय ।
| छले भागकी दो नसोंका जकड़ना ) और मूत्रजेषु च पानेच प्राग्भशस्यतेवृतम् ॥७॥
| अर्दित ये रोग उत्पन्न हो जाते हैं इसलिये इन जीर्णान्तिकं चोत्तमयामात्रयायोजनाद्वयम् । रोगोंमें तीक्ष्ण धूम, तीक्ष्ण अंजन, तीक्ष्ण अवपीडकमेतञ्च संशितं ।
घ्राण (मिरचादिक सूंघना ) तीक्ष्ण नस्य और अर्थ-मूत्रके वेगके रोकनेसे उत्पन्न हुए रोगों | सूर्यकी ओर देखना इन उपायोंसे छींकलाने में उत्तम मात्रासे प्राग्भक्त घृतपान, जीर्णा- | का यत्नकरै । तथा स्नेह विधि और स्वेद न्तिक घृतपान ठीक कहाहै भोजन करने के | विधि में कहेहुए उपायों को करै । पहिळे जो घृतपान किया जाता है उसे प्राग्भक्त तृषा के रोग । घृतपान कहते हैं, । इसी तरह पूर्व आहार के शोषांगसाश्वाधिर्यसंमोहभ्रमहद्दाः॥११॥ अच्छी तरह पच जाने पर जो घृतपान किया । तृष्णायानग्रहात्तत्र शीतः सर्वांविधिर्हितः । जाता है उसे जीर्णान्तिक घृतपान कहते | अर्थ--तृषाके रोकनेसे, शोषरोग, अंगमें हैं । इस प्राग्भक्त घृतपान और जीर्णान्तिक | शिथिलता, बहरापन, मूर्छा, भ्रम और हृदघतपान की दो प्रकार की घतयोजनाको अव | यके रोग उत्पन्न होजाते हैं । इन रोगों में पीडक कहते हैं । जो मात्रा एक दिन रात में सब प्रकारके शीत उपचार उपयोगी होतेहैं । पच जाती है उसे उत्तम मात्रा कहते हैं । - भूम्ब के रोग। डकार के रोग
अंगभंगारचिग्लानिकार्यशूलभ्रमाक्षुधः १२ धारणातुनः ॥८॥
तत्र योज्यंलघुनिन्धमुष्णमल भोजनम् । उद्गारस्यारुचिः कंपो विबंधो दृश्यो रसोः। अथ -क्षुधा राकनस अगभग, असाच भाध्मानकासहिधमाश्चाहमावतत्रभेषजम् ९ ग्लानि, कृशता, और पक्काशय में दर्द और अर्थ उद्गार अर्थात् डकारका वेग रोकने से | भ्रम उत्पन्न होजाताहै । इममें हलका, स्निग्ध, अरुचे, कंपन, हृदय और छाती में रुक वट, | गर्म और थाडा भोजन करना चाहिये, (वै. अफग, स्वांसी, और हिचको आदि रोग |
वचक्षुषस्तत्र स्निग्धोभोजनमितिपाठान्तरम् । उत्पन्न होते है । इन सब रोगों में हिमा के
निद्राके रोग। तुल्य औषध करना चाहिये ( यह प्रकरण
निद्रायामोहमूर्धाक्षिगौरवालस्यभिकाः १३ आग आवेगा।
अंगमर्दश्च तत्रेष्टः स्वप्नःसंवाहनानि च ।
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(३३)
अर्थ--निद्राका वेग रोकनेसे मोह ( ज्ञा- नींदलैना, मद्यपान और रोचक कहानियां नेन्द्रियोंमें शून्यता ) होताहै, मस्तक और इसमें हितकारकहैं । आंखों में भारापन होताहै, आलस्य, जंभाई, वमनरोकने के रोग । और अंगमर्द ( अंगड़ाई ) होते हैं । इसमें विसर्प कोठ कुष्ठाक्षि कंडूपांड्वामयज्वराः गहरी नींद और धीरेधीरे हाथ पांवोंका दवाना सकासश्वासहल्लासव्यंगश्वयथवावमेः॥१८॥ हितकारी होताहै ।
| गंडूषधूमानाहारान् रुक्ष भुक्त्वा तदुद्वमः।
व्यायामःनुतिरस्रस्यशस्तं चात्रविरेचनम् ॥ खांसी के रोग।
सक्षारलवणंतैलमभ्यंगार्थ च शस्यते । कासस्यरोधासाद्धिःश्वासारुचिट्टदामयाः१४ | शोषोहिमाचकार्योऽत्रकासहासुतरांविधिः।
। अर्थ-. वमनका बेग रोकनेसे विसर्परोग, अर्थ--खांसी रोकनसे खाँसी कोठ ( पित्ती शरीर पर लाल चकत्ते ) कोढ श्वास, अरुचि, हृद्रोग, शोषरोग, हिचकी
नेत्ररोग, कंडूरोग, पांडुरोग, ज्वर, खांसी भादि रोग उपजतेहैं । इस में खांसीकी चि- श्वास, हल्लास ( जी मिचलाना), व्यंग और कित्सा विशेष रूपसे करनी चाहिये । सूजन ये रोग उत्पन्न होजातेहैं । इसमें गंडूश्वास के रोग ।
षाविधि, धूमपान, उपवास, रूक्ष अन्न खाकर गुल्महद्रोगसंमोहा श्रमश्वासाद्विधारितात् १५ वमनद्वारा निकालना, व्यायाम, रक्तस्राव हितं विश्रमणं तत्र वातघ्नश्च क्रियाक्रमः। (फस्द बोलना ), विरेचन तथा क्षार और
अर्थ- परिश्रमसे उत्पन्न हुए श्वासको रो- | लवणमिश्रित तेलका मर्दन विशेष लाभकनेसे गुल्म, हृद्रोग और मोह उत्पन्न होते
कारकहैं । हैं । इस में विश्राम लेना तथा वातनाशक
वीर्य और मूत्र रोकने के रोग । उपायोंका करना हितकारक है ।
| शुक्रात्तस्रवणं गुह्यवेदनाश्वयथुर्वरः ॥२०॥ जंभाई के रोग।
हृदयथा मूत्रसंगांगभंगवृद्धथश्मषंढताः। जुभायाक्षववद्रोगाःसर्वश्चानिलजिद्विधिः १६ ताम्रचूडसुराशालिबस्त्यभ्यगावगाहनम् २१
अर्थ- जो रोग छींक रोकनेसे होतेहैं | बस्तिशुद्धिकरैः सिद्धंभजेत्क्षीरंप्रिया स्त्रियः । वे ही सब जंभाईके रोकनेसे भी होतेहैं इस अर्थ- वीर्यका बेग रोकनेसे वीर्यका में वायुनाशक उपायोंका करना हितकारकहै । झरना अर्थात् धीरे २ निकलते रहना, गुह्य
आंसुओं के रोग। वेदना, सूजन, ज्वर, और हृदयमें व्यथा ये पीनसाक्षिशिरो मन्यास्तंभारुचिभ्रमाः। रोग होतहैं । मूत्रका बेग रोकनेसे अंगभंग. सगुल्माबापतस्तास्वप्नोमद्यप्रियाःकथाः १७ | अंडवृद्धि, पथरी और नपुंसकता ये रोग ___अर्थ- आंसुओंका वेग रोकनेसे पीनस, होतेहैं । इन सब रोगोंमें मुर्गेका मांस, सुराआंख, सिर और हृदयमें वेदना, मन्यास्तंभ, पान, शालीचांवल, वस्तिकर्म, तैलमर्दन, अरुचि, भ्रम, और गुल्मरोग होजातेहैं ।। अवगाहन, तथा वस्तिके शुद्ध करने वाले,
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(३४)
अष्टांगहृदये।
.
भ. ४
।
पाग्य रागी।
कूष्मंडादि द्रव्योंसे सिद्ध किया हुआ दूध की हितकामना चाहते हैं उनको उचित है और मनोरमा स्त्रियोंका सेवन उचित है ॥ कि वे जितेन्द्रिय होकर लोभ, ईर्ष्या, द्वेष,
त्यागने योग्य रोगी। मत्सरता, और रागादि के बेगों को रोकें । दरशूलातत्यजेत्क्षीणंविब्वमंवेगरोधिनम्२२ वातादि का यथाकाल शोधन । .
अर्थ-ऊपर कहे हुए दोनों प्रकारके बेगो । यतेत च यथाकालं मलानां शोधनं प्रति । को रोकने से उत्पन्न हुए रोर्गो से आक्रान्त अत्यर्थसंचितास्तेहिकुद्धाःस्युर्जीवितच्छिदः रोगी यदि तृषा तथा शूल चुभने की सी दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जितालंघनपाचनैः। वेदना से युक्त, और क्षयीरोगसे पीडित हो
येतुसंशोधनैःशुद्धानतेषां पुनरुद्भवः ॥२७॥ तथा विष्टाकी यमन करता हो तो उसकी ।
___अर्थ-वायु पित्त कफ और पुरीषादि चिकित्सा नहीं करना चाहिये ।
मलों का शोधन उचित्त कालमें करना चा
हिये ( वमन विरेचनादि में विशेष ध्यान वेगरोधजन्य रोगों में कर्तव्य ।। रोगाः सर्वेऽपि जायंते वेगोदीरणधारणैः। रखना चाहिये अर्थात् जिस मलके शोधनके निर्दिष्टसाधनंतत्रभूयिष्ठयेतुतानप्रति ॥ २३ ॥ योग्य जो काल है उस मलका उसी कालमें ततश्चा नेकधाप्रायः पवनो यत्प्रकुप्यति । शोधन करना चाहिये नहीं तो मल अत्यन्त अन्नपानौषधंतत्रयुंजीतातोऽनुलोमनम् ।२४।
इकडे और कुपित होकर अन्तमें प्राणोंका ___ अथे-इसी तरह मलमूत्रादि स्वाभाविक | वेग न होने पर भी जो बलपूर्वक मलमूत्रादि
नाश कर देते हैं ) वातादि दोष लंघन
| और पाचन द्वारा प्राकृतिक दशा पर पहुंच का उत्सर्ग करते हैं उन मनुष्यों के सब प्रकारके रोग उत्पन्न होजाते हैं । इन बेगों
जानेपर भी कदाचित कुपित होजाते हैं परके धारण करने से जो सब प्रकारके रोग
न्तु जो संशोधन द्वारा शोधित होतेहैं वे उत्पन्न होते हैं उनकी चिकित्सा और सा
कदापि फिर प्रकुपित नहीं होते । धन कहे गये हैं तथा इनके सिवाय जो अ
रसायन प्रयोग।
यथाक्रमं यथायोगमत ऊर्ध्व प्रयोजयेत् । नेक प्रकार की अन्य व्याधियां उत्पन्न होती
रसायनानिसिद्धानि वृष्ययोगांश्चकालवित् हैं उनमें वायु का प्रकोप विशेष दिखाई देता
___ अर्थ-शोधन के पश्चात् देश, काल, है इसलिये इन सब रोगों में वायु का अनु
वल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्व और प्र. लोमन करनेवाले अन्नपान और औषधों
कृति की परीक्षा करके यथायोग्य प्रत्यक्षफल का प्रयोग कर्तव्य है।
दंनेबाली रसायन और पौष्टिक औषधियों रोकने योग्य वेग । का सेवन करै । धारयेत्तु सदा वेगान हितैषी प्रेत्य चेह च।
पथ्यादि विधि, लोभेाषमात्सर्यरागादीनांजितेन्द्रियः॥२५॥ भेषजमपिते पथ्यमाहारैर्वृहणं क्रमात् ।
अर्थ-जो इस लोक भौर परलोक दोनों शालिषष्टिकगोधूममुन्नमांसघृतादिभिः ॥२९॥
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अ. ४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३५)
इचदीपनभैषज्यसंयोगानुचिपक्तिदैः। त्पन्न होते हैं वे आगन्तुक अर्थात् बाहर से साभ्यंगोद्वर्तनखाननिरूहरेहबास्तभिः ॥३०॥
आनेवाले रोग कहलाते हैं। अर्थ-संशोधन करने वाली दवाइयों के ।
आगन्तुक रोगों का उपाय । सेवन से जो रोगी क्षीणदेह होजाता है उ- त्यागःप्रज्ञापराधानामिद्रियोपशमस्मृतिः। से शाली चांवल, साठीचांवल, गेहूं की देशकालात्मविशानं सद्वृत्तस्यानुवर्तनम् ३३ रोटी पूरी, मूंगकी दाल, मांसयूष, घृतपक्व
अथर्व विहिताशान्तिः प्रतिकूलग्रहार्चनम् । पदार्थ में अच्छी रीतिसे इलायची, दालची
भूताद्यस्पर्शनोपायोनिर्दिष्टश्चपृथक्पृथक्३४
अनुत्पत्त्यै समासेन विधिरेष प्रदर्शितः। नी आदि हृदय को हितकारी और अग्नि
निजागन्तुविकाराणामुत्पन्नानांचशांतये ३५ संदीपन मसाले डालकर रुचिवर्द्धक और । अर्थ--असात्म्य आचरणों का त्यागना, जाठराग्निको वृद्धि करनेवाले पदार्थ शरीरकी आंखकान आदि इन्द्रियों का संयमन, स्मृति पुष्टि के लिये क्रम क्रम से थोडे थोडे देवै, |
( होनहार आदिका विचार ), देश, काल सथा तैलमर्दन, उबटना, स्नान, निरूहण तथा आत्मविज्ञान,और सदृति का अनुष्ठाचस्ति, अनुवासनवस्ति आदि क्रियाओं की न. अथर्ववेदोक्त शान्ति, प्रतिकुल ग्रहों का यथारीति से व्यवस्था करै ।
पूजा पाठ, भूतादि के दूर करने का उपाय, पूर्वोक्तक्रम का फल। | जो अलग अलग बताये गये हैं, ये सब तथा स लभते शर्म सर्वपावकपाटवम्। | निज अर्थात वातादि दोषों से उत्पन्न और धीवणेंद्रियवैमल्यं वृषतांदैर्ध्यमायुषः ॥३१॥ अर्थ-उक्त प्रकार से अर्थात् प्रथम सं
आग•तु अर्थात् अभिघातादिजन्य रोगों की शोधन, उससे पीछे वृहण और फिर रसा
अनुत्पत्ति अर्थात् उत्पन्न ही न होने देना यनिक द्रव्यों का प्रयोग करने से मनुष्य
और उत्पन्न हुओं की निवृत्ति के लिये ये स्वास्थ्य, आयुर्वृद्धि, स्त्रीसंगम सामर्थ्य, और
सुगम और संक्षिप्त उपाय कहे गये हैं। जठराग्नि, धात्वग्नि आदि सब प्रकार की
अध्याय का संक्षिप्त वर्णन । अग्निकावल, इसी तरह बुद्धि, वर्ण और
शीतोद्भवं दोषवयं वसंते
विशोधयन् ग्रीष्मजमभ्रकाले । इन्द्रियों की प्रसन्नता प्राप्तकर सकता है। घनात्यये वार्षिक माशु सम्यकू . आगन्तुक रोगों का वर्णन। | प्राप्नोति रोगानृतुजानजातु ॥ ३६॥ ये भूतविषवाय्वग्निक्षतभंगादिसंभवाः।
। अर्थ- जो मनुष्य शीतकालमें उत्पन्न कामक्रोधभयाद्याश्च तेस्युरागंतवोगदाः ३२ हुए कफके इकठे हुए दोषको बसंतकाल में . अर्थ--स्वास्थ्य रक्षा का विधिपूर्वक पा- | ग्रीष्मकालके संचित वातदोषको वर्षाकाल में, लन करने पर भी भूतग्रह, विषाक्तवायु, और वर्षाकालके संचित पित्तदोष को शरत भग्नि, घाव, चोट आदि से उत्पन्न तथा | कालमें संशोधन द्वारा दूर करदेताहै उसको - काम, कंध, भौर भयादि से जो रोग उ- ऋतुजनित रोग कदापि नहीं होने पाते ।
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अष्टांगहृदये ।
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( ३६ )
'नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः ।
दाता समः सत्यपरः क्षमावा माप्तोपसेवी च भवत्यरोगः, ॥ ३७ ॥
अर्थ- जो नित्यप्रति हितकारी आहार बिहार का सेवन करता है । जो अच्छे बुरे का बिचार करके कर्ममें प्रवृत्त होता है जो इन्द्रियादि विषयोंमें असक्त रहना है जो दानी है सब जीवोंपर समान दृष्टि रखता है, सत्य बोलनेका वृतीहै, क्षमाशील है, जो ऋषिमुनि आदि ज्ञानवृद्ध मनुष्यों का सेवापरायण है।
वह
॥ तोयवर्गः ॥
गंग के गुण |
|
रोगरहित रहता है । अर्थेभ्येष्वकृत प्रयत्नं कृतादरं नित्यमुपायवत्सु । जितेन्द्रियं नानुत्पत्तिरोगातत्कालयुक्तं यदि नास्ति दैवम् ॥ अर्थ- जो अलभ्य वस्तुओके प्राप्त करने में यत्न नहीं करता है, और लभ्यवस्तुओंके प्राप्त करनेमें नित्य उपाय करता है, जो जितेन्द्रियहै उसपर कोई रोग आक्रमण नहीं कर सकता है, परन्तु जो देव प्रतिकूल होजाय तो ऐसे आदमी को भी तत्काल कोई ऐसा रोग होजाता है । कालोनुकूलविषयामनोज्ञा धर्म्याः क्रियाः कर्म्मसुखानुवद्धि । सत्वंविधेयविशदाचबुद्धि भवन्तिधीरस्य सदासुखाय ॥
"जीवनं तर्पणं हृद्यं हादि बुद्धिप्रबोधनम् । तन्वव्यक्तरसं मृटंशीतं लघ्वमृतोपमम् । १ गगांव नभसो भ्रष्टं स्पृष्टं त्वर्केन्दुमारुतैः । हिताहितत्वे तद्भूयो देशकालावपेक्षते ॥२॥
अर्थ - अन्तरीक्ष से जो बर्षा का जल पडता है वह गंगबु कहलाता हैं यह जल ओजको बढानेवाला, तृप्तिकारक. हृदयको हितकारक आल्हादजनक, वुद्धि-प्रतिभाकार
अर्थ-जिसका कालअनुकूल है अर्थात् हन मिथ्यादि योगों से रहित है रूप रसादि सव बिषय मनोज्ञ अर्थात् हीन मिथ्यादि योगों से रहित है. सम्पूर्ण क्रिया अपने अपने कर्म में तत्पर है, वमन विरेचनादि रूप कर्म स्वास्थ्य
क, स्वच्छ, अव्यक्तरस, ( जिसमें मधुरादि छः रम व्यक्त नहीं ) मृष्ट ( स्वाद में प्रसन्नताकारक ), शीतल, लघु ( हलका ) और अमृतोपम ( त्रिदोषघ्न, धातुसाम्यकर आदि गुणों से युक्त ) है |
करनेवाले है मन बुरे विचारों से शून्य है । बुद्धि विशद है ऐसा बुद्धिमान् मनुष्य सदाही सुखी रहती है और कभी रोगादि से पीडित नहीं होता !!
इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकार्या चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
पंचमोऽध्यायः ।
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अ० ४
Coom
Met
अथातोद्रवद्रव्यविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्याम
अर्थ- अब हम यहां से द्रवद्रव्य ( पतलेपदार्थ ) विज्ञानीय अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
यह गंगबु चन्द्र, सूर्य और वायुके यो-ग से तथा भूमि और काल भेद से हितका -
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अ०४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३७)
री होजाता है अर्थात् जिस भूमिमें यह जल | जल पीना उचित है । जो वापी वा सरोवर गिरता है उसी भूमिके गुणागुण इस जलमें । ऐसे स्थान में बने हों जो पवित्र और चौडे प्राजाते हैं। इसी तरह कालभेदसे भी हों और जहां की मत्तिका काले वा सफेद गुणागुण होजाते हैं जैसे आश्विन मासमें । रंग की हो उस जलपर सूर्यकी किरणे पडती वर्षाका जल हितकारक तथा वर्षा और हों और वायु चलती हो, ऐसे स्थानका जल अन्यऋतुओं में अहित होता है ।
आन्तरीक्ष जलके समान गुणकारी होता है गांग तथा सामुद्र जलके लक्षण इसीलिये यह पीनेके योग्य है। येनाभिवृष्टममलं शाल्यानं राजतास्थतम् ।
न पीने के योग्य जल । अक्लिनमाविवर्ण च तत्पेयं गांगम् ।
न पिवेत्पंकशैवालतृणपर्णाविलास्तृतम् ।
अन्यथा ॥३॥ सामुद्रं तन्न पातव्यं मासादाश्वयुजाद्विना ।
सूर्यैदुपवनादृष्टंमभिवृष्टं धनं गुरु ॥ ६ ॥ अर्थ-चांदीके पात्रमें रक्खे हुए सफेद
फेनिलं जन्तु मत्तप्तं दंतग्राह्यतिशैत्यतः। शालिचांवलों के ऊपर वर्षाका जल गिरे
___ अर्थ--जो जल कीचड़, शैवाल, तृण और यदि इस बर्षाके जल से अन्न क्लिन्न
| और पत्ते आदि से व्याप्त और ढका रहता और मलीन नहो तो इस जलको गंगाजल
है, जिसपर सूर्य और चन्द्रमा की किरणें कहते हैं और यह पीनेके योग्य होताहै तथा
नहीं पडती है, पवन नहीं चलती है । जि
स पर गादे २ भारी झाग आ रहे हों, जि. स्नान और अवगाहनमें भी यह हितकर है। इससे विपरीत अर्थात् यदि शाली अन्न
समें बहुत प्रकार के कीडे हों, जो बहुत क्लिन्न वा मलीन होजाय तो वह सामुद्र
उष्ण हो, जो अत्यन्त ठंडा होने के कारण जल कहलाता है यह जल पीने के योग्य
| दांतों को जकड़ देता है अर्थात् निष्काम नहीं होता । किन्तु आश्विन मासमें सामुद्र
कर देता है, ऐसा जल पीने के योग्य जल पीने में कोई दोष नहीं है क्योंकि
| नहीं है। काल के स्वभाव से पथ्य होता है ।
अपेपआंतरीक्ष जल । गांगजल के अभाव में कर्तव्यता। | अनार्तवं च यदिव्य मार्तवं प्रथमं च यत । ऐंद्रमंबुसुपात्रस्थमविपन्नंसदापिवेत् ॥ ४॥
लूतादितंतुविण्मूत्रविषसंश्लेषदूषितं । तभावे च भूयिष्ठमंतरिक्षानुकारि यत् । अर्थ- वर्षा ऋतुके जलके सिवाय अन्य शुचिपृथ्वासते श्वेते देशेऽर्कपवनाहतम् ।५। ऋतुका जल न पीना चाहिये । बर्षाकालमें __ अर्थ--चांदी आदि के उज्वल पात्र में भी पहिली वृष्टिका जल पीनके योग्य नहीं रक्खा हुआ आंतरक्षि जल जो किसी तरह होता और जिस जलमें मकडी आदि विषैले से बिगडा न हो सदा पीना चाहिये । यदि जीवों के तंतु, मल, मूत्र मिले हों वा उनके आंतरीक्ष जल न मिल सकता हो तो वैसे । विष से दूषितहो वह भी पीने के योग्य ही गुणों से युक्त स्वच्छ और निर्मल अन्य नहीं होताहै ।
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(३८)
अष्टांगहृदये।
अ. ४
-
नदियोंका जल । विद्यात्कूपतडागादीन्जांगलानूपशेलतः । पश्चिमोदधिगाशीघ्रवहायाश्चामलोदकाः ८ अर्थ--जांगल, आनूप, और पार्वतीय देशों पथ्याःसमासात्तानद्योविपरीतास्त्वतोऽन्यथा के गुणागुणके अनुसार उन उन देशों के
अर्थ- जो नदी प्रवल वेगसे बहतीहुई | कूप, सारस, तडाग, चौडन्य, झरना, नदी पश्चिम समुद्रोंमें गिरतीहै और जिनका जल आदि के जलों का गुणागुण हो जाता है, भी निर्मल है ऐसी तीन गुणोंसे युक्त नदियां जैसे जांगल देशीय कपादि का जल हलका हितकारी है, इससे विपरीत लक्षणवाली | और अनूप देशीय जलाशयों का जल भारी नदियां अपथ्यहैं ।
होता है । उपलास्फालनाक्षेपविच्छेदैःखेदितोदकाः । हिमवन्मलयोद्भूताः पथ्यास्ताएषचस्थिराः । कृमिलीपद हत्कंठ शिरोरोगान् प्रकुर्वते १०
अन्य प्रथों से कोपादिः जल के अर्थ- हिमालय और मलयागिरिसे नि
MINS लक्षण लिखते हैं: कौपं स्वादु त्रिदोषघ्नं
लघु पथ्यं चसर्वदा । क्षारन्तु कफ बातघ्नं कली हुई उन्हीं संपूर्ण नदियोंका जल पथ्यहै
दीपनं पित्तकृत्परम् । कषाय बहुलं श्लेष्म जो चटानोंके ऊपर प्रवल बेगसे टकराती पित्तघ्नं बातकृच्चतत् । तृष्णाघ्नं सारसं हुई चली आतीहैं, इनसे विपरीत लक्षण बल्यं कषायं मधुरं लघु । भौद्भिदं स्वादु वाली नदियां पथ्य नहीं होती किन्तु उनका
पित्तघ्नं दीपनं गुरु किंचन । सक्षार कटु
वाप्यंबु पित्तलं कफ, वाताजत् । विशद जलपान करनेसे कृमिरोग, श्लीपद, हृद्रोग,
घातलं रूक्षमनवस्थित लाघवम् ॥ इसी कंठरोग और शिरोरोग उत्पन्न होजातेहैं।
तरह सुश्रुतादि ग्रन्थों में भी इन सब के प्राच्याऽऽवंत्यपरांतात्थादुर्नामानिमहेन्द्रजा।
लक्षण विस्तार पूर्वक लिखे हैं ॥ उदलीपदातंकान्सह्यविध्योद्भवाःपुनः॥११॥ कुष्टपांडुशिरोरोगान् दोषघ्न्यः पारयात्रजाः |
जलपान के अयोग्यरोगी । बलपौरुषकारिण्यासागरांभस्त्रिदोषकृत् ।१२। नांबुपेयमशक्तयावास्वल्पमल्पाग्निगुल्मिभिः अर्थ- गौड़, मालव, और कौंकण देश पाडूद
पांडूदातिसारार्थीग्रहणादोषशोथिमिः। की नदियोंका जल पीनेसे अर्शरोग होताहै। *
ऋतेशरनिदाघाभ्यांपिवेत्स्वस्थाऽपिचाल्पशः माहेन्द्र पर्वतोंसे निकली हुई नदियां उदर
| अर्थ-अग्निमान्द्य, गुल्म, पांडु, उदररोग और इलीपद रोगोंको करतीहै, सह्याद्रि और अतिसार, बवासीर, ग्रहणी और सूजन विन्ध्याचलसे निकली हुई नादियोंका नवीन वाले रोगियों को जल पीना उचित नहीं है। जल पीनेमे कुष्ठरोग, पाण्डुरोग और शिरो और जो प्यास को बिलकुल न सह सकता रोग उत्पन्न होताहै, पारयात्र पर्वतोंसे नि- हो तो थोड़ा थोड़ा पानी पीवै । शरद और कली हुई नदियोंका जल त्रिदोषनाशक तथा ग्रीष्मऋतुओं को छोडकर अन्य ऋतुओं में वल और पौरुषकारक होताहै तथा समुद्रका सुस्थ मनुष्य को भी थोड़ा थोड़ा नल पीना जल त्रिदोषकारक होताहै ।
उचित है।
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भ०२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
भोजन में जलपीने के गुणागुण ।। हो जाता है । वातपत्तिक, पित्तश्लौष्मक, समस्थूलकशाभक्तमध्यांतप्रथमांबुपाः । और सान्निपातक रोगों में बहुत हितकारी __ अर्थ- भोजनके मध्य में जल पीने से
होजाता है। परंतु गरम किया हुआ जल वासी मनुष्य सम शरीर अर्थात् न अत्यन्त कृश, होने पर त्रिदोषकारक हो जाता है । न स्थूल होता है । भोजन के अन्त में जल
नारियल के जल के गुण । पीने से शरीर स्थूल हो जाता है इसी तरह | नालिकेरोइकं स्निग्धं स्वादु वृष्यं हिमंलघु । मोजन से पहिले जल पीने से शरीर कृश तृष्णापित्तानिलहरंदीपनंबस्तिशोधनम् ।१५। होता है।
___अर्थ-नारियलका जल स्निध, स्वादु,
पौष्टिक, शीतल और हलका होता है तथा शीतल जल पान के गुण ।
तृषानिवारक, पित्त और यातनाशक तथा शीर्तमदात्ययग्लानिमूर्छाच्छर्दिश्रमभ्रान्१५ तृष्णोष्णदाहपित्तामविषाण्यंबु नियच्छति ।
मूत्राशयका शोधक होता है। अर्थ--शीतल जलपान करने से मदात्यय
वर्षासु दिव्यनादेये पर तोये वरावरे । ( मद्यजनित रोग ) ग्लानि, मुर्छा, वमन,
___ अर्थ-वर्षाकाल में अन्तरीक्ष जल सबस्वेद, भ्रम (घुमेरी ) तृष्णा, उत्ताप, दाह,
प्रकार के जलों की अपेक्षा उत्तम होता है
परन्तु नदीका जल अति निकृष्ट होता है। रक्त पित्त और विषजनित रोग दूर होजातेहै । उष्णजल के गुण | .
क्षीरवर्गः। दीपनपाचनंकव्यलपूष्णबस्तिशोधनम् ।१६।।
| गब्यमाहिषमाजंचकारभंस्त्रैणमाविकम् ॥२०॥ हिमाध्मानाऽनिलश्लेष्मसद्यःशुद्धेनवज्वरे । • कासामपीनसश्वासपार्श्वरुक्षुचशस्यते ।१७॥ अर्थ- गौ, भेंस, बकरी, ऊंटनी, स्त्री,
अर्थ--उष्ण जल अग्नि संदीपन, पाचक, | भेड़, हाथी, और घोड़ी का दूध इस तरह मूत्रशोधक, रुचिकर्ता और लघु होता है । आठ प्रकार का होताहै । तत्काल वमन विरेचनादि शोधन क्रियाओं के दूधके सामान्य लक्षण । पीछे, नवीन ज्वर में, हिचकी, बात और स्वादुपाकरसंस्निग्धमोजस्यंधातुवर्धनम् २१ कफजनित रोग, आध्मान ( अफरा) वातपित्तहरं वृष्यं श्लेष्मलं गुरु शीतलम् । खांसी, श्वास, नई पीनस, पसली का दर्द ।
प्रायः पयः आदि रोगों में गर्म जल हितकारक है। अर्थ- सामान्य रीतिसे सब प्रकार के ___ क्वथित शीतलजल के गुण। दूध मधुररसयुक्त और मधुरपाकी होतो अमभिप्यंदि लघुचतोयं कथितशीतलम् ।।
(परिपाक के पीछे जो रस उत्पन्न होता है पित्तयुक्तहितंदोषे व्यूषितंतत्रिदोषकृत् १८४ उसे विपाक कहतेहैं ), तथा स्निग्ध, बल
अर्थ--औटाया हुआ जल ठंडा होने पर कारक, धातुवर्द्धक, वातपित्तनाशक, वीर्योकफकारी नहीं होता है । यह बहुत हलका | त्पादक, भारी और ठंडा होताहै ।
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(४०)
अष्टांगहृदये।
अ०४
गौके दूधके गुण । हलका थोड़ा रूक्ष, उष्ण और लवणरस अत्रगव्यं तुजविनीयरसायनम् ॥ २२ ॥ युक्त है । यह बादी, कफ, आनाह ( मलक्षतक्षीणहितंमेध्यंवल्यंस्तन्यकरंशरम्।
मूत्र का अबरोध ), कृमिरोग, शोथरोग, श्रमभ्रममहालक्ष्मीश्वासकासातितृट्क्षुधः२३ जीर्णज्वरं मूत्रकृच्छ्रे रक्तपित्तं च नाशयेत् ।
उदररोग और ववासीर में हितकारी है । __ अर्थ- इनमेंसे गौका दूध जीवनको हित. स्त्रीके दुग्ध के गुण । कारी, रसायन, मेधवर्द्धक, बलकारक, साम्य
| मानुषं वातपित्तास्टगभिघाताक्षिरोगजित् ।
तर्पणाश्चोतनैनस्यैः जनक, और रेचक होताहै । यह श्रम, भ्रम, |
___ अर्थ-स्त्रीका दूध, तर्पण, आश्चोतन मत्तता, अलक्ष्मी, श्वास, अत्यन्त पिपासा,
और नस्यकर्म द्वारा प्रयुक्त किये जानेपर क्षुधा, जीर्णज्वर मूत्रकृच्छ्र और रक्तपित्तको
बातपित्त, रुधिरविकार, अभिघातज नेत्ररोनाश करताहै । उरःक्षत रोगीके लिये तो गौका दूध बहुतही हितकारी होताहै।
गों को नाश करता है असके दूधके गुण ।
भेड़ के दूध का गुण ।
अहृधतूप्णमाविकम्॥२७॥ हितमत्यन्यानद्रभ्योगरीयोमाहर्षहिमम २४ घातव्याधिहरहिध्माश्वासापत्तकफप्रदम् । __ अर्थ- भेसका दूध उन लोगोंके लिये
अर्थ-भेड़का दूध हृदयको अहित, उ. बडा हितकारी है जिनकी तीक्ष्णाग्निहै औरणवीर्य, बात व्याधिनाशक है तथा हिच. नींद नहीं आतीहै | यह शीतवीर्य और गौ की, श्वास और कफपित्त रोगों को दुग्धकी अपेक्षा भारीहै ।
करता है। बकरीके दूधके गुण ।
हथनी और घोडी के दूध । अल्पांबुपानव्यायामकटुतिक्ताशनैर्लघु । हस्तिन्याःस्थैर्यकृत् आजंशोषज्वरश्वासरक्तपित्तातिसारजित् ५ बाढमुष्णं त्वैकशर्फ लघु ॥२८॥ __ अर्थ- बकरीका दूध हलका होताहै | शाखावातहरं साम्ललवणं जडताकरम् । क्योंकि वह स्वाभाविक ही कम जल पीतीहै ___अर्थ-हथनी का दूध देहमें स्थिरता बहुत डोलती फिरती है और कड़वे तीखे घास पते आदि खातीहै । बकरी का दूध धातु वीर्य, लघु, ईषत् अम्ल, लवणरस युक्त क्षयसे उत्पन्न शोषरोग, रक्तपित्त और अति- होता है । यह हाथ पांवकी बादी को दूर सार को दूर करताहै ।
करता है और शरीर में जड़ता उत्पन्न कऊंटनी के दूध के गुण ।
रता है । ईषदुक्षोष्णलवणमौष्ट कंदीपनलघु ।
कच्चे पक्के दूध के गुण । शस्तवातकफानाहकृमिशोफोदरार्शसाम् २६ पयोभिष्यंदिगुर्वाम युक्तयाशुतमतोऽन्यथा
अर्थ--ऊंटनी का दूध अग्निसंदीपन, भवद्गरीयोऽतिशृतं धारोष्णममृतोपमम् ।
अत्यन्त उष्ण
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - कच्चा दूध श्लेष्मवर्द्धक और भारी होता है । युक्तिपूर्वक औटाया हुआ दूध ( आधा जल मिलाकर औटानेसे दूध शेष रहने पर ) हलका और कफनाशक होताहै । अत्यन्त औटाया हुआ दूध बदुत भारी होता है । धारोष्ण (थनसे खींचा हुआ गर्म दूध ) अमृत के समान गुणकारक होता है ।
दहीके गुण |
अम्लपाकर संग्राहिगुरूष्णंधिवातजित् |३०|| भेदःशुक्रवल श्लेष्म पित्तरक्ताऽग्निशोफकृत् । रोविष्णुशस्तमरुचौशीत के विषमज्वरे ॥ ३१ ॥ पीनसेमूत्रकृच्छ्रे चरुक्षं तुग्रहणीगदे । नैवाद्यान्निशिनैवोष्णव संतोष्णशरत्सुन |३२|| नामुद्रसूर्पनाक्षौद्रतन्नाधृतसितोपलम् । नचानामलकंनापिनित्यंनोमंदमन्यथा ॥३३॥ ज्वरासृत्तिर्वा सर्पकुष्ठपांडुभ्रमप्रदम् ।
1
अर्थ-दही अम्ल रस युक्त, अम्लपाकी, ग्राही, गुरु, उष्ण, और वातनाशक होता है । मेदाके रोग, वीर्य, बल, कफ, रक्तपित्त, अग्नि और सूजन का करनेवाला है । यह अरुचि रोग, शीतक, विषमज्वर, पीनस, मूत्र कृच्छ्र रोगों में हितकारी है, । रूक्षदही ( जिसका माखन निकाल लिया जाता है ) ग्रहणी रोग में बड़ा हितकारी होता है । रात्रिमें दही न खाना चाहिये; गर्म करके दही खाना वर्जित है । वसन्त, ग्रीष्म और शरद ऋतु में भी दही निषिद्ध है | मूंग की दालका यूत्र, शहद घृत, खांड़, आंवला इनमें से किसी एक के मिलाये बिना दही खाना उचित नहीं है । प्रतिदिन दद्दी खाना ठीक नहीं है । मंद
६
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( ४१ )
दधिका खाना भी निषिद्ध है । इन नियमों पर दृष्टि न करके दही खाने से ज्वर, रक्तवित्त, विसर्प, कोढ, पांडु रोग और भ्रमरोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
तक्र के गुण ।
तलघुकषायाम्लंदीपनं कफवातजित् ॥३४॥ शोhiraशग्रहणदोषसूत्रग्रहारुचीः । श्री गुल्म घृतव्यापरपांड्यामयान्जयेत् ३५ | अर्थ - तक्र लघु, कसेला, अम्लरसयुक्त दीपन और कफवातनाशक है । यह शोथ उदररोग, अर्शरोग, ग्रहणी, मूत्रावरोध, अरुचि, प्लीहा, गुल्मरोग, अत्यन्त घृतपानसे उत्पन्न हुए रोग, विषरोग और पांडुरोगों में हितकारी है ।
दही तोडके गुण |
तद्वन्मस्तु सरंस्स्रोतःशोधिविष्टभजिल्लघु ।
अर्थ- दहीका तोड भी तक के समान ही गुणकारी होता है । किन्तु यह तक्रकी अपेक्षा अधिकतर मलमूत्र के मार्गों का शोधनकर्ता है, विष्टभनाशक तथा दस्तावर है और हलका विशेष होता है ।
नवनीतके गुण |
नवनीतं नवंवृष्यशीतवर्णबलाग्निकृत् ॥ ३६॥ |संग्राहिवातपित्तासृक्क्षया शोदितकालजित् अर्थ - तत्काल निकाला हुआ माखन शुक्रवर्द्धक, शीतवीर्य्य, मलसंग्राहक, बल और वर्णका बढानेवाला, अग्निसंदीपन तथा वात, पित्त, रक्तविकार, क्षय, अर्श, अर्दित और खांसी इन रोगोंका नाश करनेवाला है ।
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दूधके माखन के गुण | क्षीरोद्भवं तुसंग्राहि रक्तपित्तानि रोगाजेत् ॥ ३७
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(४२)
अष्टांगहृदये।
अ०५
- अर्थ- दूधमें निकाला हुआ माखन सं- किलाटादि के गुण । माही, रक्तपित्तरोगनाशक तथा नेत्ररोगोंका ! बल्याः किलाटपीयूषकर्चिकामोरणादयः । जीतनेवाला है।
शुक्रनिद्राकफकरा विष्टंभिगुरुदोषलाः॥४२॥ घृत के गुण !
- अर्थ-किलाट, पीयूष, कार्चका और शस्तं धीस्मृतिमेधाग्निबलायुःशुक्रचक्षुषाम्। मोरटादि दूध के विकार बलकारक तथा बालवृद्धप्रजाकांतिसौकुमार्यस्वरार्थिनाम् ॥ वीर्य, निद्रा और कफको बढाने वाले हैं । क्षतक्षीणपरीसर्पशस्त्राग्निग्लपितात्मनाम् ।।
विष्टंभी भारी और दोषों को उत्पन्न करने घातपित्तविषोन्मादशोषाऽलक्ष्मीज्वरापहम् नेहानामुत्तमं शीतं वयसः स्थापनं परम् ।
वाले हैं । किलाटादि के लक्षण चरकसुश्रुसहस्रवीर्य विधिभिघृतं कर्मसहस्रछत् ४०॥ तादि प्रन्थों में विस्तार पूर्वक लिखे हैं । ___ अर्थ-घृत बुद्धि, स्मरणशक्ति, मधा, गौके दूधको उत्कृष्टता। अग्नि, बल, आयु, वीर्य और नेत्र | गठये क्षीरघृते श्रेष्ठ निंदिते चाविसंभवे । पक्ष में हितकारी है । बालक, वृद्ध, संता- अर्थ-गौका घी और दूध श्रेष्ट होते हैं नाभिलाषी, तथा कान्ति, सुकुमारता, और और भेड़ के घी और दूध निन्दित हैं । स्वर के अभिलाषी को हितकारी है । क्षत
इक्षुके गुण । क्षीण, परीसर्प, शस्त्र और अग्नि से पीडित,
इमो रसो गुरुः स्निग्धो बृहणः कफमूत्
| वृष्यः शीतोऽस्रपित्तघ्नः स्वादुपाकरसः सरः के लिये भी हितकारक है । बातपित्त,विष
सोऽग्रेसलवणोदंतपीडितः शर्करासमः ४४ उन्माद, शोष, अलक्ष्मी और ज्वर इनका
___ अर्थ-ईखका रस भारी, स्निग्ध, बलदूर करनेवाला है । सब प्रकार के स्नेह
कारक, कफवर्द्धक, मूत्रकारक, शुक्र वर्द्धक, द्रव्यों में घृत सबसे उत्तम, शीतवीर्य और
शीतळ, रक्त पित्तनाशक,स्वादुपाकी, मधुररस युवावस्था का संस्थापक है । विधिवत् प्र
युक्त, और दस्तावर होताहै । इसके अग्र युक्त किये जाने पर घृत अनेक प्रकार के
भागका रस लवण रसयुक्त होताहै । दाबल वीर्य और अनेक प्रकार के कर्म करने
तसे चवाये हुए ईखका रस शर्कराके सवाला हैं ।
मान मिष्ट होताहै। - पुराने घृत के गुण । मदापस्मारमूर्छायशिरःकर्णाक्षियोनिजान् ॥
अन्य गुण । पुराणं जयतिव्याधीन् व्रणशोधनरापेणम् ॥ मूलाग्रजंतुजग्धादिपीडनान्मलसंकरात् । __ अर्थ-पुराना घृत, मदरोग, अपस्मार, किंचित्कालं विधृत्या च विकृति यातियांत्रिकः मुर्छा, शिरोरोग, कर्णरोग, नेत्ररोग, और
| विदाही गुरुविष्टंभी तेनासौ
तत्र पौडूकः। योनिरोगों को नाश करता है । यह व्रण शैत्यप्रसादमाधुर्यैर्वरस्तमनुवांशिकः ॥४६॥ को शुद्ध करता है और उनका रोपण करने अर्थ-ईखकी जड़, अग्रभाग और कीवाला है।
| डेसे खाया हुआ भाग एक साथ यंत्र (को
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
ल्ह में डालकर पीसकर निकाला हुआरस थोडेही कालमें बिगड़ जाता है क्योंकि उस में मैं रहता है, यह विदाही, मारी और विष्टंभी होता है । इनमें पौंड्र नामक (पौंडा ) ईखका रस शीतल, मधुर और प्रसन्नता कारक होता है वंशनामक ईखका रस इस गुणोंमें कम होता है ।
अन्य ईखके गुण |
शातपर्वककांतारनैपालाद्यास्ततः क्रमात् । सक्षाराः सकषायाश्चसोष्णाः किंचिद्विदाहिनः अर्थ - शात पत्रक, कान्तार नैपालादि ईखों का रस कमसे क्षारयुक्त, कसेला और उष्ण होता है तथा कुछ कुछ विदाही भी होता है ।
गुड़की रावके गुण । फाणितं गुर्वभिष्यंदि चयकृन्मूत्रशोधनम् । अर्थ- गुडकी राव भारी, कफकारक, त्रिदोषकारक और मूत्रशोधक होती है । गुड के गुण ।
नातिश्लेष्म करो धौतः सृष्टमूत्रशकृद्गुङः ४८ प्रभूतकृभिमज्जासृोदोमांस कफोऽपरः । हृद्यः पुराणः पथ्यश्च नवः श्लेष्माग्निसारकृत् अर्थ-निर्मल गुड़ कुछ कफ करने वाला और मल मूत्रका निकालने वाला है । अन्य गुड़ क्रमिरोग, मज्जा, रक्त, मेद, और कफकारक है । पुराना गुड़ हृदयको हितकारी और पथ्य है । नया गुड कफ वर्द्धक और जठराग्निको मन्द करनेवाला है ।
मांस
कारी है तथा ये बलवर्द्धक, क्षतक्षीणरोग में हितकारक एवं रक्तपित्त और बायुरोग नाशक हैं।
जवासे की शर्करा के गुण । तद्गुणा तिक्तमधुरा कषाया यासशर्करा । अर्थ - जवासे की शर्करा शर्करा के समान गुणयुक्त होती है तथा तिक्त मधुर और कषायरस से युक्त होती है इसे लोक में वासशर्करा कहते हैं ।
अन्य शर्कराओं के गुण । दाहतृट्छर्दिमूर्छासृपित्तघ्न्यः सर्वशर्कराः । अर्थ - उक्त अनुक्त सब प्रकार की अन्य शर्करा दाह, तृष्णा, वमन, मूर्च्छा और रक्तपित्तको नाश करती है ।
शर्करा और फाणित का अंतर । शर्करेक्षुविकाराणां फाणितं च वरावरे ।
अर्थ - ईख के रस से जितने द्रव्य बनाये जाते हैं उन सत्र में शर्करा सर्वोत्तम और फाणित है ।
मधुके गुण ।
|
चक्षुष्यं छेदि तृ श्लेष्मविषहिध्मास्त्रपित्तनुत् मेहकुष्ठकुनिच्छर्दिश्वास का लातिसारनु त् । व्रणशोधनसंधानरोपणं वातलं मधु ॥ ५३ ॥ रूक्षं कषायमधुरं तत् तुल्या मधुशर्करा ।
अर्थ- मधु नेत्रों को हितकर, छेदन कर्ता, * और तृपा, कफ, विष, हिक्का, रक्तपित्त, मेह, कुष्ठ, कृमिरोग, वमन, श्वास, खांसी और अतिसारको दूर करता है, यह व्रण को शोधनकर्ता, + संधानकारक और
मिश्री आदि के गुण ।
वृष्याः क्षतक्षीणहिता रक्तपित्तानिलापहाः । मत्स्यंडिका खंडसिताः क्रमेण गुणवत्तमाः ५० अर्थ-निर्मल रात्र, खांड और मिसरी ये तीनों गुड़की अपेक्षा क्रमपूर्वक अधिक गुण |
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(४३)
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+ जो भीतर वा वाहर की ग्रन्थि को करता है उसे छेदी कहते हैं । + जो दो वा अधिक घावों को मिला देता है उसे व्रणसंधानकर्ता कहते हैं ।
दूर
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(४४)
अष्टांगहृदये।
५ अ०
रोपणकर्ता तथा वातल है । यह रूक्ष क- शीधूता से प्रवेश करने वाला), उष्ण वीर्य पाय और मधुर होता है । मधु से वनाई | तथा कफ को उत्पन्न न करने वाला है । हुई शर्करा मधु के समान गुणयुक्त * कृश ( दुवले ) मनुष्य को स्थूल और होती है ।
स्थूल को कृश करने से लिये तैल उत्तम उष्णमधु के गुण ।
पदार्थ है । मल को कड़ा करता है, कीड़ों उष्णमुष्णातमष्णे च युक्तं चोष्णनिहंति तत।। का नाश करता है । और जो तैल अन्य
अर्थ-गर्म शहद पीने से, वा स्वयं । औषधों के संस्कार से तयार किया जाता है अग्न्यादि से तापकर, अथवा उष्णदेश, उ. वह सब प्रकार के दोषों का नाश करने ष्णकाल वा उष्ण द्रव्यों के संयोग में शहद का सेवन मृत्यु कारक होता है ।
अरंडी के तेल का गुण
| सतिक्तोषणमैरंडं तैलं स्वादु सरं गुरु । शहद का विधान।
वर्मगुल्मानिलकफानुदरं विषमज्वरम् ५८॥ प्रच्छर्दने निरूहे च मधूष्णं न निवार्यते। | रुक्शोकोच कटीगुह्यकोष्टपृष्ठाश्रयो जयेत् । अलब्धपाकमाश्वव तयोर्यस्मान्निवर्तते ५५॥ अर्थ-अरंडी का तेल कुछ कड़वा और अर्थ वमनऔर निरूहणब स्तमेंउष्णमधु
| तीखा होता है । वह मधुर, विरेचक और वर्जित नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों कम्मोम भारी भी होता है। बर्धा रोग, गुल्म रोग, मधु पकने नहीं पाता है शीघ्रही बाहर निक ल आता है।
___ + यहां प्रष्ण उठता है कि एक ही तैलवर्ग:
वस्तु स्थूलताकारक और कृषताकारक
कैसे हो सकती है । इसका समाधान इस तैल के सामान्य गुण तरह है कि कृश मनुष्य के स्रोत रुकजाते तैल स्वयोनिवत्तत्र मुख्यं तीक्ष्णं व्यवायिच। हैं और उन में तेल के सिवाय और कोई त्वग्दोषकृदचक्षुष्यं सूक्ष्मोणं कफन्न च ५६ | वृहणकर्ता पदार्थ प्रविष्ट नहीं हो सकता कृशानां बृंहणायालं स्थूलानां कर्शनाय च ।
है। तीक्ष्णदि गुणों से युक्त होने के कारण बद्धविट्कं कृमिघ्नं च संस्कारात्सर्वदोषजित् तेल प्रविष्ट होकर सोतों को खोल देता है
अर्थ-जिन जिन द्रव्यों से तेल निकलता और सोतो के शुद्ध होने से शरीर पुष्ठ है उन उन द्रव्यों के संपूर्ण गुण उस तेल
होने लगता है कहा भी है । स्त्रोतःसुतत्र
शुद्धेषु रसोधातूनुपतियः । तेनतुष्टिलिंवमें भी होते हैं। सब प्रकार के तलों में तिल
र्णः परंपुष्टिश्चजयाते ॥ तथा स्थूल व्याक्त का तेल प्रधान होता है । यह तीक्ष्ण, के सूक्ष्म सोतों में प्रवेश करके अपने तीन्यबायि । व्याप्त होने वाला । पीने से क्षणादि गुणों से मेदा को क्षीण करता है त्वचाके दोषों को नाशकरने वाला, नेत्रों को
| और मेदा के क्षीण होने से कृशता होती
| चली जाती है इस तरह तेल में दोनों · अहित, सूक्ष्म । सूक्ष्म छिद्रों में गुण है ॥
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४५)
वात रोग, कफ, उदर रोग, विषमज्वर को
वसादि के गुण । दूर करता है तथा कमर, गुह्येन्द्रिय, कोष्ठ वसा मज्जा चवातघ्नौ बलपित्तकफप्रदौ ॥ और पीठ की सूजन और दर्द को नाश
मांसानुगस्वरूपौ च विद्यान्मेदोऽपिताविवा
अर्थ- सा और मज्जा ये दोनों वातनाकरता है ।।
शक तथा वल, पित्त और कफ को उत्पन्न लाल अरंड के गुण । तीक्ष्णोष्णं पिच्छिलं विस्र रक्तैरंडोद्भवं त्वति
करनेवाले होतेहैं तथा जिस प्राणीका जैसा अर्थ-लाल अरंड का तेल तक्ष्णि, उष्ण,
मांस होताहै उसीके अनुसार गुणवाले बसा पिच्छिल और विशेष दुर्गन्धयुक्त होता है ।
और मज्जा भी होते हैं और इन्हीं दोनोंके सरसों का तेल।
गुण मेदमें होतेहैं । शुद्ध मांसके स्नेहको वकटूष्णं सार्षपं तीक्ष्णं कफशुक्रानिलापहम् ।।
सा अर्थात् चर्वी कहते हैं। लघुपित्तास्रकृत् कोठकुष्ठाझेव्रणजंतुजित्॥
मद्यके सामान्य गुण । अर्थ-सरसों का तेल कटु, उष्ण, तीक्ष्ण, दीपनं रोचनं मद्यं तक्षिणोष्णं तुष्टिपुष्टिदम् ॥ लघु, रक्तपित्त कारक, कफ शुक्र और वायु
सस्वादुतिक्तकटुकमम्लपाकरसं सरम् ।
सकषायं स्वरारोग्यप्रतिभावर्णकृल्लघु ।। नाशक है । यह कोठ ( पित्ती ) कुष्ठ,
नष्टनिद्राऽतिनिद्रेभ्यो हितं पित्तास्रदूषणम् । क्रमि और व्रण रोगों को दूरकरने वालाहै । कृशस्थूलहितं रूक्ष सूक्ष्मं स्रोतोविशोधनम्।
बहेडे का तेल । | वातश्लेष्महरं युक्त्या पीतं विषवदन्यथा। आक्षं स्वादु हिमं केश्यं गुरु पित्तानिलापहम् ।
अर्थ-सब प्रकारके मद्य अग्निसंदीपन, अर्थ-बहेडेका तेल मधुर, ठंडा,सिर के
| रुचिवर्द्धक, तीक्ष्ण, उष्णवार्य, मनको तुष्टि केशों को बढ़ाने वाला, भारी तथा वात
और शरीरको पुष्टि देनेवाले हैं तथा कुछ कुछ पित्त को दूर करने वाला है।
मधुर, तिक्त और कटु होते हैं ये पाक और
रसमें खट्टे होते हैं । रेचक, ईषत् कषाय, तनीम का तेल । नात्युष्णं निबज तिक्तं कृमिकुष्ठकफप्रणुत् ॥
था स्वर आरोग्यता और कांतिको बढानेवा
ले और हलके हैं । जिनको नींद न आती अर्थ-नीम का तेल अत्यन्त गरम नहीं
हो पा जिनको अधिक नींद आतीहो उनके होता है । परन्तु कड़वा, कीड़ों को दूर
लिये हित हैं, रक्त पित्तको दूषित करनेवाकरनेवाला, भारी कफ और कुष्ठ को विशेष रूप से दूर करता है ॥
ला, कृश और स्थूल मनुष्यके लिये हितका
रक, रूक्ष, सूक्ष्म और रोमकूपोंका शोधन अलसी और कसूम का तेल। कर्ता है । युक्तिपूर्वक पीनेसे वातकफ नाशउमाकुसुभजं चोष्णं त्वग्दोषकफपित्तकृत् ।। कहै अन्यथा पीनेसे विषके समान होताहै ।
अर्थ-अलसी और कसूमके बीजोंका तेल नये पुराने मद्यके गुण । गर्म, तथा त्वग्दोष और कफपित्तको करतेहैं गुरु त्रिदोषजननं नवं जीर्णमतोऽन्यथा ॥
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अष्टांगहृदये ।
( ४६ )
अर्थ - नया मद्य भारी और त्रिदोष का रक होता है और पुराना मद्य त्रिदोषनाशक तथा हलका होता है ।
मद्यपानका निषेध |
पेयं नाणोपचारेण न विरिक्तक्षुधातुरैः । नात्यर्थतीक्ष्णमृद्वल्पसंभारं कलुषं न च' ॥ अर्थ-गर्म पदार्थ के साथ, गर्म ऋतु में गरम प्रकृति वालेको अन्य गरम उपचारों के साथ मद्य पीना उचित नहीं है तथा विरेवन वाले और क्षुचापीडित को भी नपीना चाहिये । अति तीव्र अति मृदु, अल्प 1 संभार (चाट ) युक्त वा अस्वच्छ मद्य पीना भी उचित नहीं है ।
सुराके गुण | गुल्मोराशग्रहणोशोत्रहृत् स्नेहमी गुरुः । सुराऽनिलनी मेदोक्त्तन्य मूत्र कफावहा ।
अर्थ- सुरा नामक मद्य, गुल्म, उदररोग, बवासीर, संग्रहणी, और शोष रोगको नष्ट करता है यह स्निग्ध कारक, भारी, वातना - शक है और मेद, रक्त, दूध, मूत्र, और कफ को बढाने वाला होता है ।
वारुणी गुण |
तद्गुणा वारुणी हृद्या लघुतीक्ष्णा निहन्ति च । शूलकासबमिश्वासविबंधाध्मानपीनसान् ॥
अर्थ- वारुणीनामक मद्यमें सुराके समान गुण होते हैं, यह हृदयको हितकारी, हलका, और तीक्ष्ण होताहै तथा शूल, खांसी वमन, श्वास, बद्धकोष्ठता, आध्मान ( अफरा ) और पीनस इनरोगों को दूर करता है ।
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अ० ५
व्रणे पांड्वामये कुष्ठे न चात्यर्थे विरुध्यते ॥ अर्थ- बहेडेका मद्य अत्यन्त तीव्र मादक नहीं होता है, यह हलका और हितकारी होता है तथा ब्रण, पांडुरंग, और कुष्ठरोगमें अन्य मद्योंकी तरह अवगुणकर्ता नहीं होता है । वसुराके गुण |
विष्टंभनी यवसुरा गुर्बी रूक्षा त्रिदोषला । अर्थ- यवसुरा विष्टंभी, भारी, रूक्ष, और त्रिदोषकारक होती है । अरिष्टके गुण |
ter द्रव्यगुणोऽरिष्टः सर्वमद्यगुणाधिकः ॥ ग्रहणी पांडुकुष्ठाः शोफशोषोदरज्वरान् । हंति गुल्मक्रमिलीहान् कषायकटुवालः ॥
द्राक्षा रसका मद्य । मार्दीक लेखनं हृद्यं नात्युष्णं मधुरं सरम् । अल्पपित्तानिलं पांडुमेहार्शः कृमिनाशनम् ॥
अर्थ-- द्राक्षाके रसकामद्य ( अंगूरीशराब) लेखन ( कृशकारक ), हृदयको हितकर, मधुर, रेचक, तथा पांडुरोग, प्रमेह, अर्श और कृमिरोगनाशक है यह बहुत गरम नहीं होता है तथा अन्य मद्योंकी अपेक्षा पित्त और वायुको थोडा उत्पन्न करता है । खिजूरका मद्य ।
बहेडेका मद्य ।
नातितीव्रमदा लघ्वी पथ्या वैभीतकी सुरा । | अस्मादल्यांतरगुणं खार्जूरं वातलं गुरु ।
अर्थ - जिस द्रव्यसे अरिष्ट बनाया जाता है उस द्रव्यका गुण उसमें रहता है । मद्यके I संपूर्ण गुण इसमें विशेष रूप में रहते हैं । ग्रहणी रोग, पांडुरोग, कुष्ट, अर्श, सूजन, शोषरोग, उदररोग, ज्वर, गुल्म, ऋमिरोग, और तिल्ली इन सब रोगों को दूर करता है, यह कषाय, तीखा और बादी करनेवाला होता है ।
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अ० ५
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ४७ )
और तीक्ष्ण है यह मेह, पीनस और खांसी को दूर करदेता है । शुक्त के गुण ।
शर्करा का मद्य ।
रक्तपित्तकफोत्क्लेदि शुक्तं बातानुलोमनम् ॥ भृशोष्णतीक्ष्णरूक्षाम्लहृद्यं रुचिकरं सरम् ॥
बनाया
शार्करः सुरभिः स्वादुद्यो नातिमदो लघुः ॥ दीपनं शिशिरस्पर्श पांडुदृक् कृमिनाशनम् । अर्थ - शर्करा ( चीनी ) अर्थ-शुक्त रक्त पित्त और कफ को हुआ मद्य सुगंधित, मधुर, हृदयको हितकारी बाहर की ओरं निकालने में प्रवृत करता है। और हलका होता है, इसमें अधिक नशा तथा बायु का अनुलोमन करनेवाला अत्यल नहीं होता । उष्णवीर्य, अत्यन्त रूखा, खट्टा, हृदय को हितकारी, रुचिबर्द्धक' रेचक' अग्निदीपन तथा शीतस्पर्श है । और पांडरोग, कृमिरोग, तथा नेत्ररोग को दूर करता है । अनेक प्रकार के कन्द मूल और फलादि को नमक और तेल में डालकर जो पतला पदार्थ कई दिन पीछे तयार होता है उसे शुक्त कहते है अथवा विगडा हुआ मद्य जब खट्टा होजाता है अथवा कोई और मिष्ट पदार्थ बिगड़ कर उठ आता है उसे भी शुक्त कहते हैं इसे भाषा में सिरका कहते हैं |
अर्थ - खिजूरका मद्य अंगूरी शराबके तुल्य ही गुणवाला है, यह बातल और भारी होता है ।
गुडका मद्य ।
सृष्टमूत्रशकृद्वातो गौडस्तर्पणदीपनः ।
अर्थ-- गुड़का मद्य मल मूत्रका प्रवर्तक, घातबर्द्धक, तृप्तिकर्ता और अग्नि संदीपन है ।
Agra गुण |
वातपित्तकरः सीधुः स्नेहश्लेष्मविकारहा ॥ मेदः शोफोदरार्शोघ्नस्तत्र पक्करसो वरः ।
अर्थ - ईख के रस से बनाये हुए मद्य को सीधु कहते हैं यह दो तरह का होता हैं । एक अपक्व दूसरा पक्व । अपक्व ईख से बनायाहुआ सीधु वात और पित्तको करता है, इससे स्नेहजनित ( त्रिकार घी और तेल के - अत्यन्त सेवन से हुए रोग ) स्नेह और कफ के विकार नष्ट हो जाते हैं । पक्व ईख के रस से बनाया हुआ सीधु मेद, शोध, उदररोग, और बवासीर को दूर करता है यह अपक्व ईख के मद्य की अपेक्षा उत्तम होता है ॥
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अन्य शुक्त | गुडेक्षुमद्यमार्दीक शुक्तं लघु यथोत्तरम् ७८ ॥ कंदमूलफलाद्यं च तद्वद्विद्यात्तदाऽऽसुतम् । अर्थ- गुड के शुक्त से ईख का शुक्त हलका होता है और ईख के शुक्त से मद्य का शुक्त हलका है और मय के सें शुक्त द्राक्षा का शुक्त हलका होता है जो जो कन्दमूल, फल आदि जिस शुक्त में डाले जाते हैं वे भी उसी के तुल्य गुणयुक्त हो जाते है ॥
महुआ का मद्य । छेदी मध्वासवस्तीक्ष्णो मेहपीनसकासजित्
डाकी का गुण |
अर्थ - गहुआका मय छेदी ( मलभेदक ) शांडाकी चासुतं चान्यत्कालाम्लं रोचनंलघु
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अष्टहृदये ।
( ४८ )
अर्थ - शांडाकी और अन्य आसुत जो काल पाकर खड्ढे होजाते हैं ये रुचिकर और हलके होते हैं । (मूली और सरसों के शाक उवाल कर उस में काला जीरा और राई डालकर थोडे दिन रख दियाजाय और जब वह खट्टा होजाय तब उसे शांडाकी कहते हैं । तथा आम ल्हिसौडे आदि राई नमक मसाला डालकर रखदिये जाते हैं उन्हे आसुत अथवा आचार कहते हैं ) ॥ कांजी के गुण |
श्रम
धान्याम्लंभेदितीक्ष्णोष्णांपत्तकृत्स्पर्शशतिलम् | श्रमक्कमहरं रुच्यं दीपनं वस्तिशूलनुत् ॥ ८० ॥ शस्तमास्थापने इंद्यं लघु बातकफापहम् । अर्थ - धान्याम्ल भेदी, तीक्ष्ण, उष्ण, पित्त कारक छूने में शीतल होता है तथा और ग्लानि को हरता है, रुचिकर है, दीपन है बस्ति के शूल को नष्ट करता है और आस्थापन कर्म में प्रशस्त है, हृदय को हितकारी हलकी और वात कफ को नाश करता है । तीसरे दिन पतला पदार्थ खट्टा होने पर कांजी अथवा धान्याम्ल कहलाता है ॥
गौ आदि के मूत्र के गुण ।
"मुत्रं गोऽजाविमहिषीगजाश्वोष्ट खरोद्भवम् पित्तलं रूक्षतक्ष्णिोष्णं लवणानुरसं कटु | कृमिशोफोरानाहशूलपांडुकफानिलान् । ८२| गुल्माऽरुचिविषश्विनष्टाशांति जयेल्लघु ।
अर्थ- गौ, बकरी, भेड़, भैंस, हाथी, घोड़ा, ऊंट, गवा इनका मूत्र पित्तकर्त्ता, रूक्ष, तीक्ष्ण, गरम, कुछ खारी तथा तीखा होता है । ये कृमिरोग, सूजन, उदररोग,
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अफरा, शूल, पांडुरोग, कफ, वात, गुल्मरोग अरुचि, विषदोष, श्वित्रकुष्ट, कुष्ठअर्श, इतने रोगोंको दूर करदेताहै, तथा हलका होता है ।
M43
अध्यायका उपसंहार | तोयक्षीरेक्षुतैलानां वर्गैर्मद्यस्य च क्रमात् ॥ ८३ ॥ ति द्रवैकदेशोऽयं यथास्थूलमुदाहृतः,, ।
अर्थ - इस अध्यायमें तोयवर्ग, दुग्धवर्ग, इक्षुवर्ग, तेलवर्ग, मद्यवर्ग, में द्रव द्रव्यांका संक्षेपरोतिसे वर्णन किया गया है । इति श्री अष्टांगहृदये भाषा टीकायां पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
66
अ०
षष्ठोऽध्यायः
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अथातोऽन्नस्वरूप विज्ञानीयमध्यायं व्याख्या स्यामः ।
2
अर्थ- अब हम यहांसे अन्न द्रव्यके स्वरूपका ज्ञान जिसमें वर्णन किया गया है उस अध्यायकी व्याख्या करेंगे | अन्न दो प्रकार का होता है एक शूक, दूसरा शिवी । इनमें शुक धान्य अत्यन्त उपयोगी होनेसे प्रधान है, इसलिये पहिले शूकधान्यका वर्णन है । atter वर्णन |
रक्तो महान् सकलमस्तूर्णकः शकुनाहृतः सारामुखो दीर्घशूको रोधशुकः सुगंधकः॥१॥ पांडुकः पुंडरीकश्व प्रमोदीगौरशालिकः । जांगला लोहवालाख्याः कर्द्दमाःशीतभीरुकाः पतंगास्तपनीयाश्च ये चान्ये शालयः शुभाः । स्वादुपाकरसाः स्निग्धा वृप्या वद्धाल्पवर्चसः कषायानुरसाः पथ्या लघवो मूत्रला हिमाः।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अ० ६
अर्थ-रक्त शालि ( दाऊदैवानी ), 7हा शालि (राम शालि ), कलम, तूर्णक ( आजव ), शकुनाहृत, कृष्णशूक, दीर्घशुक, लोधक, सुगन्धक, पुंडरीक, प्रमोदी, गौरशालि, जांगल, छोहवाल, कर्दम, शीतभीरु, पतंग और तपनीय आदि अन्य प्रकार
शालि धान्य भी हितकर, मधुर पाक और मधुररसयुक्त, स्निग्ध, शुक्रजनक, बद्ध और अल्प मलकारक, ईषत्कषाय, पथ्य, लघु, मूत्रकारक और शीतल होते हैं ।
भिन्न २ देशों के अनुसार चांवलोंके अनेक भेद होते हैं और उनके नाम भी जुदे२ हैं । इनमें से कलम नामक विहार प्रान्त में होता है । महाशालि और तूर्णक काश्मीर में, 'शकुनाहृत भी बिहार प्रान्त में होते हैं । इस के विषय में यह कहा गया है कि वुद्धदेव के उत्पन्न होने के समय हंस इनको चोंचमें दाबकर ले आये थे, इनको बोनेसे बड़ा विस्तार हुआ, इसीलिये इनको शकुनाहृत वा हंसराजभी कहते हैं ।
( ४९ )
अन्य चविलों के गुण । यवका हायनाः पांसुवाष्पनैषधकादयः ४ ॥ स्वादूष्णागुरवः स्निग्धाः पाकेऽम्लाः श्लेष्मपित्तलाः । समूत्रपुरीषाश्च पूर्व पूर्व च निंदिताः ॥
अर्थ - यवक, हायन, पांनु, वाष्प, नैधक, आदि चांवल मधुररस युक्त, उष्णवीर्य, भारी, स्निग्ध, अम्लपाकी, कफपित कारक, मलमूत्रनिःसारक होते हैं । ये पूर्व पूर्व निन्दित होते हैं अर्थात् यत्रक जाति के चावल सब में गुणहीन होते हैं ।
साठी चांवल के गुण । स्निग्धो ग्राही लघु स्वादुत्रिदाषघ्नःस्थिरोहिमः षष्टिकोब्राहिषु श्रेष्ठो गौरवासितगौरतः ६ ॥
अर्थ - श्रीहिधान्यों में साठीचांवल सर्वोत्तम होता है । साठीचांवल दो प्रकार का होता है गौर और कृष्णगौर । इनमें गौर उत्तम होता है । यह स्निग्ध, प्राही, भारी, मधुर, त्रिदोषनाशक, शरीर को स्थिर करने वाला और शीतवीर्य होता है ।
चावलों के गुण |
शुकजेषु वरस्तत्र रक्तस्तृष्णा त्रिदोषहा ३ ॥ महांस्तस्यानुकलमस्तं चान्यनुततः परे । अर्थ-3 - ऊपर जो सब प्रकार के शूकधान्य कहे हैं उनमें रक्तशालि सत्र में श्रेष्ठ होते हैं, ये तृषाको दूर करते हैं और त्रिदोष नाशक होते हैं । रक्तशालि की अपेक्षा महाशालि हीनगुण होता है, महाशालि की अपेक्षा कलम, कलमकी अपेक्षा तूर्णक आदि उत्तरोत्तर गुणों में हीन होते हैं ।
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ataलों की अन्य जाति । ततः क्रमान्महाव्रीहिकृष्णग्राहिजलूमुखः । कुक्कुटांड कपालाख्य पारावतकशूकराः ७ ॥ वरकोद्दालको ज्वालचनिशारददुर्दराः गंधनाः कुरुविंदाश्च गुणैरल्पांतराः स्मृताः ॥
I
अर्थ -साठी चांवलोंसे महाब्रीहि, कृष्णव्रीहि, जतुमुख, कुक्कुटांड, कपाल, पारावतक, शुकर, वरक, उद्दालक, ज्वाल, चीनी, शारद, दर्दुर, गंधन, कुरुविन्द, ये उत्तरोत्तर गुणों में हीन हैं । इनके भिन्न२ नाम आकृति और देश भेदेसे पड़ गये हैं । पाटलके गुण । स्वादुरम्लविपांकोऽन्यो व्रीहिः पित्तकरो गुरु
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(५०)
__ अष्टांगहृदये।
बहुमूत्रपुरीषोष्मा त्रिदोषस्त्वेव पाटलः ॥ अर्थ-जौ रूक्ष, शीतवीर्य, भारी, मधुर,
अर्थ-ऊपर कहेहुए व्रीहि धान्योंमें एक | रेचक, मल और वायु उत्पन्न करने वाला, पाटलके फूलके रंगका धान्य और होता है । पौष्टिक, स्थिरताकारक, और मूत्र, मेद, इसे पाटल कहते हैं, यह मधुररस युक्त,अ- पित्त तथा कफका जीतने वाला होता है । म्लविपाकी, पित्तकारक, भारी, वहुमूत्र | तथा पीनस, श्वास, खांसी, ऊरुस्तंभ, कंठ कारक, मलनिःसारक, गर्मी बढानेवाला और । और त्वचा की व्याधियों को दूर करने त्रिदोषकारक होताहै ।
वाला है । तृणधान्योंके गुण ।
जी की अन्य जाति । "कंगुकोद्वनीवारश्यामाकादि हिम लघु। न्यूनोयवादन्ययवः तृणधान्यं पवनकल्लेननं कफपित्तहत् १०॥
कक्षोणावंशजोयवः ॥ १३ ॥ अर्थ--कंगु ( कांगनी ) कोद्रव ( कोदों) । अर्थ एक और प्रकार का क्षुद्रयव हो. नविार, शयामाक ( साखिया) प्रभति शीत | ता है यह जौकी अपेक्षा गुणहीन होता है धौर्य और लघ होते हैं । ये तृण धान्य वायु | एक प्रकार का जौ बांस में होता है उसे घक, लेखन और कफ पित्तकारक होतेहैं। वंशज कहते हैं । कहते हैं यह रूक्ष और
फंगु और कोद्रव के गुण । गरम होता है । भग्नसंधानकृत्तत्र प्रियंगुर्वृहणी गुरुः ।
गेहूं के लाभ । कोरदूषः परं ग्राही स्पर्शशीतो विषापहः ॥ वृष्यःशीतोगुरुलिंग्धोजीवनोवातपित्तहा ।
अर्थ--उक्त तृणधान्यों में कांगनी टूटी संधानकारीमधुरोगोधूमःस्थैर्यकृत्सरः॥१४॥ हही को जोड़ देती है । यह पौष्टिक और अर्थ--गेहूं वीर्योत्पादक, शीतल, भारी, भारी होती है । सुश्रुतमें कांगनी चार प्र- स्निग्ध, जीवन ( ओज नामक धातुका बढाने कार की लिखी है । रक्तः पीताः कृष्णाश्च | वाला ) वात पित्तनाशक, टूटे अंगको जोश्वेताश्चैव प्रियंगवः । यथोत्तर प्रधानाः । डने वाला, मधुर, स्थिरता कारक और रेचक स्यूरूक्षाः कफहराः स्मृताः । लाल, पीली, होता है । रंचक से दस्तावर न समझना काली, और सफेद ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती चाहिये केवल मलको नरम करदेता है। है तथा रूक्ष और कफनाशक होती है ।
गहूंके भेद । ___ कोदो अत्यन्त संग्राही, स्पर्श करने से पथ्या नंदीमुखी शीता कषायमधुरा लघुः । शीतल, आर विषनाशक होती है ।
__ अर्थ-एक प्रकारका गेंहूं लंवा और पतला __जौ के गुण।
होताहै उसे नंदामुख कहते हैं, यह ठंडा, कक्षः शतिोगुरुःस्वादुःसरोवटवातकृद्यः। कसेला, मधुर और लघु होताहै । वृष्यःस्थैर्यकरोमूत्रमेदापित्तकफान्जयेत्१२ शिबी धान्योंके सामान्य गुण । पीनसश्वासकासोरुसंभकंठत्वगामयान्। मुगाढकीमसूरादिशिंवाधान्यविबंधकृत् १५
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अ० ६
कषायंस्वादुसंग्राहिक रूपाकांहिमंलघु । मेदःश्लेष्मास्त्रवित्तेषुहितंलेपोपसेकयोः ॥ १६ ॥ अर्थ- मूंग, अडहर, मसूर आदि शिंबीधान्य विबंधकारक होतेहैं | ये कसेले, म धुर. संग्राही, कटुपाकी, हिम और लघु हो ते हैं । तथा मंद, कफ, रक्त पित्तादिमें हिसकारक हैं, तथा लेप और उपसेक में काम आते हैं ।
।
मूंग लाभ | बरोsaniseपचलः कलायस्त्वपिवातलः राजमाषोऽनिलकरूक्षोवदुशकृद्ररुः ॥ १७ ॥ अर्थ - शिवी धान्यों में मूंग सबसे उत्तम है, यह अल्प वायुकारक है । मटर अत्यन्त वायुकती है । चीला वायुकर्ता, रूक्ष, बहू मलजनक और भारी होता है ।
कुलीका गुण |
उष्णाः कुलत्थापा केऽम्लाः शुक्राश्मश्वासपीन सानकासार्शःकफवातांश्चघ्नतिपित्ताश्रदाः परं
अर्थ - कुलथी उष्णवीर्य, अम्लपाकी, और वीर्य, पथरी, श्वास, पीनस, खांसी, बवासीर, कफ और वातको दूर करती है और रक्तपित्तको बहुत वढाती है । राजशिवीके गुण |
निष्पावोवातपित्तास्नस्तन्यमुत्रकरो गुरुः । सरोविदशहीदकशुक्रकफशोकविषापहः ॥ १९ ॥
-अर्थ- मौठ, वायु, पित्त, रुधिर, दूध और मूत्रको बढाती है, भारी और रेचक है पाक के समय विदाह करती है, नेत्र, वीर्य, कफ, सूजन, और विषदोषका नाश करती है । उदके गुण |
माषः स्निग्धोबळ श्लेष्म मलपित्तकरःसरः ।
( ५१ )
गुरूष्णोऽनिलहास्वादुः शुक्रवृद्धिविरक कृत् अर्थ - उर स्निग्ध है तथा वल, कफ, मल और पित्तको उत्पन्न करता है, तथा रेचक, गरम, भारी, वायुनाशक, मधुर, बीर्यवर्द्धक और वीर्यनिःसारक है ।
कटभी और कोंचके गुण | फलानिमापवद्विद्यात्काकांडोलात्मगुप्तयोः । अर्थ-कभी और कोंच के फल उरद के समान गुणकारी होते हैं । तिलके गुण |
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उष्णस्त्वच्याहिमःस्पर्शेकेश्योबल्यास्तिलोगुरुः अल्पमूत्रकटुः पाकेमेधाऽग्निकफापसकृत् । अर्थ - - तिल गरम तथा शरीरको त्वचा को हितकारी होता है, स्पर्श में शीतल है । केशों को हितकारी, बलवर्द्धक और भारी होताहै, मूत्रको कम करता है, पाकके समय कटु होता है, बुद्धि, जठराग्नि, कफ और पित्तको बढानेवाला है ।
अलसी और कसूम के बीजके गुण । स्निग्धोमास्वादुतिक्तोष्णाकफपित्तकरगुरुः
Chशुक्रहुत्कटुःपाके
तद्वद्वजिंकुसुंभजं ।
अर्थ - अलसी स्निग्ध, मधुर, तिक्त, उष्णवीर्य, कफोत्पादक, और पित्तकारक नेत्र और वीर्यको हानि पहुंचाने वाली है तथा पाक में कटु है । कसूमके बीज के गुण भी अलसीके समान होते हैं । मात्रसर्वे ववयवकः शुकजेषुच ॥ २३॥
अर्थ- शिम्बी धान्योंमें उरद और शूक धान्यों में यवक सबसे निकृष्ट होते हैं ।
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(५२)
अष्टांगहृदये।
अ०६
नये धान्यादि ।
ली है, यह हितकारी, अग्निसंदीपन और नवंधान्यमभिष्यंदि लघुसंवत्सरोषितम् । पाचनकर्ता है । चौगुने पानी में छांवल शीघ्रजन्मतथासूप्यनिस्तुषंयुक्तिभर्जितम् २४ | उबाल कर पतला कांजी के समान चिक__ अर्थ--नवीन अन्न श्लेष्मा को बढाता
नाई लिये हुए पानी सा निकाला जाता है है, वही अन्न एक बरस का होनेपर हलका |
उसे पेया कहते हैं । होजाता है । जो थोड़े ही काल में तयार हो
विलेपी के गुण । जाते हैं और जिनसे दाल वनती है ऐसे
विलेपीग्राहिणीबद्यातृष्णानीपिनाहिता। धान्य हलके होते हैं । तथा जिनके छिलके
वणाक्षिरोगसंशुद्धदुर्घलनेहपायिनाम् ॥२८॥ दूर करके युक्ति पूर्वक भूने जाते हैं वे भी अर्थ- विलेपी संग्राही, हृदयको हितकाहलके होते हैं ।
री, तृष्णा को दूर करनेवाली, अग्निसंदीमण्ड के गुण । | पनी, और हितकारी होती है । अण, नेत्रमंडपेयाविलेपानामोदनस्यचलाघवम्। रोग, वमनविरेचनादि से शुद्ध किये हुए के यथापूर्वशिवस्तवमंडोवातानुलोमनः ॥ २५॥ लिये, दुर्बल के लिये और जिसको स्नेह तृडग्लानिदोषशेषनःपाचनोधातुसाम्यकृत् । स्रोतोमादेवकृत्स्वेदीसंधुक्षयतिचानलम् २६
पान कराना हो उस के लिये हितकारी है । अर्थ- मंड, पेया, बिलपी और भात इनमें
भात के गुण। पूर्व पूर्व हलके होतेहैं अर्थात् भातसे विलेपी | सुधौतःप्रसुतःस्विन्नोऽत्यक्तीष्माचोदनोलघुः इससे पया, पेयासे मंड हलका होताहै । इन
यश्चाग्नेयौषधक्काथसाधितोभ्रष्टतंडुलः।२९।
विपरीतो गुरुः क्षीरमांसाधैर्यश्च साधितः। में से मंड अत्यन्त हितकारक और वायु का अर्थ--अच्छी तरह से धोये हुय चांवअनुलोमन कर्ता है । तृषा, ग्लानि, दोष लों को धिकार
लों को रांधकर उनका मांढ निकाल डाले, और शोष को हरता है । धातुओं को समा- ऐसा भात जो विलकुल टंडा न होगया हो नावस्था पर लानेवाला है । मल मूत्रादि के | हलका होता है । जो चित्रादिक गरम औस्रोतों को मृदु करता है । पसीने लाता है | षधों के संग भात बनाया जाता है वह
और जठराग्नि को बढाता है । जो बहुत हलका होता है । सेके हुए चांबिल्कुल पानीसा होताहै उसे मंड कहते हैं। वलों का भात उससे भी हलका होता है ।
पेया के गुण । | जो दूध वा मांसादि के साथ पकाया जाता क्षुतृष्णाम्लानिदौर्बल्यकुक्षिरोगज्वरापहा। है वह इससे भी विपरति अर्थात् भारी मलानुलोमनीपथ्यापेयादीपनपाचनी ॥२७॥ होता है ।
अर्थ-पेया भूख, तृषा, ग्लानि, दुवर्लता, इतिद्रब्यक्रियायोगमानाद्यैःसर्वमादिशेत् ।३०। कुक्षि के रोग और ज्वर को दूर करती है, अर्थ-इस तरह द्रव्य, क्रिया, योग, बातादिक दोषों को अपने मार्ग पर लानेवा- और परिमाणादि द्वारा अन्न में हलकापनवा
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अ०६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
भारापन हो जाता है । द्रव्यद्वारा यथाः- प्रत्येक तीन मांशे डालकर पान करै । यह रक्तशाल्यादि का भात हलका और यावका- पित्त तथा कफनाशक है । इसी तरह दिका भारी होता है । क्रियाद्वारा यथाः- भिन्न २ रोगोंमें भिन्न भिन्न रीति से पकाया शूलपर भुना हुआ मांस हलका है और
जाता है। उवाला हुआ मांस भारी है । योगद्वाग, |
कुलथी के यूष के गुण । यथाः-चित्रकादि औषधों के साथ में सि- मोतानुलोमी कौलत्थोगुल्मतूनिप्रतूनिजित् । द्ध किया हुआ भात हलका है, इससे अ- अर्थ-कुलथी का यूष वायुको अनुलोन्यथा भारी होता है । परिमाणद्वारा, यथा:- | मन करता है, यह गुल्मरोग तथा तूनि प्रभारीअन्न थोड़ा खाने से हलका होता है। तूनि रोगों को दूर करता है । और पेयादिलघु पदार्थ अधिक सेवन किये
तिल के पदार्थों का गुण। आने पर भारी होते हैं।
तिलपिण्याकविकृतिःशुष्कशाकविरुढकम्३२ ____मांसरस का गुण । शांडाकीवटकंदृग्नदोषलंग्लपनं गुरु । बृंहण प्रीणनोवृष्यश्चक्षुष्योबणहारसः।।
अर्थ-तिल के पदार्थ, पिण्याक के बने अर्थ-मांसरस पुष्टिकर्ता, भानंददायक, पदार्थ, सूखे शाक, अंकुरित अन्न शांडाकी वीर्योत्पादक, नेत्रोंको हितकर, और व्रणना
में भिगाये हुए बड़े ये सब नेत्रों को आहत । शक होता है । मांसरस कृत और अकृत दोषकारक और ग्लानि उत्पन्न करने दो प्रकार का होता है, स्नेह, थुठी आदि | वाले हैं। द्वारा सिद्ध किया हुआ कृत और इससे वि
शिखंड के गुण । परीत अकृत होता है।
रसालाहणीवृष्यास्निग्धावल्यारुचिप्रदा ३३ ___ मूंग के यूष के गुण । अर्थ--कालीमिरच, शर्करा आदि डालकर मौद्रस्तुपथ्य सशुद्धव्रणकंठाक्षिरोगिणाम्३१ । दही से बनाई हुई को रसाला, शिखंढ वा ___ अर्थ-मूंगका यूष पथ्य है, दोषों से लोक में सिखरन कहते हैं यह पौष्टिक,
शुद्ध हुए को, व्रणरोगीको, कंठरोगीको,और वीर्यजनक, स्निग्ध, और रुचिवर्द्धक है ।। , नेत्ररोगी को बहुत हितकारी है । मूंगका पानक के गुण ।
यूष भी संस्कृत और असंस्कृत दो प्रकार | श्रमक्षुत्तृटक्लमहरपानकंप्रीणनंगुरु । का होता है । संस्कृत यथाः--आठ तोले विष्टंभिमूत्रलहायथाद्रव्यगुणंचतत् ॥ ३४ - मंग को सोलह गुने पानी में उबालकर अर्थ- पानक श्रम, भूख, तृषा और
चौथाई शेष रहजानेपर कपडे में छानले । थकावट को दूर करताहै, मनको प्रसन्न । और इस पानी में चार तोले दाडिम का रस, करनेवाला और भारी होताहै, मलवर्द्धक - सेंधानमक, सोंठ, धनियां पीपल और जीरा । मुत्रनिःसारक और हृदयको हितकारकहै
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अष्टांगहृदये ।
(१४)
तथा जो जो पदार्थ उसमें पडेहों उन्होंके गुणोंसे युक्त होता है । धानीका गुण | लाजास्तृट्छर्यतीसारमेहमेदः कफच्छिदः । कासपित्तोपशमना दीपना लघवो हिमाः ॥३५ अर्थ- चांवलकी खोल तृषा, वमन, अतीसार, प्रमेह, मेदरोग, तथा कफरोगनाशकहै । खांसी और पित्तको दूर करती है अग्निसंदीपन, लघु और शीतल है । पृथुकादिके गुण !
पृथुका गुरवो यल्याः कफविष्टंभकारिणः । धाना विष्टंभिनी रूक्षा तर्पणी लेखनी गुरुः ।
कहते हैं
अर्थ - हरे धान्यको निस्तुषकरके मूमल से कूटकर भून लेते हैं उसे चिपिट ये भारी बलकारक, कफकारी और होते हैं । जौ आदि धानी विष्टंभी, I तृप्तिकर्ता, लेखनकर्ता और भारी होती है ।
विष्टंभी
रूक्ष
सत्तू के गुण |
सक्तबो लघवः क्षुत्तृश्रमनेत्रामयणान् । नंति संतर्पणाः पानात्सद्य एव बलप्रदाः ३७ नोदकांतरिता न द्विर्न निशायां न केवलान् । नभुक्त्वा न द्विजैश्छित्वा सक्तू नद्यान्नवावहून्
अर्थ- सत्तू हलका होता है, तृषा, श्रम, नेत्ररोग, व्रणरोग, इनको दूर करता है । तृप्ति करता है, पानी में घोलकर पीने से तत्काल बल बढाता है सत्तू खाने के समय बीच बीच में बार बार जल पीना उचित नहीं है एक दिनमें दो बार भी खाना उचित नहीं है घी वा शर्करा मिलाये बिना सूखा सत्तू नहीं खाना चाहिये रात्रिमें नहीं खाना चाहिये भोजन करके, अथवा दांतन करके अथवा
अ० ६
परिमाणसे अधिक सत्तू खाना उचित नहीं है । पिण्याक के गुण |
पिण्याको ग्लपनो रूक्षो विष्टभी दृष्टिदूषणः । अर्थ - तिलका कल्क अर्थात् खल ग्लानिकर्ता रूक्ष, विष्टंभी और नेत्रोंको हानि पहुंचाने वाला है ।
सवार के गुण |
वैसवारो गुरुः स्निग्धो वलोपचयवर्धनः। ३९ । मुद्रादिजास्तु गुरवो यथाद्रव्यगुणानुगाः ।
अर्थ -- वेसवार भारी, स्निग्ध, बलकारक और पौष्टिक होता है मूंग आदि द्रव्यों से बना या हुआ सवार भारी होता है । जिस प दार्थका बेसवार बनाया जाता है, उस पदा र्थ के गुण उसमें रहते हैं । निरस्थि मांस को कूटकर धनियां, जीरा, हींग और घृतादि डा लकर पकाने से बेसवार बनता है तथा अदरखके छोटे छोटे टुकडे और मूंग की पिट्ठी मिलाकर जो बनाया जाता है उसे मुद्रादि का सवार कहते हैं । इसका लौकिक नाम पूरण भी है ।
रोटी आदिके गुण |
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कुकूलकर्परभ्राष्ट्रकंद्वंगारविपचितान् |४०| एकयोनींल्लघून्विद्यादपूपानुत्तरोत्तरम्
1
अर्थ - एकही प्रकारके अन्नकी रोटियां नीचे लिखी रीति से जुदी जुदी अग्नि पर बनाई जांय तो वे उत्तरोत्तर हलकी होती हैं ( ऊपले की आग से पकाई हुई रोटियों से कर्पर ( खीपडे ) पर पकाई हुई हलकी होतीहै । कर्परपकसे भ्राष्ट्रपक, भ्राष्ट्प कसे कंदुपक, कंडुपकसे अंगारपक्व, हलकी होती है । (कुकूलगौका गोवर । कर्पर अग्नि
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अ०६
अष्टांगहृदये।
से तप्त खीपडा । अंगार लकडीके कोयले)। अपनी चोंचसे तोडकर खाते हैं इस लिये
मांसवर्ग:-मृगवर्गः ॥ प्रतुद कहलाते हैं। मेंडक, गोधा, सर्प, सेह हरिणैणफुरंगर्भगोकर्णमृगमातृकाः ॥४१॥ आदि बिलोंमें रहनेवाले बिलेशय कहलाते हैं शशशंबरचारुष्कशरमाद्या मृगाः स्मृताः ।
प्रसह वर्ग। अर्थ- हरिण, ( सफेद हरिण ) एण गोखराश्वतरोष्ट्राश्वद्वीपिसिंहक्षवानरा॥४६॥ ( कृष्णसार ), कुरंग ( चारुलोचन ) ऋष्य मार्जारम्पकव्याघ्रवृकवभ्रतरक्षवः। ( नीलांड ), गोकर्ण ( ताम्रवर्ण ), मृगमा
लोशकजम्बुकश्येनचाषवान्तादवायसाः ४७
शशघ्नीभासकुररमधोलूककुलिंगकाः। तृका ( कुरंगनी ), शश ( खरगोश , शं
धूमिकामधुहाचेतिप्रसहामृगपाक्षणः ॥४८॥ बर ( सावर ) चारुक और शरम ये मूगों _अर्थ- गौ, गधा, खिच्चर, ऊंट, घोडा, के साधारण नामहैं । इनके अतिरिक्त काल- द्वीपी, सिंह, रीछ, बंदर, विल्ली, चूहा, बाघ पुच्छा, पृषतादिक और भी बहुतसे हैं।
भेडिया, नकुल, तरक्षु, लोपाक, गीदड, सिविष्किरोंके नाम ।
करा, चील, कुता, कौआ, शशनी, भास, लाववर्तीकवाररक्तवर्मककुक्कुभाः॥४१॥
कुररी, गिद्ध, उल्लू, कुलिंग, (चिडा ), धूकपिजलोपचनाख्यवकोरकुरुवाहवः ।
मिका, मधुहा, येसब बलपूर्वक खातेहैं इस वर्तकोवर्तिकाचैवतित्तिरिक्रकरःशिखी॥४३॥ ताम्रचूडाख्यवकरगोनर्दगिरिवर्तिकाः।।
से इन्हें प्रसह कहते हैं। तथाशारपदेन्द्राभवारटाश्चेतिविष्किराः ४४ महामृगों के नाम । अर्थ- लाव, बटेर, वार, रक्तवर्त्मक,
समरश्चमरःखडूगोगबयश्चमहामृगाः॥४९॥ कुकुभ, जंगली मुर्ग जिसकी आंख लाल
। अर्थ-शूकर, भेंसा, न्यंकु, रुरु, रोहित होती है, सफेद तीतर, चकवा, चकोर, हाथी, सुमर, गेंडा और रोझ ये महामृग उत्कोश, भारुई, बटेर, तीतर, कृकर, मुर्ग, कहलाते हैं। बगुला, कक, सारस, गिरवर्तिका, शारद,
जलचरवर्ग । इन्द्राभ और वारटा ये सब विष्किर अर्थात् ।
१ वाकर अथात् हंससारसकादंबबककारंडवप्लवाः । पावसे बखेरकर खानेवाले पक्षी होतेहैं। बलाकोत्कोशचक्राहमद्गुक्रौंचादयोऽपचराः
प्रतुदवर्ग और बिलेशय। ___ अर्थ-हंस, सारस, कलहंस, वगुला, शुजीवंजीवकदात्यूह,गाहशुकसारिकाः। क्लहंस, कवाड, बलाका, उत्क्रोश, चक्रलटवाकोकिलहारीतकपोतचटकादयः॥४५॥ वाक जलकाक और क्रौंच ये सब जलचर, प्रतुदा भेकगोधाहिश्वाविंदाद्याविलेशयाः।। अर्थ- जीवजीवक, दात्यूह ( जलकाक)
___मत्स्य वर्ग। भृगाहू ( भौंराविशेष ), तोता, मैंना, लाट, मत्स्यारोहितपाठीनकूर्मकुंभीरकर्कटाः। कोकिला, हारीत, कपोत, चिडिया, ये सब शुक्तिशंखोइशंबूकशफरीवमिचन्द्रिकाः ॥५१॥
रणाः
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(५६)
सूत्रस्थान भाषाकासमेत ।
अ०६
चुलूकीनझमकरशिशुमारतिमिगिलाः ।। | वायु मध्यवल और कफ हीन बल होता है राजीचिलिचिमाद्याश्च ।
उनके लिये उपयोगी होता है । मांसमित्याहुरष्टधा ॥ ५२॥ - अर्थ-रोहित, पाठीन ये दो बडी म |
शशक मांस ।
दीपनः ककः पाके ग्राहीरूक्षोहिमःशशः। छलियां हैं ) कच्छप, कुंभीर, केंकडा, शु
अर्थ.खाँश का मांस अग्निसंदीपन क्ति शंख, उडू, शंबूक, शफरी, वर्मि, च
कटुपाकी मलसंग्राही रूस और शीतवीर्य न्द्रिका, चुळूकी, नक्र, मगर, शिशुमार, ।
होताहै । (सूस ), तिमिंगला, राजी और चिलचिमा | तीतरादि के मांसका गुण । ये सब मछली की जति के कहलाते हैं । ईषदुष्णागुरु स्निग्धा बृहणावर्तकादयः ॥५५ इस तरह शास्त्रकारों ने आठ प्रकार का मांस तित्तिरिस्तष्वपिवरो मेधाग्निवलशुक्रकृतू।
ग्राही वोऽनिलोद्रिक्तसन्निपातहरः परम् कहा है। मिश्रवर्ग ।
अर्थ- बटेर आदि का मांस कुछ गरम, योनिवजावीव्यामिश्रगोवरत्वादनिश्चिते ।।
भारी, स्निग्ध और बलकरक होता है । इन अर्थ-भेडा और बकरा ये दोनों जांगल
सबमें तीतर का मांस सबसे उत्तम होताहै, और आनूप दोनों में पाये जाते है इसलिये
यह मेधा, जाठराग्नि, बल और वीर्यको वढाइनका आवास स्थान अनिश्चित है अतएव
ता है, तथा मलसंग्राही, कान्तीजनक, और ये मिश्र देशीय कहलाते हैं।
| बात प्रधान सन्निपात को दूर करता है। जांगलादिक संज्ञा ।
अन्य पक्षियों के मांस | भाद्यान्त्याजांगलानूपामध्यौसाधारणौस्मृती :
नातिपथ्यशिखीपथ्यः श्रोत्रस्वरवयोदृशाम्
तद्वञ्च कुक्कुटो वृष्यः ग्राम्यस्तुश्लेष्मलोगुरुः अर्थ-कहे हुए आठ प्रकार के जीवोंमें
| मेधाऽनलकरा हृह्याः कराः सोपचक्रकाः पहिले तीन मृग, विष्किर और प्रतुद जांग- गुरुः सलवणः कागकपोतः सर्वदोषकृत् ॥ लदेशीय है पिछले तीन महामृग जलचर और चटकाःश्लेष्मला:स्निग्धावातघ्नाःशुक्रला-परम् मत्स्य ये आनूप देशीय हैं । वीचवाले दो अर्थ- मोर का मांस शरीर के पक्षमें विलेशय और प्रसह साधारण देशीय है। अत्यन्त हितकर नहीं है, किन्त, कान, स्वर, ___ जांगल बग का गुण।
| बयस्थापन और नेत्र पक्षमें हित होता है । तत्रवद्धमला शीतालघवोजांगलाहिताः।।
जंगली मुर्ग मोर के समान गुणकारी है, यह पित्तोत्तरेवातमध्येसान्निपातेकफानुगे ॥ ५४॥ बलकारकहै परन्तु, पालतू मुर्ग का मांस कफ
अर्थ-इनमेंसे जांगल जीवाकामांस हित | वर्द्धक और भारी होताहे कर और उपचक्र कारी है यह मल को वांधता है शीतवीर्य का मांस मेधा और अग्निबर्द्धक है तथा हृद
और हलका होता है जिस मनुष्य को ऐसा यको हितकारी होता है । कालकपोत का सन्निपात होजाता हैं जिस में पिन प्रधान मांस भारी कुछनमकीन, और सब दोपों का
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( ५७ )
प्रकोपक होता है मनुष्य के शरीर की धातुओं के समान वकरे के धातु हैं इससे यह मांसपौष्टिक और अनभिष्यंदि हैं इस वात से मनुष्य के मांस के गुण भी जान लेना चाहिये यह समानता केवल धातुओं के गुण की जाननी चाहिये द्रव्य की नहीं ॥ भेड़ के मांस के गुण 1 विपरीतमतो ज्ञेयमाविकं वृंहणंतु तत् ।
अर्थ - भेड़ का मांस बकरे के मांस से |विपरीत गुणवाला होता है । यह अत्युष्ण, अतिगुरु, अति स्निग्ध, अति दोषजनक, अभिष्यन्द और मांसवर्द्धक होता है ।
करनेवाला है । चिडिया का मांस कफकारक, स्निग्ध, वात नाशक और अत्यन्त वीर्यवर्द्धक होता है ।
।
बिलेशयादि का मांस । गुरूष्णस्निग्धमधुरा वर्गाश्चातो यथोत्तरम् मूत्रशुक्रकृतो बल्या वातघ्नाः कफपित्तलाः । यहां से आगे जो बिलेशयादि पांच वर्ग हैं उनके मांस यथाक्रम उत्तरोत्तर अधिकतर भारी चिकने और मधुर रस युक्त होते हैं । अधिकतर मूत्र, शुक्र और बलकारक होते हैं अधिकतर वातनाशक और अत्यन्तकफ और पित्तवर्धक होते हैं। अर्थात् विदेशयवर्ग की
अपेक्षा प्रसवर्ग अधिक भारी, मधुर और नादि गुणयुक्त होता है । प्रसहकी अपेक्षा महानुगादि इसी तरह और भी जाना ।
महामृगादि के गुण |
शीता महामृगास्तेषु क्रव्यादाः प्रसहाःपुनः ॥ लानुरसाः पाके कटुका मांसवर्धनाः । जीर्णाशग्रहणी दोषशोषातीनां परं हिताः ॥
अर्थ अव महामृगादि के विशेष गुण कहते है महामृगों में बाराहादि का मांस शीत वीर्य होता है प्रसहगण में बिल्ली गिद्ध आदि कवा मांस खानेवालों का मांस किंचित् लवण रल युक्त कटुना की और अतिशय मांसबर्द्धक होता है यह जीर्ण रोग, अर्श, ग्रहणी और • शोषरोग में वहुत हितकारी होता है । बकरे के मांसका गुण । नातिशीतंगुरुस्निग्धं मांसमाजमदोबलम् । शरीरधातुसामान्यादनाभिप्यदिबृंहणं ॥ ६३ ॥ अर्थ- बकरे का मांस अल्प शीतवीर्य अप गुरु अप स्निग्ध और ईषत् दोष
८
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गोमांस के गुण |
शुष्ककासश्रमाऽत्यग्निविषमज्वरपीनसान् । कार्य केवलवातांश्चगोमांसं सन्नियच्छति । अर्थ - गोमांस सूखी खांसी, श्रम, अत्यग्नि, विषमज्वर, पनिस, शरीर की कृशता, अन्य दोषों से रहित केवल वात प्रकोप को दूर करता है 1
भैंसा के मांस का गुण | उष्णोगरीयान्महिषःस्वप्रदा वृहत्वत् ६५ अर्थ- मेंसे का मांस गरम, भारी, निद्रा लानेवाला, शरीर को दृढ और वाला है ।
पुष्ट करने
बाराह मांस के गुण । तद्वद्वराहः श्रमहा सर्वशुक्रवलप्रदः । अर्थ - शूकरके मांस के गुण मेसे के समान ही होते हैं । विशेषता यह हैं कि शूकर का मांस श्रमनाशक, रुचिवर्द्धक, तथा वीर्य और बलबर्द्धक होता है ।
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(१८)
मष्टांगहृदये।
म.
मत्स्य मांस का गण।
नरमादा का मांस । मत्स्याः परं कफकराः
पुस्त्रियोः पूर्व पश्चार्धेगुरुणीगर्भिणी गुरु६७ चिलिचीमत्रिशेषकृत् ।६६|| लधुर्योषिच्चतुष्पात्सुविहंगेषुपुनःपुमान् । अर्थ-पीछे कह आये है कि विलेशय वर्ग शिरःस्कंधोरुपृष्टस्यकट्या सक्थोश्चगौरवम् के पछि के वर्गों का मांस उत्तरोत्तर अति । तथामपक्वाशययोर्यथापूर्वविनिर्दिशेत् ।
मित प्रभृतीनांच धातूनामुत्तरोत्तरम् ६९ भारा,आत गरम, आतस्निग्य, भात सागरीयोवृषणमे वृक्कयकृदगुदम् । अति मल-मूत्र-वीर्य वर्द्धक, अति वायुनाशक अर्थ- नाके शरीरका अगला भाग और अति कफ पित्तकारी है । परन्तु मत्स्य-गारी तथा मादा का पिछला भाग भारी यर्ग सब से पिछला है इस लिये ऊपर कहे
होताहे, गर्भिणी मादा अन्यसे भारी होती हुए सब गुण मछलियों में विशेष रूप से हैं
है । चौपायोंमें स्त्रीजातिका मांस हलका हो. और यहां जो कफकरा लिखा गया है यह
ताहै और पक्षियोंमें नर का मांस हलका होताहै यही दिखाने के लिये लिखा है कि कफ का
सिर, कंधा, ऊरु, पीठ, कमर, सक्थि, गुण तो बहुतही विशेष रूपसे है । चिल
भामाशय और पकाशय इनका मांस यथापूर्व चीम मत्स्य का मांस तीनों दोषों का करने
भारी होताहै । रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वाला है।
और शुक्र ये उत्तरोत्तर भारीहै । मांसकी - सर्वोत्तम मांस ।
अपेक्षा अंडकोष, लिंग, अग्रमासयकृत और लावरोहितगोधैणाःस्वे स्वे वर्गेवराःपरम् ।
अर्थ-लवा - रोहित मछली, जलकी गोह गुह्यस्थान अधिक भारी होतेहैं । और मृग इनका मांस अपने अपने वर्ग में शाकवर्ग-शाकोंकंगुण । सर्वोत्तम है ॥
शाकंपाठासटीपूषा निषण्णसतीनजम् ७१ त्पाज्यात्याज्य मांस ।
त्रिदोषघ्नं लघुग्राहिसराजक्षववास्तुकम् । "मांसंसद्योहतंशुद्धवयःस्थंचभजेत्
___ अर्थ- पाठा, शठी, पूषा, सुनिषण्ण,
त्यजेत् ॥ ६७॥ सतीन ज, राजक्षव और बथुआ ये सब शाक मृतं कृशं भृशं मेधंब्याधिवारिविषैर्हतम् । त्रिदोषनाशक, हलके और मात्र होतेहैं । ' अर्थ-तत्काल मारे हुए जीब का मांस खाने ।
। ऊपरके शाकोंक विशेषगुण । के योग्य होता है । तथा तरुण जानवर का मांस स्नायु आदिसे शुद्ध करके खाना चाहि- सुनिषण्णोऽग्निकदवृष्यस्तेषु
राजक्षवः परम् ॥७२॥ ये । इससे यह भी सिद्धहै कि बालक और वृद्ध का मांस नहीं खाना चाहिये । जो जानवर
ग्रहण्यों विकारघ्नः
वर्षोभेदितुवास्तुकम्। स्वयं मर गयाहो दुबला हो अति मेदबाला हो । अर्थ- इनमेंसे सुनिषण्णक का शाक जो रोग से बा जल में डूवकर वा विष से ! जठराग्निवर्द्धक और पौष्टिक होताहै । इस मरा हो उनका मांस भी नहीं खाना चाहिये । स्वस्तिक कहतेहैं इसके पत्ते चांगेरीके सदृश
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होतेहैं और यह पानीमें होताहै । राजक्षत्र परवल और दोनों फटेरी । प्रणी और अर्शविकार को दर करताहै। हृद्यपटोलशामिनुत्स्वादुपारुचिप्रदं ॥७८i बथुआ मोदी होताहै।
पित्तलंदीपनंभेदिवातघ्नंवृहतीद्वयम् ।
। अर्थ- परवल हृदयको हितकारी, कृमिमकोय और चांगेरी। हतियशेषत्रयंकुष्टंवृष्यासोणारसायनम् ॥७३॥
नाशक, स्वादुपाकी, और रुचिवद्धक है । काकमाची सरास्वर्या
दोनों फटरी पित्तकर्ता, अग्निसंदीपन; भेदी चांगेर्यम्लाऽग्निदीपिनी । और वातनाशकहैं। प्रहण्यर्थोऽनिलश्लेष्माहतोष्णा ग्राहिणीलघुः अडूसा के गुण । . अर्थ- मकोय शुक्रवर्द्धक, उष्णवीर्य,
वृषतुवमिकासघ्नंरक्तपित्तहरंपरम्॥७९॥ रसायन, मलभेदक, और स्वरकारक है यह अर्थ-अडूसा वमन, खांसी और रक्ततीनों दोष और कुष्ठको दूर करतीहै । चा । पित्त को दूर करता है । गेरी (चूका) जठराग्निवर्द्धक, ग्रहणी, अर्श, !
करेले के गुण । यायु, और कफ इन सबको दूर करती है
कारलंसकटुफंदीपनं कफजित्परम् गरमहै, प्राही और लघुहै ।
__ अर्थ-करेला कुछ कठुआ और अग्निपटोलादिके गुण । । संदीपन है, यह फफको अतिशय करके पटोलंसप्तलारिएशाटावल्गुजाऽमृताः। जीत लेता है । षेत्रावृहतीवासाकुंतलीतिलपर्णिका ॥७॥
बेंगन के गुण । मंडूकपर्णीककर्कोटकारवल्लुकपर्पटाः। माडीकलायंगोजिहावाकिंवनतिक्तकम् ७६ वार्ताकंकटुतिक्तोष्णंमधुरकफवातजित् ।८० फरीरंकुलकनंदीकुचेलाशकुलाइनी। सक्षारमाग्नजननंहृद्यंरुच्यमपित्तलम् ।। कटिल्लंकेम्वुकंशीतंसक तककर्कशम् ।७७। ___अर्थ बेंगन कटु, तिक्त, उष्ण, मधुर, तिक्तंपाकेकटुग्राहिवातलंकफपित्तजित् ।। कफवात नाशक, ईषत् क्षारयुक्त, अग्निसं.
अर्थ- परवल, सातला, निंब, सह करंज दीपन, हृदयको हितकारी, रुचिवर्द्धक और बावची, गिलोय, बेतकी कोपल, वृहती, कुछ पित्तकर्ता है । पासक, कुंतली ( छोटे तिलकी जाति )
करील के गुण । तिलपर्णी, मंडूकपर्णी, ककोड़, करेला, पित
करीरमाध्मानकरकषायस्वादुतिक्तकम्।८१॥ पापहा, नाडी, मटर, गोभी, बंगन, बन- अर्थ-करील अफरा करता है, तथा ककरेला, करील, कुलक, नंदी, कुचेला, श- पाय, मधुर, और तिक्त है। कुलादनी, कठिल्ल, केंवुक, शीत, तोरई,
तोरई और वावची । ये सब सामान्य रीतिसे तिक्त, कटुपाकी कोशातकावल्गुजकौभेदनावाग्निदीपनौ। मलसंग्राही, वायुजनक, और कफपित्तना- अर्थ-तोरई और वावची मलभेदक और शकहैं।
अग्निसंदीपन हैं ।
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( ६० )
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गुर्वीसरातुपालक्या
अष्टांगहृदये ।
चौलाई और मुंजात |
कूष्मांडादि के सामान्य गुण
तंडुलीयोहिमोरूक्षः स्वादुपाकर सोलघुः ॥८) कूष्मांडवकालिंगकविवरुर्तिडिशम् ॥८६॥ मदपित्तविषास्रघ्नः तथात्र सचीनाकचिर्भटंकफवातकृत् । मुंजातंवातपित्तजित् । भेदिविष्टंभ्यभिप्यंदि स्वादुपाकर संगुरु ॥८७॥ स्निग्धंशीतंगुरुस्वादु बृंहणंशुक्रकृत्परम् ॥८२॥ | अर्थ- कूष्मांड (कोयला वा काशीफल ) अर्थ - चौलाई का शाक ठंडा, रूक्ष, पाक तुंब ( तूमी ) कार्टिंग ( तरबूज ) कर्करु और रसमेंमधुर, हलका, तथा मद, पित्त, ( कूष्मांडविशेष ), काकडी, टिंडिश (डेंटविष और रक्तविकारों को दूर करता है । स ), त्रपुस (खीरा), चीनाक, और चिजातका शाक वायु और पित्त को जीतने भेट ( फूट ) ये कफ वातकारक, भेदी, बाला, स्निग्ध, ठंडा भारी, मधुर, पुष्टिकारक त्रिष्टंभी, अभिष्यन्दी, पाक तथा रस में मऔर अतिशय वीर्योत्पादक है । धुर और भारी होते हैं । एक ही वस्तुमें भदी और विष्टंभी दोनों गुण नहीं हो सकते हैं परन्तु यहां बहुत से द्रव्य हैं जिनमें कोई भेदी और कोई विष्टंभी है ।
पालक - पोई - चंचु |
Sani और खीरा ।
मदनीचाप्युपोदका । पालक्यावत्स्मृतश्चंचुः सतुसंग्रहणात्मकः ८४ अर्थ - - पालक का शाक भारी और रेचक है । पोई का शक मदनाशक है । चंचु का शाक पालक के समान गुणकारक है केवल यह अंतर है कि यह मलको बां है ।
विदारीकंद | त्रिशरीवातपित्तघ्नीमूत्रला स्वादुशीतला । जीवनवृंहणीय गुर्वीवृष्यारसायनम् ॥८५॥
अर्थ विदारीकंद वातपित्त नाशक, मूत्र निःसारक, मधुर, शीतल, जीवन गुणयुक्त, पौष्टिक, कंठको हितकारी, भारी, वीर्यजनक और रसायन है ।
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अ० ६
घल्ली फलानां प्रवरंकूष्मांडवातपित्तजित् । वस्तिशुद्धिकरंवृष्यम्
त्रपुसंत्वतिमूत्रलम् ॥ ८८ ॥ अर्थ-वेल में लगनेवाले फलोंमें कूष्मांड उत्तम होता है, यह वात पित्तनाशक, वस्तिका शुद्ध करनेवाला तथा वीर्यजनक है, । खारा मूत्रको बहुत निकालता है । तूंबी आदिके गुण | तु रूक्षत रंग्राहिकालिंगैर्वारुचिर्भटम् । बालंपित्तहरं शीतं विद्यात्पक्कमथोऽन्यथा ८९
अर्थ- तूंबी, बहुत रूक्ष और विबंधकारकहें । तरबूजा, काकडी, और फूट अपक हों तो पित्तनाशक और ठंडे होते हैं और पकने पर पित्तवर्द्धक और गाम होते हैं ।
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जीवंती के गुण |
चक्षुप्या सर्वदोषघ्नी जीवंतनिधुराहिमा । अर्थ-जीवती का शक नेत्रपक्ष में हि
शीतके गुण |
तकारी है, संपूर्ण दोनों को नाश करनेवाला, शीर्णवृत्तं सक्षारपित्तलक वातजित्। रोचनंदीपनंहृद्यमष्टीलाऽऽना लघु ॥९०॥
मधुर
और शीतवीर्य है ।
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म०१
सूत्रस्थान भाषाटोकासमेत ।
(६१)
-
-
___ अर्थ- शीर्णवन्त ( खरबूज ) ईषत् । सारकहैं ये प्रायः गोला सा बनकर पचतेहैं क्षारयुक्त, पित्तजनक, कफवातनाशक, रुचि- इनको उबालकर पानी निकाल डालै फिर वर्द्धक, अग्निसंदीपन, हृदयको हितकारी | बहुतसा घी तेल डालकर छौंकले तो बहुत और हलको होताहै। तथा अष्ठीला और | दोषकारक नहीं रहते । अफरा को दूर करताहै ।
चिल्ली शाक के गुण । कमलनालका गुण ।
लघुपत्रातुयाचिल्लीसावास्तुकसमामता।
। अर्थ-छोटे पत्तेवाली चिल्लीके गुण यथुए मृणालविशशालूककुमुदोत्पलकंदकम् । मंदीमाषककेलूटशंगाटककशेरुकम् ॥११॥
के समान होते हैं। चादनकलोड्यंचरूसंग्राहिहिमगुरु ।
जयन्ती और अरणी । . ___ अर्थ - कमलनाल दो प्रकार का होताहै
| तर्कारीवरणस्वादुसतिक्तंकफवातजित् ९६
अर्थ-जयन्ती और वरणी ये दोनों मधुर एक पतला, दूसरा मोटा, पतले को मृणाल और मोटेको विश कहते हैं । मृणाल, बीस,
कुछ कडवा, कफ तथा वायु को दूर करने
वाले हैं। कमलकन्द, कमोदनी, लालकमल का कंद,
साठी आदि के गुण । नंदी, माषक, केलूट, सिंहाडा, कसेरू,
वर्षाभ्वौकालशाकंचसक्षारंकटुतिक्तकम् । क्रौचादन, कमलकाकडी, ये रूक्ष, प्राही,
दीपनंभेदनंहतिगरशोफकफानिलान् ॥१७॥ हिम और गुरु है।
अर्थ दोनों प्रकार की साठी और कालकलंवादि।
शाक ईषत् क्षारयुक्त, कटु, तिक्त,दीपनकर्ता फलंबनालिकामार्षकुटिजरकुतुंबकम् ॥९२॥ भेदी है तथा विषरोग, सूजन, कफ और चिल्लीलवाकलेणिाकाकुरूटकगेवधुकम् ।। बादी को दूर करते हैं । जीवंतझुश्वेडगजयवशाकसुवर्चलम् ॥९३॥ करंजादि के गुण । आलुकानिचसर्वाणि तथासूप्यानलक्ष्मणम् । दीपनाकफवातघ्नाश्चिरविल्वांकुराःसराः। स्वादुरूक्षसलवणं वातश्लेष्मकरंगुरु ॥ ९४ ॥ अर्थ-कजे के अंकुर अग्निसंदीपन, कफ शीतलंसृष्टविण्मूत्रप्रायोविष्टभ्यजीयति । ।
... वात नाशक, और दस्तावर होते है। .. स्विन्ननिष्पाडितरसंस्नेहाढ्यनातिदोषलम् ९५
शतावरी के अंकुर ।। अर्थ- कदंबपुष्प, कल्मांशाक, मारिस
शतावर्यकुरास्तिक्तावृष्यादोषत्रयापहाः ॥९८ यवासशाक, घलघसियाशाक, गुग्गुल, लूनी ।
गुग्गुल, लूना अर्थ-शतावरी के अंकुर तिक्त पौष्टिक पीतकोरटा, गवेधुक, ( तृण धान्य ), जी- और तीनों दोषों को दर करनेवाले हैं । वंत, झुंझू, प्रपुन्नाट, यवशाक, सुवर्चला, |
बांस के अंकुर । सब प्रकारके आलू, मूंग उरदके पत्ते, मु- | लक्षाबंशकरीरस्तुविदाहीबातपित्तलः। लहटी, ये सब मधुर, रूक्ष, कुछ नमकीन, अर्थ--बांसके अंकुर रूक्ष, विदाही, और वातकफकारक, भारी, शीतल, मलमूत्र निः । वातात्तिकारक होते हैं ।
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( ६२ )
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engineer |
पत्तर ।
पत्त्रो दीपनस्तिक्तप्लीहार्शः कफवातजित् ९९ अर्थ--पत्तूर जिसे मत्स्याक्षक वा मछेली कहते हैं, यह अग्निसंदीपन, तिक्त, प्लीहा, अर्श, कफवात को जीतने वाली है । कासमर्द |
कृमिकासकफोत्क्लेदान कासमर्दोजयेत्सरः । अर्थ-- कासमर्द कृमि, खांसी, कफ और इन्द्रियों के छिद्रों में भरे हुए मलको दूर करता है और रेचक है ।
कसूम का शाक । रूक्षोष्णमम्लंकौसुंभंगुरुपत्तकरंसरं ॥ १०० ॥ अर्थ- कसूम का शाक रूक्ष, गरम, अम्ल, भारी, पित्तकारक और रेचक होता है ।
सरसों का शाक । गुरूष्णंसार्षपंबद्धविण्मूत्रं सर्वदोषकृत् । अर्थ- सरसों का शाक भारी, गरम, मल तथा मूत्र को रोकनेवाला और सब दोषोंको करने वाला है ।
गुर्वभिष्यंदिच
वातले महशुष्कं सर्वम्
महत्पुनः ।
रसेपाकेचकटुकंमुष्णवीर्यत्रिदोषकृत् ॥१०३॥
स्निग्धस्विन्तदपिवातजित् ।
मूली के गुण ।
कुठरादि ।
"यद्वालमव्यक्तरसं किंचित्क्षारंसतिक्तकम् ॥ तन्मूलकं दोषहरं लघुष्णनियच्छति ।
कुठेराशि युसुरस सुमुखासुरिभूस्तृणम् ॥ १०५ ॥ फणिज्जार्जकजंवीरप्रभृतिग्राहिशालनम् ।
गुल्मका सक्षयश्वास व्रणनेत्रगलामयान् १०२ | विदाहिककुरुक्षोष्णंहृद्यंदीपनरोचनम् । १०६ । स्वराग्निसादोदावर्तपीनसाश्य दृक्शुक्रकृमित्तीक्ष्णंदापात्क्लेश करंलघु ।
अर्थ- श्वेत तुलसी, सहजना, कृष्णा-तुलसी क्षुद्रपत्री, दूसरी सफेद तुलसी, राई, गुह्यवजिक्क, सफेद मरुआ, अर्जक (खर पत्रक ) जंभीरी आदि संग्राही और अन्न के साथ खाने के योग्य है । ये विदाही, कटु, उष्ण रूक्ष, हृदय को हितकारी, दीपन, रोचन है
आमंतुदोषलम् ॥ १०४ ॥
अर्थ-कच्ची मूली अव्यक्तरस होती है ।
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६०
अर्थात् मधुरादिरस स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं होते हैं । यह ईपत् क्षारगुण विशिष्ट, सामान्य तिक्त है । तीनों दोषों को दूर करती है । लघु और कुछ उष्णवीर्य है, गुल्म, कास, क्षयी, श्वास, क्षतरोग, नेत्ररोग, कंठरोग, स्वर अग्निमांद्य, उदावर्त और पीनस इन रोगों को दूर करती है । बड़ी मूली रस और पाक में कटु होती है । उष्णवीर्य और गरम हैं, तीनों दोषों को उत्पन्न करनेवाली, भारी और अभिष्यन्दी है । तेल वा घी डालकर पकाई हुई मूली वातनाशक होती है। सूखी मूली वायु और कफ को दूर करती है। छोटी हो या बड़ी कच्ची मुली वातादिक दोषों को पैदा करती है ॥
पिण्डाल के गुण |
वात
कटूष्णोवातकफहापिंडालुः पित्तवर्धनः । अर्थ- पिंडालु कटु और उष्ण है, और कफ को दूर करता है तथा पित्त को बढाता है ।
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म.६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
नेत्ररोग, वीर्यरोग, और कृमिरोगको दूर कर । पलांडु के गुण । ने वाले हैं । तीक्षण होने से वातादि दोषों पलांडुस्तद्गुणन्यूनःश्लेष्मलोनाऽतिपित्तलः॥ को उक्लेदित करते है और हलके हैं ।।।
| कफवातार्शसांपथ्यः स्वेदेभ्यवहृतौतथा।
अर्थ-प्याज लहसनकी अपेक्षा गुणों में तुलसी के गुण ।
न्यून होती है, यह कफकारक और पित्तोहिमकासश्रमश्वासपावरुरूपूतिगंधहा१०७ वादक है। यह कफ वात और अर्श रोगी सुरसःसुमुखोनातिविदाहीगरशोफहा। लिये पसीना देने और खाने में हित
अर्थ-काली, तुलसी हिचकी, खांसी, माती। थकावट, श्वास, पसलीका दर्द, और दुर्गन्धि
गाजर के गुण । को दूर करती है । छोटे पत्तेधाली तुलसी तीक्ष्णागूजनकोग्राहीपित्तिनांहितकृन्नसः ११२ कुछ विदाही बिषरोग और सूजन को दूर अर्थ-गाजर तीक्ष्ण और ग्राही है तथा करती है।
पित्त व्याधि वालों को हितकारी नहीं है। हरे धनिये का गुण ।
जमीकंद के गुण । आर्दिकातिक्तमधुरामत्रलानचापित्तकृत १०८ | दीपनःसूरणोरुच्याकफघ्नोविशदोलघुः । ___ अर्थ-हराधनियां कुछ कडवा, मधर. विशेषादर्शसांपथ्यः
भूकंदस्त्वतिदोषलः११३ मूत्रवर्द्धक और पित्त कारक है।
अर्थ-जकिंद अग्निसंदीन, रुचिकर्ता, लहसन के गुण । कफनाशक, निर्मलकारक, हलका और लशुनोभृशतीक्ष्णोष्ण कटुपाकरसःसरः।
बवासीर वालों को बड़ा हितकारी है । भूहृद्यःकेश्योगुरुर्वृष्यःस्निग्धोरोचनदीपनः १०९ कन्द वातादिक दोष को बहुत प्रकुपित भग्नसंधानकृद्धल्योरक्तपित्तप्रदूषणं। करता है। किलासकुष्ठगुलमाऽशोंमेहक्रिमिकफानेलान् | सहिमपीनसश्वासकासान्हतिरसायनम् । पोष्पेफलेनालेकंदचगुरुताक्रमात्।
पत्ते आदि के गुण । अर्थ-लहसन अत्यन्त तीक्ष्ण और उष्ण अर्य-पत्रशाक से पुष्यशाक इस से फलशा. वीर्यहै , पाक और रसमें कटुहै, मलनिःसा- ! क, फलशाक से नालशाक ( डंडियों का रकहै हृद्यहै, केशों के लिये हितकारी, भारी, शाक ), और नालशाक से कन्दशाक क्रम वीर्योत्पादक, स्निग्ध, रुचिकारक, अग्निसंदी. से उत्तरोत्तर भारी होते हैं। पन, किलास, कोट, गुल्म, अर्श, प्रमेह, शाकों में वरावरत्व । कृमिरोग, कफ, बात, हिचकी, पानस, श्वास वराशाकेषुजीवंतीसर्षपास्त्ववर-परम्॥११॥ खांसी, इन सब रोगों को दूरकरता है तथा अर्थ-सब शाकों में जयंती अर्थात् जेंरक्तपित्त को उत्पन्न करता है । अन्य प्रन्थ ती का शाक सर्वोत्तम और सरसों का शाक में लिखाहै कि यह टूटी हड्डीको जोड देताहै) अत्यन्त बुरा होता है।
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(६४)
अष्टांगहृदये ।
अ०६
-
फलवर्ग - द्राक्षा।
अर्थ- केला, खिजूर, पनस, नारियल, द्राक्षाफलोत्तमावृष्याचक्षुण्यासृष्टमूत्रविट्। फालसा, आम्रात, ( अंबाडा ), तालफल, स्वादुपाकरसास्निग्धासकषायाहिमागुरुः ।
खंभारी, खिरनी, महुआफल, बडाबेर, छोटा निहंस्यनिलपितास्नातक्तास्यत्वमदात्ययान् । तृष्णाकासश्रमश्वासस्वरभेदक्षतक्षयान् ११६
बेर, अंकोल, काकोडुम्बर, बादाम, पिस्ता, . अर्थ.. सब फलोंमें दाख उत्तम होताहै, अखरोट, दंडफिल, निकोचक, चिरोंजी, ये यह बीर्यजनक, नेत्रपक्षमें हितकारी. मलमू- सब कल वृंहणकर्ता, भारी और शीतल है | प्रनिः साकारक, पाक रसमें मधुर, स्निग्ध, दाह, क्षत, औरं क्षयको दूर करतेहैं । रक्तकुछ कसीली, शीतवीर्य और भारी है ।
| पित्तको दूर करतेहैं । पाक और रसमें मधुर यह वात, रक्तपित्त, मुखका कडवापन, मदा
होतेहैं, स्निग्ध और विष्टंभी है तथा कफ त्यय,तृषा, खांसी थकावट, श्वास, स्वरभेद,
और वीर्यको बढानेवाले हैं। क्षतरोग, और क्षयी, इन रोगोंको दूर करने तालफलादिके गुण । वालीहै ।
फलन्तु पित्तलं तालं सरं काश्मर्यजं हिमम् ॥
शकृन्मूत्रीवंबधघ्नंकेश्यमेध्यंरसायनम् ११२ . अनारके गुण । वातामादयुष्णवीर्यतुकफपित्तकरंसरम् । उद्रिक्तपित्ताञ्जयतित्रीन्दोषान्स्वादुदाडिमम् परंवातहरंस्निग्धमनुष्णंतुप्रियालजम् ॥१२३॥ पित्ताविरोधि नात्युण्णमुण्णं वातकफापहम्। प्रियालमजामधुरोवृष्यः पित्तानिलापहः । सर्व हृद्यं लघुस्निग्धं ग्राहि रोचनदीपनम् ॥ | कोलमजागुणैस्तद्वतृडछर्दिकासजिच्चसः ___ अर्थ- मीठा अनार पित्तकी अधिकता अर्थ- तालफल पित्तकर्ताहै । खंभारी याले तीनों दोषोंको जीतताहै। खटटा फल मलनिःसारक, शीतवीर्य और मलमत्र अनार न तो पित्तको शमन करताहै न पैदा की विवन्धता को दूर करताहै । केशवर्द्धक, करताहै, अत्यन्त उष्ण नहींहै, वात और वुद्धिवर्द्धक और रसायनहै । वादाम आदि कफको दूर करताहै | सब प्रकारके अनार । फल उष्णवीर्य, कफपित्तकारक, मलनिःसाहृदयको हितकारी, हलके, स्निग्ध, ग्राही, रक,अत्यन्त वायुनाशक और स्निग्धहै । पि. रुचिकर्ता और अग्निसंदीपन होतेहैं । याल फलकी मिंगी मधुर, वीर्यजनक, तथा . मोचफलादि ।
पित्त और वातनाशकहै । बेरकी गिरी पिमोचखरिपनसनालिकेरपरूपकम् ॥ यालकी गिरीके तुल्य गुणकारीह तथा तृषा, आम्राततालकाश्मर्यराजादनमधूकजम् ॥११८ वमन और खांसी को दूर करती है । सौवीरबदरांकोलफल्गुश्लेष्मांतकोद्भवम् ॥
बेलगिरीके गुण । वातामाभीषुकाक्षोडमुकूलकनिकोचकम् ॥ उरुमागं प्रियालश्च बृंहणं गुरु शीतलम् ॥
"पक्कंसुदुर्जरविल्वंदोषलंपूतिमारुतम् ।
दीपनंकफवातघ्नं बालंग्रा युभयहितत् ।१२५। दाहक्षतक्षयहरं रक्तपित्तप्रसाइनम् ॥११९॥ स्वादुपाकरसं स्निग्धं विटम्भिकफशुभकृत अर्थ- पकीहुई बेलगिरी दुष्याच्य होती है
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अ. ६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
दोषकारक और दुर्गन्धित वायुको उत्पन्न शम्या और पीलू करतीहै कच्ची बेलगिरी अग्निसंदीपन, और शम्यागुरूष्णंकेशघ्नंरक्षपीलुतुपित्तलम् १२९ कफवातनाशकहै । तथा कच्ची पक्की दोनों कफवातहरं भेदि प्लीहाशःकृमिगुल्मनुत् । तरहकी मलसंग्राहक होती है।
सतिक्तं स्वादु यत्पीलु नात्युष्णं तत्रिदोषजित्
। अर्थ- सेंगरी भारी, उष्ण, केशों को कैथके गुण ।
अहित और रूक्ष होतीहै । पीलू पित्तकारक कपित्थमामंकंठघ्नदोषलंदोषघातितु । पक्कंहिध्मावमथुजित्सर्वग्राहिविषापहम् १२६ कफवातनाशक, भेदी, प्लीहा, अर्श, कृमि
अर्थ- कच्चा कैथ कंठ अर्थात् स्वरको और गुल्मरोग को दूर करताहै । पका पीलू बिगाड़ताहै, पका हुआ कैथ त्रिदोष को दर कुछ तीखा और मीठा होताहै । यह बहुत करताहै, हिचकी और वमनको रोकताहै,
गर्म नहीं होताहै और त्रिदोष को कम करने दोनों प्रकारके कैथ संग्राही और बिपनाशक
वालाहै । होतेहैं।
बिजौरे के गुण । जामनके गुण । | "त्वक्तिक्तकटुका स्निग्धा मातुलुंगस्यवातजित् जांबवंगुरुविष्टंभिशीतलंभृशवातलम् ।
! बृंहणं मधुरं मांसं वातपित्तहरं गुरु ॥१३॥ संग्राहिमूत्रशकृतोरकंव्यंकफपित्तनुत्॥१२७॥ लघु
का लघु तत्केसर कासश्वासहिमामदात्यवान् ।
| आस्यशोधानिलश्लेष्मविबंधच्छर्घरोचकान्। अर्थ- जामन भारी, विष्टभी, शीतल,
| गुल्मोदराशःशूलानि मंदाग्नित्वं चनाशयेत् । अतिशय वातकारक, मलमूत्रकी संग्राही,
| अर्थ- बिजौरेका छिलका तिक्त, कटु, स्वरको बिगाडनेवाली और कफपित्तनाशक
स्निग्ध और वायुनाशक होताहै । विजौरेका होती है।
गूदा वृंहण, मधुर, वातपित्तनाशक और भारी आमके गुण ।
होसाहै । बिजौरे की केसर हलकी, खांसी, पातपित्तास्रकृद्वालबद्धास्थिकफपित्तकृत् ।। गुर्षानंवातजित्पक्कंस्वादम्लंकफशुऋत् १२८
श्वास, हिचकी, मदात्यय, मुखशोष, वात,कफ, .. अर्थ- कच्चा आम वायु और रक्तपित्त । विबंध, वमन, अरुचि, गुल्मरोग, उदररोग, कारकहै । जिसमें गुल्ली पडगई हो ऐसा अशरोग, शूल और मंदाग्निको दूर करतीहै । आम कफपित्तकारक होताहै । पका आम भिलावे के गुण । भारी वातनाशक, मधुर, अम्ल, कफ तथा भल्लातकस्य त्वङ्मांसं बृंहणं स्वादु शीतलम् । वीर्यका बढानेवालाहै ।
तदस्थ्यग्निसमं मेध्यं कफवातहरं परम् । वृक्षाम्लके गुण ।
अर्थ-- भिलावेकी छाल और गूदा वृंहवृक्षाम्लंग्याहिरूक्षोष्णवातश्लेप्महरंलघु। ण, मिष्ट और शीतल होतेहैं। उसकी गु. अथ- वृक्षाम्ल संग्राही, रूक्ष, उष्ण, ठली अग्निके समान तीक्ष्णहै, मेधाको चढावातकफनाशक और हलका होताहै। नेवाला, और अत्यन्त कफवातनाशकहै ।
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अष्टांगहृदये।
म. ६
पालेवतादि।
बट और क्लांति को दूर करते हैं, । हलके स्वादुम्लं शीतमुष्णं च द्विधा पालेवतं गुरु । और कफवातमें पथ्य होते हैं । रुच्यमत्यग्निशमनं रुच्यं मधुरमारुकम् ॥ पक्वमाशु जरां याति नात्युष्णं गुरु दोषलम्। लकुचको अवरत्व ।
.. अथे-पालवत या रेवतक दोप्रकार का फलानामवरं तत्र लकुचं सर्वदोषकृत ।१३९ होता है, एक खट्टा, दूसरा मांठा, मीठा पा- अर्थ-संपूर्ण फलोम लकुच अप्रधानहे, रेवत शीतवीर्य और खट्टा उष्णवीर्य होता है। क्योंकि यह तीनों दोषों को करताहै । दोनों प्रकार के गुरुपाकी, रुचिबर्द्धक, और त्यागने के योग्य शाकफलादि तीक्ष्णादि नाशक है । आरुक वा आड रुआ वा आदर हिमानिलोष्णदुर्वातव्याललालादिदूषितम् ।
जंतुजुष्ट जले मग्नमभूमिजमनार्तवम् ।१४०॥ चियर्द्धक और मधुर होता है, पकाहुआ
अन्यधान्ययुतं हीनवीर्य जीर्णतयाऽपि च । आरुक शीघ्र पचजाता है, यह बहुत गर्म धान्यं त्यजेत्तथा शाकं रूक्षसिद्धमकोमलम् । नहीं है, तथा भारी और दोषकारक हैं। असंजातरसं तद्वच्छुष्कं चान्यत्र मूलकात् । दाख और फालसे ।
प्रायेण फलमप्येवं तथामं बिल्ववर्जितम् ॥ द्राक्षापरूषकं चामम्लं पित्तकफप्रदम ।
___ अर्थ-जो धान्य हिम, वायु, आतप, गुरूष्णवीर्य वातघ्नं सरं च करमर्दकम् १३६ | विषैली हवा, सर्पकी लारसे दूषित, कीडों - अर्थ-हरे. दाख फालसा और करोंदा का खायाहुआ जलमें ड्रवाहुआ, अप्रशस्त खट्टे, कफपित्तोत्पादक, भारी, उष्णवीर्य, वा ! पृथ्वी में उपजा हुआ, कुस्तुमें उत्पन्न, तनाशक और रेचक होते हैं।
अन्य धान्यों से युक्त, हीनवीर्य, बहुत पुराकोलादि ।
ना होगया है वह काममें नहीं लाना चाहितथाऽम्लं कोलकर्कधूलकुचाम्रातमारकम् । ये इसी तरह से दूषित शाक बा विना तैऐरावतं दंतशठं सतूद मृगलिंडिकम् १३७॥ लादि हाले केवल जलमें पकाये हुए, अनातिपित्तकरं पक्कं शुष्कं च करमदेकम् । कोमल, और जिसमें रस संपूर्ण न हुएहों ऐसे अर्थ-छोटे बडे वेर, लकुच अंबाडा आ
शाक छोड देने चाहिये । परन्तु सूखी मूली रुक, नारंगी, जंभारी, नीबू, सहतूत, मृग
त्याज्य नहीं है । जो फल उक्त प्रकार से लिंडिक दाखके तुल्य, गुणवाले और खट्टे
दूषित होगये हों वा कच्चे हों वे उपयोग होते हैं ! पकाहुआ और सूखा करोंदा अ
में लाने नहीं चाहिये । केवल वेलगिरी कच्ची तिशय पित्तकर्ता नहीं होता।
भी ग्राह्य होती है। इमली आदि । दीपनं भेदनं शुष्कमम्लीकाकोलयोः फलम् ।।
विविध औषधवर्ग-लक्षण । सृष्णाश्रमलमन्छेदि लध्विष्टं कफवातयोः। विष्यदि लवण सर्व सूक्ष्म सृष्टमलं विदुः। ___ अर्थ-ईमली और वेर के सूखेफल अ-पातघ्नं पाकि तीक्ष्णोष्णं रोचनं कफपित्तकृत ग्निसंदीपन और भेदी होते हैं, तृषा, थका- अर्थ--सब प्रकार के नमक फफादि को
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
निकालते हैं । सूक्ष्म सोतों में प्रविष्ट होना- अर्थ-उद्भिद नमक ( जो जमीन फोड. तेहैं । मलभेदक, वायुनाशक, अपक्व व्रणों कर निकलता है उसे उद्भिदनमक कहते हैको पकानेवाले, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, रुचिकर खार वाले स्थान पर जो छोटी २ तह जमतथा कफपित्तको बढाने वाले हैं । जातो है वही यह नमक है)। कुछ कडवा सेंधानमक ।
तीखा और खारा होता है यह तीक्ष्ण है और सैंधवं तत्र सस्वादुःवृष्यं हृधं त्रिदोषनुत् ।।
प्रकुपित दोष को शीघ्र स्थान च्युत करदेताहै। लम्वनुष्णं दृशः पथ्यमविदाह्याग्निदपिनम् ॥ ____अर्थ- सेंधानमक कुछं मधुर, वीर्यजनक
कालानमक।
कृष्णे सौवर्चलगुणा लवणे गधवर्जिताः। हृदयको हितकारी, त्रिदोषनाशक, हलका,
___अर्थ-काला नमक संचलनमक के तुल्य कुछ गरम, दृष्टिको हितकारी, विदाही और
गुणकारी होताहै, किन्तु सुगन्धित नहीं होता अग्निसंदीपन है ।
काचनमक । संचल नमक ।
रोमकं लघु पांसूत्थं सक्षारं श्लेष्मलं गुरु ॥ लघु सौवर्चलं हधं सुगंध्युद्गारशोधनम् ।। कटुपाकं विवंधनं दीपनीयं रुचिप्रदम् १४५
अर्थ--काचका नमक हलका होता है । __ अर्थ-संचल नमक, हलका, हदय को शोरा ईषत् क्षारयुक्त कफवर्द्धक और भारी हितकारी, सुन्दर सुगन्धियुक्त, डकारको शु.
होता है। द्ध करनेवाला, कटुपाकी बिबंधनाशक, अ
लबण का प्रयोग।
लवणानां प्रयोगे तु सैंधवादीन प्रयोजयेत् । ग्निसंदीपन, और रुचिवर्द्धक है।
___ अर्थ--जहां नमक के प्रयोग का वर्णन बिडनमक ।
किया गया हो वहां प्रथम संधेनमक का ऊर्ध्वाधः कफवातानुलोमनं दीपनं बिडम् । विधानाहविष्टंभशूलगौरवनाशनम् ।१४६॥
ग्रहण करना चाहिये । जो दो नमक का ___ अर्थ-बिडनगक ऊपर और नीचे को
कथन हो तो सेंधा और संचल ग्रहण करै जानेवाले कफ और वात को स्वमार्गानुगामी
तीन नमक का कथन हो तो सेंधा, संघल कर देता है । अग्निसंदीपन, बिबंध, आ
और बिडनमक का ग्रहण करै । इसी तरह नाह, विष्टंभ शूल और भारापन को दूर
और भी। कर देता है ।
___जवाखार के गुण । सामुद्र नमक ।
गुल्महृद्ग्रहणीपांडुप्लीहानाहगलामयान् ॥ विपाके स्वादु सामुद्रं गुरुश्लेष्मविवर्धनम् ।
श्वासार्शःकफकासांश्च शमयेद्यवशूफजः । - अर्थ-सामुद्र नमक स्वादुपाकी, भारी,
___ अर्थ--जवाखार गुल्म, हृद्रोग, ग्रहणी, और कफ बढानेवाला है ।
पांडुरोग, प्लीहा, आनाह, कंठरोग, श्वास, उद्भिद नमक । ववासीर, कफ, खांसी इन रोगों को दूर सतिक्तकटुकक्षारं तीक्ष्णमुत्क्लेदि बौद्भिवम् करता है ।
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( ६८ )
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अष्टांगहृदये ।
सर्जकादिक्षार ।
क्षारः सर्वश्च परमं तीक्ष्णोष्णः कृमिजिल्लघुः । पित्तासृदूषणः पाकी छेद्यहृद्यो विदारणः । अपथ्यः कटुलावण्याच्छुक्रजः केशचक्षुषाम्
अर्थ- सब प्रकार के खार अत्यन्त तीक्ष्ण अत्यन्त गरम, कृमिरोगनाशक, हलके, रक्तपित्त को दूषित करने वाले, पाकी, छेदी हृदय को अईित, ग्रन्थि को तोडने वाले हैं कटु और नमकीन होने से वीर्य, ओज, केश और चक्षुओं को अहित होते हैं ।
हींग के गुण |
हिंगु वातकफानाहशूलघ्नं पित्तकोपनम् । कटुपाकरसं रुच्यं दीपनं पाचनं लघु । १५२ ।
अर्थ- हींग वायु, कफ, आनाह और शूल को नष्ट करती है, पित्त को प्रकुपित करती है, पाक और रस में, कटु है, रुचि वर्द्धक' अग्निसंदपिन, पाचन और लघु है ।
हरड के गुण |
कषाया मधुरा पाके रूक्षा विलवणा लघुः । दीपनी पाचनी मेध्या वयःसंस्थापनी परा । उष्णवीर्या सरायुष्या बुद्धींद्रियबलप्रदा । कुष्ठवैवर्ण्यवैस्वर्यपुराण विषमज्वरान् ॥ १५४ ॥ शिरोऽक्षिषां हृद्रोग कामलाग्रहणीगदान् । सशोषशोफातीसारमेद मोहवमिक्रिमीन् १५५ श्वासकासप्रसेकार्शः प्लीहानाहगरोदरम् । विबंधं स्रोतसां गुल्ममूरुस्तभमरोचकम् १५६ हरीतकी जयेद्वास्तांस्ताश्च कफवातजान्
अर्थ- हरड़ कसीली होती है, यह पाक में मधुर है रूक्ष है, इस में नमक को छोड कर शेष पांचों रस मौजूद है, यह हलकी, अग्निसंदीपनी, पाचनकर्ता, वुद्धिको बढाने बाली, अवस्था को अत्यन्त दृढ करनेवाली
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अ० ६
उष्णवीर्य, विरेचन करनेवाली, आयुकाहित करनेवाली, बुद्धि और इन्द्रियों में बल पहुंचाने वाली है । कुष्टरोग, मुखकी विवर्णता, स्वर का बिगडना, जीर्णज्वर, विषमज्वर, शिरोरोग, नेत्ररोग, पांडुरोग, हृद्रोग, कामला, ग्रहणीरोग, मुखशोष, सूजन, अतीसार, उदररोग, मोह, वमन, कृमिरोग, श्वास, आनाह, विषखांसी, प्रसंक, अर्श, प्लीहा, रोग, सांतों का अवरोध, गुल्म ऊरुस्तंभ, अरुचि तथा कफ और वात से उत्पन्न होने वाली अन्य व्याधियों को दूर् करदेती है । आपले के गुण । तद्वदामलकं शीतमलं पित्तकफापहम् ।
अर्थ - जो जो गुण हरड में कहे गये है बेही आंवले में भी है, केवल अन्तर इतना है कि हरड उष्णहै, यह ठंडा है तथा इस कारस खट्टा तथा पित्त और कफ का नाश करने वाला है ।
बहेड़े के गुण |
कटु पाके हिमं श्यमक्षमीषश्च तद्गुणम् । अर्थ- बहेड़ा पाक में कटु, शीतवीर्य, और केशों की हितकारी है तथा हरड और आंवले से गुणोंमें कुछ न्यून है । त्रिफला के गुण |
इयं रसायनवरा त्रिफलाऽक्ष्यामहा पहा १५ रोपणी career मेदो महकफास्रजित् ।
अर्थ- हरड़, बहेडा और आंवला इन तीनों को मिलाकर त्रिफला नामहै, यह उत्तम रसायन है, नेत्ररोगोंको हितकारी है व्रणको रोपण करती है, कुष्ठादिक त्वचा के रोग, व्रणका झरना, मेदरोग, प्रमेह, कफ, और रक्त रोगोंको दूर करती है ।
।
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अ०६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६९)
-
चातुर्जात और त्रिजात । रुच्यलघुस्वादुपाकंस्निग्धोष्णं कफवातजित् सकेसरं चतुर्जातं त्वक्षत्रैलं भिजातकम् ५ अर्थ-सोंठ अग्निसंदीपन, वृष्य, ग्राही, दीपनं पाचनं रुच्य वातपित्तककापहम् । हृदयको हितकारी और विबंधको दूर करती
अर्थ- दालचीनी, तेजपात, और इला- ! है । रुचिकर्ता, हलकी, मधुरपाकी, स्निग्ध, वीडन तीनोंको त्रिजातक कहते हैं । इन उष्ण और फकवात को दूर करनवाली है। तीनों में केसर मिलादी जाय तो चातुजोत
अदरख के गुण । होजाताहै, ये दोनों अग्निसंदीपन, पाचन
तद्वदाईकमेतञ्च अयं त्रिकटुकंजयेत् ॥१६२॥ रुचिकर्ता और वात, पित्त, कफ इन तीनों स्थौल्याग्निसदन श्वासकासश्लीपदपीनसान् । को नाश करनवाली है।
__ अर्थ-अदरख के गुण सोंठ के समान मिरचके गुण ।
ही होते हैं । सोंठ, मिरच और पीपल इन पित्तप्रकोपि तीक्ष्णोष्णं रूक्षं दीपनरोचनम् । तीनोंका नाम त्रिकुटाहै यह मोटापन, अग्निरसे पाके च कटुकं कफघ्नं मरिचं लघु ॥ मांद्य, श्वास, खांसी, श्लीपद और पीनसको
अर्थ- मिरच पित्तको प्रकुपित करतीहै। दर करती है । तीक्ष्ण, उष्ण, रूक्ष, दीपन और रोचकहै,
चव्य. पीपलामूल | रस और पाकमें कटुहै, कफनाशक और
चविका पिप्पलीमूलं मरिचाल्पान्तरं गुणैः । हलकी होतीहै ।
__ अर्थ-चव्य और पीपलामूल इन दोनों पीपलके गुण ।
के गुणोंमें मिरचके गुणों से थोडा ही अंश्लेष्मलास्वादुशीता गु/स्निग्धाचपिप्पली साशुष्का विपरतिातः स्निग्धावृप्यारसेकटा तर है, अर्थत् यह भी कटुरस,, कटुपास्वादुपाकाऽनिलश्लेष्मश्वासकासापहासरा की कफन्न, लघु और उष्णवीर्य है। म तामत्युपयुजीत रसायनविधि विना।
चीते के गण । ___अर्थ- हरी पीपल कफकारी, मधुररस- चित्रकोऽग्निसमः पाके शोफार्शः कृमिकुष्ठहा युक्त, शीतवीर्य, भारी और स्निग्ध होतीहै, अर्थ-चीता पाकावस्था में अग्नि के सूखी पीपल ऊपर कहे हुए गुणोंसे विपरीत समान गरम है वह सूजन, अर्श, क्रमिरोग होतीहै, यह स्निग्ध, वृष्य, और रसमें कटु और कुष्ठ को दूर करता है । होतीहै । यह पाकमें मधुरहै । वात, कफ,
पंचकोल। श्वास, खांसी को दूर करती है तथा रेचकहै। पञ्चकोलकमेतञ्चमरिचेन विना स्मृतम्१६४ इतने गुण युक्त होनेपर भी रासायनिक विधि गुल्मप्लीहोदरानाहशूलघ्नं दीपनं परम् ॥ के बिना पीपल अधिक परिमाण से संवन अर्थ-त्रिकुटा, चव्य, पीपलामूल और करना उचित नहींहै ।
| चित्रा इनमें से मिरच को छोडकर वाकी सोंठ के गुण ।
पांचको पंचकोल कहते हैं, यह पंचकोल नागर पिनं प्यं प्राहि यं विबन्धनुस् १६१ / गुल्म, प्लीहा, उदररोग, अफरा और शूल
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(७०)
अष्टांगहृदये।
अ०६
को दूर करताहै, तथा जठराग्नि को अत्यन्त तृण पंचमूल। प्रदीप्त करते हैं।
तृणाख्यं पित्तजिद्दर्भकासेक्षुशरशालिभिः । ___ महापंचपल। विल्बकाश्मर्यतारीपाटलाटुण्टुकर्महत् ॥
अर्थ-कुश, काश, इक्षु, शर और शाली अयेत् काषायतिक्तोष्णं पञ्चमूलं कफानिलौ।
धान्य इनकी जड़को तृण पंचमूल कहते हैं
यह पित्तनाशक होता है । अर्थ--बेल, खंभारी, अरनी, पाटला
अध्यायका उपसंहार ॥ और श्यौनक इन पांचों के मूल को महा
शूकशिंबीजपक्कान्नमांसशाकफलौषधैः।१७१ । या बृहत्पचमूल कहते हैं । यह कषाय, तिक्त
वर्गितैरनलेशोऽयमुक्तो नित्योपयोगिकः ।, और उष्ण है तथा कफ और वात को दूर
__ अर्थ--नित्य व्यवहार में आने वाले शूक करताहै । लघुपंचमूल ।
धान्यवर्ग, शिंबी धान्यवर्ग, पक्वान्नबर्ग, मांस हस्वं वृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैःस्मृतम् १६६ वर्ग, शाकवर्ग, फलबर्ग और औषधवर्ग इन स्वादुपाकरसं नातिशीतोष्णं सर्वदोष जित् ।
सबका संक्षेप रीति से इस अध्याय में वर्णन ___ अर्थ--दोनों कटेरी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी
किया गया है । नित्य काम में न आनेवाले और गोखरू इनको लघुपंचमूल कहते हैं
बहुत से द्रव्य रहगये हैं. । पर यहां ग्रंथकर्ता यह पाक और रसमें मिष्ट है न बहुत ठंडा है न बहुत गरम है तथा सव दोषों को दूर
ने सामान्य उपयोग पर लक्ष्य रखकर ही
लिखा है । क्योंकि मात्रा, योग, क्रिया, देश, करने बाला है। मध्यमपंचमूल ।
काल इत्यादि कारणों को लेकर कितनीही पलापुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन तु ॥१६७॥ जगह द्रव्यों में उक्त गुणों से विपरीतता हो मध्यमं कफवातघ्नं नातिपित्तकरं सरम् ॥
जाती हैं । जैसे मात्राः-तिल की मात्रा के __ अर्थ - खरैटी, सांठी, अरंड, मुद्गपर्णी
तुल्य विष खाना भी अमृत के समान गुणऔर माषपर्णी इन पांचों की जड को मध्यम पंचमूल कहतेहैं। यहकफवातनाशकहै अतिशय
कारी होजाता है । योग:-भिलावा कोढ पित्तकारक नहीं है, दस्तावर है ।
उत्पन्न करताहै पर तिल के साथ खायाजाय जीवनपंचमूल ।
| तो कोढ जाता रहता है । क्रिया-सत्त हलका अभीरुवीराजीवन्तीजीवकर्षभकैः स्मृतम् ॥ होता है पर उसके लड्डू बनाकर खाने से जीवनाख्यं च चक्षुष्यं वृष्यं पित्तानिलापहम् भारी होजाता है । इत्यादि इत्यादि
अर्थ-सिताबर, क्षीरकाकोली, जीवनी, जीवक और ऋषभक इन पांचोंकी जडको ।
इतिश्री अष्टाङ्गहृदये भाषाजीवन पंचभूल कहते हैं, यह नेत्रपक्ष में हि
टीकायां षष्ठोऽध्यायः ॥ तकर, वृष्य और वातपिनाशकत्तहैं।
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अ.
७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७१)
सप्तमोऽध्यायः। चिकना होजाता है, इसमें से मांद नहीं निअथातोऽनरक्षाध्याय व्याख्यास्यामः। कल सकता है। रांधने में बहुत देर लगती
अर्थ-शरीर धारण के लिये अन्नपान की है और रंध चुकने पर रात के रक्खे हुए आवश्यक्ता है, उसके स्वरूप का वर्णन छटे वासी के समान प्रतीत होता है । विषदूषि. अध्याय में कर चुकेहैं परन्तु अन्न विषोपहत | त भात से मोर के कंठ के समान अनेक होने से अनेक प्रकार के रोग बा मृत्यु का प्रकार की भाफ उठती है और खानेवाले को कारण होजाता है इस लिये इस अन्नरक्षा- मोह मूर्छा, और लालास्राव होता है । विष ध्याय में अन्नकी रक्षा के उपायों का वर्णन | दृषित भात का रंग गंध, रस, स्पर्श सब किया जायगा ।
। हीन मालूम होते हैं, यह क्लिन्न होता है वैद्य का स्थान । | और इस में मोर पंख की चन्द्रिका के समा" राजाराजगृहासन्ने प्राणाचार्य निवेशयेत्। न अनेक रंग के छींटे २ छींटे से दिखाई सर्वदा स भवत्येवं सर्वत्र प्रतिजागृविः ।। अर्थराजा को उचित है कि वैद्यको राज
देते हैं । महल के पास ही बसावै, ऐसा करनेसे वैद्य
विषदूषित शाक। हर समय खाने पीने सोने बैठनेकी वस्तुओं
| व्यंजनान्याशुशुप्यति ध्यामक्वाथाति तत्र च।
हीनातिरिक्ता विकृता छाया दृश्येत नैववा।। पर ध्यान रखसकेगा।
फेनोलराजीसीमंततंतुबुद्बुदसंभवः।। बिष से अन्न पानकी रक्षा। पिच्छिन्नविरसारागाःखांडव-शाकमामिषम् अन्नपान विषाद्रक्षेद्विशेषेण महीपतेः। अर्थ-विषषित व्यंजन शीघ्रही सूख जायोगक्षेमौ तदायत्तौ धर्माद्या यन्निबंधनाः ।।
ता है और इसके उवाले हुए पानी का रंग अर्थ-राना के खाने पीने के पदाथों को
मैला होता है । इस काथ में छोटी, बड़ी, विशेष रूपसे विषसेरक्षा करनी चाहिये क्योंकि
विकृत आकार की छायां दिखाई देता है मनुष्य का योग ( अलब्ध धनादिकी प्राप्ति)
| और कभी दिखाई नहीं देती । व्यंजनादि में और क्षेम (कुशलता ) का आधार राजा
फेन, खीरेखा, फटी फटी रेखा, तंतु,आदि है। और अर्थ धर्म काम मोक्ष चतुवर्ग का
| दिखाई देते हैं । कहीं कहीं राग, खांडव, अधार योग क्षेम है।
शाक और मांसादि लाल रंग के और वेस्वाविषदूषित भात के लक्षण ।
द होजाते हैं । मोदनो विषवान् सांद्रोयात्यविसाव्यतामिब। चिरेण पच्यते पक्को भवेत्पर्युषितोपमः ॥३॥ विषदूषित अन्य पदाथा का मयूरकंठतुल्योष्मा मोहमू प्रसेककृत् ।
परीक्षा । हीयते वर्णगंधाद्यैः क्लिद्यते चंद्रकांचितः।४। नीला राजी रसे ताम्रा क्षीरे दधनि दृश्यते।
अर्थ-विषदूषित भात. रावडी की तरह श्यावापीताऽसितां तक्रे घृते पानीयसन्निभा
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(७२) - अष्टांगहृदये ।
अ० ७ काली मद्याम्भसोः क्षौद्रे हरित्तैलेऽरुणोपमा ओर भौचक्का होकर देखता है, किये हुए पाकः फलानामामानां पकानां परिकोथनम् ।
पाप के कारण उस के पसीने आजाते हैं, द्रव्याणामाईशुष्कागांस्याताम्लानिविवर्णते। मृतूनां कठिनानां च भवेत् स्पर्शविपर्ययः ॥ शरीर कांपने लगता है, भय भीत और डरा माल्यस्य स्फुटिताग्रत्वंम्लानिर्गन्धान्तरोद्भवः सा दिखाई देता है, चलने में ठोकर खाताहै ध्याममण्डलता वस्त्रे शदनं तन्तुपक्ष्मणाम् ॥ | और जंभाई लेता है । ( बे प्रसंग हंसना धातुमौक्तिककाष्ठाश्मरत्नादिषु मलाक्तता ॥
| असंबंधित उत्तर देना कहने की इच्छा होने स्नेहस्पर्शप्रभाहानिःसप्रभत्वं तुमृन्मये ११॥ .. अर्थ-विषदूषित मांसरसमें नीली रेखा
पर भी चुप होजाना, उंगलियों का चटकाना, दिखाई देती है इसी तरह विषदूषित दूध में
सिर खुजाना, ओष्ठ चाटना, पृथ्वी कुरेदना तांवे के रंगकी, दहीमें काले रंगकी, तक्रमें
आदि भी लक्षण हैं )। पीली काली, घृत में पानी सी, मद्य और
विष दूषित अन्नकी अग्निमें परीक्षा । पानी में काली, शहद में हरी, तेल में लाल
प्राप्यान्नं सविषं त्वग्निरेकावर्तः स्फुटत्यति । रेखा दिखाई पड़ती हैं। विषके संयोग से
शिस्निकंठाभधूमार्चिरनर्चि:गंधवान् ।१३। कच्चे फल पक जाते हैं और पके हुए सड
___ अर्थ-विषदूषित अन्न अग्नि में डालने जाते हैं । गीले पदार्थ मुरझा जाते हैं और
से अग्नि बुझकर सुलगने लगती है और उस सखे विवर्ण होजाते है कोमल और कड़े
में चटचट शब्द होने लगता है । अग्नि में पदार्थ छूने में कठोर और कोमल मालूम
मोर के कंठ की सी वा इन्दुधनुष की सी पड़ते हैं । फल के अग्रभाग कुंभला जाते हैं
अनेक रंग की लोह उठने लगती है, कभी मलीन होजाते हैं और उन की गंध नष्ट
ज्वाला उठती ही नहीं है, और कभी सड़े होकर दसरी प्रकार की गंध आने लगती है हुए मांस के जलने की सी गंध आने लगती वस्त्रों में काले गोल दाग पड जाते है उनके है । इस के धुंए से प्रसक, रोमहर्षण, सिरतंतु मारे जाते हैं ( धातु लोहा, काठ, पत्थर |
| दर्द, पीनस, नेत्ररोगादि उत्पन्न होजाते है । और रत्न विष के संयोगसे मलीन होजाते हैं। ची तेल में लवणादि खार मिलाकर अग्नि उनकी चिकनाई, छूने में आल्हादकता और
में डालने से भी उक्त बातें हो जाती है इस चमक दमक जाती रहती है। मिट्टी के पात्रों लिये विषकी परीक्षा का अब दूसरा उपाय में विष के संयोग से चमक आजाती है । लिखते हैं। विषदेने वाले के लक्षण ।
पक्षियों द्वारा विष परीक्षा ।
नियंतेमक्षिका प्राश्यकाकाक्षापस्वरोभवेत्। विषदः श्यावशुष्कास्योविलक्षो वीक्षतेदिशः। उत्क्रोशतिच दृष्ट्वैतच्छुकदात्यूहसारिकाः॥ स्वेदवेपथुमांस्त्रस्तो भीतःस्त्रलितिज्भते ॥
हंसःप्रस्खलति ग्लानिर्जीवंजीवस्य जायते । अर्थ-विषदेने वाले का मुख काला पड़ चकोरस्याऽशिवैराग्यंकोंचस्यस्यान्मदोदयः॥ जाता है, तथा सूख जाता है लज्जा से चारों कपोतपरभृक्षचकवाका जहत्यसून् ।
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सूत्रस्थान भाषाकासमेत ।
(७३))
-
-
है।
उद्वेगं याति मार्जारःशकन्मुंवति वानरः।१६। मुख में लगाहुआ बिष । दृष्येन्मयूरस्तदृष्ट्वा मंदतेजो भवद्विषम । लालाजिहवौष्ठयोर्जाड्यमृषाचिमिचिमायनम् इत्यन्नं विषवज्ञात्वा त्यजेदेवं प्रयत्नतः।१७। तहयों रसाशत्वं हनस्तंभश्च वक्रगे। तथा तेन विपद्येरनपि न क्षुद्रजंतवः।
| सेव्यायैस्तत्र गंडूषाः सर्वच विषजिद्धितम्२१ अर्थ-विषदषित अन्न खाकर मक्खियां
अर्थ-जो विष जिह्वा वा मुख के भीतर मर जाती है, कौआ क्षीणस्वर हो जाता है,
लग गया हो तो मुख से लार गिरने लगती तोता मेना जलमुर्ग अन्न को देखते ही
। हैं | जीभ और ओष्ट जड होजाते हैं, मुखमें चीख मारने लगते है । हंस चलने में लड़
दाह और चिमचिमाहट होता है दांत खट्टे खडाता है, जीवंजीव को ग्लानि होती है,
पड़ जातेहैं । जीभ से खट्टे मीठे का स्वाद चकोरं की आंख लाल हो जाती हैं, क्रौच
जाता रहता है । हनुस्तंभ हो जाता है । ऐसे को नशा होता है, कपोत कोयल मुर्ग और
लक्षण उत्पन्न होने पर वेणीमूलादि ऊपर चकवा शीघू मर जाते हैं, बिल्ली को घबडा
कहे हुए द्रव्यों के क्वाथसे कुल्ले करै । तथा हट होती है, बन्दर मलमूत्र त्यागने लगता
अन्य विषनाशक औषधों का सेवन भी हित है, मोर इसे देखकर प्रसन्न होता है और बिष भी मंद होजाता है । इन लक्षणों द्वारा
आमाशयस्थ विष । विषयुक्त अन्न की परीक्षा करके उस का
आमाशयगते स्वेदमूर्छाध्मानमदभ्रमाः। त्याग ऐसी जगह पर करना चाहिये जिससे
रोमहर्षी वमिर्दाहश्चक्षुहृदयरोधनम् ॥२२॥ कोई क्षुद्र जीव भी न मरे ।
बिंदुभिश्वाचयोऽगानां पक्वाशयगते पुनः । विषस्पर्श का फल ।
अनेकवर्ण वमति मूत्रयत्यतिसार्यते ॥२३ ।। स्पृष्टे तुकंइदाहोषाज्वरार्तिस्कोटसुप्तयः।२८ तंद्रा कृशत्वं पांडुत्वमुदरं बलसंक्षयः। मखरीमच्युतिःशोकः सेकाद्या विषनाशनाःतयोवातविरिक्तस्य हरिद्रे कटभी गुडम् ।२४ शस्तास्तत्र प्रलेपाश्च सेव्यचंदनपद्मकैः।१९॥ सिंदुवारितनिष्पाववापिकाशतपर्विकाः। खसोमवल्कतालीसपत्रकुष्ठामृतानतैः। तंडुलीयकमूलानि कुक्कुटांडमवल्गुजम् ।२५ ___ अर्थ-विष का स्पर्श करने से खुजली नावनांजनपानेषु योजयेद्विवशांतये।। सर्वोगदाह, विष लगे हुए अंग में दाह, अर्थ-जो विष आमाशयमें पहुँच गया हो ज्वर, शूल, स्फोट, सुन्न होता है बाल और तो पसीने मूर्छा, पेट पर अफरा, मद, भ्रम, नख गिर पडते है, सूजन होजाती है, इन रेमहर्षणं, वमन, दाह, नेत्ररोध, हृदयरोध, जगहों में सिरस आदि विषनाशक औषधियों तथा छोटी छोटी शरीर पर अनेक प्रकारकी के काथसे सेक आदि करने से विष जाता | बूंद पडजाती है। पेशाव होता है और दस्त रहता है । तथा वेनामूल, रक्तचंदन, पद्माख, भी होजातेहैं । आंखों में तन्द्रा, देहमें कृशपपडियाखार, तालीसपत्र, कूट, गिलोय और ता, शरीर में पीलापन, और उदर रोग पैदा तगर इनका लेप करना उपकारी होता है। होजातेहैं । बल क्षीण होजाता है यहां बिष
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(७४)
अष्टांगहृदये।
अ. ७
मिश्रित अन्नके आमाशयमें जाने पर रोगीको विरुद्ध भोजन ।
यथोपयुक्त वमन और पक्वाशय में जाने पर आनूपमामिषं मापक्षौद्रक्षीरविरूढकैः ॥२९ पोसाकी विरुध्यते सह विसै मूल के न गुडेन वा। यथोपयुक्त विरेचन देव । पीछे विष दोष की व
| विशेषात्पयसामस्या मत्रमेवपि चिलीचिमः शान्ति के लिये दोनों हलदी, कुडाकी छाल,
अर्थ-आन्यजीवा का मांस, उरद, गुड़, संभालू, वरियाली, दूध,चौलाईकी जड़,
शहत, अंकुरित द्रव्य, कमलनाल, मूली और कुक्कुटांड और वावची इनको नस्य अंजन
गुड़ ये सात विरद्ध हैं । दूधके साथ विशेष और पान द्वारा प्रयोग करें ।
| विरुद्ध है तथा चिलीचिम जाति की मछली ताम्रचूर्ण प्रयोग।
तो अत्यन्तही विरुद्ध है ( चिलीचिममछली विषभुक्ताय दद्याच्च शुद्धायो मधस्तथा २६ सूक्ष्मांताम्ररजः काले सक्षौद्रं हृद्विशोधनम्।।
के सब शरीर पर लोहितवर्ण की रेखा होती शुद्ध हृदिततः शाण हेमचूर्णस्य दापयेत् २७ / हैं और प्रायः यह भूमि पर रहती है ) ।
अर्थ-बिषखाने वाले के लिये उस बमन | दूध के विरुद्ध फल | विरेचन द्वारा शुद्ध करके यथोपयुक्त काल में विरुद्धमम्लं पयसा सह सर्व फलं तथा । हृदय की शुद्धि के लिये शहत में मिलाकर । अर्थ-सव प्रकारके खट्टे पदार्थ दूधके वहुत सूक्ष्म तावेका चूर्ण देना चाहिये हृदय | विरुद्ध हैं ( सब से द्रव और अद्रव पदार्थ शुद्ध होने के पीछे तीन माशे सुवर्ण का चूर्ण का ग्रहण है ) इसका यह तात्पर्य है कि पदेखें ( यहां वैद्य लोग तांवे और सौने की तले वा गाढे खट्टे पदार्थ दूध में डालकर भस्म दिया करते हैं)।
अथवा दृध पीनेसे पहिले वा पीछ खानाहेमचूर्ण के गुण ।
उचित नहीं है पक वा अपक फल भी दृधके न सजते हेमपांगे पनपत्रेऽबुवद्विषम् ।
के साथ खाना विरुद्ध है । जायते विपुलं चायुर्गरेऽप्येष विधिः स्मृतः। अर्थ-जैसे कमल के पत्ते पर जल नहीं
दुग्ध विरुद्ध धान्य ।
| तद्वत्कुलत्थवरककंगुवल्लमकुष्टकाः ॥ ३१ ॥ ठहरता है वैसेही सुवर्ण के सेवन करने से
अर्थ--इसी तरह कुलथी, वरक ( एक शरीर में विष भी नहीं रहता है किन्तु उसकी । आयु बढ़ जाती है, बिष दोष के नाश के
प्रकार का चांवल है ) कांगनी,बल्लम और लिये जो विधि कही गई है वही भर अर्थात माट य दूध क विरु
| मोट ये दूध के विरुद्ध है। संयोगादिज बिष में करना उचित है ।
विरुद्धअहार को विषतुल्पता ।। ___ + फल से फलमात्र का प्रहण नहीं हैं विरुद्धमपि चाहारं विद्याद्विषारोपमम् ।। नीचे लिखे हुए फल दृधके साथ विरुद्ध हैं अर्थ-विरुद्ध आहार विषके तुल्य होता
यथा:-आम्राम्रातकलकुचकरमर्दमोचदन्तहै । जैसे विष और गर मृत्युकारक होते हैं। पालेवताक्षौडपनसनालिकेरदाडिमामल
शठबदरकोशाम्रभव्यजांववकपित्थर्तितडीग वैसेविरुद्ध आहार भी प्राणनाशक है। कान्येवप्रकाराणि चान्यानीति ॥
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अ० ७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७५)
दुग्ध विरुद्ध शाक।
पीपलके विरुद्ध पदार्थ । भक्षयित्वा हरितकं मूलकादि पयस्त्यजेत् । मत्स्यनिस्तलनस्नेहसाधिताः पिप्पलीस्त्यजेत्
अथे-हरी मूली खाकर दूध न पीना चा- कांस्ये दशाहमुषितं सर्पिरुष्णं त्वरुष्करे। हिये । घी में छोंककर शाक बनाकर खाने के अर्थ-जिस तेलमें मछली पकाई गई हो पीछे दूध पीना निषेध नहीं है । इसी तरह
उस तेलमें तलीहुई पीपल उपयोगमें लानी लहसन के साथ भी दूधका निषेध है परन्तु
| नहीं चाहिये । कांसीके पात्रमें दस दिनतक औषध में निषेध नहीं है क्योंकि अग्नि आदि । रक्खा हुआ काम में न लौव । भिलावे के के संस्कारसे दध का द्रव्यान्तर होजाता साथ उष्णवीर्य वा उष्णस्पर्श द्रव्य सेवन
नहीं करना चाहिये । __ अन्य विरुद्ध मांसादि ।।
अन्यविरुद्ध द्रव्य । वाराहं श्वाविधा नाद्याला प्रपती ॥ भासो विरुध्यते शूल्यः कंपिल्लस्तकसाधितः। आममांसानि पित्तन माघसूपेन मूलकम् ।।
अर्थ-भासनामक पक्षी का शूलपर भुना अवि कुसुभशाकेन विसः सह विरूढकम् ३३ हुआ मांस अर्थात् कवाव विरुद्धहै, तक्र में माषसूपगुडक्षीरख्याज्या कुचं फलम् । पकाया हुआ कंपिल विरुद्धहै । संग्रह में फलं कदल्यास्तक्रेण दन्ना तालफलेन वा ३४ ,
विशेष लिखाहै कि सौबीर नामक संधानके कणोषणाभ्यां मधुना काकमाचीं गुडेन वा। सिद्धां वा मत्स्यपचने पचने नागरस्य वा ॥ साथ तिलका कल्क, दूध के साथ लवण, सिद्धामन्यत्र वा पात्रे कामात्तानुषितानिशाम् नवनीतके साथ शाक, नये के साथ पुराना
अर्थ- सहके मांसके साथ शूकर का द्रव्य, अपक्क द्रव्य के साथ एक द्रव्य, अग्नि मांस, दहीके साथ पृषत हरिण और मुर्गे से तापकर शीत्रही स्नान करना आदि सब का मांस, पित्त के साथ कच्चा मांस, उडद विरुद्ध है। की दालके साथ मूली, कसूमके शाक के
धके विरुद्ध । संग भेड़का मांस, कमलनालके साथ अंकु-ऐकध्यं पायससुराशराः परिवर्जयेत् ।। रित अन्न, उरदकी दाल, गुड, दूध, दही अर्थ-खीर, सुरा और खिचड़ी एक वा घीके साथ लकुचफल, छाछ, दही वा । साथ नहीं खाना चाहिये । तालफलके साथ केला,मिरच, पीपल, शहत शहतके विरुद्ध । वा गुड़के साथ मकोय, अथवा जिस पात्र मधसर्विसांतलपान यानि द्विशास्त्रिशः ३८॥ में मछली पकाई गई हो उसमें पकाई हुई एकत्र वासमांशानि विरुध्यते परस्परम् । मकोय नहीं खाना चाहिये । अथवा सोंठके ___अर्थ-शहत, घी, च:, तेल और पानी पात्रमें सिद्ध की हुई, वा अन्यपात्र में रांधी ।
इनमेंसे दो दो तीन तीन समान भाग में हुई वा रातकी बासी रक्खी हुई मकोय नहीं मिलाकर सेवन करनेसे विरुद्धहैं । दो दो खानी चाहिये।
| जैसे:- शहत, घी । शहत चर्वी । शहततेल |
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(७६)
अष्टांगहृदये।
अ०७
शहत पानी । घी चर्वी । घो तेल | घी तीतरादिमांस और अरंड । पानी । आदि समान भागमें विरुद्ध हैं। तद्वत्तित्तिरिपत्राढयगोधालावकपिंजलाः ॥ तीन तीन जैसे शहत घी चर्वी । शहत धी
| ऐरंडेनाग्निना सिद्धास्तत्तैलेन विमूर्च्छिताः ।
अर्थ-इसी तरह तीतर, मोर, गोधा, तेल । शहत घी पानी । घी चर्वी तेल ।
लवा, कपिंजल पक्षियों का मांस अरंडकी घी चर्वी पानी आदि समान भागमें मिलाकर
| लकडी में पकाये हुए अरंडी के तेलके साथ सेवन करनेसे विरुद्ध होतेहैं।
सिद्ध करके खाना विरुद्ध है । असमान शहत घी।
हारित और हारिद्र । भिन्नांशेऽपि मध्याज्ये दिव्यवार्यनुपानतः ॥
हारीतमांसं हारिद्रशूलकप्रोतपाचितम्।४३। मधुपुष्करबजिं च मधुमेरेयशार्करम्।
हारिद्रवन्हिना सद्योब्यापादयति जीवितम्। मंथानुपानः क्षैरेयो हारिद्रः कटुतैलबान् ४०
भस्मपांशुपारध्वस्तं तदेव च समाक्षिकम्४४ ___ अर्थ-असमान भाग घी और शहत
अर्थःहरीपल पक्षीका मांस हारिद्रवृक्ष मिलाकर पीनेके पीछे आन्तरीक्ष जल का
| की लकडी सलाई में लगाकर हारिद्र की अनुपान विरद्ध है । शहत और पुष्कर बीज
लकडी की आगपर भून तो तत्काल प्राणनामिले हुए विरुद्ध हैं । द्राक्षामद, खजूर का
शक होता है । अथवा हरियल का मांस आसव और चीनी से बनाया हुआ शहत राख वा धूल ते मलीन होगया है और उस ये तीनों मिले हुए विरुद्ध हैं । द्धपाक खा- में शहत मिलाकर सेवन करै तो वह भी कर मठा पीलेना विरुद्ध है।
विरुद्ध है। सरसों के तेल के साथ हारिद्रशाक विरुद्ध विरुद्धका शमन । होता है।
" यत्किंचिद्दोषमुत्क्लेश्य न हरेत्तत्समासतः। तिलकल्क और पाई। | विरुद्धं शुद्धिरत्रेष्टा शमोवा तद्विरोधिभिः।४। उपोदकातिसाराय तिलकल्केन साधता ।
अर्थ-जो अन्न पान वा औषध वातादि___ अर्थ--तिलके कल्कके साथ रांधा हुआ
के दोषों को अपने स्थान से चलायमान पोई का शाक अतिसार करता है ।
करके बाहर की ओर निकालने के लिये वगुला के विरुद्ध पदार्थ ।
प्रस्तुत करै परन्तु निकाल न सकै, संक्षेपसे वलाका वारुणीयुक्ता कुल्मायुश्च विरुध्यते॥
उन्हीं को विरुद्ध कहते हैं । इन विरुद्ध भृष्टा वाराहावसया सैव सद्यो निहत्यसून् । वस्तुओं के सेवन से हुए रोगोंको बमन वि___ अर्थ-बगुला का मांस वारुणी नामक रेचनादिद्वारा शुद्ध करै । अथवा केवल वमन मद्यके साथ विरुद्ध है । वही मूंग आदि के विरेचनादिद्वारा आरोग्यता प्राप्त नहो सकै साथ पकायाहुआ भी विरुद्ध है । शकर की तो उसके विपरीत गुणवाले द्रव्योंका प्रयोग चर्वी के साथ पका या हुआ बगले का मांस करके उक्लिष्ट वातादिक दोप वा उनसे तत्काल प्राणनाशक है ।
उत्पन्न हुए विकारों का शमन करै ।
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अ. ७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७७)
विरुद्ध सेवन के योग्य शरीर । परिणाम में अहित ही करते है गुण नहीं द्रव्यस्तैरेववा पूर्व शरीरस्याऽभिसंस्कृतिः। करते । यदि इन अहित कामों को चौथाई ___ अर्थ-अथवा विरुद्ध द्रव्य सेवन के पहिले २ छोडने में शरीर को कष्ट प्रतीत होता हो विपरीत गुण वाले द्रव्यों का सेवन करके तो पोडशांस कर करके छोडे । शरीर को विरुद्ध आहार सेवन के योग्यबना जो अपथ्य सेवन का अभ्यास होगया है लेवै । ऐसा करने से विरुद्ध अन्नादि के जैसे अपथ्य सेवनके त्यागने की विधि कही सेवन करने से भी रोग उत्पन्न नहीं हो सकते है उसी तरह धीरे धीरे एक एक दो दो हैं. जैसे पित्त कफ नाशक शहत और हरड तीन तनि दिनका अंतर देकर पथ्य सेवन आदि का जो पहिले ही अच्छी रीति से सेवन | का अभ्यास करै । यदि अभ्यस्त कुपथ्य का कर रक्खा हो तो उसके शरीर में पितकक परित्याग और अनभ्यस्त पथ्य का सेवन एक कारी द्रव्यों का सेवन कुछ भी अनिष्ट नहीं। साथ किया जायगा तो अनेक प्रकार के कर सकता है।
विकार उत्पन्न होजायगे इस लिये इसकी विरुद्ध भोजन के योग्य । सुगम विधि यह है कि प्रथम अभ्यस्त व्यायामस्निग्धप्तिाग्निवयःस्थवलशालिनाम्॥ कुपथ्य का एक चतुर्थाश त्यागदे और अनविरोध्यपिनपीडायै सात्म्यमल्पंच भोजनम्। भ्यस्त पथ्यका एक चतुर्थाश सेवन करे इस ___ अर्थ-व्यायाम ( कसरत ) करने वाले तरह एक दो दिन करता रहे फिर यह साको, स्निग्ध देह वाले को, दीप्ताग्निवालेको, रम्य होनेपर अभ्यस्त कुपथ्यका आधा भाग बलवान् को, विरुद्ध भोजन पीड़ा नहीं कर | त्याग कर उसके बदले में आधा अनभ्यस्त सकता है अथवा जिसने विरुद्ध भोजन करने पथ्य सेवन कर इसी तरह दो दो तीन तीन का नित्य अभ्यास कर रकवा हो वा जो
वारका अंतर देकर कुपथ्य का सर्वथा त्याग थोड़ा भोजन करता हो उसको विरुद्ध भोजन
करके सुपथ्य सेवन का अभ्यास कर लेना कुछ नहीं कर सकता है।
चाहिये।
सहसा पथ्यापथ्यके त्यागका फल । पथ्यापथ्य की सेवनत्याग विधि ।
| अपथ्यमपि हि त्यक्तं शीलितंपथ्यमेववा।४८॥ पादेनापथ्यमभ्यस्तं पादपादेन वात्यजेत्४७ सात्म्यासात्म्यविकारायजायतेसहसाऽन्यथा। निषेवेत हितं तद्वदेकद्वित्र्यंतरीकृतम्। अर्थ-ऊपर कहे हुए क्रम पर लक्ष्य
अर्थ--अहित अन्न पान अथवा लंघन, । दिये बिना जो सहसा सात्म्य और अपथ्य प्लबन, जागरण वा शयनादि अपथ्य का को त्याग देतेहैं उनके साम्यजनित विकार अभ्यास होगया हो तो चौथाई २ कर के होजाते हैं इसी तरह असात्म्य सुपथ्य का छोडदे क्यों कि इनका फल अच्छा नहीं है। सहसा सेवन करनेसे असात्म्यजनित विकार और यदि ये शरीरोचित हो गये हों तो भी होजातहैं ।
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अष्टांगहृदये
अहिताहार सेवनका परित्याग | अत्यंतसन्निधानानां दोषाणां दूषणात्मनाम् || अहितैर्भूषणं भूयो न विद्वान् कर्तुमर्हति ।
अर्थ- वातादिक दोष एक दूसरे के अत्यन्त निकटवर्ती हैं और इनका स्वभाव ही दूषण रूप है, अतएव विद्वानको उचित नहीं है कि अहित आहार के सेवन से इनको अधिक दूषित करे ।
flag का विधान |
क्रमका फल |
त्सा आदि प्रकरणों में प्रसंगानुसार वर्णन किया जायगा ।
|
यहां केवल निद्रा और ब्रह्मचर्य का वर्णन
क्रमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचिता गुणाः ४९ नाप्नुवंति पुनर्भावमप्रकंप्या भवंति च । अर्थ - पूर्वोक्त क्रमका पालन करने से अपथ्यका त्याग और मध्यका सेवन करने से अपथ्य के अभ्यास से उत्पन्न हुए रोग धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं और फिर होने नहीं पाते इसी तरह पथ्यके अभ्यास से उत्पन्न हुए गुण वृद्धि पाकर स्थिर हो जाते हैं ।
आहारायनाल वस्त्या ५१॥ शरीर धार्यते वित्यमागारमिव धारणेः ।
अर्थ-आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य (स्त्री त्याग ) इन तीनों की युक्तिपूर्वक योजना करने से शरीर बहुत काल तक टिका रहता है अर्थात् बहुत दिन तक जीता रहता है जैसे अच्छे खंभों से घर बहुत दिन तक ठहरा रहता है I
।
आहार योजना |
आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते । ५२॥ अर्थ - आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य इन तीनों में से आहार का वर्णन ऋतुचर्य्याध्याय में कर दिया गया है, तथा ज्यरचिकि
A
किया जाता है |
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अ०
निद्रा की आवश्यकता । विद्वायत्तं सुखं दुःखं पुष्टिः कायै बलाबलम् । वृषता क्लबिता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च ॥
अर्थ- सुख, दुख, पुष्टि, कृशता, बल, और अवल, पुरुषत्व और क्लीबल्य, ज्ञान और अज्ञान ये सब निद्रा के आधीन हैं, इसी तरह जीवन और मरण भी निद्रा ही के आधीन हैं ।
अनियमित निद्राका फल | अफगाच न च निद्रा निषेविता । सुखायुषी पराकुर्यात्कालरात्रिरिवाऽपरा५४
अर्थ - अकाल निद्रा ( निद्रा के उचित काल का परित्याग ), अतिनिद्रा ( योग्यका ल से अधिक सोना ) अल्पनिद्रा ( न सोना वा थोडा सोना ) ये तीनों प्रकारकी निद्रा सुख और आयुका ऐसे नाशकरदेते हैं जैसे कालरात्रि सुख और आयुका नाश करती है ।
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रात्रि जागरणादि । रात्रौ जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा । अरूक्षमनमिष्यंदि त्वासीनप्रचलायित्तम् ५५
अर्थ - रातमें जागना रूक्ष है और दिन में सोना स्निग्ध है । बैठे बैठे झांका खाना वा भघनान रूक्ष है न अभिष्यन्दी है । इस से यह समझ में आता है कि रूक्षता का हेतु रात्रिजागरण वातवर्द्धक है और स्निग्धका हेतु दिनमें सोना कफकारी हैं ।
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अ०७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७९)
दिनमें सौने का परिणाम ।
निद्रा का निषेध । ग्रीष्मे वायवयादानरीक्ष्यराज्यल्पभावतः। बहुमेदःकफाःस्वप्युःस्नेहनित्याश्चनाऽहनि॥ दिवास्वप्नोहितोऽन्यस्मिकफपित्तकरो हिसः विषार्तःकंठरोगीच नैव जातु निशास्वपि । मुक्या तु भाष्ययानाधमद्यस्त्रीभारकर्मभिः अर्थ-मेद और कफ की वृद्धि वाले क्रोधशोकमया लांतानश्वासहिध्मातिसारिणः मनुष्य से तथा जो नित्यप्रति स्निग्ध पदार्थों वृद्धवालावलक्षीणक्षततृशूलपीडितान् । का सेवन करता है उस को प्रीष्म काल में अजीर्णाभिहतोन्मत्तान् दिवास्वप्नोबितानपि । धातुसाम्यंतथाोषांश्लप्माचांऽगानिपुष्यति।
भी दिन में न सोना चाहिये । विषपीडित अर्थ-ग्रीष्म काल में सौना हित है क्यों और कठ रोगी को रात्रि में सोना निषिद्ध है। कि उस काल में बात का संचय होता है, कुसमय निद्रा का परिणाम । आदान काल की रूक्षता होती है और श. अकालशयनान्मोहज्वरस्तमित्यपीनसाः॥६०॥ त्रि बहुत छोटी होती हैं जिससे नींद पूरी
शिरोक्शाफहल्लालस्रोतोरोधाग्निमंदताः। नहीं होने पाती । इस लिये दिनकी
___ अर्थ-कुसमय नींद लेनेसे मोह, ज्वर, ' निद्राकी स्निग्धता से वायुकी शांति, रू- दम शाथलता, पानस, शिराराग, सूजन क्षता का नाश और निद्रा की पूर्ति हो
। हल्लास, मलमूत्रादिके मार्गोका अवरोध जाती है । ग्रीष्म के सिवाय अन्यऋतुओं में ! और अग्निकी मंदता होती है। दिवानिद्रा अहित होती है अर्थात् कफ और अतिनिद्राकी चिकित्सा । र पित्तको उत्पन्न करती है । परंतु जो अ- तत्रोपवासवमनस्वेदनावनमौषधम् ॥६१ ॥ धिक बोला हो, सबारी पर चढा हो, मार्गमें |
| योजयदतिनिद्रायांतीक्ष्णं प्रच्छदनांजनम् ।
नावनलंघन बिता ब्यवायं शोकभीकुधः६२ बहुत चलाहो जिसने मद्यपान किया हो, स्त्री।
एभिरेव च निद्राया नाशाश्लप्मातिसंक्षयात् संगम किया है, जो बोझ ढोने से थक गया
__ अर्थ-कुसमय निद्रासे उत्पन्न हुए रोगोंमें हो. जो क्रोध, शोक और भय से क्लान्त हो उपवास, वमन, स्वेदन ( पसीनलेना ) गया हो, जो श्वास, हिचकी और अतिसार नस्थकर्म का प्रयोग करै । जिसे नींद बहुत से पीडित हो, इसी तरह जो वृद्ध, बालक, आतीहो उसे तीक्ष्णवमन, तीक्ष्ण अंजन, दुर्वल, क्षीण, शस्त्रादि द्वारा क्षत, (जखमी) तीक्ष्णनस्य, उपवास, चिन्ता, स्त्रीसंग, शोक, तथा शूठसे पीडित हो, जिसको अर्जी- भय, और क्रोध, ये हितकारी होते हैं, क्योंकि र्ण हो चोट लगी, हो, जो उन्मत हो, जिस इनसे इलेमा का नाश होने के कारण निद्रा को दिनका सौना अनुकूल हो इन सबको का नाश होजाताहै । क्योंके दिनका सौना हित है, दिन के सौने
निद्रानाशका परिणाम । से इनकी धातु साम्य हो जाती है और कफकी
नितानाशाइंगमदशियरोगौरवभिदाः ॥६३ वृद्विद्वारा शरीर पुष्ट होता है।
जायंग्लानिधभापक्तिरादारोगाश्चवातजाः
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(८०)
अष्टांगहृदये ।
अ०७
अर्थ-निद्रा का नाश होनेसे अंगमर्द । निद्रा के सुखको देनेवाले हैं । तथा जो व्य( अंगड़ाई ), सिरमें भारापन, जंभाई,क्ति ब्रह्मचर्यका अभिलाषी है, जिसका मैथुन जड़ता, ग्लानि, भ्रम, अन्नका न पचना, से चित्त हटगया है और जो संतोष से तृप्त तन्द्रा तथा अन्य वातजनक रोग पैदा हो- है, उसके लिये निदा अपने काल का उलं. जातहैं।
घन नहीं करती है ठीक समय नींद अपने
आप आजाती है। अर्द्धनिद्राका विधान ।
ब्रह्मचर्यका बर्णन । यथाकालमतो निद्रां रात्रौ सेवेत सात्म्यतः॥ ग्राम्यधर्मे त्यजेन्नारीमनुत्तानां रजस्वलाम् । अलात्म्याजागरार्ध प्रातः स्वच्यादभुक्तवान अप्रियामप्रियाचारां दुष्टसंकीर्णमेहनाम् ।
अर्थ-इसलिये निद्राकालके समय का अतिस्थूलकशां सूतां गर्भिणीमन्ययोषितम् ।। उल्लंघन न करना चाहिये । रात्रिमें एक वर्णिनीमन्ययोनि च गुरुदेवनृपालयम् । दो वा तीन पहर तक शरीर की अनुकूलता
चैत्यश्मशानाऽयतनचत्वरांबुचतुष्पथम् ॥
पाण्यनंग दिवसं शिरोहृदयताडनम् । के अनुसार सौना चाहिये । प्रकृतिके विरुद्ध
अत्याशितोऽधृतिःक्षुद्वान्दुःस्थितांगापिपासित जितने समय तक रातमें जागना पडाहो |
| बालो वृद्धोऽन्यवेगातस्त्यजेद्रोगीच मैथुनम्। उससे आधा काल सवेरे के समय बिना
___ अर्थ-ग्राम्यधर्म अर्थात् मैथुनकालमें करकुछ खाये सो लैना चाहिये । जिनको स्वा
वटसे लेटीहुई, रजस्वला, अप्रिया, अप्रियभाविकही थोडी नींद आतीहै उनके लिये चारिणी. दृष्टा, संकीर्ण योनि विशिष्ट, अतिइन बातोंका कुछ बिचार नहीं है ।
स्थूला, अतिकषांगी, सद्यः प्रसूता ( जिस __मंदनिद्रावालों को कर्तव्य । | के हालही में बालक हुआ हो ), गर्भवती, शीलयेन्नं इनिद्रस्तु क्षीरमद्यरसान् दधि । | परस्त्री, ब्रह्मचारिणी, अन्ययोनि ( अजा मअभ्यंगोद्वर्तनस्नानमूर्ध्वकर्णाक्षितर्पणम्। हिष्यादि ) इनको त्यागदे । गुरुका घर, देव कांताबाहुलताश्लेषोनिवृतिः कृतकृस्यता ॥ मनोनुकूला विषयाः काम निद्रासुखप्रदाः।
मंदिर, राजाका स्थान, चैत्य, श्मशान, दुष्टों ब्रह्मचर्यरतेोम्यलुखानिस्पृहचेतसः ॥६७ ॥ के विग्रहका स्थान, चत्वर, जलाशय और निद्रा संतोषतृप्तस्य स्वं कालं नातिवर्तते । चौगये इन सब स्थानों में स्त्री संगम न करै
अर्थ-अल्पनिद्रावालों के लिये दूध,मद्य, इसीतरह संक्रान्ति अमावास्या व्यतीपातादि मांसासादि, दही,अभ्यंग,उद्वर्तन (उबटना) पर्वके दिन, योनिको छोडफार अन्य अंगोंमें स्नान, तथा मस्तक, नाक और कान का ।
तथा दिनमें मैथुनका त्याग करदे । मैथुन तर्पण ये सब हितकारी हैं । कांता की वा
कालमें सिर और हृदयमें टक्का न पहुंचावै हुलताओं का आश्लेषमात्र ( संगमकानिषधहै) बहुत भोजन करके, अधैर्यतामें भूखमें, हाथ मनका विश्राम, कर्तव्यकर्म की समाप्ति,करके पांवको बिना उपयुक्त रीतिके स्थापन अनुकूल विषयोंकी उपलब्धि, ये सब यथेच्छ । किये, अत्यन्त तृषामें, बालक, वृद्ध, अन्य
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अ० ८
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
वेगोंसे पीडित और रोगीकोइन सव अवस्थाओं में मैथुन का परित्याग कर देना चाहिये ।
कामसेवा का समय
सेवेत कामतः कामं तृप्तो वाजीकृतां हिमे ॥ त्र्यहाद्व संतशरदोः पक्षाद्वर्षानिदाघयोः ।
अर्थ- हेमन्त और शिशिर ऋतु वाजीकरण औषधोंके सेवन द्वारा तृप्त होकर यथेच्छ स्त्रीसंग प्रवृत्त होना चाहिये । बसन्त और शरदकालमें तीन तीन दिन पीछे ग्रीष्म और बर्षाकालमें पन्द्रह पन्द्रह दिनका अंतर देकर स्त्रीसंगमें प्रवृत्त होना चाहिये ।
अन्यथा स्त्रीगमन |
भ्रम क्लमो रुदौर्बल्यबलधात्विद्वियक्षयः ॥ अपर्वमरणं च स्वाइन्यथा गच्छतः स्त्रियम् । अर्थ - पूर्वोक्त नियमों का उल्लंघन करके जो स्त्रीगमन करता है उसे भ्रम, क्लान्ति ऊरुदौर्बल्य, धातुक्षय, इन्द्रियक्षय, और अ कालमृत्यु ये रोग होजाते हैं ।
नियमानुसार स्त्रीगमन | स्मृतिमेधायुरारोग्य पुष्टींद्रिययशोवलः । अधिक मंदजरसो भवति स्त्रीषु संयताः ॥ अर्थ- जो नियमपूर्वक स्त्रीसंगम करते हैं उनकी स्मरणशक्ति, मेधा, आयु, आरोग्यता, शरीर की पुष्टि, इन्द्रियशक्ति, यश और बल, ये सब वृद्धिको पाते हैं और बुढापाभी उनपर बहुत धीरे धीरे आक्रमण करता है ।
रतों में कर्तव्य | नानानुलेपनहि मानिलखडखाद्यशीतांबुदुग्धरसयूषसुराप्रसन्नाः । सेवेत चानुशयनं विरतौ रतस्य तस्यैत्रमाशु वपुषः पुनरेति धाम
<<
११
॥७५॥
( ८१ )
अर्थ-मैथुन के पीछे स्नान, चंदना दि लेपन, शीतलबायु सेवन, मोदकादि भोजन, शीतल जल, दूध, मांसयूष, मुद्रा. दियत्र, सुरा, अथवा प्रसन्नानामक मद्य पान करके नींद लेवे | ऐसा करने से रतिकर्म से उत्पन्न हुई दुर्वलता जाती रहती है और फिर नवीन बलका संचार देह में होजाता है ।
बैद्यको शरीर का स्वामित्व | श्रुतचरितसमृद्धे कर्मदो दयालौ पिजि निरतुबंधं देहरक्षां निवेश्य । भत्रति विपुलतेजःस्वास्थ्यकीर्तिप्रभावः । स्वकुशलफलभोगी भूमिपालश्चिरायुः ॥ अर्थ- जो राजा आयुर्वेद शास्त्रज्ञ, सदा • चिकित्साकुशल, और दयालु वैद्यक प्रति संपूर्णतया अपनी देहरक्षाका भार समर्पणकर देता है, वह अत्यन्त पराक्रमशाली, दीर्घायु तथा स्वस्थ, कीर्तिमान, और प्रतापी होकर कुशलफल का भोगने वाला होता है ।
इति श्री अष्टांगहृदये भापाटीकायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
चार,
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अष्टमोऽध्यायः ।
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अथातो मात्राशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहां से मात्राशितीय अध्याय की व्याख्या करेंगे । मिताहार का विधान ।
'मात्राशी सर्वकालं स्यान्मात्रा ह्यग्नेः प्रवर्तिका । मात्रां द्रव्याण्यपेक्षते गुरुण्यपि लघून्यपि ॥
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अष्टांगहृदये।
अ. ८
अर्थ-सदा परिमिताहारी. होना चाहिये | को प्राप्त न होकर तीनों दापों को प्रकुपित अर्थात् निरोगतामें चाहै रोगावस्थामें, चाहै | करता है । वाल्यकाल में, चाहै ग्रीष्मादिऋतुमें, चाहेदिन कुपित हुए तीनों दोष जिसतरह अल में चाहै रातमें सब समय थोडा आहार करना सक और विशचिकादि व्याधियों को करते उचित है, क्योंकि मिताहार ही जठराग्निका | हैं वही वात दिखाते हैं। बढाने वाला है, अग्निका बढनाही देहकी
__ अतिमात्रा का फल । स्थितिका हेतु है क्योंकि कहाभी है “अ- पीड्यमाना हि वाताद्या युगपत्तेन कोपिताः। ग्निमूलं बलंपुंसां वलामूलं हि जीवितम् "इस आमेनान्नेम दुष्टेन तदैवाविश्य कुर्वते । लिये मात्रा प्रधान है।द्रव्य भारी हो वा हलका
विष्टंभयंतोऽलसकं च्यावयतो विषूचिकाम् ।।
अधरोत्तरमार्गाभ्यां सहसैवाजितात्मनः । सब प्रकार के द्रव्य मात्रा की अपेक्षा करते
___अर्थ-बिना पचे हुए दुष्ट आहार से वाताहैं । गुरुद्रव्य, यथा:-पिष्टक, क्षीर, दाख, दि तीनों दोप पीड्यमान होकर मार्ग रुक शहत, ईख, उरद और आनूप मांसादि । जानके कारण एक साथ प्रकपित होकर उसी लघुद्रव्य यथाः.. आंतरीक्ष जल, रक्तशालि,
दुष्ट अन्न में प्रवेश करके और उसे गमन साठी चांवल, मूंग, लवा, कपिंजल, हिरण,
मार्ग में रोककर अलसक रोग को उत्पन्न खरगोश और शंबरादि ।
करता है । अथवा सहसा उसी दुष्ट अन्न गुरुलघुद्रव्यों की मात्रा । को ऊपर वा नीचे के मार्गद्वारा निकालता गुरूणामर्धसाहित्यं लघूनां नातितृप्तता। मात्राप्रमाणं निर्दिष्ट सुखं यावद्विजीर्यति ॥२
हुआ विशूचिका रोग को उत्पन्न करता हैं । अर्थ--भारी द्रव्य अतृप्ति अर्थात् भूख
| ये दोनों रोग अजितात्मा अर्थात् भोजनसे आधा और हलका द्रव्य पेट भरकर खा । | लोलुपों को ही होते हैं। लेना चाहिये । जिसको जितना सुखपूर्वक
अलसक का लक्षण । पचजाय उतना ही उसकी मात्रा का असल
प्रयाति नोर्ध्व नाधस्तादाहारो न च पच्यते।
आमाशयेऽलीभूतस्तेन सोऽलसकःस्मृतः परिमाण जानना चाहिये ।
___ अर्थ-जो आहार ऊपर के मार्ग अर्थात् हीनातिमात्रा का फल
| मुखद्वारा नहीं निकलता है अधो मार्ग गुदा भोजनं हीनमात्रं तु न वलोपचयौजसे।। सर्वेषां वातरोगाणां हेतुतां च प्रपद्यते ॥३॥
र द्वारा भी नहीं निकलता है और न पचता अतिमात्र पुनः सर्वानाशु दोषान् प्रकोपयेत् ।। ही है, केवल नाभि और स्तनों के मध्यवर्ती
अर्थ-हीनमात्रा भोजन शरीर के वल, आमाशय नामक स्थान में अलसीभूत अर्थात् पुष्टि और ओजकी वृद्धि का कारण न हो । स्तब्ध भाव में रहता है उसे अलसक रोग कर केवल वात रोगों का कारण हो जाता | | कहते हैं जैसे अनुद्यमशील मनुष्य आलसी है। इसी तरह भतिमात्रा भोजन परिपाक कहलाता है ।
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भर ८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८३)
विशूचिका का लक्षण । उत्पीडित और कफद्वारा आमाशयमें रुका विविधैर्वेदनोद्भदैर्वाय्वादिभृशकोपतः ॥७॥ हुआ अलस भावमें ठहरा हुआ वातादिक सूचीभिरिव गात्राणि विध्यतीति विचिका।
दोषोंसे क्षुभित होकर शल्यकी तरह रुकजाअर्थ-वातादिकों के अत्यन्त प्रकुपित
ताहै और रुककर वमन और अतीसार से होने से अनेक प्रकार की वेदना और सुई
रहित तीव्र शूलादि रोगोंको उत्पन्न करताहै छिदने की सी पीडा होती है उसे विशूचिका
इसीको अलसक रोग कहतहैं । उसी अलकहते हैं।
सकरोगमें यदि संपूर्ण वातादिक दोष अत्यन्त विशूचिका में उपद्रव ।
कुपित और दुष्ट तथा अपक्व भुक्त अन्न तत्र शूलभ्रमाऽनाहकंपस्तंभादयोऽनिलात्।।
द्वारा रुदमार्ग होकर तिरछा मार्ग ग्रहण कर पित्तात्ज्वरातिसारांतर्दाहतृप्रलयादयः । कफाच्छयंगगुरुतावासंगष्ठीवनादयः १९।
के सब देहको दंडकी तरह स्तंभित करदेता ___ अर्थ-विशचिका रोग में वात की अधि. इसीसे इसे दंडालसक कहते हैं, यह शीघ्र कता से शल, भ्रम आनाह, कंपन, स्तंभता,
'प्राणनाशक है इसलिये इसकी चिकित्सा अंगोद्वेष्टन और मुखशोषादि होते हैं । पित्त
नहीं करना चाहिये । की अधिकता से ज्वर, अतीसार, अंतर्दाह,
आम बिषका लक्षण ।
विरुद्धाध्यशनाजीर्णशीलिनो बिषलक्षणम् १३ तुषा, मूर्छा और मदादि परिग्रह होते हैं,
आमदोषं महाधोरंजेयेद्विषसंशकम् । इसी तरह कफ की अधिकता से छर्दि, अंग विषयकारित्वाद्विरुद्धोपक्रम
विषरू .शुकारित्वाद्विरुद्धोपक्रमत्वतः ॥१४॥ में भारापन, मुखरोध, ष्टीवन और छींक अर्थ-विद्भआहार अध्यशन ( पहिला आदि रोग होजाते हैं
भोजन विना पचे और खा लेना ), और अलसक दंडालसक।
अजीर्ण में भोजन करने वाले मनुष्य के विविशेषात् दुर्बलस्याऽल्पवह्नवेगविधारिणः।।
पलक्षण लालास्रावादि युक्तविषसंज्ञक जो पीडितं मारुतेनान्नं श्लेष्मणा रुद्धमंतरा।१०।। अत्यन्त कष्टदायक आमदोष उत्पन्न करताहै अलसं क्षोभित दोषैः शल्यत्वेनैव संसितम्। वह विष के समान शीघ्र प्राणनाशक और शूलादीकुरुते तीब्रांश्छद्यतीसारवर्जितान् ११
चिकित्सा से विरुद्ध होता है इस लिये इस सोऽलसः ___ अत्यर्थदुष्टास्तु दोषा द्रुष्टामबद्धखाः ।
का इलाज न करै । विषमें शीतक्रियारूक्ष यांतस्तियक्तनुं सा दंडवत्स्तंभयंति चेत् १२ । चिकित्सा और आममें उष्ण चिकित्सा की दंडकालसकं नाम तंत्यजेदाशुकारिणम् । जाती है, किन्तु विषलक्षण युक्त आममें दो
अर्थ-अब अलसक और दंडालसक के नौ क्रिया ही विरुद्ध होती हैं इसलिये यह विशेष लक्षण लिखतेहैं । दुर्बल, मंदाग्नि दश्चिकित्स्य होता है ।
और मलमूत्रादिका वेगरोकने वाले मनुष्यका अलसकमें चिकित्सा । ओजन किया हुआ अन्न वायुद्वारा अत्यन्त । अथाऽममलसीभूतं साध्यं त्वरितमुल्लिखेत्। .
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अष्टांगहृदये ।
(४४)
पीत्वा सोग्रापफलं वायुष्णं योजयेत्ततः ॥ स्वेदनं फलवतिं च मलवातानुलोमनीम् । नाम्यमानानि घांगानि भृशं स्विम्नानि वेष्टयेत्
अर्थ -- अलसक रोग में साध्यासाध्य का विचार करके साध्यलक्षणवाले अदुष्ट स्तब्धीभूत आम अर्थात् अपक अन्नको परिपाक काल की अपेक्षा विना किये ही वमन से शीघ्र निकाल देवै । वमन कराने के लिये वच, लवण और मेनफल गरम जलके साथ पिलाना चाहिये । पीछे स्वेदन क्रिया करे 1 और गुद्दा में मल और वायुका अनुलोमन करने वाली फलवती का प्रयोग करे । तथा आम दोष के कारण जो अंग संकुचित होगये हों उन्हें अत्यन्त स्वदित करके कपड़े से लपेट दें ।
|
प्रवल विसूचिका में उपाय | विसूच्यामतिवृद्धायां पादहिःप्रशस्यते । तदहश्चोपवानं विरिक्तवदुपाचरेत् । १७ । अर्थ- जो विशुचिका अति प्रवल हो तो दोनों पांवों की पाणि में लोहे की शलाका से दग्ध करना उत्तम है । उस दिन रोगी को उपवास कराके विरचन वाले की तरह पेयादि देकर चिकित्सा करे ।
अजीर्णवाले का उपाय |
तीव्रार्तिरपि नाजीर्णी विवेच्छूलघ्नमौषधम् । आप्रासन्नोऽनलोनालेपक्तुदोषोपधाशनम् १८ निहन्यादृषि चैतेषां विग्रमः सहसाऽऽतुरम् ।
अर्थ - अजीर्ण वाला रोगी यदि तीव्र शूल से पीडित हो तो भी उस को शूलनाशिनी औषधि न देवै । यहां शूल उपलक्षणमात्र है, विशूचिका में छर्दि और अतिसार के दूर करने
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अ० ८
वाली औषध भी न देवै । कारण यह है कि आमद्वारा मंद हुई जठराग्नि वातादि दोषों को शूलादि नाशक औषध को और अन्न पेयादि भोजन को परिपाक करने में समर्थ नहीं है । किन्तु इनका सेवन करना अर्थात् इन तीनों की व्यापत्ति रोगी का शीघ्रही नाश कर देती है, इस लिये शूलादिनाशिनी औषध न देकर पूर्वोक्त वमनकारक औषध देवे ॥
औषध का समय | जीर्णाशने तु भैषज्यं युंज्यात् स्तब्धगुरूदरे १९ दोषशेषस्य पाकार्थमग्नेः संधुक्षणाय च ।
अर्थ- - जब उपवासादि द्वारा अजीर्ण रोगी का पहिला किया हुआ भोजन पचजाय तब तथा उदर में भारापन और स्तब्धता हो तो अर्जी का बचा हुआ दोष पचाने के लिये और अग्नि के उद्दीपन करने के लिये औषध का प्रयोग करै ।
औषध का भेद | शांतिरामविकाराणां भवति त्वपतर्पणातू अर्थ - अपतर्पण ( न खाना वा थोडा खाना ) द्वारा आलस्य, जड़ता और अग्नि मांद्यादि आम अर्थात् रोग की शान्ति होजाती है
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औषध की यथायोग्यता
त्रिविधं त्रिविधे दोषे तत्समीक्ष्य प्रयोजयेत् । तत्राऽल्पे लंघनं पथ्यं मध्ये लंघन पाचनम् २१ प्रभूते शोधनं तद्धि मूलादुन्मूलयेन्मलान् ।
अर्थ - तीन प्रकार के दोषों में देश, काल और अग्नि की परीक्षा करके तीन प्रकार की औषध देनी चाहिये। इन में से अल्पदोष में लंघन, मध्यदोष में लंघन पाचन
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और महत् दोष में वमनादिरूप शोधन औ- अजीर्ण की व्याधियां । षधों का प्रयोग करना चाहिये,क्योंकि शोधन अजीर्ण चककादामं तत्र शोफोऽक्षिगंडयोः। द्वारा सब दोष जड़ से जाते रहते हैं। सद्यो मुक्त इवोगारःप्रसेकोत्क्लेशगारैवम् ॥
| विटधमनिलाच्लविवंधाध्मानसादकृत् । अन्यरोगों में चिकित्सा क्रम । पित्ताद्विदग्धं तृण्मोहनमाम्लोद्गारदावत् । एवमन्यानपि व्याधीन् स्वनिदानविपर्ययात् अर्थ- कफकी अधिकता में आमाख्य चिकित्सेरनुबंधे तुसति हेतुविपर्ययम् ।। त्यक्त्वा यथायथं वैद्यो युज्यायाधिविपर्ययम्
अजीर्ण उत्पन्न होता है । आमाजीर्ण में तदर्थकारि वा पक्के दोषे त्विद्धे च पावके। आंख और गंडस्थल में सूजन हो जाती है, हितमभ्यंजनस्नेहपानवस्त्यादियुक्तितः ॥२४॥ जैसा भोजन किया जाता है वैसी ही डकार
अर्थ-इसी तरह ज्वर, अतीसार आदि लगती है मख से पानी आनेलगता अन्य रोगों में निज निज उत्पति के कारणों
है, दोष स्थान को छोड़ देते हैं और शरीर में के विरुद्ध औषधों द्वारा चिकित्सा करना भारापन हो जाता है । चाहिये । जैसे रूक्ष अन्न के भोजन से
वाताधिक्य में विष्टब्ध नामक अजीर्ण उत्पन्न रोग में स्निग्धान्न, शीतजनित रोग
होता है,इससे शूल, मलबद्धता, उदरमें अफमें उष्णक्रिया इत्यादि । किन्तु इस तरह रा और देहमे शिथिलता होती है । हेतु के विपरीत चिकित्सा द्वारा संपूर्ण रोग
। विगत चिकित्सा द्वारा सपूण राग पित्ताधिक्य में विदग्ध नामक अजीर्ण शान्त नहीं होते हैं इस लिये हेतुविपरीत
उत्पन्न होता है, इससे तृष्णा, मूर्छा, भ्रम, औषध को छोड़कर यथायथ व्याधि के खट्टी उकार और दाह होता है । विपरीत औषधों का प्रयोग करै । जैसे ज्वर |
विविध अजीर्ण की चिकित्सा । . में मोथा, पितपापड़ा और प्रमेह में हलदी
| लंघन कार्यमामेतुविष्टग्धेस्वेदन भृशम् । इस से यह समझना चाहिये कि अल्पवल-विदग्धे वमनं यदा यथावस्थ हितं भवेत् ॥२॥ वाली व्याधि हेतुविपर्यय औषध द्वारा शान्त । अर्थ-आमाजीर्ण में लंघन, विष्टब्ध अहो जाती है । मध्यबल व्याधि हेतुविपर्याय जीर्ण में यथेष्ट स्वेदन और विदग्धअजीर्ण
औषध द्वारा संपूर्ण शान्त न होकर थोडी में वमन कराना चाहिये । अथवा तीनों प्ररहजाती है । वह व्याधि विपीति औषध कार के अजीर्ण में वातादि दोषों का बला द्वारा जाती रहती है । किन्तु यदि व्याधि । बल विचार कर जो पाचनादि औषध हितविपरीत औषध प्रयोग करने पर रोग शेष | कारक हैं उनका प्रयोग करना चाहिये अरहजाय तो तथा दोष का परिपाक और थवा दोष की अवस्थानुसार लंघन, स्वेदन अग्नि की दीप्ति होय तो युक्तिपूर्वक तैलाभ्यं- और वमन में जा हितकारी हो नहीं देवै जैसे जन, वृतादि स्नेहपान और वस्तिप्रयोगादि आमाजीर्ण में स्वेदन वमन और विदग्ध में हेतुव्याधि विपरीतार्थकारी औषध काप्रयोगकरे लंघन स्वेदनादि ।
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अष्टांगहृदये।
अ. ८
बिलंविका रोग की उत्पत्ति । । यन करना चाहिये । दिन में विना कुछ गायिसोभवेल्लीनादामादेव विलंविका । भोजन कराये शयन कराना उत्तम है उठने कफवातानुबद्धामलिंगा तत्समसाधना।२८।
के पीछे जो रोगी को क्षुधा लगे तो थोडा अर्थ-स्रोतों में अत्यन्त श्लिष्ट हो जा
हलका भोजन करावै । ने से विलंबिका नामक व्याधि उत्पन्न हो जाती है, यह व्याधि कफ और बातसे युक्त
____ अजीणं के सामान्य लक्षण । होती है और इसमें आगार्णि के सब लक्षण
विबंधोऽतिप्रवृत्तिर्वा ग्लानिमारुतमढता ३०
अजीर्णलिंगं सामान्यं विष्टंभो गौरवं भ्रमः । प्रगट होते हैं,जैसे आंख और गंडस्थलमें सुजन
___ अर्थ-मल मूत्रादि की विवद्वता वा अति भुक्तअन्न की डकार, प्रसेक, उक्लेश और
प्रवृत्ति, शरीर की ग्लानि वायुकी मूढता गौरव आदि । इस में आमानीर्ण के समान अर्थात प्रतिलोमभाब में पेट के भीतर वाही चिकित्सा करनी चाहिये जैसे लंघना
युका इधर उधर भमण, विष्टब्ध ( भुक्तअन्न दि। पर इस वातपर विशेष ध्यान धरना
| का गोलासा वनकर ठहर जाना ), शरीर चाहिये कि आमा जीर्ण में तो केवल कफ
में भारापन और भ्रम ये सब अजीर्ण के होता है और विलंविका में वायु और कफ
सामान्य लक्षण हैं । दोनों का अनुबंध होता है, इसलिये कफ वातनाशक औषध का प्रयोग विवेचना अजीर्णके अन्य हेतु । पूर्वक करना चाहिये ।
न चातिभात्रमेवान्नमामोषाय केवलम् ।३१॥ रसशेषाजीर्ण के लक्षण ।
द्विष्टाविष्टंभिदग्धामगुरारूक्षहिमाशुचि ।
विशाही शुष्कमयं त्रुप्लुतं वान्नं न जीर्यति ३२ अश्रद्धा हृयथा शुद्ध पारे रसशेषतः। शयीत किंचिदेवात्र सर्वश्वानाशितोदिया ।
उपतप्तेन भुक्तं च शोककोधक्षुधादिभिः। स्वप्यादजीर्णीसजातबुभुक्षोऽद्यान्मिन लधु। ___अर्थ-केवल अतिमात्र भोजनही आम
अर्थ-भुक्तान्न का रस धात्वानि द्वारा दोषका कारण नहीहै । किन्तु अप्रिय, विपरिपाक को प्राप्तहोकर रक्तरूप में परिण- टभी, दग्ध, अपक्क, गुरुपाकी, रूक्ष, शीतल त होता है उसी में से कुछ भाग अग्निकी अपवित्र, विदाही, शुष्क और बहुत जलसे दुर्वलता के कारण पाकको प्राप्त न हो औ- मिला हुआ अन्न भी परिपाक को प्राप्त न र कुछ बचरहे उसीका नाम रसशेष है । होकर अर्जीर्ण करताहै । अजीर्णके केवल इसीलिये रसशेषसे जो अजीर्ण होता है। यही कारण नहीं है किन्तु शोक, क्रोध, भूख उसेही रसशेषाजीर्ण कहते हैं । इसमें दु- भूखके समय अन्नका न मिलना भादि गैधित वा खट्टी डकार नहीं आती है किन्तु । कारणोंसे भी उत्तप्त मनुष्यका खाया हुआ आहार में अनिच्छा और हृदय में शूल हो । अन्न नहीं पचताहै । आदि शब्दसे लोभ ता है । ऐस रोगी को थोडी देर तक श- भय आदिभी जानना चाहिये ।
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अ० ८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८७)
आमवईक अन्य द्रव्य । परिप्लुत, थोडागरम,पचने में हलका छ: रसों मिश्रं पथ्यमपथ्यं च भुक्तं समशनं मतम् ३३ से युक्त जिसमें मधुर रसकी अधिकताहो, विद्यादध्यशनं भूयो भुक्तस्योपरि भोजनम् । पतला ( जिसमें दही, दूध. यूषादि अधिकअकाले बहु चाललं वा भुक्तं तु विषमाशनम् । त्रीण्यप्येतानिमृत्युवाघोरान व्याधीनसृजंतिवा हो ) हृय, अन्न, व्यंजन भख लगने पर
अर्थ-पथ्य और अपथ्यका मिलाकर अपने परिवार के लोगों के साथ भोजन करे, खाना वैद्यक शास्त्रमें समशन कहलाताहै । भोजन करने में बहुत बोलना उचित नहीं भोजन करनेके थोडी देरं पीछेही अर्थात् है । भोजन क ने में बहुत जल्दी वा बहुत पहिला आहार बिना पचही फिर भोजन कर विलंब भी न करें । लेनेका नाम अध्यशनहै । कभी उचित काल त्याज्य भोजन । में, कभी कुसमय, कमी थोड़ा और पं.भी
भोजनं तृणकेशादिजुष्टमुष्णीकृतं पुनः। बहुत खा लेना विषमाशन कहलाता है । ये
शाकावरान्नभूयिष्ठमत्युष्णलवणं त्यजेत् ३
अर्थ-जिस भोजन में तिनुके वा बाल तीनों ही मृत्यु वा घोर व्याधि को उत्पन्न
पडे हों, अथवा पक्क भोजन शीतल होने पर करते हैं।
| फिर गरम किया गयाहो, अथवा दूषित शाभोजन का क्रम ।
क व्यंजनादि अथवा अति उष्ण वा अति कालेसात्म्यं शुचि हितंस्निग्धोष्णं लघुतन्मनाः
नमकयुक्त भोजन नहीं करना चाहिये । षडूसं मधुरप्रायं नातिदुतविलम्बितम् ।। मातःक्षुद्वान्विविक्तस्थो धौतपादकराननः॥ किलाटादि का निषेध ।। तर्पयित्वापित देवानतिथीन्वालकान्गुरून् ॥ किलाटदधिकचीकाक्षारशुक्ताममूलकम् । प्रत्यवेक्ष्य तिरश्चोऽपि प्रतिपन्नपरिग्रहान् ॥ कृशशुष्कवराहाविगोमत्स्यमहिषामिषम् ४० समीक्ष्य सम्यगात्मानमनिन्दन्नबुवन्द्रवम्। माषनिष्पावशालूकथितपिष्टविरूढकम् । इष्टमिष्ठः सहाश्नीयाच्छुचिभक्तजनाहृतम् ३८ शुकशाकानियवकान्फाणितंच नशीलयत ___ अर्थ-स्नानकरने के पीछे हाथ पांव अर्थ--किलाट, दही, कूर्चिका, क्षार,
और मुख धोकर, पित्रोंको पिंडदान, देवता शुक्त कच्चीमूली, दुवलेजानवरका मांस, सूखा गणों को अन्नव्यंजनादि निवेदन, अतिथि | मांस इसी तरह शकर, भेड, गौ,मछली, और वालक और गुरुजनोंको भोगन कराके तथा सका मांस, चौरा, सेम, शालूक, मृणाल, पशु पक्षी दास, दासी आदि प्रतिपाल्यगणों पिष्टक, अंकुरितअन्न, सूखेसाग, यवक और के आहार पर लक्ष्य रखकर अपने शरीरकी फाणित इनका सेवन न करै । अवस्थाकी विवेचना करके आहार के उपर्यु- सेवनयोग्य द्रव्य । क्त कालमें एकान्त स्थान में बैठकर शद्ध आ. शीलयेच्छालिगोधूमयवषष्टिकजाङ्गलम् । चरणवाले अनुरक्त मनुष्यद्वारा परोसाहुआ घतदिव्योदकक्षारक्षौद्रदाडिमसैन्धवम् ॥
पथ्यामलकमृद्धीकापटोलीमुद्गशर्कराः।।२।, प्रकृति के अनुकूल पवित्र, सुपथ्य, घृतादि त्रिफलां मधुसर्पियानिशि नेत्रबलाय च ४३
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(८८)
अष्टांगहृदये ।
अ० ८
अर्थ-दाऊदखानि अदि शाली चां- | भोजन का प्रमाण । वल, गेंहूं, जौ, साठी चांवल, जांगल, मांस | अनेन कुक्षेद्वावंशौपानेनैकं प्रपूरयेत् । हरड, 'आमला, दाख, पटोली, मूंग, शर्करा, आश्रयं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयेत् ।४६ । घृत, आंतरीक्ष जल, दूध, शहत, अनार, __ अर्थ-जठर का आधा भाग अन्न से, सेंधानमक, रात के समय नेत्रोंमें बल के नि- चौथाई भाग पानी से भरै और वातादि के मित्त घृत और मधु सहित त्रिफला इन सब | आश्रय के लिये चौथा भाग खाली रहने दे । द्रव्यों का निरन्तर व्यवहार करना चाहिये। भोजन के पश्चात् अनुपान । किसी पुस्तक में इतना पाठ विशेष है सुनि | अनुपानं हिमं वारि यवगोधूमयोहितम् । षण्णकगीवन्ती बालमूलकवास्तुकसू ।
दन्नि मधे विषे क्षौद्रे कोष्णं पिष्टमयेषु तु४७ स्वास्थ्यानुवृत्तिकृद्यञ्च रोगोच्छेदकरंचयत् ।
शाकमुद्गादिविकृती मस्तुतकाम्लकाञिकम्
मुरा कृशानां पुष्टयर्थ स्थूलानां तु मधूदकम् अर्थ-उक्त सेबनीय द्रव्यों के अतिरिक्त
शोषे मांसरसो मधं मांस स्वल्पे च पावके। दिनचर्या और ऋतुचर्याध्याय में कह हुए
व्याध्यौषधावभाज्यस्त्रीलंघनातपकर्मभिः॥ स्वास्थ्य का अनुवर्तन करनेवाले और रोगों क्षीणे वृद्ध च बाले पयः पथ्यं यथामृतम् । का नाश करने वाले द्रव्यों का सेवन करना अर्थ-जौ और गेंहूं खाने के पीछे तथा उचित है।
दही, शहत वा मद्यपान करने के पीछे भोजन के आदिमध्यान्त में कर्तव्य। अथवा विष में ठंडा जल पीना हितकारी विरोधमोचचोचासमोडकोत्कारिकादिकमा है । पर पिष्टक ( पिसे हुए आटे के वने ) अद्याद्रव्यं गुरु स्निग्धं स्वादु मन्दं स्थिरं पुरः । पदार्थो के खाने के पीछे थोडा गरम जल विपरीतमतश्चान्ते मध्येऽम्लवणोत्कटम् ४५ पीना हित है । शाक और मूंग के वने हुए अर्थ-आहार के आरंभ में कमलनाल,
पदार्थों के पीछे दही का तोड़, तक्र और ईख, केला, कठोर, आम, मोदक, उत्कारि- खट्टी कांजी हित है । दुवले मनुष्यों की का ( लप्स्यादि ) तथा भारी. मधुर, स्निग्ध । पष्टि के लिये सुरापान, मोटे को दुवला मृदु और संग्राही पदार्थों का सेवन करै । करने के लिये शहत मिला हुआ जल, शोष आहार के अन्तु में इन से विपरीत अर्थात् रोग में मां सरस, मांस खाने के पीछे वा लघु, रूक्ष, कटु, तिक्त, और तीक्ष्ण और रेचक | मंदाग्नि में मद्यपान हितकर है। जो व्याधि, द्रव्यों का सेवन करै । आहार के बीच में औषधसेवन मार्गभ्रमण, अतिभाषण, स्त्री अधिक खट्टे और अधिक नमकीन पदार्थो का संगम, लंघन, आतप सेवन और भारवह सेयन करै । खरनाद में लिखा है “ कटू । नादि से क्षीण होगया है तथा बालक और लवणमम्लंवा पूर्वमाहारमाहरेत् । आहागे वृद्धो को दुग्धपान अमृत के समान गुणमधुरो ह्यग्रे गुरुविष्टम्यजीर्यति ।
कारी है।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८९)
अनुपान का संक्षिप्त वर्णन। से क्लिम्न होगया है अथवा जो नेत्र रोगों विपरीत यदन्नस्य गुणैः स्यादविरोधि व ।। और क्षत रोगों से पीडित हैं उनको पीने अनुपानं समासन सर्वदा तत्प्रशस्थते।५१॥ के पदार्थ लोड देने चाहिये और सस्थ वा अर्थ- खाद्य पदार्थों के विपरीत गुण
अस्वस्थ सब लोगों को पान और भोजन काले अविकारी द्रव्यों का अनुपान सदा ही
के पीछे बहुत बोलना, मार्ग चलना, नींद हितकारी है । जैसे रूक्ष का स्निग्ध, स्निग्ध
लेना, धूप में फिरना, अग्नि से तापना, का रूद, गरम का ठंडा, ठंडे का रूखा,
सवारी पर चढना, पानी में तैरना, और खट्टे का मीठा, मीठे का खट्टा इत्यादि । घोडे आदि पर चढना । ये सब काम परन्तु ऐसा विपरीत सम्बन्ध न होना चाहिये | छोड़ देने चाहिये । जैसा दूध और खटाई का होता है।
भोजन का समय । __ अनुपान का कर्म। प्रसृष्टे विभूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपथगे। अनुपानं करोत्यूर्जी तृप्ति व्याप्ति दृढांगतान विशुद्ध चोदारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति॥ अवसंथातशैथिल्यविक्लित्तिजरणानि च ५२ तथाऽग्नादिक्ते विशदकरणे देहे च सुलघौ अर्थ- अनुपान से उत्साह, तृप्ति, सब
प्रयुजीताहारं विधिनियमितःकालःस हि मतः देह में अन्नरस का फैलना, दृढ़ता, अन्न
___अर्थ- मल मूत्र के त्याग से अच्छी संघात, शिथिलता, क्लिन्नता और परिपाका
तरह सुस्थ होचुका हो, हृदय निर्मल हो, होता है ।
बातादि सब दोष अपने अपने मार्ग में हो, अनुपान के अयोग्य रोग। । डकार शुद्ध हो, क्षुधा चैतन्य हो, अधोनोर्ध्वजत्रुगश्वासकासोरक्षितपनिले। । वायु ठीक होता हो, जठराग्नि और कायाग्नि गीतभाष्यप्रसंगे च स्वरभेदे च तद्धितम् ५३। उत्तेजित हों । सब इन्द्रियां विशद हों, देह
अर्थ- जत्रु ( ग्रीवा और वक्षःस्थल ) | में हलकापन हो उस समय आहार विधि के ऊपर वाले अंगों में होने वाले रोगों में | में कही हुई रीति से भोजन करै । यही अनुपान हितकारी नहीं होता, जैसे - इवास | भोजन का ठीक समय है । खांसी, उरःक्षत, पीनस, अत्यन्त गाने वा | इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां बोलने के सम्बन्ध में वा स्वर भेद में अनु- अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ पान हितकारी नहीं है ।
पान के अयोग्य रोगी। प्रक्लिन्नदहमेहामिगलरोगवणातुराः।
नवमोऽध्यायः। पानं त्यजेयुः
सर्वश्चभाष्याध्वशयनं त्यजेत्॥५४॥ अथा तोद्रव्यादिविज्ञानीयमध्यायव्यारयास्यामः पीत्वा भुक्त्वाऽऽतपंवन्हि यानंप्लवनवाहनम अर्थ- अब हम यहां से द्रव्यादि विज्ञा
अर्थ- जिन का शरीर विसर्पादि रोगों / नीय अध्याय की व्याख्या करेंगे।
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( ९० )
८८
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अष्टांगहृदये ।
द्रव्य की प्रधानता ।
'द्रव्यमेव रसादीनां श्रेष्ठं ते हि तदाश्रयाः । पंचभूतात्मकं तत्तु क्ष्मामधिष्ठाय जायते ॥ १ ॥ अबुयोन्यग्निपवननभसां समवायतः । तन्निर्वृत्तिर्विशषेश्च व्यपदेशस्तु भूयसा ॥ २ ॥
वीर्य, विपाकादि ये
अर्थ - रस, सब द्रव्य के आधीन है इसलिये द्रव्य ही प्रधान है । ये द्रव्य पंचभूतात्मक हैं अर्थात् द्रव्य
T
पृथ्वी के आधार से उत्पन्न होता है जल उसकी उत्पत्ति का प्रधान कारण है, अग्नि वायु और आकाश ये भी उसकी उत्पत्ति के समवायि कारण हैं । इससे यह हुआ कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पंचभूत सव द्रव्यों के समवायी कारण
हैं
| परन्तु इन भूत पदार्थों की अधिकता के अनुसार द्रव्यों में विशेषता होती है, जैसे जिस द्रव्य में पृथ्वी की अधिकता है बह पार्थिव. जिस में जल की अधिकता है वह जलीय इत्यादि और भी जानना चाहिये ।
द्रव्य को अनेक रसत्व |
तस्मान्नैकरसं द्रव्यं भूतसंघातसंभवात् । नैकदोषास्ततो रोगास्तत्र व्यक्तो रसः स्मृतः॥ अभ्यक्तोऽनुरसः किंचिदंते व्यक्तोऽपि चेष्यते
।
अर्थ - पंचभूत के संयोग से द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, ये द्रव्य एकरस - विशिष्ट नहीं होते हैं किन्तु अनेक रसों से युक्त होते हैं । यहां भी अधिकता के अनुसार कोई मधुर, कोई अम्ल, कोई लवण, कोई कटु और कषाय होते हैं ।
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अ० ९
जिस द्रव्य में जो रस जिव्हा द्वारा स्पष्ट रूप
से मालूम होता है वह द्रव्य उसी रस से युक्त कहलाता है और जो रस रसनेन्द्रिय द्वारा स्पष्ट रूप से मालूम नहीं होता है उसे अनुरस कहते हैं तथा जो रस व्यक्त रसास्वादन के थोडी देर पीछे मालूम होता है उसे भी अनुरस कहते हैं क्योंकि सब द्रव्य एकरसविशिष्ट नहीं है इसलिये सब रोग भी एक दोष विशिष्ट नहीं होते । जिस हेतु से मधुरादिरसों के कारण बातादि दोष कुपित होते हैं । सुतरां सम्पूर्ण रोग त्रिदोष के कोप में अनुभव होते हैं। तब जिस रोग में जिस दोष की अधिकता होती है वह रोग उसी दोष के नाम से कहलाता है ।
रसों में गुर्वादि गुण ! गुर्वादयो गुणा द्रव्ये पृथिव्यादौ रसाश्रये ॥ रसेषु व्यपदिश्यंते साहचर्योपचारतः ।
अर्थ - पृथिव्यादि पंचभूतात्मक द्रव्य रसाश्रय है. इन मधुरादिरसों में साहचर्य से गुर्वादि गुण भी है । जैसे जिस द्रव्यमें मधुर रस है, उसी में गुरु गुण भी है, जो द्रव्य अम्ल है उस में लघु गुण 1
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पार्थिव द्रव्य के गुण ।
तत्र द्रव्यं गुरु स्थूलं स्थिरगंधगुणोल्बणम् ॥ पार्थिवं गौरवस्थैर्य संघातोपचयावहम् । अर्थ - पंचभूतात्मक द्रव्यों में गुरु, स्थूल, कठिन और गंधगुणबहुल हैं, इनके द्वारादेह में गुरुता, स्थिरता, निविडता और पुष्टि संपादन होती है ।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९१)
जलीय द्रव्य के गुण । द्वारा जगत में ऐसा कोई द्रव्य दिखाई नहीं द्रवशीतगुरुस्निग्धमंदसांगरसोल्बणम् ॥६॥ देता है जो औषधका काम न देता हो अर्थात् मान्यं स्नेहनविष्यदक्लेदप्रह्लादबंधकृत् ।। द्रव्यमात्र औषध का काम देते हैं।
अर्थ-जलात्मक द्रव्य द्रव, शीतल, गुरु, । द्रव्यों का अधोर्ध्वगामित्व । स्निग्ध, मृदु, घन और रसगुण बहुल होते द्रव्यमूर्ध्वगमं तत्र प्रायोऽग्निपवनोत्कटम् । हैं, ये देहमें स्निग्धता, स्राव, क्लेद, आल्हाद अधोगामि च भूयिष्टं भूमितोयगुणाधिकम् आरै मलका विवंध करते हैं ।
इति द्रव्यं रसान्भैदैरुत्सरघोपदेश्यते ।
अर्थ-जिन द्रव्यों में अग्नि और वायुका आग्नेय द्रव्य ।
भाग अधिक होता है वे प्रायः ऊर्ध्वगामी रूक्षतीक्ष्णोणविशदशूभरूपगुणोल्बणम् ॥ आग्नेयंदाहभावर्णप्रकाशपचनात्मकम् ।।
होते है । जिन में पृथ्वो और जलका भाग अर्थ-अग्नेय द्रव्य रूक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, अधिक होता है वे प्रायः अधोगामी होते हैं विशद ( सूक्ष्म लांतों में जाने वाले ) यहां तक द्रव्य के विषय में जो कुछ कहना
और रूप गुण बहु के होतेहैं ये दाह, कान्ति | था कहा गया है अब रसों के तिरेसठ भेदों वर्ण और पाककारक होते हैं ।
का वर्णन करेंगे। पवनात्मक दृव्य ।
वीर्य की प्रबलता। वायव्यं रूक्षविशदं लधुस्पर्शगुणोल्वणम् ।८। वीर्य पुनर्वदंत्येके गुरुस्निग्धहिमं मृदु ।१२। रौश्यलाघववेशद्यविचारग्लानिकारकम् । लघुरूक्षोणतीक्ष्णं च तदेवं मतमष्टधा । अर्थ-वायव्य द्रव्य रूक्ष, विशद, लघु, अर्थ-किसी किसी आचार्य के मतमें द्रव्याऔर स्पर्शगुणबहुल होते हैं, ये रूक्षता श्रित गुरु,स्निग्ध,हिम,मृदु, लघु, उष्ण, रूक्ष, लाचब, निर्मलता और ग्लानि उत्पन्न करते और तीक्ष्ण इन गुणोंको ही वीर्य कहते हैं,
इस लिये उन के मतानुसार वीर्य आठ प्रकार आकाशात्मक द्रव्य।
का होता है। नामसं सूक्ष्मविशदलघुशब्दगुणोल्बणम् ।९।।
चरकाचार्यका मत । सौषिर्यलाघवकरं
घरकस्त्वाह वीर्य तद्येन या क्रियते क्रिया ॥ जगत्येवमनौषधम् । नावीर्य कुरुते किंचित्सर्वा वीर्यकृताहि सा। मकिंचिद्विद्यते द्रव्यं वशान्नानार्थयोगयोः१० अर्थ-वायके संबंध महर्षि चरकाचार्य भी
अर्थ-आकाशीय द्रव्य सूक्ष्म, बिशद, । कहते हैं कि जिसद्रव्यके जिसस्वभावसे कोई लघु और शब्दगुणबहुल होते हैं ये पिंडा- क्रिया करने में आती है उस स्वभावका नाकार वस्तु को सछिद्र करनेवाले और लाघ- म ही बीर्य है द्रव्यसे जो कर्म होता है उसी वता करनेवाले हैं । अतएव अनेक प्रकार कर्मको वीर्यकृत समझना चाहिये । वीर्यहीन के प्रयोजन और अनेक प्रकार की युक्तियों द्रव्य कोई कर्म नहीं करसक्ते हैं ।
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अष्टांगहृदये ।
मुर्वादिकमंवीर्यकाम तिपादन ।
गुर्वादिष्वेव वीर्याख्या तेनान्वर्थेति वर्ण्यते ॥ समग्रगुणसारेषु शक्त्युत्कर्षविवर्तिषु । व्यवहाराय मुख्यत्वाद्बहुग्रग्रहणादपि ॥ १५ ॥ अर्थ - 3 -अन्य आचार्यो का भी यही मत है। कि इन्हीं गुर्वादिक आठ गुणों को ही वीर्यकहना चाहिये कारण यह है कि संपूर्ण गुण आठ गुणही सारभूत और अधिक श क्तिशाली होते हैं तथा व्यवहारमें भी ये ही मुख्य और अप्रगण्य हैं इस हेतुसे इन आठ गुणों का ही नाम वीर्य है ।
रसादिमें अवीर्यत्व |
अतश्च विपरीतत्वात्संभवत्यपि नैव सा । विवक्ष्यते राधेषु वीर्य गुर्वादयोद्यतः ॥१६॥ अर्थ- पूर्वोक्त कारणोंसे विपरीत होने पर रसादिमें वीर्य संज्ञा नहीं हो सक्ती है जैसे रसमें सारत्व नहीं है क्योंकि जठराग्नि के संयोगसे अन्यरसकी उत्पत्ति होजाती है परन्तु गुर्वादि में जठराग्नि के संयोग से कुछ अंतर नहीं पड़ता है के त्यों बने रहते हैं इस से रसादिक में वीर्य संज्ञा नहीं है । तु अन्य आचार्यों का मत | उष्णं शीतं द्विधैवान्ये वीर्यमाचक्षतेऽपिच अर्थ - अन्य आचार्य वीर्यको शीत और उष्ण दो ही प्रकार का मानते हैं और इस का युक्ति सहित कारण बताते हैं । सयुक्ति कारण ।
atercraft द्रव्यमनीषोमौ महाबलौ १७ व्यक्ताव्यक्तं जगदिव नातिक्रामति जातुचित् अर्थ- जैसे स्थूल वा सूक्ष्म कोई पदार्थ ज गतका उल्लंघन नहीं करसक्ता है इसी तरह
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अ० ९
संपूर्ण द्रव्य नानात्मक होनेपर भी महाप्रवल अग्नि और सोम इनदो गुणों का अतिक्रम नहीं करसक्ते हैं इसलिये कुछ द्रव्य उष्णवीर्य और कुछ शीतवीर्य होते हैं, जैसे दूध के साथ मछली नहीं खाना चाहिये । ये दोनों मधुर हैं और इनका पाकभी मधुर है परन्तु एक उष्णवीर्य है और दूसरा शीतवीर्य है इस विरुद्धता के कारण रक्तको दूषित करते हैं । उभयवीर्य के गुण | तत्रो भ्रमतृङ्ग्लानिस्वेद वाहाशुषाकिताः। शर्म व वातकयोः करोति शिशिरं पुनः । ल्हानं जीवनं स्तंभं प्रसादं रक्तपित्तयो: १९ अर्थ- इनमें से उष्णवीर्य भ्रम, पिपासा, ग्लानि, पसीना, दाह, शीघ्रपार्क तथा बात और कफकी शान्ति करते हैं तथा शीतवीर्य आ
ल्हाद, बल, रक्तादिकी गतिका अवरोध, रक्तपिant विशुद्धता संपादन करते है !
विपाक का लक्षण । जठरेणाऽश्विना योगाय दुदेति रसांतरम् । रसानां परिणामांते स विपाक इति स्मृतः॥
अर्थ जठराग्नि के संयोग से मधुरादिरसों का परिपाक होकर परिणाम में जो रसान्तर उत्पन्न होता है उसे बिपाक कहते हैं ।
रसों का विपाक |
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स्वादुः पटुश्च मधुरमस्लोऽस्लं पच्यते रसः तिकोपणकषायाणां विपाकः प्रायशः कटुः २१
अर्थ - मधुर और लवण रसका विपाक मधुर होता है, अम्लका विपाक अम्ल, तथा तीक्ष्ण, कटु और कषाय रसोंका विपाक प्रायः कटु होता है प्रायः शब्दसे जाना जाता है कि कहीं कहीं विपरीत भी होता है ।
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अ०९
सूत्रस्थान भाषाटीकारुमत ।
(९३)
जैसे ब्रीहि मधुररसयुक्त है पर इसका बिपा- गुणवाला द्रव्य अत्यगुणवाले द्रव्यका पराक अम्ल है हरीतकी कषायरस युक्त होतीहै । भव कर देता है अर्थात् प्रवल अपने अनुपर इसका बिपाक मधुर है।सोंठ अदरख पी- सार काम करता है । पल कटुरसयुक्त होनेपरभी मधुरपाकी है । रसादिमें उत्कर्षता।
भिन्न २ बिधाकों के कर्म । रस विधाकस्तो वीर्य प्रभावस्ताग्व्यपोहति । रसैरसौ तुल्यफलस्तत्र द्रव्यं शुभाशुभम् ।। बलसाम्ये रसादीनामिति नैसर्गिक बल २५ किंचिद्रसेन कुरुते कर्म पाकेन वाऽपरम्२२ अर्थ- यदि रस, विपाक, वीर्य और गुणांतरेण वीर्येण प्रभावेणैव किंचन । - अर्थ-जिह्वा से जानने योग्य मधुराम्ल
प्रभाव इनका बल समान हो तो (१) विकटुकादि स्वाभाविक रस जो कार्य करते हैं। पाक, रसको काम करनेमें कुंठित करदेताहै वही कार्य विधाकजनित वेही रस करते हैं जै- जैसे मधुका कटु विपाक उसके मधुर रसको से मधुररसयुक्त शर्करा का मधुररस वायुना- पराभव करदेताहै इसलिये मधुरहेतुबाले वातशक होता है तैसेही कटुरसयुक्त पीपल का नाशक कार्यको न करके कटुविपाक हेतु बिपाक से उत्पन्न हुआ मधुररसभी वातना वाले वातप्रकोपन कर्मको करताहै । (२) शक है अतएव द्रव्य के स्वाभाविक मधुरादि वीर्य, रस और विपाक दोनोंको जीत लेताहै, रस विपाकजनित मधुरादि रसोंके साथ स- | जैले भेसका मांस उष्णवीर्य होनेसे उसके मानफलवाले होते है अब कितने ही द्रव्य । मधुररस और विधाक को जीत लेताह और रसद्वारा कितने ही विपाक द्वारा, कितने इसलिये पित्तको दूषित करदेताहै । ( ३ ) ही वीर्यद्वारा, कितने ही प्रभाव द्वारा शुभ प्रभाव, रस, विपाक और वीर्य तीनों को वा अशुभ कर्म करते हैं जैसे मधुर कषाय जीत लेताहै जैसे अम्लरस विपाक और रसयुक्त होने के कारण पितका शमन | उष्णवीर्यवाली सुरा क्षीरको उत्पन्न करताहै। करता है वहा मधुरकाबपाका हान स यही रसादिका स्वाभाविक बलहै । कफको नष्ट करता है खट्टी कांजी रूक्षता
प्रभावका लक्षण । से कफको दूर करती है, इत्यादि ।
रसादिसाम्थे यत्कर्म विशिष्टं तत्प्रभावजम् । यद्यहव्ये रसादीनां बलवत्येन वर्तते ॥२३॥
__ अर्थ- रसादि की समता होनेपर भी अभिभूयेतरांस्तसत्कारणत्वं प्रपद्यते ।
जो भिन्न प्रकारका कर्म दिखाई देताहै वह विरुद्धभुणसंयोगे भूयसाऽल्पं हि जीयते ॥ अर्थ-रस,बिपाक, बार्य और प्रभाव
प्रभाव जनित होताहै । रसवीर्य और विपाक इनमें से जो जो जिस जिस द्रव्यमें स्थितरह
की अपेक्षा अतिशक्ति विशिष्ट जो द्रव्यका ता है वह अन्य दुर्बल रसादिकों का पराभव स्वभावहै उसीको प्रभाव कहते हैं। करके अपने अनुसार कार्य करने में प्रवलहो प्रभावका निदर्शन । जाता है । और जहां परस्पर विरुद्ध गुणवानी रसायैस्तुल्याऽपि चित्रकस्यविरेचनी॥ ले द्रव्योंका संयोग होजाता है वहां वलवान । मधुकस्य च मृदीका घृतं क्षीरस्य दीपनम् ।
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अष्टांगहृदये ।
( ९४ )
अर्थ- चीत के रसवीर्य और विपाक के तुल्य होनेपर भी दंती विरेचनी होती है । इसीतरह महुआ के रसादि के तुल्य होनेपर भी मुनक्का विरेचनी है किन्तु प्रभाव के का रण चीता और महुआ विरेचक नहीं है । दूध रसादिके तुल्य होने पर भी घृत अग्निसंदीपन है, परन्तु दूध अग्नि संदीपन नहीं है ।
ग्रंथकारका वचन |
इति सामान्यतः कर्म द्रव्यादीनां पुनश्च तत् विचित्र प्रत्ययारब्धद्रव्यभेदेन भिद्यते ।
अर्थ - इसतरह द्रव्यरस वीर्यादिकों का काम सामान्य रीतिसे वर्णन किया गया है । अब फिर अनेक प्रकारके विचित्र कारणों से उत्पन्न द्रव्यभेद में जैसा कर्मभेद होता है, उसका वर्णन किया जायेगा । स्वादुर्गुरुश्च गोधूमो वातजिद्वातहृद्यवः२८ उष्णा मत्स्याःपयःशीतं कटुः सिंहो न शूकरः। तरमाद सेोपदेशन न सर्व द्रव्यमाविशेत् ॥ २९॥
अर्थ- ग्रन्थकार इस जगह कारणानुरूप कार्य और विचित्र कारणोत्पन्न द्रव्यभेद में कर्मभेद का दृष्टान्त देकर कहते हैं कि मधुर रस और गुरु गुण ये दोनों ही वातनाशक हैं। गेंहूं मधुररस और गुरुगुण युक्त होने से घातनाशक है, इसलिये गेंहूं का वातनाशक कर्म कारणानुरूप है | किन्तु जौ में भी दोनों हीं मधुररस और गुरुगुण हैं परन्तु यह वातनाशक नहीं किन्तु वातवर्द्धक है, इसलिये जौका कार्यभेद विचित्र कारणोत्पन्न द्रव्यभेद में ही है | अर्थात् जौ अनिर्वचनीय कारण में उत्पन्न हुआ है यह मधुररस और गुरु गुण युक्त होनेपर भी वातनाशक नहीं है किन्तु
अ० १०
। वातवर्द्धक है । इसीतरह मछली और दूध दोनोंहीं मधुररस युक्त हैं इसलिये दोनोंहीं शीतवीर्य होने चाहिये परन्तु मछली उष्णA और दूध शीतवीर्य है । इसीतरह सिंह और शूकर दोनोंहीं मधुर रसयुक्त होने के कारण दोनोंहीं मधुरविपाकी होने चाहिये परन्तु सिंह कटुविपाकी है और शूकरमधुर विपाकी है । इसलिये रससंबंधी जिन जिन बातोंका वर्णन किया गया है उसीके अनुसार संपूर्ण द्रव्यों का निर्देश करै । जिस जगह कारणानुरूप कार्य होता है वही प्रयोग करना चहिये, और जगह नहीं करना चाहिये || इति श्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
TATA ROG CRIC
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दशमोऽध्यायः ।
अथाऽतो रसभेदीयमध्यायं व्याख्यास्यामः । अर्थ - अब हम यहांसे रसभेदीय अध्याकी व्याख्या करेंगे ।
रसादिका उत्पत्ति | क्ष्माभोऽग्निक्ष्मांऽबुतेजः खवाय्वग्न्यनिलगो ऽनिलैः । द्वयोल्बणै क्रमाद्भूतैर्मधुरादिरसोद्भवः॥ १ ॥
अर्थ - पृथिव्यादि पंचमहाभूतों में से दोदो की अधिकता होनेसे क्रमपूर्वक मधुरादि छः रसोंकी उत्पत्ति होती है । जैसे भूमि और जलकी अधिकता से मधुर, पृथ्वी और अग्निकी अधिकतासे अम्ल, जल और अग्नि
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
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की अधिकतासे लवण, आकाश और वायु | कटुरस जिह्वा के अग्रभाग में अग्नि की की अधिकतासे कटु, अग्नि और वायुकी / ज्वालासी लगा देता है, सुखमें झलझलाहट अधिकतासे तिक्त, तथा भूमि और वायुकी | होकर आंख नाक और मुखसे पानी टपकने अधिकतासे कपायरस उत्पन्न होताहै । ।
लगताहै, कपोल जलने लगतेह । छःरसोंके गण । ।
कषायरस ( कसेला ) जिह्वा में जड़ता तेषां विद्याद्रसं स्वादु यो वक्रमनुलिपति ।।
करता है अर्थात् अन्य रसों का स्वाद लेनेमें आस्वाद्यमानो देहस्य हादनोऽक्षप्रसादनः ॥ जिह्वा शक्तिहीन होजाती है । कण्ठके सोतों प्रियापिशीलिकादनिाम्
में विरुद्वता होता है। ____ अम्लः क्षालयतेमुखम् ।
मधुरस के कर्म । हर्षणो रोमदंतानामक्षिश्रुवनिकाचनः ॥३॥ रसानामिति रूपाणि काणि लवणःस्थेदयत्यास्यं कपालगलदाहकृत् ।।
मधुरो रसः॥६॥ तिक्तो विशदयत्यास्यं रसनं प्रतिहंति च ।४। आजन्मसात्म्यात्कुरुते धातूना प्रबलं बलम् । उद्वेजयति जव्हान कुर्वश्चिमिचिमां कटः ।। बालवृद्धक्षतक्षीणवर्णफेशदियौजसाम् ॥७॥ सावयत्यक्षिनासास्यं कपोलौ दहतीवच॥ प्रास्तो वृंहणः केटाःस्तन्यसंधानकृद्गुरुः। कषायो जडयेजिव्हां कंठस्रोतोविबंधकृत । आयुष्यो जयिनः विधिःपित्तानिलविषाऽपह अर्थ- इन छ: रसोंमेंसे जिस रसका कुरुतेऽत्युपयोगेन समेदाकफजान् गदान् ।'
स्थौल्याशिहादसंन्यासमेहगंडाबुंदादिकान् स्वाद लैनेसे मुखमें लिहलावट, देहमें आल्हा
अर्थ इस तरह मधुरादि छः रसोंके लक्षदकता, इन्द्रियों में प्रसन्नता होती है उसे
ण संक्षेपसे कहे गरे हैं, अब विशेष रूपसे मधररस कहतेहैं यह रस चींटियों को अ
उनके लक्षण कहते हैं। धिक प्रिय होताहै।
मधुररस- धातुओंके वल को बढाता है अम्लरस को जिह्वापर रखनेसे मुखमे | क्योंकि वह जन्मकाल हीसे देह के सात्म्य पानी भर आताहै, रोमांच खडे हो जातेहैं, | होता है, जैसे वालकपन हाँसे मधुररस युक्त दांतोंमें खटाई आजाती है । आंख और
दुग्धादि के सेवन से शरीरस्थ रस रक्तादि भृकुटी संकुचित होजाती है ।
धातुओंमें बल बढतारहताहै ,यह रस वालक, लवणरस मुखमें स्राव तथा कपोल और | वृद्ध, क्षतक्षीण, व्यक्तिओं का बल बढाताहै, कंठमें दाह करताहै । अन्नमें रुचिबढाताहै वर्ण, केश,इन्द्रियगण और ओज की वृद्धिमें यह गुण प्रसिद्ध है इसलिये उसका यहां अति प्रश स्तहै । यह पुष्टिकर्ता, कण्ठ को उल्लेख नहीं है।
हितकारी,स्तनों में दुग्ध बढाने वाला, टूटी तिक्तरस (तीखा वा चरपरा) मुखमें विशद- अस्थिकोजोड़नेवाला,भारी,आयुवर्द्धक,जीवन, ता करता है और रसनेन्द्रिय को नष्टकरदेता | स्निग्ध तथा पित्त, वायु और बिषकानाशकहै अर्थात् उसमें दूसरे रसके ग्रहण करने की। इस मधुररस का अत्यन्त सेवन मद रोग शक्ति नहीं रहती है।
| तथा कफज रोगको करताहै, तथा स्थूलता
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अष्टांगहृदये।
अ० १०
अग्निमांद्य, सन्यास, प्रमेह, गंड, अर्बुद | तिक्तरस के गुण। आदि रोगों को करता है।
तिक्तः स्वयमरोचिष्णुररुचिं कृमितृ बिषम् ॥ अम्लरस के गुण । कुष्टमूच्र्छाज्वरोत्क्लेशदाहपित्तकफान् जयेत् अम्लोऽग्निदीप्तिकृत्निग्धो हृद्यः पाचनरोचनः
कलेदोदोवसामजशकुन्मत्रोषशोषणः॥१५॥ उष्णवीयों हिमस्पर्शःप्रीमनो भेदनो लछः१० लघुसंध्या हिमो कक्षा स्तन्यकंठविशोधनः । करोति कफपित्तात्रं मूढवातानुलोमनन । धातुक्षयाऽनिलव्याधीनतियोगात्करोति सः सोऽत्यभ्यस्तस्तनो कुर्याउछैथिल् तिमिरंशसम अथे-तिक्तरस स्वयं अरोचनशील है । कंडुपांडुत्ववीसर्पशोफविस्फोटतडज्वरान् ।। परन्तु अरुचि को दूर करता है । यह कृमि
अथे-अम्लरस अग्नि संदीपन, स्निग्ध, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूच्छो, ज्वर, उक्लेश हृदय को हितकारी, पाचन, रोचन, उष्ण- (जी मचलाना ) दाह, पित्त और कफको वर्य्यि, स्पर्श में शीतल, प्रणिनकर्ता, भेदी । दूर करता है । यह क्लेदता, मेद, वसा,
और हलका है । कफ और रक्त पित्त को मज्जा, मल और मूत्र का शोषक है । तथा करता है। और कुपथगामी वातको अपने यह लघु, मेधोत्पादक, हिम, रूक्ष, दूध का मार्ग पर लेआता है । इसका अधिक सेवन शोधन करनेवाला कंठको शुद्ध करनेवालाहै । देह में शिथिलता, तिमिररोग, भ्रम, कंड। इसका अत्यन्त सेवन करने से धातुक्षय और पांडुरोग,बिसर्प, सूजन,विस्फोटक,तष्णा और । वात व्याधियां उत्पन्न होती है। ज्वर इनको उत्पन्न करता है ।
टुरस के गुण ।। लवणरस का गुण ।
कलासयोदईकुछालसकशोफजित् । लवणः स्तंभसंघातभविष्मायनोऽसित १२ बणावसादनमोहमेदकलेदोपशोषणः॥१७॥ लेहनः स्वेदजस्तीगो रोचनश्छेदभेदकृत। दापनामावनो रुच्याशोधनोऽस्य शोषणः। सोऽतियुक्तोऽत्रपयनं खलति पलितं पलिम्
छिनतिबंधान स्रोतांसि विवृणोति कफापहः। तृकुष्ठधिषवीसान् जनयेत्क्षपयेवलम् ।
| कुरुते सोऽतियोगेन तृष्णां शुक्रवलक्षयम्९ अर्थ-लवणरस खाये हुए द्रव्यमें स्तब्ध
मुर्छामासुजन कंप काटिपृष्टादिषु व्यथाम्१
अर्थ-कटुरस कण्ठरोग, उदर्द, कुष्ठ, ता, संघात, मलादि की प्रबलता को नष्ट
अलसक और शोफको दूर करता है । घाव करता है, यह अग्निसंदीपन, स्नेहजनक,
को भरताहै । स्नेह, मेद और क्लेदको सुखा पसीना लानेवाला, तीक्ष्ण, रोचक, प्रन्थि आदि का छेदन करनेवाला और भेदक है ।
देताहै । यह अग्निसंदीपन, पाचन, रुचि. इसके अत्यन्त सेवन करने से वातरक्त,
कर्ता, शोधक और अन्न का शोषणकर्ता है खलित (बालोंका गिरना ) पलित । यह मलकी विवद्धता को दूर करता है । ( कुसमय बालोंका सफ़ेद होना ) बलि स्रोतों को खोलता है और कफनाशक है । ( देहकी त्वचा में झुरीं पड़जाना ) तृषा इसका अत्यन्त सेवन करनेसे तृषा, बलक्षकोढ़, विपरोग, विसर्प, इन रोगोंको उत्पन्न य,मुर्छा अंगसकाच, कंगन, कमर और पीठमें करता है तथा बलको क्षीण करता है। दई उत्पन्न होताहै ॥
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
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कषाय रसके गुण । वर्ग हैं तथा इनसे आदि लेकर और भी कषायः पित्तकफहा गुरुरस्रविशोधनः। ।
जैसे तृण पंचमूल, मेदा, मज्जा, तेल, मीपीडनो रोपणः शीतः क्लेदमेदोविशोषणः२०
ठाअनार, पुष्करवीज, सिंघाड़ा, असगंध, भामसंस्तंभनो ग्राही रूक्षोऽतित्वक्प्रसादनः । करोतिशीलितःसोऽतिविष्टंभाध्मानहृदुजः। श्वदंष्ट्र, मृणाल, कसेरू, खिजूर आदि भी वृद्कार्यपौरुषभ्रंशस्रोतोरोधमलग्रहान् ।, मधुरस्कंध में परिगणनीय हैं। अथे-कषायरस पित्तकफनाशक, भारी |
अम्लबर्ग के द्रव्य रक्तशोधक, पीडक, ( पीडापहुंचाने वाला) अम्लो धात्रीफलाम्लीकामातुलुंगाम्लवेतसम् रोपणकर्ता, शीतल, क्लेद, और मेदका शो- | दाडिमं रजतं तकं चुकं पालेवतं दधि ।। पणकर्ता, आमसंस्तंभक ( आमको बाहर
आम्रमाम्रातकं भव्यं कपित्थं करमर्दकम् ९६ निकलने नहीं देता है ), संग्राही, रूक्ष और
__ अर्थ-आंवला,इमली, विजौरा, अम्लवेत,
अनार चांदी, तक्र, चूका, पालेवत, दही, त्वचाको अत्यन्त सुन्दर करने वाला है, ।
आम, अंबाडा, भव्य, कैथ, करोंदा ये सब इसका अत्यन्त सेवन, करने से विष्टंभ, अ.
अम्ल वर्गके द्रव्य हैं इनके सिवाय, कोशाम्र, करा, हृद्रोग, तृपा, कृशता, पुंस्त्वकानाश,
लकुच, कुवल, झाडीवेर, बडावेर, दही का स्रोतोंका अबरोध, और मलकी रुकावट में
तोड, धान्याम्ल, आदि संग्रहोक्त द्व्य भी रोग उत्पन्न होते हैं।
इसी वर्ग में हैं। मधुरवर्ग के द्रव्यों के नाम
लवण वर्ग के नाम । वृतहेमगुडाक्षोडमचिचोचपरूषकम् । २२ । । वरंसौवर्चलं कृष्णं विडं सामुद्रमौद्भिदम् । अमीरुघोरापनलराजाइनबलायम् ।
रोमकं पांसुजं शीसं क्षारश्च लवणो गणः२७ मेदे चततः पर्शिन्यो जीवंतीजीवकपभो।२३। अर्थ-सेंधानमक, संचलनमक, कालामधूकं मधुकं विवी विदारी श्रावणीयुगम् । क्षीरशुक्ला तुगाक्षीरी क्षोरिण्यौ काश्मरी सहे नमक, विडनमक, सामुद्रनमक, औद्भिदनमक क्षीरेक्षुगोक्षुरक्षौद्राक्षादिमधुरो गणः। काचनमक, खारीनमक, सीसेकानमक, तथा
अर्थ-घृत, गुवर्ण, गुड, अखरोट, केला जबाखारादि ये सब लवण वर्ग के द्रव्य है। तालफल, फालसा, शतमूली, क्षीरकाकोली, तिक्त वर्ग के नाम । पनस, खिरनी, वला, अतिवला, नागबला, तिक्तः पटोली त्रायंती बालकोशीरवंदनम् । मेदा,महामेदा, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, मुद्गपर्णी,
भूनिंबनिंबकटुकातगरागुरुवत्सकम् ॥२८॥
नक्तमालद्विरजनीमुस्तमूर्वाटरूपकम् । माषपर्णी, जीवक, ऋपभक, महुआ,मुलहटी
पाठापामार्गकांस्यायोगुडूचीधन्वयासकमरर विवी, विदारीकंद. श्रावणी, महाश्रावणी,क्षी
पंचमूलं महह्याद्यौविशालाऽतिविषा वचा। रशुक्ला, वंशलोचन, क्षारिणी, महाक्षीरिणी, अर्थ-पटोलपत्र, त्रायंती ( त्रायमाणा,) खभारी, महासहा, क्षुद्रसहा, दूध, ईख, वाला, उशीर, चन्दन, भूनिंब, नीम, कुटकी गोखरू, शहत, दाख ये सब मधुर तगर, अगर, इन्द्रौ , कंजा, हलदी, दारु
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अष्टांगहृदय |
हलदी, मोथा, मरोड़फली, अडूसा, पाठा, ओंगा, कांसा, लोहा, गिलोय, दुरालभा, महापंचमूल, छोटी कटेरी, वडी कटेरी, विशाला, अतीस और वच ये तिक्त वर्ग द्रव्य हैं ।
कटु वर्ग के नाम |
कटुको हिंगुमरिचकृमिजित्पंचकोलकम् |३०| कुठराद्या हरीतकाः पित्तं मूत्रमरुष्करम् |
अर्थ -- हींग, मिरच, वायविडंग, पंचकोल (पीपल, पीपलामूल, चीता, चव्य और सोंठ, ) कुठेरादि, हरड़, बकरे का पित्ता और मूत्र, भिलावा ये सव तिक्तवर्ग के द्रव्य हैं इनके सिवाय मनासिल, सरसों, कूट आदि भी इसी गण में हैं ।
कषाय वर्ग के नाम |
वर्गः कषायः ५ध्याक्षं शिरीषः खदिरो मधु ॥ कदम्बोदुम्बरं मुक्ताप्रवालाञ्जनगैरिकम् ३२| या कथिस्थ खर्जूरं बिसपद्भोत्पलादि च ।
अर्थ-- हरड़, बहेड़ा, सिरस, खैर, मधु, कदंब, गूलर, मोती, मूंगा, अंजन, गेरु, का कैथ, खिजूर, कमलनाल, पद्म, उत्पल तथा आदि शब्द से प्रियंगु, लोध, आदि ये कषाय वर्ग के द्रव्य हैं । मधुर द्रव्यों के गुण |
मधुरं श्लेष्मलं प्रायो जीर्णाच्छालियवादृते ॥ मुद्राद्गोधूमतः क्षौद्रात्सिताया जांगलामिषात्
अर्थ - - मधुर द्रव्य प्रायः कफकारक होते हैं परन्तु पुराने चांवल, पुराने जौ, मुंग, गेहूं, शहत, शर्करा, जांगल जीवों का मांस ये द्रव्य मधुर होने पर भी कफकारक नहीं होते हैं ।
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अ० १०
अम्ल और लवण वर्ग । प्रायोऽम्लं पित्तजननं दाडिमामलकाटते । अपथ्यं लवर्ण प्रायश्चक्षुषो ऽन्यत्र सैंधवात् ॥
अर्थ- अनार और आमले को छोडकर शेष सव खट्टे पदार्थ प्रायः पित्तकारक हो है अर्थात् अनार और आमले तो खट्टे होने पर भी पित्तकारक नहीं होते । नमक वर्ग
सब द्रव्य प्रायः नेत्रों को अहित होते हैं पर सेंधा नमक अहित नहीं होता । तिक्त कटु वर्ग |
तिक्तं कटु च भूयिष्ठमवृष्यं वातकोपनम् । ऋतेऽमृतापटोलीभ्यां शुठी कृष्णा रसोनतः ॥
अर्थ-- तिक्त द्रव्यों में गिलोय और पटोल को छोड़कर सव प्रकार के तिक्त द्रव्य, और कटु द्रव्यों में सोंठ, पीपल और लहसनको छोड़कर बाकी सब पदार्थ अत्यन्त अवृष्य । और वात को प्रकुपित करने वाले होते हैं ।
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कषाय वर्ग के गुण |
कषायं प्रायशः शीतं स्तंभनं चाऽभयामृते ।
अर्थ- हरीतकी के सिवाय सब कषाय पदार्थ प्रायः शीतवीर्य और मलस्तंभन होते है रसों में शीतोष्णवीर्यता | रसाःकट्वम्ललवणा वीर्येणोष्णा यथोत्तरम्॥ तिक्तः कषायो मधुरस्तद्वदेव च शीतलः अर्थ -- कटु अम्ल और लवणरस उत्तरोत्तर उष्णवीर्य हैं अर्थात् कटुसे अम्ल और अम्ल से लवण उष्णवीर्यं हैं । इसीतरह तिक्त, कऔर मधुर प्रायः उत्तरोत्तर शीतवीर्य है रसों की रूक्षता । तिक्तः कटुः कषायश्च रुक्षा बद्धमलास्तथा ॥ अर्थ - तिक्त, कटु और कपायरस प्राय: रूक्ष और मलको बांधनेवाले होते हैं ।
षाय
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: अ० १०
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
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रसकी स्निग्धता। | णरस्रके संयोगसे तीन जैसे लवणतिक्त, लव पट्वम्लमघुराः स्निग्धाः सृष्टविण्मूत्रमारुता। णकटु,लवणकषाय,फिर लवणकोभी छोड देने अर्थ-लवण, अम्ल और मधुर प्रायः स्निग्ध से दो जैसे सिक्तकटु और तिक्तकषाय फिरतिक्त और मलमूत्र और वायुको निकालनेवाले होतेहैं
को भी छोड दैनेसे एक कटुकषाय होता है - रसका भारीपन ।
इसतरह दो दो के संयोग से रसों के पन्द्रह पटोकषायस्तस्माच्च मधुरम्परमं गुरुः ॥ अर्थ लवणरस से कषाय और कषायसे मधु
प्रकार होते हैं। ररस भारी होता है।
तनि तीन रसोंके संयोगमें मधुररसके संयोग रसका हलकापन । से दसभेद जैसे मधुराम्ललवण, मधुरा लतिक्त, लघुरम्लः कटुस्तस्मात्तस्मादपि च तिक्तकः।
मधुरम्लकटु मधुराम्लकषाय, मधुरलवणातक्त अर्थ-अम्लरससे कटु और कटुसे तिक्त ह
मधुरलवणकटु, मधुरलवणकषाय, मधुरतिक्त ‘लका होता है।
कटु मधुरतिक्तकषाय और मधुर कटुकषाय । रसका संयोग।
अम्लरस के संयोग से छः भेद होते हैं संयोगासप्तपंचाशत्कल्पना तु त्रिषष्टिधाम
जैसे, अम्ललवणतिक्त, अम्ललवणकटु रसानां यौगिक्त्वेन यथास्थूल विभज्यते । अर्थ- रसोंके आपसके संयोगसे सत्तावन
अम्ललवणकषाय, अम्लसिक्तकटु, अम्ल. भेद होते हैं इनकी कल्पना तिरेसठ होती है
तिक्तकषाय और अम्लकटुकषाय | लवण रस और अनुरसके संयोगसे रसके अनंत भे
रस के संयोग से तीन भेद होते हैं जैसे द होजाते हैं । परन्तु महा स्थूल अर्थात् व्य
लवणतिक्तकटु, लवणतिक्तकषाय और लक्तरसोंके अनुसार कल्पना की गई है।
बणकटुकषाय । . रससंयोग के भेद ।
तिक्तरस-के संयोग से तिक्त कटुकषाय एकैकहीनांस्तान्पंच पंच याति रसा द्विके ।। एकही भेद होता है । इस तरह तीन तीन त्रिकेस्वादुर्दशाग्लःषत्रीन्पटुस्तिक्तएककम् | रसों के संयोगवाले वीस भेद होते हैं । चतुष्केषुदशस्वादुश्रतुरोऽम्लम्पटुःसकृत् ॥
चारचार द्रव्यों के संयोग में मधुर रसके पत्रकेष्वेकमेवाम्लो मधुरः पंच सेवते । द्रव्यमेकं षडास्वादमसंयुक्ताश्च षड्साः ४२
संयोग से दस भेद होते हैं जैसे मधुरअम्लअर्थ--रसोंके भेद इसप्रकार हैं,यथाः- मधु- लवण तिक्त, मधुराम्ललवणकटु, मधुराम्लरअम्ल,मधुरलवण, मधुरतिक्त, गधुरकटु, औ लवणकषाय, मधुराम्लतिक्तकटु, मधुरार मधुरकषाय इसतरह मधुरके संयोगसे पांच | म्लकटुकषाय, मधुर लवण तिक्तकटु, मधुर प्रकार होते हैं। फिर मधुररसको छोडकर अ. लवणतिक्तकषाय, मधुरलवणकटुकषाय, म्हरसके संयोगसे चारप्रकार होते हैं जैसे अ | और मधुरतिक्तकटुकषाय । मलळवण, अम्लतिक्त, अम्लकटु, और अम्ल- मधुरको छोडकर अम्लके संयोग से चार कषाय | फिर अम्लको भी छोड दैनेसे लव- | भेद होते हैं जैसे अम्ललवणतिक्तकटु,अम्ल
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Singer
( १०० )
लवणतिक्तकषाय, अम्लतिक्तकटुकषाय । लवणरस के संयोग में एक होता जैसे लवणतिक्तकटुकषाय !
पांच पांच रस के मिलने से छः भेद होते हैं इसमें मधुर के संयोग से पांच होते हैं, यथा मधुर अम्ललवणतिक्त कटु, मधुर अम्ललवण तिक्तकषाय, मधुर अम्ललवण तिक्त कटु,
कषाय ।
मधुर - को छोडकर अम्लके संयोग से एक. जैसे अम्ललवण तिक्त कटुकषाय ।
छः रसके संयोग से एक मधुर अम्ललवतिक्तकटुकषाय होता है । इस तरह कुल मिलाकर सत्तावन और जुदे जुदे छः रस इन सबका योग तिरेसठ होता है ।
तिरेसठ रस भेदों का विवरण । षट्पंचकाः षट् च पृथग्रसाः स्यु-श्चतुर्द्विको पंचदशप्रकारौ भेदात्रिका विंशतिरेकमेवद्रव्यं षडास्वादमिति त्रिषष्टिः ॥ ४३ ॥ अर्थ - ऊपर के भेदों का विवरण इस तरह है पांच पांच रसों के संयोग से छः दोदो रस के संयोग से पन्द्रह भेद हैं । चार चार रस के संयोग से पन्द्रह भेद । तीनतीन रसके संयोग से बीस छः रसों के संयोग से एक भेद होता है । इस तरह सब मिलकर तिरे सठ भेद होते हैं
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रसकी सूक्ष्मकल्पना | ते रसानुरसतो रसभेदास्तारतम्यपरिकल्पनया च । संभवति गणनां समतीता दोषभेषजवशादुपयोज्याः ॥ ४४ ॥ अर्थ - ऊपर कहे हुए रस के त्रेसठ भेदों
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की कल्पना केवल स्थूल भाबमें वर्णन की गई है यदि इनकी कल्पना अनुरसों के तारतम्य से की जाय तो इन के इतने भेद होसकते हैं जो गिनती में भी नहीं आसते । वातादि दोष और हरीतक्यादि औषध की विवेचना करके उक्त रस भेदों का प्रयोग करना उचित है ।
इति अष्टाङ्गहृदये भाषाटीकायां दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
अ० १०
एकादशोऽध्यायः ।
अथातो दोषादिविज्ञानीयमध्यायं व्या
ख्यास्यामः
अर्थ- अब हम यहांसे दोषादिविज्ञानीय अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
८८
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बातादि दोषों के कर्म । 'दोषधातुमलो मूलं सदा देहस्य तं चलः । उत्साहोच्छ्वासानश्वासचेष्टावेगप्रवर्तनैः १ ॥ सम्यग्गत्या च धातूनामक्षाणां पाटवेन च । अनुगृह्णात्यविकृतः पित्तं पक्त्युष्मदर्शनैः ॥ २ ॥ क्षुतृइा चेप्रभामेधाधीशौर्यतनुमार्दवैः श्लेष्मास्थिरत्व स्त्रिग्धत्वसंधिंवधक्षमादिभिः अर्थ - बातादि दोष, रसादि धातु, और मूत्रपुरीषादि मल, ये सब शरीर के मूल हैं अर्थात् जन्मसे मरण पर्य्यन्त अविकृत दोबादि देहको बनाये रखने के प्रधान हेतु हैं । अविकृत वायु, उत्साह, उच्छ्वास (श्वासको बाहर निकालना ), निःश्वास ( श्वास को भीतर खींचना ), चेष्टा ( मन, बाणी और
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अ ११
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१०१)
कायाका व्यापार ), वेगप्रवर्तन ( मलमूत्र
मलका कर्म अधोवायु आदि का शरीर से बाहर निका- | अवष्टंभः पुरीषस्य मूत्रस्य क्लेदवाहनम् । लना, धातुओं की सम्यक् गति, संपूर्ण इ.
स्वेतस्य क्लेदविधृतिः। न्द्रियों की पटुता इन कर्मों को करता हुआ
___ अर्थ-पुरीब का कर्म देह को धारण अविकृत वायु शरीर पर उपकार करता है
करना, मूत्र का कर्म भीतर के छेद को बाहर इसीतरह अविकृत अर्थात् विनाविगडा हुआ
निकालना और पसीनों का काम क्लेद धापित्त परिपाक, ऊष्मा (शरीरोष्मा धातू
रण करना है क्योंकि जो शरीरमें क्लद न
रहे तो त्वचा सूखी और रूखी होजाती है मा, और जठराग्नि ) पहुंचाना, दृष्टिशक्ति,
केश और रोमों का धारण करना ये पसीनों क्षुधा, तृषा, रुचि, कांति, निश्चयात्मिका
| का काम है। बुद्धि, ज्ञानात्मिका बुद्धि, पौरुष और देह में
वृद्धवायुका कर्म । मृदुता इन कर्मो को करता हुआ शरीर पर
__ वृद्धस्तु कुरुतेऽनिलः। उपकार करताहै । इसी तरह अविकृत कफ कार्यकाय?ष्णकामित्वकंपाऽनाहशकुनहान देह में स्थिरता, स्निग्धता संधिवन्धन और बलनिनेंद्रियभ्रंशप्रलापभ्रमदीनताः ॥ ६॥ क्षमा उत्पन्न करके शरीर पर उपकार कर
___अर्थ-बायु बढने पर शरीर को कृश
करदेती है, देह का रंग काला करती है, . धातुका कर्म ।
गरम पदार्थो में रुचि वढाती है, कंपन, प्रीणनं जीवन लेपः स्नेहो धारणपूरणे ।। अफरा, मलकाअवरोध, वलका नाश, निद्रागर्भोत्पादश्च धातूनां श्रेष्ठं कर्मक्रमात्स्मृतम्
| नाश, करती है, प्रलाप भ्रम और दीनता अर्थ-रसादि सात धातुओं के क्रमपू.
| इनको भी उत्पन्न करती है। र्वक प्रीणनादि सातकर्म हैं । इनमें से भो
वृद्ध पित्तका कर्म । जन करने से उत्पन्न हुआ रस इन्द्रियगणों में प्रविष्ट होकर उनको निर्मल करता हुआ
| पीतविण्मूत्रनेत्रत्वक्क्षुत्तृड्दाहाऽल्पनिद्रताः
पित्तम् मनमें प्रीणन अर्थात् तृप्ति करता है । रुधिर
| अर्थ-पित्त बढने पर मल,मूत्र, नेत्र का कर्म जीवन अर्थात् प्राणधारण है। और त्वचा को पीला करदेता है, क्षुधा, मांस का कर्म लेपन, बल और पुष्टि है।
तृषा दाह और अल्पनिन्द्रा भी करता है । मेद का कर्म स्निग्धता अर्थात् तैल मर्दन की तरह देह में चिकनापन करना है अ.
वृद्ध कफकाकर्म ।
श्लेष्माऽग्निसदनप्रसेकालस्यगौरवम् ॥७॥ स्थिका कर्म देह धारण है । मज्जा का कर्म । त्यशैत्यश्लथांगत्वं श्वासकासातिनिद्रताः। छिन्द्रों का पूरण करना और वीर्यका कर्म अर्थ-कफ बढने पर जठराग्नि को मंद गर्भोत्पादन है । धातुओं के ये श्रेष्ठ क्रम से प्रसेक ( मुख से लार टपकना ) आलस्य, कहे गये हैं।
भारापन, त्वचामें श्वेतता, शीतलता, शरीर
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(१०२)
अष्टांगहृदये।
अ० ११
में शिथिलबा, श्वास, खांसी और अधिक | वृद्ध अस्थिका कर्म । निद्रा इन विकारों को उत्पन्न करताहै। | अस्थ्यध्यस्थ्यधिदतांश्च
बढेहुए रसरक्त का कार्य । अर्थ-अस्थि के बढ़ने पर अध्यस्थि रसोऽपि श्लेष्मवद्रक्तं विसर्पग्रीहविद्रधीन ॥ (हड्डी पर हड्डी) और अधिदंत ( दांत पर कुष्ठवातास्त्रपित्तास्रगुल्मोपकुशकामलाः । दति) इन रोगोंको करती है । व्यंगाग्निनाशासंमोहरक्तत्वङ्गेत्रमूत्रता॥९॥ बीहुई मज्जा का कर्म । अर्थ-वढेहुए रस का कार्य कफके समान
मजा नेत्रांगगौरवम्॥११॥ होता है अर्थात् अग्निमांद्यादिक करता है। पर्वसु स्थूलमूलानि कुर्यास्कृच्छ्राण्यरूंषि च । तथा बढाहुआ रक्त विसर्प, प्लीहा, विद्रधि,
अर्थ-बढी हुई मज्जा नेत्र और अङ्ग को कोद, बातरक्त, रक्तपित्त, गुल्म, उपकुश,
भारी कर देती है अंगुली के पोरुओंमें मोटी ( दन्तरोग ) कामला, व्यंग, अग्निनाश,
जड़वाली ऐसी फुसियां करदेतीहै कि जिनमूर्छा तथा त्वचा नेत्र और मूत्र में ललाई
के आराम होने की कोई आसा नहीं होती।
बढ़ेहुए धीर्य का कर्म । उत्पन्न करता है।
अतिस्त्रीकामतां वृद्धं शुक्रं शुक्राश्मरीमपि॥ वृद्धमांस का कर्म ।
अर्थ-बढा हुआ वीर्य बहुतसी स्त्रियों के मांसं गंडाबंदग्रंथिगंडोरूवरवृद्धताः।।
साथ भोगकी इच्छा उत्पन्न करता है तथा कंठादिष्वधिमांसं च
शुकाश्मरी अर्थात् पथरी रोग को उत्पन्न अर्थ-बढ़ा हुआ मांस गंडमाला, अर्बुद.
करता है। और ग्रंथि ( गांठ ) रोगों को उत्पन्न करता है । गंडस्थल, उदर और ऊरू इन |
बढ़े हुए पुरीष का कर्म ।
कुक्षावाध्मानमाटोपं गौरवं वेदनां शरुत् । को बहुत बढाता है । तथा कंठ, ताळू और
अर्थ-बढ़ाहुआ पुरीष दोनों कूखोंमें गड़जीभ आदि में मांस को बढाता है ।
| गडाहट अर्थात् अत्रकूजन करता है । तथा वृद्ध मेदका कर्म ।
पेट में अफरा, शरीरमें भारापन और वेदना तद्वन्मेदस्तथा श्रमम् ॥१०॥ अल्पेऽपिचेष्टितेश्वासं स्फिक्तनोदरलंबनम् ।
करता है। अर्थ-मेद बढने पर मांस की वृद्धि के ।
बढ़े हुए मूत्र का कर्म । समान ऊपर लिखे हुए गंडमालादिक रोगों
| मूत्रं तु बस्तिनिस्तोदं कृतेऽप्यकृतसंज्ञताम् ।
अर्थ-बढ़ाहुआ मूत्र बस्तिं (पेडू) में को करता है । इसके अतिरिक्त थोडीसी
पीड़ा उत्पन्न करता है । मूत्र होने पर भी महनत करने से भी थकाबट और हांफनी ऐसा भास होताहै कि मूत्र नहीं किया है। आजाती है और कूल्हा, स्तन और उदर बढे हुए पसीने । स्थूल होकर लटक पडते हैं।
| स्वेदोऽतिस्वेददौर्गध्यकंडूः
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अ० ११
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१०३)
अर्थ-बढे हुए पसीने पसीनों को अ- |
- रसादि की क्षीणता ।
| रसे रौक्ष्यं श्रम शोषोग्लानिःशब्दासहिष्णुता धिकता, दुर्गन्धि और खुजली पैदा करते हैं ।
रक्तेऽम्लशिशिरप्रीतिशिराशैथिल्यरूक्षताः॥ अन्यमल।
मांसेऽक्षग्लानिगंडस्फिकशुष्कतासंधिवेदना
एवं च लक्षयेत् । मेदासे स्वपनं कट्याः प्लीह्रो वृद्धिः कृशांगता दूषिकादीनपिमलान बाहल्यगरुतादिभिः१४/ अस्थन्यस्थितोदः शदनं दंतकेशनखादिषु । अर्थ-इसी तरहसे आंख के मल को भी
अस्मां मजनि सौषिर्य भ्रमास्तमिरदर्शनम्॥
शुक्र चिरात् प्रसिच्येत शुक्रं शोणितमेव वा। जानना चाहिये आदि शब्द से नाक कान तादोऽत्वर्थ वृषणयोर्मेंदूं धूमायतीव च॥२०॥ आदि का भी मल होताहै इन की परीक्षा | अर्थ-रसके क्षीण होने से रूक्षता, थका यही है कि मल बहुत निकलता है और उस | वट, सूजन, ग्लानि और शब्द सुनने में स्थान में भारापन आजाता है आदि शब्द | अरुचि । ये रोग होतेहै । रक्त के क्षीण हो. से खुजली क्लेदादि का भी प्रहग है। ने पर खट्टे और तिल पदार्थो के सेवन में
क्षीणवातादि के लक्षण | रुचि बढती है । नसें ढीली पड़जाती हैं । लिंगंक्षीणेऽनिलेऽगस्यसादोऽल्पंभाषितेहितम और शरीर रूक्ष हो जाता है । मांस के संज्ञामोहस्तथा श्लेष्मवृध्युक्तामयसंभवः।१५ क्षीण होने पर इन्द्रियों में ग्लानि, गंडस्थल पित्ते मंदोऽनल शीतंप्रभाहानिः
कफे भ्रमः।
और कूल्हों में कृशता, और हाथ पांव के श्लेष्माशयनां शून्यत्वं हृवश्लथसंधिताः१६ |
जोडों मे दर्द पैदा होता है । मेद के क्षीण अर्थ - शरीर में जितनी वातकी आव
होने पर कटिभाग में शिथिलता, प्लीहा श्यकता है उससे कभी होने पर ये चिन्ह की वाद्ध, और शरीर में कृशता होती है । होते हैं यथा शरीर के अवयव अपने २ कर्म
अस्थि के क्षीण होने पर हड़फूडन, तथा करने में असमर्थ होजाते हैं । वोलने और | दांत केश और नख आदि का पतन होने शरीर के व्यापार में न्यूनता आजाती है, लगता है मज्जा के क्षीण होने पर अस्थियों संज्ञा का नाश होजाता है तथा कफ की में छिद्र भ्रम तथा आंखों के आगे अँधेरा वृद्धि में जो जो रोग पीछे कह आये हैं ये छा जाता है । वीर्य के क्षीण होने पर वी ये भी सब उत्पन्न होजाते हैं।
बहुत देर में निकलता है । अथवा वीर्य के पित्तक्षीण होने पर जठराग्नि की मंदता,
बदले रुधिर आने लगता है अंडकोषों में
अत्यन्त वेदना होने लगती है और शिश्नेशीतलता तथा कांति की हानि होजातीहै ।
न्द्रिय में ज्वालासी उठती है । कफक्षीण होने पर भ्रम होता है तथा हृदय
मल की क्षीणता । शिर और संधि आदि कफ के स्यान शून्य
पुरीषे वायुरंत्राणि सशब्दो वेष्टयन्निव ।। पड़ जाते हैं।
| कुक्षौ भ्रमति यात्यू हृत्पार्श्वपीडयन्भृश्नम्
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(१८४)
अष्टांगहृदये।
अ० ११
मूळेऽल्पं मूत्रयेत्कृच्छाद्विवर्ण सास्रमेव वा।। षादि में जो पदार्थ जिभ गुणवाला है देह में श्वेदे रोमच्युतिःस्तब्धरोमता स्फुटनं त्वचः॥ यदि उनके विपरीत गुणकी क्षीणता दिखाई
अर्थ-पुरीष के क्षीण होने पर वायु शब्द दे तो समझना चाहिये कि उस पदार्थ की करती हुई सम्पूर्ण आंतों के चारों ओर लि- वद्धि है और जो बुद्धि दिखाई दे तो जान पटती हुई उदर में अत्यन्त भ्रमण करती है ।
अत्यन्त भ्रमण करता है | लेना चाहिये कि उस की क्षीणता है यथातथा हृदय और पसलीमें अत्यन्त पीडा करती
वायु के गुण रूक्षलघु और शीत आदि हैं, हुई ऊपर को चढती है । मूत्रके क्षीण होने
इन गुणों से विपरीत गुण स्निग्ध, गुरु और पर थोडा २ बहुत कष्ट से पेशाव होता है
उष्णादि हैं शरीर में यदि इन स्निग्धादि विपकिंतु विवर्ण और रुधिर सहित मूत्र होताहै रीत गुणों की वृद्धि हो तो जान लेना चाहिये पसीनों के क्षीण होने पर रोम गिर पडते हैं
कि बात की क्षीणता है और जो स्निग्धादि की तथा रोमों में स्तब्धता और त्वचा में फटन | क्षीणता दिखाई दे तो जान लेना चाहिये कि पैदा होती है।
वायुको वृद्धिहै । इसी तरह और पदाथों की भी घ्राणादिमलकी क्षीणता। क्षयवृद्धि जानी जा सकती हैं । यथा पुरीषादि मलानामतिसूक्ष्माणां दुर्लक्ष्यं लक्षयेत् क्षयम् ।
मलों के संग अर्थात् कम निकलने से वृद्धि स्वमलायनसंशोषतोदशून्यत्वलाघवैः ।२३।।
और अधिक निकलने से क्षीणता समझ लेनी अर्थ-आंख का मैल, कान का मैल,
चाहिये। नाक का मैल आदि सूख गये हों वा थोडे
मलकी क्षीणता का उपद्रव । निकलते हों तो उनकी क्षीणता समझना | मलोचितत्वादेहस्य क्षयो वृद्धस्तु पडिनः। कठिन है, तथापि मलस्थान के सूख जाने । अर्थ - यद्यपि मल की वृद्धि और क्षय स, उन म दद हान स, अथवा एसा मा- दोनों ही पीडाक रक है तथापि मलकी क्षीलूम होने से कि खाली होगया है वा हलका | णता से जो पीडा होती है वह बृद्धि से होगया है मल की क्षीणता जानने में | नहीं होती है । इसका कारण यही है कि आती है ।
मल देह के अनुकूल होता है अर्थात् मलके दोषादि की सामान्य क्षयवृद्धि । द्वारा शरीर की रक्षा रहती है कहा भी है दोषादीनां यथास्वं च विद्यादृवृद्धिक्षयौ भिषक "मलायत्तं बलं पुंसां "। क्षयेग विपरीतानां गुणानां वर्धनेन च ॥२४॥ दोषों का आश्रय । वृद्धिं मलानां संगाच क्षयं चाऽतिविसर्गतः। | तत्राऽस्थनि स्थितो वायुःपित्तं तु स्वेदरक्तयोः . अर्थ-दोष, धातु और मलों की बृद्धि
| श्लेष्माशेषेषु तेनैषामाश्रयायिणां मिथः । तथा क्षयका पूरा पूरा वृतान्त पीछे लिखा
यदेकस्य तदन्यस्य वर्धनक्षपणौषधम् ।
आस्थमारुतयोनैवं प्रायो वृद्धिर्हि तर्पणात् ॥ गया है वह वैद्य को समझ लेना चाहिये ।
श्लेष्मणाऽनुगतातस्मात्संक्षयस्तद्विपर्ययात् अब संक्षेप रीति से कहते हैं कि इन दो- घायुनाऽनुगतः
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अ० ११ सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत । (१०५)
अर्थ-इन वातादि दोषोंमें से वायु अ- लघुत्व गुणोंके विरुद्ध होते हैं इसलिये वा. स्थि में रहता है, पित्त पसीने और रक्त में | युका क्षय होता है, इस हेतुसे ऊपर कहे हुए रहता है और कफ रस, मांस, मेदा, मज्जा नियम वायु तथा उसके आश्रय अस्थिमें संभ. शुक्र, मूत्र और पुरीषादि में रहता है । इस व नहीं होते । क्योंकि विशेषकरके संतर्पणसे से यह समझना चाहिये कि धातु और मल बुद्धि होती है और कफ उसके अनुगत है। आश्रय है और वातादि दोष आश्रयी है । अपतर्पण अर्थात् लंघनस धातुओंका क्षय हो जैसे वायु का आश्रय अस्थि है और अस्थि । ताहै और वायु उसके अनुगत है । का आश्रयी बायु है। पित्त का आश्रय स्वेद
क्षय वृद्धिका उपचार । और रक्त है तथा स्वेद और रक्त का आश्र. । अस्माश्च वृद्धिक्षयसमुद्भवान् ॥२८॥ बी पित्त है इसी तरह कफको भी जानो। विकारान् साधयेच्छीघ्र क्रमाल्लंघनवृंहणैः। और इस प्रकार से परस्पर का आश्रयाश्रयी
| पायोरम्पत्र सज्जांस्तु तैरेवोत्कमयोजितैः१९ भाव विद्यमानहै । इन आश्रय आश्रयी दोनों अर्थ-ऊपर कहे हुए प्रमाण के अनुसार • में से एक के लिये जो औषध वृद्धिकारक | वृद्धिका हेतु संतर्पण और क्षयका हेतु अप
वा क्षयकारकहै वही औषध दूसरे के लिये तर्पण है, इसलिये दोष, धातु,मलादिकी बृ. भी वृद्धिकारक वा क्षयकारक है अर्थात् जो | द्विसे उत्पन्न हुए विकारोंको अपतर्पण अर्थात् आश्रय की क्षय वा वृद्धि करती है वह आश्रयी लंघन द्वारा और क्षयसे उत्पन्न हुए विकारों की भी क्षय वा बृद्धि करतीहै । को बृंहण अर्थात् संतर्पण द्वारा दूरकरनेका अब यह बात विशेषरूपसे दिखलाते हैं कि यत्न शीघूतापूर्वक करै । आश्रय और आश्रयी भावको प्राप्त हुए वा- परन्तुवायु जनित विकारों में इससे विपयुके पक्षमें ऐंसा नियम संघटित नहीं होता रीत करना चाहिये अर्थात् वायु की वृद्धि से है। जैसे स्निग्ध मधुरादि द्वारा अस्थिकी बृ- | उत्पन्न विकारों को संतर्पण से और वायु के दि होती है किन्तु वायुकी वृद्धि न होकर क्ष- क्षय से उपजे हुए रोगों को अपतर्पण द्वारा य होता है । अतएव जिससे वायुकी वृद्धि
| दूर करै ॥ वा क्षय होता है उससे तदाश्रयी वायुकी बृ- वातादिक दोषोंकी वृद्धि और क्षयसे उत्पन्न द्धि वाक्षय नहीं होता है । किन्तु अपरापर दो-विकारों की चिकित्सा इस जगह नहीं लिखी ष, धातु और मलकी जो वृद्धि होती है वह गई है । इसका विस्तारपूर्वक वर्णन दोषोंप्रायः स्निग्ध मधुरादि संतर्पण द्वारा होती है । पक्रमणीय अध्याय में किया जायगा ॥
और संतर्पण के योगमें कफ सदा अनुगत । इसके पीछे रसकी क्षयवृद्धि से उपजे हुए रहता है तथा कफकी बृद्धि होती है, इससे रोगों की चिकित्सा कहनी चाहियेथी परन्तु उसके स्निग्धत्व गुरुत्वादि गुण वायुके रूक्षत्व । पहिले कह चुके हैं कि रस कफ के समानह
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अष्टांगहृदये ।
( १०६ )
इसलिये रस की चिकित्सा भी कफ के सदृश जान लेना चाहिये । इससे रसकी चिकित्सा न कहकर रक्तादि की कहते हैं । रक्तादि की चिकित्सा | विशेषाद्रक्तवृद्धयुत्थान् रक्तस्रुतिविरेचनैः । मांसवृद्धिभवान् रोगान् शस्त्रक्षाराग्निकर्मभिः स्थौल्य काश्यपचारेण मेदोजानस्थिसंक्षयात् । जातान् क्षीरघृतैस्तिक्तसंयुतैर्वस्तिभिस्तथा
अर्थ - विशेष करके रक्तकी बृद्धिसे उत्पन्न हुए रोगों में रक्तमोक्षण (फस्द खोलना ) और विरेचन द्वारा चिकित्सा करे। मांस की वृद्धि से उत्पन्न हुए रोगों में शस्त्रकर्म ( नश्तर आदि से काटकर अलग करदेना) क्षारकर्म [ तेजाब से जलादेना ] और अम्निकर्म [ लोहशालाका दिसे दाग देना ] द्वारा इलाज करै । की वृद्धि से उत्पन्न हुए विकारों की चिकित्सा शरीरके कृशकारक उपायों से और मेद के क्षय से उत्पन्न हुए विकारोंकी चिकित्सा स्थूलताकारक उपायों से करै । अस्थि के क्षय से उत्पन्न हुए विकारों की चिकित्सा तिक्त पदार्थ संयुक्त घी और दूध
स्तियों से करे ।
कोई कोई कहते हैं कि वायुजनक द्रव्य अस्थि की क्षीणता से उत्पन्न हुए विकारों की वृद्धि करतेहैं, इस लिये इस जगह तिक्त द्रव्यों का प्रयोग ठीक नहीं है क्योंकि तिक्त द्रव्य बायु उत्पन्न करते हैं, इसका समाधान यह है कि अस्थि स्वाभाविक खर ( कठोर और शुष्क ) है । और जो द्रव्य स्निग्ध और शोषण कर्ता होते हैं वेही खरब पैदा करते है परन्तु ऐसा द्रव्य कोई नहीं मिलता है जिस
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अ० ११
में दोनों स्निग्ध और शोषण गुण हों। इसी लिये घी और दूध स्निग्ध है और तिक्त द्रव्य वायुजनक होने से शोषक है इस तरह इन स्निग्ध और शोषक द्रव्यों की वस्ति अस्थि की वृद्धि कर सकती है ।
ऊपर कहीं हुई तिक्तरससंयुक्त वस्ति मज्जाक्षयजनित और शुक्रक्षयजनित विकारों में भी हितकर है। इन दोनों प्रकार के रोगों में स्वादु और तिक्त भोजन करै तथा वमनादि पञ्च कर्म द्वारा शुद्धि करै । मैथुन व्यायाम तथा अन्यान्य शुक्र के शोधन करने वाले विषय भी हितकारक हैं ।
पुरीषादि की चिकित्सा | विड्वृद्धिजानती सारक्रिययाविद्योद्भवान् मेषाजमध्य कुल्माषयवमाषद्वयादिभिः ॥ ३२ ॥ मूत्रवृद्धिक्षयात्यांश्च मेहकुच्छ्रचिकित्सया । व्यायामाऽभ्यंजनस्त्रेदमयैः स्वेदयोद्भवान् अर्थ - पुरीष की वृद्धि से उत्पन्न हुए रोगों में अतिसार में कहीं हुई चिकित्सा के अनुसार प्रयोग करै । पुरीष की क्षीणता से उत्पन्न हुए विकारों में ढ़ा और बकरा के मध्य भाग का मांस, कुल्माष ( हींग और घृत डालकर अर्द्ध सिद्ध तंडुल और चौला की खिचडी ) जौ, उरद, और राजमाष ( और आदि शब्द से काकांड, कमाच ) आदि मलवर्द्धक द्रव्यों का प्रयोग करै । मूत्रवृद्धि जनित रोगों की चिकित्सा प्रमेहकी चिकित्सा के अनुसार और मूत्रक्षय जनित रोग की मूत्रकृच्छ्र की चिकित्सा के अनुसार चिकित्सा करै । स्त्रेदक्षयजनितरोग में व्यायाम तैलमर्दन, स्वेदप्रयोग [भपारा ] और मद्यपान करना उचित है ।
|
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अ० ११
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१०७)
nea
धातुक्षय वृद्धि का कारण । मल स्थानोंमें विगाड़ उत्पन्न होता है। इन स्वस्थानस्थस्य कायानरंशा धातुषुसंश्रिताः। मल स्थानों में विगाड होने से दोषादि के तेषांसादातिदीप्तिभ्यां धातुवृद्धिक्षयोद्भवः३४ अनुसार व्याधियां उत्पन्न हो जातीहै । . अर्थ-पकाशय और आमाशय के बीच
भोज का लक्षण । में पाचक नाम पित्त का स्थानहै उसे का.
ओजस्तु तेजोधातूनां शुक्रांतानां परं स्मृतम् । याग्नि अर्थात् जठराग्नि कहते हैं । इस | हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबंधनम् ।३७। जठराग्नि के अंश धातुओं में रहतेहैं । अव स्निग्धं सोमात्मकं शुद्धभीषल्लोहितपीतकम् । यह अग्नि मन्द पड़जाती है तव धातुओं की
यन्नाशे नियतं नाशो यस्मिस्तिष्ठति तिष्ठति३८ वृद्धि होती है और जब अग्नि अति तक्ष्ण
निष्पद्यते यतो भामा विविधा देहसंश्रयाः।
___ अर्थ रस से लेकर वीर्य्यपर्यन्त सब होती है तब धातु क्षीण होती है ।
धातुओं का जो परम तेज है उसी को ओज क्षय वृद्धि की परंपरा ।।
कहते हैं, वह हृदय में रहता है और सम्पूर्ण पूर्वो धातुः परं कुर्याद्वृद्धःक्षीणश्चतद्विधम्।
देह में भी व्याप्तहै । यह ओजही शरीरके अर्थ-पहिला रस धातु वृद्धि पाकर अपने
जीवन का प्रधान हेतु है । यह ओज स्निग्ध आगे के रक्त धातु की वृद्धि करता है । और
सोमात्मक ( शीत वीर्य्य ) शुद्ध कुछ लाल क्षीण होकर अपने अगले धातु रक्तको क्षीण
| तथा पीलाहै । ओजके नष्ट होने पर जीवन करताहै इसी तरह इनसे अगले धातुओं की
का नाश होजाता है और ओजके विद्यमान क्षय वृद्धि समझना चाहिये ॥ दोषादि बिगड़ने का क्रम ।
रहने पर जीवन स्थित रहता है । ओज ही दोषा दुष्टा रसैर्धातून दूषयंत्युभयेमलान् ३५ से शरीर संवन्धी सबभाव निप्पन्न होतेहैं । अधो द्वे सप्त शिरसि खानि स्वेदवहानि च।
ओज का क्षय । मला मलायनानि स्युर्यथास्वं तेष्वतो गदाः३६ ओजःक्षीयेतकोपक्षद्धयानशोकश्रमादिभिः३९
अर्थ-मधुरादि रसके मिथ्यायोग और अति विमेति दुर्बलोऽभीक्ष्ण ध्यायति व्यथितेंद्रियः। योनके सेवन करनेसे कुपित हुए दोष धातुओं विच्छायो दुर्मना रूक्षो भवेत्क्षामश्च तत्क्षये को दूषित करदेतेहैं । धातु और दोष दोनों | जीवनीयौषधक्षीररसाद्यास्तत्र भेषजम् । मिल कर मलको दूषित कर देते हैं विगड़े | अर्थ-वेध, क्षुधा, चिन्ता, शोक और हुए मल अपने स्थानों को विगाड़ देते हैं। परिश्रम आदि से ओज क्षीण होजाता है। गुदा और मेढ़ ये दो नीचके मलस्थान हैं। ओज का क्षय होने पर मनुष्य बिना कारण दो आंख, दो कान, दो नासाछिद्र और एक ही डरने लगता है, दुवला होता जाता है मुख ये सिर के अग्र भाग में मल के सात | निरन्तर चिन्ता में डूवा रहता है, इन्द्रियों में स्थान है। तथा पसीने वहने के रोमकूप पीड़ा होने लगतीहै, शरीरकी कांति बिगर सब शरीर में व्याप्त हैं । इस तरह इन दस | जाती है, मन में उदासी रहती है, देह रुक्ष
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अष्टांगहृदये ।
( १०८ )
और क्षीण होती चली जाती है। ओज की क्षीणता से उत्पन्न हुए रोगों में जीवनीय गणोक्त दस औषध तथा दूध और मांस का यूत्र आदि औषधका प्रयोग करना चाहिये । ओज की वृद्धि | ओजोविवृद्धौ देहस्य तुष्टिपुष्टबलोदयः । ४१ । अर्थ - ओज की वृद्धि होने से देह की तुष्टि पुष्टि तथा बलका उदय होता है ।
वृद्धि और क्षय की सामान्य चिकित्सा |
।
यदनं द्वेष्टि यदपि प्रार्थयेताविरोधि तु । तत्तत्त्यजन् समनंश्च तौ तौ बृद्धिक्षयौ जयेत् अर्थ - जिस दोष की वृद्धि से जिस अन्न की अनिच्छा हो उसको त्याग देने से उस दोष की वृद्धि तथा जिस दोष के क्षय से जिस अन्न के प्रति अभिलाषा उत्पन्न हो
उसको खाने से उस दोष की क्षीणता दूर होती इस सबका सारांश यह है कि जिस रोग की वृद्धि होती है प्रायः उसी दोष . के वृद्धिकारक अन्न में दोष पैदा होता है तथा जिस दोष की क्षीणता होती है प्रायः 'उसी दोष के वृद्धिकारक अन्नमें अभिलापा होती है ।
वृद्धिक्षय का कारण | कुर्वते हि रुचि दोषा विपरीत समानयोः । वृद्धाःक्षीणाश्च भूयिष्टं लक्षयंत्यबुधास्तुन ॥ अर्थ- ऊपर कहा गया है कि द्वेष्य अन्न का त्याग और अभीष्ट अन्न का सेवन करके दोष को जीतना चाहिये । इसका कारण यह है कि वातादिक दोष बढ़े हुए हों तो अपने विपरीत गुण वाले
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अ० ११
अन्न की रुचि उत्पन्न करते हैं । तथा अत्यन्त क्षण होगये हों तो अपने समान गुण वाले अन्न की रुचि पैदा करते हैं । यह दोष का स्वभाव है । विपरीत गुण वाले अन्नादिक उस दोष के नाश करने वाल हैं । और यदि दोष बढजाय अथवा इसी तरह समान गुण वाले अन्नादिक दोष की वृद्धि करते हैं और दोष का क्षय हो जाय, और वैसी ही रुचि स्वाभाविक ही मनुष्य में उत्पन्न हो यह सब दैवाधीन है। वायु के वृद्धि पाने पर स्निग्ध, अम्ल और मधुर अन्न कीं अभिला उत्पन्न होती है। पित्त बढने पर शीत मधुर, रूक्ष, तिक्त और कषाय अन्न में रुचि उत्पन्न होती है । कफ के बढने पर रूक्ष, अम्ल, कटु, तिक्त अन्न की अभिलाषा होती है । इसी तरह वायु के क्षीण होने पर रूक्ष कषायादि अन्न की इच्छा होती है । पित्त क्षीण होने पर अम्ल, लवण, कटुक अन्न की इच्छा होती है । कफ क्षीण होने पर स्निग्ध, मधुर, अम्ल और लवण अन्न की इच्छा होती है ।
अन्य लक्षण |
यथाबलं यथास्वं च दोषा वृद्धा वितषते । रूपाणि जहति क्षीणाः समाः स्वं कर्म कुर्वते ॥
अर्थ- जब दोष वृद्धि पाते हैं तब अपने बल के अनुसार अपने गुण, कर्म और लक्षणों ICT विस्तार करते हैं, जब क्षीण होते हैं तब उसी तरह अपने गुण, कर्म और लक्षणों को छोड देते हैं । जैसे वायु के बढने पर | रूक्षता, शीतलता, कर्कशता आदि बढ जाते
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.अ. १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१०९,
है और वायु के क्षीण होने पर वे गुण पित्त का स्थान । । दिखाई भी नहीं देते और जव दोष समाना-नाभिरामाशय स्वेदो लसीका रुधिरं रसा। वस्था में होते हैं तव अपने २ कर्मों को
दृक् स्पर्शनंच पित्तस्य नाभिरत्र विशिषतः॥ नियमित रीति से पूरा करते हैं।
अर्थ-नाभि, आमाशय, पसीना, थूक, दोषों को समान रखना।
रुधिर, रस, नेत्र और त्वचा इन आठ स्थानों य एव देहस्य समा विवृद्धये में पित्त रहता है, इन में से नाभि पित्त के त एव दोषा विषमा वधाय । रहने का प्रधान स्थान है पहिले कह चुके हैं यस्मादतस्ते हितचर्ययैव
कि वायु त्वचा में रहता है इससे कोई कहे क्षयाद्विवृद्धरिब रक्षायाः ॥ ४५ ॥
कि वायु और पित्त दोनों त्वचा में कैसे रहप्रथे-जब दोष समानावस्था में होते
सकते हैं। इसका समाधान यह है कि पित्त हैं तब देह की वृद्धि के हेतु होते हैं । वे ही
अग्निस्वरूप है और वायु अग्नि का प्रज्व. दोष विषमावस्था में होकर वृद्धि पाकर वा
लित करनेवाला है, इसलिये मित्रहै , विरोधी क्षीण होकर मृत्यु के कारण हो जाते हैं।
नहीं है । इस तरह बात पित्त की मैत्री होने इस से हितजनक आहार विहारादि द्वारा
के कारण एक स्थान में बास होसकता है । दोष का क्षय वा बृद्धि न होने दे।
कफ का स्थान । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाठीकायां
उरकंठशिरक्लोमपर्वाण्यामाशयो रसः एकादशोऽध्यायः॥११॥
मेदोघ्राणं च जिव्हा च कफस्य सुतरामुरा३॥
अर्थ-छाती, कण्ठ, सिर, मूत्राशय, जोड़,
आमाशय,रस, भेद, घाण ( नासिका ) और द्वादशोऽध्यायः।
जीभ ये कफ के दस स्थानहै । इनमें से कफ
का प्रधान स्थान छाती है। अथाऽतो दोषभेदीयाध्यायं व्याख्यास्यामः॥
प्राण बायु । " अर्थ-अव हम यहांसे दोष भेदीय अध्याय
प्राणादिभेदात्पंचात्मा वायुः की व्याख्या करेंगे।
प्राणोऽत्र मूर्धगः। . वायु का स्थान ।
उरकंठचरो बुद्धिहृदयेद्रियचित्तधृक् ॥४॥ 'पकाशयकटीसक्थिश्रोत्राऽस्थिस्पर्शनेंद्रियम्।
ष्ठीवनक्षवधूद्गारनिःश्वासानप्रवेशकृत्। स्थानं वातस्य तथाऽपि पक्काधानं विशेषतः॥ अर्थ-वायु का एक ही चलन स्वभाव है,
अर्थ- पक्वाशय,कटी, ऊरू, कर्ण, अस्थि वायु के पांच भेद हैं, यथा--प्राण, उदान, और त्वचा ये वायुके छः स्थान है किंतु इन | व्यान, समान, और अपान । अर्थात् एकही में से पक्वाशय ही वायु के रहने का प्रधान | बायु भिन्न २ काम करने से पांच नार्मों से स्थान है।
बोली जाती है।
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(११०)
अष्टांगहृदये ।
अ०१२
इनमें से प्राणवायु मस्तक में रहती है और | है, पचाता है और मल मूत्र को जुदे जुदे छाती तथा कण्ठ में घूमा करती है । वुद्धि, ! करके बाहार निकाल देता है । हृदय, इन्द्रिय और चित्त को धारण करती
अपान वायु। है । थूकना, छींकना, डकार, निःश्वास और | अपानोऽपामगःश्रोणिबस्तिमे दोरुगोचरः । अन्न को गलेसे पेटमें लेजाना, ये प्राणवाय । शुक्रातेवशकृन्मूत्रगर्भनिष्क्रमणक्रियः॥९॥ के कर्म हैं।
_अर्थ- अपानवायु विशेष करके गुदस्थल
| में रहताहै । तथापि जंघा, पेटू, मेद, उरू, उदान वायु।
आदि स्थानों में फिरता है वीर्य आर्तव उरस्थानमुदानस्य नासानाभिगलांश्चरेत्॥ प्रत मंधी जमल मन तातो वाक्प्रवृत्तिप्रयत्नो बलबर्णस्मृतिक्रियः। ।
| बाहर निकालना ये इस के कर्म है । अर्थ-उदान बायु का स्थान छाती है, यह नाभि, नाक और गलेमें फिरता है, बोलना,
पित्त के भेद । पदार्थो के ग्रहण करने का प्रयत्न, ऊर्जा,
पित्तंपंचात्मकं तत्र पकामाशयमध्यगम् ।
पंचभूतात्मकत्वेऽपियत्तैजसगुणोदयात्१॥ बल, वर्ण, और स्मृतिका वढाना ये सब इस
त्यक्तद्रवत्वं पाकादिकर्मणाऽनलशब्दितम् । के कर्म हैं ।
पचत्यन्नं विभजते सारकिट्टौपृथक् तथा।१२॥ ___ व्यान बायु।
| तत्रस्थमेव पित्तानां शेषाणामण्यनुग्रहम् ।
करोति बलदानेन पाचकं नाम तत्स्मृतम् ।१२। ध्यानो हृदि स्थितः कृत्स्नदहेचारी महाजवः॥ अर्थ-पित्त पांच प्रकार का होता है । इन गत्यपक्षेपणोत्क्षेपनिमेषोन्मेषणादिकाः ।। प्रायःसर्बाःक्रियास्तस्मिन्प्रतिबद्धाःशरीरिणाम्
पांच प्रकार के पित्तों में जो आमाशय और अर्थ-न्यानवायु विशेष करके हृदयमें रह
पकाशय के बीच में स्थितहै, तथा पंचभूताता है परन्तु यह सब शरीर में फिरता है यह
त्मक होनेपर भी आग्नेय गुण की अधिकता अन्य वायुओंकी अपेक्षा शीघ्रगामीहै । गमन,
के कारण अपने पतलेपनको छोड़कर अर्थात् उत्क्षेपण ( ऊपर जाना ) अपक्षेपण ( नीचे
गाढ़ा होकर पाकदाहादि करने के कारण फेंकना,) निमेष ( आंख बन्द करना, )
इसे अग्नि नाम से बोलते हैं । यह अन्न को उन्मेष ( आंख खोलना ) आदि मनुष्य की
| पचाताहै, यह साररूप पदार्थ और मलरूप सबही क्रिया प्रायः यही वायु करताहै ।। पदार्थ को जुदा जुदा करताहै । तथा पक्वासमान वायु।
शय और आमाशय के बीच में रहता हुआ समानोऽग्निसमीपस्थाकोष्ठे चरति सर्वतः।
अन्य रंजकादि पित्तोंको बलिष्ठ करनेमें बड़ा अन्नग्रहणाति पचतिविवेचयति मुंचति ॥८॥ उपकार करता है, इन्हीं कारणों से इसका अर्थ-समान वायु पाचक अग्नि के पास
| नाम पाचक है। रहता है और सम्पूर्ण कोठे में फिरता है।
रंजकादि पित्त । यह वायु आमाशय में अन्न को धारण रखता | आमाशयाश्रय पित्तंरंजकं रसरंजनात्।
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अ० १२
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
( १११ )
बुद्धिमेधाऽमिमानाद्यैरभिप्रेतार्थसाधनात् ॥ | अपने वीर्य द्वारा पृष्टाधार ( मेरुदंड का -
साधकं दृतं पित्तं
निम्न स्थान ) का अवलंवन करता है । अर्थात् स्वकर्म करने में उसकी सामर्थ्य की
बढाता है । जो कफ खाये हुए अन्न को रख रूप में परिणत करके अपनी सामर्थ्य से हृदय का अवलंबन करता है तथा छाती में रहा हुआही जोकफ शेष बचे हुए स्थानों का अंबुकर्म द्वारा अर्थात् क्लेद श्लेष्मादि रूप जल व्यापार द्वारा अवलंवन करता है अर्थात् अपने २ कर्म करनेमें उनमें सामर्थ्य उत्पादन करता है इसी से इसको अबलंबक कहते हैं ।
रूपालोचनतःस्मृतम्।
दृक्स्थमालोचकं
त्वक्स्थं भ्राजकं भ्राजनात्वचः ॥ १४॥ अर्थ- जो पित्त आमाशय में रहता है वह रस को रंगने के कारण रंजक पित्त कहाता है । जो पित्त हृदय में रहता है और बुद्धि, मेधा, अभिमान आदि अभिप्रेत पदार्थ की साधना करता है उसे साधक पित्त कहते हैं । जो पित्त आंख की पुतली में रहता है और लाल, काले, पीले पदार्थों को देखता है उसे आलोचक पित्त कहते हैं । जो पित्त त्वचा में रहता है और त्वचा को दीप्तिमान करता है इस से उसे भ्राजक पित्त कहते हैं यह पित अभ्यंग लेप और परिषेकादि को पचाता है । कफ के भेदादि निरूपण । लेमा तु पंचधा
उरःस्थः स त्रिकस्य स्ववीर्यतः । हृदयस्यान्नवीर्याच्च तत्स्थ एवांबुकर्मणा १५। कफघाम्नाच शेषाणां यत्करोत्यवलंबनम् । अतोऽवलंबकः श्लेष्मा
यस्त्वामाशयसंस्थितः ॥ २६ ॥
रसबोधनात् ।
क्लेदकः सोऽन्नसंघातक्लेदनात्
बोधको रसनास्थायी
तर्पकः
* मूल में च शब्द के प्रयोग से यह भी ज्ञात होता है कि अपने वीर्य से भी हृदय का अवलंबन करता है । किन्तु हृदय का जितना अवलंवन अन्नधीयसेकरता है इतना स्ववीर्य से नहीं करता क्योंकि अन्न रस प्रथम हृदयमें स्थित होता है फिर व्यानवायु से चलायमान किया जाकर सब शरीर में जाता है इससे अन्न रस द्वारा ही हृदयका अवलंबन युक्तियुक्त है । कहा भी है:हृदयंमनसः स्थानमोजसाईचतितस्यच । मांसपेशीचयोरक्तपद्भाकारमधोमुखम् ॥ योगिनोयत्र पश्पंतिसम्य गूज्योतिः समाहिताः रसोयः स्वच्छतायातः सतत्रैवावतिष्ठते ।
इनमें से जो कफ छाती में रहता है और । ततो व्यानेन बिक्षिप्तः कृत्स्नं देहं प्रपद्यते ॥
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शिरःसंस्थोक्षतर्पणात् ॥१७॥
संधिसंश्लेषात्श्लेषकःसंधिषु स्थितः। अर्थ - कफ भी पांच प्रकार का होता है, यथा - अवलंबक, क्लेदक, बोधक, तर्पक और श्लेषक |
जो आमाशय में रहकर कठिन अन्न के समूह को क्लेदयुक्त करता है । उसे क्लेदक कफ कहते हैं ।
जो जिव्हा में रहकर खट्टे मीठे आदि र सों का बोध करता है उसे बोधककफ कहते हैं । जो मस्तक में रहकर संपूर्ण इन्द्रियों को 1
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(११२)
अष्टांगहृदये।
तृप्तकरता है उसे तर्पककफ कहते हैं। लने से पित्तका संचय होता है । उष्णादि जो कफ संधि अर्थात् शरीर के जोड़ों में | गुणों के मिलने से पित्त का कोप होता है रहकर उन को एकत्र करके जोडता है उस | और जब शीतगुणयुक्त मंदादि गुण पित्त के को श्लेषक अर्थात् जोड़नेवाला कफ कहतेहैं। तीक्ष्णादि गुणों से मिलते हैं तब पित्त का उपसंहार ।
शमन होता है। इतिप्रायेण दोषाणां स्थानान्यविकृतात्मनाम्
कफका चयकोगादि । व्यापिनामपि जानीयात्कर्माणि चपृथक्पृथक्
शीतेन युक्ता निग्धाद्याकुर्वते श्लप्मणश्चयम् अर्थ-संपूर्ण देह में व्याप्त, विना विकारपाये
उष्णेन कोपं तेनैव गुणा लक्षादयः शमम् । हुए वातादि दोषों के स्थान और उन के
___ अर्थ-जब कफके स्निग्धादि गुण शीतगुकर्म पूर्वोक्त रीति से अलग जानलेने चाहिये णसे मिलते हैं तब कफका चय होता है । जब ये विकारयुक्त हो जाते हैं तब अपने
उष्णगुणसे युक्त होनेपर वेही स्निग्धादिगुण स्थानों से भी विचलित होजाते हैं और इन कफका प्रकोप करते हैं । उसीउष्णके साथ के कर्मों में भी अन्तर आजाता है । यदि रूक्षादि गुण मिले हों तो कफका शम
वायु का चयकोपशमन । न होता है। उष्णेनयुक्ता रूक्षाधावायोः कुर्वतिसंचयम्। चयादि के लक्षण । शीतेन कोपमुष्णेन शमं स्निग्धादयो गुणाः॥
चयो वृद्धिःस्वधाम्म्येव प्रद्वेषो वृद्धिहेतुषु । अर्थ-प्रथमाध्याय में कहे हुए वायुके रू- विपरीतगुणेच्छाच . क्षादि छः गुणों के साथ उनसे विरुद्ध उ
कोपस्तून्मार्गगामिता। ष्णादि मिलते हैं तव वायुका चय होता है
लिंगानां दर्शनं स्वेषामस्वास्थ्यं रोगसंभवः॥ पर कोप नहीं होता क्योंकि वे गुण विरुद्ध | स्वर
| स्वस्थानस्थस्य समता विकारासंभवःशमः। होते हैं । इसी तरह वायुके रूक्षादि गुणोंके
| अर्थ-अपने अपने स्थानोंमें जो दोषों की साथ शीतादि गुण मिलने से वायुका कोप
बृद्धि होती है । उसका नाम चय है । दोष होता है क्योंकि शीतादि की वायुके गुणों के
का चय होनेपर दोषके बढ़ानेवाले हेतुओंसे साथ समानता है । वायुके रूक्षादि गुणों के
विद्वेष और विपरीत गुणोंमें इच्छा होती है, साथ जब उष्ण और स्निग्धादि गुण मिलते
जैसे वायुका चय होनेपर वायुवर्द्धक रूक्षादि हैं तव वायुका शमन होता है क्योंकि ये गुणोंसे विद्वेष और स्निग्धादि बातविपरीत वायुके गुणों से विपरीत हैं।
गुणोंमें अभिलाषा होती है । पित्त और कफ पित्तका चयकोपादि। के विषयमें भी ऐसाही जान लेना चाहिये । शतिन युक्तास्तीक्ष्णाद्याश्चयं पित्तस्य सर्वते। अपने स्थानमें स्थित चयको प्राप्त हुआ दोष उष्णेन कोपं मंदाद्याःशमं शीतोपसंहिताः। । अत्यन्त बृद्धिपाकर उन्मार्गमेंगमनकरै अर्थात्
अर्थ-इसी तरह पित्त के तीक्ष्णादि गुणों | अपने स्थानको छोडकर अन्य स्थानमें गमन के साथ उनसे विरुद्ध शीतादि गुणों के मि- करै उसका नाम प्रकोप है। ..
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अ० १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत ।
(११)
सब प्रकुपित दोष अपने २ लक्षणों को । उस ऋतु में बलका आदान काल होने से प्रकाशित करते हैं अर्थात् दोषादिविज्ञानी- अथवा गरमी के कारण से ओपधियां लघु याध्यायमें प्रकुपित दोपों के जो लक्षण कहे और रूक्ष हो जाती हैं तथा वायु भी लघु गये हैं और जो आगे कह जायगे वे सब और रूक्ष गुणवाला है इस्से गरमी में वायु लक्षण उपस्थित हो जाते हैं। स्वास्थ्य जाना का संचय नहीं किन्तु प्रकोप होता है इसी रहता है और सत्र रोग आजाते हैं । जब । तरह वर्षाऋ नुमें जल और औषधियों का विपावातादि दोप अपने स्थान में स्थित रहते हैं । क खट्टा होता है इसलिये वर्षाऋतु में पित्त
और किसी कार का कोई रोग उत्पन्न नहीं। का संचय नहीं किन्तु प्रकोप होता है । इसी होता है तब दोप की प्रशमावस्था जाननी तरह शिशिरऋतु में जल और औषध स्निग्ध चाहिये।
होते हैं और शीतकाल होता है इससे कफ दोष के संचयादिका काल । का संचय नहीं किन्तु प्रकोप होता है । चयप्रकोपप्रशनावायोर्गीमाविषत्रि॥२॥ इसका समाधान यह है कि प्रमितु में वर्षदिषु तुस्लिखलेनगः शिशिपाइधु ।। अंधियां लघु और रूत होती है और अर्थ--ग्रीधर, वर्ग और शरद इन तीन
ऋतु रलका आदानकाल है इस लिये ऋतुओं में कम से वायुका चय प्रकोप और
देहभी लघु और रूस होजाती है, इस लधु शान होता है अर्थात प्रीम में वायका चय, वर्षा में प्रकाप और शरद में शपन होता
रूक्ष गुणवाला वायु, लघुरूक्ष हुए देहमें स. है। इसी तरह वर्ग शरद और हमंतमें कर
मान गुण होने के कारण संचय को प्राप्त होता से पित्त का चम, प्रकोप और शमन होता
है, परन्तु ऋतु गरन से प्रकोपको प्राप्त
नहीं होता । है। इसी तरह शितिर. वसंत और ग्रीष्ा
इसी प्रमाण ते वस्तु में औववी और जल में कफका चय, प्रकोप और शमन होता है ।
अ. उविपाकी हो जाते हैं और पित्त भी अम्ल दोष संचयका हेतु। घीयते लघुरुक्षामिरोपधीभिः समीरगः।२५॥
रसयुक्त है इसलिये तुल्यगुणयोग में पित्तका तद्विधस्तद्विधे देहे कालस्यौ ण्यान प्रति। संचय होता है किन्तु वर्षाका लकी ठंडक का अद्विरम्हविपासाभिरोषधीभिश्च तादृशम् ।। ण उष्णस्वभाव वाले पितका प्रकोप नहीं वित्तंयाति चषको ग तु कालस्य शैत्यतः । धीयतेनियशीताभिदौमिमिका हो सकता है । तुल्येऽपिकाले देहे चस्कन्नत्वान प्रष्यति। शिशिरकालमें जल और औषधियां स्निग्ध - अर्थ--पिछले श्लोक में जो दोप संचय और शीतलहोजाती हैं तथा देह और कालमी का काल बताया गया है उस में कोई २ स्निग्व और शीत हो जाते हैं इसलिये तुल्य शंका करते हैं कि ग्रीष्ाकाल में जो वायु का गुणयुक्त जल और औषधि सेवनद्वारा तुल्य संचय कहा गपा है वह ठीक नहीं है क्योंकि । गुणवाले देहमें काका सना होता है किन्तु
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(११४)
अष्टांगहृदये।
अ० १२
शिशिरकालमें गाढापनको प्राप्त हुआ कफ | अलग अलग हेतु, लक्षण और चिकित्सा का प्रकोप को नहीं पाता है ।
निर्देश करना बड़ा कठिन है इस लिये जो दोषसंचयादि का अन्य कारण। जो साधारण हेतु, लक्षण और चिकित्सा है इति कालस्वभावोऽयंाडारादिवशात्पुनः ॥
उन्हीं का इस जगह वर्णन किया जाता है ! चयादीन्यांतिसघोऽपि दोषाःकालेऽपिवानतु
रोग के अन्य हेतु । अर्थ- पूर्वोक्त वातादि दोषों का संचय,
दोषाएव हि सर्वेषां रोगाणामेककारणम् । प्रकोप और शमन काल के स्वभाव से होता
। यथा पक्षी परिपतन सर्वतःसर्वमप्यहः।३२॥ है परन्तु अन्नपान की सामर्थ्य से दोष काल छायामस्येतिनात्मीयां यथा वारसमप्यदः। की अपेक्षा न करके तत्काल चय, प्रकोप
बिकारजातं विविधंत्री गुणानाऽपिवर्तते ॥ और शमन को प्राप्त होनाते हैं इसी तरह
तथा स्वधातुवैषम्यनिमित्तमपि सर्वदा ।
विकारजातंत्रीन्दोवान् तेषां कोपेतु कारणम् ॥ आहार के कारण से संचय, प्रकोप और अर्थरसात्म्यैःसंयोगःकालःकर्म च दुप्कृतम् । शमन के काल भे दोष संचय, प्रकोप और हीनातिमिथ्यायोगेनभिद्यते तत्पुनस्त्रिधा३५ शमन को प्राप्त नहीं होता हैं। इन कारणों ___अर्थ-वातादिक दोष ही संपूर्ण रोगों के से दोषों के चयादि में काल की अपेक्षा मुख्य कारण है । जैसे पक्षी दिनभर सब
जगह उडता है पर अपनी छाया का उल्लंआहार प्रधान है।
घन नहीं कर सकता है, अथवा जैसे इस दोष की व्याप्ति और निवृति ।।
| जगत के स्थावर जंगमादि अनेक प्रकार के ग्यामोति सहसा देहमापादतलमस्तकम् २०। निवर्तते तुफुपितो मलोऽल्पाल्पंजलौघवत् ।
पदार्थ सत्व, रज, तम इन तीन गुणों का ___ अर्थ- प्रकुपित हुए दोष पांव के तलुए
परित्याग नहीं कर सकते इसी तरह धातुकी से सिर की चोटी तक शीघ्र बढ़ते चले जाते विषमता से उत्पन्न हुए रोग किसी तरह से हैं परन्तु घटते समय बहुत धीरे धीरे घटते
भी वातादिक तीनों दोप का उल्लंघन नहीं हैं जैसे पानी का चढाब एक दम आता है। कर सकते अर्थात् दाप के संबंध के बिना और घटता धीरे धीरे है।
कदाचित् कोई दोष उत्पन्न नहीं होसकता है । दोष कोप के अनन्त हेतु।
इन संपूर्ण दोषों के प्रकोप के विषय में
| तीन कारण और भी हैं, जैसे (१) असा. मानारूपैरसंख्येयौर्विकारैःकुपितामलाः३०॥ तापयंति तनुंतस्मात्तद्धत्वाकृतिसाधनम् ।
रम्य इन्द्रियार्थसंयोग (शब्द,स्पर्श, रूप, रस, शक्यं नैकैकशोवक्तुमतःसामान्यमुच्यते३१ गंधादि विषयों का कान, त्वचा, नेत्र, जिव्हा, . अर्थ-संपूर्ण दोष कुपित होकर जिस नासिकादि इन्द्रियों से अनुचित संयोग)। समय अनेक प्रकार के असंख्य रोगों को (२) दुष्ट शीतोष्णवर्षादि काल । ( ३ ) उत्पन्न करके शरीर को कष्ट पहुंचाते हैं उस इस जन्म वा पूर्व जन्म के किये हुए दुष्कृत समय उन असंख्य रोगों में से प्रत्येक के । अर्थात् बुरे कर्म । ये दोष प्रकोप के तीन
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अ० १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(११५)
कारण हैं, दापों के प्रकुपित करने वाले इन कालका हीनमिथ्यादियोग । तीन कारणों में से प्रत्येक के हीनयोग, कालस्तु शीतोष्णवर्षभेदात्रिधा मतः ॥३८॥ मिथ्यायोग और अतियोग से तीन तीन भेद
सहीनो हीनशीतादिरतियोगोऽतिलक्षणः ।
मिथ्यायोगस्तु निर्दिष्टो विपरीतस्वलक्षणः। हैं । इस तरह सब मिलाकर दोष प्रकोर के
___ अर्थ-शीत, उष्ण और वर्षा इन तीन नौ कारण हैं।
कारणों से काल तीन प्रकार का है । इन में हीन मिथ्यादि योग का स्वरूप । हीनोऽयनेंद्रियस्याऽल्पःसयोगःस्वेननैवया।
| से हेमन्त और शिशिर शीतकाल है। वसंत अतियोगोऽतिसससूक्ष्मभासुरभैरवम् ३६।
और ग्रीष्म उष्णकाल है । प्रावट ऋतु वर्षा अत्यासाऽतिदूरस्थंविप्रियं विकृतादिच। काल है | जिस काल में सरदी, गरमी वा यदक्षमा वीक्ष्योरूमिथ्यायोगः सदारुणः॥ वर्षा कम होती है उसे उस काल का हीनएवमत्युखत्यादीनिगियानि यथायथम् । विद्यात्
योग कहते हैं जिस काल में अतिशय सरदी, अर्थ-जिल इन्द्रिय का जो विषय है उस / गरमी वा वर्ग होती है वह उस काल का का उस से अल्पसंयोग चा सर्वथा संयोग अति योग है । और जिस कालमें सरदी, ही न होना हीनयोग कहलाता है, जैसे गरमी, वा वर्षा अपने धर्म के विपरीति होती कणेन्द्रिय का विषय मुनना है, अगर थोडा है वह कालका मिथ्यायोग है । जैसे हेमन्त सुनाईदे वा सर्वथा सुनाई ही न देतो इस
ऋतु में शीत कम हो तो हीनकाल,आधिक हो का नाम हीनयोग हैं अन्यान्य इन्द्रियों के तो अतिकाल और गरमी होतो मिथ्याकाल पक्ष में भी इसी तरह समझ लेना चाहिये। जानना चाहिये । इसी तरह अन्य ऋतुओं जिस इन्द्रिय विषय का अतिसंसर्ग होता का भी जानो। है उसे अतियोग कहते हैं। इसी तरह अति।
कर्म का हीनमिथ्यादियोग । सूक्ष्म ( बहुत ही छोटा ) । अत्यन्त चमकीला
कायवावित्तभेइन कर्माऽपि विभजेत्रिधा। भयानक, अति पासवाला, अति दूरवाला, कायादिकर्मणा हीनाप्रवृत्तिहीनसंशिका४० अप्रिय, विकृतरूपादियुक्त पदार्थों का देखना अतियोगोऽतिवृत्तिस्तुवेगोदरिणधारणम् ।
विषमांगक्रियारंभः पतनस्खलनादिकम् ॥ नेत्र इंद्रिय का मिथ्यायोग है । यह मिथ्या
भाषणं सामिभुक्तस्य रागद्वेषभयादि च । योग बडा दारुण होता है, क्योंकि इसी से
कर्म प्रागातिपातादि दशधायञ्च निंदितम् ॥ तिमिरादि नेत्र रोग पैदा हो जाते हैं । इसी ! मिथ्यायोगःसमस्तोऽसाविहचामुत्रवाकृतम् तरह अत्यन्त उबस्वर, भयानक शब्द, अप्रिय अर्थ-जैसे कालके तीन भेद कहे गये संदेशा आदि सुनना कर्णेन्द्रिय का मिथ्यायोग हैं वैसे ही कर्म भी कायिक, वाचिक और है । अत्यन्त दुर्गधित, अनिष्ट पदार्थो का मानसिक भेदों से तीन प्रकार का है । इन संधना नासिका का अपने विषय क साथ तीन प्रकार के कर्मों की न्यून प्रवृत्ति को मिथ्यायोग है । ऐसे ही और भी जानो। हीनयोग कहते हैं । इन तीनों प्रकार के
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(११६)
अष्टांगहृदये।
अ०१२
कर्मों की आतिशय प्रबृति उस कर्म का अति- । वासीरं, गुल्म, शेफ, विसर्प,विद्रधि,कुष्ट आ. योग कहलाता है । मलमूत्रादि वेगों का वल- दि रोग उत्पन्न होते हैं । पूर्वक रोकना, वा निकालना, विषमअंग से | कांष्टगत रांग । अर्थात् शरीर को आडा तिरछा करके काम अलः कोष्ठो महास्त्रोत आमपकाशयाश्रयः । करना, गिरना, खिसलपड़ना, ये कायिक
तत्स्थानाश्छद्यतीसारकासश्यासोदरज्वराः कर्म का मिथ्यायोग है । खाते खाते बोलना
अंतर्भाग च शोपाशीगुल्मवीसर्पविद्रधि । वाचिक कर्म का मिथ्यायोग है | राग, द्वेष
__ अर्थ-महास्रोत ( रक्तवाहिनी स्थूल धमनी)
आमाशय और पका राय इनतीनों का आश्रय और भयादि ये मानसिक कर्म हैं इन की
भत शरीरकं भीतरका भाग कोष्ट कहलाता भी हीन मबत्ति, मिथ्याप्रवृति और अतिप्रवृत्ति होती है । इन सग द्वयादि की अयोग्य रीति
है। इनमें होनेवाले बमन, अतिसार, खांसी, से प्रबति होना मिथ्यायोग कहलाता है ।
श्वास, उदररोग, ज्वर, सूजन, अर्श, गुल्म, तथा दिनचर्याध्यायमें जो प्राणातिपातादि
विसर्प, विद्रधि, आदि होते हैं । ये अन्तर
भागमें होनेवालेरोग कहलाते हैं । दस अशुभ कर्म कहे गये हैं इनका काया, वाणी और मन के साथ मिथ्यायोग होता
मध्यमरोग मार्ग । है । इस मिथ्यायोग में इस लोक और पर
शिरोहृदयवस्त्यादिमाण्यस्थ्नांच संधयः।।
तन्निबद्धाः शिरास्नायुकंडराद्याश्चमध्यमाः। लोक दोनों के कर्म का समावेश है।
रोगमार्गस्थितारतत्र यक्ष्मपक्षवधार्दिताः॥ दोष का निदान ।
मूर्धादिरोगाः सध्यस्थित्रिकालग्रहादयः । निदानमेतदोषाणांकुपितास्तेन नैक या॥४२॥ अर्थ-मस्तक , हृदय, वत्यादि, मर्मस्थान, फुर्वतिधिविधान्याधीशाखाकोष्टास्थिसंधिषु अस्थिसंधि, तथा उन्हीं अस्थियोंसे मिले हुए __ अर्थ-पूर्वोक्त इन्द्रियार्थ, काल और कर्म
शिरा, स्नायु, और कंडरादि ये सब मध्यमका हीन मिथ्यादियोग दोषों के प्रकोप का गमार्ग हैं। इन स्थानोंमें यक्ष्म, पक्षाघात, निदान अर्थात् आदि कारण हैं। इसीनिदान आदित, शिरोरोग, तथा संधि, आस्थ और द्वारा प्रकुपित दोष शाखा, कोष्ट, आस्थ और त्रिकमें शूल और जडता ये रांग होते हैं । संधियों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्नकरतेहैं ।
वायुके कर्म । वाह्यभागमें होनेवाले रोग।
खंसव्यासव्यधस्वापसादरक्तोदभेदनम्४९ शाखार कादयस्वक्च बाह्यरोगायनं हि तत् संगांगभंगसंकोचवतहर्षणतर्षणम् । ताया गपव्यंगगडालज्यर्बुदादयः । कंगपारप्यसौपियशोपस्पंदनबटनम ५०॥ यहिभागाश्च दुनीनगुल्मशोजाइयो गदाः ॥ स्तंभापायरसतावर्णःश्यावोऽरापि वा।
अर्थ-रक्तादि छःधातु ओर लचा इनको । धर्माणि वायोः शाखा कहते हैं । ये वाह्यरोगों के स्थान है। अर्थ -स्त्रंस ( हनुआदिसंधियोंका भ्रंश ), इनमें मस्सा, व्यंग, गंड, अलजी, अर्बुद, ब- व्यास (क्षेपक वायुके सदृश भंग प्रत्यंगाका
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत ।
( ११७ )
फेंकना ), व्यध ( जैसे कोई मुद्गरों से कूटता | अर्थ-स्निग्धता,कठोरता, खुजली, शीतहो ), स्वाप ( छूनेसे ज्ञान न होना ) , साद लता, भारापन, स्रोतों का रुकजाना, लि( अंगोंमें शिथिलता ),रुक (निरंतर शूलवत् । प्तता, स्तमित्य [ शरीर में जडता ] सूजन वेदना ), तोद ( विच्छिन्न शूलवत् वेदना ), अपरिपाक, अतिनिद्रा, शरीर का रंग सफेद भेद ( विदारणवत् पीडा ), संग [ मलमूत्रका होना, रसमें मीठा और नमकीन स्वादआना बाहर न निकलना ],अंगभंग [ हाथपांवमें टूट काम में बिलंब लगाना ये कफ के कर्म हैं । ने कीसी वेदना ],शिरांदिकोंका संकोच,वर्त इस रीतिसे वातादिक दोषोंके जोलक्षण कहे (मलादिका गोलासाबंधना),हर्पण [रोमांचख गये हैं यही सब रोगों में व्याप्त होतेहैं इस लिये डे होना ,तृपा, कंपन, कर्कशता, अस्थियोंमें * व्याधि की अवस्था और विभाग का जाछिद्र, शोष, फडकन,वेष्टन [ बांधनेकीपीडा] ननेवाला वैद्य रोगो का दर्शन, स्पर्शन और स्तंभ [ वाहु,उरु,जांघकी जडता ],कसला | | प्रश्न इन तीन प्रकार से तथा प्रतिक्षण रोगी स्वाद, काला वा लालवर्ण होना । ये सब वा को देखने से ध्यान लगाकर सब बातों का यु के कर्म हैं।
विचार करै । वायु के कर्म।
रोगी को बार बार देखने का कारण । पित्तस्य दाहरागोष्मपाकिताः॥५१॥ | अभ्यासात्प्राप्यते दृष्टिः कर्मसिद्धिप्रकाशिनी स्वेदः क्लेदःस्वतिः कोथःसदनं मृर्छन मदः। रत्नादिसदसज्ज्ञानं न शास्त्रादेव जायते ॥ कटुकाम्लो रसौ वर्णः पांडुरारुण वर्जितः ॥ ' अर्थ-दाह ( सब अंगों में जलन होना । ___+"व्याधि की अवस्था जाननेवालाराग (ललाई , उष्णता, पाकिता ( अन्नादि वैद्य " इसका यह मतलवहै कि जैसे जैसे का पचना ) पसीना, क्लेद [ रुधिरादि में काल बदलता है वैसेही वैसे रोगकी अव
स्था वदलतीजातीहै जैसे अवस्था बदलती विकार स्राव, कोथ, अवसाद, मूछी, मद
है वैसेही औषध बदलनी पड़ती है। रोग, रस में कडवा खट्टा स्वाद आना,सफेद नये ज्बर का उपचार जुदा है और और लालरंग को छोड कर अनेक प्रकारके । पुराना होने पर उसी ज्वरका उपचार जुदा रंगों का वर्ण । ये सब पित्त के कर्म हैं ।।
। है । इस हेतु से व्याधि की अवस्था जानना
वैद्यके लिये बहुत आवश्यकीय है। .. कफके कर्म ।
___व्याधिविभागने का यह मतलव है कि श्लेष्मणः स्नेहकाठिन्यकंडूशीतत्वगौरवम् । बहुत बार एकही व्याधि में अन्य व्याधियां वंधोपलेपस्तैमित्यशोफापक्त्यतिनिद्रताः ॥ मिलजाती है उस समय उनका विभाग वर्णः श्वेतोरसास्वादुलवणौ चिरकारिता। करके ऐसी चिकित्सा करना कि जिस से हत्यशेगामयव्यावि यदुक्तं दोषल क्षणम् ॥ दूसरी व्याधि के विरुद्धनपडे । अथवा व्यादर्शनाद्यैरवाईततत्सम्यगुपलक्षयत् । धि को अवस्था जानने वाला वैद्य ऐसा भी व्याव्यवस्थाविभागशःपश्यन्नातान्प्राक्षिणम् । अर्थ होता है।
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(१९८)
अष्टांगहृदये।
अ० १२
अर्थ राग की परीक्षा केवल शास्त्र पढने । त्रिविधव्याधि की चिकित्सा । सेही नहीं होसकती है। किंतु कर्म में प्रवृति विपक्षी दलात्पूर्वः कर्मजः कर्मसंक्षयात् । करने से चिकित्सा का ज्ञान उपजता है जैसे गच्छ युभयजन्मा तु दोषकर्मक्षयात्क्षयम् ॥ सुवर्ण और रत्नों के खोटे खरेकी पहचान
अर्थ-दोर से उत्पन्न हुई व्याधि दोषों बार बार देखने हीसे माळूम होती है । इमी ।
के उत्पन्न करने वाले पदार्थो से विपरीत तरह निरन्तर अभ्यास करने से, रोगी को देख
: द्वन्ध सेवन करने से शांत हो जाती है । कर्मज
व्याधि कर्मका क्षय होने से और दोष कर्म ने से रोग की दशा का विचार करने से,चि
। दोनों से उत्पन्न हुई व्याधि दोनों का क्षय कित्सा कर्म में सिद्धि का प्रकाश करनेवाला
होने पर शांत होती है। ज्ञान पैदा होता है ।
व्याधि के प्रकारांतर । व्याधिकी उत्पत्तिका प्रकार । द्विवास्थपरतत्रत्वाद्वयाधयःअंत्या पुनधिा दृष्टापचारजः कश्चित्कश्चित्पूर्वापराधजः। पूर्वजाःपूर्वरूपाख्याजातापश्चादुपद्रयाः ॥ तत्संकराद्भवत्यन्यो व्याधिरेवं विधा स्मृतः अथ-याधि दो प्रकार की होती है,
अर्थ-कोई व्याधि दृष्टापचारज हाती है। एक स्वतंत्र, दुसरी परतंत्र । जो अपने ही अर्थात इसी जन्मके लौकिक व्याधि के कारण निदान से कुपित दोष द्वारा व्याधि होती से उत्पन्न होजाती है और कोई व्याधि पूर्व है वे स्वतंत्र अर्थात् प्रधान है और जो स्वतंत्र जन्म कृत कर्मके फल के संस्कार से हेाती है। व्याधि के उपन्न होने से पीछे होती हैं वे और कोई कोई व्याधि ऐसी भी है जो इन परतंत्र वा अप्रधान हैं। इन में से परतंत्र जन्म और पूर्व जन्म दोनों के मिले हुए कर्मो व्याधि के भी दो भेद हैं एक पूर्वज अर्थात् से होता है । इस तरह व्याधि तीन प्रकार पूर्वरूपाख्य । दूसरी पश्चाजात अर्थात् उपद्रव की होती है।
स्वतंत्रादि व्याधि लक्षण ।
यथासजन्मोपरायाः स्वतंत्राःपटलक्षगां: उक्त तीनों के लक्षण ।
विपरीतास्ततोऽन्ये तु विद्यादेवमलानपि ।। यथा निदानं दोषोत्यः कर्मजोहेतुभिविना। तान् ल झवाहितोषिकुमान् प्रतिज्वरम् महारंभाऽल्पके हेतावातंको दोषकर्मजः ५८ अर्थ-जिस व्याधि की उत्पति और
अर्थ-वातादि दोषों के कुपित होने से जो उपशय ( सु वानुवंब ) अर्थात शांति शास्त्रोक्त व्यावि उत्पन्न होती है वह दोषज व्याधि प्रमाण से होती है उसे स्वतंत्र कहते हैं । होती है इसेही दृष्टापचारज कहते हैं । जो स्वतंत्र व्याधि के लक्षण स्पष्ट होते हैं । व्याधि वातादि के निदान लघुरूक्षादि के परन्तु परतंत्र व्याधि इस से विपरीत होती सेवन विनाही उत्पन्न होतीहै उसे कर्मज । है । उस के लक्षण स्पष्ट नहीं होते । उन कहतेहैं । और जो अल्प निदान के सेवनसे का जन्म और उपशय शास्त्रोक्त प्रमाण द्वारा बहुत बढजातीहै उसे कर्मदोषज कहतेहैं। ) नहीं होता । जैसे रोग स्वतंत्र और परतंत्र
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अ० १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ११९ )
भेद से दो प्रकार के होते हैं वैसे ही वाता- जिस जिस हेतु से दोष कुपित होते हैं वे दिक सब मल [ दोष ; भी स्वतंत्र और पर वैसा ही विकार करते हैं । तथा कपित दोष तंत्र दो प्रकार के होते हैं इस लिये साबधान अपने अपने स्थानों को छोडकर अन्य स्थान होकर प्रत्येक रोग में विकृत भाव को प्राप्त में जाते हैं इस से भी अनेक विकार उत्पन्न हुए सब दोपों पर लक्ष रखना चाहिये। होते हैं, जैसे दोष शरीर की संधियों में प्रविष्ट
परतंत्र व्याधियों का शमनोपाय।। होकर जंभाई और ज्वर पैदा करता है । तेषां प्रधानप्रशमे प्रशमोऽशाम्यतस्तथा ।
आमाशय में जाकर छाती के रोग और अरुचि पश्चाश्चिकित्सेत्तूर्ण वा वलवंतमुपद्रवम् ।
उत्पन्न करते हैं । कंठ में प्रवेश करके कंठव्याधिक्लिष्टशरीरस्य पीडाकरतरोहिसः॥ ___ अर्थ-स्वतंत्र व्याधि के मिटने के साथ
भ्रंश और स्वरसाद होता है । प्राणवाही नसों ही प्रायः परतंत्र व्याधियां मिटजाती हैं यदि |
में प्रवेश करके श्वास और श्लेष्मा करतहैं । स्वतंत्र व्याधि के दूर होने पर भी परतंत्र विकारानुसार चिकित्सा । न मिटे तौ प्रधान चिकित्सानुसार उस के | तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्टानांतराणि च । दूर करने का उपाय करै । यदि प्रधान रोग
बुद्धा हेतुविशेषांश्च शीघ्रं कुर्यादुपक्रमम् ॥
अर्थ- ज्वरादिक विकारका उपादान का. से उपद्रव बलवान् हो तो झटपट उस का उपाय करै क्योंकि रोग से जीर्ण हुए शरीर
रण वायु आदिक दोपोंकी प्रकृति, रोगों के में उपद्रव अधिकतर कष्ट देता है।
विशेष हेतु, रोगके विशेष स्थान, और हेतु नाम रहित रोग।
विशेष को जानकर वैद्यको शीघ्र चिकित्सा विकारनामाकुशलो न जिहीयात्कदाचन ।
करना उचित है । जैसे ज्वरादिक विकार नहिसर्वविकाराणांनामतोऽस्तिध्रुवास्थितिः॥ किसदोपके कुपित होनेसे हुए हैं । वह दोष
अर्थ-जो वैद्यको किसी रोग का नाम क्यों कुपित हुआहै इत्यादि बातें जाननीचाहिये मालूम न हो तो लज्जित होने की कोई
रोगकी दशबिध परीक्षा । वात नहीं है क्योंकि वहुत से रोग ऐसे हैं
दृष्यं देशं वलं कालमनलं प्रकृति वयः । जिनका नाम वैद्यक शास्त्र में नहीं लिखा हैं सत्वंसात्म्यंतथाऽहारमवस्थाश्च पृथग्विधाः इसलिये उचित है कि विकारका स्वरूप स- सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यैषां दोषौषधनिरूपणे । मझकर चिकित्सा करना चाहिये ।
| योयर्ततेचिकित्सायांनस स्खलतिजातुचित्
__ अर्थ-वातादिक दोष और हरड आदि रोगों के नाम न होने का कारण । स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः ।
औषधों के निरूपण करने में मलधात्वादिक स्थानांतराणि च प्रायविकारान् कुरुतेवान दूष्य, देश, दोषकाबल, काळ, जठराग्नि, ____ अर्थ-सब रोगों का नाम न होने का रोगीकी प्रकृति, रोगीकीआयु, सत्व [ साहस, कारण यह है कि वातादिक दोषों में से किसी उत्साह, धैर्य, अध्यवसाय और आयुआदि ), एक दोष के कुपित होने के अनेक हेतु हैं। सात्म्य ( रोगीके अनुकूल पदार्थ ), तथा
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अष्टांग दये।
अ० १२
आहार इनदसकी तथा इनके सूक्ष्मसे सूक्ष्म | उदीरेयत्तरांरोगान संशोधनमयोगतः ७१ ॥ अवस्थाओं का अच्छी तरह विचारकरकं जो अर्थ--भारी व्याधि होनेपर अल्पमात्रावाला चिकित्सा करने में प्रवृत होता है वह किसी अथवा अल्प शक्तिवाला संशोधन ( दोषोंको तरह विफलप्रयत्न नहीं होसक्ता है। शुद्ध करनेवाली औषध ) दैनेसे रोग घटता ____ गुरुलघुव्याधि की परीक्षा। नहीं किन्तु बढता है क्योंकि औषधका रागुर्वल्पयाधिसंस्थानं सत्वदेहबलावलात्। गके साथ हीनयोग होजाता है। दृश्यतेऽप्यन्यथाकारं तस्मिन्नवाहितो भवेत्
अल्पव्याधिमंगरुऔषधकानिषेध । अर्थ-व्याधिको गुरुता, और व्याधि की
शोधनं त्वतियोगेन विपरीत विपर्यये । अल्पताकी आकृति, रे.गीका धैर्य, रोगीका क्षिणुयान्न मलानेव केवलं वरस्यति ७२ ॥ देह और उसका बलाबल, इनके प्रमाण अर्थ-यादि अन्य व्याधि में अतिनात्र वा भी विपरीतता दिखाई दिया करती है इस उप्रवीर्य संशोधन औषध दी जाय तो अति. लिये ऐसे प्रसंगमें बडी सावधानी की आव- योग होने के कारण वही दीहुई औपः केवल श्यकता है, जैसे रोगीको धैर्य विशन हो । रोगारम्भफ दोप को ही क्षीण करे यह बात देह पुष्ट और बलबान हो तो रोग भारीहोने नहीं किन्तु शरीर का भी नाशकर देतीहै । परभी हलका दिखाई देता है । इसी तरह आश्य रोगनाशक औषय । रोगी में धैर्य कम हो । देह छोटा और नि
| अतोऽभियुक्तःसतत समालोच्य था।
तथा थुजीत भैषज्यमारोग्याय यथा एवम् ॥ वल हो तो रोग हलका होनेपर भी भारीदि
अर्थ-इसलिये निरन्तर आयुर्वेद की चर्चा खाई देता है । इसलिय ऐसी ऊपरी बातों को
और आयुर्वेद के पठन पाठन में सदा दत्तदेखकर भूल न खाना चाहिये और रोगका
चित्त होकर दोप, दूध, काल आदि सम्पूर्ण सञ्चामहत्व जानकर चिकित्सा करना उचित है।
| विषयोंकी आलोचना करत हुआ ऐसी अॅप. कुवैद्यकी भूल । | घों का प्रयोग करें जिससे निश्चय आराम गरुं लघभितिव्याधि करावस्तु भिषग्वः ।। बोलायो अस्पदोषाकलनया पथ्ये विप्रतिपद्यते २० ॥
दोप की वृद्धि के भेद । अर्थ-कुत्सित अर्थात् केवल नामधारी वैद्य
वक्ष्योऽतःपरं दोगा वृद्धिशयविभेदतः । व्याधिकी आकृतिमात्र देखकर गुरुव्याधि को
| पृथक्त्रीन् विद्धि संसर्गस्त्रिया तरतु तान्नद। अल्प मानकर हीनमात्रावाली औषध देता है
| त्रीनेवसमया वृद्धया पडे कस्याऽतिशायने। और अल्प व्याधिको गुरुनानकर भारी व्या- त्रयोदश समस्तेषुप द्वयाशियेन तु ७५ धिक योग्य औषध दं देता है इसस रोगी | एकंतुल्याधि ट्च तारतम्यविकल्पनात् का बड़ा अहित हो जाता है ।
अर्ध-अव यहांसे आगे दोपोंकी वृद्धि और हीनमात्र संशोधन ।
क्षय से जो भेद होतेहै उनका वर्णन करेंगेततोऽल्पमल्पधी वा गुरुव्याधौप्रयोजितम् | बात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंमें जुदे जुदे
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अ० १२
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१२१)
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अपने प्रमाणसे अधिक होतो तीन भेद होतेहैं । (९) वातबृद्ध, कफ वृद्धतर पित्तवृद्धतम । यथा-वातवृद्ध, पितवृद्ध, कफबृद्ध । दो। (१०) पित्तवृद्ध, कफबृद्धतर, वातवृद्धतम । दो दोष मिले होतो वह दोषोंका संसर्ग (११) पित्तवृद्ध, वातवृद्धतर, कफवृद्तम । कहलाता है, बह संसर्ग तीन प्रकारका होता (१९) कफवृद्ध, वातवृद्धतर, पित्तवृद्धतम । है किन्तु येही तीन प्रकार दो दो की समान (१३) कफवृद्ध, पित्तबृद्वतर, वातबृद्धतम । वृद्वि से तीन प्रकारके और एक की अधिक- क्षीण दोष के गुण । ता से छः प्रकार के होते हैं इस तरह सव पंचविंशतिमित्येवं बृद्धैःक्षीणैश्च तावतः । मिलाकर नौ प्रकार के होते हैं । जैसे-तुल्य | अर्थ-पूर्वोक्त रीति के अनुसार दोषों की वृद्ध वातपित्त, तुल्य वृद्ध वातकफ, तुल्य वृद्ध वृद्धि के कारण दोषोंके २५ भेद होतेहैं अर्थात् पित्तकफ । एक एक की अधिकतासे जैसे:-- वृद्ध पृथक् दोष तीन प्रकारके, दो २ वृद्ध वातबृद्ध पित्तवृद्धतर, पित्तवृद्ध, वात वृद्वतर, | दोष नौ प्रकार के, वृद्ध सन्निपात तेरह कफवृद्ध पित्तवृद्धतर, पित्तवृद्व कफवृद्धतर प्रकार के । इसी तरह क्षय भेदसे भी पच्चीस कफवृद्ध वातवृद्वतर, वातवृद्ध कफवृद्धतर । भेद होते हैं । ऊपर कहे हुए उदाहरणों में इस तरह नौ भेद हैं।
जहां जहां बृद्ध शब्द का प्रयोग है वहां वहां तीनों दोष की वृद्धि का नाम सन्निपात है। क्षीण शब्दका प्रयोग करने से सहजहीमें पचास सन्निपात तेरह प्रकार का होता है इनमें से भेद मालूम होजातेहैं, जैसे:-( पृथक् तीन) दो दोषों के विशेष वद्धि से तीन भेद और क्षीणवात,क्षीणापित्त,क्षीणकफ( दो दोके नौ) एक दोष अधिक वढा हो तो तीन भेद इस तुल्य क्षीण वातपित्त, तुल्य क्षीण पित्तकफ, तरह छः भेद हुए । इसी तरह तीनों दोषों तुल्य क्षीण वातकफ, वातक्षीण पित्तक्षीणतर के समानाधिक्य से एक भेद । और तीनों | पित्त क्षीण वातक्षीणतर, वातक्षीण कफदोषों के तारतम्य के अनुसार छः भेद । क्षीणतर, कफक्षीण वात क्षीणतर, कफइस तरह सब मिलाकर तेरह होतेहैं । जैसे:- क्षीण पित्तक्षीणतर, पितक्षीण कफ क्षीणतर (१) कफवृद्ध बातपित्त अधिक वृद्ध । ( सन्निपात के तेरह ) वातक्षीण पित्तकफ(२) पित्तवृद्ध वातकफ अधिक बृद्ध । क्षीणतर, पित्तक्षीण वातकफक्षीणतर, कफ(३) वात वृद्ध पित्तका अधिक वृद्ध । क्षीण पित्तबातक्षीणतर, बातापित्तक्षीण कफक्षी (४) पित्त कफबृद्ध वात अधिक बृद्ध । णतरतर, पित्तकफक्षीण बातक्षीणतर, बातक (५) वातकफ बृद्ध, पित्त अधिक वृद्ध । फणि पित्तक्षीणतर, तुल्यक्षीण बातपित्तका (६) वातपित्त बृद्ध, कफे अधिक बृद्ध । कामक्षीण पित्तक्षीणतर, बातक्षीणतम, बात. (७) वात पित्त कफ समान बृद्ध । क्षीण कफक्षीणतर पित्तक्षीणतम, पित्तक्षीण (८) वातबृद्ध, पित्त बृद्धतर कफबृद्धतम || कफक्षीणतर, बातक्षीणतम, कफक्षीण बात
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( १२२)
अष्टांगहृदये।
अ० १२
क्षाणतर पित्तक्षीणतम, बातक्षीण पित्तक्षीण | ताका कारण है अर्थात् बात पित्त कफ ये तर कफक्षीणतम, पित्तक्षीण बातक्षणितर | तीनों अपने अपने प्रमाणसे रहे आवें । ऊकफक्षीणतम । इसतरह ये पच्चीस भेद हैं। पर कहे हुए ६२ भेदही रोगके कारण हैं |
क्षयवृद्धि और समताकेभेद। इससे यह मतलब निकलता है कि दोषोंकी एकैकवृद्धिसमतामयैः पद ते पुनश्च षट । विषमता ही रोगका हेतु है । एकक्षय द्वन्द्ववृद्धा सविपर्यययाऽपि ते । दोषभेदों में असंख्यता। भेदाद्विवष्टिनिर्दियात्रिषष्ठिःस्वास्थ्यकारणं।
संसर्गाद्रसरुधिरादिभिस्तथैषां अर्थ-सन्निपातस्थ तीन दोषों में से एक दो
दोषांनुक्षयसमतावि वृद्धभेदैः । षकी बृद्धि, एक दोषकी समता और एक दो आनत्यं तरतमयोगतश्च यातात् ॥ पकी क्षीणता से छः भेद होते हैं। जैसे- जानीयाद्वहितमानसो यथास्वम् ॥ ७८ ।। [१] बातबृद्ध,पित्तसम, कफक्षीण । (२)
अर्थ-दोषोंकी वृद्धि और क्षीणता से जो पित्तवृद्ध । बातसम । कफक्षीण । ( ३ )कफ
६२ भेदकहे गयेहैं यह केवल दिग्दर्शन मात्र वृद्ध । पित्तसम । बातक्षीण । ( ४ )कफवृद्ध।
हैं । इनसे नये विद्यार्थियों को दोषोंकी व्युत्पबातसम । पित्तक्षीण । (५)बातबृद्ध । कफ
त्तिका केवल मार्ग दिखाया गया है । नहीं सम | पित्तक्षीण । (६)पित्तवृद्ध, कफसम ।
| तो रसरक्तादि सातधातुओं के संसर्ग, उन बातक्षीण ।
की क्षय, वृद्धि और समता तथा तारतम्यके इसीतरह एकदोषका क्षय और दो दोषोंकी
अनुसार दोषोंके अनन्त भेद होते हैं । इस वृद्धिसे तीन प्रकार और इनके विपरीत भा
लिये बहुत सावधानीसे विवेचना पूर्वक चि बसे अर्थात् दो दोषोंकी क्षीणता और एक कित्सा करनेमें प्रवृत्त होना चाहिये । दोषकी वृद्धिसे तीनप्रकार कुल मिलकर छः
रसादि के संयोगसे जो दोषोंके भेद होते हैं भेद होते हैं । जैसे ( १ )बातक्षीण । पित्त
| उनका दिग्दर्शन इसतरह है कि पृथक् २ कफवृद्ध । ( २ )पित्तक्षीण । वातकफवृद्द ।
रसवातपित्त कफकी वृद्धिके तीन भेद । दो ( ३ )कफक्षीण, बातपित्तवृद्ध । ४ )वातपि
दो के संसर्गसे नौ । और सन्निपात के ते त्तक्षण, कफवृद्ध । (५ बात कफक्षीण,पित्त
रह | सब मिलाकर पच्चीस हुए । फिर रवृद्ध । [६]पितकफक्षीण, बातवृद्ध । इसन- सादिकी क्षीणत से पच्चीस । फिर तारतम्य रह सन्निपात में दोपोंके वृद्धिक्षयभेदसे दोषों
भेदसे बारह और अपने प्रमाण में स्थित रस के रूपान्तर होजाते हैं।
वात पित्त कफ का एक इस तरह रसके संयोग इनमें वृद्धि भेदसे पच्चीस, क्षयभेदसे, पच्ची | से ६३ भेद हुए।इस तरह रक्त मांसादिके संयोग स, तथा क्षयवृद्धि और समानभेदसे बारह | से जानने चाहिये । इसतरह सातधातुओंके भेद हैं, सब मिलाकर ६२ भेद हुए । इनके संसर्गसे दोपोंके ४४१ भेद होते हैं । फिर सिवाय तिरेसठवां भेद और हैं वही आरोग्य | इनमें मलादिके संयोगसे अनन्त भेद होजाते
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
हैं । इनसबको जान लेनेसे वैद्य कदापि भूल नहीं खाता है, कहा भी है" यः स्वाद्रसविक स्पज्ञः स्याच्च दोषविकल्पवित् । नस मुह्येद्वि काराणां हेतुलिंगोपपत्तिषु " ॥ इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
त्रयोदशोऽध्यायः ।
अथातो दोषोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहां से दोषोपक्रमणीय ( दोषों की चिकित्सा में हितकारक ) अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
..
वायुका उपचार |
|
1
'वातस्योपक्रमः स्नेहः स्वेदः संशोधनं मृदु । स्वाद्वम्ललवणोष्णानि भोज्यान्यभ्यगम निम् वेष्टनं त्रासनं को मद्यं पैष्टिकोडिक । त्रिग्धोष्णावस्तयो बस्तिनियमः सुखशीता दीपनैः पाचनैः सिद्धाःस्नेहाश्चानेक योनयः । विशेषामेव्यपिशितरसतैलानुवासनम् ३ ॥
वितस्य पर्विषः पानं स्वादुशीतैर्विरेचनम् । यातिकषायाणि भोजनान्यौषधानि च सुगंधशीतहृद्यानां गंधानामुपसेवनम् । कण्ठे गुणानां हाराणां प्रणीनामुरसा धृतिः ॥ कर्पूरचन्दनोशीरैरनुलेपः क्षणे क्षणे भवश्चंद्रमाः सौधं हारि गीत हिमो ऽनिलः अयंत्रणसुखं मित्रं पुत्रः संदिग्धमुग्धवाक् । छंदानुवर्तिनो दाराः प्रियाः शीलविभूषिताः शीतांशुधारगर्भागृहाण्युद्यानदीर्घिकाः । तील स्वच्छसलिलाशय सैकते ॥ ८ ॥ सांभोजजलतीरांते कायमाने दुमाकुले । सौम्याभावाःपयःसर्पिर्विरेकश्चविशेषतः
अर्थ - वायुकी चिकित्सा करने में प्रथम ही स्नेहपान उचित है, क्योंकि यह सब में श्रेष्ठ है पीछे स्वेदन ( पसीने देना ) कर्मकरै । स्नेहन स्वेदन के पीछे हलका वमन1 विरेचन देव [ तीक्ष्णदेने से वातप्रकोपका डर रहता है ), मधुर अम्ललवण और उष्ण भोजन का पथ्य करावे। हाथ से तेल लग वाकर धीरे२ मर्दन करना, वस्त्र लपेटकर बांध देना, त्रास दिखाना [ शस्त्रधारी मनुष्य, राजकर्मचारी बा अन्य त्रासोत्पादक वस्तु
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( १२३ )
दिखाना, भय वा शोक से वायु प्रकुपित होता है, त्राससे नहीं ], दसमूलादि के काथ से सेक अर्थात् तरडादेना, पौष्टिक और गौडिक मद्यपान स्निग्ध और उष्णवस्ति ( स्निग्धोष्णवस्ति कहने का यह प्रयोजन है कि रूक्षशीत वस्ति न देवे ) यस्तिनियम ( स्नेहपानादि पांच प्रकारके कार्य करके वस्ति प्रदान ), सुखवृत्ति से रहना, दीपन, पाचन द्रव्यों से सिद्ध किये हुए तिल, चिरोजी, अखरोट आदि का तेल, और विशेष करके पुष्टमांस रस युक्त तेल की अनुवासन वस्ति ये दस उपचार वायुके हैं । पित्तका उपचार |
अर्थ - पित्त के प्रकुपित होने पर वृतपान मधुर और शीतल द्रव्य द्वारा विरेचन (जुलाव ), मधुर तिक्तकषाय भोजन, मधुर तिक्त कपाय औषध, सुगंधित, शीतल और मनोहर इत्रादि का सूचना, मोती के हार और लडें कंठ में पहरना, मरकतमणि, चन्द्रकान्तमणि पद्भरागादिक मणि छातीपर धा
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( १२४ )
अष्टांगहृदये।
अ० १३
रण करना । कपूर चन्दन खस इनका लेप रूक्ष मर्दन कराना, विशेष करके वमन, थोडी थोडी. देरमें करना, प्रदोष काल का यूप, मधु, मेदनाशक औषध, धूमपान, उपसेवन, चन्द्रमा की चांदनी में बैठना, चूने वास, गंडुपविधि, तथा मन, बाणी और की कलई से पुते हुए घरमें रहना, मनह- कर्म में जिससे क्लेश हो वह काम करना । रण गीतों का सुनना, ठंडे पवन का सेवन । ये सब प्रकुपित कफ के उपचार हैं । अनियंत्रणसुख मित्र ( ऐसा मित्र जिसके दोषों के उपचार की विधि। आगे किसी बात के करने की रोक टोक | उपक्रमः पृथग्दोषान् योऽयमुद्दिश्य कीर्तितः न हो ), मधुरी मधुरी तोतली वाणी बोलने
संसर्गसन्निपातेषुतं यथास्वं विकल्पयेत् १२ वाली संतान, पति के अनुकूल इच्छाके अ.
___ अर्थ-वातादिक प्रत्येक दोषों में जो जो
| चिकित्सा कही गई हैं, वेही वही द्वन्द्व और नुसार वर्तनशील और प्राणबल्लुभास्त्री के
सन्निपाति दोनों में भी मिलाकर करनी. साथ हास्य विनोद, शीतल जलके फब्बारे
चाहिये जैसे भारपित्त के संसर्ग में बात जिसमें चलरहे हों ऐसे घरमें रहना, उपरन और बाटिकाओं में रहना, पुष्करिणी के
और पित्त में कही हुई चिकित्सा मिला कर
करें। इसी तरह सन्निपात में भी करें। किनारों पर वृक्षों के तले पुर्णकुटी में रहना
अन्य उपचार। शांत भाव से रहना, घी और दूध पीना
श्रेष्मः प्रायो मरुत्पित्ते वासंतः कफमारते । तथा विशेष करके विरेचन ये सब प्रकुपित मस्तो योगवाहित्वात्कफपित्ते तुं शारदः ।। पित्त के उपचार हैं।
___ अर्थ-वात और पित्त के संसर्ग में ग्रीष्म कफ के उपचार । ऋतुचर्या में कही हुई चिकित्सा करै । जैसे श्लेष्मणो विधिनो युक्तं तीक्ष्णं वनवरेचनम् श्री ऋतुमें मधुर, कटु, अम्ल, व्यायाम, अनरूक्षाऽल्पतीक्ष्णाष्णकतिक्तरूपायकम् । सर्य की किरणें त्याज्य है और मधरादि दीर्घकालस्थित मद्यं रतिप्रीतिप्रजागरः । अनेकरूपो व्यायानश्चिता रूक्षं विमर्दनम् ।
अन्न सेव्य हैं, वैसेही वातपित्त में लवणादि विशेषाद्वमनं यूपः क्षौद्धं मेडोनमौषधम् ।। त्याज्य है और मधुरादि सेव्य हैं । वात धूमोपवासगंडूषानिःसुखत्वं सुखाय च १२॥ कफ के संसर्ग में वसंत ऋतुचर्यामें कहे
अर्थ-प्रकृपित कफमें शास्त्रोक्त विधिक हुए तीक्ष्ण नस्य वमनादि रूप चिकित्सा का अनुसार तीक्ष्ण वमन और तीक्ष्ण विरेचन प्रायः उपयोग करै । कफ पित्त के संसर्ग देवै । रूक्ष, अल्प, तीक्ष्ण, उष्ण, कटु, में शरद ऋतुचर्या में कही हुई चिकित्सा तिक्त, और कषाय भोजन देवै । पुराना करै । ग्रीष्ममें अत्यन्त शीतल सेबन कहा है मद्य पीवै स्त्रीसंभोग का सुख अनुभव करें। और वसंत में तीक्ष्ण वमन और नस्यादि का जागरण करै । मयुद्ध, धनुराकर्षणादि प्रयोग कहा है। किन्तु ये दोनों ही अत्यन्त प्रकार का व्यायाम करना, चिंता करना, वातकारकहैं तव किस तरह वातपित्त और
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अ० १३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत ।
(१२५)
वात कफ के संसर्ग में क्रमशः प्रीष्म और वही है जो एक रोगको शान्त करके दूसरों वसंत में कहा हुआ विधान काम में आस- को न तो बढाथै, न पैदा करै । कता है इस शंका का यह समाधानहै कि शाखाओं में दोषोंका आना जाना । पवन गवाही होता है अर्थात् जिस दोप व्यायामादृष्मणस्तैक्ष्ण्यादहिताचरणादपि। से मिल जाता है उसी दोष का कार्य करने
कोष्ठाच्छाखास्थिमर्माणिद्रुतत्वान्मारुतस्य च
दोषायांति तथातेभ्यःमोतोमुखविशोधनात लगता है । इस लिये पित्तयुक्त वायु की
बृद्धाभियंदनात्पाकाकोष्टवयोश्च निग्रहात् पित्त चिकित्सा और कफयुक्त वायु की कफ
___ अर्थ- कोष्ट अर्थात् उदर से दोप निचिकित्सा न्यायसंगत है सन्निपात में "भ
कलकर हाथ पांव आदि शरीर के अवयव नेत्साधारणं सर्वे'' इस वचन के अनुसार वर्षा अस्थि और मर्मस्थानमें जातहैं, इसके चार ऋतुचर्या में कहा हुआ उपचारकरै, क्यों
हेतुहैं ( १ ) व्यायाम कसरत करनेके श्रम कि शास्त्र में कहा है कि वर्षा ऋतु में तीनों से वायु ऊपर को चढताहै और कसरत से दोष प्रकुपित होते हैं।
पैदा हुए क्षोभ, श्रम और गरमी के कारण उपचार का काल । शिथिल और चलायमान दोष कोष्ठ से अबचय एव जयेद्दो कुपितं त्वविरोधयन् । यव, अस्थि और मर्मस्थानमें चले जातेहैं । सर्वकोषे बलीयांस शेषदोषविराधतः १५॥ ___ अर्थ- जिस कालमें वातादिक दोषोंका
( २ ) गरमी- तीक्ष्ण उष्णताके कारण संचय होताहै उसी समय टोपोंके जीतनेका
दोष पिघल कर, गरमीके कारण खुलेहुऐ, उपाय करै, परन्तु दोषोंके प्रकुपित होनेकी
स्रोतोंके मुवमें होकर शाखाओं में घुस जाते प्रतीक्षा न करै । संचयकालमें ही दोपों
। हैं । ( ३ ) अहित सेवन-अहित पदार्थोके की शुद्धि हाजाने से वे फिर कुपितही नहीं
सेवन से दोष अपने प्रमाण से बढकर होन पाते । दो दोष मिलकर कुपित हों तो
शाखादिमें जातेहैं जैसे वर्षा ऋतुमें जल अऐसी चिकित्सा करै जो दोनों में से किसी पने जलाशय में न समाकर अन्यत्र बहने के विरोधी न हो | तीनों दोषों के कुपित लगताहै | ( 8 ) वायुका शीघ्र गमन- वाहोनेपर बलवान की चिकित्सा करै, पर वह
युके शीघ्रगामी होने के कारण दोष उसके चिकित्सा शेष दो दो घाँकी विरोधी न हो । | साथ साथ कोष्ठसे अस्थिआदिमें चले जाते हैं विरोधी चिकित्मा न करने का कारण । शाखास्थि और मर्मस्थानमें गये हुऐ दोष, प्रयोगः शमयेद्व्याधि योऽन्यमन्यमुदीरयेत्। जब दोषवाही नलियों के मुख शुद्ध होजाते हैं नाऽसौविशुद्धाशुद्धस्तु शमयेद्योन कोपयेत् तब कोष्ठमें पीछे चले जातेहैं । इसके भी . अर्थ-जिस चिकित्सा से एक व्याधि | चार कारण हैं- शाखों में गए हुए दोष शान्त होकर दूसरी खडी होजाय वह चिकि वहां न समाने के कारण, कफ उत्पन्न कसा विशुद्ध नहीं होतीहै । विशुद्ध चिकित्सा रनेवाले पदार्थोंके सेवनसे, पाचनादि औष
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(१२६)
अष्टांगहृदये।
धियोंसे दोषोंका पाक होजानसे, तथा वायु अथवा प्रथम स्थानी दोष का शमन करके का निग्रह करनेसे दोष शाखास्थि और मर्म फिर आगन्तु दोष का शमन करै । स्थानसे कोष्ठमें वापिस आजातेहैं ।
तिर्यक स्थानगत दोष । कोष्ठमें दोषोंका कर्म ।
प्रायस्तिर्यग्गतादोषाःक्लेशयंत्यातुरांश्चिरम् तत्रस्थाश्च विलम्बरेन् भूयो हेतुप्रतीक्षिणः । अया
कुर्यान्न तेषुत्वरया देहाग्निवलपिक्रियाम् ।
शमयेत्तान्प्रयोगेण सुखं वा कोष्ठमानयेत् ।। __ अर्थ- दोष कोष्ठमें जाकर रोगादि की
ज्ञात्वा कोष्टप्रपन्नांश्च यथाऽसन्नं विनिहरेत् उत्पत्ति नहीं कर सकतेहैं क्योंकि दूसरे अर्थ-शरीरस्थ दोष जब तिय्यक स्थान स्थानमें जाकर निर्बल और शक्तिहीन हो में चले जाते हैं तब रोगी को बहुत काल जाते हैं और कुपित करनेवाले अन्य हेतुओं तक कष्ट पहुंचाते है, इस लिये वैद्य को की प्रतीक्षा करते रहतेहैं।
उचित है कि ऐसे दोष की चिकित्सा करने दोषोंके कुपित होने का कारण ।
में शीघ्रता न करै । शास्त्रोक्त चिकित्सा के ते कालादिवलं लब्ध्वा कुष्यत्यप्याश्रयेष्वपि
अनुसार तिय्यर्गत दोषों की शान्ति करै __ अर्थ- वही दोष काल, देश, दूष्य, प्र
अथवा जिस उपाय से देह में पीडा न होवै कृति, अपथ्य आदि समान गुणवाले हेतुओं
उससे उन दोषों को शनैः शनैः कोष्ठ में से बल प्राप्त करके कोष्ठस्थ दोष शाखास्थि
लावै । जब वे कोष्ठ में आजाय तब जो मार्ग मर्मस्थानों में और शाखास्थिमर्माश्रितदोष ।
उनके पास हो उसी के द्वारा उनके बाहर कोष्ठमें रोग उत्पन्न करते हैं।
निकालने का प्रयत्नकरै । जैसे जो गुदा परस्थानगत दोष की चिकित्सा ।।
निकट हो तो विरेचन देवै, मुख निकट हो तत्राऽन्यस्थान संस्थेषु तदीयामवलेषु च ।
हो वमन करावे, नासिका निकट हो तो कुर्याञ्चिभित्लां स्वामेवरलेनान्यासिमाविषु आगंतुं शमयेहोष स्थानिनं प्रतिकृत्य वा ।
नस्यकर्म करै, इत्यादि । आमस्थान, आग्नअर्थ-अन्यस्थानगत संपूर्ण दोष जबतक
पकाशय, मूत्राशय, रक्ताधार, हृदय, मलाशय निर्वल रहते है तबतक किसी प्रकार का
और फुसफुस इनको कोष्ट कहते हैं। रोग उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते हैं
साम तथा निराम मल के लक्षण । उनकी निज चिकित्सा न करके केवल |
स्रोतोरोधदलभ्रंशगौरवानिलमूढताः २३ ॥
आलत्यापक्तिनिष्टीवमलसंगारुचिक्लमाः । स्थानी दोष के संबधकी चिकित्सा करनी चा- लिंगं मलानां सामानां निरामाणां विपर्ययः हिये । लेकिन जब परस्थानगत दोष बल- | वान होकर अपनी शक्ति के द्वारा स्थानी
क्षपक । दोष का पराभव करके स्थित होजाय ।
विण्मूत्रनखदंतत्वक्चक्षुषां पतिता भवेत् ।
रक्तत्वमतिकृष्णत्वं पृष्ठास्थिकाटिसंधिरुक् ॥ तब स्थान संबंधी दोष की चिकित्सा न । शिरोरुक जायते तीनानिद्रा बिरसता मुखे। करके बलवान दोष की चिकित्सा करै । क्वचिच्च श्वयथुर्गा ज्वरोऽतीसारहर्षणम् ॥
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अ० १३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१२७ ]
.. अर्थ-साम अर्थात् आमसहित मल के | हलाते हैं । जैसे सामज्वर, निरामज्वर (इलक्षण यह हैं कि मलवाहिनी शिराओं का नका विशेष विवरण उवरके प्रकर्ण में अबरोध, वलकी हानि, शरीर में भारापन, होगा )।+ वायु की स्तब्धता, आलस्य, आहार का न बाहर न निकालने योग्य सामदोष। पचना, मुख से लार गिरना, मल की रुका- सर्वहप्रविसृतान् सामान दोषान्न निर्हरेत् । वट, अन्न में अरुचि, और ग्लानि । जो लीनानधातुप्यनुक्लिष्टान्फलादामादसानि। आमरहित मल हो तो उसके लक्षण इससे आश्रयस्य हि नाशाय ते स्युर्दुर्निर्हरत्वतः । विपरीत होते हैं जैसे स्रोतों की खुलावट,
___ अर्थ -सामदोष जो संपूर्ण देहमें व्याप्त वलवचा आदि।
होगये हों, रसरक्तादि धातुओर्मे लीन हों आम का लक्षण।
और अपने स्थानसे चलित न हुए हों उन उष्मणोऽल्पबलत्न धातुमाद्यमपाचितम। को वमन विरेचनादि द्वारा वाहर न निकादुष्टमामाशयगतं रसमाम प्रचक्षते ॥ २५ ॥ लना चाहिये । क्योंकि इनका निकालना
अर्थ-जठराग्नि की दुर्वलता के कारण | बहुत कठिन है, जैसे कच्चे आममें से रस विना पका हुआ और वातादि दोष से दू- निकालने का प्रयत्नकरने से फलका नाश षित हुआ आमाशयगत रस नामक प्रथम
होजाता है, वैसेही आमके निकालने से धातुको आम कहते हैं।
शरीरका नाशहो जाता है। अन्यमत ।
आमदोषमें कर्तव्य । मन्येदोषभ्यएवातिदुष्टेभ्योऽन्योन्यमूर्च्छनात्
नात् पाचनपनःस्रहस्तानस्वेदैश्च परिष्कृतार कोद्रवेभ्यो विषस्येव वदत्यामस्य संभवम् ॥
" शोधयेत् शोधनैःकाले यथासनं यथावलम् अर्थ-इस विषय में अन्य आयुर्वेदा
___ अर्थ-ऐसे रोगमें यह करना चाहिये चार्यों का यह मत है कि अत्यन्त बिगडे कि ज्वराध्यायमें कहे हुए, तथा जठराग्निको हुए बातादिक दोष आपस में मिलजाते हैं
प्रदीप्तकरनेवाले पाचन द्रव्य, स्नेहन और तब आमकी उत्पति होती है जैसे कोदों धान्य से विपकी उत्पत्ति कही गई है । ___+ आम के लक्षण अन्यत्र इस तरह
लिखे है:-द्रवं गुर्वनेकवर्ण हेतुः सर्वरोगाणां सामका अर्थ ।
निग्धपिच्छिलमातंतुमदतुवद्धशूलंदुर्गधी आमेन तेन संपृक्ता दोषा दूच्याश्च दूषिताः। | त्यादि । सामलक्षणानिः- वायुरामान्वयः सामा इत्युपदिश्यते ये च रोगास्तदुद्भवाः सातिराध्मानकदस्तंचरः । दुर्गन्धमासंतं . अर्थ-वातदिदूषित और आमसंयुक्त जो पित्तकदुकंबलहंगुरु आविलस्तंतुमांस्त्यानः
प्रलेपीपिच्छिलः कफः। विपर्ययेतु पक्वत्वं । दोष और दूष्य पदार्थ हैं उन्हें साम कहते
तथाता समेचक्रम् । पीतंच पितमच्छंचहैं और जो रोग वातादिक दोषोंसे उत्पन्न |
श्लेश्माच्छः पिंडितोऽथवा।विशदश्च सफेहोते हैं पर वे आमसे युक्त हों तो साम क- नश्चधवलोमधुरोरस इति ॥
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(१२८)
अष्टांगहृदये।
विधिपूर्वक स्वेदन प्रयोग द्वारा आमदोष को | जो दोष अच्छी तरह न निकलते हों तो पकावै फिर दोषकी शुद्धि करने के समय ययोक्त पाचन द्रव्य द्वारा उनका परिपाक रोगीकी शक्तिके अनुसार मृदु, मध्य बा करै अथवा बाहर निकालने का उपाय करै। तीक्ष्ण वमन विरेचन द्वारा उनको पासवाले दोषशोधन का काल ।। मार्ग द्वारा बाहर निकालनेका यत्नकरै। श्रावणे कार्तिके चैत्रे मासि साधारणेमात् दोषोंके निकटवर्ती स्थान ।
ग्रीष्मवर्षाहिमाचतात् वायवादीनाशु निर्हरेत्
___ अर्थ - ग्रीष्मऋतु में संचित हुए वायु को हंत्याशुयुक्तं वक्त्रेण द्रव्यमामाशयान्मलान् घ्राणेन चोर्ध्वजत्रूत्थान पक्काधानादेन च ॥
श्रावण में निकाले । वर्षा ऋत में संचित ___ अर्थ-मुखके द्वारा योजना की हुई औ
हुए पित्त को कार्तिक में शरद ऋतुम शोधन षध मुखमार्ग अर्थात् वमन से आमाशय
करै । हेमंत और शिशिर ऋतु में संचित
कफ को चैत्र के महिने में वसंत ऋतु में स्थ दोषको दूर करती हैं | नासिका द्वारा
शोधन करै । ये दोष की शुद्धि का साधायोजना की हुई औषध कंठ से ऊपरके रोगों को दूरकरती है । और गुदा द्वारा योजना
रण काल है. इस लिये इस समय में शोधन कीहुई औषध गुदामार्ग से पक्वाशयस्थ दो
करना उचित है । पोको निकालदेती है।
संचप काल में दोष शुद्धि का निषेध ।
अत्युष्णवर्षशीता हि ग्रीष्मवाहिमागमाः। दोषों के रोकने का निषेध ।।
संधौ साधारणेतेषांदुष्टान्दोषानावशोधयेत् उक्लियानध ऊर्यदान चामान्बहतःस्वयम् अर्थ-ग्रीष्म काल में अत्यन्त गर्मी पडती धारयेदोषधैर्दोषान् विधृतास्ते हि रोगा।
है, वर्षा में अत्यन्त वर्षा होती है और शीत अर्थ-जो आम दोष अपने आप ऊपर वा नीचे के मार्ग द्वारा निकलने लग गये ।
ऋतु में ठंड अधिक पडती है । इस लिये हो तो रोकने की दवा देकर उनका रोकना
इन ऋतुओं के संधिकाल में साधारण अच्छा नहीं होता क्योंकि वहिर्गमनोन्मुख
काल होता है उस समय विगडे हुए दोष दोष रोकने से रोगों को उत्पन्न करते हैं ।
का निकालना उचित है । इस का कारण
यह है कि ग्रीष्म काल में वलका आदान वहिर्गमनोन्मुख दोषों में कर्तव्य ।।
काल होने से शरीर ग्लानियुक्त होजाता है प्रवृत्तान् प्रागतो दोषानुपेक्षेत हिताशिनः ॥ विवद्धान पाचनैस्तैस्तैः पाचयेन्निहरेत वा। और सूर्य की प्रचंड किरणों से संतप्त होकर
अर्थ - जब दोष बाहर की ओर निकलने पिपासा और क्लान्ति से व्याकुल हुआ मनुष्य में प्रवृत होगये हों तब प्रथम ही हितकारी दोषों के अत्यन्त लीन होजाने के कारण भोजन करता हुआ उनकी उपेक्षा करै शिथिल शरीर होजाता है ! औषधभी सूर्य अर्थात् किसी प्रकार की रोकने वाली औषध की प्रखर किरणों से संतप्त होकर उष्ण - न देकर केवल हितकारी भोजन करै । और । और तीक्ष्ण हो जाती हैं, इसलिये औषध
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
1
का दोष के साथ अतियोग होजाने के कारण अच्छा फल न मिलकर केवल हानि होती है । वर्षा ऋतु में अति वृष्टि होने से पृथ्वी में तरी घुसजाती है, अग्नि मंद पड़ जाती है, तथा आदान काल होने के कारण शरीर भी दुर्बल होजाता है । उस समय औषध भी पानी पी पी कर अल्पवीर्य हो जाती हैं और पृथ्वी की बाष्प ( अवखरात ) लगने से जल भी जाती है, इसलिये ऐसी औषध का दोष के साथ अयोग हो जाता हैं और गुण के बदले अवगुण करती है और शीत ऋतु में अत्यन्त ठंड पड़ने के कारण शरीर अति वातविष्ट स्निग्ध और गुरु दोष युक्त होजाता है । और उष्णस्त्रभाववाली औषध भी जाड़ा मारने के कारण मंदी होजाती हैं और दोष के साथ उन का अयोग होजाता है । इन हेतुओं से अति ग्रीष्म, अति दृष्टि और अति शी के दिनों में मनविरेचनादि संशोधन औषधों का प्रयोग करना उचित नहीं है । इस काम के लिये संधिकाल ही उचित समय है ।
शोधन का अन्यकाळ | स्वस्थवृत्तमभिप्रेत्य व्याव्याधिवशेनतु ॥ अर्थ- ऊपर जो दोष के संशोधनका काल कहागया है, वह उसी के लिये है जि सका शरीर निरोग है, किन्तु रोगीपुरुष के दोषका संशोधन काल तो रोगकी अवस्था पर निर्भर है ।
( १२९ )
/
अर्थ - अत्यन्त जाडे, गरमी वा वर्षा का में रोग उत्पन्न होगया हो और वमन विरेचन द्वारा संशोधन की आवश्यकताहो तो शीत, उष्ण और वृष्टिका यथायथ प्रतीकार अर्थात् कृत्रिम ऋतु के गुण उत्पादन कर के संशोधनादि रूप चिकित्सा करना चाहि ये । परन्तु चिकित्साका काल कदापि हाथ से न जानेदे । क्योकि रोगके बढ जाने से रोगी के प्राणनाश होने की संभावना हैं । कृत्रिम ऋतुगणका यह प्रयोजन है कि यदि सन्त ऋतु में रोग होनेपर संशोधनकी आवश्यकता है तो रोगी को गर्भगृह में रक्ख जहां ठंडी हवा प्रवेश न कर सके, अग्नि से घरको गरम रक्खै । ग्रीष्म ऋतुमें रोगी को ऐसे स्थान में रक्खे जहां फव्वारे चलते हों मकान शीतलहो जिसमें गरमी का तापमालून न पडे । इसी तरह वर्षा ऋतु भी बर्षा की सरदी से बचने का उपाय करे ।
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औषधका समय | युज्पादनन्नमन्नादौ मध्येऽते फवलांतरे 1 मासे मासे मुहः खानं सामुद्रं निशि वौषधम् अर्थ - औषध सेवनके ये दश काल हैं । यथा-- ( १ ) अनन्न [ जो औषध खाई जाती है उसके पचने के पीछे अन्नखाना ) ( २ ) अन्नादि ( औषध के सेवन करतेही भोजन करना ), ( ३ ) मध्यकाल ( आहा रके बीच में औषध सेवन ), [४] अंतकाल ( भोजन करके औषध सेवन ), (५) कलांतर [ एक प्रास खाकर औषध
अतिशीतोष्णकाल में कर्तव्य |
कृत्वा शीतोष्णीनां प्रतीकारंयथायथम् ।
प्रवेजयोत्कियां प्राप्त क्रियाकाळ महापयेत् | लेलेना फिर दूसरा प्रास खाना ], [ ६
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(१३०)
अष्टांगहृदये।
अ० १४
ग्रासे प्रासे [ मास मास में मिलाकर औषध । मिलाकर वा दो दो प्रासके बीच में औषध खाना , (७) मुहुर्मुहुः ( भोजन करके | सेवन करनी चाहिये । बिष, वमन, हिचकी, या विना भोजन करे थोडी थोडी देरके अ- तृषा, स्वास, कासादि रोगोंमें बार बार औ• न्तरसे औषध सेवन ), (८) मान्न । षध दैनी चाहिये । अरुचिमें अनेक प्रकार ( आहार के साथ औषध सेवन ), (९) के खाद्य पदार्थोंके साथ औषध देव । कंपसामुद्ग। आहार के पहिले और पीछे औ- नवायु, आक्षेपक, और हिक्का रोग लघुषध सेवन ), (१०) निशि ( रात्री में भोजन करे और आहार के पहिले और पीछे सोनेके समय )।
औषध देवै । कंठसे ऊपर वाले रोगों में रोगपरत से औषधकाल । रातमें सोने के समय औषध दैना उचितहै । कफोद्रके गदेऽनन्न वलिनो रोगरोगिणोः । अन्नादौ विगुणेऽपाने समाने मध्य इष्यते ॥
इतिश्रीअांगहृदये भाषाटीकायां व्यानेऽते प्रातराशस्य सायमाशस्य तूत्तरे । त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ प्रासग्रासांतयोः प्राणे प्रदुष्टे मातरिश्वनि । मुहर्मुहुर्विषच्छदिहिध्मातृश्वासकासिषु । योज्यं सभोज्यं भैलोज्यश्चित्रैररोचके
. चतुर्दशोऽध्यायः । कम्पाक्षेपकहिमासु सामुर्मूलघुभोजिनाम् । ऊर्ध्वजत्रुषिकारेषुस्वप्नकाले प्रशस्यते ॥
- re__ अर्थ-यदि रोग और रोगी दोनों बल- अथाऽतोद्विविधोपक्रमणीयमध्यायं ब्यावान हों तो कफ की अधिकता वाले रोग में | ख्यास्यामः। अनन्न औषध देये अर्थात् भोजन करने से अर्थ- अब हम यहांसे द्विविधोपक्रमणीय बहुत पहिले औषध देनी चाहिये जिससे [ दो प्रकार की चिकित्सा का वर्णन है जि-' औषधं पचनाय क्योंकि अनन्न औषध अति | समें ] अध्याय की व्याख्या करेंगे । वीर्य होती है । अपान वायु के प्रकुपित होने दो प्रकारके उपचार । पर आहार के करने से पहिले औषध सेवन उपक्रम्यस्य हि द्वित्वाहिधैवोपक्रमो मतः । करे अर्थात् औषध सेवन करते ही भोजन
एकः सतर्पणस्तत्र द्वितीयश्चापतर्षण १॥
वृहणो लघनश्चति तत्पर्यायावुदाहृता । करले । समान वायुके प्रकुपित होने पर भो
बृहणं यवृहत्त्वाय लंघनं लाघवाय यत् ॥ जनके बीच में औषध सेवन करे । व्यान वायुके कुपित होने पर भोजन के अंत में भवतः प्रायो भौमापमितरच ते । प्रात:काल का भोजन करते ही औषध सेवन " अर्थ- चिकित्सा के योग्य विषय दो करे उदान वायुके कुपित होनेपर सायंकालका | प्रकार का है, इसलिये चिकित्सा भी दो प्रकाभोजन करने के पीछे औषध सेवन करे।। रकी होतीहै, एक संतर्पण, दूसरी अपतर्पण प्राणवायु के कुपित होनेपर ग्रास ग्रास में | संतर्पण का पर्यायवाची शब्द बृहण है और
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अ० १४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१३१)
अपतर्पण का पर्यायवाची शब्द लंवन है । | भेद है, एक शोधनापतर्पण, दूसरा शमनाजिसके द्वारा देहकी पुष्टि होतीहै उसे वहण | पतर्पण । करते हैं और जिसके द्वारा देहमें हलकापन संशोधन के लक्षण और भेद । होताहै उसे लंघन कहतेहैं ।
यदीरयेद्वाहिदोषान्पञ्चधा शोधनं च तत् । संतर्पण प्रायः भौम ( भूमिसंबंधी ) और
निरूहो वमनंकाय शिरोरेकोऽनविभुतिः ।
। अर्थ-जो औषध शरीरस्थ वातादिक आप ( जलसंबंधी ) होतेहैं । तथा अपतर्पण
दोषों को बाहर निकाल देती हैं वे संशोधन प्रायः अग्नि, वायु, और आकाशात्मक होतेहैं
औषध कहलाती हैं, ये पांच प्रकार की होती इसका मतलब यह है कि पृथ्वी और जल महाभूतोंसे उत्पन्न हुई औषध संतर्पण और
हैं जैसे-१निरूह ( गुदा में पिचकारी लगाना)
२ वमन, ३ विरेचन, ४ शिरोविरेचन ५ अग्निवायु आकाश महाभूतों से उत्पन्न हुई
रक्तस्रुति ( फस्द खोलना )। औषध अपतर्पण होती हैं।
शमन के लक्षण । मूल में जो प्रायः शब्द दिया गया है
न शोधयति यहापान समानोदरियत्यपि ॥ इस का यह तात्पर्य है कि जौ, मसूर, मोंठ समीकरोति विषमान् शमनं तच सप्तधा.। · आदि भौम होने पर भी अपतर्पण हैं । इसी पाचनं दीपन क्षुत्तृव्यायामातपमारताः । सरह सोंठ पीपल आदि भी अग्नि और वायु
अर्थ-जो औषध शरीरस्थ वातादिक तत्व की अधिकता वाली भी सतर्पण गुण
दोषों को बाहर नहीं निकालती है, तथा वाली मालूम होती हैं।
अपने प्रमाण में स्थित वातादिक दोषों को स्नेहनादि कर्म को द्विविधत्व
उत्क्लेशित भी नहीं करती है और विषन
दोषों को समान भाव में ले आती है उस स्नेहन रुक्षग कर्म स्वेदन स्तंभनं च यत् ।। भूतानां तदपि द्वैव्याद्वितयं नाऽतिवर्तते ।
को संशमन औषध करते हैं । संशमन ___ अर्थ-स्नेहन, रूक्षण, स्वेदन और स्तंभन ।
औपध सात प्रकार की होती हैं, यथा, पाचन, इन चार प्रकार के कर्मों का समावेश संत- | दीपन, क्षुधानिग्रह, तृष्णा निग्रह, व्यायाम, पण और अपतर्पण इन दो प्रकारों के ही | आतप और वायु । अन्तर्गत है, क्योंकि भौमादि सब द्रव्य संत- वायु आदिका शमन । पण और अपतर्पण भेद से दो प्रकार के है | वृहणं शमनं त्वैववायोः पित्तानिलस्य च ॥ और स्नेहनादि चार प्रकार के कर्म इन्हीं | अर्थ-वहण द्रव्य, केवल वायु और पिन दो के अन्तर्गत हैं ।
युक्त वायु का शमन करते हैं, कदाचित् अपतर्पण के भेद । कुपित नहीं करते विशेषत: जो शरीर की शोधनं शमनं चेति द्विधा तत्राऽपि लंघनम् | पुष्ट करती हैं वे वहण है और जो शरीर
अर्थ-लंघन अर्थात् अपतर्पण के दो | को कृश करती हैं अर्थात् बृहण का
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(१३२)
अष्टांगहृदयम् ।
अ० १४
विपरीत लंघन है । लंघन के शोधन और | लिखित उपचार द्वारा वृंहण अर्थात् शरीर शमन दो भेद कहे गये हैं । दुग्धादि कई | वर्द्धन करै । पदार्थ ऐसे हैं जो वृंहण हैं परन्तु इनका वृंहण औषध । स्वाभाविक धर्म शोधन भी है इसलिये ये मांसक्षीरसितासर्पिमधुरभिग्धवस्तिभिः॥ योधन भी है । अब यह शंका होती है कि स्वप्नशय्यासुखाऽभ्यंगस्नाननिर्वृतिहर्षणैः।
___ अर्थ- वृंहणके योग्य मनुष्यों को मांस जो शोधन है वे केवल वायु और पित्तयुक्त
दूध, शकर, घृत ये खानेको दे, मधुर और वायु. के प्रकोपक होते हैं तब दुग्धादि किस
स्निग्ध वस्तियां देकर वृंहण करै । गहरी तरह शमन हो सकते हैं । इस शंका को
नींदमें अच्छे पलंग पर सौना, तैल मर्दन दूर करने के लिये मूल श्लोक में विशेष
करना, स्नान करना, चित्तमें किसी प्रकार णार्थ 'तु' और अवधारणार्थ 'एव' शब्द
का उद्वेग न होना, तथा हर्षजनक प्रयोग का प्रयोग किया गया है, इस से यह विशेष
आदि ऐसे कर्मोंसे वृंहण होताहै । अर्थ निकलता है कि शोधन स्वभाववाले
लंघनके योग्य मनुष्य । वृहण द्रव्य ही केवल वायु और पित्तयुक्त |
मेहामदोषाऽतिस्निग्धज्वरोरुस्तमकुष्टिनः ११ वायु के शमन होते हैं किन्तु शोधन रूप विसर्पविद्रधिष्ठीहशिरः कण्ठाऽक्षिरोगिणः। लंघन केवल वायु और पित्तयुक्त वायु के स्थूलांश्च लघयोन्नित्यं शिशिरेत्वपरानपि॥ शमन न होकर शोधन तथा कोपन होजा अर्थ- प्रमेह रोगसे पीडित, आम दोष , हैं । सारांश यह है कि वृंहण और शोधन वाला, जिसने अत्यन्त स्नेहपान किया हो, केवल वायु और पित्तयुक्त वायु के शमन हैं । ज्वररोगी, ऊरुस्तंभ रोगवाला, कोढी,विसर्प किन्तु लंघन और शोधन केवल वायु और रोगी, विद्रधि रोगवाला, तापतिल्लीवाला पित्तयुक्त वायु के कोपन हैं।
जिसके मस्तक, कंठ और नेत्रमें रोगहो, बृंहण के योग्य मनुष्य ।
तथा स्थूल मनुष्यको सदा ही लंघन द्वारा बृहयेद्वयाधिभषज्यमद्यस्त्रीशोककर्शितान् । चिकित्सा करै । परन्तु शिशिर ऋतुमें तो भाराध्वोरःक्षतक्षीणरुक्षदुर्बलवातलान् ८॥
सब रोगवालोंकी ही चिकित्सा लंघन अर्थात् गर्भिणीसूतिकाबालवृद्धान् ग्रीष्मेऽपरानपि।
अपतर्पण द्वारा करै । अर्थ- जो मनुष्य व्याधि, भय, स्त्री
शोधनका निरूपण ।। संगम और शोकसे कृश होगयाहै, जो भारतत्रसंशोधनःस्थौल्यवलपित्तकफाऽधिकान् ढोनेसे, मार्ग चलनेसे, तथा उरःक्षत ना- आमदोषज्वरच्छर्दिरतीसारहदामयैः।। १२ ॥ मक रोगसे क्षीण होगयाहै, जो रूक्ष, दुर्बल | विबंधगौरवोद्गारहल्लासादिभिरातुरान् । वात प्रकृतिवालाहै तथा गर्भवती स्त्री, नव
मध्यस्थौल्यादिका प्रायः पूर्व पाचनदीपनैः प्रसूता, बालक और वृद्ध का तथा ग्रीष्म
एभिरेवाऽऽमयरातान्हीनस्सौल्यवलादिकान्
क्षुत्तृष्णानिनहेर्दोषैस्त्वार्तान्मध्यवलै ढान्१४ ऋतुमें तो अन्यान्य रोगियोंका भी निम्न समीरणातपाऽऽयासैःकिमुताऽल्पबलैनरान्
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अ०१४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१३३)
अर्थ- ऊपर जो शमन और शोधन | बंहित लंधित के लक्षण । दो प्रकार के लंघन अर्थात् अपतर्पण कहे हिते स्याद्वलंपुष्टिस्तत्साध्यामयसंक्षयः१६ गये हैं उनमें से नीचे लिखी रीतिसे उपाय __अर्थ बृहण के द्वारा बलवृद्धि और पुष्टि करै । अर्थात् जो मनुष्य अति स्थूल, अति
होती है, और बृहण से साध्य संपूर्ण रोगों बलवान,अत्यन्त कमयुक्त, अत्यन्त पित्तयुक्त,
का नाश हो जाता है। आम दोषसे पीडित, ज्वर, वमन, अतीसार
. लंधित के लक्षण । हृदयके रोग, बद्धकोष्ठता, भारापन, डकार विमलेंद्रियता सर्गो मलानां लाघबं रुचिः। जीमिचलाना आदि ऐसेही रोगोंसे पीडितहो,
क्षुत्तृटसहोदय शुद्धहृदयोद्गारकंठता॥१७॥ ऐसे मनुष्यों को संशोधननामक अपतर्पण
व्याधिमार्दवमुत्साहस्तंद्रानाशश्च लंचित ।
अर्थ-लंघन द्वारा इन्द्रियों में निर्मलता. देकर उनके शरीर में हलकापन करै । इसी
मल मूत्रका प्रबर्तन, शरीर में हलकापन, तरह जिनके शरीरके पूलता, बल, पित्त, और कफ मध्यमहैं और आमदोष, ज्वर,
रुचि, क्षुधा और तृषा का उदय, डकार
कंठ की शुद्धि, व्याधि की मृदुता, उत्साह आदि रोगों से पीड़ित हो उसे पाचन और
और निद्रा का नाश होता है । दीपन नामक लंघन देकर अपतर्पण करावै और जो हीन स्थौल्यवलादि युक्त और आम
लंघन वृंहण की अनपेक्षित मात्रा। दोषादि रोगग्रस्त हैं उन को क्षुधा और
अनपेक्षितमात्रादिसेविते कुरुतस्तुते ॥१८॥
अतिस्थौल्याऽतिकार्यादीन् बक्ष्यंते ते च तृष्णा के वेगों को रुकवाकर अपतर्पण करे । जो मध्यबलयुक्त, वातादि दोषों से पीडित अर्थ-मात्रा पर ध्यान देकर बृंहण और और दृढ़ हैं उनको बातातप और व्यायाम लखन के सेवन करने से अति स्थूलता और रूप लंघन द्वारा लंधन करावै । इसी तरह । अति कशता उत्पन्न होती है । अब हम आत अल्पबलयुक्त वातादि दाषाक्रान्त रोगी को कार्यादि और उन की मौषध का अर्गन उक्त वातादि रूप लंघन द्वारा लंघन करावै । | करते हैं। वृंहणीय और लंघनीय ।
। अति स्थाल्यादि का वर्णन । न बृहयेल्लंघनीयान्
बृह्यांस्तु मृदु लंघयेत्।१५। । रूपं तैरेव च क्षेयमतिबंहितलंधित ॥१९॥ युक्त्या वा देशकालादिबलतस्तानपाचरेत। प्रतिस्थौल्यापचीमेहज्वरोदरभगंदरान् । ___ अर्थ-जो मनुष्य लंघन के योग्य है उन्हें काससंन्यासकृच्छ्रामकुष्ठादीनतिदारुणान्२० बृहण न करावै। किन्तु ब्रहण के योग्य व्याक्ति ____ अर्थ-अति बृंहण और अति लंघन द्वारा को यदि वह लंघन के साध्य रोगग्रस्त हो | क्रम से अतिस्थौल्यादि और अति कार्यादि तो उस को मृदुलंघन करावे, अथवा देश, विकार उत्पन्न होते हैं । अति बृहित होने काल और बलानुसार युक्तिपूर्वक संतर्पण से अतिस्थौल्य, अपची, मेह, ज्वर, उदररोग और अपर्तपण दोनों मिली हुई चिकित्साकरै । भगन्दर, कास, सन्यास, मूत्रकृच्छ, भामदोष,
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अष्टांगहृदये ।
( १३४ )
और अतिदारुण कुष्टादिरोग उत्पन्न होते हैं । अतिस्थौल्पादि की चिकित्सा | तत्र मेदोsनिल श्लेष्मनाशनं सर्वमिष्यते । कुलत्थजूर्णश्यामा कयत्रमुद्गमधूदकम् ॥२१॥ मस्तुदंडाहतारिष्टचिंताशोधनजागरम् । मधुना त्रिफला लिह्याद्गुडूचीमभयां घनम् २२ रसांजनस्य महतः पंचमूलस्य गुग्गुलोः । शिलाजतु प्रयोगश्च साग्निमंथरसो हितः २३ विडंगं नागरं क्षारः काललोहरजो मधु । यवामलकचूर्णचयो गोऽतिस्थौल्य दोषजित्
अर्थ-इस अति स्थाल्यादि विकार में मेद, अनिल और कफनाशक सब प्रकार के अन्न और पानी हितकारक होते हैं अर्थात् कुलथी, जूर्ण तृण धान्य विशेष ) सोंखियां जौ, मूंग, मधुमिश्रित जल, दही का तोड,
4
म चिंता वमन विरेचनादि शोधन, जागरण मधुमिश्रित त्रिफला, गिलोय, हरड, मोथा, इनका अवलेह बनाकर सेवन करे । इसी तरह रसौत, वृहत्पंचमूल, गूगल और शिला जीत का प्रयोग अग्निमंथ के रस में मिलाकर हितकारी है । बायविडंग, सोंठ, जवाखार काल लोह चूर्ण, मधु, यत्र, आमले का चूर्ण, इन सब को समान भाग लेकर मिला लबै । इनके सेवनसे अति स्थौल्यादि दोषोंका नाश हो जाता है ।
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अ० १४
अतिस्थौल्यादिकान् सर्वान् रोगानन्यांश्च द्विधान् ॥ २७ ॥ ) हृद्रोगकालाविश्वासका सगलग्रहान् । बुद्धिमेघास्मृतिकरं सन्नस्याग्नेश्च दीपनम् । अर्थ- त्रिकुटा, कुटकी, त्रिफला, सहजने के बीज, बायबिडंग, अतीस, शालपर्णी, हींग, संचलनमक, जीरा, अजवायन धनियां चीता, हलदी, दारुहळदी, कटेरी, वडी कटेरी हाउबेर, पाठा की जड, केंबुक इन चौबीस द्रव्यों का चूर्ण समान भाग लेकर तयार करले । और इसके समान ही मधुघृत और तेल अलग मिला लेवे । इन में सौलह गुना जौ का सत्तू मिलाकर सेवन करने से पहिले कहे हुए सब प्रकार के स्थौल्यादि रोग और वैसे ही और और रोग तथा हृद्रोग, कामला वित्र कुष्ठ, श्वास, खांसी, और कंठरोग दूर होजाते हैं । यह योग बुद्धि, मेधा और स्मरणशक्ति का बढाने वाला है और मन्दाग्नि को उद्दीपन करने वाला है ।
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अतिलंघन से उत्पन्न रोगों का वर्णन । अतिकाये भ्रमः कासस्तृष्णाधिक्यमरोचकः स्नेहाऽग्निनिद्राको शुक्रजःक्षुत्स्वरक्षयः बस्तिन्मूर्धजंघreत्रिकपार्श्वरुजा ज्वरः । प्रलापोऽर्धानिलग्लानिच्छर्दिः पर्वास्थिभेदनम् विषादिग्रहाद्याश्च जायतेऽतिविलंघनात्
अन्य औषध ।
व्योषकट्टीवर शिविडंगाऽतिविषास्थिराः हिंगु सौवर्चलाजाजी यवानीधान्यचित्रकाः २५ निशे बृहत्ौ हपुषा पाठामूलं च केचुकात् ।
अर्थ - अति लंघन करने से अत्यन्त कृशता, भ्रम, खांसी, प्यासकी अधिकता, अरुचि, ये रोग उत्पन्न होते हैं, तथा दे
सक्तुभिः षोडशगुणैर्युक्तं पीतं निहंति तत् ।
एषां चूर्ण मधु घृतं तैलं च सदृशांशकम् | २६ | | हकी चिकनाई, पाचक अग्नि, निद्रा, नेत्रों की ज्योति, श्रवणशक्ति, वीर्य, ओज, क्षुधा
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अ० १४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
और स्वर इनका क्षय होजाता है । वस्ति, अर्थ-क्योंक मधुर और स्निग्ध पदाहृदय, मस्तक, जंघा, उरू, त्रिक ( मेरुदंड- र्थो के सेवन करने से कृशता सहज ही में का नीचे का भाग ), पसलियों में दर्द,ज्वर | दूर हो जाती है, और अति विपरीत सेवन प्रलाप, डकार आदि ऊपर जानेवाली वायु, द्वारा अर्थात् कटु, तिक्त, और कषाय रसों ग्लानि, वमन, हाथपांव के जोड़ों और ह- का अत्यन्त सेवन करने पर बडी कठिनता डियों में टटनेकी सी वेदना होने लगतीहै। से स्थूलता का नाश होता है इस लिये तथा मलमूत्रादिका विवंध ऐसे अनेक प्रकार | स्थूलता की अपेक्षा कृशता अच्छी होती है के रोग उत्पन्न होजाते है। स्थूल और कृश इन दोनों मनुष्यों को यदि - कृशता को श्रेष्टत्व । वृंहण औषधों से साध्य समान व्याधि हों कायमेव बरं स्थौल्यात्
तो स्थूल मनुष्य की वही ब्याधि बड़ी कनहि स्थूलस्य भेषजम्॥३१॥
ठिनता से दूर होती है, कारण स्थूल मनुबृहणं लंघनं नालमतिमदोऽग्निवातजित् ।
ष्य के लिये जो वृंहण औषधियां उपयोगी ___ अर्थ-स्थूलता की अपेक्षा कशता अ
नहीं होती हैं वे पहिले दिखा चुके हैं किन्तु च्छी होती है, इसका कारण यह है कि
कृश मनुष्य की वही व्याधि सहज ही में स्थूल मनुष्य की औषध नहीं होती, न तो
दूर होजाती है, कारण यही है कि वृंहण वृंहण, न लंघन किसी प्रकार की औधष
ही कृश के लिये हितकारी है। इसको लंउसकी स्थूलता को दूर करकसती है, इसका कारण यही है कि मेदा, अग्नि और पवन
घनसाध्य विसूचिकादि रोग होने पर भी नाश करनेवाली औषध ही स्थूल मनुष्य के
वही रोग स्थूल व्यक्ति के पक्ष में कष्टसाध्य लिये उपयोगी होती हैं, जो मेदा का नाश
होता है, कारण कि लंघन भी स्थूल व्याक्ति करती हैं वेही अग्निवईक और वातनाशक
के अनुकूल नहीं होता है, किन्तु अवरुद्ध हैं । वृंहण औषध द्वारा स्थूल मनुष्य का मेदा
चिकित्सा होने से लंघन द्वारा कृश व्याक्ति
| का वही विसूचिकादि सहज में मिट और भी बढता है, और लंघनद्वारा यद्यपि
जाता है। मेदा का क्षय होता है परन्तु अग्नि और
कृशकी औषध ।। वायुकी वृद्धि होती है । अतएव मांस और
योजयेबृहणं तत्र सर्वपानान्नभेषजम् ॥३३॥ दुग्धादि वृंहण और कोदों, सोंखिया आदि अचिंतया हर्षणेन धुवं संतपणेन च । लंघन द्रव्यों में से कोई भी स्थल मनुष्य के | स्वप्नसंगाश्च कृशो वराह इव पुष्यति ॥३४॥ लिये उपयोगी नहीं है।
___ अर्थ- कृशता, सब प्रकारके वृंहणकर्ता . दूसरा कारण ।
अन्नपान और औषधोंका प्रयोग करना चा मधुरस्निग्धसौहित्यैर्यत्सौख्येन विनश्यति३२ / हिय । किसी प्रकारकी चिन्ता न करना । क्रीशमा स्थविमाऽत्यंतविपरीतनिषेवणैः। मनको प्रसन्न रखना, पुष्टिकारक आहारादि
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अष्टांगहृदये।
म. १५
सेवन करना और गहरीनींदमें अधिक साना | भेदी आदि भेदोंके अनुसार होने परभी संत इनसे मनुष्य शूकर की तरह फूलता चला | र्पण और अपतर्पणरूप दो प्रकारकी चिकिजाता है।
त्साका उल्लंघन नही करती है अर्थात् अने मांसखानेसे स्थूलता। क प्रकारके रोग होने परभी चिकित्सा दाही नहि मांससमं किंचिदन्यदेहबृहत्यकृत् । ।
प्रकार की होती है। मांसादमासं मांसेन संभृतत्वाद्विशेषतः ३५
इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकाया अर्थ-देहको पुष्ट करनेवाले पदार्थों में
चतुर्दशोऽध्यायः। मांसके समान दूसरा कुछ नहीं है । विशेष करके मांस खानेबालों का मांस अत्यन्त पुष्टिकारक होता है, क्योंकि वे मांस द्वारा ही पंचदशोऽध्यायः। पुष्ट होते हैं ।
स्थूलकृशफी सामान्य चिकित्सा। अथाऽतः शोधनादिगणसंग्रहमध्यायं गुरु चाऽतर्पणं स्थूले विपरीतं हितं कृशे ।
व्याख्यास्यामः। यवगोधूममुभयोस्तद्योग्याहितकल्पनमू३६।
अर्थ-अब हम यहां से शोधनादि गण - अर्थ-स्थूल मनुष्यके लिये भारी और
संग्रह अध्याय की व्याख्या करेंगे। अपतर्पण, तथा कृशके लिये लघु और संतर्पण हितकारी हैं | जौ और गेंहूं यदि
वमनकारक द्रव्य ।
" मदनमधुकलंबानिर्विबीविशाला। स्थूल और कृश दोनों के उपयोगी द्रव्यों के
पुसकुटजमूर्वादेवदालीकृमिघ्नम् । संयोग और पाकादि विशेष द्वारा तयार कि
विदुलदहनचित्राः कोशवत्यौ करंजः ये जाय तो स्थूल और कृश दोनों के लिये कणलवणवैचलासर्षपाश्छर्दनानि ॥१॥ हितकारी होसकते हैं । अर्थात् संस्कार किये अर्थ- मैनफल, मुलहटी, तूंवी, नीम, हुए जौ स्थूलके लिये और संस्कार किये हुए विबी ( कंदूरी), इन्द्रायण कटु खीरा, गेंहूं कृशक लिये उपयोगी होते हैं । कुडा, मरोड़फली, देवदाली, वायविडंग,
चिकित्साको द्विविध्वत्व । जलवेत, चीता, मूषकपी दोनों प्रकारकी दोषगत्याऽतिरिच्यते ग्राहिभेद्यादिभेदतः। तोरई, कंजा, पीपल, सेंधानमक, वच, इलाउपक्रमान ते द्वित्याद्भिन्ना अपि गदा इव,३७ यची और सरसों ये सब वमनकारक औष
अर्थ-सब प्रकारके रोग बातादि दोषों हैं। इनमें से मैनफल. इन्द्रायण, कटुखीरा के कारण अनेक प्रकारकं होने परभी वृंहण इन्द्रजौ, बायविडंग, इलायची और सरसों लंघन साध्यत्व वा सामत्व और निरामत्व को इनके फल बमनकारक होते हैं । मुलहटी नहीं छोडते हैं वैसे ही सब प्रकार की चि- जलवेत, मूषकपणी, दंती, और बच, इन कित्सा भी दोषकी गति तथा ग्राही और की जड़, लोध, सुवर्णक्षीरी और कंपिल्ल,
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अ० १५
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सूत्रस्थान भावाटीकासमंत |
की छाल तथा शेत्र औषधियों के फलपत्र पुष्प वमन कराने में उपयोगी होते हैं । वैरेचनिक द्रव्य ।
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वातनाशक द्रव्य ।
1
भद्रा नतं कुठं दशमूलं बलाद्वयम् वायुं वीरतरादिश्व विदार्यादिश्च नाशयेत् ॥ अर्थ- देवदारु, तगर, कूठ, दसमूल, 1 दोनों खरैटी तथा आगे आनेवाले वीरतरादि और विदारीगण ये सब वातनाशक हैं । पित्तनाशक द्रव्य ।
सारो
माधूकः
शिरोविरेचन द्रव्य | वेल्लाssपामार्गग्यपदासुराला बीज शैरी वाहत शैवं च । सैंधवं तार्क्ष्यशैलंपृथ्वीका शोधयत्युत्तमांगम् ॥ ४ ॥ अर्थ- बायविडंग, औंगा, त्रिकुडा, दारुहळदी, सातला, सिरस के बीज, कटे रीके बीज, सहजने के बीज, मधुपुष्पसार, सेंधानमक, सूचीरसौत, छोटी इलायची बढी इलायची, पृथ्वीका (हिंगुत्री वा कालाजीरा) ये सब सिरको शोधन करनेवाली हैं ।
१८
( १३७ )
निकुंमकुंमात्र लागवाक्षीस्नुखिनो नीलिनितिकाने शम्याककंपिल्ल कहे मा 'दुग्धं च मूत्रं च विरेचनानि
॥ २ ॥
अर्थ- दंती, निसाथ, त्रिफला, इन्द्रायण स्नुक ( थूहर का दूध ) शंखिनी नीलपुष्पा लोध, शम्याक ( अमलतास ) [ कपिला ] स्वर्णक्षीरी, दूध और मूत्र । सब औषध दस्त लानेवाली है ।
कंपिल्ल
निरूहण द्रव्य । मदनकुजकुष्ठदेवदालीमधुकवचादशमूलदारुराक्षाः । यवमसिकृतवेधन कुलत्थो मधुलवणं त्रिवृता निरूहणानि
॥६॥
अर्थ- मैफल, कुडा, फूल, देवदाली मुलहटी, वच, दसमूल, देवदार, रास्ना,
इन्द्रजौ, सौंफ, कडवी तोरई, कुथी, मधु | आरग्वधादिरकों मुष्ककाद्योसनादिकः । सेंधानमक, और निसौथ ! ये सब सुरसादिः समुस्तादिर्वत्सकादिर्बलास जित् वस्ति उपयोगी हैं | अर्थ - आरग्वधादि गण, अर्कादिगण, मुष्ककादिगण, असनादिगण, सुरसादिगण, मुस्तादिगण और वत्सकादिगण, ये सब कफनाशक हैं ॥
दुर्बाऽनंता निवासाऽऽत्मगुप्तामुद्राऽभीरुः शीतपाकी प्रियंगुः । न्यग्रोधादिः पद्मकादिः स्थिरे द्वेपद्म वन्यं सारिवादिश्च पित्तम्
॥ ६ ॥
अर्थ- दूर्वा, जवासा, नीम, अडूंसा, कमात्र, भद्रमुस्तक, सितावर, शीतपाकी, और प्रियंगु, ये सब तथा वक्ष्यमाण न्योधादिगण, तथा पद्मकादिगण तथा शालिपर्णी और पृष्ठिपर्णी, तथा कमल, कुटंनट और सावादिगण ये सब पित्तनाशक हैं । कफनाशक द्रव्य ।
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जीवनीय गण |
जीवंती कोशल्यौ मेरे द्वे मुद्रमाषपण्य च । ऋषभकजीवकमधुकं चेतिगणोजीवनीयाख्यः
अर्थ- जीवंती, काकोली, क्षीर काकोली मेश, महामेदा, मुद्रपर्णी, मापपर्णी, ऋष भक, जीवक और मुलहटी, ये दस औषध जीवनीय गण कहलाते हैं ।
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(१३८)
अष्टांगहृदये।
अ० १५
विदारीगण।
प्रीणनजीवनबृहणवृष्याः ॥१२॥ विदारिपञ्चांगुलवृश्चिकाली
अर्थ-पदमाख, प्रपौंडरी (कमलविशेष), वृश्चीवदेवाहूयशूपपर्यः ।
श्रावणी, वंशलोचन, ऋद्धि ( महाश्रावणी), कंकरी जीवनबस्वसं.
काकडासींगी, और गिलोय ये सब तथा द्वे पंचके गोपसुता त्रिपादी ॥९॥ विदार्यादिरयंडद्यो वृहणो दातपित्तहा। पूर्वोक्त जीवनीयगणान्तागत दस औषध दध शोषगुल्मांऽगमर्दोर्ध्वश्वासकासहरो गणः॥ | को बढानेवाली, वातपित्तनाशक, प्रीतिज
अर्थ-विदारीकंद, अरंड, मेढासिंगी, नक, जीवनहितकर, पुष्टिकारक और शुक्र सफेदसांठ, देवदारु, ( किसी किसी पुस्तक | वद्धक है । में देवाद्वय पाठभी है वहां एक सहदेवा, तृषादिनाशक औषध । दूसरी विश्वदेवा समझनी चाहिये ), शूर्प- परूषकंवराद्राक्षाकट्फलं फतकात्फलम् ।
राजाहूं दाडिमं शाकं तृणमूत्रामयवातजित् १३ पर्णी, मुद्गपर्णी तथा माषपर्णी, कोच, जी- अर्थ-फालसा, त्रिफला, [ किसी २ वनसंज्ञकपंचमूल ( शतमूली, क्षीरकाकोली, | के मत में दाख ] द्राक्षा, कायफल, निर्मजीवंती, जीवक और ऋषभक ) ह्रस्वपंच- ली, अमलतास, अनार, और शाकवृक्ष, ये मूल (वृहती, कंटकारी, शालिपर्णी पृश्नि
| तृषा, मूत्ररोग और वातनाशक हैं । • पर्णी, गोखरू ), अनंतमूल, हंसपादी, इन
विषादिनाशक । सबको विदारीगण कहते हैं । ये हृद्य, वृंहण
अञ्जनं' फलिनी मांसी पद्मोत्पलरसांजनम् वातपित्तनाशक, शोध, गुल्म, अंगमर्द, ऊ- सैलामधुकनागाहूं विषांतहपित्तनुत् १४॥ वश्वास, और कास इन रोगोंको दूर कर. अर्थ-अंजन ( स्रोतोजन और साबीरानेवाले हैं ॥
जन ), प्रियंगु, जटामांसी, पद्म, उत्पल, . सारिवादि गण । रसौत, इलायची, मुलहटी और नागकेसर,
सारियोशीरकाश्मर्यमधूकशिशिरद्वयम । ये विष, अंतदोह और पित्तनाशक है। यष्टीपरूषकं हंति दाहपित्ताऽस्रतृड्ज्वरान् ॥
कफादिनाशकद्रव्य । अर्थ-अनन्तमूल, खस, गंभारी, महुआ,
पटोलकटुरोहणी चन्दनंसफेदचंदन, लालचंदन, मुलहटी, और फा- मधुम्रवगुडूविपाठान्वितम् । लसा इनको सारिवादिगण कहते हैं । ये
निहति कफनित्तकुष्ठज्वरान्
विषं वमिमरोचकं कामलाम् ॥ १५ ॥ दाह, रक्तपित्त, तृषा और ज्वर को नाश
अर्थ-परवल, कुटकी, चंदन, मधुस्रव, करते हैं।
( गंधसार ), गिलोय, और पाठ, यह दुग्धवर्द्धक द्रव्य ।
पटोलादि गण कफ, पित्त, कोढ, ज्वर, पद्मकपुंड्री वृद्धितुग:शूग्यमृता दश जीवन संशाः
विषरोग, बमनरोग, अरुचि और कामला इन स्तन्य करा नंतीरणपित्त
रोगों को दूर करता है।
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अ० १५
सूत्रस्थान भाषाठीकासमेत ।
(१३९)
__ गुडूच्यादि गण। नवृक्ष, पूतिकरंज, खैरसार, कदर ( खैरगुडूचीपनकारिष्टधानका रक्तचन्दनम् । सारकी आकृतिवाला श्वेतसार ), सिरस, पित्तश्लेष्मज्वरच्छर्दिवाहतृष्णाघ्नमाग्निकृत्। शिशपा. मेढासंगी, त्रिहिम ( सफेदचंदन, - अर्थ-गिलोय, पदमाख, नीम, धनियां, रक्तचंदन, ये गुडूच्यादि गण पित, कफ,
रक्तचंदन, पतिचंदन ) ताड, ढाक, अगर, घर, वमन, दाह, तृषा इनको नष्ट करता
वरदारु, शाल, सुपारी, धायके फूल, इन्द्रजौ,
अजकर्णी, अश्वकर्णी, यह भसनादि गण है और जठराग्निको बढाता है। आरग्वधादि गण।
श्वित्रकुष्ठ, कफ, मिरोग पांडुरोग, प्रमे, भारग्बधंद्रयवपाटलिकाकतिक्ता
तथा मेदसंबंधी दोषों को दूर करता है । निंबाऽमृतामधुरसास्रववृक्षपाठाः ।
वरणादि गण ॥ भूनिवसर्यकपटोलकरजयुग्म
घरणसैर्यकयुग्मशतावरी सप्तच्छाऽग्निसुषवीफलबाणघोटाः१७
दहनमोरटबिल्वबिषााणकाः ।। भारग्वधादिर्जयति छर्दिकुष्ठविषज्वरान् ।।
द्विवृहतीद्विकरंजजयाद्वयं । कर्फ कंडूं प्रमेहं च दुष्टव्रणविशोधनः ॥ १८
बहलपल्लवदर्भरुजाफराः ॥ २१ ॥ अथे-आरग्वध ( शम्याक ), इन्द्रजौ,
वरणादिः कर्फ मेदो मंदाग्नित्वं नियच्छति ।
अधोवातं शिरःशूलं गुल्मं चांतःसविद्रधिम् पाटलापुष्प, काकातक्ता ( बसंत दूती )
अर्थ-वरना, दोनों सहचर । एक लाल नीम, गिलोय, मूर्वा, कटेरी, चिरायता, पि
पुष्पवाली जिसे कुरवक कहते हैं, दूसरी पीयावांसा, परवल, दोनों कंजा, पूति करंज
ले फूलवाली जिसे कुरंटक कहते हैं ), और चिरविल्य ), सप्तच्छद ( सातला ),
मितावर, चीता, मूळ, विल्व, अजश्रृंगी चीता, सुपपी ( कालाजीरा )करला, पानी
बडी कटेरी, छोटी कटेरी, दोनों कंजा,दोनों यवल्ली और मेंढासीगी), मेनफल , रामसर
जया ( जीवंती और हरीतकी ), सहजना, घोंटा ( सुपारीविशेष ) यह आरग्वधादिगण
कुशा, और हिंताल, यह वरणादिगण कफ, वमन, कोट, विष, उपर, कफ, खुजली,
मेददोष, अग्निमांय, अधोवायु, शिरशुल, प्रमेह इनको दूरकरता है और बिगडे हुए
गुल्म और अंतर्विद्रधि को दूर करता है । घाव को शुद्ध करता है।
ऊरकादिगण। असनादि गण ।
ऊषकस्तुत्थकं हिंगु कासासद्वयसैंधवम् । असनतिनिशभूजश्वेतवाहप्रकीर्या- सशिलाजतु कृच्छ्राश्मगुल्ममेदः कफापहम्। खदिरकदरभंडीशिशपामेषशंग्यः । ।
अर्थ-ऊषक ( खारी मृतिका ), नीला त्रिहिमतलपलाशा जोगकः शाकशाली- योगा ही दोनों
| थोथा, हींग, दोनों कसीस [ पांशुधातुनामक क्रमुकधवकुलिंगच्छागकर्णाश्वकर्णाः १९ | असनादिजियते श्वित्रकुष्ठकफक्रिमीन् । भारत
और पुष्पनामक ], सेंधानमक, शिलानीपांडुरोगं प्रमेहं च मेदोदोषनिबर्हणः ॥२०॥ त यह ऊषकादिगण मूत्रकृच्छ, पथरी, गुल्म - अर्थ-पतिशाल, तिनिश भोजपत्र, अर्जु मेदरोग, और कफ को नष्ट करता है ।
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(१४.)
अष्टांगहृदये।
वीरतरादिगण ।
श्वेतायुग्मं तापसानां च वृक्षः ॥ २८ ॥ वेल्लंतरारणिकबूकवृषाऽश्मभेद
अयमर्कादिको वर्गः कफमेदोविषापहः । गोकंटकेत्कटसाचरवाणकाशाः ।
कृमिकुष्ठप्रशमनो विशेषाद्रणशोधनः॥२९॥ वृक्षादनीन कुशद्वयगुंटगुंद्रा- ___ अर्थ-आक, सफेदआक, नागदंती, लां
भल्लूकमोरटकुरंटकरंभपार्थाः ॥ २४॥ | गली, भाडंगी, राम्ना, वश्चकाली | उष्ट्रवर्गोवीरतराद्योऽयं हंति वातकृतान् गदान । धूमकी 1 कंजा, ओंगा, काकादनी, कंजा, अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छाऽघातरजाहरः।२५।
श्वेता, महावता ( ये दोनों कोइल के भेद अर्थ-उशीर । खस }, अरनी, बूक [ ईश्वरमल्लिका ], अडूसा, पाखान भेद,
हैं । और इंगुदी हिंगोट यह अर्कोदिगण गोखरू, इत्कट [ दीर्घलोहितयष्टिका ],पि
कफ, मेददोष, विष, कृमिरोग, कुष्टरोग यावांसा, रामशर, काश, अमरवेल, नल
इनको नष्ट करता है और विशेष करके ( नरसल , स्थूलकुश, सूक्ष्मकुश, गुंठ
बणको शुद्ध करता है। पटेरा, श्यौनाक, क्षीरमोरटा, कुरंट, उत्तम
सुरसादिगण । भरणी,अर्जुन । यह वीरतरादिगण वातजन्य
सुरसयुगफणिनं कालमालाबिडंग
खरबुसवृषकर्णी कट फलं कासमर्दः। रोग, पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छू, और मूत्रा.
क्षवकसरसिभार्गी कामुका काकमाची। घात इन रोगों को दूर करता है । कुलहलविषमुष्टी भूस्तृणो भूतकेशी ३०॥ रोधादिगण ।
सुरसादिगणः प्रलेष्ममेदः कृमिनिषूदनः । रोध्रशावर करोघ्रपलाशा
प्रतिश्यायाऽरचिश्वासकासघ्नो व्रणशोधन जिंगिरलकटफलयुक्ताः ।
___ अर्थ- बेततुलसी, कृष्णतुलसी, क्षुद्र. कुत्सिताकदलीगतशोकाः
पत्रतुलसी, क्षुद्रपत्रकालतुलसी, वायविडंग, सैलवालुपरिपेलवमोचाः ॥ २६ ॥ मरुआ, 11, कायफल, कसौंदी, एष रोधादिको नाम भेदः कफहरो गणः। ।
नकछिकनी, तुवुरपत्रिका भाडंगी, रक्तमंजरी, योनिदोषहरः स्तंभी वो विषविनाशनः२७
मकोय, अलंबुसा, वकायन, भूस्तृण, अर्थ-लोध, शावरलोध, ढाक, कृष्णा- | शाल्मली, सरलवृक्ष, कायफल, कदंब, केला,
( अतिछत्रा ) जटामांसी । यह सुरसादिगण अशोक, एलवालक, कुटन्नट, मोचफल, यह
कफ, मेदरोग, क्रमिरोग, प्रतिश्याय, अरुचि, रोधादिगण, मेद, कफ और योनि दोषों को
| श्वास और कास इन रोगों को दूर करता दूर करता है, यह विष्टंभी, कांतिवर्द्धक और है, तथा व्रण को शुद्ध करता है। बिषनाशक है।
मुष्ककादिगण। अकोदिगण ।
मुष्ककस्नुग्वराद्वीपिपलाशधवशिशपाः। अर्कालको नागदंती विशल्या
गुल्ममेहाश्मरीपांडुमेदोऽर्शःकफशुक्रजित् । भार्गी राना वृश्चिकाली प्रकार्या।
__ अर्थ-मुष्कक, थूहर, त्रिफला, चीता, प्रापापी पीतलोइकीर्या ढाक, घास, शीशम यह मुष्ककादिगण
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अ. १५
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१४१)
गुल्मरोग, प्रमेह, अश्मरी, पांडुरोग, मेदरोग | पुन्नागीतं मदनीय हेतुः ॥ ३७ ॥ अर्श, कफ तथा वीर्य का नाश करने
अंबष्ठा मधुकं नमस्करी
नंदीवृक्षपलाशकच्छुराः वाला है।
रो, धातकिविल्वपेशिके .. वत्सकादिगण ।
कवगः कमलोद्भवं रजः ॥३८॥ घत्सकमूर्याभार्गी
गणौ प्रियंग्वंबष्ठादी पक्वातीसारनाशनौ । कटुकामरिचं घुणप्रिया च गंडीरम् । संधानीयौ हितौ पित्ते व्रणानामपिरोपणी ॥ एलापाठाजाजी
___ अर्थ-प्रियंगु स्रोतोजन, सौवीरांजन, __ कह्नग फलाजमोदसिद्धार्थवचाः ॥३३॥ | पद्मचारिणी दातार
| पद्मचारिणी, पद्मकेशर, मजीठ, जवासा,
जी रिकाहंगुविडंगं पशुगंधा पंचकोलकं हति
सेमल, मोचरस, मजीठ, रक्तकेशर, चंदन चलकफमेद-पीनसगुल्मज्वरशुलदुनाम्नः अर्थ-इन्द्रजौ, मूर्वा, भाडंगी, कुटकी,
और धव यह प्रियंग्वादि गण हैं । मिरच, अतीस, थूहर, इलायची, पाठा,
___पाठा, मुलहटी, बेलगिरी, नंदीवृक्ष, जीरा, अरलुक फल, अजमाद, सफेद सर
पलास, धमासा, लोध, धायके फूल, बेल. सों, वच, जीरा, हींग, वायविडंग, अज
गिरीकागूदा, श्योना पाठा, कमल केसर, गंध, और पंचकोल । यह वत्सकादिगण
यह अंबष्ठादि गणहै। वायु, कफ, मेद, पीनस, गुल्म, ज्वर, शूल
इन दोनों गणों के द्रव्य पक्कातिसारऔर अर्श इन रोगों को दूर करता है। नाशक, टूटे हुए स्थानको जोडनेवाले पित्त - वचहारिद्रादिगण ।
नाशक और घावको पुरानेवाले हैं । पचाजलददेवाहनागराऽतिविषाऽभयाः ।
मुस्तादिगण हरिद्राद्वययथ्यालकलशीकुटजोद्भवाः ॥३॥
मुस्तावचाऽग्निद्विनिशाद्वितिक्ताघचाहरिद्रादिगणा वामातीसारनाशनौ । ३५ |
भल्लातपायत्रिफलाविधाख्याः ।
युष्ठं त्रुटी हैमवती च योनिमेदःकफाढयपवनस्तन्यदोषनिवर्हणौ ॥६३
स्तन्यामयघ्ना मलपाचनाश्च ॥४०॥ अर्थ-वच, मोथा, देवदारु, सोंठ, अ
अर्थ- मोथा, बच, चीता, हलदी, तीस और हरड यह वचादिगण है । दोनों
दारुहलदी, कुटकी, काकतिक्ता, भिलावा, हलदी, मुलहटी, प्रश्नपर्णी, इन्द्रजौ, यह हरिद्रादिगण है । इन दोनों गणों के द्रव्य
पाठा, त्रिफला, शुक्लकंद, कूठ, इलायची और
सफेद बच, । यह मुस्तादिगण योनिरोग मामातीसार, मेदरोग, कफाधिक्य वायु,
और दुग्ध रोगोंको दूर करताहै, तथा मल और स्तन्यदोषका नाश करेत ।
को पकाताहै । पियंगादि. अंबष्ठादि।
न्यग्रोधादिगण । प्रियंगुपुष्पांजनयुग्मपमा
म्यग्रोधपिप्पलसदाफलरोधूयुग्मपनाद्रजौयोजनवल्लेयनता। .
जम्बूद्वयाऽर्जुनकपीतनसोमवल्काः । मानद्रमो मोचरसः समंगा
पलक्षाऽब्रवजुलपियालपलाशनंदी
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(१४२)
अष्टांगहृदयम् ।
अ०१४
भितः।
कोलीकरंबविरलामधुकं मधूकम् ४१ ॥ शंखनी चर्मसाहून्यग्रोधादिर्गणो वृण्यः संग्राही भन्नसाधनः स्वर्णक्षीरी गवाक्षी शिखरिरजनकमेदापिसानतृट्दाहयोनिरोगनिवर्हणः ४२॥ | च्छिन्नरोहाकरंजाः ।
अर्थ- बटवृक्ष, पीपल, गूलर, दोनों बस्तांत्री व्याधिघातो बहलवहुरसलोध, दोनों जामन, अर्जुन, आमडा, सफेद | स्तीक्ष्णवृक्षात् फलानिखैर, प्लक्ष, आम,वेत, पियाल,पलास, नंदी
श्यामाधौ हंति गुल्मं विषमरुचिकफी
हृदुजं मूत्रकृच्छ्रम् ॥४५॥ वृक्ष, झडबेरी, कदंब, तिंदुकी, मुलहटी
अर्थ- निसोथ, दती, द्रवंती (उंदरकनी और महुआ के फूल | ये सब न्यग्रोधादि पठानी लोध, सफेद निसाथ, यवातक्ता, गण की औषध व्रणको हितकारी, संग्राही, सातला, स्वर्णक्षीरी, गवाक्षी, [ इन्द्रायण ] टूटे को जोड़नेवाली, तथा मदरोग, रक्त, ओंगा, कंपिल्लक, अमरवेल, कंजा, वृषगंध, पित्त, तृषा, दाह और योनिरोगों को दूर
अमलतास, ईख, और पीलूके फल । यह करती हैं।
श्यामादिगण गुल्मरोग, विषमज्वर, अरुचि, एलादिगण ।
कफ, हृद्रोग और मूत्रकृच्छ को दूर करताहै । एलायुग्मतुरष्ककुष्ठफीलनीमांसीजलध्यामकं
__ प्रयोगविधि । स्पृक्काचौरकचोचपत्रतगरस्थाणेयजातीरसः शुक्तिया॑वनखोऽमराहूमगुरुःश्रीवासककुंकुम त चडागुग्गुलु देवधूपखपुराः पुनागनागाहयम | युज्यातद्विधमन्यञ्च द्रव्यं जह्यादयोगिकम्॥ एलादिको वातकफौ विषं च विनियच्छति । अथे- ये तेतीस प्रकारके योग कहेगये घर्णप्रसादनः कंडूपिटिकाकोउनाशनः ४२ ॥ हैं, इनमें से जो जो औषध न मिल सके तो ___ अर्थ- दोनों इलायची, शिलारस, कुठ, उसकी जगह रसवीर्य विपाकादि समानगुण गंधप्रियंगु, जटामांसी, नेत्रवाला, भ्यामक, वाली अन्य औषधोंका प्रयोग करै किन्तु ( रोहिषतृण ), स्पृक्का ( गंधपर्णी ), चोरक अयोगिक द्रव्य काममें न लाना चाहिये ( ग्रन्थपर्णी ) चोच ( दालचीनी ) तगर, | यह तेतीस की संख्या केवल प्रधानता दितैलपीतक, बोल, नख, समुद्रझाग, देवदारू खाने के लिये कही गईहै, इससे यह न अगर. श्रीवासक ( सरलवृक्ष का निर्यास ).. समझ लेना चाहिये कि इन गणों में जो कुंकुम, कोपना, गूगल, राल, कुंदरुक,
औषध लिखी गई है उन्हीं का प्रयोग किया लालकेसर, नागकेसर, यह एलादिगण,
| जाताहै । देश, काल और रोग की अवस्था वात, कफ, विष, खुजली, पिटिका, और
देखकर एक दो वा बहुतसी औषध मिलाकर कोठ रोगों को दूर करताहै । तथा शरीरके
दीजातीहै, सुश्रुतमें भी कहाहै " समीक्ष्य वर्णको स्वच्छ करताहै ।
दोषभेदांश्च गणान् भिन्नान् प्रयोजयेत् । __ श्यामादिगण ।
पृथक् मिश्रान् समस्तांश्च गणान् वा व्यस्तश्यामा दन्ती द्रवंतीक्रमुकछुटरगी.. | संहतानिति” ॥
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. अ० १४
सूत्रस्थान भाषाकासमेत पानादि प्रकारसे रोगनाशनत्व। | जानवरों का मांस हलका होने पर भी एते वर्गा दोषदृष्याद्यपेक्ष्य
स्नेहन है । मछली और भंस का मांस उकल्कक्वाथस्नेहलेहादियुक्ताः ।
ष्ण होने पर भी स्नेहन है । इसी तरह पाने नस्येऽन्वासनेऽतर्वहिवालेपाभ्यंगैतिरोगान् सुकृच्छ्रान् ४७ ॥
जो गुरु, शीत, सरादि गुणयुक्त होने पर भी अर्थ-दोष, दृष्य, घय. वलादि की वि- बिरूक्षण है। धेचना करके ये सब वर्ग पाने में, नस्यमें, । स्नेहनमें घृतादिको उत्तमता । वाहर वा भातर के सेवनमें, कल्क, काथ, | सर्पिर्मज्जावसातैलं स्नेहेषु प्रवर मतम् । स्नेह, लेह, लेप और अभ्यंग रूप में प्रयोग
| तन्नाऽपिचोत्तमंसर्पि:संस्कारस्याऽनुवर्तनात् "करने चाहिये । इससे अत्यन्त कष्टसाध्य
___ अर्थ-जितने प्रकार के स्नेह पदार्थ हैं रोग भी निवारित हो जाते हैं । उन में घृत, मज्जा, वसा और तेल ही इतिश्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां
श्रेष्ठ होते हैं । इन चारों में घृत सर्वोत्तम है पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
कारण यह है कि घृत संस्कार का अनुव. र्तन करता है, अर्थात् इसका जिस जिस
के साथ पाक किया जाता है, उसी के गुषोडशोऽध्यायः । ण इस में आजाते हैं और अपने शैत्यादि
गुण का त्याग नहीं करता है. किन्तु वर्मा, अथाऽतःस्नेहविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः ।
मज्जा और तेल संस्कार से अपने गुण को
त्याग कर देते हैं, इसी लिये घत ही सर्वोअर्थ-अब हम यहां से स्नेहबिधि ना. मक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
घृतादि को पित्तनाशकता । स्नेहनविलक्षण का स्वरूप ।। "गुरुशीतसरस्निग्धमंदसूक्ष्ममृद्रवम ॥२ / पित्तघ्नास्तेयथापूर्वभितरघ्नायथोत्तरम । औषधं नेहनं प्रायो बिपरीतं विलक्षणम् ॥
अर्थ- वत, मज्जा, वसा और तैल इन अर्थ- गुरु, शीतल, स्निग्ध, मंद, मृदु, | मेंसे यथापूर्व अधिक अधिक पित्तनाशक हैं और द्रव इन गुणों से युक्त औषधे प्रायः । तथा यथोत्तर अधिक अधिक वातकफ नास्नेहन होती हैं । इसी तरह इन गणों से शकहैं । इस जगह ऐसा प्रष्ण उठताहै कि विपरीत अर्थात् लघु, उष्ण, स्थिर, रूक्ष, यथापूर्व कहने में घी का त्याग करदैना चातीक्ष्ण, कठिन और घन गुण युक्त द्रव्य हिये, क्योंकि तेल किसी के पूर्व नहीं है प्रायः बिरूक्षण होते हैं । प्रायः शब्द के | अर्थात् तेलसे परे कुछ नहीं है, इसीतरह घृत प्रयोग का यह तात्पर्य है कि सरसों का तेल | किसी से पर नहींहै अर्थात् घृतसे पूर्व अन्य वकरी क दुध तथा विकिर और प्रतुद द्रव्य नहींहै, इसलिये यथापूर्व कहनेसे वसा
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अष्टांगहृदये ।
(१४४)
पित्तघ्न, मज्जा, पित्तघ्नतर, घृतपित्तघ्नतम । इसी तरह यथोत्तर कहने से मज्जा, वातकफनाशक, वसा अधिकतर वातकफनाशक, और तेल अधिकतम वातकफनाशक है । कोई कोई इसकी व्याख्या इसतरह करते हैं कि 'पित्तसे इतर' कहनेपर वात और कफ दोनों का ग्रहण है तथापि कफ में स्नेहका निषेध होने के कारण उक्त मज्जादिकमें केवल वातघ्न गुण है अथवा यदि इतर शब्दसे श्लेष्मा का भी ग्रहण हैं, ऐसा होनेपर शुद्ध मज्जादि श्लेष्मघ्न न होकर अन्य द्रव्योंसे संस्कार किये जाने पर मज्जादि श्लेष्मनाशक होसकते हैं ।
घृतकी अपेक्षा तैलादि को गुरुत्व | घृतात्तैलं गुरु वसा तैलान्मज्जा ततोऽपि च अर्थ घृत की अपेक्षा तेल, तेलकी अपेक्षा बसा, और वसाकी अपेक्षा मज्जा भारी होती है ।
-
यमकस्नेहादि का निरूपण । द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिस्तैर्थमकस्त्रिवृतो महान् अर्थ- दो दो स्नेह मिलने
यमक
संज्ञा होती हैं, जैसे घृतवसा, घृततैल, घत मज्जा | तीन स्नेह द्वारा त्रिवृत संज्ञा होती हैं जैसे घृततैल वसा । चार स्नेहों के द्वारा महास्नेह संज्ञा होती हैं, जैसे घृततैलय सामज्जा
स्नेहन योग्योंका निरूपण । स्वेद्य संशोध्य मद्यस्त्रीध्यायामासक्तचितकाः बृद्धबालाऽबलाङ्कुशा रूक्षाः क्षीणास्ररेतसः । बातार्तस्यदतिमिरदारुणप्रतिबोधिनः ॥ ५ ॥
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स्नेहन के अयोग्य व्यक्ति । नवतिमंदानितीक्ष्णाग्निस्थूलदुर्बलाः ऊरुस्तंभाऽतिसाराऽमगलरोगगरोदरैः |६| मूर्च्छाच्छ विश्लेष्मतृष्णामद्यैश्च पीडिताः अपप्रसूता युक्ते च नस्ये वस्तौ विरेचने ॥७
अर्थ- जो मनुष्य मन्दाग्नि वा तीक्ष्णाग्निसे पीडित हैं, जो अतिस्थूल वा अति दुर्बल है, जो ऊरुस्तंभ, अतिसार, आमरोग, कंठरोग, विषरोग, उदररोग, मूर्छा, वमन, अरुचि, कफ, तृषा, और मद्यरोग से पीडित हैं जिसका गर्भ गिर गया है, ये सब स्नेहन क्रिया के योग्य नहीं हैं । नस्य, वस्ति और विरेचन क्रिया करने के पीछे भी स्नेहनकर्म उचित नहीं है ।
चारों स्नेहका हितकारित्व | तत्र स्मृतिमेधाऽनिकांक्षिणांशस्यते घृतम्। ग्रंथिनाडीकृमिश्लेष्ममेदोमारुतरोगिषु ॥ ८ ॥ तैलं लाघवदाढ्यार्थिक्रूरकोष्ठेषु देहिषु । वाताऽतपाऽध्वभारस्त्रीव्यायामक्षीणधातुषु रूक्षक्लेशक्षमाऽत्यग्निवातावृतपथेषु च । शेषोवसा तु संध्यस्थिमर्मकोष्ठरुजासु च १०
स्नेह्याः
अर्थ- नीचे लिखे मनुष्य स्नेहनकर्मके । तथा दुग्धाऽहत भ्रष्टयोनिकर्गशिरोरुजि ।
अ० १६
योग्य होते हैं, जैसे जिस मनुष्य का स्वेदन करना है, वा जिसको वमनविरेचनादि द्वारा शुद्ध करना है वह पहिले स्नेहन के योग्य है । जो मद्यपान, स्त्रीसंग वा व्यायाम में आसक्त है जो चिन्ताग्रस्त है, अथवा वृद्ध, बालक, दुर्बल, कृश, रूक्ष, अल्परक्त, और क्षीण वीर्य हैं, जो वातपीडित हैं, जो अभिष्यन्द अथवा तिमिरनामक नेत्ररोग से पीडित है और जो कठिनतासे आंख खोलता है, ये सब रोगी स्नेहन कर्म के योग्य होते हैं ।
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सूत्रस्थान भाषाकासमेत ।
SHREE
अर्थ-जो बुद्धि, स्मृति, मेधा, और अ. . धर्मेऽपि च घृतं निशि ॥ १२ ॥
निश्येव पित्ते पवने संसर्गे पित्तवत्यपि । ग्नि की अभिलाषा करते हैं उनको स्नेहन
निश्यन्यथाबातकफाद्रोगाः स्युःपित्ततो दिवा कर्म में घृत प्रशस्त है, आदि शब्द से स्वर
अर्थ- तेल बर्षाकालही में और घत आयु और वर्णका भी ग्रहण है । जो ग्र.
केवल शरत्कालहीमें प्रयोग किया जाताहै न्थिनाडी बा क्रमि, श्लेष्मा, मेद और वात रोगों से पीडित है जो शरीर में हलकापन
यह बात नहींहै किन्तु व्याधि की दशा के
अनुसार यदि स्नेह क्रिया की आवश्यकता और दृढता चाहते हैं तथा जिनका कोष्ठ क्रूर है उनको तेल उतम है । जिनके धा
शीघूही हो तो हेमंत और शिशिरादि शीततु हवा वा धूपक लगने से, मार्ग चलनेकी
कालमें भी तैलका प्रयोग किया जासकताहै । थकावट से, वहुत बोझ ढोने से, स्त्रीसंग
इसीतरह वायु वा पित्तका अथवा वातपित्त और व्यायाम से क्षीण होगये हैं, जिनकी
दोनों का कोप होनेपर अथवा इनसे उत्पन्न देह रूक्ष है जो कष्ट सह सकते हैं, जिन
हुए अन्य विकारों में ग्रीष्मकालमें भी रात्रि की अग्नि तीक्ष्ण हैं, जिनकी देह के स्रोत
के समय घृतका प्रयोग किया जासकताहै । यायुद्वारा रुक गये हैं ऐसे रोगियों के लिये
इससे अन्यथा किये जानेपर अर्थात् शीतवसा और मज्जा, हितकर हैं किन्तु संधि,
कालमें रात्रिके समय घृतका प्रयोग करनेसे
कफ जनित रोग और ग्रीष्मकालमें दिनके अस्थि, मर्म और काष्ठको वेदना में तथा देह के अग्नि से जल जाने में, चोट में
समय तैल का प्रयोग करनेसे पित्तजनित योनिभ्रंश से उत्पन्न वेदना में और शिरो- राग होजातह । रोग में वसा ही उत्तम है।
स्नेह के उपयोग की विधि । ... भिन्नभिन्न स्नेहनका काल । युक्त्याऽवचारयेत्स्नेहं भक्ष्याान्लेन वस्तिभिः
लं प्रावृवि वर्षात सर्पिरन्यौ तु माधवे॥२१॥ नस्याभ्यंजनगंडूषमूर्धकर्णाऽझितर्पणैः ॥१४॥ ऋतौसाधारणे नेहः शस्तोऽह्रिविमले रवौ। अर्थ- घृतादिक स्नेह पदार्थ युक्तिके . अर्थ-वर्षाकाल में तेल, शरत्काल में
अनुसार अर्थात् मात्रा, काल, क्रिया भूमि, घृत, और वसंतकाल में वसा मज्जा, स्नेहन | देह, दोष, ओर स्वभाव पर लक्ष रखकर कर्म में प्रशस्त हैं । किन्तु साधारण ऋतुर्मे | भक्ष्य भोज्य लेद्य, पेय अन्नके साथ अथवा वस्ति संशोधन से पूर्व स्नेहन के लिये तैलादि ।
किया ( निरूहण, अनुबासन और उत्तर ) प्रशस्त हैं, यह भी दिन के समय जब कि
नस्य, अभ्यंजन, गडूबधारण, शिरोवस्ति, सूर्य की किरणें बादल, कुहरा आदि से |
कर्णपूरण वा नेत्रतर्पण दारा प्रयोग करै । अनाच्छादित हो ।
__ स्नेहकी ६४ विचारणा । .. ... रात्रि स्नेहनविधि। रसभेदैककत्वाभ्यां चतुःषष्टिर्विचारणा। तेल त्वणयां शितेऽति
रहस्याऽऽज्याभिभूतत्वावल्पत्वावक्रमात्स्मृता
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(१४६)
अष्टांगहृदये।
अ ०१६
अर्थ-रसके तिरेसठ प्रकारों का वर्णन | स्नेह प्रयोग की कल्पना नहीं कहते हैं । पहिले कर चुके हैं | स्नेह पदार्थ के भी | इससे ग्रन्थ में विरोधआता है । इस विरोध येही तिरेसट प्रकार इन तिरेसठ प्रकारों के | का यही निराकरण है कि शुद्ध स्नेहपान साथ प्रयोग किये जाते हैं । रस भेद के | को कल्पना नहीं कह सकते हैं किन्तु शिंसाथ इनके प्रयोग की कल्पना भी तिरेसठ रोविरेचन, और कर्ण नेत्रादि तर्पण में जो प्रकार की है । रसको छोड़कर केवल स्नेह | केवलमात्र स्नेहका प्रयोग किया जाता है का प्रयोग होता है, इसी तरह सव मिला- वही स्नेहप्रयोग की कल्पना है । कर स्नेह प्रयोग की कल्पना के ६४ प्रकार स्नेहकी त्रिविधमात्रा। होते हैं । अनेक प्रकार के भक्ष्य पदार्थों के द्वाभ्यां चतुर्भिरष्टाभिर्यामै यति थाःक्रमात साथ तथा तिरेसठ प्रकार के रस भेदों के | हृस्वमध्योत्तमामात्रास्ताभ्यश्च हुसीयसीम् साथ शिरोविरेचन और कर्णनेत्रादि के त- | कल्पयेद्वीक्ष्य दोषादनि प्रागेव तु हसीयसीम् पेय में अल्पमात्रा का प्रयोग किये जाने से
हस्तने जणि एवान्ने स्नेहाऽच्छःशुद्धयेबहुः।
__ अर्थ-स्नेहकी जो मात्रा दो पहर में पस्नेह पदार्थ के गुण अभिभूत हो जाते हैं
| च जाती है वह हस्वमात्रा है, जो चार और इसी प्रकार से स्नेह प्रयोग की कल्पना
पहर में पचती है वह मध्यमात्रा है और १४ प्रकार की होती हैं।
| जो आठ पहर में पचती है उसे उत्तम . . अच्छपेय स्नेह । यथोक्तहेत्वभावाच्च नाऽच्छपेयो विचारणा।| मात्रा कहते हैं । दोष, भेषज, देश, काल, स्नेह कल्पःस श्रेष्ठः स्नेहकर्माशुसाधनात् । । बल, शरीर, आहार, सत्व, सात्म्य, और
अर्थ-चौसठ प्रकार की स्नेह प्रयोग की | प्रकृति इन पर लक्ष करके अज्ञात कोष्ठमें कल्पना के जो जो हेतु कहे गये हैं । उस प्रथम हस्वमात्रा का प्रयोग करना चाहिये, उस हेतु के अभाव में केवल मात्र जो अ- फिर प्रयोजन पड़ने पर मध्यम और उत्तम च्छपेय निर्मल स्नेहपान है उसको स्नेह प्र- मात्रा का प्रयोग करै । क्योंकि अज्ञात कोष्ठ योग की कल्पना नहीं कहते हैं | जितनी में प्रथम ही उत्तम मात्रा दे देने से अनेक प्रकार के स्नेहपान होते हैं उनमें अच्छपेय स्थानों में बिपद का उपस्थित होना संभव ही श्रेष्ट है, क्योंकि इसके द्वारा शरीर का है इस लिये हस्वमात्रा का ही प्रयोग करना तर्पण और मार्दवादि क्रिया शीघ्र साधित | चाहिये । किन्तु यदि शोधन अर्थात् विरेचहोती है । किन्तु यहां यह आपत्ति उप- नादि के निमित्त स्नेहपान करना हो तो स्थित होती है कि पहिले श्लोक में केवल | पूर्व दिन का किया हुआ आहार पचने मात्र स्नेह प्रयोग को भी चौंसठ प्रकारों में | पर भूख का उदय न होने पर भी स्नेहपासे एक प्रकार का कहकर गणना करली नका प्रयोग अधिक प्रमाण अर्थात् उत्तम है । किन्तु इस जगह शुद्ध स्नेहपाम को मात्रा में करै । क्षुधा उत्पन्न हो जाने पर
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अ० ११
स्नेहका पान करना जठराग्नि के प्रदीप्त हो ने के कारण पच जाता है और शोधन कार्य में असमर्थ हो जाता है । पूर्वोक्त हेतु सेक्षुति को वमन भी नहीं होती है । भुक्षित को स्नेहोपयोग | शमनः क्षुद्रतोऽनन्नो मध्यमात्रश्च शस्यते ।
अर्थ - रोग के शमन के निमित्त भूखके प्रवल होने पर स्नेहपान कराना चाहिये, केवल पूर्वदिनका अन्न पचने पर ही नहीं देवें । क्योंकि शमन के निमित्त जो स्नेह दिया जाता है वह सम्पूर्ण शरीर में प्राप्त
यस् कुपित दोषों को शांत कर देता है । केवल पहिले दिनका आहार पचने पर ही बिना क्षुधा लगे निरन्न जो स्नेहपान कराया जाता है वह ककसे उपलिप्त होने के कारण सब देह में नहीं फैल सकता है इसलिये दोषों का शमन भी नहीं कर सकता है । इसमें स्नेह की मध्यममात्रा देना उचित है । रादिसहस्नेहोपयोग
|
बृंहणो रसमधाद्यैः सभक्तोऽल्पः हितः स च ॥ बाल वृद्धपिपासार्तस्नेह द्विष्मद्यशालिषु । स्त्रीस्नेह नित्य मंदाग्निसुखितक्लेशभरुषु ॥ मृदुकोष्ठाऽल्पदोषेषु काले चोष्णे कृशेषुच ।
अर्थ- बृंहण के निमित्त गांसरस मद्यादि के साथ अति अल्प मात्रामें स्नेहका प्रयोग 'करे । यह अन्न के साथ ( सभक्त ) दिया हुआ स्नेह बालकबृद्ध, तृषार्त, स्नेहसे द्वेष रखनेवाले, मद्यप, स्त्रीसे निरंतर स्नेहमें रत, मन्दाग्निपीडित, सुखी, क्लेशभीरु, मृदुकोष्ठ वाले, अल्पदोषयुक्त और कृश व्यक्ति को ग्रीष्मादि काल में हितकारी है ।
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(१४७१
स्नेहपान का फल ! प्राङ्प्रध्योत्तरभक्तोऽसावधो मध्योर्ध्वदेहजान् व्याधीन् जयेद्वलं कुर्यादंगानां च यथाक्रमम् । अर्थ - भोजन के आदि में किया हुआ, स्नेहपान देहके अधोभागमें उत्पन्न हुए रोगों को नष्ट कर देता है और उनमें वल की वृद्धि करता है । भोजनके मध्य में किया हुआ स्नेहपान शरीर के मध्यभाग के रोगों को नाश करके उनको वलिष्ठ करता है । तथा भोजन के अंतमें कियाहुआ स्नेहपान शरीर के ऊभाग के रोगों को नष्ट करके उनको वलवान् बनाता है । यह भी कहा ह "मारुतेऽभ्यधिक सर्पिः सदा सलवणं हितम् । केवलं चाधिके पित्ते कफे सत्र्यूषणं तथा" ।
उष्णोदकपानविधि ।
वार्युष्णमच्छेऽनुपिवेत् स्त्रे हे तत्सुखपतये ॥ आस्योपलेप शुद्धयै च तौवरारुष्करे न तु । जीविकायां पुनरुष्णोदकं तेनोद्वारविशुद्धिः स्यात्ततश्व लघुताः ।
अर्थ -अच्छ स्नेह पान करनेके पीछे गरम जल पीना उचित है, " क्योंकि इससे पिया हुआ स्नेह सहजही में परिपाक को प्राप्त हो जाता है, तथा चिकनाई से हिसा हुआ मुखभी शुद्ध होजाता है । परन्तु तुबुर वा भिलावे का तेल पीकर गरम जल न पीना चाहिये क्योंकि ये उष्णवीर्य हैं ।
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स्नेहपान के बहुत देर पीछे यदि यह शंका हो कि स्नेह पचा है वा नहीं तो फिर गरम जल पीना चाहिये गरम जल पीने से डकार शुद्ध आने लगेगी और शरीर में हलकापन तथा रुविभी बढेगी ।
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(६४०)
अवांगहृदय ।
अ० १६
. स्नेहपानानंतर भोजनविधि। लिये भी प्रायः यही विधि कर्तव्य है । भोज्योऽनमात्रयापास्यन्श्व पिवनपीतवानपि किन्तु शमन के निमित्त स्नेहपान करने में द्रवोष्णमनभिष्यंदिनाऽतिस्निग्धमसंकरम् । विरिक्त की तरह नियम पालन करना चा. उष्णोदकोपचारीस्याब्रह्मचारी क्षपाशयः॥ हिये। अर्थात जैसे विरेचनमें पेयादिका नवेगरोधी व्यायामक्रोधशोकहिमातपान् । |
विधान है ऐसेही शमनार्थ स्नेहपान में भी प्रवातयानयानाध्यमाच्याभ्यासनसंस्थितिः। नीचात्युच्चोपधानाहः स्वप्नधूमरजांसिच। वैसाही विधान है। यान्यहानि पिवेत्तानि तावत्यान्यपित्यजेत् ॥ स्नेहपानकी अवधि । सर्वकर्मस्वयं प्रायो व्याधिक्षीणेषुचक्रमः।
घ्यहमच्छं मृौकोष्ठे करे सप्तदिनं पिवेत् । उपचारस्तु शमने कार्यः स्नेहे विरिक्तवत् ॥
सम्यस्निग्धोऽथवायावदतःसात्मभिवत्परं : अर्थ-जिस दिन स्नेह पान किया जाय
अर्थ-यदि कोष्ठ मृदु हो तो तीन दिन, उससे पहिले दिन अथवा स्नेहपान के दिन
ऋर हो तो सात दिन तक स्वच्छ स्नेहपान स्नेहपान करने के पीछे मूंग के यूषादि
करना उचित है इसमें केवल यही नियम द्रवयुक्त उष्ण अन्न अथवा केवल पेयादिक | नहीं है, किन्तु जब तक स्निग्धता के लक्षण गरम पतले पदार्थ जो अनभिष्यन्दी अर्थात् अच्छे प्रकार से उपस्थित नहों तब तक कफकारक न हों, जिनमें चिकनाई थोडी स्नेहपान करता रहै । इससे यह बात पडी हो, असंकर ( जिसमें कोई अपथ्य
निकली कि सात दिन से आगे भी स्नेहपदार्थ न मिला हो ) ऐसा अन्न बहुत अल्प
| पान का विधान है। इस विषयमें वृद्ध मात्रामें भोजन करना चाहिये । जब तक
वैद्यों का यह मत है कि सातदिन पीछे स्नेह पान करै तबतक, स्नेहपान पीने से
स्नेहपान करना पडे तो एक एक दिन बीच .. आगे के दिनमें और उस दिनभी गरम जल
में देकर करै । स्निग्धलक्षणों के प्रकाशित पीधे । स्त्रीसंग न करे, रात्रि में शयन
होने पर भी जो स्नेहपान किया जाय तो करै ( इस कहने से दिनमें सौना वर्जित है )
स्नेह सामी हो जाता है अर्थात् अभ्यास में मलमूत्रादि के वेग को न रोके, इसी तरह
पडजाता है और इसका फल कुछ भी व्यायाम, क्रोध, शोक, प्रचंडवायु, सवारीमें चढना, रस्ताचलना, अधिक बोलना, बहुत दिखाई नहीं देता । संग्रह में लिखा है कि काल तक आसन पर बैठ रहना, बहुत "सात्मीभूतो हि कुरुते न मानामुदीरणम् नीचे वा बहुत ऊंच तकिये पर सिर धरना, अतियोगेन वा ब्याधीन यांभो ह्यतियोदिनमें सोना, धुंआं और धूल इन सबको जनादिति ।' मध्यकोष्ठ के विषय में संग्रहमें त्याग देना चाहिये । वमनविरेचनादि संपूर्ण | लिखा है कि छः दिन तक स्नेहपान करना कामों में तथा व्याधि से क्षीण मनुष्य के | चाहिये !
8-01-3
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मूत्रस्थान भाषाठीकासमेत।
(११९)
स्निग्ध के लक्षण । और तृषा के वेग का रोकना, वमन, पसीना पातानुलोम्यंदीप्तोऽनिर्वामिग्धमसंहतम्।| रूक्ष पान, अन्न और भेषज, तक, अरिष्ट, रहोगः क्लमः .
खल ( व्यंजन विशेष, इसका पहिले वर्णन सम्यक् स्निग्धे रूक्षे विपर्ययः ॥ ३० ॥ अतिस्निग्धे तु पांडुत्वं घ्राणवक्रगुदनवाः।
| हो चुका है ) उद्दालक, जौ,सोंखिया,कोदों, _ अर्थ-मनुष्यके सम्यक् प्रकार से स्निग्ध
पीपल, त्रिफला, शहत, हरड, गोमूत्र, और होने पर वायु अनुलोमन, अग्नि उद्दीप्त, गूगल तथा जिस जिस रोग की जिस जिस मल स्निग्ध और शिथिल होता है तथा स्नेहो
अध्यायमें जो औषध लिखी गई है उनका द्वेग और क्लान्ति उत्पन्न होती है । परन्तु
प्रयोग दोषानुरूप करना चाहिये । रूक्ष होने पर उपरोक्त लक्षणों से विपरीत
विरूक्षण के कृतातिकृत लक्षण ।
विरूक्षणे लंघनवत्कृताऽतिकृतलक्षणम् । होते हैं । अतिस्निग्धं होने पर पांडुत्व
___ अर्थ -सम्यक् कृत और अति कृत लंघन अर्थात् पीलिया होता है, तथा नाक मुख ] के जो जो लक्षण है, वही वही लक्षण सम्यक् और गुदा से स्राव होने लगता है।
कृत और अतिकृत विलक्षण के भी हैं । स्नेह के अनुचित प्रयोग का फल। | अर्थात् सम्यक कृत लंघन के जो विमलेन्द्रियअमात्रयाऽहितोऽकाले मिथ्याहारविहारतः
1: तादि संपूर्ण लक्षण कहे गये हैं ये सम्यक् नेहः करोति शोफार्शस्तंद्रास्तभावसंशताः कंडकुष्टज्वरोत्क्लेशशलाऽऽनाहभ्रमादिकान कृत विरूक्षण के भी हैं और अतिकृत लंघन
अर्थ-कुसमय अनुचित मात्रा में मिथ्या | के जो कृशता आदि लक्षण कहे गये हैं वेही आहार विहारादि के साथ जो स्नेहपान किया | अति विरूक्षण के भी हैं । जाता है उसका फल अच्छा नहीं होता, इस । स्नेहन के पीछे का कर्म । से सूजन, अर्श, तन्द्रा. जड़ता, संज्ञानाश,
स्निग्धद्रवोष्णधन्वोत्थरसभुक् स्वेदमाचरेत्
| सिग्धस्त्रयहं स्थितः कुर्याद्विरेकं वमनं पुनः । खुजली. कोढ, ज्वर, वमन. शूल. आनाह और
| एकाहं दिनमन्यच्च कफमुत्क्लेश्य तत्करैः भ्रमादिक उपद्रव उपस्थित होते है ।
___ अर्थ-स्नेहन क्रिया के द्वारा स्निग्ध होने . स्नेहविधिविभ्रंश में कर्तव्य ।।
के पीछे स्निग्ध, द्रव और उष्ण जांगल क्षुतृष्णोल्लेखनस्वेदरूक्षपानान्नभेषजम् । तक्रारिष्ट खलोहालयवश्यामाककोद्रवाः३३
मांसरस भोजन करके पसीना लथै, पसीना पिप्पलीत्रिफलाक्षौद्रपथ्यागोमूत्रगुग्गुलु।
लेने के तीन दिन पीछे विरेचन लेवै । किन्तु यथास्वंप्रतिरोगंच ने इज्यापदिसाधनम् ३४ यदि स्नेह के पीछे वमन क्रिया ही उपयोगी ___अर्थ-स्नेहविधि के विभंस होने पर क्षुधा हो तो उक्तरूप से मांसरस भोजन कर के - पाठांतर-मृदुस्निग्धांगताग्लानिः स्नेहो
पसीना लवै । स्वेद लेने के एक दिन पीछे द्वेगांगलाघवम् । विमलेन्द्रियता सम्यक कफकारक हेतु द्वारा कफ को उपलशित स्निग्धे रुक्षे विपर्ययः।
करके वमन द्वारा निकाल देवे। .
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१५.)
अष्टांगहृदय ।
मांसल स्नेहयोग्यों का रूक्षण । | स्नेहसंबंधी त्यागने योग्य विषयों को त्यागने मांसला मेदुरा भूरिश्लेष्माणोविषमाग्नयः।। में असमर्थ हैं। उन के लिये नीचे लिखे होचिताश्चये स्नेह्यास्तान् पूर्व रूक्षयेत्ततः। टमटाय
हुए स्नेहारव्य अनुढेजक योगों का तत्काल सस्नेह शोधयदेवं नेहव्यापन जायते। । अलं मलानारयितुं स्नेहश्चसात्म्यतांगतः३८ | प्रयोग करना चाहिये। - अर्थ-जो मांसल (जिन के देह का मांस अनुद्वेजकयोगों का वर्णन । वहुत बढ़ गया है ) मेदुर ( जिन का मेद | प्राज्यमसिरसास्तेषुपेया वा स्नेहभार्जिता। बहुत बढगया है .) भूरिश्लेष्मा। जिन को
तिलचूर्णश्च सस्नेहफाणितः कृशरातथा ॥
क्षीरपेया घृताढयोष्णादनोवासगुडः सरः कफ वहुत है ) विषमाग्नि ( जिन की जठ
पेथा च पञ्चप्रसृतास्नेहैस्तंदुलपंचमे४१॥ राग्नि विषम है ) हैं उनको स्नेहनकर्म करना सप्तैते स्नेहनाःसद्यः स्नेहाश्च लवणोल्बणा: चाहिये । जिन की स्नेहन क्रिया करनी हो तद्याभिष्यंद्यरूक्षंच सूक्ष्ममुष्णव्यवायिच ४२ उनका प्रथम रूक्षण करके फिर स्नेह का ____ अर्थ-ऊपर लिखे बालकादि के लिये प्रयोग करना चाहिये । इस तरह स्नेहप्रयोग पुष्कल मांस का रस, घी में भुनी हुई पेया, के पीछे वमनबिरेचनादि द्वारा शोधन क्रिया तिलका चूर्ण घृतयुक्त गुड़ के पदार्थ, खि. करै । इस नियम से स्नेहक्रिया करने पर कोई चडी, घृत, गरम दूधकी बनी पेया, दहीकी स्नेहब्यापत्ति उत्पन्न नहीं होती है । किन्तु मलाई में गुड़ मिलाकर, घृतादिक चार प्रइस तरह सेवन किया हुआ स्नेह असात्म्यता कार के स्नेह (घृत तेल वसा मज्जा ) और को प्राप्त होकर वातादि और पुरीषादि मल | | तंडुल । इस पांच प्रकार की पांच प्रसृत को निकालने में समर्थ होता है । पहिले कह पेया । ये सब सात प्रकार के स्नेह शीघ्र चुके हैं कि वहुत काल तक स्नेह का सेवन | सेवन करावे । इनके सिवाय आधिक लवणकरने से वह सात्मीभूत होकर अभ्यास में | युक्त घृतादि भी तत्काल स्नेहन करने पडता है और अभ्यास में पड़ा हुआ स्नेह वाले हैं। मलादि को बाहर नहीं निकाल सकता है। जिस कारण से लवणरस अभिष्यन्दी परन्तु ऊपर लिखे हुए क्रम से सेवन किया । अर्थात स्रोतों का स्राव करनेवाला है अरूक्ष हुआ रस अभ्यास में न पडकर असात्म्यता है, सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश करनेवाला है, को प्राप्त हो जाता है और मलादि के निका, उष्णगुणयुक्त और ब्यबायी है। जो द्रव्य लने में समर्थ होता है।
पहिले संपूर्ण देह में व्याप्त होकर फिर पबालवृद्धादि का सद्यःस्नेहकरण ।। रिपाक को प्राप्त होता है उसे व्यावायी बालवृधादिषु स्नेहपरिहारासहिष्णुषु। कहते हैं। योगानिमाननुद्वेगान् सद्यःस्नेहान् प्रयोजयेत् कष्ठादि में निषेध ।
अर्थ-जो बालक वा वृद्ध हैं और जो. | गुडानूपाऽमिषारतिलमाषमुरादाध।
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मे. १७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
-
कुष्ठशोफप्रमेहेषु स्नेहार्थन प्रकल्पयेत् ४३॥ इतिश्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां अर्थ-कुष्ठ, शोथ और प्रमेह रोग में
षोडशोऽध्यायः । गुड, आनूपमांस, दूध, तिल, माष, मद्य और दही स्नेहन के लिये न देने चाहिये ।
कुष्ठादि की स्नेहन विधि । सप्तदशोऽध्यायः। त्रिफलापिप्पलीपथ्यागुग्गुल्वादिविपाचितान् --more स्वहान्यथास्वमेतेषां योजयेदविकारिणः ४४ अथाऽतःस्वेदविधिमच्यायं ध्याख्यास्यामः। क्षीणानां त्वामयैरग्निदेहसंधुक्षणक्षमान् ।। : अर्थ-उक्त कुष्ठादि रोगों में त्रिफला, |
अर्थ-अब हम यहां से स्वेदविधिनामक
| अध्यायकी व्याख्या करेंगे। पीपल और गूगल आदि जो जो औषधे कुष्ठा
स्वेदके चार प्रकार । दि के प्रकरण में लिखी गई हैं उसी उसी । " स्वेदस्तापोपनाहोष्मद्रवभेदाच्चतुर्विधः । औषध द्वारा स्नेह को सिद्ध करके प्रयोग । अर्थताप, उपनाह, ऊष्म और द्रवं करै ।
भेदों से स्वेद चार प्रकार का होता है। ., किन्तु जो अनेक प्रकार की व्याधियों तापस्वेदका लक्षण । द्वारा क्षीण हो गये है उनके लिये अग्नि
तापोऽग्नितप्तवसनफालहस्ततलादिभिः॥
__अर्थ-अग्नि से गरम किये हुए वस्त्र, को प्रदीप्त करनेवाले और देहको पुष्ट करने
लोहेके फलक वा हथेली द्वारा स्वेद देनेका वाले जो सब प्रकार के स्नेह हैं उनका
नाम तपस्वेद है । आदि शब्द से काष्ठ, प्रयोग करना चाहिये।
बालू, घटिका और कांसी के पात्र का भी बारबार स्नेहका फल ।
ग्रहण है । दीप्तांतराग्निः परिशुद्धकोष्ठः
उपनाहस्वेदके लक्षण । प्रत्यग्रथातुर्बलवर्णयुक्तः।
उपनाहो वचाकिण्वशताव्हावेदाराभिः । ‘दृढेंद्रियो मंदजरः शतायुः
धान्यैः समस्तैर्गधैश्च रात्रैरंजटामिषैः।२। नेहोरसेवी पुरुषः प्रदिष्टः॥ ४६॥ उद्रितलबणैः स्नेहचुक्रतऋपयःप्लुतैः। अर्थ-जो मनुष्य निरंतर स्नेह सेवन
केवले पवने श्लेष्मसंसृष्टे सुरसादिभिः।।३।।
पित्तेन पद्मकायैस्तु साल्वणाख्यैः पुनः पुनः । करता रहता है उसकी आग्नि प्रदीप्त, कोष्ठ
____ अर्थ-केवल वायुके प्रकोपमें वच, परिशुद्ध ( साफ कोठा ), रस रक्तादि धातु किण्व, शतमूली, देवदारु, धनियां, (तिल, वर्द्धित, इन्द्रियगण दृढ, और वृद्धावस्था | अलसी, माषकलाय तथा अन्य उष्णवीर्य थोडी ये लक्षण होते हैं, तथा यह सौ वर्ष | द्रव्य भी यहां प्रयोज्य है ) समस्त गंध पर्यन्त जीवन धारण करता है। द्रव्य जैसे कूठ, अगर तगर, सुरसा आदि;
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अष्टांगहृदये ।
( ५२ )
तक्र
रास्ना, अरंडकी जड, जटामांसी और मांस, इनको शिला पर पीसकर अधिक नमक मिलाकर तथा घृतादि स्नेह, चूका, वा दूध डालकर गरम करले, फिर इसके द्वारा पसीने दे । कफयुक्तवायुमें पहिले कहे हुए सुरसादि गणोक्त द्रव्यों द्वारा स्वेदन करे किंचित् पित्तयुक्त वायुमें पद्मकादि गण में कहे हुए द्रयों द्वारा बार बार स्वेदन कैर ( समान वा अधिक पित्तयुक्त होने पर यह विधि नहीं कही गई हैं ), इन दोनों प्रकार के वेदों में भी नमक और घृतादि मिलालेने चाहियें । ऐसे स्वेद का नाम उपनाह है । अन्य ग्रन्थ में इमको साल्वणस्वेद भी कहते हैं । प्रचलित भाषा में इसे पुलटिस कहते हैं । चमड़े की पट्टी आदि से बांधा जाता है इसलिये इसे उपनाह कहते हैं । भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं " काकोल्यादि स वातघ्नः सर्वाम्लद्रव्यसंयुतः । सानुपाद कमांसस्तु सर्वस्नेहसमन्वितः । सुखोष्णः स्पष्ट लवण: साल्वणः परिकीर्तितः ।
स्वेदोपायभूत चमपट्टादि । निग्घोष्णवीर्यैर्मृदुभिश्चर्मप हैरपूतिभिः ||४| • अलाभे वातजिपत्रकौशेयाऽधिकशाटकैः । रात्रौबद्धंदिवामुंचेन्मुंचेद्रात्रौ दिवाकृतम् ५
अर्थ- किसी अंग में ऊपर कहे हुए लेप लगाकर मृदु, स्निग्ध, उष्णवीर्य और दुर्गन्धरहित चर्म तथा चर्म के न मिलने पर वातनाशक अरंडके पत्ते वा रेशमी वस्त्र, अथवा कंवल या साडी बांधे रखने का नाम उपनाह स्वंद है । रात में बांधी हुई पट्टी
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अ० १६
को दिनमें खोले और दिन में बांधी हुई पट्टी को रात में खोले ।
ऊष्मारव्य स्वेद |
ऊष्मा तूत्कारिकालोष्ठ कपालो पलपांसुभिः । पत्रभंगेन धान्येन करीषसिकतातुषैः ॥ ६ ॥ अनेकोपायसंतप्तैः प्रयोज्यो देशकालतः ।
अर्थ-भाफ लगाकर पसीने निकालने का नाम ऊष्मास्त्रेद है । उत्कारिका, मिट्टी 1 का डेला, खीपडा, पत्थर, धूल, पत्तों का समूह, धान्य, गोवरकाचूर्ण, बालू और भुस आदि अनेक उपायों से इनको गरम करके देश, काल, दोष, दृष्य आदि पर विचार करके पसीने निकालने के लिये प्रयोग करै ।
1
जी, उरद, अरंड के बीज, असी, कसूम के बीज आदि को पत्थर पर पीसकर पानी के साथ घोटकर लपसी के समान करके जो पसीने निकालने में काममें लाई जाती है उसे उत्कारिका (लाडी ) कहते हैं । मिट्टी के डेले आदि ऊपर कहे हुए पदार्थों को लाल गरम कर करके पानी में अथवा धान्याम्ल में अथवा शुक्तमें डाल डाल कर उनकी भाऊ लेवे | यह भाफ खाटमें सोकर ली जाती है । गोवर आदि का गोला सा बनाकर गरम करके स्वेद देने का नाम पिंडस्वेद है | अथवा अरंडके पत्ते यवादि धान्य खटाई युक्त लेकर इनको गरम करके खाट अथवा पृथ्वी पर कंबल, ऊनका वस्त्र, रेशमविस्त्र, वातनाशक पत्ते वा मृगचर्म आदि बिछाकर उसके ऊपर उक्त गरम कियेहुए द्रव्य बिछावे और उस पर लेटकर कोई गरम कपडा ओढले और
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
(१५३)
पसीना ले इसका नाम संस्तरस्वेद है।
अवगाहनस्वेद । अथवा भाफ लेनेके पदार्थों को एक घडे तैरेव वा द्रवैः पूर्णकुंडं सर्वांगगेऽनिले । में भरदे और उसका मुख ढककर अच्छी
अवगाह्याऽऽतुरस्तिष्ठेदर्शः कृच्छ्रादिरुक्षुच॥ तरह गरम. करले । और रोगी को ऐसे
। अर्थ-ऊपर कहे हुए द्रव्यों को एक स्थान में बैठा कर जहां हवा न लगती हो
कुंड में अथवा एक वडे पात्रमें भरकर कंवल आदि वस्त्र उढाकर सव शरीर ढकदे
रोगी को उसमें बैठादे । यह रोगी ऐसा
| हो जिसके सब अंग में वात की पीडा पीछे इस पात्रका मुख धीरे धीरे खोलकर
| होती हो अथवा अर्श और मूत्रकृच्छादि उससे उठी हुई भाफ से भपारा दे
रोगों में इस तरह किया जाता है । वर्तन इसका नाम कुंभस्वेद है । इसतरह अनेक
कोई हो पर इतना वडा होना चाहिये युक्तियों से उष्मास्वेद दिया जाता है ।।
जिसमें रोगी कंठ तक बैठ जाय । खाट के द्रवस्वेद । शिवारणकरंडकारजसुरसार्जकात् ।७ ॥ नीचे एक गढा खोदकर उसमें वातनाशक शिरीषवासावंशामालतीदर्षिततः। लकडी उपले भरकर आग लगाकर निर्धूम पत्रभंगवाद्यैश्चैव मांसश्चाऽनूपवारिजैः८ अंगार कर लिये जाय, फिर रोगी को उस दशमूलेन च पृथक् सहितैर्वा यथामलम् ।। स्नेहवद्भिःसुराशुक्तवारिक्षीरादिसाधितैः॥
खाट पर शयन कराई जाय, इसका नाम कुंभीर्गलतीर्नाडी पूरयित्वा रुजार्दितम् ।। कूपस्वेद है, इसी तरह कुटीस्वेदादि के वाससाऽऽच्छादितं गात्रंस्निग्धंसिंचेद्यथा- लक्षण अन्य ग्रन्थों से जानने चाहिये । सुखम् ॥ १० ॥
स्वेदविधि। __अर्थ-सहजना, वीरण, अरंड, कंजा, निवाऽतर्वहिःस्निग्धोजीर्णान्नःस्वेदमाचरेत् तुलसी, अर्जक, सिरस, अडूसा, बांस,आक, ध्याधिव्याधितदेशर्तुशान्मध्यवरावरम् ॥ मालती, दीर्घवृत इनके पत्तों का समुदाय, अर्थ-स्नेहपान और स्नेहाभ्यंगद्वारा भीवचादिगण में कहे हुए द्रव्य, आनूप और / तर और बाहर स्निग्ध होकर, पहिले आहाजलचरों का मांस, और, दशमूल इनमें से | र के पचने पर रोग,रोगी, देश और ऋतु कोई एक, दो, तीन वा सबको दोषके के अनुसार वायुरहित स्थान में हीन,मध्यम अनुसार घृतादि स्नेह मिलाकर तथा मद्य, | वा उत्कृष्ट स्वेद देवै । आमाजीर्णवाले रोगी शुक्त, जल, वा दूध द्वारा पकाकर थाली, 7 को अथवा जिसको जिसका पहिला भोजन सबेला, घडा, अथवा वांस की नली में | न पचा हो ऐसे रोगी को पसीने कदापि रोगी के अंग के जिस भाग में: पीडा होती न देवै । हो सुहाता हुआ गरम गरम से सेचन करे।। कफरोगमें स्वेदविधि । सेचन से पहिले उस पीडित अंग को घृत कफातॊ रूक्षणं रूक्षोरुक्षस्निग्धं कफामिले। से चुपडले बा उस पर वस्त्र ढकदे । । अर्थ-कफ से पीडित रोगी रूक्ष होकर
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(१९४)
अष्टांगहृदये। ..
भ०१७
अर्थात् स्नेहपान वा स्नेहमर्दनद्वारा स्निग्ध । पीडा कम हो जाय, तथा शरीर के हाथ न होकर पसीने ले । यदि रोगी कफवात पांव आदि अंगों में कोमलता हो जाय तब से पीडित हो तो किसी अंग में रूक्ष और जान लेना चाहिये कि स्वेदन होगया । किसी में स्निग्ध स्वेद देना चाहिये। स्वदित होने के पीछे रोगी के शरीर पर
आमाशयादि व्याधिस्वेदविधि । । कोमल हाथों से धीरे धीरे मर्दन करके गरम आमाशयगते वायौ कफे पक्वाशयाश्रिते१३॥ | जल से स्नान करावै फिर स्नेहविधि में कही लक्षपूर्व तथा स्नेहपूर्व स्थानानुरोधतः।
स्थानानुराधतः हुई रीति से रोगी की पालना करै ।। ____अर्थ-जो वायु आमाशयमें चलागया हो
___ अतिस्वेद से हानि । तो प्रथम रूक्ष स्वेद लेकर पीछे स्निग्ध
पित्ताऽस्म्रकोपतृणमूस्विरांगसदनभ्रमाः । स्वेद लेना चाहिये । तथा कफ के पक्काशय / संधिपीडाज्वरश्यावरक्तमंडलदर्शनम् ॥१६॥ में जाने पर प्रथम स्निग्ध फिर रूक्ष स्वेद लेना | स्वेदाऽतियोगाच्छर्दिश्च तत्रस्तंभनमौषधम् चाहिये । इस नियम का कारण यह है कि । विषक्षाराऽग्न्यतीसारच्छर्दिमोहातुरेषु च ।
___अर्थ-अधिक पसीने देने से रक्तपित्त आमाशय कफका स्थान है और वाय आ.
का प्रकोप, तृषा, मूर्छा, स्वरकी क्षीणता, गन्तु है, इस लिये कफ की शान्ति के नि
देह में शिथिलता, भ्रम, सन्धियों में पीडा, मित्त प्रथम रूक्ष और वायु की शांति के । लिये पीछे स्निग्ध स्वेद दिया जाता है
ज्वर, काले और लाल चकत्ते, और वमन इसी तरह पक्काशय वायुका स्थान है और
ये सब उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं । इसमें
| स्तंभन औषध का प्रयोग करना चाहिये । कफ आगन्तु है इस लिये वायुकी शांति के लिये रूक्ष स्वेद दिया जाता है ।
तथा विष, क्षारकर्म, अग्निकर्म, अतिसार, ___ वंक्षणादिस्थानमें स्वेदविधि ।
वमन और मूछी इन रोगों में भी स्तंभन अल्पं वंक्षणयोः स्वल्पंदृङ्मुष्कहृदयेनवा१४ |
औषधका प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-जिस जगह पर वद होती है उस स्वेदनस्तंभन औषध । स्थान को जंघाकी संधिपर्यंत वंक्षण कहते स्वेदन गुरु तीक्ष्णोष्णं प्रायः स्तंभनमन्यथा हैं इस स्थान में अल्प स्वेद देना चाहिये। द्रवस्थिरसरस्निग्धरूक्षसूक्ष्मं च भेषजम् १८ नेत्र, अंडकोश और हृदय इन स्थानों में
स्वेदनं स्तंभन श्लक्ष्णं रूक्षसूक्ष्मसरद्रवम् । पसीने की आवश्यकता हो तो बहुत कम स्वेद
___अर्थ - जो औषध भारी तीक्ष्ण और देवे अथवा दैना ही उचित नहीं है ।
गरम होती है वह स्वेदन होती है । और ... स्वेदित पुरुषोंका कर्तव्य ।
जो इससे विपरीत अर्थात् हलकी, मंद शीतशूलक्षये स्विन्नो कारोऽशान च मार्दवे
और ठंडी होती है वह स्तंभन होती है । स्याच्नमादेतःस्वातस्ततः स्नेहविधि भजेत् | जा आषध द्रव, स्थिर, सर, स्नाय,
जो औषध द्रव, स्थिर, सर, स्निग्ध, रूक्ष अर्थ-जिस समय देह में ठंडापन हा और सूक्ष्म गुणयुक्त होती है वह स्वेदन
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अ० १७
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
होती है, तथा जो श्लक्ष्ण ( सूक्ष्म कोमल ) रूक्ष, सूक्ष्म, सर और होती है वह स्तंभन होती है । स्तंभन औषधका रस । प्रायस्तिक्तं कषायं च मधुरं च समासतः ॥ अर्थ - प्रायः जो औषध तिक्त, कषाय और मधुर रसवाली होती है वह संक्षेप से स्तंभन औषध होती है ।
और
द्रव्य
स्तंभित के लक्षण | स्तंभितः स्याद्वले लब्धे यथोक्तामयसंक्षयात् अर्थ - जिस औषध से मनुष्यको बल प्राप्त हो और अति स्वेदन से उत्पन्न हुए रोग नष्ट होजांय तो जानलेना चाहिये कि स्तंभन औषधे ने अपना गुण दिखादिया है।
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( ११५ )
मिर रोगी, उदरविकारी, विसर्परोगी, कोढी, शोषरोगी, वातरक्तरोगी, तथा जिसने दूध, दही, स्नेह और मधुपान किया हो, जिसने जुलाब लिया हो, जिसकी गुदा फटगई हो, वा क्षारादि अग्नि कर्म से जलगई हो, जिस को ग्लानि होगई हो, जो क्रोध, शोक और भयसे पीडित हो, जो क्षुधा, तृषा, कामला, पांडुरोग, प्रमेह और पित्त विकार से पीडित पसीना नहीं देना चाहिये । जो उक्त रोगिहो, गर्भिणी, रजस्वला, और प्रसूती इनको यों में से किसीको विसूचिकादिः विपज्जनक रोग होजाय तो मृदु स्वेदन देना उचित है ।
रोगी |
श्वासकासप्रतिश्यायहिध्माध्मानविवंधिषु । स्वरभेदाऽनिलव्याधिश्लेष्मामस्तंभगौरवे । अंगमर्दकटीपार्श्वकुक्षिहनुग्रहे । महत्वे मुकयोः खल्यामायामे वातकंटके २६ मूत्रकृच्छ्राग्रंथिशुक्राघाताढ्यमास्ते । स्वेदं यथायथं कुर्यात्तदौषधविभागतः ||२७|
अतिस्तंभित के लक्षण | स्तंभत्वक्स्नायुसंकोचकंपहृद्वाग्धनुग्रहैः ॥ २० पादोष्ठत्वकरैः श्यावैरतिस्तंभितमादिशेत् । अर्थ - शरीर में जड़ता, त्वचा और स्नायुओं में संकोच, शरीरमें कंपन हृदय में वेदना वाणीने शिथिलता, हनुग्रह तथा हाथ पांव और त्वचा इनका काला हो जाना, ये सब लक्षण होते हैं ।
अर्थ- श्वास, कास प्रतिश्याय, हिचकी, आध्मान ( अफरा ) मलका त्रिबंध, स्वर - भेद, वातव्याधि, श्लेष्मा, आमरोग, स्तंभ,
अस्वेद्य रोगी |
|
न स्वेदयेदतिस्थूलरूक्षदुर्बलमूर्चितान् | २१ | गौरव, अंगमर्द, तथा कमर, पसली, पीठ, स्तंभनीयक्षतक्षीणक्षाममद्यविकारिणः । कूख इनमें वेदना, तथा हनुग्रह, अंडवृद्धि, खल्लीनामक तीव्र वेदनावाला वातरोग, आयाम नामक वातरोग, वातकंटक, मूत्र कृच्छ्र, अर्बुद, ग्रंथि, शुक्राघात, और ऊरुस्तंभ इन सब रोगों में उस उस रोगके उपयुक्त औषत्र विभागानुसार यथायोग्य स्वेदन देवे अर्थात् जैसा रोग हो उसी के
तिमिरोदर वीसर्प कुष्ठशोषाढघरोगिणः ||२२| पीतदुग्धदधिस्नेहमधून्कृतविरेचनान् । भ्रष्टदग्धगुदग्लानिको धशोकभयान्वितान् २३ क्षुत्तृष्णा कामलापांडुमेहिनः पित्तपीडितान् । गर्भिणीं पुष्पितां सूतां मृदु चाऽत्यायिके गये
|
अर्थ - अतिस्थूल, रूक्ष, दुर्बल, मूच्छित, स्तंभनीय, क्षतक्षीण, कुश, मद्यरोगी, ति
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अष्टांगहृदये।
अ.१८..
VIDEFERRED
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अनुसार कभी तापस्वेद, कभी उपनाहस्वेद | वयव की अस्थियों में स्थित होगये हैं उन और कभी ऊष्मास्वेद का प्रयोग करै । को स्नेहनकर्म से स्निग्ध करके तथा स्वेदन
अग्निरहित स्वेद । कर्म से पतले करके कोष्ठ में लाकर स्वेदो हितस्त्वनानेयो बाते मेदः कफावृते। वमन विरेचनादि रूप शुद्धि से वाहर निकाल निवातं गृहमायासो गुरुप्रावरणं भयम् ।२८।
देना उचित है। उपनाहाहवक्रोधभूरिपानं क्षुधातपः।
___ इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां अर्थ-मेद और कफावृत वातरोग में
सप्तदशोऽध्यायः । अनाग्नेय अर्थात् अग्निरहित स्वेद हितकारी होता है । अनाग्नेय स्वेद के लक्षण यह हैं---वातरहित घरमें बैठकर पसीने लेना, अष्टादशोऽध्यायः। तथा व्यायाम, कंबल आदि भारी वस्त्र
-~- meओढना, भय, स्निग्ध, उष्ण और कोमल
अथाऽतो वमनविरेचनविधिमध्यायं व्याख्या चमडे की पट्टी बांधकर उपनाह स्वेद लेना,
स्थामः । संग्राम, क्रोध, अत्यन्त मद्यपान, क्षुधा, और
___ अर्थ-अब हम यहां से बमन और वि. धूप । ये सब अग्निरहित स्वेद हैं।
रेचन विधि नामक अध्याय की व्याख्या ___ उपनाह दो प्रकार का होता है एक |
करेंगे। आग्नेय, दूसरा अनाग्नेय । पूर्वोक्त बच और
। वमनविरंचन विधि । किण्वादि द्वारा जो उपनाह दियाजाता है
" कफे विदध्याद्वमनं संयोगेवा कफोल्बणे । वह आग्नेय होता है तथा स्निग्धोष्णवीर्य, | तद्विरेचनं पित्ते मृदु और दुर्गन्धिरहित चमडा वा इसके ___ अर्थ-कफ की कमी होने पर विरेचन अभाव में वातनाशक अरंडके पत्तों द्वारा अच्छी तरह हो सकता है, इसलिये प्रथम जो उपनाह दियाजाता है बह अनाग्नेय वमन से आरंभ करके कहते हैं कि कफ रोग उपनाह कहलाता है।
में कफाधिक्य में वा कफ के संयोग ( वात स्वेदनका मुख्य कर्म ।
कफ, पित्तकफ या वातपित्तकफ ) में वमन सेहक्लिन्नाः कोष्ठगा धातुमा वा
कराना चाहिये । इसी तरह पित्तो वा पित्तास्रोतोलीना ये च शाखाऽस्थिसंस्थाः।। धिक्य में अथवा पित्त के संयोग ( वातपित्त दोषाः स्वेदैस्ते द्रवीकृत्य कोष्ट कफपित्त वा वातकफपित्त ) में विरेचन देना
नीताः सम्बक्शुद्धिभिनिर्दियते ॥ २९॥ उचित है। - अर्थ-जो जो दोष कोष्ठ और धातुओं
वमनोपयोगी रोगी। में स्थित हैं, अथवा रसादि वाहिनी नालियों
विशेषेण तु वामयेत्।। में चले गये हैं अथवा हाथ पांव आदि देहा- | नबज्वरातिसाराधः पित्तासृग्राजयक्ष्मिणः।
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अ० १८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१५७)
कुष्ठमेहाऽपचीग्रंथिश्लीपदोन्मादकासिनः।। | विष से कष्ट पहुंचा हो, अथवा अजीर्ण वा श्वासहल्लासवीसर्पस्तन्यदोषोर्वरोगिणः। विरुद्ध भोजन से दोष उत्पन्न हुआ हो तो अर्थ-नवज्वर, अतिसार, अधोगामी [ गुदा
वमन कराना ही चाहिये । द्वारा निकलने वाला ] रक्तपित्त, राजयक्ष्मा, | उक्त रोगियों को गंभषादि निषेध। कोढ, मेह, अपची, ग्रंथि, श्लीपद, उन्माद, प्रसक्तवमथोः पूर्व प्रायेणामज्वरोऽपि च । कास, श्वास, हल्लास, [जी मिचलाना ] वि. धूमांतैः कर्मभिर्वाः सर्वैरेव त्वजीर्णिनः ७ सर्प, स्तन्यरोग, और ऊर्ध्व जत्रुगत रोग। अर्थ-पूर्वोक्त श्लोक में प्रसक्तवमथु (निरं इन रोगों से पीडित मनुष्य को विशेष रूप । तरवमनकारी ) इस शब्द से पहिले गर्भवती से वमन कराना चाहिये ।
स्त्री से लेकर दुर्बल पर्यन्त जो ग्यारह प्रकार अवमनीय रोगी। के रोगी लिख गये हैं उन को तथा आम अवम्या गर्भिगी रुक्षः क्षुधितो नित्यदुःखितः | ज्वरवालों को जो वमन कराने का निषेध बालवृद्धकृशस्यूलद्रोगिक्षतर्वलाः। किया गया है वह इतना ही नहीं है, किन्तु प्रसक्तवमथुशीहतिमिरक्रिमिकोष्ठिनः ॥ ४॥
इनको प्रायः स्नेह, स्वेद, बमन, विरेचन ऊर्ध्वप्रवृत्त बाय्यत्र इत्तबस्तिहतस्वराः।। मूत्राघात्युदरी गुल्मी दुर्वमोऽत्यनिरर्शसः५, वस्तिकर्म, नस्य धूमपान ये कर्म भी कराना उदावर्तभ्रमाऽष्ठीलापार्यरुग्वातरोगिणः । . उचित नहीं है, तथा गडूपधारणादि विधिका
अर्थ-गर्भवती स्त्री, रूक्ष प्रकृतिवाला मनु- | भी निषेध है दीर्घ काल वालें अजीर्ण रोगी ज्य, भूखा, नित्यदुखी, बालक, वृद्ध, कृश, धूमप्रहण, गंडूषधारण, तथा तर्पणादि सब स्थूल, हृद्रोगी, क्षतरोगी, दुर्बल,निरंतर वमन कामों का ही निषेध है । आठमासकी गर्भकारी, प्लीहा वाला, तिमिररोगी, क्रमिगेगी, वती स्त्री को निरूहणवस्ति देना न चाहिकोढी जिसके शरीर में वातरक्त ऊपर को | ये । जिसने तत्काल भोजन किया हो ऐसे जाने लग गया हो, जिस को बस्ति दीगई। ज्वर पाले रोगी को और तत्काल के अर्जीहो, जिसका स्वर भंग होगया हो, तथा मूत्रा, णवाले को वमन करने का निषेध नहीं है घातवाला, उदररोगी, गुल्मरोगी, कष्ट से वमन इसलिये मूल श्लोक में 'प्रायः' शब्द का प्र. होनेवाला रोगी,तीव्रजठराग्निवाला, भर्शरोगी योग किया गया है । उदावर्तवाला, भ्रमरोगी, अष्टीलानामक रोग- विरेचन के योग्य रोगी। वाला, पसली के दर्द वाला और वात रोगी विरेकसाध्या गुल्मार्टीविस्फोटव्यंगकामला: इतने रोगी वमनकराने के योग्य नहीं होते हैं। जीर्णज्वरोदरगरच्छर्दिप्लीहहलीमकाः८॥ विष में वमन विधान ।
विद्रधिस्तिमिरं काचः स्यंदा पक्वाशयव्यथा
योनिशुक्राशयारोगा कोष्ठगा कृमयो ब्रणाः॥ ऋतेविषेगराजर्णिविरुद्धाऽभ्यवहारतः।६।
वातानसूर्ध्वगरकंमूत्राघातः शकुद्ग्रहः। - अर्थ-ऊपर जो वमन के अयोग्य रोगी | वम्याश्च कुष्ठमहाद्याः - कहे गये हैं उव को यदि स्थावर वा जंगम अर्थ-गुल्म, अर्श, विस्फोटक, व्यंग,
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(१५८)
अष्टांगहृदय ।
अ० १८
कामला, जीर्णज्वर, उदररोग, विषरोग, ब- | न देना चाहिये । सशल्य क्षत में विरेचन मन, प्लीहा, हलीकम, विद्रधि तथा तिमिर, देने से वायु का कोप बढता है । आस्थाकाच, और अभिष्यन्द नामक नेत्ररोग, प- पनवस्ति वाले को विरेचन न दे क्योंकि काशय, व्यथा, योनिरोग, शुक्रस्थानक रोग, इससे उसको निर्बलता बढ़ती है । क्रूरकोष्ठ कोष्टरोग, क्रमिरोग, व्रण, बातरक्त, मूत्राघा- वाले को विरेचन देने से कुछ असर नहीं त और मलबद्धता ये सब रोग विरेचनसा- | होता है और कोष्ठस्थ देष गुदा द्वारा बाहर ध्य हैं, तथा " वमनोपयोगी प्रकरण' में नहीं निकलते हैं तथा वहां रुककर हृदशूल जो कुष्ठ, मेह, अपची, अंन्थि, इलीपद, संधिभेद, आनाह, वमन, मूर्छा, आदि रोगों उन्माद, कास, श्वास, हल्लास, विसर्प, स्त- को पैदा करते हैं । इसलिये कृरकोष्ठवाले न्यदोष और ऊर्ध्वजत्रुगतरोग कहे गये हैं, को विरेचन न देना चाहिये । इसी तरह इन में भी विरेचन दिया जाता है। अति स्निग्ध और शोषरोगियोंको भी विरेचन
विरेचनके अयोग्य गेगी। न देवै । न तु रेच्यो नवज्वरी ॥१०॥
वमन करने की विधि । अल्पाऽन्यधोगपित्तालक्षतपायवातसारिणः अथ साधारणे काले स्निग्धस्विनं यथाविधि सशल्यास्थापितफरकोष्ठाऽतिस्निग्धशोषिणः ध्वोवम्यमुक्लिष्टकर्फमत्स्यमापतिलादितिः
अर्थ-नवीनज्वरबाले को विरेचन न दे. निशांसुप्तं सुजीन्न पूर्वान्हे कृतमंगलम् । ना चाहिये क्योंकि ऐसे रोगी को विन निरन्नमीषस्निग्धंवापेययापीतसर्पिषम् १३
वृद्धवालावलक्लीवभीरूद्रोगानुरोधतः । देने से अपक्क दोष बाहर निकल आते हैं आकण्ठ पायितान्मद्यं क्षीरमिक्षुरसंरसम् ॥
और वायु कुपित हो जाता है । यक्ष्मावाले यथाविकारविहितां मधुसैंधवसंयुताम् । को अवस्थाके अनुसार मृदु विरेचन कहा है
| कोष्ठ विभज्य भैषज्यमात्रां मंत्राभिमंत्रितास और इसी तरह अतिसार वाले को भी प्र.
ब्रह्मदक्षाविरुद्रेद्रभूचन्द्रार्काऽनिलाऽनलः ।
ऋषयःसौषधिग्रामाभूतसंघाश्च पांतु वः ।। करणनुसार विरेचन कहा है पर नवज्वरवाले रसायनमिवर्षीणाममराणामवाऽमृतम् । को थोडा विरेचन भी न देना चाहिये । सुधेवोत्तमनागानां भैषज्यामिदमस्तुते १७॥ जिनको मंदाग्नि रोग हो उनको विरेचन देने
ॐनमोभगवते भैषज्यगुरवे वैदूर्यप्रमराजाय. से वह औषध के वेग को नहीं सह सकता
तथागतायाऽहेते सम्यकसंबुद्धाय तद्यथा।
ओ.भैषज्येभैषज्येमहाभैषज्येसमुद्तेस्वाहा। है । अधोमार्गगामी रक्तपित्तवाले को बिरेचन प्राङ्मुखं पाययेत्पतिंमुहूर्तमनुपालयेत् । न दे क्योंकि अत्यन्त वहने से बहुधा ग्राण तन्मना जातहल्लासप्रसेकश्छर्दयेत्ततः१८ नाश होजाता है । गुदाके घाव में विरेचन
अंगुलिभ्यामनायस्तोनालेनमृदुनाऽथवा ।
| गलताल्वरुजन्वेगानप्रवृत्तान् प्रवर्तयन् १९ अयोग्य है क्योंकि इससे प्राणनाशिनी पीड़ा | प्रवर्तयन् प्रवृत्तांश्च जानुतुल्यासने स्थितः । होती है । अतिसार वाले को भी विरेचन | अर्थ-इस तरह पूर्वोक्त रीति से रेच्य
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( १५९ )
और अरेच्य का विचार करके साधारण ऋतु में श्रावण मास के प्रारंभ में स्नेह और स्वाध्याय में कही हुई विधि के अनुसार स्नेहन और स्वेदन कर्म करने के पीछे रोगी को पूर्वदशा की ओर मुख करके बैठा देवै नीचे लिखे हुए मंत्र से अभिमंत्रित करके औषध की मात्रा पान कराके वमन करावे ।
वा नहीं और उसी में ध्यान लगाये रक्खे। फिर वमनका वेग और मुखस्त्राव होने पर घुटने तक ऊंची चौकी पर बैठकर गले और तालु में पीडा न पहुंचे ऐसी रीति से अनायास भावमें दो उंगली वा कमल की कोमल नाल आदि गले में धीरे धीरे फेरे जिससे वमन का अनुपस्थित वेग प्रबृत होजाय और उपस्थित अच्छी तरह प्रवृत होकर वमन होने लगे ।
।
मन कराने के पहिलं दिन मछली, उड़द की दाल वा तिलादि का भोजन उस मनुष्यको कराके जिसे दूसरे दिन प्रातः काल वमन करानी है उसक कफको अपने स्थान से चलायमान करदे । वमनीय व्यक्ति को वमन की पहिली रात्रि में गहरी निद्रा और पहिले दिन का खाया हुआ अन्न पचजाने की बडी आवश्यकता है । फिर अगले दिन प्रातः काल के समय स्वस्तिवाचनादि मंगलाचरण करै । वमन के दिन आहार न करे कि - न्तु अबस्था के अनुसार पेया के साथ थोड़ा घृत पान करे । वमन बाला मनुष्य यदि वृद्ध, बालक, निर्बल क्लीव वा भीरु हो तो रोग के अनुसार प्रथम मद्य, दुग्ध, ईख का रस वा मांसरस कंठपर्यन्त अर्थात् अतिशय पान करावें । फिर मृदु और मध्य कोष्ठका विचार करके रोग के अनुसार औषध की मात्रा शहत और सेंधानमक मिमिलाकर पान करावे । औषध को अभिमंत्रित करने का मंत्र "ब्रअदक्षाश्वि" से लेकर 'स्वाहा' पर्य्यन्त है । औषध पानकराने के पीछे दो घडी तक इस बात की प्रतीक्षा करे कि वमन होती है।
|
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वमन करने वाले की परिचर्या । उभे पार्श्वे ललाटं च वमतश्चाऽस्य धारयेत् ॥ प्रपीडयेत्तथा नाभि पृष्ठं च प्रतिलोमतः ।
अर्थ- वमन करने वाले मनुष्य की दोनों पसली, और ललाट को पकडे रहे और प्रतिलोमरीति से अर्थात् नीचे से ऊपर को नाभि और पीठ को मसलता रहे ।
दोषानुसार वमनविधि |
कफे तीक्ष्णोष्ण कटुकैः पित्ते स्वादुहिमैरिति । वमेत् स्निग्धाम्ललवणैः संसृष्टे मरुता कफे । पित्तस्य दर्शनं यावच्छेदो वा लष्मणो भवेत्
अर्थ - कफ में तीक्ष्ण, उष्ण और कटु द्रव्य द्वारा वमन करावे | पित्तमें मधुर और शीतल द्रव्य द्वारा, वात कफमें स्निग्ध, अम्ल और लवण द्रव्य द्वारा वमन करावे । जब तक वमन में पित्त आता रहै वा जब तक कफ निकलता रहै तब तक वमन कराना चाहिये ।
वमन के हीन वेगमें कर्तव्य | हीनवेगः कणाधात्रीसिद्धार्थलवणोदकैः । वमेत्पुनः पुनः
अर्थ - जिस मनुष्य को वमन अच्छी
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(१६.)
अष्टांगहृदय ।
अ० १८
रीति से न होती हो उसको पीपल, आम- । सम्बक वमनका पश्चात् कर्म । ला, सरसों, सेंधानमक इन औषधों को । सम्यग्योगेन वमित क्षणमाश्वास्य पाययेत्। पीसकर गरम जल में मिलावै और इसको धूमत्रस्यान्यतमं स्नेहाचारमथाऽऽदिशेत् ॥
अथे- सम्यकू रीतिसे वमन होबेके पान कराके बार बार वमन करावे । अयोग का लक्षण ।
पीछे थोडी देर रोगी को विश्राम कराके तत्र वेगानामप्रवर्तनम । २३. स्निग्ध, मध्य और तीक्ष्ण इन तीन प्रकार प्रवृत्तिः सविबंधा वा केवलस्यौषधस्य वा। के धूमपानमें से किसी एक प्रकार का धूम अयोगस्तेन निष्ठीषकंडूकोठज्वरादयः। २४ ॥ पान करावै, पीछे स्नेहविधि में कही हुई .. अर्थ- वमन के न होनेका नाम प्रयोग ,
रातिसे गरम जलपान आदि नियमों का है । वेगका प्रवृत न होना अथवा वेग प्रवृत
पालन करावै । होकर वमन न होना अथवा पान की हुई मितव्यक्तिकेलिये पथ्य ।
औषधही वमनके साथ ज्यों की त्यों बाहर ततः सायं प्रभातेवाक्षुद्वान स्वातः सुखांबुना निकल आना वमनका अयोग कहलाताहै । | भुजानोरक्तशाल्यन्नं भजेत्पेयादिकं क्रमम् ॥ वमनका अयोग हानेसे मुखसे थूक बहुत । अर्थ- तदनन्तर दुपहर पहिले वा दुपनिकलताहै, खुजली, पित्ती ( देहपर लाल
हर पीछे भूख लगनेपर वमित व्यक्ति को चकत्ते होजाना ) और ज्वरादिक व्याधि उत्प
सुखोष्ण जलसे स्नान कराके दाऊदखानी व होजाती हैं।
चांवलोंका भात और पेयादि क्रमपूर्वक भांजन सम्यक् योगातियोगका लक्षण ।। करावे। निर्विबंधं प्रवर्तते कफपित्ताऽनिलाः क्रमात्।
पेयादि का क्रम । सम्यग्योगेअतियोगे तु फेनचंद्रकरक्तवत् ॥ |
पेयां विलेपीमहतं कृतम् च. वमितं क्षामता दाहः कण्ठशोषस्तमोभ्रमः।
यूषं रसं त्रीनुभयं तथैकम् । घोरा वाय्वामयामृत्युर्जीवशोणितनिर्गमात्
क्रमेण सेवेत नरोऽन्नकालान्अथ- वमनकारक औषध का सम्यक्
प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः॥२८॥ योग होनेसे कफ, पित्त और वायु बिना
अर्थ- प्रधान, मध्यम और हीन इनमें रुकावट धीरे धीरे निकलने लगतेहैं । अति- | से किसी एक प्रकारकी शुद्धिसे शुद्ध हुआ योग होनेसे झागदार चन्द्रका युक्त रुधिर | मनुष्य तीन भोजनकाल, दो भोजनकाल के समान वमन होने लगतीहै, शरीरमें और एक भोजनकालमें पेया, विलेपी, शुंठी कृशता और दाह उत्पन्न होताहै, गला सूख आदिसे संस्कृत यूष, असंस्कृत यूष, संस्कृत जाताहै, आंखोंके आगे अंधेरा और भ्रम हो रस, असंस्कृत रस सेवन करना चाहिये जाता है, भयानक वायुरोग उत्पन्न होजातेहैं। इसका स्पष्टविधान इसतरह है कि प्रधान और जीवशोणित के निकल जानेसे मृत्यु - शुद्धिसे शुद्ध हुए मनुष्यको प्रथम दिन भी होजाती है ।
दोनों भोजन अर्थात् दुपहरसे पहिले और
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
(१६१)
पीछे पेया पान करावे । दूसरे दिन प्रातःका | गारी पहिले तिनुके और ऊपलोंमें सिलगाई ल पेया पान कराव और संध्याके समय, जातीहै फिर वह क्रमसे बढती हुई महान विलेपी देवै । तीसरे दिन दोनों कालमें | स्थिर भौर सबको भस्म करनेवाली बलवान् विलेपी । चौथे दिन दोनों समय सौंठ और | होजातीहै इसीतरह दोपसे शुद्ध हुए मनुष्य नमक आदि मसाले बिना डाले मुद्गादियूष, को जठराग्नि पेयादि क्रमसे बलवान् होती और पांचवे दिन प्रातःकाल यही असंस्कृत | हुई महान् स्थिर और सबका पाचन करने यूष पान करै । फिर पांचवें दिन संध्याके में समर्थ होजाती है। समय और छटे दिन दोनों समय संस्कृत वमन विरेचनादि के बेग का नियम । मसाला डालाहुआ यूष, सातवें दिन एक जघन्यमध्यप्रवरे तु वेगाबार असंस्कृत मांस रस, दूसरी बार संस्कृत
श्चत्वार इष्टा वमने षडष्टौ ।
दशैव ते द्वत्रिगुणा विरेकेमांस रस पान कराके आठवें दिनसे प्रकृति
प्रस्थस्तथास्याद्विचतुर्गुणश्च ३१ भोजन अर्थात् यथारुचि भोजनों का सेवन । अर्थ-हीन वमन में चार, मध्यम वमन में करने लगे।
छः और प्रधान वमन में आठ वेग होते हैं ___ अब मध्यम शुद्धिसे शुद्ध हुए मनुष्यका मी तरह हीन विरेचन में दस, मध्यम में क्रम इस प्रकार है कि प्रथम दिन दो बार
बीस और उत्तम में तीस वेग होते हैं। एक पेया, फिर दो बार विलेपी, फिर दो बार
वार जितना वमन वा विरेचन में बाहर निकल अकृत यूष, फिर दो बार कृत यूष, फिर
पडता है उसी का नाम वेग है। हीन विरेदो बार अकृत मांसरस, फिर दो बार कृत
| चन में एक प्रस्थ, मध्यम विरेचन में दो मांसरस देकर पीछे प्रकृति भोजन करावै ।
प्रस्थ और उत्तम विरेचन में चार प्रस्थ प्रमाण हीन शुद्धिसे शुद्ध हुए मनुष्यको एक
बाहर निकलता है । बमन में इस से आधा एक बार ही पेया विलेपी, अकृत यूष कृत
निकलता है। यूष, मांसरस का सेवन कराके प्रकृति भो
वमन विरेचन का अंत । जन करावै । खरनाद भी कहतेहैं, 'विरे
पित्तावसानं वमनं विरेकाके वमने श्रेष्ठ पेयादीनां त्रिकक्रमः । त्रिशो दध कफांतं च विरकमाहुः । द्विशो मध्यमे स्यादेकशस्तुकनीयसीति । अर्थ-वमन से जब पित्त आने लगे तो
पेयादि क्रमका फल । समझना चाहिये कि वमन क्रिया सम्यक् रीति यथाऽणुरग्निस्तृणगोमयाद्यैः .
से हो गई अव विशेष आवश्यकता नहीं है। संधुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण । महान स्थिरः सर्वपचस्तथैव
| विरेचन से आधा परिमाण वमन का होता शुद्धस्य पेयादिभिरंतराग्निः ॥३०॥ है । विरेचन कफान्त होता है अर्थात् जब मर्थ- जैसे आग की छोटीसी चिन- दस्त के साथ कफ आने लगे तव समझलेना
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अष्टांगहृदय ।
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--
पिबेत्
चाहिये कि विरेचन की क्रिया सम्यक् रीति | निग्धोग्णलवणैर्वायौ से हो गई।
अर्थ-पित्त की अधिकता में हरीतक्यावमनविरेचन का माप । दि कषाय और द्राक्षादि मधुर द्रव्यों से वि. द्वित्रान्सविट्कानपनीयवेगान्। रेचन दियाजाता है । कफ की आधिकता
मेयं विरके वमने तुपतिम् ॥३२॥ __ अर्थ-विरेचन के मल सहित दो तीन
में कटुक द्रव्यों से और वात की अधिकता भाग छोडकर पीछे का पदार्थ मापा जाता
में एरंड, सैंधव आदि स्निग्ध, उष्ण और है अर्थात् दस्तों की संख्या गिनी जाती है।
लवण द्रव्यों द्वारा विरेचन दियाजाता है ।
विरेचन न होने में कर्तव्य । इसी तरह वमन में पीहुई औषधी का भाग
अप्रवृत्तौ तु पाययेत् ॥ ३५ ॥ छोडकर शेषभाग को वमन किया हुआ | उष्णांवु स्वेदयदस्य पाणितापेन चोदरम् । पदार्थ जानना चाहिये ।
उत्थानेऽल्ये दिने तस्मिन्मुफ्त्वाऽन्येद्युः पुनः वमित को विरेचन । अथैनं वामितं भूयः स्नेहस्वेदशेपपादितम्।
___ अर्थ-औषध पान करने पर यांदे जु. श्लेष्मकाले गते झाप्या कोष्ट सस्यविरेचयेत्
लाब न हो तो गरम पानी पिलाना चाहिये अर्थ-वमन कराये हुए मनुष्यको स्नेहन
और हाथ गरम करके उसके पेट को सेऔर स्वेदनद्वारा स्निग्ध और स्विन्न करके
कना चाहिये । यदि विरेचन के दिन अच्छी कफका काल अर्थात् दिनका पूर्वभाग व्यतीत | तरह दस्त न आवे तो उस दिन भोजन होजाने पर रोगी के कोठे का निश्चय कर
करले और दूसरे दिन फिर विरेचन की के कि मृदु है, वा क्रूर है विरेचन देवै । औषध पान करे। . कोष्ठानुसार विरेचन क्रम ।
अदृढ कोष्ठ में कर्तव्य । बहुपित्तोमृदुःकोष्टः क्षीरेणाऽपिविरेच्यते। अढनेहकोष्ठस्तु पिवेदूध दशाहतः। प्रभूतमारुतःक्रूरःकच्छाच्छयामादिकपि३४ | भूयोऽप्युपस्कृततनुःस्वेदनेहैर्विरेचनमु७६ ___ अर्थ जो कोष्ठ बहुत पित्तयुक्त होता
यौगिकं सम्यगालोच्य स्परन्पूर्वमनुक्रमम् । है उसमें गरम दूध पीने से ही विरेचन
____ अर्थ-जिसका कोष्ठ दृढ स्नेहवाला न होजाता है । जिस कोष्ठ में वायु बहुत |
हो उसको फिर स्वेद और स्नेह द्वारा शरीर होती है वह क्रूर होता है । इसमें काले
को बिरेचन के योग्य करलेवे और पूर्व क. निसोध के देने पर भी कठिनता से जुलाब
थित ".मात्रा को अभिमंत्रित करना " होता है । आदि शब्द से कुंकुष्ठ और
इत्यादि, दस्त न आवे तो गरम पानी पीना अपि शब्द से आरग्वधादि का ग्रहण है ।
हाथ गरम करके पेट सेकना इत्यादि अनु. क्रूर कोष्ठके विरेचनमें ये भी दियेआते हैं ।
क्रम ध्यान में रखकर अच्छी तरह विचार वातादि दोष में विरेचन । | करके दस दिन बीते पीछे विरेचन औषध कषायमधुरैः पित्त विरेकः कटुकैः कफे। | पीना चाहिये । . ..
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत।
विरेचवका अयोगायोग लक्षण । | आंख भीतर को गढ जाती है, तथा वमन हत्कुत्यशुधिररुचिरुत्क्लेशः लेप्मपित्तयोः के अतियोग होने से जो कृशता भादि कर्विदाहः पिटिका पीनसो वातविइप्रहः। व्याधियां होजाती हैं वे भी इसमें उत्पन्न अयोगलक्षणम् . बोगो वैपरीत्ये यथोदितात् ॥३९
होती हैं। अर्थ-विरेचन के अच्छी तरह न होने । बिरेचन के पीछे का उपचार। का नाम विरेचन का अयोग है । विरेचन | सम्यग्विारक्तमनं च वमनोक्तेन योजयेत् ४२
धूमवयन विधिना ततो वमितबानिव । का अयोग होनेसे हृदय और कूखकी शुद्धि
क्रमेणाऽनानि जानो भजेत्प्रकृतिभोजनम्॥ नहीं होती है, अरुचि उत्पन्न होजाती है, । अर्थ-सम्यक् विरेचन होने पर केबल कफ और पित्त अपने स्थानको छोडकर | धूमपान को छोडकर और जो जो विधि सम्यक अन्य स्थानमें जाने को उन्मुख होते हैं । | वमन होने के पीछे कहीं गई हैं उन सब को खुजली, विदाह, पिटका, पीनस, मल और करे, फिर उसी रीति से पेयाविलेपी आदि अधोवायु की अप्रवृत्ति, आदि लक्षण होते । क्रमशः सेबन करता हुआ कुछ दिन पीछे हैं। तथा ऊपर कहे हुए लक्षणों से विपरीत प्रकृति भोजन करने लगे। लक्षण होने पर अर्थात् "हृदय और कुक्षि औषध सेवनान्तर उपवासादि । की शुद्धि आदि" बिरेचन का सम्यक योग । मंदवह्निमसंशुद्धमक्षामं दोपदुर्वलम् ।
अजीर्णलिंगंच लंघयेत्पीतभेषजम् ४४॥ समझना चाहिये। विरेचनके अतियोग का लक्षण ।
| स्नेहस्वेदौषधोत्क्लेशसंगैरितिन बाध्यते । विपित्तकफवातेषु निःसृतेबु क्रमानवेत्।
___ अर्थ-पीतभेषज (जिनने दवा पीलीहो) निःश्लेष्मात्तिमुदकं श्वेतं कृष्णं सलोहितं । पांच प्रकारके आगे लिख रेगियों को लंघन मांसधावनतुल्यं वा भेद जडाभमेव वा। कराना चाहिये, वे ये हैं ( १ ) जिसकी मुदनिःसरणं तृष्णा भ्रमो नेत्रप्रवेशनम् ॥ जठणानि मंद हो, (२) जिसका देह कृश भवत्यतिविरिकस्य तथाऽतिवमनामयाः।
न हुआ हो (३) जिसके वातादि दोष दुर्वल ' अर्थ-अत्यन्त दस्त होजाने का नाम
होगये हों, (४) जिसकी विरेचनद्वारा शुद्धि विरेचन का अतियोग है इसमें मल, पित्त,
न हुई हो (५) पीहुई औषधके पचने के कफ, वायु आदि के निकलजाने के पीछे
लक्षण दिखाई न देते हो। इसका कारण कफरहित पित्तका पानी निकलता है । कभी
यह है कि लंघन कराने से पीया हुआ स्नेह . कभी पानी का रंग सफेद, काला वा लोहित
निकाला हुआ पसीना और औषध इन वर्ण होता है, कभी कभी मांसके धोयेहुए
तीनों का उत्क्लेश ( वहिर्गमनोन्मुखता ) पानी के सदृश रंग होता है अथवा मंद के और विवद्धता कछ हानि नहीं पहुंचाते हैं। टकडों के जलयत् होता है, गुदा बाहर संशोधन के पीछे पेयादि । निकल आती है, तृषा और भ्रम होजाताहै, संशोधनाऽत्रविक्षाक्नेहयोजनलधनैः ४५
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अष्टांगहृदये।
अ०१८
यात्यानर्मदतां तस्मात्क्रम पेयादिमाचरेत् ॥ | काल देती है. विरेचन औषध पचते समय ...अर्थ-संशोधन, रक्तमाक्षण ( फस्द | दोषको वाहर निकालती है, इस लिये वमद्वारा रुधिर निकालना ) स्नेह प्रयोग और
न औषधके पचने की प्रतीक्षा न करै । लंघन द्वारा जठराग्नि मंद पड जाती है इस
वमनविरेचनकी विरुद्धताकर्तव्य । लिये पूर्वकथित पेयादि क्रमका सेवन उचित
ऊर्ध्वाऽधोरेचनं युक्तं वैपरीत्येन जायते। है। [ आगे कहागया है कि संशोधन से यदा तदा च्छर्दयतःसिंचे दुष्णेनवारिणा। आनि प्रदीप्त होती है और इस जगह संशोधन | पादौ शीतेन चोर्दागं विपरीतं विरेचने । से अग्नि का मंद होना कहा गया है, इस
अर्थ-वमन और विरेचन औषध मिथ्या कहने से परस्पर विरोध आता दस शंका | योगसे युक्त होकर विपरीत काम करतो नी का यह समाधान है कि संशोधन से जो चे लिखी हुई विधिका अबलंबन करना चा अग्नि मंद पडती है वह कालभेद से पडती । हिये अर्थात् बमनका रस औषध द्वारा यदि है सदा मंद नहीं पडती है इसलिये जब विरेचन होतो रोगी के दोनों पांवों पर गरम कालभेद से सशोधन द्वारा अग्नि मंद पडे
| जल और मस्तक पर ठंडा जल डाले. और उस समय पेयादि क्रम का उपयोग कहा
यदि विरेचक औषधद्वारा वमन होतो दोनों गया हैं।
पांवोंपर शीतलजल और सिरपर गरमजल ... पेयादिक्रमके अयोग्यरोगी।।
का सेचन ( तरेडा ) करे ( यह श्लोक प्रक्षि ताल्पपित्तश्लेष्माणं मद्यपं वातपौत्तकम्॥
प्त प्रतीत होता है क्योंकि सर्वांगसुन्दरा टीपेयां न पाययेत्तेषांतर्पणादिक्रमोहितः। | का में अरुणदत्त ने इस का उल्लेख
का म अरुणदत्त न इस अर्थ-जिस रोगीका पित और कफ थो नहीं किया है । डा बाहर निकला हो, जो मद्य पीता है । | स्वतः विरेचनका उपचार । जो बात और पित्तसे ग्रस्त है । ऐसे रोगि दुर्बलो बहुदोषश्च दोषपाकेन यः स्वयम् ४८ योंको पेयादिपान कराना अहित है, इन के
विरिच्यते भेदनीयैर्भोज्यैस्तमुपपादयेत् । लिये प्रथम भोजनकाल में लाजासक्तु, द्विती
___अर्थ-दुर्बल आर बहुत दोषोंसे युक्त गे
| गीको यदि दोष के परिपाक के निमित्त अय भोजनकाल में मांसरस जल के साथ देवै
एने आप दस्त होने लगे तो उसको विरेचन इस तरह तर्पणादि क्रम का सेवन हि
न देकर भेदनीय भक्ष्यपदार्थीका सेवनकरावे तकारक है।
| दुर्बल की औषध । औषधके पचनेकी अनावश्यकता। लः शोधितः पूर्वमल्पदोषः कृशो नरः४९ अपक्वं वमनं दोषान् पच्यमानं विरेचनम् ॥ अपरिज्ञातकोष्टश्च पिवेन्मृद्वल्पमौषधम् । निहरेद्वमनस्याऽतः पाकंन प्रतिपालयेत्। वरं तदसकृत्पीतमन्यथासंशयावहम् ५० ॥ __ अर्थ-बमन औषध अपक अवस्था ही हरेदहूंश्चलान्दोषानल्पाऽनल्पान् पुनःपुनः। में अर्थात् न पचने परभी दोषको बाहर नि अर्थ-जो रोगी दुर्बल हो, जिसके दोष
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म. १८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
की शुद्धि पहिले करली गई हो, जो अल्प । शान्निईत्यवाकिंचित्तीक्ष्णाभिःफलवर्तिमि दोषयुक्त हो. कृश हो, जिसके कोष्ठका हा- प्रवृत्तं हि मलं स्निग्धो विरेको निर्हरेत्सुसम् ।। ल मालूम न हो, ऐसे रोगी को मृवीर्य अर्थ-जो मनुष्य रूक्ष, अधिक वातयुक्त और स्वल्प परिमाण में बार बार विरेचन दे |
करकोष्ठ, कसरत करनेवाला, और दीप्तामा अच्छा है, एक बार ही में तीक्ष्ण वीर्य
ग्निवाला हो तो जो विरेचन औषध उस
को दी जाती है वह विरेचन कराये बिना का प्राणनाशक होजाता है । इस लिये बार
। ही स्वयं पच जाती है । इस लिये ऐसे बार थोडी थोडी औषध देनेसे बहुत दोषभी मनुष्या का वास्त
मनुष्यों को वस्ति अथवा तीक्ष्ण फल वर्ति थोडा थोडा करक बाहर निकल जाता है । | के प्रयोग द्वारा थोडा मलनिकाल डाले, फिर ऐसा करने से बलकी तो हानि नहीं होती। एरंड तेल और विन्दु घृता दे स्निग्ध विरेचन और विरेचनक्रिया सिद्ध होजाती है। देवै, इसका कारण यह है कि थोडा सा दुर्बल के अल्पदोषकी चिकित्सा । मल निकल जाने पर स्निग्ध विरेचन द्वारा दुर्बलस्यमृदुद्रव्यैरल्यान् संशमयेत्तु तान् ॥ |
| सहज ही में मल निकल जाता है । क्लेशयति चिरते हि हन्यनमनिहताः। विषपीडित व्यक्ति का विरेचन । ___ अर्थ-दुर्बल मनुष्य के स्वल्पदोष को विषाभिघातपिठिकाकुष्ठशोकविसर्पिणः। मृदु वीर्य औषध द्वारा शमन करै । क्योंकि कामलापांडुमेहान्निातिस्निग्धान् विरेचयेत् जो दोष शमन न हो सके तो बहुत काल
___अर्थ विष, अभिघात ( चोट ),पिटका पर्यन्त कष्ट देते हैं और न निकलें तो
कुट, शोक, विसर्प, कामला, पांडुरोग, और रोगी का प्राणनाश कर देते हैं।
प्रमेह रोगग्रस्त मनुष्य को थोड़ा स्निग्ध क
रके पीछे विरेचन देवै । मन्दाग्नि और क्रूरकोष्टका शोधन । मंदाग्निं क्रूरकोष्ठ च सक्षारलवणेघृतैः ५॥
विरेचन का प्रकार । संधुक्षिताग्निं विजितकफवातंच शोधयेत। सर्वान् स्नेहविरेकैश्च सर्वैस्तु स्नेहभावितान् अर्थ-मन्दाग्नि और क्रूरकोष्ठ वाले रो
____ अर्थ- ऊपर कहे हुए विषादि पीडित गों को क्षार, लवण और घृत द्वारा संशो
रोगियों को जो स्निग्ध हो चुके हैं स्नेहन धित करै । ऐसा करने से इसकी भी आग्नि | विरेचन देकर शुद्ध करै परन्तु जिसको स्नेह प्रदीप्त हो जाती है और कफ वात जाते पान कराके स्निग्ध किया है उनको रूक्ष, रहते हैं।
विरेचन देना चाहिये। ___ रूक्षादि का विरेचन । - स्नेहादि का बार बार प्रयोग । सक्षबवनिलकूरकोष्ठव्यायामशीलिनाम् ५३ कर्मणां बमनादीनां पुनरप्यंतरेऽतरे ॥५७॥ दीप्तानीनां च भैषज्यमविरेच्यैवीर्यति। नेहस्वेदी प्रयुजीत नेहमले बलाय च । वेभ्यो वस्ति पुरा दद्यात्ततः स्निग्धं विरेचनम् । अर्थ-वमनादि कर्म जिस रोगी को
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अष्टांयहृदये ।
अ० १९
कराये जाते हैं उनको वमनादि कर्म के बीच ) होजातीहै, और बहुत दिन पछि बुढापा बीच में स्नेहन और स्वेदन कराता रहै, | आताहै । अर्थात् स्नेहस्वेद देकर पीछे वमन कर, इतिश्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां फिर स्नेहस्वेद, पीछे विरेचन, फिर स्नेहस्वेद अष्टादशोऽध्यायः। देकर पीछे अनुवासन, फिर स्नेहस्वेद तदनन्तर निरूह पस्ति देवै । इसका कारण यह है कि वमभ के अन्त में दिया हुआ स्नेह एकोनविंशोऽध्यायः बलवान् करदेता है। शोधन औषध द्वारा मलका निकालना मलोहि देहादुत्क्लेश्य द्वियते यासही यथा
अथाऽतोयस्तिविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः। स्नेहस्वेदैस्तथोक्लेश्य लियते शोधनमलः।। अर्थ- अब हम यहांसे वस्ति विधि ना. अर्थ- जैसे वस्त्रका मैल प्रथम सावन मक अध्याय की व्याख्या करेंगे । आदि लगाकर स्निग्ध करने और गरम करने
वस्ति के भेद । से दूर होजाताहै वैसेही मल स्नेह स्वेद द्वारा "शताल्बणेषु दोषेषु वाते वा वस्तिरिष्यते । वहिर्गमनोन्मुख होकर शोधन औषधियोंके उपक्रमाणां सर्वेषांसोऽग्रास्त्रिाविधश्च सः प्रयोगसे शरीर में से निकल जाते हैं। निरूहोऽन्वासनोवस्तिरुत्तर:
स्नेहस्वेद बिना शोधनसे हानि । अर्थ-वासाधिक्य दोषों में अर्थात् वातस्नेहस्वेदावनभ्यस्य कुर्यात्संशोधनंत या पित्त, वात कफ अथवा केवल वातमें वस्ति दारुशुष्कामवाऽऽनामे शरीरं तस्य दीर्थते। क्रिया की जाती है । जितने प्रकार की
अर्थ- स्नेहन वंदन कर्मके विना शो- क्रिया हैं उन सबमें वस्ति प्रधानतम है । धन द्रव्योंका सेवन शरीर को ऐसे विदीर्ण | वस्ति तीन प्रकार की होती है (१) निरूह करदेताहै जैसे सूखा काठ नबानसे चिर (२) अन्वासन [ अनुवासम ] और (३) नाताहै वा टूटजाताहै ।
उत्तरवस्ति । वस्ति जब उत्तरमार्ग अर्थात् संशोधन का फल । लिङ्गादि में दीजाती है उसको उत्तर वस्ति वृद्धिप्रसादं बलमिद्रियाणां -
| कहते हैं । पिचकारी का नाम बस्ति है। धातुस्थिरत्वं ज्वलनल्य दीप्तिम् । चिराच्च पाकं वयसः करोति
बस्तिके योग्य रोगी। संशोधनं सम्यगुपास्यमानम् ६०॥
तेन साधयेत् । अर्थ- संशोधन क्रिया का सम्यक् रीति
गुल्माऽऽनाहखुडप्लीहशुक्राऽतीसारशूलिनः से प्रयोग किये जानेपर बुद्धि निर्मल होजाती
जीर्णज्वरप्रतिश्यायशुक्राऽनिलमलग्रहान् ।
बर्माऽश्मरीरजानाशान्दारुणांश्चाऽनिला, हैं, इन्द्रियगण बलवान् होजाते है, शरीरस्थ
मयान् ॥ ३॥ धातु दृढ़ होजातेहैं, जठराग्नि प्रज्वलित अर्थ-गुल्म, आनाह, खुडवात, प्लीहा,
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अ० १९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१६७)
अतितार, शूल, जीर्णज्वर, प्रतिश्याय, अर्थ- जो निरूहण के योग्य कहेगये वर्षविवन्ध, अधोवायु का रोध, मलग्रह, | हैं वही अनुवासन के योग्यहैं, किन्तु जो वर्धा, अश्मरी, रजोनाश तथा सब प्रकार | प्रबल जठराग्नियुक्त, रूक्ष और केवल, वातके दारुण वातरोग निरूहण बस्ति से अच्छे । पीडितहैं. वे विशेष रूपसे अनुबासनके योग्यहैं होते हैं । कषाय द्वारा वस्ति प्रयोग को | जो निरूहण के अयोग्य कहेगये हैं वेही मिरूहण और स्नह द्वारा बस्ति प्रयोग को | अनुशासन के अयोग्य हैं, उनके सिवाय अनुशासन कहते हैं।
पांडु, कामला, प्रमेह, पीनस, रोगबाले भी निरूहण वस्तिके अयोग्य रोगी ।। अनुवासन के योग्य नहीं है तथा जिसने अनास्थाप्यास्त्वतिस्निग्यःक्षतोरस्को भृशं- भोजन न किया हो, प्लीहा रोगी, जिसका
कृशः। मल फटगया हो, भारीकोष्ठवाला, कफोदर आमातिसारी वलिमार संशुद्धो दत्तनाचनः रोगी. अभिष्यन्दी, कार्य और स्थौल्य रोगों कासश्वासप्रेमहाऑहिमाऽऽध्मानालवल शूनपायुः कृताहारोबद्धच्छिद्रोपकोइरी॥५॥
से पीडित, जिभके कोष्ठ में कीडे हों, जो कुष्ठी च मधुमेही मासान् सन्त च गर्भिणी | आढयवात, अपची, श्लीपद, और गलगंड
अर्थ- अत्यन्त स्निग्ध, उरःक्षतरोगी रोगों से पीडित हो, जिसने जहर खायाहो । अत्यन्त कृश, आमातिसार रोगी, वमनवि- इतने रोगियों को अनुवासन वस्ति देना रेचनादि से शुद्ध हुआ रोगी, जिसको नस्य | उचित नहीं है । दीगई हो, तथा खांसी, श्वास, प्रमेह, अर्श, • निलह तथा अन्वासन यंत्र के लक्षण। हिक्का, आध्मान, मलक्षय, बद्धोदर, छिद्रो- तयोस्तु नेत्रं हेमादिधातुदावस्थिवेणुसम ॥
| गोगुच्छाकारमाच्छिद्रं श्लक्ष्णर्जु गुलिकामुखं दर, दकोदर, कुछ और मधुमेह रोगोंसे पीडि- |
अथ-जो यंत्र पिचकारी लगाने में का त रोगी, इसीतरह जिसकी गुदामें सूजनहो
म आता है उसे नेत्र कहते हैं, क्योंकि इजिसने भोजन करलियाहो, और सात मास
स यंत्रके द्वारा औषधी गुदामें पहुंचाई जाके गर्भवाली स्त्रीये सब आस्थापन वस्तिके
ती है । यह नेत्रनामक यंत्र सौना, चांदी, अयोग्यहै । निरूहण का दूसरा नाम आस्था
पीतल, लोहा, कांसा, कलई, सीसा, आदि पन भी है।
धातुओंका बनाया जाता है । अथवा शीशम अनुवासनके योग्यायोग्य रोगी। की लकडी से, वा हाथीदांत की हड्डी से आस्थाप्याएव चान्वास्था विशेषादतिवह्वयः वा बांससे बनाया जाता है । इसकी आरक्षा केवलवातार्ताःनाऽसुवास्यास्त एवच येऽऽनास्था वास्तथापांडुकामलामेहपीनसा'
कृति गौकी पूंछके सदृश होती है । इसमें, निरमप्लीहविभेदिगुरुकोष्ठकफोदराः।
छेद न रहने चाहिये, इस यंत्रका मुख कोअभिव्यदिशस्थूलकृमिकोष्ठाढयमारुताः॥ | मल, सीधा और गोलाकार बनवाबै । नोकपीते विषे गरेऽपच्यांश्लीपदी गलगंडवान् । । दार मुख होनेसे गुदा चुभनेकाडर रहता है ।
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अष्टांगहृदय ।
अ० १९
नेत्र की लंबाई । ____ अर्थ-नेत्रके नीचे के भाग की मुटाई "ऊनेऽन्दे पंचपूर्णेऽस्मिन्नासप्तभ्योऽगुलानि- रोगी के अंगूठे के समान और अग्रभाग की
षट् ॥ १०॥ मोटाई उसकी कनिष्ठका अंगुली के समान सप्तमे सप्त तान्यष्टौ द्वादशे षोडशे नव ।
होनी चाहिये । द्वादशेष परविंशात्वीक्ष्य वर्षातरेषुच११॥ वयोबलशरीराणिप्रमाणमभिवर्धयेत् ।। नेत्र के छिद्रका प्रमाण ।
अर्थ-एक बरस से कम अवस्था वाले | पूर्णेऽब्देऽगुलमादाय तदर्धाऽर्धप्रवर्धितम् । रोगी के लगानवाले यंत्र की लंबाई रोगीके | व्यंगुलं परमं छिद्रं मूलेऽग्ने वहते तु यत् १३ पांच अंगलों के बराबर होनी चाहिये । ए. मुद्माष कलायंचक्लिग्नं कर्कधुकंक्रमात् । क बरस से छः वर्ष के बालक तक छ:अं- ___ अर्थ-अव छिद्र द्वारा नेत्रकी स्थूलता गुल लंबी पिचकारी लगावै । सात बरस से का परिमाण लिखते हैं । एक वर्ष की पूर्ण ग्यारह बरस तक के बालक के सात अंगुल | अवस्था होने पर रोगी की अंगुली के प्रमाकी पिचकारी लगावै । वारह बरस से पन्द्रह
ण से नेत्रों के मूलदेश का छिद्र एक अंगुल तक आठ अंगल की। सोलह से बीस बरस | का होवै इस लिये ज्यों ज्यों अबस्था बढती तक ना अंगुल की। इससे ऊपर की उम्र
जाय त्यों त्यों नेत्र का छिद्र चौथाई चौथाई वाले को बारह अंगुल लंबी पिचकारी देनी अंगुल बढ़ाकर तीन अंगुल तक कर दिया चाहिये ! किन्तु अवस्था के अनुसार जो
| जाता है । अर्थात् प्रथम वर्ष से छः वर्षतक पिचकारी की लंबाई दी गई है वह एक. एक अंगुल, सात वर्षसे ग्यारह वर्षतक सवा साथ ही न वढा देनी चाहिये । जैसे ग्या
अगुल, बारहसे पंद्रह तक डेढ अंगुल, सो. रह वर्ष की अवस्था तक पिचकारीकाप्रमाण
लह वर्षमें पौने दो अंगुल, सत्रह वर्षमें दो सात अंगुल है तो वारह वरस का | अंगुल, अठारह वर्षमें सवादो अंगुल, उन्नीहोते ही आठ अंगुल की न कर देनी चा- | स वर्षमें ढाई अंगुल, बीस वर्षमें पौने तीन हिये किन्तु जैसे जैसे अवस्था बढ़ती जाय | + खरनादमें लिखाहै “ वस्तिनेत्रमृजु उसी प्रमाण से यंत्र की लंबाई भी वढानी शुक्लं सद्वृतंगुलिकामुखम् । भवेद्वोपुच्छसंचाहिये नेत्रकी लंबाई बढाने के विषय में
| स्थानसुप्रवाहं त्रिकर्णिकम् ॥ यात्रिभागप्रण
यनमर्यादाकर्णिकाभवेत् । द्वे कर्णिकेचोपरि वय, बल और शरीर पर विशेष ध्यान देना
ष्ठाद्वस्त्याधारेऽथवांतरे । स्वांगुष्ठकपरीणाहं उचित है । इस जगह अंगुल ग्रहण से रोगी मूलं नेत्रस्यशस्यते । मध्यत्वनामिकातुल्यके अंगुलों का परिमाण ग्रहण करना मतुल्यकनिष्ठकम ॥ स्पेनांगुलिप्रमाणेनचाहिये ।
दैय॑स्याद्वादशांगुलम् ॥ कर्कधुप्रवहच्छिद्रं
श्रेष्ठमन्यद्यथावयः । विंशहद्वादशषड्वर्षेद्वाद नेत्रकी मुटाई।
शाष्टषडंगुलम् । कर्कधु कसतीनाममुखम्स्वांगुष्टेन समं मूले स्थौल्ये नाऽग्ने कनिष्ठया | छिद्रवहं ॥
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अ० १९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१६९)
अगुल, इक्कीस वर्षमें तीन अंगुल, छिद्र क- है और उसपर तेल चुपडकर अच्छी तरह हा गया है । मूल देशका छिद्र इससे अधि। मला जाता है जिससे दृढ और कोमल हो क न होना चाहिये । और आगेके भागका | जाय, इसमें से छिद्र, ग्रन्थि, दुर्गन्नि और छिद्र मूंग, उरद, मटर, भीगी हुई मटर के | शिरादिक दूर कर देने चाहिये । समान और झाडी बेरके बराबर होना चाहि । वस्तिके अभाव में कर्तब्य । ये अर्थात् प्रथम वर्षस छः वर्ष तक मुद्गवाही ( जिसमें होकर मुंग निकल जाय ) सात
___अर्थ-जो उक्त पशुओं को वस्ति न से ग्यारह वर्ष तक माषवाही, बारहसे पंद्रह
| मिले तो दूसरे अवयवों को काम में लाना तक मटरवाही, सोलहस वीसतक भीगी हुई
चाहिये । अथवा गाढा वत्र उपयोग में मटरवाही, फिर इक्कीस वर्षसे ऊपर ऐसा छि
लावै । द होना चाहिये जिसमें झाडीवेरनिकल जाय ।
निरूहवास्ति की मात्रा। नेत्रमें कणिका आदिकी योजना। मूलच्छिद्रप्रमाणेन प्रांते घटितकर्णिकम् १४
निरूहमात्रा प्रथमे प्रकुंचो वत्सरात्परम् । पाऽपिहित मूले यथास्वं द्वंयगुलांतरम्।
प्रकुंचवृद्धिः प्रत्यब्दं यावत्षप्रसृतास्ततः ॥ कर्णिकाद्वितषं नेत्रे कुर्यात्तत्र च योजयेत् ॥
प्रस्तं वर्धयदूर्ध्व द्वादशाऽष्टादशस्य च । मजाविमहिषादीनां, बस्ति सुमृदितं दृढम् ।
आसप्ततेरिदं मानं दशैव प्रसूताः परम् ॥१९॥ कषायरक्तं निश्छिद्रग्रंथिगंधशिरं तनुम । अर्थ-निरूहणवस्ति की मात्रा इस प्र. ग्रंथितं साधुसूत्रेण सुखसंस्थाप्यभेषजम् । कार है कि एक वर्ष का होने पर एक पल
अर्थ-वस्तिका नेत्र गुदामें अधिक न देवै परन्तु जो छः वा नौ महीने का हो घुस जाय इसलिये उस के प्रान्तभागमें छत्र । तो उसी के अनुसार आधा वा पौन पल के आकारके सदृश एक कर्णिका लगाई
| देवै । एक वर्ष से ऊपर बारह वर्ष की अजाती है तथा पिचकारी प्रविष्ट गुदामें घाव | वस्था तक प्रतिवर्ष एक पल बढाता न होजाय इसलिये नेत्रके अग्रभाग पर डोरा | रहै अर्थात् बारह वर्षकी अबस्था में वारह लपेट दिया जाता है । वस्तिपुट लगाने के पल देवै । बारह वर्ष से सत्रह वर्ष तक निमित्त नेत्रके मूलदेशमें दो अंगुल के अंतर प्रति वर्ष दो पल वढाना चाहिये । इस तरह पर दो कर्णिका और भी लगाई जाती है। अठारह वर्ष की अवस्था में निरूह की मात्रा यह कर्णिका वकरी, भेड, और महिषादि के चौबीस पल होजायगी । फिर अठारह से मत्राशय के तंतुसे दृढ वांधी जाती है जि- लेकर सत्तर वर्ष की अवस्था तक वहीं ससे जो औषध उसके भीतर डाली जाए | चौबीस पल की मात्रा दी जाती है परन्तु वह सुगमता पूर्वक चलीजाय । वस्तिका च सत्तर वर्ष से ऊपर मात्रा केवल बीस पल में हरीतक्यादि के काथसे रंग दिया जाता की ही दी जाती है ।
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(१७)
अष्टांगहृदये।
अ० १९
.
, अनुवासनवस्ति की मात्रा। . । वस्ति का प्रयोग करना चाहिये । किन्तु यथायथं निरूहस्य पादो मात्राऽनुवासने । धन्वन्तरि के मतावलंबी आचार्यों का तो ___ अर्थ-मिस जिस अवस्था में निरूह की ।
यही कहना है कि रात्रि में तो किसी ऋतु जो जो मात्रा दी जाती है उसी उसी अव- भी शवासन वस्ति का प्रयोग न करे। स्था में अनुवासन की मात्रा निरूह की दुखी मत के अनसार संग्रह में लिखाहै कि मात्रा से चौथाई दी जाती है अर्थात् जिस
'न र त्रौ प्रणयद्वस्ति दोषोत्वलेशा हि रात्रितः। अवस्थामें निरूह की मात्रा एकपल है उसी
स्नेहो वीर्ययुतः कुर्यादाधमानं गौरवं ज्वरम्' । अवस्था में अनुवासन की मात्रा चौथाई पल
अर्थात् रात्रि में वस्ति देने से दोष अपने अर्थात् एक कर्ष है ( आठतोले का एक
स्थान से चलित होजाते हैं और स्नेह वीर्य पल और दो तोले का एक कर्ष होता हैं ) ।
के साथ मिलकर आध्मान, भारापन और अनुवासन का प्रकार । ज्वर उत्पन्न कर देता है। आस्थाप्यं स्नेहितस्विन्नं शुद्धं लब्धबलं पुनः
____ अनुवासनका प्रयोग करने से पहिले अन्वासना विज्ञाय पूर्वमेवाऽनुवासयेत् । ।
रोगी के देहमें तैलादि मर्दन करके स्नान शीते वसंते च दिवा रात्रौ केचित्ततोऽन्यदा अभ्यक्तनातमुचितात्पादनि हितं लधु ।।
करावे और जितना भोजन वह करता हो अस्निग्धरूक्षमशितं सानुपानं द्रवादि च ।२२। उससे चौथाई कम, हलका, न वहुत चिककृतचंक्रमणं मुक्तविण्मूत्रं शयने सुने। । ना न बहुत रूखा x अनुपान सहित, नत्युच्छ्रिते न चोच्छी संविष्टं वामपार्श्वतः पतला ( आदि शब्दसे द्रव, उष्ण, अन. संकोच्य दक्षिण सस्थिप्रसार्य व ततोऽपरम् भिष्यन्दी ) इन गुणों से युक्त भोजन करावे ___ अर्थ-जो मनुष्य निरूहण वस्ति देने
भोजन करने के पीछे थोडा इधर उधर के योग्य हो उसे जब वह स्नेहन और | भ्रमण करै अर्थात् टहलै । फिर मलमूत्रका स्वेदन कर्म द्वारा स्निग्ध और स्विन्न कर परित्याग कर स्वस्थ होने पर रोगी को दिया गया हो, वमन विरेचन देकर ऊपर ऐसे पलंग पर शयन कवि, जिससे उसे नीचे से शुद्ध किया गया हो और फिर सुखका अनुभव होने लगे । यह पलंग बहुत उसमें वस्तिका वेग सहन करने की अति ऊंचा न हो, और शिर के नीचे तकिया आगई हो और अनुवासन के योग्य होगया भी ऊंचा न हो । ऐसे पलंग पर वांये हो उसे निरूहण वस्ति देने से पहिले ही पसवाड लिटाकर दाहिना पांव लंवा कराके अनुवासन वस्ति देनी चाहिये। दाहिने पांव को उस पर रखदे । - किसी किसी आचार्यका मत है कि + संग्रह मे लिखा है-कि अति स्निग्ध शीत और वसंत ऋतुमें दिनमें और जो भोजन करने से दोनों मार्गासे प्रविष्ट हुआ भिन्न ऋतुओं में अर्थात् प्रीष्म, वर्षा और
स्नेहंमद,मच्छी, अग्निमांद्य औरहल्लासादि शरद ऋतुओं में रात्रि के समय अनुवासन | विटभ तथा बल और वर्ण काहानिहाता "
| रोगों को करता है। अति रूखे भोजन से
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अ० १९
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
aft प्रयोग की विधि | अथाऽस्य नेत्रं प्रणयेनिग्धे स्निग्धमुखं गुदे ॥ उच्छवास्य बस्तेर्वदने बद्धे हस्तमकंपयन् । पृष्ठवंशं प्रति ततो नाऽतिदुतविलंवितम् ॥ नातिवेगं न वा मंदं सकृदेव प्रपीडयेत् । सावशेषं च कुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति ॥ अर्थ- - ऊपर कही हुई रीति से रोगी को लिटा कर उसकी गुदा में तेल आदि चिकनाई लगादे और बस्ति के मुख में फूंक मारकर उच्छास वायुको निकाल बांधदे और उसके नेत्रपर भी चिकनाई लगावै गुदाके द्वारपर लगादे | फिर न बहुत जल्दी, न बहुत विलंवसे, न बहुत बेगसे, और न बहुत मदतासे और हाथ भी न कांपने पावै ऐसी रीति से पीठ के बांसे की ओर बस्ति को एकदम पीडन करै । और वस्ति में थोडासा स्नेह रहने दे I क्योंकि बचे हुए स्नेहमें बायु रहता है | afta पीछे की क्रिया । - दत्ते तूत्तानदेहस्य पाणिना ताडयेत्स्फिजौ । तत्पाणिभ्यां तथा शय्यां पादतश्च त्रिरुत्क्षिपेत्
अर्थ-स्नेह के अति देने पर रोगी को ऊंचा शरीर करके सुलादेवे और उसके दोनों कूल्हों पर दोनों हाथ और पिंडलियों 'से थपथपावै, और उसकी खाट को पैरों की और तीन बार ऊंची करै । स्नेहनिवृत्ति |
ततः प्रसारितांगस्य सोपधानस्य पार्णिके । आहन्यान्मुष्टिनांगं च स्नेहेनाभ्यज्य सर्दयेत् ॥ वेदनार्तमिति स्नेहो नहि शीघ्रं निवर्तते । योज्यः शीघ्रं निवृत्ते ऽन्यः स्नेहोऽतिष्ठन्नकार्यकृत्
अर्थ - तदनंतर तकिये के ऊपर सिरधर के रोगी को लंबा सुलादे और उसके पाणि
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(10)
देश में धीरे धीरे मुट्ठियों से कूटे और उसके देह पर तेल लगा कर मर्दन करै । ऐसा करने का यही कारण है कि अंगके बेबना युक्त होने पर स्नेह शीघ्र बाहर नहीं निक ल आवे तो फिर स्नेह प्रविष्ट करना चाहि
क्योंकि शरीर के भीतर स्नेह न रहै तो स्नेहन कर्म करने में समर्थ नहीं हो सकता है ।
वृत्ति के पीछेका कर्म । दीप्तानि त्वागतस्नेहं सायाह्ने भोजयेल्लघु ।
अर्थ - स्नेहन से निवृत्त होने पर क्षुधा . के चैतन्य होने पर रोगी को सायंकाल के समय यथारुचि हलका भोजन करावे ।
स्नेहनिवृत्ति का काल ! निवृत्तिकालः परमस्त्रयो यामास्ततः परम् । अहोरात्रमुपेक्षेत परतः फलवर्तिभिः । : तीक्ष्णैर्वा वस्तिभिः कुर्याद्यत्तं स्नेहनिवृत्तये ॥
अर्थ - शरीर से स्नेह के निकल जानेकी परमावधि तीन पहर है, किन्तु तीन पहर में स्नेह न निकले तो स्नेह के निकालने के लिये कोई यत्न न करके एक रात प्र तक्षा करै । इससे पीछे स्नेह के निकाल ने के लिये अर्शचिकित्सित प्रकरण में कही हुई फलवर्ति और वस्तिकल्प में कही हुई तक्ष्णवास्तयों का प्रयोग करै ।
स्नेहके न निकलने पर कर्तव्य । अतिरौक्ष्यादनागच्छन्न चेजाड्यादिदोषकृत् । उपेक्षेतैव हि ततोऽध्युषितश्च निशां पिबेत् प्रातर्नागरधान्यांभः कोष्णं केवलमेव वा ।
अर्थ - अति रूक्षता के कारण जो स्नेह शरीर के बाहर न निकले और भीतर रह
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(१७२)
अष्टांगहृदयम् ।
कर जडता आग्निमांद्य आदि दोषों को उ- अर्थ-अनुवासन वस्ति देने के तीसरे त्पन्न न करै तो उसके निकालने का वा पांचवें दिन दुपहर होने के कुछ ही . यत्न न करे और रात्रि में निराहार दूसरे पीछे शुभ पुष्य नक्षत्र में स्वस्तिवाचनादि दिन प्रातःकाल सोंठ और धनिये का कुछ मंगलकार्य करने के पीछे दोष, औषध, गरम काथ अथवा केवल थोड़ा गरम जल | सात्म्य, बल आदि की विवेचना करके तथा पिलाना चाहिये।
वैद्यकशास्त्र में कुशल अन्य विद्वानों की अनुवासन का काल । संमति ग्रहण करके यत्नपूर्वक ऐसे रोगीको अन्वासयेत्तृतीयेऽह्नि पंचमे वा पुनश्च तम्। निरूहण वस्ति देवे जिसके शरीर पर तेल यथा वा स्नेहपक्तिस्यादतोऽत्युल्बणमारुतान् व्यायामानित्यान्दीप्तानीन रूक्षांश्चप्रतिवासरम
लगाया गया हो, पसीना निकाला गयाहो, अर्थ-उसी रोगी को तीसरे वा पांच जो मलमूत्रोत्सर्ग से निवृत हो लिया हो वें दिन अथवा जितने दिन में पहिले स्नेह | और जिसको थोडी भूख भी लगरही हो । का पाक हो उतने दिन पीछे फिर अनुवा
| निरूह कल्पना । सन बस्ति देनी चाहिये । तथा जो रोगी | क्वाथयेदिशतिपलं द्रव्यस्याऽष्टौफलानि च अत्यन्त वात दोष से युक्त है, वा जिन्हें कस
___ अर्थ-निरूहण के पीछे वस्तिकल्प में रतकरनेका अभ्यासहे वा जिनकी जठराग्नि
कहेहुए द्रव्य बीस पल और आठ मेनफल प्रदीप्त है वा जो रूक्ष प्रकृति के हैं उनको
| इनको सोलह गुने पानी में औटाकर चौनित्यप्रति अनुवासन देना चाहिये । थाई शेष रहने पर पी लेना चाहिये । ..निरूह का काल।
दोषपरता से स्नेह का प्रमाण | इति स्नेहस्त्रिचतुरैः स्निग्ध स्रोतोविशुद्धथे। ततः क्वाथाच्चतुर्थाशनेहं वातेप्रकल्पयेत् । निरूहं शोधनं युंज्यादस्निग्धे स्नेहनं तनोः॥ पित्तस्वस्थेच षष्ठांशमष्टमांशं कफाधिके ।
अर्थे-पूर्वोक्त रीतिसे तीन चारबार अ- अर्थ-वात की अधिकतामें क्वाथक नुवासन वस्तिके प्रयोग से शरीर के स्निग्ध | साथ चौथाई स्नेह, पित्त की अधिकता में होजाने पर स्रोतों की विशुद्धि के निमित्त । तथा स्वस्थ अवस्था में षष्टांश और कफकी शोधन निरूहका प्रयोग करे । परन्तु जोश अधिकतामें अष्टमांश स्नेह का प्रयोग करना रीर यथावत् स्निग्ध न हुआ हो तो फिर स्ने । चाहिये । अर्थात् सब प्रकार से शुद्ध निरूहन प्रकरणमें कही हुई रीतिसे स्नेहन करे। हण होने पर २४ पल, वातकी अधिकता
निरूहण वस्ति की विधि । - पंचमेऽथ तृतीये वा दिवसे साधके शुभे ।
में छः पल, पित्त और स्वस्थावस्था में ४ पल मध्याह्ने किंचिदावृत्ते प्रयुक्त बलिमंगले ३६ | औ अभ्यक्तस्वेदितोप्सृष्टमलं नाऽतिबभक्षितम
अन्य नियमादि। अवक्ष्य पुरुषं दोषभेषजादीनि चादरात ३७ सर्वत्र चाऽष्टमं भागंकल्काद्भवति वा यथा। मस्ति प्रकल्पयेद्वैद्यस्तद्विद्यैर्बहुभिः सह । । नाऽत्यच्छसांद्रता बस्तेः
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अ० १९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
पलमात्रं गुडस्य च ॥४०॥ | न बिना खटाई का वही काथ पस्तिमें भरकर मधुपट्यादिशेषं च युक्तया सर्व तदेकतः।
गुदामें प्रयोग करे । इस विषय में अन्य विउष्णांबु कुंभीवाष्पेण तप्तं खजसमाहतम् । | __ अर्थ-वाताधिक्य, कफाधिक्य, पित्ता
द्वानों का मत नीचे लिखा जाता है । धिक्य वा स्वस्थावस्था इन सबमें ही कल्क
अन्य मत । का प्रमाण अष्टमांश अर्थात् तीन पल स्नेह
मात्रां त्रिपलिकां कुर्यात्स्स्रहमाक्षिकयोःपृथक्
कर्षार्धमाणिमंथस्य स्वस्थे कल्कपलद्वयम्॥ डाला जाता है । इसका सारांश यह है कि
सर्वद्रवाणां शेषाणांपलानिदर्श कल्पयेत् । कल्ककी कल्पना ऐसी होनी चाहिये कि माक्षिक लवणं स्नेह कल्कंक्वाथामतिकमात् जिससे वस्ति अत्यन्त निर्मल वा अत्यन्त | आवपेत निरूहाणामेष संयोजने विधिः।। गाढी न हो।
• अर्थ-वस्तिविधिज्ञाता अन्य लोग कहते ___ इसमें गुड एक पल अर्थात् चार तोला । हैं कि स्नेह और मधु ये दोनों अलग अलग ही डाले ( इससे अधिक पित्ताधिक्य में ) तीन तीन पल ले, सेंधानमक आधातोला, मधु और सेंधानमक युक्तिपूर्वक डाले अ- | स्वस्थ पुरुष के लिये कल्क दो पल, बाकी र्थात् शहत चार पल और सेंधानमक एक सब दवा दस पल लेकर नीचे लिखी रीति कर्ष मिलावे । किसी किसी जगह १ तोले से तयार करे । प्रथम एक पात्रमें शहत को जवाखार डाला जाता है इसके सिवाय मथै, फिर नमक मिलाकर मर्दन करै । फिर मांसरस, सुरा, आसव, दूध, कोजी आदि । क्रमसे स्नेह, कल्क और काथ डाल डाल क भी काममें लाये जाते हैं।
र मथै । इस अनुक्रम से सब द्रव्योंमें एकसा - तत्पश्चात् सबको इकठा करके बहुत रस हो जायगा । इस विधि से तयार किया गरम जल से भरेहुए घडे में वाष्पद्वारा गरम हुआ द्रव्य निरूहण के उपयोगी होजायगा करै और काठ की कलछी से खूब चलाता
निरूहण के पीछेका कर्म । रहे यही क्वाथ वस्ति में प्रयुक्त कियाजाताहै । | उत्ताने दत्तमात्रेतु निरूहे तन्मनाभवेत्४६॥ .
कृतोपधानः संजातवेगश्योत्कटकः सृजेत्। ___वस्ति की योजना।
___ अर्थ-निरूह देनेके पीछे उसीपर लक्ष्य प्राक्षिप्य वस्तौ प्रणयेत्पायौनात्युष्णातलम् लगाकर सिरको तकियेपर रखकर साधा लटा नाऽतिस्निग्धंना रूक्षंनाऽतितीक्ष्णं नवामृदु मलका वेग होने पर उकडू होकर मल नात्यच्छसांनोनाऽतिमात्रंनाऽपटुनाऽतिच लवणं तद्वदम्लंच पटत्यन्ये तु तद्विदः ४३॥
| का त्याग करै । अर्थ-इसके पीछे न बहुत गरम, न ठंडा,
। निरूह की अवधि । न बहुत चिकना न रूखा, न बहुत तीक्ष्ण
आगतौ परमः कालो मुहूर्तो मृत्यवे परम् ॥ न मृदु, न बहुत गाढा न पतला, न थोडा
तत्रानुलाोमिकस्रेहक्षारमूत्राऽम्लकल्पितम्
त्वरितं स्निग्धतक्षिणोष्णं रस्तिमन्यं प्रपीडयेत् न बहुत; न बहुत खारी न मीठा, न खट्टा धाकलवार्तं वास्वेदनोबासनादि च ।
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(१७४)
अष्टांगहृदये।
अ० १९
अर्थ-निरूहके पीछे लौट आनेकी परम | हैं सम्यक् निरूहण होने के पीछे रोगी को अवधि एक मुहूर्त होती है। यदि इतनी दे- कुछ गरम जल से स्नान कराके जांगल र में पीछे लौटकर न आवै तो मृत्यु होनेकी मांस रस के साथ चांवलों के भात का संभावना होती है। यदि दो घडीमें न लौटे | पथ्य देना चाहिये, पर मांस रस बहुत गा. तो वहुत शीघ्र स्नेह, क्षार, गोमुत्र,वा कांजी ढा न हो । : वातजन्यविकार की शान्ति आदि द्वारा तयार किया हुआ अत्यन्त स्नि- | के लिये ही प्रायः निरूहण का प्रयोग ग्ध, उष्णवीर्य, उष्णगुगयुक्त और अनुलोमन
किया जाता है इस लिये वात विकार में कारी दूसरी निरूहण वस्ति देवे अथवा अ. उपयोगी मांसरसयुक्त ओदनही पथ्य है । शचिकित्सित प्रकरण में कही हुई फलवर्ती पथ्य का कारण । देनी चाहिये अथवा स्वदक्रिया वा भय आ
विकारा ये निरूहस्य भवंति प्रचलैमलैः ॥
ते सुखोष्णांबुसिक्तस्य यांतिभुक्तवतःशमम् दि दिखाना इनमें से जो होसके शीघ्र करै ।
अर्थ-निरूह के प्रयोग से मल चलाय स्वयंनिरहके निकलनेपर कर्तव्य । मान होकर जो विकार उत्पन्न करते हैं स्वयमेव निवृत्ते तु द्वितीयो बस्तिरिष्यते ॥ वे विकार सुखोष्ण जल से स्नान करके तृतीयोऽपिचतुर्थोऽपि यावद्वा सुनिरूढता।
भोजन करने पर शांत हो जाते हैं । इस __ अर्थ-जो फलवर्ति आदिका प्रयोग कि
लिये स्नान और भोजन करना चाहिये । ये बिन ही यदि निरूहस्वयं पीछा आजाय |
अनुवासन देनेका काल । और निरूहके प्रयोगका फल यथावत् न हो
अथ वातादितं भूयः सद्य एवाऽनुवासयेत्॥ तो दूसरी, तीसरी वा चौथी वस्तिका प्रयोग
अर्थ-निरूहा के पीछे वात पीडित करै अर्थात् जबतक अच्छी तरह निरूहण पुरुषको शीघ्र ही उसी दिन अनुवासन देना न हो चुके तबतक वस्ति प्रयोग किये जाना
चाहिये । चाहिये। किन्तु यदि फलवादि के प्रयोग
अनुवासित के लक्षण । के यत्न विशेष से यदि निरूहण का प्रत्या
| सम्यग्धीनाऽतियोगाश्च तस्य स्युः स्नेहगमन हो तो अन्य वस्ति देने का नियम
पीतवत्। नहीं है।
अर्थ-स्नेहपान की तरह अनुवासन के निरूह के लक्षण और पथ्यादि । | भी सम्यक् योग, हीन योग और अतियोग विरिक्तवच्च योगादीन्विद्यात्
होते हैं । __योगे तु भोजयेत् ॥५०॥
अनुवासनका सम्यक् योग । कोष्णेन वारिणास्रातं तनु धन्वरसौदनम् । किंचित्कालं स्थितो यश्च सपुरीषोनिवर्तते __ अर्थ-सम्यक् निरूढ के वही लक्षण हैं | साऽनुलोमाऽनिलः स्नेहस्तत्सिद्धमनुवासनं जो सम्यक् विरेचन दिये हुए रोगी के होते अर्थ-अनुवासन स्नेह कोष्ट में थोडी
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१७५ )
देर रहकर मल के साथ बाहर निकल आ- पित्ते स्वादुहिमौ साज्यक्षीरेक्षुरसमाक्षिको। ता है और यायुका अनुलोमन होने लगता अर्थ-न्यग्रोधादिगण के क्वाथ से संयुक्त हैं। यही अनुवासन के सम्यक योग का और पत्रकादि गण के कल्क तथा घृत, लक्षण है।
दूध, इक्षुरस, मधु, और मिश्री से युक्त अनुबासनकी संख्या । मधुर और शीतवीये दो वस्ति पित्त रोग में एकंत्रीनपा क्लासेत वस्तीन प्रकल्पयत देना हितकारी होता है । पंच वा सप्त वापित्ते नवैकादश वाऽनिले। | कफरोग में बस्ति । पुनस्ततोऽप्ययुग्मांस्तु पुनरास्थापनं ततः ॥ आरग्वधादिनिक्वाथवत्सकादियुतात्रयः॥ . अर्थ-कफविकारमें एक वा तीन अनुवा लक्षाः सक्षौद्रगोमुत्रास्तीक्ष्णोष्णकटुकाकफे। सन वस्ति दीजाती हैं । इसी तरह पित्तवि- | अर्थ-कफ विषयक रोगोंमें रूक्ष, तीक्ष्ण, कारमें पांच वा सात वातावकार में नौ वा उष्ण और कटु तीन बस्ति हितकारी होती ग्यारह स्नेहवस्ति अर्थात् अनुवासन का प्र- हैं इसमें आरम्वधादि गण में कही हुई औषंयोग किया जाता है । अनुवासन के पीछे । धों का क्वाथ तथा वत्सकादि गण में कही फिर आस्थापन दिया जाता है । हुई औषधों का काथ मिलाकर उसमें शहत
अनुवासन वस्तिवालेका भोजन। और गोमूत्र डालकर बस्ति देवै । कफपित्ताऽनिलेवनं यूषक्षीररसैःक्रमात् । सन्निपात में बस्ति । ... अर्थ-जिसको अनुवासन वस्ति दीगई हो | त्रयश्च सन्निपातेऽपिदोषाघ्नन्तियताक्रमात उसे कफकी अधिकतामें यूषके साथ, पित्त अर्थ-सन्निपातमें भी तीन ही बस्ति की अधिकतामें दूधके साथ, और बातकी दीजाती हैं क्योंकि वातादि तीन दोषों में अधिकतामें मांसके साथ अन्न देना चाहिये। से एक एक दोष एक एक बस्तिद्वारा शान्त
वातरोग में वस्ति । - होजाता है। वातघ्नौषधनिः क्याथस्त्रिवृताधवैर्युतः ॥ चौथी वस्तिका निषेध । बस्तितरेकोऽनिले स्निग्धः स्वादम्लोष्णर- | त्रिभ्यःपरंबस्तिमतोनेच्छंत्यन्यचिकित्सकाः
साधितः नहि दोषश्चतुर्थोऽस्ति पुनर्दीयेतयं प्रति ६० अर्थ-वातरोग में जो निरूहण व वस्ति अर्थ-वैद्य लोग तीन बस्ति से अधिक का प्रयोग करना हो तो वातनाशक दश
दने की इच्छा ही नहीं करते हैं क्योंकि मूलादि के क्वाथ में निसोथ और सेंधानमक तीनों दोष तो तीन वस्तिओं से शान्त हो डालकर कुछ स्निग्ध करके मधुराम्ललवण
जाते हैं फिर चौथा दोषतो है ही नहीं जिस रस युक्त करके एक वस्ति. देनी चाहिये ।
के लिये चौथी बस्ति दीजावै । पित्तरोग में वस्ति ।
अन्यकारण।
| उत्क्लेशन शुद्धिकरं दोषाणां शमन क्रमात् । न्यग्रोधादिगणक्वाथौ पत्रकादिसितायुतौ । विधवं कल्पयेदस्तिमित्यः येऽपि प्रचदत ॥ •
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( १७१)
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अष्टांगहृदये ।
अ० १९
अर्थ-कितने ही वैद्यों का यह मत है | योगोऽष्टौ बस्तयोऽत्रतु ॥ ६४ ॥
त्रयो निरूहाः स्नेहाश्च स्नेहावाद्यंतयोरुभौ। कि बस्तिओं के तीन काम हैं एक उत्क्लेशन |
अर्थ-पन्द्रह वस्तिओं के प्रयोग का नाअर्थात् दोषों को अपने स्थान से चलायमान
म काल है प्रथम एक और अंत में तीन कर देना, दूसराः दोषों की शुद्धिः करना,
स्नेह वस्ति और पांच निरूहबस्ति द्वारा तीसरा उनका, शमन करना । इन तीनों
अंतरित छः स्नेह बस्ति । इस तरह पन्द्रह कामों को एक एक वस्ति कर देती है,
वस्ति के प्रयोग का नाम काल है । इसलिये तीनसे अधिक बस्तिओं के देने
___ तीन निरूहण वस्ति और तीन अनुवाका कुछ प्रयोजन नहीं है।
सन वस्ति तथा प्रथम और अंत में एकएक उभय पक्ष में प्रमाणत्व ।
स्नेहवस्ति । इस तरह इन आठ वस्तिओंका दोषौषधादिबलतः सर्वमेतत्प्रमाणयेत् ।।
नाम योग है । __ अर्थ-इन वस्तिओं में दोष, औषध
एकप्रकारकीवस्तिओंकसेवनकाप्रयोग। और साम्यादि से ये सब बातें प्रमाण के
मेहबस्ति निरूहं वानैकमेवाऽतिशीलयेत्॥ योग्यहैं, अर्थात् दोनों पक्षों का दोषों पर
उत्क्लेशाग्निवधौनेहानिरूहान्मरुतो भयम्
____ अर्थ-केवल स्नेह वस्ति वा केवल नि. ग्रन्थकारका मत ।
रूह वास्त इनमें से किसी एक प्रकार को सम्यनिरूढलिंगंतु नाऽसंभाव्य निवर्तयेत्। वस्ति का अतिशय सेबन न करना चाहिये।
अर्थ-जब तक अच्छी तरह निरूहण | क्योंकि स्नेहवास्तिओं के अतिशय सेवन से देने के लक्षण दिखाई न दें ता तक वस्ति उत्क्लेश होता है अर्थात् वातादि दोष अपने देना उचित है, तीन वस्ति देकर ही बन्द अपने स्थान से चलायमान होकर बाहर न कर देना चाहिये । यह ग्रन्यकार का निकलने को प्रवृत्त होते हैं, तथा जठराग्नि मत है।
भी मन्द पडजाती है और निरूहण के .. कर्मवस्तिओं की संख्या। | अत्यन्त सेवन से वायुका प्रकोप होता है । प्राक्नेहएकापंचांतेद्वादशाऽऽस्थापनानि च |
उपसहार। सान्वासनानि कमैवं बस्तयस्त्रिशदीरिताः॥ तस्मानिरूढः स्नेह्यः स्यान्निरूपश्चाऽनुवा
अर्थ-कर्म बस्ति तीस हैं प्रथम एक स्नेह वस्ति, अंत में अर्थात् पंचकर्मके अवसानेमें | स्नेहशोधनयुत्तथैवं बस्तिकर्म त्रिदोषजित् । पांच वस्ति,बारह निरूहणवस्ति बारह अनुवा
___ अर्थ-इसलिये प्रथम निरूहण वस्ति सन बस्तिइस तरह कर्मबस्ती तीस होती हैं ।
देकर स्नेहन वस्ति देवै और अनुवासन कालवस्ति तथा योगबस्ति ।
देकर निरूहण देवै । इसतरह स्नेहन और कालः पंचदशैकोऽत्रप्राक् स्नेहांते त्रयस्तथा
शोधनयुक्तियों के द्वारा वस्ति कर्म होने पर षट्पंचवस्त्यंतरिता
| वातादिक तीनों दोष शांत होजाते हैं।
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अ० १९
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सूत्रस्थान भाषटीकासमेत ।
मात्रावस्ति के लक्षणादि । स्वया स्नेहपानस्य मात्रया योजितः समः ॥ मात्रास्तिः स्मृतः स्नेहः
शीलनीयः सदाच सः । बालवृद्धाध्वभारस्त्रीव्यायामासक्तचिंतकैः ॥ वातभग्नबलाऽल्पाग्निनृपेश्वरसुखात्मभिःः । दोषघ्नो निष्परीहारो वल्यः सृष्टमलः सुखः ॥ अर्थ - अनुवासन वस्तिमें जो स्नेहमात्रा की योजना करने में आती है उसमें जो दो पहर में पच सकती है उसे वैद्य मात्रावस्ति कहते हैं । यह मात्रा वस्ति बालक, वृद्ध, मार्ग चलने से थके हुए, बोझ ढोने से क्लांत, स्त्रीसक्त, व्यायाम करने वाले, चिंताशील, वायुके वेग से जिसका बल नारा होगया हो, मन्दाग्नियुत, राजा, सुखभोगी इन मनुष्यों को सदा सेवन के योग्य है । इस मात्रावस्ति से त्रिदोष का नाश होता है परिहार बिना बल बढता है, पुरीषादि मल अच्छी तरह निकल कर सुख उत्पन्न करते हैं ।
उत्तरवस्तिका विधान | बस्ती रोगेषु नारीणां योनिगर्भाशयेषु च । द्वित्रास्थापन शुद्धेभ्यो विध्याद्वस्तिमुत्तरम्
अर्थ - स्त्रियों के वस्ति स्थान के रोगों में, योनिरोगों में अथवा गर्भाशय संबंधी रोगों में दो तीन आस्थापन बस्तिओं के प्रयोग द्वारा शुद्ध करके उत्तर वस्तिका प्रयोग करना चाहिये |
उत्तरवस्ति के नेत्र का परिमाण । आतुरंगुलमानेन तन्ने द्वादशांगुलम् | वृत्तं गोपुच्छवन्मूलमध्ययोः कृतकर्णिकम् ॥ सिद्धार्थकप्रवेशाल हेमादिसंभवम् ।
२३
( १७७ )
दाश्वमार सुमनः पुष्पवृतोपमं दृढम् ७२ ॥ अर्थ-उत्तर वस्ति का नेत्र रोगी के बारह अंगुल के तुल्य होता है, यह सुवर्णादि धातुओं से बनाया जाता है इसका आकार गोल गौ की पूंछ के समान है इसकी जड़ में और मध्यभाग में कर्णिका लगी होती है। इसके अग्रभाग में ऐसा छिद्र होता है जिस में सरसों प्रवेश कर सके, चिकना होता है तथा कुन्द, कनेर और चमेली के पुष्प और वृक्ष के समान होता है, तथा दृढ भी हो - ना चाहिये |
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उत्तर वस्तिकी मात्रा | तस्य वस्तिर्मृदुलघुर्मात्रा शुक्तिर्विकल्प्य वा ।
अर्थ - इस वस्ति की योजना मृदु और लघु करना उचित है, उत्तर वस्ति की स्नेह मात्रा चार तोळे होती हैं अथवा रोगी के वय, बल और शरीरादि की विवेचना कर के स्नेह मात्रा की कल्पना करना उचित है।
उत्तरवस्तिके प्रयोग की विधि
अथ स्नाताशितस्यास्य स्नेहवस्तिविधानतः ऋजोः सुखोपविष्टस्य पीठे जानुसमे मृदी । हृष्टं मेवे स्थितच जौ शनैः स्रोतोविशुद्धये ॥ सूक्ष्मांशला कां प्रणयेत्तया शुद्धेऽनु सेवनीम् । आदतं नेत्रं च निष्कंप गुदवत्ततः ७५ ॥ पीडितेंतर्गत स्नेहे स्नेहवस्तिक्रमो हितः ।
अर्थ - ऊपर कही हुई स्नेह वास्त की रीति के अनुसार रोगी को स्नान और भोजन से निवृत होचुकने पर जानुतुल्य ऊंचे कोमल आसन पर सीधा सुखपूर्वक बैठा, फिर स्रोतों की विशुद्धिके लिये प्रथम लिंग को सीधा करके इस तरह रक्खे
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(१७८)
अष्टांगहृदये।
म०१९
कि हिलने न पावै फिर उसमें पतली सलाई | पड़ने पर ऋतुकाल को छोड़कर अन्य समय प्रवेश करदे । इससे पीछे लिंगकी सीमन | भी उत्तर वस्तिका प्रयोग किया जाया है। पर ध्यान देता हुआ गुदाके तुल्य लिंगके / ( रजोदर्शन के दिन से बारह दिन पर्य्यन्त अन्त तक अर्थात् प्रायःछः अंगुल तक ऐ. ऋतुकाल होता है)। सी रीति से नेत्र का प्रयोग करै कि हिलने नेत्रका प्रमाण । न पावै । नेत्र के स्थापन के पीछे वास्तपुट नेत्रं दशांगुलं मुद्रप्रवेशं चतुरंगुलम् । को दावकर स्नेह को भीतर प्रवेश करदें
अपत्यमार्गेयोज्यं स्याद् द्वंधगुलं मूत्रवर्त्मनि॥ फिर जो जो बातें स्नेहवस्ति में कही गई
मूत्रकुच्छ्रविकारेषु बालानां त्वेकमंगुलम् ।
अर्थ--स्त्रियों के लिये जो उत्तर वस्ति दी हैं उन सबका यथावत् पालन करै अर्थात्
जाती है उसके नेत्रका प्रमाण रोगीके दस हाथ और पाणि द्वारा कूल्हों को धीरे धीरे
अंगुलके तुल्य होता है । नेत्रके अग्रभाग का थपथपावै ।
छिद्र मूंगके समान होता है । स्त्रीके अपत्य उत्तरवस्ति की संख्या ।। बस्तीननेन विधिना दद्यात्वीश्चतुरोऽपिवा
मार्ग में अर्थात् जिस मार्गसे स्त्री गर्भ ग्रहण अनुवासनवच्छेषं सर्वमेवाऽस्यचितयेत् ।
करती है वा बालक जनती है उस मार्ग में . अर्थ-इसी नियम से तीन बार वा चार | नेत्रका प्रवेश चार अंगुल करै । मूत्रकृच्छ्रादि बार उत्तर वस्ति का प्रयोग करै । उत्तर | रोगों में मूत्रमार्ग में दो अंगुल नेत्रका प्रवेश वस्ति के विधि, नियम, सम्यक् प्रयोग और | करै । परन्तु छोटी अबस्थाबाली लडकियों उपद्रव आदि सब ही अनुवासन के समान के एकही अंगुल प्रवेश करै । होते हैं ।
उत्तरवस्ति की मात्रा । त्रिओं को उत्तरवस्ति । प्रकुंचो मध्यमामात्रा बालानां शुक्तिरेवतु ॥ स्त्रीणामार्तवकाले तु योनिZहात्यपावृतेः ॥ ___ अर्थ-स्त्रियों के लिये उत्तर वस्ति में विधीत तदा तस्मादमृतावपि चात्यये। स्नेहकी मध्यममात्रा आठ तोला होतीहै (उ. योनिविभ्रंशशूलेषु योनिव्यापदसृग्दरे ७८॥
त्तम वा कनिष्ठ मात्रा का प्रयोग नहीं होता अर्थ-अब हम स्त्रियों की उत्तर वास्त । का वर्णन करते हैं । ऋतुकाल में योनिका
है ) किन्तु छोटी लडकियों के लिये चार
तोलेकी मध्यम मात्रा होती है। मुख खुल जाता है इस लिये उस समय में योनि उत्तर वस्ति के स्नेह को सहज ही ब्रिोको उत्तरवस्तिकी बिधि । में ग्रहण करलेती है, इस लिये उसी काल | उत्तानायाः शयानाथाः सम्यक् संकोच्य
सक्थिनी। में उत्तर वस्तिका प्रयोग करना चाहिये ।
ऊर्ध्वजावास्त्रिचतुरानहोरात्रेण योजयेत् ॥ किन्तु योनिदंश, योनिशूल, योनिव्यापत वस्तीत्रिरात्रमेवंच स्नेहमात्रांविबर्द्धयेत । और प्रदरादि भयंकर रोगों में आवश्यकता अर्थ-जिस स्त्रीको उत्तरवस्ति देनी हे
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प्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
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उसे साधी चित्त शयन कराकर पांवोंको सु मर्मो सर्वावयवांगजाश्च कडवादे और घुटने ऊंचे करादे । आधा क
ये सति तेषां ननु कश्चिदन्यो
वायोः परं जन्मनि हेतुरास्ति ॥ ८५॥ र्ष वा कर्ष आदि क्रमसे स्नेहमात्रा को बढा
अर्थ--शाखा (चारों हाथ पांव ),कोष्ठ, ताहुआ एक दिन रातमें तीनचारबार उत्तरव
मर्मस्थान, ऊर्ध्वअंग और संपूर्ण देहके अवस्तिका प्रयोग करै, इसतरह तीनदिन करता
यवों में होनेवाले रोगों में वायु ही उन की रहै । अनुवासन तो एक रातदिनमें एकबार
उत्पति का प्रधान कारण है वायुके अतिरिक्त ही दी जाती है , यही अन्तर है।
और कोई कारण नहीं हैं । ऊर्ध्वअंगमें होने . फिरवस्ति प्रयोग।
वाले मुखरोगादि । सब शरीर में होने वाले म्यहमेव च विश्रम्य प्रणिध्यात् पुनरुयहम् ज्वरादि और अवयबों में होने वाले श्वित्रादि ___ अर्थ-तीनदिन विश्राम करके पुनवार । पूर्वोक्त रीतिसे तीनदिन तक उत्तर वस्तिका
रोग होते हैं | प्रयोग करें।
वस्तिको वायुका शमनत्व ।
विश्लेष्मापत्तादिमलाचयानांवस्ति देनेका नियम ।
विक्षेपसंहारकरःस यस्मात् । पक्षाद्विरेको वमिते ततःपक्षानिरूणम्।।
तस्याऽतिवृद्धस्य शमाय नान्यसद्योनिरूढश्चाऽन्वास्यासप्तरात्राद्विरेचितः द्वस्तेविना भेषजमस्ति किंचित् ॥८६॥ अर्थ- उत्तम वस्तिके प्रयोगसे वमन द्वा
अर्थ-पुरीष, कफ, पित्त, मूत्र खेदं रा अच्छीतरह शुद्ध होनेके पंद्रह दिन पीछे
आदि मलसमूहों का विक्षेपकर्ता, अर्थात् विरेचन, इसीतरह विरेचनसे पंद्रहदिन पीछे ।
फैलानेवाला और संहारकर्ता अर्थात् इकट्ठा निरूहण, निरूहण के दिन ही अनुवासन
करनेवाला वायु है, यह वायु जब अत्यन्त और विरेचनके एक सप्ताह पीछे अनुवासन | वढजाता है तब उसके शमन करने के लिये देना चाहिये।
वस्ति के सिवाय और कोई उपयुक्त औषध वस्तिका प्रयोजन ।
नहीं है। यथाकुसुंभादियुतात्तोयानागं हरेत्पटः।
वस्तिका महत्व । तथा द्रवीकृताहेहाद्वस्तिनिहरते मलान् ॥
तस्माविकित्सार्ध इति प्रदिष्टःअर्थ--जैसे वस्त्रको कसूमके रंगसे युक्त
कृत्स्ना चिकित्साऽपि च बस्तिरेकै। जलमें डबोनेसे वह केवल ललाई को ग्रहण
तथा निजागंतुविकारकारीकर लेता है । इसी तरह वस्ति भी धातु रक्तौषधत्वेन शिराव्यधोऽपि ॥ ८७ ॥
और मल द्वारा द्रवीकृत देहसे मल ही को अर्थ-दोषों में प्रधान वायुको वस्ति निकालती है।
शमन करती है, इसलिये कितने ही आचावायुका प्राधान्य। > वस्ति को सम्पूर्ण चिकित्साओं में आधा शाखागताः कोष्ठगताश्च रोगा- बतलाते हैं अर्थात् एक ओर संपूर्ण चिकि
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(१८० )
अष्टांगहृदये ।
कोई आचार्य इसको संपूर्ण रोगों की चिकित्सा ही कहते हैं । इसी तरह दोषज और आगन्तुज संपूर्ण व्याधिओं के उत्पन्न करनेवाले रक्तकी औषधस्वरूप शिराव्यध ( फस्त खोलना ) को भी चिकित्सा का अर्द्धभाग वा संपूर्ण चिकित्सा कहते हैं । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाठीकायां एकोनविंशोऽध्यायः ।
सा और एक ओर केवल वस्ति । कोई | शोफगंडकृामग्रंथि कुष्ठाऽपस्मारपीनसे । अर्थ - विरेचननस्य मस्तक के दर्द, जडता, श्लेष्मा, कंठरोग, सूजन, गंडरोग, कृमिरोग, ग्रन्थि, कुछ, अपस्मार और पीनस इन रोगों में हितकारी है । अपस्मार यद्यपि ऊर्ध्वजत्रुगत रोगों में नहीं है परन्तु विरेचन नस्यसे जाता रहता है इसलिये उसकी गणना की गई है । और भी ऐसे कितने ही रोग हैं जो ऊर्ध्वजत्रुगत न होने पर भी विरेचन नस्य दूर होते हैं, जैसे कफ प्रकोप, मुखकी विरसता, गंधक ज्ञान न होना आदि ।
विंशोऽध्यायः ।
अथाऽतोनस्यविधिमध्यायं व्याख्यास्यामःअर्थ - अब हम यहां से नस्यबिधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । नस्यसाध्य विकार 1
" ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु विशेषान्नस्यमिष्यते । नासा हि शिरसो द्वारं तेन तद्वयाप्य हंति तान्
अर्थ - जत्रुके ऊपरवाले भागों में जो जो रोग होते हैं उनमें नस्य विशेष हितकारी है । इसका कारण यह है कि नासिका मस्तक का द्वार है, नस्य इस नासिकारूपी द्वार से संपूर्ण मस्तक में व्याप्त होकर ऊर्ध्वजत्रुगत संपूर्ण रोगों को दूर कर देती है । नस्य के भेद |
विरेचनं बृंहणं च शमनं च त्रिधाऽपि तत् । अर्थ-नस्यके तीन भेद हैं, यथा-विरे चन, वृंहण और शमन |
विरेचन नस्य । विरेचनं शिशूलजास्वंदगलामये ॥२॥
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अ०
वृंहणनस्य ।
बृंहणं बातजे शूले सूर्यावर्ते स्वरक्षये ॥ ३ ॥ नासाऽस्यशोषेवाक्संगेकृच्छ्रबोधेऽवबाहुके
अर्थ- - वातज शूल, सूर्यावर्त ( आधासीसी का रोग ) स्वरभेद, नासा शोष, मुखशेष, वाणी की रुकावट, जिसमें आंख कठिनता से खुलती हो ऐसा रोग, और अवबाहुक ( वातजन्यरोग विशेष ) इन रोगों में वृंहण नस्य हितकारक है ।
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शमननस्य । शमनं नीलिकाव्यंगकेशदोषाक्षिराजिषु ४ ॥
अर्थ - नीलिका, व्यंग, केशरोग और अक्षिराज ( एक प्रकार का नेत्ररोग ) इन रोगों में शमननस्य हितकारक है । नयी औषधें । यथास्वं योगिकैः स्रेहैर्यथास्वं च प्रसाधितैः । कल्कक्वाथादिभिश्चाद्यं मधुपवासवैरपि वृंहणं धन्वमांसोत्थरसासुक्खपुररैपि । शमनं योजयेत्पूर्वैः क्षीरेण च जलेन च ९ ॥ अर्थ - यथा योग्य सरसों आदि के तेल,
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अ० १९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
(१८१).
सोंठ काली मिरच आदि द्रव्यों द्वारा सिद्ध | चूर्ण जो नासिका द्वारा सूंघाजाता है वि. किये हुए तथा जिसमें कफनाशक कल्क | रेचननस्य कहलाता है, इसका दूसरा नाम
और क्वाथादिक पडे हों तथा मधु प्रध्मान नस्य भी है। सेंधानमक और आसव द्वारा विरेचन नस्य
. इस चूर्ण को नाकमें चढाने के लिये होता है।
| एक छः अंगुल की लंबी नली बनाई जाती .. जांगल पशुपक्षियों के मांसरस और
| है जिसके दोनों ओर छिद होता है, इसमें रक्तद्वारा तथा खपुर नामक निर्यास विशेष
उक्त चूर्ण भरकर नासिका के छिद्र में द्वारा और पहिले कहे हुए तीक्ष्णतारहित
लगा दिया जाता है, दूसरी ओर से बलस्नेहद्वारा बृंहण नस्य तयार किया जाताहै । पूर्वक फूंक मारी जाती है जिससे चूर्ण इसी तरह पूर्वोक्त अतक्षिण घृतादि स्नेह
नासिका में होकर मस्तक में चढ जाता है मांसरस, दूध वा जल द्वारा शमन नामक
यह चर्ण शिरःस्थ दोषों को अतिशय खींच नस्य होता है।
लाता है। इस विषय में सुश्रुत में बहुत स्पष्ट लिखा है विशेष वृत्तांत जानना हो तो
मर्शस्नेह का परिमाण । वहां देखो। .
| प्रदेशिन्यंगुलीपर्वद्वयान्मन्नसमुद्धृतान् ॥९॥
| यावत्पतत्यसौबिंदुर्दशाष्टो षट्रक्रमेण ते। नस्य के अन्य भेद ।
मर्शस्योत्कृष्टमध्योनामात्रास्ताएबचक्रमात् मर्शश्वप्रतिमर्शश्च द्विधास्नेहोऽत्र मात्रया। बिंदुद्वयोनाः कलकादेःयोजयेन्न तुनावनम् ।
अर्थ-नस्यका स्नेह मात्राभेद से दो अर्थ-तर्जनी उंगली के दी पोरुए धी प्रकार का होता है एक मर्श, दूसरा प्रति | में डुबोकर झट निकालले ऐसा करने से जो मश, इनम कुछ वस्तुका भेद नहीं है। धी एक बार में टपकता है उसे विन्द कह• अवपीड नस्य । ते हैं । ऐसे दस बिन्दु मर्श स्नेह की उत्तम कल्काद्यैरवपडिस्तु ताणैर्मूर्धविरेचनः ॥
मात्रा है । आठ विन्दु मर्श स्नेह की मध्य अर्थ-छींक लानेवाली औषध कल्कादि
मात्राहै और छः विन्दु कनिष्ट मात्रा है । से बनाई जाती है परन्तु उसमें स्नेह नहीं
मर्श की मात्राकी अपेक्षा दो दो विन्दु कम मिलाया जाता है, इसे अवपीड वा शिरो
करने से कल्कादि की उत्तम मध्यम और विरेचन कहते हैं।
कनिष्ठ मात्रा जाननी चाहिये । अर्थात् प्रध्मान नस्य ।
कल्कादि की उत्तम मात्रा आठ विन्दु, मध्यध्मानं विरेचनश्चू! युंज्यात्तं मुखवायुना।। म छः विन्द और कनिष्ट चार विन्दु की पडंगुलद्विमुखयानाडया भेषजगर्भया ॥८॥ | सहि भूरितरंदोषं चूर्णत्वादपकर्षति । ।
होती है। अर्थ-मिरच आदि से बनाया हुआ नीचेलिखे मनुष्यों को नस्य देनी चाहिये
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(१८९)
अष्ठामहृदये।
अ.२०
नस्य के अयोग्य रोगी। भी नस्य न देवे । किन्तु यदि कोई विषद तोयमधगरस्नेहपीतानां पातुमिच्छताम् ॥ जनक व्याधि हो गई हो और नस्य देने भुक्तभक्तशिरःस्नातनातुकामसुतासृाम् । नवपनिसवेगातसूतिकाश्वासकासिनाम् ॥
की आवश्यकता ही हो तो नस्य दे देना ही शुद्धानां दत्तवस्तीनां तथा नार्तबदुर्दिने । ।
चाहिये । अन्यत्राऽत्यायकाव्याधे:
नस्यको काल और दोष । __ अर्थ-जिसने जल, मद्य, विष अथवा
अथ नस्य प्रयोजयेत् ॥ १३ ॥ • स्नेह पान किया हो अथवा इन में से किसी प्रातः श्लेष्माणमध्याह्ने पित्ते सायनिशोश्चले एक के भी पीने की अत्यन्त इच्छा रखता । अर्थ-श्लेष्मरोग में प्रातःकाल, पित्तरोग हो, जो भोजन करके चुका हो, जिसने
में मध्यान्ह, और वात रोग में सायंकाल सिर समेत स्नान किया हो, वा स्नान करने
वा रात्रि के समय नस्य देना चाहिये + की इच्छा रखता हो । जिसका फस्द द्वारा
बिचिर्चिका रोग, होते हैं । मलमूत्रादि वेग रक्त निकाला गया हो, जिसको नया पीनस
में वेग रोकने के जो उपद्रव कहे गये हैं
| वे होते हैं । प्रसूती को नस्य देनेसे रक्त वहका रोग हुआ हो, जिसने मलमूत्र का वेग
ने के उपद्रव होजाते हैं श्वास और कास रोका हो जिस स्त्रीने हाल ही में बच्चा
में इन्ही की वृद्धि अधिक होती हैं वमन जना हो, जिसको श्वास वा खांसी का रोग विरेचनादि से शुद्ध हुए मनुष्य को नस्य हो, जिसका देह वमन विरेचन बा वस्ति देवे से श्वास, खांसी, स्वरभंग इन्द्रियोंकी
शक्ति का नाश, शिर में भारापन, कृमि, द्वारा शुद्ध किया गया हो इन रोगियों को
कंडू आदि रोग होते हैं । वस्ति देने के नस्य न देवे तथा वषोऋतु को छोडकर जो | पीछे नस्य देने से स्रोतों के मुख खुले रहने किसी दिन वादल विजली हो रहे हों तो | के कारण श्वास कासादिक रोग होते हैं।
दुर्दिन में नस्य देने से शिरोवेदना, कंपन, ___ + जलादि पीकर वा पीने की इच्छा | जडता, तालु पाक, नेत्र रोग खुजली, म. 'होने पर नस्य लेने से नासारोग, मुख- न्यास्तंभ, कंठ रोग, श्लेष्मा, और अरूंषका
रोग, तिमिर और शिरोरोग होते हैं । भो- नामक रोग होते हैं संग्रह में लिखा है कि जन करके नस्य लेने से ऊपर से स्रोत रुक | गर्भ वती स्त्री को नस्य देने से भोजन में कर वमन, श्वास, खांसी, प्रतिश्याय रोग अरुचि, ज्वर, मृर्छा, और आधा सीसी होते हैं । शिरसमेत स्नान करके नस्य लेने होते हैं और बालक भी व्यंग विकलोन्द्रय, से मस्तक शूल, नेत्र शूल, कर्णशूल, कंठ- उन्माद क्षौर अपस्मार रोगों से युक्त होता रोग, पीनस, हनुस्तंभ अर्दित और शिरकंप
औशि है। विशेष करके गर्भवती को रुक्ष नस्य होता है । स्नान करने की इच्छा वाले के | कर्म में सांठ, काकोली और कमाच डा मस्तक में जडता अरुचे और पीनस रोग कर औटाया हुआ दूध पिलावे और होजाते हैं रक्तस्राव में कृशता, अरुचि और पीने मे सब तरह से बृहण उपचार कर। अग्निमांद्य रोग होते हैं । नवीन पीनस में +संग्रहमें विशेष लिखा है कि लालानोतरुक कर दुष्ट श्लेष्मा, कृमि, फंड और साव, सुप्ति, प्रलाप, दांतकडकडाना, प्रथ
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अ०२०
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
(१८५)
ऋतुपरतासे नस्यकाल । । अर्थ--जिसको नस्य देना हो उसको जस्वस्थवृत्ते तु पूर्वाद्धे शरत्कालवसंतयोः॥ ब वह मल मूत्रोत्सा और दंतधावनादि नि. शीते मध्यंदिने ग्रीष्मे सायं वर्षासु सातपे ।
त्यकर्मसे निश्चिंत हो चुका हो सिरपर तेल अर्थ- स्वस्थावस्था, शरत् और वसंत काल में पूर्वान्ह में, शीतकाल में, मध्यान्ह
डालकर स्निग्ध कर और फिर स्वेद द्वारा के समय, प्रीष्मकाल में सायंकाल के समय
स्विन्न करके निर्वात स्थानमें लेजाकर पंलग और बर्षा कालमें जिस समय सूर्य अच्छी
पर शयन कराके जत्रुसे ऊपर वाले भागका
पसीना फिर निकाले । फिर चित्त और सीतरह प्रकाशित हो नस्य देना चाहिये ।
धा हाथ पांव पसार कर लेट जाय और पां दोषपरत्व से नस्यकाल ।
व कुछ ऊंचे रखे तथा सिर कुछ नीचा रबाताभिभूते शिरसि हिध्मायामपतान के १
क्खे और नासिका का एक छिद्र बन्द कर मन्यास्तभे स्वर भ्रशे सायंप्रातर्दिने दिने । एकाहांतरमन्यत्र सप्ताहे च तदाचरेत् १६
के दूसरे छिद्रमें नली लगाकर वा रुईकी ब ___ अर्थ-जो सिरमें वात के कारण पीडा
त्ती द्वारा गरमजल से संतप्त औषध डालदेवै होता हो, तथा हिचकी, अपतानक, मन्या
और फिर दूसरे छिद्र में भी इसी तरह करे स्तंभ और स्वरभंश रोगों में प्रतिदिन प्रातः
____ नस्य देकर पांवों के तलए, कंधो, हाथ काल और सायंकाल दोनों समय नस्य देना और कानों का धीरे धीरे मर्दन करे और. चाहिये । इन से अतिरिक्त अन्य रोगों में
मर्दन के पीछे * धीरे धीरे दोनों ओर थूकै एक एक दिन का अंतर देकर सात दिन
इसका कारण यह है कि एक तरफ थूकने तक नस्य देवै । सात दिन पीछे नस्य से संपूर्ण शिराऔषध से व्याप्त नहीं होती हैं।
नस्यकी मात्रा। मस्यकी विधि। आभषजक्षयादेवं द्विस्त्रिर्वा नस्यमाचरेत् । स्निग्धस्विन्नोत्तमांगस्यप्राक्कृतावश्यकस्य च | अर्थ- पूर्वोक्त क्रमसे नस्य लैनेपर जब निवातशयनस्थस्य जत्रूवं स्वेदयेत् पुनः।१७ तक औषधका क्षय न हो ले तब तक आअथोत्तानर्जदेहस्य पाणिपादे प्रसारिते।। किविदुन्नतपादस्य किंचिन्मूर्धनि नामिते१८ वश्यकतानुसार दो तीन बार नस्य लेवे 'नासापुटं पिधायैकं पर्यायेण निषेचयेत्। अर्थात् नस्यकी जितनी मात्रा दैनीहो उतनी उष्णांवुतप्तं भैषज्यं प्रनाच्या पिचुनाऽथवा१९/दत्ते पादतलस्कंधहस्तकर्णादि मर्दयेत्।।
+ सुश्रुतमें लिखा है कि रोगीके नेत्रों शनैरुच्छिद्य निष्टीवेत्पार्श्वयोरुभयोस्ततः२० को वस्त्रसे ढककर बांये हाथकी तर्जनी से न, कृच्छोन्मीलन, प्रतिमुख, कर्णनाद, तृषा रोगीके नासापुटको ऊंचा करके दक्षिण हा
अर्दित, शिरोरोग, श्वास, खांसी, और उ- | थसे उष्णजलसे संतप्त स्नेह रूपेकी सीपी निद्रा (नींद न आती हो ) रोगों में रात्रिके | अथवा अन्य ऐसेही पात्रद्वारा अखंड धार समयनस्य देनी चाहिये।
| बांधकर डालदे।
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अष्टांग |
( १८४ )
एक बार में न दी जा सके बची हुई को दो तीन बार में देदेवे । *
।
नस्पजन्य मूर्छा का प्रतिकार मूर्छायां शीततोयेन सिंचेत्परिहरन् शिरः २१ अर्थ - किन्तु यदि औष की तीक्ष्णता के कारण मूर्छा हो तो मस्तक को छोड़कर क्षेत्र सब शरीर पर ठंडे जलका सेचन करे। *
* इसका कारण यहहै कि औवध की हम मात्रा देने से दोष अपने स्थानसे चलित होजाते हैं और बाहर नहीं निकल सकते तथा भारापन, अरुचि, खांसी, प्रसेक, पीनस, वमन और कंडरोग उत्पन्न करदेते हैं । अधिक मात्रा देने से औषध का अतियोग होजाता है सो अतियोगसे होनेवाले बिकार होजाते हैं । जो एक दम सब मात्रा नाक के भीतर प्रवेश करदी जाय तो शिरोरोग, श्लेष्मा, नाकर्मे क्लेद, और स्वासावरोध होजाते हैं अत्यन्त गरम देनेसे दाह, पाकज्वर, रक्तरोग, मूर्छा और श्रम होता है । अतिशीतल देने से हीनमात्रा संबंधी दोष उपजते हैं। अति ऊंचा सिर करके नस्य लेनेसे उत्तहीन दोष होते हैं । अति नीचा सिर करके लेने से औषध बहुत भीतर चली जानेके कारण मूर्छा जडता और ज्वर होते हैं । संकु चितगात्र करके नस्य लेने से वह शिराओं में अच्छी तरह प्रवेश न करके दोषोका उपाड करती है ।
|
"
+ संग्रह में लिखा है कि नस्य लेने के समय क्रोध, हास्य, व्यवहार, उछलना, और नासिका से मल बाहर निकालने की वेष्टा न करै, ऐसा करनेसे शिरोवेदना, श्लेष्मा, खांसी तिमिर, खलित, पलित, व्यंग, तिलकालक, तथा मुखदूषिकादि रोगों का होजाना संभव है ।
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अ० २०
विरेचन नस्के पीछे के कर्म । स्नेहं विरचेनस्यांते दद्याद्दोषाद्यपेक्षया । नस्यांते वाक्शतं तिष्ठेदुत्तानः
धारयेत्ततः ॥ २२ ॥
धूमं पीत्वा कवोष्णांवुकवलान् कंठशुद्धये । अर्थ - विरंचन नस्यके अन्तमें देश, दोष और सात्म्यादि की विवेचना करके म स्तक में स्नेहका प्रयोग करे और वाक्ात ( जितनी देर में सौ की गिनती हो ) सीधा सौनेदे तदनन्तर धूमपान करके कंठकी शुद्धि के निमित्त कुछ गरम जल के कुल्ले करे ।
नरूपके सम्यक् योगका लक्षण | सम्यस्निग्धे सुखोच्छासस्वप्रवोधाक्ष पाटवम् ॥ २३ ॥ अर्थ - मस्तक के सम्यक् स्निग्ध होने पर श्वास का आवगमन मुखपूर्वक होता है नींद गहरीहों अच्छी तरह चैतन्यता रहती है और नेत्रों में चंचलता आजाती है ।
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नस्यका रुक्षयोग |
रुक्षेऽक्षिस्तब्धता शोषो नासास्ये मूर्धशून्यता अर्थ- मस्तक के तीक्ष्ण नस्यसे रूक्ष होनेपर आंखों में स्तब्धता, मुख और नासि - कामें शोष, और मस्तक में शून्यता होती है ।
अतिस्निग्धता के लक्षण | farasrisगुरुताप्रसेकारुचिपीनसाः २४
अर्थ - मस्तक के अतिस्निग्ध होनेपर खुजली, भारीपन, प्रसेक, अरुचि और पीनस ये रोग उत्पन्न होजाते हैं ।
सुविरिक्त और दुर्विरिक्त । सुविरिक्तेऽक्षि लघुतावरवक्रावशुद्धयः । दुर्विरि गोद्रेकः क्षामताऽतिविरेचिने २५
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अ० २०
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - यदि शिरोविरेचन अच्छी तरह हो गया होय तो नेत्रों में हलकापन, तथा स्वर और मुखमें शुद्धि हो जाती है | और जो शिरो विरेचन अच्छी तरह न हुआ हो तो रोग की वृद्धि होती है, और अत्यन्त विरेचन होने पर शरीर में कृशता होती है । प्रतिमर्श का विषय । प्रतिमर्शः क्षतक्षामबालवृद्धसुखात्मसु । प्रयोज्योऽकालवर्षेऽपेि
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(१८५ )
प्रतिमर्श का फल ।
पंचसु स्त्रोतसां शुद्धिः क्लमनाशस्त्रिषु क्रमात दृग्वलं पंचसु ततो दंतदादर्थ मरुच्छमः ।
अर्थ - ऊपर कहे हुए पन्द्रह कालों में से रात्रि, दिवस, भोजन, वमन और दिवा निद्रा इन पांचों के अंत में प्रतिमर्श की मात्रा देने से स्रोतों की शुद्धि हो जाती है । मार्गभ्रमण, परिश्रम और मैथुन के अंत में प्रतिशर्म नस्य से थकावट जाती रहती है । शिरोभ्यंजन, गंडूषधारण, प्रस्राव, अंजनग्रहण और मलत्याग "इनके अंत में प्रतिमर्श की योजना से नेत्रों में बल बढ़ता है । - वन और हास्य के पीछे प्रतिमर्श को योजना करने से दांत दृढ और वायुका शमन होता है ।
न विष्टो दुष्टपनिसे ॥२६॥ मद्यपीतेऽवलोत्रे कृमिदूषितमूर्धनि । उत्कृष्टोत्लष्टदोषे च
'हीनमात्रतया हिसः ॥ २७ ॥
अर्थ - अकालमें बर्षा होनेपर भी पूर्वोक्त
और
- प्रतिमर्श नस्य क्षतक्षीण, बालक, वृद्ध सुखी जीवोंके लिये देनी चाहिये किन्तु जिनका पीनस रोग बिगड गया है, जो शराबी हैं, जिनके कानोंके मार्ग रुक गये हैं, जिनके मस्तक में कृमिरोग है, जिनके दोष अपने स्थानसे चलकर प्रकुपित होगये हैं, इनको प्रतिमर्श देना उचित नहीं है क्योंकि प्रतिमर्श हीनमात्रा होती है और हीनमात्रा देने से दोष उपाड़ करते हैं पर शमन नहीं होते ।
न
वयपरत्व से नस्यादिका नियम । ननस्यमून सप्ताब्दे नाऽतीताऽशीतिवत्सरे ॥ न चोनाटादशे धूमः कवलो नोनपंचमे । शुद्धिरुनदशमे न चाऽतिक्रांतसप्ततौ ॥ अर्थ - सात वर्ष से कम और अस्सी वर्ष से ऊपर की अवस्थावाले को नस्य न देना चाहिये | अठारह वर्ष से कम अवस्थावाले को धूमपान नहीं करना चाहिये, पांचवर्ष की अवस्था से कमवाले को कवलधारण का दंतकाष्ठस्यहासस्ययोज्यऽतेऽसौद्विविदुकः निषेध हैं, तथा दस वर्ष से कम और स
प्रतिमर्श का काल और मात्रा | निशांकांताहः स्वप्नाध्वश्रमरेतसाम् । शिरोभ्यंजनगंडूष प्रस्रवां जनवर्चसाम् २८ ॥
तर वर्ष से ऊपर की अवस्था वालों को वमन विरेचन नहीं देना चाहिये ।
अर्थ - रात्रि, दिवस, भोजन, वमन, दिवानिद्रा, मार्गभूमण, परिश्रम, वीर्यपात, शिरोभ्यंजन ( मस्तक में तेल लगाना कुल्ला, प्रस्राव, अंजन लगाना, मलत्याग, दांतन करना, और हास्य इन पन्द्रह कामों के पीछे प्रतिमर्श स्नेह के दो बिन्दु नाक में डालने चाहिये ।
२४
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प्रतिमर्शका सदासेवन ।
आजन्म मरणं शस्तः प्रतिमर्शस्तु वस्तिवत् । मर्शवच्चगुणान्कुर्यात्स हि नित्योपसेवनात् नचाऽत्र यंत्रणा नाऽपि व्यापद्भ्योऽमर्शव
यं ।
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(१८६ )
अष्टांगहृदयम् ।
अ० २०
|
.जन्मकाल से मृत्यु पर्यन्त हितकारी होता है तथा इसका निरंतर सेवन किया जाय तो यह मशके समान गुणकारी है । इस प्रतिमर्श के सेवन में किसी प्रकारका बंधनभी नहीं है अर्थात् उष्णजल पानादि की यंत्रणा नहीं है और मर्श की तरह नेत्रस्तब्धता आदि रोगों का भय भी नहीं है ।
अर्थ-स्नेहवस्तिं के सदृश प्रतिमर्श भी | करे ? इस प्रश्नका यही उत्तर है कि मर्श आशुकारी और दोषोंको शीघ्रही दूर करने वाला है, प्रतिमर्श चिरकारी अर्थात् दोषों को देर में दूर करने वाला है इसलिये दोषों को शीघ्र दूर करने के हेतुसे मर्श में गुणों की उत्कर्षता है और देरमें दोषोंको दर करने के हेतुसे प्रतिमर्श में गुण की अपकर्षता है । इ न दोनों में केवल इतनाही अंतर है । इस लिये जो मनुष्य शीघ्र सुखोच्छ्वासादि के उप कार के पाने की इच्छा करता है उसे मर्श नामक स्नेह नस्यका ग्रहण करना चाहिये ।
इसीतरह अच्छपेय स्नेह तथा अन्य स्नेह पान, कुटीमें प्रवेश करके स्थिति तथा बाता तपादि की अपरिहार स्थिति में जो रसायन का प्रयोग किया जाता है इसीतरह अन्वा - सन वस्ति और मात्रावस्ति ये सब बिलंब से गुण करनेवाले तथा शीघ्रगुण करनेवाले हैं यही अंतर इन सब में है ।
अणुतैल |
प्रतिमर्श में तेल को श्रेष्ठत्व तैलमेवच नस्यार्थे नित्याभ्यासेन शस्यते ॥ शिरसः श्लेष्मधामत्वात्स्नेहाः स्वस्थस्यनेतरे
अर्थ - मस्तक श्लेष्मा का स्थान है इस . लिये तन्दुरुस्त मनुष्य के लिये श्लेष्मनाशक ते
ही उत्तम होता है । अन्य स्नेह कफवर्द्धक होते हैं इसलिये उनको काममें लाना उचित नहीं है | जैसे नित्याभ्यास के कारण प्रतिभर्श उपकारक है इसीतरह तेलकी नस्यभी निरंतर अभ्यास में हितकर है ।
मर्श और प्रतिमर्शका अंतर । आशुकच्चिरकारित्वं गुणोत्कर्षापकृष्टता ॥ मैच प्रतिमर्शे च विशेषो न भवेद्यदि । को मर्श सपरीहारं सापदं च भजेत्ततः ॥ अच्छपानविकाराख्यौ कुटीवाताऽतपस्थिती अम्वासमात्राबस्ती च तद्वदेव च निर्दिशेत् अर्थ - प्रतिमर्श नस्य यदि नित्य सेवन करनेपर मर्श के समान गुणकारी हो और इसके उपकारी होने के बिषय में कोई विशेषता न हो तो मर्श नस्य के सेवन में जो शीतलजल सेकादि परिहाररूप अनेक प्रकार के निय
॥
का प्रतिपालन करना पडता है और जिस में अक्षिस्तब्धादि अनेक प्रकार की व्यापत्ति उत्पन्न होती हैं उसको कौन सेवन
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जीरीतीजलदेवदारुजलदत्वकू सेव्यगोपाद्दिमंदार्वीत्वङ्मधुकप्लवा गुरुवरापुंडा विल्वोत्पलं धवन्यौ सुरभिः स्थिरे कृमिहरं पत्रंत्रुटिरेणुकंकिंजल्कं कमलाद्दयं शतगुणे दिव्येऽभसिक्वाथयेत् ॥ ३७ ॥ तैलाद्रसं दशगुणं परिशेष्य तेनतैलं पिश्च सलिलेन दशैव वारान् । पाके क्षिपेश्च दशमे सममाज दुग्धम्नस्यं महागुणमुशंत्यणुतैलमेतत् ३८ ॥ अर्थ - जीवन्ती, नेत्रवाला, देवदारू, नागरमोथा, दालचीनी, कालावाला, अनन्त मूल, रक्तचन्दन, दारुहळदी, दालचीनी, | मुलहटी, कदंब, अगर, त्रिफला, पौंडरीक,
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म० २१
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१८७)
DON
बेलागिरी, कमल, दोनों कटेरी, सल्लकी, एकविंशतितमोऽध्यायः । शालपर्णी, प्रश्नपर्णी, वायविडंग, तेजपात, छोटी इलायची, रेणुकबीज, नागकेसर, पद्मरेणु, इन सब द्रव्यों को समान भाग लेकर | अथाऽतोधूमपानविधिमध्यायव्याख्यास्यामः सौगुने आंतरीक्ष जलमें क्वाथ करै । और अर्थ- अब हम यहांसे धूमपान विधि ऊपर कहेहुए सब द्रव्योंके समान तेल लैवे / नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जब तेलसे दसगुना क्वाथ रहजाय तब उता
धूमपान की आवश्यकता । . रकर पकावै तेल शेष रहनेपर उतारले फिर "जर्व कफवांतात्थविकाराणामजन्मने।
उच्छेदाय च जातानां पिवेडूमं सदाऽत्मवान् उसमें तेलको बराबर क्वाथ मिलाकर पकावै
अर्थ-हिताहार विहार करनेवाले मनुष्य इसतरह दस बार करै अन्तमें जब तेल शेष
को उचितहै कि जत्रुसे ऊपर कफ तथा वायु रहजाय तब उसमें तेलकी वरावरही बकरी
से किसी प्रकारका रोग उत्पन्न न होने पावै का दूध मिलाकर फिर पकावै, फिर तेल |
तथा कोई विकार उत्पन्न होगया हो तो शेष रहनेपर उतार ले, इसतरह सिद्ध किये
उसके शमन के लिये सदा धूमपान करै । हुए इस तेलका नाम अणु तेल है यह तेल
धूमपान के भेद । नस्यद्वारा प्रयोग करने में महा गुणकारी है
| स्निग्धोमध्यः सतीक्ष्णश्व वाते बातकफेकफे और चूंकि यह सूक्ष्मछिद्रों में प्रवेश करता है
अर्थ-स्निग्ध, मध्य और तीक्ष्ण इन इसीलिये इसका नाम अणुतेलहै । भेदोंसे धूम तीन प्रकार का होताहै । वात- नस्य सेवनके गुण । | रोग में स्निग्ध, बातकफमें मध्य, और का घनोन्नतप्रसन्नत्वकस्कंधग्रीवाऽस्यवक्षसः।। में तीक्ष्ण धन का प्रयोग किया जाताहै । हढेद्रियास्त्वपलिता भवेयुर्नस्यशीलिनः ॥
धूम के अयोग्य रोगी। अर्थ- जो मनुष्य नस्यका सेवन करता
| योज्यानरक्तपित्तातिविरिक्तो दरमेहिषु । है उसकी त्वचा, स्कंध, ग्रीवा, मुख और तिमिरोवा॑ऽनिलाऽध्मानरोहिणीदत्तवस्तिषु वक्षस्थल घन, उन्नत और निर्मल हो | मत्स्यमद्यदधिक्षीरक्षौद्रस्नेहविषाशिषु २॥ जातेहैं । संपूर्ण इन्द्रियां बलवती होजाती हैं
शिरस्यभिहते पांडुरोगे जागरिते निशि।
अर्थ-रक्तपित्त * से पीडित, उदररोगी. और केश कुसमय पकने नहीं पातेहैं अर्थात् बुढापे से पहिले सफेद नहीं होतेहैं ।
___+ ऊपर के श्लोक में 'बाते वातको
कफे योज्यः, इस कहनेसे पित्तकी प्राप्ति .. इति भीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां ।
ही नहीं है फिर यहां प्रतिषेध करने का
क्या तात्पर्य है । कहतेहैं कि कोई कोई विशोऽध्यायः। वात प्रकृतिवाले को वातपित्त रोगमें भ्रांति
से प्रकृत्यनुरूप चिकित्सा करनेकी इच्छा | से धूमपान बतला देते, इसके निवेधार्थ
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(१८८)
अष्टांगहृदये।
अ० २१ ।
प्रमेही, तिमिररोगी को तथा ऊर्ध्ववान, | और निद्रा, नस्य, * अंजन, स्नान और उदराधमान, रोहिणी रोग, इनमें विरेचन वमन इनके अंत में विरेचन अथवा तीक्ष्ण वाले को, जिसे वस्ति दीगई हो, जिसने धूमपान करै । मछली, मांस, दही, दूध, शहत, स्नेह, और धूमपान की नलीका स्वरूप । विष खायाहो उसे, तथा सिर की चोटमें,
बस्तिनेत्रसमद्रव्यं त्रिकोशं कारयेदृजु ॥७॥ पांडुरोगमें, और रात्रिभर जागरणमें धूमपान
मूलाग्रेऽगुष्ठकोलास्थिप्रवेशं धूमनेत्रकम् ।
___ अर्थ-वस्ति का नेत्र जिन जिन द्रव्यों का निषेधहै । कोई कोई कहतेहैं कि यबागू।
से बनाया जाता है उन्हीं द्रव्यों (धातु पानके पीछे भी धूमपान न करना चाहिये।
काष्ठ, अस्थि, बांस ) में से किसी एक से धूमपान के उपद्रव और उनकी ।
धूमपान की नली बनवावै । इस में तीन चिकित्सा। रक्तपित्तांध्यवाधियतृणमूमिदमोहकृत्।४॥
पर्व होने चाहिये तथा सीधी होनी चाहिये धूमोऽकालेऽतिपीतो वा... इस के मूलभाग का छिद्र अंगुल प्रबेश के व तत्र शीतो विधिर्हितः।
योग्य और अग्रभाग का छिद्र झाडी बेरके अर्थ-अकाल अर्थात् उपरोक्त निषिद्ध
प्रवेश योग्य वनवावै । काल और स्थलों अथवा अतिमात्र धूमपान
धूमपान के नेत्रकी लंबाई । करनेसे रक्तपित्त, अन्धापन, वहरापन, तृषा, तीक्ष्णस्रेहनमध्येषुत्रीणि चत्वारिपंच च९॥ मूछो, मद और मोह उत्पन्न होते हैं। अँगुलानांकमात्पातुःप्रमाणेनाऽष्टकानि तत् इन उपद्रवों में घृतपान, नस्य, आलेपन
अर्थ-तीक्ष्ण घूमपान के लिये धूमनली और परिषेकादि शीतल क्रिया हितकारी हैं।
की लंबाई पीने वाले के २४ अंगुल के धूमपान का काल ।
तुल्य होनी चाहिये, स्नेहन धूमपान में बक्षुतभितविण्मूत्रस्त्रीसेवाशस्त्रकर्मणाम्॥ | तीस अंगुल की नली और मध्यम धूमपान हासस्य दन्तकाष्ठस्य धूममंते पिबेन्मृदुम् । में नली की लंबाई २० अंगुल होनी
कालेष्वेषु निशाऽहारनावनांतेच मध्यमम् ॥ चाहिये। । निद्रानस्यांजनस्नानच्छदितांतेविरेचनम् +
अर्थ-छींक, जंभाई, मलमूत्रका, त्याग, । * ऊपर नस्य शब्द का दो जगह प्रयोस्त्रीसंग, शस्त्रकर्म, हास्य, और दंतधावन
| ग किया गया है एक जगह नस्य के अंत
में मध्यम धूमपान और दूसरी जगह नस्य इन के अंत में मृदु अर्थात् स्निग्धधूमपान के अंत में तीक्ष्ण धूमपान का उपदेश है करै । * किन्तु इन सब कामों के समय में | इसका यह मतलबहै कि स्निग्ध नस्यमें स्नितथा रात्रि के अंत में, भोजन के अंत में
| ग्ध और तीक्ष्ण नस्यमें तीक्ष्ण धूमपान क
रना चाहिये, तथा मध्यम नस्य में मध्यम और नस्य के अंत में मध्यम धूमपान कर
धूमपान करै । इसी तरह मध्यान्ह के अंत यह कहा गया है अथवा पित्तात प्रकृतिवाले | मे मध्यम धूमपान करै । तथा निद्रा नस्य को बातकफ की वृद्धिमें धूमपान न कराया के अंत में और विरेचन नस्य के अंत में जाय इसके लिये यह कहा गयाहै। बिरेचन धूमपान करै।
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अ० २१
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१८९)
धूमपान की विधि । | नाम आक्षेप और मोक्ष है इस तरह तीन अपविष्टस्तच्चताविवृतास्यस्त्रिपर्ययम् ॥ | तीनबार धुंएका आक्षेप और मोक्ष करै । पिधायच्छिद्रमेकैकं धूम नासिकया पिवेत् । दिन में धूमपान की संख्या।।
अर्थ-सीधा बैठकर धूमपान में मनलगा| अह्नःपिवेत्सकृत् स्निग्धंद्विमध्यं शोधनं परम् कर मुख खोलकर नासिका के एक छिद्रको | त्रिश्चतुर्बा बन्द करके दूसरे छिद्र से धूम पान करके | अर्थ-दिन में एकबार स्निग्धधूम, दोवार मुखद्वारा निकाल दे । दूसरी वार दूसरे छि- मध्यम धूम और तीन चारवार ताण धूमद्र से पकिर मुखद्वारा निकाल दे । इसी तरह पान करना चाहिये । बार बार कभी इस छिद्र से और कभी
मृदु धूमपान । उस छिद्र से धूमपान कर करके मुखक द्वा
मृदौ तत्र द्रव्याण्यगुरुगुग्गुलुः ।
मुस्तस्थौणेयशैलेयनलदोशीरवालकम् ॥ रा धुंआ निकालता रहै ।
वरांगकौंतीमधुकविल्वमज्जैलवालुकम् । धूमपान का क्रम ।
श्रीवेष्टकं सर्जरसोध्यामकं मदन प्लवम् ॥ प्रापिबेन्नासयोक्लिष्टे दोषे घ्राणशिरोगते शल्लकी कुंकुम माषा यवाः कुंदुरकं तिलाः । उत्क्लेशनार्थबक्त्रेण विपरीतं तु कंठगे । स्नेहः फलानां साराणां मेदोमज्जावसाघृतम् मुखेनैव वमेधुमं नासया दृग्विघातकृत ॥ अथे-मुदु अर्थात् स्निग्ध धूम में नि. ___ अर्थ-नासिका के दोष अथवा मस्तक | म्नलिखित द्रव्यों का ग्रहण है अगर, के दोष अपने स्थानसे चलित हो गयेहों तो गूगल, मोथा, ग्रंथिपणी, शिलाजीत, जटाप्रथम नासिकपुट द्वारा धूमपान करै । और | मांसी, कालावाला उशीर, नेत्रवाला त्रिफजो दोष स्थानसे चलित न हुए हों तो उन । ला, कूट, रेणुका, मुलहटी, वेलगिरी का के चलित करने के निमित्त प्रथम मुख द्वारा । गूदा, एलुआ, श्रीवेष्टक धूप, राल, रोहिषधूमपान करै । पीछे नासिका पुट द्वारा धू. तृण, मेनफल, गोपालदमनी, शल्लकी, केसर, मपान करे और जो कंठ गत दोष को बाहर उरद, जौ, कुन्दर, तिल, नारियल आदि निकालना हो तो प्रथम नासिका द्वारा फिर
का तेल, खैरसारादि का तेल, तथा मेदा मुख द्वारा धूमपान करै । मुख वा नासिका मज्जा, वसा और घृत ये द्रव्य स्निग्धधम द्वारा किया हुआ धगपान मुख द्वारा ही | पान में उपयोगी है । निकालना चाहिये क्योंकि नेत्र द्वारा धुंआं
मध्यम धूमपान के द्रव्य । निकालने से तिमिरादि नेत्ररोग पैदा हो
| शमने शल्लकी लाक्षा पृङकाकमलोत्पलम्
न्यग्रोधोदुंबराश्वत्थप्लक्षरोधत्वचः सिता। जाते हैं ।
यष्टी मधुः सुवर्णत्वक् पद्मकं रक्तयष्टिका । धूमपान का नियम । गंधाश्चाकुष्ठतगराः ओक्षपमोक्षैः पातव्योधूमस्तुत्रिनिभित्रिभिः अर्थ-शमन अर्थात् मध्यम धूमपान में ___ अर्थ-धूर के खेंचने और छोडने का ] शल्लकी, लाख, इलायची, कमल, उत्पल,
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अष्टागहृदये ।
(१९०)
वड, गूलर, पीपल, पाकड, लोध इनक छाल, चीनी, मुरहट्टी, कचनार की छाल पद्माख, मजीठ, तथा कूठ और तगर को छोड़कर सब गंव द्रव्य इस में उपयोगी होते हैं ।
तीक्ष्ण धूमपान के द्रब्य
तीक्ष्णे ज्योतिष्मती निशा दशमूलमनोवालं लाक्षाश्वताफलत्रयम् । गंधद्रव्याणि तीक्ष्णानि गणो मूर्धविरेचनः ॥
अर्थ - तीक्ष्ण धूमपान में मालकांगनी, हलदी, दशमूल, मनसिल, हरताल, लाख, श्वेत किन्ही और त्रिफला, आदि गंध द्रव्य कूठ, तगर आदि तीक्ष्ण, द्रव्य और अपामार्गादि संग्रहोक्त शिरोविरेचनीय द्रव्य उपयोग में आते हैं ।
धूमवर्ति का विधान । जले स्थितामहोरात्रामिषीकां द्वादशांगुलाम् पिष्टैर्धूमौषधैरेवं पंचकृत्वः प्रलेपयेत् ॥ १९ ॥ वरिष्ठ बत्स्थूला यवमध्या यथा भवेत् । छायाशुकां विगर्भात स्नेहाभ्यक्तां यथायथम् धूमनेत्रापिंतां पातुमनिष्ठां प्रयोजयेत् ।
अर्थ-दाभ की जड़ बारह अंगुल लंबी लाकर चौबीस घंटे तक पानी में पड़ी रक्ख पीछे धूमपान में कही हुई औषधों को पीसकर उस पर पांच बार ऐसी रीति से लेप करै कि अंगूठे के बराबर मोटी होजाय तथा बीच में मोटी रहै और दोनों सिरे
पतले हैं, पीछे इस बत्ती को छाया में सु: खाकर इसके बीच में से दाम की जड़को
निकाल डाले और यथा योग्य बत्ती पर स्नेह लगाकर चिकनी करे फिर बत्ती के एक सिरे को धूमपान की नली में लगाकर दूसरे सिरे में अग्नि लगाकर घूमपान करै ।
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अ० २२
धूमपान का अन्यप्रकार । शरावiपुच्छि नाडीं न्यस्य दशांगुलाम् अष्टांगुलां वा वक्त्रेण कासवान् धूममापिबेत् ।
अर्थ - खांसी के रोगी के लिये नीचे लिखी हुई रीति से धूमपान करौव एक सरवे (मिट्टी का पात्र ) में स्नेह से चुपडा हुआ कासनाशक चूर्ण वा गोली रख कर उस के ऊपर दूसरा सर्वा रखकर मुख अच्छी तरह बन्द करदे और ऊपर वाले स एक छिद्र करदे और इस छिद्र में बारह अंगुल वा अठारह अंगुल लंबी नली लगादे फिर इस शराव संपुट को दहकते हुए निघूम अंगारों में रखदे, जब इन कासनाशक औषधोंका धूंआं बाहर निकलने लगे तब पूर्वोक्त नल द्वारा मुख से इस धूंए का पान करै ।
धूमपान का फल | कासः श्वासः पीनसो विश्वरत्वं पूर्तिधः पांडुता केशदोषः । कर्णाऽस्याक्षिस्राववर्तिजाडयं तंद्रा हिध्मा धूमपंन स्पृशति ॥ २२ ॥ अर्थ - खांसी, श्वास, पीनस, स्वरभंग मुख की दुर्गंधि, शरीर का पांडुत्व, केशदोष, कर्णस्राव, मुखस्राव, नेत्रस्राव, खुजली जडता, तन्द्रा, और हिचकी ये सब रोग धूमपान करने से नष्ट होजाते हैं । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां एक विंशतितमोऽध्यायः ।
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द्वाविंशतितमोऽध्यायः । अथाऽतोगंडूपादिविधिमध्यायं व्याख्यास्याम अर्थ - अब हम यहां से गंडूषादि विधिनामक अध्याय की ल्याख्या करेंगे ।
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अ० २२
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सूत्रस्थान भाषाटीका समेत
दंत हर्षादि रोग में गंडूष ।
गंडूष के भेद और विधि | “चतुष्प्रकारो गंडूषः स्निग्धः शमनशोधनौ । दन्तहर्षे दन्तचाले मुखरोगे च वातिके । रोपणश्चसुखोष्णमथवा शीतं तिलकल्कोदकं हितम् ॥ अर्थ - दंतहर्ष, दंतचाल ( दांतों का हि(लना ) तथा बातजन्य मुख रोगों में तिल के कल्क का सुहाता हुआ गरम पानी अथवा शीतल जल हितकारक है ।
त्रयस्तत्र त्रिषु योज्याश्वलादिषु ॥ १ ॥ त्यो व्रणन:
ferralss स्वाद्वम्लप साधितैः ।
स्नेहै:
संशमनस्तिक्तकषायमधुरौषधैः॥२॥
शोधनस्तिक्तंकट्वम्लपद्वष्णै:
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(१९१ )
सामान्य गंडूष । गंडूषधारणे नित्यं तैलं मांसरसोऽथवा । अर्थ - प्रति दिन गंडूष धारण में तेल अथवा मांसरस हितकारी होता है ।
रोपणः पुनः ।
कषायतिक्तकै:
मधुगंडूष धारण के गुण । वैशद्यं जनयत्यास्ये संदधाति मुखव्रणान् ७ दाहतृष्णाप्रशमनं मधुगंडूषधारणम् ।
तत्र स्नेह क्षीरं मधूदकम् ॥ ३ ॥ शुक्तं मद्यं रसो मूत्रं धान्याम्लं च यथायथम् । कल्केयुक्त विपक्वं वा यथा स्पर्शे प्रयोजयेत् ।। अर्थ-कुले करने का नाम गंडूष है, गंडूष चार प्रकार का होता है, यथा, स्निग्ध, शमन, शोधन और रोपण । इन में से पहिले तीन ( स्निन्ध, शमन, शोधन) यथाक्रम वात, पित्त और कफ रोगों में दिये जाते हैं अर्थात् वात में स्निग्ध, पित्त में · शमन, और कफ में शोधन उपयोगी होता है । रोपण गंडूष व्रण में काम आता है इनमें से स्निग्ध गंडूष मधुर, अम्ल और लवण रस से सिद्ध होता है । शमन गंडूष तिक्तकषाय और मधुर औषधों से, शोधन गंडूष तिक्त, कटु, अग्ल लवण और उष्णवीर्यं द्रव्यों से तथा रोपण गंडूष कषाय और तिक्त औषद्वारा सिद्ध होता है । उक्त चारों प्रकार के गंडूपों में घृतादि स्नेह, दूध, मधूदक, शुक्त, मद्य. मांसयूष, मूत्र और धान्याम्ल यथायुक्त कल्कद्वारा मिलाकर बापकाकर ठंडा वा गरम जैसा उपयुक्त हो काम
|
अर्थ - शहत का गंडूष धारण करने से मुख में विशदता होती है, मुख के घाव भरजाते हैं तथा दाह और तृषा दूर हो जाते हैं ।
लावें ।
उषादाहादिक में गंडूष । ऊषादाहान्विते पाके क्षते वाऽऽगसंभवे ॥ विषक्षाराऽग्निदग्धे च सर्पिर्द्धार्य पयोऽथवा अर्थ- ऊषा और दाहयुक्त क्षतपाक में आगन्तुक्षत में तथा विष, क्षार और अग्निदग्ध में घृत अथवा दूध का गंडूष हितकारी होता है ।
धान्याम्ल गंडूषके गुण | धान्याम्लमास्य वैरस्यमलदौर्गेध्यनाशनम् ॥
अर्थ - धान्याम्ल अर्थात् कांजी के गंडूष धारण करने से मुखकी विरसता, मल और दुर्गंधिको दूर करता है ।
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अलवण धान्याम्ल के गुण । तदेवाऽलवणं शीतं मुखशोषहरं परम् ।
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अष्टांगहृदये ।
( १९२ )
अर्थ - बिना नमक की कांजी शीतवीर्य होतीहै और मुखके स्रावको दूर करती है। क्षारजलके गंडूष |
आशु क्षारांबुंगंडूषोभिनत्ति श्लेष्मणश्चयम् । अर्थ- क्षारामिश्रित जल के गंडूष धारण करने से कफका संचय शीघ्रही नष्ट होजाता है । सुखोष्णोदक गंडूष | सुखोष्णोदकगंडूषै जयते बक्त्रलाघवम् । अर्थ- सुहाते हुए गरम जलके गंडूप धारण करने से मुख में हलकापन होता है । गंडूषवारण प्रकार | निबाते सातपे स्विन्नमृदितस्कंधकंधरः ॥ गंडूषमपिवन् किंचिदुन्नतास्यो बिधारयेत् ।
अर्थ - निर्वात स्थान में जहां धूप चमकती बैठकर स्कंध और कंधराको प्रथम स्वेदित और फिर मृदित करके थोडा मुख ऊंचा करके गंडूष धारण करै परन्तु पीन लैना चाहिये ।
गंडूषधारण का प्रकार |
कफपूर्णास्यता यावत्स्रवघ्राणाक्षताऽथवा असचार्यो मुखे पूर्णे गंडूषः कवलोsन्यथा । अर्थ - जब तक मुख कफसे भरा हो | अथवा नाक और आंख से स्त्राव होता हो तब तक गंडूष धारण करे ( क्रमश: पांच सात बार गंडूप धारण करना उचित है ) द्रव पदार्थ द्वारा मुख इतनाभराहो कि मुखके भीतर का पदार्थ हिलनसके उसे गंडूष कह तेहैं और जो चलसके उसे कवल कहते हैं। मन्यारोगादि की चिकित्सा | मन्याशिरः कर्णमुखाक्षिरोगाःप्रसेककण्ठामयवक्त्रशोषाः ।
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अ० २२
हल्ला सतंद्रारुचिपीनसाश्चसाध्या विशेषात्कवलग्रहेण ॥ १२ ॥ अर्थ - मन्यारोग, सिररोग, कानरोग, मुखरोग, नेत्ररोग, प्रसेक, कंठरोग, मुखशोप, हल्लास, तन्द्रा, अरुचि, पनिस, ये सब रोग विशेषकर के कवल ग्रहण से चि• कित्सा के योग्य हैं ।
प्रतिसारण के भेद |
•
| कल्को रसक्रिया चूर्णस्त्रिविधं प्रतिसारणम् युज्यात्तत् कफरोगेषु गंडूषविहितौषधैः ॥ अर्थ - प्रतिसारण तीन प्रकार का होता है, जैसे, कल्क, * रसक्रिया और चूर्ण । कफरोगों में प्रतिसारण का प्रयोग शोधन पोक्त औषधों द्वारा किया जाता है ।
मुखलेपके भेद और प्रयोग । मुखालेपास्त्रधा दोपविषहा वर्णकृच्च सः । उष्णो वातकफे शस्तः शेषेष्वत्यर्थशीतलः ॥
अर्थ - मुखलेप तीन प्रकार का होता है एक दोषघ्न, दूसरा विपन तीसरा वर्णकृत् वातकफरोग में गरम और शेष पित्त वा वात पित्त में अत्यन्त शीतल मुखलेप करना चाहिये |
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मुखलेप के प्रमाणादि । त्रिप्रमाणश्च तुर्भागात्रिभागाधगुलोन्नतिः । अशुष्कस्य स्थितिस्तस्य शुष्को दूषयतिच्छविम् ॥ १५ ॥ तमार्दयित्वाऽपनयेत्तंतेऽभ्यगमाचरेत् । विवर्जयेद्दिवास्वप्नभाया ऽग्न्यातपशुक्क्रुधः
x जल से पिसे हुए पदार्थ को कल्क मधु आदि द्रव्यों से पतले किये हुए पदार्थ को रसक्रिया और सूखे पिसे हुए पदार्थको चूर्ण कहते हैं ।
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अ० २३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत
(१९३)
अर्थ-मुखलेप अंगुली का चौथाई, ति- | आधे श्लोक में कहे हुए एक एक लेप का हाई वा आधे भाग के समान करना उचित प्रयोग करे जैसे ( १ ) हेमन्तऋतु में बेर है । यह जब तक गीला रहै तभी तक रह- का गूदा, अडूसा की जड, लोध और सने दे क्योंकि सूखने पर त्वचा को दूषित फेद सरसों का लेप उचित है । (२) कर देता है । दूर करने के समय इसे गीला शिशिरमें कटेरी की जड, काले तिल, दारुकरले पीछे तेल आदि लगावै । मुखलेप हलदी, दालचीनी, और निस्तुष जौ (३) वाले मनुष्य को उचित है कि दिन में सौ- | वसंत में कशा की जड, चंदन, खस, सिना, अधिक बोलना, अग्नि और धूपका रस, सोंफ और चांवल । ( ४ ) ग्रीष्म में सेवन,शोक और क्रोध इनसब का परित्याग कुमुद, उत्पल, कल्हार, दूध, मुलहटी और कर देवै ।
चंदन, (५) वर्षा में कृष्णागुरु, तिल, मुखलेप के अयोग्यरोग। उसीर, जटामांसी, तगर और पद्माख (६) न योज्यः पीनलेऽजीर्ण दत्तनस्ये हनुग्रहे। शरद में तालीसपत्र, भद्रपुस्तक, पुंडरीक, अरोचके जागरिते
| मुलहटी, कांस तगर और अगर इन का ___ अर्थ-पीनस, अजीर्ण, दत्तनस्य (जिसको नस्य दिया गया हो ), हनुग्रह, अरुचि
मुखलेप करना चाहिये । और जागरण के अंत में मुखलेप करना
मुखालेप का फल । उचित नहीं है।
मुखालेपनीलानां दृढं भवति दर्शनम् । सुयोजित मुखलेप के गुण ।
बन्दनं चापरिम्लानं श्लक्ष्णं तामरसापमम् ।
__अर्थ-मुख लेपन करने वाले मनुष्य की सच हंति सुयोजितः ॥१७॥ अकालपलितव्यंगवलीतिमिरनीलिकाः।।
दृष्टि दृढ होजाती है और उसका मुख ____ अर्थ- विधिपूर्वक मखलेप करने से । बिकसित कमल के समान कोमल होजाकेशों का कुसमय पकना, व्यंग, वली, ति- ता है । मिरं रोग और नीलिका जाते रहते हैं। सिर में तेल के चार प्रकार | ."
ऋतुपरता से छः लेप । अगसेकपिचवो बस्तिश्चेति चतुर्विधम्। कोलमज्जावृषान्मूलं शावरं गौरसपाः १८ मधलम् सिंहीमूलंतिला:कृष्णादा-त्वनिस्तुवायत्रा बहुगुणं तद्विधादुत्तरोत्तरम् ॥ २३ ॥ दर्भमूलहिमोशीरशिरीषमिशितंडुलाः१९॥ अर्थ-मस्तक में चार प्रकार से तेल कुमुदोत्पलकहारदूर्वामधुकचन्दनम्। दया जाताहै यथा, अभ्यंग, परिषेक, पिचु कालीयकतिलोशीरमांसीलगरपद्मकम् २०॥ तालीसगुंद्रापुंहाहयष्टीकाशनतागुरुः ।।
और यस्ति, ये उत्तरोत्तर अधिक गुणवाले इत्यर्धाधोदिता लेपा हेमंतादिषु षट् स्मृताः। हैं अर्थात अभ्यंग से परिषेक, परिषेक से अर्थ-हेमन्तादि छः ऋतुओं में क्रम से आधे | पिचु, पिचुसे वस्ति गुणों में अधिक है।
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(१९४)
अष्टांगहृदये।
अ० २२.
अभ्यंगादि का प्रयोग। | ऊपरसे वस्त्र की वेणी लपेट दे और फिर तत्राऽभ्यंगः प्रयोक्तव्योरौश्यकंडूमलादिषु ।। उरदों का लेप करदे । अरूंषिकाशिरस्तोददाहपाकव्रणेषुतु॥२४॥ पीछे का कर्तव्य कर्म । परिषेकःपिचुः केशशातस्फुटनधूपने । ।
ततोयथाव्याधि श्रृत स्नेह कोष्णं निषेचयेत्। नेषस्तंभेच बस्तिस्तु प्रसुप्त्यर्दितजागरे २५।
ऊर्व केशभुवोयाद्व्यंगुलम् धारयेचतम् ॥ नासाऽऽस्यशोषेतिमिरेशिरोरोगेच दारुणे
आवक्त्रनासिकोत्क्लेदात् दशाऽष्टीअर्थ-इनमें से अभ्यंग का प्रयोग मस्त
चलादिषु। क की रूक्षता, खुजली और मलादि में क- | | मात्रासहस्राणि अरुजे त्वेकम्रना चाहिये । परिषेक का प्रयोग सिर की
स्कंधादि मर्दयेत् ॥ ३०॥
मुक्तस्नेहस्य परमं सप्ताहं तस्य सेवनम् । कुंसियां, शिरस्तोद ( सुई चुभने की सी
____अर्थ-फिर व्याधि के उपयोगी कुछ पीडा), दाह, पाक और व्रण में करना
गरम पका हुआ स्नेह चर्म पद के छेद चाहिये । पिचु ( रुई तेल में भिगोकर ल.
द्वारा केशभूमि के ऊपर दो अंगुल की ऊंगाना ) का प्रयोग केशपात, केश की भू
चाई तक भरदे और जब तक मुख और मिका फटना, धुंए निकलने की सी वेदना और नेत्रस्तंभ में करै तथा प्रसुप्ति, अर्दित,
नासिका द्वारा स्राव न होने लगे तब तक
| इस तेल को मस्तक पर धारण करै । वा. निद्रानाश, नासिकाशोष, तिमिररोग और तज रोग में इसे दस सहस्र मात्रा दारुण शिरोरोग में वस्ति का प्रयोग करना काल तक, पित्तरोग में आठ सहस्र मात्रा चाहिये।
काल तक, कफजरोग में छः सहस्र मात्रा शिरोदस्ति की विधि। काल तक और स्वस्थावस्थामें एक सहस्र विधिस्तस्य निषण्णस्य पीठे जानुसमे मृदौ । मात्रा काल तक धारण करें | शिरोवास्तको शुद्धाक्तास्वन्नदेहस्यदिनांते गव्यमाहिषम् । दर करके कन्धों और प्रीवादि में मर्दन करें द्वादशांगुलविस्तीर्ण चर्मपट्टे शिरः समम् ॥ शिरोविस्त के सेवन काल की परमा माकर्णबंधनस्थानं ललाटे वस्त्रयष्टिते।। चैलवेणिकया वध्या माषकल्केन लेपयेत् ॥
वधि सात दिन की है। .. अर्थ-दिन के अंत में वमन विरेचनादि
कर्णपूरण ।
| धारयेत्पूरणं कर्णे कर्णमूलं विमर्दयन् ॥ ३१॥ द्वारा शुद्ध,तैलादि द्वारा अभ्यक्त,स्वेदादिद्वारा रुजः स्यान्मार्दवं यावन्मात्राशतमवेदने । स्वेदित व्यक्ति को जानु तक ऊंचे आसन | अर्थ-कान में तेल भरके उस समय पर जिस पर कोमल विछौने विछे हों बैठा तक भरा रहने दे जब तक दर्द में कमी देबै और फिर उसके ललाट पर वस्त्र बांध न हो और कानों की जड़ को धीरे धीरे देवै तथा उसके ऊपर के भाग में बारह | हाथ से मर्दन करता रहे । स्वस्थावस्था में अंगुल लंबा, मस्तक के समान चौग गौ सौ मात्रा पर्यन्त कानों में स्नेह धारण भेंस का चमडा कान तक बांधकर करै ।
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अ० २३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१९५ )
हितम् ।
मात्रा का प्रमाण । यावत्पर्येति हस्ताग्रं दक्षिणं जानुमंडलम् ॥
रुक्तोदकंघर्षाश्रुदाहरोगनिवर्हणम् ॥ १॥ निमेषोन्मेषकालेन समं मात्रातु सास्मृता।
। अर्थ-संपूर्ण प्रकार के नेत्र रोगों में अर्थ-दाहिना हाथ जानु के चारों ओर | आश्चोतन अर्थात, परिषेक हितकारी होता जितनी देर में घुमाया जाता है उतना स- है इससे आंखों का दर्द, तोद, कंडू, घर्ष मय यदि आंख के खोलने और बन्द करने ( दोनों पलकों का चिपट जाना ), आंसू के स्वाभाविक काल के समान हो तो उस गिरना, दाह और ललाई जाते रहते हैं । समय को मात्रा कहते हैं।
आश्चोतन विधि ।। मूर्द्धतेल के गुण । उष्णं वाते कफे कोष्णं तच्छीत रक्तपित्तयोः कवसदनसितत्वापिंजरत्वं
निवातस्थस्यवामेनपाणिनोन्मील्य लोचनम् परिफुटनं शिरसः सभीररोगान् ।। शुक्त्याप्रलंबयाऽन्येन पिचुवाकनीनिके। जयति जनयतींद्रियप्रसाद
दश द्वादशवाबिन्दून द्वथंगुलादवसेचयेत् । स्वरहनुमूर्धबलं च मूर्धतैलम् ॥ ३३ ॥ ततःप्रमृज्य मृदुना चैलेन कफवातयोः।
अर्थ-मूर्द्ध तैल बालों का गिरना, स- अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेनस्वेदयेन्मृदु ४॥ फेद होना, पिंगलत्व, परिफुटन को दूर | ___ अर्थ-यह भाश्चोतन वातज नेत्ररोग में करता है, मस्तक के वातरोगों का नाश गरम, कफ में थोड़ा गरम और रक्तपित्त करता है तथा इन्द्रियों में निर्मलता, स्वरमें में शीतल दिया जाता है । इसकी विधि बल, हनुबल और मस्तकबलको उत्पन्न
यह है कि रोगी को वातरहित स्थान में करता है।
बैठाकर वांये हाथ से आंख खोलकर सीपी इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां ।
प्रलंबा वा रुई के फोये से दो अंगुल ऊंचे द्वाविंशतितमोऽध्यायः।
से आंख के तारे पर दस बारह बूंद डाल दे । तदनंतर कोमल वत्र से आंख पोछकर
गुनगुने पानी में चैलवर्ति को भिगोकर धीरे त्रयोविंशोऽध्यायः ।
धारे आंखों में स्वेदन करै । यह आश्चौतन
वात कफमें किया जाता है रक्तपित्त में भयाऽत आश्च्योतनांजनविधिमध्याय- नहीं।
व्याख्यास्यामः। - अर्थ-अब हम यहां से आश्चोतन और
अत्युष्ण आश्चोतन के रोग । . अंजनविधि नामक अध्यायकी व्याख्या अतिशीतं तु कुरुते निस्तोदस्तंभवेदनाः ५॥
अत्युष्णतीक्ष्णरुग्रागडनाशायाऽक्षिसेचनम् करेंगे।
कषायवर्त्मतां घर्ष कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु । नेत्ररोग में आश्चोतन । विकारवृद्धिमत्यल्पं सरंभमपरितम् ६ ॥ " सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्च्योतनम्- | अर्थ-अत्यंत उष्ण और अत्यंत तीक्ष्ण
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मष्टांगहृदय ।
अ० २३
आश्चोतन से दर्द, ललाई और दृष्टिनाश अंजन के भेद। ये रोग होते हैं । अत्यन्त शीतल आश्चो- छेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनाभति त्रिधा। . तन से नेत्रों में सुई चुभनेकी सी पीडा, ।
अंजनम् लेखनं तत्र कषायाम्लपटूषणैः १० ॥ स्तब्धता और शूल होते हैं । अतिमात्र
रोपणं तिक्तकैटव्यैः स्वादुशीतैः प्रसादनम् ।
अर्थ-अंजन तीन प्रकार का होताहै भाश्चोतन से पलकों में ललाई, पलकों का
जैसे लेखन, * रोपण, और दृष्टिप्रसादन आपस में चिपट जाना, कठिनता से खुलना ये रोग होते हैं । अत्यल्प आश्चोतन से
इन में से कषाय, अम्ल, लवण और कटु
द्रव्य द्वारा लेखन, तिक्त द्रव्य द्वारा रोपण, रोग की वृद्धि होती है और अपरित अक्षिसेचन से नेत्रक्षोभ होता है।
मधुर और शीत वार्यवाले द्रव्य द्वारा दृष्टि · युक्तिपूर्वक प्रयुक्त औषधका फल ।
प्रसादन अंजन तयार किया जाता है । गत्वासधिशिरोघ्राणमुखस्रोतांसि भेषजम् ।
___ अंजनकी शलाका का प्रकार । ऊर्ध्वगान्नयनेन्यस्तमपबर्तयते मलान् ॥ ७॥
दशांगुला तनुमध्ये शलाका मुकुलानना ॥ ___अर्थ-नेत्रों में डाली हुई औषध आंखों
प्रशस्ता लेखने ताम्रीरोपणे काललोहजा।
अंगुली च सुवर्णोत्था रूप्यजाच प्रसादने॥ की संधि, मस्तक, नासिका और मुखस्रोत
___ अर्थ-अंजन लगाने के लिये दस अं. में गमन करके ऊर्ध्वगामी संपूर्ण मल को
गुल लंबी बीचमें पतली और दोनों सिरेपर दूर कर देती है। अंजन प्रयोग।
मुकुल के आकार के सदृश सलाई होनीअथांऽजनं शुद्धतनोर्नेत्रमात्राश्रये मले।
चाहिये । लेखन अंजन में तांबे की सलाई पक्वलिंगेऽल्पशोफातिकंडूपैच्छिल्यलक्षिते॥ और रोपण अंजन में लोहेकी सलाई अथवा मंदघर्षाश्रुरोगेऽक्षिण प्रयोज्यं धनदूषिके। । उंगली और प्रसादन अंजनमें सौनेकी अथवा आतेपित्तकफासुम्भिारुतेन विशेषतः ९॥
रूपेकी सलाई उत्तम होती है। - अर्थ-आश्चोतन के पीछे अंजनका प्र- |
अंजनकी त्रिविध कल्पना । योग करना चाहिये । विरेचनादि से शुद्ध
पिंडोरलक्रिया चूर्णस्त्रिधैवांजनकल्पना । हुए रोगी के नेत्र में रोग उत्पन्न करने वाला | गुरोमध्ये लधौ दोषे ताःक्रमेण प्रयोजयेत् ॥ दोष नेत्र मात्र में आश्रित हो जाताहै तथा
___ + जैले शस्त्र द्वारा किसी वस्तु को थोडी सूजन, अधिक खुजली, पिच्छिलता, काटकर अलग कर देते हैं वैसे ही अंजन अल्पघर्ष ( कुछ पलकों का चिपटना ] कुछ द्वारा शुक्रार्मादि नेत्र रोग छीलकर अलग आंसू टपकना, नेत्र के मल में गाढापन आदि किये जाते हैं इस से इसे लेखनांजन कहते जब पक्क होने के लक्षण दिखलाई देने लगें
हैं । जिस अंजन से अभिष्यन्दादि नेत्ररोग
का सरोहण होता है उसे रोपणांजन कतब अंजन लगाना उचित है । पित्त, कफ,
हते हैं और जिससे दृष्टि निर्मल होकर प्ररक्त और वातपीडित रोगी के लिये अंजन
फुल्लित होजाती है उसे दृष्टिप्रसादन अंलगाना विशेष हितकारी है।
अन कहते हैं।
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अ० १३
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - अंजन की कल्पना तीन प्रकारकी होती है, यथा, पिंडी, रसकिया और चूर्ण, इनमें से गुरु दोषमें पिंडी, मध्य दोष में रसक्रिया और लघुदोष में चूर्णका प्रयोग किया जाता है ।
तक्ष्णिादि चूर्ण का प्रमाण । हरेणुमात्रं पिंडस्य वेल्लमात्रा रसक्रिया । तीक्ष्णस्य द्विगुणं तस्य मृदुनः चूर्णितस्य च ॥ द्वेशला तु तीक्ष्णस्यतिस्रःस्युरितरस्य च । अर्थ-*तीक्ष्ण वीर्यवाले द्रव्यों से बने हुए पिंड का परिमाण मटर के समान होता है | मृदुद्रव्यों से बने हुए पिंडका परिमाण दो मटर के समान और रसक्रिया का परिमाण विडंग के समान होताहै । तीक्ष्ण चूर्ण की दो सलाई और मृडु चूर्णकी तीन सलाई गाईजाती हैं ।
रात्रपादिमें अंजन का निषेध | निशिस्वप्नमध्याह्ने पानान्नोष्णगभस्तिभिः ॥ अक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्धितोत्पीडितद्रुताः । प्रातः सायंच तच्छात्यै व्यर्केऽतोऽजयेत्सदा
अर्थ - रात्रि के समय, नींद में, मध्यान्ह के • समय अंजन न लगाना चाहिये । तथा जब उष्ण किरणों से नेत्र म्लानहोरहे हों उस समयभी अंजन न लगावै, क्योंकि इन समयों में
× अन्य ग्रन्थों में लिखा है कि लेखनांजन तांवे, वा कांसी इन में से किसी में रोपणांजन सुवर्ण, वट वा शंख, प्रसादनांजन स्फटिक, पाकड़, वा चंदन इन में से किसी में रक्खे। इस तरह अंजन में कोई अवगुण नहीं होने पाते हैं । बत्ती घिसनेकी शिला पांच अंगुल लंबी तीन अंगुल चौडी बीच में कुछ नीची होनी चाहिये ।
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( १९७ )
अंजन लगाने से सब दोष बढजाते हैं, उत्पीडित होते हैं, और गरमी के कारण पिघल कर आंखों में रोग उत्पन्न करते हैं । इसलि - ये सायंकाल और प्रातःकाल के समय सूर्य के बादलसे रहित होने पर जब गरमी की अधिकता नहो नेत्ररोगों की शांति के लिये अंजन लगावै ।
अन्य आचायों का मत ।
वदूत्यन्ये तु न दिवा प्रयोज्यं तीक्ष्णमंजनम् । विरेकदुर्वलं चक्षुरादित्यं प्राप्य सीदति ॥ स्वप्नेन रात्रौ कालस्य सौम्यत्वेन च तर्पिता । शीतसात्म्या हगाग्नेयी स्थिरतां लभते पुनः ॥
अर्थ - अन्य आचार्यों का यह मत है कि दिनमें तीक्ष्ण अंजन ना लगाना चाहिये । क्योंकि तीक्ष्ण अंजनसे आंसू निकलने ... कारण नेत्र सूर्यकी किरण में शिथिल होजाते है इसलिये रात्रि में अंजन लगाना चाहिये । क्योंकि तीक्ष्ण अंजन से नेत्रों के क्षोभित होने पर भी सौम्यता और निद्रावस्था के कारण आग्न्येयी और शीतसात्म्य दृष्टि फिर तर्पित हो जाती है और पुनर्वार स्थिरताको प्राप्त कर लेती हैं I
अन्यमत में दूषण |
अत्युद्रिक्ते बलासे तु लेखनीयेऽथवा गदे । काममयपि नात्युष्णे तीक्ष्णमणिप्रयोजयेत्
अर्थ- अति उत्कृष्ट कफरोग में अथवा लेखन के योग्य शुक्रार्मादि रोगों में अत्यन्त गरम दिन में अंजन न लगावै । क्योंकि काल की गरमी और अंजन की तीक्ष्णता का अतियोग होने के कारण दृष्टि का नाश है ।
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अष्टादये।
इस में दृष्टांत । अश्मनो जन्म लोहस्य तत एव च तीक्ष्णता । उपघातोSपि तेनैव तथा नेत्रस्य तेजसः २०
अर्थ- जैसे पाषाण से लोह की उत्पत्ति होती है और उसी तरह पत्थर पर घिसने से लोहे में तीक्ष्णता होती है और उसी पाषाण की अधिक चोट से वही तीक्ष्णता मारी भी जाती है । वैसे ही तेजः पदार्थ द्वारा नेत्र का जन्म है और तेज पदार्थ के सम्यक् योग से नेत्र में तीक्ष्णता अर्थात् देखने की शक्ति बढजाती है और अतियोग होने से दृष्टि का नाश होजाता है, इसलिये दिन की गरमी के कारण दिन के समय अत्यन्त तीक्ष्ण आग्नेय द्रव्यों से बना हुआ अंजन न लगावै ।
रात्रि में तीक्ष्णांजन का निषेध | न रात्रावपि शीतेति नेत्रे तीक्ष्णांजनं हितम् । दोषमस्स्रावयत्स्तंभकंडूजाडयादिकारि तत् ।
अर्थ - रात्रि के समय भी कफ की अधिकता के कारण नेत्र बहुत शीतल अर्थात् कंडू और पिच्छिलता आदि कफ के लक्षणों से युक्त होजाते है इसलिये उस समय भी तीक्ष्ण जन लगाना उचित नहीं है क्योंकि रात्रिकाल की सौम्यता के कारण लगाया हुआ तीक्ष्ण अंजन दोषों को अच्छी तरह नहीं निकाल सक्ता है और नेत्रों में स्तब्धता, कंडू और जाड्यादि रोगों को पैदा कर देता है ।
अंजनके अयोग्य व्यक्ति । नाजयेद्भीतवमितविरिक्ताऽशितवेगिते । क्रुद्धज्वरिततांताक्षि शिरोरुकुशोक जागरे ।
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२३
दृष्टेऽर्के शिरः नाते पीतयेोधूममद्ययोः । अजीर्णेऽग्न्यर्कसंतप्ते दिवा सुप्ते पिपासिते । अर्थ - भयभीत, वमित, विरिक्त, सयोभुक्त ( तत्काल भोजन के पीछे ), मलमूत्रादि के वेग से पीडित, क्रुद्ध, ज्वरपीडित, ग्लाननेत्र बहुत छोटे वा बहुत उजले पदार्थों के देखने से जिसकीं दृष्टि कम पड गई हो ) शिरोरोगग्रस्त, शोकार्त, रात्रिजागरण करनेवाला, सिर समेत स्नान करनेवाला, धूमपायी, मद्यपायी, अजीर्ण, अग्नि और सूर्य से सपा हुआ, दिन में सोया हुआ और प्यासा ये सब अंजन के योग्य नहीं हैं । तथा जिस दिन बादल हो रहे हों उस दिन भी अंजन न लगावै ।
W
न लगाने योग्य अंजन | अतितीक्ष्णमृदुस्तोकबहूच्छघन कर्कशम् । श्रत्यर्थ शतिलं तप्तमंजनं नावचारयेत् ॥२४ अर्थ - अति तीक्ष्ण, अति अल्प, अति अधिक, अति तरल,
अतिअति घन,
मृदु,
अतिकर्कश, अति शीतल और अति तप्त अजन न लगाना चाहिये ।
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अंजन के पीछे का कर्तव्य | अथाऽनुमलियन् दृष्टिमतः संचारयेच्छनैः। अंजिते वर्त्मनी किंचिच्चालयेच्चैव मंजनम् । तीक्ष्णव्याप्नोति सहसान चोन्मेषनिमेषणम् । निष्पीडनं च वर्त्मभ्यां क्षालनं वा समाचरेत् ।
अर्थ - नेत्रमें अंजन लगाने के पीछे दृष्टि गोलकको न खोलकर धीरे धीरे नेत्रों के पलकों को उठाकर नेत्रके भीतर अंजनको धीरे धीरे संचालित करे ऐसा करने से तीक्ष्ण अंजन सब नेत्रमें व्याप्त होजाता है । इस काम
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अ० २४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१९९)
विधिका उल्लंघन करके शीघ्रता न करै । । लगाने से नेत्रोंके अभितप्त होनेपर पूर्ण पलकों का खोलना, वन्दकरना. वर्मद्वारा प्रत्यंजनको लगाना हित कारकहै । पीडन करना वा क्षालन करना उचित नहीं हैं
इतिश्री अशंगहृदये भाषाटीकायां क्षालन विधि। अपेतौषधसंरंभ निर्वृत नयनं यदा।
त्रयोविंशोऽध्यायः । व्याधि दोषर्तुयोग्याभिरद्भिःप्रक्षालयेत्तदा ॥
अर्थ-औषधका क्षोभ दूर होनेपर जब चतुर्विंशतितमोऽध्यायः । नेत्र व्याधिकी यंत्रणा से रहित होजांय तब अभिष्यन्दादि व्याधि, वातादि दोष और वसंतादि ऋतु के योग्य तयार किये हुए जल
| अथाऽतस्तर्पणपुटपाकविधिमध्याय
व्याख्यास्यामः। से नेत्रों का प्रक्षालन करै ।
अर्थ-अब हम यहां से तर्पण पुटपाक शोधन प्रकार ।
विधि नामक अध्यायकी ब्याख्या करेंगे । दक्षणांगुष्ठकेनाऽसि ततो वाम सवाससा। ऊर्धवमनि संगृह्य शोध्यं वामेन चेतरत् ॥
तर्पण की योजना। पद्मप्राप्तांजनादोषोरोगान्कुर्यादतोऽन्यथा।
“नयनेताम्यतिस्तब्धेशुष्केलक्षेऽभिघातिते __अर्ध-नेत्रों को धोनेके पीछे दाहिने हा
वातपित्तातुरे जिह्मे शीर्णपक्ष्मावलक्षणे १॥
कृच्छ्रोन्मालाशराहर्षशिरोत्पाततमोऽर्जुनैः। थके अंगूठे पर कपडा लपेटकर रोगी के
स्यंदमथान्यतोवातबातपर्यायशुक्रकैः ॥२॥ वांय नेत्रको ऊंचाकरके पोंछ डाले, इसीतरह आतुरे शांतरागाश्रुशूलसंरंभदूषिके । . वाये हाथ के अंगूठे पर कपडा लपेटकर निवाते तर्पण योज्यं शुद्धयोर्मूर्धकाययोः२॥ दाहिनी आंखको पोंछडाले । न पोंछने से
| काले साधारणेप्रातः सायचोत्तानशायिनः । अंजन वर्म में जाकर दोष और खुजली आ
___ अर्थ-नेत्रों के म्लानयुक्त, स्तब्ध, शुष्क, दि रोगों को करता है।
रूक्ष, अभिहत ( चोटलगना ) वातपित्त
से पीडित, कुटिल, शीर्णपक्ष्म ( पलकोंका ____कंडू आदिमें तीक्ष्ण अंजन |
गलकर गिरना, ) और धुंधली दृष्टि होने कंडूजाड्येऽजनं तीक्ष्णं धूमंवायोजयेत् पुनः। तीक्ष्णांजनाऽभितप्तेतु पूर्ण प्रत्यंजन xहितम् ,,
पर, कठिनता से आखों के खुलने पर, अर्थ-अच्छी तरह साफ न होने पर नेत्रों शिराहणे, शिरोत्पात, तम, अर्जुन, अभि. में कंडू और जडताहो तो तीक्ष्ण अंजन वा |
ष्यन्द, मन्थ, अन्यतोवात, वातपर्याय, तीक्ष्ण घूमका प्रयोग करै । तीक्ष्ण अंजन |
और शुक्ररोग से पीडित होने पर तथा
ललाई, पानी पडना, शूल, रोग का वेग, ___ + नेत्रों के अभितप्त होने पर मधुर और दूषिक के शांत होने पर रोगी को और शीतल द्रव्य का जो बहुत वारीक | पिसा हुआ अंजन लगाया जाता है उसे
वातरहित स्थानमें चित्त शयन करावै तथा प्रत्यंजन कहते हैं।
वमन, विरेचन और नस्य द्वारा मूर्छा और
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देह को शुद्ध करके वसंतादि साधारण काल में प्रातःकाल और सायंकाल में तर्पण क्रिया करै ।
नेत्रमें घृत डालना ! मामय पालीं नेत्रकोशाद्वाहे समाम् ॥ Maitrini कृत्वा यथास्वं सिद्धमावपेत् । सर्पिर्निमीलिते नेत्रे तप्तां प्रविलापितम् ॥ अर्थ - नेत्र कोष के बाहर बाहर चारों ओर जौ और उरद के आटे की बनी हुई एक ऐसी बांधनी बांधे जो ऊंची हो न नीची हो, और दो अंगुल ऊंची हो । फिर दोषदृष्यादि का विचार करके यथा योग्य औषधों द्वारा सिद्ध किया हुआ घृत और गरम जल से पिघला हुआ आंखों को बन्द कराके उन के ऊपर डालै ।
राज्य में कर्तव्यादि कर्म । नक्तांध्यवाततिमिरकृच्छ्रवाधादिके वसाम् । आपक्ष्मामात् -
अथोन्मेष शनकैस्तस्य कुर्वतः ॥ ६ ॥ मात्रां विगणयेत्तत्र वर्त्मसंधिसितासिते । egौ च क्रमशो व्याधौ शतं त्रीणिच पंचच शताति सप्त चाष्टौ च दशमंथे दशाऽनिले पिते षट् स्वस्थवृत्ते च बलासे पंच धारयेत्
अर्थ - रात्र्यंध अर्थात् रतोंध, वातजन्य तिमिर और कृच्छयोधादि नेत्र रोगों में पूर्वोक्त रीति से नेत्र के चारों ओर मेंढ़नी बनाकर गरम जल द्वारा पिघली हुई चर्बी बन्द नेत्रों के ऊपर पक्ष्म के अप्रभाग तक डालै । फिर धीरे धीरे नेत्रों को खोलते हुए पूर्वोक्त मात्रा की गणना करै । वमगत, संधिगत, शुक्लगत, कृष्णगत और दृष्टिगत नेत्रयोगमें क्रम से सौ, तीनसौ, पांचसौ, सात सौ
1
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हृदये ।
आठसौ मात्रा तक नेत्र में डाली हुई औध को धारण करै । तथा मंथरोग में एक हजार, पित्तरोग में छ: सौ, स्वस्थावस्था में छः सौ और कफरोग में पांच सौ मात्रा * तक धारण करै ।
अपनिदेश में द्वारकरणादि । कृत्वाऽपांगे ततो द्वारं स्नेहं पात्रे तु गालयेतु । पिबेच्च धूमं नेक्षेत व्योम रूपं च भास्वरम् ॥
अर्थ - मात्रा धारण के पीछे पाली के अपांग में छेड़ करके डाले हुए स्नेहको एक पात्र में लेलेवे, पीछे धूमपान करे, तथा आकाश, सूर्य, आतप आदिचमकीले पदार्थों को न देखे |
बातादिरोग में प्रतिदिन तर्पण | इत्थं प्रतिदिनं वायौ पित्ते त्वेकांतरं कफे । स्वस्थे च द्वयतरं दद्यादातृप्तोरिति योजयेत् ॥
अर्थ - इस तरह वातरोग में प्रतिदिन पित्तरोग में एक दिन वीच में देकर तथा कफरोग और स्वस्थावस्था में दो दिन का अंतर देकर तर्पण करे |
अ २४
तर्पण के लक्षण ।
प्रकाशक्षमता स्वास्थ्यं विशदं लघु लोचनम् । तृप्ते विपर्ययोऽतृप्तेऽतितृप्ते श्लेष्मजा रुजः ॥ अर्थ-नेत्रों के अच्छी तरह तृप्त होने पर चमकीले पदार्थों के देखने की शक्ति बढ जाती है, स्वास्थ्य, विशदता, और हलका पन पैदा हो जाता है । अच्छी तरह तृप्त न होने पर इन के विपरीत लक्षण होते है तथा अतितृप्त होने पर खुजली और क
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x नेत्र के स्वाभाविक खोलने मूंदने में • जितना काल लगता है अथवा निरंतर जानु के चारों ओर हाथ फेरने में जितना काल लगता है उसे मात्रा कहते हैं ।
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
अ० २४
फजनित पिच्छिलतादि सब प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
स्नेहनपुटपाक की कल्पना । भूशयप्रसहानूपमदो मज्जावसामिषैः ॥ १४ ॥ • कोहनं पयसा पिष्टैर्जीवनीयैश्च कल्पयेत् ।
अर्थ - मेकगोधादि विलेशय, गोगर्दभादि प्रसह, महामृग जलचरादि आनूप, इनका मेद, वसा, मज्जा और मांस तथा जीवती काकोल्यादि जीवनीय गण में से " किसी द्रव्य को दूध के साथ पीसकर स्नेहन पुटपाक बनावै ।
पुटपाकका विधान |
खेहपीता तनुरिव क्लांता दृष्टिर्हि सीदति ।
तर्पणानंतरं तस्मादृग्बलाधानकारिणम् ॥ मृगपक्षियकुन्मज्जावसांऽत्रहृदयामिषै १६ । पुटपाकं प्रयुजीत पूर्वोक्तेष्वेव यक्ष्मसु । मधुरैः सघृतैः स्तन्यक्षीरपिष्ठैः प्रसादनम् । अर्थ - घृतादि स्नेह द्वारा जैसे देह क्लान्त अर्थ - मृग और पक्षियों का यकृत, मज्जा हो जाती है वैसेही स्नेह पानकी हुई दृष्टि वसा, अंत्र, हृदय व मांस घृत और मधुर भी शिथिल हो जाती है । इस लिये तर्पण वक्त द्रव्यों के साथ स्तन्यदुग्ध द्वारा के पीछे तर्पणजन्यरोगों में दृष्टि में बल पीसकर प्रसादन पुटपाक 1 पहुंचाने के निमित्त पुटपाक का प्रयोग पुटपाक की कल्पना । करना चाहिये ।
|
वातादि में स्नेहनादि पुटपाक । स बाते स्नेहनः श्लेष्मसहिते लेखनो हितः ॥ इन्दौर्बल्येऽनिले पित्ते रक्ते स्वस्थे प्रसादनः । अर्थ-वात स्नेहनपुटपाक, कफयुक्त वात में लेखनपुटपाक हितकारी है, तथा | दृष्टि की दुर्बलता में, वातपित्तमें, रक्त में और स्वस्थावस्था में प्रसादन पुटपाक हितकारी है।
लेखनपुटपाक की कल्पना । मृगपक्षियकृन्मांसमुक्तायस्तान सैंधवैः १५ । स्रोतोजशख फेनालैर्लेखनं मस्तुकाल्पितैः । अर्थ - मृग और पक्षियों का यकृत वा
२६
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(२०१ )
मांस, तथा मोती, लोहा, तांबा, वा सेंधा नमक इनके द्वारा पीसकर लेखनपुटपाक बनावै, यहां जांगल मृगपक्षियों का ग्रहण है । प्रसादनपुटपाक की कल्पना ।
बिल्वमात्रं पृथक्पिड मांसभेषजकल्कयोः ॥ sonazisभोजपत्रैः स्नेहादिषु क्रमात् । पचेत्प्रदीप्तैरग्न्याभं पक्कं निष्पडिय तद्रसम् । agar मृदा लिप्तं धवधन्वनर्गोमयैः ॥ १८ नेत्रे तर्पणव कुंज्यात्
शतं द्वे त्रीणि धारयेत् ॥ १९ ॥ लेखनस्नेहनांत्येषु -
पूर्वी कोणी हिमोऽपरः । अर्थ- मांस और औषधका कल्क प्रत्येक बिल्वफल के समान अर्थात् आठ आठ तोला लेकर पीसकर गोलां बनाले | और इस गोले को स्नेहनपुटपाकमें अरंड के पत्तों से, लेखन पुटपाक में बड़ के पत्तों से और प्रसादन पुटपाक में कमल के पत्तों से लपेट देवै फिर इसके ऊपर चारों ओर दो दो अंगुल ऊंची मृत्तिका का लेपन करदे और सुखाले ( कोई कोई काली मूत्तिका के लेपका विधान करते हैं ) फिर इस मृत्तिका सहित गोले को स्नेहनपुटपाक में धौ की लकडी में, लेखनपुटपाक में धामन की लकडी में और प्रसाद पुटपाक में गोवर के उपलों की आगमें रखदे । जब ये गोला अग्नि के
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अष्टांगहृदय । .
.
भ. २५
समान लालरंग का होजाय तब इसे निकाल | अर्थ-नेत्र में बल पहुंचाने के निमित्त कर इसके पत्ते और मृत्तिका हटाकर यंत्र | नस्य, अंजन, तर्पण, पुटपाकादि द्वारा सब द्वारा इसका रस निकालले । इस: रसका | प्रकार से यत्न करना चाहिये । क्योंकि तर्पण की तरह नेत्र में प्रयोग करै । तथा | दृष्टि नष्ट होने से अनेक प्रकार के पदार्थों से इसे स्नेहनपुटपाक में सौ मात्रा तक, लेखन | भरा हुआ जगत केवल एक मात्र अंधकार पुटपाक में दो सौ मात्रा तक, और प्रसादन | रूप धारण कर लेता है। पुटपाक में तीनसौ मात्रा तक, धारण करे । इति श्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां . स्नेहन और लेखन में कुछ गरम और
चतुर्विंशतितमोऽध्यायः। प्रसादन में ठंडा रस प्रयोग कियाजाताहै ।
पाकान्त में कर्त्तव्यतादि। धूमपोऽते तयोरेव
पञ्चविंशतितमोऽध्यायः । योगास्तत्र च तृप्तिवत् ॥ २० ॥ तर्पणं पुटपाकंच नस्यान न योजयेत् । । यावत्यहानि युजीत द्विस्ततो हितभाग्भवेत् | अथाऽतो यंत्रविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः। मालतीमल्लिकापुष्पैद्धाक्षो निवसेनिशि ॥ अर्थ-अब हम यहां से यंत्रविधि नामक
अर्थ-स्नेहन और लेखन पुटपाक के | अध्याय की व्याख्या करेंगे । अन्त में स्नेहोक्त कफकी शान्ति के लिये | यंत्रों का स्पष्ट विवरण । धूमपान करै ( प्रसादन के अंतमें न करै ) 'नानाविधानांशल्यानांनानादेशप्रवाधिनाम् जिसतरह तर्पण में सम्यक् योग, हीनयोग आहर्तुमभ्युपायो यस्तयंत्रं यच्च दर्शने १॥
अर्शोभगदरादीनां शस्त्रक्षाराऽनियोजने। और अतियोग के लक्षण होते हैं वैसेही
शेषांगपरिरक्षायां तथा वस्त्यादिकर्माण ॥ पुटपाकमें भी होतेहैं। नस्यके अयोग्य मनुष्यको घटिकालाबुशंगचं जांबवोष्ठादिकानि च । तर्पण और पुटपाक भी न देना चाहिये । जब अर्थ-अनेक प्रकार के शल्य कांटा, तक तर्पण और पुटपाक का व्यवहार किया
पत्थर, वांस आदि जो शरीर के भिन्न भिन्न जाय तबतक तथा उससे भी दूने स्वमयतक | स्थानों में सजाते हैं उनको खींचकर निहिताहार विहार का सेवन करना उचित है | कालने के लिये यथा उनको देखने के तथा रात्रि में आंखों के ऊपर मालती और | लिये जो उपाय है वह यंत्र कहलाता है । मल्लिका के फूल बांधकर सोना चाहिये । तथा अर्श, भगंदर, नाडी व्रणादि में शस्त्र, अंजनादि के प्रयोगकी आवश्यकता।
क्षार और अग्निकर्मादि के प्रयोग करने __ सर्वात्मना नेत्रबलाय यत्न
पर उनके पास वाले अंगों की रक्षा करने कुर्बीत नस्यांजनतर्पणाद्यैः ।। दृष्टिश्च नष्टा विविधं जगच्च
के निमित्त तथा पस्ति और नस्यादि कर्म . तमोमयं ज्ञायत एकरूपम् ॥ २२॥ | के निमित्त जो उपाय किये जाते हैं वे यंत्र
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म. २५:
सूत्रस्थान भाषाकासमेत
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कंक मुख।
ReinshTEST
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सिंहास्य ।
ऋक्षमुख।
कहलाते हैं तथा घटिका अलावु, शृंग, ( सींगी ), जाववोष्टादि को मी यंत्र कहते हैं।
पों के रूप और कार्य।। अनेकरूपकार्याणि यंत्राणि विविधान्यतः३।। विकल्प कल्पयेदुखया
यथास्थूलं तु वक्ष्यते । मर्थ-यंत्रों की सूरत और उनके कार्य भनेक प्रकार के हैं, इसलिये अपनी बुद्धि से बिचार विचार कर जैसा काम पडे उसी के अनुसार यंत्र निर्माण करें । इसजगह हम स्थूल स्थूल यंत्रों का वर्णन करते हैं । समझदार वैद्य इनके नमूने के अनुसार अन्यान्य यंत्रों को भी बना सकता है।
स्वस्तिक यंत्र । तुल्यानिकंकसिंहलंकाकादिमृगपक्षिणाम्॥ मुखैर्मुखानि यंत्राणां कुर्यात्तत्संशकानि च । अष्टादशांगुलायामान्यायसानिच भूरिशः॥ मसूराकारपर्यतैः कण्ठे बद्धानि कीलंकैः। विद्यात्स्वस्तिकयंत्राणि मूले कुशनतानि च तैरस्थिसंलग्नशल्याहरणमिष्यते। .
अर्थ-यंत्रों के मुख कंक, सिंह, उळूक काकादि पशुपक्षियों के मुखके सदृश बनाये जाते हैं तथा इन यंत्रों के नाम भी आकृति के अनुसार ही रक्खे जाते हैं, जैसे कंकमुख यंत्र, सिंहास्य यंत्र आदि । इनकी लंबाई प्रायः अठारह अंगुल की होती है और बहुत करके ये लोहे के बनाये जाते हैं ( कहीं कहीं हाथी दांत के भी देखे जाते हैं ) इन के कंठ में मसूर की दाल के आकारवाली लोहे की कील जड़ी जाती है । इस के पकडने का स्थान अंकुश की समान टेढा
HATHIMITRALIA
काकमुख।
तरक्षु मुख ।
BES
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अष्टांगहृदये।
-
होता है इन्हें स्वस्तिक * यंत्र कहते हैं। | इसको चिमटी कहना बहुत संभवमालूम होइनके द्वारा अस्थिमें लगे हुए शल्य निकाले | ता है और यही मुक्तान है, यह छोटे छोटे जाते हैं ।
शल्य और नाकके बाल, और आंखके पलकों संदंश यंत्र ।
के परवाल खींचने क काम में आता है । कीलबद्धविमुक्तांग्रौ सदशौ षोडशांगुलौ७॥ मुचुंडीयंत्र तालयंत्र । त्वशिरास्नायुपिशितलग्नशल्यापकणी । मचडीसूक्ष्मदंतर्जुमलेरुचकभूषणा। षडंगुलोऽन्योहरणेसुक्ष्मशल्योपपक्ष्मणाम्॥
" गंभीरब्रममांसानामर्मणः शेषितस्य च ९ ॥ अर्थ-संदंश यंत्र सोलह अगुल लंबे दे द्वादशांगुले मत्स्यतालवद् द्वथेकतालके। होते हैं, ये दो प्रकार के होते हैं एक तो तालयंत्रे स्मृते कर्णनाडीशल्यापहारिणी ॥ ऐसे होते हैं जिनके अग्रभाग में कील लगी । अर्थ-मुचुंडी नाम एक प्रकार का यंत्र होती है. दूसरी तरह के मुक्तान अर्थात् | होता है, इस में छोटे छोटे दांत होते हैं। खुलेहुए मुखबाले होते हैं । इस संदंश शब्द | सीधा होता है और पकड़ने की जगह पर का अपभ्रंश संडासी मालूम होता है । संदेश भंगुलीयक रूप होता है । यह गहरे घावों यंत्रों द्वारा त्वचा, शिरा, स्नायु, और मांस में मांस तथा बचेहुए अर्मको निकालने में में घुसा हुआ शल्य निकाला जाता है । काम आता है। दूसरी प्रकारका संदश छःअंगुल लंबा होताहै | तालयंत्र दो प्रकार का होता है, एक
द्वितालक, जिस के दोनों ओर मछली के ताल के सदृश और एकतालक इसके एक
ओर मछलीके तालके आकार का होता है। इसकी लंबाई बारह अंगुल की होती है । यह यंत्र कान, नाक और नाडीव्रण से शल्यों के निकालने में काम आता है ।
+ देशी जराहों को सथिया भी कहते हैं, मालूम होता है कि स्वस्तिक नामक यंत्रों की विद्या में कुशछ होने से इनका नाम स्वस्तिक वेत्ता अर्थात् सथिया पड़ गया है ये अपने लिये कायस्थ कहते हैं।
नाडीयंत्र । इनके मथुरा में बहुत घर हैं और प्रायः | नाडीयंत्राणि शुषिराण्येकानेकमुखानि च। जर्राही करते हैं।
स्रोतोगतानां शल्यानामामयानांच दर्शने ॥
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सूत्रस्थान भाषाठीकासमेत ।
क्रियाणां सुकरत्वाय कुर्यादाचूषणाय च । चार कर्णयुक्त वारंग के संग्रहार्थ पंचमुतद्विस्तारपरीणाहदैये स्रोतोनुरोधतः १२ खछिद्रा अर दो कर्ण से युक्त वारंग के __ अर्थ-वस्ति नेत्र के सदृश नाडी यंत्र
समूहार्थ त्रिमुखछिद्रा नाडी यंत्र उपयोगी होसछिद्र होते हैं, इन में प्रयोजनानुसार एक
ता है । वारंग के प्रमाण के अनुसार नाडी वा भनेक मुख होते हैं । ये कंठादि स्रोतों
यंत्रका प्रमाण होताहै । शरादि दंडके प्रवेश में प्रविष्ट हुए शल्यों के निकालने तथा
योग्य शिखाके आकार के सदृश कीलक को . उन्हीं स्थानों में होने वाले रोगों के देखने
| वारंग कहते हैं। में काम आते हैं । तथा शस्त्रकर्म, क्षारकर्म और अग्निकर्म किये हुए स्थानों की औषध को प्रक्षालन के निमित्त सुगमता करते हैं तथा विषदग्ध अंगों का विष चूसने में उपयोगी होते हैं । इन नाडीयंत्रों की लं
शल्पनिर्घातनी नाही। बाई, चौडाई मोटाई, शरीर के स्रोतों के |
| पन्नकार्णकया मूर्ध्नि सहशी द्वादशांगुला ॥
चतुर्थसुषिरा नाडीशल्यनिर्घातिनीमता। .अनुसार कल्पना की जाती है ।
अर्थ-सिरसे ऊपरवाले भागमें जिनका आकार कमल की कणिका के समानहै और बारह अंगुल लंबी और तीन अंगुल के छिद्रवाली नाडी शल्यनिर्घातनी कहलातीहै।
शल्यदर्शनार्थ अन्यनाडी। वारंगकर्णसंस्थानाऽनाहदानुरोधतः । नाडीरेवंविधाश्चाऽन्यादृष्टुंशल्यानिकारयत्
अर्थ-वारंगकर्ण के संस्थान, आनाह और लंवाई के अनुरोध से और और नाडी
यंत्र भी शरीरके भीतर प्रविष्ट हुए शल्योंके अन्यनाडीयंत्र ।
देखने के लिये बनवाने चाहिये । दशांगुलार्धनाहांतः कण्ठशल्यावलोकने ।
अर्शीयंत्राणि । नाडीपंचमुखच्छिद्रा चतुष्कर्णस्य संग्रहे ॥ पारंगस्य द्विवर्णस्य त्रिच्छिद्रा तत्प्रमाणतः। अर्शसांगास्तनाकारंयंत्रकं चतुरंगुलम् १६॥
अर्थ-कंठ के भीतर लगे हुए शल्य को | नाहे पंचांगुलं पुंसां प्रमदानां षडंगुलम् । देखने के निमित्त दस अंगुल लंबा और पांच
द्विच्छिद्र दर्शने व्याधेरेकच्छिद्रंतु कर्मणि ॥
मध्येऽस्य व्यंगुलं छिद्रमंगुष्ठोदरावस्तृतम् । पांच अंगुल परिधिवाला. नाडीयंत्र उपयोगी | अर्धागुलोच्छ्रितोदृत्तकर्णिकं तु तदूर्ध्वतः॥ होता है।
| शम्याख्यं ताहगच्छिद्रं यंत्रमर्शःप्रपडिनम्
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अष्टागहृदये।
अ.२५
अर्थ-अर्शीयंत्र ( बवासीर का यंत्र ) । नासायंत्र । गौ के स्तनों के सदृश चार अंगुल लंबा घ्राणार्बुदार्शसामेकच्छिद्रा नाडपंगुलदया। और पांच अंगुल गोलाई में होता है, स्त्रियों प्रदोशनीपरीणाहा स्याद्भगंदरयंत्रवत् २०॥ के लिये इसी यंत्र की गोलाई छ; अंगुलकी
| अर्थ-नासिका के अर्बुद और अर्शकी होती है क्योंकि उनकी गुदा स्वाभाविक ही
चिकित्सा के निमित्त नासायंत्र उपयोग में बडी होती है । व्याधिके देखने के लिये
आताहैं । इसमें एक छिद्र होता है | छिद्र दोनों ओर दो किदवाला यंत्र होता है तथा | की लंबाई दो अंगुल और परिधि तर्जनी उंशस्त्र और क्षारादि प्रयोग के निमित्त एक
गली के समान होती है । नासायंत्र भग. छिद्रवाला यंत्र होता है । इस यंत्रके बीच दर यंत्रके तुल्य होता है। में तीन अंगुल का और परिधि अंगूठे के | अंगुलित्राणक यंत्र । समान होती है । इस यंत्रके ऊपर आधे | अंगुलित्राणकं दांतं वाः वाचतुरंगुलम् । अंगल उंची एक कर्णिका होती है. जिससे | द्विाच्छन्द्र गोस्तनाकारं तद्वक्त्रविवृतीसुखम् यंत्र बहुत गहराई में नहीं जा सकता है ।
___ अर्थ-अंगुलित्राणक यंत्र हाथीदांत वा
काष्ठ का बनाया जाता है, इसका प्रमाण .... अर्शके. पीडनके निमित्त एक और प्रकार का यंत्र होता है उसे शमी कहते हैं
चार अंगुल होता है । यह अर्शयंत्र के सह
श गौके स्तनके आकार वाला दो छिद्रों से यह भी ऐसा ही होता है, इसमें छिद्र नहीं
युक्त होताहै, इससे मुख सहजमें खुल जाता होते हैं। भगंदर यंत्र।
है । इस यंत्रसे अंगुलियों की रक्षा दांतों से सर्वथाऽपनयेदाष्ठं छिद्रादूर्ध्व भगंदरे ॥१९॥ हाजाता है । इसा से इसका नाम अगुल
अर्य-भगंदर यंत्रभी अर्शीयंत्रके सदृश त्राणक है। - होता है । इसकी कार्णका छिद्रसे ऊपर दूर
करदी जातीहै कोई कोई कहते हैं कि कणिकाहीन अशेयंत्रको ही भगंदर यंत्र कहते हैं। अशीयंत्र ।
पोनिव्रणेक्षण पंत्र। योनिव्रणेक्षणं मध्ये सुषिरं षोडशांगुलम् ।
मुद्राबद्धं चतुर्भित्तमभोजमुकुलाननम् २२॥ शयिंत्र ।
चतुःशलाकमाक्रांत मूले तद्विकसन्मुखे । ___ अर्थ-यह यंत्र योनिके व्रणों के देखनेमें काम आता है, इस से इसे योनिव्रणेक्षण यं.
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. अ० २३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत।
(२०७)
कहते है । इस यंत्र के मध्यभागमें छिद्र लिये दो मुखबाली नली का वा मोर की होते हैं, इसकी लंबाई सोलह अंगुल होती पूंछ का नाल काम में लाया जाता है। है तथा मुद्रिका से बद्ध होता है, इसमें चार | इस का नाम दकोदरै यंत्र है । पत्ते होते हैं इसका आकार कमलके मुकुल के सदृश होता है, इन चारों को मिलादेने से यह नाडी यंत्र के तुल्य होजाताहै । मूल देशमें चतुर्थ शलाका के गाने से यंत्रका अग्रभाग खुल जाता है ।
धूमादि यंत्र । - षडंगल यंत्र।
धूमयस्त्यादियंत्राणि निर्दिष्टानि यथायथम् ॥ यंत्रे नाडीव्रणाभ्यंगक्षालनाय षडंगुले २३॥ अर्थ--धूमयंत्र और वस्ति यंत्रों का वर्णन बस्तियंत्राकृती मूले मुर्खेऽगुष्ठकलायखे।।
अपने अपने प्रकरण में है। अग्रतोऽकर्णिके मूले निबद्धमृदुचर्मणी २४॥ - अर्थ-नाडी ब्रण के अभ्यंग और धाने शृंगीयंत्र । के लिये छः अंगुल लंबा तथा वस्तियंत्र के व्यंगुलास्यं भवेच्छंगं चूषणेऽष्टादशांगुलम् । सदृश गोल गौकी पूंछके आकार वाला दो । अग्रे सिद्धार्थकच्छिद्रं सुनद्धं चूकाकृति॥ प्रकार का यंत्र काममें लाया जाता है । इस अर्थ-तीन अंगुल के मुखवाला यह शंगी के मूलभागमें अंगूठे के तुल्य और मुख भाग | यंत्र दूषित वात, विष, रक्त, नल, विगडा में मटर के तुल्य छेद होता है, इस के मूल हुआ दूध आदिके खींचने में काम आता है में कोमल चमडे की पट्टी लगी होती है। इस की लंबाई अठारह अंगुल की होती है वस्त्रि यंत्र में और इस में इतना ही अंतर | इसके अग्रभाग में सरसों के समान छेद है कि वस्ति के अग्रभाग में कर्णिका होती होता है । इसका अग्रभाग स्त्री के स्तनों के है । इस में नहीं होती। अग्रभाग के सदृश होता है। .
तुंबीयंत्र । स्याद्वादशांगुलोऽलाबु हे त्वष्टादशांगुलः। चतुरुभ्यंगुलवृत्तास्योदीप्तोऽतःश्लेष्मरक्तहत्
अर्थ-तुंवी यंत्र १२ अंगुल मोटा होता
है, इसका मुख गोलाकार तीन वा चार उदकोदर में नलिका यंत्र। अंगुल चौडा होता है । इस के बीच में द्विद्वारा नालिका पिच्छनलिका वोदकोदरे। जलती हुई बत्ती रखकर रोग की जगह लगा .. अर्थ--दकोदर में से जल निकालने के | देने से दूषित श्लेष्मा और रक्त खिंच आता है
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( २०८ )
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अष्टांगहृदये ।
घंटीयंत्र |
तद्वद् घटी हिता गुल्मविलयोनमने च सा अर्थ- यह घटी यंत्र गुल्म के घटाने बढाने में काम आता है । अलावु यंत्र के सदृश ही इस में भी जलती हुई बत्ती रक्खी जातीं है ।
शलाका यंत्र |
शलाकाख्यानि यंत्राणि नानाकर्माकृतीनि च यथायोगप्रमाणानि तेषामेषणकर्मणी । उभे गंडूपदमुखेस्नोतोभ्यः शल्यहारिणी ॥ २९ ॥ मसूरदलवक्त्रे द्वे स्यातामष्टनवांगुले ।
अर्थ --शलाका यंत्र अनेक प्रकार के होते हैं, इनकी आकृति भी कार्य के अनुसार भिन्न २ प्रकार की होती है । इन में से गिडोये के तुल्य मुखवाली दो प्रकार की
लाई नाडी व्रण के अन्वेषण में काम आती है । और दो प्रकार की शलाका आठ और नौ अंगुल लंबी मसूर के दल के समान मुखवाली होती है ये स्रोतो मार्ग में प्रविष्ट शल्यों के निकालने में काम आती हैं ।
इन
संकुयंत्र |
शङ्कवः षट्
तेषां षोडशद्वादशांगुलौ ॥ ३० ॥ व्यूहनेऽहिफणावत्रौ द्वौ दशद्वादशांगुली। चालने शरपुंखास्य
आहार्ये बडिशाकृती ॥ ३१ ॥ अर्थ--शंकुयंत्र छः प्रकार के होते है । में से दो सर्प के फण के आकार वाले
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अ० २५
सोलह वा बारह अंगुल लंबे होते है, ये व्यूहन अर्थात् शल्य निकालने के काम में आते हैं । दो शरपुंख (वाज ) के मुखवाले दस और बारह अंगुल लंबे चालन. कार्य के निमित्त व्यवहार में आते हैं शेष दो बडिश की आकृतिवाले आहरणार्थ (शल्य के निकालने में ) काम आते हैं । गर्भशंकु ।
नतोऽग्रे शंकुना तुल्यो गर्भशकुरिति स्मृतः । अष्टांगुलायतस्तेन मूढगर्भ हरेत् स्त्रियाः ३२ अर्थ - आठ अंगुल लंबे अंकुश के समान | टेढे मुखबाला स्त्रियों के मूढ गर्भ को निकालेने में काम आता है । इसे गर्भशंकु यंत्र कहते हैं ॥
1
सर्पफण यंत्र । अश्मर्याहरणे सर्पफणावद्वक्रमप्रतः । अर्थ अप्रभाग में सर्प के फण के समान यंत्र से पथरी निकाली जाती है, इसे सर्प फणास्य यंत्र कहते हैं ॥
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शरपुंयंत्र |
शरपुंखमुखं दन्तपातनं चतुरंगुलम् ॥ ३३ ॥ अर्थ - यह वाजपक्षी के सदृश मुखवा -
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म० २५
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२०९)
ला चार अंगुल लंबा होता है, इससे कीड़ों | न्द्राकार होता है । नासार्श और नासार्बुद के खाये हुए वा हिलते हुए दांत निकाले । को दग्ध करने के लिये बेरकी गुठलीके मुजाते हैं।
खवाली सलाई काम आती है । छः मकारकी शलाका । कार्यासबिहितोष्णीषाः शलाकाः षटू
प्रमार्जने। पायावासनदूरार्थे वे दशद्वादशांगुले ॥३४॥ द्वेषट्सप्तांगुले घ्राणे द्वे कर्णेऽष्टनवांगुले। कर्णशोधनमश्वत्थपत्रप्रांतं सुवाननम् ३५ ॥
अर्थ-क्षार और क्लेदादि को दूर करने के लिये छः प्रकार की शलाका काम में आतीहैं इनका अग्रभाग कपासकी पगडी के सदृश होता है। पास और दूरके अनुसार गुह्यदेश में दस और वारह अंगुल लंबी
क्षारकर्ममें शलाका। दो प्रकार की शलाका काम आती हैं । छः | अष्टांगुला निम्नमुखास्तिस्रः क्षारौषधक्रमे ।
और सात अंगुललंबी दो शलाका नासिका | कनानीमध्यमानामिनखमानसमैर्मुखैः।३८॥ के लिये तथा आठ और नौअंगुल लंबी दौ | . अर्थ-क्षार औषध लगाने के लिये तीप्रकार की शलाका कान के लिये होती हैं। न प्रकार की सलाई होती है । इनका मुख कानका शोधन करने में मुख स्नबा के स- | नीचे को झुका होता है । ये आठअंगुललंबी दृश होता है।
और कनिष्ठका, मध्यमा तथा अनामिका के क्षाराग्नि कर्मोपयोगी शलाका ।।
नखके समान परिमाणयुक्त होती है । शलाकाजांबवोष्ठानांक्षारेऽग्नौ चपृथक्त्रयम् |
मेदशोधन शलाका। युज्यात् स्थूलाणुदीर्घाणाम् | स्वस्वमुक्तानि यंत्राणि मेदशुद्धधजनादिषु ।।
शलाकामंत्रवर्मनि ॥ ३६॥ अर्थ-मेढ़ शोधन और अंजनादि में उमध्याव॑वृत्तंदडां च मूले चाधैंदुसंनिभाम् । पयोगी शलाकाओं का वर्णन अपने अपने प्रकोलास्थिदलतुल्यास्या नासार्शार्बुददाहकृत् । करण में कर दिया गया है। ___अर्थ-शलाका और जांववोष्ट यंत्रोंमें मो टे, पतले और लंबे तीन प्रकार के शलाका
उन्नीस प्रकारके अनुयंत्र । और जांवोष्ट यंत्र होते हैं । ये क्षारकर्म औ
अनुयंत्राण्ययस्कांतरज्जुवस्त्राश्ममुद्राः ३९
वध्रांत्रजिह्वाबालाश्च शाखानखमुखद्विजाः। र अग्निकर्ममें काम आते हैं । अंत्रवृद्धि में
कालापाकः करम्पादोभयं हर्षश्च तक्रिया जो शलाका काम आती है उसका बेटा बी- उपायवित्प्रविभजेदालोच्य निपुणं धिया ४० च से ऊपर तक गोल और तलेमें अईच- अर्थ-अयस्कांत (चुंबक पत्थर ), रज्जु
२७
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(२१०)
अष्टांगहृदये।
वस्त्र, पत्थर, मोगरी, रेशम, आंत, जिह्वा, षडूविंशोऽध्यायः। वाल, शाखा, नख, मुख, दांत, काल, पाक, हाथ, पांव, भय, और हर्ष ये १९ प्रकार के अनुयंत्र हैं। निपुण वैद्य अपनी बुद्धिसे विवे
| अथाऽतःशस्त्रविधिमभ्यायं व्याख्यास्यामः। चना करके इनसे भी काम ले सकता है।
___ अर्थ-अब हम यहांसे शस्त्र विधिनामक यंत्रोंके कर्म ।
अध्याय की व्याख्या करेंगे। निर्धातनोन्मथन पूरणमार्ग शुद्धि
शस्त्रों का वर्णन । संव्यूहनाहरण बंधन पीडनानि ।
"षड्विंशतिःसुकौरैर्घटितानि यथाविधि आचूषणोन मननामनचाल भंग
शस्त्राणि रोमवाहीनि बाहुल्येनांगुलानिषद् व्यावर्तन र्जुकरणानि च यंत्रकर्म॥४१॥
सुरूपाणि सुधाराणि सुग्रहाणि च कारयेत् । अर्थ-निर्धातन ( ताडना और परिपा
अकरालानिसुध्मातसुतीक्ष्णावर्तितेऽयसि॥ तन ), उन्मथन [ उखाडना ], पूरण, मार्ग- समाहितमुखाग्राणि नीलांभोजच्छवीनि च शोधन, संव्यूहन [ निकालना ] आहरण, ब
नामानुगतरूपाणि सदा सन्निहितानि च ॥ न्धन, पीडन, आचूषण'उन्नमन [उठाना],
स्वोन्मानार्धचतुर्थाशफलान्येकैकशोऽपि च
| प्रायो द्वित्राणि युजीत तानि स्थानविशेषतः॥ नामन, चालन, भंग, व्यावर्तन और ऋजुक
। अर्थ-शस्त्र बहुतायत से छः अंगुल रण [ सीधा करना ] ये यंत्रों के कर्म हैं।
लंबे होते हैं तथा बीस प्रकार के होते है । कंकमुखयंत्रोंको प्रधानता।
ये शस्त्र बहुत निपुण कारीगर से बनवाये निवर्तते साध्ववगाहते च
जाते हैं, ये बहुत सूक्ष्म, पैने और ऐसे ग्राह्यां गृहीत्वाद्धरते च यस्मात् ।। यंत्रवतःकंकमुखं प्रधान ।
वनबाने चाहियें जो लगाने वा निकालने में स्थानेषु सर्वेष्वधिकारि यच्च ॥ ४२ ॥ टूट न जावें । इनकी सूरत बहुत सुन्दर,
अर्थ-कंकमुखयंत्र सुखपूर्वक निर्वर्तित धार पैनी, रोगों के दूर करने में समर्थ होता है, शरीरमें प्रवेश कर जाता है । ग्रह- | अकराल.( भयंकर नहो ), सुग्रह ( सुखणयोग्य सल्यादि को खींचकर निकाल लाता | पूर्वक पकडीजाय ), हो तथा शस्त्र का मुख है, तथा शरीरके सब अवयवों में उपयोगी बहुत ही सावधानी से बनाया जाय । होता है। ऐसे निवर्तनादि चौदह कारणों से | सब शस्त्र नील कमल की कान्ति के समान कंकमुखयंत्र सब यंत्रों में श्रेष्ठ है।
चमकीले और नामानुसार आकृतिवाले हों,
इनको सदा पास रक्खे, शस्त्रों के फल कुल इतिश्रीमष्टांगहृदये भाषाटीकायां
लंबाई से अष्टभाग होने चाहियें । इन श. पंचविंशोध्यायः।
स्त्रों में से स्थाव बिशेष में एक एक करके | दो बा तीन भी उपयोग में आते हैं |
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अ० २६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत।
(२११)
-
___ मंडलाय शस्त्र । मण्डला फले तेषां तर्जन्यंत खाकृति । लेखने छेदने योज्यं पोथकीशुडिकादिषु ५॥
अर्थ-मंडलाग्र शस्त्र के फलकी आकृति तर्जनी के अन्तर्नख के समान होती है । यह शस्त्र पोथकी, शुंडकी और वर्मरोगादि में लेखन छेदन में काम आता है ।
सर्पास्यशस्त्र । सपास्यं घाणकर्णाशश्छेदनेऽ(गुलं फले। ___ अर्थ-सर्प के मुख के सदृश सास्यशस्त्र
नाक और कान के अर्श को छेदन के काम वृद्धिपत्रादि शत्र।
में आता है, फलकी ओर इसका परिमाण वृद्धिपत्र क्षुराकारं छेदभेदनपाटने।
आधे अंगुल होता है। ऋज्यामुन्नते शोफे गंभीरे चतदन्यथा ६॥ नताग्रं पृष्ठतो दीर्घद्वस्ववक्त्रं यथाशयम् । उत्पलाध्यर्धधाराख्ये छेदने भेदने तथा ७ ॥
अर्थ-वृद्धिपत्र शस्त्र का आकार छुरे के समान होता है यह छेदन, भेदन और एक्ण्यादि शस्त्र । उत्पाटन में काम आता है । सीधेः अग्रभा- गतेरन्वेषणे लक्ष्णा गंडूपदमुखैषिणी ॥८॥ गवाला. वृद्धिपत्र उंची सूजन में काम में
भेदनार्थेऽपरा सूचीमुखा मूलनिविष्टखा ।
चेतसंव्यधर लाया जाता है । गंभीर सूजन में वह वृद्धि
नाव्ये शरार्यास्यं त्रिकूर्चके ॥९॥ पत्र काम में आता है जिसका अप्रभाग
| अर्थ-नाडीव्रण की सूजन का अन्वेषण पीठ की तरफ झुका होता है । उत्पलपत्र | करने के लिये एषणीशस्त्र उपयोगी होता लंबे मुखका और अध्यर्थधार शस्त्र छोटे मु· | है यह छने में कोमल और गिडोये के मुख खका होता है । ये दोनों छेदन और भेदन | की अकृितिवाला होता है । में काम आते हैं।
नाडीव्रण की गति का भेदन करने के लिये एक प्रकार का दूसरा एषणीशस्त्रं होता है इसका मुख सूची के सदृश और मूल संछिद्र होता है। __ वेतसयंत्रनामक एषणी बेधने के काम में आता है तथा शरारीमुख और त्रिकूर्चक नामक दो प्रकार के एषणी स्रावकार्य
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अष्टामहृदय ।
अ.२६
-
काम आते हैं । शरारी एक प्रकार का पक्षी | होता है | कुशाटा के सदृश ही एक अर्द्धहोता है।
चन्द्रानन शस्त्र होता है, यह भी स्राव के निमित्त काम आता है। एक ब्रीहिमुखनामक शस्त्र होता है यह भी शिराब्यध और उदरव्यध में काम आता है, इसके फलका प्रमाण भी डेड अंगुल है।
कुठारीशस्त्र ।
पृथुः कुठारी गोदंतसदृशा/गुलानना। कुशपत्रादि ।
तयोर्ध्वदंडया विध्येदुपर्यस्नांस्थितांशिराम कुशाढावदनेस्राव्ये घ्यगुलं स्यात्तयो फलम्। अर्थ-कुठारी नामक शस्त्र का दंड __ अर्थ-कुशपत्र और आटीमुख नाम के विस्तर्णि होता है, इसका मुख गौ के दांत दो शस्त्र स्राव के निमित्त काम में आते हैं। के समान और आधा अंगुल लंबा होता है। दन के फलका परिमाण दो अंगल होता है। इससे अस्थि के ऊपर लगी हुई शिरा बंधी
जाती है।
शलाकाशस्त्र ।
ताम्री शलाका द्विमुखी मुखे कुरुबकाकृतिः। अंतर्मुख-अर्द्धचन्द्रानन-व्रीहिमुख। | लिंगनाशं तया विध्येत् तद्वदंतर्मुखं तस्य फलमध्यर्धमंगुलम्॥१०॥ अर्थ-शलाका शस्त्र तावेका बनाया अर्धचंद्राननं चैतत्तथा
जाता है, इसमें दो मुख होते हैं, इसके ऽध्यर्धागुलं फले। ब्रीहिवक्त्रं प्रयोज्यं च तच्छिरोदरयोwधे | मुखकी आकृति कुरुवक के फूल के मुकुल ..... अर्थ-कुशपत्र और आटीमुख के समान | के समान होती है, इससे लिंगनाश अर्थात्
अन्तर्मुखनामक शस्त्र स्राव के निमित्त उप- | कफेस उत्पन्न हुए पटल नामक नेत्र रोग योगमें लाया जाता है, इसकाफल डेढ़ अंगुल | का वेधन किया जाता है ।
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सूत्रस्थान भाषादीकासमेत
(२१३)
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अंगुलि शस्त्र ।।
_____ अर्थ-करपत्र इसे करौत वा आरीभी फर्यादंगुलिशस्त्रकम् ॥ १३ ॥ | कहते हैं, यह दस अंगुल लंवी और दो अंमुद्रिकानिर्गतमुखं फले त्व/गुलायतम्।। गुल चौडी होती है । इसमें छोटे छोटे दांत योगतो वृद्धिपत्रणमंडलाण वा समम्।१४। होते हैं जिनकी धार बडी पैनी होती है । तत्प्रदेशिन्यग्रपर्वप्रमाणार्पणमुद्रिकम् । सूत्रबद्धं गलस्रोतोरोगच्छेदनभेदने ॥ १५॥ इसका मुष्ठिस्थान सुदररू
इसका मुष्ठिस्थान सुंदररूप से बद्ध होता है, ___ अर्थ-एक प्रकार का शस्त्र अंगुलिनाम | यह अस्थियों के काटनेके काममें आता हैं। क होता है । इसका मुख मुद्रिका के सदृश निकला हुआ होता है, इसके फल का विस्तार आधा अंगुल है । यह वृद्धिपत्र वा मंडलाग्रके समान होता है । इसका परिमाण
कर्तरीशस्त्र । . वैद्यकी तर्जनी अंगुली के अगले पोरुए के | सायुसूत्रकचच्छेदे कर्तरी कर्तरीनिभा।१७। बरावर रक्खा जाता है, इसको प्रयोग के
अर्थ-कर्तरीको कैंचीभी कहते हैं । यह समय डोरे से बांधकर माणवंध (पहुंचा वा
| नस, सूत्र और केशोंके काटनेमें काम आतीहै कलाई ) से बांध लेना चाहिये । यह कंठ के स्रोतों में उत्पन हुए रोगों के छेदन और भेदनमें काम आता है।
बडिश शस्त्र । महणे शुडिकार्मादेडिशं सुनताननम् । ___ अर्थ-वाडिश नामक शस्त्रका मुख अंकुश के समान अच्छी तरह टेढा होता है। यह शुंडिका, अर्म और प्रतिजिवादि रोगों को ग्रहण करने में काम आता है ।
करपन शस्त्र। छेदेऽस्मां करपत्रं तु खरधारं दशांगुलम् | विस्तारे व्यंगुलं सूक्ष्मदंतं सुत्सरुवंधनम् ।
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(२१४)
अष्टांगहृदये।
अ० २६
नखशस्त्र ।
वाली तीन अंगुललंबी सुई उपयोगमें आती पार्जुधार द्विमुखं नखशस्त्रं नवांगुलम्। | हैं , जहां मांस कम होता है, तथा अस्थि सूक्ष्मशट्योद्धतिच्छेदभेदप्रच्छन्नलेखने ।१८। | और संधिमें स्थित व्रणोंके सीनेके लिये दों । अर्थ-नखशस्त्र इसे नहरनी भी कहते
अगुललंबी सुई काममें लाई जाती है , और हैं । यह दो प्रकार की होती है, एककी धा.
तीसरी प्रकार की सुई जो ढाई अंगुल लंबी र टेढी और दूसरी की सीधी होती है । यह
धनुष के समान टेढी, और व्रीहिके समान नौ अंगुललंबी होती है । इससे कांटे आदि
मुखवाली पक्वाशय, आमाशय और मर्मस्थान छोटे छोटे शल्य निकालेजातेहै । नख काटे
के व्रणों के सीने में काम भाती है ॥ जातेहै । भेदन भी कियाजाताहै ।
कूर्चशस्त्र ।
सर्ववृत्तास्ताश्चतुरंगुलाः।
कों वृत्तकपीठस्थाः सप्ताऽष्ठौवासुबधंनाः दंतलेखन शस्त्र ।
सयोज्यो नीलिकाव्यंगकेशशातनकुट्टने। एकधारं चतुष्कोणं प्रबद्धाकृति चैकतः। अर्थ -ये सुइयां जो चारों ओरसे गोल, दतलेखनकं तेन शोधयेइंतशर्कराम् ॥१९॥ और लंबाई में चार अंगुल होती है । तथा
अर्थ-दंतलेखन शस्त्रमें एक ओर धार होती सात वा आठ एक काष्ठमें दृढरूप से लगी है और दूसरी और प्रबद्ध आकृति होती है ।
हुई सूची कूर्च कहलाती हैं । ये नीलिका, इसमें चार कोन होते हैं, इससे दांतोंकी श
व्यंग और केश, बातादि रोगों में कुट्टन के करा निकाली जाती है ।
लिये प्रयुक्त की जाती है।
सूचीशस्त्र। वृत्तागूढहढाः पाशे तिनःसूच्योऽसीवने । मांसलानां प्रदेशानां व्यस्ता व्यंगुलमायता अल्पमांसाऽस्थिसंधिस्थब्रणानां धंगुलायता। ब्रीहिवक्त्रा धनुर्वक्रा पक्कामाशयमर्मसु।२१। सा सार्धधगुला।
अर्थ-सीवन अर्थात् सीनेके लिये तीन प्रकार की सुई बनाई जाती है, ये सुइयां
खजशस्त्र । गोल, पाशमें गूढ और दृढ होती है। जहां
| अर्धागुलैर्मुखवृत्तरष्टाभिः कटकैःखजः।२३। मांस मोटा होता है वहां बहां त्रिकोण मुख- ( पाणिभ्यां मध्यमानेन घ्राणासन हरेदसक ।
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अ० २६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
( २१५ )
अर्थ- आधे आधे अंगुलवाले गोलाकार | वाली कर्णपाली के बेधने में काम आती है। आठ कंटकों से युक्त शस्त्र को खज कहते rotera |
हैं । इसको हाथ से विलोडित करके नासि - जलौकःक्षारदहनकाचोपलनखादयः । का से रक्तस्राव किया जाता है । अलौहान्यनुशस्त्राणि तान्येवं च विकल्पयेत् कर्णव्यधशस्त्र । अपराण्यपि यंत्रादीन्युपयोगि च यौगिकम् । अर्थ - यहां तक प्रधान लौह निर्मित यंत्र और शस्त्रों का वर्णन हो चुका है, वैद्यको उचित है कि बुद्धि से योग्य और अयोग्य का विचार करके इन शस्त्रों को काम में ला । अब लोह वर्जित शस्त्रों का वर्णन करते हैं नोक, क्षार, अग्नि, केश, प्रस्तर (पत्थर ), नखादि अलौह शस्त्रों द्वारा तथा अन्यान्य यंत्रों द्वारा भी शस्त्र कर्म किया जाता है, इसी से इन्हें अनुशस्त्र कहते हैं ।
'व्यधने कर्णपालीनां यूथिका मुकुलानना । २४ अर्थ - कान की पालियों के बेधने के
।
"
निमित्त मुकुल के आकार वाला यूथिका नामक शस्त्र काममें लाया जाता है ।
आराशन । भाराऽर्घागुलवृत्तास्या तत्प्रवेशा तथोर्ध्वतः । चतुरस्रा तया विध्येच्छोफं पक्कामसंशये | २५ कर्णपाली च वहुलाम् ।
|
अर्थ-यह आरा नामक शस्त्र अर्धागुल गोल मुखवाला, तथा उस गोलाकार के ऊपर का भाग अधगुल युक्त चतुष्कोण होता है । पक्क और अपक का संदेह हो ऐसे स्थान में इस आरा शस्त्र द्वारा ही सूजन का बेध किया जाता है । अत्यन्त मांसयुक्त कर्णपाली बेधन में यही शस्त्र काम आता है ।
कर्णवेधनी सूची |
।
बहुलायाश्च शस्यते। सूवी त्रिभागसुषिरा त्र्यंगुला कर्णवेधनी । २६ अर्थ - चार प्रकार की और सुइयां होती हैं जो कर्णवेधमें काम आती हैं, ये तीन अंगुल लंबी होती है और इनके तीन भाग छिद्रों से युक्त होते हैं । यह बहुत मांस
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शस्त्रों का कार्य ।
उत्पाटयपाटयसव्यैिषलेख्यप्रच्छन्नकुट्टनम् ॥ छेद्यं भेद्यं व्यधो मंथो ग्रहो दाहश्च तत्क्रियाः । अर्थ - उत्पाटन में ऊर्धनयन यंत्र, पाटन में वृद्धिपत्रादि, सेवन में सूची, लेखन में मंडलाप्रादि, भेदन में एषणी, व्यधन में वेतसादि, मंथन में खज, ग्रहण में संदेश और दाह में शलाकादि शस्त्रों का प्रयोग होता है ।
शस्त्रोंका दोष |
कुण्ठखंडतनु स्थूलह्रस्वदीर्घत्ववक्रताः ॥ शस्त्राणां खरधारत्वमष्टौ दोषाः प्रकीर्तिताः । अर्थ - भोंतरापन, टूटापन, बहुत पतलापन, बहुत मोटापन, बहुत छोटापन, बहुत लंबापन, टेढापन, बहुत पैनापन ये आठ दोष शस्त्रों में होते हैं
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अष्टांगहृदये।
(२१६)
शस्त्रोंके पकडने की विधि | छेदभेदन लेख्यार्थ शस्त्रं वृतफलांतरे ३० तर्जनी मध्यमांगुष्ठैर्गुह्यात्सुसमाहितः । विस्रावणानि वृंताग्रे तर्जन्यंगुष्ठकेन च । ३१ । तलप्रच्छन्नवृत्तानं ग्राह्यं ब्रीहिमुखं मुखे । मूलेष्वाहरणार्थे तु क्रियासौकर्यतोऽपरम्
अर्थ - छेदन, भेदन और लेखनकर्म के लिये बेटे और फलके लिये बीच में तर्जनी, मध्यमा और अंगूठे इन तीन उंगलियों से शस्त्रको पकडना चाहिये, परन्तु शस्त्र कर्म करने के समय सब ओर से ध्यान खींचकर इसमें लगाना चाहिये विस्रावण के लिये शरारीमुखादि शस्त्रों को बेंटेके अप्रभाग में तर्जनी और अंगूठा इन दो उंगलियों से पकडे । ब्रीहिमुख शस्त्र के बेंटेके अग्रभाग को हथेली में छिपाकर उसको मुखके पास प asar काम लावै । सब प्रकार के आहरण यंत्र मूलमें पकडकर उपयोग में लाये जाते हैं इसी तरह अन्य शस्त्रों को भी प्रयोजन के अनुसार यथोपयुक्त स्थानों में पकडकर का म में लाना चाहिये |
शस्त्रकोश |
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अ० २९
आदि वस्त्र बिछादिये गये हों । इनमें सब प्रकार के शस्त्रों का संचय होना चाहिये |
जलौका का विधान |
जलौकस स्तु सुखिनां रक्तस्त्रावाय योजयेत् ॥
अर्थ- सुखोचित ( राजा, रईस, बालक, वृद्ध, सकुमार ) स्त्री पुरुषों का रक्त निकाल ने के लिये जोकका प्रयोग करना उचित है सविषा जोक |
दुष्टांबुमत्स्य भेकाहिशवको थमलोद्भवाः । रक्ताःश्वेताभृशंकृष्णश्चपलाःस्थूल पिच्छिलाः इंद्रायुधविचित्रोर्ध्व राजयो रोमशाश्च ताः । विषा वर्जयेत् -
ताभिः कण्डूपाकज्वरभ्रमाः ॥ ३७ ॥ विषपित्तास्रनुत्कार्य तत्र
अर्थ-- जोक दो प्रकार की होती हैं । ए क सविषा, दूसरी निर्विषा । सविषा जोक बि गडे हुए पानी तथा मछली, मेंढक, सर्प और मुर्दों के मलमुत्रादि से उत्पन्न होती है। इनका रंग लाल, सफेद, अत्यन्त काला, इंद्र धनुषके समान अनेक वर्णवाला होता है ॥ इनके ऊपर खडी रेखायें होती हैं तथा ये रोमयुक्त भी होती है | इन लक्षणों से युक्त तथा चपल, स्थूल और पिच्छिल जोक सविषा होती हैं इनको न लगाना चाहिये, इन
|
स्यानवांगुलविस्तारः सुघनो द्वादशांगुलः । क्षौमपत्रोर्णकौशेयदुकूल मृदुचर्मजः ॥ ३३ ॥ विन्यस्तपाशः सुस्यूतः सांतरोर्णास्थशस्त्रकः । शलाकापिहितास्यश्च शस्त्रकोशः सुसंचयः । अर्थ-शस्त्रों के रखने के लिये नौ अंगुल • चौडा और बारह अंगुल लंबा कोश रेशमी वस्त्र, पत्ता, ऊन, कौषेय या कोमल चमडे का बनवाना चाहिये कोश के भीतर शस्त्रों के रखने के लिये जुदे जुड़े सुंदर शस्त्रानुरूप घर (खाने ) बनवाने चाहियें जिनमें ऊन
के लगाने से खुजली, पाक, ज्वर, भ्रम, तथा दाह, शोष और मूर्च्छादिक रोग उत्पन्न होते हैं । यदि भ्रमसे प्रयोग किया जाय तो विष रक्त, और पित्तनाशक क्रियाका प्रयोग कर ना उचित है ॥
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निर्विष जोक | शुद्धांबुजापुनः ।
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अ० २६
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत !
निर्विषाः शैवलश्यावा वृत्तानीलोर्ध्वराजयः ] थवा किसी शस्त्र से थोड़ा सा रक्त निकाकषायपृष्ठास्तन्वंग्यः किंचित्पीतोदराश्च याः
ल दे । जब पीती हुई जोक कंधे ऊंचे - अर्थ-निर्विष जोक निर्मल जल में पैदा
| करने लगे तब जान लेना चाहिये कि होती है इनका शैबाल ( सिवार) के सदृश
रुधिर को पी रही है । मक्खी आदि को श्याववर्ण होता है ये गोलाकार, नीलबर्ण
निवारण करने के लिये जोकपर बहुत पतला और ऊर्धरेखाओं से युक्त होती हैं । वटवृक्ष
वस्त्र ढक देना चाहिये। के सदृश रंगवाली पीठ, पतली देह और पेट में कुछ पीलाई होती है ।
.. जोकका स्वभाव । - त्यागनेयोग्य जोक ।
संपृक्ताद्दुष्टशुद्धास्राज्जलौका दुष्टशोणितम्
आदत्ते प्रथमं हंसः क्षीरं क्षीरोदकादिव। ताअप्यसम्यग्वमनात्प्रततं च निपातनात् ।
____ अर्थ-दूषित और शुद्ध मिले हुए रक्त सीदंतीःसलिलं प्राप्य रक्तमत्ता इतित्यजेत् ।
को पान करते समय जोक पहिले बिगड़े - अर्थ-केवल सविष जोकही त्यागनी नहीं । चाहिये, किन्तु रक्तमत्ता निर्विष जोक भी
हुए रुधिर को ही पाती है जैसे हंस जल त्याग देनी चाहिये, रक्तमत्ता में हेतु हैं, |
मिले हुए दूध में से प्रथम दूध को ही एक तो वे दुष्ट रक्तका अच्छी तरह वमन
पीता है। नहीं करती हैं । और लगने पर निरंतर
जोकका बमन बिधान । दुष्ट रक्तका पान किये चली जाती हैं इन |
दंशस्य तोदे कंड्वावा मोक्षयेद्वामयेच्च ताम्
| पटुतैलाक्तवदनां श्लक्ष्णकंडनरूक्षिताम् । . सब रक्तपूर्ण निर्विष जोकों को त्याग देना
रक्षनरक्तमदादूभूयः सप्ताह तान पातयेत्x चाहिये । इनकी पहचान यह है कि जल | पूर्ववत् पटुतादाढथै सम्यग्वांते जलौकसाम् के पात्र में डालने पर ये सुस्त और शि- | क्लमोऽतियोगान्मृत्यु - थिल हो जाती हैं।
दुर्वाते स्तब्धता मदः॥४६॥ जोको लगाने का नियम । अर्थ-जब जोक के दंश की जगह में अथेतरा निशाकल्फयुक्तऽभसि परिप्लताः॥ तोद वा खुजली हो तो जोकको छुडा देना अवंतिसोमे तके वा पुनश्चाऽश्वासिता जले। चाहिये यदि रक्तपान की लोलुपता से न लागयेद्धृतमृत्सांगशस्त्ररक्तनिपातनैः ॥ छोडे तो हलदी और नमक पीसकर उसके पिबंतीरुन्नतस्कंधाश्छादयेन्मृदुवाससा ।।
मुखपर बुरकते ही छोड देती है । छोडने पर ___ अर्थ-पूर्वोक्त रीति से परीक्षा करने के पीछे निर्विष जलौका को हल्दी के कल्क ___+ गुल्माशे विद्रधी कुष्ठ वातरक्त गला से युक्त जल में, अथवा कांजी वा तक में | मयान् । नेत्ररुग् विषबीसर्पान् शमयंति जपरिप्लुत करके निर्मल जल में आश्वासित
लौकसः । अर्थात् जोक गुल्म, अर्श, विद्रधि करके उत्साहित करै । और जिस स्थान
कुष्ठ, वातरक्त, कंठरोग, नेत्रपीडा, विष, वि
सादि रोगोंको नाश करती है । यह श्लोक पर लगानी हो वहां थोड़ा घी चुपड दे अ. | प्रक्षिप्त है।
२८
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(२१८)
.. अष्टांगहृदये।
म०२६
सेंधा नमक और तेल से रूक्षित तथा सूक्ष्म अशुद्ध रक्त का फिर निकालना। तंडुलचूर्ण द्वारा रूक्षित करके हाथसे निचो | अशुद्धं चलितं स्थानास्थितं रक्तंव्रणाशये। डदे । इस तरह रक्कमद से जोक की रक्षा अम्लीभवेत्पर्युपितं तस्मात्तस्रावयेत्पुनः। करे । सात दिन तक किसी रोगीके उसको
___अर्थ-अशुद्धरक्त अपने स्थान से चल न लगावे । सम्यक्युक्त वमन होने पर यह
कर व्रण के स्थान पर आजाता है और पूर्ववत् पट और दृढ होजाती है। अतियोग वहां एक दिन रहकर खट्टा हो जाता है । होने से क्लान्ति और मृत्यु होजाती है.दा- | इस लिये इसको फिर निकाल देना त में स्तब्धता और मद होता है ।
चाहिये। जोकोंका अनेकपात्रोंमें रखना।।
अलावु और घटिका पत्रका प्रयोग ।
| युज्यानालाबुघटिका रक्त पित्तेनदृषिते ४८॥ अन्यत्राऽन्यत्रताःस्थाप्याघटेमृत्नांबुगर्भिणि तासामनलसंयोगात्लालादिकोऽथनाशार्थसविषाास्युस्तदन्वयात
युज्याच्च कफवायुना। अर्थ-लालास्रावादि क्लेदताको दूरकर- अर्थ-पित्तसे दूषित रक्तमें दुष्टरक्त को ने के लिये जोकों को मिट्टी के जुदे जुदे । निकालने के लिये अलाब और घटिका यंत्र पात्रों में तीन वा पांच दिनके अंतर से च
का प्रयोग न करे । क्योंकि इन यंत्रोंमें अदलतारहै । क्योंकि लगातार एक ही पात्र | ग्नि का संयोग होने से ये पित्तरक्त को कुमें रखने से लालादि के संसर्ग से निर्बिष । पित करते हैं | परन्तु कफवात से दूषित जोकभी सविष होजाती हैं। | होने पर इन यत्रोंका प्रयोग उचित ही है । ____ अशुद्ध रक्तमें कर्तव्य ।
शंगका प्रयोग। अशुद्धौनावयेइंशान हरिद्रागुडमाक्षिकैः । कफेन दुष्टरुधिरंन शंगेण विनिर्हरेत् ५०॥ शतधौताज्यापचवस्ततोलेपाश्चशीतलाः॥ | स्कन्नत्वाद्हुष्टरक्तापगमनात्सद्यो रोगरुजां शमः।
वातपित्ताभ्यां दुष्टं शूगेण निर्हरेत् । अर्थ-जो जोकके दंशस्थानों से अशुद्ध । अर्थ-कफसे दूषित रुधिर को सींगी से रक्त निकलता दिखाई दे तो दंशस्थान पर
न निकाले । क्योंकि कफदूषित रुधिर गाढा हलदी, गुड और शहत लगाकर स्रावकरावै होजाता है और सींगी में अग्नि का संयोग तदनंतर सौ बार धुले हुए घीको रुईके फोहे
न होनेसे कफको नहीं पिघला सकता है । पर छगाकर उसके ऊपर रखदे तथा मुन्ल
प्रच्छान विधि । हटी, चन्दन और खस आदि शीतल द्रव्यों
गात्रंबवोपरि दृढं रज्ज्वापट्टेन वासमम् ॥ का लेपकरदे । विगडे हुए रुधिरके निकल
| स्वायुसंध्यस्थिमर्माणित्यजन्प्रच्छानमाचरेत् जाने पर तत्काल रोगों की वेदना शांत हो
अधोदेशप्रविसृतैः पदैरुपरिगामिभिः ५२॥
न गाढधनतिर्यग्भिर्न पदे पदमाचरन् । जाती है तथा सूजन, शिथिलता और दरद
प्रच्छानेनैकदेशस्थं ग्रंथितं जलजन्मभिः ॥ भी जाता रहता है।
हरेच्छंगादिभिः सुप्तमसग्व्यापि शिराव्यधैः
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अ० २७
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सूत्रस्थान भाषाकासमेत ।
अर्थ - पछने लगाने की जगह को दृढ डोर वा पट्टीसे कसकर बांधदे और नीचे ऊ पर की ओर शस्त्रपद द्वारा स्नायु, संधि, अस्थि और मर्म इनको बचाता हुआ प्रच्छान करे प्रच्छान की यह रीति है कि न गाढा, न पैना, न तिरछा शस्त्र चलावै और जहां एक
बार शस्त्र लग गया है
वहां दूसरी बार न लगे | एक देशस्थ रक्त प्रच्छान से, प्रान्थ और अर्वुदका रक्त जोकों से, सुप्तस्थान का रुधिर सींगी से और सर्वशरीर व्यापी रुधिर को शिराव्यध द्वारा निकाले ।
प्रच्छानादि के अन्य प्रयोग | प्रच्छानं पिंडिते वा स्यात्
अवगाढे जलौकसः ॥ ५४ ॥
त्वकस्थेऽलाबुघटी गम्
शिरैव व्यापकेऽसृजि । वातादिधाम वा शुंग जलौकालावुभिः क्रमात् अर्थ - पंडित रुधिर में प्रच्छान, अवगाढ रुधिर में जोक, त्वचा में स्थित रुधिर में अलाबु, घटिका और सींगी और सर्वशरीर व्यापी रुधिर में शिराव्यध का प्रयोग करना उचित है । अथवा वातस्थान में स्थित रुधिर को सींगी से, पित्त स्थान में स्थित रुधिर को जोक से और कफस्थान में स्थित रुको अलाव से निकाले ।
गरम घृतका सेचन |
स्रुतासृजः प्रदेहाद्यैः शीतैः स्याद्वायुकोपतः । सतोदकंडूशोकस्तं सर्पिपोष्णेन सेचयेत् ॥
अर्थ- जिसका रुधिर निकाला गया है, उसके शीतल लेपों का करना उचित नहीं - है, क्योंकि शीतल लेपों से वायु कुपित
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( २१९ )
होकर तोद और खुजली से युक्त सूजन को उत्पन्न कर देती है, इस सूजन पर गरमं घी डालना उचित है ।
इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां षड्विंशोऽध्यायः ।
सप्तर्विशोऽध्यायः ।
अथाऽतःसिराव्यधविधिमध्यायंव्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहां से सिराव्यधविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
शुद्ध लोहित का स्वरूप | मधुरं लवणं किंचिदशीतोष्णम संहतम् । पद्मद्रगोप मावि शश लोहितलोहितम् । लोहितं प्रवदेच्छुद्धं तनो स्तेनैव च स्थितिः ।
अर्थ- जो रक्त मधुर, कुछ नमकीनरस युक्त, कुछ कालापन लिये, छूने में गरम, पतला, लालकमल वा इन्द्रगोप ( बीरबहुट्टी ) के समान लाल वर्ण, हेमवत् खरगोश के रुधिर के समान लालरंग का रुधिर शुद्ध होता है, इस रुधिर से देहकी स्थिति है ।
दूषित रुधिर के बिकार । तपित्तश्लेष्मलैः प्रायो दूप्यते
कुरुते ततः ॥ २ ॥ विसर्पविधिहगुल्माऽग्निसदनज्वरान् । सुखनेत्रशिरोरोगमदतृड्लवणास्यताः ॥ ३॥ कुष्टवाताऽस्रपित्तास्रकट्वम्लोगीरणभ्रमान्। शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैरुपत्रांताश्च ये गदाः। सम्यक्साध्यान सिध्यतिते चरक्तप्रकोपजाः तेषु स्त्रावयितुं रक्तमुद्रिक्तं व्यधयेत्सिराम् । ५ अर्थ - यह शुद्ध रुधिर प्रायः पित्त और
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(२२०)
अष्टोनहृदये।
अ० २७
कफकारी पदार्थो से दूषित होजाता है और का सिराव्यध न करै । तथा जो सिरा न दूषित होकर विसर्प, विद्रधि, प्लीहा, गुल्म, | बांधी गई हो,टेढी हो वा उठी न हो इस अग्निमांद्य, ज्वर, मुखरोग, नेत्ररोग, शिरो | को न वेधे। तथा अत्यन्त जाड़े में वा अवेदना, मद, तृष्णा, लवणास्यता ( मुख में त्यन्त गर्मी में वा जिस दिन प्रचंड पवन 'नमकसा घुलना ), कुष्ठ, वातरक्त, रक्तपित्त, | चल रही हो, वा जिस दिन बादलों ने कड़वी और खट्टी डकार, और भ्रम इन आकाश ढक रक्खाहो ऐसे दिनों में सिरारोगों को उत्पन्न करता है इनके सिवाय व्यध न करै । किन्तु यदि कोई भयंकर जो रोग शीत उष्ण, स्निग्ध और रूक्षादि रोग होगया हो और फस्द खोलने की द्वारा सम्यक् चिकित्सित रोग साध्य होने आवश्यकता ही होतो शीत प्रीष्म और वर्षा पर भी अच्छे नहीं होते हैं वे रुधिर के आदि का सुप्रबंध करके सिराव्यध करना कोपसे उत्पन्न हुए समझने चाहिये । उचित है।
इसलिये इन सब रोगों में बढेहुए रुधिर रोगविशेष में शिराविशेषकावेधन। को निकालने के लिये सिराव्यध अर्थात् | शिरोनेत्रविकारेषु ललाट्यां मोक्षयसिराम फस्द खोलना चाहिये ।
| अपांग्यामुपनास्यांवा कर्णरोगेषु कर्णजाम्।
नासारोगेषु नासाने स्थिताम्सिराव्यधका निषेध ।
नासाललाटयो ॥ १० ॥ न तूनषोडशाऽतीतसप्तत्यब्दसतारजाम् ॥ पानसे मुखरोगेषु जिह्वौष्टहनुतालुगाः ।' अस्निग्धास्वेदितात्यर्थस्वादिताानेलरोगेणाम् जय ग्राथेषु ग्रीवाकर्णशखशिरःनिताः ॥ गर्भिणीसूतिकाजीर्णपित्तास्त्रश्वासकासिनाम् उरोऽपांगललाटस्था उन्माउ.. अतीसारोदरच्छर्दिपांडुसबांगशोकिनाम ॥ स्नेहपीते प्रयुक्तेषु तथा पञ्चसु कर्मसु ।
अस्मृतौ पुनः । नायंत्रितांसिरांविध्येन तिर्यजाण्यनुत्थिताम् ।
हनुसंधौसमस्ते वासिरांभ्रमध्यगामिनीम् ॥ नातिशीतोष्णबाताभ्रष्वन्यत्राऽत्ययिकाङ्गदात्
| विद्रधौ पार्श्वशूले च पार्श्वकक्षास्तनांतरे । अर्थ-सोलह वर्ष से कम और सत्तर
तृतीयकेंऽसयोर्मध्ये
स्कधस्याधश्चतुर्थके ॥ १३॥ वर्ष से ऊंची अवस्थाबाला, जिसका रुधिर
| प्रवाहिकायांशूलिन्यांश्रोणितोद्वथंगुलेस्थितार निकाला गया है, आस्निग्ध, अस्वेदित, अ- शुक्रमेढ़मये मेढ़ेतिस्वेदित, वातरोगी, गर्भिणी, प्रसूती अ.
ऊरुणांगलंगडयोः ॥ १४ ॥ जीर्णरोगी, रक्तपित्तरोगी, श्वास, खांसी, इंद्रबस्तेरधोऽपच्यां यंगुले बतुरंगुले १५ ॥
| गृधूस्यां जानुनधिस्तादूर्व वा चतुरंगुले । अतिसार, उदराविकार, वमन, पांडुरोग, ऊर्ध्वगुल्फस्य सक्थ्यौतथा कोप्टुकशर्षिके सर्वांगशोफ इन रोगोंसे आक्रान्त तथा जि. पाददाहे खुडे हर्षे विपाद्या वातकंटके॥ १६ ॥ सने स्नेहपान किया हो, तथा जिसने वमने विप्पे च द्यगुले विध्ये दुपरि झिमर्मणः। विरेचनादि पंच कर्म किये हों ऐसे रोगियों
गृध्रस्यामिव विश्वाच्याम् यथोक्तानामदर्शने मर्महीने यथासन्ने देशेऽन्यांव्यधयत् सिराम्
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अ० २७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
[२२१
अर्थ-सिरदर्द और नेत्ररोग में ललाट | न देने पर व्याधि के अनुसार मर्म स्थान की अथवा अपांग वा नासिका के समीप / को छोडकर पासवाली जगह में दूसरी नस वाली रग की फस्द खोले । कर्णरोग में | की फस्द खोले । कान की, नासाराग में नासिका के अग्रभा- सिराब्यध के पहिले का कर्तव्य । ग की, पीनस में नासिका और ललाटकी,
अथ निग्धतनुः सज्जसर्वोपकरणो बली ॥ मुखरोग में जिव्हा, ओष्ट, ठोडी और तालु कृतस्वस्त्ययनः स्निग्धरसानप्रतिभोजितः। की, जत्रु से ऊपर वाली गांठ में प्रीवा, आग्नितापातपस्विनो जानूच्चासनसंस्थितः कान, कनपटी और ललाटकी, उन्मादरोग
मृदुपट्टात्तकेशांतो जानुस्थापित कूर्परः ।
मुष्टिभ्यां वस्त्रगर्भाभ्यांमन्ये गाढंनिपीडयेत् में वक्षःस्थल अपांग और ललाटकी रग की।
दंतप्रपीडनोकासगंडाऽऽध्मानानिचाऽचरेत् फस्द खोले, इसी तरह अपस्मार रोग में पृष्ठतो यत्रयञ्चनं बस्त्रमाबेष्टयेन्नरः॥ हनुसंधि वा समस्तहनु वा भकटियों के कंधरायां परिक्षिप्य न्यस्यांतर्वामतर्जनीम्। बीचवाली नस की, विद्रधि और पसली के | एका
एषोऽतर्मुखबर्जानां सिराणां यंत्रणे विधिः । रोग में पसली, कूख वा स्तनों के बीचवा- अर्थ-रोगी स्निग्धदेह, सब प्रकार के ली नस की. ततीयक ज्वर में कंधोंकी सं- वस्त्र पीड पादक स्नेह गेरू आदि उपकर. धियों की नस की, चौथैया ज्वर में कंधेके । णों से सज्जित, बली ( मोटा ताजी ), नीचेवाली सिराकी फस्द खोले । शूलयुक्त कृत्स्वस्त्यपन ( बलि मंगल होमादिक किया, प्रवाहिका में कमर से दो अंगुल के अंतरपर | हुआ ), स्निग्ध मांस रस अन्नादि का स्थित नसको बेधे । शुक्र और मेट्ररोगों मेढ़ । भोजन किया हुआ, अग्नि और धृपकी की सिरा, गलगंड और गंडमाला रोग में गर्मी से स्वेदित, और जानुके बरावर ऊंचे ऊरुकी, सिरा, गृधूसीरोग में जानु से चार | आसन पर बैठा हुआ, वस्त्रकी कोमल पट्टी अंगुल नीचे वा ऊपरवाली सिरा, अपची |
से मस्तक के केशपर्य्यन्त भाग तक बांधकर रोगं में जंघाओं के बीच में स्थित मर्मस्थान |
जानुके ऊपर कोहनी रखकर वस्त्र गर्भित की दो अंगुल नीचे फस्द खोले । सक्थिरो
मुष्टियों द्वारा दोनों मन्याओं को अतिशय ग में तथा कोष्टुकशीर्षरोगमें गुल्फ के चार |
पीडित करे, तथा दंतप्रपीडन, उत्कास, अंगुल ऊपरवाली सिरा, पाददाह, खुडबात
और गंडस्फीति कर, तदनंतर रोगी की पादहर्ष, विबाई, वातकंटक, और चिप्परोग पीठ पर इसतरह वस्त्र लपेटे कि ग्रीबा से में क्षिप्रनामक सक्थि मर्मके दो अंगुल ऊ
आरंभ करके बीच बीच में बांई तर्जनी को परवाली सिरा, विश्वाचीरोग में गवसी की । स्थापित करके दाहिने हाथ से बांधता रहे तरह जानुके चार अंगुल नीचे वाली सिरा | अर्थात् तर्जनी अंगुली के समान अंतर दे दे का बेधन करै । उक्त सिराओं के दिखाई । कर वस्त्र लपेट देवै । अन्तर्मुख शिरा के
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[२२२]
अष्टांगहृदये।
अ० २७
सिवाय अन्य सिराओं के यंत्रण की यही | ग्रीवास्थित सिरावेध ।। विधि है।
यंत्रयेस्तनयोसर्व प्रीवाश्रितसृिराव्यधे ॥ वेधनविधि ।
अर्थ-यंत्रद्वारा दोनों स्तनों के ऊपर के तथा मध्यमयांऽगुल्या वैद्योऽगुष्ठविमुक्तया | भाग को यंत्रित करके ग्रीवा में स्थित सिरा साडयेत्
का वेधन करै । उत्थितां ज्ञात्वा स्पर्शागुष्ठप्रपीडनैः- | कुठार्या लक्षयेन्मध्ये वामहस्तगृहतिया।
ग्रीवाकी सिराका व्यध । फलोद्देशे सुनिष्कंपं सिरांतद्वच्च मोक्षयेत । पाषाणगर्भहस्तस्य जानुस्थे प्रसृते भुजे । _ अर्थ-सिरा को ऊपर कही हुई रीति
कुक्षेरारभ्य मृदिते विध्येद्वद्धोलपट्टके । से येत्रित करके वैद्य बांये अंगूठे को छोड
अर्थ-दोनों हाथोंकी मुट्ठी में दो पत्थर तर्जनी उंगली से ताडन करै, और छूकर
के टुकडे दाबकर रोगी अपने हाथोंको लंबा वा अंगूठे से प्रपीडन करके देखे और उठी
करके घुटनों पर रखले, तब उसकी कुक्षि
से प्रीवा पर्यन्त मर्दन करके और ऊर्ध्वभाहुई नसको फल्लोदेश में निष्कप भाव में
ग में कपडे की पट्टी बांधकर ग्रीवा की शिस्थित होकर कुठारी शस्त्र को बांये हाथ में
रा का बेधन करे । पकड कर सिरा के बीच में स्थापित करके विशेषरूप से लक्ष कर और लक्ष के स्थिर हाथकी सिराका बेधन । होने पर उक्त शस्त्र द्वारा फस्द खोलदे। विध्येद्धस्तसिराबाहावनाकुचितकूपरे । व्रीहिमुख से फिर बंधना।।
बध्वा सुखोपविष्टस्य मुष्टिमंगुष्टगर्भिणीम् ॥ ताडयन् पीडयेश्चनां विध्येहीहिमुखेन तु ।
| ऊचे वेध्यप्रदेशाच्च पट्टिकां चतुरंगुले ।
____ अर्थ-हाथ की सिरा के बेधन का क्रम अर्थ-ब्रीहिमुखशस्त्र से नस को फिर बेधकर अंगूठे से पीडन करै ।
यह है कि बेध्यस्थान के चार अंगुल ऊपर ... - उपनासिका सिराव्यध ।
कपडे की पट्टी बांधकर रोगी को सुखपूर्वक अंगुष्ठेनोन्नमय्याऽग्रे नासिकामुपनासिकाम्
बैठाकर उसकी मुट्ठी में अंगूठा दबबाकर बा..अर्थ-अंगूठे से नासिका के अग्रभाग | हु को फैला देव । को ऊंचा करके नासिकाकी पासवाली रग पसली और मेढ़कीसिरा । का वेधन करे।
विध्येदालंबमानस्य बाहुभ्यां पार्श्वयोःसिराम् जिवास्यसिराका व्यध । | प्रहृष्टे मेहने जंघासिरां जानुन्यकुंचिते। अभ्युनतविदष्टाप्रजिह्वास्याधस्तदाश्रयाम् । अर्थ - रे.गीके हाथों से किसी वस्तु को ___ अर्थ-रोगी की जिहाके अग्रभाग को पकडवाकर दोनों पसलियों की सिरा को बे तालुमें लगाकर वा दांतों से विशेष रूप में | धे । मेढ़ के स्तब्ध होनेपर मेडूकी सिरा को काटकर जिह्वा के नीचे की सिरा का । और जातुको लंबी करा के जंघा की सिरा वेधन करे ।
| को बेधे ।
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अ० २७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
[२२३)
-
-
__ पादसिरा व्यध । होने पर थोडी देर स्राव होता है । अच्छी पादे तुसुस्थितेऽधस्तज्जानुसंधेर्निपीडिते। तरह विद्ध न होने पर तेल और चूर्ण लगाढं कराभ्यामागुल्फं चरणे तस्य चोपरि। द्वितीये कुंचिते किंचिदारूढे हस्तबत्ततः॥
गाने से शब्द करती हुई भरती है । आत. बध्धाविध्येत्सिराम् इत्यमनुक्तेष्वपिकल्पयेत् ।
विद्ध होने पर रुधिर की धारा वेग से निकतेषु तेषु प्रदेशेषु तत्तयंत्रमुपायवित् ॥ ३२॥ लती है और कष्ट से बंद होती है। अर्थ-पांवकी सिराको इस तरह वेधते
___रक्तस्राव न होने के हेतु । हैं कि जिस पांवमें फस्दा खोलनी हो उसको । भीम यंत्रशथिल्यकुंठशस्त्रातितृप्तयः॥ धरती पर अच्छी तरह टिकवाकर जानु की क्षामत्ववेगितास्वेदा रक्तस्याऽनुतिहतेवः । संधिसे टकने तक हाथसे अच्छी तरह मर्दन । अर्थ-भय, मूछों, बंधन का ढीला करै और उस पविपर दूसरे पांव को कुछ
होजामा, भोतरा शस्त्र, अतिभोजन,दुर्बलता सुकडवाकर रखदे फिर हस्तसिरी बेधन की मलमूत्रका वेग और पसीने न लेना। इन तरह इस जगह भी वेध्यस्थान से चार अंगु- हेतुओं से रक्तस्राव नहीं होता है । इसलिये ल ऊंची पट्टी बंधवादे ।
रक्तस्राव में इनका परित्याग कर देना __इसी तरह उपायमें कुशल वैद्यको उचि त है कि और और स्थानों की फस्द खोलने सम्यगसम्यक् सावमें कर्तव्य । . के लिये यथायोग्य यत्रोंकी कल्पना अपनी असम्यगने नवति वेल्लव्योपनिशानतैः३६॥ बुद्धि से करता रहे।
सागारधूमलवणंतैलैर्दिह्याच्छिरामुखम् । मांसलदेशमें ब्रीहिमुखयंत्र ।
सम्यक्प्रवृत्ते कोष्णेन तैलेन लवणेन च ३७ मांसले निक्षिपेद्देशे ब्रीवास्थं व्रीहिमात्रकम्।
___अर्थ-रुधिर का स्राव अच्छी तरह न यवार्धमस्थनामुपरिसिरांविध्यन्कुटारिकाम होने पर बायबिडंग, त्रिकुटा, हलदी, तगर
अर्थ-अत्यन्त मांसयुक्त अंगपर व्रीहिमुख | घर का धूआं, लवण और तेल इनको मिला शस्त्रको व्रीहिके समान और अस्थिके ऊपर कर नसके मुख पर लेप करदे । कुटारिका शस्त्रको आधे जौके समान प्रविष्टं सम्यक् स्त्राव होने पर कुछ गरम जल करके सिराका वेधन करै ।
तेल और नमक का लेप करदे । - अतिविद्धाविद्धके लक्षण ।
दृषितरक्तका स्राव । सम्याग्विद्धे नवेद्धारां यंत्रे मुक्त तु न स्रवेत्। अल्पकालं वहत्यल्पं दुर्विद्धा तैलचनैः३४ अग्रे स्रवति दुष्ठात्रं कुसुभादिव पीतिका । सशब्दमतिविद्धा तु स्रवेदुःखेन धार्यते । अर्थ-जैसे लाल और पीला मिले हुए - अर्थ-सिराके अच्छी तरह विधने पर कसूम के फूल से पहिले पीला रंग निकलता रुधिर की धारा निकलती है और बंधन खु । है, इसी तरह बिगडे हुए और शुद्ध रक्त ल, जानेपर धारा बंद होजाती है, अल्पविद्ध में से पहिले बिगडा हुआ रुधिर निकलत हो।
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(२२४)
अष्टांगहृदय ।
'अं०२७
शुद्ध रक्तका अस्राव ।
त्रिदोष दूषित रक्त मलीन और गाढा सम्यक्तुत्य स्वयं तिष्ठेच्छुद्धं तदिति
होता है तथा इसमें तीनों दोषों के पूर्वेक्त नाहरेत् ॥ ३८ ॥ अर्थ-जब रुधिर अच्छी तरह झर लेता ।
लक्षण भी रहते हैं। है और बिना तेल चूर्ण के ही स्वयं रुक
अशुद्ध रक्त के साव का परिमाण । जाता है तब जान लेना चाहिये कि अब ..
| अशुद्धौ बलिनोऽन्यत्रं नप्रस्थानावयेत्परम् बिगडा हुआ रुधिर नहीं रहा है । शुद्ध |
अतिसुतौ हिमृत्युःस्यादारुणा बा चलामयाः।
| अर्थ-बलवान् मनुष्य का भी एक प्रस्थ रक्त का स्राव कदापि न करावै क्योंकि यही |
अर्थात् दो सेर से अधिक स्राव नहीं कराना जीवन का हेतु है। ___ मूर्छा में यंत्र का खोलना । ।
चाहिये ( फिर निर्बल का तो कहना ही यंत्र विमुच्य मूर्छायां वीजितेव्यजनैः पुनः। क्या है ) क्योंकि अतिस्राव से दारुण बात सावयेन्मूर्छति पुनस्त्वपरास्त्रयहेऽपि वा३९ रोग यहां तक कि मत्युपर्यन्त होजाती है । ___ अर्थ-जो मूच्छो होजाय तो बंधन खोल
अतिसत में उपाय। कर पंखेकी हवा करके रोगी को समाश्वा-तत्राऽभ्यंगरसशीररक्तपानानि भेषजम् । सित करै और फिर फस्द खोले । जो मूर्छा अर्थ-अतिस्नाव में अभ्यंग, मांसरस, फिर होजाय तो उस दिन स्राव न कराके दूध और रक्तपान हितकारक हैं । एक वा दो दिनके अंतरसे स्राव करावै ।
वातादि दोषों से रक्त के लक्षण | रक्तस्राव का पश्चात्कर्म । वाताच्छयाचाहणं रूक्ष वेगलाध्यच्छकोनिलम स्रते रक्ते शनैर्यत्रमपनीयं हिमाबुना। ४३ । पित्तात्पीतासितं विनमस्कंधौण्यात्त प्रक्षाल्य तैलप्लोतातं बंधनीय सिरामुखम्।
चंद्रकम् ॥४०॥ अर्थ-रक्तस्राव होचुकने के पीछे बंधन फफास्निग्धमसृक्पांडुतंतुमत्पिच्छिलं धनम् को धीरे धीरे खोलकर ठंडे जल से नस के संसृष्टलिंग संसर्गाविदोष मलिनाविलम४१ / अर्थ-बातदूषित रुधिर श्याव और लाल
| मुखको धोकर ऊपरसे तेलकी पट्टी बांधदे । रंग का रूखापन लिये होता है यह वेग से
पुनः खाव। निकलता है तथा निर्मल झागदार होताहै। अशुद्धं स्रावयेद्भूयः सायमहन्यपरेऽपि वा
पित्तदूषित रक्त पीला वा काला, आम / स्ने होपस्कृतदहस्य पक्षाद्वा भृशदूषितम् । गंधयुक्त, उष्णता के कारण पतला और
____ अर्थ-स्राव के पीछे भी यदि दुष्ट रु. मोर की पूंछ की चन्द्रकाओं से युक्त होता है । धिर के लक्षण दिखाई दें तो उसी दिन
कफदूषित रक्त स्निग्ध, पांडवर्ण. तन्त | सायंकाल के समय वा दूसरे दिन फिर युक्त, पिच्छिल और गाढा होता है। अशुद्ध रुधिर को निकाल डाले । अथवा
दो दोषों से दूषित रक्त दो दो दोषोंके रोगी की देह को स्नेह द्वारा स्निग्ध करके लक्षणों से युक्त ह्येता है। | एक पखवारे पीछे दूषित रक्त का स्रावकरें।
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म. २७
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
[२२५]
सावमें संशयका प्रतीकार। करना चाहिये । लोध, प्रियंगु, पतंग,उरद, किंचिद्धि शेषे दुष्टास्नेनैव रोगोऽतिवर्तते ॥ | मुलहटी, गेरू, खीपडा, अंजन, रेशमीवस्त्र सशेषमप्यतो धार्य न धातिप्रतिमाचरेत् । | की राख, तथा बटादि दूधवाले वृक्षों की
अर्थ-जो विगडा हुआ रुधिर थोडा रह | छाल और अंकुर का चूर्ण । इन सबको भो जाय तो उस दूषित रक्तमे होने वाले
ब्रणके मुख पर लगावै । तथा पमकादि रोग उत्पन्न नहीं होते हैं । इसलिये थोडा
गणोक्त शीतल द्रव्यों के क्वाथका पानकरे। सा दूषितरक्त रहा आवे तो कुछ हानि नहीं
अन्य उपाय । क्योंकि रुधिर प्राणों का आधार है, इसलिये
तामेववासिरांबिध्येयधात्तस्मादनंतरम् । दृष्ट रक्तका भी अतिस्त्राव अच्छा नहीं है* | सिरामुखं च त्वरित दहेत्तप्तशलाकया । शषरक्त का उपाय ।।
अर्थ-अथवा पहिले वेधस्थान से कुछ करे गादिभिः शेषम् प्रसादमथ वा नयेत्॥
ही हटकर उसी सिरा को फिर बेधे या लोहे शीतोपचारपित्तास्रक्रियाशुद्धिविशोषणैः । दुष्ट रकम्नुदिक्कमेवमेवप्रसादयेत् ॥ ४७॥ का गरम शलाका स सिरा के मुखका ___ अर्थ-साव से बचेहुए दुष्ट रक्तको फस्द | दग्ध करदे । लगाकर न निकाले किन्तु सींगी, तूंवी, रक्तसाव के पीछे का कर्म । घटिका आदि से निकाले । अथवा शीतल उन्मार्गगा यंत्रनिपीडनेनउपचार, पित्तरक्तनाशिनी क्रिया, वमन
स्वस्थानमायांति पुनर्न यावत्।
दोषाः प्रदुष्टा रुधिरं प्रपन्नाविरेचनादि शुद्धि, वा लंघनरूप विशेषण
स्तावद्धिताहारविहारभाक्स्यात् ५१ ॥ द्वारा उस अनुदिक्त अर्थात् बढे हुए रक्त को
अर्थ-यंत्रके बंधनसे अपने मार्ग को प्रसन्न अर्थात् कलुषतारहित करै ।। छोडकर अन्य मार्ग में गये हुए प्रदुष्ट दोष
रक्त न रुकने पर स्तंभिनी क्रिया । जब तक अपने अपने स्थानमें न आ तब रते त्वतिष्ठति क्षिप्रस्तंभनीमाचरोत्कियाम्।
तक हितोत्पादक आहार विहार का सेवन रोधप्रियंगुपतंगमाषयष्टयाह्वगैरिकैः ४८ ॥
उचित है। मृत्कपालांजनाममषीक्षीरित्वगंकुरैः। विचूर्णपद्माणमुखं पनकादिहिम पिवेत् ॥ अग्निकी रक्षाकी भावश्यक्ता ।
अर्थ-जो रक्तस्राव न रुके तो तुरंतही नात्युष्णशीतं लघु दीपनीयनिम्नलिखित स्तंभिनी क्रिया का प्रयोग
रक्तेऽपनीते हितमन्नपानम् ।
तदा शरीर हनवस्थितास्त्र.. + सुश्रुत में कहा है "रक्तं संशेषदोषंतु मग्निर्विशेषादिति रक्षणीयः॥५२॥ कुर्यादापि विचक्षणः। न चातिप्रचुतं कुर्यात् अर्थ-रक्तके निकलने के पीछे न बहुत शेयं संशमनैर्जयेदिति ।,, अर्थात् दूषितरक्त थोडा सा रहने देना चाहिये उसका अति
गरम, न बहुत ठंडा, हलका और अग्नि-- नाव न करै । बचे हुए को संशमनादि संदीपन अन्नपान हितकारी होता है, क्यों औषधों से सुधारले।
कि तत्काल ही शरीरमें रक्त चलितवृत्ति २९
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१२२६)
अष्टांगहृदये ।
अ० २८
होजाता है । यह रक्त शरीर का आधार है, | होती है । यथा, वक्रगति, ऋजुगति, तिरक्तका आधार पित्त है और पित्त का आ- र्यक्गति, ऊर्ध्वगति और अधोगति । धार अग्नि है, इसलिये हितकारी अन्नपान शल्यके जाननेकी रीति । से अग्निकी विशेष रूपसे रक्षा करनी ध्यामं शोफ रुजावंतं स्रवतं शोणितं मुहुः १॥ चाहिये. क्योंकि अग्निही रक्तकी उत्पत्तिका | अभ्युद्गतं बुद्बुदवत्पिटिकोपचितं व्रणम् । मूलकारण है।
मृदुमांसं विजानीयादतःशल्यं समासतः ॥
अर्थ-शरीर के अबयवमें उस व्रण के रोगों के स्वस्थानमें जाने के लक्षण । प्रसन्नवणेंद्रियमिद्रियार्था
भीतर शल्य जानना चाहिये जो सामान्य निच्छंतमव्याहतपक्तवेगम् ।
रीतिसे श्यामवर्ण, सूजनयुक्त, वेदनायुक्त, सुखान्वितं पुष्टिबलोपपन्न
बारवार रुधिर झरता हो । फूलकर ऊंचेको विशुद्धरतं पुरुष वदंति ॥ ५३॥ उठा हुआ । छोटी छोटी फुसियोंसे व्याप्त
अर्थ-जिस व्यक्तिका रक्त विशुद्ध हो | तथा कोमल मांससे युक्त हो । जाता है उसके शरीर का रंग और इन्द्रियां त्वचा और मांसगतशल्यके लक्षण । संपूर्ण निर्मल होजाती हैं, इन्द्रियों के दर्शन | विशेषात्त्वग्गते शल्ये विवर्णः कठिनायतः । स्पर्शनादि विषयों में अभिलाषा उत्पन्न होती | शोको भवति मांसस्थे चोष शोफो विवर्धते। है, अग्निमें पाचनशक्ति बढजाती है तथा
पीडनाक्षमता पाकः शल्यमार्गो न रोहति ।
___ अर्थ-जो शल्य त्वचामें हो तो विवर्ण, सुख, स्वच्छन्दता, शरीर में पुष्टाई और
कठोर और लंबी सूजन होती है । मांसमें बलका संचय होता है।
प्रविष्ट होगया हो तो सर्वांग में तीन दाह, इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां सूजनका बढाव, असह्य दर्द, पाक होता है ... सप्तविंशोऽध्यायः । तथा व्रणका मुख पुरता नहीं है ।
पेशी, स्नायु और सिरागतशल्य ।
पेश्यतरगते मांसप्राप्तवच्छ्वय) विना ४॥ अष्टाविंशोऽध्यायः । | आक्षेपः स्नायुजालस्य संरंभस्तंभवेदनाः।
स्नायुगे दुर्हरं चैतत् सिराध्मानं सिराश्रिते ॥
अर्थ-पेशीगतशल्य के लक्षण भी मांस अथाऽतः शल्याहरणाविधिमध्याय- गतशल्य के से होते हैं । अंतर यही है कि
व्याख्यास्यामः। इसमें सूजन नहीं होती है । स्नायुगत शल्य अर्थ-अब हम यहां शल्यके निकालने ।
में सब नसें खिंच जाती है । क्षोभ, स्तब्धता की विधि वाले अध्याय की व्याख्या करेंगे। |
। और बेदना होती है, यह शल्य बडी कठि शल्योंकी पांचगति । "वक्रर्जुतिर्यगूर्वाधाशल्यानां पंचधा गतिः ।
नता से निकलने में आता है । शिरागतशल्य __ अर्थ-शल्यों की गति पांच प्रकार की में नसें फूल जाती हैं।
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अ० २८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
( २२७)
स्रोत.धमनी और अस्थिगतशल्य । । निकलते हैं । मर्मगतशल्य में मर्मविद्ध*के से स्वकर्मगुणहानिःस्यात्स्रोतसांस्रोतासेस्थिते लक्षण होते हैं । धमनिस्थेऽनिलो रक्तं फेनयुक्तमुदीरयत् ॥ ऊपर जो जो लक्षण कहे गये हैं केवल निर्याति शब्दवान् स्याञ्च हल्लासःसांगवेदनः। संघर्षो बलवानस्थिसंधिप्राप्तेऽस्थिपूर्णता॥ इन्ही से त्वगादिगत शल्य के लक्षण नहीं ___ अर्थ-शल्यके स्रोतोंमें प्रविष्ट होनेसे उ- | जाने जाते हैं किन्तु परिस्राव और रूप द्वानके कर्म और गुणकी हानि होजाती है। रा भी शल्यों के लक्षण जानने चाहिये । धमनीगतशल्यमें वायु झागदार रक्तको बा- शल्यका रोहिणादि । हर निकालती है । निकलने में शब्द होता है। रुह्यतेशुद्धदेहानामनुलोमस्थितं तु तत् ।
| दोषकोपाऽभिघातादिक्षोभाद्भूयोऽपिबाधते इसमें हल्लास ( जीमिचलाना ) और अंगवे
___ अर्थ-वमनविरेचनादि द्वारा शुद्ध मनुष्य दना भी होती है । अस्थियों की संधिमें शल्य
के देह में अनुलोमरीति से प्रविष्ट हुए शल्य के जाने पर प्रबल क्षोभ और अस्थियों में
का मुख पुर जाता है, किन्तु ऐसा होने से भरापन हो जाता है।
भा वातादि दोषों के प्रकोप और अभिघाअस्थ्यादिगत शल्य ।
तादि के क्षोभ से उस में फिर पीडा होने नैकरूपा रुजोऽस्थिस्थे शोफः
लगती है। तद्वच्च संधिग।
त्वचा में नष्ट शल्यका परिज्ञान । चेष्टानिवृत्तिश्च भवेत्
त्वङ्नष्टे यत्र तत्र स्युरभ्यंगस्वेदमर्दनैः। आटोपः कोष्ठसंश्रिते ॥ ८॥ रागरुग्दाहसंरंभा यत्र चाज्यं विलीयते ११ आनाहोऽन्नशकृन्मूत्रदर्शनंच व्रगानने। आशु शुष्यतिलेपो वासस्थानंशल्यवद्वदेत् विद्यान्मर्सगतंशल्यं मर्मविद्धोपलक्षणैः ९ ॥
अर्थ-त्वचा के किसी अवयव में शल्य यथास्वं च परिसास्त्वगादिषुविभावयेत्अर्थ-अस्थिगत शल्यमें अनक प्रकारकी
टूट गया हो और दिखाई न देता हो उस वेदना और सूजन उत्पन्न होती हैं ।* संधि
स्थान में अभ्यंग, स्वदेन और मर्दन करने
से ललाई, वेदना, दाह और क्षोभ पैदा गत शल्यमें अस्थिगत शल्यके समान लक्षण
होता है अथवा उस स्थान पर गाढा घृत होते हैं विशेषता यह है कि संधियों की चेष्टा
लगाया जाय तो वह पिघल जाता है, अनिवृत होजाती हैं । कोष्ठगतशल्य में आटोप
थवा कोई लेप किया जाय तो वह शीघ्र आनाह, तथा घावके द्वारा अन्न मलमूत्रादि
+संग्रहमें मर्मविद्धके लक्षण कहे गये हैं। .. +पहिले अस्थि की संधियों में होने वाले | देहप्रसुतिगुरुतासंमोहः शीतकामता। स्वेदो. ब्रण के लक्षण कहे गये थे अब अनुरक्त श- मी वमिः श्वासो मर्मविद्धस्य लक्षणं अरीरकी संधियों के लक्षण कहे गये हैं। रा-र्थात मर्मविद्धमें देहमें शून्यता, भारापन, जयक्ष्मा के निदान में इस का वर्णन किया मोह, ठंडीवस्तु की इच्छा । मूछो, वमन जायगा।
और श्यास ये लक्षण होते हैं ।
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अष्टांगहृदये ।
( २२८ )
सूख जाता है, ऐसे स्थान को ही शल्य वाला जानना चाहिये ।
मांसादि में नष्ट शल्यका परिज्ञान । मांसप्रनष्टं संशुद्धया कर्शनाच्छलथतां गतम् क्षोभाद्रागादिभिः शल्य लक्षयत्
तद्वदेव च ।
पहिये के रथ में बैठाकर घोड़े जोत कर ऊंचे नीचे मार्गों में होकर स्थानान्तर को लेजाय तो रथ के क्षोभ से शल्य का स्थान मालूम हो जायगा ।
पेश्यस्थिसंधिकोष्ठेषु नष्टम्
मर्मगत शल्य की परीक्षा का पृथकू वर्णन नहीं किया गया है क्योंकि मर्म मांअस्थिषु लक्षयेत् ॥ १३ ॥ सादि संश्रित हैं, इसलिये मांसादिगत शल्यां अस्थनामभ्यंजन स्वेद बंधपीडनमर्दनैः । की जो परीक्षा पहिले कही गई है उसी के प्रसारणाकुंचनतः संधिनष्टं तथाऽस्थिवत् ॥ अनुसार मर्मगत शल्यों की पररीक्षा भी जान नष्टे स्नायुशिरा स्रोतो धमनिष्वसमे पथि । ली जाती है । अश्वयुक्तं रथं खण्डचकमारोप्य रोगिणम् ॥ शीघ्रं नयेत्ततस्तस्य संरभाच्छल्यमादिशेत् । मर्मनष्टं पृथनोक्तं तेषां मांसादिसंश्रयात् ॥
अर्थ - जो शल्य मांस में टूटकर दिखाई न देता हो तो वह स्थान वमनविरेचनादि संशुद्धिरूप कर्षण क्रियाओं द्वारा शिथिल होजाता है अथवा अनेक प्रकार के क्षोभ, वेदना और ललाई द्वारा वह स्थान पहुंचाना जाता है ।
पेशी, अस्थि, संधि और कोष्ठ में गये हुए अदृष्ट शल्य की परीक्षा भी इसी रीति से होती है ।
प्रसा
अस्थि में टूटा हुआ अदृश्य शल्य अभ्यंग, स्वेदन, बंधन, पीडन, मर्दन, रण ( पसारना ), आकुंचन ( सकोडना ) द्वारा जाना जाता है ।
संधि में नष्ट शल्य की परीक्षा अस्थिगत शल्यकी रीति से की जाती है ।
स्नायु, शिरा, स्रोत, और धमनी में टूटे हुए अदृश्य शल्यका स्थान पहुंचानने की रीति यह है कि रोगी को टूटे हुए
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अ० २८
शल्प स्थान की सामान्य परीक्षा | सामान्येन सशल्यं तु क्षोभिण्याक्रिययासस्क्
अर्थ- सामान्य रीति से श्वास के खींचने निकालने और प्राणायामादिक क्षोभ उत्पन्न करनेवाली क्रियाओं से जहां दर्द होने लगता है वही शल्य का स्थान जान है 1
लिया जाता
अदृष्टशल्प की आकृति । वृत्तं पृथु चतुष्कोण त्रिधुटं च समासतः १७ अदृश्यशल्य संस्थानं व्रणाकृत्या विभावयेत् । अर्थ - आकृति से अर्थात् क्षतका मुख गोल है स्थूल है, चतुष्कोण है कि त्रिकोण है, इन बातों को देखकर अदृष्ट शल्य की कृति पहचानी जाती है ।
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शल्याकर्षण के उपाय | अर्वाचीनपराचीने निर्हरेत्तद्विपर्ययात् । तेषामाहरणोपाय प्रतिलोमानुलोमकौ १८ ॥ सुखाहार्य यतश्छित्वा ततस्तिर्यग्गतं हरेत् ॥ अर्थ-अदृश्य शल्यों के निकालने के प्रतिलोम और अनुलोम दो उपाय हैं। ओंधे बा सांधे मुखों से प्रविष्ट हुए शहयों को विपरीत
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत ।
(२२९)
रीति से निकाले अर्थात् जो शल्य ओंधे मुख । ककभृगाह्मकुररशरारीवायसाननैः। घुसे हैं उनको प्रतिलोम रीति से और जो
__अर्थ-अदृश्य शल्य जो व्रणके स्थान से ऊर्ध्वमुख घुसे हैं उनको अनुलोम रीति से
पकड़ने के योग्य हों उनको कंकास्य, श्रृंगाखींचे, टेढे घुसे हुए शल्य मांस को चारकर
स्य, कुररीमुख, शरारीमुख और काकमुखादि सुखपूर्वक निकाल लिये जाते हैं । यंत्रों से पकड़कर खींचना चाहिये । अनिर्घातनीय शल्य ।
अन्य यत्रोंका प्रयोग । शल्यंन निर्वात्यमुरः कक्षावक्षणपार्श्वगम्। सदशाभ्यां त्वगादिस्थम्प्रतिलोममनुत्तुंडछेद्य पृथुमु खं च यत् २०॥
तालाभ्यां शुषिरं हरेत्। अर्थ-उर, कक्षा, वंक्षण, पसलोक शल्यों अर्थ र कक्षा शिघिरस्थं तु नलकः
शेषं शेषैर्यथायथम् । को तथा प्रतिलोमगामी और अनुत्तुंड अर्थात् अर्थ-वचा, सिरा, स्नायु और मांस शल्यों जो फूलकर ऊपर को न उठे हों, जो छेदन
को संदंश यंत्र से तथा त्वगादि में स्थित सकरने के योग्य हो और जिनका मुख फैलगया जिदशल्य को तालयंत्रोंसे, छिद्रमें स्थित हो ऐसे शल्य निर्घातन अर्थात् इधर उधर |
शल्य को नाडी यंत्रोंसे तथा शेष शल्योंको हिलाकर निकालने के योग्य नहीं है ।
| उन उनक योग्य यंत्रोंसे निकाले । न निकालने योग्य शल्प ।
शव से छेदन । नैवाहरेशिल्यनं नष्टं वा निरुपद्वम्। शस्त्रेण वाविशस्याऽदौततोनिलोहितं व्रणम्
अर्थ-विशल्यध्न शल्य जिसके निकालनेसे कृत्वा घृतेन संस्वेद्यवध्याऽऽचारिकमादिशेत् मनुष्य मरजाता है वा निरुपद्रव शल्य जिस । अर्थ--प्रथम शत्र से मांसादि को काट के शरीर में रहने से किसी प्रकार का रोग | कर व्रण के मुखसे रक्त निकाल कर घृत से नहीं होताहै ऐसे शल्यको निकालना उचित्त। स्वेदन करके कपडे की पट्टी बांधकर स्नेह नहीं है ।
विधिमें कहे हुए संपूर्ण नियमों का पालन हस्तादि में लगेहुए शल्योंका निकालना
करावै । अथाऽहरेत्करप्राप्यं करेणैव
सिरादिस्थ शल्यों का निकालना। इतरत्पुनः ॥ २१॥ सिरानायुविलग्नं तु चालवित्या शलाकया। दृश्यं सिंहाहिमकरवभिकर्कटकाननः । हृदये संस्थितं शल्य बासितस्य हिमांवुना।
अर्थ-हस्तप्राप्य शल्य को हाथही से ततः स्थानांतरं मातमाहरेत्तद्यथायथम् ॥ निकालडालै कंकमखादि यंत्रों का प्रयोग न यधामागे दुराकर्षभन्यतोऽन्येवमाहरेत् । करै । जो हस्तप्राप्य नहीं है और दिखाई देते
____अर्थ-शिरा और स्नायु में लगे हुए शल्य हैं उनको सिंह मुखादि यंत्रों से निकालै । को शलाका से ढीला करके निकाले ।
अदृश्य शल्यों के यंत्र । हृदयमें लगे हुए शल्यको शीतल जलके अदृश्य व्रणसंस्थानाद्गृहीतुं शक्यते यतः। तरेडे से सेचन करके रोगी को त्रासित करके
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(२३०)
अष्टांगहृदय ।
अ० २८
शल्य के स्थानान्तर में हटने पर यथोपयुक्त | दे और चाबुक से घोडे को मारे ज्योंहीं यंत्र से निकाले ।
| घोडा वेग से अपनी गरदन उठावेगा. शल्य इसी तरह अन्यस्थान में लगे हुए दुर:- निकलकर वाहर जा पडेगा, अथवा पंडकी कर्ष शल्यों को भी किसी उपाय से स्था- डाली को झुकाकर शल्य को उससे बांधकर नांतरित करके खींचने का यत्न करे। डाली को छोडद ज्योंही डाली ऊपर को अस्थ्यादि के शल्यों को निकालने की रीति उठेगी शल्य निकल जायगा। अस्थिदृष्टे नरं पद्भयां पीडयित्वा विनिहरेत् दुर्बल शल्य वारंग कुशाओं से बांधकर इत्यशक्ये सुदलिभिः सुगृहीतस्य वि.क.रैः। निकालना चाहिये । जिस वारंग के ऊपर तथाऽप्यशक्ये वारंगं वक्री कृत्य धनुर्व्यया । सुबद्धं वक्त्रकटके वन्नीयासुसमाहितः।।
सूजन आगईहो तो सूजनको युक्तिपूर्वक सुसंयतस्य पंचांग्यावाजिनः कशयाऽथ तम् । ऊँचे को उत्पीडन करके शल्यको खींच ले । ताडयेदिति मूर्धानं वेगेनोन्नमयन् यथा। फूलहुए शल्यका निकालना। उद्धरेच्छल्यम्
मुराहतया नाड्या निर्घात्योत्तुंडितं हरेत् । एवं वाशाखायां कल्पयेत्तरोः तैरेव चाऽनयेन्मार्गममार्गोत्तुक्तिं तु यत् ॥ बध्वा दुवैलवारग मु.शामिः शल्यमाहरेत् । अर्थ-मद्गर वा पाषाणदि से कुटे हुए श्वयथुप्रस्तवारंगं शोफमुत्पीड्य युत्ति.तः।
बुलबुले के समान उठेहुए शल्यको नाडी यंत्र अर्थ-अस्थि में जो शल्य दिखाई देता
से पकड कर निकाले, अथवा अमार्ग में झे तो बलवान् रोगी को पांवों से पीडन
गये हुए शल्यको उक्त रीतिस मार्गमें लाकर करके यंत्रद्वारा शल्य को पकडकर जोर से
| निकालै । खींचले । इस तरह न निकल सके तो
अन्यरीति । बलवान नोकरों से रोगी को अच्छी तरह
मृदित्या कर्णिनां कर्ण नाड्यास्येन निगृह्य वा पकड़वा कर कंकमुख दि यंत्रों द्वारा शल्य को
अयस्कांतेन निष्कर्ण विवृतास्यमृजुस्थितम् पकड कर खींच लेना चाहिये।
अर्थ-वार्णिकावाले शल्य के कणों को ___ इस रीति से भी शल्य न निकले तो दूर करके पंचमुख छिद्रवाले नाडीयंत्र से धनुषको नवाकर उसकी प्रत्यंचा से वारंग पकड़कर बाहर निकाले । विना कर्णवाले ( शल्यादिमय शल्यकी शिखा के आकार | शल्य को जिसका मुख खुला हो ऋजुभाव वाली कीलक ) को अच्छी तरह बांधकर में अवस्थित शल्य को अयस्कांत अर्थात चुंधनुषको छोड देने से शल्य बाहर निकल बक पत्थर से निकाले । आवेगा अथवा पंचांगी बंधन ( चारों हाथ । | विरैकचूषणादि से निकालना। पांव और मुखका बंधन ) से घोड़े को | पक्वाशयगतं शल्य विरेकेण विनिहरेत् । बहुत सावधानी से बांधकर उसकी लगाम | दुटवातविषस्तन्यरक्ततोयादिचूषणैः ॥ भशल्य को ऊपर लिखी हुई रीति से बांध
अर्थ-पक्काशयगत शल्य को विरेचन से
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अ. २८
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२३१)
दुष्टवात, विष, दूध, रक्त और जलरूप ) मुखनासिका और कंठ के शल्य । शल्य को चूषणद्वारा निकाले । अशक्यं मुखनासाभ्यामाहर्तु परतो नुदेत् । . कंठस्रोतोगत शल्य । अप्पानस्कंधघाताभ्यांग्रासशल्यं प्रवेशयेत्॥ कंठस्रोतोगते शल्ये सत्रं कंटे प्रवेशयेत। । अर्थ-मुख आर नासिका में लगा हुआ बिसेनात्ते ततः शल्ये विसं सूत्रं समं हरत्। शल्य यदि बाहर न निकल सके तो जिस
अर्थ-कंठस्रोतोगत शल्यम एक सूत की तरह हो सके उसे कोष्ठके भीतर लेजाकर मृणाल सहित प्रविष्ट कर जब मृणाल कंठ- वाहर निकालने का यत्न करे । कंठ में जो स्थ शल्य में चिपट जाय तब डोरी. मृणाल | प्रास अटक गया हो तो जल पीकर या और शल्य सबको एक साथ खींचले। कंधों को थपथपा कर भीतर को प्रवेश करै अन्यशल्प ।
अक्षिगत शल्य । नाड्याऽग्नितापितांक्षिप्त्वा शलाकामाप्स्थ
रीकृताम् ।
सूक्ष्माभिव्रणशल्यानि भौमवालजलैहरेत् । आनयेज्जातुषं कंठात्
अर्थ-आंख और ब्रण के स्थान में जो ___जतुदिग्धामजातुषम् ॥ | बहुत सक्ष्म शल्य घुस गया हो तो उसे अर्थ-लाख का शल्य कंठ में गत होने | रेशमी वस्त्र, बाल वा जल के तरड़े से दूर पर एक लोहे की सलाई को अग्नि करने का यत्न करै । में तपाकर जल में बुझाकर नाडी यंत्र में
उदरसेजल निकालना। रखकर कंठ में प्रविष्ट करके लाख के शल्य को खींचले । यदि यह शल्य लाखका न |
| अपां पूर्ण विधुनुयादवाक्शिरसमायतम् ॥
वामयेद्वाऽऽमुखं भस्मराशौ वा निखनन्नरम् हो और तृण काष्ठादि का हो तो लाखको
___ अर्थ-जो जलमें न्हाने, डूबने वा तैरने सलाई पर लगाकर कंठ में से शल्य को
से पेटमें जल भर जाय तो मनुष्यका सिर निकाले । ... केशगुच्छ से शल्यनिकालना।।
नीचा और टांगे ऊंची करके हिलाकर वमन केशोदुकेन पीतेन द्रवैः कंटकमाक्षिपेत। करादेवै अथवा मुखसक राखके ढेरमें दावदे। सहसा सूत्रबद्धेन वमतः तेन चेतरत् ॥ कानसे जल निकालनेका उपाय ।
अर्थ-मछली आदि के मांस के साथ कर्णेऽदुपूर्ण हस्तेन मथित्वा तैलवारिणी ॥ कंटक कंठ में चला जाय तो पानी आदि क्षिपदधोमुख कंगहन्याद्वा चूषयेत वा । पतले पदार्थ के साथ बालों का गुच्छा । अर्थ-कानमें जल भर गया हो तो उस गले के भीतर प्रविष्ट करें और इस तरह
में तेल और जल मिलाकर भरदे और कान वमन कराव इससे कंठ का कंटक बाहर को ओंधा करके ऊपर से थप्पी लगावै अथनिकल आवेगा । इसी तरह और और वा कपडे की बत्ती भीतर प्रवेश करके जल शल्यों को भी निकाले ।
| को चूसले ।
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(२३२)
अष्टांगहृदये।
कानसे कीडे निकालना। तीक्ष्णोपनाहपानानघनशस्त्रपदांकनैः । कीटे स्रोतोगते कर्ण पूरयेलवणांबुना ॥
पाचयित्वा हरेच्छल्यं पारनैषणभेदनैः। शुक्तेन वा सुखोष्णेन मृते क्लेदहरो विधिः। अथे-शल्य जब मांसके बहुत भीतर ___ अर्थ-जो चींटी मच्छर आदि काई जीव घुसजाय और वहां वह न पके तो उसे म. कानमें घुस गया हो तो नमक और तेल । र्दन, स्वेदन अथवा कदाचित् वमनविरचनामिलाकर अथवा थोडी गरम कांजी को कान दि शुद्धिद्वारा, कदाचित् कर्षणक्रिया, कदामें भरदे । ऐसा करने से जब कीडा मरजाय | चित् वृंहण, कदाचित् तीक्ष्ण उपनाह,कदा तब कानके भीतरसे पानी निकालनेके उपा- | चित् तीक्ष्ण अनपान, कदाचित घनशस्त्रों यों से कान को साफ करदे । के पर्दोसे अंकन द्वारा इस स्थानको पकाक.
लाखके शल्यका निकालना। र पाटन, एपण और भेदनादि उपायों से जातुष हेमरूप्यादिधातुजं चचिरस्थितम् ॥ निकाल डाले । ऊप्मणा प्रायशःशल्यं देहजेन विलीयते ।
शल्य निकालने में ज्ञान । ___ अर्थ-लाख अथवा सोने चांदी आदि
| शल्यप्रदेशयंत्राणामवेक्ष्य बहुरूपताम् । धातुओं का शल्य बहुत दिनतक रहने से | तैस्तैख्याथैमतिमान् शल्य विद्या तथा हरसे देहकी गरमीद्वारा ही पिघल जाता है। ___अर्थ- अनेक प्रकार के धातु सींग बांस - __ काष्ठादिशल्यका न निकलना। आदि के शल्य, त्वचा मांसादि शल्य के मृद्धेणुदारुशृंगास्थितबालोपलानि च ॥ अनेक स्थान और स्वस्तिकादि अनेक यंत्र शल्यानि न विशीर्यते शरीरे मृन्मयानि वा।
इन सबके अनेक रूप और अनेक आकारों __अर्थ-मृत्तिका, वांस, लकडी, सींग, हड्डी
को जानकर बुद्धिमान् वैद्य को उचित है दांत, बाल, पत्थरकाटुकडा और मृत्तिका के
कि उक्त और अनुक्त उपायों से जैसे हो अन्य शल्य शरीरकी गरमी से नहीं पिघलते हैं
सके तैसे शल्यको निकालने का यत्न करै । विषाणादि शल्यका अविलयन् ।
संग्रह में लिखा है "व्रणे प्रसन्ने प्रान्तेषुनाविषाणवण्ययस्तालदारुशल्यं चिराइपि ॥ प्रायो निभुज्यते तद्धि पचत्याशु पलासृजी।
तिस्पर्शसहिष्णुषु। अरुपेशोफे च तापेचनिः अर्थ-सींग, बांस, लोहा और तालकाष्ठ शल्यमिति निर्दिशेत् ,, का शल्य दीर्घकालमें भी नहीं पिघलता है। इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकाय यह बहुत जल्द मांस और रक्तको पका देता अष्टाविंशोऽध्यायः । है और देहकी ऊष्मा द्वारा प्रायःही बाहर निकलता है।
एकोनत्रिंशोऽध्यायः। मांसावगाढ शल्पका निकालना । शल्ये मांसावगाढे च स देशो न विदहाते। अथाऽतः शस्त्रकर्मविधिमध्यायं व्याख्याततस्तं मर्दनस्वेदशुद्धिकर्षणहणैः ।
स्यामः।
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म० २९
अर्थ - 3
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
- अत्र हम यहां से शस्त्रकर्म विधि
अर्थ- पच्यमान शोफ ( जो सूजन पकने लगती है ) का रंग त्वचाके समान नहीं
सूजन का उपचार |
रहता, लाल रंग की होजाती है और मशक
अर्थ - प्राय: प्रथम सूजन होती है और फिर सूजनके पकने पर घाव होजाता है ( कभी कभी शस्त्रादि की चोट से भी घाव होजाता है इसीलिये प्रायः शब्दका प्रयोग किया गया है ) अतएव शीतस्पर्श और शीतवीर्य लेप और परिषेक रक्तमोक्षण, वमन विरेचनादि संशोधन ( आदि शब्द से कषायपान और घृतपानादिका भी ग्रहण है ) द्वारा पाकको रोकने के लिये यत्नपूर्वक सूजनकी चिकित्सा करै ।
व्रणः संजायते प्रायःपाकाच्चयपूर्वकात् ॥ | की तरह फूल जाती है, उसमें सुई छिदने तमेवोपचरेत्तस्माद्रक्षन्पार्क प्रयत्नतः ॥ की सी वेदना होने लगती है, शरीर में सुशीतलेपसेकास्त्रमोक्ष संशोधनादिभिः । अंगडाई और जंभाई आने लगती है, संरंभ ( अंगपीडन, विघट्टन, छेदन, दंशन आदि अनेक प्रकारकी वेदना ), अरुचि, सर्वागमें होनेवाला तीव्र दाह, उषा ( भरतियुक्त दाह ), तृषा, ज्वर, अनिद्रा ये सब उपद्रव उपस्थित होते हैं । व्रणकी तरह सूजन हाथ के लगाने को नहीं सह सकती है, इस के ऊपर गाढा घृत रखदिया जाय तो वह पिघल जाता है ।
नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
आम शोफका लक्षण | athi seviseपोरुक्सामः सवर्णः कठिनः स्थिरः ॥
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|
अर्थ- सूजन की तीन अवस्था होती हैं (१] आम, [ २ ] पच्यमान और [ ३) पाकावस्था | इनमें से आम शोफ [ कच्ची सूजन ] प्रमाण में अल्प अर्थात् कम फूली हुई, कम गरम और कम वेदनावाली होती है, इसकारंग भी त्वचाके रंगके सदृश होता है, कठोर होती है और पकी हुई की तरह स्थिर रहती है अर्थात् हिलती झुलती नहीं हैं। पच्यमान शोफका लक्षण | पच्यमानो विवर्णस्तु रागी बस्तिरिवाततः । स्फुटतीव सनिस्तोदः सांगमर्दविजृंभिकः । संरभारुविदाहोषातृड्ज्यरानिद्रान्वितः । स्त्यानं विन्यंदयत्माज्यं व्रणवत्स्पर्शनासहः ।
( २३३ )
शोफकी पक्वावस्था |
पक्वेऽल्पवेगता स्लानिः पांडुता वलिसंभवः । नामोऽतेथूनतिर्मध्ये कंशोफादिमार्दवम् ॥ स्पृढे दूयस्य संवारो भवेद्रस्ताविवभसः ।
अर्थ- सूजन के पकजाने पर वेदना कम होजाती है, म्लानता उत्पन्न होती है, त्वचा का रंग पीला पडकर खाल सुकडजाती है, किनारों पर निचाई और बीच में ऊंचाई होजाती है, खुजली और सूजनमें कमी हो जाती है, ये सब लक्षण सूजनके पकने पर होते हैं तथा जैसे जल से भरी हुई मशक मेंदवाने जल इधर उधर डोलने लगता है वैसे ही इसे दबाने से पीव इधर उधर फिरने लगता है ।
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अनिलादि बिना शलादि असंभव । शूलंनतेऽनिलाद्दाहः पित्ताच्छो फाकफोदयात् रागो रक्ताच पाकः स्यादतो दोषैः सशोणितैः
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( २३४ )
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अष्टहृदये |
अर्थ- वायुके बिना वेदना, पित्तके बिना दाह, कफके बिना सजन, और रक्त के विना राग (ललाई ) नहीं होती है, इसलिये रक्त और कफादिक तीनों दोष प्रकुपित होकर शोध का पाक करते हैं ।
अत्यन्त पाकर्म छिद्रादि । पाकेऽतिवृत्ते सुविरस्तनुत्वग्दोषभक्षितः । वलीभिराचितः श्यावः शर्यिमाणतनूरुहः
अर्थ - शोफका पाक अत्यन्त होजाने से भीतर पडा हुआ पीव स्नायु और मांसादिक को दूषित कर देता है, सूजनमें छिद्र होजाते हैं, वहां की त्वचा पतली पडजाती है, झुर्रियां पडजाती हैं, और रंग काला हो जाता है और रोम गिरपडते हैं । रक्तपाक के लक्षण ।
कफजेषु तु शाकेषु गंभीरं पाकमेत्यसृक्कू ॥ पक्कलिंगं ततोऽस्पष्टं यत्र स्याच्छीतशोफता । त्वफ्सावर्ण्यरुजोऽल्पत्वंघजस्पर्शत्वमश्मवत् रक्तपाकमिति ब्रूयात्तं प्राशो मुक्तसंशयः ।
अर्थ - कफज शोफ में रक्तका बडा गंभीर पाक होता है, पक्क के लक्षण दिखाई 'नहीं देते हैं, इसलिये पक्त्र और अपक
:
सूजन का मालूम करना कठिन होजाता है परंतु यदि सूजन ठंडी हो, त्वचा समानवर्ण, "दर्द कम और छूने में पत्थर के समान कठोर हो तो समझदार वैद्य निःसंदेह होकर इसे रक्तपाक कहते हैं । यह शोफपाक नहीं कहलाता है 1
सूजनमें दारणादि । अल्पसत्वेऽबले बाले पाके चाऽत्यर्थमुद्धते ॥ दारणं मर्मसंध्यादिस्थिते चाऽन्यत्र पाटनम् ।
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अ० १९
अर्थ - अल्पसत्व, दुर्बल और बालक इन की सूजन में अथवा जिस सृजन का पाक अतिक्रान्त हो गया हो और जो सूजन मर्म और संधि आदि स्थानों में उत्पन्न हुआ हो ऐसी सूजनों में अस्त्र का प्रयोग न कर के गूगल, अलसी, गोदंती, स्वर्ण क्षीरी, कबूतर की बीट, क्षार औषध और क्षार इन दवाओं को लगाकर सूजन को विदीर्ण कर डाले, अन्य स्थानों में अस्त्र का प्रयागकरै ।
आमशोफ के छेदन में उपद्रव ! आमच्छेदे सिरास्नायुव्यापदोसगतिस्रुतिः ॥ रुजोऽतिवृद्धिदरणं विसर्पो वा क्षतोद्भवः ।
अर्थ-आमशोकं अर्थात् कच्ची सूजन का अस्त्र से छेदन करने में सिरा और स्नायु में विकार होते हैं, रक्त बहुत बहने लगता है, तीव्र बेदना, विदरण वा घाव से उत्पन्न विसर्प उत्पन्न होते हैं ।
अंतस्थ पयको सिरादाहकता । तिष्ठन्नतः पुनः पूयः सिरास्नाय्वसृगामिपम् ॥ विवृद्धो दहति क्षिप्रं तृणोलपमिवानलः ।
अर्थ - - जो पूयं भीतर रह जाती है वह भीतर ही भीतर फैलकर जिरा, स्नायु, रक्त और मांस को ऐसे दग्ध कर देती है जैसे अग्नि तिनुकों के ढेर को जला देती है ।
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असमीक्षाकारी वैद्यकी निंदा | यश्छिनत्याममज्ञानाद्यश्च पक्वमुपेक्षते १३ श्वपचाविव विज्ञेयौ तावनिश्चितकारिणौ ।
अर्थ - जो वैद्य कचे शोफ को चार देते हैं और पके हुए की उपेक्षा करते हैं
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अ० २९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२३५]
ये दोनों ही चांडाल के तुल्य समझने युक्त यंत्र शस्त्रादि सब प्रकार की सामिग्री चाहिये।
इकट्ठी करके रोगी का मुख पूर्व की ओर शस्त्रकर्म से पूर्व कर्तब्य ।
करादे और वैद्य पश्चिमाभिमुख बैठकर प्राक्शस्त्रकर्मणश्चष्टं भोजयेदनमातुरम् १४।
व्रणस्थान को सुयंत्रित करके पैने शस्त्रको पानपं पाययेन्मा तीक्ष्णं यो वेदनाक्षमः। नमूर्छत्यन्नसंयोगान्मत्तः शस्त्रं न बुध्यते १५
बहुत शीघ्र लगादे देर न करै । शस्त्र प्रअन्यत्र पूढगर्भाश्ममुखरोंगोदरातुरात्।।
| योग के समय इस बात पर विशेष ध्यान अर्थ-शस्त्रकर्म करने से पहिले रोगी । रखना चाहिये कि मर्मस्थान, सिरा, स्नायु, को अन्न का भोजन करादे जो शस्त्र कर्म । संधिस्थान की अस्थि वा धमनी पर किसी की बेदना सहने में असमर्थ हो और मद्यपी प्रकार की जोखम न पहुंचे। प्रयुक्त शस्त्र भी हो तो उसे तेज नशावाली शराब पिला अनुलोमरीति से लगावे जब तक पीव दि. दे इससे ऐसा करन से अन्न के बल के | खाई न दे पीव दिखाई देते ही शीघ्र खेच द्वारा उसे मूर्छा न होगी और मद्यके नशे में | लेना चाहिये । उसे शस्त्रकर्म की बेदना का ज्ञान न बडे पाक में दो अंगुल तक अस्त्र का होगा । किन्तु मूढगर्भ, अश्मरी, और उदर | प्रयोग कर इस से अधिक न करे जो दु. रोगों में भोजन वा मद्यपान का निषेध है। वारा शस्त्र प्रयोग की आवश्यकता हो तो
शस्त्रकर्म की विधि । पहिले स्थान से अथवा अंगुलिनल वा वराअथाऽहतोपकरण वैद्यः प्राङ्मुखमातुरम् ॥ | हादि के बालों से ब्रण के चारों ओर अच्छी संमुखो यंत्रयित्वाऽशुन्यस्येन्मर्मादि वर्जयन् अनुलोमं सुनिशितं शस्त्रमापूयदर्शनात् १७
तरह देखले और यथादेश और यथा आशय सकदवाऽऽहरेत्तच्च
पीव के स्थान तक शस्त्र चलावै । पाके तु सुमहत्यपि । पाटयेदयंगुलं सम्यग्दयंगुलव्यंगुलांतरम
ब्रण का प्रदेश । एषित्वा सभ्यगेषिण्या परितः सुनिरूपितम् |
यतो गतांगति विद्यादुत्संगो यत्र यत्र च । । अगुलीनालवालैर्वा यथादेश यथासयम् १९
तत्र तत्र व्रणं कुर्यात्सुविभक्तं निराशयम् २० अर्थ- * शस्त्र प्रयोग के समय उप
आयतंचं विशालं च यथा दोषो न तिष्ठति । x मुल मे प्रथम ही अथ शब्द दिया |
अर्थ-जितनी दूर तक नाडी की गति गया है इसका यह प्रयोजन है कि शुभ हो वहां तक घाव करदे, जहां जहां जगह मुहूर्त में दही, अक्षत, अन्नपान, रुक्म' र- ऊंची हो वहां वहां भी घाव करदे ये घाव नादि से ब्राह्मणा का पूजन करे और इ2 | अच्छी रीति से इधर उधर विभक्त हों, तथा देवता को नमस्कार करक यंत्रशस्त्र, जांव
पूयादि दोष का स्थान न रहै तथा लंवा पोष्ठ, रुई, काडे की पट्टी घृत, शहत, क
और चौडा भी करदे जिससे पूयादि दोष कादि समयोचित सामिग्री एकत्र करके पास रखले।
को रहने को स्थान न मिले ।
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(२३६)
अष्टांगहृदये।
अ० २९
वैद्य का शस्त्रकर्म में शौर्यत्व । मधुर मधुर वाक्यों से तथा रोगी की आंख शौर्यमाशुक्रिया तीक्ष्णं शस्त्रमस्वेश्वेपथुः ॥ और मुख पर शीतल जल लगाकर रोगी असमोहश्व वैधस्य शस्त्रकर्मणि शरय ।।
को आश्वासन दे । फिर अपनी उंगली से ___ अर्थ-शस्त्र कर्म में प्रवृत्त होने वाले
व्रण को चारों ओर से दाव दावकर पूयादि चिकित्सकके लिये इतनी बातोंकी आवश्य
दोष को निकालदे फिर मुलहटी आदि से कता है (१) शौर्य ( शस्त्रका प्रयोग
सिद्ध किये हुए काथ से ब्रण को धोकर करने में धैर्य अर्थात् दृढता ), (२)
वस्त्रके टुकड़े से जल पोंछकर गूगल,अगर, आशुक्रिया ( शस्त्र चलाने में शीघ्रता पूर्व
| सफेद सरसों, हींग, राल, लवण, पीपलाक चतुराई ), (३) तीक्ष्ण शस्त्र, (४)
मूल, और नीम के पत्ते इन सब की धूनीअस्वेदवेपथु ( व्रण को देखकर घबडाहट से पसीने न आवे और हाथ न कांपे )
वना घीमें सानकर अग्निपर रखकर द्रणस्थान
| को धूनी दे । (५) असंमोह ( तत्कालोचित काम करने में सम्यक् प्रवृत्ति)।
घाव में बत्ती का प्रवेश । तिर्यक छेदन के योग्यस्थान !
तिलकल्काज्यमधुभिर्यथास्वं भेषजेन च २६
दिग्यां वति ततोदद्यात्तैरेवाऽच्छाइयेच तम्। तिर्यछिद्याललाटबंदतवेष्टकजत्रुणि २२ ॥
अर्थ-पीछे तिलका कल्क, घृत और कुक्षिकक्षाक्षिकूटौष्ठकपोलगलवंक्षणे।
मधु, इनसे सानकर रुई की बत्ती घाव के अन्यत्र छेदनातियासिरामायुविपाटनम् ॥
भीतर भरदे । वातत्रण में तिल के कल्क ___ अर्थ-ललाट, भृकुटी, मसूडा, जत्रु ( हंसली !, कुक्षि, कक्षा, अक्षिकट, ओष्ट,
से, पित्त व्रण में वृत से और कफ व्रण में कपोल, गला और वंक्षण इनमें शस्त्र का
शहत से सानकर बत्ती का प्रयोग करै । प्रयोग तिरछी रीति से करै । किन्तु इन
कोई २ कहते हैं कि कल्कादि तीनों द्रव्य को छोडकर अन्य स्थान पर तिर्यक छेदने
ही में सानकर बत्ती लगावै और बत्ती को से सिरा और स्नायुओं में व्यापत्ति होना
उन्हीं द्रव्यों के कल्क से ढक दे। संभव है।
घाव का पीछे का कृत्य । । शन कर्म में रोगी को आश्वासन ।
घृताक्तैः सक्तुभिश्चोर्ध्वम्
घनां कलिकां ततः॥ २७॥ शस्त्रेऽयचारिते वाग्भिः शीतांमोमिन- निधाय अपत्या बनीयात्पन सुसमाहितम्।
रोगिणम् । पार्वे सव्येऽपसव्ये बानाऽधस्तानैव चोपरि आश्वास्य परितोऽगुल्या परिपीडयणंततः। क्षालयित्वा कषायेण प्लोतेनांभोऽपनीय च ।
___ अर्थ-पीछेअधभुने जौ का सत्तू घी डागुग्गुल्वगुरु सिद्धार्थहिंगुसर्जरसान्वितः २५॥
लडर पानी में लूपडी बनाकर ऊपर से धूपयेत्पटुपट्नथानियपत्रैर्वृतप्लुतैः। रखदे और उसके ऊपर कपड़े की पट्टी
अर्थ-शस्त्रका प्रयोग करने के पीछे | बहुत सावधानी से बांधदे । ये पट्टी दोहे
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अ० २९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२३७ )
वा बांये पसवाडों से बांधी जाती हैं घाव के ललाई, वेदना, सूजन और पीव बढजाती ऊपर वा नीचे नहीं बांधी जाती हैं । है इस लिये दिन में न सौना चाहिये तथा
घाव में पट्टी आदिका फल। स्त्रियों के स्मरण करने से, स्पर्श से देखने शुचिसूक्ष्मदृढाः पट्टाः कवल्यः सविकेशिकाः
से वीर्य अपने स्थान से चलित होकर झरधूपितामृदवलक्षणा निर्वलीका व्रणे हिताः॥ ' अर्थ-साफ, पतली और मजबूत कपड़े
जाता है इस लिये स्त्रीसंसर्ग न होने पर की पट्टी घावमें हितकारी होती है तथा धूपित
स्त्रीसंग से उत्पन्न हुए दोष पैदा होनाते मुदु, इलक्ष्ण और सलवटों से रहित कव
हैं इसलिये घाववाले के पास स्त्रियों को लिका व्रग हितकारी होती है ।
न आने दे। ब्रणका रक्षण ।
घाव में भोजनादि। कुर्वीताऽनंतरंतस्य रक्षारक्षानिषिद्धये। ।
भोजनंतुयथासात्म्यं यवगोधूमषष्टिकाः । बलि चोपहरेत्तेभ्यः
मसूरमुद्तुवरीजीवंतीसुनिषण्णकाः।। ____ सदा मूर्नाऽवधारयेत् ॥ ३० ॥
मलमूलकवार्ताकतंडुलीयकवास्तुकम । लक्ष्मी गुहामतिगुहां जटिलां ब्रह्मचारिणीम्।
कारवेल्लककर्कोटपटोलकटुकाफलम् ॥ घच छत्रामतिच्छन्नां दूर्वा सिद्धार्थकानपि ।
संघवंदाडिमंधात्री घृतीतप्ताहिमं जलम् । अर्थ-फिर उस व्रण की रक्षा के नि
जीर्णशाल्योदनं स्निग्धमल्पमुष्णं द्रवोत्तरम् ।
भुंजानोजांगलैमासैः शीघ्रं व्रणमपोहति । मित्त मांसाहारी राक्षसों के निवारणार्थ बलि
अर्थ-व्रणरोगी को यथासात्म्य अपने प्रदान करै, तथा पद्मचारिणी, पृश्निपर्णी
| अपने अनुकूल भोजन करना चाहिये, जौ, शालिपर्णी, जटामांसी, ब्राह्मी, बच, सौंफ
गेंहूं, साठीचांवल, मसूर, मूंग, अरहर, जीविषाणिका, दूब और सफेद सरसों इनको
वंती (जेंती का शाक ) चौपतिया, कच्ची सदा मस्तक पर धारण करे।
मुली, बेंगन, चौलाई, बथुआ, करेला, गरम जल के उपचारादि ।
ककोडा, परवळ, कंकोल, सेंधानमक, अनार, ततः नेहदिनेहोक्तं तस्याऽचारं समादिशेत्। अर्थ-तदमंतर स्नेहपान के दिन में जो
आंवला, घृत, गरम करके शीतल किया जो उपचार कहे गये हैं उन सव के प्रति
हुआ जल, थोडासा पुराने चांवलों का भात, पालन का उपदेश करै अर्थात् उष्णोदक | उपचार का पालन करै ।
दि पतले पदार्थों से मिला हुआ जांगलमांस ब्रण में धयकर्म ।
के साथ खाना चाहिये इससे घाव बहुत दिवास्वप्नो प्रणे कंडूरागरुक्शोफपूयकृत् । जल्दी पुर जाता है । स्त्रीणां तु स्मृतिसंस्पर्शदर्शनचालतनुते। पथ्यका हितकारित्व। शुक्रव्यवायजाम दोषानसंसर्गेऽप्यवाप्नुयात् | अशितं मात्रया काले पथ्यंयाति जरांसुखम्। ___ अर्थ-दिन में सोने से घाव में खुजली, | अजीर्णत्वनिलादीनां विनमोबलवान् भवेत्
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[२३८]
अष्टांगहृदये।
ततः शोफरुजापाकदाहानाहानवाप्नुयात् ॥ व लगावें हाथ से दावकर दर्द न करै, न ' अर्थ-उचित काल में प्रमाण के अनुसार खुनावै, और वहुत सावधानी से घाव की किया हुभा भोजन शीघ्र पचजाता है इस | रक्षा करै, व्याधि के दूर हो जाने की आशा लिये घाववाले को ठीक समय में थोडा और वांधकर बृद्ध और ब्राह्मणों के मुख से मनोपथ्य भोजन देना चाहिये । क्योंकि भोजन रंजनी और अच्छी अच्छी बातें सुनाकरे, के न पचने से वातादिदोषों का बलवान्। ऐसा करने से घाव शीघ्र भरजाता है । क्षोभ होजाता है और उस क्षोभ से सूजन
__घाव के धोने का नियम । वेदना, पाक, दाह और आनाह उत्पन्न
तृतीयेऽह्नि पुनः कुर्याद्रणकर्मचपूर्ववत् । होजाते हैं।
प्रक्षालनादि दिवसे द्वितीये नाचरेत् ब्रणमें नवधान्यादि का त्याग ।
तथा। नवंधान्यतिलान् माषान् मद्यमांसंत्वजांगलम् |
तीब्रव्यथो विग्रथितश्चिरात्सरोहति व्रणः । क्षीरेक्षविकृतीरम्लं लवण कटकं त्यजेत् ॥ । अर्थ-तीसरे दिन पट्टी खोलकर घाव यञ्चाऽन्यदपि विष्टंभि विदाहि गुरु शीतलम्। को पहिले की तरह धोडाले, परन्तु दूसरेवर्गोऽयं नवधान्यादिब्रणिनः सर्वदोषकृत् ॥ दिन व्रण को कभी न खोलै क्योंकि ऐसा मद्यं तीक्ष्णोष्णरुक्षाम्लमाशु व्यापादयद्रणम् __ अर्थ-नये चांवल, तिल, उरद, मद्य,
करने से घाव में तीन वेदना होती है और जांगलमांस को छोडकर अन्यमांस, दूधके ।
गांठ पैदा हो जाती है इस से घाव के पुरने विकार, ईखके विकार, वटाई, नमक, कटु |
में बहुत समय लगता है। द्रव्य तथा और भी विष्टंभी, विदाही, भारी, अतिस्निग्धादि वत्तियों का निषेध । शीतल द्रव्यों को छोडदेना चाहिये, क्योंकि स्निग्धां रुक्षांश्लथां गाढां दुय॑स्तां च विकेये सब द्रव्य घाववाले रोगी के दोषों को
शिकाम् ।
वर्ण न दद्यात्कल्कं च। कुपित करते हैं। और तीक्ष्ण, उष्णवीर्य
स्नेहाक्लेदो विवर्धते ॥ रूक्ष और अम्ल मद्य शीघ्रही व्रणको दूषित मांसच्छेदोऽतिरुगौक्ष्याहरणं शोणितागमः। करता है इसलिये यह विशेष रूप से त्यागने श्लथातिगाढदुासैणवविघर्षणम् । के योग्य है।
____ अर्थ-घाव के भीतर जो बत्ती भरीजाघाव में वालोशीर से व्यजनादि । ती है वह बत्ती बहुत चिकनी बहुत रूखी घालोशीरैश्च वीज्यतन चैनं परिघिट्टयेत् ॥
बहुत शिथिल ( लचलची ) बहुत गाढी नतुदेन च कंडूयेचेष्टमानश्च पालयेत्।। स्निग्धवृद्धद्विजातीनांकथाः शृण्वन्मनःप्रिया दुन्येस्त ( बुरी रीति से लगाई हुई ) न आशावान् व्याधिमोक्षाय क्षिप्रंव्रणमपोहति। होनी चाहिये । इसी तरह जो लेप लगाया .. अर्थ- बालों के चमर वा खस के पंखे जाता है वह भी अति स्निधादि गुणों से से घाव की हवा कर, व्रण पर बार वार हाथ | हीन होना चाहिये क्योंकि अतिरनेह से
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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत !
(२३९ )
खेद की वृद्धि होती है, आतरूक्ष से मांस । अर्थ-जो व्रण किसी प्रकार की चोट छिलजाता है सीव्र वेदना होने लगती है | लगने से हुए हैं और जिनके मुख चौडे हो घाव फटकर रक्त निकलने लगता है । अति | गये हैं ऐसे तत्काल के व्रगों को सी देना शिथिल, अतिगाढ और दुास से घावका चाहिये बहुत दिनके पुराने घाव नहीं सीने मुख रिगड खा जाता है।
चाहिये । मेद से उत्पन्न प्रन्थि को लिखित घावमें बत्ती लगाने का कारण । | करके सुई से सीना चाहिये । छोटी कर्णसपूतिमांसंसोत्संगसगति पूयगर्भिणम्। | पाली, तथा मस्तक, नेत्रकुट, नासिका, घणं विशोधयेच्छीघ्र स्थिताातर्विकेशिका। ओष्ठ, गंड, कान, ऊरु, वाहु, ग्रीबा, ललाट, .. अर्थ-घावके भीतर बत्ती भरने से सडा । अंडकोष, स्फिक्, लिंग, गुदा, उदर, आदि हुआ मांस ऊंचा होजाता है घावकी नाली गंभीर स्थान तथा अचल मांसल स्थानमें भीतर से पुरती चली आती है और भीतर जो क्षत होता है, उसको सुई से सीना की पांव शीघ्र विशोधित होजाती है। चाहिये ।
कञ्चोंमें नश्तर लगाने का उपचार। किन्तु वंक्षण, कक्षा तथा अल्प मांस व्यम्लं तु पाटितंशोफंपाचनैः समुपाचरेत्। वाले चलायमान स्थानों में हुए व्रण तथा भाजनैरुपनाहैश्च नातिव्रणावरोधिभिः॥ जिनसे वायु निःश्वसित होती हो, तथा ____ अर्थ-सूजन के बिना अच्छी तरह पके | जिनके भीतर शल्य हो, अथवा जो क्षार, अर्थात् अपक्व अवस्थामें नश्तर लगादिया |
विष वा अग्नि से उत्पन्न हुए हैं ऐसे घावों
वा हो तो उसी प्रकार के सूजन को पकाने
को सीना उचित नहीं है। वाले अन्नपान तथा वैसे ही उपनाहादि
सीने का पूर्व कर्म। द्वारा चिकित्सा करै परन्तु व्रणके अत्यन्त
सीव्येच्चलास्थिशुष्कास्रतृणरोमापनीयतु ॥ विरोधी सूजन को पकानेवाले अम्ल कटु, प्रलंबिमांसं विच्छिन्नं निवेश्य स्वनिवेशने । तीक्ष्ण, उष्ण और लवणप्राय भोजनों का संध्यस्थ्यस्थितेरक्त स्नाय्वा सूत्रेण वल्कलैन सेवन न करै ।
सीव्येन्नदूरेनाऽसन्ने गृह्यान्नाऽल्पं नवाबहु ।
अर्थ-भपने स्थान से चली हुई हड्डी, चौडे मुखवाल व्रणों का सीवन ।
घाव में लगा हुआ सूखा रुधिर, और तृण सद्यःसद्योबणान् सीव्येद्विवृतानभिघातजान्
| रूप रोम को घाव से हटाकर व्रण को सीमें मेदोजान् लिखितान्ग्रंथीन् हस्वाः पालीश्च
कर्णयोः ॥ तथा लटके हुए मांस को तथा संधि की शिरोक्षिकूटनासौष्टगंडकर्णोरुवाहुष्टु । अस्थियों को अपने अपने स्थान में संनिप्रविाललाटमुष्कस्फिोटपायूदरादिषु ॥ वशित करके रुधिर के बहने को रोक कर गंभीरेषुप्रदेशेषु मांसलेवचलेषु च।
व्रण को सीमे, घाव को सीने के लिये स्नायु न तु वंक्षणकक्षादावल्पमांसचले ब्रणान् ।। वायुनिर्वाहिणःसल्यगर्भान्क्षारविषाग्निजान् (तात ) का सूत्र वा बल्कल के बने हुए
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. (२४०)
अष्टांगहृदये ।
म. २९
सूत्र अर्थात् धागे से घाव के दोनों किनारों | हैं क्षौमबस्त्र शीतवीर्य है, । तथा शाल्मलीको मिलाकर सीडाले । घाव के किनारों के | का वस्त्र वा सूत, कपास, स्नाय और वल्कल बहुत पास वा बहुत दूर न सीना चाहिये | ये शीतोष्ण वीर्य हैं । तथा घाव का अंश कम वा अधिक भी प्र- कफादि जन्य ब्याधि में बंधन । हण करने में न आवै ।
ताम्रायनपुसीसानि ब्रणे मेदकफाधिके । रोगी को आश्वासन । भंगेच युज्यात्फलकं चर्मवल्ककुशादि च । सांत्वायत्वा ततश्चात व्रणे मधुघृतद्रुतैः ॥५४॥ अर्थ-भेद और कफाधिक घावों में लेअजनक्षौमजमीफलिनीशल्लकीफलैः। खन कर्म के लिये तांवा, रांग और सीसा सरोनमधुकैर्दिग्धे युज्यादधादि पूर्ववत् ॥ | प्रयोग करना चाहिये । टूटे हुए स्थानों में ___ अर्थ-सीने के पीछे रोगी के मुख पर
भी ताम्रादि का प्रयोग करना चाहिये । ठंडे जल के छींटे मारै और पंखे से हवा करे, इस तरह आश्वासन करके सुर्मा, जले
इसी तरह फलक, चर्म, वल्कल और बांस हुए वस्त्र की राख, प्रियंगु और शल्लकी के
| आदि का भी प्रयोग करे। फल, लोध और मुलहटी इनसबको पीसकर
वंधन का प्रकार ।
स्वनामानुगताकाराबंधास्तुदशपंचच.५९। घी और शहतमें मिला घाव लेपकरे फिर पहिले |
| कोशस्वस्तिकमुत्तोलीचीनदामानुवेस्लितम् की तरह कपडे की पट्टी आदि बांध देवै ।।
खट्वाविबंधस्थगिकावितानोत्संगगोफणाः॥ घान का फिर सीमना। यमकं मंडलाख्यं चपंचांगी चेति योजयेत् । व्रणो निःशोणितौष्ठो याकिंचिदेवावलिस्यतम् यो यत्र सुनिविष्टःस्यात्तं तेषां तत्र बुद्धिमान्॥ संजातरुधिरं सीम्चेत्संधानं ह्यस्य शोणितम् । अर्थ - शरीरके* अवयव विशेषके अनु
अर्थ-यदि घाव के किनारों पर रुधिर | सार वंधन पन्द्रह प्रकार के होते हैं । यथा नहो तो उस घाव को शस्त्र से थोडा सा
___x कोश चमडे का बनाया जाताहै यह खरच कर जब रुधिर निकल आवे तब सी उंगली के पोरुओं में बांधा जाता है। स्वदेना चाहिये क्योंकि रुधिर ही व्रण को पु-| स्तिक संधि, कूर्च, भृकुटी, स्तनों के मध्य राने वाला है।
में, कक्षा अक्षि, कपोल और कानमें । उ
त्तोली ग्रीवा और मेद में, चीन अपांग में । पट्टी बांधने का स्वरूपादि। दाम संधि और वंक्षण में, अनुवेल्लित शा बंधनानि तु देशादीन्वीक्ष्य युजीत तेषुच । खाओं में, खट्वा हनु, संधि और गंडमें। आविकाजिनकौशयमुष्णं क्षीमंतु शीतलम्॥ विवध उदर, ऊरु और पीठम । स्थगिक शीतोष्णं तूलसंतानकार्पासस्नायुवल्कजम् ॥ अंगूठा, उंगली, मेढ, अत्र और मूत्र वृद्धि ___ अर्थ-देश, काल और सात्म्यादि को में । वितान मूर्खादिमें । उत्संग लंबे वाहादेखकर भेड वा मग आदि में से किसी दिकमे । गोफण नासा, ओष्ठ चिबुक अस्थि
| में । यमक जुड़े हुए दो घाबों में । मंडल एक का चर्म घाव पर बांधे मेंढे वा मृग का |
गोल अंगों में और पंचांगी जत्रु से ऊपर के धर्म रेशमी वस्त्र, ये तीनों बंधन उष्णवीर्य । अंगों में बांधा जाता है ।
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अ० २९
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत।
(२४१)
हिथे।
कोश, स्वस्तिक, उत्तोली, चीन, दाम, अनु- पित्तरकोत्थ घावों में बंधन । वेल्लित, खवा, विवंध, स्थगिका, वितान पित्तरकोत्थयोधो गाढस्थाने समोमतः ।। उत्संग, गोफण, यमक, मंडल और पंचांगी समस्थानेश्लथो नैव शिथिलस्याशये यथा॥ इन में से जो जिस स्थान पर बांधने के
| सायंप्रातस्तयोमोक्षोग्रीष्मे शरदिचेष्यते । योग्य हो उसे उसी स्थान पर बांधना चा
___ अर्थ-पित्तरक्त से उत्पन्न हुए घावों में
गाढ बंधन के योग्य स्थान में दृढ बंधन न बंधनों का गाढा वा ढीला बांधना।
बांधकर सनबंधन बांधे । और समबंधन के बन्नीयादगाढमूरुस्किकक्षावंक्षणमूर्धसु।
योग्य स्थानमें ढीला बंधन बांधे तथा शिशाखावदनकोर:पृष्ठपार्श्वगलोदरे ॥ ६२ ॥
थिल बंधन के योग्य स्थान को दिन में सम मेहनमुष्केच
. एकबार बांधे वा खुलाही रहने दे । पित्तरक्त
नेत्रे संधिषु च श्लथम् । से उत्पन्न हुए घावकी पट्टी प्रातःकाल और बनीयाच्छिथिलस्थाने वातश्लेष्मोद्भवेसमम्॥ सायंकाल दोनों समय खोले । गाढमेव समस्थाने भृशंगाढ तदाश्रये। शीते वसंतेच तथा मोक्षणीयौ व्यहाध्यहात पट्टी न बांधने का फल । .
अर्थ-ऊरु, स्किक, कक्षा, वंक्षण और अबद्धो दंशमशकशीतवातादिपीडितः।६६ । मूर्दा में गाढ अर्थात् कसकर बांधना चाहिये
| दुष्टो भवेच्चिरं चाऽत्र नतिष्ठेत्स्नेहभषेजम् ॥ हाथ पांव, मुख, कान, वक्षस्थल. पीठ | कृच्छ्रेण शुद्धि दि वायाति रूढो विवर्णताम् पसली, गला, उदर, मेढ़ और मुष्क इनके
अर्थ-जो घाव पर पट्टी न बांधी जाय घावों में सम वंधन अर्थात् न बहुत कसा
तो दंश, मशक ( मच्छर ) मक्खी, शीत, हुआ न ढीला बंधन लगाबै । नेत्र और
हवा, धूल, धुंआ आदि के लगने से अच्छा संधि के घावोंमें ढीला बंधन बांधे । जहां
घाव भी बिगड जाता है उस पर घावको ढीले स्थानोंमें ढीले बंधनोंका वर्णन है । वहां
अच्छा करनेवाली दवा वा कोई तेल आदि यदि वात वा कफ से उत्पन्न हुए घाव हों
देरतक नहीं ठहर सकते हैं। बिना बांधा तो समभाव में अर्थात् न डीले, न कसेहुए
हुआ घावं अच्छी तरह चिकित्सा किये जाने बांधे । जहां समबंधन के लिये कहा गयाहै
पर भी बडे प्रयास से शुद्ध होता है, फिर वहां यदि वात और कफ से उत्पन्न घाब | बडी कठिनता से पुरता है, और पुर भी हों तो दृढ बंधन बांधना चाहिये । और । जाता है तो उसकी खाल का रंग देह के गाढ बंधन वाले स्थानों में उक्त प्रकार के के सदृश नहीं होता है । घाव हों तो दृढतर बंधन बांधै ।
बंधन के गुण । ये बंधन हेमन्त, शिशिर और वसंत ऋतुओं में तीन तीन दिनका अंतर देकर खोलने ।
| बद्धस्तु चूर्णितो भग्नोविश्लिष्टःपाटतोऽपिवा
र खालन | छिन्नस्नायुसिरोऽप्याशुसुखं सरोहति व्रणः॥ चाहिये।
उत्थानशयनाद्यासुसर्वेहासुन पीडयेत् ।
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( २४२ )
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अष्टहृदय- |
अर्थ - पट्टी से बांधा हुआ घाव यदि वह चूर्णित अस्थि में हो, टूटी हुई अस्थि में हो, वा अपने स्थान से हटी हुई संधि में हो, अथवा फटगया हो, अथवा जिस घाव में नस वा रग फटगई हो, ऐसा घाव पट्टी से बंधा हुआ रखने पर शीघ्र भर जाता है, परन्तु उठने बैठने सौने, करवट बदलने आदि से घाव में पीडा न होने पावै । पांच प्रकार के ब्रण उद्वत्तौष्ठः समुत्सन्नो विषमः कठिनोऽतिरुक् ॥ समो मृदुररु शीघ्रं व्रणः शुध्यति रोहति । अर्थ - जिन घावों के किनारे ऊपर को उठकर गोल होगये हैं, जो बहुत ऊंचे हो गये हैं जो वहुत कठोर हैं वा वहुत वेदना से युक्त हैं, ऐसे पांच प्रकारके बाव बंधन के प्रभाव से अपने अशुभ रूप को छोड़कर अर्थात् समान, मृदु और पीडा रहित होकर बहुत शीघ्र शुद्ध होकर भर जाते हैं ।
स्थिरादि व्रणोंका वर्णन । स्थिराणा मल्पमांसानां रौक्ष्यादनुपरोहताम् ॥ प्रच्छाद्यमौषध पत्रैर्यथादोषं यथर्तु च । अजीर्णतरुणाच्छिद्रैः समंतात्सु निवेशितैः ॥ धौतैरकर्कशैः क्षीरी भूर्जार्जुन कदंबजैः ।
अर्थ - चिरकालानुबंधी और अल्प मांस वाले घाव तथा रूखेपन से जो पुरने में न आवें उन पर कल्क स्नेहादि जो औषध लगाई जाती है उस पर क्षीरी,भोजपत्र, अर्जुन बा कदंब के पत्ते दोष और ऋतु के अनुसार चारों ओर बिछाकर बांध देने चाहिये, जैसे वातज व्रण में शीत ऋतु में स्निग्धोष्ण, काल में पित्तत्रण पर शीतवीर्य । उष्णकाल
घ
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अ० २९
में कफजत्रण पर रूक्षोष्ण तथा साधारण काल में मिश्र दोषों में बुद्धि से कल्पना कर लेनी चाहिये । ये पत्ते पुराने, छिद्रयुक्त और कर्कश न हों किन्तु नये निकले हुए पत्तों को जल से धोकर अच्छी तरह लगावै
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न बांधने के योग्य व्रण । कुष्टिनामग्निदग्धानां पिटिका मधुमेहिनाम् ॥ कर्णिकारों दुरुविषे क्षारदग्धा विषान्विताः न मांस्पाके च वनयाद्गुदपाके च दारुणे ॥ शीर्यमाणाः सरुग्दाहाः शोफावस्थाविसर्पिणः । अर्थ कुष्ठरोगी, आग से जले हुए, पिटिका वाले तथा मधुमेही के घाव पर पट्टी न बांधे । चूहे के विषसे जो चकत्ते पड़ जाते हैं उनको न बांधे, क्षारदग्ध, विषान्वेत, मांस पाक और दारुण गुदपाक जनित व्रणों पर पट्टी न बांधे । शिथिलता को प्राप्त हुए, वेदनायुक्त, दाहयुक्त, शोफावस्था के व्रण तथा विसर्पावस्था को प्राप्त हुए घावों पर पट्टी न बांधे ।
कृमिवाले घावों का वर्णन । अरक्षया व्रणे यस्मिन् मक्षिका निक्षिपेत्कृमीन ये भक्षयतः कुर्वतिरुजाशोफास्त्रसंस्त्रवान् ।
अर्थ - जिन घावों की पट्टी आदि बांध कर रक्षा नहीं की जाती है उन पर मक्खियां बैठकर कीडों को छोड़ देती हैं । ये कीड़े घाव के मांसको खाते हैं जिससे वेदना, सूजन और रुधिर का स्राव होने लगता है।
कृमियोंकी चिकित्सा | सुरसादि प्रयुंजीत तत्र धावनपूरणे ॥ ७५ ॥ सप्तपर्णकरंजार्कनिंबराजादनत्वचः । गोमूत्र कल्कितो लेपःसेकःक्षारांबुना हितः ॥ प्रच्छाद्य मांसपेश्या वा व्रण तानाशु निर्हरेत् ।
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अ०३०
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२४३)
अर्थ-जिस घावमें कीडे पडजाय उसको || इस नियम का पालन आदरपूर्वक छ: सात धौने और पुरानेके लिये सुरसादिगण में लि महीने तक करना उचित है। खी हुई औषधोंका प्रयोग करे । तथा सात वैद्य को उपदेश । लाकी छाल, कंजा, आंव, नीम,और सोंदा- उत्पद्यमानासुचतासु तासु ल की छाल इनको गोमूत्रमें पीसकर लेपकरे घातांसु दोषादेवलानुसारी। क्षारके जलका परिषेक ( तरक्षा ) करे । अ
तैस्तैरुपायैःप्रयतश्चिकित्से.
दालोचयन् विस्तरमुत्तरोक्तम् ॥८॥" थवा उस घावके ऊपर मांसकी पेशी ढकक
अर्थ-वैद्य को उचित है कि इस स्थानपर र कीडाको शीघ्र निकालड ले । मांस पेशी धरने का कारण यह है कि मांसके लोभसे
घावके संबंध वाली जिनजिन बातों का वर्णन कीडे निकल निकल कर उससे चिपट जाते हैं
नहीं कियागया है उनका दोष , देश और
कालके अनुसार विचार करता हुआ उत्तरतं. वा ऊपरको आजाते हैं , ऐसा होनेपर सहज में निकाल दिये जाते हैं |
त्रमें लिखी हुई सब बातों को ध्यानपूर्वक भीतर दोष वाले घाव ।
आलोचना करके उन उन उपायों द्वारा हर
प्रकार के घावों की चिकित्सा करने में साव न चैनं त्वरमाणोऽतःसदोषमुपरोहयेत्७७। सोऽल्पेनाप्यपचारेण भूयो विकुरुते यतः॥
धानी से प्रवृत होवे । । अर्थ-जिस घावके भीतर दोष मौजूद
इति श्री अष्टांगहृदथे भाषाटीकायां हो उसको झटापटी करके पुराने अर्थात् भरने का उद्योग न करै । क्योंकि जो व्रण एकत्रिंशोअध्यायः॥ ऊपर से सूखजाते हैं और उनके भीतर दोष रहा आता है तो थोडे से भी अपचार त्रिंशोऽध्यायः। से ये घाव फिर हरे होजाते हैं और विकार को प्राप्त होजाते है इसलिये घावको निर्दोष करके रोपण करना चाहिये ।
अथाऽतक्षाराग्निकर्मविधिमध्याय
व्याख्यास्यामः । रोपित व्रणमें वर्जित कर्म ।
व अर्थ-अब हम यहांसे क्षाराग्निकर्म बिरूढेऽप्यजीर्णव्यायामव्यवायादनि विवर्जयेत् ।
| धि नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। हर्ष क्रोधं भयं वापि यावदास्थैर्यसभवात्।। आदरेणानुवत्योऽयं मासाम्पटू सप्तवाविधिः | क्षारकर्म को श्रेष्ठत्व । __ अर्थ-घावके भर जाने पर भी जबतक "सर्वशस्त्रानुशस्त्राणांक्षारः श्रेष्ठो अच्छी तरह स्थिरता उत्पन्न नहो तबतक
बहूनि यत्। अजीर्ण भोजन, व्यायाम, मैथुन, हर्ष, क्रोध |
| छेधभेद्यादिकर्माणि कुरुते विषमेध्वपि॥ १॥
दुःखावचार्यशस्त्रेषु तेन सिद्धिमयात्सु च। तथा अन्य भयोत्पादक कर्म न करना चाहिये । अतिकृच्छ्रेषुरोगेषुयच्च पानेऽपि युज्यत ।
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1२४४)
अष्टांगहृदये।
अ.३०
अर्थ-सब प्रकारके शस्त्र और अनुशस्त्रों | लवान् वा बलहीन मनुष्यके, यथा ज्वर, अके प्रयोगकी अपेक्षा क्षारका प्रयोग सर्वोत्त- | तिसार हृदयरोग, शिरोरोग, पांडुरोग, अरुचि म है, क्योंकि क्षारसे छेदन, भेदन, लेखन । तिमिररोग, कृतसंशुद्धि, (जिसको वमनविरे
और पाटनादि बहुत प्रकारके कर्म सिद्ध हो । चनद्वारा शुद्ध किया हो ) सव शरीर व्यापी जाते हैं । देहके उन विषम अंगोंमें जहां श | सूजन, इन रोगोंमें क्षारका प्रयोग न पीनेमें स्त्र का प्रयोग कठिनता से होता है वहां इस न लेपमें करना चाहिये । इसीतरह डरपोक, का प्रयोग सहजमें होजाता है, जो जो कठि गर्भिणीस्त्री, रजस्वला, उदावर्तयोनि (इसरोनरोग शस्त्र कर्मसे सिद्ध होनेमें नहीं आते हैं | ग का वर्णन उत्तर तंत्रमें किया गया है ), वे सब रोग क्षारके प्रयोगसे सहजमें सुसाध्य | बालक, वृद्ध, धमनी, संधि, मर्मस्थान , तरुहोजाते हैं । क्षार पीनेमें भी प्रयोग किया जा णअस्थि, सिरा, स्नायु, सेवनी, गला, नाभि ता है, इससे क्षार सर्वश्रेष्ठ है। अल्पमांस, बालादेह, वृषण, मेद, स्रोत' नक्षारके उपयुक्त विषय ।
खांतर' वत्मरोग को छोडकर अन्य नेत्ररोग सपेयोऽशेऽग्निसादाश्मगुल्मोदरगरादिषु। ।
तथा जाडा, गर्मी' बर्षा, ऋतुओंमें, बादल योज्यःसाक्षान्मषश्वित्रवाहाशकुष्ठिसुप्तिषु॥ भगंदरार्बुदग्रंथिदुष्टनाडीवणादिषु ।।
के दिन । इन सबमें पान वा लेपन दोनों अर्थ-अर्शरोग, अग्निमांद्य, पथरी, गुल्म | प्रकारत
प्रकारसे क्षारका प्रयोग नहीं करना चाहिये । रोग, उदररोग, गररोग, तथा आनाह और | क्षार की क्रिया। शूलादिमें क्षारका पीना उचितहै । मप (म- कालमुष्ककशम्याककदलीपारिभद्रकान् । स्सा ), श्वित्रकुष्ठ,वाह्यअर्श, कुष्ठ, सुप्ति, भ
अश्वकर्णमहावृक्षपलाशास्फोतवृक्षकान् ।
इंद्रवृक्षार्कपूर्तीकनक्तमालाश्वमारकान् ॥९॥ गंदर, अर्बुद, ग्रंथि, दुष्टनाडी, दुष्टमण तथा
काकजंघामपामार्गमग्निमथाग्नितिल्वकान् । चर्मकील, वर्म और तिलादि में लेप करनेके सार्द्रान्समूलशाखादन्खिंडशःपरिकल्पितान् काममें आता है।
कोशातकश्चितस्रश्च शूकनालं यवस्य च । क्षारका निषेध।
| निवाते निचयीकृत्य पृथक्तानि शिलातले ।। न तूभयोऽपियोक्तव्यापित्त रक्तबलेखन प्रक्षिप्य मुष्ककचये सुधाश्मानि च दीपयेत्। ज्वरेऽतिसारे हृन्मृर्धरोगे पांड्वामयेऽरुचौ।।
ततस्तिलानां कुतालैर्दग्ध्वाऽग्नौ विगते पृथक् तिमिरे कृतसंशुद्धोश्वयथौसर्वगात्रगे ॥५॥
| कृत्वासुधाश्मनां भस्म द्रोणं त्वितरभस्मनः भीरुभिण्यतुमतीप्रोद्वत्तफलयोनिषु ।।
मुश्ककोत्तरमादाय प्रत्यकं जलमृत्रयोः१३॥ अजीर्णेऽन्ने शिशौ वृद्धे धमनीसंधिमर्मसु ॥ |
गालयेदर्धभारेण महता वाससा च तत् ।
यावत्पिच्छिलरक्तच्छस्तीक्ष्णो जातस्तदातरुणास्थिसिराखायुसवनीगलनाभिषु ।।
. च तम् ॥१४॥ देशेऽल्पमांसे वृषणमेस्रोतोनखांतरे ॥७॥ | गृहीत्वालारानस्यंदं पचेलौह्यांविघट्टयन् । वर्मरोगोहतेऽक्ष्णोश्च शीतवर्षांष्णदुर्दिने । | पच्यमानेस्तततास्मस्ताःसुधाभस्मशर्कराः
अर्थ दूषितपित्तमें, दूषितरक्तमें, अति ब शुक्तिक्षारपंकशंखनाश्चिाऽऽयसभाजने।
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अ० ३०
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कृत्वाऽग्निवर्णान् बहुशः क्षारोत्थे कुडवोन्मिते निर्वाय पिट्वा तेनैव प्रतीवापं विनिक्षिपेत् । लक्ष्णं शकृद्दक्षशिखिगृध्रकंककपोतजम् ॥ चतुष्पात्यक्षिपित्ताल मनोहालवणानि च । परितः सुतरां चाऽतो दर्या तमवट्टयेत् ॥ सबाष्पैश्च यदोतिष्ठेदुदैर्लेहवद्धनः । अवतार्य ततःशीतो यवराशावयोमये ॥१२॥ स्थाप्योऽयं मध्यमः क्षारो
अर्थ - क्षार तीन प्रकार का होता है। मृदु, मध्यम और तीक्ष्ण इनमें से मध्यम क्षार बनाने की यह रीति है कि काल मुष्कक ( मोखावृक्ष ) अमलतास, केला, पारिभद्र अश्वकर्ण ( कुशिक ) महावृक्ष ( थूहर ), ढाक, आस्फोत (गिरिकर्णिका) नंदीवृक्ष, कुडा, आक, पूतीक (पूतिकंजा ) कंजा, कनेर, काकजंघा, ओंगा, अरनी, चीता, सफेद लोध इन सत्र हरे वृक्षों की जड पत्ते और शाखा लाकर छोटे छोटे टुकडे कर डाले, चार कोशातकी और जौ का शूकनाल इन सबको वायुरहित स्थान मैं इकट्ठा कर ले और पत्थर की शिला पर मोखा आदि के ढेर में सुधा शर्करा ( चूना ) डालकर तिलकी लकडियों में धरकर अग्नि लगादे, आग बुझ जाने पर सुधा शर्करा की भस्म एक द्रोण पृथक् करले तथा शम्याकादि की भस्म एक द्रोण अलग ले इनमें मोखे की भस्म अधिक लीजाती है फिर बीस तुला जल और बीस पल गोमूत्र मिलाकर काष्ठभस्म को उस में मिलाकर एक बडे वस्त्रमें इक्कीस वार छाने । इस छने हुए क्षार जलको लोहे की कढाई में
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भरकर कलछी से चलाता रहै और जब यह पकता हुआ क्षारजल पिच्छिल, रक्तवर्ण निर्मल और तीक्ष्ण होजाय तब इसमें से ८ पल निकालकर दूसरे लोहे के पात्र में रख ले और इसमें सुधाभस्म, शर्करा, सीपी, क्षारपंक, शंख नाभि अग्नि के तुल्य लाल कर कर के बहुत बार बुझावै, तथा उसी क्षारजल से पूर्वोक्त भस्म को पीसकर पकते हुए क्षार जल में प्रतीवाप करे ( पतले पदार्थ में वारीक पिसे हुए अन्य द्रव्य को डालने का नाम प्रताप है ) । इस प्रतीवाप के सिवाय मुर्गा, मोर, गृध्र, कंक और कपोत पक्षियों की बीट तथा गौ आदि, चौपाये जानवरों के गोवर और पित्त, तथा हरताल, मनसिल और सैन्धवादि नमक महीन पीस कर प्रतीवाप करै । तदनंतर कलछी से लगातार चलाता रहे। जब इस क्षारजल में भाफ उठने लगे और बुलबुले उठने लगें और गाढा अवलेह के समान हो जाय तब इसे उतार कर लोहे के कलश में ठंडा होने पर भरदे और जौके ढेर में इस कलश को गाढदे । यही मध्यम क्षार बनता है ।
मृदु तीक्ष्ण क्षार ।
( २४५ )
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न तु पिष्ट्वा क्षिपेन्मृदौ ।
निर्वाप्यापनयेत्
तीक्ष्णे पूर्ववत् प्रतिवापनम् ॥२०॥ तथा लांगलिकादं तिचित्र कातिविषावचाः । स्वर्जिकाकनकक्षीरिहिंगुपूतीकपल्लवाः । तालपत्री बिडं चेति सप्तरात्रात्परं तु सः । योज्यः
अर्थ - जो मृदु क्षार बनाना हो तो
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(२४६ )
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अष्टांगहृदये ।
पूर्वोक्त क्षारजल में जले हुए मुधाशर्करे । दि बुझाये जाते हैं, इनको पीसकर प्रतीवाप नहीं किया जाता है ।
तीक्ष्णक्षर बनाने की यह विधि है कि पूर्वोक्त रीति से मध्यमक्षार की रीति से जब सब काम: तयार होजाय अर्थात् निर्वाण और प्रतीवाप हो चुके तब लांगली, दंती, चीता, अतीस, बच, सज्जीखार, स्वर्णक्षीरी, हींग, पूतीकरंज, पल्लव, तालपत्री और विनमक इन सब द्रव्यों को पूर्ववत पीस कर उक्त द्रव पदार्थ में प्रतीवाप करे । यह क्षार तयार होने के सात दिन पीछे उपयोग में लाने के योग्य होता है ।
क्षार के गुण ।
नातितfक्ष्णो मृदुः श्लक्ष्णः पिच्छिलः शीघ्रगः सितः ।
शिखरी सुखनिर्वादयो न विष्यंदी न चातिरुकू क्षारो दशगुणः शस्त्रतेजसोरपि कर्मकृत् ।
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अ० ३०
अर्थ - क्षारमें ये दस गुण हैं यथा:नअति तीक्ष्ण, न अति मुदु, श्लक्ष्ण, पिच्छिल, शीघ्रग ( शरीर में शीघ्र प्रवेश करने वाला ], शुक्ल, शिखरी, सुखनिर्वाप्य [ कां जी आदि में डालकर सुखपूर्वक ठंडा करने के योग्य ], अविष्यन्दी ( झरनेके अयोग्य) न अति रुक् ( अति वेदनारहित ) । शस्त्र और अग्नि से छेदन पाटन लेखनादि तथा दाहनादि जो कर्म कियेजाते है वेही क्षारसे भी किये जाते हैं ।
अंतरानुभवद्वार से क्षार के गुण । आचूषन्निव संरंभाद्गात्रमापीडयन्निव ॥ २५ ॥ सर्वतोऽनुसरन् दोषानुन्मूलयति मूलतः । कर्म कृत्वा गतरुजः स्वयमेवोपशाम्यति ॥ ३६ ॥ अर्थ - भीतर योजना कियाहुआ क्षार
उक्त क्षारों का प्रयोग | तीक्ष्णेऽनिलश्लेष्ममेदो जो वर्बुदादिषु ॥ २२॥ संक्षोभसे शरीर को घूसता और मर्दन करमध्येष्वेव च मध्यः अन्यः पित्तास्रग्गुदजन्मसु । बलार्थ क्षीणपानीये क्षारांबु पुनरावपेत् ॥ अर्थ - तीक्ष्णक्षार वातकफ से उत्पन्न हुए तथा मेद से उत्पन्न हुए अर्बुदादि रोगों में प्रयुक्त होता है, मध्यक्षार मध्यम प्रकार के अर्बुदादि रोगों में तथा मृदुक्षार रक्तज और पित्तज अरोरोग में प्रयुक्त होता है ।
ता हुआ चारों ओर है और शस्त्रसा घूमता ध्यदोषों को जडसे उखाड़कर फेंक देता है, तथा अपने दाहादिक कर्मों को करके गतरुज पुरुष के देह में विनायत्न किये आपही शांत होजाता है ।
जो क्षार पदार्थ के क्षीण होने पर गाढा होजाय तो उसमें तेजी उत्पन्न करने के लिये क्षारविधि से तयार किया हुआ क्षार जल मिला देना चाहिये ।
क्षार प्रयोग की विधि | क्षारसाध्ये गदे छिन्ने लिखितेऽस्रावितेऽथवा क्षारं शलाकया दत्त्वाप्लोतप्रावृतदेहया ॥२७॥ मात्राशतमुपेक्षेत
हस्तेन यंत्रं कुर्वीत
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तत्रार्शः स्वावृताननम् ।
वर्त्मरोगेषु वर्त्मनी ॥ २८ ॥ निर्भुज्य पिचुनाच्छाद्य कृष्णभागं विनिक्षिपेत् पद्मपत्रतनुः क्षारलेपो घ्राणार्बुदेषु च ॥ २९ ॥
अर्थ - क्षारसाध्य अर्श और अर्बुदादि व्याधिओं में क्षारका प्रयोग करना हो तो उनको शस्त्र से छेदनकरके, खुरचके अथवा
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अ. ३.
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(२४७)
स्रावित करके एक सलाई की नौकको रुई । विलकुल दूर करदे और क्षारसे सम्यक दग्ध के फोए सें लपेटकर उससे उस पर क्षार | के लक्षण दिखाई देने पर क्षार लगे हुए लगादेवे, क्षार लगाने के पीछे शतमात्रा का- स्थान पर घी और शहत का लेप करे, लतक अर्थात, सौ गिनने में जितना काल फिर जल, दहीका तोड, और कांजी द्वारा लगे तबतक अपेक्षाकरे, शीघ्रही कांजी आ- उस स्थानको ठंडा करके स्वादु और शति दि डालकर ठंडा करने की चेष्टा न करे। | वीर्य द्रव्यों को घृतमें सानकर लेप करे। _ अर्श रोग में क्षारका प्रयोग करने में क्षारकर्ममें भोजनादि । । । पूर्ववत् शलाका से क्षार लगावै और शत- | अभिष्यदीनि भोज्यानि भोज्यानिक्लेदनायच मात्रा काल तक अपेक्षा करे और हाथ से अर्थ-क्षारसे दग्ध स्थानमें क्लेदता उत्पयंत्रके मुखको आच्छादित करले। न्न करने के लिये रोगीको दही मछली आदि,
वर्मरोग में हाथ से पलकों को टेढा | अभिष्यंदी भोजन खानेको दे । क्योंकि क्षार करके आंखको पुतली के काले भाग को | दग्ध स्थान क्लिन्न होने से शीघ्र शीर्णता रुई से ढककर क्षारका प्रयोग करना चाहिये | को प्राप्त होता है । . नासार्बुद रोगमें क्षारका प्रयोग करने के क्षारदग्धस्थानपरलेप । समय रोगी को सूर्य की ओर मुख करके
यदि च स्थिरमूलत्वात्क्षारदग्धं न शीर्यते ।
धान्याम्लबीजयष्ठयाहूतिलैरालेपयेत्ततः३३॥ बैठा देवे और उसकी नासिका का अग्रभाग
___अर्थ-जो क्षार दग्ध स्थानकी जड दृढ ऊंचा करके कमल के पत्ते के तुल्य पतला
होगई हो और इसलिये अभिष्यंदी भोजनादि लेप करें तथा पचास मात्रा काल तक
से भी उसमें शीर्णता उत्पन्न नहो तोधान्या. अपेक्षा करे ।
ल्म का वीज, मुलहटी और तिल का लेप कर्णज अर्श में नासार्बुद की तरह कमल लगाना चाहिये। पत्र के समान पतला लेप दे पचास मात्रा
व्रणरोपण तिलकल्क । काल तक अपेक्षा करे ।
तिलकल्कःसमधुको घृताक्तो व्रणरोपणः । क्षारकेमार्जनकी विधि। ____अर्थ-क्षारसे जला हुआ घाव तिलका प्रत्यादित्यं निषण्णस्य समुन्नम्याग्रनासिकाम् । कल्क शहतमें मिलाकर लेप करनेसे अच्छा मात्रा विधार्यःपंचाशत्
होजाता है। तद्वदर्शास कर्णजे ॥ ३०॥ सम्यक दग्धादिके लक्षण । .. क्षारंप्रमार्जनेनानु परिमृज्याऽवगम्य च। ।
पक्कजंबसितं सन्नं सम्यग्दग्धम् सुदग्धं घृतमध्वातंतत्पयोमस्तुकांजिकै॥३१॥
विपर्यये ॥ ३४॥ निर्वापयेत्ततः साज्यैःस्वादुशीतैः प्रदेहयेत् ।
| ताम्रतातोदकंड्वाधैर्दुर्दग्धम् अर्थ-क्षार लगाने का नियमित समय
तं पुनर्दहेत्। व्यतीत होजाने पर वस्त्रादि से उस लेपको | अतिदग्धे स्रवेद्रक्तं मू दाहज्वरादयः ।६५।
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अष्टांगहृदये।
अर्थ - अच्छी तरह क्षारसे दग्ध हुआ स्था न पके हुए जामन के समान काले रंगका और म्लान होजाता है । दुर्दग्ध स्थान के लक्षण इससे विपरीत होते हैं इसका रंग तां बे के सदृश होता है इसमें तोद, कंडू, शो. फ, विस्फोट, आदि उपद्रव होते हैं । दुर्दग्ध को क्षार डालकर फिर जलाना चाहिये । अतिदग्ध स्थानमें से रक्त झरने लगता है। तथा मूर्छा, दाह, ज्वर, विसर्प, शोफ, बिस्कोट आदि उपद्रव होते हैं ।
अतिदग्धगुदा के उपद्रव । गुदे विशेषाद्विण्मूत्रसंरोधोऽतिप्रवर्तनम् । पुंस्त्वोपघातो मृत्युर्वा गुदस्य शातनाद्ध्रुवम्
अर्थ-गुदाके अतिदग्ध होनेपर पूर्वोक्त रक्तस्रावादि लक्षणों के सिवाय विष्टा और मूत्रका संरोध होता है और कभी कभी विष्टा मूत्र अधिकता से निकलने लगते हैं । तथा वीर्यके क्षीण होजाने से स्त्री गमनकी शक्ति नहीं रहती है और गुदा के विदीर्ण होने से मृत्यु भी होजाती है ।
क्षारातिदग्ध नाक कान | नासायां नासिकावंशदरणाकुंचनोद्भवः । भवेच्च विषयाज्ञानम् ।
तद्वच्छ्ोत्रादिकेष्वपि ॥ ३७॥ अर्थ - नासिका के क्षार से अतिदग्ध होने पर नासिका का बांस विदीर्ण हो जाता है । नीचे को बैठ जाता है तथा गंधग्रहणकी श
जाती रहती है ।
इसी तरह कान आंख और जिह्वादि के अतिदग्व होनेसे उन उन इंद्रियों के वि घयका ज्ञान जाता रहता है अर्थात् कानों से
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अ० ३०
सुनना, आंख देखना और जीभ से चखने का ज्ञान नष्ट हो जाता है । तथा अन्य उपद्रव भी उत्पन्न हो जाते हैं || क्षारदग्ध में कांजी आदि की उपयोगिता। विशेषादत्र से कोऽम्लैर्लेपो मधुघृतं तिलाः । वातपित्तहरा चेष्टा सर्वैव शिशिरा क्रिया । अभ्लो हि शीतः स्पर्शेन क्षारस्तेनोपसंहितः यात्याशु स्वादुतां तस्मादले र्निर्वापयेत्तराम्
अर्थ - अति क्षारदाधर्मे कांजी आदि खट्टे पदार्थ का उसपर डालना, वृत मधु और तिलका तेल, तथा वातपित्तका नाश करने बाली सब प्रकार की शीतल क्रिया विशेष रूप से हितकारी हैं । खटाई स्पर्श में शतिल होती है और क्षार स्पर्शमें उष्ण है इसलिये क्षारा तिदग्ध पर शीघ्रही कांजी आदि अम्लद्रव्य डालना चाहिये । इति क्षारकर्म |
क्षारसे अग्निकर्मको श्रेष्ठता । अभिः क्षारादपि श्रेष्टस्तद्दग्धानामसंभवात् । भेषजक्षारशस्त्रैश्च न सिद्धानां प्रसाधनात् ।
क्षार
अर्थ - क्षारकर्मसे अग्निकर्म श्रेष्ठ है, क्यों कि अग्निदग्ध किये हुए अर्शादिरोगों की फिर उत्पत्ति नहीं होती है । औषध, और शस्त्रद्वारा जो रोग शान्त नहीं होते हैं। वे सब रोग जडसे दूर होकर अग्निकर्मद्वारा अच्छे होजाते हैं |
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त्वचा में अग्निदाह |
त्वचि मांसे सिरास्नायुसंध्यस्थिषु स युज्यते मषांगस्लानिमूर्धातिमंथकी लतिलादिषु ॥ ४१ ॥ त्वदाहो वर्तिगोदसूर्यकांतशरादिभिः । अर्थ - अग्निदाह त्वचा, गांस, सिरा, स्नायु, संधि और अस्थि में कियाजाता है | इनमें से मस्सा' अंगग्लानि, मस्तक का दर्द, मंथ
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चर्मकीलक और तिलादि रोगों में रुई कीवत्ती गोदन्त, सूर्यकांतमाण और शरादि से त्वचा में अग्निदाह कियाजाता है । मतदाह ।
अर्शो भगंदरग्रंथिनाडीदुष्टत्रणादिषु ॥ मांस दाहो मधुस्नेहजांवयोष्ठ गुडादिभिः । अर्थ - अशदि अर्थात् अर्श अर्बुद गंडमालादि रोगों में तथा भगंदर, ग्रंथिरोग नाडीव्रण और दुष्ट व्रणादि रोगों में कभी मधु, कभी घृतादि स्नेह कभी जांबवोष्ट नामक शलाका यंत्र और कभी गुडादिसे मांसमें दाह किया जाता है |
सिरादाह । रिलष्टवर्त्मक्लावनील्य सम्यग्व्यधादिषु ॥ सिरादिदाहस्तैरेव
अर्थ-शिष्ट रोग, रक्तस्रावमें, नी. लिका में, और असम्यक् सिराव्यधमें ऊपर कहे हुए मधुघुतादि को गरम करकरके सि रादाह करना चाहिये ||
अग्निदाह के अयोग्यस्थान |
न दहेत्क्षारवारितान् । अंतःशल्यास जो भिन्न कोष्ठात् भूरित्रणातुरान् अर्थ-क्षारकर्मके अयोग्य स्थान, जहां भीतर शल्प रहगया है । अंतः शोणित ( ज हां निकलनेके योग्य रक्त भीतर रहगया है ), भिन्नकोष्ठ रोगी तथा जो बहुत से घावों से पीडित है ये सब अग्निदाह के अयोग्य होते हैं ।
दग्ध में कर्तव्य |
सुदुग्धं घृतमन्वक्तं स्निग्धशीतैः प्रदेहयेत् । अर्थ - अग्निसे रोग के स्थान को सुदग्ध जानकर घृत और शहत उस पर चुपड देवै
३२
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( २४९ )
|
और फिर मुलहटी आदि स्निग्ध और शीतल द्रव्यों का लेप करदे ।
दग्ध के लक्षण |
तस्य लिंगं स्थिते रक्ते शब्द वल्लसिकान्वितम् ॥ पक्कतालकपोताभं सुरोह नातिवेदनम् ।
अर्थ - सुदुग्ध स्थान के ये लक्षण होते हैं कि दह्यमान अवस्था में प्रवृत हुआ रक्त निकलने से वन्द होजाता है, उस स्थान में बुदबुद शब्द होने लगता है तथा लसिका - न्वित होजाता है, इसकी आकृति पके हुए ताल फल और कपोत के सदृश होजाती है, यह अच्छी तरह भरने लगता है तथा वेदना भी कम होजाती है । दुर्दग्ध के लक्षण |
प्रमाददग्धवत्सर्वे दुर्दग्धात्यर्थ दग्धयोः ॥ ४६ ॥ अर्थ - दुर्दग्ध और अतिदग्ध के लक्षण प्रमाददग्ध के लक्षणों के समान होते हैं, असावधानी से अग्नि लगने के कारण जो शरीर जलजाता है उसे प्रमाददग्ध कहते हैं । प्रमाद दग्ध के चार भेद । चतुर्धा तत्तु तुत्थेन सह
तुत्थस्य लक्षणम् । त्वग्विवर्णोन्यतेऽत्यर्थे न च स्फोट समुद्भवः ॥ rehearsarai दुर्दग्धम्
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मांसलंबनसंकोचदाहधूपनवेदनाः ॥ ४८ ॥ अतिदाहतः । सिरादिनाशस्तृण्मू छत्रणगांभीर्यमृत्यवः ।
अर्थ - तुत्थदग्ध लक्षणों के साथ प्रमाद दग्ध चार प्रकार का होता है यथा कदाचित्सम्यग्दग्ध लक्षण, कदाचिद्दुर्दग्धलक्षण, कदाचित् अतिदग्ध लक्षण, और कदाचित् तुत्थदग्ध लक्षण ।
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(२५)
अष्टांगहृदये।
इनमें से तुत्थदग्ध के लक्षण ये हैं कि अर्थ-दुर्दग्ध स्थान में शीतक्रिया त्वचा का रंग बदल जाता है, वेदना अधिक और उष्णक्रिया पर्याय रूप से करनी होती है, और फुसियां नहीं निकलती हैं। चाहिये अर्थात् प्रथम शीतवीर्य और फिर
दुर्दग्ध स्थान में फुसियां, तीव्रदाह और उष्णचीर्य औषधोंका प्रयोग करना उचित है। तीब्रवेदना होती है।
सम्यक् दग्ध की चिकित्सा । ___ अतिदाह में मांस लटक पडता है, सिरा सम्यग्दग्धे तुगाक्षीरिप्लक्षचंदनगैरिकैः। संकुचित होजाती हैं, दाह, धूपन (धूआं लिंपेत्साज्यामृतैरूवं पित्तविद्रधिपत्क्रिया॥ सा घुमडना ) और वेदना होती है । सि
___ अर्थ-सम्यग्दग्ध में प्रथम वंशलोचन, राओं का नाश होजाता है, तृषा, मूर्छा,
पाकड, रक्तचंदन, गेरू और गिलोय इनको व्रणमें गंभीरता और मृत्यु ये सब उपद्रव
धीमें सानकर लेप करे, पीछे पित्तकी विद्रधि उपस्थित होते हैं।
के समान चिकित्सा करनी चाहिये । ___ सम्यक् दग्ध के लक्षण ऊपर कहे गये
अतिदग्ध की चिकित्सा । हैं उन्हीं से समझलेना चाहिये, पुनरुक्तिकी
अतिदग्धे द्रुतकुर्यात्सर्वपित्तविसर्पवत् । आवश्यकता नहीं है । अग्नि से थोडे जलने
____ अर्थ-अति दग्धमें बहुत ही शीघ्रतापूर्वक का नाम तुत्थदग्ध है।
भीतर और बाहर पित्त विसर्प के सदृश तुत्थ दग्ध की चिकित्सा।
चिकित्सा करनी चाहिये । तुत्थस्थाऽग्निप्रतपनं कार्यमुष्णं च भेषजम । स्नेह दग्ध की चिकित्सा । स्त्यानेऽने वेदनात्यर्थं विलीने मंदता रुजः। स्नेहदग्धे भृशतरं रूक्ष तत्र तु योजयेत् ॥५२॥ ___ अर्थ-तुत्थदग्ध स्थान को अग्नि से | अर्थ-गरम घी तेल आदि स्नेहपदार्थ तपाना उचितहै और उष्णवीर्य औषधों का के द्वारा दग्ध होजाने पर अत्यन्त रूक्षप्रयोग करना चाहिये ( जैसे रोटी पकाते क्रिया करना उचित है । तु शब्द के प्रयोग समय रोटी की भाफ से हाथ जल जाय तो से केवल अत्यन्त रूक्ष औषधों का ही उसी समय अग्निसे सेक देना चाहिये ) | प्रयोग करे यह नहीं किन्तु देह, देश, साइसका कारण यह है कि दग्ध स्थान का म्यादि का विचार करके यथावत् स्निग्ध रुधिर न निकलकर गाढा होजाता है और क्रिया भी करना उचित है । उस में वेदना होने लगती है और विलीन । सूत्रस्थान की समाप्ति । होने पर दर्द कम होजाता है इसलिये रक्त | समाप्यतेस्थानमिदं हृदयस्य रहस्यवत् । को विलीन अर्थात पिघलाने के लिये उष्ण अत्रार्थाःसूात्रताःसूक्ष्माःप्रतन्यते हि सर्वतः॥ क्रिया करना आवश्यकीय है।
___अर्थ-अष्टांगहृदयका रहस्यवत् अर्थात् दुर्दग्ध की चिकित्सा।
अत्यन्त गुप्तपदार्थों से युक्त यह सूत्रस्थान दुर्दग्धेशीतमुष्णं च युज्यादादौततोहिमम्॥ | समाप्त हुआ है । यह स्थान रहस्यवत् क्यों
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सत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२५१)
है ? इसका कारण यह है कि इस स्थान | गई हैं, इसीलिये इस स्थानको अन्यस्थानों में उन सूक्ष्म विषयों की समालोचना रूप | का रहस्यवत् कहा गया है । सूचना दीगई है जो आगे आनेवाले शा- इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां रीरादि स्थानों में विस्तारपूर्वक वर्णन की त्रिंशोऽध्यायः ।
इति श्रीवैद्यपतिसिंह गुप्तसूनु वाग्भट विरचितायां अष्टांगहृदयसहितायां मथुरा निवासि श्रीकृष्णलाल कृत भाषाटीकान्वितायां प्रथम
सूत्रस्थानं संपूर्णम् ।
समाप्तमिदं सूत्रस्थानमें
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ॐ
श्रीहरिम्बन्दे श्रीवृन्दावनविहारिणे नमः ॥ अथ शारीरस्थानम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ।
अथाऽतो गर्भावक्रांतिशारीरं व्याख्यास्यामः। इर्तिस्माद्दुरात्रेयाइयो महर्षयः
अर्थ - तदनंतर आत्रेयादिक महर्षि कहने लगे कि अब हम गर्भावक्रांति शारीर नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
गर्भहोने का कारण |
"शुद्धे शुक्रार्तवे सत्वः स्वकर्म क्लेशचादितः । गर्भः सपद्यते युक्तिवशादग्निरिवारणौ ॥ १ ॥ अर्थ-पिता के बीजको शुक्र कहते है । और स्त्रियों के मासिकधर्म के समय उनके अपत्यमार्गमें जोकुछ कालापन लिये हुए शुरू, गंधिरहित और वायु से प्रेरित रुधिर रहता है उसे आर्तव कहते हैं । पिताका शुक्र और माताका आर्तव गर्भका बीज है । जब यह शुक्रार्तव शुद्ध और वातादि दोषों से रहित होता है तब इसमें जीव गर्भता को प्राप्त होता है
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से अर्थात् उन कर्मों का शुभाशुभ फल भोग ने के लिये गर्भता को धारण करता है । वे कर्मकृत क्लेश ये हैं,अविद्या ( अयथार्थ वस्तुमें यथार्थता का ज्ञान ), अस्मिता ( में हूं यह अभिमान होना ), राग ( सुखकी इच्छा ) द्वेष, [ दुखका अनुशायी ]
जो कर्मक्लेश से रहित हैं उनका जन्म नहीं होता है, कहा भी है, चित्तमेवहि संसारि रागादि क्लेशदूषितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवांत इति कथ्यते ॥
तथा शुद्ध शुक्रावके संयोग के प्रभाव ही जीव गर्भको प्राप्त होता है जैसे मथ्य, मंथन और मंथन इनके संयोग से अरणी अर्थात् काष्ठ अनि निकलती है वैसे ही संपूर्ण सामग्रियों के सद्भाव से ही गर्भकी उत्पत्ति होती है ॥
गर्भाशय में जीवकीवृद्धि । वीजात्म के महाभूतैः सूक्ष्मैः सत्वानुगैश्च सः । मातुश्वाहाररसजैः क्रमात्कुक्षौ विवर्धते २ ॥
अर्थ - सत्वानुग (जहां जीव रहता है वहां वे भी अवश्य रहते हैं ) सूक्ष्म ( इन्द्रियों के विषयोंसे अगम्य केवल योगियोंसे देखने योग्य), वीजात्मक [ शुक्र शोणित रूप में
जीवके गर्भता प्राप्त करने का यहकारण है कि वह पूर्वजन्ममें किये हुए अपने अपने शुभ और अशुभ कर्मके क्लेशोंकी प्रेरणा |
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अ० १
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत !
(२५३ )
परिणत ] माता के आहारके रसरूप में परि । रक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये क्लीबः। णत होने से उत्पन्न सत्वरजतमोमय आका- अर्थ-पूर्वोक्त कार्य कारण के सदृश शादि पंच महाभूतोंसे वह गर्भ माताकी कू. हेतु से पुरुष के शुक्र की अधिकता और ख में क्रम क्रमसे वृद्धि पाता है । स्त्री के शोणित की अल्पता के कारण पु
गर्भाशयमें गतजीवका न दीखना। रुष की उत्पत्ति होती है । इसी तरह पुरुष तेजोयथार्करश्मीनांस्फटिकेन तिरस्कृतम् । के शुक्र से स्त्री के रज की अधिकता के नेधनं दृश्यते गच्छत्सत्वो गर्भाशयं तथा ३॥ कारण स्त्री की उत्पत्ति होती है और जब
अर्थ-जैसे सूर्यकी किरणों का तेज सू. । शुक्र और आर्तव दोनों समान होते हैं तब र्यकांत नामक स्फटिक मणिसे व्यवाहत हो
उभयलिंगविशिष्ट क्लीव अर्थात् नपुंसक होकर स्फटिकके नीचेवाले ईधनमें प्रवेश कर- ता है । दारुवाहीने कहा है कि स्त्रीपुंसयाः ता हुआ दिखाई नहीं देता है परन्तु उस ऽसुसंयोगे यद्यादौ विसृजेत पुमान् । शुक्रं तेज का कार्य ईधनमें दिखाई देता है । ऐसे | ततः पुमान् वीरो जायते बलवान् दृढः । ही जीवभी गर्भाशयमें प्रवेश कर जाता है पर
अथचेद्वनितापूर्व विसृजेत् रक्तसंयुतं । ततो रून्तु प्रवेश करता हुआ दिखाई नहीं देता,के- पान्विता कन्या जायते दृढसंहता"। वल हाद्विरूप अपनेकार्यसे दिखाई देनेलगताहै एककाल में अनेकगर्भ । जीवकी अनेकयोनि में दृष्टान्त ।
शुक्रांतवे पुनः॥८॥ कारणानुविधायित्वात्कार्याणां तत्स्वभावता वायुना बहुशोभिन्ने यथास्वं ववपत्यता।' नानायोन्याकृतीःसत्वोधत्तेऽतो द्रुतलोहवत् । अथे-गमस्थवायु जब शुक्र और आर्तव - अर्थ-कार्य कारण के अनुविधायी होते के बहुत से भाग कर डालता है तब एक हैं इसलिये कारण के सदृश ही कार्य होता ही बार में अनेक बालकों की उत्पत्ति हो है अर्थात् जैसा कारण होता है वैसा ही जाती है, जब शुक्र अधिक होता है और कार्य भी होता है जैसे अग्निद्वारा गलाई वायु उसको भिन्न भिन्न भागों में विभक्त हुई धातु मिट्टी के बने हुए जिस जिस कर देता है तब बहुत से पुरुषों की उत्पत्ति आकृति वाले सांचे (Mould) में होती है और जव अधिक भाव में स्त्रीका ढाली जाती है वैसी ही आकृति उस धातु रज बहुत भागों में विभक्त हो जाता है तब की हो जाती है वैसे ही एक आत्मा भी
वहुत सी स्त्री संतान उत्पन्न होती हैं, कृत कर्म की प्रेरणा से मनुष्यादि अनेक
शूकरी और कुत्ती के अनेक संतान होने का योनियों में प्रवेश करके उसी उसी योनि
यही कारण है। का आकार धारण कर लेती है ।
विकृतगर्भ का कारण । - स्त्री पुंसादिका जन्म । वियोनिविकृताकारा जायते विकृतैर्मलैः६॥ अत एव च शुक्रस्य बाहुल्याज्जायते पुमान् ।। अर्थ-विकृत बातादि मलद्वारा जब शु.
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( २५४)
अष्टांगहृदये।
अ० १
क और शोणित दूषित हो जाते हैं तब वि- शुकार्तवसंयोगमें गर्मकी अनुत्पत्ति । योनि ( अन्य योनिवाले ) और विकृताका | वातादिकुणपथिपूयक्षीणमलाइवयम् ।
| बीजासमर्थ रेतोऽस्रम्र ( अनेक आकारवाले ) गर्भ होते हैं।
___ अर्थ-पुरुष का वीर्य और स्त्री का प्रतिमास में रजः स्राव ।
शोणित ये दोनो वातादि दोष, कुणप, ग्रंथि मासि मासि रजःस्त्रीणांरसजस्रवति व्यहम्
पूय, क्षीण और मल इन सब नामों से बत्सराद्वादशावयातिपंचाशतःक्षयम् ७ • अथे-बारह वर्ष की अवस्था से लेकर
| अभिहित होते हैं, जैसे वातशुक्र, पित्तशुक हर महिने स्त्रियों के रससे उत्पन्न हुआ रज कफशुक्र, कुणपशुक्र । रक्त के दूषित होने तीन दिन तक निकलता रहता है और | से दुर्गेधित ), ग्रंथिशुक्र, पूयशुक्र क्षीणशुक वहीं रज पचास वर्ष की अवस्था होने के औरमलशुक्र यह दोप्रकारका होताहै मूत्रशुक्र पीछे अपने आप बन्द हो जाता है। और पुरीषशुक्र ) । इसी तरह आतर्व के भी धीर्यवान् संतानोत्पत्ति में कारण ।
नाम हैं जैसे, वातार्तव, पित्तार्तव, कफातव, पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविंशेन संगता।
कुणपार्तव ग्रंथार्तव, पूयार्तव क्षीणातव, और शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्ते शुक्रेऽनिले हृदि ८ ॥
मलार्तव( मूत्रार्तव और पुरीषार्तव)। ऐसे वीर्यवतं सुतं सूते
शुक्र और शोणित गर्भ के उत्पन्न करने में - ततो न्यूनाद्वयोः पुनः।। असमर्थ होते हैं। रोग्यल्पायुरधन्योबा गर्भो भवति नैववा९॥ अर्थ-गर्भाशय, अपत्यमार्ग, स्त्रीका रज
वातादिदोषजशुक्र का ज्ञान ।
स्वलिंगैदोषजं वदेत् ॥ १० ॥ पुरुष का वीर्य शुद्ध अर्थात् निर्मल हो, वा
रक्तेन कुणपं श्लेष्मवाताभ्यां ग्रंथिसन्निभम् । तादि से दूषित नहों, वायु भी शुद्ध हो अ
| पूयाभं रक्तपित्ताभ्यांक्षीणंमारुतपित्ततः ११ र्थात् पित्तादि से आवृत न हो, तथा हृदय | अर्थ-वातादि दोष संज्ञक शुक्र भौर दोषादि से संतप्त न हो ऐसी अवस्था में | शोणित में जिस दोष के लक्षण दिखाई जब स्त्री पूरी सोलह वर्ष की होजाय और दें उसको उसी नाम से जानना चाहिये । पुरुष पूरे बीस वर्ष का होजाय तब स्त्री | जैसे रूक्ष, श्याव और अरुणादि लक्षणों पुरुष के समागम से वीर्यवान् पुत्र का जन्म | से युक्त शुक्र शोणित वातसंज्ञक होता है । होता है।
विस्रगंध उष्णादि लक्षणयुक्त शुक्रशोमित इससे कम अवस्थावाले स्त्री पुरुषों के | पित्तसंज्ञक होता है । स्निग्ध, पांडुवर्ण और समागम से जो संतान होती है वह रोगी | पिच्छिलादि लक्षणयुक्त शुकशोणित कफ अल्पायु और दुर्भाग्य होती है अथवा ऐसा | संज्ञक होता है, इसी तरह दुष्ट रक्त से मुर्दे भी देखनेमें आता है कि गर्भ की स्थितिही की समान गंधवाला शुक्रशोणित कुणपसंनहीं होती है।
ज्ञक है । कफवात से दूषित ग्रंथिके समान
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शारीरस्थान भाषाटीकासमत ।
(२५५)
ग्रंथिसंज्ञक, रक्तपित्त से दूषित पूय (राध) | हुआ मुर्वा और मुलहटीका प्रतीबाप देकर के समान पूयसंज्ञक, तथा वातपित्तसे दृषित | | घृतपान करे । निसोतका चूर्ण घीमें मिलाक होने पर क्षीणता को प्राप्तहुआ शुक्रशोणित | र देनेसे विरेचन करावे । पयस्या और श्रीपक्षीणसंज्ञक होता है।
|ी इनसे सिद्ध किये हुए दूधकी आस्थापन शुक्राविका साध्यासाध्य विचार । । वस्ति देवै । मधुक और मुद्रपर्णी इनसे सिद्ध कृच्छ्राण्येतान्यसाध्यंतु त्रिदोषं मूत्रविट्प्रभम् किये हुए तेलकी अनुवासन और उत्तरवस्ति
अथे-वातादि संज्ञक से लेकर क्षाण सज्ञक देवे । कफजशनमें पाखानभेद, अश्मंतक औ पर्यंत शुक्रशोणित की चिकित्सा कठिनता र आमला डालकर सिद्ध किया हुआ पीपल से होती है इसलिये ये कृच्छ्र साध्य हैं तथा
और मुलहटीके चूर्णका प्रतीवाप देकर घृतमल और मूत्रकी सी आकृतिबाले शुक्रशो
पान करावे । मेनफलका काथ पिलाकर वमणित मलसंज्ञक होते हैं, ये त्रिदोष के
न करावे ॥ दंती और वायविडंग का चूर्ण दूषित होने के कारण असाध्य होते हैं ।
तेलमें चटाकर विरेचन करावे | राजवृक्ष बातादिसंज्ञक शुक्रातबकी चिकित्सा। और मेनफल के काथसे आस्थापन वस्ति दे कुर्याद्वातादिभिर्दुष्टे स्वौषधम्
मुलहटी और पीपलसे सिद्ध किये हुए तेलकी अर्थ-बातादि दोषोंसे दूषित हुए शुक्र
अनुवासन और उत्तरवस्ति दे ॥ शोणितमें उन उन दोषों के शमन करनेका
___ वातज आर्तव दोष में भाडंगी और उपाय करना चाहिये । जैसे कुपित वायुके
भद्रदारु से सिद्ध किया हुआ घृतपान कराव प्रशमनके लिये स्निग्ध, उष्ण, अम्ल, और
दूध और घृत, सानकर प्रियंगु और तिल लवणादि उपचार करै । पित्तके शमनके लि
का कल्क योनि में धरै । सरल वृक्ष और ये मधुर शीत कषायादि, कफके लिये कटु मुद्पणी के कषाय से योनिका प्रक्षालन रूक्ष कषायादि उपचार करे । विशेष करके
करे । पित्तज योनिदोष में दोनों काकोली वातज शुक्रदोषमें सुक्त सैंधव और फलाग्ल और विदारीकंदका क्वाथ, अथवा उत्पलपद्म द्वारा सिद्ध जवाखारका प्रतीवाप देकर घृत- का क्वाथ अथवा महुआ के फूल और पान करे । बेलगिरी और विदारीकंद द्वारा | खंभारी के फल का क्वाथ चीनी डालकर सिद्ध किये हुए दूधकी आस्थापन वस्ति देवे। पीवै ।। मधु और देवदारुसे सिद्ध किये हुए तेल की
कुणपकी चिकित्सा। अनुवासन वस्ति देवै । क्षीर और कुलीरके रससे सिद्ध किये हुए तेलकी अनुवासन औ| धातकीपुष्पखदिरदाडमार्जुनसाधितम् ।
कुणपे पुनः ॥ १२ ॥ र उत्तरवस्ति देवै । पित्तजशुक्र में कांडेक्षु, | पाययेत्सर्पिरथवा विपक्वमसनादिभिः १३ गोखरू, गिलोय, इनके काथसे सिद्ध किया | अर्थ-कुणप शुक्र में धाय के फूल, खैर
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(२५६)
अष्टागहृदये।
अ० १
अनार और अर्जुन इनसे सिद्ध किया हुआ | पुरीषसंज्ञक शुक्रकी चिकित्सा । घृत अथवा असनादि गणोक्त द्रव्यों के द्वारा / संशुद्धो विद्प्रभेसपिहिंगुसेव्यादिसाधितम् सिद्ध किया हुआ घृत पान करावै ॥+ | पिवेत्
अंथिसंज्ञक शुक्रकी चिकित्सा ।। अर्थ-जिस रोगीका मल विष्टाके सदृश पलाशभस्माश्मभिदा ग्रंथ्याभे- होगया है उसे वमन विरेचन द्वारा शुद्ध क
अर्थ-ग्रंथि संज्ञक शुक्र में ढाकका क्षार रके उसे हींग और खस आदिसे * सिद्ध किऔर पाखान भेद से सिद्ध किया हुआ घृत या हुआ घृत पानकरावै । पान कराना चाहिये ।
विशेष दृष्टव्य-मूत्रकी कांतिवाला शुक्र पूयशुक्रकी चिकित्सा ।
सर्वथा असाध्य होता है इसलिये उसकी
पूयरेतसि । परूषकवटादिभ्याम्
चिकित्सा ही नहीं कही गई है । वातादि ___ अर्थ-पूयशुक्रमें परूषकादि और वटादि । दोष से दूषित स्त्री के शोणित की चिकित्सा गणोक्त औषधोंसे सिद्ध किया हुआ वृत दे दोषानुसार करने का वर्णन पहिले होचुका है ना चाहिये ।
अब प्रथि आदेिशोणित की चिकित्सा कहतेहैं । क्षीणशुक्रकी चिकित्सा।
ग्रंथ्यार्तव की चिकित्सा । क्षीणे शुक्रकरी क्रिया ॥ १४ ॥ ग्रंथ्यातवे पाठाव्योषवृक्षकजं जलम् ॥ १६ ॥ स्निग्धं वांतं विरिक्तं च निरूढमनुवासितम् । अर्थ-ग्रंथि नामक स्त्री के रज में पाठा, योजयेच्छुक्रदोषार्त सम्यगुत्तरबस्तिभिः ॥ अर्थ-क्षीणनामक शुक्रमें अर्थात् शुक्रके
त्रिकुटा और कुडा इनका क्वाथ पीवै । क्षीण होनपर वीर्यको बढानेवाली क्रिया क
कुणपपूय शोणित की चिकित्सा । रनी चाहिये तथा शुक्र दोषार्त रोगीको स्नेह
पेयं कुणपपूयास्ने चन्दनम् वक्ष्यते तु यत् ।
गुह्यरोगेच तत्सर्व कार्य सोत्तरबस्तिकम् ॥ न, घमन, विरेचन, निरूहण और अनुवासन
___अर्थ-कुणपनामक और पूय नामक देनेके पीछे उत्तरवस्ति का प्रयोग करे।
शोणित में लाल चन्दनका क्वाथ पीना
चाहिये । तथा गुह्यरोग में जो जो वमनादि x यहां कुणप का सामान्य वर्णन है
और योनि में पिच धारणादि यथायोग्य फिर शुक्रका ही ग्रहण क्यों किया गया है इस शंका का यह समाधान है कि प्रथम | _____xआदि शब्दसे संग्रहमें लिखे हुए पाठ तो वीर्यका प्रकरण चला आता है, दूसरे |
की सूचना होती है उसमें लिखा है कि हीकुणप शोणित का वर्णन आगे करेंगे, जैसे |
ग, खस, चीता, प्रियंगु, मजीठ, और कमल 'कुणपपूयाने, इसलिये यहां शुक्र का ही | नाल से सिद्ध किये हुए घृतमें त्वक्, पला, ग्रहण है । कुणपे पुनः, इसमें पुनः का ग्रहण | चोच, इनके चूर्णकाप्रतीवाप देकर पान कइसलिये है कि बातादि दुष्ट शुक्र में अस्रोत | रावे। किसी किसी पुस्तक में हिंगुसेव्याक्रिया न करनी चाहिये।
'ग्निसाधितम् , ऐसा पाठ भी है।
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भ
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत् । (२५७) साधन लिखे हैं उन सबको भी उत्तरवस्ति । को जल से धोने पर वस्त्र में दाग नहीं सहित काम में लाना चाहिये । रहता है। ऐसा आर्तव सद्गर्भ की उत्पत्ति शुद्ध शुकार्तव के लक्षण ।
करता । शुक्रंशुक्लं गुरु स्निग्धं मधुरं बहुलं बहु।। घृतमाक्षिकतैलाभं सदर्भाय
गर्भस्थित होने के पहिलेकी कर्तव्यता। आर्तवं पुनः ॥१८॥
शुद्धशुक्रात स्वस्थं सरक्तं मिथुनं मिथः १९ लाक्षारसशशास्राभं धौतं यच्च विरज्यते । | स्नेहैः पुंसवनैः स्निग्धं शुद्धं शीलितबस्तिकम् - अर्थ-शुक्रार्तव में शुक्र प्रधान है इस ___ अर्थ-शुद्ध शक और आर्तववाले जो लिये शुक्र शब्द का प्रयोग पहिले किया | किसी प्रकार के रोग के लेशमात्र से भी गया है विशुद्ध शुक्र * सफेद,भारी,चिकना | आक्रांत न हों आपस में एक दूसरे को मिष्ट, गाढा, अधिक तथा घृत, शहत | देखकर अनुरागयुक्त हों । वमन विरेचनादि
और तेल की आकृतिवाला होता है, इसी से | से शुद्ध हो चुके हों अभ्यासपूर्वक जो वस्ति सुंदर गर्भ की उत्पत्ति होती है । ग्रहण करते रहे हों ऐसे दोनों स्त्री पुरुषों _ विशुद्ध रज लाख के रस के सदृश वा | को पुंसवन * स्नेह से स्निग्ध करै । गोठा के मधिर के समान होता है इस
परुषका उपक्रम ।
नरं विशेषात्क्षीराज्यमधुरौषधसंस्कृतैः २० xयहां क्षीण आर्तबकी विकित्सा नहीं अर्थ-विशेष करके पुरुषको जीवनीयादि कही गई है उसको अपनी बुद्धिसे विचार कर करना चाहिये और जैसे क्षीण शुक्रमें वीर्य |
| गणोक्त मधुर औषधियों से सिद्ध किये हुए को बढानेवाली क्रिया की जाती है बैसेही दूध और घी का पान कराता रहे। क्षीण आर्तवमें रजको बढानेवाली क्रिया स्त्रीका उपकम । करना चाहिये। ___ + आहार कारस अच्छी तरह परिणत |
नारीतैलेन माषैश्च पित्तलैः समुपाचरेत् । होकर अर्थात् रूपांतर को धारण करता
___अर्थ स्त्री को तैल, उरद और पित्तहुआ क्रम से मज्जा में पहुंच जाता है तब | कारक द्रव्यों का विशेष रूपसे सेवन कराता उस रस का सारभूत यह शुक्र कहलाता | रहे । है जैसे दूपसे दही औरदहसिवृत,और ईखके
गर्भग्रहण का काल । रस से गुड बनता है । यह शरीर में शुक्र के धारण करने वाली कला का आश्रय
क्षामप्रसन्नवदनां स्फुरच्छ्रोणिपयोधराम् ॥ लेकर सर्वांग में व्याप्त रहता है परन्तु । स्रस्ताक्षिकुक्षिं पुंस्कामा विद्यादृतुमती. इसका विशेष स्थान मज्जा अंडकोष और
स्त्रियम् । स्तन हैं उन में आल्हादकता होने से | अर्थ-गुख में कृशता के हेतु बिना यह इकट्टा होकर अंग प्रत्यंग से निकल पडता है । घृत के समान होने से गर्भ ____x यथा अभीप्सित गर्भोत्पादक फः गौरवर्ण, शहत के समान होने से गर्भ / घृत और महाकल्याणकादि घृतपान द्वारा याववर्ण और तेल के समान होने से गर्भ / जो गर्भिणी का संस्कार किया जाता है उसे कृष्णवर्ण होता है। .. | पुंसवन कहते हैं।
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(२५८)
अष्टांगहृदये ।
काल है।
क्षीणता और प्रसन्नता,श्रोणि ( कटिपश्चात् । दिन तक शुभ की इच्छा करते रहना भाग ) और स्तनों में फडकन, आंख और चाहिये, तथा स्नानादि क्रिया न करना कुक्षि में शिथिलता, और पुरुष के संग चाहिये, अलंकार धारण न करने चाहिये रमण करने की इच्छा ये सब बातें जिस डाभ की शय्या पर शयन करना उचित है। स्त्री में होती हैं उसे ऋतुमती समझना दूध में पकाया हुआ यवान्न जो शरीर के • चाहिये यहीं उस के गर्भ ग्रहण करने का महास्रोत आमपक्वाशय नामक कोष्ठ ( गी
धिष्टान ) का शोधन और कर्षण करता है . ऋतुकाल से पीछे योनिसंकोच । । थोड़ा सा केला के पत्ते, वा मिट्टी के पात्र पासकोचमायाति दिनेऽतीते यथा तथा२२ अथवा हाथ में धरकर खाना चाहिये । इस ऋतावतीतेयोनिःसाशुक्रं नातःप्रतीच्छति। तीन दिन में पुरुष से समागम करना
अर्थ-दिनके समय खिला हुआ कमलका उचित नहीं है । चौथे दिन स्नान द्वारा फूल जैसे दिन के अंत में संकुचित होजाता
शुद्ध होकर सफेद कपड़े पहन, मालाधारण है वैसेही ऋतुकाल अर्थात् रजोदर्जन के
| कर प्रथम पति का दर्शन करे और पति बारह दिन व्यतीत होने पर योनि सुकड
के सदृश पुत्रकी कामना करे । ऋतुमती "जाती है औरः वह वीर्य ग्रहण की इच्छा
स्त्री स्नान के पीछे जैसा देखती है वा नहीं करती है।
जैसा ध्यान धरती है वैसा ही पुत्र पैदा • वायुको कारणता ।
करती है। मासेनारचितं रक्त धमनीभ्यामृती पुनः २३ / ईषत्कृष्णं विगंधं च वायुयोनिमुखान्नुदेत् ।
ऋतुके कालका परिमाण । अर्थ-आहार के रसद्वारा वृद्धि पाया ऋतुस्तु द्वादशनिशाःपूर्वास्तिनश्वनिदिताः हुआ रक्त एक मासमें फिर वायुकी प्रेरणा | एकादशी वयुग्मासुस्यात्पुत्रोऽन्यासुकन्यका से योनि के मुखद्वारा निकलता है, इसका
___ अर्थ-रजोदर्शन के दिन से बारह दिन रंग कुछ कालापन लिये हुए गंधरहित होता
ऋतु काल रहता है इनमें पहिली तीन रात्रि है । इस शुद्ध रक्तको पुष्प भी कहते हैं। जिनमें पुष्पकी प्रवृत्ति रहती है वे निंदनीय
ऋतुकाल में स्त्री का वर्तन | हैं, इनमें स्त्री के पास जाना उचित नहीं सतः पुष्पेक्षणादेव कल्याणध्याधिनी व्यहम् है, ग्यारहवीं रात्रिभी अप्रशस्त है, चकार सृजालंकाररहिता दर्भसंस्तरशायिनी। से तेरहवीं रात्रिकामी ग्रहण है इसमें स्त्री औरय यावकं स्तोक कोष्ठशोधनकर्षणम् ॥ . संगम से नपुंसक संतान की उत्पत्ति होती पर्णे शरावेहस्तेवा मुंजीत ब्रह्मचारिणी। ।
है । शेष दिनों में युग्म दिन अर्थात् चौथे, चतुर्थेऽह्निततःस्त्रात्वाशुक्लमाल्यांबराशुचिः इच्छंती भर्तृसदृशंपुत्रं पश्येत्पुरः पतिम् । । छटे, आठवें, दसवें और बारहवें दिन मैथुन
अर्थ-रजोदर्शन के दिनसे स्त्री को तीन | करने से पुत्रकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि
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म १
इन दिन अर्चित्य कारण से आर्तव कम होजाता है तथा अयुग्म रात्रियों में अर्थात् पांचवीं, सातंवीं और नवीं रात्रियों में स्त्री संगम से कन्या उत्पन्न होती है, क्योंकि इनमें अचिन्त्य हेतु से शुक्र कम होता है । यदि आहारादि के कारण अयुग्मा रात्रियों में वीर्य की अधिकता और युग्मा रात्रियों में घीर्य की न्यूनता हो तो पुरुषस्त्रीकी आकृति बाला दुर्बल वा होनांग होता है और स्त्री पुरुष के आकार वाली दुर्बल और हीनांग होती है ।
पुत्रेष्टि यज्ञ ।
उपाध्यायोऽथ पुत्रीय फुर्वीत विधिवद्विधिम् नमस्कारपरायास्तुशूद्राया मंत्रवर्जितम् ।
।
अर्थ - तदनंतर अथर्ववेद का जानने वाला पुरोहित विधिवत् पुत्रेष्टि यज्ञ करावे यह विधि त्रिवर्ण के लिये कही गई है । शूद्राणी को केवल नमस्कार करना उचित है, मंत्रोच्चारण नहीं करना चाहिये | ater गुप्तसेवन ।
nor एवं संयोगः स्यादपत्यं च कामतः ॥ 'संतोऽप्याहुरपत्यार्थ दंपत्योः संगतं रहः । दुरपत्यं कुलांगारो गोत्रे जातं महत्यपि ३०
अर्थ- ऊपर कही हुई रीति से पुत्रविधीयादि करके स्त्रीकेसाथ संगम करनेसे विफलता नहीं होती है किन्तु यथाभलषित पुत्र वा पुत्रीकी उत्पत्ति होती है । साधुटोगों का यह कहना है कि संतान के लिये स्त्री पुरुष का समागम एकान्तमें होना चाहिये क्योंकि एकान्त में समागम न करनेसे उच्चकुलमें भी
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(२५९)
ऐसे बालक होजाते हैं जो कुलका सत्याना -
श कर देते हैं ।
दंपती के पुत्रचिंतनका प्रकार ।
इच्छेतां यादृशं पुत्रं तद्रूपचरितांश्च ती । चिंतयेतां जनपदास्तदाचारपरिच्छदौ ३१ ॥
आ
अर्थ- स्त्री पुरुषको जैसे पुत्रकी इच्छा हो वैसेही रूप ( वर्ण, संस्थान, प्रमाण, आकृति) और चरित ( श्रद्धा, श्रुत, सत्य, ऋजुता, नृशंस्य, दान, दया, दाक्षिण्यादि स्वभाववा ले ) तथा आचार ( कुल और देशके अनुरूप कर्तव्यकर्म ) और परिच्छद (मनुष्य, गौ, अश्त्र, धन, धान्य, वस्त्र, अलंकार, रत्न, रथ, आयुध, गृह, उद्यापन, वीणा, पणव, शय्यादि ) वाले मनुष्यों का ध्यान करे । पुत्रविधिका पश्चात्कर्म ।
कर्माते च पुमान्सर्पिःक्षीरंशाल्योदनाशितः प्राग्दक्षिणेन पादेन शय्यां मौहूर्तिकाशया ॥ आरोहेत् स्त्री तु घामेन तस्य दक्षिणपार्श्वतः तैलमापोत्तराहारा तंत्रमंत्रं प्रयोजयेत् ३३ ॥
अर्थ- पुत्रविधीय यज्ञ करने के पीछे पुरुष घृत और दूध मिलाकर शाली चांवलका भोजन करके ज्योतिषियों के द्वारा शुभ मुहूर्त योग करणादि का स्थिर करके प्रथम दाहिने पांवसे शय्या पर चढे । इसी तरह पत्नी भी तेल और उरद है मुख्य जिनमें ऐसा भोज - न करके वांधे पांवको प्रथम शय्यापर रक्स्वे और पुरुषकी दक्षिण और शयन करे | फि र नीचे लिखे हुए मंत्र का उच्चारण करे । मंत्रपाठ ।
अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठासि घातात्वाम् ।
दधातु विधाता त्वां दधातु ब्रह्मवर्चसा
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भवति ।
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अष्टांगहृदये ।
((१६०)
ब्रह्मा बृहस्पति विष्णुः सोमः सूर्यस्तथाश्विनौ भगोऽथ मित्रावरुणौ वीरं ददतु मे सुतम्अर्थ - इस मंत्र का पाठ करे । शेष भी तू ही है। आयुभी तू ही है धाता विधाता तुझे ब्रह्मतेजसे धारण करें । ब्रह्मा, विष्णु, बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य, अश्विनीकुमार, भग मित्र, वरुण ये सब मुझको वीर पुत्रदें । मंत्रपठानंतर कर्म |
सांत्वयित्वा ततोऽन्यं संविशेतां मुदान्वितौ उत्ताना तन्मना योषित्तिष्ठेद्गैः सुसंस्थितैः॥ तथा हि बीजं गृह्णाति दोषैःस्व स्थानमास्थितैः
अर्थ - मंत्र पाठके पीछे दोनों स्त्री पुरुष आपस में एक दूसरेको प्यारी और मीठी बा तों से तृप्त करके बड़े प्रेमसे मिथुनीभाव में प्रवृत हो । समागमके समय स्त्रीको उचित है कि उसीमें मन लगाकर अपने सब अंग प्रत्यंगों की स्थिति को यथावत् करके सीधी शयन करै । ऐसा करनेसे वातादि संपूर्ण दो ष अपने अपने स्थानों में रहे आते हैं जिस से बीज के ग्रहण में सुभीता पडता है संग्रह में लिखा है ॥
नीची ऊंची वा करवट लिये हुए स्त्रीसे समागम न करे । कुबडेपन से बात वलवान् होनें से योनिमें पीडा होती है । दक्षिणपा में कफ योनि के मुखको ढक लेता है । वामपाइ में पित्त रक्त और शुक्र में दाह पैदा करता है। इससे उत्तरभावमें स्थित स्त्री बीज को ग्रहण करने में समर्थ होती है ॥ सद्यो गर्भा के लक्षण |
लिंगं तु सद्योगर्भाया योन्यां बीजस्य संग्रहः तृप्तिर्गुरुत्वं स्फुरणं शुक्रास्नाननुबंधनम् । हृ दयस्पंदन तंद्रातृड् ग्लानिर्लो मह र्षणम् ॥
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अ १
अर्थ - तत्काल गर्भको धारण करनेवाली ath ये लक्षण होते हैं । यथा - योनिमें बी. ज का सम्यक् रीतिसे ग्रहण, तृप्ति (आहा र की अनिच्छा ), कुखमें भारापन और फड कन, योनि के मुखसे शुक्र और शोणित का बहाव बन्द होजाना | हृदयस्पंदन, तंद्रा, तृषा ग्लानि, और रोमांच खडे होना । गर्भकी अवस्था ।
अव्यक्तः प्रथमे मासि सप्ताहात्कलली भवेत् गर्भः पुंसतवान्यत्र पूर्वे व्यक्तेः प्रयोजयेत् ॥ बली पुरुषकारो हि दैवमप्यतिवर्तते ।
गर्भाधान के सात दिन पीछे वह गर्भ कललीभूत ( कफकी सी ग्रंथि ) होकर प्रथम मांसमें अव्यक्त रहता है अर्थात् तब तक स्त्री वा पुरुषके उत्पन्न होने के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं । इसलिये आकृति के प्रकट हो नेसे पहिले ही पुंसवनादि करे। यह गर्मिणी का संस्कार विशेष है |
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शंका--जब पूर्वजन्म के संस्कार से वह गर्भ स्त्री रूपमें प्रकट होने को है तव पुंसवनादि संस्कार से वहगर्भ पुरुषरूप में कैसे हो सकता है
समाधान--पुरुषकार( पुरुषार्थ ) यदि बलवान् हो और दैव यदि दुर्बल होतो बलवान पुरुषकार दुर्बल दैव अर्थात् प्रारब्धको उल्लंघित कर देता है किन्तु बलवान् दैवका दुर्बल पुरुषार्थ किसी तरह पराभव नहीं कर सकता है । यहां पुंसवनादि कर्मद्वारा सिद्धि वा असिद्धि का अनुमान करके पूर्वजन्म के किये हुए कर्म का हीनबलत्व और प्रवलाव जाना जाता है ।
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
२६१)
-
. पुंसवन प्रयोग।
गर्भिणी का उपचार । पुष्ये पुरुषकं हमें राजतंवाथवायसम् ३८॥ उपचारः प्रियहितैर्भर्ना भृत्यैश्च गर्भधृक् । कृत्वाऽग्निवर्ण निर्वाप्य क्षीरे तस्यांजाल- नवनीतघृतक्षीरैः सदा चैनामुपाचरेत् ४३॥
पिबेत् । अर्थ-पति और सेवक लोगोंके द्वारा अर्थ--पुष्य नक्षत्रमें सोने, चांदी अथवा | गर्भिणी स्त्री को प्रिय और हितकारी पथ्य लोहेकी पुरुषाकार पुत्तलिका बनवाकर उनको देकर जो उपचार किया जाता है, उसी से अग्निमें तपावै जब लालरंग की होजाय तब गर्भ की स्थिति रहतीहै अर्थात् गर्भ अकाल इसेदूध वुझाकर इसदूधको चार पल पान करै
में गिरने नहीं पाता है । नवनीत घृत और अन्य प्रयोग।
दुध द्वारा गर्भिणी स्त्री का सदा उपचार गौरदडमपामार्ग जीवकर्षभसैर्यकान् ३९ ॥
करता रहे ॥ पिवेत्युम्ये जले पिष्टानेकद्वित्रिसमस्तशः ।
गर्मिणी को त्याज कर्म । । अर्थ--सफेद ओंगा, जीवक, ऋषभक,
अतिव्यवायमायासं भारं प्रावरण गुरु। . और श्वेतकुरंट इनमेंसे एक, दो, तीन वा अकालजागरस्वनकठिनोत्कटकासनम्४४॥ चारोंको जलमें पीसकर पुष्यनक्षत्रमें पानकरै।।
।। शोकक्रोधभयोद्वेगवेगश्रद्धाविधारणम् ।
उपवासाध्वतीक्ष्णोष्णगुरुविष्टंभिभोजनम् । - सफेदकटेरी की जड़।
रक्तं निवसनं श्वभ्रकूपेक्षां मधमामिषम् । भीरेण श्वतवृक्षतीमूलं नासापुटे स्वयम् ॥ उत्तानशयनं यश्च स्त्रियो नेच्छंति तत्त्यजेत् । पुत्रार्थ दक्षिणे सिंचेदामे दुहितृबांछया। तथा रक्तस्रति शुद्धिं बस्तिमामासतोऽटमात् - अर्थ-सफेद फूलवाली कटरीकी जडको एभिर्गर्भःस्रवेदामःकुक्षौ शुष्येन्नियेत था। पानीमें पीसकर उस जलको पुत्रकी इच्छासे
____ अर्थ-अति मैथुन, श्रमोत्पादक कर्म, .
बोझ लेचलना, भारी वस्त्र ओढना, रात में स्त्री स्वयं अपनी नासिकाके दाहिने छिद्रमें और पुत्रीकी कामनासे बांयेछिद्रमें सेचनकरै ।
जगना, दिन में सौना, कठोर वा उत्कट
आसन पर बैठना, शोक, क्रोध, भय, उद्वेग, पुत्रोत्पादनमें अन्ययोग ॥
मलमूत्रादि बेगको रोकना, स्पृहाको रोकना, पयसा लक्ष्मणामूलं पुत्रोत्पादस्थितिप्रदम् ॥ नासयाऽऽस्येन बा पीतं पश्रृंगाष्टकंतथा।
निराहार रहना, मार्ग चलना, तीक्ष्ण गरम ओषधीजीवनीयाश्च बाह्यांतरुपयोजयेत् ॥ भारी और विष्टंभी भोजन करना, लालवस्त्र
अर्थ-जिस स्त्रीके पुत्र न होता हो वा | धारण करना, खाई वा कूप में झांकना, मद्य पुत्रोत्पत्ति के पीछे उसकी रक्षाके निमित्त ल- और मांस का सेवन, उत्तान शयन ( सीधा क्ष्मणाकी जड अथवा बटवृक्षके आठ अंकुरों सौना ) स्त्री को अनीप्सित कर्म (जिनको दूधमें पीसकर मुख वा नासिका द्वारा | कामों पर स्त्री की रुचि न हो ) रक्त स्राव पानकरै । इसीतरह “जीवनीय गणोक्त दस वमन बिरेचनादि द्वारा शुद्ध इन सब को 'औषधोंका स्नान और उबटने द्वारा वाह्यप्रयो | को गर्मिणी स्त्री त्याग देवे । तथा आठवें ग और आहार तथा पानद्वारा अन्तःप्रयोग करै महिनेसे पहिले गर्भिणी को अनुवासन वस्ति
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१२६२)
अष्टांगहृदये ।
न देवे, आठ मास पीछे वस्ति कर्म से कुछ | अब व्यक्त गर्भ के लक्षण कहते हैंहानि नहीं है देनाही चाहिये । इन सब व्यक्तगर्भ के लक्षण । पर्जित कर्मों के करने से कुसमय गर्भपात | क्षामता गरिमा कुक्षी मूर्खाच्छदिररोचकः। होजाता है अथवा कुक्षि में ही गर्म सूख जुंभाप्रसेकासदनं रोमराज्याः प्रकाशनम् । जाता है वा मर जाता है ॥
अम्लेष्ठतास्तनौपीनौ सस्तन्यौ कृष्णचूचुकी बातलादि अहार का निषेध । पादशोफोविदाहोऽन्येश्रद्धाश्चविविधात्मिका
___ अर्थ-क्षीणता,उदर में भाग़पन, मूर्छा घातलैश्चभवद्गर्भःकुजांधजडवामनः।। पित्तलैः खलतिःपिंगः श्वित्री पांडुः कफात्मभि |
| खाने पीने में अरुचि, जंभाई, मुखसे लार अर्थ-बादी करने वाले आहारके सेवन गिरना, देह में शिथिलता, रोमांच खडे से गर्भ कुवडा, अन्धा, जड और बामन होना, खट्टी वस्तुओं के खाने की इच्छा, (बौना) हो जाता है । पित्तजनक भोजन | स्तनों में मोटापन, स्तनों में दूध का प्रासे गंजा और पीले रंग का होताहै । तथा | दुर्भाव, चूचुक अर्थात् स्तनों के अप्रभाग कफकारक द्रव्यों के सेवन से श्वित्र रोगी में श्यामता, पांवों में सूजन, तथा अनेक और पांड्डवर्ण होता है ॥
प्रकार के पथ्य अपथ्य खाने में स्पृहा ये मृद औषधों का सेवन । लक्षण व्यक्तगर्भ के होते हैं । कोई २ व्याधींश्चास्यामृदुसुखैरतीक्ष्णैरोषधैर्जयेत्। आचार्य कहते कि हैं देह में विदाह भी होता - अर्थ-गर्मिणी स्त्री को किसी प्रकार है । किसी पुस्तक में विदाहोम्ये की का रोग होने पर मृदु, सुरवपूर्वक सेवन के | जगह विदाहान्न । पाठ भी है, अर्थात योग्य और तीक्ष्णता हित औषध द्वारा | भोजन किये हुए अन्न में विदग्धता उसके रोग को दूर करने का उपाय करे । होती है ।
गर्भ के दूसरे मास के लक्षण । द्वितीये मासि कललाद्घनः पेश्यथवाऽर्बुदम् ।
गर्भणी के हिताहित पथ्य पुत्रीक्लीवा- क्रमात्तभ्यः
का विचार । - तत्र व्यक्तस्य लक्षणम्। मातृजंघस्य हदयं मातुश्च हदयेन तत् ।
अर्थ-दसरे महिनेमें कलल रूप वाला | संबद्धं तेन गर्भिण्या नेष्टं श्रद्धाविधारणम् । गर्म धन, पेशी और अवंद के आकार का | देयमप्यहितं तस्यै हितोपहितमल्पकम् ॥ हो जाता है। इन्हीं धनादि रूप सेही गर्भ श्रद्धाविधाताद्गर्भस्य विकृतिश्च्युतिरेववा। क्रम से पुरुष, स्त्री या क्लीव होताहै अर्थात् अर्थ-क्योंकि इस गर्भ का हृदय जो धन ( गाढा ) होने से पुरुष, पेशी ( मांस चेतना का अधिपान है वह माता के अंश से की पेशीके समान लंबी ) होने से स्त्री और उत्पन्न होता है तथा गर्भ के उस हृदय अबुर्द ( अर्द्ध गोलाकार वस्तु के सदृश ) | का संबंध माता के हृदय से होता है, इस होने से नपुंसक होता है ।
लिये गर्भिणी के हृदय की ताप से गर्भका
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शारीरस्थान भाषाडीकासमेत ।
म १
हृदय भी संतप्त होता है और इसी कारण से गर्मणी को द्विहृदया वा दौहृदिनी अतु दो हृदयवाली कहते हैं । तब हृदय के पराधीन होने के कारण गर्भिणी के स्वभाघोचित अभिलाषाओं के सिवाय और भी अनेक प्रकार की वृक्ष उत्पन्न हो जाती हैं । गर्भावस्था में गर्भिणी की जो इच्छा होती है वही अभिलाषा गर्भ की भी गिनी जाती है । इसलिये गर्भिणी की इच्छा पूरी न करना किसी तरह भी हितकारक नहीं है ।
गर्मिणी स्त्री को यदि किसी अपथ्य विषय की भी अभिलाषा उत्पन्न हो तो उस अपथ्य को भी पथ्य में मिलाकर देना चाहिये परंतु बहुत ही कम देना उचित है।
इसका कारण यही है कि गर्मिणी की स्पृा पूरी न करने से गर्म बहुत दिनका होगा तो विकृत रूप हो जायगा और थोड़े दिन का होगा तो पतन हो जायगा अतएव गर्मिणी की इच्छा पूरा करना अवश्य कर्तव्य है ।
तीसरे महिने में गर्भका लक्षण | व्यक्तीभवति मासेऽस्य तृतीये गात्रपंचकम् । मूर्धा सम्धिनी बाहू सर्वसूक्ष्मांगजन्म च । सममेव हि मूर्धाद्यैर्ज्ञानं च सुखदुःखयोः ॥
अर्थ- तीसरे महिने में इस गर्भ के मस्तक, दो पांव और दो हाथ ये पांच अंग तथा चेतना के अधिष्ठान संपूर्ण सूक्ष्म अंग उत्पन्न हो जाते हैं और मस्तक आदि के उत्पन्न होने के समय ही इस गर्न को दुख सुख का ज्ञान हो जाता है ।
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(२६३)
गर्भ के बढाने का प्रकार । गर्भस्य नाभौ मातुश्च हृदि नाडी निवध्यते । यास पुष्टिमाप्नोति केदार इव कुल्यथा ॥ अर्थ- गर्भ की नाभि और माता का हृदय एक ही नाडी से बंधे रहते हैं । नाडी को लोक में नाल कहते हैं, उसी नाडी से गर्भ पुष्ट होता रहता है, जैसे छोटा छोटी नालियों के द्वारा पानी बहता हुआ
खेत में पहुंचकर खेत के अन्न को बढाता है वैसे ही माता के हृदय से बंधी हुई नाडी माता के आहार के प्रसाद नामक रस को नामिद्वारा सव देह में पहुंचाकर अंग प्रत्यंगों को पुष्ट करती है । यहां शंका होती है कि जब आहार का रस गर्भ में पहुंचता है तो वह मलमूत्र भी करता होगा इसका समाधान यह है कि साक्षात अन्न पान का प्रवेश नहीं होता है इसलिये स्थूल - रूप में मलमूत्रादि नहीं होते हैं 1 चौथे से सातवें महिने तक गर्भकी दशा । चतुर्थे व्यक्ततांगानां चेतनायाश्च पंचमे । षष्टे स्नायुसिरारामेबलवर्णनवत्यचाम् ॥ सर्वैः सर्वागसंपूर्ण भावैः पुष्यति सप्तमे ।
अर्थ - चौथे महीने में वे सूक्ष्म अंग जो अव्यक्त थे प्रकट हो जाते हैं, पांचवें महीने में बुद्धि और छटे महीने में स्नायु, सिरा, रोम, बल, वर्ण, नख और त्वचा प्रकट होजाते हैं। सातवें महिने में संपूर्ण भावों से संयुक्त होकर सब अंगों से पूर्ण गर्भ पुष्टिको प्राप्त. होता है ।
गणी के कंडवादि । गर्भमोत्पीडिता दोषास्तस्मिन् हृदयमाश्रिताः
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अष्टांगहृदये। कंडविवाह कुर्वतिगर्भिण्याः किक्किसानि च।। . अष्टम मास में तेज संचार । - अर्थ-सातवें महीने में जब गर्भ पूर्णा- | ओजोऽष्टमे संचरति माता पुत्रीमुहुःफमात्। वयव होजाता है तब उसके द्वारा वातादि तेन तौम्लानमुदितौ तत्र जातोनजीवति । संपूर्ण दोष उत्पीडित होकर हृदयका आश्रय | शिशुरोजोऽनवस्थानानारी संशयिता भवेत् लेते हैं और गर्भणी के खुजली, विदाह
____अर्थ-आठवें माहेने में माता और पुत्र और किक्किस उत्पन्न होते हैं । गर्भिणी के
दोनों को सब धातुओं का तेज बार बार ऊरु स्तन और उदर में रेखा पडजाती हैं
क्रम से संचरित करता है, इससे माता उन्हें किक्किस कहते हैं।
| और पुत्र कभी म्लान और कभी हर्षित - उक्त कालमें उपचार । होते रहते है अर्थात जब ओज माता में नवनीतंहितं तत्रलोलांबुमधुरौषधैः । संचरण करता है तब माता हर्षित और सिद्धमल्पपटुस्नेह लघु स्वादु च भोजनम् ।
गर्भस्थ बालक म्लान रहता है, इसी तरह चंदनोशीरकल्केन लिंपदूरुस्तनोदरम् । श्रेष्टया चैणहरिणशशशोणितयुक्तया ॥
जब ओज गर्भस्थ बालक में संचरण करता अश्वघ्नपत्रसिद्धन सैलेनाभ्यज्य मईयेत् । .
है तब वालक हर्षित और माता म्लान पटोलनिवमंजिष्ठासुरसैःसेचयेत्पुनः॥ रहती है । ऐसे समय में जब कि ओन दा:मधुकतोयेन मुजां व परिशीलयेत् ।
बालक में न हो और वह जन्म लेले तो वह . अर्थ-गर्भिणी को खुजली आदि पूर्वोक्त
जीता नहीं है तथा ओजः पदार्थ की अनरोगों के शमन के लिये बेर के रस में
वस्थिति के कारण माता के मरने जीनेका दाक्षादि मधुर औषधों को पीसकर उस में भी संशय रहता है। पकाया हुआ नवनीत ( माखन ) देवै । तथा नमक और घृत मिलाकर. मधुर और
अष्टम मास का उपचार । . हलका भोजन खाने को दे । चन्दन और क्षीरपेया व पेयात्रसवृतान्वासनं घृतं । खस को जल में पीसकर ऊरु, स्तन और | मधुरैः साधितं शुद्धयै पुराणशकृतस्तथा ॥ उदर पर लेप करे । अथवा हरिण और | शुष्कमूलककोलाम्लकषायेण प्रशस्यते । खरगोश के रुधिर में त्रिकला को पीसकर शतावाकलिकतो वस्तिःसतैलघृतसैंधवः ॥ भी लेप करे ।, अथवा कनेर के पत्तों से अर्थ-आठवें महीने में दूध में पकाई हुई पकाया हुआ तेल लगाकर फिर परवल, पेया घृत डालकर पीना चाहिये । द्राक्षादि नीमके पत्ते, मजीठ, और तुलसी के पत्तों | मधुर द्रव्यों से सिद्ध कियेहुए घृत से अ. के कल्क स मर्दन करे । दारुहलदी और नुवासन वस्ति देवै । पुराने मल को निकामुलहटी के काथ से देह पर परिषेक करे ।। लने के लिये सूखी मूली बेर और इमली के तथा स्नान उवटना आदि करते रहना | काथ में सोंफका कल्क मिलाकर तेल, घृत उचित है।
| और सेंधानमक डाल कर निरूहणवस्ति दे
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अ१
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गर्भमप्लवका काल। पुनामदोहदप्रश्नरतापुंस्त्वप्रदर्शिनी । . तस्मिस्त्वेकाहयातेऽपिकालः सूतरेतः परम् | उन्नते दक्षिणेकुक्षौ गर्भे च परिमण्डले ७०॥ वर्षाधिकारकारीस्यात्कुक्षौवातेन धारितः॥ पुत्रसून
पुत्रसूतेऽन्यथा कन्यांयाचेच्छति नृसंगतिम् ___ अर्थ-अष्टममासके व्यतीत होनेके एक
| नृत्यवादित्रगांधर्वगंधमाल्यप्रिया च या ॥
___ अर्थ-जिस गर्भिणी के दाक्षण स्तन में दिन पीछेसे बारहवें महिने तक गर्मके प्रसव
प्रथम दूधका प्रादुर्भाव होता है उसके पुत्र का काल होता है । बारह महिने के पीछे यदि
का जन्म होता है, जो स्त्री अपनी दाहिनी पार्श्व वायुके कारण गर्भ न निकले तो अवश्य ही
से गमन शयनादिक कार्य की चेष्टा करती वह कुछ न कुछ विकार करता है ॥ है उस के भी पुत्र होता है तथा चलने में
मवम मासका उपचार ॥ जो पहिले अपना दाहिना पांव उठाती है शस्तश्च नवमेमासिस्निग्धोमांसरसौदनः। तथा काम करने में जो प्रथम अपने दाबहुस्नेहा यवागूर्वा पूर्वोक्तं चानुवासनम् ॥ हिने हाथको काम में लाती है वह पुत्र जतत एव पिचुंचाऽस्यायोनौ नित्यं निधापयत् नती है । जो गर्भिणी पुरुष नामवाले दौहवातघ्नपत्रभंगांभःशीतंत्रानेऽन्वहं हितम्॥ | द और पुरुष नाम वाले प्रश्नों में रत रहती मित्रहांगी ननधमान्मासात्प्रभृति वासयेत्। अर्थ-न महिनेमें गर्मिणी स्त्रीको मांस
है तथा जो स्वप्न में पुरुष, हाथी, घोड़ा, बाराह रसयुक्त स्निग्धअन्न अथवा बहुत धृत मिला
आम, अनार, अशोकादि पुरुष नामधारी
पदार्थों को देखती है अथवा जिसकी दक्षिण कर यवागू तथा द्राक्षादि मधुर द्रव्योंसे सि
कुक्षि ऊंची और गर्भस्थान गोल हो वह द्ध किये हुए घृतकी अनुवासन वस्ति देना
गर्मिणी भी पुत्रको जनती है । हितकर है | तथा इस न महिनेमे वादीको
___ इन लक्षणों से विपरीत लक्षणवाली गशमन करने के निमित्त उक्त अनुवासन घृ.
भिणी के कम्या होती है, जैसे वामस्तन में त में रुईका फोया भिगोकर गर्मिणीकी योनि
दुग्ध, वाम पार्श्व से शयन, बाम पैर से में प्रतिदिन रखदिया करै । ऐसा करने से
गमन, वाम हस्त से व्यापार, स्त्रीनाम गर्भ सुखपूर्वक बाहर आजाता है तथा वात
वाले दौहृद और प्रश्न में रत, स्त्री नामनाशक पत्तों के काथ को ठंडा करके प्रति
धारी हथिनी, थोडी आदिका स्वप्न में दिदिन स्नान के काम में लावै । ..
खाई देना ये सब कन्या होने के लक्षण हैं मवम मास से लेकर जबतक बालकका
इन के अतिरिक्त जो गर्भिणी पुरुष संग की जन्म न होले तवतक गर्भिणी को निःस्नेहांगी
इच्छा करती है वा जिसको नाचना, बजा. न रक्खे अर्थात प्रतिदिन उसके देहपर तेल
ना, गाना, सुगंधित द्रव्य और माला आदि लगाता रहै ॥
अच्छे लगते हैं वह भी, कन्या को जनती है पुत्रादि होने के लक्षण ।
नपुंसक होने के लक्षण । प्राग्दाक्षिणस्तनस्तन्या पूर्व तत्पार्श्वचष्टिनी॥ | क्लीव तत्संकरे तत्र मध्य कुक्षेःसमुन्नतम्
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(२६९)
अष्टiिहृदप |
अ १
मौ पार्श्वद्वयोनामाकुक्षौ द्रोण्यामिब स्थिते । | अधो गुरुत्वमदचिः प्रसेको बहुमूत्रता । वेदनोरूदरकटी पृष्टह हस्तिवंक्षणे ॥७४॥ योनिभेदरूजातोदस्फुरणस्त्रवणानि च । आवीनामनुजन्मातस्ततो गर्भोदकस्रुतिः ॥
: अर्थ - कन्या और पुत्र दोनों के मिश्रित लक्षण होने पर कुक्षि का मध्यभाग ऊंचा हो तो नपुंसक संतान होती है, और उदर के दोनों किनारे ऊंचे और बीच में द्रोणी के समान नीचा हो तो यमज संतान होती है।
गर्भिणीका सूतिका ग्रहमें आश्रय । प्राक्चैव नवमान्मासात्सूतिकागृहमाश्रयेत् । देशे प्रशस्तै संभारैः संपन्नं साधकेऽहनि ॥ सत्रोदीक्षेत सासूतिं सूतिका परिवारिता ।
अर्थ- जो आजकल में जननेवाली होती है उसे आसन्न प्रसवा कहते हैं, ऐसी स्त्रीके आसन्नप्रसवकाल में ग्लानि ( हर्पकाक्षय ) कुक्षि और नेत्रमें शिथिलता, क्लान्ति, नीचे के अंगों में भारापन, अरुचि, मुखसे लार गिरना, बारबार मूत्रोत्सर्ग होना, ऊरु उदर कटि, पृष्ठ, हृदय, वस्ति, वंक्षण आदि ऊर्ध्व अंगों में वेदना, तथा योनि में फटने और सुई छिदने की सी वेदना होना योनि में फडकन और स्त्राव । ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं ।
अर्थ - गर्भिणी स्त्री को उचित है कि नौ महिने से पहले ही सूतिका घर में रहने लग जाय । यह घर वास्तुविद्या के जानने वालों द्वारा पूर्व वा उत्तर की ओर प्रशस्त भूमि में बनवाना चाहिये, इस घर में प्रसूति के उपयोगी सब सामग्री एकत्रित करदेनी चाहिये तथा गर्भिणी स्त्री इस घर में पुष्य नक्षत्र के दिन से रहना प्रारंभ करे |
योनिभेदन के पीछे आवी की उत्पत्ति होती है ( गर्भ के निकलने के समय जो शूल विशेष होता है उसे आवी कहते हैं, घरों में स्त्रियां वहुवा इस शूल को दर्द के नाम से पुकारती हैं) तदनंतर योनि से जल निकलता है इस जलको गर्भोदक कहते हैं ।
तथा 'इस घर में में बालक जनूंगी' इस बातको चित में धारण कर प्रसवकाल की प्रतीक्षा करती रहै, इस गर्भिणी के - साथ में ऐसी स्त्रियां रहनी चाहिये जो अनेक बार बालक जनने का अनुभव कर चुकीहों और तत्कालोचित व्यवहार में कुशल भीहों "संग्रह में लिखा है "बहुशः प्रसूताभिरनु रक्ताभिरविषादि बीभिरविसंवादिनीभिः क्लेशसहाभिः परिवृता स्वस्त्यनपराऽनुलोमनैराहार विहारैरनुलोमितवातमूत्रपरीषा प्रसवकालमुदीक्षेत मासन्नप्रसवा के लक्षण |
अर्थ- गर्भोदक का स्राव होचुकने के
अद्यश्वः प्रभावे म्लानिः कुक्ष्यक्षिम्लयताक्लमः | पीछे उपस्थितगर्भा उस गर्भिणी को तेल
उपस्थितगर्भा के साथ कर्तव्य | अथोपस्थितगर्भा तां कृतकौतुकमङ्गलाम् । हस्तस्थपुनामफलां स्वभ्यक्तोष्णांबुसेचिताम् ॥ ७७ ॥
पाययेत्सघृतां पेयां
स्तनौ भूशयने स्थिताम् । आमुझसविधमुतानामभ्यतांगीं पुनः पुनः ॥ अधोनामेर्विशृङ्गीयात्कारयेज्जृंभच॑क्रमम् ।
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AC
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(२६७)
लगाकर सुहाते हुए गर्म जल से स्नान | पहिले धीरे धीरे भीतर से जोर मारै फिर करावै और रक्षावधनादि कौतुक नामक गर्भके योनि मुखपर आनेपर प्रसव होनतक मंगलाचरण करके उसको घृत डालकर पेया । बलपूर्वक जोर मारे । पासवाली स्त्रियां उस पान करावै, तथा इस समय दाडिम आम | को इन मोठे मोठे वचनोंसे हर्षित करती रहे पुरुषसंज्ञक फलों को हाथ में लिये रहै। कि हे सभगे. हे शोभनमखवणे. तेरे पत्र हो.
तदनंतर कोमल विस्तर पर पृथ्वी में | गा, धन्य है और उसके वांये कानमें संग्रहोदोनों टांगों को चौडी कराके चित्त शयन | क्त इस मंत्रका उच्चारण करे" क्षितिर्जलं वि करावै और उसके नाभि के नीचे के भाग । यत्तेजो वायुर्विष्णुः प्रजापतिः । सगर्मा त्वां समें बार बार तेल लगाकर धीरे धीरे मर्दन दा पातु वैशल्यं वा दधत्यपि । प्रसूष्व त्वमकरे जिससे वात का कोप नहो । मुंभण | विक्लिष्टमविक्लिष्टा शुमानने । कार्तिकेयार्तिपुत्रं ( जंभाई ) और चंक्रमण ( शीघ्र गमन ) | कार्तिकेयाभिरक्षितं । तथा । इहामृतं च सोम कराना भी उचित है ।
श्च चित्रभानुश्च भामिनि । उच्चैः श्रवाश्च उक्तकर्मका फल ।
तुरगो मंदिरे निवसंतुते । इदमपृतमपां समुधु गर्भःप्रयात्यबागेब तल्लिंग हृद्विमोक्षतः ७९
तं वै तब लघु गर्भमिमं प्रमुंचतु स्त्री। तद. भाविश्य जठरं गर्भो वस्तेरुपरि तिष्ठति । . अर्थ-ऊपर कहा हुआ काम करने से
नलपवनार्कवासवास्ते सहलवणांवुधैर्दिशंतु गर्भ माताके दृदयस्थानको छोडकर नीचेको
शांतिं । अन्य स्त्री कहें कि जो शूल न हो
ता हो तो जोर मत मारै क्योंकि कुसमय उतरता है, गर्भके नीचे उतरने का यह ल
जोर मारनेसे विष्टामूत्रादि का निकलना अक्षण है कि हृदयको छोडनेके पीछे वह ग
नर्थकारी और अहित होता है तथा बालक में उदरमें आकर वस्ति (पेडू ) के ऊपर
भी श्वास खांसी शोफ कुञ्ज आदि रोगोंसे ठहर जाता है। गर्भिणीका खट्वारोपादि ॥
आक्रांत होजाता है इसके प्रसव कष्टको दूर आव्यो हि त्वरयंत्येनां खट्वामारोपयेत्ततः॥ | करनेके लिये आंखों पर जल लगावे और अथ संपीडिते गर्भ योनिमस्याः प्रसाधयेत्। मुख पर पंखेसे हवा करै ॥ मृदु पूर्व प्रवाहेत बाढमाप्रसवाच्च सा ८१॥ हर्ष उत्पन्न करने से बालक जननेकी वेहर्षयेत्तांमुहुः पुत्रजन्मशब्दजलानिलैः।।
... दना से जो जो क्लेश होता है और ग्लानि प्रत्यायांति तथाप्राणाःसूतिक्लेशावसादिताः | - अर्थ-जव गर्भिणीके बार बार आवि अ-
| उत्पन्न होती है वह दूर होकर नवीन जीवन
उन र्थात् प्रसवशूल उठने लगे तव उसको खा. का संचार होता है । ट पर शयन करादे । तदनंतर वायुद्वारा ग . गर्भसंगमें धूपनादि॥ में के संपीडित होनेपर योनिके मुखपर तेल | धूपयेद्गर्भसंगे तु योनि कृष्णाहिकंचुकैः । लगावै फिर उस गर्भिणी को उचित है कि | हिरण्ययुपीमूलं च पाणिपादेन धारयेत् ॥
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(२६८)
अष्टांगहृदये।
-
सुवर्चलां विशल्यां वाजराय्वपतनेऽपि च। सहिंगुकुष्ठमदनैमूत्रे क्षीरे च सार्षपम् ८८ ॥ कार्यमेतत्तथोत्क्षिप्य बाह्वोरेनां बिकंपयेत् ॥ तैलंसिद्धं हितं पायौ योन्या वाप्यनुवासनम् कटीमाकोटयेत्पाण्यास्फिजौ गाढं
शतपुप्पा वचा कुष्ठकणासर्षपकल्कितः । निपीडयेत् ।
निरूहः पातयत्याशु सस्नेहलवणोऽपराम् तालुकण्ठं स्पृशेद्वेण्या मूलि दद्यात्नुहीपयः । तत्संगेह्यनिलो हेतुःहा निर्यात्याशुतज्जयात् भूजलांगलिकीतुंबीसपत्वकुष्ठसर्षपैः।। कुशलापाणिनाऽक्तेन हरेत्क्लूप्तनखेन वा। पृथग्द्वाभ्यां समस्तैर्वा योनिलेपनधूपनम् ॥ मुक्तगर्भापरांयोनितैलेनांगं च मर्दयेत् ९१॥ कुष्ठतालीसकल्कम्वा सुरामंडेन पाययेत् । अर्ध-सितावर, सरसों, जीरा, सहजना यूषेण वा कुलत्थानां विल्वजेनाऽसवेनवा॥ |
चव्य, चीता, हींग, कूठ, मेनफल, गोमूत्र अर्थ-जो गर्भ रुकगया हो तो काले | और दध इनमें सरसों के तेल को पकाकर सर्पकी काचलीकी धूनी योनिमें दे । और हा- | इसतेल से गुदा वा योनि में अनुवासन वस्ति थ पांवमें हिरण्यपुष्पी की जड, सूर्यमुखी वा | देवै । सोंफ, वच, कूठ, पीपल और सफेद कलहारी इनमेंसे किसीको बांधे । जो जरायु सरसों इनका कल्क करके घृत और नमक न निकले तो उपरोक्त सव काम करै तथा मिलाकर निरूहण वस्ति देवै । इससे जरायु इसके दोनों बाहु ऊंचे करके इसे हिलावै ।। शीघ्र निकल आता है, क्योंकि जरायु रोक- संग्रहमें लिखा है कि दक्षिण हाथसे ग- ने का प्रधान कारण वायु है और इस वायु मिर्णाकी नाभिके ऊपरवाले भाग और वांये के नाश का प्रधान उपाय वस्ति है, इस हाथसे.पीठ पकडकर हिलावै। कमरमें एढीलिये वस्ति देने से जरायु शीघ्र निकल से बार बार चोट लगावै, नितवापर वलपूर्व आता है। क पीडनकरे । केशोंकी बेणी बनाकर ताल
___अथवा कोई चतुर स्त्री अपने नखों को और कंठको रिगडे । गर्भिणीके सिरपर थू- कटवाकर हाथ में घृतादि लगाकर योनि के हर का दूध लगावै । योनिमें भोजपत्र, कल- भीतर से जरायु को खींचले । फिर गर्भ हारी, तूंबी, सांपकीकाचली, कूठ और सरसों
और जरायु के निकलने के पीछे योनिको इनमेंसे एक एक, दो दो वा सवको पीसकर | लेपकरै वा धूनी दे। कठ और तालीसपत्र
तथा शरीर को तेल से मर्दन करे ।
मकल्ल रोग में उपाय । केकल्कको सुरसंडके साथ वा कुलथीके काथके
मकल्लाख्ये शिरोबस्तिकोष्ठशूले तुपाययेत् । साथ वा बेलगिरी के आसव के साथ पानकरावै | सुचूर्णितं यवक्षारं घृतेनोष्णजलेन वा९२॥ (घेलागरीका आसव बनानेकी यह रीति है कि
धान्यांबुवागुडव्योषत्रिजातकरजोन्वितम्। बेलगिरीको पानीमें भिगोकर यंत्रद्वारा पानी
अर्थ-मकल्ल नामक रोग में मस्तक,
वस्ति और कोष्ठ में शूल उत्पन्न होता है इसमें खींचले इसको जौ के ढेर में गाढदे फिर नि- |
पिसा हुआ जवाखार घृत और गरम जल कालले । यही विल्वज आसव है ) ॥
| के साथ पान करावै । अथवा कांजी में ____ अनुवासनादि।
पुराना गुड़, त्रिकुटा, तेजपात, इलायची, शतावासर्षपाजांजीशिगुतीक्ष्णकचित्रकैः। । दालचीनी का चूर्ण मिलाकर पान करावै ।
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१
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२६९)
- प्रसूती का उपचार । हिता यवागू स्नेहाढथा सात्म्वतःपयसाथ या अथ बालोपचारेण बालं योषिदुपाचरेत् ९३ सप्तरात्रात्परं चास्यै क्रमशो वृहणं हितम् ॥ सृतिका क्षुद्वतीतैलाघृतादामहतीं पिबेत् ॥ अर्थ-स्नेह, गुडोदक और वातघ्न औपंचकोलकिनी मात्रामनुचोष्णं गुडोदकम् ॥ षधों के काथ के पचजाने पर प्रसूती स्नान वातघ्नौषधंतोयं वा तथा वायुर्न कुप्यति । विशुध्यति च दुष्टानं द्वित्रिरात्रमयंक्रमः ९५
| करके पूर्वोक्त पंचकोलादि औषधियों से सिद्ध की स्नेहायोग्यातु निःलेहमममेव विधि भजेत्।। हुई पेया पान करावे तीन दिन पीछे विदारीपीतवत्याश्च जठरंयमकाक्तं विवेष्टयेत् ९६॥ | गणोक्त औधषियों के काथ में सिद्ध की हुई __अर्थ-वालकों के भरण पोषण में निपुण
यवागूमें घृत मिलाकर पान करावै। और जो स्त्री वालोपचरणीय विधान में कहे हुए
प्रकृति के अनुकूल हो तो दूध से तयार आहार विहार से उत्पन्न हुए वालक का
की हुई यवागू वृत मिलाकर पान करावे । पालन पोषण करै । प्रसूती को भूख लगने
सात दिन पीछे प्रसूती स्त्री को क्रम से पर पंचकोल । पीपल, पीपलामूल, चव्य चीता, सोंठ ) का चूर्ण घृत वा तेल में
श्रृंहण पथ्य देवै । जीवनीय वृहणीय, और भिलाकर महती मात्रा का पान करावै । ( जो
मधुर वर्ग से सिद्ध किया हुआ अभ्यंग उद्वआठ पहर में पकती है उसे महती मात्रा
र्तन, परिषेक, अवगाहन द्वारा तथा हृद्य कहते हैं ) फिर गुड़ पानी में औटाकर पान अन्न पान द्वारा वृंहण करै । करावे अथवा वातनाशक औषधियों का क्वाथ पिशित का अनुपयोग । देवै । ऐसा करने से वात कुपित न होगा द्वादशाहेऽनतिक्रांते पिशितं नोपयोजयेत् । और दुष्ट रुधिर भी शुद्ध हो जायगा । दो
। अर्थ-जब तक बारह दिन न होचुके तब तीन दिन तक प्रसूती को इसी रीति से
| तक मांस का सेवन अनुचित है। रखना चाहिये।
प्रसूती का यत्नपूर्वक उपचार । - जिस प्रसूती को स्नहपान अनुकूल नहीं | यत्नेनोपचरेत्सूतां दुःसाध्या हि तवामयाः॥ है वह स्नेह को छोडकर अन्य संपूर्ण पूर्वोक्त | गर्भवृद्धिप्रसवरुक्लेदारसुतिपडिनैः विधियों का पालन करै । स्नेहपान के यो- ____ अर्थ-प्रसूता स्त्री की सुश्रूषा बहुत यत्नग्य स्त्री को स्नेहपान के पीछे अथवा स्नेह पूर्वक करनी चाहिये । क्यों कि उस काल पान के अयोग्य स्त्रीको गरम गुडोदकवा वात , में होनेवाले रोग जैसे उदरवृद्धि, प्रसववेदमा नाशक औषधों का काथ पान कराने के | क्लेद, रक्तस्राव और पीडनादि दुःसाध्य पीछे उनके जठर पर तेल वा घृत लगाकर | होते हैं। कपड़े से लपेट देवै ।
उक्तविधि सेवन का काल । पेयापान की विधि। एवं चमासाध्यान्मुक्ताहारादियंत्रणा। जीर्णे माता पिवेत्पेयां पूर्वोक्तौषधसाधिताम् गतसूताभिधानास्यात्पुनरार्तवदर्शनात्॥, ज्यहादूर्ध्वं विदार्यादिवर्गक्वाथेन साधिता॥ अर्थ-इस तरह प्रसूता स्त्री को उचित
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(३७०)
____ अष्टांगहृदये।
है कि उक्त नियमों की पालना डेढ महिने | सब द्रव्यों को पीसकर इस्त्र में वृत मिलाकर तक करती रहे और इस समय में क्रम से | इससे रुई के कपडे की बत्ती सी बनाकर इन माहार विहारादि के कठिन नियमों को विशेषरूप से भिगोवै फिर इसको योनिमें छोडती रहै । तथा फिर रजोदर्शन होनेपर | अथवा पेडू पर रक्खे । ( जैसे फूलसे फल उसका प्रसूती नाम जाता रहता है। पैदा होता है वैसेही रजसे गर्भ होता है इतिश्री अष्टांगहृदये मथुरानिवासी । इसलिये रजसंवधी रक्त को पुष्प कहतेहैं) । श्रीकृष्णलालकृतभाषाटीकायां शा- स्त्री की स्नानविधि । रीरस्थाने प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ शतधौतघृताक्तां स्त्री तदंभस्यवगाहयेत् ।
ससिताक्षौद्रकुमुदकमलोत्पलकेसरम् ३ ॥
लिह्यात्क्षीरघृतं खादेच्छंगाटककसेरुकम् । द्वितीयोऽध्यायः पिबेत्कांताजशालूकबालोदुंबरवत्पयः ४॥
श्रृतेन शालिकाकोलीद्विवलांमधुकेक्षुभिः ।
पयसा रक्तशाल्यन्नमधात्समधुशर्करम् ५ ॥ अथाऽतो गर्भव्यापदं शारीरं व्याख्यास्यामः।
रसैर्वा जांगलैःअर्थ-अब हम गर्भव्यापद शारीरनामक
शुद्धिवर्ज चाऽस्रोक्तमाचरेत् । अध्याय की व्याख्या करेंगे।
अर्थ-सौबार अर्थात् बहुत वार धोये गर्भिणी के पुष्पर्शन में कर्तव्य । हुए वृत का गर्भिणी की नाभि के नीचे "गर्भिण्या परिहार्यागांसेवयारोगतोऽपिवा चारों ओर लेप करदे और ऊपर कहे हुए पुप्पे दृष्टेऽथवाशूले बाह्यांतः स्निग्धशीतलम्
खस, कमल, चंदन और क्षीर वृक्ष की सेव्यांभोजहिमक्षीरिवल्ककल्काज्यलोपतान् धारयेद्योनिबस्तिभ्यामा नपिचुनक्तकान्
छाल के क्वाथ से स्नान करावै । पीछे ___ अर्थ-गर्भिणी के त्यागने याग्य आहार
कमोदनी, कमल और उत्पल की केसर में विहार और पूर्वोक्त अति मैथुनादि के सेवन | शहत और मिश्री मिलाकर चाटे, कोई कोई से पुष्प का दर्शन होने पर, अथवा किसी
| कहते हैं कि दूध से निकला हुआ घृत खाना 'प्रकार के रोग से रजोदर्शन होने पर अथवा
चाहिये । सिंघाडे और कसेरू खाय । तथा 'शूल होने पर वाह्य और अभ्यंतर स्निग्ध गंधप्रियंगु, कमल, कमलनाल और कच्चा
और शीतल क्रिया करना चाहिये । अर्थात | गूलरफल डालकर औटाया हुआ दूध पीवे। स्निग्ध और शीतळ प्रदेह, परिषेक, स्नान
लाल शाली चांवल, परवल, काकोली, बला, और अवगाहनादि बाहर के प्रयोग और अति वला, मुलहटी और इक्षमूल डालकर स्निग्धशीतल अन्नपानादि आभ्यंतर प्रयोग | पकाया हुआ दूध अथवा जांगल मांसके युषमें करना चाहिये । और खस, कमल, चन्दन
शहत मिश्री मिलाकर इसके साथ शालीचांपीपल आदि दूधवाले वृक्षों की छाल इन | वल का सेवन करै । तथा वमन विरेचन
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत् ।
(२७१) .
को छोडकर रक्तपित्त की चिकित्सा में कही । इनका काथ पीने में हित हैं । मूंग आदि हुई विधियों का पालन करै ।* के यूष के साथ नीवार, कोदों सौखिया तीनमहिनेकेभीतर पुष्पदर्शनमेंकर्तव्य। आदि तृणधान्यका भोजन हित हैं यहां आदि असंपूर्णत्रिमासायाःप्रत्याख्याय प्रसाधयेत् | शब्दसे मोंठ मसूर आदि शिंबी कफपित्त आमान्वये चतत्रष्टं शीत रूक्षोपसहितम् ।
नाशक धान्यों का भी ग्रहण है । इस उप उपवासो घनोशीरगुडूच्यरलुधान्यकाः७॥ चार से आम के दूर होने पर पहिले की दुरालभापर्पटकचन्दनातीविषाबलाः। तरह स्निग्धर्शातल क्रिया का भीतर बाहर वधिताःसलिले पान तृणधान्यादिभोजनम् से प्रयोग करना उचित है। मुद्भादियूपैरामे तु जितं स्निग्धाधि पूर्ववत् । - अर्थ-तीन महिनेका गर्म होनेसे पहिले गर्भयातका पीछेका कर्तव्य । ही रक्तस्त्राव आदि व्यापत् उपस्थित हो तथा | गर्भे निपतितेतीक्ष्णंमद्य सामर्थ्यतःपिवेत्॥ . रक्तस्रावके संग आमका संबंध हो तो ये अ. | In आमा दोनोअ. | गर्भकोष्ठविशुद्धयर्थमतिविस्मारणाय च ।
लघुना पंचमूलेन रूक्षां पेयां ततः पिवेत् ॥ साध्य होते हैं । इसमें बड़ी सावधानी से चि
पेयाममद्यपा कल्के साधितां पांचकौलिंके कित्सा करनी चाहिये ॥ यहां आमसंबंधी र- बिल्वादिपंचकक्वार्थ तिलोद्दालकतंडुलैः ॥ जोदर्शन होनेपर शीतक्रिया वाह्य और आ- मासतुल्यदिनान्येवं पेयादिः पतिते क्रमः । भ्यंतर दोनों रीतिसे हितकारी है ॥ यहां शं
लघुरस्नेहलवणो दीपनीययुतो हितः॥१२ ।।
दोषधातुपरिक्लेदशोषार्थ विधिरित्यवम् । का होती है कि शीतक्रिया रक्तकोहित आर
| स्नेहान्नवस्तयश्चार्व बल्यजीवनपिनाः ॥ आमके विरुद्ध होनेसे आहत है ॥ इसका
___ अर्थ-ऊपर लिखी विधि से रहने पर समाधान यह है कि इसमें तिक्तकषायादि
भी यदि दैवात् गर्भ गिरजाय तो गर्भाशय रूक्ष द्रव्य मिला देना चाहिये । यथा देश, काल, रोगी का बल और सात्म्य का वि.
और कोष्ठ की शुद्धि के निमित्त और गर्भ
स्राव की वेदना के विस्मरण के लिये चार करके उपवास कराना भी हित है ।
सामर्थ्यानुसार तीक्ष्ण मद्यपान पिलाना उऔर मोथा, खस, गिलोय, अरलू, धनियां
चितहै तदनन्तर लघु पंचमूलसे सिद्ध की हुई धमासा, पित्तपापड़ा, चंदन, अतीस, खरैटी,
रूक्ष पेया देना चाहिये । मद्य न पीने वाली ___ + क्षीरपाककी यह विधि है" द्रव्यादष्ट स्त्री मद्य को न पीकर पंचकोल ( पीपलं, गुणं क्षीरं क्षीरात्तोयं चतुर्गुणम् । क्षीराव | पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ ) का करक शेषः कर्तव्यः क्षीरपाके त्वयंविधि । अर्थात्
डालकर सिद्ध की हुई पेया पावे । अथवा द्रव्यसे अठगुना दूध और दूधसे चौगुना ज ल डालकर औटाया जाय, जब दूध शेष र
वृहत्पंचमूल के काथ में मिद्ध की हुई पेया ह जाय तब उतार लिया जाय । क्षीरपाक ले । इस में काले तिल, कोदों और तंडुल की यही बिधि है।
| भी डाल देने चाहिये । तथा जितने महिने
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(१७२)
अष्टांगहृरूपे।
-
का गर्भ गिरा हो उतने दिन तक घृत और नागोदर गर्भ के लक्षण । नमक डाले बिना काली मिरच, चीता आदि । शोकोपवासाक्षाधैरथ वायोन्यतिनवात्॥ जठराग्निवर्द्धक द्रव्यों से संयुक्त हलका पे. । वाते क्रुद्ध कृशः शुष्यगर्भो नागोदरं तु तत् ।
उबृद्धमप्यत्र हीयतेस्फुरणं चिरात् १६ ॥ या पान कराता रहे । इस तरह रहने से |
अर्थ-शोक, उपवास और रूक्षादि पित्त और कफ दोष तथा धातुका परि
सेवन अथवा योनि के आतिस्त्राव से वायु क्लेद शुद्ध हो जाता है । तथा दोष और
कुपित होकर कृश हुए गर्भ को शुष्क करधातु के परिक्लेद के शुष्क हो जाने के पी
देता है । ऐसे गर्भ को नागोदर कहते हैं, छे बल, अग्नि और ओज को बढानेवाले
कोई कोई इसे उपशुष्ककभी कहते हैं, इस घृतादि चार प्रकार के स्नेह तथा स्निग्ध
गर्भ से बढ़ाहुआ गर्भ भी क्षीण होजाता है अन्न और स्निग्ध वस्ति हितकारी होती है ।
तथा गर्भ बहुत देर देरमें चलता फिरताहै।। उपविष्टक गर्भके लक्षण ।
उक्त गर्मों में उपचार । संजातसारे महति गर्भ योनिपरिसवात् ।
तयोवृहणवातघ्नमधुरद्रव्यसंस्कृतैः । वृद्धिमप्राप्नुवन् गर्भः कोष्ठेतिष्ठति सस्फुरः॥
घृतक्षीररसैस्तृप्तिरामगर्भाश्य खादयेत् ॥ उपविष्टकमाहुस्तं वर्धते तेन नोदरम् ।
तैरेव च सुतृप्तायाः क्षोभणं यानवाहनैः । अर्थ-प्रवृद्ध ( बढा हुआ ) और सं- अर्थ-उपविष्टक और नागोदर गर्भो जातसार ( बलवान् और अंग प्रत्यंगादि- में पुष्टिकारक, वातनाशक और मधुर द्रव्यों युक्त ) गर्भ होने पर यदि गर्भिणी के विधि | द्वारा सिद्ध किये हुए घृत, दूध और मांस वत न रहने पर योनि से रक्तस्त्राव होने रस द्वारा गर्भिणी की तृप्ति करनी चाहिये लगे तो गर्भ बढने नहीं पाता है और कोष्ठ तथा गर्भ की पुष्टि के लिये वैद्य कच्चे गर्भ में स्थित रहता है और चलता फिरता भी खवा देवे, इस कामको वैद्य स्वयं युक्तिपूर्वक है । इसको उपविष्टक गर्भ कहते हैं यह
करै, गर्भिणी को मालूम न होने पावे, क्यों उदर को बढने नहीं देता है । इसका यह
कि जो कच्चा गर्भ खाने से जुगुप्सा कारण है कि योनि के स्राव से वायु कुपित
उत्पन्न हो तो गर्भ और गर्भिणी दोनों को होकर कफपित्त का परिगृहण कर रसवा- हानिकारक है । इस तरह उक्त वृंहणादि हिनी नाडी में ठहर जाताहै और इसतरह | द्रव्यों से साधित दूध, घृत और मांस रस नाडी के रोध से रस अच्छी तरह नहीं | तथा आम गर्भ के सेवन से अत्यन्त तृप्ति वहने पाता है, यही कारण गर्भ के न |
होजाने पर उस स्त्री को स्थ, हाथी वा घोडे बढने का है जैसे घासपत्तों से जलकी नाली | पर बैठाकर बेग से ले जाकर क्षोभ करावै । एकजाने के कारण खेत हरा नहीं होने लीन गर्भ की चिकित्सा । पाता।
| लीनाख्ये निस्फुरेश्येनगोमत्स्योत्कोशबर्हिजाः
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अ २
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रसा वहुघृता देया माषमूलकजा अपि । वालबिल्वं तिलान्माषान्सक्तंश्च पयसा पिवेत् खमेद्यमांसं मधु वा कट्यभ्यंगं च शीलयेत् । हर्षयेत्सततं चैनामेवं गर्भः प्रवर्धते ॥ २० ॥
अर्थ- जो गर्भ बलवान और अंग प्रत्यंगादि से युक्त होनेपर भी स्फुरण नहीं करता है उसे लीन गर्भ कहते हैं । इसमें बहुत सा घृत मिलाकर श्येन, गोमत्स्य, उत्क्रोश, मोर, ( तीतर मुर्ग ) का मांसरस, तथा उरद और मूलीका झोल घृत मिला हुआ अथवा कच्ची बेलगिरी, कालेतिल, उरद, सत्तू इनको दूध के साथ पावे । तथा मेदुर मांस के साथ मार्दीक मद्यका पान करें और गर्भिणी की कमर में सदा तेल लगाता रहे । इन ती नों प्रकारकी गर्भवाली स्त्रियोंको सदा प्रसन्न रक्खै | ऐसा करनेसे गर्भबढने लगजाता है
|
विपरीत आचरण का फल | पुष्टोऽन्यथा वर्णगणैः कृच्छ्राज्जायेत नैव वा ।
अर्थ - उक्त विधि के विपरीत आचरण करने से पुष्ट गर्भ बहुत बरसों पीछे बड़े कष्ट से बाहर निकलता है अथवा जीवन पर्यन्त भर्मिणी की कुक्षि में ही रहा आहै ।
उदावर्तका उपाय | उदावर्त तु गर्भिण्याः स्त्रराशुतरां जयेत् ॥ योग्यैश्व बस्तिभिर्हन्यात्सगर्भा सहि
गर्भिणम् । अर्थ - यदि गर्भिणी के उदावर्त नामक रोग होजाय तो यथायोग्य औषधों से सिद्ध किये हुए चार प्रकार के स्नेहपानादि द्वारा शीघ्रही दूर करने का यत्न करे तथा तत्का
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(२७३ )
लोचित अनुवासनादि वस्ति देकर रोगको दूर करे । शंका | पहिले अष्टममासतक वस्तिप्रयोग का निषेध किया गया है फिर यहां इसका विधान क्यों है । समाधान, यह उदावर्त रोग गर्भरहित गर्भिणी का नाश कर देता है इसलिये जैसे हो वैसे इसके दूर करने का शीघ्र उपाय किया जाता है । इस लिये यहां वस्ति प्रयोग की आज्ञा है ।
गर्भ के लक्षण !
उदर में मृत गर्भेऽतिदोषोपचयादपथ्यैदैवतोऽपि वा ॥ मृतेऽतरुवरं शीते स्तब्धं धमातं भृशव्यथम् । गर्भास्पदो भ्रमस्तृष्णा कृच्छ्रादुच्छ्वसनक्लमः अरतिः स्त्रस्तनेत्रत्वमावीनामसमुद्भवः ।
अर्थ- वातादि दोषों के अत्यन्त कुपित होने से अथवा मात्रा काल आदि विरुद्ध स्वभाववाले अपथ्य सेवन से अथवा अन्य जन्मार्जित शुभाशुभ कर्मों के फलसे उदर के भीतर गर्भ का नाश होजाता है । तत्र उदर ठंडा, स्तब्ध, आध्मानयुक्त ( अफरा हुआ ) अत्यन्त वेदना से युक्त, चलने फिरने से रहित, भ्रम, तृषा, श्वास लेने निकालने में कठिनता, क्लान्ति, अरति (उठने बैठने सौने में बैचेनी ) नेत्रों में शिथिलता और प्रसवकाल संबंधी आवि नामक शूलों का न होना । ये लक्षण होते हैं ।
भृतगर्भा का उपचार ।
तस्याः कोणांबुसिकायाः पिष्ट्वा वोनिंप्रलेपयेत् ॥ २४ ॥ गुड किण्वं सलवणं तथांतः पूरयेन्मुहुः । घृतेन कल्कीकृतया शाल्मल्य तसिपिच्छया ॥ मंत्रयग्यैजरायुक्तैर्मूढगर्भो न चेत्पतेत् ।
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(१७४)
अष्टांगहृदये।
अ२.
अथापृच्छयेश्वरं वैद्योयत्नेनाशुतमाहरेत् ॥ | विष्कंभौ नाम तो मूढी शस्त्रदारणमर्हतः । हस्तमभ्यज्ययोनिच साज्यशाल्मलिपिच्छया मण्डलांगुलिशस्त्राभ्यां तत्र कर्म प्रशस्यते ॥ हस्तेन शक्य तेनैव
वृद्धिपत्रं हि तीक्ष्णाग्रं न योनाववचारयेत् । गात्रं च विषमं स्थितम् ॥ २७॥
अर्थ-जो गर्भ हाथ अथवा पांव अथवा मांछनोत्पीडसपीड विक्षपोत्क्षेपणादिभिः ।
सिर से योनि के पास आकर टेढा पडजाय अनुलोम्प समाकर्षेद्यौनिं प्रत्यार्जवागतम् ॥ ___ अर्थ-जिस स्त्री के उदर के भीतर गर्भ |
अथवा गर्भ का एक पांव योनि से बाहर भर गया हो उसके सुहाते हुए थोडे गरम
निकल आवै, दूसरा गर्भिणी की गुदा की जलके छींटे मारकर गुड, किण्व और सेंधा
ओर चलाजाय तो ऐसे गर्मों को विष्कंभ नमक पीसकर योनि पर लेप करे । और |
| नामक मूढगर्भ कहते हैं । ये हाथसे खींचने
के अयोग्य होते हैं इसलिये शस्त्र से काटे सेमरका गोंद और अलसी इनको पीसकर
जाते हैं। घी में मिलाकर बारबार योनि के भीतर
___विष्कंभ नामक मूढ गर्भ को काटने के भरदे । तथा मूढगर्भ के निकालने के लिये |
लिये मंडलाय और अंगुलिशस्त्र काम में सिद्ध मंत्र तथा जरायुके गिराने के प्रकरण
लाये जाते हैं । वृद्धि पत्र नामक शस्त्रका में जो जो मंत्र लिखेगये हैं उनका पाठ
अग्रभाग बडा पैना होता है इसलिये वह करै । इन उपायों. के करने पर भी जो
योनि के भीतर नहीं चलाया जाता है । मुढ गर्भ वाहर न निकले तो राजा की आज्ञा लेकर घृत में मिले हुए सेमरके गोंद
गर्भ की छेदन विधि । को वैद्य योनि और अपने हाथ में लगाकर
पूर्व शिरःकपालानिदारयित्वा विशोधयेत्॥
कक्षोरस्तालुचिबुके प्रदेशेऽन्यतमे ततः । बहुत सावधानी से योनि के भीतर से मृत
समालंव्य दृढं कर्षेत्कुशलोगर्भशकुना ३२॥ गर्भ को खींचले । यदि गर्भ का देह विषम अभिन्नशिरस त्वक्षिकूटयोर्गण्डयोरपि । रीति से पडा हो तो आंछन ( लंबा करके)
पाहुं छित्वाऽससक्तस्य बातामातोदरस्यतु उत्पीड ( ऊंचे को उठाकर ) संपीड ( चारों
विदार्य कोष्ठमंत्राणि बहिर्वास निरस्य च ।
कटीसक्तस्य तद्वच्व तत्कपालानि दारयेत् ॥ और घुमाकर ) विक्षेप ( विशेष रीति से
___ अर्थ-शस्त्रचिकित्सक को उचित है चलायमान करके ) और उत्क्षेपण ( ऊपरको कि पहिले कपाल की अस्थि को काटकर सरका कर ) द्वारा अथवा आदि शब्द से |
बाहर निकालदे । फिर गर्भ शकुनामक शस्त्रसे जैसे हो तैसे अपनी बुद्धि की कल्पना से
कक्षा, वक्षःस्थल, तालु, चिवुक इनमें से गर्भ का अनुलोमन करे और जब सीधा किसी अंग को दृढता से पकडकर बाहर होजाय तब हाथ से पकडकर खींचले । शस्त्रद्वारा मूढगर्भ का उपाय।
खींचले । कभी कभी कपालास्थि को बिना हस्तपादशिरोभियों योनि भुग्नः प्रपद्यते ।
| काटे ही अचिकूट वा गंडस्थल को पादेन योनिमेकेन भुमोऽन्येन गुदं च यः॥ पकड कर खींचले । जो कंधे की ओर से
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(२७५)
अटक गया हो तो वाहु काटकर निकाल | को भी मारताहै, परन्तु मृत गर्भकी क्षण ले । जो पेटके फूलने से रुक गया हो तो भर भी उपेक्षा न करे, झटपट काटकर पेट को चीर कर सब आंतों को बाहर निकाल देना चाहिये । निकालकर फिर गर्भ को खींचले। जो कमर । उपेक्षाके योग्य मूढगर्भा । की ओर से अटक गया हो तो कमर की योनिसंवरणभ्रंशमकल्लश्वासपीडिताम्। हड्डियों को काटकर बाहर निकाल ले फिर
पूत्युद्गारां हिमांगीं च मूढगर्भी परित्यजेत् ॥
अथापतंतीमपरां पातयत्पूर्ववद्भिषक् । गर्भ को खींचले।
एवं निर्हतशल्यां तु सिंचेदुष्णम वारिणा ॥ ___ मूढगर्भकी सामान्य चिकित्सा | दद्यादभ्यक्तव्हायै योनौ स्नेहपिचुं ततः। यद्यद्वायुवशादंग सज्जेदर्भस्थ खण्डशः। योनिर्मदुर्भपेत्तेन शूलं चाऽस्याः प्रशाम्यति तत्तच्छित्वा हरेत्सम्यग्रक्षेन्नारीच यत्नतः ॥ अर्थ-ऐसी मूढ गर्भा स्त्री की चिकित्सा गर्भस्य हिगति चित्रां करोतिविगुणोऽनिलः न करें जिसकी योनि का मार्ग आच्छादित तत्राऽनल्पमतिस्तस्मादवस्थापेक्षमाचरेत् । यो जिसकी योनिशान से अर्थ-मूढगर्भका जो जो अंग वायुके
चलित होगई हो, जिसको मकल रोग हो वेगसे अटक जाताहै उसी उस अंगको थोडा
गयाहो, जो श्वास रोगसे पीडित हो, जिसको थोडा काटकर निकालना उचितहै । थोडे
सडीहुई डकार आतीहो, जिसका शरीर ठंडा थोडे निकालने का यह कारणहै कि एक
पडगया हो । जरायु के न निकलने पर साथ गर्भका सब शरीर छेदन करनेसे शस्त्र
उसके निकालने के लिये पूर्ववत् चिकित्सा के निपातसे मूढगर्भा नारी का भी जोखम
करे । गर्भ और जरायु के बाहर निकलनेपर रहताहै, इसलिये थोडा थोडा ही काटना
स्त्रीका गरम जलसे परिपक करै । तदनंतर चाहिये और इस बातकी विशेष सावधानी
तेल लगाकर स्नेहमें भीगीहुई बत्ती योनि में रक्खे कि स्त्री का कोई अंग न कटने पावै ।
रक्खे । इससे योनि कोमल होजाती है और __ प्रकुपित हुआ वायु गर्भकी गति अर्थात्
दर्द भी शांत होजाताहै। अवस्थिति अनेक प्रकार की करताहै इसलिये
स्नानके पीछे चूर्णादि का प्रयोग। अत्यन्त बुद्धिमान् वैद्यको उचितहै कि गर्भ की गति पर विचार करके शस्त्रको चलावै ।
दीप्यकातिविषारास्नाहिंग्वेलापंचकोलकान्
चूर्ण स्नेहेन कल्कं बा काथंवा पाययेत्सतः ॥ . जीवित गर्भके छेदन का निषेध ।। कटुकातिविषापाठाशाकंत्वग्घिगुतेजिनीः । छिद्यादुर्भन जीवंतं मातरं स हि मारयेत् । तद्वश्च दोषस्यंदार्थ वेदनोपशमाय च ॥ ४२ ॥ सहात्मनांनचोपेक्ष्यःक्षणमप्यस्तजीवितः॥
त्रिरात्रमेवं सप्ताहं स्नेहमेबततः पिवेत् । __ अर्थ-जीवित गर्भका कदापि छेदन न
सायं पिबेदरिष्टं वा तथा सुकृतमासवम् ॥
| शिरीषककुभक्काथपिचून् योनौ विनिक्षिपेत् करना चाहिये, क्योंकि अस्त्रके प्रयोगसे छिन्न
उपद्रवाश्च येऽन्ये स्युस्तान् यथाहुआ गर्भ अपने को भी मारताहै और माता
स्वमुपाचरेत् ॥ ४४ ॥
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(३७६)
अष्टांगहृदय ।
अ२
अर्थ-स्नान और अभ्यंग के पीछे दोष । इस तरह चार महिनेसे आगे सुखपूर्वक आके स्राव और वेदना की शांतिके लिये अज- हार बिहार का सेवन करे । वायन, अतीस, रास्ना, हींग, इलायची,
बलातल । पंचकोल, इनका चूर्ण घृतके साथ, अथवा
वलामूलकषायस्य भागाः षट् पयसस्तथा ।
यवकोलकुलत्थानां दशमूलस्य चैकतः॥ कल्क वा क्वाथ पान कराना चाहिये । फिर
| निःक्वाथभागोभागश्चतैलस्य च चतुर्दश। इसीतरह कुटकी, अतीस, पाठा, स्वरच्छद द्विमेदादारुमंजिष्ठाकाकोलीद्वयचन्दनै ४८ ॥ शाक, दालचीनी, हींग, तेजोवती, इनका सारिवाकुष्ठतगरजीवकर्षभसैंधवैः। भी चूर्ण घृतके साथ, अथवा इनका कल्क
कालानुसार्याशैलेययचागुरुपुनर्नवैः॥ १९॥
अश्वगंधावरीक्षीरशुक्लयष्टीवरारसैः। वा इनका काथ पान करावै । मूढगर्भ के
शताइवाशूपंपण्येलात्वकपत्रैःश्लक्ष्णकल्किसैः निकलने के पीछे तीन दिनतक इस विधि पक्वं मृद्वग्निना तैलं सर्ववातविकारजित् । का पालन करना चाहिये फिर सात दिन सूतिकाबालमर्मास्थिक्षतक्षीणेषु पूजितम् । तक स्नेहपान करावे, सायंकाल के समय
| ज्वरगुल्मग्रहोन्मादमूत्राघातांभवृद्धिजित्।
धन्वंतरेरभिमतं योनिरोगक्षयापहम् ५२ ॥ पूर्वोक्त लक्षण वाला अरिष्ट वा अच्छी रीति
अर्थ-खरैटी की जडका काथ छः भाग से बनाया हुआ आसव पान करावे | सिरस और अर्जुन की छालके क्वाथमें रुई की
दूध छः भाग । जौ, कोल, कुलथी और द. बत्ती भिगोकर योनिमें रक्खे । तथा अन्य
शमूल इनका काथ एक भाग, तेल एक भा ज्वरादिक उपद्रवोंकी शांतिके लिये यथायोग्य
ग, इसतरह सब मिलाकर १४ भाग हुए । उपायों का अबलंवन करै ।
मेदा, महामेदा, देवदारु, मजीठ, काकोली,
क्षीर काकोली, लालचंदन, सारिवा, कूठ,त मूढगर्भाका कर्तव्य ।
गर, जीवक, ऋषभक, सैंधव, उत्पलसारिवा, पयो वातहरैः सिद्धं दशाहं भोजने हितम् ।
शैलेय, वच, अगर, सांठकीजड, असगंध,सि रसो दशाहं च परं लघुपथ्याल्पभोजना।४५ ताबर, क्षीर विदारी, त्रिफला, बोल, शतमूस्वेदाभ्यंगपरास्नेहान्बलातैलादिकान्भजेत्। ली, शूर्पपर्णी, इलायची, दालचीनी, तेजपात ऊर्च चतुभ्यो मासेभ्यःसाक्रमेण सुखानि च ॥
इनको महीन पीसकर कल्क बनालेवै और अर्थ-उपरोक्त बिधिके अनंतर दस दिनतक
उक्त १४ भागोंमें मिलाकर मंदी मंदी आग बातनाशक रास्नादि से सिद्ध किया हुआ दूध | पर पकावै । यह तेल सब प्रकारकी बातव्या. भोजनमें हितकर है | फिर दस दिनतक मां-धि, सूतिकारोग, बालरोग, मर्मगतरोग, असरस का भोजन हित है । इससे पीछे हल- | स्थिगतरोग, क्षतक्षीणरोग, ज्वर, गुल्म, भूका पथ्य और थोडा भोजन देना चाहिये। तोन्माद, मूत्राघात, अंत्रवृद्धि, योनिरोग और तदनंतर स्वेदन और अभ्यंगका सेवन करती। क्षयी इन सबको दूर करता है । यह तैल हुई बलातैलादि स्नेह को उपयोगमें लाती रहे | धन्वंतरि के मतानुकूल है ।
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(२७७)
मृतगर्भिणीके कुक्षिसे बालकनिकालना। | इन सात योगोंका काथ, कल्क वा चूर्ण दू. बस्तिद्वारे विपनायाःकुक्षिःप्रस्पंदते यदि । ध के साथ सेवन करे ॥ जन्मकालेततः शीघ्रं पाटयित्वोद्धरेच्छिशुम् अष्टमादिमासमें गर्भरक्षा । अर्थ-प्रसव होनेके समयही यदि गर्भि
| कपित्यबिल्ववृहतीपटोलेक्षुनिदिग्धिजैः ५८ णी का प्राणांत होजाय और वस्तिद्वार अत्य• | मुलैः शृतं प्रयुंजीत क्षीरं मासे तथाऽष्टमे । न्त चलायमान होतो बहुत शीघ्रही उदरको | नवमे सारिवाऽनंतापयस्यामधुयष्टिभि५९. चीरकर बालक को निकाललेना चाहिये ।
| योजयेशमे मास सिद्धं क्षार पयस्यया । गर्भरक्षाके सातयोग। अथवा यष्टिमधुकनागरामरदारुभिः॥६॥ मधुकं शाकीज च पयस्या सुरदार च ।
अर्थ-कैथ, बेल, बडी कटेरी, परवल, अश्मंतकः कृष्णतिलास्ताम्रबल्ली शतावरी । ईख, छोटी कटेरी, इनकी जड डालकर सिद्ध वृक्षादनी पयस्या च लता चोत्पलसारिवा। किया हुआ दूध उस समय देना चाहिये । मनंता सारिवा राना पाचमधुपष्टिका।।
जब आठ महिने का गर्भस्राव होता हो । वृहतीद्वयकाश्मयः क्षारिशृंगत्वचा घृतम् । पृश्निपणी बला शिग्रुःश्वदंष्ट्रा मधुपर्णिका ॥ नवें महिने में अनंतमूल, अनंता, दूधी और भंगाटकं बिसं द्राक्षा कसेरु मधुकं सिता। मुलहटी इन से सिद्ध किया हुआ दूध दे। सप्तैतान पपसायोगानर्ध श्लोकसमापनान् | दस महिने में दूधी से सिद्ध किया हुआ क्रमात्सप्तसु मासेषु गर्भे सवति योजयेत् । अथवा मुलहटी, सोंठ, देवदारू इन से सिद्ध ___ अर्थ-गर्भके स्राव होनेपर आधे आधे | किया हुआ दूध देवै । श्लोकमें कहे हुए सातयोगों को क्रमसे सात
गर्भविषय में अज्ञानों का मत । महिनोंमें प्रयोग करे अर्थात् जो पहिले महि
अवस्थितं लोहितमंगनायाने में गर्भस्राव होनेको होतो मुलहटी, स्व. वातेन गर्भ अवतेऽनामशाः। रच्छद शाकका बीज, दूधी और देवदारु । गर्भाकृतित्वात्कटुकोणतीक्ष्णैःदूसरे महिने में गर्भस्राव होनेको हो तो अश्मंतक खते पुनः केवल एव रक्ते ॥ ६१॥
गर्भ जडा भूतहृतं वदति(यमलपत्रक) कालेतिल, मजीठ और सितावर
मूर्तेर्न दृष्टं हरणं यतस्तै। तीसर महिने में अभरवेल, दूधी, गधप्रियंगु ओजोशनत्बादथ पाऽव्यवस्थैऔर उत्पलसारिवा । चौथे महिनेमें अनंता
भूतैरुपेक्ष्येत न गर्भमाता ॥ ६२॥" सारिवा, रास्ना, मजीठ और मुलहटी, पांचवें अर्थ-स्त्री की कुक्षि में वायु के विकार महिनेमें दोनों कटेरी, खंभारी, बटादि दूधवा | से रुधिर इकट्टा होकर सब प्रकार से गर्भ ले वृक्षोंके शंग और छाल तथा घृत । छटे के सदृश दिखाई देने लगता है क्योंके इस महिनेमें पृश्निपर्णी, बला, सहजना, गोखरू, में रक्तगुल्म के निदान में कहे हुए हल्लास
और मधुपर्णी । सात महिनेमें सिंघाडा, क- और दौहृदादि लक्षण भी होते हैं इसे अनमलकंद, दाख, कसेरू, मुलहटी, और चीनी | भिज्ञ लोग भूम से गर्भ बता देते हैं । जब यह
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(२७८)
अष्टांगहृदये।
रुधिर कटु और तक्षिणवीर्य औषधियों द्वारा | माऽनिलाऽग्न्युत्भुवाम्झर जाता है तब वे अज्ञान से यह कहने
| एकगुणवृद्धयन्वयः परे ॥ २॥ लगते हैं कि गर्म को भूत लेगया है । ऐसा
अर्थ-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और कहने का यही कारण है कि उन भूतों ने
गंध ये पांच गुण क्रम से आकाश,वायु, अग्नि कभी शरीरं का हरण नहीं देखा है । अथवा
जल और पृथ्वी के हैं अर्थात् आक श का यों भी कहते हैं कि भूत अव्यवस्थित होते
गुण शब्द, वायुका स्पर्श, अग्नि का रूप, हैं और वे ओज को खा जाते हैं, जो ऐसा
जल का रस और पृथ्वी का गंध है । इन ही है तो वे गर्भ की माता को भी न छो
पंच महाभूतों में आकाश से उत्तरोत्तर एक डेंगे क्योंकि गर्भमाता तो शरीरवाली है
एक गुण की वृद्धि है अर्थात् आकाश में और गर्भ तो ऐसा है भी नहीं ।
एक ही गुण शब्द है । आकाश से परे इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां
वायु महाभूत में शब्द स्पर्श दो गुण हैं | द्वितीयोऽध्यायः ।
अग्नि में शब्द स्पर्श और रूप तीन गुण हैं जल में शब्द, स्पर्श, रूप और
रस ये चार गुण हैं तथा पृथ्वीमें शब्द,स्पतृतीयोऽध्यायः।
र्श, रूप,रस और गंध ये पांचों गुण हैं ।।
___महाभूतोंसे देहकी उत्पत्ति । अथाऽतोऽगविभाग शरीरं व्याख्यास्यामः। तत्रखात् स्वानि देहेऽस्मिन् श्रोत्रं शब्दो
अर्थ-अव हम यहां से अंगविभाग नामक शारीर अध्याय की व्याख्या करेंगे।
और वातात्स्पर्शत्वगुच्छ्वासा वन्हेर्ट यूपपक्तयः ॥ ___ अंगों के विभाग।
आप्याजिह्वारसक्लेदाघ्राणगंधास्थिपार्थिवम् " शिरोऽतराधिौ बाहू सक्थिनी च
___ अर्थ-इन पंचमहाभूतोंमे से आकाश से समासतः।
सत्वगुणकी अधिकतासे मनुष्यादि देहमें छि. षडंगमंगं प्रत्यंगं तस्याक्षिह्रदयादिकम् । १॥ | द्रोंके समूह, कान, शब्द और शून्यता उत्पन्न ___ अर्थ-शरीर में एक मस्तक, एक म. होतेहैं ( यद्यपि छिद्रादिकों में संपूर्ण महाभूतों ध्यभाग, दाहिने बांये दो हाथ और दो | का व्यापारहै तथापि आकाश की ही विशेषता पांव ये छ: अंग हैं । इन अंगों के आंख । है जैसे घडे के बनाने में मृत्तिका, दंड, चक्र हृदय, कान, नाक, पाणि, पाद आदि प्र- जल और सूत्र सभी लगतेहैं तथापि मृत्तिका त्यंग हैं ( अंगों के छोटे छोटे अवयवों का | ही विशिष्ट कारण है इसलिये घडा मृत्तिका नाम प्रत्यंग हैं )।
का ही बोला जाताहै ) । वायुसे स्पर्श, स्पर्श पंचमहाभूतों के गुण । का अधिष्ठान त्वचा और प्राणा ( उच्छास ) शब्दःस्पर्शश्च रूपंचरसोगंधःक्रमाद्गुणाः | बनते हैं अग्नि सतोगुण और रजोगुण
विविक्तता।
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अ३
सारारस्थान भाषाटीकासमेत ।
(२७९)
विशिष्टहै इससे दृष्टि, रूप और पाक । स्मृति, बुद्धि, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, अहंकार, शक्ति उत्पन्न होतेहैं ( अन्यत्र लिखाहै कि सुख, दुख, आयु आदि ये भी आत्माही से पित्तोष्मा, मेधा, वर्ण और शौर्यादि भी अग्नि | उत्पन्न होते हैं ॥ से पैदा होतेहैं ) जल सतोगुण और तमोगुण सात्म्यज निरूपण | युक्तहै इससे जिह्वा, रस और क्लेद उत्पन्न सात्म्यनं त्वायुरारोग्यमनालस्यं प्रभाबलम्। होतेहै तथा पसीने और मूत्रादिक भी इसीसे | अर्थ-सात्म्य तीन प्रकारका होता है य होतेहैं । पृथ्वीसे नासिका, गंध और अस्थि | था व्याधिसात्म्य, देशसात्म्य और देहसात्म्य उत्पन्न होतेहैं । यद्यपि उपरोक्त संपर्ण भावों। यहां व्याधिसात्म्य का ग्रहण नहीं है क्योंकि के उत्पन्न होनेमें सबही महाभत का अंश यहां व्याधिका प्रकरण उपस्थित नहीं है । तथापि जिस भाव में जिस महाभूत की अधि
इसलिये देशसात्म्य और देहसात्म्यका ग्रहण कता हो वह उसी महाभूत के नामसे बोला करना चाहिये देहके अनुकूल आहार विहाजाताहै जैसा हम ऊपर घडेका उदाहरण
रादि का नाम सात्म्य है । सात्म्यसे अ युदेचुके हैं।
आरोग्य : धातुओंकी समानावस्था ), अनादेहमें मातृजपितृज भाग। लस्य ( संपूर्ण चेष्टाओंमें उत्साह ) कांति मृत्र मातृजं रक्तमांसमज्जगुदादिकम् ४ ॥ और बल उत्पन्न होते हैं । इनसे अतिरिक्त पैतृकं तु स्थिरंशुक्रं धमन्यस्थिकचादिकम्। अलोलुपता । इन्द्रियप्रसाद, स्वर, वर्ण, वीर्य, चैतनं चित्तमक्षाणि नानायोनिषु जन्म च ॥
तेज और प्रहर्प ये भी सात्म्यसे उत्पन्न ___ अर्थ-इस अनेक सामिप्रीयोंसे युक्त देह
| होते हैं। में जो भाग मृदु हैं वे माताके सत्वकी अ
रसज निरुपण । धिकता से उत्पन्न होते हैं जैसे रक्त, मांस, मज्जा, गुदा, नाभि, हृदय, यकृत, प्लीहा,औ
रस वपुषणे जन्म वृत्तिवृद्धिरलोलता ६॥
। अर्थ-माताके आहार के रससे शरीरका र आमाशयादि । तथा इस देहमें जो स्थिर
जन्म, बृत्ति, अंगोंकी वृद्धि, और अलोलता अर्थात् दृढरूप है वे पिताके सत्वकी अधिक
उत्पन्न होते हैं । इनके सिवाय उत्साह, पुष्टि ता से उत्पन्न होते हैं। जैसे वीर्य, धमनी,
तृप्ति, आदि भी रसज हैं। अस्थि' बाल, शिरा, स्नायु, रोम आदि और
सत्वादिगुणसे उत्पन्नका निरूपण। आत्मासे संपूर्ण इंद्रियोंका सारथी चित्त, तथा सव इंद्रियां उत्पन्न होती है । और हाथी,य. राजसं बहभाषित्वं मानक्रुदंभमत्सराः ७॥
सात्विकं शौचमास्तिक्यं शुक्लधर्मरुचिर्मतिः करी, घोडा, ऊंट, खरगोश आदि अनेक यो तामसं भयमज्ञानं निद्राऽऽलस्यं विषादिता। नियों में जन्म भी आत्मा ही से होता है। अर्थ-सत्वगुणकी अधिकतासे शौच (श यह उपलक्षणमात्र है अर्थात काम, क्रोध, रीर, मन और बाणीसे शुद्धि जैसै मृत्तिका लोम, भय, मद, हर्ष, धर्म, अधर्म, शीलता, | जलादि द्वारा न्हाने धानेसे शारीरक शुद्धि,
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(२८०)
अष्टांगहृदये ।
जगतबंधुता, आदि मानसिक शुद्धि । सत्य | अर्थ-इस देहके उत्पन्न होने में पंच म. वाक्यादि वाक शुद्धि ),आस्तिक्य ( परलोकमें हाभूत प्रधान हैं । यह वात विस्तारपूर्वक ऊ
आस्तित्व ), कपटरहित धर्ममें रुचि और बु. पर दिखाई जाचुकी है, अव देहके प्रत्येक दि उत्पन्न होते हैं । तथा शौच, कृतज्ञता,
भाग का वर्णन किया जाता है ॥ दाक्षिण्य, व्यवसाय, शौर्य, गांर्भ र्य, स्मृति,
___ जैसे औटते हुए दूधपर मलाई पड नाती मेधा, आदिमी सत्वगुणविशिष्ट हैं । रजोगुण
है। वैसेही धातुओंकी ऊष्भासे पच्यमान की अधिकतासे बहुतभाषण, मान, क्रोध, दं
रक्त से सात त्वचा उत्पन्न होती हैं । + भ, मत्सरता तथा शौर्य, दुरुपचारता, लोलु. कलाओं का वर्णन । पता, हर्ष और कामादि भी उत्पन्न हैं। धात्वाशयांतरक्लेदो विपक्वःस्वस्वमूप्मणा ॥ तमोगुणको अधिकतासे भय, अशन, नि- | श्लेष्मनाय्वपरिच्छन्नः कलाख्यःकाष्ठ
सारवत् । द्रा, आलस्य, विषदिता, प्रमाद और शोक'दि उत्पन्न होते हैं ।
1. अर्थ-रसादिक धातुओं के आधार पर
| स्थित क्लेद अपनी अपनी धात्वाग्नि द्वारा पक्क रक्तसे सातत्वचाओंकी उत्पत्ति ।
तथा श्लेष्मा, स्नायु और जरायुद्वारा आइति भूतमयो देहः
तत्र सप्त त्वचोऽसजः॥८॥| च्छादित हाकर जा शरार क भावावशष म पच्यमानात्मजायते क्षीरात्संतानिका इव । | बदल जाती है उसे कला कहते हैं । जैसे
+भासिनी लोहिनी श्वेता ताम्रा त्वग्यदिनी तथा । स्याद्रोहिणी मांसधरा सप्तमी प. रिकार्तिता। ब्रीहेरष्टादशांशाचा द्वितीया षोडशांशका । द्वादशांशा तृतीया तु चतुर्थ्यष्टां श मात्रिका । पंचमी पंचमांशा तु षष्ठी व्रीहिप्रमाणिका । ब्रीहियप्रमाणा तु सप्तमी भि षजां मता । दीर्घच्छाया पंचकस्य भासिन्याधारतां गता । मन्यते षट् त्वचः केचित्तासां व्याह्योदकाश्रया। द्वितीया सृग्धरा सिमश्वित्राधारा तृतीयका । चतुर्थी सर्वकुष्ठानामधिष्ठानत्वमागता । विद्रध्यलज्याधिष्ठाना पंचमी रोगकारिणी । षष्ठयत्र यस्यां छिन्नायां ताम्य त्यंधं तमो विशेत् । यामधिष्ठाय जायते स्थूलमूलानिपर्वसु । अरूंषिकृष्णारक्तानि दुश्चि कित्स्यतमानिच । अर्थात् भासिनी, लोहिनी, श्वेता, ताम्रा, त्वग्वेदिनी, रोहिणी और मांस धरा ये सात त्वचा हैं। इनमें से पहिली वीहियब के अठारहवें भाग के समान मोटी हो. ती है ।दूसरी सोलहवे भागके समान, तीसरी बारहवें भागके समान, चौथी आठवेभा. ग के समान, पांचवीं पांचवें भागके समान, छटी ब्रीहि के समान और सातवीं दो व्रीहि के समान होती है । भासिनी में पंचमहाभूत की छाया रहती है। चरकमुनि छः ही त्वचा मानते हैं । इनमें सबसे बाहरकी उदकधरा, दूसरी असुग्धरा, तीसरी सिध्मश्वित्रधरा. चौथी सर्वकुष्ठधरा, पांचवीं विद्रध्यलजिधरा, और छटी वह है जिसके छिन्न होजाने से आंखोके आगे अंधेरा आजाता है । इसीके पर्यों में मोटी जडवाली काले वा लालरंग की फुसियां होजाती है । जिनका अच्छा होना कठिन होता है ।
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[२४१)
काष्ठका सार होता है वैसेही यह धातुसार | दि कों के आशयभी सातही हैं । जैसे रक्ताका शेष कला संज्ञक * होता है।
शय, कफाशय, आमाशय, पित्ताशय, पक्काश__ आशयोंका वर्णन ।
य, वाय्वाशय, और मूत्राशय तथा आठवां ए ताःसप्त सप्त चाधारारक्तस्याद्यःक्रमात् परे कफामपित्तपक्वानां वायोमूत्रस्य च स्मृताः |
क अन्य आशय होता है जो केवल स्त्रियों गर्भाशयोऽष्टमास्त्रीणां पित्तपक्वाशयांतरे ॥ के होता है वह पित्ताशय और पकाशयके बीच कोष्ठांगानि स्थितान्येषुहृदयंक्लोमफुस्फुसम् । यकृत्प्लीहादुकं वृक्षको नाभिर्डिभांत्रबस्तयः |
में होता है । इन रक्तादि आश्रयोंमें हृदय, - अर्थ-जैसे कला सात हैं वैसेही धात्वा- | क्लोम, फुस्फुस, यकृत,प्लीहा, उन्दुक, दो बृ. .
x ये कला सात होती हैं, जैसे- आद्या मांसधरा यस्यां धमन्यः स्नायवः सिराः । स्रोतांसिच पुरोहंति प्रतानापिभिः कला । द्वितीयाऽसृग्धराऽस्यांत मांसांतः शोणितं स्थितम् । विशेषतः सिराप्लीहयकृत्सु क्षतजं क्षतात्। मांसात्प्रवर्तते क्षारक्षीरिवृक्षादिवक्षतात्। मेदोधरा तृतीयात्र मेदोस्थनमुदरे स्थितम् । भवत्यणुषु मजांतःस्थूलास्थिवथ मूर्धनि मस्तुलुंग कपालान्तश्चतुर्थी तु कफाश्रया । तत्स्थः कफो दृढयति संधीनस्यां शरीरजान् पंचमीस्या विंडाधारा सामपक्वाशयाश्रया । उदुकस्थं विभजते मलं पित्तधरा पुनः । षष्ठी पक्काशयांतस्था वाह्यधिष्ठानभावतः । पक्काशयोन्मुखं कृत्वा वलात्पित्तस्य तेजसा । शोषयंती पचत्यन्नं तदेवचविमुंचति । दोषदुष्टाथदौर्बल्यादाममेवविमुंचति । लभते ग्रहणी संज्ञामस्याश्चाग्निबलं वलं । शरीरं धारयत्यग्निबलोपुष्टंभवृहिता । अत्या कला शुक्रधरा मुत्रमार्गमुपाधिता । द्वथंगुले दक्षिणे पार्श्ववस्तिद्वारस्य चाप्यधः । शरीरं व्याष्य सकलं सा शुक्र वर्तयत्यपि। अर्थात् पहिली कला को मांसधरा कहते हैं,इस में धमनी,स्नाय,सिरा और स्रोतो का जाल फैला हुआ है । दूसरी असृग्धरा है, इसमें मांस के भीतर रुधिर रहता है विशेष करके लिरा, प्लीहा और यकृत में घाव होने से ऐसे निकलने लगता जैसे दूध वाले वृक्षों में छिद्र करने से दूध टपकने लगता है । यह तीसरी कला का नाम मंदोधरा है,यह उदर के भीतर मेदा को धारण करती है यह छोटी हड्डियों में होती है बडीहडियों में इसेमजाकहतेहैं चौथी कफाश्रयाहै यह अस्थिकी संधियों में होती है और कफद्वारा उन संधियों को दृढ रखती है। पांचवीं पुरीषधरा है यह आमाशय और पक्वाशय में रहती है और दुकस्थ मलको अलग अलग कर देती है । छटी का नाम पित्तधरा है यह पक्काशय में रहती है, आमाशय से अनादि को यहां लाकर पित्त के तेज से शोषण करती हुई पकाती है और वही बाहर निकाल देती है। यदि यह किसी दोषसे हो अथवा निर्बल हो तो कच्चे ही अन्न को निकाल देती है। इसी का नाम ग्रहणी है, इसको अग्नि को ही बल है तथा अग्निबल से वृहित होकर शरीर धारण करती है । सातवीं कला का नाम शुक्रधरा है यह मूत्रमार्ग में रहती है यह वस्तिस्थान से नीचे दाहिनी ओर दो अंगुल पर है और सर्वशरीरव्यापी शुक्र-को बाहर निकालती है।
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अष्टोंगहृदय |
(२८२ )
क नाभि, त्रि, अंत्र, और वस्ति ये उदर के अवयव के आश्रित हैं |
जीवन के दशस्थान | दश जीवितधामानि शिरोरसनबंधनम् । कंठोऽस्रं हृदयं नाभिर्बस्तिः शुक्रौजसी गुदम्
अर्थ - सिर, तालु, कंठ, रक्त, हृदय, नाभि, वस्ति, ओज, और गुदनाडी ये दसस्था न जीवन के आधार है | इन्हीं दस आधारों पर जीवन विशेषरूप से आश्रित है । इनके नाशसे जीवनका भी नाश होजाता है | x
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अ ३
शरीर में जालादिकीसंख्या । जालानि कंडराश्चान्ये पृथक्पोडशनिर्दिशेत् पटू कुर्चाः सप्त सेवन्यो मेद्र जिवाशिरोगताः शस्त्रेणैताः परिहेरच्चतस्त्रो मांसरज्जवः चतुर्दशास्थिसंघाताः सीमंताद्विगुणा नव ॥ अर्थ - शरीरमें जाल १६ हैं, कंडरा १६, कूर्ची, ६, मेहू, जिहूवा और शिरोगत सीवनी १, इन सेवनियों में नश्तर लगाना न चाहिये । मांसरज्जु ४, अस्थिसंघात १४, सीमं - १८ हैं । *
× कफरक्तप्रसादात्स्याद् हृदयं स्थानमोजसः । चेतनानुगभावानां परमंचिंतितस्यच । मां सपेशीचयो रक्तपद्माकारमधोमुखं । तस्य दक्षिणतः कलाम यकृतकुस्कुलमास्थितं । समानवा युध्माताद्रता हो मपाचितात् । किंचिदुच्छ्रितरूपस्तु जायते कोम सक्षितः । ततुल्यहेतुजे
कृती भिषजां मते । रक्त किट्टादुं दुकं स्यात्फुस्फुसो रक्तफेनजः । मंदोसृजः पच्यमानात् स्यातां वृक्क प्रसादजी । नाभिः सर्वशिराणां स्यादाधारः शकृतः पुनः । डिबंस्याद्रक्तमांसस्य प्रसादादंश्रसंभवः । सार्वत्रिव्याम मात्राणि पुरुषाणां तु तानि च । स्त्रीणां त्रिग्याममात्राणि बस्तिर्भूत्रस्यचाशयः । अर्थात्हृदय रुधिर और कफ केसारसे बनता है यह ओज और चेतनाका मुख्यस्थान है । विचार का स्थानभी यही है । यह मांसपेशियों का संघात कमलके आकार का है। इसका मुख नीचको होता है। सुश्रुतमें लिखा है कि जानत अबस्थामें यह खुला रहता है और शयनावस्था में बन्द होजाता है । हृदयकी दाहिनी ओर क्लोम, यकृत और फुस्फुस है । समानवायुके प्रधमनसे देहकी ऊष्माद्वारा पकाये हुए रक्तसे कुछ ऊंचापन लिये हुए क्लोम होता है । इन्ही समान हेतुओं से प्लीहा और यकृत की भी उत्पत्ति है । रुधिर के मैलसे उदुक और झागसे फुस्फुस बनता है । भेद और रक्तके सारसे दोनों वृक्क बनते हैं । नाभि संपूर्ण शिरा और विष्ठा का आधार है । रक्त और मांसके सारं से डिव होता है । पुरुषकी अंत्र ( आंत ) तेरह हाथ और ९ अंगुल लंबी और स्त्री की ग्यारह हाथ और छः अंगुल की होती हैं । वस्ति मूत्रका स्थान है ।
'+ शिरास्नाय्वस्थिपिशितैश्चत्वारि मणिबंधने । एकत्रैकत्र गुल्फे च जालान्येवं तु षोडश अर्थात् शिरा, स्नायु, अस्थि और मांस के चार चार जाल हैं इनमें से हर एक का एक एक जाल दोनों पहुंचे और टकनों में होता है । हस्तयोर्द्वे पादयोर्द्वे ग्रीवाभागोऽथपृष्ठतः । प्रत्येकं तु चतस्रःस्युः कंडरा इति शोडश । अर्थात् दोनों हाथ में दो दो दोनों पावों में दो दो, ग्रीवा में चार, पीठ में चार इस तरह १६ कंडरा है । करयोद्वौ पादयोद्वौ श्रीवायां मेहने तथा । एकैकमिति षट् कूर्चाः सीवन्यः सप्तकीर्तिताः । एका मेद्रेथ जिह्वायां भवेयुः पंचमूर्धनि । अर्थात् दो दोनों हाथों में, दो दोनों पांवों में, एक ग्रीवा में और एक मेठ्र में,
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
[२८३]
अस्थियों की संख्या। ____ अर्थ-दांत और नखों की हड्डियां मिअस्मां शतानि षष्टिश्च त्रीणि दंतनखैःसह ।। लाकर हड्डियोंकी संख्या ३६० होती है।
ये छः कूर्चा होती हैं इनका आकार कूची के सदृश होता है । सीवन सात हैं एक मेल्में, एक जिह्वा में और पांच सिरमें । पृष्ठवंशेाभयतश्चतस्रो मांसरजवः । वाह्य के अंतरे द्वे च गुल्फे जानुनि घंक्षणे । विकेशिरसिकक्षायां कूपरे मणिबंधने । अस्मां भवेयुः संघाता अमीत्वत्र चतुर्दश । अर्थात् मांसकी चार बडी बडी रज्जु अर्थात् रस्सियां हैं, ये पीठ के बांसे के दोनों ओर हैं, इनमें से दो बाहर और दो भीतर होती हैं इनसे मांसकी पेशियां बंधी होती हैं। अस्थियों के संघात १४ हैं इनमें से एक टकना, एक जांघ और एक वंक्षण में इसी तरह दूसरे पांवके टकने जांघ और वंक्षण में एक एक, दोनों पांवोंके मिलाकर छः फिर दोनों हाथों में भी छः है एक एक दोनों कक्षा, दोनों कोहनी और दोनों पहुचों में तथा एकत्रिक और एक सिरमें सव मिलाकर १४ हुए । वाहु और ग्रीवा की तीन अस्थियों के संघात का नाम त्रिक है । सीमंता पंच मूर्ध्नि स्युर्गुल्फादिष्वस्थि संघवत् अर्थात् पांच सीमंत तो सिरमें है शेष तेरह अस्थिसंघात की तरह दो दोनों कक्षा में, दो दोनों कोहनी में, दो दोनों मणिबंध, दो दोनों टकनों में,दो दोनों वक्षण में, दो दोनों जानु में और एक त्रिक में है । भोजसंहिता में सीमंत के लक्षण लिखे हैं कि संघाताः संचिता यैस्तु सीमंतांस्तान्याचक्ष्महे । अर्थात् जिस वस्तु से अस्थिसंघात चिपटे रहते हैं उसे सीमंत कहते हैं, अंग्रेजी में इसके लिये सीमैन्ट (Cement ) शब्द है और यह शब्द सीमंत का विगडा हुआ मालूम होता है । कोई कोई आचार्य अस्थिसंघात की संख्या १८ . बताते हैं अर्थात् पूर्वोक्त १४ तथा श्रोणिकांड के ऊपर एफ, वक्षःस्थल में एक, उदरऔर हृदय की संधि में एक, और अंसकूट के ऊपर एक इस तरह सब मिलाकर १८ हैं।
+ पंचपादनखासक्थि प्रत्यंगुल्यस्थिकत्रयम् । एवंपंचदशैतानि शलाकाः पंच तु स्मृताः । एकस्तत्प्रतिबंधश्च जंघायां कूर्चगुल्फके । वेद्वे इति षडेवस्युः पार्णारौ च जानुनि । एकैकमित्येकसविन पंचत्रिंशत्तथा परे । भुजयोः सक्नितुल्यानि भेदा एषां तु नामतः । पाणिःस्यात् पादवत्तत्र हस्तमूलं च पाणिवत् । मणिबंधो गुल्फतुल्यः कूर्चतुल्यो द्वयेऽपिच । प्रकोष्ठौ जंघया तुल्यौ जानुवत् कूर्परा भवेत् । ऊरुवद्वाहपृष्ठं स्यादतराधौ तु पार्श्वकाः । चतुर्विशतिरेतेषु फलकान्यर्बुदानि च । तावति पृष्ठे त्रिंशतस्युरुरस्यष्टौ त्रिभागके । एकैकं स्यादक्षकयोरंसयोस्तत्फलाख्ययोः । नितंबे तु द्वे भवेतां शतमेतत्सविंशति। गडयोः कर्णयोः द्वे द्वे शखयो चाथ तालुनि । तथाजत्रुण्यकमेकं ग्रीवायां तु त्रयोदश । कंठनाड्यां तु चत्वारि हनुबंध द्वयं भवेत्। द्वात्रिंशदेव दंताःस्युस्तत्संख्योलूखलानि च । त्रीणि घ्राणे षट् शिरसि शतमूर्ध्वमितिस्मृतम् । शाखांतराध्यूलभेदादेवं पष्टिशतत्रयम् । कपाल रुचकं चैव तरुणं वलयं तथा । नलकं पंचधेति स्युनितंबेगडजानुनि । तालमध्ये शिरस्यसे कपालाख्यानि निर्दिशेत् । दशना रुचकाख्याः स्युर्घाणे कर्णेक्षि कोशके। तरुणा नि पृष्ठपावें चरणे वलयानि तु । शेषाणि नलकाख्यानि समाख्याताकृतानि च । अर्थात एक पांव में ५ नख, प्रत्येक उंगली में तीन तीन के हिसाब से १५, तलुए में शलाका नामकी ५, इनको वांधनेवाली १, जंघामें २, कूर्चमे दो और गुल्फ में दो, पार्णि में एक
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[२८४ )
अष्टांगहृदय ।
अ० ३
- धन्वंतरि और आत्रेयका मत। | स्थियों की संख्या तीनसौ और संधि दोसौ धन्वंतरिस्तुत्रीण्याह संधीनांच शतद्वयम् ॥ | दश हैं आत्रेयमनि कहते हैं कि स्नाय. पेशी दशोत्तरं
__ सहस्र द्वे निजगादाऽत्रिनंदनः।। और सिराश्रित संधियों को मिलाकर धन्वन्तरि का मत है कि शरीर में अ- २००० संधि है । *
ऊरु में एक और जानुमें एक । इस तरह एक पांव में सब मिलाकर ३५ हुई। हाथों में पांव के बराबर ही होती हैं केवल नामका भेद हैं । जैसे-पादकी तरह पाणि, एडी के तुल्य हस्तमूल, गुल्फ (टकने) के सदृश मणिबंध (पहुंचा) कूर्चा दोनों में समान हैं। जंघा के सदृश प्रकोष्ठ, (खवा ), जानु के सदृश कूर्पर ( कोहनी), और ऊरु के सदृश वाहपृष्ठ होता है । इस तरह चारों हाथ पावों की मिलाकर १४० हुई। दोनों पसलियों में चौबीस चौवीस, इनके फलक और अर्बुद चौवीस पीठमें ३०, वक्षस्थल में ८, त्रिभाग में एक एक, अक्षक, अंस और उनके फल में दो दो नितंब में दो ये सब १२० हुई । तथा कपोल कान और कनपटी में दो दो, तालु और जत्रुमें एक, एक, ग्रीवामें तेरह, कंठमें चार, हनु में दो, दांत बत्तील, उलूखल वत्तीस, नासिका में और सिरमें छः इस तरह सब मिलाकर १०० हुई। और शाखा मध्यभाग और ऊर्ध्वभाग की मिलाकर ३६० हुई। हड्डी पांच प्रकार की होती हैं यथा-कपाल, रुचक, तरुण, वलय और नलक । इनमें से नितंब, गड, जानु,ताल और सिर और कंधे में कपाल संज्ञक, दांतों में रुचक संज्ञक घ्राण कर्ण और अक्षिकोष में तरुण संशक, पीठ पसली और चरण में वलय संशक और शेष हड्डियां नलक संक्षक होती है । इनके नाम इनकी आकृति के अनुसार रक्खे गये हैं। __x संख्यायंते संधयोऽत्र चतस्रोगुलयः पदे। चतसृष्वंगुलाषुस्युः प्रत्येकंत्रयएवतु । द्वावंगुष्ठे वंक्षणे स्यादेको गुल्फे तु जानुनि । सक्न्येकस्मिन् सप्तदश तावंतोऽपिद्वितीयके । भुजयोः सक्थितुल्यानि चांतराधौत्विमेमताः । त्रयःकटीकपालेषु विंशतिश्चतुरुत्तरा । पृष्ठे तद्वत्पार्श्वयोश्च वक्षस्यष्टावथोलतः। शिरोधरायामष्टस्युः कंठनाड्यां प्रयास्मृताः । हृदय क्लोमयकृतां नाडीष्वष्टादश स्मृताः । द्वात्रिंशदंतमूलेषु चैकैके घ्राणकाकले।मूर्ध्निच द्वौ कणशंखे गंडनेत्रे च वमनि । हनुसंधौच विशेयौ द्वौ भुवोश्चोपरि स्मृतौ । पंच मूर्धकपालेषु चोर्ध्वमेवं त्र्यशीतिका । संधयस्त्वष्टधा शेया मणिबंधेऽथजानुनि । गुल्फेगुलौ कोरसंक्षा द्विजमूलेषु वंक्षणे । कक्षायां चोलूखलाख्या अंसपीठे गुदे भगे । नितंबे चैव सामुद्रा ग्रीवायांपृष्ठवंशके । प्रतराः स्युर्मूर्धकटी कपालेषु तु सीवनाः । हनूभये काकतुंडाः कंठस्य पन्नगस्तथा । हृदयक्लोमनेत्राणां नाड्यां मंडलनामिकाः । श्रोत्रशंगाटकाख्येषु शंखावर्ता इति स्मृताः । अर्थात् हर एक पांव की चार उंगलियों में से प्रत्येक में तीन तीन और अंगूठे में दो तथा एक वंक्षण में, एक गुल्फ में और एक जानु में, इसतरह सब मिलाकर एक पांव में १७ संधियां हैं, इतनी ही दूसरे पांव में हैं । हाथों में पावों के तुल्य होती हैं इस तरह सब मिलाकर ६८ हुई । कटि और कपाल में तीन पीठके बांसे में २४, पसलियों में २४, वक्षस्थल में ८, ग्रीवा में ८, कंठमें तीन, हृदय, क्लोम और यकृत की नाडियों में १८, दांतकी जडमें ३२, नासिका और काकलको एक एक, मूर्धा में दो, कनपटियों में दो, गंडस्थलमें दो, नेत्रमें दो, वममें दो, हनुमें दो, भृकुटियों के ऊपर दो, मूर्धा और कपाल
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[२५]
स्नायु और पेशीकी संख्या । । अर्थ-पुरुष के देह में ९०० स्नायु बाबानवशती पंच पुंसां पेशीशतानि च ॥ और१००पेशीहैं, परन्तु स्त्रियोंके योनि और अधिकाविंशतिःस्त्रीणांयोनिस्तनसमाश्रिताः | स्तनसंबंधी २० पेशी अधिक होती हैं।
में ५ इस तरह सब मिलाकर २१० हैं । संधि ८ प्रकार की होती है, यथा- कोर, उलूखल, सामुद्र, प्रतर, सेवनी, काकतुंड, मंडल और शंखावर्त । इनमें से पांचा, जानु, गुल्फ और उंगली इनमें कोर संज्ञक, दांतोकी जर, वंक्षण और कक्षामें उलूखल संक्षक कंधा, पीठ, गुदा, भग और नितंब में सामुद् अर्थात् ढकने की सूरत की । प्रीवा और पीठ के पांसे में प्रतर अर्थात् डोंगी की सूरत की । सिर कटि और कपाल में सेवनी अर्थात् सीमनकी सी सूरतकी हनुके दोनों ओर काकतुंडा अर्थात् कौएकी चोंचके सहश, कंठ, हृदय क्लोम और नेत्रों की नालियों में मंडला अर्थात् गोलाकार । कान और शृंगाटक में शंखावर्त अर्थात् शंखकी लहरोंके सटश संधियां हैं।
तथा धन्वन्तरि के मतसे ३०० हड्डियां हैं जैसे- एकैकस्यांतु पादांगुल्यां त्रीणि त्रीणि तानि पंचदश । तलकूर्च गुल्फ संश्रितानि दश । पार्णयामेकं जंघायां छै । जानुन्येकम् । एकमुराविति । त्रिंशदेवमेकस्मिन् सक्नि भवंति । एतेनेतर सक्थिवाहू च व्याख्याती। श्रोण्या पंच तेषां गुदभगनितंबेषु चत्वारि त्रिकसंश्रितमेकं । पार्वेषटू त्रिंशदेवमेकस्मिन् नितीयेप्येवं । पृष्ठेत्रिंशत् । अष्टापुरसि । द्वेअक्षकसंखे । प्रीवायां नवकं । कंठनात्यां चत्वारि द्वे हन्योः । बताद्वात्रिंशत् । नासायांत्रीणि । एकं तालुनि । गंडकर्णशंत्रेबेकैकम् । षसिरसि अर्थात् एक एक पांव की प्रत्येक उंगली में तीन तीन (सब मिलाकर १५) तलुए में सलाईके आकारकी पांच, इन पांचों के बांधनेवाली एक, कूर्चामे दो, टकनेमें दो सब दसहुई। पढीमें एक, जांघमें दो, जानुमें एक, ऊरुमें एक, इसतरह सब मिलाकर एक पांव में तसि इडिया हुई हाथ पांवकी बराबरही होती हैं इसलिये चारों हाथ पायों में १२० हुई। कमर में पांच इनमेंसे गुदा और भगमें एक एक, नितंब दो, त्रिको एक, एक ओर की पसली में उत्तीस, दूसरी ओरकी पसलीमें छत्तीस, पीठमें तीस, बक्षस्थलमै आठ, आंखमें दो ग्रीवामें नौ, कंठमें चार, ठोढीमें दो, दांतोंमें बत्तसि, नासिकामें तीन, तालुमें एक कपोल में दो, कनपटीमें दो, कानमें दो. और सिरमें छः (सब मिलाकर १८०) तथा पहिली १२० और ये १८० मिलाकर ३००हडियां होती हैं। ____ + पदे पंचस्युरंगुल्या प्रत्यंगुलि तु तानिषट् । त्रिंशदेवं दश दश कूर्चे पादतले तथा । गुरुफेचेति त्रिंशदेव जंघायां वशजानुनि । चत्वारिंशत्स्युरूरौ च वंक्षणे दश सक्थिनि । सार्ध शतं द्वितीयेऽपि तद्वाहोश्च सक्थिवत् । शाखास्वेवं षटू शतानि कटयां देविंशती स्मृते । विंशतिर्मुष्कयोमेंदूवस्त्यंत्रेषु च कीर्तितः अशीतिः पृष्टभागे स्युः पानयोः षष्टिरक्षयो। चत्वार्युरस्यष्टवश त्वष्टावंशयुगे स्मृताः। मध्येशतद्वयं त्रिशद वे द्वे मन्यावहौ स्मृते । नेत्रोष्ठे तालुनि तथा ग्रीवायांत्रिंशदीरिताः । जणि त्रीणि चत्वारि हन्वोःपंच तु कीर्तिताः। जिवायां दंतमांसेषु द्वादशैबाथ मूनि षट् । एवं शतानि स्नायूनां नवैतेषु विनिर्दशेत् । आम पकाशयांत्रेषु वस्तौ च सुषिराणितु । प्रतानवंति शाखासुमहानावानि कंडराः। वृत्तानि पार्श्व पृष्ठोरः शिरसि स्युः पृथूनि च शिरादिभ्योऽव्यस्थितोऽपि रक्षेत् नावानि यत्नतः। तथाचोतम् । न घस्थीनि तथा हिंस्युर्न पेश्यो न च संधयः । व्यापादिता अपि सिरा यथा स्नायनि
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६२८६)
-
अष्टांगहृदय ।
. सिराओंकी संख्या। इन दस शिराओं के द्वारा संपूर्ण देहमें सदा दश मूलसिराहृत्स्थस्ताःसर्व सर्वतो वपुः ॥ सर्वदा आहारका रसात्मक ओज बहकर पहुं रसात्मकं वहंत्योजस्तन्निवद्धं हि चेष्टितम् । | चता है और इन्हींके द्वारा शारीरिक कायिक स्थूलमूलाःसुसूक्ष्मानाः पत्ररेखाप्रतानवत् ॥ | मानसिक और वाचक चेष्टायें संपादित होती भिद्यते तास्ततःसप्तशतान्यासां भवति तु । हैं इसलिये ये दस सिरा ही प्रधान हैं । जै' अर्थ-हृदयमें स्थित दस मूलशिरा हैं । | से वृक्षके पत्तोंकी रेखाओंके समूह जडमें मो
देहिनाम् ।स्नायूनि योवोत्त सम्यग्वाह्यान्याभ्यतराणि च । साढे शल्यमाहंतु देहाच्छक्नोति दहिन इति। अर्थात्पांव में पांच उंगलियां, और हरएक उंगली में छः छः के हिसाब से तीस हुई । तलुआ, कूर्च और गुल्फ इनमें हर एक में दस दस के हिसाब से तीस, जंघामें तीस जानु में दस, ऊरू में चालीस, वंक्षण में दस । सब मिलाकर एक सक्थि में १५० दूसरी सक्थि में १५० बाहुओं में सक्थि के समान होती हैं । इस तरह चारों हाथ पांवों की मिलकर ६०० हुई कमर में ४० मुष्क मेढ़ और वस्ति में बसि, पीठ में अस्सी, पसली में साठ, आंख में चार, हृदय में अठारह, दोनों कंधों में आठ, इस तरह मध्यभाग में सब मिलाकर २३० हुई तथा मन्या, बट, नेत्र, ओष्ठ और तालु में दो दो, ग्रीवा में तीस, जत्रु में तीन, हनु में चार, जिवा में पांच, दंत मांस में बारह और मूर्धा में छः ये ७० स्नायु प्रीया के ऊपर के भाग में है । तीनों स्थानों में मिलाकर ९०० हुई।
स्नायु चार प्रकार की होती हैं यथा--सुषिर, प्रतानयती, वृत्त और पृथु । इनमें से आमाशय, पक्वाशय, अंत्र और वस्ति में सुषिर संक्षक अर्थात् छिद्रवाली स्नायु हैं । शाखा और संधियों में प्रतानवती अर्थात् फैली हुई स्नायु हैं । वृत्त स्नायु कंडरा है । पसली पीठ, वक्षःस्थल और सिरमें पृथुसंशकहैं । सिरा और अस्थि आदि से स्नायु की रक्षा विशेष यत्न से करना चाहिये। ___यह भी कहा है कि अस्थि, पेशी, संधि, और सिरा कटजाय वा टूट जाय तो मनुष्य के प्राणों का इतना भय नहीं है जितना स्नायु के नष्ट हो जाने से होता है। जो वैध बाहर और भीतर की सय स्नायुओं को जानता है वही शरीर में से गहरे लगे हुए शल्यों को निकाल सकता है।
पेश्यः संप्रति भण्यते पंचांगुल्योथ नासुताः । प्रत्येकं तिन इत्येवंताः पंचदश कीर्तिताः । दशपाइतले गुल्फे तथा पादस्य चोपरि । कूर्चेतु विंशतिः स्यात्तु जंघायां पंच जानुनि । ऊरौ विंशतिरित्येचं शतं सक्न्ये कतो भवेत् । शतं द्वितीयेऽपि तथा सक्थिवत् भुजयोर्मताः । चत्वार्येवं शतानि स्युः शाखास्वकैव मेहने । सीवन्यां च वृषणयो· स्फिजोस्तुदशस्मृताः । तिम्रो गुदे वस्तिमूनि द्वे चतस्त्रस्तु कोष्ठगाः । नाभ्यामेकाऽथहधेका स्यादेकामाशयेऽपि षट् । यकृतप्लीहोन्दुकेषु स्युश्चतस्रः पृष्ठतोदश । पार्श्वयोर्वक्षसिदश चतस्र श्चाक्षकांस्तयोः। इत्यंतराधौ षष्ठिःस्युः ग्रीवायां दश गंडयोः । अष्टौ हनुप्रदेशेष्टा वेकैका काकले तथा । जिह्वायां मूर्ध्नि गलके द्वे ललाटेऽथ तालुनि । द्वे ओष्ठयोः कर्णयो₹ नासायां देव कीर्तिते । पुरुषाणां भवेदेतत् पेशीनां शत पंचकम् । अर्थात् अब पेशियों का वर्णन करते हैं जैसे एक पांव में पांच उंगलियां होती हैं इस हिसाव से पांचों उंग
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Achary
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
[२८७]
टे होते हैं और ज्यों ज्यों बढतेहैं उनके अग्रभाग | शाखागतअवेध्य सिराओंकावर्णन । सूक्ष्म होते चले जाते हैं और उनमें से पतली | तत्रैकैकं च शाखायां शतं तस्मिन्न बेधयेत्। पतली छोटी असंख्य रेखा निकल निकलक- | सिरां जालंधरां नाम तिस्रश्चाभ्यतराश्रिता र चारों ओर फैल जाती हैं इसी तरह शरीर अर्थ-इन सातसौ सिराओं में से हर एमें सिरा भी जडमें स्थूल होती है और ज्यों | क हाथ पांवमें सौ सौ सिरा है इसलिये चारों ज्यों फैलती है उनके अग्रभाग सूक्ष्मातिसूक्ष्म
हाथ पांवकी चारसौ सिरा हैं। इनमेंसे हरएक होते हुए अनेक भागोंमें विभक्त हो जाते है ।
शाखामें एक जालंधरा नामक सिरा है यह इन स्थूल सिराओं में होकर आहारज रस जालोंको धारण करती है, और तीन सिरा शीघ्र भीतर घुमता चला जाता है और फि- 1 भीतर हैं जिन्हें अंतर्मुखा कहते है । इन चार सूक्ष्मसिरा उस रसको रोमरोममें पहुंचाकर | र सिराओं को बेधना न चाहिये । इसतरह उनकी पुष्टि करती है । ये सब सिरा गिनती | चारों हाथपांवोंमें १६ सि। अवेध्य है ॥ में सातसौ होती है।
लियों में पन्द्रह । पांव के तलुए में दस, गुल्फ में दस, पांव के ऊपर दस, कूर्चा में दस, जंघा में वीस, जानु में, और ऊरु में वसि । सब मिलाकर एक सक्थि में १०० सौ हुई। चारों हाथ पांवों में चार सौ हुई । मेद में एक, सीविनी में एक, अंडकोष में दो, स्फिक । में दस, गुदा में तीन, वस्तिके ऊपर के भाग में दो, कोष्ठ में चार, नाभि में एक, हृदय में एक, आमाशय में एक, यकृत प्लीहा और उन्दुक मैं छः, पीठ में चार, पसलियों में दस वक्षस्थल में दस, कंधों में चार, सव मिलाकर साठ हुई । किसी किसी आचार्य ने मध्य भाग में ६६ लिखी हैं । ग्रीवा में दस, गंडस्थल में आठ, टोडी के चारों ओर आठ, का. फलक में एक, जिह्वा की मूर्धा में एक, कंठ में दो,ललाट में दो, ताल में दो, ओष्ठ में दो कानों में दो, नासिका में दो। इस तरह कंठ से ऊपर चालीत हैं । शाखा, मध्य भाग और ऊर्धभाग सब मिलाकर पुरुषों की ५०० पेशी हुई।
त्रियों के बील मांसपेशी अधिक होती है, दशाधिकाः स्युः स्तनयोर्दश योनौ च योषिताम् । प्रत्येकं स्तनयोः पंच तासां वृद्धिस्तु यौवने । योन्यंतराश्रिते द्वे तु द्वे च वने मुखाश्रिते । गर्भमार्गाश्रयास्तिस्रा यत्र गर्भावतिष्ठते । शंखनाभ्याकृतियोनिस्ठ्यावर्ता जायते स्त्रियाः। तस्यास्तृतीयआवर्ते रोहितस्याकृतिर्भवेत् । गर्भशय्याऽथ तिस्रश्च भवेयः संप्र. वेशिकाः । शुक्रस्य चार्तवस्यैवं पेशीस्तत्र विदो विदुः । अर्थात् स्त्रियों के दस पेशी स्तनों में और दस योनिमें अधिक होती है इनमें से पांच पांच हरएक स्तन में होती है। ये वचोंके दिखाई नहीं देतीं, तरुण होने पर दिखाई देती हैं । योनि के भीतरके भाग में दो, औरतों गोलाकार योनि के मुख में होती हैं । गर्भमार्ग में जहां गर्भ रहता है। स्त्रियों की यो शंखनाभि के सदृश तीन आवर्त वाली होती है, इसके तीसरे आवर्त में रोहू मछली की सी आकृति होती है इसी में गर्भ की शय्या होती है, इस जगह तीन पशियां होती है शुक्र और आर्तव के प्रवेश मार्ग में तीन पेशियां होती है।
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(२८८]
अष्टांगहृदय ।
कोष्टगत अवेध्य सिराओंकावर्णन। | य में चार । अपस्तंभ नामक मर्म में एक त षोडशादिगुणाः श्रोण्या तासां वैद्वै तु वंक्षणे था अपालाप मर्ममें एक । इसतरह १४ सिरा देद्वे कटीकतरुणे शस्त्रेणाष्टौ स्पृशेन्न ताः । नहीं बेधी जाती है । इसतरह कोष्ठगत १३६ पार्श्वयोःषोडशैकैकामूर्ध्वगां वर्जयेत्सिराम्। द्वादशद्विगुणाः पृष्ठे पृष्ठवंशस्य पार्श्वगे। ।
सिराओं में ३२ सिरा अवेध्य है ।। द्वे वे तत्रोर्ध्वगामिन्यो न षस्त्रेण परामशेत जत्रुसे ऊपरकी सिराओं का वर्णन । पृष्ठवज्जठरे तासां मेहनस्योपरि स्थिते। ग्रीया की अवेध्यसिरा। रामराजीमुभयतो दे द्वे शस्त्रेण न स्पृशेत्॥ | विायां पृष्टवत्तासां नीले मन्ये कृकाटिके। चत्वारिंशदुरस्यासां चतुर्दश न वेधयेत। । विधुरे मातृकाश्चाष्टौ षोडशेति परित्यजेत्। स्तनरोहिततन्मूलहरये तु पृथग्द्वयम् ॥२५॥ अर्थ-पीठकी तरह प्रीवा में भी चौवीस अपस्तंभाख्योरेको तथापालापयोरिपि। । | सिरा होती हैं, इनमें से दो नीला, दोमन्या, ___ अर्थ-अंतराधि भागमें सब सिरा १३६ / दो कृकाटका, दो विधुरा और आठ हैं, इनमेंसे ३२ सिरा श्रोणिके अवयवों में है | मातृका, ये १६ सिरा अवेध्य हैं। जिनमें दोनों अंडकोषोंमें स्थित दो दो हनुगत अवेध्यसिरा। अर्थात् चार और पाठके बांसे के दोनों ओर | हन्वोः षोडश तासां द्वे संधिवधनकमणि । श्रोणीविभाग में स्थित कटीक और तरुण ना
अर्थ-ठोडी के दोनों ओर सोलह सिरा मक दोनों मोकी दो दो अर्थात् चार सिरा |
। हैं, इनमें से ठोडी की संधियों को बांधने इस तरह ये आठ सिरा अवध्य हैं।
वाली दो सिरा अवेध्य हैं । किसी किसीका दोनों पसलियोंमें १६ सिरा होती हैं । इ
यह मत है कि ग्रीवा की १६ सिरा प्रीवा
की सिराओं के अंतर्गत हैं परन्तु गयदासान में से हरएक पसलीमें एक एक ऊपरको जानेवाली सिरा अवेध्य होती हैं।
चार्य इन १६ सिराओं को पृथक् ही
मानते हैं। . पीठमें २४ सिरा होती है इनमेंसे पाठके
जिहवागत अवेध्यसिरा। बांसके दोनों ओर दो दो सिरा ऐसी है जो | जिह्वामं हनुवत्तासामधो द्वे रसवोधने । उपरको जाती है । इन चार सिराओं को न | द्वे च वाचः प्रवर्तिन्यो। बेधना चाहिये।
। अर्थ-ठोडी की तरह जिह्वा में भी पाठके सदृश उदरमें भी २४सिरा होती है | १६ सिरा हैं, इनमें से जिह्वा के नीचेकी इममेंसे पुंजननेन्द्रियके ऊपर रोमराजी अर्थात् दो सिरा जिनसे मधुरादि रसों के स्वादका रोमों की रेखाके दोनों ओर वाली दो दो सि- ज्ञान होता है और निवाके ऊपर वाली रा अर्थात् ४ सिरा अवेध्य होती है। दो सिरा जो वचःप्रवर्तनी है अर्थात् जिनके
वक्षःस्थल अर्थात् छातीमें ४० सिरा होती | द्वारा बोला जाता है, ये चारों सिरा अवेध्य है। इनमेंसे १४ सिरा अवेध्य होती है जैसे | हैं । सुश्रुत में जिह्वागत सिरा ३६ और स्तनमूलमें चार, स्तन रोहित में चार । हृद- J गयदास ने ५८ मानी हैं ।
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
नासागत अवेध्यसिरा। शब्द बोधनी दो सिरा जिन से शब्द का
नासायां चतुरुत्तरा ॥ २८ ॥ । विशतिर्गधवेदिन्यौतासामेकांच तालुगाम् ।
ज्ञान होता है अवेध्य है तथा कनपटी की ___ अर्थ-नासिका में 28 सिरा हैं. इनमें | दो सिरा भी अवेध्य हैं । से दो गंधवेदिनी सिरा ( जिनसे गंधका मू गत अवेध्वसिंग। ज्ञान होता है ) और एक तालुगत सिरा
__ मूर्ध्नि द्वादश तत्र तु ।३। अवध्यहैं गयदास नासिका में १६ सिरा कहते
एकैकां पृथगुत्क्षेपसीमंताधिपतिस्थिताम् । है इनमें से पांचको अवध्य बताते हैं।
___ अर्थ-मूञ में १२ सिरा होती हैं, इन
में से उत्क्षेपनामक मर्म की दो सिरा, पांच नेत्रगत अवेध्यसिरा। षट्रपचाशन्नयनयोनिमेषोन्मेषकर्मणी। २९ ।
सीमंतों में पांच, और आधिपति नामक मर्म वे द्वे अपांगयोर्दै च तासां षडिति वर्जयेत् । की एक, इस तरह ये आठ सिरा अवेध्यहैं। ___ अर्थ नेत्रों में ५६ सिरा है, इनमें से / अवेध्यसिराओं का संक्षिप्तवर्णन । निमेष ( आंख बन्द करने वाली ) की दो, इत्यवेध्याविभागार्थ प्रत्यंग बर्णिताः सिरा। और उन्मेष ( खोलना ) की दो तथा अपां
अवेध्यास्तत्र कात्स्येन देहेऽष्टानवतिस्तथा।
संकीर्णा ग्रथिताःक्षुद्रावकाःसंधिषुचाश्रिताः ग की दो, ये छः सिरा अवेध्य हैं । सुश्रुत
- अर्थ-अवेध्य सिराओं का ज्ञान कराने नेत्रों में ३८ और गयदास २४ सिरा बताते । हैं जिनमें से अपांगकी दो अवेध्य कहते हैं।
के लिये प्रत्येक अंगकी. संपूर्ण सिरा और ललाटगत अवेध्यसिरा।
उनमें से अवेध्य सिराओं का वर्णन किया नासानेत्राश्रिताः पष्ठिर्ललाटे स्थपनीश्रिताम् गया है । इन सब सिराओं में ९८ सिरा तोकां द्वौ तथाऽऽवौं चतस्रश्च कचांतगाः
अवेध्य हैं । अब यह जानना चाहिये कि सत्तेव बर्जयेत्तासाम्। अर्थ-नासिका और नेत्रोंमें जो ८०
ये ९८ सिरा ही अवेध्य नहीं हैं किन्तु जो सिरा कही गई है उनमें से ६. सिरा ललाट
आपस में एक दूसरे से बंधी हुई हैं, प्रथितहैं,
जो छोटी हैं, टेढी हैं और जो अस्थि की में है । इनमें से स्थपनी नाम मर्म में आश्रित एक सिरा अवेध्य होती है । तथा । संधियों में हैं वे भी अवध्य हैं । आवर्तनामक दो मर्मों में दो तथा केशांतस्थ सिराओं से रक्तादि का बहना । दो सिरा अवेध्य हैं ऐसे ललाट की सात तासां शतानां सप्तानांपादोऽत्रं वहते पृथकू सिरा अवैध्य हैं।
वातपत्तिकफैर्जुष्टं शुद्धं चैव स्थिता मलाः ॥
शरीरमनुगृहणंति पडियत्यन्यथा पुनः। कानकी अवेध्य सिरा।
अर्थ-ये जो ७०० सिरा कही गई हैं कर्णयोः षोडशाऽत्र तु । द्वे शब्दवोधने शखौ सिरास्ता एव चाश्रिताः ।
इनमें से चौथाई अर्थात् १७५ सिराओं से शंखसंधिगे तासाम्।
बातदूषित रक्त बहता है। १७५ से पित्तदूअर्थ-कान में १६ सिरा हैं, इनमें से | षित ,१७५ से कफदूषित और १७५ से
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(२९०)
अष्टांगहृदय ।
शुद्ध रक्त बहता है । इसतरह रक्त और बा- | लक्षण मिलेहुए होते है उनसे कफबातजुष्ट, तादि संपूर्ण दोष यथावस्थित रहनेसे शरीर | वातपित्तजुष्ट, कफपित्तजुष्ट, वा कफवातपित्त को धारण करते हैं और जब इनकी स्थिति | जुष्ट रक्त बहता है । में कोई विकार होजाता है तब शरीर को शुद्धरक्तके लक्षण। पीडा पहुंचाते हैं।
गूढाः समस्थिताः स्निग्धारोहिण्यः शुद्धशोवातादिजुष्ट सिराकालक्षण ।
णितम् ॥ ३८॥ तत्रश्यावारुणाःसृक्ष्माःपूर्णरिक्ताःक्षणात्सिराः अर्थ-गूढ ( मांसादि से छिपी हुई ), प्रस्यादिन्यश्च वांतनं वहंते । | समभावमें स्थित, और रोहिणी नामक सिरा
पित्तशोणितम् ।
जो लोहितवर्ण और प्रसरणशील होती है वे स्पर्शोष्णाः शीघ्रवाहिन्यो नीलपाताः कफ- |
पुनः ॥ ३७॥ शुद्ध रक्तको बहानेवाली है। गौर्यः स्निग्धाः स्थिराः शीताः संसृष्टं- नाभिसंबद्ध सिराओंका वर्णन ।
लिंगसंकरे।
धमन्यो नाभिसंबद्धा विंशतिश्चतुरुत्तराः। अर्थ-इनमेंसे जो सिरा श्याव वा अरु- | ताभिः परिखतोनाभिश्चक्रनाभिरिबारकैः॥ ण रंगकी है। तथा सूक्ष्म और क्षण क्षण में । ताभिश्चोर्ध्वमधस्तिर्यग्देहोऽयमनुगृह्यते । भरनेवाली और रीती होनेवाली सिरा तथा । अर्थ-धमनी गिनतीमें चौबीस होती है। फडकने वाली सिरा ये सब बातरक्तवाही हो ये सब नाभिसे बंधी हुई है और इन ती है। जो सिरा स्पर्श करनेमें गरम, शीघ्र धमनियोंसे नाभि इस तरह घिरी हुई है जैसे गामिनी तथा रंगमें नीलीपीली होती है ये गाढी के पहिये का मध्य भाग अरों ( पसब पित्तदूषित रक्तको बहानेबाली है । जो हिये की आढी तिरछी लकड़ियों ) से घिरा सिरा श्वेतवर्ण, स्निग्ध, अचल और स्पर्शमें रहता है । ये धमनियां ऊंची,नीची और तिशीलत हैं वे कफदूषित रक्तवाहिनी होती है। रछी गई है । इनके द्वारा रस संपूर्ण देह में तथा जिन सिराओं में वातादि दोषोंके उक्त | जाता है और देहको पोषित करता है॥
+संग्रह में लिखा है कि इन धमनियों में से दस ऊपर को, दस नीचे को और ४ तिरछी जाती हैं, तथा ऊपर वालियों में से प्रत्येक के तीन तीन भेद होकर तीस भागों में बंटगई हैं, जिन में से दो दो में बात, पित्त, कफ, रक्त और रस बहता है, दो दो शब्द रूप, रस, और गंधको ग्रहण करती हैं। दो दो से भाषण, घोष, निद्रा और प्रतिबोधन हो ता है। दो आंसू निकालती हैं और दो के द्वारा स्त्रियों के स्तनों से दूध और पुरुषसे वीर्य का यहन करती हैं। इसी तरह अधोगाभिनी दश भी तीस भागोंमें विभक्त होजाती है उन में से दो दो के हिसाबसे दश तो कफ, बात, पित्त, रक्त और रसका बहन करती हैं । दो अन्नवाहिनी हैं । दो दो मुत्र, जल और शुक्रको वहन करती हैं। दो त्यागती हैं । येही दो लियों के रज को वहन करती हैं । दो वर्चनिरसन स्थूल मांतोंसे प्रतिवद्ध हैं । शेष आठ द्वारा पसीने निकलते हैं । तथा तिर्यग्गत चार के तो बहुत भेद हैं ।
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अँ १
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दृश्य अदृश्य स्रोतों का निरूपण । स्रोतांसि नासिके कर्णौ नेत्रे पाय्वास्यमेहनम् स्तनौ रक्तपथश्वेति नारणिामधिकं त्रयम् । जीवितायतनान्यंतःस्त्रोतांस्यादुत्रयोदश ॥ प्राणधातुमलाभोऽन्नवाहीनि
अहितसेवनात् ।
तानि दुष्टानि रोगाय विशुद्धानि सुखाय च ॥ अर्थ-पुरुष के नौ स्रोत होते हैं, यथा दो नासाछिद्र, दो कान, दो नेत्र, एकगुदा, एकमुख और एक मुत्रमार्ग । स्त्रियों के तीन अधिक होते हैं अर्थात् दो स्तन और एक मासिक रक्त निकलने का मार्ग ।
इनके सिवाय १३ स्रोत शरीर के भी - तर होते हैं, ये जीवन के प्रधान आधार हैं वे ये हैं- प्राणवायु को वहन करने वाले प्राणवाही, रसरक्तादि सात धातुओं का वहन करनेवाले ७ धातुवाही, मूत्रपुरीष स्वेदादि वहन करनेवाले तीन मलवाही, उदकवाही और अन्नवाही |
अहित आहार विहार के सेवन से दुष्ट
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(२९१)
हुए ये स्रोत रोगों को उत्पन्न करते हैं। और विशुद्ध स्रोत सुख उत्पन्न करते हैं । खोतों की आकृति ।
स्वधातु समवर्णानि वृत्तस्थूलान्यणूनि च । स्त्रोतांसि दीर्घायाकृत्या प्रतानसदृशानि च अर्थ- संपूर्ण स्रोत अपनी धातु के सदृश वर्ण वाले होते हैं अर्थात् जिस स्रोत की जो धातु है उसका रंग उसी के समान होता है जैसे रसवाही स्रोत का रंग रसधातु के सदृश, शुक्रवाही स्रोत का रंग शुक्रधातु के सदृश, इत्यादि । तथा कोई स्रोत गोल, कोई स्थूल, कोई सूक्ष्म होते है किन्तु आकृति के विचार से संपूर्ण स्रोत दीर्घ और वृक्ष के पत्तों की तरह शाखा आहारादि से स्रोतों का दूषित होना प्रशाखा से युक्त दूर तक फैले है । हुए आहारश्व विहारश्व यः स्याद्दोषगुणैः समः। धातुभिर्विगुणो यश्व स्रोतसांस प्रदूषकः ॥ अर्थ- वात पित्त कफके गुणों वाला
संग्रह में लिखा है कि प्राणवाही स्रोतों का मूल हृदय है, ये स्रोत क्षय, रौक्ष्य पिपासा, क्षुधा व्यायाम और मलमूत्रादि के वेगों को रोकने से दूषित हो जाते हैं इसमें अतिसृष्ट, प्रतिबद्ध, कुपित, अल्पाल्प, अभीक्ष्ण और सशब्द श्वास निकलता है इसमें श्वासरोगोक्त क्रिया कर्तव्य है । उदकवाही स्रोता का मूल तालु और क्लोम है ये आम अतिपान, शुष्क अन्न सेवन और पुरीषग्रह से दूषित होकर अतितृष्णा, शोष, कर्णasa और तमोदर्शन ( आंखों के आगे अंधरी ) रोगों को करते हैं, इसमें तृषा के प्रकरण में कही हुई औषध करना चाहिये । अन्नवाही स्रोतों का मूल आमाशय और वामपार्श्व है इसमें मात्राशितीयोक्त विधिका पालन करना चाहिये । रसवाही स्त्रोतों का मूल हृदय और इस धमनी हैं । रक्तवाही का यकृत और प्लीहा | मांसवाही के स्नायु और त्वचा । मेदोवाही के वृक्क और मांस । अस्थिवाही के जघन और मेद् | मज्जा वाही के पर्व और अस्थि । शुक्रवाही के स्तन, मुष्क, और मज्जा । मूत्रवाही के वस्ति और क्षण । पुरीषवाही के पक्काशय और स्थूलांत्र । स्वेदवाही के मेद और रोमकूप होता हैं,
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अष्टांगहृदय । .
रूक्षादि गुणविशिष्ट जो आहार वह स्रोतों | अर्थात् छिद्र चारों ओर फैले हुए है उन्हीं का दूषित करने वाला है, इसी तरह वाणी | के द्वारा जठराग्नि से पकाए हुए आहार का देह, मन और चेष्टा के समान दोषविशिष्ट | प्रसाद नामक रस बनकर संपूर्ण धातुओं की विहार भी स्रोतों का प्रदूषक है । इसी | वृद्धि करता है। तरह जो आहार वा जो विहार रसादि किसी । स्रोतोव्यध के अवगुण । धातु द्वारा विगुण होजाय अर्थात् असमान व्यधेतु स्रोतसां मोहकंपाध्मानवमिज्वराः । गुण वा विपरीत गुणवाला होजाय तो वह । प्रलापशूलविण्मूत्ररोधो मरणमेव वा॥ भी स्रोतों को दूषित करता है।
स्रोतोविद्धमतो वैधःप्रत्याख्याय प्रसाधयेत् । स्रोतों की दुष्टिका लक्षण ।
उद्धृत्य शल्यं यत्नेन सधाक्षतविधानतः ॥ अतिप्रवृत्तिःसंगोबासिराणां ग्रंथयोऽपिवा।
___ अर्थ-स्रोतों के विद्ध होजाने से मूर्छा विमार्गतोवागमनं स्रोतसां दुष्टिलक्षणम् ॥ कंपन, अफरा, वमन, ज्वर, प्रलाप, शूल,
अर्थ-मत्रादिवाही स्रोतों की अति प्रवृ- पुरीपरोध, मूत्ररोध, तथा मृत्युभी होजाती ति वा संग ( जैसे प्रमेह की तरह बहुत
है । इसलिये वैद्यको उचित है कि उसके मूत्र होना अति प्रवृत्ति है, मूत्रकृच्छ्की तरह
| आत्मीय स्वजनों से यह बात सूचित करदे कम मुत्र होना संग वा अतिप्रवृत्ति है तथा
कि स्रोतोविद्ध रोगी के जीवन में संशय थोडारहोना अथवा उदावर्त रोगकी तरह पुरीष
है, यह कहकर बहुत सावधानी से शल्य का सर्वथा न होना संग अथवा अप्रवृत्तिहै)
को निकालकर सद्योव्रणप्रतिषेध में कही येस्रोतों की दुष्टि के लक्षण है । इसी तरह हुई रीति से चिकित्सा करने में प्रवृत्त हो। रसरक्तादिवाही स्रोतों की प्रवृत्ति वा अप्र- धन्वंतरि और आत्रेयका मत । बृत्ति द्वारा स्रोतों की दुष्टि के लक्षण जाने | अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरोरितम् । जाते है । अथवा सिरा के स्रोतों में ग्रंथि
दोषधातुमलादीनामूष्मेत्यायशासनम् ॥
___ अर्थ-धन्वन्तरि का मत है कि पहिले वा कुटिल भाव होना स्रोतों की दुष्टि के
दोषभेदीयाध्याय में कहा हुआ पाचक नाम लक्षण हैं अथवा अपने मार्ग को छोडकर
वाला पित्त भुक्त अन्न का पकानेवाला है, अन्यमार्ग में प्रवृत होना ये भी स्रोतों की
किंतु आत्रेय मुनि का यह मत है कि वादुष्टि का लक्षण है।
तादि दोष, रसादि धातु और पुरीषादि मल स्रोतों के द्वार। बिसानामिव सूक्ष्माणि दूरं प्रविसृतानि च।
तथा दूषकादि की ऊष्मा ही पाचक द्वाराणि स्रोतसांदेहे रसो यैरुपचीयते ॥ | अग्नि है। . अर्थ-जैसे संपूर्ण कमलनाल में छोटे | ग्रहणी का वर्णन । छोटे छिद्र दूर तक फैले हुए होते है वैसे | तदधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणादग्रहणी मता । ही संपूर्ण देह में स्रांतों के छोटे २ मुख | सैव धन्वंतरिमते कला पित्तधरायया ।
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अ३
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आयुरारोग्यवस्जिोभूतधात्वाग्निपुष्टये। त ग्रहणीसे अग्नि और अग्निसे ग्रहणीको स्थितापक्वाशयद्वारि भुक्तमार्गाऽर्गलेवसा अर्थ-उस जठराग्नि का आधार ग्रहणी
बल मिलता है इसलिये अग्नि के दूषित हो. नाडी है, यही भुक्तान को ग्रहण करती है
ते ही ग्रहणी दूषित होकर रोगोपदिक होइसलिये इस नाडी का नाम ग्रहणी है ।
ती है । इसीतरह ग्रहणीके दूषित होनेसे अ. धन्वन्तरि के मत से इसीका नाम पितधरा ।
ग्नि दूषित होकर रोगोत्पादक होती है ।। कला है । क्योंकि ग्रहणी नाडी पाचकाग्नि
अग्निद्वारा अन्नपाक।
यदन्नं देहधात्वोजोबलवर्णादिपोषणम्। . की आधारभूत है; और भुक्तान्नको ग्रहण | तत्राऽग्निर्हेतुराहारान हपक्वाद्रसादय:५०॥ करती है इससे इसे ग्रहणी कहते हैं अतः अर्थ-र्जा अन्न देह, धातु, ओज और अवश्यही. इसके द्वारा आयु, आरोग्यता, | बल वर्णादि का पोषण करता है । वह सब वीर्य, ओज, पार्थिवादि पंचभताग्नि तथा | आनिके ही द्वारा होता है । इसका कारण सातों धात्वग्नियों की पुष्टि संपादन होती यह है कि विना पके आहारसे रसरक्तादि धा है । यह ग्रहणी पक्वाशय के द्वारपर स्थित तुओं की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और रहती है और मुक्त अन्नको पक्वाशय में | इसलिये देहादि की पुष्टि भी नहीं हो सकजाने से रोकने के लिये अगेला ती है। इसका यह सारांश है कि अमिही का काम देती है और भुक्तान्न को जठराग्नि अन्नपाक का कारण है और अन्न ही अग्नि से पकाती हुई धीरे धीरे पक्वाशय में के प्रभाव से देहादि की पुष्टिका साधन है। पहुंचाती है।
शरीर में पाकका प्रहार । पक्कअन्न के गुण ।
अन्नं कालेऽभ्यबहृतं कोष्ठं प्राणानिलाहतम् । भुक्तामामाशये रुध्वा साविपाच्य नयत्यधः। द्रवैविभिन्नसंघातं नीतं मेहेन मार्दवम् ५५॥ बलबत्यवला त्वन्नमाममेव बिमुंचति ॥५२॥ संक्षितः समानेन पचत्यामाशयस्थितम् । ___ अर्थ-यह ग्रहणी नाडी यदि बलवती औदयोऽग्निर्यथा बाह्यः स्थालीस्थंहो तो भुक्त अन्नको आमाशय में रोककर
तोयतंडुलम् ॥५६॥ अनेक तरहसे पकाकर नीचे पक्वाशयमें ले.
अर्थ-आहार के उचित काल में अर्थात् जाती है और जो निर्बल होती है, तो भुक्ता
मलमूत्र के त्याग के पीछे भोजन किये न को बिना पकाये ही नीचेको निकाल
हुए अन्न को प्राणनामक वायु कोष्ठ में
लेजाता है, वहां जल, व्यजन, मद्य, दूध अहणी और अग्निका अन्योन्यसंबंध । ।
आदि पतले पदार्थ अन्न के कठोरपन को ग्रहण्या बल मग्निहि सचापिग्रहणीबलः।। १-क्षेपकः । वामपार्थाश्रितं ना किंचि. दूषितेऽग्नावतो दुष्टा ग्रहणी रोगकारिणी ॥
त्सूर्यस्य मण्डलम् । तन्मध्येमण्डलम् सौभ्यं अर्थ-क्योंकि ग्रहणीके बलका हेतु अग्नि
| तन्मध्येऽग्निर्व्यवस्थितः। जरायुमात्र प्रच्छंहै और अग्निके बलका हेतु प्रहणी है अर्था- नः काचकोशस्थदीपवत् ॥१॥
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अष्टांगहृदय |
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अ ३
दूर कर देते है, और घृतादि स्निग्ध पदार्थ कोमल करदेते हैं और फिर इस आमाशयस्थ अन्न को समानवायु से प्रदप्ति की हुई ( धोंकी हुई ) अग्नि पकाती है और थूक छींक, डकार इत्यादि का आना उसके पकाव को सूचित करता है, यहां दृष्टान्त है कि जैसे पात्र में रक्खे हुए चांवलों को जल अलग कर देता है और वाह्य आग्ने मुख वा व्यजनादि की पवन से उद्दीप्त होकर उसे पका देती है और झाग, फुरफुद शब्द आदि उसके पकने की सूचना देते हैं ।
अर्थ - तदनंतर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंत्र महाभूतों की ऊष्मा आहार के अपने अपने पार्थिवादि गुणों को पकाती हैं अर्थात् पार्थिव ऊष्मा पार्थिव गुणको, जलीय ऊष्म जलके गुण को, वायुसंबंधी ऊष्मा पवनात्मक गुण को और आकाशीय ऊष्मा आकाश संबंधी गुण का पाक करती है और प्रौदर्याग्नि का गुण तो पहिले ही वर्णन करचुके हैं ।
|
अग्नि समीपस्थ अन्नकी अवस्था । आदौ षड्रसमप्यन्नं मधुरीभूतमीरयेत् । फेनीभूतं कफं वातं विदाहादम्लतां ततः ५७ पित्तमामाशयात्कुर्याच्च्यवमानं च्युतं पुनः । अग्निना शोषितं पक्कं पिंडितं ककुमारुतम् ५८ अर्थ- प्रथम छः रसों से युक्त होने पर भी खाया हुआ अन्न मधुरता को प्राप्त होकर झागदार कफको उत्पन्न करता है। तदनंतर मध्यम अवस्था होती है इसमें आमाशय से पक्काशय की ओर खिसकते हुए अन्न में विदाह के कारण खट्टापन आजाता है और उक्त अवस्था में पित्तको उत्पन्न करता है । तदनंतर तीसरी अवस्था प्राप्त होती है, इसमें वह अन्न पक्वाशय में आजाता है और वहां जठराग्नि द्वारा शोत्रित होकरं पिंडाकार बनजाता है और कटु रसयुक्त होकर वायु को उत्पन्न करता है । अन्य अग्नियों के कर्म । भौमायाग्नेयवायव्याः पंचोष्माणः सनाभसाः पंचाहारगुणान्स्वान् स्वान् पार्थिवादीन् - पचेत्यनु ॥ ५९ ॥
भूतगुणों का पोषण । यथास्वं ते च पुष्णंति पक्त्वा भूतगुणानपृथक् । पार्थिवाः पार्थिवानेव शेषाः शेषांश्च देहगान
अर्थ-ये पार्थिवादि पंचमहाभूतों के आश्रित गुण अपनी अपनी ऊष्माद्वारा पक्व होकर देह में स्थित हुए अपने अपने पार्थिवादि पृथक् पृथक् गुण की पुष्टि करते हैं जैसे पार्थिव गुण देहके पार्थिव भागकी ही पुष्टि करता है । यह न समझलेना चाहिये कि सब गुण मिलकर सबकी पुष्टि करते हैं । रस रक्तादि धातु वा अन्यस्थलों में भी ये पंचमहाभूत ऊष्मा अपने २ गुणों को ही पुष्ट करती हैं क्योंकि रसादि में भी तो इनका अंश विद्यमान रहता है ।
कनके भेद |
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किट्टू सारश्च तत्पक्कमन्नं संभवति द्विधा । तत्राऽच्छं किटमन्नस्य मूत्रं विद्याधनं शकृत् सारस्तु सप्तभिर्भूयो यथास्वं पच्यतेऽग्निभिः
अर्थ - उदर में पके हुए अन्नके दो भेद होते हैं यथा ( १ ) किट्ट, (२) सार, इन में से अन्नका जो पतला किट्ट अर्थात् मैल
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(२९५) ..
है उसे मूत्र कहते हैं और गाढे किट्ट को | रसादि धातुआ को द्विविधत्व । विष्टा कहते हैं।
| प्रसादकिटौ धातूनां पाकादेवं द्विधर्छतः ॥ ___ अन्नका सार अर्थात प्रसाद नामक भा- | परस्परोपसस्तभाशातुस्नेह परंपरा। ग फिर सात अग्नियों द्वारा पकाया जाता
___अर्थ-संपूर्ण रसादि धातु भी यथोक्त है इसका आशय यह है कि जठराग्नियों
पाकविधि द्वारा सार और किट्ट इन दो और पंचमहाभूताग्नि इन छः अग्नियों द्वारा
भागों में विभक्त होती है । पाक के कारण पककर तो सार बनता है फिर बची हुई प्रत्येक धातु का स्नेह अर्थात् सार उत्पन्न सात रसादि धात्वग्नि द्वारा पकाया जाता है
होता है । आपस में उपस्तंभ हेतु से रसादिकी उत्पत्तिकाक्रम ।
धात्वादिकों के सार की परंपरा यथोत्तर रसाद्रक्तं ततोमांसं मांसान्मेदस्ततोऽस्थिच
श्रेष्ठ है । जैसे रसके साररूप रक्त से रक्त अस्नो मज्जा ततः शुक्रं शुक्रादर्भः प्रजायते
का साररूप मांस श्रेष्ठहै । और मांस के अर्थ-उक्त प्रसादाख्य सार प्रथम हृदय में
| साररूप मेद से मेदके साररूप आप श्रेष्ठ पहुंचता है वहांसे व्यानवायु द्वारा हृदयस्थदश
है, ऐसे ही और भी जानौ । मूलशिराओं में होकर सब देहमें फैलता हुआ । आहारकी परिणति का काल । रस धातुसे मिलकर रसधात्वस्थ अंग्निसे पा. केचिदाहुरहोरात्रात्षडहादपरे परे ॥६५॥ क को प्राप्त होकर रक्तमें परिणत होता है,
मासेन यातिशुक्रत्वमन्नं पाकक्रमादिभिः । तदनंतर रक्तसे मांस, मांससे भेद, भेद से
___ अर्थ-कोई आचार्य कहते हैं कि पाक अस्थि, अस्थिसे मज्जा, मज्जासे शुक्र, और
क्रम ( जठराग्नि और पंचभूताग्नि ) द्वारा शुक्र से गर्भ की उत्पत्ति होती है ॥ पच्यमान रसरक्तादि क्रमपूर्वक वीर्यके प्रभाव रसादि धातुओं का किट्ट ।
से अन्न एक दिन रातमें शुक्र बनजाता है कफ-पित्तं मलः खेषु प्रस्वेदो नखरोम च ॥ कोई २ कहते हैं कि छः दिनमें अन्न से. स्नेहोऽक्षित्वग्विशामोजोधातूनांक्रमशोमला. शुक्र बनता है । अन्य आचार्य कहते हैं ___अर्थ-अब रसादि से जो मल उत्पन्न कि एक महिने में आहारसे शुक्र बनताहै । होते हैं उनका वर्णन है । रसधातु का मल भोज्यधातुओं की परिवृत्ति । कफ है । रक्तका मल पित्त है। मांसका सततं भोज्यधातूनां परिवृत्तिस्तु चक्रवत् ॥ मल वह है जो नासिका आदि के छिद्रों से
___+ इस विषय में पाराशर का यह मत निकलता है । मेदका मल पसीने हैं । अ- | है कि आठ दिन में आहार के रस से शुक्र स्थियों का मल नख और रोम हैं मज्जाको | बनता है । उन्हों ने अपने ग्रंथ में लिखा है मल नेत्रसंबंधी स्नेह, त्वचासंबंधी स्नेह
आहारोऽद्यतनोयश्चश्वो रसत्वं सगच्छति और पुरीषसंबंधी स्नेह है । और शुक्र का |
शोणितत्वं तृतीयेन्हि चतुर्थे मांसतामपि ।
मेदस्त्वंपंचमे षष्ठे त्वस्थित्वं सप्तमे व्रजेत्। मल ओज है।
| मज्जतांशुक्रतामेति दिवसेत्वष्टमेनृणामिति।
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(२९६)
- अष्टांगहृदय।
अ०३
अर्थ-भोज्य धातुओं का परिवर्तन अ- | त होती रहती है, यदि स्रोतों में किसी र्थात भ्रमण गाढी के पहिये की तरह धूमता प्रकार की विगुणता होने से शरीर के ही रहता है । पहिली वाली, जिस धातु से जिस अवयव वा स्थान में वह रुक जाती जो दूसरी धातु वनती है तो वह पहिली है वहां ही रोग उत्पन्न हो जाती है, जैसे बाला धातु दूसरी घातु की भोज्य धातु | बायु की प्रेरणा से आकाशस्थ मेघ महां अर्थात् आहार होती है, जैसे रस से रक्त इकट्ठे हो जाते हैं वहीं वरसते हैं । सब बनता है तो रस धातु रक्त की भोज्य जगह नहीं बरसते । इसी तरह रस भी धातु हैं, इसी तरह मासकी भोज्य धातु रक्त अपने रुकने के स्थानमें ही रोग को उत्पन्न है, मेदकी भोज्य धातु मांस है, अस्थि की करता है । भोज्य धातु मेद है, मज्जा की भोज्य धातु __ दोषोंका भी एक देशमें प्रकोपन । अस्थि है और शुक्र की भोज्य धातु मज्जा | दोषाणामपि चैवं स्यादेकदेशप्रकोपणम् । है। भोज्यधातु निरंतर आप्यायित रहने के अन्नभौतिकधात्वाग्निकर्मति परिभाषितम् ॥ कारण क्षीण नहीं होती है।
___ अर्थ- जैसे रस धातु अपनी विगुणता वृष्य पदाथाको सद्यःवीर्योत्पादकता ।
से जहां रुकती है वहीं रोग उत्पन्न करती वृष्यादीनि प्रभावेण सद्यःशुमादि कुर्वते ।
है वैसेही वातादि दोष भी व्यानवायु से अर्थ-दूध मांसरस, मुलहटी, उरद, विक्षिप्त होकर स्रोतो दुष्टि के कारण जहां कूष्मांड, हंसादि पक्षियों के अंडे तत्काल शु- रुक जाते हैं वहीं विकार उत्पन्न करते हैं, क को उत्पन्न करते हैं।
यही कारण है कि सिध्म, श्ययथु आदि . अहोरात्र में स्वकर्मकर्तव्य । | रोग एक ही स्थान में होते हैं। प्राय:करोत्यहोरात्रात्कर्मान्यदपि भेषजम् ॥ अन्नाग्नि कर्म, भौतिकाग्नि कर्म, और - अर्थ वृष्यादि द्रव्यों के अतिरिक्त और | धात्वग्नि कर्म ये पहिले ही कहेजा चुके भी चूर्ण गुटका आदि संदीपन औषध | है, अब अन्नाग्नि की श्रेष्ठता प्रतिपादन अपना अपना कर्म एक दिन रात में | करते हैं। करती हैं।
जठराग्नि के पालनादि कर्म । जठराग्निद्वारा आहारकी प्रेरणा। | अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तणामधिको मतः। म्यानेनरसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा। तन्मूलास्ते हि तद्वद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मकाः ॥ युगपसर्वतोऽजलं देहे विक्षिप्यते सदा ॥ | तस्मात्तं विधिवद्युक्तरन्नपानधनैर्हितः । क्षिप्यमाणःस्ववैगुण्यासःसज्जति यत्र सः। पालयेत्प्रयतस्तस्यस्थितौ ह्यायुर्बलस्थितिः। तस्मिन्विकारं कुरुते खे वर्षमिव तोयदः ॥ अर्थ-सब प्रकार की आग्नियों में अन्न
अर्थ-व्यानवायु से विक्षिप्यमाण रस | को पचानेवाली पाचकाग्नि अर्थात् धातु संपूर्ण शरीर में सदा चारों ओर प्रेरि- | जठराग्नि श्रेष्ठ होती है, क्योंकि पाचकाग्नि
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अ०
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ही भूताग्नि और धात्वादि अग्नियों की मूल है । इसी पाचकाग्नि की वृद्धि और क्षय से ही उनकी भी वृद्धि वा क्षय होता है इस लिये उचित है के हितकारी अन्नपान के विविधि प्रयोगों द्वारा यत्नपूर्वक सेवन करने से पाचकाग्नि की रक्षा करै । जैसे ईंधन के लगाने से अग्नि की वृद्धि होती है, कारण यही है कि पाचकाग्नि की स्थिति परही आयु और बलकी स्थिति निर्भर है । जठराग्नि के चार भेद । समः समाने स्थानस्थे विषमोऽग्निर्विमार्गगे । पित्ताभिमूर्छिते तीक्ष्णो मंदोऽस्मिन्कफपीडिते ॥ ७३ ॥ समोऽग्निर्विषमस्तीक्ष्णो मंदश्चैवं चतुर्विधः
अर्थ- - जब समान वायु अपने स्थान में रहता है तब जठराग्नि सम होती है और जब समान वायु अपने स्थान को छोडकर अन्य मार्ग में जाती है तब जठराग्नि विषम होजाती है, जब समान वायु पित्त से मूछित होती है तव जठराग्नि तीक्ष्ण होती है, इसी तरह कफ से पीडित होने पर अग्नि मंद होती है |
इस रीति से अग्निं चार प्रकार की होती है, जैसे समाग्नि, विषमाग्नि तीक्ष्णाग्नि और मंदाग्नि ।
चतुर्विध अग्नि के लक्षण | यः पचेत्सम्यगेवान्नं भुक्तं सम्यक् समस्त्वसौ विषमोsसम्यगण्याशु सम्यकूक्वापि
३८
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[ २९७ )
अर्थ - जो अग्नि विधिपूर्वक किये हुए भोजन को सम्यक् रीति से पचाती है वह समाग्नि है | जो अग्नि देश, काल, मात्रा विधि आदि का विचार किये विना असम्यक् रीति से किये हुए भोजन को शीघ्र पचादेती है और जो कभी सम्यक् भुक्त अन्न को देर में पचाती है उसे विषमानि कहते जो अग्नि अतिमात्र वा असम्य
|
कू भुक्त अन्न को भी शीघ्र पचादेती है ! वह तीक्ष्णानि है और जो अग्नि सम्यक् रीति से किये अल्प भोजन को भी मुख में शोपादिक उत्पन्न करके देर में पचाती है वह मंदाग्नि है | मंदाग्निवाले के पाचन काल में मुखशोष, पेट में गुडगुडाहट, अंत्रकूंजन, अफरा, और भारापन होता है । *
बलके भेद और लक्षण | सहजं कालजं युक्तिकृतं देहवलं त्रिधा । वयस्कृतमृतूत्थं च कालजं युक्तिजं पुनः । तत्र सत्वशरीरोत्थं प्राकृतं सहजं बलम् ७७॥ विहाराहारजनितं तथोर्जस्करयोगजं ७८
अर्थ - देहका वल तीन प्रकार का होता है । यथा, सहज, कालज और युक्तिकृत | इनमेंसे सत्व, रज, तम, इन तीनों गुण से
+ किसी पुस्तक में यह पाठ अधिक है शांतेग्नौ म्रियते युक्ते चिरंजीवत्यनामयः । रोगीस्याद्विकृते मूलमग्निस्तस्मान्नियच्यते । अर्थात् अग्नि के नष्ट होने पर मृत्यु चिरात्पचेत् । होती है, समभाव में स्थित होने पर निरोतीक्ष्णो वह्निः पचेच्छीव्रमसम्यगपि भाजनम् गता और दीर्घ जीवन होता है, विकृत होने मंदस्तु सम्यगप्यन्नमुपयुक्तं चिरात्पवेत् । पर अनेक प्रकार के रोग होते हैं अतएव कृत्वाऽस्यशोपाटोपांत्रकूजनाऽध्मान गौरवम् | अग्नि ही शरीर का मूल आधार है ।
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(२९८ ]
उत्पन्न तथा देहसे उत्पन्न जो स्वाभाविक
बल होता है । उसे सहजबल कहते हैं । जो I बल बाल्य अवस्था वा युवा अवस्थासे उत्पन है अथवा हेमंतादि ऋतुओं के कारण से होता है उसे कालज बल कहते हैं । तथा जो बल आहार विहारसे उत्पन्न होता है और वाजीकरणादि रासायनिक बलकारक प्रयोगों के सेवन से होता है उसे युक्तिकृत कहते हैं ॥
1
।
अंजली अधिक होते हैं। जैसे मज्जा एक अंजली, मेदा दो अंजली, वसा तीन अंजली, इत्यादि तथा जल दस अंजलि है । इसीतरह ओज, मस्तिष्क और वीर्य अपने हाथ से प्रत्येक एक प्रसृत अर्थात् आधी आधी अंजली हैं । त्रियों के स्तन्य अर्थात् दूध दो अंजली है और रज चार अंजली होता है । यह परिमाण उन मनुष्यों का है जिनके धातु समप्रकृति पर हैं धातुओं के घटने बढने के अनुसार ही मज्जादि का परिमाण घट बढ़ जाता है । सातप्रकार की प्रकृति । शुक्रासृग्गर्भिणी भोज्यचेष्टा गर्भाशयतुषु । यः स्याद्दौषोऽधिकस्तेन प्रकृतिः सप्तधोदिता
अर्थ- शुक्र, शोणित, गर्भिणी का आहार विहार, गर्भाशय और ऋतु इनमें बाता, दिक दोषों में से जिस दोष की अधिकता होती है उसी दोष के अनुसार प्रकृति होती है, इस जगह प्रकृति सात प्रकार की होती है जैसे वातप्रकृति, पित्तप्रकृति, कफप्रकृति, पित्तकफवातपित्तप्रकृति, वातकफप्रकृति, प्रकृति और वातकफपित्तप्रकृति । बातको प्रधानता । विभुत्वादाशुकारित्वा द्वलित्वादन्यकोपनात् स्वातंत्र्याद्वहुरोगत्वादोषाणां प्रबलोऽनिलः
अर्थ-विभुत्व ( सबशरीर में व्यापकता) आशुकारित्व ( शीघ्रतापन ), वालिव (बलबत्ता ), अन्यप्रकोपनत्व ( और दोषों को कुपित करनेवाला ), स्वातंत्र्य ( अन्य को प्रेरणा करनेवाला ) और वहुरोगल ( सब से अधिक रोगों को करनेवाला ) इन छः कारणों से वायु सब दोषों से प्रवल है ।
अष्टांगहृदय |
देशको त्रिविधत्व । देशोऽल्पवारिदुनगो जांगलः स्वल्प रोगदः । आनूपो विपरीतोऽस्मात्समः साधारणःस्मृतः ॥ ७९ ॥ अर्थ- देश भी तीन प्रकारका होता है । जैसे जांगल, आनूप और साधारण । जिस देश में अल्प जल, अल्पवृक्ष, और अल पर्वत हों वह जांगल देश है। ऐसे देश में रोग भी कम होते हैं । आनूप देश इससे विपरीत होता है अर्थात् उसमें जल, वृक्ष, अ और पहाड बहुत होते है और रोग भी अधिक होते हैं । साधारण देश सम होता है इसमें जल वृक्ष, पर्वत और रोगादि न तो बहुत ही होते हैं और न थोडे ही होते हैं |
देहमें मज्जादिका प्रमाण । मज्जमेदोवसामूत्रपित्तश्लष्म शकुंत्यसृक् ॥ रसो जलं च देहेऽस्मिन्नेकैकांजालवर्धितम् । पृथक्स्व प्रसृतं प्रोक्तमोजोमस्तिष्करेतसाम् ॥ द्वाबजली तु स्तन्यस्य चत्वारो रजसः स्त्रियाः समधातोरिदं मानं विद्यादृद्धिक्षयावतः ८२
अर्थ - मनुष्य के देहमें मज्जा, मेदा, वसा, मूत्र, पित्त, श्लेष्मा, पुरीष, रक्त, रस और जल ये दस द्रव्य यथोत्तर अपने हाथकी एक एक
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[२९९ ]
वातप्रकृति के लक्षण। वहुभोजी, विलासी, गाना, हंसना, आवेट प्रायोऽत एव पवनाध्युषिता मनुष्या
और कलह का अभिलाषी, मीठा, खट्टा, दोषात्मकाः स्फुटितधूसरकेशगात्राः। नमकीन और उष्ण पदार्थों के सेवन की शीतद्विषश्चलधृतिस्मृतिबुद्धिचेष्टाः- इच्छावाला, कृश और दीर्घ आकृति वाला, सौहार्ददृष्टिगतयोऽतिबहुप्रलापाः ८५
| चलेने में शब्द करने वाला, न दृढ, न अल्पपित्तबलजीवितनिद्रा:सन्नसक्तचलजर्जरवाचः ।
जितेन्द्रिय, अनार्य, स्त्री पर प्रेम न रखने नास्तिका बहुभुजः सविलासा- घाला, थोडी संतान वाला, होता है । इस गीतहासमृगयाकलिलालाः ॥८६॥ के नेत्र कर्कश, धूसरवर्ण, गाल, अचारु मधुराम्लपटूष्णसात्म्यकांक्षाः सौंदर्यहीन मृतोपम होतहैं इसके नेत्र सोते कृशदीर्घाकृतयः सशब्दयाताः।
समय खुले से रहते हैं स्वप्न में पर्वत, वृक्ष न दृढा न जितेंद्रिया न चार्यान च कांतादयिता वहुप्रजा वा ॥ ८७ ॥
और आकाशादि में धूमता है । बातप्रकृति नेत्राणि चैषां खरधूसराणि- वाला मनुष्य अभव्य, द्वेषपूर्ण, और चोर हो वृत्तान्यचारूणि मृतोपमानि । ता है । इनके पांवोंकी पिंडली ऊंची होती उन्मालितानीव भवंति सुप्ते
हैं । इनका स्वभाव कुत्ता, शृगाल, ऊंट, गिशैलदुमांस्ते गगनं च यांति ॥ ८८ ॥
द्ध, चूहे और कौए के सदृश होता है। अधन्या मत्सराध्माता:स्तेनाः प्रोद्वद्धपिंडिकाः।
पित्तप्रकृति के लक्षण । श्वश्रगालोष्टगध्राखु
पित्तं वहिर्वहिजं वा यदस्माकाकानूकाश्च वातिकाः ॥
त्पित्तोद्रिक्तस्तीक्ष्णतृष्णांबुभुक्षः। अर्थ-वातप्रकृतिवाले मनुष्य का स्वभाव | गौरोष्णांगस्ताम्रहस्तांघ्रिवकः प्रायः प्रारंभ से जीवन पर्यन्त उत्तम नहीं
शूरो मानी पिंगकेशोऽल्परोमा ॥९॥
दयितमाल्यविलेपनमण्डन:होता है । इनके बाल और शरीर फटे हुए
सुचरितः शुचिराश्रितवत्सलः। और देह का रंग धूलधूसरित सा होता विभवसाहसबद्धिबुलान्वितोहै इनको शीतल पदार्थ अच्छे नहीं लगते भवति भीषुमतिषितामपि ॥ ९ ॥
मेधावी प्रशिथिलसंधिबंधमांसो.. हैं इनकी धृति, स्मृति, वुदि चेष्टा, सह
नारीणामनाभमतोऽल्पशुक्रकामः । दता, दृष्टि और गति स्थिर नहीं होती हैं
आवासः पलिततरंगनीलकानांये निर्थक वातों को बहुत बकते हैं इनका भुक्तेऽनं मधुरकषायतिक्तशीतम् ९२॥ पित्त, बल, जीवन और निद्रा अल्प होते धर्मद्वेषी स्वदनः पूतिगंधिहैं, मुख से सन्न ( शिथल ) चल ( कुछ
भूयुच्चारक्रोधपानाशनर्ण्यः ।
सुप्तः पश्येत्कर्णिकारान्पलाशान्का कुछ ) और जर्जर (टूटे हुए ) शब्द
दिग्दाहोल्काविद्युदर्कानलांश्च ॥ १३॥ निकलते हैं । वात प्रकृति वाला नास्तिक, तनूनि पिंगानि चलानि चैषां
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अष्टांगहृदय |
(300)
तन्वल्पपक्ष्माणि हिमप्रियाणि । क्रोधेन मद्येन वेश्च भासारागं व्रजंत्यासु विलोचनानि ॥ ९४ ॥ मध्यायुषो मध्यबलाःपण्डिताः क्लेशभीरवः । व्याघ्राक्ष की मजारयज्ञानूकाश्च पैत्तिकाः ॥ ९५ ॥
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अ ३
और
घ्र ही लाल होजाते हैं । इनकी आयु बल मध्यम होते हैं । ये पंडित और क्लेशसे डरनेवाले होते हैं। इनका स्वभाव व्याघ्र, रीछ, बंदर, बिल्ली और यक्ष के सदृश होता है ये सब लक्षण पित्त प्रकृतिवालों के हैं ॥ कफ प्रकृति के लक्षण ।
अर्थ - धन्वन्तरि के मत से पित्त स्वयं अग्नि है अथवा अग्निसे उत्पन्न पित्त है । इस लिये पित्तप्रकृतिवाला मनुष्य तीव्र तृषा और तीव्रक्षुधावाला होता है । इसका रंग गोरा और अंग गरम होता है इसके हाथ, पां और मुख ताम्रवर्ण होते हैं । यह शूर और मानी होता है | वालों का रंग पीला और रोम थोडे होते हैं । इसको माला चंदनादि लेपन और आभूषण प्रिय होते हैं । यह सुरि पवित्र, शरणागतवत्सल, ऐश्वर्यवान्, साहसी बुद्धि, और बलसे युक्त, भयमें शत्रुओं की भी रक्षा करनेवाला, मेधावी, शिथिल संधिबंधन और मांसयुक्त होता है । स्त्रियों से प्रेम राहत, I अल्पवीर्ययुक्त और अल्पकामी, यह पठित, व्यंग और नीलिका रोगका आबास होता है । मधुरकषाय, तिक्त और शीतल भोजनका प्रेमी होता है । उष्णद्वेषी, पसीनोंसयुक्त, दुर्गंधियुक्त अत्यन्त विष्टका त्यागनवाला, अतिक्रोधी, अति खाने पीने वाला और अत्यन्त ईर्षक होता है । इसको स्वप्न में कनेर, ढाक, दिग्दाह, उल्कापात, विद्युत्पात, सूर्य और अग्नि दिखाई देते हैं । इसके नेत्र छोटे, पिंगलवर्ण, चंचलकम और छोटे पक्ष्मोंसे युक्त । शीत
प्रिय, क्रोध, मद्य, और सूर्य की चमक से शी | ब्रह्मरुद्रद्रवरुणतार्क्ष्यहंसगजाधिपैः।
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श्लेष्मा सोमः श्लेष्मलस्तेन सौम्योगूढस्निग्धश्लिष्टसंध्यस्थिमांसः । क्षुतृडदुःखक्लेशधर्मैरतप्तोबुद्धया युक्तः सात्विकः सत्यसंधः ९६॥ प्रियंगुदूर्वाशरकांड शस्त्रगोरोचनापद्मसुवर्णवर्णः । प्रलंवबाहुः पृथुपीनवक्षामहाललाटो घननलिकेशः ॥ ९७ ॥ मृद्वंगः समसुविभक्तचारुवर्माबहवोजोरतिरसशुक्रपुत्रभृत्यः । धमला वदति न निष्ठुरंच जातुप्रच्छन्नं वहति दृढं चिरं च वैरम् ९८ ॥ समदरिद्रतुल्ययातोजलदांभोधिमृदंगसिंहघोषः । स्मृतिमानभियोगवान् विनीतो न च बाल्ये ऽप्यतिरोदनो न लोलः ॥ तिक्तं कषायं कटुकोष्णरूक्षमल्पं स भुंक्ते बलवांस्तथाऽपि । रक्तांतसुस्निग्धविशालदीर्घसुव्यक्तशुक्लासितपक्ष्मलाक्षः ॥ अल्पव्याहारकोधपानाशनेह प्राज्यायुर्वित्तो दीर्घदर्शी वदान्यः । श्राद्धो गंभीरः स्थूललक्षः क्षमावानार्यो निद्रालुदर्घसूत्रः कृतज्ञः ॥ ऋजुर्विपश्चित्सुभगः सलजो भक्तो गुरूणां स्थिरसौहृदश्च । स्वप्ने सपद्मान्सविहंगमालांस्तोयाशयान् पश्यति तोयदांश्च ॥
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श्लेष्मप्रकृतयस्तुल्वास्तथा सिंहाऽश्वगोवृषैः॥ अर्थ - कफ सोमस्वरूप होता है, इस लिये कफ प्रकृतिवाला मनुष्य, शांत स्वभाव होता है। इसके संधि, अस्थि और मांस गूढ, सचिक्कण और दृढ होते हैं इसको भूख प्या स, दुख, क्लेश और गरमी सताते हैं । यह बुद्विमान सतोगुणविशिष्ठ और सत्यप्रतिज्ञ होता है । इसमें प्रियंगु, दूर्वा, शरकांड, शस्त्र, गोरोचन, कमल वा सुवर्ण आदि जुदे जुदे वर्णों के मनुष्य होते हैं । इनकी लंबी बाहु, मोटा और चौड़ा वक्ष:स्थल, बडा ललाट, सघन और नीले केश तथा कोमल अंग होते हैं । इसका शरीर बड़ा सुंदर और सुडौल होता है । यह बहुत ओज, रतिरस, शुक्र पुत्र और भृत्यों से युक्त होता है, धर्मात्मा होता है, किसी से निष्ठुर वचन नहीं कहता है, वरे को कभी नहीं भूलता
है, बहुत काढतक गुप्त भाव से रखता है। यह मतवाले हाथी की तरह घूमता हुआ चलता है, इसका शब्द मेघकी गर्जन वा मृदंग के शब्द वा सिंहध्वनि के सदृश होता है यह स्मृतिमान, उद्योगी, और विनीत होता है, वाल्यावस्था में भी न रोता न चंचल होता है । यह तिक्त, कषाय, केटु, उष्ण, रूक्ष तथा थोड़ा भोजन करता है तथापि बलवान् होता है। इसके नेत्रों के प्रांत ला
वर्ण के होते हैं तथा विशाल, दीर्घ, और वहु पक्ष्मयुक्त होते हैं, इसके नेत्रों के श्वेत और कृष्णमंडल बहुत सुंदर होते हैं। इसके वाक्य, क्रोध, पान, भोजन, चेष्टा कम होते
[ ३०१३ ]
हैं यह दीर्घायु, अत्यंतधनी, दूरदर्शी, अल्पभाषी, दाता, श्रद्धावान्, गंभीर स्वभाव, उच्चाशय, क्षमावान्, आर्य, निद्रालु, दीर्घसूत्री ( देर में काम करनेवाला ) कृतज्ञ, सरल प्रकृति, पंडित, सौभाग्यशाली, सलज्ज अपने से बड़ों का सेवक, दृढ मित्रतायुक्त होता है । इसको स्वप्न में कमल और पक्षियों से युक्त जलाशय तथा मेघ दिखाई देते हैं । इसका स्वभाव ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, गरुड, हंस, ऐरावत हाथी, सिंह, अश्व, गौ वा बैल के सदृश होता है । ये सब कफप्रकृति वालों के लक्षण हैं ।
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द्वन्द्वप्रकृति के लक्षण | प्रकृतीर्द्वय सर्वोत्था द्वंद्वसर्वगुणोदये ।
अर्थ- वातादि दो दो दोषों के मिलित लक्षण दिखाई देने से द्वन्द्वप्रकृति होती है और तीनों दोषों के मिलित लक्षण हों तो सर्व दोष प्रकृति होती है ।
सत्वादि प्रकृतिका निरूपण । शौचास्तिक्यादिभिश्चैवं गुणैर्गुणमयीर्वदेत् ॥
1.5
अर्थ- वातादि सात प्रकृतियों के संदृश शौच, आस्तिक्य औरं शुक्लधर्म की रुचिकै अनुसार सत्वादि गुणों के द्वारा सत्वादि सात ही प्रकृति होती हैं और जाति, देश, काल, वय, बल, और प्रकृति ये सात इन के अधिष्ठान हैं सत्वादि प्रकृतियों के नाम ये हैं यथा -- सत्वप्रकृति, रजःप्रकृति तमः प्रकृति, सत्वरजः प्रकृति, सत्वतमः प्रकृति, रजस्तमः प्रकृति और सत्वरजस्तमः प्रकृति ।
सत्वादि प्रकृतियों का ज्ञान । वयस्त्वाषाडशाद्वांल तत्र धात्विंद्वियौजसाम्
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३०२)
अष्टांगहृदय ।
अ०३
वृद्धिरासप्ततेमध्यं तत्रावृद्धिः परं क्षयः॥ (४) अति गोरा, (५) अतिस्थूल, (६) अर्थ-सोलह वर्षकाअवस्था तक वाल्यावस्था
आतेकृश (७ ) अतिदीर्घ और ( ८) होती है, इस वाल्यकाल में रसादि धातु
अति लघु । नेत्रादि इन्द्रिय, और ओज की बृद्धि होती
पीठआदि के लक्षण । है । सोलह वर्ष से सत्तर वर्ष की अवस्था
सुस्निग्धा मृदवः सूक्ष्मा नकमूलाः स्थिरातक मध्यावस्था होती है, इसमें धात्वादिकों
कचाः ॥ १०७॥ की वृद्धि नहीं होती है और सत्तर वर्षकी ललाटमुन्नतं क्लिष्टशंखमधंदुसंनिभम् । अवस्था से ऊपर धात्वादिकों का क्षय होता कर्णीनीचोन्नती पश्चान्महांती श्लिष्टमांसलौ
नेत्रे व्यक्तासितसिते सुबद्धे घनपक्ष्मणी । है । ( वाल्यावस्था भी तीन प्रकारकी होती
उन्नतामा महोच्छ्वासापीनर्जुनासिकासमा है एक केवल क्षीरपानावस्था, दूसरी क्षीरान
ओष्ठौ रक्ताबनुवृत्ती महत्यौ नोल्पणे हनू । भोजन अवस्था, तीसरी अन्न भोजन अव- महदास्यं घना दंताः स्निग्धाः श्लक्ष्णा सिताः स्था । बाल्यावस्था में कफ की आधिकता
समाः ॥ ११०॥
जिह्वा रक्तायता तन्वी मांसलं चिबुकं महत् होने से स्निग्धता, महुता, सुकुमारता,अल्प
प्रीवाहस्वाधना वृत्ता स्कंधाबुन्नतपीवरी ॥ क्रोध और सौभाग्यादि होते हैं । मध्यावस्था उदरं दक्षिणावर्तगूढनाभि समुन्नतम् । भी तीन प्रकारकी होती है, यौवन, संपूर्ण- | तनुरक्तोन्नतनखं निग्धमाताम्रमांसलम्११२ त्व और अपरहानि । तीस वर्ष की अवस्था दीर्घाच्छिद्रांगुलि महत्पाणिपादं प्रतिष्ठितम् सक यौवन, चालीस वर्ष की अवस्थातक अर्थ-अव उन बातों को लिखते हैं संपूर्ण धातु, इन्द्रिय, बल, वीर्य, पौरुष, कि जिनके होने से, शरीर सुख और दीर्घ स्मृति, आदि स्थिर रहते हैं । इससे परे जीवन का पात्र होता है । जिसके केश अपरिहानि। ..
चिकने, कोमल, सूक्ष्म, अनेकम्ल और शरीरका परिमाण और लक्षण ।
स्थिर होते हैं वह सुख का पात्र है । ऊंचा सं स्वं हस्तत्रय सार्धवपुः पात्रं सुखायुषोः।
ललाट, श्लिष्ट और अर्द्धचन्द्राकार कनपटी, नचयाक्तमुद्रिक्तैरष्टाभिनिदितैर्निजैः॥ भरोमशासितस्थूलदीर्घत्वैः सविपर्ययैः ॥ | नीचे को छोटे और ऊंचे, पीछे को बडे
अर्थ-जो देह अपने हाथसे साडेतीन | और मांसयुक्त । नेत्रसुव्यक्त काले और हाथ का होता है वही सुख औरै आयु का | सफेद मंडलों से युक्त, सुसंबद्ध और घने पत्र होता है। किंतु जो यह दंह मरण | पक्ष्मसे युक्त । नासिका आगेकी ओर ऊंची पर्यन्त आतनिन्दित अरोमशादि आठ दोषों महा उच्छास से युक्त, पुष्ट, सीधी और न से युक्त होतो सुख और आयु का पात्र | नीची न ऊंची । ओष्ठ-लाल, बाहर को नहीं है, वे आठ दोष ये हैं (१) रोमरहित, न निकले हुए । ठोडी-चौडी, ऊंचेको न (२) अतिरोमयुक्त, (३) अति काला, | उठी हुई । मुखका छिद्र---बडा । दांत
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३०३]
घन ( बीच में जगह नहो ) कोमल, कांति | से युक्त शरीर सौ वर्षतक स्थिर रहता है युक्त, सफेद और समान । जिवा-लाल, तथा दीर्घ जीवन, ऐश्वर्य, तथा संपूर्ण लंबी और पतली । चिवुक -मांसयुक्त और अभीप्सित पदार्थों से युक्त रहता है । बडी । ग्रीवा-हस्व, घन, और गोल । कंधे |
वलके प्रमाण का ज्ञान । ऊंचे और मोटे । उदर-दक्षिणावर्त गंभीर | त्वग्रतादीनि सत्वांतान्यग्राण्यष्टौ यथोत्तरम् नाभिवाला, तथा सुशोभितपने से ऊंचा। वलप्रमाणशानार्थ साराण्युक्तानि देहिनाम् । हाथपांव - पतले और लाल रंग के नखों से | साररुपतः सर्व र
सारैरुपेतः सर्वै स्यात्परं गौरवसंयुतः।
सर्वारंभेषुचाशावान्सहिष्णुःसन्मति:स्थिर। युक्त, स्निग्ध, तांबे के रंगके सदृश, मांसल तथा लंबी और छिद्ररहित अंगुलियोंसे युक्त
अर्थ-शरीरधारियों के बलका प्रमाण जिस मनुष्य के अंग प्रत्यंग उक्तं लक्षणोंसे
| जानने के लिये त्वचा और रक्तादि आठ युक्त होते हैं वह सुख और दीर्घजीवनका
प्रकार के सार कहे गये हैं, यथा-त्वक्सार, पात्र होता है।
रक्तसार, मांससार, मेदोसार, अस्थिसार, शरीरके शुभ लक्षण। | मज्जासार, शुक्रसार और सत्वसार । इन गूढवंशं वृहत्पृष्ठं निगूढा संधयो दृढाः॥११३ | आठ सारोंमें उत्तरोत्तर सार श्रेष्ठं हैं। धीरः स्वरोऽनुनादी च वर्णः स्निग्धास्थिरप्रभा संपूर्ण सारोंसे युक्त मनुष्य अत्यन्त गौरवस्वभावजं स्थिरं सत्वमविकारि विपत्स्वपि। शाली. संपूर्ण कार्यों के पूरा करने में आशाउत्तरोत्तरंसुक्षेत्रं वपुर्ग दिनीरुजम् । । आयामज्ञानविज्ञानैर्धमान शनैः शुभम् ११५/
१२वान् , सहिष्णु, सुन्दर वुद्धि से युक्त और इति सर्वगुणोपेते शरीरे शरदां शतम। | स्थिर चित्त होता है। आयुरैश्वर्य मिष्टाश्च सर्वे भावाः प्रतिष्ठिताः।
सत्वादि प्रकृति वाले को दुख सुख का ___ अर्थ-पृष्ठदेश-पीठ चौडी हो जिसमें
अनुभब । पीठ का बांस दिखाई न देता हो । संधि
अनुत्सेकमदैन्यं च सुखं दुःखं च सेवते। यां मांस से ढकी हुई और दृढ । स्वर
सत्ववांस्तप्यमानस्तुराजसो नैव तामसः ॥ गंभीर और घंटे के टंकोर के सदृश । वर्ण
___ अर्थ-सतोगुण मनुष्य अभिमान को स्निग्ध और स्थिर कांतियुक्त | सत्व-स्वाभा
| त्यागकर सुखको भोगता है और कृपणता विक स्थिर और बिपत्ति में भी विकार को | को त्यागकर दुःख को भोगता है रजोगुणी प्राप्त न होने वाला । इस तरह उत्तरोत्तर | मनुष्य अभिमान युक्त होकर सुख और कुशुभ क्षेत्र से युक्त गर्भ काल से रोगरहित | पण हांकर दुःख भोगकरता है और तमोलौकिक व्यवहार और शास्त्र के ज्ञान से | गुणी मनुष्य अत्यन्त मूढ होने के कारण परिवर्द्धित देह शुभ लक्षणों से युक्त होता | न दुख का अनुभव करता है न सुख का है । ऊपर कहे हुए संपूर्ण शुभ लक्षणों | अनुभव करताहै ।
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अष्टांगहृदय ।
अ० ४
-
-
-
शरीर का प्रधान फलदायी लक्षण । | । अर्थ-पांव के तलुए में मध्यमा अंगुली दानशीलदयासत्यब्रह्मचर्यकृतज्ञताः । के सन्मुख बीच के भाग में एक तलहुत रसायनानि मैत्रीच पुण्यायुर्वृद्धिकृद्गुणः॥ मर्म होता है. उस में आघात अर्थात् चोट ___ अर्थ-दानशीलता, दया, सत्य, ब्रह्म
लगने से तीव्र वेदना होकर मृत्यु होजाती चर्य, कृतज्ञता, रसायनक्रिया, और मित्रता
| है । अंगूठा और उसके पास वाली उंगली ( संपूर्ण प्राणियों में आत्मभाव ), ये सब
के बीच में क्षिप्रनामक भर्म है, उसमें विद्ध गुण पुण्य जनक और आयु को वढाने
होने से आक्षेप नाम रोग उत्पन्न होने से वाले हैं।
मृत्यु होती है । इस क्षिप्रमर्म से दो अंगुल इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां
ऊंचा एक कूर्चनामक मर्म है उसमें विद्ध शारीरस्थाने तृतीयोऽध्यायः ।।
होने से पादभ्रमण और कंपन होता है ।
गुल संध्यादि में मर्म । चतुर्थोऽध्यायः ।
गुल्फसंधेरधः कूर्चशिरः शोफरुजाकरम् ४ जंघाचरणयोः संधौ गुल्फो रुक्स्तंभमांधकृत्
जंघांतरे त्विद्रबस्तिमारयत्यसृजः क्षयात् ॥ अथाऽतो मर्मावभाग शारीरं व्याख्यास्यामः ___ अर्थ-टकनों की संधि के नीचे एक
अर्थ-अबहम यहांसे मर्मविभागशारीर कूर्चशिर नामक मर्म होता है, इसमें विद्ध नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । होने से सूजन और वेदना होती है । जंघा ममों की संख्या।
और चरणों की संधि में गुल्फ. नामक मर्म "सातोत्तरं मर्मशतम्
है, इसके बिद्ध होने पर वेदना, स्तब्धता ...
तेषामेकादशादिशेत् । और अग्निमांद्य होता है, तथा इस में विद्ध पृथक्सक्थ्नोस्तथावाह्नोस्त्रीणिकोष्ठेनवोरास
होने से रुधिर के निकलने से मृत्यु हो पृष्ठे चतुर्दशो_तु जत्रोस्त्रिंशच सप्त च । ___ अर्थ-संपूर्णमर्म १०७ है । इन में से | जाती है । प्रत्येक सक्थ्नि और प्रत्येक हाथ में ग्यारह , जंघादि के मर्मों के नाम । ग्यारह के हिसाब से ४४ हुए । कोष्ठमें : जंघोर्वोः संगमे जानुखंजता तत्र जीवतः । तीन, वक्षःस्थल में नौ, पीठमें चौदह और जानुनस्व्यंगुलादूर्ध्वमाण्यरुस्तंभशोफकृत् ॥
उलो॒रुमध्येतद्वधात्सक्थिशोषोऽस्रसंक्षयात् जत्रु से ऊपर सेंतीस मर्म हैं ।
ऊरुमूले लोहिताख्यं हंति पक्षमसृक्क्षयात् । विशिष्ट संज्ञावाले मर्म ।
मुष्कवंक्षणयोर्मध्ये विटपं षंढताकरम् । मध्ये पादतलस्याहुरभितो मध्यमांगुलिम् २ | अर्थ-जंघा और ऊरुकी संधिमें जानु तलहनामरुजया तत्र विद्धस्व पंचता। |
नामक मर्म है इसके विद्ध होने पर मृत्यु हो अंगुष्ठांगुलिमध्यस्थंक्षिप्रमाक्षेपमारणम् ३॥ तस्योर्ध्वं यंगुले कूर्चः पाइभ्रमणकंपकृत् ।। जाती है । यदि मृत्यु न होतो खंजता होती,
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अ. ४
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत |
[३०५)
है । जानुसे तीन अंगुल ऊंचेपर आणि ना- | और अधोवायु निकलते हैं इसमें चोट लग मक मर्म है । इसके विद्ध होने पर उरुस्तंभ | ने से बहत ही जल्दी मत्य होजाती है। और सूजन होती है । ऊरुके मध्यमें उर्वी
बस्त्याख्य मर्म। नामक मर्म होता है । इसके विद्ध होने पर | मूत्राशयो धनुर्वक्रो बस्तिरल्पास्रमांसगः ॥ रुधिरके क्षय होनेसे पांव सूख जाता है। उ- | एकाधोबदनोमध्ये कट्याः सद्यो निहत्यसून्। रु की जडमें लोहित नामक मर्म है इसके
'ऋतेऽश्मरीव्रणाद्विद्धस्तत्राप्युभयतश्च सः॥
मूत्रस्राव्येकतो भिन्नो व्रणो रोहेच्च यत्नतः । विद्ध होनेपर रुधिर निकलनेसे पक्षाघात हो
देहामपक्कस्थानानां मध्ये सर्वसिराश्रयः॥ ता है । अंडकोष और वंक्षण के वीचमें वि | नाभिः सोऽपि हि सद्योघ्नोटप नामक मर्म है । इसके विद्ध होनेसे नपुं- | अर्थ-कटि के मध्यभाग में एक मूत्रासकता होती है ॥
शय नामक मर्म है, यह धनुषके समान टेढा. हाथों के मर्म के नाम ।
होता है, इसमें रक्त और मांस कम होता इतिसक्नोस्तथावाह्वोर्मणिबंधोऽत्रगल्फयत है, इसका एक मात्र मुख नीचे को होताहै कूर्परं जानुवत्कोण्यंतयोर्विटपवत्पुनः।
इसमें अश्मरी निकालने के घावको छोडकर कक्षासमध्ये कक्षाधृक् कुणित्वंतत्र जायते ॥ अन्य प्रकार से विद्ध होने पर रोगी तत्काल - अर्थ-इसतरह हरएक पांवमें ग्यारह मर्म मरजाता है । वस्तिमर्म के दोनों ओर विद्ध होते हैं। तथा इसीके अनुसार हाथोंमें भी होने से मूत्र निकलने लगता है, और एक ग्यारह मर्म होते है । परन्तु वाहके मोंमें कु- ओर विद्ध होने पर व्रण बडी कठिनता से छ विशेषता है जैसे वाहुके मर्ममें गुल्फ के
भरता है । देहके भीतर आमाशय और सदृश मणिबंध होता है। जानु के मर्मके सह पक्वाशय के वीचमें संपूर्ण सिराओं के आश कूपर है इन दोनोंके विद्ध होनेसे हाथ औ
श्रित एक नाभि नामक मर्म है, यह भी र हाथकी अंगुलियों में कुजता अर्थात् टॉ
तत्काल मृत्युकारक है। टापन आजाता है । कक्षा और अक्षके वी
हृदयके मर्म । च में विटपके सदृश कक्षाधृक मर्म होता
द्वारमामाशयस्य च। है इसके विद्व होने पर हाथों में टोटापन आ
| सत्वादिधाम हृदयं स्तनोरः कोष्ठमध्यगम ॥ जाता है।
___ अर्थ-हृदय नामक मर्म भी शीघ्र प्राण स्थूलात्र बद्धके नाम । नाशक है, यह आमाशयका मुखस्वरूपहै, स्थलांत्रवद्धः सद्योनो विड्वातवमनो गुदः । इसमें होकर अन्नपान आमाशय में जाता
अर्थ-अंत्र दो प्रकार के होते हैं, एक | है । यह सत्वरजतम तथा इन्द्रियों के वि. स्थूलांत्र, दूसरा सूक्ष्मांत्र । इनमें से स्थू- ज्ञान का धाम है तथा स्तन, वक्षःस्थल लांत्र में गुद नामक मर्म है । इसी से विष्टा | और कोष्ठ के वीचमें है ।
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अष्टांगहृदयः।
अं०४
-
स्रोतों के मम । | बंशाश्रिते स्फिजोरुवं कटीकतरुणे स्मृते । स्तनरोहितमलाख्ये यंगुले स्तनुयोर्वदत् ।। तत्र रक्तक्षयात्पांडुहीनरूपो विनश्यति १८ ॥ ऊर्ध्वाधोऽस्रकफापूर्णकोष्ठोनश्येत्तयोक्रमात्
____अर्थ-पीठके बांसेके दोनों ओर श्रोणी ' अर्थ-दोनों स्तनों के उपरवाले भाग
और कर्ण नामक दो मर्म हैं। और पृष्ठवंश में में दो अंगुल पर स्तनरोहित नाम दो मर्म हैं | आश्रत नितबक ऊपरवाले भागर्म अर्थात् और स्तनों के नीचे दो अंगुल पर स्तन
कूल्होंमें कटीक और तरुण नामक दो मर्म हैं। मूल नामक दो मर्म हैं इन मर्मों के विद्ध
इनके विद्ध होनेसे रक्तके स्रावके कारण रोगी होने पर मनुष्य का कोष्ठ रक्त पांडुवर्ण और हीनरूप होकर मरजाता है । और कफ से भर जाता है तथा वह धीरे २ कटि वा पार्श्व के मर्म । मरजाता है।
पृष्ठवंशं युभयतो यो संधी कटिपार्श्वयोः । वक्षःस्थल के पार्श्वमें मर्म । जघनस्य वाहिभांगे मर्मणी तो कुकुंदरी १९॥ अपस्तंभावुरः पार्थे नाडयावनिलवाहिनी। चेष्टाहानिरधाकाये स्पर्शज्ञानं चतद्वयधात्। रक्तनपूर्णकोष्ठोऽत्र श्वासात्कासाच्च नश्यति अर्थ--पीठके बांसके दोनों ओर जघन अर्थ-वक्षःस्थल के दोनों पाश्र्व में अ
स्थानके बाहरके भागमें कटि और पार्श्व की पस्तंभनामक दो मर्म होते हैं, इन नाडी मों
| संधियों में कुकुन्दर नामक दो मर्म हैं । उमें होकर वायु आती जाती है इनके विद्ध न के विद्ध होनेपर नीचेका अंग चेष्टाहीन होने से रोगी के कोष्ठ में रक्त भरजाता
होजाता है अर्थात् नीचेके अंगमें चलने फिहै और खांसी, श्वास के रोग से मरजा- रने, पसारने और सकोडने की शक्ति जाती
रहती है और स्पर्श का ज्ञान भी जाता रपीठ के वांसे के मर्म ।
हता है ॥ पृष्ठवंशोरसोर्मध्ये तयोरेव च पार्श्वयोः। । अधोऽसकूटयोर्विद्यादपालापाख्यमर्मणी ॥
नितंबमर्म ॥ तयोः कोष्ठेऽसृजापूर्णे नश्येद्यातेन पूयताम् । पावीतरनिबद्धौ यावुपरिश्रोणिकर्णयोः २० . अर्थ- पीठके बांसे और छातीके मध्यभा | आशयच्छादनौ तौ तु नितंबौ तरुणास्थिगी। गमें दोनों ओर कंधों के अधोभाग में अ- अधः शरीरे शोफोऽत्र दौर्बल्यं मरणं ततः॥ पालाप नामक दो मर्म हैं, इनके विद्व होने
अर्थ-दानों पसलियों में निबद्ध तरुण से कोष्ठ रुधिर से भरजाता है और उसी
नामक अस्थिमें स्थित तथा श्रोणी और करुधिर की राध हो जाने पर रोगी मरजाता। र्ण नामक मोके ऊपर मूत्रादि के समस्त है, जवतक राध नहीं वनती है तवतक
वस्ति आदि आधार में नितंब नामक दो रोगी जीता रहता है यह भावार्थ है।
मर्म हैं । इन मोंके विद्ध होने पर नीचेके पीठकेबांसके पामेंमर्म ।
अंगोंमें प्रथम सूजन होती है फिर निर्बलता पार्श्वयोः पृष्ठवंशस्य श्रोणीको प्रतिष्ठिते । | होकर रोगी मरजाता है ॥
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[३०७]
पावसधिमर्म ॥
नील और मन्या मर्म । पाश्चतिरनिबद्धौ च मध्ये जघनपार्श्वयोः । | कण्ठनाडीमुभयतः सिरा हनुसमाश्रिताः। तिर्यगूर्व च निर्दिष्टौ पार्श्वसंधी तयोर्व्यधात् चतस्रस्तासु नाले द्वे मन्ये द्वे मर्मणी स्मृते । रक्तपूरितकोष्ठस्य शरीरांतरसंभवः। | स्वरप्रणाशवैकृत्यं रसाशानंच तयधे२७॥
अर्थ-दोनों पार्श्वमें निबद्ध, जघन और अर्थ-कंठनाडी के दोनों ओर हनुके पार्श्वके मध्य भागमें तिरछे और ऊंचेकी ओ- आश्रित चार मर्म हैं, इनमें से दोका नाम र दा संधिनामक मर्म है । इनमें आघात हो- नीला और दो का नाम मन्या है, अर्थात् ने से रोगीके कोष्ठ में रक्त भर जाता है। इस | हर एक पार्श्व में एक नीला और एक मसे उसकी मृत्यु होजाती है ।
न्या है इनमें चोट लगने से स्वरनाश, वृहतीमर्म ।।
स्वरविकृति और रस का स्वाद नष्ट हो स्तनमूलार्जवे भागे पृष्टवंशाश्रये सिरे २३॥ |
जाता है। बृहत्यो तत्र विद्धस्य मरणं रक्तसंक्षयात् ।
मातृका मर्म । ___ अर्थ-पृष्ठवंश के दोनों ओर प्रतिवद्ध, कण्ठनाडीमुभयतो जिह्वानासागताः सिराः। स्तनमूल के अजुभागमें अर्थात् ठीक सीधी
पृयक चतस्रस्ताःसद्योघ्नंत्यसून्मातृकावया ओर वृहती नामक दो मर्म हैं । इनमें चोट
___अर्थ-कंठनाडी के दोनों ओर जिह्वा लगनेसे रक्तस्राव होनेलगे तो मृत्यु हो जाती है।
और नासिका के आश्रित चार चार सिरा
हैं इनमें मातृका नामक मर्म हैं, इनमें चोट अंसफलकामर्म ॥
लगने से तत्काल प्राणों का नाश हो . बाहुमूलामिसंबद्धे पृष्ठवंशस्य पार्श्वयोः॥ असयोः फलके बाहुस्वापशोषौ तयोर्व्यधात्
जाता है। __ अर्थ-पृष्ठवंश के दोनों ओर वाहु के मू- . कृकाटिका मर्म । ल में संबंधित असफलक नामक दो मर्म है कृकाटिके शिरोग्रीवासंधी तत्र चलं शिरः। इनमें चोट लगने से भुजाओं में सुप्तता त
___अर्थ-मस्तक और प्रीवासे संधिभाग में था शोष उत्पन्न होता है।
दोनों ओर को कृकाटिका नामक दो मर्म
हैं, इनमें आघात पहुंचने से शिरःकंप रोग असमर्म ॥
की उत्पत्ति होती है। ग्रीवामुभयतः मानी ग्रीवायाहुशिरोतरे ।। स्कंधांसपीठसंवन्धावंसौ बाइक्रियाहरौ ।
विधुरका ममें। अर्थ-ग्रीवाके दोनों ओर प्रीवा, वाहु अधस्तात्कर्णयोनिम्ने विधुरे श्रुतिहारिणी॥ और सिरके बीचमें कंधे और अंसपीठ के अर्थ-दोनों कानों के पीछे के भाग में - बांधने के निमित्त अंस नामक दो मर्म हैं। नीचे की ओर विधुरनामक दो निम्न मर्म इनमें चोट लगने से फैलाना सकोडना हाथों हैं, इनमें आघात लगने से कानोंकी श्रवणका व्यापार नष्ट होजाता है । | शक्ति जाती रहती है।
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(६०८]
-
अष्टांगहृदय ।
अ०४
फणमर्म।
। जाय अथवा पककर अपने आप निकल फणाबुभयतो घ्राणमार्गश्रोत्रपथानुगौ। आबे तो रोगी जी सकता है परन्तु शल्य अंतर्गलस्थितौ वेधाद्धविज्ञानहारिणौ ॥ निकाला जाय तो तत्काल मरजाता है। अर्थ-गले के भीतर नासिका के मार्गके
शृंगाटक मर्म । दोनों ओर कानों के मार्ग के अनुवर्ती फण जिलाक्षिनासिकाश्रोत्रखचतुष्टयसंगमे । नामक दो मर्म हैं इममें चोट लगने से तालुन्यास्यानि चत्वारि स्रोतसां तेषु मर्मसु घ्राणशक्ति अर्थात् सूंघने की शक्ति जाती विद्धः शृंगाटकाख्येषु सद्यस्त्यजति जीवितम् रहती है।
अर्थ-ताल के पास जिस स्थान पर अपांग मर्म ।
जीभ, आंख, नाक और कान इन चारों नेत्रयोबाह्यतोऽपांगौ भ्रुवो पुच्छांतयारधः ।
के स्रोत मिलते हैं वहां शंगाटक नामक मर्म तथोपरि भ्रुवोर्निम्नावावर्तावांध्यमेषु तु ३१
है, मर्म में आघात पहुंचने से तत्काल प्राण . अर्थ-दोनों नेत्रों के बाहर की ओर | नष्ट होजाते हैं। भृकुटियों की पुच्छी के नीचे अपांग नामक
सीमंत मर्म ।
कपाले संधयः पंच सीमंतास्तिर्यगूर्ध्वगाः ।। दो मर्म हैं । तथा ऊपर की ओर निम्नरूप
भ्रमोन्मादतमोनाशैस्तेषु विद्धषु नश्यति । में अवस्थित आवर्त संज्ञक दो मर्म हैं, इन अर्थ-सिर में जहां पांच कपालों की में आघात पहुंचने से देखने की शक्ति | संधि है वहां तिरछा ऊपर की ओर सीमन्त जाती रहती हैं।
नामक मर्म है, उस के विद्ध होने पर भ्रम शंखमर्म ।
उन्माद और विस्मृति रोग उत्पन्न होकर अनकर्ण ललाटांते शंखौ सद्योविनाशनौ । । रोगी मर जाता है | , अर्थ- कुटियों की पुच्छी के ऊपर ललाट
अधिप मर्म । के अंत में कानों के पास शंख नामक दो | आंतरोमस्तकस्योर्ध्व सिरासंधिसमागमः ॥ मर्म हैं, इनमें चोट लगने से मनुष्य | रोमावर्तोऽधिपो नाम मर्म सद्यो हरत्यसून। शीघ्र मर जाता है।
। अर्थ-सिरके भीतर ऊपर के भाग में __उरक्षेप और स्थपनी मर्म .
जहां सब सिरा और संधियों का समागम केशांते शंखयोर्ध्वमुत्क्षेपौ स्थपनी पुनः ॥ है वहा कशा का
है वहां केशों का आवर्त है जिसे भौंरी भ्रुवोर्मध्ये त्रयेऽप्यत्र शल्ये जीवेदनुद्धते। कहते हैं, वहां अधिप नामक मर्म है, यह स्वयं वा पतिते पाकात्सद्यो नश्यति तूंद्धते॥ सब मर्मों का अधिपति है क्योंकि सब मर्म
अर्थ-केशों के अंत में कनपटियों के इसके आश्रित हैं । इस मर्म के विद्ध होने ऊपर उत्क्षेपनामक दो मर्म हैं । और दोनों पर तत्काल प्राणों का नाश होजाता है । भकुटियों के मध्य में स्थपनी नामक मर्म है | मों के सामान्य लक्षण । इनमें शल्य लगने से जो शल्य न निकाला . विषमंस्पंदनं यत्र पीडिते रुक् च मर्मतत् ।।
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३०९
अर्थ-देह के जिस भाग में विषम अस्थिगत आठ मर्म । स्फुरण होता है, और जहां पीडन करने से | शंखौ कटीकतरुणे नितंबावंसयोः फले ४०
अस्थ्न्यष्टौविषम वेदना होती है उसे मर्म कहते हैं।
__ अर्थ-अस्थिगत ८ मर्मों के नाम ये हैं, मांस प्रभेद से मर्म के लक्षण । । मांसास्थिस्नायुधमनीसिरासंधिसमागमः ।।
यथा- दो शंखमर्म, दो कटीक तरुण, दो स्यान्मर्मेतिचतेनाऽत्र सुतरांजीवितस्थितम । नितंब और दो असफलक | . अर्थ-मांस, अस्थि, स्नायु, धमनी, स्नायुममों के नाम । सिरा और संधि जहां इन सब का समा
नाबमर्माणि त्रयोविंशतिराणयः। गम होता है, वही मर्मस्थल है । जैसे जहां
जो चक्कूर्चशिरोऽपांगक्षिणोत्क्षेपांसवस्तयः ॥ मांस की पेशियों का समागम है वह मांस
। अर्थ-स्नायुगत २३ मर्मों के नाम पे मर्म है, इसी तरह आस्थियों के समागम
हैं, यथा-- चार आणिमर्म ( हर एक ऊरु को अस्थि मर्म, स्नायुओं के समागम को
में एक एक, प्रत्येक वाहु में एक एक ), स्नायुमर्म, धमनियों के समागमको धमनीमर्म
| चार कूर्चमर्म । दो हाथों में,और दो पांवों सिराभों के समागमको सिरामर्म और संधि
में ), चार कूर्चसिर ( पांव में दो और हाथ यों के समागमको संधिर्म कहते हैं । इस
में दो ), दो अपांग मर्म, चार क्षिप्रसंज्ञक
( अंगठ और उंगली के बीच में ), दो लिये इन मर्म स्थलों में प्राणोंकी स्थिति है।
उत्क्षेप ( केशांत में कनपटी से ऊपर ), दो माँकी अनेकता।
अंससंज्ञक ( कंधे और अंस पीठ के संबंबाहुल्यन तु निर्देशः षोढैव मर्मकल्पना । प्राणायतनसामान्यादैक्यं वा मर्मणां मतम् ॥
धित ), एक वस्तिसंज्ञक ( मूत्राधार )। अर्थ-जो १०७ मर्म कहेगये है वेही धमनीगत मों के नाम । . प्रधान हैं । तथा जो मांस अस्थि आदि के | गुदोपस्तंभविधुरशृंगाटानि नवादिशेत् । समागममें जो मोंकी कल्पना की गई है | मर्माणि धमनीस्थानिउससे अनेक प्रकारके मर्म हैं परन्तु इन स
___ अर्थ-धमनीगत नौ मर्म होते हैं, यथा ब की कल्पना छः प्रकारके ही अंतर्गत है।
एक गुदमर्म ( स्थूल अंत्र से बद्ध ), दो परन्तु जीवनके अधिष्ठानरूप होनेसे मर्मोकी
अपस्तंभ नामक, वक्षःस्थल के पार्श्व और एकही प्रकार की कल्पना होती है ॥
अग्निवाहिनी नाडी में स्थित ), दो विधुर मांसगत मर्मों की संख्या।
नामक ( कानके नीचे दबे हुए), चार शेमांसजानि दशेद्राख्यतलहृत्स्तनरोहिताः।
गाटक ( जीभ, आंख नाक, और कानों के - अर्थ-मांसमर्म ये है । यथा इंद्राख्य चा. मिलनेकी जगह पर )। र, तलहृद चार, और स्तनराहित दा, ये सिराश्रित ममों के नाम । दुस मांसगत मर्म हैं । ...
, सप्तविंशत्सिराश्रयाः ॥ ४२ ॥
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१०)
अष्टांगहृदय ।
अ०४
वृहत्यौ मातृकानीले मन्ये कक्षाधरौ फणौ। मांसादि मौंका व्यघलक्षण । विटपेहदयं नाभि पार्श्वसंधी स्तनांतरे४३॥ विद्धऽजनमसृक्नावो मांसधावनवत्तनुः ।
अपालापो स्थपन्यूय॑श्चतस्रो लोहितानिच पांडत्वमिंद्रियाज्ञानं मरणंचाशमांसजे४७॥ ___ अर्थ-सिरागत सेंतीस मों के ये नाम
अर्थ-मांस मर्मके विद्ध होने पर मांस हैं, यथा-दो वृहती, आठ मातृका, दो नीला, के धोवन के जलके सदृश पतला पतला दो मन्या, दो कक्षाधर, दो फण, दो विटप, रुधिर निरंतर निकलता है, शरीर में पीलाएक हृदय, एक नाभि, दो पार्श्वसंधि, दो पन आजाता है, नेत्रादि इन्द्रियों के विषस्तनरोहितं, दो अपालाप, एक स्थपनी,
यका ज्ञान जाता रहता है फिर शीघ्र मृत्यु चार उौं, और चार लोहिताक्ष ।
होजाती है। .. संधि ममों के नाम ।
अस्थिमर्म विद्ध के लक्षण । सधौविशतिरावर्ती मणिबंधौ कुकुन्दरी ॥ मज्जान्वितोऽच्छो विच्छिन्नस्रावोसीमंतारौिगुल्फो कृकाटयौ जानुनी पतिः
रुकूचास्थिमर्मणि। ___ अर्थ-संधिगत बीस मों के ये नाम
। अर्थ-शंखादिक अस्थि मर्मों के विद्ध हैं, यथा--दो आवर्त, दो मणिबंध, दो कु- होने पर निरंतर मज्जामिश्रित पतला रक्त कुंदर, पांच सीमंत, दो पर, दो गुल्फ, वहता रहता है और वेदना भी होती है । दो कृकाटिका, दो जानु और एक अधि
स्नायुमर्म विद्ध के लक्षण । पति । ये सब मिलाकर एकसौ सात
आयामाक्षेपकस्तंभा खावजेऽभ्यधिकं रुजा मर्म हैं।
यानस्थानासनाशक्तिवैकल्यमथवांतकः । - अन्य आचार्यों का मत ।
___ अर्थ-स्नायुमर्म के बिद्ध होने पर आमांससम गुदोऽन्येषां स्नानी कक्षाधरौतथा याम ( शरीर का लंवा होना ), आक्षेप, विटयौ विदुराख्येच शृंगाटानि सिरासु तु ।।
HARAT स्तंभ और अत्यन्त वेदना होती है । चलने, अपस्तंभावपांगौच धमनास्थं नतैस्मृतम् ॥ | वैठने, और खडे होने की शक्ति जाती रह____ अर्थ-किसी किसी आचार्यका मत कुछ | ती है शरीर में विकलता होती है अथवा
विषय में अन्यथा है वे कहते हैं | मृत्यु भी होजाती है। कि गुदमर्म मांसाश्रित है धमनी नहीं है । धमनीगत मर्मविद्ध के लक्षण । कक्षाघर और विटप ये मर्म स्नायु गत हैं । | रक्तं सशब्दफेनोष्णं धमनीस्थे विचेतसः ।। सिरागत मर्म नहीं हैं। इसी तरह विधुर अर्थ-अपस्तंभादिक धमनीगत मों के मर्म स्नायुमर्म है, धमनीगत मर्म नहीं है । बिद्ध होने पर मुर्छा आजाती है और शब्द शृंगाटक सिरामर्म है धमनीमर्म नहीं हैं। करता हुआ झागदार रक्त निकलता है । इसी तरह अपस्तंभ और अपांग मर्म भी सिरामर्म विद्धके लक्षण । स्नायुमर्म हैं धमनी मर्म नहीं हैं। सिरामर्मव्यधे सांद्रमजलं ववसृक्नवेत् ।
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शारारस्थान भाषाटाकासमेत ।
[११]
तत्क्षयात्तृभ्रमश्वासमोहहिध्माभिरंतकः ॥ | कटीतरुणसमितस्तनमूलेगबस्तयः।
अर्थ-वृहत्यादिक सिरा मर्मों के विद्ध क्षिप्रापालापवृहतानितंबस्तनरोहिताः ५४॥ होने पर निरंतर गाढा गाढा रुधिर वडी
| कालांतरप्राणहरा मासमासार्धजीविता।
| उत्क्षेपौ स्थपनी त्रीणि विशल्यघ्नानिअधिकता से निकलता है, तथा रक्त के
तत्र हि ॥ ५५॥ क्षय के कारण तृषा, भ्रम, श्वास, मोह और | वायुर्मासवसामज्जमस्तुलुंगानि शोषयन् । हिचकी आदि उपद्रव उपस्थित होकर | शल्यापाये विनिर्गच्छन् श्वासात्कासाच्चमृत्यु के भी कारण हो जाते हैं ।
__ हत्यसून् ॥ ५६ ॥
अर्थ-दो अपस्तंभ, चार तलहृत, दो - संधिमर्म विद्धके लक्षण ।
पार्श्वसंधि, दो कटीक और तरुण, पांचसीवस्तु शूकैरिवाकीर्ण रूढे च कुणिखता।
| मंत, दो स्तनमूल, चार इंद्रवस्ति, चार क्षिप्र, बलचेष्टाक्षयः शोषः पर्वशोफश्च सधिजे ॥ ___ अर्थ-आवर्तादि संधिगत ममों के विद्ध
दो अपलाप, दो वृहती, दो नितंब, दो स्तहोने पर वह स्थान शूरु धान्य के तुषों |
नरोहित, ये तेतीस मर्म ऐसे हैं कि इनके की तरह आवृत हो जाता है, तथा मर्म
विद्ध होनेपर कालांतर में मारते है अर्थात् का घाव भरजाने पर भी टोटापन और
इनसे मरनेमें महिना पन्द्रह दिन लगजाता लंगडापन आ जाता है । वल और व्यापार
है । दो उत्क्षेप, एक स्थपनी ये तीन मर्म की क्षीणता, सूखापन और जोडों में सू
ऐसे हैं कि इनमें से शल्य निकालते ही
मृत्यु हो जाती है इसका यह कारण है कि जन उत्पन्न होजाती है। जीवित नाश में कालका नियम ।
शल्य के निकलने पर वायु बाहर निकलकर नामिशखाधिपापानहृच्छंगाटकबस्तयः।
मांस, वसा, मज्जा और मस्तिष्क इनका मटीचमातृकाःसद्यो निघ्नंत्येकानविंशतिः
शोषण करती हुई श्वास और खांसी आदि सप्ताहः परमस्तेषां कालः कालस्य कर्षणे । उपद्रवों को उत्पन्न करके प्राणों का संहार
अर्थ -नाभि एक, शंख दो, अधिप करदेती है। एक, अपान एक, हृदय एक, शृंगाटक
अंगवैकल्यकारक मर्म । चार, बस्ती एक और मातृका आठ ये १९ फणावपांगौ विधुरौ नीले मन्ये कृकाटिके । मर्म ऐसे हैं जिनसे तत्काल मृत्यु होजाती है।
अंसांसफलकावर्तविटपोकुिकुंदराः ५७ ॥ बहुत खिंचजाय तो ऐसे मर्माहत रोगी के
सजानुलोहिताख्याऽऽणि कक्षाचक्कूर्च ।
कूर्पराः मरने का अधिक से अधिक काल एक वैकल्यमिति चत्वारि चत्वारिंशच्च कुर्वते ॥
हरंति तान्यपि प्राणान् कदाचिदभिधाततः। - अपस्तंभादि मोंका काल । अर्थ-दो फण, दो अपांग, दो विधुर त्रयस्त्रिंशदपस्तंभतलहत्पार्श्वसंधयः ५३ ॥ दो नीला, दो मन्या, दो काटिका, दोअंस
सप्ताह है।
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अष्टांगहृदय ।
दो असफलक, दो आवर्त, दो विटप, चार | नीला, सीमंत, मातृका, कूर्च,शृंगाटक और ऊर्ती, दो कुकुन्दर, दो जानु, चार लोहित, | गन्या ये उन्तीस मर्म अपनी हथेली के चार आणि, दो कक्षाधर, चार कूर्च, और प्रमाण के होते हैं तथा शेष छप्पन मर्म दो कूर्पर ये ४१ मर्म ऐसे हैं कि इनके आधे आधे अंगुल के होते हैं । तथा कुछ विद्ध होने पर देह में विकलता होती है, | आचार्यों का यह मत है कि इन ५६ मों कभी कभी ऐसा भी होता है कि इनमें चोट का प्रमाण तिल वा ब्रीहि के प्रमाण के लगने से प्राणों का भी नाश होजाता है ।। समान होता है। बेदनाकारक मर्म ।
मर्माभिघात में मरणविधि । अष्टौ कृर्वशिरोगुल्फमाणबंधा रुजाकराः॥
चतुर्थोक्ता सिरास्तु याः॥ ६३ ।। ___ अर्थ-चार कुर्चशिरा, दो गुल्क, दो तर्पयति वपुः कृस्त्रं तामर्माण्याश्रितास्ततः । मणिबंध ये आठ मर्म ऐसे हैं कि इनसे
तत्क्षतात्क्षतजत्यिर्थप्रवृतेर्धातुसंक्षये ६४ ॥ प्राणों का नाश तो होता नहीं है परन्तु |
वृद्धश्चलो रुजस्तीब्राः प्रतनोति समीरयन् ।
| तेजस्तदुदृतं धत्ते तृष्णाशोषमभ्रमान ६५ वेदना अधिक होती है ।
| स्विन्नस्रस्तश्लथतनुं हरत्येन ततोऽतकः। . मोका यथायथ प्रमाण । अर्थ-वातपित और कफ से जुष्ट, तेषां विटपकमा गुर्व्यः कूर्वसिरांसि च । शुद्धरक्त वाहिनी जो चार प्रकार की साद्वादशांगुलमानानि द्वयंगुले मणिबंधने ६०॥
तसौ शिगओं का ऊपर बर्णन किया गया गुल्फो चस्तनमूले च द्वंयगुलौ जानुकूर्परौ । ___ अर्थ-इन सब मर्मो में विटप, कक्षाधर
है, वे सब शरीर को तृप्तकरती है, और ऊर्थी और कूर्चसिरा ये बारह मर्म परिमाण
मों के आश्रित हैं । इन मर्माश्रित सिराओं में एक एक अंगुल के होते हैं । दो मणि
में घाव होने से रक्त की अत्यन्त प्रवृति बंध, दो गुल्फ और दो स्तनमूल इनमें से होती है फिर रक्त के अत्यन्त निकालने के हरएक का प्रमाण दो अंगुल होता है, तथा कारण मांसादिक धातुओं की परंपरामें भी दो जानु और दो कूर्पर इनका प्रमाण तीन
क्रम से क्षीणता होती है, तदनंतर धातु के तीन अंगुलका होता है ।
क्षय होने पर कुपित और चलायमान वायु _____ अन्य मोंका प्रमाण ।
अत्यन्त तीन और दुःखदायी अनेक तरह अपानवस्तिहनाभिनीलाः सीमंतमातृकाः ॥ के शूल उत्पन्न करती है । और पित्त कूर्चशंगाटमन्याश्च विशदेकन वर्जिताः । को उदीर्ण करके तृषा, शोष, मद, भ्रम आत्मपाणितलोन्माना:
आदि उपद्रवों को करती है । तदनंतर शेषाण्य(गुलं बदेत् ॥ ६२ ॥ पञ्चाशत्षट् च मर्माणि तिलब्रीहिसमान्यपि ।
उस मनुष्य के पसीने आने लगते हैं, शइष्टानि मर्माण्यन्येषाम्
रीर शिथिल पड जाता है और वह मर भी अर्थ-गुदमर्म, घस्ति, तलहृत, नाभि, जाता है ।
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(३१३)
-
मर्माभिघात में चिकित्सा। । मर्माहतमें सावधानी। वर्धयेत्संधितोगात्रं मर्मण्यभिहते दूतम् ६६ | मर्माभिघातः स्वल्पोपिप्रायशोवाधतेतराम। छेदनासंघिदेशस्य संकुचति सिरा हतः। रोगा मर्माश्रितास्तद्वत्प्रकांता यत्नतोऽपि जीवित प्राणिनां तत्र रक्ते तिष्ठति तिष्ठति ॥
च" ॥ ७०॥ अर्थ-मर्म के आहत होने पर शरीर अर्थ-मर्माभिघात अत्यन्त अल्प होने का संधिस्थान शीघ्रतापूर्वक छेदन करदे पर भी प्रायः अत्यन्त वेदना करता है तथा इसका कारण यह है कि संधि के छेदन से | अन्य संपूर्ण रोग जो मर्मस्थान पर होते हैं सिरा सुकड जाती हैं । सिराओं के संकु- बे भी वडा कष्ट देते हैं । इसलिये मर्माचित्त होने से रक्त का निकलना वन्द हो- भिघातकी वडी सावधानी से रक्षा करनी जाता है और रुधिर का बहना वन्द होने चाहिये तथा उस स्थान पर हुए रोगों का से जीवन स्थित रहता है।
भी प्रतीकार वडे यत्न से करे । अमविद्ध का जीवन । सुविक्षतोऽप्यतो जीवेदमणिनमर्मणि। हात श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां प्राणघातिनि जीवत्तु कश्चिद्वैद्यगुणेन चेत् ॥
शारीरस्थाने चतुर्थोऽध्यायः।। असमग्राभिघाताच्च सोऽपि वैकल्यमश्नुते तस्मात् क्षीरविषाग्न्यादीन्यत्नान्मर्मसुव
येत् ।
पञ्चमोऽध्यायः। अर्थ-उक्त हेतु से मर्मस्थान में आहत मनुष्य कदापि नहीं जीता है, और मर्म अथाऽतो विकृतिविज्ञानीयं शारीर रहित स्थान में सौ सौ वार विद्ध होने पर भी
व्याख्यास्यामः नहीं मरता है। मर्म दो तरह के कहे गये हैं अर्थ-अब हम यहां से विकृतिविज्ञाएक प्राणघाती और दूसरे वैकल्यकारक । | नीय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । इन में से प्राणघाती मर्मों में कुशा का
। मृत्यका चिन्हारष्ट । अग्रभाग छिदजाने से भी मनुष्य नहीं जी "पुष्पं फलस्य धूमोऽग्नेर्वर्षस्य जलदोदयः। सकता है। यदि प्राणघाती मर्म में विद्ध
यथा भविष्यतोलिंगंरिष्टं मृत्योस्तथाध्रुवम् । हुआ मनुष्य अपने पुण्यप्रभाव और आयु ।
अर्थ-जैसे होनेवाले फल से पहिले के शेष होने तथा वैद्य के गुण से बच भी
पुष्प होता है, होनेवाली अग्नि से पहिले जाता है। तो उसके देह में सदा विक धूआं होता है और होनेवाली वृष्टि से पहिलता रहती है, इसलिये मर्म पर क्षार, ले बादल होता है वेसही होनेवाली मृत्यु विष, अग्निकर्म और आदि शब्द से भ- | से पहिले रिष्ट होता है । अर्थात् पुष्प,धूआं ल्लातक रस, कपिकच्छू और शूकादि का
और बादल को देखकर जैसे फल, अग्नि प्रयोग कदापि न करे । इसमें विशेष साव
और वर्षा का अनुमान होता है, वैसही रिष्ट धानी रखनी चाहिये।
देखकर मृत्यु का निश्चय होता है । .
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(११४)
अष्टांगहदप।
रिष्टारिष्टका ज्ञान । सहसा विकृति उत्पन्न होना । ये सब रिष्ट मरिष्टं नास्ति मरणं दृष्टरिष्ट च जीवितम् ॥ के लक्षण संक्षेप से कहे गये हैं। अरिष्टे रिष्टविज्ञानं न च रिष्टेऽप्यनैपुणात् २ |
| केशादि में रिष्टके चिन्ह । अर्थ-रिष्ट के बिना मृत्यु नहीं होती है
केशरोमं निरभ्यंगं यस्याऽभ्यक्तमिवेक्ष्यते । और रिष्ट उपस्थित होने पर जीवन भी
___अर्थ-जिसके केश और रोम विना तेल नहीं है । वट वृक्षादि में फूल के विना भी
लगाये भी तेल लगाये से प्रतीत होते हैं वह फल की उत्पत्ति देखी जाती है, पर यह मृत्यु से प्रसित समझना चाहिये । कहीं कहीं होता है, इस का विचार सव इन्द्रियविकृति में रिष्ट चिन्ह । जगह नहीं है।
यस्यात्यर्थ चले नेत्रे स्तब्धांतर्गतानते ॥ रिष्टारिष्ट का सम्यक् ज्ञान न होने के जिह्ये विस्तृतसंक्षिप्ते संक्षिप्तविनतश्रुणी। कारण अज्ञ लोगों को अरिष्ट में रिष्ट
उद्धांतदर्शने हीनदर्शने नकुलोपमे ॥ ७ ॥ का ज्ञान और रिष्ट में भी रिष्टका ज्ञान नहीं
कपोतामे अलातामे सुते लुलितपक्ष्मणी ।
नासिकाऽत्यर्थविवृता संवृता पिटिकाचिता होता है।
उच्छूना स्फुटिता म्लानाकृष्णात्रेय का मत ।
अर्थ- जिसके नेत्र इधर उधर को अकेचित्तु तद्विधेत्याहुःस्थाय्यस्थायिविभेदतः
त्यन्त चलायमान होते हैं, जिसके नेत्र दोषाणामपि बाहुल्याद्रिष्टाभासः समुद्भधेत्
स्तब्ध ( ठहरे ) हो जाते हैं, जिसके नेत्र सदोषाणांशमे शाम्येत्स्थाय्यवश्यतु मृत्यवे भीतर को गढ जाते हैं वा वाहर निकल . अर्थ-कृष्णात्रेय के मत से रिष्ट दो प्र- पडते हैं, जिसके नेत्र कुटिल, लंबे, वा कार का होता है, एक स्थायी, दूसरा अ- संकुचित होजाते हैं, जिसकी भृकुटी नीची स्थायी । दोषों की अधिकता के कारपा
होकर सुकड जाती हैं, जिसकी दृष्टि रिष्टका आभास होता है और जब दोष
विभ्रांत होजाती है, का नष्ट होजाती है शांत हो जाते हैं तब रिष्टरभास भी शांत
अथवा जिसकी दृष्टि नकुल के सदृश कहो जाता है । परन्तु स्थायी अरिष्ट निश्चय
पोत के सदृश लाल रंग की हो जाती है मृत्यु का सूचक होता है।
अथवा आंसू बहने लगते है जिसके पक्ष्म रिष्ट के लक्षण । वातोद्धत की तरह शृंखलारहित होजाते है। रूपेंद्रियस्वरच्छाया प्रतिच्छायाक्रियादिषु॥ जिसकी नाक बहुत फटजाती है, वा सुकड अन्येष्वपि च भायेषु प्राकृतेष्वानमित्ततः। जाती है । फुसियोंसे व्याप्त हो जाती है अविकृतिर्या समासेन रिष्टं तदिति लक्षयेत् ॥
थवा सूजन, फटन और म्लानता से युक्त अर्थ-रूप, इन्द्रिय, स्वर, छाया, प्रति- हो जाती है । वह मरणाभिमुख होता है। च्छाया, शारीरक, मानसिक और वाचिक
ओष्ठादिमें रिष्टचिन्ह । व्यापार, तथा अन्य प्राकृतिक भावों में |
यस्यौष्ठो यात्यधोऽधरः।
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ऊ द्वितीयः स्यातां वा पकवूनिभाबुभौ॥ । छिद्रोंसे विष प्रयोगके किनाही धिर निक. दताःसशर्कराःश्यावास्ताम्राःपुष्पितपकिताः | लला हो । जिसकी पंजनानेन्द्रिय ऊपरको उ. सहसैव पतेयुजिवा जिह्मा विसर्पिणी॥
ठ गई हो और अंडकोष नीचेको लटक पडे श्वेता शुष्का गुरुश्यावा लिप्ता सुप्ता
सकंटका।
हों अथवा इससे विपरीत पुंजननेन्द्रिय नीचे अर्थ-जिसका नीचेका ओष्ठ नीचे को को लटक पडी हो और अंडकोष सुकर गये चला जाता है और ऊपर का ओष्ठ ऊपर हो ऐसे मनुष्यको कालप्रेरित अथवा आसको चला जाता है और दोनों पके हुए जा- नमृत्यु समझना चाहिये । मन के सदृश रंगवाले होजाय । जिसके दां- ललाटादिमें रिष्टचिन्ह । त शर्करायुक्त , श्याववर्ण वा ताम्रवर्ण. प. | यस्याऽपूर्वाः सिरालेखा बालेद्वाकृतयोऽपिपित ( श्वेत चिन्हों से युक्त ) और पंकिंत
वा ॥१४॥
ललाटे बस्तिशीर्षे वा षण्मासान सजीवति। (कीचसे ल्हिसे हुए के सदृश ) होजाय वा पद्भिनीपत्रवत्ताय शरीरे यस्य देहिनः१५॥ बिना ही कारण गिर पडें । जिसकी जिह्वा प्लवतेप्लवमानस्य षण्मासंतस्य जीवितम् । टेढ। पड जाय, अति चंचल, श्वेतवर्ण,शुष्क, अर्थ-जिसके ललाट पर अथवा वस्तिके भारी, श्याववर्ण, लिप्त, रसज्ञान से रहित हो | ऊपरवाले भाग पर अपूर्व ( जो पहिले न हुई जाय वा जीभपर कांटे पड जाय तो उस | हो ( नसोंकी रेखा अथवा द्वितीयाके चन्द्रमा मनुष्य को मृत्युसे स्वीकृत समझना चाहिये। के सदृश टेढी आकृतिवाली नसोंकी रेखा
शि(आदिमें रिष्टचिन्ह । दिखाई देने लगी हों । वह छः महिने में मृशिरः शिरोधरा कोडं पृष्ठं वा भारमात्मनः ११ / त्यु का प्रास होजाता है अथवा स्नान करने । हनूवा पिंडमास्यस्थं शक्नुवंति न यस्य च । के समय देह पर डाला हुआ पानीऐसे लु •
यस्यानिमित्तमंगानि गुरुण्यतिलघूनि वा ॥ क जाय जैसे कमल के पत्तेपर से लुढक विषदोषादिना यस्य खेभ्यो रक्त प्रवर्तते ।। उत्सितं मेहनं यस्य वृषणावतिनिःसृतौ ॥
जाता है वह भी छ:महिने ही में मरजाता है । अतोऽन्यथा वा यस्य स्यात्सर्वे ते
सिरादिमें रिष्टचिन्ह । कालचोदिताः। हरिताभाः सिरा यस्य रोमकूपाश्च संवृताः अर्थ-जिसकी ग्रीवा सिरके वोझको न सं | सोऽम्लाभिलाषी पुरुषः पित्तान्मरणमश्नुते भाल सकती हो । जिसकी पीठ अपने वा ग्री- अर्थ-जिसकी सिरा हरे रंगकी होजाती वा के बोझको न संभाल सकती हो, जिस | हैं और रोमकूप रुक जाते हैं । वह मनुष्य खकी हनु मुखमें रक्खे हुए प्रासको धारण क- टाई खानेकी इच्छा करता हुआ पित्त रोगसे रने में असमर्थ होगई ह। । जिसके अंग बि- मृत्यु को प्राप्त होता है | ना कारण ही कभी बहुत भारी और कभी | मूर्धादिमें रिष्टचिन्ह । बहुत हलके होजाते हों, जिसके रोमकूपों वा | यस्य गोमयचूर्णाभं चूर्ण मूर्ध्नि मुखेऽपि वा।
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(३१६)
अष्टांगहृदय ।
सस्नेहं मूनिधूमो वा मासांतं तस्य जीवितम् | अर्थ-जिसके देह में एक साथही प्राकृत मूर्ध्नि भुवोर्वा कुर्वतिसीमंतावर्तका नबाः॥ वर्ण ( गौरादि ) और वैकृत वर्ण ( नील मृत्यु स्वस्थस्य षड्रातात्रिरात्रादातुरस्यतु। जिवा श्यावामुख पूति सव्यमक्षिनिमजति
आदि ) हो नांय तौ मृत्युके सूचक हैं । खगावा मूनि लीयतेयस्य तं परिवर्जयेत्। जिसके देहमें स्थूलता और कुशता, ग्लानि : अर्थ-जिसके सिर वा मुखमें गोवरके और हर्ष, रूखापन और चिकनाई एकसाथ सदृश चिकना चिकना चूर्ण दिखाई दे अ- उत्पन्न हो तो मृत्यु की सूचना होती है । थवा मस्तकमें धूआंसा उठता दिखाई दे। वह जिसकी उंगली खेंचने पर भी न चटकें एक महिने जीता है । जिसके सिर वा भू- वह मरजाता है । जिसकी छींक और खांसी कटियों में सहसा सीमंत वा रोमावर्त उत्पन्न | में अपूर्व शब्द निकलता हो, जिसका श्वास होजाय वह यदि स्वस्थ हो तो छः दिनमें अतिदीर्घ वा अति इस्त्र चलता हो अथवा और रोगी हो तो तीन दिनमें मर जाता है।
| जिसके श्वास में दुर्गन्धि वा सुगंधि आती जिसकी जीभ श्याववर्ण, मुख दुर्गधयुक्त,और
हो । जिसके देह में स्नान करने परभी और बाई आंख भीतरको गढ जाय अथवा जिस
विना किये भी अमानवीय गंध आती हो, के मस्तक पर कौए आदि पक्षी बैठ जांय अथवा जिसके मल, वस्त्र और ब्रणादि में वह त्यागने के योग्य होता है ॥
अमानुषी गंध आती हो वह एक वर्ष के वक्षःस्थलमें रिष्टचिन्ह ।
| भीतर मरजाता है। यस्य नातानुलिप्तस्य पूर्वशुष्यत्युरो भृशम्
यूकादिके चिन्ह । आर्तेषु सर्वगात्रेषुसोऽर्धमासंन जीवति। ।
| भजंतेऽत्यंगसौरस्याधं यूकामक्षिकादयः ।
| त्यति वाऽतिवैरस्यात्सोऽपि वर्षे न. अर्थ-स्नातानुलिप्त ( पहिले स्नान किया
जीवति ॥ २५ ॥ हुआ फिर चंदनादि लेपन किया हुआ ) सततोष्मसु गात्रेषु शैत्यं यस्यापलक्ष्यते । मनुष्यका संपूर्ण अंग गीला होने पर भी | शीतेषुभृशमौष्ण्यं वास्वेदःस्तंभोऽप्यहेतुकः वक्षःस्थल बहुत शुष्क होजाय वह पन्द्रह
अर्थ-देहकी अत्यन्त सुरसता के कारण दिन भी नहीं जीता है।
जिसकी देह में जू वा मक्खियां बैठती हों __आकस्मिक रिष्टचिन्ह ।
अथवा अत्यन्त विरसता के कारण देह पर अकस्मागुगपगात्रे वर्णी प्राकृतवैकृतौ ॥ २१
न बैठती हों तो वह एक वर्ष के भीतर तथैवोपचयग्लानिरौक्ष्यस्नेहादि मृत्यवे ।। मरजाता है । जिसके निरंतर उष्णदेह में यस्य स्फुटयुरंगुल्यो नाकृष्टा न सजीवति ॥ ठंडापन, और ठंडे देहमें उष्णता होजाय क्षवकासादिषु तथा यस्याऽपूर्वोध्वनिर्भवेत्।
अथवा बिनाही कारण एक साथ पसीने हस्वो दीर्घोऽति वोच्छ्वासःपूति सुरभिरेव
. वा ॥२३॥
| आने लगे अथवा पसीनों का आना बन्द आप्लुतानाप्लुते कायेयस्यगंधोऽतिमान होजाय तो ऐसा मनुष्य भी वर्ष दिनसे अमलवस्त्रवणादौ वा वर्षांतं तस्य जीवितम ॥ 'धिक नहीं जीता है ।
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पिटिकादियुक्त के चिन्ह । गोरा और गोरेको काला,सतको असत और योजातशीतपिटिकःशीतांगो वा विदह्यते । असत्को सत देखता है वह आसाम मधु उष्णद्वेषीच शीतार्तःस प्रेताधिपगोचरः २७ होता है। जिसकी आंखों में किसी प्रकारका उरस्यूमा भवेद्यस्य जठरे चाऽतिशीतताभिन्नपुरीषं तृष्णा च यथा प्रेतस्तथैव सः२८ रोग न होनेपर भी चन्द्रमा को बहुरूप वा मूत्र पुरीष निष्ठयतं शुक्रवाप्सु निमजति। लांछनादिरहित ( निष्कलंक ) देखता है वह निष्ठ यूतं बहुवर्ण वायस्य मासात्सनश्यति।। भी मरजाता है। जो जाग्रत अवस्था में भी - अर्थ-जिसके देह में कफसे उत्पन्न राक्षस, गंधर्व, प्रेत, पिशाचादिक को देखता फुसियां होगई हो, अथवा ठंडा शरीर होने | है वा ऐसेही विकृतरूप अन्य प्राणियों को पर भी विदाह हो, जो शीतात होकरभी । देखता है वह मृतःप्राय होता है। गरमी से द्वेष रखता हो, वह मनुष्य मृत्यु
अरुंधतियों का चिन्ह । की दृष्टिगत, होजाता है। जिसका वक्षः
| सप्तर्षीणांसमीपस्था योनपश्यत्यरुंधतीम्।
ध्रुवमाकाशगंगां वा स न पश्यति तांसस्थल गरम, जठर ठंडा, विष्टा फटा हुआ,
माम् । और तृषा अधिक हो यह मुर्दे के समान
अर्थ - जो मनुष्य सप्त ऋषियों के मंहोता है । जिसका मूत्र, पुरीष, थूक और
| डल के पास वाली अरुंधती को नहीं देख वीर्य, जल में डूब जाय वा जिसका थूक
सकता है, तथा जो धुव और आकाशगंगा अनेक रंगों से युक्त हो वह एक महिने के |
को नहीं देखता है, उसकी मृत्यु उसी वर्षे 'भीतर मर जाता है।
में होजाती है। विपरीत चिन्होंका वर्णन ॥
__ श्रोत्रेन्द्रिय में विकृति के चिन्ह । घनीभूतमिवाकाश माकाशमिव यो घनम् ।।
मेघतोयौघनिषीणापणववेणुजान् । 'भमूमिव मूर्त व मूर्त चाऽमूर्त वस्थि तम। शणोत्यन्यांश्च या शब्दानसतो नसतोऽपि संजय तेजस्त श्वशुक्लंकृष्णमसच्चसत्।
वा ॥ ३४॥
निष्पीडय कणों शृणुयानयोधुकधुकस्वनम् बनेत्र रोग श्चंद्रं च बहुरूपमलांछनम् ॥३१।। बामदक्षांसिगंधर्वोन्प्रेतानन्यांश्चतद्विधान्।
अर्थ-जो मनुष्य मेघकी गर्जन, पानी रूपं व्याकृति तश्च यः पश्यति स, नश्यति। की घडघडाहट, अर्थात् जल की तरंगों का - अर्थ-जो मनुष्य अकाश के सदृश प- शब्द, वीणा, पणव, बंशी का शब्द वा वैसे 'दार्थों को घनीभूत अर्थात् ठोस और पृथ्वी ही अन्य शब्द को नहीं सुन सकता है की तरह ठोस पदार्थोको आकाश की तरह । अथवा मेघकी गर्जना आदि उपरोक्त शब्दों देखता है । जो बातादि मूर्तरहित पदार्थेको । के न होने पर भी वैसे शब्द सुने अथवा भूर्तिमान् और अग्नि आदि मूर्तिमान् पर्दार्थों । कानों में उंगली देने पर धुक धुक शब्द को मूर्तरहित देखता है । जो तेजवान् को सुनाई न देता हो, उसकी मृत्यु समीप निस्तेज और निस्तेज को तेजवान्, काले को | समझनी चाहिये ।
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( ३१८ )
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अष्टांगहृदय ।
गंधादि विपर्यय चिन्ह |
घरसस्पर्शान् मन्यते यो विपर्ययात् ॥ सर्वशो वा न यो यश्च दीपगंधं न जिघ्रति । विधिना यस्य दोषाय स्वास्थ्यायाविधि -
ना रसाः ॥ ३६ ॥ यः पांसुनेव कीर्णागो योऽगघातं न वेति वा । अन्तरेण तपस्तीव्रं योगं वा विधिपूर्वकम् ३७ जानात्यतींद्रियं यश्च तेषां मरणमादिशेत् ।
अर्थ-जो ऊपर कहे हुए मेघादि के शब्द की तरह गंध, रस और स्पर्श के विपरीत भाव को मानता है अर्थात् सुगंध को दुर्गंध और दुर्गंध को सुगंध । खट्टे को मीठा और मीठे को खट्टा । कोमल को कठोर और कठोर को कोमल, ठंडे को गरम और गरम को ठंडा, चिकने को रूखा और रूखे को चिकना मानता है अथवा जिसको तत्काल वुझे हुए दपिक की गंध मालूम नहीं होती है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रयुक्त किये हुए रसों से रोग की वृद्धि हो और विधिरहित प्रयुक्त किये हुए रसों से आरो“म्य हो, जिसको अपना अंग धूल से लिपटा हुआ मालूम होता है, जो शरीर पर लगी हुई चोट को नहीं जानता है । इसी तरह जो बिना उप्रतप के वा विना विधिपूर्वक योग के इन्द्रियों से अगम्य योगादि विषयों को जानता है । ये सब मृत्यु के समीप होते हैं ।
स्वरविकृति का निरूपण । होनो दीनः स्वरोऽव्यक्तो यस्य स्याद्गद्गदोऽपि वा ॥ ३८ ॥ सहसा यो विमुद्वा विवक्षुर्न स जीवति । स्वरस्य दुर्बलीभावंहाविं दा स्वर्णयोः ३९
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म ५
रोगवृद्धिमयुक्त्या च दृष्ट्वा मरणमादिशेत् । अवस्वरं भाषमाणं प्राप्तं मरणमात्मनः ४० श्रोतारं चास्य शब्दस्य दूरतः परिवर्जयेत् ।
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अर्थ - जिस मनुष्य का स्वर बिना कारण ही हीन, दीन, अव्यक्त ( अस्पष्ट ) और गदगद ( घरघराहट युक्त ) होजाय, जो बोलने की इच्छा करै और बोला न जाय वह मृत्यु के निकट होता है । जिसका स्वर दुर्बल हांजाय, बल और वर्ण क्षीण होजाय और बिना कारण ही जिसको रोग की वृद्धि हो उसे मृतःप्राय समझना चाहिये । जो मनुष्य अपने मुख से ऐसे अपशब्द कहता हो कि में अब मरूंगा, में अब न बचूमा तथा रोगी के ऐसे शब्दों को सुननेवालों को भी वैद्य दूर से त्याग देवै ।
I
छायाश्रय रिष्ट के चिन्ह | संस्थानेन प्रमाणेन वर्णेन प्रभयाऽपि वा४१ छाया विवर्तते यस्य स्वप्नेऽपि प्रेत एव सः।
अर्थ - जिस मनुष्य की छाया संस्थान प्रमाण, वर्ण वा प्रभा से विकृत भाव में दिखाई दे तो उसे स्वप्न में भी मरा हुआ समझना चाहिये । संस्थान से जैसे जो शरीर का संस्थान विषम हो और छाया सम दिखाई दे वा सम संस्थान में विषम दिखाई दे तो रिष्ट जानना चाहिये । प्रमाण से - . यथा जो लंबे शरीर की छाया छोटी और छोटी की बडी दिखाई दे तो रिष्ट जानना चाहिये । वर्ण से - जैसे नाभसी छाया आग्नेयी | और आग्नेयी छाया नाभसी दिखाई दे । प्रभा से - जैसे जैसी प्रभा हो उसके विप रीत दिखाई देतो मरा हुआ समझना चाहिये ।
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(३१९)
छाया की द्विरूपता। प्रतिच्छायामयी कन्यका, या प्रतिक्विकुमाआतपादर्शतोयादौ या संखानप्रमाणतः४२ | रिका वा अक्षिपुत्तलिका कहते हैं । छायांऽगात्संभवत्युक्ता प्रतिच्छायेति सा पुनः वर्णप्रभाश्रया या तु सा छायैव शरीरगा४३ | पंचमहाभूतों की छाया। . .. अर्थ-मो छाया शरीर के संस्थान और | खादीनां पंच पंचानां छाया विविधलक्षणाः
| नाभसी निर्मलाऽऽनीलासलेहासप्रमेवा परिमाण रूप से धूप, दर्पण, जल वा घृ
वाताद्रजोऽरुणा श्यावाभस्मरूमाहतप्रभा। तादि में पड़ती है । उसको प्रतिविंव कह- |
विशुद्धरका त्वानेयी दीप्तामा दर्शनप्रिया । ते हैं। प्रतिक्वि वर्ण और प्रभाके आश्रित | शुद्धवैदयविमला सुस्निग्धा तोयजा सुखा। नहीं होता है, परन्तु जो वर्ण और प्रभा स्थिरास्निग्धाघनाशुद्धाश्यामाश्वताचपार्थिवी के आश्रित है और केवल शरीरगत है
वायवी रोगमरणश्लेशायान्याः सुखोदया। अर्थात् जो शरीर के प्रतिविव की तरह
अर्थ-आकाशादि पंचमहाभूतों की वि
विध लक्षणों से युक्त पांच प्रकार की छाया जलादि में नहीं पडती है वही देह की छाया
होती है । इन में से आकाशीयछाया निहोती है। प्रतिच्छाया और छाया में यही
मल कुछ नीलवर्ण, सस्नेह और प्रभायुक्त भेद है। प्रतिच्छाया का वर्णन ।।
होती है । वायुसंबंधी छाया रजोयुक्त, अरुभवेद्यस्यप्रतिच्छाया छिन्ना भिन्नाऽधिकाऽकुला ण, पान,
SIS ण, श्याव, भस्म के सदृश, रूक्ष और हतविशिरा द्विशिरा जिला विकता यदि | प्रभाहोती है । अग्नेयी छाया विशुद रक्त
वाऽन्यथा ४४ | वर्ण, दीप्ताभा और देखने में प्रिय होती है तंसमाप्तायुषं विद्यान्न चेल्लक्ष्यनिमित्तजा।।
जलसंबंधी छाया शुद्ध वैदूर्यमणि के समान प्रतिच्छायामयी यस्य न चाक्षणीक्ष्येत कन्यका अर्थ-जिसकी प्रतिच्छाया छिन्न ( दो
निर्मल, स्निग्ध और सुखोत्पादक होती है ‘भागों में विभक्त ), भिन्न (छिद्रयुक्त ),
पार्थिवी छाया स्थिर, स्निग्ध घन, शुद्ध, प्रमाण से बडी, चंचल, सिर रहित, दो
श्याम वा श्वेत वर्ण होती है ॥ . सिरवाली, कटिल, विरूप वा अन्यथा इन में से वायवी छाया रोग मरण और दिखाई दे तो समझलेना चाहिये । कि इस
क्लेशोत्पादक होती हैं, और अन्य छाया मनुष्य की आय समाप्त हो चकी है और ! सुखकारक होता है ॥ जो किसी प्रत्यक्ष कारण से उक्त भावों को | । प्रभा के सात भेद । प्राप्त हुई हो तो कुछ बिचार नहीं है। प्रभोक्ता तैजसीसर्वासातुसप्तविधास्मृता४९
अथवा जिसकी आंखों में प्रतिच्छायामयी | रक्ता पीता सिता श्यामा हरितापांडुरा सिता 'कन्यका दिखाई न दे तो उसे भी गतायु
तासां याः स्युर्विकासिन्यः बिग्धाश्च ।
विमालाश्च याः ५० समझना चाहिये । आंख की पुतली में दे- | ताःशुभा मलिना रूक्षाःसंक्षिप्ताश्चासुखोदया। खने वाले का जो प्रतिविव पडता है उसे | अर्थ-ग्रंथकारोंने प्रभा को तैजसी
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(३२०)
___ अष्टांगहृदय ।
बताया है और कहते हैं कि सात प्रकार. ) यो ललाटात्त स्वेदः श्लथसंधानबंधनः। की होती है, जैसे रक्ता, पीता, श्वेता,
उत्थाप्यमान समुह्येधो बली दुर्वलोपि वा ॥
उत्तान एव स्वापितियः पादौ विकरोति च। श्यामा, हरिता, पांडुरा और श्यामा । इन
शयनासनकुडयादौ योऽसदेव जिघृक्षात ॥ से जो प्रभा विकासी, विमल और स्निग्ध अहास्यहासी समुह्यन् यो लेढि दशनच्छदो। हैं ये शुभफलदायक हैं । जो मलीन, रूक्ष उत्तरोष्ठ परिलिहन फूत्कारांश्च करोति यः और संक्षिप्त हैं. वे अशभसूचकहैं ॥ यमभि द्रवति च्छाया कृष्णा पीताऽरुणाछाया और प्रभा का अंतर ।
ऽपि वा। वर्णमाकामति छाया प्रभा वर्णप्रकाशिनी ५१ |
भिषग्भेषजपानान्मगुरुमित्रदिषश्च ये ६० ॥
वशगाःसर्व एवैते विझेयाःसमवर्तिनः। , भासने लक्ष्यते छाया विकृष्टे भा प्रकाशते ।
अर्थ-जिस मनुष्य के कंधे शिथिल हो . अर्थ-छाया रक्तादि वर्ण का आक्रमण
गये हों और पांवों को घिसटाकर चलताहो करती है अर्थात् वर्ण का पराभव करके
जो निरंतर हितकारी बहुतसा भोजन करती ठहरती है और प्रभा वर्ण को ही प्रका
हुआभी बलहीन होता चलजाता है । जो शित करती है । छाया पास से दिखाई देती है और प्रभा की झलक दूरसे ही
थोडा खाकर बहुत मलमूत्र त्यागना है का
बहुत खाकर थोडा मलमूत्र त्यागता है जो दिखाई देती है ।
अल्प भोजन करनेवाला वा कफसे पीडित छाया और प्रभाकी व्याप्ति।
होकर लंबे श्वास लता है वा चेष्टा करता नाऽच्छायो नाऽप्रभः कश्चिद्विशेषा
विद्वयति तु ५२ / है, जो पहिले दीर्घ श्वास लेकर फिर छोटे नृणां शुभाशुभोत्पत्ति काले छायासमाश्रयाः | श्वास लेता हुआ दुखित होता है । जो
अर्थ-कोई भी मनुष्य छायारहित वा | छोटे श्वास लेता हो और नाडी उसकी प्रभाहीन नहीं होता है । छाया और प्रभा | विषमभाव में स्पन्दन करती हो जो प्रपाके देहसंबंधी विशेष भाव मनुष्यों के शुभा-णिक अर्थात् हाथ के पश्चात् भाग को शुभकी सूचना करते हैं।
टेढा करके कठिनता से सिरको चलायमान अन्य रिष्ट चिन्ह ।
करता है । जिसके ललाट से पसीने नि. निकषन्निवयः पादौ च्युतांसःपरिसर्पति५३
कलते हों वा संधियों के बंधन शिथिल हो हीयते बलतः शश्चद्योऽन्नमश्नन् हित बहु ।
गये हों । जो बलवान् वा दुर्बल उठने योऽल्पाशी बहुविष्मूत्रो बवासी
चाल्पमूत्रविद् ५४ बैठने में मोह को प्राप्त हो, जो सदा चित्त योल्पाशीवा कफेना” दीर्घश्वसितिचेष्टते |
शयन करै, वा सोते समय पावों को वि. दीर्घमुन्छवस्य यो हुस्वं निःश्वस्य
कृत भाव में स्थापित करै । जो शय्या आ.....
परिताम्यति ५५ हुस्वंच याप्रश्वासितिघ्याविध स्परतेभृशम सन वा भीतमें अविद्यमान वस्तुओं के ग्रहण शिविक्षिपतेकृच्छ्रार्थोऽचयित्वाप्रपाणिको की इच्छा करता है, जो अहास्य विषयों में
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अ० ५
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[३२१ ]
हंसता हुआ मूर्छा को प्राप्त होता है जो | विपरीत भावको प्राप्त होजाय वह छ: म-' ऊपर वा नीचे के ओष्ठों को चाटता हुआ | हिने से अधिक नहीं जी सकता है। फुकारसी मारता है । काली पीली वा लाल भक्त्यादिके निवर्तन चिन्ह । रंग की छाया जिसके पीछे पीछे चले । भाक्तःशील स्मृतिस्त्यागो बुद्धिबलमहेतुकम
| षडेतानि निवर्तते षडाभिर्मासमरिष्यतः । जो मनुष्य वैयं, औषध, अन्नपान, गुरु
| मत्तवद्गतिवाकंपमाहा मासान्मरिष्यतम६६॥ और मित्रसे द्वेष करता है, उसको यमराज
___अर्थ-जो मनुष्य छः महिने में मरनेवाला का वशीभूत समझना चाहिये ।
है उसकी भक्ति, शीलता, स्मृति, त्याग औग्रीवादि में शीतल स्वेद ।
र बल ये छः बिना ही कारण जाते रहते हैं प्रीवाललाटहृदयं यस्य स्विद्यति शीतलम् ॥
तथा जिसकी मृत्यु एक महिने के भीतर उष्णोऽपरःप्रदेशश्च शरणं तस्य देवता।।
होगी उसकी मतवालों की सी गति, कंपन __अर्थ-जिसके ग्रीवा, ललाट और हृदय में शीतल होने पर भी पसीना आवै तथा
और मोह ये होंगे। अन्य अंग उष्ण हों उसकी. रक्षा देवताही
कचोत्पाटनादि चिन्ह ॥ . कर सकते हैं. वैद्यकी सामर्थ्य नहीं है।
नश्यत्यजानन् षडहाकेशलुंचनवेदनाम् ।
न याति यस्याचाहारः कंट कंठामयाहते। - अल्प दृष्टयादि । प्रेप्याःप्रतीपतां यांति प्रेताकृतिरुदीर्यते । योऽणुज्योतिरनेकायो दुश्छायो दुर्मनाःसदा यस्य निद्रा भवेन्नित्यं नैव वा न स जीवति ॥ बलिं बलिभृतो यस्य प्रतिं नोपभुंजते। वक्त्रमापूर्यतेऽशूणां स्विद्यतश्चरणौ भृशम्। निनिमित्तंचयोमेधांशोभामुपचयं श्रियम्॥ चक्षश्चाकुलतां याति यमराज्यंगमिष्यतः॥ प्राप्नोत्यतोवा विभ्रंशंस प्राप्नोति यमक्षयम्। यैःपुरा रमते भाबैररतिस्तैर्न जीवति ।
अपजस मनुष्यका ज्याति वा तज अर्थ-वह मनुष्य छः दिनमें मरजाता है अल्प हो, जिसका चित्त व्याकुल रहता हो,
जिसको बाल नोचने की पाडा मालूम नहीं जिसकी कांति निंदित हो, जो सदा शोका
होती है तथा जिसके विना कंठरोग के ही क्रांत रहता है, जिसके दिये हुए बलिको
आहार कंठों नहीं जाता है । जिसके भृत्य काकादिक न खाते हों, जो बिना कारणही
प्रतिकूल होजाते हैं, जो प्रेत की सी आकृमेधा, शोमा, शरीरपुष्टि, धन वा राज्यको
ति का दिखाई देने लगताहै । जिसको नीप्राप्त कर लेवे वा इनसे भूष्ट होजाय, ऐसा मनुष्य आसन्न मृत्यु होता है।
द नहीं आती है अथवा कदाचित् ही आती __ स्वभाव में विपरीतिता। | है वह नहीं जीता है । जिस मनुष्यके आगुणदोषमयीयस्य स्वस्थस्यव्याधितस्य वा सुओं के स्रोत रुक जाते हैं वह नहीं जीता यात्यन्यथात्वं प्रकृतिः षण्मासान सजीवति। है। जिसके पांवों में निष्कारण पसीने आते ...अर्थ-रोगी वा निरोगी जिस मनुष्यकी हैं। जिसके नेत्र चंचल हो जाते हैं वे सब सत्वादि गुणमयी वा वातादि दोषमयी प्रकृति | यमलोक की ओर प्रस्थान करते हैं । जो
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(३२२)
अष्टांगहृदय ।
धन जन बांधवादि पहिले आनन्दोत्पादक थे । घाससो रंजनं पूति वेगवञ्चातिभूरि च।७५। वही जिसको बुरे लगने लगते हैं उसे मृतः वृदं पांडुज्वरच्छर्दिकासशोफातिसारिणम् । प्राय समझना चाहिये ।
____ अर्थ-रक्तपित्त रोगमें जो रक्त अत्यन्त सहसा विकारके चिन्ह ॥
लाल, काला वा इन्द्रधनुषके समान अथात् सहसा जायते यस्य विकारः सर्वलक्षणः ॥ अनेक रंगोंसे युक्त हो, तथा रक्तपित्त रोगी निवर्तते वा सहसा सहसा स विनश्यति । को दिखाई देनेवाली वस्तुओं में तांबे वा ह
अर्थ-जिस मनुष्यके बिना कारण ही सं- लदी का सा रंग देखे अथवा हरा वा लाल पूर्ण लक्षणोंसे युक्त ज्वरादि व्याधि उत्पन्न | देखै । अथवा रक्तपित्त का रक्त सब रोमकूपों हो जाती है अथवा ऐसीही सर्बलक्षणों से यु- से निकलने लगे अथवा कंठ, मुख वा हृदय त व्याधि सहसा शांत हो जाती हैं वह शी- में एक साथ लिप्त होजाय । रक्तपित्तका रक्त घ्र ही मरजाता है ।
यदि वस्त्रमें लगजाता है तौ धौनेसे उसका ज्वरविकारमें चिन्ह ॥ दाग नहीं जाता है और जो दुर्गधियुक्त बडे ज्वरो निहंति बलवान गंभीरो दैर्धरात्रिकः । बेगसे और बहुत निकलता है तो ऐसा रोगी स प्रलापभ्रमश्वासक्षीणं शूनं हतानलम् ।
मर जाता है, वृद्ध रक्तपित्त पांडुरोग, ज्वर, अक्षामं सक्तवचनं रक्ताक्षं हृदि शूलिनम् ॥ | संशुष्ककासःपूर्वान्हे योऽपरान्हेऽपिवा भवेत वमन,खांसी, सूजन और अतिसार वाले रोबलमांसविहीनस्य श्लेष्मकाससमान्वतः ॥ गी को मार डालता है।
अर्थ-जो ज्वर बलवान् हेतुओंसे संयुक्त श्वासकासमें चिन्ह ॥ . होता है । मज्जादि धातुके आश्रित होता है। | कासश्वासौज्वरच्छदितृष्णातीसारशोफिनम् वा जो दीर्घकालानुबंधी होता है तथा जो | अर्थ-खांसी और श्वास ये रोग ज्वर, प्रलाप, भ्रम और श्वाससे युक्त होता है यह | वमन, तृषा, अतीसार सूजन इन रोगोंवाले ध्वर, धातुक्षीण, सूजनयुक्त, मन्दाग्नियुक्त,
| मनुष्यको मार डालते हैं। निर्बल, सक्तवचन, लालनेत्रवाले तथा हृत्शू
राज्यक्ष्माके चिन्ह ॥ लरोगी को मार डालता है। जिस ज्वरमें
यक्ष्मा पार्श्वरुजानाहरक्तच्छधसतापिनम् ।
__ अर्थ-राजयक्ष्मामें पसलीका दर्द आदुपहर से पहिले वा दुपहरसे पीछे सूखी । - खांसी उठती हो वा कफ और खांसी से |
| नाह, रक्तकीवमन, और कंधोंमें जलन होतो
रोगी मरजाता है। संयुक्त ज्वर हो वह बल और मांसहीन रोगी
वमनसे मृत्युका लक्षण ॥ को मार डालता है ।
छदिवेगवतीमूत्रशकृद्गांधः सचंद्रिका । ७७। रक्तपित्तकी विकृतिके चिन्ह ॥
सास्त्रविद्पूयरक्कासश्वासवत्यनुवांगणी । रक्तपित्त भृशं रक्तं कृष्णमिंद्रधनुःप्रभम् ।
___ अर्थ-जो वमन बडे वेगसे होती है और ताम्रहारिद्रहरितं रूपं रक्तं प्रेदर्शयेत् ॥७॥
जिसमें मूत्र वा विष्टाकी सी दुर्गंध आती है रोमकूपप्रविसतं कंठास्य हृदये सृजत् । तथा जो मोरपुच्छ की तरह अनेक वासे
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युक्त होती है तथा जिसमें रुधिर सहित विष्टा । अर्थ-अतीसाररोग में यदि मल यकृत राध, वेदना, श्वास, खांसी ये उपद्रव हों और | पिंड, मांस के धोवन के जलवत् वा नीलदीर्घ कालानुवर्तिनी होतो वह रोगी को मार वर्ण हो, अथवा तेल घृत, दूध, दही, डालती है।
मज्जा, वसा, आसव, मस्तुलंग ( माथे की __ तृषासे मृत्युके विह। चर्वी ) पूय, मांसजल वा शहत के सदृश तृष्णान्यरोगक्षपितं बहिर्जिवं विचेतनम् ।। हो, अथवा अत्यन्त लाल, अत्यन्त काला, __ अर्थ-तृषारोगमें यदि रोगी अन्य रोगों अत्यन्त चिकना, दुर्गधियुक्त, निर्मल, गाढा से पीडित हो । बाहर को अपनी जीभ निका और वेदनायुक्त हो । अथवा रक्तमांसादि लता हो,अचेत होतो ऐसा रोगी मरजाता है।
धातुओं के अधिकतर निकलने से अनेक मदात्यय चिन्ह ॥
वर्णयुक्त, पुरीषरहित वा अतिपुरीषयुक्त मदात्ययोऽतिशीतात क्षीण तैलप्रभाननम् ।
हो, जिसमें तंतु हों, मक्खियां वैठती हो, अर्थ-मदात्ययरोग में जो रोगी अत्यन्त
जिसमें रेखासी हों, मोरपुच्छकी चन्द्रका की शीतात, क्षीण और तेल के समान दिखाई दे
तरह अनेक वर्ण हों, जिसकी गुदाकी अतो उसकी मृत्यु निकटवर्ती होती है ॥
वलि शीर्ण और गुदनाडी का बंधन ढीला अर्श चिन्ह ॥
होजाय तथा पर्व और अस्थियों की सी अशॉसि पाणिपन्नाभिगुदमुष्कास्यशोफिनम्। येदना होने लगे । जिसकी गुदा अपने इत्पाॉगरुजाछर्दिपायुपाकज्वरातुरम् ।
स्थान से हटगई हो, वलक्षीण होगया हो, । अर्थ-अर्शरोग में यदि हाथ, पांव,
| अपक अन्न वाहर निकल आवै तथा तृषा, नाभि, गुदा, अंडकोष और मुख इनमें सू
श्वास, ज्वर, वमन, दाह, पानाह और प्रजन हो, तथा हृदय, पसली वा अन्य अंगों
वाहिका ये उपद्रव भी विद्यमान हों तो वह में वेदना हो, और वमन, गुदापाक और |
रोगी मरजाता है। ज्वर ये उपद्रव हों तो रोगी मरजाता है। ।
अश्मरी के चिन्ह । अतिसार के विकार। | अश्मरी शूनवृषणं वद्धमूत्रं रुजार्दितम्। अर्तासारो यकापिंडमांसधावनमेचकैः। ८०।। अर्थ-पथरी के रोग में यदि अंडकोष तुल्यस्तैलघृतक्षीरदधिमज्जवसासवैः। में सूजन, बद्धमत्रता और वेदना हो तो मस्तुलुगमषीपूयवेसवारांबुमाक्षिकैः। ८१ । रोगी मरजाता है । अतिरक्तासितस्निग्धपूत्यच्छघनवेदनः।।
प्रमेह चिन्ह । कर्बुरप्रस्रवन्धातूनिष्पुरीषोऽथवाऽतिविट मेहस्तृडदाहापटकामांसकोथातिसरिणम । तंतुमान् मक्षिकाक्रांतोराजीमांश्चंद्रकैयुतः। अर्थ-प्रमेह में यदि तृषा, दाह , पिटिका शीर्णपायुवलि मुक्तनालं पर्वास्थिशूलिनम्। .. सस्तपायुं बलक्षीणमन्नमेवोपवेशयेत् । । सतृह श्वासज्वरच्छर्दिदाहामाहप्रवाहिकः।। हों तो रोगी मरजाता है ।
उपद्रव
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(३२४ ]
अष्टांगहृदय ।
अ०५
पिटिका के चिन्ह । उपस्थित हों तो दुर्वल रोगी मरजाता है । पिटिका मर्म हृत्पृष्ठस्तनांस गुद मूर्धगाः। तथा रोगी के नेत्रों पर सूजन हो, पुंजनपंर्वपाद करस्था वा मंदोत्साहं प्रमेहिणम् । सर्वच मांससंकोचदाहतृष्णामदज्वरैः।।
नेन्द्रिय टेढी पडगई हो, त्वचा क्लेदयुक्त और विसर्पमर्मसंरोधहिमाश्वासभ्रमलमैः ८७॥ पतली होगई हो, जिसका अफरा विरेचनसे __ अर्थ-प्रमेह रोग में यदि फुसियां मर्म / दूर हुआ हो वा जिसको वार वार अफरा स्थान, हृदय, पीठ, स्तन, कंधा, गुदा,सिर | होता हो वह रोगी मरजाता है । संधि, पांव और हाथ में होजाय तो मंदो- पांडुरोग के रिष्ट । त्साहवाला प्रमेहरोगी मरजाता है। तथा / पांडुरोगः श्वयथुमान् पीताक्षिननदर्शनम् ॥ पिडिकारोग: में यदि मांससंकोच, दाह, अर्थ-पांडुरोगमें यदि सूजन, हो और तृषा, मत्तता, ज्वर, विसर्प, मर्मरोध, हिचकी नेत्र तथा नख पीले पडगये हों तो रोगी श्वास,भ्रम और क्लांति ये उपद्रव हों तो मरजाता है । तथा उसको सव वस्तु पीली रोगी मरजाता है।
दीखें तो भी मरजाता है। गुल्म चिन्ह ।
शोफ के रिष्ट । गुल्मः पृथुपरीणाहोधनः कूर्म इवोन्नतः।।
| तंद्रा दाहारुविच्छर्दिमूर्छाध्मानातिसारवान्। • सिरानद्धोज्वरच्छर्दिहिमाध्मानरुजान्वितः |
अनेकोपद्रवयुतः पादाभ्यां प्रसृतो नरम् ९२ कासपीनसहृल्लासश्वासातीसारशोफवान् । नारी शोफोमुखाद्धति कुक्षिगुह्यादुभावपि । __अथे-यदि गुल्म मोटी जडवाला, कठार | राजाचितःस्रवछर्दिज्वरश्वासातिसारिणम्
और कछुए की पीठकी तरह ऊंचाहो, सि- अर्थ-तंद्रा, दाह, अरुचि, वमन,मूर्छा राओं से बंधा हुआ हो, तथा ज्वर, वमन, | अफरा और अतिसार तथा अन्य अनेक हिचकी, अफरा और वेदना से युक्त हो,
उपद्रवों से युक्त सूजनवाला रोगी नहीं बचता तथा खांसी, पीनस, हल्लास ( जी मिच- है । तथा पुरुष के सूजन पांवों से चढती लाना ) श्वास, अतीसार और सूजन से
| हुई ऊपरको जाय और स्त्री के सूजन मुख युक्त होतो रोगी को मार डालता है ।
| से नीचे के अंगों पर आवे तो इनके जीने - उदरव्याधि निमित्त रिष्ट !
| में संशय है । अथवा स्त्री पुरुष दोनों के विण्मूत्रसंग्रहश्वासशोफंहिध्माज्वरभ्रमैः ८९ मुछितिसारैश्च जठरंहति दुर्बलम्।।
कुक्षि वा गुह्यदेश में सूजन उत्पन्न हो तो शूनाक्षंकुटिलोपस्थमुपक्लिन्नतनुत्वचम् ९० / दोनों के लिये अच्छा नहीं है । जिस सूजन विरेचनहतानाहमानातं पुनः पुनः। में रेखा पडती हों वा झरने लगगई हो और
अर्थ-जठररोगमें यदि मल और मूत्रकी / वमन, ज्वर, श्वास और अतिसार ये उपद्रव रुकावट हो, श्वास, सूजन, हिचकी, ज्वर, | उपस्थित हों तो भी रोगी को आसन्नमृत्यु भ्रम, मूर्छा, वमन, और अतिसार ये उपद्रव | समझना चाहिये ।
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत।
[२५]
. ज्वरादिकों को मृत्युका हेतुत्व । । अर्थ-कुष्टरोग में यदि देह में विशीर्णता ज्वरातिसारो शोफांते श्वयथुर्वातयोः क्षये। नेत्र में ललाई, स्वर में क्षीणता, मंदामि, दुर्बलस्य विशेषेण जायंतेऽताय देहिनः ॥ कांडों का पडना, तृषा और अतिसार इन ___ अर्थ-सूजन के अंत में ज्वर और उपद्रवों के होने पर रोगी मर जाता है। अतीसार हो अथवा ज्वरातीसार के अंत में वायु के चिन्ह । सूजन हो तो रोगी, विशेष करके दुर्बलरोगी | वायु सुप्तत्वचं भग्नं कफशोफरुजातुरम् ॥ शीध्रही मरजाता है।
वातानंमोहमूर्जायमदस्वप्नज्वरान्वितम् ॥
शिरोग्रहासचिश्वाससंकोचस्फोटकोथवत् । पादस्थ शोथ के चिन्ह ।। श्वयथुर्यस्य पादस्थः परिसस्ते च पिंडिके।।
अर्थ-वातव्याधिमें यदि त्वचा में शून्यसीदतःसक्थिनीचैवतं भिषक्परिवर्जयेत्॥ ता, भग्नता, कफरोग, सूजन और वेदना हो ___अर्थ-जिसके पांव में सूजन हो, पिंड- तो रोगी को मारडालती है । जो वातरक्त
ली अपने स्थान से हट गई हो, और टांगें रोग में यदि मोह, मूछी, मद, निद्रा, ज्वर, शिथिल हो गई हों ऐसे रोगी को त्याग देना शिराग्रह, अरुचि, श्वास, अंगसंकोच, स्फोचाहिये ।
टक और मांस में सडाहट हो तो रोगी मर एखादिमें शेषचिन्ह । जाता है। आनन हस्तपादं च विशेषाद्यस्य शुष्यतः ।। . सर्बरोग चिन्ह । शूयेते वा विना देहात्स मासाद्याति पंचताम् | शिरोरोगारुचिश्वासमोहविभेदतृभ्रमैः । - अर्थ-जिस रोगी के मुख और हाथ ध्नति समियाः क्षीणस्वरधातुघलानलम् । पाव विशेष सूजन से सूख गये हों, अथवा ___अर्थ --शिरोरोग, अरुचि, श्वास, मोह, देहको छोडकर हाथ पांव और मखमें विशेष । पुरीषभेद, तृषा, और भ्रम, इन उपद्रवों रूप से सूजन हो वह एक महिने के भीतर को उत्पन्न करके संपूर्ण रोग ऐसे रोगियों को मर जाता है।
मार डालते हैं जिनके स्वर, धातु बल विसर्प चिन्ह ।
और अग्नि क्षीण होगये हैं। विसर्पः कासवैवर्ण्यज्वरम गभगवान् ।
बातादि रोगी। भ्रमास्यशोषल्लासदेहसादातिसारवान् । बातव्याधिरपस्मारी कुष्ठीरत्तययुदरीक्षयी
अर्थ-विसर्प रोग में खांसी, विवर्णता, गुल्मी मेही चतान्क्षीणान् विकारेऽल्पेऽपिज्वर, मूर्छा, अंगमर्द, भ्रम, मुखशोष,
वर्जयेत्। हल्लास, अंगग्लानि और अतिसार उपद्रवों
अर्थ-वातरोगी,अपस्माररोगी, कुष्ठरोगी, के उपस्थित होने पर रोगी मर जाता है ।
| रक्तपित्तरोगी, उदररोगी,क्षयरोगी, गुल्मरोगी - कुष्ठों चिन्ह । .
और प्रमेहरोंगी, इनरोगियों को क्षीणता कुछ विशीर्यमाणांग रक्तनेत्रं हतस्वरम् ।।
होने पर अल्प विकार हो तो भी त्याग देना मंदानिं अंतभिर्जष्ट इति तृष्णातिसारणम् | चाहिये ।
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अष्टांगहृदय ।
अ०५८
लता है।
वलमांस क्षयादि । कोषों का आश्रय लेकर अथवा गुह्य देश वलमांसक्षयस्तीवो रोगवृद्धिररोचकः॥ |
और हृदय का अवलंवन करके दुर्वल रोगी यस्यातुरस्य लक्ष्यंते अनि पक्षानस जीवति ।
के प्राणों का नाश कर देती है । अथवा अर्थ-जिस रोगी का बल और मांस
वायु कुपित होकर पुरीषादि मल को वस्ति अत्यन्त क्षीण होता जाता हो । तथा रोग
के मुख में और नाभिस्थल में रोककर की वृद्धि और अरुचि दिखाई दे वह डेढ
| दारुण वेदना को उत्पन्न करती है । तथा महिने भी नहीं जी सकता है ।
अंडकोषों में सूजन तथा तृषा और भिन्नवाताष्ठलिाके चिन्ह ।
पुरीषता को उत्पन्न करके, अथवा श्वास वाताऽष्टीलाऽतिसंवृद्धातिष्ठंतीदारुणा हदि तृष्णया तु परीतस्य सद्यो मुष्णाति जीवितम्
उत्पन्न करके गुदा और अंडकोषों का ___ अर्थ-बातोद्भव अष्ठीला अत्यन्त बढ- ग्रहण करके वायु रोगी को शीघ्र मार डा. कर दारुणरूप से हृदय में आकर स्थित हो जाती है, इसमें रोगी को प्यास अधिक पशुकाग्रगत वायु । लगने पर तत्काल मृत्यु होती है । वितत्य पशुकाग्राणि गृहीत्योरश्च मारुतः। __ अंगविशेष में वायु के चिन्ह ।।
स्तिमितस्यातताक्षस्य सधोमुष्णातिजीवितम्
__ अर्थ-जिस रोगी की पसलियों के अशैथिल्यं पिंडिके वायुर्नीत्वा नासां च
जिह्मताम् ॥ १०४॥ | प्रभाग में वायु प्रविष्ट होकर वक्षस्थल को क्षीणस्यायम्य मन्ये वा सद्यो मुष्णाति- जकड लेती है और वह वहां या तो प्र
जीवितम्। स्वेद लाती है वा निश्चल हो जाती है, अर्थ-वाय पिंडलियों में शिथिलता कर तथा नेत्र फैलजाते हैं. ऐसा रोगी शीघ्र मर देती है । नासिका को टेढी करदेती
जाता है । है, तथा मन्या नामक दोनों सिराओं को चौडी कर देती है, ऐसा होने पर रोगी मर
झटिति ज्वर संतापादिक ।
सहसा ज्वरसंतापस्तृष्णा मूी बलक्षयः । जाता है ।
विश्लेषणं च संधीनांमुमूर्षोरुपजायते।१०९। - नाभ्यादिगत वायु । अर्थ-जिस रोगी के ज्वर, संताप, तृषा नाभी गुदांतरंगत्वा वंक्षणौवा समाश्रयन् ॥ मूर्छा, बलक्षय, और संधिविश्लेष ये सब गृहीत्वा पायुहृदये क्षीणदेहस्य वा बली।।
लक्षण सहसा उपस्थित हों तो मत्युसूचक मलान बस्तिशिरो नागभ विबद्धथ जनयन्
रूजम् ॥ १०६॥
होते हैं । कुर्वन् वक्षणयोःशूलं तृष्णां भिन्नपुरीषताम् ।
लेप ज्वरादि के चिन्ह । श्वासंवा जनयन् वायुर्गृहीत्वा गुदवंक्षणम्॥ | गोसर्गे वदनाद्यस्य स्वेदः प्रच्यवते भृशम् ।
अर्थ-बलवान् वायु नाभि और गुदना- लेपज्वरोपतप्तस्य दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ डी के बीच में गमन करके दोनों अंड- अर्थ-गौ के खोलने के समय अर्थात् .
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म. ४
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३२७]
प्रातःकाल में प्रलेपक अर्थात् कफज्जर से | चला जाय तो उसको त्यागदेना चाहिये । उपतप्त रोगी के मुख पर अधिकता से वातज व्रण के चिन्ह ।। पसीने आने लगें तो उसका जीवन दुर्लभ | यो वातजो न शूलाय स्यान्न दाहाय पित्तजाः होता है ।
कफजो न च पूयाय मर्मजश्च रुजे न यः। पिटिका द्वारा मृत्यु चिन्ह ।
अचूर्णश्चूर्णकीर्णाभो यत्राऽकस्माञ्च दृश्यते।
रूपं शक्तिध्वजादीनां सर्वास्तान्वर्जयेवणान् । प्रवालगुलिकाभासा यस्य गात्रे मसूरिकाः। उत्पद्याशु विनश्यति न चिरात्स विनश्यति
___ अर्थ-यदि वातज ब्रणमें शूल न हो, अर्थ-मूंगे की सी कांति के सदृश पित्तज व्रणमें दाह न हो, कफज व्रण में मसूर की बराबर फुसियां उठ उठकर जिस राध न पडी हो, मर्मज ब्रणमें वेदना न रोगी के देह में शीघ्र ही जाती रहती है,
। जाती रहती है. | होती हो, और बिना चूना लगाये ही चूने वह जल्दी मरजाता है।
| से लिहसा हुआ सा दिखाई दे तथा विना विस्फोटक चिन्ह ।
कारण ही उसमें शक्ति वा वजा आदि के मसूरविदलप्रख्यास्तथा विद्रुमसन्निभाः।।
चिन्ह दिखाई दें तो ऐसे व्रणवाले रोगियों भंतर्वक्त्राः किणाभाश्च विस्फोटा देहनाशना
| को त्याग देना चाहिये। ... अर्थ-मसूर की दाल के आकारवाली
भगंदर के चिन्ह । मूंगे कीसी आकृतिवाली भीतर को मुखवाली और किणा के सदृश ये चार प्रकार की
विण्मूत्रमारुतवहं कृमिणंच भगंदरम् ।११६॥
अर्थ-जिस भगंदरमें से मल, मूत्र और विस्फोटक फुसियां रोगी को शीघ्र मार | वाय निकलती हो और कीडे पडगये हो डालती हैं।
वह त्यागदेना चाहिये। कामलादि चिन्ह । कामलाऽक्ष्णोर्मुखं पूर्ण शंखयोर्मुक्तमांसता। घट्यन जानुना जानु पादावुद्यम्य पातयन् ।
जानुघट्टनादि चिन्ह । संत्रासश्चोष्णतांऽगे च यस्य तं परिवर्जयेत् | अर्थ-जिस रोगी की आंखों में कामला,
योऽपास्यति मुहुर्वक्त्रमातुरो न स जीवति । मुख भरा हुआ, कनपटियों का मांस शि
___अर्थ-जो रोगी घुटने से घुटने रिंगडता थिल, संत्रास और शरीर में उष्णता होतो
हुआ दोनों पांवों को उठाकर पादबिक्षेप ऐसे रोगी की चिकित्सा करना व्यर्थ करता है और विना कारणही मुखको चलाता
विघष्ट ब्रण के चिन्ह । । | है वह जीता नहीं है। अकस्मादनुधावश्च विघृष्टं त्वक्समाश्रयम् ।
रोगी की चेष्ठादि। अर्थ-जिस रोगी के रिगड लगने से | दंतैश्छिदनखाग्राणि तैश्च केशांस्तृणानि च। त्वचामें व्रण होगयाहो और वह फैलता ही । भमि काष्ठेन विलिखन् लोष्टं लोष्टेन ताडयन् १ क्षेपक:- चंदनोशीरमदिराकुणपध्वांक्षगं | दृष्टरोमा सांद्रमूत्रः शुष्ककासी ज्वरी च यः धयः । शैवालकुकुटशिखाकुंदशालिमयम मुहुर्हसन मुहुः क्ष्वेडन् शय्यां पादेन हंति यः। भा। अंत हा निरूष्माणःप्राणनाशकरावणाः मुहुश्छिद्राणि विमृशन्नातुरो न स जीवति ।
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[३२८)
अष्टांगहृदय ।
. अर्थ-जो रोगी दांतों से नखके अग्रभाग, | ना कारण ही बढ़ते चले जाय और स्वभाव केश वा तिनुकों को काटता है, भूमि पर | में हानि होती जाय उस रोगीके जीवन को लकडी से लकीरें खींचता है, मिट्टी के ढेले | मृत्यु हर लेती है ॥ को दूसरे ढेले से फोडता है। जिसके | वैद्य के चिन्ह । रोमांच खडे होगये हैं, जिसका मूत्र गाढा | यमुहिश्यातुरं वैद्यः संपादयितुमौषधम् । होगया है, जिसको सुखी खांसी हो और / यतमानोनशक्नोति दुर्लभ तस्य जीवितम्।
अर्थ-जिस रोगीके लिये वैद्य औषध ज्वर हो, जो वार वार हंसता है और नाक
तयार कर सकता है और करने का यत्न कान को हाथों से कुरेदता है, शय्या को वार पार पावों से पीटता है वह रोगी शीघ्र
करने पर भी तयार न करसके तो रोगीकी मरजाता है।
मृत्यु का सूचक है ॥ तिल व्यंगादि चिन्ह ।
औषधि के चिन्ह । मृत्यबे सहसातस्य तिलकव्यंगविप्लवः।।१२० व
विज्ञातं वहुशः सिद्धं विधिवच्चावतारितम् मुखे दंतनखे पुष्प जठरे विविधाः सिराः।।
| न सिध्यत्यौषधं यस्य नास्ति तस्य
चिकित्सितम्। अर्थ-निहा रोगी के मुख पर तिल वा |
| अर्थ-जिस औधष के गुण और कर्म व्यंग सहसा उत्पन्न हो जाय, उसके दांत और नखों में पुष्प पैदा हो जाय और पेटमें |
| अच्छी तरह ज्ञात हों और जिसके प्रयोग
द्वारा अनेक वार फलसिद्धि भी होचुकी हो, अनेक रंग की काली नीली नसें खडी हो जाय वह रोगी शीघ्र मरजाता है ।
वही औषध यदि किसी रोगी पर अपना उर्वश्वास के चिन्ह ।
प्रभाव न दिखावै, तो उसकी चिकित्सा ऊर्ध्वश्वासं गतोष्माण शूलोपहतवंक्षणम् ॥ | करना व्यय ह । शर्म वाऽनधिगच्छंतं बुद्धिमान् परिवर्जयेत्। औषधादि का वर्ण विपर्ययः।
अर्थ-जिस रोगी के ऊर्ध्वश्वास चलता | भवेद्यस्यौषधेऽन्ने वा कल्प्यमाने विपर्ययः॥ हो । जिसके देहकी गरमी जाती रही हो।।
अकस्माद्वर्णगंधादेः स्वस्थोऽपिन सजीवति जिसके अंडकोषों में वेदना होती हो । अने
____अर्थ-विना कारणही जिस रोगी के लिये
तयारकी हुई औषध वा भोजन के रूप और गंध क प्रकारकी चिकित्सा करनेपर भी जिसको
में विपरीत भाव होजाय अर्थात और का और सुख प्राप्त न होता हो । ऐसे रोगीको त्याग
रूप रंग और गंधादिक हो जाय तो निरोग देना चाहिये ॥ सहसाबिकारादि ।
पुरुष भी नहीं जीता है फिर रोगी का तो विकारा यस्य वर्धते प्रकृतिः परिहीयते॥ | कहना ही क्या है। सहसा सहसा तस्य मृत्युहरति जीवितम् । मत्यु के अन्याचिन्ह ।
अर्थ-जिस रोगीके ज्वरादिक विकार बि.निबाते संधनं यस्य ज्योतिश्चाप्युपशाम्यति
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३२९ )
-
आतुरस्य ग्रहे यस्य भियंतेवा पतंति वा।। युर्वेद का संपूर्ण फल प्रतिष्ठित है इसलिये अतिमात्रममत्राणि दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ वैद्यको उचित है कि आयके परिज्ञान और ' अर्थ-जिस रोगी के वायुरहित घरमें ।
परिपालन के निमित्त रिष्टके ज्ञानसे भी समाभी ईंधन लगाते लगाते अग्नि आदि ज्योति,
दृत होना चाहिये ॥ ठंडी पडजाय वह रोगी मरजाता है, जिस
पुण्यादिक्षय से मरण । रोगी के घरमें वर्तन बहुत गिरें वा फूटें उस
मरणं प्राणिना दृष्टमायुःपुण्योभयक्षयात् । रोगी का जीना दुर्लभ है।
तमोरप्यक्षयात्दृष्टं विषमापरिहारिणाम् ,, आत्रेय का मत ।
| यं नरं सहसा रोगो दुर्वलं परिमुवति।।
अर्थ-मुनिलोग कहते हैं कि आयु और संशयं प्राप्तमात्रेयो जीवितं तस्य मन्यते ॥ पुण्य इन दोनों के क्षीण होनेसे मृत्यका होना ___ अर्थ-जिस दुर्बल मनुष्य को रोग सहसा । देखा गया है । किंतु जो विषम आहार छोडदें तो उस रोगी का जीवन संशययुक्त
| विहार अर्थात् हाथी, थोडा, गौ, भेंस, दु• होता है, यह आत्रेय का मत है ।
गंध, मलमूत्रादि वेग धारण, उच्चस्थान से - मृत्यु सूचक वाक्योंका निषेध । प्रपतन इन बातों को नहीं त्यागते हैं उन कथयेनैव पृष्टोऽपि दुःश्रवं मरणं भिषक। की मृत्यु भी आयु और पुण्य के क्षीण होसे गतासोबधुमित्राणांनचेच्छेसांचकित्सितुम् । से होजाती है । - अर्थ-पूछे जानेपर भी वैद्यको उचित । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां नहीं है कि रोगीके बंधु बांधवों से रोगीकी
। शारीस्थाने पंचमोऽध्यायः । मृत्युके दुःश्राव्य बचनों को कहे और आसन्न मृत्यु रोगी की चिकित्सा करना भी *उचित नहीं है ॥
षष्ठोऽध्यायः। चिकित्साके निष्फलहोने में कर्तव्य। यमदूतपिशाचायैर्यत्परासुरुपास्यते।
.... अथाऽतो दूतादिविज्ञानीय शारीरंनद्भिरौषधवीर्याणि तस्मात्तं परिवर्जयेत् ॥
__ व्याख्यास्यामः। . अर्थ-क्योंकि यमदूत और पिशाचादि
___ अर्थ-अब हम यहांसे दूतादिविज्ञानीय गण मरने वाले रोगीके पास आते जाते रहते हैं और व्याधिप्रशमन के निमित्त जो औषध
शारीर नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। दी जाती है । उसको निष्फल कर देते हैं
पाखंडादि दूतों की शुभाशुभ सूचना ।
"पाखण्डाश्रमवर्णानां सबः कर्मसिद्धये। इसलिये उस रोगी को छोडदेना चाहिये । ।
तएव विपरीताः स्युर्दूताः कर्मविपत्तये १॥ रिष्टज्ञानादरमें हेतु ।
___ अर्थ-उनहत्तर प्रकार के पाखंड, चार आयुर्वेदफलं कृत्स्नं यदायुद्धे प्रतिष्ठितम् । रिष्टवानादृतस्तस्मात्सर्वदेव भवद्भिपत१३१ / प्रकार के आश्रम ( ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, भिक्षु ... अर्थ-आयुर्वेद के जाननेवाले वैद्यमें आ- | और वैखानस ) चार प्रकारके वर्ण ( वा.
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(३३०)
अष्टांगहृदप ।
ह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र ) इनके सजा- 1 हो तो वैद्यको उचित है कि ऐसे दूत के तीय दूतही कर्भ की सिद्धि के निमित्त कहे | साथ न जाय । गये हैं और जो विजातीय दूत होते हैं वे वैद्यके लक्षणों से मृत्युकी सूचना । कर्म की विपत्ति अर्थात् कार्यहानि की सूचना अशस्तचिंतावचने नग्ने छिदति भिंदति ५॥ करते हैं, जैसे पावंड का दत पाखंड, जुह्वाने पावकंपिंडान् पितृभ्यो निर्वपत्यपि। ब्राह्मण का ब्राह्मण, ब्रह्मचारी का ब्रह्मचारी, सुप्ते मुक्तकचेऽभ्यक्ते रुदत्यप्रयते तथा ६ ॥ भिक्षुक का भिक्षु और शूद्र का शूद्र होतो
| वैद्ये दूता मनुष्याणामागच्छंत मुमूर्षताम् । शुभसूचक है, यदि ब्राह्मण का दूत शूद्रहो
___अर्थ-जब वैद्य किसी अशुभविचार को
कर रहा हो, वा अशुभ वाक्य कहरहा हो । और शूद्रका क्षत्री हो ये सब विजातीय
नंगा बैठा हो, किसी वस्तुको काट रहा हो अशुभ सूचक हैं। निषिदतों का वर्णन ॥
वा छेदन कर रहा हो, अग्नि में आहुति दीनं भीतं द्रुतं त्रस्तं रूक्षामंगलवादिनम् ।।
डाल रहा हो, पित्रीश्वरों को पिंडदान कर शत्रिणं दंडिनं खंड मुंडश्मश्रु जटाधरम् २॥
रहा हो, सो रहा हो, बाल खोले बैठा हो,तेल अंमंगलाहवयं करकर्माण मलिनं स्त्रियम् २॥ लगा रहाहो. रुदन्करताहो चिकित्साके विचार अनेकव्याधितं व्यंग रक्तमाल्यनुलेपनम् । में दत्तचित्त न हो, ऐसी दशा में स्थित वैद्य तैलपंकांकितं जाणविवर्णाकवाससम् ।।
के पास उन्हीं मनुष्यों के दूत आते हैं जो खरोष्ट्रमाहिषारूढम् काष्ठलाष्टादिमर्दिनम् ॥
मरने को होते हैं। नानुगच्छद्भिषग्दूतमाह्वयंतंच दूरतः। ।
। देश विशेष से दूत विचार ॥ अर्थ-वैद्यको बुलाने के लिये जो समा- विकारसामान्यगुणे देशे कालेऽथवा भिषक् नजाति वाला दूत भी भेजा जाय और वह दूतमभ्यागतंदृष्ट्वा नातुरंतमुपाचरेत् । दैन्ययुक्त, डराहुआ, बेगसे आया हुआ,डरा । अर्थ-विकार के समान गुणवाले देश हुआ, कर्कश और अमंगलवादी, शस्त्रधारी | वा काल में दूत को आया हुआ देखकर दंडपाणि, नपुंसक, मुंछ डाढी मुडा हुआ | वैद्यको उचित हो कि उस रोगी की चिकिजटाधारी, अशुभनामधारी, क्रूरकर्मकरनेवाला त्सा न करै । जैसे कफवर में घृत जल मलीन, स्त्री, अनेक रोगों से प्रस्त, हीनांग वा द्रव पदार्थ के समीपवाले स्थानमें वा लाल फूलों की माला पहने हुए, लालचंदन | अनूप देश में प्रातःकाल के समय दूत का लगाये हुए, शरीर में तेल और कीचड़ आना अशुभ है । पित्तरोगैमें अग्नि आदि लपेटे हुए, जीर्ण, विवर्ण और गीला वस्त्र से संतप्त स्थान में वा मध्यान्ह के समय पहने हुए, गधा ऊंट वा भंसा पर सवार | आया हुआ दूत अशुभ होता है । इसी काठ और लोहे का मर्दन करता हुआ और | तरह वातरोगमें परुष, रूक्ष, बालुका, पाषाण दूर से बुलानेवाला, इन लक्षणों से युक्त ! और कंकरों से युक्त देश में सायंकाल के
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शारीरस्थान भाषांटीकासमेत ।
(३३१)
-
समय आया हुआ दूत अशुभ है । इसके | श्लेषा, पूर्वाफाल्गुन, पूर्वाभाद्रपद, आर्द्रा, विपरीत शुभ होता है । वमन प्रमेह और मघा, मूल इन नक्षत्रों में दूत का आना अतिसारादि रोगों में सेतुभंग अशुभहै और अशुभ है । इन्ही रोगों में सेतुबंध शुभ है। दूतकी वातोंके समय अशुभ निमित्त ।
रोगी के दूतकी चेष्टा ॥ यस्मिश्व दूते ब्रवति वाक्यमातुरसंश्रयम् । स्पृशंतोनाभिनासास्यकेशरोमनखद्विजान्॥ | पश्येनिमित्तमशुभं तं च नानुब्रजोद्भिषक। गुह्यपृष्ठस्तनग्रीवाजठरामाभिकांगुलीः।। तद्यथा विकलः प्रेतःप्रेतालंकार एव वा। कार्पासबुसासास्थिकपालमुशलोपलम् ॥ | छिन्नं दग्धं विनष्टं वा तदादीनि वचांति का मार्जनीशर्षचैलांतभस्मांगारदशातुषान् । रसो वा कटुकस्तीबागंधोवा कोणपो महान् रज्जूपानत्तुलापाशमन्यद्वा भमविच्युतम् ॥ स्पर्शी वा विपुलः करो यद्वान्यदपि तादृशम तत्पूर्वदर्शने दूताव्याहरंति मारिष्यताम् ।।
तत्सर्वमभितोवाक्यं वाक्यकालेऽथवा पुनः। - अर्थ-वैद्य से प्रथम दर्शन काल में अथात् | दूतमभ्यागतं दृष्ट्वा नातुरं तमुपाचरेत् । जब दत प्रथम ही वैद्य से मिले और रोगी अर्थ-जिस समय दूत आकर रोगी के का वृत्तान्त कहता हुआ नाभि, नासिका, संबंध की यातें वैद्य से करने लगे उस स. मुख केश,रोम, नख, दांत, गुह्यदेश, पीठ, | मय यदि कोई निम्नलिखित अशुभ निस्तन, ग्रीवा, जठर, अनामिका, उंगली, मित्त दिखाई दें तो वैद्यको उचित है कि कपास, मुस, सीसा, अस्थि, कपाल,मूसल | दूत के साथ रोगी के पास ग जाय । वे पत्थर, मार्जनी ( झाडू ), सूप, वस्त्रका | अशुभ चिन्ह ये हैं, यथा-विकल (काणा, किनारा, भस्म, अंगार, वस्त्रकी वत्ती, तुप, । ठूला आदि अंगहीन शब्द ), प्रेत ( मरने रस्सी, जूता, तराजू, पक्षियों के पकडने | का शब्द ], मुर्दे के अलंकारों की वार्ता । का जाल, अथवा और कोई टूटी हुई वा | रस्सी आदि का टूटना, जलना, पात्रादि फूटी हुई वस्तु का स्पर्श करै तो जान लेना फूटना, आदि शब्दों को कानों से सुने । चाहिये कि जिस रोगी का यह दूत है वह ] मिरच आदि कडवे तीखे द्रव्यों को आंखों रोगी मरनेवाला है।
से देखे । अत्यन्त दुर्गंधित पदार्थ नाक से दूत के आनेका अशुभकाल। सूंघने में आवै । विस्तीर्ण और क्रूर स्पर्श तथाऽर्धरात्रे मध्यान्हे संध्ययोः पूर्ववासरे ॥ छने में आवे वा एमी ही कोई अन्य वातें षष्ठीचतुर्थानवमीराहुकेतूदयादिषु। भरणीकृतिकाऽऽश्लेषापूर्वाऽऽद्रीपैयनेते |
हो रही हो तो ये सव अशुभ सूचक हैं, अर्थ-आधी रात के समय, दपहर के ऐसे दूतवाले रोगी की चिकित्सा न करे । समय, दिन और रात्रिकी संधियों के समय
___ अन्य अशुभ निमित्त । पहिले दिन, षष्ठी, चतुर्थी, नवमी, राहु, | AM
| हाहादितमुत्कष्टं रुदित स्खलनं क्षुतम् । पाहल दिन, पठा, चतुषा, नवमा, सह, वस्त्रातपत्रपादचव्यसनं व्यसनक्षिणम्।१७। और केतु के उदय में, भरणी, कृतिका | चैत्यबजानां पात्राणां पूर्णानां च निमजनम्
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(३३२)
अष्टांगहृदय।
हतानिष्टप्रबादाश्च दूषणं भस्मपांसुभिः।१८। | की हुई वस्तु, पुरीष, दुर्गधित द्रव्य, न
अर्थ-हाहाकार करके क्रंदन (आर्तस्वर) | देखने के योग्य द्रव्य, निःसार वस्तु मैथुन, उंचे स्वर से रोदन, पांव खिसलना, वैद्य | कपास, भुस, सीसा, शत्रु, अधोमुखी शय्या, के संबंधियों का विनाश, आपति में फंसे आसन, वा सवारी अथवा ओंधे कलश, हुओं का देखना, वैद्य वा अन्य किसी के शरवादि पात्र इनका देखना अशुभ सूचवस्त्र छत्री और जूताओं का नाश, चैत्य- क है । ध्वजा वा भरे हुए पात्रों का गिरना, अमं
पुरुषादि पक्षियों का शुभाशुभत्व । गलसूचक प्रवादों का होना, वैद्य के ग- | पुसंशा-पक्षिणोबामाःस्त्रीसंशादाक्षिणाःशुभाः 'मन समय मार्ग में धूल पांशु का उडना, ___अर्थ -हंस, चकोर, तोता आदि पुरुषये सब अशुभ चिन्ह हैं ।
संज्ञक पंक्षी वामदिशा में और वलाका साअन्य अशुभ चिन्ह । रिका आदि स्त्रीवाची पक्षी दक्षिण दिशा पथश्छेदोऽहिमार्जारगोधासरठबानरे। में शुभ होते हैं। इससे विपरीत अशुभ दीप्तां प्रतिदिश बाचं कराणां मृगपक्षिणाम्।। होते हैं। कृष्णधान्यगुडोदश्विल्लवणासबचर्मणाम्। सर्षपाणां बसातैलतृणपं धनस्य च ॥ २०॥ स्वगमगादिका शुभाशुभत्व ।। क्लीवक्ररश्वपाकानां जालबागुरयोरपि । प्रदाक्षणं खगमृगा यांतो नैव श्वजंबुकाः । छर्दितस्य पुरीषस्य पूतिदुर्दर्शनस्य च ॥ २१॥ अयुग्नाश्च मृगाः शस्ता शस्ताः नित्य च दर्शने निःसारस्य व्यबायस्य कार्पासादेररेरपि। चाषभासभरद्वाजनकुलच्छागबर्हिणः। शयनासनयानानामुत्तानानां तु दर्शनम् । ___ अर्थ-मृग और पक्षियोंका वाई दिशासे न्युजानामितरेषां च पात्रादीनामशाभनम् । दाहिनी ओर जाना शुभ है परन्तु कुत्ते और . अर्थ-वैद्य के गमन समय सर्प, विल्ली,
शृगाल का इस तरह जाना अशुभ है । इन गोधा, किरकेंटा और वंदर द्वारा मार्ग का ।
का दाहिनी ओर से बांई ओर जाना अच्छा कटना अर्थात् वैद्य के आगे होकर इन
है । अयुग्म मृगोंका देखना अच्छा है । नीजीवों का इधर से उधर को निकल जाना । लकंठ, भास, मुर्गा, नकुल, बकरा और मोर अशुभ है । मांसाहारी चीते शगलादि पशुये चाहें दक्षिण दिशामें हों, चाहें वाम दिशा
और वाज शिकरा आदि पक्षियों का उस में हो इनका देखना सदा शुभ है ॥ . दिशा में बोलना जिसमें सूर्य चमक रहा
| अशुभ पक्षियोंका वर्णन ॥ हो, वैद्य के गमन समय वा रोगी के घरमें | अशभं सर्बथोलकबिडालसरठेक्षणम् । २५ । घुसने के समय कृष्णधान्य, गुड, उद- अर्थ-उल्लू, बिडाल, और किरकेंटा ये श्वित ( तक्र. ) नमक, आसव, चर्म, सरसों, । चाहें दक्षिण दिशामें हैं । चाहे वाम दिश चर्वी, तेल, तृण, कीचड, ईंधन, नपुंसक, में हों, चाहें युग्म हो, चाहें अयुग्म हों, ये सनिर्दयी, चांडाल, पक्षियों का जाल, वमन | दा ही अशुभ हैं ।
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अ० ६
शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
कोलादिकोंका कीर्तनमें शुभत्व ।। आरोग्यता के लक्षण । प्रशस्ताः कीर्तने कोलगोधाहिशशजाहकाः। दध्यक्षतेक्षुनिष्पावप्रियंगुमधुसर्पिषाम्। नदर्शने नबिरुते बानराबतोऽन्यथा ।२६। | यावकांजनभंगारघंटादीपसरोरुहाम् । ३० । ___ अर्थ-शूकर, गोधा, सर्प, चास और डा- दूर्वार्द्रमत्स्यमांसानां लाजानां फलभक्षयोः । क इनका नाम लेना शुभ है परन्तु देखना
रत्नेभपूर्णकुंभानां कन्यानां स्यदनत्य च ॥३१॥ वा बोलना अशुभ है बंदर और रीछ इनका
नरस्य वर्धमानस्य देवतानां नृपस्य च।
शुक्लानां सुमनोबालचामरांबरबाजिनाम् । देखना वा बोलना शुभ है और नाम लेना
शंखसाधुद्विजोष्णीषतोरणस्वस्तिकस्य च । अशुभ है।
भूमेः समुधृतायाश्च वन्हेः प्रज्वलितस्य च। ...इन्द्रधनुषका शुभाशुभत्व ॥
मनोज्ञस्यानपानस्य पूर्णरय शकटस्य च । धनुरेंद्र च लालाटमशुभं शुभमन्यतः।।
नृभिर्धन्याः सबत्साया बडवायाः स्त्रिया अपि
जीवंजीबकसारंगस रसप्रियाबादिनाम् । अर्थ-इन्द्रधनुष सन्मुख हो तो अशुभ |
रुचकादसिद्धार्थरोधनानां च दर्शनम् । है । पीठ वा दाहें वांरें हो तो शुभ है ॥ | गन्धः सुसुरभिर्वर्णः सुशुक्लो मधुरो रसः।
अग्निपूर्ण पात्रोंका अशुभत्व ॥ गोपतेरनुक्लस्य स्वरस्तद्वद्गवामपि ॥ ३६॥ अग्निपूर्णानि पात्राणि भिन्नानि बिशिखानिच | मृगपक्षिनराणां च शोभिनां शोभना गिरः । . अर्थ-अग्निसे भरे हुए, फूटेहुए वा खा- |
छत्रध्वजपताकानामुत्क्षेपणमाभष्टुतिः३०॥
भेरीमृदंगशंखानांशब्दाःपुण्याहनिःस्वमाः। ली पात्र अशुभ होते हैं।
वेदाध्ययनशब्दाश्च सुखोवायुःप्रदक्षिणः॥ - गृहप्रवेशमें शुभाशुभ निमित्त ।
पथिवेश्मप्रवेशे च विद्यादारोग्यलक्षणम् । दध्यक्षतादि निर्गच्छम् वक्ष्यमाणं च मंगलम् ।
___ अर्थ-दही, अक्षत ( अखंड चांवल जौ बैद्यो मरिष्यतां वेश्म प्रविशन्नेव पश्यति ।
आदि ), ईख, निष्पाव ( चौला ), प्रियंगु, अर्थ-जिस समय वैद्य रोगीके घरमें प्र. वेश करे उसी समय रोगीके घरसे दही,
मधु,घृत,अलक्तक,अंजनगार (कनकालक,
स्वर्णपात्र ), घंटा,दीपक, कमल, दूर्वा (दूव) अक्षत, इक्षु निष्पावादि मंगल द्रव्य निकलें तो
मछली का गीला मांस, धानकी खील, फल उस रोगीको आसन्न मृत्यु समझना चाहिये।
मोदकादि भक्ष्यद्रव्य, पद्मरागादि मणि,हाथी, वैद्यको उपदेश ।
पूर्ण कलश, कन्या, रथ, शूरवरिता और दूताद्यसाधु दृष्ट्येवं त्यजेदातमतोऽन्यथा। करुणाशुद्धसंतानो यत्नतः समुपाचरेत् । दान शीलतादि गुणविशिष्ट प्रतिष्ठित मनुष्य,
अर्थ--इस प्रकार ऊपर कहे हुए दूतादि देवता, राजा, चमेली आदिके सफेद फूल, के अशुभ लक्षण दिखाई दें तो वैद्यको रोगी
सफेद चमर, सफेद वस्तु, सफेद घोडा, की चिकित्सा न करनी चाहिये । किन्तु उक्त शंख, साधु, ब्राह्मण, पगडी, तोरण, स्वलक्षणों से अन्यथा अर्थात् शुभ लक्षण दिखा | स्तिक ( साथिया ) समुधृतभूमि, प्रज्वलित ई दें तो करुणाई हृदय होकर यत्नपूर्वक रो | अग्नि, हृदयहारी अन्नपान, आदमियों से गी की चिकित्सा करना चाहिये । | भरीहुई गाढी, सवत्सा गौ, सवत्सा घोडी,
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अष्टांगहृदय ।
सवत्सा स्त्री, जीवजीवक हिरन, सारसआदि । अर्थ-जो मनुष्य स्वप्नमें प्रेतों के साथ प्रियभाषी पक्षी, कंकण, सफेद सरसों,इत्रा- | मद्यपान करता है और कुत्तों द्वारा घसीटा आदि सुगंधित द्रव्य, सफेद मधुरादि रस, जाता है, उसकी वररूप से शीघ्र मृत्यु शांत स्वभाव बैलफा शब्द, क्रोधरहित गौ होती है। का शब्द, प्रशस्त ( शृगाल, उल्लू और रक्तपित से मृत्यु । चांडालादि को छोडकर ] मृग, पक्षी, मनुष्य | रक्तमाल्यवपुर्वस्त्रो यो हसन् ह्रियते स्त्रिया । और मनोहारी जीवोंके शब्द, छत्र, ध्वजा,
सोऽनपित्तेन
___ अर्थ-जो मनुष्य स्वप्नमें लालफूलों की और पताका का ऊपरके स्थानमें लगाना,
माला और लालवस्त्र पहनकर अपना शरीर जय जय शब्द, भेरी मृदंग और शंख इनकी
लाल देखे और हंसता हुआ द्विारा घसीटा ध्वनि, आरोग्यार्थ प्रशस्त शब्द, वेदध्वनि,
| जावै वह रक्तपित्त रोग से मरता है। अनुकूल और सुखप्रद बायु, ये सब शुभ
यक्ष्मा के हेतु । लक्षण हैं । जब वैद्य रोगी की चिकित्साके
महिषश्ववराहोष्ट्र गर्दभैः ॥४१॥ लिये अपने घरसे चले वा रोगीके घर प्र.
याप्रयाति दिश याम्यांमरणं तस्य यक्ष्मणा वेश करे तब ये सब शुभ शकुन दिखाई दें अर्थ-जो मनुष्य स्वप्न में भंसा, कुत्ता, तौ जानलेना चाहिये कि रोगीको आराम शूकर, ऊंट वा गधे पर चढकर दक्षिण होजायगा।
दिशा को गमन करता है वह राजयक्ष्मा स्वप्नकथनम् ।
से मरता है। इत्युक्तं दूतशकुनं स्वप्नानूचं प्रचक्षते ॥
कंटकादि को अशुभत्व । अर्थ-दूतद्वारा प्राणी के शुभाशुभ की
लता कंटकिनी वंशस्तालो वा हृदि जायते४२ सुचना करनेवाले शकुनों का वर्णन कर- | यस्य तस्याशु गुल्मेनदिया गया है, अब स्वप्नद्वारा शुभाशुभ व अर्थ-जो स्वप्न में ऐसा देखे कि उस र्णन करते हैं । *
के हृदय में कांटेदार लता, वांस वा ताड स्वप्न में मद्यपान से अशुभत्व । का वृक्ष उगे तो वह गुल्म रोग से मरस्वप्ने मद्यं सह प्रेतैर्य पियन् कृष्यते शुना। जाता है। समयो मृत्युना शीघ्र ज्वररुपेण नीयते ४०
नग्नता से अशुभत्व । x अशंगसंग्रह में स्वप्नके लक्षण इस
यस्य वन्हिमनचिंषम् । तरह लिखे हैं “ सर्वेन्द्रियव्युपरतो मनोनु- अहवतो घृतासक्तस्य ननस्योरसि जायते ॥ परतं यदा । विषयेभ्यस्तदा स्वप्नं नानारू
| पद्मं स नश्यत्कुष्ठेनपं प्रपश्यतीति । निद्राके लक्षण इस प्रकार अर्थ-जो मनुष्य स्वप्न में नंगा होकर लिखे हैं कि “ श्लेष्मावृतेषुस्रोतःसु श्रमादु
| और शरीरमें घृत चुपड कर शिखारहित परतेषुच । इंद्रियेषु स्वकर्मभ्यो निद्रा वि | शति देहिनम् ॥
अग्नि में हवन करे और उसे ऐसा मालूम
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अ० ६
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'शारीरस्थान भाषाटीकासभेत ।
हो कि हृदय वह कुष्ठरोग से मरता है 1 प्रमेह से मरण |
austeः सह यः पिबेत् । बहुविधं स्वप्नेस प्रमेहेण नश्यति ४४ ॥ अर्थ - जो स्वप्न में चांडाल के साथ घृ तेल आदि अनेक प्रकार के स्नेहपान करता है वह प्रमेह रोग से मरता है ।
में कमल उत्पन्न हुआ है तो
उन्माद से मरण ।
उन्मादेन जले मज्जेद्यो नृत्यन् राक्षसैः सह । अर्थ- जो राक्षसों के साथ नाचता २ में डूबता है वह उन्माद रोग से मरता है ।
जल
मृगीरोग से मरण | अपस्मारेण यो मर्त्यो नृत्यन् प्रेतेन नीयते ॥ अर्थ - जिस नाचते हुए मनुष्य को स्वप्न में प्रेत लेजाते हैं वह अपस्मार रोग से मरता है 1
गर्दभादिया से मृत्यु | यानं खरोष्ट्रमार्जारकपिशार्दूलस्करैः । यस्य प्रेतैः श्रगार्वा स मत्योर्वर्तते मुखे ॥
अर्थ - जो स्वप्न में गधा, ऊंट, बिल्ली, बंदर, शार्दूल, शूकर वा शृगाल पर चढकर गमन करता है उसको मौत के मुख में समझना चाहिये ।
मृत्यु के अन्य स्वप्न | अपूपशष्कुलीर्जग्ध्वा विबुद्धस्तद्विधं वमन् । न जीवति
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( ३३५ )
1
तो शीघ्र मरजाता है । सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण देखने से नेत्ररोग होते हैं । सूर्य चन्द्रमा का पात देखने से दृष्टि मारी जाती है ।
अन्य अशुभ स्वप्न ।
मूनि वंशलतादीनां संभवो वयसां तथा ॥ | निलयो मुंडता काकगधाद्यैः परिवारणम् । तथा प्रेतपिशाचस्त्रद्रविडांधगवाशनैः ॥ संगो वेत्रलता वंशतृणकंटकसंकटे । श्वभ्रश्मशानशयनं पतनं पांसुभस्मनोः ५० ॥ मज्जनं जलपं कादौ शीघ्रेण स्त्रोतसा इतिः । नृत्यवादित्रगीतानि रक्तस्रग्वस्त्रधारणम् ॥ वर्योऽगवृद्धिरभ्यगो विवाहः श्मश्रुकर्म च । पक्वान्नस्नेहमद्याशः प्रच्छर्दनविरेचने ५२ ॥ हिरण्यलोहयोर्लाभः कलिर्बंधपराजयौ । उपानद्युगनाशश्च प्रपातः पादचर्मणोः ५६ ॥ हर्षो भृशं प्रकुपितैः पितृभिश्चावभर्त्सनम् । प्रदीपग्रहनक्षत्रदन्तदेवतचक्षुषाम् ॥ ५४ ॥ पतनं वा बिनाशो वा भेदने पर्बतस्य च । कानने रक्तकुसुमे पापकर्मनिबेशने ॥ ५५ ॥ चितांधकारसंवाधे जनन्यां च प्रबेशनम् । पातः प्रासादशैलादेर्मत्स्येन ग्रसनं तथा । ५६ ॥ काषायिणामसौम्यानां नग्नानां दंडधारिणाम् रक्ताक्षाणां च कृष्णानां दर्शनं जातु नेष्यते ।
अर्थ - सिर में बांस वा लतादि का उगना, पक्षियों का घोंसला बनाना, सिर का मुंडन, काकगृधू आदि पक्षी तथा प्रेत पिशाच, स्त्री, द्रविड, अंध और गोमांसभक्षकों से परिवृत होना, वेतलता, बांस, तृण, कंटक इनसे आच्छादित द्वार का न पाना, श्वभ्र वा श्मशान में सौना, पांसु और भस्म में गिरना, जल और कीचनें डूबना, स्रोतों के द्वारा शीघ्र हरण, नाचना, वजाना,
अक्षिरोगाय सूर्यग्रहणेक्षणम् ॥ ४७ ॥ सूर्याचन्द्रमसोः पातदर्शनम् दृग्विनाशनम्
अर्थ - जो स्वप्न में मालपुआ पूरी का भोजन करे और जगने पर वह वमन करे | गाना, लाल माला वा लाल वस्त्र धारण
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.. अष्टांगहृदय ।
म.
६
करना, अवस्था और अंगकी वृदि, तैलम- | एकही मरनेसे छूटता है जो बहुत पुण्यवान् र्दन, विवाह, मूछमुंडाना, पक्वान्न भोजन, | और नियतायु होता है। स्नेहपान,मद्यपान,वमन,विरेचन,सुवर्ण का लोह
स्वप्न के भेद । का पाना, कलह, वचन और पराजय दोनों दृष्टः श्रतोऽनुभूतश्च प्रार्थितः कल्पितस्तथा जूतों का नाश, पांव के चर्मका गिरना, भाविको दोषजश्चति स्वप्नः सप्तविधो मतः अतिहर्ष, कुपित पित्रीश्वरों की ताडना,
___ अर्थ--स्वप्न सात प्रकार के होते हैं। दीपक,घर, नक्षत्र, दांत, देवता और नेत्रों यथा, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित, कल्पित, का पतन, वा नाश, पर्वतभेद, लाल फूल
भाविक, और दोषज । वाले बनमें प्रवेश करना, पापाचारियों के ___+ इनमें से दृष्ट स्वप्न वह है कि उस घर में घुसना, चिताके घोर अंधकार में | में जोवात आंखों से जागृत अवस्था में देखी
है वही स्वप्न में दिखाई दे । श्रुत स्वप्न वा माता में प्रवेश करना, घरको छत वा
वह हैकि उसमें जो वात आंखोंसे देखीनहीं शैलशिखर से गिरना, मत्स्य द्वारा प्रसाजाना
है केवल कानों से सुनी है, वही स्वप्नाकाषायवस्त्रधारी, दुर्दर्शनी, नग्न, दंडधारी, | वस्था में दिखाई दे । अनुभूत स्वप्न वह रक्तनेत्रत्र ले, और काले रंग वालोंका देखना। | है कि उस में जो वात जागृत अवस्था में ये सब बातें अशुभफल सूचक होती हैं।
इन्द्रियों द्वारा अनुभव की गई है वैसीही
स्वप्नावस्था में भी अनुभव की जाय । प्रास्वप्नमेंकृष्णादि स्वीओंकादेखना ।
र्थित स्वप्न वह है कि उस में जो वात जाकृष्णां पापाननाचारा दीर्घकेशनखस्तनी । गृत अवस्था में देखने सुनने वा अनुभव विरागमाल्यवसना स्वप्नकालनिशा मता। करने से मन के द्वारा चिंतमन की गई है मनोवहानां पूर्णत्वात्स्रोतसां प्रबलैमलैः। हश्यते दारुणाः स्वप्न रोगी यैांति पंचताम्
वही स्वप्नावस्था में दिखाई दे । अरोगः संशयं प्राप्य काश्चदेवे विमुच्यते ।
भाविक स्वप्न यह है कि उसमें दृष्ट
और श्रुतादि स्वप्न से विलक्षण स्वप्न सुअर्थ--स्वप्नमें यदि ऐसी स्त्री दिखाई दे
प्तावस्था के उत्तरकाल में दिखाई दे और जो काली, पापाचारिणी, दीर्घ केशी,दीवेनखी | वैसाही उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो, दोषज दीर्घस्तनी, मलीनमाला और वस्त्रोंको धारण स्वप्न वह है कि उसमें पात पित्त और करनेवाली हो तो उसको कालरात्रिके समा- कफ इन तीनों दोषों के अनुरूप स्वप्न
| दिखाई देते हैं। न समझना चाहिये |अत्यन्त प्रवल वातादि दोषोंके कारण मनोवाही हृदयस्थ स्रोतों के | कल्पित स्वप्न वह है जो पात प्रत्यक्ष रुद्र होजाने से बडे बडे भयंकर स्वप्न दिख:- | अनुमानादि छः प्रकारों में से किसी एक ई दिया करते हैं जिनसे रोगीकी मृत्यु हो भी द्वारा जागृत अवस्था में न देखी गई
| न सुनी गई है, न अनुभव की गई है,न मन जाती है । स्वस्थ मनुष्य भी ऐसे स्वप्नों से |
से चिंतमन की गई है ऐसी कल्पित वस्तु जीवनके संशयमें पडकर बहुतों में से कोई दिखाई देती है।
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३३५
उक्त स्वप्नों का फलाफलत्व।
दुःस्वप्न के पीछे सुस्वप्न । तेवाद्या निष्फलाः पंच यथास्वप्रकृतिदिवाः अकल्यागमपि स्वप्नं दृष्ट्वा तत्रैव यःपुनः। विस्मृतो दर्घिहस्वोऽति
| पश्येन्सौम्य शुभं तस्य शुभमेव फलं भवेत् ॥ पूर्वरात्रे चिरात्फलम्। अथे-जो मनुष्य अशुभ स्वप्न देखकर हटः करोति तुच्छं च
उसी स्वप्न में दूसरा शुभ स्वप्न देखता है गोसर्गे तदहर्महत् । ६३। तो शभही फल होता है । निद्रया चानुपहतःप्रतीपैर्वचनस्तथा।
सौम्यस्वप्नों का वर्णन । ___ अर्थ-इन सब प्रकार के स्वप्नों में से
देवान् द्विजान् गोवृषभान जीवतः सुहृदीपहिले पांच प्रकार के स्वप्न यथानुरूप
. नृपान् । शुभाशुभफल नहीं देते हैं । वातादि प्रकृति- साधून यशस्विनो वन्हिांमद्धम् स्वच्छान्यों के अनुरूप स्वप्न दिखाई देते हैं वे भी
जलाशयान् ॥ ६६॥
कन्यां कुमारकान् गौरान शुक्लवस्त्रान्सुतेजसः निष्फल होते है अर्थात् ऐसे स्वप्न शुभाशुभ
नराशनं दीप्ततनुं समंताधिरोक्षितः ६७ ॥ फल नहीं देते हैं, जैसे वात प्रकृतिवाले को
यः पश्येल्लभते योवा छत्रादर्शविषामिषम्। वातप्रकृति के अनुरूप स्वप्न द्वन्द्वजप्रकृति शुक्लाःसुमनसो वस्त्रममेध्यालेपनं फलम् ॥ को द्वन्द्वजप्रकृति के अनुरूप स्वप्न निष्फल शैलप्रासाइसफलवृक्षसिंहनरद्विपान् । होते हैं । इसी तरह दिनका स्वप्न, भूला
आरोहेद्गोऽश्वयानं च तरेन हृदोदर्धान् ॥
| पूर्वोत्तरेग गमनमागम्यागमनं मृतम् । हुआ स्वप्न, बहुत लंबा स्वप्न, बहुत छोटा
संबाधानिःसृतिर्देवैःपितृभिश्वाभिनंदनम् ॥ स्वप्न भी निष्फल होते हैं । जो स्वप्न रोदनं प्रतितोत्थानं द्विषतां चावर्मदनम् । पहिली रात्रि में देखा जाता है वह बहुत | यस्य स्यादायुरारोग्यं वित्तं बहुच सोऽश्नुते काल में तुच्छफल देता है । जो स्नप्न गो
___ अर्थ-जो मनुष्य स्वप्न में देवता, द्विज सर्ग कालमें अर्थात् प्रभात के समय देखा
गौ, बैल, जीते हुए सुहृद, राजा, साधु, जाता है वह उसीदिन बडा फल देता है ।
यश्वसी, प्रज्वलित अग्नि, स्वच्छजलाशय, अथवा पिछली रात्रि में जो शुभ स्वप्न देखा |
कन्या, गौरवर्ण शुक्लवस्त्र धारी तेजस्वी जाता है उसके पीछे निद्रा न आवे
बालक, नराशन ( भोजन करता मनुष्य ) अथवा किसी प्रतिकूल बचनों से उपहत
दीप्ततनु, चारों ओर से रुधिर से लिहसा
हुआ, देखता है । तथा जो छत्र, दर्पण, न हो तो महत्फल का सूचक है,इससे अन्यथा
विष ( वत्सनाभादि ) मांस, सफेद फूल, होने पर अल्प फलदायक होता है ।
सफेदबस्त्र, अमेध्य आलेपन, और फलअशुभ स्वप्न में दानादि ॥ पाता है । जो मनुष्य पर्वत, प्रासाद, फल याति पायोऽल्पफलतां दानाहोमजपादिभिः ।
वान् वृक्ष, सिंह,नरहाथी, बैल, घोडा और ___अर्थ-अशुभ स्वप्न दान,होम और ज- यान पर चढता है, जो नदी, तालाब और पादि से अल्पफलदायक होता है। । समुद्र पर तैरकर निकल जाता है । जो
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अष्टांगहृदय ।
अ०६.
पूर्व और उत्तरकी दिशाओं में गमन करता । वैद्य और औषधमें श्रद्धावान् हों, रोगी का है, और अगम्य स्थानों से लौटकर आजा. कुटुंब अनुकूल हो, बहुत द्रव्य का संग्रह ता है, अथवा अगम्या स्त्री से गमन करता हो, सत्व लक्षण का संयोग हो, वैद्य और है, मरता है, संकटों से बचता है, देवता | ब्राह्मण में भक्ति हो और चिकित्सा में उत्साह और पितृगणों से अभिनंदित होता है, जो | हो । इन लक्षणों के होने पर समझना चारोता है, वा गिरकर उठ बैठता है, वा | हिये कि रोगी को आराम होजायगा । शत्रुओं का मर्दन करता है, ऐसे स्वप्नोंका | शारीरस्थान की निरुक्ति । देखनेवाला आयु, आरोग्य और बहुतसी इत्यत्र जन्ममरणं यतः सम्यगुदाहृतम् । धनसंपत्तियों का भोग करता है। शरीरस्य ततः स्थानं शारीरमिदमुच्यते ,,,
आरोग्य के लक्षण । । इतिश्री वैधपतिसिंह गुप्तमूनो;मङ्गलाचारसंपनःपरिवारस्तथातुरः। । ग्भटस्यकृतावष्टांगहृदयसंहितायां श्रद्दधानोऽनुकूलश्च प्रभूतद्व्यसंग्रहः ७२ ॥ शारीरस्थानसमाप्तमध्यायश्चषष्ठः६ सत्वलक्षणसंयोगो भक्तिवैद्यद्विजातिषु। ।
अर्थ-इस शारीरस्थान में मनुष्य के जन्म चिकित्सायामनिर्वेदस्तदारोग्यस्य लक्षणम् | : अर्थ-मंगला चार * से युक्त रोगीका
| मरण का विस्तारपूर्वक वर्णन लिखा गयाहै, परिवार और रोगी होवै, तथा रोगी और
इसीलिये इस स्थानका नाम शारीरस्थान है । उसके कुटुंबी सद्वृत्त का अनुष्ठान करें,
इतिश्री वाग्भटविरचितायां अष्टांगहृदय
संहितायां मथुरानिवासी श्रीकृष्णलाल . + प्रशस्ताचरणं नित्वमप्रशस्तविसर्ज
कृत भाषाटीकायां द्वितीयं शारीरनम् । एतद्धि मंगलं प्रोक्तमृषिभिस्तत्व दर्शिभिः।
स्थानं षष्ठोऽध्यायश्च समाप्तः ।
शारीरस्थानं समाप्तम् ।
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ओश्म
श्रीहरिम्बन्दे श्रीवृन्दावनविहारिणेनमः निदानस्थानम्
प्रथमोऽध्यायः ।
अथातो सर्वरोगनिदानम् व्याख्यास्यामः । इति ह स्माहुत्रियादयो महर्षयः ।
अर्थ - जव आत्रेयादि महर्षिगण हेतु - लिंग और औषध के परिज्ञान वाले सूत्रस्थान और जीवन मरण के आधार वाले शरीरस्थान की व्याख्या कर चुके तव तदनंतर कहने लगे कि अब 'सर्वरोगनिदान' नामक अध्याय की व्याख्या करेंगें । रोग के पर्यायवाची शब्द | " रोगः पाप्मा ज्वरो व्याधिर्विकारोदुःखमामयः ॥ १ ॥ यक्ष्मा कगदाबाधशब्दाः पर्यायवाचिनः अर्थ- रोग, पाप्मा, ज्वर, व्याधि, कार, दुःख, आमय, यक्ष्मा, आतंक, गद और Hai | Tite शब्द रोग के
वि
पर्यायवाची हैं ।
रोगविज्ञानके पांच प्रकार । निदानं पूर्वरूपाणि रूपाण्युपशयस्तथा २ ॥ संप्राप्तिश्चेति विज्ञानं रोगाणां पंचधा स्मृतम् |
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अर्थ - रोगों के निर्णय करने के पांच प्रधान उपाय हैं, यथा- निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय और संप्राप्ति । निदान के पर्याय | निमित्तहेत्वायतनप्रत्ययोत्थानकारणैः ॥३॥ निदानमाहुः पर्यायैः
अर्थ - निदान के पर्यायवाची शब्द छः हैं यथा - निमित्त, हेतु, आयतन, प्रत्यय, उत्थान और कारण । रोग की उत्पत्ति के हेतु का नाम निदान है ।
माग्रूप के लक्षण |
प्रापं येन लक्ष्यते उत्पत्सुरामयो दोषविशेषेणानधिष्ठितः ॥ लिंगमव्यक्तमल्पत्वाद्व्याधीनां तद्यथायथम् अर्थ- जिनं आलस्य अरुचि आदि के उत्पन्न होने से ज्वरादि रोगों के होने के लक्षण दिखाई दें । उन्हें प्राग्रूप कहते हैं परंतु वातादि दोषों द्वारा व्यक्तरूप से अनासादित हों अर्थात् - वातादि दोषों के लक्षण प्रकट न हुए हों । इस कहने का तात्पर्य यह है कि वातादि दोषों के बिना व्याधि का होना ही असंभव है, क्योंकि यह
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[३४०)
अष्टांगहृदय ।
बात कही गई है कि " सर्वेषामेवरोगाणां | क्षण ऊपर कहचुके हैं ) का ग्रहण है, निदानं कुपिता मलाः " इसलिये जो 'दो- यही रूपधारण करता है, मानस और षविशेषणाधिष्ठितः' कहागया है इस में | शारीर मानस व्यक्तरूप धारण नहीं करते-। स्यक्तरूपदोषापेक्षता जानना चाहिये ।। संस्थान, व्यंजन, लिंग, लक्षण, चिन्ह और .. इसी लिये । लिंग मव्यक्तेत्यादि । कहा | आकृति, ये रूप शब्द के पर्यायहैं । यही गया है, अर्थात् व्याधि के अल्प होने के | नाम पूर्वरूप के भी हो सकते हैं, जैसे पूर्वकारण व्याधि के यथायोग्य स्पष्ट चिन्ह प्र- । संस्थान, पूर्वव्यंजन, पूर्वलिंग, पूर्वलक्षण,पूर्वकट नहीं होते हैं, इसी हेतु प्राग्रूप तीन | चिन्ह और पूर्वाकृति ।। प्रकार का कहा गयाहै यथा-( १ ) शारीर उपशय के लक्षण : (२) मानस और ( ३ ) शारीर मानस | हेतुव्याधिविपर्यस्तविपर्यस्तार्थकारिणाम् ॥ इनमें शारीर प्राग्रूप में ज्वर के पहिले आल- औषधानविहाराणामुपयोग सुखावहम् । स्य, मुख में विरसता, गात्र में भारापन,
विद्यादुपशयंजंभाई, नेत्रों में ललाई और व्याकुलता
व्याधेः स हि सात्म्यामिति स्मृतः ७ ॥ होती है । मानस प्राग्रूप में अरति, हितो
अर्थ-हेतुविपरीत, व्याधिविपरीत,हेतुपदेश में अक्षांति आदि । मिलेहुए शारीर
व्याधि दानों से विपरीत अर्थात् निदान और मानस प्राग्रुप में खट्टे नमकीन और
और रोग दोनों से विपरीत अथवा दोनों से चरपरे पदार्थों में प्रीति और मिष्ट भोजनों
विपरीत न होने परभी किसी विशेषकारण में द्वेष । पूर्वरूप को ही प्राप कहते हैं ।
से विपरीतार्थकारी ( हरीतक्यादि ) औषध, रूप के लक्षण पर्यायादि।
[ रक्तशाल्यादि ] अन्न, और [ व्यवाय, तदेवव्यक्ततांयातं रूपमित्यभिधीयते ॥५॥ | ब्यायाम, जागरण, अध्ययन, गीत, भाषण, संस्थानं व्यंजन लिंग लक्षणं चिन्हमाकृतिः।। ध्यान, धारणादि बाणी देह और मनका ___ अर्थ-व्याधि का वही, उपरोक्त पूर्वरुप चेष्टारूप ] विहार इनका सेवन [ शरीरको ] जब प्रकट हो जाताहै, तब उसे रूप कहते | सुख उत्पन्न करता है अर्थात् हेतु और व्याहैं । यहां शारीर प्राग्रूप ही ( जिसके ल- | धिके विपरीत औषध और आहार विहारका
+ अब हम हेत्वादि से विपरीत औषधानविहार का उदाहरण देते हैं:हेतु विपरीत औषध, यथा-गुरुस्निग्ध शीतजव्याधि में लघुरुक्षोष्ण औषध ।
हेतु विपरीत अन्न, यथा-श्रमजनितवातज्वर में मांसरस के साथ अन्न अथवा संतपणजनित व्याधि अपतर्पण और अपतर्पणजनित ब्याधि संतर्पण । हेतु विपरीतविसार, यथा-जागरणोत्थ व्याधि निद्रा, निद्राजनित व्याधि जागरण । व्यायामजनित व्याधिमे बैठना, अतिबैठेरहने से उत्पन्न व्याधि व्यायाम इत्यादि। - व्याधिविपरीत औषध, यथा-कफजज्वरमें सर्पिःपान औषध । व्याधिविपरीत
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निदानस्थान भाषांटीकासमेत ।
सेवन करने से व्याधिके शांत होनेका नाम | और भी हैं ( जैसे दोषों के आमाशय में उपशय है , इसीका दूसरा नाम सात्म्यभी है प्रवेश होने, आमका अनुगमन करने, तथा
___ अनुपशयके लक्षण । | स्रोतों के रुकजाने से, पक्वाशय से अग्नि विपरीतोऽनुपशयोव्याध्यसात्म्याभिसंशितः के निकलने के द्वारा, उसके ताप से सब
अर्थ-उपशय के यथा निर्दिष्ट लक्षणों देह का बहुत गरम होना इन सब बातों से से विपरीत लक्षणवाले औषव, अन्न, और निश्चय किया जाता है कि यह ज्वर है)। विहार का उपयोग जो दुखकारक होता है, | संपाप्ति के भेद । उसीको अनुपशय अथवा ब्याधिका असा- | संख्याविकल्पप्राधान्यबलकालविशेषतः ॥ रम्य कहते हैं।
सा भिद्यते यथाऽत्रैव वक्ष्यतेऽष्टौ ज्वयाशि संपाप्ति के लक्षण ।
.. अर्थ-संख्या, विकल्प, प्राधान्य, बल यथा दुष्टेन दोषेण यथा चानुविसर्यता । और काल के द्वारा संप्राप्ति के अनेक निवृत्तिरामयस्यासौ संप्राप्तिर्जातिरागतिः। भेद होते हैं, इनमें से संख्या के द्वारा, यथा ___ अर्थ-जिस तरह वातादि दोषों में कोई | ज्वर के आठ भेद होते हैं तथा आगे कहेंगे दोष दुष्ट होकर जिस तरह देह में सन्नि-कि पांच प्रकार की खांसी, पांच प्रकार के वेश विशेष द्वारा गमन करके रोग की उ- श्वास, आठ प्रकार के गुल्म इसी तरह औरं त्पति करता है उसको संप्राप्ति कहते हैं, भी जानो । रोग के जितने भेद होते है, जाति और आगति ये दो नाम संप्राप्ति के | उतनी ही उन की संप्राप्ति भी होती है। मन्न, यथा-यापान अन्न । व्याधि विपरीत विहार, यथा कफज ज्वरमें देह और मनके व्यापार से उपराम।
हेतु व्याधि विपरीत औषध, यथा-वातजनित शोथम वातनाशक और शोथनाशक दशमूल । हेतु ब्याधि विपरीत अन्न, यथा-वात कफजनित ग्रहणीरोगमें वात कफनाशकऔर ग्रह नाशक तकादि । हेतुव्याधि विपरीत विहार, यथा-स्निग्धक्रिया और दिवानिद्रा इनदोनों कारणों से उत्पन्न हुए कफ और तन्द्रारोग में लक्षक्रिया और रात्रि जागरण ।
हेतु विपरीत न होनेपरभी विपरीतार्थकारी औषध, यथा-पित्तप्रधान पच्यमान प्रणशोथ में पित्तकर उष्ण प्रलेप । विपरीतार्थकारी अन्न, यथा-व्रणशोथमें विदाही अन्न का भोजन । विपरीतार्थकारी विहार, यथा-वातोन्मादमें वातकारी बासन ।
' व्याधिविपरीत न होनेपरभी विपरीतार्थकारी औषध, यथा-धमनरोगमें वमनकारक मेनफल । विपरीतार्थकारी अन्न, यथा-अतिसारमै विरेचनके लिये दूध । विपरीतार्थकारी बिहार, यथा-वमनरोगमें प्रवाहन ।
हेतु व्याधि दोनों के विपरीत न होने परभी विपरीतार्थकारी औषध, यथा-विषमें विषका प्रयोग । विपरीतार्थकारी अन्न, यथा-मद्यपानजनित मदात्ययमे मदकारकमधा विहार, यथा-व्यायामजनित मूढवातमें जलतरणरूप व्यायाम ।
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अष्टांगहृदय।
विकल्प लक्षण । व्याधि अल्प हेतुओं द्वारा उत्पन्न होती है दोषाणां समवेतानां विकल्पोऽशांशकल्पना और जिसमें पूर्वरूप और रूप अल्प अंशगें
अर्थ-एक ही व्याधि में मिले हुए दोषों प्रकट होते हैं वह व्याधि अवल अर्थात बल की जो अंशांश कल्पना है, उसे विकल्प हीन होती है। व्याधि के बलावल द्वाराभी कहते हैं, जैसे इस व्याधि में वात कुपित संप्राप्ति की विभिन्नता होती है । हुआ है, वह कभी एक रूक्ष गुणकी अ. व्याधि का काल । धिकता से, कभी लघुसे, कभी शीत से, नदिनभुक्तांशैाधिकाली यथामलम् ॥ कभी दो से वा कभी तीनसे दूषित होता इति प्रोक्तो निदानार्थः है। इसी तरह कटु अम्लादि से कुपित
तं व्यासेनोपदेश्यति ॥ १२ ॥ पित्त कभी उष्ण गुण से, कभी तीक्ष्ण से,
। अर्थ - रात, दिवस, ऋतु और भोजन कभी दो से वा कभी अधिक दूषित होता | इनके अवयवों द्वारा दोषके अनुसार व्याधि है। इस तरह परिमाण द्वारा जो दोषों के / का काल जाना जाता है । जैसे रात और कुपित होने का कारण निश्चय किया जाता | दिनका प्रथम अंश कफका है | मध्य अंश है, इसीको विकल्प कहते हैं। पित्तका है और शेष अंश वायुका है । वर्षा
प्राधान्य लक्षण| .. ऋतुमें वायु प्रकुपित होता है । शरत्काल में स्वातंत्र्यपारतंत्र्याभ्यां व्याधेः
पित्त और वसंतऋतुमें कफ कुपित होता है । प्रधान्यमादिशेत् ।
इसी तरह भोजन का प्रथम अंश कफका अर्थ-व्याधि का प्राधान्य स्वतंत्र और
है । मध्यम अंश अर्थात् परिपाक का समय परतंत्र दो भेदों से जानाजाता है । इनमें
पित्त का है और शेष अंश अर्थात् सभ्यक से स्वतंत्र व्याधि प्रधान होती है क्योंकि
परिपकावस्थत वायुका प्रकोप काल है । इस स्वतंत्र (जो अन्य कारणों से न हुई हो )
तरह जिस जिस दोषका जो जो प्रकोपकाल व्याधि स्वनिर्दिष्ट चिकित्सासे साध्य होती
कहा है उसी उसी काल में उसी उसी दोषसे है, परतंत्र व्याधि अप्रधान होती है क्योंकि
उत्पन्न हुई व्याधि प्रकुपित होती है । जैसे वह प्रधान व्याधि के उपक्रम से ही शांत
रात्रिके पूर्वभागमें वा दिनके प्रथम भागमें होजाती है।
बसंतऋतु में भोजन करते ही कफज्वर बल बलावल कथन । हेत्वादिकापावयवैर्बलावलाविशेषणम् ।
लाभ करता है । इसी तरह बातपित्त का भी अर्थ-जो व्याधि संपूर्ण हेतुओं द्वारा
जानो । अतएव कालभेद से भी संप्राप्ति मि. उत्पन्न होती है तथा जिसमें पूर्वरूप और । रूप पूर्ण रीति से प्रकाशित होते हैं उस इस जगह निदानार्थ अर्थात् निदान, व्याधि को बलवान समझना चाहिये । जो | पूर्वरूप, रूप, उपशय और संप्राप्ति के ल
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. ।
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
क्षण संक्षेपरीति से वर्णन किये गये हैं। यहां | सेवन ), भय, शोक, चिंता, व्यायाम, मैसे आग प्रतिरोगमें इनके लक्षण विशेषरूप | थुन, इन संपूर्ण कारणों से, तथा वर्षा ऋतु से वर्णन किये जायगे॥
के प्रारंभ में, दिन और रात्रि के शेष भाग रोगोत्पत्ति का हेतु । में, तथा भोजन के अंत में वायु प्रकुपित सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः। होता है । तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम् ॥ पितके कोप का कारण । __ अर्थ-प्रकुपित वात, पित्त और कफ ये पित्तं कद्रवम्लतीक्ष्णोष्णपटक्रोधविदाहिमिः तीनों संपूर्ण रोगोंके उत्पन्न होने के निदान शरन्मध्यान्हराच्यविदाहसमयेषु च । . अर्थात् कारण हैं । और इन बातादिके प्रकु- ___अर्थ-कटु, अम्ल, लक्षण, तीक्ष्ण, उष्ण पित होनेका कारण अनेक प्रकारके अहित | और विदाही पदार्थों का सेवन, तथा क्रोध पदार्थों का सेवन है।
इन सब कारणों से शरद ऋतु में, मध्यान्ह तीन प्रकार का अहित सेवन ।। | में, आधीरात के समय और भाहार की अहितं त्रिविधौ योगस्त्रयाणां प्रागुदाहृतः । पच्यमान अवस्था में पित्तका प्रकोप हो.
अर्थ-काल, इन्द्रियार्थ और कर्म इनका तीन प्रकार का हीन, मिथ्या अतिमात्र
कफ के कोपका कारण । लक्षण वाला योग अहित होता है । इसका
स्वादम्ललवणस्निग्धगुभिष्यंदिशीतलैः। पूर्ण वृत्तांत सूत्रस्थान में "अर्थैरसात्म्यः आस्यास्वप्नसुखाजीर्णदिवास्वप्नातिवणैः संयोगः कालः कर्मच दुष्कृतम्" इस श्लोक | प्रच्छर्दनाद्ययोगेन भुक्तमात्रवसतयोः १८ ॥ से लिखागया है।
पूर्वाणे पूर्वरात्रे च श्लेष्मा
द्वंद्वं तु संकरात् । - वायु के कोप का कारण । ___ अर्थ-मधुर, अम्ल, लवण, स्निग्ध, तिकोषणकषायाल्परूक्षप्रमितभोजनैः १४॥ | गुरु, अभिष्यन्दी और शीतल पदार्थो का धारणोदीरणनिशाजागरात्युच्चभाषणेः। | भोजन, सुखपूर्वक गद्दी तकिया लगाये बैठे क्रियातियोगभीशोचिंताव्यायाममैथुनैः ॥ ग्रीष्माहोरात्रिभुक्तांते प्रकुप्यति समीरणः। | रहना, अजीणे, दिन में सौना, अति वृंह
अर्थ-पित्त, कटु, कषाय, अल्प, तथा | ण पदार्थों का अत्यन्त सेवन, वमन विरेचन प्रमित भोजन ) भोजन काल के व्यतीत । | का अतियोग, इन सब कारणों से तथा होने पर भोजन करना ), मलमूत्रादि के | भोजन के प्रथम काल में, वसंत ऋतु में उपस्थित वेग को रोकना, अनुपस्थित वेग | प्रातःकाल के समय वा रात्रि के पूर्वभाग में को बलपूर्वक निकालना, रात में जगना, | कफ प्रकुपित होता है । चिल्लाकर बोलना, क्रियातियोग (वमन । द्वन्द्व दोष अर्थात् वातपित, वातकफ विरेचन और आस्थापनादि क्रियाका अति | और कफपित्त वे दो दोषों के मिले हुए
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मांगलय।
कारणों से उत्पन्न होते हैं, जैसे तिक्त और | तथा मिथ्या उपचार से सन्निपात अर्थात् कटु मादि उभय दोषनिर्दिष्ट पदार्थों के | त्रिदोष का प्रकोप होता है । सेवन से वातपित्त कुपित्त होते हैं, इसी दोषों का विकारकारित्व तरह और भी जानो।
प्रतिरोगमिति कुद्धा रोगाधिष्ठानगामिनीः ।
रसायनीः प्रपद्याशु दोषा देहे विकुर्वते , ॥ सन्निपात का कारण ।
अर्थ-प्रत्येक रोग में पूर्वोक्त संपूर्ण मिश्रीभावात्समस्तानां सन्निपातस्तथा- कारणों से दोष प्रकुपित होकर रोगों के
पुनः ॥ १९ ॥ | रसरक्तादि स्थानों में गमन करनेवाली और संकीर्णाजीणविषमाविरुद्धाद्ध्यशनादिभिः ।।
रसवाहिनी नाडियों द्वारा शरीर में शीघ्र व्यापन्नमद्यपानीयशुष्कशाकाममूलकैः२०॥ पिण्याकमृद्यवसुरापूतिशुष्ककृशामिषैः। विकार उत्पन्न करदेते हैं । दोषत्रयकरैस्तैस्तैस्तथानपरिवर्ततः ॥२१॥ | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां मथुरा
धातोर्दुष्टात्पुरोबाताद् ग्रहवेशाद्विषाद्रात् । निवासि श्रीकृष्णलाल कृत भाषा "दुष्टनात्पर्वताश्लेषाद्ग्रहैर्जन्मक्षपीडनात्र२।। मिथ्यायोगाच्च विविधात्पापानां च
टीकायां निदानस्थाने निषेवणात्
प्रथमोऽध्यायः । स्त्रीणांप्रसववैषम्यात्तथा मिथ्योपचारतः ॥ : अर्थ-उक्त तीनों दोषों के प्रकुपित होने
द्वितीयोऽध्यायः। के संपूर्ण हेतु जब आपस में मिल जाते हैं तब सन्निपात अर्थात् वात पित्त कफ तीनों का प्रकोप होता है । तथा संकीर्ण भोजन, अर्थ-अब हम यहां से ज्वरनिदान की भजीर्ण, विरुद्ध भोजन, अध्यशन, व्याप- | व्याख्या करेंगे। ममद्य, व्यापन्न पानी, सूखा शाक, कच्ची ज्वर का निर्देश । मूली, पिण्याक (सरसों वा तिल का कल्क) | "ज्वरो रोगपतिः पाप्मामृत्तिका, यव ,सुरा, दुर्गधितसूखा और कृश
मृत्युरोजोऽशनोऽतकः । पशु का मांस, अन्य त्रिदोषकारक पदार्थ क्रोधो दक्षाध्वरध्वंसी रुद्रोप्रनयनोद्भवः॥
जन्मांतयोर्मोहमयः संतापात्माऽपचारजः । अन्न का परिवर्तन, दूषित धातु, पूर्वकी विविधर्नामभिःकरो नानायोनिषु वर्तते २॥ पवन, भृत्यादि पर क्रोधका आवेश, विषभ
अर्थ-ज्वर रोगों का अधिपति, पाप क्षण, गरभक्षण, दुष्ट अन्न, पर्वताश्लेष, ग्रह- भाव, मत्युस्वरूप, संपूर्ण धातओं के आद्वारा जन्मनक्षत्र का पीडन, विविध मिथ्या- प्यायित ओज को खानेवाला, मारक, क्रोयोग, पापों का आचरण, प्रसववैषम्य (व. धात्मक ( दक्षसे अपमानित हुए महेश्वर म्चा जनने के समय विषमता होना), के क्रोध से उत्पन्न ), दक्षके यज्ञका नाश
ख्यास्यामः।
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म०
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ३४५ )
करनेवाला, रुद्र के ऊर्ध्वनयन से उत्पन्न, जन्म और मरण काल में मोहोत्पादक, संतापात्मक और अपचारज और दुश्चिकिस्त्य होता है । यह अनेक योनियों में अनेक नामों से अवस्थिति करता है । ज्वर के भेद |
पन हेतुओं से कुपित होकर ज्वर उत्पन्न करते हैं जैसे तिक्तादि हो वात, कटुकादि से पित्त, और मधुरादि से कफ, इसी तरह द्वन्द्व और सन्निपात में भी जानना चाहिये। आगंतु से भी दोष प्रकुपित होकर ज्वर उत्पन्न करते हैं यद्यपि आगंतुज उवरका
स जायतेऽष्टधा दोषैः पृथग्मिः समागतैः । हेतु आगंतुक ही है, तथापि इसमें वातादि - आगंतुश्च कही हेतु है । क्योंकि वातादि के सिवाय व्याधि का होना ही असंभव है, अंतर केवल इतना है कि दोषज व्याधि में प्रथम वातादिक कुपित होते हैं फिर शारीरक वेदना होती है । आगंतुक व्याधि में प्रथम शारीरक वेदना होकर पीछे दोष कुपित हैं । ज्वर के उत्पन्न होने का सिलसिला यह है कि म अपने प्रकोपन हेतुओं से कुपित होकर आमाशय में प्रविष्ट होकर आमका अनुगमन करके रसादिवाही स्रोतों को आच्छादित कर देता है, और पाकस्थानसे जठराग्नि को बाहर निकालकर, उसी अग्निके साथ संपूर्ण शरीर में फैलकर संपूर्ण शरीर को तपायमान करके देहको अत्यन्त उष्ण करके ज्वरको उत्पन्न करता है । ज्वरमें स्रोतों के
अर्थ - यह संताप लक्षणवाला ज्वर आठ प्रकार का होता है, यथा— पृथक् पृथक् दोषों से तीन प्रकारका, दो दो दोषों के मिलने से तीन प्रकार का, तीनों दोषों के मिलने से एक प्रकार का और आगन्तु एक प्रकारका होता है, जैसे वातज, पित्तज, कफज, वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज वातपित्तकफज, और आगन्तुज । ज्वर की संप्राप्ति ।
मलास्तत्र स्वैः स्वैर्दुष्टाः प्रदूषणैः ॥३॥ आमाशयं प्रविश्याम मनुगम्य पिधाय च । स्रोतांसि पक्तिस्थानश्च निरस्य ज्वलनं वहिः । सह तेनाभिसर्पतस्तर्पतः सकलं वपुः । कुर्वतो गात्रमत्युष्णं ज्वरं निर्वर्तयति ते ५ ॥ 'स्रोतविधात्प्रायेण ततः स्वेदो न जायते ।
अर्थ - वातादि दोष अपने अपने प्रको
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I
+ हाथी घोडे गौ पक्षी आदि में ज्वरके भिन्न भिन्न नाम होते हैं । यथा:- पाकलस्तु ययेभानामभितापो हयेषुच । गवां गौकर्णकश्चैव पक्षिणां मकरस्तथा । वांतादानामलकः स्या दुब्जेोष्विन्द्रमदः स्मृतः । भवधीषु तथा ज्योतिश्चूर्णको धान्यजातिषु । जलेषु नीलेका भूमौ चूषो न्हणां ज्वरो मतः । ऋते देवमनुष्येभ्यो नान्यो विषहते तु तम् । शेषाः सर्वे विपद्यते तिर्यग्योनौ ज्वरार्दिताः । कर्मणा लभते जंतुर्देवत्वं मानुषादपि । पुनश्चैव च्युतः स्वर्गान्मनु स्यमभिपद्यते । तस्मात्सदेवभावाश्च सहते मानवो ज्वरम् । अर्थात् हाथी के ज्वर को पाकल घोडेके ज्वर को अभितापक । गौ के ज्वरको गौकर्णक । इसी तरह पक्षियों में मकर, कु ते में अलर्क, मछलियों में इन्द्रमद, ओषधियों में ज्योति, धान्य में चूर्णक । जलमै नीलिका, भूमिमें चूप और मनुष्यों में ज्वर नाम से बोला जाता है ।
४४
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नहीं आते हैं ।
( ३४६ )
मष्टांगहृदय ।
आच्छादित हो जाने के कारण प्रायः पसीने वैषम्यं तत्रतत्रांगे तास्ताः स्युर्वेदनाभ्चलाः ।
पादयोः सुप्तता स्तंभः पिंडिकाद्वेष्टनं श्रमः ॥ विश्लेष इव संधीनां साद ऊर्वोः कटग्रिहः । पृष्ठ क्षोदमिवाप्नोति निष्पीडयत इवोदरम् ॥ छिद्यत इव चास्थीनि पार्श्वगानि, विशेषतः । हृदयस्य ग्रहस्तोदः प्राजनेनेव वक्षसः १३ ॥ स्कंधयोर्मथनं बाह्वोर्भेदः पीडनमंसयोः । अशातर्भक्षणे इम्बोर्जु भण कर्णयोःस्वनः १४ निस्तोदः शखयोर्मूर्ध्नि वेदना विरसास्थता । कषायास्यत्वमथवा मलानामप्रवर्तनम् ॥ रूक्षारुणत्वगास्याक्षिनखमूत्रपुरीषता । प्रसेका रोचक श्रद्धाविपाकास्वेदजागराः ॥ कंठौष्ठशोषस्तृद् शुष्कौ छर्दिका सौविषादिता हर्षो रोमांगदंतेषु वेपथुः क्षवथोर्ग्रहः ॥ १७ ॥ भ्रमः प्रलापो घर्मेच्छा विनामश्चानिलज्वरे ।
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ज्वर का पूर्व रूप |
तस्य प्राग्रूपमालस्यमरतिर्गात्रगौरवम् ॥ ६ ॥ आस्यवैरस्यमरुचि जृंभा नास्त्राकुलाक्षता । अंगमविपाकोऽल्पप्राणता बहुनिद्रता रोमहर्षो विनमनं पिंडिकोद्वेष्टनं क्लमः । हितोपदेशेष्वशांतिः प्रातरम्लपटूषणे ८ ॥ द्वेषः स्वादुषु भक्ष्येषु तथा बालेषु तृड् भृशम् । शब्दाग्निशतिवातांवुच्छायो ध्वनिमिततः इच्छा द्वेषश्च तदनु ज्वरस्य व्यक्तता भवेत् ।
अर्थ-ज्वर के प्राग्रूप ये हैं, यथा--- लस्य, अरति ( चित्त की अनवस्थिति ) शरीर में भारापन, मुख में विरसता, भरचि जंभाई, आंखों का डबडबाना और आकुलता अंगमर्द, अविपाक ( मुक्त अन्नका पचना ) बलकी अल्पता, नोंदका बहुत आना, रोम खड़े होना, अंगों की झुकना, पिडलियों में ऐंठन, क्लान्ति हितकारी वातों का न मानना खट्टी नमकीन और चरपरी वस्तुओं का अच्छा लगना, मिष्ट भोजनों में द्वेष, बालकों की तोतली बोली को अप्रिय मानना, प्यास का अधिक लगना, तथा शब्द, अग्नि, शीत, वात, जल, छाया और उष्ण इनमें विना कारण ही कभी प्रीति और कभी भप्रीति होती है जैसे कभी अप्रिय शब्द पर भी प्रसन्न होना और कभी वेणुवीणादि के प्रिय शब्दों से भी द्वेष करना । ये सब र के पूर्वरूप हैं अर्थात् इसके पीछे ज्वर व्यक्तरूप होजाता है ।
वातजज्वर के लक्षण | आगमापगमक्षोभमृदुताचेदनोष्मणाम् १०॥ होती है, हनुमें भोजन
अर्थ- वातज ज्वर में उधर के आगमन और मोक्ष में विषमता, तथा ज्वर के क्षोभ, मृदुता, वेदना और गरमाई में विषमता अर्थात् इनमें कभी अधिकता और कभी न्यूनता होती है तथा जिस जिस अंगमें जो जो वेदना नीचे लिखी गई हैं उन में भी चंचलता होती है, जैसे पांवों का सुन्न होजाना, स्तंभता, पिंडलियों का उद्वेष्टन, पसीना, संधियों का विश्लेष, उसे में शिथिलता, कमर का जकडना, पीठ में कूटने कीसी वेदना, जठर में पीडत करने की सी वेदना, अस्थियों में विशेष करके पसलियोंमें हडफू
टन, हृदय में जकडना, वक्षः स्थल में चावुक की सी, चमचमाहट, दोनों कंधों
में मथने की सी, दोनों वाढ में भेदन की सी
.
अंसफलक में पीडन करने की सी बेदना
करने की अशक्ति
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म. २ निदानस्थान भाषांटीकासमेत । और ज़मण, कानों में शब्द, कनफ्टी में | हल्लासछर्दन कास स्तंभापत्यं स्वगाविबु
अंगेषु शतिपिटिकास्तंद्रोदर्द कफोद्भवे २२ निस्तोद, मूर्धा में वेदना, मुख में विरसता
| अर्थ-कफवर में अन्न में विशेष अपि मुख में कसीलापन, मलमूत्रादि का अप्रक
जडता, स्रोतों का अबरोध, ज्वर का सूक्ष्म तन, त्वचा, मुख, आंख, नख, मूत्र और
वेग, प्रसेक,मुख में मीठापन, हृदयमें कफ पुरीष में रूखापन और ललाई, “मुखप्रसेक
का लेपन, श्वास, पीनस, हृल्लास, वमन, अरुचि, अश्रद्धा, अविपाक, पसीने न भाना.
खांसी, स्तंभता, त्वगादि में सफेदाई, देह निद्रानाश, कठशेष, ओष्ठशोष, तृषा, सूखी
के अवयवों में शीतजनित पिडिका, तंद्रा, घमन ( उबकाई ), सूखी खांसी, विषादता
उदर्द होते हैं । ये कफज ज्वर के लक्षण रोमहर्ष, अंगहर्ष, दंतहर्ष, कंपन, छींक का
कहे गये हैं। रुकना, भ्रम, प्रलाप, धूप की इच्छा और
दोषों के सामान्य लक्षण । शरीर विनमन, ये सब लक्षण वातज ज्वर
काले यथास्वं सर्वेषां प्रवृत्तिवृद्धिरेव वा। में होते हैं।
___ अर्थ-वातादि जिन जिन दोषों का जो पित्तज्वर के लक्षण ।
| जो प्रकोप काल कहागया है उस उस काठ युगपछ्याप्तिरंगानांप्रलापः कटुवक्त्रता।
" में अनुत्पन्न वातादिक ज्वरों की उत्पति नासास्यपाकः शीतेच्छा भ्रमो मूर्छा- ।
मदोऽरतिः। होती है और उत्पन्न व्याधियों की पति विस्रसः पित्तवमनं रक्तष्ठीवनमम्लकः १९ होती है।
फोटोमः पीतहरितत्वं त्वगादिषु। सामान्य से भिन्न दो लक्षण । वेदो निश्वासवैगंध्यमंतितृष्णाच पित्तज । निदानोक्तानुपशयो विपरीतोपशापिता २३ अर्थ--पित्तनज्वर में एक साथही संपूर्ण
अर्थ-आहार विहारादि जिन जिनका. शरीर में संताप होता है तथा प्रलाप, मुखम ] रणों से रोग की उत्पत्ति होती है उसी उस करवापन, नासापाक, मुखपाक, शीतेच्छा,
कारण से अनुपशय अर्थात् दुख भूम, मी, मद अरति, पुरीषभेद, पित्त
का पैदा होना तथा विपरीत कारण में उपकी वमन, थूकके साथ रुधिर आना खट्टी
शय अर्थात् सुखात्पादकता होती है। डकार, लाल चकत्तों का प्रादुर्भाव, त्वचा, ।
संसर्गजन्वर के लक्षण । नख, मुख,आंख आदि में पीलापन वा
| यथा स्वलिंगसंसर्गे ज्वर संसर्मजोऽपिना सापन.पसीनानिःश्वास में दुर्गध और अति अर्थ-वातज्वर, कफघर, और पित्तनषा. ये सब पित्तजवर के लक्षण हैं। । ज्वर के जो अलग अलग लक्षण कहे गये
कफवर के लक्षण। . . हैं उनमें से दो दो दोषों के लक्षण के मिलने विशेषादराचिर्जाड बोतोरोधोऽल्पवेगता का नाम लिंगसंसर्ग हैं।यथायोग्य लिंगसंसर्ग प्रसेको मुखमाधुर्य हल्लेपश्वासपीनसोः २१ / में उत्पन्न हुए ज्वर को संसर्गज कहते हैं।
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(३४८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २.
बानपित्तज ज्वरकं लक्षण । गतिनर्तनहास्यादिविकृतहाप्रर्वतनम् २८ ॥ शिरोऽर्तिमूर्छावमिदाहमोह
साश्रुणी कलुषे रक्ते भुग्ने लुलितपक्ष्मणी। कण्ठास्यशोषारतिपर्वभेदाः।
अक्षिणी पिडिकपार्श्वमूर्धपस्थिरुग्भ्रमः॥ उन्निद्रतातृड्भ्रमरोमहर्षा
सस्वनौ सरुजौ को कण्ठःशूकैरिवाचितः। जृभातिवाक्त्वं चचलात्सपित्तात् २४॥ परिदग्धा खराजिवा गुरुःस्रस्तांगसंधिताः अर्थ-वातपित्तज ज्वरमें सिरदर्द, मूर्छा, |
रक्तपित्तकफष्ठीवो लोलनं शिरसोऽतिरुक् । वमन, दाह, मोह, कंठशोष, मुखशोष, अरति,
कोष्ठानां श्यावरक्तानां मण्डलानां च दर्शनम्
हृदब्यथामलसंसर्गःप्रवृत्तिाल्पशोऽति वा। संधियों में दर्द, नींद का न आना, तृषा, स्निग्धास्यता बलभ्रंशःस्वरसादः प्रलापिता भ्रम, और रोमहर्ष, जंभाई और बहुत ब- | दोषपाकश्चिरात्तंद्रा प्रतत कण्ठकूजनम् । कना, ये लक्षण होते हैं।
| सन्निपातमाभन्यासतंबयाच्च हतोजसम् ॥ बातकफके लक्षण ।
अर्थ-सन्निपातज अर्थात् वात पित्त कतापहास्यरुचिपर्वशिरोरुकपनिसश्वसनकासावबंधाः। फ तीनों दोषों के संसर्ग से उत्पन्न हुए ज्वशीतजाडयतिमिरभ्रमतंद्रा:- |र में तीनों दोषों के मिले हुए लक्षण होते श्लेष्मवातजनितज्वरलिंगम् ॥ २५ ॥
हैं । तथा बार बार दाह और बार बार शीत अर्थ-वातकफज ज्वरमें तापका अभाव,
की प्रवलता होती है । दिनमें घोर निद्रा, अरुचि, संधियों में दर्द, शिरोवेदना, पीनस,
रात्रिमें जागरण, वा दिनरात घोर निद्रा वा श्वास, खांसी, मलमूत्रका विबंध, शीत, जड
सर्वथा निद्राका अभाव, पसीनोंकी अधिकता ता, तिमिर, भ्रम, तंद्रा, ये सब लक्षण होते हैं
वा पसीनों का सर्वथा अभाव, गीत, नृत्य, कफपित्त ज्वरके लक्षण ।
हास्य आदि विकृत, चेष्टाओं का होना, तशीतस्तंभस्वददाहाव्यवस्था - स्तृष्णा कासः श्लेष्मपित्तप्रवृत्तिः।
था आखोंमें आंसू, कलुषता, रक्तता, कुटिल मोहस्तंद्रालिप्ततिक्तास्यता च
और ललित पलकों का होना ये लक्षण हो . शेयं रूपं श्लेष्मपित्तज्वरस्य ॥ २६ ॥ ते हैं । पिंडलियों में भडकन, पसलियों में
अर्थ-कफपित्त ज्वरमें शीत, स्तंभ, प- दर्द, सिरमें दर्द, संधियों में दर्द, हडफूटन, सीना, और दाह इनका अनियम । तृषा, | भ्रम, कानोंमें झनझनाहट और वेदना, कंठमें खांसी, कफकीप्रवृत्ति, पित्तकी प्रवृत्ति, मोह, कांटे खडे होना । जीभमें परिदग्धता, खुरतंद्रा, मुखमें लिहसावट और कडवापन, ये
खुरापन और भारापन, अंग संधियों में शिसब लक्षण होते हैं।
थिलता, थूक के साथ रक्तापत्त और कफ . सन्निपात ज्वरके लक्षण ।
| का निकलना, सिरका इधर उधर हिलना, सर्वजो लक्षणैः सर्वैर्दाहोऽत्र च मुहर्मुहुः । तद्वच्छीत महानिद्रा दिवा जागरणं निशि।।
सिरमें तीव्र शूल होना, शरीरमें श्याववर्ण सदावा नैववान्द्रिा महास्वेदोऽतिनैववा और रक्तवर्णके गोल चकत्तों का दिखाई दे.
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१० २
निदामस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३४९)
ना, हृदयमें वेदना, मलमूत्र की अप्रवृत्ति, | है। पित्त यदि त्वचा में स्थित होता है तो अति प्रवृत्ति वा अल्पप्रवृत्ति, मुखमें चिकना- | वाहर अधिक दाह और भीतर अल्प दाह पन, बलका नाश, स्वरमें शिथिलता अर्थात् | होता है, तथा यदि कोष्ठ में स्थित होता बोलीका मंद होजाना, प्रलाप, बहुत कालमें | है तो भीतर अधिक दाह और बाहर अल्प दोषका परिपाक, तन्द्रा और निरंतर कंठ- | दाह होता है । पुर और अनु ये दोनों शब्द कूजन, ये सब भयंकर लक्षण सन्निपात में | स्थानविशेष और कालविशेष दोनों की होते हैं । इस सन्निपात के दो नाम और विकल्पना के सूचक हैं। भी हैं । एक अभिन्यास, दूसरा हतौज । यह सन्निपात के भेद । संपूर्ण धातुओं के सार ओज नामक धातु तद्द्वातकफो शीतम्
दाहादिर्दुस्तरस्तयो। का परिहरण करता है, इसलिये इसका नाम
___अर्थ-जैसे पित्त पृथक् होकर त्वचा वा हृतौज है।
कोष्ठ में दाह करता है, वैसेही वातकफ साध्यासाध्य लक्षण । दोषे विवद्धे नष्टेऽग्नौ सर्वसंपूर्णलक्षणः ।
पृथक् होकर त्वचा और कोष्ठ में ज्वर की असाध्यः सोऽन्यथा कृच्छ्रो
प्रथमावस्था वा शेषावस्था में शीत उत्पन्न . भवेद्वैकल्यदोऽपि वा ॥ ३४ ॥ करते हैं । इन दोनों प्रकार के सक्षिपातों अर्थ-सन्निपातज ज्वरमें जो तीनों दोषों
| में दाहादि सन्निपात कृच्छ्रसाध्य होता है। का प्रकोप, मलकी विवद्धता और अग्नि का
कोई २ शीतादि सन्निपात, दाहादिः सन्निविशेषरूप से नाश होजाय और इसमें सर्व
पात और सन्निपात ऐसे तीन प्रकारका संपूर्ण लक्षणों का उद्भव हो तो वह असा- मानते हैं। ध्य होता है । इन लक्षणों से विपरीति होने शीतादि और दाहादि ज्वरका अंतर। पर कष्टसाध्य वा विकलताकारक होता है। शीतादौ तत्र पित्तेन कफेस्पंदितशोषिते ३६ इस कहने का सारांश यह है कि सन्निपात
शीतेशांतेऽम्लको मूर्छा मदस्तृष्णां च जायते
दाहादौ पुनरंते स्युस्तंद्राष्ठीववमिक्लमाः ३७ सुखसाध्य होता ही नहीं है। अन्य प्रकारका सन्निपात ज्वर ।
___ अर्थ-शीतादि सन्निपात में पित्तके द्वारा अन्यश्च सन्निपातोत्थो यत्र पित्तं पृथक् ।
| कफ के स्रावित और शोषित होनेपर शीत
स्थितमा शांत होजाता है तथा शीत के शांत होने त्वचि कोठेऽथवादाहं विदधाति पुरोऽनुवा | पर पित्तकी प्रधानता के कारण खट्टी डंकार ___ अर्थ-एक और प्रकारका सन्निपात | मूर्छा, मत्तता और तृषा उत्पन्न होती है, ज्वर होता है, जिसमें पित्त, वात और कफ | जैसे ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के प्रखर तापसे से पृथक् होकर ज्वरकी प्रथमावस्था में अ- हिम गलकर और सूचकर जाता रहता है थवा शेषावस्था में कभी त्वचा और कभी | और उष्णता की प्रधानता से ग्रीष्म के कोष्ठ में स्थित होकर दाह उत्पन्न करता । भाव उत्पन्न होजाते हैं।
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(३५०)
3
%
A
-
-
इसी तरह दाहादि सन्निपात में कफके अर्थ-अभिषंगज ज्वर भूतग्रहावेश, औद्वारा पित्त प्रशमित होजाता है और दाह | पगंध विष, क्रोध, भय, शोक, और काम के शांत होने पर कफ की वृद्धि के कारण से उत्पन्न होता है । इनमें से भूतग्रह के तंद्रा, ष्टीवन, वमन भौर क्लान्ति ये उत्पन्न अभिषंग से जो ज्वर उत्पन्न होता है उस होते हैं।
में रोगी अकस्मात हंसता और रोता है । आगंतुज जर के चार भेद । औषधगंध के अभिषंग से जो घर होता आगतुरभिघाताभिषंगशापाभिचारतः। है उसमें मी, शिरोवेदना, कंपन और छींक चतुर्धा.
आने लगती है विषजज्वर में मूर्छा, अतिअर्थ-भागंतु ज्वर चार प्रकार का
| सार, मुख में श्यावता, दाह और हृद्रोग होते होताहै, यथा-अभिघातज, अभिषंगज, न,
हैं। क्रोधज ज्वर में कंपन और शिरोवेदना; भिशापज और अभिचारज ।
भयज़ और शोकज ज्वर में प्रलाप; कामज अभिघातज के लक्षण । ज्वर में भ्रम, अरुचि, दाह, तथा लज्जा, अत्र क्षतच्छेददाहाचैरभिघातजः ३८॥
निद्रा, बुद्धि और धैर्य का नाश हो जाश्रमाच्च तस्मिन्पवनःप्रायो रक्तं प्रदूषयन् ।। सव्यथाशोमवैवये सरुजं कुरुते ज्वरम् ॥
ताहै ॥ अर्थ-उक्त चार प्रकार के आगन्तुक | ग्रहादिज्वर में सन्निपात । ज्वरों में से अभिघातज ज्वर क्षतच्छेद अ. | प्रहादौ सनिपातस्य भयादो मरुतस्त्राये। र्थात शस्त्रप्रहार दाहादि और मार्ग चलने
कोपः कोपे ऽपि पित्तस्यआदि के परिश्रम से उत्पन्न होता है । अर्थ-प्रहावेषज, औषध गंधज और विइस अभिघातज ज्वर में विशेष करके वायु पज घर में त्रिदोष का प्रकोप होता है; रक्त को दूषित करके ज्वर को उत्पन्न क- भयज, शोकज और कामज ज्वर में वायु रता है, इसमें न्यथा, सूजन, विवर्णता और
का प्रकोप होताहै, इसी तरह क्रोधज ज्वरम वेदना होती है । प्रायः प्रहण से अन्य दोष
पित्त का प्रकोप होता है । अपि शब्द से भी कुपित हो जाते हैं।
वात का भी कोप होता है।
शापाभिचारज ज्वर । अभिषंगज के लक्षण ।
यौ तु शापाभिचारजौ ॥४३॥ महावेशौषधिविषक्रोधभीशोककामजः।। | सनिपातज्वरो घोरौ तावसह्यतमौ मतौं । अभिषंगात्
अर्थ-अन्य सन्निपातज अरों में जो ___ ग्रहेणाऽस्मिन्नकस्माद्धासरोदने ४०॥
अभिशापज और अभिचारज हैं, ये बडे भऔषधीगधजे मूर्छा शिरो रुग्वेपथुः भवः। विषान्मूतिसारास्यश्यावतादाहहद्दाः ॥
यंकर और असह्य होते हैं। कोधात्कंपःशिरोरुकच प्रलापो भयशोकजे। मंत्रोत्पन्नज्वर के लक्षण । कामाद्भमोऽरुचिर्दाहो हीनिद्राधीधतिक्षयः तत्राभिचारिकर्मयमानस्य तप्यते ४४॥
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पूर्व चेतस्ततो देहस्ततो विस्फोटतइनमः। दोष से मिलता है, उसी दोषका स्वभाव सदाहमस्तस्य प्रत्यहं वर्धते ज्वर ४५॥ इसमें आजाता है। जब यह सौभ्यगुण विअर्थ-अथर्ववेदोक्त अभिचारक मंत्रों द्वारा
शिष्ट कफ से युक्त होता है तब ज्वर में शीत जिस पर मारण प्रयोग कियाजाता है उस का नाम लेलेकर आहुति दीजाती है । उस
और जब तेजोगुणविशिष्ट पित्त से मिलता
है तब दाह, और जब पित्तकफ से युक्त हुयमान मनुष्य का मन प्रथम संतप्त होताहै
होता है तब बारबार कभी दाह और कभी पीछे देह अभितप्त होती है, तत्पश्चात् वि
शीत उत्पन्न करता है । इसलिये वातकफ स्फोट, तृषा, भ्रम, दाह, और मूर्छा इनसे
घर सौग्य और वातपित्तज्वर तीक्ष्ण हो. युक्त ज्वर प्रतिदिन बढता है ॥
ता है। संक्षेप से ज्वर के दो भेद । इति ज्वरोऽष्टधा दृष्टः
अंतःचाहिराश्रप ज्वर । समासाद्विविधस्तु सः।
____भंतः संश्रये पुनः॥४८॥ मानसी
./ ज्वरेऽधिकविकाराःस्युरंतःक्षोभो मलग्रहः। प्राकृतो वैकृतः साध्योऽसाध्यः सामो
| बहिरेव वहिर्वेगे तापोऽपि च सुसाध्यता ॥ निरामकः।
अर्थ-अंतराश्रय घर में अंतःविकार अर्थ-पूर्वोक्त प्रकार से ज्वर आठ प्रकार अधिक होते हैं, तथा तीव्रदाह, और मल का होता है, फिर वही उबर संक्षेप से दो मूत्रादि का विवंध होता है । वहिराश्रय ज्वर दो प्रकार का होता है, यथा (१) शारीरक में केवल बाहर ही ताप होता है, इसमें तीवदाह और मानसिक । (२) सौम्य और तीक्ष्ण । | और मलादि की विवद्धता नहीं होती है । (३) अंतराश्रय और वहिराश्रय । (.) इसलिये वहिर्वेगजर सुखसाध्य और अंतप्राकृत और वैकृत । (५) साध्य और राश्रय जर दुःसाध्य होता है । असाध्य । (६) साम और निराम। प्राकृतवैकृत ज्वरके लक्षण ।।
शारीरमानस ज्वर । वर्षाशरसंतेषु वाताधैः प्राकृताक्रमात् । पूर्वे शरीरे शारीरे तापो मनसि मानसे १७ वैकतोऽन्यः स दुःसाभ्यः प्रायश्च. ___ अर्थ-शारीरक ज्वर में प्रथम शरीर में
प्राकृतोऽनिलात् ॥५०॥ फिर मन में ताप होता है । इसी तरह मा
___ अर्थ-वर्षा, शरत् और बसंत काल में नस ज्वर में प्रथम मनमें पीछे शरीर में ताप
यथाक्रम वातादि तीनों दोषों द्वारा जो ज्वर होता है ॥
होता है उसको प्राकृतज्वर कहते हैं अर्थात सौम्य और तीक्ष्णज्वर ।
वर्षाकाल में वातजज्वर प्राकृत होता है, पवने योगवाहित्वाच्छतिंश्लेष्मयुतेभवेत् ।
शरत्काल में पित्तज्वर और वसंतकालमें कफ दाहः पित्तयुते मित्रे
ज्वर प्राकृत होता है । इनसे विपरीत लक्षअर्थ-वायु योगवाही होता है, यह जिस णवाला अर्थात् वर्षादि ऋतु में वातादि
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( ३५२ )
क्रम से न होनेवाला ज्वर वैकृत होता है, जैसे वर्षा में पित्तज वा कफजज्वर । प्राकृत अवर सुखसाध्य और वैकृतज्वर दुःसाध्य होते हैं; प्राय: प्राकृतज्वर भी जो वात से उत्पन्न होता है दुःसाध्य होता है ।
बसंत में ज्वर का कारण । कफो बसन्ते तमपि वातपित्तं भवेदनु ५२ ॥
वर्षादि ऋतुओं में ज्वरका कारण । वर्षासु मारुतो दुष्टः पित्तश्लेष्मान्वितो ज्वरम् कुर्यात्
पित्तं च शरदि तस्य चानुबले कफः ५० ॥ तत्प्रकृत्या विसर्गाच्च तत्र नानशनाद्भयम् ।
अर्थ-- बंसत कालमें कफ कुपित होकर वरको उत्पन्न करता है तथा वात और पित्त उसके अनुवल होते हैं । वर्षा और शरद में कफ को अनुबलत्व और काल को विसर्गव होने से धातुका उपचय नहीं होता है किंतु वसंतकालमें वातपित्त का अनुवल और आदान काल होने से धातु का अपचय rate होता है । इसलिये बसंत कालमें अनशन से मयकी शंका रहती है ।
|
अर्थ - वर्षाकाल में वायुकुपित होकर वरको उत्पन्न करता है तथा पित्त कफ उसके अनुबल होते हैं । शरत्काल में पित्त कुपितहोकर ज्चरको उत्पन्न करता है और कफ उसके अनुबल होता है । इन दोनों के स्वभाव करके उस प्राकृतज्वर में लंघन करने से भय नहीं होता है, पित्त और श्लेष्मा का स्वभाव द्रव है और द्रवधातु लंघन को सहन कर सकते हैं । और काल भी दो प्रकार का होता है एक विसर्गकाल और दूसरा आदानकाल । वर्षा शरद और वसंत ये तीनों ऋतु विसर्गकाल हैं । इस काल में चन्द्रबल की अधिकता से प्राणी स्वाभाविक ही वलिष्ट होते हैं, इसलिये वे उपवासको सहन करसकते हैं, इसी तरह आदानकाल में सूर्यके बल से प्राणी दुर्बल होकर अधिक उपवास को नहीं सह सकते हैं । अनुबल का यह तात्पर्य है कि जैसे कोई स्वतंत्र राजा हाथी रथ, घोडा और सेनाको लेकर किसी बैरी से युद्ध में
हो और पीछे से और सेना
अष्टांगहृदय ।
प्रवृत्त
सहायता को
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अ० २
पहुंचे । इस सहायक सेना का नाम अनुबल है । इसी तरह ज्वरोत्पादक स्वतंत्र पित्त के वलकी वृद्धि शरत्काल में कफ करता है ।
साध्यासाध्य ज्वर के लक्षण । बलवत्स्वल्पदोषेषु ज्वरः साध्योऽनुपद्रवः । सर्वथा विकृतिज्ञाने प्रागसाध्य उदाहृतः ५३॥
|
अर्थ- जो रोगी वलवान् हो । ज्वर अल्पदोष से उत्पन्न हुआ हो और कासादि दस उपद्रवों से रहित हो तो सुखसाध्य हो है । जैसे रोगीका जैसा ज्वर असाध्य हो ता है वह विकृतविज्ञानीय शारीराध्याय में वर्णन कर दिया गया है ।
ता
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साम ज्वर के लक्षण | ज्वरोपद्रवतीक्ष्णत्वमग्लानिर्बहुमूत्रता । न प्रवृत्तिर्न विड् जीर्णा न क्षुत्सामज्वराकृतिः अर्थ - इस ज्वर में प्रलाप और भ्रमादिक की तीव्रता, अग्लानि, बहुमूत्रता, मलकी अ प्रवृति, वा अजीर्णता और क्षुधा न लगना ये सब लक्षण प्रकुपित होते हैं ।
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अ...२
निदानस्थान भाषाकासमेत ।
[३५]
पच्यमान ज्वरके लक्षण। | इसमें भी जिस दोष की आधिकता होती है ज्वरवेगोऽधिकं तृष्णाप्रलापःश्वसनं भ्रमः।
उसी नामसे वह ज्वर बोला जाता है, जैसे मलप्रवृत्तिरुत्क्लेशापच्यमानस्य लक्षणम् ॥ अर्थ-ज्वर की पच्यमान अवस्थामें ज्वर
वातज्वर. पित्तज्वर इत्यादि । । का वेग, तृषा, प्रलाप, श्वास, भूम, मल
संततज्वर की संप्राप्तिके लक्षण ।
धातुमूत्रशद्वाहिस्रोतसां व्यापिनो मलाः। की प्रवृत्ति और उक्लेश इनकी अधिकता तापयंतस्तनुं सर्वी तुल्यदूष्यादिवर्धिताः ५८ होती है।
बलिनो गुरवस्तम्धा विशेषेण रसाश्रिताः । निरामज्वर के लक्षण। संततं निष्प्रतिद्वंद्वा ज्वरं कुर्युः सुदुःसहम् ॥ जीर्णतामविपर्यासात्सप्तरात्रं च लंघनात् ।
___ अर्थ-धातु, मूत्र और विष्टा इनके बह- अर्थ-सामज्वर के लक्षणों से विपरीत ने वाले स्रोतों में व्याप्तहुए संपूर्ण देह को लक्षणों के होने पर ज्वर की जीर्णता जा- तपाते हुए समानगुणविशिष्ट दूष्य पदार्थो . ननी चाहिये । जैसे ज्वरके उपद्रवों में म- तथा देश, ऋतु और प्रकृतिद्वारा वर्द्धित दुता, ग्लानि, अल्पमूत्रता, पक्व मलकी
वलवान, भारी, स्तब्ध, और विशेषरूपसे प्रवृत्ति, क्षुधा की चैतन्यता । इस तरह
रसादि में आश्रित होकर प्रतिद्वन्द्वता से रहित सात रात्रि लंघन करने के पीछे आठवां वातादि दोष दुस्सह संततज्वर को उत्पन्न दिन भी निराम होने का लक्षण है, क्यों
करते है । कि कहा भी है "सप्ताहेन तु पच्यते सप्त
ज्वरोष्मा का मलको क्षपनत्व । धातुगता मलाः । निरामश्चाप्यतः प्रोक्तो
| मलं ज्वरोष्मा धातून्वा सं शीघ्रं क्षपयेत्ततः ज्वरः प्रायोऽष्टमेऽहनि" । अर्थात् रसरक्तादि
___ अर्थ-अनलधर्म बरोष्मा (ज्वरकीगर्मी) सात धातुओं में गये हुए मल सात दिनमें
कभी मल और कभी धातुओंका शीघ्र ही क्षय
करदेती है क्योंकि संपूर्ण वस्तुओं के क्षय पचजाते हैं, इसलिये आठवें दिन ज्वर निराम होजाता है।
करदेने का इसका स्वभावहै । जो ज्वरोज्वर के पांच भद ।
ष्मा मलके क्षयकरने के लिये उद्यत होती ज्वरःपंचविधःप्रोक्तो मलकालबलावलात् ॥
है तो निराम लक्षण से जानी जाती है, प्रायशः सन्निपातेन भूयसातूपदिश्यते । जैसे-संपूर्ण सोतों का असंरोध, बलवत्ता संततः सततोऽन्येास्तृतीयकचतुर्थको ५७ | देह में हलकापन, वायु का अनुलोमन,
अर्थ-बातादि मलों के पूर्वान्हादि काल | वाणी मन और देह के कार्यों में आलस्य - और बलावल के अनुसार ज्वर पांच प्रकार | का न होना, जठराग्नि का उद्दीपन मुखमें का कहा गया है, यथा-संतत, सतत, / विशदता, मूत्रपुरीषादि मलका प्रवर्तन, भूख अन्येा, तृतीयकः चतुर्थक । विशेष करके | का लगना, और अग्लानि । इन लक्षणों ये संततादि ज्वर सन्निपात से ही होते हैं। के उत्पन्न होने से जान लेना चाहिये कि
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(३५४)
अष्टांगहृदय ।
०२.
खरोष्मा मलका क्षय करने के लिये उद्यत | यही मर्यादा है, कभी कभी कम वा अधिक है। इन लक्षणों से विपरीत स्रोतोरोधादि | भी होजाती है। दोषोपक्रमणीय अध्याय में कहे हुए लक्षणों । इस विषय में हारीत का यह गत है के उत्पन्न होने पर समझलेना चाहिये कि रोगी के वध वा मोक्ष के लिये चौदह, कि ज्वरोष्मा धातुओं का क्षय करनेके लिय अठारह और बाईस दिनकी त्रिदोष की उद्यत है।
| मर्यादा होती है। ___ ज्वरकी स्थिति और अवधि।
संतत ज्वरमें दीर्घ कालकी अनुवृत्ति । सर्वाकारं रसादीनां शुद्धयाऽशुद्धयाऽपिवा क्रमात् ॥ ६०॥
| शुद्धयशुद्धौ ज्वरः कालं दीर्धमप्यनुवर्तते ॥ वातपित्तकफैः सप्तदशद्वादशवासरान् । ।
अर्थ-पूर्वोक्त रसादि धातुओं में ऐसा
अथ ध्वक्तिरसाद प्रायोऽनुयाति मर्यादा मोक्षाय च वधाय च भी हुआ करता है कि कभी मलशुद्ध हो इत्यग्निवेशस्य मतं हारीतस्य पुनः स्मृतिः। जाते हैं धातु शुद्ध नहीं होती, कभी धातु द्विगुणा सप्तमी यावन्नवम्येकादशी तथा ॥
शुद्ध होनाती है, मल शुद्ध नहीं होते कभी एषा त्रिदोषमर्यादा मोक्षाय च वधाय च । __ अर्थ-मल और धातुओं के क्षय के
रसरक्तादि में शुद्धि अशुद्धि रहती है तो कारण से रसादि सातधातु, मल, मूत्र और
इस शुद्धि सहितं अशुद्धि के होने पर संतत तीनों दोष इन बारह पदार्थो को ज्वर की
ज्वर का रोगी के छोडने वा वध करने में ऊष्मा सर्वाकार निःशेष करके शुद्धि वा
उक्त मर्यादा से अधिक समय भी लग अशुद्धि द्वारा वात पित्त और कफकी
जाता है। अधिकता से उत्पन्न हुआ संततज्वर सात,
विषमज्वर के सामान्य लक्षण ।
विषमज्वर क सामान्य दस वा बारह दिन में या तो रोगी को | कृशानां व्याधिमुक्तानांछोडजाता है या मारडालताहै । यह अग्नि
मिथ्याहारादिसविनाम् । वेश का मत है, इस सब कहने का भावार्थ ।
| अल्पोऽपि दोषो दूष्यादेर्लब्ध्वाऽन्यतमतो
बलम् ॥ ६४ ॥ यह है कि ज्वरकी ऊष्मा से रसादि बारह | सविपक्षो ज्वरं कुर्याद्विषमं क्षयवृद्धिभाक् । पदार्थ क्षय, होकर निर्मल शुद्धि होजाती है | अर्थ-व्याधि से मुक्त होने पर कृशतो वातभूयिष्ठ संततज्वर सात दिनमें, पित्त अवस्था में जो मनुष्य मिथ्या आहार बिहार भूयिष्ठ दस दिनमें और कफभूयिष्ठ बारह और औषधि आदि का सेवन करता है उस दिनमें रोगी को छोडजाता है और यदि के देह में अल्पवलवाला वा अपिशव्द से.
अशुद्धि रहती है तौ वातभूयिष्ठ ज्वर सात महा बलवान वातादि में से कोई एक दोष दिनमें, पित्तभूयिष्ठ दस दिनमें और कफ | विषमसंज्ञक ज्वर को उत्पन्न कर देता है, भूयिष्ठ बारह दिनमें रोगी को मारडालता क्योंकि दोष को उस अबस्था में रसरक्ताहै । अधिकतर घर के मोक्ष वा वधकी | दि दूष्य पदार्थों में किसी एक की और देश
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च २
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शारीरस्थान भाषाटीकासमेत ।
वा ऋतु की सहायता मिलजाती है तथा दोष विपक्ष और क्षय वा वृद्धि से युक्त रहता है ।
ज्वरकी रसादि में लीनता । क्षीणे दोषे ज्वरः सूक्ष्मो रसादिष्वेव लीयते ॥
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[ ३५९ ]
लीनत्वात्कार्य व वैर्ण्यजाडया दीनादधातिसः अर्थ - विषमज्वरकारी दोष के क्षीण होने पर सतत कादि ज्वर सूक्ष्म होकर रसादि में लीन हो जाता है परंतु सर्वथा नष्ट नहीं होता है । लीन होकर वह दोष कृशता विवर्णता, जडता आदि को धारण करताहै ॥
दोषकी प्रवृत्ति निवृत्ति ।
दोषः प्रवर्तते तेषां स्त्रे काले ज्वरयन् बली ॥ निवर्तते पुनश्चैष प्रत्यनीकबलाबलः ।
अर्थ - ऊपर कहे हुए कृश और मिथ्याहारविहारसेवी मनुष्य के देह में वातादि दोषों में से कोई मा बलवान् दोष (वयअहोरात्र और भुक्त लक्षण वाले ) अपने प्रकोषकाल में संताप उत्पन्न करके अपने व्यापार में प्रवृत्त होता है अर्थात् संततादिउर उत्पन्न करता है परंतु इस कामको वह - दोष उसी समय कर सकता है जब उसे अप ने पक्षवालों में से किसी रसादि दृष्य पदार्थ से सहायता मिलती है और जब बलवान् विपक्षी दुष्य के द्वारा हीनबल होजाता है तब वह दोष अपने व्यापार से निवृत हो जाता है । जैसे बट का बीज जलादि सामप्री से बल को पाकर विशिष्टकाल में अंकुरित होजाता है और जलादि सामग्री के न मिलेने पर भूमिपर स्थित रहता है, ऐसे ही विषम ज्वरका उत्पन्न करनेवाला दोष अपने पक्षवाले दूष्य से लधवल होकर अपने काम को करता है और विपक्ष दोष के बल से इसकी शक्ति जाती रहती है तब अपने व्यापार को नहीं करता हैं देह ही में लीन हो जाता है ।
|
विपरीतो विपर्ययात् ॥ ६८ ॥ अर्थ - रसवाही स्रोतों के मुख खुले हुए और निकटवर्ती होने के कारण ज्वर के उत्पन्न करनेवाले दोष उन स्रोतों में शीघ्र प्रविष्ट होकर संपूर्ण शरीर में व्याप्त होजाते हैं, इसी कारण से रसधातु में स्थित संततज्वर निरंतर रहा आता है, उसका विराम नहीं होता है । और उक्त हेतु से विपरीत होने 1 पर अर्थात् रसवाही स्रोतों से रक्तवाही और मेदोवांही संपूर्ण स्रोत दूरवर्ती, सूक्ष्म मुखवाले होते हैं, इसलिये घर के उत्पन्न करने वाले दोष विलंब में प्रविष्ट होते हैं और संपूर्ण देह में भी फैलने नहीं पाते और इसी हेतु से विच्छिन्न काल में सततादि ज्वर को उत्पन्न करते हैं । इसलिये सततादिज्वर संतत ज्वर से विपरीत होता है अर्थात् संतत ज्वर निरंतर होता है सततादि ज्वर विच्छिन्नकाल में होता है ।
उक्त विषय में युक्ति । आसन्नविवृतास्यत्वात्स्रोतसां रसवाहिनाम् आशु सर्वस्य वपुषो व्याप्तिर्दोषेण जायते । संततः सततस्तेन
विषमज्वर का स्वरूप | विषमो विषमारम्भ क्रियाकालोऽनुषंगवाम् । -
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[३५६)
अष्टांगहृदय ।
अ० १
अर्थ-विषम संज्ञक ज्वरका प्रारंभ,क्रिया अर्थ-दोष मेदोवाही नाडी में स्थित होऔरं काल विषम होता है, तथा यह ज्वर कर तृतीयक नामवाले विषम ज्वरको उत्पन्न दीर्घकालानुबंधी भी होता है । विषमारंभ, करता है । यह ज्वर बीच में एक दिनका यथा:-यह कभी मूट से, कभी पीठसे | अंतर देकर होता है, इसे लोक में तिजारी और कभी जांघ से उत्पन्न होता है । वि. भी कहते हैं । तृतीयक ज्वर तीन प्रकार षमक्रिया, यथा:-कभी शीत से, कभी
का होता है, यथा-वातपित्ताधिक्य, कफ दाह से । विषमकाल, यथा-कभी पूर्वान्ह
| पित्ताधिक्य और वातकफाधिक्य | इनमें से में, कभी मध्यान्ह में, कभी अपरान्ह में
वातपिताधिक्यवाला तृतीयक ज्वर प्रथम और कभी अर्द्धरात्र में उपस्थित होता है ।
सिर से उत्पन्न होता है, ऐसेही कफपित्तारक्ताश्रयदोष को सततज्वरकरत्व । धिक्य वाला त्रिक से उत्पन्न होकर वहां दोषो रक्ताश्रयःप्रायः करोति सततं ज्वरम्॥ |
पीडा करता है । वातकफाधिक्य वाला ज्वर अहोरात्रस्य स द्वि स्यात्
पीठ से त्रिक पर्य्यन्त भाग में उत्पन्न होकर अर्थ-प्रायः रक्ताश्रितदोष सततज्वर को
| पीठ और त्रिक में वेदना करता है । उत्पन्न करता है । यह ज्वर अहोरात्र में दो बार होता है अर्थात् दिन में एक बार
चतुर्यकज्वर की उत्पत्ति । रात्रि में एक बार, अथवा कभी दिन में दो
| चतुर्थको मले मेदोमज्जास्थन्यतमस्थिते ।
मज्जस्थ एवेत्यपरे प्रभावं स तु दर्शयेत् ॥ बार अथवा रात्रिमें दो बार कभी दोनों में
द्विधाकफेनजंघाभ्यां स पूर्व शिरसोऽनिलात् दो दो बार होता है।
____ अर्थ-दोष, मेदा मज्जा वा अस्थि इन अन्येा विषमज्वर के लक्षण ।
तीनों धातुओंमें से जब किसी एक धातु में सकृदन्येाराश्रितः।
आश्रय करलेता है तब वह चर्तुथक नामक तस्मिन्मांसवहा नाडीः अर्थ-दोष मांसवाही नाडी में आश्रित
विषमज्वर को उत्पन्न करता है, इसे लोकमें होकर अन्येदु वा अन्येदुष्क नामक विषम
चौथैया कहते हैं । अन्य आचार्यों के मत ज्वरको उत्पन्न करता है । यह ज्वर दिन
में केवल मज्जा का आश्रय कर लेनेही पर रात में एक बार होता है अर्थात् कभी दिन
दोष चतुथक ज्वर को उत्पन्न करता है, में एक बार अथवा कभी रात्रिमें एक बार
यह ज्वर दो दिन बीच में देकर आता है, होता है।
अर्थात् पहिले दिन आकर दो दिन छोड़कर
चौथे दिन आता है । चार्तुथक ज्वर दो तृतीयक ज्वर । .. मेदोनाडीस्तृतीयके ॥ ७० ॥
प्रकार का प्रभाव दिखाता है अर्थात् जो प्राही पित्तानिलान्मूलस्त्रिकस्य कफपित्तताः |
कफ से उत्पन्न होता है वह प्रथम जघा से सपृष्ठस्यांनिलकफास चैकाहांतरः स्मृतः॥ उत्पन्न होकर सब शरीर में फैल जाता है
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अ. २
निदानस्थान भाषाटीकासमेत |
[३५.७.)
तथा जो वात से होता है वह प्रथम सिर । मन, तथा शब्दस्पर्श रूपरसगंध इनके बल में उत्पन्न होकर फिर देहमें फैलता है। से सततकादि वर उसी उसी निर्दिष्टकाल
विषमज्वर के तीन भेद । में प्राप्त होताहै, इसीसे कभी सततक, अस्थिमज्जोभयगते चतुर्थकविपर्ययः ७३॥ कभी अन्येदुष्क, कभी तृतीयक वा कभी विधा
चतुर्थक होजाताहै और कभी चतुर्थक होकर थंह ज्वरयति दिनमेकम् तु मुंचति । अर्थ- अस्थि और मज्जा इन दोंनो धा
तृतीयक, अन्येदु वा सततक होजाताहै । तुओं का आश्रय लेकर दोष चतुर्थक विप- ज्वर मोक्षकाल का लक्षण ।
र्यय नामक अर्थात् चतुर्थक वर के विप-धातून प्रक्षोभयन् दोषो मोक्षकाले विलीयते रीत लक्षण वाले ज्वरको उत्पन्न करता है,
ततो नरः श्वसन् स्विद्यन् क्जन् वमति चेष्टते
घेपते प्रलपत्युष्णैः शीतेश्वांगैहतप्रभः ७७॥ यह सन्निपात से उत्पन्न होने पर भी कभी
| विसंशेऽज्वरवेगातः सक्रोधाइव वीक्षते । वातकी अधिकता, कभी पित्तकी अधिकता | सदोषशब्दं च शकृद्रव सुजति वेगवत् ॥
और कभी कफकी अधिकता से तीन प्रका- अर्थ-जैसे प्रचंड पवन बंडे जलाशय र का होता है यह ज्वर अस्थि और मज्जा | को हिला देताहै वैसेही ज्वरके मोक्षकाल में इन दो धातुओं में माश्रित होने के कारण वातादि दोष भी रसादि धातुको क्षोभित लगातार दो दिन तक रहकर बीच में एक करके पीछे विलीन होजाताहै । उस समय दिनको छोड़ जाता है, फिर दो दिन तक | रोगी श्वास लेताहै । उसके रोम कूपोंसे लगातार रहता है।
पसीने निकलते गलेमें कूजन का सा अदोषों के बलाबलसे ज्वर ।
| व्यक्त शब्द होताहै । वमन करताहै, कभी बलाबलेन दोषणामनचेष्टादिजन्मना ७४ ॥ | ज्वरः स्यान्मनसस्तद्वत्कर्मणश्च तदा तदा।।
भूमि और कभी शय्या पर लेटताहै, कांपता दोषदृष्यवहोरात्रप्रभृतीनां बलाज्ज्वरः ॥ है, वृथा बकबाद करताहै, इसका कोई अंग मनसो विषयाणां च कालं तम् तम् प्रपद्यते । शीतल और कोई उष्ण होताहै मुखकी कांति
. अर्थ-जिस जिस समय आहार विहारा- | जाती रहतीहै, ज्वरके बेगसे पीडित होकर दि द्वारा वातादिक शारीरक दोषोंका बलाबल
संज्ञाहीन होजाताहै और क्रोधित की तरह होताहै, उसी उसी समय में इसी दोष के
देखताहै तथा आमसहित शब्द करता हुआ बलावल द्वारा सततादि ज्वर उत्पन्न होते हैं
पतला विष्टा करताहै । 'इसीतरह जिस जिस समय मानस दोष और
विगतज्वर के लक्षण ॥ 'मानसकार्य का बलाबल होताहै, उसी उसी समय में यह सततादि ज्वर उत्पन्न होतेहैं ।
देहो लघुर्व्यपगतक्लममोहतापः
पाको मुखे करणसौष्ठवमव्यथत्वम् । इसीतरह वातादि दोष, रसरक्तादि दूष्य,
स्पेदःक्षवःप्रकृतियोगिमनोऽन्नलिप्सा. शिशिरादि अतु, दिन और रात्रि, प्रकृति कंडूपच मूनि विगतज्वरलक्षणानि, ॥
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[ ३५८ )
अर्थ - विगतज्वर के ये लक्षण होते हैं यथा -- देहमें हलकापन, क्लान्तिनाश, मोहनाश, तापनाश, मुखपाक, इन्द्रियों में सौष्ठव व्यथारहितता, पसीना, छीक, मनमें सावधानी, अन्नमें रुचि, और मस्तक में खुजली । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां द्वितीयोऽध्यायः ।
तृतीयोऽध्यायः ।
अष्टiिहृदय |
अथातो रक्तपित्तकासनिदानम्
व्याख्यास्यामः ।
अर्थ - अब हम यहांसे रक्तपित्त निदान नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
66
रक्तपित्तके दूषित होनेका कारण । 'भृशोष्णतीक्ष्णकट्वम्ललवणदिविदाहिभिः कोद्रवोद्दालकैश्चान्नैस्तद्युकैरतिसेवितैः १ ॥ कुपितं पित्तलैः पित्तं द्रवं रक्तं च मूर्छिते । तेमिवस्तुल्यरूपत्वमागम्य व्याप्नुतस्तनुम् अर्थ- अत्यन्त उष्ण, अत्यन्त तीक्ष्ण अत्यंतकटु, अत्यंत अम्ल, और अत्यंत लवयादि विदाहोत्पादक द्रव्य तथा कोदों, उद्दालक, पित्तकारक द्रव्योंके अत्यंत सेवन : से पतले स्वभाववाला पित्त, प्रकुपित रक्त से मिलकर आपस में समान रूपको प्राप्त होकर सब शरीरमें व्याप्त होजाता हैं । रक्त की विकृति |
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अ० में
के रक्तसे उत्पन्न होने के कारण, रक्तके संसर्ग से अर्थात् रक्त और पित्त आपस में मिलजाने से, पिस द्वारा रक्तके दूषित होने से और रक्त द्वारा पित्तके दूषित होने से तथा रक्तका जैसा गंध और वर्ण है वैसाही गंध और वर्ण पित्त के होनेसे अर्थात् उक्त सव कारणों से रक्त का पित्तके साथ व्यपदेश होकर रक्तपित्त नाम होता है । अधिक रक्त का कारण । प्रभवत्यसृजः स्थानात्प्लीहतो यकृतश्च तत् अर्थ - प्लीहा और यकृत ये रक्त के स्थान है, वहीं से उच्छ्रित रक्त अधिक निकरता है ।
रक्तपित्त के पूर्वरूप | शिरोगुरुत्वमरुचिः शीतेच्छा धूमको ऽम्लकः छर्दिश्छर्दितबैभत्स्यं कारुः श्वासो भ्रमः क्लमः । लोहलाोहितमत्स्यामगंधास्यत्वं स्वरक्षयः ॥ रक्तहारिद्रहरितवर्णता नयनादिषु । नीललोहित पीतानां वर्णानामविवेचनम् ६ ॥ स्वप्ने तद्वर्णदर्शित्वं भवत्यस्मिन्भविष्यति । अर्थ - सिर में भारापन, अरुचि, शतिल वस्तुकी इच्छा, कंठमें धूंआंसा निकलना, खट्टी डकार, वमन, वमितद्रव्य में दुर्गेधि, खांसी, श्वास, भ्रम, क्लांति, मुखमें लोह, रक्त मछली कीसी कच्ची गंध आना, स्वर की क्षीणता, नेत्रों में लाली, हलदी कासा रंग, अथवा हरापन होना, नील लोहित और पीले रंगों में अंतर न माळूम होना, और स्वप्न में लालरंग दिखाई देना येसव रक्तपित के पूर्वरूप हैं ।
रक्तपित्त के तीन भेद |
पित्तं रक्तस्य विकृतेः संसर्गाद् दूषणादपि । गंधवर्णानुवृत्तेश्च रक्तेन व्यपदिश्यते ॥ ३ ॥
अर्थ - रक्तकी विकृति से अर्थात् पित्त | ऊर्ध्वं नासाक्षिकर्णास्यैर्मेंद्र यानि गुदैरधः ७
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अ० ३
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|
कुपितं रोमकूपैश्च समस्तैस्तत्प्रवर्तते ।. अर्थ-रक्तपित्त तीन प्रकारका होता है, ऊर्ध्वगामी, अधोगामी और उभयमार्ग गामी इनमें से कुपित हुआ ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त दोनों नाक, कान दोनों आंख और मुख इन सात द्वारों से निकलने लगता है, धोगामी कुपित रक्त मेद्र, योनि और गुदा इन तीन द्वारों से निकलता है और उभय मार्गगामी संपूर्ण रोम कूपों से तथा उक्त दस द्वार से निकलने लगता है ।
अ
ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त के कर्तव्य | ऊर्ध्वं साध्यं कफाद्यस्मात्तद्विरेचनसाधनम् ॥ बहुवौषधं च पित्तस्य बिरेको हि वरौषधम् । अनुबंधी कफो यश्च तत्र तस्यापि शुद्धिकृत् कषायाः स्वादवोऽप्यस्य विशुद्धश्लेष्मणोहिताः । किमु तिताः कषाया वा ये निसर्गात्कफापहाः। अर्थ - कफकी अधिकता से ऊर्धगामी रक्तपित्त उत्पन्न होता है इसलिये इसका साधन बिरेचन है । पित्त की बहुत सी 1 औषध हैं परंतु विरेचन सबमें प्रधान है तथा रक्तपित्त का अनुबंधी कफ होता है और heat औषध भी विरेचन है, इनसब हेतुओं से ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त साध्य होता है । स्वरस, कल्क, शृतशीत फांटाख्य कषाय मधुररस युक्त होने पर भी व्याधिकी प्रतिपक्षता के कारण विशुद्ध ( वातादि से अदूषित ) कफ वाले रोगी के लिये हित"कारी होते हैं । फिर तिक्तकषाय जो स्वाभाविक ही कफका नाश करनेवाले हैं ये तो अत्यंत ही हितकर होते हैं ।
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[ ३५९ ]
अधोगामी रक्तपित्त को याप्यत्व । अधोयाप्यं बलाद्यस्मात्तत्प्रच्छईनसाधनम् १ अस्पौषधं च पित्तस्य वमनं म वरौषधम् १ अनुबंधी चलो यश्व शांतयेऽपि न तस्य तत्
कषायाश्च हितास्तस्य मधुरा एव केवलम् ॥
अर्थ - अधोगामी रक्तपित्त वात से उत्पन्न होने के कारण याप्यहोता है । अधोगामी रक्तपित्तकी चिकित्सा वमन होती है। पित्तकी चिकित्सा कम होती है इसलिये पित्त में वमन कराना उत्तम औषध नहीं है । इस में रक्तपित्त का अनुबंधी वायु होता है वमन इस अनुबंधी वायुका शमन नहीं करती है । रक्त पित्त में केवल स्वरसादि मधुर कषाय हितकारी होते हैं । तिक्तादि कषाय वमन के प्रकोपक होने के कारण हितकारी नहीं होते ॥
उभयगामी रक्त पित्त को असाध्यत्व । कफमारुतसंसृष्टम साभ्यमुभयादनम् । अशक्यप्रतिलोम्यत्वादभावादौषधस्य च ॥
अर्थ - कफ और वायु दोनों से संसृष्ट होने के कारण रक्त पित्त ऊपर और नीचे दोनों ओर प्रवृत होता है, यह उभयमार्ग|गामी रक्तपित्त असाध्य होता है । ऊर्ध्वमार्ग का प्रतिलोम अधोमार्ग और अधोमार्ग का प्रतिलोम ऊर्धमार्ग होता है इस लिये उभयमार्गगामी रक्त का प्रतिलोमही नही है । इस में वमन विरेचन कुछ भी नही दे सकते हैं । उभयगामी रक्तपित्त में चिकित्सा का भी अभाव है इसलिये यह असाध्य होता है ||
उक्त कथन का कारण । नहि संशोधनं किंचिदस्त्यस्य प्रतिलोमगम् ।
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अष्टांगहृदय ।
अ०३.
शोधनं प्रातलामें चरक्तपित्ते भिषग्जितम् ॥ | शांत होजाताहै परंतु अधोगामी रक्तपित्त
अर्थ-रक्तपित्त रोग में प्रतिलोमगामी के प्रकोपक वायुको प्रकोपित्त करदेताहै शोधन ही औषध है अर्थात जो ऊर्ध्वगामी । उभयमार्गगामी रक्तपित्त के शमन करने के रक्तपित्त हो तो विरेचन और अधोगामी हो । लिये नृसिंह रूपवत् कोई ऐसी औषध नहीं तो वमन दी जाती है, परंतु उभयमार्ग- जो इसका शमन करती हो, इसलिये यह गामी रक्तपित्तका प्रतिलोमही नहीं है जोवमन । असाध्य है। देतेहैं तो रक्तपित्त की ऊपर को प्रवृति होती है दोषानुगमन के लक्षण । और बिरेचन देते है, तो नीचे को प्रबृति तत्र दोषानुगमनम् सिरान इव लक्षयेत् । होती है इस हेतु से उभयमार्गगामी रक्त- |
उपद्रवांश्च विकृतिज्ञानतःपित्त में प्रतिलोमगामी संशोधन औषध का
अर्थ-रक्तपित्त में पातपित्त कफका अ. अभाब है । अत एव यह असाध्य होताहै ।
नुबंध इस तरह जानना चाहिये जैसे सिग
व्यध में रक्त के काले, लाल और रूक्षादि रक्तपित्तमें संशमन का अभाव ।। एवमेवोपशमनं सर्वशो नास्य विद्यते ।
लक्षणों द्वारा वातादि दोषों का संबंध वर्णन संसष्टेषु हि दोषेषु सर्वजिच्छमनम् हितम् ॥ | किया गया है तथा विकृति विज्ञानीयाध्याअर्थ-जैसे उभयमार्गगामी रक्तपित्त का
योक्त रक्तपित्त में होनेवाले उपद्रयों को शमन करने के लिये वमनविरेचन औषधों | जान लेना चाहिये । का अभावहै । वैसेही शमन औषध भी कासको आशुकारित्व । रक्तपित्त का शमन नहीं करसकतीहै । क्यों
तेषु चाधिकम् ॥१६॥
आशुकारी यतः कासस्तमेवाऽतःप्रवक्ष्यति। कि संसृष्ट अर्थात् त्रिदोष में सर्वजित् संशमन औषधों का प्रयोग हितकारी होताहै ।
___ अर्थ-रक्तपित्त के जो उपद्रव कहे गये वह त्रिदोषनाशक शमन संतर्पण और अप- |
हैं, उनमें से खांसी सब में, प्रबल हैं, यह तर्पण भेदोंके द्वारा दो प्रकार का होताहै
रक्तपित वाले रोगी को शीघ्र मार डालती इनमेंसे यदि संतर्पण अर्थात् वृंहणकारक
है, इसीलिये पहिले इसका वर्णन किया शमन अधोमार्गगामी रक्तपित्त के दोष की
जायगा। अपेक्षा करके वायुकी शांतिके लिये दिया
खांसी के पांच भेद ।
| पंचकासाःस्मृता वातपित्तश्लेष्मक्षतक्षयैः।। जाय तो वायुकी शांति तो करदेताहै परंतु
___ अर्थ-खांसी पांच प्रकार की होती है ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त विकारकारी कफकी वृद्धि ।
यथा-बात न, पित्तज, कफज, क्षतज और करदेता है, और यदि ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त
क्षयज । की अपेक्षा करके कफके शमनके लिये अप- खांसी को क्षयोत्पादकता। तर्पण का प्रयोग किया जाय तो कफ तो | क्षयायोपेक्षिताःसर्व बलिनश्चोत्तरोत्तरम्॥
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अ. ३
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३६१ ]
अर्थ-सब प्रकार की खांसी चिकित्सा | अर्थ-निदान के भेदसे खांसी के उत्पन किये जाने पर क्षय को उत्पन्न करदेती । न करनेवाले बलवान् वायुका प्रतिघात भेद हैं । इन पांच प्रकारकी खासियोंमें उत्तरोतर | होता है इसी लिये सब प्रकार की खासियों वलवान हैं । अर्थात वातकी खांसी से पित्त । में शूल और शब्द, भिन्न भिन्न प्रकार के की, पित्तकी खांसी से कफकी इत्यादि । होते हैं। कास का पूर्णरूप ।
बातकास का निदान । तेषांभविष्यतां रूपं कण्ठे कंडूररोचकः १८ / कुपितोवातलैर्वातःशुष्कोरः कण्ठवक्त्रताम् शुकपूर्णाभकण्ठत्वम्
हृत्पाोरःशिरःशूलं मोहक्षाभस्वरक्षयान् । __ अर्थ-कास रोग के उत्पन्न होने से | करोति शुष्कं कासंच महावेगरुजास्वनम् ॥ पहिले कंठमें खुजली, तथा अरुचि होती है
सोऽगहर्षी कर्फशुष्कं कृच्छ्रान्मुक्त्वाऽल्पता
व्रजेत् । और गला ऐसा घिरा हुआ मालूम होताहै
__अर्थ-अत्यंत वालकारक हेतुओं से वायु जैसे जौ के तुषों से घिर जाता है ।
कुपित होकर वक्षःस्थल, कंठ और मुखमें कासरोग की संप्राप्ति । शुष्कता ( खुश्की ) करता है । हृदय, पतत्राधो बिहतोऽनिलंः।।
सली, वक्षःस्थल और सिरमें शूल उत्पन्न ऊर्ध्व प्रवृत्तःप्राप्योरस्तस्मिन् कण्ठेचसंसजन् शिसस्रोतांसि संपूर्य ततोऽगान्युत्क्षिपन्निव।
करता है । मोह, क्षोभ और स्वरमें क्षीणता क्षिपन्निवाक्षिणी पृष्ठमुरःपार्चेच पीडयन् ॥ करता है तथा बडे वेग, पीडां और शब्द प्रवर्तते स वक्त्रेण भिन्नकांस्योपमध्वनिः। के साथ अंग में रोमहर्ष करता हुआ सूखे
अर्थ-सब प्रकार के कासरोगमें वायु कफको कठिनता से निकालकर थोडी देर नीचे विशेष रूप से हत होकर ऊपरको के लिये आराम करदेता है। प्रत होतीहै, तदनंतर क्रमसे हृदय में पहुं. पित्तकास का निरूपण । चकर कंठ में संसक्त होजातीहै, तदनंतर पित्तात्पीताक्षिकफता तिक्तास्यत्वं ज्वरोसिर के स्रोतों में भरकर पीछे संपूर्ण अंगों
भ्रमः ॥ २४॥ को ऊपर की ओर फेंकती है। आग्ने बा- पित्तासृग्वगमनम् तृष्णा वैस्वर्य धूमको मदः । हर को निकालती है, पीठ, वक्षःस्थल और प्रततं कासवेगेन ज्योतिषामिवं दर्शनम् २५ पसली में पीड़ा करती हुई फूटे हुए कांसी अर्थ-पित्तकीखांसीमें आंख और कफ पीले के पात्रकी सी ध्वनि करती हुई मुखसे पडजाते हैं। मुखमें तिक्तता, अर, म्रम, पिनिकलती है।
त्तरक्त की वमन, तृषा, स्वरमें विकार, मुख ___ खांसी में अनेक शब्द । से धूआं सा निकलना, मद, तथा खांसी के
| निरंतर वेगके कारण आंखोंके साम्हने तारेसे हेतुभेदात्प्रतीघातभेदोवायोःसरहसः२१॥ यदुजाशब्दवैषम्यं कासानां जायते ततः। । दिखाई देना । ये सब वाते उपस्थित होती हैं
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अष्टांगहृदय ।
अर्थ-कफकी खांसी में वक्षःस्थल में वेद
ना कम होती है । मूर्द्धामें स्तिमिता, हृदय में
1 ।
भारापन, कंठमें कफकी व्हिसावट, देहमें शि थिलता, पीनस, वमन, अरुचि और रोमहर्ष होते हैं । तथा गाढा, चिकना और सफेद कफ निकलता है |
(३६२ ]
दर्द, सुई छिदने के समान तीव्र
पर्व
कफ की खांसी का निरूपण । कफादुरोऽल्पम्मूर्धिन हृदयं स्तिमितं गुरु । 'कण्डोपलेपः सदनं पीनसच्छर्धरोचकाः २६ रोमहर्षो घनस्निग्धश्वेतश्लेष्म प्रवर्तनम् ।
द, ज्वर, श्वास, तृषा, स्वरविकृति, कंपन, कंठमें कबूतरकी सी कूजन और पसली में
|
1
बीर्य,
दर्द, ये सब उपद्रव होते हैं । और कमसे सच, पाचनशक्ति, बल और वर्ण
कम होते चले जाते हैं । रोगी बहुत क्षीण हो जाता है, उसके मूत्र के साथ रुधिर आने लगता है तथा पीठ और कमर में वेदना होने लगती है ।
क्षतकास का निदानादि । युद्धाद्यैःसाहसैस्तैस्तैः सेवितैरयथाबलम् ॥ उरस्यतः क्षते वायुः पित्तेनानुगतो बली । कुपितः कुरुते कास कफं तेन सशोणितम् ॥ पित्तं श्यामं च शुष्कं च प्रथितं कुपितं वहु । ष्ठीवेत्कण्ठेन रुजता विभिन्नेनेव घोरसा ॥ सूचीभिरिव तीक्ष्णाभिस्तुद्यमानेन शूलिना । पर्वभेदज्वरश्वास तृष्णावै स्वर्य कंपवान् ६० ॥ पारावत इवाकूजन पार्श्वशूली ततोऽस्य च क्रमाद्वीर्य रुचिः पक्तिर्बलं वर्णश्च हीयते ३१ क्षीणस्य सासृग्भूत्रत्वं स्याच्च पृष्ठकटीग्रहः
अर्थ - कठिन धनुषका आकर्षण, हाथी, घोडे आदि का पकडना, उच्चभाषण, भारी बोझ चलना, वेगवती नदीके स्रोतकी ओर 'तैरना इत्यादि अपनी शक्ति से बाहर के काम करने से वक्षःस्थल के भीतर घाव होजाता है और बलवान् वायु कुपित होकर और पित्त को अपने साथ लेकर खांसीको उत्पन्न कर सा है । फिर पीला, काला, सूखा हुआ, I गांउदार दुर्गंधित बहुत साफ रुधिर सहित खखार के साथ निकलता है । तथा कंठमें ती वेदना, वक्षःस्थलमें विदीर्ण होनेका सा
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अ० ३
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शूल,
क्षतकास का लक्षण |
बायुप्रधानाः कुपिता धातवो राजयक्ष्मणः ॥ कुर्वति यक्ष्मायतनैः कासं ष्ठीवेत्कफं ततः । पूतिपूयोपमं पीतं विस्त्रं हरित लोहितम् ३ लुञ्चेते इव पार्श्वे च हृदयं पततीव च । अकस्मादुष्णशीतेच्छा बद्वाशित्वं वलक्षयः स्निग्धप्रसन्नवक्त्रत्वं श्रीमद्दशननेत्रता । ततोऽस्य क्षयरूपाणि सर्वाण्याविर्भवति च ।
अर्थ - राजयक्ष्मावाले रोगीके यक्ष्मानिदा नोक्त साहसादि कर्म करने से वात प्रधान दोष कुपित होकर खांसी उत्पन्न करते हैं, फिर सडीहुई राधके सदृश, पीला, दुर्गंधित, हरा वा लाल कफ निकलने लगता है, इस रोगमें ऐसा मालूम होने लगता है कि मानों रोगी की पसली निकली पडती है औरं हृदय गिरा पडता है, निष्कारण ही कभी ठंडी और कभी गरम वस्तुकी इच्छा होती है, बहुत भोजन खानेपर भी वलक्षीण होता जाता है । इसका मुख चिकना और प्रफुल्लित रहता है, दांत और नेत्र चमकीले रहते हैं, पीछे क्षय के सबरूप उत्पन्न होजाते हैं । क्षयकफसे देहकानाश ।
इत्येष क्षयजः कासः क्षीणानां देहनाशनः ।
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अ० ४
यो वा बलिनां तद्वत् क्षतजोऽभिनवौतु तौ ॥ ३६ ॥
सिध्येतामपि सानाथ्यात्
अर्थ - उपरोक्त लक्षणों से युक्त क्षयज और क्षतज कास क्षीण रोगीकी देहका नाश कर देती है और यदि रोगी बलवान् हो तो ये दोनों प्रकार की खांसी याप्य होजाती है । यदि ये दोनों प्रकारकी खांसी नई हों और चिकित्सा के चारपाद से युक्त रोगी हो तो अच्छी भी हो जाती हैं। अर्थात् भाग्यवश से अच्छा वैद्य, उपयुक्त औषध, अनुकूल परिचारक और रोगी भी विवेकी हो तो रोग साध्य होजाता है ।
अन्य खासियों का साध्यासाध्य | साध्या दोषैः पृथक् त्रयः । मिश्रा यायाद्वयात्सर्वे जरसा स्थविरस्यच अर्थ - वात, पित्त और कफ इन तीनों से पृथक् पृथक् उत्पन्न खांसी, साध्य होती है । तथा दो दो दोषों के संसर्ग से उत्पन्न हुई खांसी और वृद्ध मनुष्यों की खांसी याप्य होती है ।
कासरोग में शीघ्रता । कासाछ्वासक्षयच्छर्दिस्वरसादादयो गदाः भवॆत्युपेक्षया यस्मात्तस्मात्तं त्वरया जयेत्” अर्थ - कास रोग में चिकित्साकी उपेक्षा करने से श्वास, क्षय, वमन, स्वरभंगादि पीनस और यक्ष्माके निदान में कहे हुए उपद्रव उत्पन्न होजाते हैं, इसलिये कास रोग की चिकित्सा करने में बहुत शीघ्रता करना चाहिये ।
इति तृतीयोऽध्यायः ।
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6"
[ ३६३ )
चतुर्थोऽध्यायः ।
अथाऽतः श्वासहिध्मानिदानं व्याख्यास्यामः अर्थ- अब हम यहांसे श्वासहिध्मा निदान नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
श्वासके निदानादि ।
'कासवृद्धय भवेच्छ्वासः पूर्वैर्वा दोष कोपनः आमातिसारखमथुर्विषपांडुज्वरैरपि ॥ १ ॥ रजोधूमानिलैर्मर्मघातादतिहिमांबुना । क्षुद्रकस्तम छनो महानूर्ध्वश्च पञ्चमः २
अर्थ-खांसी की वृद्धि, सर्व रोग निदानाध्याय में कहे हुए कटुतित्तादि वातादि दोषों को प्रकुपित करनेवाले पदार्थों के सेबन से, आमातिसार, वमन, विष, पांडु रोग, ज्वर, रज, धूंआं, वायु, मर्मघात, अति शीतल जल इनके सेवन से श्वास रोग उत्पन्न होजाता है |
श्वास पांच प्रकार का होता है, यथाक्षुद्रश्वास, तमकश्वास, छिन्नश्वास, महाश्वास और ऊर्ध्वश्वास ।
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पंचविध श्वासकी संप्राप्ति । कफोपरुद्ध गमनः पवनो विष्वगास्थितः । प्राणोदकान्नवाहीनि दुष्टः स्रोतांसि दूषयन् उरःस्थः कुरुते श्वासमामाशयसमुद्भवम् ।
अर्थ- सर्वशरीरव्यापी कुपित वायु कफ के द्वारा अपना मार्ग रुकजाने पर प्राणवाही, उदकवाही और अन्नवाही स्रोतोंको दूषित करके वक्षःस्थल में आकर ठहरजाता है और आमाशय से उत्पन्न श्वासरोग को पैदा कर देता है ।
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[३६४)
अष्टांगहृदय ।
अ० ४.
श्वास का पूर्वरूप। । पीडित करके खांसी, घुरघुराहट, मोह, अ. प्राग्रपं तस्य हत्पावशूलं प्राणविलोमता ४ रुचि, पीनस, तुषा तथा अति तीव्र वेगवाले आनाहः शखभेदश्च
प्राणोपतापी श्वास को उत्पन्न करदेती है । अर्थ-श्वासरोग के होने से पहिले हृदय
श्वास के वेगसे रोगी बड़ा क्लेश उठाता है और पसली में शूल, प्राणवायु का विपरीत
और जब थोडासा कफ निकलजाता है तव मार्ग में गमन, आनाह और कनपटियों
थोडीदेर के लिये वह सुखका अनुभव करमें फटनेकी सी वेदना होती है । ये श्वास
ताहै । शयन करने पर श्वास बढजाता है के पूर्वरूप हैं।
और वैठेहोने पर कुछ सुख प्राप्त होताहै । क्षुद्रश्वास के लक्षण ।
आंख ऊपरको चढजाती हैं, ललाटपर पसीतत्रायासातिभोजनैः। प्रेरितःप्रेरयेत् क्षुद्रं स्वयं संशमनं मरुत् ५
ना आताहै, अत्यन्त वेदना होती है, मुख __ अर्थ-व्यायामादि परिश्रम और अति भो
सुख जाताहै, वार वार श्वासआता है, रो. जन से वायु उन्मार्गगामी होकर क्षुद्रश्वास
गी उष्ण पदार्थ की इच्छा करता है, कांपउत्पन्न करता है । यह श्वास विना चिकि
ताहै, यह तमक श्वास वर्षाकाल, शीतल त्सा किये ही कुछ काल पीछे अपने आप जल, शीतकाल और पूर्वदिशा की पवन शांत होजाता है ।
तथा कफकारी द्रव्यों के सेवन से बढ़ता है .. तमक श्वास के लक्षण । यह याप्य होता है, किन्तु यदि बहुत दिन प्रतिलोमंसिरा गच्छन्नुदीर्य पवनः कफम्। का नहो अथवा रोगी बलवान् हो तो सापरिगृह्य शिरोग्रीवमुरः पार्थे च पीडयन् ॥ ।
ध्यभी होजाताहै । कासं घुघुरकं मोहमाचं पानसं तृषम्। करोति तीववेगं च श्वास प्राणोपतापिनम् ।
प्रतमक श्वास के लक्षण । प्रताम्येत्तस्य वेगेन निष्ठयूतांतेक्षणं सुखी ॥ | ज्वरमूर्जायुतः शीतैः शाम्येत्प्रतमकस्तु सः। कृच्छ्रच्छयानः श्वसिति निषण्ण:- __ अर्थ-तमकश्वास में ज्वर और मूछी हो
स्वास्थयमृच्छति ॥ ८॥ और शीतवीर्य औषध और शीतल आहार उच्छ्रिताक्षो ललाटेन स्विद्यता भृशमर्चिमान् विशुष्कास्यो मुहुः श्वासी कांक्षत्युष्णं
विहार से शांतहोजाय तथा तमक श्वासकी
सवेपथुः ॥९॥ तरह न वढे तो यह प्रतमक कहलाता है, मेघांबुशीतप्राग्वातैः श्लेष्मलैश्च विवर्धते। यह तमक श्वासका एक भेद है। इसको स याप्यस्तमकः साध्यो नवो वा बलिनो.
छटा श्वास न समझ लेना चाहिये ।
भवेत् ॥ १०॥ __ अर्थ-पवन जब विपरीत रीति से सिरा
छिन्न श्वास के लक्षण । के स्रोतों में प्रविष्ट होती है, तव यह कफ
छिन्नछ्वसिति विच्छिन्नमर्मच्छेदरुजार्दितः
सस्वेदमूर्छः सानाहो बस्तिदाहनिरोधवान् को उ.परको लेजाती है और मस्तक तथा
अधोदग्विप्लुताक्षश्च मुह्यन् रक्तैकलोचनः॥ प्रीवाको ग्रहण कर हृदय और पसलियों को । शुष्कास्यःप्रलपन दीनोनष्टच्छायो विचेतनः
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अ० ४
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अर्थ - छिन्न श्वास में रोगी रुक रुककर छिन्न भिन्न श्वास लेता है, इसमें मर्म छेदन की सी पीडा होती है, पसीना, मूर्छा, आनाह, वस्तिमेंदाह और निरोध, अधोदृष्टि, नेत्रों में चंचलता, मोह और एक आंख में ललाई होती है मुख सूख जाता है, प्रलाप करता है, कांति जाती रहती है और सावधानी नष्ट होजाती है ।
महाश्वास के लक्षण |
महता महतादीनो नादेन श्वसिति क्रथन् ॥ उद्धूयमानः संरब्धो मत्तर्षभ इवानिशम् । प्रणष्टज्ञानविज्ञानो विभ्रांतनयनाननः १४ ॥ वक्षः समाक्षिपन् बद्धमूत्रवर्चा विशर्णघाक् । शुष्ककण्ठो मुहुर्मुहान् कर्णशंखाशरोतिरुक्
वक्षः
अर्थ -- महा श्वाससे पीडित मनुष्य दीन होकर बडा शब्द करता हुआ वडे बडे श्वास लेता है, और उन्मत्त वैल की तरह संक्षुब्ध होकर कांपता हुआ निरंतर घरघराता हुआ श्वास लेता है, इसका ज्ञान विज्ञान जातारहनेत्र और मुखविभ्रांत होजाते है, -स्थल आक्षिप्त होता है, मलमूत्र रुकजाते हैं, बाणी विशीर्ण होजाती है, कंठ सूख जाता है वार वार मोहको प्राप्त होता है और उस के कान, कनपटी और सिरमें वडी वेदना होती है । ये महाश्वास के लक्षण हैं । उर्ध्व श्वास के लक्षण | दीर्घमूर्ध्व श्वसित्यूर्ध्वान्न च प्रत्याहरत्यधः । श्लेष्मावृत्तमुखस्रोताः क्रुद्धगन्धवहार्दितः ॥ ऊर्ध्वग्वीक्षते भ्रांतमक्षिणी परितः क्षिपन् । मर्मसु च्छिद्यमानेषु परिदेवी निरुद्धवाकू
1
अर्थ - इस रोग में रोगी दीर्घ और ऊर्ध्व श्वास लेता है, दीर्घश्वास को छोटकर
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[ ३६५ ]
अधःश्वास को फिर नहीं लेता, जैसा कि अन्य श्वासों में किया जाता है । इसरोग में स्रोतों के मुखको कफ आच्छादित कर लेता है, कुपितवायु से पीडित करता है दृष्टि ऊपर को होजाती है, आंखें विभ्रांत होकर चारों ओर को देखती हैं मर्मछेदने की सी वेदना होती है, और वाणी रुक जाती है ।
श्वास का साध्यासाध्यत्व । एते सिद्धयेयुरव्यक्ता व्यक्ताः प्राणहरा ध्रुवम् अर्थ - इन तमकादि पांच प्रकार के श्वासों के लक्षण जब तक प्रकट नहीं होते हैं ये साध्य होते हैं, तथा स्फुट लक्षण होने पर असाध्य होजाते हैं ।
हिध्मा का स्वरूप / श्वासैकहेतुप्राग्रूपसंख्या प्रकृतिसंश्रयाः १८॥ हिध्मा भक्तोद्भवा क्षुद्रा यमला महतीति च । गंभीरा च
अर्थ- श्वास रोग के जो जो निदान, पूर्वरूप, संख्या, प्रकृति और आश्रय स्थान. कहे गये है वेही हिध्मा के भी होते हैं ।
भक्तोद्भवा ( अन्नजा ), क्षुद्रा, यमला, महती और गंभीरा, इन पांच प्रकार की हिक्का होती है ।
भक्तोद्भवा के लक्षण |
मरुत्तत्र त्वरया युक्तिसेवितैः ॥ १८ ॥ रूक्षतीक्ष्णखरासात्म्यैरन्नपानैः प्रपीडितः । करोति हिध्मामरुजां मन्दशब्दां क्षवानुगाम् शमं सात्म्यान्नपानेन या प्रयाति च साऽन्नजा
अर्थ - रूक्ष, तीक्ष्ण, खर और असात्म्य अन्नपान के अयुक्तिपूर्वक सेवन करने पर वायु प्रपीडित होकर अन्नजा नामवाली
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. [३६६)
अष्टांगहृदय।
अ०४
-
हिमा ( हिचकी ) को उत्पन्न करती है, महाहिमा के लक्षण । इसमें वेदना नहीं होती है, शब्द भी मंद | स्तब्धभ्रशस्खयुग्मस्य सानाविप्लुतचक्षुषः होता है, और इसके साथ छींक भी आती स्तंभयती तनुषाचं स्मृति संज्ञांच मुष्णती । हैं । यह हिचकी सात्म्य अन्नपानके सेवन
रुंधतीमार्गमन्त्रस्य फुर्वतीमर्मघट्टनम् २ ॥
पृष्ठतो नमनं शोषं महाहिमा प्रवर्तते । से शांत होजाती है।
महामूला महाशब्दा महावेगा महाबला २७ . क्षुद्रा के लक्षण।
__ अर्थ-महा हिंक्का दोनों भकटी और आयासात्पवनानुद्राक्षुद्रां हिमांप्रवर्तयेत्॥ दोनों कनपटियों को जकड देतीहै दोनों जत्रुमूलप्रविसृतामल्पवेगां मृदुं च सा ।। वृद्धिमायास्यतो याति भुक्तमात्रे च मार्दवम्
| नेत्रों में आंसू और चंचलता उत्पन्न करती अर्थ-व्यायामादि परिश्रम से वाय अल्प है । देह और वाणी को स्तब्ध करती है, कुपित होकर क्षुद्रा नामकी हिचकी को
स्मृति और संज्ञा का नाश कर देती है, अउत्पन्न करतीहै, यह जत्रु अर्थात् कंठ और
न्नवाही मार्ग को रोक देती है । हृदया-, वक्षःस्थल के मध्य भाग से उत्पन्न होकर
दि ममों में चालना करती है, पीठको झुका अल्पवेग और. मृदु भाग में प्रवृत्त होती
देती है और सब देह को शुष्क करती है । है, यह परिश्रम करने से बढ जाती है
इन लक्षणों से युक्त महाहिका की प्रवृत्ति और भोजन करने से शांत हो जाती है। होती है यह महामूला, महाशब्दा, महावगा यमला के लक्षण ।
और महावला होतीहै, इन विशेषणोंसे इस चिरेण यमलैवेगैरांहारे या प्रवर्तते । की असाध्यता ज्ञात होती है,यह शीघ्र प्राणों परिणामोन्मुखे वृद्धिं परिणामे च गच्छति ॥ को हरलेती है। कंपयंती शिरोग्रीवामाध्मातस्यातितृष्यतः। गंभीरा के लक्षण । प्रलापश्छद्युतीसारनेत्रविप्लुतंजभिणः २४ ॥
पक्काशयादा नाभेर्वा पूर्ववद्या प्रवर्तते । यमलां वेगिनी हिमा परिणामवती च सा ।
तद्पा सा मुहुः कुर्याजंभामंगप्रसारणम् ।। - अर्थ-यमला नामकी हिचकी, देर देर गम्भीरणानुनादेन गंभीरीमें दो दो मिलकर आती हैं, जब आहार अर्थ-गंभीरानामकी हिचकी पक्वाशय पाकोन्मुख होता है, अथवा पक जाता है | वा नाभि से प्रबृत होती है, इस के सब तब ये हिचकियां आने लगती हैं ये लक्षण उक्त महाहिध्मा के लक्षणोंसे मिलते सिर और ग्रीवा को कंपित करदेती है। हैं। इसमें बार वार जंभाई और अंगप्रसायमल हिकामें आध्मान, अत्यन्त तृषा, प्र- रण ये दो लक्षण अधिक होते है। इस में लाप, वमन, अतिसार, नेत्र विप्लव, जंभाई / घंटा के शब्द के समान गंभीर नाद होता ये उपद्रव होते हैं । इस प्रकार की हिचकी | है, इसीलिये इसका नाम गंभीरा है । के तीन नाम हैं। यथा, यमला, वेगिनी हिचकियों में साध्यासाध्यत्व। और परिणामवती ॥
तासु साधयेत् ।
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आधे द्वे वर्जयेदंत्ये सर्वलिंगां व वेगिनीम् ॥ सर्वाश्च संचितामस्य स्थविरस्य व्यवायिनः व्याधिभिःक्षीणंदेहस्य भक्तच्छेदक्षतस्य वा ॥ अर्थ - इन पांच प्रकार की हिचकियों में पहिली दो अर्थात् अन्नजा और क्षुद्रा, साध्य होतीं है, पिछली दो अर्थात् महाहिमा गंमीर तथा तीसरी सर्व लक्षण संयुक्त यमला ये तीनों असाध्य होती हैं । केवल येही असाध्य नहीं होती है ।
किन्तु चिरकाल की हिचकी वृद्धमनुष्य की हिचकी अतिस्त्रीसेवी की हिचकी, व्याधिद्वारा क्षीण देहवाले की हिचकी, अन्न के अभाव से कृश मनुष्य के उत्पन्न हुई हिचकी ये सब असाध्य होती है ।
उक्त रोगों में चिकित्सा कर्तव्य | सर्वेऽपि रोगा नाशाय नत्वेवं शीघ्रकारिणः हिमाश्वासौ यथा ती हि मृत्युकाले - कृतालयौ,, ॥ ३१ ॥ अर्थ - यावन्मात्र संपूर्ण रोग प्राणों के नाश करने वाले हैं परंतु श्वास रोग और हिचकी प्राणों के नाश करनेमें जितनी शीघ्रता
करता हैं उतना कोई दूसरा रोग नहीं करता । इसीलिये उक्त दोनों रोग मरने के समय अवश्य होते हैं, इसलिये इनकी चिकित्सा में शीघ्रता करना आवश्यकीय है ।
इति चतुर्थोऽध्यायः ।
पञ्चमोऽध्यायः ।
अथातो राजयक्ष्मा निदानं
[ ३६७ ]
अर्थ- - अब हम यहां से राजयक्ष्मानिदान नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
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राजयक्ष्मा के चार नाम । " अनेकरोगानुगतो बहुरोगपुरोगमः । राजयक्ष्मा क्षयः शोषो रोगराडिति च स्मृतः
अर्थ- जैसे राजा आगे पीछे बहुत से मनुष्यों से घिरा रहता है, वैसेही राजयक्ष्मा भी ज्वर अतीसारादि रोगों से घिरा रहता है यह ज्वर गुल्मादि सब रोगों में प्रधान है । राजयक्ष्मा, क्षय, शोष और रोगराज ये चार इसके पर्य्यायवाची शब्द हैं ।
राजयक्ष्मादि संज्ञाओं का कारण । नक्षत्राणां द्विजानां च राशोऽभूद्यदयं पुरा । यच्च राजा च यक्ष्मा च राजयक्ष्मा ततो मतः । ceivक्षयकृतेः क्षयस्तत्सभवाच्च सः । रसादिशोषणाच्छोषो रोगराट् तेषु राजनात् अर्थ - प्राचीनकाल में तारागण और द्विजातियों के राजा चन्द्रदेव के यह रोग हुआ था और यह सब रोगों का राजा है इसलिये इसे मुनिवर राजयक्ष्मा कहते हैं । यह देह और औषध दोनों का क्षय कर देता है तथा देह और औषध के क्षय होने ही से इसकी उत्पत्ति है, इसलिये इसे क्षय कहते हैं । यह रसादि धातुओं का शोषण करलेता है इसलिये इसे शोष कहते हैं,
+ कहते हैं कि चन्द्रमा रोहिणी पर अत्यन्त आसक्त था, इसलिये अन्य नक्षत्रों ने अपमानित होकर अपने पिता दक्षसे कहा, किंतु चन्द्रमाने अपने श्वशुर दक्षको मिथ्या बातों से धोखा दिया, इसलिये उस ने क्रुद्ध होकर शाप दिया कि तुझे क्षय
रोग होगा। इसी से चन्द्रमा के राजयक्ष्मा
व्याख्यास्यामः । होगया था ।
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अष्टांगहृदय ।
अ०५
-
यह संपूर्ण रोगों के राजत्व रूपसे विराज- । दृल्लास छर्दिररुचिरश्नतोऽपि बलक्षयः। . मान है, इसलिये इसे रोगराट कहते हैं ।
पाण्योरवेक्षा पादास्यशोफोऽणोरतिशुक्लता
| यावोःप्रमाणजिज्ञासा काये वैभत्स्यदर्शनम् राजयक्ष्मा के हेतु ।
स्त्रीमद्यमांसप्रियता घृणित्वम् मूर्धगुंठनम् ॥ साहसं वेगसंरोधः शुक्रौजः स्नेहसंक्षयः। नखकेशातिवृद्धिश्च स्वप्ने चाभिभवो भवेत्। अन्नपानविधित्यागश्चत्वारस्तस्य हेतवः॥ पतंगकृकलासाहिकपिश्वापदपक्षिभिः ११ ॥
अर्थ-मल्लयुद्धादि कायक और उच्चभा- केशास्थितुषभस्मादिराशौसमधिरोहणम्। षणादि वाचक साहस के कार्य अधोवात | शून्यानां ग्रामदेवनां दर्शन शुष्यतोऽभसः॥ और मलमूत्रादि के उपस्थित वेगों का रो
ज्योतिर्गिरीणां पततांज्वलतांच महीरुहाम्।
अर्थ-जिस मनुष्यके राजयक्ष्मा होनेवाकना, शुक्र, ओज और देहसंबंधी स्नेहका नाश, अन्नपानविधि का अन्यथा सेवन, ये
ला होता है, उसके प्रतिश्याय ( मुख नासा. चार राजयक्ष्मा के उत्पन्न होने के हेतुहैं।
दि से जलस्राव ), छींक, मुखप्रसेक, मुखमें.
मधुरता देहमें शिथिलता, जठराग्नि की मंउक्तचार हेतुओं में वायुकी प्रधानता। तैरुदीर्णोऽनिलः पित्तं कर्फ चोदीर्य सर्वतः।।
दता, पवित्र थाली पात्र और अन्नपानादिमें शरीरसंधीनाविश्य तान् सिराश्च प्रपीडयन् | अपवित्रता देखना, अन्नपानमें प्रायः मक्खी, मुखानि स्रोतसांरुद्धका तथैवातिविवृत्यच।। तिनुका, केश आदि का गिरना, हल्लास, सर्पन्नूमधास्तर्यग्यथास्वं जनयेद्दान् ॥ घमन, अरुचि और भोजन करते करते बल ___ अर्थ-ऊपर कहे हुए चार प्रकार के
की हानि, हााका देखना, पांवों में और मुख हेतुओं द्वारा वायु उदीर्ण होकर पित्त और
में सूजन, आंखों में सफेदी, दोनों बाहुओं कफ को चारों ओर से उदगीरत करके श
| का प्रमाण जाननेकी इच्छ। । शरीरमें भयारीर की संधियों में प्रविष्ट होकर तत्रस्थ
नकता दिखाई देना, स्त्री, मद्य और मांसका सिराओं को प्रपीडन करके स्रोतों के मुखों
अच्छा लगना, घृणित्व, वस्त्र से सिर को रोककर वा अत्यन्त विवृत करके ऊपर, | ढकना, नख और केशों की अत्यन्त वृद्धि, नीचे वा तिरछी ओर को जाकर यथायोग्य स्वप्न में पतंग, किरकेंटा, सर्प, बंदर, सेह रोगों को उत्पन्न करदेता है, अर्थात ऊपर और पक्षियों द्वारा पराभव,बाल, हड्डीयां, की ओर जाकर पीनसादि, नीचे को जाकर | | तुष, और भस्मादि के ढेरके ऊपर चढना, परीषशोष और पुरीषभूश और तिरछी प्राम और देश, सूखे जलाशय, तारागण ओर जाकर पार्श्ववेदना करता है ।
और पर्वतों का पतन, जलते हुए वृक्ष,
इनका देखना ये सब लक्षण राजयक्ष्मा राजयक्षाका पूर्वरूप। रूपंभविष्यतस्तस्य प्रतिश्यायोभ्रशं क्षवः ।
उत्पन्न होने से पहिले होते हैं अर्थात् ये प्रसेको मुखमाधुर्य सदनं वन्हिदेहयोः॥७॥ राजयक्ष्मा के पूर्वरुप हैं। स्थाल्यमत्रानपानादौ शुवावप्यशुचीक्षणम् । रामयक्ष्मा के ग्यारहरूप । मक्षिकातृणकेशादिपातः प्रायोऽनपानयो॥ पीनसश्वासकासांऽसमूर्धस्वररुजोऽरुचिः।
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अ५
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३६९ ] ' '
ऊर्वविइभ्रंशसंशोषावधश्छर्दिश्च कोष्ठगे। त की अधिकतासे से पांव, कंधे और हथेली तिर्यस्थे पार्श्वरुंग्दोषे संधिगे भवति ज्वरः में दाह, अतिसार, रुधिरकी वमन, मुखदुर्गरूपाण्यकादशैतानि जायते राजयाश्मिणः ।। अर्थ-राजयक्ष्मामें दोष के ऊर्ध्वगमन
धि, ज्वर और मद होते हैं । कफसे अरुचि, करने से पीनस, श्वाप्स, खांसी, स्कंधशूल,
वमन, खांसी, शिर और देहमें भारापन, प्र
सेक, पीनस, श्वास, स्वरमें शिथिलता और शिरःशूल, स्वरभंग और अरुचि, ये रोग
मंदाग्नि होते हैं। उपस्थित होते हैं । दोषके अधोगमन करने
धातुक्षय में युक्ति । पर मलभेद और मलशोष ये दो उपद्रव | दोषैर्मदानलत्वेन सोपलेपैः कफोल्बणैः। होते हैं । दोपके कोष्ठमें स्थित होनेपर वमन स्रोतोमुखेषु रुद्धेषु धातूष्मस्वल्पकेषु च ॥ होती है । तिर्यग्गमन करनेपर पसली में दर्द
विदह्यमानःस्वस्थाने रसस्तांस्तानुपद्रवान् ।
कुर्यादगच्छन्मांसादानस्सृक चोर्चे प्रधावति और संधिमें गमन करने पर ज्वर उत्पन्न
पच्यते कोष्ट एवान्नमन्नपत्रिवचाऽस्य यत् । होता है । राजयक्ष्मामें ये ग्यारहरूप उत्पन्न
| प्रायोऽस्मान्मलतांयातं नैवालं धातुपुष्टये ॥ होते हैं।
___ अर्थ-कफ है प्रधान जिनमें ऐसे वातादि पीनसादिके सात उपद्रव ।।
तीनों दोषों द्वार! स्रोतों के मुखों को रुद्ध तेषामुपद्रवान् विद्यात्कण्ठोध्वंससमुरोरुजम् | और उपलिप्त करदेता है अर्थात् कफ की जुभांगमर्दनिष्ठीववन्हिसादास्यपूर्तिताः ।। अधिकतासे स्रोतोंके मुख रुक जाते हैं और
अर्थ-ऊपर कहे हुए ग्यारह पीनसादि रूपों कफ से लिहस जाते है, तथा मंदाग्नि के में से कंठ का वैठ जाना, वक्षःस्थल में बेद
कारण धातुओं में ऊष्मा कम होजाती है. ना, जंभाई, अंगमर्द, निष्ठीव, अग्निमांद्य इन हेतुओं में से रस अपने ही स्थान में और मुखदुर्गधि ये सात उपद्रव होते हैं ।
विदह्यमान होकर ऊपर कहेहुए कंठोध्वंसादि __ ग्रंथांतर में उपद्रव के लक्षण ये हैं:- उपद्रवों को करता है और अवरुदताके काव्याधरुपरि यो व्याधिर्भवत्युत्तरकालजः । उपक्र. रण मांसादिमें नहीं जाने पाता है इसी से मबिघाती च स उपद्रव उच्यते ।
उन मांस मेदा आदि की पुष्टिभी नहीं कर बातादिके लक्षण । सकता है । तथा पित्तकारिणी पाकावस्था तत्र वाताच्छिरः पार्श्वशूलमंसांगमर्दनम् ॥ में अच्छी तरह पचकर रक्त बनकर ऊपरको कण्ठोधंसः स्वरभ्रंशः पित्तात्पादांसपाणिषु । दौडता है और मुखके द्वारा बाहर निकल दाहोऽतिसारोऽसृक्छर्दिर्मुखगंधो ज्वरोमदः कफादरोचकश्छर्दिः कासो मू(गगौरवम् ।
जाता है और क्षयीरोगी की मांसादि धातुओं प्रलेकः पीनसःश्वासःस्वरसादोऽल्पवन्हिता की पुष्टि नहीं कर सकता है। दूसरा कारण
अर्थ-इस राजयक्ष्नामें वातकी अधिकता । यह है कि अन्न ग्रामपकाशय में केवल जसे शिरोवेदना, पार्श्वशूल, स्कंधमर्दन, अं. ठराग्नि द्वारा पचता है और धात्वग्नि अल्प गमई, कंठोघंस, और स्वरभ्रंश होते हैं । पि | होनेके कारण उसको नहीं पका सकती है
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(३७०
.
अष्टांगहृदय ।
अ०५
इसलिये मलमूत्र अधिकता से बनजाता है | अर्थ-स्वरभेद छः प्रकार का होता है, और धातुओं की पुष्टि नहीं कर सकता है। यथा-वातज, पित्तज, कफज, त्रिदोषज, यक्षमागेगी का पुरीषाचार जीवन । क्षयज और मेदोज । रसोऽप्यस्य रक्ताय मांसाय कुत एव तु।
वातज स्वर भेद के लक्षण । उपस्तब्धः स शकृता केवलं वर्तते क्षयी २२
सत्र क्षामो रूक्षश्चलः स्वरः ॥ २४ ॥ अर्थ-यक्ष्मारोगी के आहार का रस
शुकपूर्णाभकण्ठत्वं स्निग्धोष्णोपशयोऽनिलात् जब निकटवर्ती रक्तधातु की ही पुष्टि नहीं ___अर्थ-वातज स्वरभेदमें स्वर क्षीण, रूक्ष कर सकता है तो दूरवर्ती मांसधातु की | और चंचल होजाता है, कंठ में शूकपूर्णता पुष्टि करना असंभव है । यक्ष्मारोगी केवल तथा स्निग्ध और उष्ण उपशय होताहै । पुरीष द्वारा अवष्टंभित होकर प्राण धारण
पित्तज स्वरभेद ।। करता है । अर्थात् किंचित् आहार रस से
पित्तात्तालुगले दाहः शोष उक्तावसूयनम् ॥ भाप्यायित धातुओं द्वारा शरीर की केवल
____ अर्थ-पित्तज स्वरभेद में तालु और गले धारणा मात्र है।
में दाह और शोष होते हैं तथा वोलने में पक्ष्मारोगी का साध्यासाध्य बिचार । | असमर्थता होती है । लिंगेष्वल्पेवपिक्षीणं व्याध्यौषधबलाक्षमम् कफज स्वरभेद । । वर्जयेत्
| लिंपन्निव कफात्कण्ठं मन्दः खुरखुरायते । साधयेदेव सर्वेष्वपि ततोऽन्यथा २३॥ स्वरो विबद्धः .
अर्थ-जो यक्ष्मारोगी बल और मांस से | अर्थ-कफज स्वरभेद में कफसे कंठ क्षीण हो, और पीनसादि अल्प उपद्रवों से | लिहस जाता है, शब्द बहुत मंदा निकलता । युक्त हो और इसी हेतुसे व्याधि और औ- है, कंठ में खुरखुराहट होती है, बोलने में षध का वल न सह सकता हो उसे असाध्य | स्खलन होता है । समझकर छोड देना चाहिये ।
त्रिदोषज स्वरभेद । इससे विपरीत होने पर अर्थात् जिसका
सर्वैस्तु सलिंगः बल और मांस क्षीण न हुआ हो और इसी | अर्थ-त्रिदोषज स्वरभेद में उक्त तीनों हेतु से व्याधि और औषध का बल सह / दोषों के मिले हुए लक्षण होते हैं । सकता हो ऐसा रोगी यदि पीनसादि सर्व क्षयज स्वरभेद । लक्षणों से युक्त भी हो तोभी रोगी साध्य
क्षयात्कषेत् ॥ २६ ॥ होता है।
धूमायतीव चात्यर्थम्स्वरभेद के छः प्रकार ।
____ अर्थ-क्षयज स्वरमेद में कंठमें विध्वस्तदोषैर्व्यस्तैःसमस्तैश्च क्षयात् षष्टश्च मेदसा ता और नासिकादि से अत्यंत धूआं का सास्वरभेदो भवेत्
| निकलना प्रतीत होता है।
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निदानस्थान भाषायीकासमेत ।
[३७१]
मेदोज स्वरभेद । होती है, सानिपातज अरोचक में विरसता मेदसा श्लेष्मलक्षणः।
अर्थात् रसका ज्ञान जाता रहता है। तथा कृच्छ्रलक्ष्याक्षरश्च
क्रोध शोकादिजनित अरोचक में बातादि अर्थ-मेदोन स्वरभेद में कफज स्वरभेद जिस दोष का संबंध होता है मुखमें उसी के संपूर्ण लक्षण प्रकुपित होजाते हैं तथा
| दोष के अनुसार रसत्व पैदा होता है, जैसे स्वर में अत्यन्त क्षीणता उत्पन्न होजा
शोक, भय, काम, लोभ, ईर्ष्यादि से संतप्त ती है।
मनमें वात के कोप से मुखमें कसीलापन, स्वरभेद में साध्यासाध्यत्व । क्रोध संतप्त मनमें पित्त के प्रकोप से तिअत्र सर्वैरत्यं च वर्जयेत् ॥ २७ ॥
| क्तता और प्रहसे संतप्त मनमें कफ से अर्थ-इन छ: प्रकार के स्वरभेदों में
मधुरता और संनिपातज मनःसंताप में विरचार वातज, पित्तज, कफज और क्षयम साध्य होते हैं और त्रिदोषज और मेदोज
सता होती है । असाध्य होते हैं।
छर्दि का निदान । ___ अरुचि की उत्पत्ति।
छर्दिदोषैः पृथक्सवैर्दिष्टैरर्थेश्च पञ्चमी।
उदानो विकृतो दोषान् सर्वानप्यूर्ध्वमस्यति अरोचको भवेहोवैर्जिवादृदयसंश्रयः।।
___अर्थ-छर्दि अर्थात् वमनरोग पांच प्रकार सन्निपातेन मनसः संतापेन च पञ्चमः ॥ अर्थ-जिह्वा और हृदय में आश्रित
की होती है, यथा-वातज, पित्तज, पातपित्त और कफ इन तीनों दोषों से, जि.
कफज, त्रिदोषज तथा अनभीप्रेत द्विष्ट हवा और हृदय में आश्रित सन्निपात से
अर्थों से पांचवीं छर्दि होती है। और क्रोध शोकादि मनके संताप से अरो
___ संपूर्ण प्रकार के वमनरोग में उदानवायु चक रोगकी उत्पीत्त होती है। अरोचक वातपित्त कफको ऊपर को फेंकता है। रोग पांच प्रकार का होता है, तथा वातज
छार्द का पूर्वरूप । पित्तज, कफज, सन्निपातज, और मनस्ता
तासूत्लशास्थलावण्यप्रसेकारुचयोऽप्रगाः।
अर्थ-सब प्रकार के वमनरोगों के पक । इनमें से मनस्तापक अरोचक आगं
उत्पन्न होने से पहिले मुखमें नमकीनता, तुज होता है। बातजादि अरोचक के लक्षण ।
मुखस्राव, अरुचि और उत्क्लेश ( दोषका कषायतिक्तमधुरं वातादिषु मुखंक्रमात् ।
अपने स्थान से चलना ) ये सव अग्रगामी सर्वोत्थे विरसंशोकक्रोधादिषु यथामलम् ॥
होते हैं। अर्थ-वातादि अरुचि में क्रम से मुख
बातज बमन । कषाय, तिक्त और मधुर होता है अर्थात | नाभिपृष्ठं रुजन् वायुः पार्श्वे चाहारमत्क्षिपेत् वातरोचक में मुखमें कषायता, पित्तारोचक
ततो विच्छिन्नमल्पाल्पं कषायंफेनिलं वमेत्
शब्दोद्गारयुतं कृष्णमच्छं कृच्छ्रेण वेगवत् ॥ में तिक्तता और कफारोचक में मधुरता | कासास्यशोषहन्मूर्धस्वरपाडालमान्वितः।
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६:३७२)
अष्टांगहृदय ।
अ० ५.
अर्थ-कुपित बायु नामि पीठ और दोनों देते हैं, तथा विकृत विज्ञानीयाध्यायमें छर्दि पसली में वेदना करती हुई भोजन किये के रिष्ठके प्रकरण में कही हुई सर्व लक्षणों हुए पदार्थ को ऊपर को फेंक देती हैं । से युक्त वमन होताहै, ये दोनों असाध्य वातज वमन में विछिन्न ( थोडी २. देर में) | होती है। अल्प अल्प कषायरसयुक्त झागदार शब्द द्विष्टार्थयोगजावमन ! के साथ डकार सहित काले रंग की | पृत्यमेध्याशुचिद्विष्टदर्शनश्रवणादिभिः ३५ बडे वेग से कठिनता पूर्वक वमन होती है। तप्ते चित्ते हदि क्लिष्टे छर्दिष्टिाययोगजा। इसमें खांसी, मुखशोष, हृदय और मस्तकमें
___अर्थ-दुर्गंधित, अपवित्र, अशुच, और वेदना, स्वरंभंग और क्लांति होती है।
अनिष्ट दर्शन और श्रवणादि द्वारा जब पित्तजवमन ।
चिरा उपतप्त और हृदय क्लिष्ट होताहै पित्तात्क्षारोदकनिभं धूम्र हरितपीतकम् ॥ | तब द्विष्टार्थजा छर्दि होतीहै । सासृगम्लं कट्टष्णं च तृणमूर्छातापदाहवत्। ___ कृम्यादिजन्यछर्दि का प्रकरण । ____ अर्थ-पित्तजवमन में क्षारके जलके । वातादीनेव विमृशेत्कृमितृष्णामदौहृदे ६७॥ सदृश धूमवर्ण, हरी वा पीली, रुधिरसहित | शूलवेपथुहल्लासैर्विशेषात् कृमिजां यदेत्। खट्टी, कडवी और उष्णवमन होती है ।
कृमिहद्भागालँगैश्चइसमें तृषा, मूर्छा, ताप और दाह उत्पन्न
____अर्थ-कृमि, तृषा, आमदोष, और ग. होते हैं।
भणी के दौहृदसे उत्पन्न हुए वमनरोग में कफजवमन ।
दोषका लक्षण देखकर वातादि दोषका निकफातस्निग्धं घनं शीतं श्लेष्मतंतगवाक्षितम् श्चय करना चाहिये । परन्तु क्रमिजनित मधुरं लवणं भूरि प्रसक्तं लोमहर्षणम् । । छार्दरोगमें वातादि दोषोंके के लक्षणों के मुखश्वयथुमाधुर्यतंद्राहल्लासकासवत् ३५
| सिवाय शूल, कंपन, हल्लास, और विशेष अर्थ-कफज वमनरोगमें चिकनी, गाढी
करके ऋमिजनित छर्दिरोग के संपूर्ण लक्षण ठंडी, मीठी, नमकीन, कफके तंतुओं से
उपस्थित होतेहैं । युक्त जालीदार, और बहुत प्रमाण से वमन
दृद्रोगलक्षण । होतीहै, इसमें रोमांच, मुखशोष, मुखमें मीठा
स्मृतः पंच तु हृद्दाः ॥ ३८ ॥ पन, तंद्रा, हल्लास और खांसी उत्पन्न तेषां गुल्मनिदानोक्तैः समुत्थानैश्च संभवः होतेहैं ।
____ अर्थ-हृद्रोग पांच प्रकार के कहे गये संनिपातजवमन ।
| हैं । इन हृद्रोगों की उत्पत्ति उन कारणोंसे सर्वलिंगा मलैः सर्वैरिष्टोक्ता याच तां त्यजेत् होती है, जो आगे गुल्मनिदानमें कहेजायगे। अर्थ-सान्निपातिक वमनरोगोंमें पृथक्
वातजद्रोगके लक्षण । पृथक् तीनों दोषांके कहेहुए लक्षण दिखाई । वातेन शल्यतेऽत्यर्थं तुद्यते स्फुटतीव च ॥
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अ०५
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३७३ )
भिद्यते शुष्यति स्तब्धं हृदयं शून्यता द्रवः । तमःप्रवेशो हल्लासः शोषः कंडूः कफनतिः अकस्माद्दीनतां शोको भयं शब्दासहिष्णुता हृदय प्रततं चात्र कचेनेव दार्यते ॥ ४४ ॥ वेपथुर्वेष्टनं माहः श्वासरोधोऽल्पनिद्रता। चिकित्सेदामयं घोरं शीघ्र शीघ्रकारिणम् ___ अर्थ-वातज हृद्रोग हृदयमें तीब्रशूल,
अर्थ-कृमिज हृद्रोग में नेत्रों में श्यावता, होताहै सुई चुभने और फटनेकी सी पीडा
आंखों के आगे अंधेरा, इल्लास, शोष, होतीहै । तथा भेदन, शोषण, स्तब्धता,
खुजली, कफका निकलना, ये होते हैं और शून्यता, और द्रवता होतीहै । इस रोगमें अकस्मात् दीनता, शोक, भय, शब्द का
ऐसा मालूम होताहै कि हृदयके भीतर करौत न सहना, कंपन, अंगडाई, मोह, श्वासरोध
से चीरा जा रहा है । यह रोग बडा भयंऔर अल्पनिद्रता होतीहै ।।
कर और शीघ्र प्राणनाशक होता है क्योंकि पित्तजहृद्रोग के लक्षण । महामर्म हृदय को कीडे खाते हैं, इसलिये पित्तातुष्णा भ्रमो मूर्छा दाहः स्वेदोऽम्लकः- इसकी चिकित्सा शीघ्र करनी चाहिये ।
क्लमः ॥४१॥ तृषारोगका निरूपण । छर्दनं चाम्लपित्तस्य धूमकः पीतता ज्वरः।
वातापित्तात्कफात्तृष्णा सन्निपाताद्गसक्षयात् __ अर्थ-पित्तज हृद्रोगमें तृषा, भूम, मूर्छा, |
पष्ठी स्यादुपसर्गाच्चदाह, स्वेद, खडी, डकार, क्लांति, अम्ल
वातपित्ते तु कारणम् । पित्तकी वमन, धूमनिर्गमन पीलापन और | सासुज्वर होतेहैं ।
तत्प्रकोपोहि सौम्यधातुप्रशोषणात् ४६ ॥
संवैदेहभ्रमोत्कंप्पतापतृड्दाहमोहकृत् । कफज हृद्रोग।
___ अर्थ-तृषा छ: प्रकारकी होती है, श्लेष्मणा हृदयं स्तब्धं भारकम् साश्मगर्भवत् ॥ ४२ ॥
यथा-वातज, पित्तज, कफज , सन्निपातज कासाग्निसादनिष्ठीवनिद्गालस्यारुचिज्वराः। रसक्षयज और उपसर्गज । इन सब प्रकार - अर्थ-कफज हृद्रोग में हृदय में स्तब्ध | के तृषा रोगों की उत्पत्ति का कारण वात ता और भारापन होते हैं, और ऐसा मालूम | और पित्त है । आहार विहार से शरीर की होता है कि भीतर पत्थर रक्खा हुआ है। रसादि सौम्यधातुओं के शुष्क होजाने से तथा खांसी, अग्निमांस, निष्ठीव, निद्रा, | वात और पित्त का प्रकोप होता है, और आलस्य अरुचि और ज्वर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकोपसे संपूर्ण देह में भ्रम, कंपन ताप
त्रिदोषज हृद्रोग। तृषा, दाह और मोह उत्पन्न होता है। . सर्वलिंगस्त्रिभिर्दोषैः
तृषा की उत्पत्ति । ___ अर्थ-त्रिदोषज हृद्रोग में वातादि तीनों जिह्वामूलगलक्लोमतालुतोयवहाः सिराः दोषों के मिले हुए लक्षण होते हैं । संशोष्य तृष्णा जायंते कृमिज हृद्रोग।
अर्थ-जिह्वा का मूल, गला क्लोम कृमिभिः श्यावनत्रता ॥ ४३ ॥ I (पिपासा का स्थान ) तालु और जलवाही
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[३७४)
अष्टांगहृदय ।
अ०५
॥ ५३॥
सिरा इनको सुखाकर तृषा उत्पन्न होतीहै।
कफन तृषा। तृषाका सामान्य लक्षण । कफो रुणद्धि कुपित्तस्तोयवाहिषु मारुतम् । तासां सामान्यलक्षणम् ।
स्रोतःमु सकफस्तेन पंकवच्छोण्यते ततः ॥ 'मुखशोषो जलातृप्तिरन्नद्वेषः स्वरक्षयः॥
| शूकैरिवाचितः कण्ठो निद्रा मधुरवक्त्रता । कण्ठोष्ठजिवाकार्कश्यं जिह्यानिष्क्रमणम्
| आध्मानं शिरसो जाउयंस्तमित्यच्छद्य
क्लमः प्रलापश्चित्तविभ्रंशस्तृड्ग्रहोक्तास्त
आतस्यमावपाकश्च. थाऽऽमयाः॥४९॥ अर्थ-जब कफ कुपित होकर जलवाही - अर्थ-तृषाके सामान्य लक्षण ये हैं, । स्रोतोंमें वायुको रोक देता है तब वह कफ यथा-मुखशोष, वार बार जल पीने पर कीचर की तरह सूखने लगता है । कंठमें भी अतृप्ति, अन्न में अरुचि, स्वरभंग, कंठ । कांटे से खडे होजाते हैं । निद्रा, मुखमें मीओष्ठ और जिह्वा में खरदरापन, जिवा | ठापन, अफरा, सिरमें जडता, तिमिता, वका बाहर निकलना, क्लोति, प्रलाप, चित्त । मन, अरुचि, आलस्य और अविपाक, ये लविभ्रम, तथा तृझहोक्त संपूर्ण प्रकार के | क्षण उपस्थित होते है। रोग उत्पन्न होते हैं।
त्रिदोषज तृषा । बातज तृषा के लक्षण ।
सर्वैः स्यात्सर्वलक्षणा । मारुतात्क्षामता दैन्यं शंखतोदः शिरोभ्रमः। अर्थ-जिस तृषारोगमें उक्त तीनों दोषों गन्धाज्ञानास्यवैरस्यथतिनिद्रावलक्षयाः ॥
HIT पाये जाते हैं वर चिटोशीतांबुपानादृद्धिश्च___ अर्थ-वातज तृषा में क्षीणता, दीनता,
ताप से उपल्न होती है । कनपटियोंमें सूचीभेदवत् पीडा, सिरमें चक्कर
बातपित्तज तृषा।
आमोद्भवा च भक्तस्य सरोधाद्वातपित्तजा ।। गंधज्ञानका अभाव, मुखमें विरस ता,श्रवण
अर्थ-आहार के रोकनेसे आमसे उत्पन्न शक्ति, निद्रा और बलका नाश होता है
तृषा होती है । यह वातपित्तजा है । तथा ठंडा जल पीने से तृषा की औरभी
पित्तजा तृषा। बृद्धि होती है।
उष्णलांतस्य सहसा शीतांभो भजतस्तृषम्। पिचन तृषा।
ऊष्मारुद्धोगतः कोष्ठं या कुर्यात्पित्तजैव सा पित्तान्मुर्छास्यतिक्तता। या च पानातिपानोत्था तक्षिणाने स्नेहजारक्तक्षणत्वं प्रततं शोषो दाहोऽतिधूमकः ५१
च या । अर्थ-पित्तज तृषारोगमें मूर्छा, मुखमें अर्थ-जो आदमी गरमी के कारण म्लातिक्तता, आंखोंमें ललाई, हर समय कंठ में न होरहा हो अर्थात् धूपमें चलकर आया हो शुष्कता, दाह और धूमनिर्गर्मवत प्रतीति । गरमी में तडफडा रहा हो और वह झटपट ये लक्षण होते हैं।
| ठंडा जल पीले तो ऊष्मा कोष्ठमें जाकर तृ
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[३७
षा उत्पन्न करती है यह तृषा पित्तजा होती अर्थ-अब हम यहांसे मदात्यय नामक है । मद्यके अत्यंत पान करनेसे जो तृषा उ- | अध्यायकी व्याख्या करेंगे। पजती है अथवा तीक्ष्ण अग्निवाले मनुष्य के मदात्यय का निदान । जो स्नेह से तृषा उपजती है, ये सब पिसजा " तीक्ष्णोष्णरूक्षसूक्ष्माम्लं व्यवाय्याशुकरम् होती हैं
लघु। कफजा तृषा।
विकाशि विशद मद्यमोजसोऽस्माद्विपर्ययः। निग्धगुर्वम्ललवणभोजनेमकफोद्भवा५६॥
___ अर्थ-मद्य तीक्ष्ण, उष्ण, रूक्ष, सूक्ष्म, अर्थ-चिकने, भारी, खट्टे और नमकीन अम्ल, व्यवायी, आशुकारी, लघु, विकाशी भोजनों से जो तृषा उत्पन्न होती है कफो- और विशद होताहै । ओज इसके विपरीत दवा होती है।
होताहै अर्थात् आज मंद, शीतल, स्निग्ध क्षयजा तृषा।
सांद, स्थूल, मधुर, स्थिर, चिरकारी, गुरु, तृष्णा रसक्षयोक्तेन लक्षणेन क्षयात्मिका।
श्लक्ष्ण और पिच्छिल होताहै । ____ अर्थ-रसके क्षीण होने के प्रकरण में
मद्यके गुण । जो रसक्षीण होनेके लक्षण कहे गये हैं, उन | तंक्षिणादयो विषेऽप्युक्ताश्चित्तोपप्लाविनो
गुणा। बक्षणों से युक्त तृषा क्षयजा होती है ।
जीवितांताय जायते विपे सूत्कर्षवृत्तितः२॥ उपसर्गना तृषा।
___ अर्थ-तीक्ष्णादि चित्त विभूमकारक दस शोषमोहज्वराद्यन्यदीर्घरोगोपसर्गतः।
गुण मद्यमें होतेहैं, येही दस गुण बिष में या तृष्णा जायते तीब्रा सोपसर्गात्मिका
स्मृता॥ ५७ ॥
भी होतेहैं, किन्तु विषस्थ दस गुण इतने - अर्थ-शोष, मोह, स्वरादि तथा चिरका- तीव्र होतेहैं कि वे मनुष्यों के प्राणनाशक लीन अन्यान्य रोगोंके उपसर्गसे जो तीव्र तृ होते हैं। षा उत्पन्न होती है वह उपसर्गमा होती है। चेतोविकार का प्रकार ।
तीक्ष्णादिभिर्गुणैर्मा मंदादीनोजसोगुणान् । इतिश्री अटांगहृदयसंहितायां भाषाटी- दशभिर्दश संक्षोभ्य चेतो नयति विक्रियाम् - कार्या राजयक्ष्मानिदानं नाम
आधे मदे
द्वितीये स प्रमादायतने स्थितः । पंचमोऽध्यायः।
दुर्विकल्पहतो मूढः मुखमित्यधिमुच्यते ॥
__ अर्थ-प्रथम मदमें मद्य अपने तीक्ष्णादि षष्ठोऽध्यायः ।
दस गुणों से ओज के मंदादिक दस गुणों को संक्षुभित करके चित्तमें विकार उत्पन्न
करदेताहे । दूसरा मद प्रमाद का स्थानहै, अथाऽतो मदात्ययनिदानं व्याख्यास्यामः। | इसमें दुष्ट विकल्पों से उपहत अर्थात् नष्ट
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अष्टfinger |
( ३७६ )
पुरुषार्थ मनुष्य कर्तव्याकर्तव्यसे अज्ञान होकर मद्य द्वितीय वेग को अधिक सुखकर मानता है कोई कोई यह भी अर्थ करते हैं, कि मद्य द्वितीयवेग में मनुष्य सुखसे अधिकतर अलग होजाता है ।
मदकी निंदनीय अवस्था । मध्यमोत्तमयोः संधि प्राप्य राजसतामसः । निरंकुश इव व्यालो न किंचिन्नावरेजङ : ५॥
अर्थ : रजोगुणी वा तमोगुणी मनुष्य, मध्यम और उत्तम की संधि अर्थात द्वितीय औरं तृतीय मदकी मध्यावस्था में पहुंचकर अंकुशरहित मदोन्मत्त हाथी की तरह कुछभी शुभ नहीं करता है + |
उक्त अवस्था में दुर्गति | इयं भूनिरवद्यानां दौः शील्यस्येदमास्पदम् । एकोऽयं बहुमार्गाया दुर्गतेर्देशिकः परम् ॥
अर्थ - यह मद्यावस्था निंदनीय मनुष्यों की भूमि अर्थात् आकर और दुःशीलता की आस्पद है । एक मात्र यह मदिरा अनेक मुखवाली दुर्गति की आचार्य अर्थात् उपदेशक है ।
मद की तीसरी अवस्था ।
X
विश्वेष्टः शववच्छेते तृतीये तु मंदे स्थितः । मादा पापात्मा गतः पापतरां दशाम् ७ ग्रंथांतर में लिखा है कि सात्विके शौचदाक्षिण्यहर्षमंडनलालसः । गीताध्ययन सौभाग्यसुरतोत्साहकृन्मदः । राज स दुःखशीलत्वमात्मत्यागं सुसाहसं । कलहं सानुबंधंच करोति पुरुषेमदः । अशोचनिद्रामात्सय्यागम्यागमनलोलतः । असत्यभाषणं चापि कुर्याद्वैताम से मद इति ।
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अ० ६
अर्थ - मदकी तीसरी अवस्थामें पहुंचकर मनुष्य कायक, वाचक और मानसिक तीनों प्रकार की चेष्टाओं से रहित अर्थात वेहोश होकर मुर्दे के समान पडजाता है । यह पापात्मा मरने से भी बुरी दशा में पहुंच जाता है, क्योंकि मरने पर तो मनुष्य दूंसरा देह धारण करके सुखभोग कर सकती है, परंतु मदकी तृतीयावस्था को प्राप्त मनुष्य अन्य शरीर धारण करने के अभाव से कुछ भी सुखका अनुभव नहीं कर सकता है, इसलिये यह दशा मरण से भी बुरी है ।
मद्य धर्माधर्म का अज्ञान । धर्माधर्मे सुखं दुःखमर्थानर्थ हिताहितम् खदासको न जानाति कथं तच्छीलयेद्बुधः॥
अर्थ = मद्यमें आसक्त मनुष्य दानाध्ययनदेवगुरुपूजादिक धर्म और अहिंस्नादि अधर्म के बिचार से शून्य होजाता है, उसे सुख दुख वा हिताहित का ज्ञान नहीं रहता है । फिर कौन बुद्धिमान मनुष्य ऐसी मदिरा का अभ्यास करेगी ।
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अति मद्यपान का फल | मद्ये मोहोभयं शोकः क्रोधो मृत्युश्च संश्रिताः सोन्मादमदमूर्छायाः सापस्मारापतानकाः॥ यत्रैकः स्मृतिविभ्रंशस्तत्र सर्वमसाधु यत् ।
अर्थ - अति मद्यपानसे मोह, भय, शोक क्रोध, मृत्यु, उन्माद, मद, मूर्च्छा, अपस्मार अपतानक, ये सन दुर्घटना उपस्थित होतीहै, अधिक कहने से क्या प्रयोजन है जिस मदिरा से एक स्मृति का नाश होजाता है वहां शुभ कुछ भी नहीं रहता है X
x ओजस्यविहते पूर्वो हृदि च प्रति
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(३७७)
-
मद्यसे त्रिवर्ग का नाश ! तथा विश्रब्ध* और क्रुद्ध मनुष्यको मद्यपान अयुक्तियुक्तमन्नंहि व्याधये मरणाय वा १० से अधिक नशा आता है । अत्यन्त. अम्ल, मद्यं त्रिवर्गधीधैर्यलज्जादेरपि नाशनम् । अत्यन्त रूक्ष. अधिक मद्य अथवा अजीर्ण ___ अर्थ-अन्न जो प्राणपोशक होता है,
में मद्यपान वहुत नशा लाता है वह अयुक्तिपूर्वक सेवन किया जाय तो
चारप्रकार के मदात्यय । ब्याधि पैदा करता है वा मारडालता है घातात्पित्तात्कफात्सर्वेश्चत्वारस्युर्मदात्ययाः इसी तरह युक्तिरहित सेवन किया हुआ सर्वऽपि सर्वैर्जायतेव्यपदेशस्तु भूयसा १४ मद्य त्रिवर्ग ( धर्म अर्थ काम ) बुद्धि, धैर्य अर्थ-मदात्यय चार प्रकारके होते हैं। और लज्जा इन सबका नाश करदेता है । यथा, वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्नि
मद्य का पेयत्व । पातिक । न्यूनाधिक सब प्रकारके मद त्रिदोष नातिमाद्यति बलिनः कृताहारा महाशनाः ॥ से होते हैं । पर जिस देोष की अधिकता हो स्निग्धाः सत्ववयोयुक्ता मद्यनित्यास्तदन्वयाः
ती है वह उसी नामसे बोला जाता है,जैमेदः कफाधिका मन्दवातपित्ता दृढाग्नयः॥
से यह वातिकमदात्यय है । यह पैतिक म. अर्थ-जो मनुष्य बलवान्, कृताहार (भो
दात्यय है, इत्यादि । जन किया हुआ), वहुभोजी, स्निग्ध, सत्व
मदात्यय के सामान्य लक्षण । गुणयुक्त, युवा, नित्य मद्यसेवी, मद्यपकुलप्र- सामान्य लक्षणं तेषां प्रमोहो हृदयव्यथाः । सूत, ( जिसने शरावीके घर जन्म लिया विड्भेदः प्रततं तृष्णा सौम्याग्नेयोहो ), मेदोऽधिक, कफाधिक, मंद वातपित्त
ज्वरोऽरुचिः ॥१५॥
शिरः पा स्थिहृत्कम्पो मर्मभेदस्त्रिकग्रहः। वाला होता है, उसको बहुत मद्य पीनेसे भी
उरोविबन्धस्तिमिरं कासः श्वासः प्रजागरः नशा नहीं आता है।
स्वेदोऽतिमात्र विष्टंभःश्वयथुश्चित्तविभ्रमम उक्तलक्षणोंसे विपरीतकाफल । | प्रलापछर्दिरुत्क्लेशो भ्रमो दुःस्वप्नदर्शनम् । विपर्ययेऽतिमाद्यति विश्रब्धाः कुपिताश्च ये| अर्थ-मोह, हृदयवेदना, पुरीषभेद, निमधेन चाम्लरूक्षेण साजीणे बहुनाति च ॥ अर्थ-ऊपर कहेहुए लक्षणों से विपरीत
रंतर तृषा, कफ पित्तजज्वर, अरुचि, शिरःलक्षणवाला मनुष्य अर्थात् बलहीन, अकृ.
कंप, पार्श्वकंप, अस्थिकंप, हृदयकंप, मर्मताहार, अल्पभोजी आदि लक्षणोंसे यक्त, )
| भेद, त्रिकग्रह ( त्रिक स्थानमें स्तब्धता )
| वक्षःस्थल में बिबंधता, तिमिर, खांसी, वोधिते । मध्यमो विहतेऽल्पे तु विहते तृत्त
श्वास, निद्रा न आना, पसीना, अत्यंत मो मदः अर्थात् मदकी जिस अवस्थामै ओजका नाश न होकर हृदयमें प्रबुद्धता वनी
विष्टंभता, सूजन, चित्त विभ्रम, प्रलाप, रहे वह प्रथम मद होता है । जिसमें ओजो +विश्रब्ध वह मनुष्य कहलाता है जो पदार्थका अल्प नाश होजाता है वह मध्यम | यह कहता है कि मद्य अमृतके समान स्पृ. मद है और जिसमें सर्वथा नाश होजाता है | हणीय और देवताओं को भी निवेदन करना वह उत्तम अर्थात् तृतीय मद है। | उचित है, और उसीमें लयलीम होजाता है
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(३७८)
अष्टांगहृदय ।
main
वमन, उत्क्लेश, भूम और बुरे बुरे स्वप्न | अधिक पी लेता है, अथवा किसीदिन अये सब मदात्यय के सामान्य लक्षण हैं। सात्म्य मदिरा का प्रमाण से अधिक पान
बतिक मदारपप । । कर लेता है उसके ध्वसक आर विक्षय य विशेषाज्जागरश्वासकंपमूर्धरुजोऽविलात्। दो वातज व्याधियां होजाती हैं, ये कष्ट स्वप्ने भ्रमत्युत्पततिप्रेतैश्च सह भाषते ॥ | साध्य होती हैं और विशेष करके दुर्बल __अर्थ-वातिक मदात्यय में विशेष करके
मनुष्य के होती है। निद्रानाश, स्वास, कंपन, शिरोवेदना, स्वप्न ध्वंसक के लक्षण । में घूमना, ऊपरको चढना, प्रेतों के साथ
ध्वंसके श्लेष्ममिष्ठविः कंठशोषोऽतिनिद्रता। वार्तालाप ये लक्षण होते हैं।
शब्दासहत्त्वं तंद्रा च पैतिक मदात्यय । ___अर्थ=ध्वंसक में कफको प्रवृत्ति, कंठपित्साहाहज्वरस्वेदमोहातीसारतृभ्रमाः। शोष, अतिनिद्रा शब्दका न सहना भोर देहोहरितहारिद्रो रक्तनेत्रकपोलता ॥
| तंद्रा उत्पन्न होती है। ___ अर्थ-पैत्तिक मदात्ययमें दाह, ज्वर,
विक्षय के लक्षण । पसीना, मोह, अतीसार, तृषा, भ्रम, देह
विक्षयेऽगशिरोतिरुक में हरापन वा हल्दी का रंग, नेत्र और क- हृत्कंठरोगःसंमोहः कासतृष्णावमिवरः ॥ पोलों में ललाई, ये लक्षण होते हैं। ___ अर्थ-विक्षयरोग में अंगवेदना, शिरो
श्लैष्मिक मदात्यय । वेदना, हृद्रोग, कंठरोग, मोहे, खांसी, तृषा श्लेष्मलछर्दिवल्लासनिद्रोदांगगौरवम् । । वमन और ज्वर उत्पन्न होते है।
अर्थ-श्लैष्मिक मदात्यय में वमन, हु. मद्यपान न करने का फल । ल्लास, निद्रा, उदर्द, अंग में भारापन | निवृत्तोयस्तुमद्येभ्यो जितान्मा बुद्धिपूर्वकृत् होता है।
विकारैःस्पृश्यतेजातुन स शारीरमानसैः। त्रिदोषज मदात्यय । - अर्थ-जो जितात्मा अपनी बुद्धि से सर्वजे सर्वलिंगत्वम्
विचारकर मद्यपान से निवृत्त होजाता है, ___ अर्थ-तीनों दोषों से उत्पन्न हुए मदा- उस मनुष्यको शारीरक वा मानसिक कोई त्यय में तीनों दोषों के मिले हुए उक्त विकार भी स्पर्श नहीं कर सकते हैं। लक्षण दिखाई देते हैं।
तीन प्रकार के रोग । ध्वंसक विक्षय व्याधि। रजोमोहाहिताहारपरस्य स्युस्त्रयो गदाः ॥
मक्त्वामद्यपिवेत्तयः। रसासचेतनावाहिस्रोतोरोधसमुद्भवाः । सहसाऽनुचितंचान्यत्तस्य ध्वंसकविक्षयौ।। भवेतां मारुतात्कष्टौ दुर्बलस्य विशेषतः॥ । अर्थ-रजोगुणकी प्रधानतावाले के, मोह
अर्थ-जो आदगी बहुत दिनतक शराव | की प्रधानता वाले के और अपथ्याहार करने पीना छोड़ देता है, फिर सहसा किसीदिन | वाले के मद मूर्छा और सन्यास नामक तीन
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म. १
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(३७९)
रोग होते हैं, ये तीनों रोग रस, रक्त और ) अर्थ-त्रिदोषज मद में तीनों दोषों के घेतनावाही स्रोतों के रुकजाने से होते हैं। मिलित लक्षण होते हैं। इनमें मद से मूर्छा और मूर्छा से सन्यास
रक्तज मद । 'उत्तरोत्तर बलवान होते हैं।
रक्तात्स्तब्धांगदृष्टिता।
पित्तलिंगं च मद के भेद ।
अर्थ-रक्तज मदमें अंगमें स्तब्धता, मदोऽत्र दोषैःसर्वेश्च रक्तमद्यविषैरपि।
दृष्टि में स्तब्धता तथा पित्तज मद के लक्षण अर्थ-मद सात प्रकार के होते हैं, |
| होते हैं। यथा-वातज पित्तज, कफज, सन्निपातज रक्तज, मद्यज और विषज ।
मधज मद ।
मोन विकृतेहा स्वरांगता । बातज मद ।
अर्थ-मद्यज मदरोग में चेष्टा, स्वर सक्तानल्पद्रुताभाषश्चलः स्वलितचेष्टितः ॥ और अंग में विकृति होती है। रूक्षश्यावारुणतनुर्मदे वातोद्भवे भवेत् ।।
विषजमद । अर्थ वातज मद में रोगी की वाणी
विषे कंपोऽतिनिद्रा च सर्वेभ्योऽभ्यधिकंठमें सक्त, अल्प और वेग से निकलतीहै,
__ कस्तु सः। उसकी चेष्टा चलायमान और स्खलित होती ___ अर्थ-विषजमदमें कंपन और अतिनिद्रा है । देह में रूक्षता, श्यावता और लालिमा | होती है, यह मद सब मदोंसे अधिक वलहोती है।
बान होता है। पित्तज मद।
रक्तादि में वातादि की पहिचान । पित्तेनक्रोधनोरक्तपीताभः कलहप्रियः।।
लक्षयेल्लक्षणोत्कर्षादातादीन शोणितादिषु। अर्थ-पित्तज मदमें रोगी क्रोधयुक्त,
अर्य-रक्तज, मद्यज और विषज इन रक्तवर्ण, पीतवर्ण और कलह करनेमें प्रसन्न
तीन प्रकार के मदरोगों में जिस जिस दोष होता है।
की अधिकता होतीहै वह उसी उसी दोषके
नामसे बोलने में आताहै और उसी उसी कफज मद ।
दोषके अनुसार चिकित्सा भी करनी चाहिये स्वल्पासंघद्धवाक्पांडुः कफावधानपरो
जैसे वाताधिक रक्तजमद, पित्ताधिक रक्तज
ऽलसः। अर्थ-कफज मद में रोगी थोडा और
मद, वाताधिक मयजमद, वाताधिक विषज
मद, इत्यादि। असंबद्ध भाषण करता है, पांडुवर्ण ध्यानमें । "
वातज मूर्छा का लक्षण । मग्न और आलसी होता है ।
अरुणं कृष्णनीलं वा खं पश्यन्प्रविशेत्तमः । सनिपातज मद । शीघ्रं च प्रतिबुध्येत हृत्पीडा वेपथुर्भमः । सर्वात्मा सन्निपातेन
| कार्य श्यावारुणा छाया मूगये मारुतात्मके
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अष्टांगहृदय ।
अ.
६
- अर्थ-वातजमूर्छा रोगमें रोगी आकाश | अर्थ-त्रिदोष के संपूर्ण लक्षणेसेि युक्त में लाल काला वा नीला रंग देखता हुआ | मदात्यय में रोगी अपस्मार की तरह मूछित अंधकार में डब जाताहै अर्थात मर्छित हो । होकर गिर पडताहै, अंतर केवल इतनाही जाताहै, तथा थोडीही देर में मूर्छा जाती है कि अपस्मार में रोगी की चेष्टा भयंकर रहतीहै तब हृदयमें पीडा, धुकधुकी, भ्रम | होजाती है, इसमें नहीं होती है। कृशता, श्यावता, वा अरुण रंगकी कांति हो सन्यास के लक्षण । जाती है ।
दोषेषु मदमूर्छायाः कृतबेगेपु देहिनाम् ।। पित्तज मूर्छा का लक्षण ।
स्वयमेवोपश्याम्यति सन्यासो नौषधैर्विना पित्तेन रक्तं पीतं वा नभः पश्यन् विशेत्तमः।
___अर्थ-मनुष्यों के मद और मूर्छा रोग विबुध्येत चसस्वेदो दाहतृट्तापपीडितः ॥
वेगोंके होचुकने पर औषध के बिना अपने भिन्नविण्नीलपीताभो रक्तपीताकुलेक्षणः। | आपही शांत होजाते हैं परन्तु सन्यास सेग ___अर्थ-पित्तजमूर्छा रोगमें रोगी आकाश औषध के बिना शांत नहीं होता है । में लाल और पीला रंग देखता हुआ मूर्छित | सानिपातिक सन्यास । होजाताहै मूर्छासे चेत होते समय पसीना वाग्देहमनसां चेष्टामाक्षिप्यातिबला मलाः। दाह, तृषा, संतापसे पीडित होताहै उसका | सन्यासं सन्निपतिताः प्राणायतनसंश्रयाः । पुरीष फटजाताहै, देह का वर्ण नीले वा
कुर्वति तेन पुरुषः काष्ठभूतो मृतोपमः।
म्रियेत शीघ्रं शीघ्र चेच्चिकित्सा न प्रयुज्यते पीले रंगका होजाताहै, नेत्रमें लाल वा पीला
____ अर्थ-वातपित्तकफ ये तीनों दोष अ. रंग और आकुलता होतीहै ।
त्यन्त कुपित होकर एकही कार्य करने के कफज मूर्छाके लक्षण । कफेन मेघसंकाशं पश्यन्नाकाशमाविशेत् ।।
लिये उद्यत हुए वाणी मन और देहकी तमधिराच्च बुध्येत सहृल्लासःप्रसेकवान् ।
चेष्टाओं का नाश कर देते हैं और हृदय गुरुभिः स्तिमितैरंगरार्द्रचर्मावनद्धवत् ३४॥ का आश्रय लेकर सन्यास रोग को उत्पन्न . अर्थ-कफज मूर्छा रोगमें रोगी मेघवर्ण करते हैं, इस रोग में मनुष्य काष्ठ की आकाश को देखते देखते मूछित होजाताहै तरह मुर्दे के समान होजाता है और यदि यह रोगी बहुत देर में होशमें आताहै । होश चिकित्सा करने में शीघ्रता न की जाय तो में आनेके समय हल्लास और लालास्राव मरभी जल्दी जाता है। होताहै और रोगी को अपना देह गीले शीप्रचिकित्सा से जीवन । चमडे से लिपटा हुआ सा भारी मालूम
अगाधे ग्राहबहुले सलिलौघे इवातटे । होताहै ।
सन्यासे विनिमजतं नरमाशु निवर्तयेत् ॥ सन्निपातसे निश्चेष्टता ।
अर्थ-मकरादि प्राणियों को हरने वाले सर्वाकृतिस्त्रिभिर्दोषैरपस्मार इवाऽपरः। । जीवों से व्याप्त तटहीन अगाधजलराशि में पातयत्याशु निश्चेष्टंविना बीभत्सटितः॥ गिरे हुए मनुष्य को निकालने में - जैसे
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शीघ्रता की जाती है वैसेही सन्यास रोग में प्रसित मनुष्य को निकालकर शीघ्र रक्षा करनी चाहिये |
मद्यसेमद्यका उपसंहार । मदमान रोषतोषप्रभृतिभिररिभिर्निजैः परिष्वंगः | युक्तायुक्तं च समंयुक्तिवियुक्तेन मद्येन ॥ ४० ॥ अर्थ-युक्ति से विपरीत मद्यपान द्वारा मद, मान, रोष और तोष आदि दृष्ट और अदृष्ट विनाशकारी निज शत्रुओं का विषेश संबंध होता हैं, अर्थात् ये सदा ही अनिष्ट करते हैं और केवल मदादि शत्रुगण का जो अधिक संश्लेष होता है यह भी नहीं है । युक्तिविरुद्ध मद्यपानद्वारा वैध अवैध मद्यपान का फल भी समान होता है, अर्थात् उस समय वैध मद्यपान का भी फल नहीं होता है ।
अन्य युक्ति |
बलकालदेशसात्म्यप्रकृतिसहायामयवयांसि । प्रविभज्य तदनुरूपं
यदि पिबति ततः पिबत्यमृतम्, ४१ ॥ अर्थ-जो मनुष्य अपने शाररिक बल, हेमंतादि काल, देश, सात्म्य, प्रकृति, सहाय, रोग और वयं इन सब बातों का विचार करके जो मद्यपान करता है वह अमृत तुल्य मद्य पीता है ।
इतिश्री अष्टांगहृदये भाषा टीकायां मदात्यय
निदानंनाम षष्ठोऽध्यायः
।
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66
( ३८१ )
अथाऽर्शसां निदानम् व्याख्यास्यामः । अर्थ - अव हम यहां से अर्शनिदान नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
सप्तमोऽध्यायः ।
अर्शका नाम निर्वचन | 'अरिवत्प्राणिनो मांसकीलकाविशसंति यत् अशसि तस्मादुच्यते गुदमार्गनिरोधतः १ दोषास्त्स्व मां समदांसि संदृष्य
विविधाकृतीन् । मांसां कुरानपानादौ कुर्वेत्यशसि तान् जगुः
अर्थ-मांसकी कील अर्थात अंकुर गुदा के द्वार को रोककर शत्रुकी तरह प्राणों का नाश करते हैं, इसलिये इन्हें अर्श कहते हैं ।
वातादि तीनों दोष त्वचा, मांस और मेद को दूषित करके गुदा, कान और नाक में अनेक आकृतिवाले मांस के अंकुरों को उत्पन्न करते हैं । इन मांसांकुरों को अर्श कहते हैं ।
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अर्शके दो भेद | सहजन्मोत्तरोत्थानभेदाद्वेधा समासतः । शुष्कत्राविविभेदाच्च
अर्थ - अर्श सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं एक सहज ( शरीर के संग उत्पन्न होने वाले ), दूसरे जन्मोत्तरोत्थान ( जन्म लेने के पीछे उत्पन्न होने वाले ) । इन्हीं के दो भेद और भी है एक शुष्क ( बादी ववासीर), दूसरी स्रावी ( खूनी बवासीर ) | गुदाकी अबालियों का वर्णन
गुदुःस्थूलां संभयः ॥ २ ॥ अर्धपञ्चांगुलस्तस्मिस्तिस्रोऽध्यर्धा गुलाः
स्थिताः ।
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अष्टांगहृदय ।
( ३८२ )
बल्यः प्रवाहिणी तासामंतर्मध्ये विसर्जनी ॥ बाह्या संवरणी तस्या गुदोष्ठो बहिरंगुले | यवाध्यर्धप्रभाणेन रोमाण्यत्र ततः परम् ५॥
अर्थ - गुदा नाडी देहकी स्थूल अंत्रमें अवस्थित होती है, इसका प्रमाण साडेचार अंगुल का है, इसमें प्रवाहिणी, विर्सजनी और संवरणी तीन बलि अर्थात् आंटी हैं, इनमें से प्रवाहिणी भीतर है, विर्जसनी बीच में है और संवरणी बाहर है । हर एक बाल का प्रमाण डेढ अंगुल का होता है । इस संवरणी व के एक अंगुल नीचे गुदाका ओष्ट होता है, इसका प्रमाण डेढ जौका है इससे नीचे रोम होते हैं ।
उक्त कथन में हेतु ।
तत्र हेतुः सहोत्थानां बलबीजोपतप्तता । अर्शसां बीजाप्तस्तु मातापित्रपचारतः ॥ दैवाच्च ताभ्यां कोपो हि सन्निपातस्यनान्यतः ।
असाध्यान्येवमाख्याताः सवै रोगाः कुलोद्भवाः अर्थ- - ऊपर जो दो प्रकारके अर्श कहे गये हैं उनमें से सहज अर्शका हेतु बलिसंबंधी बीज अर्थात् शुक्रार्तव की उपसप्तता है । और अर्शविकार को उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य वाले वातपित्त कफसे पीडन होना बीजकी उपतप्तताहै । अर्थात सहज अर्श वातपित्तकफ द्वारा माता पिताके शुक्रार्तव के उपतप्त होने से होता है । अर्शके बीज की उपताप्ति का कारण मातपिता के आहारविहारादि अपचार होते हैं । मातापिता के अपचार और देवसे ( पूर्वजन्म कृत अशुभ कर्मसे ) सान्निपातिक अर्श होता है, यह
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भ०
असाध्य होता है । इसतरह कुलोद्भव संपूर्ण रोग बीजकी उपतप्तता से होते हैं इसलिये असाध्य भी हैं ।
अर्शमें रूक्षादि गुण ।
सहजानि विशेषेण रूक्षदुर्दर्शनानि च । अन्तर्मुखानि पांडूनि दारुणोपद्रवाणि च ।
अर्थ - सहज अर्श विशेष रूपसे रूक्ष दुर्दर्शनीय ( देखने में भयोत्पादक ), अंतर्मुख। भीतर को मुखत्राले ). पांडुवर्ण और दारुण उपद्रवों से युक्त होते हैं ( विशेष शब्दके कहने से यह अर्थ भी निकलता है कि उत्तरजात अर्शमें ये लक्षण होते हैं ) ।
उत्तरजात अर्शके भेद | पोढान्यानि पृथग्दोषसंवर्गनिश्चयात्रतः । शुष्काणिवातश्लेष्मभ्यामार्द्राणित्वस्रपित्ततः
अर्थ - उत्तरजात अर्श छः प्रकार के होते है, यथा वातज, पित्तज, कफज, संसर्गज, त्रिदोषज और रक्तज । इनमें से शुष्क अर्श, वात और कफसे होते हैं | आईअर्श पित्त और रक्त से होते है |
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अर्श की उत्पत्ति | दोषप्रकोपहेतुस्तु प्रागुक्तस्तेन सादिते । अग्नौ मलेऽतिनिचिते पुनश्चातिव्यवायतः ॥ यानसंक्षोभविषमकठिनोत्कटकासनात् । बस्तिनेत्राश्मलोष्टोर्वीतलचैलादिघट्टनात् ॥ भ्रशं शीतांबुसंस्पर्शात्प्रततातिप्रवाहणात् । वातमूत्रशकृद्वेगधारणात्तदुदीरणात् १२ ॥ ज्वरगुल्मातिसा रामग्रहणीशोफपांडुभिः । कर्शनाद्विषमाभ्यश्च चेष्टाभ्यो योषितां पुनः आमगर्भप्रपतनानर्भवृद्धिप्रपीडनात् । ईदृशैखापरैर्वायुरपानः कुपितो मलम् १४ पायोर्वलीषु संघते तास्वाभिष्यण्णमूर्तिषु । जायंते ऽर्शासि
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- अ. ७
निदानस्थान भाषाटीकासमते ।
। अर्थ--प्रथम सर्व रोगनिदानाध्यायमें दो- | शिरःपृष्ठोरसां शूलमालस्यं भित्रवर्णता। षों के प्रकोपका कारण कहदिया गया है उ तथेंद्रियाणां दौर्वल्यं शोधो दुःखोपचारता । सी दोष प्रकोपके कारण से जठराग्नि मंद |
| आसंका ग्रहणीदोषपांडुगुल्मोदरेषु च ।
एतान्येव विवर्धतेजातेषु हतनामसु॥ पड जाती है, और जठराग्नि के मंद पडनेसे
__ अर्थ-अर्श के पूर्वरूप ये होते है, यथाअन्नका सम्यक् परिपाक न होने से मलकी | मदाग्नि, विष्टंभ, सक्थियों में शिथिलता, वृद्धि होती है । इस मलकी वृद्धिसे, अत्यन्त |
पिंडलियों में ऐंठन, भ्रम, अंग में शिथि. मैथुनसे, सदा सवारीपर चढनेसे, विषम, क
| लता, नेत्रों में सूजन, पुरीषभेद,पुरीषवद्धता, ठोर और उत्कट आसन पर बैठनेसे, तथा
वायुकी प्रचुरता, वायुकी मूढता, नामि से वस्तिके नेत्र, पत्थर, लोष्ठ, पृथ्वीतल, और नीचे वायुका संचार, वेदना, केंची से कत. वस्त्रद्वारा गुदा के रिगडनेसे, भत्यन्त शीत- रने कीसी पीड़ा, बहुत कष्ट से शब्द करती लजल के स्पर्शसे, निरंतर दोषोंके प्रर्वतनसे, दुई वायुका निकलना, अंत्रकूजन, अफरा, अधोवायु मूत्र और मलके उपस्थित वेगोंको क्षीणता, उकारों की अधिकता, मूत्रकी रोकने वा अनुपस्थित वेगोंको बलपूर्वक क- | अधिकता मल की अल्पता, भोजन रने से, ज्वर, गुल्म, अतिसार, आमदोष, प्र- में अनिच्छा, धूआंसा निकलना, अम्लोहणीरोग, सुजन और पांडुरोगों के कर्षणस, द्वार, शिर पीठ और वक्षःस्थलमें वेदना. विषम चेष्टाओंसे, स्त्रियों के आम गर्भ गिरने | आलस्य, देहमें विवर्णता, इन्द्रियोंमें दुर्वलता, से, वा गर्भकी वृद्धिके प्रपीडनसे, तथा ऐसे | क्रोध, इलाजकी कठिनता, तथा प्रहणीरोग, ही अन्य कारणोंसे, अपान वायु कुपित हो | पांडुरोग, गुल्मरोग, और उदररोग इनकी कर इकडे हुए मलको गुदाकी अवलिमें स्थि- आशंका ये सब लक्षण अर्शरोग की उत्पत करदेता है । और मलके अत्यन्त संपर्क त्ति से पहिले होते हैं । ग्रहणीसे आदिले. से गुदाकी अवलियां प्रकिन्न रहती हैं और कर सब रोग अर्शके उत्पन्न होने के पी , वहां मांसके अंकुर जम जाते हैं । इन्ही भ
बढते हैं। कुरों को अर्श कहते हैं ।।
___ अर्शरोगी का लक्षण । . अर्शका पूर्वरूप ।
निवर्तमानोऽपानोहि तैरधोमार्गरोधतः । तत्यूर्वलक्षणं मंदवह्निता ॥ क्षोभयन्ननिलानन्यान् सर्वेद्रियशरीरगान् । विष्टंभः सक्थिसदनं पिंडिकोद्वेष्टनं भ्रमः। यथामूत्रशकृत्पित्तकफान् धातूंश्च साशयान सादोऽगे नेत्रयोःशोफः शकतेंदोऽथवा ग्रहः मृद्रात्यभिंततः सर्वोभवति प्रायशोऽर्शसः। मारुतःप्रचुरो सूढः प्रायोन भेरधश्चरन् । कृशोभृशं हतोत्साहो दीनःक्षामोऽतिनिसरुक् सपरिकर्तश्च कृच्छ्रानिर्गच्छति
प्रभः। स्वनन् ॥ १७॥ | असारो विगतच्छायोजंतुजुष्ट इव दुमः॥ अंबकूजनमाटोपः क्षामतोदारभूरिता। कृत्यैरुपद्रवैर्घस्तो यथोक्तैर्मर्मपीडनैः । प्रभूतं मूत्रमल्पा विश्रद्धावैधूमकोऽम्लकः।' तथा कासपिपासास्यवरस्यश्वासपीनसैः ।
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अष्टांगहृदय ।
अ०७
क्लमांगभंगवमथुक्षवथुश्वयथुज्वरैः। | और संपूर्ण पर्व ( अस्थियों के जोड़ ), क्लैब्यबाधिर्यतैमियशर्कराश्मरिपीडितः ॥
अस्थि, हृदय, नाभि, गुदा, और बंक्षण क्षामभिन्नस्वरो ध्यायन्मुहुः ष्ठीवन्नरोचकी।
इनमें शूल होता है । गुदा से पुलाक के सर्वपीस्थिहनाभिपायुवक्षणशूलवान् ॥ गुदेन स्रवता पिच्छा पुलाकोदक सनिभाम्।
| जल के सदृश पिच्छिल स्राव होता है । विबद्धमुक्तंशुष्कापक्यामं चांतरांतरा॥ तथा कभी विवद्धता, कभी मुक्तता, कभी पांडु पीत हरिद्रक्तं पिच्छिलं चोपवेश्यते। शुष्क, कभी आई ( गीला ), कभी पक, अर्थ--अर्शसे अधोमार्ग के रुकजाने के
कभी अपक्क,कभी पांडु,पीला,हरा, लाल, वा कारण अपान वायु ऊपर को चढकर संपूर्ण पिच्छिल मल निकलता है। इन्द्रियगत समान उदान आदि वायुको तथा
वातार्श के लक्षण । मूत्र, विष्टा, पित्त, कफ और रसादि धातु
गुदांकुरा वहूबनिलाः शुष्काश्चिमिचिको उनके आधार सहित क्षोभित करके
मान्विताः ॥ अग्निको मंद करदेतीहै । इस अग्नि की म्लानाः श्यावारुणाः स्तब्धा विषमाः परुषाः
खराः। मंदतासे रोगी प्रायः अत्यन्त कृश, हतोत्साह
मिथो विसदृशा वक्रास्तीक्ष्णा विस्फुटितानना दीन:क्षीण, कांतिरहित, असार, छायाहीन; विधीकर्कधखर्जरकासीफलसत्रिभाः ॥ और कीडोंसे खायेहुए वृक्षकी तरह होजाता । कोचित्कदंबपुष्पाभाःकोवत्सिद्धार्थकोपमाः। है । तथा मर्मपीडन में जो उपद्रव कहेगये | शिरः पावसकटयरुवंक्षणाभ्यधिकव्यथाः है, वे सब उपस्थित होते है तथा खांसी, क्षवधूद्वारविष्टभट्टद्ग्रहारोचकप्रदाः ३१ ॥ तृषा, मुखमें विरसता,श्वास, पानस, क्लांति कासश्वासाग्निवैषम्यकर्णनाभ्रमावहाः । अंगभंग, वमन, छींक, सूजन, ज्वर, क्ली
तैरातॊ ग्रथित स्तोकं सशब्दं सप्रवाहिकम् ॥
रुक्केनापच्छानुगतं विबद्धमुपवेश्यते। वता, वहरापन, तिमिर रोग, शर्करा, पथरी कृष्णत्वइनखविण्मूत्रनेत्रवाश्च जायते ॥ रोग उत्पन्न होते है, त्था स्वर गुल्मप्लीहोदराष्ठीलासंभवस्तत एव च । में क्षीणता वा भिनता, सदा चिन्ता ___अर्थ--वातकी अधिकता के कारण जो प्रस्तता, ष्ठीवन, अरुचि, ये भी होतेहैं | गुदामें अंकुर होतेहैं वे सूखे और चिमचिम
अप्राप्तपाकं पुलाकशब्द वाच्यम् । आ हटयुक्त हातह, य म्लान । मुरझाय हुए । गमः॥धान्यंपुलाको निष्पन्नमिति । अथवा | श्याव वा अरुण वर्ण, स्तब्ध, विषम, खरपुलाकः कुत्सितं धान्यं तस्योदकेन तुल्याम्
| खरापनयुक्त, विभिन्न आकृतियुक्त, टेढे, अन्येतु यवागोधूमादिस्वेदः पुलाकोदकाम
तीक्ष्ण, फटे हुए मुखबाले, बिंबी, वेर, त्याहुः तेन तुल्याम् । अर्थात् अप्राप्त पाक धान्यको अथवा कुत्सितधान्यको पुलाक
खिजूर वा कपास के फलकी सदृश अनेक कहते हैं । कोई कोई जौ और गेहूं के स्वेद |
रूप बाले, कदंव के फूल के सदृश, कोई को पुलाक कहते हैं । तद्वत् जलको पुलाको
सरसों के फूल के सदृश होते हैं । इनसे दुक कहते हैं।
| सिर, पसली, कंधा, कमर, अरु और वं
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अ. ७
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३८५ ]
क्षण में वेदना अधिक होती है । छींक, कफज अर्थ के लक्षण । डकार, विष्टंभ हृदयग्रह, अरुचि, खांसी, श्लेष्मोल्वणा महामूला धना मंदरुजा सिताः श्वास, विषमाग्निं, कर्णनाद, और भूम ये |
उच्छनोपचिता:स्निग्धाःस्तब्धवृत्तगुरुस्थिराः
| पिच्छिलाः स्तिमिताःश्लक्ष्णा कण्ड्वाडयाः, उपस्थित होतेहैं । इस रोगमें गांठदार,
स्पर्शनप्रियाः ॥३८॥ प्रवाहिका के लक्षणोंसे युक्त झागदार पिच्छि- | करीरपनसास्थ्याभास्तथा गोस्तनसन्निभाः लताविशिष्ट बहुतसा विष्टा धोडा थोडा वंक्षजानाहिनः पायुवस्तिनाभिविकर्तिनः॥ निकलताहै । मल त्यागके समय अत्यन्त सकासश्वासहल्लासप्रसेकारुचिपनिसाः।
मेहकृच्छशिरोजाड्यशिशिरज्वरकारिणः ।। वेदमा और शब्द होताहै । इस रोगीके नख,
क्लैब्याशिमार्दवच्छर्दिरामप्रायविकारदाः । त्वचा, मल, मूत्र, नेत्र और मुख काले पड
वसाभाःसकफप्राज्यपुरीषाःसप्रवाहिकाः॥" जाते हैं । इसी रोगसे गुल्म प्लीहा, उदररोग | न नवंति न भिद्यते पांडुस्निग्धत्वगादयः॥ और अष्ठीला की उत्पत्ति होजातीहै।
अर्थ-श्लेष्मजनित अर्श में गुदांकुरों की पित्तज अर्श के लक्षण | जड़ मोटी, घन, अल्पवेदनायुक्त और पित्तोत्तरा नीलमुखा रक्तपीतासितप्रभाः ॥ | सफेद रंगकी होती है । ये उत्पन्न फूलेहुए तन्वननाविणो विनास्तनबो मृदवःश्लथाः
स्थूल, स्निग्ध, स्तब्ध, गोल, भारी, स्थिर, शुकजिहबायकृत्खण्डजलौकावक्रसन्निभाः दाहपाकज्वरस्वेदतृण्मासचिमोहदाः। पिच्छिल, स्तिमित और श्लक्ष्ण होते हैं। सोमाणो द्रवनीलोष्णपतिरक्तामवर्चसः॥ | इनमें खुजली वहुत चलती है और हाथ यवमध्या हरित्पतिहारिद्रत्वङ्नखादयः।। फेरने से सुख प्रतीत होता है । इसका ___ अर्थ-पित्तकी अधिकता वाले गुदांकुर | आकार करीलफल पा पनसकी गुठली वा । नीलमुख, लाल पीली काली क्रांति से युक्त | गोस्तन के सदश होता है । इस अर्श में होते हैं । इनमेसे पतला रक्त निकलताहै, दोनें। वक्षणों में अफरा, गुदा वस्ति और ये आमगंधसे युक्त, सिरसके फूल के समान | नाभि में कतरने कीसी पीडा, खांसी,श्वास कोमल, स्विन्न मांसवत् श्लथ होतेहैं, इनका | हुल्लास, प्रसेकं, अरुचि, पीनस, प्रमेह, आकार तोते की जीभ, यकृतखंड वा जोक मूत्रकृच्छ्र, सिर में जडता, शीतज्वर की के मुखके सदृश होताहै । इसमें दाह, पाक उत्पत्ति, क्लीवता, अग्निमांद्य, वमन, और ज्वर, स्वेद, तृपा, मूर्छा, अरुचि और मोह | आमदोष के विकार उत्पन्न होते हैं। उपस्थित होतेहैं । इसमें उष्णतायुक्त, अशरोगी चर्वी के सदृश, कफमिश्रित प्रपतला, नीला, पीला, लाल और कच्चा मल वाहिका लक्षणयक्त वहुत सा मल त्याग निकलताहै । ये जौ की तरह बीचमें मोटे | करता है । इसमें रक्तका स्राव नहीं होता होते हैं। पित्तज बवासीरवाले रोगी का । है न ये फटते हैं, रोगी के त्वचा, नख, मुख, त्वचा, नख, नेत्रादि हरे पीले वा । मुख नेत्र आदि पांडुवर्ण और स्निग्ध हो हलदीके से रंगके होजाते हैं। जाते हैं।
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अष्टांगहृदय ।
य० ७
.. संसृष्ट और निचय अर्श । तेन तीया रुजा कोष्ठपृष्ठहत्पार्श्वगा भवेत् । संसृष्टलिंगाः संसर्गात्
आध्मानमुदरावेष्टो हल्लासःपरिकर्तनम् ॥ निचयालवलक्षणाः॥ ४२ ॥ वस्तौ च सुतरां शूलंगडः श्वयथुसंभवः । अर्थ-जो अर्श वातादि दो दो दोषों से | पवनस्योगामित्वं ततश्छद्यरुचिज्वराः ॥ उत्पन्न होती है उसमें दो दो दोषों के मिले हृद्रोगग्रहणीदोषमूत्रसंगप्रवाहिकाः ।
बाधिर्यतिमिरश्वासशिरोरुकासपीनलाः ॥ हुए लक्षण होते हैं और जो तीन दोषों से
मनोविकारस्तृष्णास्रपित्तगुल्मोदरायः। अपन्न होती है उसमें तीनों दोषों के लक्ष- ते तेच वातजारोगा जायते भृशदारुणाः ॥ ण होते हैं।
दुर्नाम्नामित्युदावतः परमोऽयमुपद्रवः। रक्तज अर्श।
घाताभिभूतकोष्ठानां तैर्विनाऽपिस जायते ॥ रक्कोल्बणागुदे कीलाः पित्ताकृतिसमन्विताः अर्थ-मुंग, कोदों, ज्वार, चना,मसूरादि वटप्ररोहसदृशा गुञ्जाविदुमसन्निभाः ४३ तेऽत्यर्थ दुष्टमुष्णं च गाढविप्रतिपीडिताः।
| रूक्ष और संग्राही भोजनों से अपान वायु सवंति सहसा रक्तं तस्य चातिप्रवृत्तितः॥ वस्ति आदि अपने स्थान में बलवान् और भेकामः पीड्यते दुःखै शोणितक्षयसंभवैः। कुपित होकर अधोवाही स्रोतों को रोकदेती हीनवर्णबलोत्साहो हतौजाः कलुपेद्रियः ॥
है और मलको ऐसा शुष्क करदेती है कि __ अर्थ-रक्तज गुदांकुर के लक्षण पित्तज
मलमूत्र किसी प्रकारनिकालेसेभी नहीं निकलते अर्श के लक्षणों के समान होते हैं, इनकी आकृति बट के अंकुरों के सदृश गुंजा वा
हैं ऐसा होनेपर कोष्ठ, पीठ, हृदय और विद्रुमकी कांति के समान होती हैं । गुदा
पसली में बडी तीव्र वेदना होने लगती है। द्वारा गाढा वा कठोर मल निकलने के
अफरा, उदर में ऐंठन, हल्लास, परिकर्तन, कारण मस्सों से गरम गरम दूषित रक्त ।
घस्ति देश में दारुण शूल, गंडस्थल में अधिकता से निकलता है । और रक्त के सूजन, वायुका उर्ध्वगमन, तथा वायुके अत्यन्त निकलने से रोगी मेंडक के सदृश ऊर्ध्वगमन से उत्पन्न वमन, अरुचि, ज्वर पीला पड़ जाता है, तथा रक्तक्षयजनित | हृद्रोग, ग्रहणी दोष, मूत्ररोग, प्रवाहिका, रोग से पीडित होकर अनेक दुःख उठाता बहरापन, तिमिर, श्वास,शिरोवेदना,खांसी, है ऐसे रोगी के बल, वर्ण, उत्साह और पीनस, मनोविकार, तृषा, रक्तपित्त, गुल्म, ओज सब नष्ट होजाते हैं, संपूर्ण इन्द्रियां - उदररोग तथा अन्यान्य वातज भयंकर रोग कलुषित होजाती हैं।
उत्पन्न होजाते हैं । तथा अर्शरोग का मुद्गादि सेवन से बातादि का प्रकोप । उदावर्त नामक भयंकर और प्रधान उपद्रव मुद्कोद्रवर्णावकरीरचणकादिभिः। रूसंग्रादिभिर्वायुः स्वस्थाने कुपितोबली
उत्पन्न होजाता है । किसी प्रकार का वाअधोनहानिस्रोतांसि संरुध्याधः प्रशोषयन्
तजविकार कोष्ठ में होने से भी अर्शरोगके पुरीषं वातविण्मूत्रसङ्गम् कुर्वीत दारुणम् ॥ | बिनाही उदावर्त रोग होजाता है ।
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अ.
७
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[३८७ ]
अर्श का साध्यासाध्यत्व ।
नाभिज अर्श । सहजानि त्रिदोषणि यानि चाभ्यंतरे बली।
नाभिजानि तु। स्थितानि तान्यसाध्यानियाप्यतेऽग्नि गंडूपदास्यरूपाणि पिच्छिलानि मृदूनिच॥
बलादिभिः ॥ ५३॥ । अर्थ-जो अर्श नाभि में होता है वह अर्थ-सहज अर्श, वा जन्मधारण के | केंचए के मुख के सदृश तथा पिच्छिल पीछे त्रिदोपसे उत्पन्न हुए अर्श, तथा भीतर | और कोमल होता है। वाली वलि में उत्पन्न अर्श असाध्य होता चर्मकील के लक्षण । है। परंतु यदि अग्निवल, और आयु शेष | व्यानो गृहीत्वा श्लेष्माणं करोत्यर्शस्त्वचोहो तथा चिकित्सा के चारपद ( कुशल
बहिः । वैद्य, उपयुक्त औषध, अनुकूल परिचारक
कीलोपमं स्थिरखरं चर्मकीलं तु तं विदुः॥ और विश्वासी रोगी) उपस्थित हो तो
अर्थ-व्यान वायु कफ का आश्रय ले
कर त्वचा के ऊपर कील के सदृश स्थिर असाध्य भी कष्टसाध्य होजाता है।
और कर्कश मांसके अंकुरों को उत्पन्न कर कृच्छ्रसाध्य अर्श।
देती है, इनको चर्मकील वा मस्सा कहतेहैं। द्वंद्वजानि द्वितियायांवलौ यान्याश्रितानि च । कृच्छ्रसाध्यानि तान्याहुः परिसंवत्सराण च वातजादि चर्मकील । ___ अर्थ-जो अर्श द्वन्द्वज दोषों से उत्पन्न
| वातेन तोदः पारुष्यं पित्तादसितरक्तता। होते हैं, वा गुदा की दूसरी वलि में होते
श्लेष्मणा स्निग्धतातस्य ग्रंथितत्वं सवर्णता
____ अर्थ-वात से उत्पन्न चर्मकाल में सुई हैं वा जो एक वर्ष के आधिक पुराने होगये
चुभने की सी वेदना और कर्कशता, पित्त हैं वे कष्टसाध्य हैं।
जनित चर्मकाल में कालापन और बलाई मुखसाध्य अर्श। तथा कफजन्य में स्निग्ध गांठ और त्वचा बाह्यायां तु बलौ जातान्येकदोषोल्पणानि च
के रंगकी सदृशता होती है। अशासि सुखसाध्यानिम घिरोत्पतितानि च
अर्श में उपाय । __ अर्थ-जो अर्श गुदा के बाहर की वलि
अर्शसां प्रशमे यत्नमाशु कुर्वीत बुद्धिमान् । में होते हैं, जो एक दोषसे उत्पन्न हुए हैं
तान्याशु हि गुदं वध्वा कुर्युर्वछगुदोदरम्, और जो बहुत दिनके नहीं है वह सुख
___ अर्थ-बुद्धिमान् को उचित है कि अर्श साध्य हैं।
रोग की चिकित्सा शीघ्रतापूर्वक बडे यत्न मंदादिजन्य अर्श के लक्षण । से करे । चिकित्सा में शीघ्रता न मेट्रादिग्वपि वक्ष्यते यथास्वम्
करने से सव मांसांकुर गुदा के द्वार को ___ अर्थ-मेढू, भग, नासिका, कान आदि रोककर बद्धगुदोदर नामक रोग को पैदा में जो भर्श होते हैं उनका वर्णन उनके | कर देते हैं। प्रकरण में किया जायगा।
इति सप्तमोऽध्यायः ।
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(३८८]
अष्टांगहृदय ।
अ०८
मुत्र का वेग रोकनेसे, तथा ऐसेही वातप्रअष्टमोऽध्यायः
कोपक अन्य हेतुओं से वायु कुपित होकर शरीरस्थ जलसंबंधी धातुको नीचको स्राव
करती है और जब वह जलीयधातु कोष्ठस्थ अथातोऽतीसारग्रहणीरोगयोनिदानं
मलके समीप पहुंच जाती है तब जठराग्नि व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहांसे अतोसार और ग्र
को बुझाने लगती है और उसी धातुसे महणी रोग निदाननामक अध्यायकी व्याख्या
ल को पतला करके अतिसार उत्पन्न कर करेंगे।
देती है। ___ अतीसारके छः भेद ।
__ अतिसारका पूर्वरूप।
लक्षणं तस्य भाविनः॥४॥ "दोषैर्व्यस्तैःसमस्तैश्चभयाच्छोकाच्चपविधः तोदो हृद्गुदकोष्ठेषु गात्रसादो मलग्रहः । अतीसारः
आध्मानमविपाकश्च अर्थ-पृथक् पृथक् वातादि दोषोंसे तीन । अर्थ-जिस मनुष्यके अतिसार होनेवाप्रकार, तीनों मिलकर अर्थात् सन्निपात से । ला होता है उसके हृदय, गुदा और कोष्ठ एक प्रकार, तथा भय और शोकसे दो प्रकार, में सुई छिदने की सी वेदना होती है, देह अर्थात् सब मिलाकर अतिसार के छः भेद | शिथिल पड जाती है, मलका विवंध, आहैं। यथा- वातिक, पैत्तिक, इलैष्मिक, सा- मान और अन्नका अपरिपाक होता है। निपातिक, भयज, और शोकज । ये सब अतिसार के पूर्वरूप होते हैं । - अतिसारकी उत्पत्ति ।
वातज अतिसारके लक्षण । ससुतरां जायतेऽत्यंवुपामतः।१।
. तत्र वातेन विजलम् ॥५॥ कृशशुष्कामिषासात्म्यतिलापिष्टविरूढकैः ।
अल्पाल्पं शब्दशुलाढ्यं विवद्धमुपवेश्यते । मद्यरूक्षातिमात्रान्नरशभिः स्नेहविभ्रमात् ।
रूक्षं सफेनमच्छं च प्रथितं वा मुहुर्मुहुः।६। कामभ्यो वेगरोधाच्च तद्विधः कपितामिल तथा दग्धगुडाभास सपिच्छापरिकर्तिकम। विस्त्रंसयत्यधोऽधातुं हत्वा तेनैव चानलम्
शुष्कास्यो भ्रष्टपायुश्च हृष्टरोमा बिनिष्टनन् । व्यापद्यानुशकृत्कोष्ठं पुरषिं द्रवतां नयन् । __ अर्थ-उक्त छः प्रकारके अतिसारोंमें जप्रकल्पतेऽतिसाराय
लवत, थोडा थोडा, शब्द और शूलसे युक्त, __ अर्थ-अधिक जल पीनेसे, कृश पशुका | बंधा हुआ, रूक्ष, झागदार, पतली, छोटी मांस, सूखा मांस, असात्म्य भोजन, तिल,
छोटी गांठोंसे युक्त, बार बार जले हुए गुड पिष्टक, विरूढ ( अंकुरित अन्न , मद्यपान, के समान, पिच्छिल, कतरने की सी पीडा रूक्षभोजन, अतिमात्रभोजन, अर्श, स्नेहवि . से संयुक्त मल निकलता है । इसमें रोगीका भ्रम ( वमनविरेचन अनुवासन और निरूहा मुख सूख जाता है । गुदा विदीर्ण हो जाती र्थ स्नेहक्रियाका अतियोग वा अल्पयोग), है । रोमांच खडे होजाते हैं और कुपित सा इन सब वस्तुओंके सेवनसे, कृमिरोगसे, मल । मालूम होता है ।
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अ० ८
. निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[ ३८९ )
पित्तातिसार के लक्षण । । भयज और शोकज अतिसार । पित्तेन पीतमसितं हारितं शादुलप्रभम्। भयेन क्षोभिते चित्त सपित्तोद्रावयेच्छकृत् । सरतमात दुर्गधं तृण्मृ स्वेदशाहवान् । ८। बायुस्ततोऽतिसार्येत क्षिप्रमुष्णं द्रवं प्लवम् । सशूलपायुसंतापं पाकवान
थातापससमं लिंगराहुस्तद्वश्च शोकतः। __अर्थ-पित्तातिसारमें पीला, काला, हरा, अर्थ-भयसे चित्त के क्षोभित होनेपर हरी दूबके समान, रुधिरमिश्रित, अत्यन्स पित्तसे संयुक्त वायु मलको पतला करदेता दुर्गंधयुक्त, दस्त होता हैं , दस्तोंसे रोगांकी | है, तदनंतर वात पित्तके लक्षणोंसे युक्त गुदामें दर्द होने लगता है। तथा गुदामें सं- गरम, पतला, प्लवतायुक्त जल्दी जल्दी मल ताप और पाक भी होता है । तथा तृषा, निकलताहै । शोकज अतिसार के लक्षणभी मूर्छा, स्वेद, और दाह ये भी होते हैं। भयज अतिसार के समान होते हैं । कफातिसार के लक्षण।
अतिसार के दो भेद । लष्मणा घनम। अतीसारःसमासेन द्विधा सामो निरामकः। पिच्छिलं तंतुमछ्वेतस्निग्धांसंकफान्वितम सासनिरस्नः अभीक्ष्णं गुरु दुर्गधं विबद्धमनुबद्धरुक् ।।
___अर्थ-संक्षेप से अतिसार दो प्रकार का निद्रालुरलसोऽनविडपाल्पं सप्रवाहिकम्। होता है एक साम, दूसरा निराम । तथा एक सरोमहर्षः सोक्लेशो गुरूवस्तिगुदोदरः। । सरक्त, दूसरा निरस्र । कृतेऽप्यकृतसंबध
साम के लक्षण । अर्थ- कफातिसार में गाढा, पिच्छिल,
तत्राऽद्ये गौरपादप्सु मजति । तंतुओंसेयुक्त, सफेद, स्निग्ध, मांस और
शकृढुंगंधमारोपविष्टंभार्तिप्रसेकिनः । १४ । कफयुक्त, बार वार, भारी ( जलमें डूबजाय )
___अर्थ-आमातिसार में मल बडा दुर्गदुर्गंधयुक्त, बिवद्ध, निरंतर वेदनायुक्त,
धित होताहै, और जल में डालनेसे डूबजाता प्रवाहिका से युक्त थोडा थोडा दस्त होता
है । रोगी के पेटमें गुडगुडाहट, बिष्टंभ, वे. है । इसमें रोगीको निद्रा, आलस्य, अन्नमें
दना और मुखप्रसेक होता है । अनिच्छा, रोमहर्ष और उत्क्लेश होता है ।
निरामातिसार । वस्ति, गुदा और उदरमें भारापन होताहै ।
विपरीतो निरामस्तु कफात्पक्वोऽपि मजति।
___ अर्थ-निरामके लक्षण सामसे विपरीत दस्त होनेके पीछे भी ऐसा मालूम होता रह
होते हैं, कफजन्य होने के कारण पक्व होने ताहै कि दस्त नहीं हुआ है।
परभी जलमें डूब जाता है । सान्निपातिक अतिसार ।
ग्रहणी रोग के लक्षण । सर्वात्मा सर्वलक्षणः॥ ११॥ | अतीसारेषु यो नातियत्नवान् ग्रहणीगदः । अर्थ--जो अतिसार त्रिदोष से होता है, | तस्य स्यादग्निविध्वंसकरैरत्यर्थसेवितैः । उसमें तीनों दोषोके लक्षण पाये जाते हैं।। अर्थ-जो अतिसार में बड़ी सावधानी
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[३९०)
अष्टांगहृदय ।
अ०८
नहीं करता है उसके ग्रहणी रोग हो जाता | ग्रहणी का पूर्वरूप । है। जठराग्निको मंद करनेवाले अन्नपान के | प्राग्रूपं तस्य सदन चिरात्पचनमम्लकः।१९। सेवनसे भी यहरोग उत्पन्न होजाता है। प्रसेको वक्रङ्करस्यमरुचिस्तृट्रक्लमो भ्रमः । अतिसार और ग्रहणीमें अंतर।
आनद्धोदरता छर्दिः कर्णक्ष्वेडोऽत्रकूजनम् । सामं शकाभिरामं वा जीर्णे येनातिसार्यते ॥
अर्थ-अंगमें शिथिलता,अन्नका देरमें पसोऽतिसारोऽतिसरणादाशुकारी स्वभावतः| चना, खट्टी डकार आना, मुखस्राव, मुखमें
अर्थ-आहार के पचनपरं ब्याधिद्वारा विरसता, अरुचि, तृषा, क्लान्ति,भ्रम, पेट जो साम वा निराम मल अतिशय करकें । में अफरा, वमन, कर्णक्ष्वेड, और अंत्रकूजन। निकलता है उसे आतसार कहते हैं । मल | ये ग्रहणी के पूर्वरूप हैं । के अत्यन्त निकलने के कारण इसको हणी का सामान्य लक्षण । अतिसार कहते हैं, यह स्वाभाविक ही शी
सामान्य लक्षणं कार्य धूमकस्तमकोज्वरः । घ्रकारी होता है।
मूर्छा शिरोरुग्विष्टंभः श्वयथुः करपादयोः। ग्रहणी दोषका स्वरूप ।
अर्थ-देहमें कृशता,धूमनिगर्भवत्प्रतीति, सामं सान्नमजीर्णेऽन्ने जाणे पक्कं तु नैव वा। अकस्माद्वा मुहुर्बद्धमकस्माच्छिथिल मुहुः।
तमक, ज्वर, मूर्छा, शिरोबेदना, विष्टंभ और चिरकृद्ग्रहणीदोषः संचयाच्चोपवेशयेत् । | हाथ पांवमें सूजन ये चारों प्रकार की ग्रह
अर्थ-ग्रहणी रोगमें मुक्त अन्नके अजीर्ण णीके सामान्य लक्षणहैं । होनेपर कभी आमसहित और कभी सान्न वावज ग्रहणी । ( भुक्त अन्न ) मल निकलताहै अन्न के तत्राऽनिलात्तालुशोषस्तिमिरं कर्णयोःस्वनः जीर्ण होनेपर कभी पक्का मल और निकल
पा♚रुवंक्षणग्रीवारुजाऽभीक्ष्ण विसूचिका।
रसेषु गृद्धिः सर्वेषु क्षुत्तृष्णा परिकर्तिका। ताहै और कभी कुछ भी नहीं निकलताहै
जीर्णे जीर्यतिचामांनभुक्तेस्वास्थ्यसमश्नुते कभी बिना कारण ही बार बार बंधाहुआ बातहृद्रोगगुल्मार्शः लोहपांडुत्वशंकितः । और कभी ढीला दस्त होताहै, यह रोग
चिरादुःखं द्रवं शुष्कं तन्वाम शब्दफेनवत् । चिरकारी होताहै और मल इकट्ठा हो हो कर
पुनःपुनः सृजेद्वर्चः पायुरुषश्वासकासवान् । निकलताहै । अतिसार और ग्रहणी में यही
- अर्थ-वातज ग्रहणी रोगमें तालुशोष,
तिमिर रोग, दोनों कानोंमें शब्द, पसली, अन्तरहै कि ग्रहणी चिरकारी है और अतिसार आशुकारी होताहै।
ऊरु, वंक्षण और ग्रीवामें दर्द, बार बार ग्रहणी के भेद ।
विसूचिका, मधुरादि संपूर्ण रसोंमें इच्छा, स चतुर्धा पृथग्दोषैःसन्निपाताश्च जायते।। क्षुधा, तृषा, केंची के कतरनेकी सी पीटा। __अर्थ-ग्रहणी रोग चार प्रकार का होता अन्नके पचनेपर वा पाचनकालमें अफरा, है, यथा-वातज, पित्तज, कफज और कुछ भोजन करलैनेपर स्वस्थता ये सब सन्निपातज ।
| लक्षण उपस्थित होते हैं, तथा रोगी वातज
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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(३९१)
हृद्रोग, गुल्म, अर्श, प्लीहा और पांडुरोग अर्थ-सान्निपातज ग्रहणी में तीनों की शंका करने लगताहै । तथा रोगी को दोषों के मिले हुए लक्षण होते हैं । बडे कष्ट से देरमें दस्त आताहै । दस्त होने | ग्रहणीमें अग्नि को हेतुत्व । में गुदामें दर्द होताहै, श्वास खांसी उठतेहैं। विभागेऽगस्य येचोक्ता विषमाद्यास्त्रयोऽग्नयः पित्तज ग्रहणी ।
| तेऽपि स्युर्ग्रहणीदोषाः । पित्तन नील पीताभं पीतामः सृजति द्रवम्।
समस्तु स्वास्थ्यकारणम् ।
अर्थ-अंगविभाग नामक अध्याय में पूत्यम्लोद्गारहत्कंठदाहारुचितृडर्दितः।।
विषम, तीक्ष्ण और मंद तीन प्रकारकी अ___ अर्थ-पित्तज ग्रहणी रोगमें रोगी पीला पडजाताहै और उसे पीला नीला पतला
ग्नि कही गई हैं, ये भी ग्रहणी रोगके का
रण ही हैं, इनमें से समाग्नि स्वस्थता का दस्त होताहै । यह गेगी दुर्गंधित खट्टी डकार, हृदय और कंठमें दाह, अरुचि और
कारण है । शंका- ऐसा कहनेसे ग्रहणी सा.
त प्रकारकी होती हैं, उत्तर । मुख्य प्रहणी तृषा से पीडित रहताहै। कफज ग्रहणी।
पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति आदि उक्त लक्षणोंसे प्रलेष्मणा पच्यते दुःखमन्नं छदिररोचकः ॥
युक्त ग्रहणी चारही प्रकारकी है । ये तीन आस्योपदेहनिष्ठीवकासहल्लासपीनसाः। । ग्रहणी रोगके आभासमात्र हैं। हृदयं मन्यते स्त्यानमुदरं स्तिमितं गुरुः २७ ग्रहणी के महारोग। . उद्गारो दुष्टमधुरः सदनं स्त्रीष्वहर्षणम् । वातव्याध्यश्मरीकुष्ठमहोदरभगंदराः। भिन्नामलेप्मसंसृष्टगुरुवर्चः प्रवर्तनम् २८ ॥ अर्शासि ग्रहणीत्यष्टौ महारोगाःसुदुस्तराः। अकृशस्यापि दौर्बल्यम् ।
___ अर्थ-वातव्याधि, अश्मरी, कुष्ठ, प्रमेह, ___ अर्थ-कफज ग्रहणी रोग में अन्न बडी |
उदररोग, भगंदर, भर्शरोग और ग्रहणी ये कठिनता से पचता है, छर्दि, अरोचक,
आठ महारोग बड़े भयंकर होते हैं इसलिये मुख में लिहसावट, निष्ठी बन, खांसी, ह.
इनमें यत्नपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये । ल्लास, और पीनस ये उपद्रव · होते है ।
इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां हृदय पिंडितसा मालूम होता है, उदर
अतिसारग्रहणीरोग निदानंनाम निश्चल और भारी होजाता है । डकार
अष्टमोऽध्यायः। बुरी और मीठी आती हैं, देहमें शिथिलता होती है, स्त्रियों में से प्रसन्नता जाती रहती नवमोऽध्यायः। है, फटाहुआ आम और कफ मिला हुआ भारी दस्त होता है तथा मनुष्य पुष्ट होने पर भी दुर्बल रहता है ।
अथाऽतो मूत्राघातनिदानं व्याख्यास्यामः । सान्निपातज ग्रहणी ।
अर्थ--अब हम यहांसे मूत्राघातनिदान सर्वजे सर्वसंकरः।। नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
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[ ३९२)
अष्टांगहृदय ।
अ
९
एकाश्रित शरीरावयव । बडी जलन और वेदना होती है, मूत्रका बस्तिबस्तिशिरोमेढूकटीवृषणपायवः ॥ रंग पीला या लाल होता है । एकसम्बन्धनाःप्रोक्ता गुदास्थिविवराश्रयाः॥ अर्थ- बस्ति, वस्तिका सिर, लिंग, क
कफज मूत्राघात ।
कफजे घस्तिमेगौरवशोफवान् । मर, वृषण, और गुदा ये छः अवयव एकही
| सपिच्छं सविबन्धम् चजगह ग्रथित हैं, अर्थात् ये सम्र गुदाके अ
अर्थ-कफज मूत्राघात में वस्ति और स्थिछिद्रोंमें आश्रित हैं।
लिंगप्रदेश में भारापन और सूजन हो जाती
| है, तथा मूत्र भी पिच्छिल और रुकरुककर . मूत्राघाप्त की उत्पत्ति ।
निकलताहै। अधोमुखोऽपि बस्तिर्हि मूत्रवाहिसिरामुखैः
त्रिदोषज मूत्राघात । पार्श्वभ्यः पूर्यते सूक्ष्मैः स्यंदमानैरनारतम् ॥ यैस्तैरेष प्रविश्यैनं दोषाः कुर्वति विंशतिम्।।
सवैः सर्वात्मकम् मलैः ॥५॥ मूत्राघातान् प्रमेहांश्च कृच्छ्रान्मर्मसमाश्रयान् अथे-जो मूत्राघात वातादि तीनों दोषों ___ अर्थ-यद्यपि वस्ति का मुख नीचे की | से उत्पन्न होताहै, उसमें तीनों दोष के
और है तथापि चारों ओर से सूक्ष्म सि- मिले हुए लक्षण प्रतीत होतेहैं। राओं के मुख में होकर निरंतर मूत्र आता
- अश्मरीके लक्षण । रहता है, इससे वस्ति मूत्र से भरजाती है यदा घायुर्मुखं बस्तेरावृत्य परिशोषयेत् ।
मूत्र सपित्तं सकफंसशुक्रवा सदा क्रमात् ॥ इन्हीं सिराओं के द्वारा दोष भी वस्ति में
| सजायतेऽश्मरी घोरा पित्तागोरिव रोचना। प्रविष्ट होकर वीस प्रकार के मूत्राघात और श्लप्माश्रया व सर्या स्यात्प्रमेह रोगों को उत्पन्न करदेते हैं, ये रोग अर्थ--जन वायु पस्तिके मुखको आच्छामर्माश्रित होने के कारण कष्टसाध्य होते हैं। दित करके कभी केवल मूत्रको अथवा कभी
घातजमूत्रकृच्छ्र के लछण । सपित्त मूत्रको अधया कभी कफसहित मूत्र वस्तिवंक्षणमेदार्तियुक्तोऽल्पाल्पं मुहुर्महुः ।। मूत्रयेद्वातजे कृच्छे
देती है सब अश्मरी रोग उत्पन्न होता है । __ अर्थ - वातज मूत्राघात में वस्ति वक्षण
ये रोग वा भयंकर होता है । इसे लोकमें और लिंग में मूत्र करने में बड़ा दर्द होता
पथरी कहते हैं । मूत्राश्मरी घोरा होती है। और मूत्र थोडा थोडा करके बार बार नि
पित्ताश्मरी घोरतरा, कफाइमरी घोरतमा और कलता है । इसीसे इसे मूत्रकृच्छ्र कहते हैं।
शुक्राश्मरी घोराघोरतमा होती है। जैसे गोपित्तन मूत्राघात ।
पित्त वायुसे अवरुद्ध होकर धीरे धीरे गोरोपैत्ते पीतं सदाहरुकू ॥ ४॥ चन वन जाता है, ठीक वैसेही मूत्र रुककर रक्तं वा
अश्मरी बनजाता है । सब प्रकारकी अश्मरी अर्थ-पित्तज मूत्राघात में मूत्र करने में | का मुख्यहेतु कफ है ॥
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अ० ९
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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
अश्मरीका पूर्वरूप | अथाऽस्याः पूर्वलक्षणम् ॥ ७ ॥ बस्त्याध्मानं तदासन्नदोषेषु परितोऽतिरुक् मूत्रेच बस्तगंधत्वं मूत्रकृच्छ्रं ज्वरोऽरुचिः अर्थ - अश्मरी के पूर्वरूप ये हैं, यथावस्ति का फूलना, बस्ति के पास वाले स्थानों में वेदना, मूत्रमें बकरे की सी गंध. मूत्राघात ज्वर और अरुचि ।
।
अश्मरी के सामान्य लक्षण | सामान्यलिंग रुङ्नाभिसेवनीवस्तिमूर्धसु । विशीर्णधारं मूत्रं स्यात्तया मार्गनिरोधने ॥ तद्वय पायात्सुखम् मेहेदच्छम् गोमेद कोपमम् तत्संक्षोभात् क्षते सास्त्रमाया साच्चातिरुग्भवेत्। अर्थ - नाभि, सीवन, (गुदा से पुंज - नेन्द्रिय के बीच की सीमन के सदृश रेखा) और वस्तिस्थान के ऊपर वेदना होती है। अश्मरी से मूत्रका मार्ग रुक जाता है, इस लिये मूत्रकी धार छिन्न भिन्न निकलती है। यदि वायु के वेग से अश्मरी अपने स्थान से हट जाती है अर्थात् मूत्रमार्ग से स्थाना न्तर में चली जाती है तौ सुखपूर्वक गोमेदक माण के समान ललाई लिये हुए मूत्र निकलता है । मूत्र के विपरीत मार्ग में प्रवृत्त होने से मूत्र के स्रोत में घाव होजाता है अथवा हाथी घोड़े पर चढकर मार्ग में चलने के श्रम से भी घाव होजाता है, उस मूत्र के साथ रक्त निकलता है और बडी तीव्र वेदना होती है ।
५.
वाताश्मरी के लक्षण |
तत्र वाताद्भृशार्त्यत तान् खादति वेपते । मृद्राति मेहनम् नाभि पीडयत्यनिश
क्वणन् ॥ ११ ॥
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( ३९३ )
सानिलम् मुंचति शकृन्मुहुर्मेहति विंदुशः । श्वावा रूक्षाऽश्मरी चास्य स्याच्चिताकण्टकैरिव ॥ १३ ॥
अर्थ- - वातज अश्मरी में रोगी अत्यन्त वेदना से कराता हुआ दांतों को चा डालता है और कांपने लगता है, निरंतर पुंजननेन्द्रिय और नाभि को हाथ से रिगडता है, और अधोवायु के साथ मूत्र निकल जाता है, मूत्र बूंद बूंद करके टपकता है । ऐसे रोगी की अश्मरी का रंग काला वा लाल होता है और कांटे के सदृश छोट छोटे अंकुरों से व्याप्त रहती है । पित्तज अश्मरी |
वित्तेन दाते वस्तिः पच्यमान इवोष्मवान् । भल्लातकास्थिसंस्थानांरक्तपीताऽसिताऽ
श्रमरी ॥ १३ ॥
अर्थ-पित्तज अश्नरीरोग में वस्ति में जलन होती है, और ऐसा मालूम होने लगता है, कि कोई क्षार से जलाता है । पित्ताश्मरी छूने में बडी गरम होती है । इसका आकार भिलावेकी गुठली के समान होता है । यह लाल पीले वा काले रंगकी होती है ।
कफाश्मरी के लक्षण ।
तस्तुद्यत इव श्लेष्मणा शीतलो गुरुः । अश्मरी महती श्लक्ष्णा मधुवर्णाऽथवा सिता
1
अर्थ-कफज अश्मरीरोग में वस्ति स्थान में सुई चुभने कीसी वेदना होती है यह छूने में ठंडी और भारी होती है, यह as और चिकनी होती है, इसका रंग मधु के सदृश अथवा सफेद होता है ।
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( ३९४ )
अष्टांगहृदप |
उक्त ममरियोंकी बालकों में उत्पत्ति | | है | इसके उत्पन्न होनेसे वस्तिमें शूलवत्
वेदना, मूत्रकृच्छ, और अंडकोष में सूजन ये सब उपद्रव उपस्थित होते हैं | अश्मरी के उत्पन्न होते ही इसमें शुक्र आकर संचित होता रहता है और यदि अंडकोष और उपस्थेन्द्रिय के बीच में हाथ से दबाया जाय तो विलीन होजाता है ।
शर्करा का लक्षण |
अश्मर्येव च शर्करा ॥ १८ ॥ अणुशावायुनाभिन्ना सात्वस्मिन्ननुलोमगे । निरेति सहमूत्रेण प्रतिलोमे विवध्यते १९ ॥
अर्थ- जब वायुद्वारा अश्मरी के बहुत छोटे छोटे सूक्ष्म खंड होजाते हैं, तब वही पथरी शर्करा कहलाती है ( हकीमलोग इसे रेत कहते हैं यह नदी की बालू के सदृश होती है ) तथा वायुके अनुलोम में मूत्र के साथ बाहर निकल आती है और प्रतिलोम में वहीं रुकजाती है बाहर नहीं निकलती है । परन्तु अश्मरी वायुके अनुलोमगामी होनेपर भी बाहर नहीं निकलती है ।
एता भवंति बालानां तेषामेव च भूयसा । आश्रयोपचयाल्पत्वाग्रहणाहरणे सुखाः १५ ॥
अर्थ - उक्त तीनों प्रकार की अश्मरी बहुधा बालकों के हुआ करती है क्योंकि दिन में सोने के अभ्यासी होते हैं तथा अधिक भोजन करते हैं और इनको ठंडी चिकना मीठा भोजन प्रिय लगता है । बालकों की अश्मरी सुखपूर्वक बडिशादि यंत्र द्वारा ग्रहण और अस्त्रादि द्वारा निकाजासकती है क्योंकि बालकों के अश्मरी का आधार और वृद्धि थोडे होते हैं । बडी अवस्थाबालों के आश्रय और उपचय बडे होते हैं इसीलिये उनके ग्रहण और आहरण दुःख होता है ।
में
शुक्राश्मरी की उत्पत्ति ।
शुक्राश्मरी तु महतां जायते शुक्रधारणात् । स्थानाच्च्युत्तममुक्तं हि मुष्कयोरतरेऽनिलः शोषयत्युपसंगृह्य शुक्रम् तच्छुष्कमश्मरी । वस्तिरुक्कच्छ्रमूत्रत्वमुष्कश्वयथुकारिणी १७ तस्यामुत्पन्नमात्रायां शुक्रमेति विलीयते । पीडिते त्ववकाशेऽस्मिन्
अर्थ-बडी अवस्था वाले मनुष्यों के ही शुक्राश्मरी होती है, यह शुक्र के प्रभावसे बालकों के नहीं होती है 1 मनुष्य जत्र मैथुन की इच्छा करता है तब उसका वीर्य अपने स्थान से चलित होजाता है परंतु मैथुन के अभाव से बाहर नहीं निकलने पाता है तब उस दशा में वायु उसे चारों ओर से खेंचकर पुंजननेन्द्रिय और अंडकोषों के बीच में इकट्ठा करती है और वहीं सुखा देती है यह सूखा हुआ शुक्रही शुक्राश्मरी कहलाती
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श्र० ९
वातवस्ति का लक्षण |
मूत्रसंधारिणः कुर्याद्रद्ध्वा वस्तेर्मुखं मरुत् । मूत्रसङ्गम् रुजं कण्डूं कदाविश्व स्वधामतः ॥ प्रच्याप्य वस्तिमुद्वृत्तं गर्भाभं स्थूलविप्लुतम् करोति तत्र रुग्दा हस्यंदनोद्वेष्टनानि च २१ ॥ बिंदुशश्च प्रवर्तेत मूत्रं वस्तौ तु पीडिते । धारया द्विविधाऽप्येष वातबस्तिरिति स्मृतः दुस्तरो दुस्तरतरो द्वितीयः प्रवलानिलः ।
अर्थ- जो मनुष्य मूत्रके वेगको रोकता है, उसकी वस्तिगत वायु कुपित होकर वस्ति । अर्थात मूत्राशय के मुखको रोक देती है इससे
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मूत्रमें रुकावट, बेदना और खुजली ये उपद्रव उपस्थित होजाते हैं । कभी ऐसा भी होता हैं कि वह वायु वस्तिको अपने स्थानसे थ्युत करके उसका मुख ऊपर को करदेती है जिससे वह गर्भके सदृश स्थूल और चंचल होजाती है, ऐसा होनेसे वेदना, जलन, स्पंदन (सूत्रका धीरे धीरे झरना ), और उद्वेष्टन ये उपद्रव उपस्थित होते हैं । मूत्र बूंद बूंद करके टपकता है परन्तु हाथ से दावने पर धार बांधकर निकलता है | यह बात - वस्ति कहलाती है, इसके दो भेद है इनमें से पहिला अर्थात् वस्तिके मुखको रोकनेवाला दुस्तर है और दूसरा अर्थात् वस्ति का मुख ऊपर को करनेवाला अत्यन्त कृच्छ्रसाध्य है, क्योंकि इसमें वायुका प्रकोप विशेष होता है ।
वाताष्ठीला का लक्षण | शकृन्मार्गस्य बस्तेश्च वायुरंतरमाश्रितः २३ अष्ठीलाभं घनं ग्रंथि करोत्यचलमुन्नताम् । वाताष्ठीलेति
साऽऽमानविण्मूत्रानिलसंगकृत् २४ ॥ अर्थ - गुदा औरं वस्तिके बीच में स्थित होकर वायु अष्टीला के सदृश एक गांठ पैदा कर देती है जो घन कठोर ) अचल और ऊंची होती है, इसीको वाताष्ठीला कहते हैं, इससे अफरा तथा विष्टा, मूत्र और अधोवायु का अवरोध होजाता है ।
वातकुंडलिका का लक्षण |
विगुणः कुण्डलीभूतो यस्तौ तीव्रव्यथोऽनिलः आविश्य मूत्रंभ्रमति सस्तभोद्वेष्टनगरिवः २५ मूत्र मल्पाल्पमथवा विमुंचति शकृत्सृजन् । वातकुण्डलिकेत्येषा
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( ३९५ )
अत्यन्त तीव्र वेदना को उत्पन्न करके वस्ति में प्रविष्ट होकर मत्रको क्षुभित करदेताहै, जिससे स्तब्धता, उद्वेष्टन और भारापन पैदा होजाता है और मलके ब्यागने के साथ साथ थोडा २ मूत्र उतरता है । इस रोग को वातकुंडलिका कहते हैं । मूत्रातीत के लक्षण ।
मृत्रं तु विधृतम् चिरम् ॥ २६ ॥ न निरेति विबद्धम् वा मूत्रातीतं तदल्परुक् ।
अर्थ-बहुत देर तक रोका हुआ मूत्र नहीं निकलता है अथवा पवन के साथ धीरे धीरे निकलता है जिसमें किसी प्रकार की वेदना नहीं होती है इसे मूत्रातीत कहते हैं ।
मूत्रजठर का स्वरूप । विधारणात्प्रतिहतं वातोदावर्तितं यदा२७ ॥ नामेरधस्तास्तादुदरं मूत्रमापूरयेत्तदा । कुर्यात्तीव्ररुगाध्मानमपतिमलसंग्रहम् २८ ॥
तन्मूत्रजठरम्
अर्थ-मूत्र के वेग को रोकने से प्रतिहत हुआ मूत्र अथवा वायु से उदावर्तित ( पीछे को घुमाया हुआ ) मूत्र जब नाभि के नीचे उदर में भरजाता है तब तीव्र वेदना, आध्मान, अपक्ति ( अन्न का नं पचना ) और मल का संग्रह करता है । इसे मूत्र कहते हैं ।
मूत्रोत्संग का स्वरूप |
छिद्रवैगुण्येनानिलेन वा । आक्षिप्तमल्पं मुत्रं तु बस्तौ नालेऽथवा मणी स्थित्वा स्रवेच्छनैः पश्चात्स्वरुजम्
वाऽथवाऽरुजम् ।
अर्थ- कुपित वायु गोलाकार घूमता हुआ | सूत्रोत्संगःस विच्छिन्नतच्द्वेषगुरुशेफसः ॥
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( ३९३)
अष्टांगहृदय ।
अ. ९
अर्थ-मूत्रद्वार के दोषसे अथवा कुपित | के जव वायुसे उदावृत अर्थात् पीछे को वायु के द्वारा आक्षिप्त हुआ थोडासा बचा | लौटाया हुआ पुरीष मूत्रस्रोत के रोंओर हुआ मूत्र वस्ति, अथवा नालमें अथवा आजाता है तब विष्टा से मिला हुआ मूत्र उपस्थ की मणि में स्थित होकर थोडा २ | पुरीष के समान दुगंधित होकर निकलता दर्द करता हुआ अथवा बिना दर्द कियेही है, इसे विविघात कहते हैं। निकलता है । इसे मूत्रोत्संग कहते हैं । उष्णबात का लक्षण ।
इस रोग में विच्छिन्न बचे हुए मूत्रसे उपस्थ | पित्तव्यायामतीक्ष्णोष्णभोजनाध्वातपादिभिः - में भारापन रहता है ।
प्रवृद्धं बायुना क्षिप्तं बस्त्युपस्थार्तिदाहबत् ।
मूत्रं प्रवर्षयेत्पीतं सरक्तं रक्तमेब बा। मूत्रग्रंथि का स्वरूप। उष्णं पुनःपुनः कृच्छ्रादुष्णवात बदति तम् । अतस्तिमुखे वृत्तः स्थिरोऽल्पः सहसा- | अर्थ-व्यायाम, तीक्ष्ण और उष्णवीर्य
___ भवेत् ।। भोजन, अधिक मार्ग चलना, और धूपका अश्मरतुिल्यरुक् ग्रंथिर्मूत्रग्रंथिः स उच्यते ॥ अर्थ-वस्ति के मुखके भीतरवाले भाग
अत्यन्त सेवन इन सब हेतुओंसे कुपित हु
आ पित्त वायु द्वारा आक्षिप्त होकर वस्ति में अकस्मात् एक छोटीसी गोल और कठोर गांठ होजाती है जिसमें भश्मरी के समान
और उपस्थेंद्रियमें वेदना और जलन उत्पन्न
| करता हुआ पीला, लाल, वा केवल लाल उवेदना होती है, इसे मूत्रग्रन्थि कहते हैं।
ष्ण मूत्र बार बार वडी कठिनता से निकमूत्रशुक्र का लक्षण । मृत्रितस्य स्त्रियं यातो वायुनाशुक्रमुद्धतम्।
लता है । इसे उष्णवात कहते हैं। स्थानाञ्चयुतंमुत्रयतःप्राकू पश्चाद्वाप्रवर्तते। मूत्रक्षयका स्वरूप । भस्मोदकप्रतीकाशं मूत्रशुक्रं तदुच्यते। | रूक्षस्य क्लांतदेहस्य वस्तिस्थौ पित्तमारुतौ ।
अर्थ-मत्रोत्सर्ग के वेग से युक्त मनुष्य मूत्रक्षयं सरुग्दाहं जनयेतां तदाह्वयम्। ४७ जब स्त्री संगम में प्रवृत होता है तब वायु अर्थ-रूक्ष और क्लांतदेहवाले मनुष्यकी द्वारा उद्धत शुक्र अपने स्थानसे प्रचलित , वस्तिमें स्थित पित्त और वात कुपित होकर होकर मूत्र करने से पहिले वा पीछे निक- मूत्रका क्षय करते हैं । इस रोगमें वेदना और लता है और उसका रंग भस्म मिले हुए ! दाह अधिक होती है । इस रोगका नाम मूजलके सदृश होता है, इसको मूत्रशुक्र | त्रक्षय है। कहते है।
मूत्रसाद का स्वरूप । विविधात का लक्षण | .. पित्तं कफो द्वावपि बा संहन्यतेऽनिलेन च । रुक्षदुर्बलयोर्वातादुदावृत्तं शकृद्यदा ॥३३॥| कृच्छ्रान्मूत्रंतदा पीत रक्तं श्वतं धनं सृजेत्। मूत्रस्रोतोऽनुपति संसृष्ट शकृता तदा। | सदाहं रोचनाशंखचूर्णवर्ण भवेच्च तत् । मूत्रं बितुल्यगंधं स्याद्विविघातं तमादिशेत् | शुष्कं समस्तबर्ग वा मूत्रसाई बदति तम् ।
अर्थ-रूक्ष और दुर्बल देहवाले मनुष्य । अर्थ-यदि पित्त वा कफ अथवा दोनों
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अ १०
निदानस्थान भाषाटीकोसमेत ।
( ३९७.)
ही वायुसे पीडित हों तो बड़ी कठि- प्रमेह की उत्पत्ति ॥ नता से पीला, लाल, सफेद और गाढा मूत्र तेषां मेदोमूत्रकफावहम् ॥ १॥ जलन हो हो कर निकलता है । अथवा उ.
अन्नपानक्रियाजातं यत्प्रायस्तत्प्रवर्तकम् ।
स्वाद्वम्ललवणस्निग्धगुरुपिच्छिलशीतलम्। स का रंग सूखे हुए गोरोचन वा शंखके
| नवधान्यसुरानूपमांसागुडगोरलम्। चूर्णके समान होता है अथवा कभी सब रं- एकस्थानासनरतिः शयनं विधिवाज॑तम् । गों का होजाता है । इसे मूत्रसाद कहते हैं । ___ अर्थ-मेद, मूत्र और कफको उत्पन्न अध्याय का उपसंहार
करनेवाली जितनी अन्नपान और क्रिया हैं, इति विस्तरतः प्रोक्ता रोगा मूत्राऽप्रवृत्तिजाः वे सब प्रमेह रोगको उत्पन्न करनेवाली हैं, निदानलक्षणरूर्व वक्ष्यतेऽतिप्रवृत्तिजाः “। जैसे मधुर, अम्ल, लवण, स्निग्ध, गुरु, अर्थ-मूत्रके स्वाभाविक रीतिसे न नि
पिच्छिल और शीतल अन्नपान, तथा नवीन कलने के कारण उत्पन्न हुए रोगोंका निदान
अन्न, सुरा, आनूप मांस, ईख, गुड, गोरस और लक्षणों सहित विस्तार पूर्वक वर्णन कर
एक स्थानपर और एक आसन से बैठेरहना दिया गया है अब मूत्रकी अतिप्रवृत्तिसे उ.
और विधिवार्जत शयनकरना, ये सब प्रमेत्पन्न होने वाले रोगोंका वर्णन करेगें।
होत्पादक हैं, कहाभी है ' अकालेऽतिप्रसंइतिश्री अष्टांगहृदयंसंहितायां भाषा
| गाच्च नच निद्रा निषेविता । सुखायुषी पराटीकायां निदानस्थाने मूत्रा
कुर्यात् कालरात्रिरिवापरेति । घातनिदानंनाम
कफसे प्रमेहोत्पत्ति ॥ नवमोऽध्यायः।
बस्तिमाश्रित्य कुरुते प्रमेहान् दूषितः कफः। दूषयित्वा वपुः क्लेदस्बदमेदोरसामिषम् ।४।
___ अर्थ - दूषित कफ वस्तिस्थानका आश्रय दशमोऽध्यायः।
लेकर शरीर, क्लेद, स्वेद, मेद, रस और
मांसको दूषितकर के प्रमेह रोगों को उत्पन्न अथाऽतः प्रमेहनिदानं व्याख्यास्यामः ।। करता है।
अर्थ:-अब हमयहांसे प्रमेह निदान ना । पित्त से प्रमेहोत्पत्ति ॥ मक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । पित्त रक्तमपि क्षीणे कफादौ मूत्रसंश्रयम्। प्रमेह के भेद ।
___ अर्थ-कफादि सौम्य धातुके नष्ट होजा"प्रमेहा विंशतिस्तत्र श्लप्मतो दश पित्ततः। नेपर दूषित पित्त मूत्रसंश्रित रक्तको और षट् चत्वारोऽनिलात्
ऊपर कहेहुए शरीर क्लेद और स्वेदादिको ___ अर्थ-प्रमेह बीस प्रकारके होते हैं । इ
दूषित करके प्रमेह रोगोंको उत्पन्न करताहै। न में से कफसे दस, पित्तसे छः और वात
वातसे प्रमेहोत्पति॥ से चार प्रकार के होते हैं।
धातून बस्तिमुपानीय तत्क्षयेऽपि च मारुतः
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(३९८)
- अष्टांगहरवा
अ०१०
अर्थ-कुपित हुआ वायु वातप्रमेह के | ग्ध मधुर और संतर्पण रूप औषध वायुको संपादन योग्य धातुओं को वस्तिके पास हितकारी हैं किन्तु रूस तीक्ष्णादि अपतर्पण लाकर और उन्हें नीचेको निकालकर उन रूप क्रिया प्रमेह को उपयोगी हैं । इसलिये धातुओं के क्षीण होनेर प्रमेह रोगों को इस विरुद्ध क्रिया के कारण वातज प्रमेह उत्पन्न करता है।
असाध्य होते हैं। प्रमेहका साध्यासाध्य विभाग ॥ प्रमेहके सामान्य लक्षण । सोध्ययायपरित्याग्या मेहास्तेनैव तद्भवाः। सामान्य लक्षणं तेषां प्रभूताविलमत्रता । संमासमक्रियतया महात्ययतयाऽपि च ।६।। | अर्थ-प्रमाणसे अधिक मूत्रका निकलना __ अर्थ-कसे उत्पन्न हुए प्रमेह साध्य और मूत्रका रंग मैला हो ना ये दो सव होते हैं। क्योकि ये वायु, क्लेद, स्वेद, आदि | प्रकार के प्रमेहों में सामान्य रीतिसे होतेहैं । दूषण पदार्थ मात्रसे उत्पन्न होते हैं और इ प्रमेह के भेदोंकी कल्पना । न की क्रिया भी समान है क्योंकि कटुति- |
दोषदृष्यावशेऽपि तत्संयोगविशेषतः।।
| मूत्रवर्णादिभेदेन भेदो मेहेषु कल्प्यते। तादि जो जो औषध कफको शांत करती है ।
___ अर्थ-सव प्रकार के प्रमेहों में यद्यपि उन्हीं औषधों द्वारा शरीर केलेदादि दृष्यपदार्थों
दोष और दूष्य समानहैं तथापि पूर्वजन्मकृत की भी शांति होती है । इसलिये कफज प्र
कर्मयश से दोष भौर दूष्योंके न्यूनाधिक्य मेह साध्य होता है।
संयोग से अनेक भेद होजाते हैं और मूत्र पित्तज प्रमेह याप्य होते हैं. क्योंकि ये । के वर्ण गंध, रस, स्पर्शादि भेदसे भी प्रमे. सौभ्यधातु के क्षीण होनेपर वपु, केद, स्वेद | होंकी अनेक प्रकार की कल्पना कीगई हैं |
आदि तथा रक्तको दूषित करके उत्पन्न हो | अव कफज प्रमेह के दस भेदोंका वर्णन ते हैं । और इनकी क्रिया भी विषम है क्यों | करते हैं । कि मधुरादि पित्तनाशक द्रव्य मेदवर्द्धक हो उदकमेह के लक्षण । ते हैं और जो कटुतिक्तादि द्रव्य मेदका ना | अच्छं वहु सितं शीतं निर्गधमुदकोपमम् । श करते हैं वे पित्तकारक हैं। इसी क्रिया
मेहत्युवकमेहेन किंचिञ्चाविलपिच्छिलम् । की विषमताके कारण पित्तप्रमेह याप्य होते हैं
___अर्थ-उदकमेह में स्वच्छ, प्रमाण से
| अधिक, सफेद, शीतल, गंधरहित, जलके . वातज प्रमेह असाध्य होतेहैं, क्योंकि
सदृश, किंचित आविल और पिच्छिल मूत्र संपूर्ण धातुओंके क्षीण होनेसे इनकी उत्पत्तिहै । तथा इनका अत्यय भी महान हैं
इक्षुमेहके लक्षण । अर्थात् वायु मज्जादि धातुओं को लेकर | इक्षो रसमिवात्यर्थ मधुरं चेक्षुमेहतः ॥९॥ महा अनिष्टकारी होजाताहै और कोई औ- अर्थ-इक्षुमेहमें प्रस्राव ( पेशाव ) ईख षध इसपर काम नहीं देती है, क्योंकि स्नि- | के रसके समान अत्यन्त मीठा होताहै ।
होताहै।
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अ० १.
निदानस्थान भाषार्टीकासभेत ।
सांद्रमेह के लक्षण ।
लालामह के लक्षण । सांद्रीभवत्पर्युषितं सांद्रमेही प्रमेहति। । लालातंतुयुतं मूत्रं लालांमेहेन पिच्छिलम् ॥
अर्थ-सांद्रमेह में रातका किया हुआ ___ अर्थ-लाला मेह में पेशाव के साथ मूत्र गाढा होजाता है।
लार गिरती है और मूडेहनीपनि ओहोती है। सुरामेह के लक्षण । अव छः प्रकार के पित्तन प्रमेहों का वर्णव सुरामेही सुरातुल्यमुपर्यच्छमयोधनम्।१०। करते हैं। ___ अर्थ-सुरामेह में मूत्र मद्य के समान क्षारमेहालक्षांसार ऊपर सच्छ और नीचे गाढा होता है। गन्धवर्णरसस्पर्शः क्षारेण क्षारतोषषत्। पिष्टमेह के लक्षण ।
अर्थ-क्षारमेह में मूत्र क्षार जलके सदृश संदृष्टरोमा पिटेन पिष्टवद्ध हुलम् सितम्। | गंध, वर्ण, रस और स्पर्श से युक्त
अर्थ--पिष्टमेह में मूत्र करते समय रो- होता है। मांच खडे हो जाते हैं। और पिट्ठी के नीलमेह के लक्षण । . सदृश सफेद रंगका प्रमाण से अधिक मूत्र | नीळमेहेनं नीलाभम्। उतरता है।
___ अर्थ-नीलमेह में मूत्र का वर्ण नीला . शुक्रमेह के लक्षण । और गंध, वर्ण, रस और स्पर्श से युक्त शुक्राभं शुक्रमिकं वा शुक्रमेही प्रमेहति ११ / होता है । .. अर्थ-शुक्रमेह में वीर्य के समान और कालमेह के लक्षण । वीर्य मिला हुआ मूत्र होता है ।
कालमेही मषीनिभम् १४ ॥ सिकतामेह के लक्षण । । अर्थ-कालमेह में मूत्रका रंग स्याहीके मूत्राणूनसिकतामेही सिकतारूपिणो मळम्। सदृश होता है ।
अर्थ-सिकतामेह में वालुका अर्थात् हरिद्रामेह के लक्षण । ... रेती के समान छोटे छोटे कण मूत्रके साथ | हारिद्रमेही कटु कम् हरिदासन्निभम् दहत् । निकलते हैं।
___ अर्थ-हारिद्र मेहमें मुत्र हलदीके से रंग । शीतमेह के लक्षण । का कटुरसयुक्त होता है और मूत्र करने के शीतमेही सुबहुशो मधुरम् भृशशीतलम् ॥ समय जलन होती है। अर्थ-शीतमेह में प्रमाण से अधिक,
मांजिष्टमेह के लक्षण ! . मिष्ट और अत्यन्त शीतल मूत्र होताहै।
विसं मांजिष्ठमेहेन मंजिष्ठासलिलोपमम् १५ शनही के लक्षण । ___ अर्थ--मांजिष्ठ मेह में मजीठ के जल के शनैः शनैः शनैर्मही मंद मंदं प्रमेहति । सदृश कच्ची गंध से युक्त मूत्र उतरताहै । __ अर्थ-शनैर्मेह में थोडा थोडा मूत्र धीरे
रक्तमेह के लक्षण | धीरे निकलता है।
। विस्रमुग्णं सलवणं रकाभम् रक्तमेहतः।
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अष्टांगहृदय ।
अ० १.
अर्थ-रक्तमे हमें कच्चीगंधसेयुक्त, गरम, । अर्थ-धातुके क्षयसे कुपित हुए वातनमकीन रक्तके समान मूत्र उतरता है । । जन्य मधुमेह का रूप केवल वातज मेह के अब चार प्रकार के वातज प्रमेह का वर्णनं सदृश होता है, किंतु पित्तादि दोषों से करते हैं।
आवृत मार्गवाला वायु वातरक्तनिदान बसामेह के लक्षण । नामक अध्याय में कहे हुए लक्षणों को वसामेही बसामिश्र वसां वा मूत्रयेन्मुहुः१६ अकस्मात् दिखाता है अर्थात् क्षणभर में
अर्थ-वस मेहमें चर्बी मिला हुआ मूत्र | पूर्ण होजाता है और क्षणभर में खाली हो अथवा केवल चाही बार बार निकलती है। जाता है, यह कष्टसाध्य होता है । ___ मज्जागेह का लक्षण ।
सबको मधुमेहत्व । मज्जान मज्जमिश्रम् वा मज्जमेही मुहुर्मुहुः।
कालेनोपेक्षिताः सर्वे यद्यांति मधुमेहताम् । ___ अर्थ-मज्जा मेहमें केवल मज्जा अथवा
माता मज्जा मिला हुआ मूत्र बार बार निकलता है। सर्वेऽपि मधुमेहाख्या माधुर्याच्च तनोरतः ।
हस्तिमेह का लक्षण । ___ अर्थ-चिंकित्सा न किये जाने पर सब हस्तीमत्तं इवाजस्रं मूत्रं वेगविवर्जितम् १७ प्रकार के प्रमेह कालांतर में मधुमेह होजाते सलसीकम् विवद्धं च हस्तमही प्रमेहति ।।
है। क्योंकि सब प्रकारके प्रमेहों में प्राय: __ अर्थ-हस्तिमेहमें रोगी मतवाले हाथीकी
मूत्र मधु के सदृश मिष्ट होता है इसलिये तरह निरंतर वेगवर्जित पूत्र त्याग करता
शरीर की मधुरता के कारण सब प्रकार के है, कभी कभी मूत्रमें विवद्वता भी होती है,
प्रमेह मधुमेह संज्ञक होते हैं । मूत्रके साथ लसीका निकलता है ॥
कफजमहके उपद्रव ॥ मधुमेह का वर्णन ।
अविपाकोऽरुचिश्छर्दिनिद्राकासः सपीनसः। मधुमेही मधुसमम्
उपद्रवाः प्रजायंते मेहानां कफजन्मनाम् । : जायते स किल द्विधा ॥ १८ ॥ क्रुद्ध धातुक्षयाद्वायौ दोषावृतपथेऽथवा ।
अर्थ-कफज प्रमेहमें अन्नका अपरिपाक ___ अर्थ-मधुमेह में मधुके समान मूत्र होता / अरुचि, वमन, निद्रा, खांसी, और पीनस है । यह दो प्रकार का होताहै, एक तो ये उपद्रव होते हैं । धातु के क्षीण होने पर वायुके कुपित होने पित्तजमेहके उपद्रव ॥ से, अथवा पित्तादि दोष से वायु का मार्ग बस्तिमेहनयोस्तोदो मुष्कावदरणं ज्वरः। रुकजाने पर मधुमेहकी उत्पत्ति होती है। दाहस्तृष्णाम्लको मूर्छा बिड्भेदः
पित्तजन्मनाम् ॥ २३ ॥ मधुमेह का कष्टसाध्यत्व ।
__ अर्थ-पित्तज प्रमेहमें वस्ति और उपआवृतो दोषलिंगानि सोऽनिमित्तं प्रदर्शयेत् । क्षीणः क्षणात्क्षणात् पूर्णो भजते कृच्छ्र
। स्थेन्द्रियमें सुई छिदने के समान बेदना हो. साध्यताम् । तीहै; अंडकोषमें विदीर्णता, ज्वर दाह, तृषा
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अ०१०
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४०१)
-
खट्टी, डकार, मूर्छा और मलका भेद ये । आकृतिवाली, अत्यन्त पीडा और सूची उपद्रव होते हैं ।।
वेधनवत् वेदना से युक्त और वहुत स्थान वातिकमेह के उपद्रब। में फैली हुई और चिकनी होती हैं उन्हें बातिकानामुदावर्तकंठहृद्दाहलोलताः। कच्छपिका कहते हैं। शूलमुन्निद्रता शोषः कासः श्वासश्च जायते
जालिनी के लक्षण । __अर्थ-वातिक प्रमेहमें उदावर्त, कंठ
| स्तब्धा सिराजालवती स्निग्धस्रावाऔर हृदयमें बेदना, सब प्रकारके भोजन
महाशया। पर मन चलना, शूल, नींदका अभाव, जानिस्तोदबहुला सूक्ष्मच्छिद्राच जालिनी शोष, खांसी और श्वास ये उपद्रव होतेहैं । अर्थ-जो पिटिका स्तब्ध, सिराओं के
प्रमेहपिटिकाओं के नाम । जाल से अन्वित, स्निग्ध स्रावी, गंभीर शराविका कच्छपिका जालिनी बिनताऽलजी धातओं में आश्रित, तीव्र दाह और वेदना मसूरिका सर्षपिका पुत्रिणी सविदारिका । विद्रधिश्चेति पिटिकाःप्रमेहोपेक्षया दश।
युक्त होती है और जिनमें छोटे २ छिद्र संधिमर्मसु आयते मांसलेषु च धामसु ।
होते हैं उन्हें जालिनी कहते है । अर्थ-शराविका, कच्छपिका, जालिनी,
- विनता के लक्षण । विनता, अलजी,मसूरिका, सर्षपिका,पुत्रिणी ।
| अवगाढरुजालेदा पृष्ठे वा जठरेऽपि वा। विदारिका और विद्रधि ये दस प्रकार की।
महती पिटिका नीला विनता विनता स्मृता फुसियां प्रमेह की चिकित्सा न करने से
अर्थ-बिनता नामकी पिटिका पीठ वा उत्पन्न होती हैं । ये पिटिका संधिमर्म और ।
उदर में उत्पन्न होती हैं, इनमें अत्यन्त मांसल स्थानों में हुआ करती हैं।
वेदना और क्लेदता होती है, इनका आकार
बडा, रंग नीला और नीची होती हैं। शराविका के लक्षण ।
अलजी के लक्षण । अतोन्नता मध्यनिम्ना श्यावा क्लेदरुजान्विता |
दहति त्वचमुत्थाने भ्रशम् कष्टा विसर्पिणी। शरावमानसंस्थाना पिटिका स्याच्छराविका |
रक्तकृष्णातितृट्रस्फोटदाहमोहज्वराऽलजी। ___ अर्थ-जो पिटिका किनारों पर ऊंची, अर्थ-अलजी नामकी पिटिका उत्पन्न हो वीचमें नीची श्याववर्ण, क्लेद और वेदना से
| ते समय त्वचामें जलन पैदा करती हैं । ये बडा अन्वित और जिसकी शराव ( मिट्टी का कष्ट देती हैं, और फैलती हुई चली जाती सकोरा ) के समान संस्थान और आकृति
है, इनका वर्ण काला वा लाल होता है, विशेष होती है उसे शराविका कहते हैं। इनमें तपा, स्फोट, दाह, मोह और ज्वर कच्छपिका के लक्षण ।
| ये उपद्रव होते हैं। अवगाढातिनिस्तोदा महावस्तुपरिग्रहा।। लक्ष्णाकच्छपपृष्ठामा पिटिका कच्छपीमता मसूरिका के लक्षण । ... अर्थ-जो पिटिका कछुए की पीठकी मानसंस्थानयोस्तुल्या मसूरेण मसूरिका।
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(४०१)
अष्टांगहृदय ।
म. १०
अर्थ-मसूरिका नामकी पिटिका आ- | अर्थ-इन पिटकाओं में से पहिली तीन कार और परिमाण में मसूर के यि | अर्थात् शराविका कच्छपिका और जालिनी होती है।
तथा पुत्रिणी और विदारिका । ये पांच सर्षपा के लक्षण
प्रकारकी पिटका दुःसाध्य होती हैं, क्यों. सर्षपामानसंस्थाना क्षिप्रपाका महारज ॥ कि ये बहुगेदो विशिष्ट होती है । इन सर्षपा सर्षपातुल्यपिटिकापरिवारिता।
पाचों को छोडकर पित्तकी अधिकता के अर्थ-सर्षपा नामकी पिटिका परिमाण
कारण उत्पन्न हुई सुसाध्य होती है क्योंऔर आकार में सरसों के बराबर होती हैं, .
हाता है कि इनकी उत्पत्ति अल्प मेदा से है । ये बहुत शीघ्र पकजाती हैं, इनमें वेदनाभी
इनमें वेदनाभी । प्रमेह से पिटकाओं में दोषोद्रेक । बहुत होती है । इनके चारों ओर सरसों
| तासु मेहवशाच्च स्याहोषोद्रेको यथायथम् । के बराबर छोटी छोटी फुसियां पैदा हो अर्थ-इन पिटिकाओं में प्रमेह के अनुजाती हैं।
सार दोषों का उद्रेक होता है, जैसे वातन पुनिणी के लक्षण । मेह में घातकी अधिकता, पित्तज मेह में पुत्रिणी महती भूरिसुसूक्ष्मपिटिकावृता ३३ | पित्तकी अधिकता, कफजमेह में कफकी अर्थ-पुत्रिणी नामकी पिटिका आकार
आधिकता, और त्रिदोष में तीनों दोषों की में बडी होती हैं, इनके चारों ओर बहुतसी | अधिकता होती है। छोटी २ फुसियां होती हैं ।
प्रमेह के बिना पिटकाओं की उत्पत्ति । विदारिका के लक्षण । | प्रमेहेण विनाप्येता जायते दुष्टमेदसः। विदारीकंवद्वत्ता कठिना च विदारिका ।। तावश्च नोपलक्ष्यते यावद्वस्तुपरिग्रहः ३६ ॥ अर्थ-विदारीकंद वा बिधारे के समान
___अर्थ-प्रमेहरोग के विनाभी दूषित मेद गोलाकार और कठोर कुंसियों को विदारिका
| से इन पिटकाओं की उत्पत्ति होजाती है, कहते हैं।
किंतु जबतक इनके लक्षण यथायथ उत्पन्न विद्रधि के लक्षण ।
नहीं होते हैं तबतक ये पहंचानने में नहीं विद्रधिर्वक्ष्यतेऽन्यत्र
आती है । अर्थ-विद्रधि के लक्षणों से युक्त पि- रक्तपित्त में हरिद्वर्ण । टकाओं को विद्रधि कहते हैं । इनके लक्षण | हारिद्रवर्ण रक्तम् वा मेहप्रायूपवर्जितम् ।
यो मूत्रयेन्न तं मेहं रक्तपित्तं तु तद्विदुः ३७ ॥ आगे वर्णन किये जायगे।
__ अर्थ-प्रमेह और रक्तपिक्त दोनों में लाल पिठकाओं का साध्यासाध्यत्व । वा हलदी के रंगका प्रस्ताव साधारणतः
तत्राद्य पिटिकात्रयम् ॥ पुत्रिणी च विदारीच दुःसहा बहुमेदसः।।
| पाया जाता है फिर इन दोनों में कोंन सह्यापित्तोल्यणास्त्वन्याःसंभवत्यल्पभेदसः। प्रमेह और कोन रक्तपित्त है, इसकी परीक्षा
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अ०११
पूर्वरूपसे की जाती है। जो प्रमेह का पूर्वरुप | दिखाई न देतो रक्तपित्त समझना चाहिये । प्रमेह का पूर्वरूप | Faisaगन्धः शिथिलत्वमंगेशय्यासन स्वप्नसुखाभिषंगः । जिह्वाश्रवणोपदेहोariगता केशनखातिवृद्धिः ॥ ३८ ॥ शीतप्रियत्वं गलतालुशोषोमाधुर्यमास्ये करपाददाहः । भविष्यतो मेहगणस्य रूपस्मृत्रेऽभिधावति पिपीलिकाश्च ३९ ॥ अर्थ - पसीना, देह में गंध, अंग में शिथिलता, शय्या, आसन और निद्रा में अत्यन्त सुख का अनुभव, हृदय नेत्र, जिह्वा और कान में उपलिप्तता, घनांगता, केश और नखकी अत्यंत वृद्धि, शीतल वस्तुओं के छूने वा खाने की इच्छा, कंठ और तालु में शुष्कता, मुख में मीठापन, हाथ और पांव में जलन, ये सब प्रमेह के पूर्वरूप हैं और जिस जगह रोगी मूत्र करता है वहां चींटियां दौड़कर आती हैं ।
प्रमेह में द्विविधविचार | दृष्ट्वा प्रमेहम् मधुरम् सपिच्छम् । मधूपमम् स्याद्विविधो विचारः । संतर्पणाद्वा कफसंभवः स्यात्क्षीणेषु दोषेष्यनिलात्मको वा ॥ ४० ॥ अर्थ - प्रमेहरोग में मूत्रको मधुर के सदृश मिष्ट और शाल्मली ( सेमर ) के गोंद के सदृश पिच्छिल देखकर मंदबुद्धि वैद्य के मनमें दो प्रकार का विचार पैदा होता है। एक तो यह कि अतर्पणसाध्यमेह कफ से उत्पन्न हुआ है अथवा दूसरा यह कि कफादि दोषों के क्षीण होने से संतर्पण -
[ ४०३ ]
साध्य मेह वात से उत्पन्न हुआ है। परंतु कुशाप्रवुद्धिवाला केवल मूत्रके ही मधुरादि गुणों को नहीं देखता है किन्तु अन्य लक्षणों को देखकर स्थिर रहता है कि यह प्रमेह कफज है, वा वातज है । मेहका साध्यत्व ! सपूर्वरूपाः कफपित्तमेहा:क्रमेण ये वातकृताश्च मेहाः । साध्या न ते पित्तकृतास्तु याप्या:साध्यास्तु मेदो यदि नातिदुष्टम्, ४ अर्थ- स्वेदोंगगंधादि संपूर्ण पूर्वरूपों से युक्त कफज प्रमेह औरं पित्तज प्रमेह असाध्य होते हैं । तथा क्रमसे हुए अर्थात् जो प्रथम कफप्रमेह, तदनंतर पित्तप्रमेह, इसी तरह कालांतर में वातप्रमेह होजाते हैं, में भी असाध्य होते हैं । इसका सारांश यह है कि कफजमेह समक्रियत्व होनेसे साध्य और पितज प्रमेह असमकियत्व होनेसे याप्य होते हैं। परंतु यदि ये भी संपूर्ण पूर्वरूपसे युक्त होतो असाध्य होते हैं । और यदि मेद अत्यन्त 1 दुष्ट न हो तो पित्तज प्रमेह जो याप्य होता है वह भी साध्य होजाता है । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा टीकायां निदानस्थाने प्रमेह निदानंनामदशमो
ऽध्यायः ।
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एकादशोऽध्यायः ।
अथाऽतो विद्रधिवृद्धिगुल्मनिदानम्
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(४०४]
अष्टांगहृदय ।
अ०१६
अर्थ-अब हम यहांसे विद्रधि, बृद्धि पास होती है, यह दारुण और ऊंची ग्रंथि और गुल्मनिदान नामक अध्याय की ब्या- | होती है । दूसरी अंतर्विद्रधि बडी दारुण, ख्या करेंगे।
गंभीर, गुल्म के समान कठोर, वल्मीक की विद्रधिके छः भेद । तरह ऊंची, अग्नि और शस्त्रकी तरह शीघ्र "भुक्तैः पर्युषितात्युष्णरूक्षशुष्कविदाहभिः |
मारनेवाली होती है । जिलशय्याविचेष्टाभिस्तैस्तै चासक्प्रदूषणैः
विद्रधि के स्थान । दुष्टं त्वइमांसदोस्थिस्रावासृक्कंडराश्रयः। यः शोफो बहिरंतर्वा महासूलो महारुजः २
| नाभिवस्तियकृष्ठीहलोमहृत्कुक्षिवंक्षणे ५ ॥ वृत्तः स्यादायतो या वा स्मृतः षोढा स-स्वादृक्कयोरपाने च
विद्रधिः । ___ अर्थ-नाभि, वस्ति, यकृत प्लीहा, लोम दोषैः पृथक्समुदितैः शोणितेन क्षतेनच३॥
हृदय कुक्षि और वंक्षण, दोनों वृक्क और - अर्थ-बासी, अत्यन्त उष्ण, अत्यन्तरूक्ष
अपान ये विद्रधि की उत्पत्ति के स्थान है। अत्यंत शुष्क और अत्यंत विदाही भोजन क
वातज विद्रधिके लक्षण । रने से, अथवा'ऊंची नीची शय्यापर शयन
- वातात्तत्राऽतितीव्ररुरु । करनेसे अथवा रक्तको दूषित करने- श्यावारुणचिरोत्थानपाकोविषमवाली अन्य क्रियाओं से त्वचा, मांस, भेद,
संस्थितिः ॥ ६ ॥ अस्थि, स्नायु, रक्त और कंडराके आश्रित
| व्यधच्छेदभ्रमानाहस्यंदसर्पणशब्दवान् ।
अर्थ-वातजविद्रधि में बडी तीन बेदना नाहर बाहर वा भीतर भीतर ऐसी सूजन पैदा होती है । जो बहुत स्थानमें फैली हुई
होतीहै, इसका रंग श्याव, और अरुण होता होती है और वेदना भी इसमें बहुत होती है।
है, यह बहुत देरमें उठतीहै और बहुत ही तथा यह सूजन गोल वा लंवी होती है, इ.
देरमें पकती है । इसकी स्थिति भी विषम से विद्रधि कहते हैं । यह विद्रधि छः प्रका
| है अर्थात कभी घटजातीहै और कभी बढ र की होती है, यथा- वातज, पित्तज, कफ
जातीहै । इसमें व्यध और छेदके समान ज, त्रिदोष, रक्तज और क्षतज । शूल, भ्रम, आनाह, स्पंदन, परिसर्पण और
छः प्रकारकी विद्रधिके दो भेद । बाह्योऽत्र तत्रतवांगे दारुणो प्रथितोन्नतः। वित्तन विद्रधिके लक्षण । आंतरो दारुणतरोगम्भीरोगुल्मवधनः ॥ रक्तताम्रासितःपित्तातृण्मोहज्वरदाहवान् ॥ वल्मीकवत्समुच्छ्रायी शीघ्रघात्यग्निशस्त्रवत् क्षिप्रोत्थानप्रपाकश्च___ अर्थ-छः प्रकारकी विद्रधि के दो भेद । अर्थ-पित्तजविद्रधि में तृषा, मोह, ज्वर है, अर्थात् एक बाहर होनेवाली वाह्यविद्रधि, | और दाह होताहै, यह लाल, ताम्रवर्ण और दूसरी भीतर होनेवाली अंतर्विद्रधि, वाह्यवि- | काली होतीहै, यह शीघ्र उठतीहै और शीघ्र द्रधि शरीर के बाहरके भागमें नाभिके ओर । ही पकजाती है ।
विद्रधिके दो भेद ।
। शब्द होताहै।
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५०५]
-
- कफज विद्रधि के लछण। क्षतोष्मा वायुविक्षिप्तः सरक्तं पित्तमीरयन्
पांडुः कण्ड्युतः कफात् । पित्तामुग्लक्षणम् कुर्याद्विद्रधिं भूयुपद्रवम् । सोलेशशीतकस्तंभजभारोचकगौरवः ८ ॥ । अर्थ-शस्त्र लोष्ठ आदि की चोट लगने चिरोत्थानविदाहश्च
से जो घाय होजाताहै वा अन्य किसी प्र__ अर्थ--कफजविद्रधिमें पांडुवर्णता, खुज
कारके व्रण का घाव होजाताहै, और उस ली, उक्लेश, शीत, स्तंभ, जंभाई, अरोचक
घावमें रोगी अपथ्य आहार विहार करतारहे और भारीपन होताहै । यह देर में उठतीहै
तो घावकी गरमी वायुसे विक्षिप्त होकर और विशेष रूपसे विदाही है।
रक्तसहित पित्तको प्रकुपित करदेती है, और - त्रिदोषज विद्रधि । | इससे अनेक उपद्रवों से युक्त विद्रधि हो सकीर्णः सन्निपाततः।
जाती है , इसे क्षतज विद्रधि कहते हैं । इस अर्थ-त्रिदोषज विद्रधि में वातादि तीनों
में रक्तज और पित्तज विद्रधि के मिले हुए दोषों के मिलेहुए लक्षण दिखाई देतेहैं। ।
लक्षण पाये जाते हैं। वाह्यांतर विद्रधिका विभाग ।
| विद्रधियों में उपद्रव विशेष । सामाच्चाऽत्रविमजेदाह्याभ्यंतर
तेष्पद्रवभेदश्च स्मृतोऽधिष्ठानभेदतः १२ लक्षणाम् ॥९॥ नाभ्यां हिमा भवेद्वस्तौ मूत्रं कृच्छेण पूतिच अर्थ-पहिले कहेहुए दारुण और दारुण- श्वासो यकृतिरोधस्तु प्लाहयुच्छ्वासस्यतर लक्षणोंद्वारा वाह्य और आभ्यंतर विद्रधि
तृट् पुनः ॥ १३ ॥ को पहिचान लेना चाहिये ।
गलग्रहश्च क्लोम्नि स्यात्सर्वांगप्रग्रहोहदि ।
प्रमोहस्तमकः कासोह्रदये घट्टनम् व्यथा ॥ रक्तज विद्रधिके लक्षण ।
कुक्षिपातरांसार्तिः कुक्षावाटोपजन्म च । कृष्णस्फोटावृतः श्याबस्तीबदाहरुजाज्वरः | सक्थ्नोग्रहो वंक्षणयोवृक्कयोः कटिपृष्ठयोः पित्तलिंगोऽसृजा बाह्यः स्त्रीणामेव- पार्श्वयोश्च व्यथा पायौ पवनस्य निरोधनम्
तथांतरः ॥१०॥ अर्थ-रक्तज विद्रधि में विद्रधि का स्थान
अर्थ-इन विद्रधियों में स्थान विशेष काले रंगके फोड़ोंसे घिरा रहताहै यह श्याव
के अनुसार विशेष विशेष उपद्रव होतेहैं । वर्ण होतीहै, इसमें तीव्रदाह, वेदना और
यथा जो विद्रधि नाभिमें होतीहै तो हिचकी ज्वर होता है तथा शेष लक्षण पित्तनाविद्रधि
वस्ति में होनेसे मूत्रकी रुद्धता और दुर्गाध, के समान होते हैं। या वाडा विधि देवल यकृत में होनेसे श्वास , प्लीहा में होनेसे पुरुषों के होतीहै। तथा स्त्रियों के रक्तसे | श्वासरोध , क्लोम में होनेसे बार २ तां उत्पन्न हुई यह विद्रधि भीतर होतीहै, बाहर
और गलग्रह , हृदय में होनेसे संपूर्ण अंग नहीं होती है।
में जकडन, प्रमोह, तमक श्वास, खांसी .. क्षतजविद्रधि के लक्षण। हृदयघट्टन, और हृदय में वेदना., कुक्षिमें शस्त्राचैरभिघातेन क्षते वाऽपथ्यकारिणः।। होनेसे पसन्दियों के भीतर और कंधों में
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अष्टांगहृदय ।
अ०११
बेदना होतीहै और कुक्षिमें गुडगुड शब्द | बिद्राधि का साध्यासाध्य विभाग। होताहै। वंक्षण में होनेसे पांव निष्काम हो
तत्र विवयंः सन्निपातजा जातेहैं । वृक्कमें होनेसे कमर, पीठ और पक्को हन्नाभियस्तिस्थो मिनोऽतर्बहिरेव वा
| पकश्चांतःस्रवन्पक्कात् क्षीणस्योपद्रवान्वितः पसली में बेदना होतीहै । गुदनाडी में होनेसे
___अर्थ सन्निपातज विद्रधि असाध्य हीती अधोवायु रुक जाता है ये भिन्न भिन्न स्थानों
है । हृदय, नाभि और वस्तिमें जो विद्रधि के भिन्न भिन्न उपद्रव हैं।
| होती है, वह भीतरवाली पककर भीतर विद्रधि को शोफतुल्यता।
फूटे वा वाहरवाली में शस्त्रद्वारा विदीर्ण आमपक्वविदग्धत्वम् तेषां शोकबदादिशेत् ॥ | करके बाहरको मुख कियाजाय वहभी अ' अर्थ - इनविद्रधियोंका आमत्व ( कच्चा ।
साध्य होती है । तथा हृदय, नाभि, वास्त पन), पक्वत्व ( पक्कापन ), और विदग्धत्व
इन स्थानोंको छोडकर अन्यस्थानोंमें उत्पन्न (पाकातिक्रांतत्व ) शोफ के लक्षणों के
हुई विद्रधि पककर भीतरको फूटे और उ. समान जानना चाहिये।
सका स्राव मुख द्वारा निकले वहभी असा. उत्पत्तिस्थानभेद में विद्गधि ।।
ध्य होती है। माभेरूच मुखात्पक्काःप्रसवंत्यपरे गुदात् । उभाभ्यां नाभिजा
स्त्रियों की स्तनविद्रधि । - अर्थ-जो विद्रधि नाभि के ऊपर वाले । एवमेव स्तनसिरा विवृताः प्राप्य योषिताम्
सूतानांगर्भिणीनांवासभबेच्छवयथुर्घनः ।। स्थानों में होतीहै उनके पककर फूटने परजो ।
स्तने सदुग्धेऽदुग्धे वा वाह्यविद्रधिलक्षणः। पीव निकलती हैं वह रोगीके मुख द्वारा | नाडीनां सूक्ष्मवत्रत्वात्कन्यानां तु न जायते निकलती है और जो विद्रधि नाभिके नीचे अर्थ-प्रसूता वा गर्भिणी स्त्रियोंके दूध के स्थानों में होतीहै उसकी पूय ( राध) | वाले वा विनादूध के स्तनोंमें विद्रधि के उ. गुदा द्वारा निकलतीहै और नाभि में उत्पन्न | त्पन्न करनेवाले हेतुभोंसे एक प्रकारकी सूहोनेवाली विद्रधि की राध दोनों मार्गोसे अन पैदा होजाती है और यह सूजन स्तनों से निकलती है।
की खुलेहुए सुखवाली नसोंमें प्रविष्ट होती विद्रधि में अणके समान द्रोपोंद्रेक ।
है तथा इसके सब लक्षण वाह्य विद्रधि के
समान होते हैं । छोटी बालिकाओं के स्तनों . विद्याहोषम् क्लेदाच्च विद्रधौ ॥ १७ ॥ यथास्वम् व्रणवत्
की नसोंके मुख वहुत सूक्ष्म होते हैं, इस. . अर्थवातादि गुणोंमें क्लेदकी जैसी | लिये उनके स्तनों में विद्रधि उत्पन्न नहीं आकृतिहै, विद्रधि की भी वैसीही आकृति | होती है। होताहै इसलिये क्लेदको देखकर विद्रधि के | बृद्धिरोग का वर्णन । वातादि दोषों के लक्षण समझने चाहिये। क्रुद्धो रुखगतिर्वायुः शोफशलकरश्चरन् ।
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अ०११
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(४०७ )
मुष्की वंक्षणतः प्राप्य फलकोशाभिवाहिनीः। अर्थ-कफजवृद्धि ठंडी, भारी, स्निग्ध, प्रपीड्य धमनीवृद्धि करोति फलकोशयोः। खजलीयुक्त कठोर और अल्पवेदना से युक्त अर्थ-सूजन और शूलको उत्पन्न करने |
होती है। वाला कुपित्त वायु अपना मार्ग रुकजाने के
रक्तजवाद । कारण एक स्थानसे दूसरे स्थानमें विचरता
कृष्णस्फोटावृतः पित्तवृद्धिलिंगश्च रक्ततः हआ वंक्षण से अंडकोषों में पहुंचकर फल
____ अर्थ-रक्तजवृद्धि के चारों जोर काले कोषवाहिनी संपूर्ण धमनियों को अत्यन्त
रंग के फोड़े होजाते हैं, इसमें पित्तजवृद्धि पीडित करके फलकोष की वृद्धि करदेताहै ।
के संपूर्ण लक्षण पाये जाते हैं। . . बृदिरोग की संख्या। दोषास्रमेदोमृत्रैः स वृद्धिः सप्तधा गदः।
मेदोजवृद्धि । मूत्रांरजावप्यनिलाद्धेतु भेदस्तु केवलम् । कफवन्मेदसा वृद्धिर्मंदुस्तालफलोपमः ।
अर्थ-वृद्विरोग सात प्रकार का होता ____ अर्थ-मेदोजबृद्धि कोमल औरं पके है, यथा-वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, |
हुए तालफल के सदृश होती है, इनके शेष मेदोज,मूत्रन और मंत्रज । इनमें से मूत्रज लक्षण कफज वृद्धि के समान होते हैं । . वृदि और अंत्रजवृद्धि वायु के प्रकोप से
मूत्रजवृद्धि ।
मूत्रधारणशीलस्य मूत्रजःसतुगच्छतः ॥ ही उत्पन्न होती हैं । इनकी उत्पत्ति के
अम्भाभिः पूर्णहतिवन्क्षाभं याति सरुमृदुः हेतु में भिन्नता होने के कारण इनका
मूत्रकृच्छमधस्ताच्च वलयम् फलकोशयोः। पृथक् निर्देश किया गया है।
___अर्थ-जो सदा मूत्रके वेगको धारण कबातनवृद्धि के लक्षण ।
रता है उसके मूत्रज बृद्धि होती है इसरोगी पातपूर्णदृतिस्पर्शो रूक्षो वातादहेतुरुकू । ।
का अंडकोष चलनेके समय जलसे भरीहुई अर्थ-वातज बृद्धि बिना कारणही वा
मशक की तरह थलर थलर करता है । यह थोडे कारण से वेदनायुक्त और रूक्ष होती
वेदनायुक्त और मृदु होता है । और इसीसे है और वायु से भरी हुई मश्क की तरह
मूत्रकृच्छ भी होजाता है । फलकोषके नीचे फूली हुई होती है। पित्तजवृद्धि।
के भागमें कंकण के सदृश आकार विशेष पक्कोदंवरसंकाशः पित्ताहाहोष्मपाकवान् ।
उत्पन्न होजाता है। . अर्थ-पित्तजवृद्धि पके हुए गूलर के
अंत्रजद्धि। फल के समान दाह और गरमी से युक्त हो
वातकोषिभिराहारैः शीततोयावगाहनैः ।
धारणेरणभाराध्वविषमांगप्रवर्तनः।। २८॥ तीहै, यह पकजाती है।
क्षोभणः क्षुभितोऽन्यैश्च क्षुद्रांत्रावयवं यदा कफजवृद्धि। | पवनो विगुणीकृत्य स्वनिवेशाधो नयेत् । कफान्छीतो गुरु निग्धः कण्डूमानकठिनो । कुर्याद्वक्षणसांधस्थो ग्रंथ्या श्वयधु तदा ।
ऽल्परुक।। उपेक्ष्यमाणस्य च मुष्कवृद्धि
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(४०८)
अष्टांगहृदय ।
अ० ११
माध्मामरुस्तभवतीं स वायुः । । और त्रिदोषज, तथा आठवां आर्तव दोषज प्रपीडितोऽतः स्वनवान् प्रयाति।। प्रध्यापयति पुनश्च मुक्तः।३०।।
यह आठवां गुल्म स्त्रियों के अनुसंबंधी अंत्रवृद्धिरसाध्योऽयं वातवृद्धिसमाकृतिः। | शोणित के दूषित होजाने से उत्पन्न __अर्थ-यातको प्रकुपित करनेवाले आ- | होता है । हार तथा अन्य पूर्वोक्त क्षोभनकर्ता कारणों
गुल्मनिदान । से अथवा ठंडे जलमें अवगाहन से, मलमूत्रके ज्वरच्छद्यतिसाराद्यैर्वमनाद्यैश्च कर्मभिः । उपस्थित वेगको रोकने और अनुपस्थित वेः
कर्शितो बातलान्यात शीतं वांबु वुभुक्षितः। गको उदीर्ण करनेसे, भारी बोझ ढोनेसे,
यःपिबत्यनु चान्नानि लंघन प्लवनादिकम् ।
सेवते देहसंक्षोभ छर्दि वासमुदीरयेत् ॥ विषमभावमें देह की प्रवृत्ति से वायु कुपित
अनुदीमुदीर्णान्वा वातादीन विमुंचति । होताहै और जव वायु कुपित होकर छोटी छोटी स्नेहस्वेदावनभ्यस्य शोधनं वा निषेवते ॥ अंत्रों के कुछ अंशों को दूषित करके नीचेको | शुद्धोवाशु बिदाहीनि भजते स्यंदनानि वा । लेजाता है तब ग्रंथि के सदृश वंक्षण की
वातोल्वणास्तस्यमलाः पुथकक्रुद्धा संधियों में सूनन पैदा कर देता है ।
द्विशोऽथवा ॥
सर्वे वा रक्तयुक्ता वामहास्रोतोऽनुशायिनः। इसोको अंत्रवृद्धि कहते हैं । इसकी चिकि
| ऊ धोमार्गमावृत्य कुर्वतेशूलपूर्वकम् ॥ स्सा करने में उपेक्षा करने से कोष वढकर स्पोपलभ्यं गुल्माख्यमुत्प्लुतं ग्रंथिरूपिणम् । फूल जाता है, वेदनायुक्त और स्तमित ___अर्थ-जो मनुष्य ज्वर, वमन, अतिसार होजाता है इसको दावने से वायु शब्द करता
और ग्रहण्यादिक रोगों से पीडित और वमहुआ इधर उधर दौडता है और हाथ हटा लेने | न विरेचन आस्थापनादि कमों द्वारा कर्षित पर फिर आकर सूजन उत्पन्न कर देता है। हो और वातकारक अन्न का भोजन करे अंत्रवृद्धि के लक्षण वातजवृद्धि के समान जो मनुष्य क्षुधा से पीडित हो वह भोजनसे होते हैं । यह व्याधि असाध्य होती है ।
पहिले जलपान करे अथवा देहको क्षोभकारक गुल्म के लक्षण और भेद ।
उपवास करै वा जल में तैरे, जो मनुष्य सक्षकृष्णारुणसिरातंतुजालगवाक्षितः।३१।।
वमन का वेग न होने परभी गले में उंगली गुल्मोऽष्टधा पृथग्दोषैः संसृष्टैर्निचयं गतः।। M
डाल कर वा अन्न चेष्टा द्वारा धमन करे आर्तवस्य च दोषेण नारीणां जायतेऽष्टमः। बातमूत्र और मलका वेग उपस्थित होने ___ अर्थ-सब प्रकार के गुल्मरोग रूक्ष परभी वेगको रोके । जो मनुष्य प्रथम स्नेतथा काली वा नीली सिराओं के जाल से हन और स्वेदन कर्म न करके वमनविरेच. व्याप्त जाल के सदृश होते हैं, ये आठ । नादि संशोधन क्रियाओं को करता है प्रकार के होते हैं, यथा-वातज, पित्तज, । अथवा जो वमनविरेचनादि से शुद्ध होकर कफज, वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज | विदाही वा कफकारक आहार का सेवन
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अ०११
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[४०९
करता है, उसके संपूर्ण वातादि दोष अलग | नाभि, हृदय और दोनों पसलियों में उत्प. अलग, वा दो दो मिलकर अथवा सब एक | म होता है । साथ मिलकर अथवा रक्त से युक्त होकर बातगुल्म के उपद्रव । महास्रोत अर्थात् आमपक्वाशय स्थान में बातान्मन्याशिरःशूलं ज्वरप्लीहांत्रकूजनम् । गमन करे अथवा ऊपर नीचे के मार्गों को | व्यधः सूख्येव विट्सङ्गःवरुछाच्छ्वसमम्आच्छादित करके गुल्मरोग को उत्पन्न करता है । गुल्मरोग हाथसे टटोलने पर मालूम
| स्तंभोगात्रे मुखे शोषः कार्य विषमवहिता
रूक्षकृष्णत्वगादित्वं चलत्वादनिलस्य च ॥ होजाता है, यह ऊंचा उठा हुआ और गांठ ! अनिरूपितसंस्थानस्थानवृद्धिशवव्यथः। के सदृश होता है । गुल्म के उत्पन्न होने , पिपीलिकाव्याप्त इघ गुल्मःस्फुरति तुद्यते । से पहिले शूलके समान वेदना होती है । ___अर्थ-वातगुल्म में मन्या और मस्तक प्रायः सब प्रकार के गुल्मों में वात की में शूल, तथा ज्वर, प्लीहा, अंत्रकूजन, सुई अधिकता होती है।
छिदने की सी वेदना मल का अवरोध, बातगुल्म के लक्षण ।
श्वासका काठनता से आनाजाना, शरीर में कर्शनात्कफविपित्तर्मार्गस्यावरणेन वा॥
जकडन, मुखमें शोष, कृशता, विषमाग्नि वायुःकृताशयः कोष्ठःरौक्ष्यात्काठिन्यमागतः
त्वचा और नख नेत्रादि में रूखापन और स्वतंत्रः स्वाश्रये दुष्टः परतंत्रः पराश्रये । कालापन, तथा वायु के चलत्स्वभाव के पिंडितत्वादमूर्तोऽपि भूतत्वमिबसांश्रतः। कारण गुल्म के स्थान, आकृति, वृद्धि, क्षय गुल्म इत्युच्यते बस्तिनाभिहत्पार्श्वसंश्रयः। और वेदना में सदा नियमरहितता, । ये ___ अर्थ-धातु के क्षीण होजाने से, अथवा
सब लक्षण हेते हैं । वात न गुल्म में ऐसा कफ, विष्टा और पित्त द्वारा मार्ग रुकजाने
मालूम हुआ करता है कि चींटियों से व्याप्त के कारण वायु कोष्ठ में स्थित होजाता है
की तरह स्फुरण करता है और सूचीविद्ध और रूक्षता के कारण कठोर होजाता है ।
की तरह वेदना से युक्त होता है । यह अपने स्थान अर्थात् पक्वाशय में स्वतंत्र भाव से दुष्ट हो जाता है और पराश्रय अर्थात्
पित्तगुल्म के लक्षण । आमाशप में पित्त कफके आधीन होकर | पित्तादाहोऽम्लको
मूीविड्भेदस्वेदतृड्ज्वराः । परतंत्र भावमें दुष्ट होजाता है । वायु मू- हारिद्रत्वं त्वगाये बु गुलमज स्पर्शनासहः॥ तिमान् न होकर भी पिंडितत्व अर्थात् गो- दृयते दीप्यते सोष्मा स्वस्थानं दहतीव च। लाकृत गांठ के सदृश होजाने के कारण अर्थ-पितज गुल्म में दाह, खडीउकार मूर्तिमान मालूम होने लगता है । इसको | मूर्छा, पुरीषभेद, स्वेद, सृषा, अर, और ग्रंथकार वातगुल्म कहते हैं लौकिक में यह / त्वचा, मुख, नेत्र, नखों में हलदीकासा पीत वायगोला के नाम से प्रसिद्ध है । यह वस्ति । वर्ण ये सब लक्षण होते हैं । इसमें ऐसी तीत्र
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(४१०)
अष्टांगहृदय ।
अ.११
वेदना होती है, कि हाथ नहीं लगाया जा | सोऽसाध्योसकता है । गरमाई से गुल्मका स्थान, अर्थ-त्रिदोषज गुल्म में तीव्र वेदना उपतप्त, जलता हुआ, लोहे के गोले के | और दाह होता है, यह बहुत जल्दी पकसमान गरम मालूम होता है ।
जाता है, तथा कठोर और ऊंचा होता है, - कफज गुल्म के लक्षण ।
यह असाध्य होता है। कफास्तमित्यमरुचःसदनं शिशिरज्वरः॥
रकज गुल्म की उत्पत्ति । पीनसालस्यहल्लासकासशुक्लत्वगादिताः।
. रक्तगुल्मस्तु स्त्रिया एव प्रजायते ४८ गुल्मोऽवगाढः कठिनो गुरुः सुप्तः
ऋतौवा नवसूतावा यदि वा योनिरोगिणी स्थिरोऽल्परुक् ॥ ४६॥ सेवते वातलानिस्त्री ऋद्धस्तस्याः समरिणः अर्थ-कफज गुल्म में स्तिमिता, अरुचि निरुणद्धयार्त योन्या प्रतिमासमवस्थितम्।
कुक्षि करोति तदूर्भलिंगमाविष्करोति च ॥ अंगमें शिथिलता, शीतज्वर, पीनस, आल
हृल्लासदौहृदस्तन्यदर्शनम् क्षामतादिकम्। स्य, हल्लास, खांसी और त्वचादि स्थानों
अर्थ-रकज गुल्म केवल स्त्रियों केही में सफेदा होती है । कफज गुल्म अवगाढ,
होता है । रजस्वला, अथवा नवप्रसूता स्त्री कठोर, भारी, सुप्त, स्थिर और अल्प वेदना
अथवा योनिरोग वाली स्त्री यदि वातकारक से युक्त होता है ।
अन्नपान का अधिक सेवन करती है तो गुल्म को रुक्करत्व ।
वायु कुपित होकर जो रक्त प्रतिमास में स्वदोषस्थानघामानःस्वे स्वे काले च रुक्कराः
योनि के मुख में अवस्थित होता है उसे प्राय:अर्थ-वातादि जिस जिस दोषका पक्वा
रोक देती है। वह रुका हुआ शोणित शयादि जो जो स्थान है वही वही स्थान
कुक्षि में जाकर गर्भ के चिन्हों को प्रकाउन उन दोषों से उत्पन्न हुए गुल्मों का
शित करता है तथा हल्लास,दौहृद, दुग्धहोता है। और वातादि जिस जिस आत्मीय |
दर्शन, क्षामता और मूर्छादिक भी उत्पन्न काल में कुपित होते हैं उसी उसी वय,
होजाते हैं।
रक्तगुल्मके उपद्रव । अहोरात्रि, मुक्त आदि लक्षणवाले उन उन
क्रमेण वायुसंसर्गात्पित्तयोनितया च तत्५१ दोषों से उत्पन्न हुए गुल्म वेदना करतेहैं । शोणितं कुरुते तस्या वातपित्तोत्थगुल्मजान् द्वंद्वज गुल्म ।
रुस्तंभदाहातीसारतृड्ज्वरादीनुपद्रवान् ॥ यस्तु द्वंद्वोत्था गुल्माः संसृष्टलक्षणाः ४७. गर्भाशये च सुतरां शूलम् दुष्टासृगाश्रये । अर्थ-द्वंद्वज गुल्म तीन प्रकारके होते
| योन्याश्च स्रावदौगंध्यतोदस्यंदनवेदनाः ।। हैं, इनके लक्षण दो दो दोषों के मिलेहुए
___अर्थ-तदनंतर वायु के संसर्ग और होते हैं।
पित्तके कारण से रक्त वातपित्तज गुल्म के त्रिदोषज गुल्म।
विकार अर्थात् वेदना, स्तंभ, दाह, अतीसार सर्वस्तीब्ररुग्दाहः शीघ्रपाकी घनोन्नतः। । तृषा, ज्वर आदि उपद्रब उत्पन्न होजाते
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अ.११
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(५१)
-
है । वह रक्त ग गुल्म दुष्ट रक्त का आधार । श्रय है जैसे बातगुल्मका वातही आश्रय है। लेकर गभाशय में अत्यन्त शूल उत्पन्न | पित्त नहीं हो सकता । इसी तरह अन्य दोकरता है और योनि में स्राव, दुर्गधि, तोद | षों को भी समझना चाहिये । स्वदोषसश्रित संदन और वेदना होती है।
होने के कारण गुल्म देरमें पकता है अथवा ___रक्तगुल्ममें विलक्षणता। नहीं पकता है परन्तु विद्रधि दूषित रक्तके नांगैर्गर्भवद्गुल्मः स्फुरत्यपि तु शूलवान् । | आश्रित होनेसे शीघ्र पक जाती है । इसी पिंडीभूतः स एवास्याः कदाचित्स्पंदते
चिरात् ॥५४॥
लिये शीघ्र विदाही होने के कारण इसे विद्रन चास्या वर्धते कुक्षिगुल्म एव तु वर्धते । धि कहते हैं । कहा भी है" मांसशोणितभू
अर्थ-जिस तरह गर्भ हाथ पांव आदि यस्त्वात् पाकंगच्छति विद्रधिः । मांसशोणित अंगावयवद्व रा उदरके भीतर निरंतर उछल- हीनत्वचात् गुल्मः पाकं न गच्छति । अंतराता रहता है परन्तु शूल उत्पन्न नहीं करता श्रित गुल्ममें वस्ति, कुक्षि, हृदय और प्लीहा है । परन्तु गुल्मके अंगावयव नहीं होते इस के स्थानमें वेदना होती है । जठराग्नि, वर्ण लिये वह उछलता नहीं है, परन्तु वेदना क- और वलका नाश हो जाता है और मलमूत्रारता है और वही गुल्म गोलासा बनकर क.
दि के वेग रुक जाते है अर्थात् दस्त और दाचित् कालांतर पीछे उछलता है गर्भकी त.
पेशाव बन्द हो नाता है । परन्तु वहिराश्रित रह जल्दी जल्दी नहीं उछलता है। जब भी. गुल्ममें उक्त लक्षणोंसे विपरीत लक्षण होते हैं तर गर्भ होता है तब कुक्षि बढती है परन्तु
अर्थात् वस्ति, कुक्षि, हृदय और प्लीहादि गुरुम के भीतर रहनेपर कुक्षि नहीं वढती
कोष्टके अंगोंमें अधिक वेदना न होना, जगुल्म ही बढता है।
ठराग्नि, वर्ण और वलका नाशाभाव, वेगका गुल्म और विद्रधिका भेद ।
प्रवर्तन, तथा गुल्मस्थानमें विवर्णता, और स्वदोषसंश्रयो गुल्मः सर्वो भवति तेन सः बाहरके भागमें अत्यंत ऊंचापन ये सब ल. पाकं चिरेण भजते नैव वा विद्रधिः पुनः। । क्षण उपस्थित होते हैं। पच्यते शीव्रमत्यर्थ दुष्टरक्ताश्रयत्वतः ५६॥ |
आनाहलक्षण । अतःशीघ्रविदाहित्वाद्विद्रधिःसोऽभिधीयते४ साटोपमत्युग्ररुजमाध्मानमुदरे भृशम् ॥ गुलमेंऽतराश्रये बस्तिकुक्षिहत्पलीहवेदनाः ॥ ऊर्वाधो वातरोधेन तमामाहं प्रचक्षते । अग्निवर्णबलदंशो वेगानां चाप्रवर्तनम् । अर्थ-ऊपर नीचे वातके अवरोधसे उअतो विपर्ययो बाह्ये कोष्ठांगेषु तुनातिरुक् ॥ दरमें गुड गुडशब्द, अत्यंत तीव्र वेदना, वैवर्ण्यमवकाशस्य बहिरुन्नतताधिकम्।।
और आध्मान । ये लक्षण आनाह रोग में अर्थ-सब प्रकारके गुल्म अपने अपने
होते हैं । दोषोंके आश्रित होते हैं, अर्थात जो गुल्म अण्ठीला और प्रत्यष्ठीला। जिस दोषसे हुआ है वही दोष उसका आ-घनोऽष्ठलिोपमो अंथिरष्टीलोज़ समुन्नतः ।।
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४१२)
अष्टांगहृदय ।
अ० १२
आनाहलिंगस्तियक्तु प्रत्यष्ठीलातदाकृतिः ।
द्वादशोऽध्यायः ! अर्थ-जो ग्रंथि ऊपरको उठी हुई होतीहै तथा कठोर अष्ठीला के सदृश और आनाह के लक्षणों से युक्त होती है, उसे अष्ठीला
अथाऽतो उदरनिदानम् व्याख्यास्यामः। कहते हैं जो ग्रंथि तिरछी हो और ऊपरको
अर्थ-अब हम यहांसे उदरनिदान नामउठी हुई हो उसे प्रत्यष्ठीला कहते हैं। । क अध्यायकी व्याख्या करेंगे । तूनी प्रतूनीके लक्षण ।
. उदर की उत्पत्ति। पक्वाशयाद्गुदोपस्थं वायुस्तीवरुजःप्रयान्
"रोगाःसर्वेऽपि मन्देऽग्नौ सुतरामुदराणि तु
| अजीर्णान्मालनैश्वान्नैर्जायते मलसंचयात् ॥ तूनीप्रतूनीतु भवेत्स एवातो विपर्यये ६१ ॥
अर्थ-सव प्रकारके रोग मंदाग्निसे ही उअर्थ-तूनी रोगमें वायु अत्यन्त तीब्र
त्पन्न होतहैं, परन्तु उदररोग विशेष करके मं- . येदना करता हुआ पक्वाशय से गुदा और
दाग्नि से होते हैं । चार प्रकार के अजीर्ण उपस्थेन्द्रियकी ओर जाता हैं । प्रतूनीरोग
[आम, विष्टब्ध, विदग्ध और रसशेष), सडा में इससे विपरीत होता है, अर्थात् तीव्र
हुआ बासी और संकीर्णादि लक्षणोंसे युक्त वेदना से युक्त वायु गुदा और उपस्थेन्दिय
मलिन अन्न और बहुत दिनके मलके संचय की ओर से पक्वाशयकी ओर जाता है ।
से उदररोग उत्पन्न होते है । गुल्मके पूर्वरूप ।
उदररोग की समाप्ति । उदारबाहुल्यपुरीषबन्ध
ऊर्ध्वाधोधातवो रुवावाहिनीरंबुवाहिनीः तृप्त्यक्षमत्वांत्रविकूजनानि ।
प्राणाग्न्यपानान् संदूष्यकुंयुस्त्वङ्मांस आटोपमाध्मानमपक्तिशक्ति
- संधिगाः ॥२॥ मासन्नगुल्मस्य वदति चिन्हम् ,, ६२॥ आध्माप्य कुक्षिमुदरम्अर्थ-डकारों की आधिकता, पुरीषका
अर्थ-अग्नि की मंदता के कारण विबंध, अन्नमें अनिच्छा, अंत्रकूजन, आटोप
प्रकुपित हुए वातादि दोष त्वचा और मांस आध्मान, अग्निमांद्य ये सब उत्पन्न होनेवाले
की बीचवाली संधियों में स्थित जलवाही गल्मके पूर्वरूप होते हैं ।
स्रोतों को रोककर और प्राणवायु, अग्नि इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा- और अपान वायुको दूषित करके तथा टीकायां निदानस्थाने विद्रधि- | कुक्षि में अफरा उत्पन्न करके उदररोगों को गुल्म निदानं नामैकादशो
उत्पन्न करते हैं।
उदररोग के आठ भेद । ऽध्यायः ।
: अष्टधा तश्च भिद्यते। पृथग्दोषैः समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकैः ।
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अ०१२
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
[४१३]
अर्थ-उदररोग आठ प्रकार के होते | पुषिकी वृद्धि अथवा न निकलना, पांवों हैं, यथा-वातज, पित्तज, कफज, त्रिदो- पर कुछ सूजन, वस्तिकी संधियों में शूल षज, प्लीहज (प्लीहोदर ) बद्वज(वद्धोदर) होना, हलका और थोडा खाने परभी अक्षतज ( क्षतोदर ) और जलज (जलोदर) | फरा, उदर की सिराओं का दिखाई न
उदररोगपीडित के लक्षण। | देना, तथा मांसकी वलि अर्थात् सलवटों तेनार्ताः शुष्कताल्बोष्ठाः शूनपादकरोदराः॥ का लोप होना ये सब उदररोग के पूर्वरूप नष्टचेटायलाहाराःकृशाः प्रध्मातकुक्षयः४॥ स्युः प्रेतरूपाः पुरुषाःअर्थ-उदररोग से पीडित मनुष्य के
___ सब प्रकार के जठर रोगोंमें तंद्रा,शरीर
| में शिथिलता, मलबद्धता, अग्निमांद्य, दाह, तालु और ओष्ठ सूख जाते हैं, हाथ पांव और उदर पर सूजन आजाती है, शरीरक
सूजन और अफरा होता है, अंतमें जल की चेष्टा, बल, और आहार कम हो जाते हैं,
उत्पत्ति होती है। उनके देह कृश और कुक्षि में अफरा होता
अतोय उदरके लक्षण ।
सर्व त्वतोयमरुणमशोकम् नातिभारिकम् ॥ है । ऐसा रोगी प्रेतरूप दिखाई देने ल
गवाक्षितम् सिराजालैः सदा गुडगुडायते। गता है।
नाभिमंत्रम् च विष्टभ्य वेगं कृत्वा प्रगश्यति उदररोग का पूर्वरूप । मारुतो हत्कटीनाभिपायुवंक्षणवेदनः । भाविनस्तस्य लक्षणम् ।
सशब्दो निश्वरद्धायुर्षिड्बन्धोशुनाशोऽनं चिरात्सर्व सविदाहं च पच्यते |
मूत्रमल्पकम् ॥ ११ ॥ जीर्णाजीर्ण न जानाति सौहित्यं सहतेन च।
नातिमन्दोऽनलो लौल्यं न च स्याद्विरसम्
मुखम्। क्षीयते बलतःशश्वच्छ्वासत्यल्पेऽपिचेष्टिते वृद्धिर्विशोऽप्रवृत्तिश्च किंचिच्छोफश्च- ।
___ अर्थ-जलोदर को छोड़कर सब प्रकार
पादयोः। के उदर रोगों में उदरका वर्ण लाल,सूजनरुग्वस्तिसंधौ सतता लवल्याभोजनैरपि ॥ रहित और गरुतारहित होता है । नसों के राजीजन्म वलीनाशो नठरे
जाल के समूह से झरोखेकी तरह हो जाता
जठरेषु तु । सर्वेषुतंद्रा सदनं मलसंगोऽल्पवह्निता ८॥
है और सदा गुड गुड करता रहता है । दाहः श्वपथुरामानमन्ते सलिलसंभवः। तथा वायु नाभि और अंत्रमें बिष्टव्धता
अर्थ-उदररोग होने से पहिले क्षुधाका | उत्पन्न करके हृदय, कटि, नामि, गुदा और नाश, भुक्त अन्नका दाह के साथ देर में | वंक्षण में वेदना करता हुआ अपने रूप पचना, जीर्ण और अजीर्ण में कुछ अंतर को दिखाकर नष्ट होजाता है,तथा शब्दकरता न मालूम होना, पेटभर कर भोजन का | हुआ बाहर निकलता है, इससे मलबद्धता, न सहना, दिन प्रतिदिन बल की णिता, और मुत्रकी अल्पता होजाती है । जठराग्नि थोड़े चलने फिरने में भी शासकी वृद्धि, । अत्यन्त मंद नहीं होती है, भोजन में इच्छा
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[४१४)
अष्टांगहृदय ।
अ० १२
नहीं रहती और मुखमें विरसता उत्पन्न हो । त्वचा और नेत्रादिक में पीलापन छा जाता जाती है।
है, पेटपर हरारंग और पीली तथा तांबे के वातोदर के लक्षण । रंगकी सी रगें निकल आतीहै, पसीना, तत्र वातोदरेशोफापाणिपान्मुष्ककुक्षिषु ॥ कुक्षिपाश्वोदरकटीपृष्ठरुक् पर्वभेदनम् ।।
उष्मा और दाह होता है । और ऐसा शुष्ककासांगमर्दोऽधोगुरुता मलसंग्रहः १३
मालूम होता है कि चूंआं सा निकलता है, श्यावारुगत्वगादित्वमस्माद्धिहासवत् । । छूने में बडा कोमल होता है पित्तोदर शीघ्र सतोदभेदमुदरं तनु कृष्णसिराततम् । १४ । पककर जलोदर में बदल जाता है, तथा आध्मातरतिवच्छन्दमाहतं प्रकरोति च। । इसमें सदा वेदना होती रहती है । घायुश्चात्र सरुकूशब्दो विचरेत्सर्वतोगतिः।
कफोदर के लक्षण । __ अर्थ-इनमें से वातोदर में हाथ, पांव,
श्लमोदरेंगसदनं स्वापश्वयथुगौरवम् । अंडकोष और कुक्षि में सूजन होती है । निद्रोक्लेशाऽरुचिःश्वासःकासःशुक्लत्वगादिता कुक्षि, पार्श्व, उदर, कटि, पृष्ठ में वेदना | उदर स्तिमितं श्लक्ष्णं शुक्लराजीततं महत्। होती है, अस्थियों के जोडों में हडफूटन
चिराभिवृद्धि कठिनं शीतस्पर्श गुरु स्थिरम् । होती है । सूखी खांसी, अंगमर्द देह के
अर्थ-कफोदर में अंगमें शिथिलता, नीचे के भागमें भारापन, मलवद्धता, त्वचा
सुन्नता अर्थात् स्पर्श का ज्ञान न होना, नेत्र, नख और मुखमें कालापन वा ललाई,
सूजन, भारापन, निद्रा, उत्क्लेश, अरुचि, विना कारणही उदरकी सूजन का कभी
श्वास, खांसी, और त्वचा आदि में सफेदी बढना और कभी घटना, उदर में सुई
| छा जाती है । तथा रोगी का उदर स्तिमित छिदने की सी वेदना, वा टूटने की सी चिकना, कठोर, छूने में ठंडा, भारी, अचल
देरमें बढने वाला और सफेद रंगकी सिरापीडा, पतली और काली सिराओंका व्याप्त होना, ये लक्षण होते हैं, पेट ऐसा फल | ओं से व्याप्त होजाता है। . जाता है कि उस पर हाथ मारने से ऐसा
त्रिदोषज उदररोग । शब्द होता है। जैसा हवासे भरीहुई मश्क | त्रिदोषकोपनैस्तैस्तैः स्त्रीदत्तैश्च रजोमलैः । पर हाथ मारने से होता है वातोदर में | गरदू'विषाद्यैश्च सरक्ताः सविता मलाः । शब्द और वेदना के साथ वायु सब जगह
कोष्ठं प्राप्य विकुर्वाणाःशोषमूछीभ्रमान्वितम् किरताहै।
कुर्युत्रिलिंगमुदरं शीघ्रपाकं सुदारुणम् । २१॥ पित्तोदर का लक्षण ।
वाधते तश्च सुतरां शीतवाताभ्रदर्शने। पित्तोरे ज्वरो मूर्छा दाहस्तटू कटुकास्यता ____ अर्थ-बातादि तीनों दोषों के प्रकुपित भ्रमोऽतिसारः पीतत्वं त्वगादावुदरं हरित्। करनेवाले हेतुओं से, तथा स्त्री के दिये पीतताम्रसिरानद्धं सस्वदं सोम दह्यते।।
हुए रज वा मल से, संयोगज बिष से. धूमायति मृदुस्पर्श क्षिप्रपाकं प्रदूयते ।१७।। . अर्थ-पित्तोदर में ज्वर, मूछो, दाह, | दूषीविषसे रक्त और वातादि तीनों दोष तृषा, मुखमें कडवापन, भ्रम, अतिसार, । कुपित होकर कोष्ठका आश्रय लेकर और
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अ०१२
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४१५)
विकृतभाव को प्राप्त होकर शोष, मूर्छा जठररोंग को उत्पन्न करदेती है । इसमें
और भ्रमको उत्पन्न करते हैं, इस भयंकर | श्वास, खांसी, तृषा, मुखमें विरसता, आरोगमें तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं | ध्मान, वेदना, ज्वर, पांडुरंग, वमन, मूर्छा यह शीघ्र पकजाता है । यह रोग ठंडी अर्ति, दाह और मोह उत्पन्न होते हैं । प्लीहोहवा चलने पर वा वर्षा के दिन अधिक
दर लाल रंग का वा विवर्ण होताहै और पेट कष्ट देता है ।
पर नीली वा हल्दीके रंगकी रेखायें होतीहै । प्लीहोदर का लक्षण ।।
प्लीहोदर में वातादि ।। अत्याशितस्य सक्षोभाद्यानयानादिचेष्टितैः। | उदावर्तरुगानाहैमोहतृइवहनज्वरैः। अतिव्यवायकर्माध्ववमनव्याधिकशनैः। | गौरवारुचिकाठिन्यविद्यात्तत्र मलान् मात् वामपाश्वाश्रितःप्लीहा च्युतः स्थानाद्विवधते। अर्थ-प्लीहोदर में उदावर्त और आनाह हो शोणित वारसादिभ्यो विवृद्धं तं विवर्धयेत्। सोऽष्ठीलेवातिकठिनः प्राक्ततःकूर्मपृष्ठबत्। ता वातिका माह, पिपासा, दाह आर ज्वर क्रमेण वर्धमानश्च कुक्षावुदरमावहेत् । हो तो पैत्तिक । तथा भारापन, अरुचि और श्वासकासपिपासास्यबैरस्या ध्मानरुग्ज्वरैः कठोरता हो तो कफज समझना चाहिये । पांडुत्वछर्दिमूर्छार्तिदाहमोहेश्च संयतम्।
यकृत के लक्षण । अरुणाभं विवर्ण वा नीलहारिद्रराजिमत् ।
क्लीहवहक्षिणात्पाात् कुर्याद्यकृदपि च्युतम् __ अर्थ-तृप्तिपर्यन्त पेट भरकर खाने के
अर्थ-जैसे हिली कही हुई रीतिक अपीछे यानगमनादि चेष्टा द्वारा शरीर का
| नुसार प्लीहा वाम पार्वमे च्युत होकर और संक्षोभ, अति मैथुन, मार्गगमन, और वम.
बढकर प्लीहोदर उत्पन्न करे वैसेही यकृतभी नादि द्वारा शरीर का कृश होजाना, इन
दक्षिण पार्श्वस च्युतहोकर और बढकर यकृत सब कारणोंसे बाई पसलीमें स्थित हुई प्लीहा
उदर को उत्पन्न करती है । अपने स्थानसे हटकर विशेष रूपसे बढ़ने
वडोदर के लक्षण । लगतीहै, अथवा रसादि धातुओं द्वारा बृद्धि
पक्ष्मवालैः सहान्नेन भुक्तैर्बद्धायने गुदे ।२८ ॥ को प्राप्त हुआ रक्त अपने स्थान से च्युत
दुर्नामभिरुदावर्तेरन्यैर्वात्रोपलेपिभिः। . वा अच्युत प्लीहा को विशेष रूपसे बढाताहै बर्च:पित्तकफान् रुद्धा करोति कुपितोऽनिल: यह बढी हुई प्लीहा अष्टीला के सदृश कठोर
अपानो जठरं तेन स्युर्दाहज्वरतृक्षवाः।
| कासश्वासोरुसदनं शिरोहन्नाभिपायुरुकू । और कछुए की पीठ की तरह आकृतिमें हो
मलसंगोऽरुचिश्छर्दिरुदरं मूढमारुतम् । जातीहै । तथा ऋम क्रमसे बढकर कुक्षि में स्थिरं नीलारुणसिराराजिनद्धमराजि वा ।
x व्यभिचारिणी स्त्रियां अपने पति | नाभेरुपरि च प्रायो गोपुच्छाकृति जायते। वा अन्य किसी अपने प्रेमी जार पुरुष को अर्थ-पलक वा केश पड़े हुए अन्नको स्वाधीन करने के लिये खाने पीनेकी वस्तु
खानेसे अथवा बवासीर के कारण, वा उदाओं में रजसंवधी रुधिर, नख, रोम, मल मूत्र आदि मिलाकर दे देती हैं इसको स्त्री |
वर्तके कारण अथवा अंत्रको उपलिप्त करने दत्त विष कहते हैं।
वाले दही, चांवल, उरद, अलसी आदि के
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(४१६]
अष्टांगहृदय ।
अ० १२
खानेसे गुदा का द्वार रुद्ध होजाताहै, तब रकर अत्यन्त भयंकर जठररोग को उत्पन्न अपानवायु कुपित होकर पुरीष, पित्त और कर देता है । यह नाभिके नीचे के भागमें. कफको रोककर उदर रोगों को उत्पन्न कर- वृद्धि पाकर शीघ्रही जलोदर हो जाता है । तीहै, इसीका नाम वद्धगुदोदरहै । इस रोग । इसमें वातादि दोषोंके संपूर्ण लक्षण अधि. में दाइ, तृषा, ज्वर, हिचकी, खांसी, श्वास | कता से दिखाई देने लगते हैं, तथा श्वास, उरुओं में शिथिलता, तथा मस्तक, हृदय, तृषा, और भ्रम, उपस्थित होजाते हैं । इस नाभि और गुदामें बेदना, मलबद्धता, अरुचि का नाम छिद्रोदर है, कोई कोई इसे परिस्रावमन, और अधोवायु का न निकलना ये । वी उदर भी कहते हैं । सव उपद्रव उपस्थित होतेहैं । इस रोग में दकोदर के लक्षण । उदर स्थिर, नील और लाल नसोंकी रेखा.
प्रवृत्तस्रेहपानादेः सहसाऽऽमांबुपायिनः ।।
अत्यंबुपानान्मंदाग्नेः क्षीणस्यातिकृशस्य वा ओंसे व्याप्त, अथवा शिराओंसे रहित होता
रुध्वांऽबुमार्गाननिलः कफश्च जलमूर्छितः है । बदगुदादर में नाभि के ऊपर वाले वर्धयेतां तदेवांबु तत्स्थानादुदराश्रितो । भागमें गौ की पूंछ के आकारके सदृश होता
ततः स्यादुदरम्तृष्णा गुदखुतिरुजायुतम् ॥
| कासश्वासरुचियुतम् नानाबासिराततम् । ज.ताहै अर्थात् ऊपर की ओर पतला होता
| तोयपूर्णदृतिस्पर्शशब्दप्रक्षोभवेपथु ।।३९॥ चला जाताहै ।
दकोइरं महरिनग्धंस्थिरमावृत्तनाभि तत् । छिद्रोदरके लक्षण ।
अर्थ-जिस मनुष्य ने सोहपान और अस्थ्यादिशल्यः सानैश्चेद्भक्तैरत्यशनेनवा।। वमनविरेचनादि पंचकर्म का आरंभ कर भिद्यते पच्यते बांत्रं तच्छिद्रश्च स्रवन्वहिः।
दिया है और वह सहसा बिना औटाया हुआ आम एव गुदादेति ततोऽल्पाल्पं स बिडूसः। तुल्यः कुणपगंधेन पिच्छिलः पीतलोहितः।
जल पीले अथवा जो मनुष्य मन्दाग्नि से शवश्वापूर्य जठरं जठरं घोरमावहत् ॥३४॥ पीडित हो, व्याधि से क्षीण होगया हो वर्धते तदधो नाभेराशु चैति जलात्मताम् ।
अथवा लंघनादि से कृश होगया हो वह यदि उद्रिक्तदोषरूपंचव्याप्तं च श्वासतृभ्रमैः॥ छिद्रोदरमिदम् प्राहुः परिस्रावीति चापरे ।
अधिक जलपान करे तो उसके उदर में __ अर्थ-अस्थि, तृण, कांटा, पत्थर, धा. आश्रित वायु और कफ जल में मिलाकर तु, सींग, लकडी, आदि शल्योंका मिला हु जलवाही संपूर्ण स्रोतों को रोक देते हैं आ अन्न खानेते, अथवा प्रमाणसे अधिक और उदर स्थान में जल की वृद्धि करने खानेपर जो अंत्र फटकर छिद्रयुक्त होजाय, लगते हैं इस बढे हुए जलसे रोगकी उ. अथवा पक जाय और उसमेंसे सडा हआ, यत्ति होती है । इस रोंगमें तृषा, गुदाका पिच्छिल, पीला वा लाल रंगका मल मिला | स्राव, वेदना, खांसी, श्वास और अरुचि हुआ अपक रस गुदाद्वारा थोडा थोडा नि. | ये उत्पन्न होते हैं, पेट अनेक रंगकी सिराकलने लगे और यचा हुआ रस उदरको भ ओं से व्याप्त होजाता है । तथा जल से
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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४५७)
भरी हुई मशक की तरह इसको छूने से | कृच्छ्रम् ययोत्तरम् शब्द, प्रशाम और कंपन होता है । यह अर्थ-वातोदर, पित्तोदर, कफोदर, प्लीअन्य उदरों की अपेक्षा बडा, स्निग्ध,स्थिर । होदर, सन्निपातोदर उदकोंदर इनमेंसे उत्तऔर नामि के चारों ओर होता है, इसे । रोत्तर कष्टसाध्य होताहै, जैसे वातोदर से दकोदर कहते हैं ।
पित्तोदर और पित्तोदरसे कफोदर कष्टसाध्य उदररोग में जल की उत्पत्ति ॥ होताहै. ऐसेही और भी जानो । उपेक्षया च सर्वेषु दोषाः स्वस्थानतश्च्युताः | पाकाद्रवाद्रवीकुर्युःसंधिस्रोतोमुखान्यपि, वक्षतोदर का मारकत्व । स्वेदश्च वाह्यस्रोतासु विहतास्तिर्यगास्थितः | पक्षात्परम् प्रायोऽपरे हतः। तदेवोदकमाध्माप्य पिच्छां कुर्यात्तदाभवेत् । । अर्थ-बद्धोदर और क्षतोदर ये दोनों गुरुदरं स्थिरं वृत्तमाहतं च न शब्दयत् ४२ । एक पक्ष के पीछे प्राणोंका नाश कर देतेहैं । मृदु व्यपेतराजीकम् नाभ्यां स्पृष्टं च सर्पति तदनूदक जन्मास्मिन्कुक्षिवृद्धिस्ततोऽधिकम् |
प्रायः ग्रहणसे यह भी समझना चाहिये कि सिरांतर्धानमुदकजठरोक्तम् च लक्षणम् ।
जिनकी आयु नियतहै वे नहीं भी मरतेहैं। अर्थ-तब प्रकारके जठररोग अच्छीतरह सर्वजातसलिलस्यमारकत्वम् । चिकित्सा न किये जानेपर वातपित्तादि दोष । सर्व वजातसलिलम रिष्टोक्तोपद्रवान्वितम् अपने अपने स्थानों को छोडकर और पाक | अर्थ-यह बात पहिले कह चुकेहैं कि को प्राप्त होकर अत्यन्त पतले पडजाते हैं सब प्रकार के जठररोगों में जलकी उत्पत्ति और संपूर्ण संधि तथा सोतोंके मुखों को होतीहै इसाये वातादि दोषसे उत्पन्न जाभी पतला करदेते हैं, और पसीना भी बाहर
तोदक जठर यद्यपि कृच्छ्रसाध्य कहेगये हैं के स्रोतों में रुककर तिर्यक गतिको प्राप्त
तथापि प्राणनाशक होजातेहैं। यहां भी प्रायः होता हुआ उस पूर्वसंचित उदक को कुक्षि
शब्द अनुवर्तनीय है अर्थात् कभी २ जातोमें बढाकर पिच्छिलता करताहै । इससे उदर
| दक जठर भी असाध्य न होकर याप्य हो भारी, स्थिर, गोलाकार, हाथसे पीटने पर
जातेहैं । तथा रिष्टोक्त उपद्रवोंसे युक्त जठर शब्दहीन और कोमल होजाताहै । इसमें नसें
| रोग भी मार डालताहै । दिखाई नहीं देतीहै । नाभि में हाथ लगाने से फैल जाताहै । तदनंतर जलका संचय
___ जन्मसे उदररोग को कृच्छ्रता । होताहै इससे उदर बहुत बढ जाताहै । संपूर्ण ।
जन्मनैवादरम् सर्व प्रायः कृच्छ्रतमं मतम् ।
वलिनस्तदजातांबुयत्न साध्यं नवोत्थितम् ॥ सिरा छिपजातीहैं और जलोदर के सब
___ अर्थ-प्रायःउदर रोग जन्मसे ही कृच्छ्रलक्षण उपस्थित होजाते हैं। उदररोग का कृच्छू साध्यासाध्यत्वता
| साध्यतम होतेहैं, किन्तु यदि रोगी बलवान् वातपित्तकरुप्लीहसंनिपातोदकोदरम् ४४ हो, और उदर रोगमें जलका संचय न हुआ
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अष्टांगहृदय ।
अ. १३
हो और रोग भी नया हो तो उसे यत्नसा- | और मांसको दूषित करके त्वचा में पांडु, ध्य समझना चाहिये ।
हलदी के रंग का वा हरा अनेक प्रकारका इतिश्रीअष्टांगहृदयसंहितायांभाषाटीकायां वर्ण उत्पन्न करता है । इन सब वर्गों में निदानस्थाने उदरनिदानं नाम पाडु वर्ण अधिक होता है, इसी से इसे पांडुद्वादशोऽध्यायः॥
रोग कहते हैं। पांडुरोग के लक्षण ।
. तेन गौरवम् । त्रयोदशोऽध्यायः । धातूनां स्याञ्च शैथिल्यमोजसश्च गुणक्षयः
ततोऽल्परक्तमेदस्को निःसारस्याच्छ्ल
थेंद्रियः। अथाऽतःपांडुरोगशाफविसर्पनिदानम् | मृद्यमानैरिवांगैर्ना द्रवता हृदयेन च ॥५॥
व्याख्यास्यामः- ।। शूनाक्षिकूटःसदनः कोपनःष्ठीवनोऽल्पवाक् अर्थ-अव हम यहांसे पांडुरोग, शोफ | अन्नाद्वि शिशिरद्वेषी शीर्णरोमा हतानलः॥ और विसरोग निदान नामक अध्याय की | सन्नसक्थो ज्वरी श्वासी फर्णक्ष्वेडी
भ्रमी श्रमी। व्याख्या करेंगे।
___ अर्थ-पांडुरोग से रस रुधिरादि धातुओं - पांडुरोग के लक्षण ।
में गुरुता और शिथिलता होती है और "पित्तप्रधानाः कुपिता यथोक्तैः कोपनैर्मलाः तत्रानिलेन बलिना क्षिप्तं पित्तं हृदि स्थितम्
| माधुर्यशैत्यादि ओजो गुणों का क्षय होता धमनीर्दश संप्राप्य व्याप्नुयात्सकलां तनुम् । है । इस कारण से रोगी के रुधिर और श्लेष्मत्वनक्तमांसानि प्रदूप्यांतरमाश्रितम् ॥ मेद कम होजाते हैं और वह निर्वल होजाता त्वङ्मांसयोस्तत्कुरुते त्वचि वर्णान्
पृथग्विधान् ।
| है तथा हाथ पांव वाणी पायु और उपस्थापांडुहारिद्रहरितान् पांडुत्वं तेषु चाधिकम्॥ दि इन्द्रियां शिथिल पडजाती है । अंगों में यतोऽतः पांडुरित्युक्तः स रोगः . मर्दनवत् पीडा होती है, हृदय में द्रवता,
अर्थ-पित्तप्रधान वातादिक संपूर्ण दोष । नेत्रगोलकों में सूजन, अंग में शिथिलता, सर्वरोगनिदानाध्याय में कहे हुए कुपित स्वभाव में क्रुद्धता, थूक का अधिक आना, करनेवाले हेतुओं द्वारा प्रकुपित होकर पांडु | कम बोलना, अन्न में अनिच्छा, शीतका रोग को उत्पन्न करतेहैं।
अच्छा न लगना, रोमों में शीर्णता, अग्नि इन तीनों कुपित दोषों में से बलवान | में मंदता, सक्थियों में निर्बलता, ज्वर, वायुद्वारा उत्क्षिप्त पित्त हृदयस्थ दस धम- श्वास, कर्णश्वेड, भ्रम और श्रम ये उत्पन्न नियों का आश्रय लेकर संपूर्ण शरीर में होते हैं । फैलजाता है । और त्वचा तथा मांस के
पांडुरोग के भेद । मध्य में स्थित होकर कफ, त्वचा, रक्त- स पंचधा पृथग्दोषैः समस्तैर्मृत्तिकादनात्॥
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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४१९)
अर्थ-पांडुरोग पांच प्रकार का होता | दुर्गधि, मुखमें कडवापन, मलभेद, खट्टी है, यथा-वातज, पित्तज, कफज त्रिदोषज डकार और दाह उत्पन्न होते हैं । और मृद्भक्षणज ।
कफज पांडुरोग। पांडुरोग का पूर्वरूप।
कफाच्छुक्लासिरादिता ॥ ११ ॥ प्राग्रूपमस्य हृदयस्पंदनम् रूक्षता त्वाच।। तंद्रा लवणवक्त्रत्वं रोमहर्षः स्वरक्षयः । अरुचिः पीतमूत्रत्वं स्वेदाभावोऽल्पवद्विता | कासछर्दिश्च । सादः श्रमो
___ अर्थ-कफज पांडुरोग में सिरा मुख ___ अर्थ-पांडुरोग के उत्पन्न होनेसे पहिले नेत्रादि सफेद रंग के होजाते हैं, तंद्रा, हृदय का संदन, त्व चाकी रूक्षता, अरुचि, मुख में खारापन, रोमोद्गम, स्वरभंग, खांसी मूत्र में पीलापन, पसीनों का अभाव, अग्नि और वमन, ये सब लक्षण दिखाई देते हैं। की मंदता, देह में शिथिलता और श्रम ये । सांनिपातिज पांडुरोग । सब लक्षण होते हैं।
निचयान्मिश्रलिंगोऽतिदुःसहः । बातज पांडुरोग का लक्षण ।
अर्थ-त्रिदोषज पांडुरोग में तीनों दोषों
के मिले हुए लक्षण दिखाई देते हैं यह बडा अनिलात्तत्र गावरुक्तोदकंपनम् ।
दुःस्सह होता है। कृष्णरुक्षारुणसिरानखविण्मूत्रनेत्रता ९ ॥ शोफानाहास्यवरस्यशोषाः पार्श्वमूर्धरुक् ।।
पांडुरोग के कारणादि। अर्थ-वातज पांडुरोग में शरीरमें वेदना
मृत्कषायानिलं पित्तमूषरामधुराकफम् । सुई छिदने की सी पीडा, कंपन, तथा
दूषयित्वारसादींश्चरौक्ष्याभुक्तं विरुक्ष्यच
स्रोतांस्यपकैवापूर्य कुर्यादुध्वा च पूर्ववत् । सिरा, नख, विष्टा, मूत्र और नेत्र इन में
पांडुरोग ततः शूननाभिपादास्यमेहनः।१४। कालापन, रूखापन और ललाई होती है पुरीषं कृमिमन्मुंद्भिन्नं सासृक्कर्फ नरः। सूजन, आनाह, मुख में विरसता, मल शोष अर्थ-जिस मनुष्य के मिट्टी खानेका अभ्यापाश्चैवेदना और सिर में शूल उत्पन्न । स पड़ जाता है उसके पांडुरोग होता है । होता है।
कसेली मिट्टी वायुको, ऊसरा मिट्टी पित्त . पित्तज पांडुरोग । को, मीठी कफको दूषित करके अपने रूखेपित्तारितपीताभसिरादित्वम् ज्वरस्तमः |
पन से रसादि धातु और भुक्त अन्न को तृट्स्वेदमु शीतेच्छा दौर्गध्य कटुवक्त्रता। भी रूक्षित करके विना पाकको प्राप्त हुए व!भेदोऽम्लको दाहः
ही रसवाही स्रोतों को भरकर उन्हें रोक ___ अर्थ-पित्तज पांडुरोग में सिरा, नख, देती है और पूर्ववत ( पित्तप्रधान कुपिता विष्टा, मूत्र और नेत्र हरे रंग के होजाते हैं | इस रीति से ) पांडुरोग को उत्पन्न कर. तथा ज्वर, आंखों के आगे अंधेरा, तृषा, देती है । तदनंतर नाभि, पांव, मुख और पसीना, मूर्छा, शीतल वस्तु की इच्छा, | मेहनेन्द्रिय में सूजन पैदा होजाती है । और
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[४२० ) अष्टांगहृदय ।
अ० १३ रोगीको कीटों स युक्त रक्त कफ मिला हुआ | वातपित्तामस्तृष्णास्त्रीष्वहर्षो मृदुलरः।
तंद्रावलानलभ्रंशोलोढरं तं हलीमकम्।१९। फटा दस्त होता है।
अलसं चेति शंसंति कामला की उत्पत्ति ।
___ अर्थ-पांडुरोग में जब बातपित्त के प्रयः पांडुरोगी सेवेत पित्तलं यस्य कामलाम्। कोष्ठशाखाश्रयं पित्तंदग्ध्वासृक्मांसमावहत्।
कोप से रोगीका वर्ण हरा, काला वा पीला हारिद्रनेत्रमूत्रत्वक्नखवक्त्रशकृत्तया ॥१६॥ होजाता है, तथा भ्रम, तृषा, स्त्रीसंगममें अदाहाविपाकतृष्णावान् भेकाभो दुर्बलेंद्रियः। रुचि, मृदुज्वर, तंद्रा, बलहीनता, अग्निमांद्य,
अर्थ-जो पांडुरोगी मिरचआदि पित्त् | ये लक्षण उत्पन्न होते हैं, तब इसे हलीमक कारक द्रव्यों का अत्यन्त सेवन करता है, | कहते हैं इस हलीमक को लोढर और अ. उसके कुपित हुआ पित्त रक्त और मांसको
लसक भी कहते हैं। दग्ध करके कोष्टशाखाश्रित कामला रोगको
शोफका वर्णन । उत्पन्न करता है । रोगी के नेत्र, मूत्र,
तेषां पूर्वमुपद्रवाः । त्वचा, नख, मुख और विष्टा हलदी के से |
शोफप्रधानाः कथिताः स एवातो निगद्यते रंगके होजाते हैं । दाह, अविपाक, तृषा,
| अर्थ-पांडुरोग में जितने उपद्रव होते हैं मड़क के सदृश पालारंग, आर इन्द्रया में | उन सव में प्रधान उपद्रव सूजन है इसलिदुर्बलता ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं। ये पांडरोग का निदान कहकर पहिले सूजपांडरोगके बिनाभी कामलाकी उत्पत्ति। न काही वर्णन किया जाता है। भवेत्पित्तोल्वणस्याऽसौ पांडुरोगादृतेऽपि च
सूजनकी उत्पत्ति । - अर्थ-जो मनुष्य पित्तकारक द्रव्यों को
पित्तरक्तकफान्वायुर्दुष्टो दुष्टान् बहिःशिराः। अत्यंत सेवन करता है उसके यद्यपि पांडु
नत्विा रुद्धगतिस्तैर्हि कुर्यात्त्वक्मांससंश्रयम् रोग न हो तो भी कामला रोग की उत्पत्ति उत्सेध संहतं शोफ तमाउर्निचयादतः। होजाती है।
सर्व कुंभकामला।
__ अर्थ-कुपित हुआ वायु, दूषित पित्त रक्त उपेक्षया च शोफाख्या साकृच्छाकुंभकामला और कफको बाहरवाली सिराओं में लेजाता . अर्थ-कामला रोग की चिकित्सा में | है और वेही दृषित पित्त रक्त कफ उसकी उपेक्षा ( लापर्वाही ) करने से सूजन बढ गतिको भी रोक लेते हैं तब वह वायु त्वचा जाती है और सूजनवाले कामला को | और मांसमें आश्रित एक निश्चल ऊंचाई पैकुंभकामला कहते हैं यह कष्टसाध्य हो- दा करदेता है , इसीको सूजन कहते हैं। ता है।
क्योंकि सूजन वातपित्त कफ तीनों दोषोंके . हलीमक के लक्षण । संसर्गसे होती है इसलिये सब प्रकार की सूहरितश्यावपतित्वं पांडुरोगे यदा भवेत् ।। जन त्रिदोषज होती हैं ।
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अ० १३
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
सूजनके नौ भेद । लवणक्षारतीक्ष्णोष्ण शाकांबु स्वप्नजागरम् हेतुविशेषस्तु रूपभेदान्नवात्मकम्।२२।
मृद्माम्यमांसवल्लूरमजीर्णश्रममैथुनम् २६ दोषैः पृथग्यैः सर्वैरभिघाताद्विषादपि।
पदातेर्मार्गगमनम्यानेन क्षोभिणाऽपि वा। अर्थ-हेतुविशेष अर्थात् भिन्न भिन्न का.
श्वासकासातिसारार्थीजठरप्रदरज्वराः२७।
विषूच्यलसकच्छर्दिगर्भवीसर्पपांडुताः। रणों से सूजन नौ प्रकारकी होती है, यथा.
| अन्ये च मिथ्यापकांतास्तैदोषा वक्षसिवातज, पित्तज, कफज, वातापत्तन, वातक
स्थिताः ॥ २८॥ फज, पित्तकफज, त्रिदोषज, अभिघातज ऊर्ध्व शोफमधोबस्ती मध्ये कुर्वति मध्यगा। और विषज ।
सर्वांगगाः सर्वगतम् प्रत्यंगेषु तदाश्रयाः२९ सूजनको द्विविधत्व ।
___ अर्थ ज्वर आदि ब्याधिसे क्षीण, वमनद्विधा वा निजमांगतुं सर्वांगैकांगजं च तम् ।
विरेचन निरूहण अनुवासन और आस्थापपृथूनतग्रथितताविशेषैश्च त्रिधा विदुः।।
नादि पंचकर्म से क्षीण, उपवास द्वारा क्षीण . अर्थ-निज और आगंतु भेदसे शोफ दो |
निज और आगंत भेदसे शोफ दो तथा ऐसेही मार्गपर्यटनादि अन्य कारणों भागोंमें विभक्त होती है, एक निज ( वाता- से क्षीण मनुष्य सहसा गुदि निम्नलिखित दि दोषजनित ), दूसरी आगंतुज ( चोट | द्रव्योंका सेवन करलाहै और सुस्थ पुरुष भी आदि लगनेसे उत्पन्न ), अन्य रीतिसे भी यदि प्रमाणसे अधिक भारी, खट्टे, चिकने शोफके दो विभाग हैं, यथा- सर्वागज और । शीतल, नमकीन, खारी, तीक्ष्ण वा उष्णएकांगज। तथा पृथुता, उन्नतत्व और प्रथितत्व वीर्य द्रव्य, शाक, दूषित जल, दिवानिद्रा, इन तीन भेदों से शोफ तीन प्रकार के होते | रात्रिजागरण, मृत्तिका, चटककुकुटादि, ग्राहैं । अर्थात् कोई सूजन पृथु अर्थात् बहुत
म्य जीवोंका मांस, सूखा मांस, अजीर्ण में जगह में फैल जाते हैं । कोई ऊंचे होजाते
भोजन, अतिरिक्त परिश्रम, मैथुन, पैदल हैं और कोई गांठदार होजाते हैं । चलना, शरीरमें क्षोभ करनेवाले ऊंट घोडे
शोफका सामान्य हेतु । आदि पर चढना, इन कामों को करता है, सामान्यहेतुः शोफानां दोषजानां विशेषतः।। तथा श्वास, खांसी, अतिसार, अर्शरोग,
अर्थ-सब प्रकारकी सूजनों के उत्पन्न | जठररोग, प्रदररोग, ज्वर, विसूचिका, अलहोने का सामान्य हेतु अगले श्लोकमें कहा | सक, वमन, गर्भविसर्प, पांडुरोग, तथा अन्य जायगा । यही दोषज शोफोंके उत्पन्न होने रोग भी जिनकी चिकित्सा शास्त्रोक्त विधि का प्रधान देता है। विशेष शब्दसे यह दिखाया | से नहीं कीगई है, ये सब सूजन की उत्पगया है कि आगंतुशोफोंका हेतु यह नहीं है। त्तिके हेतु है । सूजनके उत्पन्न करनेवाले
- स्थान विशेषमें शोफोत्पति। कारणों से वातादि दोष वक्षःस्थल में स्थित च्याधिकमार्पवासादिक्षागस्य भजतो द्रुतम।। होकर देहके उर्वभाग में सूजन उत्पन्न अतिमात्रमथान्यस्य गुर्वलस्निग्धशीतलम्। करतेहैं । वस्तिमें स्थित होकर नीचे के
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(४२९)
अष्टांगहृदय ।
म. १३
भागमें, मध्यम में स्थित होकर मध्यभाग में | सतृड्दाहज्वरस्वेददवक्लवमदभ्रमः। सर्वोग में स्थित होकर संपूर्ण देहमें और | शतिाभिलाषी विभेदी गन्धी स्पर्शासहोप्रत्यंग में स्थित होकर शरीर के प्रत्येक |
मृदुः ॥ ३४॥
__ अर्थ-पित्तज शोफ में पीले काले रंग अवयव में सूजन उत्पन्न करदेते हैं ।
का आभास होता है, इसमें शरीर के रोम शोफका पूर्वरूप ।
कुछ ताम्रवर्ण के हो जाते हैं, यह शीघ्रही तत्पूर्वरूपम् दवथुः सिरायामोऽगगौरवम् ।। - अर्थ-जिस मनुष्य के सूजन होनेवाली
बढता है और शीघ्रही शांत होजाता है, होतीहै उसके दवथु (नेत्रादिमें तीन ऊष्मा )
यह प्रथम शरीर के मध्य भाग में होताहै, सिराओंका फैलना, और देहमें भारीपन
तथा पतलापन लिये होता है । तृषा, दाह, ये पूर्वरूप होतेहैं।
| ज्वर, स्वेद, ताप, केद, मद, भूम, शीतल यातजशोफ।
वस्तु की इच्छा, मलका भेद, दुर्गधि, स्पर्श वाताच्छोक चलो रूक्षःखररोमारुणासितः| का न सहना, और कोमलता ये सब लक्षण संकोचस्पन्दहर्षार्तितोदभेदप्रसुप्तिमान् ।। उपस्थित होते हैं। क्षिप्रोत्थानशमः शीघ्रमुन्नमत्पीडितस्तनुः॥
कफज शोफ । खिग्धोष्णमर्दनैः शाम्येद्रात्रावल्पो दिवा- । कण्ड्मान् पांडुरोमत्वक्कठिनः शीतलो गुरुः
- महान् । स्निग्धः श्लक्ष्णः स्थिरः स्त्यानोत्वकच सर्षपलिसेव तस्मिचिमिचिमायते
निद्राच्छाग्निसादकृत् ॥ ३५ ॥ अर्थ-वातज शोफ में चंचल रूक्ष, | आक्रांतो नोन्नमेत्कृच्छ्रशमजन्मा निशावलः खररोम ( रोमोंमें खरखरापन ] लाल काला स्रवेन्नास्कृचिरापिच्छाशोफ उत्पन्न होताहै, इसमें संकोच, स्पंदन
फुशशस्त्रांदिविक्षितः ॥ ३६॥
स्पर्शीष्णकांक्षी च कमात्( फडकना ), हर्ष ( रोमांच खडे होना ), '
___अर्थ-कफज शोफ में खुजली, रोग और बेदना, सुई छिदने कीसी पाडा,भेद, सुन्नता
त्वचा में पांडुता, कठोरता, शीतलता, भाराहोतीहै । यह शीघ्रही उत्पन्न होतीहै और
पन, स्निग्धता, श्लक्ष्णता, स्थिरता, और शीघ्रही शांत होजातीहै दवाने के पीछे हाथ
स्त्यानता होती है । इससे निद्रा, वमन और हटा लैनेपर शीघ्र ऊंचा होजाताहै, पतला
अग्निमांद्य होता है । इस शोफ के बढने होताहै, स्निग्ध और उष्ण मर्दन करनेसे
और घटने में बहुत समय लगता है । यह शांत होजाताहै, रात्रिमें और दिनमें बडा
1 दवाने से नीची होजाती है पर हाथ हटा होनाताहै । त्वचा पर सरसों का सा लेप लेने से फिर ऊंची नहीं उठती है, यह मालूम होताहै तथा चिमचिमाहट होतीहै ।
शोफ रात में बल पकडजाती है। कुशपत्र वा
शोक रात में बल पर पित्तज शोफ।
शस्त्रादि द्वारा घाव करने से इसमें से रक्त नहीं पतिरक्कासिताभासः पित्तादाताम्ररोमकृत्। शीघ्रानुसारप्रशमोमध्ये प्राग्जायते तनुः३३ | निकलता है, परंतु बहुत देर पछि पिच्छल
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अ.१३
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
.(४२३)
-
विपज शाफ ।
स्राव होता है । इसमें गरम पदार्थ के छूने | लोहित वर्ण, और प्रायः पित्तन शोफ के की इच्छा रहती है।
लक्षणों से युक्त होती है। बंद्वज शोफ।
विषज शोफ । ___यथास्वम् द्वंद्वजास्त्र्ययः। विषजः सविषप्राणिपरिसर्पणमूत्रणात् । संकराद्धेतुलिङ्गानाम्
दंष्ट्रादन्तनखापातादविषप्राणिनामपि ४०॥ अर्थ-द्वंद्वज शोफों में दो दो दोषों के | विण्मूत्रशुक्रोपहतमळवद्वस्त्रसंकरात् । मिले हुए लक्षण और हेतु होते हैं ऐसे
विषवृक्षानिलस्पर्शाद्दरयोगावचूर्णनात् ४१
मृदुश्चलोऽवलम्बी च शीघ्रो दाहरुजाकरः। शोफ तीन प्रकार के होते हैं, अर्थात् वात
____अर्थ-विषीले जीवों के शरीर पर चलने और पित्तके हेतु और लिंग मिलने से वात.
से, अथवा देह पर मूत्र कर देने से, अथव' पित्तज, वात और कफके हेतु, और लिंग
निर्विष जीवों के डाढ़, दांत, वा नख के मिलने से वातकफज तथा पित्त और
लगने से अथवा मल मूत्र और शुक्र से कफके हेतु और लिंग मिलने से पित्तक
सनेहुए वस्त्र ओढने पहनने से, अथवा फज शोफ होता है।
विषवृक्ष में होकर आई हुई पवन के स्पर्श सान्निपातंज शोफ ।
से, अथवा संयोगज विष मिला हुआ चूर्ण निचयान्निवयात्मकः ॥३७॥ अर्थ-जिस शोफ में तीनों दोषों के
शरीर पर मर्दन करने से जो सूजन पैदा
होती है, उसे बिषज शोफ कहते हैं । यह मिले हुर लक्षण पाये जाते हैं उसे सान्नि
सूजन कोमल, चलायमान, अबलंबी और पातिक शोफ कहते हैं। अभिघातज शोक।
| शीघ्रही दाह, तथा शूट को करनेवाली अभिघातेन शस्त्रादिच्छेदभेदक्षतादिभिः।
होती है । हिमानिलोध्यनिलैर्भल्लातकपिकच्छुजैः ॥
शाफका साध्यासाध्यत्व । रसैः शूकैश्व संस्पर्शाच्छ्वयथु- नवोऽनुपद्रवः शोकः साध्योऽसाध्यः । स्याद्विसर्पवान् ।
पुरेरितः ॥४२॥ भृशोमा लोहिताभासः प्रायशः
अर्थ-नये और उपद्रवरहित शोफ __ अर्थ-शस्त्रादि द्वारा छेदन, भेदन और
साध्य होते हैं, तथा जिन शोफों का वर्णन घाव आदि के उत्पन्न होने पर जो सूजन
विकृतिविज्ञानीयाध्याय में कह चुके हैं वे पैदा होती है उसे अभिवातज शोफ कहते
सब असाध्य होते हैं, जैसे'अनेकोपद्रवयुतः हैं । इसी तरह से ठंडी हवा, सामुद्रीय
पादाभ्यां प्रसृतोनरः । नारी शोफो मुखात् हवा, मिलावे का चेप, और केंचकी फली
हंति कुक्षिगुह्यादुभावपि।
बिसर्प का निदान | . के लगने से जो सूजन होती है, वह
| स्याद्विसर्पोऽभिघातातैर्दोषैर्दू प्यैश्चफैलती चली जाती है। यह अत्यन्त, गरम ।
शाफवत्।
लक्ष
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S
( ४२४ )
अष्टांगहृदप |
श्र० १३
अर्थ-विसर्प के दोष और दूष्य शोध
|
के समान होते
| अथार्त् जितने प्रकार
का शोफ होता है, उतनेही प्रकार का विस भी होता है ।
से, कान नाक आदि अपनों के अत्यन्त स्फुरण से तृषा के अतियोग से वेगों के विषम रीति से प्रवर्तन होने से, तथा शीघ्र ही अग्नि और बलका नाश होने से जाना जाता है तथा वाह्य विसर्प में उक्त लक्षणों विपरीत होता है ।
विसर्पका अधिष्ठान | त्र्यधिष्ठानंच तं प्राहुर्बाह्यांत रुमयाश्रयात् ॥ यथोत्तरम् च दुःसाध्याः ।
बात बस ।
तत्र वातात्परीसर्पो बातज्वरसमव्यथः । ४७ । शोफस्फुरणनिस्तोरभेदो यामातिहर्षवान् ।
अर्थ-त्रयादिक महर्षि विसर्प के तीन आधर मानते हैं, यथा- वाह्यविसर्प, अंतसिर्प, और वाह्याभ्यंतर विसर्प, इन विसर्पों में उत्तरोत्तर दुःसाध्य होते हैं अर्थात् वाह्य से आभ्यंतर और आभ्यंतर से उभयाश्रित दुःसाध्य होता है ।
वि०में दोषों का विसर्पण |
तत्र दोषा यथायथम् । प्रकोपनैः प्रकुपिता विशेषेण विदाहिभिः ॥ देहे शीघ्रं विसर्पति तेऽतरतः स्थिता वहिः । बहिःस्था द्वितये द्विस्थाः
अर्थ-विसर्परोग में तिक्तोपणादि प्रकोपन हेतुओंसे और विशेष करके विदाही अन्नपा नादि से वातादि दोन शरीरमें शीघ्र फैलते चले जाते हैं । अर्थात् अंतरस्थित दोष शरीर के भीतर, वाह्यस्थ दोप शरीर के बाहर के भाग में और उपयभाग में स्थित दोष भीतर और बाहर दोनों ओर फैलते हैं । अंतराश्रित विसर्प ।
विद्यात्तत्रांतराश्रयम् ॥ ४५ ॥ पतापात्संमोहादयनानां विघट्टनात् । तृष्णातियोगाद्वेगानां विषमं च प्रवर्तनात् । आशु चाग्निवलभ्रंशादतो बाह्यं विपर्ययात् । अर्थ - इन विसर्पो में से अंतराश्रित विसर्प मर्म के उपताप से, मूर्च्छा के होने
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अर्थ- वातजविसर्प में वातज्वर के समान संपूर्ण लक्षण होते हैं, तथा सूजन, स्फुरण, सुई छेदने कीसी पीडा, भेद, आयाम अर्ति और रोमोद्गम । ये सब लक्षण होते हैं ।
पितज बिसर्प | पित्ताद्भुतगतिः पित्तज्वरलिंगोऽतिलोहितः । अर्थ-पित्तजविसर्प में बडी शीघ्र गति और अति लोहित वर्ण होता है तथा इसमें पित्तजज्वर के संपूर्ण लक्षण होते हैं | कफजविसर्प ।
कफात्कंड्रयुतः स्निग्धः कफज्वरसमानरुक् ।
अर्थ - कफज विसर्पमें खुजली और निग्धता होती है, तथा जैसी जहां २ कफज्वर में वेदना होती है, वैसी ही इसमें भी होता है ।
विसर्पकी उपेक्षा का फल | स्वशेषलिंगेश्चीयते सर्वे स्फोटैरुपेक्षिताः । ते पक्कमनाः स्वं स्वं च विभ्रतिव्रणलक्षणम् ।
अर्थ-विसर्प रोगकी चिकित्सा न किये जानेपर इसके चारों ओर अपने अपने दोषों के लक्षणोंसे युक्त फुंसियां होजाती हैं और पककर फुटजानेपर अपने २ दोषों के लक्षण वाले घाव हो जाते हैं ।
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(४२५)
द्वंद्वज विसर्पके लक्षण। स्थायी निद्रामें लीन होजाता है । इन लक्षणों वातपित्ताज्ज्वरच्छर्दिमूर्खासारतृभ्रमैः। से युक्त विसर्प को अग्निविसर्प कहते हैं।" अस्थिभेदाग्निसदनतमकारोचकैयुतः।
मंथिविसर्प के लक्षण । करोति सर्वमंगं च दीप्तांगारावकीर्णवत् ।।
कफेनरुद्धःपवनो भित्वा तंबहुधा कफम् ।। य य देश बिसर्पश्च विसर्पति भवेत्स सः।
रक्तं वावृद्धरक्तस्यत्वकासिरानावमांसगम्। शांतांगारोसितो नीलो रक्तो वाशुचचीयते।
दूषयित्वाचदीर्घाणुवृत्तस्थूलखरात्मनाम् । अग्निदग्ध इव स्फोटैः शीघ्रगत्वाद्रुतं च सः।
ग्रंथीनांकुरुतेमाला रक्तानां तीब्ररुग्ज्वराम्। मर्मानुसारी वीसर्पः स्याद्वातोऽतिबलस्ततः।।
श्वासकासातिसारास्यशोषहिमायमिनमैः व्यथतांगं हरेत्संज्ञां निद्रां च श्वासमीरयेत् ।
मोहवैवर्ण्यमूगभङ्गाग्निसदनैर्युताम् । हिमांच स गतोऽवस्थामीहशो लभते नना
इत्ययम् ग्रंथिवीसर्पः कफमारुतकोपजः॥ कचिच्छारतिग्रस्तोभूमिशय्यासनादिषु ।
अर्थ-दूषित कफसे अवरुद्ध मार्गवाला चेष्टमानस्ततः क्लिष्टो मनोदेहश्रमोद्भवाम् ॥
वायु अपने रोकनेवाले कफके टुकडे २ कर दुष्प्रबोधोऽश्नुते निद्रां सोऽग्निवीसर्प
उच्यते । डालतीहै, इससे गांठों की श्रेणी पैदा हो . अर्थ-वातपित्तज विसर्पमें, ज्वर, बमन, जातीहै । अथवा बृदरक्तवाले [ जिसके मुर्छा, अतिसार, तृषा, भ्रम, अस्थिभेद, अग्नि
रुधिर बढगयाहै ] मनुष्य के त्वचा, सिरा, मांद्य, तमकश्वास और अरुचि ये सव लक्षण
स्नायु और मांस इनमें वर्तमान रक्तको दूषिहोते हैं, इसमें सब शरीर जलते हुये अंगारों
त करके वायु वडी, छोटी, गोलाकार,स्थूल कीनाई प्रतीत होताहै । और शरीरके जिस जि खरदरी और लाल रंगकी बहुतसी गांठे पैदा स अवयव में विसर्प फैलता है वही वही अंग
करदेती है । इनमें वडी तीव्र वेदना होतीहै बुझहुए अंगारके समान काला, नीला, अथवा
तथा श्वास, खांसी, अतिसार, मुखशोष, लाल हो जाता है, अग्निसे जले हुए स्थानकी
हिचकी, वमन, भ्रम, मोह, विवर्णता, मूर्छा, तरह वह फुसियोंसे व्याप्त होजाता है और
अंगभंग और अग्निमांद्य ये लक्षण उपस्थित शीघ्र गामी होनेके कारण हृदयादि मर्मस्था.
होतेहैं । यह कफ और वातके कोपसे उत्पन्न नों पर शीघ्र ही आक्रमण करता है । इसमें
हुआ ग्रंथिवीसर्प कहलाताहै। वायु अत्यन्त प्रवल होकर शरीरमें पीडा, सं
करमविसर्प । ज्ञानाश, निद्रानाश और श्वास और हिचकी कफपित्तान्ज्वरः स्तंभो निद्रातंद्राशिरोरुजः उत्पन्न करता है । विसर्परागी की ऐसी दशा | अंगावसादविक्षेपप्रलापारोचकभ्रमाः॥६॥ होजाती है कि वेदनासे ग्रस्त होनेके कारण । मुनिहानिर्भेदोऽस्नां पिपासेंद्रियगौरवम् । भूमि, शय्या वा आसन पर कहीं भी इधर
आमोपवेशनं लेपः स्रोतसां स च सर्पति।
प्रायेणामाशये गृहणन्नेकदेश न चातिरुक। उधर लेटनेसे सुख प्राप्त नहीं होता है और |
पिटकैरवकीर्णोऽतिपीतलोहितपांडुरैः। ६२। मन, देह और श्रमजनित वेदना से ऐसा दुः मेचकाभोऽसितस्निग्धोमलिनःशोफवान्गुरुः खित होजाता है कि दुष्प्रवोध अर्थात् चिर- ( गंभीरपाकः प्राज्योष्मा स्पृष्टःविनोऽवदीर्यते
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अष्टांगहृदय |
[ ४९६ )
कच्छर्णिमांसश्च स्पृष्टस्नायुसिंरागणः । अवधिश्च वीसर्प कर्दमाख्यमुशंति तम् ।
आ
अर्थ-कफपित्त से कईमनामक विसर्प होता है, इसमें ज्वर, स्तंभता, निद्रा, तंद्रा शिरोवेदना, अंगर्मे शिथिलता, विक्षेप, पलाप अरोचक, भ्रम, मूर्च्छा, अग्निमांद्य, अस्थिभेद, पिपासा, कर्मेन्द्रियों में भारापन, मोपवेशन ( आमके दस्त, स्रोतों में रिहसावट, ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । यह आमाशय के एक देशमें उत्पन्न होकर अन्य भागोंमें फैलता चला जाता है परंतु इसमें दर्द नहीं होता है । तथा अत्यन्त पीली लोहितवर्ण और पांडुवर्ण की पिटकाओं से व्याप्त हो जाता है । इसका रंग मोरके कंठ के दृश होता है, तथा काला, चिकना, मलीन, शोफयुक्त, भारी, गंभीरपाकी, छूने में अत्यन्त गरम, क्लिन्न, विदीर्ण, कीचकी तरह शीर्णमांस, मुर्दे के समान दुर्गंधित होता है, इसमें स्नायु और सिराओं के समूह दिखाई देने लगते हैं । इसको कर्बमविसर्प कहते हैं ।
सन्निपातजविसर्प |
सर्वजेा लक्षणैः सर्वैः सर्वधात्वतिसर्पणः । अर्थ- सन्निपातज बिसर्वमें तीनों दोषों के मिले हुए लक्षण पाये जाते हैं यह संपूर्ण धातुओं में फैलता है।
विसर्प के कारण ।
बाह्यहेतोः क्षतात्कुद्धः सरक्तम्
पित्तमीरयन् ॥ ६५ ॥ बिसर्पे मारुत् कुर्यातः कुलत्थसदृशैश्वितम् । स्फोटैः शोफज्वररुजादाहाढ्यम्श्यावलोहितम् ॥ ६६ ॥
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अ० १३
अर्थ बाहर के हेतुओं से अर्थात् लाठी तलवार आदि की चोटसे वा किसी हिंसक जीवके नख वा दांत लगने से जो घाव होजाता है इस घाव के कारण कुपित हुआ वायु रक्तसहित पित्तको प्रेरित करके कुल्थी के सदृश फुंसियोंसे व्याप्त विसर्परोग को उत्पन्न कर देता है, इसमें सूजन, ज्वर, बेदना और दाह अधिक होता है, तथा रंगभी श्याव और लोहितवर्ण होता है ।
बिसपों का साध्यासाध्य विचार | पृथग्दोषैस्त्रयः साध्या द्वन्द्वजाश्चानुपद्रवाः । असाध्यौ क्षतसर्वोत्थौ सर्वे चाक्रांतमर्मकाः शीर्णस्नायुसिरामांसाः प्रक्लिन्नाः, शवगन्धयः अर्थ-कफ वात पित्त इन तीनों पृथक् पृथक् दोपों से उत्पन्न हुए विसर्प साध्य होते हैं । कासवैवर्ण्यज्वरादि उपद्रव्यों से रहित तीनों प्रकार के द्वंद्वज विसर्प भी साध्य होते हैं । क्षतज और सान्निपातिक ये दो विसर्प असाध्य होत हैं । तथा हृदयादि मर्मों पर आक्रमण करनेवाले सब प्रकार के विसर्प असाध्य होते हैं वे विसर्प जिन में स्नायु, सिरा और मांस गलगये हैं तथा बेजिनमें अत्यन्त क्लिन्नता और मुर्दे की सी गंध हो वेभी असाध्य होते हैं । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकार्यां निदानस्थाने पांडुकामलाशोफ विसर्पानिदानं नाम त्रयोदशो ऽध्यायः ।
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म०१४
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
६४२७]
नर्दशोऽध्यायः। | रोमत्वमायुधमनी तरुणास्थानि यैः ..
क्रमात् ॥ ५॥
| भक्षयोच्छ्वत्रमस्माश्च कुष्ठबाह्यमुदाहृतम् । अथाऽतः कुष्ठश्चित्रकृमिनिदानम्
अर्थ-इसरोग की चिकित्सा न किये जाने व्याख्यास्यामः
पर कालांतर में यह सब देहको बिगाड देता अर्थ-अब हम यहां से कुष्ठ, स्वित्रकुष्ट | है, इसीलिये इसे कुछ कहते हैं कुष्ठरोग भीतर और कृमिरोग निदान नामक अध्याय की
वाली संपूर्ण धातुओं को क्लेदित करके स्वेद, व्याख्या करेंगे।
क्लेद और संकोथयुक्त छोटे छोटे भयंकर को? कुष्ठ की उत्पत्ति।
को उत्पन्न कर देता है । ये कीड़े रोम, त्वचा, "मिथ्याहारविहारेण विशेषेण विरोधिना।
स्नायु,धमनी और तरुण अस्थियों को क्रमसाधुनिंदावधान्य स्वहरणाद्यैश्च सेवितैः १ पाप्मभिः कर्मभिःसद्यःप्राक्तनैःप्रेरिता मलाः
पूर्वक भक्षण करलेते हैं । जो लक्षण कुष्ठ सिराः प्रपद्य
| के कहे गये हैं वे श्वित्र के नहीं होते हैं । तिथंगास्त्वग्ललीकास्मामिषम् ॥२॥ श्वित्र केवल त्वचा में आश्रित रहता है इस दूषयति श्लथीकृत्य निश्चरंतस्ततो बहिः।
लिये इसे वाह्यकुष्ठ कहते हैं । और कुष्ठ त्वचा कुर्वति वैवयं दुष्टाः कुष्ठमुशंति तत् ॥
संपूर्ण धातुगत होता है । यही दोनों में अर्थ-मिथ्या और विशेष करके एक दूसरे के विपरीत आहार विहारादि करने से,
| अंतर है। साधुओं की निंदा करने से, साधुओं का
कुष्ठके भेद। वध करने से, पराया धन हरण करने से,
कुष्ठानि सप्तधा पृथशामित्रैः समागतैः ॥६॥ तथा पूर्वजन्म के किये हुए अनेक पाप
| सर्वेष्वपि निंदोषेषु व्यपदेशोऽधिकत्वतः। कमों से प्रेरित और दूषित हुए वातादि
__ अर्थ-कुष्ठ सात प्रकार के होते हैं, दोष तिर्यकगामिनी संपूर्ण सिराओं में पहुंच
यथा-- बातज, पित्तज, कफज,वातापत्तज, कर त्वचा, लसीका, रक्त और मांसको
वातकफज, पित्तकफज और त्रिदोषज । सव दूषित करदेते हैं और उन्हीं दूषित त्वचादि
प्रकार के त्रिदोषज कुष्ठोंमें दोषों की समविको शिथिल करके बाहर की ओर निकलने
षमता के कारण उनका व्यपदेश अर्थात् लगते हैं, इससे त्वचा के रंग में विवर्णता
संज्ञा है। होजाती है।
दोषानुसार कुष्ठके नाम ॥ कुष्ठ नाम का कारण । | वातेन कुष्ठं कापालं पित्तादादुंबरं कफात् । कालेनोपक्षित यस्मात्सर्व कुष्णाति तद्वपुः । | मंडलाख्यं विचर्चीच ऋक्षाख्यं वातपित्तजम् प्रपद्य धातूव्यायांतः सर्वान् सक्लेद्य- | चौंककुष्ठं किटिभसिमालसविपादिकाः।८।
चावहेत् ॥४॥
वातश्लेष्मोद्भवा श्लेष्मपित्ताइदुशतारुषी। सस्वेदक्लेदसकोथान्
पुंडरीकं सविस्फोटं पामा चर्मदलं तथा।९। कृमीन्सूक्ष्मान्सुदारुणान् ।। सर्वैः स्यात्काकणं पूर्व त्रिचदुसकाकणम् ।
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(४२८)
अष्टांगहृदय ।
अ०१३
पुंडरीकर्मजिहे च महाकुष्ठानि सप्त तु । रोमहर्ष, रक्तमें कालापन ये सब पूर्वरूप प्र
अर्थ-सबकुष्ठ १८ प्रकार के होते हैं, | काशित होते हैं । यथा-वातोल्वण सन्निपातसे कपाल नाम- | कापाल कुष्ठके लक्षण । ककुष्ठ होता है इसीतरह पित्ताधिक्य सन्नि- कृष्णारुणकपालाभं रूक्षं सुप्तं खरं तनु । पात से उदुंवर नामक, कफाधिक्य से म- विस्तृतासमपर्यंत दूषितैर्लोभाभिश्चितम् । डलाख्य, और विचर्ची, वातपित्ताधिक्य से | तोदाढ्यमल्पकंडूकं कापालं शीघ्रसर्पि य । ऋक्षाख्य, वातकफाधिक्य से चर्म, किटिम, अर्थ-कापालकुष्ठमें कुछ काला, कुछ सिध्म, अलसक और विपादिका नामककुष्ठ
लाल बर्ण कपाल के सदृश आभाविशिष्ट होतेहैं । पित्तकफाधिक्य से ददु, शतारु, पुंड
होता है । यह रूक्ष, स्पर्शज्ञानरहित, छूने रीक, विस्फोट, पामा और चर्मदल नामक
में खरदरा, पतला, फैलाहुआ, किनारों पर कुष्ठ होते है तथा त्रिदोष से काकण कुष्ठ
ऊंचानीचा, दुष्टरोंमों से युक्त, अत्यन्त तोदहोता है । इनमें से कापाल, औदुम्बर,मंडल
युक्त, अल्प खुजली से युक्त और शीघ्र फैल. ददु, काकण, पुंडरीक और ऋष्यजिह्र ये
ने वाला होता है । सात महाकुष्ठ हैं, शेष ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ कह
उदुवर के लक्षण ॥ लाते हैं।
पक्कादंबरतानत्वग्रोमगौरसिराचितम् । कुष्टका पूर्वरूप ।
| वहलं बहुलक्लेदं रक्तं दाहरुजाधिकम् । १५।
आशूत्थानावदरणकृमि विद्यादुदुबरम्। अतिश्लक्ष्णखरस्पर्शस्वेदास्वदविवर्णताः। ।
| अर्थ-औदुम्बरकुष्ठ पकेहुए गूलरके समान दाहः कंडूस्त्वाचे स्वापस्तोदः कोठोन्नतिः- ।
. श्रमः॥ ११॥ आकृतिवाला, ताम्रवर्ण त्वचा और रोमोंसे प्रणानामधिकं शूलं शीघ्रोत्पत्तिाश्चरस्थितिः युक्त, सफेद रंगकी सिराओं से व्याप्त, स्रा रूढानामपि रूक्षत्वं निमित्तऽल्पेऽपि कोपनम् वी, वहुक्लेदविशिष्ट, रक्तवर्ण, दाह और रोमहर्षोऽसुंजः फाये कुष्ठलक्षणमग्रजम्। वेदना से युक्त, होता है । यह शीघ्र उत्पन्न . अर्थ-जिसके कोढरोग होनेवाला होता | दोकर शीघ्रही फटजाता है और इसमें शाघ्र है उसका शरीर अत्यन्त चिकना वा खरद- |
ही कीडे पड़ जाते हैं। रा होजाता है, पसीने अधिक आते है, वा
मंडल के लक्षण । विलकुल वन्द होजाते हैं, शरीर में विवर्ण
| स्थिरं स्त्यानं गुरु स्निग्धं श्वतरक्तमनाशुगम् ता, दाह, खुजली, विशेष विशेष अगों में
अन्योन्यसक्तमुत्सन्नं बहुकंडूनुतिक्रिमि । स्पर्शका ज्ञान न होना, सुई छिदने कीसी
श्लक्ष्णपीताभपर्यंतम् मण्डलम्घेदना, पित्तीका उछलना, परिश्रम, ब्रणोंमें
परिमण्डलम् ॥ १७ ॥ अत्यन्त शूल, धावका जल्दी होना और अर्थ-मंडलकुष्ठ स्थिर, भारी, स्निग्ध, बहुत काल पर्यन्त रहना, घाव सूखजानेपर | श्वेत वा रक्तवर्ण से युक्त, शीघ्र न फैलने भी रूक्षता, अल्पकारण से बहुत प्रकोप, | वाला, एक दूसरे से मिलाहुआ, ऊंचा,
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ब०१४
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४२९)
विचर्चिका।
वहुस्राव और वहु क्रमियों से युक्त होता है | आभा के समान होता है उसे एककुष्ठ इसके किनारे चिकने और पीतवर्ण के होते } कहते हैं । सुश्रत में लिखा है जिसका हैं और देहपर गोल चकत्ते पड जाते हैं । संपूर्ण देह काला वा लाल होता है उसे इसे मंडलकुष्ठ कहते हैं।
एककुष्ठ कहते हैं खरनादने भी लिखा है बिचर्चिका के लक्षण । महदस्वेदनं मत्स्यशकलाकारमेकजं । एक सकण्इपिटिका श्यावा लसीकाढया
शब्दका अर्थ मुख्य है यह क्षुद्र कुष्ठों
में अर्थ-विचर्चिका नामक कुष्ठ श्याववर्ण,
प्रधान है इसलिये इसे एककुष्ठ
कहते हैं। खुजली और पिटकाओं से युक्त होता है इसमें लसीका अर्थात् चेप बहुत होता है ।
किटिभ के लक्षण ।
किटिभम् पुनः ॥२०॥ क्षजिह्व के लक्षण ।
.../ रूक्षम् किणखरस्पर्श कण्डूमत्परुषासितम् । परुष तनुरक्तांतमंतःश्यावं समुन्नतम् १८ ॥ |
__ अर्थ- जो कोढ रूखा, सूखा हुआ, सतोददाहरुकूक्लेदं कर्कशैः पिटिकौश्चितम् ।। ऋक्षजिह्वाकृतिप्रोक्तमृक्षजिवम्
क्षतस्थान की तरह छूने में खरदरा, खुजली वहुक्रिमि ॥ १९ ॥
से युक्त, कर्कश और काला होताहै उसे अर्थ-ऋष्यजिह्वनामक महाकुष्ठ खर- | किटिभ कुष्ठ कहते है। स्पर्श, पतला, किनारे पर लाल, वीच में | सिध्म कुष्ठ । काला, ऊंचा, सुई छिदने कीसी वेदना से | सिध्मं रूक्षम् बहि स्निग्धमंतष्टम्युक्त, दाह, पीडा, क्लेद, और कर्कश पिड
___रजः किरेत् ॥ २१ ॥
श्लक्ष्णस्पर्श तनुश्वततानं दौग्धिकपुष्पवत्। कामों से युक्त होता है । इसकी आकृति
प्रायेण चोर्ध्वकाये स्यात् रछकी जिह्वा के सदृश होती है इसलिये अर्थ-सिध्मकुष्ठ बाहर से रूखा, भीतर इसे ऋष्यजिह्व कहते हैं । इसमें कीडे से चिकना होता है, इसको रिगडने से बहुत पड़ते हैं।
भुसी सी झडने लगती है । यह छूने से चर्मकुष्ठ के लक्षण ।
चिकना, पतला, सफेद वा तांबे के रंगका हस्तिचर्मखरस्पर्श चर्म
अलाबु के फूल के सदृश होता है, यह अर्थ-हाथी के चमडे के समान छूनेमें रोग प्रायः देह के ऊपरके भागमें होताहै। खरदरा चर्म कुष्ठ कहलाता है। . एककुष्ठ के लक्षण ।
अलसक के लक्षण । एकाख्यम् महाश्रयम्। ररलसकम्
गंडैः कण्डूयुतैश्चितम् ॥ २२ ॥ अस्वदम् मत्स्यशकलसंनिभम्
अर्थ-जिस कुष्ठ का स्थान लंबा चौडा अर्थ-अलसक कुष्ठमें खुजली और लाल पसीनेरहित, तथा मछली के टुकडे की सी | वर्ण की पिटका होती हैं।
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(४३०]
अष्टांगहृदप ।
अ. १४
विपादिका के लक्षण । के सदृश लाल ऊंची रेखाओं से व्याप्त तथा .. पाणिपाददार्यों विपादिकाः ।। २३॥ गाढी और वहुतसी लसीका तथा रक्त से तीनायो मन्दकण्ड्वाश्च
युक्त और शीघ्र भेदको प्राप्त होजाता है । सरागापिटिकाचिताः॥२३॥ - अर्थ-विपादिका कुष्ठमें हाथ और पांव
विस्फोटक के लक्षण । फट जाते हैं । इसको भाषा में बिवाई कहते
तनुत्वग्भिश्चितम् स्फोटः सितारणैः२७॥
विस्फोटम्- . हैं। इसमें बडी तीब्र वेदना होती है, खुजली
___अर्थ-विस्फोटक कुष्ठ पतले चमडे से कम चलती है और लाल वर्णकी कुंसियों से | ढका होताहै तथा सफेद और लाल पंसियों व्याप्त होजाता है ।
से व्याप्त होता है। दद्रु के लक्षण ।
पामा के लक्षण । . दीर्घप्रताना दूर्वावदातसीकुसुमच्छविः। ।
पिटिकाःपामा कण्डूले दरुजाधिकाः । उत्सन्नमण्डला ददुः कण्डूमत्यनुषंगिणी २४ | सम्माः स्याव
| सूक्ष्माः श्यावारुणा बव्यः प्रायः । , अर्थ-दद्रु वा दाद दूबकी तरह बहुत
स्फिक्पाणिकूपरे ॥२८॥ जगह में फैल जाता है, यह अलसीके फूल के ___ अर्थ-कंडू, केद और वेदनासे युक्त फुसमान दिखाई देता है, इसमें ऊंचे ऊंचे गो- सियों को पामा कहते हैं। इस रोगमें प्रायः ल चकत्ते होते हैं । इसमें खुजली बहुत च- स्फिक् , हाथ और कोहनियों में छोटी छोटी लती है और यह फैलता ही चलाजता है। धूम् और और लालवर्णकी वहुतसी फुसियां . शतारु के लक्षण ।
होजाती है ।। स्थूलमूलम् सदाहाति रक्तश्यावं बहुव्रणम् । चर्मदलके लक्षण । शतारुः क्लेदजम् त्वाढयम् प्रायश:
सस्फोटमस्पर्शसहम् कण्डूषातोददाहवत् । पर्वजन्म च ॥ २५ ॥
रक्तम् दलरुचर्मदलम्अर्थ-शतारु नामक कुष्ठकी जड बहुत
___ अर्थ-चर्मदल नामक कुष्ठमें लाल वर्ण मोटी होती है, तथा रंग लाल वा श्याव होता
की फुसियां होजाती है, हाथको नहीं सह है, यह वहुत घाव, केदता और कीडोंसे युक्त
सकताहै तथा कंडू, ऊपा, सोद और क्षय होता है और प्रायः अस्थिके जोडोंमें होताहै।
होताहै, इसमें मांस गलकर गिर पडताहै । ... पुंडरीक के लक्षण ।
काकण के लक्षण । रक्तांतमंतरा पांडु कण्डूदाहरुजान्वितम् । सोत्सेधमाचितम् रक्तैःपद्मपत्रमिवांशुभिः॥
काकणम् तीवदाहरुक् ॥ २९ घनभूरिलसांकासृक्यायमाशु विभेदि च ।
| पूर्वरक्तम् व कृष्णं च काकणंतीफलोपमम् । पुंडरीकम्
कुष्ठलिंगैर्युतं सर्वेनैकवर्ण ततो भवेत् ६०॥ अर्थ-पुंडरीक नामक कुष्ठ के किनारे । अर्थ-काकण नामक कुष्ठ में तीबदाह लाल और वीचका माग पांडु वर्ण होता है, और शूल होताहै । यह चिरमिठी के रंगके कंडू, दाह वेदना से युक्त तथा कमलके पत्तों | समान पहिले लाल और काले रंगका होता
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[४]
है, पीछे यह श्वेत पीतादि अनेक वर्ण का | गत कुष्ठ कृच्छ्रसाध्य होते हैं । कफवातज होजाताहै और सब कुष्ठोंके लक्षण इसमें कुष्ठ सुखसाध्य होते हैं, तथा त्वचा में पाये जातहैं । सुश्रुतमें और भी कई प्रकार स्थित कुष्ठ अथवा एक दोषसे उत्पन्न कुष्ठ के कुष्ठ लिखे हैं। वे ग्रंथ बढजाने के | भी सुखसाध्य होते हैं। भय से यहां नहीं लिखे गये हैं।
त्वचादिगत के लक्षण !:: कुण्ठमें दोषोंकी आधिकता। तत्र त्वचि कुष्ठे तोदवैवर्ण्यरूक्षताः॥ ३३ ॥ दोषभेदीयविहितैरादिशेल्लिगकर्मभिः। ।
स्वेदस्वापश्वयथवः शोणिते पिशिते पुनः।
पाणिपादाश्रिताः स्फोटाः क्लेदः संधिःकुष्ठेषु दोषोल्बणताम्
चाधिकम् ॥ ३४॥ अर्थ-दोषभेदीयाध्यायों कहेहुए लक्षण और
कोण्यं गतिक्षयोऽगानां दलनं स्याच्च मेदसि कर्मसे कुष्ठरोगों में दोर्षोंकी अधिकता सम- नासाभगोऽस्थिमजस्थेनेत्ररागःस्वरक्षयः। झना चाहिये, अर्थात् जिस दोषकी अधि- क्षते च कृमयः शुक्रे स्वदारापत्यबाधनम्। कता हो उसी दोष की अधिकता वाला
__ अर्थ-त्वचा में स्थित हुए कुष्ठ में तोद त्रिदोषज कुष्ठ कहलाताहै।
विवर्णता शौर रूक्षता होती हैं । रक्तगत कुष्ठ विशेष में चिकित्सा त्याग । .
कुष्ठ में स्वेद, स्पर्श के ज्ञानका अभाव और सर्वदोषोल्वणम् त्यजेत् ॥ ३१ ॥
सूजन होती है । मांसगत कुष्ठ में हाथ रिष्टोक्तम्यच्च
और पांव में फोडे तथा संधियों में क्लेदकी ___ यच्चाऽस्थिमज्जशुक्रसमाश्रयम् । अधिकता होती है । मेदोगत में टोटापन __ अर्थ-जिस सन्निपातज कुष्ठ में तीनों / गतिका क्षय और अंगों में दलने कीसी दोषोंकी अधिकता हो वह त्यागने के योग्य वेदना होता है । अस्थिगत और मज्जागत है । तथा विकृतविज्ञानीयाध्याय में कहे | में नासाभंग, नेत्रों में ललाई और स्वरका हुए विशीर्यमाणांगं इत्यादि लक्षणों से युक्त | क्षय होता है । शुक्रगत होने पर घाव में कीडे कुष्ठ त्याज्यहै, एवं जो कुष्ठ अस्थि मज्जा, | पडजाते हैं इस रोगसे स्त्री और संतानको और शुक्र में पहुंच गयाहै वह भी त्यागने | भी पीड़ा पहुंचती है। के योग्यहै ।
रक्तादि में यथापूर्व लक्षण। ____ कुष्ठमें साध्यासाध्य विचार ।
यथापूर्व व सर्वाणि स्युलिंगान्यसृगादिषु । याप्यं मेदोगतम्
। अर्थ-रसरक्तादि धातुगत कुष्टों में अपने कृच्छ्रे पित्तद्वंद्वानमांसगम् ॥ ६२॥ अकृच्छ्रे कफवाताढयम् त्वक्स्थमेकमलम्
अपने लक्षणों के अतिरिक्त यथापूर्व धातु
__ च यत् । गत कुष्ठों के लक्षण भी होजाते हैं । अ. अर्थ-मेदोगत कुष्ठ पथ्यादि सेवन से | र्थात् रक्तगत कुष्ठ में स्वेदादि निज लक्षण याप्य होजाता है । पित्तद्वन्द्वज ( वात पित्त | भी होते हैं, तथा पहिले वाले त्वचा के वा पित्तकफ) कुष्ठ अथवा रक्त और मांस | तोदादि लक्षण भी होते हैं । मांसगत कुष्ठ
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( ४३२ )
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अष्टांगहृदय |
में पाणिपादाश्रित स्फोटादि निज लक्षण तथा स्वागत और रक्तगत लक्षण भी होते हैं, इसी तरह मेदोगत के जानने चाहिये । वित्र कुष्ठका निरूपण । कुष्ठैकसंभवं श्वित्रं किलासं दारुणं च तत् । निर्दिष्टमपरित्रावि त्रिधातूद्भवसंश्रयम् ।
अर्थ - चित्र और कुछ इन दोनों रोगों की उत्पत्ति का कारण एकही है और इनकी चिकित्साभी एकही है इसीलिये कुष्ठाधिकार में इसका वर्णन किया गया है । इसी को किलास और दारुणभी कहते हैं इन दोनों में अंतर यही है कि कुष्ठसान पातिक है और चित्र अलग अलग दोनों से उत्पन्न होता है । कुष्ठ स्रावी हैं, श्वित्र अपरिस्रावी है । कुष्ठ रसादि सात धातुओं पर आक्रमण करता है और श्वित्र रक्तमांस और मेदका आश्रय करता है ।
बातजादि शुक्र के लक्षण | वाताद्रक्षारुणं पित्तात्तानं कमलपत्रवत् । सदाहं रोमविश्वास कफाच्छ्वेतं घनं गुरु । खकंडु च क्रमागुक्तमांसमेदःसु चादिशेत् ।
अर्थ- वातज शुक्र रूक्ष और लालवर्ण का होता है । पित्तज श्वित्र तामुवर्ण वा कमलपत्र के समान होता है, यह दाहयुक्त और रोमविध्वंसी होता है । कफजश्वित्र सफेद, घन, भारी और खुजली से युक्त होता है । ये क्रम से रक्त, मांस और मेदा में होते है । अर्थात् वातज रक्तमें, पित्तज मांस और कफज मेद में होता है ।
कृच्छ्रसाध्य श्वित्र के लक्षण | वर्णेनैवेडगुभयं कृच्छ्रं तच्चोत्तरोत्तरम् । अर्थ - - अरुणादि वर्ण द्वारा श्वित्र के
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अ० १४
वातादिक दोष और रक्तादि आश्रय दोनों ही जाने जाते हैं, अर्थात् अरुण वर्ण वाला वित्र वातज और रक्ताश्रयी होता है । ताम्र वर्ण वाला वित्र पित्तज और मांसाश्रयी होता है तथा श्वेतवर्णं श्वित्र कफज और मेद का आश्रयी होता है । ये उत्तरोत्तर कृच्छ्रसाध्य होतेहैं अर्थात रक्तज खित्र कृच्छ्र, मांसज कृच्छ्रतर और मेदोज कृच्छ्रनम होता है।
वित्र का साध्यासाध्यत्व | अशुक्ल रोमाऽबहुलमसंसृष्टं मिथो नवम् । अनग्निदग्धजं साध्यं श्वित्रं वर्ज्यमतोऽन्यथा गुह्यपाणितलोष्ठेषु जातमप्यचिरंतनम् |
अर्थ-यदि श्वित्रके स्थान के रोम श्वेत न हुए हैं, सघन नहीं, आपसमें एक दूस रेसे मिला न हो, और नवीनहो और अग्नि से दग्ध न हुआ हो तो साध्य होता है और इन लक्षणोंसे विपरीत लक्षण वाला असाध्य होता है | गुह्यदेश [ योनि वा लिंग ], ह थेली पगतली, और ओष्ठ इनमें उत्पन्न हुआ चित्र यदि बहुत दिनका न हो तो भी असाध्य होता है ।
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सब रोगों को संचारित्व 1/ स्पर्शैकाहारशय्यादि सेवनात्प्रायशो गदाः । सर्वे सचारिणो नेत्रत्वग्विकाय विशेषतः ।
अर्थ- प्रायः संपूर्ण रोग देह के स्पर्शाने, एक साथ बैठकर भोजन करने से, एक शय्या पर शयन करने से वा ऐसेही एकत्र वेठ कर अन्य काम करनेसे संक्रामक हो जाते हैं, अर्थात् एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य पर लगजाते हैं । परन्तु नेत्ररोग और त्वचारोग विशेषरूप से संक्रामक होते हैं ।
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अ० १४
निदानस्थान भाषाटीकासभेत ।
OM
(४३३)
कृमियोंके दो भेद। और नवीन अन्नका भोजन करनेसे अधिकृमयस्तु द्विधा प्रोक्ता बाह्याभ्यंतरभेदतः। कतासे उत्पन्न होतेहैं। अर्थ-कृमि दो प्रकार के होते हैं एक
पुरीषज कृमि ।। वाह्य जो त्वचा पर उत्पन्न होते हैं, दूसरे शजा बहुविइधान्यपर्णशाकोलकादिभिः। आभ्यंतर जो देह के भीतर होते हैं। अर्थ-जौ, उरद आदि विष्टाको बढाने
जन्मसे कीडोंके चारभेद । वाले धान्य, पालक्यादि पत्रशाक और हरा बहिर्मलकफामुग्विड्जन्मभेदाच्चतुर्विधाः। शिंबी धान्य खानेसे पुरीषमें उत्पन्न होने नामतो विंशतिविधाः
वाले कृमि होतेहैं। अर्थ-जन्मभेद से कीडोंके चार भेद हैं
__कफज कृमियों का निरूपण । यथा-वाह्य मलोत्पन्न, कफोत्पन्न, रक्तोत्पन्न
कफादामाशये जाता वृद्धाः सर्पति सर्वत-। और पुरीपोत्पन्न ।
पृथुनधनिभाः केचित् केचिद्डूपदोपमाः । नामभेदसे कीडे वीस प्रकारके होते हैं
रूढधान्यांकुराकारास्तनुदीर्घास्तथाऽणवः। वाह्य कीडोंका वर्णन ।
श्वेतास्तानाबभासाश्व नामतः सप्तधा तु ते
अंबादा उदरापिष्टा हृदयादा महागुहाः। बाह्यास्तत्राऽसृगुद्भवाः ॥ ४३॥ |
कुरबो दर्भकुसुमाः सुगंधास्ते च कुर्वते। तिलप्रमाणसंस्थानवः केशांबराश्रयाः।
हल्लासमास्यरावणमविपाकमरोचकम्। बहुपादाश्च सूक्ष्माश्च यूका लिक्षाश्च नामतः
मूलीच्छर्दिज्वरानाहकार्यक्षयथुपीनसान् । द्विधा ते कोठपिटिकाकंडूगंडान प्रकुर्वते ।
अथे-कफसे उत्पन्न हुए सब प्रकार के अर्थ-इनमें से बाहर के कृमि रक्त से
क्रिमि आमाशय में उत्पन्न होतेहैं और वहीं उत्पन्न होते हैं इनका परिमाण, आकार
बढकर इधर उधर चलते फिरते हैं । इनमें और वर्ण तिलके समान होता है, तथा केश और बालों में रहते हैं । इनके पांव बहुत
से कितनेही पृथु और चर्मलता के हुएोते हैं और छोटे भी बहुत होते हैं इनका
सदृश और कितनेही केंचुए के सदृश होतेहैं । कुष्ठ २८,जू और लीख से दो प्रकार का होता
कितनेही अंकुरित अन्नके अंकुरोंके समान और शुक्र कोठ { पित्ती ), पिटिका, खुजली
कितनेही सूक्ष्म, कितनेही दीर्घ, कितनेही के योग्य है कत्ते पैदा करदेते हैं ।
छोटे, कितनेही सफेद और कितनेही तात्र
वर्ण होतेहैं । नाम भेदसे ये सात प्रकार के आभ्यंतर कृमि ।
हो हैं, यथा-अंबाद, उदराविष्ट, हृदयाद, कुष्ठैकहेतधोतर्जाः लप्मजास्तेषु चाधिकम् । मधुरानगुडक्षीरदाधिसक्तुनवोदनैः। महागुह, कुरव, दर्भकुसुम और सुगंध । कफ___ अर्थ-भीतर होनेवाले कृमि मिथ्या आ- जक्रिमियों के उत्पन्न होनेसे हृल्लास, मुखहार विहारादि से उत्पन्न होतेहैं कुष्ठ और | स्राव, अपरिपाक, अरुचि, मूर्छा, वमन,ज्वर, आभ्यंतर कृमि समान हेतु से उत्पन्न होतेहैं। आनाह, कृशता, हिचकी और पीनसये रोग इनमें कफज कृमि मिष्टान्न,गुड,दूध,दही,सत्तू, । उत्पन्न होतेहैं ।
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(४३४)
अष्टांगहृदय ।
अ० १५
रक्तज क्रिमि । | रोमहर्ष, अग्निमांद्य, गुदामें खुजली ये सब रक्तवाहिशिरोत्थाना रक्तजा अंतवोऽणवः। | उपद्रव उपस्थित होतेहैं । अपादा वृत्तत्ताघ्राश्च सौक्ष्म्यात्कचिददर्शनान
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां केशादा लोमविध्वंसा लोमदीपा उदुंबराः।। षर ते कुष्ठैककर्माणः सहसौरसमातरः ।।
भाषाटीकायां - अर्थ-सब प्रकारके रक्तजक्रिमि रक्तवा
निदानस्थाने कुष्ठश्वित्रकृमिनिदानं ही सिराओंमें उत्पन्न होते हैं । ये बहुत नाम चतुर्दशोऽध्यायः । सूक्ष्म, पादरहित, गोलाकार और तामूवर्ण होतेहें, कोई कोई इतने पतले होतेहैं कि पंचदशोऽध्यायः। दिखाई भी नहीं देते । ये नाम भेदसे छः प्रकारके होते है, यथा-केशाद, लोमविध्वंस लोमद्वीप, उदुंवर, सौरस और मातृ ।। अथाऽतो वातव्याधिनिदानं व्याख्यास्यामः । विडभेदादि पांच प्रकार के क्रिमि। |
अर्थ-अब हम यहां से वातव्याधि पक्काशये पुरीषोत्था जायतेऽधोविसर्पिणः। निदान नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । वृद्धास्ते स्युर्भवेयुश्च ते यदाउमाशयान्मुखाः अर्थानर्थ में वायु का हेतुत्व । तदास्योद्वारनिःश्वासा विगंधानुविधायिनः “सर्वार्थानर्थकरणे विश्वस्यास्यैककारणम्। पृधुवृसतनुस्थूलाः श्यापपीतसितासिताः॥ भदुष्टदुष्टः पवनः शरीरस्य विशेषतः ॥१॥ ते पंच नाम्ना कमयः ककेरुकमकेरुकाः। अर्थ-अदुष्ट ( शुद्ध ) और दुष्ट (बिसौसुरादाः सलूनाख्या लेलिहा जनयंति च |
| गडा हुआ ) वायु इस संपूर्ण जगत का विभेदशूलविष्टंभकार्यपारुण्यपांडुताः। रोमहर्षाग्निसदनगुदकंड्रावीनर्गमात्,,॥५६
शुभ और अशुभ करने में प्रधान कारण अर्थ-पुरीषजक्रिमि पक्काशयमें उत्पन्न है अर्थात् शुद्धवायु से जगत की उत्पत्ति होतेहै और ये माचे को रेंगा करतेहैं । और और स्थिति रहती है तथा दूषितवायु विसूबडे होनेपर आमाशय की ओर मुख करलेते चिका, महामारी आदि अनेक भयंकर रोगों है। उस समय रोगी की डकार और निः- को उत्पन्न करके संसार का प्रलय करदेती श्वासमें विष्टाकी सी दुर्गंध आने लगती है, है । तथा शरीर का शुभाशुभ विशेषरूप इनमेंसे कितनेही मोटे, कितनेही गोल, स्थूल
से करती है। श्याववर्ण, पीत, सित, और असित होते हैं।
वायु के हेसु रूप होने में कारण । नामभेदसे ये पांच प्रकारके होते हैं, यथा- स विश्वकर्मा विश्वात्मा विश्वरूपःप्रजापतिः
स्रष्टा धाता विभुर्विष्णुः संहर्ता मृत्युरंतकः २ ककेस्क, मकेरुक, सौसुराद,सलूनाख्य, और तंददुष्टौ प्रयत्नेन यतितव्यमतः सदा । लेलिह । इनके उत्पन्न होनेसे मलभेद, अर्थ-यह वायु विश्वकर्मा, विश्वात्मा, शूल, विष्टंभ, कृशता, कर्कशता, पांडुता, ( विश्वरूप, प्रजापति, स्रष्टा, धाता, विभु,
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अ०१५
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
विष्णु, संहर्ता, मृत्यु और अतक हैं । इस
- वायु का कोप । लिये मनुष्य को उचित है कि वायको शुद्ध धातुक्षयकरैर्यायुः कुप्यत्यतिनिषेवितैः ॥५॥ रखने के लिये सदा यत्न करतारहै । घरन् स्रोतःसुरिक्तेषु भृशं तान्येव पूरयन् ।
तेभ्योऽन्यदोषपूर्णेभ्यः प्राज्यवावरणं बली। वात के कर्म ।
अर्थ-धातुओं का क्षय करनेवाले आहार तस्योक्तं दोषविज्ञाने कर्म प्राकृतवैकृतम् ॥
विहारादि के अति सेवन और चिरकाल समासाद्य सतो दोषभेदीये नाम धाम च प्रत्येक पंचधा चारो व्यापारश्च
तक सेवन से रिक्त स्रोतों में विचरता हुआ इह वैकृतम्॥४॥ उन्हीं को भरकर वायुकुपित होता है । अथवा तस्योच्यते विभागेन सनिदानं सलक्षणम्।। अन्य दोष द्वारा भरे हुए संपूर्ण स्रोतों से
अर्थ-दोष विज्ञानीयाध्य में वायुके प्राकृ- आवृत होकर बलवान् वायु कुपित हो त और वैकृतकर्मों का संक्षेपरीत से वर्णन | जाता है। करदिया गया है और दोष भेदीयाध्याय में | वातव्याधि को कष्टसाध्यता। उनके नाम, धाम, गति और व्यापार सं- | तत्र पकाशये क्रुद्धः शूलानाहांत्रकूजनम् । बंधी प्रत्येक के पांच पांच भेद विस्तार•
मलरोधाश्मवाशास्त्रकपृष्ठकटीग्रहम् ७ ॥ पूर्वक वर्णन करदिये गये हैं।
करोत्यधरकायेषु तांस्तान्कृच्छ्रानुपद्रवान् ।
अर्थ-ऊपर लिखे हुए दो कारणों से ___ इस अध्याय में उसी वायुके निदान
वायु पक्वाशय में कुपित होकर शूल, आऔर लक्षणों सहित वैकृतकर्म का पृथक
नाह, अंत्रकूजन, मलरोध, भश्मरी, वर्भ, पृथक वर्णन किया जाता है।
अर्श, त्रिक, पृष्ठ, और कमर में जकडन __ + विश्वकर्मा ( विश्वअर्थात् शरीर का | तथा शरीर के नीचे के भागमें अनेक जनन, वर्धन, धारण, भजन, शोषण आदि प्रकार के दारुण उपद्रव पैदा करदेता है। अर्थानर्थकर्मों को करता है )। विश्वात्मा (.शुभका आत्मा अर्थात् हेतु)। विश्वरूप
आमाशय के उपद्रव । ( वाह्य और आध्यात्मिक स्वभावरूप)। आमाशयेतृड्वमथुश्वासकासविसूचिकाः॥ प्रजापति (प्रजापलक ) । स्रष्टा (संसारका कण्ठोपरोधमुद्गाराव्याधीनूर्वचनाभितः। सृजने वाला ) । धाता (विश्वका धारण ___ अर्थ-आमाशय में कुपित वायु तृषा, करनेवाला अर्थात् वाह्यलोक वायुमंडल के वमन, श्वास, खांसी, विसूचिका, कंठरोध, आधार पर तथा सत्यलोक प्राणापानादि | डकार, और नाभि के ऊपर के भाग में वायुके ऊपर धारण किये हुए हैं ) विभु (शुभाशुभ करने में सामर्थ्यवान् विष्णु
अनेक प्रकार की वातव्याधियां उपस्थित - ( जगद्व्यापी) सहर्ता ( संहार करनेवाला)
होती हैं। मृत्यु( यमका मारणरूप कार्य करने से श्रोत्रादि और त्वचा के उपद्रव । यमरूप ) अंतक ( मारनेवाला साक्षात् / श्रोत्रादिग्विद्रियवधं यमरूप।
- त्वचि स्फुटनरूक्षणे ॥२॥
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१४३६).
अष्टांगहृदय ।
प्र० १५
अर्थ-श्रोत्रादि इन्द्रियों में कुपित वायु अनिद्रा, स्तब्धता और वेदना उत्पन्न इन्द्रियों का नाश करता है । त्वचा में | करता है। प्रविष्ट होकर त्वचा को फाड डालता है
शुक्रगत वायु। और रूक्ष करदेता है।
शुक्रस्य शीघ्रमुत्सर्ग सङ्गम् विकृतिमेव च ।
तदर्भस्य शुक्रस्था रक्त के उपद्रव॥
____अर्थ -शुक्रगत कुपितवायु वीर्य और रक्तेतीबारुजःस्वायं तापं रोगविवर्णताम् । गर्भ का शीघ्र पतन, निबंध और विकृति अरूंप्यनस्य विष्टंभमरुचि कशता भ्रमम् १० अर्थ-जब दूषित वायु रक्त में चला
करता है ।
सिरागत वायु । जाता है तब तीन यंत्रणा, स्पर्श का अज्ञान
सिरास्वाध्मानरिक्तते ॥१३॥ ताप, रोग, विवर्णता, अरूपि ( पिटिका ) तत्स्थः अन्नकी विष्टंभता, अरुचि, कृशता और भ्रम । अर्थ-सिरागत वायु सिराओं में आध्मान ये उपद्रव होते हैं।
और रिक्तता करता है। . मांसभेदोगत वायु के उपद्रव ॥
स्नायुगत वायु । मांसदोगतो ग्रंथीस्तोदोद्यान कर्कशान्- नावस्थितः कुर्याद्ध्रस्यायामकुजता ।
_ भ्रमम् ।। अर्थ--स्नायुगत होने पर वायु प्रधूसी, गुर्वगं चातिरुपस्तब्धमुष्टिदंडहतोपमम् ॥ आयाम और कबडापन इन रोगों को - अर्थ-कुपित वायु के मांसगत और | करता है। भेदोगत होने पर तोदादि वेदनायुक्त कर्कश
संधिगत वायु । ग्रंथियां होजाती हैं, तथा भ्रम, देहमें भारा वातपूर्णहातिस्पर्श शोफम् संधिगतोऽमिल: पन, अत्यन्त वेदना, स्तब्धता, और लाठी | प्रसारणाऽऽकुंचनयोः प्रवृत्तिं च सवेदनाम् । वा मुष्टिकी चोट के समान आहत होताहै। अर्थ--संधिगत वायु भरी हुई मशक के अस्थिगत वायु ॥
समान सूजन, तथा पसारने और सकोडने अस्थिस्थः सक्थिसध्यस्थिशलं तीनं
में वेदना करता है। बलक्षयम्।
सर्वांगगत वायु। . अर्थ-अस्थिगत कुपित वायु, सक्थि,
| सर्वांगसंश्रयस्तोदभेदस्फुरणभञ्जनम् १५॥ संधि और अस्थि में तीन झूल उत्पन्न करके
स्तंभमाक्षेपणं स्वापं संध्याकुंचनकंपनम् ।
अर्थ--सर्वागगतवायु सूचीवेधवत् पीडा बल को क्षीण करदेता है।
भेदन, स्फुरण ( फडकन ) भंजन, स्तब्धता मज्जागत वायु।
आक्षेप, स्पर्श का अज्ञान, संधि का आमज्जस्थोऽस्थिषु सौषियमस्वप्नम्
कुंचन और कंपन करता है। स्तब्धतां रुजम् ॥ १२॥
धमनीगत वायु । अर्थ-मज्जागत वायु अस्थियों में छिद्र, यदा तु धमनीः सर्वाः कुद्धोऽभ्येति
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अ०१५
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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
मुहुर्मुहुः ॥ १६ ॥ तदांगमाक्षिपत्येष व्याधिराक्षेपकः स्मृतः । अर्थ--कुपित वायुं जब संपूर्ण धमनियों में आश्रय कर लेता है तब अंगों को इधर उधर फेंकता है । बार बार अंगों का आक्षेप करने से इस ब्याधि को आक्षेपक कहते हैं ।
अपतंत्र वायु के लक्षण | अधः प्रतिहतो वायुर्व्रजत्यूर्ध्व हृदाश्रितः १७ नाडीः प्रविश्य हृदयं शिरः शखीच पीडयन् आक्षिपेत्परितो गात्रं धनुर्वच्चास्य नामयेत् ॥ कृच्छ्रादुच्छ्रवसिति
स्तब्धस्रस्तमीलितदृक्ततः ।
कपोत इव कूजेत्स निःसंशः सोऽपतंत्रकः ॥ स एव चापतानाख्यो मुक्ते तु मरुता हृदि । अनुवीत मुद्दुः स्वास्थ्यं मुहुरस्वास्थ्यमावृते
अर्थ - नीचे से प्रतिहत ( ताडित ) वायु कुपित होकर ऊपरको चढता है और हृदयस्थित धमनियों में प्रविष्ट होकर हृदय, सिर और कनपटियों को पीडित करता हुआ चारों ओर से शरीर को आक्षिप्त करता है और धनुष की तरह झुका देता हैं | इसमें रोगी अति कठिनता से श्वास लेता है, आंखें पथरा जाती हैं, और उनमें शिथिलता होजाती है, तथा रोगी आंखों को वन्द करता है, फिर कंठमें कबूतर की सी कूंजन है|ते २ बेहोश हो जाता है | इस व्याधिको अपतंत्रक और अपतानक इन दो नामोंसे वोलते हैं । इस रोग में कुपित वायु जब हृदयको छोडदेता है तब रोगी सुस्थ हो जाता है और जव हृदयपर आक्रमण करता है तव असुस्थ होजाता है | इसतरह रोगी वार बार सुस्थ और अस्थ होता रहता है ||
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( ४३
अपतानक की उत्पत्ति । अभिघातसमुत्थश्च दुश्चिकित्स्यतमो हि सः गर्भपातसमुत्पन्नः शोणितातिस्रवोत्थितः । अर्थ - अकालमें गर्भपात, अतिशय रक्तara और अभिघात इन तीन कारणों से अपतानक रोग उत्पन्न होता है, इनमें से गर्भपात से जो स्त्रियोंको होता है वह दुश्चिकित्स्य है और रक्तातिस्राव से जो स्त्री पुरुष दोनों के होता है वह दुश्चिकित्स्यतर है और अभिघात से भी दोनों के होता है यह दुश्चिकित्स्यतम है ।
अंतरायाम के लक्षण ।
मन्ये संस्तभ्य वार्ता ऽतरायच्छन् धमनीर्यदा व्याप्नोति सकलं देहं जत्रुरायम्यते तदा ॥ अतर्धनुरिवांगं च येगैः स्तम्भं च नेत्रयोः । करोति जृंभां दशनं दशनानां कफोद्वमम् २३ पार्श्वयोर्वेदनां वाक्यहनु पृष्ठशिरोग्रहम् । अंतरायाम इत्येष अर्थ - -जब कुपित वायु, ग्रीवा और पापूर्व में स्थित मन्या नामवाली दोनों सिराओं को जकड कर, और संपूर्ण धमनियों का आश्रय लेकर संपूर्ण देहमें फैलती है तब गर्दन के जोते टेढे पडजाते हैं और शरीर भीतर की ओर धनुषकी तरह झुकजाता है। रोगी के नेत्र स्तंभित होजाते हैं, जंभाई लेने लगता है, दांतों को चबा जाता है, कफकी वमन होती है, दोनों पसलियों में वेदना होती है, वाणी रुकजाती है, हनु पृष्ठ और मस्तक नकड जाते हैं, ये सब लक्षण उपस्थित हो ते हैं । इसको अंतरायाम कहते हैं | वहिरायाम के लक्षण | बाह्यायामश्च तद्विधः ॥ २४ ॥
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(८३४)
अष्टांगहृदय ।
देहस्य बहिरायामात्पृष्ठतो नीयते शिरः । । स्यात्कृच्छ्राच्चर्वणभाषणम् ॥ ३० ।। उरश्चामिप्यते तत्र कंधरा चावमृद्यते २५ अर्थ-जिह्वा के अत्यंत लेखन से अर्थात् दन्तेष्वास्येच वैवये प्र स्वेदःसस्तगात्रता। जिहवा को अत्यन्त छीलने से, सूखा पदार्थ बाह्यायाम धनुष्कभं ब्रुवते वेगिनं च तम् २६ / अर्थ-इस रोगमें शरीर बाहर की भोर
चबानेसे खोट लगने से हनुमूलस्थ वायु धनुष के सदृश झुकजाता है इसीलिये इसे
कुपित होकर हनुको शिथिल करदेता है । बहिरायाम कहते हैं । सिर पीठकी ओर झु.
इससे रोगीका मुख खुलाहो तो खुलाही रहा कजाता है, छाती ऊंची होजाती है, ग्रीवा
आता है और वन्दहो तो वंदही रहापाता है मुडजाती है, दांतोंका रंग बदल जाता है,
इसे रोगमें खाना और वोलना कठिन होनापसीने अधिकता से आने लगते हैं और / ता है । इस रोग को हनुस्रेस कहते हैं । संपूर्ण देह शिथिल होजाता है । इस बातव्या
जिह्वास्तंभ के लक्षण ॥ घि को बहिरायाम और धनुष्कंभ वा धनुस्तंभ
वाग्वाहिनीशिरासंस्थो जिह्वांकहते हैं । कोई कोई इसे वेगी भी कहते हैं।
स्तम्भयतेऽनिलाः ।
जिह्वास्तम्भः स ब्रणायाम के लक्षण ।
तेनानपानवाक्येष्वनाशता ॥ ३१ ॥ व्रणम् मर्माश्रितम्प्राप्य समीरणसमीरणात्।। अर्थ-मुषित वायु वाग्वााहनी सिरा में व्यायच्छति तनुं दोषासर्वामापादमस्तकम् |
म स्थित होकर जिह्वा को स्तंभित कर देता तृष्यतःपांडुगात्रस्य व्रणायामः सबर्जितः।। अर्थ-वायुसे प्रेरित होकर दोष मर्म के
है । इससे खाने पीने बोलने चालने में अ. आश्रित ब्रण में पहुंचकर सिरसे पांवतक सब
समर्थता होजाती है, इसरोग को जिड्वास्तंदेहमें विशेषरूप से व्याप्त होकर पहिले की
भ कहते हैं।
अर्दित के लक्षण ॥ तरह आयाम उत्पन्न करते हैं, इस रोगको
शिरसा भारहरणादतिहास्वप्रभाषणात् । ब्रणायाम कहते हैं। जिस ब्रणायाम रोगमें
उत्रासवक्त्रक्षवथुखरकामुककर्षणात् ३२ रोगीको अत्यंत तृषाहो और उसका शरीर विषमादुपधानाच्च कठिनानां च चर्वणात् पीला पड़गया हो वह असाध्य होनेसे बर्जित है। | वायुर्विवृद्धस्तैस्तैश्च वातलैरूमास्थितः ॥ गतवेग में स्वस्थता ।
वक्रीकरोति वक्त्रार्धमुक्तं हसितमीक्षितम् । गते वेगे भवेत्स्वास्थ्यं सर्वेष्वाक्षेपकेषु च ॥
ततोऽस्य कंपते मूर्धा वाक्संगः स्तब्धनेत्रता अर्थ-सब प्रकारके आक्षेपक रोगोंमें वायु
दतचालः स्वरभ्रंशः श्रुतिहानिः क्षवग्रहः ।
गंधाशानं स्मृतेर्मोहास्त्रासःसुप्तस्य जायते ॥ का बेग शांत होनेपर रोगी स्वस्थ होजाताहै।
निष्ठीवः पाश्वतोथायादेकस्याक्ष्णो निमीलनम् . हनुवंसके लक्षण ॥ जत्रोरूर्व रुजातीब्रा शरीरार्धेऽधरेऽपिवा। जिह्वातिलेखनात् शुष्कभक्षणाादभिघाततः | तमाहुरादत केचिदेकायाममथापरे। फुपितो हनुमूलस्थानसयित्वाऽनिलो हनू॥
___अर्थ-सिर पर धरकर बोझ ढोने से, करोति विवृतास्यत्वमथवा संवृतास्यताम् । हनुनसा सतेन
| अत्यंत हंसने से, अत्यंस वोकने से, उठतास
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अ १५
निदानस्थान भाषाठीकासमेत ।
मुख होनेसे, बलपूर्वक छींक लेनेसे, कठोर । अर्थ-दूषित वायु देहके आधेभाग को धनुषको खींचनेसे, ऊंचे नीचे तकिये पर | ग्रहण करके उसभागकी संपूर्ण सिरा और सिर धरने से, कठोर वस्तु चाने से, तथा | स्नायुओं को विशोषित करके तथा संधियों अन्य वातप्रकोपक हेतुओंसे वायु कुपित और के वंधनों को शिथिल करके वाम अथवा देहके ऊपरवाले भागमें स्थित होकर मुखके | दक्षिण पसवाडे को मारदेता है । रोगी का आधे भागको, अथषा कभी हंसने वा देख | आधा देह निष्काम और चेतनारहित होजाने को टेढा करदेता है, तदनंतर रोगी का | ता है , इस रोगको एकांगरोग और पक्षवध सिर कांपने लगता है, बाणी रुकजाती है, । अर्थात् पक्षाघात कहते हैं । और नेत्र जहांके तहां ठहर जाते है, दंत- सर्वांग रोग का लक्षण । चाल, स्वरभ्रंश, श्रवणशक्तिकानाश, छींक सर्वांगरोग तश्च सर्वकायाश्रितेऽनिले । का बंद होजाना, सूंघनेकी शक्तिनष्टहोजा- अर्थ-यदि कुपित वायु संपूर्ण शरीरका ना, स्मृतिका मोह, स्वप्नावस्था में त्रास, दो | आश्रय लेकर संपूर्ण शरीरकी सिरा और नों और से थूक निकलना, एक आंखका | स्नायुओं को विशोषित करके संधि वंधनोंको बंद होना जत्रुके ऊपरके भाग में, वा शरीरके | शिथिल करता हुआ संपूर्ण शरीर को निश्चेआधेभाग में, वा नीचेके भागमें तीव्र वेदना | ष्ट करदेता है तव उसे सौगरोग कहते हैं। ये सव उपद्रव उपस्थित होते हैं, इसे अर्दि- पक्षाघात का असाध्यत्व । त कहते हैं, कोई कोई इसीको एकायाम भी शुद्धवातहतः पक्षः कृच्छ्रसाध्यतमो मतः। कहते हैं, । भाषामें इसीको लकवा वा झो- कृच्छ्रस्त्वन्येन संसृष्टो विवर्यः क्षयहेतुकः । ला कहते हैं।
अर्थ-जो पक्षाघात केबल वातसे होता सिराग्रह के लक्षण ॥ है वह अत्यंत कष्टसाध्य है, जो कफपित्त के रक्तमाश्रित्य पवनः कुर्यान्मूर्धधराः सिराः ।। संयोगसे होता है वह कष्टसाध्य है और जो लक्षाः सवेदनाः कृष्णाः सोऽसाध्यः
धातुओं के क्षय से होता है यह असाध्य स्यात्सिराग्रहः ।
होनेसे त्याज्य है ॥ अर्थ-जब कुपित वायु रक्तका आश्रय
दंडक का लक्षण । लेकर मूर्धा में स्थित सिराओं को रूक्ष, शु
आमवद्धायनः कुर्यात्संस्तभ्यांगं कफान्वितः। लयुक्त और कृष्णवर्ण करदेता है तव उसे
असाध्य हतसर्वेहं दंडवइंडकं मरुत्॥४२॥ सिराग्रह कहते हैं यह असाध्य होता है । | . अर्थ-कफानुगतवायु आमद्वारा
एकांग राग का लक्षण ॥ तोंके द्वार को रोककर अंगको : गृहीत्वार्ध तनोर्वायुः सिराः स्नायुबिशाय च | है तब दंडक नाम वातव्याष्टि पक्षमन्यतरं हंति संधिबंधान् विमोक्षयन् । |
इससे देह दंडकी तरह कृत्स्रोऽर्धकायस्तस्य स्वादकर्मण्यो विचेतनः एकांगरोगं तं केचिदन्ये पक्षषधं विदुः। । हीन होजातीहै, यह
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[ ४४० ]
• अववाद्दुक का लक्षण | असमूलस्थितो वायुः सिराः संकोच्य तत्रगाः बाहुप्रस्पंदितहरं जनयत्ययचा हुकम् ॥४३॥
अर्थ - कंधों के मूल में स्थित हुआ कुपित वायु वहां की सब सिराओं को संकुचित करके बाहुओं की स्पंदन शक्तिको नष्ट कर देता है, इसी से इसे अवाहक रोग कहते हैं ।
विश्वाची का लक्षण ।
तलं प्रत्यंगुलीनां या कंडरा बाहुपृष्ठतः । वाहुचेष्टापहरणी विश्वाची नाम सा स्मृता । अर्थ- बाहुओं के पिछले भागसे जो स्नायुओं का समूह हाथ की उंगलियों तक आता है उसपर वायु आक्रमण करके उसे क्रियाहीन करदेता है । इससे इस रोग को विश्वाची कहते हैं ॥
खंज और पंगु ।
वायुः कट्यां स्थितः सक्न्नः कंडरामाक्षिपदा तदा जो भवेज्जंतुः पंगुः सोर्द्वयोरपि ।
अर्थ - कमर में स्थित कुपित वायु जब ऊरु की कंडरा अर्थात् वडी स्नायु को खींचता है तब मनुष्य लंगडा होजाता है और जब दोनों पावकी कंडराओं को खेचता है तब पंगु होजाता है |
काय खंज ।
कंपते गमनारं खंजेन्निव च याति यः । astri तं विद्यान्मुकसंधिप्रबंधनम् । S - जो मनुष्य चलना आरंभ करने कांपता हुआ खंजन पक्षी की चलने में लंगडाता है
अथवा
मे बंधन ढीले पडजाते हैं, कहते हैं ॥
हृदय ।
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अ० १५
रुस्तंभ का निदान | शीतोष्णाद्रवसंशुष्कगुरुस्निग्धैर्निषेवितैः । जीजी तथाऽऽयाससंक्षोभ स्वप्नजागरैः । सल ममेदपब्रनमाममत्यर्थसंचितम् । सक्थ्यस्थीनि प्रपूर्यातः श्लेष्मण स्तिमितेन तत् अभिभूयेतर दोषमूरू चेत्प्रतिपद्यते ॥ ४८ ॥ तदा स्कन्नाति तेनीरू स्तब्धौ शीतावचेतनौ । परकीयाविव गुरू स्यातामतिभृशव्यथैौ । ध्यानांगमदेस्तैमित्यतंगाच्छर्धरुचिज्वरैः । संयुतौ पादसदनकृच्छ्रोद्धरणसुप्तिमिः । तुमृरुस्तंभमित्याहुराढ्यवातमथापरे ॥ ४९ ॥
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अर्थ- जब भोजन का कुछ भाग पच गया है और कुछ न पचाहो ऐसे जीर्णा - जीर्ण समय में शीतल, उष्ण, गुरु, स्निग्ध इन पदार्थों के सेवन से तथा आयास ( परिश्रम ), संक्षोभ ( देहका इतस्ततः चालन ), दिवानिद्रा और रात्रिजागरण से कफ मेद और वायु से युक्त अत्यंत सं चित हुआ आम अन्य दोष अर्थात् पित्त का पराभव करके ऊरुओं में जा पहुंचता है और स्तिमित कफद्वारा पांवों की अस्थियों को भीतर से भरकर दोनों ऊरुओं को स्तंभित कर देता है । तब ऊरु स्तब्ध, और शीतल हो जाते हैं, इनमें सुई छेदना भी मालूम नही होता है और ऐसे भारी होजाते हैं कि किसी दूसरे के हैं, तीव्र वेदना होने लगती है। इस रोग में दौर्मनस्य, अंगमर्द, स्तिमिता, तंद्रा, वमन, अरुचि, ज्वर, पांवों में शिथिलता, पांवों का कठिनता से |उठाना, स्पर्शका न मालूम होना, ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । इस रोगको ऊरु - स्तंभ अथवा आढवत कहते हैं
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अ०१६
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४४१
कोष्टशीर्षक का निदान । हों उसके इस रोगका नाम पादहर्ष है, यह वातशोणितजः शोको जानुमध्ये महारुजः। कफवात के कोपसे होताहै । शेयःकोष्टकशर्पिश्च स्थूलःकोष्टकशीर्षवत् ।। पाददाह का निदान । ___ अर्थ-वात और रक्त दोनों के कुपित होनेसे
पादयोः कुरुते दाहं पित्तासृक्लहितोऽनिलः जानु के वीच में अत्यन्त वेदनायुक्त सूजन विशेषतश्चक्रमित पाददाहं तमादिशेतू" उत्पन्न होजाती है और इसका आकार स्थूल अर्थ-रक्तापित्तान्वित वायु जिसके दोनों शृगाल के मस्तक के सदृश होजाता है। पावों में दाह उत्पन्न करदेताहैं उसके पादइसलिये इस रोग को क्रोटुशीर्षक कहते हैं। दाह नामक रोग होताहै । यह रोग विशेष
बातकंटक का निदान । करके बहुत धूमने वाले के हुआ करताहै । रुकू पादे विषमन्यस्ते श्रमाद्वा जायते यदा इतिश्रीअष्टांगहृदयसंहिता भाषाटीका वातेन गुलकमाश्रित्य तमाडुर्वातकंटकम् ॥ .. अर्थ-विषमरीति से चलने के कारण
निदानस्थाने वातव्याधिनिदाननाम अथवा अत्यन्त परिश्रमसे जब वायु टकनों
पंचदशोऽध्यायः । में स्थित होजाता है तब बडी वेदना होने
षोडशोऽध्यायः। लगती है, इसे वातकंटक कहते हैं ।
गृध्रसीका निदान । पाणि प्रत्यंगुलीनांया कडरा मारुतार्दिता । सक्थ्युत्क्षेप निगृह्णाति गृध्रसीतां प्रचक्षते ।
अथाऽतो वातशोणितनिदानं व्याख्यास्यामः __ अर्थ-पाणिके सन्मुख जो उंगलियों की कंडरा हैं उनमें जब वायु वेदना उत्पन्न क.
| नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। रके पांवोंकी गमनशक्ति को नष्ट करदेता है
वातरक्त का निदान । तब उसे गृध्रसी रोग कहते हैं।
"विदाह्यन्न विरुद्धं च तत्तञ्चासक्प्रदूषणम् ।
भजतां विधिहीनं च स्वप्नजागरमैथुनम् । खल्लीबातका निदान ।
प्रायेण सुकुमाराणामचंक्रमणशालिनाम् । विश्वाची गृध्रसी चोक्का खल्ली तीब्ररुजान्विता
अभिघातादशुद्धश्च नृणामसृजि दृषिते २ अर्थ-पूर्वोक्त विश्वाची और ऊपर कहे
वातलैः शीतलैर्वायुर्वृद्धः ऋद्धो विमार्गगः । हुए गृबसी रोगोंमें जब शूल उत्पन्न होता | तादृशेनासृजा रुद्धःप्राक्तदेवप्रक्षयेत् ॥३॥ है, तब इन्हें खल्लीवात कहते हैं । आदयरोग खुडं वातबलौसं वातशोणितम्।
पादहर्ष का निदान । सदाटुर्नामभिस्तच पूर्व पादौ प्रधावति ॥४॥ हृष्यते चरणो यस्य भवेतां च प्रसुप्तवत् । विशेषाद्यानयानाधैः प्रलम्बीपादहर्षः स विशेयः कफमारुतकोपजः। अर्थ-मद्य अम्ल तक्र,दही चौला,ब्रीहि.. ___ अर्थ-जिसके दोनों पांवों में स्पर्श ज्ञानका | जलचरों का मांस,कुलथी,कुठेरादि विदाही नाश और रोमोद्गमहो तथा चींटीसी चलती | अन्न तथा संयोगमात्रादि से विरुद्ध अन्न,
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अष्टांगहृदय ।
( ४४२ )
तथा रक्तको दूषित करनेवाले अन्य पदार्थो के सेवन से अथवा विधिहीन दिवानिद्रा, रात्रिजागरण वा मैथुन में प्रवृत्त होने से, प्रायः सुकुमार और भ्रमण न करनेवाले पुरुषों के चोट लगनेंसे, वमन विरेचनादि द्वारा शुद्ध न होनेवाले मनुष्योंके रक्त दूषित हो जाता है तथा वातकारक और शीतल द्रव्यों के सेवन से बढा हुआ वायु कुपित होकर विमार्गगामी होजाता है । उस समय दूषित रक्तद्वारा रुका हुआ वायु प्रथम रक्तको ही दूषित करता है, तदनंतर मांसादिक अन्य धातुओं को भी दूषित करता है । इस वातदूषित रक्तको आढयरोग, खुडवात, वात वलास और वातरक्त नामसे बोलते हैं । यह रोग पहिले पांवों में उत्पन्न होता है । विशेष करके यह रोग घोडे आदि ऐसी सबारी पर बैठने से होता है जिन पर पांव लटका कर बैठना पडता है ॥
वातरक्त का लक्षण | तस्य लक्षणम् ।
भविष्यतः कुष्ठसमं तथासादः श्लथांगता ॥ जानुजंघोरुकटसहस्तपादांगसंधिषु । कण्ड्स्फुरण निस्तोदभेद गौरवलुप्तताः ६ ॥ भूत्वा भूत्वा प्रणश्यंति मुहुराविर्भवंति च । अर्थ-जो पूर्वरूप कुष्टरोग के कहे गये हैं वेही वातरक्त के भी होते हैं । उनके सिवाय देहावसाद और अंगशैथिल्य होते हैं । तथा जानु, जंघा, ऊरु, कटि, कंधा, हांथ, पांव, अंगसंधियों में खुजली, फडकन, सूचीवेधवतवेदना, भेद, गौरव, सुप्ति ये सब उपद्रव हो होकर मिट जाते हैं और फिर पैदा हो जाते हैं ।
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अ० १६
वातरक्त का सब देहमें फैलना । पादयोर्मूलमास्थाय कदाचिद्धस्तयोरपि ॥ ७ ॥ आखोरिव विषक्रुद्धं कृत्स्नं देहं विधावति । अर्थ - वातरक्त पांवों की जड़ में और कभी कभी हाथों के मूल में स्थित होकर चूहे के विपकी तरह कुपित होकर धीरे धीरे सब देह में फैल जाता है 1
त्वमांसाश्रयमुत्तानं तत्पूर्व जायते ततः ८ वातरक्त के दो भेद । कालांतरेण गंभीर सर्वान् धातूनाभिद्रवत् ।
अर्थ - वातरक्त दो प्रकार का होता है, एक उत्तान, दूसरा गंभीर । इनमें से उतान नामक वातरक्त त्वचा और मांसका आश्रय लेकर प्रथम उत्पन्न होता है । तदनंतर धीरे धीरे मेद आदि अन्य धातुओं का आश्रय लेता है तब इसे गंभीर नामक वातरक्त कहते हैं ।
. उत्तान के लक्षण | कंवादिसंयुतोत्ताने त्वक्ताम्रश्यावलोहिता १ सायामा भृशदाहोपा
अर्थ - उत्तान वातरक्त में त्वचा में खुजली, स्फुरण और तोद होता है । इसका वर्ण ताम्र, श्याव वा लोहित होजाता है। यह रोग विस्तृत और अत्यन्त दाह और वेदना से युक्त होता है ।
गंभीर के लक्षण |
गंभीरेऽधिकपूर्वरुक् । श्वयथुग्रथितः पाकी वायुः सध्यस्थिमज्जसु छिंदन्निव चरत्यंतर्वक्रीकुर्वश्च वेगवान् । करोति खंज पंगुं शरीरे सर्वतश्चरन् ॥
अर्थ -- गंभीर नामक वातरक्त में अत्यन्त वेदनायुक्त गांठदार पकनेवाली सूजन होती है तथा बलवान् वायु संपूर्ण शरीर में
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अ०१६
निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४४३)
विचरता हुआ संधि अस्थि और मज्जा में | और अति ऊष्मा । ये सब लक्षण उपस्थित छिदने कीसी पीडा करता है, शरीर को | होते हैं । टेढा करके खंजता वा पंगुता उत्पन्न कर । कफानुविद्ध वातात । देती है।
कफेस्तैमित्गुरुताय प्तिस्निग्धत्वर्शातताः। वाताधिक वातरक्त।
कंडूमदा च रुग्घातेऽधिकेऽधिकं तत्र शूलस्फुरणतोदनम्।
। अर्थ-कफाधिक्य वातरक्त में स्तिमिता शोफस्यरौक्ष्यकृष्णत्वश्यावतावृद्धिहानयः॥ गुरुता, सुप्ति, स्निग्धता, शीतता, खुजली धमन्यगुलिसंधीनांसकोचोंऽगग्रहोऽतिरुक् और मंद मंद वेदना होती है। शीतद्वेषानुपशयौ स्तंभवेपथुसुप्तयः १३ ॥
द्वंद्वज वातरक्त। अर्थ-वाताधिक्य वातरक्त में शूल, द्वंद्वसर्वलिंगम् च संकरे ॥ १६ ॥ स्फुरण, शूचीवेधवत वेदना होती है सूजन अर्थ-दो दोषों की अधिकता वाले में रूखापन, कालापन, श्यावता होती है, वातरक्त में उक्त दो दो दोषों के लक्षण कभी बढ़ जाती है और कभी घट जाती है। पाये जाते हैं और तीनों दोषों की अधिधमनी उंगली और संधियां सुकड जाती हैं । कतावाले घातरक्त में तीनों दोषों के मिले अंगप्रह, अत्यन्त वेदना, शीतल पदार्थों में हुए लक्षण पाये जाते हैं। अनिच्छा, शीत में अनुपशय, स्तब्धता, वातरक्त को साध्यादि। . कंपन और सुन्ति ये लक्षण होते हैं। एकदोवानुगं साध्यं नवं याप्यं द्विदोषजम् ।
त्रिदोषजं त्यजेत्स्रावि स्तब्धमर्बुदकारि च ।। रक्ताधिक्यवातरक्त ।
__ अर्थ-एक दोष से उत्पन्न हुआ और रक्ते शोफेऽतिरुक्तोदस्ताम्रश्चिमिचिमायते ।।
थोडे दिनका वातरक्त साध्य होता है । दो निग्धरूः शमं नैतिकण्डूक्लेदसमन्वितः॥ दोपों से उत्पन्न हुआ वातरक्त याप्य होता
अर्थ-रक्ताधिक्य वातरक्त में सूजन, है । तीन दोषों से उत्पन्न दुआहो, स्रावी तीब्रशूल, तोद, ताम्रवर्ण, चिमचिमाहट, | हो और अर्बुदकारी हो वह असाध्य होता कंडू और क्लेद होता है । इसमें स्निग्ध और | है, इसका इलाज नहीं होसकता है। रूक्ष उपचारों से शांति नहीं होती है । वातरक्त को मारकत्व ।
पित्तानुविद्ध वातरक्त । रक्तमार्ग निहत्याशु शाखा संधिषु मारुतः। पित्ते विदाहः संमोहः स्वेदो मुर्छा मदःसतृट् | निविश्यान्योन्यमाचार्य वेदनाभिर्हरत्यसून्॥ स्पर्शाक्षमत्वं रुग्रागः शोफपाको भृशोषमता | ___अर्थ-कुपित हुआ वायु हाथ पांवों की
अर्थ-पित्ताधिक्य वातरक्त में अत्यन्त | संधियों में घुसकर रक्तके मार्ग को रोक दाह, संमोह, स्वेदं, मुर्छा, मद, तृषा, स्पर्श | देता है पीछे रक्त और वायु आपस में एक का न सहना, वेदना, शोथमें ललाई, पाक | दूसरे को आवृत करके ऐसी ऐसी पीडा
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(४४४ )
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अष्टांगहृदय ।
अ.१६
करता है, जिससे प्राणों का नाश हो / विरोधिरूक्षभीहर्षविषादाद्यैश्च दूषितः॥२३॥ जाता है।
| पुंस्त्वोत्साहबलदंशशोफचित्तोत्प्लवज्वरान् ।
सर्वांगरोगनिस्तोदरोमहर्षांगसुप्तताः॥ २४॥ प्राणवायु का कर्म ।
कुष्ठं विसर्पमन्यांश्च कुर्यात्सर्वागगान् गदान वायौ पंचात्मके प्राणो रौक्ष्यव्यायामलधनैः।
अर्थ-अतिगमन, अतिध्यान,अतिकीडा, अत्याहाराभिघाताध्ववेगोदीरणधारणैः।। कुंपितश्चक्षुरादीनामुपधातं प्रवर्तयेत्।।
अत्यन्त विषम चेष्टा, विरोधी और लक्ष भो. पीनसार्दिततृट्कासश्वासादींश्चामथान्बहून् जन, भय, हर्ष और विपादादि द्वारा व्यान
अर्थ-प्राण, उदान, व्यान, समान वायु दूषित होकर पुरुषत्व, उत्साह और बल और अपान इनके द्वारा वायु पंचात्मक | का नाश करदेता है । सूजन,मनमें विकलता, होता है इन में से प्राणवायु रूक्षता, व्या. | ज्वर, सर्वांगरोग, निस्तोद, रोमहर्ष, अंगसुप्ति, याम, उपवास, अतिभोजन, अभिवात मार्ग | कुष्ठ, विसर्प, तथा सर्वांगगत अनेक प्रकारके भूमण, मलमूत्रादि के उपस्थित वेगों को | रोगोंको उत्पन्न करता है। रोकना, अनुपस्थित वेगों को उर्णि करना समानवायुके कर्म । इन कारणों से कुपित होकर आंख कान
समानो विषमाजीर्णशीतसंकीर्णभोजनैः ।
करोत्यकालशयनजागराद्यैश्च दुषितः । आदि इन्द्रियों का नाश करदेता है । तथा
शूलगुल्मग्रहण्यादीन पकामाशयजान गदान पीनस, अदित, तृषा, खांसी, श्वास आदि
___ अर्थ-विषम, अजीर्ण शीतल और संअनेक उपद्रवों को करता है।
कीर्ण भोजन करने से, तथा कुसमय निद्रा उदानबायु का कर्म । लेने वा जागनेसे समान वायु कुपित होकर उदानःक्षवथूगारच्छर्दिनिद्रावधारणैः। | शूल, गुल्म, ग्रहणी तथा पक्कामाशय में होने गुरुभारातिरुदितहास्यायैविकृतो गदान् । वाले अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है । कंठरोधमनोभ्रंशच्छरोचकपीनसान् । ।
- अपानवायुके कम । कुर्याच्च गलगंडादींस्तांस्तान्ज संश्रयान् ॥ २२॥
अपानो रूक्षगुर्वन्नवेगघातातिवाहनैः। अर्थ-उदानवायु. छींक, डकार, वमन | फुपितः कुरुते रोगान् कृछान् पक्काशयाश्रयान्
| यानयानासनस्थानचंक्र मैश्चातिसेवितैः ॥ और निद्रा के वेग को रोकने से भारी | मूत्रशुक्रप्रदोपार्शीगुदभ्रंशादिकान्बहून् । बोझ उठाचे से, अत्यंत हंसने वा रौने से } अर्थ-रूक्ष और भारी अन्नके खाने से, तथा ऐसे ही अन्य कर्मों से कपित होकर | मलमूत्रादि का वेग रोकने से, सवारीपर अकंठरोध, मनोभ्रंश, वमन, अरुचि, पीनस | धिक वैठनेसे , अधिक चलेनसे, अगभ्यस्थातथा जत्रु से ऊपर होने वाले अनेक रोगों नों में जानेसे, अपानवायु कुपित होकर मूको करता है।
त्र दोष, शुक्रदोष, अर्श और गुदभ्रंश तथा पानवायुका कर्म। अन्य कष्टसाध्य पकाशयगत रोगोंको उत्पन्न च्यानोऽतिगमनध्यानक्रीडाविषमचेष्टितैः। | करता है।
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[४४५]
सामनिराम वायुका लक्षण ।
रक्तावृत वायु। सर्वच मारुतं सामं तंद्रास्तमित्यगौरवैः। रक्तावृते सदाहातिस्त्वश्मांसांतरजाभृशम्। स्निग्धत्वारोचकालस्यशैत्यशोकानिहानिभिः भवेच्च रागी श्वयथुर्जायते मंडलानि च। कटुसमाभिलाषेण तद्विधोपशयेन च।।
। अर्थ - रक्तावृत वायुमें त्यचा और मांसके युक्तं विद्यानिरामं तु तंद्रादीनां बिपर्ययात् । अर्थ-तंद्रा,स्तिमिता, गुरुता, स्निग्धता,
| बीचमें दाहयुक्त अधिक वेदना, लाल रंगकी अरुचि, आलस्य, शैत्य, शोथ, अग्निमांद्य,
सूजन और देहमें गोलचकत्ते हो जाते हैं। कटु, और रूक्ष पदार्थों की अभिलाषा और
मांसावृत वायु। वैसेही उपशय इनसव लक्षणोंसे युक्त सब
मांसन कठिनः शोको विवर्णः पिटिकास्तथा
हर्षः पिपीलिकानां च संचार इव जायते । प्रकार के वायुको साम अर्थात् आमसहित
अर्थ-मांसाकृत वायुमें कठोर और बुरे कहते हैं । जिसमें उक्त लक्षणों के विपरीत
रंगकी सूजन, पुंसियां, रोमहर्ष और देहमें लक्षण होते हैं वह निराम कहलाती है। चींटियों कासा चलना मालूम होता है । . वायुके आवरणका वर्णन ।
मेदसावृत वायु। वायोरावरणं चातो बहुभेदं प्रवक्ष्यते।।
चल स्निग्धोमृदुःशीतः शोफोगात्रेवरोचकः अर्थ-सामनिराम लक्षण कहकर अब आल्यबात इति शेयः स कृच्छ्रो मेदसाऽऽवृते वायुके आवरण और भेदोंका वर्णन करतेहैं। अर्थ-मेद से आवृत वायुमें देहमें च
पित्तावरण के लक्षण लायमान, स्निग्ध, कोमल और शीतल सुलिगं पित्तावृते दाहस्तृष्णा शूलं भ्रमस्तमः ।
जन होती है तथा अरुचि भी होती है । कटुकोष्णाम्ललवर्विदाहः शीतकामता । इस व्याधिको आढयवातभी कहते हैं, यह ___ अर्थ-वायुके पित्तसे आवृत होनेपर दाह,
कष्टसाध्य होती है। तृषा, शूल, भूम, और आंखोंके आगे अंधे
अस्थ्यावृत वायु। रा, तथा कटु, उष्ण, अम्ल और लवणरस
स्पर्शमस्थ्यावृतेऽत्युष्णं पीडन चाभिनदति। सेवनमें दाह और शीतल वस्तु की इच्छा। सूच्येव तुद्यतेऽत्यर्थमंग सीदति शूल्यते । ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं। ___ अर्थ-अस्थिद्वारा वायुके आवृत होनेपर कफास्त वायु ।
स्पर्श में उष्णता तथा पीडनकी अभिलाषा शैत्यगौरवशूलानि कट्वायुपशयोऽधिकम् । होती है, देहमें सूचीबंधवत दारुण पाडा, लंघनायासरूक्षोष्णकामता च कफावृते। । अंगग्लानि और शूल होता है । ___ अर्थ-बायुके कफसे आबृत होने पर
मज्जावृत वायु। शेरै य, गुरुता, शूल, कटुरसादि सेवन में |
| मजावृते घिनमनं जभण परिवेएनम् ।.३७ । अधिक उपशय, लंघन, परिश्रम, रूक्ष और शुलं च पीड्यमानेन पाणिभ्यां लभतेमुखम् । उष्ण वस्तुकी इच्छा । ये सव उपस्थित अर्थ-वायुके मज्जावृत होने पर भंगों होते हैं।
| का नवजाना, ऐंठन, और शूल होता है,
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(४४६)
अष्टांगहृदय ।
म १६
हाथोंसे मर्दन करनेपर सुखकी प्राप्ति होतीहै। वेदना होने लगती है, तथा विलोम वायु शुक्राकृत वायु ।
हृदय को ब्याकुल करके पीडित करताहै । शुक्रावृतेऽतिवेगोवा न वा निष्फलताऽपिवा पित्तावृत प्राण वायु । - अर्थ-शुक्राबृत वायुम वायका अतिवेग | भ्रमोम रजा दाहः पित्तन प्राण आवृते ४२ अथवा सर्वथा बेगका अभाव और निष्फ. | विदग्धेऽन्ने च वमनम्लता होती है।
अर्थ-प्राण वायु के पित्त से अतृत अन्नावृत वायु ।
होने पर भम, मूर्छा, वेदना, दाह, और भुक्ते कुक्षौ रुजाजीणे शाम्यत्यन्नावृतेऽनिले | अपक्व अन्नकी वमन होजाती है । ____ अर्थ-वायुके अन्नसे आबृत होनेपर पित्तावृत उदान वायु । भोजन करनेसे कुक्षिमें शूल होता है, और
उदानेऽपि भ्रमादयः। अन्नके पचने पर वेदनाकी शांति होती है। | दाहोऽतर्जा श श्चमूत्रावृत वायु ।
_____ अर्थ -उदानवायु के पित्तसे आवृत होने मूत्राप्रवृत्तिराध्मान बस्तौ मूत्रावृते भवेत् ।। पर पूर्वोक्त भम मूर्छा आदि, तथा अंतर ___ अर्थ-मूत्र से वायु के आवृत होजाने | दाह और बल का नाश होता है । पर मूत्र का निकलना बंद होजाता है और पित्तावृत यान वायु । वस्ति स्थान में वेदना होने लगती है । । दाहो व्याने च सर्वगः ॥ ४३ ॥ परीषावत वाय।
क्लमोऽगचेष्टासंगश्च ससंतापः सवेदनः ॥ विडावृते विबंधोऽधः स्वस्थानेपरिकृतति। अर्थ-पित्ताबृत व्यान वाय में अंतर्दाह अजत्याशु जरां स्नेहो भुक्ते चानह्यते नरः॥ वहिर्दाह, क्वांति, शारीरिक क्रियाओं का शकृत्पीडितमन्नेन दुःखं शुष्कंचिरोत्सृजेत् ।
| नाश, संताप और वे चा होते हैं। .. अथे-वायु के पुरीष से आवृत होनपर गुह्यदेश में विवंधता होने के कारण कतरने
पित्तावृतसमानवायु। कीसी वेदना होतीहै, स्निग्ध पदार्थ शीघ्र पच
समान ऊष्मोपहतिरतिस्वेदोऽरतिः सतत् ॥ जाताहै और भोजन करने पर पेटमें अफरा
___ अर्थ-पित्तावृत समान वायुमें ऊष्माका होजाता है, इस तरह अन्न द्वारा मल
नाश, पसीनोंकी अधिकता, अरति और तृषा पीडित होकर सूखा हुआ बडी कठिनता से
उत्पन्न होते हैं। और बहुत देर में निकलता है ।
पित्तावृतअपानवायु । सर्वधात्वावृत वायु।
दाहश्च स्यादपाने तु मले हारिद्रवर्णता। सर्वधात्वावृते वायो श्रोणावंक्षणपृष्ठरुक् ॥
रुजोऽतिवृद्धिस्तापश्च योनिमेहनपायुषु ॥ विलोमो मारुतोस्वस्थं हृदयं पीडयतेऽति च ____ अर्थ-वायुके पित्तावृत होनेपर दाह, म- अर्थ-संपूर्ण धातुओं द्वारा वायु के आ. | ल में हरा रंग, तथा योनि, लिंग, और गदा वृत होने पर श्रोणी, वंक्षण और पीठ में | में अत्यन्त शूल और ताप होते हैं ।
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(४४७ )
कफावृत प्राणवायु ।
प्राणादि वायुका परस्पर आवरण । लेष्मणात्वावृते प्राणे सादस्तंद्रारुचिर्वमिः । प्राणादयस्तथाऽन्योन्यमावृण्वंतिष्ठीवनक्षवथूवारनिः श्वासोच्छ्वाससंग्रहः ।
___ यथाक्रमम् । __ अर्थ प्राणवायके कफाबत होनेपर अंग सर्वेऽपि विंशतिविधम विद्यादावरणम्
च तत् ॥ ५॥ में शिथिलता, तंद्रा, अरुचि, वमन, ष्टीवन
___ अर्थ--जैसे प्राणादि बायु पित्त और क(थूक ), छींक, डकार, निःश्वास, और
फसे आवृतहै, वैसेही ये आपस में एक दूसरे उच्छ्वास इनमें विवंधता होतीहै |
को आवरण करती हैं । आवरण' का क्रम । कफाबृत उदानवायु । उदाने गुरुगात्रत्वमरुचिर्वाक्स्वरग्रहः ।
यहहै कि प्राण वायु उदानादि चार वायुको बलवर्णप्रणाशश्च
आवरण करतीहैं वैसेही उदानादि चार वायु ___ अर्थ-उदान वायु के कफाबृत होनेपर प्राण वायु का आवरण करती हैं वैसेही उदान 'शरीरमें भारापन, अरुचि, वाकरोध, स्वर
| वायु व्यानादि तीन वायुका अवरण करती क्षय, बल और वर्ण का नाश होताहै ।।
है और व्यानादि तीन वायु उदानवायु का कफावृत व्यानवायु ।
आवरण करती हैं । व्यान वायु समान और व्याने पास्थिवाग्ग्रहः ॥ ५७ ॥
अपान का आवरण करती हैं और समान गुरुतांऽगेषु सर्वेषु स्खलितं च गतौ भृशम् ।
और अपान व्यानका आवरण करती है। अर्थ-कफाबृत व्यान वायुमें अस्थि की ऐसे दो दो ती नतीन द्वारा आवरण का सांधयों में जकडन, वाकरोध, संपूर्ण अंगों / वर्णन किया गयाहै ये सब आवरण बीस * में भारापन, गमनमें अत्यन्त स्खलन (बार
। प्रकार के हैं वार गिर पडना ], होताहै ।
आवरण चिन्ह ।
निश्वासोच्छ्वाससंरोधः प्रतिश्यायः शिरोकफावृत समान वायु ! समानेऽतिहिमांगत्वमस्वेदो मंदवान्हिता। हृद्रोगो मुखशोषश्च प्राणेनादान आवृते ।। - अर्थ-कफावृत समान वायुमें शरीर में । अर्थ-जव प्राणवायु उदानवायु का अत्यन्त शीतलता, पसीनों का न आना आवरण करलेता है, तव उसासलेने निकाऔर अग्निमांद्य होताहै।
लने में रुकाकट होती है, तथा प्रतिश्याय, कफाबृत अपान वायु । शिरोग्रह, हृद्रोग और मुखशोष ये उपद्रव अपाने सकफम् मूत्रशकृतः स्यात्प्रवर्तनम् । होते हैं। इति द्वाविंशतिविधं वायोरावणं विदुः४९ ॥
उदानावृत प्राण के लक्षण । अर्थ-कफावत अपान वायुमें मल और
| उदानेनावृते प्राणे वीजबिलसंक्षयः।। मूत्रकी अधिक प्रवृत्ति होतीहै । इस तरह । अथे-उदानवायु द्वारा प्राणवायु के वायुके बाईस प्रकार के आवरणों का वर्णन आवृत होजाने पर वर्ण, ओज और बलका किया गयाहै ।
नाश होजाता है।
ग्रहः।
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[४४८)
अष्टांगहृदय ।
अ० १६
मावरणों का दिग्दर्शन । स्यात्तयोः पीडनाद्धानिरायुषश्च बलस्य च दिशाऽनया च विभजेत्सर्वमावरण भिषक् ॥ अर्थ-प्राणवायु जीवन का आधार है स्थानान्यवेक्ष्य वातानां वृद्धि हानि च कर्म- और उदानवायु बलका आधार है इसलिये
णाम् ।
इन दोनों के पीडित होनेसे वायु और बल अर्थ-वैद्यको उचित है कि ऊपर लिख
| दोनों की हानि होती है इस हेतु से आहाहुए दिग्दर्शन मात्र से संपूर्ण आवरणों के
रादि द्वारा इन दोनों की रक्षा में विशेष भेदों को जानलैवे । वायुओं के स्थान
| यत्न करना चाहिये, कहाभी हैं "प्राणोतथा उनके कर्मों की हानि वा वृद्धि (कमी
रक्ष्यश्चतुर्योऽपि तत्स्थितौ देहसस्थितिः" वेशी ) देखकर भी आवरणों का विभाग
___ आवरणों का कष्टसाध्यत्व । करलेना चाहिये ।
आवृता वायबोऽज्ञाता ज्ञाता वा पत्सरं ____ आवरणों को असंख्ययत्व।
स्थिताः । ५७॥ प्राणादीनां च पंचानां मिश्रमावरणं मिथः॥ | प्रयत्तेनापि दुःसाध्या भवेयुर्वानुपक्षमाः । पित्तादि भिदिशभिर्मिश्राणां मिश्रितैश्च तैः अर्थ-वायु किस पदार्थ से आवृत हैं मिश्रः पित्तादिभिस्तद्वन्मिश्रणाभिरनेकधा ॥ | इस वातका निश्यय न होना अथवा निश्चय तारतम्यविकल्पाश्च यात्या त्तिरसंख्यताम् । होने पर भी वरसदिब तक उसकी चिकित्सा तां लक्षयेदवहितोयथास्वं लक्षणोदयात् ॥ शनैः शनैश्चपिशयाढामपि मुहुर्मुहुः ।।
" में उपेक्षा करना । इन वातों से ये कष्टसा. अर्थ-प्राणादि पंचवाय के आपस में | ध्य हो जाते हैं अर्थात् महान् प्रयत्न करनेपर मिले हुए आवरण और पित्तादि बारह | भी दुश्चिकित्स्य होजाते हैं । पदार्थों से आवृत प्राणादि पांच वायुका
आवरणोंसे विद्धादिकी उत्पत्ति । आवरण और वादाविनादि विद्रधिल्लीहहृद्रोगगुल्मानिसदनादयः ।
भवंत्युपद्रवास्तेषामावृतानामुपेक्षणात् “ ॥ बारह का मिश्र आवरण होता है, इस तरह
__ अर्थ-आवृत वायुकी चिकित्सा उपेक्षा इनके आपस में अनेक प्रकार से मिलने
करने से विद्रधि, प्लीहा, हृदयरोग, गुल्मरोग, के कारण और तारतम्य की विकल्पना से
अग्निसाद आदि उपद्रव उपस्थित होते हैं, आवरणों की संख्या नहीं हो सकती है।
इसलिये इसकी चिकित्सा यत्नपूर्वक करनी इनको उनके लक्षणों को साबधानी से
चाहिये । देख देखकर और उनके उपशयों पर दृष्टि
इतिश्री मथुरानिवासि श्रीकृष्णलाल देदेकर धीरे धीरे और बार बार उन गूढ
विरचितायां भाषा कान्वितायां विषयों को देखना चाहिये ।
अष्टांगहृदयसंहितायां तृतीयं प्राणादिवायु को जीवितत्व ।
निदानस्थानं षोडशाध्यायश्च विशेषाजीवितं प्राण उदानो बलमुच्यते ॥ |
समाप्तः।
समाप्तमिदं निदानस्थानम्
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ओ३म्
श्रीहरिम्वन्दे श्रीबृन्दावनविहारिणेनमः ॥अथचिकित्सितस्थानम् ॥
-
अर्थ-इसक कारण यह है कि आरोग्य प्रथमोऽध्यायः।
| के लिये चिकित्सा है और वह आरोग्यता
बल के आधीन है। अथाऽतो ज्वरचिकित्सितं व्याख्यास्यामः ।
लंघन के गुण । इति ह स्माहुरात्रेयाइयो महर्षयः।
| लंघनैः क्षपिते दोषे दीप्तेऽग्नौ लाघवेसति । अर्थ-अब हम यहांसे ज्यरचिकित्सित
| स्वास्थ्य क्षुतृट् रुचिः पक्तिर्बलमोजश्च जायते नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे यह अर्थ-लंघन करने से वातादि दोष आत्रेयादि महर्षि कहने लगे।
क्षीण होजाते हैं, जठराग्नि प्रदीप्त होजाती ज्वरादि में लंघन । है और देहमें हलकापन हो जाता है । इन " अमाशयस्थो हत्वाऽग्निं सामो मार्गान्- | बातों के होने पर आरोग्यता, क्षुधा, तृषा,
पिधाय यत् ।। विदधाति ज्वरंदोपस्तस्मात्कुर्वीतलंघनम् ॥
अन्न में रुचि, पाक, बल, और ओज प्रापेषु ज्वरादौ वा बलं यत्नेन पालयन्।
उत्पन्न होते हैं। ___ अर्थ-आमाशयस्थ वातादि दोष आम- साम ज्वर में बमन।। रस से मिलकर जठराग्नि को नष्ट करदेते तत्रोत्कृष्टे समुक्लिष्टे कफप्राये चले मले । हैं और स्रोतों को रोककर ज्वरको पैदा | सट्टल्लासपसेकानद्वेषकासविषचिके ॥ करदेते हैं इसलिये ज्वर के आदि में वा ज्वर सद्योभुक्तस्य संजातज्वरेसामे विशेषतः। का पूर्वरूप होते ही लंघन करना उचित है, |
वमनं वमनार्हस्य शस्तं कुर्यात्तदन्यथा ५ ॥ परंतु इस बात पर विशेष ध्यान रखना चाहिये । श्वासातीसारसंमोहद्रोगविषमज्वरान् । कि रोगी का वल क्षीण न होने पावै ।
___ अर्थ-ज्वर वाले मनुष्यके यदि वातादि . . बल की रक्षा का हेतु । दोषों की अधिकता हो, अपने स्थान से बलाधिष्ठानमारोग्यमारोग्यार्थः क्रियाक्रमः २ | चल दिये हों, कफकी अधिकता हो,
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(४५०)
अष्टामहृदय ।
अ०१
-
वा शिथिल हों, तथा हल्लास (जी मिचलाना) | करके, और वमन के अयोग्य ज्वररोगी को प्रसेक ( मुख में थूक भरना ) अन्न में | वमन न करके समुदीर्ण अर्थात् अच्छी अनिच्छा, खांसी, विसूचिका, ये सब उप- | तरह उत्पन्न हुए वातादि साम दोषों के द्रव विद्यमान हों इन बातों के होने पर ] पचाने के निमित्त और पुनर्वार उत्पन्न तथा भोजन करने के पीछे ज्वर उत्पन्न हुए निराम दोषों के शमन के निमित्त हुआ हो अथवा विशेष करके सामज्वर में । विशोषण अर्थात् लंघन कराना चाहिये। वमनार्ह ( बालक, बृद्ध वा गर्भिणी को ज्वरी को उपवास । छोडकर ) रोगी को वमन कसवै । उक्त
आमेन भस्मनेवाग्नौ छन्नेऽन्नं न विपच्यते । विधि के विपरीत होने पर वमन कराने
तस्मादादोषपचनाज्ज्वरितानुपवासयेत्॥
__ अर्थ-जैसे राख से ढकी वाह्य अग्नि से श्वास, अतीसार, मूर्छा, हृदयरोग और विषमज्वर उत्पन्न होजाते हैं।
स्थालीस्थ जल और तंडुल को नहीं पका
सकती है, इसी तरह आमरस युक्त वातादि बमनकारक द्रव्य । पिप्पलीभिर्युतान् गालान् कलिंगैमधुकेन वा
दोष द्वारा आछन्न जठराग्नि आमाशयस्थ उष्णांभसा समुधना पिबेत्सलवणेन वा।।
अन्न का परिपाक नहीं कर सकती है, पटोलनिवकर्कोटवेटपत्रोदकेन वा ॥७॥ | इसलिये जब तक साम दोष का परिपाक तर्पणेन रसेनेक्षोर्मधैः कल्पादितानि वा। न हो तब तक ज्वररोगी को लंघन कराना वमनानि प्रयुंजीत बलकालविभागवित् ॥
चाहिये। अर्थ-पीपल, अथवा इन्द्रजौ, अथवा
वातकफ घरमें उष्णजलपान । मुलहटी के साथ अथवा मधुमिश्रित गरम
तृष्णगल्पाल्पमुष्णांबु पिबेद्धातकफज्वरे। - जलके साथ अथवा नमकमिश्रित गरम जल तत्कर्फ विलयं नीत्वा तृष्णामासु निवर्तयेत् के साथ, अथवा परवल, नीम, कर्कोट वा | उदीर्य चाग्निं स्रोतांसि मृदूकृय विशोधबेत के पत्तोंके काथ के साथ, अथवा इक्षु
येत्। रस के साथ, वा मद्य के साथ मेनफल
लीनपित्तानिलस्वेदशकृन्मूत्रानुलोमनम् ॥
निद्राजाडयारुचिहरं प्राणानामबलंवनम् । देकर वमन कराबै वा वमनकल्पोक्त वमन
| विपरीतमतः शतिं दोषसंघातवर्धनम् ॥ कराने वाले द्रव्य देवे । वमनकारक द्रव्यों
अर्थ-वातकफ ज्वर में अर्थात् वातज्वर के देने में रोगी के बलाबल, अवस्था और | में, कमज्वर में वा वातकफचर में प्यास काल पर ध्यान रखना चाहिये ।
लगने पर रोगी को थोडा थोडा गरम जल वमन में विशोषण । पान करावे, क्योंकि उष्ण जल कफ को तेऽकते वा वभने ज्वरी कुर्याद्विशोषणम विलीन करके तृषा को शीघ्र शांत करदेता दोषाणां समुदीर्णानां पाचनाय शमाय च।। है, तथा जठराग्नि को प्रदीप्त करके स्रोतों
अर्थ-वमन के योग्य ज्वररोगी को वमन | में मृदुता करके उनको विशुद्ध करदेता है
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१.१
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
४५१ ]
इससे अप्रवृत्त पित्त, वायु, स्वेद, विष्टा और | वाला पित्तपापडा इनका क्वाथ ठंडा करके मत्र का प्रवर्तन होता है, निद्रा, जडता पिलादेवे । इससे आम दोषका पाचन और
और अरुचि का नाश होजाता है, तथा / तृषा तथा ज्वरका नाश होजाता है। गरम जल प्राणों का अवलंबन है। परंतु | ज्वरमें पित्तविरुद्धका त्याग । शीतल जल पान करने से उक्त लक्षणों के | ऊष्मा पिताइते नास्ति ज्वरो नास्त्यूष्मणा
विना ॥१६॥ विपरीत होता है तथा दोषों का समूह तस्मात्पत्तविरुद्धानि त्यजेत्बढता है । जब वात द्वारा कफ शोपित
पित्ताधिकेऽधिकम् । होकर गाढा होजाता है, तब तृपा की ___ अर्थ-बिना पित्त के ऊष्मा नहीं हो उत्पत्ति होती है ।
सकती है और बिना ऊष्मा के ज्वर नहीं पित्तज्वरमें उष्ण जलका निषेध ।। हो सकता है, इसलिये सब प्रकार के उणमेवंगुणत्वेऽपि युज्यानैकांतपित्तले ॥ ज्वरों में पित्त के विरुद्ध आहार विहारादि उद्रिक्तपित्ते दवथुदाहमोहातिसारिणि ॥ त्याग देने चाहियें और पित्त की अधिकता विषमद्योस्थिते ग्रीष्मे क्षतक्षीणेऽसपित्तिनि।
वाले ज्वर में तो विशेष रूपसे त्याग देने अर्थ-इतने गुणों से युक्त होने पर भी
चाहिये । केवल पित्तमें वा केवल पित्तज्वरमें, वा पि
____ ज्वर में स्नानादि का निषेध । त्ताधिक्य ज्वरमें गरम जल न देना चाहिये। नानाभ्यंगप्रदेहांश्च परिशेषं चलंघनम् १५ तथा दवथु, ४ दाह, मोह, अतिसार, विषज्वर । अर्थ-ज्वर में केवल पित्त विरुद्ध आहार मद्यजनित ज्वर, ग्रीष्मऋतु, उरःक्षत, धातु- विहारादि का निषेध किया गया है वह क्षीण और रक्तपित्त इन सब रोगोंमें भी। इतना ही नहीं है किन्तु स्नान, अभ्यंग, उष्ण जल न देना चाहिये ।
चंदनादि लेपन और परिशेष लंघन भी - उद्रिक्त पित्त में शीतल जल ।
त्याग देने चाहिये । 'यलंघनमुपयुक्तमुपयाधनचंदनशुंठ्यंबु पर्पटोशीरसाधितम् ॥ सलक्षणं ततो यदन्यत्तत्परिशेषम् । शुद्धयाशीतं तेभ्यो हितं तोयं पाचनम्
चुकादश प्रकारंच तत्त्यजेत्" । उपवासरूप अर्थ-पूर्वोक्त पित्ताधिक्य ज्वर में तृषा
लंघन को छोडकर शुद्धयादि जो ग्यारह लंघन का वेग होने पर मोथा, रक्तचंदन, नेत्र
| कहे गये हैं उन्हीं को परिशेष कहते हैं ।
____ x अन्य ग्रंथों में पानी की विधि इस चक्षुरादिभ्यो यस्तोत्र ऊष्मा प्रर्बतते प्रकार लिखी है कि कर्ष गृहत्विा द्रव्यस्य सदबथुः सर्वाङ्गीणस्तीब्र ऊप्मादाहः।अर्थात् तोयस्य प्रस्थमावपेत् । अर्धावशेषं तद्ग्राह्य दवथु और दाहमें यह अंतर है कि नेत्रादि तोयपाने त्वयं विधिः । अर्थात् कर्ष भर
से जो तीव ऊष्मा निकलती है उसे दबथु सब औधष लेकर एक प्रस्थ जल में औ• कहते है और सर्वांगव्यापी तीब्र ऊष्मा को | टावै, जब आधा प्रस्थ रहजाय तब पीने के दाह कहते हैं।
| काममें लावै।
तहज
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[४५२)
अष्टांगहृदय ।
सामज्वर में शूलधन औषधका निषेध । | अस्थियों में शूल के समान वेदना होती है अजीर्ण इव शुलघ्नम् सामे तीव्ररुजि ज्वरे। और जो ज्वर वात कफसे उत्पन्नहै उसमें न पिवेदौषधं तद्धि भूयः एवाममावत् १८ पसीने देना हितहै । स्वेदन कर्मसे पसीने, आमाभिभूतकोष्टस्य क्षीरम् विषमहेरिव ।।
मल, मूत्र और अधोवायु अच्छी तरह होने अर्थ-जैसे आमसहित अजीर्ण में तीव्र |
लगते हैं और जठराग्नि की प्रदीप्ति होती है वेदना होने पर भी अन्य किसी उपद्रव की
स्नेहविधिपालन । आशंका से शूलनाशिनी किसी औषधका
स्नेहोक्तमाचारविधिं सर्वशश्चानुपालयेत् । सेवन करना उचित नहीं है वैसेही आम
___अर्थ-स्वेदन कर्मके पीछे स्नेहविधि संयुक्त ज्वर में तीव्र वेदना होने पर भी
| अध्यायमें कहेहुए आचार व्यवहारादि हितकारी तत्काल आम के परिपाकार्थ मुस्तापर्पट्यादि नियमों का विधिपूर्वक पालन करे । औषधों से सिद्ध किया हुआ काथ सेवन मलों के पाचक द्रव्य । । करमा न चाहिये, क्योंकि वहु आम से | लंघनं स्वेदन कालो यवागूस्तिक्तको रसः। युक्त कोष्ठ में पान की हुई औषध परिपाक मलानां पाचनानि स्युर्यथावस्थं क्रमेण वा। को प्राप्त न होकर आमको ही भधिक अर्थ-साग वातादि दोष पृथक पृथकू वढाती है। यहां साम शब्द के प्रयोग से । स्थित हो, वा दो दो दोष मिलकर स्थित वहु आमका ग्रहण है क्योंकि अल्प अजीर्ण हो अथवा सन्निपात में स्थितहों, उनमें अमें तो औषध सेवन की आज्ञा दी गई है। वस्था के अनुसार लंघन, स्वेदन, काल, जैसे जीर्णेऽशनेतु भैषज्यं युंज्यात्स्तब्धगु. यवागू , और तिक्तरस ये पाचन है । अर्थात् रूदरे । दोषशेषस्य पाकार्थमग्नेः संधुक्षणा
ज्वर की किसी अवस्था में लंघन मलका यच । यहां एक दृष्टांत भी है कि जैसे दूध
पचानेवाला होताहै, किसी अवस्था में स्वेदविषनाशन होने पर भी वडे विषधर सर्पका
क्रिया, किसी अवस्था में काल ( छः वा आठ विष नाश न करके उलटा उसे बढाता है,
दिन ), किसी में यवागू और किसी में ऐसेही वहु आमावस्था में आमनाशक औ
तिक्तरस । इस तरह अवस्थानुसार लंघनादि षध के सेवन से आमका नाश न होकर
एक एक मलोंके पाचक होते हैं । अथवा आम बढता ही है ।
क्रमानुसार लंघनादि का प्रयोग करने पर उददादि ज्वर में स्वेद । भी आम का परिपाक होजाताहै, जैसे प्रथम सोदर्दपीनसश्वासे जंघापास्थिलिनि । लंघन और स्वेदनक्रिया करके छः दिन पीछे पातश्लेष्मात्मके स्वेदः प्रशस्तः संप्रवर्तयेत्। यवागू और तिक्तरस देनेसे अपक्व दोष का स्वेदमृत्रशद्वातान् कुर्यादग्नेश्च पाटवम् । परिपाक होजाताहै ।
अर्थ-जिस ज्वरमें उदर्द, पीनस और । ज्वरम लंघनका अपवाद । श्वास हो, तथा जिस ज्वरमें जंघा, पर्व और | शुद्धवातक्षयागंतुजीर्णज्वरिषु लंघनम् ।
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अ० १
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
[४५३]
नेप्यते
कर चिकित्सा करे । जैसे ईंधन से अग्नि तेषु हि हित शमनं यन्न कर्शनम्। प्रज्वलित होती है वैसेही मंडपेयादि द्वारा अर्थ-शुद्ध वातज्वर ( आमदोषादि से
जठराग्नि प्रदीप्त होती चली जातीहै । ज्वर अदूषित ) में, धातुक्षयज ज्वरमें, आगंतु
रोगी को पेया छः दिन तक देनी चाहिये ज्वरमें, और वीर्ण ज्वरमें रोगी को लंघन
और छः दिनसे पहिले ही ज्वर शांत हो नहीं कराना चाहिये।
जाय तो दोषदूष्यादि की अपेक्षा से भक्तयूइनके लिये शमन हितकारक होताहै ।
षादि देवे । छः दिन ब्यतीत होने परभी ( शंका ) शमन के संतर्पण और अपतर्पण
| जन तक ज्वर में मृदुता न हो पेयापान क. दो भेदहें इनमेंसे कौनसा शमन देना चाहिये !ना चाहिये । (प्रश्न) कोई कोई यह कहते (उत्तर) यन्न कर्षनम् अर्थात् वृंहण शमन | | हैं कि इस दशा में छः दिनका नियम क्यों दैना चाहिये ।
किया गया है ( उत्तर ) इस विषय में अलंधित और लंधित की पहिचान । किसी किसी का यह मत है कि छ:दिन तत्र सामज्वराकृत्या जानीयादविशोषितम् । पहिले भी यदि ज्वर में मृदुता होजाय तो द्विविधोपक्रमशानमवेक्षेत चलंघने । भी छ:दिन तक पेया पान कराता रहे इस __ अर्थ-इन ज्वरोंमें आमके लक्षण अर्थात्
लिये छः दिनका नियम किया है । ज्वर के उपयों की तीक्ष्णतादि होनेसे रोगी को अ
मृदु होने पर पाचन देना चाहिये । लंधित समझना चाहिये अर्थात् यह समझना
पेया का उपक्रम । चाहिय कि लघन का फल नहा हुआ आर प्राग्लाजपेयां सुजरांसशुठीधान्यपिप्पलीम् लंघन में द्विविधोपक्रमणीयं में कहे हुए ससैंधवांतथाम्लार्थी तां पिवेत्सह दाडिमाम् विमलेन्द्रियता और मलमूत्र का प्रवर्तन अर्थ-सब प्रकार की पेयाओं में लाल आदि निराम के लक्षणों को देखकर जान पेया ( धान की खील ) बहुत शीघ्र पच लेना चाहिये कि सम्यक लंघन होगयाहै | जाती है, इसलिये सोंठे, धनियां, पीपल
ज्वररोगी का पेयाद्वारा उपचार ।। डालकर सिद्ध की हुई लाजपेया में थोडा यक्तं लंधितलिंगैस्तु तं पेयाभिरुपाचरेत् । सा सेंधानमक डालकर पान करावै । यदि यथास्वौषधसिद्धाभिमंडपूभिरादितः। रोगी का मन खटाई पर चले तो अनारदाना तस्याग्निर्दीप्यते ताभिः समिद्भिरिव पावकः।
उसी पेया में डाल देना चाहिये । षडहं वा मृदुत्वं वा ज्वरो यावदवाप्नुयात्। अर्थ-जब ज्वररोगी में विमलेन्द्रियतादि
अन्परोगों में पेया।
सष्टविड बहुपित्तो वा संशुठीमाक्षिकांसम्यक् लंघन के लक्षण उपस्थित हो जांय
हिमाम् ॥ २७ ॥ तब उसको वातादि दोषों के योग्य औषधों वस्तिपार्श्वशिरःशूलीब्याघ्रीगोक्षुरसाधिताम् से सिद्ध की हुई मंड पेयादि का आहार दे- अर्थ-भिन्न पुरीषवाला ज्वररोगी, अथवा
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(४५४)
अष्टांगहृदय ।
अ० १
पित्ताधिक्यवाला ज्वररोगी सोंठ डालकर | पल और आमला डालकर सिद्ध की हुई सिद्ध की हुई पेयाको ठंडी करके और | यवागू पीना चाहिये । पीपल और आमल शहत मिलाकर पीवे । वस्ति, पसली को घीमें तल लेना चाहिये । यह पेया पुरीऔर सिर में शूलवाले ज्वररोगी को क- षादि मल और वातादि दोषों को अपने टेरी और गोखरू डालकर सिद्ध की हुई मार्गमें प्रवृत्त करनेवाली है। पेया देना चाहिये।
विवद्ध कोष्ठ में पेया ।। - ज्वरातिसार में पेया। चविकापिप्पलीमूलद्राक्षामलकनागरैः । पृश्निपबिलाविल्बनागरोत्पलधान्यकैः । कोष्ठे विबद्ध सरुजि सिद्धां ज्वरातिसार्यम्लां पेयां दीपनपाचनीम् अर्थ-वेदनायुक्त कोष्ठकी विवद्धता में ... अर्थ-पृश्निपर्णी,खरैटी, बेलगिरी,साठ, चव्य, पपिलामल, दाख, आमला, और सोंठ कमल और धनियां डालकर सिद्ध की हुई डालकर सिद्ध की हुई पेया पान करावै । पेया में अनारदाने की खटाई डालकर परिकर्तनि कोष्ठ में पेया । ज्वरातिसारवाले रोगी को देना चाहिये ।
पियेत्तु परिकर्तनि। “यह पेया अग्निसंदीपन और आमपाचक है। कोलवृक्षाम्लकलशीधावनीश्रीफलैः कृताम् ( शंका) पेयाके प्रसंग में कह दिया गया अस्वेदनिद्रस्तृष्णातः सितामलकनागरैः। है कि यदि रोगी का मन खटाई पर चले
सितावदरमृदाकासारिवामुस्तचंदनैः।३३।
तृष्णाच्छर्दिपरो दाहज्वरघ्नी क्षौद्रसंयुताम्। तो अनारदाना डालकर देदेना चाहिये फिर
___ अर्थ-कोष्टमें केंचीसे कतरनेकीसी पीडा यहां खटाई का उल्लेख क्यों है । ( उत्तर )
होनेपर घेर, वृक्षाम्ल, पिठवन, कटेरी, वेलसेगी का मन खटाई पर चले वा न चले
फल, इनको डालकर सिद्ध की हुई पेयापान परन्तु वसतिसारी रोगी को खटाई डालकर
करावे । पसीनों का अभाव, निद्रानाश और ही पेया देनी चाहिये । .
तृष्णा इनसे पीडित रोगीको चीनी, आमला . हिमादि में पेय.पान ।
और सोंठ से सिद्ध की हुई पेया देवे । तृषा हस्वेन पंचमूलेन हिक्कारुकश्वासकासवान् ।। पंचमलेन महता कफातों यवसाधितामा वमन आर दाहज्वर में ज्वर को नाश करने विवद्धवर्चाः सयवां पिप्पल्यामलकैः श्रुताम् । वाली चीनी, बेर, किसमिस, अनंतमूल, यवाणू सर्पिषाभृष्टां मलदोषानुलोमनाम् । नागरमोथा और चन्दन डालकर सिद्ध की
अर्थ -हिचकी, श्वास और खांसी वाले हुई पेया शहत डालकर पीना चाहिये ॥ रोगी को लघुपंचमूल से सिद्ध की हुई पेया रसादि करणविधि । देना चाहिये । कफपीडित रोगी को वृहत्पं. | कुर्यात्पेयौषधैरेव रसयुपादिकानपि॥ ३४ ॥ चमूलसे सिद्ध की हुई जौ और तंडुल की | अर्थ-जिन जिन द्रव्योंसे पेया सिद्ध की पेया देना चाहिये । मलकी विवद्धतामें पी- | जातीहै उन्हीं उन्हीं द्रव्योंसे मांसरस और
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अ०१
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
मुद्रादि यूप बनाने चाहियें । विशेष स्थल में पेयानिषेध | मद्योद्भवे मद्यनित्ये पित्तस्थानगते कफे । ग्रीष्मे तयोर्शधिकयोस्तृट्छर्दिदहपीडिते । ऊर्ध्वं प्रवृत्ते रक्ते च पेयां नेच्छति
अर्थ- मद्यसे उत्पन्न हुए ज्वर में, मद्य का नित्य सेवन करनेवाले को, पित्त के स्थान में कफके जानेपर, ग्रीष्म ऋतु में, पिनकफकी अधिकतामें, तृषा, और दाह से पीडित ज्वररोगी को, तथा ऊर्ध्वगामी रक्तवाले ज्वर रोगीको पेया न देना चाहिये । मोद्भवादि में कर्तव्य | तेषु तु । ज्वरापहैः फलरसैरद्भिर्वा लाजतर्पणम् । पिबेत्स शर्कराक्षौद
अर्थ-मद्योद्भवादि ज्वरदें दाख और आमला आदि ज्वरनाशक फलों के रसमें वा केवल जलमें सिद्ध किया हुआ चीनी और मधु मिलाकर धान की खील का सत्तू दैना उचित है |
उक्त तर्पण के जीर्ण होने पर कर्तव्य । ततो जीर्णे च तर्पणे । यवाग्वामोदनं क्षुद्वानश्नयाष्टतंडुलम् | anorath रसैर्वा मुद्गलावजैः ।
अर्थ - तर्पण पान के अनंतर तर्पण के जीर्ण होने पर अथवा यवागूपानार्ह मनुष्य की यवागूके पचनेपर जब क्षुधा चैतन्य हो तत्र द्वितीय अन्नकालमें भुने हुए चांवलोंके ओदनका भोजन देना चाहिये । यह ओदन मूंग वा कुलथी आदि के यूपके साथ अथवा मूंग और लावादि पक्षियोंके मांसरस के साथ देना उचित है | दकलावणिक में यह मत
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( ४६६ )
भेद है कि कोई तो कहते हैं कि नाति मांसास्तनुरसां दकलावणिकाः स्मृताः अर्थात् अम्ल मांसके पतले झोलको दकलावणिक कहते हैं । कोई अल्पमांसपटुस्नेहा दकलावणिकाः स्मृता, लवण और घृतादि स्नेहयुक्त अल्प मांस के झोलको दकलावणिक कहते हैं । छः दिनकी बिधि | इत्ययं षडहो मेयो बलं दोषं च रक्षता ॥
अर्थ- शरीरके बल और वातादि दोषकी रक्षा करता हुआ ज्वर के पहिले छः दिन बिताने चाहिये । दोष की रक्षाका यह प्रयोजन है कि वातादि दोष जो पृथक् पृथक्, दो दो मिलकर वा सब मिलकर ज्वर के कारण हैं वे कष्टसाध्य न होने पावें । अब बल की रक्षा के लिये जो संतर्पण दिया जाता है। तो संतर्पण आमका बढानेवाला है इससे सामदोष की वृद्धि होती है, और आमदोष को घटाने के निमित्त अपतर्पण किया जाता है तो बलकी हानि होती है । इसलिये मध्यमा बृत्तिका अबलंबन करके तर्पणादि द्वारा के प्रथम छः दिवस अतिवाहित क रना उचित है ।
कषायका प्रयोग |
ततः पक्केषु दोषेषु लंघनाद्यैः प्रशस्यते । कषायो दोषशेषस्य पाचनः शमनो यथा ॥
अर्थ - लंघनादि द्वारा जब वातादि साम दोष पक्क होजांय तब छः दिन के पीछे शेष दोष का परिपाक करने के निमित्त यथोपयुक्त मुस्तापर्पटकादि, पाचन कषाय तथा आगे . आने वाला 'कलिंगकादि" पांच प्रकारका शमन कषाय देना उचित है ।
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(४५६)
अष्टांगहृदय ।
अ...
पित्तज्वरमें तिक्तकषाय । अर्थात् कषायरस कफपित्तनाशक होता है तिक्तः पित्त विशेषेण प्रयोज्यः कटुकः कफे यह वात पहिले कही जा चुकी है परंतु अर्थ-विशेष करके पित्तज्वर में तिक्त
यहां पुनरुक्ति का यह कारण है कि कषाय रसवाले द्रव्यों के काथका प्रयोग करना
द्रच्यों का क्वाथ केवल नवज्वर, सन्निपातज उचित है । विशेष शब्द के प्रयोग से
वातकफज, वातपित्तज ज्वरों में ही अशस्त यह समझना चाहिये कि तिक्तरसान्वित द्रव्यों
नहीं है, किंतु पित्तकफज ज्वर में भी इसका का कषाय अन्य दोषोत्पन्न ज्वरों में भी
प्रयोग न करना चाहिये । दिया जाता है, केवल पित्तज्वर में ही नहीं
औषध के प्रयोग में मतभेद । कारण यहहै कि पित्तरस स्वाभाविक ही ज्वर सप्ताहादौषधं केचिदाहुरन्ये दशाहतः। नाशक होता है, और यह बात पहिले केचिल्लध्यन्न भुक्तस्य योज्यमामोल्वणे न तु कही भी जा चुकी है कि "तिक्तः स्वयम- अर्थ-कोई कोई आचार्य कहते हैं कि रोचिष्णुररुचिं कृमितृड्विषम् । कुष्ठमूर्छा सात दिन पीछे आठवें दिन ज्वरघ्न औषध ज्वरोस्क्लेददाहापत्तकफान् जयदिति" इसलिये यथायोग्य सिद्ध करके देना चाहिये । किसी रसों में तिक्तरस के समान और कोई रस का यह मत है कि दस दिन पीछे देना ज्वरघ्न नहीं है।
चाहिये । कोई यह कहते हैं कि मंडपेयादि __ कफचर में कटुरसविशिष्ट और ज्वर । पूर्वोक्त लघु अन्नका भोजन करने के पीछे नाशक द्रव्यों का क्वाथ देना चाहिये । क्यों औषध देना चाहिये, किंतु आमकी प्रवलाकि जैसे तिक्त द्रव्य मात्र ज्वरघ्न होते है | वस्थामें छः, सात वा दस दिन पीछे भी पैसे कटुरसविशिष्ट द्रव्य मात्र ज्वरनाशक 'मुस्तापपटकादि' औषध न देनी चाहिये नहीं होते हैं।
औषध देने में कारण । . तरुणज्वर में कषायनिषेध ।
तीव्रज्वरपरीतस्य दोषवेगोदये यतः ।
दोषेऽथवाऽतिनिचिते तंद्रास्तमित्यकारिण पित्तश्लेष्महरत्वेऽपि कषायस्तुन शस्यते॥
अपच्यमानं भैषज्यं भूयो ज्वलयति ज्वरम्। नवज्वरे मलस्तंभात्कषायो विषमज्वरम् । कुरुतेऽरुचिहल्लासहिध्माध्मानादिकानपि॥
अर्थ-मोथापर्पटी आदि के कषायद्वारा . अर्थ-कषायरसविशिष्ट द्रव्यों का क्वाथ
तीबज्वर से पीडित रोगी को आमदोषका ययपि पित्तकफनाशक होता है तथापि नव
वंग उदय होने अथवा उसी वातादि
दोपका अधिक संचय होनेसे तंद्रा और ज्वर में देना अच्छा नहीं होता है,इसका का
स्तिमिता उत्पन्न होजाते हैं । उस समय रण यह है कषायरस मलको स्तंभित करताहै
आम से आच्छादित होने के कारण अग्नि और मलके स्तंभित होनेसे सततकादि विषम
दी हुई औषध का अच्छी तरह परिपाक ज्वर,अरुचि,इल्लास,हिचकी और आध्माना- नहीं कर सकती है और ज्वर को अधिक दि रोग पैदा होजाते हैं । 'कषायाकफपित्तहा, तर प्रज्वलित करदेती है, इसलिये आमाधि
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अ. १
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
क्य ज्वर में छः, सात, वा दस दिन से ) पटोलं सारिवा मुस्ता पाठा कटुकरोहिणी ।
पटोल निवत्रिफलामृद्धीकामुस्तवत्सकाः ॥ पहिले औषध न देना चाहिये ।
किराततिक्तममृता चंदनं विश्वभेषजम् । औषध के प्रयोग का काल ।
धात्रीमुस्तामृताक्षौद्रमर्धश्लोकसमापनाः ।। मृदुज्वरो लघुर्देहश्चलिताश्च मला यदा ॥
पंचते संततादीनां पंचानां शमना मताः । अचिरज्वरितस्याऽपि भेषजं कारयेत्तदा ।
अर्थ-(१) इन्द्रजों, परवल, कुटकी अर्थ-जब ज्वर मृदु ( हलका ) हो,
(२) परवल, सारिवा, नागरमोथा, पाठ देहहलकी हो, और मलमूत्रादि की प्रवृत्ति
और कुटकी, ( ३ ) परवल, नीमकी छाल, अच्छी तरह होने लगगई हो, तब अचिर ज्वरवाले को भी अर्थात् छः दिन से
त्रिफला, मुनक्का, नागरमाथा और इन्द्रजौ पहिले भी औषध देदेनी चाहिये ।
( ४ ) चिरायता गिलोय , लालचंदन और औषध विधि।
और सोंठ, (५ आमला, नागरमोथा, मुस्तया पर्पटं युक्तं शुख्या दुःस्पर्शयाऽपि वा | गिलोय और ऊपर से शहद । ये आधे पाक्यं शीतकषाय वा पायोशारं सवालकम् आधे श्लोक में पांच प्रकार के क्वाथ कहे पिबेत्तद्वन्च भूनिंबगुडूचीमुस्तनागरम् ॥४६॥ गये हैं इनमें से यथाक्रम एक एक प्रयोग अर्थ-पूर्वोक्त लक्षणों के प्रकट होनेपर
संतत, सतत, अन्येशुष्क, तृतीयक और नागरमोथा, पित्तपापडा, अथवा मोथा और
चतुर्थक ज्वर में देने चाहिये। सोंठ अथवा मोथा और दुरालभा, इनका वातज ज्वर में औषध । काथ ठंडा करके पीवे | अथवा पाठा, खस
दुरालभाऽमृता मुस्ता नागरं वातजे ज्वरे। और नेत्रवाला इन का काथ ठंडा करके पावै अथवा पिप्पलीमूलगुइची विश्वभेषजम् । अथवा चिरायता, गिलोय नागरमोथा और
| कनीयः पंचसूलं च सोंठ इनका क्वाथ ठंडा करके पीवे ।
अर्थ--वातजज्वर में धमासा, गिलोय उक्तकषायों का यथायोग प्रयोग ।
नागरमोथा, और सोंठ अथवा पीपला. यथायोगमिमे योज्याः कषाया दोषपाचनाः
मुल, गिलोय, सोंठ और लघु पंचमूल का ज्वरारोचकतृष्णास्यवैरस्यापक्तिनाशनाः ॥ कषाय देना चाहिये । ___ अर्थ-ऊपर कहे हुए कपाय यथायोग पित्तज ज्वर में कषाय ! अर्थात् जो जिस ज्वर में देने योग्य हैं
पित्ते शक्रयवा घनम् ॥५२॥ उस देने पर आमदोष का परिपाक हो जाता कटुका चेति सक्षौद्रं मुस्तापर्पटकं तथा ॥ है, और ये काथ ज्वर, अरुचि, तृपा, मुख
सधन्वयासभूनिबं की विरसता, और अपाक का नाश करने
___ अर्थ पित्तज्वर में इन्द्रयव, नागरमोथा, वाले हैं।
कुटकी इनके क्वाथ में शहद मिलाकर देवे ___ संततादि ज्वर की चिकित्सा ।। अथवा मोथा, पित्तपापडा, धमासा और कलिंगकाः पटोलस्य पत्रं कटुकरोहिणी ॥ | चिरायता इनका क्वाथ देवे ।
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(४५८)
अष्टांगहृदए ।
कफ ज्वर में औषधं । । मूर्छा, दाह, श्रम, भ्रम, ऊर्धगामी रक्तपित्त
चलकाद्यो गणः कफे॥५३॥ पिपासा और कामला इन दोनों को नष्ट कर अथवा वृषगांगेयाशंगवेरदुरालभाः।
देता है। ___ अर्थ-कफज्वर में वत्सकादिगणोक्त इन्द्र
तत्काल बनाकर वस्त्रगे छाना हुआ फाट जौ, मूर्वा, भाडंगी आदिका काथ देवे
कहलाता है और गत्रिमें भिगोकर प्रातःकाल अथवा अडूसा, नागरमोथा, अदरख और
छानकर तयार कियाहुआ हिम कहलाताहै । धमासा इनका काथ देवै ।।
ज्वर और दाहकी औषध । बात कफ ज्वर में औषध । ।
पाचयेत्कटुका पिष्ट्वा कर्परेऽभिनवे शुचौ । रुग्विवंधानिलश्लप्मयुक्ते दीपनपाचनम् ॥
निष्पीडितो धृतयुतस्तद्रसो घरदाहजित्। अभया पिप्पली मूलशल्याककटुकाधनम् ।
____अर्थ-कुटकीको जलमें पीसकर मृत्तिका अर्थ-वेदना और विबंध से युक्त वात
के घडेके नवीन टुकडे में पकाकर निचोडले कफज्वर में हरड़, पीपलामूल, अमलतास,
और इस रस में घृत मिलाकर पीनेसे कुटकी और नागरमोथा, इनका काथ देना
ज्वर और ज्वरका दाह शांत होजाते हैं। चाहिये, ये आग्निसंदीपन और आमदोष को
कफबात में औषध । पचानेवाले हैं।
कफवाते वचातिक्तापाटाऽरग्वधवत्सकाः । बातपित्तज्वर में औषध ।
| पिप्पलीचूर्णयुक्तो वा काश्छिन्नोद्भवोद्भवः द्राक्षामधूकमधुकंरोधकाश्मर्वसारिवाः॥
अर्थ-बातकफ ज्वरमें वच,कुटकी,पाठा, मुस्तामलकहीबेरपझकेसरपद्मकम् ।। मृणालचंदनाशीरनीलोत्पलपरूषकम् ॥
अमलतास और इन्द्रयव का काथ हितकर फांटो हिमो याद्राक्षादिर्जातीकुसुमवासितः है । अथवा गिलोयके काथमें पीपलका चूर्ण युक्तो मधुसितालाजैजयत्यनिलपित्तजम् ॥ मिलाकर देवे। ज्वरं मदात्यर्थ छर्दिमूर्छादाहं श्रमं भ्रमम्
अन्य प्रयोग ऊर्ध्वगं रक्तपित्तं च पिपासां कामलामपि ।
व्याघ्रीशुख्यमृताकाथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः । __ अर्थ-दाख, महुआ की छाल, मुलहटी,
वातश्लष्मज्वरश्वासकासपीनसशूलाजत् । लोध, खंभारी, सारिखा,नागरमोथा, आमला,
___ अर्थ-कटरी, सोंठ, और गिलोयके कानेत्रवाला, नागकेसर, पदमाख, कमलनाल, थ में पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे वातलालचंदन, खस, नीलकमल, फालसा, द्रा- कफज्वर, श्वास, खांसी, पानस और शूल क्षादिगण का फांट वा हिम इसमें मधु, जाते रहते हैं। शर्करा और धान की खीलों का चूर्ण डाल
अन्य प्रयोग। कर और चमेली के फूलों से सुवासित षथ्याकुस्तुंवरीमुस्ताशुटीकतृणपर्पटम् । अर्थात् सुगंधित करके पीने से वातपित्तज.
सकटूफलवचामाङ्गादेवाहं मधुहिगुमत् ॥
कफवातज्वरेष्वेव कुक्षिहत्पार्श्ववेदनाः । ज्वर नष्ट होजाता है । तथा मदात्यय,धमन, कंठामयास्यश्वयधुकासश्वासानियच्छति ॥
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चिकित्सिस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४५९)
अर्थ-हरड, धनियां, नागरमोथा, सोंठ, अर्थ-महुआ का फूल, दाख, त्रायमाण रोहिसतृण, पित्त रापडा, कायफल, वच, भां- फालसा, खस, कुटकी, त्रिफला, और डंगी, और देवदारू इनके काथमें हींग और खंभारी इनका हिमकापाय बनाकर उचित शहत मिलाकर पीनेसे कफवातज्वर,कुशिशू कालमें पीना चाहिये यह एकदोषज, द्विल, हृदयशूल, पार्ववेदना, कंठरोग,मुखशो- दोषज और त्रिदोषज सब प्रकार के ज्वरों थ, खांसी और श्वास नष्ट होजाते हैं। को नष्ट करदेता है। . कफपित्त ज्वरमें औषध ।।
अन्य कषाय । आरग्वधादिः सौद्रः कफपित्तज्वरं जयेत् जात्यामलकमुस्तानि तद्वद्धन्वयवासकम् ॥ तथा तिक्तावृषाशीरत्रायतीत्रिफलामृताः। वद्धविटू कटुकाद्राक्षात्रायंतांत्रिफलागुडान
अर्थ-आरग्वधादि गणोक्त द्रव्यों का का- | अर्थ-चमली के पत्ते, आमला, नागरथ अथवा कुटकी, असा, खस, त्रायंती और । मोथा और धमासा इनका भी हिमकाथ सब त्रिफला इनका वाथ इन दोनों में शहत मि- प्रकारके ज्वरोको दूर करता है । जिसको लाकर पीने से कफपित्तम्बर का नाश हो मल की विवद्वता रहती हो उसे कुटकी, जाता है।
दाख, त्रायंती, त्रिफला और गुड इनका .. सन्निपातज ज्वरकी चिकित्सा। क्याथ देना चाहिये । . सन्निपातयो व्याकी देवदा शायनम् ।। जीर्ण औषध में कर्तव्य । पटोलपत्र रत्वकालागुनम् ॥ जोगीयोऽन्नं याद्यमाचरेच्छ्लेप्मयान्न तु ॥
अर्थ-संनितिचर में की, देवास, पेवा कफ वयात करघु वृष्टिवत् । हलदी, नागरमोथा, परवल के पत्ते, नीमकी । अर्थ-औषध जीर्ण होने के पीछे पेयाछाल, त्रिफला और कुरकी इनका काथ पा- दि पूर्वोक्त अन्न का भोजन करना चाहिये न करावे ।
परंतु जिसको कफका विकार हो वह औषध बातकफाधिक्य धरमें चिकित्सा। पचने परभी पेया पान न करे, क्योंकि पेया नागरं पौष्करं मूलं गुङ्गनी कंटकारिका । कफको बढाती है, जैसे धूल में हुई वर्षा स कासश्वासपाच वातलमात्तरे ज्वरे
कीचको वढाती है । अर्थ-सोंठ, पुष्करमूल, गिलोय, कटेरा,
तंत्रकार का मत । इनका काढा खांसी, श्वास और पसगी के लसाभिन्न देशमा मतः प्रागपि योजयेत् ॥ दर्दसे युक्त वातकफाधिक्य संनिपात ज्याको यूशन कुलत्या कामाता लघन्।
रूक्षास्तिक्तरसोधतान हूद्यान् रुचिकरान्दूर करता है।
पटून् ॥ ७१॥ सर्वज्वर पर कषाय ।
अर्थ-इसलिये कफसे क्लिन्न देहवाले मधूकपुष्प मृद्वीका त्रायमाणा परूषकम् ।। सोशीरतिक्ता त्रिफला काश्मय कल्पयद्धिमम ।
- रोगी को प्रथम कुलथी, चना और अनार कषायं तपिबन कालेज्वरान्सर्वान्व्यपोहति। आदि से बनाये हुए लघुपाकी, रूक्ष (घृत
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[४६०]
अष्टांगहृदय ।
अ०१
में भुनेहुए नहीं ), तिक्तरससे युक्त, हृदयको । ज्वरमें हितकारी रस । हितकारी, रुचिवर्द्धक यूष देने चाहिये, जि- | कारवेल्लकर्कोटवाळमूलकपर्पटैः ॥ ७४ ॥ नमें थोडा नमकभी पडाहो ।
बार्ताकनिंबकुसुमपटोलफलपल्लवैः।
अत्यंतलघुभिर्मासै गलैश्च हिता रसाः ॥ - ज्वरमें रक्तादि चांवल ।
व्याघ्रीयरूषतर्कारीद्राक्षामलकदाडिमैः । रक्ताद्याः शालयो जी षष्टिकाश्चज्वरेहिता संस्कृताःपिप्पलीशूटीधान्यजीरकसैंधवैः॥
अर्थ-रक्त, महान, सकलमआदि पुराने । अर्थ-करेला, कर्कोट, कच्चीमली, पित्त चांबल, और साठीचांवल ज्वरमें हितहैं। ।
| पापडा, बेंगन, नीमके फूल, परवल,अत्यन्त कफाधिक्यज्वर में पथ्य ।
लघु मांस वा जांगल जीवों का मांसरस श्लेष्मोत्तरे वीततुषास्तथा वाट्यकृता यवाः॥
ज्वर में हितकारी होता है । तथा कटेरी, ___ अर्थ-कफाधिक्यज्वर में निस्तुष जौ।
| फालसा, तोरी, दाख, आमला, अनार भूनकर दलेहुए हितकारी होते हैं ।
इनके काथ में पीपल, सोंठ, धनियां, जीरा ___ज्वरीको ओदनविधि ।
और सेंधानमक डालकर सिद्ध कियाहुआ ओदनस्तैः श्रुतो द्विस्त्रिः प्रयोक्तव्यो यथायथम्
रस हितकारी होता है। दोषदृष्यादिबलतो ज्वरघनकाथसाधितः॥ अर्थ-पूर्वोक्त रक्तशाल्यादि चांवलों का
अवस्था विशेषमें सितामधुयुक्त रस ।
सितामधुभ्यां प्रायेण संयुतावा कृताकृताः । भात जो ज्वरोगी जिसके योग्य हो उसे देना हितकारी है । चांवलों को दो तीनवार ।
है "मुद्गः शिंविधान्यानां पथ्यत्वे श्रेष्ठ
तम इति" धोकर फिर पकाना चाहिये । तथा वातादि शंका मुद्गादि कहने से कुलथी का दोष और रसादि दृष्य इनके अनुसार ज्वर ग्रहण है, क्यों कि कुलथी मुद्गादि के अंतनाशक द्रव्योंके क्वाथमें चांवलों को पकाना
र्गत है, फिर कुलथी का पृथकू निर्देश
क्यों है । उत्तर-ज्वर विषय में कुलथीका चाहिये ।
प्रयोग बहुत कम किया जाता है, यही .. ज्वरनाशक यूष ।
वात दिखलाने के लिये इसका पृथक् मुद्गायैलघुर्मियूषाः कुलत्थैश्च ज्वरापहाः । निर्देश किया गया है, फुलथी में ये गुणहैं
अर्थ-मुद्गादि x ( मूंग, उरद, चना, | "ऊष्मा कुलत्थाः पाकेम्लाः शुक्राश्मश्वास कुलथी, मोठ और मसर ) हलके अर्थात् पीनसान् । कासार्शः कफवातांश्च नंति · सुखपूर्वक पचनेवाले द्रव्यों के यूष, तथा |
पित्तास्नदाः परम्" इसलिये कुलथी के
उष्णत्व, अम्लविपाकित्व, और अति रक्त कुलथी का यूष ज्वरनाशक होता है ।
पित्तकारित्व गुणों के कारण अधिक मात्रा x मूंगका प्रयोग सब से पहिले किया | में प्रयुक्त किया हुआ कुलथी का यूष ज्वर गया है, इसका यह सारांश है कि जिन की शांति नहीं करता है, किंतु उसे बढाता व्याधियों में यूष दिया जाता है उनमें मूंग | है, क्योंकि पित्तका विरोधी है, इसलिये का यूष ही देना चाहिये क्योंकि यह अ- अल्पमात्रा में दिया हुआ यूष कफको शमन त्यत पथ्य होता है, चरक मुनिने भी कहा | करता है।
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अ० १
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४६१)
अर्थ-अवस्थाविशेष में न कि सब जगह | अभ्यास हो उसी समय में देश और सामांसयूष में मिश्री और शहद डाला जाता त्म्य के अनुसार सज्वर वा ज्वरमुक्त रोगी है । ये यूष दो प्रकार के होते हैं, कृता को भोजन कराना चाहिये, क्योंकि उस
और अकृता । दाडिम, जीरा, सोंठ आदि | समय उसको क्षुधा का उदय होता है । डालकर सिद्ध किये हुए संस्कृत यूष होते । अतएव जिसका भोजनोचित काल पूर्वान्ह हैं । इनसे विपरीत अकृत और असंस्कृत है, उसको पूर्वान्ह में भोजन करने से भी कहलाते हैं।
| अजीर्ण नहीं होता है, यद्यपि उस समय रुचिकर व्यंजन । अग्नि मंद रहती हैं। अनम्लतक्रसिद्धानि रुच्यानिध्यंजनानि च ॥ घृतपान का काल। अच्छान्यनलसंपन्नानि
कषायपानपथ्याग्नेर्दशाह इति लांघते । अर्थ-मीठे तक में पकाये हुए, भोजन | सर्दिद्यात्कफे मंदे बातपित्तोत्तरे ज्वरे ॥ रुचि बढानेवाले, अच्छ और अग्नि पक्क पक्केषु दोषेष्वमृतं तद्विषोपममन्यथा। . व्यंजन के साथ ओदन खाना चाहिये।
| दशाहे स्यादतीतेऽपि ज्वरोपद्रुववृद्धिकृत् ॥
लंघनादिक्रमं तत्र कुर्यादाकफसंक्षयात्। घर में अनुपान । अनुपानेऽपि योजयेत् ।
। अर्थ-पूर्वोक्त मुस्तापर्पटकादि के काथ तानि कथितशीत च वारि मद्यं च सात्म्यतः | का पान तथा पेया यूषादि हलके अन्न ___ अर्थ-भोजन करने के पीछे ऊपर कहे ! का भोजन, इस क्रम से जब दस दिन हुए संपूर्ण व्यंजन, औटाया हुआ ठंडा जल, वीतजाय और कफ क्षीणप्राय होजायतब वात
और मद्य सात्म्य के अनुसार अनुपान में पित्ताधिक्य ज्वर में यथोपयुक्त औषधों से प्रयोग करे ।
सिद्ध किया हुआ घृतपान करावे । दोषके __वर में भोजनकाल ।
परिपाक होने पर घृत अमृत के तुल्य है सज्वरं ज्वरमुक्तं वा दिनांते भोजयेल्लघु ॥ । और यदि दोष परिपाक को प्राप्त न हुआ श्लेष्मक्षयविवृद्धोष्मा बलवाननलस्तदा ॥ हो और कफकी अधिकता हो तो घृतपान अर्थ-सज्वर वा ज्वरमुक्त रोगी को दिन
विषके समान होता है । दस दिन वीतने के अंत में हलका भोजन करावै, क्योंकि
पर भी जो आमदोषका परिपाक न हुआ दिनांत में कफके क्षीण होने से जठराग्नि
हो तो भूलकर भी घृतपान न करावै । की ऊष्मा बढकर बलवान होजाती है और ।
| आमावस्था में घृतपान करने से ज्वरकी भोजन को पचा सकती है।
| तथा उसके उपद्रवों की वृद्धि होती है। इस यथोचितकाल में भोजन । यथोचितेऽथवा काले देशसात्म्यानुराधतः |
लिये कफके क्षीण होने तक आमावस्था में प्रागल्पवर्भुिजानो न ह्यजीर्णेन पीड्यते ॥ | लंघनादि क्रम का अवलंबन करना चाहिये
अर्थ-अथवा यथोचितकाल में अर्थात् | जीर्णज्वर की अनुवति । जिसको जिस समय भोजन करने का देहधात्ववलत्वाच्च ज्वरो जीर्णोऽनुवर्तते ।
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(४६२)
अष्टांगहृदय ।
-
अर्थ-देह और धातुओं के दुर्बल होने | सलिये व्याधिक प्रतिपक्षवाली औषधोंसे सिं. से पुराना ज्वर बहुत काल पर्यन्त ठर-द्ध किया हुआ घृत वातपित्ताधिक्य जीर्ण
ज्वरमें निःसंदह देना चाहिये । जीर्णज्वर में घृतपान :
ज्वरोमा में घृत । रूशं हि तेजो ज्वरकृतेजसा रूक्षितस्य व। वमनस्वेदकालांबुकषायलधुभोजनैः ॥४८॥
विपरीतं ज्वरोष्माण अयत्पित्तं च शैत्यतः । यः स्यादतिवलो धातुः सहचारीसदागतिः
| स्नेहाद्वातं घृतं तुल्ययोगसंस्कारतः कफम् ।। तस्य संशमनं सर्पिर्दीतस्येवांबु वेश्मनः ॥ ____ अर्थ-घृत अपने स्निग्ध और शीतगुण
अर्थ-रूक्ष तेज ज्वरोत्यादक होता है। से रूक्ष और तीक्ष्णादि विपरीतगुण वाली रूक्ष कहने से देहकी ऊमा अर्थात् जठ- ज्वरकी ऊष्माको जीतता है । शीतगगसे उष्ण राग्नि का ग्रहण है, उस रूक्ष तेज के
गुणवाले पित्तको, स्निग्धगुण से रूक्षगुणविद्वारा ज्वररोगी रूक्षित होजाता है और
शिष्ट वायुको और कफनाशक द्रव्योंसे सिद्ध उस समय में की हुई वमन, स्वेद, का
किया हुआ घृत तुल्य गुणवाले कफ को जील, जल, और क्वाथपान और लघुभोजन इन
तता है । सब रूक्षताको उत्पन्न करनेवाले कार्यों से
मलानुसार सघृतकषायका प्रयोग । वायु अत्यन्त प्रबल होकर वरात्मक तेज अ
पूर्व कषायाः सघृताः सर्वयोज्या यथामलम् । र्थात अग्निके साथ होलेती है, और अग्नि- अर्थ-पहिले जो जो कपाय कहे गये हैं स्वभाव होने के कारण पित्ताख्य धातु भी सा- | वे सब पाचन वातादि दोपों के अनुसार जीथ होलेती है, इसलिये जीर्णज्वरमें रूक्ष देह.
| ज्वर में घृत के साथ देने चाहिये ।
घर में वाले मनुष्य के लिये घृतपान प्रशस्त है, जैसे
अन्य क्वाथ । जलते हुए घरकी अग्निका बुझाने वाला ज- त्रिफलापिचुकंदत्वक शुकम् बृहतीद्वयम् । ल है वैसेही रूक्षताकृत जीणज्वर का संश- समसूरदलं कायः सतो ज्वरकासहा ८८ मन करनेवाला घृतपान है। ____ अर्थ-त्रिफला, नीम की छाल, मुलहटी,
वातपित्तोत्तर जीर्णज्वरमें घृत। छोटी कटेरी, बडी कटेरी, और मसूर इनका वातपित्ताजतामग्रयम् संस्कारमनुरुध्यते।। क्वाथ घृतके साथ पान कराने से ज्वर और सुतरां तद्धयतो दद्याद्यथा स्वौषधसाधितम् |
खांसी जाते रहते हैं। “अर्थ-वातपित्त को जीतनेवाली जितनी
अन्य प्रयोग। औषध हैं उन सबमें घृत प्रधान है क्योंकि पिप्पलीद्रयवधावनितिक्तायह संस्कारका अनुवर्तन करता है, अर्थात् सारिवामलकतामलकीभिः । जिा द्रव्य के साथ पकाया जाता है, उसीके
बिल्वमुस्तहिमपालनिसेव्यै
द्राक्षयातिविषया स्थिरया च ॥ ८९ ॥ गुणको ग्रहण करलेता है और अपने स्निग्धा
घृतमाशु निहंति साधितम्दि गुणोंका भी परित्याग नहीं करता है, इ. ..ज्वरमग्निं विषमं हकमिकम्।
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अ१
चिकित्सिवस्थान भाषादीकासमेत ।
(४६३)
अरुचि भृशतापमंसयो-
जीर्णज्वरनाशक पांचस्नेह । मधुं पार्श्वशिरोरुजम् क्षयम् ॥९०॥ गुडूच्या रसकल्काभ्यां त्रिफलायावृषस्य च
अर्थ-पीपल, इन्द्रयव, कटेरी, कुटकी, मूहीकाया बलायाश्व स्नेहाः सिद्धासारिवा, आमला, भूम्यामलक, वेलगिरी,ना
ज्वरच्छिदः ॥९३॥ गर मोथा, हिम ( रक्तचंदन , पालती,खस,
अर्थ-गिलोय, त्रिफला, बासक, किसदाख, अतीम, और शालपर्णी इनसब औषधों
मिस और खरैटी इन पांच द्रव्योंके अलग२ से सिद्ध किया हुआ घृत ज्वर, अग्निकी वि
क्वाथ और कल्क में सिद्ध किया हुआ पांच षमता, हलीमक, अरुचि, दोनों कंधोंका अ
प्रकार का घृत जीर्ण ज्वरको दूर करदेताहै : तिताप, वमन, पसली का दर्द, शिरोवेदना
। परिणत वृतमें रस भोजन । और क्षयरोग को शीघ्र नष्ट कर देता है ।
जीर्ण घृतं च जीत मृदुमांसरसौदनम् । वातज पित्तज ज्वर में दूत ।
बलं ह्यलं दोषहरंपरं तच्च बलप्रदम् १९४। तैल्यकम् पाजपनि ज्वरें
___ अर्थ - घृतके जीर्ण होनेपर कोमल मांसयोजयनिवृतया बियोजितम्। । रसके साथ ओदना खाना चाहिये, यह वल तिक्तकम् वृषवृतम् च पैत्तिके- को प्राप्त हुए दोष का हरनेवाला और स्वयं यच पालांनकया शतम् हविः ॥ ९१ ॥
बलकारकहै । अर्थ-वातज ज्वरमें वात व्याधिचिकित्सितं
कफपित्तनाशक रस । अध्यायमें कहेहुए तैवक घृत देवे परन्तु इस
कफपित्तहग मुद्गकारवेल्लादिजा रसाः। में निसोथ न डाले । पित्तज ज्वर में कुष्ट
प्रायेण तस्मानहिता जाणे वातोत्तरे ज्वरे०५ चिकित्सित अध्यायों कहा हुआ तिक्तक घृत शूलोदावतीवेष्टभजनना ज्वरवर्धनाः ।
और रक्तपित्तचिकित्सित अध्यायमें कहाहुआ अर्थ - मूंग और करेला आदि का रस बृषवृत देना चाहिये तथा त्रायमाण से सिद्ध । ( झोल ) कफपित नाशक होताहै, इसलिये किया हुआ घृत भी पित्तज्वर में हितहै ।
| यह प्राय; वाताधिक्य जीर्णज्वर में हितकारी कफज्वर में घृत । नहीं होताहै बाताधिक जीर्णज्वर में देनेसे विडंगसौवर्चलचव्यपाठा
शूल, उदावर्त, विष्टंभ और ज्वरकी वृद्धि व्योषाग्निसिंधूद्भवयायशूकैः। पलांशकैः क्षीरसमं घृतस्य
होती है। प्रस्थं पवेजीककज्वरजम् ॥ ९२ ॥ शमनाभाव में वमन ।
अर्थ-वायविडंग, संचल नमक, चव्य, नशाम्यत्येवमपि चेज्ज्वरः कुर्वीत शोधनम् ॥ पाठा, सौंठ, कालीमिरच, पीपल, सेंधानमक, शोधनार्हस्य वमनं प्रागुक्तं तस्य योजयेत् । और जवाखार इन सबको एक एक पल, | आमाशयगते दोषे वलिनः पालयन्वलम् ॥ दूध एक प्रस्थ, घृत एक प्रस्थ और चार __ अर्थ-उक्त रीतिसे यदि ज्वर शांत न प्रस्थ जल डालकर पकावे, इससे जीर्ण कफ हो तो शोधन के योग्य रोगी को [ पिप्पज्वर नष्ट होजाताहै।
लीभिर्युतान् गालान् ) पिप्पल्यादि युक्त मैन
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अष्टांगहृदप ।
__ अ०१
फलके प्रयोगसे वगन करावै । वमन कराना | अर्थ-विरिक्त और वमित ज्वररोगियोंको उस समय उचितहै जब दोष आमाशय में | यथाक्रम संसर्गी करना चाहिये अर्थात् प्र. जाचुके हों और रोगी बलवान् हों । वमन थम मंड देकर फिर पेय लेह्यादि क्रमपूर्वक कराने के समय रोगी के बलकी रक्षा पर देना चाहिये । वमनविरेचन के पीछे जो पेविशेष ध्यान रखना चाहिये । । यादि का क्रम है उसे संसर्गी कहते हैं ।
त्रिफलादि द्वारा विरेचन ।। ___ज्वरोक्लिष्ठ मलकी उपेक्षा । पक्के तु शिथिले दोरे बरे वा विषमद्यजे । च्यवमानं ज्वरोटिक्लम पेक्षेत मलं सदा । मोदकंत्रिफलाश्यामांत्रिवृत्पिपलिकेसरैः॥ | पकोऽपि हि विर्वीत दोषःकोष्ठे कृतास्पद: ससितामधुभिर्दद्याद्व्योषाद्यं वा विरेचनम्।
| अतिप्रवर्तमानं वा पाचयन्संग्रहं नयेत्। आरग्वधं वा पयसा मृद्धीकानां रसेन वा ॥
। अर्थ-ज्वर से उक्लिष्ट हुआ मलजो ___ अर्थ-दोष के पक्क होने अथवा शिथिल
| वाहर निकलने लग गया हो उसको रोअर्थात् अविष्य होनेपर अथवा विषज वा मद्य ज वातज्वर में त्रिफला, श्यामानिसोथ,नि
कने के लिये प्रयत्न न करना चाहिये,
क्योंकि पक्क मल बाहर न निकल सकेगा सोथ, पीपल, केसर इन सवका चूर्ण बनाकर मिश्री और मधु मिलाकर मोदक तयार क.
तो कोष्ठ के भीतर आमाशय में दृढ होकर
बैठ जायगा और अनेक प्रकार के विकार र ले, इन मोदकों से विरेचन करीव अथवा व्योषाद्य x मोदक देकर विरेचन करावे,अथवा
उत्पन्न करेगा । किंतु अतिप्रवृत्त अपक्क
मलको पाचक औषधियों द्वारा पकाकर दूध, वा किसमिस के रसके साथ अमलतास
रोक देवै । का गूदा देकर विरेचन करावै । दूध के साथ त्रिफला ।
आमसंग्रह का निषेध । विकलां त्रायमागां वा पयसाज्वरितःपिवेत आमसंग्रहणे दोषा दोषोपक्रम ईरिताः॥ - अर्थ-ज्वर रोगीको दूध के साथ त्रिकला अर्थ-अपक्क दोष अर्थात् आमके रोकने वा त्रायमाण पान कराना उचित है ।
| से जो जो विकार उत्पन्न होते हैं वे सब विरिक्तादि का संसर्गी कर्तव्य ।।
दोषोपक्रमणीय अध्याय में वर्णन कर दिये विरिक्तानां च संसर्गी मंडपूर्वा यथाक्रमम् ॥ | गये हैं, इसलिये आमको रोकने के लिये ___xव्योषत्रिजात कांभोदकृमिघ्नामलकै औषध न देनी चाहिये दोषोपक्रमणीय अनिवृत् । सर्वैः समा समसिता क्षौद्रेण गु- ध्याय में लिखा है कि "उक्लिष्टानध ऊवा टिकाः कृता ॥ अर्थात् सोंठ, मिरच, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, मोथा, वाय
न चामान्वहतः स्वयम् । धारयेदोषर्दोषान् विडंग, आमला, और निसोथ इन सबकोस विधृतास्तेहि रोगदा इति । मान भाग लेकर मिश्री और मधु मिलाकर आमज्वर में आमहरण का निषेध । जो मोदक तयार किये जाते हैं उन्हें व्योषा- पाययघोषहरण मोहादामज्वरे तु यः । दि कहते हैं।
। प्रसुप्तं कृष्णसर्प स कराग्रेण परामृशेत् ॥
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चिकित्सितस्थान भाषाठीकासमेत ।
अर्थ - जो पापी वैद्य अज्ञानतासे आमज्वर में देष का परिपाक न होनेपर आमको निकालनेवाली दवा देता है वह सोतेहुए काले सर्पको उंगलियों से स्पर्श करता है । इसका यह सारांश कि आमज्वर में दोषको निकलने वाली औषधसे प्राणहारक संकट उपस्थित होजाते हैं ।
ज्वरक्षीणमें कर्तव्य |
रक्षीणस्य न हितं वमनं च विरेचनम् । कामं तु पयसा तस्य निरूहैर्वा हरेन्मलात् ॥
अर्थ- जो मनुष्य ज्वरसे क्षीण हो गया है, उसको वमन वा विरेचन हितकारी नहीं है उनका मल यथेच्छ दुग्धपान वा निरूहण द्वारा निकालना चाहिये ।
क्षीरोचित को क्षीरें | क्षीवितस्य प्रक्षीणश्लेष्मणो दाहतृड्वतः । क्षीरं पित्तानिलार्तस्य पथ्यमप्यातसारिणः ॥
अर्थ- जिसको दूध पीनेका नित्य अभ्यास होगया है, जिसका कफ अत्यन्त क्षीण होगया है और दाह तथा तृषा विद्यमान हैं, ऐसे वातपित्तरोगी को दूध अवश्य देना चाहिये, यहां तक तो है कि अतिसारवाले रोगी को भी इस दशा में दूध देना पथ्य है ।
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( ४१५ )
जाता है | शरीरलाघवकरं यत् द्रव्यं कर्म वा पुनः, तल्लंघनमितिज्ञेयम् | यहां शरीर में लाघवता करने वाले द्रव्य और कर्म को लंघन कहते हैं । उपवासरूप लंघन का ग्रहण नहीं है ।
संस्कृतदूध का ग्रहण |
संस्कृतं शीतमुष्णं वा तस्माद्धारोष्णमेव वा विभज्य काले युजीत ज्वरिण हत्यतोऽन्यथा अर्थ- संस्कृत अर्थात् अन्य द्रव्यों के साथ पकाया हुआ दूध, ठंडा वा गरम अथवा धारोष्ण दूध का यथाविषय और यथाकाल की विवेचना करके प्रयोग करना चाहिये । उक्त नियमसे विपरीत दूधका प्रयोग करने पर दूध ज्वररोगी को मार है ।
शुय्यादि द्वारा संस्कृत दूध | पयः सशुंठी खर्जूरमृद्वीकाशर्कराघृतम् । श्रुतशीतं मधुयुतं तृड्दाहज्वरनाशनम् ॥
अर्थ- सोंठ, खिजूर, मुनक्का, मिश्री और ' घृत डालकर दूध को पकालेवे फिर छान कर ठंडा होने पर शहत मिलाकर पीयें, इससे तृषा, दाह और ज्वर का नाश हो जाता है ।
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J
द्राक्षादि संस्कृत दूध |
देहधारण में दूधको उत्कृष्टता । तद्वपुलैघनोत्ततं प्लुष्टं वनमिवाग्निना । दिव्यां जीवयेत्तस्य ज्बरं चाशु नियच्छति
खरेटी,
तद्वद् द्राक्षाबलायष्ठीसारिवाकणचंदनैः । चतुर्गुणेनांभसा वा पिप्पल्या वा श्रुतं पिवेत् अर्थ - ऊपर कही रीतिसे दाख, अर्थ-दावाग्नि से जड़ा हुआ बन जैसे मुलहटी, सारिवा, पीपल, और रक्तचंदन डावर्षा के जल से फिर अंकुरित होजाता है। ल कर पकाया हुआ दूध ठंडा होनेपर शवैसेही लंघनों से उत्तप्त देह दूधसे सजीव हत डालकर पीनेसे तृषा, दाह और ज्वर हो जाती है और अवर भी शीघ्र शांत हो | शांत होजाता है, अथवा चौगुने जलमें मिला
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अष्टांगहृदय।
कर औटाया हुआ दूध, दुग्ध शेष रहनेपर
अन्य दुग्ध । पान करे अथवा केवल पीपल डालकर औ• वृश्चीबविल्ववर्षाभूसाधितं ज्वरशोफनुत् ॥ टाया हुआ दूध पीना हितकारी है । शिशिपासारासद्ध वा क्षीरमाशु ज्वरापहम् पंचमूल संस्कृत दूध ।
अर्थ-सफेद सांठकी जड, बेलगिरी, कासाच्छ्वासाच्छिरःशुलात्पार्श्व
और बडी सांठ इनसे सिद्ध किया हुआ दूध शूलाञ्चिरज्वरात् । ज्वर और सूजनको दूर करता है । अथवा मुच्यते ज्वरितः पीत्वा पंचमूलीशृतं पयः ॥ |
शीशमके निर्याससे सिद्ध दुग्ध शीघ्र ज्वरना. __ अर्थ-पंचमूल डालकर औटाया हुआ
शक है। दूध पीनेसे ज्वररोगी खांसी, श्वास, शिरोवे
पक्वाशयगत दोषमें निरूह । दना, पार्श्वशूल और चिरकालानुबंधी ज्वरसे
निरूहस्तु बलं वढि विज्वरत्वं मुदं रुचिम् ॥ मुक्त होजाता है ।
दोषे युक्तः करोत्याशु पक्के पक्काशयं गते । एरंडसिद्धदूध ।
___ अर्थ-दोषके पक्व होने और पक्वाशयमें शुतमेरडमूलन.बालबिल्वेन वा ज्वरात् ।
जाने पर निरूहका प्रयोग करना चाहिये । धारोष्णं वा पयः पीत्वा बिबद्धानिलवर्चसः | निरूहसे बल, जठराग्नि, ज्वरहीनता, आनंद सरक्तपिच्छातिसृते सतृट्शूलप्रवाहिकात्। और रुचि शीघ्र होते है ।
अर्थ-अरंड की जड डालकर पकाया | विरेचनादि प्रयोग । हुआ दूध, अथवा, कच्ची बेलगिरी पित्तं वा कफपित्तं वा पक्वाशयगतं हरेत् ॥ डालकर औटाया हुआ दूध अथवा धारोष्ण
| स्वसन त्रीनपि मलान् बस्तिः पक्काशयाश्रयान् दूध पीनेसे रोगी ऐसे ज्वरसे मुक्त हो जाता
। अर्थ-पक्वाशयगत केवल पित्तको अथहै जिसमें अधोवायु और मलका विशेषरूप वा कफपित्तको विरेचन से निकाले । वस्ति से विबंध होगया हो, अथवा ऐसे ज्वरसे / द्वारा पक्काशयगत तीनों दोषोंको दूर करे । मुक्त होजाता है जिसमें रक्त और पिच्छायुक्त
____ अनुवासन का प्रयोग ।। अतिसार हो, अथवा तृषा, शूल और प्रवा
प्रक्षीणकफपित्तस्य त्रिकपृष्ठकटिग्रहे । ११६। हिका से युक्त ज्वरसे छूट जाता है ।
दीप्ताग्नेर्बद्धशकृतःप्रयुंजीतानुवासनम् ।
___ अर्थ-जिस ज्वररोगी के कफपित्त क्षी, शोफपर शुंठ्यादि दुग्ध।
ण हो गयेहों, त्रिकं, पीठ और कमरमें जसिद्धं शंठीबलाव्याघ्रीगोकंटकगुडैः पयः ॥ कडनहो. अग्नि प्रदीप्तहो और मल का विबंध शोफमूत्रशद्वातविबंधज्वरकासजित् । ।
हो उसे अनुवासन वस्ति देनी चाहिये । ___. अर्थ-सोंठ, खरैटी, कटेरी, गोखरू और
ज्वरनाशक वस्ति ॥ गुड इनसे सिद्ध किया दूध पीनेसे सूजन, मल, मूत्र और अधोवायुकी विवद्वता, तथा | स्थिरावलागोक्षरकमदनोशीरवालकैः। "
पटोलनिंबच्छदनकटुकाचतुरंगुलैः॥ ११ ॥ ज्वर और खांसी जाते रहते हैं। | पयस्योदके काथं क्षीरशेषं विमिाश्रितम् ॥
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
कल्कि ते स्तमदनकृष्णा मधुकवत्सकैः । बस्ति मृदुवृताभ्यां च पीडयज्ज्वरनाशनम् ॥
अर्थ - परवल, नीम के पत्ते, कुटकी, अमलतास, शालपर्णी, खरैटी, गोखरू, मेनफल, खस, नेत्रवाला, इनका काढा करले तथा दूधसे आधा पानी डालकर औटावै जव दूध रहजाय तत्र उक्त काढेको मिलाले वे । अथवा मोथा, मेनफल, पीपल, मुलहटी और कुडाकी छाल इनके कल्कके साथ अथवा शहत और घृत मिलाकर वास्तिका प्रयोग किया जाय तो ज्वर जाता रहता है । अन्य वस्ति ॥
(४६७)
ना जल इनसब को इकठ्ठा करके अग्निपर पंकावै, इनकी अनुवासन वस्ति ज्वर में देनी चाहिये । जिस ज्यर और वातादि दोषों में जो स्नेह उपयोगी होता है बही उसमें मिंलाना चाहिये ।
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अन्य वस्ति ।
ये च सिद्धिषु वक्ष्यंते बस्तयो ज्वरनाशनाः ॥
अर्थ - सिद्धिस्थान के वस्तिकल्पनाध्याय में जो जो ज्वरनाशक बस्तिकही गई हैं वे सव देनी चाहिये ।
विरेचन नस्य | शिरोरुग्गौरवश्लेष्म हरामंद्रियवोधनम् । जीर्णज्वरे रुचिकरं दद्यान्नस्य विरेचनम् ॥ हिक शून्यशिरसो दाहार्ते पित्तनाशनम् ।
अर्थ - जीर्णज्वर में विरेचन नस्य देना चाहिये, इससे सिरका दर्द, भारापन, और श्लेष्मा जाता रहता है | नेत्रादि इन्द्रियों में प्रफुल्लता होती है और भोजन में रुचि वढती है । जिसका मस्तक खाली होगया है उसे स्नेहवस्ति और सिर में दाहवालेको पितनाशक वस्ति देना चाहिये । धूमादि प्रयोग |
धूमगंडूषकवलान् यथादोषं च कल्पयेत् ॥ प्रतिश्यायास्यवैरस्यशिरः कंठामयापहान
अर्थ- दोष के अनुसार ज्वर में धूमपान, गंडूषधारण और कवलग्रह की कल्पना करनी चाहिये, जिससे प्रतिश्याय, मुखकी विरसता, शिरोरोग और कंठरोग नष्ट हो
।
चतस्रः पर्णिनीर्यष्टफलोशीरनृपद्रुमान् । काथयेत्कल्कयेद्यष्टीशताहा फलिनीफलम् ॥ मुस्तं च बस्तिः सगुडक्षौद्रसर्पिर्ज्वरापहः ।
अर्थ - चारों पर्णी (मुद्रपर्णी, मांत्रपर्णी, शालपर्णी, पृष्टिपर्णी), मुलहटी, मेनफल, ख़स और अमलतास, इनका काढा करे, तथा मुलहटी, सौंफ, प्रियंगु, त्रिफला, मेनफल और नागरमोथा इनका कल्क वनावे उसमें गुड, राहत और वृत मिलाकर बस्ति देने से ज्वर जाता रहता है ।
ज्वर में अनुवासन ॥ जीवंती मदनं मेदां पिप्पलीं मधुकं वचाम् ॥ ऋद्धिं रास्त्रां बलां चिल्वं शतपुष्पां शतावरीम् पिष्ट्वा क्षीरं जलं सर्पिस्तलं चैकत्र साचितम् ज्वरेऽनुवासनं दद्याद्यथा स्नेहं यथामलम् ।
अर्थ - जीवंती, मेनफल, मेदा, पीपल, मुलहटी, वच, ऋद्धि, रास्ना, खरैटी, बेलगिरी, सौंफ, तितावर, इनसब द्रव्यें से चतुर्थाश तैलादि स्नेह मिलाकर जल में घोट
अरुचिनाशक द्रव्य ।
ढाढे तथा स्नेहके समान दूध और चारगु. | अरुची मातुलुंगस्य केसरं साज्यसैंधवम् ॥
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अष्टांगहृदय।
अ०,
धात्रीद्राक्षासितानांवाकल्कमास्येन धारयेत् और हिमस्पर्श द्रव्यों के क्वाथ और कल्क
अर्थ-अरुचि में घृत और सेंधानमक | तथा दूध के साथ तेल को पकावे । इस मिलाकर बिजौरे की कसर अथवा मिश्री | तेल के लगाने से दाहज्वर शीघ्र नष्ट हो मिला हुआ आमले और दाख का कल्क मुख | जाता है। में धारण करना चाहिये ।
। उक्त तेल का मस्तक पर लेप ।। त्वगाश्रित जीर्णज्वर में कर्तब्य ।। यथोपशयसंस्पर्शान्शीतोष्णद्रव्यकल्पितान् |
| शिरो गात्रं च तैरेव नाऽतिपिष्टैः प्रलेपयेत् ॥ अभ्यंगालेपसेकादनि ज्वरे जीणे त्वगाश्रित ।। अर्थ-ऊपर जिन जिन औषधों का कुर्यादंजनधूमांश्च तथवागंतुजेऽपि तान् ॥ वर्णन किया गया है उनको थोडी पीसकर - अर्थ-स्वचा में आश्रित जीर्णज्वर में | शरीरपर और विशेष करके सिरपर लगाने से शीतवीर्य वा उष्णवीर्य वाले द्रव्यों द्वारा लाभ होता है । बहुत पीसनेसे दाहउत्पन्न होता तयार किया हुआ यथोपयोगी सुखस्पर्श | है। कहाभी है शुष्कपिष्टधनोले पश्चंदनस्यापि ( जिसके लगाने में सुख प्राप्त हो ) अभ्यंग दाह कृत् त्वग्यातस्याष्मणोरोधाच्छीतकृत्वन्यआलेपन, और परिषेकादि क्रिया तथा अंजन थाऽगुरोः। ग्रहण और धूमपान इनका व्यवहार करना . अवगाहन विधि । चाहिये । तथा भूताभिषंग और विषजनित | तत्काथेन परीषेकमवगाहं च योजयेत् । आगंतुज ज्वर में भी ये सब क्रिया करना | तथाऽऽरनालसलिलक्षीरशुक्तघृतादिभिः ॥ चाहिये ।
अर्थ-ऊपर कहे हुए मधुरादि गणोक्त दाह में अभ्यंग ।
द्रव्यों के काथ से परिषेक और अवगाहन दाहे सहस्रधौतेन सर्पिषाऽभ्यंगमाचरेत् ।
करे । तथा उक्त क्वाथ से द्रोणी भरकर . अर्थ-जो दाह हो तौ सौ बार धुलेहुए | उसमें कांजी, जल, दूध, शुक्र और घृत घृत का मर्दन करना चाहिये ।।
| मिलाकर अवगाहन करे । ____ दाहज्वर में तेल विशेष ।
दाहनाशक औषध । सूत्रोक्तैश्च गणैस्तैस्तैमधुराम्लकषायी कपित्थमातुलुंगाम्लविदारीरोध्रदाडिमैः। दूर्वादिभिर्वा पित्तघ्नः शोधनादिगणोदितः। बदरीपल्लवोत्थेन फेनेनारिष्टजेन वा । १३३ । शीतवीर्यैर्हिमस्पर्शीः काथः कल्कीकृतैः पचेत लिप्तेऽगेदाहरुक्मोहश्छर्दिस्तृष्णाच शाम्यति तैलं सक्षीरमभ्यंगात्सद्यो दाहज्वरापहम्।।
अर्थ-कैथ, बिजौरा, अम्लविदारी, लोध - अर्थ-सूत्रस्थान में कहे हुए घृत(हेमे- | दाडिम, बेर के पत्ते अथवा नीम के पत्तों स्यादि मधुरगण, { धात्रीफलाम्लकेत्यादि ) | को पानी में घोटकर बहुत से पानी में अम्लगण, [ पथ्याक्षमित्यादि ] कषायगण, | डालकर झाग उठावै ।। इन झागों का लेप इन वर्गों द्वारा तथा दूर्वादि वर्गोक्त द्रव्यों | करने से दाह, वेदना, मोह, वमन और तृषा द्वारा, अथवा शोधनादि गणोक्त शतवीर्य । शांत होजाती है।
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चिकित्सितस्थान भाषाठीकासमेत ।
दाहज्वर की औषध ।
।
यो बर्णितः पित्तहरो दोषोपक्रमणे क्रमः ॥ तं च शीलयतः शीघ्रं सदाहो नश्यति ज्वरः अर्थ- दोषोपक्रमणीय अध्याय में जो पित्तनाशक क्रम वर्णन किया गया है उस क्रम का अवलंबन करने से दाहज्वर शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
तैल से अभ्यंजन |
॥
वीर्योष्णैरुष्णसं स्पशैस्तगरागुरुकुकुंमैः॥ १३५ कुष्ठस्थौणेयशैलेयसरलामरदारुभिः । नखरानामुखवचाचंडेलाद्वयचारकैः । १३६ । पृथ्वी काशिसुरसादिनाध्यामकसर्षपैः । दशमूलामृतैरंडद्वयपन्नूररोहिषैः ॥ १३७ ॥ तमालपत्रभूतिक्तशल्लकी धान्यदीप्यकैः । मिशिमाषकुलत्थाग्निप्रकीर्यानाकुलीद्वयैः ॥ अन्यश्च तद्विधैर्द्वव्यैः शीते तैलं ज्वरे पचेत् कथितैः कल्कितयुक्तः सुरासौवीरकादिभिः तेनाभ्यंज्यात्सुखोष्णेन
तैः सुपिष्टैश्च लेपयेत् । अर्थ - वीर्य और स्पर्श दोनों प्रकार से उष्ण, तगर, अगर, केसर, कूठ, रोहिषतृण, सिलाजीत, सरलकाष्ठ, देवदारू, नखी, रास्ना, मुग, बच, चंडा, दोनों इलायची चोरक, कालाजीरा, सहजना, कालीतुलसी, जटामांसी, गंधतृण, सफेद सरसों, दशमूल, गिलोय, दोनों तरह के अरंड, रक्तचंदन, रोहिपतृण, तमालपत्र, अजवायन, शल्लकी, धनियां, अजमोद, सौंफ, उरद, कुलथी, चीता, पूतिकरंज, दोनों प्रकार की नाकुली, इन द्रव्यों के तथा ऐसेही अन्य द्रव्यों के क्वाथ और कल्क के साथ पकाये हुए तेल का तथा सुरा और सौवीरादि अम्ल पाक रस द्रव्यों के साथ पकाये हुए तेल को
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( ४९९ १
कुछ गरम करके शीत ज्वर में अभ्यंग करे और इन्ही तगरादि द्रव्यों को बहुत पीसकर लेप करने से भी शीतज्वर जाता
रहता है ।
पूर्वोक्तद्रव्यों का लेप |
कवष्णैस्तैः परीषेकमवगाह च कल्पयेत् ॥ केवलैरपि तद्वश्च सूक्तगोमूत्रमस्तुभिः। आरग्वधादिवर्गे च पानाभ्यंजनलेपनैः ॥ धूपानगरुजांस्तांश्च वक्ष्यंते विषमज्वरे । अर्थ - ऊपर कहे हुए तगरादि द्रव्यों को पीसकर थोडा गरम करके परिषक और अवगाहन करना चाहिये । अथवा केवल कांजी, गोमूत्र और दही के तोड द्वारा भी परिषेक वा अवगाहन करे । आरग्वधादि गणोक्त द्रव्यों का पान, अभ्यंग और लेपमें प्रयोगकरे । और विषमज्वर मे अगर की धूपका 1 जिनका वर्णन आगे किया जायगा प्रयोगकरे ।
स्वेदादि विधि | अग्न्यनाग्निकृतान्स्वेदान् स्वेदिभेषजभोजनम् गर्भभूवेश्म शयनं कुथा कबलरल्लकान् । निर्धूमदीतैरंगारैर्ह सतीश्च हसतिकाः ॥ मद्यं सत्र्यूषणं तर्फ कुलत्थग्रीहिकोद्रवान् । संशीलयेद्वेपथुमान् यच्चाऽन्यदपि पित्तलम् दयिताः स्तनशालिन्यः पीना विभ्रमभूषणः । यौवनासवमत्ताश्च तर्मालिंगयुरंगनाः ॥ वीतशतिं च विज्ञाय तांस्ततोऽपनयेत्पुनः ।
अर्थ- अग्निकृत वा अनग्निकृत वेदन करे अर्थात् अग्नि की गरमी से, अथवा वस्त्रादिको सेकसेककर लगा देने से गरमी पहुंचा कर पसीने निकालना, पसीना लानेवाली औषध वा भोजन, तहखाने में शयन करना, गलीचा, कंबल वा पश्मीने के
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४७०)
अष्टांगहृदय। ...
वस्त्र ओढना, निर्धूम प्रज्वलित अंगारों द्वारा | में सुश्रुत तथा अन्य आचार्यों का मत भिन्न प्रदीत अंगीठी, मद्य, त्रिकुटा मिला हुआ | है, वह ग्रंथके बढ़ने के भयसे नहीं लिखा तक्र, कुलथी, ब्रीहि, कोदों, तथा अन्य | गयाहै । स्थानानुपूर्वी चिकित्सा का यह मतपित्तकारक द्रव्यों का सेवन वह मनुष्य । लबहै कि ज्वरकारी दोष प्रथम आमाशय में करेजिसको जाडे की कपकपी लगरही हो, । स्थित होतेहैं, इसलिये पहिले आमाशयस्थ तथा विभ्रमभूषणा, पीनस्तनी, यौवनमद से दोष को जीतना चाहिये, तदनंतर पक्काशमतवाली प्रिय कामिनीगणों का दृढालिंगन । यस्थ दोषका प्रकार करना चाहिये । करे । इस तरह शीत के दूर होने पर | सन्निपात के अन्तमें कर्णमूल । संभोग की अभिलाषा को रोकने के लिये सन्निपातज्ज्वरस्यांते कर्णमूले सुदारुणः ॥ उन स्त्रियों को उसके पास से हटादेवं । शोफः संजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते । ' सभिपात की चिकित्सा । अर्थ-सन्निपात ज्वरके अंतमें कानोंकी वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य च ॥ | जड़में जो भयंकर सूजन होजाती है उस कफस्थानानुपूा वा तुल्यकक्षान्जेयन्मलान् | सूजनसे स्यात् कोई कभी मुक्ति पाताहै, यह - अर्थ-विषमदोषज सन्निपात में अर्थात् मोती जिस सन्निपात में दोषोंका न्यूनाधिक्य हो
कर्णमूल की चिकित्सा ।। उसमें एक क्षीण दोष अथवा दो क्षीण दोषों | रक्तावसेचनैः शीघ्रं सर्पिः पानश्च तं जयेत्॥ को बढाकर तथा एक उच्छ्रित दोष वा दो । प्रदेहैः कफपित्तघ्नैर्नावनैः कवलग्रहैः । उच्छ्रित दोषों को घटाकर तथा तुल्य प्रकु
अर्थ-कर्णमूल नामक सूजन के उत्पन्न पित तीनों दोषोंकी कमानुपूर्वी वा स्थानानु- होतेही जोक आदि लगाकर रुधिर निकाल पूर्वी चिकित्सा करके सन्निपात का जय करै । डाले तथा कफपित्तनाशक घृतपान, प्रदेह, कफानुपूर्वी चिकित्सा का यह मतलबहै कि | नस्य और कवलधारण से शीघ्रही चिकित्सा पहिले कफको, फिर पित्तको और फिर बात
कर्णमूल में सिरामोक्षण । का शमन करे । कहा भी हैं ,, स्थानतः
शीतोष्णास्निग्धलक्षाद्यैर्वरोयस्यनशाम्यति। कोचिदिच्छन्ति प्राक् तावच्च्लेष्मणो बधम् ।
शाखानुसारी तस्याशु मुचद्वाहूवोः क्रमाशिरस्युरासि कंठे च प्रलिप्तेऽन्नेरुचिः कुतः ।
छिराम् । तंदभावे कथं भोज्यपानद्रव्यविचारणा । अस- ___ अर्थ-शीतवीर्य, उष्णवीर्य, स्निग्ध और त्यभ्यवहारे च कुतो दोषविनिग्रहः । तस्मा- रूक्षादि सब प्रकार की औषधोंके जो पृथकर दादौ कफो घात्यः कायद्वारार्गलोहिसः । मध्य वात, पित्त, कफ तथा संसर्गज और सनिस्थायि यतः पित्तमाशुकारि च चिंत्यते । अ- पातज ज्वरको शमन करनेवाली है, इनका तो वातसखस्यास्य कुर्यात्तदनुनिग्रहम् । अ- | सभ्यक् प्रयोग किये जानेपर भी ज्वर की धस्थायीचतदनु निग्राह्यः स्यात्समीरणः । इस [ शांति नहो उसको प्रथम एक वामें फिर
| करै ।
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. अ०१
विकित्सितस्थान भाषाकासमेत ।
[४७१.
दूसरी वाहुमें रगको बेधकर रुधिर निकाल | अर्थ-विषमज्वर में प्रातःकाल तिल डाले, दोनों वाहुमें एक साथ फस्द न खोले। के साथ ल्हसन खाने को दे अथवा भोजन
विषमज्वर में उक्तविधि। करनेसे पहिले पुराना घत दे, तथा उसी भयमेव विधिः कार्यों विषमेऽपि यथायथम् रीतिसे दही, दूध, वा तक्रदे, अथवा क्षय ज्वरे विभज्य वातादीन् यश्चानंतरमुच्यते ।।
चिकित्सा में कहा हुआ षट्पल घृत भोजन . अर्थ-ज्वरको शांत करने के लिये जो जो
से पहिले दे । अथवा उन्माद प्रतिषेध में उपाय ऊपर लिखे गये हैं वे सततकादि
कहा हुआ कल्याणघृत वा अपस्मार प्रतिविषमज्वर में भी वातादि दोषोंकी विवेचना
षेधमें कहाहुआ पंचगव्यघृत, अथवा कुष्ठपूर्वक करने चाहिये. तथा जो उपाय आगे
चिकित्सितमें का हुआ तिक्तघृत, अथवा लिखे जायगे वे भी करने चाहिये ॥.
रक्तापत्त चिकित्सितमें कहाहुआ वृषसाधित बिषमज्वरनाशक काथादि ।
घृतका प्रयोग भोजन करनेसे पहिले करे । पटोल कटुकामुस्ताप्राणदामधुकैः कृताः॥ त्रिचतुःपंचशः काथा विषमज्वरनाशनाः।
विषमज्वर में त्रिफलादि घृत। , योजयत्रिफलां पथ्यां गुडूचीं पिप्पली पृथक् त्रिफलाकोलतारीकाथदध्ना शृतं घृतम् ॥ __ अर्थ - परवल, कुटकी, मोथा, हरड और तिल्वकत्वकृतावापं विषमज्वराजित्परम् । मुलहटी इनमेंसे कोई तीन वा चार, वा अर्थ-त्रिफला, बेर और अरनी के पांच द्रव्य लेकर काथ बनाकर पीनेसे वि- क्वाथ से चतुर्थीश घृत और घृत के समान षमज्वर जाता रहताहै ।
दही इनको मिलाकर पकावे और इसमें सततकादि विषमज्वर में त्रिफला, हरीतकी लोधकी छाल का प्रतीवाप दे, यह विषम गिलोय, अथवा पीपल इनका अलग अलग, ज्वर के दूर करने में एकही है। . ‘प्रयोग करना चाहिये ।
विषमज्वर में अन्य उपाय । विषमज्वरमें अन्यविधि ।
सुरांतीक्ष्णं च यन्मद्यतैस्तैर्विधानैः सगुडैभल्लातकमथाऽपि वा। शिखितित्तिरिकुक्कुटान् ॥१५६॥ लंघन वृहणं चाऽपि ज्वरागमनवासरे॥ | मांसमध्योष्णवीर्य च सहान्नेन प्रकामतः।
अर्थ-ज्वरके आनेके दिन रसायनविधि सेवित्वा तदहः स्वप्यादथवा पुनखल्लिखत् में कही हुई रीतिसे गुडमें मिलाकर भिलावा | ____ अर्थ--मुरा वा अन्य किसी प्रकार का देवे, अथवा उसदिन प्रथम लंघन वा वृंहण तीक्ष्णमद्य, तथा मोर, तीतर वा मुर्गे का
मांस अथवा और किसी मध्योष्णवीर्य द्रव्यको विषमज्वर में अन्यप्रयोग।
अन्न के साथ बहुत अधिक खाकर सब प्रातः सतेल लशुनं प्राग्भक्तंवा तथा घृतम्।
म्। दिन निद्रा लेवे अथवा खाये पिये हुए को जीर्ण तद्वद्दधिपयस्तकं सर्पिश्च षट्पलम् ।। कल्याणकं पंचगव्यं तिक्ताख्यं वृषसाधितम् | वमन करके निकाल देवै ।
करै।
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।४७२)
मष्टांगहृदय ।
अ० १
घृतसे बमन । | इनकी धूप सब प्रकार के ज्वरोंमें दी जाती सर्पिषो महती मात्रां पीत्वा तच्छर्दयेत्पुनः। है, इसको अपराजिता धूप कहते हैं । । अर्थ-अथवा घृतकी महतीमात्रा पीकर |
अन्प धूप । उसको वमन द्वारा निकाल दे । धूपनस्यांजनत्रासा ये चोक्ताश्चित्तवैकृते । अन्य उपाय ।
- अर्थ-चित्तवैकृत अर्थात् उन्माद और नीलिनामजगंधां च त्रिवृतां कटुरोहिणीम् ॥ अपस्मार में जो जो धूप, नस्य, अंजन और पिवेज्ज्वरस्यागमने नेहस्वदोपपादितः। त्रासप्रदर्शनादि चिकित्सा कही गई है, वही ___ अर्थ-वरके आगमन के दिन रोगीको
सन विषमज्वरमें भी करनी चाहिये । स्नेहन स्वेदन करके नीलिनी, अजगंध, नि.
देवाश्रय औषध। सोथ और कुटकी का काढा पान करावै । दैवाश्रयं च भैषज्यं ज्वरान्सर्वान्व्यपोहति ॥
विषमज्वमें अंजन॥ विशेषाद्विषमान्मायस्ते ह्यागंत्वनुवंधजाः। मनोखा सैंधवं कृष्णा तैलेन नथनांजनम् ॥ ____ अर्थ- केवल धूपादिसे ही ज्वर नष्ट नहीं योज्यं
होता है। किंतु दैवाश्रय औषध (मणि,मंग. __ अर्थ-मनसिल, सेंधानमक और पीपल ल, बलि, उपहार, प्रायश्चित्त, जप, दान, इनको तेलके साथ पीसकर भांखोंमें अंजन
स्वस्त्ययन आदि ] सब प्रकार के ज्वरों को की तरह लगावे ।
विशेष करके विषमज्वर को दूर करदेती है बिषम ज्वरमें नस्य । क्योंकि ये बिषमज्वर प्रायः भूताभिषंगादि हिंगुसमा व्याघ्री वसानस्यं ससैंधवम् । आगन्तुक हेतुओं से उत्पन्न होतेहैं । पुराणसर्पिः सिंहस्य वसा तद्वत्ससैंधवा ॥
विषमज्वर में सिराव्यध । अथे हींगके समान व्याघ्रीकी चर्वी और
| यथास्वं च सिरां विध्येदशांती बिषमज्वरे॥ सेंधानमक मिलाकर नस्य लेवै अथवा
अथे-विषमज्वर के शांत न होने पर पुराना घृत, सिंहकी चर्वी और सेंधानमक वातादि देष के अनुसार फस्द खोलना मिलाकर सूंघनेसे भी विषमज्वर दूर होजता है । चाहिये । विषमज्वर में धूप ।
बातजादिज्वरमें सर्पिष्पान। पलंकषा निवपत्रं वचाकुष्ठहरीतकी। केवलानिलवीसपविस्फोटाभिहतज्वरे। सर्षपा सयवा सपिंधूपो विडवा विडालजा सर्पिपानहिमालेपसकमांसरसाशनम् ॥ पुरघ्यामवचासर्जनिबा|गरुदारुभिः। कुर्याद्यथास्वमुक्तं च रक्तमोक्षादिसाधनम् । धूपो ज्वरेषु सर्वेषु प्रयोक्तव्योऽपराजितः ॥ अर्थ-केवल वातज ज्वर में, विसर्प, - अर्थ--गूगल, नीमके पत्ते, बच, कूठ, विस्फोटक वा अभिघात से उत्पन्न ज्वर में हरड, सरसों, और जो इनकी धूप अथवा , घृतपान, शीतल लेप, परिषेक, मांसरस का बिल्लीका विष्टा, गूगल, गंधतृण, बच, राल, | भोजन, रक्तमोक्षादि जो जो उपाय कहे नीमके पत्ते, आककी जड, अगर और देवदारु | गये हैं वे सब करने चाहिये ।
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चिकित्सिस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४७३)
-
ग्रहोत्थज्वरमें कर्तव्य । अर्थ-औषधीगंधादिज जो घर कहे ग्रहोत्थे भूतविद्योक्तं बलिमंत्रादिसाधनम् ॥ गये हैं उनके उत्पन्न होने के समय वातादि,
अर्थ-ग्रहादि के आवेश से उत्पन्न हुए किसी दोषका संपर्क नहीं होता है, परन्तु ज्वर में भूतविद्योक्त वलि, और मंत्र द्वारा
उत्पन्न होतेही वातादि दोषों द्वारा व्याप्त चिकित्सा करना उचित है।
होता है इसलिये इन सब ज्वरों में दोषों के औषधीगंधजज्वर । ओषधांगंधजे पित्तशमनं विषाजद्विषे ।।
| अनुसार आहारादि की कल्पना करनी ___ अर्थ-औषध की गंध से उत्पन्न वर
चाहिये। में पित्तनाशक और विषजज्वर में विषनाशक वातादि के कोप के अनुसार । चिकित्सा करना उचित है ।
न हि ज्वरोऽनुबध्नाति मारुताद्यैर्विना कृतः। क्रोधादि ज्वरका उपाय ।
___ अर्थ-जब बातादि दोष के बिना अन्य इष्टैरथैर्मनोहश्च यथादोषशमेन च । १६७। कारणों से ज्वर होता है वह बहुत कालतक हिताहितविवेकैश्च ज्वरं क्रोधादिजं जयेत् । नहीं रहता है, इसलिये ऊपर कहे हुए ज्वरों
अर्थ-क्रोध, भय, शोकादि से उत्पन्न | में अवश्यही दोषों का कोप रहता है. अतः स्वर में अभीष्ट और मनोज्ञ विषयों द्वारा
दोषानुसार आहारकी कल्पना करना तथा वातादि दोषों के शमनोपाय द्वारा
अवश्य है । तथा हिताहित की विवेचना द्वारा चिकि
___ ज्वरके कालकी स्मृतिका नाश । त्सा केर।
ज्वरकालस्मृति चास्य हारिभिर्विषयैर्हरेत् ॥ ... क्रोधज ज्वर ।
अर्थ-मनोहर कथा वार्ता कह कहकर क्रोधजो याति कामेन शांति क्रोधेन कामजः भयशोकोद्भवा ताभ्यां भीशोकाभ्यां तथेतरी
रोगी को ज्वर आनेका समय भुलादेना ___ अर्थ-क्रोध जज्वर काम द्वारा और कामज चाहिये, क्योंकि कथा बार्ता में मन लग ज्वर क्रोध द्वारा, भयज और शोकजज्वर जाने से ज्वर का काल उल्लंधित होनेपर कामक्रोध द्वारा तथा कामक्रोधजज्वर भयशोक नहीं भी आता है। द्वारा प्रशमित होता है।
__ करुणाई मनको ज्वरनाशकता। शापज बर।
करुणाद्रे मनः शुद्धं सर्वज्वरविनाशनम् । शापाथर्वगमंत्रोत्थे विधिदैवव्यपाश्रयः ॥ अर्थ-रागद्वेषादिरहित शुद्ध और करु
अर्थ शाप और अथर्ववेदोक्त मारक | णाई मन सब ज्वरों को नष्ट करदेता है । मंत्रों द्वाग उत्पन्न ज्वर में ईश्वर उपासना ही ___ ज्वर में व्यायामादि का त्याग । मुख्य विधि है।
त्यजेदाबललाभाञ्च ब्यायामसानमैथुनम् ॥ ज्वररोगमें अहारादि की कल्पना।।
गुर्वसात्म्यविदाह्यन्नं यश्चान्यज्ज्वरकारणम्। ते ज्वराः केवलाः पूर्व ब्याप्यतेऽनंतरं मलै अर्थ-ज्वरके छोडजाने पर भी जबतक तस्माहोषानुसारेण तेप्याहारादिकल्पयेत् ।। बल न आजाय तबतक व्यायाम, स्नान,
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(४७४)
अष्टांगहृदय ।
म.
मैथुन, भारी, असाग्य और विदाही अन्न, मनको प्रसन्न करनेवाले विषय विष्णुकृत तथा और भी ज्वर के उत्पन्न करनेवाले । भयंकर ज्वरको भी नष्ट करदेते हैं फिर हेतुओं का त्याग करदेना चाहिये । खरनाद अपचारज ज्वर का तो कहनाही क्या है । ने कहा है कि "पिष्टान्नं हरित शाकं मांसं इतिश्री वाग्भटविरचितायां साहितायां शुष्कं तिलान्दधि । प्राभ्यानूपोदकाजावि मथुरानिवासि श्रीकृष्णलाल कृत गव्यसूकरमाहिषम् । मांसं शुष्काणि शाकानि भाषाटीकायां चिकित्सितस्थाने सर्वमेवत्यजेज्ज्वरी ।
ज्वरचिकित्सितं नाम प्रथमो ज्वरमुक्तको सर्वअन्नका निषेध ।
ऽध्यायः ॥ १॥ न बिज्वरोऽपि सहसासर्वानीनोभवेत्तथा ॥ निवृत्तोऽपि ज्वरः शीघ्रं व्यापादयति दुर्बलम् ___ अर्थ-ज्वरमुक्त होनेपर भी मनुष्यको द्वितीयोऽध्यायः। सहसा सब प्रकारके अन्न खाना न चाहिये क्योंकि गया हुआ ज्वर भी दुर्बल मनुष्य | अथाऽतोरक्तपित्तचिकित्सितं व्याख्यास्यामः पर शीघ्र आक्रमण करता है।
अर्थ-अब हम यहां से रक्तपित्त चिज्वरीको उचित औषध । कित्सित नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। सधः प्राणहरो यस्मात्तस्मात्तस्य विशेषतः
ऊर्ध्वगामी रकपित्तका उपचार । तस्यां तस्यामवस्थायां
"ऊर्ध्वगं बलिनो वेगमेकदोषानुगं नवम् । तत्तत्कुर्याद्भिषग्जितम् ॥ १७४ ॥
रक्तपित्त सुखे काले साधयेभिरुपद्रवम् ।। अर्थ-क्योंकि ज्वर तत्काल प्राणों का
अर्थ-बलवान पुरुष के (स्त्री के नहीं) नाश करनेवाला है, इसलिये अन्यरोगियों
ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त जो वेगरहित हो, एक की अपेक्षा ज्वररोगी की विशेषरूपसे साम,
दोषानुगामी हो, नवीन हो, हेमंत या शिपच्यमान, पक, जीर्ण, विषम चिरनिबृत्ता.
शिरऋतु में उत्पन्न हुआ हो, विकृतविज्ञानीदि अवस्थाओं में लंघन, स्वेदन, यवागू,
यअध्याय में कहे हुए उपद्रवों से रहित हो पाचनादि द्वारा औषध करै ।
वह साध्य होने से चिकित्सा के योग्य औषधों को ज्वरघ्नत्व ।
होता है। ओषधयो मणयश्च सुमंत्राः साधुगुराद्विजदैवतपूजाः।
___ अधोगामी रक्तपित्त का यापन । प्रीतिकरा मनसो विषयाश्च अधोग यापयेद्रक्तं यच्च दोषद्वयानुगम् । मन्त्यपि विष्णुकृतं ज्वरमुग्रम् “ ॥ १७५॥ अर्थ-अधोमार्ग से प्रवृत्त होनेवाला रक्त
अर्थ-औषध, मणि, सुमंत्र, तथा साधु | पित्त जो दो दोषों से युक्त हो वह याप्य गुरु, द्विज और देवताओं का पूजन, और | होता है।
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अ० २
रक्तपित्त में चिकित्साका विचार | शांत शांतं पुनः कुप्यन्मार्गान्मार्गान्तरं च यत् अतिप्रवृत्तं मंदाग्नेस्त्रिदोषं द्विपथं त्यजेत्
अर्थ-रक्तपित्त चाहै ऊर्ध्वगामी हो चाहे अधोगामी हो, चाहे एक दोषानुगामी हो, जो अत्यन्त शांत हो होकर फिर कुपित होजाता है वह असाध्य होने के कारण त्याज्य है | और जो रक्तपित्त एक मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग में प्रवृत्त होजाता है अर्थात ऊर्ध्वगामी अधोमार्ग में प्रवृत्त होता है, और अवोमार्गगामी ऊर्ध्वगमन करता हो तो भी असाध्य होता है । जो रक्तपित्त अधोमार्गसे अथवा ऊर्ध्वमार्ग से अत्यन्त प्रवृत्त होता है वह भी त्याज्य है, क्योंकि रक्त प्राणों का आधार है, कहा भी है जीवितं प्राणिनां तत्र रक्ते तिष्ठति तिष्ठतीति मंदाग्निवाले का अधोगामी वा ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त भी असाध्य होता है, क्योंकि इसमें चिकिसा विपरीत होती है अर्थात् मंदाग्निवाले की अग्नि को बढाने के लिये कटु, अम्ल, उष्ण और तीक्ष्ण औषधे हित हैं और रक्तपित्त की शांति के लिये जो किया कुछ जाता है वह इसके विपरीत होता है । त्रिदोषज रक्तपित्त भी चाहे ऊर्ध्वगामी हो चाहे अधोगामी, असाध्य होता है क्योंकि न तो उस में वमन दे सकते हैं न विरेचन । एकही समय में द्विमार्गगामी रक्तपित्त जो ऊर्ध्वगामी भी हो और अधोगामी भी हो वह भी त्याज्य होता. है क्योंकि कोई प्रतिलोम औषध ही नहीं हैं ।
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( ४७५ )
रक्तपित्तज विरेचनादि । संतर्पणोत्थं बलिनो बहुदोषस्य साधयेत् ॥ ऊर्ध्वभागं विरेकेण वमनेन त्वधोगतम् । शमनैर्गृहणैश्चान्यल्लभ्यवृंह्यानवेक्ष्य च ॥ ४ ॥
अर्थ- बलवान् और वातादि दोषों की अधिकतासे आक्रांत मनुष्य के संतर्पण से उत्पन्न हुए ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में विरेचन और अधोगामी रक्तपित्तमें वमन दैना चाहिये तथा दुर्बल अल्पदोषाक्रांत रोगी के लंघन से उत्पन्न हुए ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में शमन द्वारा और अधोगामी रक्तपित्त में बृंहणद्वारा चिकित्सा करे | किन्तु शमन वा बृंहणद्वारा चिकित्सा करने के समय इस बातपर विशेष ध्यान रखना चाहिये कि रोगी लंघन योग्य है वा बृंहणयोग्य है, क्योंकि लंघन से उत्पन्न हुए अधोगामी रक्तपित्तमें भी शमनद्वारा तथा बृंहण से उत्पन्न ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में भी लंघन द्वारा चिकित्सा की जाती है ।
ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में रसादि । ऊर्ध्वं प्रवृत्ते शमनौ रसौ तिक कषायकौ । उपवासश्च निःशुठी डंगोदकपायिनः ॥ ५ ॥
अर्थ - ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में शमन करने वाले तिक्त और कषाय रस, उपवास और सोंठ रहित षडंग पानी देना चाहिये ।
अधोगामी में वृंहण |
अधोगे रक्तपित्ते तु बृंहणो मधुरो रसः । अर्थ-अधोगामी रक्तपित्तमें बृंहणकारक मधुररसका प्रयोग करे ।
ऊर्ध्वगामी में तर्पणादि । ऊर्ध्वगे तर्पण योज्यंप्राक् च पेयात्वधोगते।६। अर्थ - ऊर्ध्वगामी रक्तपित्तमें प्रथम तर्पण और अधोगामी में पेया देवे ।
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(४७६)
अष्टांगहृदय ।
श्र.
' अशुद्धरक्त के धारणमें निषेध । मिलाकर मोदक वनालेये । इनके सेवन से अश्नतो बलिनोऽशुद्धं न धार्य तद्धि रोगकृत् भी उक्तरोग नष्ट होजाते हैं । धारयेदन्यथा शीघ्रमग्निवच्छीघ्रकारि तत् ॥ अधोगामी रक्तपित्त की चिकित्सा । - अर्थ-जिस रोगी में भोजन की शक्ति
| वमनं फलसंयुक्तं तर्पणं ससितामधु ॥१०॥ और शरीरमें बलहो तो निकलते हुए अशुद्ध ससितं वा जलं क्षौद्रयुक्तं वा मधुकोदकम् । रक्तको न रोकना चाहिये, क्योंकि इसके रो क्षीरं वारसमिक्षा कनेस सिराब्यधविधि अध्यायमें कहे हुए | अर्थ-अधोगामी रक्तपित्तमें वमन कराने के विसर्प, विद्रधि, और प्लीहादि अनेक प्रकार | निमित्त शर्करा और मधुमिश्रित मेनफल के के रोग उत्पन्न होजातेहैं । किन्तु यदि रोगी तर्पणका प्रयोग करे। अथवा शर्कराका जल, उक्त लक्षणों से विपरीत लक्षणवाला हो | वा मधुमिश्रित जल, वा मुलहटी का काथ, अर्थात् दुर्वलहो और उसमें भोजन करनेकी | वा दूध वा ईखका रस इनमें से किसी के शक्ति नहो तो दूषित रक्तको भी शीघ्र बंद | साथ मेनफल मिलाकर वमन के लिये देव । करदेना चाहिये क्योंकि रक्तके बन्द न करने शुद्धहोने के पीछकी बिधि । से यह अग्निके समान शीघ्र प्राणनाशक |
शुद्धस्यानंतरो विधिः ॥११॥ होताहै ।
| ययास्वं मंथपेयादिः प्रयोज्यो रक्षता बलम् रक्तपित्त में अवलेह । ___ अर्थ-ऊर्ध्वग और अधोग रक्तपित्तों में तृवृच्छयामाकषायेण कल्केन च सशर्करम् | क्रमसे विरेचन और वमनद्वारा शुद्ध होने के साधयेद्विधिबल्लेहं लिह्यात्पाणितलं ततः॥ पीछे रोगीको यथाविधि ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त ___ अर्थ-निसौथ, श्यामानिसौथ, इन दोनों में मंथादि और अधोगामीमें पेयादि देवै, पर के कषायमें इन्हींका कल्क मिलाकर अवलेह । न्त रोगीके वलपर ध्यान रखना चाहिये । क्नालेवे । इसमें मिश्री मिलाकर दो दो तोले मंथ बनानेकी विधि । चाटता रहै, इससे रक्तपित्त जाता रहताहै। मंथो ज्वरोक्तोद्राक्षादिः पित्तघ्नैर्वा फलैः कृतः अन्य औषध ।
मधुखर्जूरमृद्धीकापरूषकासितांभसा । तृवृता त्रिफला श्यामा पिप्पली शर्करा मध। मथो वा पंचसारेण सघृतैर्लाजसक्तुभिः॥
मोदकः सनिपातोर्वरक्तशोफज्वरापहः॥ दाडिमामलकाम्लो वा". तृवृत्समसिता तद्वत् पिप्पली पादसंयुता।
मंदाग्नयम्लाभिलाषिणाम् । अर्थ-निसौथ, त्रिफला, श्यामानिसौथ अर्थ-ज्वरकी चिकित्सा में कहा हुआ पीपल, शर्करा, शहत इन सवको मिलाकर | मंथ वा द्राक्षा, मधूक, मधुकआदि पित्त नाशविधिपूर्वक मादक तयार करले, इनके सेवन | क फलों द्वारा सिद्ध किया हुआ मंथ अथवा से सानिपातिक ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त शोथ और दाख, आमला, खंभारी और मधुकादि फलों प्रवर जातेरहते हैं । तथा समान भाग नि- से सिद्ध किया हुआ मंथ देना चाहिये । सोथ और मिश्री लेकर चतुर्थीश पीपल | अथवा शहत, खिजूर, दाख, फालसा और
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ज२.
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत |
४७७)
शर्करा इन पांचों द्रव्यों के बने हुए पंचसा- फिर इस मांसरसमें यवागू पकावै । इस शी. राख्य नामक मंथमें घी और धानकी खीलों । तल यवागमें मिश्री और शहत मिलालव, का सत्तू मिलाकर देवै । अथवा जिस रोगीका और इसको भोजन के लिये देवै । उक्तवि. खटाई पर मन चलता हो उसे ऊपर लिखे धि से सिद्ध कियेहुए मांसरस को भी घी में हुए पंचताराख्य मंथमें अनारदाने वा आम- भूनकर शर्करा मिलाकर देवै तथा खटाई ले की खटाई मिलाकर देवै । | चाहनेवाले को इसमें अनारदाने वा आमले
पेयाकी बिधि । की खटाई मिलाकर देवै, और जिस की ख' कमलोत्पलकिंजल्कपृश्निपर्णीप्रियंगुकाः ॥ टाईपर इच्छा न हो उसे बिना खटाई ही देवै उशीर शाबरं रोत्रं शृंगबेरं कुचंदनम् ।
रक्तपित्त में भूकशिंबी धान्यादि । .. हीबेरं धातकीपुष्पं बिल्वमध्यं दुरालभा ॥ अर्धाधै विहिता पेया वक्ष्यंते पादयौगिकाः।
शूकशिंबीभवं धान्यं रक्ते शाकं च शस्यते ॥ भूनिंबसेयजलदा मसूराः पृश्निपर्ण्यपि ॥
अन्नस्वरूपविज्ञाने यदुक्तं लघु.शीतलम् । विदारिगंधामुद्राश्च बला सर्पिहरेणुका।
____ अर्थ-रक्तपित्त में शूक और शिंबी से अर्थ-(१) कमल केसर, उत्पलकेसर,
उत्पन्न धान्य तथा शाक हित होता है पृश्निपी और प्रियंगु, (२) खस, सावर
तथा अन्नस्वरूप विज्ञानीयाध्याय में जो जो लोध, अदरख और लालचंदन, ( ३ ) नेत्र
हलका और शीतल है वह सब हित है। . वाला, धायके फूल, वेलगिरी और धमासा ।
पानी का प्रकार । इन आधे आधे श्लोकोमें कहेहए तीन योगों | पूर्वोक्तमबुपानीयं पंचमुलेन वा श्रृतम् ॥ से पेया तयार करले । तथा ( १ )चिरायता,
| लघुना शृततिं वा मध्वंभो वा फलांबुमा खस और मोथा, (२) मसूर, और प्रश्नपर्णी
____ अर्थ-शुंठी रहित पूर्वोक्त षडंग पानी, (३) विदारीगंध और मूंग,( ४ ) खरैटी,वृ:
वा लघुपंचमूल डालकर औटाया हुआ ठंडा
जल, वा केवल औटाया हुआ ठंडा जल, त और रेणुका इन चौथाई चौथाई श्लोकोंमें कहे हुए चार प्रयोगों द्वार। सिद्ध की हुई
अथवा मधुमिश्रित जल, अथवा पित्तनाशक पेया का सेवन करे।
द्राक्षादि फलों द्वारा सिद्ध जल रक्त पित्त मांसके सिद्ध करनेकी रीति । ।
में हितकारी होता है । जलपाक की विधि जांगलानि च मांसानिशीतवीर्याणि साधयेत्
इस तरह लिखी हैं कि "कर्ष गृहीत्वा पृथक्पृथग्जले तेषां यवागूः कल्पयेद्रसे। | द्रव्यस्य क्वाथयेत्नास्थिभास । अर्द्धशते
ताः सशर्कराक्षौद्रास्तद्वन्मांसरसानपि ॥ प्रयोक्तव्यं जलपाके त्वयंविधिरिति । इषदम्लाननम्लान्याघृतभृष्टान्सशर्केरान्।
शशादि का मांस । _अर्थ-ऊपर कहे हुए पेयाके उपयोगी
शशः सवास्तुकःशस्तो विबंधे तित्तिरि पुनः पृथक् पृथक् कषायोंके साथ शीतवीर्यवाले
| उदुंबरस्य नि!हे साधितो मारतेऽधिके । शशकादि जांगल जीवोंका मांस सिद्ध करे। प्लक्षस्य बहिणस्तद्वन्न्यग्रोधस्य च कुक्कुटः।
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[ ४७८ ]
अष्टांगहृदय |
|
अर्थ - रक्तपित्त रोगी के मलका विबंध होने पर बथुए के शाक के साथ खगश
का मांस देना हित है । बाकी अधिकता
में गूलर के काथ के साथ तीतर का मांस, पाकड के काथ के साथ सिद्ध किया हुआ मोरका मांस, तथा बड के क्वाथ के साथ मुर्गे का मांस सिद्ध करके देना हितकारी है । रक्तपित्त में वर्जित |
86 'यत्किचिद्रक्तपित्तस्य निदानं तच्च वर्ज - येत् “ ॥ २३ ॥ अर्थ - जिन कारणोंसे रक्तपित्त उत्पन्न हो उन आहारविहारादिको त्याग देना
हुआ
चाहिये ।
अन्यउपाय |
वासारसेन फलिनी मृद्रोधांजनमाक्षिकम् । पित्तास्रुक् शमयेत्पीत निर्यासो वाटरूष कात् ॥ २४ ॥ शर्करामधुसंयुक्तः केवलो वा श्रुतोऽपि वा । वृषः सद्यो जयत्यस्नं स ह्यस्य परमाषैधम्
अर्थ - अडूसे के रसके साथ प्रियंगु, सौराष्ट्रमृत्तिका, ( इसके अभाव में पक्व पर्पटी
"
लोध, रसौत, और शहत इनके पीने से रक्तपित्त शांत होजाता है । अथवा असे का रस शहत और मिश्री मिलाकर पीनेसे रक्त पित्त दूर होजाता है । अथवा केवल अडूसे का रस वा असे का क्वाथ पीने से भी रक्त पित्त शीघ्र नष्ट होजाता है | अडूसा रक्तपित्त की परम औषध है |
रक्तपित्त में तीन क्वाथ । पटोलमालती निब चंदनद्वयपद्मकम् । रोधो वृषस्तंदुलीयः कृष्णामृन्मदयतिका ॥ शतावरी गोपकन्या काकोल्यो मधुयष्टिका ।
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अ० २
रक्तपित्तहरा काथास्त्रयः समधुशर्कराः ॥ अर्थ - (१) परवल, मालती, नीम, लालचंदन सफेद चंदन, और पदमाख, [२] लोध, अडूसा, चौलाई, कालीमृत्तिका और मदयंती (३) सितावर, अनंतमूळ, काकोली, श्रीरकाकोली, और मुलहटी | आधे २ श्लोक में कहे हुए तीन काथों को शहत और मिश्री मिलाकर सेवन करने से रक्तपित्त जातारहता है । यहां हरा होनेपर भी अडूसा दूना नहीं डालना चाहिये | तंत्रांतर में कहा मी है कि वासाकुटज कूष्मांडात पुष्पासहाचराः । नित्यमार्द्राः प्रयोक्तव्यास्तथापि द्विगुणा न त इति । ढाकी छालका काढा | पलाशवल्कक्काथो वा सुशीतः शर्करान्वितः पिबेद्वा मधुसर्पिर्भ्यां गवाश्वशकृतो रसम् ॥
अर्थ- ढाक्की छालके काढेको अत्यंत ठंडा करके चीनी मिलाकर पीवे, अथवा गौ का गोवर और घोडे की लीदके रस में शहत और घी मिलाकर पीने से रक्तपित शांत होजाता है ।
ग्रथितरक्तपित्त में अवलेह | सक्षौद्रं ग्रथिते रक्ते लिह्यात्पारावतं शकृत् । अर्थ - रक्तपित्त में खूनकी गांठ होजाने पर कबूतर की बीटमें शहत मिलाकर चाटना चाहिये |
अतिस्रावीरक्तपित्त की चिकित्सा । अतिनिःसृत रक्तश्च क्षौद्रेण राधरं पिबेत् ॥ जांगलं भक्षयेद्वाजमामपित्तयुतं यकृत् ।
अर्थ - रक्तपित्त में खून के अधिक निकलने पर जांगल पशुका रुधिर शहत डालकर पीवै, अथवा वकरे के कच्चे यकृतको उस के पित्ते के साथ खाना चाहिये ।
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अ.२
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४७९ )
रक्तपित्तनाशक कषाय । । अर्थ-पित्तजरमें जो जो कषाय कहेगये। चंदनोशीरजलदलाजमुद्रकणायवैः॥ हैं उनमें शहत मिलाकर रक्तपित्त में सेवन बलाजले पर्युषितैः कषायो रक्तपित्तहा। करने चाहिये । अर्थ-चंदन,खस, मोथा, धानकी खील, |
छागादिपय । मूंग, पीपल और जौ इनसव को रात्रभर | कषायैर्विविधैरेभिर्दीप्तेऽग्नौ विजिते कफे। पानी में भिगोदे, दूसरे दिन खरैटी के जल
रक्तपित्तं न चेच्छाम्येत्तत्र वातोल्बणे पयः॥
युज्याच्छागं शृतं तद्वद्व्यं पंचगुणेऽभसि । में इनका काढा करले इससे रक्तपित्त जा
पंचमूलेन लघुना शृतं वा ससितामधु ॥ ता रहता है।
जीवकर्षभकादाक्षावलागोक्षुरनागरैः । - रक्तकी अतिप्रवृत्ति का उपाय ।। पृथक्पृथक्श्रतं क्षीरं सघतं सितयाऽथवा ॥ प्रसादचदनांभोजसत्य मृङ्गष्टलोष्टजः ॥ अर्थ-ऊपर कहे हुए अनेक प्रकारों के सुशीतः ससिताक्षौद्रः शाोणतातिप्रवृ. |
कषाय से जठराग्नि के प्रदीप्त होनेपर और - त्तिजित् ।।
कफके विजित होनेपर भी जो रक्तपित्त अर्थ-चंदन, कमल, खस, सौराष्ट्रमृत्ति | का, और मंडूर इन सबद्रव्यों के काढे को
शांत न हो तो वाताधिक्य रक्तपित्त में पांच अत्यंत ठंडा करके शहत और मिश्री मिला
गुने जल में बकरी वा गौका का दूध कर पीनेसे रक्तकी अतिप्रवृति दूर हो जातीहै
औटाकर पिलाना चाहिये । अथवा लघुपं
चमूल डालकर औटाया हुआ गौका दूध इक्षु जल। आपोथ्य घा नवे कुंभे प्लावयेदिक्षुगंडिकाः॥
छानकर मिश्री औरं मधु मिलाकर देने से स्थितं तद्गप्तमाकाशे रात्रि प्रातः श्चतं जलम् | रक्तपित्त शांत हो जाता है, अथवा जीवक, मधुमृद्वीकसांभोजकृतोत्तंसं च तद्गुणम् ॥ ऋषभक, दाख, खरैटी, गोखरू और सोंठ ..अर्थ-ईखकी गंडेलियों को अच्छी तरह | इनमें से अलग अलग हरएक के साथ कूटकर मिट्टीके नवीन पात्रमें जलभर कर | औटाया हुआ दूध घृत और मिश्री मिलाकर डालद आर इस घडे के मुखपर कांडादि | पीना रक्तपित्त में हित है। पड़ने के भयसे कपडा ढककर रात्रिमें खुली मूत्रमार्गगामी रक्तकी चिकित्सा । . हुई जगहमें रख दे । प्रातःकाल इस जलको गोकंटकाभीरुश्रुतं पर्णिनीभिस्तथा पयः । पकाकर छानले और इसमें शहत मिलाकर
हत्याशु रक्त सरुज विशेषान्मूत्रमार्गगम् ॥
अर्थ-गोखरू और सितावरं डालकर विकसित कमलको उसपर लगादे । वहजल पूर्ववद् गुणकारी है।
पकाया हुआ दूध, अथवा चारों पर्णी
( शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, मुद्गपर्णी और अन्य कषाय ।
माषपर्णी ) इनके साथ पकाया हुआ दूध "ये च पित्ते ज्वरे चोक्ताः कषायास्तंतोश्च |
• योजयेत् “ ।| वेदना साहत रक्त को दूर करता है तथा
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अष्टांगहृदयः।
विशेषकरके मूत्रमार्गगामी रक्तपित्त शीघ्र नष्ट | कूटकर अठगुने जल में अग्नि पर चढादे ज• होजाता है।
व औटते औटते आठवां भाग रहजाय तब पुरीषमार्गगामी रक्तका उपाय । इसे छानकर इसमें अहूसे के फूल डालकर "विण्मार्गगे विशेषेण हितं मोचरसेन तु ।। घृतको पकावै । फिर ठंडा होनेपर इसमें मधु घटप्ररोहैः श्रृंगैर्वा शुख्यदीच्योत्पलैरपि ।। मिलाकर सेवन करावै । इससे रक्तपित्त गुल्म अर्थ-जो रक्तपित्त गुदामार्ग की ओर प्रवृत्त । ज्वर, श्वास, खांसी, हृद्रोग, कामला, तिमिर, हुआ होतो मोचरसके साथ पकायाहुआ दूध | भूम, विसर्प, और स्वरशैथिल्य नष्ट होजाता है विशेष हितकारी है अथवा बटवृक्षके अंकुरों रक्तपित्त पर अन्य घृत । के साथ, अथवा बट की कोंपलों के साथ | पालाशवृतस्वरसे तद्गर्भ च घृतं पचेत् । अथवा सोंठ, नेत्रवाला और कमलके साथ सक्षौद्रं तच्च रक्तघ्नं तथैव प्रायमाणया ॥ पकाया हुआ दूध भी हितकारी है। । अर्थ-ढाक के डंठलों के स्वरसमें ढाक
अन्यचिकित्सा। के डंठलों का कल्क डालकर पकाया हुआ एकातिसारदुर्नामचिकित्सांचाऽत्र- घृत अथवा इसी रीति से त्रायमाण से
कल्पयेत् । पकाया हुआ घृत रक्तपित्त को नष्ट कर अर्थ-रक्तपित्तमें रक्तातिसार और रक्ता- देता है। र्श में जो जो चिकित्सा कही गई हैं वे भी रक्तविशेष में उपाय । करनी चाहिये।
रक्ते सपिच्छे सकफे ग्रथिते कण्ठमार्गगे। कषायपानानंतरभोजन ।
लिह्यान्माक्षिकसर्पिाक्षारमुत्पलनालजम् पीत्वा कषायान् पयसा जीत पयसैव च ॥
अर्थ-रक्तपित्तों जब रक्त सपिच्छा अर्थात् कषाययोगैरेभिर्वा विपक्कं पाययेद्धृतम् । सेमर के गोंद के सदृश होजाता है, तथा - अर्थ-रक्तपित्त रोगमें पहिले कहेहुए क- | कफयुक्त, गांठदार और कंठमें होकर प्रवृत्त पार्योंका दूधके साथ पान करके दूधके साथ | होता है, तब कमलनाल के क्षारको मधु ही भोजन करे और इन्हीं कषायों के द्रव्यों और घृत मिलाकर चाटै । ( शंका ) क्षार के साथ पकायाहुआ घृत रक्तपित्तरोगीकोदेव का स्वभाव तीक्ष्णादि गुणयुक्त है फिर अन्यघृत ।
रक्तपित्त में इसका प्रयोग क्यों कियागया है समूलमस्तकं क्षुण्णं वृषमष्टगुणेऽभासि॥ | (उत्तर ) कमल का स्वभाव शीतल है इस पक्त्वाष्टांशावशेषेण घृतं तेन विपाचयेत्। लिये कमल से उत्पन्न क्षारका स्वभाव भी पुष्पगर्भ च तच्छीतं सक्षौद्रं पित्तशोणितम् | शीतल होता है। पित्तगुल्मज्वरश्वासकासहृद्रोगकामलाः ।
अन्य अवलेह । तिमिरभ्रमवीसर्पस्वरसादांश्च नाशयेत् ॥ पृथक्पृथक् तथांभोजरेणुश्यामामधूकजम् । - अर्थ-अडूसेकी जड और पत्तोंके साथ अर्थ-कमलरेगु, निसोथ और मुलहटी
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अ. ३
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४४९)
इनको अलग अलग मधु और घृतके साथ भ्यंतर प्रयोग कहेगयेहै तथा क्षत और क्षणि चाटै ।
में जो जो प्रयोग कहेगयेहैं वे सब रक्तपित्त गुदागामी रक्तमें वस्ति । में हितकारी होतेहैं । "गुदागमे विशेषेण शोणिते बस्तिरिष्यते ॥ इतिश्रीअष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकायां
अर्थ-गुदाद्वारा निकलनेवाले रक्तमें वि- चिकित्सित्स्थाने रक्तपित्तचिकित्सितनाम शेष करके वस्तिका प्रयोग किया जाता है। द्वितीयोऽध्यायः । - नासागामी रक्तमें नस्य । घ्रागगे रुधिरे शुद्ध नावनं चानुषेचयेत् । कषाययोगान् पूर्वोक्तान
तृतीयोऽध्यायः । क्षीरेक्ष्वादिरसाप्लुतान् ॥ ४६ ॥ क्षीरोहीन्सलितांस्तोयं केवलं वाजलंहितम रसो दाडिमपुष्पाणामम्रोत्थः
| अथाऽतः कासचिकित्सितं व्याख्यास्यामः। ___ शाड्वलस्य वा ॥ ४७॥ अर्थ-अब हम यहां से कासचिकित्सित अर्थ-नासिका द्वारा शुद्ध रक्त निका. | नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । लने पर नस्य देना चाहिये, इसमें दूध कास में स्नहादि उपचार । और इक्षुरस में वासकादि पूर्वोक्त क्वाथ
" केवलानिलजं कासं स्नेहैरादावुपाचरेत् ॥
| वातघ्नासिद्धःस्निग्धैश्चपेयायूषरसादिभिः । मिलाकर देना चाहिये | अथवा क्षीरा मांस.
लेह मैस्तथाभ्यंगैः स्वेदसेकावगाहनैः। रस, घृत आदि मिश्री डालकर, अथवा
बस्तिभिर्वद्धविड्वातं सपित्तं त्वौर्श्वभक्तिकैः चीनी मिला हुआ जल, अथवा केवल जल, घृतैः क्षीरेश्च सकर्फ जयेत्स्नेहविरेचनैः। अथवा अनार के फूलों का रस, अथवा ____ अर्थ-केवल बात से उत्पन्न हुई खांसी आम के फूलों का रस, अथवा हरी दूधका में प्रथमही वातनाशक औषधियों से सिद्ध रस, इनमें से चाहै जिसकी नस्य देवै । किया हुआ स्नेह देना चाहिये,तथा स्निग्ध
अन्य औषध । पेया,यूष,मांसरस, अवलेह,धूमपान, अभ्यंग, कल्पयेच्छीतवर्ग च प्रदेहाभ्यंजनादिषु ।
स्वेद, परिषेक, अवगाहन, इन सब उपायों ___ अर्थ--वैद्यको उचितहै कि रक्तपित्त
से कासरोग की चिकित्सा करनी चाहिये, रोगमें प्रलेप और अभ्यंजनादि शीतवीर्यवाली
खांसी के साथ मलकी वद्धता हो तो वस्ति औषध अपनी वुद्धिसे कल्पना करलेवे ।
का प्रयोग करे । पित्तयुक्त वातकी खांसी साधारण उपाय ।
में पेयापान के अनंतर वातनाशक औषधों यच्च पित्तज्बरे प्रोक्तं बहिरंतश्च भेषजम् । रक्तपित्ते हितम् तच्च क्षतक्षीणे हितम्
से सिद्ध किया हुआ घृत और दुग्ध पान . च यत् ॥४८॥ करावे । कफयुक्त वातकी खांसी में स्नेह अर्थ-पितजवर में जो वाह्य और आ. विरेचन देव ।
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अष्टांगहृदय |
(४८२ )
स्नेहों का वर्णन | गुडूचीकंटकारीभ्यां पृथक्त्रिंशत्पलाद्रसे ॥ प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातकासनुद्वन्हिदीपनः ।
अर्थ - गिलीय और कटेरी प्रत्येक तीस पल लेकर यथोक्त रीति से काढा कर ले | इसमें एक प्रस्थ घृत डालकर पकावै, इस घृतका मात्रानुसार प्रयोग करने से वातकास नष्ट होजाती है और अग्नि बढती है । अन्य घृत ।
क्षारस्नावचाहिंगुपाठायष्ट्याह्वधान्यकैः ॥ -द्विषाणैः सर्पिषः प्रस्थं पंचकोलयुतैः पचेत् । दशमूलस्य निर्यूहे पीतो मंडानुपायिना ॥ सकासश्वास हृत्पार्श्वग्रहणी रोगगुल्मनुत् ।
अर्थ-जवाखार, रास्ना, वच, हींग, पाठा, मुलहटी, धनियां और पंचकोल (पपिल, पीपलामूल, चव्य, चीता और सोंठ ) प्रत्येक दो दो शाण, घृत एक प्रस्थ और दसमूल का काढा चार प्रस्थ । इनको विधिपूर्वक पकाकर वृत तयार करले और मंडका अनुपान करे । इस वृत से खांसी त्रास, हृद्रोग, पसली का दर्द, ग्रहणी रोग और गुल्मगेग जाते रहते हैं । अन्य घृत ।
द्रोणेऽपां साधयेद्रास्नादशमूलशतावरीः ॥ पलोम्मिता द्विकुडवं कुलत्थं बदरं यवम् । तुलार्ध चाजमांसस्य तेन साध्यम्
|
घृताढकम् ॥ ७ ॥ समक्षीरं पलाशैश्च जविनीयः समीक्ष्य तत् प्रयुक्तं वातरोगेषु पाननावनवस्तिभिः ८ ॥ पंचकासान् शिरःकंपं योनिवंक्षणवेदनाम् । सर्वोगेकांगरोगांश्च सप्लीहोनिलान्
जयेत् ॥ ९ ॥ अर्थ - रास्ना, दशमूल, और सितावर
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अ० ३
प्रत्येक एक पल अर्थात् चार चार तोले, कुलथी, बेर और जो प्रत्येक दो कुडव अर्थात् सोलह तोला, बकरे का मांस २०० तोला इन सबको एक द्रोण अर्थात् १६ सेर जलमें पका लेवै । जब काढा तयार हो जाय तब एक आढक घृत डालकर पकाँ, एक आढक अर्थात् २१६ तोले दूध डालदे और जीवनीय गण के द्रव्य, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्रपर्णी, मापपर्णी, जीवंती और मुलहटी प्रत्येक एक पल । इनका कल्क डालकर घृत का । इस घृत का वातरोग में देश, काल, और रोगी के बलाबल का विचार करके पान, नस्य और वास्त द्वारा प्रयोग करने से पांच प्रकार की खांसी, शिरकंप, योनिवेदना, वंक्षणवेदना, सर्वोगरोग, एकांगरोग, प्लीहा और ऊर्ध्ववात ये सब रोग नष्ट होजाते हैं ।
कासपर विदार्यादि घृत | विदार्यादिगणक्वाथकल्कसिद्धं च कासजित् अर्थ - विदार्यादि गणोक्त द्रव्यों के काथ और near साथ सिद्ध किया हुआ घी का - सनाशक होता है ।
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कासपर अवलेह |
अशोक बीजक्षव कजंतुघ्नांजनपद्मकैः ॥ १० ॥ सबिडैश्च वृतं सिद्धं तच्चूर्ण वा घृतप्लुतम् लिह्यात्पयश्चानुपिवेदाजं का सादिपीडितः ॥
अर्थ - अशोककेबीज, ओंगा, वायविडंग, सौवीरांजन, पदमाख, और बिडनमक इनके द्वारा सिद्ध किया हुआ घी अथवा उक्त द्रव्यों का चूर्ण घीमें सानकर चाटना कासरोग में
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४८३ ॥
उपकारी होता है । ऊपर से बकरीका दूध अर्थ-सेंधानमक और पीपल इनको मपीना चाहिये ।
हीन पीसकर गुनगुने जलके साथ फां के । बिडंगादि चूर्ण । अथवा सोंठ और मिश्री दहीके तोडके साथ, विडंग नागरम् राम्रापिप्पलीहिंगुसैंधवम्। अथवा पीपल के चूर्णको दहीके साथ सेवन भार्गी क्षारश्च तच्चूर्ग पिवैद्धा घृतमात्रया |
करनेसे कासरोग दूर होजाता है। . सफकेऽनिल से कासे श्वासाहिध्माहताग्निषु
अन्य उपाय। ___ अर्थ-बायबिडंग, सोंठ, रास्ना, पीपल,
पिवेददरमशो वा मदिरादधिमस्तुभिः। हींग, सेंधानमक, भाडंगी और जवाखार इन
अथवा पिप्पलीकल्कं घृतभृष्टं ससैंधवम् ॥ का चूर्ग वृत मिलाकर मात्रानुसार देवै । इस अर्थ-बेरकी मज्जाको मदिरा, दही वा से कफज कास, वातज कास, श्वास, हिमा | दही तोडके साथ, अथवा पीपलके कल्कको और मंदाग्नि नष्ट होजाते हैं।
घीमें भूनकर उसमें सेंधानमक मिलाकर सेवातजकास में दुरालभादि लह । वन करने से कासरोग जाता रहता है । दुरालभां श्रंगबेरं शठी द्राक्षां सितोपलाम्॥
कासपर धूमपान । लिह्यातकर्करश्रृंगी च कासे तैलेन बातजे ।
कासी सपीनसो धूपं स्नैहिकं विधिना पिवेत् अर्थ-धमासा, अदरख, कचूर, दाख, मि- हिमाश्वासोक्तधूमांश्च क्षीरमांसरसाशनः श्री और काकडासींगी इनके चूर्ण को तेल में अर्थ-खांसी और पीनससे पीडितरोगी मिलाकर वातज खांसी में चाटै।। विधिपूर्वक स्नैहिक धूमपान करे । तथा हि.
उक्तरोगपर दुःस्पर्शादि चूर्ण । ध्मा और श्वासमें कहेहुए भी धूमपान करे। दुस्पर्शी पिचली मुस्तां भार्गी कर्कटकी- | दूध और मांसरस का अनुपान करे । शटीम् ॥ १४ ॥
कास में आहार। पुराणगुडतैलाभ्यां चूर्णितान्यवलेहयेत् । तत्सकृष्णां शुठी च सभार्गी तद्वदेव च ॥ रसैर्माणात्मगुप्तानां युषैर्वा भोजयद्धितान्,
| ग्राभ्यानूपोदकैः शालियवगोधूमषष्टिकान् । अर्थ-धमासा, पीपल, मोथा, भाडंगी,
___अर्थ-ग्राम्य, आनूप और जलचर जीवों काकडासींगी और कचूर इनके चूगेको पु- के मांसरस के साथ, अथवा उरद और रानेगुड और तेलमें मिलाकर वातज खांसी केंच के बीजों के यूष के साथ शालीचांवल. में चाटै । तथा पीपल और साठके चूर्णको । जौ, गेंहं और साठी चांवल इनमें जो अथवा भांडगी और सोंठके चूर्ण को पुराने
अनुकूल हो वही खाने को दे । गुड और तेलके साथ चाटै ।
बातज कास में पेया। अन्य चूर्ण ।
यवानीपिप्पलीबिल्बमध्यनागराचित्रकैः । पिवेच्च कृष्णां कोयन सलिलेन ससैंधवाम् रास्नाजाजीपृथक्पणींपलाशशठिपौष्करैः ॥ मस्तुना ससितां शुठी दधना वा सिद्धां स्निग्धाम्ललवणां पेयामनिलजे पिबेतू
कणरेणुकाम् ॥ १८ ॥ कटिहत्पार्श्वकोष्ठार्तिश्वासहिध्माप्रणाशनीम्
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[४८४)
अष्टांगहृदय ।
अर्थ-अजवायन, पीपल, बेलगिरी का रस और गुड इनसे बने हुए खाने के गूदा, सोंठ, चीता, रास्ना, जीरा, एश्नि- पदार्थ हितकारी होते हैं । दही का तोड, पर्णी ढाक, कचूर, और पुष्करमूल इनके | खट्टी कांजी, फलांबु और मदिरा ये भी साथ तयार की हुई पेया में घी, खटाई सब हितकारी होते हैं ।
और नमक डालकर पान करावे । इससे पित्तकास में बमन । वात खांसी, कमरका दर्द, हृत्शूल, पसली । “पित्तकासे तु सकफे वमनम् सर्पिषा
हितम् ॥२५॥ का दर्द, कोष्ठ का दर्द, ३वास और हिचकी
तथा मदनकाश्मर्यमधुकक्कथितैर्जलैः। जाते रहते हैं।
फलयष्टयाह्वकल्कैर्वा विदारीक्षुरसाप्लुतैः,, अन्य पेया ।
अर्थ-कफयुक्त पित्तज कासमें घी के दशमूलरसे तद्वत् पञ्चकोलगुडान्विताम् ।
द्वारा वमन कराना हित है, यह घृत मेनपिबेत्पेयां समतिलां क्षरेयी वा ससैंधवाम्
फल के क्वाथ में सिद्ध किया जाता है । अर्थ-वातज खांसी में रोगी को दश
अथवा मेनफल, खंभारी, और मुलहटी के मूल के क्वाथ में सिद्धकी हुई पेया में पंच
काथ को पान कराके, अथवा विदारीकंद कोल का चूर्ण और गुड मिलाकर पीने को
और ईखके रसमें मेनफल और मुलहटी का दे अथवा दूध के साथ पकाई हुई पेया में
कल्क मिलाकर वमन कराना हितकारी है। तिल और सेंधा नमक मिलाकर पान करावै । मांसयुक्त पेया ।
पित्तकास में निसोथ । मात्स्यकौक्कुटवाराहैसैिंसाज्यसैंधवाम्
पित्तकासे तनुकफे त्रिवृतां मधुरैर्युताम् ।
युज्याद्विरेकाय युतां घनश्लेष्मणि तिक्तकैः॥ अर्थ-मछली, मुर्गे वा शूकरके मांसके
- अर्थ-पित्तकास में कफके पतला होने साथ सिद्ध की हुई पेया में घी और सेंधा
पर विरेचन कराने के निमित्त मधुररसयुक्त नमक डालकर पान करावे ।
निसोथका चूर्ण देवै और कफके गाढे होने बातज खांसी में वास्तुकादि ।।
पर तिक्तरस के साथ निसोथ का चूर्ण देना वास्तुको वायसीशाकम् कासघ्नः
सुनिषण्णकः ॥ २३ ॥ चाहिये । कण्टकार्या फलं पत्रं बालं शुष्कं च मूलकम् नेहास्तलादयो भक्ष्याः क्षीरेक्षुरसगौडिकाः
हृतदोष में पेयादि क्रम । दधिमस्त्वारनालाम्लफलांबुमादिराः पिबेत्। घने कफे तु शिशिरं रूक्षं तिक्तोपसहितम् ॥
हतदोषो हिमं स्वादु स्निग्धं संसर्जनं भजेत् अर्थ-वातज कास में बथुए का शाक, ___ अर्थ-विरेचन के पीछे अर्थात् विरेचन मकोय, लिहसोडे के पत्तों का शाक, चौ द्वारा दोषके दूर होजानेपर शीतल,मधुर और पतियां, कटेरी के फल और पत्ते, कच्ची | स्निग्ध पेयादिक्रम का सेवन करे । परन्तु सूखी मूली, तैलादिक स्नेह, दूध, ईखका | कफके गाढे होने पर शीतल, रूक्ष और
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अ० ३
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
[४८५]
तिक्तरसान्वित संसर्जन का सेवन करे ।
अन्य उपाय । विरेचन के पीछे पेयादि पान के क्रम को मधुरैजंगलरसैर्यवश्यामाककोद्रवाः ३२॥ संसर्जन कहते हैं।
मुद्गादियूषैः शाकैश्च तिक्तकोत्रया हिताः पित्तकास में अवलेह ।
धनश्लेष्मणि लेहाश्च तिक्तका मधुसंयुताः॥
अर्थ-मधुर जांगल जीवों का मांसरस, लेहःपैत्ते सिताधात्रीक्षौद्रद्राक्षा हिमोत्पलैः सकफे साब्दमरिचः सघृतः सानिले हितः
जौ, सौंखिया, कोदों, मुद्गादि यूष, और मृद्धीकार्धशतं त्रिंशत्पिप्पलीशर्करा पलम् । तिक्त शाकोंके साथ उचित मात्रामें देना गाढे लेहयेन्मधुना गोर्वा क्षीरपस्य शकृद्रसम् ।।
कमवाळे पित्तकास में हितकारी है । अथवा अर्थ-पित्तज कास में चीनी, आमला, |
तिक्तरसों में मधु मिलाकर सेवन करना भी मधु, द्राक्षा, चंदन और नीलकमल, इनके सब द्रव्यों से बनाया हुआ अवलेह हितहै।
___ कफान्वित पित्त में शाल्यादि । फफान्वित पित्तकास में मोथा और काली
"शालयःस्युस्तनुकफेषष्टिकाश्चरसादिभिः मिरचका अवलेह हित है । वातान्वित पित्त शर्करांभोनुपानार्थ द्राक्षक्षुस्वरसा:पयः “॥ कास में ऊपर के द्रव्यों में घृत डालकर ___ अर्थ-पतले कफान्वित पित्तकास में अवलेह बनावे । अथवा द्राक्षा पचास, शाली चांवल, साठी चांवल, मांसरस के पीपल तीस, और चीनी चार तोला इन साथ देना हित है अनुपान में शर्करामिसब द्रव्यों को पीसकर शहत मिलाकर
श्रित जल, दांख और ईखका रस, तथा अवलेह बनावै अथवा दूध पीने वाले गौके
दूध हितकारी होता है। बच्चे के गोवरके रसमें शहद मिलाकर |
पित्तकास में काकोल्यादि । पीवे।
| काकोलीबृहतीमेदाद्वयैः सवृषनागरैः। . अन्य अवलेह । पित्तकासे रसक्षीरपेयायूषान् प्रकल्पयेत् ॥ त्वगेलाग्योषमृद्वीकापिप्पलीमलपौष्करैः। अथे- पित्तकासमें काकोली, बडीकटेरी लाजमुस्ताशठीरानाधात्रीफलबिभीतकैः३१ | मेदा, महामेदा, अडूसा, और सोंठ, इन सब शर्कराक्षौद्रसर्पिमिले हो हृद्रोगकासहा । औषधों के साथ तयार किया हुआ मांसरस अर्थ-दालचीनी, इलायची, सोंठ,
दूध, पेया, और मुद्गादि यूष का उपयोग पीपल, काली मिरच, दाख, पीपलामूल, |
करना चाहिये । पुष्करमूल, धानकी खील, नागरमोथा, कचूर रास्ना, आमला, और बहेडा इनके चूर्ण में
अन्य चिकित्सा। शर्करा और मध मिलाकर अवलेह तयार | द्राक्षां कणां पंच मूलं तृणाख्यं च पचेजले। करके सेवन करने से खांसी और हृदय
तेन क्षार श्रृतं शीतं पिवेत्समधुशर्करम् ॥
साधितां तेन पेयां वा सुशीतारोग नष्ट होजाते हैं।
मधुनाऽन्विताम् ।
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१४८६)
-
अष्टांगहृदय ।
अ०३
अर्थ--दाख, पीपल, तृणपंचमूल, इनको | कासमकवार्ताकव्याघ्रीक्षारकणान्वितैः । चौगने जल में पकाकर चौथाई शेष रहने धान्वबेलरसैः स्नेहस्तिलसर्षपनिवजैः। ४३॥ पर उतार कर छानले, इस काथमें दूध को
अर्थ-देवदारु की लकडी का एक सिरा पकाकर ठंडा करले फिर उसमें शर्करा
जलानेसे दूसरी ओरसे जो स्नेह पदार्थ टपके और मधु मिलाकर पान करे । इसी क्वाथ
उसको एक पात्रमें इकट्ठा करले । इसमें में पेया तयार करके ठंडी होने पर शहद
| सोंठ, पीपल, कालीमिरच, और जबाखार मिलाकर देवै ।
मिलाकर कफ और खांसी से युक्त रोगी को
| पान करावै । यदि रोगी वलवान हो तो शठयादिरस शाहीवेरवृहतीश कराविश्वभेषजम् । ३७।
स्नेहपान के अनंतर स्निग्ध रोगी को युक्ति पिष्वा रसं पिवेत्पूतं वस्त्रेण धूतमूर्छितम्। के अनुसार तीक्ष्ण अधोविरेचन, उर्ध्वविरे___ अर्थ-पैतिक काम में कचूर, नेत्रवाला, चन और शिरोविरेचन देवे परन्तु रोगी के वडी कटेरी, सोंठ, इन सब द्रव्यों को जलमें | वलपर दृष्टि रखना आवश्यकीयहै । तदनंतर पीसकर वस्त्रमें छानकर इस रसमें शर्करा संसर्गी अर्थात् पेयापानादि क्रमका अबलंबन और घृत मिलाकर पान करावे । करे । । संसगी करनेका यह क्रमहै कि जौ,
पित्तकास में अवलेह । मुंग, और कुलथी द्वारा यथायोग्य उष्णवीर्य, शर्करा जीवकं मुद्माषपर्यो दुरालभाम् ॥ रूक्ष और कटुगुणाधिक्य द्रव्य तथा कसौंदी कल्कीकृत्य पचेत्सर्पिः क्षीरेणाष्टगुणेन तत् ।
| बेंगन, कटेरी, जवाखार और पीपल, जांगल पानभोजन लेहेषु प्रयुक्तं पित्तकासजित् ॥
और विलेशय जीवों का मांसरस, तथा तिल, लिह्याद्वा चूर्णमेतेषां कषायमथवा पिवेत्। अर्थ-शर्करा, जीवक, मुद्गपर्णी, माष
सरसों और नीमका तेल इन सब द्रव्योंके पर्णी, और धमासा, इन सब द्रव्योंका कल्क
साथ संप्सर्गी पान करनेको दे । करके अठगुने दूधमें घृतका पाक करे, फिर
अन्य उपाय।
दशमूलांवु धर्माबु मधं मध्वंबु वा पिवेत्। इसका पान, भोजन और अवलेह द्वारा प्रयुक्त
मूलैः पौष्करशम्याकपटोलैः संस्थितं निशाम् करनेपर पित्तकास नष्ट होजाताहै । अथवा पिवेद्वारि सहक्षौद्रं कालेष्वन्नस्य वा त्रिषु । उक्त द्रव्योंका कषाय वा पूर्ण सेवन करने अर्थ-कफकासमें दशमूल का काथ, से पित्तकास जाता रहताहै । | सूर्यको किरणों से प्रतप्तजल, मद्य और मधु
कफकास की चिकित्सा। मिश्रित जलपान करे । पुष्करमूल, अमलतास "कफकासी पिबेदादौ सुरकाष्ठात्प्रदीपितात् | और पटोल की जड इनको रात्रिमें जलमें नेहं परिघुतं व्योषयवक्षारावचूर्णितम्। | भिगोदेवै । दूसरे दिन प्रातःकाल मधु मिनिग्धं विरेचयेदूर्ध्वमधो मूर्ध्नि च युक्तितः॥ लाकर पान करे । अथवा भोजन कालके तक्ष्णैर्विरेकैलिनं संसर्गी चास्य योजयेत् । यवमुद्रकुलत्थान्नैरुष्णरूक्षैः कटूत्कटैः। ४२।। पहिले, बीचमें और अन्तमें पान करे ।
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अ० ३
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
कफकासनाशक तीनप्रयोग। । और तेल मिलाकर चाटनेसे वातान्वित कफ पिपली पिलीमूलं शृंगवेरं विभीत कम् ॥ | की खांसी जाती रहती है। शिखिकुक्कटपिच्छानां मणीक्षारो यवोद्भवः। विशाला पिप्पलीमूलं तृवृता च मधुद्रवाः ॥
दाडिमादि चूर्ण। कफकासहरालेहास्त्रयः श्लोकार्धयोजिताः। द्वे पले दाडिमादष्टौ गुडाव्योषात्पलत्रयम् । अर्थ-पीपल, पीपलामूल, अदरख, वहडा
रोचनं दीपनं स्वयं पानसश्वासकासजित् ॥ (२) मोर और मुर्गेकी पूछका कालाभाग,
अर्थ-अनार दो पल, गुड आठ पल, और जवाखार ( ३ ) इन्द्रायण, पीपलामूल,
त्रिकुटा तीन पल इनका चूर्ण रोचन, अग्निऔर निसौथ । आधे आधे श्लोकों में कहे हुए
संदीपन, स्वरवर्द्धक, तथा पीनस, श्वास
और खांसी को जीतनेवालाहै । इन तीन प्रयोगों का मधुके साथ सेवन
___गुडादि चूर्ण। करनेसे कफकी खांसी जाती रहतीहै ।
गुडक्षारोषणकणादाडिमं श्वासकासजित् । अन्य प्रयोग ।
क्रमात्पलद्वयार्धाक्षकर्षाक्षार्धपलोन्मितम् ॥ मधुना मरिचं लिह्यान्मधुनैव च जोंगकम् ॥ ____ अर्थ-गुड आठ तोला, जवाखार छः पृथग्रसांश्च मधुना व्याघ्रीवार्ताक,गजान् । । माशे, कालीमिरच एक तोला, पीपल आधा कासनस्याश्वशकृतः सुरसस्यासितस्य च॥ तोला अनार चार तोलादन सबके चर्णरोचन. ___ अर्थ-काली मिरचको शहतके साथ,
दीपन, पीनस, श्वास, और खांसी को दूर अथवा अगरको शहतके साथ चाटे । बडी
करताहै। कटेरी, बेंगन और भांगरा इनके अलगर
पथ्यादि पाचन । रसोंमें मधु मिलाकर सेवन करे । अथवा
पिवेज्ज्वरोक्तं पथ्यादि खशृंगीकं च पाचनम् घोडेकी लीदको शहद मिलाकर चाटने से
___ अर्थ-ज्वर चिकित्सामें कहेहुए पथ्य, कफकी खांसी दूर हो जाती है ।
कुस्तुंबरी आदि पाचनमें काकडासींगी मिलादेवदादिक तीन अवलेह ।
कर सेवन करने पूर्वोक्त गुण होताहै । - देवदारुशीरानाकर्कटाख्यादुरालभाः।
दीप्पकादि क्वाथ । पिप्पली नागरं मुस्तं पथ्या धात्री सितोपला अथवा दीप्यकत्रिबृद्धिशालाघनपौष्करम् ॥ लाजासितोपलासर्पिःशृंगी धात्रीफलोद्भवा। सकणं कथितं मूत्रे कफकासी जलेऽपि वा। मधुतैलयुता लेहास्त्रयो वातानुगे कफे। ५०।।
अर्थ-अजवायन, निसोथ,इन्द्रायण, नाअर्थ देवदारु, कचूर, रास्ना, काकडा
गर मोथा, पुष्करमूल इन सब द्रव्योंका गोसींगी, और दुरालभा, (२) पीपल, सोंठ,
मूत्र वा जलमें क्वाथ करले, फिर इसमें पीपल माथा, हरड, आमला और मिश्री, (३)
मिलाकर पीनेसे कफकी खांसी जाती रहती है धानकी खील, मिश्री, घी, टंगी [ काकडा
अन्यप्रकार। सींगी, वा एक प्रकार का आमला ), आधे
तैलभ्रष्टं च वैदेहीकल्काक्षं ससितोपलम् ॥ आधे श्लोकमें कहेहुए ये तीन प्रयोग शहद | पाययेत्कफकासघ्नं कुलित्थसलिलाप्लुतम्
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अष्टांगहृदय ।
अर्थ-एक तोले पीपलके कल्क को तेल | सफेद मरुआ इनका रस, तथा दूध और में भूनकर मिश्री मिलालेवे, और इसको कु. | त्रिकुटा के चूर्ण के साथ पकाया हुआ सेवन लथी के काढेमें सानकर खाय तो कफ की करने से खांसी, विषमज्वर, क्षयी और अर्श खांसी जाती रहती है।
इन रोगों से भय नहीं रहता है । इसके अन्य उपाय।
पाक करने का यह क्रम है कि त्रिकुटा दशमूलाढके प्रस्थं घृतस्याक्षसमैः पचेत् ॥ | मनोगमा पीपी माना : पुष्कराहवशठीबिल्वसुरसाब्योहिंगुभिः। पेयानुपानं तत्सर्पिर्वतश्लेष्मामयापहम् ॥ |
दूध से चौगुना पुर्ननवादि का काढा । ___ अर्थ-दशमूल के एक आढक काढेमें
कंटकारी घृत । एक प्रस्थ घी डाले, तथा पुष्करमूल, कचूर,
समूलफलपत्रायाः कंटकार्या रसाढके।
घृतप्रस्थं बलाव्योषविडंगशठिदाडिमैः ५९ बेलगिरी तुलसी, त्रिकुटा और हींग, प्रत्येक
सौवर्चलयवक्षारमूलामलकपौष्करैः। एक तोला इनका चूर्ण भी डालदे फिर इन वृश्चीववृहतीपथ्यायवानीचित्रकधिभिः ॥ हो गयाविधि पाक करै । इस घतके सेवन | मृद्धीका चव्यवर्षाभूदुरालभाम्लवेतसैः। करनेसे सब प्रकारके वातकफरोग शांत हो
शृंगीतामलकीभार्गीरानागोक्षुरकैः पचेत् ।
कल्कैस्तत्सर्वकासेषुश्बासहिमासुचेष्यते । जाते हैं । इसका अनुपान पेया है।
अर्थ-कटेरी की जड, फल और पत्ते अन्य प्रयोग ।
कूटकर एक आढक रस निकालले और निर्गुडीपत्रनिर्याससाधितं कासजिद्धतम् ।
इसमें एक प्रस्थ घी डालदे, फिर खरैटी, अर्थ-संभाळू के पत्ते और गोंद के
त्रिकुटा, बायबिडंग, कचूर,अनार, संचल साथ सिद्ध किया हुआ घी कासनाशक
नमक, जवाखार, मूली, आमला, पुष्कर मूल होता है।
सफेद सांठ, बडी कटरी, हरड़, अजवायन, बिडंगादि घृत । घृतं रसे विडंगानां व्योगर्भे च साधितम्
चीता, ऋद्धि, मुनक्का, चव्य, लाल सांठ, ___ अर्थ-बायविडंग के काढे में त्रिकुटा | दुगलभा, अम्लंवत, काकडासींगी, भूम्याका कल्क डालकर पकाया हुआ घी कास- मलक, भारंगी, रास्ना,गाखरू, इनका कल्क नाशक होता है ।
डालकर पकावै । यह घृत सब प्रकार के - पुनर्नवादि घृत। कासरोग, श्वास और हिमाको नष्ट कर पुनर्नवाशवाटिकासरलकासमामृता- देता है। पटोलबृहतोफणिज्जकरसैः पयःसंयुतैः। दुर्नामादिनित् अबलेह । घत त्रिकटुना च सिद्धमुपयुज्य सजायते
| पवेद्वयाघ्रीतुलां क्षुण्णां वहे पामाढकस्थिते॥ नकासविषमज्वरक्षयगुदांकुरेभ्यो भयम् ति पतेत संचर्य व्योषरानामृता अर्थ-सांठ की जड, शिवाटिका, सरल
निकान् । काष्ठ, कसोंदी,गिलोय, परवल, बडी कटेग, | शंगीभार्गीधनप्रथिधन्वयासान् पलाधका
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेव ।
सर्पिषः षोडशपलं चत्वारिंशत्पलानि च । मत्स्यडिकायाः शुद्धायाः पुनश्च तदधि श्रयेत् ॥ ६४ ॥ दवलेपिनि शीतेच पृथगू द्विकुडवं क्षिपेत् । पिप्पलीनां तवक्षीर्या माक्षिकस्यानवस्य च ॥ लेहोऽयं गुल्महृद्रोगदुर्नामश्वासकास जित् । अर्थ - - एक तुला कटेरी को कुचलकर इसको चार द्रोण पानी में पकावै जब चौथाई शेष रह जाय तब कपडे में छानकर रखले, उसमें त्रिकुटा, रास्ना, गिलोय, चीता, काकडासिंगी, भाडंगी, नागरमोथा, पीपलामूल और धमासा इनका आधा आधा पललेकर चूर्ण बनाकर मिलावै । फिर इसमें १६ पल घी, और ४० पल शुद्ध रावमिलाकर फिर पकावै, जब कलछी से लगने लगे तब उतारकर ठंडा करले फिर इसमें दो कुडव पीपल, दो कुडव वंशलोचन, तथा दो कुडव पुराना मधु मिलाले बे यह अवलेह गुल्मरोग, हृदयरोग, अर्श, श्वास खांसी को दूर करदेता है ।
कफकासादि में धूमपान । शमनं च पिवेधूमं शोधनं बहुले कफे ॥ अर्थ - कफकी खांसी में संशमन धूमपान और गाढे कफकी खांसी में शोधन धूमपान करना चाहिये ।
धूमपान की विधि |
मनःशिलालमधुकमांसीमुस्तेंगुदित्वचः । धूमं कासनविधिना पीत्वा क्षीरं पिवेदनु ॥ निष्टतांते गुडयुतं कोणं धूमा निहंति सः । बातश्लेष्मोत्तरान् कासानाचिरेण चिरंतनान्
अर्थ - मनसिल, हरिताल, मुलहटी, जटामासी, मोथा, और गोंदी की छाल इनका धूमपान सूत्रस्थानोक्त कासनाशक
६२
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( ४८९ )
विधि के अनुसार पीना चाहिये, पीकर ऊपर से दूध पीले और कफ थूकने के पीछे गुड मिला हुआ थोडे गरम दूध पीवे यह धूम बहुत दिनकी वाताधिक्य खांसी को बहुत शीघ्र दूर कर देता है । तमक की चिकित्सा |
तमकः कफकासे तु स्याच्चेत्पित्तानुबंधजः । पित्तकासक्रियां तत्र यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥
अर्थ - कफी खांसी में यदि पितानुबंधी तमकश्वास हो तो अवस्था के अनुसार पिराजकास की क्रिया करना चाहिये ।
वातकफकी खांसी में कर्तव्य | कफानुबंधे पवने कुर्यात्कफहरां क्रियाम् ।. पित्तानुवयोर्वातकफयोः पित्तनाशनीम् ॥
अर्थ - कफानुबंधी वातकी खांसी में कफनाशिनी क्रिया करनी चाहिये । तथा पित्तानुबंधी कफवातको खांसीमें पित्तनाशिनी क्रिया करनी चाहिये |
अन्य उपाय | वातश्लेष्मात्मके शुष्कोस्निग्धं चात्रै विरूक्षणम् कासे कर्म सपित्ते तु कफजे तिक्तसंयुतम् ॥
अर्थ- वातकफात्मक सूखी खांसी में स्निग्धक्रिया तथा गीली खांसी में रूक्ष क्रिया करनी चाहिये परंतु पित्तयुक्त कफकी खांसी में तिक्तत्रयुक्त औषधका प्रयोग करना चाहियें रक्षतचिकित्सा |
उरस्यंतःक्षते सद्यो लाक्षां क्षौद्रयुतां पिवेत् । क्षीरेण शालीन् जीर्णेऽद्यात्क्षीरेणैव सशर्करान
अर्थ - खांसी के रोग में यदि छाती के भीतर घाव होगया हो तो शहत मिली हुई लाखको दूध के संग पान करे, और औषध
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अष्टांगहृदय ।
के पचजाने पर दूध और शर्करा के साथ | शहत मिलाकर दूध के साथ पीना शाली चांवलों का भात खाना चाहिये । । चाहिये । . पाश्र्वादिवेदना में कर्तव्य ।
कास में सपिप्पान । पार्श्वबस्तिसरुक्चाल्पपित्ताग्निस्ता- कासवांश्च पिबेत्सर्पिमधुरौषधसाधितम्।
सुरायुताम् । गुडोदकं या कथितं सक्षौद्रमरिच हिमम् ॥ भिन्नविटकासमुस्तातिविषापाठांसवत्सकाम् चूर्णमामलकानां वा क्षीरपक्कं घृतान्वितम् । ___ अर्थ-यदि पसली और चस्ति में वेदना | रसायनविधानेन पिप्पलीर्वा प्रयोजयेत् । होती हो, तथा जठराग्नि मंद पडगई हो । अर्थ-कासरोगी मधुर औषधों से सिद्ध तो सुरा के साथ लाख पीवै और जिस किया हुआ घृतपान करै, अथवा गुड के मनुष्य का मल फटगया हो वह नागरमोथा | पानी को औटाकर उसमें शहत और काली पाठा, अतीस और कुडाकी छाल मिलाकर | मिरच डालकर ठंडा करके पीवै, अथवा लाखको पीवै।
आमले के चूर्ण को दूध में पकाकर घी उरःक्षत में दूध विशेष ।।
मिलाकर सेवन करे, अथवा रसायन में लाक्षांसर्पिर्मच्छिष्ट जीवनीयगणं सितम् | कही हुई विधि से पीपलका प्रयोग करे। स्वक्षीरसमितंक्षीरे पक्त्वा दीप्तानलःपिवेत् . पर्वास्थिशूलयुक्त खांसी ।
स्वरिकाविषग्रंथिपद्मकेसरचंदनैः। कासी पर्वास्थिशूली चश्रुतं पयो मधुयुतं संधानार्थ क्षती पिवेत् ॥
लिह्यात्सघृतमाक्षिकान् । अर्थ-दीप्ताग्निवाला मनुष्य लाख, धी. मधूकमधुकद्राक्षात्यक्क्षीरीपिप्पलीबलान् ।। मोम, जीवन यगणोक्त औषध, मिश्री, और
__अर्थ-जिस खांसी के रोगवाले के संधि वंशलोचन इन द्रव्यों के साथ पकाये हुए
और अस्थियों में शूल. होताहो वह महुआ - दूधको पीवै । तथा कांसकी जड, सींगिय ।
के फूल, मुलहटी, दाख, बंशलोचन, पीपल विष, पीपलामूल, कमलकेसर और चंदन
| और खरैटी के चूर्ण में शहद और बी इनके साथ पकाये हुए दूध में शहत मिला
मिलाकर चाटै । कर पीने से छाती के भीतरका घाव भर
पाष्टिक गुटका। जाता है।
त्रिजातमर्धकर्षांशं पिप्पल्यर्धपलम् सिता A ज्वरदाह में पान ।
द्राक्षामधूकं खजूरपलांशंश्लक्ष्णचूर्णितम् ॥ यबानां चूर्णमामानां क्षीरे सिद्धं घृतान्वितम्
मधुना गुटिका नंति ता वृष्याः ज्वरदाहे सिताक्षौद्रसक्तून्बा पयसा पिवेत्॥
पित्तशोणितम् । __अर्थ-कच्चे जौ का चून दूधर्म पकाकर क्षतक्षयस्वरभंशप्लीहशोफाढयमारुतान् ।
कासश्वासारुचिच्छर्दिमूर्छाहिध्मावमिभ्रमान घी मिलाकर पीने से ज्वरका दाह दूर हो रक्तनिष्ठीवहत्पार्श्वरुपिपासाज्वरानपि ८२ जाता है, अथवा जौका सत्तू मिश्री और अर्थ - निजात । इलायची, दालचीनी
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
३
और तेजपात ) आधा कर्श, पीपल दो तोळा, तथा चीनी, दाख, मुलहटी और खिजूर प्रत्येक एक एक पल इनको वारीक पीसकर शहत डालकर गोलियां बना लेवे ये गोलियां पुष्टिकारक, तथा रक्तपित्त, खांसी, श्वास, अरुचि, वमन, मूर्छा, हिमा हृल्लास, भ्रम, क्षतजन्य क्षीणता, स्वरभ्रंश लोहा, शोथ, आढयवात, खखार के साथ रुधिरं निकलना, हृदयशूल, पसली का दर्द तृव का वेंग और ज्वर इन सत्रको दूर
करता है ।
रक्तनिष्ठीवन में सांठका चूर्ण | वर्षांभूशर्करा रक्तशालि तंडुलजम् रजः । रक्तष्ठीवी पिवेत्सिद्धं द्राक्षारसपयोघृतैः ८३ मधूकमधुकशीरसिद्धं वा तन्डुलीयकम् ।
अर्थ- सांठ, शर्करा, लाल शाळी चांवलों की रज इनको दाखके रस, दूध और घी के साथ सिद्ध करके पीने से रुधिर का थूकना बंद होजाता है, अथवा महुआ के फूल, मुलहटी और चौलाई इनको दूध में पकाकर पीने से भी रुविर का थूकना बंद हो जाता है ।
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क्षामादिमें चिकित्सा | क्षामः क्षीणक्षतोरक्को
मुखादिविस्तरतमें उपाय | “यथास्वमार्गावस्रुते रक्ते कुर्याच्च भेषजम् ॥
|
अर्थ-मुखादि मार्गों द्वारा रुधिर निकलता हो तो रक्तपित्तचिकित्सित अध्याय में कही हुई यथायोग्य चिकित्सा करनी चाहिये । मूढवात में कर्तव्य | मृढवातस्त्वजामेदः सुराभृष्टं ससैंधवम् । अर्थ- मूढवात में बकरे के मेदाको सुरामें भूनकर थोडा सेंधानमक डालकर सेवन करे ।
( ४९.१ )
•
मन्दनिद्रोऽग्निदीप्तिमान् ॥ ८५ ॥ नृतक्षरिसरेणाद्यात्सघृतक्षौद्रशर्करम् ।। अर्थ- जो मनुष्य कृश और क्षीण है, जि. स की छाती के भीतर घाव है, जिसको नींद कम आती है, जिसकी जठराग्नि प्रदीप्त है वह औटे हुए दूध की मलाई, घी, राहत और शर्करा मिलाकर बकरेके मेदेके साथ खाय । शर्करां यवगोधूमं जीवकर्षभको मधु ८६ ॥ अन्य अवलेह | तक्षरानुपानं वा लिह्यात्क्षीणक्षतः कृशः ।
अर्थ - शर्करा, जौ, और गेंहूं का चून, जीवक, ऋषभक, और शहत इनको मिलाकर चाटै, ऊपरसे औटा हुआ दूध पान करे, इस से क्षीणता, और कृशता जाती रहती है, तथा छाती का घाव भर जाता है ।
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मांसादिवर्द्धन औषध ।
क्रव्यात्पिशितनिर्यूहं घृतभृष्टं पिबेच्च सः ॥ पिप्पलीक्षौद्रसंयुक्तं मांसशोणितवर्धनम् । अर्थ-उ - उक्त प्रकारका रोगी मांसभक्षी जीवों के मांसरसको घी में छोंककर पानकरे इस में पीपल और शहत भी डाल लेवे । इस से मांस और रुधिर बढता है ।
क्षतोरस्कादि में घृतविशेष । म्यग्रोधोदुंबराश्वत्यलक्षशालप्रियंगुभिः ८८ तालमस्तकजंवृत्व प्रियालैश्च सपद्मकैः । साश्वकर्णैः शृतात्क्षीरादद्याज्जातेन सर्पिषा शाल्योदनं क्षतोरस्कः क्षीणशुक्रबलेंद्रियः ।
अर्थ - ढाक, गूगल, पीपल, पाकड, साल, और प्रियंगु इनकी छाल, ताडकी कोंपल, जामनकी छाल, चिरोंजी की छाल, पदमाख,
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(४९२)
अष्टांगहृदय ।
सुधामतरसं
प्रात घृतम्।
और अश्वकर्ण इनको डालकर दूध औटावै, शृंगाटकं पयस्या च पंचमूलं च यल्लघु ।९४ इस दूधसे निकले हुए घीकेसाथ शालीचा
| द्राक्षाक्षौडादि च फलं मधुरस्निग्धवृंहणम् ।
तैःपचेत्सर्पिषः प्रस्थं कर्षाशैःश्लक्ष्णकल्कितैः वलों के भातका सेवन कर इसके सेवन से
क्षीरधात्रीविदारीक्षुछागमांसरसान्वितम् । वःक्षस्थल के भीतरका घाव, तथा शुक्र, बल प्रस्थार्ध मधुनः शीते शर्करार्धतुलारजः। ९६ और इन्द्रियों की क्षीणता मिटजाती है। पलार्धकं च मरिच त्वगेलापत्रकेसरम् । । . अभ्यंगादि।
विनीय चूर्णितं तस्माल्ह्यिान्मात्रां यथाव
लम् ॥ ९७ ॥ वातपित्तार्दितेऽभ्यंगो गात्रभेदे घृतैर्मतः ॥
अमृतप्राशमित्येतनराणममृतं घृतम् । तैलैश्चानिलरोगघ्नैः पीडिते मातारश्चना।
सुधामतरसं प्राश्यं क्षीरमांसरसाशिना ॥ अर्थ-बातपित्तसे पीडित होने तथा श.
नष्टशुक्रक्षतक्षीणदुर्वलव्याधिकर्शितान् । रीरके फटजाने पर घृतका मर्दन करे । अ.
स्त्रीप्रसक्तान कृशान् वर्णस्वरहीनांश्च वृहथवा वातसे पीडित होनेपर बातनाशक तेल
येत् ॥ ९९ ॥ अथवा घीका मर्दन करै।
कासहिघ्माज्वरश्वासदाहतृष्णास्र पित्तनुत् जीवनीयघृत ।
पुत्रदं छर्दिमू हृद्योनिमृत्रामयापहम् ॥ हृत्पाार्तिषु पानं स्याज्जीवनीयस्य सर्पिषः |
___ अर्थ-जीवनीयगणोक्त द्रव्य, सौंठ, सिकुर्याद्वा वातरोगघ्नं पित्तरक्तविरोधि यत् ।
तावर, वीरा, सांठ, खरैटी, भाडंगी, केंच अर्थ यदि कास रोग में हृदय तथा
के बीच, कचूर, भूम्यामलकी, पीपल, सिंपसली में दर्द होता हो तो जीवनीय गणो- घाडा, दुद्धी, लघुपंचमूल, दाख, और अखक्त द्रव्यों के साथ पकाया हुआ घृत पान
रोटादि मधुर, स्निग्ध और वृंहणफल, इनमें करावे । अथवा जो घृत पित्तरक्त की अवि. से जो जो मिलसकें प्रत्येक एक कर्ष लेकर रोधी और वातनाशक औषधोंसे बनाया जा• महीन पीसकर लुगदी बनालेवे और दूध, ताहै, वह देना हितहै।
आंवले का रस, विदारीकंदका रस, ईखका
| रस, और बकरे के मांसरस, ये मिलाकर क्षतकासमें घृतविषेश। यष्टयावानागबलयोः क्वाथे क्षीरसमेघृतम् ।
इनमें एक प्रस्थ घी पकावे, ठंडा होनेपर पयस्यापिप्पलीवांसकिल्कैः सिद्ध क्षय हितम
इसमें आधा प्रस्थ मधु, शर्करा आधातुला अर्थ-मुलहटी और नागवलाके क्वाथमें तथा कालीमिरच, दालचीनी, इलायची, बराबर दूध मिस्लादे, तथा दूधी, पीपल और | तेजपात, और नागकेसर, प्रत्येक दो तोले वंशलोचन इनका कल्क डालकर घी पकावै। इन सबको उस घी में डालदेवे । इसतरह यह घी क्षतकास में हितकारी होताहै ।। घी को तयार कर रोगी के बल और मात्रा
___ अमृतपाश अबलेह । के अनुसार देवे । इस घृतका नाम अमृतजीवनीयो गणःशुठी वरी वीरा पुनर्नवा ॥
प्राशहै । यह मनुष्यों को अमृतके समान बलाभागी स्वगुप्ताह्वाशठी तामलकोकणा। गुणकारी है, जैसे नागों को सुधा और दे
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म. ३
चिकित्सिस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४९३ )
वताओं को अमृत होताहै।इस सुधामृतरसका | मार्गगमन, आदि श्रमपीडित रोगियों के बल सेवन करके अनुपानमें क्षीर और मांसरस का | और मांस का बढानेवालाहै । पथ्य करना चाहिये । यह अमृतप्राश नष्ट- । रक्तगुल्मादि पर समसक्तु घृत । शुक्र, क्षतक्षीण, दुर्वल, व्याधिकर्शित, स्त्री मधुकाष्टपलद्राक्षाप्रस्थक्काथे पचेद्धृतम् । प्रसक्त, कृश, वर्णहीन और स्वरहीनों को पिप्पल्यष्टपले कल्के प्रस्थं सिद्धे च शीतले
पृथगष्टपलं क्षौद्रशर्कराभ्यां विमिश्रयेत् । वृंहणकारकहै । खांसी, हिचकी, ज्वर, श्वास, । दाह, तृषा, और रक्तपित्त को नष्ट करदेता |
___अर्थ-मुहलटी आठ पल, दाख एक है, पुत्र देताहै, तथा वमन, हृद्रोग, मूर्छा
प्रस्थ इनके काढे में घृत पकावै । ठंडा होने योनिरोग और मूत्र रोगों को दूर करदेताहै ।
पर आठ पल मधु और आठ पल शर्करा श्वद्रंष्ट्रादिघृत । मिलावै फिर इसी की बरावर सत्तू मिलाकर श्वदंष्टीशीरमंजिष्ठाबलाकाश्मर्यकत्तणम् । सेवन करने से क्षतक्षीण और रक्तगुल्म जादर्भमूलं पृथक्पर्णी पलाशर्षभको स्थिरा ॥ ते रहते हैं। पालिकानि पचेत्तेषां रसे क्षीरचतुर्गुणे । | यक्ष्मादिनाशक घृत । कल्कैः स्वगुप्ताजीवंतीमेदकर्षभजविकैः॥
धात्रीफलविदारीक्षुजीवनयिरसाघृतात् । शतावयाँर्धमृद्वीकाशर्कराश्रावणीबिसैः। ।
गव्याजयोश्च पयसोःप्रस्थं प्रस्थं विपाचयेत् प्रस्थः सिद्धो धृताद्वातपित्त हृद्रोगशूलनुत् ॥
सिद्धपूते सिताक्षौद्रं द्विप्रस्थं विनयेत्ततः। मूत्रकृच्छ्रप्रमेहाःकासशोषक्षयापहः ।।
यक्ष्मापस्मारपित्तामृक्कासमेहक्षयापहम् ॥ धनुस्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानां बलमांसदः॥
वयःस्थापनमायुष्यं मांसशुक्रवलप्रदम् । ___ अर्थ-गोखरू, खस, मजीठ, खरेटी, ____ अर्थ-आमला, बिदारीकंद, ईख, और खंभारी, कत्तृण, डाभकीजड, पृश्नपर्णी, ढाक जीवनीयगण के द्रव्यों का रस, गों और ऋषभक, शालपर्णी, इनमेंसे हरएक को चार वकरी का दूध प्रत्येक एक प्रस्थ, इनमें एक तोले लेकर क्वाथ करले, इस क्वाथमें चौ- प्रस्थ घी को पकावै । जब पकजावे तब गुना दूध डाले । तथा केंचके वीज, जीवंती
छानले और दो दो प्रस्थ मिश्री और शहत मेदा, ऋषभक, जीवक, सतावरी, ऋद्धि,
मिलाकर सेवन करै । इससे यक्ष्मा, अपमुनक्का दाख, शर्करा, श्रावणी, कमलनाल
स्मार, रक्तपित्त, खांसी, प्रमेह और क्षय इन सब द्रव्योंका कल्क उसमें डालदे और
जाते रहते हैं । यह वय को स्थापनकर्ता, पाक की विधिसे एक प्रस्थ घी पकावे ।
आयुवर्द्धक, मांस शुक्र और बलको बढाने इसके सेवनसे बातपित्त, हृदयरोग, शूल,
वाला है। मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह, अर्श, खांसी, शोष और
पित्ताधिक्य में अबलेह । क्षयीरोग जातेरहते हैं, तथा धनुराक- "तं त पित्तेऽभ्यधिक लिह्याद्वाताधिके र्षण, अतिस्त्रीसेवन, अतिमद्यपान, भारवहन
पिवेत् ॥ १०९॥
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अष्टांगहृदय ।
अ. ३
लीढं निर्वापयेत्पित्तमल्पत्वाद्धति नानलम् । खजेनामथ्य च स्थाप्यं तनिहत्युपयोजितम् आक्रामत्यनिलं पीतमूष्माणं निरुणद्धि च ।। कासहिधमाज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान् । अर्थ-पित्तकी आधिकता में घृत का
उरःसंधानजननं मेधांस्मृतिबलप्रदम् ११६
अश्विभ्यां विहितं हृद्यं कूष्मांडकरसायनम् । अवलेह, वातकी अधिकता में घृतपान कर
अर्थ-पेठेके छिलके और बीज निकालकर ना चाहिये । चाटा हुआ घृत थोडा होने के कारण पित्तको शांत कर देता है, पर
एक तुला लेकर उबाल ले फिर इसको अग्नि का नाश नहीं करता है । पान कि
वस्त्र में निचोडले, इसको एक प्रस्थ धीमें
भूने और कलछी से चलाता रहे । जब या हुआ घी अधिकता के कारण वातको नष्ट कर देता है और जठराग्नि को रोक
इसका वर्ण: शहत के समान होजाय तब
इसमें नीचे लिखे द्रव्य डाल-खांड ता है। वीर्यबर्धक चूर्ण।
१०० पल, पीपल, सोंठ और जीरा प्रत्येक क्षामक्षीणकृशांगानामेतान्येव घृतानि तु । ८ तोले, दालचीनी, इलायची तेजपात, त्वपक्षीरीपिप्पलीलाजचूर्णैः पानानि योज | धनियां, कालीमिरचं, प्रत्येक आधा आधा - वेत् ॥१११॥
पल इन सब द्रव्यों को डालकर अच्छीतरह सर्पिगुंडान्समवंशान् कृत्वा दद्यात्पयो नु च रेतो वीर्य बलं पुष्टिं तैराशुतरमामुयात् ॥
| मिलाकर नीचे उतारले, ठंडा होने पर अर्थ-म्लानतायुक्त, क्षीण और कृशांग |
घी से आधा शहत मिलाकर रई से मथकर रोगियों को ऊपर कहे हुए संपूर्ण घी में
घीकी हांडी में भरदे । इसकी मात्रा एक वंशलोचन, पीपल, और धानकी खीलका
तोले से दो तोले तक दीजाती है । इसके चूर्ण मिलाकर पान करावै । अथवा गुड
सेबन से खांसी, हिचकी, ज्वर, श्वास, और मधु मिला हुआ घी उचित मात्रा में
रक्तपित्त, क्षत, क्षयी, ये रोग दूर सेवन कराके ऊपर से दध पान करावे ।
होजाते है । वक्षःस्थल के घावको जोड़ता 'इसके पान करने से रोगी बहुत ही शीघ्र |
है, मेघा, स्मरणशक्ति और बलको बढाता शुक्र, वीर्य, बल और पुष्टिप्राप्त कर लेता
है, हृदय को हितकारी है, यह कूष्मांड
रसायन अश्विनीकुमार ने लिखी है । है । ( इसमें शर्करा पचास पल और शहद
. नागवलादि कल्प । १६ पल डाला जाता है)।
पिबेनागबलामूलस्यार्धकर्षाभिवर्धितम्।
पलं क्षीरयुतं मासंक्षीरवृत्तिरनन्नभुकू । कूष्मांडाख्य रसायन ।
एष प्रयोगःपुष्टयायुर्बलबर्णकरः परम् ॥ वीतत्वगस्थिकूष्मांडतुलां स्विन्नां पुनःपचेत् मंइकपाःकल्पोऽयं यष्टया विश्वौषधस्यच घट्टयन सर्पिषःप्रस्थे क्षौद्रवर्णेऽत्रच क्षिपेत
अर्थ-नागवला की जड पहिले दिन खंडाच्छतं कणाशुंठ्याोपलं जीरकादपि । त्रिजातधान्यमरिचं पृथगर्धपलांशकम् ॥
चार तोले दूधके संग पावै, फिर प्रतिदिन अवतारितशीते च दत्वा क्षौद्रं वृतार्धकम् । आधा भाधा कर्ष बढाकर एक महिने तक
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४९५)
इसका सेवन करे, केवल दूध पीवे और । दीप्ताग्न्यादि में कर्तव्य । अन्नको त्याग दे । यह प्रयोग पुष्टि, आयु | "दीप्तेऽग्नौ विधिरेषःस्यान्मंदे दीपनपाचनः वल, और वर्ण के बढान में एकही है। | यक्ष्मोक्तः क्षतिनां शस्तो ग्राही शकृति तुद्रवे' इसी तरह मंडूकपर्णी, तथा मुलहटी तथा ।
अर्थ-क्षतयुक्त खांसीवाले रोगी की सौंठ का कल्प भी सेवन किया जाताहै। जठराग्नि यदि तीव्र हो तो यह विधिकर्तव्य नागवलाघृत !
है, मंदाग्नि हो तो राजयक्ष्मा में कहे हुए पादशेयं जलद्रोणे पचेन्नागबलातुलाम् ॥
दीपनपाचन हित हैं, यदि मल पतला तेनकायेन तुल्यांशं घृतं क्षीरेण पाचयेत्।। पलार्धिकैश्चातिबलावलायष्टीपनर्नवैः॥ होगया हा तो संग्राही औषधे देना चाहिये। प्रपौंडरीककाश्मर्यप्रियालकपिकच्छुभिः ।
- अगस्तिविहित रसायन । अश्वगंधासिताभीरुमेदायग्मत्रिकंटकैः॥ दशमूलं स्वयंगुप्तां शंखपुष्पी शठी बलाम् ।। काकोलीक्षीरकाकोलीक्षीरशुक्लाद्विजीरकैः हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान् । एतन्नागबलासर्पिः पित्तरक्तक्षतक्षयान् ॥ भागी पुष्करमूलं च द्विपलांशान् यवाढकम । जयेत्तृभ्रमदाहांश्च बलपुष्टिकरं परम् ॥ हरीतकीशतं चैकं जले पंचाढके पचेत् । पर्ण्यमायुष्यमोजस्य बलीपलितनाशनम् ॥
यवास्विन्ने कषायं तं पूतं तच्चाभयाशतम् ॥ उपयुज्य च षण्मासान् वृद्धोऽपितरुणायते।
पवेद्गुडतुलां दत्त्वा कुडवं च पृथग्घृतात् । ' अर्थ-एक तुला नागवला को एक द्रोण
तैलात्सपिप्पलीचूर्णात्सिद्धशीतेचमाक्षिकात् जलमें पकावै, चौथाई शेष रहनेपर उस
लेह द्वे चाभये नित्यमतः खादेद्रसायनात् ।
तद्वलीपलितं हन्यादर्णायुर्बलवर्धनम् ।१२९ । क्वाथको छानले, फिर इस काथके समान पंचकासान् क्षयं श्वासं सहिध्म विषमज्वरम् घी और दूध मिलाकर पकावे पकाते समय मेहगुल्मग्रहण्य हृद्रोगारुचिपीनसान् ॥ इसमें अतिवला, बला, मुलहटी, पुनर्नवा, | अगस्तिविहित धन्यमिदं श्रेष्ठं रसायनम् । प्रपौडरीक, खंभारी, प्रियाल, केंचके बीज,
___ अर्थ-दसमूल, केंच के बीज, शंखअसगंध, मिश्री, सितावर, मेदा, महामेदा,
पुष्पी, कचूर, खरैटी, गजपीपल, ओंगा, गोखरू, काकोली, क्षीरकाकोली, क्षीरशुक्ला
| पीपलामूल, चीता, भाडंगी और पुष्करमूल कालाजीरा, सफेदजीरा, इनमेंसे प्रत्येक आ- इनमें से हरएक दो दो पल । जौ एक धा आधा पल लेकर कल्क करके उसमें आढक, और १.० हरड, इन सबको डालदे । यह नागवलाघृत पित्तरक्त, क्षत, | पांच आढक जल में पकावै । जब जो क्षय, तृषा, भ्रम, दाह, इन रोगों को दूर | स्विन्न ( सीजना ) होजाय तव उतारकर करताहै, बल और पुष्टिको बढाताहै वर्ण, कपडे में छानले । फिर इस काथ में ऊपर आयु और ओजकारकहै, तथा बली और कही हुई १०० हरड. एक तुला गुड और पलित को नाश करनेवालाहै। इस घतका | एक कुडब घी और एक कुडव तेल डालछः महिने सेवन करनेसे वृद्ध मनुष्य भी कर पकावै, जब पकने पर आजाय तब युवाओंके से आचरण करने लगताहै। एक कुडव पीपल पीसकर मिलादेवे । ठंडा
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अष्टांगहृदय ।
अ०३
होने पर एक कुडव शहत मिला लेवे । विजैसार, वीजपुष्प, वोट (अलंबुसा ), स्थविर इसमें से प्रतिदिन थोडा थोडा और दो | (शैलेय), भिलावा, विकंकत, सितावर, पूतिहरड सेवन करै । इसके सेवन से वलो करंज, अमलतास, वाबची, पियाबांसा, सहऔर पलित नष्ट होजाते हैं, वर्ण, आयु जना, नीमकी छाल, और इझुर इन सबको और बल बढते हैं, पांच प्रकारको खांसी | एक एक पल लवै । ग्यारहसौ हरड, दो आक्षयी, श्वास, हिमा और विषमज्वर का ढक जौ, इन सबको अठगुने जलमें अग्नि नाश होजाता है, प्रमेह गुल्म, ग्रहणी, अर्श | पर चढादे और जव जी सीजजाय तब उ. हृद्रोग, अरुचि और पीनस रोग जाते रहते तारले फिर इसको छानकर इस काढेमें उक्त हैं, यह अगस्तजी का कहा हुआ सब रसा- ग्यारहसौ हरड, एक तुला पुराना गुड, तेल, यनों में श्रेष्ठ है।
घी आंवलेका रस प्रत्येक एक प्रस्थ, इनको वाशिष्ठोक्तरसायन । पुनार मंदी आगपर पकावै, जब कलछी दशमूलं बलां मूर्वी हरिद्रे पिप्पलीद्वयम् ॥ से लगने लगे तव उतारले । ठंडी होने पर पाठाश्वगंधापामार्गस्वगुप्तातिबिषामृतम् । दो प्रस्थशहत और एक कुडव पिसीहुई पीपल बालबिल्वं त्रिवृहंतीमूलं पत्रं चचित्रकात् ॥
तथा दालचीनी, इलायची और तेजपात इन पयस्यां कुटज हिंस्रां पुष्पं सारं च बीजकोत् बोटस्थविरभल्लातविकंकतशतावरी ॥
का चूर्ण प्रत्येक तीन पल उसमें डालकर पूतीकरंजशम्याकचंद्रलेखासहाचरम्।। | अच्छी तरह मिलादे और पुराने घीके पात्र सौभांजनकनिंबत्वगिक्षुरं चपलांशकम् ॥ में भरकर एक महिने तक अन्नके ढेरमें गापथ्यासहस्र सशतं यवानांचाढकद्वयम् ॥ टे कि इसके सेवनसे प्रोक्त गण होते हैं, पचेदष्टगुणे तोये यवस्वेदेऽवतारयेत् । पूते क्षिपेत्सपथ्यांच तत्र जीर्णगुडात्तुलाम्
| यह रसायन वशिष्ठजी की कही हुई है यह तैलाज्यधात्रीरसतः प्रस्थं प्रस्थं ततः पुनः महर्षि अगस्तजी की रसायनसे भी गुणोंमें आधश्रयेन्मृदावनी दी लेपेऽवतार्य च । अधिक हैं । यह स्वस्थ पुरुषों के लिये भी हिशीते प्रस्थद्वयं क्षौद्रापिप्पलाडवं क्षिपेत्
तकारीहै और सब ऋतुओंमंसेवन के योग्यहै । चूर्णीकृतं त्रिजाताच त्रिपलं निखनेत्ततः । धान्ये पुरागकुंभस्थ मासं खादेच्च पूर्ववत्
सैंधवादि चूर्ण। रसायनम् वसिष्ठोक्तमेतत्पूर्वगुणाधिकम् ।
पालिकं सैंधबं शुठी द्वे च सौवर्चलात्पले। स्वस्थानां निःपरीहारं सर्वर्तुषुचशस्यते ॥
कुडवांशानि वृक्षाम्लं दाडिमं पत्रमार्जकम् अर्थ-दसमूल, खरैटी, मूर्वा, दोनों हल. एकका मारचाजा
एकैकां मरिचाजाज्योर्धान्यका द्वेचतुर्थिके दी, दोनों पीपल, पाठा, असगंध, ओंगा,
शर्करायाः पलान्यत्र दशद्वेच प्रदापयेत् ।
कृत्वाचूर्णमतो मात्रामन्नपानेषु दापयेत् । केंचके बीज, अतीस, गिलोय, कच्ची बेल. | रुच्यं तद्दीपनं बल्यं पाार्तिश्वासकासाजत् गिरी, निसोथ, दंतीकी जड, चीतेकी जड अर्थ-सेंधानमक और सोंठ प्रत्येक और पत्ते, दुद्धी, कुडाकी छाल, जटामांसी, । एक पल, सौवचर्ल नमक दो पल,बिजौरा,
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४९७)
अनार और अर्जक पत्र प्रत्येक एक कुडव, के दूर होने पर जब कफ बढ़ जाता है तब कालीमिरच और जीरा प्रत्येक एकपल, . उसकी छाती और सिर में फटने की सी धनियां दो पल, शर्करा १२ पल इन सबका पीडा होने लगती है उस समय नीचे लिखे चूर्ण बनाकर यथायोगमात्रा के अनुसार हुए धूमपानों का प्रयोग करना चाहिये । भोजन और जलपान के साथ देवै । यह ।
धूमवति । चर्ण रुचिवर्द्धक, अग्निसंदीपन और वल | द्विमेदाद्विबलायष्टीकल्कैः क्षौमे सुभाविते । कारक है, तथा पसली के दर्द, श्वास और
वति कृत्वा पिबद्भूमं जीवनीयघृतानुपः खांसी को दूर करदेता है ।
अर्थ-मेदा, महामेदा, बला, अतिबला, खांडब ।
और मुलहटी इनके कल्क को रेशमीबस्त्र एकांषोडशिकांधान्यादेवाऽजाजिदीप्यकात में लगाकर बत्ती बना लेवे, इस वर्ति द्वारा ताभ्यां दाडिमवृक्षाम्लैनिसिौवर्चलात्पलम् | धूमपान करके जीवनीय घृत का अनुशंख्याः कर्ष दधित्थस्थ मध्यात्पंचपलानिच | पान करे । तच्चूंग षोडशपलैः शर्कराया बिमिश्रयेत्।
। धूमपान की अन्यविधि । खांडवोऽयं प्रदेयः स्यादन्नपानेषु पूर्ववत् । मनःशिलापलाशाजगंधात्वक्क्षीरनागरैः । . अर्थ-बनियां एक कर्ष, जीरा और तद्वदेवाऽनुपानं तु शर्करेक्षुगुडोदकम् । अजमोद दो दो कर्ष, अनार और बिजौरा ____ अर्थ-मनसिल, ढाक, अजगंध, दालचार चार कर्ष, संचलनमक १ पल, सोंठ, चीनी, वंशलोचन, सोंठ इनकी पूर्वोक्त १ कर्ष, कैथका गूदा ५ पल, शर्करा सोलह रीति से बत्ती बनाकर धूमपान करें, तद. पल इन सबको पीस कूट कर तयार करले | नन्तर शर्करा, इक्षु और गुडोदक का यह खांडव अन्नपान के साथ देने से पर्व- अनुपान करे । वत गुणकारी है।
अन्यविधि ।
पिष्ट्वा मनःशिलांतुल्यामाया वट_गया। क्षत में अन्यकर्तव्य । ससर्पिकं पिबेदमंतित्तिरिप्रतिभोजनम् ॥ "विधिश्च यक्ष्मविहितो यथावस्थं क्षते । अर्थ-मनसिल और इसके समानही
हितः ॥ १४५॥ । वटके हरे अंकुरों को लेकर पीसडाले और अर्थ-क्षतकास में अवस्था के अनुसार
इसमें घी मिलाकर पूर्वोक्त विधि से धूमपान यक्ष्मा में कही हुई विधि भी करना हित
| करे, इस पर तीतरके मांसका अनुपानहैं । कारी है।
क्षयजादिकास में कर्तव्य । धूमपान का विधान । क्षयजे वृहणम् पूर्व कुर्यादग्नेश्च वर्धनम् । निवृत्ते क्षतदोषे तु कफे वृद्ध उरः शिरः। | बहुदोषायसस्नेहं मृदुदयाद्विरेचनम् १५०॥ दाल्ये कासिनो यस्य स धूमानापिबोदिमान् । अर्थ-क्षयज खांसी में पूर्वोक्त वृंहण
अर्थ-खांसी वाले मनुष्य के क्षत दोष और अग्निवर्द्धनी क्रिया करनी चाहिये ।
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( ४९८ १
यदि क्षयज कास में दोषों की अधिकता हो तो मृदु विरेचन देना चाहिये । विरेचन विधि |
शम्याकेन त्रिवृतया मृद्वीकारसयुक्तया । तिल्वकस्य कषायेण विदारीस्वरसेन च ॥ [ सर्पिः सिद्धं पिबेद्युक्त्तया क्षीणदेहो - विशोधनम् ॥ १५२ ॥
अर्थ - कासरोगी का देह यदि क्षीण हो तो युक्तिपूर्वक अमलतास से अथवा द्राक्षारसयुक्त निसोथ से, सावरलोध के क्वाथ से और विदारीकंद के रस से सिद्ध किया हुआ घृत विरेचन के लिये देना चाहिये |
अष्टांगहृदय |
धातुक्षय में घृत | पित्त कफे धातुषु च क्षीणेषु क्षयकासवान् ॥ घृतं कर्कटकी क्षीरद्विबलासाधितम् पिबेत् । अर्थ-क्षयज खांसी में पित्त, कफ और धातुओं के क्षीण होने पर काकडासींगी, दूध, बला और अतिबला इनसे सिद्ध किया हुआ घी देना चाहिये ।
मूत्रपद्रव में चिकित्सा । विदारीभिः कदंबैर्वा तालसस्यैश्च साधितम् घृतम् पयश्च मूत्रस्य वैवर्ण्यं कृच्छ्रनिर्गमे ।
अर्थ - खांसी के रोग में यदि मूत्र के रंग में विवर्णता हो और निकलने में कष्ट होता हो तो विदार्यादि कंद, कदवादि अथवा तालफलादि से सिद्ध किया हुआ घी वा दध पीना चाहिये ।
कासरोग में अनुवासन । शूने सवदने मेढे पायौ सश्रोणिवंक्षणे ॥ घृतमण्डेन लघुनाऽनुवास्यो मिश्रकेण वा । अर्थ - कासरोग में यदि मेहू, गुदा, श्रोणी
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८० ३
और वंक्षण में सूजन और वेदना हो तो लघु घृतमंड से अथवा घी और तेल मिलाकर अनुवासन देना चाहिये ।
कासरोग में मांसादि सेवन | जांगलैः प्रतिभुक्तस्य वर्तकाद्या बिलेशयाः ॥ क्रमशः प्रसहातद्वत्प्रयोज्याः पिशिताशिनः । औष्ण्यात्प्रमाथिभावाच्च
स्त्रोतोभ्यश्च्यावयंति ते ॥ १५६ ॥ कफम् शुद्धैश्च तैः पुष्टिं कुर्यात्सम्यग् वहन्रसः । 39 अर्थ - अनुवासन के पीछे कासरोगी को हरिण वा वकरा अथवा अन्य ऐसेही जांगल जीवोंका मांस पथ्यमें देवै, तदनंतर वर्तकादि प्रसहपक्षी और फिर द्वीपिव्याघ्रादि मांसाहारी पशुओं का मांस, क्रमसे सेवन करे । प्रसह जीवों का मांस उष्णवीर्य और प्रमाथी x है, इसलिये वह कफसे रिहसे हुए संपूर्ण स्रोतों के कफको निकालकरं स्रोतों को शुद्ध करदे ता है । और स्रोतोंके शुद्ध हो जाने पर रस धातु उनमें सम्यक् रीतिसे बहता हुआ देह की पुष्टि संपादन करता है ।
|
अन्य कासनाशक घृत । चविकात्रिफलाभार्गीदशमूलैः सचित्रकैः ॥ कुलत्थपिप्पलीमूलपाठाकोल यबैर्जले 1
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x खरनादने प्रमाथी के लक्षण यह लि खे हैं कि स्रोतांसि दोषलिप्तानि प्रमथ्य विवृणोति यत् । प्रावेश्य सौक्ष्म्यात्क्ष्ण्याच तत्प्रमाथीति संज्ञितम् ॥ अर्थात् जो संपूर्ण द्रव्य तीक्ष्ण स्वभाव और सूक्ष्म स्रोतोंमें गमनशील होनेके कारण कफादि दोषों से लि
सूक्ष्म स्रोतों में प्रविष्ट होकर उस दोषलिप्त स्रोत के दोषको निकालते हैं उन द्रव्यों को प्रमाथी कहते हैं ।
|
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म.३
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४९९ ]
शृतैर्नागरदुःस्पर्शापिप्पलीशठिपौष्करैः ॥ । के जड, पत्ते, फल और अंकुरों का रस तथा पिष्टैः कर्कटशृंग्याच समैः सर्पिर्विपाचयेत्। इन्हीं का कल्क मिलाकर पकाया हुआ घृतं सिद्धेऽस्मिश्चूर्णिता क्षारौ द्वौपञ्चलवणानि च ।। १५९ ॥
खांसी, ज्वर, और अरुचिको दूर करता है। दत्त्वा युक्त्या पिवेन्मात्रां क्षयकासनिपीडितः भोजन पर सिद्धघृतपान । अर्थ-चव्य, त्रिफला, भाडंगी दशमूल, |
द्विगुणे दाडिमरसे सिद्धं वा व्योषसंयुतम् ।
पिवेदुपरिभुक्तस्य यवक्षारघृतं नरः। चीता, कुलथी, पीपलामूल, पाठा, बेर, और
पिप्पलीगुडासद्ध वा छागक्षीरयुतं घृतम् ॥ जौ इनके काढमें सोंठ, दुरालभा, पीपल,क- अर्थ-भोजन करने के पीछे कासादि चूर, पुष्करमूल और काकडासींगी, इन सब का शमन करने के लिये अनार के दुगुने को समान भाग लेकर पीस ले फिर उक्त रस में त्रिकुटा का कल्क बनाकर घी को काढेमें शुंठयादि के कल्कके साथ घृतको सि- पकावै । इस घी में जवाखार मिलाकर द्ध करे । सिद्ध होनेपर इसमें दोनों खार और
पीवे । अथवा पीपल और गुड से चौगुना पांचों नमक पीसकर डालदे । इसका मात्रा- घी, घीके बरावर बकरी का दूध और दूधसे नुसार पान करने से क्षय और कास जाते
चौगुना पानी मिलाकर पकावै, इस पीके रहते हैं।
सेवन से भी खांसी, ज्वर और अरुचि जाते कासमादि घृत । रहते है। कासमभयामुस्तापाठाकट्फलनागरैः॥ ।
क्षयकास पर चव्यादि घृत । पिप्पल्या कटुरोहिण्या काश्मर्या स्वरसेन च
एतान्यग्निविवृद्धयर्थ सपीषि क्षयकासिनाम् अक्षमात्रैर्वृतप्रस्थ क्षीरद्राक्षारसाढके। १६१।।
| स्युर्दोषवद्धः कंठोर स्रोतसां च विशुद्धये ॥ पचेच्छोषज्वरप्लीहसर्वकासहरं शिवम् ।।
अर्थ-ऊपर जो चव्यादि घी वर्णन किअर्थ-कसदी, हरड, मोथा, पाठा, का.
| ये गये हैं, ये सब क्षयकासवाले गोगयों की यफल, सोंठ, पीपल, कुटकी और खंभारी
अग्नि बढाने के निमित्त हैं, इन से दोषों प्रत्येक एक तोला लेकर इनका काढा करले
द्वारा उपलिप्त कंठ, वक्षःस्थल और संपूर्ण फिर एक प्रस्थ धी, दूध और दाखका रस
स्रोत शुद्ध होजाते हैं। एक आढक इनको पकाकर तयार करले । यह घृत शोष, ज्वर, प्लीहा, और सब प्रकार
श्वासकास पर विशेष स्नेह ।
प्रस्थोन्मिते ययक्वाथे विंशतिविजयाः पचेत् । की खासियों को दूर करता है यह घृत क
स्विन्ना मृदित्वा तास्तस्मिन्पुराणापटूपलं स्याणकारक है।
गुडात् ॥ ६६ ॥ ___ रसकल्कादि घृत ।
पिप्पल्या द्विपलं कर्ष मनोवाया रसांजनात् वृषव्याघ्रीगुडुचीनां पत्रमुलफलांकुरान् ॥ दत्त्वार्धाक्ष पचेद्भयास लेहः श्वासकासनुत् रसकल्कैर्घत पक्कं हंति कासज्वरारुचीः। अथे-एक प्रस्थ जौ के काढ़े में बास
अर्थ-अडूसा, कटेरी और गिलोय, इन | हरड पकावै, जब हरड सीजजाय तब उन
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अष्टांगहृदय |
(५०० )
को उसी काढे में पीस डालै । फिर इसमें छः पल पुराना गुड, पीपल दो पल, मनसिल १ कर्ष और रसौत आधा अक्ष, इनको मिलाकर फिर पकावै, इस अवलेह से श्वास और खांसी जाते रहते हैं । अन्य प्रयोग |
श्वाविधां सूचयो दग्धाः सघृतक्षौद्रशर्कराः । श्वासकासहरा बर्हिपादौ वा मधुसर्पिषा ॥ एरंडपत्रक्षारं वा व्यापतैलगुडान्वितम् । लेहयेत् क्षारमेवं वा सुरसैरंडपत्रजम् ॥ लिह्यात् त्र्यूषणचूर्ण वा पुराणगुडसर्पिषा ॥ पद्मकं त्रिफला व्योषं विडंगं देवदारु च ॥ बला रास्ना च तच्चूर्ण समस्तं समशर्करम् । खादेन्मधुघृताभ्यां च लिह्यात्का सहरं परम् तन्मरिचचूर्ण वा सघृतक्षैौद्र शर्करम् ।
।
अर्थ- सेह के कांटों को जलाकर घी, शहत और शर्करा मिलाकर खाने से श्वास और खांसी जाते रहते हैं । अथवा मोर के पंजों की राख घी और शहत के साथ, अवथा अरंड के पत्तों का खार, त्रिकुटा, तेल और गुड मिलाकर अथवा तुलसी और अरंड के पत्तों का | खार त्रिकुटा, तेल और गुड मिलाकर अथवा केवल त्रिकुटा का चूर्ण, पुराना गुड और 'घी अथवा पदमाख, त्रिफला, त्रिकुटा, वायबिडंग, देवदारु, बला, रास्ना, इन सबको समान भाग लेकर पीस ले और इन सब की बराबर शर्करा मिलाकर शहत और घीके साथ, अथवा पिसी हुई कालीमिरच घी, शहत और खांड में मिलाकर चाटै ।
अन्य प्रयोग | पथ्याशुठीघनगुडेगुटिकां धारयेन्मुखे ॥ सर्वेषु श्वासकासेषु केवलं वा विभीतकम् ।
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अ० ३
अर्थ - हरड, सोंठ, नागरमोथा और गुड इनकी गोलियां बनाकर मुख में रखकर रस चूसता रहै, अथवा केवल बहेडे के छिलके मुख में रखने से सब प्रकार के घाव और खांसी जाते रहते हैं । अन्य प्रयोग ।
पत्रकल्कं घृतभृष्टं तिल्वकस्य सशर्करम् ॥ पेयावात्कारिकाछर्दितृका सामातिसारनुत्
अर्थ - लोधके पत्तों के कल्क को खांड मिलाकर लेहन करै । अथवा इसी कल्क से पेया वा उत्कारिका तयार करके पान करे तो वमन, तृषा, खांसी और आमातिसार जाते रहते हैं ।
'
सब खाँसियोंपर मूंगका यूष । कंटकारीर से सिद्धो मुद्गयूषः सुसंस्कृतः ॥ सगौरामलकः साम्लः सर्वकासभिषग्जितम्
अर्थ- सब प्रकार के कासरोगों में कटेरी के रससे सिद्ध कियाहुआ मंगका यूषं हितकारी होता है, इसमें हींग, सेंधानमक, सोंठ और घृतादि मसाले डाल के और खट्टा कर ने के लिये गौर आमला वा अनारदाने की खटाई डालदे |
अन्य यूष । " वातघ्नौषधनिःक्काथे क्षीरं यूषान् रसानपि बैष्किरान् प्रातुदान् बैलान् दापयेत्क्षयकासिने अर्थ- वातनाशक औषधियों के काथमें सिद्ध कियाहुआ दूध, यूष और विष्किर प्रतुद तथा विलेशय जीवोंका मांसरस पकाकर क्षयकासवाले रोगीको देना चाहिये ।
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क्षयकासमें सानुपान धूमादि । क्षतकासे च ये धूमाः सानुपाना निदर्शिताः ॥ क्षयकासेऽपि ते योज्या वक्ष्यते यच्च यक्ष्मणी
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अ.१
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
[५०१॥
वृहणं दीपनं चाग्नेः स्रोतसां च विशोधनम् | श्वास और हिध्माकी समानता ॥ व्यत्यासात्क्षयकासिभ्यो बल्यं सर्व प्रशस्यते | " श्वासहिमा यतस्तुल्यहेत्वाद्याः अर्थ-क्षयकासमें जो अनुपान सहित
साधनं ततः ॥१॥ धूमपान वर्णन किये गये हैं, वेही क्षयकास में दिये जाते हैं तथा आगे जो यक्ष्मारोगमें
अर्थ-श्वास और हिचकी के उत्पन्न वर्णन किये जायगे उसका भी देना हितहै।।
होनेके हेतु, पूर्वरूप, संख्या, प्रकृति,और अतथा वृंहण, अग्निसंदीपन और स्रोतोंके
धिष्ठान सब समान है, इसलिये इनकी चिशोधनकर्ता द्रब्य देने चाहिये । तथा हेतु
कित्सा भी समान हैं। और व्याधिके विपरीत जो बलकारक औ
३वास और हिचकी में स्वेदन ॥
तदात च पूर्व स्वेदैरुपाचरेत् । षध और आहार विहारादि हैं वे भी सव
स्निग्धैर्लवणतैलाक्तं तैः खेषु ग्रथितः कफाः॥ उपयोग में लाने चाहिये ।
सुलीनोऽपि विलीनोऽस्य कोष्ठम् प्रातःसानिपातिक कास।
सुनिहरः। सन्निपातोद्भवो घोरः क्षयकासो यतस्ततःस्रोतसांस्यान्मृदुत्वं च मारुतस्यानुलोमता यथा दोषबलं तस्य सन्निपाताहतं हितम"। अर्थ-श्वास और हिचकी के रोगों में ___ अर्थ-सन्निपात से उत्पन्न हुई क्षयकी | सब उपचारों से पहिले स्वेदन क्रिया करनी खांसी वडी भयंकर होती है, इसलिये दोष चाहिये । इसमें लबणादिमिश्रित तेल द्वारा के बल का विचार करके वे वे दबा देना , स्निग्ध स्वेदन दिया जाता है, क्योंकि रूक्ष. चाहिये जो सन्निपात में हितकर होती हैं । स्वेदन देने से वातके कोपका भय रहताहै, इतिश्री अष्टांगहृदय संहितायां भाषा | इस स्निग्ध स्वेदन क्रिया से स्त्रोतोमें व्हिसा टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने हुआ कफ अलग होकर रोगी के कोष्ट में कासचिकित्सितं नाम तृतीयो चला जाता है, वहां से सुखपूर्बक वाहर ऽध्यायः ॥
निकाल दिया जासकता है । ऐसाकरने से
सब स्रोत मृदु और वायुका अनुलोमन होताहै चतुर्थोऽध्यायः।
स्वेदनके पीछे आहारादि । . स्विन्नम् च भोजयदन्नं स्निग्धमानूपजै रसैः।
दध्युत्तरेण वा दद्यात्ततोऽस्मैवमनं मृदु ४॥ अथाऽतः श्वासहिमाचिकित्सितं विशेषात्कासवमथुहृद्गृहस्वरसादिने।
व्याख्यास्यामः।। पिप्पलीसैंधवक्षौद्रयुक्तम् वाताविरोधि यत् अर्थ-अव हम यहां से श्वास और हि. । अर्थ-स्वेदनकर्म के पीछे आनूप जीवों मा चिकित्सित नामक अध्यायकी व्याख्या | के मांसरसके साथ स्निग्ध शाल्यादि अन्नका करेंगे।
भोजन करावे । अथवा स्वेदन के पीछे दही
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६०२)
अष्टांगहृदय ।
.
अ० ।
की मलाई द्वारा मृदु विरेचन देवे । विशेष उपरोक्त हेतुमें दृष्टांत । करके खांसी, हल्लास, इद्ग्रह और स्वरसाद | उदीर्यते भृशतरंमार्गराधादहज्जलम् ॥ ॥ में पीपल, सेंधानमक और शहद मिलाकर यथाऽनिलस्तथा तस्य
___ मार्गमस्माद्विशोधयेत् । अथवा वातको उत्पन्न न करने वाले द्रव्य
| अर्थ-जैसे जलके बहनेका मार्ग रुकजाने मिलाकर वमन देवे ।
के कारण जल बहुत बढजाताहै, इसीतरह __कफनिकलने पर मुखमाप्ति । वायुका मार्ग रुकजाने के कारण वायु बहुत निईते सुखमाप्नोति सकफे दुष्टविग्रहे।
ही बढ जाता है, इसलिये उसके मार्गों का स्रोतःसु च विशुद्धेषु चरत्यविहतोऽनिलः ६ अर्थ-शरीरमें विकार करनेवाले कफके
शोधन करना अत्यन्त हितकारी है । निकल जानेपर इस रोगी को सुख प्राप्त |
उक्तरोगों की अशान्तिमें कर्तव्य ।
| अशांतौ कृतसंशुद्धधूमैर्लीन मलं हरेत् १० ॥ होताहै । तथा कसे लिहसे हुए स्रोतों के
___ अर्थ-उक्त उपायोंसे भी यदि कफ दूर खुल जानेसे वायु बे रोक टोक सब स्रोतों
नहो तो आगे लिखे हुए धूमपानों का प्रयोग में घूमने लगताहै ।
करना चाहिये । अन्य उपाय ।
धूमपान की विधि ।
| हरिद्रापत्रमरेण्डमलम् द्राक्षां मनःशिलाम् । ध्मानोदावर्ततमके मातुलिंगाम्लवेतसैः।।
सदेवदावलं मांसी पिष्वा वति प्रकल्पयेत् हिंगुपालुबिडैर्युक्तमन्नं स्यादनुलोमनम् ॥७॥
तां घृताक्तां पिवेमं यवान्वा घृतसंयुतान् । ससैंधवं फलाम्लं वा कोष्णं दद्याद्विरेचनम् । अर्थ-अफरा, उदावर्त, तमकश्वास, इन
मधूच्छिष्टं सर्जरसं घृतं वा गुरु वाऽगुरु ॥
चंदन वा तथा शृंगं बालान्बा स्त्राव वागवाम् से युक्त श्वास और हिचकी के रोगों में
ऋक्षगोधकुरंगैणचर्मशृंगखुराणिवा ॥१३॥ बिजौरा, अम्लवेत, हींग, पीळू, बिडंग इन | गुग्गुलु बा मनोहां वा शालनिर्यासमेव वा। से युक्त अन्नका सेवन करनेसे वायुका अनु- शल्लकी गुग्गुलु लोहं पद्मकं वा घृतप्लतम् ।। लोमन होताहै अथवा बिजौरा आदि खट्टे | अर्थ-हलदी, तेजपात, अरंडकीजड, फल में सेंधानमक मिलाकर स्रोतों की विश | दाख, मनसिल, देवदारू, हरताल, जटामांसी द्विके लिये विरेचन देवे ।
| इनको पीस घृतमें सान बत्ती बनाय आंग उक्त उपायका फल ।
लगाकर पीवे | अथवा धीमें मिले हुए जौ । एते हि कफसंरुद्धगतिप्राणप्रकोपजाः ॥ ८॥ अथवा मोम, राल और घी इनकी वत्ती तस्मात्तन्मार्गशुद्धयर्थ मूर्ध्वाधः शोधनं हितम् बनाकर धूमपान करे, अथवा उत्तम काले
अर्थ-कफद्वारा प्राणवायु की गति रुक | अगर का धूआं पीवे । अथवा चंदन का जानके कारण हिचकी और श्वास रोग उत्प- धूआं पीवे । अथवा गौके सगिका वा गौके न्न होजातेहैं, इसलिये इन स्रोतोंके शुद्धिके गले के बालोंका धूआं पीवे अथबा रीछ, कारण वमन और बिरेचन देना हितहैं। | गोह, कुरंग, और एणके चर्म, सींग और
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अ० ४
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५०३ )
'वा सालके गौंदका धूआं पौधे, अथवा शल्ल कीका गौंद, गूगल, अगर वा पदमाख इनको घृतमें सानकर आग लगाय धूआं पीवै ।
खुरों का धूआं पीवे अथवा गूगल, वा मनसिल | वायुर्लब्धास्पदो मर्मसंशोप्याशु हरेदसून् ॥ अर्थ - जिनका कफ बाहर निकलने के लिये उत्क्लिष्ट नहीं हुआ है, जिनको स्वेद नहीं दिया गया है और दुर्बल रोगियों को यदि वमनविरेचन दियागया है तो ऐसा होने से वायु वल पकडजाता है और हृदय मर्मका शोषण करके शीघ्रही रोगी के प्राणों को नष्ट करदेता है । इसलिये उक्त प्रकार के हिचकी और श्वासवालों को बमनविरेचन नहीं देना चाहिये |
स्वेदन योग्यों का स्वेदन 1 अवश्यं स्वेदनीयानाम स्वद्यानामपि क्षणम् । स्वेदयेत्स सिताक्षीरैः सुखोष्ण स्नेह सेचनैः ॥ उत्कारिकोपनाहैश्च स्वेदाध्यायोक्तभेषजैः । उरः कंठं च मृदुभिः सामे त्वामविधिं चरेत् अर्थ - श्वास और हिक्का रोग में अवश्य स्वेदन के योग्य अथवा स्वेदन के अयोग्य रोगियों के वक्षःस्थल और कंठ में शर्करा औरं दुग्धसंयुक्त थोडे गरम वृतादि स्नेह द्वारा मृदु स्वेद देना चाहिये | अथवा स्वेदाध्याय में कही हुई औषधियों द्वारा उत्कारिका और उपनाह बनाकर हृदय और कंठ पर मृदु स्वेदन देवे । आम संयुक्त हिचकी और श्वास में आमरहित करने के
उद्धवायु में कर्तव्य | अतियोगोद्धतं वातं दृष्ट्वा पवननाशनैः । स्निग्धै रसाद्यैर्नात्युष्णैरभ्यंगैश्च शमं नयेत् ।
अर्थ- वमन विरेचन के अतियोग से जो वायु कुपित होजाय तो वातनाशक स्निग्ध मांसरसादिक, तथा घी और दूध से सिद्ध किये हुए आहार देने चाहिये तथा कुछ गरम अभ्यंगादि द्वारा वायुका शमन करे ।
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उक्तदशा में कर्तव्य | कषायलेह स्नेहाद्यैस्तेषां संऽशमयेदतः ।
अर्थ - ऊपर दिखाये हुए हेतुसे शोधन के अयोग्य रोगियों के श्वास और हिचकी रोगों को कषाय, अवलेह, और स्नेहादिक से शमन करने का यत्न करे ।
मधुरादि द्रव्यका प्रयोग | क्षीणक्षतातिसारासृक् पित्तदाहानुबंधजान् । लिये लंघन पाचन द्वारा आमकी चिकित्सा | मधुरस्निग्धशीताद्यैौर्हमाश्वासानुपाचरेत् । करनी चाहिये ।
अर्थ- क्षीण, क्षत, अतिसार, रक्तपित्त और दाह इनके अनुबंध से जो हिचकी और श्वास रोग उत्पन्न होते हैं उनको मधुर, स्निग्ध और शीतवीर्य द्रव्यों से दूर करने का उपाय करे ।
उक्तरोगों पर मांसयूष । कुलत्थदशमूलानां क्वाथे स्युर्जागला रसाः ॥ यूषाश्व
अर्थ - श्वास और हिचकी रोगवालों को कुलथी और दशमूल के काढ़े में सिद्ध किया हुआ जांगल पशुओं का मांसरस वा यूत्र
उक्तरोगों में कषाय । अनुत्क्लिष्टकफास्थिन्न दुर्बलानां हि शोधनात् । देवे
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(५.४)
अष्टांगहृदय ।
उक्तरोगों में पेया।
उक्तरोगों पर सत्तू ।। शिग्रुवार्ताककासघ्नवृषमूलकैः । सक्तन्वाकांकुरक्षारभावितानांसमाक्षिकान् पल्लवैर्निवकुलकवृहतीमातुलिंगजैः ॥ २१॥ यवानां दशमूलादिनिकाथलुलितान् पिबेत् । व्याघ्रीदुरालभा श्रंगीबिल्वमध्य त्रिकंटक। अर्थ-आकके अंकुर और दूधकी भावना पेयाच चित्रकाजाजी श्रृंगीसौवर्चलैः कृता।। दशमूलेन वा कास श्वासहि मारुजापहा ।
दिये हुए जौ का सत्तू वनवाकर दशमूल, __ अर्थ--सहजना, बेंगन कसौदी, अडूसा शठी रास्ना आदि ऊपर कह हुए द्रव्यों के मूली, नीम, परवल, कटेरी और बिजौरे | काढे में सानकर शहद मिलाकर पानकरै । इन सब के पत्ते, तथा कटेरी, दुरालभा, उक्त औषध पर आहार । काकडासींगी, बेलगिरी का गूदा और गो
| अन्नेच योजयेत्क्षारहिंग्वाज्याबडदाडिमान्। खरू इनसे बनाई हुई, तथा चीता, काला
सपौष्करशठीब्योषमातुलिंगाम्लवेतसान् ॥ जीरा, काकडासिंगी और संचल नमक इन
___ अर्थ-क्षार, हींग, घृत, विडनमक, अके साथ वा दशमूल के साथ सिद्ध की
नार, पुष्करमूल, कचूर, त्रिकुटा, बिजौरा, हुई पेया का आहार करावै । इससे खांसी
और अम्लवेत ये द्रव्य भोजने के अन्न में श्वास, हिचकी और वेदना शांत होजातीहै ।
मिलाने चाहिये । . कषाय और पेया।
उक्तरोगों पर पेय द्रव्य । दशमूल शठीरास्ना भार्गीबिल्वधि पुष्करैः।
दशमूलस्य वा काथमथवा देवदारुणः ।
पिवेद्वा बारुणीमंडं हिमाश्वासी पिपासितः कुलीर शृंगी चपलातामलक्यमृतौषधैः ।। पिवेत्कषायं जीर्णेऽस्मिन्पेयांतैरेवसाधिताम् |
__ अर्थ-हिचकी और श्वासवाले को तृषा अर्थ-दशमूल, कचूर, रास्ना, भाडंगी, लगनेपर, दशमूल वा देवदारु का क्वाथ बेलगिरी, ऋद्धि, पुष्करमूल, काकडासिंगी, अथवा सुरामंड, देना चाहिये । सिद्धि, भूम्यामलकी, गिलोय और सौंठ । उक्त रोगों पर सक्र । इनका क्वाथ, पानेको दे और क्वाथ के पिप्पलीपिप्पलीमूलपथ्याजंतुघ्नचित्रकैः । जीर्ण होजानेपर पूर्वोक्त दशमूल के काढे | कल्कितैलेपिते रूढे निक्षिपद घृतभाजने ॥ सिद्ध की हुई पेया खाने को दे. इससे हि. तक्रं मासस्थितं तद्धि दीपनं श्वासकासजित । चकी और श्वास, जाते रहते हैं ॥ अर्थ-पीपल, पीपलामूल, हरड, वायबि. अन्य औषध ।
डंग, और चीता इन सव द्रव्यों को पीसकर शालिषष्टिकगोधूमयवमुद्गकुलत्थभुक् । एक घी की हांडी के भीतर इनका लेप कर कासहृदप्रहपावीर्तिहिमाश्वासप्रशांतये ॥ अर्थ-शालीचावल, साठीचांवल गैहूं,
दे, जव लेप सूख जाय तव उस घडेमें तक जौ. मंग, और कुलथी इनका भोजन करने | भरकर एक महिने तक रहने दे फिर इसको से खांसी, हृदयवेदना, पसलीका दर्द, हि- पीनेके काममें लावै, यह खांसी श्वासको खो चकी और श्वास प्रशमित होजातहैं । । देता है और अग्निसंदीपन है ।
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अ ४
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
अन्य पेय औषध |
पाठां मधुरसां दारु सरलं निशि संस्थितम् ॥ सुरामंडेऽल्पलवणं पिवेत्प्रसृतिसंमितम् । भार्गी शुठ्यो सुखभोभिः क्षारं बा
मरिचान्वितम् । ३१ । स्वकाrपिष्टां लुलितां बाष्पिकां पाययेत वा
अर्थ - पाठा, मुलहटी, देवदारु, और सरलकाष्ठ इनको पीसकर थोडासा नमक मिलाकर सुरामंड में डालकर रातभर रहनेदे । दूसरे दिन इसमें से दो पल प्रतिदिन सेवन करै अथवा भाडंगी, सोंठ का चूर्ण गुनगुने पानी के साथ,अथवा जत्राखार और पिसी हुई काली मिरच मिलाकर अथवा हिंगुपत्री को हिंगुपत्री के काढ़े में पीसकर हिंगुपत्री के काढ़े में ही घोलकर पान कराना चाहिये । अन्यपेय द्रव्य |
स्वरसः सप्तवर्गस्य पुष्पाणां वा शिरीषतः । हिमाश्वासे मधुकणायुक्तः पित्तकफानुगे ।
अर्थ - सप्तपर्णी का रस अथवा सिरस के फूल का रस शहत और पीपल मिलाकर पित्तकफानुगामी हिचकी और श्वास रोग में देना चाहिये ।
|
अन्य उपाय |
उत्कारिका तुगाकृष्णा मधूलीघृतनागरैः । पित्तानुबंधे योक्तव्या पवने त्वनुबन्धिनि । श्वाविच्छामित्रकणा घृतशल्यकशोणितैः चतुर्गुणांबुसिद्धं वा पयः सगुडनागरम्। सुवर्चलादिसिद्धं वा तयोः शाल्यो-. दादनु ॥ ३५ ॥ | अर्थ - पित्तानुबंधी हिचकी और श्वास रोग में वंशलोचन, पीपल, गेहूं, घी, सोंठ इनकी उत्कारिका बनाकर दे । पवनानुगामी हिचकी और श्वास में सेह और ससे
६४
1
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(५०५)
का मांस, पीपल, घृत और शल्लकी का रुधिर इनकी उत्कारका बनाकर सेवन करे । बातानुबंधी हिचकी और खास में चौगुने जल में बकरी का दूध गुड और सोंठ डाल कर पकाया हुआ पीने में देना चाहिये । तथा वातापित्तानुबंधी हिचकी और श्वास में संचलनामक और मांसरसादि के साथ में सिद्ध किया हुआ शालीचांवलों का भात खाकर ऊपर से दूध पीवै ।
अन्य उपाय |
पिप्पलीमूलमधुक गुडगोश्वशकृद्रसान् । हिध्माभिष्यंद् कासनान्
लिह्यान्मधुघृतान्वितान् ॥ ३४ ॥ अर्थ - पीपलामूल, मुलहटी गुड, गौका गोवर, और घोडे की लीद का रस इनमें मधु और मिलाकर चाटने से हिचकी, घृत अभिष्यंद और खांसी जाती रहती है । कफाधिक्य श्वास और हिचकी । गोगजाश्वव राहोष्ट्रख र मेषाजविरसम् । समध्येकैकशो लिह्याद्रहु श्लेष्माऽथवापिवेत् चतुष्पाश्चर्म रोमास्थिखुरशुगोद्भवां मषीम् । तथैव वाजिगन्धाया लिह्यात् श्वासकफोल्वणः ॥ ३७ शठी पुष्कर धात्री पौष्करं वा कणान्वितम् गैरिकांजन कृष्णां वा स्वरसं वा कपित्थजम् रसेन वा कपित्थस्य धात्री सैंधवपिप्पलीः । घृतक्षौद्रेण वा पथ्याविडंगोषणपिप्पलीः ॥ कोलला जामलद्राक्षापिप्पलीनागराणि वा । गुडतै लनिशाद्राक्षाकणारास्नोषणानि वा ॥ पिबेद्रसांबुमद्याम्लैलैहौषधरजांसि वा ।
॥
अर्थ- गौ, हाथी, घोडा, शूकर, ऊंटा, मेंढा, और बकरी इनके विष्टाओं का रस इनमें से प्रत्येक में मधु डाल डालकर पीवै।
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अष्टांगहृदय ।
म. ४
अथवा चौपाये जानवरों का चमडा, रोम, 1 ज्वर, खांसी, हिचकी और श्वासरोग दूर हड्डी, खुर, और सींग इनको जलाकर इन | होजाते हैं। की भस्म तथा अजगंद की राख को कफा
शव्यादि चूर्ण । धिक्यवाला श्वासरोगी चाटै । अथवा शठी तामल की भार्गी चंडावालकपौष्करम्। कचूर, पुष्करमूल,आमला अथवा पुष्करमल शर्कराष्टगुणम् चूर्ण हिमोश्वासहरं परम् ॥
और पीपल, अथवा गेरू, रसौत और पी. । अर्थ-कचूर, भूम्यामलकी, भाडंगी, पल अथवा कैथका रस इन सब प्रयोगोंकों केंच के वीज, नेत्रबाला और पुष्करमूल शहत के साथ सेवन करै । अथवा कैथके | इन सबका चूर्ण कर अठगुनी खांड मिला. रस के साथ आमला, सेंधानमक, और कर सेवन करने से हिचकी और श्वास पीपल को चौटे, अथवा घृत और शहत / दूर होजाते हैं। के साथ हरड, बायविडंग, त्रिफला, और
अन्य चूर्ण और नस्य । पीपल, अथवा बेर, धानकी खील, आमला, | तुर
| तुल्यं गुडं नागरं च भक्षयेन्नावयेत वा। पीपल और सोंठ इनको घी और शहत के
| अर्थ-समान भाग गुड और सोंठ मिला साथ चौट । अथवा गुड, तेल, हलदी,दाख, |
कर खाने से वा नस्य द्वारा प्रयोग करनेसे पीपल, रास्ना, और त्रिकुटा घृत और श
पूर्ववत् गुण होताहै ।
लशुनादि नस्य । हत के साथ चोट । अथवा अगस्त्यादि लेह
लशुनस्य पलांडोर्वा मूलं गूजनकस्य वा। संबंधी औषधों को मांसरस, जल, मद्य, चंदनाद्वा रसं दद्यान्नारीक्षारण नावनम् । वा कांजी के साथ पान करै ।
स्तन्येन मक्षिका विष्टामलक्तकरसेन वा। जीवत्यादि चूर्ण ।
अर्थ-लहसन, प्याज वा गाजर की जड जीवंतीमुस्तसुरसत्वगेलाद्वयपौष्करम् ॥ का रस अथवा चंदन के रसमें स्त्रीका दूध चडातामलकीलोहमार्गीनागरवालकम् ।।
मिलाकर अथवा मक्खी का विष्टा स्त्री के कर्कटाख्या शठी कृष्णा नागकेसरचारकम् ।
दूधके साथ अथवा आल के जलके साथ उपयुक्तम् यथाकामम् चूणे द्विगुणशर्करम् ।। पार्श्वरुग्ज्वरकासघ्नं हिमाश्वासहरं परम॥ नस्य लेने से हिचकी और श्वास जाते
अर्थ-जीवंती, मोथा, गंधतृण, दाल- रहते हैं। चीनी, बडी इलायची, छोटी इलायची,
उक्तरोगों पर घृतविशेष । पुष्करमूल, चंडा, भूम्यामलक, अगर, भाडं.
कणासौ वर्चलक्षारवयस्याहिंगुचोरकैः ।
| सकायस्थधुतं मस्तु दशमूलरसे पचेत् । गी, सोंठ, नेत्रवाला, काकडासींगी, कचूर, तत्पिवेज्जीवनीयैर्वा लिह्यात्समधुसाधित म् पीपल, नागकेसर और चोरक इनमें से जो | अर्थ-पीपल, संचल नमक, जवाखार, मिलसकें उसका चूर्ण बनाकर दुनी चीनी | आमला, हींग, चोरक, हरीतकी इनका मिलाकर सेवन करे, इससे पसलीका दर्द, / कल्क मिलाकर दही के तोड और दशमूल
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५०७)
के काढे में पकाया हुआ घृत सेवन करे | अर्थ--हिचकी और श्वासवाले रोगीका अथवा जीवनीयादि गण के द्रव्यों का कल्क सहसा शीतल जलसे परिषेक कर अथवा डालकर शहत मिलाकर चाटै । त्रास ( चित्तको उद्धोगकारक कर्म ) विक्षेप _ अन्य उपाय ।
( हिलाना ), भय, शोक, हर्ष, ईर्ष्या, तेजोवत्यभया कुष्ठं पिप्पली कटुरोहिणी । श्वासका रोकना, ये सब हित हैं अथवा भूतिकं पौकरं मूलं पलाशश्वित्रकः शठी। पटुद्वयं तामलकी जीवंती बिल्वपोशका ।
चींटी आदि कीडों से. कटवाना भी हितबचापत्रं च तालीसं काशैस्तैर्विपाचयेत् । कारक है, इससे वाल का वेग कम हो हिंगुपादैर्वृतप्रस्थं पीतमाशु निहति तत् । जाता है। शाखानिलार्शो ग्रहणी हिध्मा हत्पार्श्ववदेना।
हिचकीश्वास की सामान्य चिकित्सा । ___ अर्थ-कांगनी, हरड, कूठ, पीपल,
यत्किचित्कफवातघ्नमुष्णं वातानुलोमनम्। कुटकी, पूतीकरंज, पुष्करमूल, ढाक, चीता | तत्सेव्यं प्रायशो यच्च सुतरां मारुतापहम् । कचूर, कालानमक, सेंधानमक, तामल- अर्थ-जो आहारविहारादि कफ वा वात की, जीवंती, कच्ची वेलगिरी, बघ,तेजपात, को अलग अलग वा दोनोंको नाश करता है तालीसपत्र इन सनको एक एक कर्ष, हींग | तथा जो उष्ण है और वात का अनुलोमन चौथाई कर्ष, इनके कल्क में एक प्रस्थ घी | करता है, तथा जो बातको नाश करनेवाले पकावै इस घी को पीनेसे हाथ पावों की हैं, ये सब द्रव्य श्वास और हिचकी रोगोंमें बायु, अर्श, ग्रहणी, हिचकी, हृदयवेदना,
सेवन करने चाहिये । और पार्श्ववेदना ये सब बहुत शीघू दूर उक्त रोगों के शमन में हेतु । होजाते हैं।
सर्वेषां वृंहणेह्यल्पः शक्यश्च प्रायशोभवेत् । अन्य घृत ।
नात्यर्थ शमनेऽपायोभृशोऽशक्यचकर्षणे । अर्धाशेन पिवेत्सर्पिः क्षारण पटुनाऽथवा।
शमनैर्वृहणश्चातो भूयिष्ठं तानुपाचरेत् । धान्वंतरं वृषघृतं दाधिकं हपुषादि वा।
___ अर्थ-संपूर्ण प्रकारके हिचकी और श्वास ___ अर्थ-प्रमेह में कहे हुए धान्वन्तर घृत
रोगोंमें वृंहण औषधियों के करने परभी जो तथा रक्तपित्तोक्त वृषवृत, तथा गुल्म चि
दैवयोगसे किसी अन्य रोगका प्रादुर्भाव हो कित्सितोक्त दाधिक घृत तथा उदरोक्त
जाय वह प्रायः थोडा होता है और सुखसाहबुषादि घृत में जवाखार वा नमक मिला
ध्य भी होता है । और यदि शमन औषधिकर सेवन करने से हिचकी और श्वास
यों के प्रयोगसे भी कोई अनिष्ट होजाय तो जाते रहते हैं।
वह अधिक नहीं होता है किन्तु मध्यमावअन्य उपाय।
स्था में होता है वह भी सुखसाध्य है । परंतु शीतांबुसेकः सहसा त्रासविक्षेपभीशचः। हिचकी और श्वासकी शांति के लिये जो क. हर्षेर्योच्छ्वाससरोधा हितं कीटैश्चदशनम्।। र्षण कर्मद्वारा रोगकी उत्पत्ति होती है वह
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(५०८]
अष्टांगहृदय ।
अ० ५
असाध्य है । इसलिये हिचकी और श्वासके । विरेचन द्वारा ऐसा शोधनकरें जिससे शरीर रोगोंमें विशेष करके वृंहण और शमन उ- | में कृशता न होने पावै । पायों द्वारा चिकित्सा करै।
बमनविधि । उक्त रोगों में परस्पर उपचार । पयसा फलयुक्तेन मधुरेण रसेनं वा । कासश्वासक्षयछर्दिहिध्माश्चान्यान्यभेषजैः सर्पिष्मत्या यवाग्वा वा वमनद्रव्यासद्धया।
अर्थ-खांसी, दम, क्षयी, वमन और हि- वमेत् चकी इन पांच प्रकारके रोगोंकी चिकित्सा अर्थ-दूध के साथ मेंनफल देकर समान होती है, अर्थात् कासोक्त औषधों से राजयक्ष्मा रोगी को वमन करावै अथवा इक्षु दमकी और श्वासोक्त औषधों से कासकी आदि मधुररस वा मांसरस के साथ मेंनफल चिकित्सा की जाती है, ऐसे ही क्षयी आदि मिलाकर दे, अथवा मेंनफल आदि रोगोंकी चिकित्साके विषयमें समझना चाहिये। वमनकारक द्रव्यों के साथ सिद्ध की हुई इतिश्री अष्टांगहृदयसहिताया
घृत मिश्रित यवागू देकर बमन करावै । भाषाटीकायां चिकित्सितस्थाने
राजयक्ष्मा में विरेचन ।
बिरेचनं दद्यात्रिवृच्छ यामानृपदुमान् । श्वासहिमाचिकित्सितनाम शर्करामधुसपिभिः पयसा तर्पणेन बा । चतुर्थोऽध्यायः ।
द्राक्षाबिदारकिाश्मर्यमांसानां वारसैर्युतान। ____ अर्थ--निसोथ, श्यामानिसोथ, अमलतास
इनमेंसे एक एक को खांड, मधु और घृतके पञ्चमोऽध्यायः।
साथ देकर विरेचन करावे, अथवा निसोथादि
को दूधके साथ अथवा तर्पण के साथ देकर अथाऽतो राजयक्ष्मादिचिकित्सितं व्याख्या- | विरेचन करावै । अथवा द्राक्षारस, विदारी
स्यामः। रस, खंभारीरस, वा मांसरस इनमें से किसी अर्थ-अब हम यहांसे राज्यक्ष्मादि चि- |
एक के साथ उक्त निसोथादि देकर वमन 'कित्सित नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। | करावे। __यक्ष्मामें शोधन कर्म।
वृंहणदीपन विधि । " बलिनो बहुदोषस्य स्निग्धस्विन्नस्य शो- शुद्धकोष्ठस्य युजीत विधिं वृंहणदीपनम् ।
धनम् । | हृद्यानि चाऽनपानानि वातघ्नानि लघुनि च ऊर्ध्वाधोयक्ष्मिणः कुर्यात्सस्नेहं यन्नकर्शनम्। शालिषष्टिकगोधूमयबमुद्नं समोषितम् ॥ ___ अर्थ-वातादि बहुत दोषोंसे युक्त यक्ष्मा । अर्थ-वमनविरेचन द्वारा कोष्टके शुद्ध रोगी यदि बलवान् हो तो पहिले उसे | होनेपर राजयक्ष्मावाले रोगी को वृंहण और स्नेहन और स्वेदन द्वारा स्निग्ध और स्विन्न | अग्निसंदीपन औषध देनी चाहिये । तथा करके उर्ध्वाधः शोधन अर्थात् वमन और | वातनाशक, और हलके तथा हृदय को हि
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अ०५
चिकित्सिस्थान भाषाटीकासमेत |
(५०९)
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सकारी अन्नपान देवे अथवा एक साल के | पीनसादि पर बकरे का मांसरस । पुराने शालीचावल, साठीचावल, गैहूं, जौ, सपिप्पलीकं सयवं सकुलत्थं सनागरम् ॥ और मूंग देवे ।
सदाडिमं सामलकं स्निग्धमाज रसं पिवेत् ।
तेन षड्विनिवर्तते विकाराः पीनसादयः ११ ॥ राजयक्ष्मा में मांससेवन । । आज क्षीरघृतमांसंक्रव्यान्मासंचशोषजित् ।।
____ अर्थ-पीपल, जौ, कुलथी, सौंठ, अनार काकोलूकबृकद्वीपिगवाश्वनकुलोरगम् ॥६॥ - आर आमला डालकर घृत मिला कर तयार गृधूभासखराष्ट्रं च हितं छद्मोपसहितम् । किया हुआ बकरी के मांसका रस सेवन ज्ञातं जुगुप्सितं तद्धि छर्दिषे न बलौजसे ॥ करनेसे पीनस. श्वास, खांसी, कंधोंकादर्द, अर्थ-बकरी का घी, दूध और मांस तथा
सिरका दर्द. और स्वरवेदना, ये छः रोग मांसाहारी जीवों का मांस राजयक्ष्मामें हितहै
नष्ट होजातेहैं। तथा काक, उल्लू, भेडिया, गेंडा, गौ,घोडा
स्रोतशोधनार्थ जीर्ण मद्यपान । नकुल, सर्प, गिद्ध, चील, गधा, ऊंट, इन के मांस राजरोग में हितकारकहै, परन्तु ऐसे
पिवेच्च सुतरां मधु जीर्ण स्रोतोबिशोधनम् ।
पित्तादिषु बिशेषेण मध्वरिष्टात्सवारुणीः॥ धोखे से देने चाहिये कि रोगी को मालूम
सिद्धं वा पंचमूलेन तामलक्याथवा जलम् । नहो । रोगी को इन घृणित मांसों का हाल | पर्णिनीभिश्चतसृभिर्धान्यनागरकेण वा ॥ मालूम होजानेसे वमन होजाती है और बल | कल्पयेञ्चानुकूलोऽस्य तेनान्नं शुचि यत्नवान् । तथा ओजकी बृद्धि नही होतीहै।
अर्थ-स्रोतों को विशुद्ध करने के निमित्त पित्तकफादि में हित द्रव्य । अत्यन्त पुराना मद्यपान करना चाहिये, और मृगाद्याः पित्तकफयोः पवने प्रसहादयः। पित्त, कफवातमें मधु, अरिष्ट और वारुणी वेसवारीकृताः पथ्या रसादिषु च कल्पिताः | का सेवन करना चाहिये, अथवा पंचमूलके भृष्टाः सर्षपतैलेन सर्पिषा वा यथायथम् ।
साथ सिद्ध किया हुआ वा मभ्यामलक के सिका मृदवः स्निग्धा मृदुद्रब्याभिसंस्कृताः हितामौलककौलत्थास्तद्वयूषाश्च साधिताः
साथ अथवा चारों पर्णियों में शालपर्णी अर्थ-राजयक्ष्मावाले रोगी को यदि पित्त | पृश्निपर्णी मुद्गपर्णी, और माषपर्णी, द्वारा और कफकी अधिकता हो तो मृग, विष्किर सिद्ध किया हुआ अथवा धनिये और सोंठ और प्रतुद, तथा वातकी अधिकतामें प्रसहा- के साथ सिद किया हुआ जलपान करावै । दि जीवोंके मांस हितकारी है । इन मांसों अनुकूल, यत्नवान और पवित्र परिचारक से वेसवार और मांस रसादि प्रस्तुत करके द्वारा पंचमूलादि के जलसे सिद्ध किये हुए देना चाहिये अथवा देशकाल के अनुसार अन्न रोगी को देवे ॥ सरसों के तेल वा घृतसे भून लेवे, अथवा
राजयक्ष्मा पर घृत । रसीले, मदु, स्निग्ध तथा सैंधवादि द्रव्योंसे
दशमलेन पयसासिद्धं मांसरसेन वा ।१४॥ संस्कृत मूली और कुलथी से बनेहुए यूष बलागर्भ घतं योज्यं ब्यान्मांसरसेन वा। हितकारी होतेहै ।
| सक्षौद्रं पयसा सिद्ध सर्पिर्दशगुणेन वा।१५।
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(५१०)
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अष्टांगहृदय ।
__ अर्थ-दशमूल का काढा, वा दूव, वा । किये हुए दूधमेंसे माखन निकालकर इसमाखमांसरस, वा खरैटीका कल्क, अथवा मंसा- | नको पपिल और शहत मिलाकर सेवन करे हारियों के मांसरस में खरैटीका कल्क डाल तो स्वर बहुत शुद्ध होजाता है, सिरकादर्द, कर सिद्ध किया हुआ घी देना चाहिये । पसलीका दर्द खांसी, श्वास और उवर नष्ट अथवा दसगुने दूध खरेटीका कल्क डाल होजातहै इसीतरह पांचप्रकार के पंचमूल कर सिद्ध किया घी शहत मिलाकर सेवन के साथ सिद्ध किये हुए दूधका घीभी उक्त करना चाहिये ।
गुणकारक होता है। राजयक्ष्मा पर अन्य घृत ।
अन्यघृत । जीवंतीमधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च ।
| पंचानां पंचमूलानां रसे क्षीरचतुर्गुणे। पुष्करावं शठी कृष्णां व्याघ्री गोक्षुरकं वलाम् सिद्धं सपिर्जयत्येतद्याश्मिणः सप्तकं बलम् ।। नीलोत्पलं तामलकी त्रायमाणां दुरालभाम् ।
__ अर्थ-पांचप्रकारके पंचमूलके काथमें चौगुकल्ककृित्य घृतं पक्कं रोगराजहरं परम्॥ १७॥ | ___ अर्थ-जीवंती, मुलहटी, दाख, कु.डाक
ना दूध डालकर पकाया हुआ घी यक्ष्मारोगी बीज, पोहकरमूल, कचूर, पीपल, कटेरी,
के सात प्रकारके पीनसादि रोगोंको दूरकर गोखरू, खरैटी, नीलकमल, तामलकी, त्राय
देता है, पांचप्रकार के पंचमुल येहैं, कंटक माणा, और दुरालभा इनका कल्क करके
पंचमूल, तृणपंचमूल, बल्लीपंचमूल, वृहत्पं-- घी पकावै इस घीके सेवनसे सजयक्ष्मा नष्ट चमूल, और लघुपंचमूल । होजाता है।
गुल्मादिरोग पर घृत । अन्यघृत ।
पंचकोलयवक्षारषट्पलेनपचे घृतम् । धृतं खर्जूरमृद्धीकामधुकैः सपरूषकैः। प्रस्थोन्मितं तुल्यपया स्रोतसां तद्विशाधनम् । सपिष्पलीकं बैस्वर्यकासश्वासज्वरापहम् ॥ ! गुल्मज्वरोदरप्लीहग्रहणीपांडुपीनसान् । ___ अर्थ-खजूर, मुनक्का, मुलहटी और फा- | श्वासकासग्निसदनश्वयथूछानिलान्जयेत्। लसा इनका कल्क डालकर चौगुने जल में ____ अर्थ-पंचकोल [ पीपल, पीपलामूल, घी पकाकर तयार करले इसमें पीपल पीस | चव्य, चीता और सोंठ ] और जवाखार ये कर मिला लेबै इसके सेवन से स्वरका वि- छः द्रव्य प्रत्येक एक एक पल तथा एक कार खांसी, श्वास और ज्वर नष्ट होजाताहै प्रस्थ घी और एक प्रस्थ दूध इनको पकाअन्यघृत ।
कर सेवन करने से स्रोत अत्यंत शुद्ध हो दशमूलशृतात्क्षीरात्सर्पिर्यदुदियानवम्।।
जाते हैं, तथा गुल्म, ज्वर, उदररोग, प्लीहा सपिप्पलीक सक्षौद्रं तत्परं स्वरबोधनम् ॥ शिरपाचोसशूलघ्नं कासश्वासज्वरापहम ।। ग्रहणी, पांडुरोग, पीनस, श्वास, खांसी, अपंचमिः पंचमूलैर्वा शृताद्यदुदियाद् घृतं ॥ | ग्निमांद्य, सूजन और ऊर्ध्ववात ये सव रोग
अर्थ-दशमूल के कार्ड के साथ सिद्ध नष्ट होजाते है ।
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अ०५ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेत । (५११)
शोषरोग पर घृत । | सारानरिष्टगायत्रीशालबीजकसंभवान् ॥ रानाबलागोक्षुरकस्थिरावर्षाभुवारिणि। | भल्लातकं विडंग च पृथगष्टपलोन्मितम् । जीवंती पिप्पलीगर्भ सक्षीरं शोषजिद घृतम् सालले षोडशगुणे षोडशांशस्थिते पचेत् ।। ___ अर्थ-रास्ना, बला, गोखरू, शालपर्णी | पुनस्तेन घृतप्रस्थं सिद्धे चास्मिन्पलानि षट् और पुनर्नवा इनके काढ़े में जीवती और |
| तवक्षीर्याः क्षित्रिशत्सिताया द्विगुण मधु ॥
घृतात्रिजातात्रिपलंततो लीढं खजाहतम् । पीपल का कल्क मिलाकर दूध सहित पका | पयोनुपानं तत्प्राणे रसायनमयंत्रणम् ॥ हुआ घी शोषराग को जीत लेता है। मेध्यं चक्षुष्यमायुष्यं दीपनं हंति चाचिरात्। . अश्वगंधादि घृत ।
मेहगुल्मक्षयव्याधिपांडुरोगभगंदरान् ॥ अश्वगंधाच्छृतात्क्षीराद् घृतं च ससितापयः
| अर्थ-इलायची, अजमोद, त्रिफला, सौअर्थ-असगंध के साथ सिद्ध किया राष्ट्रमृत्तिका, त्रिकुटा, चीता, तथा नीम, हुआ दूध जमाकर उस मेंसे घी निकालले । खैर, साल और वजिक इन वृक्षों का सार, और इसमें मिश्री और दूध मिलाकर पावै मिलावा और बायाबडंग इन द्रव्यों में से तो उक्त गुण करता है।
प्रत्येक आठ आठ पल सोलह गुने जल में मांसं धृत।
डालकर आगपर चढादे जब सोलहवां भाग साधारणामिषतुलांतोयद्रोणद्वये पचेत् ॥
रहजाय तब उतार कर छान ले । फिर तनाष्टभागशेषेण जीवनीयैः पलोन्मितः । साधयेत्सर्पिषः प्रस्थं बातापित्तामयापहम् ।।
इस काढे में एक प्रस्थ घी डालकर पकावै। मांससर्पिरिदं पीतं युक्तं मांसरसेनवा।
| पीछे वंशत्रोचन छःपल, खांड ३० पल, कासश्वासस्वरभ्रंशशोषहृत्पार्श्वशुलजित्। | शहत दो प्रस्थ, त्रिजातक तीन पल ये __ अर्थ- विदेशय और प्रसह साधारण डालकर दही मथने की रई से मथकर जंतुओं का मांस एक तुला, दो द्रोण जल दुपहर पहिले थोडा २ चाटै और ऊपरसे दूध में पकावै जब आठवां भाग बच रहै तब पावै । यह घृत रसायन, सुखपूर्वक सेवन जीवनीयगणोक्त द्रव्य एक एक पल लेकर योग्य, मेधावर्द्धक, नेत्रों को हितकारक, उसका कल्क उसमें डालदे और एक प्रस्थ , आयुर्वर्द्धक, और अग्निसंदीपन, है यह प्रघी डालकर पकावै । यह मांससर्पि कहलाता मेह, गुल्म, क्षयोरोग, पांडुरोग, और है, इसके सेवन करने से वातपित्तरोग भगंदर रोगों को शीघ्रही दूर कर देता है । जाते रहते हैं अथवा मांसरस के साथ युक्ति
अन्यकर्तब्य। पूर्वक पान करनेसे खांसी, श्वास, स्वरभंग, ये च सर्पिगुंडाः प्रोक्ताः क्षते योज्या:शोष, हृदयशूल, और पसली के दर्द जाते
क्षयेऽपि ते। रहते हैं।
___ अर्थ-क्षतरोग में जो जो घी और गुड़ रासायनिक घृत ! कहे गये हैं उस सबका क्षयीरोग में भी प्रएलाजमोदात्रिफलासौराष्ट्रीव्योषचित्रकान् । योग किया जाता है ।
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[५१२]
अष्टांगहृदय ।
अ०५
त्वगेलादि चूर्ण । | देता है और स्वर को शुद्ध करदेता है । बगेलापिप्पलीक्षीरीशर्कराद्विगुणाः मात्
नस्यबिधि । चर्णिता भक्षिताःक्षौद्रसर्पिषा च बले हिताः तैलं वा मधुकं द्राक्षापिप्पलीकृामनुत्फलैः ॥ स्वयां कासक्षयश्वासपार्श्वरुक्कफनाशनाः |
हंसपाद्याश्च मूलेन पक्कं नस्तो निषेचयेत् । अर्थ-दालचीनी, इलायची, पीपल, वं.
अर्थ-मुलहटी, दाख, पीपल, वायबि. शलोचन और खांड ये सत्र उत्तरोत्तर दुगुने
डंग, मैनफल और हंसपदी की जड, इनके दुगर्ने लेकर पीसकर चूर्ण बना लेवे, इस
द्वारा पकाया हुआ तेल नाक में डाले । चूर्णको घी और शहत मिलाकर चाटै इस
उक्तरोगमें अनुपान । के सेवनसे वलकी वृद्धि,स्वरमें उत्तमता त
सुखोदकानुपानं च सार्पष्कं च गुडौदनम् था खांसी, क्षयी, श्वास, पसली का दर्द अश्नीयात्पायसंचैव स्निग्धं स्वदं नियोजयेता और कफ नष्ट हो जाते हैं।
___ अर्थ-गुड और चांवल का भात घी अन्यप्रयोग।
के साथ खाकर सुखोदक अनुपान करै विशेषात्स्वरसादेऽस्यनस्य धूमादि योजयेत् ।
अथवा खीर में घृत मिलाकर खाने के पीछे अर्थ- जो यक्ष्मारोगी के स्वरमें क्षीणता
सुखोदक ( थोडा गरम जल ) अनुपान होजाय तो नस्य और धूमादि का विशेष
करे और स्निग्ध स्वेदन का प्रयोग करना रूप से प्रयोग करना चाहिये ।
चाहिये । स्वरसाद में चिकित्सा। तत्रापि वातजे कोणं पिबेदौत्तरभाक्तकम् | पित्तोद्भवस्वरक्षयकी चिकित्सा । कासमर्दकवार्ताकीमार्कवस्वरसैबृतम्। पित्तोद्भवे पिबेत्सर्पिः शुतशीतपयोनुपः साधित कासजित्स्वर्य सिद्धमार्तगलेन वा ।। क्षीरीवृक्षांकुरकाथकल्कसिद्धं समाक्षिकम् । . अर्थ--इन सब स्वरक्षय रोगों में से वातज
| अश्नियाञ्च ससर्पिष्कं यष्टीमधुकपायसम् । स्वरक्षय में कसोंदी, बेंगन, और भांगरा
___ अर्थ-पित्तके कारण उत्पन्न हुए स्वरक्षइनके स्वरस में सिद्ध किया हुआ घृत
य में दूधवाले वृक्षों के अंकुरों के क्वाथ और अथवा नीलकोरंट में सिद्ध घृत ईर्षदुष्ण
कल्कमें सिद्ध किया हुआ घृत सेवन करे । भोजन करने के अंत में सेवन करे इस से
अथवा मुलहटी, वृत और खीरका भोजन खांसी जाती रहती है और स्वर शुद्ध हो
करके ऊपरसे औटाया हुआ ठंडा दूध पावै । जाता है।
बलादिसिद्ध सर्पि। क्षारोगपर बदरीपत्र। बलाविदारी गधाभ्यां विदार्या मधुकेन च । बदरीपत्रकल्कं वा घृतभृष्टं ससैंधवम् ।। सिद्धं सलवंण सर्पिनेस्यं स्वर्यमनुत्तमम् ॥
अर्थ-बेरके पत्तों का कल्क घी में भून अर्थ-खरैटी, शालपर्णी, विदारीकंद, कर और सेंधा नमक डालकर भोजन करने और मुलहटी इनसे सिद्ध किया घृत सेंधा के पीछे सेवन करने से खांसी को दूर कर | नमक मिलाकर सेवन करने से स्वरको शुद्ध
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अ० ५
चिकित्सितस्थान भाषाटाकासमत ।
-
कर देता है और नस्यद्वारा प्रयोग किये । फांके अथबा वमनकारक तीक्ष्ण औषधों का जानेपर अत्यंत उत्तम हैं ।
सेवन करै ॥ पित्तजस्वरसादि में नस्यादि। | उच्चभाषण से अभिहत स्वर । प्रपौंडरीक मधुकं पिप्पली वृहती बला। शर्कराक्षौदमिश्राणि शतानि मधुरैः सह । साधितं क्षीरसर्पिश्च तत्स्वयं नावनं परम पिवेत्पयांसि यस्योश्चैर्वदतोऽभिहता स्वरः ॥ लिह्यान्मधुरकाणां च चूर्ण मधुघृताप्लुतम्।। अर्थ-चिल्लाकर बोलने से जिसका स्वर
अर्थ-पित्तज स्वरसादमें प्रपौंडरीक, मुल. बैठगया हो उसे मधुररसविशिष्ट द्रव्यों के हटी, पीपल, बडी कटेरी और खरैटी, इनके साथ दूध का पाक करके उसमें मिश्री काढेमें सिद्ध किये हुए दधका घी स्वरको | और शहत मिलाकर पान करावै । हितकारक और नस्यमें परमोपयोगी है। अगेचक में उपाय। तथा मधुररसयुक्त द्रव्यों का चूर्ण शहत / विचित्रमन्नमरुचौ हितैरुपहितं हितम् । और घी मिलाकर चाटना चाहिये ।
____ अर्थ-अरुचिरोग में. हितकारी द्रव्यों के
द्वारा अनेक प्रकारके भोजन और पानी कफजस्वरभेदमें चिकित्सा।
बना बना कर देने चाहिये । संपूर्ण रोगों पिकनि मृग ककजे रूसभोजनः ॥
की अपेक्षा अरुचि भारी व्याधि है, इस कटूकलामलकव्योषं लिहातैलमधुप्लुतम् । व्योषक्षाराग्निचविकाभार्गीपथ्यामधूनि वा
लिये जिन बातों से अरुचि दूर हो पहिले ___ अर्थ-कफसे उत्पन्न हुए स्वरभेद में वेही करनी चाहिये । गोमूत्र के साथ कटुरस द्रव्यों का सेवन अरुचिमें अन्य उपाय । करै, रूखा भोजन खाय, कायफल, आमला
| बहिरंतर्मुजाचित्तनिर्वाण हृद्यमौषधम् ४७ ॥
द्वौ कालो दंतधबनं भक्षयन्मुखधावनैः। और त्रिफला इन को पीसकर तेल में मिला
| कषायैःक्षालयेदास्यं धूमं प्रायोगिकंपिवेत् ॥ कर चाटै अथवा त्रिकुटा, जवाखार, चीता, । अर्थ-अरुचिरोग में स्नानादि द्वारा चव्य, भाडगी, हरड, और मुलहटी इन बाहरकी शुद्धि करे । वमनविरेचन द्वारा सब द्रव्यों का चूर्ण तेल और मधु मिलाकर भीतर की शुद्धि करे । चिसकी शांति, हृदय सेवन करै।
को हितकारी औषध, दोनों समय दंतधावन अन्यउपाय ।
मुखधावनोपयोगी कषायों से मुख धोना यवैर्यवागू यमके कणाधात्रीकृतां पिबेत् ।।
और स्नैहिक धूमपान करने चाहिये । भुक्त्वाद्यात्पिप्पली शुंठी तीक्ष्णं वा यमनं
अन्य उपाय । भजेत् ॥४५॥ तालीसचवटकाः सकर्पूरसितोपलाः। - अर्थ-घी और तेल दोनों स्नेहों में पीपल शशांककिरणाख्याच भक्ष्या रुचिकरा और आमला डालकर यवागू वनाबे, इसके
भृशम् ॥ ४९ ॥ खाने के पीछे पीपल और सौंठ का चूर्ण अर्थ-तालीसपत्र के चूर्ण के बडे अथवा
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अष्टांगहृदय ।
कपूर और मिश्री मिलाये हुए चन्द्रमाकी __ अन्य चूर्ण । कांति के समान अन्य पदार्थों का सेवन एलात्वङ्गागकुसुमतीक्ष्णकृष्णामहौषधम् । अत्यन्त रुचिकर होता है।
भागवृद्धं क्रमाच्चूर्ण निहंति समशर्करम् ५४ वातज अरोचकमें चिकित्सा ।
प्रसेकारुचिहत्पार्श्वकासश्वासगलामयान् । पातादरोचके तत्र पिबेच्चूर्ण प्रसन्नया।
अर्थ-इलायची एक भाग, दालचीनी दो हरेणुकृष्णाकृमिजिद् द्राक्षासैंधवनागरात् ॥
| भाग, नागकेसर ३ भाग, चन्य चार भाग, पलाभार्गीयवक्षारहिंगुयुक्ता घृतेन वा। पीपल पांचभाग,और सोंठ छः भाग इन सछर्दयेद्वा वचांभोभिः
ब को पीसकर सबके बराबर शर्करा मिला। अर्थ-वातज अरोचक में मटर, पीपल बायविडंग, द्राक्षा, सेंधा नमक और सोंठ
कर सेवन करने से मुखमें थूक भरना, अरुचि, इनके चूर्ण के साथ प्रसन्ना नामवाली म.
हृदयशूल, पार्श्ववेदना, खांसी, श्वास और दिरों का पान करै अथवा इलायची, भा-.
कंठके रोग नष्ट होजाते हैं।
अन्य चूर्ण । डंगी, जवाखार, हींगें डालकर घृतके साथ
यबानीतित्तिडीकाम्लवेतसौषधदाडिमम् ॥ पान करे । अथवा बचका काथ पिलाकर | कृत्वा कोलम् च कर्षांशम् सितायाश्चयमन करावे ।
चतुष्पलम्। पैत्तिक अरोचक में उपाय ।
धान्यसौवर्चलाजाजविरांगम्पित्ताच्च गुस्वारिभिः ॥ ५१ ॥
चार्धकार्षिकम् ॥५६॥ लिह्याद्वा शर्करासर्पिर्लवणोत्तममाक्षिकम् ।
पिप्पलीनां शतं चैक द्वे शते मरिचस्य च । .. अर्थ-पैत्तिक अरोचक में गुडका पानी
चूर्णमेतत्परं रुच्यं ग्राहि हृद्य हिनस्ति च ॥
विबंधकासहृत्पार्श्वप्लीहार्मोग्रहणीगदान । पिलाकर बमन करावे, अथवा खांड, घृत,
____अर्थ-अजवायन, इमली,अम्लवेत, सोंठ, सेंधा नमक और मधु मिलाकर चाटै।।
अनार, और वेर ये सब एक तोले ले और कफजअरोचक में उपाय। कफाद्वमेनिंबजलैर्दीप्यकारग्वधोदकम् ५२
इस चूर्णमें चार पल मिश्री मिलावै, तथा धपानं समध्वरिष्टाश्च तीक्ष्णाः समधुमाधवा
नियां, संचलनमक, कालाजीरा और दालचीपिवेच्चूर्ण च पूर्वोक्तं हरेण्वायुष्णवारिणा नी प्रत्येक एक तोला, पीपल सौ, कालीमिरच
अर्थ-पित्तज अरोचक में नीमका क्वाथ | दो सौ इन सबका चूर्ण वनालेवे, यह चूर्ण मिलाकर वमन करीव । इसके अतिरिक्त अ- अत्यन्त रुचिकर, प्राही, हृदयको हितकारी हो जवायन, अमलतास का काढा पान करावै । | ता है तथा विवंध, खांसी, हृदय और पसली अथवा मधुके साथ तीक्ष्ण अरिष्ट और मधु | का दर्द, प्लीहा, अर्श और ग्रहणी रोगों को के साथ मावीक नामक मद्यका पान करावे | खो देता है। और ऊपर कहे हुए हरेवादि के चूर्ण को तालीसपत्रादि चूर्ण । गरम जलके साथ सेवन करै ।
। तालीसपत्रं मरिचं नागरं पिप्पली कणा॥
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५१५]
यथोत्तरं भागवृद्धया त्वगेले चार्धभागिके।। कफका प्रसेक होता है,अतएव वैद्यको उचितहव्यं दीपनं चूर्ण कणाष्टगुणशर्करम् ५९ ॥ त है कि कफका अत्यन्त प्रसेक होनेपर वा. कासश्वासारुचिच्छर्दिप्लहिहत्पार्श्वशूलनुत्
तनाशक स्निग्ध और उष्ण क्रियाओं द्वारा पांडुज्वरातिसारघ्नं मूढवातानुलोमनम् ॥ ___ अर्थ-तालीसपत्र, कालीमिरच, सोंठ,
कफप्रसेक का शमन करै छोटी पीपल, बडी पीपल, इनको एक एक
पीनसादि में कर्तव्य । । भाग बढा करले और दालचीनी तथा
पीनसेऽपि क्रममिमं वमथौ च प्रयोजयेत् ॥
विशेषात्पीनसेऽभ्यंगान् स्नेहस्वेदांश्चइलायची प्रत्येक आप आधे भाग, इनको कू
शीलयेत् ॥ ६४ ॥ ट पीसकर चूर्ण बनाले तथा पीपलसे अठ स्निग्धानुत्कारिकापिंडैः शिर पार्श्वगलादिषु गुनी शर्करा मिलाकर सेवन करै । यह चूर्ण लवणाम्लकट्रष्णांश्च रसान् स्नेहोपसहितान अग्निसंदीपन, खांसी, श्वास, अरुचि, वमन,
____ अर्थ-पीनस और वमनरोग में भी लीहा, हृदयशूल, पार्श्वशूल, पांडुरोग, ज्वर,
ऊपर लिखी चिकित्सा करना चाहिये । अतिसार इनको दूर करता है तथा मूढवात
विशेष करके पीनस रोग में अभ्यंग तथा का अनुलोमन करने वाला है।
उत्कारिका और पिंडद्वारा सिर, पसली और प्रसेकमें भक्षणादि । गलेमें स्नैहिक स्वेद देवै. तथा स्नेहयुक्त अर्कामृताक्षीरजले शर्वरीमुषितैर्यवैः। नमकीन, खट्टे, कटु और उष्ण रसों का प्रसेके कल्पितान्सफ्तून् भक्ष्यांश्चाधादली
वमेत ॥ ६१ ॥ कटुतिक्तैस्तथा शूल्यं भक्षयेज्जांगलं पलम् ।
सिरशूलादि में कर्तव्य । शुष्कांश्च भक्ष्यान सुलघूश्चणकादिरसानुपः
| शिरोसपाचशूलेषु यथा दोषविधि चरेत् । - अर्थ-आक और गिलोयके काढेमें दूध औदकानूपपिशितैरुपनाहाः सुसंस्कृताः॥ मिलाकर उसमें रातभर जौ भिगो देवै, दूसरे
तष्टाः सचतुः स्नेहाः
___ अर्थ-सिर, कंधे और. पसली के दर्दमें दिन उन जोओं का सत्तू अथवा कोई खानेका
| दोष के अनुसार चिकित्सा करना चाहिये । पदार्थ बनाकर भोजन करे । यदि रोगी व
तथा आनूप और औदक जीवों का मांस लवान् हो तो कटु और तिक्त द्रव्योंद्वारा व
चार प्रकार के स्नेहों से अच्छी तरह मन करावे | जांगल जीवोंका शलपर भुना
| संस्कार किया हुआ उपनाह स्वेद देना हुआ मांस खाय, अथवा हलके और सूखे
चाहिये। पदार्थों को खाय और पीछेसे चना आदिका
दोषसंसर्ग में लेप। रस पीवे, इससे मुखप्रसेक दूर होजाता है ।
दोषसंसर्ग इष्यते। कफपसेक में उपाय। प्रलेपो नतयष्टयाह्वशतावाकुष्टचंदनः॥६॥ श्लेष्मणोऽतिप्रसेकेन वायुश्लेष्माणमस्यति।
बलारास्नातिलैस्तद्वत्ससर्पिर्मधुकोत्पलैः। कफासेकं तं विद्वान्निग्धोष्णरेव निर्जयेत् ॥ अर्थ-दो दो दोषों के संसर्ग से उत्पन्न
अर्थ-वायु कफको फेंकता है, इसलिये | हुई व्याधिमें तगर, मुलहटी, सितावरी, कूठ,
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(५१६)
अष्टांगहृदय ।
अ. ५
लावै ।
और चंदन का लेप करै । और इसी तरह | सिद्ध किया हुआ तेल का अथवा सौ वार खरैटी, रास्ना और तिल इनका लेप घी, धुले हुए घी का अभ्यंग करना चाहिये, शहत और चीनी मिलाकर उपयोग में तथा दूध वा मुलहटी के क्वाथ द्वारा परि
षेक करना राजयक्ष्मा में हित है । नस्यादि का प्रयोग।
अन्य उपाय। • पुनर्नवाकृष्णगंधाबलावीराविदारिभिः॥
प्रायेणोपहताग्नित्वात्सपिच्छमतिसार्यते ॥ नावनं धूमपानानि स्नेहाश्चोत्तरभक्तिकाः।
तस्यातिसारग्रहणीविहित हितमौषधम् । तैलान्यभ्यंगयोगीनि बस्तिकर्म तथा परम् ॥ अर्थ-सोंठ, सहजना, खरैटी, क्षीरका
___ अर्थ-प्रायः यक्ष्मारोग में अग्निके मंद
होजाने के कारण पिच्छायुक्त मल बार बार कोली और विदारीकंद इनका नस्य और
निकला करता है, इसलिये इस दशामें धूमपान में प्रयोग करे, तथा भोजन करने
अतिसार और ग्रहणी रोगमें कहीहुई औषधों के पीछे स्नेहपान, अभ्यंग में उपयोगी
का प्रयोग करना हित है। तैलादि और वास्तकर्म ये सब करने
राजयक्ष्मा में पुरीषकी रक्षा । चाहिये।
पुरीषं यत्नतो रक्षेच्छुप्यतो राजयक्ष्मिणः॥ . रक्तमोक्षण ।
सर्वधातुक्षयार्तस्य बलं तस्य हि विडूबलम् । शंगाद्यैर्वा यथादोषं दुष्टमेषां हरेदसूकू ।। अर्थ-राजयक्ष्मावाले रोगी की संपूर्ण ___ अर्थ-दोषके अनुसार सींगी, तुंबी,
धातुओं के सूख जाने पर उसके विष्टाकी पछना, जोक, अलाबु आदि लगाकर कफ
रक्षा वडी सावधानी से करनी चाहिये क्योंबात पित्त से दूषित रक्तको राजयक्ष्मा में
कि जब संपूर्ण धातु सूख जाते हैं तब पुरीष निकालना अच्छा है।
का बलही बल रहजाता है ।। राजयक्ष्मा में प्रदेह ।
यक्ष्माको अनवकाश। प्रदेहः सघृतैः श्रेष्ठः पद्मकोशीरचंदनैः। ७०। मांसमेवाभ्नतो युक्त्या माकिं पिवतोऽनुच दूर्वामधुकमंजिष्ठाकेसरैर्वा घृतप्लुतैः। अविधारितबेगस्य यक्ष्मा न लभतेऽतरम् ।
अर्थ-राजयक्ष्मा में पक्ष्माख, खस और अर्थ-जो मनुष्य युक्तिपूर्वक अर्थात् देश, चंदन को घी में सानकर प्रदेह करना काल और सात्म्यादि का विचार करके चाहिये अथवा दुव, मुलहटी, मजीठ और यक्ष्मारोग में कहे हुए मांसों का सेवन करकेसर इनको पीसकर धीमें सानकर प्र- ता है और ऊपर से मा।कारस का पान देह करै ।
करता है तथा मलमूत्रादि के उपस्थित वेगों . राजरोग में अभ्यंगादि । को नहीं रोकता है उसके राजयक्ष्मा रोग घटादिसिद्धतैलेन शतधौतेन सर्पिषा 1७१। की स्थिति नहीं हो सकती है । अभ्यंगः पयसा सेकः शस्तश्च मधुकांवुना। मद्यपानादि का विधान । ___ अर्थ-बटादि दूधवाले द्रव्यों के साथ सुरां समंडां माटकमारिष्टान्सीधुमाधवान् ॥
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अ.६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५१७)
यथार्हमनुपानार्थ पिबेन्मांसानि भक्षयन् ।
स्नानादि की उत्कृष्टता। स्रोतोविबंधमोक्षार्थ बलौजःपुष्टये च तत् ॥ गौरसर्षपकल्केन नानीयौषधिभिश्च सः॥
अर्थ-जो मनुष्य मांस भक्षण करके | सायातुसुखैस्तोयैर्जीवनीयोपसाधेितैः । यथायोग्य सुरा, सुरामंड, माक, अरिष्ट, गंधमाल्यादिक भूषामलक्ष्मीनाशनी भजेत् । सीधु और माधवनामक मद्यका पान करता
सुहृदां दर्शनं गीतवादित्रोत्सवसश्रुतिः। है उसके स्रोत खुल जाते हैं और बल तथा
बस्तयः क्षीरसपीषि मद्यमांससुशीलता ।।
दैवव्यपाश्रयं तत्तदथर्वोक्तं च पूजितम् । " ओजकी पुष्टि होती है।
____ अर्थ-सफेद सरसों को पानी में पीसस्नानादि का नियम ।
कर तथा स्नानोपयोगी अन्य सुगंधित द्रव्यों . स्नेहक्षीरांयुकोष्ठेषु स्वभ्यक्तमवगाहयेत् ।। उत्तीर्ण मिश्रकैः स्नेहभूयोऽभ्यक्तं सुखैः करैः।।
द्वारा तथा जीवनीय गण में कही हुई औ. मृद्गीयात्सुसमासीनं सुखं चोद्वर्तयेत्परम्।। षधों के साथ सिद्ध किये कुछ गरम जल
अर्थ-यक्ष्मारोगी को तेल से अच्छी | से हेमंतऋतु में यक्ष्मारोगी को स्नान कतरह अभ्यक्त करके तैलादि स्नेह, दूध वा | रावै, चन्दन केसर आदि सुगंधित प्रलेप, जल से भरे हुए पात्र में बैठाकर स्नान करै तथा सुगंधित फूलों की माला धारण करावै । पीछे उसमें से निकालकर गुल्म- करावे, अलक्ष्मनिाशक रत्नजटित अलंकार रोग के प्रकरण में कहे हुए मिश्रक स्नेह धारण करायै । सुहृदों से मिलना, गाने, द्वारा सुहाता हुआ मर्दन कर और सुखोत्पा- बजाने, पुत्रजन्म, विवाह आदि उत्सव के दक उबटना भी करे ।
बाक्य सुनना, वस्तिकर्म, घी, दूध, मद्य पौष्टिक उबटना।
और मांसका भोजन, बलि, मंगल, होम, जीवती शतवीर्या च विकसां सपुनर्नवाम् ॥ अश्वगंधामपामार्ग तर्कारी मधुकं वलाम्।।
प्रायश्चित्तादि कर्म करना, अथर्वोक्त यज्ञादिक बिदारी सर्षपान् कुष्टं तंडुलानतसीफलम् ॥ | करना, ये सब यक्ष्मारोग में श्रेष्ठ हैं । माषांस्तिलांश्च किण्वं च सर्वमेकत्र चूर्णय त् इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी: यवचूर्ण त्रिगुणितं दधा युक्तं समाक्षिकम् ॥ एतदुद्वर्तनं कार्य पुष्टिवर्णबलप्रदम् ।
कान्वितायां चिकित्सिस्थाने राज . अर्थ-जीवंती, शतावरी, मजीठ, सांठ, यक्ष्मस्वरभेदारोचक चिकिअसगंध, ओंगा, तर्कारी, मुलहटी, खरैटी, त्सितनाम पंचमोऽध्यायः । . विदारीकंद, सरसों, कूठ, तंडुल, अलसी, उरद, तिल, और किण्व इन सबको पीसकर सब से तिगुने जौका चून, तथा दही
षष्ठोऽध्यायः। और शहत मिलाकर उबटना करै । यह उबटना पुष्टि, वर्ण और वलको करने- | अथाऽत छीदहृद्रोगतृष्णाविकित्सितं वाला है।
व्याख्यास्यामः।
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[५१८ )
अर्थ- - अब हम यहां वमन, हृदयरोग तृष्णा चिकित्सितनामक अध्याय की व्याख्या करेंगे
अष्टांगहृदय |
मनमें लंघनादि । "आमाशयोक्लेशभवाः प्रायश्छद्य हितं ततः लंघनं प्रागृते वायोर्वमनं तत्र योजयेत् । १ । बलिनो बहुदोषस्य वमतः प्रततं बहु ।
अर्थ - आमाशय के उत्क्लेश से ही प्रायः सब प्रकार के वमन रोगों की उत्पत्ति है, इसलिये वमन रोग में सबसे पहिले लंघन कराना चाहिये । परंतु वातजनित वमन में लंघन कराना उचित नहीं है क्योंकि लंघन से वायु प्रकुपित होजाता है, लंघन करने पर भी यदि वमन का वेग शांत नहो और रोगी वलवान हो तो वमनकारक औषधोंका प्रयोग करना चाहिये । अथवा जो रोगी वातादि बहुत से दोषों से आक्रांत हो और निरंतर बहुत परिमाण में वमन करता हो तो भी वननकारक औषध देना चाहिये
बमनरोग में विरेचनविधि | ततो विरेकं क्रमशो हृद्यं मद्यैः फलांबुभिः ॥ क्षीरैर्वा सह सह्यर्ध्वगत दोषं नयत्यधः । शमनं चौषधं रूक्षदुर्बलस्य तदेव तु ॥ ३ ॥
अर्थ- - वमन कराने के पीछे क्रमसे विरे - चक औषधियों का प्रयोग करना चाहिये ये विरेचक औषधें हृदयको हितकारी हों तथा
दि मय और द्राक्षादि फलों के रस अथवा गौके दूध के साथ देना चाहिये, ऐसा करने से ऊपर का प्रवृत्त हुआ दोष नीचे को आने लगेगा | रूक्ष और दुर्बल रोगी को शोधन अर्थात् वमनविरेचन न देकर |
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अ० ६
संशमन औषधे देना चाहिये क्योंकि वह शोधन को नहीं सह सकता है । मनरोग में पथ्यविधि |
परिशुष्कं प्रियं सात्म्यमनं लघु च शस्यते । उपवासस्तथा यूषा रसाः कांबलिकाः खलाः शाकानि लेहभोज्यानि रागखांडवपानकाः भक्ष्याः शुष्का विचित्राश्च फलानि स्नानघर्षणम् ॥ ५ ॥ गंधाः सुगंधयो गंधफलपुष्पान्नपानजाः । भुक्तमात्रस्य सहसा मुखे शीतांबुसेचनम् ॥ अर्थ-स - सब प्रकार के वमन रोगों में सूखा हुआ, प्रिय सात्म्य और लघुपाकी अन्न हित होता है । तथा उपवास, यूष, रस, कांगलिक खल, लेह्य और भोज्य पदार्थ शाक, राग, खांडव, पीनेके, अनेक प्रकार के सूखे खाद्य पदार्थ; अनेक प्रकार के फल, उबटना, अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्य, सुगंधित फल, फूल अन्न, पान तथा भोजन करतेही बिना जाने मुखपर ठंडे जलके छींटे मारना ये सब वमन रोग के सामान्य उपचार हैं ।
वातज वमन का उपचार । हंति मारुतजां छर्दि सर्पिः पतिं ससैंधवम् । किंचिदुष्णं विशेषेण सकासहृदयद्रवाम् ॥ व्योषत्रिलबणाद्यं वा सिद्धं वा दाडिमांबुना सशुंठीदधिधान्येन शत तुल्यांबु वा पयः ॥ व्यक्त सैंधवसर्पिर्वा फलाम्लो वैष्किरो रसः स्निग्धं च भोजन शुंठीदधिदाडिमसाधितम् कोष्णं सलवणं चात्र हितं स्नेहविरेचनम् ।
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अर्थ-सेंधानमक मिलाकर ईषदुष्ण घृत अथवा त्रिकुटा और त्रिलवणान्वित ( सेंधाकाला और सांभर नमक ) घृत अथवा दाडिम के काथमें पकाया हुआ घी. अपवा
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अ०६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५१९)
सरेंठ, दही और धनिये के काथमें पकाया | वों के व्यंजनके शाली और साठी चावलों हुआ घी, समान भागमें मिलाया हुआ पानी का भात खानेको दे । मृत्तिका के गरम
और औटाया हुआ दूध अथवा बहुत परि-ढेले से वुझाया हुआ ठंडा पानी पीना चामाणमें डाला हुआ सेंधानमक, घी, औरहिये । रात्रिके समय पानी में मुंग, खस, अनारदानेकी खटाई युक्त कुक्कुटादि विष्किर | पीपल और धनियां डालदे, और प्रातःकाल पक्षियों का मांसरस, अथवा सोंठ, दही, इस जलको छानकर पीवै । अथवा दाखका और अनार डालकर स्निग्ध भोजन | रस, ईखका रस, गिलोयका पानी अथवा अथवा नमक से युक्त ईषदुष्ण स्नेह विरेचन | दूध पान करावै । इन प्रयोगों के करने से वातज वमनरोग,
अन्य प्रयोग। तथा विशेष करके वातजवमन संबंधी खांसी जम्यामपल्लवीशरिवट शृंगावरोहजः॥ और कफद्वारा हृदय का भारापन ये सब
क्वाथः क्षौद्रयुतः पीतः शीतो वा
विनियच्छति । दूर होजाते हैं।
छर्दि ज्वरमतीसारं मूर्छा तृष्णां दुर्जयाम् ॥ पित्तज वमनका उपचार । _____ अर्थ-जामन और आमके पत्ते, खस, पित्तजायां विरेकार्थ द्राक्षेचस्वरसैत्रिवृत् ॥ | बटके अंकुर, और कोंपल इनका काथ कर सर्पिर्वा तैल्वकं योज्यं वृद्ध च श्लेष्मधामगम् के ठंडा करले फिर इसमें शहत मिला कर ऊर्ध्वमेव हरेत् पित्तं स्वादुतिक्तैर्विशुद्धिमान् | पिबेन्मथ यवागू वा लाजैः समधुशर्कराम्।।
| पान करै तो वमन, ज्वर, अतिसार, मी मुद्जांगलजैरथाद्वयंजनैः शालिषष्टिकम् ॥ और दुर्जय तृषा ये सव शांत होजाते हैं। मृष्टलोष्टप्रभवं सुशतिं सलिलं पिवेत् ।
अन्य प्रयोग। मुद्रोशीरकणाधान्यैः सह पा संस्थित
| धात्रीरसेन वा शीतं पिबेन्मुद्दलांबु बा।
निशाम् ॥ १३ ॥ कोलमज्जसितालाजामक्षिकाविटकणाजनम्।। द्राक्षारस रसं वेक्षोर्गुडूच्यबुपयोऽपि वा।
| लिह्यात्क्षौद्रेण पथ्यां वा द्राक्षां वाअर्थ-पित्तज वमनरोग में विरेचन के
बदराणि वा। लिये दाख और ईखके रसके साथ निसोथ । अर्थ-मूंग की दालका पानी ठडा कर अथवा तैल्वक घृतका प्रयोग करना चाहिये। के आमले के रसके साथ पान करै, अथवा
बेरका गूदा, खांड, खील, मक्खीकी बीट लागया हो तो मधुर और तिक्त रस द्वारा | और रसौत इन द्रव्यों को तथा हरड, दाख बमन कराकर ही निकाल देना चाहिये । | वा वेरों को शहत मिलाकर चाटै । जब रोगी बमन विरेचन द्वारा शुद्ध होगया
कफज वमनका उपचार । हो तब उसको धानकी खीलों का पथ्य बा
| कफजायां वमेनिंवकृष्णापीडितसर्षपैः ॥ यवागू मधु और शर्करा डालकर पान करा- |
युक्तेन कोष्णतोयेन दुर्बल चोपवासयेत् । ना चाहिये । मूंग के यूष और जांगलजी-मथान्यवैी बहुशेश्छद्यन्नौषधभावितैः ।
आरग्वधादिनिहं शीतं क्षौद्रयुतं पिबेत् ॥
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१५२०)
. अष्टांगहृदय ।
कफघ्नमन्नं हृद्य च रागाः सार्जकभूस्तणाः । दृद्रोग से उत्पन्न होते हैं वेभी इन उपायें लढिं मनःशिलाकृष्णामारचं वीजपूरकात् ।। से शांत होजाते हैं। स्वरसेन कपित्थाच्च सक्षौद्रेण वर्मि जयेत् छर्दिमें स्तंभन वृंहण । खादेत्कपित्थं सव्योषं मधुना वा दुरालभाम् छर्दिप्रसंगने हि मातरिश्वा
अर्थ-कफज वातरोग में नीम, पीपल, धातुक्षयात्कोपमुपैत्यवश्यम् । और कोल्हूमें पिलीहुई सरसों कुछ गरमजल कुर्यादतोऽस्मिन् वमनातियोग में मिलाकर पान कराने से वमन कराना
प्रोक्तं विधिं स्तंभनबृहणीयम् ॥ २३॥
सर्पिर्गुडा मांसरसा घृतानि चाहिये । यदि रोगी दुर्बल हो तो वमन न
कल्याणकत्र्यूषणजविनानि। देकर लंघन कराना उचित है । आरग्वधा- पयांसि पथ्योपहितानि लेहाश्छर्दिदि गणोक्त द्रव्योंका काथ ठंडा करके शहत प्रसक्तां प्रशमम् नयंति ॥ २४ ॥ मिलाकर पान करावे, वमननाशक औषधि
अर्थ-क्योंकि वमनके अत्यन्त प्रसंग यों से कितनी ही बार भावना दिये हुए जौ | से धातुओं का क्षय होताहै, इसलिये धातुओं का मन्थ, कफनाशक मनको प्रसन्न करने के क्षयसे वायु अवश्यही प्रकुपित होजातोह पाला अन्नका भोजन तथा तुलसी और अतः वमनातियोग में कही हुई स्तंभन और भूस्तृण से संयुक्त रागादि का सेवन करै ।। वृंहण चिकित्सा करना चाहिये । तथा दोष तथा मनसिल, पीपल, कालीमिरच, इनके और दूष्यके अनुसार घी, गुड, मांसरस चूर्ण में शहत मिलाकर बिजौरे वा कैथके कल्याणकादि घृत, त्रयूषणवृत, जविनीयवृत रसके साथ सेवन करै, अथवा कैथको त्रि- और हितकारी पथ्यों से मिले हुए दृध और कुटा और शहतके साथ दुरालभा को शहत | अवलेह इनका प्रयोग करे ॥ इससे निरंतर के साथ सेवन करे । इन प्रयोगों से कफज
होनेवाली वमन शांत होजाती है ।
वातजहृद्रोग में तैलपान । वमन वन्द होजाती है।
| हृद्रोगे वातजे तैलं मस्तुसौवीरतक्रवत् । द्विष्टार्थ वमनका शमन ।
पिबेत्सुस्राणांसविडं गुल्मानाहार्तिजञ्च तत् अनुकूलोपचारेण याति द्विष्टार्थजा शमम् ॥
__ अर्थ-वातज हृद्रोगमें दहीका तोड, ___ अर्थ-द्विष्टार्थजा वमन मनके अनुकूल , रसौत और तक डालकर ईषदुष्ण तेल पीना व्यापारों से बन्द होजाती है ।
चाहिये । तथा इसमें नमक डालकर पीनेसे कृमिज वमन ।
गुल्म, आनाह और अति दूर होजाते हैं । कृमिजा कृमिहद्रोगगदितैश्च भिषाजितैः ।। सैंधवादि युक्त तेल । यथास्वं परिशेषाश्च तत्कृताच तथामयाः तैलंच लबणैःसिद्धं समूत्राम्लं तथागुणम् ।
अर्थ-कृमिसे उत्पन्न हुई वमन कृमि | अर्थ-सेंधवादि पांचों नमक, गोमूत्र और हृद्रोगमें कहे हुए उपायों से शांत हो | और कांजी, डालकर सिद्ध किया हुआ तेल जाती है तथा अन्यरोग भी जो कृमि और । उपरोक्त गुणोंसे युक्त होताहै ।
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अ० . ६.
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेत ।
अन्य तैल
बिल्यं रास्त्रां यावान्कोले देवदारुं पुनर्नवाम् ॥ कुलत्थान्पंचमूलं च पक्त्वा तस्मिन्पचेज्जले तैलं तन्नावने पाने वस्तौ च विनियोजयेत्२७
अर्थ- बेलगिरी, रास्ना, जौ, बेर, देवदारू, सांठ, कुछथी और पंचमूल इनके काढे में सिद्ध किया हुआ तेल नस्य, पान और वस्तिकर्म में प्रयोग किया जाता है। यह भी पूर्वोक्त गुणविशिष्ट होता है ।
सौवर्चलादि घृत |
सौवर्चलस्य द्विपले पध्यापचाशदस्यिते । घृतस्य साधितःप्रस्थो हृद्रोगश्वास गुल्मजित् अर्थ- संचलनमक दो पल, हरड पचाल नग, घृत एक प्रस्थ इनका पाक हृदयरोग, सास और को जीत लेता है | गुल्म
शुंठयादि घृत । शुडीवयस्थालवण कायस्थाहिंगुपौष्करैः ।
पंचकोलादि कल्क |
पथ्यया च श्रुतं पार्श्वहृद्रुजागुल्माजद् घृतम् | पञ्चकोलशठी पथ्या गुड बीजाहव पौष्करम् अर्थ- सोंठ, आमला, सेंधानमक, का वारुणीकल्कितम् भ्रष्टम् यमके लचणान्वित्तम् कोली, हींग, पुष्करमूल और हरड इनके हत्पार्श्वयोनिशूलेषु खादेद्गुल्मोदरेषु च ॥ कांटे में घी को पकाकर पान करने से पसली का दर्द, हृद्रोग, और गुल्नरोग नष्ट होजाता है ।
अर्थ-पंचकोल, कचूर, हरड, गुड, बिजै. सार, पुष्करमूल, इनसब द्रव्यों को वारुणी नामक सुरामें पीसकर तेल और घी में भूनले फिर इसमें सेंधानमक डालकर सेवन करै तो हृदयशूल, पार्श्वश, योनिशूल, गुल्मरोग और उदररोग दूर होजाते हैं ।
पुष्करादि घृत | पुष्करावराठीशुंठीबीजपूरजटाभयाः । पीताः कल्कीकृताः क्षारघृताम्ललवणैर्युताः ॥ विकर्तिकाशूल हराः काथः कोष्णश्च तद् गुणः यवानीलवणक्षारवचा जाज्यौषधैः कृतः ३१ सप्ततिर्दा रुबी जाह्नव विजयाशठिपौष्करैः ।
।
अर्थ - पुष्करमूल, कचूर, सोंठ, बिजौरा की जड, हरड़ इन सबका कल्क तथा जवाखार, घृत, कांजी और सेंधानमक ये मिला६६
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( ५२-१ )
कर सेवन करने से विकर्तका और शूल नष्ट हो जाते हैं । तथा अजवायन, सेंधानमक, जवाखार, वच, कालाजीरा, सोंठ, इनसे सिद्ध किया हुआ काढा तथा नवमल्लिका देवदारू, बिसार, हरड, कचूर, और पुकरमूल इनका काढा विकर्तका रोग को दूर करता है । हृदय के आवर्तन से जो छेदनवत् पीडा होती है उसे बिकर्तका कहते हैं ।
1
बात हृद्रोग में स्वेदादि । स्निग्धाश्चेह हिताः स्वेदाः संस्कृतानिघृतानि च अर्थ- वातज हृद्रोग में स्निग्ध स्वेद हितकारी होता है तथा संस्कार किया हुआ वृत भी हितकारी है ।
पंचमूलादि साधित जल । लघुना पंचमूलेन शुंड्या वा साधितं जलम् वारुणीदधिमंड वा धान्याम्लं वा पिवेत्तृषि |
लघु पंचमूल, अथवा सोंठ के साथ सिद्ध किया हुआ जलपान करै अथवा वारुणी नामक मद्य, वा दधिमंड वा धान्याम्लका से
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(५२२)
अष्टांगहृदय।
वन करै । इससे हृद्रोग से उत्पन्न हुई तृषा | रोहण, बलकारक और वातज हृदयके रोग शांत होजाती है।
| को दूर करनेवाला है। वातज हृद्रोगमें चिकित्सा ।
दीप्ताग्नि दृद्रोग में कर्तव्य ! सायामस्तंभशूलामे हदि मारुतदूषिते ॥ दीप्तेऽग्नौ सद्रवायामे हृद्रोगे वातिके हितम्। क्रियैषा सद्रवायामप्रमोहे तुहिता रसाः। क्षीरं दधिगुडः सपिरौदकानूपमामिषम् ।। स्नेहाद्यास्तित्तिरिक्रौंचशिखिवर्तक- अर्थ-वातज हृदयरोग में यदि जठराग्नि
क्षजाः॥
| प्रबल हो तथा द्रवता और आयाम होतो अर्थ -वातज हृद्रोग में आक्षेप, स्तंभ,
दूध, दही, घी, गुड, औदक ( मछली शूल और आमदोष हो; तो ऊपर कहीहुई
आदि ) का मांस और आनूप अर्थात् शूकचिकित्सा करनी चाहिये तथा वातज ह.
रादि का मांस हित है। द्रोग में द्रवता, आयाम और प्रमोह हो तो
हृद्रोग में वर्जित द्रव्य । तीतर, कुंज, मोर, बतक और रीछ इनका एतान्येव च वया॑नि हृद्रोगेषु चतुर्वपि। मांसरस बहुत स्नेह से युक्त हित होताहै। शेषेषु स्तंभजाड्यामसंयुक्तेऽपि च वातिके।।
हृद्रोग में अन्य तेल । अर्थ-शेष चारों प्रकार के हृदयरोगों बलातैलं समृद्रोगः पितेद्वा सुकुमारकम् ॥ में दूध, दही, घी, गुड, मछली और शुकर यष्ठयाहवशतपाकं वा महास्नेहं तथोत्तमम् का मांस वर्जित है तथा स्तंभता, जडता
अर्थ-हृदयरोगी मनुष्य बला तेल का , और आमसंयुक्त वातज हृद्रोग में भी ये पान करे । अथवा प्रमेह में कहा हुआ | वस्त वर्जित है। सुकुमारघृत, वातरक्त में. कहाः हुआ यष्टा
कफानुबंधी हृदयरोग में कर्तव्य । ह्वशतपाक घृत अथवा महास्नेह नामक घृत
कफानुबंधे तस्मिंस्तुरूक्षौष्णामाचरेत्क्रियाम् का सेवन करे ।
___ अर्थ-कफानुबंधी वातज हृदयरोग में महास्नेह घृत। | रूक्ष और उष्ण क्रिया करनी चाहिये । रास्नाविकजीवंतीबलाव्याघ्रीपुनर्नवैः।। पैत्तिक हृद्रोग । भार्गीस्थिरावचाग्योषैर्महास्नेहं विपाचयेत्॥ | पैत्ते द्राक्षानिर्याससिताक्षौद्रपरूषकैः ॥ दधिपादतथाम्लैश्च लाभतःस निषेवितः । युक्तौ बिरेको हृद्यास्यात्क्रमः शुद्ध च पित्तहा तर्पणोहणो बल्यो वातहृद्रोगनाशनः ३९॥ क्षतपित्तज्वराक्तं च वाह्यांतःपरिमार्जनम् ॥
अर्थ-रास्ना, जीवक, जीवती, बला, कवीमधुककल्क च पिबेत्ससितमभसा । - कटेरी, सोंठ, भाडंगी, शालपर्णी, बच और अर्थ-पैत्तिक हृद्रोग में दाख और ईख त्रिकुटा इनके साथ घृतको पकावै, जितना का रस, मिश्री, शहत, फालसा इनके द्वारा घृत पकाना हो उससे चौथाई दही और हृदयको हितकारी विरेचन देना चाहिये । थोडी सी कांजी डालकर यह महास्नेह ना- जब विरेचन से रोगी शुद्ध होजाय तब मक घृत पकाया जाता है, यह घृत तर्पण । पित्तनाशक क्रमकी व्यवस्था करनी चाहिये
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अ० ६
चिकित्सितस्थान' भाषार्टीकासमेत ।
(५२३ )
क्षतरोग में और पित्त ज्वर में भीतर और । नीम और वचका क्वाथ पान कराके वमन बाहर की शुद्धि के निमित्त जो जो चिकि- करावै । तथा कुलथी का यूष, जांगलमांस ₹सा कही गई है. वह भी करनी चाहिये। तीक्ष्ण मद्य, और जौ के बने हुए पदार्थ और कुटकी तथा मुलहटी का कल्क मिश्री और जल के साथ पीना उचित है।
अन्य विधि।
पिवेचूर्ण बचाहिंगुलवणद्वयनागरान् । पित्तज दृद्रोग में घी।
सैलायबानीककणायवक्षारान् सुखांबुना ।। श्रेयसीशर्कराद्राक्षाजीवकर्षभकोत्पलैः ॥
फलं धान्याम्लकौलत्थयुषमूत्रासवैस्तथा। बलाखजूर काकोलीमेदायुग्मैश्च साधितम् ।
पुष्करावाभयाशुंठीशठीराखावचाकणाः ॥ सक्षीरं माहिष सर्पिः पित्तहृद्रोगनाशनम् ॥
काथं तथाऽभयाशुठीमाद्रीपीतद्रुकटफलात् । अर्थ-पित्तज हृद्रोग में गज पीपल,
____ अर्थ-कफज हृद्रोग में बच, हींग,सेंधा खांड, दाख,जीवक, ऋषभक, उत्पल, खरै- नमक, संचलनमक सोंठ, इलायची, अजटी, पिंडखजूर, काकोली, मेदा, महामेदा वायन, पीपल, और जवाखार इनका चूर्ण इन द्रव्यों के काथ में भेंस के दूध के साथ गुनगुने पानी के साथ अथवा त्रिफला, सिद्ध किया हुआ भैसका घी उत्तम होताहै। कांजी, कुलथी का यूष, गोमूत्र और आसव अन्य घृत।
इनमें से किसी के साथ पान करै । तथा प्रपौंडरीकमधुकक्सिग्रंथिकसेरुकाः। पुष्करमूल, हरड, सोंठ,कचूर, रास्ना, पच, सशंठीशैवलास्ताभिःसक्षीरं विपचेद् घूतम् पीपल, इनके चूर्ण को पूर्वोक्त गुनगुने पानी शीतं समधु तश्चेष्टं स्वादुवर्गकृतं च यत् । पास्तिं च दद्यात्सलौद्रं तैल मधुकसाधितम् ॥
आदि के साथ सेवन करै । अथवा हरड, अर्थ-प्रपौंडरीक, मुलहटी, कमलनाल, सोंठ, अतीस. दारुहलदी, और कायफल पीपलामूल, कसेरू, सोंठ, और, शैवाल
इनका काथ पान करें। इनके कल्क के साथ दूध मिलाकर धृत
कफरोगनाशक अवलेह । पाक करै । यह घृत ठंडा होने पर शहत
| काथे रोहीतकाश्वत्थखदिरोदुबरार्जुने ॥ , के साथ सेवन किया जाता है तथा द्राक्षादि
सपलाशवटे व्योषत्रिवृच्चूर्णान्विते कृतः।
| सुखोदकानुपानस्य लेहः कफविकारहा ॥ मधुर वर्गोक्त द्रव्यों के साथ सिद्ध किया | अर्थ-रोहेडा, पीपल,खर, गूलर, अर्जुन, हुआ घी भी दिया जाताहै । इसी तरह / ढाक, और वड इनके काढे में त्रिकुटा और मुलहटी के साथ पक्व तैल की शहत मि-निसाथ डालकर बनाया हुअ अवलेह कफलाकर बस्ति दी जाती है।
विकारों को दूर करता है, उसको चाटकर कफज हृद्रोग में वमनादि।
गुनगुना पानी पीलेना चाहिये । कफोद्भवे वमेत्स्विनः पिचुमंदबचांबुना। । अन्य चिकित्सा । कुलत्थधन्वोत्थरसतीक्ष्णमद्ययवाशनः ॥लमगल्मोदिताज्यानि क्षारांश्च बिविधानअर्थ-कफज हृद्रोग में स्वेदन के पीछे ।"
पिवेत् ।
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(५२४]
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अष्टांगहृदय ।
अर्थजो जो
- कफज गुल्म और कफज हृद्रोगमें और अनेक प्रकार के क्षार कहे गये हैं, वे सब उपयोग में लाने चाहिये ।
अन्य उपाय |
'प्रयोजयेच्छिलाव वा ब्राह्मं चात्र रसायनम् तथामलकलेहं वा प्राश्यं वाऽगस्तिनिर्मितम्। अर्थ- कफज हृद्रोग में शिलाजीत, वा रसायन अध्याय में कहे हुए ब्राह्मरसायन और आमलक अवलेह अथवा कासचिकित्सा में कहा हुआ अगस्त्य अवलेह का उपयोग करना चाहिये ।
शूलयुक्त हृद्रोग में उपाय । स्याच्छूलं यस्य भुक्तेऽन्ने जीर्यत्यल्पं जरांगते शाम्येत्सकुष्टकामजिल्लवणद्वयतिल्वकैः । संदेवदार्वतिविषैश्चूर्णमुष्णांना पिबेत् ॥
अर्थ - जिस मनुष्य के भोजन काल में शूल की अधिकता हो, पाकावस्था में शूल कम होजाय, और अन्न के पच जाने पर शूल बिलकुल न रहै ऐसे रोगी को कूठ, बायविडंग, सेंधानमक, संघलनमक, लोध, देवदारू और अतीस इनका चूर्ण गरमपानी के साथ देना चाहिये |
शूल में विरेचन ।
यस्य जीर्णेऽधिकं स्नेहैः स विरेच्यः फलैः पुनः जीर्यत्यन्ने तथा मूलैस्तीक्ष्णैः शूले सदाधिके ॥
अर्थ - जिस मनुष्य के अन्न के पच जाने पर अधिक शूल होता हो उसको स्नेहयुक्त विरेचन द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ विरेचन देना चाहिये । और जिसके अन्य की प च्यमान अवस्था में अधिक शूल होता हो
|
अ० ६
उसको फल x विरेचन देना उचित है और जिसको सदा ही शूल रहता हो उसको तणि मूलविरेचन देना चाहिये ।
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वायुका अनुलोमन । प्रायोऽनिलो रुद्धगतिः कुप्यत्यामाशयं गतः । तस्यानुलोमनं कार्य शुद्धिलंघनपाचनैः ॥
अर्थ- प्रायः ऐसा होता है कि वायुका मार्ग रुक जाने के कारण वह आमाशय में पहुंच कर कुपित होजाता है तब अवस्थाके अनुसार विरेचनादि शोधन वा लंघन पाचन द्वारा बायुका अनुलोमन करना उचित है !
कृमिज हृद्रोगकी चिकित्सा | कृमिघ्नमौषधं सर्व कृमिजे हृदयामये ।
+ मृीकाथ विडंगानि खर्जूराणि प रूषकस् । आरग्वधोऽथामलकं हरीतक्यो विभीतकं । कंपिल्लकोपचित्रेच त्रपु च विरेचनं । अर्थात् दाख, वायविडंग, खिजूर मुकुलकम् । नीलिका कुबल पीलु भवेत्फल फालसा, अमलतास, आमला, हरड, बहे - डा, कंपिल्ल, मूषकपर्णी, खीरा, दंती, नीलनी, बेर और पीलू इन द्रव्यों के द्वारा जो विरेचन दिया जाता है, उसे फल वि रेचन कहते हैं ।
x सप्तला, संखिनी देती, द्रबंती गिरिकर्णिकाः । त्रिवृच्छया मोदकीर्या च प्रकीर्या क्षारिणी तथा । छगलांडी गवाक्षी च कुचाक्षी गिरिकर्णिका । मसूरविदला चैब भवेत्सूलविरेवनं । अर्थात् सातला, संखनी, दंती, द्रवती, गिरिकर्णिका, निसोथ, श्यामा निसोथ, उदकीर्य और प्रकीर्य । ये दोनों कंजा के भेद हैं ) खिरनी, वृद्धदारक, इन्द्रायण, कुचाक्षी, श्वेत अपराजिता और मसूर इनकी जड द्वारा जो विरेचन दिया जाता है उसे मूल विरेचन कहते हैं ।
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चिकित्सतस्थान भाषाटीकासमेत ।
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अ० ६
(५२५५)
अर्थ- कमिज हृद्रोगमें सब प्रकारकी कृमिनाशक औषध करनी चाहिये | तृषारोग में उपाय | तृष्णासु वातपित्तघ्नो विधिःप्रायेण युज्यते ॥ सर्वासु शतो वाह्यांतस्तथा शमनशोधनम्
अर्थ - सब प्रकार के तृषारोगों में प्रायः वात और पित्त नाश करने वाले उपाय किये जाते हैं, तथा भीतर और बाहर दोनों ओर शीतल उपचार तथा शमन और शोधन ये सब उपाय काम में लाने चाहिये । तृपारोग में चिकित्सा |
नाया हुआ मं श्रेष्ठ है तथा कच्चे जौ पीसकर खांड और शहत मिलाकर ठंडा वाट्य हितकर है, शालीचांवल वा बहुत पुराने कोदों का यवागू खांड और शहत मिलाकर सेवन करना हित है । अथवा शीतवीर्यवाले द्रव्यों से बनाया हुआ ठंडा भोजन, अथवा शीतलजल से परिषिक्त किये हुए मनुष्यको दूध, खांड और मधुसहित भोजन हित है। तथा जांगल जीवों के मांसरस में थोडी खटाई, सेंधानमक डालकर वीमें भूनकर उसके साथ भोजन हित है । जीवनीयगणोक्त औषधों के साथ सिद्ध किया हुआ मूंग और मसूरादिका यूप हित है । चंदनादि शीतवीर्यं द्रव्योंके साथ सिद्ध नस्य हित है । तथा
।
1
दिव्यांबु शीतं सक्षौद्र तद्वद्भौम च तद्गुणम् ॥ निर्वापितं तप्तलोकपालसिकतादिभिः । सशर्करं वाक्कथित पंचमूलेन वा जलम् । ६० दर्भपूर्वेण मंथश्च प्रशस्तो लाजसक्तुभिः । वाट्यश्वामयवैः शतिंः शर्करामाक्षिकान्वितः यवागूः शालिभिस्तद्वत्कोद्रवैश्च चिरंतनैः शीतेन शीतवीर्यैश्च द्रव्यैः सिद्धन भोजनम् । हिमां परिषिक्तस्य पयसा ससिता मधु । "सैश्वानम्ललवणैजगलैर्धृतभर्जितैः । ६३ । मुद्रादीनां तथा यूपैर्जीवनीयर सान्वितैः । नस्यं क्षीरवृतं सिद्ध शीतैरिक्षोस्तथा रसः ॥ निर्वापणाश्च गवाः सूत्रस्थानोदिता हिताः। दाहज्वरोक्ता लेपाद्या निरीहत्वं मनोरतिः ॥ महासरिदादीनां दर्शनस्मरणादि च ।
किये हुए क्षीरघृत का सूत्रस्थानमें कहे रोपण गंडूषों का धारहुए ण करना हित है तथा दाहम्बर में कहे हुए प्रलेपादि हित हैं । तथा निश्चेष्टता, 1 मनकी निवृत्ति, तथा बडे बडे नद, नदी, तालाव और सरोवरों को देखना और उनकी याद करना हित है |
अर्थ - शीतल आंतरीक्ष जल शहत मिलाकर पीना हित है | अथवा प्रशस्त भूमि का जल भी शहत के साथ आंतरीक्ष जलक समानही गुणकारी होता है । अथवा मिट्टी के . डेले, ठीकरा, बालू आदि को गरम करके बुझाया हुआ जल ठंडा होनेपर शर्करा मिला- कर पान करना, अथवा तृणपंचमूल के साथ पकाया हुआ जल, अथवा केवलजल पीना हित है । अथवा धानकी खीलों के सत्तू से ब.
बातजतृषा की चिकित्सा | तृष्णायां पवनोत्थायां सगुडं दाधे शस्यते रसाश्च बृंहणाः शीता विदार्यादिगणांबु वा
अर्थ- वातज तृषामें गुडमिला हुआ दही वृंहणकर्ता शीतल मांसरस, और विदार्यादि गणोक्त द्रव्योंका काढा सेवन करना हित है ।
पित्तजतृषा की चिकित्सा |
पित्ताजायां सितायुक्तः पक्कोदुंबरजो रसः ॥ तत्काथो वा हिमस्तद्वत्सारिवादिगणांबु वा । तद्विधैश्च गणैः शीतकषायान्स सितामधून मधुरैरौषधैस्तद्वत् क्षीरिवृक्षैश्च कल्पितान्
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अष्टांगहृदय ।
श्र० ६
• पर्बल और नीम के पत्ते डालकर मूंगका यूप देना चाहिये | जौ का अन्न, तीक्ष्ण कवल, तीक्ष्णनस्य और तीक्ष्ण लेह इनको काममें लाँ |
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(५२६ )
बीजपूरकमृद्धीका वटवेतसपल्लवान् ६९ ॥ मूलानि कुशकाशानां यष्ट्याहव च जले शुतम् ज्वरोदितं वा द्राक्षादिपचसारांबु वा पिबेत् ।
अर्थ-पित्तज तृषा में पके हुए गूलरोंका रस, वा उनका काढा वा हिम मिश्री मिला कर पीना हित है । इसी तरह सारिवादि गणोक्त द्रव्योंका रस, काढा वा हिम मिश्री मिकरहित है। अथवा तद्रुणविशिष्ट शीत वीर्य द्रव्यों का पाय खांड और शहत मिलाकर सेवन करना हित हैं । इसी तरह द्राक्षादि मधुररसविशिष्ट द्रव्योंका काढा वा न्यग्रोधादि दूधवाले वृक्षोंकाः शीतकषाय शर्करा और मधुमिलाकर सेवन करना हितहै । तथा विजौरा, किसमिस, बट और वेतके पत्ते, कुशा और कासकी जङ और मुलहटी, जलमें सिद्ध करके यह जल पीने को दे । अथवा ज्वरचिकित्सा में कहा हुआ द्राक्षादि फोट वा रक्तपित्त में कहा हुआ पंचसार शीतकप्राय देना हित है |
कफज तृषाकी चिकित्सा | कफोद्भवायां वमनम् र्निबप्रसववारिणा । बिल्वाढकी पंञ्चकोलदर्भपंचकसाधितम् ॥ जलं पिबेद्रजन्या वा सिद्धं सक्षौद्रशर्करम् । मुद्रयूषं च सव्योष पटोली निवपल्लवम् ७२ ॥ वन तीक्ष्णकवलनस्यलेहांश्च शीलयेत् । अर्थ-कफज तृषा में नीम के पत्तों का काथ - पान करके बमन कराना हित है । वेलगिरी अडहर, पंचकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव्य चीता और सौंठ, दर्भपंचक इन सब द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ जल, अथवा हलदी डालकर सिद्ध किया हुआ जल शहत और शर्करा मिलाकर पीना उचित है । त्रिकुटा | सत्त मंथ कहलाता है ।
|
आज और सन्निपातज तृषा । सर्वैरामाच्च तद्धंत्री क्रियेष्टा वमनम् तथा ॥ त्र्यूषणारुष्करवचाफलाम्लोष्णांबुमस्तुभिः ।
अर्थ - त्रिदोषज और आमजतृषा में त्रिदोशनाशिनी और आमनाशिनी चिकित्सा करना हित है तथा त्रिकुटा, भिलावे की गुठली, बच, द्वारा अथवा अम्श्वतसे, वा उष्ण जल से वा दही के तोडसे वमन कराना हित हैं।
अनात्मज तृषाकी चिकित्सा | अन्नात्ययान्मंडमुष्णं हिमं मंथं च कालावेत, अर्थ - अन्नके विरहसे उत्पन्न हुई तुषा में काल, प्रकृति और सात्म्यके अनुसार उष्णमंड और शीतल मंथ देना चाहिये । वातकफ प्रकृतिसे उष्णमंड, पित्तकफ प्रकृति से उष्णशीत और पित्त प्रकृति से हिंम मंथ का पान करना चाहिये ।
श्रमजन्यवृषामें कर्तव्य ।
तृषि श्रमान्मांसरसं मद्यं वा ससितं पिबेत् ।
अर्थ-- श्रम से उत्पन्न हुई तृषामें मांसरस • अथवा शर्करामिश्रित मद्य हितकारी होता है । आतपजन्य तृषा ।
आतपात्ससितं मंथं यव कोलांबुसक्तुभिः ॥ सर्वाण्यंगानि लिंपेच्च तिलपिण्याककांजिकैः + सक्तवः सर्पिषाभ्यक्ताः शीतोदकपरि प्लुताः । नातिद्रवो नाति सांद्रो मंथ इत्यभिधीयते । अर्थात् घृतप्लुत ठंडे पानी में मिलाया हुआ, न बहुत गाढा, न बहुत पतला
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अ.६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५२७)
अर्थ - धूप लगनेसे उत्पन्न हुई तृषा अर्थ-भारी अन्नके भोजनस उत्पन्न में जौ और कुलथी के सत्तू का मंथ खांड हुई तृषामें कंठ पर्ण्यन्त गरमजल पीकर वमन मिलाकर खाना चाहिये । और तिलोंको | करना उचित है । पीसकर कांजी में मिलाकर सब देह पर क्षयज तुषामें कर्तव्य । लेप करना चाहिये ।
क्षयजायां क्षयहितं सर्व वृंहणमौषधम् ७९ शीतस्नानजन्य तृषा।
अर्थ-क्षयसे उत्पन्न हुई तृषामें जो जो शीतनानात्तु मद्यांबु पिबेतृण्मान् गुडांबु वा वृंहण औषध क्षयरोगमें हितकारी है वे सव ___ अर्थ-शीत स्नानके कारण उत्पन्न हुई। इसमें भी हितकारी हैं। तृषामें मद्य वा गुड का शर्वत पीना उचितहै। कृशादि की तृषामें चिकित्सा ।
मद्यजतृषा । | कृशदुर्बलरूक्षागां क्षीरं छागो रसोऽथवा । मद्यादर्धजलम् मधं स्नातोऽम्ललवणैर्युतम्॥ अर्थ-कृश, दुर्वल और रूक्ष मनुष्य
अर्थ-मद्यसे उत्पन्न हुई तृषामें रोगीको | की तृषामें वकरी का दूध वा बकरी का मांस. स्नान कराके आधा जल मिली हुई शराव | रस हित है। जिसमें खटाई और नमक पडाहो,देना चाहिये। ऊर्ध्ववात में चिकित्सा । - तीक्ष्णाग्नि में शीतल जल । । क्षीरंचसोलवातायां क्षयकासहरैः शृतम् ॥ नेहतीक्ष्णतराग्निस्तु स्वभायशिशिरं जलम् | ___अर्थ-ऊर्ध्व वातजनित तृषारोग में क्षय ___ अर्थ-स्नेहपान के द्वारा अग्निके अत्यंत | और खांसी को दूरकरने वाली औषधों के तीक्ष्ण होने से, जो तृपा उत्पन्न होती है । साथ औटाया हुआ दूध पीवै । च शब्द से उसमें स्वाभाविक शीतल जल हितकारक मांसरसका भी ग्रहण है । होता है।
उपसर्गजगेगमें चिकित्सा । ___ अजीर्ण की तृषा में गरमजल । रोगोपसर्गजातायां धान्यांबु ससितामधु । नेहादुष्णांबुजीर्णात्व जीर्णान्मण्डं पिपासितः | पानं प्रशस्तं सर्वाश्च क्रिया रोगाद्यपेक्षया.॥ ___ अर्थ-स्नेहके न पचनेपर जो तृषा होती . अर्थ-किसी रोगके उपसर्ग से उत्पन्न है उसमें गरमजल तथा स्नेहके पचनेपर जो हुई पिपासामें खांड और मधु मिलाकर धा. तृषा होती है उसमें मंडरान करना चाहिये। न्याभ्वु अर्थात् कांजी का पान करना चाहि
स्निग्ध तृषामें कर्तव्य । ये । रोगके उपसर्ग से उत्पन्न हुई व्याधियों पिवेस्निग्धान्नतृषितोहिमस्पर्धि गुडोदकम् | में जो जो क्रिया कही गई है वे सव तृषा ' अर्थ-स्निग्ध अन्नके भोजनसे उत्पन्न | रोगमें भी हितकारी होती हैं । हुई तृषा में गुडका शर्वत पीना हित है। तृषाकी चिकित्सा में प्रधानता ।
गुरुअन्नकी तृषामें कर्तब्य । तृष्यन् पूर्वामयक्षीणो न लभेत जलम् यदि । गुर्वाद्यन्नेन तृषितः पीत्वोष्णांबु तदुल्लिखेत्। मरणं दीर्घरोगंवा प्राप्नुयात्वरितं ततः ८२
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(५२४] - अष्टांगहृदय ।
अ०७ सात्म्यानपानभैषज्यस्तृष्णांतस्थ जयेत्पुरः। उक्तविधि में हेतु ।। तस्यां जितायामन्योऽपि शक्यो
पित्तमारुतपर्यंतःप्रायग हि मदात्ययः । .. व्याधिश्चिकित्सितुम् ,, ॥ ८३ ॥ अर्थ:-किसी पहिले रोगसे क्षीण तृषार्त
| अर्थ-मदात्यय रोगमें प्रथम कफकी अधि. व्यक्ति को यदि जल न मिले तो या तो वह ।
सनी मानव कता होतीहै, फिर कुछ काल पाकर प्रायः शीध्र मरजाता है अथवा उसके कोई बहुत |
वातपित्त की अधिकता होजाती है इसलिये काल तक रहने वाला रोग होजाता है ।
| प्रथम कमानुपूर्वी चिकित्सा करना चाहिये इसलिये बहुत शीघता पूर्वक अन्यरोगों की
( कफा नुपूर्वी चिकित्सा की व्याख्या ज्वरके अपेक्षा सात्म्य अन्नपान और औषधों द्वारा
प्रकरण में देखो ) सबसे पहिले तृषारोग को जीतने का यत्न
मद्यजव्याधिमें मद्यसे शांति ।
हीनमिथ्यातिपीतेन यो ब्याधिरुपजायते २ करे । इसके जीतने पर अन्यरोगों की
समपीतेन तेनैव स मद्येनोपशाम्यति । चिकित्सा भी सहज में होसकती है। ..
मद्यस्य बिषसादृश्यात् इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी- । अर्थ-हीनमात्रा, मिथ्यामात्रा वा अतिकायां चिकित्सितस्थाने छर्दि- | मात्रा में मद्यपानसे जो व्याधियां होती हैं वे चिकित्सितनाम षष्टो उसी मद्यके सम्यक् पानसे शांत होजाती हैं ऽध्यायः॥६॥
जैसे मार, माधव वा गौडादि मद्यपान
से जो व्याधियां होती है वे माकादि मय
| पान सेही शांत होती हैं । इसका कारण यही सप्तमोऽध्यायः ।
है कि मद्यविषके सदृश होता है । जैसे विष में
तीक्ष्णादि दस गुण होते है वैसेही मद्यमें भी अथाऽतो मदात्ययाचकित्सितं
दसगुण होतेहैं । विष और मद्यमें अंतर केवल व्याख्यास्थामः। अर्थ-अब हम यहांसे मदात्ययचिकित्सि
इतना ही है कि विमें जो गुणहैं, वे तीव्रभाव
में होतेहैं और मद्यमें वेही गुण मृदुभावमें होतेहैं त नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । ___मदात्यय में चिकित्साविधि ।।
मद्यसे मद्यकी शांति में शंका । . "यं दोषमधिकं पश्येत्तस्यादौ प्रतिकारयेत्
विषं तूत्कर्षवृत्तिभिः ॥३॥ . ककस्थानानुपूळवा तुल्यदोषे मदात्यये । तीक्ष्णादिभिगुणैर्योगाद्विपांतरमपेक्षते ।। ___ अर्थ-मात्यय रोग जिस वातादि दोष अर्थ-( शंका ) जो विष और मद्य की अधिकता वा समता वां विषमता देखी सदृश हैं तो जैसे विपकी शांति अन्य वि. जाय पहिले उसी रोगका प्रतीकार करना | पसे होती है बैसेही मद्यकी शांति भी अन्य चाहिये ॥ यदि दोषप्रकोप की समानता हो । मद्य से होनी चाहिये, ( उत्तर ) विषमें दश तो कफस्थानानुपूर्वी चिकित्सा करनी चाहिये। गण नडे उत्कट भाव में रहते हैं, इसलिये
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अ० ७
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
उनके शमन करने के लिये दूसरे विषकी अपेक्षा रहती है वे आपही अपने बल से शांत नहीं हो सकते हैं परंतु मद्य में जो दस गुण है वे हीनवृत्तिवाले हैं इसलिये उनकी शांति के लिये अन्य मद्यकी अपेक्षा नहीं होती हैं ।
विधिपूर्वक मद्यपान की उत्कर्षता । तीक्ष्णोष्णेनातिमात्रेण पीतेनाम्लविदाहिना ॥ मद्येनान्न सक्दो विदग्धः क्षारतां गतः यान्कुर्यान्मं दतृण्मोहज्वरांतहविभ्रमान् ॥ मद्योत्क्लिष्टन दोषेण रुद्धः स्रोतःसु मारुतः । सुतीव्र वेदना याश्च शिरस्यस्थिषु संधिषु ॥ जीर्णाममद्यदोषस्य प्रकांक्षालाघवे सति । यौगिकं विधिवद्युक्तं मद्यमेब निहंति तान् ॥
अर्थ - तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, मात्रा से अधिक, और अम्लविदाही मद्य के पीने से अन्नरस क्लेदयुक्त, विदग्ध और क्षारयुक्त होकर मद, तृषा, मोह, ज्वर, अंतर्दाह और विभ्रमादि संपूर्णः उपद्रवों को उत्पन्न करता है । तथा भोजन के कारण मद्यसे उक्लिष्ट दोष द्वारा वायु स्रोत के मध्य में रुककर मस्तक, अस्थि और संधियों में जो तीव्र वेदना उत्पन्न होती हैं वे सब मद्यपीने वाले मनुष्य के मद्य के जीर्ण होनपर और मद्यपान की इच्छा कम होने पर उपयुक्त द्रव्यों के साथ और विधिपूर्वक प्रयुक्त किये हुए मद्यपान द्वारा शांत होजाती हैं । उक्तकार्य में हेतु |
क्षारो हि याति माधुर्य शीघ्रमम्लोपसंहितः । मद्यमम् लेषुच श्रेष्ठ दोषविष्पदनादलम् | ८ |
अर्थ--खटाई से मिलते ही क्षार द्रव्य शीघ्र ही मधुरता को प्राप्त होजाता है । सब
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(१२९.
प्रकार के अम्ल द्रव्यों में मद्यही श्रेष्ट होता है, इसलिये तीक्ष्णोष्णादि गुणसंयुक्त मद्यका सेवन करने से अन्नरस में जो क्षारता उत्प न होती है वह अम्लप्रधान मद्य सेवनसे मधुरता को प्राप्त हो जाती है । इसका यह फल निकलता है कि अन्नरसमें जो क्षारता पैदा होनेके कारण उपद्रव होते हैं वे मद्यकी अम्लता के संयोग से शीघ्र ही शांत होजाते हैं ।
मद्यको धातुसाम्यकरत्व । तीक्ष्णष्णायैः पुरा प्रोक्तैर्दीपनाद्यैस्तथा गुणैः सात्म्यत्वाच्च तदेवास्य धातुसाम्यकरं परम् अर्थ - मदात्ययनिदान में कहे हुए तीक्ष्णोष्णादि गुणोंसे तथा मद्यवर्ग में कहे हुए दी - पनादि गुणोंसे तथा सात्म्य होनेके कारण मद्यही मदात्यय रोगी के लिये अत्यन्त धातुसाम्यकारक औषध है ।
पानात्यय का काल | सप्ताहमष्टरात्रं वा कुर्यात्पानात्ययौषधम् । जीर्यत्येतावता पान कालेन विपथा शुतम् ॥
अर्थ - पानात्यय औषध का सेवन सात आठ दिन तक करना चाहिये, इससे अधिक दिन तक सेवन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इतने ही समय में विमार्गस्थ मद्य जीर्णता को प्राप्त होजाता है । रोगानुसार औषध |
परं ततोनुवन्नाति यो रोगस्तस्य भेषजम् यथायथं प्रयुजीत कृतपानात्ययौषधः । ११ ।
अर्थ-यदि पानात्यय औषध के सेवन पर भी जो रोग अधिक दिन तक रहैं तो उस रोगकी यथायोग्य और यथाविहित औषष करनी चाहिये ।
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(५३०)
अष्टांगहृदय ।
अ.
७
बातज मदात्यय की चिकित्सा । । स्वच्छ वारुणी हित है । अनारका रस, तत्र वातोल्वणे मधं दद्यापिकतं युतम्। | लघु पंचमुल का काढा, सोंठ और धनिये बीजपूरकवृक्षाम्लकोलदाडिमदीप्यकैः ॥ का काढा, दही का तोड, सुक्त, खटीकायवानीहपुषाजाजीब्योषत्रिलवणार्द्रकैः।।
जी, गरम अभ्यंग, उवटना और स्नान, शूल्यमांसहरितकैः स्नेहवद्भिश्च सक्तुभिः । उष्णस्निग्धाम्ललबणा मद्यमांसरसा हिताः ।
गाढे वस्त्रका ओढना, अगरकी घूपका आम्राम्रातकपेशाभिः संस्कृता रागखांडवाः। अधिक सेवन, अगर और कंकमका लेपन गोधूममाषविकृतीमुंदुश्चित्र मुखप्रियाः। हित हैं तथा सुंदर कुच, जंघा और काटमाद्रिकाककुल्माषसूक्तमांसादिगर्भिणी॥ | प्रदेशवाली स्त्रियां जिनकी अंगयष्टि यौवसुरभिलवणा शीता निगदा वाच्छवारुणी।
नमद से उष्ण हों और आनन्द से आलिंस्वरसो दाडिमाकाथःपंचमूलात्कनीयसः॥। शुनधान्यात्तथामस्तुसूक्तांभोत्थाम्लकांजिकम
गनकरनेवाली ऐसी स्त्रियां देह के मर्दन में अभ्यंगाद्वर्तनस्नानमुष्णं प्रावरणं धनम् ॥ नियुक्त हों । ये सब बातें वातजमदात्यय में घनश्चागुरुजोधूपः पंकश्चागुरुकुंकुमः। हितकारक हैं। कुचोरुश्रोणिशालिन्योयौवनौष्णांगयष्टयः॥ पित्तज मदात्यय । हर्षेणालिंगनैर्युक्ताः प्रियाः संवहनेषु च। पित्तोल्बणे बहुजलं शार्कर मधुना युतम् ॥
अर्थ-इन सब मदात्यय रोगों में से । रसैदाडिमखर्जूरभव्यद्राक्षापरुषकैः । वातज मदात्यय में पिसे हुए चांवलों का | सुशीतं ससितासक्तयोज्यं तादृक् च पानकम् मद्य नीचे लिखे हुए संपूर्ण द्रव्य अथवा जि
स्वादुवर्गकषायैर्वा युक्तं मयं समाक्षिकम् ।
अर्थ-पित्तज मदात्यय में बहुत जल तने मिलसकें उतने द्रब्यों के साथ पीना चाहिये, जैसे विजौरा,अम्लवेत, बरे, अनार,
मिला हुआ शर्करा मद्य देना चाहिये, इसमें
शहत और अनार, खजूर, कमरख, किसअजमोद, अजवायन, हाऊबेर, जीरा,त्रिकुटा
| मिस और मीठे फालसे का रस भी मिला त्रिलवण ( सेंधा, संचल और मनयारी ),
देना चाहिये : अथवा मिश्री धान का संत्त अदरख, शूल्यमांस, हरियलमांस, घृतप्त
मिलाकर शीतल पानक ( पेय पदार्थ ) सत्तू मिला देने चाहिये । तथा उष्ण,
देना चाहिये । अथवा मधुर वर्गोक्त द्रव्यों स्निग्ध, अम्ल और लवणयुक्त मेदा वाले
के कषाय से युक्त मधुमिश्रित मद्य देना मांसरस हित हैं । तथा अमचूर और आ
चाहिये। मडे के साथ सिद्ध किये हुए राग और |
पित्तज मदात्यय में भोजन । षाडव हित हैं। इसी तरह गेहूं और उरद शालिषष्टिकमश्नीयाच्छशाजणकपिंजलैः । के बने हुए अनकानेक पदार्थ जो मुख में | सतीनमुद्रामलकपटोलीदाडिमैरपि। रुचिवर्द्धक और मृदु हैं वे सब हित हैं। अर्थ-खोंश, बकरा, हरिण और तथा आर्द्रका, आर्द्रा, कुल्माष, और मांसा- तीतर के साथ अथवा मटर, मूंग, आमला, दियुक्त सुगंधित, नमकीन, और शीतल | पर्बल और अनार इनके यूष के साथ
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
शाली चांवल और साठी चांवलों का भात खाना चाहिये ।
पित्तजमदात्यय में बमनादि । कफपित्तं समुत्क्लिष्टमुल्लिखेत्तृडूविदाहवान् ॥ पीत्वां शीतं मद्यं वा भूरीक्षुरससंयुतम् । क्षारसं वा संसर्गी तर्पणादिपरं हितः तथाग्निर्दीप्यते तस्य दोषशेषानपाचनः ।
अर्थ-उस मदात्ययरोगी को जिसे तृषा और विदाह की प्रवलता हो अपने स्थान से हटे हुए कफ और पित्तको वमन द्वारा निकाल देने के लिये शीतल जल वा अधिक ईख के रससे युक्त मद्यपान अथवा दाखका रस पिलाना चाहिये | इसके पीछे पेयपानादि क्रम से उसे संसर्ग करे ऐसा करने से उसकी जठराग्नि प्रवल होजाती है और बचे हुए दोष से युक्त अन्नका परिपाक होजाता है ।
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[५३१]
द्यान्मधुराम्लेन छागमांसरसेन च अर्थ- मदात्यय रोग में यदि तृषा की प्रबलता हो और वातपित्त की अधिकता हो तो शीतल द्राक्षारस का पान कराना चाहिये इससे दोषों का अनुलोमन होता है। द्राक्षारस के पचजाने पर मधुर और अम्ल रस से युक्त तथा बकरे के मांसरस के साथ भोजन करावे ।
वृषा में अल्प मद्यपान । तृष्यल्पशः पिबेन्मद्यं मेदं रक्षन् बहूदकम् । मुस्तदाडिमलाजांबु जलं वा पर्णिनीशुतम् पटोल्युत्पलकंदैव स्वभावादेव वा हिमम्
अर्थ-पित्तज मदात्यय में यदि तृषा की अधिकता हो तो मेद की रक्षा करता हुआ ( मेद में क्षीणता आदि किसी प्रकार की विकृति न होने पावै ) बहुत जल मिला हुआ मद्यपान करावे अथवा मोथा, अनार और धानकी खीलका काढा अथवा शालपर्णी का काढा अथवा पर्बल और कमलकंद का काढा अथवा स्वाभाविक शीतल जल का पान कराना चाहिये ।
कासान्वित उक्तरोग में चिकित्सा | कासे सरक्तनिष्ठीवे पार्श्वस्तनरुजासु च तृष्णायां सविदाहायां सोत्क्लेशे हृदयोरसि । गुडूचीभद्रमस्तानां पटोलस्याथवारसम् । स शृंगवेरं युजीत तित्तिरिप्रतिभेोजनम् ।
अर्थ - पित्तके मदात्यय में खांसी के साथ रुधिर आता हो, पसली और स्तन - प्रदेश में पीडा होती हो, तृषा, विदाह, हृदय और वक्षःस्थल में उक्लेश होतो गिलोय, भद्रमोथा, अथवा पर्वलके रस में अदरख मिलाकर देना चाहिये इसमें तीतर का मांस पथ्य में दिया जाता है ।
जलीय धातु की क्षीणता में कर्तव्य | मद्यातिपानादण्यातौ क्षीणे तेजसि चोद्धतेयः शुष्क गलतात्वोष्ठो जिहवां निःकृष्य चेष्टते । पाययेत्कामतोऽभस्तं निशीथपवनाहतम् । अर्थ- मद्य के अधिक सेवन करने से जो जल धातु क्षीण होगई हो और तेजो धातु क्षोभित हो तथा कण्ठ, तालु और ओष्ठ सूख गये हो और रोगी जीव को बाहर निकालकर इधर उधर करवटें लेता हुआ तडफडाता हो
वातपित्त की अधिकता में कर्तव्य | तृप्यते चाऽतिबलवद्वातपित्ते समुद्धते
दद्याद्राक्षारसं पानं शीत दोषानुलोमनम् । । उसे ऐसा जल भर पेट पिलाना चाहिये जो
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(५३०)
अष्टांगहृदय ।
अ० ७
आधी रात की पवन के झकारोंके लगने से | मिला हुआ शार्कर मद्य अथवा मार्दीक मध शीतल हो रहा हो।
पान करावै, अथवा रूक्षतर्पणों से युक्त मदात्यय में मुखालेप ।
अजवायन और सोंठ डालकर पुराना अरिष्ट कोलदाडिमबृक्षाम्लचुकीकाचुक्रिकारसः।
वा सीधु पान कराना चाहिये । पंचाम्लको मुखालेपः सद्यस्तृष्णां नियच्छति। - अर्थ-बेर, अनार, वृक्षाल, चुक्रीका,
उक्त रोग में भोजनादि ।
यूषेण यवगोधूमं तनुनाऽल्पेन भोजयेत् । और चूका का रस इन पांच खटाईयों का
| उष्णाम्लकटुतिक्तेन कौलत्थेनाल्पसर्पिषा । मुख लेप करने से तृषा तत्काल शांत हो | शुष्कमूलकजैश्छागै रसैर्वा धन्वचारिणाम् । जाती है।
साम्लवेतसवृक्षाम्लपटोलीय्योषदाडिमैः" अन्य उपाय।
अर्थ-पतला और थोडा, उष्ण अग्ल त्वचं प्राप्तश्च पानोप्मा पित्तरक्ताभिमूर्छितः
| कटु तिक्त रसों से युक्त थोडा घी डाल कर दाहं प्रकुरुते घोरं तबाऽतिशिशिरो विधिः।। भशाम्यति रसैस्तृप्त रोहिणी व्यधयेच्छिराम तयार किये हुए कुलथी के यूष के साथ जौ . अर्थ-गद्य की गरमी त्वचा में पहुंच- | और गैहूं के भक्ष्य पदार्थ का भोजन करना कर और पित्त रक्त से मिलकर घोर दाह चाहिये अथवा सूखी मूली के यूष के साथ, उत्पन्न करती है इस में अत्यन्त शीतल
अथवा बकरे वा अन्य किसी जांगल पशु उपचार करना चाहिये । शीतल उपचार
के मांसरस के साथ, अम्लवेत, बृक्षाम्ल, करने पर भी यदि दाह की शांति न हो तो
पर्वल और त्रिकुटा मिलाकर वा जौ गैंहूं के रोगी को मांस रस पानसे तृप्ति करके उस | पदाथा का सवन
पदार्थों का सेवन करै । की रोहणी संज्ञक शिरा का वेधन करै । यथाग्नि पथ्यादि ।
कफाधिक्य मदात्यय में कर्तव्य । प्रभूतशुंठीमरिचहरिताकपोशकम् । उल्लेखनोपवासाभ्यां जयेत्श्लेष्माल्बणपिबेत् |
बीजपूररसाद्यम्लभृष्टनीरसवर्तितम् शीतं शुठीस्थिरोदीच्यदुःस्पर्शान्यतमोदकम् कर
| करीरकरमर्दादिरोचिप्णु बहुशालनम् ।
प्रत्यक्ताष्टांगलवणं विकल्पितनिमर्दकम् ___ अर्थ-कफाधिक्य मदात्ययको वमन और
| यथाग्नि भक्षयन्मांस माधबं निगदं पिबेत् । उपबास द्वारा दूर करने का उपाय करै,
अर्थ-अधिक परिमाण में सोंठ, मिर्च, तथा सोंठ, शालपर्णी, नागरमोथा और दुरा
हरी अदरखकी पेशी [ चाकू वा छुरी से काट लभा इनमें से किसी एक का काथ पान करै
काट कर अदरख के लम्बे २ सूत निकाले अन्य उपाय। निरामं क्षुधितं काले पाययद्वहुमाक्षिकम्
जाते है, उन्हें पेशी कहते हैं, ) डाल कर शार्करं मधु वा जर्णिमरिष्टं सीधुमेव च ।
तथा बिजौरे के रस आदि की खटाईसे युक्त रूक्षतर्पणसंयुक्तं यवान नागरान्वितम् । तथा स्नेहादिसे ऐसा भूना जाय जिसमें रस - अर्थ-आमरहित रोगी को भूख के | न रहकर सूखासा होजाय, ऐसे व्यंजन से उदय होने पर यथोचित्त काल में बहुत मधु । युक्त तथा करील, करोंदा आदि रुचिकारक
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५३३)
बहुत से शालनसे युक्त तथा वक्ष्यमाण अष्टांग न बातोंसे कफकी अधिकता वाला मदात्यय लवण से संयुक्त अनेक प्रकार से बनाये हुए / शीघ्र नाश होजाता है । मांस के पदार्थो को खा कर ऊपर से पुराना । सन्निपातज मदात्यय में चिकित्सा माधव संज्ञक मद्यपान करै।
यदिदं कर्म निर्दिष्टं पृथग्दोषबलं प्रति॥
सन्निपाते दशविधे तच्छेषेऽपि विकल्पयेत् कफप्राय मदात्ययमें अष्टांगलवण । |
लवण । । अर्थ-पृथक् पृथक् दोषोंकी जो चिकित्सा सितासौवर्चलाजाजीतित्तिडीकाम्लबेतसम्॥
सम्॥ ऊपर वर्णन कर चुके हैं, जैसे तत्र वातोल्वत्वगेलामरिचाधीशमष्टांगलबणं हितम् । स्रोतोविशुद्यग्निकरं कफप्राये मदात्यये ॥
णे मद्यमिति, पित्तोल्वणे बहुजलमित्यांदि, अर्थ-कफकी अधिकतावाले मदात्यय में
तथा उल्लेखनोपतापाभ्यां जयेत् श्लेष्मोल्वणखांड, संचलनमक,कालाजीरा, इमली, अमल
मित्यादि, इसके अनुसार दोष और बलपर वेत, सब एक एक भाग, दालचीनी, इला
ध्यान देकर उक्त चिकित्साविधि की अनेक
प्रकार की कल्पना करके शेष दस x प्रकार यची और कालीमिरच प्रत्येक आधा भाग, ये
के सान्निपातिक मदात्यय में प्रयोग करना अष्टांग लवण हित है, यह स्रोतोंको खोल दे
उचित है । जैसे वाताधिक्य सान्निपातिक मता है और जठराग्नि को बढाता है ।
दात्ययमें जो क्रिया कही गई है तथा पित्ता__कफज मदात्ययमें जागरणादि । रूक्षोप्णोद्वर्तनोद्धर्षस्नानभोजनलंघनैः ॥
विक्य सांनिपातिक मदात्यय में जो क्रिया कसकामाभिः सह स्त्रीभियुक्त्या जागरणेन व॥
ही गई है । उन दोनोंको मिलाकर वातापत्ता मदात्ययः कफप्रायःशीघ्र समुपशाम्यति। धिक्य सान्निपातिक मदात्यय में चिकित्सा क
अर्थ-रूक्ष और उष्ण उबटना, घर्षण, | रनी चाहिये । इस तरह दोष वलका बिचार स्नान, भोजन, लंघन और कामवती स्त्रियों करके सव प्रकारके सान्निपातिक मदात्ययों में का सहवास और युक्तिपूर्वक रात्रिजागरण इ । चिकित्सा का मार्ग अवलंबन करना चाहिये।
उत्कर्षेण यदात्वे को मध्येन द्वौ तदाऽऽदिमः । उत्कर्षेण यदा द्वौतु मध्येनैको द्वितीयक: एको मध्येन दोषः स्याद द्वावल्पेन तृतीयकः । उत्कर्षेणैक एव स्यादल्पेन द्वौ चतुर्थकः उत्कर्षेण यदा द्वौ तु अल्पेनैकश्च पंचमः । एकोल्पेन तु मध्यन द्वौ दोषाविति षष्ठकः।उत्कर्षिणः समस्ताः स्युरेवं भबति सप्तमः । मध्येन सर्वेपि यदा तदा भवति चाष्टमः । अल्पेन सर्वेपि यदा तदा तु नवमः स्मृतः । अल्पेनैको मध्येनैकस्तरामन्य इति स्फुटाः । संनिपातस्य मुनिना दश भेदा प्रकीर्तिताः । अर्थात् (१) एक दोष का उत्कर्ष, दो दोषों की मध्यावस्था । (२] दो दोषों का उत्कर्ष, एक दोष की मध्यावस्था । (३) एक दोष की मध्यावस्था, दो दोषों की अल्पावस्था । (४) एक दोष का उत्कर्ष, दो दोषों की अल्पता, (५] दो दोषों का उत्कर्ष, एक दोष की अल्पता [६] एक दोष की अल्पता दो दोषों की मध्यावस्था, (७) तीनों दोषों की उत्कर्षता, (८) तीनों दोषों की मध्यावस्था, (९) तीनों दोषों की अल्पावस्था (१० ] एक दोष की अल्पावस्था, एक की मध्यावस्था और एक की उत्कर्षता । ये दश प्रकार के सन्निपात है ॥
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(५३४)
अष्टांगहृदय ।
सब मदात्यपों में रुच्यपानक। दूधही पथ्य होता है, जैसे ग्रीष्मसे जले हुए " त्वङ्नागपुष्पमगधामरीचाजाजिधान्यकैः । वृक्ष के लिये वर्षा हितकारी होती है । परूषकमधूकैलासुराहवैश्च सितान्वितैः।। मद्यक्षीण में दूधका कारण । सकपित्थरस हृद्यं पानकं शाशबोधितम् ॥ | मद्यक्षीणस्य हि क्षीण क्षीरमाश्वेव पुष्यति। मदात्ययेषु सर्वेषु पेयं रुच्याग्निपिनम् । | ओजस्वल्य गणेः सर्वपिरीमदतः। अर्थ-दालचीनी. नागकेसर, पीपल,
___ अर्थ-दूध ओज धातुके गुण के समान कालीमिरच, काला जीरा, धनियां,फालसा,
और मद्यगुण के विपरीत गुणवाला होता है मुलहटी, इलायची, देवदारू, इन सब द्र
| इस लिये मद्यसे क्षीण संगी की क्षीण हुई ओज व्यों को घोट कर छानले फिर इसमें खांड धातुकोशीघही पुष्ट करदेता है। अतएव मद्यसे
और कैथ का रस मिलाकर कपूर से सु- क्षीण मनुष्य को दूध ही श्रेष्ठ पथ्य है । गंधित करै । यह पानक सब प्रकार के अल्पमय विधि । मदात्यय में हितकारी होता है इसके सेवन पयसा विजिते रोगे वले जाते निवर्तयेत्। से अन्न में रुचि और जठराग्नि बढती है। क्षीरप्रयोगं मद्य च क्रमेणाल्पाल्पमाचरेत् । - मदात्यय में हर्षणी क्रिया। न विट्झयध्वंसकोत्थैः स्पृशेनौपद्रवैर्यथा ॥ नाविक्षोभ्य मनो मद्यं शरीरमविहन्य वा ॥ अर्थ-जब दूध से मदात्यय रोग जाता कुर्यान्मदात्ययं तस्मादिष्यते हर्षणी क्रिया। रहै और शरीर में बल उत्पन्न होजाय तब
अर्थ-मद्य मनको क्षुभित और शरीर दूध पीना छोडदे और थोडा थोडा मद्य को कष्ट पहुंचाये बिना कुछभी नहीं कर पीना आरंभ करै, जिससे पुरीषक्षयसंबंधी सकता है इसलिये मदात्यय में प्रसन्नता कायरोग और शिरोरोगादि तथा ध्वंसकोद्भव करनेवाली क्रिया करना अभीष्ट है । श्लेष्मनिष्ठीवनादि उपद्रव उत्पन्न न होने . मदात्यय में दूध ।
पावै संशुद्धिशमनायेषु मददोषाकृतेष्वपि॥४८॥
विक्षयादि में कर्तव्य । न घेच्छाम्येत्कफे क्षीणे जाते दौर्बल्यलाघवे।
तयोस्तु स्यादघृतं क्षीरं बस्तयो वृहणाः तस्य मद्यविदग्धस्य वातपित्ताधिकस्य च ॥
शिवाः। प्रीष्मोपतप्तस्य तरोर्यथा वर्ष तथा पयः।
अभ्यंगोद्वर्तनम्नानमन्नपानं च पातजित् ॥ .. - अर्थ-संशोधन और संशमनादि क्रिया
___ अर्थ-यदि पुरीषक्षयजनित और ध्वंस. ओं के करने पर भी यदि मदके दोषकी
कजनित उपद्रव खडे होजाय तो घृतपान, शांति न हो तो मदके द्वारा विदग्ध उस
दुग्धपान, वृंहण, वस्तिप्रयोग, अभ्यंग, मनुष्य की सौम्यधातु कफके क्षीण होनेसे
उद्वर्तन, स्नान और वातनाशक अन्नपान और अल्पकृशता होनेसे वातपित्त की अ- हित होते हैं। धिकता होजाती है । इसलिये उस वात | मद्यसंयोग में कारण । पित्ताधिक्य वाले मद्यविदग्ध रोगी के लिये । युक्तमद्यस्य मयोत्थो न म्याधिरुपजायते ।
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म. ७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५३५)
अतोऽस्य वक्ष्यते योगो य सुखायैव केवलम् अर्थ-जो सुरा अश्विनीकुमार के महत्तेज ___ अर्थ-यथोपयुक्त मद्यपान करनेसे मद्य | को धारण करती है, जो सुरा सरस्वती के जनित व्याधियां उत्पन्न नहीं होती है इस / बल ( उत्साह ), इन्द्रके वीर्य और विष्णुके लिये अब हम मद्यसंबंधी उन प्रयोगों का | महात्म्यको धारण करती है,जो सुरा कामदेवर्णन करते हैं जिससे सुखही उत्पन्न हो | बका आयुध और बलभद्र का पुरुषार्थ है, और किसी प्रकारकी ब्याधि उत्पन्न न हो। जो सौत्रामाणयज्ञ में ब्राह्मण के मुख और सुराके गण।
अग्निमें होमी जाती है, जो संपूर्ण औषधियों आश्विनं या महत्तजो बल सारस्वतं च या।
से युक्त महासागर से देवता और असुरों के दधात्येंद्र च या वीर्य प्रभावं वैष्णवं च या॥
मथने से लक्ष्मी, चन्द्रमा और अमृतके संग अस्त्रं मकरकेतोर्या पुरुषार्थो बलस्य या। उत्पन्न हुई है, जो सुरा मधु, माधव, मैरेय सौत्रामण्यां द्विजमुखे या हुताशे च हूयते॥ सीधु, गौड और आसवादि अनेक रूपों में या सर्वोषधिसंपूर्णान्मथ्यमानात्सुरासुरैः।
अवस्थित होकर भी अपनी मादक शक्ति का महोदधेः समुद्भूताः श्रीशशांकामतैः सह ॥
परित्याग नहीं करती है, जिस सुरा का पान मधुमाधवमैरेयसीधुगौडासवादिभिः।। मदशक्तिमनुज्झती या रूपैर्वहुभिः स्थिता॥
करनेसे मृगलोचनी नवयुवतियोंका विलासिनी यामासाद्य विलासिन्यो यथार्थ नाम बिभ्रति (विलासो विद्यते यासामिति ) नाम सार्थक कुलांगनाऽपि यां पीत्वा नयत्युद्धतमानसा ॥ होजाताहै । जिस सरा का पान करके कलअनंगालिंगितैरंगैः कापि चेतो मुनेरपि। तरंगभंगभृकुटीतर्जनमानिनीमनः ।। ६०॥
वती युवतियां भी उद्धतमना होकर अनंग एकं प्रसाद्य कुरुते या द्वयोरपि निर्वृतिम् । द्वारा आलिंगित अंगसे मुनिजनों के भी चित्त यथाकाम भटावाप्तिपरिहृष्टाप्सरोगणे ॥ को कहीं का कहीं ले जाती है जो सुरा कुटिल तृणवत्पुरुषा युद्धे यामासाद्य स्यजत्यसून् । भृकुटियों की तर्जना अर्थात् प्रणयकलह यांशीलयित्वाऽपि चिरं बहुधा बहुविग्रहाम् विशेष से मानिनी कामिनीगणों के मनको नित्यं हर्षातिवेगेन तत्पूर्वामिव सेवते ।। शोकोद्वेगारतिभयैर्या दृष्टवा नाभिभूयते ॥
| प्रसन्न करके दोनों स्त्री पुरुषों को सुख गोष्ठीमहोत्सबोद्यानं न यस्याः शोभते बिना। उत्पन्न करती है, जिस सुरा का आस्वादन स्मृत्वा स्मृत्वा च बहुशो बियुक्तःशोचते यया करके मनुष्य अपने प्राणोंका उस समरभूमि अप्रसन्नाऽपि या प्रीत्यै प्रसन्ना स्वर्ग एब या में तृणवत् परित्याग करदेताहै जिसमें उसके अपीद्रं मन्यते दुःस्थ हृदयस्थितया यया ॥
शौर्य और पराक्रमको देखकर अप्सराओं के अनिर्देश्यसुखास्वादा स्वयंवेद्यैव या परम् । इति चित्रास्ववस्थासु प्रियामनुकरोति या ॥ गण प्रसन्न होते हैं । जिस सुरा को आहाप्रियातिप्रियतां याति यत्प्रियस्य विशेषतः। रादि अनेक रूपमें और मधुमाधवादि अनेक या प्रीतिर्या रतिर्या बाग्या पुष्टिरिति च स्तुता विग्रह में चिरकाल तक सेवन करताहुआ देवदानवगंधर्वयक्षराक्षसमानुषैः। पानप्रवृत्तौ सत्यां तां सुरां तुविधिना पिवेत्। | भी हर्षके अतिवेगसे प्रतिदिन ऐसे पान
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[५३६)
-
अष्टांगहृदय ।
करताहै, जैसे आजही प्रथम सेवन करताहै । है । ऐसी पूर्वोक्त गुणोंसे युक्त सुराको बिधि जिस सुराके दर्शनमात्रसे ही शोक उद्वेग | पूर्वक वही लोग पी जिनको धर्मशास्त्रके अरति और भय पराभव नहीं करसकते हैं, अनुसार पानेका अधिकारहै । जिस सुराके बिना गोष्ठी, महोत्सव और | विधियुक्त मद्यके गुण । उद्यान शोभा को प्राप्त नहीं होतेहैं, जिस | संभवंति च ते रोगा मेदोऽनिलकफोद्भवाः । सुराके न मिलने से बार बार याद करके |विधियुक्तादृते गद्यात्ते न सिध्यंति दारुणाः ॥ उसका अभ्यासी मनुष्य शोकसागर में नि- अर्थ-मेद, वायु, और कफके विकारों मग्न होजाताहै । जो सुरा अप्रसन्ना अर्थात्
से जो दारुण रोग उत्पन्न होजाते हैं वे कलुषा होनेपर भी प्रसन्ना अर्थात् स्वच्छ
विधिपूर्वक अप्रयोजित मद्यके बिना अच्छे होने के कारण स्वर्ग ही प्रतीत होती है। नहीं होते हैं, अर्थात् उक्तरोगों के शमन जिस सुराके हृदयके भीतर स्थित होनेपर
के लिये मद्यका विधिपूर्वक पान आवश्यकीयहै। इन्द्र भी दुखित प्रतीत होताहै । जिस सुरा निगदमद्यपान की विधि । के आस्वाद का सुख वर्णनातीतहै, जिसके
| अस्ति देहस्य सावस्थां यस्यां पान निवार्यते ।
अन्यत्र मद्यान्निगदाद्विविधौषधसंभृतात् ॥ सुखका अनुभव केवल अपने आत्माही से
अर्थ-देहकी एक वह भी अवस्था है जाना जाताहै । जो सुरा पूर्वोक्त विविध जिसमें देहकी प्रक्लिन्नता और मेहादि रोगों प्रकार से सेवन किये जानेपर प्राणवल्लभा । की प्रबलता के कारण मद्यपान वर्जित है, का अनुकरण करती है x। जिसके कारण परन्तु ऐसी अवस्था में भी अनेक प्रकार सुराप्रेमी की प्रिया प्रत्यन्त प्रियता को प्रा- | की औषधों से संस्कृत निगद नामक मद्य प्र होती है, जो सुरा प्रीतिहे, जो रतिहै जो । का प्रयोग किया जासकता है। बाणी है, जो पुष्टिहै और जिसकी देव,दानव भक्तमांस में मद्यपान । गंधर्व, यज्ञ, राक्षस और मनुष्य स्तुति करते आनूयं जांगलं मांसं विधिनाऽत्युपकाल्पितम्
+ प्रियापक्ष में प्रणयकलह, अप्रसन्ना अर्थात् कुपिता, प्रसन्ना अर्थात् त्यक्त कोपा। अनिर्देश्यःसुखास्वादः अर्थात् वर्णनातीत सुखोपलंभ, इसीतरह तृणवत्पुरुषा, शीलयित्वा इत्यादि अर्थ भी प्रियापक्षमें योजनीयहै, जैसे जिस प्रियाके कारण मनुष्य तिनके को तरह अपने प्राणों को त्याग देताहै, बहुत काल तक सेवन करने पर नित्य नवीन समागम की तरह आनंदित होताहै, जिसे देखकर शोक, उद्वेग अरति और भय दूर भाग जातेहैं, जिसके बिना हंसना, बोलना, विवाहादि महोत्सव और बाग बगीचेका प्ररिम्रमण फीका जचताहै, जिसके विरह में याद आ आ कर मन शोक सागरमें गोते मारने लगता है अप्रसन्न होनेपर प्रीति भरी उमगों से प्रसन्न होती दुई स्वर्ग का अनुभव कराती है। हृदयस्थितथा अर्थात् जिसके हृदयगामिनी होनेपर इन्द्रका इंद्रत्व भी तुच्छ मालूम होता है, जिसका सुखास्वाद अर्थात् जिसके सामीप्यका सुख और आस्वाद अर्थात् जायका वर्णनसे बाहर है । इसतरह सुरा सब भांति प्राणवल्लभा का अनुकरण करती है।
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अ. ७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५३७)
मद्यं सहायमप्राप्य सम्यक् परिणमेत्कथम् ॥ | लिये बुद्धिमान को उचित है कि सदा इसका __ अर्थ-पाकविधि के अनुसार प्रस्तुत पान करता रहै मद्य आश्रित और उपाश्रित किया हुआ आनूप और जांगल मांस मद्य दोनों के लिये हितकारक है और धर्मसाकी सहायता के बिना कैसे पच सकता है, धनका परम उपाय है। अर्थात् उक्त मांसों को खाकर इनके पचाने मद्यपान की विधि । के लिये मद्यपान करना अवश्कीय है। स्नातः प्रणम्य सुरविप्रगुरून्यथास्वं
पुनः मद्य की विशेषता। वृत्ति विधाय च समस्तपरिग्रहस्य । सुतीव्रमारुतब्याधिघातिनो लशुनस्य च ।
आपानभूमिमथ गंधजलाभिषिक्तामद्यमांसबियुक्तस्य प्रयोगः स्यात्कियान् गुणः
माहारमंडपसीपगतां श्रयेत ॥ ७६ ॥ अर्थ-दारुण वातव्याधियों का नाश करने
स्वास्तृतेऽथ शयने कमनीये वाला ल्ह सन मांस और मदिरा के बिना
भृत्यमित्ररमणीसमवेतः।
स्वं यशः कथकचारसंघैकै से गुण कर सकता है, अर्थात् मांस मदिरा
रुद्धतं निशमयन्नतिलोकम् ॥ ७७ ॥ के अनुपान सेही ल्हसन वातव्याधियों को विलासिनीनां च विलासशोभि दूर करता है।
गतिं सनृत्तं कलतूर्यधोषैः।
कांचीकलापैश्चलाकंकिणीकैः मध के गुण ।
क्रीडाविहंगैश्च कृतानुनादम् ॥ ७८ ॥ निगूढशल्याहरणे शस्त्रक्षाराग्निकर्मणि । पीतमद्यो विषहते सुख वैद्यबिकत्थनाम् ॥
मणिकनकसमुत्थैरावनेयविचित्रैः
सजलविविधलेखक्षोमवस्त्रावृतांगैः। अर्थ-गहरे गढेहुए शल्योंका निकालना
अपि मुनिजनवित्तक्षोभसंपादिनीभिशस्त्रकर्म, क्षारकर्म और आग्निकर्म इन श्चकितहरिणलोलप्रेक्षणीभिः प्रियाभिः बैद्य कृत यंत्रणाओंको मद्यपान किया हुआ स्तननितंबकृतादतिगौरवारोगी सुखपूर्वक सहलेता है ।
दलसमाकुलमीश्वरसंभ्रमात् ।
इति गतं दधतीभिरसस्थितं मद्य को उत्कृष्टता।
तरुणचित्त विलोभनकार्मणम् ॥ ८०॥ अनलोत्तेजनं रुच्य शोकश्रमविनोदकम् । ।
यौवनासवमत्ताभिर्विलासाधिष्टतात्मभिः। न चाऽतः परमस्त्यन्यदारोग्यबलपुष्टिकृत् ॥ संचार्यमाण युगपत्तन्वंगीभिरितस्ततः॥
अर्थ-मद्य के समान अग्निवर्द्धक, रु- तालवृतनलिनीदलानिलैः चिकारक, शोक और श्रमनाशक, तथा आ- शीतलाकृतमतीव शीतलैः। रोग्य, बल और पुष्टि करनेवाला और कुछ
दर्शनेऽपि विधद्वशानुगं भी नहीं है।
स्वादितं किमुत चित्तजन्मनः ॥ ८२ ॥
चूतरसेंदुमृगैः कृतवासं मध को पेयत्व ।
मल्लिकयोज्ज्वलया च सनाथम् । रक्षता जावितं तस्मात्पेयमात्मवता सदा। स्फाटिकशुक्तिगतंसतरंग आश्रितोपाश्रितहितं परमं धर्मसाधनम् ७५/ कांतमनगभिवोद्वहदंगम् ।। ८३ ॥
अर्थ-मद्य जीवन का रक्षक है इस तालीसाद्यं चूर्णमेलादिकं या ६८
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(५३८)
अष्टांगहृदय ।
हा प्राश्य प्राग्वयःस्थापनं वा। | इधर उधर फेंकती हुई स्त्रियां उस पानभूमि तत्प्रार्थिभ्यो भूमिभागे समृष्टे को शोभित कर रही हों । अनवस्थित
तोयोन्मिश्रं दापयित्वा ततश्च ॥ ८४॥ धृतिमान् स्मृतिमान्नित्यमनूनाधिकमाचरन्
| स्वरूपको धारण करती हुई, स्तन और उचितेनोपचारेण सर्वमेवोपपादयन् । ८५।
नितंबों के भार से अलसाती हुई, ईश्वर के जितविकसितासितसरोज- भयसे गमनमें आकुलमना तथा तरुणोंकेचित्त नयनसंक्रांतिवर्धितश्रीकम् । को वशीभूत करने में जादूका असर करने कांतामुखमिव सौरभ
वाली । यौवन मदसे मत्त विलासबती तहृतमधुपगणं पिबेन्मद्यम् ॥ ८६ ॥
न्वंगी कामिनीगण इतस्ततः चलरही हों। अर्थ-स्नान करनेके पीछे देवता, व्रा- तालवृत और नलिनीदल अर्थात ताड के ह्मण और गुरु लोगों को यथा योग्य प्रणाम | और कमलके शीतल पंखों से अति शीतल करके तथा समस्त परिजनों के भोजनादि कियाहुआ मद्य देखने मात्रही से काम के व्यापार को करके आहार मंडपके निकटवर्ती
वशीभूत करनेवाला फिर पीनेवाले के चित्त कपूर और खस आदि के शीतल जल से | का तो कहना ही क्या है । आमके रसादि छिडकी हुई पानभूमि में जाना चाहिये ।
द्वारा सुगंधीकृत, विकसित मल्लिकाके फूलों तदनंतर सुंदर और कोमऊ गद्दे तकियों से से यक्त स्फटिक और सीपी के पात्रों में युक्तशय्यापरबैठे और अपने इष्टमित्र,सेवक और | भराहुआ, तरंगों से युक्त, अनंगके सदृश रमणीगणोंसे परिवृत होकर मद्यपान करे और | रमणीक रूपको धारण करनेवाला मद्य को मद्यपान के समय कत्थक और चारण उसके | सन्मुख रखलिया जाय । मद्यपान से पहिले यश और लोक विस्मयकारक कीर्तिका गुण | तालीसपत्रादि चूर्ण, अथवा एलादि चर्ण गान करते रहें । विलासिनी स्त्रियों के उठने, अथवा रसायनोक्त वयःस्थापन चूर्णको खाबैठने, चलने तथा हर्ष, भ्रकुटिसंचालन कर, स्वच्छ की हुई भूमि में मद्यपान का
और कटाक्षादि विलासशाभी तथा नृत्य स- अधिकारी देव दानव कूष्मांडादि के निमित्त हित सुंदर बाजों की मधुरध्वनि, कांची जलमिश्रित मद्य अर्पण करके स्वयं बुद्धिमान्
और किंकणियों की गंभीर झनकार और स्मृतिमान, न्यूनता और अधिकतासे रहित सारसादि क्रीडा पक्षियों की गुंजार से अनु- | उचित उपचारों से युक्त संपूर्ण उपादानों नादित पानभूमि होनी चाहिये । माण और को एकत्रित करे । फिर खिलेहुए श्वेत सुवर्ण से खचित पानपात्र तथा अनेक रंग कमलों को तिरस्कार करनेवाले नेत्रों के के लहरियादार रेशमी वस्त्रों को धारण किये | संचारसे बढीहुई शोभावाले, कांता के हुए शीतल जलसिक्त मुनिजनों के मनको । मुखके सदृश सौरभयुक्त और सौरभसे हरनेवाली भयत्रस्त हरिणकी तरह नेत्रों को हृत भ्रमणगणों से युक्त मद्यका पानकरे ।
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अ० ७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेत ।
(५३९)
p
मद्यपान के पीछे का कर्म । | और आसवरूपधारी द्रवीभूत पद्मराग मणि पत्वैिवं चषकद्वय परिजन सन्मान्य सर्व ततो के सदृश मद्यको पीकर सोजाना चाहिये गत्वा हारभुवं पुरः सुभिषजो भुजीत- और रतिक्रिया के पश्चात् फिर मद्यपान
भूयोऽत्र च ।। मांसापूपघृताकादिहरितैर्युक्तं ससौवर्चले- करना उचेत नहींहै क्योंकि रतिके परिश्रमसे द्विस्त्रिी निाश वाल्पमेव वनिता- थोडा मद्य पीनेपर भी नशा आजाताहै ।
संचालनार्थ पिबेत् ॥ ८७ ॥ | यह मद्य ओजःपदार्थ के क्षयका हेतुहै, इस अर्थ-उक्तरीति से दो प्याले मद्य के
लिये ओजको क्षय करनेवाला मद्य न पीकर पीकर संपूर्ण परिजनों का सन्मान करके
कामज क्षयको दूर करने के निमित्त सो भोजनालय में जाकर वैद्यके सन्मुख मांस, जाना चाहिये । मालपुआ, घृत, अदरख आदि के साथ
___ मद्यपान की देवस्पृहणीयता । आहार करता हुआ संचल नमक के साथ इत्थम् युत्तया पिवेन्मान त्रिवर्गाद्विहीयते । दो तीन प्याले पान करे और रात्रिमें का- | असारसंसारसुखं परमेवाधिगच्छति' ॥ मिनी गणों को प्रसन्न करने के निमित्त
ऐश्वर्यस्योपभोगोऽयं स्पृहणीयःसुरैरपि । थोडा मद्यपान करे ।
___अर्थ-उक्त रीतिसे जो मनुष्ययुक्तिपूर्वक मद्यकी प्रशंसा । मद्यपान करताहै वह धर्म, अर्थ, और रहास दयितामंके कृत्वा भुजांतरपीडना- कामरूप त्रिवर्ग से हीन नहीं होताहै और त्पुलकिततनुं जातवेदां सकंपपयोधराम् । इस असार संसार के परम सुखको प्राप्त यदि सरभसं सीधूदारं न पाययते कृती
होजाताहै । ऐसा मद्यपान देवताओं द्वारा किमनुभवति क्लेशप्रायं ततो ग्रहतंत्रताम् ॥ अर्थ-प्रवीण मनुष्य एकान्त स्थानम
स्पृहणीय और ऐश्वर्य का उपयोगहै ॥ दोनों भुजाओं से पीडित की हुई पुलकित ।
व्यवस्थापूर्वक मद्यपान | शरीरवाली, पसीनों के युक्त, कंपित कुचों
अन्यथा हि विपत्सु स्यात्पश्चात्ताधनं.
धनम् ॥१७॥ वाली स्त्रीको गोदमें बैठाकर एक चषक मद्य उपभोगेन रहितो भोगवानिति निद्यते । भी पान नहीं करताहै तो गृहस्थरूप इस
निर्मितोऽतिकोऽयं विधिनानिधिपालकः भारी बोझके क्लेश को सहनेसे क्या लाभहै।
| तस्माद्यवस्थया पानं पानस्य सततं हितम् ।
जित्वा विषयलुब्धानामिद्रियाणां स्वतंत्रताम् मद्यपानके पीछे शयन ।
अर्थ धन के होते जो मनुष्य मद्यका घरतनुवक्त्रसंगतिसुगंधितरं सरकम्
| उपभोग नहीं करताहै तो विपतकालके दुतमिव पद्मरागमणिमासवरूपधरम् । भवति रतिश्रमेण च मदः पिवतोऽल्पमपि
उपस्थित होनेपर उस धनका अनुताप उसे क्षयमतनुमोजसः परिहरन्स शयीत परम्। ईंधन की तरह जलाताहै मद्यके सिवाय अन्य . अर्थ-अपनी प्राणप्यारी के सुंदर शरीर भोगों को भोगनेवाला व्यक्ति निंदाका आस्प
और मुखके स्पर्श से अधिकतर सुगंधिवाला । द होताहै उसको तो ब्रह्माने केवल धनकी
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अष्टांगहृदय |
( ५४० ]
रक्षा के लिये ही रचा है । इसलिये विषयलोलुप इंद्रियों की स्वाधीनता को जीतकर ब्यवस्थापूर्वक मद्यपान करना हित है ।
धनी लोगों की विधि | विर्विसुमतामेष भविष्यद्वसवस्तु ये । यथोपपत्तिमद्यं पातव्यं मात्रया हितं ।
अर्थ-धनवान् मनुष्योंके लिये मद्यपान की यही विधिहै । परंतु जो लोग धनी होना चाहते हैं वे भी अपने उपार्जित धनमें से युक्तिपूर्वक और मात्रापूर्वक पान करना उचित है ।
मद्यपान से विरति ।
यावत्दृष्टेर्न संभ्रांतिर्यावन्न क्षोभते मनः । तावदेव विरतव्यं मद्यादात्मवता सदा ९५ ॥
अर्थ-दृष्टिमें भ्रान्ति और मनमें व्याकु लता होनेसे पाहिलेही बुद्धिमान को उचित है कि मद्य पीना छोडदे | वाताधिक्य में मद्यपान । अभ्यंगोद्वर्तन स्रानवा सधूपानुलेपनैः । स्निग्धोष्णैर्भावितश्चान्नैःपानं वातोत्तरः पिवेत् ॥ ९६ ॥
अर्थ-वातकी अधिकता वाले मनुष्यको उचित है कि अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नान, सुंदर वस्त्र धारण करना, धूपग्रहण, चंदना दि लेपन तथा स्निग्धोष्ण भोजन द्वारा मद्यपान करे ।
पित्ताधिक्य में मद्यपान । शीतोपचारैर्विविधैर्मधुरास्निग्धशीतलैः । पैत्तिको भावतश्चान्नैः पिवेन्मद्यं न सीदति अर्थ - पित्त की अधिकता वाले मनुष्य के चन्दनादि अनुलेपन प्रभृति शीतलकिया तथा मधुर स्निग्ध और शीतवीर्य अन्न भो.
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अ० ७
जन द्वारा परितृप्त होनेपर मद्यपान करने से देह में शिथिलता नहीं होती है । कफाधिक्य में मद्यपान | उपचारैरैशिशिरैर्यवगोधूमभुक् पिबेत् । लेष्मिको जांगलैर्मासमद्यं मरिचकैः सह ॥
अर्थ-कफकी अधिकता वाला मनुष्य गरम उपचारों को करता हुआ कालीमिरच से संस्कृत जांगल मांस के साथ मद्यपान करे तथा गेंहूं और जौकी रोटी खाय । वातादि में मद्यविधि |
तत्र बाते हितं मद्यं प्रायः पैष्टिकगौडिक म् पिते सांभ मधु कफे माद्वकारि माधवम् अर्थ - वातकी अधिकतामें प्रायः पैष्टिक और गौडिक मद्य, पित्तकी अधिकतामें जल और मधुमिश्रित मद्य तथा कफकी अधिकता में मार्दीक, अरिष्ट और माधव मद्यको पानकरे
मद्यपानका काल | प्राक् पिवेत् श्लैष्मिको मद्यं भुक्तस्योपरि पैत्तिकः वातिस्तु पिवेन्मध्ये समदोषो यथेच्छया ।
अर्थ - कफाधिक्य बाला भोजन करने से पहिले, पित्ताधिक्य वाला भोजन करने के पीछे, वाताधिक्य वाला भोजन के बीच में और समदोष वाला इच्छानुसार जब चाहे तब मद्यपान करे |
मदमें वातपित्तनाशनी चिकित्सा | " मदेषु वातपित्तघ्नं प्रायो मूर्छासु चेप्यते । सर्वत्राऽपि विशेषेण पित्तमेबोपलक्षयेत् ॥
अर्थ - मद और मूर्छारोग में वातपित्त नाशक चिकित्सा करे, परंतु मद वा मूर्छा सब जगह में पित्तपर दृष्टि रखनी चाहिये ।
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उक्तरोगों में उपचार |
शीताः प्रदेहा मणयः सेका व्यजनमारुताः । सिताद्राक्षेक्षुखर्जूरकाशमयः स्व रसाः पयः ॥
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भ०७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५४३ )
सिद्धं मधुरबर्गेण रसा यूषाः सदाडिमाः। । करीब । अथवा आमले वा हरड के काढेमें षष्ठिकाः शालयोरक्तायवाःसर्पिश्च जीवनम् पकाकर सेवन करे। कल्याणकं महातिक्तं षट्पलं पयसाग्निकः। पिप्पल्यो वा शिलावंवा रसायनविधानतः दोषवलानुसार क्रिया । त्रिफला वा प्रयोक्तव्या सघृतक्षौद्रशर्करा।। कुर्याक्रियां यथोक्तां च यथादोषबलोदयम्॥ अर्थ-शीतल प्रलेप, मणिधारण, शीतल
अर्थ-उक्त रोगमें दोष और बलके अनुपरिषेक, शीतल पंखोंकी हवा, खांड. दाख. | सार यथोक्त क्रिया करना चाहिये । ईख, खिजूर, खंभारी फल, तथा मधुर व
____ मदादि में नस्यादि। गोक्त द्रव्योंकेसाथ सिद्ध कियाहुआ दूध,और
पंचकर्माणि चेष्टानि सेचन शोणितस्य च ।
सत्त्वस्यालंबन शानमगृद्धिर्विषयेषु च ॥ मांसरस, अनारदाने की खटाईसे युक्त मुद्गा.
____ अर्थ-मदात्यय रोगोंमें पंचकर्म ( वमन, दि यूष, शाली और साठी चांबलों का भात
विरेचन, आस्थापन, अनुवासन और नस्य ) जौ, उन्मादचिकित्सितोक्त कल्याणक घृत, । रक्तमोक्षण ( फस्द खोलना ), सत्वावलंबीज्ञान, कुष्टचिकित्सितोक्त, महातिक्तघृत, राजक्ष्म- और विषयोंमें अनभिलापता ये सब करने चिकित्सितोक्त, षट्पलघृत, दूधके साथ चाहिये । चीता, रसायन विधि के अनुसार पीपल और सन्यासोक्त क्रिया। शिलाजीत, तथा घृत, मधु और खांड के । मदेष्वतिप्रवृद्धेषु मूर्छायेषु च योजयेत् ।
| तक्ष्णिं सन्यासविहितं विषघ्न बिषजेषु च ॥ साथ त्रिफला ये सव गदरांग में हितकारी हैं | तो
अर्थ-मद और मूर्छा रोगोंके अति प्रप्रसक्तवंग में कर्तव्य ।
वल होने पर संन्यासचिकित्सा में कहीहुई प्रसक्तवेगेषु हितं मुखनासावरोधनम् ॥ पिवेद्वा मानुषीक्षीरं तेन दद्याश्च नावनम् ।
| तीक्ष्ण नस्यका प्रयोग करे । विषज मदरोग मृणालबिसकृष्णा बा लिह्यात्क्षौद्रेण साभया में विषनाशनी क्रिया करनी चाहिये । दुरालभां बा मुस्तां बाशीतेन सलिलन वा। । सन्यास चिकित्सा । पिबेन्मारचकोलास्थिमजाशीराहिकेसरम् ॥ आशु प्रयोज्य सन्यासे सुतीक्ष्णं नस्यमंजनम् धात्रीफलरसे सिद्धं पथ्याक्वाथेन वा घृतम्। धूमप्रधमनं तोदः सुचीभिश्च नखांतरे ॥ __ अर्थ-मदादि रोगोंमें मद का वेग नि | केशानां लुंचनं दाहो दंशो दशनवृश्चिकैः। रंतर होनेपर हाथोंसे रोगीके मुख और नाक
कट्वम्लगालनं वक्त्रे कपिकच्छ्ववर्षणम् ।
उत्थितो लब्धसंज्ञश्च लशुनस्वरसं पिवेत्। रोक देने चाहिये । अथवा स्त्रीका दूध पावै
खादेत्सव्योषलवणं वीजपूरककेसरम् ॥ और स्त्रीके दुधकी ही नस्य देवै । अथवा क- लध्वनप्रतितीरणोष्णमद्यात्त्रोतोविशुद्धये। मलनाल, पीपल और हरडको शहतके साथ । अर्थ-संन्यास रोगमें तीक्ष्ण नस्य और चाटै, अथवा दुरालभा वा मोथा शहतके संग तीक्ष्ण अंजनका शीघ्र प्रयोग करना चाहिये चाटै, अथवा कालीमिरच, वेरकी गुठली की | नाक में धूआं देना, नखोंके बीचमें सुई छे. मिंगी, खस और केसर जलमें घोटकर पान | दना, केशोंका खींचना, दाह, बीछुओं से क
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(५४२]
अष्टांगहृदय ।
म.
टवाना, कटु और अम्लरस का प्रयोग, देह | अर्थ-अव हम यहां से अर्श चिकित्सित में कैंचकी फली रिगडना, इन सब कामोंका | नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। करे । जब इन क्रियाओं से रोगी बैठा होजा- अर्श में यंत्र प्रयोग । य और चेत करले तव उसे लहसन का रस | "काले साधारण व्यभ्रे नातिदुर्बलमर्शसम् पान कराना चाहिये । बिजौरे की केसर में
विशुद्धकोष्ठ लघ्वल्पमनुलोमनमाशितम्१॥
शुचि कृतस्वस्त्ययनं मुक्तावणमूत्रंमव्यथम्। त्रिकुटा और नमक मिलाकर खाने को दे और
शयने फलके बान्यनरोत्संगे व्यपाश्रितम् २ स्रोतोंकी विशुद्धिके निमित्त तीक्ष्ण और उष्ण पूर्वेण कायेनोत्तानम् प्रत्यादित्यगुदम् समम् वीर्य अन्न खाने को दे ।
समुन्नतकटीदेशमथ यंत्रणवाससा ॥ ३ ॥
सक्थ्नोः शिरोधरायां चअन्य उपाय
परिक्षिप्तमृजुस्थितम् । विस्मापनैः संस्मरणैः प्रियश्रवणदर्शनः ॥ आलंबितं परिचरैः सर्पिषाभ्यक्तपायवे ४॥ पटुभिर्गीतवादित्रशब्दैायामशीलनैः ।। ततोऽस्मै सर्पिषाभ्यक्तं निदध्यादृजुयंत्रकम्। स्रसनोल्लेखनैधूमैः शोणितस्याबसेचनैः ॥ शनैरनुसुखं पायौ ततो दृष्ट्वा प्रवाहणात् ॥ उपाचरेत्तं प्रततमनुबंधभयात्पुनः। यत्रे प्रविष्टम् दुर्नामप्लोतगुंठितयाऽनु च । तस्य संरक्षितव्यं च मनः प्रलयहेतुतः " ॥ शलाकयोत्पीडय भिषक् य थाक्तविधिनाअर्थ-विस्मयोत्पादककर्म, प्रिय वस्तु का
दहेत् ॥ ६॥ दर्शन, श्रवण और स्मरण, मनोहर गीत और क्षारेणैवामितररत्झारेण ज्वलनेन वा । वाजोंकी ध्वनि, व्यायाम का अभ्यास, वग्न,
महद्वा बलिनश्छित्वा वीतयंत्रमथातुरम् ॥
स्वभ्यक्तपायुजघनमवगाहे निधापयेत् । विरेचन, धूमपान, रक्तमाक्षण, इन कमांद्वारा | निर्वातमंदिरस्थस्य ततोऽस्याचारमादिशेत् मदात्यय रोगीकी चिकित्सा करनी चाहिये जि- | एकैकमिति सप्ताहात्सप्ताहात्समुपाचरेत् । स से रोगोंकी पुनर्वार उत्पत्ति न हो, और ___अर्थ- साधारण काल में अर्थात् शरत प्रलयके हेतु मदात्ययसे रोगीके मनकी रक्षा | और वसंत ऋतु में जिस दिन आकाश करनी चाहिये ।
मेघाच्छन्न नहो, उस दिन ऐसा रोगी जो इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा
बहुत दुर्बल न हो और वमन विरेचन द्वारा टीकायां चिकित्सितस्थाने मदात्य
जिसका कोष्ठ शुद्ध हो गया हो, और वात यचिकित्सितं नाम सप्तमो
के अनुलोमन करनेवाले अन्न का भोजन
किया हो, तथा जल और मृत्तिका द्वारा ऽध्यायः ।
शुद्ध हो, तथा स्वस्त्ययन किया गया हो,
जो मल और मूत्रका परित्याग कर चुका अष्टमोऽध्यायः ।
हो, पीडा सै रहित हो, ऐसे अर्शरोगी को
शय्या पर, वा तख्त पर अथवा किसी मअथाऽतोर्शसां चिकित्सितं व्याख्यास्यामः। नुष्य की गादी में ऐसी रीति से बैठा देव
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अ.८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५४३ )
कि ऊपर का शरीर कुछ उठा हुआ हो । रुचिरन्नेऽग्निपटुता स्वास्थ्यं वर्णबलोदयः१० और गदा का द्वार सूर्य के प्रकाश में हो । अथे- मस्सों के अच्छी तरह दग्ध होने और कमर का भाग ऊंचा हो, फिर एक पर वायुकी अनुलोमता, अन्न में रुचि, पटी से पांव और ग्रीवा को बांधकर रोगी जठराग्नेि की प्रखरता, स्वास्थ्य, वर्ण और को सीधा करदे और सेवक से पकडवालेवे। बलका उदय होता है। फिर रोगी की गुदा पर घी चुपड दे, तद- वस्तिशूल में कर्तव्य । नंतर घी से चुपडा हुआ अझयंत्र धीरे धीरे बस्तिशूले त्वधोनाभेर्लेपयेत्श्लक्ष्णकल्कितैः सीधा करके उसकी गदा में लगा देव । वर्षाभूकुष्टसुरभिर्मिशिलोहामरावयैः ११॥ पीछे प्रवाहण यंत्र से देखकर यंत्र में प्रविष्ट
अर्थ-अर्शरोग में यदि वस्ति के स्थान
में वेदना होती हो तो सांठ, कूठ, राल, ववासीर को कपडे से लिपटी हुई सलाई
सोंफ,और अगर देवदारु इन सब द्रव्यों को द्वारा यथोक्त रीति से क्षार लगाकर जलादे।
महीन पीसकर नाभि के नीचे लेप करे । तथा सूखी अर्श को क्षार वा आग्नि से
विष्टा और मूत्रके प्रतीघातमें चिकित्सा। जलावै । यदि रोगी बलवान और मस्से
शकृन्मुत्रप्रतीघाते परिषेकावगाहयोः। बड़े हों तो अस्त्र से काट कर क्षार वा वरणालंबुषैरण्डगोकंटकपुनर्नवैः ॥ १२ ॥ अग्नि से दग्ध करदे, फिर उसके बंधनको सुषवीसुरभीभ्यां च क्वाथमुष्णां प्रयोजयेत् । खोलकर गुदा और जांघ को धोकर स्नेह सस्नेहमथवा क्षीरं तैलं वा वातनाशनम् १३ चुपडदे और रोगी को ऐसे स्थान में लेजावे
युजीतानंशकृतेंदि स्नेहान्वातघ्नदीपानान् ।
___ अर्थ अर्शरोगमें मल और मूत्रकी विव. जहां वायुका प्रवेश न हो फिर उष्णोदकाचारका व्यवहार करावै । इस रीति से सात
द्धता होनेपर बरना, गोरखमुंडी, अरंडकी सात दिन का अंतर देकर एक एक मां
जड, गोखरू, सांठ, कालाजीरा,रास्ना इन
| के गरम काथमें तेल मिलाकर परिषेक और सांकुर का छेदनकरे, सबको एक साथ न काटे ।
अवगाहन में काममें लावे । अथवा वातनाबहवर्श में कर्तव्य । | शक औषधों से सिद्ध किया हुआ दूध अथवा प्रारदक्षिणं ततो वाममर्शप्रष्ठाग्रज ततः ९॥ वलातल, परिषेक और अवगाहन में काम बवर्शसः
में लावे । मलकी विवद्वता को दूर करने अर्थ-जिस रोगी के बहुत से मस्से हों वाला अन्न तथा वातनाशक और अग्निउसके प्रथम दाहिनी ओर के, पीछे बांई। संदीपन घी वा तेलका प्रयोग करे। . ओर के मस्सों की तदनंतर पीठ के अग्रभा- | सायोग्य गदकीलक में कर्तव्य । गवाले मस्सों की चिकित्सा करे ।
अथाऽप्रयोज्यदाहस्थ निर्गतान्कफवातजान् मुदग्धअर्श के लक्षण । सस्तंभकण्डूरुक्शोफानभ्यज्य गुदकीलकान् सुदग्धस्य स्याद्वायोरनुलोमता । विल्वमूलाग्निकक्षारकुष्टै सिद्धेन सेचयेत् ॥
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(५४४)
अष्टांगहृदय ।
श्र०८
तैलेनाहिबिडालोष्ट्रवराहवसयाथवा। । हलका लेप करके छाया में सुखाले इनकी स्वेदयदनुपिंडेन द्रवस्वेदेन वा पुनः।
बत्ती बनाकर गुदा में लगादे इससे मस्से सक्तुना पिंडिकाभिर्वा स्निग्धानां तैलसर्पिषा | रास्नाया हपुषायावापिंडैर्वा कायंगधिकैः
शिथिल पड जाते हैं। अर्थ-दाहकर्मके अयोग्य, बाहर की
अन्य बत्ती। ओर निकले हुए, कफवातसे उत्पन्न, स्तब्ध
सजालमूलजीमूतलेहे वा क्षारसंयुते ॥२०॥
गुंजासूरणकूष्मांडबीजैवर्तिस्तथागुणा । ता, खुजली, बेदना, सूजन इनसे युक्त गुद
अर्थ-जीमूत के वीज और उसके फल कीलकों को विल्वमूल, चीता, जबाखार और
के जाल को पीसकर उसमें क्षार मिलादे कूठ इनसे सिद्ध किये हुए तैल द्वारा अभ्यक
फिर इसमें चिरमिठी, जमीकंद, और कुम्हकरके सेचन करे । अथवा सर्प, बिल्ली,
डा के बीज पीसकर मिलादे । इनकी वत्ती ऊंट, शूकर इनकी चर्बी से उन सब मस्सों
वनाकर गुदा में लगाने से पूर्ववत गुणको सेचित करै तदनन्तर पिंडस्वेद वा द्रव
फारक होती है । स्वेद से स्वेदन करे,अथवा घृत और तेलद्वारा
अर्श पर लेप । स्निग्ध सत्तूके गोले बनाकर स्वेदित करे,
स्नुक्क्षीराईनिशालेपस्तथा गोमूत्रकाकतैः अथवा रास्ना, वा हाऊबेर अथवा सहजने कृकवाकुशकृत्कृष्णानिशागुंजाफलस्तथा । के गोले बनाकर इनसे स्वोदित करे ।। ___ अर्थ-थूहर के दूध में मिली हुई हल्दी .
अर्शमें धूपनविधि । | का लेप करना हित है, अथवा मुर्गे की अर्कमूलं शमीपत्रं नृकेशाः सर्पकञ्चकम् । । बीट, पीपल, हलदी, और चिरमिठी इनको मार्जारचर्मसर्पिश्चधूपनं हितमर्शसाम् १८॥ |
गोमूत्रमें पीसकर इनका लेप करने से मस्से तथाश्वगन्धा सुरसा वृहती पिप्पली घृतम् ।। __ अर्थ-आक की जड, शमीपत्र, मनुष्य |
| शांत होजाते हैं। के बाल, सर्पकी काचली, बिल्ली का चर्म,
अन्य लेप।
नक्षीरपिष्टैः और घी इनकी धूनी देना मस्सों को हित
। हित षड्ग्रंथाहलिनीवारणास्थिभिः ॥२२॥ फारी है । अथवा असगंध, तुलसी, कटेरी, कुलीरशृंगीबिजयाकुष्टारुष्करतुत्थकैः ।। पीपल और घी इनकी अलग अलग धूनी | शिमूलकजै/जैः परश्वध्नर्निबजैः ॥ देना भी हितकारी है। सबकी मिलाकर | पीलुमूलेन विल्वेन हिंगुना च समन्वितैः ।
अर्थ-बच, कलहारी, हाथी की हड्डी, देना बहुतही उपकारी है। अर्शमें बत्ती ।
काकडासींगी, भांग, कूठ, भिलावेकी गुठली, धान्याम्लपिटर्जीमूतबीजैस्तज्जालकं मृदु॥ | नीलाथोथा, सहजने के बीज, मूली के लेपितं छायया शुष्कम् वर्तिणुद जशातनी। | बीज, कनेर के पत्ते, नीम के पते, पीलुकी
अर्थ-जीमूत के बीज और जीमूत के | जड, बेलगिरी और हींग इनका लेप करने फलका जालभाग इनको कांजी में पीसकर | से मस्से शांत होजाते हैं।
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म. ८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५४५)
अन्य लेप।
अर्शाभ्यो जलजाशस्त्रसूचीक्वैः पुनः पुनः । कुष्टं शिरीषबीजानि पिप्पल्यः सैंधवं गुडः॥ अर्थ-जो मस्से फूले हुए और कठोर हो अर्कक्षीरं सुधाक्षीरं त्रिफला च प्रलेपनम् । ते हैं, तथा जिनसे रुधिर नहीं निकलता है
अर्थ-कूठ, सिरसके बीज, पीपल,सेंधा। उनसे जोक, शस्त्र, सुई वा कूर्च यंत्र द्वारा नमक, गुड, आकका दूध, थूहर का दूध, वार वार रक्त निकालना चाहिये । और त्रिफला इन सबका लेपभी अर्श में
रक्तनिकालने का कारण । हितकारी है।
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैर्न व्याधिरुपशाम्यति . अन्य लेप ।
| रक्त दुष्टे भिषक् तस्माद्रक्तमेवावलेचयेत् । आर्क पयः नुहीकांड कटुकालांबुपल्लवा ॥ अर्थ-रुधिरके दूषित होनेपर जब शीकरंजो बस्तमूत्रं च लेपनं श्रेष्टमर्शसाम् ।
| तल, उष्ण, स्निग्ध वा रूक्ष कोई क्रिया अर्थ-आकका दूध, थूहरका पत्ता, कु
काम नहीं देती है तब रुविर निकालना ही टकी, तूंत्री के पत्ते, और कंजा इन सब
हितकारी है। औषधों को बकरेके मूत्रमें पीसकर लेप करना - अर्शमें गोरसपानादि। अर्श में हितकारी हैं।
यो जातो गोरसः अनुवासिनिक लेप ।
क्षीराद्वन्हिचूर्णावचूर्णितात् ३० आनुवासनिकैलेपः पिप्पल्याद्यैश्च पूजितः विवस्तमेव तेनैव भुजानो गुदजान् जयेत्।
अर्थ-अनुवासन के योग्य द्रव्यों से । अर्थ-गौके दूधका दही वा तक्र बनाआथवा पीपल आदि द्रव्यों द्वारा लेप करना । कर उसमें चीता मिलाकर पीनसे अथवा अर्श में हितकारी है।
उसी गोरस के साथ भोजन करने से गुदा अभ्यंजनादि।
के मस्से प्रशमित होजाते हैं । किसी २ एभिरेवोषधैः कुर्यात्तैलान्यभ्यंजनानि च।
पुस्तक में 'वहुमूलावचूर्णतात्' पाठभी है, अर्थ-ऊपर जो द्रव्य लेपके लिये कहे गये हैं उनके द्वारा ही तेल अभ्यंजन सिद्ध
बहुमूला का अर्थ सितावर है ।
अन्यपानादि । करके अर्शरोग में काममें लाने चाहिये ।
कोविज्ञानमूलानां मथितेन रजः पिबेत ॥ धनीसबिगडे रुधिरका निकालना। अनन् जीणेच पथ्यानि मुच्यते हतनामभिः धूपनालेपनाभ्यंगैः प्रस्रवंति गुदांकुराः॥ अर्थ-कचनार का चूर्ण मिलाकर मथे संचित दुष्टरुधिरं ततः संपद्यते सुखी। हुए जलरहित तक को पीवै फिर पथ्य अन्न अर्थ-धूप, आलेपन और तैलादि के ल
का सेवन करे, इससे अर्श नष्ट होजाताहै । गाने से मस्सोंमें जो विगडा हुआ रुधिर इ
अन्य उपाय। कठा होजाता है वह सब निकलने लगता है। गुदश्वयथुशूला” मन्दाग्नि!ल्मिकान्इससे रोगीको सुख प्राप्त होता है ।
पिवेत्॥ ३२॥ ____ मस्सोंसे रुधिर निकालना। हिंग्वादीननुतकां वा खादेद्गुडहरीतकीम् । अवर्तमानमुच्छ्रनकठिनेभ्यो हरेदसृक् ॥ तक्रेण वा पिवेत्पथ्यावेल्लाभिकुटजत्वचा३३
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अष्टांगहृदय ।
( १४६ )
कलिंगमगधाज्योतिः सुरणान्वशवर्धितान् कोणांना वा त्रिपटुव्योषहिंग्वाम्लवेतसम् अत्यर्थ मन्दाकायाग्नेस्तक्रमेवावचारयेत् ॥
तक की उपयोगिता |
अर्थ - अर्शरोग में यदि गुदा में सूजन हो, और शूल छिदने की सी वेदना होती हो और जठराग्नि मंद पडगई हो तो गुल्म चिकित्सा में कहे हुए हिंग्वादि चूर्ण का पान करे । अथवा गुड मिलाकर बडी हरंड का चूर्ण, अथवा हरड, बायविडंग, चीता और कुंडों की छाल का चूर्ण, अथवा इन्द्र जौ, पीपल, चीता और जमीकंद उत्तरोत्तर एक एक भाग बढाकर तक के साथ पान करे अथवा तीनों नमक ( विड, सैंधानमक और संचलनमक ) त्रिकुटा, हींग और अम्लवेत का चूर्ण: इसको गरम पानी के साथ पीवै ।
:
अर्श में यवशक्तू |
युक्तं बिल्वकपित्थाभ्यां महौषधविडेन वा । अरुष्करैर्यवान्याचा प्रदद्यात्तक्रतर्पणम् ३५ दधाद्रा हपुषा हिंगु चित्रकं तसंयुतम् । मासं तत्रानुपानानि खादेत्पलुिफलानि वा । पिबेदहरहस्तक्रम् निरन्नो वा प्रकामतः ।
अर्थ - बेलगिरी और कैथ मिलाकर अथवा सोंठ और विनमक मिलाकर अथवा मिलावे और अजवायन के साथ तक तर्पण ( त के साथ जौ का सत्तू ) अर्शरोग में पान करावे अथवा हाऊबेर, हींग और चीता तक के साथ पान करावे, अथवा तक के साथ एक महिने तक पीलू के फलों का सेवन करे, अथवा अन्न न खाकर प्रतिदिन यथेष्ट तपान करे तो भी अर्शरोग शांत जाता है ।
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भ० ८
अर्थ - जब अरीरोगी की जठराग्नि अत्यन्त मंद पडगई हो तब केवल तक्र पान ही कराना चाहिये, अन्न खाने को न वै ।
तके प्रयोग का काल । सप्ताहं वा दशाहं वा मासार्धं मासमेव वा । बलकालविकारशो भिषक् त प्रयोजयेत् ॥ सायं वा लाजसक्तूनां दद्यात्तक्रावलेहिकाम् । जीर्णेत प्रदद्याद्वा तपेयां ससैंधवाम् ॥ तक्रानुपानम् सनेहं तोदनमतः परं ॥ यूपै रसैर्वा तक्राढयैः शाळीन् भुजीत मात्रया
अर्थ - सात दिन, दस दिन, पन्द्रह दिन वा महीने भर तक बल, काल और रोग की अवस्था पर विचार करके तक्र का पान करावे । जो रोगी केवल तक्र से निर्वाह न कर सकता हो, तो सायंकाल के समय धानकी खीलों के सत्तू में तक मिला कर देना चाहिये । अथवा तक्र के पच जाने पर तक के साथ सिद्ध की हुई पेया में सेंधा नमक डालकर पान कराना चाहिये । ऊपर से तक का अनुपान करे, तदनंतर थोडा घृत डालकर तक के साथ चांवलों का मात देना उचित है, अथवा मूंग आदि के यूप वा मांस रसके साथ यथामात्रा शाली चांवलों के भात में बहुतसा तक डालकर खानेको दे ।
तक्का त्रिविध प्रयोग | रुक्षमधघृतस्नेहम् यतश्चानुधृतं घृतम् । त दोषाग्निबलवत्रिविधम् तत्प्रयोजयेत् ॥ अर्थ- वैद्यको उचित है कि रोगी के
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चिकित्सितस्थान भाषाका समेत ।
दोष का प्रकोप, जठराग्नि और बलका विचार करके अरोरोग में रूक्ष तक ( जिससे निशेष नवनीत निकाल लिया हो ) कभी अर्थोधृत स्नेहतक( जिसमें से नवनीत का आधा भाग निकाल लिया हो ) कभी अनुघृत स्नेहृतक्र ( जिसमें से नवनीत निकालाही न गया हो ) इन तीन प्रकार से तकका प्रयोग करना उचित है । तक प्रयोग के गुण ।
म विरोहंति गुदजाः पुनस्तक्रसमाहताः । निषिक्तं तद्धि दहति भूमावपि तृणोलुपम् ॥
अर्थ-तत्रके पीने से जो गुदांकुर अर्थात् मस्से नष्ट हो जाते हैं वे फिर पैदा नहीं होते हैं । जो तक्र पृथ्वी में सेचन किये जाने पर कठोर तिनुकों को जला देता है, तो फिर कोमल मांसांकुरों के जला देने में तो कोई संशय ही नहीं है ।
तक्र के पीछे अन्नादि सेवन | स्रोतःसु तत्रशुद्धेषु रसो धात्नुपैति यः । तेन पुष्टिर्बलम् वर्णः परं तुष्टिश्च जायते ॥ वातश्लेष्मविकाराणां शतं च विनिवर्तते, । अर्थ-ज -जब वातकफ से आवृत संपूर्ण स्रोत तक्रपान द्वारा विशुद्ध होजाते हैं तब आहार का रस धातुओं में पहुंचकर पुष्टि, बल, वर्ण और अत्यंत तुष्टि उत्पन्न करता है तथा वातकफ से उत्पन्न हुए सेंकडों विकारों को नष्ट कर देता है । तक्रविशेष का सेवन । मथितं भाजने क्षुद्रवृहतीफललेपिते ४४ ॥ निशां पर्युषितं पेयाच्छाद्भिर्गुदजक्षयम् ।
अर्थ-छोटी कटेरी को घोटकर किसी मिट्टी के पात्र के भीतर लेप करके उसमें
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[ ५४७ ]
तक भर कर रात्रिभर रहनेदे, फिर इसे दूसरे दिन पीवे तो गुदांकुर नष्ट हो जाते हैं । तके अरिष्ट का पान | धान्योपकुंचिकाज़ाजीहपुषापिप्पलद्वयैः४५ कारवीग्रंथिकशुंठीयवान्यग्नियबानकैः । चूर्णितर्धृतपात्रस्थं नात्यम्लं तक्रमासुतम् ॥ तकारिष्टं पिबेज्जातम् व्यक्ताम्लकटुकामतः । दीपनम रोचनम् वर्ण्य कफवातानुलोमनम् गुदश्वयथु कंड्वार्तिनाशनं बलवर्द्धनम् ।
अर्थ - धनियां, कालाजीरा, जीरा, हाऊबेर, दोनों पीपल, सौंफ, पीपलामूल. कचूर, अजवायन, चीता, अजमोद इनको पीसकर एक घी के पात्र में रखदे ऊपर से इसमें खटाई रहित तत्र भरदे, जब इसमें अम्ल और कटुरस स्पष्ट माळूम होने लगें तब इस तक्रारिष्ट का यथेच्छ पानकरे । यह अग्निसंदीपन, रुचिवर्द्धक, वर्णकारक, कफवातानुलोमक, तथा गुदाकी सूजन, खुजली और अरति को दूर करके बलको वढाता है (इसमें तक्र १००पल और उक्त औषध एक एक पल डाली जाती हैं ) | तक्रविशेषकी विधि |
त्वचं चित्रकमूलस्य पिष्ट्वा कुंभं प्रलेपयेत् ॥ तक्रं वादधि वा तत्र जातमर्शोहरम् पिबेत् ।
अर्थ-चीते की जडकी छालको पानी में पीसकर एक घडेके भीतर उसका लेप करदे, उसमें त वा दही भरदे, इस तक वा दहीके पान करने से अर्श नष्ट होजाता है। अन्य विधि | भार्ग्यास्फोतामृतापंचकोले ष्वाप्येष संविधिः अर्थ - भारंगी, अपराजिता, गिलोय, पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता इनको उक्त
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(.५४८)
अष्टांगहृदय ।
अ. ८
रीतिसे घडेके भीतर लेपकरके तक वा दही | भूनकर सत्तूमें मिलाकर भोजन करने से भरदे । इनके सेवन से भी अर्श रोग नष्ट । पहिले सेवन करे, यह वायु और मल का हो जाता है।
अनुलोमन करनेवाला है। . जठराग्निसंदीपन स्नेहादि ।
सगुड शुठीपान । पिष्टैगजकणापाठाकारवीपंचकोलकैः। सगुडं नागरंपाठांगुडक्षारघृतानि वा ५४ ॥ तुंबर्वजाजीधनिकाबिल्वमध्यैश्च कल्पयेत्॥ गोमूत्राध्युषितामद्यात्सगुडांवा हरीतकीम् । फलाम्लान्यमकनेहान् पेयायूषरसादिकान्
___ अर्थ-गुडके साथ सोंठ, अथवा पाठा एमिरेवौषधैः साध्यं वारि सर्पिश्च
दपिनम् ॥ ५१ ॥
का सेवन करे, अथवा गुड, जवाखार और क्रमोऽयं भिन्नशकृतां वक्ष्यते गाढवर्चसाम् ।
घृत खाय, अथवा गोमूत्र में भीगी हुई हरडे .. अर्थ-गजपीपल, पाठा, कालाजीरा,
को गुडके साथ सेवन करे तो अर्श रोग पंचकोल, धनियां, जीरा, वडा धनियां. और | नष्ट हो जाता है । वेलगिरी इनके करक के साथ घृत, तेल, - अन्य प्रयोग। पेया, यूष रसादि को सिद्ध करके बिजौरे
पथ्याशतद्वयं मूत्रद्रोणेनामूत्रजंक्षयात् ५५ ॥ की खटाई डालकर पान करे अथवा उक्त
| पक्वान् खादेत्समधुना द्वेढे हन्ति कफोद्भवान्
दुर्नामकुष्ठश्वयथुगुल्ममेहोदरकृमीन् ५६ ॥ औषधियों द्वारा सिद्ध किया हुआ जल और ग्रंथ्यर्बुदापचीस्थौल्यपांडुरोगाढयमारुतान्। घी जठराग्निको बढानेवाले हैं। ____अर्थ-दो सौ हरडको एक द्रोण गोमूत्र
_ अब तकजो चिकित्सा कही गई है वह | में पकावै, जव सव गोमूत्र जल जाय तव 'उन रोगियों के लिये है जिनका मल पतला | उतार कर दोदो हरड मधुके साथ सेवनकरने होता है । अव उनकी चिकित्सा कहेंगे से कफजनित अर्श, कुष्ट, सूजन, गुल्मरोग जिनका मल गाढा होता है।
प्रमेह, उदररोग, कृमि, ग्रंथि, अर्बुद, अप. गाढपुरीषकी चिकित्सा । ची, स्थूलता, पांडुरोग,और आढयवात नष्ट मेहाथैः सक्तुभिर्युक्तां लवणां वारुणी पिवेत्। | हो जाते हैं। लवणा एब वा तक्रसीधुधान्याम्लवारुणीः। | अन्य औषध। ___ अर्थ-घृतादि बहुतसा स्नेह डालकर
| अजशृंगीजटाकल्कमजामूत्रेण यः पिबेत् ॥ सत्तू के साथ लवणसंयुक्त वारुणी नामक गुडवार्ताकभुक्तस्य नश्यंत्याशुगुदांकुराः। मद अथवा केवल नमक डालकर तक्र, सीधु । अर्थ-मेढासिंगी की जडको पीसकर जो धान्याम्ल वा वारुणी का पान करे। | बकरी के मूत्रके संग पान करता है तथा
अर्शपर कंजेके पत्ते । गुड और बेंगन खाता है उसके मस्से नष्ट प्राग्भक्तं यमकेभृष्टान् सक्तुभिश्चावचूर्णितान् हाजाते है । करंजपल्लवान् खादेद्वातवानुलोमनान् ।
- अन्य उपाय। अर्थ-कंजे के पत्तोंको घी और तेल में | श्रेष्ठारसेन त्रिवृतां पथ्यां तक्रेण वा सह ५९
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म.
८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१४९]
-
पथ्यांबा पिप्पलीयुक्तांघृतभृष्टां गुडान्विताम् | नियम इसलिये नहीं दिया गया है कि जब तक अथवा सत्रिबृहंती भक्षयदनुलोमनीम् ५८॥ देह और अग्नि का बल पूर्णता को प्राप्त न हते गुदाश्रये दोषे गुदजा यांति संक्षयम्। अर्थ-त्रिफलाके काढेके साथ निसोथ |
हो तव तक पान करता रहे । अथवा तक्रके साथ हरड, अथवा हरड और
अन्य प्रयोग। . पीपलको धीमें भूनकर गडके साथ अथवा दं- दुस्पर्शकेन बिल्वेन यवान्या नागरेण वा ती और निसोथके साथ हरडको विरेचन एकैकेनाऽपि संयुक्ता पाठा हत्यर्शसांरुजम् योग्य बनाकर सेवन करे। इससे गुदाश्रित दी.
__ अर्थ-दुरालभा, वेल, अजवायन और ष क्षीण होकर मस्से नष्ट होजाते हैं। सोंठ इनमें से एक एक के साथ पाठा का अन्य उपाय।
सेवन करनेसे अर्शकी वेदना जाती रहतीहै । दाडिमस्वरसाजाजीयवानीगुडनागरैः ६०॥
अभयारिष्ट । पाठया वा युतं तकं वातवीनुलोमनम् ।। साधं बा गौडमथवा सचित्रकमहौषध सलिलस्य वहे पक्त्वा प्रस्थार्धमभ यात्वचम् पिवेत्सुरांवा हपुषापाठासोबर्चलान्वितामा प्रस्थंधाच्या दसपलं कपित्थानां ततोऽर्धतः अर्थ-अनारका रस, जीरा, अजवायन,
विशालारोधमरिचकृष्णावेल्लैलवालुकम् । गुड, सोंठ, इनसे अथवा पाठासे युक्त तक
द्विपलांशं पृथक्पादशेषे पूते गुडात्तुले ।
दत्त्वा प्रस्थं च धातक्या स्थापये प्रतभाजने अधावायु आर पुराषका अनुलोमन करनेबा- | पक्षात्स शीलितोऽरिष्टः करोत्याग्नं निहति च ला है । अथवा सीधु वा गुडका मद्य चीता गुदजग्रहणीपांडुकुष्टोदरगरज्वरान् । और सौंठ मिलाकर पीवै, अथवा हाऊवेर,पा
श्वयथुप्लीहहृद्रोगगुल्मयक्ष्मवमीकृमीन् । ठा और संचल नमक मिलाकर सुरापान करे।।
- अर्थ--वडी हरडका वक्कल आधा प्रस्थ ... बलवर्द्धक पान ।
तथा आमला एक प्रस्थ, कैथ दस पल, तथा दशादिदशकैर्वृद्धाः पिप्पलीििपचुं तिलान्
इन्द्रायण पांच पल, तथा लोध, कालीमिरच, पीत्वा क्षीरेण लभते बलं देहहुताशयोः।। पीपल, बायविडंग, एलुआ, प्रत्येक दो दो पल
अर्थ-वर्द्धमान पिप्पली के अनुसार प्र- इन सन द्रव्योंको चार द्रोण पानीमें पकावै तिदिन दस दस पीपल अधिक करता हुआ चौथाई शेष रहने पर उतारकर छानले फिर चार तोले तिल के साथ सेवन करे,ऊपरसे दूध इसमें एक तुला गुड और आमलेका रस एक पीवे, इससे शरीरके बल और जठराग्नि की प्रस्थ डालकर घी के वर्तनमें भरदे । एक पक्ष वृद्धि होती है । इसके सेवन का क्रम यह पीछे इसका सेवन करना अग्निको बढाता है कि पहिले दिन दस पीपल और चार तोले है और मस्से, प्रहणी, पांडुरोग, कुष्ट, उदरतिल, दूसरे दिन २० पीपल और चार तोले रोग, विषरोग, ज्वर, सूजन, प्लीहा, हृदयरोग, तिल तीसरे दिन तीस पीपल और चार तोले
गुल्म, यक्ष्मा, वमन और कृमिरोगों को दूर तिल इस तरह प्रतिदिन सेवन करे । कालका | करता है।
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अष्टांगहृदय ।
अ. ८
--
दन्त्यरिष्ट ।
पिप्पलीमूलसिद्धं पा सगुडक्षारनागरम् । जलद्रोणे पचेदंतीदशमूलवराग्निकान् ।।
अर्थ-चायुके अनुलोमन के निमित्त भोपालिकान्पादशेषे तु क्षिपेद्गुडतुलां परम् । जनकरने से पहिले बिजौरे आदि खष्टे फलों पूर्ववत्सर्वमस्य स्यादानुलोमतरस्त्वयम् । के साथ घृत पकाकर देवै । अथवा चव्य __ अर्थ-दंती, दशमूल, त्रिफला और | और चीते के साथ सिद्ध किया हुआ घृत चीता इनमें से हरएक को एक एक पल- अथवा जवाखार और गुड मिलाहुआ घी ले कर एक द्रोण जल में पकावै,जब चौथाई | सेवन करे जथवा पीपलामूल के साथ सिद्ध शेष रहजाय तब छानकर एक तुला गुड किया हुआ घृत गुड, जवाखार और सोंठ मिलादे । तदनंतर आमले का रस पूर्ववत् | मिलाकर सेवन करे । डालकर घृत के पात्र में पन्द्रह दिनतक रहने
अन्य घृत । दे । यह अभयारिष्ट के समान गुणकारी
पिप्पलीपिप्पलीमूलधानकादाडिमैर्वृतम् है, तथा उससे भी अधिक बातानुलोभी ना च साधितं वातशकृन्मूत्रविबंधहृत् । होता है।
___ अर्थ-पीपल, पीपलामूल, धनियां और दुरालभारिष्ट ।
अनार के कल्क तथा दही के साथ सिद्ध पचेहुरालभाप्रस्थं द्रोणेऽपां प्रासतैः सह । कियाहुआ घृत अधोवायु, विष्टा और मूत्रके दंतीपाठाग्निविजयावासामलकनागरैः ॥ | विवेधको दर करता है। तस्मिन् सिताशतं दद्यात्पादस्थेऽन्यच्च पू |
पलाशादि घृत ।
र्ववत् । लिपेत्कुंभ तुफलिनीकृष्णाचव्याज्यमाक्षिकैः
पलाशक्षारतोयेन त्रिगुणेन पचेघृतम्
वत्सकादिप्रतीवापमर्शोनं दीपनं परम् । अर्थ-दुरालमा एक प्रस्थ, तथा दंती,
___ अर्थ-तीनगुने ढाकके क्षारके जल में पाठा, चीता, विजया, अडूसा, आमला,
घी पकावे और इसमें वत्सकादि का प्रतीसोंठ प्रत्येक दो दो पल, इन सबको एक
वापदे,यह अर्शनाशक और अत्यन्त आग्निद्रोण जल में पकावे, चौथाई शेष रहने पर
संदीपन है। उतारकर छानले, फिर इसमें सौपलमिश्री
पंचकोलादि घृत । । मिलाकर फिर पकावे तथा अभयारिष्ट के पंचकोलाभयाक्षीरयबानीबिडसेंधवैः समानही आमले का रस डालकर पन्द्रह दिन सपाठाधान्यमरिचैः सबिल्वैर्दधिमद् घृतम् तक ऐसे कलश में रक्खे जिसके भीतर साधयेत् तज्जयत्याशु गुदवंक्षणवेदनाम् प्रियुगु, पीपल, चव्य, घी और शहत का
प्रवाहिकां गुदभ्रंशं मूत्रकृच्छ्रे परिस्रवम् ।
अर्थ-पंचकोल, हरड, दूध, अजवायन लेप किया गया हो। - भोजन से पहिले घृतादि ।
विडनमक, सेंधानमक, पाठा, धनियां,काली प्राग्भक्तमानुलोम्याय फलाम्लं वा पिवेघृतम् | मिरच, बेलगिरी, दूध और दही इनके चव्यचित्रकसिद्धं वा यवक्षारगुडान्वितम्। साथ घृतको पकाबै । यह घी गुदा और
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अ० ८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
वक्षण की वेदना, तथा प्रवाहिका, गुदभ्रंश । अर्थ-बथुआ, चीता, निसौथ, दंती, मूत्रकृच्छू और गुदस्राव को दूर करताहै । | पाठा भौर इमली आदेके पत्ते तथा अन्य
चांगेर्यादि घृत । कफवातनाशक हलके और मलका भेदन पाठाजमोदधनिकाश्बदंष्ट्रापंचकोलकैः । करनेवाले शाक, घी और तेलमें हींगका छोंक सबिल्वदाधे चांगेरीस्वरसे च चतुर्गुणे । देकर दही की मलाई डालकर पकावे हत्याज्यं सिद्धमानाई मूत्रकृच्छू प्रवाहिकम्।
और इसमें धनियां और पंचकोल पीसकर गुदभ्रंशार्तिगुदजग्रहणीगदमारुतान् ।
| मिलादे और अनारदाने की खटाई, धनिये .. अर्थ-पाठा, अजमोद, धनियां, गोखरू पंचकोल, और बेलगिरी इनको चौगुने दही
| के पत्ते और अदरख का जीरा डालदे तथा और चौगुने चांगेरी के रसमें यथोक्तरीतिसे
हृदय को हितकारी अंगार की धूनीसे सुवा.
सित करके जीरा, कालीमिरच, विडनमक, घृतका पाक करे । यह घृत आनाह, मूत्रकृच्छ्र, प्रवाहिका, गुदभ्रंश, अर्ति, गुदांकुर
संचलनमक, डालकर प्रस्तुत करे | इसके
सेवन से वातकी अधिकता, देहकी रूक्षता, ग्रहणी रोग तथा वातरोगों को नष्ट करदेताहै
मंदाग्नि, मलका विवंध ये सब दूर होजातेहैं - मांसरसादि का प्रयोग ।
रक्त शाली चांबलों का भात, शाकयुक्त शिस्म्रितित्तिरि लावानां रसानम्लान् सुसं
व्यंजनकी तरह तयार करना चाहिये । तथा
स्कृतान् । पक्षाणां वर्तकानां वा दद्याविडवातसंग्रहे ।
| गौ, गोधा, बकरी, ऊंट, तथा विशेष करके अर्थ-मोर, तीतर, लवा, मुर्गा और मांसभक्षी जानवरों के मांसका रस उक्तरीति बतक इनके मांसरस में अच्छीतरह खटाई | से संस्कृत करके देना चाहिये । डालकर सेवन करे तो विष्टा और घातका
पानविधि। बिंबंध दूर होजाताहै।
मदिरां शार्करं गौडं सीधु तक्रं तुषोदकम् ।। मंदाग्नि की चिकित्सा।
अरिष्टं मस्तु पानीयं पानीयं वाल्पकं शतम्।
धान्येन धान्यशंठीभ्यां कंटकारिकयाऽथवा वास्तुकाग्नित्रिवृहतीपाठाम्लीकादिपल्ल
अंत भक्तस्य मध्ये वा बातव!नुलोमनम् ।
धान् । अन्यच्च कफवातघ्रं शाकं चलघु भेदि च ।
___ अर्थ-अधोवायु और मलके अनुलोमन सहिंगु यमके भृष्ट सिद्ध दधिसरैः सह । के निमित्त मदिरा, शर्करा का मद्य, गौड, धनिकापंचकोलाभ्यांपिष्टाभ्यां दाडिमांबुना। सीधु, तक, तुषोदक, अरिष्ट, मस्तु, पानी आदिकायाः किसलयैः शकलैराकस्य च। AM घोटा पकाया हुआ पानी. धनिये के युक्तमंगारधूपेन हृद्येन सुरभीकृतम्। सजीरक समरिच बिडसौवर्चलोत्कटम् ॥
साथ औटाया हुआ पानी, अथवा धनिये वातोत्तरस्य रूक्षस्य मंदाग्मेद्धवर्चसः।।
और सौंठके साथ औटायाहुआ पानी, अथवा कल्पयेगक्तशाल्यनंब्यंजनं शाकवदसान् ॥ | कटेरी के साथ औटाया हुआ पानी, भोजन गोगोधाछागलोष्टाणां विशेषात्कव्यभोजिनाम् के बीचमें वा भोजनके भंतमें पीना चाहिये ।
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[५५२).
अष्टांगहृदय ।
अ०८
अर्शमें अनुलोमनका विधान । । वंक्षणाश्रित आनाह, पिच्छास्राव, गुदा का विड्वातकफपित्तानामानुलोम्ये हि निर्मले | शोफ, अधोवायुकी विवद्धता, मलकी रुकावट गुदे शाम्यति गुद्ञा पावकश्चाभिवर्धते।।
तथा बार वार अर्शकी उत्पत्ति ये सब रोग अर्थ-अधोवायु, मल, कफ और पित्त
नष्ट होजाते हैं। फै अनुलोमनसे गुदा निर्मल होजाती है और
___ यहां जलका वर्णन नहीं किया गयाहै, गुदाके निर्मल होनेसे गुदांकुर शांत होजाते
तथापि चौगुना जल डालना अवश्य है,प्रथांहैं और आग्नि भी प्रदीप्त होजाती हैं विड़
तरमें कहा भी है, स्नेहसक्षीरमांसाद्यैः पाको वातकफपित्तादि के अनुलोमन करनेवाले
यत्रेरितःकचित् । जलं चतुर्गुणं तत्र बीजाअन्नपानादि और औषध का सेवन करना
दानार्थमावपेत् । न मुंचंति रसं द्रव्यं क्षीराचाहिये।
दिभिरुपस्कृतम् । सम्यक् पाको न जायेत अर्शमें अनुबासन ।। उदावर्तपरता ये ये चात्यर्थ विरूक्षिताः ॥ तर
| तस्मात्तोयं बिनिःक्षियेत् । विलोमवाताःशूलार्तास्तविष्टमनुवासनम्। निरूह का प्रयोग ।
अर्थ-जो अशरोगी उदावर्त रोगसे पी- | निरूहं वा प्रयुजीत सक्षीरं पांचमूलिकम् ॥ डितहै, जो अत्यन्त रूक्षहै, जो विलोमगामी समूत्रस्नेहलवणं कल्कयुक्तं फलादिभिः। वात और शूलसे पीडितहै, उन्हें अनुवासन
अर्थ-पंचमलके क्वाथ में मसान भाग वस्ति देना हितहै।
दूध तथा अल्प परिमाण में गोमूत्र, तेल .. अनुवासन की विधि । और नमक मिलाकर तथा पूर्वोक्त मेनफल पिप्पली मदनं बिल्वंशताद्वा मधुकं वचाम् | प्रभृति का कल्क डालकर निरूहण वस्ति कुष्ठं शुठी पुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च। | देनेसे अनुवासन वस्तिके समान गुण होताहै। पिष्टबा तैलं विपक्तव्यं द्विगुणक्षीरसंयुतं ॥
रक्तार्श का वर्णन । अर्शसां मुढबातानां तच्छेष्ठमनुवासनम्। गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृच्छं प्रवाहिकाम् ।।
अथ रक्तार्शसां वीक्ष्य मारुतस्य कफस्य वा कट्यरुपृष्ठदौर्वल्यामानाहं बंक्षणाश्रयं ।।
अनुबंधं ततः स्निग्धं रूक्ष वा योजयेद्धिममू पिच्छानावं गुदे शोफ वातव!विनिग्रहम् अर्थ-रक्ताशे में पित्त का नित्यसंबंध उत्थानं बहुशो यच्च जयेत्तच्चोनुबासनात् । होने परभी कभी वायु और कभी कफका
अर्थ-पीपल,मेनफल,वेलगिरी,सौंफ,मुलहटी, | अनुबंध होता है । इसलिये वायुका अनुबंध बच, कूठ सौंठ, पुष्करमूल, चीता, देवदारु, । देखकर स्निग्ध औषधादि और कफका इनको पीसकर दूना दूध डालकर तेल पकावै अनुबंध देखकर रूक्ष औषधों का प्रयोग इस तेलको अनुबासन वस्ति देनेसे अर्शरोगी करना उचित है परंतु दोनों चिकित्साओं की मूढवात, गुदनिःसरण ( गुदनाडी का में ही पित्त के अत्यन्त सान्निध्य से शीतवाहर निकलना ] शूल, मूत्रकच्छू, प्रवां- क्रिया करनी चाहिये, ऊष्णाक्रिया न करनी हिका, कमर, ऊरु और पीठकी दुर्वलता, | चाहिये ।
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म०८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५५३ )
वातकफानुबंध के लक्षण ।
अर्थ-जव तक दोषसे कलुषता का रक्त सकृच्छयावं खरं रूक्षमधो निर्याति नानिलः स्राव होता हो, तब तक रक्त को वंद न कटयरुगुरशूलं च हेतुर्यदि च रूक्षणम्। करना चाहिये। तत्रानुबंधो बातस्य श्लेष्मणो यदि-
गोवा बिट श्लथा ॥ ९६ ॥ दोषाणांपाचनार्थ च वह्निसंधुक्षणाय च । श्वेता पीता गुरुः स्निग्धा सिापेच्छा
संग्रहाय च रक्तस्य परं तिक्तैरुपाचरेत् ।
स्तिमितो गुदः। हेतुस्निग्धगुरुर्विद्याद्यथास्वं चानलक्षणात्॥ |
____अर्थ-जव रक्तस्राव की कलुषता दूर ___ अर्थ-जिस रक्तार्श में पुरीष श्याववर्ण,
होजाय तव आम दोषके पचाने के लिये अकर्कश और रूक्ष हो, अधोवायु नीचे को ग्नि को प्रदीप्त करने के लिये और शुद्धरक्त प्रवृत्त हो । कमर, ऊरु और गुदा में शूल को रोकने के लिये तिक्तरसयुक्त औषधद्वारा हो और इन सबकी उत्पत्ति का हेतु कक्ष
चिकित्सा करनी चाहिये । सेवन हो तो वातका अनुबंध समझना चा
रक्तस्रावमें चिकित्सा।
| यत्तु प्रक्षीणदोषस्य रक्तं वातोल्बणस्य वा । हिये । और यदि मलमें शिथिलता, तथा
स्नेहस्तच्छोधयेद्युक्तैः पानाभ्यंजनबस्तिषु ॥ मलका वर्ण सफेद, पीला, भारी, चिकना,
अर्थ-जिस रोगीके दोष क्षीण होगये हों, पिच्छिलतायुक्त हो तथा गुदा में स्तिमिता
अथवा वाताधिक्य वाले रोगीका जो रक्तस्राव हो और इन विकारों की उत्पत्तिका हेतु
होता है उसे घृतपान, घृताभ्यंग और घृतभारी और चिकने पदार्थों का सेवन हो तो
वस्तिद्वारा शोधन करना चाहिये । कफानुबंध समझना चाहिये । तथा सिरा
पित्ताधिक्य रक्त का स्तंभन । व्यधविधि में कहे हुए रक्त के लक्षणों से
यत्तु पित्तोल्बणं रक्तं धर्म कालेप्रवर्तते । रक्त के श्यावारुणत्व होने से वायुका अनुबंध स्तंभनीयं तदेकांतान चेद्वातकफानुगम्
और स्निग्धादि लक्षणों से कफका अनुबंध अर्थ -जो पित्ताधिक्य रक्त गरमी के का. समझना चाहिये ।
रण स्राव होता है, उसको अवश्य ही रोक . दूषितरक्त में लंघनादि। देना चाहिये क्योंकि न रोकने से भारी उ. दष्टेऽस्र शोधनं कार्य लंघनं च यथावलम् । पद्रव की आशंका होती है, किंतु ग्रीष्मकाल · अर्थ-वातादि दोषोंसे दाषित रक्तमें रोगी में यदि वातकफानुवंध से रक्तका स्राव होता को वलके अनुसार शोधन और लंघनसे शुद्ध हो तो रक्तको न रोककर लंघनादि शोधन करना चाहिये अर्थात् दोषोंकी अधिकता हो । द्वाराही चिकित्सा करना चाहिये । ने पर विरेचनादि द्वारा शोधन और अल्पता
कफानुगत रक्तमें कर्तव्य ।
सकफेऽने पिबेत्पाक्यं शुंठी कुटजबल्कलम होनेपर लंघन कराना चाहिये ।
किराततिक्तकं शुंठींधन्वयासं कुचंदनम् दोपोंकी कलुषतामें रक्तस्राव । दारूत्वबिसेव्यानित्वचं वा दाडिमोद्भवाम यावश्च दोषैः कालुभ्यं नतेस्तावदुपेक्षणम् । अर्थ-कफानुबंधी रक्तस्रावमें सौंठ, कुडा
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(५५४]
अष्टांगहृदय ।
अ०८
की छाल का क्वाथ अथवा चीता, सोंठ, | बकरी के दूध के साथ भोजन करे । यह दुरालमा, लालचंदन, दारुहलदी, वक,नीम | अवलेह रक्तातिसार, रक्तार्श, तथा प्रवल खस इनका काथ अथवा अनार की छाल ऊर्ध्वगामी वा अधोगामी रक्तपित्त को शीघ्र का क्वाथ पीना चाहिये ।
दूर कर देता है। अन्य औषध ।
अन्य अवलेह । फुटजत्वक्पलं ताये माक्षिकं घुणवल्लभाम् । कुटजत्वक्तुलां द्रोणे पचेदष्टांशशेषिताम्॥ पिबेत्तंडुलतोयेन कल्कितं वा मयूरकम् । | कल्कीकृत्य क्षिपेत्तत्र तायशैलं कटुत्रयम् । - अर्थ-कुडाकी छाल, इन्द्रजौ, रसौत,
रोधद्वयं मोचरसं बलां दाडिमजां त्वचम् ॥
बिल्वकर्कटिकां मुस्तं समंगां धातकीफलम् मधु और अतीस इन सब द्रव्यों का कल्क
पलोन्मितं दशपलं फुटजस्यैव च त्वचः ॥ अथवा औंगा का कल्क तंडुल जलके साथ
त्रिंशत्पलानि गुडतो घृतात्पूते च विंशतिः। पान करना चाहिये ।
तत्पर्क लेहतां यातं धान्ये पक्षस्थितं लिहन् । उक्तरोग पर अवलेह । सर्वाशग्रहणीदोषश्वासकासान्नियच्छति । तुलां दिव्यांभसि पचेदाद्रायाः कुटजत्वचः॥ अर्थ-एक तुला कुडा की छाल को नीरसायां त्वचि काथे दद्यात्सूक्ष्मरजीकृतान् | एक द्रोण जल में पकाव, अष्टमांश शेष समगाफलिनीमोचरसान्मुष्टयंशकान्समान्॥
| रहने पर उतार कर छान ले फिर इसमें तैश्च शक्रयवान्पूते ततो दर्वीप्रलेपनम् । पक्त्वावलेह लीदवा चतं यथाग्निवलं पिबेत्
| रसौत, त्रिकुटा, दोनों लोध, मोचरस, ख. पेयां मंडं पयश्छागं गव्यं वा छागदुग्धभुक्। रैटी, अनार की छाल, बेलगिरी, नागर लेहोऽयं शमयत्याशु रक्तातीसारपायुजान् मोथा, मजीठ, धायके फल ये सब एक एक बलवद्रक्तपित्तं च नवदृर्ध्वमधोऽपिवा।।
पल, कुडा की छाल १० पल, इन सब ___ अर्थ-अंतरीक्ष जल में हरी कुडा की द्रव्यों को पीसकर डाल दे और पकावे, छाल एक तुला इतनी देर तक पकावे जव
| पकजाने पर उतार कर छानले, फिर इस तक छाल नीरस होजाय (काथका आठवां
में ३० पल गुड और बीस पल घी मिला भाग रहने पर प्रायः छाल नीरस होजाती
देवै । फिर इसको पकावै जव गाढा होजाय है )। फिर इस काढे में मजीठ, प्रियंगु तव इसे एक पात्र में भरकर अन्न के ढेर
और मोचरस चार चार ताले लेकर पीस- या है। फिर पन्द्रह दिन पीछे इसका कर डालदे और इन्द्रजो इन सव के समान
सेवन करने से सब प्रकार के अर्श, ग्रहणी डालदे, जब पकते पकते इतना गाढा हो
दोष, श्वास और खांसी दूर होजाते हैं। जाय कि कलछी से लगने लगे तब उतार
अन्य उपाय। ले । इस अवलेह को अग्नि के बल के
| रोधं तिलान्मोचरसं समंगां चदनोत्पलम् ॥ अनुसार सेवन करना चाहिये । इस पर पायायत्वाऽजदुग्धेन शालीस्तेनैव भोजयेत् पेया, मंड, बकरी वा गौका दुग्ध पीवे वा । अर्थ-लोध, तिल, मोचरस, मजीठ,चं.
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१०.८
चिकित्सितस्थान माषाकासभेत।
(५५५)
दन और नीलकमल इन सब औषधों को | घी रक्तातिस्राव में प्रशस्त है, अथवा धाय बकरी के दूध के साथ पान करावै और | के फूल, लोध, कुडा की छाल, इद्रजौ, बकरी के दूध के साथही शाली चांवलों | नीलकमल और नागकेसर के साथ सिद्ध का भात खानेको दे । यह पूर्ववत् गुण किया हुआ घी, अथवा जवाखार और करती है।
अनार के रस के साथ सिद्ध किया हुआ __ अन्य प्रयोग। घृत उक्त रोग में गुणकारी है। ... यष्टया पद्मकांनंतापयस्याशीरमोरटम।
अन्य घत । ससितामधु पातव्यं शीततोयेन तेन वा।
शर्करांभोजकिंजल्कसहितं सह वा तिलैः। - अर्थ-मुलहटी,पदमाख,अनंतमूल, दुग्ध- अभ्यस्तं रक्तगुदजान् नवनति नियच्छति ॥ का, क्षारमोरटा, ( मधुरनवा ) इनके चूर्ण अर्थ-खांड और कमलकेसर इनके में मिश्री और शहत मिलाकर ठंडे जल वा । साथ अथवा तिलोंके साथ नवनीत (माखन) बकरी के दूधके साथ पान कराना चाहिये। का सेवन बहुत दिन तक करना रक्तार्श को अन्य प्रयोग।
शमन करदेता है। रोधकवंगकुटजसमंगाशाल्मलीत्वचम् ॥
अन्य औषध । हिमकेसरयष्टयावं सेव्यं वा तंडुलांबुना । छागानि नवनीताज्यक्षीरमांसानि जांगलः ।
अर्थ-लोध,कुटकी,कूठ, कुडाकी छाल, अनम्लो वा कदम्लोबा सवास्तुकरसोरसः मजीठ, सेमर की छाल, इनको अथवा | रक्तशालिः सरोदनः षष्टिकस्तरुणी सुरा। चंदन, केसर, मुलहटी, और खस इनको
तरुणश्च सुरामंडः शोणितस्यौषधं परम् ॥ तंडुल जल के साथ पीने से रक्तार्श नष्ट हो.
अर्थ-बकरी का नवनीत, घी, दूध आता है।
वा मांस ये रक्तार्श की परम औषध हैं, यवान्यादि चूर्ण ।
अथवा जंगली पशुओं का मांस रस खटाई "यवानीद्रयबाः पाठा बिल्व शुठीरसांजनम् ॥ रहित वा थोड़ी खटाई डालकर वथुए के चर्णश्च लेहिताशले प्रवृत्ते चाऽतिशोणिते | शाकके रससे युक्त सेवन करना भी रक्तार्श
- अर्थ-अजवाइन, इंद्रजौ, पाठा, बेल- की परम औषध है । अथवा लाल शाली गिरी, सोंठ, रसौत इनका चूर्ण जलके साथ चांवलों का भात, दही की मलाई, सांठी फांकने से अर्श की वेदना और रक्त की चावल, तरुणी सुरा ( मीठेपन से युक्तअति प्रकृति दूर होती है ।
सुरा, ) तरुण सुरामण्ड, ये सव भी रक्त उक्त द्रव्य द्वारा सिद्ध घत। की परम औषध है । दुग्धिकाकंटकारीभ्यां सिद्धं सर्पिःप्रशस्यते अर्श पर पेयादि। अथवा धातकीरोध्रफुटजत्वक्फलोत्पलैः। पेयायूषरसायेषु पलांडुः केवलोऽपि वा। सकेसरैर्यवक्षारदाडिमस्वरसेन वा ।११७। स जयत्युल्बणं रक्तं मारतं च प्रयोजितः ॥ __ अर्थ-दूधिया और कटेरी डालकर औटाया ! अर्थ-पेया यूष और मांसरसादिके
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( ५५६ ]
अष्टांगहृदय ।
|
साथ प्याज का सेवन अथवा केवल प्याज के खाने से अत्यन्त दूषित रक्त और वायु नष्ट हो जाती है ।
वाताविय अर्श में कर्तव्य | बातोल्वणानि प्रायेण भवत्यस्रेऽतिनिःसृते । अर्शास तस्मादधिकं तज्जयं यत्नमाचरेत् ॥
अर्थ - रक्त के अत्यन्त निकलने पर सब प्रकारके अर्श रोग में वायु कुपित हो - जाता है इसलिये वायु की शांति के लिये विषेश यत्न करना चाहिये | अर्श में शीतोपचार । दृष्ट्वाऽस्रपित्तं प्रबलमवलौ च कफानिलौ । शीतोपचारः कर्तव्यः सर्वथा तत्प्रशांतये ॥
अर्थ - जो रक्त पित्त प्रवल हो और कफ वात निर्बल हो तो उन को प्रशमन ' करने के लिये शीतोपचार अर्थात् ठण्डी चिकित्सा करना चाहिये ।
अन्य उपाय ।
तावदेव समस्तस्य स्निग्धोष्णैस्तर्पयेत्ततः । रसैः कोष्णैश्च सर्पिर्भिरबपीडकयोजितैः ॥ सेचयेत्तं कवाष्णैश्च कामं तैलपयोघृतैः ।
अर्थ - जो ऊपर कहे हुए किसी उपाय से भी अर्शका प्रशमन न हो तो स्निग्धो
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अ०
कल्कीकृतं मोचरसं समंगां चंदनोत्पलम् ॥ प्रियंगु कौटज बीज कमलस्य च केसरम् । पिच्छाबस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः ॥ प्रवाहिका गुदभ्रंश रक्तस्रावज्वरापहः ।
अर्थ -जवा से की जड, कासकी जड, सेमर के फूल, ढाक, गूलर और पीपलकी कोंपल, इनमें से प्रत्येक दो पल इन सबका कल्क करके तीन प्रस्थ जल और एक प्रस्थ दूध में पका । जब दूध शेष रहजाय तब उतार कर छानले फिर इस काथ में मोचरस, मजीठ, चंदन, उत्पल, प्रियंगु, इन्द्रजौ, कमलकेसर पीसकर प्रत्येक एक एक तोले मिलादेवै फिर धी, शहत और शर्करा मिलाकर पिच्छावस्तिका प्रयोग करे इससे प्रवाहिका, गुदभ्रंश, रक्तस्राव और ज्वर दूर होता है ।
अनुवासनविधि |
यष्ट्याहवपुंडरीकेण तथा मोचरसादिभिः ॥ क्षीरद्विगुणितः पक्को देयः स्नेहोऽनुवासनम् अर्थ - मुलहटी, पुंडरीक, और ऊपर कहे हुए मोचरसादि का कल्क डालकर दूंने दूधके साथ पकाया हुआ स्नेह अनुवासन वस्ति में हित है ।
मधुकादि घृत |
मांसरस और ईषदुष्ण घृतपान द्वारा तर्पण करना चाहिये तथा रोगानुत्पादनीया - ध्यान में कहे हुए ईषदुष्ण तेल दूध और घी के द्वारा अवपीडन करे । पिच्छावस्ति ।
वाकुशकाशान मूलं पुष्पं च शाल्मलेः न्यग्रोधोदुंबराश्वत्थशुंगाश्च द्विपलोम्मिताः त्रिप्रस्थे सलिलस्यैतत्क्षीरप्रस्थे च साधयेत्
श्रीशेषे कषाये च तस्मिन्पूते विमिश्रयेत् |वाला, मजीठ, बेलगिरी, चंदन, चव्य,
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मधुकोत्पलरो ब्रांबुसमंगां बिल्वचंदनम् ॥ चत्रिकातिविषामुस्तं पाठा क्षारो यवाग्रजः दार्वित्वनागरं मांसी चित्रको देवदारु च ॥ चांगेरिस्वरसे सर्पिः साधितं तैस्त्रिदोषजित् अशौतिसारग्रहणीपांडुरोगज्वरारुचौ ॥१३२॥ मूत्रकृच्छ्रे गुदभ्रंशे वस्त्यानाहे प्रवाहणे । पिच्छास्त्रात्रेऽशसां शूले देयं तत्परमोषधम् अर्थ - मुलहटी, नीलकमल, लोध, नेत्र
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०८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
१५९७ )
अतीस, मोथा, पाठा, जवाखार, दारुहलदी | बत्ती बनावै । अथवा सोंठ, मेनफल, घर सोंठ, जटामासी, चीता, और देवदारु इन | का धूआं, सरसों इनको पीसकर गुड और सब द्रव्यों को पीसकर चांगेरी के रस में | गोमूत्र में सानकर बत्ती बनाकर गुदा घृतको पकावै, यह घृत त्रिदोषनाशक तथा | में रक्खै । अर्श, अतिसार, ग्रहणीरोग, पांडुरोग, गुदामें उक्तद्रव्योंका चूर्ण । ज्वर, अरुचि, मूत्रकृछू गुदभ्रंश, वस्ति का | एतेषामेव वा चूर्ण गुदे नाज्या विनिर्धमेत्। आनाह, प्रवाहण, पिच्छास्त्राव, तथा अर्श अर्थ-उक्त सब द्रव्योंका चूर्ण एक नली के शल में देने से यह परम गणकारक में भरकर गुदाके भीतर प्रविष्ट करदेना
व्यत्यासमें मधुराम्लयोनना। चाहिये । व्यत्यासान्मधुराम्लानि शीतोष्णानि-
स्निग्ध वस्तिप्रयोग।
च योजयेत्। नित्यमग्निवलापेक्षी जयत्यशःकृतान् गदार्ने
तद्विघाते सुतक्ष्णिं तु बस्ति स्निग्ध प्रपीडयेत् अर्थ-जठराग्नि के बल के अनुसार वि
ऋजू कुर्याद्रुदशिरो विण्मूत्रमरुतोऽस्य सः। पर्याय भावमें मधुर अम्ल तथा शीतल और
भूयोऽनुवंधे वातघ्नैर्विरेच्यःनेहरेचनैः ॥
अनुवास्यश्च रौक्ष्याद्धि संगो मारुतवर्चसोः उष्ण सेवन करने से अर्शजानित सब उपद्रव
___ अर्थ-जो उक्त चूर्णके प्रयोग से कुछ नष्ट होजाते हैं।
लाभ नहो तो अत्यन्त तीक्ष्ण स्निग्ध बस्ति उदावर्त में स्वेदादि ।
का ऋजुभाव में प्रयोग करना चाहिये । उदावर्तिमभ्यज्य तैलैः शीतज्वरापहैः।। सुस्निग्धैः स्वेदयेत्पिडैवर्तिमस्मै गुदे ततः ॥
इस वस्तिसें गुदनाडी का ऊपर वाला भाग अभ्यक्तां तत्करांगुष्ठसन्निभामनुलोमनीम् ।
विष्टा, मूत्र और अधोवायु का अनुलोमन दद्याच्छयामात्रिबंदतीपिप्पलीनीलिनीफलैः।। होताहै । इसपर भी यदि फिर अनुबंध हो विचूर्णितैलिवणैर्गुडगोमूत्रसयुतैः। तो वातनाशक स्नेहविरेचन और अनुवासन तन्मागधिकाराठग्रहधूमैः ससर्षपैः ॥
| का प्रयोग करे, क्योंकि रूक्षता से अधोवायु ___ अर्थ-अर्शरोगी यदि उदावर्त से पीडित
और मलका विबंध होताहै। हो तो शीतज्वरनाशक तेल से अभ्यंग करके अतिस्निग्ध पिंडस्वेद से स्वेदित करके
कल्याणकक्षार। रोगी की गुदा में तेल लगाकर नीचे लिखे
त्रिकटुत्रिपटुश्रेष्ठादत्यरुष्करचित्रकम् ॥
जर्जरं स्नेहमूत्राक्तमंतधूम विपाचयेत् । द्रव्यों की बत्ती बनाकर प्रवेश करे । यह शराबसंधौ मल्लिप्ते क्षारः कल्याणकावयः बत्ती रोगी के अंगूठे के समान अनुलोमन- स पीतः सर्पिषा युक्तो भक्त वाकारी होनी चाहिये । श्यामा, दंती, निसोथ
स्निग्धभोजिना।
उदावर्तविबंधार्थीगुल्मपांडूदरकृमीन् ॥ पीपल, नीलनी फल, सेंधानमक, विडनमक |
मूत्रसंगाश्मरीशोफहृद्रोगग्रहोगदान् । इनको पीसकर गुड और गोमूत्र मिलाकर | मेहलीहरुजानाहश्वासकासांश्च नाशयेत् ।
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(५५८)
अष्टांगहृदय ।
- अर्थ-त्रिकुटा (सौंठ, मिरच, पीपल), | पर उतारकर छानले, फिर इसमें ८० पल त्रिपटु ( सेंधानमक,कालानमक, विडनमक) | गुड, पिसी हुई त्रिकुटा ८ पळ, मिलाकर, श्रेष्टा [ हरड, बहेडा, आमला ], दंती, भि- | किसी पात्रमें भरकर उसका मुख बंद करदे लावा और चीता इनको गोमूत्र के साथ पीस | और एक महिने तक रक्खा रहनेदे । यह कर घी मिलाकर एक मृत्तिकाकें पात्रमें शुद्ध जठराग्नि पाचनशक्ति पैदा करताहै 'भरकर शराबसंपुट करके ऐसी रीतिसे और अनुलोमन करनेवाला होनेके कारण मृत्तिका से लपेटे कि धुंआं बाहर न निक- अर्श, प्लीहा, गुल्म और उदररोगों को दूर लने पाव । इसको कंडोंकी आगमें पकावे। करदेता है। ठंडा होनेपर निकाल लेवे । यह कल्याणक अर्श पर चुक्र । नामक क्षार होताहै । इसकों घृतके साथ पचेत्तुलां पूतिकरंजबल्कान् । वा अन्नके साथ सेवन करे और घृतप्लुत
द्वे मूलतश्चित्रककंटकार्योः ।
द्रोणत्रयेऽपां चरणावशेषे । भोजन करे तो उदावर्त, विबंध, अर्श,गुल्म
पूते शतं तत्र गुडस्य दद्यात् ॥ १४५ ॥ रोग, पांडुरोग, उदररोग, कृमिरोग, मूत्रवि- पालकं च सुचूर्णितं त्रिजात-। घात, अश्मरी, सूजन, हृदयरोग, ग्रहणीरोग त्रिकटुग्रंथिकदाडिमाश्मभेदम्। प्रमेह, प्लीहा, बेदना, आनाह, श्वास और
परपुष्करमूलधान्यचव्यं ।
हपुषामाकमम्लवेतसं च ॥१४६ ॥ खांसी ये सब नष्ट होजाते हैं।
शीतीभूतं क्षौद्रविशत्यपेत-। . अन्य उपाय ।
माद्राक्षाबीजपूरार्धकैश्च । सर्वच कुर्याद्यत्प्राक्तमर्शसां गाढवर्चसाम् ॥ |
युक्तं कामं गंडिकाभिस्तथेक्षो।
सर्पिः पात्रे मासमात्रेण जातम् ॥ . अर्थ-मलके गाढे होनेकी चिकित्सा
चुकंकृकचमिवंदगुर्नाम्नांवन्हिदीपनंपरमम् । में जो पहिले उपाय लिखे गये हैं वे भी | पांडगरोदरगुल्मप्लीहानाहाश्मकृच्छ्घ्न म् । सब इस रोगमें प्रयुक्त करने चाहिये। अर्थ-तिकरंजकी छाल एक तुला,
मस्सोंकी चिकित्सा। चीते और कटेरी की जड दो तुला द्रोणेऽपां पूतिवल्कद्वितुलमथ पचे.
इनको तीन द्रोण पानीमें पकावै त्पादशेषे च तस्मिन् देयाशीतिर्गुडस्य प्रतनुकरजसो
जन चौधाई शेष रह जाय तव उतार व्योषतोऽष्टौपलानि ।।
कर छानले और इस काथमें गुड सौ पल एतन्मासेन जातं जनयति परमा
डालदे और त्रिजात [ दालचीनी, इलायची मूष्मणः पक्तिशक्ति शुक्तं कृत्वाऽनुलोम्यं प्रजयति गुदज
तेजपात ) त्रिकुटा, पीपलामूल, अनार की प्लीहगुल्मोदराणि ॥ १४४ ॥ छाल, पाखानभेद, नागरमोथा, पुष्करमूल,
अर्थ-पूतिकरंजकी ८०० तोले छाल | धनियां, चव्य, हाऊबेरं, अदरख, अमलवेत एक द्रोण जलमें पकावे, चौथाई शेष रहने | प्रत्येक एक एक पल लेकर बारीक पीसकर
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०८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५५९ ,
-
मिलादे फिर ठंडा होनेपर बीस पल मधु,
अन्य प्रयोग । हरीदाख और विजौरा १० पल और इच्छा एकैकशो दशपले दशमूलकुंभ. नुसार ईखकी गंडेलिया हालदे। फिर इसे पाठाद्वयार्कघुणबल्लभकट्फलानाम् ।
दग्धे शृते नु कलशेन जलेन पके धीके पात्रमें भरकर एक महिने तक रख
पादस्थिते गुडतुलां पलपंचकं च ॥ छोडे । इससे जो चुक्र तयार होताहै यह
दद्यात्प्रत्येकं ब्योषचव्याभयानां अर्शको दूर करने के लिये काटने की आरी बह्वेर्मुष्टी द्वे यवक्षारतश्च । के सदृश होताहै, तथा अत्यन्त अग्निसंदी
दवींमालिपन् हंति लीढो गुडोऽयं
गुल्मप्लीहाशःकुष्ठमेहाग्निसादान् ॥ पनहै । यह पांडुरोग, गररोग, उदररोग,
अर्थ-दशमूल, निसोथ, पाठा दोनों प्रकार गुल्मरोग, प्लीहा, आनाह, अश्मरी और मूत्र |
के आक, अतीस और कायफल प्रत्येक दस कृच्छ को दूर करदेताहे । अर्शनाशक औषध ।
दस पल लेकर आग में जला लेवे फिर इस द्रोणंपीलुरसस्य वस्त्रगलितंन्यस्तं हविर्भाजने को एक द्रोण जल में पकावे, चौथाई शेष युंजीतद्विपलैर्मदामधुफलाखजूरधात्रीफलैः।। रहने पर एक तुला गुड़ तथा त्रिकुटा, चव्य पाठा माद्रिदुरालभाम्लबिदुलब्यो षत्त्वगेलो
और हरड़ प्रत्येक पांच २ पल, चीता दो स्पृक्काकोललवंगवेल्लचपला मूलाग्निकैः ।
पल, जवाखार दो पल पकावै जव कलछी से
पालिकैः। लगने लगे तव उतार ले. इस गुड़ के गुडपलशतयोजितं निवाते।
सेवन करने से गुल्मरोग, प्लीहा, अशरोग निहितमिदं प्रपिवंश्च पक्षमात्रात् । निशमयति गुदांकुरान् सगुल्मा
कुष्ठ, प्रमेह और अग्निमांद्य दूर होजाते हैं । ननलबलं प्रवलं करोति चाशु।
अन्य उपाय। अर्थ-पीलूके फलों का रस एक द्रोण तोयद्रोणे चित्रकमूलतुलार्ध वस्त्रमें छानकर पीके पात्रमें भरदे और इस साध्यं यावत्पादजलस्थमप्येदम् । में धायके फूल, दाख, पिंडखजूर, आमला,
अष्टौ दत्त्वा जीर्गगुडस्य पलानि प्रत्येक दो दो पल । पाठा, रेणुका, दुरालमा
काथ्यं भूयः सांद्रतया सममेतत् ॥
त्रिकटुकमिसिपथ्याकुष्ठमुस्तावरांगअम्लवेत, त्रिकुटा, दालचीनी, इलायची, कृमिरिपुदहमैलाचूर्णकीर्णोऽबलेहः । उलूमल, स्पृक्का, बेर, लौंग, बायबिडंग, जयति गुइजकुष्ठप्लीहगुल्मोदराणि । पापलामल, और चीता, प्रत्येक एक एक प्रबलयति हुताशं शश्वदभ्यस्यमानः ॥ पछ, और गुड १०० पल, डालकर इस अर्थ-आधे तुला चीते की जड़ को पात्रको वायुरहित स्थानमें पंद्रह दिनुतक रख | एक द्रोण पानी में पकाकर एक चौथाई शेष छोडे ।-फिर इसका सेवन करनेसे गदांकर | रहने पर उतार कर छान ले इस में आठ और गुल्मरोग दूर होजाते हैं, तथा जठ-पल पुराना गुड़ मिलाकर फिर अग्नि पर राग्निके बलको शीत्रही प्रवल करदेताहै । । चढादे जब गाढा होजाय तव इसमें त्रिकुटा
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(५६०)
अष्टांगहृदय ।
सौंफ, हरड, कूठ, मोथा, दालचीनी, बाय-1 जमीकंद का अन्य प्रयोग। विंडग,चीता और इलायची इनको पीसकर चूर्णीकृताःषोडश सूरणस्य उस में मिलादे, इस अवलेह को नित्य प्रति
भागास्ततोऽर्धेन च चित्र कस्य ।
महौषधादौ मरिचस्य चैको सेवन करने से मस्से, कोढ, प्लीहा, गुल्म
गुडेन दुर्नामजयाय पिंडी॥ रोग और उदर रोग, नष्ट होजाते हैं और । अर्थ-जमीकंद के छोटे छोटे टुकडे १६ जठराग्नि भी बढजाती है।
भाग, चीता आठ भाग, सोंठ २ भाग, मिरच त्रिकुटाद्यवलेह । १ भाग इनकी गुडके साथ गोली बनाकर गुडव्योषवरावेल्लतिलारुष्करचित्रकैः। सेवन करने से अर्श नष्ट हो जाता है । . असि हतिगुटिका त्वाग्विकारं चशीलिता |
अन्य चूर्ण। अर्थ-त्रिकुटा, त्रिफला, वायविडंग,
पथ्यानागरकृष्णांकरंजवेल्लाग्निभिः तिल, भिलावा, और चीता इनको पसिकर
सितातुल्यैः। पुराने गुडमें मिलाकर गोलियां बना लेवे । | वडवामुख इव जरयति बहुगुर्वपि भोजनं इनगोलियों के सेवनसे अर्शरोग और त्वचा
चूर्णम् ॥१५९ ॥
___ अर्थ-हरड, सोंठ, पीपल, कंजा, वायविकार नष्ट होजाते हैं।
विडंग और चीता प्रत्येक समान भाग और अर्शपर जमीकंद ।
इन सबके वरावर मिश्री मिलाकर सेवन करने मृल्लिप्तं सौरणं कंदं पक्त्वाऽग्नौ पुटपाकवत् | से प्रमाण से अधिक और गरुपाकी भोजन अद्यात्सतैललवणं दुर्नामविनिवृत्तये ॥ . अर्थ-जमीकंद पर कपडमिट्टी करके पु- |
| कोभी अग्निकी तरह जला देता है। टपाककी तरह अग्निमें पकावै, फिर इसको
कलिंगादि वटिका । तेल और नमक मिलाकर सेवन करे तो
| कलिंगलांगलीकृष्णावनापामार्गतंडुलैः ।
भूनिंबसैंधवगुडैर्गुडागुदजनाशनाः॥१६० ॥ अर्शरोग नष्ट होजाता है ।
___ अर्थ-इन्द्रजौ, लांगली, पीपल, चीता, गुडादि गुटका । . ओंगाके वीज, चिरायता, सेंधा नमक इन मरिचपिप्पलिनागरचित्रकान्
को पीसकर पुराने गुडमें गोलियां बनालेवे क्रमविवर्धितभागसमाहृतान् ।
इससे गुदांकुर नष्ट होजाता है । शिखिचतुर्गुणसूरणयोजितान्
तक्रपान । .. कुरु गुडेन गुडॉन् गुदजाच्छदः अर्थ-कालीमिरच, पीपल, सोंठे, चीता
लवणोत्तमवन्हिकलिंगयवां
पिचरबिल्वमहापिचुमंदयुतान् । इनको एक एक भाग बढा करले और ची
पिब सप्तदिनं मथितालुडितान् ते से चौगुना जमीकंद इनको गुडमें मिला यदि मर्दितुमिच्छसि पायुरुहान् ॥ कर गोलियां बनालेवे, इनसे मस्से जाते अर्थ-सेंधा नमक, चीता, इन्द्रजौ, कंजा रहते हैं।
| और महानिंब, इनका चूर्ण तक्र में मिलाकर
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भ.8
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५६१
सात दिनतक पीने से मस्से जाते रहते हैं। । की मंदता से ही उत्पन्न होते हैं । अग्नि
- शुष्क अर्शमें औषध । | के प्रदीप्त होनेपर इन रोगों की उत्पत्ति शुष्केषु भल्लातकमग्यमुक्तं
नहीं होसकती है । इसलिये इन रोगों में भैषज्यमा षु तु वत्सकत्वक् । सर्वेषु सर्वर्तुषु कालशेय
विशेष करके अग्निकी रक्षा करनी चाहिये। मर्शःसु बल्यं च मलापहं च ॥१६२॥ इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषा
अर्थ-सूखी ववासीर में भिलावा, गीली टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने वबासीर में कुडाकी छाल ये प्रधान औषध अर्शश्चिकित्सितं नामाष्टमोहैं और गीली सूखी दोनों प्रकारकी बबासीर ऽध्यायः ॥ ८॥ ... में और संपूर्ण ऋतुओंमें तक प्रधान औषध हैं यह बलकारक और दोषनाशक होताहै। नवमोऽध्यायः
औषधविचार । "भित्त्वा विबंधाननुलोमनाय यन्मारतस्याऽग्निबलाय यच्च अथातोऽतीसारचिकित्सित तदन्नपानौषधमर्शसन
व्याख्यास्यामः। सेव्यं विवयं विपरीतमस्मात् । १६३ ।। अर्थ-अब हम यहांसे अतिसार चिकि
अर्थ-अर्शरोगी को उचित है कि सित नामक अध्याय की ब्याख्या करेंगे। उसी अन्नपान और औषध का सेवन करै अतीसार में लंघन । जो कफादिरूप मलकी विवद्धता का भेदन | "अतीसारो हि भूयिष्ठं भवत्यामाशयान्वयः करके वायु का अनुलोमन और अग्नि के हत्वाग्निं वातजेऽप्यस्मात्मा तस्मिल्लंघन
हितम् ॥१॥ बलको बढाताहै । तथा इससे विपरीत अर्थात्
| अर्थ-वहुधा अग्रिको मंद करके अतिवह अन्न, पान और औषध त्याग देना
सार रोग आमाशय में उत्पन्न होता है, चाहिये, जो मलकी विवद्धता, वायुका प्र
इसलिये वातज अतीसार में भी प्रथम उपतिलोम और अग्निका मांद्य करती है ।
वासरूप लंघन देना हित है । अपि शब्द अग्नि की रक्षा कर्तव्य । अतिसारग्रहणीविकाराः
से कफादिजन्य अतिसार में भी लंघन प्रायेण चान्योन्यनिदानभूताः।
हित है । प्राक् शब्द के प्रयोग से यह समझ. समेऽनले संति न संति दीप्ते ना चाहिये कि उत्तर काल में लंघन कराना रक्षेदतस्तेषु विशेषतोऽग्निम् “॥ हित नहीं है।
अथे-अशे, अतिसार और ग्रहणी ये । अतिसार में वमन । आपस में एक दूसरे के निदान हैं अर्थात् शूलानाहप्रसेकार्त वामयेदतिसारिणम् । एक रोगके होने पर दूसरा उत्पन्न होजाता अर्थ-जो रोगी शूल, पानाह और प्र. है । परन्तु विशेष करके ये सब रोग अग्नि | सेक से पीडित हो उसे वमन कराना हितहै।
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( ५६२ )
दोषविशेष में पथ्यसेवन । दोषाः संनिचिता ये च विदग्धाहारमूर्छिता अतीसारायं कल्प्यते तेषूपेक्षेव भेषजम् । भृशोक्लेशप्रवृत्तेषु स्वयमेव चलात्मसु ।
अर्थ- जो दोष अत्यंत वृद्धि को प्राप्त होगये हैं, तथा विदग्ध अर्थात् पक्कापक्क आहार से मिलाकर अतिसार उत्पन्न करते हैं उन सब उत्क्लेशजनक अर्थात् अतिसार से उउपन्न करने में समुद्यत और विना ही यत्न चलने में प्रवृत हुए दोषों में पाचनादि किसी औषधका प्रयोग न करके केवल पथ्य अर्थात् हितकारी आहार का ही सेवन कराना चाहिये ।
अष्टहृदय |
संग्राही मौषध का निषेध | • प्रयोज्यं नतु संग्राहि पूर्वमामातिसारिणि । अर्थ - अतिसार की पहिली अवस्था में संग्राही औषध देना उचित नहीं है । विबद्ध दोष में चिकित्सा | अपि चाध्मानगुरुता शूलस्तै मित्यकारिणि ॥ प्राणदा प्राणदा दोषे विवद्धं संप्रवर्तिनी ।
अर्थ - मलके बिबद्ध होने पर अर्थात् थोडा थोडा करके निकलने के कारण उदर में अफरा, भारापन, शूल और स्तिमिता उत्पन्न हो तो मलको प्रवृत करनेवाली हरीतकी प्राणों को देनेवाली होती है ।
मध्यदोषातिसार में चिकित्सा | पिवेत्प्रक्वथितांस्तोये मध्यदोषो विशोषयन् ॥ भूतीपिप्पलीशुठीवचाधान्यहरीतकीः । अथवा विल्वधनिकामुस्तानागरवालकम् ॥ विडपाठावचापथ्याकृमिजिम्नागराणि वा । शुठीघनवचामाद्रीबिल्ववत्सकहिंगु वा ॥
अर्थ - मध्यदोषवाला अतीसार रोगी लं
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अ०
घन करता हुआ कंजा, पीपल, सोंठ, बच, धनियां और हरड, इनका काढा बनाकर पीवै । अथवा बेलगिरी, धनियां, मोथा, सोंठ और नेत्रवाला अथवा विडनमक, पाठा,
वच, हरड, बायबिडंग और सोंठ अथवा सोंठ, नागरमोथा, बच, अतीस, बेलगिरी, कुडा और हींग इन चार प्रयोगों में से किसी एक को पीसकर और प्रमध्यारूप काढा बनाकर पीना चाहिये । 'प्रकथितायां ' : प्र शब्द लगाने का यह तात्पर्य है कि प्रकर्ष करक अर्थात प्रमध्यारूप से काढा बनाया जाय । प्रमध्या के लक्षण अन्यग्रन्थ में इस तरह लिखे हैं "शतः कषायो निर्यूहः क्वाथो यूषः कृतश्चसः । कृतयूषः प्रमथ्या च द्रव्यात्कल्की कृताच्छ्रुतः” ।
अल्पदोषातिसार में कर्तव्य । शस्यते त्वल्पदोषाणामुपवासोऽतिसारिणाम् अर्थ - अल्पदोषवाले अतिसार रोगीको लंघन कराना हित है । यहां तु शब्द अवधारणार्थ है अर्थात् अल्पदोष में केवल लंघनही हित है, वहुदोष और मध्यदोष में कही हुई चिकित्सा की आवश्यकता नहीं है ।
वचादि पक्व जल | वचाप्रतिविषाभ्यां वा मुस्तापर्पटकेन वा ॥ ड्रीवेरनागराभ्यां वा विपक्कं पाययेज्जलम् ।
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अर्थ - अतिसार रोग में तृषा उत्पन्न होने पर दोष, देश और कालादि की विवेचना करके कभी बच और अतीस, कभी नागरमोथा और पित्तपापडा, कभी नेत्रवाला
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म. ९
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
और सोंठ इनके साथ पकाया हुआ जल | कफपित्ताधिक अतिसार में पेया। पीनेको दे ।
शालिपर्णीबलाबिल्वैः पृश्निपा च क्षुत्क्षामातिसार में पथ्य ।
साधिता ॥ १३ ॥ युक्तेऽनकाले क्षुत्क्षामं लध्वनं प्रतिभोजयेत॥ दाडिमाम्ला हिता पेया कफपित्ते समुल्वणे तथा स शीघ्र प्राप्नोति रुचिमग्निवलं वलम्।।
'| अभयापिप्पलीमूलबिल्बैर्वातानुलोमनी ॥ ___ अर्थ-लंघन कराने के पीछे आतेसार
अर्थ-अतिसार में कफ और पित्त की रोगी को क्षुधा लगने पर उपयुक्त भोजन
अधिकता होने पर शालपर्णी, खरैटी, बेकाल में हलकॉ, अन्न खानेको दे । हलके
लगिरी, इनके साथ सिद्ध की हुई पेया में अन्न से रोगी की शीघ्रही अन्नमें रुचि
अनारदाने की खटाई डालकर पान करीव । यढ जाती है और उसकी जठराग्नि प्रदीप्त
तथा हरड, पीपलामूल और बेलगिरी इन तथा देह वलिष्ठ होता चलाजाता है।
के साथ पाक की हुई पेया का सेवन करने
से वायुका अनुलोमन होता है। अतिसार पर पान ।
वहुदोषातिसार में चिकित्सा । तणावंतिसोमेन यवाग्वा तर्पणेन वा ॥ | बिवद्धं दोषबहुलो दीप्ताग्निर्योऽतिसार्यते । सुरया मधुना वाऽथ यथा सात्म्यमुपाचरेत् | कृष्णाविंडगत्रिफलाकषायैस्तं विरेचयेत् ॥ ___ अर्थ- ऊपर की रीति से भोजन के | पेयां युज्याद्विरिक्तस्य बातघ्नदीपनैः कृताम्। पीछे तृषार्त रोगी को कभी तक्र, कभी । अर्थ-यदि अतिसाररोगी की जठराग्नि कांजी, कभी पेया, कभी तर्पण, कभी सुरा, | प्रज्वलित हो तथा विवद्ध मल थोडा थोडा कभी मधु,कभी मद्य द्वारा यथासात्म्य अ. करके निकलता हो तो उसको पीपल, र्थात् प्रकृति के अनुकूल उपचार करै।।
बायबिडंग और त्रिफला इनके काढे से __ अतिसाररोगी को भोजनादि ।।
बिरेचन देवै । विरेचन से शुद्ध होने के भोज्यानि कल्पथदूर्व ग्राहिदीपनपाचनैः ।।
पीछे वातनाशक और अग्निसंदीपन औबालविल्वशठीधायहिंगुवृक्षाम्लदाडिमैः । षधी द्वारा सिद्ध की हुई पेयापान करावै । पलाशहपुषाजाजीयवानीविडसेंधवैः॥ । आमातिसार में चिकित्सा। लघुना पंचमूलेन पंचकोलेन पाठया। आमे परिणते यस्तु दीप्तेऽनावुपवेश्यते ॥
अर्थ-ऊपर कही हुई रीति से चिकि- सफेनपिच्छं सरुजं सविबंधं पुनः पुनः। सा करके प्राही, अग्निसंदीपन और पाचन
| अल्पाल्पमल्पं समलं निर्विवासप्रवाहिकम्॥
दधिलघृतक्षीरैः स शुठी सगुडां पिवेत् । औषधियों द्वारा कल्पना करके भोजन देवै । स्विन्नानि गुडतैलेन भक्षयेद्वदराणि वा॥ वे द्रव्य ये हैं यथा-कच्ची बेलगिरी,कचूर, | गाढविविहितैः शाहुस्नेहैस्तथा रसैः॥ धनियां,हींग,वि जौरा,अनार,ढाक,जीरा,अज
क्षुधितं भोजयेदेनं दधिदाडिमसाधितैः ॥ पायन, बिड नमक, सेंधानमक,लघु पंचमूल |
शाल्योदनं तिलैर्भाषैर्मुद्रेर्वा साधु साधितम्
शुठ्या मूलकपोतायाः पाठायाः और पाठ ।
स्वतिकस्यवा॥ ॥
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। ५६४)
अष्टांगहृदय ।
अ. ९
स्नुषायबानीकर्कारुक्षीरिणीचिर्भटस्य वा। | धायके फूल, और सोंठ, इनको डालकर उपोदकाया जीवत्या बाकुच्या वास्तुकस्य वा|
तक्रके साथ पकाई हुई यवागू पक्वातिसार सुवर्चलायाश्चंचोर्वा लोणिकाया रसैरपि। कूर्मवर्तकलोपाकाशखितित्तिरिकौकुटैः॥
को नष्ट करदेती है । अथवा दहीके साथ अर्थ-जो अतिसार रोगी आमके परिपाक कैथ, दुरालभा, भाडंगी, जुई, बट, कीकर, और अग्नि के प्रदीप्त होने पर झागदार, | अनार, सन, कपास सेमर और मोचरस गिलगिला. वेदनायुक्त सविबंध, थोडा थोडा | इनके पत्ते डालकर पकाई हुई यवागू पक्काअल्प पुरीषयुक्त, वा पुरीषरहित, अथवा तिसार को दूर करती है । प्रवाहिकायुक्त मलका त्याग करता है, उसको प्रवाहिका की औषध । दही, तेल, घी, दूध और गुड के साथ कल्को विल्वशलाटूनां तिलकल्कश्च तत्समः सोंठ दे । अथवा गुड और तेल के साथ | दघ्नः सरोऽम्लः सनेहः खलोसिद्ध किये हुए बेर खानेको दे । अथवा
हंति प्रवाहिकाम् ॥२५॥ भूख के अधिक लगने पर गाढविड में कहे
अर्थ-कच्ची बेलगिरीका कल्क और तिलका हुए वास्तुकादि शाक तथा वहुत स्नेह से
कल्क दोनों समान भाग लेकर दही की खट्टी युक्त दही और अनारदाने की खटाई डाल
मलाई इनके साथमें सिद्ध की हुई खल घृत कर मांसरस के साथ शालीचांवलों का
मिलाकर सेवन करने से प्रवाहिका रोगको भात खाने को दे । अथवा तिल, उरद और | दूर करदेती है । मूंग के साथ सिद्ध किया हुआ शाली चां- । अन्य औषध । वलों का भात दे। अथवा सोंठ,छोटी | मरिच धनिकाजाजीतित्तिडीकशठीबिडम् । मूली, रहसन, स्नुषा, अजवायन, काकडी,
दाडिम धातकी पाठा त्रिफला पंचकोलकम्
यावशूकं कपित्थाम्रजंबूमध्य सदीप्यकम् । दुग्धका, फूट, पोई, जीवंती, वाकुची, व.
पिष्टैः षडगुणबिल्वैस्तैर्दनि मुद्गरसे गुडे ॥ थुआ, सुवर्चला, चुचु, लौनिया, इनके
नेहे च यमके सिद्धः खलोऽयमपराजितः । शाकों के रसके साथ शाली चांवलों को | दीपनः पाचनो ग्राही रुच्यो बिबिशिनाशनः खाय । कछुआ, बतक, लोपाक, मोर,तीतर | अर्थ-कालीमिरच, धनियां, जीरा, इमऔर मुर्गा इनके मांसरस के साथ शाली | ली, कचूर, बिडनमक, अनार, धायकेफूल, चांवलों का भात दे।
पाठा, त्रिफला, पंचकोल, जवाखार, कैथं, पक्कातिसार पर यवागू।
आमकी गुठलीकागूदा, जामनका गूदा, अविल्वमुस्ताक्षिभैषज्यधातकीपुष्पनागरैः ।
जवायन, प्रत्येक एक एक भाग बेलगिरी पक्कातीसारजित्तके यवागूर्दाधिकी तथा॥ कपित्थकच्छुराफजीयूथिकाक्टशैलजैः। छः भाग, इन सब द्रव्यों को पीसकर दही दाडिमीशणकासाशोल्मलमिोचपल्लवैः ॥ | मूंगका यूष, गुड और घी तथा तेल के साथ ___ अर्थ-बेलागरी, नागरमोथा, मेढासिंगी, | पकाई दुई खलको अपराजित कहतेहैं । यह
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अ० ९
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चिकित्सितस्थान भांषाटीकासमेत 1
अग्निसंदीपन, पाचन, ग्राही, रुचिकारक तथा प्रवाहिका को दूर करनेवाली है । अन्य प्रयोग |
tatori बालबिल्वानां कल्कै:
शालियवस्य च । मुद्रमाषतिलानां च धान्ययूषं प्रकल्पयेत्। एकघ्यं यमके भृष्टं दधिदाडिमसारिकम् । चर्चःक्षये शुष्क मुखं शाल्यन्नं तेन भोजयेत् दध्नः सरं वायमके भष्ट सगुडनागरम् । सुरां वा यमके भृष्टां व्यंजनार्थ प्रयोजयेत् फलाम्लं यमके भ्रष्ट यूषं गंजनकस्य वा । भृष्टान्वा यमके सक्तून् खादेव्यो॒षावचूर्णितान् माषान् सुसिद्धस्तद्वद्वा घृतमंडेोपसेवनान रसं सुसिद्धं पूतं वा छागमेषांतराधिजम् ॥ पचेद्दाडिमसाराम्लं सधान्यस्त्रेहनागरम् | रक्तशाल्योद्नं तेन भुंजानः प्रपिबंश्च तम् ॥ वर्चःक्षयकृतैराशु विकारैः परिमुच्यते ।
C
अर्थ- बेर, कच्चीबेलगिरी, शालीचांवल जौ, मुंग, उरद, तिल, इन सब द्रव्यों के कल्क मिलाकर मिलेहुए घी और तेल में भूने फिर दही और अनार के रसकी खटाई डालकर धान्ययूष तयार करलेवे । इस यूपके साथ शालीचांवों का भात खानेको दे अथवा दही की मलाई को घी और तेल में भूनकर गुड और सौंठ मिलाकर व्यंजन के लिये काममें लावे । अथवा घी और तेलमें भुनी हुई सुरा व्यंजन के काम में लाबै अथवा घी तेलमें भुना हुआ गाजर का यूष दाडिम आदि की खटाई डालकर व्यंजनार्थ उपयोग में लावे | अथवा यमक स्नेहमें भुने हुए सत्तू में त्रिकुटा मिलाकर सेवन करे | अथवा और मंड मिलाकर सिद्ध किये हुए उरद
घृत
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(५६५ )
खानेको दे | अथवा बकरे वा भेडेके मध्य देहका मांसरस पकाकर छानले, फिर इसमें अनार के रसकी खटाई तथा धनियां और सौंठ डालकर घी में छोकले, फिर इसके साथ रक्तशाली चांवलों का भात खाकर ऊपर से इसीको पीछेवे । इस रीति से पथ्य सेवन करने पर मलको क्षीणता से उत्पन्न हुए प्रवाहिकादि रोग शीघ्र नष्ट होजाते हैं । वालविवादिe |
बालबिल्वं गुड तैलं पिप्पलीविश्वभेषजम् लिह्याद्वाते प्रतिहते सशूलः सप्रवाहिकः । अर्थ - कच्ची वेलगिरी, गुड, तेल, पीपल और सोंठ, इनको पीसकर इनका लेह सेवन करने से वायुके प्रकोप से उत्पन्न हुई प्रवाहिका और शूलबत् वेदना नष्ट हो जाती है । अन्यप्रयोग |
फूल,
और
वल्कलं शावरं पुष्पं धातुक्या बदरीदलम् ॥ पिवेद्दधिसरक्षौद्रकपित्थस्वरसाप्नुतम् । अर्थ - लोधकी छाल, धायके वेर के पत्ते पीसकर दहीकी मलाई, शहत और कैथका रस इन सबको मिलाकर सेन करै ।
क्षीरसाहित्य का उपयोग | बिबद्ध बातवचस्तु बहुशूलप्रबाहिकः ॥ ३७ सरक्तपिच्छस्तृष्णार्तः क्षीरसौहित्यमर्हति । यमकस्योपरि क्षीरं धारोष्णं वा प्रयोजयेत् शुतमेरंडमूलेन बालबिल्वेन वा पुनः ।
अर्थ - जिस अतिसार रोगीके अधोवायु और मलकी रुकावट हो, बहुत शूल युक्त प्रवाहिका हो, और रक्त सहित पिच्छिल मल निकलता हो तो इन सब उपद्रवों के उप
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अष्टांगहृदय ।
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स्थित होने पर तृप्तिपर्ण्यन्त अर्थात् पेट भर तेल प्रयोग । कर दूध पानकरावै, अथवा यमक स्नेहपान | सिद्धं दधिसुरामडे दशमूलस्य चांभासि ॥ करके धारोष्ण दुग्ध पान करे अथवा अरंड सिंधूत्थ पंचकोलाभ्यां तैलं सद्योऽर्तिनाशनम् की जडके साथ सिद्ध किया हुआ अथवा ____ अर्थ-दही और सुरामंडमें अथवा दशकच्ची वेलगिरी के साथ मौटाया हुआ दूध मूलके क्वाथमें सेंधानमक और पंचकोल का पान करें।
चूर्ण मिलाकर तेल पकाकर सेवन करने से घेदनायुक्त आमकी दवा।
| प्रवाहिका और अतिसार से उत्पन्न हुई बे. पयस्युत्वाथ्य मुस्तानां विंशति
दना नष्ट हो जाती है । त्रिगुणेऽभसि ॥ ३९ ॥ क्षीरावशिष्टं सत्पीतं हन्यादामं सवेदनम्।
____ अन्य तेल । अर्थ-दूध चार पल, जल वारह पल, षडभिःशुट्याः पलैाभ्यां द्वाभ्यां
ग्रंथ्यग्निसैंधवात् ॥ इनको मिलाकर इसमें एक पल नागरमोथा | तैलप्रस्थं पचेना नि:स्सारकरुजापहम् । डालकर पकावे, जब दूध बचरहै, और पा- अर्थ-सोंठ छः पल, पीपलामूल, चीता मी जलजाय तव उतार कर छानले, इस और सेंधानमक प्रत्येक दो दो पल, तेल एक दूधके सेवन से वेदनायुक्त आम नष्ट |
प्रस्थ इनको ४ प्रस्थ दहीके साथ पकाकर होजाता है।
सेवन करनेसे प्रवाहिका और अतिसार से प्रवाहिका पर पिप्पल्यादि चूर्ण ।।
उत्पन्न हुई वेदना शांत होजाती है । पिप्पल्या पिबतः सूक्ष्मं रजो मरिचजन्म वा चिरकालानुषक्ताऽपि नश्यत्याशु प्रवाहिका
अन्य तैल। अर्थ-पीपल अथबा कालीमिरचको खुव | एकतो मांसदुग्धाज्यं पुरीषग्रहशूलजित् ॥ वारीक पीसकर जलके साथ पीने से बहत | पानानुवासनाभ्यंगप्रयुक्तं तैलमेकतः।। कालकी उत्पन्न हुई प्रवाहिका भी नष्ट | तद्धि वातजितामग्यं शुलं च विगुणोऽनिलः
___अर्थ-मलकी विवद्धता और शूलको दूर होजाती है। निराम रूपमें घृतपान ।
करने में एक ओर मांस, दूध और घी है निरामरूपं शूलात लंघनाद्यैश्च कर्षितम् ॥ |
है और दूसरी ओर पान, अभ्यंग और अनुवारुक्षकोष्ठमपेक्ष्याग्निं सक्षारं पाययेद् घृतम् ।। सन द्वारा प्रयुक्त किया हुआ अकेला तेल ___अर्थ-जो प्रवाहिका से पीडित रोगीकी । ही मलकी विवद्धता और शलको दूर करदे देह कृश होगई हो, कोष्ठ रूक्ष होगयाहो | ता है, इसका कारण यही है कि बातनाशऔर वेदना रहती हो तथा आमसे रहितहो । क संपूर्ण द्रव्योंमें तेल ही प्रधान है । कपितो उसकी जठराग्नि के बल और शारीरक | त वायु ही शूल है । इसलिये तेल द्वारा वायु वल पर ध्यानदेकर घीमें जवाखार मिलाकर की विगुणता दूर होने पर वायुसे उत्पन्न वेपिलाना उचित है।
| दना और मलकी विवद्धता दूर होजाते हैं।
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Acharya
अ० १
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत |
[५६७]
वायुकी विगुणता का हेतु ।
- घृतका प्रयोग। धात्वतरोपमर्दाद्वै चलो व्यापी स्वधामगः। गुदरुग्भ्रंश यायुज्यात्सक्षीरं साधितं हविः । बैलं मंदानलस्याऽपि युक्तया शर्मकरं परम् | रसे कोलाम्लचांगेोनि पिष्टे च नागरे वाय्वाशये सतैले हि वियिसी नावतिष्ठते । अर्थ-गुदाशूल और गुदभ्रंशमें कोलाम्ल
अर्थ-पित्तकफादिक अन्य धातुओं के | और चांगेरी का रस, दही, पिसी हुई सोंठ, उपमर्द अर्थात् अन्यभाव को प्राप्त होने से दूध और घी। इन को पाक विधि के अनुसार सर्वशरीरव्यापी वायु अपने स्थान अर्थात् प- पकाकर सेवन करै । ( घीसे कोलादि का काशय में ही अधिकता से रहता है । इस रस चौगुना डाला जाता है)। अवस्था में मंदाग्नि वाले. अतिसार रोगीको
घृत का अन्य प्रयोग। भी विधिपूर्वक प्रयुक्त किया हुआ तेल दुःख
तैरेवचाऽम्लैःसंयोज्यसिद्धसुश्लक्ष्णकल्कितैः को शमन करनेवाला होता है । इसका हेतु धान्योषणबिडाजाजीपांचकोलकदाडिमैः यही है कि पकाशय के सतैल होनेपर प्रत्रा- अर्थ-ऊपर कहे हुए बेर आदि खट्टे हिक किसी तरह रह नहीं सकती है ।
रस तथा धनियां, पीपल, मनयारी नमक, तैलका ही सेवन
जीरा, पंचकोल इनके अच्छी तरह पिसेहुए क्षीणे मले स्वायतनच्युतेषु दोषांतरेवारण एकवीरे।
कल्क के साथ सिद्ध कियाहुआ घी भी पूर्व को निष्टनन्प्राणिति कोष्ठशूली वत् गुणकारी होता है। नांतर्बहिस्तैलपरो यदि स्यात्
गुदशूल में स्नेहवस्त्यादि। अर्थ-पुरीषके क्षीण होने से वातको छो योजयेत्नेहवत्ति वा दशमूलेन साधितम् ड कर पित्तकफादिक अन्य दोषोंके अपने शीशताह्याफुष्टैर्वा वचया वित्रकेण वा अपने स्थानसे भ्रष्ट होजाने पर तथा वायु | अर्थ--जिसकी गुदा में शूल होता हो, के एक मात्र नायक रह जाने पर कोन प्र. | उसे दशमुल के साथ सिद्ध किया हुआ घी वाहिका वाला रोगी जी सकता है, अर्थात् अथवा कचूर, सोंफ, कूठ के साथ अथवा कोई भी नहीं जा सकता है, यदि पान, अ- | बच के साथ अथवा चीते के साथ सिद्ध भ्यंग और अनुवासन द्वारा भीतर और बा- किया हुआ घी स्नेहवस्ति द्वारा प्रयोग किये हर दोनों ओर से तैलका प्रयोग न किया जाने पर गुदभ्रंश और गुदशूल को नष्ट कर जाय । इसका सारांश यह है कि सशूल प्र. देता है। वाहिका रोगी इस दशामें खाने और लगाने
अनुवासन वस्ति । में तेलको काममें न लावैगा तो मरजायगा | प्रवाहणे गुदभ्रंशे मूत्राघाते कटिग्रहे। ( आक्रंदन पूर्व सशूलमुपवेशनं निष्ठनन्नुच्यते | मधुराम्लैः शृतं तैलं घृतं वाप्यनुवासनम् अर्थात् आक्रंदनपूर्वक वेदनायुक्त दस्त आ- अर्थ-प्रवाहण, गुदभ्रंश, मूत्राघात और ते हों उसे निष्ठनन कहते हैं)। | कटिग्रह में मधुर और अम्ल द्रव्यों से सिद्ध
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अष्टांगहृदय ।
किया हुआ घी वा तेलका अनुवासन द्वारा मल डालकर ज्वरचिकित्सा में कहे हुए षडंग प्रयोग करना चाहिये ।
पानी को देना चाहिये । तथा भूख लगने पानाभ्यंगद्वारा तैलप्रयोग। पर अग्नि को. प्रदीप्त करनेवाले वृहत्यादि प्रवेशयेद्गुदं ध्वस्तमभ्यक्तं स्वेदितं मृदु ।
गणोक्त द्रव्य, सितावर, खरैटी, बडी खरैटी कुर्याच गोफणाबंधं मध्यछिद्रेण चर्मणा अर्थ-गुदनाडी के बाहर निकल आने
और सूपपर्णी आदि द्रव्यों के साथ सिद्ध पर तैल आदि से अभ्यक्त करके और मृदु
किये हुए अन्न की पेया देनी चाहिये । स्वेदन करके भीतर को प्रवेश करदे । अ
अन्य प्रयोग ।
पाययेदनुबंधे तु सक्षौद्रं तंडुलांभसा थवा एक ऐसे चमडे से जिसके बीच में
वत्सकस्य फलं पिष्टं सवल्कं सघुणप्रियम् छिद्र हो उसमें गोफणाबंध लगा देवै । पाठा वत्सकबीजत्वग्दार्वी प्रथितशुठि वा । पित्तज गुदभ्रंश में चिकित्सा।
क्वाथंचाऽतिविषाबिल्ववत्सकोदीच्यमुस्तजे पंचमूलस्य महतः क्वाथं क्षीरे विपाचयेत्।।
| अथवाऽतिविषामूनिशेद्रयवताय॑जम् उंदुरुं चांवरहितं तेन घातघ्नकल्कवत् ।
| समध्वतिविपाशुंठीमुस्तैद्रयवकटफलम् । तैलं पचेद्गुदभ्रंशं पानाभ्यंगेन तज्जयेत् । । अर्थ-लंघन करने और पेयादि सेवन
अर्थ-महापंचमूल के काढे को और करने पर भी यदि अतिसार का अनुबंध अंत्ररहित चूहे को दूध में पकावै और इसी रहे तो उसे अतिसार वाले रोगी को इन्द्रजौ दूध में तथा वातनाशक रास्ना और अरं- कुडाकी छाल और अतीस इनके कल्क को डादिक द्रव्यों के कल्क में तेल को पकावै। शहतमें मिलाकर चांवलों के जल के साथ इस तेल को पीने और लगाने में प्रयोग सेवन करे, अथवा पाठा, इन्द्रजौ, कुडाकी करने से गुदभ्रंश दूर होजाता है । छाल, दारुहलदी, पीपलामूल, और सोंट इनको
पित्तातिसार में चिकित्सा। पीसकर शहतमें मिलाकर चांवलों के जलके पैत्ते तु सामे तीक्ष्णोष्णवज्यं प्रागिव लंघनम् | साथ सेवन करे अथवा अतीस, बेलगिरी . अर्थ-पित्तसे उत्पन्न हुए आमातिसार | कुडाकी छाल, नेत्रवाला और मोथा इनके में तीक्ष्ण और उष्ण को छोडकर वाताति- काथको अथवा अतीस, मरोडफली, हल्दी, सार में शरीरका हलका करनेवाले जो जो । इन्द्रजौ और रसौत, के काथको अथवा कर्म कहे गये हैं, वे सब करने चाहिये। अतीस,सौंठ, मोथा, इन्द्रजौ, और कायफल
पित्तातिसार में अष्टांग जलपान । इनके काथको शहत मिलाकर पानकरे । तृड्वान् पिबेत् षडंगांबु सभूनिंब ससारिवम्
अन्य प्रयोग। पेयादि क्षुधितस्यान्नमग्निसंधुक्षणं हितम् ।
म् ।। पलं वत्सकबीजस्य श्रपयित्वा रसं पिबेत् बृहत्यादिगणाभीरुद्विबलाशूर्पपणिभिः। अर्थ-पित्तज अतिसार वाले को जब ।
यो रसाशी जयेच्छीघ्रं सपैत्तं जठरामयम् ।
| मुस्ताकषायमेव वा पिबन्मधुसमायुतम् तृषा का वेग हो, तब चिरायता और अनन्त सक्षौद्रं शाल्मलीवृंतकषायं पाहिमाह्वयं
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अ० ९
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - जो अतिसारखाला रोगी एक पल इन्द्र नौका काथ, अथवा एक पल मोथा का काथ, मधुमिलाकर पीवै तौ पैत्तिक उदरोग शीघ्र नष्ट होजाते हैं । अथवा सेमर के डंठलोका काथ या हिमकषाय शहत मिलाकर पीने से भी पूर्ववत् गुण होता है । इसके ऊपर मांसरस का पथ्य है || अन्य प्रयोग |
किराततिक्तकं मुस्तं वत्सकं सुरसांजनम् कटकटेरी ह्रीवेरं बिल्वमध्यं दुरालभाम् । तिलान् मोचरसं रोधं समंगां कमलोत्पलम् नागरं धातकीपुर्ण दाडिमस्य त्वगुत्पलम् । अर्धश्लोकैः स्मृतायोगाः सक्षौद्रास्तंडुळांबुना
अर्थ - ( १ ) चिरायता, मोथा, इन्द्रजौ, रमौत, (२) दारुहलदी, नेत्रवाला, बेलगिरी और धमासा, [ ३ ] तिल, मोचरस, लोध, मजीठ और नीलकमल, [४] सौंठ, धाय के फूल, अनारकी छाल और नीलकमल । आधे आधे श्लोक में कहे हुए इन चार प्रयोगों को शहत में मिलाकर चांवलों के
के साथ पीने से पितातिसार दूर हो जाता है ।
पक्वातिसार पर काढा | निरौद्रयवरो लाक्वाथः पक्वातिसारनुत् । अर्थ- हलदी, इन्द्रजौ, लोध, और इलायची इनका काढा पान करने से पक्का - सार नष्ट हो जाता है ।
अन्य प्रयोग | रोभ्रांवष्ठाप्रियंग्वादिगणांस्तद्वत् पृथक् पिवेत्
अर्थ - लोध, पाठा, प्रियंग्वादि गणोक्त द्रव्यों का काढा शहत मिलाकर चांवलों के जल के साथ पान करें ।
७२
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( ५६९)
अन्य प्रयोग |
कवगवल्कयष्ट्या बफलिनीदाडिमांकुरैः । पेया विलेपी खलकान्
कुर्यादधदाडिमान् ॥ ६५ ॥ तद्वद्दात्थविल्यानं जंबुमध्यैः प्रकल्पयेत् ।
अर्थ - कुडा की छाल, मुलहटो, फलिनी और अनार के अंकुर इनसे सिद्ध किये हुए पेया, विलेपी और खल में दही और अना - रदाने की खटाई डालकर सेवन करे अथवा कैथ, बेलगिरी, आम और जामन की गुठली का गूदा इनसे सिद्ध किये हुए उक्त पेयादि का सेवन करै ।
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निरामातिसार में दूध |
अजापयः प्रयोक्तव्यं निरामे तेन चेच्छमः ॥ दोषाधिक्यान जायेत बलिनं तं विरेचयेत् ।
1
अर्थ-निरामातिसार में बकरी के दूधका प्रयोग करना चाहिये | जो बकरी के दूध से दोनों अधिकता के कारण शांति न हो और रोगी बलवान् हो तो विरेचन देना चाहिये, दुर्बलको विरेचन देना उचित नहीं है । अन्य प्रयोग | व्यत्यासेन शक्रद्रतमुपवेश्येत योऽपि वा ॥ पलाशफलनिर्यूहं युक्तं वा पयसा पिबेत् । ततोऽनु कोष्णं पातव्यं क्षीरमेव यथाबलम् प्रवाहिते तेन मले प्रशाम्यत्युदरामयः ।
अर्थ - अतिसार वाला रोगी यदि पहिले मल और पीछे रक्त अथवा पहिले रक्त और पीछे मल इस पर्यायकमसे पुरीषोत्सर्ग करें तो उसे केवल ढाकके फलोंका काढा पान. करावै, अथवा उक्त काढेनें दूध मिलाकर देवै, तदनंतर रोगीके बलके अनुसार सुहाता हुआ गरम दूध पीने को दे । इस दूध से मल के निकलने पर उदररोग प्रशमित होजाते हैं ।
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१९७०]
अष्टांगहृदय
अ०२
त्रायमाण का प्रयोग । नतयष्टयावकल्काज्यक्षौद्रतैलवताऽनु च । पलाशवत्प्रयोज्या बात्रायमाणाविशोधनी॥
नातो भुजीत पयसा जांगलेन रसेन वा ॥ अर्थ-ढाक के फलों के काढे के समान
पित्तातिसारज्वरशोफगुल्म
समीरणास्नग्रहणीविकारान् । ही त्रायमाणा का काढा सेवन करने से भी
जयत्ययं शीघ्रमतिप्रवृत्ति कोष्ठ शुद्ध होजाता है।
विरेचनास्थापनयोश्च बस्तिः ॥ ७५॥ शूलमें अनुवासन ।
अर्थ-सेमर के हरे डंठलों को हरी कुसंसर्या क्रियमाणायां शूलं यद्यनुवर्तते। शाओं से लपेट कर ऊपर से कालीमिट्टी मुतदोषस्य तं शीघ्रं यथावन्ह्यनुबासयेत् ॥ लपेट देवै, फिर उपलों की अग्नि से उसे __अर्थ-उक्त रीति से चिकित्सा द्वारा मल के निकाल देने से कोष्ठ के शुद्ध हो जाने
पकावै, जब मृतिका आग्न के कारण सूख
जाय, तब मिट्टी को दूर करके सेमर के पर भी यदि शूल होताहो तो जठराग्नि के बल के अनुसार उसकी शीध्रही अनुवासन द्वारा
डंठलों को कूट डाले।इसमें से चार तोले लेकर चिकित्सा करनी चाहिये ।
एक प्रस्थ दूध म मर्दन कर और छानकर
स्खले । फिर इसमें तगर और मुलहटी का अनुवासन घृत । शतपुष्पावरीभ्यां च विल्वेन मधुकेन च ।
कल्क तथा घी, शहत और तेल मिलाकर तैलपादं पयोयुक्तं पक्कमन्वासनं घृतम् ॥
रख छोडे इसको निरूहवस्ति के काम में अर्थ-सोंठ, सितावर, वेलगिरी और
लाबै स्नान करके दूध के साथ अथवा मांमुलहटी और दूध इनके साथ तेल से चौ- सरस के साथ भोजन करे । इससे पित्तागुना घी पाक करके अनुवासन के काम में | तिसार, ज्वर, सूजन, गुल्म, बातरक्त,ग्रहणी लावै ।
रोग तथा विरेचन और आस्थापन में जो . पिच्छाबस्ति । दोषों की अत्यन्त प्रवृति होती है उसे भी अशांताबित्यतीसारे पिच्छाबस्तिः परं हितः॥ शीघ्रह । नष्ट कर दता है । . अर्थ-उक्त अनुवासन से भी अतिसार | सर्वातिसार पर प्रयोग । की शांति न होतो पिच्छावस्तिका प्रयोग | फाणितं कुटजोत्थं च सर्वातीसारनाशनम् । करना चाहिये । अल्प मात्रा में जो निरूह
बत्सकादिसमायुक्तं सांबष्टादिसमाक्षिकम् । वस्ति दी जाती है उसको पिच्छावास्त क
| अर्थ-वत्साकादि गण और अंवष्टादि
गणों की औषधों से युक्त कुडा के क्वाथ हते हैं। पित्तातिसार में वस्ति ।
में शहत मिलाकर पीनेसे सब प्रकार के परिबेष्टय कुशैरानैरावृतानि शाल्मले अतिसार जाते रहते हैं। कृष्णमृत्तिकयाऽऽलिप्य स्वेदयद्गोमयाग्निना
अन्य औषध । मृच्छाषे तानि सक्षुद्य तत्पिडं मुष्टिसमितम् निरुङ्गिरामंदीप्ताग्नेरपिसानं चिरोत्थितम् । मर्दयेत्पयसः प्रस्थे पूतेनास्थापयेत्ततः। नानावर्णमतीसारं पुटपाकैरुपाचरेत् । ७७।
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
___अर्थ-जो अतिसार शूलरहित, आम- | पद्मोत्पलसमगाभिः शृतं मोचरसेन वा ॥ रहित, दीप्ताग्निवाला, सरक्त, वहुत दिन | सारिवायष्टिरोधैर्वा प्रसवैर्वा बटादिजैः। का हो और अनेक वर्षों से युक्त हो तो
| सक्षौद्रशकरं पाने भोजने गुदसेचने । ८३ ।
अर्थ-जो पित्तातिसार वाला रोगी पित्त पुटपाक द्वारा उसकी चिकित्सा करनी
कारका द्रव्यों का सेवन करता है, उसके चाहिये। अतिसार में रस विशेष ।
पित्त प्रकुपित होकर तृषा और ज्वरयुक्त
| रक्तातिसार और भयंकर गुदपाक करदेता त्वपिडाहीर्घवृतस्य श्रीपर्णीपत्रसंवृतात् । मृलिप्तादग्निना स्विन्नाद्रसं निष्पीडितहिमम्
है । इस दशा में पद्म, उत्पल और मजीठ अतीसारी पिवेद्युक्तं मधुना सितयाऽथवा । के साथ पकाया हुआ अथवा मोचरस के ___ अर्थ-दीर्घवृंत की छालका कल्क ब- साथ, अथवा सारिवा, मुलहटी, लोध इनके नाकर उसे खंभारी के पत्तों में लपेट कर साथ, अथवा बट आदि दूधवाले वृक्षों के ऊपर से मृत्तिका की तह चढादे फिर इसको पत्तों के साथ पकाया हुआ बकरी का उपलों की अग्नि में स्विन्न करके मृत्तिका | दूध खाने, पीने और गुदासेचन में को दूर करके उसका रस निकालले, इस हित है। रस में शहत वा मिश्री मिलाकर सेवन करने
अन्य रसादि। ... से अतिसार जाता रहता है ।।
तद्वद्रसादयोऽनम्लाः साज्याः
पानानयोहिताः। . अन्य प्रयोग।
काश्मर्यफलयूषश्च किंचिदम्लःसशकरः ॥ एवं क्षीरदुमत्वग्भिस्तत्प्ररोहैश्च कल्पयेत् ॥ कट्वंगत्वग्घृतयुता स्वेदितासलिलोमणा।। अथे-इसी तरह मांसरसादिक खटाई सक्षौद्रा हत्यतीसारं बलवंतमपि द्रुतम् ॥ | से रहित घी मिलाकर सेवन करना चाहिये ___ अर्थ-ऊपर कही हुई रीतिसे दूधवाले रतातिसार पर पेया। वृक्षों की छाल और अंकुरों को स्विन्न कर | पयस्योदके छागे हीबेरोत्पलनागरैः। के उनके रसमें शहत मिलाकर सेवन करे
| पेया रक्तातिसारघ्नी पृश्निपर्णी रसान्विता अथवा श्यौनाककी छाल में घी लगाकर |
प्राग्भक्तं नवनीतं वा लिह्यान्मधुसितायुतम्
। अर्थ-आधा जल मिल हुए बकरी के गरम जलकी भाफसे स्विन्न करके उसके
दूध में नेत्रवाला, उत्पल और प्रश्निपीका रसमें शहत मिलाकर सेवन करै तौ कैसा ही बलवान् अतीसार हो, शीघ्र नष्ट हो
रस डालकर सिद्ध की हुई पेयापान कराना जाता है।
चाहिये अथवा भोजन करने से पहिले शहत पित्तातिसार में अन्य प्रयोग । । ।
और मिश्री मिलाकर नवनीत का सेवन पित्तातिसारी सेवेत पित्तलान्येव यः पुनः।
करना चाहिये । रक्तातिसारं कुरुते तस्य पित्तं सतु इज्वरम् बलिष्ट रक्तमें उपाय | दारुणं गुदपाकं च तत्र छागं पयो हिवम् । बलिन्यन्नेऽस्रमेवाज मार्ग वा घृतभर्जितम्
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(५७२ ]
अष्टांगहृदय ।
क्षीरानुपानं क्षीराशी त्र्यहं क्षीरोद्भबं घृतम् | मिला हुआ प्रियंगु पीनेसे रक्तातिसार दूर कपिजलरसाशी बा लिहन्नारोग्यमश्नुते । । होजाता है। : अर्थ-रक्तातिसार में जो रक्त की वृद्धि
अन्य उपाय। हो तो घी में छोंके हुए बकरे वा मृग के | "कल्कस्तिलानां कृष्णानांरुधिर को पीना चाहिये । अनुपान में दूध,
शर्करापांचभागिकः ॥ १॥ पथ्य में दूध और दूध से निकला हुआ घी आजेन पयसा पीतः सद्यो रक्तं नियच्छति । तीन दिन तक देवै, अथवा कपिजल पक्षी | अर्थ-काले तिलोंको पीसकर उसमें का मांसरस सेवन करने से भी शीघ्र ही
| पंचमांश खांड मिलाकर वकरी के दूध के आराम होता है।
साथ सेवन करनेसे रक्तातिसार जाता रहताहै - अन्य उपाय।
__ अन्य प्रयोग। पीत्वा शतावरीकल्क क्षीरेण क्षीरभोजनः। पीत्वा सशर्कराक्षौद्रं चंदनं तंडुलांबुना ॥ रक्तातीसारं हत्याशु तया वा साधतं घृतम् |
| दाहतृष्णाप्रमोहेभ्यो रक्तस्रावाच्च मुच्यते । । अर्थ-दूध के साथ सितावर पीसकर
___ अर्थ-चांवलों के जलमें चंदन, मिश्री सेवन करै, अथवा सितावरी के साथ पका- | और शहत मिलाकर पीनेसे दाह, तृषा, मोह या हुआ घी सेवन करे और दूध का भोजन
और रक्तस्राव जाता रहता है। करे तो रक्तातिसार शीघू जाता रहताहै ।
| गुददाहादि में उपाय । । __सानिपातिक अतीसार । .
| गुदस्य दाहे पाके वा सेकलेपा हिता हिमाः
अर्थ-गुदा के दाह वा पाकमें शीतल लाक्षानागरवैदेहीकटुकादार्विवल्कलैः। सर्पिः सैंद्रयवैः सिद्ध पेयामंडावचारितम् ॥ |
| परिषेक और शीतल लेप हितकारी होतेहैं । अतीसारं जयेच्छघ्रिं त्रिदोषमपि दारुणम् ।।
रक्तातिसार में पिच्छावस्ति। ___ अर्थ-लाख, सोंठ, पीपल, कुटकी, दा- | अल्पाऽल्पं बहुशो रक्त सशूलमुपवेश्यते । रुहलदी की छाल और इन्द्रजौ इनको डाल
यदा विबद्धो वायुश्च कृच्छ्राच्चरति वान वा
पिच्छाबस्ति तदा तस्य पूर्वोक्तमुपकल्पयेत् कर पकाया हुआ घी पेया और मंडके
___ अर्थ-जिस रक्तातिसार में थोडा थोडा साथ सेवन करने पर त्रिदोषवाला दारुण
करके धार वार बहुतसा रक्त वेदना सहित अतिसार भी बहुत जल्दी दूर होजाता है |
निकलता है, वायु रुकजाती है अथवा क. अन्य उपाय। ठिनता से निकलती है वा नहीं भी निककृष्णमृच्छंखयष्टयावक्षौद्रासृक्तंडुलोदकम् लती है, तव उसे पूर्वोक्त पिच्छावस्ति देना जयत्या प्रियगुश्च तंडुलांवु मधुप्लुता। .. अर्थ- काली मृतिका, शंखकी भस्म, मु.
अन्य प्रयोग । लहटी, शहत इनको चांवलों के जलमें मि.
| पल्लवान् जर्जरीकृत्य शिशिपाकोविदारयोः लाकर पीनेसे अथवा चांवलोंके जल में शहत पचेद्यवांश्च स काथो घृतक्षीरसमान्वितः।
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(५७३)
पिच्छास्त्रतौ गुदभ्रंशे प्रवाहणरुजासु च ॥ | जलमें भिगो देवै, फिर इस जलको छानकर पिच्छाबस्तिः प्रयोक्तव्यः क्षतक्षीणबलावहः इसमें घृत पकावै । घीसे आधी शर्करा और
अर्थ -शीशम और कचनार के पत्तों को चौथाई शहत मिलाकर सेवन करे तो पूर्ववत् कूटकर इनके साथ जौका काथ बनावै । इस गुणकारी होताहै और रक्तकी प्रवृत्ति चाहै काथमें घी और दूध मिलाकर इससे पिच्छा ऊपर के मार्गसे हो, चाहै नीचे के मार्ग से वस्ति देवे तो पिच्छिल स्राव, गुदभ्रंश और हो शीघ्र दूर होजाती है। प्रवाहिका का शूल दूर होजाते हैं । यह बस्ति | कफातिसार में कर्तव्य । क्षतक्षीण मनुष्यों को बल देनेवाली है। श्लेष्मातिसारे वातोक्तं विशेषादामपाचनम् - अनुवासनवस्ति ।
कर्तव्यमनुबंधस्य पिबेत्पक्त्वाऽग्निदीपनम् प्रपौडरीकसिद्धेन सर्पिषा चाऽनुवासनम् ॥
बिल्वकर्कटिकामुस्तप्राणदाविश्वभेषजम् ।
वचाविडंगभूतीकधानकामरदारु वा ॥ ___ अर्थ प्रॉडरीक के रसमें पकेहुए घृत
अथवा पिप्पलीमूल पिप्पलीद्वयाचित्रकाः । की अनुवासन वस्ति हितहै।
अर्थ कमातिसार में उन औषों का रक्तातिसार में अवलेह। विशेष रूपसे प्रयोग करना चाहिये जो बारक्तं विटसहितंपूर्वपश्चाद्वा योऽतिसार्यते।
तातिसार में आमके पचाने के निमित्त कही शतावरीघृतं तस्य लेहार्थमुपकल्पयेत् ॥
गई हैं। इससे भी जो व्याधि की शांति न अर्थ-जिस रोगी के मलके साथ अथवा
हो तो बेलगिरी, मोथा, हरड और सौंठ, मलसे पहिले वा पीछे रक्त निकलता हो उस के लिय शतावरी घृत दैना चाहिये ।
अथवा बच, वायविडंग, अजवायन, धनिया अन्य अवलेह ।
और देवदारू अथवा पीपलामूल, दोनों पीशर्करा(शकं लीढं नवनीतं नवोद्धृतम् ।।
पल और चीता इनसे सिद्ध किया हुआ
क्वाथ पान कराना चाहिये । क्षौद्रपादं जयेच्छीघ्रं तं बिकारं हिताशिनः
अन्य प्रयोग । __अर्थ-ताजा नवनीत में आधा भाग
पाठाग्निवत्सकग्रंथितिक्ताशुंठीबचाभयाः ॥ चीनी और चौथाई भाग शहत मिलाकर |
क्वाथता यदि बा पिष्टाःसेवन करनेसे ऊपर कहेहुए रोग शीघ्र जाते
श्लेष्मातीसारभेषजम्। रहते हैं, परन्तु पथ्यसे रहना उचितहै। । अर्थ-पाठा, चीता, कुटा की छाल,
ऊर्ध्वरक्तमें उपाय। पीपलामूल, कुटकी सोंठ, बच और हरड न्यग्रोधोदुबराश्वत्थशंगानापोथ्य वासयेत् । इनका काथ वा चूर्ण सेवन करनेसे कफा. अहोरात्रं जले तप्ते घृतं तेनांभसा पचेत् ॥ | तिसार दर होजाताहै। . तदर्धशर्करायुक्तं लेहयेत्क्षौद्रपादिकम् । कफातिसारपर अन्य औषध । अधो वा यदि वाप्यूर्व यस्य रक्तं प्रवर्तते ॥ . . अर्थ-बड, गूलर और पीपल इनका | पिबेच्छलेष्मातिसारार्तश्चूर्णिता
| सौबर्चलवचाव्योपहिगुप्रतिविषाभयाः ॥ कोंपलों को कूटकर एक दिन रात गरम
"कोणबारिणा।
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(५७४)
..
अष्टांगहृदय ।
अर्थ-कफातिसार में संचलनमक, बच, अर्थ-अजवायन, पीपलामूल, चातुर्जात त्रिकुटा, हींग, अतीस और हरड इनका चूर्ण | ( दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागगुनगुने पानी के साथ सेवन करने से कफा- केसर ), सोंठ, कालीमिरच, चीता, नेत्रवाला, तिसार जाता रहता है।
जीरा, धनियां, संचलनमक, इन सबको सअन्य उपयोग।
मान भाग ले | तथा वृक्षाम्ल, धायके फूल, मध्य लीदवा कपित्थस्य सव्योषनौद्रशर्करम् पीपल, वेलगिरी, अनार और अजमोद ये कट्फल मधुयुक्त वा मुच्यत जठरामयात्। तीन तीन गुने लेवै, शर्करा वृक्षाम्लादि से .. अर्थ-कैथका गूदा, त्रिकुटा के चूर्ण से
छः गुनी और कैथ आठ गुना लेवै । इनका युक्त शहत और शर्करा मिलाकर सेवन करै
चर्ण बनाकर सेक्न करने से अतिसार,प्र. अथवा कायफल में शहत मिलाकर चाटै तौ
हणी, क्षय, गुल्मरोग, उदररोग, खांसी, श्वास उदररोग जाते रहते हैं ।
मंदाग्नि, अर्शरोग, पीनस और अरुचि रोग अन्य उपाय।
जाते रहते हैं। कणां मधुयुतालीद्वा तक्रं पीत्वा सचित्रकम्
दाडिमाष्टक चूर्ण। भुक्त्वावा बालबिल्वानिव्यपाहत्युदरामयम् अर्थ-पीपल और शहत मिलाकर चाटै |
कर्षोन्मिता तवक्षीरी चातुर्जातं द्विकार्षिकम्
| यवानीधान्यकाजाजीग्रंथिव्योषं पलांशकम् । अथवा चीता मिलाकर तक्रपान कर अथवा
पलानि दाडिमादष्टौ सिताया वैकतः कृतः कच्ची बेलगिरी का सेवन करै तो उदररोग गुणैः कपित्थाष्टकवच्चूर्णोऽयं दाडिमाष्टकः । दूर होजाते हैं।
| भोज्यो वातातिसारोक्तैर्यथावस्थं खलादिभिः अन्य प्रयोग।
अर्थ-बंशलोचन एक तोला, दालचीनी, पाठामोचरसांभोदधातकबिल्वनागरम इलायची, तेजपात और नागकेसर प्रत्येक दो सुकृच्छ्रमप्यतीसारं गुडतक्रेण नाशयेत्।। दो तोले, अजवायन, धनियां, जीरा, पीपला
अर्थ-पाठा मोचरस,मोथा,धायके फूल,बे- मूल, सोंठ, मिरच, पीपल. प्रत्येक चार चार लागिरी और सोंठ इन सब का चूर्ण खाकर | तोले ! अनार दाना १२ तोला, और मिश्री ऊपर से गुड मिलाहुआ तक पीवै तौ कष्ट- ३२ तोला इन सबका चूर्ण बना लेवै । यह साध्य अतिसार भी दूर होजाता है । दाडिमाष्टक चूर्ण कपित्याष्टक चूर्णके समान . कपित्थाष्टक चूर्ण।
गुणकारी है । इस चूर्णका सेवन वातातिसायवानीपिप्पलीमूलचातुर्जातकनागरैः
रोक्त खल और पेयादिके साथ करना चाहिये । मरिचाग्निजलाजाजीधान्यसौवर्चलैः समैः।। वृक्षाम्लधातकीकृष्णाबिल्वदाडिमदीन्यकैः
| कफातिसार परखल । त्रिगुणैः षड्गुणसितैः कपित्थाष्टगुणैः कृतः। सविंडगः समरिचः सकपित्थःसनागरः। चूर्णोऽासारग्रहणीक्षयगुल्मोदरामयान् चगिरीतक्रकोलाम्ल खलाश्लष्मातिसारजित् कालवासाग्निसादार्श पीनसारोवकान्जयेत् अर्थ-बायबिडंग, कालीमिरच, कैथ
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेत।
और सौंठ इन सब द्रव्यों को पीसकर चांगेरी अर्थ-कफ के क्षीण होनेपर दीर्घ कालातक वा बेर के रसकी खटाई मिलाकर खल | नुसंधी अतीसार के कारण दुर्वल हुई गुदा तयार करे । इससे कफातिसार नष्ट हो जाताहै में अपने स्थानमें स्थित हुई वायु अवश्य ही अन्य उपाय।
प्रवल होजाती है, यह प्रवल हुई वायु शीघ्र क्षीणे श्लेष्माण पूर्वोक्तमम्लं लाक्षादिषट्पलम् ही प्राणों का नाश कर देती है, इसलिये इस पुराणं वा घृतं दद्याद्यवागू मंडमिश्रिताम् । को शमन करने का उपाय शीघ्र करना चा. अर्थ-कफके क्षीण होनेपर गुदशूल और
हिये । वायुके शमन करने के पीछे पित्तको गुदभ्रंशमें कहा हुआ घी, यक्ष्मामें कहा हुआ
और पित्तको शमन करने के पीछे कफको लाक्षादि षटपलघृत, अथवा यवागू और मं
| शमन करना चाहिये । अथवा इन तीनों में डमिश्रित पुराना घी पान करावे ।
जो बलवान् हो पहिले उसीको जीतना चाहिये - वातकफविवंधमें पिच्छावस्ति । बातनाशक क्रियाओंका वर्णन । वातश्लेष्मविबंधे च स्रवत्यतिकफेऽपि वा। भीशोकाभ्यामपि चलः शीघ्र कुप्यत्यतस्तयोः शूले प्रवाहिकायां वा पिच्छावास्तिः प्रशस्यते कार्या क्रिया वातहरा हर्षणाश्वासनानि च ॥ वचाबिल्वकणाकुष्टशताबालवणान्वितः। अर्थ-वायु और कफके विवंधमें, अथवा
___ अर्थ भय और शोकसे वायु शीबू कुकफका अत्यन्त स्राव होनेपर, शूलवत् बेदना
पित हो जाती है, इसलिये इनसे उत्पन्न हुए में, अथवा प्रवाहिका में बच, बेलगिरी, पी
अतिसार में बातनाशक क्रिया करनी चाहि.
ये तथा भय और शोक की निवृत्ति के लिये पल, कूठ, सौंफ, और नमक मिलाकर पूर्वोक्क पिच्छावस्ति देना चाहिये ।
होत्पादक और आश्वासजनक कर्म करने
चाहिये । कफबातात में अनुवासन । . बिल्वतलेन तैलेन वचाद्यैः साधितेन वा ॥
शांतोदर के लक्षण ।
यस्योच्चाराद्विना मूत्रं पवनो वा प्रवर्तते। बहुशः कफवाताते कोष्णेनान्वासनं हितम् ।
दीप्ताग्नेलघुकोष्ठस्य शांतस्तस्योदरामयः " __ अर्थ-कफवातातिसार में बेलगिरी के तेलसे, अथवा वचादि द्वारा सिद्ध किये हुए
___ अर्थ-जव मलके विना अधोवायु और तेलको थोडा गरम करके बारबार अनुवा
| मूत्र निकलने लगे, तथा अग्नि प्रदीप्त हो सन देना हितकारी है।
और कोष्ठ हलका हो, तव जानलेना चाहि
ये कि उदररोग शांत हो गया है । क्षीणकफादि में कर्तव्य । "क्षीणे कफे गुदे दीर्घकालासारदुर्वले ॥ |
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा अनिलः प्रबलोऽवश्यं स्वस्थानस्थः प्रजायते।
टीकान्वितायां चिकित्सितंस्थाने सबली सहसा हन्यात्तस्मात्तं त्वरया जयेत् अतीसारचिकित्सितं नाम वायोरनंतर पित्त पित्तस्याऽनंतरं कफम् ।
नवमोऽध्यायः । जयेत्पूर्व त्रयाणां वा भवेद्यो बलवत्तमः ॥
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( ५७६ )
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अष्टांगहृदय |
दशमोऽध्यायः ।
अथाऽतोग्रहणीद्दोषविकित्सितं व्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहांसे ग्रहणदोषचि - कित्सित नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
ग्रहणी में अजीर्ण के उपचार | "ग्रहणीमाश्रितं दोषमजीर्णवदुपाचरेत् ! अर्तासारोक्तविधिना तस्यामं च विपाचयेत् |
अर्थ--प्रहणी में आश्रित दोष की चिकित्सा अजीर्ण के सदृश करनी चाहिये और अतीसारोक्त चिकित्सा के अनुमार आमदोष को पकाना चाहिये |
भोजन के समय यवागू आदि । अन्नकाले यवाग्वादि पंचकोलादिभिर्युतम् । वितरेत्पटुलध्वनं पुनर्योगांश्च दीपनान् ॥
अर्थ - भोजन का समय होने पर जब भूख चैतन्य हो और देह हलकी हो तब पंचकोलादि अग्निसंदीपन द्रव्यों से सिद्ध की हुई यवागू, पेया ओदन आदि देना चाहिये इसी तरह नमकीन तथा मात्रा और प्रकृति दोनों तरह से हलका अन्न एवं खांडवादि अन्य दीपन योग देने चाहियें |
आम में पेयादि । दद्यात्सातिविषां पेयामामे साम्लांसनागराम् पातीसारविहितं वारि तकं सुरादि च
अर्थ - प्रहणीरोग में आमकी अवस्था में अतीस और सोंठ के साथ संस्कृत पेया में थोडे अनार के रसकी खटाई डालकर पान कराना चाहिये । तथा अतीसारोक्त जल, _तक और सुरादि का पान करना उचित है ।
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प्र० १०
ग्रहण में क्रविधि | ग्रहणीदोषिणां त दीपनग्राहि लाघवात् । पथ्यं मधुर पाकित्वान्न च पित्तप्रदूषणम् कषायोष्णविकाशित्वाद्रक्षत्वाच्च कफे हितम् वातेस्वाद्वम्ल सांद्रत्यात्सद्यस्कमविदाहितत्
अर्थ-ग्रहणीरोग में तत्र पथ्य होता है। क्योंकि यह अग्निसदीपन, मलसंग्राही और हलका होता है । तथा मधुरपाकी होने के कारण पित्त को भी दूषित नहीं करता है कषायरसान्वित, उष्णवीर्य, विकाशी और रूक्ष होने के कारण कफ में हित होता है । तथा मधुर, अम्ल और सान्द्र अर्थात् गाढा होने के कारण वात में हित है । ताजी तक्र अविदाही होता है । इन ऊपर कहे हुए गुणों से युक्त तक ग्रहणी रोग में पथ्य होता है और इससे विपरीत गुणावीशष्ट तत्र अपथ्य होता है, जैसे-- अनुद्धृत स्नेह, व. तिस्नेह, अम्ल, असद्यस्क और विदाही । ग्रहणीदोष में चूर्ण |
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|
चतुर्णी प्रस्थमम्लानां यूषणाच्च पलत्रयम् लवणानां च चत्वारि शर्करायाः पलाष्टकम् कासाजीर्णा रुचि श्वासहत्पार्श्वमयशूलनुत् तच्चूर्ण शाकसू पान्नरागादिग्ववचारयेत् ।
अर्थ- बेर, अनार, वृक्षाम्ल और चूका इन चार प्रकारकी खटाई एक प्रस्थ, त्रिकुटा तीन पल, नमक चार पल, शर्करा आठ पल इनका चूर्ण बनाकर शाक दाल, रोटी राग षाडव आदि में मिलाकर सेवन करे, इससे खांसी, अजीर्ण, अरुचि, श्वास, हृद्रोग, पार्श्वशूल आदि जाते रहते हैं । कोई कोई ऊपर लिखी हुई खटाइयों की जगह वृक्षाम्ठ, अम्लवेत, अनार और बेर बताते हैं ।
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१०१०
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५७७]
आमनाशकपानादि ॥ काली मिरच इनके चूर्ण को गरम जलके नागरातिविषामुस्तं पाक्यमामहरं पिबेत् । साथ पीवै । उष्णांबुना वा तत्कल्कं नागरं
___ अग्निवर्द्धक पिप्पल्यादि चूर्ण । वाऽथवाऽभयाम् ससैंधवं वचादि वा तद्वन्मदिरयाऽथवा ।।
पिप्पली नागरं पाठांसारिबां वृहतीद्वयम् ।
चित्रकं कौटजं क्षारं तथा लबणपंचकम् । अर्थ--सोंठ, अतीस और मोथा इनका
| चूर्णाकृतं दधिसुरा तन्मंडोष्णांवुकांजिकैः काथ अथवा गरम जल के साथ इनका कल्क पिबेदग्निविवृद्धयर्थ कोष्ठवातहरं परम्। अथवा गरमजल के साथ केवल सोंठ वा हरड | अर्थ-पीपल, सोंठ, पाठा, सारिवा, का चूर्ण, अथवा गरम जलके साथ, वा म- | कटेरी, बडी कटेरी, चीता, कुड़ाकी छाल दिरा के साथ वचादिगणोक्त द्रव्योंके चूर्णमें | जवाखार और पांचों नमक इनका चूर्ण दही सेंधा नमक मिलाकर सेवन करने से आम | सुा, सुरामंड, उष्णजल वा कांजीके साथ का नाश होजाता है।
पान करने से जठराग्नि की वृद्धि, और आम पुरीष में उपाय ।
कोष्ठस्थ वायुका नाश होजाता है । वर्चस्यामे सप्रबाहे पिबेद्वा दाडिमांबुना
पाचन गुटका। बिडेन लबणं पिष्टं विल्वचित्रकनागरम् ।
कनारमा पनि पंच द्वौ क्षारौ मरिचं पंचकोलकम् सामे कफानिले कोष्टाऽरु करे
दीप्यकं हिंगुगुलिका बीजपूररसे कृता। कोष्णबारिणा ॥१०॥ कोलदाडिमतोये वा परं पाचनदीपनी ॥ ई-कने वा प्रवाहिका के लक्षणों से अर्थ-पांचों नमक, ( सेंधा, सांभर, युक्त पुरीष के होने पर विड नमक को
मन को बिटू, संचल और उद्भिद ) दोनों खार पीसकर अनार के जल के साथ सेवन करे
( जवाखार और सज्जीखार ) काली मिरच अथवा जो कफ और वायु आमदोष युक्त
पंचकोल, अजवायन और हींग, इनको हों और काष्ठमें वेदना होती हो तो ईषदुष्ण
विजौरे के रसमें घोटकर गोली बनालेवै । जल के साथ बेलगिरी, चीता और सोंठ
अथवा बेर और अनार के रसमें गोली बपीवै ।
नाकर सेवन करे । इससे आमका परिपाक छादि में उपाय।
और जठराग्नि की प्रदीप्ति होती है।
तालीसपत्रादि चूर्ण । कलिंगहिंग्यतिविषाबचासौवर्चलाभयम् । । छर्दिहद्रोगशूलेषु पेयमुष्णेन बारिणा
तालीसपत्रचविकामारिचानां पलं पलम् । पथ्यासोबर्चलाजाजीचूर्ण मरिचसंयुतम् ।
| कृष्णा तन्मूलयो? द्वे पले शुंठी पलत्रयम् __अर्थ-वमन, हृदयरोग और शूल हो
| चतुर्जातमुशीरं च कर्षाशं श्लक्ष्णचूर्णितम्
गुडेन वटकान्कृत्वा त्रिगुणेन सदा भजेत् ॥ तो इन्द्रजौ, हींग, अतीस, वच, संचल
मद्ययूषरसारिष्टमस्तुपेया पयोनुपः। नमक और हरड इनको गरम जलके साथ वातश्लमात्मनां छदिग्रहणीपार्श्वद्जाम्॥ पीवै, अथवा हरड, कालानमक, जीरा और | ज्वरश्वयथुपांडुत्वग्गुल्मपानात्ययार्शसाम् ।
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(५७८)
अष्टांगहृदय ।
अ.१०
प्रसेकपीनसश्वासकासानां च निवृत्तये ॥ । किंचित्संधुक्षिते त्वग्नौ सकविण्मूत्रमारुतम् । अभयां नागरस्थाने दद्यादत्रैव विडूग्रहे। यहं त्र्यहं वासनेह्य स्विन्नाभ्यक्तं निरूहयेत् छादिषु च पैत्तेषु चतुर्गुणसितान्विताः॥ तत एरंडतैलेन सर्पिषा तैल्वकेन बा । पक्केन वटकाः कार्या गुडेन सितयाऽपि वा | सक्षारेणाऽनिले शांतेस्रस्तदोषं विरेचयेत् ।। परं हि वह्निसंपर्काल्लधिमानं भजति ते ॥ अर्थ-ग्रहणीरोग में आमावस्था की चि.
अर्थ-तालीसपत्र, चव्य और काली- कित्सा ऊपर कह चुके हैं, अब निरामावस्था मिरच प्रत्येक एक एक पल, पीपल और । की चिकित्सा कहते हैं। पीपलामूल प्रत्येक दो पल, सोंठ तीनपल, ___ वातज ग्रहणीरोग में आमदोष का परिचातुर्जात और खस प्रत्येक एक कर्ष । इन | पाक होने पर पंचकोलादि अग्निसंदीपन औसबको वारीक पीसकर कपडछन करले, षधों से सिद्ध किया हुआ घी थोडा थोडा फिर इसमें सबसे तिगुना गुड मिलाकर देना चाहिये । इस तरह अग्नि के किंचिन्मागोलियां बनालेधै । इन गोलियों को सेबन | त्र बढने पर भी जो विष्टा, मूत्र और अधोफरके मद्य, यूष, मांसरस, अरिष्ट, मस्तु,
| वायु में रुकावट हो तो दो तीन दिन तक
वायु में रुकावट हो ता दाता पेया और दूधका अनुपान करे । इन गो- स्नेहन करके फिर स्नेहस्वेद देकर निरूहण लियों से वातकफाधिक्यवाले रोगियों के | वस्ति देना चाहिये । तदनंतर वायुके शांत घमन, प्रहणी, पसलीका दर्द, हृदयका दर्द होने पर अरंड के तेल से अथवा क्षारमिश्रित ज्वर, सूजन, पांडुरोग, गुल्म, मदात्यय, | तैस्वक घृत से प्रच्युत दोष का विरेचन अर्श, प्रसेक, पीनस, श्वास, और खांसी ।
| करै । दूर होजाते हैं।
अनुवासन प्रयोग । __ यदि ऊपर के लिख रोगों में मलकी शुद्धलक्षाशयं बद्धवर्चस्कं चाऽनुवासयेत् । विवद्धता हो तो सोंठ की जगह हरड़ डा
| दीपनीयाम्लवातघ्न सिद्धतैलेन तं ततः॥
निरूढं च विरिक्तंचलना चाहिये । यदि उक्त रोगों में वातक
सम्यक्चाऽप्यनुवासितम फाधिक्य की जगह पित्ताधिक्य हो तो गोली लघ्वन्नप्रतिसंयुक्तं सर्पिरभ्यासयेत्पुनः ॥ बनाने में गुड न डालकर चौगुनी मिश्री
। अर्थ-ग्रहणीरोग में विरचनादि द्वारा डालकर गोली बना लेवै । प्रथम गुड वा
कोष्ठ शुद्ध और रूक्ष होजाता है, तथा कोष्ठ चीनी को आग्नि में पकाकर अर्थात् चाशनी
के शुद्ध और रूक्ष होने पर मल में विवद्धता करके फिर इसमें उक्त द्रव्यों का चूर्ण मिला
होती है इसलिये ऐसे रोगी को दीपनीय कर गोलियां बना लेवै । ये गोलियां अनि शंठयादि, बृक्षाम्लादि और वातनाशक कठ के संपर्क से अत्यंत हलकी होजाती है । ।
रास्नादि से सिद्ध किये हुए तेल द्वारा अनुवावातग्रहणीरोग की चिकित्सा।
सन देवै । इस तरह निरूहण, विरेचन और अथैन परिपक्काममारुतग्रहणीगदम्।
| अनुवासन कर्मके पीछे उसको हलके अन दीपनीययुतं सर्पिः पाययेदल्पयो भिषक् ॥ | का भोजन कराके घी का अभ्यास करावै ।
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भ० १०
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
[५७९ ]
घृत का प्रयोग।
अर्थ-उक्त पंचकोलादि द्रव्यांका चूर्ण पंचमूलाभयाव्योषपिप्पलीमूलसैंधवैः। ।
सुहाते हुए गरम जलके साथ फांफने पर कराधाक्षीरदयाजाजीविंडंगशठिभितम् ॥ शुक्छेन मातुलिंगस्य स्वरसेनाकस्य वा।
फावृत वायु, आमदोषान्वित वा वाताधिक्य शुकमुलककोलाम्लचुक्रिकादाडिमस्य च ॥
कफ शांत होजाते हैं। तक्रमस्तुसुरामंडसौवीरकतुषोदकैः। पित्तजग्रहणी की चिकित्सा। कांजिकेन च तत्पकमाग्निदीप्तिकरं परम् ॥ | भने निर्वापकं पित्तं रेकेण वमनेन वा ।३२॥ शूलगुल्मोदरश्वासकासानिलकफापहम् । हत्वा तिक्तलघुग्राहिदीपनैरविदाहिभिः ।
अर्य-पंचकोल, हरड, त्रिकुटा, पीपला- अम्लैः संधुक्षयेदग्निं चूर्णैः स्नेहश्च तिक्तकैः। मूल, सेंधानमक, रास्ना, दोनोंक्षार ( किसी
। अर्थ-पतला होनेकी अधिकता से पित्त किसी पुस्तक में क्षारकी जगह क्षीर पाठ
अग्निको बुझादेता है, इसलिये पित्तको वमन करके गौ और बकरी का दूध ग्रहण किया
वा विरेचन द्वारा निकालकर तिक्त, लघु,प्राहै ) जीरा, बायबिडंग, कचूर, इन सब
ही, अग्निसंदीपन और अविदाही तथा अम्ल द्रव्यों को पीसले, तथा विजौरे और अदरख
द्रव्योंके चूर्ण और तिक्त द्रव्योंके स्नेहसे भ. का रस, सूखीमूली, बेर, चूका, और अनार
ग्नि को प्रवल करनेका यत्न करै । इनका काढा, तथा तक मस्तु, सुरा, मंड,
पित्तजग्रहणी पर चूर्ण । सौपीर, तुषोदक और कांजी इन सब द्रव्यों
पटोलनिवत्रायतीतितातिक्तकपर्पटम् ।
| कुटजत्वक्फलं मूर्वामधुशिग्रुफलं वचा ॥ से सिद्ध किया हुआ घी अत्यंत अग्निसंदीपन
दात्विक्पद्मकोशीरयवानीमुस्तचंदनम् । है, यह शूल, गुल्म, उदररोग, श्वास,खांसी सौराष्ट्रयतिविषाव्योषत्वगेलापनदारु च। और वातकफको दूर करदेता है । | चूणितं मधुना लेह्यं पेयं मद्यैर्जलेन वा। अन्य घृत।
हृत्पांडुग्रहणीरोगगुल्मशूलारुचिज्वरान् ॥ सवी जपूरकरसे सिद्धं वा पाययेघृतम् ॥ |
कामलां सन्निपातं च मुखरोगांश्च नाशयेत् । अर्थ-विजौरे के रसमें सिद्ध किया हुआ
___ अर्थ-पर्वल,नौम, त्रायंती, कुटकी, चिधृत पान कराना चाहिये ।
रायता, पित्तपापडा, कुडाकी छाल, इद्रन्जौ, अभ्यंग के लिये तेल ।
मूर्वा, मिष्ट सहजने के बीज, बच, दारुहलदी तैलमभ्यंजनार्थ व सिद्धमेभिश्चलापहम् ।
की छाल, पद्माख, खस, अजवायन, मोथा, मर्थ-उक्त पंचकोलादि द्रव्यों से सिद्ध
चंदन, सौराष्ट्रमृत्तिका, अतीस, त्रिकुटा, दाकिया हुआ तेल अभ्यंग में काम आता है। चीनी, इलायची,तेजपात और देवदारु इन इसके लगाने से ग्रहण रोग नष्ट होजाता है ।
सब द्रव्योंका चूर्ण मधु,मद्य, वा जलके साउक्तद्रव्यों का चूर्ण।
थ पान करै तो हृदयरोग, पांडुरोग, ग्रहणीएतेषामौषधानां वा पिवेञ्चर्ण सुखांबना ॥ रोग, गुल्म, शूल, अरुचि, ज्वर, कामला, वातेश्लेमावृते सामे कफे या वायुनोखते। | सन्निपात और मुखरोग जाते रहते हैं।
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(५८०)
अष्टांगहृदय ।
अ०१०
अन्य चूर्ण ।
और नीम प्रत्येक दो दो पल इनको एक द्रोभूनिवकटुकामुस्ताञ्चूषणेद्रयवान् समान् ॥ ण जलमें पकावे, चौथाई शेष रहनेपर छान द्वौ चित्रकाद्वत्सकत्वग्भागान् षोडश चूर्णयेत् कर इस क्वाथमें एक प्रस्थ घी तथा चिरायता, गुडशीतांबुना पीतं ग्रहणीदोषगुल्मनुत् ॥ कामलाज्वरपांडुत्वमेहारुच्यतिसारजित् ।।
इन्द्रजौ, क्षीर काकोली, पीपल, उत्पल इनका - अर्थ-चिरायता, कुटकी, मोथा, त्रिकुटा, |
कल्क डालकर पकावै, इस घीको पित्तजग्रहऔर इन्द्रजौ प्रत्येक एक एक भाग, चीता दो
णी में पान करना चाहिये, तथा कुष्टचिकिभाग, कुडाकी छाल १६ भाग, इन सबका सितमें कहा हुआ तिक्तघृत और महातिक्तघृत चूर्ण बनाकर गुडके ठंडे शतके साथ पीने
का भी इस रोगमें प्रयोग किया जाता है। से ग्रहणीरोग, गुल्मरोग, कामला, ज्वर, पांडु,
कफजग्रहणी में चिकित्सा। प्रमेह, अरुचि और अतिसार जाते रहते हैं।
ग्रहण्यां श्लेष्मदुष्टायां तीक्ष्णैः प्रच्छर्दने कृते
कट्वम्ललवणक्षारैः क्रमादाग्नं विवर्धयेत् ॥ नागरादि चूर्ण । नागरातिविषामुस्तापाटविल्वं रसांजनम् ॥
___ अर्थ-कफसे दूषित ग्रहणी रोगमें प्रथम कुटजत्वक्फलं तिक्ता धातकी च कृतं रजः।
तक्षिण द्रव्योंसे बमन कराके, कटु, अम्ल, क्षौद्रतडुलबारिभ्यां पैत्तिक्त ग्रहणीगदे ॥ लवण और क्षार द्रव्यों द्वारा क्रमसे जठराग्नि प्रवाहिकाशॆगुदरुग्रतोत्थानेषु चेष्यते।। का प्रवल करनेका यत्न करें ।
अर्थ-सोंठ, अतीस, मोथा, पाठा, बेल- कफजग्रहणी में पेया । गिरी, रसौत, कुडाकी छाल, इन्द्रजौ, कुटकी, पंचकोलाभयाधान्यपाठागंधपलाशकैः। ,
और धायके फूल शहत और चांवलोंके जल बीजपूरप्रवालैश्च सिद्धैः पेयादि कल्पयेत् ॥ के साथ फांकने से पित्तज ग्रहणी, प्रवाहिका अर्थ-पंचकोल, हरह, धनियां पाठा, गंधपत्र अर्श,गुदशूल,और रक्तजविकार शांत होजातेहैं और बिजारे के अंकुरोंसे सिद्ध की हुई पेया ... चंदनादि घृत ।। कफजग्रहणी में सेवन करना चाहिये । चंदनं पद्मकोशीरं पाठां मूर्वी फुटंनटम् ॥ कफजमहणी में आसव । षग्रंथासारिवाऽस्फोतासप्तपर्णाटरूषकान् । द्रोण मधुकपुष्पाणां विडंग च ततोऽर्धतः । पटोलोदुंबराश्वत्थवटप्लक्षकपतिनम् ॥ | चित्रकस्य ततोऽर्धच तथा भल्लातकाढकम् कटुका रोहिणी मुस्तां निवं च- . मंजिष्ठाऽष्टपलं चैतज्जलद्रोणत्रये पचेत् । .
द्विपलांशकान् ।
द्रोणशेष शृतं शीतं मध्वर्धाढकसंयुतम् ॥ द्रोणेऽपां साधयेत्तेन पचेत्सर्पिः पिचून्मितः
एलामृणालगुरुभिश्चंदनेन च रूक्षिते । किराततिक्तेंद्रयववीरामागधिकोत्पलैः।।
कुंभे मास स्थित जातमासवं तं प्रयोजयेत् पित्तग्रहण्यां तत्पेयं कुष्ठोक्तं तितकं च यत् ॥ ग्रहणी दीपयत्येष बृंहणः पित्तरक्तनुत् । - अर्थ-रक्तचंदन, पदमाख, खस, पाठा' । शोषकुष्ठकिलासानां प्रमेहाणां च नाशनः ॥ मूर्वा, श्यौनाक, बच, सारिबा, श्यामालता, स- ____ अर्थ-महुआ के फूल एक द्रोण बायबिप्तपर्णी, अडूसा, पर्वल, गूलर, पीपल, वट, डंग आधा द्रोण, चीता चौथाई द्रोण, मि., पाकर, वेत, कुटकी, हरीतकी , मोथा | लावा एक आढक, मजीठ आठ पल इन
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अ० १०
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५८१),
-
-
सबको तीन द्रोण जलमें पकावै, जब एक घृततैलद्विकुडवे दनः प्रस्थद्वये च तत् ।
| आपोथ्य क्वाथयेनौ मृदावनुगते रसे ॥ दोण रहजाय तब उतारकर छानले और ठंडा
अंतधूमं ततो दग्ध्वा चूर्णीकृत्य घृताप्लुतम् होनेपर आधा आढक शहत मिलादे और |
पिबेत्पाणितलं तस्मिन् जीर्णे स्यान्मुधुराशनः एक मिट्टी के घडे के भीतर इलायची, कमल. वातश्लेष्मामयान् सर्वान् हन्याद्विषगरांश्च सः नाल, अगर और चन्दन इनको पीसकर अर्थ-हींग, कुटकी, बच, अतीस, लेप करदे, जब सूख जाय तब इस घडे में | इन्द्रजौ, गोखरू, पंचकोल, प्रत्येक एक एक उक्त काथ भरदे और एक महिने तक बन्द | कर्ष, पांचों नमक प्रत्येक एक एक पल, करके रक्खा रहने दे । इस आसव का से- | घी और तेल दो कुडव, दही दो प्रस्थ । वन करनेसे ग्रहणी प्रदीप्त होतीहै, बल बढ हिंग्बादि को कूटकर मंदी अग्निसे पकावै ताहै पित्तरक्त दूर होजाताहै, शोषरोग, कुष्ठ, जब सब रस भीतर प्रविष्ट होजाय तब इस किलास और प्रमेह नष्ट होजाते हैं। को एक कलश में भरकर ऐसी रीतिसे अन्य आसब ।
जलावै कि धुंआं भीतरही रहै । फिर इसको मधूकपुष्पस्वरस शृतमर्धक्षयीकृतम्। . पीसकर इसमेंसे एक तोले घी में सानकर क्षौद्रपादयुत शीतं पूर्ववत्सन्निधापयेत् ॥
सेवन करे, इसके पच जानेपर मधुर पदार्थ तत्पिबन् ग्रहणीदोषान् जयेत्सर्वान् हिताशनः ___ अर्थ-महुआ के फूल एक सेर लेकर
का भोजन करे । इससे वातकफसे उत्पन्न दो सेर जलमें पकावै, आधा शेष रहनेपर
हुए संपूर्ण प्रकार के रोग, तथा बिष और उतार कर छानले, फिर इसमें चौथाई मधु
संयोगज बिष संबंधी रोग नष्ट होजातेहैं । मिलाकर पूर्ववत् एलादि लिप्त पात्रमें एक
___ अन्य क्षार ।
भनिबं रोहिणी तिक्तां पटोलं निंबपर्पटम् ॥ महिने तक रक्खा रहनेदे । इसके पीनेसे सब
दग्ध्वा महिषमूत्रेण पिवेदग्निविवर्धनम् । प्रकारके ग्रहणी रोग नष्ट होजाते है, परन्तु
___ अर्थ-चिरायता, हरड, कुटकी, पर्बल, पय्यसे रहना बहुत आवश्यकीयहै ।
नीम और पितपापडा इन सब औषधों को . अन्य आसव । जलाकर भैसके मूत्रके साथ सेवन करनेसे तद्वद्राक्षक्षुखर्जूरस्वरसानासुतान् पिबेत् ॥ जठराग्नि प्रबल होती है । __ अर्थ- ऊपर कही हुई रीतिके अनुसार
अन्यक्षार । दाख,ईख और खिजूरका आसव तयार करके | द्वे हरिद्रे वचा कुष्टं चित्रकः कटुरोहिणी ॥ पीना पूर्ववत् गुणकारक होताहै । जो स्वरस | मुस्ता च छागमृत्रेण सिद्धः क्षारोऽग्निवर्धनः न मिले तो काथ करलेना चाहिये ।
____ अर्थ-दोनों हलदी, बच, कूठ, चीता, ग्रहणी पर क्षार ।
कुटकी, और मोथा इनको जलाकर क्षार हिंगुतिक्तावचामाद्रीपाठेद्रयवगोक्षुरम। ।
बनालेबे इसको बकरी के मूत्रके साथ सेवन पंचकोलं च कर्षांश पलांश पटपंचकम् ॥ करने से अग्नि बढती है।
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अष्टांगहृदय ।
म.१.
अन्य बटिका।
भल्लातक घृत, अथवा उदर चिकित्सितोक्त चतुःपलं सुधाकांडात्रिपलंलवणत्रयात् ॥ अभयाघृत रोगानुसार देने चाहिये । वार्ताककुडवं चार्कादष्टौ द्वे चित्रकात्पले । दग्ध्वा रसेन वार्ताकाद्गुटिकाभोजनोत्तराः
अन्य धृत। भुक्तमन्नं पचत्याशु कासश्वासार्शसां हिताः | बिड काचोषलवणं स्वर्जिकायावशूकजान् ॥ विसूचिकाप्रतिश्यायहृद्रोगशमनाश्च ताः ॥ सप्तलां कंटकारी च चित्रकं चैकतो दहेत् । ' अर्थ-थूहरकी टहनी चार पल, तीनों सप्तकृत्वः तस्याऽस्य क्षारस्याऽर्धाढकेनमक ( सैंधा, संचल और विड ) तीन
पचेत् ॥ ६४॥ पल, पका हुआ सूखा बेंगन एक कुडव
| आढकं सर्पिषः पेयं तदाग्निबलवृद्धये । आक आठ पल, चीता दो पल इनको ज
___ अर्थ-विडनमक, कालानमक, खारी लाकर बेंगन के रसमें घोटकर गोलियां बना
नमक, सज्जीखार, जवाखार, सातला, क
टेरी, और चीता इन सब द्रव्यों को एक लेवे, भोजन करने के पीछे इन गोलियों का सेवन करने से खाया हुआ अन्न जल्दी
ही पात्र में रखकर जलालेवे, फिर इस राख पच जाता है, तथा खांसी, श्वास, अर्श,
को पानी में घोल घोल कर सातवार छाने, विसूचिका, प्रतिश्याय और हृदय के रोग
इस छनेहुए आधे आढक क्षारजल में एक विनष्ट होजाते हैं।
आढक घी पकाकर मात्रानुसार सेवन करने
से अग्निका बल बढ़ता है। मातुलुंगादि चूर्ण।
___ सान्निपातज ग्रहणी में कर्तव्य । मातुलुंगशठी रास्ना कटुत्रयहरीतकी। स्वर्जिकायावशूकाख्यौ क्षारो पंचपनि च निचय पचकमाणि युज्याच्चतद्यथाबलम् ॥ सुखांवुपीत तञ्चर्ण बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ ___ अर्थ-सन्निपातज ग्रहणीरोग में रोगी ___ अर्थ-बिजौरा, कचूर, रास्ना, त्रिकुटा, | के दोष के बलके अनुसार वमन, विरेचन, हरीतकी, सम्जीखार, जवाखार, और पांचों आस्थापन, अनुवासन और नस्यकर्म का नमक इनका चूर्ण गुनगुने जल के साथ | प्रयोग करना चाहिये । प्रायः ग्रहणीदोष फांकने से वल, बर्ण और अग्नि बढतेहैं। में नस्यकर्म का प्रयोजन नहीं पडा करता ___ कफज ग्रहणी में घृत ।
है । च शब्द से पृथक् पृथक् तीनों दोषों श्लैष्मिके ग्रहणीदोषे सवाते तैघृतं पचेत् ॥ मक
| में कही हुई चिकित्साभी त्रिदोषज ग्रहणी धान्वंतरं षट्पलं च भल्लातकघृताभयम् ।
रोग उपयोगी होती है। अर्थ-वातयुक्त कफज प्रहणी रोग में यहां तक चारों प्रकार के ग्रहणीरोगों उक्त मातुलंगादि द्रव्यों द्वारा सिद्ध किया | की चिकित्सा का वर्णन करके अब दोषानुहुआ घी, अथवा प्रमेहोक्त धान्वन्तर घृत, | सार और अवस्थानुसार मंदाग्नि का आश्रय पक्ष्मचिकित्सिक्तोक्त षट्पक घृत, गुल्मोक्त | लेकर चिकित्सा का वर्णन करते हैं। .
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म. १०
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६८३)
प्रतिदोषानुसार चिकित्सा । । स्नेहको उत्कृष्टता ।
| स्नेहोऽम्ललवणैर्युक्तो बहुवातस्य शस्यते। प्रसके श्लैष्मिकेऽल्पामपिन कक्षतिक्तकम्। नेहमेव परं विद्याद्दुर्वलानलदीपनम् ॥ योज्यं कृशस्य व्यत्यासात्निग्धरूक्ष कफोदये नाऽलं नेहसमिद्धस्य शमायानं सुगुर्वपि । क्षीणक्षामशरीरस्य दीपनं मेहसंयुतम् । अर्थ दुर्वल अग्निके उद्दीपनके लिये दीपनं वहुपित्तस्य तिक्तं मधुरकैर्युतम् ॥
स्नेह परम प्रधान औषधहै, इसलिये दोषकी __अर्थ-वातिक और श्लौष्मिक भेदों से
प्रतिपक्षी औषधोंसे सिद्ध किया हुआ स्नेह प्रसेक दो प्रकार का होता है । इनमें से
विशेष करके पथ्य होताहै । क्योंकि भारी मंदाग्निवाले रोगी के कफके प्रकोप से उत्पन्न
अन्नका भोजन करनेसे भी स्नेह से उद्दीहुए प्रसेक में मंदाग्नि के उद्दीपन के निमित्त रूक्ष और तिक्त द्रव्यों का प्रयोग करे । इस
पित हुई अग्नि बुझ नहीं सकती है ।
घृतका अन्य प्रयोग। में घृत वा मधुराम्ललवण द्रव्यों का उपयोग
योऽल्पाग्नित्वात्कफे क्षीणे वर्चः पक्कमपिन करना चाहिये । कफप्रसेक का यह ल
श्लथम् ॥ ६९॥ क्षण हैं 'श्लेष्मणेऽति प्रसेकेन वायुःश्लेष्मण
मुंचद्यद्वौषधयुतं स पिवेदल्पशो घृतम् ।
तेन स्वमार्गमानीतः स्वकर्माग नियोजितः ॥ मस्यतीति । मंदाग्नि के साथ कृशता हो तो
समानो दीपयत्यग्निमग्नेः संधुक्षको हि सः। कफ के उदय में पर्यायक्रम से स्निग्ध और
____ अर्थ-अग्निके मंद पडजाने के कारण रूक्ष क्रिया करना चाहिये अर्थात् स्निग्ध क्रिया
| कफके क्षीण होनेपर जिस रोगी का पक्क करके रूक्षक्रिया और रूक्ष क्रिया करके स्निग्ध । मल भी शिथिल होजाताहै, उसको उचितहै क्रिया करना चाहिये । यदि कफाधिक्यवाले कृश कि सेंधानमक और शुंठी से युक्त घृत थोडा
और रूक्ष व्यक्ति के केवल रूक्षक्रिया ही थोडा पान करे । ऐसा करनेसे समान वायु की जायगी तो कृशता बढ जायगी। और | | अपने मार्गपर आकर और अपने कर्ममें केवल स्निग्धकिया करने से कफकी नियोजित होकर अग्नि को प्रदीप्त करती वृद्धि होगी पर्यायक्रम से स्निग्धक्रिया का | है, क्योंकि समान वायु ही अग्निको उदीपन विधान है । क्षीण और क्षाम शरिवाले रोगी करनेवाली है । के कफोदय में घृतसंयुक्त पंचकोलादि दीपन
अन्य प्रयोग । औषधों की योजना करनी चाहिये । पित्ता
पुरीषं यश्च कृच्छ्रेण कठिनत्वाद्विमुचति ॥
स घृतं लवणैर्युक्तं नरोऽन्नावग्रहं पिवेत्। . धिक्य मंदाग्निवाले रोगी के लिये मधुर द्रव्यों । अर्थ-जो मनुष्य मलके कठोर होजाने से युक्त आग्निसंदीपन तिक्त द्रव्यों का प्रयोग के कारण कठिनतासे त्यागताहै, उसको करना चाहिये । वाताधिक्य मंदाग्निवाले रोगी । पांचों लवणसे युक्त घृतपान कराकर अन्न के लिये अम्ल और लवण द्रव्यों से युक्त- | का भोजन करादे, ऐसा करनेसे घृतका स्नेह हित होता है।
सहसा ऊर्ष गमन रुकजाताहै।
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८५८४]
अष्टांगहृदय ।
म. १.
रोक्ष्य में स्नेहपान । | कि भोजन के बीच पान किया हुआ धी रौक्ष्यान्मंदेऽनले सर्पिस्तैलं वा दीपनैः पिबेत् वलकारक, पुष्टिकारक भौर अग्निसीपन ___अर्थ-रूक्षता के कारण मंदाग्नि होने | होता है। पर अग्निसंदीपन औषधों से युक्त घी वा दीर्घकाल की मंदाग्नि । तेल पानकराना चाहिये।
दीर्घकालप्रसंगातु क्षामक्षीणकृशानरान् । . स्नेह से हुई मंदाग्निमें उपाय ।
प्रसहानां रसैःसाम्लोजयत्पिशिताशिनाम्
लघुष्णकटुशोधित्वाद्दीपयत्याशुतेऽनलम् । क्षारचूांसवारिष्टान् मंदे नेहातिपानतः ।
मासोपचितमांसत्वात्परं वलवर्धनम् ॥ . अर्थ- घृतादि स्नेहके अतिपान से उत्पन्न
___ अर्थ-जो रोगी बहुत दिनसे रोगग्रस्त हुई मंदाग्निमें क्षार, चूर्ण, आसव और अ.
| हो और इससे उसकी अग्नि मंद पडजाने रिष्ट पान करावै ।
के कारण दुर्वल, क्षण और कृशहो गयाहो उदावर्त में उपाय ।
उसे मांसभक्षी प्रसहजीवों का मांसरस, अउदावर्तात्प्रयोक्तव्या निरूहणस्नेहवस्तयः। ___ अर्थ-उदावर्त से उत्पन्न हुई मंदाग्नि
नारके रससे खट्टा करके भोजन में देना में निरूहण और स्नेहवस्तियों का प्रयोग
चाहिये । इसका कारण यह है कि प्रसह करना चाहिये।
| जीवों का मांसरस हलका, उष्ण और शो. दोषाधिक्य में मंदाग्नि।
धनकर्ता होता है, इसलिये अग्नि को शीघ्र दोषाऽतिवृद्ध याऽमंदेऽग्नौसशुद्धोऽन्नविधि
उद्दीप्त करता है, दूसरा कारण यहहै कि
चरेत् । प्रसह प्राणियों का मांस, मांसद्वारा उपचित अर्थ-दोषकी अतिवृद्धि से उत्पन्न हुई । होता है, इसलिये भी शीघ्र बलबर्द्धक हैं । मंदाग्नि में वमनविरेचन से शुद्ध करने के | स्नेहादि अग्निवर्द्धक । पीछे पेयादिक्रम द्वारा उपचार करना चाहिये। हासवसुरारिष्टचूर्णकाथहिताशनैः ।
व्याधियुक्त मंदाग्नि । सम्यक् प्रयुक्तैर्देहस्य बलमग्नेश्च वर्धते ॥ व्याधिमुक्तस्य मंदेऽग्नौ सर्पिरेव तुदीपनम् । अर्थ-स्नेह, आसव, सुरा, अरिष्ट, चू•
अर्थ-व्याधि दूर होनेपर भी जो मंदा- . क्वाथ और हितकारी भोजन इनका ग्नि रहै उसमें घृतपान कराने सेही अग्नि | यथायोग्य प्रयोग करने से देह और अग्नि प्रदीप्त होती है।
दोनों का वल वढता है । - मार्गादिभ्रमण से मंदाग्नि । । अग्निवर्धन में दृष्टांत । अध्वोपवासक्षामत्वैर्यवाग्वा पाययघुतम्।दीतो यथैव स्थाणुश्च बाह्योऽग्निः सारदारुभिः अन्नावपीडित वल्यं दीपनं बृहणं च तत् ॥ | सस्नेहर्जायते तदाहारैःकोष्ठगोऽनलः ॥
अर्थ-मार्गभ्रमण, उपवास, और क्षीण- अर्थ-जैसे स्नेहपदार्थयुक्त सारवृक्ष अता होने से जो मंदाग्नि होती है उसमें य- र्थात् शमी और खदिरादि की लकडियों में वागू के साथ घृतपान कराना चाहिये, क्यों- लगी हुई अग्नि प्रज्वलित और स्थिर हो
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५८५).
जाती है, वैसेही स्नेहयुक्त पथ्य आहारादि । भस्मक आग्निका शमनोपाय। के सेवन से कोष्ठाग्नि तीव्र और स्थायी तमत्यग्निं गुरुस्निग्धमंदसांद्राहिमस्थिरैः॥ होजाती है।
अन्नपाननयेच्छांति दीप्तमाग्निमिवांबुभिः। भोजनातिभोजनसे नष्टाग्नि ।
अर्थ-उस भस्मकाख्य अत्यग्निको गुरु ना भोजनेन कायाग्निर्दीप्यते नाऽतिभोजनात् । स्निग्ध, मंद, सान्द्र, हिम और स्थिर अन्नयथा निरिंधनो वह्निरल्पो वाऽतींधनान्वितः पान द्वारा शमन करना चाहिये जैसे प्रज्व
अर्थ-भोजन न करने से वा अतिभो- लित अग्नि जलसे बुझाई जाती है। . जन करने से कोष्ठाग्नि ऐसे नष्ट होजातीहै, । अजीर्णमें भोज्यादि। . जैसे वाह्याग्नि ईधन न मिलने से नष्ट हो मुहुर्मुहुरजीर्णेऽपि भोज्यान्यस्योपहारयेत्॥ जाती है वा अल्प अग्नि बहुत से ईंधन से
निरिंधनोंऽतर लब्ध्वा यथैनं न विपादयेत् । दबने के कारण नष्ट होजाती है ।
अर्थ-अजीर्णसे पीडित रोगीको भी बार अग्निवर्धनप्रकार।
बार भोजन देना चाहिये, कहीं ऐसा न हो मटा श्रीरकोप पता कि अन्नके न मिलने से रोगी ऐसे न मरजाप्रवृद्धं वर्धयत्यग्निं तदाऽसौ सानिलाऽनलः। य, जैसे ईधनके न मिलनेसे अग्नि मरजातीहै पक्वान्नमाशु धातूंश्च सर्वानोजश्च
भोजनके योग्यद्रव्य ।
संक्षिपन् । मारयेत्साशनात्स्वस्थो भुक्ते जीणे तु
कृशरां पायसं स्निग्धं पैष्टिकं गुडवैकृतम । ताम्यति ॥ ८२॥
अश्नीयादोदकानूपापिशितानि भृतानि च । तृट्कासदाहमूर्खाद्या व्याधयोऽत्यग्निसंभवाः
मत्स्यान्विंशेषतःश्लक्ष्णान स्थिरतोयचराश्चये ____ अर्थ-कफके क्षीण होने पर जब पित्त
अर्थ-जो रोगी अत्यग्निसे पीडित हो अपने स्थान अर्थात् आमाशय में प्रवृद्ध हो / उसे खिचडी, खीर, स्निग्ध द्रव्य, पिष्टक, कर तथा वायुसे संयुक्त होकर जठराग्निको / गुडके बने पदार्थ, औदक और आनूप जीवों अत्यन्त बढाता है, तब यह वायुसे संधु
का मांस, बराहादि मेदस्वी जीवों का मांस; क्षित जठराग्नि मुक्त अन्नका परिपाक कर विशेष करके इलक्ष्ण मत्स्य तथा स्थिर जल के पचाने के लिये और कुछ न मिलने के | में रहने वाली मछलियां आहारके काममें लावै । कारण संपूर्ण धातुओं को पकाकर और
मेंदे का मांस । ओजःपदार्थ का नाश करके शीघ्रही मनुष्य
आविकं सुभृतं मांसमद्यादत्यग्निवारणम्। को मारडालता हैं । अत्यन्त अग्निवाला
अर्थ -अत्यन्त मेदुर मेढे का मांस खाना मनुष्य भोजन करने से सुस्थ होजाता है
उचित है, यह अत्यग्नि को रोकता है । और भुक्त अन्न के पचने पर उपतप्त हो
दूधका विधान ।
पयः सहमधूच्छिष्टं घृतं वा तृषितः पिवेत् ॥ जाता हैं । अत्यग्नि से तृषा, खांसी, दाह,
वाह, गोधूमचूर्णपयसा, बहुसर्पिः परिप्लुतम् । और मोहादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आनूपरसयुक्तान्वा स्नेहांस्तैलविवर्जितान् ।
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(५८६)
अष्टांगहृदय ।
श्यामात्रिवृद्विपक्कं वा पयो दद्याद्विरेचनम् ।। स्तस्मिन्नष्टे याति ना नाशमेव । असकृत्पित्तहरणं पायसं प्रतिभोजमम् ।। दोषैर्ग्रस्ते ग्रस्यते रोगसंधै
अर्थ-अत्यग्नि से पीडित रोगी को प्यास युक्ते नुस्यान्नीरजो दीर्घजीवी ॥ लगने पर मोम मिलाहुआ दूध वा घी पान __ अर्थ-करोंदा, दही, सरसों, फाणित, करावै । अथवा बहुत घी डालकर दध में सूखामांस, अंकुरित अन्न, कच्चीमूली और मिला हुआ गेंहूं का चूर्ण, अथवा तेल के लकुच ये स्वभावविरुद्ध हैं । दूध खटाई, सिवाय अन्य स्नेहों से युक्त आनूप जीवों आनूप मांस और उरद ये संयोग विरुद्ध हैं का मांसरस, अथवा श्यामा और निसोथ के हरितमांस शूल पर न भुना हुआ ये संस्कार साथ पकाये हुए दूध का विरेचन देवे, | विरुद्ध है, आदि शब्द से मात्राविरुद्ध, अथवा पित्तको दूर करनेवाली खीरका बार | कालविरुद्ध और पात्रविरुद्ध अन्नों की बार आहार देवै ।
बिना विवेचना किये आहार विहारादि को चिकित्सा का संक्षेप वर्णन । सेवन करता हुआ जीवित रहता है वह सब यत्किंचिद्गुरु मेध्यं च श्लेष्मकारि च भोजनम् अग्नि के बल की सामर्थ्य है, इसलिये सब सर्व दत्याग्निहितं भुक्त्वा च स्वपनं दिवा॥ प्रकार से अग्निकी रक्षा करनी चाहिये, ___ अर्थ-वे संपूर्ण द्रव्य जो भारी, मेदस्कर | क्योंकि अग्नि के नष्ट होने से मनुष्य. शीघ्र और कफकारक हैं वे सब अत्यग्निमें हितहैं
मरजाता है । अग्नि के दोषों से ग्रस्त होने और भोजन करके दिनमें सौना भी | पर मनुष्य अनेक प्रकार के रोगों से प्रस हित है।
लिया जाता है । और यदि अग्नि स्वच्छ उक्त कथन का हेतु। हो तो मनुष्य निरोग रहता है और बहुत आहारमग्निः पचति दोषानाहारबर्जितः। | काल तक जीवित रहता है। धातून क्षीणेषु दोषेषु जीवितं धातुसंक्षये ॥
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा- अर्थ अत्यग्नि प्रथम आहार को पचाती
टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने ग्र. है, आहार न मिलने पर बातादि दोषों को
हणीदोषचिकित्सितं नाम तदनंतर रसरक्तादि धातुओं को पचाती है,
___दशमोऽध्यायः॥१०॥ तथा दोषों के क्षीण - और धातुओं का संचय होने पर प्राणों का नाश करदेतीहै ।
विरुद्ध अन्न का वर्णन । एकादशोऽध्यायः। एतत्प्रकृत्यव विरुद्धमन्नं सयोगसंस्कारवशेन चेदम् । इत्याद्यविज्ञाय यथेष्टचेष्टा
अथाऽतोमूत्राघातचिकित्सितं व्याख्यास्यामः श्चरति यत्साऽग्निवलस्य शक्तिः॥
अर्थ-अब हम यहांसे मूत्राघात चि. तस्मावाठी पालयेत्सर्बयत्वै. | कित्सित नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
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०११
चिकित्सितस्थान भाषाकासभेत।
(५८७ )
मूत्राघात में स्वेदादि ।
उक्त रोग पर मद्यपान । "कृच्छे बातघ्नतैलाक्तमधोनाभेः समीरजे। सौवर्चलाढ्यां मदिरा पिवेन्मुत्ररुजापहाम। सुस्निग्धैः स्वेदयेदगं पिंडसेकावगाहनैः।१।।. अर्थ-मूत्रकृछ की वेदना की शांति के
अर्थ-बातज. मूत्राघात में वातनाशक लिये बहुत सा कालानमक डालकर मद्य. बलातैलादि से अभ्यंग करके नाभि के | पान करना चाहिये । नीचे के भाग में अच्छीतरह से स्निग्ध पैत्तिक मूत्राघात में उपाय। पिंडस्वेद, परिषेक और अवगाहन से स्वेदन | पैत्ते युजीत शिशिरं सेकलेपाबगाहनम् ॥ करै।
___ अर्थ-पित्तज मूत्राघात में ठंडे सेक,लेप शूलनाशक तैल।
और अवगाहन करने चाहिये । दशमूलवलैरंडयवाभीरुपुनर्नवैः ।।
अन्य उपाय। कुलत्थकोलपत्तरवृश्चीवोपलभदकैः । २। पिवेदरीं गोक्षुरकं विदारी सकसेरुकाम् । तैलसर्विराहक्षवसाकथितकल्कितैः। तृणाख्यं पंचमूलं च पाक्यं समधुशर्करम् । संपंचलवणाः सिद्धाः पीताः शूलहरा परम् । अर्थ-सितावर, गोखरू, विदारी कंद,
अर्थ-दसमल, खरैटी, अरंड शतमूली | कसम और तण पंचमल दुतके काथ में सांठ, कुलथी, बेर, रक्तचंदन, लालसांठ,
शहत और शर्करा मिलाकर पान करने से और पाखानभेद इनके क्वाथ और कल्क के
पित्तज मूत्राघात नष्ट होजाता है। साथ तेल घी अथवा शूकर वा घुग्घू की
अन्य उपाय। चर्वी को पकाकर पांचों नमक मिलाकर
वृषकं पुसैर्वारु लट्वावीजानि कुंकुमम् । सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र की बेदना शांत
द्राक्षांभोभिः पिबेत्सर्वान्मूत्राघातानपोहति॥ होजाती है।
___ अर्थ-पाषाणभेद, खीरा के बीज,कसूम अन्य प्रयोग।
के बीज, और केसर इन सव द्रव्यों के द्रव्याण्येताति पानान्ने तथा पिंडोपनाहने।। करक को द्राक्षा के रसके साथ पीने से सहतलफलैंयुज्यात्साम्लानि नेहवति च ॥ सब प्रकारके मूत्राघात नष्ट होजाते हैं। ___ अर्थ-मूत्रकृच्छ् के निवारण के लिये
__ अन्प उपाय। ऊपर लिखे हुए दशमूलादि द्रव्यों की अन्न
| एवारुवीजयष्टयावदार्वीर्वा तंडुलांबुना। पान में योजना करै । तथा नारियल और
| तोयेन कल्कं द्राक्षायाः पिवेत्पर्युषितेन वा ॥ अखरोट आदि तैल फल को तक वा कांजी | अर्थ-ककडी के बीज, मुलहटी, और की खटाई से युक्त करके और बहुत सा | दारुहलदी इनके कल्कको चांवलोंके जलके स्नेह डालकर पिंडस्वेद और उपनाह स्वेद, साथ पान करै, अथवः दाखके कल्कको बादेना चाहिये । कोई २ तैल फलसे तिलों सी जलके साथ पानकरै तो पैतिक मत्राघात का ग्रहण करते हैं।
| शांत हो नाता है।
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( ५८८ )
कफज मूत्राघात में उपाय | कफजे वमनं स्वेदं तीक्ष्णोष्णककुभोजनम् । यवानां विकृतीः क्षारं कालशेयं च शीलयेत्.
अर्थ-कफज मूत्रकृच्छ्रमें वमन, स्वेदन, तीक्ष्ण उष्ण और कटु भोजन, जौके बने हुए खाद्य पदार्थ, जवाखार और घोल हितकारी होते हैं अन्य प्रयोग |
अष्टांगहृदय ।
खरू,
पिबेन्मद्येन सुक्ष्मैलां धात्रीफलरसेन वा । सारसास्थिश्वदंष्ठैलाव्योपं वा मधुमृत्रवत् ॥ स्वरसं कंटकायी वा पाययेन्माक्षिकान्वितम् शितिवारकबीजं वा तक्रेण श्लक्ष्णचूर्णितम् धवसप्ताह्वकुटजं गुडूचीचतुरंगुलम् | कटुकैलाकरंजं च पाक्यं समधुसाधितम् ॥ तैर्वा पेयां प्रवालं वा चूर्णितं तंडुलांबुना । सतैलं पाटलाक्षारं सप्तकृत्वाऽथवा शृतम्
अर्थ - मद्य के साथ छोटी इलायची पीस कर पानकरै, अथवा आमले के रस के साथ इलायची पावै । अथवा सारसकीं अस्थि, गोइलायची और त्रिकुटा इनके चूर्ण में शहत और गोमूत्र मिलाकर पानकरै, अथवा कटेरी के रस में शहत मिलाकर पीने, अथवा कंजेके वीज बारीक पीसकर तक के साथ पावै, अथवा घायके फूल, सातला, कुडाकी गिलोय, अमलतास, कुटकी, इलायची छाल, कंजा, इनके काढेमें शहत डालकर पीवै, अथवा घायके फूल आदि उक्त द्रव्यों के साथ सिद्ध की हुई पेया पान करे । अथवा मूंगे की भस्म चांवलोंके जल के साथ पीवै, अथवा पाटला के क्षारको जल में घोलकर सात वार छानकर इस क्षारजलमें तेल मिलाकर पीवै । अन्य अवलेह | पाटलीयावशूकाभ्यां पारिभद्रं तिलादपि ।
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म० ११
क्षारोदकेन मदिरां त्थगेलोषकसंयुतम् ॥ पिबेद्गुडोपदंशान्वा लिह्यादेतान् पृथक्पृथक् अर्थ - पाटला का क्षार और जवाखार अथवा नीमखार और तिलखार इनको जल में घोलकर इस क्षारजल के साथ मदिरा तथा उसमें दालचीनी, इलायची, और क्षार मृत्ति
AI
का मिलाकर पीवै अथवा दालचीनी, इलायची और क्षारमृत्तिका को गुडकी चाशनी के थ अलग अलग मिलाकर चाटै । सान्निपातिक मूत्राघात । सन्निपातात्मके सर्वे यथावस्थमिदं हितम् ॥ अश्मन्यथ चिरोत्थाने वातवस्त्यादिकेषु चा
अर्थ - ऊपर जो पृथक् पृथक दोषों से उस्पन्न मूत्रकृच्छ्र में चिकित्सा कही गई हैं वेही सव सांन्निपातिक मूत्रकृच्छ्र में रोगीकी अवस्था पर विचार करके काममें लावै । थोडे कालके अश्मरी रोग, वातवस्ति, वातकुंडलि का रोगों में उक्त रीति से चिकित्सा कर्तव्य है । अश्मरी में कर्तव्य |
1
अश्मरी दारुणो व्याधिरंतकप्रतिमो मतः ॥ तरुणो भेषजैः साध्यः प्रवृद्धश्छेदमर्हति ।
अर्थ - पथरी रोग बडा भयंकर होत! है, यह साक्षात् यमका सहोदर है, नये हुए रोग में औषध काम देजाती है, परंतु पुराना होने पर जब बढ जाता है तब अत्रप्रयोग की आवश्यकता होती है ।
पथरी के पूर्वरूप में कर्तव्य | तस्य पूर्वेषु रूपेषु स्नेहादिक्रम इष्यते ॥ १७
अर्थ - पथरी के पूर्वरूप में स्नेह, स्वेदन और वमन द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये ।
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अश्मरी में स्नेहविधि । पाषाणभेदो वसुको वाशिरोऽश्मंतको वरी ।
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अ० ११
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत 1
(५८९]
कपोतवंकातिबलाभल्लकोशीरकंतकम् ॥१८ | पाटली, पाठा, रक्तचंदन, कुरंटक, और वृक्षादनी शाकफलं व्याघ्री गुंठास्त्रकंटकम् ।। सांठ इनके काढे में उक्त पुसादि (खीरा यबाः कुलत्थाः कोलानिधरुणः कतकात्फलम् ऊषकादिप्रतीवापमेषां काथे शृतं घृतम्।
ककडी,और कसूमके बीज)के वीज,नीलकमल भिनत्ति वातसंभूतां तत्पीतं शीघ्रमश्मरीम् । क वाज मुलहटा मार शिलाजात का कल्क __ अर्थ-पाखानभेद, शोरा, खारीनमक, | डालकर घृत पकावै,इस घृतका सेवन करने से अश्मंतक, सितावर, ब्राह्मी, अतिबला, श्यौ- [ पित्तज अश्मरी के टुकडे होजाते हैं । नाक, खस, कंतक, रक्त चंदन अमर- कफजअश्मरी की चिकित्सा । बेल, शाकफल, कटेरी, गुंठतृण, गोखरू, | वरुणादिः समीरघ्नौ गणावेलाहरेणुका। जौ, कुलथी, बेर, वरुणा और निर्मली इन |
| गुग्गुलुर्मरिच कुष्टं चित्रका ससुरावयः॥
| तैः कल्कितैः कृतावापमूषकादिगणेन च । सत्र द्रव्यों के काढे में ऊषकादि गणोक्त भिनत्ति कफजामाशु साधित घृतमश्मरीम् द्रव्यों का प्रतीवाप देकर घृत पकावै, इस ___अर्थ-वरुणादिगण, वीरतरादिगण, वि. घीके पीने से वातज अश्मरी नष्ट होजाती | दार्यादिग़ण, इलायची, रेणुक, गूगल, है ( उषकादिगणः-क्षीरमृतिका, सेंधानमक
कालामिरच, कूठ, चीता, देवदारू, और शिलाजीत, दोनों प्रकार का कसीस हींग | उपर कहे दुए ऊषकादिगण इन संवका और तूतिया )।
कल्क कर के घृत पकावै । इस घृत के सेवाताश्मरी का भेदन पान । वन करने से कफज अश्मरी के टुकडे हो गंधर्वहस्तवृहतीव्यात्रीगोक्षुरकेचरात् ।। जाते हैं। मूलकल्कं पिबेदना मधुरेणाऽश्मभेदनम् ॥
क्षारादि विधि । ___ अर्थ-अरंड, दोनों कटेरी, गोखरू का- क्षारक्षारयवाग्वादि द्रव्यैः स्वैः स्वैश्चलाईख इनकी जड़ को पसिकर मीठे दही के
कल्पयेत् । साथ पीने से पथरी टुकडे टुकडे होकर अर्थ-अपने अपने योग्य द्रव्यों से क्षानिकल जाती है।
र,दूध,और यवागू आदि की कल्पना करनी पित्ताश्मरी की चिकित्सा । ।
चाहिये । कुशः काशःशरो गुंठ इत्कटो मोरटोऽश्मभित्
शर्करा का उपाय । दर्भो विदारी वाराही शाली मूलं त्रिकंटका
| पिचुकांकोल्लकतकशाकेंदीवरजैः फलैः ॥ भल्लुकः पाटली पाठा पत्तरः सकुरंटकः। | पीतमुष्णांबु सगुडं शर्करापातनं परम् । पुनर्नवा शिरीषश्च तेषां काथे पचेद्धृतम् ॥
अर्थ-कंजा, कंकोल, निर्मली, शाकफल' पिष्टेन पुसादीनां बीजेनेदीवरेण वा। और नीलकमल के बीज इनके उष्ण काढे मधुकेन शिलाजेन तत्पित्ताश्मरिभेदनम् ॥ | को गुड के साथ पान करै, इससे शर्करारोग
अर्थ-कुश, काश, सर, गुंठतृण, इत्कट | दूर होजाता है । मोरट, पास्वानभेद, दाभ, निदारीकंद, बा- शर्करा का अन्य उपाय । राहीकंद, चौलाई की जड़,गोखरू,श्यौनाक, | काँचोष्टरासभास्थीनि श्वदंष्टा तालपत्रिका ।
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। ६९०)
अष्टामहृदय ।
अजमोदाकदवस्य मूलं बिल्वस्य चौषधम् । अथवा ब्राह्मी डालकर सिद्ध किया हुआ दूध पीतानि शर्करां भिंद्यः सुरयोष्णोदकेन वा ॥ पीब, अथवा हरीतकी की गुठली वा पुन__ अर्थ-ब गुला, ऊंट और गधे की आस्थ
नवा से सिद्ध किया हुआ दूध पीवै, अथवागोखरू, तालपत्री, अजमोद, कदंवकी जड,
मयूरशिखा की जड चांबलों के पानीके माथ वेलगिरी और सोंठ इनके कल्क को मद्य वा
| पान करे और दूधके साथ अन्नका पथ्यकरै गरम जल के साथ पान करने से शर्करा
___मूत्राघात में क्रियाविभाग | रोग जाता रहता है।
मूत्राघातेषु विभजेदतः शेषेष्वपि क्रियाम् ॥ अश्मरी पर चूर्ण ।
अर्थ-मूत्रातीतादि बचे हुए मूत्राघात रोगों नृत्यकुंडकबीजानां चूर्ण माक्षिकसंयुतम् । में उन चिकित्साओं की विवेचना करके दे. अविक्षीरेण सप्ताह पीतमश्मरिपातनम् ॥
ना चाहिये जो ऊपर कहींगई हैं । अर्थ-तुवरी के बीजों का चूणे शहत में मिलाकर खाय उपर से भेडका दूध पीवै
सब प्रकारके मूत्राघात की चिकित्सा।
बृहत्यादिगणे सिद्धं द्विगुणीकृतगोक्षुरे । इस तरह सात दिन करने से अश्मरी रोग
तोयं पयो वा सर्पिो सर्वमूत्रविकारजित् जाता रहता है।
__ अर्थ-वृहत्यादि गणोक्त द्रव्य और दुगु__अश्मरी पर क्वाथ । ना गोखरू इनका काढा अथवा इनके साथ काथश्च शिपमूलोत्थः कदूष्णोऽश्मरिपातनः सिद्ध किया हुआ द्ध बा घृत सव प्रकारके
अर्थ-सहजने की जडका काढा गरम मसाविमा कोटा देता। गरम पीने से अश्मरी रोग दूर होजाता है।
देवदादि पान । अश्मरी पर क्षार । देवदारुं धनं मृा यष्टी मधु हरीतकीम् । तिलापामार्गकदलीपलाशयवसंभवः। ३१ । मूत्राघातेषु सर्वेषु सुराक्षीरजलैः पिवेत् ॥ क्षारःपेयोऽविमूत्रेण शर्करास्वश्मरीषु च ।।
अर्थ-देवदारु, नागरमोथा, मर्वा, मुलअर्थ-तिल, ओंगा, केला, ढाक और
हटी और हरीतकी इनमें से किसी एक द्रजो इनका क्षार भेडके दूध के साथ पीनेसे
व्यको सुरा, क्षीर वा जलके साथ पानकरने शर्करा और अश्मरी जाते रहते हैं।
| से सब प्रकार के मूत्राघातरोग दूर होजाते हैं। अश्मरी पर कपोतवंका।
धन्वयासरसादिपान । कपोतबंकामूलवा पिवेदेकं सुरादिभिः॥
रसं वा धन्वयासस्य कषायं ककुभस्य वा । तसिद्धं वा पिवेत्क्षीरं वेदनाभिरुपद्रुतः। सुखांभसावा त्रिफलांपिष्टां सैंधवसंयुताम् हरीतक्यास्थिसिद्धं वा साधितं वापुनर्नवैः॥
ब्याघ्रीगोक्षुरककाथे यबाणू वा सफाणिताम् क्षीरानभुग्बहिशिखामूलं वा तंडुलांवुना ।
काय धीरतरादेवी तात्रचूडरलेऽपि वा ॥ अर्थ-अश्मरी और शर्करा रोग में वेद- अद्याद्वीरतराद्येन भावितं वा शालाजतु । ना होती हो तो केवल ब्राह्मी की जड पीस | अर्थ-जवासे का रस, वा अर्जुन का कर सुरा वा उष्ण जलके साथ पान करै, ] क्वाथ, अथवा त्रिफला और सेंधानमक पीस
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म.११
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५९१ ।
कर गरम जल के साथ, अथवा कटेरी और | विशुद्धि के निमित्त बलवान् पुरुषको उचित गोखरू के काढ़े में सिद्ध की हुई यवागू गुड | है कि तृप्ति पर्यन्त पौष्टिक द्रव्य और मुर्गे की राब के साथ, अथवा वीरतरादि गण के | के मांसरस का यथेच्छ सेवन करे और काढे अथवा मुर्गे के मांस रस के साथ सिद्ध मददायिनी कामिनी गणों के साथ उपकी हुई पेया अथवा वीरतरादि गणोक्त भोग करे। द्रव्यों के काढे की भावना दिया हुआ अश्मरी के इलाज में राजाज्ञा । शिलाजीत सेवन करै ।
सिद्धरुपमैरोभिन चेच्छान्तिस्तदा भिषक ___ अन्य उपाय ।
इति राजानमापृच्छय शत्रं साध्वषचारयेत् मावा निगद पीत्वा रथेनाश्वन वा ब्रजन् । ___ अर्थ-ऊपर कही हुई चिकित्साओद्वारा शीघ्रवेगेन संक्षोभात्तथाऽस्य च्यवतेऽश्मरी यदि अश्मरी की शांति नहो तो राजाकी आज्ञा ___ अर्थ-पुराना मद्य पीकर शीघ्रगामी लेकर शस्त्रकर्म में प्रवृत्त होवै । रथ में बैठकर वा घोडे पर चढकर चलने
प्रश्न की रीति । से सक्षोभ उत्पन्न होने के कारण पथरी आक्रियायां ध्रुवो मृत्युः क्रियायां संशयोनिकल जाती है।
भवेत् ॥४४॥ निश्चितस्याऽपि वैद्यस्य बहुशःअन्य उपाय ।
सिद्धकर्मणः। सर्वथा चोपयोक्तव्यो वर्गो वीरतरादिकः ॥ अर्थ-हे राजन् ! अश्मरीरोग में शस्त्र रेकार्य तैल्वक सर्विस्तिकर्म च शीलभेत् ।
कर्म न करने से रोगी की मृत्यु अवश्य विशेषादुत्तरान् बस्तीन
अर्थ-वीरतरादि गणोक्त द्रव्यों का । हागा आर शस्त्रकर्म करने से शास्त्रार्थवित् काढा पेया और जलाद द्वारा सब प्रकार और अनेक बार सिद्धकर्म बैद्यको भी रोगी उपयोग में लाना अश्मरीमें हितकारक है। के जीने न जीने में संदेह होता है । इस विरेचन के लिये तैल्यकघृत का प्रयोग रीति से राजाकी अनुमति लेकर नीचे लिखी करना चाहिये वस्तिकर्म में विशेष करके | रीति से शस्त्रकर्म में प्रवृत होना उचितहै । उत्तर वस्ति का प्रयोग करना हितकारी है। शस्त्रकर्म में कर्तव्य । शुक्राश्मरी की चिकित्सा। अथाऽतुरमुपस्निग्धशुद्धीषश्च कर्शितम् ॥ शुक्राश्मर्या च शोधिते ॥४१॥
अव्यक्तस्विन्नवपुषमभुक्तं कृतमंगलम् । तैर्मत्रमार्ग बलवान् शुक्राशयविशुद्धये ।।
आजानुफलकस्थस्य नरस्यांके व्यपाश्रितम् पुमान् सुतृप्तो वृष्यागां मांसाना
पूर्वेण कायनोत्तानं निषण्णं वनचुभले ।
ततोऽस्याऽऽकुंचितेजानुकूपरे बाससा दृढम् कुक्कुटस्य च ॥ ४२ ॥
सहाश्रयमनुष्येण बद्धस्याऽऽश्वासितस्य च। कामं सकामाः सेवेत प्रमदा मदायिनीः।
नाभः समतादभ्यज्यादधस्तस्याश्च___ अर्थ-शुक्राश्मरी में उत्तरवस्ति द्वारा
वामतः॥४८॥ मूत्रमार्ग के शुद्ध होने पर शुक्राशय की मृदित्वा मुष्टिना काम यावदश्मर्यधोगता।
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Singer |
( १९२ ]
तैला के वर्धितनखे तर्जनीमध्यमे ततः ॥ अदक्षिणे गुर्दे ऽगुल्यो प्रणिधायाऽनु सेवनीम् आसाद्य वलयं नाभ्यामश्मरीं गुदमेढ्योः ॥ कृत्वांतरे तथा बस्ति निर्बलीकमनायतम् । उत्पीडेयद्गुलिभ्यां यावद्ग्रंथिरिवोन्नतम् शल्यं स्यात्सेवनी मुक्त्वा यवमात्रेण पाटयेत् अश्ममानेन न यथा भिद्यते सा तथा हरेत् समग्रं सर्पवक्रेण स्त्रीणां बस्तिस्तु पार्श्वगः । गर्भाशयाश्रयस्तासां शस्त्रमुत्संगवत्ततः । म्यसेद्तोऽन्यथा ह्यासां मूत्रस्स्रावी प्रणोभवेत् | मूत्रप्रसेकक्षरणान्नरस्याऽप्यपि चैकधा बस्तिभेदोऽश्मरीहेतुः सिद्धिं याति न
|
अ० ११
|
वांई ओर की सीमन तक प्रवेश करदे और नाभिकी बलि के पास पहुंचाकर अश्मरी को गुदा और लिंग के बीच में लाने और वस्तिस्थानको निर्बल और अविस्तीर्ण करके दोनों उंगलियों द्वारा उस समय तक उत्पीडित करे, जबतक अश्मरी गांठ के सदृश ऊंची नहो ऊंची होनेपर सेवनी को जौके तुल्य छोड कर अश्मरी की जगह के बराबर नश्तर ल. गा देवे फिर सर्पमुख यंत्रसे पकडकर संपूर्ण पथरी को बाहर ऐसी रीतिने खींच ले कि टूटने न पावै । स्त्रियों की बस्ति गर्भाशय के पास पार्श्वभाग में होती है, इसलिये स्त्रियों के नीचे के भागमें शस्त्र लगावे, ऐसा न करने से ब्रणमें होकर मूत्र आने लगेगा । वस्तिके विदीर्ण होनेसे पुरुषों के भी मूत्रस्त्रावी व्रण होजाता है । एक बार अश्मरी निकालने के निमित्त जो वस्तिभेद किया जाता है वह साध्य होता है परन्तु यदि दूसरी बार वस्तिभेदन किया जाय तो असाध्य होता है ।
1
तु द्विधा । अर्थ - जिस रोगी की पथरी निकालनी हो उसको स्नेहक्रिया द्वारा स्निग्ध और विरेचनादि शोधनक्रिया द्वारा शुद्ध तथा लंघनादि द्वारा थोडा कर्शित करके नाभिसे नीचे स्नेह मर्दन करे और स्वेदन करने के पीछे बिना भोजन कराये ही स्वस्तिवाचनादि कर्म करे । फिर रोगी को एक ऐसे आदमी की गोदी में बैठावै जो जानु तक पांव फैलाये हो, रोगी को वस्त्र के बंडल पर ऐसी रीतिसे वैठावे कि उसका ऊपरवाला देह ऊंचाहो, फिर रोगी की जानु सकोडकर कोहनी तक लेजाय और उनको उस मनुष्य समेत जिसकी गोदी में बैठा है एक वस्त्र से कसकर बांदे | रोगी को आश्वासजनक वातों से ढाढस देकर नामिके नीचे तेल चुपडकर घांईओर को हाथसे दाव दाव कर पथरीको नीकी और सरका देवे । तत्पश्चात बायें हाथकी बडे२ नखोंवाली तर्जनी और मध्य, मा ऊंगली को तेल में भिगोकर गुदाके मीतर
रोगी को स्नानादि ॥ विशल्यमुष्ण पानीयद्रोण्यां तमवगाहयेत् ॥ तथा न पूर्यतेऽस्त्रेण वस्तिः पूर्णे तु पडियेत् मेढ्रांतः क्षीरिवृक्षांबु अर्थ- ऊपर लिखी हुई रीतिसे पथरी को निकाल कर रोगी को गरम जलसे भरी हुई नादमें बिठा देवे, ऐसा करने से वस्तिमें रुधिर न भर सकैगा । ऐसा करनेपर भी वस्तिमें रक्त भरजाय तो वड, गूगल, पीपल आदि दूधवाले वृक्षों के क्वाथकी लिंगमें उत्तर वस्ति देवे !
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२०११ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत। (५९३ ]
मूत्रसंशोधन | स्वमार्गप्रतिपत्तौ तु स्यादुप्रायैरुपाचरेत्॥
मूत्रं संशुद्धयेत्ततः॥५६॥ तं वस्तिभिः कुर्याद्गुडस्य सौहित्यं मध्वाज्याक्तवणः । ____ अर्थ-दसदिन तक घावपर स्वेदन करै,
पिबेत् । किन्तु जो सात दिन में मूत्र अपने मार्गपर द्वौ कालौ सघृतां कोणां यवागू मूत्रशोधनैः |
न आजाय तो पथरी के घावको अग्नि से ज्यहं दशाई पयसा गुडाव्येनाऽल्पमोदनम् भुजीतो फलाम्लैश्च रसैोगलचारिणाम् दग्ध करदे, इस तरह मूत्र के स्वमार्ग में
अर्थ-तदनंतर मूत्रकी शुद्धिक निमित्त । आजाने पर मधुरभूयिष्ठ द्रव्यों से साधित गुडका भोजन करावै । तदनन्तर घावपर | उत्तर वस्ति देना चाहिये । शहत और घृत लगाकर मूत्रको शुद्ध करने
अन्य उपचार । ... . बाले खीरा ककडी गोखरू आदि द्रव्योंके
न चारोहेद्वर्षे रूढव्रणोऽपि सः ।
नगनागाश्ववृक्षस्त्रीरथानाप्सु प्लवेत सः साथ सिद्ध की हुई यवागू घृत मिलाकर
। अर्थ-घाव के पुरजाने पर भी पथरी भोजनके दोनों काळमें ईषत् गरम तीन दिन
रोगवाले को उचित है कि वरस दिन तक तक पान करावे | तदनंतर दस दिनतक
| पर्वत, हाथी, घोडा, और बक्षादि पर न बहुत गुडमिले हुए दूधके साथ चांवलों का
| चढे, स्त्रीसंगम न कर, जल में न तैरे । भातदे । दस दिन पीछे जांगल जीवोंके मांस
अश्मरी में वर्जित अंग। . रसके साथ बेर और अनार आदि की खटाई
मूत्रशुक्रवही बस्तिवृषणौ सेवनी गुदम् । डालकर चांवलों का भात मात्राके अनुसार मुत्रप्रसेकं योनि च शस्त्रेणाऽष्टौ विवर्जयेत्
___ अर्थ-पथरी निकालने के समय मूत्रब्रण प्रक्षालन ।
वाही और शुक्रवाही स्रोतों को त्याग दे । क्षीरीवृक्षकपायेण वणं प्रक्षाल्य लेपयेत् । तथा वस्ति, वृषण, सेवनी, गुदनाडी, लिंग प्रपौंडरीकमंजिष्ठायष्टयाहवनयनौषधैः ।
और योनि इन आठ स्थानों को छोड देना ब्रणाभ्यंगे पचेत्तैलमेभिरेव निशान्वितैः ।
चाहिये । अर्थात इन पर नश्तर न लगने अर्थ-दूधवाले वृक्षों के कषाय से घाव
पावे । क्योंकि इन पर नश्तर लगने से को धोकर प्रपौंडरीक,मजीठ, मुलहटी, और। हाराकसीस इनको पीसकर घावपर लेप
मृत्यु, मूत्रनाव, सूजन, वेदना, आदिउँपद्रव करदे । तथा उपर कहे हुए द्रव्यों में हलदी
उपस्थित होते हैं। और वढाकर इसके साथ पकाया हुआ तेल | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाव्रण पर लगाने के लिये तयार करले। टीका न्वितायां चिकित्सितस्थाने. ब्रण पर स्वेदन ।
मूत्राघातचिकित्सितनाम दशाहं स्वेदयेचैनं स्वमार्ग सप्तरात्रतः
एकादशोऽध्यायः। मूत्रे त्वऽगच्छति दहेदश्मरीप्रणमग्निना।
देवे।
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( ६९४]
अष्टांगहृदय ।
म. १२
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द्वादशोऽध्यायः।
उत्पन्न होते हैं, इसलिये मनुबंध की रक्षा | के विमित्त शमन औषधों का प्रयोग
करना चाहिये, नहीं तो प्रमेह के शांत अथाऽतः प्रमेहचिकित्सितं व्याख्यास्यामः। होने पर भी लेशमात्र रहने पर फिर उत्पन्न - अर्थ-अब हम यहांसे प्रमेहचिकित्सित होजाता है। नामक अध्यायकी ब्याख्या करेंगे ।
शमन का प्रयोग। प्रमेहमें वमनविरेचन ॥ असंशोऽध्यस्य तान्येव सर्वमेहेषु पाययेत् मेहिनो बलिनः कुर्यादादौ वमनरेचने। ।
अर्थ-जो रोगी संशोधन के योग्य नहीं निग्धस्य सर्षपारिष्टमिकुंभाक्षकरंजकैः तैलैत्रिकंटकायेन यथास्वं साधितेन वा ।
हैं उन्हें वमनविरेचन न देकर सब प्रकार के नेहेन मुस्तदेवाहूवनागरप्रतिवापवत्॥२॥ | प्रमेहों में शमन औषधों का प्रयोग करना सुरसादिकषायेण दद्यादास्थापनं ततः। चाहिये । गर्भिणी स्त्री वमन के अयोग्य भ्यग्रोधादेस्तु पित्तात रसैः शुद्धं च | और नवज्वरी विरेचन के अयोग्य होताहे । तर्पयेत् ॥ ३॥
शमन औषध । अर्थ-जो प्रमेहरोग बलवान हो तो मेह | .
धात्रीरसप्लुतां प्राणे हरिद्रां माक्षिकाके क्लेदको प्रशमन करने के लिये प्रथमही
न्विताम् ॥५॥ वमन विरेचन देवे, तत्पश्चात् सरसों, नीम,
| दार्मासुरावात्रफला मुस्ता बाक्कथिता जले दंती, बहेडा और कंजा इनके तेलसे अथवा चित्रकत्रिफलादा/कर्लिंगान्वासमाक्षिकान गोखरू आदि के तेलसे, अथवा यथायोग्य | मधुचुक्तं गुडूच्या वा रसमामलकस्य वा ॥ अन्य औषधों से सिद्ध किये हुए स्नेह द्वारा
___ अर्थ हलदी को आंवले के रस में रोगी को स्निग्ध करके मोथा, देवदारु और
मिलाकर शहत डालकर प्रातःकाल के समय सोंठ इनके कल्कका प्रतीवाप देकर आ
पान करावै । अथवा दारुहलदी, देवदार स्थापन यस्ति देबै । और पित्तकी अधिकता
त्रिफला और मोथा इनका काथ अथवा हो तो न्यग्रोधादि के काथ में उक्त द्रव्यों
चीता, त्रिफला, दारुहलदी, और इन्द्रजी का प्रतीवाप देकर आस्थापन वस्ति देवै ।।
इनका काथ अथवा गिलोय वा आमलेका फिरजांगल जीवों के मांसरस से तर्पण
रस शहत मिलाकर पान करावै ।
कफपर तीन तीन योग।
रोधाभयातोयदकटूफलानां अनुबंध की रक्षा में शमनादि ।
पाठाविडंगार्जुनधान्वकानाम् । मूत्रनहरुजागुल्मक्षयाधास्त्वपंतपणात् ।
गायत्रिदार्वीकृमिहद्धचानां ततोऽनुबंधरक्षार्थ शमनानि प्रयोजयेत्।। कफे त्रयः क्षौद्रयुताः कषायाः॥ ७॥ . अर्थ-प्रमेह रोग में अपतर्पण द्वारा मूत्र | अर्थ-(१) लोध, हरड, मोथा और रोध, मूत्रकृच्छ्र, गुल्मः और क्षयादि रोग | कायफल, (२) पाठा, वायविडंग, अर्जुनकी
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अ. १२ . चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५९५)
छाल और धनियाँ, (३) खैर, दारुहलदी | तिक्तं शाकंमधुश्रेष्टा भक्ष्याःशुष्काः ससक्तवः बायविडंग और बच इन तीन प्रकार के धन्वमांसानि शूल्यानि परिशुष्कान्ययस्कृतिः
मध्वरिष्टासबा जीर्णाः सीधुः पक्करसोद्भवः॥ कषायों को शहत मिलाकर सेवन करने से
| तथाऽसनादिसारांवुदर्भाभो माक्षिकोदकम् । कफज प्रमेह शांत हो जाता है। ___ अर्थ-प्रमेहमें जौके वने हुए अपूप, सत्त पित्तज प्रमेह पर तीन प्रयोग । और बाटी आदि हितकर हैं । गौ वा घोडे उशीररोधार्जुनचंदनानां
की गुदासे निकले हुए जौ धोकर उनके भ. पटोलनिवामलकामृतानाम् । रोधावुकालीयकधातकनिां
पूपादि भी प्रमेह में हितकर है। बांसके चापित्ते त्रयःक्षौद्रयुताः कषायाः ॥ ८॥ वल भी पथ्य होते हैं । नीवार, श्यामाक, मा
अर्थ-() खस, लोध, अर्जुनकी छाल दि तृणधान्य, मूंग आदि पुराने शालचिविल और लाल चंदन, (२) पर्वल, नीम,आमला | साठी चांवल, तिल और सरसों की खल से और गिलोय, (३) लोध, नेत्रवाला, दारु- | बनाहुआ श्रीकुक्कुट संज्ञक खट्टा खल ये सब हलदी और धायके फूल । इन तीन योगोंका हितकारी हैं । कैथ, तिंदुक, जामन इनसे बपृथक् २ छाथ शहत मिलाकर सेवन करने नाये हुए राग और खांडवनामक पेय पदार्थ, से पित्तज प्रमेह शांत होजाता है। तिक्तशाक, मधु, त्रिफला, सूखा सत्त, शूल
प्रमेह पर अन्नपान विधि । पर भुना हुआ जांगल जीवोंका परिशुष्कमांस, यथास्वमेभिः पानान यवगोधूमभावनम्। | वक्ष्यमाण अयस्कृति, पुराना माधव मद्य, अ___ अर्थ-ऊपर कहे हुए रोधादि छःप्रयोगों
रिष्ट,आसब, पक्वरस से उत्पन्न हुआ सीधु, को यथोपयुक्त औषधों के साथ अन्न और |
असनादि सारबर्गों का काढा, कुशाका पानी जल तथा जौ और गेहूं की वनी हुई खाने | और मधुमिश्रित पानी ये सब प्रमेह पर की वस्तु भोजन के लिये देवै । हितकारी हैं। .. वातप्रमेह में चिकित्साविधि।
सक्तपानादि। . बातोल्वणेषु नेहांश्च प्रमेहेषु प्रकल्पयेत ॥ वासितेषु वराकाथे शर्वरीशोषितेष्वहः॥
अर्थ-वाताधिक्य प्रमेह में उक्त रोधादि यवेषु सुकृतान्सक्तन्सक्षौद्रान्सीधुना पिवेत् । व्यों द्वारा घृत तेल आदि स्नेह प्रस्तुत
___ अर्थ-त्रिफला के काढेमें रातभर जौ भिकरके उपयोग में लाना चाहिये ।
गो देव, दूसरे दिन उन जौओं को धूप में प्रमेह में पथ्यबिधि । सुखाकर सत्तू बना लेवे । इसमें शहत मिला अपूपसक्तुबाट्यादिर्यवानां विकृतिर्हिता। कर सीधुके साथ पान करै। गवाश्वगुदमुक्तानामथवा वेणुजन्मनाम् ॥ कफपित्त प्रमेहपर पान । तृणधान्यानि मुद्राद्याःशालिजीर्णः सपष्टिकः | शालसप्तावकंपिल्लवृक्षकाक्षकपित्थजमा श्रीकुक्कटोऽम्ला खलकस्तिलसर्षपकिट्टजः ॥ रोहीतकं च कुसुमं मधुनाऽद्यात्सचूर्णितमा कपित्थं तिदुकं जंवूस्तत्कृतारागखांडवाः। । कफपित्तप्रमेहेपु पिवेद्धात्रीरसेन यां।
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( ५९६)
अष्टांगहृदय ।
अ०१२
अर्थ-कफपित्त प्रमेहमें साल, सातला, | जड, हरड, भूकदंव, भिलावा, कंजाकी जड, कंपिल, कुडा, बहेडा, कैथ और रोहेडा इनके | बरनाकी जड, पीपलामूल, पुष्करमूल, प्रत्येक फूलोंको पीसकर शहतके साथ वा आमले दस पल लेवे, तथा जौ, बेर, कुलथी प्रत्यक के रसके साथ पान करै ।
एक प्रस्थ लेवे, इन सव द्रव्योंसे अठगुना प्रमेहपर तैलादि । जल लेकर अग्निपर चढादे, जव चौथाई त्रिकंटकनिशारोधसोमवल्कवचार्जुनैः।।
शेष रहै तब छानकर उस काढेमें पीपल,पीपद्मकाश्मंतकारिष्टचंदनागुरुदीप्यकैः॥१७॥
पलामूल, चव्य, वच, जलवेत, रोहिषतृण, पटोलमुस्तभंजिष्ठामाद्रीभल्लातकैः पचेत् । तैलं वातकफे पित्ते घृतं मिश्रेषु मिश्रकम् ॥
निसोथ, वायविडंग, कंपिल्ल, भाडंगी, और अर्थ-गोखरू, हलदी, लोध, सफेदखैर, । बेलगिरी इनके कल्कके साथ एक प्र. वच, अर्जुन, पदमाख, अश्मंतक, नीम, ला- | स्थ घीको पकावै । यह घृत संपूर्ण प्रकारकी लचंदन, अगर, अजमोद, पर्बल, मोथा, म- प्रमेहसंबंधी फुसी, विपरोग, पांडुरोग, विद्रधि जीठं, अतीस और भिलावा इन सब द्रव्योंके | | गुल्म, अर्श, सूजन, शोष, गररोग, उदररोग, कल्कके साथ तेल पकाकर प्रयोग करने से | श्वास, खांसी, वमन, वृद्धि, प्लीहा, वातरक्त, वातकफज प्रमेह नष्ट होजाता है । पित्तज प्र- | कुष्ठ, उन्माद, और अपस्मार रोगोंको दूर कमेह में इन्हीं सव द्रव्योंके साथमें पकाया हुआ रता है । इस घृतका नाम धान्वन्तर घृत हैं । घी सेवन करना चाहिये । मिले हुए दोषोंमें
रोधासव । उक्त द्रव्योंके कल्कके साथ मिले हुए घी और
रोभ्रमूर्वाशठीवेल्लभार्गीनतनखप्लवान् ॥
कलिंगाष्टकमुकप्रियंग्यविषाग्निकान् । तेल पकाकर उपयोग में लाने चाहिये ।
द्वे विशाले चतुर्जातं भूनिंब कटुरोहिणीम् ।। धान्वन्तर घृत । यवानी पौष्करं पाठां ग्रंथि चव्यं फलत्रयम् दशमूलं शठी दंती सुराहूवं द्विपुनर्नवम् ।। कर्षाशमंबुकलशे पादशेषे सते हिमे ॥ मूळं स्नुगर्कयोः पथ्यां भूकदंवमरुष्करम् ॥ द्वौ प्रस्थौ माक्षिकात्क्षिप्त्वा रक्षेत्पक्षमुपेक्षया करंजवरुणान्मलं पिप्पल्याः पौष्करं च यत् ।| रोध्रासवोऽयं मेहार्श श्वित्रकुष्ठारुचिकृमीन् पृथग् दशपलं प्रस्थान यबकोलफुलत्थतः। | पांडुत्वं ग्रहणीदोषं स्थूलतां च नियच्छति । धींश्चाष्टगुणिते तोये विपचेत्पादवर्तिना। | ___ अर्थ - लोध, मूर्वा, कचूर, बायबिडंग, तेन द्विपिप्पलीचव्यवचानिचुलरोहिषैः ॥ | तगर, नखी, क्षुद्रमाथा, इन्द्रजौ, कूठ, त्रिवृद्धिडंगकंपिल्लभार्गीविल्वैश्च साधयेत् । । सुपारी, मालकांगनी, अतीस, चीता, दोनों प्रस्थं घृताजयत्सास्तन्महानपिटिकाविषम् ॥ पांडुविद्राधगुल्मार्शःशोफशोषगरोदरम्।
इन्द्रायण, दालचीनी, तेजपात, इलायची, श्वासं कासं वर्मि वृद्धिं प्लीहानं वातशोणितम्
| नागकेशर, चिरायता, कुटकी, अजवायन, उष्टान्मादावपस्मार धान्वंतरमिदं घृतम् । | पुष्करमूल, पाठा, पीपलामूल, चव्य और
अर्थ-दशमूल, कचूर, दंती, देवदारु,ला- | त्रिफला इन सब द्रव्यों को एक एक कर्षे लसांठ, सफेद सांठ, थूहरकी जड, आककी | लेकर इनको १०२४ तोले पानीमें चढावै,जब
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अ० १२
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
१९९७)
चौथाई शेष रहै, तब उतार कर छान ले, | करते करते जब लोहे के पत्र नष्ट होजाय ठंडा होने पर दो प्रस्थ शहत मिलाकर | तव समझना चाहिये कि औषध तयार होएक कलश में भरकर पन्द्रह दिन तक रक्खा | गई । इस दवा का नाम अयस्कृति है । रहने दे, तदुपरांत इसका सेवन करने से | यह औषध रोधासव की अपेक्षा भी अधिप्रमेह, अर्श, श्वित्रकुष्ठ, अरुचि, कृमिरोग, | कतर गुणकारक है । पांडुरोग, ग्रहणीदोष और स्थूलता ये सब प्रमेह में उद्वर्तनादि। रोग दूर होजाते हैं, यह रोधासव है। रूक्षमुद्वर्तनं गाढं व्यायामो निशि जागरः॥ __ अयस्कृति ।
यचाऽन्यच्छ्लेष्ममेदोघ्नं बहिरंतश्च तद्धितम् साधयेदसनादीनां पलानां विंशतिं पृथक् ॥
| अर्थ-प्रमेहरोग में रूखा और गाढा द्विवहेऽपां क्षिपेत्तत्र पादस्थे द्वे शते गुडात् | उवटना,व्यायाम, रात्रिजागरण, कफनाशक क्षौदाढकाध पलिकं वत्सकादि च कलिकतम् और मेदनाशक औषध वाह्य वा आभ्यंतर तत्क्षौद्रपिप्पलीचूर्ण प्रदिग्धे घृतभाजने।
न प्रयोग द्वारा हितकर होती है।
निकाहोती है। स्थित दृढे जतुसृते यवराशो निधापयेत् ॥ खदिरांगारतप्तानि बहुशोऽत्रं निमज्जयेत् ।
प्रमेह पर रसायन । तनूनि तीक्ष्णलोहस्य पत्राण्यालोहसंक्षयात | सुभावितां सारजलैस्तुलां पीत्वाअयस्कृतिः स्थिता पीता पूर्वस्मादधिका गुण:
शिलोद्भवात् ॥ ३३ ॥ अर्थ-असनादि गणोक्त द्रव्यों में से हर | सारांबुनैव भुंजानः शालिजांगलजै रसैः।
| सर्वानभिभवेन्मेहान् सुवहूपद्रवानपि ॥ एक २० पल लेकर आठ द्रोण जल में
गडमालार्बुदग्रंथिस्थौल्यकुष्ठभगदरान्। पकावै जब चौथाई शेष रहजाय तव उतार | कृमिश्लीपदशोफांश्च परं चैतद्रसायनम् ॥ कर छान ले, ठंडा होने पर २०० पल । अर्थ- असन और खैरसारादि वृक्षों के गुड, शहत आधा आढक, वत्सकादिगणोक्त / काढे में एक तुला शिलाजीत को भावना द्रव्य प्रत्येक एक एक पल पीसकर उक्त देकर उक्त द्रव्यों के काथ के साथही सेवन काथ में डाल दे । फिर एक घडे के भीतर | करै तथा इसी काढे में पकाये हुए जांगल शहत में पिसी हुई पीपल मिलाकर लेप | जीवों के मांसरस के साथ शाली चांवलों करदे उस घडे के चारों और लाख पुती का भोजन करै तौ अनेक उपद्रवों से युक्त हो और दृढ हो इस घडेको अमृतवान सब प्रकार के प्रमेह दूर होजाते हैं, तथा कहते हैं । इस घडे में उक्त काढा भरकर | गंडमाला, अर्बुद, ग्रंथि, स्थूलता, कुष्ठ,भगंमुख बंद करके जौ के ढेर में गाढ देवै। दर, कृमिरोग, स्लीपद, और शोफ रोगों का तदनंतर एक प्रस्थ लोहे के बहुत पतले | भी शमन होजाता है, यह औषध बडी पतले पत्र बनवालेवै और इन पत्रों को खै. | रसायन है। रकी लकडी के कोयलों में अत्यंत गरमकर निर्धनप्रमेही का उपाय । करके उक्त घडे में बुझाता है । इस तरह । अधनश्छत्रपादत्ररहितो मुनिवर्तनः ।
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(५९८)
अष्टांगहृदय ।
अ०१३
योजनानां शतं यायात्खनेद्वा सलिलाशयान् | अर्थ-एलादिगणोक्त द्रव्यों द्वास सिद्ध गोशकून्मूत्रवर्तिर्या गोभिरेव सह भ्रमेत् ।
किया हुआ तेल ब्रणके रोपण में हित है । ___ अर्थ-निर्धन प्रमेहरोगी को उचितहै कि जूता और छत्री को छोडकर मुनियों की
आरग्वधादि का काथ उदवर्तन में,असना
| दि वर्गोक्त द्रव्योंका कषाय परिषेक में और बृत्ति का अबलंबन करके सौ योजन तक
| वत्सकादि गणोक्त द्रव्यों का काथ खानेपीने पैदल चलै अथवा जलाशयों को खोदे अथवा
में श्रेष्ठहै। गोवर और गोमूत्र का सेवन करता हुआ बनमें गौओं को चराता फिरै ।
पाठादि अवलेह ।
पाठा चित्रकशाङ्गष्टा सारिवा कंटकारिका . कृशकी औषध ।
सप्ताहवं कौटजं मूलं सोमवल्कं नृपद्रुमम् । बृहदौषधाहारैरमेदोमूत्रलैः कृशम् ॥ संचूर्ण्य मधुना लिह्यात्तद्वश्चर्ण नवायसम् ॥ .. अर्थ-प्रमेहरोगी यदि कृश होगया हो तो अर्थ-पाठा, चीता, महाकरंज, अनन्तऐसी औषधियों से युक्त आहार द्वारा उसकी
मूल, कटेरी, सातला, कुडाकीजड, सफेद पुष्ठि करै जो मेदोवर्दक और मूत्रकारक नहो।
खैर और अमलतास, इन सबका चूर्ण करके प्रमेह पिटका की चिकित्सा ॥
शहदके संग चाटे, अथवा नवायस चूर्णको शराविकाद्याः पिटिकाः शोफवत्समुपाचरेत् |
शहत के संग चाटे । अपक्का ब्रणबत्पक्काः
प्रमेह पर शिलाजीत । अर्थ-जो शराबकादि पिटिका पकी
| मधुमहित्वमापन्नो भिषभिः परिवर्जितः। न हो तो सूजनके सदृश और पकगई हों
शिलाजतुतुलामद्यात्प्रमहातः पुनर्नवः॥ तो व्रणके समान चिकित्सा करे । ____अर्थ--जो प्रमेहरोगी का प्रमेह मधुमेह पिडिका के पूर्वखर्पमें कर्तव्य। के रूपमें परिणत होगयाहो, और वैद्य चि
____तासां प्राग्रुप एव च ॥ ३८ ॥ कित्सा करना छोड चुकेहों, वह भी यदि सीरिवृक्षांबु पानाय बस्तमूत्रं च शस्यते ।। १०० पल शिलाजीत का सेवन करे तीक्ष्णं च शोधनं प्रायो दुर्विरेच्या हि मेहिनः
तो फिर नवीनता को धारण करसकताहै । अर्थ--पिटकाओं की पूर्व रूपावस्थामें हो
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकाबटादि क्षीरवृक्षों का क्वाथ और बकरी का |
न्वितायांचिकित्सितस्थानेप्रमेहचि. मत्र पान करोष अथवा तीक्ष्ण विरेचन देकर
कित्सितं नाम द्वादशोरोगी को शुद्ध करे क्योंकि प्रमेहरोगी को
ऽध्यायः ॥ १२ ॥ जुलाव कठिनता से लगताहै। .. . तैलादि विधि। . तैलमेलादिना कुर्याद्गणेन ब्रणरोपणम् । त्रयोदशोऽध्यायः। उद्वर्तने कषायं तु वर्गणारग्वधादिना ॥ अथाऽतो विद्रधिवृद्धिचिकित्सितं परिषेकोऽसानाद्येन पानान वत्सकादिना ।।...
व्याख्यास्यामः।
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म. १३
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
[१९९ }
अर्थ-अव हम यहां से विद्रधि बृद्धि । हलदी, त्रिफला और मुलहटी इन सव द्रव्यों चिकित्सित नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । का कल्क तथा जल और दूध के साथ पाक
विद्रधि की चिकित्सा। की रीतिसे घीको पकाकर लेपकरै, अथवा विद्रधि सर्वमेवामं शोफवत्समुपाचरेत् ।
वट आदि वृक्षों के पत्ते, छाल और फल प्रततं च हरेद्रक्तं पक्के तु वणवक्रिया॥१॥
" इनके साथ सिद्ध किये हुए घी से व्रण का ___अर्थ-सव प्रकारकी विना पकी हुई वि
रोपण करे। द्रधियों की चिकित्सा सूजन के सदृश कर नी चाहिये, तथा निरंतर रक्तको निकालता
कफजविद्रधि । रहे, विद्रधि के पकजाने पर ब्रणके समान
कफजं पुनः ॥ ५॥
आरग्वधांबुना धौतं सक्तुकुंभनिशातिलैः। चिकित्सा करै।
लिंपेत्कुलत्थिकादतीत्रिवृच्छयामाग्नितिल्वकैः वातजविद्रधि की चिकित्सा। ससैंधवैः सगोमूत्रैस्तैलं कुर्वीत रोपणम् । पंचमूलजलैधौतं वातिकं लवणोत्तरैः।
__अर्थ-कफज बिद्रधिको अमलतास के भद्रादिवर्गयष्टयाहृवतिलैरालेपयेद्रणम् । २॥ ___ अर्थ-वातज विद्रधिको पंचमूलके क्वाथ
पानी से धोकर सत्तू, गूगल, हलदी और से धोकर भद्रदार्यादिगण, मुलहटी, तिल
तिल का लेप करै । इसी तरह कुलथी, और सेंधानमक इन सवको पीसकर उक्त
दंती, निसोथ, श्यामा, चीता, लोध, सेंधाविद्रधि पर लेप करदे ।
नमक और गोमूत्र इनके साथ तेल पकाकर व्रणरोपणी क्रिया। | व्रण पर लेप करके उसको भरै । वैरेचनिकयुक्तेन त्रैवृतेन विशोध्य च। । रक्तादिजन्य विद्रधि । विदारीवर्गसिद्धेन त्रैवृतेनैव रोपयेत् रक्तातडवे कार्यापित्तविटंधिवलिया
अर्थ-वैरेचनिक द्रव्यों से युक्त बृत- अर्थ-रक्तज तथा आगन्तुज ( चोट लनामक घृतसे संशोधन करके विदारी गणो-गने से उत्पन्न ) विद्रधि में पित्त विद्रधि के क्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ त्रैवृताख्य समान चिकित्सा करनी चाहिये । ... स्नेह लगाकर व्रण का रोपण करै ।
अंतरविद्रधि में पान । पैत्तिक विद्रधि ।
वरुणादिगणकाथमपक्केऽभ्यंतरे स्थिते । क्षालितं क्षीरितोयेन लिपेद्यष्टयमृतातिलैः। ऊषकादिप्रतीवापं पूर्वाहणे विदधौ पिबेत् । पैत्त घृतेन सिद्धेन मंजिष्ठोशीरपाका अर्थ-अंतर विद्रधि की अपक्व अवस्था पयस्याद्विनिशाश्रेष्ठायष्टीदुग्धैश्च रोषयेत् । । में वरुणादि गणोक्त द्रयों के काढ़ में ऊन्यग्रोधादिप्रवालत्वक्फलैर्वा ___अर्थ-पैत्तिक बिद्रधि को वटादि क्षीर
षकादि का प्रतीवाप देकर पूर्वान्ह में पान वृक्षोंके काढे से धोकर मुलहटी, गिलोय और तिल को पीसकर लेप करदे । तथा
अन्य प्रयोग ।
घृतं विरेचनद्रव्यैः सिद्धं ताभ्यां च. मजीठ, खस, पदमाख, दुग्धिका, दोनों
पाययेत्।
.
करावै।
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(६००]
अष्टांगहृदय ।
अ०१३
निरूहं स्नेहबस्ति च ताभ्यामेव प्रकल्पयेत् ॥ फुडवं तद्रसाद्धात्रीस्वरसात्क्षीरतो घृतात् ।
अर्थ--अपक्व अंतर्विद्रधि में दोष के अ. | काशं कल्कितं तिकात्रायतीधन्वयासकम् नुसार विरेचन द्रव्यों के साथ सिद्ध किया | मुस्तातामलकीवीराजीवंतीचंदनोत्पलम् । हुआ घी अथवा वरुणादि और ऊषकादि
| पचेदेकत्र संयोज्य तङ्घतं पूर्ववद्गुणैः ॥ . गणों से सिद्ध किया हुआ घी पान करावै
। अर्य-एक कुडव त्रायमाण को अठगुने तथा वरुणादि और ऊषकादि गणोक्त द्रव्यों / जलमें पकावै । जब अष्टमांश शेष रहजाय से निरूहण और अनुवासन वस्तिओं की तब इस क्कायमें एक कुडव आमले का रस कल्पना करके प्रयोग करें।
एक कुडव दूध और एक कुडव घी तथा अन्य उपाय ।
कुटकी, त्रायमाण, जवासा, मोथा, भूभ्पापानभोजनलेपेषु मधुशिनः प्रयोजितः । मलकी, बीरा, जोवती. चन्दन उत्पल दस्तावापो यथादोषमपर्क हंति विद्रधिम् ॥ इनका कल्क डालकर घी को पकावै। यह . अर्थ-खाने, पीने और लेप करने में घृत पूर्वबत् गुणकारक है। लाल सहजने का प्रयोग करे, तथा दोषके
अन्य प्रत । अनुसार प्रतीवाप देने से मीठे सहजने का द्राक्षा मधूकं खर्जूरं विदारी सशतावरी । काढा अपक्क विद्रधि को नष्ट करता है । ।
पुरूषकाणि त्रिफला सत्काथे पाचयेधृतम्
क्षीरेक्षुधात्रीनिर्यासे प्राणदाकल्कसंयुतम् । विद्रधिपर त्रायंत्यादि काढा । । | तच्छतिं शर्कराक्षौद्रपादिकं पूर्ववद्गैः॥ त्रायंतांत्रिफलानिंबकटुकामधुकं समम्। ।
___ अर्थ-दाख, महुआ के फूल, खिजूर, त्रिवृत्पटोलमूलाभ्यां चत्वारोंऽशाः पृथक्
विदारीकंद, सितावर, फालसे, और त्रिफला मसूरान्निस्तुषादष्टौ तत्क्वाथः सघतो जयेत् ।। इनके काढे में दूध, ईख का रस, आमलेका विद्रधीगुल्मवीसर्पदाहमोहमदज्वरान् ॥ रस, हरड, इनका करक मिलाकर तृण्मीछर्दिहद्रोगपित्तासृक्कुष्टकामलाः।
इन सबको सामान्य परिभाषाके अनुसार मि__ अर्थ -त्रायमाण, त्रिफला, नीम, कुटकी
लाकर घी को पकावै, जब यह ठंडा हो और मुलहटी इन सबको समान भाग ले,
जाय तब चौलाई शर्करा और शहत मिला निसोय चार भाग, पर्वल की जड चार
कर सेवन करे तो पूर्ववत् गुणकारक भाग, बिना छिलके की मसूर आठ भाग | इनके काढे को घृत के साथ सेवन करने से
होता है। विद्रधि, गुल्म, विसर्प, दाह, मोह,मद,ज्वर, | शृंगादिसे रक्तमोक्षण । तृषा, मूर्छा, वमन, हृद्रोग, रक्तपित्त, कुष्ठ । हरेच्छंगादिभिरसृक् सिरया वा यथांतिकम् और कामला ये सब रोग जाते रहते हैं।। अर्थ-सांगी, तूमी आदि लगाकर विद्र- अन्य घृत ।
| घि, का रक्त निकाल डालै, अथवा विद्रधि मुडवं त्राय मागायाः साध्यमष्टगुणेऽभसि ॥ के पासवाली सिराकी फस्द खोले ।
पृथकू ॥ ११ ॥
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अ०१३
चिकित्सितस्थान भाषा-कासभेता
(६०१)
विद्रधिमें उपनाह ! लेने लगे तो ऐसा करना चाहिये कि विद्रधि पच्यमानं च कोष्ठस्थं बहिरुन्नतं ॥ | दस बारह दिनतक और किसी प्रकार की सात्वोपनाहयेत्
चिकित्सा न करके रोगी को पथ्य आहारादि __ अर्थ-जो विद्रधि कोष्ठ में हो और ऊंची
से रक्खे । यदि क्लेद अच्छी तरह न निकहो गई हो तथा पच्यमान अवस्था में हो उस
ले तो वरणादि गणोक्त औषधोका ईषदुष्ण पर उपनाह अर्थात् पुलटिस वांधै ।
काथ अथवा मीठे सहजने का काथ, अथवा विद्रधि का भेदन । शूले स्थिते तत्रैव पिंडिते।
मीठे सहजने के काथसे करीहुई यवागू तत्पार्श्वपीडनात्सुप्तौ दाहादिष्वल्पकेषु च।।
पान करावै । पकः स्याद्विदाधि भित्त्वा व्रणवत्तमुपाचरेत्।।
विद्रधि पर यूष । अर्थ-जव कोष्ठकी विद्रधि पिंडाकार हो
| यवकोलकुलत्थोत्थयूषैरन्नं च शस्यते ॥ जाय, और जहां वह हो उसी जगह वेदना अर्थ-इस रोगपर जो, बेर और कुलथी
के यूषके साथ अन्न का भोजन भी हितकारीहैं होती हो, और पासके स्थानको हाथसे दावने
दसदिनपीछे शोधनादि । पर सुप्ति अर्थात शून्यता का अनुभव हो, ऊर्ध्व दशाहात्त्रायंतीसर्पिषा तैल्वकेन वा। और दाह ऊष आदिमें कमी हो तब जान शोधयेद्वलतःशुद्धःसक्षौद्रं तिक्तकंपिवेत् ॥ लेना चाहिये कि विद्रधि पक गई है, तव अर्थ-दस दिन बीत जानेपर रोगी के उसे चीरकर घाव की तरह चिकित्सा करै। बलके अनुसार त्रायंती घृत वा तैल्वक घृत
भीतर की विद्रधि के चिन्ह। पान कराके विरेचन करावे । विरेचन से अंतर्भागस्य चाव्यतच्चिद्रं पकस्य विद्धेः॥ । शुद्ध होनेपर रोगी को शहत मिलाकर अर्थ-कोष्ठस्थ पक्व विद्रधिके जो लक्षण
तिक्तक घृत का सेवन करावे । होते हैं वेही अंतर भागमें स्थित पकी हुई
__उक्तरोगमें गुल्मवत् चिकित्सा ।
सर्वशो गुल्मवच्चैनं यथादोषमुपाचरेत् । विद्रधि के लक्षण होते हैं |
___ अर्थ--विद्रधि रोग में सब प्रकार से दोष विद्रधिमें दोषविशेष की अपेक्षा । पक्कः स्रोतांसि संपूर्य सयात्यूलमधोऽथवा
के अनुसार गुल्मरोग के समान चिकित्सा स्वयं प्रवृत्तं तं दोषमुपेक्षेत हिताशिनः
करनी चाहिये। दशाहं द्वादशाहं वा रक्षन् भिषगुपद्रवान् ।
विद्रधि पर गुग्गुलयोग । असम्यग्वहति क्लेदे वरणादिसुखांभसा ॥ सर्वावस्थासु सर्वासु गुग्गुलुं विद्रधीषु च ॥ पाययन्मधुशिग्रं वा यवागू तेन वा कृताम् ।
कषायैर्योगिकैयुंज्यात्स्वैः स्वैस्तद्वच्छिलाजतु - अर्थ-विद्रधि पककर संपूर्ण स्रोतों को अर्थ-सब प्रकार की विद्रधियों में सब भरकर अपने आप ऊपर को वा नीचे को अवस्थाओं में यथायोग्य कषायों के साथ प्रबृत हो अर्थात् विद्रधि का पूय और रक्ता- गूगल वा शिलाजीतका प्रयोग करना दि क्लेद पदार्थ मुखद्वारा वा गुदाद्वारा निक- । चाहिये । . .
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१६०२ )
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अष्टांगहृदय ।
पाक निवारण |
पार्क व वारयेद्यनात्सिद्धिः पक्कं हि दैविकी अपि चाऽऽशु विदाहित्वाद्विद्वधिः
सोऽभिधीयते । सति चालोचयैन्मे हे प्रमेहाणां चिकित्सितम् अर्थ - जैसे होसकै वैसे ऐसा यत्न करना चाहिये जिससे विद्रधि पकने न पावै । क्यों कि पकजाने पर अच्छा होना वा न होना दैवाधीन है, वैद्यके बसकी बात नहीं है । इसमें शीघ्र ही विदाह अर्थात् जलन पैदा होजाती है इसीलिये इसे विद्रधि कहते हैं । इसमें यदि प्रमेहरोग उत्पन्न होजाय तो प्र महोक्त चिकित्सा करनी चाहिये ( किसी किसी पुस्तक में 'दैविकी' की जगह ' दौहिकी' पाठ करके यह अर्थ किया गया है कि इस रोग का अच्छा होना वा न होना शरीरकी अवस्था पर निर्भर है ।
1
स्तनविद्रधि में उपाय ॥ स्तनजे व्रणवत्सर्वं नत्वेनमुपनाहयेत् । गाउयेत्पालयन्स्तन्यवाहिनीः कृष्णचूचुकी ॥ सवांस्वामाद्यवस्थासु निर्दुहीत च तत्स्तनम् ।
अर्थ - जो विद्रधि स्तन में होती है उस में उपनाह को छोड़कर सब प्रकार की चिकित्सा करना चाहिये । जो भेदन की आवश्यकता हो तो स्तन्यवाहिनी सिरा और स्तनों के काले भप्रभागों की रक्षा करता हुआ नश्तर लगाबै । सब प्रकारकी विद्रधिओं की अपक्वावस्था में स्तनों से दूध निकलवाते रहना चाहिये । अत्र यहांसे आगे वृद्धि की चिकित्सा का वर्णन है । वृद्धिचिकित्सा | शोधयेत्रिवृतास्निग्धं वृद्धौ स्नेहै चलात्मके ॥
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१३
कौशाम्रतिल्व करेंडसुकुमारक मिश्रकैः । अर्थ - वातज वृद्धिरोग में त्रिवृतादि वृत द्वारा अच्छी तरह से स्निग्ध करके कोशान तिल्वक और अरंड के साथ सिद्ध किया हुआ स्नेह, सुकुमारक घृत और गुरुमाच - कित्सितोक्त मिश्रित स्नेहों द्वारा चिकित्सा करे ।
वातनाशक निरूहादि । ततोऽनिलघ्नर्निर्यूहकल्क स्नेहैर्निरूहयेत् ॥ रसेन भोजितं यष्टितैलेनान्यासयेदनु । स्वेदप्रलेपा वातघ्नाःपक्के भित्त्वा व्रणक्रियाः॥
अर्थ - तदनंतर वातनाशक काथ, कल्क और स्नेह द्वारा निरूहण वस्तिका प्रयोग करे । निरूहण के पीछे मांसरस का पथ्य देकर मुलहटी के तेलसे अनुवासन करै । तथा वातनाशक स्वेद और प्रलेप करै । फिर पकजाने पर घाबके समान चिकित्सा करे ।
पित्तज वृद्धि का उपाय । पित्तेरक्तोद्भवे वृद्धावामपक्के यथायथम् । शोफव्रणक्रियां कुर्यात् प्रततं च हरेद्सृक् ॥
अर्थ-पित्तज और रक्तज वृद्धि में चाहे कच्ची वा पक्की हो सूजन और व्रण के अनुसार यथायोग्य चिकित्सा करे । तथा निरंतर रक्तको निकालता रहै ।
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कफज वृद्धि में उपाय ।
गोमूत्रेण पिवेत्कल्कं ष्मिके पतिदारुजम् । विम्लापनादृते चाऽत्र श्लेष्मग्रंथिक्रमो हितः पक्के च पाटिते तैलमिष्यते ब्रणशोधनम् । सुमनोरुष्करांकोल्लसप्तपर्णेषु साधितम् ॥ पटोलर्निबरजनीविडंगकुटजेषु च । अर्थ-कफज वृद्धिरोग में गौके मूत्र के
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चिकित्सितस्थान मापाटीकासमेत ।
अ० १३
संग दारूहल्दी को घोटकर पीवै । इस रोग में विम्लापन अर्थात् उन उन मर्दन के उपायों के सिवाय कफज ग्रंथि में कहे हुए सब उपाय करने चाहियें । कफज ग्रंथिके पकने पर उसमें नश्तर लगाकर धात्रके शोधन के निमित्त चमेली, भिलावा, अंकोल, सातला, पल, नीम की छाल, हल्दी, वायबिडंग और कुडा की छाल इनके साथ सिद्ध किया हुआ तेल प्रयोग करै ।
(६०३]
मूत्रज वृद्धि में उपाय | मूत्र स्वेदितं स्निग्धैर्बस्त्रपट्टेन बेष्टितम् । विध्येदधस्तात्सवन्याः स्नावयेच यथोदरम् । of च स्थगिकाबद्धं रोपयेत्
अर्थ - मूत्रज वृद्धिरोग में सीमन के नीचे के भाग में स्निग्ध स्वेदन करके तथा कपडे की पट्टी से बांधकर नश्तर लगावै और जलोदर की तरह स्राव होने दे तदनंतर स्थगिका नामक बंधन से बांधकर घात्रको पुरावें । क्षेत्रज वृद्धि में उपाय |
अत्रहेतुके । फलकोशमसंप्राप्ते चिकित्सा बातवृद्धिवत् ॥ अर्थ--अत्र वृद्धि यदि अंडकोष में न पहुँची हो तो उसकी चिकित्सा वातम वृद्धि के समान करनी चाहिये ।
मेदोज वृद्धि में उपाय |
मदाजं मूत्रपिष्टेन सुस्विनं रसादिना । ३५ । शिरोविरेकद्रव्यैर्वा वर्जयन्फल सेवनीम् । दारयेदूवृद्धिपत्रेण सम्यङ्मेदसि सूद्धृते ॥ व्रण माक्षिककाससिसैंधवप्रतिसारितम् । सदभ्यंजनं चाऽस्य योज्यं मेदोविशुद्धये मनःशिलांसुमनोग्रंथिभल्लातकैः कृतम् । तैलमाव्रणसंधानात्स्नेहस्वेदो च शीलयेत् ॥
|
अर्थ - मेदसे उत्पन्न हुई वृद्धि में सुरसादि गणोक्त द्रव्यों को गोमूत्र में पीसकर अथवा शिरोविरेचन के द्रव्यों द्वारा पसीना देकर वृद्धिपत्र नामक अस्त्रसे वृद्धि को काट डाले परंतु अंडकोष की सीमन को चीरा लगाते समय बचा देना चाहिये । मेदके अच्छी तरह निकलाने पर घावकी जगह सोनामाखी, कसीस और सेंधा नमक इनके द्वारा प्रतिसारित प्रण को सीं देवे । तदनंतर मेदकी शुद्धि के निमित्त मनसिल, इलायची, चमेली, पीपलामूल, भिलावा इन के साथ सिद्ध किया हुआ तेल चुपडता रहे । तथा जवतक व्रण न पुरै तब तक स्नेहस्वेद का बारबार प्रयोग करता रहै ।
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सुकुमार नामक रसायन । पचेत्पुनर्नव तुलां तथा दशपलाः पृथक् । दशमूलपयस्याश्च गंधैरंडशतावरीः ॥ द्विदर्भशरकाशमूलपोटगलान्विताः । वहेऽपामष्टभागस्थे तत्र त्रिंशत्पलं गुडात् ॥ प्रस्थमे रडतैलस्य द्वौ घृतात्पयसस्तथा । आवपेद् द्विपलांशं च कृष्णतन्मूलसैंधवम् यष्टीमधुकमृद्वीकायबानी नागराणि च । तत्सिद्धं सुकुमाराख्यं सुकुमारं रसायनम् ॥ वातातपाध्वयानादिपरिहार्येष्वयंत्रणम् । प्रयोज्यं सुकुमाराणामीश्वराणां सुखात्मनाम् नृणां स्त्रीवृंद भर्तृणामलक्ष्मीकलिनाशनम् । सर्वकालोपयोगेन कांतिलावण्यपुष्टिदम् ॥ वर्ष्मविद्रधिगुल्माशौयोनिमेढानिलार्तिषु - शोफोदरखुडप्लीहविद्विबंधेषु खोत्तमम् ॥
अर्थ सांठ की जड एक तुला, दशमूल दूधी, चंदन, अरंड, सितावर, दोनों डाभ सरकंडा कास, ईखकी जड, नरसल प्रत्येक दस दस पल इन सबको एक
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(१०४)
अष्टांगहृदय ।
अ १४
-
-
Amerintename
द्रोण जलमें पकावै, जब आठवां भाग बच । गुल्मेऽन्यतिकफजे प्लीहिन चायम् विधिः रहे, तब उतार कर छानले । इस काथमें
- स्मृतः।
कनिष्ठिकानामिकयोर्विश्वाच्यांच यतो गदः, तीस पल गुड, अरंडका तेल एक प्रस्थ, घृत
अर्थ-किसी किसी आचार्यका यह मत २ प्रस्थ, दूध दो प्रस्थ तथा पीपल, पीपला
है कि जिस ओर को वृद्धि हो उसी ओर के मूल, सेंधानमक, मुलहटी, द्राक्षा, अजवायन
अंगूठे के ऊपर तंतुके समान जो स्नायु है और सोंठ हर एक दो पल डालकर पकावै ।
| उसे ऊंची करके अर्ध चन्द्राकार सुई से तिइस घृतका नाम सुकुमार घृत है । यह सर्वो
| रछा नश्तर लगाकर अग्निसे जलादे । कोई त्तम रसायन है । वायु, आतप, मार्गगमन,
यह कहते हैं कि जिधरको वृद्धि हो उसके यानादि के परिहार में अयंत्रण है, यह सु
दूसरी ओर के अंगूठेके ऊपर वाली नसको कुमार, ऐश्वर्यवान् और सुखभोगियों के लिये । ऊंची करके पूर्ववत् बेधकर अग्निसे जलादे। उपयोगमें लाया जाता है, यह स्त्रियोंके स- कोई यह कहते हैं कि अनामिका उंगली के मूहों के भर्तारोंकी अलक्ष्मी और कलह का | ऊपर वाली नसको पूर्ववत् दग्ध करै । किसी नाश करने वालाहै यह सब कालों में उपयोग का यह मत है कि वातकफजन्य गुल्ममें करने के योग्य है, यह कांति, लावण्य और और प्लीहा में यह विधि करनी चाहिये । पुष्टिकारक है, तथा वर्भ, विद्रधि, गुल्म, अर्श | | कोई कहतेहैं विश्वाचीरोग जिस ओर हो उयोनि, मेद, वातरोग, सूजन, उदररोग,खुड | सी ओर की कनिष्ठका और अनामिका उंवा त, प्लीहा, पुरीषबिबंध इन सब रोगों में गलियोंके ऊपरवाली नसको पूर्ववत् दग्ध करे। अत्यन्त हितकारी है।
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा . उक्तरोग में वस्त्यादि। टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने यायावर्भ नबेच्छांति हरेकानुवासनैः । विद्रधिवृद्धिचिकित्सितं नाम बस्तिकर्म पुरस्कृत्वा वंक्षणस्थ ततो दहेत् ॥
त्रयोदशोऽध्यायः। आग्निना मार्गरोधार्थ मरुतः
अर्थ-स्नेहप्रयोग, विरेचन और अनुवासन द्वारा यदि वर्मरोग शांत न हो तो
चतुर्दशोऽध्यायः । प्रथम वस्तिकर्म करके वायुका मार्ग रोकने के लिये वंक्षणस्थानको अग्निसे दग्ध करदे। अग्निफर्ममें भिन्नमत। ..
अथाऽतो गुल्माचकित्सितं व्याख्यास्यामः। अर्धेदुवक्रया।
अर्थ-अब हम यहांसे गुल्मचिकित्सित नाअगुष्ठस्योपरि सावपीतं तंतुसमं च यत् ॥ |
मक अध्याय की व्याख्या करेंगे । उत्क्षिप्य सूच्या तत्तिर्यग्देहे छित्वा यतो गदः वातज गुल्मकी चिकित्सा ।। ततोऽन्यपार्वेऽन्ये- . | " गुल्मं बद्धशद्वातं वातिकं तीव्रवेदनम् ।
वाहेद्वाऽऽनामिकांगुलेः॥५०॥ तक्षशीतोद्भवं तैलै साधयेद्वातरोगकैः ॥
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अ०१४
चिकित्सितस्थान भाषाकासमेत ।
(६०५)
पानान्नान्वासनाम्यंगैः स्निग्धस्य- | वृंहणान्यन्नपानानि स्निग्धोष्णानि प्रदापयेत्
. स्वेदमाचरेत् । पुनः पुनः स्नेहपानं आनाहवेदनास्तभावबंधेषु विशेषतः २॥ अर्थ-वातिक गुल्म में यदि आग्नि तीन स्रोतसा मार्दवं कृत्वा जित्वा मारुतमुल्यणम् हो तथा. अधोवाय और पुरषिकी बिवद्धता भित्वा विबंध स्निग्धस्य स्वेदो गुल्ममपोहति
हो तो स्निग्ध और उष्णवीर्य बलकारक अर्थ-वातिक गुल्म रूक्ष औरशीतल पदार्थों के सेवन से होता है, इसमें मल
अन्नपानादि का सेवन कराना चाहिये और अधोवायु की रुकावट होती है और
तथा बार बार स्नेहपान कराना भी हित है। वेदना भी बहुत तीव्र होती है । इसकी |
| गुल्म में सानुवासन निरूपण ।
निरूहाः सानुवासनाः । चिकित्सा वातरोग चिकित्सितोक्त तेलों द्वारा
प्रयोज्या वातजे गुल्मे कफपित्तानुरक्षिणः । करनी चाहिये । स्नेहपान, स्निग्ध अन्न
___अर्थ-वातज गुल्म में कफ और पित्त का भोजन, अनुवासन और अभ्यंग इनसे | की रक्षा के निमित्त अनुवासन और निरूह ण रोगी को स्निग्ध करके स्वेदन करावै । जो का प्रयोग कराना चाहिये । रोगी आनाह,वेदना स्तंभता और विवंध से गुल्म पर वस्तिकर्म । पीडित हो तो बिशेषरूप से स्वेदन करना | बस्तिकर्म परं विद्याद्गुल्मघ्नं ताद्ध मारुतम्। चाहिये, इसका कारण यह है कि स्निग्ध
स्वस्थाने प्रथम जित्वा सद्यो गुल्ममपोहति ।
तस्मादभीक्ष्णशो गुल्मा निरूहैः सानुवासनैः मनुष्य को स्वेदन कराने से देह के संपूर्ण
प्रयुज्यमानैः शाम्यति वातपित्तकफात्मका: स्रोतों में मुदुता, उल्वण वायुकी समता और
___ अर्थ-गुल्मका नाश करने के लिये वबिबंधता का नाश होकर गुल्म शांत हो |
स्तिकर्म परम प्रधान उपाय है, यह पहिलेही जाता है।
पक्काशयस्थ वायुको जीतकर तत्काल गुल्म गुल्म में स्नेहपान | का नाश करदेता है । इसलिये वातिक, नेहपानं हितं गुल्मे विशेषेणोलनाभिजे।। पैत्तिक, कफज कैसाही गुल्म हो निरूहणं पक्वाशयगते बस्तिरुभयं जठराश्रये ॥ ४॥ और अनुवासन के निरंतर प्रयोग से शांत अर्थ-गुल्मरोग में स्नेहपान हितकारी
| होजाता है। होता है, विशेष करके नाभि के ऊपर होने वातगुल्म पर घृत । वाले गुल्मरोग में विशेषरूप से स्नेहपान | | हिंगुसौवर्चलव्योषविडदाडिमदीप्यकैः। । हित है । पक्काशय के गुल्ममें वस्ति, तथा | पुष्कराजाजिधान्याम्लवेतसक्षारचित्रकैः
शठीवचाजगंधैलासुरसैदेधिसंयुतैः। . जठराश्रय के गुल्म में स्नेहपान और वस्ति |
शूलानाहहरं सर्पिः साधयेद्वातगुल्मिनाम् दोनों हित हैं।
____ अर्थ-हींग, संचलनमक, त्रिकुटा, वायवातिक गुल्म में वृंहण । । विडंग, अनार की छाल, अजवायन, पुष्करदीप्तेऽनौ वातिके गुल्मे विवधेऽनिलवर्चसो। | मूल, कालाजीरा, धनियां, अम्लवेत, जवा;
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( ६०६ ]
अष्टांगहृदप ।
अ० १४
खार, चीता, कचूर, बच,अजमोद,इलायची | अजाजाहिंगुहपुषाकारवृिषकोषकैः । तुलसी और दही इनके साथ में पकाया | निकुंभकुंभमूवैभपिप्पलीवेल्लवाडिमैः हुआ घी पान करने से वातगुल्मवाले रोगी
| श्वदंष्ट्रात्रपुसरुवीजहिनाश्मभेदकैः ।
मिसिद्विक्षारसुरससारिवानीलिनीफलैः ।। के शूल और आनाह नष्ट होजाते हैं । घी त्रिकटुनिपटूपेतैर्दाधिकं तद्यपोहति ।। के पकाने की यह विधि है कि हींग से रोगानाशुतरान्पूर्वान्कष्टानपि च शीलितम् लेकर सुरसा पर्यंत द्रव्यों का जो परिमाण | अपस्मारगरोन्मादमूत्राघातानिलामयान् । है उस से चौगुना घी, घी के समान दही, ___ अर्थ-दसमूल, खरेटी, नीलनी,कलोंजी घीसे चौगना जल डालकर पकावै । दोनों प्रकारकी सांठ, पुष्करमूल, अरंड, अभ्य वृत।
रास्ना, असगंध, भाडंगी, गिलोय, कचूर हपुषोषणपृथ्वीकापंचकोलकदीप्यकैः।। और गंध पलास प्रत्येक दो दो पल, जौ, साजाजीसैंधवैर्दना दुग्धेन च रसेन च दाडिमान्मूलकात्कोलात्पचेत्साहिति तत्
| बेर, कुलथी, और उरद एक एक प्रस्थ इन घातगुल्मदिरानाहपार्श्वहृत्काष्ठवेदनाः सब द्रब्योंको एक द्रोण जलमें पकावै, चौथाई योन्यमॆग्रहणीदोषकासश्वासारुचिज्वरान् । शेष रहनेपर उतारकर छानले । इस क्वाथ
अर्थ-हाऊबेर, कालीमिरच, इलायची, | में समान भाग दही, एक प्रस्थ घी, तथा पंचकोल, अजवायन, कालाजीरा और सेंधा- अनार, आमडा, और बिजौरे का रस डाल नमक, इन सब द्रव्योंका कल्क, दही, दूध, कर पकावै, इसीमें तुषांबु और कांजी भी डाल तथा अनार, मूली और बेरोंका रस इन सब दे । तथा भाडंगी, धनियां, वच, पीपलामूल, द्रव्यों के साथ पाक बिधि के अनुसार घृत रास्ना, चीता, धनियां, अजवायन, अजमोद, पकाकर सेवन करनेसे वातजगुल्म, उदररोग अमलवेत, कालाजीरा, सफेदजीरा, हींग, आनाह, पसली का दर्द, हृदयशूल, कोष्ठशूल हाऊबेर, सौंफ, अडूसा, क्षारमृत्तिका, दंती, योनिरोग, अर्शरोग, प्रहणीरोग, खांसी,श्वास निसौध, मूर्वा, गजपीपल,बायविडंग, अनार अरुचि, और ज्वर ये सब दूर होजाते हैं । का छिलका,गोखरू,खीराककडीके बीज,जटय दाधिक घृत ।
मांसी, पाखानभेद, सौंफ, जवाखार, सज्जी दशमूलं बलां कालां सुषवीं द्वौ पुनर्नवौ
खार, गंधतृण, सारिवा, नीलनी, त्रिफला, पौष्कररैडरानाश्वगंधभार्यमृताशठी।
त्रिकुटा, त्रिपटु ( तीनोंनमक ), इन सब पद्धपलाशं च द्रोणेऽपा द्विपलोन्मितम् । यवैः कोलैःकुलत्यैश्च माषैश्च प्रास्थिकैः सह
| द्रव्यों को महीन पीसकर डालदे । इसतरह क्वाथेऽस्मिन्दाधिपात्रे च घृतप्रस्थं विपाचयेत् । इन सव द्रव्योंके साथ सिद्ध किया हुआ घी स्वरसैदाडिमाघ्रातमातुलुंगोद्भवैर्युतम् ।। यथोक्त रीतिसे पाक करे इस घृतका नाम तथा तुषांबुधान्याम्लयुतैःश्लक्ष्णैश्च कल्कितैः | भार्गीतुंबुरुषग्रंथाप्रथिरामाग्निधान्यकैः।।
दाधिक घृतहै । इसके सेवन करनेसे पूर्वोक्त यवानकयवान्यम्कवेतसासितजीरकै। संपूर्ण भयानक रोग शीघ्र शांत होजाते हैं
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म.१४
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६.७
emainsema
-
तथा अपस्मार, गर, उन्माद, मूत्राघात और प्रसनयावा क्षीरार्थःसुरया दाडिमेन वा २६ घातरोग भी जाते रहते हैं।
घृते मारुतगुल्मघ्नः कार्यों दध्नः सरेण वा ॥ अन्य घृत ।
___ अर्थ-जो. षट्पल घृत राजयक्ष्मामें कहा त्र्यूषणत्रिफलाधान्यचविकावेल्लाचित्रकैः ।
गया है वहभी हित है, अथवा दूधके बदले कल्कीकृतै त पक्कं सक्षीरं पातगुल्मनुत्।
में प्रसन्ना, वा सुरा, वा दाडिमका रस का अर्थ-गौका घी चार सेर, दूध ४ सेर । दही की मलाई डालकर सिद्ध किया हुआ. जल १६ सेर तथा त्रिकुटा, त्रिफला, धनियां | घी भी वातगुल्मनाशक होता है। चव्य, वायविडंग चीता इन सवको महीन वातजगुल्म में कफोद्वमन । पीसकर डालदे, यह पकाहुआ घृत वातगुल्म | वातगुल्मे कफो वृद्धो हत्वाग्निमचियदि॥ को नष्ट करदेता है।
हल्लासं गौरवं तद्रां जनयेदुल्लिखेत्तु तम् । अन्य घृत।
अर्थ-वातज गुल्ममें यदि कफ बृद्धिको तुला लशुनकंदानां पृथपंचपलांशकम्
प्राप्त होकर जठराग्नि को नष्ट कर के अरुचि
प्राप्त होकर पंचमूलं महच्चांबुभारार्धे तद्विपाचयेत्। । हल्लास, गौरव और तंद्रा को उत्पन्न करै पादशेषं तदर्धन दाडिमस्वरसं सुराम् तो उस कफको वमन द्वारा निकाल देवे । धान्याम्लं दधि चाऽऽदाय पिष्टांचापला
। शूलादि में क्वाथादि ।
शकान् । त्र्यषणत्रिफलाहिंगुयवानाचव्यदीप्यकान् ।
शूलानाहविबंधेषु ज्ञात्वा सम्मेहमाशयम् : सॉम्लवेतससिंधूत्थदेवदारूपचेद्धृतात् ।
| नियूहचूर्णवटका प्रयोज्या घृतभेषजैः ।
नियूह तैःप्रस्थं तत्परं सर्ववातगुल्मविकारजित् २५ |
अर्थ-गुल्मरोग में यदि शूल, आनाह अर्थ-लहसन एक तुला, वृहत्पचमूलप्रत्येक | और मलकी विवद्धता हो और कोष्टमें धृतपांच पल इनको दस तुला जलमें पकावै
प्लुत औषधों के सेवन से स्निग्धता मालूम चौधाई शेष रहनेपर उतार कर छानले. हो तो घृतपाक में कही हुई औषधों द्वारा इसमें अनार का रस, सुरा. कांजी, दही तयार किया हुआ काढा, चूर्ण और गोलि. प्रत्येक १२५ पल डाले तथा त्रिकटा. त्रि- यो काम में लावै ! फला, हींग, अजवायन, चब्य, अजमोद,
। अन्य चूर्ण । अम्लवेत, सेंधानमक, देवदारू, प्रत्येक आ- | कोलदाडिमधर्माबुतक्रमद्याम्लकांजिकैः धा आधा पल, घी एक प्रस्थ इन सबको
| मंडेन वा पिवेत्प्रातश्चूान्यन्नस्य वा पुरः। पाकविधि के अनुसार पकाकर सेवन करने
___ अर्थ-वेरका रस, अनारका रस, सूर्य से सब प्रकार के वातगुल्मों के विकार दूर
की किरणों से तप्त जल, तक्र, मद्य, खट्टी होजाते हैं।
कांजी और मंड इनमें से किसी के साथ वातगुल्मनाशक घृत । घृतपाक में कही हुई औषधोका चूर्ण प्रातःषट्पलं वा पिवेत्सपिर्यदुक्तं राजयक्ष्मणि। | काल वा भोजन करनेसे पहिले पान करावे।
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१६०८)
अष्टांगहृदप ।
कफ वातजगुल्ममें वटिका। धर्म, आध्मान, श्वास, खांसी और अग्निचूर्णानि मातुलुंगस्य भावितान्यसकृद्रसे। | मांद्य इन सव रोगों को नष्ट कर देता है । कुति कार्मुकतरान बटकान कफवातयोः॥ ____लवणादि चूर्ण । अर्थ-कफवातज गुल्ममें घृतपाक की
लवणयवानीदीप्यक औषधों के चूर्ण में बिजौरे के रसकी बार
कणनागरमुत्तरोत्तरं वृद्धम् । बार भावना देकर गोलियां बनाकर दीजाती सर्वसमांशहरीतकी है, ये गोली तत्काल लाभकारक होती हैं ।
चूर्ण वैश्वानरः साक्षात् ॥ ३४ ॥
अर्थ-नमक, अजबायन, अजमोद, पी. हिंग्वादि चूर्ण।
पल, सोंठ इन सब द्रव्योंको उत्तरोत्तर एक । हिंगुवचाविजयापशुगंधा
एक भाग बढाकर लेवे और इन सबके सदाडिमदीप्यकधान्यकपाठाः। पुष्करमूलशठीहपुषाग्नि
मान हरड लेकर कूट पीसकर चूर्ण बनालेयै क्षारयुगत्रिपटुत्रिकटूनि ॥ ३१ ॥ यह लवणादि चूर्ण साक्षात् अग्निरूप है, साजाजिचव्यं सहतित्तिडीकं अर्थात् अग्निके बढाने में प्रधान है । सवेतसाम्लं विनिहति चूर्णम् हृत्पार्श्वबस्तित्रिकयोनिपायु
. हिंग्याष्टक चूर्ण । शूलानि वाय्बामकफोद्भवानि ॥ ३२॥ | त्रिकटकमजमोदा सैंधवं जीरके द्वे कृच्छ्रान् गुल्मान्वातविण्मूत्रसंग
समधरणधुतानामष्टमो हिंगुभागः । कंठे बंध हृदग्रहं पांडुरोगम् ।
प्रथमकवलभोज्यः सर्पिषा चूर्णकोऽयं अन्नाश्रद्धाप्लीहदु महिमा
जनयति भृशमग्निं वातगुल्मं निहति ॥ वर्माध्मानश्वासकासाग्निसादान् ॥ अर्थ-त्रिकुटा, अजमोद, सेंधानमक,का
अर्थ- हांग, बच, हरड, अजमोद, अ- | लाजीरा, सफेदजीरा, इन सब द्रव्यों को समान नारका छिलका, अजवायन, धनियां, पाठा भाग और आठवां भाग हींग इनका चर्ण पुष्करमूल, कचूर, हाऊवेर, चीता, दोनों- बनाकर इस हिंग्वाष्टक चूर्ण को भोजन करते खार, तीनों नमक ( सेंधा, बिड, और का- समय धीमें मिलाकर प्रथम प्रासके संग खाला ) त्रिकुटा, कालाजीरा, चव्य, इमली, लेवै, यह अग्निको बढाता है और वातगुल्म और अम्लवेत, इन सब द्रव्यों से बनाया | को नष्ट करता है । कोई कोई यह भी अर्थ हुआ यह हिंग्यादि चूर्ण वायु, आम और | करते हैं कि धरण पलका दसवां भाग होता कफसे उत्पन्न हुए हृतशूल, पसली का दर्द । है अर्थात् पांच माशेके लग भग । त्रिकुटादि बस्तिका दर्द, त्रिकका दर्द, योनिका दर्द, उक्त द्रव्योंको एक एक धरण और हींग ध. गुदाका दर्द तथा गुल्मरोग, अधो बायु, वि- | रण का अष्टमभाग | इस चूर्णको प्रथम प्रा. ष्टा और मूत्र का बिबंध, कंठरोग, हृद्ग्रह, | सके साथ सेवन करे। हींग अग्निपर फुलापांडुरोग, अन्नमें अरुचि, प्लीहा, अर्श,हिमा, | कर डाली जाती है।
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म. १४
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६०९)
-
धानामयै
शार्दूल चूर्ण। | और सबके ऊपर नमक रखदे । फिर इस हिंगूप्राविडशुंठ्यजाजिविजयावाट्याभिः को जलाकर चूर्ण बना लेवै । इस चूर्ण
| को दही के तोड के साथ सेवन करना चाचूर्ण कुंभनिकुंभमूलसहितैर्भागोत्तरंवर्धितैः
हिये, इससे गुल्म, उदर, सूजन,और पांडुरोग पतिः कोष्णजलेन कोष्ठजरुजौगुल्मोदरादीमयं शार्दूलः प्रसभं प्रमथ्य हरति व्याधीन - ॥ जाते रहते हैं। मृगौघानिव ॥ ३६
अन्य चूर्ण । . अर्थ-हींग, वच, विडनमक, सोंठ, जीरा, हिंगुत्रिगुणं सैंधवमस्मात्रिगुणंतुतैलमैरंडम् हरड, पुष्करमूल, कूठ, निसौथ, और जमाल- | तत्रिगुणरसोनरसं गुल्मोदरवर्भशूलघ्नम् ॥ गोटा की जड इन सब द्रव्योंको एक एक
___ अर्थ-हींग, एक माग, सेंधानमक तीन भाग बढाकर लेबै और इनका चूर्ण बनाकर
भाग, अरंडी का तेल नौ भाग, लहसन का
रस २७ भाग इसका सेवन करने से गुल्म गरमजल के साथ पावै। इसके पीनेसे कोष्ठज वेदना, गुल्म और अन्य उदरादिरोग ऐसे
उदर, वृद्धि और शूल नष्ट हो जाते हैं । नष्ट होजाते हैं जैसे शार्दूल हरिणों के समूह
अन्य प्रयोग । को नष्ट करदेता है।
मातुलुंगरसो हिंगुदाडिमं बिडसेंधवम् ।
सुरामंडेन पातव्यं बातगुल्मरुजापहम् ॥ सिंधृत्य चूर्ण ।
___ अर्थ-विजौरे का रस, हींग, अनार, सिंधूत्थपथ्याकणदीप्यकानां चूर्णानि तोयैः पिवतां कवोष्णैः।
विडनमक, सैंधानमक, इन सवको सुरामंड प्रयाति नाशं कफवातजन्मा के साथ पीनेसे वातज गुल्मकी वेदना शांत नाराचनिभिन्न इबामयौघः होजाती है । अर्थ-संधानमक, हरड, पीपल, और
शंठयादि चूर्ण । अजवायन इनके चूर्ण को गरग जल के शुख्याः कर्ष गुडस्य द्वौ धौताकृष्णतिलासाथ पान करै । यह वातज रोग समूहों
त्पलम्। को ऐसे खो देता है, जैसे कोई तीर से
खादन्नेका संचूर्ण्य कोष्णक्षीरानुपोजयेत् । भेदन करता है।
वातहृद्रोगगुल्माशेयोनिशूलशकद्ग्रहान् । अन्य चूर्ण ।
___ अर्थ-सौंठ एक कर्ष, गुड दो कर्ष, धुली पूतीकपत्रगजचिर्भटचव्यवह्नि
हुई सफेद तिली एक पल इनका चूर्ण वना ___ व्योषं च संस्तरचितं लवणोपधानम् । कर सेवन करे, ऊपरसे गरम दूधका अनु
दग्ध्वा विचूर्ण्य दधिमस्तुयुतं प्रयोज्यं पान करे । इससे वातन हृद्रोग, गुल्म, गुल्मोदरश्वयथुपांडुगदोद्भवेषु॥ ३८॥ अर्श, योनिशूल, और मलका विवंध दूर
अर्थ पूतिकरंज के पत्ते, गजपपिळ, | होजाते हैं । इन्द्रायण, चव्य, चीता, त्रिकुटा, इन सब | अन्य प्रयोग । द्रव्यों को इसी क्रमसे एक के ऊपर एक रखदे | पिवेदैरंडतैलं तु वातगुल्मी प्रसन्नया ॥
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(६१०-1
मण्यनुवले वायो पिते तु पयसा सह । । अर्थ - वातगुल्मवाला रोगी वायु और कफका अनुबंध होने पर प्रसन्ना के साथ अरंड का तेल पान करे । यदि पित्तका अनुबंध हो तो दूध के साथ पीना चाहिये । गुल्म में विरेचनादि ।
विवृद्धं यदि वा पित्तं संतापं वातगुल्मिनः ॥ कुर्याद्विरेचनीयोऽसौ सस्नेहैरानुलोमकैः । तापानुवृत्तावेवं च रक्तं तस्याऽवसेचयेत् ॥
अर्थ - वातगुल्मरोगी का पित्त वृद्धिको प्राप्त होकर यदि संताप करे तो स्नेहयुक्त अनुलोमन करनेवाले विरेचन के योग्य द्रव्यों से विरेचन करावे । ऐसा करनेपर भी यदि संताप रहै तो रक्तमोक्षण करना चाहिये । अन्य प्रयोग |
मष्टहृदय |
साधयेच्छुद्धशुष्कस्य लशुनस्य चतुःपलम् । क्षीरोदकेऽष्टगुणिते क्षीरशेषं च पाचयेत् ॥ वातगुल्ममुदावर्त गृध्रसीं विषमज्वरम् । हृद्रोगं विद्रधि शोषं साधयत्याशु तत्पयः ॥
अर्थ - छिला हुआ और सूखा ल्हसन चार पल लेकर आठगुने दूध और पानी में पकावे, जव दूध बचरहे तब उतारकर छानले, इस दूधको पीनेसे घातगुल्म, उदा'घर्त, गृध्रसी, विषमज्वर, हृद्रोग, विद्रधि और शोषरोग शीघ्र दूर होजाते हैं । गुल्मपर तैल ।
तैलं प्रसन्नागोमूत्रमारनालं यवाग्रजः । गुल्मं जठरमानाहं पीतमेकत्र साधयेत् ॥
अर्थ - तिलकातेल, प्रसन्ना, गोमूत्र, आरनाल और जवाखार इन सबको मिलाकर पीनेसे गुल्म, जठररोग आनाह दूर हो जाते हैं । चित्रकादि क्वाथ | चित्रकथेकरंड्ठािथः परं हितः ।
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म० १४
शूलानाह विबंधेषु सहिंनुविडसैंधवः ॥ अर्थ- चीता, पीपलामूल, अरंडकी जड और सौंठ इनका काढा करके फूली हुई हींग विडनमक और सेंधानमक पीसकर मिलाकर पी तो शूल, आनाह और निबंध जाते रहते हैं ।
पुष्करादि क्वाथ | पुष्करैरंडयोर्मूलं यवधन्ययवासकम् । जलेन कथितं पीतं कोष्ठदाहरुजापहम् । अर्थ - - पुष्करमूल, अरंडकी जड, जौ और जवासा इनका काढ़ा पीने से कोष्टका दाह और बेदना शांत होजाती है । अन्य, प्रयोग |
वाट्याहवैरंडदर्भाणां मूलं दारु महौषधम् । पीतं निःक्काथ्य तोयेन कोष्ठपृष्ठयंसशूलजित्
अर्थ - खरैटी की जड, अरंडकी जड, दाभकी जड, देवदारु, सोंठ, इनका काथ पीने से कोष्ठ, पीठ, और कंधा इनका दर्द जाता रहता है ।
शिलाजीत का प्रयोग | शिलाजं पयसाऽनल्पपंचमूलसृतेन वा । वातगुल्मी पिवेद्वाट्यमुदावर्ते तु भोजयेत् । स्निग्धं पैप्पलिकैयूँषैर्मूलकानां रसेन वा । बविण्मारुतोऽश्नीयात्क्षीरेणोष्णेन
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यावकम् ॥ ५२ ॥ कुल्माषान्वा बहुस्नेहान् भक्षयेल्लवणोत्तरान् अर्थ- वातगुल्म में दूध के साथ अथवा वृहत्पंचमूल के साथ पकाये हुए दूध के साथ शिलाजीत पीना चाहिये, यदि उदावर्त हो तो स्नेहसंयुक्त खरेटी की जड़ को पीपल के यूत्र के साथ अथवा मूली के रस के साथ देवै । यदि मल और अधोवायुकी
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अ० १४
चिकित्सितस्थान भाषाकासमेत ।
[६१९]
विबद्धता हो तो गरम दूधके साथ जौ के | श्वित्रकुष्ठ, प्लीहा, उन्माद, ये रोग दूर-हो पदार्थ अथवा अधिक स्नेह और अधिक | जाते हैं | इस घी का नाम नीलिनी धृतहै। नमक स युक्त कुल्माष (जो और चना | गुल्म पर कुक्कुटादि । आदि की धूधरी ) खाने को दे । कुकुरराश्च मयूराश्च तित्तिरिक्रौंचवर्तकाः । अन्य घृत ।
शालयो मदिराःसर्पितगुल्मचिकित्सितम् नालिनीत्रिबृतादतीपथ्याकंपिल्लकैः सह ॥ ।
अर्थ-मुर्गा, मोर, तीतर, बगुला,वतक समलाय घृतं देयं सविडसारनागरम् । इनका मांस, शालीचांबल, मदिरा और घी
अर्थ-नीलिनी, निसोथ, दंती, हरड | ये सब वातगुल्म की औषध हैं। और कबीला, विडनमक, जवाखार और
पथ्यविधि । सोंठ इनके साथ घृत पान करने से मलयुक्त | मितमुष्णं द्रव स्निग्धं भोजनं धातगुल्मिनाम् गुल्म नष्ट होजाता है।
समंडावारुणी पानं तप्तं वा धान्यकैलम्।
___ अर्थ-वातगुल्मरोगी के लिये गरम,पतनीलिनी घृत। नीलिनी त्रिफलां रानां वलां कटकरोहिणीम ला, स्निग्ध और प्रमाणानुसार भोजन तथा पचेद्विडंगं व्याघ्री च पालिकानि जलाढके ।। मंडके साथ वारुणी नामक मद्य, अथवा रसेऽष्टभागशेषं तु घूतप्रस्थं बिपाचयेत् ॥ धनिये का काढा पीने की देवै । दनः प्रस्बेन संयोज्य सुधाक्षीरपलन च।।
पैत्तिक गुल्म में विरेचन । ततोघृतपलं दद्याद्यवाग्मडमिश्रितम् ॥ जीर्णे सम्यग्विरिक्तं च भोजयेद्रसभोजनम् ।
निग्धोष्णेनोदिते गुल्मे पैत्तिके वसनं हितम गुल्मकुष्ठोदरत्यंगशोफपांइबामयज्वरान् ॥
द्राक्षाऽभयागुडरसं कंपिल्लं वा मधुद्धतमा श्वित्रं प्लीहानमुन्माद हत्यतं नीलिनीघृतम् ।
कल्पोनं रक्तपित्तोक्त अर्थ-नीलिनी, त्रिफला, रास्ना, खरैटी
___अर्थ-पैतिक गुल्म यदि चिकने और
गरम पदार्थों के सेवन से हुआ हो तो दाख कुटकी, बायविडंग, और कटेरी इन सब
हरड और गुडके रस द्वारा, अथवा मधुको एक एक पल लेकर एक आढक जल
मिश्रित कवीले द्वारा अथवा कल्पस्थानोक्त में पकावै, जब अष्टमांश शेष रहै तब उतार
वा रक्तपित्तोक्त विरेचन देना हितकारीहै। कर छानले । फिर इस काथ में एक प्रस्थ घी, एक प्रस्थ दही, सेंहड का दूध एक
पित्तगुल्म में संशमन ।
गुल्मे रूक्षोष्णजे पुनः ॥ ६१॥ पल, इन सबको अग्नि पर धरकर पकावै
परं संशमनं सर्पिस्तितं वासावृतं शृतम्। इस घृत में से एक पल लेकर यवागू वा |
तृणाख्यपंचककाथे जीवनीयगणन पा॥ . मंडके साथ पीबै । घी के पचने और घी | शतं तेनैव वा क्षीरं न्यग्रोधादिगणेन वा। से अच्छी तरह विरचन होने पर मांसरस अर्थ -यदि गुल्म रूक्ष और उष्ण पदार्थों के साथ भोजन करावै । इससे गुल्म, कुष्ठ | के सेवन से हुआ हो तो कुष्ठचिकित्सित्रोक्त उदररोग, व्यंग शोफ, पांडुरोग, उबर, | तिक्तक घी, वासा घी, अथवा तृणपंचकके
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(६१२]
अष्टांगहृदय ।
अ०१४
काढे में वा जीवनीयगणके काढे में सिद्ध
अन्य प्रयोग । किया हुआ घी अथवा जीवनीयगण वा द्विपलं त्रायमाणाया जलद्विप्रस्थसाधितम् । न्यग्रोधादि गणके साथ सिद्ध किया हुआ ।
| अष्टभागस्थितं पूतं कोणं क्षीरसमं पिबेत्
पिबेदुपरि तस्योष्णं क्षीरमेवं यथावलम् । दूध. देना चाहिये । यह औषध पित्त
तेन निर्दृतदोषस्य गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः गुल्म को शमन करने के लिये बहुत |
__ अर्थ-त्रायमाणा दो पलको दो प्रस्थ जलमें
पकावै, आठवां भाग शेष रहने पर उतार ___ आत्ययिक गुल्म में विरेचन ।
कर छानले, फिर इसमें बराबर का दूध तत्राऽपि संसनं युज्याच्छीघ्रमात्यायिके
मिलाकर पीवै ॥ फिर इसके ऊपर अपने
भिषक् ॥६३॥ वैरेचानकसिद्धेन सर्विषा पयसाऽपि वा।
बलके अनुसार गरम दूध पीवे । इससे दोषों अर्थ--जो गुल्म साधारणतया उत्पन्न | के निकलने पर पैत्तिक गुल्म शांत हो होकर असाध्य प्रतीत हो उसमें भी शीघ्र | जाता है । विरेचन देना चाहिये, यह विरेचन बैरेचनिक | पैतिक गुल्म में अभ्यंगादि । द्रव्यों के साथ सिद्ध किये हुए घी बा दूधके । दाहेऽभ्यंगो घृतैः शीतैः साज्यैलेंपो. साथ दिया जाता है ॥
हिमौषधैः। स्पर्शः सरोरुहां पत्रैः पात्रैश्च प्रचलजलैः॥ अन्य घृत ।
___ अर्थ- पैतिक गुल्म में दाह हो तो शीरसेनामलकेथूणां घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ पथ्यापादं पिबेत्सर्पिस्तत्सिद्धं पित्तगुल्मनुत्
तवीर्य द्रव्यों के साथ में पकाये हुए घीका पिोद्वा तैल्वकं सर्पिर्यञ्चोक्तं पित्तविद्धौ ॥ | अभ्यंग शीतल द्रव्यों घी में मिलाकर लेप,
अर्थ-घी एक प्रस्थ, आमले और ईख । कमल के पत्तों वा प्रचज्जलपात्रों का का रस चार प्रस्थ, हरड का कल्क चौथाई | स्पर्श करै । प्रस्थ डालकर पकाबै, इस घीके पीने से अ
विदाहपूर्व गुल्म . थवा पित्तज विद्राध में कहे हुए तैल्वक घृत | विदाहपूर्वरूपेषु शूले बढेश्च मार्दवे । के पीनेसे पित्तगुल्म नष्ट होजाता है ॥ बहुशोऽपहरेद्रक्तं पित्तगुल्मे विशेषतः ॥ द्राक्षादि पान ।
___ अर्थ-जिस गुल्ममें विदाह पूर्वरूप है, द्राक्षां पयस्यां मधुकं चंदनं पद्मकं मधु। वा जिसमें शूल और अग्निमांद्य होता है, पिबेत्तंडुलतोयेन पित्तगुल्मोपशांतये ॥ उसमें वार वार रक्त निकालना चाहिये । .. अर्थ -पित्तगुल्मकी शांतिके लिये दाख, पितगुल्म में विशेष रूपसे रक्त निकालना क्षीरका कोली, मुलहटी, रक्तचंदन, पदमःख | चाहिये । और शहत इन सब द्रव्योंको चांवलों के । रक्तमोक्षण में कारण । जलके साथ पान करै ।
| छिन्नमूला विदह्यते न गुल्मा यांति च क्षयम्
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(६१३]
रक्तं हि व्यम्लतां याति तच नास्ति मिश्री, ये सव द्रव्य खानेके लिये देवै, तथा
न चाऽस्तिरुक् ॥ ७१॥ | खरैटी वा बृहत्यादि गणका काथ पीनेको दे अर्थ-रक्त के निकालने पर गुल्म की
कफजगुल्म में उपाय ॥ जड कटजाती है, इसलिये पकने नहीं पाते | श्लेष्मजे वाऽमयेत्पूर्वमवम्यमुपवासयेत् ॥ है, किंतु नष्ट होजाते हैं, क्योंकि रक्तही तिक्तोष्णकटुसंसर्या वहि संधुक्षयेत्ततः । भीतर रहकर व्यम्ल होकर पक उठता हैं। हिग्वादिभिश्च द्विगुणक्षारहिंग्वम्लवेवसैः॥ इसलिये जव रक्त हीन रहेगा तो उससे वे. अर्थ-कफज़ गुल्ममें प्रथम वमन कराना दना भी उत्पन्न न होगी।
चाहिये, परंतु यदि रोगी वमन के अयोग्य हृतदोष में घृतपान .
| अर्थात् बालक, वृद्ध, कृश वा गर्भिणीहो तो हृतदोषं परिम्लानं जांगलैस्तर्पितं रसैः।। वमन न कराकर लंघन करावै । तत्पश्चात् समाश्वस्त सशेषार्ति सर्पिरभ्यासयेत्पुनः॥ | सम्यक लंधित होनेपर तिक्त, कटु और उ___ अर्थ-गुल्मरोगी दोषके निकलने पर ष्णबीर्य द्रव्यों के साथ सिद्ध की हुई पेया पारम्लान अर्थात् शिथिल और सुस्त हो तो ।
देकर रोगी की अग्निको वढावै । तदनंतर उसे जांगल जीवों के मांसरस से तृप्तकरै
हिंग्यादि चूर्ण देवै परंतु इसमें उक्त परिमाण और अच्छी तरह से उसको आश्वासन दे
से हींग, क्षार और अम्लेवेत दूना डाले। कर घीका अभ्यास करावै, जिससे वचा
कफजगुल्म का संशोधन ॥ हुआ रोगभी शांत होजाय ।
निगूढं यदि वोनद्धं स्तिमितं कठिनं स्थिरम् ___पाकोन्मुख गुल्म में कर्तव्य !
आनाहादियुतं गुल्मं संशोध्य विनयेदनु । रक्तपित्तातिवृद्धत्वाक्रियामनुपलभ्य वा। । घृतं सक्षारकटुकं पातव्यं कफगुल्मिना। गुल्मे पाकोन्मुखे सर्वा पित्तविद्रधिवक्रिया
. अर्थ-कफनगुल्म यदि निगूढ ( छिपा ___ अर्थ--रक्त और पित्तकी अत्यंत वृद्धि से
हुआ ), ऊंचा, स्तिमित, कठोर, अचल वा अथवा चिकित्सा में उपेक्षा होने से यदि
आनाहादि से युक्तहो तो वमन विरेचनादि गुल्म में पकने के लक्षण दिखाई देने लगें
द्वारा शोधन करके रोगीको क्षार और कटु तो पित्तविद्रधि के समान चिकित्सा करनी
द्रव्यों से संयुक्त घृतपान करावै । चाहिये । पित्तजगुल्म में उपाय।
अन्य घृत। शालिगव्याजपयसा पटोली जांगलं घृतम्। सव्योषक्षारलवणं सहिंगुविडदाडिमम् ।। धात्रीपरूषकं द्राक्षौ खर्जूरं दाडिमं सिताम् | कफगुल्मं जयत्याशु दशमूलशृतं घृतम् । भोज्य पानेऽबुबलया बृहत्याद्यैश्च साधितम अर्थ-त्रिकुटा, जवाखार, नमक, हैं।ग, ___ अर्थ-गौ वा वकरी के दूध के साथ शा- | विडनमक और अनार इनको पीसकर दशलीचांवलों का भात, पर्वल, जांगलमांस,घृत, मूल के काथमें मिलाकर घी पकौव, यह धी आंवला, फालसा, दाख, खिजूर, अनार, कफजगुल्म को शीघ्र शांत कर देता है ।
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मष्टांगहृदय ।
अ०१४
भल्लातक घृत।
| यथोक्तां घटिकां न्यस्येद्ग्रहीतेऽपनयेच ताम् भल्लातकानां द्विपल पंचमूलं पलोन्मितम् ॥
वस्त्रांतरं ततः कृत्वा छिद्यांदूगुल्म प्रमाणवित् अल्प तोयाढके साध्यं पावशेषेण तेन च। | विमार्गाजपदादशैर्यथलाभं प्रपीडयेत् । तुल्यं घृतं तुल्यपयो बिपचेदक्षसंमितः ॥ प्रमृज्यादूगुल्ममेवैकं न त्वंत्रहृदयं स्पृशेत् विडंगहिंगुसिंधूत्थयावशूकशीबिडैः। | अर्थ-स्नेहन और स्वेदन से गुल्म के सदीपिरास्नायष्टयावषग्रंथाकणनागरैः ॥ शिथिल होनेपर उसके उपर घटिका यंत्र एतद्भल्लातकघृतं कफगुल्महरं परम् । प्लीहपांड्वामयश्वासग्रहणीरोगकासनुत् ॥
स्थापित करै । जव गुल्म गृहीत होजाय तब अर्थ-भिलावा दो पल, लघुपंचमूल एक
घटिका को हटाले । तब गुल्मको कपडे से एक पल, इनको एक आढक जलमें पकावै, ढककर सूच्यादि से विदीर्ण करदे । तदनंतर चौथाई शेष रहने पर उतार कर छानले,
विमार्ग, अजपद वा आदर्श इन यंत्रोंमें से फिर इस काढेमें काढेके समान घी और दूध
गुल्मको पीडन करके ोछ डाले । तथा अंत्र. मिलावै । और बायविडंग, हींग, सेंधानमक,
और हृदयका स्पर्श भी न करे । जवाखार, कचर, बिडनमक, चीता, रास्ना,
कफगुल्ममें प्रलेपादि । मुलहटी, वष, पीपल, और सोंठ प्रत्येक एक
तिलैरंडातसीवजिसर्षपैः परिलिप्य च ।
श्लेष्मगुल्ममयस्पात्रैः सुखोष्णैः स्वेदयेत्ततः एक तोले पीसकर मिलाकर पकावै । यह
अर्थ-कफज गुल्मके ऊपर तिल, अरंडके भल्लातक घृत कफजगुल्म को नष्ट करदेता वीज, अलसी वा सरसों का लेप करके थोडा हा तथा प्लाहा, पाडुराग, श्वास, महणा, गरम करकरके लोहेके पात्रसे स्वेदन करे । और खांसीको भी दूर करदेता है।
कफगुल्ममें शोधन। - स्वेदनबिधि ।
| एवं च विसृतं स्थानात् कफगुल्मं विरेचनैः ततोऽस्य गुल्मे देहे च समस्ते स्वेदमाचरेत् सनेहैस्तिभिश्चैनं शोधयेहशमूलकैः "
अर्थ-घृतपानके पीछे गुल्म तथा संपूर्ण अर्थ-ऊपर लिखी क्रियासे कफ गुल्मके देहमें स्वेदन करना चाहिये ।
अपने स्थानसे चलित होजाने पर स्नेहयुक्त स्नेहस्वेदन को उत्कृष्टता।
विरेचन, और दशमूल की वस्तिका प्रयोग सर्वत्र गुल्मे प्रथम नेहस्वेदोपपादिते।।
करके शुद्ध करै । या क्रिया क्रियते याति सा सिद्धिं न विरूक्षिते।
मिश्रित स्नेह । अर्थ-सब प्रकार के गुल्मरोगों में प्रथम पिप्पल्यामलकद्राक्षाश्यामाद्यैः पालिकैः
पचेत् । स्नेहन और स्वेदन कर्म करके जो क्रिया की
एरंडतेलहविषोः प्रस्थौ पयसि षड्गुणे जाती है वह सिद्धि होजाती है, किंतु विरू
सिद्धोऽयं मिश्रकः नेहो गुल्मिनां संसनं क्षित गुल्ममें क्रिया की सिद्ध नहीं होती है।
हितम् । गुल्मके शिथिल होनेपर कर्तव्य । | वृद्धिविद्रधिशलेषु वातव्याधिषु चामृतम् निग्धस्विभशरीरस्य गुल्मे शैथिल्पमागते । अर्थ-पीपल, आमला, दाख और श्या
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म. १४
चिकित्सितस्थान भाषादीकासमेत ।
मादिवर्ग ( सूत्रस्थान १५ वा अध्याय देखौ) | चूर्ण ४ पल, पीपल और सोंठ दो दो तोले प्रत्येक एक एक पल, अरंडी का तेल और इनको डालकर पकाव । जब यह ल्हेई के घी एक एक प्रस्थ, दूध छ:गुना इन सबको समान गाढा होजाय तब उतार. ले, ठंडा यथोक्त रीति से पकावै । यह मिश्रत नामक | होने पर शहत चार पल, चातुर्जात (दालस्नेह गुल्मरोगियों के विरेचन के लिये चीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसर) अत्यंत उत्तम औषध है। तथा वृद्धि,विद्रधि । प्रत्येक एक एक पल पीसकर मिला देवे । शूल और वातव्याधियों में अमृत के समान | इसकी मात्रा दो तोला और एक हरड़ होती गुणकारक है।
है । इसके सेवनसे विरेचन सुखपूर्वक होता नीलिका घृत ।
1 है, तथा स्निग्धता के साथ साथ एक प्रस्थ विद्वानीलिनीसर्पिर्मात्रया द्विपलीकया। | मल निकल कर रोगी निरोग होजाता है। तथैव सुकुमाराख्यं घृतान्यौदरिकाणि वा । इससे गुल्म, हृद्रोग, अर्श, शोफ, आनाह, ___ अर्थ-पूर्वोक्त नीलिकाघृत अथवा विद्रधि गर, उदररोग,कुष्ठ, उत्क्लेश, अरुचि प्लीहा, चिकित्सितोक्त सुकुमार घृत अथवा उदररोग ग्रहणी, विषमज्वर, पांडुरोग और कामला में कहे हुए सब प्रकार के घृत इनमें से नष्ट होजाते हैं । इस अवलेह का नाम दंती विरेचन के लिये दो पल की मात्रा देवै ।
हरीतकी है। दंत्यादि चूर्ण ।
__अन्य चूर्ण । द्रोणेभसः पचेइत्याः पलानां पंचविंशतिम्। सुधाक्षीपद्रवंचूर्ण त्रिवृतायाः सुभावितम् ॥ चित्रकस्य तथा पथ्यास्तावतीस्तद्रसे सुते कार्षिकं मधुसर्पिभ्यां लदिवासाधुविरिच्यते द्विमस्थे साधयेत्पूते क्षिपेइंतीसमं गुडम् । अर्थ-सेंहुड के दूध की भावना दिया तैलात्पलानि चत्वारि त्रिवृतायाश्च चूर्णतः हुआ और उसी से द्रव किया हुआ चूर्ण कणाकर्षों तथाशुंख्या:सिद्ध लेहे तु शीतले। एक कर्ष मध और घी के साथ चाटने से मधुतैलसमं दद्याच्चतुजीताच्चतुर्थिकाम् ॥ अतो हतिकीमेकां सावलेहपलामदन् ।।
सुखपूर्वक विरेचन होता है। सुखं विरिच्यते स्निग्धो दोषप्रस्थमनामयः ॥
अन्य चूर्ण । गुल्महृद्रोगदुर्नामशोफानाहगरोदरान् । कुष्टश्यामात्रिइंतीविजयामारगुग्गुलुम् । कुष्ठोत्क्लेशारुचिठलीहग्रहणीविषमज्वरान् ॥ | गोमूत्रेण पिबेदेक तेन गुग्गुलुमेव बा। भति देतीहरीतक्यः पांडुतां च सकामलाम् | अर्थ-कूठ, श्यामा, निसोथ, दंती,हरड, अर्थ-दंती २५ पल, चीते की जड
जवाखार और गूगल, अथवा गूगल को गौ२५ पल, हरड २५ पल, इन सबको एक
मूत्र के साथ सेवन करना चाहिये । . द्रोण जल में पकावै, जब चौथाई शेष रहजाय
गुल्मनाशकनिकह । . तत्र उतार कर छानल, फिर इसम २९पल निरूहानकल्पसिद्भयुक्तानयोजयेद्गुल्म-... पुराना गुड, मिलादे और ऊपर कही हुई
नाशनान् सिद्ध हरड, तिलका तेल ४ पल, निसोथका | अर्थ-कल्पसिद्धिस्थान में कही हुई गुल्म
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२६१६)
अष्टांगहृदय ।
अ.१४
नाशक सबै प्रकार की वस्ति दैनी चाहिये । | घी में आलोडित करके एक घडेमें भरकर क्षार प्रयोग ।
मुख बंद करदे और अग्निमें रखदे, जब घडा कृतमूळ महावास्तुं कठिनं स्तिमितं गुरुम् ।। लालगरम होजाय और भीतर की दवा गूढमांसं जयेदुल्म क्षारारिष्टानिकभिः॥ एकांतरं द्वयंतर वा विश्रमय्याऽथ वाम्यहम्
जली हुई प्रतीतहो तब इसको निकाल ले शरीरदोषवलयोर्वर्धनक्षपणोद्यतः ॥१०१॥
इसतरह यह क्षार बनताहै । इसको दूध घी । अर्थ-कृतमूल ( जड पकडा हुआ ), तक्र और मद्यके साथ सेवन करे । इससे महावस्तु ( विस्तारयुक्त ], कठोर, स्तिमित,
गुल्म उदावर्त, वर्म, भर्श, जठर, ग्रहणी, भारी और गूढ मांसवाले गुल्मको एक दिन कृमि, अपस्मार, गर, उन्माद, योनिरोग, दो दिन वा तीन दिन का विश्राम देदेकर शुक्ररोग, अश्मरी दूर होजाते हैं तथा यह क्षारकर्म, अरिष्ट और अनिकर्म द्वारा दूर कर
क्षार चूहे और सर्पके विषको भी दूर कर नेका यत्न करै और शरीरके बढाने तथा
देताहै । दोषके बलको क्षीण करनेमें सदा उद्यत रहे। । क्षारद्वारा कफका अधःपतन । .
कफाधिक्य गुल्ममें क्षार । "श्लेष्माणं मधुरं निग्धंरसक्षीरघृताशिनः । अर्शीश्मरीग्रहण्युक्ताःक्षारायोज्याकफोल्वणे | छित्त्वा भित्त्वा ऽऽशयं क्षारः । पर्थ-कफाधिक्य गुल्ममें अर्श, अश्मरी
|. .. क्षारत्वात्पातयत्यधः ॥ १०६ ॥ और ग्रहणी रोगों में कहे हुए क्षारों को उप
__ अर्थ-मांसरस, दूध और घृतको खाने योग में लावे ।
वाले मनुष्य के मधुर और स्निग्ध कफको
क्षार अपने क्षारपने से कफाशय को छिन्न अन्य क्षार । देवदारुत्रिवृद्दतीकटुकापंचकोलकम् ॥
भिन्न करके नीचे गिरा देताहै । स्वर्जिकायावशूकाख्यौ श्रेष्ठा पाठोपकुंचिकाः आसवादि का प्रयोग । कुष्ट सर्पसुगंधां च द्यक्षांशं पटुपंचकम् ॥ | मंदेऽग्नावरुचौमात्म्यमद्यैः सनेहमश्नताम् पालिकं चूर्णितं तैलवसादधिघृताप्लुतम्। | योजयेदासवारिष्टाभिगदान्मार्गशुद्धये । घटस्यांतः प.त्पक्वमग्निवणे घटे च तम् ।।
अर्थ-अग्नि की मंदता और अरुचि हो तो क्षारंगृहीत्वाक्षीराज्यतक्रमद्यादिभिःपिवेत् गुल्मोदावर्तवर्मार्टोअठरग्रहणीकृमीन्
साम्य मद्यके साथ स्नेहयुक्त आहार खानेको अपस्मारगरान्मादयोनिशुक्रामयाश्मरीः। दे, तथा मार्ग की शुद्धि के निमित्त आसव, क्षारो गदोऽयं शमयेद्विषं चाखुभुजंगजम् | अरिष्ट और निगद नामक मद्यकी योजना ... अर्थ-देवदारू, निसौथ, दंती, कुटकी,
करै। पंचकोल,सज्जीखार,जवांखार,त्रिफला,पाठा,
पथ्यविधान । कलौंजी, कूठ, और नाकुली इनमें से हरएक दो दो तोले, पांचों नमक एक एक पल, चिरिविल्वाग्नितकारीयवानीवरणांकुरः ॥
शालयः षष्टिका जीर्णाः फुलत्था जांगलं परम् इनका चूर्ण बनाकर तेल, चर्बी, दही और | शिस्तरुणविल्वानि वालं शुष्कं च मूलकम्
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
पूरविम्लवेतस क्षारदाडिमम् ॥ व्योषं तकं घृतं तैलं भक्तं पांन तु वारुणी । धान्याम्लं मस्तुतक्रंच यवानीविडचूर्णितम् पंचमूलशुतं वारि जीर्ण माकमेव वा ।
अर्थ - पुराने शाली चांवल, सांठी चांवल, कुलथी, जांगल मांस, कंजा, चीता, अरंनी, अजवायन, वरणा के अंकुर, सहजना, कच्ची बेलगिरी, कच्ची और सूखी मूली, बिजौरा, हींग, अम्लवेत, जवाखार, अनार, त्रिकुटा, तक्र, घृत, तेल ये सब द्रव्य आहार के अर्थ प्रयुक्त करै । तथा वारुणी, धान्याम्ल, मस्तु, तक, तथा अजवायन और विडनमक डालकर पंचमूल का और पुराना मार्दीक मद्य पीने को दे ।
काढा,
अन्य प्रयोग |
पिप्पलीपिप्पलीमूलचित्रका जाजि सैंधवैः ११२ सुरा गुल्मं जयत्याशु जांगलश्च विमिश्रितः
अर्थ- पीपल, पीपलामू, चीता, जीरा, सेंधानमक इनसे संयुक्त सुरा अथवा जांगल मांस गुल्मको दूर करनेवाले हैं । गुल्म में दाह ।
वमनैर्लघनैः स्वेदैः सर्पिःपानैर्विरेचनैः । ११६ । बस्तिक्षार सवारिष्टगुल्मिकापथ्यभोजनैः । लैमको बद्धमूलत्वाद्यदि गुल्मो न शाम्यति । तस्य दाहं हृते रक्ते कुर्यादंते शरादिभिः ।
अर्थ- बमन, लंघन, स्वेदन, वृतपान, विरेचन, वस्तिकर्म, क्षार, आसव, अरिष्ट, और गुल्म में पथ्य भोजन इन सब कामों के करने पर भी जड़ पकड़ा हुआ कफज गुल्म यदि शांत न हो तो गुल्म का रक्त निकालकर शरादि द्वारा दग्ध करना चाहिये ।
७८
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(६१७.)
दाहविधान |
अथ गुल्मं सपर्यंत वाससांतरितं भिषक् ॥ नाभित्रस्त्यंत्र हृदयं रोमराजीं च वर्जयेत् । नातिगाढं परिमृशेच्छरेण ज्वलताऽथवा ॥ लोहेनारणिकोत्थेन दारुणा तेंदुकेन वा ।. ततोऽग्निवेगे शमिते शीतैर्व्रण इव क्रिया ॥
अर्थ - नाभि, वस्ति, अंत्र, हृदय और रोमराजी को बचाकर किनारों तक गुल्मको कपडे से ढककर जलते हुए सरकंडे से गुल्म को हलका दग्ध करदे | अथवा लोहे की शलाका सेवा अरनी की लकड़ी से अथवा तिंकी लकड़ी से दग्ध करें तदनंतर अग्नि के वेग शांत होनेपर शीतल लेपादि द्वारा घाबकी तरह चिकित्सा करै । आमान्वय में कर्तव्य । आमान्वये तु पेयाद्यैः संधुक्ष्याग्निं विलंघिते । स्वं स्वं कुर्यात्क्रम मिश्रं मिश्रदोषे चकालवित् ॥ ११८ ।।
अर्थ - गुल्मरोग में आमका संबंध होने पर अन्य पथ्य न देकर पेयादि द्वारा जठराग्नि के बढाने का यत्न करै। तत्पश्चात् वातादि दोषोंकी यथायोग्य चिकित्सा करै । मिश्र दोषोंमें मिश्रचिकित्सा करनी चाहिये ।
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arat स्नेहविरेचन | प्रसवकालायै नायै गुल्मेऽस्रंसभवे । स्निग्धस्विन्नशरीरायै दद्यात्स्नेहविरेचनम् ॥ अर्थ - प्रसवकाल अर्थात् दसवां महिना बीत जानेपर स्त्रियोंको रक्तगुल्म में स्नेहन स्वेदन करने के पीछे स्नेहविरेचन देवै । बहुत काल पीछे चिकित्सा करने में कुछ हानि नहीं होती है क्योंकि पुराना रक्तगुल्म ही सुखसाध्य होता है ।
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(६१८)
अष्टांगहृदय ।
प्र. १४
रक्तजगुरुम में तिलका काढा। । लशुनमदिरांतीक्ष्णांमत्स्यांश्चास्यप्रयोजयेत तिलक्वाथो घृतगुडव्योषभार्गीरजोन्वितः।।
| वस्तिं सक्षीरगोमूत्रं सक्षारं दाशमूलिकम् ॥ पानं रक्तभवे गुल्मे नष्टे पुष्पे च योषितः॥ अर्थ-क्षार अथवा सेहड के दूध में __ अर्थ-स्त्रियों के लिये रक्तज गुल्म में | संयुक्त किये हुए तिलों का कल्क योनि में घी, गुड, त्रिकुटा, भाडंगी, डालकर तिल | रक्खै । अथवा क्षार वा सेंहुह के दूध से का काढा पान करावै । जिन स्त्रियों का भावना दिये हुए कटु मत्स्य को योनि में रज नष्ट होजाता है उनको भी यही देना धरै । अथवा शूकर वा मछली के पित्तेकी चाहिये।
भावना दिये हुए कंजे योनि में धेरै अथवा अन्य प्रयोग।
योनिकी शुद्धि के लिये सुरावीज, गुड और भार्गी कृष्णा करंजत्वग्ग्रांथिकामरदारुजम् । खार मिलाकर रक्खै । अथवा रक्तपित्तनाचूर्ण तिलानां काथन पीतं गुल्मरुजापहम् ॥ | शक क्षारको घी और शहत के साथ चाटै अर्थ-भाडंगी, पीपल, कंजा की छाल,
अथवा लहसन, तीक्ष्ण मद्य, और मत्स्य पीपलामूल और देवदारु इनका चूर्ण तिलके
खाने को दे अथवा कल्पस्थान में कहीहुई काढे के साथ पीने से गुल्मरोग प्रशमित
दूध, गोमूत्र और जवाखार से संयुक्त दशहोजाता है। अन्य प्रयोग।
मूल के काढ़े की वस्ति का प्रयोग करे । पलाशक्षारपात्रे द्वे द्वे पात्रे तैलसर्विषोः ।
अवर्तमान रुधिर में कर्तव्य । गुल्मशथिल्यजननी पक्त्वा मात्रांप्रयोजयेत्
अवर्तमाने रुधिरे हित गुल्मप्रभेदनम् । ___ अर्थ-ढाक का खार दो पात्र, तेल और
____ अर्थ-जो रक्त का लाब न हो तो वे घी दो पात्र इनको चौगुने जल में पकाकर
औषध देनी चाहिये, जिनसे गुल्म विदीर्ण मात्रानुसार सेवन करने से रक्तगलम शि- होजाय ।। थिल होजाता है।
प्रवृत्तरक्त में कर्तब्य । योनिविरेचन ।
| यमकाभ्यक्तदेहायाः प्रवृत्ते समुपेक्षणम् ॥
| रसौदनस्तथाऽहारः पानं च तरुणीं सुरा। नप्रभिधेत यद्येवं दद्याद्योनिविरेचनम्। ___ अर्थ-इन उपायों से भी यदि रक्तगुल्म
___ अर्थ-रक्त के प्रवृत्त होने पर औषधकी न फूटै तो योनिविरेचन देना चाहिये ।
उपेक्षा करना चाहिये । रोगी को केवल धी
और तेल से अम्यक्त करके मांसरस के साथ योनिविरेचन विधि। क्षारेण युक्तं पललं सुधाक्षीरेण वा ततः ॥
भोजन कराना हित है और नवीन मद्यपान ताभ्यांवाभावितान्दद्याद्योनी
भी हित है। कटुकमत्स्यकान्।
___ अतिप्रवृत्त रुधिर में कर्तव्य । बराहमत्स्यपित्ताभ्यां नक्तकान्वासुभाषितान् रुधिरेऽतिप्रवृत्ते तु रक्तपित्तहराः क्रियाः । किण्वं वा सगुडक्षारं दद्याद्योनौ विशुद्धये । कार्या वातरुगातीयाः सर्वा वातहराःपुनः । रक्तपित्तहर क्षारं लेहयेन्मधुसर्पिषा ॥ आनाहादाबुदावर्तवलासन्यौ यथयथाम् ॥
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ--रुधिर के अति प्रवृत्त होने पर | का मूत्र पान करावे । अथवा गौका दूध रक्तपित्तनाशिनी संपूर्ण क्रिया करनी चाहिये वा हथनी का दूध पीकर निर्बाह करें । तथा रोगी के वातपीडित होने पर वातना- दाह, आनाह, अतितृषा वा मारोग से शिनी क्रिया करे, इसीतरह आनाहादि होने । पीडित रोगी को विशेष करके ऊपर लिखी पर उदावर्त और कफनाशक क्रिया करनी। रीति से रहना चाहिये । चाहिये ।
विरेचन विधि। इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषा- रूक्षाणां बहुवातानां दोषसंशुद्धिकांक्षिणाम् टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने नेहनीयानि सीषि जठरघ्नानि योजयेत् ॥ गुल्मचिकित्सितं नाम चतुर्दशी
__ अर्थ-रूक्ष देहवाले तथा वातदोष से ___ऽध्यायः ॥ १४ ॥
अधिक पीडित उदररोगी को दोषोंकी शुद्धि
के निमित्त स्नेहनीय और उदररोग नाशक पंचदशोऽध्यायः।
घृतपान कराना चाहिये ।
अन्य घृत।
षइपल दशमूलांबु मस्तुयाढकसाधितम्! अथाऽत उदरचिकित्सितं ब्याख्यास्यामः।
। अर्थ -घी चार सेर, पंचकोल और ज. अर्थ--अब हम यहां से उदरचिकित्सित
वाखार प्रत्येक एक. पल, इनको पीसकर नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे।
दशमूल के सोलह सेर काढे में मिलादे, उदररोग में विरेचन ।
दही का तोडभी काढे के समान मिलाकर दोषातिमात्रोपचयात्स्रोतामार्गनिरोधनात ।
पाकबिधि से पाक करे । यह छः पल संभवत्युदरं तस्मान्नित्यमनं विरेचयेत् ॥ __ अर्थ--वातादि दोषों के अत्यन्त बढ
कलकों से सिद्ध किया हुआ षट्पलोपलक्षणजाने के कारण स्रोतों का मुख रुकजानेही । लक्षित घृत उदररोग में प्रयोग करना से उदररोग पैदा होते हैं, इसलिये उदररोग. चाहिये। में सदा विरेचन कराना चाहिये ।
अन्य प्रयोग। उदररोग में स्निग्ध विरेचन ।
नागर त्रिपलं प्रस्थं घृतलात्तथाऽढकम् ॥ पाययेत्तलमैरडं समूत्रं सपयोऽपि वा।
मस्तुनः साधयित्वैतत्पिवेत्सर्वोदरापहम् ॥ मासं द्वौ वाऽथवा गव्यं भूत्रं माहियमेव वा
कफपारुतसंभूते गुल्मे च परमं हितम् । पिवेद् गोक्षीरभुज स्याद्वाकरभीक्षीरवर्तनः।
अर्थ-सोंठ तीन पल, घी तेल मिला दाहानाहातितृणमूर्छापरीतस्तु विशेषतः । | हुआ एक प्रस्थ दही का तोड एक आढक, ___ अर्थ-गौके दूध वा गोमुत्र के साथ एक इन सबको यथोक्त रीति से पकावै । यह महिने वा दो महिने तक आंडी का तेल घी सब प्रकारके उदररोग तथा वातकफज पान करावे, अथवा दोषानुसार गौ वा भेस गुल्म में परमोपयोगी है।
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(६२०)
अष्टांगहृदय ।
अ० ६५
। अन्य घत ।
का चूर्ण बनाकर गोमूत्र के साथ पानकरै । चतुर्गुणे जले मूत्रे द्विगुणे चित्रकात्पले ।। विरेचन के पीछे पेया पान कराके जांगल कल्के सिद्धं धूतप्रस्थं सक्षारं जठरी पिवेत् ॥
मांसरस के साथ भोजन करावै। तदनंतर छः - अर्थ-घी एक प्रस्थ, जल चार प्रस्थ,
दिन तक त्रिकुटा डालकर औटाया हुआ दूगोमूत्र दो प्रस्थ इनमें एक पल चीता पिसा
ध पीनेको दे। इस तरह बार बार करने से हुआ मिलाकर पकावै । इस घृत में जवाखार
सब प्रकारके उदररोग यहां तक कि संजात. मिलाकर सेवन करने से जठररोग शांत
जलोदर भी नष्ट होजाता है । होजाते हैं।
___ गवाक्षादि चूर्ण। अन्य धी।
गवाक्षीशंखिनी दंतीतिल्वकस्यत्वचंबचाम् । यवकोलकुलत्थानां पंचमूलस्य चांभसा। पिवेत्कर्कधमृद्वीकाकोलांभोमूत्रसीधुभिः॥ सुरासौवारकाभ्यां च सिद्धं वा पाययेद्धृतं ।। अर्थ-इन्द्रायण, शंखनी, दंती, लाधी
अर्थ-जौ, बेर, कुलथी और पंचमूल का | छाल और वच इनके चूर्ण को बेर, दाख, काथ, सुरा और सौबीर इनके साथमें पकाया |
वडवेरी, मूत्र और सीधुके साथ पान करै । हुआ घी हितकारी होता है । घृतपान के पीछे विरेचन ।
नारायण चूर्ण।
यवानी हपुषाधान्यं शतपुष्पोपकुंचिका। एभिः स्निग्धाय संजाते वले शान्ते च मारुते
कारवी पिप्पलीमूलमजगंधा शठी वचा ॥ सस्ते दोषाशये दद्यात्कल्पदृष्टं विरेचनम् ॥
चित्रकाजाजिकं व्योषं स्वर्णक्षीरी फलत्रयम् अर्थ-इन ऊपर कहे हुए स्नेहपान से
द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपंचकम् ॥ रोगीके स्निग्ध होनेपर उसके देहमें बल आने विडंगं च समांशानि दंत्या भागत्रयं तथा। पर वायुके शांत होनेपर और दोषाशय के
त्रिबृद्विशाले द्विगुणे सातला च चतुर्गुणा ॥ शिथिल होनेपर कल्पस्थान में कहा हुआ
एष नारायणो नाम चूर्णो रोगगणापहः ।
नैनं प्राप्याभिवर्धते रोगा विष्णुमियासुराः॥ विरेचन देना चाहिये ।।
तफ्रेणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदरांबुना। अन्य चूर्ण ।
आनाहवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया ॥१८॥ पटोलमूलं त्रिफलां निशां वल्लं च कार्षिकम् | दधिमंडेन विट्संगे दाडिमांभाभिरर्शसैः। कंपिल्लनीलिनाकुंभभागान् द्वित्रिचतुर्गुणान् परिकर्ते सवृक्षाम्लैरुणांबुभिरजीर्णके ॥ पिवेत्संचूर्ण्य मूत्रेण पेयां पूर्व ततो रसैः। । भगंदरे पांडुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे । विरक्तो जांगलैरद्यात्ततः षइदिवसं पयः॥ हृद्रोगे ग्रहणीदोषे कुष्ठे मंदेऽनले ज्वरे ॥ शृतं पिवेद्वयोषयुतं पीतमेवं पुनःपुनः। दंष्टाविष मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे । हंति सर्वोदराण्येतच्चूर्ण जातोदकान्यपि ॥ | यथार्ह स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ॥
अर्थ-पर्वलकी जड, त्रिफला, हलदी, वा अर्थ अजवायन, हाऊवेर, धनियां, सोंफ बायविडंग, प्रत्येक एक कर्ष, कवीला दो कर्ष, | कालाजीरा, कारवी, पीपलामूल, अजमोद, नीलिनो तीन कर्ष, निसोथ ४ कर्ष, इन सब | कचूर, वच, चीता, सफेदर्जारा, त्रिकुटा, स्व
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अ. १५
चिकित्सितरथान भाषाटीकासमत ।
. (६२१)
र्णक्षीरी, त्रिफला, जवाखार, सज्जीखार, पु. पीपल इनका चूर्ण बनाकर अनार का रस, करमूल, कुडा, पांचों नमक और वायविडंग | त्रिफला का क्वाथ, मांसरस, गोमुत्र वा गुनप्रत्येक समान भाग, दंती तीन भाग, नि- गुना पानी इनमेंसे रोगानुसार किसी एक के सोथ और इन्द्रायण दो दो भाग, सातला ४ साथ पान करावै । यह चूर्ण सब प्रकारके भाग, इन सवका चूर्ण नारायण चूर्ण कहा- गुल्मरोग, प्लीहा, सब प्रकारके उदररोग, ता है, यह सव रोग समूहों को दूर करदेता श्वित्रकुष्ट, अजीर्ण, शिथिलता, विषमाग्नि है इसके मिलजाने पर रोग ऐसे नहीं बढते । शोफ, अर्श, पांडुरोग, कामला, हलीमक हैं, जैसे विष्णुके मिलनेसे असुर । यह चूर्ण इन रोगों में विरेचन द्वारा वात, पित्तं और उदररोग में तक्रके साथ, गुल्मरोग में वेरके | कफको शांत करताहै। . . जलके साथ, आनाह वातमै सुराके साथ, नीलिन्यादिक चर्ण । वातरोग में प्रसन्ना के साथ, पुरीष बिबंध में नीलिनी निचुलं व्योष क्षारौ लवणपंचकम् । दधिमंड के साथ, अर्शमें अनारके रसके चित्रकं च पिबेच्चूर्ण सर्पिषोदरगुल्मनुत् ॥ साथ, परिकर्तिका में वृक्षाग्ल के साथ, अ- अर्थ-नीलिनी, जलवेत्, त्रिकुटा, जवाजीर्ण में गरम जलके साथ, पीना चाहिये। खार, सज्जीखार, पांचोनमक, और चीता तथा भगंदर, पांडुरोग, खांसी, श्वास, मल- इनका चूर्ण बनाकर तृतके साथ सेवन करै ग्रह, हृद्रोग, ग्रहणी दोष, कुष्ठ, मंदाग्नि, ज्वर- तो उदररोग और गुल्मरोग जाते रहते है । दंष्ट्राविष, मूलविष,गररोग,कृत्रिमविष,इन रोगों उदररोग में दुग्धपान ॥ में यथायोग्य स्नेहके प्रयोगसेकोष्ठ को स्निग्ध
| पूर्ववच्च पिबेदूदुग्धं क्षामः शुद्धोऽतरांतरः। करके विरेचन औषधका पान कराना चाहिये
कारभं गव्यगाज वा दद्यादात्ययिके गदे ॥
हम स्नेहमेव विरेकार्थे दुर्बलेभ्यो विशेषतः। हपुषादि चूर्ण ।
__ अर्थ-पूर्वोक्त पटोलमूलादि चूर्णके साथ हपुषां कांचनक्षीरी त्रिफलां नीलिनीफलम् ।।
पकाया हुआ दूध पान कराके विरेचन त्रायती रोहिणी तिक्तां सातलां त्रिवृतां
वचाम् ॥ २२॥
करावै, इसतरह क्षाम और शुद्ध होनेपर सैधवं काललवणं पिप्पली चेति चूर्णयेत् । जांगल मांसरसके साथ भोजन करावै, फिर दाडिमत्रिफलामांसरसमूत्रसुखोदकैः॥ बीच बीचमें हथनी का दूध वा गौ का द्ध पेयोऽयं सर्वगुल्मेषु प्लीह्नि सर्वोदरेषु च ।
वा बकरी का दूध देतारहै । जो रोग भयाश्वित्रे कुष्ठेष्वजरके सदने विषमेऽनले ॥ शोफार्शः पांडुरोगेषु कामलायां हलीमके।। नक हो तो विरेचन के लिये स्नेह का प्रयोग वातपित्तकफांश्चशु विरेकेण प्रसाधयेत् ॥ कर । यदि रोगी दुर्बल हो तो विशेषरूपसे
अर्थ-हाऊबेर, स्वर्णक्षारी, त्रिफला, । घतपान कराना चाहिये। नीलिनी, त्रायंती, हरड, कुटकी, सातला,
। अन्य चर्ण । निसौथ, बच, सेंधानमक, कालानमक, और हरीतकीसूक्ष्मरजा प्रस्थयुक्तं घृताढकम् ॥
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( ६२२]
अष्टांगहृदय ।
-
अग्नौ विलाप्य मथितं खजेन यवपलके।
अन्य विधि । निधापयेत्ततो मासादुद्धतं गालितं पचेत् ॥ तथा सिद्धं घृतप्रस्थं पयस्यष्टगुणे पिबेत् ।। हरीतकानां काथेन दना चाऽम्लेन- स्नुक्षीरपलकल्केन त्रिवृताषट्पलेन च ।
संयुतम् । अर्थ-पूर्ववत् पकायहुआ घी एक प्रस्थ उदर गरमष्ठीलामानाहं गुल्मविद्रधिम् ॥
आठगुने दूधमें पकावै, इसमें सेंहुड का दूध हत्येतत्कुष्ठमुन्मादमपस्मारं च पानतः। ___ अर्थ-एक प्रस्थ हरडका महीन चर्ण
एक पल, तथा निसोथ का कल्क छः पल एक आढक घृतमें अग्निपर चढ दे और
डाल देना चाहिये । यह घृत पूर्ववत गुणकलछी से चलाता रहे, पकजानेपर एक पात्र
कारक होता है। में भरकर जौके ढेर में एक महीने तक गढा
पेयापान । रहनेदे, फिर निकालकर पिघलाकर छानले।
" एषां चाऽनु पिबेत्पेयां रसं स्वादु
पयोऽथवा ।। ३४॥ तदुपरांत हरडके क्वाथ, दही और कांजीके |
| अर्थ-इन सब प्रकार के घीओं को साथ इस घृतको फिर पकावे । यह घृत ।
सेवन करने के पीछे, पेया, मिष्ट मांसरस उदररोग, दूर्षाविष, अष्ठीला, आनाह, गुल्म वा दुग्ध का अनुपान करै । विद्रधि, कुष्ठ, उन्माद और अपस्मार इन सब
घृत के पवनेपर कर्तव्य । रोगों को दूर कर देता है।
घृते जीर्णे विरिक्तश्च कोष्णं नागरसाधितं - स्नुही घृत ॥ | पिबेदबु ततः पेयां ततो यूषं कुलत्थजं ॥ स्नुक्षीरयुक्तागोक्षीराच्कृतशीतात्खजाहतात. अर्थ-घीके पचनान और रोगी के विग्रजातमाज्यं स्नुकक्षीरसिद्धंतच्च तथागुणम् रिक्तहोने पर सोंठ डालकर औटाया हुआ अर्थ-सेंहुड के दूध को गौ के दूध
गुनगुना पानी पीनेको दे, पीछे पेया और में मिलाकर आटावै, फिर ठंडा होने पर
कुलथी का यूष खानको दे। कलछी से मथ कर घृत निकाल ले, इस घृत
बार बार घृत प्रयोग ॥ को सेंहुड के दूध के साथ फिर पकावै, यह
पिरेशस्त्र्यहत्येवं भूयो वाऽप्रतिभोजितः । वृत पूर्ववत् गुणकारी होता है ।
| पुनः पुनः पिवेत्सर्पिरानुपूर्ध्याऽनयैव च ॥ . अन्यत ।
अर्थ-रूक्ष व्यक्ति तीन दिनतक इसक्रम क्षीरद्रोणं सुधाक्षारप्रस्थार्धन युतं दाध ॥ ।
से सेवन करके पेयादि पथ्यका सेवन करता जातं मथित्वा तत्सपिस्त्रिवृत्सिद्धं च तद्गुणं
अर्थ-दूध एक द्रोण, आधा प्रस्थ सें-हुआ इसी क्रमसे वार बार घृतपान करै । हुडका दूध इनको औटाकर दही जमाकर
घीके प्रयोग का विधान ॥ घी निकाल ले । इस घृत को निसाथ के
| घृतान्येतानि सिद्धानि विदध्यात्कुशलो
भिषकू। साथ पकाकर सेवन करने से पूर्ववत् गुण- गुल्मानां गरदोषाणामुदाणां च शांतये॥ कारक होता है।
___ अर्थ-कुशल वैद्यको उचित है कि पूर्वो
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अ०१५
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
१६२३)
क्त सव प्रकार के घी तयार कर करके गल्म / मासं युक्तस्तथा हस्तिपिप्पलीविश्वभेषजम् गर दोष और उदररोगों की शांति के लिये
अर्ध-चीता और देवदारू का कल्क प्रयोग करता रहै ।
दूध के साथ पीवे अथवा गजपीपर और आनाह पर घी।
सोंठका कल्क नियमानुसार एक महिने तक पीलुकल्कोपसिद्धं वा घृतमानाहभेदनम्। । तेल्वक नीलिनीसर्पिः स्नेहं वा मिश्रकं पिबेत् । प्रवृद्ध उदरकी चिकित्सा ।
अर्थ-पील के कल्क से सिद्ध किया विडंगचित्रकोदंती चव्यं व्योषंच तैः पयः। हुआ घी, तेल्वक घृत, नीलिनी घृत वा कल्कैः कालसमैः पीत्वा प्रवृद्धमुदरं जयेत् मिश्रक स्नेहपान करने से आनाह रोग जा- अर्थ-बायविडंग, चीला, दंती, चव्य, ता रहता हैं !
त्रिकुटा, इन सब द्रव्यों का एक तोले कल्क दोष दूर होनेपर पथ्य । | दूधमें मिलाकर पीने से वढा हआ उदर हृतदोषः क्रमादश्नन् लघुशाल्योदनं प्रति। रोग नष्ट हो जाता है । ___ अर्थ-पूर्वोक्त रीतिसे चिकित्सा करने
उदररोग में भोजन । से दोषों के निकल जाने पर शाली चांबलों
भोज्यं भुंजीत वामासंस्महीक्षीरघृतान्वितम् का भात खानेको दे।
उत्कारिकांवास्नकक्षीरपीतपथ्याकणाकृताम् उदररोगमें हरीतकी संवन । उपयुंजीत जठरी दोरशनिवृत्तये ॥३९॥
___ अर्थ-सहुड के दूरसे सिद्ध किया हुआ हरीतकीसहस्रं घा गोमत्रेण पयोनपः। घृत के साथ एक महिने तक भोजन करै, सहनं पिप्पलानां वा समकक्षीरेण सुभावितम् अथबा थूहर के दूधके साथ कुरंटक, हरड पिप्पलींवर्धमानां वाक्षीराशी वा शिलाजतु | और पीपल डालकर सिद्ध कीहई उत्कारितद्वद्वा गुग्गुलं क्षीर तुल्याकरसं तथा का खानेको दे । अर्थ-उदररोगी को उचित है कि बचे
पार्शशलादि की चिकित्सा ॥ . हुए दोषों की निवृति के लिये गोमूत्र से
पार्श्वशुलमुपस्तंभहृद्ग्रहं च समीरणः। भावना दीहुई सहस्र हरीतकी वर्द्धमान रीति
| यदि कुर्यात् ततस्तैलं बिल्वक्षारसन्वितं पिबेत् से सेवन करके दूधका अनुपान करता रहे पक्कं वा टिकवलापलाशं तिलनालजैः । अथवा सेंहुड के दूधकी भावना दीहुई स- क्षारैः कदल्यपमार्गतर्कारीले पृथक्कृतैः हस्र पीपल वर्द्धमान रीतिसे सेवन करै ।। अर्थ यदि कुपित हुआ वायु पसली में अथवा केवल दूधको पीकर शिलाजीत, वा । दर्द, स्तब्धता और हृद्रोगों को उत्पन्न करै गूगल अथवा समान भाग अदरख और तो वलगिरी और जवाखार मिलाकर तेल दूध मिलाकर उपयोग में लावै ।
को पावै, अथवा टॅटू, खरैटी, केसू, और ___ अन्य प्रयोग।
तिलनाल इनके साथ क्षारके साथ पकाया चित्रकामदारुभ्यां कल्कं क्षीरेण वा पिवेत्। हुआ तेल अथवा केला, ओंगा और त.
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(१२४)
अष्टांगहृदय ।
अ १५
कारी इनके साथ क्षारके साथ पकाया हुआ ] कि जिस से वायु पेट में अफरा न कर सके, तेल पान करावै ।
साल्बलस्वेद की विधि सुश्रुत में लिखी है । ____ अरंडी के तेलका प्रयोग ॥ ___ आध्मान में निरूहण । .. कफे वातेन पित्ते वा ताभ्यां वाप्यावृतेऽनिले सुविरिक्तस्य यस्य स्यादाध्मानं पुनरेव तम् बलिनः स्वौषधं युक्तं तैलमैरंडज हितम् । सुस्निग्धैरम्ललवणैर्निरूहैः समुपाचरेत्। __ अर्थ-बाताबृत कफ वा वातावृत पित्त । अर्थ-अच्छी रीति से विरेचन हो में अथवा पित्त और कफ से आबृत वायु | जाने पर भी यदि फिर अफरा हो तो उस में दोषानुसार औषधों के साथ सिद्ध किया | को खटाई और नमक से युक्त सुस्निग्धनिहुआ अरंडी का तेल देना चाहिये । परन्तु रूहण देवे । इसका प्रयोग बलवान् मनुष्य के लियेहै ।
आध्मान में वस्ति । उदर पर प्रलेप ॥
सोपस्तंभोऽपिवा वायुराधमापयति यनरम् देवदारुपलाशार्कहस्तिपिपलिशिग्रकैः। तीक्ष्णाःसक्षारगोमूत्राः शस्यते तस्य वस्तयः साश्वकर्णैः सगोमूत्रैः प्रदिह्यादुदरं बहिः
| अर्थ-कफादि अधार से युक्त वायु ____ अर्थ--ऊपर कहे हुए प्रकार से विरेचन जिस मनुष्य के पेट में अफरा उत्पन्न करै, होने पर उदरमें म्लानता होजाती है इस | उसको क्षार और गोमत्र सहित ताक्षण लिये देवदारु, पलाश, आक, गजपीपल, | वस्ति दैनी चाहिये । सहजना और अश्वकर्ण ( शालवृक्ष विशेष उदरचिकित्सा की समाप्ति । इन सबको पीसकर उदर पर लेप करै । |
इति सामान्यतःप्रोक्ता सिद्धाजठरिणांक्रिया उदरका परिषेक ॥
____ अर्थ-जठररोग की सिद्धचिकित्सा वृश्चिकालीचचाशुंठीपंचमूलपुनर्नवात्।।
| सामान्य रीति से वर्णन करदी गई है, अब वर्षाभूधान्यकुष्ठाच क्वाथैर्मत्रैश्च सेचयेत विशेष रूप से कहते हैं ॥
अर्थ--मेंढासिंगी, वच, सोंठ, पंचमल. | वातादर का चिकित्सा पुननेवा, सांठ, धनियां और कठ उनके वांतोदरेऽथ बलिनं विदार्यादिशृतं घृतम् । काढे में गोमूत्र मिलाकर उदर पर परिपेक
पाययेतु ततःस्निग्धं स्वेदितांगं विरेचयेत् ।
बहुशस्तैल्वकेनैन सर्पिषा मिश्रकेण वा ॥ करै ।
. अर्थ-बातोदररोग में जो रोगी वलउदरवेष्टन ॥
घान् हो तो विदार्यादिगण से सिद्ध किया विरिक्तं म्लानमुदरं स्वेदितं साल्बलादिभिः। | हुआ घी पानकरांव, फिर रोगी का स्निग्ध वाससा वेष्टयेदेवं वायुर्नाऽऽध्मापयेत्पुनः मेटित करके तैल्वक वा मिश्रक घी का वार
.. अर्थ-विरेचन द्वारा विरिक्त और | वार प्रयोग करके विरेचन करवे । कँभलाये हुए उदर को साल्वल स्वेद से संसर्गके पीछे धपान । स्वेदित करके पेट को कपडे से लपेट देवे, ते संसर्जने क्षीरं बलार्थमवचारयेत् ।
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म. १५
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६२५),
प्रायोत्लेशान्निवर्तेत बले लब्धे मात्पयः । पित्तज उदररोग की चिकित्सा ।
अर्थ-संसर्जन अर्थात् पेया पानादि क्र- बलिनं स्वादुसिद्धेन पैत्ते सनेह्य सर्पिषा ।। म के पीछे बल बढाने के निमित्त दध पान | श्यामात्रिभडीत्रिफलाविपक्केन विरेचयेत्। कराना चाहिये । बल प्राप्ति के पीछे कफका
सितामधुघृतान्येन निरूहोऽस्य ततोहितः॥ संचय होने से पहिले दूध पीना छोड
न्यग्रोधादिकषायेण वस्तिश्च तच्छृतः। देना चाहिये।
___ अर्थ-पित्तज उदररोग में रोगी यदि उदरेरागमें वस्तिप्रयोग ।
ऐसा बलवान् हो कि औषधके' वेगको सह यूषे रसैर्वा मंदाम्ललवणैरोधितानलम। | | सकता हो तो मधुर वोक्त औषधों से सिद्ध सौदावर्त पुनः स्निग्धं स्विन्नमास्थापयेत्ततः किये हुए घृत द्वारा स्निग्ध करके विरेचन तीक्ष्णाऽधोभागयुक्तेन दाशमूलिकवस्तिना
के लिये श्यामानिसोथ, निसोथ, और त्रिअर्थ-जो उदररोगमें उदावर्त भी हो तो
फला के काढे में पकाया हुआ घी देवै । प्रथम ही थोडीसी खटाई और नमक मिला
तदनंतर न्यग्रोधादि गणोक्त द्रव्यों के काढेमें कर यूष वा मांसरस पान कराके अग्नि को
मिश्री, शहत और घी प्रमाण से अधिक प्रवल करें। फिर स्नेहस्वेद द्वारा रोगीको
मिलाकर इसके द्वारा निरूहण देवै । तथा स्निग्ध और स्वेदित करके कल्पस्थानमें कही
इसी न्यग्रोधादि काढे से पकाई हुई स्नेहहुई अधोभाग से संयुक्त और दशमूल के
वस्ति अनुवासन में हित है। काढेकी तीक्ष्ण निरूण वस्ति देवै । उदररोगमें अनुवासन।
दुर्बलको अनुवासनवस्ति । तिलोरुबूकतैलेन वातघ्नाम्लतेन च ॥
| दुर्वलं त्वनुवास्यादौ शोधयेत्क्षीरवस्तिभिः
जाते त्वाग्निबले निग्धं भूयो भूयो विरेचयेत् स्फुरणाक्षेपसंध्यस्थिपार्श्वपृष्ठत्रिकार्तिषु ।
क्षीरेण संत्रिवृत्कल्केनोरुबूकशृतेन तम् ॥ रूक्षं बद्धशद्वातं दीप्ताग्निमनुबासयेत् ॥
सातलात्रायमाणाभ्यां शृतेनाऽऽरग्वधेन वा अविरेच्यस्य शमना वस्तिक्षीरघूतादयः।
सकफेवा समूत्रेण सतिक्ताज्येन सानिले ॥ ___ अर्थ-तिल और अरंडके तेलमें बातना- | पयसान्यतमेनैषां बिदार्यादिशृतेन वा। शक और अम्ल द्रव्य मिलाकर अनुबासन | भुंजीत उठरं चाऽस्य पायसेनोपनाहयेत् ॥ वस्तिका प्रयोग उस दशामें किया जा- | अथे- दुबेल रोगी को प्रथम अनुवासन ता है, जब रोगी स्फुरण, आक्षेप. तथा संधि | वस्ति देकर क्षीरवस्ति द्वारा विरेचन देवै. अस्थि, पसली, पीठ, और त्रिक इनकी वेद- फिर जठराग्नि के बलवान होजाने पर स्निग्ध ना से युक्त हो तथा रूक्षता, मल और वा- | रोगी को वार वार विरेचन देव । विरेचन यु की विबद्धता और दीप्ताग्नि हो । यदि
| के लिये निसोथ के चूर्ण के साथ, अथवा रोगी विरेचनके योग्य न हो तो शमन क- अरंडी के तेल के साथ, वा सातला और रने के लिये वस्ति, दूध और घृतादि का प्र-त्रायमाणा के साथ, वा अमलतास के साथ योग करना चाहिये ।
| भौटाया हुआ दूध देवै कफान्वित पित्तज
७९
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(६२६)
मष्टांगहृदय ।
म.१५
उदररोग में गोमूत्र के साथ दूध द्वारा और | कर निरूहण देवै, तथा इसी काढे से सिद्ध वातान्वित पित्तज उदररोग में कुष्ठचिकित्सा | की हुई स्नेहवस्ति देकर त्रिकुटा मिलाकर में कहा हुआ तिक्तक घृत मिलाकर दूध | दूधके साथ अथवा कुलथी के यूषके साथ द्वारा अथवा ऊपर कहे हुए त्रिवृतादि द्रव्यों | भोजन कराव । में से किसी के साथ सिद्ध किया हुआ दूध
कफोदरमें अरिष्ट सेवन । देकर विरेचन करावें । अथवा विदारीगण
स्तमित्यारुचिल्लासैमैदेऽग्नौ मद्यपाय च ।
दद्यादरिष्टान् क्षारांश्च कफस्त्यानस्थिरोदरे॥ के साथ पकाये हुए दूधसे भोजन करावै
__ अर्थ-शराव पीनेवाले उदररोगी को और इसी दूधका जठर पर लेप करे। यदि स्तिमिता, अरुचि, हल्लास, मंदाग्नि द्ध और वस्ति का वारवार प्रयोग। तथा कफसे उदरमें गाढापन वा कठोरता पुनः क्षीरं पुनर्वस्ति पुनरेव विरेचनम् ।।
हो तो अरिष्ट और क्षारों का प्रयोग करै। कंमेण ध्रुबमातिष्ठन्यतः पित्तोदरं जयेत् ॥
उदररोग पर क्षार । अर्थ--बार बार दुग्धपान, बस्तिप्रयोग
हिंगूपकुल्ये त्रिफलां देवदारु निशाद्वयम्। और विरेचन का प्रयोग करने से पित्तोदर
भल्लातकं शिग्रफलं कटुकां तिक्तकं वचाम् ॥ निश्चय जाता रहता है ।।
शुठी माद्री घन कुष्ठं सरलं पटुपंचकम् । कफोहर की चिकित्सा।
दाहयेजर्जरीकृत्य दधिोहचतुष्कवत् ॥ वत्सकादिविपक्केन कफे सस्नेह्य सपिंषा। | अतधूम ततः क्षाराद्विडालपदकं पिवेत् । स्विनं सक्क्षीरसिद्धन बलबतं विरेचितम् ॥ मंदिरादाधिमंडोष्णजलारिष्टसुरासवैः ॥ संसर्जयेत्कटुक्षारयुक्तैरनैः कफापहै। | उदरं गुल्ममष्ठीलां तून्यौ शोफै विसूचिकाम्
अर्थ-कफोदर में बलबान रोगी को | प्लीहहृद्रोगगुदजानुदावर्त च नाशयेत् ॥ वत्सकादि गणोक्त औषधों से सिद्ध किये
____ अर्थ-हींग, पीपल, त्रिफला, देवदारु, हुए घी को पान कराकर स्निग्ध करै ।
दोनों हलदी, भिलावा, सहजने की फली, तत्पश्चात् उसको स्वेदनकर्म से स्वेदित कर
कुटकी, चिरायता, वच, सोंठ, अतीस, के सेंहुड के दूधसे सिद्ध किये हुए घी द्वारा
मोथा, कूठ, सरल, पांचों नमक, इन सब
द्रव्यों को पीसकर दही, घी, तेल, चर्वी विरेचन देकर कटु और क्षारयुक्त कफनाशक पेयादि अन्न का पथ्य देवै ।
और मज्जा मिलाकर ऐसी रीति से जलावे - कफोदर में निरूहादि ।
कि धुंआं बाहर न निकलने पावै । फिर मुत्रव्यूषणतैलाढ्यो निरूहोऽस्य ततो हितः॥
इस क्षार में से दो तोले मदिरा, दही,सुरामुष्ककादिकषायेण नेहवास्तश्च तच्छ्रतः। मंड, गरमजल, अरिष्ट, सुरा वा आसवके भोजनं व्योषदुग्धेन कौलत्थेन रसेन वा॥
साथ सेवन करै । इससे उदररोग, गुल्म, अर्थ-पेयादि पान कराने के पीछे मु
अष्ठीला, तूनी, प्रतूनी, शोथ, विसूचिका, ककादि गणोक्त द्रव्यों के काढे में अधिक प्लीहा. हृदयरोग, अर्श और उदावते नष्ट परिमाण में गोमूत्र, त्रिकुटा और तेल मिला । होजाते हैं ।
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म. १५
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
उदररोग में अरिष्टपान । विशेष करके सन्निपातोदर में जव किसी जयेदरिष्टगोमूत्रचूर्णायस्कृतिपानतः ।। उपाय से फलासद्धि नहो तब रोगीके परिसक्षारतैलपानश्च दुर्वलस्य कफोदरम् ॥ | वार के लोगों से पूछकर कि जो दवा हम __ अर्थ-दुर्बल कफोदर रोगी को अरिष्ट
देते हैं वह विष विषम है, इससे रोगी मगोमत्र, चूर्ण अयस्कृति, तथा क्षारसंयुक्त
रेगा वा जीवेगा इसमें संदेह है काकादनी, तेल पान कराके कफोदर को दूर करनेका
चिरमिठी और कनेर इनकी जडको पीसकर उपाय करै।
मदिरा के साथ पान करावे । उदररोग में उपनाह ।
स्थावर विषका प्रयोग । उपनाां ससिद्धार्थकिण्वैर्बीजैश्च मूलकात्। पानभोजनसंयक्तं दद्याद्वा स्थावर विषम् । कलिकतैरुदरस्वेदमभीक्ष्णं चाऽत्र योजयेत् ॥
"| यस्मिन्वा कुपितः सो विमुंचति फले . अर्थ-सफेद सरसों, सुराबीज, और |
विषम् ॥ ७९ ॥ मूली के बीजों का कल्क करके दुर्बल जठर
तेनास्य दोषसंघातः स्थिरो लीनो विमार्गगः रोगी के पेट पर लेप करके बार वार | | बहिः प्रवर्तते भिन्नो विषेणाशु प्रमाधिना ॥ स्वेदन करे।
तथा ब्रजत्यगदतां शरीरांतरमेव वा ।। सन्निपातोदर की चिकित्सा। अर्थ-अथवा खाने और पीने में स्थावर सन्निपातोरे कुर्यान्नातिक्षीणबलानले।
अर्थात् वत्सनाभ विषका प्रयोग करे । अथवा दोषोद्रेकानुरोधन प्रत्याख्याय क्रियामिमाम जिस फलमें सर्प कुपित होकर विष उगले दतीद्रवंतीफलजं तैलं पाने च शस्यते। उस बिषफलको देना चाहिये । इस प्रमाथी ___ अर्थ-सन्निपातज उदररोग में यदि विषसे रोगी की धातुओं में लीन, विमार्गरोगी का बल और जठराग्नि अत्यंत क्षीण न
गामी, स्थिर दोषसमूह शीघ्र छिन्न भिन्न हुए हों तो प्रत्यारव्यान करके जो दोष
| होकर बाहर निकल जाता है, इससे या तो प्रवल हो उसी के अनुसार चिकित्सा करे
रोगी निरोग होजाताहै, वा मरजाताहै । इसमें दंती और द्रवंती के फलों का तेल पीना हित है । प्रत्याख्यान का यह तात्पर्य
हृतदोषमें कर्तव्य ।
हृतदोषं तुं शीतांबुस्नातं तं पाययत्पयः।। है कि चिकित्सा न करने पर रोगी अवश्य
पेयां वा त्रिवृतशाकं मंडूक्या वास्तुकस्य वा मर जायगा और चिकित्सा करने पर स्यात् कालशाकंयवाख्यं वा खादेत्स्वरसंसाधितम् जी पडे ।
निरम्ललवणस्नेहं स्विन्नास्विन्नमनन्नभुक्। त्रिदोषज जठर में चिकित्सा ।।
मासमेकं ततश्चैवं तृषितः स्वरस पिवेत् ॥ क्रियानिवृत्ते जठरे त्रिदोषे तु विशेषतः ॥
अर्थ-ऊपर कही हुई रीतिसे जब उदरदद्यादापृच्छयतजातीनपातुमधनकल्कितम | रागी का दोष निकलजाय, तब उसको मुलं काकादनीगुंजाकरवीरकसंभवम् । ७८। शीतल जलसे स्नान कराके शीतळ दूध और
अर्थ-सन प्रकार के उदररोगों में और पेया का पान करावै । अथवा निसौथ, मंद
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(१६२८]
अष्टांगहृदय ।
अ० १५
की कालशाक वा यवशाक को इन्हीं के स्व- । कर कंजेका अथवा सेंधानमक, चीतां और रसमें सिद्ध करके सेवन करे । पीपल का चूर्ण डालकर सहजने का काढा - इन शाकोंमें खटाई, नमक और स्नेह न | अथवा हिंग्वादि चूर्ण, क्षार वा षटू पलादि डालना चाहिये । स्विन्न वा अस्विन्न अन्न घृत का बलके अनुसार प्रयोग करे । याग देवे, तृषा लगनेपर शाकोंका स्वरस गरम अलके साथ चूर्ण । ही पीलेवे । इसतरह एक महिने तक करता पिप्पलीनागरं दंती समांशं द्विगुणाभयम् ।।
विडार्धाशयुत चूर्णमिदमुष्णांबुना पिवेत् । जठर में हथनी का दूध ।
___ अर्थ-पीपल,सौंठ और दंती समान भाग एवं विनिहते शाकैर्दोषेमासात् परं ततः। | हरड दो भाग, विडनमक आधा भाग इनका दुर्वलाय प्रयुजीत प्राणभृत्कारभं पयः॥ | चूर्ण बनाकर गरम जलके साथ सेवन करै । । अर्थ-इसतरह शाक सेवनसे दोषके दूर
विडंगादि सेवन । होजानेपर एक महिने पीछे दुर्बल रोगी को विडंगचित्रकं सक्तून् सघृतान् सैंधवं पचाम् बलवान् करनेके निमित्त हथनी का दूध
दग्ध्वा कपाले पयसा गुल्मप्लीहापहं पिबेत् । पीने को दे।
अर्थ-वायविडंग, चीता, सत्तू, घी, सेंप्लीहोदर की चिकित्सा ।
धानमक और वच इनको ठीकरेमें जलाकर प्लीहोदरे यथादोषं स्निग्धस्य स्वेदितस्य च ।। पीसले । इस क्षारका दूधके साथ सेवन कसिरां भुक्तवतो दना वामवाही विमोक्षयेत्। रने से गुल्म और प्लीहा जाते रहते हैं। - अर्थ-प्लीहोदर में वातादि दोषके अनु
अन्य प्रयोग। सार रोगी को स्निग्ध और स्वेदित करके | तैलोन्मिधैर्बदरकपत्रैः समर्दितैःसमुपनद्धः॥ दही के साथ भोजन कराके बांये हाथकी मुशलेन पीडितोऽनु योति प्लीहा पयोभुजो
नाशम् । फस्दः खोलकर रुधिर निकाले ।
अर्थ-वेरके पत्तों को वारीख पीसकर उक्तरोगमें क्षारपानादि ।
तेल मिलाकर प्लीहा पर लेपकर के ऊपर से लब्धे घले च भूयोऽपि स्नेहपीतं विशोधितम् समुद्रशुक्तिजं क्षारं पयसा पाययत्तथा ॥
एक मूसल द्वारा पीडित करे, ऊपर से दूध अम्ल शृतं विडकणाचूर्णाढ्यं नक्तमालजम्पावै तो प्लीहा नष्ट होजाती है । सोभांजनस्य वा काथं सैंधवाग्निकणान्वितम हिंग्वादिचूर्ण क्षाराज्य युजीत च यथावलम्
कामलादि रोगों पर दवा । . अर्थ-रोगीके बलवान् होजानेपर फिर
रोहीतकलताःक्लप्ता खंडश साभयाजले ॥
- मूत्रे वाऽऽसुनुयात्तत्तु सप्तराजस्थितं पिबेत्। स्नेहपान कराके विरेचन देवे । फिर दूध कामलाष्लीहगुल्मार्शः कृमिमेहोदरापहम् ॥ के साथ समुद्रकी सीपीका खार पान करावे | अर्थ-रोहेडे की टहनीयों को टुकडे टुभथवा कांजी के साथ सिद्ध किया हुआ और कड़े करके हरड के साथ जलमें वा गोमत्र और चिडनमक और पीपल का चूर्ण मिला- में भिगोंदे सातदिन पीछे इस जल वा मूत्रको
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
पावे, इससे कामला, प्लीहा, गुल्म, अर्श, अर्थ-पित्तज प्लीहा में जीवनीयगकृमिरोग, प्रमेह और उदररोग नष्ट होजातेहैं! । णोक्त सिद्ध घी, क्षीरवस्ति, रक्तमोक्षण
अन्य प्रयोग। विरेचनादि द्वारा शोधन और दुग्धपान रोहीतकत्वचः कृत्वा पलानां पंचविंशतिम् । हितकारी है। कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत् ॥ पालकैः पंचकोलैस्तु तैः समस्तैश्च तुल्यया |
। पकृत की चिकित्सा । हरीतकत्वचा पिदैर्धतप्रस्थं विपाचयेत॥ यकृति प्लीहवत्कर्म दक्षिणे तु भुजे सिराम् ॥ प्लीहाभिवृद्धिं शमयत्येतदाशु प्रयोजितम् । अर्थ-यकृत रोग में प्लीहा के समान : अर्थ--रोहेडे की छाल २५ पल, बेर दो । सव चिकित्सा करनी चाहिये, इसमें दाहिने प्रस्थ इनका काथ करे फिर इसको छानकर हाथ की नस बेधकर रक्त निकाला जाता है, इसमें पंचकोल प्रत्येक एक पल, बडी हरड | यही विशेषता है। का छिलका पांच पल, घी १ प्रस्थ इनको बद्धोदरकी चिकित्सा । पाकविधिसे पकाकर सेवन करे तो अत्यन्त स्विन्नाय बद्धोदरिणे मूत्रतीक्ष्णौषधान्वितम् । बढीईई प्लीहा शीघ्र नष्ट होजाती है।
सतैलं लवणं दद्यानिसहं सानुवासनम् ॥
परिसंसीनि चान्नानि तीक्ष्णं चास्मैप्लीहा पर तेल ।
विरेचनम्। कदल्यास्तिलनालानां क्षारेण क्षुरकस्य च उदावर्तहरं कर्म कार्य यश्चानिलापहम् तैलं पक्वं जयेत्यानाप्लीहान कफवातजम। अर्थ-बद्धोदररोगी को स्वेदद्वारा स्विन्न
अर्थ केला, तिल की नाल, और। करके गोमूत्र और तीक्ष्ण भौषधों से युक्त तालमखाने का खार डालकर पकाया हुआ , तेल और नमक सहित निरूहण और भ. तेल पीने से कफ और वात से उत्पन्न हुई । नुवासन देवै । पहिले अनुवासन फिर निरूप्लीहा नष्ट होजाती है ।
हण और फिर अनुवासन ऐसे जठररोगी को अन्य प्रयोग।
अनुलोमनकर्ता अन्न और तीक्ष्ण विरेचन अशांतौ गुल्मविधिना योजयेदाग्निकर्म च ॥ | देवै तथा उदावर्तनाशक और वातनाशक अप्राप्तपिच्छास लिले प्लीहि वातकफोल्बणे। क्रिया करै ।
अर्थ-ऊपर लिखे उपाय से वात | छिद्रोदरकी चिकित्सा । कफज प्लीहा का शमन न हो और उस में | छिद्रोदरमृते स्वेदात्श्लेष्मोदरंवदाचरेत् । सेंमर के गोंद के समान, पिच्छिल जल की
जातं जातं जलं नाव्यमेवं तद्यापयोद्भषक्
___ अर्थ-छिद्रोदर में स्वेदन कर्मके अतिरिक्त उत्पत्ति न होतो गुल्म की चिकित्सा के अनुसार अग्निकर्म करै ।
और सब चिकित्सा कफोदर के समान की पैत्तिक प्लीहा का उपाय।
जाती है। परंतु जब आंतोंमें छेद होकर उपैतिके जीवनीयानि सपीषि क्षीरबस्तयः॥ |
न में से जल टपक टपककर पेटको भरै तब रक्ताबसेका संशदिक्षीरपानं च शस्यते।। उस जलको निकाल डाले । जितनी बार
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अष्टांगहृदय ।
जल इकट्ठा हो, उतनी ही बार निकाल डाले । प्रयुंजीत भिषक् शस्त्रमार्तबंधुनृपार्थितः इसतरह वैद्य रोगीको बचाता रहै । अर्थ- बद्धोदर, और छिद्रोदर में यदि उदकोदर की चिकित्सा | ऊपर लिखी चिकित्सा से शांत न हो तो वैद्य अपां दोषहराण्यादौ योजयेदुदकोदरे । रोगी के स्वजन और राजासे पूछकर अस्त्र. मूत्रयुक्तानि तीक्ष्णानि विविधक्षारवंति च प्रयोग करै । दीपनीयैः कफमैश्च तमाहारैरुपाचरेत् ।
m
अर्थ - जलोदर में प्रथम गोमूत्र तथा अन्य विविध क्षारोंसे युक्त जलके दोषनाशक तीक्ष्ण औषधका प्रयोग करना चाहिये । तथा अग्निसंदीपन और कफनाशक आहार का सेवन करावे । पीछे वातादि दोषानुसार चिकित्सा करे |
अन्य चिकित्सा ||
क्षारं छागकरीषाणां शृतं मूत्रेऽग्निना पचेत् घनीभवतितस्मिश्च कर्षांश चूर्णितं क्षिपेत् । पिप्पलीपिप्पलीमूलं शुठीलवणपंचकम् निकुंभकुंभत्रिफला स्वर्णक्षीराविषाणिकाः । स्वर्जिकाक्षारषडग्रंथासातलायवशूकजम् कोलामा गुटिकाः कृत्वा ततः
सौवीरकाप्लुताः । पिबेदजरकेशोफे प्रवृद्धे चोदकोदरे
अर्थ - anant गनियों के क्षार को गो में घोलकर अग्निमें पावै । जब गाढा मूत्र हो जाय तब नीचे लिखे द्रव्यों का चूर्ण मि लादेवै । वे द्रव्य ये हैं: - पीपल, पीपलामूल, सोंठ, पांचों नमक, दंती, निसोध, त्रिफला, स्वर्णक्षीरी, मेंढासिंगी, सज्जीखार, वच, सातला, और जवाखार, फिर इनकी वेरके वरावर गोलियां वनालेवै । इन गोलियों को कांजी में मिलाकर पीनेसे अजीर्ण, सूजन और वढाहुआ उदररोग शांत होजाते हैं । restदरमें शस्त्रप्रयोग | त्रिषु बोदरादिषु ।
अ०१५
अप्रयोग बिधि | स्निग्धस्विन्नतनोनीभरधो बद्धक्षतांत्रयोः । पाटयेदुदरं मुक्त्वा वामतश्चतुरंगुलात् चतुरंगुलमानं तु निष्कास्यांत्राणि तेन च निरीक्ष्याऽपनयेद्वालमललेपोपलादिकम् छिद्रे तु शल्यमुधृत्य विशोध्यांत्र परिश्रवम् । मर्कोटदेशयेच्छिंद्र तेषु लग्नेषु चाऽहरेत् कार्य मूर्ध्नोऽनुचचाणि यथास्थानं निवेशयेत् अक्तानि मधुसर्पिभ्यमथ सीव्येद्वहिर्व्रणम् ततः कृष्णामृदाऽऽलिप्य
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बनीयाष्टमिया निवातस्थः पयोवृत्तिः स्नेहद्रोण्यां वसेत्ततः अर्थ- बद्धोदर और छिद्रोदर में रोगी को स्नेह स्वेद्वारा स्निग्ध और स्विन करके ना - भि के नीचे रोमराजी से चार अंगुल हटकर वांई ओर चार अंगुल चीर दे और सब आंतोंको बाहर निकालकर वाल, मल, लेप, पत्थरकी किनकी आदि जो कुछ हो सबको साफ करदे। फिर आंतों को घी और शहत से चुपड़ कर जहां की तहां लगाकर पेट में टांके लगादे | यह बद्धोदर की चिकित्सा है । अव छिद्रोदर में भी आंतों में से शल्यादि निकालकर आंतोंके स्रवनेका शोधन करके कालीचींटियों से आंतों के छिद्रको कट वावै । जव चींटियां आंतमें चिपट जायं तव उनके शरीरको काट काट कर निकालले और सिर आंतों में लगा रहने दे । तदनंतर सब आंतों में घी और मधु चुपडकर यथास्थान स्था
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अं० १५
चिकित्सितस्थान भापाटीकासमेत ।
पित करके टांके लगादे फिर कालीमिट्टी और पट्टी बांध देवै और रोगीको अन्नका भोगन मुलहटीका पेटपर लेप करके वांधदे । फिर | न देकर अल्पस्नेह और लबणान्वित पेयारोगीको वातरहितं स्थानमें घी वा तेल की | पान करने को दे । द्रोणीमें बैठाये रक्खै और केवल दूध पीनेको दे | जलोदरकी अन्य चिकित्सा । ___ अभ्य जलोदरोंका उपाय । स्यात्क्षीरवृत्तिषण्मासांस्त्रीपेयोपयसापिवेत सजले जठरे तैलैरभ्यक्तस्याऽनिलापहैः। श्रीश्चाऽन्यान्पयसैवाद्यात् फलाम्लेन स्विनस्योष्णांवुनाऽऽकक्षामुदरे परिवेष्टिते॥
रसेन वा। यद्धच्छिद्रोदितस्थाने बिध्येदंगुलमात्रकम्।। अल्पशःनेहलवणं जीर्ण श्यामाककोद्रवम्। निधाय तस्मिन्नाडी च स्रावयेदर्धमभसः॥ प्रयतो वत्सरेणैवं विजयेत्तज्जलोदरम् अथाऽस्य नाडीमाकृष्य तैलेन लवणेन च। अर्थ-जल निकलने के पीछे रोगीको घ्रणमभ्यज्य बध्वा च वेष्टयेद्वाससोदरम् ॥ | छः महिने तक केवल दूध, पीछे तीन मतृतीयेऽन्हि चतुर्थ वा यावदाषोडशं दिनम् | हिने तक दूध के साथ, पेया, फिर तीन मतस्य विश्रम्य विश्रम्य स्रावयेदल्पशाजलं
| हिने तक दूध, फलाम्छ वा मांसरसके साप विवेष्टयगाढतरंजठर च श्लथाश्लथम् ।। निःसुते लंधितःपेयाममेहलवणां पिबेत् ।
स्नेह और नमक से युक्त पुराने सोंखिया अर्थ-जलोदरमें तिलका तेल, सरसोंका | और कोदों खानेको देवै । इसतरह यत्नपूर्वक तेल तथा अरंडादि का वातनाशक तेल, । एक वर्षतक रहनेसे जलोदर जाता रहता है। इनसे उदरको चुपड कर और गरमजल से
| आहार में नयावर्ण्य ॥ . स्वेदित करके कुक्षितक उदरको कपडेसे ल- वज्र्येषु यत्रितो दिष्टे नात्यादिष्टे जितेंद्रियः । पेट देवै फिर पद्धोदर वा छिद्रोदर में कही अर्थ-अम्ल और लवणांदि वर्जित आहुई रीतिसे नाभिके नीचे बाई ओर रोमराजी । हार विहार में उदररोगी को यत्नसे रहना से चार अंगुल जगह छोडकर एक अंगुल | चाहिये । अर्थात् इनको सर्वथा त्याग देवे। चीरा लगाकर एक नल उस छिद्रमें प्रवेश | कथित अन्नपानादि में बहुत यत्नसे रहने करदे और उस नलके द्वारा पेटमें से आधा की आवश्यकता नहीं, परन्तु परिमाण से जल निकालले । फिर नलको निकालकर | | भीतर रहना चाहिये । अकथित अन्नपा. नमक और तेल से व्रणको चुपडकर और | नादि में जितेन्द्रियतासे रहे अर्थात् निहायांधकर पेटपर कपडा लपेट देवै, फिर तीन | लोलुप न होना चाहिये । तीन वा चार चार दिनके अंतर से सोलह |
सर्वोदरचिकित्सा ॥ दिनतक थोडा थोडा जल निकालता रहे ।
सर्वमेवोदरं प्रायो दोषसंघातजं यतः एक ही वारमें संपूर्ण जल निकाल लेनेसे । अतो वातादिशमनी क्रिया सर्वा प्रशस्यते। विशेष उपद्रवकी आशंका रहती है, जल अर्थ-क्योंकि सब प्रकारके उदररोग निकलने के पीछे शिथिलपेट पर कसकर । प्रायः तीनों दोषोंके संघात से होते हैं, इस
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( ६३२ ]
हृदय |
लिये सब प्रकार की वातादिनाशिनी क्रिया | मार्गपर्यटन, दिन में सौना, सवारी आदि पर चढना इन कार्यों का छोड देवै । उदर में पानव्यवस्था । नात्यर्थसांद्रं मधुरं तपाने प्रशस्यते ॥ सकणालवणं वाते पित्ते सोपणशर्करम् । यवानीसैंधवाजाजीमधुव्योषैः कफोदरे ॥ त्र्यूषणक्षारलवणैः संयुतं निचयोदरे । मधुतैलवचाशुंठीशता हूषाकुष्ठसंधवैः ॥ ब्लीहिनि बद्धे तु हपुषायवानीपट्टजादिभिः। सकृष्णा माक्षिकं छिद्रे व्योषवत्सलिलोदरे ॥
अर्थ - जठर रोग में कफ गाढा, मधुर रस से युक्त तक श्रेष्ठ होता है, वातोदर में पीपल और सेंधानमक डालकर, पित्तोदर में काली मिर्च और खांड मिलाकर, कफोदर में अजवायन, सेंधानमक, जीरा, शहत और त्रिकुटा मिलाकर, सन्निपातोदर में त्रिकुटा जवाखार और नमक मिलाकर, प्लीहोदर में मधु, तेल, वच, सोंठ, सौंफ, कूठ और सेंधानमक मिलाकर, बद्धोदर में हाऊबेर, अजवायन, सेंधानमक और जीरा आदि मिलाकर, छिद्रोदर में पीपल और शहत मिलाकर तथा जलोदर में त्रिकुटा का चूर्ण मिलाकर पान कराना चाहिये ।
करनी चाहिये ।
उदररोग में पथ्य ॥ वन्दिमंदत्वमायाति दोषैः कुक्षौ प्रपूरिते ॥ तस्माद्भेोज्यानि भोज्यानि दपिनानि
लघूनि च ।
सपंचमूलान्यल्पाम्लपटु स्नेहकहूनि च ॥ अर्थ-दोषोंके द्वारा कुक्षिके मरजाने से अग्नि मंद पडजाती है, इसलिये अग्निसंदी - पन और हलके भोजन करने चाहिये । भो. जनमें पंचमूल, थोडी खटाई, नमक, स्नेह • और कटु द्रव्य डालना चाहिये ।
उदर में यवागूआदि ।
भावितानां गवां मूत्रे षष्टिकानां च तंडुलैः । वागूं पयसा सिद्धां प्रकामं भोजयेन्नरम् ॥ पिवेदिक्षुरसं चानु जठराणां निवृत्तये । स्वं स्वं स्थानं ब्रजत्येषां वातपि
त्तकफास्तथा ॥ १२४ ॥ अर्थ- साठी चांवलों में गोमूत्र की भावना देकर दूध के साथ उन चांवलों की यवागू सिद्ध करके जठर रोगी को तृप्तिपर्यन्त पान करावे, ऊपर से ईख का रस • करावे, ऐसा करने से कफ, वात और पित्त अपने अपने स्थान को चले जाते हैं ।
पान
उदररोग में त्याज ।
अत्यर्थो णाम्ललवणं रूक्षं ग्राहि हिमं गुरु । गुड तैलकृतंशाकं वारिपानावगाहयोः ॥ आया साध्वदिवास्वप्नयानानि
च परित्यजेत् ।
अर्थ - अत्यन्त, उष्ण, अम्ल, लवण, रूक्ष, प्राही, शीतल, भारी, गुड, तेल के पदार्थ, शाक, जलपान, स्नान, परिश्रम,
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अ०१५
वातकफादि में तक्रको श्रेष्ठता । गौरवाचकानाहमंद वन्ड्यतिसारिणाम् । त वातकफार्तानाममृतत्वाय कल्पते ॥
अर्थ- वात कफ से पीडित उदर रोग यदि मारापन, अरुचि, आनाह, अग्निमांद्य, और अतिसार हो तो तक अमृत का काम देता है |
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तक का प्रयोग | प्रयोगाणां च सर्वेषामनुक्षीरं प्रयोजयेत् ।
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अ. १६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६३३)
स्थैर्यकृत्सर्वधातूनां बल्यं दोषानुबंधहृत् ॥
अन्य घृत । अर्थ-उदर रोग में सब प्रकार की दाडिमात्कुडवो धान्याकुडबाध पलं पलम् औषधी के सेवन के पीछे दूध और तक चित्रकाच्छंगवेदाच पिप्पल्यर्धपलं च तैः॥ का अनुपान करना चाहिये, तक सम्पूर्ण
कल्कितर्विशतिपलं धूतस्य सलिलाढके।
सिद्धं हृत्पांडुगुल्मार्शःप्लीहवातकफार्तिनुत् ॥ धातुओं को स्थिर कर देता है, तथा बल
दीपनं श्वासकासघ्नं मूढवातानुलोमनम् । कारक और दोषों के अनुबन्धन को दूर | दुःखप्रसविनानां च वंध्यानां च प्रशस्यते ॥ करनेवाला है।
अर्थ-अनार एक कुडब,धनियां आधाकुडव, दूध को श्रेष्ठता।
चीता और सौंठ एक एक पल, पीपल आधा भैषजोपचितांगानां क्षीरमेवामृतायते ॥ अर्थ-जिस रोगी का देह औषधों के
पल, इन सबका कल्क करके बीस पल घी सेवन से पुष्ट होगया है, उसको दूध पान
समेत एक आढक जलमें पकावै । यह घृत कराना ही अमृत तुल्य है ।
हृद्रोग, पांडुरोग,गुल्मरोग, अर्शरोग, प्लीहा, इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां
वातकफ, श्वास और खांसी इन रोगों को भाषाटीकान्वितायां चिकित्सित
दूर करताहै अग्निसंदीपनहै, मूढ वातका स्थाने उदरचिकित्सितनाम अनुलोमन करनेवालाहै, यह कष्टसे प्रसव पञ्चदशोऽध्यायः । होनेवाली और बंध्यात्रियों के लिये विशेष
उपयोगी है।
उक्तरोगमें वमनादि । षोडशोऽध्यायः।
स्नेहित वामयेत्तीक्ष्णैः पुनः स्निग्धं च शोधयेत
पयसा मूत्रयुक्तेन बहुशः केवलेन वा ॥५॥ अथाऽतःपांडुरोगचिकित्सतंव्याख्यास्यामः ____ अर्थ-पांडुरोगी को स्निग्ध करके तीक्ष्ण ... अर्थ-अब हम यहांसे पांडुरोगचिकित्सा औषधियों द्वारा पमन करावै । फिर पुननामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। वार स्निग्ध करके गोमूत्र और दूधसे अथवा
पांडुरोगमें कल्याणकघृत । केवल दूध द्वारा बार बार शोधित करे । पांड्वामयी पिवेत्सर्पिरादौ कल्याणकायम्। अन्य प्रयोग। पंचगव्यं महातिक्तं शृतं वाऽरग्वधादिना ॥ दतीपलरसे कोणे काश्मर्याजलिमासुतम् ।
अर्थ-पांडुरोगी को प्रथमही कल्याणक | द्वाक्षांजलिं वा वृदित तत् पिवेत्घृतपान करावे, फिर अपस्मार चिकित्सित
पांडुरोगाजित् ॥५॥ में कहा हुआ पंचगव्य घृत, कुष्ठचिकित्सा
मूत्रेण पिष्टां पथ्यां वा तत्सिद्धं वा फलत्रयम् में कहा हुआ महातिक्तक घृत, अथवा आ
अर्थ-पांडुरोगी के लिये दंती के एक रग्वधादि गणोक्त द्रव्योंसे पकाया हुआ घी
पल कुछ गरम रसमें एक. अंजली खंभारी . देना चाहिये।
| के फलों का आसुत अथवा एक अंजली
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(६३४]
अष्टांगहृदय ।
अ०१६
द्राक्षाओं को मलकर पान करावै । अथवा | गुल्मानाहामवातांश्च रक्तपित्तं च तजयेत् ॥ गोमूत्र में हरड पीसकर पान करावै, अथवा अर्थ-इन्द्रायण, कुटकी, मोथा, कूठ, गोमत्र में त्रिफला औटाकर पान करावै । इस देवदारु और इन्द्रजौ, ये सब एक एक कर्ष, से पांडुरोग नष्ट होजाता है। मूर्वा दो पिचु, अतीस आधा कर्ष, इनका चूर्ण अन्य प्रयोग।
वनाकर गरम पानी के साथ पीकर ऊपर स्वर्णक्षीरीत्रिवृच्छयामाभदारुमहौषधम्॥ से थोडासा शहत चाटे । इससे पांडुरोग, गोमूत्रांजलिना पिष्ट शृतं तेनैव वापिवेत् ।। ज्वर, दाह, खांसी, श्वास, अरुचि, गुल्म, साधितं क्षीरमभिर्वा पिवेदोषानुलोमनम् ॥
आनाह, आमवात और रक्तपित्त दूर हो __ अर्थ-स्वर्णक्षीरी, निसोथ, श्यामानि
जाते हैं । सोथ, देवदारु और सोंठ इन सब द्रव्योंको
अन्य प्रयोग। गोमूत्र के साथ पीसकर वा पकाकर पीना
वासागुडू त्रिफलाकट्वीभूनिवनिवजः । चाहिये । अथवा इन्हीं उक्त द्रव्यों के साथ
काथः क्षौद्रयुतो हंति पांडुपित्तास्त्रकामलाः॥ पकाया दुआ दूध पांडुरोगी को पान करात्रै ___ अर्थ-अडूसा, गिलोय, त्रिफला,कुटकी इससे दोषों का अनुलोमन होता है। चिरायता और नाम इनके काढे में शहत
. अन्य प्रयोग । मिलाकर पीने से पांडुरोग और रक्तपित्त, मूत्रे स्थितं वा सप्ताहं पयसाऽयोरजः पिवेत् । | तथा कामला जाते रहते हैं। जाणे क्षीरेण भुंजीत रसेन मधुरेण वा ॥९॥
व्योषादि चूर्ण । __ अर्थ-लोहचूर्ण को सातदिन तक गो
व्योषाग्निवेल्लत्रिफलामुस्तैस्तुल्यमयोरजः। मूत्र में भिगोदेवै, फिर इसको दूधके संग
चूर्णितं तक्रमध्वाज्यकोष्णांभोभिः पान करे । इसके पच जाने पर दूध के
प्रयोजितम् ॥ १४॥
कामलापांडुहृद्रोगकुष्ठा मेहनाशनम्। साथ अथवा मधुररसयुक्त मासके साथ भो- |
___अर्थ-त्रिकुटा, चीता, बायविडंग, त्रिजन करावे । अन्य अवलेह ।
| फला, मोथा, इन सबको समान भाग ले शुद्धश्चोभयतो लिह्यात्पथ्यां मधुघूतद्रुताम्
और इन सबके समान लोहभस्म इनका . अर्थ-वमन और विरेचन दोनों प्रकार | चुण बनाकर मात्रा के अनुसार तक मधु, से रोगी को शुद्ध करके हरड को पीसकर | घी वा गुनगुने पानी के साथ सेवन करने मधु और घृत में मिलाकर चाटनेको दे । । से कामला, पांडुरोग, हृद्रोग, कुष्ठ, अर्श अन्य,प्रयोग।
और प्रमेह नष्ट होजाते हैं। विशालां कटुकां मुस्तां कुष्ठं दारुकलिंगकः॥
पांडुरोग पर बटिका । कशाद्विपिचुर्मू, कर्षाधीशा घुणप्रिया । | गुडनागरमंडूरतिलांशान्मानतः समान् ॥ पीत्वा तच्चूर्णमंभाभिः सुखर्लेिह्यात्तत्तो मधु॥ पिप्पलीद्विगुणान्दद्याद्गुटिकां पांडुरोगिणे । पांडुरोग ज्यरं दाहं कासं श्वासमरोचकम् । अर्थ-पुराना गुड, सोंठ, मंडूर और
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अ० १६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
[६३५ ]
तिल सब समान भाग और पीपल दोभाग | विशेषाद्धंत्यपस्मारं कामलां गुदंजानि च । इनकी गोली बनाकर सेवन करने से पांड। अर्थ-सोनामाखी, शिलाजीत, रूपारोग जाता रहता है।
माखी और मंडूर प्रत्येक पांच पांच पल, अन्य गुटिका।
चीता, त्रिफला, त्रिकुटा, बायबिडंग, प्रत्येक ताप्यं दाास्त्वचं चव्यं ग्रधिकं देवदारु च ॥ एक पल, शर्करा आठपल, इन सबका चूर्ण व्योषादि नवकं चैतच्चूर्णयेद् द्विगुणं ततः।
बनाकर शहत में सानकर सेवन करे तो महरं चांजननिभं सर्वतोऽटगुणेऽथ तत् ॥ पृथग्विपके गोमूत्रे वटकीकरणक्षमे।
पांडुरोग, विषरोग, खांसी, यक्ष्मा, प्रक्षिप्य वटकान्कुर्यात्तान्खादेत्तभोजनः ॥ विषमज्वर, कुष्ठ, अजीर्ण, प्रमेह, शोफ एते मंडूरबटकाः प्राणदाः पांडुरोगिणाम् । । श्वास, अरुचि, तथा विशेषः करके अपकुष्टान्यजरकं शोकमूरुस्तंभमरोवकम् ॥ असि कामलां मेहान् प्लीहान् शमयति च
स्मार, कामला और अर्श दूर होजाते हैं। ___ अर्थ-सोनामाखी, दारुहलदीकी छाल.
कौटजादि चूर्ण। चव्य, पीपलामूल, देवदारु, तथा ऊपर कहे
कौटजत्रिफलानिवपटोलघननागरैः। २३ ।
भावितानि दशाहानि रसैर्वित्रिगुणानि बा । हुए त्रिकुटा, चीता, बायबिडंग, त्रिफला
शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा ॥ और मोथा ये नौ द्रव्य, इन सबको समान त्वक्षीरीपिप्पली धात्री कर्कटाख्याः भाग लेकर चूर्ण बना लेवै । तथा काजल
पलोन्मिताः। के समान पिसा हुआ मंडूर सबसे दुगुना
निर्दग्धाः फलमूलाभ्यां फल युत्त्यालेबै । इस मंडूर चूर्ण को सब द्रव्यों से
त्रिजातकम् ॥ २५ ॥
मधु त्रिपलसंयुक्तान् कुर्यादक्षसमान्गुडान् । अठगुने गोमूत्र में पकाकर रखले जब यह दाडिमांबुपयः पक्षिरसतोयसुरासवान् । गोलियां बंधने के योग्य होजाय तव ऊपर तान् भक्षयित्वानुपिवेन्निरन्नो भुक्त एव वा। लिखा हुआ स्वर्णमाक्षिकादि. चूर्ग डालकर
पांडुकुष्ठज्वरप्लीहतमकार्शोभंगदरम् ॥
हृन्मूत्रपूतीशुक्राग्निदोषशोषगरोदरम् । गोलियां बनालेवे इनको खाकर तकके साथ । कासासृग्दरपित्तासृक्शोफगुल्मगलामयान्। भोजन करै । ये मंडूर बटिका पांडुरोगियों | मेहवर्मभ्रमान् हन्युः सर्वदोषहराः शिवाः। को प्राणदाता हैं तथा इनसे कुष्ठ, अजीर्ण, अर्थ-कुडाकी छाल, त्रिफला, नीम, शोथ, ऊरुस्तंभ, अरुचि, अर्श, कामला, पर्वल, मोथा, सोंठ, ये सब एक एक पल, प्रमेह, और प्लीहा नष्ट होजाते हैं। . जल चौसठ पल में काढा करे चौथाई शेष - ताप्यादि चूण । रहने पर उतार कर छानले । इस काढेको ताप्यादिजतुरोग्यायोमलाः पंचपलाः पृथक् | आठ पल शिलाजीत में दस दिन, बीस दिन चित्रकत्रिफलाब्योषावडंगैः पालिकैःसह । शर्कराष्टपलान्भिनाश्चूर्णिता मधुना द्रुताः॥
वा तीस दिन भावना दे फिर इतनी ही पांडुरोग विपं कामं यक्ष्माण विषम ज्वरम् । शर्करा तथा वंशलोचन, पीपल, आमला. · कुष्ठान्यजरक मेहं शोफ श्वासमराचेकम् ॥ | काकडासींगी और कटेरी के फल तथा जड
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अष्टांगहृदये।
अ.१६
प्रत्येक एक पल, त्रिजातक ( दालचीनी, अर्थ- पांडु और कामला रोगों के दूर इलायची; और तेजपात ) यथायोग्य और करने के लिये लघु पंचमूल का काथ तथा मधु तीनै पल मिलाकर दो २ तोले की | दाख और आमले का रस खाने पीने में गोलियां बनालेयै । इसका अनुपान दाडिम हित है । का काढा, दूध, पक्षियों का मांसरस, जल पांडुरोग की सामान्य चिकित्सा । मुरा और आसव है, ये गोलियां भोजन | " इति सामान्यतः । करनेसे पहिले वा भोजन करने से पीछे खाय।
प्रोक्तं पांडुरोगभिषग्जितम् । इन गोलियों का सेवन करने से पांडुरोग,
विकल्प्य योज्यं विदुषा पृथग्दोषवलं प्रति ॥ कुष्ठ,ज्वर, प्लीहा, तमकश्वास, अर्श,भगंदर,
अर्थ-~इस तरह पांडुरोगकी सामान्य हृद्रोग, मूत्ररोग, शुक्रकी दुर्गंधि, अग्निदोष,
चिकित्सा कही गईहै । विद्वान् वैद्यको उचिंशोष,गररोग, उदररोग, खांसी, प्रदर,रक्त
तहै कि दोष और बलके अनुसार इन औपित्त, सूजन, गुल्म, कंठरोग प्रमेह, वर्म, |
षधों की योजना करे । और भ्रम जाते रहते हैं, ये गोलियां संपूर्ण
दोषानुसार चिकित्सा।
स्नेहप्रायं पवनजे तिक्तशतिं तु पैत्तिके। दोषों को हरनेवाली और कल्याणकारक हैं, श्लैष्मिके कटरूक्षोष्णं बिमिश्रं सान्निपातिके
द्राक्षादि अवलेह । ___ अर्थ-वातजपांडुरोग में स्नेहाधिक्य औ. द्राक्षाप्रस्थ कणाप्रस्थं शर्करार्धतुलां तथा ॥ | पध, पैत्तिक में तिक्तरसान्वित, श्लैष्मिक में द्विपलं मधुकं शुठीत्वक्क्षारी च विचूर्णितम् | कट, रूक्ष और उष्ण तथा सान्निपातिक में धात्रीफलरसे द्रोणे तत्क्षिप्त्वा लेहवत्पचेत् .
मिली हुई चिकित्सा करे । शीतान्मधुप्रस्थयुताद् लिह्यात्पाणितलं ततः हलीमकं पांडुरोगं कामलां च नियच्छति ॥
अन्यविधि। __ अर्थ-दाख एक प्रस्थ,पीपल एक प्रस्थ, मृदं निर्यातयेत्कायात्तीक्ष्णैः संशोधनैः पुरः। शर्करा आधी तुला, मुलहटी, सौंठ, बंशलो- बलाधानानि सीपि । चन प्रत्येक दो पल, इनको पीसकर आमले
शुद्धे कोष्ठे तु योजयेत् ॥ ३५ ॥ के एक द्रोण रस में डालकर व्हेईकी तरह
___अर्थ-जो पांडुरोग मृतिका के खाने से पकावै । जब ठंडा हो जाय तब इस में एक
होता है उस में तीक्ष्ण विरेचन देकर प्रथम
दे से मृत्तिका को निकाल डालै । फिर प्रस्थ शहत मिलाकर प्रति दिन एक तोले चाटे इससे हलीमक पांडु रोग और काम-
कोष्ठ शुद्ध होने पर बलकारक औषपों का
प्रयोग करें। ला जाते रहते हैं।
___ मृतिका के पांडुरोग में उपाय । - अन्य प्रयोग ।
व्योपविल्यद्विर जनात्रिफलाद्वियुनर्नवम् । कनीयं पंचमूलांबु शस्यते पानभोजने। मुस्तान्ययोरजः पाठा विगं देवदारु च ॥ पांडूनां कामलार्तानां मृद्धीकामलकाद्रसः॥ वृश्चिकाली च भार्गीच सक्षीरैस्तैःशृतं घृतम्
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अ. १६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६३७ )
सर्वान्प्रशमयत्याशु विकारान्मृत्तिकाकृतान् | प्रकार की मिट्टी से विकार उत्पन्न हुआ - अर्थ-त्रिकुटा, बेलागरी, हलदी, दारु- है. फिर तदनंतर वातादि दोषका विचार हलदी, त्रिफला, दोनों सांठ, मोथा, लोह- करके मिट्टी खाने से उत्पन हुए पांडुरोग के चूर्ण, पाठा, बायविडंग, देवदारू, वृश्चिका- | दर करने का उपाय करे ।। ली और भाडंगी ये सब घी से चौथाई, कामला में पित्तनाशक औषध । घी की बराबर दूध और चौगुना जल डाल | कामलायां तु पित्तघ्नं पांडुरोगाविरोधि यत् कर पाक की रीति के अनुसार घी को अर्थ-कामला रोग में यह औषध देनी पकाकर सेवन करे, इस घृत से मृत्तिका चाहिये जो पित्तनाशक हो और प्रांडरोग के द्वारा उत्पन्न हुए संपूर्ण विकार प्रशमित हो । अविरोधी हो । जाते हैं।
कामला पर घृत । केसरादि घृत ।
पथ्याशतरसे पथ्यावृतार्धशतकलिकतः ॥ तद्वत्केसरयष्टयावपिप्पलीक्षीरशाइबलैः।
प्रस्थःसिद्धो घृता गुल्मकामलापांडुरोगनुत् । ___ अर्थ-केसर, मुलहटी, पीपल, दूध और अर्थ-सौ हरड के काथ में ५० हरड के हरीदूब इन से पकाया हुआ घी पूर्ववत गण- डंठलों का कल्क मिला कर एक प्रस्थ घी कारी होता है।
पकौव । इस से गुलम, कामला और पांडु. अन्य उपाय ।
| रोग दूर हो जाते हैं। मृद्धेषणाय तल्लोल्ये वितरेद्भावितां मृदम् ॥
अन्य ऑषध । वेल्लाग्निनिवप्रसवैः पाठया मूर्वयाऽथवा। आरग्वधं रसेनेक्षोर्वि दक्षर्यामलकस्य वा ।। ___ अर्थ-मात्तिका के खाने की अभिलाषाही सत्यूपणं विल्वमात्र पायये कामलापहम् । हो तो बायबिडंग, चीता और नीम, इनके / अर्थ-अमलतास,ईख,विदारीकंद, व आमला पत्ते, पाठा अथवा मूर्वा इनके काथ की | इन में से किसी एक के रस के साथ एक भावना दी हुई मिट्टी खानेको दे । पल त्रिकुटा का चूर्ग मिला कर सेवन करने
दोपानुसार औषध का प्रयोग से कामला रोग नष्ट हो जाता हैं। .. मृद्भेदभिन्नदोषानुगमाद्योज्यं च भेषजम् ॥
अन्य चूर्ण । अर्थ-मृतिका के भेद के अनुसार वाता- पिन्निकुंभकल्कं वा द्विगुण शीतवारिणा ॥ दि दोषों की विवेचना करके औषध का
कुंभस्य चूर्ण सक्षौद्रं वैफलेन रसेन वा । प्रयोग करना चाहिये । अर्थात् कषाय मृ
___अर्थ-दंती का चूर्ण दो पल ठंडे जलके तिका के खाने से वायु, क्षारयुक्त मृतिका
साथ पीवै । अथवा निसौथ का चूर्ण शहत के सेवन से पित्त और मधुर मृतिका के
मिलाकर त्रिफला के क्वाथके साथ पीवे ।
अन्य प्रयोग। सेवन से कफ प्रकुपित होता है । इसलिये
| त्रिफलाया गुडूच्या वादाा निंबस्यप्रथा यह विचार करना चाहिये कि किस
घा रसम् ॥ ४३ ॥
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(६३८)
अष्टांगहृदय ।
अ०१६
प्रातःप्रातर्मधुयुतं कामलार्ताय योजयेत्। । अर्थ-रूक्ष, शीतल, भारी, मिष्ट अन्न अर्थ-त्रिफला, गिलोय, दारूहल्दी, और
भोजन, व्यायाम और बलनिग्रह, इन सब नीम इनमेंसे किसी एक के क्वाथके साथ |
कारणों से वायु कुपित होकर और कफ से शहत मिलाकर प्रातः काल सेवन करनेसे
मिलकर जब पित्तको बाहर निकालतीहै तब कामला रोग नष्ट हो जाता है ।
रोगी के नेत्र, मूत्र,त्वचा, हलदीके रंगके होजाअन्य प्रयोग।
तेहैं, मलका रंग सफेद और पेट में गुडगुडानिशागैरिकाधात्रीभिः कामलापहमंजनम् ।।
हट के साथ स्तब्धता होतीहै, हृदयमें दुर्व। अर्थ-हली, गेरु, और आमला इनका अंजन नेत्रों में लगाने से कामला रोग जा
लता, मंदाग्नि, पार्श्ववेदना, हिचकी,
श्वास, अरुचि, और उबर इन सब उपद्रवों ता रहताहै ।
के साथ क्रमसे कुपित हुई वायु शाखामें सअन्य प्रयोग।
माश्रित पित्तमें जा मिलती है । इक अवस्था तिलपिष्टनिभं यस्तु कामलावान्सृजन्मलम् ।
में रोगीको रूक्ष कटु और अम्लरसयुक्त, मोर कफरुद्धपथं तस्य पित्तं कफहरैर्जयेत् ॥ __ अर्थ-जो कामलारोगी तिलकी पिटठी तीतर, और मुर्गेका मांसरस तथा सूखीमूली के समान मलका त्याग करताहै उपके पि- और कुलथी का यूष भोजन में देना चाहिये तका मार्ग कफद्वारा रुक जाताहै । इसलिये | इसमें अत्यन्त खट्टे, तीखे चरपरे और नमउसे कफनाशक औषधे देनी चाहिये।
कीन पदार्थ भी हितहैं, तथा त्रिकुटाके चूर्ण . अन्य चिकित्सा ।
| को विजौरेके रसके साथ सेबन करै । ऐसा सक्षशीतगुरुस्वादुव्यायामवलनिग्रहैः। । करनेसे पित्त अपने स्थानपर आजाता है । कफसमूर्छितो वायुर्यदा पित्तं बहिः क्षिपेत् | मी मामी को
मलकी सफेदी दूर होकर पीलापन आजाता हारिद्रनेत्रमूत्रत्वक्श्वेतवस्तिदा नरः।। भवेत्साटोपविष्टभो गुरुणा हृदयेन च ॥ ।
है । वायु भी आटोप और उपद्रवों के साथ दौर्बल्याल्पानिपावर्ति-
प्रशमित होजातीहै । इस तरह सब उपद्रबों हिमाश्वासारुचिज्यरैः।। के शांत होनेपर कामलामें कही हुई चिकि. क्रमेगाल्पेऽनुज्येत पित्ते शाखासमाश्रिते
सा करनी चाहिये। रसैस्तं रूक्षकवम्लैः शिखितित्तिरिदक्षजैः | शुष्कमूलकजैयूंपैःकुलत्थोत्थैश्च भोजयेत् ॥ कुंभकामला की चिकित्सा । भृशाम्लतीक्ष्णकटुकलवणोष्णं च शस्यते। | गोमूत्रेण पिबेत्कुंभकामलायां शिलाजतु ॥ सवीजपूरकरसं लिह्याद्योषं तथाशयम् ॥ मासंमाक्षिकातं वाकिटं वाऽथहिरण्यजम स्वं पित्तमेति तेनाऽस्य शकृदप्यनुरज्यते । वायुश्च याति प्रशमं सहाटोपाद्युपद्वैः ॥
___ अर्थ-कुंभकामला में रोगी को शिलानिवृत्तोपद्रवस्याऽस्य कार्यः
जीत, वा सोनामाखी, वा रूपामाखी का कामलिको विधिः । । एक महिने तक सेवन करावै ।
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म.१७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६३९]
हलीमक की चिकित्सा।
सप्तदशोऽध्यायः। गुडू स्वरसक्षरिसाधितेन हलीमकी ॥
mooooooor महिषीहविषा स्निग्धः पिबेद्धात्रीरसेन तु । त्रिवृतां तद्विरिक्तोद्यात्स्वादु पित्तनिलापहम् | अथाऽतः श्वयथुचिकित्सित व्याख्यास्यामः द्राक्षालेहं च पूर्वोक्तं सीषि मधुराणि च । अर्थ-अब हम यहांसे सूजन की चियापनान्क्षीरवस्तींश्च शीलयेत्सानुवासनान् | कित्सावाले अध्याय की व्याख्या करेंगे । मार्कीकारिटयोगांश्च पिवेद्यक्त्याग्निवृद्धये । सूजनमें चिकित्सा क्रम । कासिकं बाभयालेहं पिप्पलीमधुकं वलाम् | "सर्वत्र सर्वांगसरे दोषजे श्वयथौ पुरा । पयसा च प्रयुंजीत यथादोपं यथावलम्। सामे विशोषितो भुक्त्वा लघुकोष्णांभसाअर्थ-हलीमक रोगी को गिलोय के रस
पिवेत् ॥ १॥ और दुधमें सिद्ध किये हुए घी से स्निग्ध नागरातिषादारुविडंगेंद्रयवोषणम् । करके श्रामले के रसके साथ निसौथ पान | अथवा विजयाशुठीदेवदारुपुनर्नवम् ॥२॥ करावै । इससे विरेचन होनेपर वातपित्त
नवायसं वा दोषाढ्यः शुध्यै मूत्रहरीतकीः ।
वराकाथेन कटुकाकुंभायस्कषणानिवा ॥ नाशक स्वादु पथ्य, पहिले कहा हुआ द्राक्षा
अथवा गुग्गुलुं तद्बजतु वा शैलसंभवम् । वलेह, मधुरगणोक्त साधित घृत, प्राणवर्द्धक अर्थ-वातादि दोषोंसे उत्पन्न हुई सर्वांग क्षीरवस्ति और अनुबासन देवे, तथा अग्नि सूजनमें पकनेसे पहिलेही लंघनद्वारा विशोकी वृद्धिके लिये मार्दीक और अरिष्ट का पित करके हलका भोजन करनेके पीछे सौंठ प्रयोग करै । अथवा कास चिकित्सत्सितोक्त अतीस, देवदारू, बायबिडंग, इन्द्रजौ, और अभयावलेह, दूधके साथ पीपल, मुलहटी कालीमिरच अथवा हरड, सौंठ, देवदारू, और खरैटी इन सब औषधों का प्रयोग
और सौंठ इनको गरम जलके साथ पान दोष और बळके अनुसार करना चाहिये ।
करे । जो रोगी दोषोंकी अधिकता से आपांडुरोगमें सूजनकी चिकित्सा।
क्रांत हो तो पांडुरोग में कहा हुआ नवायस पांडुरोगेषु कुशलः शोफोक्त
चूर्ण सेवन करावै । विरेचन के लिये गोमूत्र च क्रियाक्रमम् ॥ ५७ ॥ के साथ हरड, अथवा त्रिफला के काय के अर्थ-पांडुरोग में कुशल वैद्यको शो- | साथ कुटकी, निसौथ, लोहचूर्ण और त्रिकुटा फोक्त चिकित्सा की प्रणाली का अबलंबन | अथवा गूगल वा शिलाजीत का पान करावे. । करना चाहिये।
मंदाग्निमें तक्रपान ! इतिश्री अष्टांगहृदयंसहितायां भाषा | मंदाग्निः शीलयेदामगुरुभिन्नविबद्धषिट् ॥ टीकायां चिकित्सितस्थाने पांडरोग तकं सौवर्चलव्योषक्षौद्रयुक्तं गुडाभयाम् ।
तक्रानुपानामथवा तद्वद्धा गुडनागरम् ॥ चिकित्सितं नाम
अर्थ-सूजन वाले रोगी की आग्न मंद षोडशोऽध्यायः।
| हो, तथा मल अपक, भारी, शिथिल बा
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( ६४० ]
विबंध युक्त हो तो संचल नमक, त्रिकुटा, और शतके साथ तक पान करे अथवा गुड और हरड खाकर तक्र पीवै अथवा गुड और सोंठ पर तक्रका अनुपान करे । अन्य प्रयोग |
आर्द्रकं वा समगुडं प्रकुंचाधविवर्धितम् । परं पंचपलं मासं यूषक्षररसाशनः ॥ ६ ॥ गुल्मोदराः श्वयथुप्रमेहान् श्वासप्रतिश्यालसकाविपाकान् । सकामलाशोफमनोविकारान् ari hi चैव जयेत्प्रयोगः ॥ ७ ॥ ॥ अर्थ - अदरख और गुड दोनों समान भाग लेकर आधे पल के समान प्रथम दिन सेवन करे फिर प्रतिदिन आधा पल बढाकर पांच पल तक बढादे फिर आधा २ पल घटाकर आधे पल तक उतर आवै । इस तरह एक महिने तक इस प्रयोग का सेवन करता रहै, यूत्र, क्षीर और मांसरस का पथ्य सेवन करे । इससे गुल्मरोग, उदर रोग, अर्श, सूजन, प्रमेह, श्वास, प्रतिश्याय, अलसक, अविपाक, कामला, सूजन, मनोविकार, खांसी और कफ जाते रहते हैं । शोफपर घृत ।
घृतमा कनागरस्य कल्कस्वरसाभ्यां पयसा च साधयित्वा श्वयथुक्षवथूद राग्निसादैरभिभूतोऽपि पिवन् भवत्यरोगः ॥ ८ अर्थ - अदरख के कल्क और उसी के रसके साथ पकाया हुआ घी सूजन, हिचकी, उदररोग, अग्निमांद्य, इन रोगों को दूर कर देता हैं ।
अन्य प्रयोग |
निरामो बद्धशमलः पिवेच्छ्वयथुपाडितः
अष्टfiger |
अ० १७
|
त्रिकटुत्रिवृता इंतीचित्रकैः साधितं पयः ॥ मूत्र गोर्वा महिष्या वा सक्षीरं क्षीरभोजनः सप्ताहं मासमथवा स्यादुष्टक्षीरवर्तनः ॥
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अर्थ - आमरहित और बद्धमलवाले शोष रोगी को त्रिकुटा, निसोथ, दंती, और चीता इन से सिद्ध किया हुआ दूध पीने को दे । अथवा गोमूत्र वा भेंस का मूत्र पीने को दे । दूधके साथ अन्न साथ पथ्य देवै । अथवा सात दिन तक वा एक महिने तक ऊंटनी का केवल दूध देना चाहिये ।
वा केवल दूधके
अन्य प्रयोग |
यवानकं यवक्षारं यवानीं पंचकोलकम् । मरिचं दाडिमं पाठां धान कामम्लवेतसम् वालविल्वं च कर्षाशं साधयेत्सलिलाढके । तेन पक्को घृतप्रस्थः शोफार्शोगुल्ममेहहा ॥
श्चर्थ - अजवायन, जवाखार, अजमोद, पंचमूल, कालीमिरच, अनार, पाठा, धनियां, अम्लवेत, कच्ची बेलागरी प्रत्येक एक कर्ष, घी एक प्रस्थ और जल एक आढक इनको पाकोक्त रीति से पकाकर सेवन करे तो शोफ, अर्श, गुल्म और प्रमेह नष्ट हो जाते हैं ।
अन्य प्रयोग |
दनश्चित्रकगर्भाद्वा घृतं तत्तकसंयुतम् । पक्कं सचित्रकं तद्वदुः युंज्याच्च कालवित् ॥ धान्वंतरं महातिक्तं कल्याणमभया घृतम् ।
अर्थ-चीते के चूर्ण से मिले हुए दूध को जमाकर दही करले । फिर इस दहीको मधकर जो तत्र वनाया जाय, इस तक के साथ पका हुआ भी पूर्वोक्त गुणकारक होता है दोपानुसार कुशलवैद्य धान्वन्तर घृत,
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अ०१७
चिकित्सितस्थान भाषाकासभेत।
महातिक्तक घृत, कल्याणक घृत और अभ- यूष, वा जांगल मांसरस वा कछुआ जो. याघृत का प्रयोग करै ।
| धा और सेहका मांसरस इनके साथमें देवे। अन्य प्रयोग।
और पीने के लिये आधा जल मिलाकर म. दशमूलकषायस्य कसे पथ्याशतं पचेत् ॥ थाहा मीठा तक वा यथा योग्य औषओंसे दत्त्वा गुडतुलां तास्मन् लेहे दद्याद्विचूर्णितम् | युक्त मद्य देवे। त्रिजातकं त्रिकटुकं किंचिच्च यवशूकंजम् ॥ सूजन पर पेया। प्रस्थार्धं च हिमे क्षौद्रात्तं नित्युपयोजितम् । अजाजीशठिजीवतीकारवीपौष्कराग्निकैः ॥ प्रवृद्धशोफज्वरमेहगुल्म
बिल्वमध्ययवक्षारवृक्षाम्लैंबंदरोन्मितः। कामवाताम्लकरक्तपित्तम्। वैवर्ण्यमूत्रानिलशुक्रदोष
कृता पेयाऽऽज्यतैलाभ्यां युक्तिभृष्टा श्वासारुचिप्लीहगरोदरं च ॥ १६॥ शोफातिसारहृद्रोगगुल्मार्थोऽल्पाअर्थ--दसमूल के १६ सेर काढे में१००
निमेहिनाम् । हरड पकावै । इसमें १२॥ सेर गुड मिलावै ।
गुणैस्तद्वच्च पाठायाः पंचकोलेन साधिता जब गाढा हो जाय तब त्रिजातक, त्रिकुटा,
| अर्थ-जीरा, कचूर, जीबंती, अजमोद और जवाखार डालकर मिलादे । ठंडा होने पुष्करमूल, चीता, बेलगिरीका गूदा, जबापर आधा प्रस्थ शहत मिलावै, इसके सेवन
खार, और बिजौरा इनको डालकर पकाई से सूजन, ज्वर, मेहं. गुल्म, कार्य. आ. हुई पेया युक्तिपूर्वक घी और तेलमें भन. मबात , अम्लरक्त, रक्तपित्त, विवर्णता, कर सेवन करना परम हितकारीहै । इससे मूत्रदोष, वातदोष, शुक्रदोष, श्वास,अरुचि, सूजन अतिसार, हृदय रोग, गुल्मरोग, अर्श प्लीहा, विषरोग, और उदररोग शांत हो । मंदाग्नि और प्रमेह ये सब रोग नष्ट होजाजाते हैं।
तेहैं । इसी तरहसे पाठा और पंचकोल डासूजन में पथ्य ।
लकर सिद्धिकीहुई पेया पूर्ववत् गुणकारकहै । पुराणयवशाल्यन्नं दशमूलांबुसाधितम् ।।
सूजनपर अभ्यंजनादि । अल्पमल्यं पीनेह भोजनं वयथोर्हितम् ॥ औलयकवस्थौगयरेणकागरुपद्मकैः । क्षारव्योषान्वितेमौदैः कौलत्थैः संकणै रसैः श्रीवेष्टकनखस्पृक्कदेवदारुप्रियंगुभिः ॥ २२ ॥ तथा जांगलः मंगोधाशल्यकजैरपि ॥
मांसीमागधिकावन्यधान्यध्यामकवालकैः । अनम्नं मथितं पाने मद्यान्यौषधवंति च ।
चतुर्जातकतालीसमुस्तांगंधपलांशकैः ॥ अर्थ-दशमुलके काथमें पकाये हुए थो.
कुर्यादभ्यंजनं तैलं लेप स्नानाय तूदकम् । डेसे पुराने जौ और शाली चांवल थोडा न- स्नान वा निंबवर्षाभूनक्तमालार्कवारिणा ॥ मक और घी डालकर सूजन बाले रोगीको ___ अर्थ शिलाजीत, कूठ, स्थाणेप (थूनेर) खाने के लिये देना हितहै । तथा इसी अ- रेणुक, अनार, पदमाख, सरलकाष्ट, नखी, न्नके साथ जवाखार और त्रिकुटा डालकर | स्पृक्का, देवदारू, प्रियंगु, जटामांसी, पीपल, मुंगका यूप, वा पीपल मिलाकर कुलथी का जंगली धनियां, रोहिपतृग, नेत्रवाला, चा.
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(६४२)
____अष्टांगहृदय।
तुर्जात, तालीसपत्र, मोथा, और हलदी, इन | एकांग शोफ में वातनाशक स्वेद और भद्रव्यों के साथ पकायाहुआ तेल मर्दन में, इनका | भ्यंग तथा विजौरा, अरमी, सोंठ, जटामांलेप, और इन्ही के साथ पकाया हुआ जल सी और देवदारु का लेप करें । स्मानके काममें लावै । तथा नीम के पत्ते, | पित्तज सूजन की चिकित्सा। पुनर्नवा, कंजा और आक इनको डालकर पैत्ते तिक्तं पिवेत्सापर्यग्रोधायेन वा शृतम्। औटाया हआ पानी स्नानोपयोगी होता है । क्षीरं तृडूदाहमोहेषु लेपाम्यंगाश्च शीतलाः॥
एकांग शोफ पर लेप।। __ अर्थ-पित्तज सूजन में न्यग्रोधादि गएकांगशोफे वर्षाभकरवीरककिंशकैः। णोक्त द्रव्यों के साथ पकाया हुआ घी पान विशालात्रिफलारोध्रनलिकादेवदारुभिः॥ | करे तृषा हो तो इन्हीं के साथ में पकाया हिंस्राकौशातकीमाद्रीतालपीजयतिभिः।।
| हुआ दूध पीवै, तथा ठंडे लेप और अभ्यंग स्थूलकाकादनीशालनाकुलीवृषपणिभिः॥ बृद्धिर्द्विहस्तिकर्णेश्च सुखोग्गैर्लेपनं हितम् ।।
उपयोग में लावै । अर्थ-एकांग सूजन में पुनर्नवा, कनेर,
| पित्तज सूजन पर क्याथादि ।
पटोलमूलनायंतीयष्टयाहकटुकाभयाः । किंशुक ( केस ) इन्द्रायण, त्रिफला, लोध,
दारुदाविहिम दंती विशाला निचुलं कणा नलिका, देवदारु, बालछड कडवी तारई, तैः क्वाथः सघृतः पीतोअतीस, तालपर्णी, जयंती, स्थूल काकादनी
हत्यतस्तापतृइभ्रमान् । शाल, नाकुली, वृषपर्णी, वृद्धि, लालअरंड,
ससन्निपातवीसपशोफदाहविषज्वरान् ॥
___ अर्थ पर्पल की जड, त्रायंती, मुलहटी, सफेद अरंड, इन द्रव्यों को पीसकर सुहाता
कुटकी, हरड, देवदारु, दारुहलदी, चंदन, हुआ गरम लेप करना चाहिये । यह सूजन
दंती, इन्द्रायण, जलवेल और पीपल इन के की सामान्यचिकित्सा कही गई है।
काढे में घी डाल कर पीने से अंतस्ताप,तृषा वातज सूजन की चिकित्सा अथाऽनिलोत्थे श्वयथौ मासार्ध त्रिवृतं.
भ्रम, सन्निपात, विपर्प, सूजन, दाह, विष
पिवेत् ॥ २७॥ और ज्वर जाते रहते हैं। तैलमैरंडजं वातबिविधंधे तदेव तु!
कफज सूजन पर तैल । प्राग्भक्तं पयसा युक्तं रसैर्वा कारयत्तथा ॥ आरग्वधादिना सिद्धं तैलं श्लेष्मोद्भवे पिवेत् स्वेदाभ्यंगान्समीरघ्नान् लेपमेकांगगे पुनः।। अर्थ-आरखधादिगण से सिद्ध किया मातुलुंगाग्निसंथेन शुटीहिंस्त्रामराहयैः ।२९ ।
हुआ तेल कफज सजन पर पीना चाहिये। ___ अर्थ-वातजनित सूजन में पन्द्रह दिन
अन्य उपाय । तक निसोथ का चूर्ण वा अरंड का तेल
स्रोतोविवंधे मंदेऽग्नावरुचौ स्तिमिताशयः॥ पान करे । अधोवायु और मलकी विवंधता
क्षारचूर्णासवारिष्टमूत्रतक्राणि शीलयेत् । होने पर भोजन करने से पहिले दुध वा अर्थ स्रासोविबंध, अग्निमांद्य, अरुचि मांसरस के साथ अंडी का तेल पीवे । तथा और कोष्ठ में स्तिमिता होने पर क्षार, चूर्ण
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अ० १७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
८६४३)
आसव, अरिष्ट, मुत्र और सक्र पान करने त्रिदोषज शोफ में चिकित्सा। चाहिये।
अजाजिपाठापनपंचकोलअन्य प्रले आदि।
व्याधीरजन्यः सुखतोयपीताः । कृष्णापुराणपिण्याकशिग्रुत्वसिकतातसीः
शोफ त्रिदोष चिरज प्रवृद्धं
निध्नंति भूनिवमहौषधैश्च ।। ३८॥ प्रलेपोन्मर्दने युंज्यात्सुखोष्णाताः ।
अर्थ-कालाजीरा, पाठा, मोथा, पंचमूत्रकालिकताः। अर्थ-पीपल, पुरानी खल, सहजने की।
कोल, कटेरी, और हलदी इन सब द्रव्यों छाल, बालू और अलसी इन सबको गोमूत्र का चूण गुनगुन जलक साथ पान सं त्रिमें पीसकर और थोडा गरम करके लेप करे । दोषज सूजन जो बहुत दिनकी उत्पन्न और इसी से मर्दन करे ।
हुई हो और बढ़ गई हो, नाती रहती है । सूजन पर स्नान विधि ।
चिरायता और सोंठ का चूर्ण पीने से भी स्नान मूत्रांमसी सिद्धे कुष्टतर्कारिचित्रकैः। उक्त मूजन जाती रहती है।.. कुलत्थनागराभ्यां वा चंडागुरुविलेपने ।
अन्य प्रयोग। __ अर्थ-कूठ, तोरी और चीता इनसे अमृताद्वितयं सिवाटिका अथवा कुलथी और सोंठ डालकर सिद्ध
सुरकाष्ठं सुपुरं सगोजलम् ।
श्वयथूदरकुष्ठपांडुता किये हुए जल और गोमूत्र से स्नान करना
कृमिमेहोर्यकफानिलापहम् ।। ३९ ।। तथा शंखपुष्पी और अगर का लेप करना
अर्थ-गिलोय, हरड, शिवाटिका, देवहित है।
1. दारु और गूगल इनको गोमूत्र के साथ पीने एकांग शोफ में ऐप।
से सूजन, उदररोग, कोढ, पांडुरोग, क्रमि कालाजशृंगीसरलवस्तगंधाहयावयाः॥ ३६ रोग, प्रमेह, ऊर्ध्व कफ और ऊर्ध्व वात जाते एकैषिकाच लेपः स्याच्छ्वयथावकगात्रजे।
रहते हैं। . अर्थ-नीलनी, मेंढासिंगी, सरलकाष्ठ, अजगंध, असगंध, और निसोथ इनका लेप
क्षतोत्थ शोफ में कर्तव्य ।
इति निजमाधिकृत्य पथ्यमुक्तं करने से एकागज सूजन जाती रहती है ।
क्षतजनिते क्षतजं विशोधनीयम् । दोषानुसार शुद्धि।
स्रतिहिमघृतलेपसेकरेकैयथादोषं यथासनं शुद्धिं रक्तावसेचनम्।। विषजनिते विषजिञ्च शोफ इष्टम् ॥ कुर्वीत मिश्रदोषे तु दोषोद्रेकबलाक्रियाम् ॥ अर्थ-पूर्वोक्त रीति से वातादि दोषों के
अर्थ-दोषके अनुसार पासवाले स्थान अनुसार निज शोफका वर्णन किया गयाहै की शुद्धि और रक्तमोक्षण करना चाहिये । क्षतज सूजन में रक्तस्राव, शीतल घृत,
और जो मिश्र दोष हों तो जो दोष अधिक शीतल लेप, शीतल परिषेक, और विरेच. ' हो उसके अनुसार चिकित्सा करनी चाहिये। नादि शोधन क्रिया करना चाहिये । वित्र
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( १४४ )
से उत्पन्न हुई सूजन में विषनाशिनी क्रिया करनी चाहिये |
शोफ में वर्जित मांसादि । ग्राम्यानूपं पिशितमबलं शुष्कशाकं
गौड पिष्टं दधि सलवणं विज्जलं
धानावल्लूरमशनमथो गुर्वसात्म्यं
विदाहि
स्वप्नं रात्रौ श्वयथुगदावान्वर्जयेन्मैथुनं च ॥ अर्थ- ग्राम्य और आनूप मांस, निर्बल पशु का मांस, सूखा शाक, तिल, गुड के पदार्थ, पिष्टान्न, दही, नमक, जल रहित मद्य, ग्लटाई, भुना हुआ अन्न, सूखा मांस, पथ्य और अपथ्य एक साथ खाना, भारी असात्म्य और विदाही अन्न का सेवन, रात में सौना और मैथुन ये सब सूजन वाले रोगी . को वर्जित हैं । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने श्वयथचिकित्सितं नाम सप्तदशोऽध्यायः ।
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अष्टादशोऽध्यायः ।
LEXSIEN
अष्टांगहृदय |
तिलान्नम्
मद्यमम्लम् ।
अथातो विसर्पचिकित्सितं व्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहां से विसर्प चिकितिसत नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । विसर्प में लंघनादि ।
आदावे विसर्पेषु हितं लंघन रूक्षणम् । रक्तrathi ani विरेकः स्नेहनं न तु
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अ १८
अर्थ-विसर्प रोग में प्रथम ही लंघन,
रूक्षण, रक्तमोक्षण, वमन, विरेचन और स्नेहन हित हैं ।
विसर्प में वमनादि ।
प्रच्छर्दनं विसर्पध्नं सयष्टीद्रयवं फलम् । पटोलपिप्पलीनिंब पल्लवैर्वा समन्वितम् ॥
अर्थ- मुलहटी और इन्द्रजौ से युक्त मेनफल, अथवा पर्वल, पीपल, नीम के पत्ते इनसे युक्त मैनफल इनके द्वारा वमन कराने
से विसर्प रोग शांत होजाता है । विसर्प में विरेचनादि ।
रसेन युक्तं त्रायत्या द्राक्षायास्त्रैफलेन वा । विरेचनं त्रिवृच्चूर्ण पयसा सर्पिषाऽथवा ॥ योज्यं कोष्ठगते दोषे विशेषेण विशोधनम् ।
अर्थ - त्रायमाण के रस से, दाख के रस से वा त्रिफला के रससे निसोथ का चूर्ण अथवा दूध वा घी के साथ निसोथ का चूर्ण देने से दस्तों द्वारा विसर्प शान्त होजाता है । जो दोष कोष्ठ में पहुंचगया हो तो विशेषरूपसे शोधन देना चाहिये ।
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अल्पदोष में शमन विधि | अविशोध्यस्य दोषेऽल्पे शमनं चंदनोत्पलम् मस्तुनिंबपटालं वा पटोलादिकमेव वा । सारिवामलकोशीरमुस्तं वा कथितं जले ॥
अर्थ- जो अल्पदोष वाला विसर्परोगी शोधनक्रिया के योग्य न हो तो चन्दन और कमल, अथवा मोथा, नीम और पर्वल, अथवा पटोलादि गण अथवा सारिवा, आमला खस और मोथा ये सब क्वाथ शमन के लिये देने चाहिये ।
दुरालभादि पान दुरालभां पर्पटकं गुडूचीं विश्वमेषजम् । पाक्यं शीतकषायं वा तृष्णावीसर्पवान्
पिवेत् ॥ ६ ॥
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'अ०१८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ-दुरालभा, पित्तपापडा, गिलोय | अर्थ-रक्तमोक्षण से भीतर के दोषों के और सोंठ इन सब द्रव्यों का काढा वा शीत | बिशुद्ध होनेपर त्वचा, मांस और संधियों में कषाय पीने से तृषा और विसर्प शांत हो । प्रलेपादि बाहर की क्रिया करनेसे विसर्प का जाते हैं।
शमन होजाता है। दाादि सेवन ।
वातबिसर्प में चिकित्सा । दा/पटोलकटुकामसूरत्रिफलास्तथा।
शताहमुस्तबाराहीवंशार्तगलधान्यकम् । सनिवयष्टीत्रायंतीः कथिता घृतमूर्छिताः ॥
सुराधा कृष्णगंधा च कुष्टं वा लेपनं चले। - अर्थ-दारुहलदी, पर्वल, कुटकी, मसूर
___ अर्थ-वातज विसर्प में सौंफ, मोथा, बा. त्रिफला, नीमकी छाल मुलहटी, और त्रायती राहीकंद, वंशाकुर, नीलसहचर, धनियां, इन सब द्रव्यों का काढा घृत मिलाकर | देवदारू, सहजना, और कूठ का लेप करना सेवन करने से विसर्प रोग दूर होजाता है।
चाहिये । विसर्प में रक्तमोक्षण।
पैत्तिक विसर्प की चिकित्सा शाखादुष्टे तु रुधिरे रक्तमेवादितो हरेत्।।
| न्यग्रोधादिगणःपित्ते तथा पद्मोत्पलादिकम् । त्वङ्मांसस्रायुसंक्लेदो रक्तक्लेदाद्धि जायते ॥
म अर्थ-पैत्तिकविसर्पमें न्यग्रोधादिगण तथा अर्थ-हाथ वा पांव का रक्त दूषित होने
पद्म और उत्पलादि शीतवीर्य द्रव्यों का लेप पर पहिले फस्द खोलना चाहिये क्योंकि रक्त | हितहै । पद्मोत्पलादि यथा-पद्मोत्पल शैके क्लेद से ही त्वचा, मांस और स्नायु में | वालपंकदूर्वामृणालशृंगाटकसेरुकशराहीबेर केद होता है।
चन्दनमुक्तामणिगौरिकपयस्याप्रपौंडरीक मधु घृत सेवन ।
| कपनकघृतक्षीराणीति ।
___अन्य लेप । निरामे श्लेष्मणि क्षीणे वातपित्तोत्तरे हितम् ।
न्यग्रोधपादास्तरुणाः कदलीगर्भसंयुताः ॥ घृतं तिक्तं महातिक्तं शृतं वा त्रायमाणया ॥
बिसग्रंथिश्च लेपः स्याच्छतधौतघृताप्लुतः __ अर्थ-पहिले यह कहचुके हैं कि विसर्प
पद्मिनीकर्दमः शीतःपिष्टं मौक्तिकमेव बा ॥ रोगी को स्नेहन न देना चाहिये, परंतु उक्त
शंखः प्रवालं शुक्तिर्वा गैरिकं वा घृतान्धिवाक्य के विपरीत अवस्था विशेष में प्रयोग किया जाता है । इसलिये विसर्प रोगी यदि | अर्थ-बडकी डाढी, नये केले का भी
आमरहित हो, कफ क्षीण होगया हो और तरका भाग और कमलनाल इनको पीसकर वातपित्त की अधिकता हो तो तिक्तकवृत | सौ बार धुले हुए घी में सानकर लेप करने महातिक्तक घृत वा त्रायंतीघृत देना चाहिये से विसर्प में हितहै । कमल की ठंडी कीविसर्प पर लेपादि ।
चड, जल में पिसा हुआ मोती, शंख, मूंगा, निर्दृतेऽने विशुद्धेऽतर्दोषे त्वङ्मांससंधिगे। सीपी वा गेरू इनको घीमें सानकर लगाना वहिः कियाःप्रदेहाद्याः सद्यो वीसर्पशांतथे । भी हितहै। ..
तम्।
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(६४६ ]
अष्टांगहृदय ।
'मा १८
कफविसर्प पर लेप । | अत्यर्थशीतास्तनबस्तनुवस्त्रांतरास्थिताः ॥ त्रिफलापनकोशीरसमंगाकरवीरकम् ॥
योज्याःक्षणेक्षणेऽन्येऽन्ये मंदवीर्यास्तएबच नलमूलान्यनंता चलेपःश्लेष्मबिसर्पहा ।
। अर्थ--विसर्परोगहें आमयुक्त वायु यदि - अर्थ-त्रिफला, पद्माख, खस, मजीठ, कफके स्थानमें वा पित्तके स्थान में गत हो कनेर, नरसल की जड, और अनन्तमूल तो कुछ गरम और कुछ रूखे लेपोंमें घी इनका लेप करनेसे कफजविसर्प नष्ट हो मिलाकर काम में लाना चाहिये । इसीतरह जाताह ।
यदि रक्तपित्त पित्तस्थान में गया हो तो अन्य लेप. ।
अत्यन्त शीतल और पतला लेप पीडित स्थाधवसप्ताहखदिरदेवदारुरंटकम् ॥ १५ ॥
नपर एक बहुत पतला कपडा विछाकर भर समुस्तारग्वधं लेपोवो वा वरुणादिकः।
बार करना चाहिये । परन्तु यह लेप हरबार आरग्वधस्य पत्राणि त्वचः श्लेष्मांतकोद्भवाः
नया होना चाहिये क्योंकि पहिला किया इंद्राणीशाकं काकाहाशिरीषकुसुमानि च । ___अर्थ--धायके फूल, सातला, खैर, देव.
हुआ मन्दवीर्य होजाता है। दारू कुरंटक, नागर मोथा और अमलतास । संसृसृ दोष में कर्तव्य । इन द्रव्यों का लेप अथवा वरुणादिगणोक्त
संसृष्टदोषे संसृष्टमेतत्कर्म प्रशस्यते ॥ २० द्रव्योंका लेप अथवा अमलतास के पत्ते,
अर्थ-मिले हुए दो दो दोष वा तीनों लिहसौडे की छाल, इन्द्रायण, शाकबृक्ष,
दोषवाले विसर्प में तीनों वा दो दो दोषोंकी मकोय और सिरस के फूल इनका लेप हितहै।
मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये । उक्तद्रव्यों द्वारा सेकादि ।
अग्नि विसर्प की चिकित्सा । सेकवणाभ्यंगहविलेपचूर्णान् यथायथम ॥
शतधौतघृतेनाऽग्निं प्रदिह्यात्केवलेन वा। एतैरेवौवधैः कुर्याद्वायौ लेपा घृताधिकाः ॥
सेचयेद्धृतमंडेन शीतेन मधुकांबुना ॥
शीतांभसांभोजजलैः क्षीरेणेक्षुरसेन वा। अर्थ--ऊपर जिन जिन द्रव्यों का लेप
पानलेपनसेकेषु महातिक्तं परं हितम् ॥ . कहा गयाहै उन्हीं औषधियों द्वारा सिद्ध
___ अर्थ--अग्निविसर्प में सौ बार धुलाहुआ जलसे परिषेक, उन्हीं द्रव्यों द्वारा सिद्ध घृत | घी, वा केवल घृतमंड अथवा मुलहटी का का घाव पर मर्दन, तथा वातविसर्पोक्त । शीतल काथ, कमल का जल, दूध द्रव्यों में अधिक घी मिलाकर लेप करना । वा ईख का रस, इनका परिषेक करे । और ये सब हितहैं । तथा पित्तज और कफज | महातिक्तक घृतको पान लेपन और परिषेक विसर्प में जो जो लेप कहे गये हैं वे भी | में काम में लाये । धी में मिलाकर लगाने चाहिये ।
ग्रंथि विसर्प की चिकित्सा। . ... सामवायुमें लेप। .. ग्रंथ्याख्ये रक्तपित्तघ्नं कृत्वाकफस्थानगते सामे पित्तस्थानगतेऽथवा ॥
- सम्यग्यथोदितम् । आशीतोष्णा हिता लक्षारक्तपित्ते घृतान्विताः कफानिलघ्नं कर्मेष्ट पिंडस्वेदोपनाहनम् ॥
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में०१४
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६४७)
करें।
अर्थ-ग्रंथिविसर्प में प्रथमही रक्तपित्त को | सक्षावारुणामर्मातुलुंगरंसान्वितैः। नाश करनेवाली क्रिया करके पीछे वात
त्रिफलायाः प्रयोगैश्च पिपल्यरेझौद्रसंयुते
देवदारुगुडूच्योश्च प्रयोगैर्गिरिजस्य च । कफनाशक कर्म, पिंडस्वेद और उपनाह
मुस्तभल्लातसक्तूनां प्रयोगैर्माक्षिकस्य च ॥
धूमैर्विरेकैः शिरसः पूर्वोक्तैर्गुल्मभेदनैः। अंथि विसर्प में परिषेक। तत्तायोहेमलवणपाषाणादिप्रपीडनैः॥३१॥ ग्रंथिवीसर्पशूले तु तैलेनोष्णोन सेचयेत्।। अर्थ-मूली का यूष, कुलथी का यूप, दशमूलविपक्केन तद्वन्मूत्रैर्जलेनवा ॥ २४ ॥
जवाखार और अनार रस से युक्त गेंहूं और · अर्थ-प्रथि विसर्पयुक्त शुल में दशमूल
जौ का अन्न, सीध मधु, शर्कग, शहत और के काढे में तेल वा गोमूत्र पकाकर अथवा बिजौरे के रससे युक्त वारुणीमंड, मधुसंयुक्त केवल दशमूल के काढे का परिषेक करे। त्रिफला और मधुसंयुक्त पीपल के प्रयोग से अन्य प्रलेपादि।
देवदारु और गिलोय के प्रयोग से, गेरू, सुखोष्णया प्रदिह्याद्वा पिष्टया कृष्णगंधया।
| मोथा, मिल,बा, सत्तू और शहत के प्रयोगों नकमालत्वचा शुष्कमूलकै कालिनाऽथवा ... अर्थ-कृष्णगंधा, वा कंजा की छाल,
से, धूमप्रयोग से, शिगविरेचन से, गुल्म वा सखी मूली वा वहेडा इनको जलमें पीस
को भेदन करनेवाले पूर्वोक्त प्रयोगों से, कर गुनगुनी करके लेप करे ।
गरम लोहा, सुवर्ण, नमक पत्थर आदि के दत्यादि लेप।
प्रयोगों से बहुत पुरानी ग्रंथि भेदित हो दंती चित्रकम्लत्वकसौधापयसी गुडः। | जाती है । भल्लातकास्थि कालीसंलेपोभिंद्याच्छिलामणि ग्रंथि के शांत न होने में दाह । बहिर्माश्रितं ग्रंथि किं पुनः कफसंभवम्। आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिर्विविधाभिवले दीर्घकालस्थितं ग्रंथिमेभिर्भिद्याच्च भेषजैः॥.
स्थितः। अर्थ-दंती और चीते की जड की ग्रंथिः पाषाणकठिनो यदि नैवोपशाम्यति॥ छाल सेहुड का दूध, आक का दूध, अयास्य दाहःक्षारेण शरैहम्नाऽपि वा हितः गुड, भिलावे की गुठली, और हीरा.
पाकिभिः पाचयित्वा तु पाटयित्वासमुद्धरेत् कसीस इनका लेप शिला को भी तोड देता
अर्थ-ऊपर लिखे हुए अनक प्रकार के है । फिर उस ग्रंथि का क्या कहना है जो
सिद्ध प्रयोगों के करने पर भी यदि अत्यन्त कफ से उत्पन्न होकर बाहर को निकली
| बढी हुई और पत्थर के समान कठोर ग्रंथि हुई है । इन औषधों से बहुत काल की
प्रशमित न हो, तो क्षार के प्रयोग से अथवा ग्रंथि भी नष्ट होजाती है।
अत्यन्त गरम किये हुए शर वा सुवर्ण द्वारा .. ग्रंथि के भेदन का उपाय।
दग्ध करना चाहिये । और पकानेवाले मूलकानां कुलत्थानां यूपैः समारदाडिमः। द्रव्या द्वारा पकाकर इसको अस्त्रद्वारा निगोधूमान्नैर्यवानैश्च ससीधुमधुशर्करैः २८. / काल देना चाहिये ।
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(६४८)
.
अष्टांगहृदय।.
प्र. १९
अंथि में रक्त मोक्षण । | होता है और रक्त ही इसका आश्रय है, मोक्षयेद्वहुशश्चाऽस्य रक्तमुत्लशमागतम्। इसलिये इस रोग में बार बार फस्द खोलने पुनश्चाप कृते रक्ते वातश्लेष्मजिदौषधम् ॥ | की आवश्यक्ता है। ..
अर्थ-ग्रंथि विसर्प वाले रोगी का रक्त विसर्प में घतका निषेध । यदि उक्लिष्ट अर्थात् विकार करने को उन्मुख | न पतं बहुदोषाय देयं यन्न बिरेचनम् । होगया हो तो उसको बार वार निकालेदना तेन दोषो हुपस्तब्धस्त्वप्रक्तपिशितंपचेत्" चाहिये, रक्त के निकाल देने के पीछे वात- ___ अर्थ-वहुत दोषों से युक्त विसर्प में कफनाशक औषधों का प्रयोग करना | वह घृत नहीं देना चाहिये जो विरेचन करने हित है।
वाला न हो, क्योंकि उस घृत से उपस्त- ब्रण के समान चिकित्सा । | भित हुआ दोष त्वचा, रक्त और मांस प्रक्लिन्ने दाहपाकाभ्यां बाह्यांतवणवक्रिया।
को पका देता है । विसर्प में पित्त ही की दारूविडंगकंपिल्लैः सिद्धं तैलं व्रणे हितम् दूस्विरससिद्धं तु कफपित्तोत्तरे घृतम् ,
चिीकत्सा करना !धान है और पित्त की अर्थ-शाह और पाक द्वारा विसर्प के चिकित्सा में विरेचन प्रधान है, इसलिये प्रक्लिन्न होने पर भीतर वा बाहर के घाव विसर्प में वैरेचनिक घृतका प्रयोग ही करना के सदृश चिकित्सा करनी चाहिये । वात
| चाहिये। प्रधान विसर्प के घाव में दारुहलदी, बाय- इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा विडंग और कबीला इनसे सिद्ध किया हुआ ___टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने तेल हित होता है । तथा पित्तप्रधान और विसर्पचिकित्सितं नामाकफप्रधान व्रणों में दूर्वा के रसके साथ ष्टमोऽध्यायः ॥१८॥ सिद्ध किया हुआ घत उपयोग में लावै । रक्तहरण में हेतु ।
एकोनविंशोऽध्यायः। एकतःसर्वकर्मागिरक्तमोक्षणमेकतः॥३६॥ विसर्पो नह्य संसृष्टः सोऽस्रापेत्तेन जायते । रक्त मेवाश्रयश्चास्य बहुशोऽस्र हरेदतः६७
अथाऽतः कुष्ठचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥ अर्थ-विसर्प रोग में एक और संपूर्ण अर्थ-अब हम यहां से कुष्ठांचकित्सत चिकित्सा है और दूसरी ओर रक्तमोक्षण
नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । है अर्थात् जो फलप्सिद्वि संपूर्ण चिकित्साओं
कुष्ठ में स्नेहपान । से नहीं हो सकती है वह केवल एक रक्त कुष्टिनं स्नेहपानेन पूर्व सर्वम्पाचरेत् । मोक्षण से होसकती है । इसका कारण यह | अर्थ-कुष्टरोग में त्वचा, रक्त और मांहै कि विसर्परो रक्त पितके संसर्ग से र. सादि दपित हो जाते हैं इसलिये इस रोग हित नहीं है, यह रक्तपित्त से ही उत्पन्न । में देहका कुश हो जाना अवश्य होता है।
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२०१९
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६४९]
अतएव कुष्टरोगी की चिकित्सा करने से दुष्ट नाडत्रिण, अपची, विस्फोटक,विद्रधि, पहिले उसके शरीर को आप्यायन करने के गुल्म, शोफ, उन्माद, मदरोग, हृद्रोग, निमित्त स्नेहपान कराना चाहिये । तिमिर, व्यंग, ग्रहणी, चित्र, कामला, . वातोत्तर कुष्ठ में तैलादि। भगंदर, अपस्मार,उदररोग, प्रदर, गरदोष, तत्र पातोत्तरे तैलं पतं वासाधितं हितम॥ अर्शरोग, रक्तपित्त तथा अन्य अन्य पित्त दशमूलामृतरंडशाझ्यष्ठामेषगिभिः। से उत्पन्न होनेवाले कष्टसाध्यरोग शांत हो __ अर्य-वातप्रधान कुष्ठरोग में दसमूल, जाते हैं। गिलोय, अरंड, महाकरंज और मेढासिंगी महातिक्तक घृत । इनसे सिद्ध किया हुआ तेल वा घी काम में सप्तच्छदः पर्पटक शम्याकः कटुका पचा। लाये।
त्रिफला-पद्मकं पाठा रजन्यौ सारिवे कणे॥
निंबचंदनयष्टयाहविशालेद्रयबामृताः। पित्तकोढ का उपाय । किराततिक्तकं सेव्यं वृषो मृर्वा शतावरी ॥ पटोलानबकटुकादाबींपाटादुरालभाः॥२॥ पटोलातिविषामुस्तात्रायतीधन्वयासकम् । पर्पटें त्रायमाणां च पलांशं पाचयेदपाम् । तैर्जळेऽष्टगुणे सपिर्द्विगुणामलकीरसे १०॥
याढकेऽष्टांशशेषेण तेन कन्मितैस्तथा ॥ सिद्धं तिक्तान्महातिक्तं गुणैरभ्यधिकं मतम् बायतीमुस्तभूनियकलिंगकणचंदनैः! अर्थ- सातला, पित्तपापडा, अमलतास, सपिषो द्वादशपलं पंचेत्तत्तिक्तकं जयेत् ॥
जयत् ॥ कुटकी, बच, त्रिफला, पदमाख, पाठा, वित्तकुठपरीसर्पपिटिकादाहतृडूभ्रमान् । कडपांडूबामयान् गंडान् दुष्टनाडीव्रणापचीः ।
यी हलदी, दारुहलदी, सारिवा, रक्तसारिवा, विस्कोटबिद्रधीगुल्मशोफोन्मादमदानपि ।
छोटी पीपल, बडी पीपल, नीम की छाल, हृद्रोगतिमिरव्यंगग्रहणीश्चित्रकामलाः ॥६॥ रक्तचंदन, मुलहटी, इन्द्रायण, इन्द्रजौ, भगंदरमपस्मारमुदर प्रदरं गरम। गिलोय, चिरायता, खस, अडूसा, मूर्वा, अर्थोऽस्रपित्तमन्यांच
सितावर, पर्वल, मोथा, त्रायमाणा, दुरालभा, सुकच्छार पित्तजान् गदान् ॥ ७॥
इनको समानभाग लेकर अठगुने पानी और ___ अर्थ-पर्वल, नीम, कुटकी, दारुहलदी,
दूने आमले के रस में यथोक्तरीति से घृत पाठा, दुरालभा, पर्पटी, त्रायमाणां, प्रत्येक
को पकाकर सेवन करे । यह महातितक एक एक पल लेकर दो आढक जल में काढ। करै, अष्टमांश शेष रहने पर उतार
घृत उक्तघृत से अधिक गुणकारक है।
। कफप्रधान कुष्ठ की चिकित्सा। कर हानले, फिर इसमें त्रायंती, मोथा, कफोत्तरे पतं सिद्धं निबसप्ताहचित्रकैः१२॥ चिरायता, इन्द्रजी, पीपल, और चंदन कुष्ठोषणवचाशालप्रियालचतुरंगुलै। . प्रत्येक एक कर्ष पीसकर डालदे और बारह | अर्थ-कफप्रधान कुष्ठ में नामकी छाल,सातला पल घी डालवार पकावै । इस घृत के चीता,कूठ,कालीमिरच,बच,साल,पियाल और सेवन करने से पैत्तिक कुष्ठ, विसर्प,पिटिका, अमलतास इन सब द्रव्यों के कल्क के साथ दाह, तृषा, भ्रम, कंडू, पांडुरोग, गंड, पकाया हुआ घी सेवन करना चाहिये।
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(६५०
अष्टमहदय ।
अ०१९
. सर्वकुष्ठ चिकित्सा। प्रभंजनस्तथा वस्य न स्थाईहप्रभंजनः । सर्वेषु चारुकरजं तौबरं सार्षपं पिवेत् १२ / - अर्थ-फस्द खोलना और विरेचन देना मेहं घृतंबा कृमिजित्पथ्याभल्लातकैः शृतं इनके बीच बीच में कुष्ठनाशक स्नेहों से
अर्थ-सब प्रकार के कुष्टरोगों में मिलावे रोगी को आप्यायित करता रहै । ऐसा कर का तेल, तूर का तेल, सरसों का तेल, ने पर रुधिर के निकलने और विरेचन से. अथवा बायबिडंड, हरड और मिलावे का ? कोष्ठ के खाली होने पर वायु देह को विदीर्ण पकाया हुआ तेल हितकारी है । नहीं कर सकती है। अन्य चिकित्सा।
वजूकधृत । आधस्य मूलेन शतकृत्यः शृतं घृतम् ॥
वासामृतानिवघरापटोल
व्याघ्रीकरजोदककल्कपक्कम् ॥ 'पिवेत्कुष्ठं जयत्याशु भजन सखदिरं जलम् |
सर्पिर्विसर्पज्वरकामलास्त्रअर्थ-अमलतास की जड से सवार
मुष्ठापहं वनमामनंति ॥ १८ ॥ पकाया हुआ घी और खैर का जल पीनेसे
अर्थ अडूसा, गिलोय, नीमकी छाल, कुष्ठरोग जाता रहता है ।
| त्रिफला, पर्वल, कटेरी और कंजा इनके कुण्ठ पर अभ्यंजन ।
काढे और कल्क से पकाया हुआ घी वि. 'एभिरेव यथास्वं च स्नेहैरभ्यजनं हितम् ॥ सर्प, ज्वर, कामटा और स्निग्धकारक तथा.
अर्थ-दोषों के अनुसार पूर्वोक्त घृतद्वारा कुष्ठ को दूर करता है, इसका नाम वजूक अभ्यंजन करना भी हित है।
घृत है। कुष्ठ में शोधनादि।
महावजूक घृत । स्निग्धस्य शोधनं योज्यं विसर्प यदुदाहृतम् त्रिफलात्रिकटुद्धिकंटकारी
अर्थ-जब स्नेह सेवन से रोगी स्निग्ध कटुकाकुंभनिकुंभराजवृक्षैः। 'झेजाय तब विसर्प में कहे हुए योगों से
सवचातिविषाग्निकै सपाटैः
पिचुभागैर्नववज्रदुग्धमुष्टया । १९ ।। विरेचन देना चाहिये।
पिटैसिद्धं सर्पिषः प्रस्थमेभिः . कुष्ठ में शिरावेधन ।
क्रूरे कोष्ठे स्नेहनं रेचनं च। ललाटहस्तपादेषु शिराश्चास्य विमोक्षयेत् कुष्ठश्वित्रप्लीहवाश्मगुल्मान् प्रच्छानमल्पके कुष्ठेशंगाद्याश्चयथायथम् । हन्यात्कृच्छ्रस्तिन्महायजकारयम् २० : अर्थ-रोगी के बल के अनुसार रोगी अर्थ- त्रिफला,त्रिकुटा, बडी कटेरी,छोटी के मस्तक, हाथ वा पांव में फस्द खोले । | कटेरी,कुटकी, निसोथ,दंती,अमलतास,बच, कुष्ठ थोडा होने पर पछना, सींगी आदि से
अतीस, चीता और पाठा प्रत्येक एक तोला थोडा थोडा रक्त निकाले ।
नये थूहर का दूध चार तोला इन सबको कुष्ठ में प्राप्यायन ।
पीसकर चौगुना जल मिलाकर एक प्राथ स्नेहराप्याययेश्चैनं कुष्टध्नेरंतरांतरा ॥ की पकावै । यह घृत क्रूर कोष्ठ में स्नेहन मुक्तरतावरिक्तस्य रिक्तकोष्ठस्य कुष्टिनः ॥ और विरेचन करता है तथा कुष्ठ, चित्र
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म. १२
चिकित्सितस्थान भाषामकासमेत ।
प्लीहा, वर्भ, अश्मरी, गुल्म तथा अन्य | मधु और बोल के साथ सेवन करता है, कष्टसाध्य रोग दूर होजाते हैं । इसका नाम | अथवा समान भाग घृत के साथ अथवा 'महावजूक घृत है।
खैर और अशनके काढे के साथ सेहन वैरेचनिक घृत ॥ करता है तो उसका कोढजाता रहता है दत्याढ क्रमांद्रो पक्त्वातेनवृतपचेत्
कोमें पथ्य। धामार्गवपले पीतं तदूर्वाधो विशुद्धिकृत अर्थ- दंती एक आढक को एक द्रोण
| शालयो यवगोधूमाः कोरदूषाः प्रियंगमः।
मुद्रा मसूरास्तुवरीतिक्तशाकानि जांगलम् । जल में औटावै चौथाई शेष रहने पर उतार |
वरापटोलखदिरनिंबारुष्कर?जितम्। कर छानले । फिर इसमें चार तोले कडवी | मद्यान्यौपथगर्भाणि मथितं चेक्षुराजिमत् ॥ तोरई डालकर एक प्रस्थ घी को पकांव। अन्नपान हितं कुष्ठे न त्वम्ललबणोषणम् । इस घी के सेवन से यमन और विरेचन | दधिदुग्धगुड़ानूपातिलमाषांस्त्यजेत्सराम् । द्वारा शुद्धि होजाती है।
____ अर्थ-शाली चांगल, जौ, गेहूं, कोदों, - अन्य उपाय।
प्रियंगु, मूंग, मसूर, अरहर, तिक्तशाक आवर्तकीला होणे पचेष्टांशशेषितम् ।। और जांगलमांस इस सव द्रव्योंको त्रिफला, तन्मृलैस्तत्र नि! हे घृतप्रस्थं विधाचयेत् । पर्वल, खैर, नीमकी छाल और भिलाषा
पीत्वा तदेकादिवसांतरितं सुजीर्णे | इनसे योजित करके, तथा मद्यको यथायोभुंजीत कोद्रसुसंस्कृतकांजिकेन । कुष्ठं किलासमपची च विजेतुमिच्छन् ।
..| ग्य औषधियों से संयुक्त करके, तथा जल इच्छन्प्रज्ञां घ विपुलां ग्रहण स्थति च रहित मथाहुआ घोल नामक तक्रमें बाकुची
अर्ध--एक द्रोण जल में एक तुला दंती | मिलाकर सेवन करै तौ कुष्ठ में हित हैं। को पकाव, अष्टमांश शेष रहने पर उतार | और खट ई, नमक, मिरच, दही, दूध, कर छान ले । पर इस काढ़े में दंती की। गुड, आनूपमांस, तिल और उरद ये सब जड का कल्क मिलाकर एक प्रस्थ घी पकावै कुष्ठरोग में त्याज्य हैं। 'इस घी को एक एक दिनका अंतर देकर
अन्य औषध । सेवन करे । जब घी पचजाय तब कांजी
पटोलमूलत्रिफलाविशाला के साथ कोदों धान्य का सेवन करे । इस
पृथत्रिभागापचितत्रिशाणाः।
स्युस्त्रायमाणा कटुरोहिणीच से कुष्ठ, किलास, और अपची जाते रहतेहैं भागाधिके नागरपादयुक्ते ॥ २८॥ तथा इससे विपुल संतान और ग्रहणशक्ति एतत्पलं जरितं विपक और स्मरणशक्ति बढती हैं।
जले पिहोगविशोधनाय । अन्य उपाय
जीर्णे रसैर्धन्बगद्विजानां यतेलेलीतकवसा क्षौद्रजातीरसान्विता।।
पुरागशाल्योदनमावीत ॥ २९ ॥ कुष्ठघ्नी समसर्पिा सगायत्र्यसनोदका ॥
कुष्ट किलासं ग्रहणीप्रमाण. अर्थ-ब्रह्मचर्य वृत धारण करके जो
मशीलि कृतानि हलीमकंच ।
षडानियागेने निहातचेतदू लेलीतकवसा ( कालानमक और तेल) को I,
हद्वस्तिशूलं विषमज्वरं च ॥ ३० ॥
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(६५२)
अष्टांगहृदय ।
अ.१९
अर्थ-पर्वल की जड़ त्रिफला और इन्द्रा.
अन्य प्रयोग। पण प्रत्येक सोलह धानक, प्रायमाणा और | भूनियनिवत्रिफलापद्मकातिविषाकणाः । कटु रोहिणी प्रत्येक छः धानक, सोंठ चार मूर्बा पटोली द्विनिशा पाटातिक्तंद्रयारुणी॥ धानक, ये सब मिलाकर एक पल हुए,
सकलिंगवचास्तुल्या द्विगुणाश्च यथोत्तरम् इनको कूटकर जल में पकाये । इस काढे
लिह्याइती त्रिवृद्धामोश्चूर्णिता मधुसर्पिषा
कुष्ठमेहप्रसुप्तीनां परमं स्योत्तदोषधम् । को दोषों की शुद्धि के निमित्त पावै । इस ___ अर्थ-चिरायता, नीमकी छाल, त्रिफला औषध के पच जाने पर जांगल पशुपक्षियों पदमाख, अतीस, पीपल, मूर्वा, पर्वल, का मांसरस, मिलाकर पुराने शाली चावलों
हलदी, दारू हलदी, पाठा, कुटकी, इन्द्रा का
भात खानेको दे । इस ओषध का छ: । यण, इन्द्रजौ, और वच प्रत्येक समानभाग दिन तक सेवन करने से कुष्ठरोग, किलास तथा दंती, निसोथ और ब्राह्मी उत्तरोत्तर दूनी प्रहणीदोष, कष्टसाध्य अर्श, हलीमक, हृद- लेवै । इन सब का चूर्ण बनाकर घी और शूल, वस्ति शूल और विषमज्वर जाते शहद के संग चाटै, यह कुष्ठ, प्रमेह और रहते हैं!
प्रसुप्ति ( शून्यता ) इन रोगों की परम जितेन्द्रियों की कोढ का उपाय ।। औषध है। बिडंगसारामलकाभयानां
कुष्ठ पर त्रिफलादि लेह । पलत्रयं त्रीणि पलानि कुंभात् । | बराविडंगकृष्णा वा लिह्यातैलाज्यमाक्षिक गुणस्य च द्वादशमासमेष
___ अर्थ-त्रिफला, बायबिडंग, पीपल, इन जितात्मनां हत्युपयुज्यमानः ॥ ३१ ॥
के चूर्ण का तेल, घी और शहत मिलाकर कुष्टं श्वित्रं श्वासकासोदरार्थीमेहलीग्रंथ्यरुग्जंतुल्मान् ।
सेवन करने से कुष्ठरोग जाता रहता है। सिद्धं योग प्राह यक्षो मुमुक्षो
त्वचारोग पर काढा। मिक्षोः प्राणान्माणिभद्रा किलेमम् ॥ काकोदंबरिकायेल्लनिवाब्दव्योषफल्कवान् ।
अर्थ-बायबिडंग, आमला और हरड | इति वृक्षकनियूहः पानात्सर्यास्त्वगामयान् प्रत्येक एक पल, निसोथ तीन पल और अर्थ-काकोवर, बायबिडंग, नीमकी गुड बारह पल इनकी गोलियां बनाकर छाल, मोथा और त्रिकुटा इनके कल्क को यथायोग्य मात्रानुसार सेवन करने से एक
कुडाके काढे के साथ पीने से त्वचा के रोग महीने में कोढ, श्वित्रगेग, श्वास, खांसी,
| जाते रहते हैं। उदररेग, अर्श, प्रमेह, डीहा, ग्रंथि, कृमि
अन्य प्रयोग। रोग, और गुल्म जाते रहते हैं । रोगी को
| फुटजाग्निनिवसतरुखदिरास
. नसप्तपर्णनियूहे। पथ्य से रहना उचित हैं । यह सिद्ध योग | सिद्धा मधुघृतयुक्ताः कुष्ठनीमक्षयेदभयाः ॥ माणिभद्र नामक किसी यक्ष ने मृतःप्राय अर्थ--कुडा की छाल, चीता, नीमकी किसी भिक्षुक को बताया था । । । छाल, अमलतास, खैरकी लकडी, असन,
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म.१९
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६५३)
सातला, इनके काढे को सिद्ध करके घी कुष्ठ, अर्श, प्रमेह, सूजन, पांडुरोग, भजीर्ण
और शहत के साथ खाने से कुष्ठरोग नष्ट और कृमिरोग नष्ट होजाता है । होजाता है।
अन्य प्रयोग। अन्य प्रयोग।
लाक्षादतीमधुरसवरादीपिपाठाषिडंग
प्रत्यक्पुष्पीत्रिकटुरजनीसप्तपर्णाटरुषम् । दाखिदिरनियानां त्वक् काथः कुष्ठसूदनः। रक्तानि सुरतरुकृतं पंचमूल्यौ च चूर्णे .
अर्थ-दारुहलदी, खदिर काष्ट और पीत्वामासं जयति हितभुग्गव्यमूत्रेण कुष्ठम् नीमकी छाल, इनका काढा कुष्ठनाशक है। अर्थ-लाख, दंती, ईखकी जड, त्रिफला अन्य प्रयोग।
चीता, पाठा, वायविडंग, प्रत्यक निशोत्तमानिवपटोलमूल
पुष्पी, त्रिकुटा, हलदी, सातला, अडूसा, तिक्तावचालोहितयष्टिकाभिः ।।
मजीठ, नीमकी छाल, देवदारू, और दशकृतः कषायः कफपित्तकुष्ठं सुसेवितो धर्म इवोच्छिनात्त ॥ ३८॥
मूल, इनका चूर्ण एक महिने तक गोमूत्रके पभिरेव च शृतं घृतमुख्यं
साथ सेवन करने से कुष्ठ जाता रहता है । भेषजैर्जयति मारुतकुष्ठम् ।
कृकुष्ठ की चिकित्सा। कल्पयेत्खदिरनिंबगुडूची
निशाकणानागरवेल्लतीवर देवदारुरजनीः पृथगेवम् ॥ ३९॥ सवन्हिताप्यं क्रमशो विवर्धितम् ।
अर्थ-हलदी, त्रिफला, नीम, पर्वलकी गवांबु पीतं यटकीकृतं तथा जड, कुटकी, वच, मजीठ, इनका काढा |
निहंति कुष्ठानि सुदारुणान्यपि ॥४२॥ . सेवन करने से कफपित्तज कुष्ठरोग जाता
____ अर्थ-हलदी, पीपल, सोंठ, वायविडंग रहता है, जैसे अच्छी तरह धर्मके सेवन से तूर, चीता, और सौना माखी इनसे एक पाप नष्ट एजाता है । इन्ही द्रव्यों के काढे | एक माग बढाकर चूर्ण बनाकर गोमूत्र के के साथ पकायाहुआ घी वातज कष्ठको दर साथ सेवन करने से भयंकर कुष्ठ जाता करदेताहै ॥ इसी तरह खैरकी लकडी, नी रहता है । मकी छाल, गिलोय, देवदारु और हलदी |
कोढ पर रसायन ।
त्रिकटूत्तमातिलारुइनका काढाभी कुष्ठको दूर करता है ॥ कराज्यमाक्षिकसितोपला विहिता अन्य प्रयोग।
गुलिका रसायनं स्यात् पाठादाविान्हघुणेष्टाकटुकाभि
कुष्ठजिच वृथा च सप्तसमा ॥४३॥ द् युक्तं शक्रयश्चोष्णजलं च ।
। अर्थ-त्रिकुटा, त्रिफला, तिल, भिलावा कुष्ठी परिवा मासमरुक् स्याद्गुदकीली घी, मधु और चीनी इन सब द्रव्यों को मेको शोकोपांडुरजीर्णी कृमिमांश्च ॥४०॥ समान भाग लेकर गोलियां बना लेवे ॥
अथ-पाठा, दारूहलदी, चीता, अतीस | ये गोली रसायन,कुष्ठनाशक और वृष्यहै ।। और कुटकी इनके साथ वा इन्द्रजौ के साथ
. चन्द्रशकला गुटिका। गोमत्र वा गरमजल एक महिनेतक पीनेसे । चंद्रशकलानिरजनी
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(१९४]
अष्टमिट्टदव।
ब. १९
mms
विडंगतुवरास्थ्यरुष्करात्रिफलाभिः । । साथ गोलियां बनाकर सेवन करने से कुछ घटका गुडांशलप्ताः . . समस्तकष्टानि नाशयत्यभ्यस्ताः॥४४॥। राग नष्ट होजाता है। अर्थ-वाकुची, चीता, हलदी, बायबि
विडंगादि प्रयोग।
विडंगाद्रिजतु क्षौद्रं सर्पिष्मल्खादिरं रजः। खंग, तुबर, भिलावे की गुठली, और त्रिफला
किटिभश्वित्रदद्रघ्नं खाइन्मितहिताशनः .. ये सब समान भाग लेकर गुडके साथ गो
___ अर्थ-वायबिडंग, शिलाजीत, शहत,घी 'लियां बनालेवे । इनका नित्य प्रति सेवन
खैरकी लकडी इनका अवलेह बनाकर मिता:करने से सब प्रकार के कुष्ठरोग जाते रहतेहैं ।
हारी और पथ्याहारी मनुष्य सेवन करे तो ___ अन्य प्रयोग।
किटिम, श्वित्र और दद्रु नष्ट होजाते हैं । विडंगभल्लातकवाकुचीनां
कुंष्ठ पर सितादि अश्लेह । सदीपिवाराहिहरतिकानाम् । 'सलांगलीकृष्णतिलापकुल्या
सितालकृमिशानि धात्र्ययोमलपिप्पलीः । गुडेन पिंडी विनिहति कुष्ठम् ॥ ४५ ॥ लिहानः सर्वष्ठानि जथातगुरुण्यपि अर्थ-वायविडंग, भिलावा, वाकुची,
। अर्थ-खांड, तेल, वायविडंग, आमला चीता, वारुणी कंद, हरड, कलहारी, काले और पीपल इन द्रव्यों का अवलेह सेवन तिल, पीपल इनके चूर्ण को गुड में मिलाकर
करने से सब प्रकार के कष्टसाध्य कुष्ठरोग गोली बनाकर सेवन करने से कुष्ठरोग जाता
दूर होजाते हैं।
कुष्ट पर चूर्ण ।
मुस्तं व्योषं त्रिफला मंजिष्ठादारुण्चमूले के शशांकलेखा अवलेह ।।
सप्तच्छदानिवत्वसविशाला चित्राको मूर्वा शशांकलेखा सविडममूला
चूर्ण.तर्पणभानधभिः संयोजितं खमध्वंशम् सपिप्पुल्लीका सहुताशमूला नित्यं कुष्ठनिबईणमेतत्प्रायोगेकं खादन् सायोभलासामलका सतैला
| श्वयधुंसपांडुरोगश्वित्रंग्रहप्रदोषमासि कुष्ठानि कठ्ठाणि निहंति लोढा ॥ ४६॥ वर्मभंगदरपिंडकाकडूकोठापचीहति ॥ :
अर्थ-बाकुची, वायविडंग की जड,पी- ' अर्थ-मोथा, त्रिकुटा, त्रिफला, गजीठ, पलामूल, चीते की जड, लोहे का मैल और दारुहलदी, दशमूल, सातला, नीमकी छाल, आमला इन सब द्रव्यों को तेल के साथ इन्द्रायण, चीता, मूर्वा, ये सब समान भाग चाटने से कुष्ठ रोग जाते रहते हैं। सत्त नौ भाग इसको शहत में मिलाकर
- पथ्यादि गुटिका। प्रतिदिन सेवन करने से कुष्ठ, सूजन, पांडु पथ्यातिलगुडैः पिंडी कुष्ठं सारुष्करैर्जवेत्। रोग श्वित्र, ग्रहणीदोष, बवासीर, वर्मरोग, गुहारुष्करजंतुघ्नसोमराजीकृताऽथवा भगंदर, पिडिका, कंडू, कोठ ( पित्ती) ...अर्थमहरड, तिल, और भिलावा इनके और अपची ये सब रोग जाते रहते हैं। चूर्ण की गुडके साथ अथवा भिलावा, वाय- अन्य रखापन प्रयोग। विडंग और दावची इनके चूर्ण की गुड के '| रसायनप्रयोगेण तुवरायानि शीलयेत् ।
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अ० १९.
चिकित्सितस्थान भाषाकासमेत ।
भल्लातकं बाकुचिका कह्निमूलं शिलाह्वयम् ॥ अर्थ-जो कुष्ठ त्वचा का वाश करदेते हैं
अर्थ-रसायन के प्रयोग की विधि के | उनमें शस्त्रकाम नहीं देताहै इसलिये उनमें । अनुसार तुवुर की गुठली, मिलावा, वाकुची । क्षार लगाना, फस्द खोलना और दोष निचीते की जड वा शिलाजीत इनमें से किसी कालना उचित हैं। का सेवन करे।
कुष्ठविशेष में लेप कुष्ठ पर लेप । लेपोऽतिकठिनेफ्रुषेसुप्तेकुष्ठेस्थिरेपुराणे . "इति दोषे विजितेंऽतम्
पीतागदस्य कार्यो बिषैः समंत्रो ऽगदेश्चानुः स्वरथे शमनं बहिः प्रलेपाविहितम्। अर्थ-पत्थरके समान कठोर, छूने में तीक्ष्णालेपोलिष्ट
खरदरा, सुन्न, स्थिर और पुराने · कोढ में 'कुष्ठं हि विवृद्धिमेति मलिने देहे ॥
मंत्रपूर्वक विषका लेप करके फिर औषधोंका . अर्थ-उक्त रीति से जब भीतर वाले • दोष विजित होजाय तब त्वचा में स्थित
लेप करना चाहिये ।. . दोषों की शांति के लिये लेप आदि का
. अन्य प्रयोग।
स्तब्धातिसुप्तसुप्तान्यस्वेदनकुंडलानि कुष्ठानि प्रयोग करना उचित है । यहां शंका होती
घृष्टानि शुष्कगोमयफेनकशस्त्रः प्रदेशानि । है कि प्रथम लेपादि द्वारा बाहर के दोषों अर्थ-जो कुष्ट, स्तब्ध, अतिसुप्त (स्पको जीतने का उपाय क्यों नहीं किया जाता शेक ज्ञान से रहित ), स्वेदरहित और खु. है । इसका समाधान यहहै कि तीक्ष्ण लेपों के जली से युक्त हो तो सूखे गोबर और अस्त्रे करने से उत्कृिष्ट हुआ कुष्ठ दोष से युक्त से रिगड कर फिर लेप करना चाहिये । देह में वृद्धि को प्राप्त होजाता है । इसलिये | मुस्तादि क्वाथ । प्रथम भीतर का शद्धि करके फिर बाहरकी मुस्तात्रिफलामइनं करंज आरग्वधकलि-, करनी चाहिये ।
मयवाः।
सप्ताहकुष्टफलिनीदायसिद्धार्थकं मानम् - कुष्ट में स्वेदन ।
एष कषायो बमनं विरेचनं वर्णकरस्तथोस्थिरकठिनमंडलानां कुष्ठामा पोटलैर्हितः ।
घर्षः। स्विनोत्सग्नं कुष्ठंशस्त्रलिखितपत त्वग्दोषकुष्टशोफप्रबोधनः पांडुरोगघ्नः ॥ - अर्थ-जिन कुष्ठोंके मंडल संपूर्ण स्थिर
__अर्थ-मोथा, त्रिफला, मैनफल, कंजा, और कठिन होते हैं उनमें पोटली स्वेद हि
अमलतास, इन्द्रजौ, सातला, कूठ, प्रियंगु, वकारी होताहै । स्वेदनसे कोढके चकत्ते
दारुहल दी, और सरसों इन सब द्रव्यों को उंचे होनेपर अस्त्रद्वारा खुरचकर उनपर लेप
डालकर जलको औटाबै । इस जलसे कुष्ठ करना चाहिये।
रोगी को स्नान करावे । यह काथ वमन कुष्टपर क्षार प्रयोग।
कारक, विरेचनकर्ता, वर्णकारक, रेमोत्पादक येषु न शस्त्र क्रमतेस्पर्शेन्द्रियनाशनेषकोष है, तथा त्वचाके दोष, कुष्ठ, शोथं और पां. तेषु निपात्यः क्षारो रक्तं दोषं निनाम्यम्। दुसेगों को नाश करनेवाला है ।।
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(३५६)
अष्टांगहृदय ।
अन्य क्वाथ।
कुण्ठ में उद्धर्तन । करवीर निषकुटजाच्छम्याकाचित्रकाच । मिष हरिद्रे सुरसं पटोले
मुलानाम् । कुष्टाश्वगंधे सुरदारुशिनः। भूने दीलेपी काथो लेपेन कुष्ठन्नः ॥ ११ ॥ ससर्षपं तुंबरुधान्यवन्य __ अर्थ-कनेर की जड, नीमकी जड, चंडावचूर्णानि समानि कुर्यात् ॥६५॥ कुडाकी जड, अमलतास की जड, चीतेकी तैस्तऋपिष्टैः प्रथमं शरीरं जड इनको गोमूत्र में पकावै, जब यह इतना
तैलाक्तमुर्तयितुं यतेत ।
तेनास्यकंडूपिटिकाः सकोठाः गाढा होजाय कि कलछी से लगने लगे तब
| कुष्ठानि शोफाश्च शमं व्रजति । ६६ । इसका लेप करे | यह लेप कुष्ठनाशक
___ अर्थ--नीमकी छाल, दोनों हलदी, तुहोताहै।
लसी,पर्वल,कूठ,असगंध, देवदारू,सहजना, अन्य लेप।
सफेद सरसों, तुंबरु, धनियां, चंडा इनको तकरवीरमूलं कुटजकरजात्फलं स्वचो. समानभाग लेकर तक में पीस्ले । प्रथम
दायाः। सुमनःप्रवासयुक्तो लेपः कुष्ठापहः सिद्धः ॥
शरीर पर तेल लगाकर उक्त उवटने से . अर्थ-सफेद कनेर की जड, इन्द्रनो, .
मर्दन करने पर कंड़, पिटिका, पित्ती, कुष्ठ फंजा, दारुहल्दी की छाल, चमेली के पत्ते, | और सूजन जाते रहते हैं । उबटने के इन सन द्रव्योंका लेप कुष्ठनाशक होताहै। ।
रोगी को गरम जल से स्नान करावे। अन्य लेप ।
दद्रुनाशक चूर्ण। शैरीषीलपुष्पं कार्पास्याराजवृक्षपत्राणि ।
मुस्तामृतासंघकटंकटेरीपिष्टा च काकमाची चतुर्विधः कुष्ठहा लेपः।
कासीसकंपिल्लककुष्टराधाः । म्योपसर्षपनिशागृहधूमै
गंधोपलः सर्जरसो विडंग
मनःशिलालेकरवीरकत्वक पिशूकपटुचित्रककुष्टैः।
तैलाक्तगात्रस्य कतानि चूर्ण. कॉलमात्रगुटिकाविर्षाशाः
म्येतानि दद्यादवचूर्णनार्थम । श्विभकुष्ठहरणो वरलेपः॥ ६४ ॥
ददुः सकंडूःकिटिभानि पामा . अर्थ-सिरस की छाल, कपास के फूल विचर्चिका चेति तथा न सति । १८ । अमलतास के पत्ते, और मकोय इनका लेप
अर्थ-मोथा, गिलोय, फिटकरी, कटेरी, चार प्रकार के कुष्ठों को नष्ट करदेताहै। कसीस, कबीला, कूठ, लोध. गंधक, एला, त्रिकुटा, सफेद सरसों, हलदी, गृहधूम,
बायबिडंग, मनसिल, हरताल, और कनेर भवाखार, पांशुनमक, चीता और कूठ, प्रत्ये की छाल, इन सब द्रव्यों को समान भाग क समान भाग बिष आधा भाग इनको लेकर चूर्ग बनाले । प्रथम पीडित शरीर पीसकर बेर के बराबर गोलियां बनावै । पर तेल लगाकर इस चूर्ण को बुरक दे । इनका लेप करनेसे चित्रकुष्ठ जाता रहताहै। इससे खुजलीवाला दाद, किटिम, पामा,
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प०१९
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६५७
और विचर्चिका, ये सब रोग दूर हो सिध्म पर लेप। जाते हैं।
मरिच तमालपत्रं कुष्टं समनःशिलं विचार्चिका की चिकित्सा।
. सकासीसम्। सुग्गडे सर्षपात्कल्कः कुकूलानलपाचितः।
तैलेन युक्तमुषित सप्ताहं भाजने ताने ।७३। लेपाद्विचाविकांहति रागवेग इव प्रपाम् ॥
तेनालिप्तं सिम सप्ताहाधर्मसेविनोपैति। मनःशिलालेमरिचानि तैल..
मासान्नव किलासंसानेन विना विशुद्धस्य। मार्क पयः कुष्ठहरः प्रदेहः। __ अर्थ-कालीमिरच, तमाखूका पसा,कूठ, तथा करंजप्रपुनाटबीजं
मनसिल, हीराकसीस, इनको पीसकर तेल कुष्टान्वितं गोसलिलेन पिष्टम् ॥ ७॥ अर्थ-स्नुही की डाली में सरसों का
में सानकर सातदिन तक तांबे के पात्र में कल्क भरकर गौ, गधे वा घोडे के ऊपलों
रखदे फिर इसको सिध्म पर लगाकर धूप में की आग में भस्म करले | इसका लेप क
सेकले । सात दिन तक ऐसा करने से सिध्म. रने से विचचिका का रोग ऐसे नष्ट हो जाता रोग जाता रहता है । एक महिने लगाने से है जैसे रागके वेग से लज्जा नष्ट होजाती नया श्वित्ररोग नष्ट हो जाता है । औषध है। मनसिल, हरताल, मिरच, तेल और । लगाने के काल में स्नान किये विनाही पोछ आक का दूध इनका लेप करने से कुष्ठरोग ने से ही शरीर को साफ कर लेना चाहिये। आता रहता है । इसी तरह कंजा, पमाड
अन्य प्रयोग। के बीज, और कूठ इनको गौ मूत्र में पीस
| मयूरकक्षारजले सप्तकृत्वःपरिनते। कर लेप करने से कुष्ठरोग जाता रहता है। सिद्ध ज्योतिष्मतीतेलमभ्यंगासिध्मनाशनम्
-- अन्य प्रयोग । गुग्गुलुमरिचविगैः ।
| अर्थ-ओंगा के खार को सातबार पानी सर्षपकासीससर्जरसमस्तैः। । में छानले फिर इस क्षारजल को मालकांग• श्रीवेष्टकालगंधैर्मनाशिलाष्टकंपिल्लैः॥ ७१॥ नी के तेल में पकाकर लगाने से सिध्म नष्ट उभयहरिद्रासीहतश्चाक्रिकतैलेन,.. दिनकरकरामितसैः कुष्ठ घृष्टं च नष्टं च ।
अन्य प्रयोग। अर्थ--गूगल,कालीमिरच,बायबिडंग,सरसों, वायसघामूलं घमनीपत्राणि मूलकाद्वीजम् कसीस, राल, मोथा, सरलकाष्ठ, हरताल, तक्रेण भौमवारे लेपः सिध्मापहः सिद्धः॥ गंधक, मनसिल, कूठ, कबीला, दोनों हल. । अर्थ-काकजंघा की जड, कडवी तोरई दी इन सबको पीसकर पमाण के बीजों के
के पत्ते, मूली के बीज, इन सब द्रव्यों को तेल में मिलाकर लेप करने से रिगड खाया पीसकर तक में सानकर मंगलवार को लेप हुआ कुष्ट दूर होजाता है । लेप करके उस अंग को धूप में सेकलेना चाहिये । चाक्रिक
करने से सिध्मरोग दूर हो जाता है। तेल घानी से तत्काल निकले हुए गरम तेल
___ अन्य प्रयोग। को भी कहते हैं इसे लोक में पानी का तेल जीवतीमंजिष्ठादार्वी कंपिल्लुक पयस्तुत्यम् । कहते हैं।
एषततैलपाकः सिद्धः सिद्धेच सर्जरसः॥
मिश्रितरेभिः। होजाता है।।
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अष्टांगहृदय ।
अ० १३.
कामदासनकासदरमामलसम्यानमा
र
मा
गायनमा
"
देयः समधूच्छिष्टो विपादिका तेन- अतिशयितवनकगुणांश्वित्रार्थीप्रधिमालाघ्नं
- नश्यति हक्ता। ! अर्थ-अरंड की जड, रसौत, माथा, चर्मककुष्टकिटिभं कुष्ठं शाम्यत्यलसकं च॥ नीप ( कदवका भेद), कदंब, भाडंगी, कअर्थ-जीबंती, मजीठ, दारुलहदी, क.
बीला, बायबिडंग, प्रियंगु, इन्द्रायण,संभालू, बीला, आक का दूध, तूतिया इन सबको
भिलावा, देवदारू, स्वर्णक्षीरी, सरलकाष्ठ, तेल और घी में पकाकर राल और मोम
गूगल, मनसिल, नमक, हरताल, सोंठ ,ये मिलादेवै । इस औषध के लेप से विवाई,
सब समान भागले और तुल्यभाग स्नुही चर्मकुष्ठ, एककुष्ठ, किटिभ और अलसक यह
और आक का दूध मिलाकर तिलयो तेलको रोग दूर हो जाते हैं।
पकावै । यह महाक्जक तैल अतिशय करके वजक तैल।
बजके गुण के समान है, यह श्वित्र, अर्श, मूलं सप्ताहात्या शिरीषाश्चमारा
और ग्रंथिमाला रोगों को दूर करता है । दन्मिालत्याश्चित्रकास्फोतनिवात् ।
अन्य तैल । घी कारजं सार्षपं प्रापुनाट | श्रेष्ठा जंतुघ्नं त्र्यूषण द्वे हरिद्रे॥ ७९ ॥
| कुष्टाश्वमारभृगार्कमूत्रस्नुक्क्षीरसैंधवैः।
तैल सिद्धविषायापमभ्यंगात्कु जित्परम् ॥ तिलतैलं साधित तैः समूत्रैस्त्वग्दोषाणां दुष्टनाडीव्रणानाम् ।।
अर्थ- कूठ, कनेर, भांगरा, आक, गोअभ्यंगेन लक्ष्मवातोद्भवानां मूत्र, स्नुही का दूध, सेंधानगक, तथा मोठे नाशायालं वज्रकं वज्रतुल्यम् ॥ ८०॥ तेलिया का प्रतीबाप देकर तेल को पकावै ।
अर्थ-सातला की जड,सिरस की छाल, इस तेल के लगाने से कुष्ठ नष्ट होजाता है । कनेर, भाक, मालती, चीता, अपराजिता,
कवादि की औषध । . . नीम, कंगाके बीज, सरसों, पमाट के वीज, सिद्धं सिक्थकसिंदरपुरतुत्वकतायः। त्रिफला, बायबिडंग, त्रिकुटा, दोनों हलदी, कच्छविचर्चिकांवाऽऽशुकटुतैलंगियच्छति ये सब द्रव्य डालकर गोमूत्र के संग सिद्ध अर्थ- मोम, सिंदूर, गूगल, ततिया और किया हुआ तिलका तेल लगाने से त्वचा रसौत इनके साथ सरसों का तेल पकावै, के दोष, दाषित नाडीव्रण तथा कफवातजन्य इस तेल को लगाने से कच्छ और विचरोग शांत हो जाते है । यह वज्रक नामक तेल र्चिका शंधू दूर होजाते हैं । वन के समान है।
लाक्षादि लेप। महावज्रक तैल
लाक्षाव्योषं प्रायुनाटं च बीज एरंडतायधनीपकदधभार्गी
सधीवेष्टं कुष्टसिद्धार्थकाश्च । कंपिल्लवेल्लफलिनीसुरवारुणीभिः ।
तकोन्मिश्रः स्याद्धारदा च लेपो
दद्रुश्तो मुलकोत्थं च बीजम् ॥ निर्गुड्यरुष्कररावसुवर्णदुग्धा । श्रीवेष्टगुग्गुलुशिलापटुतालविश्वैः ॥
अर्थ- लाख, त्रिकुटा, पवाडके बीज, तुल्यस्नुगर्कदुग्ध सिद्ध तैल स्मृतं महावज्रम् । सरलकाष्ठ, कुडा, सफेद सरसों और हलदी
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अ १९
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६६९)
इन सब द्रव्यों को अथवा मूली के बीजों । सौबार धुला हुआ घी मर्दन करें । लेद का को तक्र में पीसकर लगाने से दर्दु जाते । स्राव होता हो तो चंदन, मुलहटी, पुंडरीक
और उत्पल इनसे सिद्ध किया हुआ तेल चित्रकादि लेप । लगावै । शरीर में दाह, विस्फोटक और चित्रकसोभांजनको गुइत्यपामार्ग देवदा चर्गदल कुष्ठ में शीतल प्रदेह और परिषेक,
रुणि । शिराव्यध, विरेचन और तिक्तक वृत खदिरोधवश्च लेपः श्यामा दंती द्रवंती च।
प्रशस्त हैं। लाक्षारसांजनैलापुनर्नवा चोते कुष्ठिना लेपाः
अन्य प्रयोग। दधिमंडयुताः पादैः षट्प्रोक्ता मारतकफघ्नाः ___ अर्थ-(१) चीते की जड और सहजने
खदिरनिंबकुटजाः
श्रेष्ठाः कृमिजित्पटोलमधुपर्यः । की छाल, (२) गिलोय, ओंगा और देवदारु तबहिः प्रयुक्ताः (३) खैर और धौ की छाल, (४) माल
कृष्टिनुदा सगोमूत्राः। विका निसोथ, और द्रवंती, (६५) लाख,
अर्थ-खैर, अडूसा, नीम, कुडा,त्रिफला,
बायबिडंग, पर्वल और मुलहटी इनको गोरसौत और इलायची (६) सांठ । इन छः योगों को दही के तोड में मिलाकर लगाने
मूत्र में पीसकर भीतर और बाहर प्रयोग
किया जाय तो कृमिरोग और कुष्ठ जाता से कफवात जन्य त्वचा के रोग नष्ट हो
रहता है। जाते हैं।
अन्य प्रयोग। पित्त कफ कुष्ठ पर लेप । "वातोत्तरघु सर्पिर्वमनं श्लेष्मोत्तरेषु कुष्ठेषु। जलवायलोहकसरपत्रलवचंदनमृणालानि। पित्तोत्तरेषु मोक्षो रक्तस्य विरेचनं चाग्न्यं । भागोत्तराणि सिद्धं प्रलेपनं पित्तकफष्ठे। अर्थ-वाताधिक्य कुष्ठ में प्रथम घृतपान . . अर्थ-नेत्रवाला, कुडा, लोहचूर्ण, केसर, | कफाधिक्य में वमन, और पित्ताधिक्य में तेजपात, केवटीमोथा, चंदन और कमलनाल रक्तमोक्षण और विरेचन प्रधान हैं। . . इनको उत्तरोत्तर एक भाग अधिक लेकर लेपोंकी सिद्धिका कारण । लेप करने से पित्तकफ जन्य कुष्ठ जाता । ये लेपाः कुष्ठानां युज्यंते निहतानदोषाणाम्। रहता है।
संशोधिताशयानां सद्यः सिद्धिर्भवति तेषाम् कुष्ट पर घृत विशेष ।
अर्थ-कुष्ठ रोगीके दूषित रक्त को नि. तिक्तघृतधौतघृतैरभ्यंगो दह्यमानकुष्ठेषु। ।
कालने के पीछे तथा आशयों के शुद्ध होने तैलै चंदनमधुकप्रपौंडरीकोत्पलयुतैश्च ।
पर जो लेप उपयोग में लाये जाते हैं, वे क्लेदे प्रपतति चांगे दाहे विस्फोटके च चर्म- | तत्काल शुभफल देने वाले हो जाते हैं। .
दले। शीता-प्रदेहसकाव्यधनविरेको घृतं तिक्तम्। होबेहतेऽपनीते रक्ते बाह्यांतरे कृते शमने।
कुष्ठ को साध्यता। अर्थ-दाहयुक्त कोढ में तिक्तक घृत और । खोहे च कालयुक्त न कुष्ठमतिवर्ततेसांध्यम्।
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(६६०)
अष्टांगहृदय ।
भ.२..
-
-
अर्थ-वातादि दोषोंके निकलने पर तथा कुण्ठ में वृतादि। . रक्तस्राव के पीछे तथा बाह्य और आभ्यंत- वृतदमयमसेवात्यागशीलाभियोगो रिक शमन क्रियाओं के करने पर और उ.
द्विजसुरगुरुपूजा सर्वसत्वेषु मैत्री।
शिवशिवसुतताराभास्कराराधनानि चित काल में स्नेहन प्रयोग करने से साध्य
प्रकटितमलपाप कुष्ठमुन्मूलयंति ,, | कुष्ठ शांत होजाता है।
अर्थ-कुष्ठरोग में व्रत ( नियमपूर्वक बहुदोष कुष्ठको संशोधनत्व ।।
| रहना ), दम ( इन्द्रियों का निग्रह ), यम बहुदोषः संशोध्यः कुष्ठी बहुशोनुरक्षता |
| ( अहिंसा ), त्यागशीलिता, ब्राह्मण, देवता
प्राणान् । दोषे ह्यतिमात्रहते वायुहन्यादवलमाशु ॥ और गुरूओं की पूजा, संपूर्ण जीवों में मैत्री___ अर्थ-बहुत दोपों से युक्त कुष्ठरोगी का भाव, शिव, गणेश, तारा और सूर्यकी आबार बार संशोधन करना चाहिये । परन्तु | राधना, इन सब कर्मों के करने से दोष और अधिक संशोधन से रोगी की प्राणहानि न पापोंसे उत्पन्न हुए कुष्ठ जडसे जाते रहते हैं। होने पावै । क्योंकि दोषोंके अत्यन्त निक- इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषालने पर वायु रोगीको शीघ्र मारडालती है। टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने
कुष्ठरोगी का वमनादि काल ।। कुष्ठचिकित्सितं नामैकोनविंपक्षात्पक्षाच्छदनान्यभ्युपेया
शोऽध्यायः ॥ १९ ॥ मासान्मासाच्छोधनान्यप्य धस्तात् । शुद्धिमूर्ध्नि स्यात्रिरात्रात्रिरात्रात् षष्ठे षष्ठे मास्यसृमोक्षणानि ॥९६॥
विशोऽध्यायः। अर्थ-कुष्ठरोगी को प्रतिपक्ष में वमन, प्रतिमास में विरेचन, तीन तीन दिन के अंतर से शिविरेचन और छः छः महिने अथाऽतःश्चित्रकृमिचिकित्सित व्याख्यास्याम: पीछे रक्तमोक्षण करना चाहिये ।
अर्थ-अव हम यहांसे श्वित्रकृमिचिकित्सि___कुष्ठरोगी का दोषहरण ।
तनामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। ' यो दुर्वातो दुर्विरिक्तोथवा स्यात
चित्रको भयानकत्व । . कुष्ठी दोषेरुद्धताप्यतेऽसौ। कुष्ठादपि बीभत्सं यच्छीघ्रतरं च . निःसंदेहं यात्यसाध्यत्यमेवं
यात्यसाध्यत्वम् । तस्मात्कृत्वानिहरेदस्य दोपान् श्वित्रमतस्तच्छत्यैि यतेत दीप्ते यथा भवने
अर्थ-जिस कुष्ठरोगी को सम्यक् वमन अर्थ-वित्ररोग कुष्ठसे भी निंदित होता वा विरेचन न हुआ हो, उसका कुष्ठ निः- | है और शीघ्रही भयानक होजाताहै, इसलिये संदेह असाध्य होजाता है । इसलिये सम्यक् जैसे जलते हुए घरकी रक्षा का शीघ्र यत्न वमन विरेचन देकर दोषको बिलकुल निः- किया जाताहै, वैसेही श्वित्र की शांतिका शेष करदेना चाहिये।
! यत्नभी शीघ्रतापूर्वक करना चाहिये ।
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म. २०.
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६६१)
वित्रमें शोधनादि । फोडों के निकलने पर बिना नमक डाले संशोधनं विशेषात्प्रयोजयेत्पूर्वमेव देहस्य ।। तक्रके माय भोजन करना चाहिये। बि संसनमग्यं मलयरस इष्यते सगुडः
उक्तरोग में गोमूत्रपान । तं पीत्वाऽभ्यक्ततर्नुयथाबलं सूर्यपादसंतापम् सेवेत विरिक्ततनुस्यह पिपासुःपिवेत्पयाम्
गव्य मूत्रं चित्रकन्योषयुक्तं
सर्पिकुंभे स्थापितं क्षौद्रामिश्रम् । - अर्थ-श्वित्ररोग में प्रथमही देहके संशो
पक्षाव श्वित्रिभिः पेयमेतत् धन के निमित्त यत्नकरै । श्वित्रमें वाकुची के
कार्य चास्मै कुष्ठदृष्टं विधानम् ॥ ७॥ क्वाथ के साथ थूहर का दूध मिलाकर वि.
अर्थ-गौ का मूत्र, चीता, त्रिकुटा का रेचन दैना अच्छा है । इस काथको पीकर चूर्ण मधु मिलाकर पन्द्रह दिनतक घी से देहमें तेल लगाकर रोगी शक्ति के अनुसार | चिकनी हांडीमें भरकर रखा रहनेदे, पं. धूपमें बैठारहे । विरेचन के कारण तृषा न्द्रह दिन पीछे श्चित्ररोगी को पान करावे उत्पन्न होनेपर तीन दिन तक पेयापान करे। तथा कुष्ठचिकित्सितोक्त अन्य उपचारों का
फोठोंका कांटोंसे भेदन । प्रयोग भी करे । विगे ये स्फोटा जायते कंटकेन तान्। । अन्य प्रयोग ।
मिद्यात्।
मार्कवमथवा स्वादेभ्रष्टं तैलेन लोहपात्रस्थम् स्फोटेषु निमुतेषु प्रातः प्रातापियेत् त्रिदिनम् :
| बीजक शृतं च दुग्धंतदनुपियेच्छ्वित्रनाशाय मलयमसनं प्रियंगू शतपुष्पां चांभसा
समुत्काथ्य।
____ अर्थ-लोहेकी कढाई में भांगरे को तेल पालाशं या क्षारं यथावलं फाणितोपेतम्" से भूनकर सेवन करे, बिजौरे के रसके अर्थ-चित्र के ऊपर जो फोडे उत्पन्न
साथ पकाया हुआ दूध पीव । इससे श्वित्र होजाय, उनको कांटों से छेद देना चाहिये,
नष्ट होजाताहै । फोडों से स्राव होजाने पर तीन दिन तक उक्त रोग पर लेप। प्रात:काल चंदन, असन, मालकांगनी, और पूतीकार्कव्याधिघातस्नुहीनां सौंफ इनके काधमें शहत मिलाकर अथवा मूत्रे पिष्टाः पल्लवा जातिजाश्च । पलासके क्षारमें फाणित मिलाकर पीना
नंत्यालेपाच्छ्यिगदुर्नामददू. चाहिये।
पामाकाष्ठान्दुष्टनाडीव्रणांश्च ॥९॥ उक्तरोग पर कल्क ।
अर्थ- पूतीकरंज, भाक, अमलतास, फवक्षवृक्षवल्कलनिहेणेदुराजिकाकल्क | थूहर और चमेली के पत्ते इनको गोमूत्र में पीत्वोष्णस्थितस्य जाते स्फोटेतकेण भोजनं पीसकर लगाने से श्वित्रकुष्ठ नष्ट होजाताहै। निलवणम्॥६॥
अन्य योग। अर्थ-काकाडुम्बर और बहेडे के वृक्ष
द्वैपं दग्धं चर्म मातंग वा की छालका काथ करके उसमें बाकुची का वित्रे लेपस्तैलयुक्तोवरिष्ठः। करूक मिलाकर पीवै । पीकर धूपमें बैठनेसे अर्थ-व्याघ्र अथवा हाथी के चमडे की
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अष्टांगहृदय ।
०२०
भस्म करके तेल में मिलाकर लेप करने से | संवणे कारक लैप। श्वित्र रोम जाता रहता है । यह उपाय कुडवोवल्गुजवीजाद्वरितालचतुर्थमागसमिश्रः बहुत अच्छा है।
| मूत्रेण गवां पिष्टः सवर्णकरणं परं श्विने।
___ अर्थ-वाकुची के बीज चार पल, हरिअन्य प्रयाग। पूतिः कीटो राजवृशोद्भवेन
ताल एक पल इनको गोमूत्र में पोस कर लेप क्षाणातः श्वित्रमेकोऽपि हन्ति करने से देह का रंग एकसा होजाता है। - अर्थ-पूती नामक कीडे को अमलतास
अन्य लेप । के क्षार में मिलाकर लेप करने से श्वित्ररोग क्षारे सुदग्धे गजलिंडजे च प्रशमित होजाता है । पूति एक प्रकार का गजस्य मूत्रेण परित्रते च । कीडा वर्षाऋतु में होता है, इसे पिलिंदाभी
द्रोणप्रमाणे दशभागयुक्तं
दत्त्वा पचेद्वाजमवल्गुजानाम् कहते हैं।
श्वित्रं जयेच्चिकणतांगतेन भिलावे का प्रयोग।
तेन प्रलिंपन्बहुशः प्रवृष्टम् । रात्रौ गोमूने चासितान जर्जरांगा- कुष्ठं मपी वा तिलकालकं वा नह्निच्छायायांशोषयेत्स्फोटहेतून् । यद्वा प्रणे स्यादधिमांसजातम् ॥ १५ ॥ एवं वारांस्त्रीस्तैस्ततः श्लक्ष्णपिष्टैः
अर्थ-हाथी की लीदको अच्छी तरह स्नह्या क्षीरेण श्वित्रनाशाय लेपः
जलाकर इस क्षार को एक द्रोण लेकर यथा अर्थ-फोडों को उत्पन्न करनेवाले भि
योग्य हाथी के मूत्र में घोलकर क्षारकी रीति लावों को कूटकर रात में गोमूत्र में भिगो
से इक्कीस बार छानले । इस छने हुए क्षार देवै । और दिन में इनको छाया में सुखाले
जल में क्षारका दशमांश वाकुची का चूर्ण इस तरह गोमूत्र में भिगोना और छाया में
मिलाकर पकावै । जब इस क्षार में चिकसुखाना तीनदिन तक करै । फिर इनको
नाई आजाय तब उतार कर रखले । फिर थूहर के द्धके साथ अच्छी तरह पीसकर
श्वित्र को खुरचकर अर्थात् किसी वस्त्रादि से महीन. करले और श्वित्र पर लगाता रहे,
रिगड कर इस क्षार का बार बार लेप करे इससे श्वित्र नष्ट होजाता है ।
इससे चित्र नष्ट होजाता है । इस क्षार से - अन्य लेप। अक्षतैलकृतो लेपः कृष्णसर्पोद्भवा मपी।
कुष्ठ, मस्से, तिलकालक और ब्रण का शिखिपित्त तथा धंहीबेरं वा तदाप्लतम | अधिमांस नष्ट होजाता है । .. अर्थ-काले सर्प के कोयले बहेडे के भल्लातकादि लेप। तेल में मिलाकर लेप करने से अथवा मोर भल्लातकद्वीपिसुधार्कमुलं के पित्ते का लेप करने से अथवा नेत्रवाला गुजाफलम्यूषणशंखचूर्णम्। को जलाकर बहेडे के तेल में मिलाकर लेप
तुत्थं सकुष्टं लवणानि पंच
.. क्षारद्वयं लांगलिकां च पफ्त्या ॥ १६ ॥ करने से श्वित्र नष्ट होजता है।
स्नुगर्कदुग्धे धनमायसस्थं ।
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अ० २०
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शलाकया द्विदधीत लेपम् । कुठे किला से तिलकालकेषु मांसेषु दुर्नामसु चर्मकीले ॥ १७ ॥ शुड्या शोणितमोक्षैत्रिरूक्ष गैर्भक्षैणश्च
चिकित्सितस्थान भाषाठीकासमेत ।
सक्तनाम् । ििश्वत्रं कस्यचिदेव प्रशास्यति क्षीणपापस्य ॥
अर्थ - भिलावा, चीतेकी जड, सेंहुडकी जड, आककी जड, चिरमिठी, त्रिकुटा, शंखका चूर्ण, तूतिया, कूठ, पांचोंनमक, दोनों खार, और कल्हारी, इन सब द्रव्यों को थूहर और आक के दूमें लोहे के पात्र में पका । जब गाढा होजाय तब उतार कर घरले | इस लेपको सलाई से लगावै । इससे कुछ, किलास, तिलकालक, अर्श, और चर्मकील नष्ट होजाते हैं । पापोंके क्षीण हो आनेपर किसी २ मनुष्य का श्वित्ररोग वमनंविरेचनादि शुद्धि, रक्तमोक्षण, विरूक्षण और सक्तुमक्षण से भी शांत होजाता है ।
इति श्वित्रचिकित्सा |
कृमिचिकित्सा |
"स्निग्धस्त्रिने गुडक्षीरमत्स्याद्यैः कृमिणोदरे उत्क्लेशितकृमिक के शर्वरीं तां सुखोषिते ॥ सुरसादिगणं मूत्रे काथयित्वा वारिणि । तं कषायं कणागालकृमिजित्कल्कयोजितम्। सतैलस्वर्जिकाक्षारं युज्याद्वस्ति ततोऽहनि । तस्मिक्षेत्र निरूढं तं पाययेत विरेचनम् ॥ त्रिवृत्कल्कं फलकणाकशयालोडितं ततः । ऊर्ध्वाध शोधितं कुर्यात्पचकोलयुतं क्रमम् ॥ कटुतिक्तकषायाणां कषायैः परिषेचनम् । काले विडगतैलेन ततस्तमनुवासयेत् ॥
अर्थ- जो पेटमें कीडे पडगये हों तो स्नेह
( ६६३).
न और स्वेदन द्वारा रोगी के उदर को स्नि ग्व और स्विन्न करके गुड, दूध तथा मछली. आदिका भोजन कराके पेट के कीड़े और कफको स्थानसे च्युत करके रात्रि के समय रोगी को खाने के लिये कुछ भी न देयै । दूसरे दिन सुरसादि गणोक्त द्रव्यों को आधा पानी और आधा गोमूत्र मिलाकर स्वार्थ करले । इस क्वाथ में पीपल और वायविडंग
का कल्क मिलाकर तथा तेल और सज्जीखार मिलाकर वस्ति देवें । फिर उसी दिन निः 1 रूहण के पीछेविरेचन करनेवाला निसोथ का कल्क और वमन करानेवाला मैनकल पीपल के काथमें मिलाकर देवै । इसतरह वमन विरेचन द्वारा रोगी के शुद्ध होनेपर पंचकोल समेत पेया और विलेपादि का पथ्य. देवै । तदनंतर कटु, तिक्त और कृपाय द्रव्यों के क्वाथ परिषेक करे । तदनन्तर अग्नि प्रदीप्त होनेपर वायविडंग के तेल से अनुवासन का प्रयोग करें । कृषिकी चिकित्सा | शिरोरोगनिषेधोकमाचरेन्मूर्धगेष्वनु ! उद्रिक्त तक कमल्पस्नेहं च भोजनम् ॥' अर्थ- जो मस्तक में कीडे पडगये हों तो शिरोरोग प्रतिषेधनीय अध्यायमें जो चिकित्सा कही गई है वही काम में लाये | तत्पश्चात् प्रति कटु और तिक्त रसान्वित थोडा घी डालकर भोजन करावै ।
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कृमिरोग में पेयापान । बिडंगकृष्णामरिचपिप्पलीमूलशिशुभिः । पिवेत्सस्वर्जिकाक्षारं यवागूं तसाधिताम् अर्थ - बायविडंग, पीपल, कालीमिरच,
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(६६४]
अष्टांगहृदय ।
म० २.
पीपलामूल, सहजना, इन सब मसालों को | खाय, ऊपर से कांजी पीवै । अथवा पतले डालकर तक्रके साथ पेया तयार करके उसमें | तक्रमें पंचकोल और नमक मिलाकर अनुसनीखार मिलाकर रोगी को पान करावै। पान करे। कृमिरोग में शिरीषादि रस।
अन्य प्रयोग। रस शिरीषाकिणिहिपारिभद्रकबुकातू। नपिार्कवानर्गुडीपल्लवेष्वप्यय विधिः। पसाशवीजपत्तरपूतिकाद्वा पृथकू पिवेत ॥ विडंगचूणमित्रैर्वा पिष्टैर्भक्ष्यान् प्रकल्पयेत् । समौद्र सुरसादीन्वा लिह्यात्क्षौद्रयुतान् । ___अर्थ -कदंव, भांगरा, संभालू के पत्ते,
पृथए। पर्ववत शालीचांवलों के चनमें मिलाकर पूरी अर्थ-सिरस, किणही, [ गिरिष.र्णी ]
| वनावै, अथवा वायविडंग के चूर्ण में शाली नीन, केमु आ, ढाक के बीज, लालचंदन, चांवलों का चुन मिलाकर पूरी वना कर और कंजा इनमें से किसीके रसमें शहत
सेवन करै । मिलाकर अथवा सुरसादि गणोक्त द्रव्यों के
तेल का प्रयोग । रममें शहत मिलाकर सेवन करै ।
विडंगतंडुलैयुक्तमोशैरातपस्थितम् ॥ . अन्य अवलेह ।
दिनमारुष्कर तैलं पाने वस्तौ च योजयेत् । शतकृत्वोश्वविट्रचूर्णविडंगकाथभावितम् ॥ सुराहसरलस्नेहं पृथगेवं प्रकल्पयेत् । ३२ । कृमिमान्मधुना लिह्याद्भावितं वा वरारसैः ।
अर्थ-भिलावे के तेलमें आधेभाग वाय- अर्थ-घोडेकी लीदको वायविडंग के
विडंग के बीजों का चूर्ण मिलाकर एक दि. काढे में वा त्रिफला के रसमें बहुत बार भा.
न धूपमें रवखे, फिर इस तेलको पीने वा वना देकर शहत मिलाकर च टनेसे कृमि
वस्तिकर्म में प्रयोग करें । इसी तरह से दे. रोग जाता रहता है।
वदारु और सरलकाष्ठ के तेलमें भी बिडंग नस्यार्थ चर्ण।
के बीजों का चूर्ण मिलाकर पान वा वस्ति शिरोगतेषु कृभिषु चूर्ण प्रधमनं च तत् ॥
| कर्म में योजित करै । ___ अर्थ-शिरोगत कृमिरोग में शिरोरोग। प्रतिषेध में कहे हुए चूर्ण नल द्वारा नासि
पुरीषज कृमिमें चिकित्सा । का में फूंकने चाहिये ।
पुरीषजेषु सुतरां दद्याद्वस्तिविरेचने ।
__ अर्थ--विष्टा में उत्पन्न होने वाले कीडों अन्य प्रयोग।
में वस्तिकर्म और विशेषरूप से विरेचन देआखुकर्णीकिसलयैः सुपिष्टैः पिष्टमिश्रितैः। पक्त्वा पूपलिकांखारेद्धान्याम्ल च पिवेदन ना चाहिये । रूपं वकोललवणमसांद्रं तक्रमेव वा। 1 कफजकृमिरोग में कर्तव्य ।
अर्थ- मूषककर्णी के पत्तों को महीन | शिरोविरेकं वमनं शमनं कफजन्मसु॥३॥ पीसकर शालांचांवलों के चूनमें मिलाकर पि. अर्थ-कफजन्य कृमिरोग में नस्य,वमन ट्ठी बना लेवे। इस पिट्ठी की पूरी बनाकर और शमनक्रिया करना चाहिये ।
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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
रक्त कृमि की चिकित्सा | रक्तजानां प्रतीकारं कुर्यात्कुष्टविकित्सितात् । इंद्रलुप्तविधिश्चात्र विधेयोरोमभोजिषु ॥ अर्थ-रक्तजकृमिरोग में वह चिकित्सा करनी चाहिये, जो कुष्ठरोग में कही हुई है तथा रोमभोज कृमियों की चिकित्सा इन्द्रलुप्त में कही हुई चिकित्सा के अनुसार औषध का प्रयोग करना चाहिये ।
कृमिरोग में क्षीरादि निषेध । क्षीराणि मांसांनि घृतं गुडं च दधानि शाकानि च पर्णवंति । समासतो म्लान्मधुरान् रसाश्व कृमीन् जिहासुः परिवर्जयेच्च ॥ अर्थ - जो रोगी कृमिरोग से छुटकारा पाने की इच्छा करता है, उसे उचित है कि दूध, मांस, घी, गुड, दही, पत्ते के शाक, तथा खट्टे मीठे रसों को त्यागदेवे । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा'टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने श्वित्रकृमिचिकित्सितं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
एकविंशोऽध्यायः ।
अथाsतो बात व्याधिचिकित्सितं व्याख्या
स्यामः ॥
अर्थ- अब हम यहां से वातव्याधिचि - कित्सित नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। बातव्याधि में स्नेहोपचार ।
(3
केवलं निरुपस्तंभमादौ स्त्ररुपाचरेत् वायुं सर्पिर्व समजलपानैर्नरं ततः ॥ १ ॥
૮°
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(३६५))
स्नेहाकांत समाश्वास्य पयोभिः स्नेह यत्पुनः यूपैर्ध म्यादकानूपरसैर्वा खेद सयुक्तैः ॥ २-५ पायसैः कृसरैः साम्ललवणैः सानुवासनैः । वातघ्नैस्तर्पणैश्वान्नैः सुस्निग्धैः स्नेहयेत्ततः॥ स्वभ्यक्तं स्नेहसंयुक्तैः शंकराद्यैः पुनः पुनः
P
7
अर्थ-उपस्तंभ से रहित अर्थात् जिसमें कफपित्तादि के कारण किसी प्रकार की अवरुद्धता न हो ऐसी केवल वायुको स्नेहों द्वारा उपचारित करे । अर्थात् घी, मसा मज्जा और तेल इनका पान कराके रोगीको स्नेहित करे । पश्चात् स्नेहाक्रान्त वातव्याधि पीडित रोगी को दूध के प्रयोग से समाश्वासित करके फिर स्नेहन करे । इस काम के लिये स्नेहयुक्त मुद्गादियूष, माम्य, औदक और आनूप पशुपक्षियों का मांसरस, पायस, कृसरा ( खिचडी ), खटाई और नमक से युक्त वातनाशक अनुवासन, तर्पण, और सुस्निग्ध अन्नका बार बार प्रयोग करके तथा रोगी को अच्छी तरह से अभ्यक्त करके स्नेहसंयुक्त शंकरस्वेद द्वारा बार बार वेदित करे ।
3
स्वेदन के गुण । स्नेहाक्तं स्विन्नमंग तु वक्रं स्तब्धं सवेदनम्, यथेष्टमानामयितुं सुखमेव हि शक्यते ।
अर्थ- वक्र, स्तब्ध और वेदनायुक्त अंग को स्नेह से चुपडकर स्वेदद्वारा स्विन्न करले तत्पश्चात् जैसी इच्छा हो वैसेही सुखपूर्वक अंगको नवाया जा सकता है ।
उक्तविषय पर दृष्टान्त | शुष्काण्यपि हि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः॥ शक्यं कर्मण्यतां नेतु किमु गात्राणि जीवताम्
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(६६६)
- मष्टांगहृदय ।
अर्थ-जब सूखे हुए निर्जीवकाष्ठ भी | वातरोग पर घृत । स्नेह स्वेदन से जैसी इच्छा हो वैसेही उप-घृतं तिल्वकसिद्धं वा सातलासिद्धमेव वा॥ योग में लाये जा सकते हैं. तब सजीव | पयसरंडतैलं वा पिबेहोषहरं शिवम् । देहवालों का तो कहना ही क्या है।
___अर्थ-वातरोग में लोध के साथ अथवा हर्षादि का शमन । सातला के साथ पकाया हुभा घी देना हर्षतोदरुगायामशोफस्तंभग्रहादयः ॥ ६॥ चाहिये अथवा दूध के साथ अरंड का तेल स्विन्नस्याशु प्रशाम्यति मार्दव चोपजायते | देने से भी वातव्याधि शंत होजाती है ।
अर्थ-स्वेदन करने से रोमांच, तोद, वेदना, आयाम, सूजन, स्तब्धता और देह ।
वायुके अनुलोमन में हेतु ।
स्निग्धाम्ललवणोष्णाचैराहारैर्हि मळश्चितः की जकड़न जाती रहली है और शरीर नरम
स्रोतो रुध्वाऽनिल रुध्यात्तस्मात्तमनुलोमयेत् पडजाता है।
_____ अर्थ-चिकने, खट्टे,नमकीन और उष्णस्नेहमयोग का फल । बेहश्य धातून संशुष्कान् पुष्णात्याशु
वायर्यादि आहार के करने से दोष वृद्धि को __प्रयोजितः ॥७॥ पाकर स्रोतों को रोकते हुए वायुको रोक पलमग्निबलं पुष्टिं प्राणं चाऽस्याभिवर्धयेत् । | देते हैं, इसलिये वायुका अनुलोमन करना . अर्थ-स्वेदन के पीछे स्नेहका प्रयोग |
चाहिये। करने से वातरोगी की सूखी हुई धातु शीघ्रही |
विरेचनके योग्यको निम्हण । पुष्ट हो जाती हैं और उसके बल,अग्निवल, लोगोविरेच्यः स्यात्तं निरूहैरुपाचरेत् । पुष्टि और आयुकी वृद्धि होती है । दीपनैः पाचनीयैर्वा भोज्यैर्वा तद्युतैनरम् । अन्य प्रयोग।
संशुद्धस्येत्थिते चाऽग्नौ नेहस्वेदी पुनार्हतौ असकृत्त पुनः लेहः स्वेदैश्च प्रतिपादयेत् ॥ अर्थ-जो वातरोग दुर्बल और विरेचन तथा नेहमृदौ कोष्ठे न तिष्ठत्यनिलामयाः । के योग्य हो, उसे दीपन और पाचन औ___अर्थ-वातरोगी को बार बार स्नेहन
षधों से युक्त निरूहण देवे । अथवा दीपन और स्वेदन द्वारा स्निग्ध और स्विन्न करता
और पाचन द्रव्यों से युक्त भोजन करावै । रहै, क्योंकि ऐसा करने से कोष्ट कोमल हो
निरूहादि के प्रयोग से शुद्ध हुए रोगी की जाता है और वातरोग नष्ट होजाते हैं।
अग्नि के प्रदीप्त हो जाने पर फिर स्नेहन औषध का प्रयोग । योतेन सदोषत्वात्कर्मणा न प्रशाम्यति और स्वेदन देना चाहिये । मृदुभिः स्नेहसंयुक्तैभषजस्तं विशोधयेत् । आमाशयगत वायु में कर्तव्य ।
अर्थ-यदि उक्त कर्म से दोष की आधि- आमाशयगते बायो वमितप्रतिभोजिते । कता के कारण वातरोग प्रशमित न हो तो । सुखावुना षट्चरणं बचादि वाप्रयोजयेत् ॥ स्नेहयुक्त कोमल औषध अर्थात् अमलतासा
संधाक्षतेऽग्नौ परतो विधि केवलवातिक.।
मत्स्यान्नाभिप्रदेशस्थे .. दि द्वारा विरेचन देवै ।
सिद्धान्विल्पशलाटुभिः ॥ १५॥
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म० २१
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ६.६.७ ]
अर्थ- जब वायु दूषित होकर आमाशय | नहिकं नावनं धूमः श्रोत्रादीनां च तर्पणम् अर्थ - कुपित वायु के हृदयगामी होने पर शालिपर्णी डालकर औटाया हुआ दूध हितकारी होता है । वायु के शिरोगामी होने पर शिरोवस्ति, स्नैहिक नस्य, धूमपान और कर्णादि तर्पण का प्रयोग करना चाहिये |
में चली जाय तब रोगी को वमित और प्रतिभाजित करके उसे षट् चरण वा वचादि चूर्ण गरम पानी के साथ देवै । इससे अग्नि के संधुक्षित होने पर केवल बातनाशक क्रिया करनी चाहिये । यदि वायु नाभिप्रदेश में स्थित हो तो बेलगिरी के साथ पकाई हुई मछली देवै । षट्चरण का योग संग्रह में यह लिखा है कि 'दावों कलिंगकटुकातिविषाग्निपाठामूत्रेण सूक्ष्मरजसा घर'णप्रमाणाः पीता जयंति गुदजोदर कुष्ठमेहकोष्ठानिलाढयपवनग्रहणप्रदोषानिति । अर्थात् दारूहल्दी, इन्द्रजौ, कुटकी, अतीस, चीता और पाठा इन छः द्रव्यों को गोमूत्र के साथ एक धरण अर्थात् पांचमाशे के लगभग पीने से अर्श, उदररोग, कुष्ठ, प्रमेह को ष्टानिल, वातग्रहणी दोष नष्ट होजाते हैं । अनाभिस्थ वायु में अवपीडक । बस्तिकर्मत्वधनाभिः शस्यते
Verseपीडकः ।
अर्थ- वायु के नाभि से नीचे स्थित होने पर वस्तिकर्म और अवपीडक का प्रयोग करे |
कोष्ठस्थ वायु में कर्तव्य | कोष्ठगे क्षारचूर्णाद्या हिताः
पाचनदीपनाः ॥ १६ ॥
अर्थ - वायु कोष्ठगामी होने पर पाचन और अग्निसंदीपन चूर्णादि हितकारी होते हैं । हृदयादिगत वायु में कर्तव्य पयः सिरासिद्धम्
शिरोवस्तिः शिरोगते ।
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त्वचागामी वायु में कर्तव्य | स्वेदाभ्यंगानि वातानि हृद्यं खानं स्वगाश्रित
अर्थ - वायुके त्वचा में जाने पर ऊपर लिखे हुए स्नेहन, स्वेदन और हृदय को हितकारी द्रव्यों का प्रयोग करे |
*
शीताः प्रदेहा रक्तस्थे विरेको रकमोक्षणम् रक्तस्थ वायु में कर्तव्यः । अर्थ - वायु के रक्तस्थ होने पर शीतल लेप, विरेचन और रक्तमोक्षण हितकारी हैं ! मांस मेदस्थ वायु में कर्तव्य | चिरेको मांसमेदःस्थे निरुहाः शमनानि च
अर्थ - वायु के मांस और मेदा में स्थित होने पर विरेचन, निरूहण और शमन क्रिया करनी चाहिये |
अस्थिमज्जागत वायु | बाह्याभ्यंतरतः स्नेहैरस्थिमज्जगतं जयेत् ॥ अर्थ-वायु के अस्थि और मज्जा में स्थित होने पर स्नेह का वाह्य और अभ्यं तर प्रयोग करके उसके दूर करने का उपाय करे ।
शुक्रस्थ वायु में कर्तव्य | प्रहर्षोन्नं च शुक्रस्थे बलशुक्रकरं हितम् । अर्थ- शुक्रस्थ वायु में प्रहर्षण तथा बल और वीर्य को बढानेवाले अन्न हितकारी होते हैं
1
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((te)
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tiger |
रुद्धमार्ग शुक्र में कर्तव्य |
विषद्धमार्ग दृष्ट्वा तु शुक्रं दद्याद्विरेचनम् विरिक्तं प्रतिभुक्तं च पूबक्तां कारयोक्रियाम्
अर्थ- जब वायु वीर्य के मार्ग को रोकले तब विरेचन देना चाहिये, विरेचन के पीछे. पथ्य देकर पूर्वोक्त रीति से चिकित्सा करना उचित है ।
अ २१
पतानक में चिकित्सा | अथाऽपतानकेनार्तमस्त्रस्ताक्षमवेपनम् २४ अस्तब्धमेद्द्मस्वेदं बहिरायामवर्जितम् । अखट्वाघातिनं चैनं त्वरितं समुपाचरेत् ॥
अर्थ-- अपतानक रोग में यदि रोगी स्त्रस्ताक्ष ( शिथिल नेत्र ) अकंपित शरीर, अस्तब्ध मेदू, स्वेदरहित, वहिरायाम से रहित हो तथा खाट पर न सो सकता हो तो इसकी चिकित्सा बहुत शीघ्रता पूर्वक करनी चाहिये ।
युद्वारा शुष्क गर्भ में कर्तव्य | शुष्के तु वातेन बालानां च विशुष्यताम सिताकाश्मर्यमधुकैः सिद्धमुत्थापने पयः । अर्थ- वायु के द्वारा गर्भ के शुक होने पर मिश्री, कल्हारी और मुलहटी डालकर औटाया हुआ दूध पान कराने से सूखा हुआ गर्भस्थ बालक पुष्ट होजाता है ।
स्नायुगत वायु में कर्तव्य | स्नायुसंधिशिरः प्राप्त स्नेहदाहोपनाहनम् ॥ अर्थ- वायु जब स्नायु, संधि और शिरा में प्रविष्ट होजाय तब दाह और उपनाह का प्रयोग करना चाहिये । अंग के संकुचित होने पर कर्तव्य । तैलं संकुचितेऽभ्यंग माप सैंधव साधितम् ।
अर्थ - बायुद्वारा देह के सुकडजाने पर उरद और सेंधा नमक डालकर सिद्ध किये हुए तेल का मर्दन हितकारी होता है । रक्तस्राव में लेप | आगारधूमलषण तैलैर्लेपः खतेऽसृजि २३ सुप्तेऽगे वेष्टयुक्ते तु कर्तव्यमुपनाहम् ।
अर्थ - किसी अंग से रक्त का स्राव होने पर घरका धूंआं और नमक मिला हुआ तेल लगाना चाहिये जो अंग सो जाय - र्थात् जिसमें स्पर्श का ज्ञान न हो वा बांटे भाते हों तो उपनाहन करना चाहिये ।
|
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उक्तरोग में नस्यादि ।
तत्राव सुस्निग्धं स्थिनांगेतीक्ष्णनावनम् स्रोतोविशुद्धये गुंज्यादच्छपानं ततो घृतम् विदार्यादिगणकाथदधिक्षीररसैः शुतम् ॥ नाऽतिमात्र तथा वायुर्व्याप्नोति सहसैव वा
अर्थ - अपतानक: रोग में प्रथम ही रोगी को स्निग्ध और स्विन्न करके स्रोतों की विशुद्धि के लिये त्रिकुटादि द्वारा तीक्ष्ण नस्य देना चाहिये । पीछे विदार्यादि गण के काढे, दही दूध और मांसरस के साथ सिद्ध किया हुआ घृत का अच्छपान देना चाहिये ऐसा करने से वायु अधिकता के साथ वा अधिक वेग से व्याप्त नहीं होता हैं ।
वातनाशक स्नेहस्वेद | कुलत्थयवकोलानि भद्रदार्वादिकं गणम् । निःक्काथ्यानूपमांसं च तेनाम्लैः पयसाऽविच स्वादुस्कंधप्रतीवापं महास्नेहं विपाचयेत् ! सेकाभ्यंगावगा हान्नपाननस्यानुवासनैः ॥ संहति वातं ते ते च स्नेह स्वेदाः सुषोजिताः
अर्थ- कुलथी, जौ, बेर, भद्रदार्वादि और आप मांसका काढा बनाकर
गण,
कांजी; दूध तथा मधुरगणोक्त द्रव्यों का प्रतीबाप देकर नियमपूर्वक महास्नेह का पाक
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म. २०
चिकित्सितस्थान भोपाठीकासमेत ।
(१९९)
करे। यह महास्नेह परिषक, अभ्यंग, अव- पोनिव्यापद्गुल्मषध्मोगा AR गाह, अन्नपान, नस्य और अनुवासन द्वारा अर्थ-लोध भाठ पल, त्रिफला-फर प्रयोजित किये जानेपर वात का नाशकरत | स्थ, वृहत्पंचमूल, भरंड, कटेरी और निसोहै, तथा सम्यक स्नेह और स्वेदन से भी थ प्रत्येक एक पल इनको एकद्रोण जलेमें घातका नाश होता है।
पकावै, जब चौथाई शेषरहै तम दही एक बेगांतर में शिरोविरेचनादि। ढक, जवाखार तीन पल और घी एक धेगांतरेषु मुर्धानमसकृच्चास्य रेचयेत् ३ प्रस्थ डालकर पाकबिधि के अनुसार पाक अवपीडैः प्रधमनैस्तीक्ष्णैः श्लेष्मनिवर्हणैः। करे, इसके सेवन से दुष्टवान, एकांगवात, सनासु विमुक्तासु तथा संज्ञां स विदति सागवात, योनिरोग, गुल्म, वर्म और अर्थ-उक्त वातरोगों में जब वायुका
उदररोग शांत होनाते हैं। बेग शांतहो तव कफको निकालने वाले ती.
अन्य विधि। 'क्षण अवपीड और प्रधमन नस्य द्वारा वार विधिस्तित्वकोयोशम्याकाशोकयोरपि बार शिरोविरेचन देवै, इससे श्वसना अर्था- . अर्थ-लोधके साथ घृतपाक करने का त् हृदयाश्रिता प्राणनाडी के कफसे मुक्तहो- जो नियम ऊपर लिखागया है, वही नियम ने पर रोगी चेत करलेता है । द्रव्यों का अमलतास और अशोक के साथ घृत पाक कल्क करके उसका रस निचोडकर जो | करनेका है। नाक में डालाजाता है उसे नीड कहते शुद्ध अपतानक की चिकित्सा ।। हैं और जो द्रव्यों का चूर्ण करके नलद्वारा | चिकित्सितमिदंकुर्याच्छुद्धधातापतानके३४ माक में फूंका जाता है उसे प्रधमन कहते हैं।
| संसृष्टदोषे संसृष्टं ... वाताधिक्यमें प्रत ।
___ अर्थ-अन्य दोषों के संसर्ग से रहित सौवर्चलाभयाव्योषसिद्धं सर्पिश्चलेऽधिके
र शुद्ध बात से उत्पन्न हुए अपतानक में :अर्थ-कालानमक, हरड और त्रिकुटा
| पर लिखी हुई चिकित्सा करनी चाहिये । हुनसे सिद्ध किया हुआ घी वातकी अधिक
और जो अपतानक मिश्रित दोषों से युक्त ता में हितकारक होता है।
होतो दो दोषोंकी मिश्रित चिकित्सा करनी वातनाशक अन्य घृत ।
चाहिये। पलाष्टकं तिल्वगतो वरायाः
कफयुक्त अपतानक की चिकित्सा । मस्थ पलाश गुरुपंचमुलम् ।
घूर्णायत्वा कफान्विते। सैरडसिंहीत्रिवृतं घटेऽपा तुंवुण्यभयार्हिगुपाकर लवणत्रयम् ॥ पक्त्वा पचेत्पादश्रुतेन तेन ॥ ३२॥ यवकाथांना पेयं दृस्पार्धाय॑पतंग! बनः पाने यावशकात्त्रिविल्वैः हिंगु सौवर्चलं शुठी दाडिमं साम्लनेतसम्। सर्पिप्रति तत्सम्यमानमा पिता श्लेष्मपवनहद्रोगाने च शस्यते। सुंधावासोनकासपीसिंस्थान, मर्ध-कफयुक्त अपतानक में ,धनियां,
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मष्टांगहृदय ।
हरड़, हींग, पुष्करमूल और तीनों नमक, | मरता नहीं है, परन्तु उसका शरीर झुक इनका चूर्ण बनाकर जौ के काथके संग पान जाताहै, देहमें जकडन होजाती है, लला, करै । हृदयका दर्द, पसली का दर्द, और लंगडा, टोंटा, पक्षाघात प्रस्त और विकलांग अपतंत्रक में हींग, कालानमक, सौंठ, अनार होजाता है । हनुस्रंसरोग में दोनों हनुओंको और अम्लवेत इनका चूर्ण जौ के क्वाथके
स्नेहन और स्वेदन द्वारा स्निग्ध और स्विन्न साथ सेवन करे, तथा वातकफजन्य हृदयरोग
। करके यथास्थानमें लगा देवै । जो मुख खला में कही हुई संपूर्ण औषधियो को काममें लावै ।
रहजाय तो कुशल वैद्यको उचित है कि आयाम में चिकित्सा ।
| ठोडी को ऊंची उठावै । संवृत मुखमें ठाडी आयामयोरर्दितवद्वाह्याभ्यंतरयोः क्रिया ॥ को नीचे नवावै शेष रोगों में एकायाम की तैलद्रोण्यां च शयनमांतरोऽत्र सुदुस्तरः।। तरह चिकित्सा करै।
अर्थ-वहिरायाम और अंतरायाम की जिव्हास्तंभ की चिकित्सा । चिकित्सा अर्दितके समान करना चाहिये । जिहास्तंभे यथावस्थं कार्य वातचिकित्सितम् रोगी को तेलको द्रोणी में शयन करावै ।। अर्थ-जिव्हास्तंभ में अवस्था के अनुसार इन दोनों में अंतरायाम बहुत कष्टसाध्य हो- | वातरोग की चिकित्सा करनी चाहिये । .. ताहै।
___अर्दितरोग की चिकित्सा । विवर्णता का फल । अदिते नावनं मुनि तैलं श्रोत्राक्षितर्पणम् ॥ विवर्णदेतवदनः स्रस्तांगो नष्टचेतनः ३८॥ | सशोफे धमनं दाहरागयुक्त सिराव्यधः। प्रस्विनंश्च धनुकभी दशरात्रंन जीवति । । अर्थ-अर्दित रोगमें नस्य , सिर में तेल
अर्थ-जिस धनुष्कंभवाले रोगी के दांतों | तथा कान और आंख का तर्पण हित है। का रंग बिगड जाय, देह कुरूप होजाय, | जो अर्दित सूजनसे युक्त होतो वमन तथा अंगशिथिल हो, होश हवास जाते हैं,देहपर | दाह और रोगसे युक्त हो तो फस्द खोलना पसीने आने लगे तो वह रोगी दस दिनमें | चाहिये । ही मरजाता है।
पक्षाघात में चिकित्सा । . मंदबेग में चिकित्सा ।
मेहन स्नेहसंयुक्तं पक्षाघाते विरेचनम् ४३ धेगेष्वतोऽन्यथा जीवेन्मेदेषु विनतो जडः॥ |
अर्थ-पक्षाघात में स्नेहन तथा स्नेहयुक्त
| विरेचन दैना हित है। खजः कुणि पक्षहतः पंगुलो विकलोऽथवा हनुस्रंसे हनु स्निग्धस्विन्त्री स्वस्थानमानयेत् । अबवाह में नस्यादि । उन्नमयेश कुशलश्चिबुकं विवृते मुखे। अबबाहौ हितं नस्यं स्नेहश्चोत्तरभक्तिकः। नामयेत्संवृते शेषमेकायामवदाचरेत् ४१॥ अर्थ- अबवाह रोगमें नस्य तथा भोजन
अर्थ-धनभवाले रोगी के पदि ऊपर के पीछे स्नेहपान हित है। . लिख हुए बुरे लक्षण उपस्थित न हुए हो ऊरस्तंभमें नस्यादि निषेध। . और वायु का ग भी यदि कमहो तो रोगी अरुस्तमगच स्नेहो न संशोधनं हितम
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मं० २१
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लिह्यात्क्षौद्रेण वा
चिकित्सितस्थान भावाटीकासमेत ।
श्लेष्माममेदाबाहुल्याद्युक्तथा तत्क्षपणान्यतः कुर्याद्रक्षोपचारांश्च यवश्यामाककोद्रवाः ॥ शाकैरलवणैः शस्ताः किंचित्तैलैर्जलैः शुतैः जांगले रघु ते ममष्वंभरिष्टपायिनः ४६ ॥ वत्सकादिहरिद्रादिर्वचादिर्वा ससैंधवैः । आमवाते सुखांभोभिः पेयः पटूचरणोऽथवा
अर्थ-- ऊरुस्तंभ में यदि कफ, आम और मेदकी अधिकता हो तो स्नेहन तथा वमन और विरेचन हितकारी नहीं होते हैं । इस लिये कफ, आम और मेदा को क्षीण करने वाली औषधों का प्रयोग करना चाहिये । इस रोममें रूक्ष क्रिया,जौ, सोंखिया, कोदों धान्य, थोडा नमक और तेल मिलाकर जल में पकाया हुआ शाक, घृतरहित जांगल मांसरस, मधु मिला हुआ जल, तथा अरिष्ट और आसव हितकारी होते हैं । आमवात में सेंध नमक से युक्त वत्सकादि, हरिद्रादि बचादि वा षट्चरण ईषदुष्ण गरम जल के साथ सेवन करने चाहिये ।
उक्तरोग में लेहादि ।
श्रेष्ठाचव्यतिक्ताकणाघनान् । कल्कं समधु वा चव्यपथ्याग्निसुरदारुजम् ॥ मूत्र व शीलयेत्पथ्या गुग्गुलुं गिरिसंभवम् । अर्थ - ऊरुस्तंभ त्रिफला, चव्य, कुटकी पीपल, और नागर मोथा इनका कल्क अथवा चव्य हरड, चीता और देवदारू इन के कल्क में राहत मिलाकर अथवा हरड गूगल वा शिलाजीत गोमूत्र में मिलाकर सेवन करना चाहिये ।
अन्य प्रयोग । व्योषाग्निमुस्तत्रिफला बिडंगैर्गुग्गुलं समम्
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( ६७१ )
खादन् सर्वान् जयेयाधीन- मेद:श्लेष्णमवातजान् ।
अर्थ- त्रिकुटा, चीता, मोथा, त्रिफला और बायबिडंग, इन नौ द्रव्यों के बराबर गूगल मिलाकर खानेसे मेद, कफ, आम और वातसे उत्पन्न हुई सब प्रकार की व्याधियां शांत होजाती है |
वायुके शमन का प्रयोग | शाम्यत्येवं कफाक्रांतः समेदस्कः प्रभंजनः ॥ क्षारमूत्रान्वितान् स्वेदान् सेकानुद्वर्तमानिच कुर्याल्लिह्याश्च मूत्रादयैः करंजफलसर्षपैः ॥ मूलैर्वाप्यर्क तर्कारी निवजेः ससुराह्वयैः । सक्षौद्रसर्षपापक्वलोष्ठवमकिमृत्तिकैः ५२ ॥
अर्थ - ऊपर लिखी हुई रीति से चिकित्सा करने पर कफाक्रांत संमंदस्कवायु शांत होजाती है । इस रोग में जवाखार और गोमूत्र में मिलाकर स्वेदन परिषेक और उद्वर्तन करना चाहिये । कंजा और सरसों को गोमूत्र में मिलाकर अथवा आक, तर्कारी, नीम और देवदारू इनकी जड, सरसों, कच्ची मिट्टी और वांची को मिट्टी इन सबको शहत में मिलाकर लेपकरे 1
उक्तरोग में व्यायामादि । कफक्षयार्थ व्यायामे सो चैन प्रवर्तयेत् । स्थलान्युल्लंघयेन्नारीः शक्तितः परिशीलयेत् ॥ स्थिरतायं सरः क्षेमं प्रतिस्रोतो नहीं तरे श्लेष्ममेदःक्षये चाऽत्र स्नेहादीनबचारयेत् ॥
अर्थ - उरुस्तंभवाले रोगी को कफ के क्षय के निमित्त सहने के योग्य व्यायाम करने
में
प्रवृत करे किसी जगह का लांघना, शक्ति के अनुसार स्त्रीसेवन, बंध हुए जलवाले और प्राहादि से वर्जित तालाव में अथवा
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( ६७२ )
नदी के लोताभि मुख तैरैना, इनकामों को करावे । इन कामों से कफ और मेद के क्षीण होने पर स्नेहादि का प्रयोग करे । शेष अंगोंकी चिकित्सा ॥ स्थान दृष्यादि चालोच्य कार्यो शेषेष्वपि - क्रिया |
अर्थ - इनसे अतिरिक्त वातरोग में देह अवयव और दूष्यादि को देखकर चिकित्सा करना चाहिये |
જ
अन्य प्रयोग |
सहचरं सुरदारु सनागर कथित भसि तैलविमिश्रितम् । पवनपीडितदेहगतिः पिवेद् द्रुतविलंवितगो भवतीच्छ्या ॥ ५५ ॥ अर्थ - सहचर, देवदारु, सोंठ, इन के काढ़े में तेल मिलाकर पीवे । इसको पीने से पवनद्वारा पीडित देह और गतिवाला मनुष्य इच्छानुसार शीघ्र वा विलंब से चलने बाला होजाता है ।
1
रास्नादि घृत |
अष्टांगहृदय !
राजामहैौषधद्वीपिपिप्पलीश ठिपौष्करम् । पिष्टवा, विपाचयेत्सर्ववतिरोगहरं परम् ॥
अर्थ - - रास्ना, सोंठ, चीता, पीपल, कन्नूर और पुष्करमूल इनके कल्क के साथ 1 पाककी रीति से पकाया हुआ घृत सेवन . करे, यह वातरोगों के दूर करने में बहुत उत्तम औषध है ।
अन्य मंयोग । निवामृतावृषपटोलनिदिग्धिकानां भागान्पृथक्चपलाविपचेद्धटेऽपाम् अष्टांशशेषितरसेन पुनश्च तेन प्रस्थं घृतस्य बिपचेत्पिचुभागकल्कैः ॥ पाठाविना रुजोपकुल्या
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म०
द्विक्षारनागरनिशामिंशिचम्यकुष्ठैः । तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकानिरोहिण्यरुपकर चाकणमूलयुक्तः १५८ मंजिष्ठयातिविषया विषया यवान्या संशुद्ध गुग्गुलुपलैरपि पंचसख्यैः । तत्सेवितं प्रधमति प्रबलं समीरं संध्यस्थिमज्जगतमप्यथ कुष्ठमीदृक् ॥ नाडीव्रणार्बुदभगंदरगंडमालाजनूर्ध्व सर्वगद गुल्म गुदात्थमेहान् । यक्ष्मारुचिश्वसनपीनसकासशोफहृत्पांडुरोगमदविद्रधिवातरक्तम् ॥ अर्थ- नीमकी छाल, गिलोय, अडूसा, पर्व और कटेरी प्रत्येक दस दस पल लेकर एक द्रोण जलमें पका । अष्टमांस शेष रहने पर छानले फिर इसमें एक प्रस्थ घी डालदे । तथा पाठा, वायविडंग, देवदारु, गजपीपल, जवाखार, सज्जीखार, सौंठ, हल्दी, सौंफ, चव्य, कूठ, मालकांगनी, काली मिरच इन्द्र जौ, अजवायन, चीता, कुटकी मिलावt बच, पीपलामूल, मजीठ अतीस, कल्हारी और अजवायन प्रत्येक एक तोला, शुद्ध किया हुआ गूगल पांच पल इनका कल्क डालकर पाक की रीतिसे पकावे | इस घृतके सेवन करनेसे संधिगत, अस्थिगत और मज्जांगत प्रवलवायु, कुष्ठरोग, नाडीबुण, अर्बुद, भगंदर गंडमाला, जत्रुके के ऊपर के रोग, गुल्मरोग अर्श, प्रमेह, यक्ष्मा, अरुचि, श्वास, पीनस, खांसी, सूजन, हृद्रोग, पांडुरोग, मदात्यय, विद्रधि और वातरक्त नष्ट होजाते हैं ।
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शिरोगत बायु में नस्य । बलाबल्य शृते क्षीरे घृतमंड विपाचयेत् । तस्य शुक्तिः प्रकुंचो वानस्यं वाते शिरोगते अर्थ - शिरोगतवायु में खरैटी और बेल
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०२१
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
गिरी डालकर औटाये हुए दूध में घृतमंड
अन्य प्रयोग । का पाक करके इसमें से चार वा आठ तोले समूलशाखस्य सहाथरस्यतक नस्य देना चाहिये।
तुलां समेतां दशमूलतश्च ।
पलानि पंचाशदीरुतश्च. अन्य प्रयोग।
पादावशेष विपचेदहेऽपाम् ॥ ६६ ॥ तद्वात्तिद्धा बसा नक्रमत्स्यकूर्मचुळूकजा। तत्र सेव्यनस्त्रकुष्टहिमैलाबिशेषेण प्रयोक्तव्य केवले मातारश्वानि ॥ स्पृकूप्रियंगुनालकांवुशिलाजैः।
अर्थ-ऊपर लिखे हुए घृतमंड के अनु- लोहितानलदलोहसुराहै:सार तक्र, मछली, कच्छप, और सूंस की
कोपनामिशितुरुष्कनैतश्च ॥ ६७
तुल्य क्षीर पालिकैस्तैलपात्रंचर्वी को पकाकर सेवन करने से वातरोग |
सिद्धं कृच्छ्रान्शीलित हति वातान् । में विषेश लाभ होता है।
कंपाक्षेपस्तंभशोषादियुक्तान्। अन्य तैल।
गुल्मोन्मादी पीनसं योनिरोगान् ।। जीर्ण पिण्याकं पत्रमूल पृथक्
अर्थ-कुरंट की जड और शाखा एक काथ्यं क्वाथाम्यामेकतस्तैलमाभ्याम् . . तुला, दशमूल एक तुला, सितावर ५० पल क्षीरादष्टांश पाचयेत्तेन पानाद्
जल एक द्रोण इनका काढा करे चौथाई वाता नश्येयुः श्लेष्मयुक्ता विशेषात् । अर्थ-पुरानी खल और पंचमूल इनका
शेष रहने पर उतार कर छानले इसमें खस, अलग २ काढा करके इन काढोंसे अठगुना
नखी,कुडा, चंदन, इलायची, स्पृक्वा,प्रियंगु, दूध डालकर इसमें तेल पकावे, इस तेल के
नलिका, नेत्रवाला,शिलाजीत, मजीठ, बालपान करने से विशेष करके कफसंयुक्त बात
छड, अगर, देवदारु, कोपना, सोंफ, शि
लारस, तगर प्रत्येक एक पल, इनका कल्क रोग दूर होजाते हैं। अन्य तेल ।
डाल, तथा एक पात्र तेल और इतना ही प्रसारिणी तुलाकाथे तैलप्रस्थं पयः समम् ।।
दूध मिलाकर पाककी रीति से तेल को द्विमेदामिशिंमजिष्ठाकुष्टरानाफुचंदनैः ॥
पकावे । इसके सेवन करनेसे अत्यन्त कष्टः जीवकर्षभकाकोलीयुगुलामरदाराभिः । प्रद वातरोग, कंपन, आक्षेप, स्तंभ, शोष कल्कितैर्विपचेत्सर्वमारुतामयनाशनम् ६५॥
गुल्म, उन्माद पीनस और योनिरोग जाते अर्थ-प्रसारिणी के एक तुला काथ में | रहते हैं। एक प्रस्थ तेल और एक प्रस्थ दूध मिलावे वातकुंडलिकादिनाशक तैल।. तथा मेदा, महामेदा, सोंफ, मजीठ, कूठ, सहाचरतुलायास्तु रसे तैलाढकं पचेत् । रास्ना रक्तचंदन, जीवक, ऋषभक, काकोली, | मूलकलकाद्दशपलं पयो दत्त्वा चतुर्गुणम् ॥ क्षीरकाकोली, और देवदारु इनका कल्क
अथवा नतषग्रंथास्थिराष्टसुराहयान् ।
सैलानलदशैलेयशताहारक्तचंदनाम् ॥७॥ डालकर विधिपूर्वक पाक करे, इस तेल से
सिद्धऽस्मिन् शर्कराचूर्णादष्टादशपलंसब प्रकार के वातज रोग नष्ट होजाते हैं।
क्षिपेत्।
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अष्टांगहृदय ।
अ०२१
भेडस्य समतं तैलें तत्कृच्छ्राननिलामयान् ॥ रहजाय तब दही का तोड ईखका रस,कांजी घातकुंडलिकोन्मादगुल्मवादिकान् जयेत् | और तेल एक एक आढक डालै, बकरीका ___ अर्थ-कुरटं के एक तुला काढे में एक
दूध आधा आढक मिलावे । फिर इस में भाढक तेल, दसपल मूली का कल्क और
कचूर, सरलकाष्ठ, देवदारु, इलायची,मजीठ, चार आढक दूध डालकर पाक की रीति |
अगर, चंदन, पद्माख, अतिबला, मोथा, से पकायै । अथवा पूर्वोक्त सहचरी के काढे
सूपपर्णी, हरेणु, मुलहटी, सुरस, व्याघ्रनख, में तगर, वच, शालपर्णी, कुडा, देवदारु,
जीवक, ऋषभक, केशू, रसौत, कस्तूरी, इलायची, बालछड, शिलाजीत, सोंफ, लाल
नीलिका, जावित्री, ब्राह्मी, केसर, शिलाजीत चंदन इनको डालकर तेलको पकावै, इसमें
चमेली, कायफल, नेत्रबाला, दालचीनी, अठारह पल खांड मिलादे । यह तेल कष्ट.
कुंदरु, कपूर, शिलारस, श्रीवेष्ट, लोंग,नखी, साध्य वातरोग, वातकुंडलिका, उन्माद,
कंकोल, कुडा, जटामांसी, प्रियंगु, गाजर, गुल्म वर्म आदि रोगों को जीत लेता है ।
तगर, रोहिषतृण, बच, मैनफल,. कैवर्तक यह तेल भेड मुनि का लिखा हुआ है।
मोथा, नागकेसर प्रत्येक एक पल इन का बला तेल ।
कल्क डालकर पाकविधि से पाक करै । वलाशतं छिन्नरुहापादं रास्नाष्टभागिकम् ॥
फिर इसे उतार कर छानले और तेजपात जलाढकं शते पक्त्वा शतभागस्थित रसे। दधिमस्त्विक्षुनिर्यासशुल्कैस्तैलाढकं समैः॥
का चूर्ण मिलादे । यह तेल खांसी, श्वास पचेत्साजपयोर्धाशं कल्कैरोभिः पलोन्मतः। ज्वर, वमन, मूर्छा, गुल्म क्षत, क्षयी, प्लीह शठीसरलार्वेलामंजिष्ठागुरुचंदनैः॥ ७४॥ शोष, अपस्मार और अलक्ष्मी को दूर करता प्रनकातिबलामुस्ताशूर्पपर्णीहरेणुभिः ।
है । तथा सब प्रकार के वातरोगों को नष्ट यष्टयाह्नसुरसव्याघनखर्षभकजविकैः ॥ पलाशरसकस्तूरीनालिकाजातिकोशकैः। ।
कर देता है। स्पृकाकुंकुमशेलयजातिकाकट्फलांबुभिः॥
उक्त तेलोंका फल ।। त्वकुंदरुककर्पूरंतुरुष्कश्रीनिवासकैः ।
"पाने नस्यऽन्वासनेऽभ्यंजने च लवंगनखकंकोलकुष्टमांसीप्रियंगुभिः ॥ स्नेहा: काले सम्यगते प्रयुक्ताः। स्थोणेयतगरध्यामवचामदनकप्लवैः।
दुष्टान्वातानाशु शांति नयेयुसनागकेसरः सिद्धे दद्याचाऽत्रावतारिते ॥ ध्या नारी:पुत्रभाजश्च कुयुः ॥ ८१ ॥ पत्रकल्कं ततः पूतं विधिना तत्प्रयोजितम् ।।
अर्थ-ऊपर कहेहुए सब प्रकार के स्नेह कासश्वासज्वरच्छार्दमूछोंगुल्मक्षतक्षयान् ॥
उपयुक्त काल में पान, नस्य, अनुवासन और प्लीहशोषमपस्मारमलक्ष्मी च प्रणाशयेत् । बलातैलमिद श्रेष्ठ बातव्याधिविनाशनम् ॥
अभ्यंजन द्वारा प्रयोग किये जानेपर बिगडे . अर्थ-खरैटी १०० पल, गिलोय २५ हुए वातरोगों को शीघ्र नष्ट करदेते हैं, इस पल, रास्ना साढे बारह पल, जल सौ आ- के सेवन से बन्ध्या स्त्रीके भी पुत्र हो जाढक इनका काढा करै जब एक आढक शेष ता है ।
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अ० २२
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बस्तिप्रयोग |
स्वतः श्लेष्मा यदी पक्काशये स्थितः । पित्तं वा दर्शयेद्रूपं वस्तिभिस्तं विनिर्जयेत् ॥
अर्थ-स्नेह और स्वेद द्वारा जब कफ पतला होकर पकाशय में स्थित होजाता है। और वहां अपने रूपको दिखाता है अथवा पित्त अपने रूपको दिखाता है तो उस कफ वा पित्तको वस्तिद्वारा दूर करने का उपाय करे ।
इति श्री अष्टांगहृदय संहितार्या भाषाटीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने वातव्याधिचिकित्सितनाम एकविंशोऽध्यायः ॥२१॥
द्वाविंशोऽध्यायः ।
NON
अथातो वातशोणितचिकित्सितं
व्याख्यास्यामः ।
अर्थ - अब हम यहां से वातरक्त चिकिसितनामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
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(६७५.)
अर्थ यदि वातरक्तमें वेदना, लढाई, तोद और दाह होतो जोक लगाकर रुधिर निकाले । जो चिमचिमाहट, खुजली, वेदना और जलन होती हो तो सींगी वा तूंवी लगाकर रुधिर निकाले । जो रक्त एक स्थानसे दूसरे में जाता हो तो पछने लगाकर वा सिराव्यध द्वारा रक्तको निकाल दे ।
रुधिर निकालने का निषेध ॥ अम्लानौ तु न स्त्राव्यं रूक्ष वातोत्तरं चयत् ॥ ३ ॥ गंभीरं श्वयथुं स्तंभ कंपस्नायुसिरामयान् । म्लानिमन्यांश्च वातोत्थान् कुर्याद्वायुरसृ क्षयात् ॥ ४ ॥ अर्थ- जो अंग म्लान होतो रक्तनिकालना उचित नहीं है । तथा जो वातरक्त रूक्षता और वातकी अधिकता से युक्त हो तो भी रक्त नहीं निकालना चाहिये । क्योंकि रक्त के क्षीण होजाने से गंभीर सूजन, स्तब्धता कंपन, स्नायुरोग, सिरारोग, ग्लानि तथा और भी अनेक प्रकार के वातजनित रोग पैदा होजाते हैं ।
वातरक्त में विरेचन । विरेच्यः स्नेहयित्वा तु स्नेहयुक्तैर्विरेचनैः । अर्थ- जो रोगी विरेचन के योग्य हो उसे स्निग्ध करके स्नेहयुक्त विरेचन देवे ।
वातरक्तमें रक्तहरण | वातशोणितिनो रक्तं स्निग्धस्य बहुशो हरेत् अल्पाल्पं पालयन् वायुं यथादोषं यथाबलम्
अर्थ - वातरक्तवाले रोगी को स्निग्धकर के उसके दोषदुष्यादि और बलका विचार करते हुए वार वार थोडा थोडा रक्त निकालता रहे, जिससे वायु कुपित न होने पावै ।
air निकालने की विधि | रूग्रागतोददाहेषु जलौकाभिर्विनिर्हरेत् । शृंगतुंबश्वमिचिमाकंडूरुग्डूयनाम्वितम् ॥
अन्य प्रयोग |
श्रावणक्षीरकाकोलीक्षीरिणीजीवकैः समैः ।
प्रच्छानेन सिराभिर्वा देशादेशांतरं ब्रजत् । | सिद्धं सर्षपः सर्पिः सक्षीरं वातरतनुत् ६
५
वातप्रधान वातरक्त में घृत । वातोत्तरे वातरक्ते पुराणं पाययेद्धृतम् अर्थ - वातप्रधान वातरक्त में पुराने घी का पान कराना चाहिये |
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अष्टांगहृदय ।
[ ६३ ]
अर्थ - श्रावणी, क्षीरकाकोली, खिरनी, alan और सरसों इनका कल्क डालकर दूध के साथ घी को पावै । इस घी के पीने से वातरक्त नष्ट होजाता है । अन्य प्रयोग |
द्राक्षामधूकवारिभ्यां सिद्धं वा सासितोपलम् घृतं पिबेत्तथा क्षीरं गुडूचीस्वरसे शृतम् ॥ तैलं पयः शर्करां च पाययेद्वा सुमूर्छितम्
अर्थ-वातरक्त रोग में दाख और मुलहटी के काडे में सिद्ध किये हुए घी खांड मिलाकर पानकरे अथवा गिलोय के काढ़े में दूध पकाकर सेवन करे अथवा तेल, दूध और खांड इन तीनों को मिलाकर सेवन करे |
अन्य प्रयोग | बलाशतावरीरास्नादशमूलैः सपीलुभिः श्यामैरंडस्थिराभिश्च वातार्तिघ्नं शृतंपयः
:
अर्थ - खरैटी, सितावर, रास्ना, दशमूल और पीलू इनके साथ पकाये हुए दूधके सेवन करने से अथवा श्यामानिसोथ, अरंड और शालपर्णी द्वारा पकाये हुए दूधके पीने से वातजनित व्याधियां दूर होजाती हैं
अन्य प्रयोग ।
धारोष्णं मूत्रयुक्तं वा क्षीरं दोषानुलोमनम् अर्थ - गौके थनों से निकलता हुआ ग रम दूध गोमूत्र मिलाकर पीने से भी वातरक्त का शमन होता है ।
पित्तजवातरक्त की चिकित्सा | पत्ते पक्त्वा वरीतितापटोलत्रिफलामृताः पिबेद् घृतं वा क्षीरंवास्वादुतिक्तकसाधितम्
अर्थ - पित्ताधिक्य वातरक्त में शतमूली कटकी, पर्व, त्रिफला, गिलोय इनका
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अ० २२
काढा अथवा मधुर और तिक्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ घी वा दूध सेवन करे । वातरक्त में विरेचन | क्षीरेणैरंडतैलं च प्रयोगेण पिबेन्नरः । बहुदोषो विरेकार्थ जीर्णे क्षीरोदनाशनः ११
अर्थ- वातरक्त में यदि दोषों की अधिकता हो तो विरेचन के निमित्त दूध के साथ अरंड का तेल पीवे और इसके पचने पर दूध के साथ अन्न का भोजन करे । अन्य प्रयोग |
कषायमभयानां वा पाययेद्धृतभर्जितम् । क्षीरामुपानं त्रिवृताचूर्ण द्रक्षारसेन वा १२
अर्थ- हरीतकी के काढ़े को घी में छोंककर पान करावे, इसका सेवन करके दूध पीवै अथवा दाखके रसके साथ निसोथ का चूर्ण सेवन करे |
वातरक्त में क्षीरवस्ति |
निर्हरेद्वा मलं तस्य सघृतैः क्षीरबस्तिभिः । नहि बस्तिसमं किंचिद्वातरक्तचिकित्सितम् विशेषात्पायुपावीरुपर्वास्थिजठरार्तिषु । अर्थ - वृतसंयुक्त क्षीरवस्तिद्वारा वातरक्त रोगों का मल निकालना उचित है । वातरक्त में वस्ति के समान और कोई चिकित्सा गुणकारी नहीं है । गुदा, पसली, ऊरु, जोड, अस्थि और जठर वेदना में विषेश करके वस्ति देना चाहिये |
कफोल्बणवातरक्त में चिकित्सा । मुस्ताद्राक्षाहरिद्राणां पिबेत्कार्थं कफोल्बणे सक्षौद्रं त्रिफलाया बागुडूचीं वायथा तथा ।
अर्थ--कफाधिक्य वातरक्त में मोथा, दाख और हल्दी का काढा अथवा त्रिफला के काढे में शहत मिलाकर पीने अथवा गि.
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अ. २२
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(१७७)
लोय को काथ, कल्क वा चूर्ण द्वारा सेवन | रसके साथ लेलीतकी की चर्वी का पान करे।
करने से अति स्थिरहुई खुड्वात जाती __' स्नेहन के पीछे रूक्षण । रहती है, परन्तु इस प्रयोग के सेवन में यथाऽहस्नेहपीतं च वामितं मृदु रूक्षयेत् ब्रह्मचर्य से रहना उचित है। . अर्थ-यथायोग्य स्नेह द्वारा मृदु विरेचन | वाह्यचिकित्सा का विधान । देकर वातरक्त रोगी को रूक्षण करीव । इत्याभ्यंतरमुद्दिष्टं कर्म बाहामतः परम् २०
शूलयुक्त वातरक्त की चिकित्सा । अर्थ-वातरक्त की आभ्यंतर चिकित्सा त्रिफलाव्योषपत्रलात्वपक्षशिचित्रकं वचाम् इस प्रकार कही गई है, अब वाह्मचिकित्सा बिडंगं पिप्पलीमूलं लोमशं वृषकं त्वचम् | का वर्णन करते हैं। ऋद्धिं लांगलिक चव्यं समभागानि पेषयेत्
पकाई हुई राल । कल्कैलिप्त्वायसी पात्री मध्याह्नभक्षयदिदम् ।
आरनालाढके तैलं पादसर्जरसं शृतम् । वाताने सर्वदोषेऽपि परं शूलान्विते हितम् | __ अर्थ-त्रिफला, त्रिकुटा, तेजपात, -
प्रभूते खजितं तोये ज्वरदाहार्तिनुत्परम् २१
अर्थ--एक आढक कांजी में चौथाई तेल इलायची, वंशलोचन, चीता, वच, बायवि
और उसमें चौथाई राल डालकर पकावै फिर डंग,पीपलामूल, काकजंघा, अडूसे की छाल,
इस तेल को बहुत से पानी में मथकर ल. दालचीनी, ऋद्धि, कलहारी, चव्य इन
गाने से ज्वर, दाह,वेदना शांत होजाती है। सबको समान भाग लेकर पीस डाले, इस
पिंडतल । कल्क को एक लोहे के पात्र में लेपन करदे
समधूच्छिष्टमंजिष्टं ससर्जरससारिवम् । . और दुपहर के समय इस कल्क का सेवन पिंडतलं तदभ्यंगाद्वातरक्तरुजापहम् २२ करे यह सब दोषों से युक्त वेदनावाले वात- ___ अर्थ-मोम, मनीठ, राल और सारिवा रक्त को नष्ट करदेता है।
इनके कल्क के साथ पूर्वोक्तं तेल को पकावै, __ अन्य क्वाथ।
इस पिंडनामक तेल के लगानेसे वातरक्त से कोकिलाक्षकनियूहः पीतस्तन्छाकभोजिना | उत्पन्न हुई बेदना जाती रहती है । । कृपाभ्यास व क्रोधं वातरक्तं मियच्छति ।
दशमूलादि घृत । .. अर्थ-कृपा करने का अभ्यास करने से
| दशमूले शृतं क्षीरं सद्यः शूलनिवारणम् । जैसे क्रोध शांत होजाता है, वैसेही कोकला- | परिषेकोऽनिलंपाये तद्वत्कोष्णेन सर्पिषा१३ क्षी के शाक को कोकलाक्षी के काढे के ___ अर्थ-दशमूल डालकर औंटाये हुए दूध साथ पीने से वातरक्त नष्ट होजाता है। का परिपेक करनेसे वेदना तत्काल जाती
खुडरोग पर प्रयोग। रहती है । वाताधिक्य वातरक्त में कुछ गरम पंचमूलस्य भाज्या वा रसैलेलीतकीं वसाम् | घी के परिषेक से भी वही फल होता है। खुडं सुरूढमप्यंगे ब्रह्मचारी पिबन् जयेत् । स्तंभादि में उपाय । ...
अर्थ-पंचगूल के रस, वा आमले के | स्नेहैर्मधुरसिद्धर्वा चतुर्भिः परिषेचयेत् ।।
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अष्टांगहृदप ।
म.२६
स्तमाक्षेपकशूलात कोणे हे तु शीतलैः । वातरक्त में लेप । - अर्थ-मधुरगणोक्त द्रव्यों के साथ घृत, | सरागे सरुजे दाहे रक्तं कृत्वाप्रलेपयेत् । तेल, वसा, मज्जा इन चारों प्रकार के स्नेहों | प्रपडिरीकमंजिष्ठादारींमधुकचंदनैः । को पकाकर स्तंभ, आक्षेप और शुलयुक्त
ससितोपलकासेक्षुमसूरैरकसक्तुभिः। वातरक्त में कुछ गरम करके परिषेक करना
लेपो रुग्दाहवीसर्परागशोफनिबर्हणः ॥
___ अर्थ-गंग, वेदना और दाहयुक्त वातरक्त चाहिये और जो दाह हो तो ठंडा ही लगादेवे
| में रक्त निकालकर प्रपौंडरीक, मजीठ दारुअन्य प्रयोग । तद्वन्द्व्याविकच्छागैः क्षीरैस्तैलविमिश्रितैः। हल्दी, मुलहटी, चन्दन, मिश्री, कांस, ईखे,
अर्थ-गौ, भेड वा वकरी का दूध तेलमें । मसूर, और एरका वीजका चूर्ण इनका लेप मिलाकर पहिले की तरह स्तंभ, आक्षेप
करनेसे बेदना, दाह, विसर्प, ललाई और भौर शूलमें कुछ गरम करके और दाह में
| सूजन जाती रहती है ।
वातरक्त में उपनाहन । ठंडेका परिषेक करें।
वातघ्नैः साधितः स्निग्धाकृशरो मुद्पायसः। अन्य प्रयोग ।
तिलसर्षपपिंडैश्च शुलघ्नमुपनाहनम् ॥ निकाथैर्जीवनीयानां पंचमूलस्य वा लघोः।
अर्थ-वातनाशक औषधों से सिद्ध किया अर्थ-जीवनीय गणोक्त द्रव्यों का अथवा
हुआ स्नेहयुक्त खिचडी, वा मूंग का पदार्थ लघुपंचमूल वा ईषदुष्ण क्वाथ पूर्वोक्त स्तंभादि
खीर, तिल वा सिरसों का कल्क इनका रोगों पर सेवन करे, और दाह हो तो ठंडा
लेप करने से शूल जाता रहताहै । करके परिषेक करै ।
अन्य उपनाह । परिषेक की औषध ।
औदका प्रसहानूपवसेवाराः सुसंस्कृताः। द्राक्षेक्षुरसमद्यानि दधिमस्त्वम्लकांजिकम् । जीवनीयोषधस्नेहयुक्ताः स्युरुपनाहने ॥ । सेकार्थ तंडुलक्षौद्रं शर्करामश्च शस्यते । । स्तंभतोदरुगायामशोफांगग्रहनाशनाः।
अर्थ-जो वातरक में दाह हो ते द्राक्षा | जीवनीयौषधैःसिद्धाःसपयस्तारसाऽपिवा रस, ईखका रस, मद्य, दहीका सोड, खट्टी
अर्थऔदक, प्रसह और आनूप जीबों कांजी, तंडुलोदक, मधमिश्रित जल और | का अस्थिरहित मांस से बनाया हुआ वेसखांडका जल परिषेक के लिये काममें लावै ।
वार जीवनीयगणोक्त द्रव्यों से सिद्ध किया दाहनाशक उपाय ।
हुआ स्नेहयुक्त और सम्यक संस्कार किया प्रियाः प्रियंवदा नार्यश्चंदनाकरस्तनाः । हुआ उपनाहन काम में लाये, अथवा उक्त स्पर्शशीताःसुखस्पर्शानंति दाहं रुजंक्लमम्। जीवों की चर्बी जीवनीय गणोक्त औषधों से
अर्थ-चन्दन से भीगे हुए हाथ और सिद्ध की हुई दूधमें मिलाकर उपनाहन के स्तनवाली, छूनेमें शीतल और सुखदायिनी | काम में लावै । इन प्रयोगों से स्तंभ, तोद प्रियवादिनी, प्रिय कामिनी गणोंके आलिंगन | बेदना, आयाम, सूजन और अंगग्रह जाते. से दाह, वेदना और क्वांति जाते रहते हैं। । रहते हैं। .
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चिकित्सितस्थान भाषाठीकासभेत ।
अन्य लेप |
घृतं सहचरान् मूलं जीवंतीच्छागलं पयः । लेपः पिष्ट्वा तिलास्तद्वदृष्टाः पयसि निर्वृताः अर्थ- सहचरी और जीवंती की जड़ों के कल्क में घी और बकरी का दूध मिलाकर लेप करे, अथवा तिलों को भूनकर दूध में डालकर लेप करने से पूर्ववत गुण होता है । अन्य लेप | क्षीरपिष्ठेक्षुमालेपमेरंडस्य फलानि वा । कुर्याच्छुलानेवृत्यर्थशताह्वां वाऽनिलेऽधिके ॥
अर्थ-- अलसी, वा अरंड के बीज अथवा सौंफ को दूधमें पीसकर लेप करनेसे ऐसा शूल जाता रहता है, जो वातकी अधिकता से हो ।
अन्य घृत । मूत्रक्षारसुरापक्कं घृतमभ्यंजने हितम् । अर्थ -- गोमूत्र, जवाखार और सुरा के साथ, पकाया हुआ घी पाक करके मर्दन करे तो वातजन्य वेदना शांत होजाती है । अन्य प्रयोग |
सिद्धं समधुशुकं वा सेकाभ्यंगे
अर्थ-उक्तरोग में मधुमिश्रित शुद्ध परिषेक और अभ्यंग द्वारा हितकारी होता है । कफोत्तर वातरक्त में चिकित्सा | कफोत्तरे ॥ ३५ ॥ ग्रहधूमो वच्चा कुष्ठं शताह्वा रजनीद्वयम् । प्रलेपः शूलनुद्वातरक्ते
अर्थ- कफाधिक्य वातरक्त में गृहधूम, बच, कूठ, सौंफ, हलदी और दारुहळदीका लेप करने से शूल नष्ट होजाता है ।
वातकफाधिक्य की चिकित्सा | वातकफोत्तरे ॥ ३६ ॥ मधुशिप्राोहितं तद्वद्वजिं धान्याम्लसंयुतम् ।
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((que)
अर्थ - वातकफाधिक्य वातरक्त में लाल सहजने के बीजों को कांजी में पीसकर लेप करना हितकारी है ।
वातकफाधिक्य में परिषेक | मुहूर्तलिप्तमम्लैश्च सिचेद्वातकफोत्तरे ॥
अर्थ - इस लेप करने के एक घंटे पीछे कांजी आदि अम्ल द्रव्यों के परिषेक से वातकफाधिक्य वातरक्त जाता रहता है ।
उत्तान वातरक्त की चिकित्सा | उत्तानं लेपनाभ्यंगपरिषेकावगाहनैः
अर्थ - उत्तान वातरक्त की चिकित्सा लेप, अभ्यंग, परिषेक और अवगाहन द्वारा करनी चाहिये ।
गंभीर वातरक्त की चिकित्सा । बिरेकास्थापनैः स्नेहपानैर्गेभीरमाचरेत् ॥
अर्थ- गंभीर वातरक्त की चिकित्सा विरेचन, आस्थापन और स्नेहपान द्वारा करनी चाहिये ।
वातकफोत्तर में लेप |
बातश्लेष्मोत्तरे कोष्णा लेपाद्यास्तत्र शीतलैः विदाहशोफरूकडूविवृद्धिः स्तंभनाद्भवेत् । अर्थ- वातकफाधिक्य वातरक्त में कुछ गरम लेप हितकारी होते हैं । इसमें ठंडे लेप 1 करने से स्तंभन के कारण विदाह, सूजन वेदना और खुजली की बृद्धि होती है । पित्तरक्तोत्तर में लेप । पित्तरतोत्तरे वातरक्ते लेपादयो हिमाः । उष्णैः प्लोषोपरुग्रागस्वेदापदरणोद्भवः ।
अर्थ - पित्तरक्ताधिक्य वातरक्त में ठंडे लेप करने चाहियें, इसमें गरम लेपों के करने से दाह, वेदना, ललाई, पसीना और विदरण अर्थात् फटना पैदा होता है ।
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(६८०)
अष्टांगहृदय ।
म. २१
वातरक्त में तैल। - सहस्र बार पकावै । इस तेल से वातरक्त मधुयष्टयाः पलशतं कषाये पादशेषिते। और वातरोग नष्ट होजाते हैं । यह उत्तम तैलाढकं समक्षीरं पचेत्कल्कै पलोन्मितः ।
रसायन इन्द्रियों को प्रफुल्लित करनेवाला, स्थिरातामलकीर्वापयस्याभीरुचंदनैः। लोह हंसपदीमांसीद्विमेदाम धुपणिभिः ।
जीवन, वृहण, स्वरकारक, तथा वीर्य और काकोलीशीरकाकोलीशतपूष्पार्द्धिपद्मकैः।। रक्त दोष को नाश करनेवाला है। जीवंतीजीवकर्षभकत्वकूपत्रनखवालकैः ।। वातरक्त में स्नेहनादि । प्रपौडरीकमंजिष्ठासारिवंद्रीवितुम्नकैः। कुपिते मार्गसरोधान्मेदसो वा कफस्य था। चतुःप्रयोगं वातासृपित्तदाहज्यरातिनुत् | अतिवृद्ध्यानिले शस्तमादौ नेहनबृंहणम् ॥
अर्थ-मुलहटी सौपल लेकर कही हुई कृत्वा तत्राढ्यवातोक्त वातशोणितिकं ततः । विधि के अनुसार काढा कर, चौथाई शेष | भेषजं स्नेहनं कुर्याद्यञ्च रक्तप्रसादनम् ॥ रहने पर उतार कर छान ले, इस फाढे में
अर्थ-मेद वा कफकी अतिवृद्धि से मार्ग एक आढक तेल और इतनाही दूध मिला
के रुकजाने के कारण जो वायु कुपित हो कर शालपर्णी, भूम्यामलकी, दूब, दुग्धका,
जाय तो प्रथम स्नेहन और वृंहण क्रिया सिताबर, चंदन, अगर, हंसपदी, जटामांसी
करना चाहिये । तत्पश्चात् आढ्यबात में मेदा, महामेदा, मधुपर्णी, काकोली, सोंफ,
कही हुई चिकित्सा करके वातरक्त में कही ऋद्धि, पदमाख, जीवक, ऋषभक दालची.
| हुई स्नेहन और रक्तको शुद्ध करनेवाली नी, तेजपात, नखी, नेत्रत्राला, पुंडरीक,
क्रिया करनी चाहिये । मजीठ, सारिवा, इन्द्रायण, और धनियां प्र.
प्राणादि चिकित्सा येक एक प । इन सब द्रव्यों को कूट | प्राणादिकोपे युगपद्यथोद्दिष्टं यथामयम् । पीसकर ऊपर लिखे काढे में डालकर पाक
यथासन्नं च भैषज्यं विकल्प्यं स्याधथाबलम् विधि के अनुसार पाक करै । इस तेलका
अर्थ-प्राणादि पांच वायुके एक साथ पान, नस्य, अनुवासन और वस्ति इन चार । कुपित होनेपर यथोक्त अर्थात् वातव्याधिचिरीतियों से प्रयोग करने पर वातरक्त, पित्त कित्सा के अनुसार, यथामय अर्थात् प्राणादाह, ज्वर, और वेदना शांत होजाते हैं । पानादि वायु के प्रकोप से उत्पन्न रोगानुसार, अन्य तैल।
यथासन्न अर्थात् प्राणादि पंचवायु के नि.
कटवर्ती स्थान के अनुसार और यथावल बलाकलककषायाभ्यां तैलं क्षीरसमं पचेत् सहस्त्रशतपाकं तद्वातासृग्वातरोगनुत् ॥
अर्थात् प्राणादि पंचवायु के बलके अनुसार रसायनं मुख्यतममिद्रियाणां प्रसादनम्।। औषधकी कल्पना करनी चाहिये । जीवन बृंहणं स्वयं शुक्रासग्दोषनाशनम् ॥ , शुद्धवात की चिकित्सा ।
अर्थ-खरैटी के कल्क और काढे के नीतें निरामतां सामे स्वेदलंघनपाचनैः । साथ समान भाग दूध और तेल को सौ वा । रुचालेपसेकाद्यैः कुर्यातकवलबाननुत् ॥
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( ६८१ )
|
अर्थ-आमदोषों से युक्त वायु जब स्वेद, उपवास, पाचन, तथा रूक्ष प्रलेप और परिषेकादि द्वारा जब आम दोष से रहित हो जाय तब केवल वातनाशक औषधों का प्रयोग करना चाहिये ।
इसमें जांगल मांस, शालिचांगल, तथा दूध से युक्त मृदु विरेचन देना हित है । उक्तरोग में वस्ति |
अंगशोषादि में चिकित्सा | शोषाक्षेपणसंकोचस्तंभस्त्रपनकंपनम् । हनुन सोर्दितं खांज्यं पांगुल्यं खुडवातता ॥ संधिच्युतिः पक्षवधो मेदोमज्जास्थिगा गदाः पते स्थानस्य गांभीर्यात्सिध्येयुर्यत्नतो न वा ॥ तस्माज्जयेन्नवानेतान् बलिनो निरुपद्रवान् ।
अर्थ - अंगशोष, आक्षेप, अंगसंकोच, अंग लकडी की तरह जकडना, स्पर्शज्ञान की शून्यता, कंपन, हनुस, अर्दित, खंजता, पांगलापन, खडवात, संधियोंका हट जाना, पक्षाघात, मेदा, मज्जा और अस्थि के रोग ये सब स्थान की गंभीरता के कारण थोड़े दिन के होने पर भी बहुत यत्न करने पर अच्छे हो भी जाते हैं और नहीं भी होते हैं । इसलिये उचित है कि रोगी की देह में बल रहते र. हते उत्पन्न होते ही जब तक किसी प्रकार का उपद्रव उपस्थित न होने पावै इस रोग 'की चिकित्सा करनी चाहिये ।
पिसावृत वायुमं कर्तव्य | वाय पित्तावृते शीतामुष्णां च बहुशः क्रियाम् ॥ ५३ ॥ व्यत्यासाद् योजयेत्सर्पिर्जीवनीयं च पाययेत् धम्मासं यवाः शालिर्विरेकः क्षीरवान्मृदुः
अर्थ- वायु के पित्त से आवृत होने पर बार बार शीतल और उष्ण क्रिया करना चाहिये । तथा जीवनीय गणोक्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ स्नेह पान कराना चाहिये । ८६
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सक्षीरा वस्तयः क्षीर पंचमूलबलाशुतम् । : कालेऽनुवासनं तैलं मधुरौषधसाधितम् ॥
अर्थ - पित्तावृत वायु में दूध से युक्त वस्ति वृहत्पंचमूल और खरैटी डालकर औटाया हुआ दूध तथा मधुर द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ तेल इनका उपयुक्त काल में अनुवासन द्वारा प्रयोग करे ।
उक्तरोग में परिषेक | यष्टीमधुबलातैलघृतक्षीरैश्च सेचनम् । पंचमूलकषायेण वारिणा शीतलेन च ॥
अर्थ - पित्तावृत वायु में मुलहटी का तेल, बलातेल, घी, दूध, पंचमुलका काथ और शीतल जल से परिषेक करना हित है।
कफावृत वायु में चिकित्सा | कफावृते यवान्नानि जांगला मृगपक्षिणः । स्वेदास्तीक्ष्णा निरूहाश्च वमनं सविरेचनम् पुराणसर्पिस्तलं च तिलसर्षपजं हितम् ।
अर्थ - कफावृत वायु में जौ का अन्न, जांगल पशु पक्षियों का मांस, स्वेद, तीक्ष्ण निरूह, वमन, विरेचन, पुराना घी, तिल का तेल और सरसों का तेल ये सब हितकारी हैं ।
संसृष्ट वायु का उपाय । संसृष्टे कफपित्ताभ्यां पित्तमादौ विनिर्जयेत् अर्थ - कफ और पित्त द्वारा वायु के संसृष्ट होने पर प्रथम पित्त को जीतकर फिर कफवात के जीतने का उपाय करें ।
रक्तसंसृष्ट वात का उपाय | कारयेद्रक्तसंसृष्टे वाले शोणितिकीं कियाम् ।
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अष्टlanet |
( ६८२ )
अर्थ - रक्तसंसृष्ट बात में वातरक्त की चिकित्सा करना उचित है ।
अनावृत में कर्तव्य | अनावृते पाचनीयंवमनं दीपनं लघु । अर्थ - अनावृत वायु में पाचनीय, वमन कारक, अग्निसंदीपन और लघु औषध हितकारी होती हैं ।
मांसावृत वायु |
स्वेदाभ्यंगरसाः क्षीरं स्नेहो मांसावृते हितः अर्थ- मांस वायु में स्वेद, अभ्यंग मांसरस, दूध और स्नेह हित हैं ।
सर्वस्थानावृत कर्तव्य | कफपित्ताविरुद्धं यद्यच्च वातानुलोमनम् सर्वस्थान वृते त्वाशु तत्कार्य वातरिश्वनि । अर्थ- सर्वधातुगत वायु में जो सब औपध कफ और पित्त की अविरोधी हैं तथा जो वायुका अनुलोमन करनेवाली हैं, वे सब औषध शीघ्र प्रयोग करनी चाहिये ।
आढयवात की चिकित्सा | प्रमेह मेदोवातघ्नमाढ्याते भिषग्जितम् । अर्थ-आढयवात में प्रमेह, मेद और वातनाशिनी चिकित्सा करनी चाहिये ।
सर्वधात्वाव्रतमें कर्तव्य । अनभिष्यंदि च स्निग्धं स्रोतसांशुद्धिकारणम् पाचना बस्तयः प्रायो मधुराः सानुवासना प्रसमीक्ष्य बलाधिक्यं मृदु कायविरेचनम् । रसायनानां सर्वेशामुपयोगाः प्रशस्यते । शिलाहस्य विशेषेण पयसा शुद्धगुग्गुलोः लेहो वा भाङ्गवस्तद्वदेकादशासिता सितः ।
|
रेतस्रावृत वायु की चिकित्सा | महास्नेहोऽस्थिमज्जस्थे पूर्वोक्तं रेतसावृते अर्थ - अस्थि और मज्जागत वायु में महा स्नेह (घृत, मज्जा, वसा तेल ) तथा शुक्रावृत वायु में उन औषधों का प्रयोग करना चाहिये जो पहिले वातव्याधि में कही गई हैं ।
अर्थ- सम्पूर्ण धातुओं से आवृत वायु में अनभिष्यन्दी, स्निग्ध और स्रोतों को शुद्ध करनेवाली औषधें देना उचित है । पाचनसंज्ञक वस्ति, तथा मधुर द्रव्यों का अनुत्रासन, रोगी के बलके अनुसार मृदुविरेचन, रसायन अधिकार में कहे हुए संपूर्ण योग, दूध के साथ शिलाजीत और गूगल, ब्राह्मरसायनमें कहा हुआ च्यवनप्राश, तथा एकादशसितासित नामक औषध का देना हित है |
सूत्रावृतमें कर्तव्य | मूत्रावृते मूत्रलानि स्वेदा उत्तरषस्तयः ६१ अर्थ- मूत्रावृतवायु में खीरा आदि मूत्रवारक तथा स्वेद और उत्तरवस्ति हित है ।
वर्चसावृतमें चिकित्सा |
एरंडतैलं वर्चःस्थे बस्तिस्नेहाश्च भेदिनः । अर्थ- पुरीषावृत वायुमें अरंड का तेल, तथा भेदक वस्ति और स्नेहका प्रयोग करना
चाहिये |
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श्र० २२
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अपानावृत में कर्तव्य |
वातानुलोमनं कार्थ मूत्राशयविशोनधम् । अपने त्वावृते सर्व दीपनं ग्राहि भेषजम् ।
अर्थ - अपानवायु जिसके द्वारा आवृत हो उसमें अग्निसंदीपन, ग्राही, वातानुलोमनकर्ता और मूत्राशय को शुद्ध करनेवाले सव काम करने चाहियें ।
सामान्य कर्तव्य |
इति संक्षेपतः प्रक्तिमावृतानां चिकित्सितम्
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अ ०२२
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farhanस्थान भाषाटीका समेत ।
( ६८३
पित्तावृत में चिकित्सा । पित्तावृते पित्तहरं मरुतश्चानुलोमनम् ॥ अर्थ - पित्तावृत में उदानादि वायुके पित से आवृत होने पर पित्तनाशक और वातानुलोमक क्रिया करनी चाहिये । रक्ताव्रतमें चिकित्सा । रक्तावृतेऽपि तद्वच्च खुडोक्तं यच्च भेषजम् । रक्तपित्तानिलहरं विविधं च रसायनम् ॥
अर्थ - उदानादि वायुके रक्तसे आवृत हो ने पर पित्तनाशक और वातानुलोमक क्रिया हित हैं तथा वातरक्त में कही हुई चिकित्सा, तथा रक्त, पित्त और बातनाशक क्रिया, तथा अनेक प्रकार की रसायन औषध दोष दृष्यादि के अनुसार देनी चाहिये ।
|
आयुर्वेदकी फलभूत चिकित्सा यथा निदाननिर्दिष्टमिति सम्यकुचिकित्सितम् आयुर्वेदफल स्थानमेतत्सद्योर्तिनाशनम् ॥
अर्थ- उदानवायु का स्वभाव ऊर्ध्वगामी हैं, अपानवायु का स्वभाव अधोगामी है, समानवायु, स्त्रस्थानस्थ, व्यानवायु सर्वगामी है, इसलिये वही चिकित्सा करना चाहिये जिससे उदानवायु का ऊर्ध्वगमन, अपानवायुका अनुलोमन, समानवायुका स्वस्थान में रहना, और व्यानवायु का सर्वत्रगमन स्थिर रहै | इन चारों से प्राण वायुकी सदा रक्षा करना चाहिये, जिससे उनके द्वारा प्राणवायु को किसी प्रकार की बाधा नप हुँचे । इसका कारण यही है कि प्राणवायु की स्थितिसे ही शरीर की स्थिति है, प्राण - वायुके अतिरिक्त किसी प्रकार से जीवन संभव नहीं है । इसलिये इसकी विशेष रूप से रक्षा' करनी चाहिये | इन उपायों से विमार्गगामी वायुओं को अपने अपने स्थान में लाना चाहिये ।
अर्थ - इस रीति से निदान के अनुसार चिकित्सित स्थान का सम्यक् रूपसे वर्णन किया गया है । यह आयुर्वेद का फलस्वरूप है क्योंकि इसके द्वारा सब प्रकार के रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ।
औषध के पर्याय | चिकित्सितं हितं पथ्यं प्रायश्चित्तं भिषग्जितम् । भेषजं शमनं शस्तं पर्यायैः स्मृतमौषधम् ॥ अर्थ - औषध के पर्यायवाची शब्द ये हैं यथा - चिकित्सित, हित, पथ्य, प्रायश्चित, मित्राजित, भेषज, शमन और शस्त । इतिश्री मथुरानिवासिश्रीकृष्ण लाल कृता यो भाषाकान्वितायां अष्टांगहृदय संहितायां चिकित्सितस्थाने वा तशोणितचिकित्सितं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ।
. पित्तरक्त वर्जित सर्वावरण | सर्व चावरणं पित्तरक्तसंसर्गवर्जितम् ॥ रसायनविधानेन लशुनो हंति शीलितः ।
अर्थ - पितरक्त का छोडकर वायु के स ब आवरण रसायन विधि में कही हुई रीति सेल्हसन का सेवन करने से जाते रहते हैं ।
माणादीनां भिषक्कुर्याद्वितय स्वयमेव तत् । अर्थ - ऊपर कही हुई रीति के अनुसार आवृन प्राणादि की चिकित्सा संक्षेप से कही गई है । वैद्यको इन सबका बिचार करके उपयोग में लाना चाहिये ।
विमार्गवायुका स्वमार्गानयन | सदान योजयेदूर्ध्वमपानं चानुलोमयेत् ॥ समानं शमयेद्विद्वांस्त्रिधा व्यानं च योजयेत् । प्रागोरक्ष्यश्वतुर्योsपितत्स्थितो देह संस्थितिः स्वं स्वं स्थानं नये देवं वृत्तान्वातान्विमार्गगान्
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श्रीहरिम्बन्दे * श्रावृन्दावनविहारिणे नमः
॥ अथ कल्पस्थानम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ।
अथाऽतो वमन कल्पं व्याख्यास्यामः ॥ इति ह स्माहुरायादयो महर्षय. ।
अर्थ - आत्रेयादि महर्षि कहने लगे कि - अब हम यहां से वर्मनकल्प नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे
. वमन विरेचन की प्रधान औषध । म मदन श्रेष्ठं त्रिवृन्मूलं विरेचने ॥
अर्थ- वमन के विषय में मैनफल और विरेचन के विषय में निसोथ प्रधान औषध है |
व्याधि के योग से जीमूत कोविशिष्टता ।
नित्यमन्यस्य तु व्याधिविशेषेण विशिष्टता ॥
अर्थ - किन्तु व्याधि विशेष के अनुसार जीमूतादि अन्य औषधों को भी विशिष्टता है |
वमन में मेनफल का यांग । फलानि तानि पांडूनि न चाऽतिहरितान्यपि आदायाऽह्नि प्रशस्तर्क्षे मध्ये ग्रीष्मवसंतयोः ॥ प्रमृज्य कुशमुत्तोल्यां क्षिप्त्वा बध्वा प्रलेपयेत् गोमयेनानुमुत्तली धाम्यमध्ये निधापयेत् ॥ मृदुभूतानि मध्विष्टगंधानि कुशवेष्टनात् । निष्कृष्य निर्गतेऽष्टा शोषयेत्तान्यथातपे ॥ तेषां ततः सुशुष्काणामुधृत्य फलपिप्पलीः |
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दधिमध्याज्यपललैमृदित्वा शाषयत्पुमः ॥ ततः सुगुप्तं संस्थाप्य कार्यकाले प्रयोजयेत् ।
अर्थ - गीष्म और वसंत ऋतु के बीच वाले दिनों में किसी शुभ नक्षत्र में ऐसे मेनफल लावे जो पक कर अत्यन्त पीले न होगये हों और कच्चे होने के कारण हरे भी न हों । इन फलों का मैल आदि दूर करके कुशाओं के संपुट में रखकर ऊपर से गोवर लपेट दे । गोवर के सूखजाने पर इसको अन्न के ढेर में गाढ दे । जब ये मैंनफल नरम होनांय और इनमें मदिरा वा इष्ट कीसी गंध आने लगे तब आठ दिन के पीछे कुशाओं को अलग करके धूप में सुखा लेवे । अच्छी तरह सुखजाने पर फलों के वीजों को निकाल डाले और इनमें दही, शहत, घी और तिल का चूर्ण मर्दन करके फिर सुखावे फिर इनको काच के पात्र में भरकर डाट लगाकर वमनकाल के समय काम में लावै ।
मैंनफल के सेवन की विधि | अथाऽदाय ततो मात्रां जर्जरीकृत्य वासयेत् ॥ शर्वरीं मधुयया वा कोविदारस्य वा जले । कर्बुदारस्य विंग्या वा नपस्य विदुलस्य वा शणपुष्याः सदा पुष्प्याः प्रत्यक्पुष्प्युदकेऽथवा ततः पिबेत्कषायं तं प्रातर्मृतिगालितम् ॥
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
अ० १
सूत्रोदितेन विधिना साधु तेन तथा वमेत् । मज्वरप्रतिश्याय गुल्मांतविद्रधीषु च ॥ प्रच्छद्विशेषेण यावत्पित्तस्य दर्शनम् ।
अर्थ - तदनंतर देश काल और पात्र के अनुसार इनकी यथायोग्य मात्रा लेकर पीस डाले, फिर इस चूर्ण को मुलहटी, लालकचनार, सफेद कचनार, बिंबी, कदम्व, वेत, शणपुष्पी, सदापुष्पी, प्रत्यकपुष्पी इन में से किसी के काथ में रात्रि भर भिगो देवै, दूसरे दिन प्रातः काल इनको मलकर और कपडे में छानकर सूत्रस्थानोक्त विधि के अनुसार जब तक पित्त का दर्शन हो वमन करे, यह कफ, ज्वर, पीनस, गुल्म और अन्तर्विद्रधि इन रोगों में विशेष उपयोगी है |
अन्य प्रयोग ।
फलुपिप्पलिचूर्ण वा काथेन स्पेन भावितम् | त्रिभागत्रिफला चूर्ण कोविदारादिवारिणा । पिबेज्ज्वरारुचिष्वेवं ग्रंथ्यपच्यर्बुदोदरी ॥ पित्ते कफस्थानगत जीमूतादिजलेन तत् ।
अर्थज्वर और अहाचे रोगों में मेनफल के बीजों को उन्हीं के काथ की भावना देकर इस चूर्ण में तिगुना त्रिफला का चूर्ण मिलाकर कचनार के काथ के साथ पीवे । तथा ग्रंथि, अपची, अर्बुद और उदर रोगों में पित्त के कफ के स्थान में जानेपर मेंनफल को नागरमोथा आदि के काथ के संग पान करे ।
हृद्दाह में मेनफल | हृद्दाहेऽधोस्रपित्ते च क्षीरं तत्पिप्पलीशुतम् क्षैरेयीं बा
अर्थ- हृदय के दाह और अधोगामी रक्त
( ६८५ )
;
पित्त में मेनफल के साथ दूध वा दूधक पेया का सेवन करै ।
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कफछ्यादि में मेनफळ । . कफच्छर्दि प्रकल्प केषु तु । दध्युत्तरं वा दधि वा तच्छ्रतक्षीरसंभवम् ॥ अर्थ- कफज वमन, प्रसेक और तमक में मेनफल के साथ दही की मलाई, वा दही अथवा औटे हुए दूध से निकाला हुआ घी हित है ।
फाभिभूत अग्नि में वमन । फलादिकाथकल्काभ्यांसिद्धंतत्सिद्धदुग्धजम् सर्पिः कफाभिभूतेऽग्नौ शुष्यदेहे च वामनम्
अर्थ - मेनफल जीमूत आदि के का और कल्क से सिद्ध किये हुए दूध से निकाला हुआ घी फिर उन्हीं के काढे और कल्क में पका लिया जाय, जिसकी अग्नि कफके कारण मंदी पडगई है और देह सूख गई. है उनको वमन के लिये यह घृत देना चाहिये |
वमन में लेह विशेष । स्वरसं फलमज्ज्ञो वा भल्लातकविधिशुतम् । आदवले पनात्सिद्धं लीढा प्रच्छर्दयेत्सुख म् तं लेह भक्ष्यभोज्येषु तत्कषायांश्च योजयेत्
अर्थ - भिलावे की विधि के अनुसार मेनफल के गूदे के स्वरस को ऐसा पकावे कि गाढा होकर कल्छी से लगने लगे । इस औषध के चाटने से वमन सुखपूर्वक होती है । इस अवलेह को तथा मेनफल के काढे को भक्ष्य और भाग्य के साथ सेवन करे ।
d
अन्य कषाय । वत्सकादिप्रतीवापः कषायः फलमनजः ।
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. (१८६)
अष्टांगहृदय ।
निवार्कान्यतरक्काथसमायुक्तो नियच्छति।
अन्य प्रयोग । बद्धमुलानपि व्याधीन्सर्वान्सतपणोद्भवान् ॥ पयः पुष्पेऽस्य निर्वत्त फले पेया पयस्कृता।।
अर्थ-मेनफलके गूदे के काढे में वत्सकादि | लोमश क्षीरसंतानं दध्युत्तरमलोमशे । गण के द्रव्यों का प्रतीवाप देकर इसको शृते पयासि दध्यम्लं जाते हरितपांडुके ॥ नीम वा आक के काढे के साथ पान करे
आसुत्य पारुणीमंडं पिवेन्मृदितगालितम् । . इससे संतर्पण से उत्पन्न हुई व्याधियां जो
फफादरोचके कासे पांडुत्वे राजयक्ष्माणि ॥
अर्थ-इस जीमूत के पुष्प के निवृत जड पकड लेती हैं वे भी नष्ट हो जाती हैं । |
होने पर नीमृत डालकर औटाया हुआ दूध . फूल सूंघने से वमन ।
और फलके निवृत होने पर जीमूत डालकर राठपुष्पफलश्लक्ष्णचूर्णैर्माल्यं सुरक्षितम् । घमेन्मंडरसादीनां तृप्तो जिघ्रन् सुखं सुखी ॥
| औटाये हुए द्ध की पेया पान करानी अर्थ-मेनफल के फूल और फलों को।
चाहिये । जीमूत कच्ची अवस्था में लोमयुक्त अच्छी तरह पीसकर मालती के पुष्प में
और पकने पर लोमराहत होता है । लोमरखे, फिर मंडरस, कृशग, क्षीर. यवाग से युक्त फल के साथ सिद्ध किये हुए दूध में तृप्त होकर उक्त फूल को सूंघे तो सुखपूर्वक
जो मलाई पड़जाती है उसका सेवन करे । वमन हो ।
अथवा लोम रहित जीमूत के साथ पकाये
हुए दूध के जमाने से उत्पन्न हुए दही की अन्य फल।
मलाई को पान करे । हरा पीला जीमूत का एवमेव फलाभावे कल्प्यं पुष्प शलाटु वा। अर्थ-मेनफल के अभाव में उसके फूलों
फल जो लोमयुक्त और लोमरहित होकर को कूटकर मुलहटी आदि के काथ में रात
मध्यावस्था को प्राप्त हुआ हो। इस फलके भर भिगोकर उक्त विधि से दूसरे दिन पान
साथ दूध को सिद्ध करके उस दूध से करे । अथवा मेनफल के कच्चे फलों का उत्पन्न हुआ स्वट्टा दही, अथवा जीमूत के उक्तरीति से सेवन करे ।
फल से वारुणीमण्ड का आसुत बनाकर
उसका मर्दन करके और वस्त्र में छान कर जीमूतादि का प्रयोग।
| कफज, अरुचि, खांसी, पांडुरोग और यक्ष्मा जीमृताद्याश्च फलवत्
| रोग में वमन के निमित्त देवे । . जीमूतं तु विशेषतः ॥ १९॥ प्रयोक्तव्यं ज्वरश्वासकासहिध्मादिरोगिणाम् तुंबी आदि की कल्पना । . अर्थ-मेनफल के सदृश ही जीमूत, । इयं च कल्पना कार्या तुवीकोशातकीष्वपि। तूबी, कोशातकी आदि की कल्पना करनी । अर्थ-तूंबी और तोरई में भी ऊपर चाहिये । परन्तु ज्वर, श्वास, खांसी, हि- | लिखी हुई पुष्प के निवृत होने से लेकर चकी आदि रोगों में विशेष करके जीमूत | वारुणीमण्ड पर्यन्त सम्पूर्ण कल्पना करनी का प्रयोग करना चाहिये । । चाहिये । .. ....
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१८७)
पित्तकफज्वर में चूर्णादि ।
इक्ष्वाकुके दूधका प्रयोग। पसंगतानां शुष्काणां फलानांवेणिजन्मनाम् फलपुष्पविहीनस्य प्रवालैस्तस्य साधितम् । चूर्णस्य पयसा शुक्ति पातपित्तार्दितःपिवेत् पित्तश्लेष्मज्वरे क्षीरं पित्तोद्रिक्त प्रयोजयेत्॥ द्वे वा त्रीण्याप वाऽपोथ्य काथे तिक्तोत्तमस्य अर्थ-जिस तूवी में फल और पुष्प पैदा
वा ॥ २४ ॥ न हुए हों उसके पत्तोंसे सिद्ध किया हुआ भारग्वधादिनवकादासुत्यान्यतमस्य वा।। विमृद्य पूतं तं काथ पित्तश्लष्मज्वरी पिबेत् ॥
दूध पित्तकफ ज्वर में पित्तका प्रकोप होने '- अर्थ -सम्यक् रीतिस पाकको प्राप्त हुए |
पर देना चाहिये। और सूखे हुए देवदाली के फलों के दो तोले
वमनमें दहीका प्रयोग । चूर्णको दूध के साथ वातपित्त से पीडित रोगी
हृतमध्ये फले जीर्णे स्थितं क्षीरं यदा दधि ।
स्यात्तदा कफजे कासश्वासे वम्यं च को दैना चाहिये । पित कफ ज्वरवाले रोगी
. पाययेत् ॥ २९ ॥ को जीमूतके दो तीन फल कूटकर नीमके अर्थ-पकी हुई तूंबी का वीचका भाग काथके संग अथवा आरम्वचादि नौ द्रव्यों में | अर्थात् गूदा निकाल कर दूध भरदे । जब से किसी एक द्रव्य के क्व थमें जीमूत के दो दूध जमकर दही होजाय तब उसे कफ से तीन फलों का आसुत वनाकर मलकर और उत्पन्न हुए खांसी और श्वास रोगोंमें वमन कपड़े में छानकर पान करावै । घरावरी, कराने के लिये देवै । वेणी, देवदाली और जीभूत ये चागें शब्द
अन्य प्रयोग। पर्यायवाची हैं।
मस्तुना वा फलान्मध्यं पांडुकुष्ठविषादितः। पिचवर में पानादि ।
तेन तक्रं विपक्कं वा पिवेत्समधुसैंधवम् जीमूतचूर्ण कलंक वा पिवेच्छीतेन धारिणा। अर्थ-तूंवीके गूदेको दहीके तोडके साथ ज्वरे पैत्तं कवोष्णेन कफवातात्कफादपि ॥ | अथवा इसको तक्रके साथ पकाकर शहत ___ अर्थ--पितज्वर में देवदाली के कल्क वा । और सेंधानमक मिलाकर सेवन करने से पां. चूर्ण को ठंडे जल के साथ पीवै, तथा वात- डुरोग कुष्ठ और विषदोष दूर हो जाते हैं। कफ ज्वरमें वा कफज्जर में गुनगुने जलके
अन्य प्रयोग। -साथ पान करीव ।
भावयित्वाऽजदुग्धेन बीजं तेनैव था पिबेत् इक्ष्वाकु का प्रयोग। | विषगुल्मोदरग्रंथिगंडेषु श्लीपदेषु च कासश्वासविषच्छर्दिवराते कफाते। | अर्थ-तूंबीके बीजोंमें बकरी के दूधकी इक्ष्वाकुर्वमने शस्तः प्रताम्यति च मानवे ॥ भावना देकर उसको बकरी के दूधके साथ : अर्थ--खांसी, श्वास, विष, वमन और | ही पान करे तो विषदोष, गुल्म, उदररोग, ज्वरसे पीडित रोगी को, तथा कफसे कर्शित | ग्रंथि, गंड और श्लीपद शांत हाजाते हैं ।
और प्रतमकवाले रोगी को वमन कराने के मंथका प्रयोग। लिये कडवी तूंजी का प्रयोग हितकारी है। सक्तमिळ पिबेन्मथं तुंबीस्वरस भावितैः ।
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अष्टांगहृदय । ..
कफोद्भवे बरे कास गलरोगेष्वराचके | सितावर, काकोली, श्रावणी, मेदो, महामदा : अर्थ-तूंची के रस की भावना देकर मुलहटी इनमें से प्रत्येक के चूर्ण में बहुत सत्त के साथ मंथ पीने से कफज घर,
सा शहत और मिश्री मिलाकर इसमें तोरइ खांसी, गलरोग और अरुचि जाते रहतेहैं। का चूर्ण मिलाकर अवलेह बनावे | इस से अन्य प्रयोग ।
खांसी और ह्रदय का दाह मिट जाते हैं। गुल्मे ज्वरे प्रसक्ते च कल्कं मांसरसैः पिबेत् पित्तोमसह कफ में कर्तव्य । नरः साधु वमत्येवं नच दौर्बल्यमसुते ते सुखांभोनुपानाः स्यु पित्तोष्मसहिते कफे तुव्याः फलरसैः शुष्कैः सपुष्पैरव चूर्णितम् |
____ अर्थ-पित्तकी उष्मा से संयुक्त कफ में छईयेन्माल्यमाघ्राय गंधसंपत्सुखोचितः ।
| ऊपर लिखा हुआ अवलेह चाटकर थोडासा . अर्थ-गुल्मरोग तथा दीर्घकालानुबंधी ज्वर में तूंची के कल्कको मांसरस के साथ | गरम पा
गरम पानी पीलेनेसे बमन होजाती है। मेवन कौ । अथवा ती रसकी उसके ही विष रोग पर धान्यादि कल्क ॥ . पुष्पों में भावना देकर धूपमें सुखाकर पीसले । धान्यतुंबल्यूषेण कल्यास्तस्य विषापहः। . और इसको किसी सुगंधित पुष्प पर अब
अर्थ-कडवी ताई के कल्कको धनियां
| और तुबरु के काढके साथ पीनेसे विषगंग चूर्णित करके सूघले इससे मनुष्यको अनायास वमन होजाती है और दुर्बलता भी नहीं होने | नष्ट हो जाता है ।
अन्य प्रयोग। पाती ।
विव्याः पुनर्नवाया वा कासमर्दस्य वा रसे अन्य प्रयोग ।
एकं धामार्गवं द्वे वा मानसे मृदितं पिबेत् । कासगुलमोदरगरे वाते श्लेष्माशयस्थिते।।
त श्लष्माशयास्थत। तच्छृतक्षीरजंसर्पिःसाथितं वा फलादिभिः कफे च कंठवक्त्रस्थे कफसंचयजेषु च । __ अर्थ-बिंबी पुनर्नवा वा कसेंदी इनमेंसे धामार्गवो गदेष्विष्टः स्थिरेषु च महत्सु च ।
किसी के काढेमें एक वा दो तोरई मलकर अर्थ-खांसी गुल्म, उदर, विष,कफाशय पावे अथवा तोरई के साथ औटाये हुए दूध में स्थित वायु, कण्ठ और मुख में स्थित । से निकाले हुए घी को मेंनफल, जीमूत, कफ तथा कफसचयजानित रोग और दीर्घ इक्ष्वाकु, धामार्गव, कोशातकी और कुटज कालानुबन्धी तथा बड़े रोगों में वमन के इन छः द्रव्योंके साथ पकाकर सेवन करनेसे लिये तोरई हितकारक है।
उन्मादादि मानसिक रोग वमनद्वारा नष्ट ____ अवलेह का प्रयोग। हो जाते हैं। जीवकर्षभको वीरा कपिकच्छुः शतावरी
वेडका प्रयोग । काकोली श्रावणी मेदा महामेदा मधूलिका श्वेडोऽतिकटुतीक्ष्णोष्णः प्रगाढेषुप्रशस्यते तद्रजोभिः पृथग्लेहा धामार्गवरजोऽन्विताः कुष्ठपांइवामयप्लीहशोफगुल्मगरादिषु . कासे हृदयदाहे च शस्ता मधुसितादुताः। अर्थ--अत्यन्त कटु, अतिक्षीण और
अर्थ-जीवक ऋषभक, बीरा, केंच, | उष्णवीर्य कडवी तारई प्रगाढ कोढ,पांडुरोग,
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अ० २
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
प्लीहा, शोफ, गुल्म और विषरोगों में वमन के लिये हित है ।
आनूपमांसका प्रयोग | पृथक् फलादिषट्रकस्य क्वाथे मांसमनूपजम् कोशातक्या समं सिद्धं तद्रसं लवणं पिबेत्
अर्थ -- मैनफलादे छः द्रव्यों में से किसी एक के काढ़े में आनूपमांस और इसके समान तोरई के साथ पाक करके उसमें से थोडा नमक मिलाकर वमनके लिये पान करे । अन्य प्रयोग |
फलादि पिप्पलतुल्यं सिद्धं क्ष्वेडरसेऽथवा वेडक्वाथे पिवेत्सिद्धं मिश्रमिक्षुरसेन वा
अर्थ--मैनफलादि छः द्रव्यों के बीज और उनके समान आनूप मांस को पीली तोरई के काढ़े के साथ पकाकर सेवन करै, अथवा इसी काढे में सिद्ध किया हुआ आ नूप मांसरस ईखका रस और नमक मिला कर सेवन करे ।
-
कुटजका प्रयोग |
कुटजं सुकुमारेषु पित्तरक्तकफौदये । ज्वरे विसर्पे हृद्रोगे खुडे कुठे च पूजितम्
अर्थ--ऐसे सुकुमारों के लिये जो घमन कारक औषधों के वेगको न सह सकते हों उन्हें पित्त, रक्त और कफके उद्रेक में ज्वर में, विसर्पमें हृद्रोग में और कुष्टमें कुडाकी छाल के प्रयोग से वमन कराना हित है । अन्य प्रयोग |
सर्वपाणां मधूकानां तोयेन लवणस्य वा । पाययेत्कौटजं वीजं युक्तं कुशरयाऽथवा४५ सप्ताहं वार्कदुग्धाक्तं तच्चूर्णपाययेत्पृथक् फलजीमूतकेक्ष्वाकुजीवंती जीवकोदकैः ४६ अर्थ- सरसों वा मुलहटी के काढ़े के
८७
( ६८९ )
साथ अथवा नमक के जलके साथ अथवा कुटज वीज का चूर्ण करके सात दिन तक आक के दूध में भिगोकर इनके चूर्णको मैनफल, देवदाली, कटुतुंबी, जीवंती और जीवक इनके शनी के साथ पान करावे कुटज बीजों को इन्द्रजौ कहते हैं ।
मनमें अन्यान्य औषध | " वनौषधमुख्यानामिति कल्पदिगीरिता बीजेनानेन मतिमानन्यान्यपि च कल्पयेत् अर्थ - ऊपर वमनकारक औषधों में से प्रधान प्रधान औषधों का कल्प दिग्दर्शनमात्र वर्णन किया है, इसी प्रकारसे अन्यान्य मनोपयोगी औषधों की कल्पना करना चाहिये |
इतिश्री मधुरानिवासि श्रीकृष्णलालकृत भाषाटीकान्वितायां अष्टांगहृदयसंहितायां कल्पस्थाने वमनकल्पः प्रथमोऽध्यायः ।
द्वितीयोऽध्यायः ।
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fursat विरेचन कल्पं व्याख्यास्यामः ।
अर्थ- - अब हम यहांसे विरेचन कल्प नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
निसोथका स्वरूप |
कषायमधुरा रूक्षा विपाकेकटुका त्रिवृत् कफपित्तमश मनी रौक्ष्याच्चानिल कोपनी
अर्थ - निसोथ कसीली, मीठी, रूक्ष, विपाक में कटु, कफ पित्त का नाश करने
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अष्टांगहृदय ।
( ६९० )
वाली तथा रूक्ष होने के कारण वात को प्रकुपित करने वाली होती है । निसोथको सर्वरोगजितत्व | सेनानी मौर्युक्ता वातपित्तकफापहैः । कल्पवैशेष्यमासाद्य जायतेसर्वरोगजित् ॥
अर्थ- उपरोक्त गुणोंसे युक्त निसोथ, वात पित्त और कफनाशक औषधों के संयोग से तथा विशेष २ कल्पनाओं से कल्पित होकर विरेचनसाध्य सब प्रकार की व्याधियों को जीतनेवाली होजाती है ।
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श्र० २
भी क्रूर कोष्ठवाले बहुत दोषों से युक्त तथा कृश और दुर्बल रोगियों के लिये हित होती है ।
निसोथ की जड लाने की रीति गंभीरानुगतं श्लक्ष्णमतिर्यग्विसृतं च यत् । गृहीत्वा विसृजेत्काष्ठं त्वचंशुकांनिधापयेत्
अर्थ - जो निसोथ भूमि में बहुत गहरी सीधी चली गई हो तथा चिकनी भी हो उसे लाकर उसकी छालको सुखाकर रखले और भीतर वाले काठको फेंक दे ।
वातरोगों में निसोथका प्रयोग |
निसोथ की जडके दोभेद । द्विधा ख्यातं च तन्मूलं श्यामं श्यमारुणं अथ काले तु तच्चूर्ण किचिन्नागर सैंधवम् त्रिवृत् वातामये पिवदम्लैः पित्ते साज्यसितामधु त्रिवृदाख्यं वरतरं निरपायं सुखं तयोः ३ ॥ क्षीरद्राक्षेक्षुकाश्मर्यस्वादुस्कंधवरारसैः । सुकुमारे शिशौ वृद्धे मृदुकोष्ठे च तद्धितम् | कफामये पीलुरस मृत्रमद्याम्लकांजिकैः ८ ॥ अर्थ--निसोथ की जड दो प्रकार की पंचकोलादिचूर्णैश्च युक्तया युक्तं कफापहैः होती है । एक श्यामवर्ण वाली श्यामा दूसरी अर्थ-- उचित समय में निसोध की जड श्यामारुण वर्णवाली त्रिवृत होती है इन दोनों की छालको पीसकर थोडी सौंठ और सेंधामें से त्रिवृत नामक निसोथ श्रेष्ट है, यह नमक मिलाकर खट्टी कांजी के साथ वात निरापद और सुखसेव्य होती है । यह सु- रोगों में देना चाहिये । पित्तज रोगों में कुमार, बालक वृद्ध और मृदुकोष्ठ वालों के इसको घी, मिश्री मिलाकर दूधके साथ लिये बहुत हितकारी है । अथवा दाख, ईख, खंभारी, मधुर द्रव्य वा त्रिफला इनमें से किसी के रस के साथ देवै । कफरोगों में इसको पीलू के रस, गोमूत्र, मद्य और खट्टी कांजी के साथ पान करावै । अथवा कफनाशक पंचकोलादि के चूर्ण के साथ उचित रीति से मिलाकर पीलुरसादि के साथ पान करावे ।
श्यामाके लक्षण |
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मूर्छा मोहत्कंठकर्षणक्षणनप्रदम् ॥ ४ ॥ श्यामं तीक्ष्णाशुकारित्वादतस्तदपि शस्यते क्रूरे कोष्ठे बहौ दोषे क्लेशक्षमिणि चातुरे
अर्थ - श्यामा निसोध मूच्छी और मोह को दूर करती है, कंठ को खींचती है और बाधा पहुंचाती है । कोई २ यह भी अर्थ करते हैं कि श्यामा निसोध मूर्छा, मोह, हृदय और कंठ में कर्षण और क्षय उत्पन्न
वैरेचनिक लेह |
त्रिवृत्कल्ककषायेण साधितः ससितो हिमः
करती है । तीक्ष्ण और आशुकारी होने पर | मधुत्रिजातसंयुक्तो लेहो हृद्यं विरेचनम् ।
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - निसोथ को पीसकर काथ करले और इस काढे में मिश्री, शहत, दालचीनी, इलायची और तेजपात का चूर्ण मिलाकर पकावै, गाढा होनेपर ठंडा करले यह अवलेह विरेचन में हृदय को हितकारी होता है ।
अन्य अवलेह |
अगंधा तरी विदारी शर्करा त्रिवृत् चूर्णितं मधुसर्पिलीवासाधु विरिच्यते सन्निपातज्वरस्तंभपिपासा दाहपीडितः ११
अर्थ- संनिपात ज्वर, स्तब्धता, पिपासा और दाहसे पीड़ित रोगी को अजगंध, बंशलोचन, विदारीकंद, खांड और निसोथ के चूर्ग में शहत और घी मिलाकर सेवन करावे इसके चाटने से सुखपूर्वक विरेचन होता है।
विरेचनार्थ चूर्ण |
स्वगेलाभ्यां समानीली तैस्त्रिवृत्तैश्वशर्करा चूर्ण फलरसश्रौद्रासक्तुभिस्तर्पणं पिबेत् ॥ वातपित्तकफोत्थेषु रोगोष्वल्पानलेषु च । नरेषु सुकुमारेषु निरपायं विरेचनम् १४ ॥
अर्थ- दालचीनी एक भाग, इलायची एक भाग, नीली दो भाग, निसोथ चार भाग, शर्करा आठ भाग, इन सबका चूर्ण बनाकर फत्रके रस, मधु और सत्तू के साथ गिलाकर तर्पण तयार करै, यह तर्पण नि
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( ६९१]
रापद होता है, इसके सेवन से वातपित्त और कफ से उत्पन्न हुए रोगों में, तथा अल्पग्नि वाले को, अथवा सुकुमार मनुष्यों को सुखपूर्वक विरेचन होता है ।
गुल्मादि रोगपर अवलेह । विडंगंतडुलवरा यावशूककणा त्रिवृत् । सर्वेभ्योऽधैन तल्लीढं मध्याज्येन गुडेन वा गुल्मं प्लीहोदरं कासं हलीमकमरोचकमू । कफवातकृतांश्चात्यात्परिमार्ष्टि गदान्बहून्
अर्थ- वायविडंग, त्रिफला, जवाखार, पीपल, सब समान भाग, इन सबसे आधी निसोथ इनका चूर्ण बनाकर शहत और घी मिलाकर अथवा गुड मिलाकर चाटे, इससे गुल्म, प्लीहोदर, खांसी, हलीमक, अरुचि तथा कफवात से उत्पन्न हुए अन्यान्य बहुत से रोग प्रशमित होजाते हैं ।
विरेचन में ईखकी गंडेली ॥ लिपेरंतस्त्रिवृतया द्विधा कृत्वेक्षुगंडिकाः । एकीकृत्य पचेत्स्निं पुटपाकेन भक्षयेत्
कल्याणक गुड |
कर उसके भीतर निसौथ का चूर्ण भरदे - फिर इन दोनों टुकडों को मिलाकर पुटपाक की रीति से पकाकर सेवन करै
1
अर्थ-ईख की गंडेली को बीचमें से चीर विडंगपिप्पलीमूलत्रिफलाधान्यश्चित्रकम् । मरीचैन्द्रयवाजाजीपिप्पलीहरितपिप्पलीः दीप्यकं पंचलवणं चूर्णितं कार्षिकं पृथक् । तिलतैलत्रिवृच्चूर्णभागी चाष्टपलोम्मिती धात्रीफलरसप्रस्थांस्त्रीन् गुडार्धतुलान्विता पक्त्वा मृद्वग्निना खादेत्ततो मात्रामयंत्रणः॥ कुष्ठार्शः कामळा गुल्म मेहोद र भगंदरान् । ग्रहणीपांडुरोगांश्च हंति पुंसवनश्च सः ॥ गुडः कल्याणको नाम सर्वेष्वृतुषु यौगिकः
अर्थ- बायबिडंग, पीपलामूल, त्रिफला, धनियां, चीता, कालीमिरच, इन्द्रजौ, जीरा, पीपल, गजपीपल, अजवायन और पांचों नमक इनमें से प्रत्येक एक एक कर्प लेकर पीसडाले, तथा तिलका तेल आठ पल, निसोथ का चूर्ण आठ पल, आमले का रस
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___ अष्टांगहृदय ।
तीन प्रस्थ, गुडआधी तुला । इनको मिला- मोथा, चीनी, नेत्रवाला, चंदन और मुलहटी कर मंदी आग पर पकावै, इसका उपयुक्त इनके चूर्णको द्राक्षारस के साथ विरेचनार्थ मात्रा द्वारा सेवन करने से कूठ, अर्श, का- प्रयोग करे । मला, गुल्म, प्रमेह, भगंदर, ग्रहणी, और
हेमंतमें विरेचन । पांडुरोग नष्ट होजाते हैं,तथा यह पौरुषवर्द्धक, त्रिवृता चित्रकं पाठामजाजी सरलं वचाम् ॥
स्वर्णक्षीरीं च हेमंते चूर्णमुष्णांवुना पिबेत् । भी है, यह कल्याणक नामक गुड संपूर्ण
____ अर्थ-निसोथ, चीता, पाठा, जीरा, सरऋतुओं में योजनीय है।
लकाष्ठ, बच और स्वर्णक्षीरी इनका चूर्ण गअन्य गोली । व्योषत्रिजातकांभोदकृमिघ्नामलकै स्त्रिवृत् |
रम जलके साथ पीनेसे हेमंतऋतु में विरेचन सर्वैः समा समसिताः क्षौद्रेणगुटिका कृता हाता है ।
| होता है। मूत्रकृच्छज्वरच्छर्दिकासशे भ्रमक्षय २२। ग्रीष्ममें विरेचन । तापेपांड्वामयेऽल्पेऽग्नौशस्ताःसर्वेविषेषुच | त्रिवृताशर्करातुल्या ग्रीष्मकाले विरेचनम् ॥
अर्थ-त्रिकुटा, त्रिजातक, मोथा, बाय- अर्थ-निसोथ का चूर्ण और बराबर की बिडंग, और आमला प्रत्येक समान भाग, | खांड मिलाकर जल के साथ पीनेसे ग्रीष्मकाल निसोथ और चीनी सबके समान भाग, इन में विरेचन होता है । सबको कूट, पीसकर गुड में मिलाकर गोलियां स्निग्ध के लिये विरेचन । बना लेवे । ये गोलियां मूत्रकृच्छ्,ज्वर, वमन, त्रिवृत्रायंतिहपुषासातलाकटुरोहिणीः। खांसी, भ्रम, क्षय, संताप, गांडुरोग, अग्नि- स्वर्णक्षीरी च संचूर्ण्य गोमूत्रे भावयेत्त्यहम् मांद्य, और संपूर्ण प्रकोषरोगों को दर एषसर्वर्तुको योगः स्निग्धानां मलदोषहत् । करती हैं।
___ अर्थ-निसोथ, त्रायमाणा, हाऊबेर, सातअन्य विरेचन ।
ला, कुटकी, और स्वर्णक्षीरी इनका चूर्ण ब. त्रिवृता कौटजं वीजं पिप्पली विश्वभषजम्॥
नाकर तीन दिनतक गोमूत्रकी भावना देवै । लौद्राक्षारसोपेतं वर्षाकाले विरेचनम्। यह योग सब ऋतुओं में स्निग्ध पुरुषों के
अर्थ-निसोथ, इन्द्रजौ, पीपल और सोंठ | मल दोषों को हनेवाला है । इनके चूर्ण में शहत और द्राक्षारस मिलाकर रूक्षपुरुषों को विरेचन । सेवन करने से वर्षा ऋतु में विरेचन श्यामात्रिवृद्दुरालभाहस्तिपिप्पलि वत्सकम् होता है।
नीलिनीकटुकामुस्ताश्रेष्ठायुतं सुन्चूर्णितम् । शरदऋतुमें विरेचन ।। । रसाज्योष्णाम्बुभिःशस्तरक्षाणामपिसर्वदा॥ विकृद्दुरालभामुस्तशर्करोदाच्यचंदनम् ॥
| अर्थ-झ्यामा तृवृता, दुरालभा, गजपीपल द्राक्षांतुना सयष्ठयाह सातलं जलदात्यये। । इन्द्रजौ, नीलवृक्ष, कुटकी, मोथा, त्रिफला, इ.
अर्थ- शरदऋतु में निसोथ, दुरालभा, न के चूर्णको मांसरस, घी मा उष्ण जलके
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अ०२
कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६९३)
साथ विरेचन के लिये देवै । यह योग सब | चार बर्षसे बारह वर्ष की अवस्था तक के बाऋतुओं में रूक्ष पुरुषोंको और अपि शब्दसे | लक को अमलतास का गूदा दाखके रसके स्निग्धों को भी उपयोगी होता है । साथ देनेसे सुखपूर्वक विरेचन होता है। ज्वरमें राजक्षका प्रयोग ।
अमलतासका काढा। ज्वर हृद्रोगवातासृगुदावर्तादिरोगिषु । चतुरंगुलमज्ज्ञो वा कषायं पाययद्धिमम् । राजवृक्षोऽधिकं पथ्यो मृदुर्मधुरशीतलः॥ दधिमडसुरामंडधात्रीफलरसैः पृथकू ॥
अर्थ-ज्वर, हृद्रोग, वातरक्त और उदाव- सौवीरकेण वा युक्तं कल्केन त्रैवृतेन वा। ादि रोगोंमें अमलतास का विरेचन अन्य । अर्थ-अमलतास के गूदेका शीत कषाय विरेचनों की अपेक्षा गुणकारक होता है । | प्रस्तुत करके उसको दही के तोड, सुरामंड, यह मृद मधुर और शीतल होता है। आमले के रस, सौवीर वा निसोथ के कल्क अन्य प्रयोग ।
के साथ विरेचनार्थ पान करावे । घाले वृद्ध क्षते क्षीणे सुकुमारे च मानवे।
अन्य प्रयोग। योज्यो मृद्वनपायित्वाद्विशेषाच्चतुरंगुलः ॥ दन्तीकषाये तन्मज्ञो गुडं जीर्ण च निक्षिपेत् .. अर्थ-बालक, वृद्ध, क्षय, क्षीण और सु.
तमरिष्टं स्थितंमासं पाययेत् पक्षमेव वा।
' अर्थ-दंती के काथमें अमलतास का गूदा कुमार व्यक्तियों के लिये अमलतास देकर वि. रेचन कराव क्योंकि यह मृदु और निरापद
और पुराना गुड मिलाकर किसी पात्रमें एक . विरेचन है।
महिने वा एक पक्ष तक रहने दे । फिर मां
त्रानुसार इस अरिष्ट का पान करावै । __ अमलतासका ग्रहणादि ।
अमलतासका अन्यप्रयोग । फलकाले परिणतं फलं तस्य समाहरेत् । तेषां गुणवतां भारं सिकतासु विनिक्षिपेत् ॥
त्वचं तिल्वकमूलस्य त्यक्त्वाभ्यंतरवल्कलम् सप्तरात्रात्समुधृत्य शोषयेश्चातपे ततः।
विशोष्य चूर्णयित्वा च द्वौ भागौ गालयेत्ततः
रोधस्यव कषायेण तृतीय तेम भावयेत् ॥ ततो मज्जानमुधृत्य शुचौ पात्रे निधापयेत्
कषाये दशमूलस्य तं भाग भावितं पुनः। अर्थ-फलके कालमें अमलतास के अच्छी
शुष्कं चूर्ण पुनः कृत्वा ततः पाणितलं पिबेत् । तरह पके हुए सौ पल फल लाकर बालूमें गा. | मस्तुमूत्रसुरामंडकोलधात्रीफलांवभिः। ढदे । सातदिन पीछे निकालकर धूपमें सुखा- | अर्थ-लोधकी जड की बाहर वाली छाले । फिर इनका गूदा निकाल कर एक शुद्ध ल को दूर करके भीतरकी छाल को सुखा पात्र में रखदे।
कर चूर्ण करले फिर इसे तीन भागोंमें बांट अमलतासके प्रयोगकी विधि । कर इनमें से दो भाग लेकर लोधके ही काथ द्राक्षारसेन तं दद्याद्दाहोदावर्तपीडिते।। में आलोडित करके वस्त्रमें छान लेवै । इस चतुर्षर्षे सुखं वाले यावद्वादशवार्षिके॥ | काढेको बचे हुए मेधके एक भागकी भावना
अर्थ-उदावर्त से पीडित रोगीको तथा | देवे । फिर इसको दशमूल के काटेकी भावना
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ६९४ )
देकर सुखाले इस चूर्णको दहीके तोड, गोमूत्र, सुरामंड, बेरका रस, वा आमले का रस इनमें से किसीके साथ पान करावे | इसकी मात्रा दो तोले दी जाती है । लोधका अवलेह |
सिल्कस्य कषायेण कल्केन च सशर्करः ॥ सघृतः साधितो लेहः सच श्रेष्ठ विरेचनम् ।
अर्थ - लोध का कल्क और काढा शर्करा और वृत मिलाकर पका जब यह ल्हेई के समान गाढा होजाय, तब उतार कर चाटे, यह बडा उत्तम विरेचन है । थूहर के दूधका निषेध | - सुधा भिनत्ति दोराणां महांतमपि संचयम् ॥ आश्वेत्र कष्टविभ्रशान्नैव तां कल्पयेदतः । कोटेले वाले स्थविरे दीर्घरोगिण || अर्थ- - थूहर दोषों के बडे संचय को भी शीघ्र भेद डालता है, तथापि कोष्टको शीघ्र विभ्रंश करने के कारण मृदु कोष्ठवाले को, निर्वलको, बालक को, वृद्ध को और दीर्घ रोगीको थूहर का दूध न देना चाहिये । थूहरका प्रयोग |
कल्ल्या गुल्मोदरगरत्वग्रोगमधुमेहिषु । पांडी दूषविषे शोफे दोषविभ्रांतचेतसि ॥ सा श्रेष्ठ कंटकैस्तीक्ष्णैर्बहुभिश्च समाचिता ।
अर्थ- गुल्म रोग, उदररोग, विषरोग, त्वचारोग, मधुमेह, पांडुरोग, दूषी विष, सूजन और चित्तकी बिभ्रांति इनमें थूहर के दूधका प्रयोग करना चाहिये, जो थूहर वहुत से पैने कांटों से युक्त होता है, वह श्रेष्ठ होता है ।
सुधा गुटका । द्विवर्षा वा त्रिवर्षी या शिशिरांते विशेषतः ॥
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तां पाटयित्वा शस्त्रेण क्षीरमुद्धारयेत्ततः । बिल्वादीनां वृहत्योर्वा क्वाथेन सममेकशः । मिश्रयित्वा सुधाक्षीरं ततोऽगारेषु शोषयेत् पिबेत्कृत्वा तु गुटिकां मस्तुमूत्रसुरादिभिः ।
अर्थ-दो बा तीन वर्ष के पुराने थूहर को शिशिर ऋतुके अंतमें चीरकर दूध निकाल ले | पीछे वेलगिरी के काढ़े और दोनों कटेरियों के काढ़े में अलग अलग मिलाकर अग्नि पर सुखाले और गोलियां वना लेवे । इन गोलियों को दही के तोड गोमूत्र वा मदिरा के साथ पान करै ।
अ ०२
घृत के साथ निसोथपान । त्रिवृतादन्निववरां स्वर्णक्षीरीं ससातलाम् । सप्ताहं स्नुपयः पीतान् रसेनाज्येन वा पिवेत्
अर्थ - तृवृतादि नौ द्रव्य ( ऋवृत, श्यामा, अमलतास, निसोध, थूहर, शंखनी, सातला, दंती, द्रवती), तथा त्रिफला, स्व
क्षीरी, सातला, इनको सातदिन तक सें. हुंड के दूध की भावना देकर मांसरस वा घृत के साथ पान करे ।
व्योषादि सेवन |
तद्वयोषोत्तमाकुंभ निकुंभादीन् गुड़ांबुना । अर्थ - ऊपर लिखी रीति के अनुसार त्रिकुटा, त्रिफला, निसोथ और दंती आदि विरेचक औषधों को गुडके शर्वत के साथ पीना चाहिये ।
कफरोगों में चिकित्सा 1
नातिशुष्कं फलं ग्राह्यं शंखिन्या निस्तुषीकृतम् सप्तलायास्तथा मूलं ते तु तक्ष्णिविकाषिणी मामयोरगरश्वयथवादिषु कल्पयेत् ॥
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अर्थ - शंखनी का ऐसा फल लावे जो
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अष्टांगहृदय ।
बहुत सूखा न हो, इसके छिलके दूर करदे, | सुखा लेवे, जिससे इसकी विकाशिता. तथा सातला की जड इन दोनों विरेचक द्र. जाती रहती है । फिर इस जडको दहीके व्यों को कफरोग, उदररोग, गरदोष और सू- तोड, मदिरा, तक्र, पीलुरस और आसबके जन आदिमें देना चाहिये ये तीक्ष्ण विरेचकहैं। साथ सेवन करै । ककाधिक्यवाला रोगी, अन्य प्रयोग।
तथा गुल्म, प्रमेह, जठर, गर, पांडु, कृमि अक्षमा तयोः पिंडं मदिरालघणाम्वितम्। और भगंदर इन रोगों से पीडित मनुष्य हृद्रोगे वातकफजे तद्वगुल्मे प्रयोजयेत् ॥
गौ, मग और बकरे के मांसरस के साथ __ अर्थ-शंखनी और सातला इन दोनों
| पान करै । को अक्षमात्र लेकर पीसले, इसको मदिरा
विसर्प की चिकित्सा । और लवण के साथ सेवन करनेसे वातकफ
| सिद्धं तत्काथकल्काभ्यां दशमूलरसेन च। जहृद्रोग तथा गुल्म नष्ट होजाते हैं।
बिसर्पविद्ध्यलजीकक्षादाहान् जयेघृतम् अन्य प्रयोग। | तैलं तुगुल्ममेहाऑविबंधकफमारुतान् । दंतिइतस्थिरं स्थूलं मूलं दंतीद्रवतिजम् । । महास्नेहः शकृच्छुक्रवातसंगानिलब्यथा. ॥ भाताम्रश्यावतीक्ष्णोष्णमाशुकारि
___ अर्थ-दंती द्रवंती की जडके कल्क और विका शि च॥५१॥
| क्वाथ तथा दशमूल के क्वाथ के साथ सिद्ध गुरु प्रकोपिघातस्य पित्तश्लप्मविलायनम् अर्थ-दंती और द्रवंती की जड जो
किया हुआ घृत विसर्प, विद्रधि, अलजी हाथी के दांतके समान दृढ और स्थूल हो
और कक्षादाहको नष्ट करता है । तथा तथा जो कुछ ताम्रवर्ण और श्यामवर्ण और
इन्हीं के साथमें पकाया हुआ तेल गुल्म,
अर्श, मलकी विवद्धता और वातकफ को दूर वहुत तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, आशुकारी, विकाशी
करताहै । तथा इन्हीं के साथमें पकाया हुआ भारी, वातप्रकोपी और पित्त कफनाशक
महास्नेह मल, शुक्र और वातकी विवद्धता होती है ।
राथा वेदना को नष्ट करता है। अन्य प्रयोग ।
त्रिवृतादि को मधानत्व । तत्झौद्रापिप्पलीलितं स्वेद्य मृद्दर्भवेष्टितम् ॥ विरेचने मुख्यतमा नवैते त्रिवृतादयः । शायदातपेऽन्यौह तोह्यस्यविकाशिताम तत्पिवेन्मस्तुमदिरातक्रपीलुरसासवैः।।
म अर्थ-त्रिवृतादि नौ द्रव्य विरेचन में अभिष्यन्नतनुर्गुल्मीप्रमेही जठरीगरी। । श्रष्ठ है । गोमृगामरसैः पांडुः कृमिकोष्ठी भगदरी। हरीतकी का ग्रहण । ... अर्थ--उपर कही हुई दंती और द्रवंती | हरीतकीमापि त्रिवृद्विधानेनोपकल्पयेत् ॥ की जडको शहत और पीपल के चूर्ण से अर्थ-विरेचन के लिये जो कल्पना लपेटदे तथा इसको कुशा और मृत्तिका से त्रिवृतादि नौ द्रव्यों की कही गई है वही लपेट कर अग्निमें स्वेदित करै, फिर धूपमें कल्पना हरीतकी की भी करनी चाहिये । अ
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अष्टांगहृदय ।
म.
२
र्थात् उचित काल में हरडके चूर्ण को कुछ विरेचनमें त्वचा और केसर । सौंठ और सेंधेनमक के साथ मिलाकर घा
त्वकेसराम्रातकदाडिमैला
सितोपलामाक्षिकमातुर्लिगैः। तिक रोगमें खट्टी कांजी के साथ पान करै ।
मद्यैश्च तैस्तैश्च मनोनुकूलैपित्तज रोगमे घी, चीनी और शहत मिला
युक्तानि देयानि विरेचनानि “ ॥ ६२ ॥ कर दूध के साथ अथवा द्राक्षा, ईख, खंभारी अर्थ-दालचीनी, नागकेसर, आमला,
और भूमिकूष्मांड इनमें से किसी एक के दाडिम, इलायची, मिश्री, मधु, बिजौरा, मद्य रसके साथ सेवन करै ।
तथा मनोनुकूल अन्यान्य द्रव्यों के साथ वि. विरेचन के लिये मोदक । रेचक औषधों का प्रयोग करना चाहिये ऐसा गुडस्याष्टपले पथ्या विंशतिःस्यात्पलं पलम् करने से विरेचन का सम्यक योग होता है । दन्तचित्रकयोः कर्षों पिप्पलीत्रिवृतोदेश ॥ इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीप्रकप्ल्य मोदकानेव दशमें दशमेऽहनि ।।
कान्वितायां कल्पस्थाने विरेचनकउष्णांभोऽनुपिबेत्खादेत्तान्सर्वान्विधिना
नमुना ॥ ५९॥ ल्पोनाम द्वितीयोऽध्यायः। एते निःपरिहाराः स्युःसर्वव्याधिनिबर्हणाः विशेषादग्रहणीपांडुकडूकोठार्शसां हिताः॥
अर्थ-गुड आठ पल, हरड बीस पल, तृतीयोऽध्यायः । दंती एक पल, चीता एक पल, पीपल एक कर्ष, निसौथ एक कर्ष इन सबको पीसकूटकर
अथाऽतो वमनविरेचनब्यापत्सिद्धिदस मोदक बनालेवे । इनमें से एक एक मो
व्याख्यास्यामः। दक दसवें दसवें दिन सेवन करें, ऊपर से अर्थ-अव हम यहां से वमन विरेचन गरम जल पावै । इसके सेवन से सब प्रकार | व्यापसिद्धि नामक अध्याय की व्याख्या के रोग और विशेष करके ग्रहणी, पांडुरोग, कंडू, कोठ और अर्श जाते रहते हैं, यह वि
___अधोगत वमन में पुनर्वमन ॥ रचन आपदरहित है ।
वमनं मृदुकोष्ठेम क्षुद्वताऽल्पकफेन वा। संश्लेषादिमें कर्तव्य ।
अतितीक्ष्ण हिमस्तोकमाणे दुर्बलेन वा१॥
पीतं प्रयात्यधस्तास्मान्नष्टहानिमलोदयः। अलपत्याऽपि महार्थत्वं प्रभूतस्याऽल्पकामताम्
तस्याऽल्पकामताम् वामयेत्तं पुनः स्निग्धं स्मरन् पूर्वमतिक्रमम् ॥ कुर्यात्संश्लेषविश्लषकालसंस्कारयुक्तिभिः॥ अर्थ-जो मनुष्य मदुकोष्ठ, क्षुधाते,
अर्थ संयोग, वियोग, काल, संस्कार | अल्पक फयुक्त, दुर्बल वा अजीर्णी हो उसको और युक्ति विशेषद्वारा ये औषध थोडी मात्रा | अति तीक्ष्ण, अति शीतल और अल्प मात्रा में देने पर भी बहुत काम करती हैं । और में वमनकारक औषध दीजाय तो वह बहुत मात्र में देने परभी थोडा काम करती हैं ऊर्धगामी न होकर अर्थात् वमन का काम
करेंगे
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अ० १
कल्पस्थान भाषाडीकासमेत ।
( ६१७
न देकर अधोगामी होजाता है । अर्थात् | स्निग्धस्विन्नस्य वात्यल्पं दीप्ताग्ने जीर्णमौषधम् विरेचन का काम देती है, इससे वमनकार्य शीतैव स्तव्धमामे वा समुदयहरेन्मलान् ॥ ७ ॥ की हानि और वमनसाध्य कफ का उदेक तानेव जनयेद्रोगानयोगः सर्व एव सः । होता है, इसलिये इस बात का स्मरण करके कि प्रथम दी हुई औषध का कुछ फल नहीं है, रोगी को पुनर्वार स्निग्ध कर के फिर वमनकारक औषध देवै ॥
अर्थ-स्नेहद्वारा स्निग्ध और स्वेदनद्वारास्विन्न किये बिना जिस रोगी को पुरानी और रूक्षी विरेचन औषध दीजाती है, और वह दी हुई औषध दोषों को बाहर नहीं निकाल सकती है, केवल उनको उत्क्लेशित
अजीर्ण में पूर्ववत कर्तव्य |
अतितक्ष्णिोष्णलवणमदृद्यमतिभूरि वातत्र पूर्वोदिता व्यापत्सिद्धिश्च न तथाऽपेि
अजीर्णिनः श्लेष्मवतो ब्रजत्यूर्ध्वं विरेचनम् । करके, अर्थात् अपने स्थान से च्युत करके विभ्रंश, सूजन, हिध्मा, अंधकारदर्शन, तृषा, पिंडिलियों में ऐंठन, खुजली, ऊरुओं में शिथिलता और विवर्णता इन रोगों को उत्पन्न कर देती है । अथवा स्निग्ध और स्विन दीनाग्नि वाला मनुष्य यदि अल्प मात्रा में विरेचन औषध सेवन करे, तो भी वह औषध प्रवल अनि से जीर्ण होकर दोषों को उत्क्लोशत कर देती है परन्तु वाहर नहीं निकाल सकती है, इससे भी पूर्वोक्त विभ्रंशादि रोग पैदा होजाते हैं, अथवा शीतल पदार्थों द्वारा वा आमरस द्वारा सेवन की हुई औषध स्तब्ध होकर केवल दोषोंको उत्क्लेशित कर देती है और बाहर नहीं निकाल सकती है । इस से भी पूर्वोक्त विभ्रंशादि रोग पैदा होजाते हैं । औषधों के इस योग का नामही अयोग है ।
उत्क्लिष्ट दोष में अनुवासन ॥ तं तैलवणाभ्यतं स्विन्नं प्रस्तरशंकरैः ८ ॥ निरूढं जाङ्गलर सैभोजयित्वाऽनुवासयेत् । फलमागधिकादारुसिद्धतैलेन मात्रया ९ ॥ स्निग्धं त्रातहरैः स्त्रहैः पुनस्तीक्ष्णेन शोधयेत्
अर्थ - ऊपर कहे हुए हेतुओं से जिस रोगी के दोष उत्क्कशित होगये हों उसे तेल और नमक से अभ्यक्त करके तथा प्रस्तर
चेत् ॥ ३ ॥ आशये तिष्ठति ततस्तृतीयं नावचारयेत् । अन्यत्र सात्म्याद्धद्याद्वा भेषजान्निरपायतः ॥
अ
अर्थ- जो रोगी अजीर्ण वा बहुत कफसे युक्त उसको अत्यन्ततीक्ष्ण अत्यन्त उष्ण, त्यन्त नमकीन, अहृद्य वा अधिक परिमाण युक्त विरेचन औषध दी जाती है वह अधोगामी न होकर ऊर्ध्वगामी होजाती है । अर्थात् विरेचन का काम न देकर वमन का काम देती है और इस से विरेचन कार्य की हानि और विरेचनसाध्य रोगों की अधिकता होती है, इसलिये रोगी को पुनर्बार स्निग्ध करके फिर विरेचन औषध देंवें । यदि दुवारा विरेचन से भी विपरीत फल हो तो सात्म्य, हृद्य और निरापद औषध देकर तृतीयवार विरेचन देवै ॥
|
बिना स्नेहन स्वेदन के औषधनिषेध । अस्निग्धस्विन्नदेहस्य पुराणं रूक्षमौषधम् । दोषानुत्कृश्य निर्हर्तुमशक्तं जनयेद्वदान् ५ ॥ विभ्रंशं श्वयथु हिध्मं तमसो दर्शनं तृषम् । पिंडिकोद्वेष्टनं कण्डूमूर्योः सारं विवर्णताम् ॥
८८
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(६९८ )
अष्टांगहृदय ।
अ.३ .
शंकर स्वेद से स्विन्न करके निरूहण देवै ।। प्रवाहिकादि में पिप्पल्यादि। और जाङ्गल मांसरसके साथ भोजन करके | पिप्पलीदाडिमक्षारहिंगुशुठयम्लवेतसान् । मेनफल, पीपल, और देवदारु इनके साथ ससैधान्पिवेन्मद्यैः सर्पिषोष्णोदकेन वा। सिद्ध किये हुए तेल से अनुवासन करै ।। प्रवाहिकापरिखावे वेदनापरिकर्तने १५ ॥ फिर वातनाशक तेलों से रोगी को स्निग्ध
अर्थ-पीपल, अनार, जवाखार, हींग,
सोंठ, अम्लवेत और सेंधानमक इनको मद्य, करके तीक्ष्ण विरेचन द्वारा शोधन करै ।
घी वा उष्णोदक के साथ पीने से प्रवाहिका, ___ आध्मान में कर्तव्य ।
परिस्राव, वेदना और परिकर्तन रोग दूर बहुदोषस्य रूक्षस्य मंदाग्नेरल्पमौषधम् १० सोदावर्तस्यचोत्लेश्यदोषान्मार्ग निरुपातैः ।
होजाते हैं। भ्रंशमाध्मापयन्नाभि पृष्ठपार्श्वशिरोरुजम् ॥ |
कुपितवात के कर्म । श्वास विण्मूत्रवातानां सङ्गं कुर्याच्च- पीतौषधस्य वेगानां निग्रहान्मारुतादयः। .
दारुणम् ।। कुपिता हृदयं गत्वा घोरं कुर्वति दृग्रहम् ॥ अभ्यंगस्वेदवादिसनिरूहानुवासनम् १२ हिमापार्यरुजाकासदैन्यलालादिविभ्रमैः उदावर्तहरं सर्व कर्माध्मातस्य शस्यते। जिहां खादति निःसंशोदतान्कटकटाययन् ।
'अर्थ-प्रवल दोषों से आक्रांत, रूक्ष, अर्थ-पीत औषध का वेग रोकने से मन्दाग्नि वाला रोगी जब उदार्वत रोग से | वातादि दोष कुपित होकर और हृदय में भी पीडित हो उसको अल्प मात्रा में विरेचन जाकर हृद्ग्रह, हिमा, पार्श्ववेदना, खांसी, औषध देने से वह दोषों को उत्क्लेशित | दीनता, लालास्राव और नेत्रविभ्रम आदि करके दोषों के निकलनेके मार्ग को रोककर भयंकर रोगों को उत्पन्न कर देते हैं । रोगी नाभिप्रदेश में अत्यन्त अफरा, पीठ पसली बेहोश होकर जिह्वा को चबा जाता है और मस्तक में वेदना, वास तथा मल मूत्र | दांतों को किटकिटाता है । कौर वायु की अत्यन्त विवद्वता उत्पन्न कर उक्तअवस्था में वमनप्रयोग । देती है । इस में अभ्यङ्ग, स्वेद, वादि, | न गच्छेद्विभ्रमं तत्र वामयेदाशु तं भिषक् । निसहरण, अनुबासन तथा सब प्रकार के मधुरैः पित्तमूर्ति कटुभिः कफमूर्छितम् ॥ उदावर्त नाशक उपाय करना उत्तम है। पाचनीयैस्ततश्चास्य दोषशेषं विपाचयेत्। शूलनाशिनी यवागू ।
कायाऽनि च बलं चास्य.
क्रमेणाऽभिप्रवर्तयेत् ॥ १९ ॥ पञ्चमूलयवक्षारवचाभूतिकसैंधवैः ॥१३॥ यवागूः सुकृता शूलविवंधानाहनाशनी ।
अर्थ-ऐसी अवस्था उपस्थित होने पर अर्थ-पंचमूल,जवाखार, बच, अजवायन |
वैद्यको उचित है कि अपने संशय को दूर और सेंधानमक इनके साथ पकाई हुई यवा. कर के शीघ्रही वमन करावै । पित्तमूच्छित गू सेवन करने से शूल, विबंध और आनाह रोगी को मधुर द्रव्यों से और कफमूच्छित रोगों को दूर करदेती है।
| रोगी को कटु औषधों से वमन करावै ।
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अ. ३
कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
तत्पश्चात् पाचनीय औषधियों द्वारा रोगी के / शीघ्र निकलजाते हैं और फिर वह औषध इन बचे हुए दोषको पचाकर कायाग्नि और बल | धातुओं को निकालती है । को धीरे धीरे बढाने का प्रयत्न करे । विरेचनाति योगमें चिकित्सा । - अतिवमित का उपाय। तशतियोगे मधुरैः शेषमौषधमुल्लिखेत् ॥ पवनेनाऽतिवमतो हदय यस्य पीडयते।
योज्योऽतिवमने रेको विरेके वमनं मृदु ॥ तस्मै स्निग्धाम्ललवणम्
परिषेकावगाहाथैः सुशीतैः स्लभयच्च तम् दयात्पित्तकफेऽन्यथा ॥ २०॥ अर्थ-विरेचन के अतियोगं में वमनका' अर्थ-अत्यन्त वमन होने के कारण रक मधुर औषधों द्वाग पी हुई शेष औषध वायुद्वारा जिस रोगी का हृदय पीडित हो का वमन कराके निकाल डाले । वमन के उसे स्निग्ध, अम्ल और नमकीन पध्यदेवै ।। अतियोगमें विरेचन और विरेचन के अतितथा पित्त और कफ कुपित हों तो इससे वि- योगमें मृदु वमन दैना चाहिये । शीतल परीत मधुर शीतादि का प्रयोग करै । | परिषेक और शीतल अवगाहादि द्वारा विरे.
वातनाशक स्वेदादि का प्रयोग। चनको रोक देना चाहिये । पतिौषधस्य वेगानां निग्रहेण कफेन वा।।
| विरेकातियोगनाशक औषध । रद्धोति वा विशुद्धस्य गृह्णात्यंगानि
| अंजनं चंदनाशीरमज्जासृक्शर्करोदकमू २५
मास्तः ॥ २१॥ लाजचूणैः पिवेन्मंथमतियोगहरं परम् । स्तंभवेपथुनिस्तोदसादोद्वेष्टार्तिभेदनैः। अर्थ-अंजन, चंदन, खसकी मज्जा, तत्र वातहरं सर्व स्नेहस्वेदादि शस्यते २२ मजीठ, खांडका शर्बत और खीलका चूर्ण ___ अर्थ-पान की हुई औषधक वेग रोकने | ये विरेचन के अतियोग की श्रेष्ठ औषधहै ।
से, अथवा कफसे अथवा अति विशोधन से वमनातियोगकी चिकित्सा। यायु कुपित और रुद्ध होकर स्तब्धता,वेपथु,
| वमनस्याऽतियोगे तु शीतांबुपरिचितः ।
पिबेत्फलरसैमथं सघृतक्षौद्रशर्करम् ॥ निस्तोद, अंगग्लानि, उद्वेष्टन, वेदना और
सोद्गारायां भृशं छामूर्वायां धान्यमुस्तयोः भेदन उत्पन्न कर देती है इसमें सब प्रकार समधूकांजनं चूर्ण लेहयन्गधुसंयुतम् ।। के वातनाशक स्नेहन और स्वेदन देना ___ अर्थ-वमनके अतियोग में रोगी को ठंडे उसम है।
जलसे परिषेक कराकर घी, शहत और शविरेचनादियोग में कर्तव्य । करा से युक्त मंथको दााउमादि फलों के रसके बहुतक्षिणं क्षुधार्तस्य मृदुकोष्ठस्य भेषजमू साथ पान करोव। जो वमनके साथ डकारों के हृत्वाऽऽशु विटूपित्तफफान् धातूनास्राव
वेगकी अधिकता हो तो मूर्वा, धनियां, मोथा,
येत् द्रवान् २३ अर्थ-क्षुधा से पीडित मृदु कोष्ठ बाले
मुलहटी और रसौत का चूर्ण शहतके साथ
चटावै । रोगी को प्रमाण से अधिक तीक्ष्ण विरेचन
जिहवाकेभीतरघुसजानेमेचिकित्सा। दिया जाय तो उससे विष्टा, पित्त और कफ बमनेऽतःप्रविष्टायां जिह्वायां कवल ग्रहाः २८
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(७००)
अष्टांगहृदय ।।...
अ.३
स्निग्धाम्ललवणा हद्या यूषमांसरसा हिताः | खाने को दे । जो इसको कुत्ते वा कौए फलान्यम्लानिखादेयुस्तस्य चान्येऽग्रतोनराः
खालें तो जीवरक्त जानना चाहिये और न निःसृतां तु तिलद्राक्षाकल्कलिप्तांप्रवेशयेत् अर्थ-अत्यन्त वमन करनेसे जिह्वा के
खांय तो पित्त समझना चाहिये । दूसरी भीतर घुसनाने पर कवलधारण, चिकने
परीक्षा यह है कि किसी सफेद वस्त्रपर इस खट्टे और नमकीन रसोंसे युक्त ह्रदय को
रक्तको लगाकर धूपमें सुखाले और गरम हितकारी यूष, तथा बकरे के मांसरस का | जलसे धोवै यदि कपडे पर मैलापन आजाय प्रयोग करै । उस रोगी के सन्मुख दूसरे
तो पित्त समझना चाहिये और किसी प्रकार आदमी को खट्टा फल खाने को दे । जिव्हा
का दाग न रहै तो जीवशोणित समझना के बाहर निकल आनेपर तिल और दाखका
चाहिये। कल्क जिव्हा पर लगाकर उसे भीतर करदे । तृषादि में प्राणरक्षण क्रिया। वाग्ग्रहादिमें यवागू ।.
तृष्णामूर्खामदातस्य कुर्यादामरण क्रियाम् । वाग्ग्रहानिलरोगेषु घृतमांसोपसाधिताम् ॥
रक्तपित्तातिसारनी तस्याशु प्राणरक्षणीम्।
मृगगोमहिबाजानां सबस्कं जीवतामसृक् ॥ यवागू तयुकां दद्यात्नेहवेदीच कालवित् ।
पिबेज्जीवाभिसंधानं जीवंतदयाशुगच्छति अर्थ-वाणी के रोकनेवाले वातरोगों
| तदेव दर्भमृदितं रक्तं बस्ती निषेचयेत् ॥ में घी और मांसरस के साथ सिद्ध की हुई
अर्थ-तृषा, मूर्छा और मद रोगसे पीयवागू को पतली करके पान करावे तथा
डित रोगीका वैरेचनिक औषध के अतियोस्नेह और स्वेदन देवै ।
ग से जीवशोणित निकल जाय तो रक्तपिभीवरक्त की परीक्षा । त्तातिसार के नाश करनेवाली प्राणरक्षणी अतियोगाच्च भैषज्यं जीवहरति शोणितम् । क्रिया को तत्काल उपयोग में लावे । हरिण तजीवादानमित्युक्तमादत्ते जीवितं यतः। गौ और भंस का ताजी रुधिर पान करावै । शुने काकाय वा दद्यात्तेनान्नमसृजासह । भुक्त तस्मिन् वदेज्जीवमभुक्तपित्तमादिशेत्
यह रुधिर शीघ्रही जीवशोणित से मिलकर शुक्लं वा भाषितं वस्त्रमावानं कोणवारिणा उसे पुष्ट कर देता है । तथा इन्हीं मृगादि के प्रक्षालितं विवर्ण स्यात्पित्ते शुद्धं तु शोणिते । रक्तमें नई पैदा हुई कुशाको मलकर वस्ति. ___ अर्थ-जो विरेचन औषध के अतियोग ! स्थान में सेवन करे । से जीवनामक रक्तका हरण करती है उस
उक्तरोग में दुग्धपान । औषध को जीवादान अर्थात् जीवरक्त को | श्यामाकाश्मर्यमधुकदूर्वोशीरैः शृतं पयः। हरनेवाली कहते हैं । परन्तु विरेचन के |
घृतमंडांजनयुतं बस्ति वा योजयेद्धिमम् ॥
पिच्छाबस्ति सुशीतं वा घृतमंडानुवासनम् अतियोग से जो रक्त निकलता है वह रक्त अर्थ- श्यामा, खंभारी, मुलहटी, दूर्वा है वा पित्तहै, इस बात की परीक्षा के लिये | और खसकी जड इनके साथ औटाये हुए इस रक्तमें अन्न मिलाकर कुत्ते वा कौए को दूध घृतमंड और रसौत मिलाकर ठंडी हो
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
ने पर वस्तिद्वारा प्रयोग करे। अथवा पि- स्वस्थ हितो जीवनवृहणश्च । च्छावस्ति वा घृतमंड का अनुवासन देवै ।
बस्तौ च यस्मिन्पठितो न कल्कः
सर्वत्र दद्यादमुमेब तत्र ॥३॥ ___ गुदभ्रंश की चिकित्सा ।
अर्थ-खटी, गिलोय, त्रिफला, रास्ना गुदं भ्रष्टं कषायैश्च स्तंभयित्वा प्रवेशयेत् । - अर्थ-गुदा के बाहर निकल आनेपर क
और दशमूल प्रत्येक एक पल, मेनफल भाठ
पल,बकरे का मांस पचास पल, इन सब द्र. पायरसयुक्त द्रव्यों के काढे द्वारा इसको स्तं.
व्यों से चौगुना जल डालकर पकावै चौथाई मित करके भीतर प्रवेश करदे । संज्ञानाश में गायनश्रवण ।।
शेष रहने पर उतारकर छानले । फिर इस विसंशं श्रावयत्साम वेणुगीतादिनिस्वनम्
काढेमें अजवायन, मेनफल, बेलागरी, कूठ, अर्थ-जो रोगी बेहोश हो गयाहो तो
बच, सोंफ, नागरमोथा इनका कल्क डालदे सामवेद के भजन, बंशी की ध्वनि वा गीत गुड, मधु, घृत, तेल, और नमक इनमें से सुनाना उचित है।
घी और तेल बातमें काढे से चौथाई, पित्त इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां
में षष्ठांश, और कफमें अष्टमांस मिलावे तथा भाषाटीकान्वितायां कल्पस्थाने
गुड, मधु, और नमक भी ऐसे प्रमाण से तृतीयोऽध्यायः।
मिलावे कि जिससे न तो अत्यन्त अच्छता
और न अधिक नमकीनता हो । फिर इस
काढेका वस्तिद्वारा प्रयोग करे । यह सर्वरोग चतुर्थोऽध्यायः । नाशक और सुस्थ मनुष्यों को हितकारी ब.
था जीवन और वृंहण है । यदि पस्ति के अथाऽतो दोषहरणसाकल्यं बस्तिकल्पं । किसी प्रयोग में कल्कका वर्णन न हो तो
व्याख्यास्यामः॥ यही यवान्यादिक कल्क समझना चाहिये । अर्थ-अब हम यहांसे दोषहरण साकल्य
निरूहण वस्ति । यस्तिकल्प नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। द्विपंचमूलस्य रसोऽम्लयुक्तः सर्वगदप्रमाथी वस्ति ।
सच्छागमांसस्य स पूर्वकल्कः ।
विहयुक्तः प्रवरो निरूहः । "बलां गुडची त्रिफलां सरानां
सर्वानिलव्याधिहरः प्रदिष्टः॥४॥ द्विपंचमूलं च पलोन्मितानि ।
अर्थ-दशमूल का काढा बकरे के मांस अष्टौ फलान्यर्धतुलां चमांसाच्छागात्पचेदप्सु चतुर्थशेषम् ॥१॥ के साथ कांजी मिलाकर और पूर्वोक्त यवानी पूतो यवान फलावल्वकुट.
आदि का कल्क डालकर घी, वसा और वचाशताहाघनपिप्पलीनाम् ।
| मज्जा इन तीनों स्नेहों से युक्त निरूहण कल्कैर्गुडक्षौद्रकृतैः सतैलैयुक्तःसुखोष्णोलवणान्वितश्च ॥२॥
घस्ति सर्वोत्तम और सब प्रकार की बातबस्तिः परं सर्वगनमाथी
व्याधियों को दूर करनेवाली है।
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अष्टांगहृदय |
बलादि निरूहण | चलापढोली लघुपंचमूलशायन्तिकैरंडयवात्सुसिद्धात् । प्रस्थो रसाच्छागरसार्धयुक्तः साध्यः पुनः प्रस्थ समः स यावत् ॥ ५ ॥ प्रियंगुकृष्णा घनकल्कयुक्तः सतैलसर्पिर्मधुसैंधवश्च । स्याद्दीपनो मांसवलप्रदश्च चक्षुर्बलं चोपदधाति सद्यः ॥ ६ ॥ अर्थ - खरैटी, पर्व, लघु पंचमूल, त्रायमाण, अरंड, और जौ इनका काढा एक प्रस्थ और बकरे के मांसका रस एक प्रस्थ इन दोनों को मिलाकर पकावे जब एक प्रस्थ रहजाय, तब उतार ले । फिर इसमें प्रियंगु, पीपल और मोथा इनका कल्क तथा तेल, घी और सेंधानमक डालकर वस्तिका प्रयोग करे । यह अग्निसंदीपन, पुष्टिकारक, वलवर्द्धक और आंखों की ज्योति को बढानेवाला है |
अन्य प्रयोग |
ऍडमूलात्रिपलं पलाशातथा पलांशं लघु पंचमूलम् । रास्नाक्लाछिन्नरुहाभ्वगंधापुनर्नवारग्वधदेवदारु ॥ ७ ॥ फलानि चाऽष्टौ सलिलाढकाभ्यां बिपावयेदष्टमशेषितेऽस्मिन् । वचाशताह्वाहपुषाप्रियंगुयष्टकिणावत्सकवीजमुस्तम् ॥ ८ ॥ दद्यात्सुपिष्टं संहताक्ष्य शैलमक्षप्रमाणं लवणांशयुक्तम् । समाक्षिकस्तैलयुतः समूत्रो वस्तिर्जयेल्लेखनदीपनोऽसौ ॥ ९ ॥ घोरुपादत्रि कपृष्ठ कोष्ठहृद्गुह्यलं गुरुतां विबंधम् ।
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अ० ४
गुल्माश्वर्मग्रहणीगुदोत्थांस्तांस्तांश्च रोगान्कफवातजातान् ॥ अर्थ - अरंड की जड तीन पल, केसू तीन पल, लघुपंचमूत्र एक पल, रास्ना, खरैटी, गिलोय, असगंध, सांठ, अमलतास और देवदारू प्रत्येक एक पल, मेनफल आठ नग इन सबको एक आढक जल में पकावे जब अष्टमांश शेष रहे तब उतार कर छान ले। फिर इसमें बच, सौंफ, हा ऊबेर, प्रियंगु, मुलहटी, पीपल, इन्द्रजौ, मोथा और रसौत प्रत्येक एक तोला, सेंधानमक चौथाई कर्ष, इन सबको बारीक पीसकर डालदें, फिर इसमें शहत, तेल और गोमूत्र भी मिलाकर वस्ति की कल्पना करे ।
पित्तरोगनाशनी वस्ति । यष्टयाह्वरोध्राभय चंद नैश्च शृतं पयोग्यं कमलोत्पलैश्च । सशर्कराक्षौद्रघृतं सुशीतं पित्तामयान्हंति सजीवनीयम् ॥ ११ ॥ अर्थ- मुलहटी, लोध, खस, चंदन, कमल और नीलोत्पल इनको डालकर औटाया हुआ दूध इसमें जीवनीयगणोक्त द्रव्यों का कल्क डालै, तथा ठंडा होने पर घी, शहत और खांड मिलाकर वस्तिं देवे, इससे सब प्रकार के पैत्तिक रोग नष्ट होजाते हैं ।
अन्यवस्ति ।
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रास्त्रां वृषं लोहितिकामनंतां बलां कनीयस्तृणपंच मूल्यौ । गोपांगनाचंदनपद्मकर्धीयष्टाधाणि पलार्धकानि ॥ १२ ॥ निःक्काथ्य तोयेन रसेन तेन तं पयोर्धाढकहीनम् ।
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अ० ४
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
जीवंतिमेदधियरीविदारी वीराद्विका कोलिकसेरुकाभिः ॥ १३ ॥ सितोपलाविक पद्मरणुकोत्पलपुंडरीकैः । लोहात्मगुप्ता मधुयष्टिकाभिनगाह जातक चंदनैश्च ॥ १४ ॥ पिटेर्वृक्षौद्रयुतैर्निरूह सवं शीतलमेव दद्यात् । प्रत्यागते धन्वरसेन शालीन् क्षीरेण वाऽद्यात्परिषिक्तगात्रः ॥ १ ॥ दाहातिसारप्रहरात्रपित्तहत्पांडुरोगाविषमज्वरं च ! सगुल्ममूत्रग्रहका मलाक्षीन् सर्वमयान् पित्तकृतान्निहति ॥ १६ ॥ अर्थ - रास्ना, बासक, मजीठ, अनंतमूल खोटी, लघु पंचमूल, तृणपंचमूल, कालीसारिवा, रक्तचंन्दन, पदमाख, ऋद्धि, मुलहटी और लोध, प्रत्येक आधा पल, इनका काथ करले,इसमें आधा आढक दूध पकावै, जब दूध शेषरहे तब उतारकर छानले । फिर इसमें जीवंली मेदा, ऋद्धि, सितावर, बिदारीकंद, काकोली खीरकाकोली, कसेरू, शर्करा, जीवक, कमलकेसर, प्रपौंडरीक, उत्पल, पद्म, अगर, कमाच, मुलहटी, लक्षणामूल, मुंजातक और रक्तचंदन इन सब द्रव्यों का कल्क तथा घी शहत और सेंधानमक मिलाकर ठंडा होने पर वस्तिद्वारा प्रयोग करें । वस्तिके प्रत्यागत I होनेपर रोगी को परिषिक्त करके सात्म्य के अनुसार जांगल मांसरस के साथ अथवा दूध के साथ शाली चांवलों का भात खाने को दे । इस वस्तिसे दाह, अतिसार, प्रदर रक्तपित्त, हृद्रोग, पांडुरोग, विषमज्वर, गुल्म मूत्राघात, और कामलादि पित्तज रोग सब नष्ट हो जाते हैं ।
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( ७०३ १
कफजरोगों में निरूहण ॥ कोशातकारग्वधदेवदारुमूवीश्वदंष्ट्राकुटजार्कपाठाः । पक्त्वा कुलत्थान्वृहतीं च तोये रसस्य तस्य प्रसृता दश स्युः ॥ १७ ॥ तान् सर्षपैलामदनैः सकुटैरक्षप्रमाणः प्रसृतैश्च युक्तान् । क्षौद्रस्य तैलस्य फलाह्वयस्य क्षारस्य तैलस्य ससर्पिषश्च ॥ १८ ॥ दद्यान्निरूहं कफरोगिताय मंदाग्नये चाशनविद्विषे च । अर्थ - घीया तोरेई, अमलतास, देवदारू, मूर्वा, गोखरू, इन्द्रजौ, आक, पाठा, कुलश्री और कटेरी इन सब द्रव्यों को इकट्ठा करके इनमें इतना जल डाले कि चौथाई शेष रहने पर दस प्रसृत रहजाय, फिर इस काथमें सरसों, इलायची, मैंनफल, और कुडा इनका कल्क प्रत्येक दो तोले, तथा मधु और मैनफल का तेल, क्षारतेल और घी इनमें से प्रत्येक दो पल मिला उस रोगी को निरूहण देवे जिसकी अग्निमंद पडगई हो और भांजन में अरुचि हो |
सुकुमारों को निरूहण ॥ वक्ष्ये मृदू स्नेहकृतो निरूहान सुखोचितानां प्रसृतैः पृथक् स्युः ॥ अथेमान्सुकुमाराणां निरूहान् स्नेहनान्मृदून कर्मणा विप्लुतानां तु वक्ष्यामि प्रसृतैः पृथक् ॥
अर्थ - अब हम सुकुमार और सुखी मनुष्यों के संबंध में परिमित प्रसृत और मृदु स्नेहन निरूहों का पृथक् पृथक् वर्णन करेंगे । जो सुकुमार है और वमनादि कर्मसे भ्रष्ट हैं उनके संबंधवाली स्नेहन और मृदु निरूहण पृथक् २ प्रसृति परिमाण से वर्णन करेंगे ।
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अष्टांगहृदय ।
अ०४.
वातनाशक वस्ति ।
नेसे विष्टाका विवंध और आनाह जाता रह. क्षीराद् द्वौप्रसृतौ कार्यों मधुतेलघृतात्रयः। ता है ।। खजेन मथितो वस्तिर्वातघ्मो वलवर्णकृत् ॥ शुक्रकारक वस्ति ।
अर्थ-दूध चार पल,तथा मधु तेल और पयस्येचस्थिरारानाविदारीक्षौद्रसर्पिषाम् । घी चार प्रस्त, इन सब द्रब्यों को रई से | एकैकप्रसृतो बस्तिः कृष्णाकल्को वृषत्वकृत् मथकर वस्ति द्वारा प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-दुग्धिका, ईखकी जड, शालपर्णी यह वस्ति वातनाशक तथा वल और वर्ण | रास्ना, विदारीकंद, शहत और घी प्रत्येक को करनेवाली है।
एक प्रसृत और इनके साथ में पीपलका
कल्क मिलाकर वस्ति देने से शुक्रकी वृद्धि __ वातनाशक वस्ति ।
होती है। एकैकः प्रसृतस्तैलप्रसन्नाक्षौद्रसर्पिषाम् ।
सिवास्तयों का वर्णन । बिल्बादिमूलकाथादु द्वौ कौलत्थादू द्वौ स
बातजित् ॥ २२॥
सिद्धवस्तीनतो वक्ष्ये सर्वदा यान्प्रयोजयेत्
निप्पदो बहुफलान्बलपुष्टिकरान् सुखान अर्थ-तेल, प्रसन्ना, मधु और घृत
अर्थ-अब हम यहां से सिद्ध वस्तियों का प्रत्येक एक प्रसृत, विल्वादि पञ्चमूल का
वर्णन करते हैं, इनका प्रयोग सदा किया काथ दो प्रसृत, इनकी वस्ति वातनाशक
जाता है । ये वस्तियां निप्पद बहुत गुण___ अभिष्यन्दादिनाशक वस्ति ।
कारक, बल और पुष्टि करनेवाली हैं, तथा
सुखकारक भी हैं। पटोलनिंबभूतीकरानासप्तच्छदाभसः।
प्रमेहनाशक वस्ति । प्रसृत पृथगाज्याञ्चवस्तिः सर्षपकल्कवान् संपचतिक्तोभिप्यदकृमिकुष्ठप्रमेहहा।।
मधुतैले समे कर्षः सैंधवाद् द्विपिर्मितिः
एरंडमूलक्वाथेन निरूहो मधुतैलिकः। पर्वल, नीमकी छाल, चिरायता, रास्ना
रसायनं प्रमेहार्शः कृमिगुल्मांत्रवृद्धिनुत् ॥ और सातला इनमें से प्रत्येक का काढा एक
__अर्थ-मधु और तैल समान भाग, सेंधाप्रसृत, घी एक प्रसृत, इनके साथ सरसों
नमक एक कर्ष, सोंफ दो पिचु, इन सब द्रका कल्क और पञ्चतिक्त घृत मिलाकर व्यों को अरंड के काढेमें मिलाकर देने से उसकी वस्ति देनाचाहिये, इससे अभिष्यन्द | यह रसायन है प्रमेह, अर्श, कृमि, गुल्म और कृमि, कुष्ठ और प्रमेह नष्ट हो जाते हैं। अंत्रवृद्धि को दूर करतीहै । इस निरूहण व.
विट्संगादि नाशकवस्ति । | स्ति में मधु और तैलका अधिक संयोग होता चत्वारस्तैलगोमूत्रदधिमंडाम्ल कांजिकात् ॥ है. इससे इसे मधुलिक कहते हैं।
हमदनः नेत्रोंको हितकारक वस्ति । अर्थ-तेल, गोमूत्र, दहीका मंड और | सयष्टिमधुकश्चैष चक्षुष्यो रक्तपित्तजित् । अम्लकांनी प्रत्येक चार प्रसत, इनमें सरसों अर्थ-मुलहटी से संयुक्त की हुई वस्ति पीसकर मिलादेवै । इससे वस्ति प्रयोग कर | नेत्रोंको हितकारक तथा रक्तपित्तनाशक होती है
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
निरूहण की कल्पना |
प्रसूतांशैर्धृतौ द्रवसातैलैः प्रकल्पयेत् ३० अर्थ ·--- · घृत, , मधु, बसा और तेल प्रत्येक दो पल, सेंधानमक एक तोला, हाऊत्रेर दो तोला इन सब द्रव्यों से यापना वस्ति की कल्पना करनी चाहिये ।
पावादि रोगनाशक वस्ति ।
सिद्धवस्ति ।
यापनो घनकल्केन मधुतैलरसाज्यवान् । पंचमूलस्य निःक्वाथस्तैलं मागधिका मधु पायुघोरुवृषणवस्तिमेहनशूलजित् । ससैंधवः समधुकः सिद्धबस्तिरिति स्मृतः अर्थ-मोथे के कल्क के साथ मधु, तेल, अर्थ = पञ्चमूल का काढा, तिल का मांसरस और घृत मिलाकर जो वस्ति दी तेल, पीपल, शहत, सेंधानमक, और जाती है वह गुदा, जंघा, ऊरु, वृषण, वस्ति मुलहटीं मिलाकर वस्ति की कल्पना करै । मेहन और शूल को जीतने वाली होती है । यह सिद्ध वस्ति है ।
युक्तरथनामा बस्ति ॥
|
परंडमूलनिः काथो मधुतैलः ससैंधवः । पत्र युक्तरथो बस्तिः सवचापिप्पलीफलः॥ अर्थ-अरंड की जड़के काढे में मधु, तेल और सेंधानमक तथा वच, पीपल और नफल का कल्क मिलाकर वस्ति का प्रयोग करे । यह वस्ति युक्तरथ कहलाती है । सुश्रुत में कहा है, रथेष्वपिहि युक्तेषु हस्त्य - श्वेष्वपियोजयेत् । तस्मान्न प्रतिषिद्वोयमतो युक्तरथः स्मृतः । अर्थात् यह हाथी घांडे आदि से जुते हुए रथमें भी प्रतिषिद्ध नहीं होती है ।
|
दोषनाशक वस्ति |
साथ मधुषथशताह्वाहिंगुसैंधवः । सुरदारुवचारास्नाबस्तिर्दोषहरः परः ३२
अर्थ - - अरण्ड की जड़ के काढ़े के साथ शहत, बच, सौंफ, हींग, सेंधानमक, सफेद बच, रास्ना मिलाकर वस्तिका प्रयोग करने से दोषों का नाश होजाता है, यह औषध बहुत उत्तम है ।
८९
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( ७०५ )
कफादिनाशक वस्ति । द्विपंचमूलत्रिफलाफलाविल्वानि पाचयेत् ॥ गोमूत्रेण च पिंटैश्च पाठावत्सक तोयदैः ॥ सफलैः क्षौद्रतैलाभ्यां क्षारेण लवणेन च । युक्तो बस्तिः कफव्याधिपांडुरोगविसूचिषु शुक्रानिलविबंधेषु बस्त्याटोपे च पूजितः
अर्थ- दशमूल, त्रिफला, मैनफल और बेलगिरी, इन सब द्रव्यों को गौ मूत्र में पकाकर काथ करले, इस काथमें पाठा, इन्द्रजौ, मोथा और मैनफल पीसकर डालदे, तथा मधु, तिलका तेल, जवाखार और सेंधानमक मिलाकर वहित का प्रयोग करें, इस बस्ति से कफरोग, पांडुरोग, विसूचिका वीर्यैरोध, वायु विबंध तथा आटोप रोग दूर होजाते हैं ॥
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वातनाशक बस्ति । मुस्तापाठामृत रंड बलारानापुनर्नवा ॥ ३६ ॥ मंजिप्रारग्वाधोशीरत्रायमाणाक्षरोहिणीः । कनीयः पंचमूलं च पालिकं उद्नाष्टकम् ॥ जलाढके पचेत्तच्च पारशेषं परिस्रुतम् । क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं क्षीरशेषं पुनः पचेत् ॥ सपादजांगलरसः सस्रार्पर्मधुसैंधवः । पिष्टैर्यष्टिमिसिश्यामाकलिंग करसांजनः ॥ वस्तिः सुखोष्णो मांसान्निवलशुक्रविवर्धनः ॥ घातावृङ्वो हमे हा गुल्मविण्मूत्रसंग्रहम् ॥ विषमज्वरवास पवमानप्रवाहिकाः । aturesटीकुक्षिमन्याश्रोत्रशिरोरुजः ॥
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अष्टांगहृदय |
( ७०६ )
हम्याद सुन्दराम्मादशोफका साश्मकुंडलान् । | चक्षुः पुत्रदो राक्षां यापनार्ना रसायनम् ॥
अर्थ - मोथा, पाठा, गिलोय, अरंड की जड, खरैटी, रास्ना, पुननर्वा, मजीठ, अ. मलतास, खस, त्रायमाणा, बहेडा, हरड, और लघुपंचमूल प्रत्येक एक पल, मैनफल, आठ, इन सबको एक आढक जलमें पकावै चौथाई शेष रहनेपर उतारकर छानले, फिर इस काढेमें दो प्रस्थ दूध मिलाकर फिर पकावै, जब दूध शेष रह जाय तब उतारकर छानले । फिर उसमें दूध से चौथाई जांगल मांसरस तथा घी शहत और सेंधानमक मिलादे । तथा मुलहटी, सौंफ, श्यामा, इन्द्रजौ और रसौत इनको पीसकर मिलादे । इसको ईषदुष्ण अवस्था में प्रयोग करें । यह मांस . जठराग्नि, बल और वीर्यको बढानेवाला है, - तथा वातरक्त, मोह, प्रमेह, अर्श, गुल्म, मल और मूत्रका विबंध, विषमज्वर, विसर्प, व आध्मान, प्रवाहिका, वंक्षण ऊरु, कमर, कूख, मन्या,श्रोत्र और सिरका दर्द, असृग्दर, उन्माद, सूजन, खांसी, अश्मरी और वातकुंडलिका जाते रहते हैं । यह नेत्रों को हतकारी, पुत्रदायक, और राजाओं के कष्टसाध्य रोग में रसायन है |
शुकarata |
मृगाणां लघुबभ्रूणां दशमूलस्य चांभसा । हामिसिगांगेयीकल्कैवतहरः परम् ॥ निरुहोत्यर्थवृष्यश्च महास्नेहसमन्वितः ।
अर्थ-छोटे और बडे दोनों प्रकार के मृगों का मांस और दशमूल इनका काढा करके उसमें हाऊबेर, सौंफ, और नागरमोथा
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भ० ४
पीसकर मिलादे यह वातनाशक परमोत्तम औषध है । तथा इसमें महास्नेह का संयोग किया जाय तो यह अत्यन्त वीर्यवर्द्धक है ।
मयूरादि की कल्पना ।
मयूरं पक्षपितांत्रपादवितुण्ड बार्जितम् ॥ लघुना पञ्चमूलेन पालिकेन समन्धितम् । पक्त्वा क्षीरजले क्षीरशेषम्
सघृतमाक्षिकम् ॥ ४५ ॥ सद्विहारीकणायष्ठीशतावा फलकल्कबत् । बस्तिरीषत्पटुयुतः परमं बलशुक्रक्कृत् १६ ॥ अर्थ- पंख, आंत, पांव, पुरीष, और चोंच दूर करके मोर का मांस तथा लघुचमूल प्रत्येक एक पल इनका काढा करले, चौथ ई शेष रहने पर छानले फिर इसमें दूध मिलाकर पकावे, दूध शेष रहने पर घी शौर शहत मिलादेवै, पीछे इसमें विदारीकंद, पीपल, मुलहटी, सोंफ, मेनफल तथा थोडा सा सेंधानमक इन सबको पीसकर मिलांदेवै । यह वस्ति अत्यन्त बल और वो बढानेवाली है ।
ततिर आदि फी कल्पना कल्पनेयं पृथक् कार्या तित्तिरिप्रभृतिष्वपि विष्किरेषु समस्मेषु प्रतुद्म सहेषु च ४७ ॥ जलचारिषु तद्वच्च मत्स्येषु क्षीरवर्जिता ।
अर्थ - तीतर आदि पक्षी, तथा सब प्रकार के विष्किर, प्रतुद, प्रसह और जलचर जीवों के मांसकी ऊपर लिखी हुई रीति से वस्ति की कल्पना करे | परन्तु मछलियों की मांसकी वस्ति में दूध नहीं डालना चाहिये क्योंकि दूध और मछली विरुद्ध हैं । गोधादि की वस्ति ।
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गोधान कुलमार्जारशल्यकौ टुरम पलम् ॥ पृथक् दशपलं क्षीरे पंचमूकं च साधयेत् ।
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७०७ ]
तत्पयः फलवैदेहीकल्फदिलवणान्वितम् ॥ | गुडूच्यैरण्डभूतीकमार्गी बृषकसहिषम् ॥ ससितातैलमध्वाज्यो बस्तिर्योज्यो- शतावरी सहचरं काकनासां पलांशकम् ।
रसायनमू। यवमाषातसीकोलकुलत्थान्प्रस्तोन्मितान् व्यायाममथितोरस्कक्षीणद्रियबलौजसाम् । वहे विपाच्य तोयस्य द्रोणशेषेण तेन च । विवद्धशुक्रबिण्मूत्रखुडवातविकारिणाम् । पचेत्तैलाढकं पेप्यैर्जीवनीयैः पलोन्मितः ॥ गजवाजिरथक्षोभभग्नजरितात्मनाम् ५१ | अनुवासनमित्येतत्सर्ववातविकारनुत्। पुनर्नवत्वं कुरुते वाजीकरणसत्तमः।
अर्थ-अब हम यहां से सपरिहार वस्तिअर्थ-गोह, न्यौला, बिल्ली, सेह चूहा
गों का वर्णन करते हैं, ये दोषों को नाश इनका मांस और पंचमूल इनको अलग
करनेवाली होती है । दशमूल,खरैटी,गस्ना, अलम दस पल लेकर धके साथ पकावै ।
असगंध, पुनर्नवा, गिलोय, अरंड की जड़, फिर इसमें मेनफल और पीपल, सेंधानमक
अजवायन, भाडंगी, अडूसा, रोहिषतृण, और विडनमक पीसकर मिलादे,तथा मिश्री,
सितावर, कुरंटा, काकजंघा, प्रत्येक एक तेल, शहत और घी मिलाकर वस्तिकी
पल, जौ, उरद, भलसी, बेर, कुलथी, प्र. कल्पना करै, यह वस्ति रसायन है । इसके त्येक दो पल इन सबको एक द्रोण जल में प्रयोग से व्यायाम से मथित वक्षःस्थलवाला पकावै, जब चौथाई शेष रहजाय तब उतार क्षीण इंद्रिय बल और ओजवाला, शुक्र
| कर छानले । और इसमें एक आढक तेल विष्टा मूत्र की विवंधतावाला खुडवात रोगी,
तथा एक एक पल जीवनीय गणोक्त द्रव्य तथा हाथी, घोडा, रथ, इनकी सवारी से
| पीसकर डालकर मिलादे । यह अनुवासन बर्जरित देहवाला फिर नवीनता को धारण
वस्ति सब प्रकार के वातरोगों को दूर करने. करता है । यह श्रेष्ठ वाजीकरण औषध है।
वाली है। केंचकीफली के साथ पथ्य । ।
आनूप जीवों की वसा । सिद्धेन पयसा भोज्यमात्मगुप्तोटेक्षुरैः ५१ |
अनूपानां बसा तद्वजीवनीयोपसाधिता। अर्थ-केंच के बीज,चिरमिठी और ताल
___अर्थ-जीवनीय गणोक्त द्रव्यों के साथ, मखाने के साथ सिद्ध किये हुए दूधकी वस्ति
पकाई हुई आनूप जीवों की चर्बी की वस्ति स्नेहवस्ति।
पूर्ववत् गुणकारक होती है।
अन्य तैल। स्नेहांश्च यंत्रणान् सिद्धानिसद्धद्रव्यैः
प्रकल्पयेता| शतावाचेरिविल्वाम्लस्तैलं सिद्धंसमीरणे अर्थ-बहुत से सिद्ध द्रव्यों के साथ अर्थ सोंफ, कंजा और कांजी इन से यंत्रणारहित स्नेहवस्ति की कल्पना करै। सिद किये हुए तेल की अनुवासन बस्ति
. अन्यस्नेह वस्ति। वातनाशक होती है । "दोषघ्नाः सपरीहारावश्यते स्नेहयस्तयः |... अन्य घृत प्रयोग। शमूलं पला रास्तामश्वगंधा पुनर्नवाम् । सैंधवेनाग्निवर्णेन वप्तं वाऽनिलजिद घृतम् ॥
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(७०८)
अष्टांगहृदय । .
अ. ४
- अर्थ-सेंधेनमक के डेले को लाल गरम । देवदारु, कायफल, सोंठ, पुष्करमूल, मेदा, कराके घी में बुझावै, इस घृत के सेवन से चव्य, चीता, कचूर, बिडंग, अतीस, श्यामा, वातरोग दूर होजाते हैं ।
हरेणु, नीशिनी, शालपर्णी, बेलगिरी, अज• पौष्टिक अनुवासन ।
मोद, पीपल, दंती और रास्ना इन सबको जीवंती मदन भदा श्रावणी मधुकं बलाम। समान भाग ले, इनके साथ अरंड का तेल शतावर्षभको कृष्णां काकनासा- वा तिल का तेल वा अरंड और तिल का - शतावरीम् ॥ ५९ ॥
तेल मिलाकर पकाये । यह अनुवासन वस्ति स्वगुप्तां क्षीरकाकोली कर्कटाख्यां शठीं
वचाम् ।। कफरोगनाशक, वर्म, उदावर्त, गुल्म, अर्श, पिष्ट्वा तैलघृतंक्षीरे साधयेत्तञ्चतुर्गुणे ॥ प्लीहा, प्रमेह, आढयवात, आनाह और वृहणं वातपित्तघ्नं बलशुक्रानिवर्धनम् ।।
अश्मरी इन सब रोगों को शीघ्र नष्ट कर रजःशुक्रामयहरं पुत्रीयमनुवासनम् ६१ ॥
| देती है। - अर्थ-जीवती, मेनफल, मेदा, श्रावणी,
कफनाशक तेल मुलहटी, खरैटी, सौंफ, ऋषक, पीपल,
" साधितं पंचमूलेन तैलं बिल्वादिनाऽथवा काकजंघा, सितावर, केंच, क्षीरकाकोली
कफघ्नं कल्पयेत्तैलं द्रव्यैर्वा कफघातिभिः॥ काकडासांगी, कचूर, बच, इन सबको पी- फलेरष्टगुणश्चाम्लैः सिद्धमन्यासन कफे। सकर चौगुने दूध में मिलाकर घी और तेल । अर्थ-बिल्वादि पंचमूल अथवा कफको पकायै । यह अनुवासन वस्ति वृहण नाशक द्रव्यों के साथ में अठगुनी कांजी वातपित्तनाशक, बल, वीर्य और अग्नि को | आदि के साथ सिद्ध किया हुआ तेल कफ बढानेवाली, रज और वीर्य संबंधी रोगों को | में सिद्ध प्रयोग है। दूर करने वाली, और पुत्रोत्पादन में हित.
तीक्ष्णादि वस्ति । कारी है।
| मृदुवस्तिमडीभूतेतीक्ष्णोऽन्योबस्तिरिष्यते
तीक्ष्णैर्विकर्षितः स्निग्धोमधुरः शिशिरोमृदुः अन्य अनुवासन । सैंधव मदनं कुष्टं शताहा निचुलो वचा।
___अर्थ-मधुस्निग्धशीतलात्मक मृदु वस्ति. हीबेरं मधुकं भार्ग देवदारुसकटफलम् ।। के जडीभूत होने पर अर्थात् कोष्ठही में नागरं पुष्करं मेदा चविका चित्रका शठी। स्थित होने पर तीक्ष्ण वस्ति का प्रयोग विडंगातिविषा श्यामा हरेणु लिनी
करे | गोमूत्रादि तीक्ष्ण वस्तियों से कोष्ठके
स्थिरा ॥ ६३ ॥ बिल्वाजमोदचपला दन्तीरामाच तैःसमैः
विकर्षित होने पर स्निग्ध मधुर और शीतल साध्यमेरण्डतलं वा तैलं वा कफरोगनुत् ॥ मृदु वस्ति का प्रयोग करना चाहिये । पोदावर्तगुल्मार्शःप्लीहमेहाढयमारुतान् वस्तिको मदु तीक्ष्णत्व । पानाहमश्मरी चाशु हन्यात्तदनुवासनम् ॥ तीक्ष्णत्वं मूत्रपाल्वग्निलवणक्षारसर्षपैः ।
. अर्थ-सेंधानमक, मेनफल, कूठ, सौंफ, । प्राप्तकालं विधातव्यं घृतक्षीरस्तु मार्दवम् ॥' जलवेत, बच, नेत्रत्राला, मुलहटी, भाडंगी, | अर्थ-उचित काल का विचार करके -
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कल्पस्थान भाषांटीकासमेत ।
जवाखार
गोमूत्र, पील, चीता, सेधा नमक, और सरसों के योग से वस्ति में तीक्ष्णता तथा घी और दूधके संयोग से मृदुता करे । सिद्धवस्ति का फल | थलकालरोगदोषप्रकृतीः प्रविभज्य योजितो बस्तिः । स्वैः स्वैरौषधवर्णैःस्वान् रोगान्निवर्तयति । अर्थ - बल, काल, रोग, वातादि दोष और रोगी की प्रकृति का विचार करके बातादि नाशक औषधों के संयोग से सिद्ध की हुई वस्तयां उन उन रोगोंको नष्ट करदेती हैं
वस्तियोजना का प्रकार । उष्णातनांशी तांश्छी तार्तानांतथा सुखाष्णांच तद्योग्यौषधयुक्तान्बस्तीन्संत चुंजीत ।
अर्थ - यथायोग्य औषधों से युक्त वस्ति उष्णता से पीडित व्यक्तियों को शीतल और शीत से पीडित व्यक्तियों को सुखोष्ण वस्ति देनी चाहिये ।
विशोधन के योग्य |
बस्तीन बृंहणीयान् दद्याद्वयाधिषु विशोध
मेदस्वनो विशोध्या ये च नराः कुष्ठमेहार्ताः न क्षीणक्षत दुर्बलमूर्छित कृशशुष्कशुद्धदेहानाम् | दद्याद्विशोधनीयान् दोषनिबद्धायुषो ये च,,
अर्थ - मनविरेचन द्वारा शोधन के यो ग्य व्याधियों में वृंहण वस्तियों का प्रयोग न करना चाहिये क्योंकि मेदस्वी तथा कुष्ठ और प्रमेह से पीडित रोगी विशेष करके शोधन के योग्य होते हैं । क्षीण, क्षत, दुर्बल, मूर्छित कृश, शुष्क और शुद्ध देवाले रोगीको वस्ति
( ७०९ )
न देना चाहिये क्योंकि वस्ति के देने से दोर्षो के अति क्षीण होनेपर आयु नष्ट हो जाती है इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां कल्पस्थाने वस्तिकल्पचतुर्थोऽध्यायः ।
पंचमोऽध्यायः ।
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अधाडतो बस्तिव्यापत्सिद्धिं व्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहांसे वस्तिव्यापत्सिद्धि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
अस्निग्ध देहमें वस्तिका प्रयोग | "अस्निग्धस्विन्नदेहस्य गुरुकोष्ठस्य योजितः शीतोऽल्पस्नेहलचणद्रव्यमात्रो घनोऽपि या बस्तिः संक्षोभ्य तं दोषं दुर्बलत्वादनिर्हरन् करोत्ययोगं तेन स्याद्वातमूत्रशकृद्ग्रहः । नाभिबस्तिरुजादाहो हल्लेपः श्वयथुर्गुदे ॥ कंडूगडानि वैवर्ण्यमरतिर्वन्हि मार्दवम् ६
अर्थ - जिस रोगीको पहिले स्नेह और स्वेदन न दिया गया हो और उसका कोष्ट भारी हो उसको शीतल, अल्पस्नेह और नमक सेयुक्त अथवा गाढी वस्ति दीजाय तो वस्ति दुर्बल होने के कारण दोषोंको बाहर नहीं निंकाल सकती है, किन्तु उन्हों को संक्षोभितं कर देती है और इससे अयोग हो जाता है। ऐसा होनेसे अधोवायु, मूत्र और विष्ठा का विबंध हो जाता है | नाभि और वस्ति में दाई और वेदना होती है, हृदयमें उपलेप, गुदामें सूजन, खुजली, गंड, विवर्णता, अरति और अग्निमांद्य हो जाता है ।
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( ७१.)
अष्टांगहृदय ।
अ० ५
उक्तदशा में कर्तव्य। . फलवर्तिका प्रयोग । क्वाथवयं प्राग्विहितं मध्यदोषेऽतिसारिणि स्वभ्यक्तस्विनगात्रस्य तत्र वर्ति प्रयोजयेत् उष्णस्य तस्माद्धधकस्य तत्र पानं प्रशस्यते बिल्बादिश्च निरूहः स्यात्पीलुसर्षपमूत्रवान् फलवयंस्तथास्वेदाः कालंशात्वाविरेचनम् । सरलामरदारुभ्यां साधितं वाऽनुवासनम् बिल्वमूलनिवृद्दारुयवकोलकुलत्थवान् ५ ___ अर्थ-रोगी को तेल द्वारा उत्तम रूपसे सुरादिमांस्तत्रयस्तिःसप्राक्पेप्यस्तमानयेत् अभ्यक्त तथा स्वेदन कर्मसे स्विन्न करके अर्थ-इन लक्षणों के उपस्थित होनेपर
अवस्था विशेष में फलवर्ति का प्रयोग करना अतिसार चिकित्सा में कहे हुए दो काथों में चाहिये, अथवा पील, सरसों, गोमूत्र और से एक ( भूतीक पिप्पल्यादि वा बिल्वधनिको) विल्यादि से युक्त निरूहण देवै । अथवा काथको गरम गरम पीना, फलवर्ती, स्वेद, | सरलकाष्ठ और देवदारु से सिद्ध की हाँ अबस्थानुसार विरेचन, बेलगिरी की जड.
| अनुवासन देवै। निसोथ, देवदारु, जौ, बेर, कुलथी, इनकी वेगसंरोधमें वस्तिका फल ।। वस्ति तथा सुरायुक्त वस्ति, इनमें यमान्यादि
कुर्वतो वेगसंरोधं पीडितो वाऽतिमात्रया । पूर्वलिखित द्रव्यों का कल्क मिलाकर देने चा- अस्निग्धलवणोष्णो वा बस्तिरल्पोल्पभेषजः हिये । इन प्रयोगोंसे उक्लिष्ट दोषोंका आकर्ष
मृहांमारुतमोर्व विक्षिप्तोमुखनासिकात
| निरेति मूळहल्लासतृइदाहादीन्प्रवर्तयन् । ण हो जाता है । .. धस्तिसवायुरोध ।।
__ अर्थ-मलमूत्रादि वेगों के रोकनेवाले युक्तोल्पषीर्यो दोषाढ्ये रूक्षेकूराशयेऽथवा
रोगी को तथा अति मात्रा में दी हुई वस्ति बस्तिर्दोषावृतो रुद्धमार्गो रुंध्यात्समीरणम् । से पीडित रोगी को, अथवा स्निग्धतारहित संबिमांगोंनिलः कुर्यादाध्मानं मर्मपीडनम् । लवणोष्ण वस्ति वा अल्पमात्रा की वस्ति, विदाह गुदकोष्ठस्य मुष्कवंक्षणवेदनाम्। वा अल्पऔषधान्वित वस्ति, अथवा मृदुवस्ति रुणद्धि हश्यं शूलैरितश्चेतश्च धावति ८ ।
के प्रयोग से वायुद्वारा ऊपर को फेंकी हुई ___ अर्थ-बहुत दोषों से युक्त, रूक्षदेह तथा ऋर कोष्ठवाले रोगी को अला वीर्यवाली वस्ति | वस्ति मूर्छा, हल्लास, तृषा और दाहादि.
उपद्रव उत्पन्न करके मुख और नासिका. देवेसे वातादि दोषों द्वाग आवृत होने के
| द्वारा बाहर निकल आती हैं। कारण उसका मार्ग रुकजाताहै, और इससे
. उक्तअवस्था में कर्तव्य । बायुके गमनागमन के मार्ग को रोक देती है और इस कारण से वायु विमार्गगामी होकर | मूर्छाविकारंदृष्ट्वास्यसिंचेच्छीतांधुनामुखम्
व्यजेदाक्लमनाशाच्च प्राणायामंचकारयेत् आध्मान, मर्मवेदना, गुदा और कोष्ठमें वि.
| पृष्ठपावादरं मृज्यात्करैरुष्णरधोमुखम् १३ दाह, मुष्क और वंक्षण में बेदना होती है।
केशेषत्क्षिप्यधुन्वीत भीषयेदयालदष्ट्रिभिः
शस्त्रोल्काराजपुरुषस्तिरेति तथा ह्यथः ।। हृदय में रुकजामेके कारण शूल करती हुई।
३२ पाणिवस्त्रैर्गलापीई कुन म्रियते यथा । वाय इधर उधर घूमती है।
प्राणोदाननिरोनादि सुप्रसिद्धसरायनः ।।
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत।
(७११ )
अपामः पवनो बस्ति तमाश्वेवापकर्षति ।। निसाथ और हरड को पीसकर गोमूत्र कुष्टकमुककल्कं वा पासयेताम्लसंयुतम् ॥
| के साथ पान कराने से भी वस्तिका अनुऔण्यात्तैक्षण्यान्सरत्वाञ्च बस्ति सोऽस्या
लोमन होता है । दोषके पक्वाशय में स्थित
नुलोमयेत्। गोमूत्रेण त्रिवृत्पथ्याकल्कं चाधोनुलोमनम |
होने पर स्वेदन करके दशमूल के काढे की पक्काशयस्थिते स्थिन्ने निरूहो दशमूलीका वस्ति दवै । अथवा जौ, बेर और कुलथी घवकोलकुलत्थैश्च विधेयो मूत्रसाधितः॥ को गोमत्र में सिद्ध करके वस्ति देवे । बस्तिगोमूत्रसिद्धैर्या सामृतावंशपल्लवैः।
अथवा गिलोय, बांसके पत्ते, पूतीकरंज की -पूतीकरज्जत्वक्षत्रशठीदेवाबरोहिषैः ॥ सतैलगुडसिंधूत्थो विरेकोषधकल्कवान् ।
छाल और पत्ते, कचूर, देवदारु और रोहिबिल्वादिपञ्चमूलेन सिद्धो बस्तिहरःस्थिते षतृण इनः सव द्रव्यों को गोमूत्र में सिद्ध शिरःस्थे नावनं धूमःप्रच्छाद्यं सर्षपैः शिरा। करके इसमें तेल, गुड, सेंधा नमक, तथा
अर्थ-उक्त हेतुओं से मूर्छादि रोगों के विरेचक औषधे डालकर वस्ति देवै । दोष उपस्थित होनेपर मुखपर ठंडे जलके छींटे के हृदय में स्थित होने पर बिल्वादि पंच मारे । जब तक क्लाति दूर न हो तब तक | मल से सिद्ध की हुई वस्ति देवै । तथा ताडके पंखोंसे हवा करता रहे और रोगीसे | दोषके सिरमें स्थित होने पर नस्यकर्म, धूम प्राणायाम करावे, प्राणायामसे ऊर्ध्वक्षिप्त । प्रयोग, तथा सरसों से मस्तक को आच्छावस्ति नीचे को आजाती है। हाथों को
दन करदेना उत्तम है। गरम कर करके रोगी के पीठ, पसली और उदर पर फेरे । रोगी को ओंधा मुख करके
अत्युष्णवस्तिका फल । .. उसका केश पकड कर हिलावै । सिंहादि । बस्तिरत्युष्णतीक्ष्णाम्लघनोतिस्वोदितस्य- .
वा ॥२१॥ हिंसक जीव, शस्त्र, उल्का और राजपुरुषों । अल्पे दोषे मृदौ कोष्ठे प्रयुक्तोवा पुनः पुनः। का रोगी को भय दिखावै । इन कामों से |
अतियोगत्वमापन्नो भवेत्कुक्षिरुजाकरः २२ ऊर्वगामी वस्ति नीचे को प्रवृत्त होजाती है | विरेचनातियोगेन स तुल्याकृतिसाधनः । इस रीतिसे कि रोगी मरने न पावै हाथ वा
___ अर्थ-बिना स्वेदन कर्म किये अति वस्त्रसे रोगी का गला घोटे । ऐसा करनेसे
उष्ण, अतितीक्ष्ण, अत्यम्ल वा अतिघन प्राण और उदान वायु के रुक जाने के का
वस्ति दने से अथवा अल्प दोष में वा मृदु रण अपानवायु वस्ति को शीघ्रही नीचे को
कोष्ठ में बार बार वस्ति देने से अतियोग खींच लेती है। ___कूठ और सुपारी का कल्क कांजी मिला
होजाता है और ऐसा न होने से कुक्षि में कर पान कराने से वह उष्णता, तीक्ष्णता
वेदना होने लगती है । विरेचन के अतिऔर सरता के कारण वस्ति का अनुलोमन | योग में जो लक्षण
योग में जो लक्षण और चिकित्सा कहे गये करता है।
। हैं, वेही इसमें भी जानने चाहियें। ..
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(७१२).
अष्टांगहृदय ।
. पैत्तिक में कर्तव्य ।
स्नेहानुवासन का वर्णन । बस्तिः क्षाराम्लक्ष्णिोष्णलवणः- सिद्धिर्बस्त्यापदामेवं नेहबस्तेस्तु वक्ष्यते ।
पैत्तिकस्य वा ॥ ३३ ॥ अर्थ-यहां तक निरूह वस्तियों की गुदं दहन लिखन् क्षिण्वन्करोत्यस्य... परिस्रवम् ।
व्याप्त सिद्धि का वर्णन किया गया है । संविदग्धं स्रवत्यस्र वर्णैःपित्तं च भूरिभिः ॥ अब यहां से स्नेहवस्ति ( अनुवासन ) बहुशश्चातिबेगेन मोहं गच्छति सोऽसकृत् की व्याप्तासिद्धि का वर्णन करेंगेरक्तापत्तातिसारनी क्रिया तत्र प्रशरयते । वाताधिकयोग में चिकित्सा । दाहादिषु त्रिवृत्कल्कमृद्धोकावारिणा पित् शीतोल्पो वाऽधिक वाते पित्तेत्युष्णाकफेमृदु तद्धि पित्तशकद्वातान्मृत्वादाहादिकान्जयेत् बिशुद्धश्च पिवेच्छीतां यवागूशर्करायुताम् |
अतिभुक्ते गुवर्चः संचयेऽल्पबलस्तथा । ज्यादातीबरिक्तस्यक्षीणविट्कस्यभोजनम् स्तंभोरुसदनाध्मानज्वरशूलांगमर्दनैः३०॥
दत्तस्तैरावृतस्नेहो नायात्यभिभवादपि । माषयूषेण कुल्माषान्पानं दध्यथवासुराम् ।।
पार्यरुग्वेष्टनैर्विद्याद्वायुना नेहमावृतम् । अर्थ-क्षार, अम्ल, तीक्ष्ण, उष्ण और निग्माम्ललवणोष्ण स्तं रानापतिद्रुतैलिकै लवण से युक्त वस्तिका प्रयोग करना अथवा | सौवीरकसुराकोलफुलत्थयवसाधितै । पित्तवाले रोगी को वस्ति देना, इनसे गुदा
निरूहैनिहरेत्सम्यक् समूत्रैः पंचमूलकैः
ताभ्यामेव च तैलाभ्यां सायं भुक्त में दाह, खुरचन और फेंकने की सी दशा
ऽनुवासयेत् । होकर परिस्राव होने लगता है । इस स्राव
अर्थ-वातकी अधिकता में अल्पमात्रामें में विदग्ध रक्त तथा अनेक वर्षों से युक्त
शीतलवस्ति, पित्तकी अधिकता में अति. पित्त निकलता है, यह स्राव बहुत वेग से
उष्ण वस्ति, और कफकी अधिकता में अति और बार बार होता है इससे रोगी अचेत
मृदु वस्ति दीजाय, तथा अतिमुक्त में मात्रा होजाता है । इस दशा में रक्तपित्तनाशिनी
वा वीर्य दोनों प्रकार से भारी वस्ति और तथा रत्ता तिसारनी चिकित्सा करना उत्तम
मलके संचय में मात्रा और वीर्य दोनों से है । दाह और बेचैनी में निसोथ के कलक
अल्पबल वाली वस्ति दी जाय,तो वह वस्ति को दाखके काढे के साथ पान करावै इस शीतादि कारण से कुपितदोष द्वारा आवृत से पित्त, विष्टा और वायु निकलकर दाहा- होने से गुदा के मार्ग द्वारा प्रत्यागत नहीं दिक नष्ट होजाते हैं । जो रोगी विरंचन से होती है और इससे निम्नलिखित लक्षण शुद्ध होगया हो उसे शर्कग मिलाकर ठण्डी प्रकट होते हैं । वायुद्वारा स्नेह से आवृत यवागू देना चाहिये । अतिरिक्त और क्षीण वस्ति में स्तंभता, दोनों उरुओं में शिथिल. पुरीप वाले रोगी को उरद के यूष के साथ | ता, प्राध्मान, ज्वर, शूल, अंगमर्द, पार्श्व
कुलमाष खाने को दे । तथा दही वा मद्य | वेदना और अंगडाई आदि उपद्रव होते हैं। . पाने को देवें॥
| बातावृत स्नेहबस्ति को पीछे लिखे हुए
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अं. ५
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
स्निग्ध, अम्ल, लवण और उष्ण निरूहण द्वारा निकाल दे । वे निरूहण ये हैं, यथा- कांजी, मदिरा, बेर, कुलधी, जौ इनसे सिद्ध किये हुए रास्ना और हलदी के तेल से, अथवा गोमूत्र से साधित किये हुए उक्ततेलों से वा पंचमूल के काढ़े से सिद्ध किये हुए तेलसे वा रास्ना वा हलदी के पृथक् पृथक् तेलों से निरूहण देवे अथवा इन्हीं तेलों से सायंकाल के भोजन के पीछे अनुवासनवस्ति देवे ।
।
( ७१३ )
|
मेनफल और तिलका तेल मिला हुआ इनके द्वारा वस्तिका प्रयोग मानते हैं ।
पित्तावृत वग्ति मैं उपाय । वृद्दाहरागसंमोहवैवर्ण्यतमकज्वरैः ३३ ॥ विद्यात्पित्तावृतं स्वादुतितस्तं बस्तिभिर्हरेत्
अर्थ - पित्तावृत स्नेह वस्तिमें तृषा, दाह राग, मोह, विवर्णता, तमकश्वास और ज्वर ये उपद्रव होते हैं पित्तावृत वस्तिको मधुर और तिक्त द्रव्यों की वस्ति द्वारा निकालना चाहिये |
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कफावृत स्नेहवस्ति उपाय | संद्राशीतज्वरालस्यप्रसेकारुचिगौरवैः ३४ ॥ संमूर्छाग्लानिभिर्विद्यात्ले मणास्त्रे हमाव्रतम् कषायतिक्तकटुकैः सुरामूत्रोपसाधितैः ३५ फलतैलयुतैः साम्लैर्बस्तिभिस्तं विनिर्हरेत् । अर्थ-तंद्रा, शीतज्वर, आलस्य, प्रसेक,अरुचि भारापन, मुच्छी और ग्लानि हो तो जान ले ना चाहिये कि स्नेहवस्ति कफसे आवृत है । कषाय, कटु और तिक्त रसोंसे युक्त सुरा और गोमूत्र से साबित खट्टेद्रव्यों से मिली हुई फल तैल से युक्त वस्तिद्वारा उसको नि काले | यहां फल तैलसे उष्ण वीर्यवाले अ
अत्यशनावृत स्नेहवस्तिका उपाय | छर्दिमूर्छारुचिग्लानिशूलनिद्रां मर्दनैः । आमलिंगैः सदाहस्तं विद्यादत्यशनावृतम् कटूनां लवणानां च क्वाथैइचूर्णैश्च पाचनम् मृदुर्विरेकः सर्व च तत्रमुविहितं हितम् । अर्थ - त्रमन, मूर्च्छा, अरुचि, ग्लानि, शूल, निद्रा और अंगमर्द इन सब लक्षणों के प्रस्तुत हो ने पर जान लेना चाहिये कि स्नेहवस्ति अतिभोजन से आवृत है इसमें आम दोष के लक्षण और दाह भी होता है इसमें कटु और लवण द्रव्यों काथ और चूर्ण द्वारा पाचन हितकारी है । तथा मृदु विरेचन और आ 1 चिकित्सा में कही हुई सब औषधें हितकारी होती हैं ।
पुरीषावृतस्नेहवस्ति |
विण्मूत्रानिलसंगार्तिगुरुत्वाध्मानहृदूग्रहैः ॥ स्नेहं विवृतज्ञात्वा स्नेहस्वेदैः सवर्तिभिः । श्यामाथिल्वादिसिद्धैश्चनिरूहैः सानुवासनैः निर्हरेद्विधिना सम्यगुदावर्त हरेण च ।
अर्थ- मल, मूत्र और अधोवायु की रुका वट, वेदना, देहमें भारापन, अफरा, हृदग्रह इन लक्षणों के उपस्थित होनेपर जान लेना चाहिये कि स्नेहवस्ति विष्टा से आवृत है । इसको स्नेहन, स्वेदन, वातप्रयोग तथा श्यामा और विल्वादि पंचमूल से सिद्ध की हुई निरूहण और अनुवासन देवै, तथा उदावर्त में कही हुई संपूर्ण विधियों द्वारा पुरीषावृत वस्तिको निकालने का उपाय करै । अभुक्तादि में स्नेहवस्ति ।
खरोटादि फलों के तेलका ग्रहण है कोई कोई | अभुक्ते शूनपायौ वा पेयामात्राशितस्य च ।
९०
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(७१४)
अष्टांगहृदय ।
अ०५
पुदे प्रणिहितः नेहो वेगाधावत्यनावृतः ॥ तत्राभ्यंगो गुदे स्वेदो वातघ्नाम्यशनानि च ऊर्ध्व कार्य ततः कंठाभ्यः खेभ्य एत्यपि अर्थ-उच्छसित करके वस्तिका मुख मुत्रश्यामांत्रिवृत्लिद्धो यवकोलकुळत्थवान् | बद्ध करने पर अथवा निःशेष वस्तिके देने तसिद्धतैलो देयः स्यानिरूहः सानुवासनः |
पर वस्तिके भीतरवाली वायु भीतर प्रविष्ट कंठादागच्छतस्तंभकंठपहविरेचनैः। छर्दिनीभिःक्रियाभिश्च तस्यकुर्यानियहणम् | होकर और क्षुभित होकर शूल और तोद - अर्थ-बिना कुछ भोजन किये वा पेयामात्र उत्पन्न करती है । ऐसा होनेपर अभ्यंग, भाहार करने के पीछे गुदामें लगाई हुई वस्ति । गुदा में स्वेद और वातनाशक भोजन का अथवा जिसकी गुदामें सूजन हो उसके व- प्रयोग करना चाहिये । स्ति प्रयोग करनेसे वह वस्ति किसी दोषादि
शीघ्रपणीति में चिकित्सा। से आवृत न होने के कारण ऊपर की
द्रुतं प्रणीते निष्कृष्ट सहसोक्षिप्त एव था। देह में वेगसे दौडती है और कंठके ऊपर
स्यारकरीगुदघोरबस्तिस्तंभार्तिभेदनम् । वाले मुख नासादि स्रोतों द्वारा निकल पडती | भोजन तत्र वातघ्नं स्वेदाभ्यंगाः सबस्तयः है। इसमें गोमूत्र, श्यामानिसौथ, निसौथ । अर्थ-वस्ति यदि शीघ्र दीजाय, शीघ्र इनका काथ, तथा जौ, बेर और कुलथी निकल आवे और सहसा उक्षिप्त होजाय का करक डालकर सिद्ध किया हुआ तेल
तो कमर, गुदा, जंघा, ऊरु, तथा वस्तिमें निरूहण वा अनुवासन द्वारा देवै । स्नेहके
स्तब्धता, वेदना और फटनेकी सी पीडा कंठसे निकलने पर स्तंभ, कंठग्रह, बिरेचन | तथा वमननाशक क्रियाओं द्वारा स्नेह
| होती है । इसमें वातनाशक भोजन, स्वेद, को निकालना चाहिये।
अभ्यंग और वस्तिका प्रयोग करना चाहिये। - अपक्व स्नेहमें उपाय।
पीडन्यमान वस्ति में चिकित्सा । नापक्वं प्रणयेत्स्नेहं गुदं स ापलिंपति । पीडयमानेतरा मुक्त गुदे प्रतिहतोनिलः ४८ ततःकुर्यात्सरुडूमोहकंडूशोफानक्रियाऽनवा उरः शिरोरुजं सादमूर्वोश्व जनयेद्वली । तीक्ष्णो बस्तिस्तथा तैलमर्कपत्ररसे शुतम् । बस्तिः स्यात्तत्र बिल्वादिफलैःअर्थ-ऊपर की कही हुई दशामें गुदा
श्यामादिमूत्रवान् ॥ ४९ ॥ द्वारा अपक्क स्नेहका प्रयोग न करना चाहिये
। अर्थ-वस्ति पुटके पीडयमान होने पर क्योंकि कच्चे घोसे गुदा लिहस जाती है, बीच में ही कदाचित् गुदाके मुक्त होने पर और इससे वेदना,मोह , खुजली,सूजन आदि
वायु प्रतिहत और बलवान होकर वक्षःस्थल उपद्रव उपस्थित होते हैं, ऐसा होनेपर तीक्ष्ण
में और सिरमें वेदना करती है तथा दोनों 'वस्ति तथा आकके पत्तोंके रसमें सिद्ध किये
ऊरुओं में शिथिलता हो जाती है ऐसी अहुए तेलका प्रयोग करना चाहिये । अन्य उपाय।
वस्था में विल्वादि पंचमूल,मेनफल और श्याअनुच्छ्वास्य तु बद्धे वा दत्ते निःशेष एव च मादिगणोक्त द्रव्योंको गोमूत्रसे साधित करके प्रविश्य क्षुभितो बायुः शूलतोदकरो भवेत् । वस्ति देवै ।
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कल्पस्थान भाषाकासेभत ।
अतिपीडित वस्तिपुटक । । शुद्ध रोगीको उसकी प्रकृति अर्थात् स्वाभापतिप्रपीडितः कोष्ठे तिष्ठत्यायाति वा विक दशा पर लावै । जैसे पहिले मधुररसका
गलम्।। प्रयोग करके फिर उसके प्रतिपक्षी अम्लादि तत्र पस्तिर्विरेकश्व गलपीडादि कर्म च ५० . अर्थ-वस्तिपुटके के अत्यन्त प्रपीडित हो
| किसी रसका प्रयोग करे, अम्ल द्रव्यका प्रने पर औषध कोष्ठमें जाकर ठहर जाती है. योग करके मधुरादिद्रव्यों में से किसी का प्र. वा गले तक आजाती है, ऐसी अवस्था में , योग कर, इसी तरह स्निग्ध वा रूक्ष का प्रवस्ति, विरेचन वा गलपीडन आदि चिकित्सा योग करके वमनादि से शुद्ध रोगीको जैसे काममें लानी चाहिये ।
हो वैसे प्रकृति पर लावै । वमनादि में रक्षा।
प्रकृतिगत के लक्षण ।। घमनायैर्विशुद्धं च क्षामदेहबलानलम् । सर्वसहः स्थिरबलो विशेयः प्रकृतिं गतः ५४ यथांडं तरुणं पूर्ण तैलपात्रं यथा तथा ५१ । अर्थ-वमनादि से शुद्ध रोगी जब सब भिषक् प्रयत्मतो रक्षेत्सर्वस्मादपवादतः। बातों को सहने लगजाय और उसमें शारीरक अर्थ-जैसे नवीन अंडेकी और तेल से
बल दृढ हो जाय, तब जानना चाहिये कि भरे हुए पात्रकी रक्षा की जाती है,इसी तरह उस मनुष्य की बडी सावधानी से रक्षा की
रोगी अपनी प्रकृति पर आगया है । जाती है जो वमनविरेचनादि द्वारा शुद्ध होने
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीके कारण क्षीण बल और क्षीण अग्निवाला कान्विताय कल्पस्थाने वस्तिव्यापहो जाता है।
सिद्धिनीम पंचमोऽध्यायः । उक्तदशामें चिकित्सा। दद्यान्मधुरद्वद्यानि ततोम्ललवणौ रसौ ५२
षष्ठोऽध्यायः। स्वादुतिक्तौ ततो भूयः कषायकटुको ततः
अर्थ-उक्त रोगीको प्रथम मधुर हितकारी तत्पश्चात् खट्टे और नमकीन, पश्चात् मीठे | अथाऽतो भेषजकल्पं व्याख्यास्यामः॥
और तीखे, तत्पश्चात् कसेले और कटुरस अर्थ-अब हम यहां से भेजषकल्प का पथ्य देवै।
नामक अध्यायकी की व्याख्या करेंगे । विकृतको प्रकृतिपर लाना । । भन्योन्यप्रत्यनीकानां रसानां स्निग्धरूक्षयोः
प्रशस्त भेषजके लक्षण । . व्यत्यासादुपयोगेन क्रमात्तं प्रकृति नयेत् ।
"धन्यसाधारणे देशे समेसन्मृत्तिकेशुची .. अर्थ-परस्पर प्रतिपक्षी अर्थात् एक दूसरे | श्मशानचैत्यायतनश्वभ्रवल्मीकवर्जिते की विरोधी मधुरादि रस तथा आपस में प्र |
मृदौ प्रदक्षिणजले कुशहिषसंस्तुते ।
अफालकृष्टेऽनाक्रांते पादपैलवत्तरैः तिपक्षी रूक्ष और स्निग्ध द्रव्योंको विपर्याय
शस्यते भेषजं जातं युक्तं वर्णरसादिभिः। रीतिसे उपयोग में लाकर वमनादि द्वारा वि. स्वजग्धं दवादग्धमाविदग्धं व वैकृतैः
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अष्टांगहृदय ।
भूतैश्छायातपांब्वाधैर्यथाकालं च सेवितम् | न मिल सके तो एक वर्षके भीतरको लावै। अवगाढमहामूलमुदीची दिशमाश्रितम्
परन्तु गुड, घी, शहत, धनियां, पीपल और __ अर्थ-जांगल और साधारण देश में
वायविडंग जितने पुराने हों उतनाही अच्छा समभूमि पर जो ऊंची हो न नीची हो,
है, इनको नया न लावै । उत्तम मृतिका से युक्त क्षेत्रमें, पवित्र स्थान
पयआदि का ग्रहणप्रकार। .. में, जिसमें श्मशान, चैत्य, गत वा सर्पकी
| पयो बाष्कयणं ग्राह्य विणमूत्रं तच्च नीरुजम् बांबी नहो, तथा छूने में कोमल और अनु- | वयोबलवतां धातुपिच्छ शृंगखुरादिकम् . कूल जल से युक्त जिसमें कुशा और रोहिष ___अर्थ-वष्कयणी अर्थात् जिसका बच्चा तण उगते हों, जिसमें हल न चला हो, तरुण होगया हो उस गौका दूध, गोवर
और बडे बडे उंचे वृक्षों से आक्रांत न हो, और मूत्र ग्रहण करे क्योंकि ये निर्दोष होते ऐसे स्थान में अपने वर्ण और रसादि से | हैं । तथा तरुण और बलवान् प्राणी के युक्त पैदा हुई औषध उत्तम होती है । तथा रक्तादि धातु, पूंछ, सींग और खुर आदिका जिसमें कीडे न लगे हों, जो अग्नि से न | ग्रहण करे । जली हो, और आकाशादि विकृत भूतों से
कषाययोनि पांचरस ।
कषाययोनयः पंच रसा लवणवर्जिताः । अनासेवित,छाया, धूप और जल से उचित
रसः कल्कः श्टतः शीतः फांटश्चति काल में सेवित, जिसकी जड पश्वी में
प्रकल्पना ॥८॥ बहुत दूर तक गई हो और जो उत्तर दि. पंचधैवं कषायाणां पूर्व पूर्व बलाधिका । शाका आश्रय लेकर अवस्थित हो ऐसी अर्थ-छः रसोंमें से नमकरस को छोड सब औषधे उत्तम होती हैं। * कर मधुरादि पांचरस कषाययोनि होते हैं,
अर्थात इन पांचरसों से ही स्वरसादि पांच औषधलाने की विधि।
प्रकार के कषायों की कल्पना होता है । अथ कल्याणचरितःश्राद्धः शुचिरुपोषितः। गृर्णायादाषधं सुस्थं स्थितं काले च
लवणरस से स्वरसादि किसी की भी कल्पना
कल्पयेत् ॥५॥ | नहीं होती है । स्वरस, कल्क, शत, शीत सक्षीरं तदसंपत्तावनतिक्रांतवत्सरम्। और फांट, इन पांच प्रकार की कषायकल्पऋते गुडघृतक्षौद्रधान्यकृष्णाविडंगतः
ना होती हैं इन पांचों में यथापूर्व अधिक अर्थ-उक्त गुणविशिष्ट औषध को लाने के लिये स्वस्त्ययनादि मंगल करके श्रद्धावान्,
गुणशाली होते हैं, अर्थात् फांट की अपेक्षा पवित्र और उपवास किया हुआ मनुष्य जाय
शीतकषाय, शीतकषायकी अपेक्षा शतक
षाय, शृतकषायकी अपेक्षा कल्क, और और औषधको लाकर सावधानी से रक्खे ।
कल्ककी अपेक्षा स्वरस बलशाली होता है । तदनंतर उचित काल में इस औषधको दूध
| स्वरस के लक्षण । में डालकर मीली करे । यदि हरी औषध | सद्यः समुद्धतक्षुण्णायः सषेत्पटपीडितात
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अ.
कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७१७)
स्वरसः स समुहिष्टः
___ अर्थ-इन स्वरसादि का परिमाण और अर्थ-किसी औषधि को समान भूमि
कल्पना ब्याधि और कोष्ठ के बलके अनुसार से उखाड कर उसी समय पत्थर पर कूट स्थिर करने चाहिये । सुश्रुत ने कहा है कि कर बस्त्र निचोडले, इस निकले हुए रस
मात्रा का कोई नियम नहीं हैं, व्याधि, रोगी को स्वरस कहते हैं।
का कोष्ठ, रोगी का बल और अवस्था तथा कल्क के लक्षण ।
देश और काल इन सबकी विवेचना करके ____कल्का पिष्टो द्रयाप्ठतः। औषधकी मात्रा निर्दिष्ट करना चाहिये । चूर्णोऽप्लता । अर्थ-पत्थर पर पानी डाल डाल कर
इसी तरह ब्याध्यादि और देशकालादि को जो द्रव्य पीसा जाता है, उसे कल्क कहते
देखकर स्वरसादि पांच प्रकारमें से कोई एक हैं जो द्रव्य सूखेहुए महीन पीसे जाते हैं,
कल्पना करनी चाहिये ।
स्वरसका मध्यम मान । उसको चूर्ण कहते हैं।
मध्यं तु मानं निर्दिष्टं स्वरसस्य चतुःपलम् क्वाथ के लक्षण ।
अर्थ-स्वरसकी मध्यम मात्रा का परिमाश्टतः काथः अर्थ-जो द्रव्य पानी में औटाकर छान
ण चार पल है। लिया जाता है, उस छनेहुए जलको काथ
कल्कादिका मध्यम मान ।
पेप्यस्य कर्षमालोडय तद्रवस्य पतनये कषाय वा काढा कहते हैं।
अर्थ-पिसहुए द्रव्य अर्थात् कल्क वा शीतकषाय के लक्षण । शीतो रात्रि द्रवेस्थितः ॥१०॥
| चूर्ण का मध्यम परिमाण एक कर्ष है, इस ___ अर्थ-रातभर किसी द्रव्यको पानीमें भि.
को तीनपल पतले पदार्थ में मिलाकर सेवन गोकर प्रातःकाल मलकर छान लिया जाता
करे।
क्वाथ का प्रमाण । है, उसे शीतकषाय कहते हैं।
कार्थ द्रव्यपले कुर्यात्प्रस्थार्धे पादशेषितम। फांट के लक्षण ।
अर्थ-एकपल द्रव्यको आधे प्रस्थ पानी सद्योभिषुतपूतस्तु फांटः
में डालकर औटावै और चौथाई शेषरहने - अर्थ-तत्काल गरम पानी में डालकर
पर उतारकर छान लियाजाय, यह काथ और मलकर कोई द्रव्य छान लियाजाता है
का परिमाण है। उसे फांट कहते हैं।
शीतकषाय का प्रमाण । योजना विधि ।
| शीतं पले पलैः षभिः तम्मानकल्पने ॥
अर्थ-एक पल द्रव्यको छः पल द्रवमें युज्याव्याध्यादिवलस्तथा च वचनं मुनेः। मात्रायानव्यवस्थाऽस्तिव्याधिकोष्टबलंवयः मिलाकर जो बनाया जाता है, उसे शीत आलोच्य देशकालौच योज्या तक्षकल्पना | कषाय कहते हैं।
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अष्टांगहदय ।
भ• ६
..... फांट का प्रमाण । साथ पाक करने में कल्क का स्नेह से
चतुर्भिश्च ततोऽपरम् ॥ १४॥ | आठवां भाग डालनाचाहिये। यदि स्नेहपाक . अर्थ-एक पल द्रव्य, चार पल द्रवमें में पांच वा पांच से अधिक द्रय पदार्थ हो डालकर जो बनाया जाता है उसे पांट तो प्रत्येक द्रव पदार्थ स्नेह के समान लेना कहते हैं।
चाहिये । ___ यह सव मध्यम मात्रा का मान है,परन्तु
पाक के लक्षण । वैद्य अपनी बुद्धि से देश कालादि को देख- नांगुलिग्राहिता कल्के न मेहेऽनौसशब्दता कर न्यूनाधिक कर सकता है। पर्णादिसंपञ्च यदा तदैनं शीघ्रमाहरेत् । । ... स्नेहपाक का प्रमाण ।
___ अर्थ-कल्क जब उँगली से न लगे, नेहपाके त्वमानोक्तौ चतुर्गुणविवर्धितम | और अग्नि में डालने पर चट चट शब्द न कल्कनेहद्रवं योज्यम्
हो और तेल का जब उपयुक्त वर्ण, रस अर्थ-तैलादि स्नेहके पाकमें जो कल्क और स्पर्श हो तव जान लेना चाहिये कि स्नेह और द्रव पदार्थ का परिमाण न दिया | पाक होगया है, उस समय अग्नि से शीघ्र गयाहो तो उत्तरोत्तर चौगुना लेवे अर्थात उतार लेना चाहिये। कल्कसे चौगुना स्नेह और स्नेह से चौगुना स्नेहपाक का अन्य लक्षण । द्रव पदार्थ लेना चाहिये ।
घतस्य फेनोपशमस्तैलस्य तु तदुद्भवः । ... शौनक का मत । लेहस्य तंतुमत्ताप्सु मजनं शरणं नच ।
___ अधीते शौनकः पुनः॥१५॥ अर्थ- पकात २ घी में जब झाग उठना नेहे सिध्यति शुद्धांबुनिष्काथस्वरसैः बन्द होजाय और तेल में झागों की उत्पत्ति
क्रमात् । हो तव जान लेना चाहिये कि घी वा कल्कस्य योजयेशं चतुर्थ षष्ठमष्टमम्
तेल का सम्यक् पाक होगया है । लेह जय पृथक् स्नेहसमं दद्यात्पंचप्रभृति तु द्रवम् । __ अर्थ-इस विषय में शौनक का यह मत
अच्छी तरह पक जाता है तव उस में तार है कि स्नेह कभी शुद्ध जल के साथ कभी निकलते हैं, और पानी में डालने से नीचे क्वाथ के साथ और कभी स्वरस के साथ
बैठ जाता है ये लेह के पाक के लक्षण हैं। पकाया जाता है, ऐसी दशा में कल्क का यह जल में डालने से घुलता नहीं है । परिमाण स्नेह से चौथा, छटा वा आठवां पाक के तीनभेद । भाग होता है, अर्थात् केवल जल के साथ | पाकस्तु त्रिविधो मंदश्चिक्षणःस्वरचिक्कणः॥ स्नेहपाक करने में स्नेह से कल्क चौथाई | मंद करकसमे किचिचिक्कणो मदनोपमे।
किंचित्सीदति कृष्णेचवर्तमाने च पश्चिमः। डालना चाहिये । काथ के साथ पाक करने
दग्धोतऊवैनिकार्यस्यादामस्त्वग्निसादकत् में कल्क का स्नेह से छटा भाग स्वरस के मृदुर्नस्ये नरोऽभ्यगे पाने वस्तौ चचिक्कणः ।
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कल्पस्थान भाषाटीकासमेत ।
.. अर्थ-स्नेहपाक तीन प्रकार का होता । सूखा द्रव्य न मिले तो उसकी जगह वही है, यथा---मंद, चिकण और खरचिक्कण। गीला द्रव्य दूना लेलेना चाहिये । यदि एक स्नेहपाकविधि- में करक के समान कोई वस्तु ही योगमें सूबे द्रव्य और द्रव अर्थात पतले उंगली से लगजाती है, कोई नहीं लगती द्रव्य तुल्य परिमाण में कहे गयेहों तो शुष्क है, उसे मंदपाक कहते हैं । जी द्रव्यकी अपेक्षा कुडयादि परिमाण में कहे हु. उंगली बहुत लगाने से उंगली के लगने लगे । एद्रय द्रव्य दने मिलाने चाहिये । वह चिक्कण है । जो थोडीही उंगली लगाने
। अनुक्तद्रवमें पानीकी योजना। से विखर जाय और काला काला बत्ती के सदृश होजाय वह खरचिक्कण है। इससे पेषणालोडनेवारिस्नेहपाके च निद्रवे ॥२३ भागे की अवस्था दग्धपाक की होती है ।
अर्थ-पीसने और मिलाने के काम में यह दग्धपाक होने पर निरूपित कार्य नहीं | अथवा स्नेहपाक में यदि किसी पतले पदार्थ कर सकता है क्योंकि निर्वीय होजाता है । का वर्णन न किया गया हो तो जल मिलाआमपाक स्नेह अर्थात् कच्चापक्का स्नेह आग्नि | ना चाहिये । को मंदकर देता है । मंदपाक स्नेह नस्यकर्म । द्रव्यमें अनुक्तपरिमाण में कर्तव्य । में, अभ्यंग में खरचिक्कणपाक पीने वा कल्पयत्सदृशान्भागान्प्रमाणं यत्र मोदितम्। वस्तिकर्म में चिक्कणपाक उपयोग में लाया | कल्कीकुच्च भैषज्यमनिरूपितकल्पनम् । जाता है।
___ अर्थ-जिस जिस गोगमें द्रव्यों का परि. मानसंज्ञा।
माण न दिया गया हो उन योगोंमें सब द्र. शाणं पाणितलं मुष्टिः कुडयं प्रस्थमाढकम्।
| ब्यों का समान भाग ग्रहण करना चाहिये द्रोण पहंच क्रमशोधिजानीयाच्चतुर्गुणम्॥
और जहां औषध की स्वरसादि कल्पना न अर्थ-शाण, पाणितल, मुष्टि,कुडव,प्रस्थ,
कही गई, हो वहां वहां कल्क बनाकर ही आढक, द्रोण और वह ये उत्तरोत्तर हर
प्रयोग में लावै । एक से चौगुनी होती हैं । जैसे शाण से चौगुना पाणितल और पाणितल से चौगुना
बटकादि संज्ञा । मुष्टि आदि आदि ।
द्वौ शाणौ वठकः कोलं बदर द्रक्षणश्च तो! गीलेसूखे द्रव्योंकी योजना।। | अक्षं पिचुःपाणितल सुवर्ण कवलग्राहः २५॥ द्विगुणं योजयेदाई कुडवादि तथा द्रवम् ।
फर्षो बिडालपदकं तिंदुकः पाणिमानिका । अर्थ-एक ही योग में सूखे और गीले
शब्दान्यत्वमभिन्नेऽर्थे शुक्तिरष्टमिका पिचू दोनों प्रकार के द्रव्य तुल्य परिमाण में कहे
पलं प्रकुंचो बिल्वं च मुष्टिरानं चतुर्थिका ।
द्वेपले प्रसृतस्तो द्वाजलिस्तोतु मानिका ॥ गयेहों तो सूखे द्रब्यकी अपेक्षा गीला ( हरा) माह भाजन कंसोद्रोण कुंभो घटोर्मणम् । द्रन्य दुना लेना चाहिये एकही योगमें यदि तुलापलशतम् तानि विशतिर्भार उच्यते ।।
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(७२०)
अष्टांगहृदय ।
में. ३
___ अर्थ-दो शाणका एक बटक होताहै ।। सर्षप । आठ सर्षपका एक संडुल। दो तंडुल कोल, बदर और द्रंक्षण ये तीन बटक के | का एक धान । दो धानक' एक नौ । तीन पार्यायवाची शब्द हैं । दो द्रंक्षण अर्थात् । जो का एक कुच वा रत्ती । वारह रत्ती का दो बटिका का एक अक्ष होताहै । पिचु, १ माशा होताहै । भिन्न २ अाचार्य पांच छः पाणितल, सुवर्ण, कबलग्रह, कर्ष, विडाल- आठ, दश वा बारह रत्ती का माषा मानत पदक, तिंदुक और पाणिमानिका, ये आठ | हे, चार माशे का एक शाण होता है इससे शब्द अक्षके पर्यायवाची है । दो पिचुकी | आगे कर्ष, पल, कुडव, प्रस्थ, आढक, द्रोण एक शुक्ति होती है । शुक्ति और अष्टमिका । और वह उत्तरोत्तर चौगुने होते हैं। पलका दोनों पर्यायवाची शब्द है । दो शुक्तिका दसवां भाग धरण कहलाता है । मापका प. एक पल होताहै । प्रकुंच,विल्व, मुष्टि, आमू र्याय हेम, कर्षका षोडशिका, द्रोणका न
और चतुर्थिका ये पलके पर्यायवाची शब्द ल्वण होता है दो द्रोण का एक शूर्प होता है । है । दो पलका एक प्रसृत होता है । दो शैलभेद से द्रव्य विशेष । प्रसतका एक अंजलि, दो अंजलिका एक हिमवदिव्यशैलाभ्यां प्रायो व्याप्ता वसुंधरा मानिका । आढक, भाजन और कंस ये | सौम्यं पथ्यं च तत्राद्यमाग्नेयं पैंध्यमौषधम् , आपस में पर्यायवाची शब्द हैं, इसी तरह अर्थ-वसुंधर। प्रायः हिमालय और वि. द्रोण, कुंभ, घट और अर्मण ये भी आपस | न्ध्याचल से व्याप्त है । हिमालय में उत्पन्न में पर्यायवाचक शब्द हैं । सौ पलकी एक | हुई सब औषधे सौम और पथ्य होती हैं । तुला और बीस तुला का एक भार होताहै | | तथा विन्ध्याचल पर उत्पन्न हुई औषधे
यहां मान का परिमाण शाणसे आरं- आग्नेय होती हैं । ये गुणों में हिमालय की भ किया गयाहै, परन्तु शाण का परिमाण औषधों से न्यून होती है । कुछ भी नहीं बतलाया गया है, इसलिये किसी मानका भी परिमाण निश्चित नहीं
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां मथुरानिहोसकता है, अत एव इस विषय में जो सं- वासि श्रीकृष्णलालकृत भाषाटीकाग्रह में लिखा है उसे उद्धृत करते हैं । छः वितायां कल्पस्थाने भेषजकल्पो वशी की एक मरीची ! छः मरीच की एक नाम षष्ठोऽध्याय ।
समाप्तमिदं कल्पस्थानम् ।
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॥ श्रीहरिम्वन्दे ॥ श्रीवृन्दावनविहारिणेनमः ॥ उत्तरस्थानम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ।
से पैदा होता है । तू आत्मा से उत्पन्न पुत्र मथाऽतो बालोपचरणीयमध्यायम् नामधारी है, तू सौ वर्ष तक जी, तू शतायु
__व्याख्यास्यामः । हो और सौ वर्ष तक की दीर्घ आयु को शति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः॥
प्राप्त कर, नक्षत्र, दिशा, रात्रि और दिन अर्थ-तदनंतर भगवान आत्रेयादि म
तेरी रक्षा करें। हर्षि कहने लगे कि अब हम यहांसे बालो
स्वस्थीभूत बालक के कर्म। पचरणीय नामक अध्याय की व्याख्या
स्वस्थीभूतस्य नाभि च सुत्रेण चतुरंगुलात् करेंगे।
बद्धवोर्ध्व वर्धयित्वा च ग्रीवायामवसंजयेत् __ जनाते ही बालक का शोधन । नाभि च कुष्टतैलेन सेचयेत्सापयेदनु। "जातमात्रं विशोध्योल्पाद्वलं सैंधवसर्पिषा क्षीरिवृक्षकषायेण सर्वगंधोदकेन वा ॥ ६ ॥ प्रसूतिक्लेशितंचानुबलातैलेन सेचयेत् ॥ कोष्णेन तप्तरजततपनीयनिमजनैः। अश्मनोर्वादनं चास्य कर्णमूले समाचरेत् ।। । अर्थ-बालक को आश्वासित करके अथास्य दक्षिणे कर्णे मंत्रमुच्चारयेदिमम् ॥ | उसकी नाभि नाडी को सूत्र से बांधकर " अङ्गारङ्गात्संभवसि हृदयादभिजायसे।, पक्षात्माव पुरनामासिस जीवशरदांशतम्'
चार अंगुल छोडकर काटदे । और उस "शतायुः शतवर्षोऽसि दीर्घमायुरवाप्नुहि,
नाडी से बंधे हुए सूत्र को बालककी प्रीवा " नक्षत्राणि दिशोरात्रिरहश्चत्वाभिरक्षतु, से बांध देव और नाडी को कुष्ठतैल से
अर्थ-जरायु से बालक के पृथ्वी पर | चुपडता रहे, अथवा अश्वत्थादि दूध वाले आते ही सेंधे नमक से युक्त घी के द्वारा वृक्ष, वा चन्दनादि सब प्रकार के सुंगधित भनेक प्रकार से शोधित करके प्रसवक्लेश | द्रव्यों के काटे में चांदी वा सुवर्ण को गरम को दूर करने के निमित्त बला तैल से से
कर करके बुझावे, जब वह कुछ गरम. हो चित करे । और बालक के कान में दो जाय तब उस काढे से नाभि को सेचन पत्थरों का शब्द करे, और उसके दाहिने | करे । इसी को नाल छेदन विधि कहतेहैं। कान में इस मंत्र का उच्चारण करे कि हे | ताल उठाने की विधि । बालक ! तू अंग २ से पैदा होता है,हृदय ततो दक्षिणतर्जन्या तालूनम्यावगुंठयेत् ॥
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अष्टांगहृदय ।
अ० १.
शिरास हपिचुना प्राश्यं चास्य प्रयोजयेत् | तीसरे दिन वा कभी चौथे दिन स्तन्य की हरणमात्रं मेधायुर्वलार्थमभिमंत्रितम् ॥८॥ प्रवत्ति होती है । पेंद्रीब्राह्मीवचाशंखपुष्पीकहकं घृतमधु।। - अर्थ-तदनंतर दाहिने हाथ की तर्जनी बालक का प्रथम दिनका वर्तन । उंगली से बालक के तालु को ऊंचा करके
प्रथमे दिवसे तस्मात्रिकालं मधुसर्पिषी १२
अनंतामिश्रिते मंत्रपाविते प्राशयेच्छिशुम् । सिर पर तेल का भीगा हुआ कपडा रखदे
____ अर्थ-इसलिये प्रथम दिन तीनों काल इसके पीछे इन्द्रायण, ब्राह्मी, बच और
में अर्थात् प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल में शंखपुष्पी इनका कल्क घी और शहत मि.
दरालभा में शहत और घी मिलाकर बालक लाकर पूर्वोक्त मंत्र से अभिमंत्रित कर के
को चटावै। छोटी मटर के बराबर बालक को चटावे,
दूसरे तीसरे दिनकी बिधि । इससे बालककी बुद्धि और आयु बढतीहै। द्वितीये लक्ष्मणसिद्धं तृतीये च घृतं ततः१३ अन्य अवलेह ।
प्राइनिषिद्धस्तनस्यास्यतत्पाणितलसम्मितम् पामीकवचाब्राह्मीताप्यपथ्या रजीकृताः९ स्तन्यानुपानं द्वौ कालौ नवनीतं प्रयोजयेत् लियान्मधुघृतोपेता हेमधात्रीरजोऽथवा । अर्थ-दूसरे और तीसरे दिन लक्ष्मणा
अर्थ-सुवर्ण, बच, ब्राह्मी, चांदी और से सिद्ध किया हुआ घी तीनों काल में हरीतकी इनका बहुत महीन चूर्ण, अथवा चटावै । प्रथम जिसको दूधका निषेध किया सुवर्ण और आमले का चूर्ण शहत और घी | गया है उस बालक की हथेली के समान मिलाकर बालक को घटावै ।
नौनी धी दोनों समय देकर ऊपरसे स्तन्य. गर्भाभ की वमन । पान का अनुपान करावै । गोभः सैंधवबता सर्पिषा वामयेत्ततः ।
उत्तमस्तन्य का प्रकार । अर्थ-तदनंतर सेंधा नमक और घी मातुरेव पिबेत्स्तन्यं तत्परं देहवृद्धये । मिलाकर देने से गर्मजल को वमन द्वारा स्तन्यधात्र्यावुभे कार्य तदसंपदि वत्सले । निकालदे ।
| अव्यंगे ब्रह्मचारिण्यौ वर्णप्रकृतितःसमे ।
नीरजे मध्यवयसौ जीवद्वत्से न लोलुपे। बालक का जातकर्म ।
हिताहारविहारेण यत्नादुपचरेषते । प्राजापत्येन विधिना आतकर्माणि कारयेत्
___ अर्थ-बालक को माता का ही दूध ... अर्थ-सदनंतर वेदोक्त रीति से गृह्यसूत्र
| पीना चाहिये क्योंकि यह बालककी देहको की विधिपूर्वक बालक का जातकर्म करावै। स्तन्यप्रवर्तन में हेतु ।
पुष्ट करने में परमोत्तम है । किसी कारण सिराणां हृदयस्थानां षिवृतत्वात्प्रसूतितः
से माता का दूध न मिले तो दूध पिलाने तृतीयेऽह्नि चतुर्थे वा स्त्रीणां स्तन्यं प्रवर्तते | वाली दो धाय नियत करनी चाहिये, ये
अर्थ-प्रसवके कारण से स्त्रियों की | धाय बालक पर स्नेह करनेवाली हो तथा दपस्थ सिरा निवृत होजाती हैं, इसलिये | वात्सल्यभाव रखती हों । उनके अंग में
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पत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७२३)
किसी प्रकार की विकलता न हो, ब्रह्मचर्य | भौटाया हुआ गौ का दूध मिश्री मिलाकर से रहती हों अर्थात् मैथुन से रहित हों, | पिलाना चाहिये । इस तरह सिद्ध किया हुआ वर्ण और प्रकृति में समान हों, रोगरहित | गौ का दूध भी बकरी के दूधके समान हो, मध्यम अवस्थावाली हों, उनके बालक | गुणकारी होजाता है। जीते हों, लोलुपता, अर्थात् कामादि प्रसंग | छटीरातका विधान। . से रहित हों । इन धायों को आहार विहार षष्ठी निशां विशेषण कृतरक्षाबलिक्रियाः । द्वारा अत्यन्त आदर से रखनी उचित है। जागृयुर्वाधवास्तस्य धतः परमांमुवम् २१ स्तन्यनाश के कारण ।
अर्थ- छटी रातके दिन बालक की रक्षा शुक्क्रोधलंघनायासाःस्तन्यनाशस्य हेतवः | के लिये बलिदानादि मंगल क्रिया करके स्तन्यस्य सीधुवयामि मद्यान्यानूपजारसाः उस बालक के स्वजन जन अत्यन्त आनंद क्षीरं क्षीरिण्यओषध्यः शोकावश्चविपर्ययः
करते हुए जागरण करें। अथे-शोक, क्रोध, उपवास और परि
दसवें दिनका कर्तव्य । श्रम ये दूधः के नाश के हेतुः हैं । और दशमे दिवसे पूर्णे विधिभिः स्वकुलोचितः सीधु के सिवाय मद्य, आनूप मांसरस, दूध कारयेत्सृतिकोत्थानं नामबालस्य चार्चितम् दूधवाली औषधे और शोकादि का
बिभ्रतोऽगैमनोहालरोचनागुरुचन्दनम् । विपर्यय अर्थात् हर्ष, क्रोधराहित्य, तृप्ति
नक्षत्रदेवतायुक्तं बांधवं वा समाक्षरम् २६
अथे-अपने कुलकी मर्यादा के अनुसार पर्यन्त भोजन और विश्राम ये दध के
दसदिन पूरे होनेपर सूतिका का उत्थान दूधको रोगका हेतुत्व ।
करै और बालक के देहपर मनसिल, हरताल विरुद्धाहारंभुक्तायाः क्षुधिताया विचेतसः। | गौरोचन, अगर और चन्दन लगाकर कुलाप्रदुधातोगर्भिण्याः स्तन्यं रोगकरं शिशोः
नुगत नक्षत्रके देवताओं से युक्त समाक्षर . अर्थ-जो गर्भिणी विपरीत आचरण
वाला नाम बालक का रक्खै । करने वाली है, भूखी रहती है, जिसका
आयुपरीक्षा। चित्त भ्रांतियुक्त होता है और जिसकी धातु
ततःप्रकृतिभेदोक्तरूपैरायुः परीक्षणम् । दक्षित होती हैं, ऐसी स्त्रियों का दूध बालक प्रागुदशिरसाकुर्यात्वालस्यज्ञानवानभिषक को रोग उत्पन्न करनेवाला होता है। शुचिौतापधानानि निर्वलानि मृदानि च।
दूधकेअभावमें कर्तव्य । शय्यास्तरणत्रासांसि रक्षोप्नधूपितानि च स्तन्याभावे पयश्छागं गव्यं वा तन्दुणं पिवेत अर्थ-नामकरण के पीछे ज्ञानवान् वैद्य हस्वेन पंचमलेन स्थिरया धा सितायुतम् । | को उचितहे कि प्रकृति भेदके अनुसार
अर्थ-जो माता का षा धायका दूध न | विकृतविज्ञानीयाध्याय में कहे हुए लक्षणों के मिले तो बकरी का दूध पिलाना चाहिये । द्वारा वालक की आयुकी परीक्षा करै । भथवा. लधुपंचमूल, वा शालपर्णी डालकर | बालक के शयन कराने के निमित्त पवित्र
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(७२४)
अष्टांगहृदय ।
उज्ज्वल धुली हुई, समान और कोमल बि-। अर्थ-छटे सातवें घा आठवें महिने में छोना से युक्त शय्या बिछावै, इस शय्या को शुभदिन देखकर बालक के निरोग होनेपर रक्षोघ्ननाशिनी धूनी देवै और इस शय्या शीत कालमें बालक को धायकी गोदीमें बैका सिरहाना उत्तर व पूर्व दिशा में करके ठाकर आश्वासन देता हुआ बालक के दोनों बालक को उसपर शयन करावै । कानों को बेधे । बालक का मणिधारण ।
कर्णव्यधकी रीति । काको विशस्तःशस्तश्च धूपनेत्रिवृतान्वितः
शस्तश्च धूपनात्रवृतान्वितः प्राग्दक्षिणं कुमारस्य भिषग्यामं तु योषितः॥ जीयत्खङ्गादिशूगोत्थान् सदा बालः शुभान्। दक्षिणेन दधत्सूची पालिमन्येम पाणिना।
मणीन् ॥ २६ ॥ मध्यतः कर्णपठिस्य किंचिद्डाश्रयं प्रति ॥ धारयेदौषधीःश्रेष्ठा ब्राहयेंद्रीजीवकादिकाः जरायमात्रप्रच्छन्ने रविरश्म्यवभासिते। हस्ताभ्यां ग्रीवयामूर्ना विशेषात्सततवचाम् तस्य निश्चलम् सम्यगलक्तकरसांकिते ॥ आयुर्मेधास्मृतिस्वास्थकरींरक्षोभिरक्षिणीम् विध्येवकृते छिद्रे सकृदेवर्जु लाघवात् । ___ अर्थ-जीते हुए गेंडे आदि के सींगोंसे | नोर्व नपार्श्वतो माधः शिरास्तत्रउत्पन्न तथा सर्पादि की मणियों को बालक
हि संश्रिताः ॥ ३३ ॥ का शुभ कामोंके लिये धारण कर तथा
कालिका मर्मरी रक्ताब्राह्मी, इन्द्रायन, और जीवक इन औषधों | अर्थ-प्रथम ही बालक का दाहिना काका हाथमें धारण करै और बचको बालक की न और बालिका का बांयां कान बेधे और ग्रीवा और सिरमें विशेष रूपसे बांधे । ये | दाहिने हाथमें सुई और बांये हाथसे कर्णपाआयु, मेधा, स्मृति और स्वस्थता को देने ली को पकडे और कानकी पीठके बीचवाले वाली तथा राक्षसों के भयको दूर करने भागके समीपवर्ती गंडस्थल में जहां केवल बाली हैं।
| झिल्ली के समान खाल होती है और उसमें पांचवें छटे महिने में कर्तव्य । । होकर सूर्यको किरण का आभास पडता हो पंचमे मासि पुण्येऽन्हि धरण्यामुपवेशयेत् | उस दैवकृत छिद्रमें अलक्तक रससे अंकित षष्ठऽग्नप्राशनं मासि क्रमात्तत्र प्रयोजयेत् । | जगह में ऐसी रीति से पकडे कि हिलने न .... अर्थ-पांचवें महिने में शुभ दिन देखकर पावै फिर इसमें एकही बार हलके हाथसे सीबालक को पृथ्वी पर बैठावै । छटे महिनेमें | धा छेद करे, ऊपर नीचे वा पसवाडे को छोअन्नप्राशन करावै। फिर क्रमसे अन्य शभ | डदे क्योंकि वहां कालिका, मर्मरी और रक्ता कर्म करावै ।
नसों का जाल होता है। कर्णव्यधका काल।
सिराव्यध में रागादि । षट्सप्तमाएमासेषु नीरुजस्य शुभेऽहनि ॥
तयधादागरुग्ज्वराः। कर्णी हिमागमे विध्येद्धाञ्यंकस्थस्य- सशोफदाहसंरम्भमन्यास्तंभापतानकाः ॥
सांत्वयन् अर्थ-इन कालिकादि सिराओं के विधने
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म. ?
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७९५)
से ललाई, वेदना, ज्वर, सूजन, दाह, सरंभ | अपस्तनस्य संयोज्यःप्रीणना मोदकः शिशोः मन्यास्तंभ, और अपतानक रोग होते हैं। दीपनो बालबिल्वैलाशर्करालाजमुक्तुभिः। रागादि की चिकित्सा।
संग्राहाँधातुकापुष्पशर्करालाजतर्पणः ४०
अर्थ-स्तनपान का त्याग कराने के पीछे तेषां यथामयं कुर्याद्विभज्याशु चिकित्सितम् अर्थ-ऊपर कहे हुए दुर्वेधसे उत्पन्न हुए
चिरोंजी की मिंगी, मुलहटी, मधु, धानकी रोगोंमें यथायोग्य चिकित्सा करना चाहिये ।
खील, और मिश्री इनसे बनाकर प्रीणन उचितस्थान में बिधनेका फल ।।
मोदक देवे । तथा कच्ची बेलगिरी,इलायची, स्थाने व्यभन्न रुधिरंन रुग्रागादिसम्भवः ॥
शर्करों, और खील इनको डालकर अग्निको ___ अर्थ-यथायोग्य स्थानमें विद्ध होने से / संदीपन करानेवाले मोदक देवे, तथा धाय न रुधिर झरता है, न वेदना और ललाई के फूल, शर्करा ओर धानकी खील के बने पैदा होती हैं।
हुए संग्राही मोदक बालक को खाने के लिये सूत्रस्थापन ।
देवे । नेहाक्तं सूच्यनुस्यूतं सूत्रं चानु मिधापयेत् । सौम्यौषध सेवन । मामे तैलेन सिंचेच्च वहलां तद्वदारया ३६ रोगांश्चास्य जयेत्सौभ्यभैषजैरविषादकैः। विध्येत्पाली हितभुजः संचार्याथ स्थवीयसी पर्तिस्यहात्ततो रूढं वर्धयेत शनैः शनैः३७
अन्यत्रात्ययिकव्याधेर्विरेकं सुतरां त्यजेत्॥ अर्थ-कर्ण वेधन के पाछे सुई में पोये
___ अर्थ-यदि बालक के किसी प्रकार का
रोग होजाय तो उसे क्षोभरहित और सौम्य हुए डोरे को स्नेहाक्त करके कानमें लगा दे
औषधों से दूर करे । जो किसी प्रकार का वे । आमावस्था में तेल चुपडता रहे । जो
भयंकर उपद्रव न हुआ हो तो विरेचन कदापाली मोटी हो तो पूर्ववत् आरा से वेधकर हितकारी पथ्य देवे । फिर तीन दिन पीछे अ.
| पि न देना चाहिये ।
बालक को त्रासनिषेध । : धिक मोटी बत्ती प्रवेशित करे । फिर कानका छेद सूख जाने पर उसे धीरे धीरे बढावै ।
त्रासयन्नाविधेयतं त्रस्तं गृहणति हि प्रहाः । - दांतनिकलने पर कर्तव्य ।।
अर्थ-बालक को कभी वृथा भय नहीं अथैनं जातदशनं क्रमेणापानयेत्स्तनात् ।
दिखाना चाहिये क्यों कि भतभीत बालक को पूर्वोकं योजयेत्क्षीरमन्नं च लघु वृहणम् ॥ बहुधा ग्रह ग्रहण करलेते हैं।
अर्थ-जब बालक के दांत निकल अवें वस्त्रादि द्वारा रक्षण । तब धीरे धीरे उसे स्तनपान करना छुडा दे | वस्त्रवातात्परस्पर्शात् पालयेल्लंधिताच्चबे और पूर्वोक्त रीति से बकरी आदि का दू.
तम् ॥ ४२ ॥ ध और लघु तथा वृंहण अन्नका सेवन करावे
___ अर्थ-बालक के शरीर पर अन्य मनुष्य बालक को मोदक। . | के कपडे की वायु न लगे, कोई कर्कशता प्रियालमजमधुक मधुलाजासितोपलैः। । से उसे स्पर्श न करे, अथवा कोई उसे
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(७२६)
अष्टांगहृदय ।
लांघने न पावे । इन बातों पर विशेष दृष्टि । मक घृत बाणी, मेधा, स्मृति और जठराग्नि रखना चाहिये ।
| को बढानेवाला है। . घृतपान विधि ।
अन्य घृत। ब्राझीसिद्धार्थकवचासारवाकुष्टसैंधवैः। | वचामृताशठीपथ्याशंखिनीवेल्लनागरैः ४७ सकःसाधितं पीत
अपामार्गेण च घृतं साधितं पूर्ववद्गुणैः। बाङ्मेधास्मृतिकृद्धृतम् ॥ ४३ ॥ | अर्थ-बच, सौंठ, कचूर, हरड, शंखनी पायुज्यं पाप्मरक्षोप्नं भूतोन्मादनि.हणम् । वायबिडंग, सौंठ, और भोंगा डालकर सिद्ध
अर्थ-ब्राह्मी, सफेद सरसों,बच,सारिवा, किया हुआ घी पूर्ववत् गुणकारक है। कूठ, सेंधानमक और पीपल इनसे सिद्ध
चार योग । किया हुआ घी सेवन कराने से बालक की | हेमश्वेतववाकुष्टमर्कपुष्पी सकांचना ४८॥ बाणी, मेधा, स्मृति और आयु बढती है । हेममत्स्याक्षकः शखः कैडर्यः कनकं वचा । यह घृत पापनाशक,रक्षोन और भूतोन्माद | चत्वारपते पादोक्ताः प्राश्या मधुघृतप्लुताः
वर्ष कीढा वपुर्मेधावलवर्णकराः शुभाः। निवारक होता है।
अर्थ-(१) सुवर्ण, सफेद षच और अन्य प्रयोग। घचेदुलेखा मंडूकी शंखपुष्पी शतावरी ४४ / कूठ । (२) अर्केपुष्पी और कांचना ३) ब्रह्मसोमामृताम्राह्मीः कल्कीकृत्य- सुवर्ण, मछछी और शंख तथा ( ४ ) काय
पलांशिकाः। | फल, सुवर्ण और बच । इन चार योगों अष्टाङ्गविपचेरसर्पिःप्रस्थंक्षीरं चतुर्गुणम्॥
को मधु वा घी में मिलाकर एक बर्ष तक तत्पीतं धन्यमायुष्यं वाङ्मेधास्मृतिबुद्धिकृत्
लेहन करै । इससे शरीर मेधा, बल, और • अर्थ-बच, बाबची, मंडूकपर्णी, शंख
वर्णकी वृद्धि होती है। पुष्पी, सितावर, सोमलता, गिलोय, और
बचादि का प्रयोग । ब्राझी प्रत्येक एक एक पल लेकर पीसले और घी एक प्रस्थ, दूध चार प्रस्थ, इन
बचायष्टयाइसिंधूत्थपथ्यानागरदीप्यकैः ।
शुध्यते वाग्यविीदैः सकुष्टकणजीरकैः । . 'सबको यथोक्त गति से पाक करे । यह
___ अर्थ-बच, मुलहटी, सेंधानमक, हरड, भष्टांग घृत आयु, बाणी, मेधा, स्मृति और
सौंठ, अजवायन, कूठ, पीपल, और जीरा बुद्धिको बढानेवाले हैं। सारस्वत प्रत ।
इनके साथ पकाया हुआ घी सेवन करनेसे मजाक्षीराभयाव्योषपाठोप्राशिसैंधवैः ।। बाणी शुद्ध होजाती है। सिद्धम् सारस्वतं
इतिश्री मथुरानिवासी श्रीकृष्णलालकृत सर्पिमेधास्मृतिबन्हिकृत्।।
भाषाटीकान्वितायां अष्टांगहृदयसं. '' अर्थ-बकरी का दूध, हरड, त्रिकुटा, ।
हितायां उत्तरस्थानेवालो पचरणी. 'पाठा, बच, सहजने के बीज, सेंधानमक
योनाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ 'इनके साथ सिद्ध किया हुआ सारस्वत ना
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म. २
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७२७)
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द्वितीयोऽध्यायः
. अर्थ-पित्तसे दूवित हुआ दूध खट्टा
और कटु होता है, पानी में डालने से पीली अथाऽतो बालामयप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः रेखायें पडजाती है तथा दाहकारक होता है। ___ अर्थ-अब हम यहाँसे वालामयप्रतिषेध कफदुष्ठधके लक्षण । नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। कफात्सलवणं सांद्र जलेमजतिपिच्छिलम् विविध वालक।
___ अर्थ-कफसे दूषित दूध नमकीन, गाढा; "विविधः कथितो पालाशीरानाभयपक्षनः | और पिच्छिल होता है, तथा पानी में डब स्वास्थ्यं ताभ्यामदुष्टाभ्यांपुष्टाभ्यारागसंभव: जाता है ।
अर्थ-बालक तीन प्रकार के होते हैं, सान्निपातिक दूधके लक्षण । दुग्धाशी ( केवल दूध पीनेवाला ) दुग्धान्ना | संसृष्टलिगं संसर्गात्रिलिंगं सान्निपातिकम् शी (दूध और भन्न खानेवाला ), अन्नाशी | अर्थ-दूध जो दोदो दोषों से दूषित ( केवल अन्न खानेवाला), दूषित दूध वा होता है, उसमें दो दो दोषों के लक्षण पाये अन्नके सेवन से रोगों की उत्पत्ति होती है | जाते हैं और जो तीनों दोषों के लक्षण से और अदूषित दूध और अन्न के सेवन से युक्त होता है वह दूध तीनों दोषों से दूषित निरोगता रहती है।
होता है। शुद्ध दूधके लक्षण ।
उक्तदूधपीने के लक्षण | यद्भिरकतां याति न च दोषैरधिष्ठितम् । यथास्वलिंगांस्तव्याधीनजनयत्युपयोजितं तद्विशुद्धं पयः
अर्थ-बालक जो इन वातादि दोषों से ___ अर्थ-जो दुध पानी में डालने से जल | दूषित दूधको पीता है, उसके उस उस में मिलकर बिलकुल एक होजाता है और / दोषके लक्षणवाली व्याधियां उत्पन्न हो जिसमें वातादि दोषों का अधिष्ठान नहीं | जाती हैं । होता है, वह शुद दूध होता है ।
रोनेसे पीडाका ज्ञान । वातदुष्टदूधके लक्षण । | शिशोस्तीणामतीष्णांचरोदनाल्लक्षयेगुर्ज
वाताहुष्टं तु प्लवतेऽभसि अर्थ-बालक के रोनेसे ही उसके रोग कषाय फोनलं रूशं वर्चीमूत्रविबंधकृत् ।। की दशा पहचानी जाती है, जो पीडा - अर्थ-बात से दूषित हुआ दूध पानीमें
बहुत हो तो बालक अधिक रोता है और तैरता है, कसीला, झागदार और रूक्ष
कम हो तो कम गेता है। होता है तथा विष्टा और मूत्रका विवंध क
अवयव विशेष में रोग । रता है।
सोयं स्पृशेभृशं देशं यत्र च स्पर्शनाक्षमः। पित्तदुष्टके लक्षण । तत्र विद्यार्ज पित्ताइष्टाम्छकटुक पोतराज्यप्सु दाहकृत् । अर्थ-बालक देहके जिस अवयव को
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अष्टांगहृदय।
०२
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बार बार छूता हो, या जिस जगह हाथ न• जवायन, भाडंगी, देवदारु, सरलकाष्ट, मेंढा. लगा सकता हो वहीं पीडा समझना चाहिये। सिंगी, पीपल, कालीमिरच,इनका काढा ती
सिरकी पीडाका ज्ञान । न दिन तक पानकरावे। मूर्ध्नि रुजं चाक्षिनिमीलनात् ६
बातनाशक घृत । हदि जिहौष्ठदशमभ्वासमुष्टिनिपीडितैः।
| ततः पिवेदन्यतमंचातन्याधिहरं घृतम् । कोष्ठे विबंधवमथुस्तनदंशांत्रकूजनैः ७ | अतु चाच्छसुरामेवं स्निग्धं मृदु विरेचयेत्॥ आध्मानपृष्ठनमनजठरोन्नमनैरपि।
| पस्तिकर्म ततः . यस्तो गुह्ये च विण्मूत्रसंगत्रासदिगीक्षणैः॥ कुर्यात्स्वेदादींश्चानिलापहान् ।
अर्थ-जो बालक आंख बंद करलेता अर्थ-तदनंतर वातरोग नाशक किसी हो तो उसके सिर में दर्द समझना चाहिये । घृतको पिलाकर अच्छ सुराका अनुपान करावै जो जीभ और ओष्ठ को डसता हो, श्वास | और धायके स्निग्ध होने पर उसे मृदु विलेता हो, मुट्ठी बन्द करता हो तो उसके रेचन देवे । तदनंतर वस्तिकर्म करके वातहृदय में पीडा समझना चाहिये । जो मल | नाशक स्वेद अभ्यंगादि का प्रयोग करे । का निबंध, वमन, धायके स्तनों का काटना बालकके लिये अवलेह । और अंत्रकूज हो तो कोष्ट में दर्द समझना | राम्राजमोदासरलदेवदारुरजोन्वितम् १२ चाहिये । कोष्ठ के दर्द में अफरा, पीठ का | बालोलिह्माद् घृतंसा विपक्कं ससितोपलम् झुकना, जठर ऊंचा होना ये उपद्रव भी
अर्थ-रास्ना, अजमोद, सरलकाष्ट, देवहोते हैं । जो वस्ति वा गुदा में वेदना हो
दारु, इनका चूर्ण करके घृत मिलाकर अथवा तो मलमूत्रका विबंध और अमित होकर
रास्नादि के काढेके साथ घी और मिश्री पइधर उधर देखना ये लक्षण होते हैं।
काकर बालक को चटावे । धात्रीका उपचार ।
पित्तदूषित स्तन्यमें चिकित्सा । मथ धायाः क्रियां कुर्याद्यथादोषम्- पित्तदुष्टेऽमृताभीरुपटोलोनियवदनम् १३॥
यथामयम्। धात्री कुमारश्च पिवेत् क्वाथयित्वा___ अर्थ-धायकी चिकित्सा भी दोषानुसार
ससारिवम् । और रोगानुसार करना चाहिये।
अथवा त्रिफलामुस्तमूनिंबकटुरोहिणीः ॥
सारिवादि पटोलादि पद्मकादि तथा गणम् . बातात्मक स्तन्यकी चिकित्सा।
____ अर्थ--पित्तसे दूषित स्तन्य में गिलोय, तत्रवातात्मकेस्तन्ये दशमूलं यह पिवेत्॥ भथवाग्निवचापाठाकटुकाकुष्ठदीप्यकम् ।
सिसाकर, पर्वल, नीमकी छाल, रक्तचंदन सभार्गीदारुसरलवृश्चिकालीकणोषणम् ॥ और अनंतमूल इनका काढा धाय और बा' अर्थ--स्तन्य के बातसे दूषित होनेपर लक दोनोंको पान करावे अथवा त्रिफला, धायको तीन दिन तक दशमूल का काढा | मोथा, चिरायता, कुटकी इनका का ढा अथवा अथवा चीता, बच, पाठा, कुटकी, कूठ, अ. सारिबादि पटोलादि वा पमकादि गणोक्त
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अ. २
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
( ७२९)
द्रव्यों का काढा धाय और बालक दोनों को | बच और पंचकोल इन सब द्रव्यों का काढा पान करावे।
पान करावे । घी और अवलेह।
त्रिदोषदुष्ट स्तन्यके उपद्रव । धृताम्येभिश्य सिद्धाने पिसनं च विरेचनम् स्तन्ये त्रिदोषमलिने दुर्गध्याम जलोपमम् । शीतांश्चाभ्यंगलेपादीन युज्यात्- विषद्धमच्छं विच्छिन्नं फेनिलं चोपवेश्यते॥ अर्थ--पूर्वोक्त सारिवादि गणोक्त द्रव्यों के
शनानाव्यथावर्ण मत्रं पीतं सितं घमम् । साथ अलग अलग सिद्ध किया हुआ घृत,
ज्वरारोवकतुर्दिशुष्कोदारविजूभिकाः॥
अङ्गभगोऽगविपः कृजनं घेपथुमः । तथा पित्तनाशक विरेचन और शीतल अभ्यं
घ्राणाक्षिमुखपाकाद्या जायतेऽन्येऽपि तंग तथा लेपों को उपयोग में लाये ।
गदम् ॥ २२ ॥ कफात्मकस्तन्य की चिकित्सा।
क्षीरालसकमित्याहुरत्ययं चातिदारुणम् । लेष्मात्मके पुनः।
___ अर्थ-जब स्तनों का दूध वातादि तीनों यष्टयावसैंधवयुतं कुमारं पाययेत् घृतम् ॥ दोषों द्वारा दूषित हो जाता है तब दुर्गधित सिंधूत्थपिप्पलीमद्वा पिष्टैः क्षौद्रयुतैरथ । | कच्चा, जल के सदृश, बंधा हुआ, पतला, फराठपुष्पैः स्तनौ लिंपेच्छिशाश्चा
टा हुआ और झागदार दस्त होने लगता है दशनच्छदौ ॥ १७॥
तथा मूत्र भी अनेक तरह की वेदनाओं से सुखमेवं धमेद्वालः __ अर्थ-कमानक स्तन्यमें मलहटी और युक्त, पीले, सफेद आदि वाँसे युक्त और सेंधानमक मिलाकर अथवा पीपल और सें- गाढा होने लगता है । इनके सिवाय उबर, धानमक इनमें घृत मिलाकर वालकको पा अरोचक, तृषा, धमन, सूखी डकार, जंभाई, न करावे । मेनफल के फूलों को पीसकर श. अंगभंग ( अंगडाई ) अंगविक्षेप ( हाथ पांवहत में मिलाकर धायके स्तनों पर और बा फेंकना ), अंत्रकूजन, कंपन, भ्रम, नासिका लक के ओष्ठोपर लगादे । ऐसा करने से आंख और मुखमें पाक तथा और भी बहुत बालकको सुखपूर्वक वमन होजाती है । से रोग पैदा होजाते हैं । इसको क्षारालसक . धायको वमन ।। कहते हैं, यह रोग बडा भंयकर होता है।
तीक्ष्णैर्धात्री तु बामयेत् । उक्तरोगमें चिकित्सा क्रम । अथाचरितसंसर्गीमुस्तादि क्वथितं पिबेत्॥ तत्राश धात्री बालंच वमनेनोपपादयेत् ॥ तद्वत्तगरपृथ्वीकासुरदारुकलिंगकान् ।।
अर्थ-इस रोगमें धाय और बालक दोनों अथवाऽतिविषामुस्तषड्ग्रन्थापंचकोलकम्
| को शीघ्र ही वमन करावे । अर्थ-धायको वमनकारक तीक्ष्ण औषध
अन्य उपाय। देकर वमन करावे | तत्पश्चात् पेयादि का हितायां च संसो वचादि योजयेद्णम् पथ्य देकर मुस्तादि गण का काथ पान क- निशादिवाऽथवामाद्रीपाठातिक्ताघनामयान् रावे, अथवा तगर, इलायची, देवदार और अर्थ-तदनंतर पेयादि क्रमसे पथ्य देकर इन्द्र जौ इनका काढा, अथवा अतीस, मोथा | वचादि गण वा हरिद्रादि गण का काढा अथवा
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अष्टांगहृदय ।
अ. ३
': अतीस, पाठा, कुटकी, मोथा और कूट इन अथै-दोष, रोग, दोषकी अधिकता, का काढ़ा पान करावे ।
| दोषका स्थान इनके अनुसार देश और काल पाठादि का प्रयोग । की विवेचना करके औषध का प्रयोग करना. पाठाशुंठयमृतातिनतिक्तादेवाहसारिवाः । चाहिये । समुस्तमूर्चेद्रयवाः स्तन्यदोषहराः परम्२५ बालक की चिकित्सा ।
अर्थ-पाठा, सोंठ, गिलोय, चिरायता, तएव दोषादृष्याश्चज्वराद्याव्याधयश्चयत् कुटकी, देवदारु, अनन्तमूल, मोथा, मूर्वा और अतस्तदेव भैपज्य मात्रा त्वस्य कनीयसी। इन्द्रजी ये स्तनों के दूध का दोष हरनेवाली | सौकुमार्याल्पकायत्वात्सर्वान्नामुपसेवनात् परमोत्तम औषध हैं।
___ अर्थ-युवा आदि व्यक्तियों के जो वाअनुबंधानुसार चिकित्सा । | सादि दोपहैं, रसादि दूष्यहै, ज्वरादि रोगहैं अनुबंधे यथाव्याधि प्रकुर्वीत कालवित् । | वेही दोष, वेही दृष्य, वेही ज्वगदिरोग वा. अर्थ-व्याधिके अनुबंध देशकालानुसार
लक के भी होते हैं, इस लिये वालक को भी चिकित्सा करना उचित है।
वही औषध देना चाहिये जो ज्वरादि प्रकरदंतोद्भेदको रोगोंका हेतुत्व । णों में अलग अलग कही गई है । परन्तु. दंतोद्भेदश्च रोगाणां सर्वेषामपि कारणम् ।
बालक का देह कोमल और शरीर छोटा विशेषाजरविइभेदकासच्छर्दि शिरोरुजाम् अतिस्पंदस्य पोथक्या विसर्पस्य च जायते होताहै और वह सब प्रकार के अन्न सेवन
अर्थ-दांतोंका निकलना सब रोगोंका | नहीं कर सकताहै, इसलिये उसको युवा कारण है । इसमें विशेष करके अर, मलका की अपेक्षा हूस्वमात्रा देना चाहिये । फटना, खांसी, वमन,सिरका दर्द, अतिस्पंदन बालकों को मृदुवमन । पोथकी ( नेत्ररोग विशेष , और विसर्प ये स्निग्धा एव सदा बाला घृतक्षीरनिषेवणात् उपद्रव उपस्थित होते है ।
सद्यस्तान्वमनं तस्मात्पाययेन्मतिमान् मृदु दंतोद्भवमें पीडा पर दृष्टांत । अर्थ-धी दूधका सदा सेवन करते रहने पृष्ठभंगे बिडानां वहिणां च शिखोद्गमे। से बालक सदा ही स्निग्ध हुआ करते हैं, तोद्भवे च बालानां नहि किचिन्न दूमते २८ इसलिये वद्धिमान बैद्यको उचित है कि वा
अर्थ-बिल्ली की पीठके टूटने में, मोर लकको शीघ्रही मृदुवमन पान करावै । इस की शिखाके उपमने में और बालक के दांत कहने का तात्पर्य यह है कि वमनसे पहिले निकलने पर संपूर्ण देहमें पीडा हुआ स्नेहन की आवश्यकता नहीं है । करती है ।
स्तन्यतृप्त को वमन । दोषानुसार प्रयोग । यथादोष यथारोगं यथोकं यथाशयम । स्तन्यस्य तृप्तं वमयेत् क्षीरक्षीरान्नसेविनम् विभज्यदेशाकालादस्तित्रयोज्यभिषाग्जितम् ! अर्थ-दूध पीनेवाले तथा दूध और अन
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७३१)
को सेवन करने काले बालक को स्तनपान | मांसको पीसकर शहत में मिलाकर बालक से तृप्त कराके वमन करावे । के मसूडों पर धीरे धीरे मर्दन करने से दांत
पयापानवाले को वमन । बहुत शीव्र निकल आते हैं। पतिंवत तनुं पेयामन्नादं घृतसंयुताम् ॥ दांतों के निकलने में धी।
अर्थ-अन्न खानेवाले बालक को घी वचाद्विवृहतीपाठाकटुकातिविषाधनैः ३७ मिली हुई पतली पेया पानकराके वमन मधुरैश्च घृतं सिद्धं सिद्धं दशनजन्मनि । करावे ।
___ अर्थ-वच, दोनों कटेरी, पाठा, कुटकी, विरेचनसाध्यरोग में कर्तव्य । अतीस और मोथा तथा मधुरगणोक्त द्रव्यों बस्ति साध्ये विरेकेण महून प्रतिमर्शनम् । से सिद्ध किया हुआ घी सेवन करने से युज्याद्विरेचनादीस्तुधाच्या एव यथोदितान् दांत शीघ्र निकल आते हैं । ___अर्थ-विरेचनसाध्य रोगों में वस्ति और |
रजन्यादिचूर्ण का लेह । मर्शसाध्यरोगों में प्रतिमर्श का प्रयोग करना रजनी दारुसरल श्रेयसी वृहतीद्वयम् ३८ चाहिये । धायको भी विरेचनादि औषधों पृश्निपर्णी शतावाचलीढं माक्षिकसर्पिषा का सेवन करना चाहिये ।
ग्रहणीदीपनं श्रेष्ठं मारतस्यानुलोमनम् ३९ स्तन्यदोषनाशक लेह ।
अतीसारज्वरश्वासकामलापांडुकासनुत् । मूर्वाव्योषवराकोलजंबूत्वग्दारुसर्षपाः ३४ बालस्य सर्वरोगेषु पूजितं बलवर्णदम् ४०॥ सपाठा मधुना लीढाः स्तन्यदोषहराः परम्
___ अर्थ-हलदी, देवदारू,सरलकाष्ठ, हरड, ___ अर्थ मूळ,त्रिकुटा, त्रिफला, बेर, जामन दानो कटरी, पृश्निपी और सोंफ इनका की छाल, देवदारू, सरसों और पाठा
चूर्ण करके घी और शहत में मिलाकर चौटे। इनका चूर्ण करके शहत के साथ चाटने से यह अवलेह ग्रहणी को प्रदीप्त करने में स्तन्यदोष जाते रहते हैं।
उत्तम है, वायुका अनुलोमन करनेवाला है, __ दंतपाली का प्रतिसारण । अतीसार, ज्वर, श्वास, कामला, पांडुरोग, दंतपाली समधुना चूर्णन प्रतिसारयेत् ३५ | खांसी को दूर करदेता है । बालकों के सब पिप्पल्या धातकीपुष्पधात्रीफल कृतेन वा। रोगों में हितकारी है तथा बल और वर्ण को अर्थ-पीपल का चूर्ण अथवा धाय के
बढानेवाला है। फूल और आमले का चूर्ण शहत में मिला
अन्य प्रयोग। कर बालक के मसूडों पर धीरे धीरे मर्दन समंगाधातकीरोधकुटनटबलाहये। करे, इससे भी दांत निकल आते हैं। महासहानुद्रसहानुद्रविल्यालाटुभिः ४१ ___लावादि चूर्ण ।
सकासीफलैस्तोये साधितैः साधितं- .
घृतम्। लावतित्तिरवल्लूररजः पुष्परसप्लुतम् ३६ क्षीरमस्तुयुतं हंति शीघ्र दंतोद्भवोद्भवान् ॥ द्रुतं करोति बालानां दंतकेसरबन्मुखम् । विविधानामयानेतद्वद्धकश्यपनिर्मितम् । . अर्थ-लवा और तीतर के सूखे हुए अर्थ-मजीठ, धायके फूल, लोध, केबटी
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(७३२)
अष्टांगहृदय ।
अ. २
-
मोथा, खरैटी, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, कच्ची । पाठा और गिरिकदंव इनको पीसकर शहत बेलगिरी, बिनोले इनके जल में दूध और और घी में मिलाकर सेवन कराता रहै । दहीका का पानी मिलाकर उसमें सिद्ध ।
अन्य प्रयोग। किया हुआ घी दांत से उत्पन्न हुए हुए अशोकरोहिणीयुक्तं पंचकोले च चूर्णितम् ॥ रोगों को शीघ्र नष्ट करदेता है तथा और बदरीघातलीधात्रीचूर्ण वा सर्पिषा द्रुतम् । भी अनेक प्रकार के रोगों को दूर करदेता ___अर्थ-अशोक की छाल, कुटकी, और है । यह औषध वृद्धकश्यय की बनाई। पंचकोल इनका चूर्ण अथवा बेर, धाय के
फूल, और आमले का चूर्ण घी में सानकर दंतोद्भव में अतियंत्रणका निषेध । सेवन करावे । दंतोद्भवेषु रोगेषु न बालमतियंत्रयेत् ४३ ॥ स्वयमप्युपशाम्यति जातदंतस्य यद्गदाः ।
अन्य प्रयोग। अर्थ-दांतों के निकलने के रोगों बा- स्थिरावचाद्विवृहीकाकोलीपिप्पलीनतैः ॥ लक को चिकित्सा आदि का बहुत कष्ट न
| निचुलोत्पलवर्षाभूभार्गीमुस्तैश्च काषिकैः।
सिद्धं प्रस्थार्धमाज्यस्य स्रोतसां शोधनम् देवे क्योंकि दांतों के निकल आने पर ये
परम् ।। ४९॥ सन रोग अपने आप शांत होजाते हैं।
अर्थ-शालपर्णी, वच, दोनों कटेरी, बालक को अरोचकादि। अत्यहः स्वप्नशीतांबुलाध्मकस्तन्यसेविनः |
काकोली, पीपल, तगर, निचुल, उत्पल, शिशोः कफेन रुद्वेषु स्रोतःसु रसवादिषु । सांठ, भाडंगी और मोथा प्रत्येक एक एक अरोचकः प्रतिश्यायोज्वरः कासश्च जायते | कर्ष लेकर इसके साथ आधा प्रस्थ घी कुमारः शुष्यति ततः स्निग्धशुक्लमुखेक्षणः
पकाये । इसके सेवन से स्रोत खुलजाते हैं ___ अथे-दिनमें स.ना, शीतल जल, कफ यह इस काम के लिये सर्वोत्तम औषध है। दूषित स्तन्य इनको अत्यन्त सेवन करने से
अन्य घत । बालक के रसवाही स्रोत कफ से एकजाते सिंह्यश्वगन्धा सुरसा कणागर्भ च तद्गुणम् । है और इससे अरोचक, प्रतिश्य , ज्वर अर्थ-कटेरी. असगंध, तुलसी और और खांसी उत्पन्न होजाते हैं, बालक स. पीपल इनके कल्क के साथ सिद्ध किया खता चला जाता है और उसके मुख और | हुआ घी पूर्वोक्त गुणकारक है। आंख चिकने और सफेद होजाते हैं । ।
अन्य घृत । उक्त अवस्था में उपाय । यष्टयाइपिप्पलीरोपनकोत्पलचन्दनैः ॥ सैंधवव्योषशार्गेष्टापाठागिरिकदवकान् ४६ तालीससारिवाभ्यां च साधितं. शुण्यतोमधुसर्पिर्ध्यामरुच्यादिषुयोजयेत् ।
शोषजिघृतम्। ___ अर्थ-पूर्वोक्त अरोचकादि रोग से सूखे । अर्थ-मुलहटी, पीपल, लोध, पनाख हुए बालक को सेंधा नमक, त्रिकुटा, कंजा नीलोत्पल, रक्तचंदन, तालीसपत्र और
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अ. १
उत्तरस्थान भाषाकासभेत ।
( ७३३,
सारिवा इनसे सिद्ध किया हुआ घृत भी | राना, सितावर, और मुलहटी, इन सबको प्रयोग में लाना चाहिये ।
समान भाग लेकर इनका कल्क करके तैल अन्य प्रयोग। पाककरे । यह लाक्षादि तैल मर्दन करने से अंगीमधूलिकाभार्गीपिप्पलादेवदारुभिः ५१ / बल को बढाता है, ज्वर, क्षयी, उन्माद, अश्वगन्धाद्विकाकोलारास्त्रर्षभकजीयकैः । श्वास, अपस्मार तथा वात रोगों को दूर सूपपर्णीविडंगैश्च कलिकतैः साधितम् ।
| करता है । यक्ष, राक्षस और भूतों का
घृतम् ॥५२॥ शशोत्तमांगनि!हे शुध्यतः पुष्टिकृत्परम् ।
| नाश करता है । गर्भिणी स्त्रियों के लिये अर्थ-काकडासींगी, मुलहटी, भाइंगी | पीपल, देवदारु, असगंध, काकोली, क्षीर- | लाक्षादि तैल । काकोली, रास्ना, ऋषभक, जीवक, शूर्प- मधुनाऽतिविषाश्रृंगापिप्पललिहेयच्छिशुम् पर्णी और बायबिडंग इनके कल्क तथा | एकां वातिविषां कासज्वरछदिरुपद्रुतम् । खर्गोश के सिरके काढे के साथ सिद्ध किया ___ अर्थ-अतीस, काकडासींगी, पीपल, इन हुआ घी सूखे हुए बालक को अत्यन्त पुष्टि | के चूर्ण को अथवा केवल अतीस के चूर्ण कारक है।
को शहत के साथ चटाने से बालक की ___ अभ्यंजन के लिये तेल। खांसी, ज्वर, वमन, आदि उपद्रव जाते वचावयस्थातगरकायस्थाचोरकैः श्रुतम् ॥ | रहते हैं। बस्तमूत्रसुराभ्यां च तैलमभ्यंजने हितम् ।
अन्य अवलेह । अर्थ-बच, आमला, तगर, हरड, और चोरक इनके कल्क तथा वकरे के मुत्र और
पीतं पीतं वमति यः स्तन्यं तं मधुसर्पिषा ।
द्विवार्ताकीफलरसं पञ्चकोलं च लेहयेत् । सुगके साथ पकाया हुआ तेल अभ्यंजनमें
पिप्पली पञ्चलवणं कृमिजित्पारिभद्रकम् ॥
तद्वल्लिह्यात्तथा व्योष मषीं या रोमचर्मणाम् बालककी खांसीआदि में लेह । लाभत:लाक्षारसलमं तैलंप्रक्ष्यं मस्तुवर्गणम्॥ । शल्यकश्वाविद्रोधर्मशिस्निजन्मनाम् ६०॥ अश्वगन्धानिशादारुकौतीकुष्ठाब्दचन्दनैः । अर्थ-जो बालक दूध पीते ही धमन समूारोहिणीरानाशताहामधुकैः समः ॥ कर देता है उसे दोनों प्रकार के बेंगनोंका सिद्धं लाझांदिकं नाम तैलमभ्यंजनादिदम्।। रस वा पंचकोल का चर्ण घी और शहत के बल्यं ज्वरक्षयोन्मादश्वासापस्मारवातनुत् यक्षराक्षसभूतघ्नम् गर्भिणीनांच शस्यते।। साथ चटावै । इसी तरह पीपल, पांचों - अर्थ--एक प्रस्थ तेल और इतनाही ला. नमक, बायबिडंग और नीमको चटावै । खका रस और चौगुना दही का पानी, | अथवा त्रिकुटा का चूर्ण अथवा शल्यक,सेह, तथा असगंध, हलदी, देवदारु, रेणुक, | | गोधा, रीछ और मोर इनके चमडे वा रोमों कूठ, नागरमाथा, रक्तचंदन, मर्वा, कुटकी, | की राख और शहत मिलाकर चाटै ।
हितहै।
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( ७३४)
अष्टांगहृदय ।
अ० २.
-
अन्य घी।
प्रतिसारयेत् ॥ ६५॥ खदिरार्जुनतालीसकुष्ठचन्दनजे रसे । तालु तद्वत्कणाशुठागाशकद्रससैंधवैः। सक्षीरंसाधितं सर्विमथु विनियच्छति ॥ अथे-तालुटक रोगतालुको उठाक__ अर्थ-खैर, अर्जुनकी छाल, तालीसपत्र, र शहत और जवाखार अथवा पीपल, सोंठ कूठ, और रक्तचंदन इनके काथ में दूधके / गोवर का रस और सेंधानमक मिलाकर प्र. साथ घी पकाकर पीने से बालककी वमन | तिसारण करै । रुक जाती है।
अन्य औषध । - दांतवाले बालककी चिकित्सा। श्रङ्गवेरनिशाभंग कल्कितं वटपल्लवैः ६६ सदतो जायते यस्तु दंताः प्राग्यस्थ चोत्तराः बध्वा गोशकता लिप्तं कुकूले स्वेदयेत्ततः । कुर्वीत तस्मिन्नुत्पाते शांतिकम् च- रसेन लिंपेत्ताल्वास्यं नेत्रे च परिषेचयेत् ॥
द्विजायते ॥ ६२॥ अर्थ-अदरख, हलदी और भांगरा इन दद्यात्सदक्षिणं यालं नैगमेषं च पूजयेत् । तीनोंको पीसकर लुगदी बनाकर ऊपर बड ___ अर्थ- जो बालक दांतों समेत जन्मलेता | के पत्ते लपेट देवे, ऊपरसे गोवर पोतकर तु. है, अथवा जिसके पहिले ऊपरवाले दांत
| ष की अग्निमें स्वेदित करे । फिर इसका रस निकलते हैं, उसकी स्वस्तिवाचन शांति
निचोडकर तालु और मुख पर लेपन करे कर्म करने चाहिये । दक्षिणा सहित उस
नेत्रों को परिषेचन करे। बालक को ब्राह्मण के लिये दान करदेवे और नैगमेषकी पूजा करे ।
तालुकंटक की दवा । तालुकंटक ।
हरीतकीवचाष्टफलकम् माक्षिकसंयुतम् । तालुमांसे कफः कुद्धः कुरुतेतालुकण्ट कम्॥
| पीत्वा कुमारःस्तन्मेक मुच्यते तालुकंटकात् तेन तालुप्रदेशस्य निम्नता मूनि जायते । ____ अर्थ-हरड, बच और कूठ इनका कल्क तालुपातेस्तनद्वेषः कृच्छ्रात्यानं शकद्वम् करके शहत मिलाकर स्तन के दूधमें मिलाकर तुडास्यकण्ड्बाक्षिरुजा ग्रीवादुर्धरता वमिः पीने से बालकका तालटक रोग जाता रहा है ___ अर्थ-मधुर आहारादि के सेवन से कफ
तमनामिक रोग। क्रुद्ध होकर ताळुमांस में तालुकंटक नाम रो
मलोपलेपास्वेदाद्वा गुदे रक्तककोद्भवः । ग को पैदा कर देता है । इससे मस्तक के तानो प्रणोऽन्तः कण्ड्मान् जायतेभूर्युपद्रव तालु प्रदेश में नीचापन, तालुपात, स्तनद्वेष
केचित्तं मातृकादोष वदत्यन्येऽपि पूतनम् ।
मष्टारुगुदकुंदं च केचिच्च तमनामिकम् ७० कठिनता से पानी वा दूधका पीना, दस्तका
अर्थ-बालक की गुदाके अच्छी तरह न पतलापन, तृषा, मुखमें खुजली, आंखों में दर्द
| धोनेसे मल लगे रहने के कारण अथवा पगरदन का न ठहरना और वमन ये उपद्रव उपस्थित होते हैं।
सीने से रक्त और कफसे गुदाके भीतर एक , उक्तरोग में उपाय । ताम्रवर्ण घाव हो जाता है, इसमें खुजली सत्रोत्क्षिप्य यवक्षारक्षोद्राभ्यां- चल चल कर बहुत से उपद्रव हो जाते हैं
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अ०३
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७३५)
इसे कोई मातृकादोष कोई पूतनारोग, कोई
अन्य लेह । पृष्टारु, कोई गुदकुंद और कोई अनामिक पाठावेल्लद्विरजनीमुस्तभार्गीपुनर्नवैः। रोग कहते हैं।
सबिल्वव्यूषणैः सर्पिवृश्चिकालीयुतैः
शतम् ॥ ७६ ॥ उक्तरोगमें कर्तव्य ।
लिहानो मात्रया रोगैर्मुच्यते मृत्तिकोद्भवैः । तत्रधाच्या पयः शोध्यं पित्तश्लेष्महरौषधैः
___ अर्थ-पाठा,व यबिडंग,हलदी,दारुहलदी, अर्थ-इस रोगमें पित्तकफ नाशक औषधियों द्वारा धायकादूध शुद्ध करना चाहिये।
मोथा, भाडंगी, पुनर्नवा, बेलगिरी, त्रिकुटा,
और वृश्चिकाली इनके कल्क के साथ पकाव्रणलेपन शृतशीतं च शीतांवुयुक्तमंतरपानकम् ७१॥
या हुआ घी यथायोग्य मात्रा से सेवन करने सक्षौद्रतायशैलेन व्रणं तेन च लेपयेत् । पर बालक के मृत्तिका के खाने से उत्पन्न त्रिफलावदरीप्लक्षत्वक्वाथपरिषेचितम् । हए रोग नष्ट हो जाते हैं।
.. कासीसरोवनातुत्थमनोद्घालरसांजनैः ।
अन्य प्रयाग। लेप येदम्लपिष्टैर्वा चूर्णितैर्वायचूर्णयेत् ७३ सुश्लक्ष्णैरथवा यधीशंखसौवीरकांजनैः ।।
१३ व्याधेर्यद्यस्य भैषज्यं स्तनस्तेन प्रलेपितः । सारिवाशंखनाभिभ्यामशनस्यः स्थितो मुहूर्त धौतोनु पीतस्तं तम्त्वचाऽथवा ॥ ७४॥
जयेदरम् ॥ ७७ ।। रागकण्डूत्कठे कुर्याद्रक्तस्नायं जलौकसा । ___ अर्थ-जिस जिस रोग में जो जो औषध सर्व च पित्तव्रणजिच्छस्यते गुदकुट्टके ७५ कही गई हैं उन औषधों को घोटकर स्तनों __ अर्थ-शहत और रसौत मिलाकर ठंडा
पर लेप करदे । दो घडी पीछे सूख जानेपर पानी अथवा औटाये हुए ठंडे पानी में शहत
लेपको उतार दे और स्तनों को अच्छी तरह और रसौत डालकर पान करें और इसी
धोकर बालकको स्तनपान करावे तो बालक जलका घाव पर लेप करै । त्रिफला, बेर,
के वे वे रोग नष्ट हो जाते हैं। और पाकड की छालके क्वाथ से सेचन करके उसपर हीरा कसीस, गोरोचन, ।
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी. नीलाथोथा, हरताल, रसौत इनको कांजी
___ कान्वितायां उत्तरस्थाने वालामय : में पीसकर लेप करदे । अथवा उक्त त्रि
प्रतिषेधोनाम द्वितीयोऽध्यायः फलादि का चूर्ण महीन पीसकर बुग्कदे । अथवा मुलहटी, शंख, सौवीरांजन ।
तृतीयोऽध्यायः अथवा असनकी छाल का चूर्ण बुरकदे । जो घाव में खुजली की अधिकता और ललाई हो तो जोक लगाकर रुधिर निकाल अथाऽतो बालग्रहप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः । डले । गदक्टटकरोग में पित्त ब्रणके समा- अर्थ-अब हम यहांसे बालग्रह प्रतिषेध न चिकित्सा करना उत्तम है। - नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे।
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(७३६)
अष्टांगहृदय ।।
.
बारहप्रकार के ग्रह। चबाता है, जगता रहता है, रोता है, कू"पुरागुइस्य रक्षार्थ निर्मिताः शूलपाणिना जता है, स्तन पीना छोडदेता है, उसका मनुष्यविग्रहापंच सप्त स्त्रीविग्रहा ग्रहाः १ स्वर बिगडजाता है, नखसे अकस्मात् अपने - अर्थ-पुरातन कालमें शूलपाणि शिवजी |
और घायके अंगको खुरच डारता है । ने अपने पुत्र स्वामिकार्तिक की रक्षाके
स्कंद गृहीत के लक्षण । . निमित्त बारह ग्रह निर्माण कियेथे, उनमें से तकनयनस्रावी शिरो विक्षिपते मुहुः । पांचग्रह मनुष्यरूप और सात स्त्री रूप थे । हकपक्षः स्तब्धांगः सस्वेदो नतकंधरः ६ ब्रोके नाम ।
| दंतखादी स्तनद्वंपी त्रस्यन् रोदिति विस्वरः स्कंदोविशाखोमेषाख्यः श्वग्रहः पितृसंशितः | वक्रवक्त्रो घमेल्लाला भृशमूर्ध्व निरीक्षते शकुनिः पूतना शीतपूतना दृष्टिपूतना २ वसासृग्गंधिरुद्विग्नो बद्धमुष्टिशकृच्छिशुः । मुखमंडलिका तद्वद्रेवती शुष्करेवती। । चलितैकाक्षिगंडभ्रः संरक्तोभयलोचनः ८ __ अर्थ--स्कंद, विशाखा, मेधाख्य, श्वग्रह, | स्कंदातस्तेन वैकल्यं मरणं वा भवेध्रवम्
और पितृग्रह ये पांच पुरुषाकृति थे और श. ___ अर्थ-जो बालक स्कंदग्रह के झपाटे में कुनि, पूतना, शीतपूतना, दृष्टिपूतना, मुखमं आताहै, उसी एक आंखसे पानी निकला डलिका, रेवती और शुष्करेवती ये सात ग्रह करता है, बार बार सिरको इधर उधर फेंनारीरूप थे।
कताहै, वह पक्षाघात, अंगकी जकडन, पसी- ग्रहों द्वारा ग्रहणीके लक्षण।
| नों की अधिकता से पीडित होताहै, उसके तेषां ग्रहीष्यतां रूपं प्रततं रोदनं स्वरः।। कंधे झुक जाते हैं, दांतों को किटकिटाताहै . अर्थ-बालक को जव ग्रह ग्रहण करने स्तन पीना छोड देताहै, डरताहै, रोताहै, की इच्छा करते हैं वह वालक निरंतर रोने | उसके स्वरमें विकृति होजाती है, मुख टेढा लगता है उसको ज्वर होता है । पडजाता है, लार बहुत डालताहै, ऊपर को .. ग्रहों का सामान्यरूप । बहुत देखता है, उसके देहसे चवी और सामान्य रूपमुत्रासजृभाम्रक्षेपदीनताः। । रुधिर की सी गंध आने लगती है, उद्विग्न फेनस्रावौ दृष्टयोष्ठदतदंशप्रजागराः ॥४॥ होजाताहै, मुट्ठी बांध लेताहै उसका दस्त रोदनं कूजनं स्तन्यविद्वेषः स्वरवैकृतम् ।
रुकजाता है । उसकी एक ओर की आंख नखैरकस्मात्पारतः स्वधाव्यंगविलेखनम् । अर्थ-ग्रहों के आक्रमण का सामान्य
गंडस्थल और भृकुटी कांपने लगती है, दोनों रूप यहहै कि जब ग्रह बालक पर झपटते
नेत्र लाल होजाते हैं । इस रोगमें अत्यन्त हैं तब बालक भयत्रस्त होता है, जंभाई
विकलता और मरण निश्चय होताहै ।
विशाखागृहीतके लक्षण । लेता है, भृकुटियों को इधर उधर चलाता है, कातर होता है, झाग डालता है, उंची।
| संज्ञानाशो मुहुः केशलुंचनं कंधरानतिः ९
विनम्य जुंभमाणस्य शकृन्मृत्रप्रवर्तनम् । दृष्टि करके देवता है, ओष्ठ और दांतों को फेनोदमनमर्धाक्षहस्तभ्रपानर्तनम् १०
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अ.२
उत्सरस्थान भाषारीकासमेत ।
(७३७ )
-
-
-
स्तनस्वजिलासंदशसरभज्वरजागराः। धावनं विद सगंधत्वं क्रोशनं श्वानवच्छुनि पूयशोणितगंधश्व स्कंदापस्मारलक्षणम् । अर्थ-कांपना,रोमांच,खडे होना,स्वेदन,
अर्थ-निस बालक पर विशाख अक्र- नेत्रों को बन्द करलेना, वहिरायाम, जीभ मण करता है उसके होश हयास जाते काटना, कंठ के भीतर कबूतर की सी रहते हैं,वह बार बार केशों को खंचता है, कजन, धावना, देह से विष्टा की सी गंध कंधों को झुकाता है, जंभाई लेता हुआ निकलना, और कत्तेकी तरह कय कय ककंधों को झुकाकर मलमूत्र का त्याग करता । रना, ये सब लक्षण श्वग्रह से पीडित बालक है, झाग डालता है, सिर आंख, हाथ के होते हैं। भकुटी और पांवों को नचाता है, माता के पितृग्रहगृहीत के लक्षण | .. स्तन और अपनी जिह्वा को काटता है। रोमहर्षो मुहस्त्रासः सहसा रोदनं ज्वरः। सरंभ, ज्वर, निद्रानाश, राध और रुधिर कासातीसारवमथुजुंभातशवगंधताः। की सी गंध ये सब उपद्रव स्कंदापस्मार से | अंगेवाक्षेपविक्षेपः शोषस्तंभाविवर्णताः१७ आकांत बालक के उपस्थित होते हैं। मुष्टिबंधः नुतिश्चाणोलिस्यस्युःपितृग्रहे मेषग्रहीत के लक्षण ।
अर्थ-रोमांच खडे होना, बार बार डर आध्मानं पाणिपादस्यस्पंदनं फेननिर्वमः ।। तृण्मुष्टिबंधातीसारस्वरदन्यविवर्णताः १५
कर उछल पडना, अकस्मात् रोपडना, कूजनं स्तनन छर्दिः कासहिध्माप्रमागराः
ज्वर, खांसी, अतिसार, वमन, जंभाई,तृषा, मोष्ठदशांगसंकोचस्तंभरस्तामगंधताः १३ | मुर्देकी सी गंध, देहका इधर उधर फेंकना, का निरीक्ष्य हसन मध्ये विनमन ज्वरः। शोष, स्तब्धता, विर्वणता, मुट्ठी बांधना, मूकनेत्रशोफश्च नैगमेषग्रहाकृतिः १४ ।
आंखोंसे पानी बहना । ये सब लक्षण पितृअर्थ- पेट पर अफरा, हाथ पांव और मुव का फडकना, झाग डालना, तृषा, मुट्ठी
ग्रह के आक्रमण से होते हैं। बांधना, अतीसार, स्वरमें दीनता, विवर्णता शकुनिग्रह के लक्षण । अत्रकूजन, बादल की गर्नकासा शब्द,वमन,
| स्तांगत्वमतीसारो जिव्हातालुगले प्रणाः खांसी, हिचकी, निद्रानाश, ओष्ठदंशन,
स्फोटाः सदाहरुकूपाकाःसंधिषु स्युःपुनःपुनः
निश्यन्हि प्रावलीयंतोपाकोवक्त्रेगुदेऽपिवा अंगसंकोच, स्तब्धता, देहमें बकरे की सी
( का सा | भयं शकुनिगंधत्वं ज्वरश्च शकुनिग्रहे। गंध वा आमगंध, ऊपर को देखना,हंसना,
| अर्थ-देहमें शिथिलता,अतीसार,जिवा देहके मध्यभाग का झुकजाना, ज्वर, मूच्छो,
| तालु और गाल में घाव, दिनरात दाह एक आंख में सूजन ये सब उपद्रव नैगमेषग्रह के आक्रमण में उपस्थित होते हैं।
वेदना और पाक से युक्त फोडों का संधियों श्वग्रहगृहीत के लक्षण ।
| में बार बार उत्पन्न हो है। कर मिटजाना, कंपो हृषितरोमत्य स्वेदश्चक्षुर्निमीलनमा मुखका पकना, गुदाका पकना, भय दहमें पहिरायामन जिव्हावंशोऽतः कंठकजनम | पक्षियों की सी गंध, और ज्वर ये सब
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(७३८)
__ अष्टांगहृदय ।
म. ३
लक्षण शकुनि नामक ग्रह के द्वारा आक्रमण | छली की सी वा खट्टी गंध आना ये सब होने पर उपस्थित होते हैं।
लक्षण अंधपूतना, के आक्रमण में होते हैं। पूतनाग्रह के लक्षण । दृष्टिपूतना भी अंधपूतना का दूसरा नाम है। पूतनायां वामिः कंपस्तंद्रा रात्रौ प्रजागरः ।
मुखमंडिताके लक्षण । हिमाध्मानं शकुन्द्रेदः पिपासा मूत्रनिग्रहः | मुखमंडितया पाणिपादस्य रमणीयता। सस्तहष्टांगरोमत्वं काकवत्पूतिगंधता २१ सिराभिरसिताभाभिराचितोदरता ज्वरः । - अर्थ-वमन, कंपन, तंद्रा, रातमें नींद | अरोचकोऽगग्लपनं गोमूत्रसमगंधता । न आना, हिचकी,अफरा,मलका फटजाना, ____ अर्थ-हाथ पावों में रमणीयता, काली . तृषा का वेग, मत्रका कम होना, देहमें शि- काली सिराओं द्वारा पेटका ब्याप्त होजाना थिलता, रोमांच खडे होना और कौए के ज्वर, अरोचक, अंगग्लानि, और देहमें से समान सडी हुई गंधका देहसे निकलना ये गोमूत्र की सी गंध आना ये सब लक्षण सब लक्षण पूतना रोगमें उपस्थित होतेहैं । । मुखमंडिता के आक्रमण के होते है ।
शीतपूतना के लक्षण । व रेवती के लक्षण । शीतपूसनया कंपो रोदनं तिर्यगीक्षणमवेत्यां श्यावनीलत्वं कर्णनासाक्षिमर्दनम् । तृष्णांवकूजोऽतीसारो वसायद्वितगंधता। कासहिध्माक्षिविक्षेपवक्रवक्त्रत्वरक्तताः । पार्श्वस्यैकस्य शीतत्वमुष्णत्वमपरस्य च ।
वस्तगंधो ज्वरः शोषः पुरीषं हरितं द्रवम् __ अर्थ-कांपना, रोना, तिरछी, दृष्टि से
। अर्थ-देहका श्यात वा नीलवर्ण होना, देखना, तृषा, अंत्रकूजन, असिार, चर्वीके
कान नाक और आंखोंका भर्दन, खांसी समान संडी हुई गंध, एक पसवाडे में ठंडा- हिचकी, आंखों का इधर उधर फेंकना, मुख पन और दूसरे में गरमाई ये सब लक्षण
का टेढापन, ललाई, देहमें बकरे की सी शीतपूतना के आक्रमण में होते हैं। गंध आना, ज्वर, शोषं, मलका हरा और
अंधपूतना के लक्षण । और पतला होजाना । ये सब रेवतीनामक अधपूतनया छर्दिवरः कासोऽल्पवन्हिता प्रहके आक्रमण के लक्षण हैं। . वर्चसो भेदवैवर्ण्यदौर्गध्यान्यंगशोषणम् ।। शकरेवती के लक्षण । रष्टिसादोऽतिरुवंडूपोथकीजन्मशून्यताः । हिमाद्वेगस्तनद्वेषवैवर्ण्य स्वरतीक्ष्णता।
जायते शुष्करेवत्यां क्रमात्सर्वांगसंक्षयः । षेपथुर्मत्स्यगंधित्वमथवा साम्लगंधिता ।
अर्थ-शुष्करेवतीके आक्रमण से बालक अर्थ-वमन, ज्वर, खांसी, मंदाग्नि,
का संपूर्ण देह धीरे धीरे सूखता चलाजाताहै | मलका फटना, विवर्णता, दुर्गधि, देहका
ग्रहोंके असाध्य लक्षण । सूखना, दृष्ठिमें शिथिलता, अत्यन्त वेदना,
केशशातोन्नविद्वेषः स्वरदैन्यं विवर्णता २९
रोदनं गृध्रगंधित्वं दीर्घकालानुवर्तनम् । . खुजली, पोथकी (नेत्ररोग), देहमें सुन्नता, थयो वत्ता यस्य नानाविधं शकृत् हिचकी, उद्वेग, स्तनपान न करना, विवं. जिव्हायानिम्नतामध्येश्यावंतालुचतं त्यजेत् र्णता, स्वर में तीखापन, कांपना, देहमें म- | अर्थ-ग्रहोंसे पीडित होनेपर जिस बा
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अ० ३
( ७३९ )
अर्थ-ज - जब बालक वा बडा हिंसात्मक प्रहों द्वारा आक्रमित होता है तब उसकी नाक में से जल बहने लगता है । जिह्वा में घाव हो जाते हैं, बुरी तरह कराहता है, अपने को असुखी कहने लगता है, नेत्रोंमें जल भरता है, विवर्णता, बोली में झीनापन, और दुर्गंधि पैदा हो जाती है क्षीण होजाता है, अपने मलमूत्र को आपही कुरेदता है निंदित नहीं समझता है । क्रुद्ध हो दोनों हाथों को उठाकर अपने तई वा औरों को मारता है, इसी तरह शस्त्र वा लाठी से भी करने लगता है । जलती हुई अग्नि में घुस पडता है, पानी में डूबता है, कुए में गिरता है या और भी ऐसे ही काम करता है, तृषा, दाह, प्रमोह, से पीडित होता है । राधकी वमन करता है । और संपूर्ण स्रोतों द्वारा रुधिर निकलने लगता है । ऐसे अरिष्ट लक्षणों से आक्रान्त रोगी को त्याग देना चाहिये ।
शुष्करेवती द्वारा बध |
|
"
भुजtarsi बहुविधं यो बालः परिहीयते तृष्णागृहीतक्षामाक्षी हंति तं शुष्करेवती । अर्थ- जो बालक अनेक प्रकार के भो जन करते करते भी क्षीण होता चला जाता है और प्यासकी अधिकता से जिसकी आंखों पर क्षीणता होती चली जाती हैं उस बालक को शुल्करेवती नामक ग्रह मार डालता है ।
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खाता
वर्ण में
देहमें
aah बाल झडजाते हैं, अन्न नहीं है, स्वर में झीनापन और शरीर के विकृति होजाती है, रोता है, जिसके fra की सी गंध आने लगती है, जो रोग बहुत पुराना पडजाता है, जिसके उदर में गोल गोल गांठ पैदा हो जाती हैं, विष्टा का रंग अनेक प्रकार का होजाता है जीभ बीचमें नीची पडजाती है और तालु श्याववर्णता होजाती है । ऐसा बालक असाध्य होजाता है ।
ग्रहग्रहण के लक्षण । हिंसारत्यर्थनाकांक्षा ग्रहणकारणम् । अर्थ-हिंसा, रति और अर्चनाकांक्षा इन तीन कारणों से ग्रह बालक पर आक्रमण किया करते हैं ।
रतिकामी ग्रहों के लक्षण । रहः स्त्रीरतिसंलापगंधस्रग्भूषणप्रियः ३७ दृष्टः शांतश्चदुःसाध्यो रतिकामेन पीडितः
माला
अर्थ - रतिकामी ग्रहों से पीडित रोगी एकान्त में स्त्रियों के साथ रमण और वार्तालाप में प्रवृत होता है । सुगंधित द्रव्य, और आभूषणादि से प्रेम रखता है, प्रफुल्लित चित्त और शांत रहता है । रतिकाम से पीडित रोगी दुःसाध्य होता है ! अर्चाकामी ग्रहों के लक्षण | दीनः परिमृशेद्वक्त्रं शुष्कोष्टगलतालुकः । दाहमोहान् पूयस्य छर्दनं च प्रवर्तयेत् शंकितं वीक्षतेरोति ध्यायत्यायातिदनि ताम् एकं च सर्वमार्गेभ्यो रिष्टात्पत्तिश्च तं त्यजेत् | अन्नमन्नाभिलाषेऽपि दत्तं नाति बुभुक्षते ।
हिंसात्मक ग्रहके लक्षण | सत्र हिंसात्मकेवालोमहान वास्तुतनासिकः । क्षतजिह्वः क्वणेद् घाढमसुखी साधुलोचनः दुर्वणों हीनवचनः पूतिगंधिश्व जायते । क्षामो मूत्रपुरीषं स्वं मृङ्गाति न जुगुप्सते । हस्तौ चोयम्यसंरब्धोहंत्यात्मानं यथापरम् तद्वश्च शस्त्र काष्ठाद्यैर वा दीप्तमाविशेत् । अप्सु मत्पतेत्कूपे कुर्यादन्यच्च तद्वियम् ।
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(७४०)
अष्टांगहृदय।
गृहीतं बलिकामेन तं विद्यात्सुखसाधनम् ।। में रक्खे । भूति औषध के पत्ते, फूल और __अर्थ-जब ग्रह अपनी पूजा कराने की | वीज. अन्न तथा सरसों उस घर में बखेर कामना से आक्रमण करते हैं तब बालक देनी चाहिये । राक्षसों का नाश करनेवाला दीन होकर अपने हाथों से मुखको मलता है तेल दीपक में भरकर जलावे जिससे पापों उसके ओष्ट, तालु और कंठ सूख जाते हैं।
का क्षय हो । रोगी का परिचारक स्त्रीसंगम शंकित चित्त होकर चारों ओर देखने लगता
मद्यपान, मांसभक्षण का परित्याग कर देवे। है, रोता है, ध्यान में बैठ जाता है, दीनता
पुराना घी देह पर लगाकर खरैटी, नीमके प्राप्त कर लेता है, भोजन की इच्छा होनेपर |
पत्ते, जैती, अमलतास, इन द्रव्यों से सिद्ध भी खाता नहीं है ऐसा रोगी सुखसाध्य होताह किये हुए सुहाते हुए गरम पानी से बारक उक्तरोगों की चिकित्सा।
| को स्नान कगवै अथवा नीम, सौनापाठा, इंतुकामं जयेद्धोमैः सिद्धमंत्रप्रवर्तितैः ४० इतरौ तु यथाकाम रतिबल्यादिदानतः ।।
जामन, बरना, कटतृण, ब्राह्मी, ओंगा, अर्थ-हिंसात्मक ग्रहों को वेदोक्त मंत्रों द्वा
पाटला, मीठा सहजना, काकजंघा महाश्वेत, रा होमादि से जय करे । तथा रतिकामी कैथ, बटादि दूधके वृक्ष कदव और कंजा अर्चाकामी होको यथाभलषित रतिप्रदान | इन द्रव्यों के जल से स्नान करावे । तत्पऔर बलिप्रदानादि से जीतने का उपाय करे । श्चात् गेंडा, व्याघ्र, सर्प, सिंह, रीछ, इनके धूपन विधि।
चमडों में घी मिलाकर धूनी देवै । अथ साध्यग्रहं बालं विविक्ते शरणे स्थितम् |
अन्य धूप । त्रिरह्नः सिक्तसंसृष्टे सदा सनिहितानले ।।
पूतीदशांगीसिद्धार्थवचाभल्लातदीप्यकैः ४७ विकीर्णभूतिकुसुमपत्रबीजान्नसर्षपे ४२ ॥ | सकुष्ट स्त
| सकुष्टैः सघृतै—गः सर्वत्रहविमोक्षणः ।।
र रक्षाध्नतैलज्वलितप्रदीपहतपाप्मनि। अर्थ-कंजा, दशांग, सरसों, बच भि. व्यवायमद्यपिशितनिवृत्तपरिचारके ॥ ४३ लावा, अजवायन और कूठ इनमें घी मिला पुराणसर्पिषाभ्यक्तं परिषिक्तं सुखांबुना। | कर धूप देने से संपूर्ण ग्रहों की शांति हो साधितेन पलानिंबवैजयंतीनृप्रदुमैः ४४ ॥ जाती है। पारिभद्रककयगजंबूवरुणकतृणैः ।।
दशांग धूप। कपोतवंकापामार्गपाटलामधुशिय॒भि ४५॥ वच.हि विडंगानि सैंधवं गजपिप्पली ४८ काफजंघामहाश्वेताकपित्थक्षीरवादपैः। सकइंबकरंजैश्च धूपं सातस्य चाचरेत् ॥
| पाठा प्रतिविषाव्योष दशांगः कश्यपोदितः द्वीपिव्याघ्राहिसिंहह्मचर्मभिघृतमिश्रितैः।
__ अर्थ-बच, हींग, बायविडंग, सेंधा अर्थ- जो बालक साध्य ग्रहों से आक्रांत
नमक, गनपीपल, पाठा, अतीस और त्रि.
| कुटा इन दस द्रव्यों की धूनी को दशंग हो उसे जनशून्य स्थान में रखना चाहिये। उस घर में प्रतिदिन तीन बार प्रोक्षण और
कहते हैं, यह कश्यप की बनाई हुई है ।
__ अन्य धूप । सफाई करनी चाहिये । सदा अग्नि पास ! सर्षपा निधपत्राणि मूलमश्वखुरा वचा ।
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१०३
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
भूर्जपत्रं घृतं धूपः सर्वग्रहनिवारणः । अर्थ- सरसों, नीम के पत्ते, मूल, गिरिकर्णिका, बच, और भोजपत्र इनको कूट कर घी में मिलाकर धूनी देने से सम्पूर्ण ग्रहों की शांति होजाती है ।
अन्य प्रयोग |
अनंताम्रास्थितगरं मरिचं मधुरो गणः ५० श्रृगालविन्ना मुस्ताच कल्कितैस्तैर्घतं पचेत् दशमूलरसक्षीरं युक्तं तद्ग्रह जित्परम् ५१ ॥
अर्थ - अनंतमूल, आम की गुठली, तगर, कालीमिरच, मधुरगणोक्त द्रव्य, प्रश्नपर्णी और मोधा इनका कल्क तथा दशमूल का रस और दूध इन सब के साथ में पकाया हुआ घी पान कराने से संपूर्ण ग्रह शांत हो जाते हैं । यह बालक के लिये अच्छा पथ्य है ।
अन्य घृत ।
रास्त्राध्वंशुमतीवृद्धपञ्चमूलवचाघनात् । क्वाथें सर्पिः पचेत्पिष्टैः सारिवाव्योषाचेत्रकैः पाठाविडंगमधुकपयस्याहिंगुदारुभिः । सग्रंथिकैः सेंद्रयवैः शिशोस्तत्सततं हितम् सर्वरोगग्रहहरं दीपनं बलवर्णदम् ।
अर्थ - रास्ना, बाला, शालपर्णी, बृहत्पंन मूल, बच और नागरमोथा इनका काढा करले । तथा सारिवा, त्रिकुटा, चीता, पाठा वायविडंग, मुलहटी, दुद्धी, हींग, देवदारु पीपलामूल और इन्द्रजौ इनका कल्क मिला कर पाकोक्त विधिसे घृत को पकाबै । वालक के लिये यह घृत निरंतर हितकारी है, संपूर्णरोगों का नाश करने वाला है, अग्नि संदीपन है तथा बल और वर्ण को बढाने
बाला है
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( ७४१ )
अन्य घृत । सारिवासुरभीब्राह्मी शंखिनीकृष्ण सर्षपैः ५४ वचाश्वगन्धासुरसायुक्तैः सर्पिर्विपाचयेत् । तन्नाशेयवग्रहान्सवम्पान नाभ्यं जनेन च५५ अर्थ - सारिवा, रास्ना, ब्राह्मी, शंखनी, काली सरसों, बच, असगंध और तुलसी इनके काढ़े के साथ पकाया हुआ घी पान और अभ्यंजन द्वारा प्रयुक्त किये जानेपर संपूर्ण ग्रहों को शांत करदेता है । अन्य धूप ।
गो संगालोम बालाहिनिर्मोक वृषदंशविट् । निवपत्राज्यकटुका मदनं बृहतीद्वयम् ५६ ॥ कार्पासास्थिवच्छा गरोमदेवावा सर्वपम् । मयूरपत्रश्रीवासं तुषकेश सरामठम् ५७ ॥ मृद्भांडे वस्तमूत्रेण भावितं श्लक्ष्ण चूर्णितम् धूपनार्थे हितं सर्व भूतेषु विषमे ज्वरे ५८ ॥
अर्थ - गौ का सींग, रोम, पूंछके बाल, सर्पकी काचली, बिल्ली का बिष्टा, नीमके पत्ते, घी, कुटकी, मेनफल, दोनों कटेरी, बिनौला, जौ, बकरी के रोम, देवदारु, सरसों, मयूरपुच्छ, सरलकाष्ठ, वहेडा, वालछड, हींग, इन सब द्रव्यों को एक मृतिका के पात्र में रखदेवे और वकरे के मूत्रकी भाबना देकर सुखाकर महीन पीसकर धूप देवे इससे संपूर्ण ग्रहविकार और विषम ज्वर दूर हो जाते हैं ।
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भूतविद्या के द्रव्य ! घृतानि भूतविद्यायां वक्ष्यन्ते यानि तानि च युज्यात्तथा बाल होमं स्त्रपनं मंत्रतंत्रवित् ५९ अर्थ - भूतविद्या में जो जो घृत कहे गये हैं वे सब घृत, तथा वलिदान, होम, स्नानादि का प्रयोग मंत्र तंत्रका जानने बाला करे ।
€
और
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(७४२)
अष्टांगहृदयं ।
स्नानार्थ जल।
__ अर्थ-जिस व्यक्ति में अमानुषी ज्ञान, पूतीकरजस्वपत्रं क्षौरिभ्यो बर्बरादपि। विज्ञान, चाणी, चेष्टा, बल और पौरुष दि. तुबीविशालारलु काशमीधेिल्वकपित्थकाः॥
खाई दें, उसीको भूतग्रह कहते हैं, ये भूत उत्क्वाथ्य तोयं तद्रात्री बालानां मपनम्
शिवम् ।
| विज्ञान के सामान्य लक्षण हैं। ___ अर्थ-पूतिकरंज की छाल और पत्ते,
भूतों के भेद। दूधवाले वटादि वृक्षों के छाल और पत्ते, भूतस्य रूपप्रकृतिभाषागत्यादिचेष्टितैः ।
यस्यानुकारं कुरुते तेनाविष्टं तमादिशेत् तिलवण के छाल और पत्ते, तूंवी, इन्द्रायण
सोऽष्टादशविथो देवदानवादिविभेदतः । पाठा, शमी, वेल और कैथ इनको डाल कर
अर्थ-जो व्यक्ति जिस भूत के रूप, जल औटावै और इस जलसे बालक को
प्रकृति, भाषा, और गति आदि चेष्टाओं रात्रि के समय स्नान करावै ।
का अनुकरण करता है, उसको उसी भूत बालरोग में उपचार विधि। से आविष्ट जानना चाहिये । ये भूत देव अनुवन्धान्यथा कच्छंग्रहापायेप्युपद्रवान् ।
| दानवादि भेद से अठारह प्रकार के होते हैं। वालामयनिषेधोक्तभेषजैः समुपाचरेत् ,, ॥ अर्थ-ग्रहों के अनुबंध के अनुसार जै
भूतोनुषंग में हेतु। सा कष्टहो तथा ग्रहों के मोक्षणमें जो जो
हेतुस्तदनुषक्तौ तु सद्यः पूर्वकृतोऽथवा
। प्रज्ञापराधः सुतरां तेन कामादिजन्मना। उपद्रव हों उनको वालामय प्रतिषेधोक्त
लुतधर्मव्रताचारः पूज्यानप्यतिवर्तते औषधियों द्वारा दूर करनेका यत्नकरे ।। तं तथा भिन्नमर्याद पापमात्मोपघातिनम् । इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा
देवादयोप्यनुघ्नंति महाश्छिद्रप्रहारिणः टीकान्वितायां उत्तरस्थाने बालग्रह
____ अर्थ-भूताभिपंग में इस जन्म के हाल प्रतिषेधोनाम तृतीयोऽध्याय.३
| के किये हुए वा पूर्व जन्म के किये हुए
प्रज्ञापराध ही हेतु होते हैं । कामक्रोनादि इति कुमारतंत्रम् ।
जन्य प्रज्ञापराध से मनुष्य धर्म, व्रत और
| श्राचार से भ्रष्ट होकर पूज्य व्यक्तियों का चतुर्थोऽध्यायः । भी उलंघन कर देता है । अतएव उस
मर्यादा से भ्रष्ट, पापाचारी, तथा आत्मोप. अथाऽतो भूतविशानं व्याख्यास्यामः ॥
घाती को छिद्रप्रहारी देवादिक मारडालते . अर्थ-अब हम यहां से भूतविज्ञानीय | हैं । छिद्रप्रहारी उसे कहते हैं जो किसी नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
पागादि कर्म के मौके को देखकर प्रहार भूतग्रह के लक्षण ।
करते हैं। लक्षयेशानविज्ञानवाक्चेष्टायलपौरुषम् । ग्रह के ग्रहण में हेतु । पुरुषेऽपौरुषं यत्र तत्र भूतग्रहं वदेत् छिद्रं पापक्रियारंभापाकोऽनिष्टस्य कर्मणा ।
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(७४३)
एकस्य शून्येऽवस्थानं श्मशानादिषु | चादिग्रह कृष्णपक्ष की नवमी और द्वादशी
वा निशि ॥ ६ ॥ को तथा पर्वोके दिन, पितृग्रह दशमी और दिग्वासस्त्वं गुरोनिंदा रतेरविधिसेबनम्। । अशुचेर्देवता दिपरसूतकसंकरः ॥ ७ ॥
अमावास्याको तथा इनसे अतिरिक्त और होममंत्रबलीज्यानां विगुणं परिकर्म च।। गुरुवृद्धादिग्रह अष्टमी और नवमी के दिन समासादिनचर्यादिप्रोक्ताचारव्यतिक्रमः । मनुष्य पर आक्रमण करते हैं । ये सब ग्रह अर्थ-पापकिया के आरंभका नाम छिद्र
प्राय. संधिकाल में आक्रमण किया करते हैं। है, यह अनिष्ट कमों का पाक अर्थात् फल
देवगृह गृहीत के लक्षण । है । निर्जन स्थान में रहना, रात्रिमें मरघट
फुल्लपोपममुखं सौम्यदृष्टिमकोपनम् । में वास करना, नग्न फिरना, गुरुनिंदा | अल्पवाक् स्वेदविण्मूत्रं भोजनानभिलाषिणम् विधिरहित स्त्रीसंगम, अपवित्र अवस्था में
देवद्विजातिपरमं शुचिसंस्कृतवादिनम्
मीलयंतं चिराने सुरभि वरदायिनम् देवादि का पूजन, पराये सूतक में मिला |
शुक्लमाल्यांवरसरिच्छैलोञ्चभवनप्रियं ॥ रहना, होम, मंत्र, वलि, और यज्ञों को
। अनिद्रमप्रधृष्यं च विद्याद्देववशीकृतम् ॥ उलटी रीति से करना, तथा दिनचर्या में . अर्थ-जिसे देवगण प्रहण करते हैं उस कहे हुए आचारों से विपरीत कर्म । ये सब का मुख विकसित कमलके समान होजाता प्रहों द्वारा गृहीत होने के हेतु हैं ।
है, उसकी दृष्टि सौम्य और स्वभाव कोपभूतगृहण का काल I
रहित होता है । कम वोलना, कम पसीने, गृहणति शुक्ल प्रतिपत्रयोदश्योः सुरा नरम् ।
| थोडा मल, थोडा मूत्र, भोजन में अरुचि, शुकत्रयोदशीकृष्णद्वादश्योदानवा ग्रहाः ।
देवता और ब्राह्मणों में परम भाक्त, पवित्र गंधर्यास्तुचतुर्दश्यां द्वादश्यां चोरगाःपुनः पंचम्यां शुक्लसप्तम्येकादश्योकादयोस्तु ।
| संस्कृत बाणी बोलना, बहुत देरतक दोनों धनेश्वराः ॥ १० ॥ नेत्र बंद रखना, शरीर से सुगंध निकलना शुक्लाष्टपंचमीपूर्णमासीषु ब्रह्मराक्षसाः। वर दैना, सफेद फूलमाला धारण करना, कृष्णे रक्षः पिशाचाद्या नवद्वादशपर्वसु
नदी, शैल और ऊंचे मकान प्रिय लगना, दशामावास्ययोरष्टनवम्योः पितरोपरे। गुरुवृद्धादयः प्रायः कालं सध्यासु लक्षयेत्
निद्रानाश और पराभव न होना । ये सब अर्थ-देवग्रह शुक्लपक्ष की प्रतिपदा और | लक्षण देवग्रहगृहीत के होते हैं । त्रयोदशी को, दानवग्रह शुक्लपक्ष की त्रयो.
दैत्यग्रह के लक्षण । दशी और कृष्णपक्ष की द्वादशी को, गंधर्व
जिह्मदृष्टिं दुरात्मानं गुरुदेवद्विजद्विषम् ॥
निर्भयं मानिनं शूरं क्रोधनं व्यवसायिनम्॥ चतुर्दशी और द्वादशी को, सर्पग्रह पंचमी
रुद्रः स्कंदोविशाखोऽहमिंद्रऽहमितिवादनम् को, यक्षग्रह शुक्लपक्षकी सप्तमी और एका- सुरामांसरुचि विद्यात् दैत्यग्रहगृहीतकम् ॥ दशीको, ब्रह्मराक्षसग्रह शुक्लपक्षकी अष्टमी, | अर्थ-जिस मनुष्य पर दैत्यग्रह आक्रपंचमी और पूर्णिमाको, गक्षस भौर पिशा- | मण करते हैं, उसकी दृष्टि टंदी हो जाती है
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( ७४४) अष्टांगहृदय ।
अ०४ और वह दुरात्मा, गुरुदेव और द्विजद्वेषी, | रहस्यभाषिणं वैद्यद्विजातिपरिभाविनम् । निर्भय, मानी, शूर, क्रोधी, व्यवसायी, | अल्परोष हतगति विद्याद्यक्षगहीतकम् । मद्यपी और मांसभक्षी होजाता है, तथा ___ अर्थ-आंखों में पानी भरना, आंखों का अपने को रुद्र, स्कंद, विशाख और इन्द्र | भयान्वित और लाल होना, शरीर में सुगंकहने लगता है ।
धि आना, तेज होना, नाचना, बातचीत ___ गंधर्वग्रह के लक्षण । | कहना सुनना, गाना, स्नान करना, माला धास्वाचारं सुरभि दृष्टं गीतनर्तनकारिणम् ।। रण करना, चंदन लगाना, मछली के मांस स्नानोद्यानरुचि रक्तवनमाल्यानुलेपनम् ॥ | में रुचि, हर्षित होना, संतुष्ट होना, अव्यय शंगारलीलाभिरतं गंधर्वाध्युषितं वदेत् ।
बल धारण करना, हाथ आगेको बढाकर अर्थ-गंधर्व प्रहसे आक्रांत मनुष्य अपने कर्तव्यकर्ममें परायण, सुगंधि युक्त प्रफुल्लित,
कहना कि किसको क्या दूं, गूढ बातोंका क. गाने नाचने में तत्पर, न्हाने में रुचि, रखने
हना, वैद्य और ब्राह्मण का तिरस्कार करना, वाला बाग बगीचे की सैर में दत्त चित्त. अल्पक्रोध करना, और सीधीगति से न चलाल वस्त्र लाला माला और रक्तचंदन इनका लना ये सब लक्षण यक्षग्रह के आक्रमण में धारण करना, शंगार करना, क्रीडा में तत्पर
होते हैं। इन लक्षणों से युक्त हो जाता है ।
ब्रह्मराक्षस के लक्षण । . सर्वग्रह के लक्षण ।
हास्यनृत्यप्रियं रौद्रचेष्टं छिद्रप्रहारिणम् । रकाशं क्रोधनं स्तब्धष्टि वक्रगति चलम। आक्रोशिमं शीघ्रगति देवद्विअभिषगद्विषम् श्वसंतमनिशं जिहालालिनं सृकिर्णालिहम् ।
आत्मानं काष्टशस्त्राद्यैर्नतं भोःशब्दवादिनम् प्रिय दुग्धगुडस्रानमधोवदनशायिनम् २०॥
शास्त्रवेदपठं विद्याद् गृहीतं ब्रह्मराक्षसैः । उरगाधिष्ठितं विद्यात्रस्यंत चातपत्रतः। अर्थ-ब्रह्मराक्षस से आक्रांत मनुष्य हैं___ अर्थ-लाल आंख, क्रोधी स्वभाव, दृष्टि सने लगता है, नाचनेलगता है, उसकी में स्तब्धता, चालमें टेढापन, चंचलता, नि | चेष्टा भयानक होजाती है, तथा छिद्रप्रहारी, रंतर श्वासप्रश्वास, जीभसे लार गिरना, ओ. आक्रोशी, शीघ्रगामी, देवद्वेषी, द्विजद्वेषी, ष्ठ के अग्रभागों का चाटना, दूध और गुड | वैद्यद्वेषी, शस्त्र और लाठी से आत्मघाती, से प्रेम, स्तनमें रुचि, ओंधे मुख सौना, छ- | भो भो शब्दका उच्चारण, शास्त्र और त्री से डरना ये सब लक्षण उस मनुष्य के | वेदपाठ इन लक्षणों से युक्त होता है । होते हैं जो सर्वग्रहों से आक्रमित होता है । | पिशाचगृहीतके लक्षण । यक्षग्रह के लक्षण ।
सक्रोधाष्टिं भकुटिमुहंतं ससंभ्रमम् २६ विप्लुत प्रस्तरक्ताक्षं शुभगंधं सुतेजसम् । प्रहरंतं प्रधावंतं शब्दतं भैरवाननम् २७ प्रियनृत्यकथागीतस्नानमाल्यानुलेपनम् । | अन्नाद्विनापि बलिनं नष्टनिद्रं निशाचरम । मत्स्यमांसरुचिं दृष्टं तुष्टं बलिनमव्ययम् २२ | निर्लज्जमशुचिं शूरं करं परुषभाषणम् । चलितानकरं कस्मै किं वदामीति वादिनम् | रोषणं रक्तमाल्यस्त्रीरक्तमद्यामिषप्रियम् २८
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म. ४
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७४५)
दृष्ट्वा च रक्तपांसं वा लिहानंदशनच्छदौ फटी चीर लपेट लेना, तिनुकों की माला इसंतमन्नकाले च राक्षसाधिष्ठित वदेत् । पहनना, काठ के घोडे पर चढना, कूडे पर अर्थ-क्रोधयुक्त दृष्टि, संसंभ्रम भृकुटी |
बैठना,बहुत भोजन करना इन लक्षणों के होने को इधर उधर फेंकना,प्रहार करना,दौडना,
पर जान लेना चाहिये कि यह मनुष्य पि. शब्द करना, भयानक मुखबनाना, विना ! भोजन किये भी बलवान् रहना, नींद का
| शाच से गृहीत है। नाश होजाना, रात्रिमें घूमना,निर्लज्ज होना
प्रेतगृहीत के लक्षण ।
प्रेताकृतिक्रियागंधं भीतमाहारविद्विषम् । अपवित्र रहना, शूर, फर, कर्कष बोलना,
| तृणच्छिदं च प्रेतेन गृहीत नरमादिशेत् । क्रोधकरना, लाल माला, स्त्रीमें रत रहना, ।
___ अर्थ-प्रेतकी सी सूरत कर्म और गंध, मद्य और मांस से प्रेम रखना, रक्त और
भययुक्त मन, आहार से द्वेष, और तिनुके मांसको देखकर ओष्ठों को चाटना, भोजन
तोडना इन लक्षणों से युक्त मनुष्य प्रेत से करते करते हंसना ये सब लक्षण राक्षसों
गृहीत होता है। द्वारा आक्रांत होने पर होते हैं।
कूष्मांडग्रहीत के लक्षण । पिशाच के लक्षण । बहुप्रलापं कृष्णास्यं प्रधिलंपिनयायिनम् । अस्वस्थचितं नैका तिष्ठतं परिधाविनम् । शूनप्रलयवृषणं कूष्मांडाधिष्टितं वदेत् । उच्छिएनुत्यगांधर्वहासमद्यामिपप्रियम् ३० अथे- बहुत बकना, मुख पर कालापन, निर्भसनादीनमुखं रुदंतमनिमित्ततः। धीरे धीरे ठहरते हुए चलना, अंडकोषों पर नलिखतमात्मानं रूक्षध्वस्तवपुःस्वरम्३१)
स्तवपुःस्वरम् ३१ सूजन और लटक पडना ! इन सब लक्षणों भावेदयंत दुःखानि संबद्धाबद्धभाषिणम् । नप्रस्मृति शून्यरति लोलं ननं मलीमसमा से कूष्मांड गृहीत समझना चाहिये । रथ्यावेलपरीधानं तृणमालाविभूषणम् । निषादग्रहीत के लक्षण । भारोहंतं च काष्ठाश्वं तथा संकरकूटकम् । गृहीत्वा काष्ठलोष्टादि भ्रमंतं चीरवाससम् बहाशिनं पिशाचेन विजानीयादधिष्टितम्। नग्नं धावतमुत्रस्तदृष्टि तृणविभूषणम् । अर्थ-चित्तमें उद्विग्नता, एक जगह न
श्मशानशून्यायतनं रथ्यैकद्रुमसेविनम् ।
तिलानमद्यमांसेषु सततं सकलोचनम् । बैठना, इधर उधर दौडना, उच्छिष्ट भोजन, निषादाधिष्टितं विद्याद् वदंतं परुषाणि च. नाचना, गाना, हंसना,मद्य और मांसमें प्रे- अर्थ-लकडी वा मिट्टी को लेकर चाहै म रखना, धमकाने से दीनमुख होजाना,वि. जहां घूमना, फटे हुए चीर कतीर पाना, ना कारण रोना, नखोंसे शरीर पर लिखना, नंगा रहना, दौडना, भयान्वित दृष्टि होनों शरीरका रूक्ष और पतित हो जाना, मदा तिनुके पहरना, मरघट में वा सूने घर में दुख ही दुख की आयोजना, जो मनपै भाव | रहना, गलियों में घूमना, वृक्ष एर चढना, सोई बकना,ज्ञान नष्ट हो जाना, एकान्त अ. तिलान, मद्य और मांस पर निरंतर दृष्टि छा लमना, चंचलता, नंगारहना, मलीनता रखना और कर्कश शब्दों का बोलना ।
०४
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( ७४६ )
ये सब निषादगृहीत मनुष्य के लक्षण जा
चाहिये |
औकिरण के लक्षण | चितमुदकं चान्नं त्रस्तालोहितलोचनम् । उग्रवाक्यं च जानीयान्नर मौकिरणादितम् । अर्थ- जल और भिक्षा मांगते फिरना, त्रस्त और लोहित वर्ण नेत्रों का होना, उत्र वाक्य कहना ये सब लक्षण औकिरण गृहीत के होते हैं ।
अष्टांगहृदय |
वेतालगृहीत के लक्षण | गंधमाश्यरति सत्यवादिनं परिवेपिनम् । बहुच्छिद्रं च जानीयाद्वेतालेन वशीकृतम् ।
अर्थ- सुगंधित द्रव्य और फुटाओं का धारण करना, सत्य बोलना, कांपना, और बहुत से व्यसनों में आसक्त होना ये सब वेतालगृहीत के लक्षण हैं । पितृगृह के लक्षण |
अप्रसन्नदृर्श दीनवदनं शुष्कतालुकं । चलन्नयनपक्ष्माणं निद्रालु मंदपावकं ४१ अपसव्यपरधान तिलमांसगुडप्रियम् । स्खलद्वाचं जानीयात् पितृग्रहवशीकृतम् ।
अर्थ - दृष्टिमें अप्रसन्नता, मुखपर मलीनता, तालुका सूखना, नेत्र और पलकों का चंचल होना, निद्रालु न रहना, अग्निमांद्य, उलटे वस्त्र पहरना, तिल मांस और गुड का भोजन करना, मुख से टूटते हुए शब्द कहना, ये सब पितृग्रह गृहीतके लक्षण होते हैं ।
सामान्य लक्षण |
गुरुवृद्धार्यसिद्धाभिशापचितानुरूपतः । व्याहाराहारचेष्टाभिर्यथास्वं तदहं वदेत् अर्थ- - गुरु, वृद्ध, ऋषि और सिद्ध नो के अभिप्राय और चिंतानुरूप आहार विहार
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और चेष्टाओं द्वारा यथायोग्य ग्रहों के लक्षण जानने चाहियें ।
अ० ५
असाध्य लक्षण । कुमारवृंदानुगतं नामुद्धतमूर्धजम् । अस्वस्थ मनसं दैर्ध्यकालिकं तं ग्रह त्यजेत् अर्थ- ग्रह से आक्रांत मनुष्य यदि बा लकों के पीछे दौड़े, नंगा होजाय, मस्तक के बालों को खोलकर घुमावै, चित्तमें बेचैनी हो, और रोग देह में दीर्घ काल से व्याप्त हो गया हो तो जान लेना चाहिये कि यह रोगी असाध्य है | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां उत्तरस्थाने भूतविज्ञानीयो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
118 11
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पंचमोऽध्यायः
tersतो भूतप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः
""
अर्थ - अब हम यहां से भूनप्रतिषेध नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । अहिंसक भूतोंका उपाय 1 भूतं जयेदहिंसेच्छं जपहोमबलिव्रतैः ! तपः शीलसमाधानज्ञानदानद यादिभिः १ अर्ध-अहिंसा की इच्छा न रखने वाले भूत को जप, होम, बलिदान, वृत, तप, शील, समाधान, ज्ञान, दान और दया आदि के करने से शांत करने का उपाय करे । ग्रहनाशक प्रयोग । हिंगुव्योपाल नेपाली लशुनार्कजटाजटाः । | अजलोमी सगोलोमी भूतकेशी चंचा लता
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
-
कुकटी गंधाख्या तिला कालविषागि । गोधानकुलमार्जाररपपित्तप्रपेषितान् । घजमोका वयस्था च शृंगी मोहनबल्लयपि नावनाभ्यंगसेकेषु विदधीत ग्रहापहान् ९ स्रोतोनांजनराज रोधनं चान्यदौषधम् अर्थ-गज पीपल, पीपलामूल, त्रिकुटा, खरात याविदुष्ट्राक्षगाधानकुलशल्यकान् । आमला, सरसों, गोधा, नकुल, विल्ली, और द्वीपमार्जारगोसिंहव्याघ्रसामुद्रसरवतः ।। मछली इनके पित्ते को अच्छीतरह पीसकर चर्मपित्तद्विजनखा वर्गऽस्मिन् साधयेद्धृतम् नस्य. भ्यंजन और परिपंक द्वारा प्रयोग पुराणमथवा तैलं नवं तत्पाननस्ययोः ।
| करने से ग्रह दूर हो जाते हैं। अभ्यंगे च प्रयोक्तव्यमेषां चूर्ण च धूपने ६ एभिश्च गुटिकां सुंज्यादंजन सावपीडने ।
अन्य प्रयोग । प्रलेपे ककतेषां वाथं च परिपेचने ७॥ सिद्धार्थकं वद्या हिंगु प्रियंगुरजनीद्वयम् । प्रयोगोऽयं ग्रहोन्मासन्सापस्माराम नयेत्
मंजिष्टा श्वेतकटभीवचा श्वेताद्रिकर्णिका ।
निवस्य पत्रं बीजं तु नक्रमालशिरीषयोः । . अर्थ-हींग, त्रिकुटा, हरिताल, कस्तूरी,
सुरा ब्यूषणं सर्पिोमूत्रे तैश्चतुर्गुणे । लहसन, आक की जड, जटामांसी, अजलो
| सिद्धं सिद्धार्थनामपानेनस्ये च योजितम् मी, सफेद दव, भूत केशा, बच, प्रियंगु, ग्रहान्सर्वामित्याशविशेषादासुरान् अहान् कुक्कटी (शितिबारक ), सर्पगंधा (नाकु- कृत्यालक्ष्मीविषोन्मादज्वरापस्मारपाप्म च ही), तिल,काकोली, क्षीर काकोली, केलि अर्थ-सफेद सरसों, वच, हींग, प्रियंगु, कदंव, हरड, शंगी, ( काक लालिगी वा अ. दोनों हलदी, मजीठ, सफेद चिरमिठी, वच, तीस ), मंदाक, सौवीरांजन, गगल तथा सफेद गिरिकर्णिका, नीमके पत्ते, कंजा अन्य रक्षोनाशक औषध, गधा, घोडा, और सिरस के बीज, देवदारु और त्रिकुटा श्वाविद, ऊंट, रीछ, गोधा, नकुल, सेह, | इनका करक तयार करले । घी और चौगुगेंडा, बिल्ली, गौ, सिंह, व्याघ्र, और समु. ना गोमूत्र मिला कर पाक करे । यह सिद्धाद्र के जीव, इनका चाडा, पित, दांत और । र्थक नामक घी पान और नस्यद्वास प्रनख इन सब द्रव्यों के साथ पुराना घी वा । योग किये जाने पर सब प्रकार के ग्रहों को नया तेल पकावै । इसको पान, नस्य वा और विशेष कर के असुरग्रहों को शीघ्र नष्ट अभ्यंग द्वारा प्रयोग करे, अथवा इन सब करदेता है । तथा कृत्या, अलक्ष्मी, विष, द्रव्यों को पीसकर इनका चूर्ण करे और उन्माद, ज्वर, अपस्मार और पापको दूर इसकी धूप देखें । अथवा इसकी गोली बना ! करदेता है ( बच दोनार लिखीगई है इस. कर अंजन वा अवीडन द्वारा प्रयोग करे। लिये दुगुनी लेनी चाहिये )। इन द्रव्यों का कल्क लेपमे और क्वाथ परि
अन्य प्रयोग। . पेक में काममें लावै । यह प्रयोग ग्रह, उ. एभिरेवौषधैर्वस्तवारिणा कल्पितो गदः १३ न्माद और अपस्मार इनको शांत करदेताहै। पाननस्यांजनालेपस्तनोद्धर्षणयोजितः।। - अन्य प्रयोग।
गुणैः पूर्ववदुद्दिष्टो राजद्वारे च सिद्धिकृत् । गजाह्वापिंप्यालीमूलव्योषामलकसर्पपान ८ अर्थ बकरे के मूत्रके साथ ऊपर कही
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(७४८)
अष्टांगहृदय ।
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दुई संपूर्ण औषधियों को प्रस्तुत करके पान, नागेंद्रद्विजशूगर्हिगुमरिनस्य, अंजन, आलेप और देहपर घर्षण
चैस्तुल्यैः कृतं धूपनम् ।
स्कंदोन्मादपिशाचराक्षद्वारा प्रयोग करे यह पूर्ववत् गुणयुक्त है
ससुरावेशज्वरघ्नं परम् , ॥ १८ ॥ और राजदार में सिद्धिका देनेवाला है । ___ अर्थ-बिनौला, मयूरपुच्छ, वडोकटेरी, अन्य प्रयोग ।
शिवनिर्माल्य, पिंडीतक, दालचीनी, जटासिद्धार्थकव्योषववाश्वगंधा।
मांसी, विल्ली का विष्टा, तुष, बच, केश, निशाद्वयं हिंगुपलांडुकंदम् ।।
सर्पकी काचली, हाथीदांत, सींग, हींग, बीजं करंजात्कुसुमं शिरीषात् फलं च वल्कश्च कपित्थवृक्षात् १५
कालीमिरच, इन सबको समान भाग लेकर समाणिमंथं सनतं सकुष्टं
सबकी धूनी स्कंद, उन्माद, पिशाच, स्योनाकमूलं किणिही सिता च। राक्षस, देवग्रहों का आवेश और ज्वर को बस्तस्य मूत्रेण विभावितंतत्
दूर करदेती है। पित्तन गव्येन गुडान् विदध्यात् १६ ॥ दुष्टब्रणोन्मादतमो निशांधा
भूतरावादय घृत । नुद्वद्धकान् वारिनिमग्नदेहान् ।
त्रिकटुकदलकुंकुमग्रंथिकक्षारसिंहीदिग्धाहतान् दर्पितसर्पदष्टां
निशादारुसिद्धार्थयुग्मांबुशकावयैः । स्ते साधयंत्य जननस्यलेपैः ॥ १७ ॥
सितलशुनफलत्रयोशारीहतायचा. अर्थ-सफेद सरसों, त्रिकुटा, वच, अस- तुत्थयष्टीवलालोहितेलाशिलापत्रकैः । गंध, दोनों हलदी, हींग, प्याज, कंजाके दथितगरमधूफसारप्रियावाविशाबीज, सिरस के फूल, कैथके फल और छाल ।
ख्याविषाताय शैलैः सचव्यामयः ।
कल्कितै तमनवमशेषमृतांशसिद्धं मतम्सेंधानमक, अगर, कूठ, श्योनामून, किण
भूतरावाह्वयं पानतस्तद् ग्रहध्मं परम् १९ ही और मिश्री, इन सबको बकरे के मुत्रकी
___ अर्थ-त्रिकुटा, तमालपत्र, कुंकुम, पीपभावना देकर गौके पित्ते में मर्दन करके गो
लामूल, जवाखार, कटेरी, हलदी, देवदारू, लियां बनालेवे । इन गोरियों का नस्य,
सफेद सरसों, पीलीसरसों, नेत्रवाला, इन्द्रजी अंजन और लेप द्वारा प्रयोग करनेसे दुष्ट
सफेद लहसन, त्रिफला, खस, कुटकी, बच, ब्रण, उन्माद, तिमिर, रतोंधों तथा उद्वद्धक
नीलाथोथा, मुलहटी, खरैटी, रक्तचन्दन, जलेमें डूबे हुए देहवाले को, लेपसे आहत इलायची, मनसिल, पदमाख, दही, तगर, फो, क्रोधी सर्पसे काटे हुओं को गुणकारकहै ।
महुआ,मालकांगनी,अतीस,काकोली, रमौत, । स्कंदादिनाशक धूनी । चव्य और कूठ । इन सब द्रव्योंका कल्क काजास्थिमयूरापिच्छ
और गोमूत्रादि अष्टमूत्र के साथ सिद्ध किया वृहतीनिर्माल्यपिडीतकत्वङ्मांसीवृकदंशविटूतु
हुआ नवीन घी पान करनेसे ग्रह नष्ट हे। षवचाकेशाहिनिर्मोचनैः। जातेहैं । इस उत्तम घृतका नाम भूतरावहै ।
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श्र. ५
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७१९)
महाभूतराव घृत ।
ग्रहानुसार दानादि । मतमधुकरंजलाक्षापटोलीसमंगावचा. स्नानवस्त्रवसामांसमद्यक्षीरगुडादि च। पाटलोहिंगुसिद्धार्थसिंहीनिशा- रोचते यद्यदायेभ्यस्तत्तेषामाहरेत्तदा २२॥
गुम्लतारोहिणी। ____अर्थ-स्नान, वस्त्र, वसा, मांस मद्य, बदरकटुफलत्रिकाकाण्ड मरांकोल्लकोशातकीशिग्रनिवांवुद्राहूयैः।।
क्षीर और गुडादिक जो जो वस्तु जिस जिस गदशुष्कतरुपुष्पवीजोनयष्टय- ग्रहको प्रियहों वही उस ग्रहके निमित्त उसी
द्रिकर्णीनिकुम्भा- दिन देनी चाहिये । मिबिल्यैः समैः कल्कितैवर्गेण सिद्ध ।
अन्यद्रव्यों का दान । ' घृतम् । विधिविनिहितमाशु सर्वे क्रमै पोजेत हति
| रत्नानि गंधमाल्यानि वीजानि मधुसर्पिषी। सर्वग्रहोन्मादकुष्टज्वरांस्तन्महा भूतरावं. भक्ष्याश्च सर्वे सर्वेषां सामान्योस्मृतम् ॥ २० ॥
विधिरित्ययम् ॥ २३ ॥ अर्थ-तगर, महुआ, कंजा, लाख, प- अर्थ-रत्न, गंध, माल्य, यादि वीज, ल, मजीठ, वच, पाटला, हींग, सफेद मधु, घृत तथा सब प्रकार के भक्ष्य पदार्थ सरसों, कटेरी, हलदी, दारुहलदी प्रियंगु ग्रहों के निमित्त प्रदान करे । यह सब ग्रहों कुटकी, बेर, त्रिकुटा, त्रिफला, थहर, की सामान्य विधि है । देवदारू, बायबिडंग, अजगंध, गिलोय,
विशेष विधि । अंकोल, कोशातकी, सहजना, नीम, नागर सुरर्षिगुरुवृद्धेभ्यः सिद्धेभ्यश्च सुरालये । मोथा, इन्द्रजौ, कूठ, सिरस के फूल और
दिश्युत्तरस्यां तत्राऽपि देवायोपहरेद्वलिम्
पश्चिमायां यथाकालं दैत्यभूताय चत्वरे। बीज, अजवायन,मुलहटी, अपराजिता,दंती, गंधर्वाय गवां मार्गे सवस्त्राभरणं बलिम् । चीता और बेलागरी इन सब को समान पितृनागग्रहे नद्यां नागेभ्यः पूर्वदक्षिणे। भाग लेकर पीसले तथा मूत्रवर्ग के साथ यक्षाय यक्षायतने सरितोर्वा समागमे २६ सिद्ध किया हुआ घी अभ्यंग, पान और
चतुष्पथे-राक्षसाय भीमेषु गहनेषु च।
रक्षसांदक्षिणस्यांतु पूर्वस्यां ब्रह्मरक्ष साम् नस्यादि द्वारा विधिवत प्रयोग किये जाने
शून्यालये पिशाचाय पश्चिमांदिशमास्थिते पर सब प्रकार के ग्रहोन्माद, कुष्ठरोग, और
अर्थ-देवता, ऋषि, गुरु, वृद्ध और ज्वर को दूर करदेता है । इस घृतका नाम
सिद्ध, इन पांच प्रकार के ग्रहों की वलि महाभूतराव है। ग्रहग्रहण में बलिदानादि। .
देवालय में देवै । इनमें से भी देवग्रह का "महा गृहणतिये येषु तेषां तेषु विशेषतः। वलि उत्तर दिशा में, और दैत्यभूतों का दिनेषुबलिहोमादीन्प्रयुजीत चिकित्सकः॥ वलि पश्चिम दिशा में चौराये में देवै । ___ अर्थ-जो ग्रह जिस दिन रोगी पर मा. गंधर्व ग्रहों के लिये गौके आने जाने के क्रमण करे उसी दिन उसके निमित्त विशेष मार्ग में वस्त्र और आभरणसहित वलि विशेष बलिदान और होमादि करे। प्रदान करे । पिलूनाशकग्रह के लिये नदी.
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( ७५०)
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अशंगहृदय ।
तट पर, नागग्रह के लिये पूर्वदक्षिण में, यक्षग्रह के लिये यक्षग्रहमें अथवा नदियों के संगम पर, राक्षसग्रह के लिये चौराहे पर तथा सघन वनमें, रक्षोग्रह के लिये दक्षिण दिशा में ब्रह्मराक्षस के किये पूर्वदिशा में, पिशाच के लिये पश्चिम दिशामें शून्य स्थानमें बलिप्रदान करे |
देवताओं की बलि | शुचिशुक्लानि माल्यानि गन्धाः
क्षैरेथमोदनम् २८ ॥ दावे छत्र च पवलं देवानां बलिरिष्यते,, । अर्थ - पवित्र सफेद पुष्प, गंध, दूधका पदार्थ, चांवल, दही और सफेद, छत्र, यं द्रव्य देवताओं की बालके निमित्त देवें ।
घृतपान से ग्रहमोचन । हिंगुसर्पपपग्रंथाव्योपैरर्धपलोन्मितैः २९ ॥ 'चतुर्गुणे गवां मूत्रे घृतप्रस्थं विपाचयेत् । सत्याननावनाभ्यंगैर्देवग्रहविमोक्षणम् ३० ॥ अर्थ- हींग, सरसों, श्वतवच और त्रिकुटा प्रत्येक आधा पल, चौगुने गोमूत्र में एक प्रस्थ घी पाकविवि से पकाकर रख ले। इस घी का पान, नस्य और अभ्यंग द्वारा प्रयोग करने से देवग्रह की शांति हो जाती है ।
ग्रहमोचनार्थ नस्यांजन | नस्यांजनं वचाहिंगुलशुनं वस्तवारिणा । अर्थ - बच, हींग और लहसन इनको बकरे के मूत्र में पीसकर नस्य और अंजन " द्वारा प्रयोग करने से देवग्रह की शांति हो जाती है ।
दैत्यग्रह की शांति | दैत्ये बलिहु फल सोशीर कमलोत्पलः ३१
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अ०.५
अर्थ - दैत्यग्रह की शांति के निमित्त अनेक प्रकार के फल, खस, कमल और नीलोत्पल की बलि देवै ।
नागग्रहों की बलि |
नागानां सुमनोलाज गुडापूपगुडोनैः । परमान्नमधुक्षीरकृष्णमृन्नागकेसरैः ॥ ३२ ॥ वचापद्म पुरोशीररकोत्पलदलैर्वलिः । श्वेतपत्रं चरोधं च तगरं नागसर्षपाः ३३ ॥ शीतेन वारिणा पिष्टं नानांजनयोर्हितम् ।
अर्थ - नागग्रहों की शांति के निमित्त चमेली के फूल, धान की खील, गुड क पूआ, मीठा भात, खीर, शहत, दूध. काली मिट्टी, नागकेसर, बच, कमल, गूगल, खस, लाल कमल इन द्रव्यों का बलि देव । श्वेत कमल, लोध, तगर, नागेश्वर और सरसों, इन सब द्रव्यों को ठंडे जल में पीसकर नस्य और अंजन का प्रयोग करे । क्षों की वलि |
यक्षाणां क्षीरदध्याज्य मिश्रकोदन गुग्गुलुः ॥ देवदारूत्पलं पद्ममुखी वस्त्रकांचनम् । हिरण्यं च बलियोज्यो
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मूत्राज्यक्षीरमेकतः ॥ ३५ ॥ सिद्धं समोन्मितं पाननावनाभ्यंजने हितम् । अर्थ-यक्षों के लिये दूध, दही, घी, मिश्रित अन्न, गूगल, देवदार, नीलोत्पल, पद्म, खस, सुनहरी वस्त्र और सुवर्ण का बलि देवे | समान भाग गोमूत्र, घी और दूध इनको पकाकर पान, नस्य और अभ्यं जन द्वारा प्रयोग करना हित है । अन्य प्रयोग |
• हरीतकी हरिद्वे द्वे लशुनो मरिचं वचा ३६ निवपत्रं च पस्तांबुकल्कितं नावनांजनम् । अर्थ- हरड, हळदी, दारूहल्दी, ल्हसन
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अ
५
उत्तरस्थान भाषाटीकासभेत ।
नहीं है )।
काली मिरच, बच और नीम के पत्ते इनको । तद्वच कृष्णपाटल्या विल्यमूलं फत्रिकम्। बकरे के मूत्र में पीसकर सुवन वा आंख में । हिग्विद्रयवसिद्धार्थलशुनामलकीफलम् ॥ आंजने से यक्षग्रह की शांति होती है ।
नावनांजनयोयोज्यो बस्तमृत्रहृतो गदः।
___अर्थ-कंजा, सिरस, और कृष्ण प.टली ब्रह्मराक्षसों की वलि । ब्रह्मरक्षोवलिः सिद्ध यवानां पूर्णमाढकम् ॥
इन तीनों की छाल, मह, फूल और फल, तोयस्य कुम्भः पलले छ वस्त्रं विलेपनम् ॥ बलागरी, त्रिकुटा, हींग, इन्द्रगौ, सफेद ___ अर्थ ब्रह्मराक्ष मो के निमित्त पके हुए | सरसों, हसन और आमला, इन सब द्रव्यों जौ का भरा हुआ एक पात्र, जलका कलश
| को बकरे के मूत्रमें पीसकर नस्य आर अंजन
द्वारा प्रयोग करनेसे हितकारी होता है। तिलका कल्क, छत्र, वस्त्र और विलेपन
घृतका प्रयोग । इन द्रव्यों का बलि देना चाहिये ( यहां
एभिरेष घृतं सिद्धं गवां मूत्रे चतुर्गुणे ४३॥ आढक शब्द पात्र वाचक है, मान वाचक
रक्षरेग्रहान् वारयते पानाभ्यंजननायनैः ।
| अर्थ-इन ऊपर कही हुई औषधियों के घृतका प्रयोग । गायत्रीविंशतिपलक्याथेऽर्धपलिकः पचेत। साथ चौगुने गोमूत्र में सिद्ध किया हुआ प्रयुषणत्रिफलाहिगुपडग्रन्यामिशिसप्पैः । घी पान, अभ्यंजन और नस्य द्वारा प्रयोग साने पत्रल गुनैः कुडवान्सत सर्पिषः ३९॥ किये जानेपर रक्षाग्रह को शांत करदेताहै। गोमूत्रे त्रिगुगे पाने नस्याभ्यंगे तद्वितम्। पिशाच गूह की वस्ति । .
अर्थ-खैर के बीस पल क्याथमें त्रिकुटा, पिशाचानां वलिःसीधुपिण्याकपलल दधि त्रिफला, हींगवच, सौफ, सरसों, नीमके मूलकं लवणं सर्पिःसभूतोदनयायकम्। पत्ते और लहसन प्रत्येक आधा पल, तथा अर्थ--पिशाच ग्रहोंकी शांति के निमित्त सातकडव घी, तथा तिगुना गोमूत्र इनको साधु, तिलकल्क, दही, मूली, नमक, सरसों पाक विधिके अनुसार पकावै । इस भूतोदन और यवके पदार्थ इनकी बलि घी का पान, नस्य और अभ्यंग द्वारा प्रयोग देनी चाहिये । करनेसे अत्यंत हितकारी है।
घृत प्रयोग।
हरिद्राद्वयमंजिष्ठामिशिसैंधव नागरम् ४५॥ रसोंकी वलि । रक्षसां पललं शुम्लं कुसुमं मिश्रकोदनम् ॥
हिंगुप्रियंगुत्रिकटुरसोनत्रिफला वचा।
पाटलाश्वतकटभीशिरीषकुसुमैर्वृतम् ४६ बलिःपक्काममांसानिनिपावारुधिरोशिताः
गोमूत्रपादिकं सिद्धं पानाभ्यजनयोहिर म्॥ ___अर्थ-रक्षाग्रह के निमित्त तिलका कल्क
___ अर्थ-दोनों हलदी, मीठ, सौंफ, संपा. सफेद फूल, खिचडी, पक अपक मांस, रुविर में भिगोये हुए मोंठ इनका बलि देना
नमक, सौंठ. हींग, प्रियंगु, त्रिकुटा, लहसन,
त्रिफला, बच, पाटला सफेद चिरमिठी,और चाहिये ।
नस्याभ्यंजन प्रयोम । सिरस का फूल, इनके कल्क के साथ चौनकमालशिरीषत्वङ्मृलपुष्पफलानि च ॥ गुने गोमूत्र में पाक विधि के अनुसार सिद्ध
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(७२)
अष्टांगहृदय ।
किया हुआ घी पान और अभ्यंजन द्वारा | महाविद्याश्रवण | प्रयोग किये जानेपर पिशाच ग्रहों की शांति | महाविद्यां च मायूरी शुचितश्रावयेत्सदा । कर देता है।
____ अर्थ- उस ग्रहपीडित रोगी को स्नानानस्य प्रयोग। दि द्वारा पवित्र करके मायूरी महाविद्या का वस्तांबुपिष्टैस्तैरेव योज्यमंजननावनम् ४७ । स्तोत्र सदा सुनाता रहै ।
अप-उपर कह हुए सपूर्ण दव्या को भूतेश की पूजादि। बकरे के मूत्रमें पीसकर अंजन और नस्य भूतशं पूजयेत् स्थाणु प्रेमथाख्यांश्चद्वारा प्रयोग करना चाहिये ।
तगणान् । जपन सिद्धांश्च तन्मंत्रान्बविर्य ।
प्रहान्सर्वानपोहति ॥ ५२ ॥ " देवर्षिपितृगंधर्व तीक्ष्णं नस्यादि वर्जयेत्।
____ अर्थ-भूतनाथ शिवजी, तथा प्रमथ सर्पिः पानादिमृद्धस्मिन् भैषज्यमवचारयेत् |
नामक महादेवके गणों का पूजन करे । .... अर्थ-देव, ऋषि, पितृ और गंधर्व ग्रहों
। तथा संपूर्ण ग्रहों की शांति के निमित्त सिद्ध में तीक्ष्ण नस्यादि का प्रयोग न करना
मंत्रोंका जपभी करना चाहिये । चाहिये । इनमें मृदु घृतपानादि व्यवहार में
अन्य हितकारक कमे । लाना उचित है।
यञ्चानंतरयोः किंचिद्वक्ष्यतेऽध्याययोर्हितम् गहों में प्रतिकूलाचरण निषेध । यच्चोक्तामह तत्सर्व प्रयुजीत परस्परम् ५३ ऋते पिशाचान्सर्वेषु प्राक्लिं च नाचरेत् । अर्थ-यहां से आगे उन्माद और अप. सवैधमातुरं घ्नति क्रुद्धास्ते हि महौजसः॥ स्मार प्रतिषेध नामक दो अध्यायों में जो कुछ ___ अर्थ-पिशाच ग्रह के सिवाय और कहेंगे तथा जो जो चिकित्सा देवग्रहादिकों किसी ग्रह के निमित्त प्रतिकूल आचरण न की शांति के निमित्त इसी अध्याय में कही करना चाहिये क्योंकि देवादि ग्रह महात- गई है. ये सब देवग्रहों की परस्पर शांतिके जस्वी होते हैं, ये कापत होकर वैद्य और | निमित्त उपयोग में लाना चाहिये । रोगी दोनों को नष्ट करदेते हैं । | इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषासर्वग्रहार्थजपविशेष ।
टीकान्वितायां उत्तरस्थाने भूतप्रईश्वरं द्वादशभुज नाथमार्यावलोकितम् । तिषेधो नामपंचमोऽध्यायः। सर्वव्याधिचिकित्सतंजपसवग्रहान् जयेत् तथोन्मादानपस्मारादन्यं वा चित्तविप्लवं षष्ठाऽध्यायः ।
अर्थ- सर्वरोग नाशक द्वादशभुजी भैरव का मंत्र और जपकरनेसे सब प्रकार के अथाऽत उन्मादप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः । रोग, उन्माद , अपस्मार तथा अन्य चित्त के | अर्थ-अब हम यहां से उन्मादप्रतिषेध विकार नष्ट हो जाते हैं।
नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे।
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अ. ६
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७५३)
उन्मादके छः भेद।
और स्मृतिका विभ्रम होकर देह सुख और " उन्मादाः षट्
दुखके ज्ञान से रहित होजाता है और रोगी पृथग्दोषनिचयाधिविषोद्भषा-। अचिंतितारंभ (कर्तव्याकर्तव्यविचारसे रहित) अर्थ-उन्माद रोग छः प्रकार के होते हैं होकर सारथीहीन रथकी तरह भ्रमण करने यथा--वातज, पित्तज, कफज, त्रिदोषज, | लगता है । भाधिन और विषन ।
पातजउन्माद के लक्षण । उन्माद का स्वरूप।
तत्र पातात्कृशांगता ॥६॥ उन्मादो नाम मनसोदोषैरुन्मार्गगैर्मदः १॥ अस्थाने रोदनाक्रोशहसितस्मितमर्तमम। शारीरमानसै? रहितादन पानतः ।
गीतबादित्रवागंगविक्षेपास्फोटमानि च ७ विषमस्याल्पसत्त्वस्यव्याधिवेगसमुद्रमात् ।
असान्ना वेणुवीणादिशब्दानुकरणं मुहुः । क्षीणस्य
आस्यात्फेनागमोऽजसमटनं बहुभाषिता ८ चेष्टावैषम्यात्पूज्यपूनाव्यतिक्रमात् ॥ अलंकारोनलंकाररयानर्गमनोधमः। आधिभिश्चित्तविभ्रंशा विषेणोपविषेण च गृद्धिरभ्यवहार्येषु तल्लाभे वायमानता ९॥ एभिर्विहीनसत्वस्य हृदि दोषाः प्रदूषिताः॥ उत्पिडितारुणाक्षित्वं जीणे घाझे गदोपः। धियो विधाय कालुण्यं हत्वा मार्गान्- अर्थ-वातज उन्माद में देहमें कृशता,
___ मनोबहान् ।। अस्थान में अर्थात् बिना कारण ही रोना, उन्मादं कुर्वते तेन धीयिज्ञानस्मृतिभ्रमात् देहो दुःखसुखभ्रष्टो भ्रष्टसारथिवद्रथः।
चिल्लाना, हंसना,मुस्कुराना, नाचना,गाना, भ्रमयचिंतितारंभः
बजाना, बकना, हाथ पांव फेंकना, किसी ___ अर्थ-शारीरक और मानसिक दूषित
वस्तुका तोडना फोडना, उद्धतपन से वेणु, विकारों से,अहित अन्न पान के सेवन से,
वीणादि के सदृश शब्द करना, मुखसे तथा विकृत, असात्म्य और दोपयुक्त भोजन झाग गिरना, निरंतर घूमते रहना, बहुत से, विमष उपयोग से, विषम और अल्प
बोलना, अलंकारके अयोग्य वस्तुओं से वलवाले मनुष्य के व्याधि के वेगकी अधि
अलंकार बनाना, यानगम्य स्थानों में बिना कता से, दुर्वल मनुष्य की मल्लयुद्धादि
यानके ही जाने की कोशिश करना, सब विषमचेष्टा से, गुरुवृद्धयादि पूज्य व्यक्तियों
प्रकार की खाने की वस्तुओं में लोलुपता, की अवज्ञासे, मानसिक पीडाओं द्वारा चित्त
खाने की वस्तु मिलने पर अपमान करदेना, के विभ्रंश होने से, विष और उपविष के | नेत्रों में गोलाई और ललाई तथा भोजन के सेवनसे,इन सब कारणोंसे सत्वगणहीन मनष्य | पचनकाल में व्याधिकी अधिकता ये सब में बातादि तीनोंदोष हृदय में प्रदूषित होकर |
उपस्थित होते हैं।
. पित्तजउन्माद के लक्षण । वुद्धिको कलुषित करके, तथा मनोवाही
पित्तात्सतर्जनं क्रोधो मुष्टिलोष्टाधभिद्रवः । स्रोतों को दूषित करके उन्माद रोगको शीतच्छायोदकाकांक्षा नग्नत्वं पीतवर्णता। पैदाकर देते हैं । इस रोग से बुद्धि, विज्ञान असत्यज्वलनज्वालातारकादीपदर्शनम् ११
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(७५४)
अष्टांगहृदय।
म. १
. अर्थ-पत्तिकउन्माद में संतर्जन(भर्त्सना), | अर्थ-धनके क्षीण होने से अथवा कांक्रोध, मुट्ठी वा मिट्टी के ढेले से अंगको ला के वियोग से उत्पन्न दुःस्सह शोकमें नि. कूटना, शीतलता, छाया, और जल की | मग्न मन होनेके कारण प्राधिज उन्माद हो आकांक्षा, नंगापन, पीतवर्णता, अग्निकी | ता है । इससे रोगी पीला और दीन होजाता लोह, तारागण और दीपक के न होने पर है, तथा चार बार मूच्छित होकर हाय हाय भी इनका दिखाई देना, ये सब लक्षण उ- पुकारने लगता है। शोक से उद्विग्न होकर पस्थित होते हैं ।
नष्ट हुए धन और कांतादि का ध्यान करता कफज उन्माद के लक्षण | हुआ उनके गुणों को बढा बढा कर कहने कफादरोचकच्छर्दिरल्पाहारवाक्यता। लगता है। बहुत जगता है और चेष्टारहित स्त्रीकामता रहः प्रतिालयसिंघाणकस्रतिः हो जाता है । बैभत्स्यं शौचविद्वेषो निद्राश्वयथुरानने ।
विषज उन्माद । उन्मादो बलवान् रात्रौ भुक्तमात्रे च जायत । विषेण श्याववदनो नष्टच्छायायलेंद्रियः।
अर्थ-कफजउन्माद में अरुचि, वमन, वेगांतरेऽपि संभ्रांतो रक्ताक्षस्तं विवर्जयेत् ॥ अल्पचेष्टा, अल्पाहार, अल्पभाषण, स्त्रीसं- अर्थ-विषज उन्माद में रोगीका देह का गम की इच्छा, निर्जन स्थान में रहने की ला पडजाता है, देह की कांति, बल और संइच्छा, लालास्राव, नासास्त्राव, वीभत्सता, पूर्ण इन्द्रियां विनष्ट होजाती हैं । रोगके वेग पवित्रता से द्वेष, निद्रा, मुखपर सूजन, के बीचमें भी रोगी अच्छी तरह विभ्रांत रात्रि के समय और भोजन करते ही रोग और रक्ताक्ष होजाता है, ऐसा रोगी असाध्य की अधिकता । ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं।
बातज उन्माद में उपाय। सन्निपातज उन्माद । अथानिलज उन्माद स्नेहपान प्रयोजयेत् । सर्षायतनसंस्थानसन्निपाते तदात्मकम् । पूर्वमावृतमार्गे तु सस्नेहं मृदु शोधनम् ॥ उन्मादं. दारुणं विद्यात् तं भिषक्पारवर्जयेत् । ___ अर्थ-वातज उन्माद में स्नेहपान कराना
अर्थ-जिस उन्माद में वातादि तीनों दो- | चाहिये । किन्तु यदि वायुका मार्ग किसी अ. षों के हेतु और लक्षण विद्यमान हों वह स- न्यदोष के कारण रुका हो तो स्नेहपान से निपातज उन्माद होता है, यह भंयकर रोग | पहिले स्नेहयुक्त मृदु विरेचनादि देवे । असाध्य होता है।
कफपित्तज उन्माद । पित्तज उन्माद । कफपित्तभवेऽप्यादौ वमनं सविरेचनम् । धनकांतादिनाशेन दुःसहेनाभिगवान । स्निग्धस्विन्नस्यवस्तिचशिरसासविरेचनम्। पांडुर्दीनो मुहुर्मुह्यन् हाहेति परिवते ॥ तथास्य शुद्धदेहस्य प्रसादं लभते मनः। रोदित्यकस्माम्रियते तदुणान् बहु मन्यते।
अर्थ-कफ वा पित्तसे उत्पन्न हुए उन्माद शोकक्लिष्टमना ध्यायन् जागरूको विचेटते॥। में रोगीको स्निग्ध और स्विन्न करके क्रम
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अ० ६
पूर्व पहिले मन और विरेचन कराके अर्थात् कफज उन्माद में प्रथम वमन और पितज उन्माद में प्रथम विरेचन कराना चाहिये अपि शब्दके प्रयोग से यह जानना चाहिये | कि जैसे वातज उन्माद में प्रथम स्नेहपान कराया जाता है वैसे ही कफज वा पित्तज में कराना चाहिये | कैसा ही उन्माद क्यों न हो सबमें वस्ति और शिरोविरेचन देना हि त है । वस्ति द्वारा शुद्ध होने पर रोगी का मन प्रसन्न होजाता है ।
तीक्ष्णनस्यांजन प्रयोग । इत्थमप्यनुवृत्ती तु तीक्ष्णं नावनमंजनम् ॥ हर्षणाश्वासनोत्रासभयताडनतर्जनम् । अभ्यंगोद्वर्तनालेपधूमान् पानंच सर्पिषः ॥ युज्यात्तानि हि शुद्धस्य नयंति प्रकृतिं मनः ।
अर्थ- - इस तरह चिकित्सा किये जानेपर भी यदि उन्माद की शांति न हो तो तीक्ष्ण नस्य और अंजन हर्षोत्पादन, आश्वासन, त्रास भय, ताडना, तजैन, अभ्यंग,उद्वर्तन, आलेपन, धूमप्रयोग और घृतपान का प्रयोग करना चाहिये | इन उपायों से शुद्धि होनेपर रोगीका मन अपनी प्रकृति पर आजाता है ।
उत्तरस्थान भाषाकासमेत ।
अन्य घृत | हिंगुसौवर्चलग्योपैपिलांशैर्धृताढकम् ॥ सिद्धं समूत्रभुन्मादभूतापस्मारनुत्परम् ।
अर्थ-हींग, कालानमक, त्रिकुटा प्रत्येक दो पल, घी एक आढक इनको गोमूत्र के साथ पाक की रीति से पकावै । यह घी उन्माद, भूत और अपस्मार के करने में परमोत्तम
दूर
1
ब्राह्मी घृत 1 द्वौ प्रस्थ स्वरसाडू ब्राहया घृतप्रस्थं चसाधितम् ॥ २३ ॥
( ७५५ )
व्योषश्यामात्रवृती शंखपुष्पीनृपमैः । ससप्तलाकृमिहरैः कल्कितैरक्ष संमितैः ॥ पलवृद्या प्रयुंजीत परं मात्राचतुष्पलम् । उन्मादकुष्ठापस्मारहरं वंध्यासुतप्रदम् ॥ वाक्रूस्वरस्मृतिमेधाकृदू धन्यं ब्राह्मीघृतं . Ef स्मृतम् ? अर्थ - ब्राह्मीका रस दो प्रस्थ, घी एक प्रस्थ तथा त्रिकुटा, श्यामा, निसौथ, दंती, शंखपुष्पी, अमलतास, सातला, और वायविडंग प्रत्येक आधा पल | इन सबको पाककी रीतिसे पकालेवै । यह ब्राह्मी घृत प्रतिदिन एक पल बढाकर चार पल तक लेवे । अर्थात् पहिले दिन एक पल, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन और चौथे दिन चार पल लेवे | इससे अधिक न बढावै, फिर प्रतिदिन चार पल लेता रहै । इससे उन्माद कुठ और अपस्मार जाते रहते हैं, वंध्या के पुत्र पैदा हो जाता है, वाणी स्वर स्मृति और मेधा बढजाते हैं । यह सर्वोत्तम है।
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8 ॥
कल्याणक घृत । बराविशालाभदैलादेवदार्बलबालुकैः ॥ द्विसारिवाद्विर जनद्विस्थिराफलिनीनतैः । बृहतीकुष्ठमंजिष्ठा नागकेसरदाडिमैः बेल्लतालीसपत्रैला मालतीमुकुलोत्पलैः । सदतीपद्मकहिमैः कर्षाशः सर्पिषः पचेत् ॥ प्रस्थं भूतग्रहोन्मादका सापस्मारपाप्मसु । पांडुकडूविषे शोफे मोहे मेहे गरे ज्वरे ॥ अरेतस्य प्रजसि वा दैवोपहतचेतसि । अमेधसि स्खलद्वाचि स्मृति कामेऽल्पपावके बल्यं मंगल्यमायुष्यं कांतिसौभाग्य पुष्टिदम् कल्याणकामेदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंसवनेषु च ॥
अर्थ - त्रिफला, इन्द्रायण, बडीइलायची, देवदारू, एलुआ, दोनों सारिवा, दोनों हल्दी,
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अष्टांगहृदय |
( ७५६ )
शालपर्णी, पृश्नपर्णी, प्रियंगु, तगर, कटेरी, कूठ, मजीठ, नागकेसर, अनार, वायविडंग, तालीसपत्र, छोटी इलायची, मालती के मुकुल, नीलोत्पल दंती, पदमाख, और चंदन, प्रत्येक एक कर्ष तथा एक प्रस्थ घी, इनको पाक की रीति से पाक करे। यह घी भूतग्रह, उन्माद, खांसी, अपस्मार पाप, पांडुरोग, खुजली, विषरोग, सूजन, मूर्छा, प्रमेह, गरविष, ज्वर, शुक्रक्षीणता, वन्ध्यत्व दैषोपहितचित्तता अर्थात् दैवैकृत मनकी विभ्रांति, मेधाहीनता, अटकती हुई वाणी, स्मृति कामना, और अग्निमांद्य इन सब उपद्रवों में यह कल्याणक घृत उपयोग में लाना चाहिये यह घृत बल वर्द्धक, मंगलीक आयुवर्द्धक, कांतिदायक, सौभाग्यकारक, और पौष्टिक होता है । यह घृत पुंसवन में श्रेष्ठ है ।
महा कल्याणक घृत । एभ्यो द्विसारिवादीति जले पक्त्वैकवैिशतिः रसे तस्मिन्पचेत्यपि गृष्टिक्षीरचतुर्गुणम् ॥ रामेाच्छ्रविपाणिभिः । शूर्पपर्णीयुतैरेतन्महाकल्याणकं परम् ॥ वृंहणं सन्निपात पूर्वस्मादधिकं गुणैः ।
अर्थ- ऊपर कहे हुए कल्याणक घृतमें से पहिले सात द्रव्य त्रिफलासे लेकर एलुआ तक छोड़कर बाकी सारिबादिसे लेकर चंदन तक इक्कीस द्रव्यों को लेकर घी से सोलह गुने जल में अग्नि पर चढादे चौथाई शेष रहनेपर उतार कर छानले फिर इस क्वाथ में प्रथम वार व्याही हुई गौका चौगुना दूध डाले और क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, का कोली, कमांच, काकडासगी और सूर्पपर्णी इनका कल्क मिलाकर पाक विधिसे पार्क करें
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अ० ६
यह महाकल्याणक घृत वृंहणकर्ता और सन्निपातनाशक होता है और कल्याण घृत की अपेक्षागुणों में अधिक होता है । महापैशाचक घृत ।
जटिला पूतना केशी चारटी मर्कटी वचा । त्रायमाणा जया वीरा चोरकः कटुरोहिणी । कायस्था शूकरी छषा अतिच्छत्रा पलंकषा महापुरुषदेता च वयस्थानाफुलीद्वयम् । कटंभरा वृश्चिकाली शालिपर्णी च तैर्वृतम् सिद्धं चातुर्थिकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् । महापैशाचकं नाम घृतमेतद्यथामृतम् बुद्धिमेधास्मृतिकरं बालानां चांगवर्धनम् ।
अर्थ - जटामांसी, हरड, गंधमांसी, पद्म चारिणी, केंच, नच, त्रायमाण, अरणी, काकोली, चंडा, कुटकी, आमला, वृद्धदारक धनियां, सोंफ, लाख, सितावरी, क्षीर का - कोली, सर्पाक्षी, सर्पगंधा, कटंभरा, वृश्चिकाली और शालपर्णी इन सब द्रव्यों के साथ घी पका । इस घी का नाम महा पैशाचक है, यह चातुर्थकज्वर, उन्माद, ग्रह, अपस्मार को नष्ट कर देता है | बुद्धि, मेधा और स्मृतिको बढाने वाला है, बालकों को अंगको बढाने वाला अमृत के समान गुणकारी है।
अन्य प्रयोग । ब्राह्मीर्मेंद्रीविडंगानिव्योषं हिंगु जहां मुराम् रास्त्रां विशल्यां लशुनं विषघ्नां सुरसां वचाम् ज्योतिष्मती नागविन्नामनंतां सहरीतकीम् काच्छीं च हस्तिमूत्रेण पिष्ट्वा छायाविशोषिता । वर्तिर्नस्यांजनाले पधूपैरुन्माद सूदनी ॥ ४० ॥ अर्थ - ब्राह्मी, इन्द्रायण, बायबिडंग, त्रिकुटा, हींग, जटामांसी, मुरा, रास्त
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमत ।
(७५७)
कलहारी, लहसन, मतीस, तुलसी, बच, । पैत्तिक उन्माद में उपाय । मालकांगनी, नागदंती, धमासा, हरड, मु.
पैत्तिके तु प्रशस्यते ॥ ४४ ॥ छतानी मिट्टी, इन सब द्रव्यों को हाथी के तिक्तक जीवनीयं च सर्पिः स्नेहश्च मिश्रकः
शिशिराण्यन्नपानानि मधुराणि लघूनि च मूत्र में पीसकर बत्ती बना लेवे और इस
अर्थ-पित्तज उन्माद में तिक्तक और बत्ती को छाया में सुखाले । इस बत्ती
जीवनीय घृत, मिश्रक स्नेह ( घी तेल आदि का नस्य, अंजन, प्रलेप और धूआं देने से
मिलाये हुए स्नेह ) तथा ठंडे, मिष्ट, मधुर उन्मादरोग नष्ट हो जाता है।
और हलके अन्नपान हित हैं। उन्माद में अवपीडन ।
उन्माद में सिराव्यध । अवधीसाच विविधाःसर्षपाः स्नेहसंयुताः। विध्येच्छिरां यथोक्तांवातृप्तं मेवामिषस्य वा कटुतलेन चाभ्यंगा ध्मापयेश्चास्य तद्रजः निवाते शाययेदेवं मुच्यते मतिविभ्रमात् सहिंगुस्तीक्ष्णधूमश्च सूत्रस्थानोदितो हितः।।
अर्थ-उन्मादरोगी की सिराव्यर्धे में कही - अर्थ-सरसों के तेल से संयुक्त अनेक
ही नसकी फस्द खोलै । ऐसे रोगी को पेट प्रकार के अवपीडन, सरसों के तेल का |
भरकर मद्यमांस का भोजन कराके निर्वात अभ्यंग, सरसों के चूर्ण का प्रधमन, तथा
स्थानमें शयन करावे । इन उपायों से रोगी सूत्रस्थान में कहा हुआ हींग मिलाकर तीक्ष्ण धूम | ये सब हितकारी हैं।
अपनी बुद्धि की विभ्रांतिसे मुक्त होजाताहै।
निर्जल कूपमें डालना। अन्य प्रयोग।
प्रक्षिप्याऽसलिंले कूपे शोषयेद्वा बुभुक्षया । शूगालशल्यकोलूकजलूकावृषबस्तरः
| आश्वासयेत्सुकृत्तं वा वाक्यैर्धर्मार्थसहितः मूत्रपित्तशकल्लोमनखचर्मभिराचरेत् । | ब्रयादिष्टविनाशं वा दर्शयेदद्भुतानि वा। धूपधूमांजनाभ्यंगप्रदेहपरिषेचनम् ॥४३॥ अर्थ-शृगाल, सेह, उल्लू, बिलाई, बैल
वद्ध सर्षपतैलाक्तं न्यस्तं चोत्तानमातपे
कपिकच्छ्वाथवातप्तैोहतैलजलैः स्पृशेत्। बकरा, इनके मूत्र, पित्त, मल, रोम, नख कशाभिस्ताडयित्वा वा बद्धं श्वभ्रे वितिः और चर्म द्वारा धूनी देना, धूमपान कराना,
. क्षिपेत् ॥४९॥ अंजन लगाना, मर्दन करना, लेप करना
मथवा वीतशस्त्राश्मअने संतमसे गृहे ।
सर्पणोद्धतदंष्टेण दांतैः सिंहगंजैश्च तम् तथा परिषेक करना उन्माद में हित है। ।
अथवा राजपुरुषा वहि त्वा सुसंयुतम् । अन्य धूनी।
भापयेयुर्वधेनैनं तर्जयंतो नृपाशया ॥५॥ धूपयेत्सततं चैनं श्वगोमत्स्यैस्तु पूतिभिः । देहदुःखभयेभ्यो हि परं प्राणिभयं मतम् । वातश्लेष्मात्मक प्रायः॥
तेन याति शमं तस्य सर्वतो विप्लुतं मनः - अर्थ-कुत्ता, गौ और मछली इनके सडे | अर्थ-उन्माद रोगी को जमीन कूरमें हुए मांस की निरंतर धूनी देना उन्माद | डाल कर भूख से शोषित करावे अर्थात् खाने रोग में हित है । तथा बातकफात्मक उ- को न दे । तथा धर्मार्थ मिश्रित बातों से न्माद में तो विशेष रूप से हित है। । उसका भाश्वासन करै । भथवा किसी प्रिय
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अष्टांगहृदप ।
प्र. ६
वस्तुके नष्ट होनेका समाचार सुनावै, अथवा | उसके चित्त को शांत करने का उपाय कोई अद्भुत पदार्थ उसको दिखावै । अथवा करे ।। उसके देहपर सरसों का तेल लगाकर हाथ कामादिज उन्माद में कर्तव्य । पांव वांचकर धूपमें चित्त डालदे । उसके कामशोकभयक्रोधहर्षेालोभसंभवान् ५५ देहमें कैंचकी फली रिगड दे । अथवा गरम
परस्परप्रतिद्वंद्वैरेभिरेव शमं नयेत् । लोह, तेल वा जल उसके देहपर डाले ।
___अर्थ-काम, शोक, मय, क्रोध, हर्ष, अथवा उसके देह पर कोडे लगावै, अथवा ईर्ष्या, लोभ इनसे उत्पन्न हुए उन्माद रोगों गढे में डालदे । अथवा किसी अंधेरे गढे
में इनके प्रतिपक्षी उपायों को काममें लाकर में वा शस्त्र, पत्थर और मनुष्य रहित घरमें शांति का उपाय करे। बंद करदे । अथवा ऐसे सर्पसे जिसके दांत भूतोन्माद में कर्तव्य । उखाड लिये गये हों, अथवा दमन किये भूतानुबंधमीक्षेत प्रोक्तलिंगाधिकाकृतिम् । हुये सिंह वा हाथियों से उसे डरावै । अथवा
यद्युन्मादे ततः कुर्याद्भूतनिर्दिष्टमौषधम् । राजा के सिपाही उसको बाहर लेजाकर
अर्थ-छः प्रकार के उन्मादों के जो अच्छी तरह बांधकर खूब धमका कर इस
लक्षणादि कहे गये हैं, उन लक्षणों से
अधिक लक्षण पाये जाय तो उसे भूतोन्माबातसे डरावै कि राजाने तुझको मार डालने के लिये आज्ञा दी है, क्योंकि शारी.
द कहते हैं । इस भूतोन्मादमें वह चिकित्सा
करनी च हिये तो भूत चिकित्सित में कही रक क्लेश से प्राणोंको भय अधिक होताहै । इन उपायों से विप्लवको प्राप्त हुए रोगी का मन शांत होजाता है।
उन्माद में बलिप्रदान ।
| बलिं च दद्यात्पललं यावकं सक्तपिडिकाम् उक्त क्रिया का विधान ।
| स्निग्धं मधुरमाहारं तंडुलानरुधिरोशितान्। सिद्धा क्रिया प्रयोज्येयं देशकालाद्यपेक्षया। पकामकानि मांसानि सरामैरेयमासवम । __ अर्थ-उक्त सिद्ध किया देश और काल अतिमुक्तस्य पुष्पाणि जात्याः सहचरस्यच का विचार करके काम में लानी चाहिये । चतुप्पथे गवां तीर्थे नदीनां संगमेषु च ५८ . इष्ट विनाशजन्यउन्माद । अर्थ-भूतानुबंधी उन्मादमें तिलका चू. इष्टद्रव्यविनाशात्त मनो यस्योपहन्यते॥५३॥ र्ण, कुलथी, सक्तुपिंडिका, स्निग्ध और मधुरास्य तत्सदृशप्राप्तिः सांत्वाश्वासैःशमनयत् र आहार, रुधिरप्लुत चांवलों का भात, क__ अर्थ-धनादिक किसी प्यारी बस्तु के चा पक्का मांस, सुरा, मेरेय और आसव,मानष्ट होजाने से जिसका मन चायमान हो । धवीलता, चमेली, वा सहचरी के फूल, इन गया है उसे धनादि की प्राप्ति का समा- | सब द्रव्यों को एक पात्रमें रखकर चौराहे में चार, तथा सांत्वना और आश्वासन द्वारा या गोशाला में वा नदी के संगम पर रखदे ।
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अ०७
उत्सरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७५९)
उन्माद की अप्राप्ति । तान्खादन्बमन्फेनं हस्तौपादोचविक्षिपन् निवृत्तामिषमद्यो यो हिताशी प्रयतः शुचिः
पश्यन्नसंति रूपाणि प्रस्खलन्पतति क्षिती। निजागंतुभिरुन्मादैः सत्ववान्न स युज्यते'१८
विजिह्माक्षिभ्रवो दोषवेगेऽतीत विबुध्यते । ___ अर्थ-जो मनुष्य मद्य मांसका सेवन न
कालांतरेण स पुनःश्चैवमेव विचेष्टते।
अर्थ-जिस रोग में स्मृति का नाश हो करके हितकारी भोजन करता है, जो संय.
जाता है, उसे अपस्मार कहते हैं । वुद्धि मवान और पवित्र होता है वह सात्विक पुरुष दोषज वा आगन्तुज किसी प्रकारके उ.
और सत्वगुण में विप्लव होने के कारण न्माद से पीडित नहीं होता है !
चिंता शोक और भयादि द्वारा आक्रमित
हुआ चित्त तथा उन्माद के सदृश चित्त और - बिगत उन्माद के लक्षण ।
देहमें रहनेवाले प्रकुपित दोषों से सत्वगुण प्रसाद इन्द्रियार्थानां वुध्यात्मामनसां तथा। धातूनां प्रकृतिस्थत्वं विगतोन्मादलक्षणम्।।
नष्ट होकर हृदय और संज्ञावाही संपूर्ण अर्थ-संपूर्ण इन्द्रियों के विषय, तथा बु
स्रोतों में व्याप्त होजाता है इसी से स्मृति
का नाश होकर अपस्मार उत्पन्न होता है। द्धि, आत्मा और मनकी प्रसन्नता हो जपय तथा संपूर्ण धातु अपनी प्रकृति पर आजावें
अपस्मार में रोगी की आंखों के आगे तब जान लेना चाहिये कि उन्माद रोम
अवेरा छा जाता है, और वह मूढमति जाता रहा है।
होकर निंदित कामों को करने लगता है, इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी
हाथों को चलाता है, झाग डालता है, हाथ कान्वितायां उत्तरस्थाने उन्मादप्रति
पांवों को इधर उधर फेंकता है, अनहुए षेधोनाम षष्ठोऽध्यायः ।
रूप और आकृतियों को देखकर सहसाभूमि में गिर पडता है, उसकी आंख और
भृकुटी टेढे पड जाती है, दोषका वेग दूर सप्तमोऽध्यायः
हो जाने पर रोगी होश में आजाता है,
समयान्तर में फिर ऊपर लिखी हुई दशाको अथाऽतोपस्मारप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। । प्राप्त हाजाता है। अथे-अब हम यहां से अपस्मार प्रति.
अपस्मार के भेद । षेध नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे।
| अपस्मारश्चतुर्भेदो वाताद्यैर्निचयेन तु ५॥
अर्थ अपस्मार के चार भेद होते हैं, अपस्मार के लक्षण । "स्मृत्यपायोद्यपस्मारसंधिसत्वाभिसंप्लवात् |
। यथा वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज जायतेऽभिहते चित्ते चिंताशोकभयादिभिः।
अपस्मार का पूर्वरूप। उन्मादवत्प्रकुपितैश्चित्तदेहगतर्मलैः । | रूपमुत्पित्स्यमानेऽस्मिन्हृत्कंपाशून्यताभ्रमः हते सत्वे हदि व्याप्ते संशावाहिषु खेषु च | तमसो दर्शनं ध्यान भ्रव्युदासोक्षिवैकृतम् समोविशन्मूढमति ीभत्साः कुरुते कियाः। अशद्धवणं स्वेदो लालासिंघाणकन्नतिः।
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(७६०)
- अष्टांगहृदय ।
भविपाकोऽरुचिर्मूर्छा कुक्ष्याटोपो वलक्षयः | रूक्ष, श्याव, अरुण वा काले पड़ जाते हैं । निद्रानाशोऽगमर्दस्तृट् स्वप्ने गानं सनर्तनम् रोगी को चंचल, कर्कश विरूप और बिकृ. पाने मद्यस्य तैलस्य तयोरेव च मेहनम् ८
| तानन संपूर्ण वस्तु दिखाई देने लगती हैं। ___ अर्थ-अपस्मार के पूर्वरूप ये हैं । हृदय में कंपन, सन्नाटा, चक्कर आना, आंखों
पित्तज अपस्मार। के आगे अंधेरा दिखाई देना, ध्यान बंध जा
अपस्मरति पित्तेन मुहुः संशां च विदति ।
पीतफेनाक्षिवक्त्रत्वगास्फलयति मेदिनीम् ना, भ्रकुटियों में कुटिलता, आंखोंमें विकृति |
भैरवादीप्तरुषितरूपदर्शी तृषान्वितः ॥१३॥ शब्द न होने पर भी सुनना, पसीना, लाला | अर्थ-पित्तज अपस्मार में रोगी बार बार स्त्राव, नासामलस्राव, अविपाक, अरुचि, मू. चेत करलेता है, उसके झाग, आँख, मुख छो, पेटमें गुडगडाहट, बलकानाश, निद्राना- | और त्वचा पीले पडजाते हैं, भूमि को खोदने श, अंगमर्द, तृषा, स्वप्नावथा में गाना,ना- लगता है उसे प्यास लगती है, इसको भयाचना, मद्यपान, तैलपान, तथा मद्य वा तेल नक, प्रदीप्त, और क्रोधित रूप दिखाई देने के समान ही मूत्र होना । ये सब लक्षण
लगते हैं। अपस्मार रोग होने के पहिले उत्पन्न होते है।
कफज अपस्मार। वातज अपस्मार के लक्षण ।
कफाचिरेण ग्रहणं चिरेणैव विबोधनम् । तत्र वातात्स्फुरत्सक्थि प्रपतंश्च मुहुर्मुहुः । चेष्टाऽल्पा भूयसी लाला शुक्लनेत्रनखास्यता अपस्मारेति संज्ञा च लभते विस्वरं रुदन् | शुक्लाभरूपदर्शित्वं उत्पिडिताक्षः श्वसिति फेनं वमति कंपते ।
सर्वलिंगं तु वर्जयेत् आविध्यति शिरोदंतान् दशत्याध्मातकंधरः
___ अर्थ- कफज अपस्मार में रोगी देरमें बे. परितो विक्षिपत्यंगं विषमं विनतांगुलिः। शश्यावारुणाक्षित्वनखास्यः कृष्णमीक्षते हो
| होश होता है और देर में ही रोगसे मुक्त हो चपलं परुषं रूपं विरूपं विकृताननम् । कर होश में आता है, इसमें रोगी चेष्टा क
अर्थ-इनमेंसे वातज अपस्मार में रोगी का | म करता है, मुखसे लार अधिक गिरती है, पांव कांप ने लगता है और बार बार गिरता | नेत्र नख और मुख सफेद होजाते हैं,गेगीको पडता है, उसका ज्ञान नष्ट होकर स्वर वि- | शुक्लवर्ण की वस्तु दिखाई देने लगती हैं। कृत रुदन करनेलगता है आंखे गोलसी हो । त्रिदोषज अपस्मार जिसमें तीनों दोषों के ल. जाती हैं श्वास लेता है मुखसे झाग डलताहै। क्षण पाये जाते हैं असाध्य होता है। कांपने लगता है, सिरको घुमाता है, दांतों वमनादि प्रयोग । को चबाता है, कंधों को ऊंचे करता है, अथाऽवृतानांधीचित्तहत्खानांप्रारूप्रबोधनम् अंगको चारों ओर फेंकता है. देहमें बिष. तीक्ष्णैः कुर्यादपस्मारे कर्मभिर्बममादिभिः । मता होजाती है, संपूर्ण उंगलियां टेडी अर्थ-जब अपस्मार के स्वरूप का ज्ञान पड़जाती हैं । आंग्वें, त्वचा, नख और मुख , हो जाय तब दोषोंसे आवृत वुद्धि, चित्त,
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अ. ७
उत्सरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७६१)
मन
-
-
हृदय और संपूर्ण स्रोतों का प्रबोध कराने | प्रस्थं तद्वद् द्रवैः पूर्व पंचगव्यामिदं महत् । के निमित्त तीक्ष्ण वमनादि कर्मका प्रयोग करे ज्वरापस्मारजठरभगंदरहरं परम् ॥ २३ ॥ ___ दोषानुसार विरेचनादि।
शोफाक्षः कामलापांडुगुल्मकासग्रहापहम् । पातिक बस्तिभूयिष्ठैः पैत्तं प्रायो विरेचनैः ।।
___अर्थ-दशमूल, त्रिफला,हलदी, दारुहलश्लैष्मिकं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् । । दी, कुडाकी छाल, सातला, ओंगा, नीलनी,
अर्थ-वातिक अपस्मारमें वस्तिप्रधान कुटकी, अमलतास, पुष्करमूल, जटामांसी, चिकित्सा द्वारा, पैत्तिक अपस्मारमें विरेचन | काकोडुम्बर की जड, और दुरालभा प्रत्येक प्रधान चिकित्साद्वारा और कफज अपस्मार दो पल इनको एक द्रोण जलेमें पकाकर चौमें वपनप्रधान चिकित्साद्वारा उपचार करे। थाई शेष रहने पर उतार कर छानले। फिर
संशमन औषधियों का विधान । | भाडंगी, पाठा, अरहर, निसोथ, दंती, त्रिकुसर्वतस्तु विशुद्धस्य सम्यगाश्वासितस्यच टा, रोहिषतृण, मूर्वा, अजवायन, चिरायता,
भपस्माविमोक्षार्थ योगान्संशमनान् शृणु। हरड. दोनों सारिवा, मदयंती, चीता, और - अर्थ-वमनविरेचनादि द्वारा सब तरहसे
जलवेत प्रत्येक एक तोला इनका कल्क मिशुद्ध हुए तथा पेयापानादि द्वारा संसर्गी क
लाकर एक प्रस्थ घी तथा पूर्वोक्त द्रव्य अ. रके सम्यक् आश्वासन किये हुए रोगी को
र्थात गोवर का रस, दूध, दही और गोमूत्र अपस्मार की शांति के निमित्त जिन संशम
मिलाकर पाककी रीतिसे पाक करे इस घृत नादि औषधियों का प्रयोग किया जाता है,
का नाम महत्पंचगव्य वृत हैं। इसके पान उनका वर्णन करते हैं। __ अपस्मारनाशक घृत ।
करने से ज्वर, अपस्मार, उदर रोग और भ. गोमयस्वरसक्षीरदाथिमृत्रः शतं हविः। गंदर दूर होजाते हैं तथा शोफ, अर्श, काअपस्मारज्वरोन्मादकामलांतकरं पिबेत् । । मला, पांडुरोग, गुल्मरोग, खांसी और ग्रह इ.
अर्थ-गोवर का रस, दूध, दही और गो न के दूर करने में परमोत्तम है। मूत्र इनके साथ घृत पकाकर पान करावै,इ- ____ उन्माद पर अन्य घृत ससे अपस्मार, ज्वर, उन्माद और कामलारो- ब्राह्मीरसंवचाकुष्टशंखपुष्पी शृतं घृतम् ॥ ग शांत होजाते हैं।
पुराणं मेध्यमुन्मादालक्ष्म्यपस्मारपाप्मजित् महत्पंचगव्य घृत ।
अर्थ-ब्राह्मी का रस, बच, कूठ और द्विपंचमूलीत्रिफलाद्विनिशाकुटजत्वचः ॥ शंखपुष्पी इनके साथ पकाया हुआ पुराना सप्तपर्णमपामार्ग नीलिनी कटुरोहिणीम् । घी मेधावर्द्धक है तथा उन्माद, अलक्ष्मी, शभ्याकपुष्करजटाफल्गुमूलदुरालभाः ॥
अपस्मार और पाप रोगों को जीतनेवालाहै। द्विपलाः सलिलद्रोणे पक्त्वा पादावशेषते। भार्गीपाठाढकीकुंभनिकुंभव्याषरोहिषैः ॥
उक्त रोग पर तेल । मूर्वाभूतिकभूनिंबधेयसीलारिवाद्यैः। तैलप्रस्थं घृतप्रस्थं जीवनीयैः पलोन्मितः॥ मदयंत्याग्निनिचुलैरक्षांशैः सर्पिषः पचेत् ॥ क्षीरद्रोणे पचेत्सिद्धमपस्मारविमोक्षणम् ।
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(७६२)
अष्टांगहृदय ।
अ. ७
-
. अर्थ-जीवनीयगणोक्त प्रत्येक द्रव्य एक । है तथा कुत्ता, शृगाल, बिल्ली और सिंह पल लेकर कल्क बनालेवे, इस में एक द्रोण का पित्ता भी तद्वत् गुणकारी है । दूध, एक प्रस्थ घी मिलाकर पका लेवै ।।
अन्य तेल प्रयोग । यह प्रयोग अपस्मार को दूर करनेवालाहै। गोधानकुलनागानां वृषभदंगवामपि ॥ बातपित्तज अपस्मार का उपाय । |
पित्तेषु साधित तैलं नस्येऽभ्यंगे च शस्यते ।
___ अर्थ-गोधा, न्यौला, सर्प, बैल, रीछ कसे क्षीरेक्षुरसयोः काश्मयेऽष्टगुणे रसे ॥ | कार्षिकैर्जीवनायैश्च सर्पिःप्रस्थंविपाचयेत् ।
, और गौ इनके पित्तों में सिद्ध किया हुआ वातपित्तोद्भवंक्षिप्रमपस्मारं निहंति तत् ॥ तेल नस्य अभ्यंग द्वारा श्रेष्ठ होता है। अर्थ-दूध और ईख का रस एक आ
अन्य प्रयोग। ढक, खंभारी का रस आठ प्रस्थ, जीवनीय
| त्रिफलाव्योषपीतदुयवक्षारफणिजकैः ।
श्यामापामार्गकारजवीजैस्तैलं विपाचितम् । गणोक्त द्रव्य प्रत्येक एक कर्ष, धी एक प्रस्थ ।
वस्तमूत्र हितं नस्यं चूर्ण वाध्मापयद्भिषक् ॥ इनको पाक की विधि से पकावै । यह वात
अर्थ-चौगुने बकरी के मूत्र में त्रिफला पित्त से उत्पन्न हुए अपस्मार रोग को शीघ्र
त्रिकुटा, सरलकाष्ठ, जवाखार, तुलसी, श्याही नष्ट कर देता है।
मालता, ओंगा, और कंजा के बीज इनके अन्य प्रयोग।
कल्क के साथ पकाया हुआ तेल नस्य द्वारा तद्वत्काशविदारीक्षुकुशक्काथशृतं पयः।।
प्रयोग करे अथवा इन्हीं त्रिफलादि के चूर्ण __ अर्थ-कांस, विदारीकंद, ईख और कुशा | का नाक में प्रधमन करे । इनके कार्ड के साथ औटाये हुए दूध के
धूमप्रयोग। सेवन से उक्त फलसिद्धि होती है । | नकुलोलूकमार्जारगृध्रकीटाहिकाकजैः ।
अन्य प्रयोग । तुडैः पक्षैः पुरीषैश्च धूममस्य प्रयोजयेत् ॥ कूष्मांडस्वरसे सर्पिरष्टादशगुणे शृतम् ॥ अर्थ-नकुल, उलूक, बिल्ली, गिद्ध, यष्टीकल्कमपस्मारहरं धीवास्वरप्रदम् ।। कीट, सर्प और कौआ इनकी चौंच, पंख । अथे-घी से अठारह गुना कोयले का
और बीटका धूम प्रयोग करनेसे अपस्मार रस मिलाकर घी पकावै और इसमें मुल- | रोग दूर होता है । हटी का कल्क डालदे । इससे अपस्मार लशुनादि तैल । रोग जाता रहता है । यह बुद्धि, वाणी शीलयेत्तैललशुनं पयसा वा शतावरीम् । और स्वर का बढाने वाला है। ब्राह्मीरसं कुष्ठरसं वां वा मधुसंयुताम् ॥ नस्य का प्रयोग।
अर्थ-तिलके तेल के साथ ल्हसन, कपिलानां गवां पित्तं नावनं परमं हितम ॥ अथवा दूधके साथ सितावर अथवा ब्राह्मी श्वशृगालावडालानां सिंहादीनांच पूजितम् का रस घा कृठका रस अथवा शहत मिला
अर्थ-कपिलवर्ण गी का पित्ता नस्य । कर बचका प्रयोग करनेसे अपस्मार गेग द्वारा प्रयोग किये जाने पर परम हितकारी | जाता रहताहै ।
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म. ८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७६३ )
असाध्यकी चिकित्सा । | अर्थ-अब हम यहांसे धर्मरोग विज्ञासमं ऋद्धरपस्मारोदोषैः शारीरमानसै। नाय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। यजायते यतश्चष महाममसमाश्रयः॥
नेत्ररोगकी संप्राप्ति । तस्मादसायनरेनं दुश्चिकित्स्यमुपाचरेत्। सर्वरोगनिदानोक्तैरहितैः कुपिता मलाः ॥१॥ तदात चाग्नितोयादेविषमात्पालयेत्सदा ॥ | अचक्षुष्यविशेषेण प्रायः पित्तानुसारिणः ॥ ___अर्थ-शारीरक और मानसिक संपूर्ण शिराभिरूवं प्रसृता नेत्रावयवमाश्रिताः। दोष एक साथ कुपित होकर अपस्मार रोग बमसधि सितं कृष्णं रष्टिवा सर्वमक्षि या को उत्पन्न करते हैं तथा यह रोग महामर्म रोगान् कुर्युः का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है इसलिये
____अर्थ-कठिनता से खोलने मूदने आदि यह अपस्मार रोग असाध्य होजाता है । इस
पलकों के रोगको वर्त्मरोग कहते हैं । सर्व. दुश्चिकित्स्यरोग की रसायन द्वारा चिकित्सा
रोगनिदानोक्त का तिक्तादि अहित आहार करना उचितहै । तथा इस रोगके होनेपर
और बिहार द्वारा तथा विशेष करके उन रोगी को आग्नि और जलके विषम स्थलों
| कारणों से जो नेत्रों को अहित हैं संपूर्ण से सदा बचाता रहै ।
दोष प्रकुपित और पित्तानुगामी होकर संपूर्ण . कुत्सित वाक्योंका निषेध । सिराओं के द्वारा जत्रुसे ऊपर फेंके जाकर मुकं मनोविकारेण त्वमित्थ कृतवानिति। | नेत्रके अवयवों को अर्थात् वर्मकी संधियों न अयाद्विषयैरिष्टैः क्लिष्टं चेतोऽस्थ वृहयेत् ॥ को वा सफेद भाग को वा काले भाग को
अर्थ-जब अपस्मार रोगी का अपस्मार वा दृष्टिको वा संपूर्ण नेत्रगोलक को ग्रहण का वेग शांत हो जाय, तब उस रोगी से करके अनेक प्रकार के नेत्ररोगों को उत्पन्न वेग के समय का कुछ भी वृत्तान्त न कहै कर देते हैं। कि तूने यह किया था, वा तेरी ऐसी दशा कृच्छ्रोन्मीलन के लक्षण । होगई थी। तथा उसके क्लिष्ट चित्तको प्रिय चलस्तत्र प्राप्य वर्माश्रयाः सिरा। • वाक्यों द्वारा सुस्थ करनेका उपाय करै। सुप्तोत्थितस्य कुरुते वर्मस्तंभ सवेदनम् ॥
पांशुपूर्णाभनेत्रत्वं कृच्छ्रोन्मीलनमश्रु च। इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी
विमर्दनात्स्याश्च शमः कृच्छ्रोन्मीलकान्वितायां उत्तरस्थाने अपस्मार
वदंति तम् ॥४॥ प्रतिषेधोनातसप्तमोऽध्यायः॥७॥ अर्थ-प्रकुपितवायु नेत्रों के वर्मभाग
वाला संपूर्ण शिराओं का आश्रय लेकर अष्टमोऽध्यायः। सोकर उठे हुए मनुष्य के नेत्रों में पद्मस्तंभ
अर्थात् नेत्र के कोयों में स्तब्धता करदेता अयाऽतो वमरोगविज्ञानीयमध्याय
है, इस रोग में वेदना, आंखों में धूलसी व्याख्यास्यामः। | भरना, कठिनता से आंखों का खुलना और
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( ७६४ )
आंसू बहना ये लक्षण होते हैं, परंतु हाथ से मीडने पर कुछ शांति होजाती है । इस रोगको कृच्छ्रोन्मीलन कहते हैं । निमेषाख्य रोग | चालयन्वर्त्मनी वायुनिमेषोन्मेषणं मुहुः । करोत्यरुडू निमेषisit
अर्थ- वायु नेत्रों को चलायमान करता हुआ बार बार नेत्रों को खोलता, और बन्द करता है, इस में दर्द नहीं हुआ करता है, इस रोग को निमेष कहते हैं । वातहतरोग | बर्म यत्तु निमील्यते ॥ ५ ॥
संधि
विमुक्तसाधी निश्चेष्ट हीनं बातहतं हि तत् । -अर्थ-यदि वायुद्वारा नेत्रका व यों से युक्त, चेष्टारहित और हीन होकर निमीलित होजाता है, उसे वातहताख्य रोग कहते हैं ।
अष्टगहृदय ।
कुंभीसंज्ञक पिटिका । कृष्णाः पित्तेन बह्वर्थोऽतर्वर्त्म कुंभीकवीजवत् आध्मायते पुनर्भिन्नाः पिटिकाः कुंभिसंज्ञिताः
अर्थ - पित्त के कारण से नेत्रके कोयों में जमालगोटा के बीज के समान काले रंगकी बहुत सी फुंसियां पैदा होजाती हैं, और फटकर फिर फूल जाती हैं । इन फुंसियों को कु भी कहते हैं ।
पित्ताक्लिष्ट रोग |
सदाहक्लेदनिस्तोद रक्ताभ स्पर्शनाक्षमम् ॥ पित्तेन जायत वर्त्म पित्तात्क्लिष्टमुशति तत् । अर्थ-पित्त के कारण से वभाग में दाह, क्लेद, सूची वेधनबतू पीडा और, ढलाई हो तथा हाथ न लगाया जासके उसे पित्त. किट कहते हैं ।
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अ० ८
पक्ष्मशात के लक्षण |
करोति कंडूं दाहं च पित्तं पक्ष्मांतमास्थितम् पक्ष्मण शातनं चानु पक्ष्मशातं वति तम् ।
अर्थ - पित्त पलकों के भीतर के भाग का आश्रय लेकर खुजली और दाह पैदा करदेता है, पीछे पलकों के बाल गिर पडते हैं, इसे पक्ष्मशात कहते हैं । पोथकी का लक्षण |
पोथक्यः पिटिकाः श्वताः सर्षपाभा घनाः कफात् ॥ ९ ॥ शोफोपदेइहृत्कं पिच्छिलाश्रसमन्विताः । अर्थ - कफ के कारण से सघन सरसों के समान छोटी छोटी फुंसियां होजाती हैं, इनका रंग सफेद होता है, इसमें सूजन उपदेह ( हिसावट ) नेत्र में खुजली, पि. च्छिलता और आंसू बहना ये लक्षण होते हैं ।
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कफोक्लिष्ट रोग |
कफोक्लिष्टं भवेद्वर्त्म स्तंभक्केदोपदेहवत् ॥ अर्थ - जिस रोग में स्तब्धता, हिसावट और क्लेद होता है उसे कफोक्लिष्ट वर्त्म कहते हैं। लगण रोग ।
ग्रंथिः पigestin: कंडूमान् कठिनः कफात् । कोलमात्रः खलगणः किंचिदल्पस्ततोऽपि वा
अर्थ- कफके कारण से नेत्रके धर्म में पां डुवर्ण की वेदनारहित, पाकरहित, खुजली से युक्त कठोर और बेरके बराबर अथवा इससे कुछ छोटी गांठ पैदा हो जाती है । इसे लगण कहते हैं ।
उत्संग के लक्षण | रक्ता रक्तेन पिटिकास्ततुल्यपिटिकाचिताः ।
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अ. ८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - रक्त के कारण से धर्ममें लालरंग । के भागमें छोटे छोटे छिद्र हो जाते हैं और की फुसी पैदा हो जाती हैं और इन फुसि- धर्म स्रावयुक्त तथा जलमें स्थित कमलनाल यों के चारों ओर वैसी ही और भी फुसियां । की तरह सछिद्र होता है, इस रोग को वि. हो जाती हैं। इस रोग को उत्संग कहते हैं। सवर्म कहते हैं । उलिष्ट वर्मरोग।
उक्लिष्ट वम । तथोकिलष्टं राजिमत्स्पर्शनाक्षमम् १२॥ यद्वोक्लिष्टमुक्लिष्टमकस्मान्म्ला__ अर्थ-उत्संग के सदृश ही उक्लिष्ट ना
नतामियात् । मक वर्मरोग होता है, इसमें रेखासी होती हैं रक्तदोषत्रयोत्क्लेशाद् वदंत्युक्लिष्टवर्म तत् और हाथ नहीं लगाया जाता है ।
___ अर्थ-रक्त और बातादि तीनों दोषों के नेत्रार्श के लक्षण । उत्क्लेश के कारण वर्म उक्लिष्ट होकर अक. अर्थोऽधिमांसं वर्मातः स्तब्धं स्निग्ध- | स्मात् स्तब्ध होकर म्लान हो जाता है, उसे
सदाहरुक् । उक्लिष्ट वर्म कहते हैं। रक्तं रक्तेन तनावीछिन्नं छिनंच वर्धते १३
श्याव वमके लक्षण । अर्थ-वर्मके भीतर की ओर रक्तके का | श्याववर्त्म मलैः सानैःश्यांघरुकक्लेदशोफवत् रण एक मासका अंकुर पैदा हो जाता है यह | अर्थ-रक्त अथवा वातादि दोषोंके कास्तब्ध, स्निग्ध, दाह और वेदना से युक्त ला- | रण वम श्याववर्ण तथा वेदना, वेद और ल रंग का होता है, इसमें से रक्तका स्राव | | सूजनसे युक्त होजाताहै तब इसे श्यावयम हुआ करता है, यह बार बार छिन्न होनेपर कहते हैं। भी बढ जाता है, इसे नेत्रार्श कहते हैं। श्लिष्टवर्त्मके लक्षण ।
श्लिष्टाख्यवर्मनी श्लिष्टे कंडूश्वयथुरागिणी __आंजन पिटिका।
अर्थ- जिस रोगमें नेत्रके ऊपर नीचे मध्ये बावमनोऽतेवाकण्डूषारुग्वती स्थिरा | के पलक गीडके कारण चिपट जाते हैं, तथा मुद्रमापासृजा ताना पिटिकांजननामिका ॥
नेत्रों में खुजली, सूजन और ललाई पैदा ___ अर्थ-रक्तके कारण से वर्मके बीचमें वा
होनाती हैं, उसे श्लिष्टवर्त्म कहते हैं। किसी किनारे की तरफ खुजली, दाह और वेदना
किसी पुस्तक में श्लिष्टकी जगह 'क्लिष्ट' से युक्त, कठोर मूंगके बराबर तांबेके से रंग
पाठ भी है। की फुसियां होती हैं इसे अंजनरोग कहते हैं |
सिकतावम॑ । विसवमके लक्षण । पद्मनोऽसासराकक्षाःपिटिकाासिकतोपमाः दोषैर्वमै पहिःशून यदंतः सूक्ष्मखाचितम्। सिकतावम सम्रावमंतरुदक बिसाभं विसबर्त्म तत् १५ अर्थ-नेत्रके पलकों के भीतर खरदरी
अर्थ-वातादि दोषों के कारण नेत्रों के और रूक्ष फुसियां बालके समान पैदा हो वर्मका वहिर्भाग सूज जाता है और भीतर जाती हैं, इन्हें सिकतावम कहते हैं ।
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अष्टांगहृदय |
कर्दमरोग | कृष्णं तु कर्दमं कर्दमोपमम् १८ अर्थ - कीचके सदृश वा काले रंगकी फुंसियों को कर्दम कहते हैं । बहलरोग का वर्णन | बहलं बहलैर्मासैः सवर्णैश्चीयते समैः । अर्थ - नेत्रोंके पलकों को त्वचा के रंग के समान जो सघन मांस के अंकुरवर्त्म में पैदा होजाते हैं, उसे वह वर्त्मरोग कहते हैं । कुकूणक का लक्षण | कुकूणकः शिशोरेव दंतोत्पत्तिनिमित्तजः : स्यात्तेन शिशुरुच्छ्रन ताम्राक्षो वीक्षणाक्षमः स पशूलपच्छिल्य कर्णनासाक्षिमर्दनः ।
अर्थ- दांत निकलने के समय बालक के कुकूणक नामक रोग होता है, यह रोग बालक को ही होता है, क्योंकि दांतों की : उत्पत्ति का हेतु है । इसमें बालक की आंख फूल जाती हैं और तांबे के से रंगकी होजातीहै, बालक देखने में असमर्थ होजाता है, कान, नाक और आंखों को मीडने लगता है। उसके पलकों में पिच्छिलता और शूलवत् वेदना होने लगती है ।
वर्त्मसंकोचादि ।
पक्ष्मोपरोधे संकोचो वर्त्मनां जायते तथा । खरतांतर्मुखत्वं च लोम्नामन्यानि वा पुनः कंटकैरिव तीक्ष्णाग्रैर्धृष्टं तैरक्षिसूयते । उष्यते चानिलादिद्विडल्पाहः शांतिरुद्धः अर्थ - पक्ष्मोपरोध रोगमें कर्म में सुकडापन, तथा पलक खरदरे और भीतर को मुख बाले होजाते हैं, अथवा पुनवीर लोम उत्पन्न हो जाते हैं । पैनी नोक वाले रोमों से नेत्र कांटों से बधे से हो जाते हैं । इस रोग में नेत्रों
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अ० ८
में दाह होने लगता है, हवा और धूपको सह नहीं सकता है । रोमों को उखाड छैनेसे वेदना शीघ्र शांत होजाती है । इस रोगको परवाल कहते हैं ।
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अलजीनामक ग्रंथि |
hotos बहिर्व कठिनो ग्रंथिरुन्नतः । ताम्रः पक्कोऽनपूयास्त्रदलज्याध्मायते मुहुः अर्थ-ब के बाहर की ओर कनीनका में एक कठोर और ऊंची गांठ होती है, उसका रंग तांबे के सदृश, पकने पर राध और रुधिर बहानेवाली होती है, इसे अलजी कहते हैं, यह बार बार फूल जाती है ।
अर्बुद का लक्षण । वर्त्मतर्मासपिंडाभः श्वयथुर्ग्रथितो रुजः । सानैः स्यादर्बुदो दोषैर्बिषम्रो बाह्यतश्चलः
अर्थ-वर्त्मके भीतर मांसके पिंड के सदृश एक गांठदार सूजन होती है यह रक्त तथा वातादि तीनों दोषों के कारण पैदा होती है, इसमें दर्द नहीं होता है, इसे अर्बुद कहते हैं । जब यह वर्त्मके बाहर होती है, तब यह चलायमान और विषम आकृतिवाली होती है । चतुर्विंशतिरित्येते व्याधयो वर्त्म संश्रयाः । अर्थ- - ऊपर कही हुई चौबीस व्याधियां वर्मके आश्रयवाली हैं ।
श्रीरोगों की संख्या ।
उक्तव्याधियों का साध्यासाध्यत्व । आद्योse भेषजैः साध्यो द्वौ ततोऽर्शश्व येत् ॥ २५ ॥ पक्ष्मोपरोधो याप्यः स्याच्छेषाञ्छत्रेण साधयेत् । अर्थ- इनमें से पहिला रोग आर्थत्
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उत्तरस्थान भाषाटीकासभेत । .
(७६७१
कृच्छ्रोन्मीलन औषधियों द्वारा साध्य होता कृच्छ्रोन्मीलन की चिकित्सा । तत्पश्चात् निमेष, वातहत और अर्श ये " कृच्छ्रोन्मीले पुराणाज्यं द्राक्षाकल्कातीनों असाध्य हैं, पक्ष्मोपरोध याप्य है,शेष
. बुसाधितम् ।
ससितं योजयेत्स्निग्धं नस्यधूमांजनादि च सब शस्त्रसाध्य हैं।
. अर्थ-कृच्छोन्मील नामक नेत्ररोग में पक्ष्मसदन का उपाय ।
पुराना घी दाख के कल्क और काढे के कुट्टयेत्पक्ष्मसदमं छिंद्यात्तेष्वपि चार्बुदम् |
साथ सिद्ध करके शर्करा मिलाकर सेवन भिंद्यालगणकुंभीकाबिसोत्संगांजनालजीः । पोथकीश्यावसिकताश्लिष्टोक्लिष्टचतुष्टयम् ।
करावै । इस में स्निग्ध नस्य धूम और अं. सकर्दम सपहलं विलिखेत्सकुकूणकम् , जनादि का प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-शस्त्रसाध्य इक्कीस नेत्ररोगों से
कुंभीकावत्म का उपाय । पक्षमसदननामक रोगको सूची और कर्च ! कुंभीकावत्मलिखितं सैंधवप्रतिसारितम् ।
यष्ठीधात्रीपटोलीनां क्वाथेन परिषेचयेत् । द्वारा कुट्टित करे । नेत्रावुद को वृद्धिपत्रादि
___ अर्थ-कुंभीकाबर्म को वृद्धिपत्रादि शस्त्र शस्त्रद्वारा छिन्न करै । लगण, कुंभीका, वि
द्वारा लिखित करके सेधेनमक से प्रतिसवम, उत्संग, अंजन और अलजी इनको
सारण करके मुलहटी, आमला और पर्वल व्रीहिमुख अस्त्रद्वारा भेदन करे । तथा पो.
इनके काढे से परिषेक करै । थकी, श्याववर्म, सिकता, श्लिष्ट, पित्तो. क्लिष्ट, कफोक्लिष्ट,रक्तोक्लिष्ट, और उक्लिष्ट
वर्म के विलेखन की रीति ।
निवातेऽधिष्ठितस्याप्तैःशुद्धस्योत्तानशायिनः धर्म तथा कर्दम, बहल और कुकूणक ये
वहिःकोष्णांबुतप्तेन स्वेदितं वम वाससा ग्यारह रोग लेख्य अर्थात् छीलने के योग्यहैं। | निर्भुज्य वस्त्रांतरितं वामांगुष्टांगुलीधृतम् ।
न स्रंसते चलति वा वमवं सर्वतस्ततः । इतिश्री अष्टांगहृदय संहितायां भाषा- मंडलाग्रेग तत्तिर्यक् कृत्वा शस्त्रपदांकितम् टीकान्वितायांउत्तरस्थाने वर्त्मगंग लिखेत्तेनेव पत्री शाकशोफालिकादिजैः। विज्ञानीयो नामाऽष्टमोऽध्यायः।
फेनेन तोयराशेर्वा पिचुना प्रमृजन्नसृक् । स्थिते रक्त सुलिखितं सक्षौदै प्रतिसारयेत् यथास्वमुक्तैरनु च प्रक्षाल्योष्णेन वारिणा
घृतेनासिक्तमभ्यक्तं बध्नीथान्मधुसर्पित नवमोऽध्यायः। ऊर्धाधः कर्णयोर्दत्वा पिडि च यवसक्ताभिः
| द्वितीयेऽहनि मुक्तस्य परिषेकं यथायथम् KARE
कुर्यात् चतुर्थे नस्यादीन्मुंचेदेवाहि पंचमे। अथाऽतोवर्मरोगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहां से नेत्र के वर्म के
अर्थ-अब हम यहां से वर्मरोग प्रतिषेध विलेखन की रीति लिखते हैं । जिसके वर्म नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। का विखन करना हो उसको वातरहित
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(७६८)
अष्टांगहृदय ।
m
स्थान में रखकर वमन विरेचनादि द्वारा | अर्थ-वर्मका अतिलेखन होने से वेदना शुद्ध करके चित्त लिटा देवै, फिर गरम जल तथा पलक और वर्ममें शिथिलता होती है। में वस्त्र को भिगोकर उसके वर्मको स्वेदित | आतलेखनमें स्नेहस्वेदादि वातनाशक चिकिकरके तथा बांये हाथ के अंगूठे और तर्जनी त्सा करनी चाहिये । उंगली द्वारा टेढा करके पकडले जिससे अतिलेखन में उपाय । वर्त्म ढीला होकर इधर उधर चलायमान
अभ्यज्य नवनीतेमश्वेतरोधं प्रलेपयेत् ११ नहो । तदनंतर इस वर्म में मंडलास्त्र को
एरंडमूलकल्केन पुटपाके पचेत्ततः ।
स्विनं प्रक्षालितं शुष्कंचूर्णितंपोटलीकृतम् तिरछा लगाकर शाक वा शांफाल कादि पत्रद्वारा ।
स्त्रियाः क्षीरेछगल्या वा मृदितनेत्रसेचनम् अथवा समुद्रफेन द्वारा उस शस्त्रांकित वर्मको अर्थ-सफेदलोध पर नौनी घी चुपडकर विलेखन करना चाहिये । और रुईके फोयेसे | अरंड की जडका कल्क उसके चारों ओर रुधिर को पोंछ डाले और रुधिर के बन्द होजा लगादे और फिर पुटपाक की रीति से ने पर वर्मको अच्छी तरह खुरचा हुआ जा पकावै । सीजने पर घोडाले और धूप में न कर शहत और सेंधेनमक से प्रतिसा.
सुखाकर पीसकर चूर्ण करले, तदनंतर इस रण करे । फिर गरमजल से धोकर घी चु.
चूर्ण को कपडे की पोटली बनाकर स्त्री के पडकर शहत और घी से अभ्यक्त करके जौ
दूध वा बकरी के दूध भिगो भिगोकर आंके सत्तू का पिंडा लगाकर दोनों कानों के
ख में निचोडे । ऊपर नीचे पट्टी से बांध देवे । दूसरे दिन
अन्य उपाय। खोलकर यथायोग्य औषधियों के काथ से शालितंडुलकल्केन लिप्तं तद्वत्परिष्कृतम् धोकर फिर बांध देवे । चौथे दिन नस्यादि कुन्नेत्र तिलिखितं मृदितं दधिमस्तुना का प्रयोग करे और पांचवें दिन विलकुल
केवलेनाऽपि वा सेकंमस्तुना जांगलाशिनः
अर्थ-त्रके अतिलिखित होनेपर सफेद खोटेदेवै ।
लोध पर नवनीत लगाकर ऊपर से शाली सुलिखितवमके लक्षण ॥
चावलों का कल्क लपेट देवै और पुटपाक समं नखनिभं शोफकंडूघर्षाद्यपीडितम् ॥ विद्यात्सुलिखिंत वर्म लिखेद भूयो विपर्यये की रीति से पकाकर धोडाले, फिर धूप में - अर्थ-सूजन खुजली और रिगड से पी- सुखाकर चूर्ण करके पोटली बांधकर दही के डित वर्म यदि नखके सदृश हो तो उसको पानी में भिगो भिगोकर अथवा केवल दही सुलिखित समझना चाहिये । इससे विपरीत के पानी को ही आंखमें निचोडे । इस पर टोने पवर्म को दवारा लेखन करना चाहिये। जांगल मांस का पथ्य है। अतिलेखन के उपद्रव ॥
कठोरपिटिका की चिकित्सा । रुपक्षमवर्त्मसदनं नसनादतिलेखनात् ॥ | पिटिकानीहिवक्त्रेण भित्वा तुकठिनोन्नताः स्नेहस्त्रेदादिकस्तस्मिन्निष्टो वातहरः ऋमः। निष्पीडयेदनु विधिः परिशेषस्तु पूर्ववत्
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अ० ९.
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थ - कठोर और ऊंची फुंसी को व्रीहिमुख शस्त्रद्वारा भेदन करके निष्पीडित करे। तदनंतर प्रलेप, बंधन, क्षालन, सेचन आदि पहिले की तरह करै ।
उक्त क्रम का विधान |
लेखने भेदने चायं क्रमः सर्वत्र वर्त्मनि । अर्थ-सव प्रकार के वर्मरोगों में लेखन और भेदन की चिकित्सा का यही कम है ।
पित्तरक्तोत्क्लिष्ट में कर्तव्य | पित्तास्रोत्क्लिष्टयोःस्वादुस्कंधसिद्धेन सर्पिषा सिराविमोक्षःस्निग्धस्यत्रिवृच्छ्रेष्टं विरेचनम् लिखिते स्रुतरते च वर्त्मनि क्षालनं हितम् यष्ठीकषायः सेकस्तु क्षीरं चंदनसाधितम्
अर्थ - पित्तोत्क्लिष्ट और रक्तोक्लिष्ट रोगों में मधुरगणोक्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ घी सेवन कराके रोगी को स्निग्ध करे फिर उसकी सिराको खोले । तदनंतर निसोध और त्रिफला का विरेचन देवै । जिस वर्त्म का लेखन और रक्त मोक्षण कर चुके हो उसको मुलहटी के काढ़े से धोना चा हिये और चन्दन डालकर औटाये हुए दूध से परिषेक करना हित है ।
पक्ष्मसात की चिकित्सा | पक्ष्मणां सदने सूच्या रोमकूपान् विकुट्टयेत् ग्राहयेद्वा जलौकोभिः पयसेक्षुरसेन वा । घमनं नावनं सर्पिः शृतं मधुरशीतलैः ॥
अर्थ - पक्ष्पसदन रोग में रोमकूपों का सुई से छेदन करे अथवा जोकों द्वारा पकडवावे दूध वा ईख का रस देकर बमनकराव और मधुर तथा शीतल औषधों के साथ सिद्ध किये हुए घी की नस्य देवे !
९७
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( ७६९ )
पदमशात में अंजन | सचूर्ण्य पुष्पकासीस भावयेत्सुरसारसैः । ताम्रे दशाहं परमं पक्ष्मशाते तदंजनम्
अर्थ - हीराकसीस को पीसकर किसी तांबे के पात्र में रखकर दस दिन तक तुलसी के पत्तों के रसकी भावना देता रहें, फिर इस अंजन के लगाने से पक्षमशात रोग
दूर होजाता है ।
पोथकी की चिकित्सा |
पोथकलिखिताः शुठी सैंधवप्रतिसारिताः । उष्णांवुक्षालिताः सिंचत्स्वदिराढकि शिशुभिः अप्सिद्वैर्द्विनिशाश्रेष्ठामधुकैर्वा समाक्षिकैः । अर्थ - पोथकी को वृद्धिपत्रादि शस्त्रद्वारा लिखित, सोंठ और सेंधे नमक द्वारा प्रतिसारित करके गरम जल से धोवै तदनंतर खैर, अडहर, और सहने के काढ़े से अथवा हलदी, स्थलपद्मनी और मुलहटी के काढे में मधु मिलाकर परिषेक करे ।
कफोक्लिष्ट का उपाय । कफोक्लिष्टे विलिखिते सक्षौद्रैः प्रतिसारणम् सूक्ष्मैः सैंधव कासखिम नोहाकण तार्क्ष्यजैः । वमनांजननस्यादि सबै च फफजिद्धितम् ॥
अर्थ-कफोक्लिष्ट में लेखन करके सेंधा नमक, कसीस, मनसिल, पीपल और रसौत इनको महीन पीसकर शहत मिलाकर प्रतिसारण करे, इस में चमन, अंजन, नस्यादि सव प्रकार के कफ को दूर करने वाली क्रिया हितकारी है ।
लगण का उपाय | कर्तव्यं लगणेप्येतदशांतावग्निना दहेत् ।
अर्थ-लगण रोग में ऊपर कही हुई सब क्रिया हितकारी होती हैं । इन सब
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(७७०)
अष्टांगहृदय ।
अ० ९.
से शांति न होने पर अग्नि से दग्ध करदेना बा जोक द्वारा रक्त निकाल कर मामला, चाहिये ।
अश्मंतक और जामनके पत्तों के क्वाथ का कुकूणक का उपाय । परिषेक करै । कुकूणे खदिरश्रेष्ठानिंबपत्रैःशृतं घूतम् ॥
यमनको श्रेष्टत्व । पीत्वा धात्री वमेकृष्णायष्टीसर्षपसेंधवैः। प्रायःक्षीरघृताशित्वाद् वालानां श्लेष्मजा. । अर्थ-कुकूणक रोग में खैर, त्रिफला,
गदाः ॥ २८॥ नीमके पत्ते इनके साथ में पकाया हुआ घी
तस्माद्वमनमेवाने सर्वव्याधिषु पूजितम् । पालक को स्तनपान करानेवाली धाय पीकर
अर्थ-आधिक घी और दूध खाने के पीपल, मुलहटी, सरसों और सेंधा नमक
कारण बालकों के कफजरोग होजाया करते
| हैं, इसलिये सब रोगों में ही बालक को व. देकर धमन करदेवे ।
मन कराना श्रेष्ठहै। उक्तरोग में विरेचन । .
वमन की विधि। अभयापिप्पलीद्राक्षाकाथेनैनां विरेचयेत् ॥ सिंधूत्थकृष्णापामार्ग घीजाज्यस्त ___ अर्थ-हरड, पीपल और दाख इनका
न्यमाक्षिकम् ॥ २९ ॥ काढा पान कराके उक्त रोग में धायको चूर्णा वचायाः सक्षौद्रो मदनमधुकान्वितम् विरेचन करादेवे ।
क्षीरं क्षीरानमन्नं च भजतःक्रमशः शिशोः
वमनं सर्वरोगेषु विशेषेण कुकूणके। कुचों का लेप । मुस्ताद्विरजनीकृष्णाकल्केनालेपयेत्स्तनौ ।
___ अर्थ-सेंधानमक, पीपल, औंगा के वीज धूपयत्सर्षपैः साज्यैः
घी, स्तनोंका दूध और शहत इनके द्वारा अर्थ-नागरमोथा, दोनों हलदी और
| दूध पीने वाले बालक को वमन करावाशहत पीपल इनको पीसकर धायके कुचों पर
और बच मिलाकर इसके द्वारा दूध और लेप करदे और. सरसों और घी मिलाकर
अन्न खानेवाले बालक को वमन करावे, तथा धूनी दे देवै ।
अन्न खानेवाले बालक को मैनफल और क्वाथपान ।
मुलहटी द्वारा वमन करावै । तथा कुकूणक शुद्धां क्वार्थ च पाययेत् ॥ रोगमें विशेष करके वमन देना हितकारी है । पटोलमुस्तमृद्वीकागुडूचीत्रिफलोद्भवम् ।
वमनविरेचन । - अर्थ वमनविरेचनादि से धायको शुद्ध | सप्तलारससिद्धाज्यं योज्यंचोभयशोधनम् करके पर्वल, नागरमोथा, दाख, गिलोय अर्थ-सातलाके रसमें सिद्ध किया हुआ और त्रिफला इनके काथका पान करावै । । घी देकर वमन और विरेचन दोनों करावै । लिखितवर्ममें परिषेक।
___ अन्य प्रयोग। शिशोस्तुलिखितवमनतासृग्वांधुजन्मभिः दिनिशारोध्रयष्टयाहूवरोहिणानिवपल्लवैः । थाध्यमंतकबूथपत्रक्वाथेन सेचयेत्। कुकणके हिता वतिः पिष्टैस्ताम्ररजोन्वितैः
अर्थ-बालक के वर्म में से लेखनद्वारा क्षीरक्षौद्रघृतोपेतं दग्धं वा लोहितं रजः ।
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अ. ९.
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७७१)
____ अर्थ-दोनों हलदी, लोध, मुलहटी, हरड । दोनों किनारों को मुंगके बराबर अंतर पद नीम के पत्ते, और ताम्रचूर्ण इन सब द्रव्यों से टेढी सुई से टांके भरदे और मस्तक में को जलमें पीसकर बत्ती बनाकर ककूणक पट्टी बांधकर सीने के डोरे को उस में न रोगमें प्रयोग करना हितकारी है । अथवा , कडा,न ढीला बांध देवै । तत्पश्चात् घी और लोहचूर्ण दग्ध करके उसको दूध शहत वा शहत की कवलिका का प्रयोग करै, परन्तु घी के साथ सेवन कराने से भी उपकार इसको बांधना न चाहिये । वेदना कम न होता है।
हो तो न्यग्रोधादिगण के काढे में दूध अन्यवर्ती। एलारसोनकतकशंखोषणफणिज के ३३॥
मिलाकर वेदना की जगह परिषेक करे । चर्तिःकुकूर्गपोथक्योःसुरापिष्टैः सकटफलैः
पांचवें दिन डोरा खोलकर घाव में गेरू अर्थ-इलायची, रसौत, निर्मली, शंख, |
पीसकर लगादे । इसमें तीक्ष्ण नस्य और पीपल, तुलसी इन सब द्रव्यों को सुरा में
अंजन का प्रयोग करना भी उचित है । पीसकर बत्ती बनावै । यह बत्ती कुकूणक
अशांति में दाहादि । और पोथ की रोगों में हितकारी होती है। दहेदशांती निर्भुज्य वर्मदोषाश्रयां वलीम् । पक्ष्मरोध में चिकित्सा ।
संदशेनाधिकं पक्ष्म हत्वा तस्याश्रयं दहेतू पारोये प्रद्धेषु शुद्ध देहस्य रोमसु ३४
सूच्यग्रेणाग्निवर्णेन दाहो बाह्यालजे पुनः । उत्सृज्यद्वीभ्रुवोऽधस्ताद्भागौभागं च पक्ष्मतः
भिन्नस्यक्षारवह्निभ्यांसुन्छिनस्यार्बुदस्यच यवमात्रेयवाकारंतियाछत्वाऽऽवाससा
__ अर्थ-उक्त उपायों का अवलंबन क. अपनेयमसक् तस्मिन्नल्पीभवतिशोणितम् । | रने पर भी जो रोग की शांति न हो तो सीव्येत्कुटिलया सूच्या मुद्गमात्रांतरैः पदैः वर्मदोष के आश्रयवाली बलीको टेढी करके बद्धवा ललाटे पट्टं च तत्र सीवनसूत्रकम् । दग्ध करदेवै । तथा बढे हुए बालोंको चि. मातिगाढश्लथं सूच्या निक्षिपेस्थ योजयेत् मधुसर्पिःकवालकांन चास्मिन्बंधमाचरेत् ।।
मटी से नौचकर अग्निवत् तप्त सलाई की न्यग्रोधादिकषायैश्च सक्षीरैः सेचयेदुजि । नौक से दग्ध करदेवै । वाह्य अलजी का पंचमे दिवसे सूत्रमपनीयावचूर्णयेत् । । भेदन करके उसको दग्ध करदेवै और गैरिकेण व्रणं युज्यातीक्ष्णं नस्यांजनादि च अर्वदको अच्छी तरह छेदन करके क्षार अर्थ-पक्षमरोधरोग में रोगों के अधिक
और अग्निद्वारा दग्ध करदेना चाहिये । घढ जाने पर शुद्ध शरीरवाले मनुष्य की मृकुटियों के नीचे दो भाग पल्मों के निकट इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी. एक भाग त्यागकर जौ के बराबर जौके |
कान्वितायां उत्तरस्थाने वर्मरोगप्रआकार के सदृश तिरछा छेदन करके गीले : कपडे से रुधिर को रोकदे, इस तरह जब,
तिषेधोनाम नवमोऽध्यायः । रुधिर निकलना कम होजावै तब घाव के ।
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( ७७२ )
दशमोऽध्यायः ।
*OK*
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अष्टांगहृदय |
अथाऽतः संधिसितासितरोगविज्ञानमारभ्यते अर्थ - -अब हम यहां से नेत्रों की संधि, शुक्ल विभाग और कृष्णविभाग में होनेवाले रोगों के विज्ञानाध्याय का आरंभ करते हैं । संधिरोगों का वर्णन |
66
'वायुः क्रुद्धः शिराः प्राप्यजलाभेजलवाहिनीः अस्स्रु स्त्रावयते वर्त्म शुक्लसंधेः कनीनकात् तेन नेत्र सरुग्रागशोफं स्यात्स जलास्रवः ।
अर्थ- कुपित हुआ वायु संपूर्ण जलवा - हिनी शिराओं में पहुंचकर वर्त्म और शुक्लविभाग की संधि कनीनका से जल के सदृश आंसुओं का स्राव करता है । इस अश्रुस्त्राव से नेत्रों में दर्द, ललाई और सूजन पैदा हो जाती है । इसी को जलात्रवरोग कहते हैं ।
कफस्रव का लक्षण | फाकफसवे श्वेतपिच्छिलं बहलं स्रवेत् अर्थ - कफ से जो कफलवरोग होता है, उसमें सफेद रंगका पिच्छिल और गाढात्राव होता है।
उपनाह के लक्षण |
कफेन शोफस्तीक्ष्णाग्रः क्षारबुद्बुदकोपमः । पृथुमूलचलः स्निग्धः सवर्णमृदुपिच्छिलः । महानपाकः कंड्मानुपनाहः स नीरुजः ।
अर्थ - कफ के कारण से पैनीनोकवाली क्षार बुद्बुद के सदृश एक प्रकार की सूजन होती है, इसकी जड मोटी होती है तथा वेग से उठती है, यह स्निग्ध, सवर्ण, मृदु और पिच्छिल होती है, इसमें बड़ा पाक होता है, खुजली चलती है पर दर्द नहीं होता है, इसे उपनाह कहते हैं ।
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अ० १०
रक्तव के लक्षण । रक्तावरनवे सानं बहुष्णं चात्र संस्रवेत् अर्थ - रक्तसे रक्तस्राव रोग होता है, इसमें तांबेके से रंग के, अधिकता से गरम आंसू निकलते हैं ।
पर्व्वणी के लक्षण |
व संध्याश्रया शुक्ले पिटिका दाहशूलिनी । तानामुद्रोपमा भिन्ना रक्तं स्रवति पर्वर्ण
अर्थ - की संधिमें नेत्र के शुक्लमंडल में एक फुंसी पैदा होती है जिसमें दाह और शूल होता है । यह तामूत्रण की मूंग के समान होती है, इसे फणी कहते हैं, जब यह फूट जाती है, तब इसमें से रक्तस्राव होता है ।
पूयास्राव के लक्षण | पूयात्रा मलाःसास्त्रावर्त्मसंधेः कनीनका स्रावयंति मुहुःपूयं सास्रत्वमांसपाकतः
--
अर्थ - पूयावाख्य रोग रक्तसहित त्वचा और मांस के पकजाने के कारण रक्तसहित दोपत्र संधि के कनिक से बार बार यत्राव होता है ।
पालस के लक्षण |
कनीनसंधावाध्यायी पूयास्रावी सवेदनः पूयालसो ब्रणः सूक्ष्मः शोफसंरंभपूर्वकः ।
अर्थ- प्रथम सूजन और वेदना होती है पीछे कनीनिक की संधि में एक छोटा सा व्रण होता है जिसमें फुलापन, वेदना और पूयस्त्राव होता है, इसे पूयालस कहते हैं ।
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अलजी के लक्षण | कनीनस्यांतरलजी शोफो रुकूतोददाहवान् । अर्थ - कनीन के बीच में वेदना, तोद
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत।
(७७३)
.
स्मृतम्।
और दाहयुक्त जो सूजन होती है उसको । शुक्लार्मक के लक्षण । अलजी कहते हैं।
कफाच्छुल्ले समं श्वतं चिरवृध्यधिमांसकम् । .. कामप्रथि के लक्षण ।
शुक्लार्म
___ अर्थ-कफसे नेत्रके शुक्लभाग में जो स. भोगेबा कनीने वा कंडूषापक्षमपोटवान् ॥ पूयानावी कृमिग्रथिग्रंथिकामयुतोऽर्तिमान
फेद रंगके आकार का मांस उत्पन्न होता है, . अर्थ-अपांग ( कटाक्षस्थान) वा कनीन
उसे शुक्लार्म कहते हैं, यह दीर्घ काल में व. में खुजली,दाह और पक्ष्मपोटयुक्त पूयस्रावी,
ढता है।
बलासग्रथित के लक्षण । कृमियुक्त और वेदना सहित जो गांठ उत्पन्न
शोफस्त्वरुजः सवर्णो बहलो मृदुः ।। होती है, उसे कृमिग्रंथि कहते हैं । गुण स्निग्धांऽबुर्विद्वाभो बलासप्रथितशस्वसाध्यासाध्य रोग।
___ अर्थ-जो सूनन वेदनारहित त्वचाके बउपनाहकृमिग्रंथिपूयालसकपर्वणीः॥९॥ शस्त्रेण साधयेत्पंचसालजी नासवांस्त्यजेत् ण के सदृश, गाढी, कोमल, भारी, स्निग्ध ___ अर्थ-उपनाह, कृमिग्रंथि, प्रयालस और और जल विन्दुके सदृश होती है उसे बलापर्वणी इन चार रोगोंमें अस्त्रचिकित्सा कर
सप्रथित कहते हैं। नी चाहिये । तथा जलालप, रक्तास्त्रव, पूया
पिष्टक के लक्षण। स्रव और अलजी इन पांचों को त्याग देना
विदुभिः पिष्टधवलैरुत्सन्नैः पिष्टकं घदेत् ॥
अर्थ-नेत्रके सफेद भागमें पिट्ठी के स. चाहिये।
दृश सफेद और ऊंचे जो विन्दु उत्पन्न होते शुक्लि का रोग।
हैं उनको पिष्टकरोग कहते हैं। पित्तं कुर्यात्सिते विदूनसितश्यावपीतकान्
शिरोत्पात के लक्षण । मलाक्तादर्शतुल्यं वा सर्व शुक्लं सदाहरुकू। रोगोऽयं शुक्तिकासंज्ञःसशकद्भेदतृडूज्वरः॥
| रक्तराजीततं शुक्लमुष्यते यत्सवेदनम्। .
अशोकाश्रपदेहं व शिरोत्पातः सशोणितम् अर्थ-नेत्रसंधिगत नौ रोगों का वर्णन ____ अर्थ-रक्तके दूषित होनेके कारण नेत्र करके अब शुक्लमंडलगत रोगों का वर्णन
की सफेदी लाल रंगकी रेखाओं से व्याप्त हो करते हैं। नेत्रके सफेद भागमें पित्त काले,
तथा उसमें दाह और वेदना होती हो उसे श्याव और पीले पीले बहुत से विन्दु पैदा
शिरोत्पात रोग कहते हैं । इसमें सूजन, भ. कर देता है अथवा नेत्रके संपूर्ण श्वेत भाग श्रुपात और लिहसावट नहीं होती है । को ऐसा कर देता है जैसे मैल से लिहसा
सिराहर्ष का लक्षण। हुआ दर्पण, इन दोनों प्रकार के रोगों को
उपेक्षितः सिरोत्पातः राजीस्ता एव वर्धयन् शुक्लिका कहते हैं, इसमें दाह, वेदना, मल कुर्यात्सानं सिराहर्ष तेनायुद्धीक्षणाक्षमम् भेद, तृषा और ज्वर उपस्थित हो जाते हैं। अर्थ-शिरोत्पात की चिकित्सा में उपे,
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अष्टांगहृदय ।
( ७७४)
क्षा करने से वे लाल रेखा वृद्धिको प्राप्त हो कर सरक्त सिराह नामक रोगको पैदा कर देती है | इस रोग में वस्तुओं के देखने की शक्ति नाती रहती है |
सिराजाल का लक्षण ।
सिराजाले सिराजालं वृहद्रक्तं घनान्नतम् | अर्थ-शिराजाल नामक रोग में संपूर्ण शिरावृहत, रक्तवर्ण, धन और उन्नत होजाती है ।
शोणितार्म के लक्षण | शोणितार्मसमंश्लक्ष्णं पद्माभमधिमांसकम् ॥
अर्थ - नेत्रकी सफेदी में जो समान आ
कार वाला, चिकना और कमल के सदृश मांस उत्पन्न होता है उसे शोणितार्म कहते हैं । अर्जुनके लक्षण | नीरुकूलक्ष्णोऽर्जुनर्विदुः शशलोहितलोहितः अर्थ - नेत्रकी सफेदी में जो खरगोश के रक्तके समान लाल, वेदनारहित और चिकने विन्दु होते हैं, उन्हें अर्जुन कहते हैं ।
प्रस्तार्यर्मके लक्षण | मृद्वाशुवृड्यरुङमांसं प्रस्तारिश्यावलोहितम् | प्रस्तार्यर्म मलैः सानैः
अर्थ - नेत्रकी सफेदी में जो फोमल, शीघ्र बढने वाला, फैला हुआ श्याव लोहित वर्ण मांस पैदा होजाता है उसे प्रस्तार्यमें कहते हैं यह त्रिदोष और रक्त से होता है ।
स्नावा के लक्षण | स्नायार्मस्नावसन्निभम्। अर्थ- जो मांस स्रावकी तरह हो उसे नावा कहते हैं ।
अधिमासा के लक्षण | 'शुकासुकूपिंडवच्छयावं यन्मासं वहलं पृथु Praniti तद्
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म० १०
अर्थ - नेत्रकी सफेदी में सफेद, लाल, काला, मोटा, हलका और पिंडके सदृश जो मांस उत्पन्न होजाता है, उसे अधिमासा कहते हैं ।
सिरासंज्ञकपिटिका |
दाहघर्षवत्यः सिरावृताः । कृष्णासन्नाः सिरासज्ञाः पिटिकाः सर्षपोपमाः अर्थ - नेत्रके काले भागमें दाह और वेदना से युक्त, सिराओं से व्याप्त, सरसों के आकार के समान जो फुंसियां उत्पन्न होती है, उन्हें सिरासंज्ञक पिटिका कहते हैं ।
उक्तेरह रोगों की साधन विधि | शुक्ति हर्ष शिरोत्पातपिष्टकप्रथितार्जुनम् । साधयेदौषधैः षट्कं शेषं शस्त्रेण सप्तकम् ॥ नवोत्थं तदपि द्रव्यः
अर्थ शुक्लका हर्ष, शिरोत्पात, पिष्टक प्रथित और अर्जुन, इन छः प्रकार के रोगों की चिकित्सा जो नेत्रके सफेद भागगें होते हैं औषध द्वारा करनी चाहिये । बचे हुए सात रोगों की चिकित्सा अस्त्रद्वारा करनी चाहिये । ये सात रोग यदि नये उठे हुए हों इनकी चिकित्सा भी औषध द्वारा हो सकती है ।
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वर्जितरोग |
अर्मोक्तं यच्च पंचधा । तच्छेद्यमसित प्राप्तं मांसस्नावसिरावृतम् ॥ चर्मोद्दालवदुच्छ्रायि दृष्टिप्राप्तं च वर्जयेत् । अर्थ- पांच प्रकार के अ अर्थात् शुक्लार्म, शोणितार्म, प्रस्तार्यर्म, स्वावार्म और अधिमांसा का छेदन करना चाहिये । और 1 जो रोग नेत्र के काले भागमें पहुंच जाते हैं
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म. १.
पसरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७७५)
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तथा मांस, स्नायु और सिरा से व्याप्तचर्मो उसे शद्ध शक कहते हैं, यह कफ से उत्पन्न हाल की तरह ऊंचा तथा जो दृष्टिमंडल में होता है। पहुंच जाता है, ये सब रोग त्याज्य हैं।
आजका के लक्षण । भतशुक्रक का लक्षण ।
आताम्रपिच्छलानमृदाताम्रपिटिकातिरुकू पित्तं कृष्णेऽथवा दृष्टो शुक्र तोदानुरागवत्
भजाविटूसदृशोच्छ्रायकायाछित्त्वा त्वचे जनयति तेन स्यात्कृष्णमंडलम्
वासृजाजका ॥ २५ ॥ पकजंनिभं किंचिनिम्नं चक्षतशुक्रकम् ॥
अर्थ-जो शुक्र कुछ तांबेके से रंग का, तत्कृच्छ्रसाध्यं याप्यं तु द्वितीयपटलब्यधात् पिच्छिल, रक्तस्रावो, कुछ तविके से रंग की तत्र तोदाविवाहुल्यं सूचीविद्धाभकृष्णता॥ फुसियों से युक्त, अत्यन्त वेदनासहित, बकरी तृतीयपटलच्छेदाइसाध्य निचितं वणैः ।।
| की मेंगनी के सदश ऊंचा और कृष्णवर्ण अर्थ--अब हम यहांसे कृष्णमंडलगत अ
| होता है, उसे आजका कहते हैं, यह रक्त र्धात आंखके काले भागमें होने वाले रोग से उत्पन्न होता है और असाध्य भी है। का वर्णन करते हैं।
सिराशुक्र के लक्षण । .. पित्त पहिले पर्देका भेदन करके कृष्णमंडल में वा दृष्टिमंडल में सुई छिदने की सी वे. सतोददाहताम्राभिः सिराभिरवतन्यते दना, आंसू और ललाई लिये हुए शुक्र को अनिमित्तोष्णशीताच्छघनास्त्रत्रकूच पैदा करता है। इस शुक्रके कारण संपूर्ण का
तत्त्यजेत् । लामंडल जामन के फलके रंगके सदृश हो ___ अर्थ-रक्त तथा वातादि तीनों दोषों से जाता है और इसके बीचका भाग कुछ नी. सिराशुक्र उत्पन्न होता है और नेत्रके काले . चा हो जाता है यह रोग क्षतशुक्रक कह- |
भागमें तोद और दाह से युक्त, ताम्रवर्ण और लाता है । क्षतशुक्रक कष्टसाध्य होता है। सिराओं से व्याप्त होता है इसमें से कभी किन्तु दूसरे परदे का भेदन करने पर तोदा.
गरम, कभी ठंडा, कभी पतला, कभी गाढा दि यंत्रणा अधिकता से होती है और का
रक्त निकला करता है यह सिराशुक्र असाध्य लामंडल सुई छिदने के समान होजाता है ।
होता है। यह याप्य होता है । जो क्षतशुक्र तीसरे पर्दे
तीनवेदनायुक्त शुक्र ।
दोषैः सानैः सकृत्कृष्णं नीयते शुक्लरूपताम् को भेदकर उत्पन्न होता है वह व्रणों से
धवलाम्रोपलिप्ताभं निष्पावार्धदलाकृति उपचित और असाध्य होता है।
अतितीव्ररुजारागदाहश्वयथुपीडितम् ॥ . - शुद्धशुक्र के लक्षण । पाकात्ययेन तच्छुक्र वर्जयेत्तीनवेदनम्। . शंखशुक्लंकफात्सायनातिरकू शुद्धशुक्रकम अर्थ- रक्त तथा वातादि तीनों दोषों के
अर्थ-शंख के समान सफेद वा श्यावव- कारण संपूर्ण कृष्णमंडल एक साथही सफेद र्ण और अम्लवेदनायुक्त जो शुक्र होता है, । बालों से आच्छादित आकाश की तरह
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(७७६)
अष्टांगहृदय।
सफेद पड जाता है यह चैला के आधे एकादशोऽध्यायः । बीजकी आकृति के तुल्य होता है। इसमें
-:*OK:तीत्रवेदना, ललाई, दाह और सूजन होते हैं, । पाक का अत्यय होने पर यह तीब्रो. अथातः संधिसितासितरोगप्रतिषेधं
व्याख्यास्यामः॥ दनावाला शुक्र असाध्य होजाता है ।
__ अर्थ -अब हम यहां से संधिसितासित वय॑शुक्र ।
रोग प्रतिषध नामक अध्याय की व्याख्या यस्य वाऽऽलिंगनाशोऽतः श्यावं यद्वा
करेंगे।
सलोहितम् । भत्युत्सेधावगाढं वा सास्रनाडीव्रणावृतम्
उपनाह की चिकित्सा। पुरागं विषमंमध्ये विच्छिन्नं यच्च शुक्रकम्
उपनाहं भिषक् स्विन्नं भिन्नं ब्रीहिमुखेन च अर्थ-जिस शुक्र के बीचमें भीतर की
लेखयेन्मंडलाण ततश्च प्रतिसारयेत्
पिप्पलीक्षौद्रसिंधूत्थैर्वघ्नायात्पूर्ववत्ततः । दष्टि का नाश होजाय और श्याववर्ण हो, पटोलपत्रामलककार्थनाश्चोतयेच तम् ॥ तथा बीचमें कुछ लाल अथवा बहुत ऊंचा अर्थ-उपनाह नामक संधिग में मर
और अवगाढ हो, जो सरक्त नाडियों से | म जलेमें वस्त्र के टुकड़े को भिगो भिगोकर व्याप्त हो, जो बहुत पुराना पड़ गया हो, आंखको सेककर मंडलाय शस्त्र द्वारा उपनाजिसकी आकृति विषम हो, जिसके बीचका ह को लेखन करके और व्रीहिमुख नामक भाग छिन्नभिन्न हो, ऐसे सब शुक्र दुश्चि- अस्त्र से भेदन करके पीपल, शहत और सें. -कित्स्य होते हैं।
| धानमक इनके द्वारा प्रतिसारण करे । त. - कृष्णमंडलगतरोगों की संख्या । । त्पश्चात् पहिले की तरह मरमजल से धोना पंचेत्युक्त गदाःकृष्णे साध्यासाध्यविभागतः घी का परिषेक, घी और मधु द्वारा कानों के अर्थ -साध्यासाध्य विभाग के अनुसार |
ऊंचे और नीचे भागोंका अभ्यंजन करके कालेमंडल में होनेवाले रोग पांच प्रकार के , जौ के सत्तकी पिंडी द्वारा बांध देवे, तथा होते हैं।
पलके पत्ते और आमले के काय का आआंखकी खुजली पर जो सफेद दाग पड । श्च्योतन करै अर्थात् इस काथको आंख में जाता है उसे शुक्र वा फुली कहते हैं।
टपकावै ॥
संधिरोग लेखादि । निधी अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीपर्वणी बडिशेनात्ता बाह्यसधित्रिभागतः । कान्वितायां उत्तरस्थाने संधिसिता- वृद्धिपत्रेण वाऽधैं स्यादश्रगतिरन्यथा सितरोग विज्ञानीयोनाम चिकित्सा चार्मवत्झौद्रसैंधवप्रतिसारिता। दशमोऽध्यायः । - अर्थ-बाहरवाली संधिक त्रिभाग में प.
वणी को बडिश नामक शस्त्रसे पकडकर
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अ०११
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७७७ )
वृद्धिपत्र से उसके अर्द्धभाग में छेदन कर | कफाभिष्यंदवन्मुक्त्वा सिराव्यथमुपाचरेत् देना चाहिये, इससे अधिक छेदन में आंसू | वीजपूररसातं च व्योषकटूफलमंजनम् अधिकता से बहने लगते हैं । इसकी चि.
अर्थ-कफग्रथित और पिष्टक रोगमें सिकित्सा अर्म के सदृश होती है । इसमें शहत
राब्यध को छोड़कर अन्य सब उपाय कफाऔर सेंधानमक मिलाकर प्रतिसारण करना
| भिष्यन्द की तरह करने चाहिये । त्रिकुटा बाहिये।
और कायफल के चूर्णको बिजौरे के रसमें पूयालस की चिकित्सा । घोटकर अंजन लगाना हितहै। पूयालसे सिरां विध्येत्ततस्तमुपनाहयेत् ।
अन्य प्रयोग । कुर्वोत चाक्षिपाकोक्तं सर्व कर्म यथाविधि जातीमुकुलसिंधूत्थदेवदारुमहौषधै। .
अर्थ-पूयालस में सिरा को वेधकर उस पिष्टैः प्रसन्नया वर्तिः शोफकंडूनमंजनम् पर लेप करे । इसमें अक्षिपाक के सब अर्थ-चमेली की कली, सेंधानमक, देव, उपाय करने उचित है।
दारु और सौंठ इन सबको प्रसन्ना नामक __ अन्य प्रयोग।
सुराके साथ पीसकर वत्ती बनालेवे, इस संघबाईककासीसलोहतानः सचूर्णितैः ५ बत्ती को आंजनेसे सजन और खुजली जाती चूजनं प्रयुंजीत सक्षौद्रा रसक्रियाम् । . अर्थ-सेंधानमक, अदरख, हीराकसीस,
रहती है। लोह और ताम्र इन के चूर्णका अंजन लगावै
शिरोत्पात का उपाय।
रक्तस्यंदवदुत्पातहर्षजालार्जुनक्रिया। और इसी चूर्णमें शहत मिलाकर रसक्रिया
___अर्थ-शिरोत्पात, शिराहर्ष, सिराजाल करनी चाहिये ।
और अर्जुन इन रोगों में रक्ताभिष्यन्द के । कृमिग्रंथि का उपाय।
तुल्य चिकित्सा करनी चाहिये । कृमिग्रंथिंकरीषेणस्विन्नं भित्वाविलिख्य च
उक्तरोगों में विशेषता । त्रिफलाक्षौद्रकासीससैंधवैः प्रतिसारयेत् ।।
सिरोत्पाते विशेषेण घृतमाक्षिकमंजनम् ॥ अर्थ-कृमिग्रार्थ का उपला स स्वादत सिराहर्षे तु मधुना श्लक्ष्णघृष्टं रसांजनम् । करके व्रीहिमुखादि शस्त्रों से स्वेदित और | अर्जुने शर्करामस्तुक्षौद्रैराश्चोतनं हितम विलखित करके उसमें त्रिफला, शहत, हीरा स्फटिक कुंकुम शंखो मधुको मधुनांजम् । कसीस और सेंधेनमक द्वारा प्रतिसारण करे। मधुना वांजन शंखः फेनो वा सितया सह
। अर्थ-सिरोत्पात में विशष करके घी और शुक्लाख्यरोग का उपाय । पित्ताभिष्यंदवच्छुक्लिं
शहत आंजना चाहिये । सिराहर्ष में शहत - अर्थ-शुक्लिरोगमें पित्ताभिष्यंद के सदृश के साथ महीन पिसी हुई रसौत लगावै । चिकित्सा करना चाहिये ।
अर्जुनरोग में शर्करा, दही का तोड और कथित और पिष्टक । शहत इनको मिलाकर आंख में टपकावै । .......... बलासाह्वयपिष्टको ॥ ७॥ अथवा स्फटिक, केसर, शंख, मुलहदी और
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(७७८)
अष्टांगहृदय ।
अ० ११
रसौत इनको शहत के साथ पीसकर लगाएँ | कटाक्ष की ओर दृष्टि करलेवै । ऐसा होने अथवा शंख, वा समुद्रफेन को शर्कग के से कनीनक से अर्म बढ जायगा । जिस साथ मिलाकर आंखों में लगावै । जगह मांस में सलवट पडे उसी जगह
__अर्मकी चिकित्सा । बडिशयंत्र द्वारा पकडकर मुचुडी, शूची, भर्मोक्तं पंचधा तत्तु तनु धूमाविलं च यत् । वा सूत्रद्वारा मोचन करै । तत्पश्चात् उस रक्तंदधिनिभं यच्च शुक्रवत्तस्य भेषजम् ॥ छूटे हुए अर्मको चतुर्भागावशिष्ट करके मंड.
अर्थ-अर्म पांच प्रकार के कहे गये हैं। लाग्र शस्त्रद्वारा ऐसी रीति से छेदन करे इनमें से जो पतला, धूऐ की तरह गदला, जिससे कनीनक में आंसू बहानेवाली धमनी लाल और दही के सदृश होता है उसकी में किसी प्रकार की चोट न पहुंचे, क्योंकि चिकित्सा फुली की चिकित्सा के समान कनीनक के वेधसे अश्रनाडी नेत्रमें प्रवृत करनी चाहिये ।
होजाती है । इसलिये अपांग देशमें दृष्टि अर्ममेंशस्त्र चिकित्सा।
डालने के समय जब अर्म कनानक से बढे उत्तानस्येतरत् स्त्रिनं ससिंधूत्थेनचांजितं ।
तबही छेदन करना चाहिये । रेसन बीजपूरस्यनिमील्याक्षिविमर्दयेत् १४
छेदन की गति । इत्थं संरोषिताक्षस्य प्रचलेऽर्माधिमांसके थतस्य निश्चलं मूनि वमनोश्च विशेषतः सम्यक् छिन्नं मधुव्योषसैंधवप्रतिसारतम् अपांगमीक्षमाणस्यवृद्धर्मणिकनीनकातू ।
उष्णेन सर्पिषा सिक्तमभ्यक्तं मधुसर्पिषा पली स्याद्यत्र तत्राम बडिशेनावलंबितम् ।
बधीयात्सेचयेन्मुक्त्वा तृतीयादिदिनेषु च । मात्यायतं मुचुंडया वासूच्यासूत्रेण वा ततः |
करंजवीजसिद्धन क्षीरेण क्वथितस्तथा ॥ खमंताम्मंडलाओण मोचयेदथ माक्षिकम्१७ |
सक्षौद्रेडैिनिशारोध्रपटोलीयष्टिकिंशुकैः । कनीनकमुपानीय चतुर्भागावशेषितम् ।
कुरंटमुकुलोपेतर्मुचेदेवाहि सप्तमे ॥२२॥ छिद्यात्कनीनके रक्षेद्वाहिनीश्चाश्रुवाहिनीः।
____ अर्थ-अर्मके अच्छी तरह छिन्न होनेपर कनिकव्यधादश्रनाडी चाक्षिण प्रवर्तते । ।
तथा शहत, त्रिकुटा और सेंधेनमक से वृद्धेमणितथाऽपांगात्पश्यतोऽस्यकनीनकात्
प्रतिसारित होने पर गरम घी का परिषेक ___ अर्थ-रोगी को चित्त लिटाकर उसकी
करके तथा घी चुपडके बांध देना चाहिये। बाई वा दाहिनी किसी एक आंखको स्वेदित
तीसरे दिन पट्टी खोलकर कंजे के बीज करके तथा सेंधानमक और बिजौरे का रस
डालकर औटाये हुए दूध से तथा हलदी, आजकर मीड डाले । रोगी को उचित है
दारुहलदी, लोध, पर्वल, मुलहटी, केसू
भौर करंटाकी कली के काढ़े में शहत मि कि मीडने के समय आंखों को बंद करले।। ऐसा करने से नेत्रके क्षुभित होने के कारण
लाकर परिषेक करे । फिर सातवें दिन पट्टी अर्मका मांस चलायमान होगा, उस समय
को खोल देवै ।
छेदनानंतर बंधनादि । मस्तक को और विशेष करके वर्म को |
सम्यक छिन भवेत्स्वास्थ्यस्थिर भाग में रखना चाहिये तथा रोगी ।
हीनातिच्छेद जान्गदाद।
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अ. ११
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७७९)
सेकांजनप्रभृतिभिर्जयलेखमवृहणैः ॥ २३ ॥ सकर अंजनके काममें लाये, ये तीन अंजन
अर्थ-अर्मके सम्यक् छिन्न होनेपर रोगी निमि वैद्य के बनाये हुए है और तिमिर के को सुस्थता होती है, न्यून वा अधिक छेद- नाश करने में परमोत्तम हैं । तीन अंजन, न से जो रोग उत्पन्न होते हैं उनमें यथोप- यथा- (१) हरड के कल्क की भस्समें बहेयुक्त चिकित्सा अर्थात् परिषेक और अभ्यं. डे और आमले के काथ की भावना, (२) जनादि तथा लेखन और वृंहणादि क्रिया क- बहेडे के कल्क में हरड और आमले के कारना चाहिये ।
ढे की भावना और (३) आमले के कल्क तिमिरादि पर अंजन ।
में हरड और बहेडे के काढेकी भावना से सितामनः शिलालेयलवणोत्तमनागरम् ।
तयार किये जाते हैं। अर्धकर्षोन्मितं तायं पलार्धं च मधुप्लतम् ॥ अंजनं श्लेष्मतिमिरपिल्लशुक्लामशोषजित् ।
सिराजाल की चिकित्सा । अर्थ-मिश्री, मनसिल, एलुआ, सेंधानम-सिराजाले सिरायास्तु कठिनालेखनौषधः ।
न सियत्यमवत्तासां पिटिकानां च साधनम क, और सोंठ प्रत्येक आधाकर्ष, रसौत आ
___अर्थ-सिराजाल में जो सिरा कठोर होधापल इनको पीसकर शहत में मिलाकर |
ती है और लेखन औषधियों द्वारा जिनका आंखों में आंजै, इससे श्लेष्मार्म, तिमिर, पि
अच्छा होना कठिन है उनकी और पिटकाल, शुक्लार्म और शोष नष्ट हो जाते हैं ।
ओं की चिकित्सा अर्मके सदृश करनी चाहिये तिमिरनाशक अंजन।
शुक्रकी चिकित्सा । त्रिफलैकतमद्रव्यत्वचं पानीयकल्किताम् ।। शराबपिहितां दग्ध्वा कपाले चूर्णयत्ततः।
| दोषानुरोधाच्छुकेषु स्निग्धरूनं वराघृतम् ।
तिक्तमूर्धमसृक्नाबो रेकसेकादि चेभ्यते ॥ पृथक्शेषौषधरसैः पृथगेव च भाविता ॥ सा मषी शोषितापेष्या भूयो द्विलवणान्विता अर्थ-शुक्ररोग में दोषके अनुसार कभी त्रीण्यतान्यंजनान्याह लेखनानि परनिमिः॥ | रूक्ष और कभी स्निग्ध त्रिफला हितकारी __ अर्थ-त्रिफला में से किसी एक द्रव्यकी । होती हैं तथा तिक्तक घृत, मस्तकसे रक्त निछाल को जलमें पीसकर कल्क करले, फिर कलना शिरोविरेचन और परिषेकादि हितकर, इसको ठीकरे में रखकर ऊपरसे एक सको- क्षतशुक्रमें पकघृत पानादि। रा ढकदे और नीचे अग्नि लगाकर भस्म ! त्रिस्त्रिवृद्धारिणा पक्कं क्षतशुक्र घृतं पिवेत् ।
सिरया नु हरेद्रतं जलोकोभिश्च लोचनात् करले । फिर इसको पीसकर त्रिफला के बचे
सिद्धनोत्पलकाकोलीद्राक्षायष्टिबिदारिभिः । हुए दो द्रव्यों की ( हरड वहेहा, या हरड | ससितनाजपयसा सेचनं सलिलन वा ॥ भामला, वा मामला बहेडा ) इनके काथ की | रागाश्रवेदनाशांती परं लेखनमंजनम् । अलग अलग भावना देवे । जब यह सूख अर्थ-क्षत शुक्ररोगमें निसोथ के काढे जाय तब इसे फिर पीसले । फिर इसमें सें- में घृतको तीन बार पकाकर पीना चाहिये, धानमक और बिडनमक मिलाकर फिर पी-पीछे फस्द खोलकर वा जोक लगाकर नेत्रों
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१८)
अष्टांगहृदय ।
से रक्त निकारना चाहिये तथा नीलोत्पल, । करंजवीजं लशुनो व्रणसादि च भेषजम् । काकोली, दाख. मुलहटी और बिदारीकंद सत्रणावगगंभीरत्वस्थशुक्रघ्नमंजनम् ।
. अर्थ-मोती आदि सव रत्न, गजादि इनके साथ बकरी का दूध वा जल औटाकर चीनी मिलाकर परिषेक करे । लालई, आं
| पशुओं के दांत, बकरी आदि के सींग, सू और दर्द की शांति होनेपर लेखनसंज्ञक
गेरू आदि धातु, त्रिकुटा, छोटी इलायची, अंजन का प्रयोग करना चाहिये ।
कंजाके बीज, लहसन, तथा स्वर्णक्षीरी क्षत शुक्रनाशक बत्ती।
| आदि क्षतनिवारक औषध इनका अंजन वर्तयो जातिमुकुललाक्षागरिकचंदनैः॥ व्रणसहित, व्रणरहित, गहरा त्वचावाला प्रसादयंतिपित्तास्र नतिच क्षतशुक्रकम् । शुक्र इन सबका नाश कर देता है ।
अर्थ-चमेली की कली, लाख, गेरू निम्नशुक्रोन्नमन । और चंदन इनको पीसकर बत्ती बना लेवे निम्नमुन्नमयेत्स्नेहपाननस्यरसांजनैः। ३७ इस बत्ती का प्रयोग करने से पित्तरक्त और | सरुजं नीरुजं तृप्तिपुटपाकन शुक्रकम् । क्षतशुक्र नष्ट होजाता है।
अर्थ-स्नेहपान नस्य और रसांजनद्वारी ___ दांतों की बत्ती । भीतर को नवे हुए शुक्र को ऊंचा करना दतैर्दतिवराहोष्टगवाश्याजखरोद्भवैः ॥३३॥ चाहिये । वेदना युक्त और वेदनारहित शुक्र सशंखमौक्तिकांभोधिफेनैमरिचपादिकैः। को तर्पण और पटपाकदारा ऊंचा करे । क्षतशुक्रमपि व्यापि दंतवर्तिनिवर्तयेत् ॥ • अर्थ-हाथी, शूकर, ऊंट, गौ, घोडा,
शुद्ध शुक्र में कर्तव्य ।
शुद्धशुक्रे निशायष्टीसारिवाशावरांभसा ३८ बकरी और गधा इनके दांत, तथा शंख,
सेचनं रोध्रपोटल्या कोष्णांभोमग्नयाऽथवा मोती, समुद्रफेन, चौथाई काली मिरच, । ____अर्थ- शुद्ध शुक्ररोग में हलदी, मुलहटी इनकी बनाई हुई दत्तवार्त व्यापी क्षतशुक्न | अनंतमूल, और सावरलोध इनके काढे से को भी निवारण कर देती है। अथवा लोध का चूरा कर पोटली में बांध
सर्वशक्रनाशक वति। गरम जल में भिगोकर आंख में सेचन तिमालपत्रं गोइंतशंखफेनोऽस्थि गार्दभम् । करे। तानं च वर्तिम॒त्रेण सर्वशुक्रकनाशिनी ३५
शुक्रनाशक गोली , - अर्थ-तमालपत्र, गोवंत, शंख, समुद्र- वृहतीमुलयष्टयाहताम्रसैंधवनागरैः ३९ फेन, गधे की हड्डी, और तावा इन सब धात्रीफलांबुना पिष्टैपितं ताम्रभाजनम् । द्रव्यों को गोमूत्र में पीसकर गोली बनाकर | यवाज्यामलकीपहुशो धूपयेत्ततः ४० नेत्रों में लगावे, इस से सब प्रकार के शुक्र
| तत्र कुर्वीत गुटिकास्ता जलक्षौद्रपेषिताः ।
तत्र जाते रहते हैं।
महानाला इति ख्याताः शुद्धशुक्रहराः परम् अन्य अंजन।
__ अर्थ-कटेरी की जड, मुलहटी, तांबा रिल्लनिता शृगाणि धातवस्म्यूषणं त्रुटिः।। सेंधा नमक, सोंठ, इन सब द्रव्यों को ओ
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अ० ११
उत्तरस्थान भाषाकासमेत ।
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मले के काढे में पीसकर इनसे एक तांवे | शुक्रहर्षण अंजन । के पात्र को लीपदे । फिर इस पात्र को जौ धात्रीफणिजकरसे क्षारोलांगलिकोपः। घी और आमले के पत्तों की बारबार धूनी
उषितः शोषितश्चूर्णः शुमहर्षणमंजनम् ।
___ अर्थ-आमले और मरुए के रसमें क. दे, फिर उस पात्र की औषधको जल और
लहारी के खारको भिगोकर दूसरे दिन धूप शहत से मर्दन करके गोलियां बना लेवै ।
में सुखाकर पीसकर लगाने से फुली का इन गोलियों का नाम महानीला है । ये
हर्षण दूर होजाता है । शुद्ध शुक्र को दूर करने के लिये परमोत्तम
मुद्गनिन । औषध है।
मुद्गा वा निस्तुषोः पिष्टाशंखक्षौद्रसमायुताः अन्य प्रयोग ।
सारोमधूकान्मधुमान्मजावाक्षात्समाक्षिका स्थिरे शुक्रे घने चाऽस्य बहुशोऽपहरेदसृक् अर्थ-छिलके दूर किये हुए मुंग, शंख सिरः कायविरेकांश्च पुटपाकांश्च भूरिशः। और मधु मिलाकर पीसकर इनका अंजन .
अर्थ-रोगी का शुक्र कठोर हो तो बार अथवा महुआ के सार में शहत मिलाकर बार रक्तमोक्षण तथा बार बार शिरोविरेचन,
| अथवा बहेडे के गूदे में शहत मिलाकर फायविरेचन और पुटपाक देना चाहिये।
| अंजन बनाकर लगाने से शुक्ररोग जाता . शुक्रपर घर्षण ।
रहता है। कुर्यान्मरिचवैदेहीशिरीषफलसंधवैः।।
हृष्टशुक्र नाशक बटिका। . . घर्षणं त्रिफलकाथपीतेन लवणेन वा ४३॥ गोखराश्वष्टिदशमाः शंखःफेनः समुद्रजः।
अर्थ-कालीमिरच, पीपल, सिरस का वर्तिरर्जुनतोयेन हृष्टशुक्रकनाशिनी । फल, सेंधानमक इनसे अथवा त्रिफला के ____अर्थ-गौ, गवा, घोडा, ऊंट इनके दांतकाढे में मिले हुए सेंधेनमक से नेत्रको फुली और शंख तथा समुद्रफेन इनको पीसकर पर रिगडना चाहिये ।
अर्जुन के रस में बत्ती बनाकर लगाना फुलीपर अजन ।
| हृष्ट शुक्र को दूर करदेता है। कुर्याईजनयोगी वा श्लोकार्धगदिताविमौ ।
शुक्र का लेखन । शंखकोलास्थिकतकद्राक्षामधुकमाक्षिकैः ।। उत्सन्नं वासशल्य वाशुक्रबालादिभिर्लिखेत् सुरादतार्णवमलैः शिरीषकुसुमान्वितैः ।। | अर्थ-उठे हुए और शल्ययुक्त शुक्र को ___ अर्थ-शंख, बेरकीमुठली,निर्मली, राख, | बाल और शाकपत्रादि से लेखन करे । 'मुलहटी और सौनामाखी अथवा सुरा,गजा- सिराशुक्र को चिकित्सा ॥ दि पशुओं के दांत,समुद्रफेन और सिरसके शिराशुक्रे त्वदृष्टिनेचिकित्साबणशुक्रवद फूल । आधे आधे श्लोक में कहे हए इन अर्थ-दृष्टिका नाश न करने वाले सिस दो अंजनों को तयार करके फुली पर शुक्र की चिकित्सा व्रणशुक्र की तरह करनी रिगडे ।
| चाहिये ।
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( ७८२)
अष्टांगहृदय ।
अ० ११
अन्यवर्ति ॥ | की हड्डी के चूर्णकी भावना देकर अंजन यष्टयाहकाकोलीसिंहीलोहनिशांजनम् । लगावै । इससे असाध्य शुक्र रोगकी विवकालिकत छागदुग्धेन मघृतेधूपितं यवैः। र्णता जाती रहती है तथा साध्य शुक्र में इस धात्रपित्रैश्च पर्यायादतिर्नेप्रांजनं परम् ५०
| अंजनका अभ्यास करनेसे शुक्र जाता रहताहै। ___ अर्थ--पुंडरिया, मुलहटी, काकोली, क
____अजकमें वेधनादि । टेरी, लोह, हलदी और रसौत, इन सब अजका पार्श्वतो विद्धवा सूच्या विनाव्य द्रव्यों को बकरी के दूधमें पीसकर सघृत
चोदकम्। आमले के साथ पर्याय क्रम से बत्ती वनाना
समं प्रपीडयांगुष्ऐन वसाट्टैणानुपूरयेत् ५५
व्रणं गोमांसचूर्णेन बद्धं बद्धं विमुच्य च । चाहिये ! यह बत्ती नेत्रांजन में अत्यन्त
सप्तराबाद ब्रणे रूढे कृष्णभागे समे स्थिरे ।। हितकारी है।
स्नेहांजनं च कर्तव्यं नस्यं च क्षीरसपिंषा। शस्त्रप्रयोग।
तथापि पुनराधमाने भेदच्छेदादिकां क्रियाम् अशांतावर्मवच्छस्त्रमजकाख्ये च योजयेत् ।
युक्त्याकुर्याद्यथानातिच्छेदेन स्थानिमजनम् अर्थ-उक्त उपायों से पीडा की शांति
___अर्थ-अजका को सुई से चारों ओर से न होनेपर अजकाख्य रोगमें अर्मकी तरह
वेधकर जल निकाल डाले, फिर अंगूठे से शस्त्रका प्रयोग उचित है।
| प्रपीडन करके चर्वी चुपड कर घावमें गोअसाध्य अजका में कर्तव्य ।
मांसका चूर्ण भरदेना चाहिये और व्रणको अजकायामसाध्यायां शुक्रेऽन्यत्र च तद्विधैः । बार बार खोलकर बांध दैना उचितहै । घेदनोपशमं नेहपानासृकूस्रवणादिभिः । | सातदिन पीछे ब्रणके भरजाने पर और काले कुर्याद्वीभत्सतां जेतुं शुक्रस्योत्सेधसाधनम् | भाग के समान और स्थिर होनेपर स्नेहांअर्थ-असाध्य अजका रोगमें तथा शुक्र
जन और क्षार घृतकी नस्यका प्रयोग करना रोगों यथायोग्य स्नेहपान और रक्तमोक्षणादि
चाहिये । यदि फिर फूलजाय तो ऐसी रीति द्वारा वेदना की शांति करनी चाहिये ।
से छेदन भेदन करना चाहिये जिससे अति वीभत्सता को दूर करने के लिये शुक्रका |
छेदन द्वारा दृष्टिका निमज्जन न हो। उत्सेधन करना उचित है।
पक्वघृत प्रयोग। .. असाध्य शुक्रमें अंजन ।
नित्यं च शुक्रेषु सृतं यथास्वं नालिकेरास्थिभल्लाततालवंशकरीरजम् । ।
पामे च मर्श च घृतं विदध्यात्। . भस्माद्भिःस्रावयेत्ताभिर्भावयेत्करभास्थिजम् |
न हीयते लग्धवला तथांतचूर्ण शुक्रेप्वसाध्येषु तद्वैवर्ण्यघ्नमंजनम् ।
स्तीक्ष्णांजनै सततं प्रयुक्तैः ॥ ५८ ॥ साध्येषु साधनायालमिदमेव च शीलितम्
अर्थ-शुक्ररोग में यथायोग्य औषध के अर्थ-नारियल का खप्पड, भिलावा, । साथ घतको पकाकर इस वतको पान और ताल, बांस और करील इनकी भस्म को | नस्यद्वारा सदा प्रयुक्त करता रहै । घृतपाजलमें स्रावित करे, उस क्षार जलमें हाथी । नादि से दृष्टि बल प्राप्त करलेती है इससे
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म. १२
'उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७८३)
भीतर की और तीक्ष्ण अंजनों का प्रयोग अर्थ-जब दोष दूसरे पटलमें पहुंच जाकरने से दृष्टिको कुछ हानि नहीं पहुंच ता है तब रोगी बिना हुए पदार्थों को भी सकती है।
। देखता है । पासवाले पदार्थ को बडे यत्न से इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी- देख सकता है, दूरकी छोटी वस्तु दिखाई नकान्वितायां उत्तरस्थाने संधिसिता- ही देती है। दूरवाली वस्तु विपरीत भाव सितरोगप्रतिषेधो नामैका- में दिखाई देती है अर्थात् दूरवाली पास और दशोऽध्यायः ॥११॥ पासवाली दूर दिखाई देती है। दोपके मंडल
में स्थित होनेपर वस्तु गोलाकार दिखाई देती द्वादशोऽध्यायः। हैं, दृष्टिके मध्यमें स्थित होनेपर एक वस्तु
दो और बहुत प्रकार से स्थित होनेपर एक
ही वस्तु बहुत दिखाई देती है। जब दोष अथाऽतो दृष्टिरोगविज्ञानीयमध्याय
दृष्टिके भीतर चले जाते हैं तब छोटी वस्तु ___ व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहांसे दृष्टिरोगविज्ञानीय
बडी और बड़ी छोटी दिखाई देने लगती है नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
और दोषके अधोभाग में स्थित होनेपर पा. तिमिररोग के लक्षण।
सवाली वस्तु, ऊपर के भागमें स्थित होनेपर सिरानुसाराणि मले प्रथम पटलं श्रिते।। दूरवाली वस्तु तथा पार्श्व में स्थित होनेपर अव्यकमीक्षते रूपं व्यक्तमप्यनिमित्ततः॥ पार्श्वगत अर्थात इधर उधर की वस्तु दिखा
अर्थ-वातादि दोषों में से कोई सा एक | ई नहीं देती हैं । इसी को तिमिररोग कहते हैं दोष सिरानुगामी होकर पहिले अर्थात् बाहर
तृतीयपटलगत के लक्षण । वाले पर्देका आश्रय लेलेता है, तब रोगी को
प्राप्नोति काचतां दोषे तृतीयपटलानिते। स्पष्ट दिखाई नहीं देता है और कभी बिना
तेनोर्ध्वमीक्षते नाधस्तनुचैलावृतोपमम् ॥ कारण ही स्पष्ट दिखाई देने लगता है । इसे | यथावर्ण च रज्येत दृष्टिहीयेत च क्रमात्। तिमिररोग कहते हैं ।
___ अर्थ-जब दोष तीसरे पटलमें पहुंच जा. दूसरेपटल में प्राप्तहुए के लक्षण ।।
ते हैं तव काचता प्राप्त होती है । इस का. प्राप्ते द्वितीयं पटलमभूतमपि पश्यति ।
| चता के कारण ऊपर को देख सकता है पर भूतं तु यत्नादासनं दूरे सूक्ष्मं च नेक्षते ॥ दूरांतिकस्थं रूपं च विपर्यासन मन्यते । नीचेको नहीं देख सकता । इस रोगमें ऐमा दोषे मंडलसंस्थाने मंडलानीव पश्यति ॥ हो जाता है जैसे कोई बहुत पतला कपडा द्विधैकं दृष्टिमध्यस्थे वहुधा बहुधा स्थित।। ढका हुआ है। दृष्टिका रंग दोषके अनुसा. दृष्टरभ्यंतरगते ह्रस्ववृद्धविपर्ययम् ॥ ४॥ बांतिकस्थमधःसंस्थे दरगं नोपरि स्थिते। । र हो जाता है, जैसे वात दोषसे श्यावादि । पार्श्व पश्येन पावस्थेतिमिराख्योऽयमामयः| तथा दृष्टि धीरे धीरे कम होती चली जाती है
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(७८४)
अष्टांगहृदय ।
अ० १२
--
.... चतुर्थपटल के लक्षण । । . वातसे दृसिरासंकोचन। . तथाप्युपेक्षमाणस्य चतुर्थ पटलं गतः ॥७॥
पाते तु संकोचयति सिराः। लिंगनाशं मलः कुर्वन् छाइयेदू दृष्टिमंडलम् । दृग्मंडलं विशत्यंतर्गभीरा दृगसौ स्मृता ।। . ___ अर्थ--यदि ऊपर की अवस्था में चिकि- अर्थ--वायुके कारण दृष्टि और सिरा
सा नहीं की जायगी तो दोष चौथे पटलमें | सब संकुचित होजाती है, और दृष्टि का पहुंच जाते हैं और वहां दृष्टिका नाश कर• | मंडल भीतर को होजाता है, इसे गंभीर ते हुए दृष्टिमंडल को आच्छादित कर लेते हैं। | दृष्टि कहते हैं । वातज तिमिर के लक्षण ।
पित्तज तिमिर के लक्षण | तत्र पातेन तिमिरे ब्याविद्धमिव पश्यति ॥ पित्तजे तिमिरे विद्युत्खद्योतोद्योतदीपितम् । चलाविलारुणाभासं प्रसन्नं चेक्षते मुहुः। शिखितित्तिरिरिच्छाभप्रायोनलंचपश्यति ॥ जालानि केशान्मशकान्
| काचे दृक् काचनीलामा तादृगेव च पश्यति रश्मीश्चोपेक्षितेऽत्र च ॥ अर्केन्दपरिवेषाग्निमरीचींद्रधनूंषि च ॥ काचीभूते गरुणा पश्यत्यास्यमनासिकम। भृगनीला निरालोकादृक् स्निग्धा लिंगनाशतः चंद्रदीपाद्यनेकत्वं चक्रमृज्वपि मन्यते ॥ दृष्टिः पित्तेन हस्वाख्या साहस्वा हस्वदर्शिमी वृद्धः काचो हशं कुर्याद्रगोधूमावृतामिव । भवेत्पित्तविदग्धाख्या पीता पीताभदर्शना। स्पष्टारुणाभां विस्तीर्णा सूक्ष्मां वा- । अर्थ--पित्तज तिमिर में बिजली और
हतदर्शनाम् ॥ ११॥ सलिंगनाशो.
जुगनू आदि के प्रकाश से प्रकाशित मोर अर्थ--इनमें से वातिक तिमिर में रोगी और तीतर की पुच्छकी कांतिके समान प्रायः घायु की चंचल प्रकृति के कारण दृश्य नीलवर्ण दिखाई देने लगताहै । काचरोग वस्तु को चंचल, धुंए के सदृश धुंधली, अरु
में दृष्टि नील काचके सदृश होजातीहै और णाभास, प्रसन्न और व्याविद्ध की तरह वैसाही रूप भी दिखाई देने लगताहै । रोगी देखता है । कभी जल, कभी बाल, कभी को चंद्र और सूर्य का मंडल, अग्नि,किरण मच्छर और कभी किरणों को देखता है, | और इन्द्रधनुष दिखाई देने लगताहै । लिंग इसकी उपेक्षा करनेसे दृष्टि काचता को नाशसे दृष्टि भेरेि के समान नीली, निराप्राप्त होकर लाल होजाती है और रोगी मुख लोक और स्निग्ध होजाती हैं । पित्तके काको नासिकारहित, चन्द्रमा और दीपक में रण दृष्टि हस्व संज्ञक होजाती है, दृष्टि भी अनेकता और सीधी वरत को टेढा देखता छोटी होजाती है और वस्तु भी छोटी दिहै | काचता के बढ जानेपर दृष्टि धूल और खाई देने लगती है, पित्तविदग्धा दृष्टि पीली ●एकी तरह आवृत दिखाई देती है, अथवा
होजाती है और इसमें रोगीको सव वस्तु दृष्टिमें स्पष्टता, ललाई, विस्तीर्णता, सूक्ष्मता
पाली दिखाई देतीहैं। वा नष्टदर्शनता होजाती है । यह वातज
कफजतिमिर के लक्षण ।
कफेन तिमिरे प्रायः स्निग्धं श्वेतं च पश्यति लिंगनाश अर्थात् दृष्टिनाश कहलाता है । । शंखेंदुकुंदकुसुमैः कुमुदैरिव चाचितम्।
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अ०१२
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
का तु निः प्रभै प्रदीपाद्यैरिवान्वितम् ॥ सिताभा सा च दृष्टिः स्याल्लिंगनाशे तु लक्ष्यते मूर्तः कको दृष्टिगतः स्निग्धो दर्शननाशनः विदुर्जलस्येव चलः पद्मिनीपुटसंस्थितः । उणे संकोचमायाति छायायां परिसर्पति शंख कुंदै कुमुदस्फटिकोपमशुक्लिमा ।
अर्थ-कफजतिमिर रोग में रोगी प्रायः स्निग्ध और श्वेतवर्ण वस्तुओं को देखता है और उसे शंख, चन्द्रमा, कुन्दपुष्प और कमो. दनी के सह व्याप्त दिखाई देता है । काच रोग में प्रभारहित चन्द्र, सूर्य और दीपक से ब्याप्त सा दिखाई देता है | लिंगनाश में दृष्टि शुभ होजाती है । दृष्टिगत कफ कठोर, स्निग्ध और पद्मिनीपत्र के ऊपर जलविन्दु सदृश चंचल होजाता है, यह कफविन्दु धूप में संकुचित और छाया में फैलनेवाला हो जाता हैं । तथा शेख, कुंद, इंदु, कमोदनी, और स्फटिक के समान सफेदी होजाती हैं । रक्तपित्त के लक्षण ।
के
( ७८५ )
हैं। रोगी द्वंद्वज और सान्निपातिक तिमिर रोग में बिनाकारण ही अस्पष्ट रूप से पदार्थों को देखने लगता है । तिमिररोग में तथा काचरोग और लिंगनाश में दृष्टिमें विचित्र रोग पैदा होता है ।
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नकुलां के लक्षण | द्योत्यते नकुलस्येवयस्य द्वङ् निचिता मलैः नकुलांधः स तत्राह्नि चित्रं पश्यति नो मिशि
अर्थ-- जिस रोगी की दृष्टि दोषतमूहों द्वारा व्यथित होकर नकुल की दृष्टि के समान देदीप्यमान होजाती है वह नकुलांध कहलाता है, नकुलान्धरोग में रोगी को दिनमें विचित्र पदार्थ दिखाई देते हैं, परन्तु रात में दिखाई नहीं देता है ।
दिवादर्शन में युक्ति |
रक्तेन तिमिरे रक्तं तमोभूतं च पश्यति कांचनरक्तकृष्णा वा दृष्टिस्तादृकू च पश्यति लिंगनाशेऽपि तादृग्दृइ निःप्रभाहतदर्शना अर्थ- रक्तज तिमिररोग में रोगी रक्त के सदृश वा अंधकार के समान देखता है, काचरोग से दृष्टि लाल वा काठी होजाती है । लिंगनाश में दृष्टि रक्त वा कृष्णवर्ण तथा नाहीत और हतदर्शन होजाती है ।
संसर्गजतिमिर के लक्षण |
संसर्गसन्निपातेषु विद्यात्संकीर्णलक्षणान् । तिमिरादीन कस्मा चतैःस् :स्यादूव्यक्ताकुलेक्षणम् तिमिरे शेषयोर्हष्टौ चित्रो रागः प्रजायते ।
अर्थ--संसर्गज और सन्निपातज तिमिररोग में उपरोक्त सब लक्षण मिले हुए होते
|
१९
अर्कैस्त मस्त कन्तस्तगभस्तौ स्तंभमागताः स्थगयंति दृशं दोषा दोषांधः स गदोपरः । दिवाकरकरस्पृष्टा भ्रष्टा दृष्टिपथान्मलाः २५ विलीनलीना यच्छति व्यक्तमत्रान्हि दर्शनम्
अर्थ - जब सूर्य की रश्मि अस्ताचल के मस्तक पर पहुंच जाती हैं अर्थात् जब दिन अस्त होने लगता है तब संपूर्ण दोष स्तंभित होकर दृष्टि का आच्छादन करलेते हैं, इसको दोषांध वा रतौंध कहते हैं । और सूर्य की किरणों के स्पर्श से भ्रष्ट हुए दोष दृष्टिपथ को छोडकर विलीन होजाते हैं, इसलिये ऐसे रोगी को दिनमें स्पष्ट दिखाई देने लगता है ।
उष्णविदग्धा दृष्टि |
उष्णततस्य सहसा शीतवारिनिमज्जनात् दाहोषे मलिन शुरु महन्या विलदर्शनम् त्रिदोषरक्तसंयुक्तो यात्युष्मोर्ध्वं ततोऽक्षिण रात्रावांध्यं य जायेत विदग्घोष्णेन सा स्मृता
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अष्टांगहृदय ।
प्र०१२
अर्थ-गरमी के कारण तप्त होकर | किसी अद्भुत रूपको देखताहै वा सूर्यादि झटपट शीतल पानी में निमज्जन करने से देदीप्यमान पदार्थों को देखता है, तब चकात्रिदोष और रक्त से संपृक्त ऊष्मा ऊपर चोंधी के कारण उस मनुष्यके नेत्रों में को उठकर नेत्रोंमें पहुंच जाती है । इससे | वातादि दोष आश्रय लेकर तेज को संशोनेत्रों में दाह और संताप पैदा होता है और षित करके दृष्टिको मुषितदर्शनवाली, वैदूर्य सफेद भाग में मैलापन आजाता है । इस के रंगके समान, स्तिमित और प्रकृतिस्थ रोग में दिनमें धुंधला दिखाई देने लगता | की तरह वेदनारहित करदेते हैं । इसी को है और रात्रिमें देखने की शक्ति सर्वथा नष्ट
औपसर्गिक लिंगनाशक कहते हैं । होजाती है, इसीको उष्णविदग्धा दृष्टि । दृष्टिमंडल के सत्ताईसरोग । कहते हैं।
5 वर्जयेत् ।
विना कफालिंगनाशान् गंभीरां ह्रस्वजामपि - विदग्धाम्ला दृष्टि ।
षट् काचा नकुलांधश्च याप्याः शेषांस्तु भृशमम्लाशनांदोषैः सास्त्रैर्या दृष्टिराचिता ।
__ साधयेत् । संक्लेदकंडूकलुषा विदग्धाम्लेन सा स्मृता। द्वादशति गदा दृष्टौ निर्दिष्टाः सप्तविंशतिः - अर्थ-अत्यन्त खट्टी वस्तुओं के खाने अर्थ-कफज लिंगनाशक को छोडकर से दृष्टि वातादि दोष और रक्तसे व्याप्त वातज, पित्तज, द्वन्द्वज, संनिपातज, रक्तज होजाती है । इसमें दृष्टि क्लेदयुक्त खुजलीयुक्त और औपर्गिक लिंगनाशक वर्जित हैं ।
और कलुषित होजाती है, इसे विदग्धाम्ला | गंभीरा और हस्वजा ये दोनों भी वर्जित हैं । -दृष्टि कहते हैं।
वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, द्वन्द्वज और धूमररोग के लक्षण । त्रिदोषज ये छः प्रकार के काचरोग और शोकज्यरशिरोरोगसंतप्तस्यानिलादयः ।
सातवां नकुलान्ध ये सात प्रकार के नेत्ररोग धूमाविलां धूमदर्शी दृशं कुयुः स धूमरः। याप्य अर्थात् कष्टसाध्य हैं । तथा वातज, ___ अर्थ-शोक, ज्वर और शिरोरोग द्वारा
पित्तज, कफज, रक्तज,द्वन्दज और त्रिदोषज संतप्त मनुष्य की दृष्टि को वातादिदोष धूऐ
ये छ: प्रकार के तिमिररोग, एक कफज के समान धुंधली और धूमवत देखनेवाली कर
लिंगनाश, पित्तविदग्धा दृष्टि, देोषान्ध, उष्ण देते हैं । इस रोगको धूमर कहते हैं।
विदग्धा दृष्टि, विदग्धाम्ला दृष्टि और धूमर - औपसर्गिकलिंगनाशक ।
| ये बारह रोग साध्य होते हैं। इस तरह सहसैवाल्पसत्त्वस्य पश्यतो रूपमद्भुतम् ऊपर वाले पंद्रह सब मिलाकर सत्ताईस भास्वरं भास्करादि वा वाताद्यानयनाश्रिताः कुर्वति तेजः संशोप्य दृष्टिं मुशितदर्शनाम् |
नेत्र रोग हैं। वैडूर्यवर्णो स्तिमितांप्रकृतिस्थामिवाव्यथाम् | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी. औपसर्गिक इत्येष लिंगनाशो
कान्वितायां उचरस्थाने दृष्टिरोग अर्थ-जब अल्पसत्ववाला रोगी सहसा । विज्ञानीयं नाम द्वादशोऽध्यायः
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म. १३
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७८७)
त्रयोदशोऽध्यायः।
इसको रातमें पीनेसे तिमिर रोग नष्ट होजा
ताहै । यह इस रोग पर उत्तम औषध हैं। - CC:
___ अथवा दाख, चंदन, मजीठ, काकोली, अथाऽतस्तिमिरप्रतिषेध व्याख्यास्यामः । क्षीरकाकोली, जीवक, मिश्री, सितावर, मेदा,
अर्थ--अब यहांसे तिमिर प्रतिषेधनामक प्रपौंडरीक, मलहटी और नीलोत्पल प्रत्येक अध्याय की व्याख्या करेंगे।
एक तोला, एक प्रस्थ पुराना घी और इतनम तिमिरकी चिकित्सा में शीघ्रता ॥ ही दूध मिलाकर सबको पकावे, यह काचरोग "तिमिरं काचतांयातिकाचोन्यांध्यमुपेक्षया तिमिररोग, रक्तराजी और शिविदना इन नेत्ररोगेष्वतो घोरं तिमिरं साधयेद्रुतम् । रातारा
अर्थ-तिमिर रोगकी चिकित्सा में उपेक्षा करनेसे काचरोग होजाता है और काचरोग
काचनाशक घृत । से अंधापन उन होजाता है, इससे यह । पटोलर्निवकटुकादासेिव्यवरावृषम् ६ रोग सब नेत्ररोगों में भयानक होता है,
सधन्वयासत्रायंती पर्पट पालिकं पृथकू ।
प्रस्थमामलकानां च क्वाथयेन्नल्वणेऽभसि । इसलिये इसकी चिकित्सा में शीघ्रता करनी
तदाढकेऽर्धपलिकैः पिष्टैः प्रस्थं घृतात्पचेत् चाहिये ।
मुस्तभूनिंबयष्टया कुटजोदीच्यचंदनैः ८ तिमिरनाशक घृत ॥
सपिप्पलीकैस्तत्सर्पिणकर्णास्यरोगजित्
विद्रधिवरदुष्टातर्विसपिचिकुष्ठनुत् ९. तुलां पचेत जीवत्या द्रोणेऽपां पादशेषिते । तत्क्वाथे द्विगुणः झीरं घृतप्रस्थं विपाचयेत्
विशेषाच्छुक्रतिमिरनक्तांध्योष्णाम्लदाहनुत् प्रपोंडरीककाकालीपिप्पलीरोधसैंधवैः। अर्थ--पर्वल, नीमकी छाल, कुटकी, दारुशताहामधुपद्राक्षासितादारफलत्रयः ॥३॥ हलदी, नेत्रवाला, त्रिफला, अडूसा, जवासा, कार्षिकनिशि तत्पीत तिमिरापहरं परम् ।
त्रायमाण, पित्तपापडा, प्रत्येक एक पल, द्राक्षाचंदनमंजिष्ठाकाकोलीद्वयजीवकैः ॥४॥ सिताशतावरीमेदापुंडामधुकोत्पलैः।
आमला दो सर, इन, सबको एक द्रोण जल पचेज्जीर्ण घृतप्रस्थं समक्षीरं पिचून्मितः५/
| में औटावे, चौधाई शेष रहनेपर उतार कर हंति तत्काचतिमिररक्तराजीशिरोरुजः। छानले, फिर इसमें मोथा, चिरायता, मुल
अर्थ-एक तुला जीवंती को एक द्रोण हटी, कुडा, नेत्रवाला, रक्तचंदन और पीपल, जलमें पकावै, चौथाई शेष रहनेपर उतार प्रत्येक आधा आधा पल लेकर पीसकर कर छानले फिर इस क्वाथमें दुगुना दूध / मिलादे, और एक प्रस्थ घी डालकर पाक की
और एक प्रस्थ घी डालकर पकावै और विधि से पकावे | इस घृतका सेवन करने इसमें प्रपौंडरीक, काकोली, पीपल, लोध, से नासिका, कर्ण, और मुखरोग, तथा सेंधानगक, सौंफ, मुलहटी, दाख, मिश्री, / विद्रधि, ज्वर, दुष्टव्रण, विसर्प, अपची और देवदारू, त्रिफला प्रत्येक एक कर्ष मिलादे, । कुष्टरोग और विशेष करके फूला, धुंध,
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(७८८)
- अष्टांगहृदय ।।
अ०.१३
उष्णविदग्धा, और अम्लविदग्धा दृष्टिरोग | यष्टीमधुकसंयुक्तां मधुना च परिप्लुताम् । जाते रहते हैं।
मासमेकं हिताहारः पिबन्नामलकोदकम् । त्रिफला घृत । सौपर्ण लभते चक्षुरित्याह भगवानिमिः । त्रिफलाष्टपलं काथ्यं पादशेष जलाढके।। अर्थ-त्रिफलाघृत में त्रिफला, मुलहटी तेन तुल्यपयस्केन त्रिफलापलकल्कवान् । और मधु मिलाकर रात्रिमें चाटै, हितकारी अर्धप्रस्थो घृतात्सिद्धः सितयामाक्षिकेण वा भोजन अामले का रसपान करता रहे, इस युक्तं पिबेत्तत्तिमिरी तद्यक्तं वा वरारसम् । अर्थ-त्रिफला आठ पलको एक आढक
तरह एक महिने तक इस प्रयोग के करने जलमें औटावे, चौथाई शेष रहने पर उतार
से मनुष्य की दृष्टि गरुड की सी हो जाती
है। यह निमिमुनि का अनुभूत प्रयोग है । कर छानले, फिर इसके समान दूध त्रिफला
तिमिररोग पर त्रिफला। का कल्क एक पल, आधा प्रस्थ घृत इन
ताप्यायोहेमयष्टयाइसिताजीर्णाज्यमाक्षिकैः सबको पाकबिधि के अनुसार पकाकर खांड
संयोजिता यथाकामं तिमिरघ्नी घरा वरा । वा शहत के साथ पानकरे तो तिमिररोग अर्थ-सौनामाखी, लोह, सुवर्ण, मुलहटी जाता रहता है, तथा दोषदूष्यादि के अनु-मिश्री, पुराना घी, और शहत इनमें त्रिफला सार इस घृत को त्रिफला के काढेके साथ मिलाकर यथेच्छ सेवन करने से तिमिर नष्ट सेवन करे। यह त्रिफलात कहलाता है। होजाता है, यह प्रयोग बहुत उत्तम है । . महात्रफल घत ।
अन्य प्रयोग। यष्टीमधुद्विकाकोलीव्याघ्रीकृष्णामृतोत्पलः। सघृतं वा वराकाथं शीलयेत्तिमिरामयी । पालिकः ससिताद्राक्षश्रुतप्रस्थं पचेत्समैः । अपूपसूपसक्तन्वा त्रिफलाचूर्णसंयुतान् । खजाक्षीरवरावासामार्कवस्वरसैः पृथक् १३ अर्थ-तिमिररोगी को उचित है कि महात्रफलमित्येतत्परं दृष्टिविकाराजित् ।।
त्रिफला के काढे में घृत मिलाकर सेवन अर्थ-मुलहटी, काकोली, क्षीरकाकोली,
करने का अभ्यास करे | अथवा त्रिफलाका कटेरी, पीपल, गिलोय, नीलोत्पल, मिश्री
चूर्ण मिलाकर मालपुआ, दाल और सत्तू और दाख इनको एक एक पल लेकर कल्क
का सेवन करे । कर लेवे । तथा बकरी का दूध, त्रिफला का
तिमिररोग में पायस । काढा, अडूसे का रस तथा भांगरे का रस
पायसं वा वरायुक्तं शीतं समधुशर्करम् । एक एक प्रस्थ लेकर इसमें एक प्रस्थ घी को प्रातर्भक्तस्य या पूर्वमधात्पथ्यां पृथक पृथफू पाकविधि के अनुसार पकावे, इसके सेवनसे मृद्धीकां शर्कराक्षौद्रैः सततं तिमिरातुरः॥ दृष्टिविकार नष्ट हो जाते हैं । इस घृत को अर्थ-प्रात:काल के समय त्रिफला डाल महात्रैफल घृत कहते हैं।
| कर दूध की खीर को ठंडी करके शहत गारुडीदृष्टि प्राप्तकरने का अवलेह । और खांड मिलाकर सेवन करे, अथवा फलेनाथ हविषा लिहानत्रिफलां निशि।। भोजन करने से पहिले हरङ वा मुनका
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म. १३
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७८९)
दाख को अलग अलग खांड भौर शहत में । नक्षत्र में चन्द्रमा हो उस दिन दोनों नेत्रों मिलाकर तिमिररोगी को निरंतर सेवन करना | में इस अंजन को लगावै, इससे तिमिर, चाहिये ।
अर्म, रक्तराजी, कंडू, काच आदि रोग शांत. सर्वतिमिरनाशक अंजन । ।
होजाते हैं। स्रोतोजांशांश्चतुःषष्टिं ताम्रायोरूप्यकांचनैः कफामय नाशक चणे । यतान प्रत्येकमेकांशैरंधमूषोदरस्थितान् । मरिचयरलवणभागी भागी द्वौमापयित्वा समावृत्तं ततस्तच्च निषेचयेत् ।
कणसमुद्रफेनाभ्याम् । रसस्कंधकषायेषु सप्तकृत्वः पृथक् पृथक् । सौवीरभागनवकं चित्रायां चूर्णितंवैडूर्यमुक्ताशंसानां त्रिभिर्भागैर्युतं ततः।।
__कफामयजित् ॥ २५॥ चूर्णीजनं प्रयुंजीत तत्सर्व तिमिरापहम् ॥ ।
। अर्थ - काली मिरच और सेंधानमक ___ अर्थ-सुर्मा ६४ भाग, तांबा लोहा, । चांदी सौना प्रत्येक एक एक भाग, इन |
| दो भाग, पीपल और समुद्रफेन दो भाग,
सुर्मा नौ भाग इनको चित्रानक्षत्र में पीसकर सबको मिलाकर अधमूषा नामक यंत्र के
चूर्ण बना लेवै । इसके भांजने से नेत्र भीतर रखकर अग्नि से फूंके फिर शिला
संबंधी कफके रोग जाते रहते हैं। पर अच्छी तरह पीसकर इसको मधुरादि
सर्वाक्षिरोग पर अंजन। द्रव्यों के काढे में सातबार डाले, तदनंतर
द्राक्षामृणालिस्वरसे क्षीरमद्यवसासु च । मुंगा, मोती और शंख इनको तीन तीन
पृथकूदिल्याप्सुस्रोतोजसप्तकृत्वोनिषेधयेत् ॥ भाग मिलाकर महीन पीस डाले । यह तञ्चणित स्थित शंने हमसादनमंजनम् । अंजन सब प्रकार के तिमिर रोगों को नष्ट | शस्तं सर्वाक्षिरोगेषु विदेहपतिनिर्मितम् । कर देता है।
अर्थ-दाख और कमलनाल के स्वरस तिमिरादि शांतिकारक अंजन। में, दूध, मद्यमें, चर्बीमें, और आंतरीक्ष मांसीविजातकायाकुंकुमनीलोत्पल जलमें अलग अलग सात सात बार सुमेको
___ लाभयातुत्यैः। सेचित करे, फिर इसको पीसकर शंखमें सितकाचशंखफेनकमरिचांजनपिप्प- रखले, यह अंजन दृष्टिको स्वच्छ करता है
लीमधुकैः ॥ २३ ॥ और संपूर्ण प्रकार के नेत्ररोगों में प्रशस्त चंद्रऽश्विनीसनाथे
सचर्णितरजोगलमयो।। है । यह अंजन विदेहाधिपति का बनाया तिमिरामरक्तराजांकडूकाचादिशममिच्छन्
हुआ है। अर्थ-जटामांसी, तेजपात, इलायची,
भास्करांजन । दालचीनी, लोह, कुंकुम, नीलकमल, हरड,
निर्दग्धं वादरागारैस्तुत्थं चेत्थं निपचितम्
क्रमादजापयः संर्पिः क्षौद्रे तस्मात् पलद्वयम् नीलाथोथा, सफेद काच, शंख समुद्रफेन,
कार्षिकैस्ताप्यमरिचस्रोतोजकटुकानतः। काली मिरच, अंजन, पीपल, मुलहटी, इन
पटुरोधीशलापथ्याकणैलांजनफेनिकैः ॥ सबको पीसले । फिर जिस दिन अश्विनी । युक्तं पलेन यष्टयान मूषांतांतचूर्णितम् ।
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( ७९० )
अष्टांगहृदय ।
म. १३
ho.
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हंति काचार्मनक्तांध्यरक्राजीः सुशीलितः॥ । बारबार अग्नि में तपाकर गोमूत्र, गोवर का चूर्गोविशेषात्तिमिरं भास्करो भास्करो यथा
रस, खट्टी कांजी, स्त्रीके स्तनों का दूध, ____अर्थ-नीलाथोथा लेकर बेरकी लकड़ियों
घी, विष और शहत में बारबार बुझावै इस में जला देवै और क्रमपूर्वक बकरी के दूध, नीलाथोथे का अंजन लगाने से दृष्टि गरुड घी और शहत में पहिले की तरह बुझावै । ! के समान होजाती है। फिर इसमें से दोपल,सौनामाखी कालीमिरच सीसे की शलाका । अजन कुटकी तगर सेंधानमक लोध मनसिल
श्रेष्ठाजलं भृगरसं सबिषाज्यमजापयः । हरड पीपल रसौत समुद्रफेन और मुलहटी । यष्टीरसं च यत्सीसं सप्तकृत्वः पृथक् पृथक ॥ प्रत्येक एक कर्ष । इन सब द्रव्यों को मूषके तप्तं सप्तं पायिंत तच्छलाका
नेत्रे युक्ता सांजनानजना वा। भीतर रखकर जलादेवै । यह भास्करांजन
तैमिर्मिनावपच्छिल्यपैल नित्यप्रति लगाने से काचरोग, अर्म,रतौंध, __ कंइं जाड्यं रक्तराजींच हंति ॥ ३५॥ रक्तराजी और विशेष करके तिमिररोग को अर्थ-त्रिफला का कार,भांगरे का रस, ऐसे नष्ट करदेता है, जैसे सूर्य अंधकार का विष, घी, बकरी का दूध, मुलहटी का रस नाश करदेता है।
इनमें अलग अलग सात सात बार सीसे द्वितीय भास्करांजन । को आग में तपा तपाकर बुझावै । फिर निशद्भागा भुजंगस्य गंधपाषाणपंचकम् । । इस सीसे की सलाई बनाकर इसमें अंजन शुल्तारकयोग द्वौ वंगस्यैकोजनात्रयम् ॥ लगाकर वा बिनाही अंजन इसको आंखों में अंधमूर्षाकृतं ध्मात पक्कं विमलमंजनम् ।
फेरे । इससे तिमिर,अर्म, स्त्राव,पिच्छिंलता, तिमिरांतकरं लोके द्वितीय इव भास्करः ॥ अर्थ-सीसा३० भाग, गंधक ५ भाग,
पैल्ल, कंडू, जडता और रक्तरामी जाते
रहते हैं । तांबा और हरताल दो दो भाग, बंग एक
गिद्धदृष्टिकारक योग । भाग, तथा सौवीरांजन तीन भाग इन सब
रसेंद्रभुजगौ तुल्यौ सयोस्तुल्यमथांजनम् । को अंधभूषायंत्र में भर कर फूंकले । यह ईषत्कर्पूरसंयुक्तमंजनं तिमिरापहम् ॥३६ ।। अंजन नेत्रों को निर्मल करदेता है और यो गृध्रस्तरुणरविप्रकाशगलतिमिररोग को दूर करने में दूसरे सूर्य के
स्तस्यास्यं समयमृतस्य गोशकाद्भः।
निर्दग्धं समघृतमजनं च पेयं समान है।
योगोऽयं नयनबलं करोति गार्धम् ॥ दृष्टिवईक नीलाथोथा । ।
अर्थ-पारा और सीसा समान भाग गोमूत्रे छगणरसेऽम्लकांजिके च
| लेकर इन दोनों के बराबर सुरमा और सोलस्त्रीस्तन्ये हविषि विषे च माक्षिके च। यतुत्थं ज्वलितमनकशोनिषिक्तं
हवां भाग कपूर लेकर सबको बारीक पीस तत्फुर्याद्रुडसम नरस्य चक्षुः॥३३॥ डाले, इसको आंजने से तिमिररोग नष्ट हो. अर्थ-नीलाथोथे की एक डेली लेकर | जाता है । तरुण सूर्य के समान प्रकाशमान..
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अ० १३
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उत्तरस्थान भाषाटीका समेत ।
कपोलस्थलवाला गिद्ध जो समय पाकर आप ही मर जाय उसके मस्तक को काटकर आरने ऊपलोंकी आग में भस्म करदे, फिर उसके समान घी और सुरमा मिलाकर मर्दन करके नेत्रों में आजै | इससे गिद्ध के समान दृष्टि | हो जाती है ।
भिन्नतार नेत्रका चूर्ण | कृष्णसर्पवदने सहविष्कं दग्धमंजतमनिःसृतधूमम् । चूर्णितं नलदपत्राविमिश्रं भिन्नतारमपि - रक्षति चक्षुः ॥ ३८ ॥ अर्थ - काले सर्पके मुखमें घी और सौवी रांजन भरकर ऐसी रीति से जलावे कि धूआं बाहर न निकलने पावै । फिर इसमें जटामांसी के पत्ते मिलाकर महीन पीसडाले इसको नेत्रों में आंजने से भिन्नतारक चक्षु भी अच्छे हो जाते हैं ( भिन्नतारक कहने से औपन की परमोत्कृष्टता दिखाई गई है। बास्तवमें भिन्नतारक घक्षु की रक्षा होना असंभव है, ऐसे ही गरुड की सी दृष्टि है। जाना, इत्यादि वाक्यों में जानना चाहिये )। अको भी दृष्टिमदान | कृष्णं सर्प मृतं न्यस्य चतुरश्चापि
वृश्चिकान् ।
क्षीरकुंभे त्रिसप्ताहं क्लेदयित्वाथ
मंथयेत् ॥ ३९ ॥ तत्र यन्नवनीतं स्यात्पुष्णीयात्तेन कुक्कुटम् । अधस्तस्य पुरीषेण प्रेक्षते ध्रुवमंजनात् ॥
अर्थ- मरे हुए काले सर्प और चार बिच्छुओं को दूध के कलश में भरकर तीन सप्ताह तक रहने दे | पीछे इस दुग्ध को मकर माखन निकाल ले | इस माखन को
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( ७९१ )
एक मुर्गे को खिलावे | इस मुर्गे की बीटका अंजन लगाने से अंधेको दिखाई देने लगता है
अंकी दृष्टिवर्द्धक रसक्रिया | कृष्णसर्पवसा शंखः कतकात् फलमंजनम् । रसक्रियेयमचिरादधानां दर्शनप्रदा ॥
अर्थ- काले सर्पकी वसा, शंख, निर्मलीफल और सुर्मा इनकी रसक्रिया से अंधेकी दृष्टि शीघ्र बढ जाती है ।
अप्रतिसाराख्य अंजन । मरिचानि दशार्धपिचुस्वाप्यात्तत्यात्पलं पिचुर्यष्टयाः ।
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क्षीरादग्धमंजन
मप्रतिसाराख्यमुत्तमं तिमिरे ॥ ४२ ॥ अर्थ- कालीमिरच दस, सौनामाखी आधा पिचु, नीलाथोथा आधा पल, और मुलहटी एक पिचु, इन सब द्रव्यों को दूध में भिगोकर अग्नि में भस्म करले | इस अंजन का नाम अप्रतिसार है, यह तिमिररोग की परमोत्तम औषध है ।
तिमिरनाशक गोली | अक्षबोजमरिचामलकत्वक् तुत्थयष्टिमधुकैर्जल पिष्टैः । छाययैव गुटिकाः परिशुष्का नाशयंति तिमिराण्यचिरेण ॥ ४३ ॥ अर्थ बहेडे का बीज, काली मिरच आमला, दालचीनी, नीलाथोथा, मुलहटी इन को जल में पीसकर गोली बनाकर छाया में सुखाले, इससे तिमिररोग बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
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तिमिरनाशक योग | मरिचामलकजलोद्भव तुजनताप्यधातुभिः क्रमवृद्धैः ।
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(७९२)
अष्टांगहृदय ।
म. १३
पण्माक्षिक इति योग
| विधानोक्त वस्ति क्रिया, तर्पण, प्रलेप और स्तिमिरामलेदकाचकंडूईता ॥४४॥ परिषकादि द्वारा नेत्ररोगी की चिकित्सा अर्थ-कालीमिरच,आमला,कमल,नीला
करनी चाहिये। थोथा, सुर्मा और सौनामाखी इन छः द्रव्यों को उत्तरोत्तर एक एक भाग बढाकर लेवे।
पृथकचिकित्साका उपदेश।
सामान्य साधनमिदं प्रतिदोषमतः शणु। इसका अंजन बनाकर लगाना चाहिये, यह अर्थ-यहांतक नेत्ररोग की सामान्य षण्माक्षिक योग तिमिर, अर्म, क्लेद, काच चिकित्सा का वर्णन किया गयाहै, अब यहां और कंडू रोगों को दूर करदेता है। से वातादि दोषानुसार चिकित्सा का वर्णन दृष्टिरोगनाशक चूर्ण ।
करते हैं। रत्नानि रूप्यं स्फटिकं सुवर्ण स्रोतोजन ताम्रमयः सशंखम् ।
वातजतिमिर की चिकित्सा। कुचंदन लोहितगैरिकं च ।
वातजे तिमिरे तत्र दशमूलांभसा घृतम् । चूर्णाजनं सर्वगामयनम् ४५
क्षीरे चतुर्गुणे श्रेष्ठाकल्कपक्कं पिबेत्ततः ।
त्रिफलापंचमूलानां कषाय क्षीरसंयुतम् । अर्थ - हीरा, मरकत आदि यथाप्राप्त रत्न
एरंडतैलसंयुक्तं योजयेच विरेचनम् ।। रूपा, स्फटिक, सुवर्ण, सुर्मा, तांबा, लोहा,
___ अर्थ-वातजतिमिर रोगमें दशमूल का शंख, रक्तचंदन, और लाल गेरू, इनको पीसकर अंजन लगाने से संपूर्ण प्रकार के
क्वाथ, चौगुने दूध के साथ त्रिफला का कल्क नेत्ररोग दूर होजाते हैं ।
डालकर पाकविधि के अनुसार घी को पकावै - दृष्टिबलकारक नस्य ।
और पान करने के पीछे विरेचन के लिये तिलतैलमक्षतैलंभंगस्वरसोऽसनाचनियंहः | त्रिफला और पंचमूल के काढे में दूध और
आयसपात्रविपक्कं करोति दृष्टेबलं नस्यम् । अरंडका तेल मिलाकर उपयोग में लावै । ___अर्थ-तिलका तेल,वहेडेका तेल, भांगरे ।
ऊर्ध्वजत्रुरोगनाशक नस्य । का रस, और असन का काथ, इन सबको समलजालजीवतीतुलां द्रोणेऽभसः पचेत् लोहे के पात्रमें पकाकर अंजन लगाने से | अष्टभागस्थिते तस्मिस्तैलप्रस्थ पयः समं । दृष्टि बलवान होजाती है।
बलात्रितयजीवंतीवरीमूलैः पलोन्मितः। नेत्ररोगमें स्नेहादि ।
यष्टीपलैश्चतुर्भिश्च लोहपात्रे विपाचयेत् ।
| लोह एव स्थितं मासं नावनादूर्ध्वजत्रुजान् । दोषानुरोधेन च नैकशस्तं
वातपित्तामयान हंतितद्विशेषाद् द्गाश्रयान स्नेहास्रविनावणरेकनस्यैः। उपाचरेदं जनमूर्धवस्ति
फेशास्यकंधरास्कंधपुष्टिलावण्यकांतिदम् । बस्तिक्रियातर्पणलेपसेकैः ४७ ____अर्थ-जड और जाली सहित जीवंती
अर्थ-दोषके अनुसार बार बार स्नेह सौपल लेकर एक द्रोण जलमें पकाये, आठवां प्रयोग, रक्तमोक्षण, विरेचन, नस्य, अंजन, भाग शेष रहनेपर उतारकर छानले भौर गंडूपादि विधि में कही हुई मूर्धवस्ति, बस्ति इसमें एक प्रस्थ तेल और इतना ही दूध
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
मिलावे तथा बला, अतिबला, नागबला, वत् प्रयोग करे, यह तिमिर को दूर करने जीवती और शतावरी प्रत्येक एक एक पल | वाली परमोत्तम औषध है । लेकर पीसकर मिलाकर पाकविधि के अनुसार तर्पण प्रयोग। पकावै । पाक होचुकने पर उसको उसी लोहे नचेदेवं शमं याति ततस्तर्पणमाचरेत् ५७ के पात्रमें एक महिने तक रक्खे । इस तेल अर्थ-उक्त रीति से तिमिर रोग की का नस्य द्वारा प्रयोग करनेसे प्रीवा से शांति न होने पर तर्पण का प्रयोग करना ऊपर होनेवाले समस्त रोग बातपैतिक दृष्टि ।
। चाहिये । गतरोग नष्ट होजाते हैं। इससे केश मख तर्पण में धुत को श्रेष्ठता। प्रीवा और कंधों की पुष्टि तथा देहमें शताहाकुष्टनलदकाकोलद्विययाष्टभिः । लावण्य और कांति बढते हैं।
प्रपौडिरीकसरलापप्पलीदेवदासभिः ५८ अन्य प्रयोग।
सर्पिरष्टगुणक्षीरं पकं तर्पणमुत्तमम् । सिनरंड जटासिंहीफलदारुघचानतैः। अर्ध--शतमूली, कूठ, बाल छड, काकोली घोषया बिल्वमूलैश्च तैलं पक्कं पयोन्वितम् क्षीरकाकोली, मुलहटी, पुंडरिया, सरलकाष्ठ, नत्यं सर्बोध जत्थयातलेमामयातिजित्
पीपल और देवदारू इन सब द्रव्यों के साथ ___अर्थ- सफेद अरंड की जड, कटेरी के
आठगुने दूधर्मे घी को पाक करके सेवन फल, देवदारु, वत्र, तगरमूल, तोरई और बेलांगरी की जड, तथा दूध इनके साथ
करे । यह परमोत्तम तर्पण है। तेल पकाकर नस्य लेने से जत्रु से ऊपर
अन्य तर्पण। होनेवाले सब प्रकार के वातकफज रोग मेदसस्तद्वदेणेयाहुग्धसिद्धात् खजाहतात् नष्ट हो जाते हैं।
उद्धृतं साधितं तेजो मधुकोशीरचंदनैः । माहीमा अर्थ-इसी तरह काले हिरण के मेद वसांजने च वैययात्री वाराही वा प्रशस्यते को दूध में पकाकर रई से मथडाले ऐसा गृध्राहि कुछटोत्था वा मधुकेनान्विता पृथक करने से जो तेजः पदार्थ निकलता है, ____ अर्थ-व्याघ्र वा शूकर की वसा अथवा उसको मुलहटी और चंदन के साथ सेवन गिद्ध, सर्प वा मुर्गे की वसा में मुलहटी करे, यह उत्तम तर्पण है। मिलाकर अंजन लगाने से बहुत लाभ
अन्य प्रयोग । होता है।
श्वाविच्छल्यकगोधानां दक्षतित्तिरियर्हिणाम् तिमिरगाशक प्रयोग।
पृथक्पृथगनेनैव विधिना कल्पयेद्वसाम् । प्रत्याने च स्रोतांज रतक्षीरघूते क्रमात् ।
. अर्थ-दोनों प्रकार की सेह, गोधा, निषितं पूर्ववद्योज्यं तिमिरघ्नमनुत्तमम् । तीतर और मोर इनमें से हर एक की चर्वी
अर्थ-प्रत्यं जन में सौवीरांजन को कम को पूर्वोक्त विधान के अनुसार कल्पना से मांसरस, दूध और घी में बुझाकर पूर्व- करे ।
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अष्टांगहृदय ।
पुटपाक विधि | प्रसादनं स्नेहनं च पुटपाकं प्रयोजयेत् ६१ अर्थ - तर्पण और पुटपाक के विधान में कहा हुआ प्रसादन और स्नेहन पुटपाक का प्रयोग करना चाहिये ।
वातजातिमिर में अनुवासनादि । वातपनिसवच्चात्र निरूहं सानुवासनम् । अर्थ - - वातजतिमिर रोगमें पनिस की तरह निरूहण और अनुवासन का प्रयोग करना चाहिये ।
पैत्तजतिमिर की चिकित्सा | पित्तजे तिमिरे सर्पिर्जीवनीयफलत्रयैः ६२
उक्त रोग में विरेचन । शर्करैला त्रिवृच्चूर्ण मधुयुक्तैर्विरेचयेत् ६३ ॥ अर्थ - शर्करा, इलायची, निसोध और शहत इन सब द्रव्यों को देकर रोगी को विरेचन करावे ।
नेत्ररोग में परिषेकादि । सुशीतान् सेकलेपादीन गुंज्यान्नेत्रास्यमृर्धसु अर्थ - पैत्तिक तिमिररोग में नेत्र, मुख और मस्तक में शीतल परिषेक और प्रलेपादि का प्रयोग करना चाहिये । सारिवादि वर्ती । सारिवापद्मकोशीरमुक्ताशावर चंदनैः ६४ वार्तिः शस्तांजने चूर्णस्तथा पत्रोत्पलांजनैः । सनागपुष्पकर्पूरयष्टयाह्नस्वर्णगैरिकैः ६ ६५
अर्थ - सारिवा, पद्माख, खस, मोती,
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अ० १३
लोध और चंदन इनकी बत्ती तथा तेजपात सौवीरांजन, नागकेसर, कपूर, मुलहटी और स्वर्णगैरिक इन सब द्रव्यों से बनाई हुई वत्ती का मंजन लगाना तिमिर रोग में उत्तम है ।
अन्य अंजन | सौवीरांजनतुत्थकशृंगी धात्री फल स्फटिक -
कर्पूरम् पंचांशं पंचाशत्र्य शमथैकांश मंजनं तिमिरघ्नम् अर्थ- सौवीरांजन पांच भाग, नीलाथोथा पांच भाग, काकडासींगी और आमला प्रत्येक तीन भाग, स्फटिक और कपूर विपाचितंपाययित्वास्निग्धस्यव्यधयेत्सिराम् प्रत्येक एक भाग, यह अंजन तिमिर अर्थ-पित्तज तिमिररोग में जीवनीय गण और त्रिफला के साथ घी को पकाकर यह घी रोगी को पान करावे । घृतपान द्वारा स्निग्ध होने पर रोगी की फस्द खोलना चाहिये ।
नाशक है ।
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पक्व घृत की नस्य । नस्य चाज्यं शृतं श्रीरजीवनीयसितेात्पलैः अर्थ - जीवनीयादि गण में चौगुने दूध के साथ पकाया हुआ घी नस्य द्वारा प्रयोग करने से तिमिररोग जाता रहता है ।
कफज तिमिर की चिकित्सा | श्लेष्मोद्भवेऽमृताक्वाथवराकणशतं घृतम् । विध्येत्सिरां पीतवतो दद्याच्चानु विरेचनम् । क्वाथं पूगाभयाशुंठी कृष्णाकुंभनिकुंभजम्
अर्थ - कफज तिमिररोग में गिलोय का काढा, त्रिफला और पीपल के काढ़े में पकाया हुआ घी पान करावे । पान कराने के पीछे फस्द खोले । पीछे विरेचन के लिये सुपारी, हरड, सोंठ, पीपल, निसोध और दंती के काढ़े का प्रयोग करे । तेल की नस्य ।
दारुद्विनिशाकृष्णा कल्कैः पयोन्वितैः । द्विपचमूलानिर्यूहे तैलं पक्वं च नाघनम् ६९
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अ०१३
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
(७९५)
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अर्थ--नेत्रवाला, देवदारु, हलदी, दारु. । करनी चाहिये, इसमें शीतोपचार द्वारा हलदी और पीपल इनका कल्क तथा दूध चिकित्सा की जाती है।
और दसमूल का काढा इन सबके साथ । ___रक्तज तिमिर की औषध । .. पाक विधि के अनुसार तेल पकाकर नस्य द्राक्षया नलदरोध्रयष्टिभिः द्वारा प्रयोग करे ।
शंखताम्रहिमपद्मपद्मकैः।
सोत्पलैश्गलदुग्धवर्तितेकोकिलावर्ती।
रन तिमिरमाशु नश्यति ॥ ७३ ॥ शंखप्रियगुनेपालीकटुत्रिकफलत्रिकैः।। दृग्वैमल्यायविमला वर्तिः स्यात्कोकिलापुनः |
__ अर्थ-दाख, बालछड, मुलहटी, शंख, कृष्णलोहरजोव्योषसैंधवत्रिफलांजनैः। तावा, कपूर, कमल, पदमाख और नीलोत्पल ___ अर्थ-शंख, मालकांगनी, मनासल, त्रि. इनको बकरी के दूध में अच्छी तरह पीसकुटा और त्रिफला इन सब द्रव्यों से. बनाई
कर बत्ती बनाकर नेत्रों में लगाने से तिमिर हुई वर्ति को विमल वर्ती कहते हैं. यह दाथि रोग शीघ्र जाता रहता है। के मैल को दूर करती है | तथा कृष्णलोह
संसर्गज तिमिर की चिकित्सा । . चूर्ण, त्रिकुटा, सेंधानमक, त्रिफला और
संसर्गसन्निपातोत्थे यथा दोषोदयं क्रिया । सौवीरांजन इनसे बनाई हुई बत्ती को को- अर्थ-संसर्गज और संनिपातज तिमिर किलावर्ति कहते हैं। यह भी दृष्टि को रोग में दोष के अनुसार चिकित्सा करनी निर्मल करती है।
चाहिये। तिमिरशुक्रनाशिनी बत्ती।
नस्य और मुखलेप । शशगोखरसिंहोष्टद्विजालालाटमस्थिच ७१ सिद्धं मधूककृमिजिन्मरिचामरदारूभिः ७४ श्वेतगावालमरिचशंखचंदनफेनकम । सक्षीरं नावनं तैलंपिलेपो मुखस्य च । पिष्टस्तम्याजदुग्धाभ्यां वर्तिस्तिमिरशुक्राजित् अर्थ-मुलहटी, बायबिडंग, कालीमिरच, ___ अर्थ-खर्गोश, गौ, गधा, सिंह और | देवदारु इनका कल्क करके दूध के साथ ऊंट इनके दांत और ललाट की अस्थि, तेल पकाकर नस्य का प्रयोग करे अथवा सफेद गौ की पूछ के बाल, काली मिरच, । उक्त द्रब्यों को जल में पीसकर मुख पर शंख, चंदन, और समुद्रफेन इन सब द्रव्यों | लेप करे । को स्त्री के दूध और बकरी के दूध में नस्य और शिरोवस्ति । पीसकर तयार करे, इसको नेत्रों में लगाने | नतनीलोत्पलानंतायष्टयाहसुनिषण्णकः ॥ से तिमिर और फूला जाते रहते हैं। साधितं नावने तैलं शिरोवस्तौ च शस्यते। .. रक्तज तिमिर का उपाय । अर्थ तगर, नीलकमल, धमासा, मुलरतजे पित्तवत्सिद्धिः शीतैश्वानप्रसादयेत् हटी, चौपतिया इन से सिद्ध किया हुआ , अर्थ-रक्तन तिमिर के सदृश चिकित्सा तेल नस्य और शिरोवस्ति के काममें लावे।
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अष्टांगहृदय ।
अन्य अंजन | दद्यादुशीरनिर्यूहन्चूर्णितं कण सैंधवम् ॥ तच्छ्रतं सघृतं भूयः पचेत्क्षौद्रं घने क्षिपेत् । शीते चास्मिन् हितमिदं सर्वजे तिमिरे
. मज्ना से भरी हुई अस्थि लाकर उस
सुरमा भरकर बहते हुए पानी में एक महिने वा बीस दिन तक रक्खे | फिर निकालकर धूपमें सुखाले । इस हड्डी को मेटासिंगी के क और मुलहटी के साथ पीसकर आंखों में लगा । सान्निपातिक तिमिररोग में यह अंजन उत्तम है । काचरोग में कर्तव्य |
फूल
काचेऽप्येष क्रिया मुक्त्वा सिरां यंत्रअध्याय स्युर्मला दद्यात्स्राव्ये रक्ते
निपीडिताः ॥
अंजनकाचयापन |
1
|
गुडः फेनांजनं कृष्णा मरिचं कुंकुमाद्रजः ॥ सक्रियेयं खक्षौद्रा काचयापनमंजनम् ।
ऽजनम् ॥ अर्थ - खस के काढ़े में पीपल और सेंधेनमक का चूर्ण डालकर पकावे । फिर इसमें घृत मिलाकर फिर पका । जब काथ गाढा होजाय तब उतारकर ठंडा होने पर इसमें शहद मिला देवै । इसको आंजने से त्रिदोषज तिमिररोग जाता रहता है । सान्निपातिक तिमिर में अंजन । अस्थीनि मज्जपूर्णानि सत्त्यानां रात्रिचारिणाम् । स्रोतोजनयुक्तानि वहत्यभसि वासयेत् । मालं विंशतिरात्रं वा ततश्चोद्धृत्य शोषयेत् | रोक्त क्रिया हित है ।
अर्थ- गुड, समुद्रफेन, सुर्मा, पीपल, कालीभिरच और कुंकुम इनके चूर्ण में शहद मिला । यह रसक्रिया काचरोग में उत्तम अंजन है ।
नक्तान्ध्यनाशक वर्ति ।
समेषशृंगीदुष्पाणिष्टयावानितानि तु । चूर्णितान्यजनं श्रेष्ठं तिमिरे सान्निपातिके । | रसक्रियाघृतक्षौद्रगोमयस्वरसद्रुतैः ॥ अर्थ - रात में फिरनेवाले प्राणियों को तार्क्ष्यगैरिकतालीसैर्निशांध्ये हितमंजनम् । अर्थ - रसौत, गेरू और तालीसपत्र इन सव द्रव्यों के चूर्ण को घी, शहत और गोवर के रस में मिलाकर रतोंध में अंजन लगाना चाहिये ।
रतोधनाशक वर्ति ।
I
दना विघृष्टं मरिचं रात्र्यांध्ये जनमुत्तमम् ॥ अर्थ- दही में कालीमिरच घिसकर नेत्रों में लगाने से रतौंध जाती रहती है। अन्य प्रयोग | करांजेकोत्पलस्वर्णगैरिकांभोज केसरैः ॥ पिष्टेगम यतोयेन वर्तिर्दोषांध्यनाशिनी ।
जलौकसः ।
अर्थ-शिराव्य को छोड़कर यहीं चिकित्सा काचरोग में करनी चाहिये । शिरो
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अ० १३.
पयोगी यंत्रद्वारा निपीडित दोष अध्यरोग
को उत्पन्न करते हैं यदि रक्त निकालने की आवश्यकता हो तो जोक लगादे पर फस्द न खोले ।
रतोधका अंजन |
नकुलांधे त्रिदोषोत्थे तैमिर्यविहितो विधिः अर्थ-त्रिदोषज नकुलांध नेत्ररोगमें तिमि -
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अर्थ-कंजा, कमल, स्वर्णगरू और कमलकेसर इनको गोवर के रस में पीसकर बत्ती बनाकर लगाने से रतौध जाती रहती है ।
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भ० १३
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७९७ )
-
अन्य प्रयोग । । धूमरादिरोग की चिकित्सा। . भजामूत्रेण वा कौतीकृष्णास्रोतोजसैंधवैः॥ धूमराज्याम्लपित्तोष्णविदाहे जर्णिसर्पिषा। ____ अर्थ-रेणुका, पीपल, सुर्मा और सेंधा- स्निग्धं विरेचयेच्छीतैः शीतैर्दिह्याच्च सर्वत: नमक इनको बकरी के दूधौ पीसकर बत्ती _ अर्थ--धूमर, अम्लविदग्धा, पित्तविदग्धा बनाकर लगाने से रतौंध जाती रहती है।।
और उष्णविदग्धा दृष्टिमें पुराने घी के द्वारा अन्य प्रयोग ।
अम्यंजन, शीतल द्रव्य द्वारा विरेचन और कालानुसारीत्रिकटुत्रिफलालमनःशिलाः॥ लेपका प्रयोग करना चाहिये । सकेनाश्छागदुग्धेन रात्र्यंधे वर्तयो हिताः।
अन्य अंजन । अर्थ-शैलेय, त्रिकुटा, त्रिफला, हरताल, | गोशकृद्रसदुग्धाज्यर्विपक्कं शस्यतेऽजनम् । मनसिल, और समुद्रफेन इन सब द्रव्यों को स्वर्णगैरिकतालीसचूर्णावापा रसकिया। बकरी के दूवमें पीसकर बत्ती बनाकर अंजन । अर्थ--गोवरकारस, दूध और घी इनके लगाने से रतोंध जाती रहती है । | साथ पकाया हुआ सुर्मा हितकारी होता है, अन्य प्रयोग ।
तथा स्वर्णगेरू और तालीसपत्र के चूर्णसे सनिवेश्य यकृन्मध्ये पिप्पलीरदहस्पचेत युक्त रसक्रिया हितकारी होती है । ताःशुष्कामधुना धृष्टानिशांध्ये श्रेष्ठमंजनम्।
घृतकी नस्य ।। अर्थ-यकृतके बीचमें पीपलों को रखकर मेदाशावरकानंतामंजिष्ठादावियधिभिः। भागपर ऐसी रीतिसे सेके कि जलने न
क्षीराष्टांशं घृतं पक्कं सतैलं नावमं हितम् । पावै । फिर उस पीपल को शहतमें घिसकर
.. अर्थ--मेदा, सावरलोध, अनंतमुल,मजीठ आंखों में आंजें इससे रतोब जाती रहती है ।
दारूहलदी और मुलहटी इन सब द्रव्यों
तथा अठगुने दूध के साथ तेल मिला हुआ अन्य उपाय । खादेच प्लहियकृतीमाहिषे तैलसर्पिषा। घी पकाकर नस्यद्वारा प्रयोग करें। ___ अर्थ-इस रोगों घी और तेल के साथ
. अन्य प्रयोग । . भेतकी तिल्ली और यकृति खाने चाहिये। "तपेण क्षीरसर्पिः स्यादशाम्यति सिरा
_अन्य प्रयोग। घृते सिद्धानि जीवंत्याः पल्लवानिच भक्षयेत्
___ अर्थ--दूधसे उत्पन्न हुए घी का ताण तथातिमुक्तकैरंडशेफाल्यभिरुजानि च।
द्वारा प्रयोग करै । यदि इससे शान्ति न भ्रष्टं घृतकुंभयोनेः पत्रैः पाने व पूजितम् ॥
हो तो सिराबेध करना चाहिये। __ अर्थ-जीवंती के पत्ते, अथवा गावपत्र
अन्य प्रयोग ॥ अंडी के पत्ते, संभालू के पत्ते और शतमूली चिताभिघातभाशोकरौक्ष्यात्सोत्कटका : के पत्ते घी में भूनकर खाना चाहिये तथा
सनात् ॥
विरेकनस्यवमनपुटपाकादिविभ्रमात् । अगस्तिके पत्तोंके साथ घी को पकाकर
| विदग्धाहारवमनाक्षुत्तष्णादिविधारणात् । पीना चाहिये।
| अक्षिरोगावसानाच्च पश्यत्तिमिररोगिवत्
- व्यधः।
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अष्टांगहृदय 1
( ७९८ )
वमन
अर्थ- तिमिररोग न होने पर भी चिंता चोट, भय, शोक, रूक्षता, उकडू बैठना, . तथा विरेचन, नस्य, और पुटपाकादि के विभ्रमसे, विदग्ध भोजन की वमनसे, क्षुवा तृषा आदि के वेगों के रोकने से और नेत्ररोग के अवसानसे, इन सब कारणों से मनुष्य तिमिररोगी की तरह देखता है । उक्तरोग में चिकित्सा | यथास्वं तत्र युं जीत दोषा दीन वीक्ष्य भेषजम् । अर्थ- ऊपर लिखे हुए रोग में दोष, दूष्य और देशादि की विरेचना करके चिकित्सा करनी चाहिये |
अन्य नेत्ररोगों में कर्तव्य | सूर्योपरागावलविद्युदादि विलोकनेनोपहतेक्षणस्य । संतर्पणं स्निग्धहिमादि कार्य तथाजनं मघृतेन घृष्टम् ॥ ९६ ॥ अर्थ- सूर्यग्रहण, अग्नि, विजली, तथा आदि शब्द से अति सूक्ष्म और अति मासुर पदार्थों के देखने से जिस मनुष्य की दृष्टि मारी जाती है उसे स्निग्ध हिमादि संतर्पण और घी में घिसे हुए सुवर्ण का अंजन लगाना चाहिये ।
नेत्ररोग में अहिताशनत्याग ! अहितादशनात्सदा निवृत्तिभृशभास्वच्चलसूक्ष्मवीक्षणाच्च । मुनिनानिमिमोपदिष्टमेतत् परमं रक्षणमीक्षणस्य पुंसाम ॥ ९९ ॥ अर्थ - अहित भोजन का सर्वदा त्याग, अत्यन्त भःसुर, चंचल और सूक्ष्म वस्तुओं का देखना इन सबसे निवृत्त होजाना अर्थात् इनका त्याग देना नेत्ररोगों से बचने का परमोत्तम साधन है । यह निमि महाराज का उपदेश है ।
|
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीकान्वितायां उत्तरस्थाने तिमिर प्रतिषधं नामत्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
चतुर्दशोऽध्यायः ।
नेत्ररक्षाकारक | चक्षूरक्षायां सर्वकालं मनुष्यै
ः कर्तव्य जीविते यावदिच्छा । व्यर्थो लोकोऽयं तुल्यरात्रिंदिवानां समंधानां विद्यमानेऽपि वित्ते । ९७ । अर्थ - मनुष्य जब तक जीने की इच्छा रखता हो, तब तक उसे यत्नपूर्वक नेत्रों की रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि अंधों के लिये दिन रात एक से होते हैं । उनके पास अतुलधन होने पर भी निरर्थक होता है ।
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अ०
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१४
नेत्ररोग में त्रिफला । त्रिफला रुधिरस्स्रुतिर्विशुद्धिमनसोनिर्वृतिरंजनं च नस्यम् ।
शकुमाशनता सपादपूजा घृतपानं च सदैव नेत्ररक्षा ॥ ९८ ॥ अर्थ-त्रिफला, रक्तस्राव, विरेचनादि विशोधन, मनकी शांति, अंजन, नस्य, पक्षियों का भोजन, जूते आदि पहरना, और घृतपान, इन सबका प्रयोग करने से नेत्रों की रक्षा होती है ।
अथातो लिंगनाशप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः ।
अर्थ- अब हम यहां से लिंगनाश अर्थात् दृष्टिनाश की चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे ।
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अ० १४
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उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत ।
कफजन्यलिंगनाश में कर्तव्य | विध्येत्सुजातं निःप्रेक्ष्यं लिंगनाशं कफोद्भवम् आवर्तक्यादिभिः षडुभिर्विवर्जितमुपद्रवैः ॥
अर्थ- आवर्तकी आदि छः उपद्रवों से रहित कफज लिंगनाश जो अच्छी तरह से घनीभूत और निष्प्रेक्ष अर्थात् देखने की शक्ति से हीन हो उसका व्यध करना चाहिये ।
वेधन का हेतु ।
सोऽसजातो हि विषमो दधिमस्तुनिभस्तनुः शलाकयाऽवकृष्टोऽपि पुनरु प्रपद्यते | २| करोति वेदनां तीव्र दृष्टिं च स्थगयत्पुनः । मलैः पूर्यते चाशु सोऽन्यैः
सोपद्रवैश्चिरात् ॥ ३ ॥
अर्थ - यदि यह लिंगनाश असम्यक् रीति से उत्पन्न और विषमाकृतिवाला हो तथा दहीके तोडकी सी कांतिवाला और पतला हो, ऐसा होने पर शलाई से खींचे जाने पर भी फिर ऊपर को उठता हुआ तीव्र वेदना उत्पन्न करता है तथा दृष्टि को आच्छादित करता है । कफकारक आहार करने से शीघ्र भर जाता है और अन्य उपद्रवों से युक्त होने के लिये बहुत काल लगता है ।
श्लेष्मादिक लिंगनाशक के लक्षण । लैष्मिको लिंगनाशो हि सितत्वात् श्लेष्मणः सितः । तस्यान्यदोषाभिभवाद्भवत्यानलिता गदः ॥
अर्थ - कफ की सफेदाई के कारण लिंगनाश सफेद होता है, किंतु वातादि अन्यदोषों के कारण यह नीलरूप होजाता है।
1
आवर्तकी दृष्टि । तत्रावर्तचला दृष्टिरावर्तक्यरुणा सिता ।
( ७९९ )
अर्थ - आपकी दृष्टिरोग में दृष्टि जल की भंवर के समान चंचल होती है और यह अरुण व कृष्णवर्ण होती है । शर्करा दृष्टि | शर्करार्कपोलेशनिचितेव घनाति च ॥ अर्थ - शर्कराष्ट्रष्टि आक के दूधके कणों से उपचितवत् और अतिघन होती है । राजीमती दृष्टि ।
राजीमती निचिता शालिशूकाभराजिभिः अर्थ-राजीमतीदृष्टि शालीधान्यों के शुक से व्याप्त की तरह होती है । विमादृष्टि ।
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विषमच्छिन्नदग्धाभास रुकूछिन्नांशुकास्मृता अर्थ- जो दृष्टि विषम, छिन्न, दग्धाम और वेदनायुक्त हो तो इसे छिन्नांशुका कहते हैं ।
चन्द्रकी दृष्टि |
दृष्टिः कांस्य समच्छाया चंद्र की चंद्रकाकृतिः
अर्थ- कांजी के समान छायावाली और मोरकी चन्द्रका के समान जो दृष्टि होती है उसे चन्द्रकी कहते हैं ।
छत्र की दृष्टि |
छत्राभा नैकवर्गाच छत्रकी नाम नीलिका ॥ अर्थ- जो दृष्टि अनेक वर्णों से युक्त छत्र के आकार कीसी होती है उसे छत्रवी नीलिका कहते हैं ।
अविध्य दृष्टि ।
न बिध्येदसि राहणांन डकूपीनसकासिनाम् नाजीर्णि स्विमितशिरः कर्णाक्षिशूलिनाम् अर्थ- जो रोगी शिरावेंध के योग्य नहीं है, जो दृष्टिरोग, पनिस और खांसी से
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(८००)
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पीडित है, जो अजीर्ण, भीरु, वमित तथा जो सिर, कान और आंख के शूलसे पीडित है, उसके लिंगनाश को बेधना न चाहिये ।
दक्षिणादि व्यध प्रकार । अथ साधारणे काले शुद्धसंभोजितात्मनः । देशे प्रकाशे पूर्वा भिषगू जानूच्च पीठगः ॥ यंत्रितस्योपविष्टस्य स्विन्नाक्षस्य मुखानिलैः अंगुष्ठमृदिते नेत्रे दृष्टौ दृष्ट्वोत्प्लुतं मयम् ॥ स्वनासां प्रेक्षमाणस्य निष्कंपं मूर्ध्नि धारिते । कृष्णादीगुल मुक्त्वा तदर्घाधमपांगतः ॥ तर्जनीमध्य मांगुष्ठैः शलाकां निश्चलं
हृदय ।
अ० १४
के मस्तक को सीधा करके पकडले । रोगी को उचित है कि अपनी दृष्टि नासिका के अप्रभाग में लगा लेवै । फिर वैद्य तर्जनी उंगली और अंगूठे से निश्चलरूप से सलाई को पकडकर कृष्णमंडल से आधे अंगुल और अपांग से चौथाई अंगुल स्थान छोडकर दैवकृत छिद्र के समीप ले जाय और ऊर्ध्व भाग में आलोडन करके शलाई का प्रयोग करे । तथा दाहिने हाथ से बांये नेत्रको और बांये हाथ से दाहिने नेत्र को बिद्ध करे । सुबिद्ध के लक्षण |
धृताम् । देवच्छिद्रं नयेत्पार्थ्यादूर्ध्वमामथयाव १२ सुय दक्षिणहस्तने नेत्रं सव्येन चेतरत् । विध्येत्
अर्थ - लिंगनाश के विद्व करने की यह रीति है कि साधारण कालमें अर्थात् जिस समय अत्यन्त गर्मी, वर्षा वा जाडा न पड रहा हो उसी समय लिंगनाश का व्यध करना चाहिये | विद्व करने से पहिले विरेचनादि द्वारा रोगी को संशोधित करे और भोजन कराके अच्छी तरह तृप्त करदे । जिस जगह चांदना अच्छा हो उसी जगह रोगी को बैठाकर शस्त्रका प्रयोग करे | शस्त्रका प्रयोग प्रातःकाल करना उचित है । वैद्य जानुकी बरावर ऊंचे आसन पर बैठकर शस्त्र प्रयोग करे | शस्त्रका प्रयोग करने के | समय रोगी हिलने न पावै ऐसी रीति से उसको सुयंत्रित करे, शस्त्र के प्रयोग से पहिले मुखकी भाफ से रोगी के नेत्रको स्वेदित करे फिर उस स्त्रिन्न नेत्रको अंगूठे से मर्दित करे, इस तरह जब नेत्रका मल फूल उठे तब रोगी
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सुविद्धे शब्दः स्यादरुक्चांबुल स्रुतिः । सांत्वयन्नातुरं चानु नेत्रं स्तन्येन सेचयेत् । शलाकायास्ततोऽग्रेण निर्लिखेनेत्रमंडलम् अबाधमानः शनकैर्नासां प्रतिमुदस्ततः । उत्सिंचनाच्चापहरेदृष्टिमंडलग कफम् १५ अथ दष्टेषु रूपेषु शलाकामाहरेच्छनैः १६ स्थिरे दोषे चले वापि स्वेदयेदक्षि बाह्यतः घृतप्लुतं पिधुंदत्त्वा बद्धाक्षं शाययेत्ततः । विद्वादन्येन पार्श्वेन तमुत्तानं द्वयोर्व्यधे १७ निवाते शयनेऽभ्यक्तशिरःपादं हिते रतम्
अर्थ - सुविद होनेपर शब्द होता है, वेदना नहीं होती और लेशमात्र जलका खाब होता है | विद्व करने के पीछे रोगी को आश्वासन देना चाहिये तथा स्त्रीका दूध नेत्रों पर डालना चाहिये, फिर सलाई को नौक से दृष्टिमंडल को ऐसी रीति से बिलेखन करे कि दर्द न हो । फिर धीरे धीरे सुडक सुडक कर दृष्टिमंडल के कफको खींचकर नासिका द्वारा निकाल देवै । जो दोष स्थिर वा चलायमान हो तो नेत्रमें अधिकता से स्वेदन करके जब वह दुष्ट पदार्थ दिखाई
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म. १४
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८.१)
देने लगे तब धीरे धीरे उसे सलाई से खींच एक सप्ताह पीछे एक बार खोलदे और फिर लेवै । तदनंतर कपडे को घी में भिगोकर
| न बांधे । आँख पर बांधदे और रोगीको पातरहित अतिसूक्ष्मदर्शन निषेध । स्थानमें बिपरीत रीति से शयन करावे यंत्रणामनुरुध्येत दृष्टेरास्थैर्यलाभतः । अर्थात् जो दक्षिण नेत्र विद्ध हुआ हो तो रूपाणि सूक्ष्मदीप्तानि सहसा मावलोकयेत् बोई करवट से, वामनेत्र विद्ध हुआ हो तो
अर्थ--जब तक दृष्टिमें स्थिरता न हो दाहिनी कर्वट से और दोनों नेत्र बिद्ध हुए
तब तक नियमपूर्वक रहना उचित है। हों तो चित्त शयन करादे उसके मस्तक और दृष्टिके स्थिर होनेपर भी अति सूक्ष्म और दोनों तलुओं पर तेल चुपडदे तथा हितकारी चमकीली वस्तुओं को सहसा नहीं देखना आहार विहारादि में रत रक्खै । चाहिये ।
सात दिनतक वर्जित कर्म। उपदरोंके अनुसार चिकित्सा । क्षवधु कासमुद्गारं ष्टीवन पानमंभसः १८ शोफरागरुजादानामाधिमंथस्य चोद्भवः। अधोमुरस्थिति सानं दंतधावनभक्षणम् ।
| अहितैर्वेधदोषाच्च यथास्वं तानुपाचरेत् सप्ताहं नाचरेत्स्नेहपीतवच्चात्र यंत्रणा १९ अर्थ-अहित सेवन और बेध दोष के
अर्थ-छींक, खांसी, डकार, ष्टीवन, . कारण अधिमंथ में सूजन, ललाई और पेदजलपान, अधोमुखस्थिति, स्नान और दंत. नादि उपद्रव होते हैं, इन उपद्रवों को धावन ये काम सातदिन तक नेत्रविद्वरोगी यथायोग्य चिकित्सा के अनुसार शांत करे। को छोड देने चाहिये और इसमें स्नेहपीत
मुखमलेप। के समान नियमपूर्वक रहना उचित है । कलिकताः सघृता दूर्वायवगैरिकंसारिवाः । शक्ति के अनुसार लंघनादि।
मुखालपे प्रयोक्तव्या रुजारागोपशांतये ॥ शक्तितो लंघयेत्सेको राजि कोणेन सर्पिषा
___ अर्थ-वेदना और रोगकी शांति के सव्योषामलकं वाट्यमश्नीयात्सधृत द्रवम् निमित्त दुब, जौ, गेरू और अनंतमूल इन विलेपी या व्यहाच्चास्य क्वार्थर्मुक्त्वाक्षि सब द्रव्यों को पीसकर और घी में सानकर
सेचयेत् ।।
मुख पर लेप करना चाहिये । पातघ्नःसप्तमे त्वन्हि सर्वथैवाक्षि मोचयेत्
अन्य प्रयोग। __ अर्थ- शक्ति के अनुसार रोगी को लंघन ससर्षपास्तिलास्तद्वन्मातुलुंगरसाप्लुताः । कराना चाहिये, जब तक पीडा बिलकुल पयस्यासारिवानंतामजिष्टामधुयाष्टिभिः ॥ दूर न हो तब तक गुनगुना घी ऊपर से / अजाक्षारयुतैलेपः सुखोष्णःशर्मकृस्परम् । डालता रहै । त्रिकुटा और आमला मिलाकर | अर्थ-तेल और सरसों को पीसकर घृतके साथ मुने हुए जौ का पना वा विलेपी और विजौरे के रसमें सानकर लेप करनेसे खाने को दे । तीन दिन पीछे नेत्रों की पट्टी पूर्ववत् गुण होता है । दुग्धका, श्यामालता खोलकर वातनाशक क्वाथ से परिषेक करे।। अनन्तमूल, मीठ, मुलहटी, इन सब द्रव्यों
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(८०२)
- अष्टांगहृदय ।
अ० १५
लो बकरी के दूधर्म सानकर और आगपर | अर्थ-अडहर की जड, कालीमिरच, गुनगुना करके लेप करनेसे विशेष उपकार | हरताल और रसौत इन सब द्रव्यों को वृष्टि होता है।
के जलमें पीसकर और गुड मिलाकर बत्ती आश्चोतनविधि। | बनाकर विद्ध नेत्रमें लगावे । रोधसैंधवमृद्धीकामधुकैश्छागलं पयः । विद्धनेत्रमें पिंडाजन ॥ शुतमाश्चोतन योज्यं रुजारागविनाशनम् ।
जातीशिरीषधवमेषविषाणिपुष्पअर्थ-लोध, सेंधानमक, दाख और मु. वैडूर्यमौकिकफलं पयसा सुपिष्टम् । लहटी इन सब द्रव्यों को बकरी के दूधमें आजेन ताम्रममुना प्रतनु प्रदिग्धं । पकाकर आश्चोतन (आंखमें टपकाना)
सप्ताहतःपुनरिदं पयसैव पिष्टम् ३१
पिंडांजनं हितमनातपशुष्कमक्षिण करने से वेदना शांत होजाती है ।
विद्ध प्रसादजनन बलकश्च दष्टेः । अन्य प्रयोग।
अर्थ-चमेली, सिरस, धायके फूल, मधुकोत्पलकुष्टैर्वा द्राक्षालाक्षासितान्वितैः । वातघ्नसिद्धे पयसि शृतं सर्पिश्चतुर्गुणे ।।
मेंढासिंगी, वैदर्यमणि, मोती इन सब द्रव्यों पनकादिप्रतीवापं सर्वकर्मसु शस्यते २८ ।
को बकरी के दृधमें पीसकर इसको एक अर्थ-मुलहटी, नीलकमल, कूठ, दाख, तांबके पात्र पर पतला पतला लीपदे । एक लाख और चीनी इन सब द्रव्यों को बकरी सप्ताह पीछे तांबे के पात्रके प्रलेपको बकरी के दूधमें पकाकर आश्चोतन करे । वात- | के दूधर्मे फिर पीसे | फिर इस पिंडाजन को नाशक द्रव्यों के काढे के साथ घी से चौ. छाया में सुखाकर बिद्ध नेत्रमें लगावे । यह गुना दूध और पद्म कादिगण का कल्क डाल | दृष्टिको प्रफुल्लित करनेवाला और बलकारक है कर पाकविधि से घृत पकाकर आश्चोतन
अन्य प्रयोग । के काम में लाये।
स्रोतोजविद्यमशिलांबुधिफेनतक्षिणसिरामोक्षादि ॥
रस्यैव तुल्यमुदितं गुणकल्पनाभिः । सिरां तथानुपशमे स्निग्धस्विन्नस्य मोक्षयेत् ।
अर्थ-सुर्मा, मुंगा, मनसिल और समुमंथोक्तां च क्रियां कुर्याव्यधे रूढेऽजनं मृद! द्रफेन इन सब द्रव्यों को बकरी के दूधमें ___ अर्थ-उपर कही हुई बिधियों से वेदना पीसकर पूर्ववत् पिंडांजन फरे । यह भी शांत न होने पर रोगीको स्निग्ध और स्विन्न । पूर्वोक्त गुणविशिष्ट होता है। करके उसकी सिरा को खोल दे, तथा गंथ- | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाष टीरोग में कही हुई चिकित्सा काममें लावै ।
कान्वितायां उत्तरस्थाने लिंगनाश. सिराव्यधका घाव सूखजाने पर अंजन लगावै। विद्ध नेत्र में वर्ति ॥
प्रतिषधं नाम चतुर्दशोऽध्यायः । आढकीमूलमरिचहरितालरसांजनैः ।। विशेऽक्षिणसगुडावर्तिर्योज्यादिव्यांबुपषिता.
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म. १५
उसरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८०३)
-
पंचदशोऽध्यायः।
हताधिमंथ । हताधिमंथःसोऽपिस्यात्प्रमादात्तेनवेदनाः
अनेकरूपाजयंते व्रणोदृष्टौ च दृष्टिहा॥५॥" अथाऽतः सर्वाक्षिरोगविज्ञानं व्याख्यास्यामः अर्थ-अधिमंथ की उपेक्षा करने से
अर्थ- अब हम यहां से सर्वाक्षिरोगवि- हताधिमंथ की उत्पत्ति होती है, इसमें अनेक ज्ञाननामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। प्रकार की वेदना होती है तथा दृष्टि मण्डल
वातन नेत्राभिष्यंद के लक्षण । नाशक व्रण उत्पन्न हो जाता है। "वातेननेत्रेऽभिष्यंदेनासानाहोऽल्पशोफता अन्यतोवात के लक्षण ॥ शंखाक्षिम्रललाटस्य तोदस्फुरणभेदनम् १ मन्याक्षिशंखतो वायुरन्यतो वा प्रवर्तयेत् । शुरुकाल्पादूषिकाशीतमच्छमश्रु चला रुजः व्यथांतीवामपैच्छिल्यरागशोफ विलोचनम् निमेषोन्मेषणं कृच्छ्राजंतूनामिव सर्पणम् । संकोचयति पर्यश्र सोऽन्यतो वातसंशितः। अश्याध्मातमिवाभातिसूक्ष्मैःशल्यैरिवाचितम् स्निग्धोषणैश्योपशमनं
। अर्थ-जिस रोग में वायु मन्या और अथ-बात करके अभिष्यन्दित हुए नेत्र । कनपटा स अथवा अन्य स्थान से तीव्र वेदना में नासानाह, अल्पसूजन, कनपटी, आंख, |
उत्पन्न करती है इसके द्वारा नेत्र संकुचित भृकुटी, ललाट, तोद, स्फुरण, भेदन, नेत्रके |
हो जाते हैं, इसमें नेत्रों में पिच्छिलता, ललाई मल में सूखापन और अल्पता, निर्मल और और सूजन कुछ नहीं होता हैं, किंतु आंसू शीतल अश्रुपात, वेदना में अस्थिरता, बड़े बहा करते हैं। कष्टसे नेत्रका खुलना मुंदना, आंखों में चींटी वातविपर्यय के लक्षण। सी चलना, नेत्र फूला हुआ और छोटे छोटे तद्वन्नेत्रभवेज्जिह्ममून वातविपर्यये ॥७॥ कांटों से व्याप्त तथा स्निग्ध और उष्ण अर्थ-अन्यतोबात की तरह वातविउपचार से शांति ये लक्षण होते हैं। पय्ये में नेत्र टेढे और छोटे हो जाते । अधिमंथ में कर्णनादादि ॥
पित्ताभिष्यन्द के लक्षण । सोऽभिव्यंद उपेक्षितः॥ दाहो धूमायनं शोफ श्यावता वर्त्मनो बहिः अधिमयो भवेत्ता कर्णयोर्नदन भ्रमः। अंतःक्लेदोश्रुपीतोष्णं रागः पीताभदर्शनम् अरण्येव च मथ्यंते ललाटाक्षिभ्रवादयः । क्षारोक्षितक्षताक्षित्वं पित्ताभिष्यंदलक्षणम्
अर्थ-वाताभिष्यन्द रोग की चिकित्सा । अर्थ-पित्ताभिष्यन्द नेत्ररोग में नेत्रों में करने में उपेक्षा करने से अधिमथकी उत्पत्ति दाह, नेत्रों से धूआं निकालने की वेदना, होती है । इपमें कर्णनाद और भ्रम की | सूजन, पलकों के बाहर श्याववर्णता, भीतर उत्पत्ति होजाती है, तथा ललाट, नेत्र और क्लेद, आंसू पीले और गरम, नेत्र में ललाई भृकुटी आदि में अरणी के. मथने की सी और पीला दिखाई देना, क्षार द्वारा ब्याप्तता पीड़ा होती है।
| और घाव ये सब लक्षण उपस्थित होतेहैं।
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. (८०४)
अष्टांगहृदय।
पित्ताधिमंथ के लक्षण। | अमृत निमग्नारिष्टाभं कृष्णमग्न्याभदर्शनम् ज्वलदंगारकीर्णाभं यकृत्पिडसमप्रभम् ९ अर्थ--अधिमंथमें नेत्रों के किनारे तांवे के मधिमंथे भवेन्ने
से रंगके तथा नेत्रों में उखाडने की सी ____ अर्थ-पित्ताभिष्यन्द से उत्पन्न अभिष्यन्द वेदना होती है । इसरोग में बन्दक के फल में नेत्र जलते हुए अंगार के सदृश और के समान ललाई, ग्लानि, हाथका न सहना
और यकृत पिंड के समान कांति वाला हो । रुधिर में निमग्नबत, नीमके सदृश कांति, जाता है।
कालापन और अग्नि के समान चमक कफाभिष्यन्द के लक्षण ।। | होजाती है। स्यदे तु कफसंभवे ।
अधिमंथ में विषेशता । जाइयं शोफोमहान्कंइनिंद्रान्नानभिनंदनम् अधिमथायथास्वंचसर्वस्यदाधिकव्यथाः सांद्रस्मिग्धबहुश्वेतपिच्छावक्षिकाश्रुता। शंखदंतकपोलेषु कपाले चातिरक्करः १५ अधिमंथे नतं कृष्णमुन्नतं शुक्लमंडलम् ११ / ___ अर्थ-वातादि अधिमंथरोगों मे वातजादि प्रसेको नासिकाध्मानं पांशुपूर्णमिवेक्षणम् |
अभिष्यन्द के सब लक्षण उपस्थित होते अधे-कफाभिष्यन्द नेत्र रोग में जडता,
हैं, तथा कनपटी,दांत,खोपड़ी और कपोल महान् सूजन, खुजली,निन्द्रा, अन्न में अन
में अधिक वेदना होती है। भिलाषा, आंखों के मैल और आंसुओं में
शुष्काक्षिपाक के लक्षण । गाढापन, स्निग्धता, अधिकता, श्वेतता
घातपित्तोत्तरं घर्षतोदभेदोपदेहयतः। और पिच्छिलता होती है। तथा आधिमंथ
रूक्षदारुणवाक्षिकृच्योन्मीलनमीलनम्१६ रोग में काले मण्डल में नचिापन और विकृणनं विशुष्कत्वं शीतेच्छा शूलपाकवत् सफेद मण्डल में ऊंचापन होता है । प्रसेक उक्तः शुष्काक्षिपाकोऽयं नासिका में फूलापन, नेत्रों में धूलसी भर
अर्थ-इसरोग में नेत्रमें करकरापन,तोद, जाना ये सव लक्षण उपस्थित होते हैं।
| कटनेकी सी वेदना, मलकी हिसावट, नेत्र रक्ताभिष्यन्द के लक्षण ।।
के वमों में रूक्षता और कर्कशता, आंखों रक्ताश्रराजीदूषीकशुक्लमंडलदर्शनम् १२ के खोलने और बन्द करने में कष्ट होना, रक्तस्यदेन मयनं सपित्तव्यं दलक्षणम् ।। | आंख में सुकडापन, सूखापन, शीतल वस्तु ___अर्थ- रक्ताभिष्यन्द में आंसू,नेत्र की शिरा, की इच्छा, शूल और पाक ये सब लक्षण
आंखका मल, शक्लमंडल और दृष्टिमंडल ये उपस्थित होते हैं । इस रोम को शुष्काक्षिसब लाल हो जाते हैं, तथा इसमें पित्ताभि- पाक कहते हैं, यह रोग वातपित्त की अधि. ध्यन्द के संपूर्ण लक्षण पाये जाते हैं ! कता से होता है । रक्ताधिमंथ के लक्षण ।
सूजनवाला नेत्ररोग । मंथेऽक्षि ताम्रपर्यंतमुत्पाटनसमानरुक १३/ सशोफः स्यादिभिर्मलः ॥ १७ ॥ रागेण बंधूकनिभं ताम्यति स्पर्शनाक्षमम् । सरक्तैस्तत्र शोफोऽतिरुग्दाहष्टीयनादिमान् ।
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उत्तरस्थान भाषायीकासमेत ।
(८०५)
-
पक्कोदुंबरसंकाशं आयते शुक्लमंडलम् ॥ | अश्रुपूर्ण और धुंधलापन पैदा करदेता है । अश्रष्णशीतविशदापच्छलाच्छयनं मुहुः। यह अम्लोषित के लक्षण हैं।
अर्थ--सशोफनामक नेत्ररोग में सूजन, सर्वनेत्ररोगोंकीसंख्या । वेदनाकी अधिकता, दाह और ठीवनादि
इत्युक्ता गदाः षोडश सर्वगाः। उपद्रव उपस्थित होते हैं, आंखों का श्वेत- अर्थ-इस प्रकार से सर्वाक्षिगत रोग मंडल पके हुए गूलकर के समान हो जाता सोलह प्रकार के होते हैं । है आंसू कभी गरम,कभी ठंडे,कभी विशद, असाध्यरोग । कभी पिच्छिल, कभी पतले और कभी गाढे हताधिमंथमेतेषु साक्षिपाकात्ययं त्यजेत् ॥ निकलते हैं । यह रोग तीनों दोष तथा रक्त । अर्थ-इन सब रोगों में से हताधिमंथ द्वारा उत्पन्न होता है ।
और अक्षिपाकात्यय ये दोनों रोग त्याज्यहैं । ___ अक्षिपाकात्ययरोग।
दृष्टिनाशनमें कालपरिमाण । अल्पशोफेऽल्पशोफस्तुपाकोन्यैर्लक्षणैस्तथा | वातोद्भतः पंचरात्रेण दृष्टि भाक्षिपाकात्यये शोफा संरंभः कलुषाधता। सप्ताहेन लप्मजातोऽधिमंधः। कफोपदिग्धमसितं सितं प्रक्लेदरागवत्॥ रक्तोत्पन्नो हंति तदधिरावान् दाहो दर्शनसंरोधो वेदनाश्चानवस्थिताः।
मिथ्याचारात् पैत्तिकः सद्य एव ॥२४॥ ___ अर्थ-अल्प शोफरोग में सूजन कम अर्थ-मिथ्या आहार विहारादि से वातज होती है, अक्षिपाकनामक रोग में शुष्काक्षि अधिमंथ पांच दिनमें, कफज अधिमंथ पाक के संपूर्ण लक्षण उपस्थित होते हैं। सात दिनमें, रक्तज अधिमथ तीन दिन
इनके सिवाय अक्षिपाकात्ययरोग में सूजन, । में और पैतिक अधिमंथ में तत्काल दृष्टि • संरंथ, आंनुओं में कलुषता, कालेमंडल में | का नाश होजाता है । कफी लिहसावट, सफेदमंडल में गीलापन इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटीऔर ललाई, दाह, दृष्टिका संरोध, वेदना
| कान्वितायां उत्तरस्थाने सर्वाक्षिरोगऔर उद्विग्नता ये लक्षण होते हैं ।
विज्ञानीयःपंचदशोऽध्यायः॥ - अम्लोषित के लक्षण । अन्नसारोऽम्लतां नीतःपित्तरक्तोल्बणैर्मलैः॥ शिराभित्रमारूढः करोति श्यावलोहितम् । षोडशोऽध्यायः । सशोफदाहपाका भृशं चाबिलदर्शनम् ॥ अम्लोषितोऽयम्
nok ___ अर्थ-पित्त और रक्त की अधिकतावाले अथाऽतःसर्वाक्षिरोगप्रतिषेधंदोषों के कारण अन्नका सारभाग खट्टा होकर
व्याख्यास्यामः। शिराओं में होता हुआ नेत्रको श्यावलोहित । अर्थ-अब हम यहाँसे सर्वाक्षिरोग प्रति. वर्ण करदेता है । तथा सूजन, दाह, पाक षेधनामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे।
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(८०६)
अष्टांगहृदय ।
भ०१५
- प्राग्रपमें कर्तव्य ।
. चूर्णावगुंठन ॥ प्राग्रूप एव स्यंदेषु तीक्ष्णगंडूषनावनम् । सितमरिचभागमैकं चतुर्मनोड्छकारयेदुपवासं च कोपादन्यत्र वातजात् ॥
द्विरष्टशावरकम् । ___ अर्थ-वातज अभियन्द के अतिरिक्त संचूर्ण्य वस्त्रबद्ध प्रफुपितमात्रेऽवगुंठनं भेने अन्य अभिष्यदों में रोगका पूर्वरूप उपस्थित अर्थ- नेत्र के प्रकुपित होते ही सहेजने होते ही तीक्ष्ण गंडप, तीक्ष्ण नस्य और का बीज एक भाग, मनसिल चार भाग, उपवास कराना चाहिये।
और लोध १६ भाग, इन सब द्रव्यों को _दाहशान्तिमें विडालादिकारण ।
अच्छी तरह पीसकर और पतले वस्त्रमें दाहोपदेहरागाश्रुशोफशांत्यै विडाल कम् । बांधकर उससे नेत्रको ढकना चाहिये । कुर्यात्सर्वत्र पलामरिचस्वर्णगैरिकैः ॥
अन्य चूर्ण ।। सरसांजनयष्टयानतचंदनसैंधवैः।
आरण्याश्छगणरसे पटावबद्धाः सैंधव नागरं तार्य भृष्टं मंडन सर्पिषः ।। सुस्विन्नानखवितुपीकृताःकुलत्थाः। घातजे घृतभृष्टं वा योज्यं शबरदेशजम् । तच्चूर्ण सकृदवचूर्णनानिशीथे मांसीपनककाकोलीयष्टयाः पित्तरक्तयोः॥ नेत्राणांविधमति सद्य एव कोपम् ॥ मनोहाफलिनीक्षौद्रेः कफे सर्वस्तु सर्वजे।। अर्थ-बन कुलथी को पोटली में बांधकर । अर्थ - दाह, लिहसावट, ललाई, आंसू. / गोवर के रस में भिगोकर उसको नखों से सूजन, इनकी शांति के लिये विडालक करना
| छीलकर साफ करले, फिर इसको आधीगत चाहिये । सब प्रकार के अभिष्यंदा में तेज- के समय पीसकर अवणित करने से पात, इलायची, कालीमिरच, स्वर्णगेरू, नेत्र कोप जाता रहता है । र सौत, मलहटी, तगर, चंदन, सेंधानमक, नेत्र में औषधधारण ॥ इन सबका विडालक लेप करै । वातज । घोषाभयातुत्थकयष्टिरोधेअभिष्यन्द में घृतमंड में भूना हुआ सेंधा भृती ससूक्ष्मैः श्लथवस्त्रबद्धैः। नमक, सौंठ और रसौत अथवा घी में भुना
ताम्रस्थधान्याम्लनिमग्रमूर्तिहुई सावरलोध का प्रयोग करना चाहिये ।।
रति जयत्यक्षिणि नैकरूपाम् ॥ ७ ॥
अर्थ-कडयी तोरई, हरड, नीलाथोथा, रक्तपित्तज अभिष्यंदमें जटामांसी, पदमाख,
मुलहटी, लोध इन सब द्रव्यों को महीन पीस काकोली, और मुलहटी का लेप करना
कर पतले कपड़े में वांधे और तांबे के पात्र चाहिये कफज अमिष्यन्द में मनसिल,प्रियंगु
में कांजी भरकर उस में उस पोटली को और शहत का लेप करें । और सन्निपातज
डवोदे और इसको आंख में निचोड़ने से अभिष्यन्द में ऊपर कही हुई संपूर्ण औषों
अनेक प्रकार की यंत्रणा दूर होजाती है । को मिलाकर विडालक करना चाहिये । पक्षम
सर्व दोषों में परिषेक ।। को छोडकर जो लेप सब जगह किया जाता
पोडशभिः सलिलपलैः है उसे विडालक कहते हैं ।
पलं तथैकं कटंकटयोः सिद्धम् ।
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अ० १६
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८०७)
सेकोष्टभागाशिष्टः
: क्वाथः सशर्करः शीतः सेंचनरक्तपित्तजित् क्षौद्रयुतः सर्वदोषकुपिते नेत्रे ॥ ८॥ अर्थ-बातज अभिभ्यन्द में अरण्ड की अर्थ-चौसठ तोले पानी में चार तोले
| जड़, कटेग, लाला सहजना और विल्वादि दारुहलदी को पकावै, जब आठवां भाग शेष
| गण का काथ कुछ गरम २ आंख में टपकाना रहै तब उतार कर छानले, इस कार्य में !
हित है, नेत्रवाला, तगर, कंजा की बेल, शहत मिलाकर परिषेक करने से सब प्रकार
गुलर इनकी छाल को जल और बकरी के के कुपित नेत्र शांत होजाते हैं ।
दूध में पकावै, इसका अश्चोतन करने से नत्र पीड़ा पर सहजने का रस ॥
नेत्र पीड़ा शांत होजाती है, मजीठ, हलदी, वातपित्तकफसन्निपातजां नेत्रयोर्वहुविधामपि व्ययम् ।
| लाख, किशमिश, दोनों प्रकार की मुलहटी शीघ्रमेव जयति प्रयोजितः
और कमल इनके काढ़े में शर्करा मिलाकर शिग्रपल्लवरसः समाक्षिकः ॥ ९॥ ठंडा करके आंखों में डाले तो रक्तपित्त भि.
अर्थ केवल सहजने के पत्तों के रस में व्यन्द जाता रहता है। शहत मिलाकर प्रयोग करने से बातज, रक्तपित्ताभिष्यन्द की औषध ॥ पित्तज, कफज वा त्रिदोषज सब प्रकार की | कसेरुयष्टयाहारजस्तांतवे शिथिलं स्थितम् नेत्र पीडा जाती रहती है।
अप्सुदिव्यासु निहितं हितं स्पंदेऽस्रपित्तजे नेत्ररोग पर सक्त पिण्डिका ॥ __अर्थ--रक्तपित्तामष्यन्द में कसेरू और तरुणमुरुबूकपत्र
मुलहटी के चूर्ण को पतले वस्त्र में ढीला मूलं च विभिद्यासिद्धमाजे क्षीरे। .
बांधकर वर्षा के जल में भिगो भिगोकर वाताभियंदरुज सद्योविनिहति सक्तपंडिका चोष्णा ।
आंख में निचोडना चाहिये । अर्थ- अरंड की कोपल और जड़ को
दाहादिनाशक रोग ॥ कूटकर बकरी के दूध में सिद्ध करके नेत्रों |
पुंड्यष्टीनिशामूप्लुिता स्तन्ये सशर्करे। : में लगाबै इससे बातज अविष्यन्द शीघ्र
छागदुग्धेऽथवा दाहरुग्रागाश्रुमिवर्तमी१.५
____ अर्थ- श्वेतकाल, मुलहटी, हलदी इन जाता रहता है, अथवा दोषादिके अनुसार अरण्डकेजड़ और पत्तोंकी पिण्डी गरम कर
को पीसकर पोटली वनःकर स्त्री वा बकरी के बांध देवे।
के शर्करायुक्त दुग्ध में भिगो देवै, इसको वातज अभिष्यन्द में आश्चोतन || |
बार बार आंख में निचोड़ने से दाह, वेदना, आश्चोतनंमारुतो क्याथोबिल्वादिर्भिहितः।
ललाई और आंसुओं का गिरना बन्द होकोष्णः सहरंडजटावृहतीमधुशिनभिः ११ जाता है। हीबेरवक्रशाङ्गेष्टोदुंबरत्यक्षु साधितम् । पित्तादिनाशक प्रयोग। सांभसा पयसाजेन शूलाश्चोतनमुत्तमम् । श्वेतरोभ्रं समधुकं घृतभृष्टं सुचूर्णितम् ।। मजिष्ठारजनालाक्षाद्राक्षाद्विमधुकोत्पलैः। । वस्त्रस्थं स्तन्यमृदितं पित्तरक्ताभिघातजित्
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(८०८)
अष्टांगहृदप ।
म. १६
___ अर्थ-सफेद लोध और मुलहटी को घी । किन्तु दाह होने पर दूध और घी मिलाकर में भूनकर महीन पासले, इसको पोटली में | शीतल लेप करना चाहिये । बांधकर स्त्री के दूध मलकर इस दूधको तिमिरादि में ययायोग्य चिकित्सा । मेत्रोंमें निचौडे। इससे पित्तरक्तज और अभि. तिमिरप्रतिषेधं च वीक्ष्य युंज्याद्यथायथम् । घातज अभिष्यन्द नष्ट हो जाता है ।
अयमेव विधिः सर्वो मंथादिष्वपि शस्यते - कफाभिष्यंद की औषध ।।
अर्थ-तिमिररोग को दूर करने के
निमित्त दोषादि का विवार करके चिकित्सा नागरत्रिफलानिंबवासारोधरसः कफे। कोष्णमाश्चोतनं
करनी चाहिये । मंथादि रोगों में उक्त संपूर्ण ___ अर्थ-कान अभिष्यन्दमें सोंठ, त्रिफला विधि हितकारक हैं। नीम, अडूमा, और लोध इनके काढेका ईष
भ्रवादि दाह। दुष्ण अवस्था में आश्चोतन करे। अशांती सर्वथा मंथे भ्रवोरुपरि दाहयेत् । त्रिदोषज अभिष्यंद में कर्तव्य। । अर्थ-उक्त उपार्यों के करने पर भी
मित्रैर्भेषजैः सान्निपातिके। यदि मंथरोग की शांति न हो तो भकुटियों अर्थ-सान्नितिक अभिष्यंदमें पात- | के ऊपर दाह करना चाहिये । जादि अभिष्यंदों में कही हुई सब प्रकार की वातादिरोगनाशिंनी वर्ति । मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये । रूप्यं रूक्षेण गोदना लिंपेन्नीलत्वमागते । ___अन्य प्रयोग ।
शुष्क तुमस्तुना पर्तिर्वाताख्यामयनाशिनी सर्पिःपुरागं पवने पित्ते शर्करयान्वितम् ।
। अर्थ-चांदी के पत्रपर नवनीत निकाळे व्योषसिद्धं कफे पीत्वा यवक्षारावर्णितम हुए गौके दही का लेप करे, जब यह नीला स्रावयेगुधिरं भूयस्ततः स्निग्धं विरेचयेत्। होजाय और सूखजाय तब उस दही की
अर्थ-वात अभिष्यंदमें पुगना घृत और बत्ती बनाकर प्रयोग करे इससे वातसंबंधी पित्तनमें शर्करायुक्त घृत हितकारी है । नेत्ररोग जाते रहते हैं । कफन अभिष्यंद में त्रिकुटा के साथ घी को पित्तरक्तनाशिनी वत्ती । पकाकर उसमें जवाखार मिलाकर उस घी सुमनः कोरका शंखत्रिफला मधुकं बला। को पान कराके रक्तमोक्षण करे । पीछे स्निग्ध पित्तरक्तापहा वर्तिः पिष्टा दिव्येन वारिणा विरेचन का प्रयोग करे ।
___ अर्थ-चमेली के फूल की कली, शंख, . . लेपादि प्रयोग ।
त्रिफला, मुलहटी और खरैटी इनको वर्षा आनूपवेसवारण शिरोवदनलेपनम् १९ के जल में पीसकर बत्ती बनाकर प्रयोग उष्णेन शूले दाहे तु पयः सपियुतैहिमैः ।। करने से पित्तरक्त ज नेत्ररोग जाते रहते हैं । ___ अर्थ-अभिष्यंदरोग में शूल के समान
। कफाक्षिरोगनाशिनी वर्ती । वेदना होनेपर आनूप मांसके वेसवार को मंच त्रिफला ब्योषं शंखनाभिः समुद्रजः। कुछ गरम करके सिर और मुखपर लेपकरे। फेनः शैलेयकं सों वर्तिः श्लेष्माक्षिरोगनुस्
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अ० १६
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत।
-
अर्थ-संधानमक, त्रिकुटा,त्रिफला,शंख, । उक्तरोग में अंजन । नाभि, समुद्रफेन, शैलेय और राल इनकी सर्पिर्युक्तं स्तन्यपिष्टमंजनं हि महौषधम ॥ बत्ती कफज नेत्ररोगों पर हितकारी है। वसा चानूपसत्त्वोत्था किंचिसैंधवनागरा। पाशुपत नामक योग ।
अर्थ-स्त्रीके दूध में पिसी हुई सोंठ प्रयौंडरीक यष्टयाहूं दार्वीचाष्टपलंपचेत ॥ का अंजन घी मिलाकर अथवा सेंधानमक जलद्रोणे रस पते पुनः पक्के घने क्षिपेत् ॥ और सोंठ मिलाकर आनूप जीवोंकी चर्वी पुष्पांजनाशपलं कर्ष च मरिचात्ततः। | का अंजन हितकारी है । कृतम्यूर्णोऽथवा वर्तिः सर्वाभिष्यंदसंभवान्
श्रेष्ठांजन । इंति रागरजाघर्षान् सद्यो दृष्टिं प्रसादयेत् । घृताक्तान् दर्पणे घृष्टान् केशान मल्लकसंपुटे॥ भयं पाशुपतो योगो रहस्य भिषजां परम् ॥ दग्ध्याज्यपिष्टा लोहस्था सामषी श्रेष्ठमंजनम् ___ अर्थ-श्वतेकमल, मलहटी और दारुह- अर्थ--कुछ वालों को घी में भिगोकर लदी प्रत्येक आठ पल लेकर एक द्रोण जल
दर्पण पर घिस ले और इनको मलकसम्पुट में पकावै चौथाई शेप रहने पर उतार कर
में जलाकर इस काजल को लोहे के पात्र में छानले । इस काढेको फिर पकावै, गाढा
रखले, फिर घी में सानकर अञ्जन लगावें, होनेपर पुष्पांजन दस पल और कालीमिरच |
यह परमोत्तम अञ्जन है।
सिराव्यधादि। एक कर्ष इनको महीन पीसकर मिला देवे ।
सशोफे चाल्पशोफे च स्निग्धस्य. इनका चूर्ण वा बत्ती बनाकर प्रयोग करने
व्यधयेत्सिराम् ॥ ३१॥ से संपूर्ण प्रकार के अभिष्यंदों से उत्पन्न हुई रेकः स्निग्धैः पुनर्द्राक्षापथ्याकाथात्रवृदूधृतैः। नेत्रकी ललाई, वेदना, घर्ष और किरकिराहट ___अर्थ--सूजनवाले वा अल्प सूजन वाले तत्काल जाती रहती है तथा दृष्टि स्वच्छ हो । रोगी को स्निग्ध करके उसकी फस्त खोलनी जाती है । इसका नाम पाशुपत योग है। चाहिये, पीछे किशमिश और हरडके काढे यह वैद्योंकी परम गुप्त औषध है।
में निसोत और घी मिलाकर विरेचनार्थं शुष्काक्षिपाक की चिकित्सा ।
देवै । शुष्काक्षिपाकेहविषापानमक्षणोश्चतपणम्।।
शूलनाशक परिषेक । घृतेन जीवनीयेन नस्य तैलेन चाणुना ॥ परिषेको हितश्चात्र पयः कोष्णं ससैंधवम् |
| उष्णांबुना विमृदितं सेकः शूलहरः परम् । अर्थ-शुष्काक्षिरोग में घृतपान, तथा
___ अर्थ-घी में भुनी हुई सफेद लोध को
पीसकर वस्त्र में बांधले और गरम जल में जीवनीयगणोक्त द्रव्यों से सिद्ध घृतका
मर्दन करके आंखमें सेक करे, इससे नेत्र नेत्रतर्पण, अणु तैल का नस्य और सेंधानमक मिलाकर ईषदुष्ण दुग्ध का परिषेक
शूल जाता रहता है।
आश्चोतन में क्वाथ। हितकारी है।
| दाप्रिपौंडरीकस्य काथो वाश्चोतने हितः॥
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अष्टांगहृदय ।
( ८१० )
अर्थ- दारुहलदी और प्रपौंडरीक का काढा आश्चोतन में हितकारी है । संधाव प्रयोग | संधावाश्च प्रयुंजीत घर्षरागाश्रुरुग्धरान् । अर्थ-रिगड, ललाई, भांसू पडना, और वेदना ये सब संधावाख्य औषधों के प्रयोग से जाते रहते हैं ।
अन्य प्रयोग |
ताम्र लोहे मूत्रघृष्टं प्रयुक्तं नेत्रे सर्पिधूपितं वेदनानम् । ताम्रैर्धृष्टो गव्यदभः सरो वा युक्तः कृष्णा संघवाभ्यां वरिष्ठः ॥ ३४ ॥ अर्थ-लोहे के पात्र में गोमूत्र डालकर एक तांबे के टुकड़े को घिसकर उसमें घी की धूनी देकर नेत्रों में, लगावै तो वेदना जाती रहती है, अथवा गौके दूधकी मलाई में तांवा घिसकर उसमें पीपल और सेंधा नमक मिलाकर आंख में आंजने से भी दर्द कम होजाता है ।
अन्य प्रयोग !
शंख ताम्रे स्तन्यघृष्टं घृताकैः शम्याः पत्रैर्धूपितं तद्यवैश्च । नेत्रे युक्तं इंति संधावसंज्ञ क्षिप्रं घर्षे वेदनां चातितीत्राम् ॥ ३५ ॥ अर्थ - तांबे के पात्र में स्त्री के दूध के साथ शंखको घिसकर घृत में भीगे हुए शमीपत्र वा जौ की धूनी देवै । इस संधावसंज्ञक औषधको नेत्र में लगाने से घर्ष और तीव्र वेदना शीघ्र जाते रहते हैं । दाहनाशक प्रयोग |
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अ० १६
गूलर को घिसकर घृताक्त शमीपत्र की धूनी देकर आंख में लगावै इससे दाह, शूल, ललाई, आंसू और हर्ष जाते रहते हैं ।
शोफनाशक प्रयोग | शिग्रुपल्लवनिर्यासः सुघृष्टस्ताम्रसंपुटे ! घृतेनं धूपितो हंति शोकवर्षाश्रवेदनाः ॥ अर्थ- सहजने के पत्तों के रसको तांबे में तांबे से घिसकर घी की धूनी देकर आंख में लगाने से सूजन, घर्ष, आंसू और बेदना जाते रहते हैं । अन्य प्रयोग |
के
पान
तिलांभसा मृत्कपाले कष्ट सुधूपितम् निवपत्रैर्धृताभ्यक्तर्वर्षशूलाथुरागजित् ॥
अर्थ- कांसी के पात्र में तिलके जळके साथ मिट्टी के ठीकरे को घिसकर घृताक्त नीम के पत्तों की धूनी देकर आंख में लगाने से घर्ष, शूल, भांसू और ललाई जाते रहते हैं ।
आश्चोतन | संधावेनांजित नेत्रे विगतौषध वेदने । स्तन्येनाश्चोतनं कार्यं त्रिः परं नांजयेश्च तैः ॥
अर्थ- संधावसंज्ञक औषध के नेत्रों में लगाने के पीछे जब दर्द जाता रहै और औषध का असर भी दूर होजाय तत्र स्त्री के स्तनों का दूध आंखों में टपका । संधाव नामक अंजन तीन बार से अधिक नहीं लगाना चाहिये |
घर्षादिनाशक गुटिका । तालीसपत्रचपलानतलोहरजांजनैः । जातीमुकुलकासीस संधवैर्मूत्रपेषितैः ॥
उदुंबरफलं लोहे घृष्टं स्तन्येन धूपितम् ।
खाम्यैः शमीच्छदेर्दाहशूलरागाहर्षजित् ॥ ताम्रमालिप्य सप्ताहं धारयेत्पेषयेत्ततः । अर्थ - छोहे के पात्र में दूध के साथ | मूत्रेणैवानु गुटिकाः कुर्याच्छायविशोषिताः
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अ. १६
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
ताः स्तन्यपृष्टा घर्षाश्रशोफकडूविनाशनाः। सन्निपातज उत्किष्ट, कणक, पक्षमोपरोध, __ अर्थ-तालीसपत्र, चपला, तगर, लोह शुष्काक्षिपाक, पूयालस, विस, पोथकी, चूर्ण, सौवीरांजन, चमेली के फूल की कली अम्लोषित, अल्पाख्य अभिष्यन्द और वात हीराकसीस, सेंधा नमक इन सबको गोमूत्र रहित सब प्रकार के अधिमंथ इन अठारह में पीसकर तांबे के पात्र पर पोतकर सात | प्रकार के दीर्घकालानुबंधी रोगों को पिल्ल दिन तक रहने दे । सात दिन पीछे इस कहते हैं। इनकी अलग अलग चिकित्सा
औषधको तांबे के पात्र से खुरच कर फिर का वर्णन कर दिया गया है, अब पिल्लीगोमूत्र में पीसकर गोली बनावै । इन गो- भूत इन सब रोगों की चिकित्सा का वर्णन लियों को छाया में सुखाकर स्तनदुग्ध में किया जायगा । विसकर नेत्रमें लगावे । इस से घर्ष, पिल्लीभूत की सामान्य चिकित्सा।
आंसू गिरना, सूजन और खुजली जाते पिल्लीभूतेषु सामान्यादथ पिल्लाक्षिरोगिणः रहते हैं।
स्निग्धस्य छर्दितवतः शिराविद्धहतासृजः । शोफनाशक अन्यप्रयोग । विरिक्तस्य च वानु निर्लिखेदाविशुद्धितः व्याघ्रीत्वामधुकं ताम्ररजोजाक्षीरकलिकतम् अर्थ-रोगों के पिल्लाभूत होने पर रोगी शम्यामल कपत्राज्यधूपितं शोफहकप्रणुत् । | को स्नहद्वारा स्निग्ध, वमनकारक औषध
अर्थ कटेरी की छाल, मुलहटी और द्वारा वमन, शिरावेध द्वारा रक्तमोक्षण,तथा तांबे का चूर्ण इन सब द्रव्यों को बकरी के | विरेचक औषध द्वारा विरेचन देकर विशुद्ध दूवमें रिगडकर घी में सने हुए शमी और होने तक वर्म को लेखन करता रहै ।। आमले के पत्तों की धूनी देकर आंख में पिल्लनाशक सेक । लगाने से सूनन और दर्द जाता रहताहै। तुस्थकस्य पलं श्वेतमरिचानि च विंशतिः। - अम्लोषित की चिकित्सा। रात्रिंशताकांजिकपलै पिष्ट्रयाताम्रनिधापयेत्
। अम्लोषिते प्रयुंजीत पित्ताभिष्यदसाधनम् ॥
पिल्लानपिल्ल न् कुरुते बहुवर्षोत्थितानपि ।
| तत्सेकेनोपदेहास्तु कंडूशोफांश्व नाशयेत् अर्थ-अम्लोषित में पित्ताभिष्यन्द के
___ अर्थ -नीलाथोथा एक पल, सहजने के समान चिकित्सा करना चाहिये ।
बीज बीस, कांजी तीस पल इनको तांबे के उत्क्लिष्टादिक १८ रोग !
पात्र में पीसकर तांबे के पात्र में रखदे । उक्लिष्टाः कफपित्ताननिचयोत्थाः कुकूणकः पक्षमोपरोधः शुष्काक्षिपाकःपूयालसोबिसः
| इस कांनी द्वारा परिषेक करनेसे दीर्घ कालोपोथक्यम्लोषितोल्पाख्यः स्यंदमंथा विना- त्पन्न पिल्ल का अपिल्ल हो जाता है । तथा
निलात् हिसाबट, अश्रुपतन, खुजली और सूजन एतेऽष्टादश पिल्लाख्या दीर्घकालानुबंधिनः। जाते रहते हैं। चिकित्सा पृथगेतेषां स्वस्वमुक्ताथ पक्ष्यते पिल्ल में अंजन।
अर्थ-कफज, पित्तज, रक्तज और | करंजवर्धाजं सुरसं सुमनःकोरकाणि च ।
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(८१२)
अष्टांगहृदय ।
संक्षुद्य साधयेत्वाथे पूते तत्र रसक्रिया ५० ताने दशाहं तत् पैल्लयपश्मशातजिदंजनम् अंजनं पिल्लभैषज्यं एक्ष्मणां च प्ररोहणम् । अर्थ-पुष्प हीराकसीसके चूर्णको तुलसी ___ अर्थ--कंजा के वीज, तुलसी, चमेली के रसकी भावना देकर दस दिनतक तांबे की कली, इनको कूट कर जल में औटाव के पात्र में रक्खै । इसका अंजन लगाने से जब काथ होजावै तब छानकर इसके द्वारा पैल और पक्ष्मशात जाता रहता है । रसक्रिया अंजन का प्रयोग करै । यह पित्त
पिल्लमें रोमवईकचूर्ण । रोग की प्रधान औषध है, इस औषध से अलं च सौवीरकमंजन च पक्ष्म उगने लग जाते हैं।
ताभ्यां समं ताम्ररजश्च सूक्ष्मम् । - अन्य अंजन ।
पिल्लेषु रोमाणि निषेवितोसो रसांजनं सरसो रीतिपुष्पं मनःशिला।
चूर्ण करोत्यकशलाकयापि ॥ ५६ ॥ समुद्रफेनं लवणं गैरिकं मरिचानि च । अर्थ-हरिताल एक भाग, सुर्मा एक भंजन मधुना पिष्टं क्लेदकंडूघ्नमुत्तमम् ५२ भाग, तांवा दो भाग, इनको वारीक पीस. . अर्थ- रसौत, राल, पुष्पांजन, मनसिल कर एक शलाई द्वारा नेत्रमें लगाने से पिल्लगेग समुद्रफेन, सेंधानमक, गेरूमट्टी और काली में पक्षम उत्पन्न होजाते हैं । मिरच इन सब द्रव्यों को शहत में पीस
पिल्लरोपण काजल । कर अंजन लगाने से क्लेद और खुजली जाते लाक्षानिर्गुडी,गदावीरसेन रहते हैं।
श्रेष्ठ कापसंभावितं सप्तकृत्वः। अन्य प्रयोग।
दीपः प्रज्याल्यः सर्पिषा तत्समुत्था अभयारसपिष्टं वा तगरं पिल्लनाशनम्।
श्रेष्ठा पिल्लानां रोपणार्थ मषी सा५७ भावित बस्तमूत्रेण सस्नेहं देवदारु च ५३ / __ अर्थ-लाख, निगुडी, भांगरा और दारू___ अर्थ हरीतकी के काढे में तगरको पी- हलदी के काढे में उत्तमरुई को भावित सकर अंजन लगाने से पिल्लजाता रहताहै। करके उसकी बत्ती बनाकर घीका दीपक तथा स्नेहयुक्त देवदारू को बकरी के मूत्रकी जलावै, और काजल पाडे । इस काजल के भावना देकर अंजन लगाने से पिल्लरोग लगाने से पिल्ल रोपित होजाता है । जाता रहता है।
अन्य कर्तव्यादि। पिल्लशुक्रनाशक वति । । | वर्मावलेखं बहुशस्तद्वच्छोणितमोक्षणम् । सैंधवत्रिफलाकृष्णाकटुकाशंखनामयः।। पुनः पुमविरेकं च नित्यमाश्चोतनांजनम् । सताम्ररजसो वर्तिः पिल्लशुक्रकनाशिनी। नावनं धूमपानं च पिल्लरोगातुरो भजेत् । ___ अर्थ--सेंधानमक,त्रिफला,पीपल,कुटकी, पूयालसे त्वशांतताहः सूक्ष्मशलाकया ५९ शंखनाभि और ताम्रचूर्ण इन सब द्रव्यों की । अर्थ-पिल्लरोगी को बार बार बमलेखन, वर्ति पिल्ल और शुक्ररोग को दूर करती है। रक्तमोक्षण,विरेचन,आश्चोतन, अंजन, नस्य ___अन्य प्रयोग।
और धूमपान कराना चाहिये । यदि इनसे पुष्पकासीसचूर्णो वा सुरसारसभाषितः ।। पूयालस शांत न हो तो एक पतली सलाई
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भ०१७
उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत ।
( ८१३) .
से वर्म के भीतर के भाग को दाग देना पादशिराओं की नेत्रोंसे संलग्नता । चाहिये ।
द्वे पादमध्ये पृथुसन्निवशे - स्वस्थनेत्र में सेवनविधि ।
शिरे गते ते वहुधा च नेत्रे। चतुर्नवतिरित्यक्ष्णोतुलक्षणसाधनैः।।
ताम्रक्षणोद्वर्तनलेपनादीन् परस्परमसंकीर्णः कात्स्न्येन गदिता गदा ।
पादप्रयुक्तान्नयनं नयंति ॥ ६५॥
मलोष्णसंघट्टनपीडनायेसर्वदा च निषेवेत स्वस्थोऽपि नयनप्रियः
स्ता क्षयंते नयनानि दुष्टाः। पुराणयवगोधूमशालिषष्टिककोद्रवान् ।।
अर्थ-दोनों पांवों में दो मोटी सिरा मुगादीन्कफपित्तनानभूरिसार्प परिप्लुतान् शाकं चैवविधमांसं जांगलं दाडिमं सिताम होती हैं, जो वहुतसी शाखा प्रशाखाओं में सैंधवं त्रिफलां द्राक्षां वारि पाने चनाभसम् विभक्त होती हुई नेत्रों तक फैलीहुई हैं । भातपत्रं पत्राणं विधिवदोषशोधनम् ॥
तैलादि म्रक्षण, उद्वर्तन और प्रलेपादि कोई __ अर्थ - नेत्ररोगों के ९४ हेतु,लक्षण और
| भी दबा जो पांवमें लगाई जाती है, वह इन उनके साधन संपूर्ण रूपसे वर्णन किये
सिराओं के संयोग से नेत्रों में पहुंच जातीहै गये हैं। नेत्ररोगी को रोग से छूटने पर भी
मल पदार्थ, उष्णता, संघटन, और पीडनानेत्रों पर हित रखने की इच्छा से सदा बडी
दि द्वारा वह सिरा दुष्ट होकर नेत्रकोभी सावधानी से रहना चाहिये । पुराने नौ,
दूषित करदेती है। गेहूँ, शालीचांवल, साठीचावल, कोदों, उपानहादि सेवन । अत्यन्त घृतप्लुत कफपित्तनाशक मूंग आदि, भजेत्सदा दृष्टिहितानि तस्मादू कफपित्तनाशक शाक, जांगल मांस,अनार, उपानभ्यंजनधावनानि ॥ ६६ ॥ चीनी, सेंधानमक, त्रिफला, दाख, आंतरीक्ष
अर्थ-पांवमें लगे हुए दूषित पदार्थों जल, छत्री, जूता, तथा विधिवत दोषशो द्वारा नेत्रभी दूषित हो जाते हैं. इसलिये धन अर्थात् दोषानुसार विरेचन । इन सबका
नेत्रों की रक्षाके निमित्त सदा जूते पहनता निरंतर सेवन करना चाहिये ।
रहै, तथा दोनों पांवों में तेल लगाना और
पांवों का धौना ये काम करना उचित है। वेगसंरोधादिक वर्जन ।
इति श्री अष्टांगहृयसंहिता भाषाटीपर्जयेद्वेगसंरोधमजीर्णाध्यशनानि च। । शोकक्रोधदिवास्वप्ननिशाजागरणानि च ॥
कान्वितायां उत्तरस्थाने क्षिरोगविदाहि विष्टभकर यहाहारभेषजम् ।। प्रतिषेधोनाम षोडशोऽध्यायः ।
अर्थ-नेत्ररोग से टूटा हुआ मनुष्य | मलमूत्रादि वेगधारण,अजीर्ण,अध्यशन,शोक
सप्तदशोऽध्यायः । क्रोध, दिवानिद्रा, रात्रि जागरण, तथा विदाही | अथाऽतः कर्णरोगविज्ञान यं व्याख्यास्यामः
और विष्टंभी आहार, विहार और औषध इन अर्थ-अब हम यहां से कर्णरोग विज्ञासबका परित्याग करदेव । Jनीय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
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(८१४)
अष्टांगहृदय ।
अ०१७
। कानमें दर्दका हेतु । और प्रांबा में भारापन, मंदता, वेदना, प्रतिश्यायजलक्रीडाकर्णकंडूयनैर्मरुत् । खुजली, सूजन, उष्ण पदार्थकी इच्छा, प. मिथ्यायोगेन शब्दस्य कुपितोन्यैश्च कोपनैः
कने पर सफेद और गाढा स्राव होना, ये प्राप्य श्रोत्रशिराः कुर्याच्छूळस्रोतसिवेगवत्
लक्षण उपस्थित होते हैं । अर्धावभेदकं स्तमं शिशिरानभिनंदनम् ॥ चिराश्च पाकं पक्वं तु लसीकामल्पशः स्रवेत्
रक्तज कर्णशूल । श्रोत्रं शून्यमकस्माचस्यात्संचारावचारवत् ।
करोति श्रवणे शूलमभिघातादि दूषितम् ॥ - अर्थ-प्रतिश्याय, जलविहार, कानखु.
रक्तं पित्तसमानार्ति किंचिद्वाधिकलक्षणम् । जाना, शब्दका मिथ्यायोग ( भीषण और
____अर्थ-चोट आदि लगने के कारण अयोग्य वातका सुनना ) इन सब कारणों
दूषित हुआ रक्त कानमें शूल उत्पन्न कर से, तथा अन्य संपूर्ण कोप करनेवाले हेतु.
देता है । इसमें पित्तके समान ही वा कुछ
| अधिक लक्षण दिखाई देते हैं। . ओं से वायु प्रकुपित होकर कानोंकी सिरा
सानिपातिक कर्णशूल । ओं में पहुंच कर कानोंके छिद्रों में प्रवल
शूलं समुदितैर्दोषैः सशोफज्यरतीब्ररुक् ॥ शूल, अ‘वभेदक, कानोंमें स्तब्धता, ठंडे
| पर्यायादुष्णशीतेच्छं जायते नतिजाड्यवत् पदार्थों से द्वेष, देर में पाक, पकने पर धीरे पक्कं सितासितारक्तघमपूयप्रवाहि च ॥ धीरे लसीका का स्राब, अकस्मात् कानों में अर्थ-सान्निपातिक दोषसे जो कानों में सुन्नता, तथा संचरण और विचरण युक्तता शूल होता है, उसमें सूजन, तीबज्वर, वेदना ये सव लक्षण उपस्थित होते हैं । कभी गरम और कभी ठंड की इच्छा, कान पित्त से दाहादि ।
में जडता, पकने पर सफेद काला वा लाल शूलं पित्तात्सदाहोषाशीतेच्छाश्वयधुंज्वरम् गाढा स्त्राव, ये सब लक्षण उपस्थित होते माशु पाकं प्रपक्वं च सपीतलसिकास्नुति ॥ कर्णनाद के लक्षण ।। सा लसीका स्पृशेद्यद्यत्तत्तत्पाकमुपैति च। शब्दवाहिसिरासंस्थे शृणोति पवने मुहुः ।
अर्थ-पित्तज कर्णरोगमें दाह और शूल नादानकस्माद्विविधानकर्णनादं वदति तम् ॥ होता है, तथा संताप, शीतसेवनकी इच्छा, अर्थ-वायुके शब्दवाही सिरा में स्थित सजन, ज्वर, शीघ्र पकाव, पकनेंपर पीले होनेपर रोगी बिना कारण ही अनेक प्रकार रंग की लसीका का स्राव, उस उस स्थान के शब्दों को बार बार सुनने लगता है । का पाक जहां यह लसीका लगै । ये लक्ष- | इसीको कर्णनाद रोग कहते हैं । ण होते हैं।
वधिरता का कारण । कफज कर्णरोग । श्लेष्मगानुगतोवायु दो वा समुपेक्षितः। कफाच्छिरोहनुग्रीवागौरवं मंदता रुजः॥ | उच्चैः कृच्छ्रात्श्रुति पुर्यादधिरत्वं क्रमेण च ॥ कंड्रश्वयथुरुष्णेच्छा पाकात्श्वेतघना स्रतिः अर्थ-वायुके कफानुगत होनेपर अथवा . अर्थ-कफज कर्णरोग में सिर, हनु | कर्णनाद की चिकित्सा में उपेक्षा करने से
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अ० १७
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कानमें कठिनता से पुकारकर बोलने का | विद्रधिः पूर्ववच्चान्यः शब्द पहुंचता है । इसीसे धीरे धीरे वहिरापन हो जाता है ।
प्रतीनाह का लक्षण ॥ बातेन शोषितः श्लेष्मास्त्रोतोलिंपेत्ततोभवेत् रुग्गैौरवं पिधानं च स प्रतीनाहसंशितः ॥ अर्थ- वायुके द्वारा कफ सूखकर कर्ण - स्रोत को रोक देता है, इससे कानमें बेदना भारापन और ढकाव सा होता है । इसीको प्रतीनाह कहते हैं ।
कंशोफ रोगोंके लक्षण ॥ कंडूशोफौ कफाच्छ्रोत्रेस्थिरौतत्संज्ञयारमृतौ अर्थ - कफ के कारण कानमें स्थिर खुजली और स्थिर सूजन हो जाती है, इसीसे इन रोगोंको स्थिर कंडू और स्थिर शोफ कहते हैं ।
पूतिकर्ण के लक्षण || फो विदग्धः पित्तेन सरुज नीरुजं त्वपि ॥ धनपूर्तिबहुलदं कुरुते पूतिकर्णकम् !
अर्थ-पित्तके द्वारा कफ जलकर कान को वेदनायुक्त वा वेदनारहित कर देता है तथा गाढा और दुर्गन्धित क्लेद उत्पन्न करदेता है | इसको पूर्तिकर्णक रोग कहते हैं । कृमिकर्णक के लक्षण ||
वातादिदूषितं श्रोत्रं मांसासृक्क्लेदर्जा जम् खादंतो जतयः कुर्युस्तीब्रां स कृमिकर्णकः अर्थ- वातादि दोष द्वारा कानके दूषित होनेपर उसमें कीडे पडजाते हैं । ये सब कीडे कानोंको खाने लगते हैं । तथा मांस रक्त और तोद से तीव्र वेदना होने लगती है, इसे कृमिकर्णक कहते हैं ।
/
कर्णविद्रधि ।
श्रोत्रकंइयनाज्जाते. क्षते स्यात्पूर्वलक्षणः ।
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( ८ १५ )
अर्थ - खुजाने से कान में घाव होकर पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त एक कर्णविद्रधि होती है। निदान में कह चुके हैं यः शोफो वहिरन्तर्वा महामूलो महारुजः । वृतः स्यादायतो यो वा स्मृतः षोढास विद्रधिः । कर्णा और कर्णार्बुद ॥ शोफोऽशऽर्बुदीरितम् । तेषु रुक्पूतिकर्णत्वं बधिरत्वं च बाधते । अर्थ- कान के रोगों में कर्णार्श और कर्णार्बुद भी होते हैं इनमें वेदना, पूतिकर्णव और वहरापन ये उत्पन्न होते हैं । कूचिकर्ण रोग ॥ गर्भेऽनिलात्संकुचिता शष्कुली कूचि कर्णकः अर्थ- वायुके कारण कान के भीतर का छिद्र सुकड जाता है, इसको कूचिकर्णक कहते हैं ।
कर्णपिप्पली ॥
एको नीरुगनेको वा गर्भे मांसांकुरः स्थिरः पिप्पलीपिप्पलीमानः
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·
अर्थ- कानके छिद्र के भीतर एक वा एक से अधिक पीपल के समान कठोर और वेदनारहित मांस के अंकुर पैदा हो जाते हैं, इन को कर्णपिप्पली कहते हैं ।
विदारिका के लक्षण ॥ सन्निपाताद्विदारिका सवर्णः सरुजः स्तब्धः श्वयथुः स उपेक्षितः कटुतैलनिभं पक्कः स्त्रवेत् कृच्छ्रेण रोहति । संकोचयति रूढा च सा ध्रुवं कर्णशष्कुलीम्
अर्थ- सन्निपात के कारण कानके भीतर स्तब्ध, वेदनायुक्त और त्वचा के समान वर्ण वाली एक सूजन होती है, उसे विदारिका
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(८१६)
अष्टांगहृदय ।
कहते हैं। इसकी उपेक्षा करने पर कडवे तेल | गल्लिर के लक्षण । के सदृश स्राव होने लगता है, विदारिका | पाल्यांशोफोनिलकफात्सर्वतोमिय॑था स्थिरः पकने पर बड़ी कठिनता से भरती है। यह | स्तब्धः सवर्णः कंडूमानुन्मंथोगल्लिरश्चसः सूखने पर भी कर्णशष्कुली को संकुचित
___ अर्थ-वातकफके कारण कर्णपाली में कर देती है।
जो वेदनारहित, स्थिर, स्तब्ध, स्वचा के पालीशोष ॥
समान वर्णवाली, कडूयुक्त सूजन होती है, सिरास्थः कुरुते वायः पालीशोषं तदाहृयम ! उसको उन्मथ वा गल्लिर कहते हैं । ___ अर्थ-वायु शिरा में स्थित होकर कर्ण- दुःखवर्द्धन के लक्षण । पाली को सुखा देती है, इसको पालीशोष दुर्विद्धे वर्धिते कर्णे सकंड्दाहपाफरक २३ कहते हैं ।
श्वयथुः सन्निपातोत्थः स नानादुःखवर्धन:
___ अर्थ-कानके दुर्विद्ध होने पर वा बढने तंत्रिका के लक्षण ॥
पर उसमें जो खुजली, दाह, पाक और कृशा दृढा चं तंत्रीवत् पाली बातेन तंत्रिका
वेदना से युक्त जो सन्निपातात्मक सूजन __ अथे-वायुके कारण कर्णपाली कृश, दृढ और तंत्री के समान होजाती है, इसको तंत्रि
पैदा होती है, उसे दुःखन कहते हैं ।
लेह्या के लक्षण । का कहते हैं। परिपोट के लक्षण ।।
कफास्कृमिजाः सूक्ष्मा सकंडूलेदवेदनाः। सुकुमारे चिरोत्सर्गासहसैव प्रवर्धिते । लहाख्याः पिटिकास्ता हि लिह्यः कणे शोफः सरुकूपाल्यामरुणः परिपोटवान्
. पालीमुपेक्षिताः। परिपोटः स पवनात्
| अर्थ-कर्णपाली में कफ, रक्त और __ अर्थ-कोमल कानको सहसा खींचकर कृमि से जो छोटी छोटी कुंसियां पैदा हो छोड देने से कानमें सूजन और वेदना हाती जाती हैं, उनको लेह्या कहते है, इनमें खु. है तथा कर्णपाली में ललाई और फटाव होता जली, क्लेद और वेदना हुआ करती है। है, इसको परिपोट रोग कहते हैं । इनकी चिकित्सा न करनेपर ये संपूर्ण कर्ण . उत्पात के लक्षण ॥
पाली को चाट जाती हैं, इससे इन्हें ले ह्या ___उत्पातः पित्तशोणितात् । कहते हैं । गुर्वाभरणभाराद्यैः श्यावो रुग्दाहपाकवान् । साध्यासाध्य विचार । श्वयथुः स्फोटपिटकारागोषालेदसंयुतः।
| पिप्पलीसर्वजं शूलं विदारी कूचिकर्णकः । अर्थ--भारी आभूषणों के कारण पित्त
एषामसाध्यायायैकातंत्रिकान्यांस्तुसाधयेत् और रक्त के कुपित होने से कर्णपाली में पंचविंशतिरित्युक्ताः कर्णरोगा विभागतः, वेदना, दाह, पाक, स्फोटन, श्यावता, सूजन, अर्थ-कर्णपिप्पली, सान्निपातिक कर्णपिटका, राग, ऊषा और क्लेद होता है । इस | शूल, विदारिका और कृचिकर्णक ये रोग रोग को उत्पात कहते है ।
| कानके रोगों में असाध्य हैं । एक संत्रिका
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म. १८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
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कष्टसाध्य है । शेष बीस रोग साध्य होतेहैं, | महामेहो द्रुत इति सुतीग्रामपि घेदनाम् । इस प्रकार से सब मिलाकर कानके पच्चीस अर्थ-वातनाशक अम्ल द्रव्यों और रोग कहे गयेहैं।
| गोमूत्र के साथ पकाया हुआ महास्नेह कान इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी में डालने से अत्यन्त तीव्र वेदना भी शीन कान्वितायो उत्तरस्थाने कर्णरोग
| शांत होजाती है । विज्ञानीयोनाम सप्तदशोऽध्यायः
अन्य प्रयोग । . महतः पंचमूलस्य काष्ठात्क्षौमेण घेष्टितात् ।
तैलसिक्तात्प्रदीप्ताग्रात् नेहःसद्यो रुजापहः । अष्टादशोऽध्यायः। अर्थ-बृहत्पंचमूल की अलग अलग
। एक एक लकडी लेकर रेशमी वस्त्रसे लपेट
दे इसको तेल में भिगोकर अग्निसे जलावे अथाऽतः कर्णरोगप्रतिषेधं ब्याख्यास्यामः ॥ और नीचे एक पात्र रखदे । इस पात्रमें जो
अर्थ- अब हम यहां से कर्णरोग प्रति-तेल टपके उसे कानमें डालनेसे वेदना शाघ्र षेधनामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
| जाती रहती है। ___ वातज कर्णशूल मे कर्तव्य ।
अन्य प्रयोग। कर्णशूले पवनजे पिवेद्रात्रौ रसाशितः। योज्यश्चैवभद्रकाष्टारकुष्ठात्काष्ठाचसारलात् पातघ्नसाधितं सर्पिः कर्ण स्विन्नं च पूरयेत् अर्थ-देवदारु, कूठ और सरल इनकी पत्राणां पृथगश्वत्थबिल्वाकरंडसम्मनाम् । तैलसिंधृत्यदिग्धानां विनाना पटकन लकड़ी को भी वस्त्रसे लपेटकर तेलमें भिगोरसैः कवोष्णस्तद्वच्च मूलकस्यारलोरपि। कर अग्निसे जलाकर ऊपर की तरह तेल
अर्थ--वातज कर्णशूल में रोगी को मांस. | टपकावे । इस तेलको कानमें लगाने से रस सहित अन्नका पथ्य देकर रात्रि के समय वेदना जाती रहती है । वातनाशक औषधियों से सिद्ध किया हुआ
अन्य प्रयोग ।
वातव्याधिप्रतिश्यायविहितं हितमत्र च। घी पान कराना चाहिये । कान में स्वेदन
वर्जयेच्छिरसानानं शीतांभापानमइयपि ॥ करके पीपल, नीम, आक वा अरंड इनमें
__ अर्थ-वातव्याधि और प्रतिस्यायसेग में से किसी एक के पत्तों पर तेल और सेंधा
जो जो औषध कही गई हैं, वे सब इस नमक लगाकर अग्नि में पुटपाक की रीति जगह उपयोग में लानी चाहिये ।। से सिद्ध करके उसके गुनगुने रसको कान ___ इसरोग में सिर से स्नान करना और में भरदे । मुली और भरलू के रससे मी दिनमें भी ठंडा पानी पीना वर्जित है। कानको इसी तरह भरना चाहिये ।
पित्तजशूल में कर्तव्य । . कर्णशूल पर महास्नेहसेल । पित्तशूले सितायुक्तं धृतमिग्धं विरेचयेत्। गणे वातहरेऽम्लेषु मूत्रेषु च विपावितः॥ द्राक्षायष्टिशृतं स्तन्यं शस्यते कर्णपूरणम् ॥
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(८१८)
. अष्टांगहृदय ।
म. १८
अर्थ-पित्तजशूल में घी और चीनी | कर्णपूरण प्रयोग । मिलाकर स्निग्ध विरेचन देवे । दाख और लशुनाकशिग्रणरं सुरुग्या मूलकस्य च । मुलहटी के साथ सिद्ध किया हुआ स्त्री का कदल्याः स्वरसःश्रेठः कदुष्णः कर्णपूरणे ॥ दूध कानमें भरना चाहिये।
अर्थ-लहसन, अदरख, सहजना, तुलसी शलनाशक तेल। मूली और केला इनके स्वरसको गरम करके यष्टयनंताहिमोशीरकाकोलीरोध्रर्जावकैः। सुहाता सुहाता कानमें डाले । यह कफज मृणालविसमंजिष्ठासारिवाभिश्च साधयेत् कर्णरोग की उत्तम औषध है। यष्टीमधुरसप्रस्थं क्षीरद्विप्रस्थसंयुतम् ।।
शूलनाशक रस। तैलस्य कुडवं नस्यपूरणाभ्यंजनैरिदम ॥ निहति शूलदाहोषाः केवलं क्षौद्रमेव वा।।
अर्कोकुरानम्लपिष्टस्तैलाल्लवणान्वितान् ।
संनिधाय स्नुहीकांडे कोरिते तच्छदावृतान - अर्थ-मुलहटी, अनन्तमुल, चंदन, खस
स्वेदयेत्पुटपाकेन स रसः शूलजित्परम् । काकोली, लोध, जीवक, कमलनाल, मजीठ,
__अर्थ-आकके अंकुरों को कांजीमें पीस. सारिवा इनका कल्क करले । मुलहटीका रस |
टाका रख कर तेल और सेंधेनमक से सानकर सेंहु. एक प्रस्थ, दूध दो प्रस्थ, तेल एक कुडव,
ड की पोली डंडी में भरकर उसी के पत्तों इन सब को पाकोक्त रीतिसे पकावे । इस तेलको नस्य, कर्णपूरण और अभ्यंजन द्वारा
से ढक दे और पुटपाक की रीतिसे स्वेदित प्रयोग करने से कर्णशूल, दाह और संतार
करके उसके रसको कानमें डाले । यह शुल दूर होजाते है केवल मधु द्वारा भी शूलादि
को दूर करने की परमोत्तम औषध है । शांत होजाते हैं।
विजौरे का रस 1 कर्णलेपन।
रसेन वीजपूरस्य कपित्थस्य च पूरयेत् ।। यष्टयादिभिश्च सघूतैः कर्णो दिह्यात्समंततः सूक्तेन पूरयित्वा वा फेनेनान्धवचूर्णयेत् । ___ अर्थ-उपर कहे हुए मुलहटी से आदि ।
लटी मे आदि अर्थ-विजौरे का रस वा कैथ का रस लेकर सब द्रव्यों को घी के साथ एकाकर | अथवा कांजी इनसे कानको भरदे । फिर इस घीको कानके चारों ओर लेप करे । इससे
| समुद्रफेन को पीसकर ऊपर से बुरक दे । कर्णशूल जाता रहता है।
अन्य प्रयोग। . कफजकर्णशल की चिकित्सा। अजाविमूत्रवशत्वसिद्धं तैलं च पूरणम् ॥ वामयेत् पिप्पलीसिद्धसर्पिःस्निग्धं कफोद्भवे
. सिद्धं वा सार्षपं तैलं हिंगुतुबुरुनागरैः । धूमनावनगइषस्वेदान कुर्यात्कफापहान् ॥ | अर्थ-बकरी और भेडका मूत्र, बांसकी __ अर्थ-कफज कर्णशूलमें पीपल के साथ | छाल इनसे सिद्ध किया हुआ तेल कानमें घी पकाकर इस घी से स्निग्ध पुरुष को | भरे । अथवा हींग, धनियां और सोंठ के वमन कराव तथा कफनाशक धूमपान, नस्य - साथ पकाया हुआ सरसों का तेलभी कान गंडूष, और स्वेदादि का प्रयोग भी उचित है | में भरना हित है ।
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अ. १८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
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रक्तज कर्णशल की चिकित्सा । पचेत्तैलं तदास्त्रावं निगृह्णात्याशु पूरणात् ॥ रक्तजे पित्तवत्कार्य शिरां चाशु विमोक्षयेत् अर्थ-मालकांगनी, मुलहटी, पाठा, धा
अर्थ--रक्तज कर्णशूलमें पित्तज कर्णशूल यके फूल, पृश्निपर्णी, शालपर्णी, मजीठ, के समान चिकित्सा करना चाहिये । तथा लोध, लाख इनके कल्कसे और कैथके रस शीघ्र ही फस्तखोलना चाहिये । | के साथ तेलको पकाये, इस तेलको कानमें .. पक्वकर्ण की चिकित्सा । भरने से तत्काल स्राव बन्द होजाता है। पक्के पूयबहे कर्ण धूमगंइषनावनम् । __ नादवाधिर्यका उपाय। युज्यानाडीविधानं च दुष्टब्रणहरं च यत् ॥ नादबाधिर्ययोः कुर्याद् वातशूलोक्तमौषधम् . अर्थ-जिस कानमें पकन के पाछ राघश्लेष्मानुवंधे श्लेष्माण प्राग्जयदमनादिभिः॥ यहने लग गई हो उसमें धूमप्रयोग, गंडूष अर्थ-कर्णनाद और बहरेपनमें वातज
और नस्यका प्रयोग करना चाहिये | तथा शल के समान चिकित्सा करनी चाहिये । नाडीव्रण और दुष्टत्रण में जो जो उपाय | और कफानुबंध में वमनादि द्वारा कफकों लिखेगये हैं, वे सब यहां करने चाहिये। जीतने का उपाय करे । पिचुवर्तिका प्रयोग।
अन्य तैल । । स्रोतः प्रमृज्य दिग्धंतु द्वौकालौपिचुवर्तिभिः
परंडशिनवरुणमूल कात्पनजे रसे। पूरयेदू धूपयित्या तु माक्षिकेण प्रपूरयेत् ॥
चतुर्गुण पचेत्तैलं क्षीरे चाष्टगुणोन्मिते ॥ सुरसादिंगणक्वाथफाणिताक्तां च योजयेत् ।। यष्टयाहाक्षीरकाकोलीकल्कयुक्तं निहति तत् पिचुवति सुसुक्ष्मैश्च तच्चूर्णैरवचूर्णयेत् ॥ | नादवाधियेशूलानि नावनाभ्यंगपूरणः ॥
अर्थ-दोनों समय कान के छिद्रों को अर्थ-अरंड, सहजना, बरना और मुली रुई की बत्तीसे पोंछकर गूगलकी धून देकर इनके पत्तोंका रस चार भाग, तेल एकभाग शहत भरदेना चाहिये और सुरसादि गणके दूध आठ भाग में मुलहटी और क्षीरकाकाढेके फाणित में रुई की बत्ती को निगो
| कोली का कल्क डालकर पकावे | इस तेल कर कानमें भरदे और सुरसादिगण के को नस्य अभ्यंग और कर्णपूरण द्वारा प्रयोग द्रव्यों को महीन पीसकर कानमें वुरक दे।। करने से कर्णनाद, बहरापन और शूल का शूलादिनाशक विधि।
नाश हो जाता है। शुलक्लेदगुरूत्वानां विधिरेष निवर्तकः।
वेदनादिनाशक तैल । . अर्थ-ऊपर जो बिधिकही गई हैं, इन पक्कं प्रतिविषाहिंगुमिशित्वकस्वार्जकोषणः से कर्णशूल, क्लेद और भारापन जाते रह
| ससूक्तैः पूरणातलं रुस्रावतिनादनुत् ।।
अर्थ--अतीस, हींग, सोंफ, दालचीनी, : खावनाशक प्रयोग ! .
सज्जी, कालीमिरच और कांजी इनके साथ प्रियंगुमधुकांवष्ठाधातक्युत्पलपाभिः॥ में पकाया हुआ तेल कानमें भरना वेदना मंजिष्ठालोध्रलाक्षाभिः कपित्थस्य रसेन च । स्राव और कर्णनाद को दूर करता है।
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(८२०)
अष्टांगहृदय ।
अ० १८
अन्य तैल।
हो और थोडा थोडा स्त्राव भी होता होतो फर्णमादे हितं तैलं सर्षपोत्थं च पूरणे। वमन कराना चाहिये । अर्थ- कानमें सरसों का तेल डालने से
वर्जित रोगी। भी कर्णनाद रोग जाता रहता है। बाधिर्य वर्जयेद्वालवृद्धयोश्चिरजं च यत् । ___ अन्य प्रयोग।
अर्थ-बालक और वृद्धका बहरापन तथा शुष्कधूलकखंडानां क्षारो हिंगु महौषधम् ॥ बहुत कालका बहरापन असाध्य होते हैं। शतपुष्पाषचाकुष्ठदारुशिप्ररसांजनम् ।
प्रतिनाह में कर्ण शोधन । सौवर्चलयवक्षारस्वर्जिकौद्भिदसैंधवम् २७ भूर्जग्रंथिबिडं मुस्तामधुसूक्तं चतुर्गुणम् ।
प्रतिमाहे परिलेच नेहस्वेर्षिशोधयेत् । मातुलुंगरसस्तद्वत् कदलीस्वरश्च तैः २८
कर्णशोधनकेनानु कर्णौ सैलस्य पूरयेत् ३२ पक्कं तैलं जयत्याशु सुकृच्छानपि पूरणात् ।
ससूक्तसैंधवमधोर्मातुलंगरसस्य वा। कंड्रंक्लेदं च बाधिर्य पूतिकर्ण च रुक्काम
शोधनादू रूक्षतोत्पत्तौ घृतमंडस्य पूरणम् क्षारतेलमिदं श्रेष्ठं मुखदंतामयेषु च।। अर्थ- प्रतिनाह रोगमें स्नेहन और स्वंद___ अर्थ-सूखी हुई मूली के टुकडों का | न द्वारा कानके क्लेद को नरमकरके कान क्षार, हाँग, सोंठ, सोंफ, वच, कूठ, देव- को शुद्ध करने वाली औषधसे कानके क्लेद दारू, सहजना, रसौत, संचलनमक, जबा- को दूर करदेवे | फिर कांजी और सेंधेनमक खार, सज्जीखार, उद्भिद नमक, सेंधानमक से युक्त शहत बा विजौरे का रस कान में भोजपत्र, पीपलामूल, विडनमक, मोथा, ये | भरदे । यदि शोधन से कानमें रूखापन हो सव समान भाग ले । तथा शहत, विजौरे | जाय तो कानमें घृतमंडका प्रयोग करना का रस, कांजी, केले का रस, प्रत्येक चार चाहिये । भाग, तेल एक भाग । इनको पाकोक्त रीति
__ कटष्ण लेपन । से पकावै । इस तेल द्वारा कानको भरने क्रमोऽयं मलपूर्णेऽपि कर्णेकंड्यांकफापहम् से, खुजली, क्लेद, बधिरता, पूतिकर्ण, वेद
नस्यादितद्वच्छोफेऽपिकटूष्णैश्चात्र लेपनम् ना और क्रिमिरोग जाता रहता है । मुख
___ अर्थ-कानमें मल भरा होने परभी यही और दांत के रोगोंमें भी यह क्षार तैल
प्रतिनाहोक्त औषध करनी चाहिये । कर्ण श्रेष्ट औषध है।
कंडू रोगमें कफनाशक नस्यादि की व्यवस्था कर्णसुप्ति की चिकिस्सा। । करना उचित है । कर्णशोथमें भी इसी वि. अथसुप्ताविव स्यातां कर्णौ रक्तं हरेत्ततः । धिका अवलंवन करना उचित है । इसमें
अर्थ-जव कानों में सुन्नता होजाय तब । कटु और उष्ण लेप करना हितकारी है। रक्तमोक्षण करना चाहिये।
पूतिकर्णादि का उपाय ।। अन्य उपाय ॥
| कर्णस्रायोदितं कुर्यात्पूतिकृमिककर्णयोः । सशोफलेदयोर्मेदसतेर्वमनमाचरेत् । । पूरणं कटुतैलेन विशेषात् कमिकर्णके ३५
अर्थ-कानों में यदि सूजन और केद । अर्थ-पूतिकर्ण और ऋमिकर्ण में कर्म
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५० १८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८२.)
स्रावोक्त चिकित्सा करणा चाहिये । कृमि- . पालीपुष्टकृतेल। कर्ण में कडवे तेलका भरमा हित है। शतावरीवाजिगंधापयस्यैडजीबकैः । - कर्णविधि का उपाय । तैलं विपक्वं सक्षीरं पालीनां पुष्टिकृत्परम् पंमिपूर्ण हिता कर्णविदधौ विद्रधिक्रिया।
____ अर्थ-सिताबर, असगंध, दूग्धिका अरंड . अर्थ-कर्ण विद्रधिमें वमन क्रिया कराने | जीवक, और दूध इनके साथ में पकाया के पीछे विद्रधिमें कही हुई चिकित्सा करनी हुभा तेल कर्णपाली को बहुत पुष्ट करताहै। चाहिये ।
अन्य प्रयोग। क्षतविद्रधि का उपाय । कहकोन जीपनीयेम तैलं पयसि पाचितम् । पित्तोत्थकर्णशलोक्तं कर्तव्यं क्षतविद्रधी। भानूपमांसक्वाथे च पालीपोषणवर्धनम् ।
अर्थ-कर्णविद्रधिमें पैतिक कर्णशूलोक्त । अर्थ-जीवनीयगण का कल्क, दूध चिकित्सा करना चाहिये।
और आनूप मांस का काढा, इनके साथ, ___ अर्णोर्बुद की चिकित्सा । पकाया हुआ तेल कर्णपाली को पुष्ट करता अशोऽर्बुदेषु नासाद
है और बढाता है। अर्थ-कर्श और कर्णावंद की चिकि-
पालीछेदन । सा नासिका की तरह करनी चाहिये। पाली छित्त्वातिसंक्षीणांशषांसंधायपोषयेत् .. कर्णविदारिका का उपाय।
.. अर्थ-अत्यन्त क्षीण हुई पालीको काटआमा कर्णविदारिका । कर्णविधिवत्साध्या यथादोषोदयेन च।।
कर बची हुई को जोडकर फिर बढाये। अर्थ-विना पकी कर्णविदारिका की
|
अन्य विधि।
याप्येवं तंत्रिकाण्यापि परिपोटेप्ययं विधि: चिकित्सा दोषकी अधिकता के अनुसार कविद्रधि के समान करनी चाहिये।
अर्थ-तंत्रका और परपोटक दोनों रोग पालीशोष की चिकित्सा । । ।
उक्तविधि से याप्य हो सकते हैं । पालीशोषेऽनिलोत्रशूलबमास्यलेपनम् ।
उत्पात में शीतल लेप। . स्वेचकुर्यातस्विनांच पालोमहर्तयेसिसी उत्पाते शीतलैलेंपो जलौकाहतशोणिते । प्रियालबीजष्टयाहाहयगंधायवान्वितैः । । अर्थ-उत्पात रोगों में जोकों से रुधिर ततः पुष्टिकरैः स्नेहैरभ्यंगं नित्यमाचरेत् । निकाल कर फिर शीतल लेपादि का प्रयोग ___ अर्थ-पालीशोष में वातिक कर्णशूल
करे। रोग के समान नस्य प्रलेप और स्वेद द्वारा
अभ्यंजन में तैलादि। चिकित्सा करनी चाहिये । फिर स्वेदित
जंब्याम्पल्लवबलायष्टीरोध्रति लोत्पलैः । होने के पीछे कर्णपाली में तिल, चिरोंजी, सधान्याम्लै समंजिष्टःसकदंससारिच। मुलहटी, असगंध और जौ का उवटना | सिद्धमभ्यंजन तैलं विसर्पोक्तवृतानि । तथा पुष्टिकारक स्नेह द्वारा नित्यप्रति मर्दन । अर्थ-जामन और आपके पत्ते, बला, करना चाहिये।
। मुलहटी, लोध, सिल, नीलोत्पल मजीठ,
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अष्टांगहृदय ।
म०१८
कदंब और अनन्तमूल इनको कांजीके साथ | .. अर्थ-परिलेहिका रोग में गोवर को पीसकर इनके साथ पकाया हुआ तेल तथा | गरम गरम लगाकर. कर्णपाली को स्वेदित विसर्प रोग में कहा हुआ घी अभ्यंजन में करके उसपर भेड के मूत्र में पिसे हुए हितकारी है।
वायविडंग का लेप करै । अथवा इन्द्रजौ, उन्मथ की चिकित्सा।
इंगुदी, कंजा के बीज, अमलतास की गाल उन्मथेऽभ्यंजनं तैलं गोधाकर्कवसान्वितम् तालपत्राश्वगंधार्कवाकुचीतिलसैंधवैः ४५॥
इनका लेप करे अथवा उक्त इन्द्र जी आदि सुरसालांगलीभ्यां च सिद्धं तीक्ष्णचनावनम्
| तथा नीम के पत्ते, काली मिरच और . अर्थ-उन्मथरोग में ताल पत्री, असगंध मेनफल । इनके साथ में पाक किया हुआ आक, वाकुची, तिल, सेंधा नमक इनके तेल परिलेहिका पर लगाना चाहिये। साथ में तेल को पकाकर उसमें गोधा और छिन्नकर्ण की चिकित्सा । केंकडे की चर्वी मिलाकर अभ्यंजन के
छिन्नं तु कर्ण शुद्धस्य बंधमालोच्ययौगिकम्
शुद्धानं लागयेल्लग्नेसद्यश्छि नेविशोधनम् ॥ काम में लावे | तथा तुलसी और कल्हारी
अर्थ-कानके फट जाने पर जब रुधिर से सिद्ध किये हुए तेल की तीक्ष्ण नस्य
शुद्ध हो जाय तब उस पर पट्टी बांध दैवे । हित है।
बांधने के पीछे विरेचनादि शोधन क्रिया - दुर्विद्ध में पालीसेचन ।
करनी चाहिये । दुर्विद्धेऽश्मंतजंग्वाम्पत्रक्वाथेन सेचितम् । तैलेन पाली स्वभ्यक्तांसुलक्ष्णैरवपूर्णयेत् । कर्णरोग विधान। चूणैर्मधुकमंजिष्ठाप्रपुंड्राइवनिशोद्भधैः॥ अथ प्रथित्वा केशांतं कृत्वा छेदनलेखनम् । लाक्षाविंडगसिद्धं च तैलमभ्यजने हितम्। निवेश्य सधि सुषमंन निम्नं न समुन्नतम् ॥ ___ अर्थ-कान के दुर्विद्ध होने पर अश्मंत | अभ्यज्य मधुसर्पियो पिचुप्लोतावगुंठितम् जामन के पत्ते, आमके पत्ते, इनके काढे |
सूणगादशिथिलं बद्धवा चूर्णैरवाकिरन्। से कर्णपाली को सेचन करके उस पर | शोणितस्थापनण्यमाचारं चादिशेत्ततः ।
सप्ताहादामतैलाक्तं शनैरपनयेत् पिचुम् ॥ मुलहटी, मजीठ, पुंडरिया और हलदी इनके चूर्ण से अवचूर्णित करै । तथा लाख और
____ अर्थ-प्रयोजनानुसार केशके समीपवाले वायबिडंग के साथ सिद्ध किये हुए तेल से
मागमें प्रथित करके तथा छेदन और लेखन अभ्यंजन करे।
करके संधिको न ऊंची, न नीची समान . परिलेहिका की चिकित्सा। रूपसे सन्निवेशित करे । फिर शहत और स्विन्नां गोमयः पिंडैर्वहुशः परिलेहिकाम् | घी चुपडकर रुई वा वस्त्र के टुकड़े से ढकविडंगसारैरालिंपेदुरनीमूत्रकलिकतैः।।
कर डोरे से ऐसी रीति पर बांबे, जिससे कोटजेंगुदकारंजवीजशम्याकवल्कलैः ।। अथवाभ्यंजने बैर्वा कटुतैलं विपाचयेत् । बहुत कडी वा ढीली न हो, फिर मुलहटी सनियपत्रमरिचमदनैलेंहिकात्रणे ॥५०॥ [ और गेरू आदि रुधिर को बन्द करनेवाले
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
६२३)
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द्रव्यों को बुरक कर व्रणमें हितकारी संपूर्ण सीव्ये गण्डं ततः सूच्या सेविम्या: नियमों का पालन करना चाहिये । सातदिन
पिचुयुक्तया।
| नासारछेदे च लिखितेपरिवोपरि त्वचम् पाछे कच्चा तेल लगा लगाकर धीरे धीरे रुई
| कपोलबंधं संदध्यात्सीव्येन्नासां च यत्नतः को हटादेवै ।।
नाभ्यामुक्षिपेदंतः सुखोच्छ्वासप्रवृत्तये ... कर्णवर्द्धन की रीति
| आमतैलेन सिक्त्वा तु पतंगमधुकांजनैः । सुरुढं जातरोमाणं श्लिष्टसंधिसमस्थिरम् । शोणितस्थापनैश्वान्यैः सुश्लक्ष्णैरवचूर्णयेत् सुषमागं सुरागं च शनैःकर्ण विषर्धयेत् ॥ ततोमधुघृताभ्यक्तं बद्धवा चारिकमादिशेत् ___ अर्थ-जब फटा हुआ कान अच्छी तरह शात्वावस्थांतरं कुर्यात् सद्योव्रणविधि ततः भर जाय, रोम उग आवें, छटी हुई संधि | छिद्याद्र्ढेऽधिकं मासं नासोपांते च चर्मवत् दृढ हो जाय, सुन्दर रूप और रंग हो जाय
| सीब्येत्ततश्च श्लक्ष्णं हीनं संवर्धयेत्पुनः । तब कानको धीरे धीरे बढाना चाहिये ।
अर्थ--निस युवा मनुष्य की नाक न हो .. कर्णवर्द्धक अभ्यंग। और नाक लगानी हो तो प्रथम उसको जलशूकः स्वयंगुप्ता रजन्यौ वृहतीयम् । विरेचनादि द्वारा शुद्ध करे और फिर कटी अश्वगंधावलाहस्तिपिप्पलीगौरसर्षपाः ५३ | हुई नाक के बराबर एक पत्ता ले और उस मूलं कोशातकाश्वघ्नरूपिकासप्तपर्णजम् । पत्ते के बराबर कपोल से त्वचा काटकर छुछुदरीकालमृतागृहंमधुकरीकृतम् ५७ ॥ अतूका जलजन्माच तथा शावरकन्द कम् ।
| नाक को खुरचकर उसको जोडदे और गंडप्रभिः कल्कै खरं पश्यं सतैलं माहिषं घृतम् स्थल के व्रणको तथा नासिका को जो सीने हस्त्यश्वमुत्रेण परमभ्यगार्कणेवधनम्॥ योग्य हों तो सी देवे । और श्वास के सुख
अर्थ-सिवार, केंच, दोनों हलदी, दोनों पूर्वक आने जाने के लिये इस कृत्रिम कटेरी, असगंध, खरैटी, गजपीपल, सफेद नासिका के छिद्रको ऊंचा कर देना चाहिये सरसों, तोरई, कनेर, आक और सातला की फिर कच्चा तेल लगाकर पतंग, मुलहटी और जड, अपने आप मरी हुई चकचूंदड, शहत । रसौत को पीसकर बुरकदे । फिर इसपर की मक्खी का छत्ता, पेचापक्षी, जोक और शहत और घी लगाकर परिचारक को लहसन इन सबके कल्कके साथ भैसका घी
करने योग्य कामों का उपदेश देवै । फिर और तेल, हाथी और घोडे का मूत्र इन सब
अवस्थान्तर पर दृष्टि देकर सद्योव्रणचिकिका खरपाक करके कान पर लगाने से सितोक्त विधिका अवलंबन कर, इस तरह कान बढते हैं ।
जब नाक का व्रण भर जाय और उसके नासासंधान ।
इधर उधर मांस अधिक हो, उसको फिर अथफुयाद्वयस्थस्य छिन्नांशुद्धस्य नासिकाम् सीमे और जो कम हो तो बढाये। छिद्यान्नासासमं पत्र तत्तल्यंच कपालतः।। त्वङमांसं नासिकासन्ने रक्षस्तत्तनुता
छिन्नोष्ठ में कर्तव्य । नयेत् ।। ६० ॥ निवेशिते यथान्यासं सधश्छेदेऽप्ययं विधिः
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(२४)
अष्टांगहृदयं ।
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नाडीयोगदिनोष्ठस्य मालासंधानवाद्विधिः। घ्राणोपरोधनिस्तोदईतशंबशिरोव्यथाः ।
अर्थ-जो नासिका हाल ही में कटी हो । कीटका इव सर्पति मन्यते परितो भ्रवौ। तो भी उक्त रीति से चिकित्सा करनी | स्वरसादश्विरास्पाकःशिशिराच्छकफनुतिः चाहिये । और कटे हुए भोष्ठ में यदि नाडी ___ अर्थ-वातनप्रतिश्याय ( जुकाम ) में का योग न हो तो नासिका के समान मुखशोष, छीकों की अधिकता, कान में चिकित्सा करनी चाहिये ।
रुकावट,निस्तोद,दांत कनपटी और मस्तक इतिश्री मठांगहृदयसहितायां भाषाटी में वेदना. दोनों भकाटियों के चारों ओर
कान्वितायां उत्तरस्थाने कर्णरोग । चींटियों कासा रेंगना, स्वर में शिथिलता, ' प्रतिषधोनामाष्टमोऽध्याय:। चिरकाल में पाक तथा ठंडे और पतले कफका
झडना । ये लक्षण उपस्थित होते हैं । एकोनविंशोऽध्यायः । | पित्तज प्रतिश्याय के लक्षण।
पित्तात्तष्णाज्वरघ्राणपिटिकासंभषभ्रमाः । अथाऽतो नासारोगविज्ञानयिं व्याख्यास्यामः नासाग्रपाको रूक्षोष्णस्ताम्रपीतकफनतिः
अर्थ-अब हम यहां से नासिका रोग अर्थ-पित्तजप्रातश्याय में तृषा, ज्वर, विज्ञानीय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। नासिका में फुसियों की उत्पत्ति, भ्रम,
दोषों को प्रतिश्यायजनकत्व। नासिका के अप्रभाग में पकाव, तथा सूखे " अवश्यायानिलरजोभायातिस्वप्नजागरैः। गरम, तांवे और पीले रंग के कफका निकनीवात्युच्चोपधानेन पीतेनान्येन वारिणा । लना ये लक्षण उपस्थित होते हैं । अत्यंबुपानरमणच्छर्दिबाष्पग्रहादिभिः।।
कफन मतिश्याय के लक्षण । रुद्धावातोलपणादोषानासायांस्त्यानतांगताः कफाकासोऽरुचिःश्वासोवमथुर्गात्रगौरवम् अनयंति प्रतिश्यायं वर्धमान क्षयप्रदम् ।
अम्। माधुर्य बदने कंः स्निग्धशुक्लघमा मुतिः । अर्थ-ठंड, वायु धूलि, अत्यन्त भाषण, अतिनिद्रा,अतिजागरण,अति नीचा वा अति
अर्थ-कफजप्रतिश्याय में खांसी,अरुचि, ऊंचा तकिया लगाना, अन्यस्थान का
श्वास, वमन,देहमें भारापन, मुख में मौठाजलपान, अति जलपान, जलकलि, वमन
पन तथा खुजली और चिकने सफेद और और वाष्पके वेगको रोकना, इन सब कार
कफका निकलना । ये लक्षण उपस्थित होते हैं णों से वाताधिक्य दोष नासिका में रुककर
त्रिदोषज पतिश्याग ।
सर्वजो लक्षणैःसर्वैरकस्माद्वृद्धिशांतिमान् ॥ गाढे हो जाते हैं और इससे प्रतिश्याय की
___ अर्थ-त्रिदोषज प्रतिश्याय में वातादि उत्पत्ति हो जाती हैं । और प्रतिश्याय के
तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं । यह बढने से क्षयी पैदा होजाती है।
वातज अतिश्यायके लक्षण । . अकस्मात् बढभी जाता है और घट भा तन यातात्प्रतिश्याये मुखशोषो भृशं क्षयः । | जाता है ।
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अ० १९
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उत्तरस्थान भाषाटीका समेत ।
दूषित रक्त से प्रतिश्याय ।
दुष्टं नासा सिराः प्राप्य प्रतिश्यायं करोत्यसृक्क उरसः सुतता ताम्रनेत्रत्वं श्वासपूतिता ॥ कंङ्कः श्रोत्रामा सासु पित्तोक्तं चात्र
लक्षणम् । अर्थ - दूषितरक्त नासिका के सिर समूहों में प्राप्त होकर प्रतिश्याय उत्पन्न कर देता है। इस रक्तजप्रतिश्याय से वक्षःस्थल में सुप्तता, नेत्रों में तांबेका सा रंग, श्वास में दुर्गाधि, आंख कान और नाक में खुजली, ये सब लक्षण तथा पित्तजप्रतिश्याय के संपूर्ण लक्षण उपस्थित होते हैं ।
दुष्ट प्रतिश्याय के लक्षण | सर्व एव प्रतिश्याया दुष्टतां यांत्युपेक्षिताः ॥ यथोक्तोपद्रवाधिक्यात्स सर्वेन्द्रियतापनः। साग्निखादज्वरश्वासकासोरः पाश्र्ववेदनः ॥ कुष्यत्यकस्माद्बहुशो मुखदौर्गध्य शोफकृत् । नासिकाक्लेदसंशोषशुद्धिरोधकरो मुहुः ॥ पूयोपमा सिता रक्तप्रथिता श्लेष्मसंस्खतिः । मूर्च्छति चात्र कृमयो दीर्घस्निग्धसिताँण बः ॥
अर्थ- सब प्रकार के प्रतिश्याय चिकिसा में उपेक्षा होने से दुष्टता को प्राप्त हो जाते हैं । यह दुष्ट प्रतिश्याय पहिले कहे हुए मुखशोषादि उपद्रवों की अधिकता के कारण संपूर्ण इन्द्रियों में संताप, अग्निमें शिथिलता, ज्वर, श्वास, खांसी, वक्ष:स्थल और पसवाडे में वेदना, सहसा बार बार व्याधि का प्रकोप, मुखमें दुर्गन्धि सूजन कभी नासिका में गीलापन, कभी सूखापन, कभी शुद्धि, कभी रुकावट, तथा राधके समान काले रंग वाली रुधिर की गांठों से युक्त कफका स्राव | ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । इस दुष्ट प्रतिश्याय में लंबे, चिकने, सफेद १०५
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( ८२५ )
रंगके बहुत पतले पतले कीडे पैदा हो जाते हैं ।
प्रतिश्याय के लक्षण |
पक्कलिंगानि तेष्वंगलाघवं क्षषथोः शमः । मा सचिक्कणः पीतो ज्ञानं च रसगंधयोः। अर्थ --अंग में हलकापन, छींकों की शांति, चिकना और पीला कफ, रस और गंधका
प्रतिश्याय के पकने के लक्षण जाने जाते हैं । यथावत् ज्ञान । इन बातों के पैदा होने से
भृशंव के लक्षण | तक्ष्णिघ्राणोपयोगार्क रश्मिसूत्र तृणादिभिः । वातको पिभिरन्यैर्वा नासिकातरुणास्थिनि ॥ विघट्टितेऽनिलः क्रुद्धो रुखः शृंगाटकंब्रजेत् । निवृत्तः कुरुतेऽत्यर्थे क्षवथुं स भृशं -
क्षवः ॥ १५ ॥ अर्थ - मरिचादि तीक्ष्ण द्रव्यों के उपयोग से, सूर्य की किरणों से, डोरे वा तिनुके से अथवा बातको प्रकुपित करनेवाली अन्य क्रियाओं से नासिका की तरुण अस्थि विधात होजावे, और वायु कुपित होकर और रुककर शृंगाटक मर्म में पहुँच कर अत्यन्त छोंक पैदा करदेती है, इसे रोग कहते हैं ।
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في
नासिकाशांष के लक्षण | शोषयनासिकास्त्रोतः कफं च कुरुतेऽनिलः । शुकपूर्णाभना सात्यं कृच्छ्रादुच्छ्वसनं ततः । स्मृतोऽसौ नासिकाशोषी
अर्थ - वायु नासिका के छिद्र और कफ को सुखाकर नासाशोष नामक रोगको पैदा' करदेती है, इस रोगमें नासिका काट से भरी हुईसी प्रतीत होने लगती है, और श्वास भी बड़ी कठिनता से लियाजाता है ।
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अष्टांगहृदय ।।.
पकाया हुआ और गाढा गाढा नासिका _____नांसानाहे तु जायते । | का मल निरंतर निकलता रहता है। भवत्वामिष नासायाः श्लेष्मरुद्धेन वायुना ॥ दीप्ति के लक्षण । निःश्वासोश्वाससरोधात्स्रोतसीसंवृतेश्व रक्तेन मासादग्धन बाह्यांतः स्पर्शनासहा ।
. अर्थ-नासानाह रोग में नासिका में भवेद्धमोपमात्श्वासा सा दीप्तिदहतीव च भारापन होता है और कफके रुके हुए वायु अर्थ-नासिका में रक्त विदग्ध होकर द्वारा श्वास लिया जाता है और नासिकाके | नासिका के भीतर और बाहर अत्यन्त दोनों छिद्र श्वासके अवरोध से रुके हुएसे वेदना उत्पन्न कर देता है । निश्वास धुंए होजाते हैं।
के सदृश निकलता है और नासिका में घ्राणपाक । पचेनासापुटे पित्तं त्यमांस दाहशूलवत् ॥
जलन पैदा होजाती है। यह रोग दीप्ति
संज्ञक है। सघ्राणपाक: __ अर्थ-वाणपाकरोग में पित्त नासिका- पूतिनासा के लक्षण । पुट के त्वचा और मांस को पकाकर दाह
| तालुमूले मलैर्दुष्टैमारुतो मुखनासिकात् । और शूल पैदा कर देता है।
श्लेष्मा च पूतिर्निगच्छेत्पूतिनासंयदतितम्
___ अर्थ-ताल की जड में दोषों के दृषित . घ्राणस्राव रोग ।
होने से मुख और नासिका के द्वारा दुगंधित . सावस्तु तत्संज्ञः श्लप्मसंभवः।
कफ और वायु निकलने लगता है । इसी अच्छो नळोपमोऽजनं विशेषानिशि जायते | - अर्थ--घ्राणस्राव रोग केवल कफसे
को पूतिनासा रोग कहते हैं ।
पूयरक्त के लक्षण । उत्पन्न होता है । इसमें सदाही और विशेष
निययादभिधाताद्वापूयासृङ्नासिकानवेत् करके रात्रि में मल के समान स्वच्छ स्राव | तत्पयरक्तमाख्यातं सिरोदाहरुजाकरम् २४ निरंतर होता रहता है।
अर्थ-त्रिदोष के प्रकोप से अथवा चोट अपीनस रोग का लक्षण । लगने से नासिका से राध और रुधिर कफामवृद्धोनासायांरुध्या स्रोतांस्यपीनसम् निकलने लगता है। इसे पृयरक्त रोगकहते कुर्यात्सघुघुरं श्वासं पीमसाधिकवेदनम् ॥
। हैं। इससे मस्तक में दाह और वेदना होने अवेरिव स्रवत्यस्य प्रक्लिन्ना तेन नासिका। अजनं पिच्छलं पीतं पक्कं सिंघाणकं घनम् । लगता है। __ अर्थ-कफ बढकर नासिका के संपूर्ण
पुटक लक्षण। स्रोतों को रोककर घुर्युर श्वासयुक्त और
पित्तश्लेष्मावरुद्धोऽतर्नासायांशोषयेम्मरुत्
कर्फ सशुष्कपुटतां प्राप्नोति पुटकं तु तत् । पीनस से अधिक एक प्रकार का रोग उत्पन्न
___ अर्थ-वायु पित्त और कफसे रुक कर कर देता है, जिसे भपीनस कहते हैं। नासिका के भीतर कफको सुखा देती है । इसमें रोगी की नासिका भेड को नाक की
इससे वह कफ शुष्क पुटता को प्राप्त हो तरह झरती रहती है । तथा पिच्छिल,पीला | जाताहै । इसे पुटक रोग कहते हैं।
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भ. २०
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्थोऽर्बुद के लक्षण | | यवगोधूमभूयिष्ठं दधिदाडिमसाधितम् ३. अशोर्बदानि विभजेहोषलिंगैर्यथायथम्। बालमूलकजो यूषःकुलत्थोत्थश्च पूजितः । . अर्थ-दोषों के लक्षणों के अनुसार अर्श योष्णं दशमूलांबुजार्णी वा वारुणींपिवेत्
जिघ्रश्चोरकतर्कारीवचाजाज्युपकुंचिकाः। अर्बुद की पहचान होती है।
___ अर्थ-सब प्रकार के पीनस रोगों में उक्तरोगों के उपद्रव ।
वायुरहित स्थान में बैठना चाहिये । स्नेहन सर्वेषु कृच्छ्रानश्वसनं पीनसः प्रततं क्षवः सानुनासिकवादित्वं पूतिनासाशिरोश्यथा।
स्वेदन, वमन, धूमपान, गंडूषधारण, भारी __ अर्थ-सब प्रकार के नासार्श और ना.
और गरमी रेशमी वा ऊनी वस्त्र पहनना, सार्बुद रोगों में श्वास बडे कष्ट से आता
सिर पर बडा कपडा लपेटना, हलका खट्टा जाता है । पीनस, लगातार छींक बोलने नमकीन स्निग्ध उष्ण और गाढा भोजन में गिनागनाहट, पूतिनासा और शिरोवेदना
करना, जांगलमांस, गुड, दूध, चना, ये लक्षण उपस्थित होते हैं।
त्रिकुटा, जौ, गेंहू, दही, अनार, कच्चीमूली दुष्टपीनस को यापनत्व। . का यूष, कुलथी का यूष, दसमल का गुन. अष्टादशानामित्येषां यापयेदुष्टपीनसम् २७ गुना काढा, और पुराना मद्य । ये सब __अर्थ-उपर कहे हुए अठारह प्रकार के | खाने पीने में हितकारी हैं । चोरक,तोग पीनस रोगों में दुष्ट पीनस याप्य होता है। वच, दोनों प्रकार का जीरा इनको सूचना इतिश्री अष्टांगहृदय संहितायां भाषा- ! चाहिये । टीकान्वितायाः उत्तरस्थाने नासा- पीनसादिनाशक औषध ।। रोग विज्ञानीयो नामैकोन व्योषतालीस वविकातित्तिडीकाम्लवैतसम् विंशोऽध्यायः ॥१९॥
सान्यजाजीद्वपालकात्वगेलापनपादिकम् जीर्णागडात्तलार्धन पक्केन घटकांकृतम् ६.
पानसश्वासकासघ्नं रुचिस्वरकरं परम् । विंशोऽध्यायः ..... अर्थ-त्रिकुटा, तालीसपत्र, नव्य,इमलीं -0-00
अम्लवत, चीता और जीरा प्रत्येक दो पल नयाsतो नासारोगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः |
दालचीनी, इलायची और तेजपात प्रत्येक - अर्थ-अब हम यहां से नासाराग प्रति- दो तोले । इन सव द्रव्यों को २०० तोलें षेधनामक अध्याय की ब्याख्या करेंगे।
पुराने गुह में पकाकर गोलियां बगालेवे । पनिस में स्नेहनादि।
इनके सेवन से पीनस, श्वास और खांसी "सर्वेषु पीनसेवादी निवातागारगो भवेत् जाते रहते हैं। तथा रुचि और स्वर ठीक नेहनस्वेरवमनधूमगदूषधारणम् ॥१॥ वासोगुरूष्णं शिरसा सुघनं परिवेष्टनम् ।
| होजाते हैं। लध्वम्कलवणं निधमुष्णं भोजनमद्रवम् । - धूमपान विधि। 'धन्वांसगुडक्षीरवणकत्रिकटूस्करम् । शताहात्वग्पलामूलं स्मोनाकैरंडविध्वजम
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(४२४)
अष्टांगहृदय ।
अ.२०
मारग्वधं पिवेमं वखाज्यमदनाऽन्धितम् । मस्पकर्म का प्रयोग । अथवा सघृतासक्तकृत्वा मल्लकसंपुटे ८ | धवत्वकृत्रिफलाश्यामाश्रीपर्णीयष्टिबिल्वकैः - अर्थ-सोंफ, दालचीनी, खरैटी की जड क्षीरे दशगुणे तैलं नाघनं समिशः पचेत् । श्योनाक, अरंड और अमलतास की जड, ___ अर्थ--धायकी छाल, त्रिफला, श्यामाइन सब द्रव्यों में चर्वी, घी और मेनफल | लता, खंभारी, मुलहटी, विल्व और हल्दी मिलाकर धूमपान करे । अथवा घृतप्लुत इनके कल्क के साथ दस गुने दूधमें तेल सत्तू को मल्लकसंपुट में दग्ध करके धूम- पकाकर नस्य द्वारा प्रयोग करना चाहिये । पान करे।
कफजपतिश्याय में उपाय । स्नानादि निषेध । कफजे लंघनं लेपः शिरसो गौरसर्षपैः । त्यजेत्यानं शुचं क्रोधंभृशंशय्या हिमंजलम् |
सक्षारं पा घृतं पीत्वा वमेत् पिष्टस्तु.
नावनम् ॥ १३ ॥ . अर्थ-पीनसादि रोग में स्नान, शोक,
पस्तांबुना पटुव्योषवेल्लवत्सकजीरकैः।। कोध, निरंतर शयन और ठंडा जल त्याग
____अर्थ-कफजप्रतिश्याय में लंघन,सिरपर देना चाहिये।
सफेद सरसों का लेप, जवाखारमिश्रित घृतवातज प्रतिश्याय में कर्तव्य । पियेद्वासप्रतिश्याये सर्पितिध्नसाधितम् ।
पान करके वमन करना, तथा सेंधानमक, पटुपंचकसिद्धं वा विदार्यादिगणेन था।
त्रिकुटा, बायबिडंग और इन्द्रजी । इन सबं स्वेदनस्यादिकां फुर्यात् चिकित्सामर्दितो- द्रव्यों को बकरी के मूत्रमें पीसकर नस्य का
'दिताम् ॥ १०॥ प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-पातिक प्रतिश्याय में रास्नादि | सानिपातिक प्रतिश्याय । यातनाशक औषधों के साथ अथवा सैंधवादि । कटुतीक्ष्णैर्वृतैर्नस्यः कवलैः सर्वजं जयेत् ॥ पांचों नमक के साथ अथवा विदार्यादिगण । अर्थ-सान्निपातिक प्रतिश्याय में कटु के साथ घी को पकाकर इस घतको पीवै। और तीक्ष्ण घृत का नस्य तथा कबल प्रयोग इसमें अदित चिकित्सा में कहा हुआ स्वेद
करना चाहिये । . और नस्य देना चाहिये।
दुष्टपीनस की चिकित्सा। . पित्तरक्तज प्रतिश्याय ।
यक्ष्ममिक्रम फुर्वन् पाययेदुटपीनसे। पितरक्तोत्थयोः पेयं सर्पिमधुरकैः शृतम् ।
___ अर्थ-दुष्ट पानसरोग में यक्ष्मानाशक परिकाम्प्रदेहांश्च शीतैः कुर्वीत शीतलान् |
HT और कृमिनाशक चिकित्सा करना चाहिये । - अर्थ-पित्त और रक्त से उत्पन्न हुए मासिकाद्वारा धूमपान ।
माणोक्त द्रव्यों के साथ | ब्योपोग्बूककृमिजिदू दारुमाद्रीगर्दै गुवम् ॥ घृत को पकाकर उस घृत को पान करावे | वार्ताकबीजं त्रिवृता सिद्धार्थः पूतिमत्स्थका
| अग्निमंथस्य पुष्पाणि पीलुशिग्रुफलानि च ॥ तथा शीतवीर्य द्रव्यों का शीतल शीतल | अश्वविडरससूत्राम्या हस्तिमूत्रेण कतः। परिषेक और प्रलेप काम में लाना चाहिये । क्षीमगंभी कृतां वर्ति धूमं घ्राणास्यतः पिवेत्
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म. २०
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
(८२)
____अर्थ-त्रिकुटा, भरंड, वायविडंग, देव- । पित्तनाशक तीक्ष्ण नस्यादि का प्रयोग करना दारू, अतांस, कठ, गोंदी,वेगन का बीज, | चाहिये । निसोथ, सफेद सरसों, सडी मछली, अरनी पूतिनासा का उपाय । के फूल, पीलू, सहजने के फल, इन सब | कफपीनसवत्पूतिनासापीनसयोः क्रिया। द्रव्यों को इकट्ठा करके घोडे की लीदके अर्थ-पूति नासा और पूतिपीनस रोग रसमें घोडे और हाथी के सूत्रों में पीसकर |
में कफपीनस की तरह चिकित्सा करना उसको रेशमी वस्त्र पर लीपकर बत्ती बनावै।
| उचित है। इस बत्तीके Vएको मुख और नासिका द्वारा
वमन प्रयोग।
लाक्षाकरंजमरिचवेल्लहिंगुकणागुहैः॥ पान करे ।
अविमूत्रद्रुतैनस्य कारयेद्वमने कृने। . पुटपाक का उपाय ।
___ अर्थ-लाख, कंजा, कालीमिरच, वाय. क्षवथौ पुटपाकाख्ये तणैः प्रधमनं हितम विडंग, हींग, पीपल और गुड इन सब अर्थ-पुटपाकनामक क्षवथुरोगमें तीक्ष्ण
द्रव्यों को भेडके मूत्रमें सानकर इसके द्वारा द्रव्यों का प्रधमन करना चाहिये ।
वमन कराके नस्य देव । क्षवपुटनाशक प्रयोग।
. अन्य प्रयोग। शुठी कुष्कणावेल्लद्राक्षाकल्ककपायवत। साधितं तेलमाज्य या नस्यं क्षयपुरप्रणुत् ।
शिप्रार्सिहीनिकुंभानां बीजैः सव्योषसैंधवैः। __ अर्थ-सोंठ, कूठ, पीपल, बायबिडंग,
| सवेलसुरसस्तैलं नावनं परमं हितम् । और दाखं इनके कल्क और काढे के द्वारा
। अर्थ-सहंजना, कटेरी, दंती की जड, घी और तेलको पकाकर नस्य देनेसे क्षवथु
त्रिकुटा, सेंधानमक, वायविडंग और तुलसी पुटपाकरोग जाता रहता है।
इनके साथ तेल पकाकर इस तेल का नस्य
द्वारा प्रयोग करने से पतिनासा और पतिनासाशोष का उपाय । नासाशोषे बलातलं पानादौ भोजनं रसैः॥ पानसराग नष्ट हाजात है।
पीनसरोग नष्ट होजाते हैं। निग्धोधूमस्तथास्पदानासानाहेऽप्यविधिः नवीन पूपरक्त का उपाय .. अर्थ-नासाशोषरोग में पान और नस्या- | पूयरत नवे कुर्याद ररुपानसपक्रियाम्।
| अतिप्रवृद्ध माडीवर दि में बलातेल हितकारी है । इसमें मांसरस |
अर्थ- नवीन पूयरक्तरोग में रक्तज पी. के साथ भोजन, स्निग्ध धूमपान, और
नपान, भार नस के समान चिकित्सा करनी चाहिये । स्वेद हितकारी है । नासानाहरोग में भी |
तथा अत्यन्त बढजाने पर नाडीव्रण के स. ऐसी ही चिकित्सा करना चाहिये ।
मान चिकित्सा करना उचित है। . नासापाकादि का उपाय ।
| अर्होर्बुद चिकित्सा । पाके दीप्तौ चपिच तीक्ष्णं नस्यादिसस्तो
दग्धेष्योर्भुदेषुधा अर्थ-नासापाक भोरं चासादीप्तरोग में निकुंभकुंभासपूरथमनाहाकवणानि ।
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एकविंशोऽध्यायः ।
-:@:0
( ८३० )
अष्टांगहृदय ।.
कल्कितैर्वृतमध्यातां घ्राणे वर्ति प्रवेशयेत् । । ले के कफाधिक्वाले कुपित हुए दोष मुख शिम्मवादिनावनं चात्र पूर्तिना सोऽपि तंभजेत् के भीतर रोगों को पैदा करदेते हैं ?
अर्थ - नासारी और नासार्वुद को दग्ध करके निसोध, दंती, सेंधानमक, मनसिल, हरताल, पीपल, और चीता इन सब द्रव्यों के कल्क द्वारा बनाई हुई वत्ती को घी में भिगोकर नासिका के छिद्र में प्रवेश कर दे, इसमें पूतिनासा में कही हुई शिग्रु आदिकी नस्यका प्रयोग करना चाहिये । इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां नासारोगप्रतिषेधोनाम
विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
अथाऽतो मुखरोगविज्ञानं व्याख्यास्यामः । अर्थ- - अब हम यहां से मुखरोग विज्ञा नीय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
मुखरोग का हेतु | मत्स्यमाहिषवाराहपिशिताम कमूलकम् । माषसूपदाधिक्षीरसुक्तेक्षुरसफाणितम् ॥ वाकू शय्या च भजतो द्विषतो दंतधावनम् धूमच्छदम गंडूषानुचितच सिराव्यधम् ॥ कुखाः श्लेष्मोल्वणा दोषाः कुर्वेत्यतर्मुखेगदान् । अर्थ-मछली, भैंस का मांस, शूकरका मांस, फच्ची मूली, उरद की दाल, दही, दूध, कांजी, ईखका रस, फाणित, नीचे सिरहाने की शय्या, दंतधावन का त्याग, धूमपान बमन गंडूष का त्याग करना, सिरा ब्यधका त्याग | इन सब कामों के करनेवा
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अ० २१
वौष्ठ के लक्षण |
सत्र खंडौष्ठ इत्युक्तो वानोष्टो द्विधा कृतः ॥ अर्थ- वायुके द्वारा ओष्ठके दो भाग हो जाते हैं, इसे खंडौष्ठरोग कहते हैं । ओष्ठकी स्तब्धता । ओष्ठकोपे तु पचनात् स्तब्धावोष्टी महाराजौ दाल्येते परिपाटयते एरुवास्थितकर्कशौ ॥
अर्थ- वातजनित ओष्ठ प्रकोपमें दोनों ओष्ठ स्तब्ध, महावेदनान्वित, दलने और फटने की सी पीडा से युक्त, खरदरे, काले और कर्कश हो जाते हैं ।
पित्तदूषित ओह | पित्तात्तीक्ष्णासह पीतौ सर्षपाकृतिभिचित पिटिकाभिर्महादावाशु पाकी
अर्थ-पित्तजनित ओष्ठप्रकोप में दोनों ओष्ठ तीक्ष्ण द्रव्यको सहने में अशक्त हो जाते हैं। पीले रंग की सरसों के आकार वाली फुंसियों से व्याप्त हो जाते हैं, तथा महाक्लेदयुक्त और शीघ्रपाकी हो जाते हैं । कफदूषित ओष्ठ |
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कफात्पुनः ॥ ५ ॥
शीतासही गुरु शूनी सवर्णीपिटिकाचिती । अर्थ - कफजनित ओष्ठप्रकोप में दोनों ओष्ठ शीतलता को नहीं सहसकते हैं, भारी, पिटकाओं से व्याप्त हो जाते हैं । फूली हुई तथा त्वचा के समान वर्णवाली
सनिपातदूषित ओष्ठ | सन्निपातादने काभौ दुर्गधास्राव पिच्छिलो ॥ अकस्मान्मलान संशून रुज विषमपाकिनौं । अर्थ- सन्निपात द्वारा उत्पन्न हुए भोष्ठ
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म. २१
उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत ।
( ८३१)
प्रकोपमें दोनों ओष्ठ अनेक वर्णकी फुसियों । गंडालजी के लक्षण । से व्याप्त, दुर्गेधित स्रावयुक्त और पिच्छिल, | गंडालजी स्थिर-शोफो गंडे दाहस्वराम्वितः अकस्मात म्लान, अकस्मात् स्फीत, अक- अर्थ-डिस्थल में जो दांह और ज्वर स्मात् वेदनान्वित और विषमपाकी होते हैं। से युक्त स्थिर सूजन पैदा होती है, उसे __ रक्कोपसृष्ठ ओष्ठके लक्षण । | गंडालजी कहते हैं। ये ग्यारह प्रकार के रक्तोपसौ रुधिरं नवतः शोणितप्रभो ७ ओष्ठरोग कहे गये हैं | अब दांत के रोगों खर्जरसदृशं चाऽत्र क्षीणे रक्तेऽर्बुदं भवेत्।। का वर्णन करते हैं ॥ - अर्थ -रक्तद्वारा उपसृष्ट दोष रक्तस्त्रावी
शीतरोग । और रुधिर के समान होता है । रक्तके क्षीण ! वातादुष्णसहा दंताःशीतस्पर्शाधिकव्यथाः होने पर ओष्ठौ खिजूर के समान अर्बुद दाल्यत इव शूलेन शीताख्यो दालनश्च सः पैदा हो जाता है।
अर्थ -वायुके प्रकोपसे दांत उष्णता को मांसोपसृष्ट ओष्ठके लक्षण । सह सकते हैं । ठंडी वस्तु के स्पर्श से उनमें मांसपिरोपमौमांसात्स्यातांमूर्छत्कृमीक्रमात् अधिक पीडा हुआ करती है । शूल के कारण - अर्थ-मांससे दुषित ओष्ठ मांसपिंड के | दांत दले हुए से हो जाते हैं। इसरोग को. सेमान हो जाता है। इनमें धीरे धीरे कीडे | शीतदंत वा दालन कहते हैं । पैदा होजाते है।
दंतहर्ष के लक्षण । मेदोदुष्ट ओष्ठके लक्षण । दंतहर्षे प्रवासाम्लशीतभक्ष्याक्षमा द्विजाः । तैलाभश्वयथुक्लेची सकंडूवी मेदसामृदू । भवत्यम्लाशनेनैव सरुजाश्चलिता इव । . अर्थ-मेदासे दूषित ओष्ठ तेलके सदृश | अर्थ--दंतहर्षरोग में दांत प्रचंडवायु, सूजन और लेद से युक्त होते हैं, इनमें | खटाई और शीतल पदार्थों का खाना नहीं खुजली चलती है, और मृदुता होती है। मह सकते हैं । खटाई खाने से दांतों में वे. क्षतज ओण्ठके लक्षण ।
दना और चलितता होजाती है ॥ क्षतजावषीर्येते पाटयेते चासकृत्पुनः ९ प्रथितौ च पुनः स्यानां कंडूलो दशनच्छदौ
दंतभेदके लक्षण । ___अर्थ-क्षतज ओष्टप्रकोपमें दोनों ओष्ठ
| दंतभेदे द्विजास्तोदभेदरुकम्फुटनान्विताः । मथित, खुजलीयुक्त, तथा निरंतर विदीर्ण
___अर्थ--दंत भेद रोगमें दांतों में तोद, भेद, और फटने की सी वेदना से युक्त होते है। वेदना और फटनेकी सी पीडा हुआ करती है ओष्ठमें जलावुद ।
. चालाख्यरोग । जलबुद्दवद्वातकफादोष्ठे जलार्बुदम् १० चालचलद्भिर्दशनैर्भक्षणाइधिकव्यथैः। . अर्थ-बात और कफके प्रयोग से पोष्ट | अर्थ -दांतोंको चलाने और उनसे किसी में चुदवुद के समान अर्बुद उपल्न होता है। वस्तु के चबाने में अधिक वेदना हुआ करती उसे जलावुद कहते है।
है, इसको चाल रोग कहते हैं ।
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. (
१२)
अष्टांगहृदय ।
अ० २१
करालरोग ।
पलूनका लक्षण । कराला सुकरामानां दशनानां समुद्भवः । समूळ दंतमाश्रित्य दोषैरुल्वणमारतः।
अर्थ-जिस रोगमें दांतों की विकट शोषिते मन्क्षि सुषिरे दंतेऽनमकपूरिते ॥ सरस होजाती है । उसे कराल रोग कहते हैं। |
का पूतित्वात्कृमय सूक्ष्मा मायते जायते ततः।
भहेतुतीघ्रातिशमाससंरभो सितश्चलः ॥ अघिदंत के लक्षण ।
प्रभूतपूयरक्तस्तु स बोकाकृमिदंतकः । दंताधिकोऽधिदंताख्यास चोक्तखलुवर्धनः
अर्थ-याताधिक्य संपूर्ण दोष दांतोंकी. जायते जायमानेऽतिरुग् जाते तत्रशाम्यति
जड समेत आश्रयलेकर दांतों की मज्जा को. अर्थ-जिस रोगमें दांतके ऊपर दांत
शोषित करदेता है और दांतों में छिद्र करके निकल आता है, उसे अधिदंत रोग कहते उनको अन्नके मल से भरदेते हैं । उस है।इसका दूसरानाम वर्द्धन भी है, इस दांतके अन्नके मलके सड़ने पर छोटे छोटे कीडे पैदा होने के समय बडा कष्ट हुआ करता पैदा होजाते हैं । इस रोगमें दांत सचल, है। पैदा होने के पीछे वेदना शांत होजाती है। काले और सूजन से युक्त होजाते हैं । इस
पनि रोगका लक्षण में बिनाकारण ही कभी वेदना होने लगती. अधावनान्मलो दंते कफोघा वातशोषितः
है और कभी मिट जाती है । इसमें राध पूतिगंधः स्थिरीभूतःशर्करासोऽप्युपेक्षितः |
| लोह अधिकता से निकलता है । इसरोग ___ अर्थ--दंतधावन न करने से दांतों का
को कृमिदत भी कहते हैं ये दस प्रकार के
दंतरोग हैं। मैल वा कफ वायुद्वारा शोषित होकर पूति
शीताद के लक्षण । गंधयुक्त और स्थिर होजाता है। इसकी ठीक श्लष्मरक्तेन पूतीनि वहंत्यनमहेतुकम् ॥ समय पर चिकित्सा न किये जाने से यह
शीर्यते दंतमांसामि मृदाक्लिन्नासितानि च ।
शीतादोऽसौ शर्करारोग में बदल जाता है ।
___ अर्थ -दूषितहुए कफ और रक्तद्वारा दांतों कपालिका के लक्षण । का मांस दुर्गंधित, रक्तस्त्रावी, अकारण, शांतयत्यणुशो दंताकपालानि कपालिका। | वेदनायुक्त, शीर्ण, मृदु, क्लिन, और काला ___ अर्थ-जिस रागमें दांतों से छोटे छोटे होजाता है। इसे शीतादरोग कहते हैं। टुकड़े झड पड़ते हैं, उसे कपालिकारोग उपकुश के लक्षण । कहते हैं।
उपकुशः पाकः पित्तासगुद्भवः ।
दंतमांसानि दह्यते रक्तान्युत्सेधवत्यतः। श्याव के लक्षण । कंडूमति नबत्यसमाध्मायतेऽसजि स्थित ॥
चला मंदरुजो दंताः पूतिषकं च जायते। श्यावाश्यावत्वमायातारक्तपित्तानिलैर्द्विजाः।
___ अर्थ- दूषित रक्तपित्त के कारण दंतमास अर्थ-रक्तपित्त और वायुके कारण संपूर्ण
| पकजाता है, इसको उपकुशरोग कहते हैं । दांत काले रंगके होजाते हैं । इस रोगको उपकुशरोग में दंतमास दाहयुक्त छाल रंगका, श्यावदंत कहते हैं।
| सूजन और खुजलीसे युक्त तथा रक्तस्त्रावी होता
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उत्तरस्थान भाषाका समेत ।
अ० २१
है | रुधिरका निकलना बन्द होने पर फूल जाता है । इस रोग में दांत चल और मंवेदना से युक्त तथा मुखदुर्गंधित हो
जाता है ।
( ८३३ )
महा सुषिररोग | स सन्निपातज्वरबान् सपूयरुधिरस्रुतिः । महासुरिर इत्युक्तो विशीर्णद्विजबंधनः ।
दंतपुपुट के लक्षण । दंतयोस्त्रिषु वा शोफो बारास्थिनिभो घनः ॥ कफास्नात्तीव्ररुक् शीघ्र पच्यते दंतपुष्पुटः ।
अर्थ- दांतों की जड में एक सूजन होती है जिसमें सन्निपातज ज्वर होता है। और इस सूजन में से राध और लोहू निकलता रहता है इससे दांतों के बंधन ढीले पडजाते हैं, इसे महासुषिररोग कहते हैं । अधिमसिक रोग |
|
अर्थ -दो अथवा तीन दोषों में बेरकी गुठली के समान गाढा शोफ होजाता है । तथा कफ और रक्त के कारण इनमें तीव्र बेदना होने लगती है, इसमें पकाव बहुत शीघ्र होजाता है । इसरोग का नाम दंतपुपुट है ।
दंतांते कीलवच्छोको हनुकर्ण रुजाकरः ॥ प्रतिहत्यभ्यवहृर्ति श्लेष्मणा सोऽधिमांसकः
विद्रधि के लक्षण ।
दतमांसे मलैः सातिः श्वयथुर्गुरुः ॥ सदाहः स्त्रवेद्भिन्नः पूयासं दंतविद्रधिः ।
अर्थ- दांतों के मांसमें भीतर और बाहिर की ओर वातादि तीनों दोष और रक्तके कुपित होने से दाह और बेदना से युक्त भारी सूजन पैदा होजाती है और इस सूनन के फटने पर राव और लोहू निकछने लगता है । इसरोग को दंतविद्रधि कहते हैं ।
'सुषिर के लक्षण | श्वयथुर्दतमूलेषु रुजावान् पित्तरक्तजः । कालास्रावी स सुषिरो दंतमांसप्रशातनः । अर्थ - पित्तरक्त के प्रकोप के कारण दांतों की जड़ में वेदना से युक्त और लार टपकाने वाली सूजन पैदा होजाती है । इस रोग में दांतों का मांस झड पडता है । इसको सुषिर रोग कहते है ।
१०५
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अर्थ - जिस रोग में दांतों के अंत में कील के समान सूजन पैदा होजाती है। और जिसके कारण ठोंडी और काम में दर्द होने लगता है । इसमें भोजन करना भी कठिन होजाता है । यह रोग कफ से उत्पन्न होता है और अधिमासज कहलाता है । विदर्भ के लक्षण |
घृष्टेषु दंतमांसेषु सरंभो जायते महान् ॥ यस्मिंश्चलति दंताश्च स विदर्भोऽभि
घातजः ।
अर्थ- दंतकाष्टादि द्वारा दांतों के मांस के रिगड खाजाने पर दांतों की जड में दारुण सूजन पैदा होजाती है । इसके कारण सब दांत हिलने लगजाते हैं । यह व्याधि चोट के कारण से होती है, इसे विदर्भरोग कहते हैं ।
पांच प्रकार की गति । दंतमांसाश्रितान् रोगान् यः साध्यान
प्युपेक्षते ॥ अंतस्तस्यस्त्रवन् दोषः सूक्ष्मां संजनयेद्गतिम् पूयं मुहुः सा स्रवतित्वमांसास्थिमभेदिनी
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मष्टांगहृदय ।
प. २१
ताः पुनः पंच विज्ञेया लक्षणैः स्वैर्यथोदितैः।। अधिजिह्वा के लक्षण । ___ अर्थ-दांतों के मांसमें होनेवाले संपूर्ण प्रबंधनेऽधो जिवायाः शोफो जिवासाध्यरोगों की भी उपेक्षा करने से वातादि
प्रसन्निभः। दोष भीतर ही भीतर पतली पतली नाली सांकुरः कफपित्तास्नालोषास्तंभवान् स्वरः पैदा करलेते हैं इन नालियों में होकर वार
अधिजिहवः सरकंडूक्याहारविघातकृत। बार राध निकला करती है तथा त्वचा,
अर्थ-जिहवाकी जडके नीचे के भागमें मांस और आस्थि अलग अलग होजाते हैं।
कफपित्त और रक्तके प्रकोप में जिह्वा के वातादि दोष से ये नाली पांच प्रकार की | अग्रभाग की तरह आकृति से युक्त मांसके होती हैं, यथा-वातज, पित्तज, कफज,
अंकुरों से व्याप्त, लालास्रावी, संतप्त, स्तरक्तज और अभिधातज | इन सब का ब्ध, खरस्पर्श, वेदना और खुजली से युक्त दोषानुसार वर्णन किया जायगा । दांत की तथा बाणी और आहार को रोकनेवाली जड में तरह प्रकार के रोग हुआ करते हैं । सृजन पैदा हो जाती है । इसरोग को अधि
वातादि दूषित जिह्वा के लक्षण । जिह्वा कहते हैं । शाकपत्रखरा सुप्ता स्फुटिता वातक्षिता ॥ उपजिह्वा के लक्षण । जिहापित्तात् सदाहोषा रक्तासांकुरैश्चिता तागेवोपजिहवस्तु जिह्वाया उपरि स्थितः शाल्मलीकंटकाभैस्तु कफेन वहुला गुरुः ॥ | __ अर्थ-शाकपत्र के समान खरदरी, सुप्त
____ अर्थ-जिह्वा की जडके ऊपरवाले भाग और फटी हुई जीभ वात दूषित होती है ।
में जब ऐसी सुजन पैदा हो जाती है, तब पित्त दुषित जिह्वा दाह और तापसे युक्त
| उसको उपजिहवा कहते हैं। तथाः लाल रंगके मांसांकुरों से उपचित
तालुपिटका के लक्षण । होती है। कफ दषित जिहवा भारी तथा तालुमांसेनिलाद्दष्टे पिटिकाः सरुजः खराः। सेमर के कांटों के सदृश मांस के अंकुरों से |
| वढयो घनाः नावयुक्तास्तास्तालुपिटिकाः व्याप्त होती है।
स्मृताः ॥ अलसके लक्षण।
___ अर्थ-वायुके प्रकोप के कारण तालु के कफपित्तादधः शोफो जिहास्तंभकृदुम्नतः।।
मांसमें ऐसी बहुत सी पुंसियां हो जाती है मत्स्यगंधिर्भवेत्पक्वः सोऽलसो मांसशातनः | जिनमें दर्द, खरदरापन और गाढात्राव
अर्थ-कफपित्त के प्रकोप में जिह्वाके होता है । इसको तालुपिटका रोग कहते हैं । नीचे के भागमें जिह्वा को स्तंभन करने- | गलथुडिका के लक्षण ॥ वाली ऊंची सूजन पैदा होजाती है । इसके | तालुमूले कफात्सास्रात मत्स्यवस्तिनिभो पकने पर मछली के समान आमगंध आती |
प्रलंया पिच्छिलः शोफो नासयाऽऽहारमी. है, ऐसे रोगको अलस रोग कहते हैं, अलस
रयन् ॥ रोगमें मांस झड पडता है। | कंठोपरोधस्तृटूकासवामिकहूगलशुडिका ।
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म. २१
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत
(८३५)
अर्थ-तालु की जडमें कफरक्त से मछली तालुशोष के लक्षण । की वस्ति के सदृश कोमल, लंबी और पि- वातपित्तज्वरायासैस्तालुशोषस्तदाह्वयः। च्छिल सूजन पैदा होजाती है. इसे गलशुं.
___अर्थ-वातपित्तज्वर और आयासद्वारा
| जो तालुशोष होता है, उसको तालुशोष रोग भोजन का द्रव्य नासिका में होकर बाहर | कहते हैं । निकल पडता है इसमें कंठरोध, तृषा, खांसी
रोहिणी के लक्षण । और वमन ये उपद्रव उपस्थित होते हैं। जिहवाप्रबंधजाः कंठे दारुणामगिरोधिनः।
'मांसाकुराः शीघ्रचया रोहिणी शीघ्रकारिणी तालुसंहति ॥
___ अर्थ-कंठस्थान में जिहा की जड में तालुमध्ये निरङमांस संहतं तालुसंहतिः ॥ ___ अर्थ-तालु के बीचमें वेदनारहित कठोर
जो कंठके मार्गको रोकनेवाले मांस के अंकुर सूजन होती है, उसे तालुसंहति कहते हैं।
| उपल्न होजाते हैं । उनको रोहिणी कहते हैं। अर्बुद के लक्षण |
ये शीघ्रही बढ जाते हैं और बहुत जल्दी पद्माकृतिस्तालुमध्ये रक्ताच्छ्वयथुरर्बुदम् । प्राणों का नाश करदेते हैं। ___ अर्थ-रक्तके प्रकोप से तालुके बीचमें । वातरोहिणी के लक्षण।। पनके आकार के समान जो सजन होती कंठास्यशोषकद्धातासा हनुश्रोत्ररकरी । है उसे अर्बुद कहते हैं।
। अर्थ-वातजन्य रोहिणी रोगने कंठ और - कच्छप के लक्षण | मुखमें शोष, तथा हनुभाग और कानमें दर्द कच्छपः कच्छपाकारश्चिरवृद्धिः कफादरुक होता है ।
अर्थ-कफके प्रकोप से ताल के बीचमें । पित्तरोहिणी का कर्म । कछुए की आकृति के समान जो वेदना से पित्ताज्ज्वरोषातृण्मोहकंठधूमायनान्विता । रहित सजन होती है उसे कच्छप करते है | क्षिप्रजा क्षिप्रपाकार्तिरागिणी स्पर्शनासहा। यह देरमें बढती है।
अर्थ-पित्त जरोहिणी रोगमें ज्वर, ऊषा, पुप्पुट के लक्षण । तृषा, मोह, तथा कंठमें धुंआंसा घुमडना, कोलाभः श्लेप्ममेदोभ्यां पुष्पुटो नीरुजः स्थिरः ये सब लक्षण प्रकाशित होते हैं, यह शीघ्र ___ अर्थ-जो सूजन कफ और मेद से उ- उत्पन्न होकर शीघू पकनेवाली, अत्यन्त स्पन्न होकर बेरकी आकृति के समान वेदना लाल और मार्शयो र सह सकनेवाली होतीहै । रहित और स्थिर होती है, उसे पुप्पुट कहते हैं कफजगंहिणी का कर्म ।
तालुपाक के लक्षण । कफेन पिच्छिला पांडुः पिन पाकः पाकाख्यः पूयास्रावी महारुजः ___अर्थ-कफजरोहिणी रोगमें पिच्छिल ता
अर्थ-दबित पित्तके कारण तालुके पक- | और पांडवर्णता होती है । जानेपर राध निकलने लगती है और घार |
रक्तजरोहिणी का कर्म । वेदना होती है।
भसजा स्फोटकाचिता।
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(८३६)
मष्टांगहृदयः । .
म. २१
तप्तांगारनिभा कर्णकरी पित्तजाकृतिः। | कंठमार्ग की अर्गला के सदृश जो अत्यन्त
अर्थ-रक्तजरोहिणी में फोडोंकी व्याप्ति, भयानक सूजन होती है, उसको गलौघ तप्त अंगार की सदृशता, कानमें दर्द तथा कहते हैं, इस रोग में माथे में भारापन, पित्तजरोहिणी के लक्षण उपस्थित होते हैं। तन्द्रा लार गिरना और ज्वर उपस्थित ___ सान्निपातिकरोहिणी का कर्म । होते हैं । गंभीरपाका निचयात्सर्वलिंगसमन्विता ॥
बलय रोग। ___ अर्थ- त्रिदोषजरोहिणी में गूढपाक तथा पलयं नातिरुक् शोफस्तद्वदेवायतोन्नतः । संपूर्ण दोषों के लक्षण पाये जाते हैं। __ अर्थ-कंठप्रदेश में थोडे दर्द वाली,
कंठशालूकरोग । लंबी, ऊंची, कंकण के आकार की जो दोषैः कफोल्वणः शोफः कोलवत् ग्रथितोन्नत: सूजन होती है, उसे बलय कहते हैं । शूककंटकवत्कंठे शालूको मार्गराधनः।
गलायका रोग। . अर्थ-कफप्रधानवातादि दोष द्वारा कंठमें मांसकीलोगलेदोषेरेकोऽनेकोऽथवाल्परुक् बेरके समान ऊंची गांठ होजाती है और वह कृच्छ्रोच्छ्वासाभ्यवहृतिःपृथुमूलोगलायुका शूक के कांटों की तरह कंठके मार्ग को रोक अर्थ-दुष्ट वातादि दोष द्वारा गले के देती है । उसको कंठशालूक कहते हैं। भीतर काल के समान मोटी जडवाली, वृन्दा रोग ।
अल्प वेदना से युक्त एक वा एक से अधिक वृदो वृत्तोन्नतो दाहज्वरकृद् गलपार्श्वगः ॥ मांसकी कील सी पैदा होजाती हैं, इनको
अर्थ-गले के पास गोल, ऊंची, दाहो- | गलायुक रोग कहते हैं । इस रोग में श्वास त्पादक और ज्वरकारक जो गांठ होती है | के लेने निकालने में और आहार में बड़ी उसे वृन्द कहते हैं।
कठिनता होती है। तुंडिकेरिका रोग ।
शतघ्न रोग। हनुसंध्याश्रितः कंठे कार्यासीफलसन्निभः। भूरिमांसांकुरवृता तीव्रतूट्ज्वरमूर्धरुक ५० पिच्छिलोमंदरुशोफा कठिनस्तुंडिकेरिका
शतघ्नी निचिता पर्तिः शतघ्नीवातिरुक्करी ___ अर्थ-कंठभागमें हनुका आश्रय लेकर |
___ अर्थ-बहुत से मांसके अंकुरो से आवृत
| तीव्र तृषा ज्वर और माथे के दर्दसे युक्त. कपास के फलके समान आकृति से युक्त, गिलगिली, थोडे दर्दवाली और कठोर सूजन
शतघ्नी के समान कांटों से व्याप्त जो वर्ती पैदा होजाती है । उसको तुंडफेरिका रोग
पैदा होती है, उसे शतघ्नी कहते हैं । कहते हैं ।
लोहे के कांटों से आवृत एक प्रकार के गलौघ रोग।
शस्त्र को शतघ्नी कहते हैं, इसके तुल्य पायांतः श्वयथु?रो गलमार्गार्गलोपमः । होने से इस रोग को भी शतघ्नी कहते हैं । गलौघो मूर्धगुरुतातंद्रालालाज्वरप्रदः ४८ गलविद्रधि रोग।
अर्थ-कंठप्रदेश के भीतर और बाहर व्याप्तसर्पगलः शीघ्रजन्मपाको महारुजः ।
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. अ. २१
उत्तरस्थान भाषायीकासमेछ।
(८३७ )
पूतिपूयनिभनावी श्ववथुर्गलविद्रधिः। । वृद्धस्तालुगले लेपं कुर्याच मधुरास्यताम् । __ अर्थ-सर्वकंठव्यापी जो सूजन होती अर्थ--कफज गलगंड कठोर, त्वचा के है, उसे गलविद्रधि कहते हैं । यह रोग समान वर्णवाला, छूने में ठंडा और भारी शीघ्र पैदा होकर शीघ्न पक जाता है । इस होता है । यह बढकर तालु और गले में में दर्द बहत होता है और सडी हुई राध, लिहसाबट और मुख में मधुरता करता है। सी निकलती है।
मेदोगलगंड। गलार्बुद रोग।
मेदसःश्लेष्मबद्धानिवृद्धयोःसोऽनुविधीयते जिहावसाने कंठादावपाकं श्वयधुं मलाः । | देहं वृद्धश्च कुरुतं गले शब्दस्वरेऽल्पताम् । जनयंति स्थिरं रक्तं नीरुजं तद्लार्बुदम् । अर्थ- मेद से उत्पन्न हुआ गलंगड, ___ अर्थ-वातादि दोष के कारण जीव के | कफज गलगंड के लक्षणों से युक्त होता है अंतिम भाग में कंट के ओर पास पाक से देह के घटने और बढ़ने से यह भी घट रहित, कठोर, रक्तवर्ण और वेदनारहित बढ जाता है । मेदोज गलगंड बढकर गले जो सूजन उत्पन्न होती है, उसे गळाद । में शब्द और स्वर में अल्पता करता है। कहते हैं।
श्लेष्मगलगंड । गलगंड रोग।
श्लेष्मरुद्धाऽनिलगतिः शुष्ककंठो हतस्वरः। पवनश्लेष्ममेदोभिगलगंडो भवेद्वहिः। ताम्यन्प्रसक्तंश्वसितियेन स स्वरहानिलात् वर्धमानः स कालेन मुष्कवलंबते निरुक् । अर्थ-दूषित कफद्वारा वायुकी गति रुक ___ अर्थ-बायु कफ और मेद के कारण | जाने पर मनुष्य शुष्ककंठ, हतस्वर और गले के बाहर गलगंड नामक रोग होता
वर्द्धित होकर निरंतर श्वास लेने लगताहै । है, काल के क्रम से बढकर यह अंडकोष यह वातप्रकोपज व्याधि स्वरघ्न कहकी तरह झूलने लगता है, इसमें दर्द नहीं
लाती है। होता है।
मुखपाक का लक्षण । वातगलगंड रोग ।
करोति वदनस्यांतर्बणान्सर्घसरोऽनिलः । कृष्णोऽरुणो वा तोदाढयः स वातात्कृष्ण संचारिणोऽरुणानरूक्षानोष्ठौताम्रौचलत्वची
राजिमान् । जिव्हाशीतासहागुर्वीस्फुटिताकंटकाचिता वृद्धस्तालुगले शोषं कुर्याश्च विरसास्यताम् |
| विवृणोति च कृच्छेण मुखपाको मुखस्य च __अर्थ-वातिक गलगंड कालावा लाल,
। अर्थ-दूषितहुई वायु मुखके भीतर इधर काले रंग की सिराओं से व्याप्त होता है
उधर धूमती हुई मुखपाक नामक रोगको यह बढकर तालु और गले की सुखा देता
उत्पन्न करती है । इससे मुखके भीतर सब है और मुखको विरस कर देता है।
जगह लाल रंगके रूक्ष संचारी ब्रण पैदा __कफज गलगंड ।
होजाते हैं और दोनों ओष्ट तावे के रंगके स्थिरः सवर्णः कंडूमान् शीतस्पर्शो गुरुः |
कफात्। सदृश और चलायमान त्वचावाले होजाते
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( ८३८)
मष्टांगहृदय।
हैं, तथा जिह्वा शीतलता को सहन नहीं | को उत्पन्न करता है । यह अर्बुद फटकर, कर सकती है, तथा भारी, फटीहुई, और छिच होकर और मृदित होकर बढ जाता है। कांटों से व्याप्त होजाती है । इस रोगमें | सानिपातिक मुखपाक । रोगी बडी कठिनता से मुखफाड सकता है। मुखपाको भवेत्साः सर्वैः सर्वाकतिर्मलैं:
ऊर्ध्वगद । ___ अर्थ-वातादि संपूर्ण दोष और रक्तके अधः प्रतिहतो वायुरझेगुल्मकफादिभिः । प्रकोपसे जो मुखपाक होता है वह वातादि यात्यूल वक्रदोर्गध्यं कुर्वनगदस्तु सः । संपूर्ण दोषों के लक्षणों से युक्त होता है ।
अर्थ-अर्श, गुल्म और दूषित कफादि ___मुखदुर्गधि । द्वारा वायु नीचे को प्रतिहत होकर मुखमें पूत्यास्थता च तैरेव दंतकाष्ठादिविद्विषः । दुर्गन्धि पैदा करता हुआ ऊपर को उठता ___ अर्थ-जो मनुष्य दंतकाष्ठादि अर्थात् है । इसे ऊर्ध्वगद कहते हैं।
दांतन आदिको व्यवहार में नहीं लाते हैं पित्तनमुखाक के लक्षण । उनके मुखमें इन्ही वातादि दोषोंद्वारा दुर्गन्धि मुखस्य पित्तजे पाके दाहोषे तिक्तवता । पैंदा होजाती है। क्षारोक्षितक्षतसमा ब्रणाः
रोगांकी संख्या । अर्थ-पित्तज मुखपाकरोग में मुखमें दाह, ओष्ठे गंडे द्विजे मूले जिव्हायां तालुके गले संताप, कडवापन और क्षार से जले हुए |
| बके सर्वत्र चेत्युक्ताः पंचसप्ततिरामयाः ।
एकादशैको दश च त्रयोदश तथा च षट् । घावके समान घाव होजाता है ।
अष्टावष्टादशाष्टौ चक्रमात् रक्तज मुखपाक।
___ अर्थ-ओष्ठमें ग्यारह, गंडदेशमें, एक, तद्वञ्चरक्तजे ॥ ६१॥ दातों में दस, दांतों की जडमें तेरह,जीम __ अर्थ रक्त ज मुखपाक में पित्तजमुखपाक
में छः, तालमें आठ, गलेमें अठारह, और के से लक्षण होते हैं।
मुख आठरोग होते हैं। इस तरह सब कफजमुखपाक ।
मिलकर मुखसंबंधी ७५ रोग हैं | अब इनमें कफजे मधुरास्यत्वं कंडूमत्पिच्छिलव्रणाः से जो जो रोग असाध्य हैं उनका वर्णन
अर्थ-कफ जमुखपाकरोग में मुखमें मीठा- | पन तथा खुजली से युक्त गिलगिला घाव | असाध्य रोगोंका वर्णन ॥ होजाता है।
तेष्वनुपक्रमाः। कफज अर्बुद । करालो मांसरक्तोष्ठावर्बुदानिजलाद्विना । मंतःकपोलमाश्रित्य श्यावपांडु कफोर्वदम। कच्छपस्तालुपिटिका गलौघःसुषिरो महान् कुर्यात्तत्पाटितं छिन्नं मृदितं च विवर्धते । स्वर
स्वरघ्नोर्ध्वगदः श्यावः शतघ्नविलयालसाः ' अर्थ-बदा हुआ कफ कपोलस्थल का
नाड्योष्ठकोपोनिचयात्रतात्सर्वश्चरोहिणी
| दशने स्फुटिते दंतभेदः पक्कोपजिव्हिका । आश्रय लेकर श्याव और पांडवर्ण के अर्बुद | गलगंडास्वरभ्रंशःकृच्छोच्छवासोऽतिवत्सर
ब"असा
करते है।
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म. १२
उत्तरस्थान भाषाटीकासमत ।
(८३९)
याप्यस्तु हर्षो भेदश्वशेषान्शस्त्रौषधैर्जयेत् | के समान चिकित्सा करनी चाहिये । अर्थात् ___ अर्थ-कराल नामक दंतरोग, मांस दुष्ट । इसमें सौबार धुले हुए घी की कवलिका का
और रक्त दुष्ट ओष्ठरोग, जलार्बुद को छोड प्रयोग करना उचित है। कर शेष सब अर्बुदरोग, कच्छपरोग, तालु | अन्य उपाय ।। पिडिकारोग, गलौघरोग, महासुषिर नामक
यष्टीज्योतिष्मतीरोधश्रावणीसारिवोत्पलैः। दतरोग, सुरघ्न नामक गलरोग, ऊर्ध्वगद
पटोल्या काकमाच्या च तैलमभ्यंजन पचेत्
अथे--मुलहटी, मालकांगनी, लोध, गोरनामक मुखरोग, श्यावदंतरोग, शतघ्नी रोग,
खमुंडी, अनन्तमूल, नीलोत्पल, पर्वल और घलयरोग, अलसरोग, अधिजिह्व रोग, दंत
मकोय, इन सब द्रव्यों के साथ तेल पका. मूलज सान्निपातिक नाली, त्रिदोषज ओष्ठ
कर अभ्यंजन करे || प्रकोप, रक्तज और त्रिदोषज रोहिणी रोग,
नस्यप्रयोग ॥ यह दंतभेद रोग जिसमें दांत फट जाते हैं, नस्यं च तैलं वातघ्नमधुरस्कंधसाधितम् । पकोपजिहिवका, गलगंड, स्वरदंश, तथा | ____अर्थ-बातनाशक मधुर गणोक्त औष. वत्सरातीत कृच्छ्श्याम, ये सब रोग असाध्य । धियों से सिद्ध किया हुआ तेल नस्यके द्वारा होते हैं । दंतहर्ष और दंतभेद याप्य होते हैं
उपयोग में लावै ॥ तथा बाकी के सब रोग शस्त्रद्वारा वा औष
वातज ओष्ठकोपका उपाय ॥ धद्वारा साध्य होते हैं
महानेहेन वातौष्टे सिद्धनाक्तः पिचुर्हितः ।
देवधूपमधूच्छिष्टगुग्गुल्वमरदारुभिः ॥३॥ इतिश्री अटांगहृदयसंहितायां भाषाटी
। अर्थ--राल, मोम, गूगल, और देवदारु, कान्वितायां उत्तरस्थाने मुखरोगवि
इनके साथ महास्नेह (घी,तेल,वसा,मज्जा) ज्ञानीयं नाम एकविंशो
पकाकर इस पक्व महास्नेह में रुईका फोआ ऽध्यायः ॥ २१ ॥
भिगोकर वातज ओष्ठप्रकोप में प्रयोग करने
से विशेष लाभ होता है ।। द्वाविंशोऽध्यायः महास्नेहद्वारा प्रतिसारण ।
यष्टयाहचूर्णयुक्तेन तेनैव प्रतिसारणम् ।
___ अर्थ-उसी महास्नेह में मुलहटी का थाsतो मुखरोगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। चूर्ण मिलाकर प्रतिसारण करनेसे वातज___ अर्थ--अब हम यहां से मुखरोग प्रतिषेध
| कोपका शमन होजाता है। नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे |
वाताण्ठ में स्वेदन। खंडोष्ठ चिकित्सा । नाडयोष्ठं स्वेदयेहुग्धसिद्धेरेरंडपल्लवैः ॥४॥ खंडोष्ठस्य विलिख्यांतौस्यूत्वाव्रणवदाचरेत् अर्थ-दूध के साथ अरंड के पत्ते पकाकर __ अर्थ--स्नेहन और स्वंदनके पीछे खंडोष्ठ । नाडी स्वेद से वातज ओष्ठ प्रकोप शांत के दोनों प्रान्तोंको रेशमी सूत्रसे सीकर ब्रण | होजाता है।..
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(८४०)
अष्टांगहृदय ।
अ० २२
-
उक्तरोग में नस्यादि । अर्थ-कफजओष्ठ प्रकोप में जोकों द्वारा खंडोष्ठविहितंनस्यतस्य मूनि च तर्पणम् । रक्त निकालकर पाठा, जवाखार, मधु और
अर्थ-वातजनित ओष्ठ प्रकोप में खंडौ- त्रिकुटा द्वारा प्रतिसारण करे । तथा कफको ष्ठविहित नस्य तथा मस्तक पर तर्पण का नाश करनेवाले धूम, नस्य और गंडूष का प्रयोग करे ।
प्रयोग करे। पित्तजओष्टकोपमें रक्तस्राव । मेदोज ओष्ठकोपका उपाय ) पित्ताभिघातजावोष्ठी जलौकोभिरुपाचरेत् स्विनं भिन्नं विमेदरकं दहेन्मेदोजमग्निना।
अर्थ-पित्तज तथा अभिघातज ओष्ठ- प्रियंगुरोधत्रिफलामाक्षिक प्रतिसारयेत् ॥ प्रकोप में जोक लगाकर रक्त निकाल डालना
अर्थ- मेदासे उत्पन्न हुए ओष्ठप्रकोप में चाहिये ।
पसीनों से ओष्ट को स्विन्न और अस्त्र से . उक्तरोग प्रतिसारण ।
चीरकर मेदा को निकालकर अग्निसे दग्ध रोधसर्जरसक्षौद्रमधुकैः प्रतिसारणम् ।।
करे, तथा प्रयंगु, लोध, त्रिफला, और मधु . अर्थ-उक्तरोगों में लोध, राल, शहत
| द्वारा प्रतिसारण करे। और मुलहटी द्वारा प्रतिसारण करना चाहिये।
जलाद की चिकित्सा । उक्तरोगमें अभ्यंजन ।
सक्षौद्रा घर्षणं तीक्ष्णा भिन्नशुद्ध जलार्बुदे । गुडूचीयष्टिपत्तंगसिद्धमभ्यंजनेवृतम् ।।
अवगाढेऽतिवृद्ध वा क्षारोऽग्निर्वा प्रतिक्रिया अर्थ-गिलोय, मुलहटी, और लालचंदन
___ अर्थ -जलार्बुद को चीरकर क्लेदको उसमें इनसे सिद्ध किया हुआ घृत अभ्यंजन के
से निकालकर पीपल और मिरचादि तीक्ष्ण काम में लावे ।
| वीर्य द्रव्यों का चूर्ण मधु मिलाकर रिंगडे, अन्य विधि ।
इसके अवगाढ होने वा अत्यन्त बढनेपर
क्षार वा अग्निसे दग्ध करदे । पित्तविद्रधिवच्चात्र क्रिया ___ अर्थ-उक्तरोगों में पित्तविद्रधि के समान ___ अलजी का उपाय ॥ क्रिया करना चाहिये ।
भामाद्यवस्थास्वलजी गंडे शोफवदाचरेत् ।
। अर्थ- गंडस्थल में उत्पन्न हुई अलजी . रक्तजओष्ठप्रकोपका उपाय ।।
शोणितजेऽपिच। की चिकित्सा उसके बिनापके ही करनी इदमेव भवेत्कार्य कर्म
चाहिये । अर्थ-रक्तन ओष्ठ प्रकोप में भी इसी शीतदंत की चिकित्सा । उक्त रीतिसे चिकित्सा करनी चाहिये ।
स्विन्नस्य शीतदंतस्य पाली विलिखितां कफजओष्ठ प्रकोप ।
ओष्ठे तु कफोत्तरे ॥ | तैलेन प्रतिसार्या च सक्षौद्रधनसैंधवैः । पाठाक्षारमधुव्योपैहतास्ने प्रातसारणम्। दाडिमत्वग्वरातार्क्ष्यकांताब्बस्थिनागरैः॥ धूमनावनगंडूषाः प्रयोज्याश्च कफच्छिदः ॥ । कबलः क्षीरिणां क्वाथैरणुतैलंच नाबनम् ।
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अ० २२
उत्तरस्थान भाषाकासमेत।
(८४९)
अर्थ-शीतदंत की पाली को नीहिमुख | डकर कृमिदंत की तरह चिकित्सा करे । यंत्रद्वारा विलेखन करके अत्यन्त गरम तेल उस अधिदंत के उखाडने पर वहां रुधिर से दग्ध करे, तथा उसमें शहत, मोथा, की स्थिति न हो तो उस स्थान को दग्ध सेंधानमक,अनार की छाल, त्रिफला,सौत, करके प्रण के समान चिकित्सा करे । प्रियंगु, जामन की गुठली और सोंठ इनके शर्करानाशक उपाय । द्वारा प्रतिसारण करे । बड और पीपल | अहिंसन दंतमूलानि दंतेभ्यः शर्करां हरेत्।। आदि दूधवाले वृक्षों के काथका कवल तथा
क्षारचूर्णमधुयुतैस्ततश्च प्रतिसारयेत्। अणुतैल की नस्य लेवे ।
___ अर्थ--दांतकी जड में कुछ हानि न दंतभेदादि का उपाय ।
पहुंचे, ऐसी रीति से दंतलेखक शस्त्र द्वारा दंतहर्षे तथा भेदे सर्या वातहरा क्रिया ॥
सब शर्करा को खुरच खुरच कर दांतोंसे तिलयष्टीमधुशतं क्षीरं गंडूषधारणम् । निकाल देवे । पीछे शहत और क्षार मिलकर __अर्थ-दतहर्ष और दंतभेद में सब प्रकार | वहां रिगड देवै ॥
की वातनाशिनी क्रिया करनी चाहिये।इसमें कपालिका का उपाय। तिल और मुलहटी के साथ दूध पकाकर कपालिकायामप्येवं हर्षोकं च समाचरेत् ॥ गंडूष धारण करे ।
अर्थ-कपालिका रोगमें भी यही चिकित्सा दांतों के हिलने का उपाय ।
| तथा दंतह?क्त चिकित्सा करनी चाहिये । सस्नेहं दशमूलांबु गंडूषः प्रचलदिजे ॥१४ |
कमिदंत का उपाय । तुत्रोधकगाश्रेष्ठापत्तंगपंटुघर्षणम्। जयेद्विनावणैः स्विन्नमचलं कृमिदंतकम् । निग्धाशील्यायथावस्थनस्यानकवलादयः स्निग्धैश्चालेपगंडूषनस्याहारैश्चलापहैः ॥
अर्थ--दांतों के हिलने में दशमल के | गुडेन पूर्ण सुषिरं मधूच्छिष्टेम वा दहेत् । काढे, स्नेहमिलाकर गंडूष धारण करे। तथा
सप्तच्छदार्कक्षीराभ्यां पूरणं कृमिशूलजित् ।
। अर्थ--न हिलनेवाले कृमिदंत को प्रथम नीलाथोथा, लोध, पीपल, त्रिफला, लालचंदन
स्वेदित करके विस्रावण द्रव्यों के द्वारा और नमक से घर्षण करे । तथा अवस्था
| लालादि स्राव कराकर तथा वातनाशक नुसार स्निग्ध नस्य, अन्न और कवलादिक
द्रव्य, स्निग्ध प्रलेप, गंडूष, नस्य और का अभ्यास करे ।
आहार का प्रयोग करना चाहिये । गुड . अधिकदंत का उपाय । अधिदंतकमालिप्तं यदा क्षारेण अर्जरम् ।
| वा मोमसे कोडों के किये हुए छेदको भर. कृमिदतमिवोत्पाटप तदश्योपचरेत्तदा ॥ कर तप्त सलाई से दग्ध करदे । सातला भनवस्थितरतेच दग्धे प्रण इव क्रिया। और आक का दूध भरने से भी कीडोंद्वारा .. अर्थ-अधिदत को क्षारद्वारा लिप्त किया हुआ शूल निवारित होजाता है। करदे । ऐसा करने से जब वह जर्जरीभूत
अन्य प्रयोग। होजाय तब इनको कमिदंत की तरह उखा. हिंगुकटफलकासासस्वर्जिकाकुष्टंघल्लजम् ॥
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(८४२)
अष्टांगहृदय ।
अ० २२
एजो रुजं जयत्याशु वस्त्रस्थं दशने धृतम् ॥ | मोद्धरेचोसरं दंतं बहूपद्रवकृद्धि सः ॥
अर्थ--हींग, कायफल,हीराकसीस,सज्जी, | एषामप्युद्धृतैः स्निग्धःस्वादुः शीतः क्रमो कूठ और बायबिडंग । इनके चूर्णको कपडे
हितः। की पोटली में बांधकर दांतों में दावने से भी । अर्थ-कृश, दुर्बल,वृद्ध और वातपीडित कीडों का दर्द जाता रहता है ।
रोगियों का दांत न उखाडना चाहिये। ऊपर - गंडूष विधि ।
वाले दांतको भी न उखाडे क्योंकि उसके गंडूषं धारयेत्तैलमेभिरेव च साधितम्। उखाडने से बहुत से उपद्रव उपस्थित हो काथै; युक्तमेरंडदिव्याघ्रीभूकदंवजैः॥ जाते हैं । दांत उखाडने की आवश्यकताही
अर्थ--उपर कहे हुए हींग कायफल | हो तो दांत उखाडने के पीछे स्निग्ध मधुर भादि द्रव्यों के साथ तेल पकाकर इस तेल | और शीतल उपचार करना चाहिये । को अथवा अरंड, दोनों कटरी और भूकं- .. शीताद का उपाय ।। दंब इनके काढेमें तेल मिलाकर गंडूष धा-विनाविताने शीतादे सक्षौद्रैःप्रतिसारणम् रण करना चाहिये ॥
मुस्तार्जुनत्वत्रिफलाफलिनीताय नागरैः। ___ अन्य उपाय।
तत्काथः कवलो नस्य तैलं मधुरसाधितम् । क्रियायोगै हविधरित्यशांतरजभशमा अर्थ-शीतादरोग में रक्तमोक्षण करके दृढमप्युद्धरेदंतं पूर्व मूलाद्विमोक्षितम् ॥ मोथा,अर्जुनकी छाल,त्रिफला,प्रियंगु,रसौत, संदंशकेन लघुना दंतनिर्घातनेन या।।
सोंठ, और इन द्रव्यों के द्वारा प्रतिसारण तैलं सयष्टयाइवरजो गंडूषो मधुना ततः॥
फरे । तथा इन्हीं के काढे का कवल और अर्थ-इस प्रकार से अनेक उपायों के
मधुरगणोक्त द्रव्यों से सिद्ध किये हुए तेल करने पर भी यदि पीडा शांत न हो तो
का नस्य प्रयोग करे। दृढ दांतको भी जो जडसे हटगया हो छोटी
उपकु.श का उपाय। संडासी वा दांत उखाडने के शस्त्रसे उखा- |
दंतमांसान्युपकुशे स्विन्नान्युप्णांबुधारणः । डकर मुलहटी मिले हुए तेल वा शहत का मंडलाण शाकादिपर्वा वहुशो लिखेत् ॥ गंडूष धारण करे।
ततश्च प्रतिसार्याणि घृतमंडमधुश्रुतैः। नस्य प्रयोग ।
लाक्षाप्रियंगुपत्तंगलवणोत्तमगैरिकैः॥ ततो विदारियष्टयाहव शृंगाटककसेरुभिः। सकुष्ठद्युठीमरिचयष्टीमधुरसाजनैः। तैलं दशगुणक्षीरं सिद्धं युंजात नावनम् ॥ । सुखोष्णो घृतमंडोऽनु तैलं वाकवल ग्रहः ॥ . अर्थ - तदनंतर भूमिकूष्मांड, मुलहटी,
| घृतं च मधुरैः सिद्धं हितं कवलनस्ययोः । सिंघाडा, और कसेरू इनके कल्क तथा
___ अर्थ-उपकुशरोग में गरमजल का गंडूष दस गुने दूध के साथ तेल पकाकर नस्यद्वारा
धारण करके दांतों के मांस को स्वेदित
करे । फिर मंडलाय शस्त्रसे वा शाकादि प्रयोग करे ।
दांत उखाडने का निषध । पत्रों से बार बार खुरचै तदनंतर लाख, कृशदुर्वलद्धानां वातार्तानां च नोद्धरत् । । प्रियंगु, पतंग, सेंधानमक, गेरू, कुठ, सोंठ,
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अ० २२ .
उतरस्थान भाषाटीकासमेत ।
.(८५३)
कालीमिरच, मुलहटी और रसौत इनके | सगैरिकसितापुंड्रैः सिद्धं तैलं च नावनम् । चूर्ण को घृतमंड और शहत में सानकर अर्थ--सौषिर रोगको शस्त्रसे छिन करके इससे प्रतिसारण करे । तदनंतर सुखोष्ण
और खुरच कर लोध, मोथा, जटामांसी, धृतमंड वा तेलका कवल धारण,तथा मधुर- | त्रिफला, रसौत, पतंग, केस, कायफल और गणोक्त द्रव्यों के साथ धृत पकाकर इस शहत इनके द्वारा प्रतिपारण करे, तथा घृतका कवल वा नस्य की व्यवस्था करना इन्ही के काढे का गंडूष धारण करै । मुल. चाहिये।
हटी, लोध, नीले त्पल, श्यामालता, अनंतदंतपुप्पुट का उपाय । मूल, अगर, चंदन, गेरू, सफेदकटेरी दंतपुट के स्पिन्नछिन्नभिन्नविलेखिते ॥ और पोंडा इनसे सिद्ध किये हुए तेल का यथ्यावस्या काशुःसिंधवैः प्रतिसारणम। नस्य द्वारा प्रयोग करना चाहिये । ___ अर्थ-दंतपुप्पुटरोग को स्वेदद्वाग स्विन्न
अधिमांस का उपाय । तथा शस्त्रद्वारा छिन्न भिन्न और विलखित छित्त्वाधिमांसकंचूर्णैः सक्षौद्रि प्रतिसारयेत करके मुलहटी, सज्जीखार, सोंठ और सेंधे- वचातेजोवतीपाठास्वर्जिकायवशूकजैः । नमक के चूर्ण द्वारा प्रतिसारण करे । पटोलनियत्रिफलाकषायः कवलो हितः ॥ दंतविद्रधि का उपाय ।
अर्थ अधिमांस का छेदन करके बच, विद्रधी कटुतीष्णोष्णरूः कवललेपनम् ॥ मालकांगनी, पाठा, सज्जी, जवाखार और घर्षगं कटुकाष्टवृश्चिकालीयवोद्भवैः । | शहत इनके द्वारा प्रतिसारण करे । इसमें रक्षेत्पाकं हिमैः पक्का पाटयो दाह्योऽव- पर्वल, नीमकी छाल, और त्रिफला के काढे
गाढकः॥
| का कवल हितकारी है। अर्थ-दंतविद्रधिरोग में कटु, तीक्ष्ण,
विदर्भ का उपाय । उष्णवीर्य और रूक्ष द्रव्यों से कवल और
विदर्भ दंतमूलानि मंडलायेण शोधयेत् । मलेपन की व्यवस्था करनी चाहिये । इसमें क्षारं युज्यात्ततो नस्यं गंडूषादिच शीतलम् कुटकी, कूठ, वृश्चिकाली और जौका चूर्ण अर्थ-विदर्भरोग में मंडलाम शस्त्र से रिगड दे । शीतवीर्य औष! के द्वारा पाक | दांतों की जड का शोधन करके क्षार लगाना निवारण करे । पकने पर उखाडनी चाहिये। चाहिये । तत्पश्चात् शीतवीर्य वाले व्यों अत्रगाढ दंतविद्रधि को अग्निद्वारा दहन | से सिद्ध किया हुआ नस्य और गंडूषादि करना चाहिये।
धारण की व्यवस्था करना उचित है । ___ सौषिरका उपाय।
दंतनाली का उपाय। सविरे छिन्नलिखिते सक्षौदैः प्रतिसारणम् संशोध्योभयतः कायं शिरश्चोपचरेत्ततः । रोधमुस्तमिशिश्रेष्ठातायपत्तंगकिंशुकैः ॥ | नाडी देतानुगां दंतं समुद्धृत्यामिना दहेत्॥ सकट कलैः कषायैश्च तेषां गंडूष इष्यते। कुज्जां नैकगति पूर्णा मदनेन गुडेन था। यष्टीरोधोत्पलानंतासारिवागरुचंदनः ॥ । धावनं जातिमदनखादिरस्वादुकंटकैः ॥
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(८४१)
अष्टांगहृदय ।
क्षीरिवृक्षांबुगंडूषो नस्यं तैलं च तत्कृतम् ।। अर्थ-नवीन जिहबालस रोगमें ऐसी है।
अर्थ-विरेचन और नस्यादि द्वारा देह चिकित्सा करनी चाहिये. अर्थात् इसमें सर्ष. और मस्तक दोनोंका संशोधन करके दंत । पादि तीक्ष्ण द्रव्यों के द्वारा प्रतिसारण करे, मूलगत नाली की चिकित्सा करनी चाहिये।
किन्तु इसमें शस्त्रका प्रयोग नहीं करना चाहिये दांतको उखाड कर उस स्थान को अग्नि ।
आधिजिह्वाका उपाय । . से दग्ध करदे । वहुमुख वक्रगति वाली नाली को मेंनफल वा गुडसे भरकर दग्ध करदे ।।
उन्नम्यजिहूवामाकृष्टां बडिशेनाधिर्जि
व्हिकाम् । चमेली, वकुल, खैर, और गोखरू की छेदयेन्मंडलाग्रेण तीक्ष्णोष्णैर्घर्षणादि च टहनियों से दंतधावन करे | बटपिप्पलादि | अर्थ-अधिजिह्वा को बडिश यंत्रसे दूधवाले वृक्षोंके काढे से गंडूष धारण तथा खींचकर और उठाकर मंडलाग्र शस्त्रसे छेदन इन्हीं दूधवाले वृक्षोंसे तेल पकाकर इस तेल करे । पीछे तीक्ष्ण और उष्णवीर्य द्रव्यों से की नस्य ग्रहण करनी चाहिये । घर्षण और प्रतिसारणादि करे। - वातकंटक की चिकित्सा ।
उपजिहवाका उपाय ।। कुर्याद्वाताष्ठकोपोक्तं कंटकेष्वनिलात्मसु ।।
उपजिहयांपरिस्राव्य यवक्षारेण घर्षयेत् । जिह्वायां
अर्थ-उपजिहया को शाकपत्र वा अगुअर्थ-वातात्मक जिह्वाकटकरागमें वातज, भोष्ट प्रकोप में कही हुई चिकित्सा करे ।
लिशस्त्रसे परिस्रावित करके जबाखारसे रिंगडे पित्तजिव्हा का उपाय ।
शूडिका का उपाय ।। पित्तजातेषु घृष्टेषुरुधिरे स्रते । । कफनः शुडिका साध्या नस्यगंडूषघर्षणैः प्रतिसारणगंडूषनावनं मधुरैर्हितम्॥ अर्थ-शुडिका रोगीकी चिकित्सा कफ- अर्थ-पित्तज जिव्हाकंटक रोगमें जिव्हा | नाशक नस्य, गंडूष वा घर्षण द्वारा करे। को रिगड कर रुधिर को निकाले फिर मधुर बृद्धगल शुंडिका का उपाय। द्रव्यों का प्रतिसारण, गंडष, और नस्य ऐर्वारुबीजप्रतिमं वृद्धायामशिराततम् । प्रयोग करे ।
अग्रे निविष्टं जिव्हाया बडिशाधवलंबितम् कफजजिव्हाकंटक ।
छेदयेन्मंडलाओण नात्यग्रेन च मूलतः।
छेदेऽत्यसृक्क्षयान्मृत्युहीने व्याधिविधते तीक्ष्णैः कफोत्थेष्वष्येवं सर्वपञ्यूषणादिभिः
___ अर्थ-गलशुडिका के बढने पर जीभके ___ अर्थ-कफज जिव्हाकंटक रोगमें ऊपर कही हुई रीतिसे जिव्हा को रिगड कर रक्त ।
| अग्रभाग पर दीर्घ आकारवाली काकडी के निकालकर सरसों और त्रिकुटादि तीक्ष्ण
बीज के सदृश जो आकृति पैदा हो जाती द्रव्यों द्वारा प्रतिसारण करे।
है, उसको बडिशादि यंत्रसे पकडकर मंडनवीन जिवालस का उपाय ।।
लाग्र शस्त्र से काट डाले, परन्तु इस बात लवे जिहवालसेऽप्येवं ते तु शस्त्रेण न ।
का ध्यान रखै कि बहुत किनारे की ओर स्पृशेत्॥४४॥ | व जीभ के मुलकी ओर न कटने पावे,
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भ० २२
उत्तरस्थान मापार्यकासमेत।
(८४५)
क्योंकि अधिक कटने से रक्तक्षय के कारण तालुशोष में कर्तव्य । मृत्यु तककी संभावना है, और कम कटने तालुशोपे त्यतृष्णस्य सर्पिरुत्तरभाक्तिकम् । से रोगकी वृद्धि हो जाती है। | कणशुठीसृतं पानमम्लैगडूषधारणम् ५३
धन्वमांसरसा:स्निग्धाक्षीरसर्पिश्चनावनं - सम्यक् छिन्नमें कर्तव्य ॥
अर्थ-तालुशोषरोग में यदि तृषा की मरिचातिविषापाठावचाकुष्टकुटनटैः।
अधिकता न हो तो भोजन के पीछे घृतपान छिनायां सपटनीट्रैघर्षणं कवलः पनः ॥ कटुकातिावेषापाठानबरामावविभिः।। कगवे | इस रोगमें पीपल और सोंठ के साथ ___ अर्थ-गलशंडिका के ठीक रीतिसे कटने सिद्ध किया हुआ जल पान करांव, कांजी पर कालीमिरच, अतीस, पाठा, बच, कूठ, आदि खट्टे द्रव्यों का गंडूष धारण, स्निग्ध और केवटी मोथा पीसकर नमक और शहत
जांगल मांस का माहार, तथा दूधके घी की मिलाकर उस स्थान पर रिगडे, अथवा
नस्य का प्रयोग करे।
कंठरोग में कर्तव्य । कुटकी, अतीस, पाठा, नीम, रास्ना और
कंठरोगेष्वसझमोक्षस्तीक्ष्णनस्यादि कर्मच बच के क्वाथ के कुले करे । | कायापानं च दात्विनिबतायकलिंगजः . पुप्पुटादि का उपाय। हरीतकीकषायो वा पेयो माक्षिकसंयुतः संघाते पुष्पुटे कूर्मे बिलिख्यैवं समाचरेत्॥ अर्थ-सब प्रकार के कंठरोगों में रक्त
अर्थ-तालु संहिति, तालुपुष्पुट, और । मोक्षण, तीक्ष्ण द्रव्यों का नस्य, और गडू. तालुकच्छप रोगों की चिकित्सा उक्त रीतिसे
पाधि धारण हितकारी होते हैं । इस में विलेखन करके करनी चाहिये । दारुहलदी की छाल, नीम, रसौत और . अपक्व तालुपाक की चिकित्सा ।
इन्द्रजौ का काढा अथवा मधुमिश्रित हरी. अपक्के तालुपाके तु कासीसक्षौद्रताय॑जैः।
तकी का काढा पान कराना चाहिये । . घर्षण कवलः शीतकषायमधुरौषधैः
कंठरोग में प्रतिसारण । अर्थ-अपक्क तालुपाकमें हीरा कसीस,
| श्रेष्ठाव्योषयवक्षारदा-दीपिरसांजनैः। शहत और रसौत द्वारा घर्षण तथा शीत
सपाठातेजिनीनिंबैः सूक्तगोमूत्रसाधितः । कषाय और मधुर औषधोंका कवल धारण करे कवलो गुटिकाचाऽत्र कल्पिताप्रतिसारणं
पक्वतालुपाक का उपाय। अर्थ--कंठरोग में त्रिफला, त्रिकुटा, पक्केऽष्टापदवद्भिन्ने तीक्ष्णोष्णैः प्रतिसारणम् । जवाखार, दारुहलदी, चीता, रसौत, पाठा, वृषनिवपटोलाद्यैस्तिक्कैः कपलधारणम् ।
मालकांगनी, नीम इन सवको कांजी और ____ अर्थ-पक्वतालुपाक में तीक्ष्ण और |
गोमूत्र में पकाकर इस काढे का कवलधारण उष्णवीर्य द्रव्यों द्वारा प्रतिसारण करके मंड- अथवा इस काढे से तयार किये हुए गुटका लाप शस्त्र द्वारा शतरंज की चालके समान द्वारा प्रतिसारण करे । छेदन करके अडूसा, नीम और पर्वल आदि उक्त रोग पर लेप । तीक्ष्ण द्रव्यों का कवल धारण करे। निचुलं कटभीमुस्तं देवदारुमहौषधम् ५७
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( ८४६ )
देव
बचाती च मूर्वा च लेपः कोणोर्तिशोफहा अर्थ - जलवेत, मालकांगनी, मोथा, सोंठ, वच, देती और मूर्वा इन सब द्रव्यों को पीसकर अग्नि पर रखकर कुछ गरम करके लेप करने से दर्द और सूजन दूर होजाते हैं ।
(
अष्टांगहृदय |
अंगुली शत्रकेणाsशु पटुयुक्तनखेन वा । पंचमूलांबुकवलस्तैल गंडूषनावनम् ५९ अर्थ- वातज रोहिणी को भीतर और बाहर दोनों ओर से स्वेदित करके अंगुलि शस्त्रद्वारा लवण संयुक्त नख दारा शीघ्र विलेखन करके पंचमूल के काढ़े का कल धारण करे तथा तेल का गंडूष और नस्य का प्रयोग करे |
पित्तजरोहिणी की चिकित्सा | विस्राव्य विसंभू सिनाक्षौद्रप्रियंगुर्भिः घर्मेत्सरोभ्रपत्तंगैः कवलः क्वथितैश्च तैः ६० द्राक्षापरूषककाथो हितश्च कवलग्रहे ।
अर्थ - पित्तज रोहिणी में प्रथम रुधिर निकालकर चीनी, मधु और प्रियंगु द्वारा घर्षण करे | दाख और फालसे के काढे का कवल भी इस रोग में हितकारी है ।
रक्तज रोहिणी का उपाय | उपाचरेदेवमेव प्रत्याख्यायास्त्रसंभवाम् ६१ अर्थ - रक्तज रोहिणी में रोगी के स्वजनों से कह देना चाहिये कि इस रोग का दूर होना न होना दैवाधीन है, यह कहकर पित्तज रोहिणी के सदृश चिकित्सा करनी
।
चाहिये ।
अर्थ - कफजरोहिणी में घर के धुंए से युक्त कटुवर्वोक्त द्रव्यों द्वारा प्रतिसारण करे वातज रोहिणी का उपाय । ओंगा, त्रिफला, अपराजिता, दंती, बायअथाऽतर्बाह्यतःस्त्रिन्नांवातरोहिणिकालिखेत् विडंग, सेंधानमक इन के कल्क के साथ सिद्ध किया हुआ तेल नस्य और गंडूष द्वारा प्रयुक्त करे ।
वृन्दादि की चिकित्सा | तद्वच्च वृंदशालुकतुंडके गिलायुषु ६३
अर्थ- बृन्दा, शालूक, तुंडकेरी, और गिलायु रोग में उक्त रीति से चिकित्सा करना चाहिये ।
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म० २२
कफज रोहिणी का उपाय | सागारधूमैः कटुकैः कफजा प्रतिसारयेत् । मस्यगंडूषयोस्तैलं साधितं च प्रशस्यते । अपामार्ग फलश्वेतादती जंतुघ्न सैंधवैः ।
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विद्रधिका उपाय |
fast स्राविते श्रेष्ठारोचनातार्क्ष्यगैरिकैः । सरोधपटुपत्तंगकडूषघर्षणे ॥ ६४ ॥
अर्थ- गलविद्रधि को शस्त्रद्वारा सावित करके त्रिफला, रोचना, रसौत, गेरू, लोध, नमक, पतंग और पीपल इन के द्वारा गंडूष और प्रतिपारण का प्रयोग करे |
वातज गलगंड की चिकित्सा | गलगंडः पवनजः स्विम्न्नो निःस्रुतशोणितः । तिलैबजैश्चलट्वोमाप्रियालज्ञणसंभवैः ६५ उपनाह्यो ब्रणे रूढे प्रलेप्यश्च पुनः पुनः । शिघ्र तिल्वक तकरीगजकृष्णापुनर्नवैः ६६ एकैषिकान्वितैः पिष्टैः सुरया कांजिकेन वा । कालामृतार्कमूलैश्च पुष्पश्च करहाटजैः । अर्थ- वातज गलगंड में स्वेदन करके रुधिर निकालना चाहिये, किर तिल, कंजा के बीज, जवासे के बीम, चिरोंजी, सनके
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अ. २२
उत्सरस्थान भाषाटीकासमंत ।
(८४७)
बीज, इनका लेप करना चाहिये। घाव भर | को पकाकर इस तेलसे मर्दन करे । इसमें जाने पर सहजना, लोध, जयंती, गजपीपल, कफनाशक धूमपान, वमन और नस्यादि सांठ, कालादाना, गिलोय, आम की नड का सदा सेवन करना चाहिये। अकरकरा के फूल और निसोध इन सब मेदोभव गलगंडका उपाय । . द्रव्यों को सुरा वा कांजी में पीसकर वार मेदोभवे सिरां विध्येत्कफघ्नं च विधि भजेत् बार उनका लेप करै ।
असनादिरजश्चैनं प्रातर्भूप्रेण पाययेत् ७२ गलगंडमें तैलपान । ___ अर्थ--मेदसे उत्पन्न हुए गलगंड में सिरा• गुडूचीनिंबकुटजहंसपादीबलाद्वयैः। वेध और कफनाशक संपूर्ण क्रिया करनी साधितं पाययेत्तैलं सकृष्णादेवदारुभिः। चाहिये । और असनादि की छालका चूर्ण ___ अर्थ- गिलोय, नीम, कुडा की छाल, गोमत्र के साथ प्रातःकाल पान करना चाहिये। हंसपादी, खरैटी, अतिबला, पीपल और अशान्तिमें कर्तव्य । । देवदारू इनके साथ सिद्ध किया हुआ तेल अशांती पाटयित्वा च सर्वान्वणवदाचरेत् गलगंडरोगी को पान कराना चाहिये । अर्थ--ऊपर लिखे हुए उपागोंसे गलगंड
कफज गलगंडका उपाय | की शांति न होनेपर सब प्रकार के गलकर्तव्य कफजेप्येतत्स्वेदविम्लापने त्वति ।। गंडों को शस्त्र से चीरकर घावके सदृश चि. लेपोजगंधातिविषाविशल्यासविषाणिकाः गुंजालाबुशुकाव्हाश्च पलाशक्षारकल्किताः
कित्सा करना चाहिये । अर्थ- कफज गलगंडमें वातज गलगंड | मुखपाक का उपाय । ... के सदृश चिकित्सा करना चाहिये इसमें | मुखपाकेषु सक्षौद्राः प्रयोज्या मुखधावनाः स्वेदन और विम्लापन अधिकता से करना | क्वथितात्रिफलापाठामृद्धीका जातिपलवार चाहिये । तथा अजगंध, अतीस, कलहारी,
| निष्ठेव्याभक्षयित्वावा कुठेरादिगणोऽथवा। मेढासिंगी, चिरमिठी, तूंबी, क्षुद्रमोथा, और
___ अर्थ -मुखपाक रोगमें त्रिफला, पाठा, ढाक का क्षार इन सब द्रव्यों को पीसकर
दाख, चमेली के पत्ते इन सब द्रव्यों के इनका लेप करना चाहिये।
काढे द्वारा मुखको धोना चाहिये । अथवा . उक्तरोगमें क्षारपानादि । ये सब द्रव्य और कुठेरादि गणके द्रव्यों मृत्रशृतं हठक्षार पक्त्वा कोद्रवभुक पिबेत् को चवाकर थूकना चाहिये। साधितं वत्सकाद्यैर्वा तैलं सपटुपंचकैः ।।
। वातजमुखपाक का उपाय । - कफनान् धूमधमननावनादींश्च शीलयेत्
लियत् मुखपाकेऽनिलाकृष्णापट्वेला प्रतिसारणं ___ अर्थ--क्षार पाक की रीतिसे सेवाल के
तैलं पातहरैः सिद्धं हितं कवलनायो। खारको गोमूत्र में पकाकर जलके साथ पान | अर्थ-वातज मुखपाक में पीपल, सेंधा . करे इसमें कोदों का सेवन पथ्यहै अथवा नमक और इलायची इसके द्वारा प्रतिसारण पांचोंनमक और वरसकादि गण के साथ तेल / करे । इसमें वातनाशक द्रव्यों के साथ
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(४८)
,
अशंगट्टदक्ष ।
अ. २२
पकाये हुए तेलका काल और नस्यद्वारा ) पूतिमुखका उपाय । प्रयोग करे ।।
वमिते प्रतिवदने धूमस्तीक्ष्णः सनावनः ।
समंगाधातकीरोध्रफलिनीपनकै लम् । रक्तज और कफज मुखपाक।
धावनं वदनस्यांतश्चूर्णितैरवचूर्णनम् । पित्ताने रक्तपित्तनाकफघ्नश्च कफे विधिः शीतादोपकुशोक्तं च नावनादि च शीलयेत् ___ अर्थ-रक्तपित्तज मुखपाक में रक्तपित्त अर्थ-पूति मुखमें वमन कराकर तीक्ष्ण नाशिनी तथा कफज मुखपाक में कफना- धूम और तीक्ष्ण नस्य का प्रयोग करै । शिनी क्रिया करनी चाहिये । मजीठ, धाय के फूल, लोध, प्रियंगु और पिटिकाओं का विलेखन ।
पदमाख इनके काढे से मुख को भीतर से लिखेच्छाखादिपत्रैश्च पिटिकाः कठिणाः
धोकर इन्हीं का चूर्ण मुखके भीतर बुर कदे स्थिराः ॥ ७६॥ | इसमें शीताद उपकुश में कहा हुआ नस्य अर्थ-सब प्रकार की कठोर और स्थिर | प्रयोग करना चाहिये। कुंसियों को शाकपत्रादि कर्कश पत्रों द्वारा कंठरोगनाशक गोली। विलेखित करे ।
फलप्रयद्वीपिकिराततिक्त
यष्टयासिद्धार्थकटुत्रिकाणि । - सान्निपातिक मुखपाक |
मुस्ताहरिद्रादययावशूक-: यथादोषोदयं कुर्यात्सन्निपाते चिकित्सितम् वृक्षाम्लकाम्लानिमवेतसाश्च ॥
अर्थ-सान्निपातिक मुखपाक रोगमें जिस अश्वत्थजम्बाम्रधनंजयत्वक दोषकी अधिकता हो उसी दोष के अनुसार
त्वक चाहिमारात्खदिरस्य सारः
कायेन तेषां घनतां गतेन चिकित्सा करनी चाहिये ।
तच्चूर्णयुक्ता गुटिका विधेयाः ॥ नवीन अर्बुद का उपाय ।
ता धारिता नंति मुखेन नित्यं नवेर्बुदे त्यसंवृद्ध छेदितं प्रतिसारणम् ७७
कंठौष्ठसाल्वादिगदान सुकृच्छ्रान् । स्वर्जिकामागरक्षौद्रैः काथो गंडूष इष्यते ।।
विशेषतो रोहिणिकास्यशोषगुडूचीनिंबकल्कोत्थो मधुतैलसमन्वितः७८
गंधान् विदेहाधिपतिप्रणीताः ।। यवानभुक् तीक्ष्णतैलनस्याभ्यंगांस्तथा
अर्थ-त्रिफला, चीता, चिरायता, मुल.
घरेत् । हटी, सरसों सफेद, त्रिकुटा, मोथा, हलदी, मनोनिया हो और दारुहलदी, जवाखार, विजौरा, अम्लवेत, सरह बढा भी न हो उसको छेदन करके पापल, जामन, आम, अर्जुन वृक्ष की छाल सज्जीखार सोंठ और मधुद्वारा प्रतिसारण अहिंमार की छाल और खैरसार इनके काढे करे । इस में गिलोय और नीम के काढे को गाढा करके इन्हीं के चूर्ण को मिलाकर का गण्डूष धारण करे, और तीक्ष्ण तेल की | गोलियां बनावै । इन गोलियोंको नित्यप्रति नस्य और अभ्यंग हितकारी है, इसमें नौ मुख में धारण करने से कण्ठ ओष्ठ और का पथ्य देना चाहिये।
| ताल आदि में होनेवाले अत्यन्त दारुण रोग
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म. २२
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८१६
-
सब शांत हो जाते हैं । रोहिणी, मुखशोष अर्थ-उक्त तेल को देह पर लगाकर और प्रतिमुख रोगों की यह परमोत्तम पंवाड, लोध और दारुहलदी का उबदना औषध है। यह औषध विदेहाधिपति की | करने से व्यंग, नीली और मुख दूषकादि बनाई हुई है।
रोग नष्ट होजाते हैं और मुख चन्द्रमा के सर्वरोगनाशक तैल। .
| समान कांतिमान होजाता है। मदिरतुलामंवुघटे पक्त्वा तोयेन तेन पिष्टैश्च ।
अन्य तैल ॥ चंदनोगककुंकुमपरिपेलववालकोशीरैः॥
पलशतं वाणात्तोयघटे सुरतरुरोध्रद्राक्षामंजिष्टाचोचपद्मकविडंगैः
पक्त्वारसेऽस्मिश्च पलाधिकैः ।
खदिरजंबूयष्टयानंतानैः स्पृक्कानतमखकट्फलसूक्ष्मसाध्यामकः
सपत्तंगैः॥
रहिमारनीलोत्पलान्वितैः ॥ तैलप्रस्थ विपचेत्
तैलनस्थं पाचयेत्श्लक्ष्णपिष्टकर्षाशैः पाननस्यगंडूषैस्तत् ।
रेभिर्द्रयैर्धारितं तन्मुखेन् ।. हत्वास्ये सर्वगदान जनयति
रोगान्सर्वान् हंति वक्रो विशेषागाधी दृशं श्रति च वाराहीम् ॥
स्थैर्य धत्ते दंतपंक्तेश्चलायाः॥
अर्थ-एक तुला नील कुरंटे को एक अर्थ-एक तोला खैर को एक घट जल
घट जल में पकावे, चौथाई शेष रहने पर में पका, चौथाई शेष रहने पर उतार कर छानले, इस काढ़े में चन्दन, अगर, कुंकुम,
उतार कर छानले, इस काढे में खैर,जामन केवटी मोथा, नेत्रवाला, खस, देवदारू,
की छाल, मुलहटी, अनंतमूल, अहिमार,
| नीलकमल, प्रत्येक एक पल इनका कल्क लोध, दाख, मनीठ, दालचीनी, पदमाख,
और एक प्रस्थ तेल डालकर फिर पकावै बायविडंग, ब्राह्मी, तगर, नखी, कायफल,
इस तेल को मुख में धारण करने से सब छोटी इलायची, रोहिषतृण और पतंग प्रत्येक
प्रकार के मुखरोग नष्ट होजाते हैं । विशेष एक कर्ष इन सबका कलंक और एक प्रस्थ
करके हिलते हुए दांतों को दृढ करने के तेल डालकर फिर पकावै । इस तेल को पान,
लिये तो बहुतही उत्तम है । .. नस्य और गंडूष द्वारा मुख में धारण करने से
अन्य गुटिका। मुख में होनेवाले सम्पूर्ण रोग नष्ट होजाते हैं।
खदिरसारादू द्वे तुले पचेद्वलकात्तुलां इसके सेवनसे गिद्ध के समान तीव्र दृष्टि और
चारिमेदसः। शू कर के समान श्रवणशक्ति हो नाती है । घटचतुष्के पादशेषेऽस्मिन् पूते पुनः . मुखका उद्भर्तन ।
क्वाथनाद् घने ॥ उद्धर्तितं च प्रपुन्नाटरोध्र
आक्षिकं क्षिपेत्सुसूक्ष्मं रजः सेव्यांबुपत्तं. दाऊभिरभ्यक्तमनेन बक्रम् ।
गगैरिकम् । नियंगनीलीमुखदृषिकादि । चंदनद्वयरोध्रपुंड्राहवे यष्टयाहवलाजिनसंजायते चंद्रसमामकांति ॥
द्वयम् ॥
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(८५०)
मष्टांगहृदय ।
अ० २२
धातकीकट्फद्विनिशात्रिफलाचतुर्मा- अर्थ-ऊपर कहे हुए तेलके काथ द्रव्यों
तजोगकम् । को विपर्यय करके अर्थात् एक तुला खैरमुस्तमंजिष्ठान्यग्रोधप्ररोहमांसीयवासकम्। पन्न केलेयसमंगाश्च शीते तस्मिस्तथा
सार और दो तुला खैरकी छाल लेकर काढा
पालिकां पृथक् । | करे । शेष सब द्रव्य ऊपर लिखे प्रमाण से नातिपत्रिकां सजातीफलां सहलयंगकंको- डालदेवै इस तेलको पकाकर मुख में धारण
लकाम्
करने से सम्पूर्ण मुखरोग जाते रहते हैं । स्फटिकशुभ्रसुरभिकर्पूरकुडवंचतत्रावपेत्ततः कारयेद्गुटिकाः सदा चैता धार्या मुखे तद्न हिलते हुए दांतों को दृढ करने के लिये
दापहाः ॥ ९४ ॥ यह प्रधान औषध है। . अर्थ-दो तुला खरसार और एक तुला
अन्य प्रयोग। खैर की छाल इनको चार घट पानी में
खदिरेणैता गुटिकाऔटावै, चौथाई शेष रहने पर उतार कर
स्तैलमिदं वारिमेदसा प्रथितम् ।
अनु शीलयन् प्रतिदिन छानले । इस काढे को फिर पकावे और
स्वस्थोऽपि दृढद्विजो भवति ॥ गाढा होने पर इसमें खस, नेत्रवाला, पतंग | अर्थ-खैर की उक्त गोलियां तथा अरिगेरू, सफेद चन्दन, रक्तचंदन, लोध, मेद से बनाया हुआ ऊक्त तेल । इनको पुंडरिया, मुलहटी, लाख, रसौत, सौवीरांजन | नित्य प्रति सेवन करने से मनुष्य स्वस्थ धाय के फूल, कायफल, हलदी, दारुहलदी । और दृढदत होजाते हैं। त्रिफला, चातुर्जात, भगर, मोथा, मजीठ, मुखनाशक अन्य प्रयोग । बटके अंकुर, जटामांसी, दुरालभा, पाखं, क्षुद्रागुडू सुमनःप्रवालएलुआ और मजीठ, प्रत्येक दो तोला इनका दावीयवासत्रिफलाकषायः। चूर्ण करके मिला देवे, फिर ठंडा होनेपर
क्षोद्रेण युक्तः कवलग्रहोऽय
सर्वामयान् वऋगतान्निहति ॥ इसमें जावित्री, जायफल, लोंग, कंकोल, अर्थ-कटेरी, गिलोय, चमेली के अंकुर प्रत्येक एक पल तथा स्फटिक के सदृश | दारूहलदी, दुरालभा, और त्रिफला इनके सफेद कपूर एक कुडव मिलाकर गोलियां
काढे में शहत मिलाकर कवल धारण करने बनालेवे । इन गोलियों को मुखमें धारण से सम्पूर्ण मुखरोग जाते रहते हैं । करने से मुखमें होनेवाले संपूर्ण रोग नष्ट उक्तरोगों पर चूर्ण । होजाते हैं।
पाठादारूऽत्वकूकुष्ठमुस्तासमंगाअन्य तैल।
तिक्तापीतांगारोध्रतेजोवतीनाम् । कायौषधव्यत्यययोजनेन
चूर्णः सक्षाद्रो दंतमांसार्तिकंड. तैलं पचेकल्पनयाऽनयैव।
पाकस्रावाणां नाशनो घर्षणेन ॥ सर्वास्यरोगोद्धतये तदाहु
अर्थ-पाठा, दारुहलदी, दालचीनी, तस्थिरत्वे विदमेव मुख्यम् ॥ | कूठ, नागरमोथा, मजीठ, कुटकी, पातलोध
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमत।
(८५१)
-
और मालकांगनी इनको पीसकर शहत में | पकाकर गोलियां बनाये । यह रसक्रिया गले सानकर दांतों पर रिगड़ने से दांतके मसूडों के रोगोंको दूर करनेवाली है। का दर्द, खुजली, पाक और स्राव जाते हरीतकी का सेवन। रहते हैं।
गोमूत्रक्वथनविलीनविग्रहाणां कालक चूर्ण।
पथ्यानां जलमिशिकुष्ठभावितानाम् । गृहधूमताभ्यपाठाव्योषक्षाराग्न्ययोवरा- भत्तारं नरमणवोऽपि वक्ररोगाः
तेजोः । श्रोतारं नृपमिव न स्पृशंत्यनर्थाः ॥ मुखदंतगर्लविकारे सक्षौद्रः कालको अर्थ-प्रथम गोमूत्रके काथमें भिगोई हुई
. विधार्यश्चूर्णः ॥ फिर नेत्रवाला, सोंफ और कूठ इनकी भावअर्थ--घर का धूआं, रसौत, पाठा, ना दी हुई हरडका सेवन करने वाले मनुष्य त्रिकुटा, जयाखार, चीता, अगर, त्रिफला के मुखको किचिन्मात्र भी मुखरोग स्पर्श
और मालकांगनी इन को पीसकर शहत में | नहीं कर सकते हैं, जैसे मंत्रियों की युक्तिमिलाकर मुख में धारण करने से मुख दांत पूर्वक वातों को सुननेवाले राजा के अनर्थ
और गलगण्डादि रोग जाते रहते हैं । इस स्पर्श नहीं कर सकते हैं । चूर्ण का नाम कालक है।
मुखपाकनाशक क्वाथ । पीतक चूर्ण
सप्तच्छदोशीरपटोलमुस्तदात्विसिंधूद्भवमनः शिलायावशः हरीतकीतिककरोहिणीभिः ।
यष्टयाइवराजदुमचंदनैश्च धार्यः पीतकचू! दंतास्यगलामये क्वार्थ पिबेत्पाकहरं मुखस्य ॥
समवायः॥ __ अर्थ-दारुहलदी की छाल, सेंधानमक,
अर्थ-साता, खस, पर्वल, मोथा, हरड, मनसिल, जवाखार, हरताल इन सव द्रव्यों
कुटकी, मुलहटी, अमलतास और रक्तचन्दन
इनका काढा पीनेसे मुखपाक जाता रहता है के चूर्ण को घी और शहत में मिलाकर
मुखरोग नाशक कषाय । मुख में धारण करने से मुख दांत और गले
पटोलशुठीत्रिफलाविशालाके सम्पूर्ण रोग नष्ट हो जाते हैं । इस चूर्ण
त्रायतितिक्ताद्विनिशामृतानाम । का नाम पीतक है।
पीतः कषायो मधुना निहति गलरोगनाशिनी गुटिका । मुखस्थितश्चास्यगदानशेषान् ॥ द्विक्षारधूमवरापंचपटुव्योषवेल्लगिरिताक्ष्यः अर्थ-पर्वल, सांठ, त्रिफला, इन्द्रायण, गोमूत्रेण विपक्का गलामयघ्नी रसक्रियया। त्रायंती, कुटकी, हलदी, दारुहलदी और ___ अर्थ-जवाखार, सज्जीखार, गृहधूम, गिलोय इनके काढेमें शहत मिलाकर पान त्रिफला, पांचों नमक, त्रिकुटा, वायबिडंग करे अथवा मुखमें गंडूष धारण करे तो सब और रसौत इन सब च्यों को गोमूत्रमें प्रकार के मुखरोग दूर हो जाते हैं।
कहरितालैः।
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(८५२)
अष्टांगहृदय।
म. २३
मुखपाकनाशक प्रयोग।
उक्तरोगों में संशोधन । "स्वरसः क्वधितोदाा धनीभूतः कायशिरसोविरेकोवमनं कपलनहाश्च कटु. सगैरिकः।।
कतिक्ताः। आस्यस्थः समधुर्बक्रपाकनाडीव्रणापहः। प्रायः शस्तं तेषां कफरक्तहरं तथा कर्म । अर्थ-दारुहलदी के रसको अग्नि पर
अर्थ-इन संपूर्ण रोगोंमें कायविरेचन, पकाने से गाढा हो जाने पर उसमें गेरु और शिरोधिरेचन, वमन, कटु और तिक्त द्रव्यों शहत मिलाकर मुखमें धारण करने से मुख- का कवल, तथा कफरक्तनाशक सपूर्ण उपाय पाक और नाडीव्रण दूर हो जाते हैं।
विशेष रूपसे करने चाहिये । अन्य प्रयोग।
मुखरोगों में पथ्य । पटोलनिवयष्टयाइववासाजात्यरिमेदसाम
यवतृणधान्यंभक्तविदलैक्षारोषितैरपत्रेहाः खदिरस्य वरायाश्च पृथगेवं प्रकल्पना ।
यूषा भक्ष्याश्चहितायश्चान्यत्श्लेष्मनाशाय
अर्थ-इन सब दांतके रोगोंमें जौ और ...अर्थ-पर्वल, नीमकी छाल, मुलहटी,
तृण धान्यका अन्न, क्षारोषित मुंग आदिका अडूसा, चमेली, दुर्गेधित खैर और त्रिफला
घृतरहित यूष तथा अन्य कफनाशक खाद्य इनकी भी उक्त रीतिसे अलग अलग कल्प
पदार्थों का सेवन करना हित है । ना करनी चाहिये ।
मुखरोगके उपायमें शीघ्रता। दंतदृढीकरण गंडूष !
| प्राणानिलपथसंस्थाः श्वसितमपि निरुधते खदिरायोवरापार्थमदयंत्यहिमारकैः ।।
प्रमादवतः। गंडूषोंऽबुशूतैर्धार्योदुर्बलद्विजशांतये १०७ / कंठामयाश्चिकित्सितमतो दूतं तेषु कुर्वीत __ अर्थ-खैर, अगर, त्रिफला, अर्जुन की अर्थ-प्राणवायुके मार्ग में स्थित हुए भयाछाल, मदयंती, अहिमारक इन सब द्रव्यों नक कंठरोग प्रमादी मनुष्य के श्वासको रोक का काढा करके गंडूष धारण करने से दु- लेते हैं, इसलिये इन रोगोंकी चिकित्सा में र्बल दांत दृढ हो जाते हैं।
शीघ्रता करना परम आवश्यकीय है। मुखरोग में रक्तस्राव । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी. मुखदतमुलगलजाः प्रायो रोगाः कफान्न कान्वितायां उत्तरस्थान कंठरोग प.
भूयिष्ठाः तिषेधो नाम द्वाविंशोऽध्यायः । तस्मातेषामलकदू रुधेिर विस्राव्येहुष्टम् ।
अर्थ-मुख, दांतकी जड़ और गले में त्रयोविंशोऽध्यायः होनेवाले रोग में प्रायः कफ और रक्तके प्रकोपसे उत्पन्न हुआ करते हैं। इसलिये अथाऽतः शिरोरोगविज्ञानं व्याख्यास्यामः इन सब रोगोंमें बार बार दुष्ट रक्त निका- अर्थ-अब हम यहां से शिरोरोग विज्ञाहना चाहिये।
नीय नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे।
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अ० २३
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
शिरोरोग का कारण । " धूमातपतुषारांयुक्रीडातिस्वप्नजागरैः । उत्स्वेदाधिपुरोवासवाष्पनिग्रहरोदनैः १ अत्यंबुमद्यपानेन कृमिभिर्वेगधारणैः । उपधानमृजाभ्यंगद्वेषाधः प्रततक्षणैः । २ असात्म्यगंधदुष्टामभाग्याद्यैश्च शिरोगताः । जनयंत्यामयान् दोषाः
अर्थ - धूंआ, धूप, सर्दी, जलक्रीडा, दिनमें बहुत सौना, रात्रि में जागना, ऊर्ध्वस्वेद, साम्हनेकी प्रबल बायु, अथवा पूर्वदिशा की वायु, आंसुआ का रोकना, रौना, अधिक जलगीना, अधिक मद्यपान करना, कृमि, मलमूत्रादि के बेगको रोकना, बिना तकिया लगाये शयन करना, स्नान न करना, तैलादि न लगाना, नीचेको अधिक दृष्टि रखना, असात्म्यगंध, दुष्ट आम और अति भाषणादि कारणों से शिरोगत संपूर्ण दोष सिर के रोगों को उत्पन्न करते हैं । वातजशिरोरोग |
तत्र मारुतकोपतः ॥ ३ ॥ निस्तद्येते भृशं शंखौ घाटा संभिद्यते तथा । भ्रुवोर्मध्यं ललाटं च पततीवातिवेदनम् ४ बाध्येते स्वनतः श्रोत्रे निष्कृष्येत इवाक्षिणी घूर्णतीव शिरः सर्व संधिभ्य इव मुच्यते । स्फुरत्यतिशिराजालं कंदराहनुसंग्रहः । प्रकाशास्त्रहता घ्राणस्त्राषोऽकस्माद्यथाशमी मार्दवं मर्दनस्वेव धैश्च जायते । शिरस्तपोऽयम्
अर्थ- इनमें से वायुके कारण दोनों कनपटियों में सुई छिदने की सी पीडा होती है और घाटामें भेदनवत् वेदना होती है। दोनों भृकुटियों के बीच में और ललाट में गिरने के से समान अत्यन्त वेदना होती है ।
'
( ८५३ )
शब्द के कारण दोनों कानों में वेदना होने लगती है, आंखें निकली हुई सी माळूम होती है, संपूर्ण मस्तक घूमता हुआ दिखाई देता है, और संधियों से हटा हुआ माळूम होने लगता है । सिराजाल फडकने लगता है, कंधे और हनुप्रदेश क्रियाहीन से प्रतीत होते हैं, चांदना अच्छा मालूम नहीं देता है नासिका से जल टपकने लगता है, स्मात् दर्द उठकर शांत हो जाता है, मर्दन स्नेह स्वेदन और बन्धन द्वारा पीडा का ह्रास होता है । इस शिरोरोग को शिरस्ताप भी कहते हैं ।
अक
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अर्द्धावभेदक के लक्षण । अर्धे तु मूर्ध्नः सोर्घावभेदकः ॥ ७ ॥ पक्षात्कुप्यति मासाद्वास्वयमेव च शाम्यति प्रतिवृद्धस्तु नयनं श्रवणं वा विनाशयेत् ८ शिरोभितापे पत्तोत्थेशिरो धूमायनं ज्वरः स्वेदोक्षिदहनं मूर्छा निशि शीतैश्वमार्दवम्
अर्थ - मस्तक के आधे भाग में जो शिरोविकार होता है, उसे अर्द्धादिक कहते हैं । यहरोग पन्द्रहवें दिन वा महिने महिने में कुपित होता है और औषध के बिना अप आप शांत होजाता है । अर्द्धावभेदक प्रबल होजाने पर नेत्र वा कानों को मार देता है, पित्तजनित शिरोभिताप में मस्तक से धुआं निकलने कीसी पीडा होती है, ज्वर, पसीना, नेत्रों में दाह, और मूर्च्छ, ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । रात्रिके समय शीतल उपचारों से दर्द में कमी होजाती है । कफजशिरोऽभिताप |
refer कफजे मूर्ध्ना गुरुस्तिमितशतिता ।
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(८५४)
मष्टांगहृदय ।
म. २३
शिरानिस्पंदतालस्यरुग्मंदान्हयाधिकानिशि| क्षीणता, रूखापन, सूजन, छिदने और तंद्राशुनाक्षिकूटत्व कर्णकंड्यने वमिः। मिदने कीसी पीडा, दाह, फूटन, दुर्गधि, अर्थ -कफजशिरोभिताप में माथेमें भारा
तालु, और मस्तक में खुजली, शोष, प्रमीपन, स्तिमिता, शीतलता, शिगओं का
लक, तांबे के से रंगका स्वच्छ नासिका. फडकना, आलस्य, दिनमें दर्दकी कमी,
मल, और कर्णनाद । ये सब लक्षण उपरात्रिमें अधिकता,तंद्रा, नेत्रगोलक में सूजन, स्थित होते हैं। तथा कान खुजाने में वमन | ये सब लक्षण
सिरकंप के लक्षण । उपस्थित होते हैं ।
वातोल्बणाः शिरः कंपं तत्संझं कुर्वतेमलाः रक्तजशिरोभिताप ।
अर्थ-संपूर्ण वाताधिक्य रोगं शिरःकंपरक्तात् पित्ताधिकरुजः
नामक रोगको उत्पन्न करते हैं, इसमें सिर ___अर्थ-रक्तज शिरोभितापमें पैत्तिक शिरोभिताप की अपेक्षा वेदना अधिक
पित्तप्रधामदोषों के रोग । होती है ।
पित्तप्रधानताद्यैः शंखे शोफः सशोणितः सानिपातिक शिरोभिताप। तीव्रदाहरुजारागप्रलापज्वर तृड्भ्रमाः १६
सवैस्यात्सर्वलक्षक्षणः। तितास्यः पीतवदनः क्षिप्रकारी सशंखकः अर्थ-सान्निपातिक शिरोभितापमें बाता
त्रिरात्राज्जीवितहंतिसिध्यत्यप्याशुसाधित:
अर्थ-पित्ताधिक्य तथा रक्तसहित वातादि दिक तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं। सिरमेकीडों का कारण ।
| दोषों के द्वारा कनपटी में सूजन, तीब्रदाह, संकीण जनैनि क्लेदिते रुधिरामिषे । व्यथा, ललाई, प्रलाप, ज्वर, तृषा, मुखमें कोपिते सन्निपाते च जायते मूर्ध्नि जंतवः | कडवापन, तथा पीलापन होता है । इसको शिरसस्ते पिवतोऽनं घोराः कुर्वति वेदनाः शंखकरोग कहते हैं । यह शीघ्रही पककर चित्तविभ्रंशजननीवरः कासो वलक्षयः१३ सैत्यशोफे व्यवच्छेददाहस्फुटनपूतिताः ।
तीन दिनमें ही प्राणों को नष्ट करदेता है। कपाले तालु शिरसोः कंडूः शोषप्रमीलका |
इसलिये इस रोगीकी चिकित्सा शीघ्र करनी तानच्छसिंघाणकता कर्णनादश्च अंतुजे ।। चाहिये। ___अर्थ-संकीर्ण भोजनों के कारण सिर सूर्यावर्त के लक्षण । तथा रक्त और मांस क्लेदित होजाते हैं और पित्तानुवद्धः शंखाक्षिभूललारेषु मारुतः । वातादि तीनों दोषों के प्रकुपित होजाने के
रुजं सस्पंदनां कुर्यादनुसूर्योदयोदयाम् १८ कारण मस्तक में कीडे पड जाते हैं और ये
मामध्यान्हविवर्धिष्णुःक्षुद्वतः सा विशेषतः
अव्यवस्थितशीतोष्णसुखाशाम्यत्यतःपरम् कीडे सिरके रुधिर को पीते हुए मनको नष्ट
सूर्यावर्तः स करनेवाली घोर वेदना को उत्पन्न करदेते
___ इत्युक्ता दश रोगाः शिरोगता। है । क्रिमिज शिरोरोग में ज्वर,खांसी,बलकी | अर्थ-पित्तयुक्त वायु कनपटीं, आंख,
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अ० २३
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उत्तरस्थान भाषादीकासमेत ।
भृकुटी, और ललाट में ऐसी वेगवती बेदना को उत्पन्न कर देती है कि जो सूर्योदयकाल से बढने लगती है और मध्यान्ह तक बढ़ती चली जाती है । और मध्यान्ह से पीछे धीरे धीरे घटती चली जाती है । इसे सूर्यवर्त कहते हैं, यह रोग भूखे मनुष्य को बहुत सताता है, इसमें कभी ठण्ड और कभी गरम अच्छा लगता है ।
कपालगत नौ व्याधि |
शिरश्वेवं च वक्ष्यते कपाले व्याधयो नव । अर्थ - मस्तक की तरह कपाल में भी नौ व्याधियां होती हैं, अब उनका वर्णन करते हैं ।
उपशीर्षकरोग |
कपाले पवने दुष्टे गर्भस्थस्याऽपि जायते । सवर्णो मरुजः शोफस्तं विद्यादुवशीर्षकम् । अर्थ- -कपाल में वायु दूषित होकर गर्भस्थ बालक के भी देहके वर्ण के सदृश वेदना रहित सूजन को पैदा करदेती है । इसको उपशीर्षक रोग कहते हैं ।
पटकादि के लक्षण | यथाशेषोदयं ब्रूयात् पिटिकार्बुदविद्रधीन् । अर्थ-पिटका, अर्बुद और विद्रधि इन रोगों में जिस दोष की अधिकता हो उस को उसी दोष से उत्पन्न हुई जानना चाहिये
अरूषिका के लक्षण | कपाले लदेबहुलाः पित्तासृक्श्लेष्मजंतुभिः कं सिद्धार्थ कनिभाः पिटिकाः स्युररूषिकाः
अर्थ = पित्तरक्त इलेष्मा और कृमिद्वारा कपाल में जो कांगनी और सफेद सरसों के समान क्लेदाधिक्य बाली फुंसियां होजाती है । उनको अरूपिका कहते हैं ।
( ८५५ )
दारुणक के लक्षण | कंडूकेशच्युतिस्वाप रौक्ष्यकृत् स्फुटनं त्वः सुसूक्ष्मं कफवाताभ्यां विद्याद्दारुणकं तु तत् अर्थ - कफ और वायु के प्रकोप से और उसमें खुजली, बच्चों का गिरना, मस्तक का चर्म बहुत बारीक २ फटजाता और सुन्नता पैदा होजाती है । इसको. दारुणक रोग कहते हैं ।
है
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इन्द्रलुप्त के लक्षण | रोमकूपानुगं पित्तं वातेन सह मूर्छितम् । प्रच्यावयति रोमाणि ततः श्लेष्मा सशोणितः रोमकूपान् रुणद्ध्यस्य तेनान्येषामसंभवः ॥ तर्दिद्रलुप्तं रूढ्यां च प्राहुश्चाचेति चापरे ।
1
अर्थ - रोमकूपानुगत पित्त वायुके साथ मिलकर सम्पूर्ण रोमों को गिरा देता है । इससे पीछे सरक्त कफ रोमकूपों को रोक देता है । इस लिये इस जगह और रोम उगने नहीं पाते हैं, इस रोग को इन्द्रलुप्त कहते हैं, और चाच भी बोलते हैं खलति के लक्षण | खलतेरपि जन्मैव सदनं तत्र तु क्रमात् ॥ अर्थ - खलित रोग की उत्पत्ति इन्द्रळुतके समानही होती है, इस रोग में वाल धीरे २ गिरते हैं । इन्द्रलुप्त में सहसा गिर पड़ते हैं, इन दोनों रोगों में यही भेद है । वातजखलति ।
| सावातादग्निदग्धामा पित्तात्स्विन्नशिरावृता कफाद्धनत्वग्वणश्च यथास्वनिर्दिशेत्त्वाच दोषैः सर्वाकृतिः सर्वैरसाध्या सा नखप्रभा दग्धानिनेव निर्लोमा सदाहा या च जायते
अथे वात प्रकोप में खलति अग्निदग्ध के समान, पित्त प्रकोष में स्विन्न शिराकृत: तथा कफ प्रकोप में खलित के स्थान की
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(८५६)
अष्टांगहृदय ।
त्वचा घन और दोषानुरूप वर्ण विशेष हो- पलित विवर्ण और स्पर्श को न सहनेवाला जाती हैं, और दोष के अनुसार स्वचा का होता है। रंग होजाता है। सान्निपातिक खलित में असाध्य खलितादि । तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं । जो असाध्या सनिपातेन खलतिः पलितानि च खलित नख की कांतिके समान, अग्निदग्ध | अर्थ-सान्निपातिक खालत और पलित के सहश रोम रहित और दाहयुक्त होती है, रोग भसाध्य होते हैं । वह असाध्य होती है।
| पलितादि में रसायन । पलित का कारण । शरीरपारणामात्थान्यपक्षत रलायनम् ॥ शोकश्रमक्रोधकृतः शरोिप्मा शिरोगतः। अथे-शरीर के परिणाम अर्थात् बुद्धाकेशान् सदोषः पचति पलितं संभवत्यतः | बस्था के कारण उत्पन्न हुए पलितरोग में - अर्थ-शोक, श्रम और क्रोधके कारण | रसायन क्रियाओं का प्रयोग करना चाहिये। शरीर की ऊष्मा सिरमें पहुंचकर और दोषों | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीसे मिलकर संपूर्ण केशों को पका देती है। | कान्विताशं उत्तरस्थाने शिरोरोगविइसीसे पलितरोग की उत्पत्ति होती है । | ज्ञानीयोनाम त्रियोविंशोऽध्यायः । केशों के कुसमय सफेद होजाने को पलित कहते हैं।
चतुर्विशोऽध्यायः। पलित के लक्षण । तदातास्फुटितं श्यावं खरं रूक्षं जलप्रभम् पित्तात्सदाहं पीताभ कफात् स्निग्धं अथाऽतः शिरोरोगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः
विवृद्धिमत अर्थ-अब हम यहां से शिरोरोग प्रतिस्थलं सुशलं सर्वैस्तु विद्याध्यामिश्रलक्षणम् धनागक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। अर्थ - वायुसे उत्पन्न पलित स्फुटित,
वातजशिरोभिताप की चिकित्सा। श्याववर्ण, खर, रूप, और जल के समान | होता है । पित्तज पलित दाहयुक्त और | श
शिरोऽभितापेऽगिलजे घातव्याधिविधि
चरेत् । पीलापन लिये होता है । कफजपलित स्नि- अर्थ-यातज शिरोभिताप में वातव्याधि ग्ध, वृदिशील, स्थूल श्रार शुक्ल होता है। की चिकित्सा के समान क्रिया करनी त्रिदोष नपलित में तीनों दोषों के लक्षण
चाहिये। होते हैं।
अन्य उपाय । शिरोरोग पलित।
घृताभ्यक्तशिरा रात्रौ पिवेदुष्णपयोनुपः ॥ शिरोरुजोद्भवं चान्यद्विवर्ण स्पर्शनासहम्। माषान् मुद्रान् कुलत्थाम्वा तद्वत्वादेत् - अर्थ-शिरकी वेदना से उत्पन्न हुआ
घृतान्वितान् ।
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म. १४
उत्तरस्थान भाषाटीकाप्समेत।
तैलं तिलाना कर वा क्षीरेण सह पाययेत् | नस्यमुष्णांबुपिष्टानि सर्वमूर्धरुजापहम् । रिडोपनाहस्वेदश्व मांसधान्यकृता हिताः। अर्थ-कपास की मज्जा, तज, नागरबातम्नदशमूलादिसिद्धक्षीरेण सेचनम् । मोथा. और चमेली की कली इन सब द्रव्यों निधनस्य तथा धूमःशिरःश्रवणतर्पणम्।
को गरम जलके साथ पीसकर नस्य लेनेसे अर्थ-वात जशिरोरोग में मस्तक पर घी लगाकर रात्रिके समय घी पीना चाहिये,
सव प्रकार के शिरोरोग जाते रहते हैं।
रक्तपित्तज शिरोरोग।। अथवा उरद, मुंग, वा कुलथी खाकर गरम | दूधका अनुवासन करना चाहिये । अथवा
शर्कराकुंकुमशृतं घृतं पित्तासुगन्वये ॥
प्रलेपः सघृतैः कुष्टकुटिलोत्पलचंदनैः । तिलका तेल वा कल्क दूध के साथ पावै । बातोद्रेकभयाद्रक्तं न चास्मिन्नवसेचयेत् ॥ इस रोगमें मांस और धान्यकृत पिंडस्वेद, इत्यशांतौ जले दाहः कफे चोष्णं यथोदितम् उपनाह स्वेद, तथा वातनाशक दसमूलादि
अर्थ-त.पितज शिरोरोग में शर्कर। से सिद्ध किये हुए दुग्धका परिषेक, स्निग्ध
और कुंकुम के साथ पकाया हुआ धी नस्य, धूमपान, मस्तक और कर्णतर्पण
! हितकारी होता है । इसमें कूठ, तगर,नीहितकारी हैं।
लोत्पल और चन्दन का लेप भी हितकारी शिरोरोग में नस्य ।
है। रक्तमोक्षण से वायु का प्रकोप होता घरणादौ गणे क्षुण्णे क्षीरमर्धोदकं पञ्चेत् ॥ | है, इसलिये इसमें रक्तमोक्षण नहीं करना क्षीरावशिष्टं तच्छीतं मथित्वा खारमाहरेत् | | चाहिये । इन उपायों के करने पर भी ततो मधुरकैः सिद्ध नस्यतत्पूतित हविः ॥ यदि वायुकी शांति नहो तो वायु में दाह ___ अर्थ-वरुणादि गण के कल्क के साथ |
और कफ में यथोक्त उष्ण क्रिया इष्टहै । भाधा जल मिला हुआ दूध पकाकर दूध
__ अझैवभेदक का उपाय । शेष रहने पर उतार कर छानले । ठंडा अर्धावभेदकेष्येषा पथादोषान्श्याक्रिया॥ होने पर इसको मथकर माखन निकाल अर्थ-अविभेदक में दोषों का संबंध लेवे। फिर मधुरगणोक्त द्रव्यों के साथ बिचारकर इसी रीति से चिकित्सा करनी इस घी को पकाकर इसकी नस्य लेवै । | चाहिये । यह नस्य वातज शिरोरोग में बहुत उत्तमहै। उक्तरोग में नस्यादि । उक्तरोग में घृतपान ।
शिरीषवीजापामार्गमूलं नस्य विडान्वितम् घर्गेऽत्र पक्कं क्षीरे च पेयं सर्पिः सशर्करम् ।
स्थिरारसोवालेए प्रपुन्नाटोऽम्लकल्किता
___अर्थ-सिरस के बीज, ओंगा की जड़, ___ अर्थ-वरुणादिगण और दूधके साथ घृत को पकाकर चीनी मिला कर पीना
और विडनमक, इनकी नस्य अथवा शाल. उत्तम है।
पीके काटे की नस्य अथवा कांजी के . अन्य नस्य ।
साथ पिसे हुए पंवाड के बीजों का लेप कापसमजात्वमुस्तासुमनाकोरकाणि च हितकारी है ।
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(८५८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २४
सूर्यावर्त की चिकित्सा । | का स्वेद, प्रलेप और नस्यादि तथा उपपर्यावर्ते तु तस्मिस्तु लिरयापहरेदसक । वास हितकारी हैं । सन्निपात में वातादि
अर्थ-सूर्यावर्त. शिरोरोग में भी इसी | दोषों की मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये तरह से चिकित्सा करना चाहिये । इस | कृमिशिरोरोग का उपाय | रोग में फस्द द्वारा रुधिर निकालना कृमिजे शोणितं नस्यं तेन मूर्छति जंतवः । उचित है।
मत्ताः शोणितगंधेन निर्याति घ्राणवक्त्रयोः पित्तज शिरोभिताप का उपाय ।।
सुतीक्ष्णनस्यधूमाभ्यां फुर्यानिहरणं ततः ।
। अर्थ--कृमिज शिरोरोग में रुधिर की शिरोऽभितापे पित्तोत्थे निग्धस्य ब्यधयेलिराम् ॥ ११ ॥
नस्य देना चाहिये।क्योंकि रुधिर की गंध से शीताः शिरोमुखालेपसेकशोधनयस्तयः । सब कीडे मूर्छित और मत्त होकर मुख जीवनीय शृते क्षीरसर्पिषी पाननस्ययोः । और नाक द्वारा निकल पड़ते हैं। पीछे __ अर्थ-पित्तन शिरोरोग में स्नेहके प्रयोग अत्यन्त तीक्ष्ण द्रव्यों की नस्य और धुंए भोगी कोस्निग्ध करके फस्द खोलना का प्रयोग करने से बचे हुए कीडों को चाहिये । तथा मस्तक और मुख पर शीतल भी बाहर निकाल देना चाहिये । लेप और शीतल परिषेक करना उचित है।
नस्यविधि । इसमें शोधन वस्ति, तथा जीवनीय गण के विडंगस्वर्जिकादंतीहिंगुगोमूत्रसाधितम् । साथ दूध और घृत को पकाकर इस दूध कटुनिगुदीपीलुतैल नस्यं पृथक् पृथक् । वा घी को पान और नस्य द्वारा व्यवहार अर्थ--बायविडंग, सज्जीखार, दंती, में लावे ।
। हींग और गोमूत्र इनके साथ सरसों का रक्तजशिरोरोग का उपाय। तेल, नीमका तेल, गोंदी का तेल, अथवा फर्तव्यं रक्तजेऽप्येतत् प्रत्याख्याय च शंखके पीलु का तेल पकाकर उसकी नस्य देवै ।
अर्थ-रक्तज शिरोरोग में तथा शंखक इनमें से हर एक की नस्य हितकारी है । में ऐसी ही रीति से चिकित्सा करनी कृमिनाशक योजना। चाहिये । शंखक रोग की चिकित्सा केवल | अजामूत्रद्रुतंनस्येकृमिजित् कृमिजित्त्परम् ईश्वर के भरोसे पर करनी चाहिये ।
अर्थ-वायविडंग को बकरी के मूत्र में कमजनियरोग की चिकित्सा पीसकर नस्य देना चाहिये ! यह कृमिजानित श्लेष्माभितापर्जीणाज्यानहितः कटकर्वमेत रोग की प्रधान औषध है। स्वेदप्रलेपनस्याद्या रूक्षतीक्ष्णोष्णभेषजैः । नस्यद्रव्यों का धुआं। शस्यते चोपवासोऽत्र निचये मिश्रमाचरेत पूतिमत्स्ययुतैः कुर्याद धूमं मावनभेषजैः ।
अर्थ-कफज शिरोरोग में मस्तक पर | अर्थ-कृमिज शिरोरोग में नस्योपयोगी पुराना घी मलकर कटु द्रव्य द्वारा वमन करावे। द्रव्यों के साथ सड़ी हुई मछली मिलाकर इसमें रूक्ष, तीक्ष्ण और उष्णवीर्य औषधों । धूआं देना चाहिये।
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म. २४
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत । (८५९) रक्तमोक्षण का निषेध । । अथवा पर्वल, नीमके पत्ते और हलदी कामिभिः पीतरक्तत्वाद्रक्तमत्र न निर्हरेत् । इनको पीसकर लेप करदे, अथवा पुरानी
अर्थ-कृमिमानित शिरोरोग कीडे ही | खल और मुर्गेका विष्टा गोमूत्र में पीसकर शरीर के रक्तको पान करते रहते हैं इस उसका लेप करे । लिये इसमें और रक्तमोक्षण की आवश्यकता अन्य प्रयोग । नहीं है।
| कपालभृष्टं कुष्टं वा चूर्णितं तैलसंयुतम् । कंपकी चिकित्सा । रूषिकालेपनं कंक्लेदवाहार्तिनाशनम् ॥ . घाताभितापविहितः कंपे दाहाद्विना क्रमः। अर्थ कूठको ठीकरे में भूनकर पीसले
अर्थ-शिरःकंपरोग में दाह के सिवाय और इसमें तेल मिलाकर अरूंषिका पर लेप अन्य सब वातज शिरोरोगोक्त चिकित्सा करने से खजली, क्लेद और दाह नष्ट हो करनी चाहिये।
जाता है। पित्तजशिरोभिताप का उपाय । उक्तरोग में तैलमर्दन । नवे जन्मोत्तरं जाते योजयेदुपशीर्षके १९ मालतीचित्रकावननक्तमालप्रसाधितम् । घातव्याधिक्रियां पक्के कर्मविद्रधिचोदितम् वचारूंषिकयोस्तैलमभ्यंगः क्षुरपृष्टयोः।
अर्थ-जन्मसे पीछे होनेवाले नवीन उप- अर्थ-मालती, चीता, और कनेर कंजा शीर्षकरोग में वातव्याधिमें कही हुई चिकि- इनके साथ वच और भिलावे का तेल पका. सा करनी चाहिये । पकने पर विद्रधिके
कर इस तेलका मर्दन करे । समान चिकित्सा करना उचित है।
उक्तरोग में वमनादि । .. आमादि का उपाय । अशांतौ शिरसः शुद्धयै यतेत वमनादिभिः। मामपक्के यथायोग्यं विद्रधीपिटिकावुदे ।। अर्थ-इन सब उपायों के करने पर भी
अर्थ-विद्रधि,पिटिका और अर्बुद रोगों | यदि रोगी की शांति न हो तो मस्तक के की चिकित्सा उनकी पक्क और अपक्व दशा शोधन के निमित्त वमनादि का प्रयोग करना के अनुसार करनी चाहिये ।
चाहिये। अषिका का उपाय।
दारुणक का उपाय । अरूंषिकाजलोकोभिर्हताना निववारिणा। विध्येच्छिरां दारुणके लालायां शीलये. सिक्ता प्रभूतलवणैर्लिंपेदश्वशकद्रसैः ॥
नावनं मूर्ध्नि वस्ति च लेपयेच समाक्षिक । पटोलनिवपत्रैर्धा सहरिद्रैः सुकल्कितैः। गोमूत्रजीर्णपिण्याककृकवाकुमलैरपि ॥
प्रियालवीजमधुककुष्टमारःससर्षपैः ।
लाक्षाशम्याकपत्रैडगजधात्रीफलैस्तथा। । अर्थ--अरूंषका रोगमें जोक लगाकर
कोरदूषतृणक्षारवारिप्रक्षालनं हितम् ॥ रुधिर को निकाल डाले और उस पर नीम | अर्थ-दारुणकरोग में लालादि शिरावेध, के काढे का परिषेक करे । घोडे की लीद शुद्धि, नस्य शिरोवस्ति का सेवन करना के रसमें बहुत सा नमक मिलाकर लैंप करे | चाहिये । तथा चिरोंजी, मुलहटी, कूठ, उर्द
स्मृजाम् ॥
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(८६."
-
अष्टांगहृदयः ।
'अ०२४
और सरसों इन सब द्रव्यों के कल्क को लगें तो मेढा के सींगों की स्याही तेल में शहत में मिलाकर लेप करे, अथवा लाख, | सानकर लगानी चाहिये। अमलतास, पमाड, और आमले का लेप जलसेक का निषेध । सथा कोदों और तृणधान्य के खार मिले । वर्जयेद्वारिणा सेकं यावद्रोमसमुद्भवः । हुए पानी से धोना । ये सब हितकारी हैं। | अर्थ-इन्द्रलुप्त में जबतक बाल न उगै
इन्द्रलुप्त की चिकित्सा। तबतक जल का परिषेक न करना चाहिये। इंद्रलुप्ते यथासन सिरां विद्धवा प्रलेपयेत्। खलत्यादि में नस्यादि । प्रच्छाय गाढं कालीसमनोहातुत्थकोषणैः। स्खलती पलिते वल्यां हरिलोम्नि च शोधि. धन्यामरतरुम्यां वा गुंजामूलफंलेस्तथा।
तम्। तथा लांगलिकामूलैः करवीररसेन वा ॥ नस्यवक्त्रशिरोभ्यंगप्रदेहः समुपाचरेत् । सौद्रक्षुद्रबार्ताकस्वरसेन रसेन वा।। अर्थ- खलति, पलित, बली और हरिधत्तरकस्य पत्राणां भल्लातफरसेन वा ॥ द्वर्ण रोमों में रोगी को शोधित करके नस्य भय वा माक्षिकहविस्तिलपुष्पशिकंटकैः । तथा मुख और मस्तक पर अभ्यंग और ___ अर्थ-इन्द्रलुप्तरोग में पासवाले स्थान
प्रदेह की व्यवस्था करनी चाहिये । की सिराको बेधकर अच्छी तरह से जल से
- अन्य उपाय । धोवे फिर हीराकसीस,मनसिल, नीलाथोथा, सिद्धं तैलं वहत्याधैर्जीवनीयैश्च नावनम् ।
और कालीमिरच का लेप करे । अथवा मासं वानिधज तैलं क्षीरभुझ्नावयेतिः ॥ . वन्या और देवदारू से अथवा चिरमिठी | अर्थ-वृहत्यादि और जीवनीय गण के
की जड और फलसे अथवा कल्हारी की जड़ | साथ तेल पकाकर इस तेल की वा नीम षा कनेर के रससे, अथवा मधुमिश्रित क्षुद्र । के तेल की नस्य एक महिने तक सेवन वार्ताक के रससे अथवा धतूरे के पत्तों के करनी चाहिये । नस्यग्रहण के समय ब्रह्मरससे अथवा भिलावे के रससे अथवा घी | चर्य से रहना और केवल दूध पीना
और शहत मिले हुए तिलके फूल और चाहिये । गोखरू का लेप करना चाहिये ।
पलितनाशक नस्य । अन्य औषध ।
नीलीशिरीषकोरंट,गस्वरसभाक्तिम। तैलाक्ता हस्तिदंतस्य मषी वा चौषधं परम् । शेल्वक्षतिलरामाणां घी काकांडकीसमम् ___ अर्थ-हाथीदांत की स्याही को तेल में | पिष्ट्वाऽजपयसा लोहाल्लिप्तादीशुतासानकर लगाना भी इन्द्रलुप्त की परमोत्तम
पितात् । औषध है ।
तैलं शृतं क्षीरभुजो नावनात् पलितांतकृत्। श्वेत केशों की चिकित्सा।
- अर्थ-नील, सिरस, कुरंटा और भांगरा शुक्लरोमोद्गमे तद्वन्मषी मेषविषाणजा। इनके स्वरस में शेलु, बहेडा, तिल, और
अर्थ-इन्द्रलुप्त में जो सफेद वाल उगने । महानिव के समान भाग बीजों को लेकर
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भ० २४
उत्तरस्थान भाषार्टीकासभेत ।
(८६१)
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भावना दे लेवे। फिर इनको पीसकर किसी
अन्य प्रयोग। लोहे के पात्र पर लीपदे, इस पात्रको धूप तिलाः सामलकाः पद्मकिंजल्कोमधुकं मधु॥ में गरम करले । ऐसा करने से जो तेल वृहयेच्च रजेच्चैतत् केशान्मूर्धप्रलपनात् । निकले, उसको नस्य द्वारा ग्रहण करे ।
अर्थ-तिल, आमला, पद्मकेशर,मुलहटी इमसे पलित जाता रहता है इस पर दूध
और शहत इन सब द्रव्यों का लेप लगाने का पथ्य करना चाहिये।
से केश बढ जाते हैं और उन पर रंग चढ अन्यनस्य ।
जाता है। क्षीरात्सहचराद ,गरजसः सौरसादसात् केशवधन प्रयोग। प्रस्यैस्तैलस्य कुडवः सिद्धा यष्टीपलान्वितः॥ मांसीकुष्टतिला:कृष्णाःसारिवानीलमुत्पलम् नस्थं शैलोद्भवे भांडे शंग मेषस्य वा स्थितः ! क्षौद्रं च क्षीरपिष्टानि केशसंवर्धन परम् । अर्थ-दूध, नीलकुरंटा, भांगरा और
____ अर्थ-जटामांसी, कूठ, कालेतिल, अनतुलसी हरएक का रस एक प्रस्थ, तेल एक
न्तमूल, नीलकमल और शहत इन सब द्रव्यों कुडव, मुलहटी एक पल इन सबको पाक को दूध में पीसकर मस्तक पर लेप करने विधि से पकावै । फिर इस तेल को किसी से बाल बढते हैं । पत्थर के पात्र में रखदे। अथवा मेंढे के
पलित में चर्णादिक। सींग के पात्र में रक्खे । इस तेल का नस्य अयोरजो गरजस्त्रिफला कृष्णमृत्तिका ॥ लेने से पलित का नाश होजाता है।
। स्थितीमधुरस मासं समुल पलित रजेत् ।
अर्थ-लोहेका चूर्ण, भांगरा, त्रिफला, अन्य प्रयोग।
कालीमिट्टी इन सब द्रव्यों को एक महिने क्षीरेण श्लक्ष्णपिष्टौ वा दुग्धिकाकरवीरको॥
तक ईखके रसमें पड़ा रहने दे | इसका लेप उत्पाठ्य पलित देयावाशय पलितापही।
करने से पलित केश जडसे काले पड जाते हैं अर्थ-दृध और कनेर को दूध में घोट
अन्य प्रयोग। डाले, फिर सफेद बालों को नौचकर उनकी
माषकोद्रवधान्याम्लयवागूस्लिदिनोषिता। मडपर ऊपर वाले द्रव्यका लेप करे, इससे
लोहशुक्लोत्करा पिष्टा बलाकामपि रंजयेत् । पलित रोग जाता रहता है।
अर्थ-उरद, कोदों और कांजी से ब. अन्य लेप।
नाई हुई यवागू को तीन दिन रक्खी रहने क्षीरं प्रियालंयष्टयाबंजीवनीयोगणस्तिलाः | दे । इसका लेप करने से सफेद बगला भी कृष्णाः प्रलेपो वक्त्रस्य हरिल्लोमवलीहितः
काला पड़ जाता है, इससे यदि सफेद बाल .. अर्थ-चिरोंजी, मुलहटी, जीवनीयगण
काले हो जाय तो कोई संदेह की बात नहीं है के द्रव्य, और काले तिल इन सबको दूध शिरोरोगनाशक तेल । में पीसकर मुख पर लेप करना चाहिये । प्रपौडरीकमधुकापप्पलीचंदनोत्पलैः॥ यह हरिद्रोम और बलीरोग में हितकारीहै। सिद्धं धात्रीरसे तैलं नस्पेमाभ्यंजमेन ।
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(८६२)
अष्टांगहृदय ।
अ० २४
सर्वान् मूर्धगदान हंति पलितानि च.
महामायूर घृत । शीलितम् ॥४५॥ एतेनैव कषायेण घूतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ __अर्थ-पुंडरिया, मुलहटी, पीपल, चंदन चतुर्गुणेन पयसा कल्कैरेभिश्च कार्षिकैः ।
और नीलकमल इनके कल्क में और आमले जीबंतीत्रिफलामेदामृहीकादिपरूषकैः ॥ के रसमें तेलको पकाकर इस तेल का नस्य
समंगाचविकाभागीकाश्मरीकर्कटायैः ।
आत्मगुप्तामहामेदातालखर्जूरमुस्तकैः ।। और अभ्यंजन द्वारा प्रयोग करे, इससे
मृणालविंसखर्जूरयष्टीमधुकजीवकैः ।। पलित और सब प्रकार के सिरमें होनेवाले
शतावरीविदारीक्षुहतीसारिवायुगः ॥ रोग नष्ट हो जाते हैं ।
दूर्वाश्वदंष्ट्रर्षभकशृंगाटककसेरुकैः ॥ अन्य नस्य । | रानास्थिरातामलकीसूक्ष्मैलाशठिपौष्करैः। बरीजीवतिनिर्यासपयोभिर्यमकं पचेत् ।।
पुनर्नवातवक्षीरीकाकोलीधन्वयासकैः। जीवनीयैश्च तन्नस्यं सर्वजत्रूवरोगजित् ॥
मधूकाक्षोटवाताममुंजाताभिषुकैरपि ॥ अर्थ-सितावर और जीवंती का क्वाथ,
महामायूरमित्येतन्मयूराद्धिकं गुणैः ।
| धात्विद्रियस्वरभंशश्वासकासार्दितापहम् । दूध और जीवनीय गणका कल्क इनके साथ योन्यसृक्शुक्रदोषेषु शस्तं वंध्यासुतप्रदम् । घी और तेलको मिलाकर पाक करे । इसकी अर्थ-ऊपर लिखहुऐ मायूर घृतोक्त कषाय नस्य लेने से ग्रीवा से ऊपर होनेवाले संपूर्ण | में चौगुना दूध मिलाकर एक प्रस्थ घीको पकावै सेग नष्ट हो जाते हैं।
और उसमें नीचेलिखे हुए द्रव्य प्रत्येक एक एक मायूर घृत ।
कर्ष लेकर मिलादेवै, वे द्रव्य ये है, यथामयूरं पक्षपित्तांत्रपादपिरतुंडवर्जितम् ।। जीवंती, त्रिफला, मेदा, दाख,फालसा, मजीठ दशमूलवलारामामधुकस्निपलैर्युतम् ॥ नले पस्त्वा घृतप्रस्थतस्मिन्क्षीरसमंपचेत्
चव्य, भांडगी, खमारी,काकडासिंगी, कैंच, कल्कितैर्मधुरद्रव्यैः सर्वज+रोगजित् ॥ |
महामेदा, ताल, खिजूर, मोथा, कमलनाल, तभ्यासीकृतं पान वस्त्यंभ्यजननावनैः। । कमल कन्द, छुहार', मुलहटी, जीवक, __ अर्थ-पंख, पित्त, आंत, पंजा, विष्टा | सितावर, विदारीकन्द, ईख, बड़ाकटरी, दोनों
और चोंचको दूर करके मोरका मांस लेवे, अनन्तमूल, दूब, गोखरू, ऋषभक, सिंहाडा, तथा दशमूल, बच, रास्ना, और मुलहटी कसेरू, रास्ना, शालपर्णी, भूम्यामलक, प्रत्येक तीन पल लेकर जलमें पकावै, चौ- छोटी इलायची, सज्जी, पुहकरमूल, सांठी, थाई शेष रहने पर उतार कर छानले । फिर | | बंशलोचन, काकोली, दुरालभा, मुलहटी, इस काथमें एक प्रस्थ दूध और एक प्रस्थ | अखरोट, बादाम, मुंजातक और पिस्ता इन घी मधुरगणोक्त द्रव्यों के कल्कके साथ पाक सव द्रव्यों का कल्क डालकर पाक विधि से करके पान, अभ्यंजन, वस्ति और नस्य पाक करें । यह महा मायूर घृत है, इस में द्वारा इस घृतका सेवन करने से ग्रीवासे उपर | मयूर घृत की अपेक्षा गुण अधिक होते हैं । के भागमें होनेवाले संपूर्ण रोग नष्ट होजातेहैं । इसके सेवन से धातु और इनद्रियों की दुर्यलता
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अ० २५
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
वरभ्रंश, श्वास, खांसी और अर्दित रोग जाते रहते हैं । यह योनिरोग और वीर्यरोग में हितकारक है, इसके सेवन से वन्ध्या स्त्री के भी पुत्र होजाता है । अन्य प्रयोग |
आखुभिः कर्केट है सैः शशैबेति प्रकल्पयेत् अर्थ- चूहा, केंकडा, हंस और खर्गेश के मासों से भी ऊपर लिखी रीति से घृत तयार किया जाता है ।
रोगों की संख्या ।
जनूर्ध्वजानां व्याधीनामेकत्रिंशशतद्वयम् । परस्परमसंकीर्ण विस्तरेण प्रकाशितम् ॥
अर्थ-जत्रु से ऊपर के भाग में होनेवाले २३१ रोग हैं, ये परस्पर असंकीर्ण हैं और विस्तार सहित वर्णन किये गये हैं ।
उक्त रोगकी चिकित्सा में शीघ्रता । ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरुषं विदुः । मूलप्रहारिणस्तस्मादु रोगान् शीघ्रतरं जयेत्
अर्थ-ऋषियोंने पुरुषोंको ऊर्ध्वमूल और अधःशाख कहकर शास्त्रोंमें वर्णन किया है । ( गीता में इसका सविस्तर वर्णन लिखा है ) इस लिये मूल को प्रहार करनेवाले इन ऊ जत्रुगत रोगों की चिकित्सा में बहुत शीघ्रता करनी चाहिये ।
वैद्य को उपदेश |
सर्वेद्रियाणि येनास्मिन् प्राणायेनच संश्रिताः तेन तस्योत्तमांगस्य रक्षायामादृतो भवेत् ॥
अर्थ - उत्तमांग अर्थात् सिर ही सम्पूर्ण इन्द्रियों का अधिष्ठान हैं और सिर ही में
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रक्षा के निमित्त बहुत सावधानी रखनी चाहिये |
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा टीकावन्तायां उत्तरस्थाने शिरोरोग प्रतिषेधो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ।
( ८६३ )
पंचविंशोऽध्यायः ।
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अथाऽतो व्रणविज्ञानीयप्रतिषेधं
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व्याख्यास्यामः ।
अर्थ- - अब हम यहांसे व्रणविज्ञानीय प्रतिषेधनामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे |
व्रणको द्विविधत्व | व्रणो द्विधा निजांगंतु दुष्टशुद्धविभेदतः । निजो दोषैः शरीरात्थैरागंतुर्बाह्यहेतुजः ॥ दोषैरधिष्ठितो दुष्टःशुद्धस्तैरनिधिष्टितः ।
अर्थ - निज और आगंतु इन दो भेदों से व्रण दो प्रकार का होता है । व्रणके दो भेद और भी हैं, एक दुष्टम्रण दूसरा शुद्ध व्रण, जो घाव शारीरक दोषों से होता है उसे निज तथा जो वाह्य अर्थात् ईंट, पत्थर, लाठी आदि की चोट लगने से होता है उसे आगंतु व्रण कहते हैं । जो घाव घातादि . दोषों से दूषित होता है उसे दुष्ट और जो वातादि दोषों से रहित होता है उसे शुद्ध व्रण कहते हैं ।
संवृतत्वं विवृतता काठिन्यं मृदुताऽपि वा दुष्टत्रण की आकृति । अत्युत्सन्नावसन्नत्वमत्यौष्ण्यमतिशतिता ।
प्राणों की स्थिति होती है, इस लिये इसकी | रक्तत्वं पांडुता का पूतिपूयपरिस्स्रुतिः ।
ام
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अष्टांगहृदय ।
-
म. २५
पूतिमाससिराम्नायुछन्नतोत्सांगतातिरुक् ।। सदृश होता है। इसमें से दही के तोड, संरंभदाहश्वयथुकंड्वादिभिरुपद्रुतिः ॥४॥ मांसके धोबन के जल, वा पुलक के जल दीर्घकालानुबंधश्च विद्यादुष्टप्रणाकृतिम् ।।
के सदृश थोडा और पतला स्राव होता है, अर्थ-जो व्रण बहुत सवृत (रुकाहुआ)। इसमें मांसरहित. सुई चुभने की सी वेदना बहुत निवृत ( फटाहुआ ), कठोर वा मृदु
फटाव, रूक्षता और चटचटापन होता है । हो, जो अत्यन्त ऊंचा वा अत्यन्त नीचा हो, पित्तज व्रणके लक्षण । . अत्यन्त गरम वा अत्यन्त ठंडा हो, जो लाल
पिसेन क्षिप्रजः पीतोऽनीलः कपिलपिंगळः पीला. वा काला हो, जिसमें से दुर्गंधयुक्त मूत्रकिशुकभस्मांवुतैलाभोष्णवहुस्नतिः।. राध निकलती हो, जो ब्रण दुर्गंधित मांस क्षारोक्षितक्षतसमव्यथो रागोष्मपाकवान् । अथवा शिरा वा स्नायु से आच्छादित हो,
अर्थ-पित्तन व्रण शीघ्रही बढता चला जो भीतर को घुस रहा हो, जिसमें अत्यन्त
जाता है, यह पीला, नीला, कपिल और
पिंगल वर्णका होता है, इसमें से मूत्र वा घेदना, संरंभ, दाह, सूजन और खुजली
केसूकी राखके सदृश जल, वा तेलके सदृश आदि उपद्रव हो, जो बहुत दिनका हो गया
बहुत अधिक गरम गरम स्राव होता है। हो, ऐसे बणको दुष्ट लक्षणों वाला समझना
तथा इसमें क्षारदग्धके समान वेदना तथा चाहिये।
वर्ण में लाल और गरम पाक होता है। दुष्टब्रण के भेद ।
कफजवण के लक्षण ॥ स पंचदशधा दोषैः सरक्तैः
कफेन पांडुः कंडूमान बहुश्वेतघनमुतिः । - अर्थ-वण वातादि दोष और रक्तसे
स्थूलौष्ठ कठिनःस्नायुसिराजालस्ततोल्परक पंद्रह प्रकारका होता है, यथा- वातज,
अर्थ-कफज व्रण में पीलापन, खुजली पित्तन, कफज, वातापित्तज, वातकफज, तथा बहुत परिमाण में सफेद और गढासाव पित्तकफज, वातपित्तकफज, वातरक्तज, पित्त- होता है. इस घाव के किनारे मोट और रक्तज, कफरक्तज, वातपित्तरक्तज, वात कठोर होते हैं यह स्नायु और सिरा के जाल कफरक्तज, पित्तकफरक्तज,वातपित्तकफरक्तजसे व्याप्त और अल्प वेदनावाला होता है। भौर केवल रक्तन ।
रक्तजवण के लक्षण ॥ वातज ब्रणके लक्षण । प्रवालरक्तो रक्तेन सरक्तं पूयमुद्रेित् ।
तत्र मारुतात् ॥ ५॥ बाजिस्थानसमो गंधे युक्तोलिंगैश्चपौत्तिकः श्यावः कृष्णो भस्मकपोतास्थिनिभोऽपिच अर्थ-रक्तज व्रण मँगा के सदश लाल मस्तुमांससपुलाकांबुतुल्यतन्वल्पसंतिः वर्ण का होताहै, इसमेंसे लाल राध परतीहै निर्मासस्तोदभेदाढयो रूक्षश्चटचटायते। तथा इसमें हयशाला कीसी दुर्गन्ध आतीहै
अर्थ-इनमें से वातजण श्याववणे, | इसके शेष सब लछक्ष पित्तजनण के सदृश काला वा लाल भस्म, कबूतर वा अस्थि के होते है ।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८६५)
-
ORDP
संसर्गबण के लक्षण ॥
कष्टसाध्य घाव । द्वाभ्यां त्रिभिश्वसर्वेश्च विद्यालक्षणसंकरात् कृच्छ्रसाध्योक्षिदशननासिकापांगनाभिषु । ___ अर्थ-दो दो दोष वा तीन दोष से युक्त | सेवनीजठरश्रोत्रपार्यकक्षास्तनेषु च १५ घाव के लक्षण मिले हुए दोष के लक्षणों अर्थ--आंख, दांत, नाक, अपांग, नाभि, के सदृश होते है।
सीमन, पेट, कान, पसली, कक्षा और स्तन शुद्ध ब्रण के लक्षण | में होनेवाले घाव कष्टसाध्य होते हैं। जिहाप्रभोमृदुःश्लक्ष्णःश्यावौष्ठपिटिकासमा अन्य दुस्साध्य व्रण ॥ किंचिदुन्नतमध्यो वा व्रगःशुद्धोऽनुपद्रयः। फेनपूयानिलवहः शल्यवानू निर्वमी।
अर्थ-जो घाव जिहवा के सदश मृदु, भगंदरीतर्वदनस्तथा फटयस्थिसंभितः।इलक्ष्य होता है तथा जिसके किनारे और
कुष्ठिनां विषजुष्टानां शोषिणां मधुमेहिनाम् पिटिका श्याववर्ण के होते हैं, जो बीच में
व्रणाकृच्छ्रेगसिद्धयंतियेपांच स्युर्बणे व्रणाः
___ अर्थ--जिन घावों से झाग और बायु कुछ उठा हुआ होता है । वह घाव उपद्रव
निकलते हैं, जिनमें शल्य होता है, या जो रहित और शुद्ध होता है ।
| ऊपर को स्राव नहीं करते हैं, जिस भगंदर व्रण को दुस्साध्यत्व ॥
का मुख भीतर को होता है, जो कमर की स्वगामिषशिरास्त्रायुसंध्यस्थीनि प्रणाशयाः कोष्ठोमर्म च तान्यष्टोदुःसाध्यान्युत्तरोत्तरम्
हड्डी में होता है, तथा कोढ, विष, शोष और अर्थ--त्वचा, मांस, शिरा, स्नायु, संधि, मधुमहा के घाव, तथा जा घाव
मधुमेही के घाव, तथा जो घाव के भीतर अस्थि कोष्ठ और मर्म, ये आठवणके स्थान है
| घाव होता है, ये सव दुःसाध्य होते हैं । इनमें से उत्तरोत्तर दुःसाध्य है, अर्थात् त्वचा |
। असाध्य व्रण ।
| नैव सिद्धयति वीसर्पज्वरातीसारकासिमाम् के व्रण से मांस का व्रण, गांस के व्रण से |
| पिपासूनामानिद्राणां श्वासिनामविषाकिनाम् शिरा का व्रण कष्टसाध्य होता है, इसी तरह | भिन्ने शिरकपाले वा मस्तुलुंगस्य दर्शने । और भी जानो ।
___ अर्थ-विसर्प, ज्वर, अतिसार, खांसी, सुसाध्य के लक्षण
तृषा, निद्रानाश, श्वास, अजीर्ण, इन सब सुसाध्यः सत्त्वमांसाशिवयोबलवति व्रणः। रोगों से पीडित रोगी के व्रण अच्छे नहीं वृत्तो दीर्घत्रिगुटकश्चतुरस्राकृतिश्च यः । होते है, अथवा जिसके सिरकी हड्डी टूटफर तथास्किमायुमेढोष्टपृष्ठांतर्वक्रमगडयोः।
भेजा बाहर निकल आता है वह भी अच्छा अर्थ --सत्य, मांस, अग्नि, वय और
नहीं होता है । बलयुक्त पुरुष का घाव सुसाध्य होता है, . गोल, बड़ा, त्रिपुट, और चतुकोण घाव भी
साध्यत्रणको असाध्यता ।
स्गायुक्लेदात्सिराच्छेदागांभीर्यात्कृमिभक्षणात् सुसाध्य है, तथा कूल्हे, गुदा, लिंग, पीठ,
अस्थिभेदात्सशल्यत्वात्सविषत्वामुख के भीतर और कपोल में हो, ये सब
दतर्कितात् । घाव सुसाध्य होते हैं।
मिथ्याबंधादतिस्नेहाद्रौक्ष्यारोमातिघट्टनात्
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( ८६६ )
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अष्टांगहृदय
क्षोभादशुद्धकोष्ठत्वात्साहित्याद तिकर्शनात् मयरानादिवास्वापायवायाद्वात्रि जागरात् मिथ्योपचाराश्च नैव साध्योऽपिरोहति अर्थ- स्नायु के दसे, कटने से, घाव के गहरेपन से, कीड़ों के द्वारा खाये जाने से, हड्डियों के टूटने से, घाव में कांटा होने से, विषजुष्टता से, असावधानी से, पट्टी अच्छी न बांधने से, अत्यन्त चिकनाई वा रूखापनसे, रोमों के घर्षणसे, क्षोभसे, कोष्ठ के शुद्ध न होने से, अत्यन्त पेट भरकर खाने से, उपवासादि द्वारा अत्यन्त कृशता होनेसे, मद्यपानसे, दिनमें सोनेसे, मैथुनसे, रातमें जमनेसे, तथा मिथ्या उपचार से साध्यव्रण भी असाध्य होजाते हैं ।
घाव में शोधन । अथाऽशोफावस्थायां यथा सन्नांशाधनम् योज्यं शोफो हि शुद्धानां व्रणश्चाशु
प्रशाम्यति । अर्थ - जो घावमें सूजन हो तो पासवाले मार्ग से शोधन करना चाहिये, अर्थात् जो घाव ऊपर की देहमें हो तो घमन, और नीचे देह में हो तो विरेचन देना चाहिये । शोधन करनेसे सूजन और घाव दोनों शीघ्र शांत होजाते हैं ।
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सृजन और घावमें रक्तहरण | शोफे प्रणे च कठिने विवर्णे वेदनान्विते ॥ विषयुक्ते विशेषेण जलौकाद्यैर्हरेदसृक् । दुष्टास्नेऽपगते सद्यः शोफरागरुजां शमः ॥
घाव भरने के लक्षण |
अर्थ- सूजन, और घाव में यदि कठोरता, विणता, वेदना और विषयुक्तता हो तो जोक आदि द्वारा विशेषरूप से रक्तको निकाले, क्योंकि बिगडे हुए रुधिर के निकल जाने कपोतवर्णप्रतिमा यस्यांता: क्लेदवर्जिताः । पर सूजन, ललाई और वेदना शीघ्र शांत स्थिराश्चिपिटिकावं तो रोहतीति तमादिशेत् | होजाते हैं । अर्थ - जिनघावों का वर्ण कबूतर के बर्णके सदृश होजाता है, जिनमें से छेदता जाती रहती है, जो स्थिर, पिटकाओं से युक्त होते हैं, ऐसे घाव भरने की दशा में होते हैं ।
श्र० १५
शोफावस्था में शीतोपचार | कुर्याच्छीतोपचार तु शोफावस्वस्य संततम् दोषाग्निरग्निवत्तेन प्रयाति सहसा शमम् ।
अर्थ- घावमें सूजन हो तो शीतोपचार करना चाहिये, क्योंकि जैसे शीतल द्रव्य के संयोग से अग्नि शीघ्र बुझजाती है, वैसे ही शीतोपचार से दोषाग्नि शांत होजाती है।
।
स्रावके पछि लेपादि । हृते हृते च रुधिरे सुशीतैः स्पर्शवीर्ययोः । सुश्लक्ष्णैस्तदहः पिप्रैः क्षीरेक्षुस्वर सद्रवैः ॥ शतधौत घृतोपेतैर्मुहुरन्यैरशोषिभिः । प्रतिलोम हितो लेपः सेकाभ्यंगाश्च तत्कृताः
अर्थ - रुधिर के बारबार निकलने पर शीत स्पर्श और शीतवीर्यवाले द्रव्योंको महीन पीसकर उसी दिन लेप करे, उस लेपको बासी करके न लगावे । तथा दूध वा ईखका रस, वा सौवार धुला हुआ घी वा शोषणकारी द्रव्यों का लेप, सेक और अभ्यंग द्वारा प्रतिलोम रीति से प्रयोग करे |
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शोफनाशक प्रदेह | म्यग्रोधो हुंवराश्वत्थप्लक्षवेत् सबल्कलैः । प्रदेहो भूरिसर्पिर्भिः शोफनिर्वापणः परम् ॥
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अ. २५
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
(८६७)
.. अर्थ-बड, गूलर, पीपल, पाकर और करने से अविदग्ध शोफ बैठ . जायगी और बेत इनकी छाल को पीसकर घी में सान- विदग्ध शोफ पक जायगी। कर लेप करने से सूजन जाती रहती है। उपनाहनमें सत्तका गोला।
दाहादिनाशक लेप। |सकोलतिलवल्लोमा दध्यम्लासक्तपिंडका। बातोल्वणानांस्तम्धामांकठिनानांमहारुजाम् सकिण्वकुष्ठलवणा कोणा शस्तोपनाहने । स्रतासृजां च शोफानां व्रणानामपिचेदृशाम् अर्थ-बेर, तिल, अलसी, सक्तापंडिका, आनूपवेसवाराधैः स्वेदः सोमास्तिलाः पुनः किण्व, कूठ, नमक इन से प्रस्तुत की हुई भृष्टा निर्वापिताः क्षीरे तत्पिष्टा दाहरुग्घराः ___ अर्थ-वे सूजन और वे घाव जिनमें ।
खट्टे दही में मिलाकर गरम गरम पिंडिका वातकी अधिकता हो, स्तब्धता, कठोरता,
उपनाहन के लिये श्रेष्ठ है। और अत्यन्त वेदना हो, जिनसे रक्त निक
सूजनमें विदारण प्रयोग ।
सुपक्के पिंडते शोफे पीडनै रुपपीडिते । ला हो, उनमें जांगल मांसके वेसवारादि से
। दारणं दारणार्हस्य सुकुमारस्य चेप्यते ॥ स्वेदन देना चाहिये । तथा अलसी और
। अर्थ-सूजनके अच्छी तरह पक जाने तिल को भूनले और दूधमें ठंडा करके दूध
पर तथा पिंडाकार और पाडन द्रव्योंसे उपके साथ पीसकर लेप करे तो दाह और
। पीडित होने पर विदारण के योग्य सुकुमार वेदना शांत हो जाते हैं । मंदवेदना में स्वेदादि ।।
मनुष्यकी सजनको विदीर्ण कर देना चाहिये स्थिरान् मंदरुजाशोफान् हर्वातकफापहैः
जो द्रव्य सूजनके भीतर से मवाद को बाहर अभ्यज्यस्वेदयित्वाचवेणनाड्याशनैः शनैः | निकाल लाते हैं, उन्हें पीडन द्रव्य कहते हैं। विम्लापनार्थमृद्गीयात् तलेनांगुष्ठकेन वा । पक्वशोफके विदारक द्रव्य । यवगोधूममुद्रेश्च सिद्धीपष्टैः प्रलेपयेत् ॥ गुग्गुल्वतसिगोदतस्वर्णक्षीरी कपोतविद। __ अर्थ-स्थिर और मंद वेदना वाले सूजनों क्षारौषधानिक्षाराश्चपक्कशोफविदारणम् में वातनाशक स्नेहों द्वारा अभ्यंजन करके
___अर्थ-गूगल, अलसी, गोदंती हरताल, स्वेदन करे और इसके विम्लापनके लिये बांस स्वर्णक्षारी, कबूतर की बीट, क्षारौषध और की नली से वा अंगूठे से धीरे धीरे मर्दन क्षार विधिमें कहे हुए क्षार पकी हुई सूजन करे, तथा जौ, गेहूं और मूंग को पकाकर
को विदीर्ण करने वाले होते हैं । जिन द्रव्यों पीसकर लेप करे ।
से सूजन फट जाती है उन्हें विदारक कहते हैं सूजन पर उपनाहादि। पूपगर्भसूजन का पीडन । बिलीयते स ततस्तमपनाहयेत्। पूयगर्भानणु द्वारान् सोत्संगान्ममंगानपि । भविदग्धस्तथाशांतिविदग्धःपाकमश्नुते। निःस्नेहै। पीडमद्रव्यैः समंतात्प्रतिपीडयेत्।
अर्थ-ऐसा करने पर भी यदि सूजन अर्थ-जिस सूजन के भीतर राध पड़गई कम न हो तो इन करे । उपनाहन | हो, छोटा छिद्र हो, उत्संगयुक्त और मर्म
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(८६८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २५
गामी हो तो स्नेहरहित पाडन द्रव्य द्वारा | धादि गणके द्रव्योंकी छालके काढ़े से धोना चारों ओर से उपपीडित करे। हित है। लेपविशेष ।
घावके शुद्ध करनेवाला लेप । शुष्यंत समुपेक्षेत प्रलेप पीडन प्रति। पटोलतिलयप्रवाहत्रिवृदंतीनिशाद्वयम् । न मुखे चैनमालिपेत् तथा दोषः प्रखिच्यते | निंबपत्राणि चालेपः सपटुव्रणशोधनः ॥
अर्थ-पीवको निकालने के निमित्त जो अर्थ-पर्वल, तिल, मुल इटी, निसोथ, लेप लगाया जाता है, उसको सूखने तक दंती, दोनों हलदी, नीम के पत्ते इनमें थोडा सूजन पर रहने दे, घावके मुखपर लेप न सा नमक डालकर लेप करनेसे व्रण शुद्ध लगाये क्योंकि उसके द्वारा राब निकलती होजाता है। रहती है।
घावके शोधन में बत्ती। .. कलायादिक प्रपीडन । ब्रणान् विशोधयेद्वा सूक्ष्मास्यान् कलाययवगोधूममाषमुद्गहरेणवः ।
संधिमर्मगान् । द्रव्यागांपिच्छ लानांचत्वामूलानिप्रपीडनम | कृतया त्रिवृताईतीलांगलीमधुसैंधवैः ४४
___ अर्थ-जिन घावों का मुख छोटा होताहै अर्थ-मटर, जौ, गेहूं, उरद, मूंग और
और जो संधि तथा मर्मतक पहुंच गये हैं हरेणु, तथा और भी पिच्छिल द्रव्यों की उनको निसीथ, दंती, कल्हारी, मधु और जड और छाल इनसे प्रपीडन अर्थ.त् गध सेंधेनमक की बत्ती द्वारा शुद्ध करे । का आकर्षण होता है।
वातजवणों में धूएन । अन्य प्रयोग । | वाताभिभूतान् सास्रावान् धूपये दुप्रवेदनान् सप्तसु क्षालनाघेपु सुरसारग्बधादिको। यवाज्यभूर्जमदनश्रीवेष्टकसुराहयैः ४५ भ्रशं दुष्टे व्रणे योज्यो मे हकुष्ठव्रणेषु च ॥ अर्थ-जिन घावों में वातकी अधिकता
अर्थ-क्षालन { धोना , लेप, घी,तेल, हो तथा स्राव और दर्द की भी अधिकता रसक्रिया, चूर्ण और वर्ति इन सातों में तथा तो जौ, घी, भोजपत्र, मैंनफल, सरलकाप्ट दुष्टत्रण और प्रमेह तथा कुष्ठके व्रणमें सुर- और देवद रू की धूप देना हितहै। सादि और आरग्वधादिगण के द्रव्य प्रयोग पित्तादिवग में कर्तव्य । में लाये जाते हैं।
निर्वापयेदूभृशं शीतः वित्तरक्तविषोल्बणान् व्रणके धोने में क्वाथ।
अर्थ-पिशरक्त और विजुष्ट घाबों को अथवा क्षालनं काथः पटोलीनिवपत्रजः । शीतक्रिया से निर्वापित करना चाहिये। अविशुद्ध विशुद्धे तु न्यग्रोधादित्वगुद्भवः।
गंभीरमण में उत्सादनादि । । अर्थ-जो घाव शुद्ध नहीं हुआ है उसके
| शुप्काल्पांसे गंभीरे व्रण उत्सादनं हितम्
न्यग्रोधपद्मशादिभ्यामश्यगंधावलानिलैः । धोने के लिये पर्वल और नीमके पत्तें। का
अद्यान्मांसादमांसानि विधिनोपहितानि च काढा हितहै । और शुद्ध हुए घाव में न्यग्रो- मांसं मांसादमांसेन वर्धते शुद्धचेतसः ।
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(८६९ )
अर्थ-सूखे हुए, अल्पमांस से युक्त और | से भी शुद्ध न होते हों उनको अग्नि कर्म गंभीर घाव में न्यग्रोधादि, और पनकादि से शुद्ध करना चाहिये । जो द्रव्य उरसादन गण द्वारा तथा असगंध, खरैटी और तिल में कहे गये हैं उन सबका शुद्ध घाबमें रोपद्वारा उत्पादन करना चाहिये । तथा मांसा- क्रिया द्वारा प्रयोग करना चाहिये । हारी प्राणियों का मांस खूब मसाले डालकर
घावको पुरानेवाले द्रव्य ॥ खाना चाहिये, क्योंकि मांसभक्षियों का अश्वगंधारुहारोधं कट्रफलं मधुयष्टिका ॥ मांस खाने से शुद्ध चित्तवाला का मांस समंगाधातकीपुष्पं परमं व्रणरोपणम् ।। बढ़ता है।
अर्थ-असगंध, दूब, लोध, कायफल, । अन्य अवसादन ॥
मुलहटी, मजीठ, और धायके फूल ये सब उत्सन्नमृदुमांसानां व्रणानामवसादनम् ।
द्रव्य घावकों भरनेवाले हैं। जातीमुकुलकासीसमनोहालपुराग्निकः। . अर्थ-ऊंचे उठे हुए और कोमलमांस
घावमें तिलका कल्क ॥
अपेतपूतिमांसानां मांसस्थानामरोहताम् वाले घावों चमेली के फूलकी कली, हीरा
कल्कंसंरोहणं कुर्यात्तिलानांमधुकान्वितम् कसीस, मनसिल,हरताल,गूगल और चीता
___ अर्थ -मांसस्थ जिस घावसे सडा हुआ इनसे अवसादन करना चाहिये ।
मांस दूर होगया हो और फिर भी न भरता उत्सन्नवणों का शोधन ॥ उत्सन्नमासान् कठिनान् कंड्रयुक्तांश्चिरोत्थि
... हो तो तिल और मुलहटी का कलक लगाना वगान्सुदुःखशोध्यांश्च शोधयेत्क्षारकर्मणा तिलको श्रेष्ठता ॥ अर्थ-जो घाव ऊंचे,कठोर, खुजलीवाले
स्निग्धोष्णतिक्तमधुरकषायत्वैः स सर्वजित् बहुत दिनके और कष्टसे शोधन के योग्य सक्षौदानिंबपत्राभ्यां यतः संशोधनं परम। होते हैं उन्हें क्षारकर्म से शुद्ध करना चाहिये। पूर्वाभ्यां सर्पिषा चासौ युक्तः स्यादाशु . __घाव में अग्निकर्म ॥
रोपणः ॥ ५५॥ स्रवतोऽश्मरिजामूत्रं ये चान्ये रक्तवाहिनः। अर्थ-स्निग्ध, गरम, तिक्त, मधुर और छिन्नाश्च संधयो येषां यथोक्तैर्ये च शोधनैः कषाय ये सब गुण तिलमें हैं, इसलिये शोध्यमाना न शुद्धयति शोध्याः स्युस्तेग्नि
| तिलका कल्क सर्वरोगनाशक होता है ।
कर्मणा ॥५१॥ शुद्धानां रोपणं योज्यमुत्सादाय यदीरितम्
शहत और नीमके पत्तों से संयुक्त तिलका ___ अर्थ-पथरी से उत्पन्न हुए सब प्रकार | कल्क व्रणके शोधनमें परमोत्तम है । तथा के घावों में से मूत्र निकलता हो, जिन घावों । नीमके पत्ते, घी शहत और तिलका कल्क में से रक्त बहताहो, जिनकी संधियां छिन्न मिलाकर प्रयोग करने से घाव शीघ्र भर होगई हो, जो यथायोग्य शोधन क्रियाओं | जाता है ।
तान् ॥
चाहिये।
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मांगहृदय ।
जौ का कल्क | तिलबद्यवल्कं तु विदिच्छंति तद्विदः । अर्थ-कुशल वैद्यों का यह मत है कि तिल के कल्क के समान ही जौका कल्क होता है। घाव में घृत का प्रयोग | साम्रपित्तविषां गंभीरान्सोमणो ब्रणान् क्षीररोपण भैषज्य शृतेनाज्येन रोपयेत् । रोपणपधसिद्धेन तैलेन कफवातजान् ५७
अर्थ- दूध और रोपण करने वाली औबधोंके साथ पकाया हुआ घी रक्तपित्त और विष उत्पन्न हुए गरमी से युक्त गंभीर धात्र का रोपण कर देता है, तथा रोपण औषधा के साथ सिद्ध किया हुआ तेल कफवातजन्य घावों को भर देता है ।
रोपण तैल ||
काक्षीरोधाभ्यास र्ज सिंदूरांजनतुत्थकम् । चूर्णितं तैलमदनैर्युकं रोपणमुत्तमम् ५४ ॥
अर्थ- गुंजा, लोध, हरड, राल, सिंदूर, रसात, नीला थोथा और मेनफल इन सब द्रव्यों के चूर्ण के साथ पकाया हुआ तेल घात्र के भरने में बहुत उत्तम है ।
घाव में चूर्ण | लमानां स्थिर मांसानां त्वक्स्थानां चूर्ण
इष्यते अर्थ- समान आकृतिवाले और स्थिर मांसकी त्वचावाले घात्रों में चूर्ण हितकारी होता है ।
अम्य चूर्ण । ककुभोदुंबराश्वत्थ जंबूक ट्फलरोधजैः ५९ ॥ स्वचमाशु निगृह्णाति त्वक्रूचूर्णैश्चूर्णिता
यणाः ।
अर्थ - अर्जुन, गूलर, पीपल, जामन,
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म० २५
कायफल और लोधकी छाल इनका चूर्ण पीसकर बुरकने से घाव में शीघ्र अंकुर जाते हैं ।
त्वचाको शुद्ध करनेवाला लेप | लाक्षागोवामंजिष्ठा हरितालनिशाद्वयः ॥ प्रलेपः सघनक्षौद्रस्त्वग्विशुद्धिकरः परम् ।
अर्थ - लाख, मनसिल, मजीठ, हरताल, दोनों हलदी, इनको पीसकर घी और शहत मिलाकर लेप करने से त्वचा अत्यन्त शुद हो जाती है ।
सवर्णकारक लेप |
कालीयकलताम्रास्थिहम कालारसोत्तमैः ॥ लेपः सगोमयरसः सवर्णकरणः परम् । अर्थ - कालीयकलता आम की गुठली, हेमकाल, रसोत्तम इनके चूर्ण को गोवर के रस में मिलाकर लेप करने से त्वचा के सदृश घाव का स्थान हो जाता है । रोमोद्भव लेप |
दग्धो वारणदतोतधूमं तैलं रसांजनम् ६२ ॥ रोमसंजननो लेपस्तद्वत्तैलपरिप्लुता । चतुष्पान्नखरोमास्थित्वकुशृंगखुरजा मषी
अर्थ - अंतर्धूम से जलाई हुई हाथी के दांतकी राख, तेल, रसौत, इनका लेप करने से रोम उत्पन्न होते हैं। इसी तरह चौपाये जानवरों के नख, रोम, अस्थि, त्वचा, सींग, और खुर इनकी राख भी तेल में सानकर लगाने से रोम जम जाते हैं । घावमें पथ्य ।
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प्रणिनः शस्त्रकर्मोक्तं पथ्यापथ्यान्नमादिशेत् अर्थ - घाववाले रोगी को शस्त्रकर्म में कहे हुए पथ्यापथ्य का विचार करना चाहिये
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अ० २६
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
वाताधिक्य में वातनाशक प्रयोग | द्वे पञ्चमूले वर्गश्च वातघ्नो वातिके हितः न्यग्रोधपद्मकाद्य तु तद्वत्पित्तप्रदूषिते । आरग्वधादिः श्लेष्मघ्नः कफे मिश्रस्तु मिश्र के अर्थ - वाताधिक्य में दशमूल और वातनाशक वर्ग हित है । पित्ताधिक्य में न्योI धादि और पद्मकादिगण हित है । कफज में कफनाशक और आरग्वधादिगण हित है । तथा मिश्र दोनों में मिश्रित औषधों का प्रयोग करना चाहिये |
व्रण में यथायोग्य औषध । एभिः प्रक्षालनालेप घृततैलर सक्रियाः ।
वर्तिश्च संयोज्या प्रगे सप्त यथायथम् अर्थ- प्रज्ञावन, आलेपन, घी, तेल, रसक्रिया, चूर्ग और वर्ति इन सातों का यथायोग्य घावमें प्रयोग करना चाहिये । घृत प्रयोग |
I
मुल
जान्वितैः सर्पिः साध्यमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः "क्लेदिनो गर्भाराः सरुजो वगाः सगतयः शुध्यंति रोहंति च ॥ ६७ ॥“ अर्थ- चमेली के पत्ते, नीम के पत्ते, कुटकी, दारूहल्दी, हल्दी, अनंतमूळ, मजीठ, खसकी जड, कालाधतूरा, नीलाथोथा, हटी, और कंजा, इनके साथ घी पकाकर इस घृतका प्रयोग करनेसे छोटे मुखवाले, मर्माश्रित, क्लेदयुक्त, गंभीर, वंदनावाले और नाडीव्रण शुद्ध होकर भरजाते हैं । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां उत्तरस्थाने वणप्रतिषेधो नाम पंचविंशोऽध्यायः ।
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( ८७१ )
षडूविंशोऽध्यायः ।
अथाऽतः सद्योब्रणप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। अर्थ - अब हम यहांसे सद्योघावप्रतिषेध नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
वणजुष्टआठप्रकारके अंग । सद्योव्रणाये सहसा संभवत्यभिघाततः । अनंतैरपि तैरंगमुच्यते जुष्टमष्टधा ॥ १ ॥ घृष्टावकृत्तविच्छिन्नप्रविलंबितपातितम् । विद्धं भिन्नं विदलितं
1
अर्थ - किसी प्रकार की चोट लगने से जो शरीर में सहसा घात्र उत्पन्न हो जाते हैं उन्हें सद्योव्रण कहते हैं । यद्यपि असंख् होते हैं परन्तु मुख्य आठही प्रकार के होते हैं, जैसे घृष्ट, अत्रकृत, विच्छिन्न, प्रबि ंबित जातर्नित्रपटोल पत्रकटुकादावनिशासारिवा. पातितविद्ध, भिन्न, और विदलित । मंजिष्ठाभयसिद्ध तुत्थमधुकैर्नक्काइवबी
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आठों के लक्षण |
तत्र घृष्टं लसीकयां ॥ २ ॥ रक्तलेशेन वा युक्तं सप्लोषं छेदनात् स्त्रवेत् । अवगाढं ततः कृत्तं विच्छिन्नं स्यात्ततोऽपि च प्रविलंबि सशेषेऽस्थि पतितं पातितं तनोः । सूक्ष्मास्यशल्य विद्धं तु विद्धं कोष्ठविवर्जितम् भिन्नमन्यद्विदलितं मज्जरक्तपरिप्लुतम् । प्रहारपीडनोत्पेषात्सहारना पृथुतां गतम् अर्थ--इन आटों में हैं जो किसी बस्तुकी रिगड लगने से त्वचा के उडजाने से पैदा होते हैं । इनमें से रक्तमिश्रित स्राव होता रहता है । घृष्टकी अपेक्षा अवगाढ धावको अवष्ट कहते हैं । इससे भी अवगाढ को विच्छिन्न कहते हैं । जिसको rea द्वारा काटने से अस्थिमात्र शेष रहजाय
घृष्टवा
1
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(८७२)
मष्टांगहृदय ।
म. २६
उसे प्रक्लिंवित कहते हैं । छेदन द्वारा शरीर | ससंरंभ व्रणका शोधन । का कोई अंग अलग होजाय तो उसे पाति- ससरंभेषु कर्तव्यमूर्य चाधश्च शोधनम् । तधाव कहते हैं । कोष्ठ को छोडकर अन्य उपवासो हितं भुक्तं प्रततं रक्तमोक्षणम्॥ स्थान में छोटे मुखवाला घाव जो शल्य के अर्थ-सूजनवाले घाव में वमन और विधने से होता है वह विद्ध कहलाता है। विरेचन देकर शोधन करना चाहिये । कोष्ठ के विद्ध होनेपर जो घाव होता है उसे उपवास, अवस्थानुसार पूर्वोक्त हितकारी भिन्न घाव कहते हैं । प्रहार, पीडन और
| भोजन, तथा बार बार रक्तमोक्षण हितकारी उत्प्रेषण द्वारा कोई अंग अस्थिसे चिपट
| होता है। . गया हो तो और उसमें से मज्जा वा रक्त निकलता हो तो उसे विदलित कहते हैं। घृष्टादि की चिकित्सा । सोत्रण में सेचन ।
घृष्टे विदलिते वैष सुतरामिप्यते विधिः।
तयोहल्प स्रवत्यत्रं पाकस्तेनाशु जायत । सद्यःसद्यो व्रगसिंचेदथ यष्ट्याहवसर्पिषा। तीनव्यथ कवोष्णेन बलातैलेन वा पुनः ॥
__अर्थ-घृष्ट और विदलित घ.वमें पूर्वोक्त अर्थ-ब्रण का स्वरूप जानकर वेदना
चिकित्सा करना चाहिये । इष्ट और रिद. से युक्त ताजी घाव पर मुलहटी डालकर
लित में रक्त कम निकलता है, इसलिये ये सिद्ध किया हुआ ईषदुष्ण घी वा बला का जल्दी पकजाते हैं। तेज़ बार बार डाले।
विक्षत में स्नेहपानादि। घाव की गरमी पर लेप ।
अत्यर्थमनं स्रवति प्रायशोऽन्यत्र विक्षते । क्षतोष्मणोनिग्रहार्थतत्कालं विशुतस्य च। ततो रक्तक्षयाद्वायौ कुपितेऽतिरुजाकरे ॥ फपायशीतमधुरस्निग्धा लेपादयो हिताः ॥ महपानपरीषेकस्वेदलेपोपनाहनम् । अर्थ तत्काल उत्पन्न हुए गरमी को
नेहवास्ति च कुर्वीत वासघ्नौषधसाधितम्
.. अर्थ-वृष्ट और विदलित व्रणोंके सिवाय दूर करने के लिय कषाय, शीतवीर्य, मधुर
अन्य सब घाबों में से बहुत रक्त निकलता और स्निग्ध लेपादिक करने चाहिये ।।
है इसलिये वे पकते नहीं हैं। रक्त के तीक्ष्ण आयत ब्रण की चिकित्सा।। सद्योव्र गेयायतेषु संधानार्थ विशेषतः।।
हेनो से वायु कुपित होकर अत्यन्त वेदना मधुसर्विश्च युजीत पित्ताश्च हिमाः उत्पन्न करती है । इसलिये इनमें स्नेहपान
क्रियाः ॥ ८ ॥ परिषेक, स्वेद, प्रलेप, उपनाह और बात .. अर्थ-जो तत्काल का उत्पन्न हुआ घाव नाशक औषधियों से सिद्ध की हुई स्नेहवस्ति फैलगया हो तो उसके जोडने के लिये का प्रयोग करना चाहिये। शहत और घी का प्रयोग करना चाहिये ।
सातदिन के पीछे का विधान । इसमें पितनाशनी तथा शीतल क्रिया हित
इति साप्ताहिकाप्रोक्तःसद्यो बणहितो विधिः होती हैं।
सप्ताहादतवेगे तु पूर्वोक्तं विधिमाचरेत् १३
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत।
अर्थ-सद्योव्रण में सातदिन तक इस | कमल के पत्तों से लिपटी हुई उंगली द्वारा प्रकार चिकित्सा करने से प्रशमन होजाता। पीडन करे । है। यदि सात दिनमें घाव अच्छा नहोतो
नेत्ररोग पर घत । पूर्वोक चिकित्सा करना चाहिये । ततोऽस्य सेचने नस्ये तर्पणे च हित हविः।
घृष्ट ब्रणमें चूर्ण। विपकमा यष्टयाव्हजीवकर्षभकोत्पलैः । प्रायः सामान्यकर्मेदं वक्ष्यते तु पृथक्पृथक | सपयस्कः परं तद्धि सर्वनेत्राभिघातजित्। घृष्टे रुजं निगृह्याश व्रणे चूर्णानि योजयेत् ॥ अर्थ--इस तरह नेत्र को अपने स्थान
अर्थ-सब प्रकार के ताजी घावों की । पर स्थापित करके , मुलहटी ,जीवक,ऋषचिकित्सा कही गई है, अब इन घष्टादि । भक और उत्पल इनका कल्क करके दूधके घावों की चिकित्सा का विशेषरूपसे अलग साथ बकरी का घी पकाकर इस घीकोसेचन अलग वर्णन करते हैं । घृष्ट ब्रणमें वेदना
नस्य और तपर्ण द्वारा उपयोग में लावै । को शान्त करके चूर्ण का प्रयोग करना यह घी नेत्रों की सब प्रकार की चोटमें चाहिये।
| हितकारी होताहै । अवकृत्त की चिकित्सा।
नेत्रका अन्यरोग। फलकादीन्यवकृत्ते तु
गलपीडावसन्नेऽक्षिण वमनोरलेशनक्षवाः। अर्थ-अवकृत्त नामक घाव में कल्कादि | प्राणायामोऽथवाकार्यःक्रियाचक्षतनेत्रवत् । का प्रयोग करना चाहिये ।
___ अर्थ--गलेके दर्द के कारण जो नेत्र अवसन्न अविलंबित का उपाय । विच्छिन्नप्रविलंबिनो।
होगये होतो वमन, उक्लेश, छींक वा प्राणासीवनं विधिनोक्तेन वंधनं चानुपीडनम् ॥ याम करना चाहिये । इसमें नेत्रके घायके
अर्थ-विच्छिन्न और प्रविलंबी घावोंमें | सदृश चिाकत्सा करना हितकारी होता है । पूर्व कथित विधि के अनुसार सीवन बंधन । कान में सीमन । और अनुपीडन करना चाहिये ।
कर्णेस्थानाच्च्युते स्यूतेस्रोतस्तैलेन पूरयेत्। स्फुटितनेत्र में कर्तव्य ।।
___ अर्थ--कान जब अपने स्थान से भ्रष्ट असाध्यं स्फुटितं नेत्रमदीर्ण लंबते तु यत। होजाय तब वहां टांके लगाकर कानके छेदमें सन्निवेश्ययथास्थानमध्याविद्धसिरंभिषक। तेल भरदे । पीडयेत् पाणिना पद्मपलाशांतरितेन तत् । छिन्नककटिका में सीमन ।
अर्थ--नेत्र फूटजाने पर असाध्य होताहै काटिकायांछिन्नायांनिर्गच्छत्यपि मारुते॥ जो नेत्र फूटता नहीं है और दीर्ण होकर समनिवश्यबन्धीयात्म्यूत्वाशीघ्रंनिरंतरम् लटक पडता है उसकी सव शिराओं को अर्थ-ग्रीवाके छिन्न होजाने पर. यदि ऐमी रीति से इकट्ठी करे फि बिद्ध न होने वायु उसमें होकर निकलने लगे तो उसको पाये और नेत्र को अपने स्थान पर लगाकर शीघ्रतापूर्वक यथास्थान में स्थापित करके
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(८७४)
अष्टोगहृदय ।
म० २६
टांके भरदे और ऐसी रीति से बांधदे कि । षेक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि फटा हुआ न रहै ।
| स्नेह से ब्रणमें क्लेदता उत्पन्न हो जाती है । . उक्तरोग में घृतपरिषेक ।
उक्तरोगमें तेल । आजेन सर्पिषा चाऽत्र परिषेकः प्रशस्यते । | कालानुसार्यगुर्वेलाजातीचंदनपर्पटैः । उत्तानोऽन्नानि भुंजीत शयीत च सुयंत्रितः। शिलादाय॑मृतातुत्थैः सिद्धं तैलंचरोपणम्। __ अर्थ-प्रीवा के छिन्न होजाने पर बकरी अर्थ-कालानुसारी ( शीशमके वृक्ष का के घी से सेचन करे । और ऊंची गर्दन निर्यास ), अगर, इलायची, चमेली के पत्ते, करके भोजन करे और अच्छी तरह बंधन चंदन, पित्तपापडा, मनसिल, दारुहलदी, लगाकर शयन करे।
गिलोय और नीलाथोथा इनको पीसकर इस हाथ में सीवनादि ।
के साथ तेल पकाकर अंडकोषों में लगावे । घासंशाखासुतिर्यवस्थंगासम्पनिवेशिते
यह अंडकोष के घावको भरने के लिये स्यूत्वा वेल्तिबंधेनवर्गीयाधत्तवाससा।
उत्तम मरहम है। चर्मणा गोफणावंघः कार्यश्चासंगते व्रणे।
छिन्नशाखा का दग्धकरना । अर्थ- हाथ और पांव में तिरछी चोट
छिन्नांनिःशेषतः शाखांदग्ध्वातैलेनयुक्तितः। लगने से उस चोट लगे हुए स्थानको यथा- घनीयात् कोशबंधेन ततो वणवदाचरेत् ॥ स्थान में स्थापित करके टांके लगादे और | अर्थ-विशेष छिन्न हुए हाथ पांवोंको गाढेकपडे की पट्टी से बेल्लितनामक बंधन युक्तिपूर्वक गरम तेलसे दग्ध करके कोशद्वारा बांधदे । यदि घाव सम्यक् गीतसे न नामक बंधन से बांध देवै और घाव की मिल सके तो चमडे का बंधन गोष्फण रीति तरह चिकित्सा करना चाहिये । से बांधदेना चाहिये ।
सिरमें वर्तिप्रयोग। बिलंबिमुष्कस्य सीवनादि। कार्या शल्याहृते विद्ध भंगाद्विदलिते किया। पादौ बिलंविमुष्कस्य प्रोक्ष्यनेत्रे चवारिणा। शिरसोपहृते शल्ये वालपति प्रवेशयेत् ॥ प्रवेश्य वृषणी सीब्येत् सेवन्या तुम्नसंज्ञया। मस्तुलुंगनते दोहन्यादेनं चलोऽन्यथा। कार्यश्चगोष्फणावंधाकटयामावेश्यपट्टकम् | व्रणे रोहति चैकैकं शनैरपनयेत्कचम् ॥ रहसेकं न कुर्वांत तत्र क्लियति हि व्रणः।। मस्तुलुंगसतौखादेन्मस्तिकानन्यजीवजान
अर्थ-जिस रोगीका अंडकोष लटक अर्थ-शल्य के द्वारा मस्तक के अत्यन्त पडा हो उसके पांव और नेत्रों को जलसे । बिद्ध होने पर अथवा चोट लगने से विद प्रोक्षया करके ( छोटे मारकर वा धोकर ) लित होने पर भी चिकित्सा करते ही रहना अंडोंको भीतर प्रविष्ट करके तुन्न नामक चाहिये । शल्यके सिरसे आहत होने पर सीवने से टांके भरदे । और गोष्मण नामक बालों की बत्ती प्रवेश करना चाहिये । यदि बंधन द्वारा कपडे से बांधकर उस कपडे को शल्य न निकला हो तो बत्ती नहीं लगाना कमर से बांधदे । इस घावमें स्नेह का परि- चाहिये । यदि बत्ती लगाई जायगी तो मस्तु.
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म. २६
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
(८७६)
ढंग का स्राव होने से वायुक्रुद्ध होकर रोगी । आमाशयस्थरुधिर में कर्तव्य । को मार डालेगी । घावके भर जाने पर एक | आमाशयस्थे रुधिरे रुधिरं छर्दयत्यपि। एक करके धीरे धीरे बालों को निकाल डालना
माध्मानेनाऽतिमात्रेण शूलन व विशस्यते। चाहिये । मज्जानामक मस्तुलुंग के निकल
- अर्थ-शल्यके द्वारा विधकर यदि आमाजाने पर अन्य जीवों के मस्तक का मस्तु.
शय में रुधिर भरजाय तो रक्तकी वमन,
अत्यन्त अफरा और शूल उत्पन्न होकर लंग खाने को देना चाहिये । ... शल्य निकलने पर स्नेहवति । आइतव्यक्ति का मारडालता है। शल्ये हृतंगाइन्यस्मात्नेहवति निधापयेत् ।
पकाशयस्थ रूधिर । अर्थ-मस्तक के सिवाय और किसी पक्काशयस्थे रुधिरे सशूलं गौरवं भवेत् ।
| नाभेरधस्ताच्छीतत्वंखेभ्यो रक्तस्य चागमा अंग में शल्य लगाना हो तो उसको निकाल
____ अर्थ-रुधिरके पक्वाशय में भरजाने पर कर स्नेहवर्ति लगाना चाहिये ।।
शूल, देहमें भारापन, नाभिके नीचे के भाग गहरे घावोंका उपाय ।
में शीतलता, तथा रोमकूपों में होकर रुधिर दूरावगाढाःसूक्ष्मास्यायेत्रणास्रतशोणिताः।
| कानिकलना ये सब लक्षण उपस्थित होतेहैं। सेवयचक्रतैलेन सूक्ष्मनेत्रार्षितेन तान् ॥ अर्थ--जो घाव बहुत गहरे हों, जिनके
___ अभिन्नाशयका रुधिरसे भरना । मुख छोटे हों और जिनसे रक्त झरसा हो
अभिन्नोग्याशयः सूक्ष्मः स्रोतोभिरभिपूर्यते।
असृजास्यंदमानेन पार्श्व मुत्रेण बस्तिवत् उनमें छोटे नेत्रवाले नालिका यंत्र द्वारा चक्र
___ अर्थ-जैसे मूत्र पसलियों के स्रोतों से तेल ( पानी का तेल ) भरना चाहिये ।
झरझर कर वस्तिको भरदेता है, वैसेही कोई भिन्नकोछ में उपाय । आशय शल्य द्वारा भिन्न होने पर भी छोटे भिन्ने कोष्ठेऽ सुजापूणे मूर्छाहत्पार्श्ववेदनाः।।
छोटे स्रोतों द्वारा रक्त झरझर कर भभिन्न ज्वरो दाहस्तृडाध्मानं भक्तस्थानभिनंदनम्। संगो विषमूत्रमरुतां श्वासः स्वदोक्षिरक्तता।
आशय को भरदेता है। लोहगंधित्वमास्यस्यस्यादगारेचविगंधता।
___ अंतलोहितादि का वर्जन । . अर्थ-शल्यद्वार। कोष्ठ के विदीर्ण हो
| तत्रांतोहितं शीतपादोच्छवासकराननम् जाने पर यदि वह रुधिरसे भरजाय तो
रक्ताक्षं पांडुवदनमानद्धं च विवर्जयेत् ३७
___ अर्थ-ऐसा रोगी जिसके भीतर रुधिर मुर्छा,हृदय और पसली में वेदना,ज्वर,दाह
भरजाने से हाथ पांव श्वास और मुख ठंडे तृषा और असाध्य, भोजनमें अरुचि,मलमूत्र
होगये हों, आंखों में ललाई, देहमें पांडुगऔर अधोवायु का अबरोध,श्वास, पसीना,
र्णता और अफरा भी हो तो उसकी चिकिनेत्रों में ललाई, मुखमें रक्तकी सी गंध और |
त्सा न करे । देहमें विकृत गंध ये सब लक्षण उपस्थित
आमाशयस्थरक्त में बमनादि । होते हैं।
| भामशयस्थे वमनं हितं पक्काशयाश्रये ।
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अष्टांगहृदय ।
अ० २६
विरेचनं निरूहं च निःस्नेहोष्णविंशोधनैः ।। अर्थ-कोष्ठ के भिन्न होने पर भी यदि
अर्थ-रक्तके आमाशय में स्थित होने | रोगी के मल मुत्र और अधोषायु अपने २ पर वमन, पक्काशयमें स्थित होनेपर विरेचन, मार्ग द्वारा प्रवत होते हों और कोई हितकारी होते हैं तथा स्नेहरहित उष्णवीर्य उपद्रव भी न हो तो भिन्न कोप्ठवाला रोगी विशोधन द्वारा निरूहण का प्रयोग हित. निःसंदेह जी पड़ता है। कारी है।
अंत्र प्रवेश में मत । अन्यविधि ।
अभिन्नमंत्रं निष्क्रांतं प्रवेश्यं न त्वतोऽन्यथा वकोलकुलत्थानां रसैः स्नेहविवर्जितैः। उत्पंगिलशिरोग्रस्तं तदप्येके वदंति तु ४३ भुजीतानं यवागू वा पिवेत्सैंधवसंयुताम्
। अर्थ-जो आंत बिना भिन्न हुएही बाहर अर्थ-बिना चिकनाई डाले जौ, बेर निकल पडी हो तो उसे भीतर प्रविष्ट करद और कुलथी के काढे के साथ अन्न भोजन
और यदि कटकर बाहर निकली हो तो अथवा सेंधेनमक के साथ पेया देना हितहै।
काली चींटियों के मस्तक द्वारा जुड़वाकर रक्तपानविधि ।
भीतर प्रवेश करदे । भतिनिःसतरक्तस्तु भिन्नकोष्ठः पिवेदसृक । ___ अर्थ-जिसका रुधिर बहुत निकल गया
अंत्र के भीतर प्रवेश करने की विधि । है और कोष्ठ फटगया है उसको रुधिरपान
प्रक्षाल्य पयसा दिग्धं तृणशोणितपांसुभिः
प्रवेशयेत्क्लुप्तनखोघृतेनाक्तं शनैः शनैः ४४ कराना चाहिये ।
___ अर्थ-वाहर निकली हुई आंत के तिनुके . कोष्ठ भेदन में दो विधि ।
| रुधिर वा धूल को धोकर और उसपर घी क्लिन्नभिन्नांत्रभेदेन कोष्ठभेदो द्विधा स्मृतः ।
चुपड़ कर धीरे २ भीतर करदे । वैद्य को मूदियोऽल्पाःप्रथमे द्वितीये त्वतिबाधकाः क्लिनांत्रः संशयी देही भिन्नांत्रो नैव जीवति
उचित्त है कि इस काम को करने से पहिले अर्थ-क्लिन्नांत्र और भिन्नांत्र भेदों से
अपने नख कटवाले । कोष्ठ दो प्रकार का होता है । क्लिन्नांत्र में
अंत्रव्रण सीवन । मूर्छादिक रोग बहुत कम दशा में उत्पन्न
क्षीरेणार्टीकृतं शुष्कं भूरिसर्पिःपरिप्लुतम्
अंगुल्या प्रमृशेत्कंठं जलेनोद्वेजयेदपि ४५ होते हैं, परन्तु भिन्नांत्र में ये लक्षण अधि- | तथांत्राणि विशत्यंतस्तत्कालं पीडयति च । कता से उत्पन्न होते है । क्लिन्नांत्र रोगी के । अर्थ-सखी हुई प्रांत को दूध से भिगो जीवन में संशय रहता है जी भी और न | कर और बहुत से घी में आप्लुत करे । भी जीवै । परन्तु भिन्नांत्र रोगी किसी प्रकार तदनंतर रोगीके कण्ठमें उँगली प्रवेश करदे नहीं जी सकता है ।
तथा जल के छींटे मारकर उद्वेजित करे । भिन्नकोष्ठ में जीवन के लक्षण । ऐसा करने से आंत भीतर घुस जाती है । यथावं मार्गमापन्ना यस्य विषमूत्रमारुताः
अन्य उपाय । व्युपद्रवः स भिन्नेऽपि कोष्ठे जीवत्यसंशयम् | व्रणसौम्याद्वहुत्वादा कोष्टमंत्रमनाविशत्
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भ. २६
उत्तरस्थान भाषाकासमेत ।
(८७७)
तत्प्रमाणेन जठर पाटयित्वा प्रवेशयेत् । । बुरक कर डोरे से दृढ बांध देवै और अग्नि यथास्थानं स्थिते सम्यगंत्रे सीव्येदनुवणम् | से तप्त तीक्ष्ण शस्त्रसे कुशल वैद्य शीघ्र स्थानादपेतमादत्ते जीवितं कुपितं च तत् ।। वेष्टयित्वानुपट्टेन घतेन परिषेचयेत् ॥४८॥ वर्धन करे । इसका अन्यथा छेदन होने से पाययेत्तं ततः कोष्णं चित्रातैलयुतं पयः । वेदना, आटोप और मृत्यु भी हो जाती है। मृदुक्रियार्थ शकृतो वायोश्चाधः प्रवृत्तये । छेदन के पीछे मधु लगाकर व्रणको बांध देवै अनुवर्तेत वर्षे च यथोक्तां ब्रणयंत्रणाम् ।
और अन्नके पच जाने पर घी पान कराव __अर्थ-घाव का मुख छोटा होने के कारण और आंतों की आधिकता के कारण यदि
अथवा शर्करा, चीता, लाख, गोखरू और निकली हुई भांतें उदर में न घुस सकें तो
मुलहटी डालकर सिद्ध किया हुआ दूध पान उनके प्रमाण के अनुसार उदर को चीर
करावै । इससे वेदना और दाह शांत हो कर आंतों को भीतर करदे, इस तरह यथा
जाते हैं । तदनंतर पूर्वोक्त संपूर्ण चिकित्सा स्थान में स्थापित करके व्रग के मुख को
| करना चाहिये इसमें मेद और ग्रंथि चिकित्सा मिलाकर टांके भरदे, स्थान भ्रष्ट आंत कुपित
| में कहे हुए तेल अभ्यंजन में हित हैं । होकर शीघही प्राणी को मार डालती है। घावमें रोपण तैल। इस लिये इसपर पट्टी लपेट कर घी डालदे, | तालीसं पद्मकं मांसीहरेण्वगुरुचंदनम् ।
| हरिद्रे पद्मयीजानि सोशीरं मधुकं च तैः । तदनंतर चित्रा का तेल मिलाकर कुछ गरम ।
पक्कं सद्योव्रणषूक्तं तैलं रोपणमुत्तमम् । दूध पान करावे, मल को ढीला करने के
___ अर्थ-तालीसपत्र, पदमाख, जटामांसी, लिये और अधोवायु के प्रवृत करने के लिये
हरेणु, अगर, चंदन, हलदी, दारुहलदी, कमएक वर्ष तक व्रण के हितकारी यथोक्त । नियमों का सावधानी से प्रतिपालन करे ।
लगवा, खस, और मुलहटी इनसे पकाया मेदोवर्तिके निकलने में कर्तव्य ।।
हुआ तेल ताजी घावोंके भरनमें परमोत्तम हैं उदराम्मेदसो वति निर्गतां भस्मना मृदा ।
गूढ प्रहारमें कर्तव्य ।। अवकीर्य कषायैर्वा श्लक्ष्णैर्मलैस्ततः समम | गूढप्रहाराभिहते पतिते विषमोश्चकैः ५६ दृढं बध्वा च सूत्रेण वर्धयेत्कुशलो भिषक कार्यवातास्रजित्तन्तिमर्दनाभ्यंजनादिकम् तीक्ष्णेनाग्निप्रतप्तेन शस्त्रेण सकृदेव तु। । अर्थ-लाठी वा चूंसे से भीतरी चोट स्यादन्यथा रुगाटोपो मृत्यु छिद्यमानया | लगने के कारण अथवा विषम रीति से गि. सक्षौद्रे च ब्रणे बद्धे सुजीर्णेऽन्ने घृतं पियेत् | क्षीरं वा शर्कराचित्रालाक्षागोक्षुरकैः शृतम्
रने के कारण वा ऊंचे स्थान से गिरने के रुग्दाहजित्सयष्टयाहः परं पूर्वोदितो विधि: कारण पेट भरकर भोजन, मर्दन, और वात. मेदोग्रंथ्युदितं तत्र तैलमभ्यंजने हितम् । नाशक अभ्यंजनादि का प्रयोग करना चाहिये
अर्थ-उदर से मेदकी बत्ती बाहर निका- तेलकी द्रोणीमें निवास । लने पर भस्म अथवा मृत्तिकाद्वारा अथवा विश्लिष्टदेहं माथतं क्षीणं मर्महताहतम् । कषायरसान्वित किसी जडके महीन चूर्णको | यासयेत्तैलपूर्णायां द्रोण्यां मांसरसाशिनम्
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(८७८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २७
किया जायगा ॥
-
-
-
- अर्थ-विश्लिष्टदेह, मथित, क्षीण और | हैं। मंगभेद से इसके अनेक भेद हैं, इस मर्माहत रोगी को तेल की भरी हुई द्राणीमें भंगभेद के यथायोग्य उपायों का वर्णन बैठावे और मांसरसका भोजन करावै ॥ इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी
दुःसाध्य भंग । कान्वितायां उत्तरस्थाने सद्योव्रणप्र-प्राज्याणुदारियत्त्वस्थिस्पर्शशब्दंकरोतियत् तिषेधो नाम षड्विंशोऽध्यायः।। यत्राऽस्थिलेशः प्रविशेन्मध्यमरथ्नो
विदारितः ।
भग्नं यच्चाभिघातेन किंचिदेवावशेषितम् ॥ सप्तविंशोऽध्यायः। उन्नम्यमानं क्षतवद्यश्च मज्जनि मज्जति ।
तद्दुः साध्यं कृशाशक्तवातलाल्पाशिनामपि -20550
___ अर्थ-जिस अस्थि में छोटी २ दरारे अथाऽतो भंगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः।
पडगई हों, जिसके छूने में शब्द होता हो, अर्थ-अब हम यहांसे भंगप्रतिषेधनामक
जिसकी दरार में दूसरी अस्थि के कण अध्याय की व्याख्या करेंगे।
घुसगये हों, जो चोट लगने से टूट कर भंग के दो भेद। पातघातादिभिर्द्वधा भंगोऽस्थ्नां संध्यसधित
थोडी सी जुडी रहगई हो, जिसको उठाने प्रसारणाकुंचनयोरशक्तिः संधिमुक्तता ॥
से घाव सा दिखाई दे, जो मज्जा के भीतर इतरस्मिन्भृशं शोफः सर्वावस्थास्वतिव्यथा गपक गई हो वह अस्थिभंग दुःसाध्य होता अशक्तिश्चेष्टितेऽल्पेऽपिपीडथमाने- है। तथा कृश, असमर्थ, वातल और
सशब्दता ॥२॥
अल्पाशी मनुष्यों का अस्थिभंग भी असाध्य समासादिति भंगस्य लक्षणं बहुधा तु तत्। भिद्यते भंगभेदेन तस्य सर्वस्य साधनम् ।
| होता है । यथा स्यादुपयोगाय तथा तदुपदेक्ष्यते । । अन्य वर्जित अस्थि ।
अर्थ-गिरने से वा चोट लगने से अ-भिन्नं कपालं यत् कटयां संधिमुक्तं . स्थियों का भंग दो प्रकार का होता है। एक
च्युतं च यत् ।
| जघनं प्रति पिष्टं च भग्नं यत्तद्विवर्जयेत् । संधिभंग, दुसरा कांडभंग, संधिभंगमें अंगके
__ अर्थ-कमर की जो अस्थि टूटगई हो, फैलाने वा सकोडने में सामर्थ्य नहीं रहती
जो अस्थि अपने जोड से हटगई हो, जो अथवा संधि अपने स्थान से हट जाती है ।
अस्थि संधिस्थान से नीचे को गिरगई हो कांडभंग में सूजनकी अधिकता और सोने ।
और जो जघन स्थान की हड्डी टूटकर चूरा बैठने आदि सब अवस्थाओं में वेदना बहुत |
होगई हो, ये सब वर्जित हैं। होती है । अल्प चेष्टाके काममें भी असामर्थ्य
. अन्य वर्जित अस्थिभंग । और भग्नस्थान में दबाने से शब्द की उत्पत्ति | पालंच ललाट चर्णितं तथा। होती है । ये भंगके सामान्य लक्षण कहे गये । यच्च मनं भवेच्छंखशिरः पृष्ठस्तनांतरे ॥८॥
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प्र. २७
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८७९)
अर्थ -ललाट की बे मिली हुई अथवा | पटैः प्रभूतसर्पिष्टियित्वा सुखैस्ततः । ट्टी हुई अस्थि, तथा कनपटी, सिर, पीठ | कदंबोदुंबराश्वत्थसर्जार्जुनपलाशजैः॥
वंशोद्भवैर्वा पृथुभिस्तनुभिः सुनिवेशितैः। और स्तनों के मध्यवाली अस्थि असाध्य
सुलक्षणैः सुप्रतिस्तंभैवल्कलैः शकलैरपि। होती हैं।
कुशाव्हयैः समंबधं पट्टस्योपरि योजयेत् । दुास में वर्नन ।
। अर्थ-आंछन, उत्पीडन, उन्नमन, चर्म सम्यग्यमितमप्यस्थिदुयासा(निबंधनातू |
संक्षेप और बंधन इन सब स्थापनोपायों से संक्षोभादपि यद्च्छेद्विकियां तद्विवर्जयेत् ।
देह की चल और अचल सब संधियों को पादितो यच दुर्भातमस्थिसंधिरथापि वा।
अच्छी रीति से स्थापन करके बहुतसा धी अर्थ-टूटी हुई अस्थि अच्छी तरह से बांधने पर भी बुरी तरह लगाने से, वा
डाल देवे और सुख त्पादक कपडे की पट्टी बांधने से वा संक्षोमसे जो विकृतिको प्राप्त
ऊपर से लपेट देवै और इस कपड़े के होजाय, उसे त्याग देना चाहिये । जो हड्डी
ऊपर गूलर, पीपल, साल, अर्जुन, और
ढाक की छाल अथवा बांस की खपच्च, प्रथम से ही अच्छी तरह नहीं उत्पन्न होती
लगाकर समान रीति से बांध देवै । इन है, वह भी दुःसाध्य होती है।
छाल वा बांसकी खपच्चियों को छीलकर __ अन्य दुःसाध्य ।
चौडी, पतली और मुलायम करलेवे इस तरुणास्थीनिमुज्यंते भज्यंते नलकानि तु । कापालानि विभिधते स्फुटत्यन्यानि भूयसा
बंधन को कुश बंधन कहते हैं । अर्थ-तरुण अस्थि टेढी पडजाती हैं,
शिथिल और गाढबंधन ।
शिथिलेन हि बंधेन संधेः स्थैर्य न जायते: नलकास्थि टूट जाती हैं, कपाल की हड्डी
गाढेनातिरुजादाहपाकश्वयथुसंभवः। टुकडे टुकड़े होकर विदीर्ण होजाती हैं,
अर्थ-डीले बंधन से संधि स्थिर नहीं तथा अन्य हडियां फूट जाती हैं ।
रहती है और अत्यन्त कठोर बंधन से वेदना, भंग में चिकित्सा की रीति ।।
| दाह, पाक और सूजन उत्पन्न हो जाती है, भथावनतमुन्नम्यमुन्नतं चायपीडयेत् ११ ।
त् ११ | इस लिये ऐसा बंधन बांधे जो न ढीला हो मच्छे इतिक्षिप्तमधोगतंचोपरि वर्तयेत् ।
न कडा हो । . अर्थ-ट्टी हुई हड्डी की अवस्था देखकर झुकी हुई हड्डी को ऊंची नीची करदे,उंची
____ ऋतुविशेष में मोचनकाल । को नीची, अस्तव्यस्त को यथास्थान में
ज्यहाध्यहाइती घर्ष सप्ताहान्मोझयेद्धिमे
साधारणे तु पंचाहादू भगदोषवशेन था। लगा देवे।
___ अर्थ-गरम ऋतु में तीसरे दिन पट्टी मध्यम प्रकार के बंधनकी रीति ।
| खोल दे, जाडे में सातवें दिन और साधारण आच्छनोत्पीडनोन्नामचर्मसंक्षेपबंधनैः १२ संधीन्शरीरगान्सर्वान्चलानप्यचलानपि
| काल में अर्थात् शरत और बसन्तऋतुमें पांच इत्येतैः स्थापनोपायैः सम्यक् संस्थाप्य ।
"दिनके अंतर से वा भग्न की अवस्था के अनुनिश्चलम् १३ | सार पट्टी खोलदे ।
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(८८०)
अष्टांगहृदयः।
अ० २७
साधे पर परिषेक ।
व्रणका संधान । भ्यग्रोधादिकषायेण ततः शीतेन सेचयेत् लवानि व्रणमांसानि प्रालिप्य मधुसर्पिषा। तं पंचमूलपक्केन पयसा तु सवेदनम्। संदधीत वणान् वैद्योबंधनैश्चोपपादयेत् । . अर्थ-बंधन खोलकर न्यग्रोधादिगण के अर्थ - घाव का मांस लटक पड़ने पर ठण्डे क्वाथ से संधि पर सेचन करे । अत्यन्त घी और शहत का लेप करके घाव को बेदना होने पर पंचमूल डालकर औटाये हुए | मिला देवे, फिर यथायोग्य बंधन से बांध दूध से परिषेक करना चाहिये । चक्रतेल का प्रयोग ।
- व्रण पर अवचूर्णन । सुखोष्णं वावचायस्थाच्चक्रतैलविज्ञानता तान्समान्सुस्थितान ज्ञात्वा फलिनीरोधूकविभज्य देशकालं च वातघ्नौषधसंयुतम्।
टफलैः । __ अर्थ-देश और काल के अनुसार अवस्था
समंगाधातकीयुक्तै चूर्णितैरवचूर्णयेत् ।
धातकाराषचूणैर्वा रोहंत्याशु तेथा वणाः । की विवेचना करके बातनाशक औषधों से
___ अर्थ ऊपर लिखी हुई रीति से जब युक्त सुहाता हुआ गरम ताजी घानी के घी
घावोंकी समान आकृति और एकसी स्थिति का प्रयोग करे ।
होजाय तब उस पर प्रियंगु, लोध, कायफल .. शीतल परिषेक ।
मजीठ, धाय के फूल इनका चूर्ण बुरक देवे, प्रततं सेकलेपांश्वविदघ्याभृशशीतलान् ।
अथवा धाय के फूल और लोध का चूर्ण अर्थ-अत्यन्त शीतल परिषक और लेपों
बुरक दे, इससे घाब जलदी भरजाता है । का निरंतर प्रयोग करें।
साध्यासाध्य घाव। गृष्टि क्षीरपान ।
| इति भंग उपक्रांतः प्रष्टिक्षीरं ससर्पिष्फ मधुरोषधसाधितम् ।।
स्थिरधातो ऋतौ हिमे ॥ प्रातःप्रातःपिवेद्भग्नः शीतलंलाक्षयायुतम् । मांसलस्याल्पदोषस्यसुसाध्योदारुणोऽन्यथा ___अर्थ-टूटी हुई अस्थिवाला मनुष्य पह- अर्थ-इस तरह भंगचिकित्सा का वर्णन लौन गौ का दूध मधुर गणोक्त द्रव्यों के | किया गया है । साथ औटाकर उसमें धी और लाक्षारस जिसकी धातु स्थिर है, जो बहुत पुष्ट है मिलाकर ठण्डा कर के प्रति दिन पान करे । और जो अल्पदोषों से आक्रांतहै उसके घाव
सवण भग्नकी चिकित्सा। हिमऋतु साध्य होते हैं । इन अवस्थाओं से सवणस्य तु भग्नस्य व्रणा मधुघृतोत्तरैः। विपरीत अवस्था में अर्थात् धातु की आस्थकषायैः प्रति सार्योऽथ शेषो भगोदितःक्रमः
रता, देहकी कृशता, दोषकी अधिकता और ___ अर्थ-घाववाल भग्न रोगी के घाव का | गरमी की ऋतु होने के कारण घाव असाध्य घी और शहत से संयुक्त कषाय द्वारा होता है | प्रतिसारण करे, शेष सब उपाय भग्न के संधिकीस्थिरता का काल । समान करने चाहिये ।
। पूर्वमध्यांमययसामेकद्वित्रिगुणैःक्रमात ॥
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८४१)
मासैःस्थैर्यभवेत्संधैर्यथोक्तंभजतोविधिम् ।। स्नेहन, और स्वेदन से मृदु की हुई संधियों
अर्थ-यथोक्त रीति से चिकित्सा करने को अपनी बुद्धि के अनुसार कही हुई गीतसे पर बालक की संधिके जोडने में जितना | यथास्थान में स्थापित करे । काल लगता है, उससे दूने कालमें मध्य- असंधिभग्न में कर्तव्य ।। मावस्थावाले की हड्डी जुडती है और तिगुने असंधिभन्ने रूढे तु विषमोल्वणसाधिते । काल में वृद्धमनुष्य की संधि जुडती है। आपोथ्य भंग यमयेत्ततो भग्नवदाचरेत् ३१ कट्यादिभग्न में कर्तव्य ।
अथे-संधिके सिवाय अन्य स्थान की करीअंघोरुभनामां कपाटशयन हितम। भग्नता में घावके पुर जानेपर विषम और यंत्रणार्थ तथा कोलापंच कार्यानिधनाः। उल्वण रीति से साधितकर भग्नस्थान को जंघोऊः पार्श्व योद्वौ द्वौ तलएकश्चकालकः | तोडकर योजना कर देवे और भग्नवत् श्रोण्यावापृष्ठवंशे वा वास्याक्षकयोस्तथा | चिकित्सा करे ।
अर्थ-कमर, जांच और ऊरुके टूटने पर भग्नके न पकने का उपाय। रोगी को काठ के तख्ते पर शयन करावे, भग्नं नैति यथा पाकं प्रयतेत तथा भिषक् । रोगी हिलने न पावे इसलिये उस काठ के पकमांससिरानायुसंधिः श्लेष न गच्छति तख्ते में पांच कील गाढकर बांध देवै । अर्थ--जिस तरह भानस्थान पकने न दोनों जांवों के इधर उधर एक एक, दोनों पावे, वही उपाय करे | क्योंकि संधिका मांस अरुओं के इधर उधर एक एक, और पद- सिरा और स्नायु के पकजाने से फिर जुड तल में एक कील गाढे । श्रोणी और पीठ | नहीं सकता है । का बांसा टूटने पर भी पांच कीलों से बांधे भग्नमें स्नेहप्रयोग ॥ दोनों पसवाडों में दो दो और तलेमें एक । वातव्याधिविनिर्दिष्टान् स्नेहान् भन्नस्य
योजयेत् ॥ ३३॥ पात्र और अक्षक के टूटने पर भी पांचही
चतुः प्रयोगान् बल्यांश्च बस्तिकर्म लगाई जाती हैं।
चशीलपेत् ॥ ३३॥ - पट्टीखोलने की विधि। अर्थ--भग्नमें वातरोगों में कहे हुए स्नेह विमोक्षे भानसंधीनां विधिमेवं समाचरेत् के चार बलकारक प्रयोगों को पान, नस्य, - अर्थ-भग्नसंधिकी पट्टी खोलनेमें भी इसी अभ्यंग और अनुवासन द्वारा प्रयोग करे, उपायका अवलंबन करना चाहिये । । तथा वस्तिकर्म भी करे।
चिरविमुक्तसंधि में स्नेहन __ भग्न में मात्रादि द्वारा उपचारः । संधींरिचरविमुकास्तु स्निग्धान्स्वन्नान्- | शाल्याज्यरसदुग्धाद्यैः पौष्टिकैरविदाहिभिः
मृतकृतान् । माश्योपचरेद्भग्नं संधिसंश्लेषकारिभिः॥ उतैविधानर्बुद्धया च यथास्वंस्थानमानयेत् ग्लानिर्नशस्यतेतस्यसंधिविश्लेषकृद्धिसा
अर्थ- बहुत दिन के हटे हुए जोडों में अर्थ-भग्न मनुष्य को शालिचावलों का
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(८८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २७
भात, घी, मांसरस तथा पौष्टिक और अ. अर्थ-काले तिलों की धूल मिट्टी साफ विदाही दुग्धादि और संधि को जोमवार करके एक दृढ वस्त्र में बांधकर सात रात सब प्रकार के खाद्य पदार्थ खाने को दे। तक किसी बहती हुई नदी में डाल दे, भग्न में ग्लानि पैदा न होने है. क्योंकि परंतु प्रतिदिन सवेरे ही पानी में से निकाल ग्लानि से संधि जुडने नहीं पाती है। कर फैलाकर सुखालिया करे । ऐसे सात भग्न में निषिद्ध द्रव्य ।
दिन रात दूधमें भिगोकर सुखा लिया फरे लवणं कटुकं क्षारमम्लं मैथुनमातपम्।
फिर सात दिन रात मुलहटी के काढे में व्यायामं च न सेवेत भन्नो रूक्षं च भोजनम् । भिगोकर सुखालिया फरे । फिर भी एक
अर्थ-भग्नवाला रोगी नमक, कटास वार दूध में भिगोकर सुखाले । फिर इन क्षार, खटाई, मैथुन, धूप, व्यायाम और तिलों के छिलके, मिट्टी आदि दूर करके रूक्ष भोजन इनका परित्याग करदेवै ।
पीसडाले । और खस, नेत्रवाला, मजीठ, वात पित्तज दोषों पर गंधतैल ।
नखी, जटामांसी, गंधतृण, कूठ, बला, कृष्णांस्तिलान् विरजसो दृढवस्त्रवद्धान्
अतिबला, नागवला, अगर, चंदन, कुंकुम, सप्त क्षपा बहति बारीण वासयेत ।
सारिवा, सरलकाष्ठ, राल, देवदारु, और संशोषयेदनुदिनं प्रवसाय चैतान्
पदमाख इन सब का चूर्ण करके मिलादेवे। क्षीरे तथैव मधुकक्कथिते च तोये ॥३६॥
फिर संपूर्ण गंध द्रव्यों के साथ औटाये हुए पुनरपि पीतपयस्कां. स्तान पूर्ववदेव शोषितान् वाढम् ।
दूध में उक्त चूर्ण को मिलाकर तेल निकाले विगततुषानरजस्कान्
फिर शिलारस, रास्ना, शालपर्णी कसेरू, संचूर्णय सुचूर्णितैयुज्यात् ॥ ३७॥ शीशम, तगर, तेजपात, लोध, दूव इनमें मलदवालकलोहितयष्टिकानखमिशिल्लबकुष्टबलात्रयैः।
पूर्वोक्त नलदादि चूर्ण डालकर उक्त तेल अगरुचंदनकुंकुमसारिवा.
को पकावै । यह गंधतल अस्थियों के जोडने सरलसर्जरसासरदारुभिः ॥ ३० ॥ में बहुत गुणकारी है। इसका पान नस्यादि पद्मकादिगणोपेतैस्तिलपिष्टं ततश्च तत् ।
विविध प्रकार के प्रयोगों द्वारा सेवन करने समस्तगंधभैषज्यसिद्धदुग्धेन पीडयेत् ॥
| से वात पित्त से उत्पन्न हुई संपूर्ण देह में शैलेयरामांशुमतीकसेरुकाळानुसारीनतपत्ररोधैः।
व्याप्त होनेवाली बडी बडी बलवान् व्याधियां सक्षारयुक्तैः सपयस्क
जाती रहती हैं। स्तैलं पचेत्तन्नलदादिभिश्च ॥४०॥ इलिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषागंधतलमिदमुत्तममस्थि
टीकान्वितायां उत्तरस्थाने भग्नस्थैर्यजयति चाशु विकारान् ।। पातपित्तजनितानतिवीर्यान्
प्रतिषेधो नाम सप्तविंशो व्यापिनोऽपि विविधरुपयोगैः॥४१॥ ऽध्यायः ॥ २७॥
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अ. २८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८८३) ।
अष्टाविंशोऽध्यायः। | और गुदा को बिदीर्ण कर देता है और छोटे
छोटे छिद्रोंमें होकर अधोवायु, मूत्र, विष्टा
और वीर्य निकलने लगता है। अथाऽतो मगदरप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः ।
भगंदर के भेद । अर्थ-अब हम यहां से भगंदर प्रतिषेध
दोषैः पृथग्युतैः सर्वैरागंतुःसोधमः स्मृतः ॥ मामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
___ अर्थ-भगंदर आठ प्रकार का होता है, भगंदर के लक्षण ।
| यथा-वातज, पित्तज, कफन, वातपित्तज, इस्त्यश्वपृष्ठगगनकठिनोत्कटकासनः।।
| बातकफज, पित्तकफज, सन्निपातज और अशॉनिदानाभिहितरपरैश्च निषेवितैः॥ अनिष्टादृष्टपाकेन सद्यो वा साधुगर्हणैः।। आगन्तुज । प्रायेण पिटिकापूर्वो योगुले चंगुलेऽपि वा ॥ पिटिका और भगंदर का अंतर । पायोगीताह्यो या दुष्टासृङमांसगो भवेत् अपकं पिटिकामाहुः पाकप्राप्तं भगंदरम् । वस्तिमूत्राशयाभ्यासगतत्वात्स्पंदनात्मकः। अर्थ-गुदाके पासवली सूजन जब तक मगदरः स ___ अर्थ-हाथी और घोडे की पीठ पर चढ.
नहीं पकती है तब तक उसे पिटिका वा कर च ठने से, कठोर और उत्कट आसनों
फुसी कहते हैं, पकनेपर उसे भगंदर कहते हैं पर बैठने से, अनिदान में कहे हुए हेतु.
भगंदरजनकपिटिका । ओं से वा ऐसेही अन्य कारणों से, पूर्वजन्म
| गूढमूलांससंरंभांरुगाठ्यां रुढकोपिनीम् ॥
भगंदरकरी विद्यात् पिटिकां न त्वतोऽन्यथा में किये हुए अशुभ पापोंके फलसे, साधुओं अर्थ-जिस पिटका की जड गहरी होती की निंदासे, गुहासे एक वा दो अंगुल दूर है, जो क्षोभयुक्त, वेदनान्वित और होते है। पर बाहर वा भीतर को दूषित रक्त और प्रकोपक हो उसे ही भगंदर को उत्पन्न करमांस में एक व्रण हो जाता है, इसी को भगं- नेवाली पिाटेका सगझनी चाहिये, इससे विपदर कहते है | भगंदर होने से पहिले प्रायः । रीत लक्षणवाली केवल पिटिका कहलाती है कुंती उत्पन्न होती है, यह फुसी पककर वातज पिटिका के लक्षण । फूट जाती है तभी भगंदर होता है । तथा तत्र श्यावारुणा तोदभेदस्फुरणरकरी ॥ वस्ति और मूत्राशय के समीपवर्ती होने से
पिटिका मारुतात् झरने लगता है।
___ अर्थ-निस पिटिका का वर्ण श्याव और भगंदर की क्रिया। अरुण हो तथा जिसमें सुई छिदने की सी
सर्वश्च दारयत्यक्रियावतः। पीडा, भेदन, फडकन और चबके चलते हों भगवत्तिगुस्तेषु दीर्यमाणेषु भूरिभिः ॥ उसे वातज पिटिका जाननी चाहिये । वातमूत्रशकच्छुकं स्वैः सूक्ष्मैषमति क्रमात् | पित्तज पिटिका के लक्षण अर्थ-सम्यक् रीतिसे चिकित्सा न किये ।
पित्तादुष्टग्रीवावदुच्छ्रिता। जाने पर भगंदर सब तरह से भग, वस्ति । रागिणी तनुरुष्माढ्या स्त्ररधूमायनान्विता
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( ८८४ )
अर्थ- जो पिटिका ऊंटकी गरदन की तरह ऊपरको उठी हो, जिसमें ललाई, पतलापन गरमाई हो, तथा जिसके होने से र हो और धूंआंसा घुमडता हो उसे पित्तज • पिटिका समझना चाहिये ।
कफज पिटिका के लक्षण | स्थिरानिग्धामहामूलापांडुकंमती कफात् अर्थ--कफ से उत्पन्न हुई पिटिका स्थिर, स्निग्ध, मोटीजडवाली, पांडवर्ण और खुजयुक्त होती है ।
वातपित्तज पिटिका । श्यावा ताम्रा सदाहोषाघोररुवातपित्तजा • अर्थ - वातपित्तज पिटका श्याववर्ण, ताम्र वर्ण, दाह और ऊषासे युक्त और भयंकर वेदना वाली होती है।
वातकफज पिटका |
पांडुरा किंचिदाश्यावा कृच्छ्रपाका
अष्टांगहृदय ।
कफानिलात् । अर्थ- वातकफज पिटका पांडुवर्ण वा कुछ श्याववर्ण और कठिन से पकने वाली होती है। त्रिदोषज पिटका | पादांगुष्ठसमा सवैदोषैर्नानाविधव्यथा ॥ शूलारोचकतुडदाहज्वरछर्दिरुपद्रुता ।
अर्थ - त्रिदोषज पिटिका पांवके अंगूठे के सहश होती है। इसमें शूल, अरुचि, तृषा, दाह, ज्वर और वमनादि अनेक उपद्रव होते हैं। उक्त पिटिकाओं में प्रमादका फल | प्रणतां यांति ताः पक्काः प्रमादात्
अर्थ- ऊपर कही हुई पिटका प्रमाद से अर्थात् चिकित्सा में उपेक्षा करनेसे पक जाती है। शतपोनक भगंदर |
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| दीर्यतेणुमुखैरिछदैः शतपोनकवत् क्रमात् । अच्छं स्रवद्भिस्रावमजस्रं फेनसंयुतम् । शतपोनकसंशोऽम्
अर्थ -- इनमें से वातज पिटका में छोटे छोटे मुखवाले चालनी की तरह अनेक छिद्र होते हैं, इनमें से झागदार अच्छा स्राव निरंतर होता रहता है | चालनी की तरह असंख्य छिद्र होने से इसे शतपोनक भगंदर कहते हैं ।
प्र० १८
उष्टमी भगंदर |
उग्रवस्तु पिसजः । अर्थ - पित्तज पिटिका ऊंटकी गरदन के सदृश ऊंची होती हैं इसलिये इसे उष्ट्रगी भगंदर कहते हैं।
I
परिस्रावी भगंदर |
बहुपिच्छापरिस्रावी परिस्रावी फोद्भवः अर्थ - - कफ से उत्पन्न हुए भगंदर में पिच्छिल स्राव अधिकता से निकलता है, इसलिये इसे परिस्रावी भगंदर कहते हैं ।
परिक्षेपी भगंदर | वातपित्तात्परिक्षेपी परिक्षिप्य गुदं गतिः । आयते परितस्तत्र प्राकारपरिखेव च १४
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अर्थ - - वातपित्तज भगंदरको परिक्षेपी कहते हैं। जैसे नगर के बाहर परकोटा के चारों ओर खाई होती है, इसी तरह इस भगंदर की गति भी चारों ओर से गुह्य नाडियों द्वारा घिरी हुई होती है |
ऋजुसंज्ञक भगंदर | ऋजुर्वातकफाडच्या गुदो गत्या तु दीर्यते अर्थ- वात कफके प्रकोप से ऋजुसंज्ञक भगंदर उत्पन्न होता है । यह अपनी सीधी तत्र वाता ॥ ११ ॥ | गति से गुदनाड़ी को विदीर्ण कर देता हैं ।
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म०२८
उत्तरस्थान भाषाटीकासमत।
(८८५)
अर्शी भगंदर ।
लगता है तव कीड़े उत्पन्न होकर गुदा को कफपित्ते तु पूर्वोत्थं तुर्मामाश्रित्यकुप्यतः। विर्दीर्ण कर देते हैं, इस भगंदर को उन्मार्गी अ मूले ततः शोफ कंडूदाहादिमानभवेत् ।
वा क्षतन कहते हैं। स शीघ्र पक्कभिन्नोस्य क्लेदयन्मूलमर्शसः ।।
भगंदर में वेदनादि। सबत्यजत्रं गतिभिरयमझे भगंदरः।। _ अर्थ-कफ पित्त यदि पहिले उत्पन्न हुई
तेषु रुग्दाहकंइवादीन् विद्यादूव्रणनिषेधतः अर्श का आश्रय लेकर कुपित होजाय तो
अर्थ-भगंदर में वेदना, दाह और खुजली उसके कारण से अर्श की जड़ में स्वजली
आदि वैसेही चलती है जैसा व्रण प्रतिषेध और दाहादि युक्त सूजन पैदा होजाती है ।
अध्याय में वर्णन किया गया है। यह सूजन पककर फूट जाती है और अर्श
भगंदर का साध्यासाध्य विचार । की जड को प्रक्छिन्न करके नाली में होकर षट्कृच्छ्रसाधनास्तेषां निचयक्षतजौ त्यजेत
प्रवाहिनी वली प्राप्त सेवनी वा समाश्रितम् निरन्तर साव होने लगता है । ऐसी सूजन
___ अर्थ-इन भगंदरों में से छ: तो कष्ठ को अर्शोभगदर कहते हैं। शंबुकावर्त भगंदर ।
साध्य होते हैं । तथा सन्निपातज और क्षतज सर्वजः शंबुकावर्तः शंबुकावर्तसन्निभः ।।
असाध्य होते हैं, जो भगदर प्रवाहिनी वली गतयोदारयंत्यस्मिन् रुग्धेगैरुणैर्गुदम् ।।
और सेबनी वली में पहुँच जाताहै वह भी ... अर्थ-तीनों दोषों के प्रकोप से शबु. असाध्य होता है । कावर्त नामक भंगदर उत्पन्न होता है, इस पिटका के न पकने का यत्न की आकृति शबूक के समान होती है, इस अथाऽस्य पिटिकामेव तथा यत्नादुपाचरेत् में दारुण वेदना के वेगों से गुदनाडी शुद्धयासृक्नुतिसेकाधैर्यथापाकं न गच्छति विदीर्ण हो जाती है।
___अर्थ-भगंदर में पिटका होने के साथही . . उन्मार्गी भगंदर ।
शोधन, फस्त खोलना, और परिषेकादि अस्थिलेशोऽभ्यवहतोमांसद्धाययदागुदम् द्वारा विशेष रूप से यत्न करे जिससे पकने क्षमोति तियइनिर्गच्छन्नमार्गक्षततोगतिः न पावे । क्योंकि पकने परही भगंदर का स्यात्ततः पूयदीर्णायां मांसकोथेन तत्र च साध्य होना निर्भर है । आयते कृमयस्तस्य खादंतः परितो गुदम् ।
भगंदर का अवलेकन । विदारयति न चिरादुन्मार्गी क्षतजश्च सः
पाके पुनरुपस्निग्धं स्वेदितं चावगाहतः। अर्थ-मांसभक्षी मनुष्य जब मांस के | यंत्रयित्वार्शसमिव पश्येत्सम्यग्भगवरम् । साथ हुड्डी के छोटे कण को खाजाता है | अर्वाचीनं पराचीन मंतर्मुख्यहिर्मुखम् २४ और अस्थिका कण आढा पड़कर गुदनाड़ी में । अर्थ-भगंदर के पकने पर स्नेहन और घाव करदेता है, फिर इस घाव में राध पड़, अवगाहन से स्वेदित करके अर्शफी तरह नाती है और इधर उधर का मांस सडचे । उसे सुयंत्रित करके देखना चाहिये कि भगं
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( ८८६ )
दरं अधोमुख है वा ऊर्ध्वमुख है अथवा अतमुख है वाहिर्मुख है ।
अष्टांगहृदय |
अ० २८.
अन्तर्मुखादि में उपाय |
चिकित्सा करना चाहिये । क्षतजमगंदर को असाध्य कहकर उसकी चिकित्सा करना चाहिये । यदि उसमें शल्य हो तो शल्यको 1 अथांतर्मुखमेषित्वा सम्यकशास्त्रेण पाटयेत् निकालकर क्रिमिनाशक प्रलेप और पथ्य बहिर्मुखे च निःशेषं ततः क्षारेण साधयेत् देना चाहिये । इससे यदि वेदना शांत न अग्निना वाधित्रक् साधुहारेणैयोष्ट्रकंधरम् हो तो सुस्निग्ध पिंडस्वेद और नाडी स्वेद आदि की व्यवस्था करनी चाहिये |
|
अर्थ- अंतर्मुखवाले भगंदर को एषणी नामक शलाका यंत्र से अन्वेषित करके दूसरे शस्त्र से चीर डाले । बहिर्मुखवाले भगंदर को निःशेष काटकर क्षार वा अग्निकर्मद्वारा दग्ध करदे । उग्रष्ट्रीय भगंदर को केवल क्षार द्वारा दग्ध करना चाहिये ।
बहुछिद्र भगंदर | सर्वत्र च बहुच्छिद्रे छेदानालोच्य योजयेत् गोतीर्थ सर्वतोभद्र दललांगललांगलान् ३०
अर्थ- बहुत से छिद्रवाले भगंदरों में गोतोर्थ, सर्वतोभद्र, दललांगल और लांगल इन चार प्रकार के छेदोंको भगंदर की दशा पर विशेषरूप से आलोचना करके शस्त्रका प्रयोग करना चाहिये ।
गोतीर्थादि के लक्षण |
पार्श्व गतेन शस्त्रेग छेदो गोतीर्थको मतः सर्वतः सर्वतोभद्रः पार्श्वच्छेदोर्घलांगलः । पाश्र्वद्वये लांगलकः
शतपोनकभगंदर का यत्न । नाडीरेकांतराः कृत्वा पाटयेच्छतपोनकम् । तासु रूढासु शेषाश्चमृत्युदीर्णे गुदेऽन्यथा अर्थ - शतपोनक नामक भगंदर में सब नाडियों को बार बार न काटकर एक एक करके काटना चाहिये | काटी हुईको पहिले शुद्ध करके फिर दूसरी काटना चाहिये यदि एक साथ काटी जायगी तो रोगी मर जायगा ।
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अर्थ- जो छिद्र पसवाडे की ओर होता है उसे गोतीर्थक कहते हैं । जो छेद चारों ओर होता है उसे सर्वतोभद्र, जो एक पस
को होता है उसे अर्द्धटांगल और जो दोनों ओर होता है उसे लांगल कहते हैं । भगंदर में अग्निदाह ।
परिक्षेपी का उपाय | परिक्षेपिगि चान्येवं नाडयुक्तैः क्षारसूत्र कैः ।
अर्थ - परिक्षेपी भगंदर को भी इसी रीति से एक एक नाडी में क्रम क्रमसे क्षारसूत्र का प्रयोग करना चाहिये ।
अशोभगंदर की चिकित्सा । अशभगंदरे पूर्वमसि प्रतिसाधयेत् । त्यक्त्वोपश्वर्यः क्षतजः शल्यं शल्यवतस्ततः आहरेच्च तथा दद्यात्कृमिघ्नं लेपभोजनम् पिंडनाडयादयः स्वेदाःसुस्निग्धारुजि पूजिताः अर्थ - अर्शोभगंदर में प्रथम अर्शकी | यतेत
समस्तांश्चाग्निना दहेत् । आस्राव मार्गान्निःशेषान्नैवं विकुरुते पुनः ॥ अर्थ- स्राव के संपूर्ण मार्गों को अभि बिलकुल दग्ध करदे, जिससे घावमें फिर किसी प्रकार का विकार न होने पावे । भगंदर में कोटकी शुद्धि | काष्ठशुद्धौच भिषक् तस्यांतरांतरा
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० २८
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उत्तरस्थान भाषाटीका समेत ।
अर्थ - भगंदरवाले रोगी का कोष्ठ शुद्ध करने के लिये बीच में यत्न करना चाहिये । घाव पर लेप |
लेरो बगे विड्रालास्थित्रिफलारस कल्कितम् अर्थ - त्रिफला के काढ़े में बिल्ली की हड्डी घिसकर लेप करने से भंगदर के घाव पर गुण करता है ।
अभ्यंगार्थ तेल | ज्योतिष्मती मलगुलांगलिशलुपाठाकुंभनिसर्ज करवीरवचासुधाकैः । अभ्यञ्जनाय विपचेत भगंदराणां तैलं वदंति परमं हितमेतदेषाम् ॥ अर्थ · · मालकांगनी, काकोडुंबर, कठूमर, मोरकी शिखा, पाठा, निसोथ, चीता, राल, कनेर, बच, सेंहुड और आक । इन सब द्रव्यों के साथ तेल पकाकर इस तेलको भगंदर में काम में ला ।
अन्य तेल ।
मधुकरोधकणा त्रुटिरेणुकाद्विरजनी फलिनीपसारिवाः । कमलकेसरपञ्चकधातकी
मदन सर्जरसामयरोधकाः ॥ ३५ ॥ सवीजपूरच्छदनैरेभिस्तैलं विपाचितम् । भगंदरापच कुष्ठमधुमेहव्रणापहम् ॥ ३६ ॥
अर्थ - मुलहटी, लोध, पीपल, छोटी इलायची, रेणुक, हलदी, दारूहल्दी, प्रियंगु, सेंधानमक, अनंतमूल, कमल केसर, पदमाख, धायके फूल, मेनफल, राल, बिडंग, लोध और बिजौरे के पत्ते ! इन सब द्रव्यों के साथ पकाया हुआ तेल प्रयोग करने से भगंदर, अपची, कुष्ठ, मधुमेह और व्रण जाते रहते हैं ।
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( ८८७ )
भगंदर पर लेह | मधुतैलयुता विडंगसारत्रिफला मागधिकाकणाश्च लीढाः । कृमिकुष्ठभगंदरप्रमेहक्षतनाडीव्रणरोहणा भवंति ॥ ३७ ॥ अर्थ- बायबिडंग, त्रिफला, पीपल, इनके चूर्ण को शहत और तेल मिलाकर लेहन करने से कृमिरोग, कुष्ठ, भगंदर, प्रमेह के घाव और नाडीव्रण भरजाते हैं ।
पिटिकादि पर औषध । अमृता त्रुटि वेलवत्स कं कलिपथ्यामलकानि गुग्गुलुः । क्रमवृद्धमिदं मधु पिटिका स्थौल्य भगंदरान् जयेत् ॥ ३८ ॥ मागधिकानिकलिंगवंडगेविल्वघृतैः सवरापलप ट्कः । गुग्गुलुना सहशेन समेतैः क्षौद्रयुतैः सकलामयनाशः ॥ ३९ ॥ अर्थ- गिलोय, इलायची, बायबिडंग, इन्द्रजौ, बहेडा, हरड़, आमला, और गूगल इनमें से हर एक को उत्तरोत्तर एक एक भाग बढाकर ले | इनका चूर्ण करके शहत मिलाकर चाटने से पिटिका, स्थौल्य और भगंदर जाते रहते हैं । अथवा पीपल, चीता, इन्द्रजौ, बायबिडंग और बिल्ववृत प्रत्येक एक पल, त्रिफला, छः पल, और इन सब के समान गूगल मिलाकर शहत के संग चाटने से संपूर्ण रोग दूर होजाते हैं
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स्वायंभुवाख्य गूगल | गुग्गुलुपंचपलं पालकांशा मागधिका त्रिफला च पृथक्स्यात् । त्वक् त्रुटिकयुतं मधुलीढं भगंदर गुल्मगतिघ्नम् ॥ ४० ॥
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(५८)
अष्टांगहृदय।
Ammam
अर्थ-गूगल पांच पल, पीपल और । चिकित्सा उनके लक्षणों के अनुसार ब्रण त्रिफला प्रत्येक एक पल, दालचीनी और के अधिकार और व्रण प्रतिषेधनीय छोटी इलायची प्रत्येक एक करें। इन सघ अध्याय की कही हुई रीतियों से यथायोग्य का चूर्ण बनाकर शहत के संग चाटने से । औषधों की व्यवस्था करनी चाहिये । कुष्ठ, भगंदर, गुल्म और नाड़ीगत रोगोंको रुद्ध भगन्दर में वर्जितकर्म । दूर करता है, इसका नाम स्वायंभुव गूगल है ।
अश्वपृष्ठगमन चलरोध
मद्यमैथुनमजीर्णमसात्म्यम् । . वात रांगनाशक औषध ।
साहसानि विविधानि च रूढे शंगवररजोयुक्तं तदेव च सुभावितम् ।।
वत्सरं परिहरेदधिकं वा । ४४॥ क्वाथेम दशमूलस्य विशेषाद्वातरोगजित् ॥
अर्थ-भगंदर के भस्जाने पर एक बरस __ अर्थ-ऊपर लिखेहुए गूगल आदि द्रव्यों
तक घोड़े की पीठ पर चढना, अधोवायु को सोंठ के चूर्ण के साथ मिलाकर दसमूल
का रोकना, मद्य, मैथुन, अजीर्ण और के काढे की भावना देकर सेवन करे । इस
असात्म्य भोजन तथा अन्य साहसिक कामें। के सेवन से वात रोग शीघ्र जाता रहताहै ।
का परित्याग कर देना चाहिये । अन्य प्रयोग ।
इतिश्री अष्टांगहृदय संहितायां उत्तमाखदिरसार रजः शीलयनसनवारिभावितम् ।
भाषाटीकान्वितायर्या उत्तरइति तुल्यमाहिषास्यमाक्षिकं
स्थाने भगन्दरप्रतिषेधोनाम कुष्ठमेहपिटिकाभगंदरान् ॥ ४॥
ऽष्टाविंशोऽध्यायः २८ ॥ .. अर्थ-त्रिफला और खैरके चूर्णमें असम के क्वाथ की भावना देकर उसमें समान
एकोनविंशोऽध्यायः। भाग गूगल और शहत मिलाकर सेवन करने से कुष्ट प्रमेह पिटका और भगदर जाते . -OCHDIOEरहते हैं। इसे तुल्य महिषारव्य माक्षिक | अथाऽतो ग्रंथ्यर्बुदलीपदापचीमाडीविज्ञान कहते हैं।
व्याख्यास्यामः। अन्य भगन्दरों की यथायोग्य
___ अर्थ-अब हम यहां से ग्रंथिरोग, श्लीचिकित्सा ।
पद, अपची और नाड़ी विज्ञान नामक "भगंदरेग्वेष विशेष उक्तः
अध्याय की व्याख्या करेंगे । शेषाणि तु व्यंजनसाधनानि ।
ग्रंथि की उत्पत्ति । व्रगाधिकारात्परिशीलनाथ कफप्रधाना: फुर्वेति मेदोमांसास्नगा मलाः। सम्यग्विदित्वौषधिकं विदध्यात् ॥ वृत्तोन्नतं यं श्वयधुं स ग्रंथिग्रंथनात्स्मृतः॥
अर्थ-विशेष २ भगंदरों में विशेष अर्थ--कफ प्रधान वातादि दोष मेद, मांस उपचार कह दिये गये हैं । अन्य बणों की | और रक्त का आश्रयं लेकर गोल और ऊँची
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म. २९
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत।
(८८९)
सूजन पैदा कर देते हैं, इसी का नाम ग्रंथि यह सघन, शीतल, त्वचा के वर्ण के सदृश है प्रथन के कारणसे इसे ग्रंथि कहते हैं। और खुजलीयुक्त होती है । पकने पर उस. ग्रंथि के नौ भेद ।
में से गाढ स्त्राव निकलता है । दोषानमांसदोस्थिसिरावणभवा नब। दोषदुष्ट रक्तकी ग्रंथि। ___ अर्थ -सब प्रकारकी ग्रंथियां वात, पित्त, दोषैर्दु ऽसृजि ग्रंथिभन्मूर्छत्सु जंतुषु ५ कफ, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, सिरा, और
सिरामांसंच संचित्य सास्वापापित्तलक्षणः ब्रण से उत्पन्न होती हैं, इससे नौ प्रकार
___ अर्थ-रक्तके वातादि दोषों द्वारा दूषित की कही गई है।
| होनेपर ऐसी ग्रंथि उत्पन्न होती है जो सिरा
और मांसका आश्रय लेती है । यह प्रथि वातज ग्रंथि । ते तत्र वातादायामतोभेदान्वितो सितः॥२॥
कीडों के उत्पन्न होने से होती है, इसमें छूने स्थानात्स्थानांतरगतिरकस्माद्धानिवृद्धिमान से कुछ भी ज्ञान नहीं होता है और इसमें मृदुस्तिरिवानद्धो विभिन्नोच्छं स्त्रवत्यसक। पित्त की ग्रंथिके समान लक्षण दिखाई देते हैं
अर्थ-इन सब ग्रंथियों में से वातजप्रथिमें । दूषित मांसकी ग्रंथि। आयाम, तोद (सूची वेधवत वेदना ),और मांसलैषितं मांसमाहारैथिमावहेतू ६ फटने की सी पीडा होती है। इसका रंग स्निग्धं महांत कठिनं सिरानद्धंकफाकृतिम् काला होता है, और एक स्थान से दूसरे अर्थ-मांसको बढोनवाले आहारों के स्थानमें हटती रहती है, कभी घट जाती है सेवन से मांस दृषित होकर ग्रंथिको उत्पन्न और कभी बढ जाती है । वस्तिके समान करदेता है । यह ग्रंथि चिकनी, बडी,कठोर, मृदु और आनाह युक्त होती है, फटने पर सिराजाल से व्याप्त और कफके आकारवाली इसमें से निर्मल रुधिर झरने लगता है। होती है । पित्तज ग्रंथि।
मेदाग्रंथि के लक्षण । पित्तात्सदाहापाताभो रक्तोवापच्यते इतम | प्रवृद्धं मेदुरैमैदोनीतं मांसेऽथवा त्वचि॥ भिन्नोऽनमुष्णं सवति
वायुना कुरुते प्रथिं भृशं स्निग्धं मृदु बलम् . अर्थ-पित्तन ग्रंथिमें दाह होता है, इस श्लेष्मतुल्याकृति देहक्षत्रवृद्धिक्षबोदयम् ॥ का वर्ण पीला वा लाल होता है, यह शीघ्र स विभिन्नो घनं मेदस्ताम्राऽसितसितम्रवेत् पक जाती है । इसके फटने पर गरम रुधिर ___ अर्थ-मेदवर्द्धक आहार के सेवने से मेद का स्राव होता है।
बढकर वायुद्वारा मांस वा त्वचामें ले जाया कफज ग्रंथि।
जाता है, उससे जो ग्रंथि उत्पन्न होती है श्लेष्मणा नाजो धनः। वह अत्यन्त स्निग्ध, मृदु, चलायमान, कफके शीतः सवर्णः कंडूमान् पक्कः पूयंत्रवेद्धनम् | समान आकृतिवाली होती है । यह गांठ देह
अर्थ-कफज ग्रंथिमें वेदना नहीं होती है । के घटने के साथ घटती है और बढने के ११२
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अष्टांगहृदय ।
म. २९
-
साथ बढती है। इसके फटने पर ताम्रवर्ण, | देती है । इस में दाह होताहै और खुजली काला वा सफेद गाढा गाढा स्राव होने लगताहै | चलती है इसको ब्रणग्रंथि कहते हैं।
अस्थि ग्रंथि के लक्षण ! ___साध्यासाध्य ग्रंथियों का वर्णन । अस्थिभंगाभिघाताभयामुमतावमतं तु यत् साध्यादोषानमदोजानतु स्थूलखराश्चलाः सोऽस्थिप्रथिः
ममकंठोदरस्थाश्च . अर्थ-जो हड्डी के टूटने से अथवा उस | अर्थ-इनमें जो ग्रंथियां वाप्तादि दोष, में चोट लगने से वा ऊँची नीची होजाने | रक्त और मेद से उत्पन्न होती हैं वे साध्य से जो गांठपैदा होजाती है उसे अस्थि ग्रंथि | होती है, तथा जो स्थूल, छूने से खरखरी कहते हैं।
चलायमान, मर्म स्थान कण्ठ और उदर में सिरा अंथि के लक्षण | | होती है वे असाध्य होती है। पदातेस्तु सहसांभोवगाहनात्।
अर्बुद के भेदादि । व्यायामाद्वाप्रतांतस्यसिराजालसशोणितम् वायुःसंपीड्यसंकोच्यवक्रीकृत्यविशोष्यच ।
महत्तु प्रथितोर्बुदम् १४ निःस्फुर नीरुज ग्रंथि कुरुते स सिराहयः॥ तल्लक्षणं व मेदोतैः षोढादोषादिभिस्तुतत् ... अर्थ-पैदल चलने से, सहसाजल में प्रायोमेदःकफाढयत्वात्स्थिरत्वाचन पच्यते सैरने से, कसरत करने से, जो मनुष्य
। अर्थ-गांठ की बड़ी सूजन को अर्बुद म्लान होजाता है उस के वात अद्ध होकर
कहते हैं । अर्बुद छः प्रकार का होता है, सरक्त सिराजाल को संपीडित, संकोचित,
वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, मांसज और वक्र और विशोषित करके कपी गांड मेदोजायह मेद और कफकी अधिकता तथा पैदा कर देती है जो न स्फुरण करती है स्थिरता होने के कारण प्राय:पकती नहीं है। और न दर्द करती है।
रावुद के लक्षण । व्रण ग्रंथि । सिरास्थंशोणितंदोषःसंकोच्यांतःप्रपीडयाच अरूढे रूढमात्रे वा बणे सर्वरसाशिनः।। पाचयेत तदानद्धं सास्राव मांसपिडितम् । 'साढे धाबंधरहिते गात्रेऽश्माभिहतेऽथवा | मांसांकुरैश्चितं याति वृद्धि चाशु स्रषेत्ततः वातालमत्रतं दुष्टं संशोप्य प्रथितं व्रणम् । अजस्रं दुष्टरुधिरं भूरि तच्छोणितार्बुदम् ॥ कुर्यान्सदाहः कंडूमान् व्रणग्रंथिरयं स्मृतः |
___ अर्थ-बातादि किसी दोषसे सिरास्थरक्त ___ अर्थ-घाव के बिना भरे वा भरतेही जो
भीतरही भीतरसे संकुचित होकर पकउठतीहै, मनुष्य मधुरादि संपूर्ण रसों को खाने लगजाता है, अथवा जिसका घाव गीला होने
| यह पकी हुई सूजन फूलकर मांस के अंकुरों पर भी बिना पट्टी बांधे खुला छोड़ दिया
से उपचित मांस का पिण्डासा होजाता है, जाता है, अथवा उस पर पत्थर भादि की | और इसमें स्राव होने लगता है । बढने पर चोट लगजाती है, तब वायु बिना निकले | इसमें से जल्दी २ अधिक साव होने लगता हुए दूषित रक्त को सुखाकर गांठ पैदा कर | है, यही रक्तार्बुद कहलाता है ।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्बुद में साध्यासाध्य विचार | तेष्वसृड्यांस जेबज्यैचत्वार्यन्यानि साधयेत्। अर्थ इन छ: प्रकार के अर्बुदों में से रक्तज और मांसज असाध्य होते हैं, शेष सब साध्य होते हैं ।
श्लीपद के लक्षण |
प्रस्थिता वंक्षणोर्वादिमधःकार्य कफोल्वणाः दोषा मागाः पादौ कालेमाश्रित्य कुर्बते शनैः शनैर्धनं शोफं श्लीपदं तत्प्रचक्षते ॥
अर्थ - कफकी अधिकता वाले वातादि दोष मांस और रक्त में आश्रित होकर वंक्षण और ऊरुओं द्वारा नीचे के देह में गमन करते हैं, अथवा काल पाकर पैरों में पहुंच कर धीरे २ घन शोष उत्पन्न कर देते हैं । इसीको श्लीपद कहते हैं । वातज श्लीपद | परिपोटयुतं कृष्णमनिमित्तरुजं खरम् । रूश्चं च वातात्
अर्थ - वातज श्लीपद में देहका चमडा फटा हुआ सा होजाता है, इसका कृष्णवर्ण होता है, इसमें बिना कारण ही वेदना होने लगती है, यह हाथ लगाने से खरदरा और रूखा होता है ।
पित्तज और कफज श्लीपद ।
पितात्तु पीतं दाहज्वरान्वितम् ॥ कफागुरुस्निग्धमरुकुचितं मांसांकुरैर्बृहत् । अर्थ-पित्तज श्लीपद पीतवर्ण, दाह और वर युक्त होता है । कफज श्लीपद भारी, स्निग्ध, वेदनारहित, मांसांकुरों से व्याप्त और बडा होता है ।
श्लीपद का साध्यासाध्य विचार । तत्यजेद्वत्सराततिं सुमहत्सु परिस्रुति ॥
( ८९१ )
अर्थ - जिस श्लीपद को बरस दिन बीत गया हो, जो बडा और स्रावयुक्त हो वह असाध्य होता है ।
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हाथ में श्लीपद । पाणिनासौष्टकर्णेषु वदंस्येके तु पादचत् । श्लीपदं जायते तच देशेऽनूपे भृशं भृशम् ॥
अर्थ- कोई कोई कहते हैं कि पांवों की तरह हाथ नाक ओष्ठ और कानों में भी श्लीपद होता है यह आनू देश में अधिकतर होता है ।
गंडमाला की उत्पत्ति । मेrस्थाः कंठमन्याक्षकक्षावंक्षणगा मलाः । सबर्णान् कठिनान् स्निग्धान्
वार्ताका मलकाकृतीन् ॥ २३ ॥ अवगाढान् वहून गंडांविरपाकांश्च कुर्वते पच्यते ऽल्परुजस्त्वन्ये स्रवत्यन्येतिकंडुराः ॥ नश्यत्यन्ये भवत्येते दीर्घ कालानुबंधिनः । गंडमालापची यं दुर्वेव क्षयवृद्धिभाकू ॥
अर्थ- मेदा में स्थित वातादि दोष कंठ, मन्या, अक्ष, कक्षा और वंक्षण में स्थित होकर त्वचा के वर्ण के समान कठोर, स्निग्ध, बेंगन वा आमले के समान आकृति वाले । अवगाढ, बहुत और देर में पकने बाले गंडों को उत्पन्न करदेते हैं । इसीको गंडमाला कहते हैं । इनमें से कितनों ही में I दर्द होकर पकाव पैदा होजाता है कितन झरने लगते हैं और कितनों ही में खुजली चलती है । कितने ही होकर मिटजाते हैं और कितने ही नवीन पैदा होजाते हैं । इसी को अपची भी बोलते हैं, यह दूबकी तरह घटती बढती है और बहुत काल तक रहती है ।
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(८९२)
अष्टांगहृदय । असाध्य गंडमाला। मुख, विवर्ण, झागदार और पूयस्रावी होती तांत्यजेत्सज्वरच्छार्दपार्श्वस्कूकासपीनसाम है । इसमें से रातके समय अधिक स्राव
अर्थ-जिस गंडमाला में ज्वर, वमन, होता है। पसली में वेदना, खांसी और पीनस होती पित्तजनाडी के लक्षण। है वह असाध्य होती है।
पित्तात्तड्ज्वरदाहकृत् ॥ २९ ॥ नाडीविज्ञान |
पीतोष्णपूतिपूयानदिवा चाऽतिनिषिंचति । अभेदात्पक्कशोफस्य व्रणे चापथ्यसेविनः ॥ अर्थ-पित्तजनाडी तृषा, ज्वर और दाह अनुप्रविश्य मांसादीन दूरं पूयोऽभिधापति उत्पन्न करती है । इसका वर्ण पीला होता गतिःसा दूरगमनानाडी नाडीव समुतेः॥ है इसमें से गरम दुर्गंधयुक्त राध निकला नाड्येकानुजुरन्येषां सैवानेकगतिर्गतिः।।
| करती है । इसमें से दिन के समय अधिक अर्थ-पकेहुए शोफ में चीरा न लगाया | जाय, वा घाव होने पर रोगी अपथ्य सेवन
| राध निकला करती है। करे तो राध बाहर नहीं निकल सकती है ।
कफजनाडी के लक्षण ।
धनपिच्छिलसंसावा कंडूला कटिनाकफात् और भीतर ही मांसादिक में प्रविष्ट होकर whyal दूरतक चली जाती है । दृरतक जाने के
। अर्थ-कफजनाडी में गाढा और गिलकारण इसे गति कहते हैं और नल के छेद | गिला स्राव होता है, इममें खुजली चला की तरह इसमें से राध निकलती है, इससे करती है और कठोरभी होता है । रातके इसे नाडी भी कहते हैं । अन्य ग्रंथकारों | समय इसमें से अधिक क्लेदता निकला का यह मत है कि यदि नाडी वक्र और करती है। एकही हो तो उसे नाडी कहते हैं और त्रिदोषज नाडी। यदि अनेक छिद्रों द्वारा गति हो तो इसे गति
सर्वैः साकृति त्यजेत् । कहते हैं।
___ अर्थ-त्रिदोषनाडी में वातादि तीनों दोषों .
के कहे हुए लक्षण मिले हुए दिखलाई देते .. नादी के भेद ।
हैं । त्रिदोषनाडीरोग असाध्य होता है | सा दोषेः पृथगेकस्थैः शल्यहेतुश्च पंचमी॥ अर्थ-नाडी के पांचभेद होते हैं, यथा
शल्यजनाही। वातज, पित्तज, कफज, सानिपातज और
अंतःस्थितं शल्यमनाहृतं तु
करोति नाडी वहते च साऽस्य । शल्यज।
फेनानुविद्धं. तनुमल्पमुष्णं - वातजनाडी के लक्षण ।
सानंच पूयं सरुजं च नित्यम् ॥ ३१ ॥ पातासरुपसूक्ष्ममुखी विवर्णा फेनिलोद्वमा |
अर्थ-भीतर स्थित हुआ शल्य बाहर सवत्यभ्यधिकं रात्री
न निकल सका हो वह व्रणमें नाडी उत्पन्न अर्थ-वातजनाडी वेदनान्वित, सूक्ष्म- करदेता है । इस शल्यजनाडीमें से पतली,
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गरम, झागदार, वेदनान्वित, थोडी, रुधिर । जलौकसो हिमं सर्व कफजे घातिकोविधिः मिली हुई राध निकला करती है।
अर्थ-ऊपर कहा हुआ चिकित्साक्रम इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी- वातज ग्रंथिमें विशेष उपयोगी है । पित्तरक्तज कान्धितायां उत्तरस्थाने ग्रन्थ्यर्बुद .
प्रथिम जोक लगाकर रक्तको निकाल डाले इलीपदापचीनाडी विज्ञानं नाम
| और सदा ठंडे लेपों का प्रयोग करता रहै। एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
| कफज ग्रंथिमें वातज ग्रंथिके सदृश चिकित्सा करना चाहिये।
ग्रंथिमें अग्नि कर्म । त्रिंशोऽध्यायः। तथाप्यपक्कं छित्त्वैनं स्थिते रक्तेऽग्निना महत्
साधशेषं सशेषो हि पुनराप्यायते ध्रुषम् ---:(.):--
___ अर्थ--जो उक्त उपायों से ग्रंथि न पके. अथाऽतो ग्रंथ्यर्बुदलीपदापचीनाडीप्रतिषेध तो इसको जडसे काटकर रुधिर के स्थित
___ व्याख्यास्यामः ॥ रहने पर अग्निसे दग्ध कर देना चाहिये । अर्थ-अब हम यहां से ग्रंथि, अर्बुद,
ग्रंथिको शेष न रखना चाहिये क्योंकि शेष श्लीपद, अपची, और नाडीप्रतिषेध नामक ! 'अध्यायकी व्याख्या करेंगे।
रहने से ग्रंथि निश्चय फिर बढ़ जाती है । .. अपक्व पंथिकी चिकित्सा ।
मांसज ग्रंथि । प्रथिधामेषु कर्तव्यायथास्वंशोफवक्रिया
| मांसत्रणोद्भवी ग्रंथी पाटयेदेवमेव च । .. अर्थ-जो गांठ पकी न हो तो सूजनके
। अर्थ--मांसज और व्रणज ग्रंथियों को भी. समान चिकित्सा करनी चाहिये।
उक्त रीति से काटना चाहिये । ग्रंथिपर स्नेहादि।
मेदोज ग्रंथिका उपाय । वृहतीचित्रकव्यावीकणासिद्धेन सर्पिषा १ कार्य मेदोभवेप्येतत्तप्तः फालादिभिश्च तम् रेइयेच्छुद्धि कामं च तीक्ष्णैःशुद्धस्यलेपनम प्रमृद्यात्तिलदिग्धेन छन्नं द्विगुणवाससा । ___ अर्थ-बडी कटेरी, चीता, छोटी कटेरी | शस्त्रेण पाटयित्वा वा दहेन्मेदसि सूद्धते । और पीपल इनके साथ सिद्ध किया हुआ धी । । अर्थ- मेदसे उत्पन्न हुई ग्रंथि में भी प्रयोग करके रोगी की शुद्धि करे फिर तीक्ष्ण | इसी प्रकार से चिकित्सा करनी चाहिये द्रव्यों का लेप करे ।
। अर्थात् ग्रंथि को काटकर तिलके कल्क का ग्रंथिका स्वेदनादि ।
लेप करदे । फिर इस पर दुहेरा कपडा ढक- . संस्वेद्य बहुशोग्रंथि विमृदूनीयात् पुनः पुनः
| कर लोहे का फलक गरम कर करके उस . अर्थ-ग्रंथिको बहुत बार स्वेदित करके । पर फेरै, अथवा मेदको निःशेष काटकर उसको अंगूठे से मर्दन करें।
अग्नि से दग्ध कर देवै । - अपच ग्रंथिका छेदनादि। सिराग्रंथि की चिकित्सा । एष वाते विशेषेण क्रमः पित्तास्रजे पुनः । सिराग्रंथौ नवे पेयं तैलं साहचर तथा
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अष्टांगहृदये।
अ.३०
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उपनाहोनिलहरैस्तिकर्मसिराव्यधः ७
| कफज स्लीपद की चिकित्सा । अर्थ--थोडे दिन की प्राथ में रोगी को सिरामगुष्ठके विश्वाकफजे शीलयेघवान् साहचर का तेल पान करना चाहिये । इस सौद्राणि कषायाणि वर्धमानास्तथाभयाः में वातनाशक तेलों का उपनाह वस्तिकर्म लिंपेत्सर्षपवार्ताकीमूलाभ्यां धान्ययाथवा तथा सिराव्यध भी हितकारी हैं ।
___ अर्थ-कफज श्लीपद में अंगूठे की फस्द - अर्बुद की चिकित्सा ।
खोलकर रागी को जौका अन्न खानेको दे, अर्बुरे ग्रंथिवत् कुर्यायथास्वंसुतरां हितम | इसमें शहत मिले हुए कषायगुण युक्त द्रव्य
अर्थ-अर्बुद रोग में सब प्रकार से ग्रंथि हितकारी होते हैं । इसमें बर्धमान हरीतकी के समान चिकित्सा करना चाहिये । का सेवन हितहै । इसमें सरसों और बेंगन __वातज इलीपद का उपाय । की जड़ का लेप, अथवा जबासे का लेप श्लीयदेऽनिलजेविध्ये स्निग्धस्विनोपनाहिते करना चाहिये । सिरामुपरि गुल्फस्य द्वयंगुले पाययेच्च तम् अपची की चिकित्सा । मासमेरंड तैलं गोमूत्रेण समान्वितमू । ऊवधिः शोधन पेयमपच्यांसाधितंघृतम् जीणे जीर्णान्नमश्नीयाच्छुठीशूतपयोन्वितम् तीद्रवतीत्रिवृताजालिनीदेवदालिभिः १३ त्रैवतं वा पिबेदेवमशांतावग्निना रहेत् १०शीलयेत्कफमेदोघ्नं धूमगंडूषनाव नहर ! . गुल्फस्याधः सिरामोक्षः
सिरयाऽपहरेद्रक्तं पिवेन्मत्रेणता १४ अर्थ-वातज श्लपिद में स्नेह द्वारा स्निग्ध
___ अर्थ -अपची रोग में वमन विरेचन के स्वेद द्वारा स्विन्न और उपनाह द्वारा उप
द्वारा उपर और नीचे के अंगों का शोधन नाहित करके टकने से दो अंगुल ऊपर फस्द करके दन्ती, द्रवंती, निसोथ, कापातकी खोलदे । और उस रोगी को एक महिने ( कडवी तोरई ) और देवदाली इन सब तक गोमूत्र में अरण्ड का तेल मिलाकर द्रव्यों के साथ सिद्ध किया हुआ घी पान पान करांव । तेल के पच जाने पर पुराने
करना चाहिये । कफ मेद नाशक धूप, शाली चांरलों का भात साठ डालकर
गण्डूष और नस्यका प्रयोग हितकारी है । औटाये हुए दूध के साथ सेवन करावै ।
नस में नश्तर लगाकर रुधिर निकाले और अथवा त्रैवृत घृत का पान करावै, इन गोमत्र में रसौत मिलाकर पान करावे । उपायों से भी शांत न होने पर अग्नि स अपक्व ग्रंथियों पर लेप । दग्ध कर और टकने के नीचे फरद ग्रंथीनपक्कानालिंपेन्नाकुलीपटुनागरैः। खोले।
| स्विन्नान लवणपोटल्या कठिनाननुमर्दयेत् पित्तज इलीपद की चिकित्सा। अर्थ -अपक्क ग्रंथि पर नाकुली, पांशु
पैत्ते सर्व च पित्तजित् । लवण, और सोंठ का लेप करना चाहिये । अर्थ-पित्तज इापद में सब प्रकार की | कठोर ग्रंथि पर सेंधनमक की पोटली से पित्तनाशनी क्रिया करना हितकारक है। स्वेदन करके अंगूठे से मर्दन करें।
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.
लेप की विधि ।
आची पर तेल। शमीमूल फशिग्रणां बीजैः सयवसर्षपैः। तैलं लांगलिकीकंदकल्कपादे चतुर्गुणे ।.. लेपः पिष्टोम्लतऋण ग्रंथिगंडविलापनः १६ निर्गुडीस्वरसे पक्कं नस्यायेरपीप्रणुत् २१
अर्थ--ममी के बीज, सहजने के बीज, अर्थ-कल्हारी की जड का कल्क एक जौ और सरसों इन सब द्रव्यों को खट्टे | भाग, तेल चार माग, निर्गुडी का रस चार • तक में पीसकर लेप करने से प्रथि और भाग । इनको पाकविधि से पकावै । फिर गण्ड रोग बैठ जाते हैं।
| नस्यद्वारा इस तेल का सेवन करनेसे अपची पाकोन्मुख ग्रंथि का उपाय। रांग जाता रहता है। पाकोन्मुखान्तावस्यपित्तश्लेष्महरैजयेत् कुष्ठादि नाशक तेल । साक्षानेव चोद्धत्य क्षाराग्निभ्यामुपाचरेत् भद्रश्रीदारुमरिचद्विहरिद्राप्रिवृद्घनैः।।
अर्थ-- जो ग्रंथि पकने लगगई हो उसका | मनाशिलालनलदविशालाकरवीरकैः २२ । रुधिर निकालकर पित्त कफनाशक औष
गोमूत्रपिष्टैः पलिकर्षिषस्थापलेन च ।
| ब्राह्मीरसार्कजक्षीरगोशकृद्रससंयुतम् २३ वियों का प्रयोग करना चाहिये । अपक्क
| प्रस्थं सर्षपतैलस्य सिद्धमाशु व्यपोहति । ग्रंथि को शस्त्र से उधृत करके क्षाराग्नि से पानाद्यैः शीलितं कुष्ठं दुष्टनाडीव्रणापची। दग्ध करदेवै ।
___ अर्थ-चंदन, देवदारु, कालीमिरच, . गंडमाला की चिकित्सा। हलदी, दारुहलदी, निसोथ, मोथा,मनसिल, काकादनीलांगलिकानहिकोत्तडिकीफलैः। | हरताल, बालछर, इन्द्रायण, कनेर प्रत्येक जीमूतवीजकर्कोटीविशालाकृतवेधनः १८ | एक पल विष आधा पल इन सबको गोमूत्र पाठान्वितैः पला(शैर्विपकर्षयुतैः पचेत् । । में घोट डाले । इस कल्क के साथ ब्राह्मी प्रस्थं करंजतैलस्य निर्गुडीस्वरसाढकैः ।। अनेन मालागंहानां चिरजा प्रयवाहिनी। का रस, आक का दूध, और गोवर का सिध्यत्यसाध्यकल्पाऽपिपानाभ्यंजननावनैः | रस मिलाकर एक प्रस्थ सरसों का तेल
अर्थ-काकादनी, कल्हारी, तुंडकी, पकावै । पान, अभ्यंजन और नस्य द्वारा नागरमोथा, ककडी के बीज, इन्द्रायण, । इस तेलका प्रयोग करने से कुष्ठ, दुष्ट नाडी कटु तोरई, और पाठा प्रत्येक आधा पल, व्रण और अपची रोग जाते रहते हैं। विष एक कर्ष इनका फलक करके एक
. अपचीनाशक अन्य तैल । . प्रस्थ कंजे के तेल, और एक आढक निर्गुडी
वद्याहरीतकीलाक्षाकटुरोहिणिचंदनैः। . के रस के साथ पकावै । इस तेलको पान, तैलं प्रसाधितं पीतं समूलामपची जयेत् । अभ्यंजन और नस्य द्वारा सेवन करने से अर्थ-बच, हरड, लाख, कुटकी और बहुत दिनकी गंडमाला भी जिससे राध चंदन इनके कल्क के साथ सिद्ध किया बहने लगगई हो और असाध्य भी हो चुकी हुआ तेल पान करने से अपची जद से हो नष्ट होजाती है। . | जाती रहती है।
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(८९६)
अष्टांगहृदय ।
अ.
३.
ना
अन्य प्रयोग।
रोग शान्त न हो तो जिधर रोग हो उसके शरपुंखोद्भवं मूलं पिष्टं तंदुलवारिणा। दूसरी ओर पसली और जांघ के आश्रित नस्याल्लेपाच्य दुष्टाहरपचीविषअंतुजित् । पस्तिप्रदेश के ऊपर वा नीचे मेद को काट अर्थ-शरपुंखा ( सरफीका ) की जड
कर उन स्थानको अग्नि से दग्ध करदे । तंडु लोदक के साथ पीसकर नस्य और |
निमिमुनि का मत । प्रलेप द्वारा उपयोग में लाने से दुष्ट व्रण,
स्थितस्योर्ध्व पदं भित्त्वा तन्मानेन च पाणित अपची, विषरोग और कीडे जाते रहते हैं। तत ऊर्ध्वहरे ग्रंथीनित्या र भगवानिमिः । अन्य तैल।
. अर्थ-इस विषय में निमि मुनिका यह मूलैरुत्तमकारुण्या:पीलुवाःसहाचरात् । मत है कि रोगी को बैठाकर उसके ऊर्ध्व सरोधाभययष्टयाह्वां शताहाद्वीपिचारुभिः
पद को भेदकर एडी को भी उसी प्रमाण तैलं क्षीरसमं सिद्धं नस्येऽभ्यंगेच पूजितम् अर्थ-करंभ की जड, पालु की जड,
से भेदकर ऊपर की संपूर्ण गांठको निकाल सहचरी, लोध, हरड, मुलहटी, सौंफ,चीते
देना चाहिये । की जड और देवदारु, इनका कल्क डाल
मुश्रुत का मत । कर समान भाग दूध और तेल मिलाकर पार्षिण प्रति द्वादश चांगुलानि पाकविधि के अनुसार तेल को पकाकर
मुफ्त्येंद्रवस्ति च गदाग्यपार्थे । नस्य और अभ्यंग द्वारा प्रयोग में लाना
विदार्यमत्स्यांडनिभानि मध्या
जालानि कर्षदिति सुश्रतोक्तिः ॥ ३१ ॥ चाहिये ।
अर्थ-इन्द्रवस्ति को छेडकर एडी के तेलका लेप।
सन्मुख बारह अंगुल भेदन करके रोग की गोव्यजाश्वखुरादग्धाकटुतैलेन लेपनम् ।। ऐंगुदेन तु कृष्णाहिर्वायसो वा स्वयं मृतः
दूसरी ओर को विदीर्ण करके बीच में से अर्थ-गौ, मेंढा और घोडे के खुर ।
मछली के अंड के सदृश सब जलको खींचले जलाकर राख करले । इस. राखको कडवे
| यह सुश्रुत का मत है। तेल में मिलाकर अपची पर लेप करे ।
अन्य आचार्यों का मत ।
भागुल्फकात्सुमितस्य जतो. अथवा काल! सर्प या अपने आप मराहुआ
स्तस्याष्टभागं खुडकाद्विभज्य । कौआ इनकी राखको इंगुदी के तेल में घ्राणार्जवेधः सुरराजवस्तेमिलाकर लेप करने से भी विशेष लाभ भित्त्वाक्षमात्र त्यपरे चदंति ॥ ३२॥ होता है।
अर्थ-अन्य आचार्यों का यह मतहै कि
कान से टकने तक जितना देहका परिमाण इत्यशांतीगदस्यान्यपार्श्वजंघासमाश्रितम है उसके नौ भाग करके आठ भाग त्याग बस्तेरूलमधस्ताद्वा मेदो हत्यामिना दहेत् देवे । और इन्द्रवस्ति से नीचे गुल्फ तक
अर्थ-इन उपायों के करने पर भी नवें भाग को विदीर्ण करदे ।।
दाह विधि।
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अ.३०
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८९७ )
वातनाडीमें शस्त्र प्रयोग। बीच में बार बार क्षार सूत्र का प्रयोग कर उपनाधानिसानाडींपाटितांसाधुलेपयेत्। के उस को विदीर्ण करदे । प्रत्यक्षुष्पफिलयुतैस्तैलैः पिटैः ससैंधवैः ।।
नाडी का उपाय अर्थ- वातज नाडीमें उपनाह देकर व्रणेषु दुष्टसूक्ष्मास्यगंभीरादिषु साधनम् ॥ अच्छी तरह से चीर देना चाहिये । पश्चात् या वयो यानितैलानि सन्नाडीष्वपि शस्यते ओंगा और मेनफल को तेल और सेंधेनमक | अर्थ-दुष्ट व्रण में, सूक्ष्म मुख वाले के साथ पीसकर नाडी पर लेप कर देखें । व्रण में, गंभीरादि गुणों से युक्त व्रण में, पित्तज नाडी।
जो जो शोधन के उपाय, बर्ति प्रयोग तथा पैती तु तिलमंजिष्ठानागदंतीशिलाइयैः। | जो जो तेल कहे गये हैं, वे सब नाहीषण ___ अर्थ--पित्तज नाडीपर तिल, मजीठ,
में भी हितकारी होते हैं। नागदंती और शिलाजीत का लेप करना
नाडी ब्रण पर लेप ।। चाहिये परन्तु प्रथम इसको उक्त रीति से
पिष्टं चंचुफलं लेपानाडीव्रणहरं परम ॥ शस्त्रद्वारा चीर देना चाहिये।
अर्थ-चचु के बीजों को पीस कर लेप कफज नाड़ी ॥
करना नाडीव्रण में परमोपयोगी है । श्लैष्मिकी तिलसौराष्ट्रीमिकुंभारिष्टसैधषैः।।
नाडी ब्रण पर कल्क । अर्थ- कफज नाड़ी को पूर्ववत् पाटित
घोटाफलत्वग्लवणंसलाक्षं करके उस पर तिल, मुलतानी मिट्टी,
बूकस्य पत्रं वनितापयश्च । दन्ती, नीम और सेंधानमक इनका लेप स्नगर्कदुग्धान्वित एप कल्को करना चाहिये ।
वर्तीकृतो हत्यचिरेण माडीम् ॥ ३८ ॥ शल्पजा नाड़ी
अर्थ-सुपारी के वृक्ष की छाल, सेंधा शल्यजांतिलमध्याज्यैर्लेपयोच्छिमशोधिताम् नमक, लाख,अरंड के पत्ते, प्रियंगु, स्त्रीका
अर्थ-शल्य जा नाड़ी को पाटित और दृत्र, सेंहुंड का दूध, आक का दूध इन को शोधित कर के उस पर तिल शहत और पीस कर बत्ती बनाले इस बत्ती को प्रयोग घी का लेप करे ।
करने से नाडी ब्रणशीघ्र प्रशमित हो जाता छेदनायोग्य नाडी का दारण है। भशस्त्रकस्यामेषिण्या मित्त्वांते सम्यगोषिताम् गतिनाशक उपाय। क्षारपीतेन सूत्रेण बहुशो दरयेत् गतिम् । अर्थ-जो नाडी शास्त्र से पाटन के
सामुद्रसौवर्चलसिंधुजन्म
सुपकोटाफलवेश्मधूमाः। योग्य न हो तो उस में एषणी नाम शस्त्र
माम्रातगायत्रिजपल्लवाश्य प्रविष्ट कर के नाड़ी के भीतर के भागों
कटकटविथ चेतकी च ॥ ३९ ॥ को बिद्ध कर के छिद्र के मार्ग से नाली के करकेऽभ्यंगे चूर्ण
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(८९८)
अष्टांगहृदय ।
म. ३१
वो चैतेषु सेव्यमानेषु । समान वर्णवाली, गांठदार, वेदनारहित और अगतिरिव नश्यति गति
मुंगके समान होती हैं। चपला चपलेषु भूतिरिव ॥ ४० ॥"
___ यवपख्या अर्थ-खारी नमक, काला नमक, सेंधा
।
यवप्रख्यायवप्रख्या ताभ्यां मांसाश्रिताघना नमक,पकी हुई सुपारी,घरका धूआं,अवाडा,
| अर्थ-जो फुसियां वातकफ के प्रकोप से खैर के पत्ते, हलदी, दारुहलदी, और हरड
| मांसका आश्रय लेकर जौके समान पैदा इन सब द्रव्यों का कल्क, अभ्यंग, चूर्ण होती हैं और सघन भी होती हैं, उन्हें यवः
और वर्ति रूप से प्रयोग करने पर गति प्रख्या कहते हैं। रोग ऐसे नष्ट हो जाता है मानो कभी हुआ कच्छपी पिटिका। ही नहीं था । जैसे चपल मनुष्यों की अवका चालजीवृत्तास्तोकपूया घनोन्नता: चपलता धनका शीघ्र नाश कर देती है, | ग्रंथयःपंच वा षड्वा कच्छपी कच्छपोन्नता तैसे ही उक्त औषध गति का शीघ्र नाश
| अर्थ-जो पिडिका बिनामुखवाली,अल जी कर देती है।
| के समान, गोलाकार, थोडी राध से युक्त,
धन और ऊंचे को उठी हुई होती है और हात अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटीका- पांच छ: इकटठी पैदा होकर कछुए की पीठ न्वितायांउत्तरस्थाने ग्रन्थ्यदश्ली की तरह ऊंची होजाती है उन्हें कच्छपी पदापची नाड़ीप्रतिषधो नाम कहते हैं । त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
पनसिका के लक्षण ।
कर्णस्योर्ध्व समंताद्वा पिटिका कठिनोग्ररुक् एकत्रिंशोऽध्यायः।
शालूकाभा पनसिका ___ अर्थ-कानके ऊपर अथवा चारों ओर
कठोर और अत्यन्त वेदना से युक्त शालूक अथाऽतः क्षुद्ररोगविज्ञानं व्याख्यास्यामः।
के सदृश जो पिटिका होती हैं,वे पनसिका अर्थ-अब हम यहां से क्षुदरोग विज्ञानीय कहलाती है। भध्याय की व्याख्या करेंगे।
पाषाणगर्दभ ।
शोफस्त्वल्परुजः स्थिरः। अजगल्लिका के लक्षण । हनुसंधिसमुद्भतास्ताभ्यांपाषाणगर्दभः "स्निग्धासवर्णाग्रथिता नीरुजामुद्संमिता अर्थ-वातकफके प्रकोप से हनुकी पिटिका कफवाताभ्यां बालानामजगल्लिका संधियोंमें जो अल्पवेदनायुक्त स्थिर सूजन अर्थ-वातकफ के प्रकोप से बालकों के
पैदा होजाती है उसे पाषाणगर्दभ कहते हैं एक प्रकार की पिटका होती हैं उन्हें अज- मखदापिका के लक्षण । गल्लिका कहते हैं । ये स्निग्ध, त्वचा के शाल्मलीकंटकाकाराःपिटिकाः सरजोधनाः
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म. ३१
उत्तरस्थान भाषाटोकासमेत ।
मेहोगर्भा मुखे यूनां ताभ्यां च मुखक्षिकाः । विद्या के लक्षण ।
अर्थ-सेंगर के कांटोंके आकारवाली या पनकर्णिकाकारा पिटिका पिटिका चिता वेदनान्वित ठोस फुसियां जो युवापुरुषों के | सा विद्धा वातपित्ताभ्यां मुखपर वातकफके कारण मेदोगर्भवाली हो अर्थ-जो फुसियां कमल की कर्णिका के जाती है,उन्हें मुखदूषिका वा मुहांसे कहते हैं। सदृश बहुत सी अन्य फंसियों से व्याप्त पद्मकंटका के लक्षण ।
होती हैं उनको वातपित्त से विद्ध समझनी ते पाकंटका शेया यैः पद्ममिव कंटकैः। चाहिये । चीयते नीरुजैःश्वेतैः शरीरं कफवातजैः । गर्दभी पिटिका। अर्थ-जो श्वेतवर्ण और वेदनारहित
ताभ्यामेव च गर्दभी। फुसियां कफवात से उत्पन्न होकर कमल के मंडला विपुलोत्सन्ना सरागपिटिकाविता। कांटों की तरह शरीर में व्याप्त होजाती हैं, ___अर्थ-इन्हीं वातपित्त के प्रयोगसे गर्दभी उन्हें पद्मकंटका कहते हैं।
नामक कुंसियां होती हैं। ये मंडलाकार, विवृता पिटिका। विपुल, उत्सन्न और लोहितवर्ण पिटिकाओं पित्तेन पिटिका वृत्ता पक्कोदुवरसन्निभा। से व्याप्त होती हैं । महादाहज्वरकरी विवृता विवृतानना ॥ ७ ॥
गर्दभी कक्षा। __ अर्थ-जो फुसियां पित्तसे उत्पन्न होकर गोलाकार, पकेहुए गूलर की आकृतिवाली
| कक्षेति कक्षासन्नेषु प्रायो देशेषु सानिलात्
| अर्थ-कक्षा अर्थात् बगल के निकट जो अत्यन्त जलन और ज्वरवाली और खुले
| गर्दभीकक्षां नामक कुंसियां होती हैं, उन्हें हुए मुखवाली होती हैं, उन्हें विवृता कहते हैं।
| कक्षा कहते हैं, ये वातसे उत्पन्न हुआ करती मसूरिका के लक्षण ।
| हैं । इसे लोकमें कखराई कहते हैं । गात्रेष्वंतश्च वक्त्रस्य दाहज्वररुजान्विताः मसूरमात्रास्तद्वर्णास्सत्संज्ञाः पिटिका घनाः
पित्तज कक्षा। अर्थ-शरीर में और मुखके भीतर जो
| पित्ताद्भवंतिपिटिकाःसूक्ष्मा काजोपमा घना दाह, ज्वर और वेदनासे अन्वित मसूर के
____ अर्थ-बगल में जो छोटी छोटी कुंसियां तुल्य और वैसेही आकार की जो फुसियां |
धानकी खीलके सदृश और कठोर होती हैं होती हैं, उन्हें मसूरिका कहते हैं ।
ये पित्तज पिटिका कहलाती हैं। विस्फोटा के लक्षण ।।
गंधनामा पिटिका। ततः कष्टतरा स्फोटा विस्फोटाख्या तादृशी महती स्वेका गधनामति कीर्तिता।
महारुजाः। ___अर्थ-ऊपर के लक्षणों से युक्त बडी अर्थ-नो फुसियां मसूरका से अधिक | पिटिकाओं को मंधनामा कहते हैं। कष्टदायक होती हैं और जिनमें अत्यन्त बेदनावाले फोडे पैदा हो जाते हैं, उन्हें वि-धर्मस्वेदपरीतेऽगे पिटिकाः सजो घनाः ।
राजिका के लक्षण । स्फोटक कहते हैं।
| राजिकावर्णसं स्थानप्रमाणाराजिकाव्हया।
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(९००)
अष्टांगहृदय ।
अ० ३१
__ अर्थ -धूप और पसीनों के कारण देहमें में जो विदारीकंद के समान कड़ी फुसियां जो राई के समान आकृति और वर्णवाली होती हैं उन्हें विदारी कहते हैं । घेदनान्वित ठोस फुसियां हो जाती हैं उन्हें शर्करावंद के लक्षण । राजिका कहते हैं।
मेदोऽनिलकफैथिः नायुमांससिराश्रयैः । जालगर्दभ पिटिका । भिन्नो वसाज्यमध्याभनवेत्तत्रोल्वणोऽनिलः दोषैः पित्तोलवसर्विसर्पतिविसर्पयत मांसं विशोज्य प्रश्रितां शर्करामुपपादयेत् शोफोऽशकस्ततुस्तानो ज्वरजालगभः दुगंधं रुधिरं क्लिनं नानावर्ण ततो मलाः। ___ अर्थ-पित्ताधिक्य वातादि दोषोंके कारण तां नाययंति निचितां विद्यात्तच्छर्कराव॒दम् विसर्प की तरह फैलनेवाली पतली और
अर्थ- मेद, वायु और कफ स्नायु, मांस · ताम्रवर्ण सूजन पैदा हो जाती है. यह पकती ! और सिराओं का आश्रय लेकर गांठ पैदा नहीं है और ज्वर पैदा कर देती है, इसे कर देते हैं । जब यह गांठ फट जाती है जालगर्दभ कहते हैं।
तब इसमें से चर्वी, घी और मधुके समान ___ अग्निरोहिणी के लक्षण ।
स्राव होने लगता है । उस समय वायु कुपित मलै पित्तोल्बणैःस्फोटाज्वरिणोमांसदारणाः होकर मांसको शुष्क करता हुआ शर्करा को कक्षाभागेषुजायतेयेऽन्याभासाऽग्निरोहिणी उत्पन्न करता है । तदनंतर वातादि दोष पंचाहात्सप्तरात्राद्वा पक्षाद्वा हंति जीवितम्
इस संचित शर्करा से दुर्गधयुक्त, रुधिर और __ अर्थ-पित्ताधिक्य वातादि दोषों के कारण
| अनेक प्रकार के केदका स्राव करते हैं। बगल में ज्वर पैदा करने वाली, मांसको
इसको शर्करावुद कहते हैं। विदीर्ण करनेवाली अग्नि के समान तीक्ष्ण
वल्मीक पिटिका । जो फंसियां हो जाती हैं उन्हें अग्निरोहिणी
पाणिपादतले संधौ जत्रूचं वोपचीयते । कहते हैं। ये पांच वा सात वा पन्द्रह दिन
वल्मीकवच्छनैग्रंथिस्तद्वदहणुभिमुखैः । में रोगी का प्राणनाश कर देती हैं।
रुग्दाहकंक्लेदाढयोवल्मीकोऽसौसमस्तजा इरिबेल्लिका । ___ अर्थ--हथेली में, पत्रिके तलुए में, संधिचिलिंगा पिटिकावृत्ता जमिरिचेल्लिका यों में अथवा जत्रसे ऊपर जो गांठ पैदा __ अर्थ-जत्रु अर्थात् गर्दैन के जोतोसे ऊपर / होकर सांपकी बांबी के तुल्य धीरे धीरे बहुत होनेवाली तीनों दोषों के लक्षणों से युक्त जो से छोटे छोटे छिद्रोंसे युक्त हो जाती हैं। गोलाकार फुसियां होती है, उन्हें इरबेल्लिका | उन्हें वल्मीक कहते हैं । वल्मीक में अत्यन्त कहते हैं।
वेदना, दाह, खुजली, और क्लेद उत्पन्न होता विदारी पिटिका। है। यह व्याधि त्रिदोष से पैदा होती है । विदारीकंदकठिना विदारी कक्षवंक्षणे।
कदर के लक्षण। अर्थ--बगल और वंक्षण (जंघाकी संधि) शर्करोन्मर्थिते पादे क्षते या कंटकादिभिः ।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
अ० ३१
थि कीलवदुत्सनो जायते कदरं तु तत् । अर्थ-पांव के तलुओं में शर्कराद्वारा मथित कांटे आदि के कारण घाव होनेपर कील के समान ऊंची गांठ हो जाय उसे कदररोग कहते हैं ।
रुद्धगुद के लक्षण |
वेगसंधारणाद्वायुरपानोऽपानसंश्रयम् । अणूकरोति बाह्यांत गमस्य ततः शकृत् । कृच्छ्रनिर्गच्छति व्याधिरयं रुद्धगुदो मतः ।
अर्थ- मल मूत्रादि के वेगों को रोकने से प्रकुपित अपान वायु अपान का आश्रय लेकर गुदा के छिद्र को भीतर और बाहर से बहुत छोटा कर देती है, इससे मल बड़े कष्ट से होने लगता है, ऐसी व्याधि को गुद कहते हैं |
अक्षत रोग के लक्षण |
कुर्यात्पित्तानिल पार्क नखमांसे सरुग्ज्वरम् | चिप्यमक्षतरोगं च विद्यादुपनखं च तम् । अर्थ- वात पित्त कुपित होकर नख के मांसको पका देते हैं जिससे वेदना और ज्वर पैदा होजाते हैं, इस रोग को चिप्य, अक्षत वा उपनख रोग कहते हैं ॥
कुनख के लक्षण | कृष्णोऽभिघाताद्र्क्षश्च खरश्च कुमखो नखः अर्थ - चोट लगने से जो नख काला, रूक्ष और खरदरा होजाता है, उसे कुनख कहते हैं ।
( ९०१ )
जो उँगलियों में खाज और क्लेद होने लगता है उसे अलसक कहते हैं । तिलकालक के लक्षण । तिलाभांस्तिलकालकान् ॥ २५ ॥
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कृष्णानवेदनांस्त्वकस्थान्
अर्थ- त्वचा के ऊपर काले तिल के समान वेदना से रहित जो चिन्ह पैदा हो जाता है उसे तिलकालक वा तिल कहते हैं । माषके लक्षण |
माषांस्तानेव चोन्नतान् । अर्थ - -जब तिल ऊंचे होजाते हैं, तब इन्हें मात्र कहते हैं ।
चर्मकील के लक्षण | माषेभ्यस्तुन्नततर्राश्चर्मकीलान्
सितासितान् ॥ २६ ॥ अर्थ- जो उरद से भी बहुत ऊंचे हो जाते हैं, उन्हें चर्मकील वा मस्से कहते हैं, ये काले और सफेद होते हैं ।
तथाविधौ जतुमणिः सहजो लोहितस्तु सः जतुमणि के लक्षण । अर्थ - ऊपर के लक्षणों से युक्त जो जन्म से ही होता है और जिसका वर्ण लाल होता है उस जतुमणि कहते हैं । यह एक प्रकार का हसन होता है ।
लांछन के लक्षण | कृष्णं सितं वा सहज मंडल लांछन समम् ॥ अर्थ- काले और सफेद गोलाकार चिन्ह जो जन्म के साथही पैदा होते हैं उन्हें लांच्छन वा ल्हसन कहते हैं ।
व्यंग और नीलिका ।
अलस के लक्षण | दुष्टकमसंस्पर्शात्कं इक्केदान्वितांतराः । अंगुल्यो ऽलसमित्याहुः
अर्थ - बिगड़ी हुई फीचड़ के स्पर्श से शोकक्रोधादिकुपिताद्वातपित्ताम्मुखे तनु ।
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अष्टांगहृदय ।
( ९०२ )
श्यामल मंडल व्यंग वक्त्रादन्यत्र नीलिका ॥ अर्थ - शोक और क्रोध से कुपित हुए वातपित्त मुखपर पतले पतले, काले मंडल से पैदा कर देते हैं, इन्हें व्यंग वा झांई कहते हैं । मुखसे अन्यत्र होनेपर इसेही नीलिका कहते हैं ।
वातादि दोषजन्य व्यंगके लक्षण | परुषं परुषस्परी व्यंग श्यावं च मारुतात् ।
छत्तीस क्षुद्ररोग |
पित्तात्ताम्रान्तमानीलश्वतान्तंकडुमत्कफात् प्राक्ताः षत्रिंशदित्येत क्षुद्ररोगा विभागशः
रक्ताद्रक्तांतमाताम्रं शोषं चिमचिमायते ।
अर्थ - वातसे उत्पन्न हुआ व्यंग खराकृति, खरस्पर्श और श्याववर्ण होता है पित्तज व्यंग तामांत और ईपत् नीलवर्ण होता है । कफजन्य व्यंगमें खुजली चलती है और रक्तन व्यंगमें रक्तान्त, कुछ तत्रिकासा रंग, शोष और चिमचिमाहट होता है । प्रसुति के लक्षण | वायुनोरितः त्वचंप्राप्यविशुध्यति ॥ ततस्त्वग्जायते पांडुः क्रमेण च विचेतना | अल्प कंडुविक्लेदा सा प्रसुप्तिः प्रसुप्तितः ॥
अर्थ- वायु से प्रेरित हुआ कफ त्वचा में पहुंचकर उसे शुष्क करदेता है । इससे चा का रंग पीला पडजाता है और धीरे धीरे इसमें विचेतना होती जाती है। इसमें थोडी २ खुजली चलती है परंतु क्लेद नहीं होता है। त्वचा प्रसुप्त होजाती है, इसीलिये इसे प्रसुप्त रोग कहते हैं ।
कोठ के लक्षण | असम्यग्वमनोदीर्णपित्तश्लेष्मान्ननिग्रहैः मंडलान्यतिकंडूनि रागवंति वहूनि च ॥ उत्कोठः साऽनुवद्धस्तु कोठ इत्यभिधीयते । अर्थ - अच्छी तरह से वमन न होने के
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५० ३३
कारण बाहर को निकलने के लिये उन्मुख हुए कफपित्त तथा अन्न के रुक जाने से बहुत से गोल गोल चकत्ते पैदा होजाते हैं जिनमें अत्यंत खुजली चलती है और ललाई पैदा होजाती | इन्हें उत्कोठ कहते हैं । जब यह बार बार उठते हैं तब इसे कोठरोग कहते हैं ।
अर्थ - इस प्रकार से इन्हें छत्तीस प्रकार के क्षुद्ररोग कहते हैं || इति श्रीअष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां उत्तरस्थाने क्षुद्ररोग विज्ञानंनामएकत्रिंशोऽध्यायः
द्वात्रिंशोऽध्यायः ।
अथाऽतः क्षुद्ररोगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः ।
अर्थ - अब हम यहां से क्षुद्ररोगप्रतिषेध नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
अजगल्लिका का उपाय | विस्रावये जलौ कोभिरपक्कामजगल्लिकाम् ।
अर्थ- जो अजगल्लिका पकी न हो तो जोक लगाकर उसका रुधिर निकाल डालै । यवमख्या का उपाय । स्वेदयित्वा यवप्रख्यां विलयाय प्रलेपयेत् ॥ दारुकुष्टमनेोहबालैः
अर्थ - यवप्रख्या पर स्वेदनकर्म करके उसको बैठाने के लिये दारूहल्दी, कूठ, मनसिल और हरताल का लेप करे ।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
( ९०३)
-
पाषाणगर्दभ का उपाय। सब रोगों की तथा इस्वोल्लिका की चिकित्सा
इत्यापापाणगईभात् । पित्तविसर्प के समान करनी चाहिये । अग्नि विधिस्तांश्चाचरेत्पक्वान्
रोहिणी को असाध्य कहकर चिकित्सा करनी ___ अर्थ-पाषाणगर्दभ तक सब रोगोंकी
चाहिय । अर्थात् ग्रंथ, कच्छप, शालूक और पापाग
जालक गर्दभ में कर्तब्य । गर्दभ की उक्तीति से चिकित्सा करना
विलंघनं रक्तविमोक्षणं च उचित है । अजगल्लिकादि सब रोगों की विलक्षणं कायविशोधनं च। चिकित्सा पक जाने पर घावके समान करनी धात्रीप्रयोगान् शिशिरप्रदेहान् चाहिये।
कुर्यात्सदा जालकगर्दभस्य ॥ ६॥
अर्थ--जालक गर्दभरोग में अवस्थानुसार मुखदूषिका की चिकित्सा।
लंघन, रक्तमोक्षण, रूक्षण, वमनबिरेचनादि रोधकुस्तुवरुवचाप्रलपो मुखदृषिके । वरपल्लवयुक्ता वा नरिकेलोत्थशक्तयः॥ | देहके संशोधन, आमले का प्रयोग तथा अशांती मवनं नस्य ललाटे च सिराव्यधः । अन्य शीतल लेपों का प्रयोग करना चाहिये । ____ अर्थ - मु वदूषिका पर लोध, धनियां विदारिका की चिकित्सा ।
और वच का लेप करना चाहिये । अथवा | विदारिका हते रक्ते श्लेष्मग्रंथियदाचरेत् । बडके पत्ते और नारियल का रस तथा सीपी अर्थ--विदारिका रोग, रक्तमोक्षण करके मिलाकर लेप करे । यदि इस तरह भी शांत
कफ ग्रंथिक समान चिकित्साकरना उचित है। न हो तो वमन, नस्य और ललाटकी फस्द
शर्करार्बुद की चिकित्सा । इन कामों को उपयोग में लाये ।
मेदोर्बुदक्रियांकुर्यात्सुतरां शर्करार्बुदे ॥ ७॥ पद्मट कमें उपाय ॥
___ अर्थ-शर्करावुद में मेदोज अर्बुद रोग निवांवुवांतो निवांबुसाधित पद्मकंटके ॥
| की चिकित्सा विशेष रूप से करनी चाहिये । पिवेत्क्षौदान्वितं सर्पिनिबारबधलेपनम् । बल्मीक को असाध्यता। ___ अर्थ - पद्मकंटकराग में रोगी को नामका | प्रवृद्ध सुवहुच्छिद्रं सशोफ ममणि स्थितम्। काथ पान कराके वमन करावे तथा नीमके वल्मीकं हस्तपादे चर्वजयेद् काथमें सिद्ध किया हुआ घी मधु मिलाकर ____ अर्थ-जो बल्मीक रोग बहुत बढगया पान करावे । तथा नीम और अमलतास हो, जिस में बहुत से छिद्र हों, सूजन हो. का लेप करे ।
तथा मर्मस्थान में उत्पन्न हुआ हो, तथा विवृतादिकी चिकित्सा ॥. हाथ पांवों में होने वाला बलमांक असाध्य विवृतादींस्तु
होता है। जालांतांश्चिकित्सेत्सेरिवेल्लिकान् । अन्य बल्मीक रोग पर लेप पित्तवीसर्पवत्तद्वत्प्रत्याख्यायाग्निरोहिणीम्
इतरत्पुनः ॥८॥ अर्थ-विवृतासे लेकर जालगर्दभ तक | शुद्धस्याने हृते लिंपेत् सपवारैवतामृनै ।
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( ९०४ )
श्यामाकुलत्थकामुलती पललसक्ताभः ॥
अर्थ ऊपर कहे हुए बल्मीकों से अति रिक्त वल्मीक में रोगी को विरेचनादि द्वारा शुद्ध करके वल्मीक में से रुधिर निकाल कर नमक, अपलतास, गिलोय, काली निशोत, कुलथी की जड, दंती और तिल का चूर्ण इन संपूर्ण द्रव्यों का लेप करै ।
अष्टांगहृदय |
पक्ववल्मीक का उपाय | पक्के तु दुष्टमांसानि गतीः सर्वाश्च शोधयेत् शस्त्रेण सम्यगनु च क्षारेण ज्वलनेन वा ॥
अर्थ- पक्क बल्मीक में बिगडे हुए मांस की संपूर्ण गतियों को शस्त्र से शोधित करके क्षारकर्मसे वा अग्निकर्मसे दग्ध करै ।
कदर का उत्कर्तनादि ॥ शस्त्र गत्कृत्य निःशेष स्नेहेन कदरं दहेत् । निरुद्धमणिवत्कार्य रुद्धपायोश्चिकित्सितम्
अर्थ = कदर रोग को जड़ से शस्त्र द्वारा काटकर स्नेह से कदर को दग्ध करे । तथा रुद्ध गुदकी चिकित्सा भी निरुद्वमणि की चिकित्सा भी करनी चाहिये ।
चिप्य की चिकित्सा | विप्यशुद्धवाजितो माणसाधेयच्छन कर्मणा अर्थ = चिप रोग में विरेचनादि शोधन क्रिया द्वारा उसकी ऊष्मा को दूर करके शस्त्र कर्मसे सिद्ध करे ।
सनिवपत्रैरालिद्
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अ० ३२
,
अर्थ - अलस रोगों में दोनों पावों पर कांजी डालकर कसीस पर्बल, गोरोचन, तिल और नीम के पत्तों का लेप करे । तिलकालकादि की चिकित्सा | दहेत्तु तिलकालकान् ॥ मात्रांश्व सूर्यकांतेन झारेण यदि वाऽग्निना ।
अर्थ - तिलकालक और मात्र रोग में गरम सूर्यकांत माण, क्षार वा अग्निकर्म से दग्ध करे ||
चर्मकील और जतुमणि । तद्वदुत्कृत्य शस्त्रेण चर्मकीलजतूमणी ॥
अर्थ - चर्मकील और जतुमणि को शस्त्र से काटकर पूर्ववत दग्ध कर देना चाहिये ।
लांछनादि का उपाय । लांछनादित्रये कुर्याद्यथासनं सिराव्यधम् । लेपयेत्क्षीरपिष्टैश्च क्षीरिवृक्षत्वगंकुरैः ॥
अर्थ--लंछनादि तीन रोगों में अर्थात् लांछन, व्यंग और नीलीका रोगों में पास बाली सिराको बेधकर दूधवाले वटादि वृक्षों के त्वचा और अंकुरों को दूध में पीसकर लेप करना चाहिये |
व्यंगादि में लेपन | व्यंगेषु चार्जुनत्वग्घा मंजिष्टा वा समाक्षिका लेपः सनवमीता वा श्वेताश्वखुरजा मषी ॥
दुष्ट कुनख में कर्तव्य || दुष्ठं कुनखमध्येचं
अर्थ- दुष्ट कुनख की चिकित्सा भी चिप की तरह की जाती है। अलसक की चिकित्सा ॥
अर्थ-व्यंग आदि रोगों में अर्जुन की छाल वा मजीठ को पीसकर शहत में मिलाकर लेप करे अथवा सफेद घे। डे के की भस्म खर को नवनीत में सानकर लेप करदे ।
1
चरणावल से पुनः ॥ १२॥
व्यंग नाशक लप । धान्याम्लासिकोकासीसपटोलीरोचनातिलैः रक्तचंदन मंजिष्ठा कुष्ठरो धप्रियंगवः ।
वटांकुरा मसूराश्च व्यंगना मुखकांतिदाः
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म० ३२
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत।
(९०५)
___ अर्थ-रक्तचन्दन, मजीठ, कूठ, लोध, सवर्ण कारक लेप । प्रियंगु, बटके अंकुर और मसूर इनका लेप जब्वाम्रपल्लया मस्तुहरिदे द्वे नवो गुडः। व्यंग रोग को दूर करता है, और मुख को
| लेपासवर्णकृत् पिष्टं स्वरसेन च तिदुकम् ॥
___ अर्थ-जामन के पत्ते, आम के पत्ते, कांति देनेवाला है।
दही का तोड़, दोनों हलदी और नया गुड़ अन्य लेप । द्वे जीरके कृष्णतिलाः सर्षपाः पयसा सह।
इनको पीसकर लेप करने से व्यंगादि रोग पिष्टाः कुर्वति वक्त्रेदुमपास्तव्यंगलांछनम्
शांत होजाते हैं, अथबा तेंदू को उसी के __अर्थ-काला जीरा, सफेद जीरा, काले रस में पीसकर लेप करने से सवर्णता हो। तिल, सरसों इनको दूध के साथ पीसकर | जाती है । लेप करने से व्यंग और लांछन रोग दूर
उबटना । होजाते हैं, तथा मुख चन्द्रमा के समान | उत्पलपत्रंतगरं प्रियंगुकालीयकं बदरमजा कांतिमान होजाता है।
इदमुद्वर्तनमास्यं करोति शतपत्रसकाशम् ॥
अर्थ-कमलपत्र, तगर, चिरोंजी, दारुअन्य लेप । क्षीरपिष्टा घृतक्षौद्रयुक्ता वा भृष्टनिस्तुषाः।।
| हलदी, कदंब, बेरका गूदा इनका उबटना मसूराःक्षीरपिष्टा वा तीक्ष्णाःशालमलिकंटकाः सगुडा कोलमजा वाशशासपक्षीद्रकल्कितः
अभ्यंग । सप्ताहं मातुलुंगस्थं कुष्टं वा मधुनान्धितम्। एभिरेवोषधैः पिष्टैर्मुखाभ्यगाय साधयेत् । पिष्टा वा छागपयसा सक्षौद्रा मौशली जटा यथादोषर्त्तकान् स्नेहान मधुकक्काथसंयुतैः ॥ गोरस्थिमुशलीमूल युक्तं वा साज्यमाक्षिकम् अर्थ-ऊपर कही हुई औषधों का कल्क अर्थ-भुनीहुई और छिलके दूर की हुई
| डालकरं मुलहटी का काथ मिलाकर दोष मसर को दूध के साथ पीसकर वा घी और |
और ऋतुके अनुसार सिद्ध किये हुए घी की शहत में मिलाकर लेप करना चाहिये ।
| मालिश करना अच्छा है । अथवा सेमर के पैने कांटों को दध में पीस
अन्य अभ्यंग ।। कर लेप करे, अथवा बेर का गूदा और
यवान् सर्जरसं रोधमुशीरं चंदनं मधु । । खर्गोश का रुधिर इन को पीसकर गुड़ और घूतं गुडं च गोमूत्रे पचेदादालेपनात् ॥ शहत मिलाकर लेपकरे, अथवा कुठ को तदभ्यंगानिहत्याशु नीलिकाव्यंगशिकान् । सात दिन तक बिजौरे में रखकर शहत में मुख करोति पद्माभ पादौ पद्मदलोपमौ ॥ मिलाकर लेप करे, अथवा मूसली की जटा अर्थ-जौ, राल, लोध, खस, रक्तचंदन, को वकरी के दूध के साथ पीसकर शहत | शहत, घी, गुड इनको गोमूत्र में पकावै जब में मिलाकर लेपकरे, अथवा गौ की अस्थि । कलछी से लगने लगे तब उतार ले । इसका
और मूसली की जड़ को पीसकर ही और मर्दन करने से नीलिका, व्यंग और मुखशस्त मिलाकर लेप करें। | दूषिकादि रोग दूर होकर मुख कमल के
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(९०६)
अष्टांगहृदय ।
म० ३२
समान हो जाता है और पांव कमलदल के वक्त्रे छायामैंदवीं चाशु धत्ते ॥३२॥ तुल्य हो जाते हैं।
. अर्थ-मजीठ, सावरलोध,सौराष्ट्रमृत्तिका, नीलिकादि नाशक नस्य । लाख, दोनों हलदी, मनसिल, हरताल, केसर, कुंकुमोशीरकालीयलाक्षायष्टयाहचंदनम् । कूठ, गोरोचन, गेरू, कच्चे बटके पत्ते, सफेद न्यत्रोधपादास्तरुणान् पद्मकं पद्मकेसरम् ॥ चंदन, लालचंदन, कालाचंदन, पारा, पतंग, सनीलोत्पलमंजिष्ठं पालिकं सतिलाढके।
ढाक की छाल, कमल के बीज, कमलकेसर पक्त्वा पादावशेषेण तेन पिष्टैश्च कार्षिकैः॥ लाक्षापत्तंगमंजिष्ठायष्टीमधुककुंकुमैः।।
मोम, नीलाथोथा, पद्मकादि गणोक्त औषध, अजाक्षीरद्विगुणितं तलस्य कुडवं पचेत् ॥
चर्वी, घी, मज्जा, दूध, दूधवाले वृक्षों का रस नलिकापलितब्यंगवलतिलकधिकान्। इन सब द्रव्यों को अग्निपर पकावै । यह हंति तन्नस्यमभ्यस्तं मुखोपचर्यवर्णकृत् ॥ | ब्यंग और नीलकादि औषधों के नाश करने ___ अर्थ-केसर, खस, दारुहलदी, लाख, में अनुभूत औषध है । इस औषध से मुख मुलहटी, चंदन, बडकी नई डाढी, पदमाख, चन्द्रमा के समान कांतिमान हो जाता है। कमल केसर, नीलकमल और मजीठ, प्रत्येक
नस्य प्रयोग । एक एक पल इनको एक आढक जलमें | मायस्वरसारितोयपिष्टानि नावने । पकावै, चौथाई शेष रहने पर उतार कर अर्थ-भांगरे का रस, दूध और जल छानले । फिर इसमें लाख, पतंग, मजीठ, मिलाकर नस्य देना हित है । मुलहटी, केसर,प्रत्येक एक कर्ष, बकरी का
बकरा का प्रमुप्ति की चिकित्सा । दूध दो कुडव, तेल एक कुडव डालकर पाकविधि के अनुसार पकावे । इस तेलका नस्य ।
| प्रसुप्तौ वातकुष्टोक्तं कुर्याद्दाहं च वह्निना। द्वारा प्रयोग करने से नीलिका, पलित, ब्यंग,
__ अर्थ-प्रसुतिरोग में बात कुष्ठरोगमें कही
हुई चिकित्सा करना चाहिये। और रोमस्थान झुरी, तिलकालक, मुखदूषिका आदि रोग दूर ।
को अग्निसे दग्ध करदेना हित है । होजाते है,तथा यह मुखको पुष्ट कारक और | कांतिवर्द्धक होता है।
- उत्कोठ की चिकित्सा । - व्यंगादिनाशक औषध ।
उत्कोठे कफपित्तोक्तं कोठे सर्वच कौष्टिकम्
। अर्थ-उत्कोठरोग में कफपितोक्त तथा मंजिष्टाशबरोबरपरिकालाक्षाहरिद्राद्वयं
कोठरोग में कुष्ठाधिकार में कही हुई चिकित्सा नेपालीहरितालकुंकुमगदागोरोचनागरिकम् | पत्रं पांडवटस्य चंदनयुगं कालीयकं पारदं ।
करनी चाहिये । पत्तंग कनकवचं कमलजं वीजं तथा- | इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी
केसरम् ॥ ३१ ॥ कान्वितायां उत्तरस्थान क्षुद्ररोगमा सिक्थं तुत्थं पद्मकायो वसाज्यं
तिषेधोनाम द्वात्रिंशोऽध्यायः । मजा क्षीरं क्षीरिवृक्षांबु चानो। सिद्धं सिद्धं व्यंगनील्यादिनाशे
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९०७)
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।
उपदेश के भेद । --0:(4):
___ उपदंशोऽत्र पंचधा। अथाऽतो गुह्मरोगविज्ञान व्याख्यास्यामः। प्रथा
पृथग्दोषैः सरुधिरैः समस्तश्च अर्थ-अब हम यहां से गुह्यरोगविज्ञान __ अर्थ-उपदंशरोग पांच प्रकार के होतेहैं, नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। यथा-वातज, पित्तज, कफज, रक्तज और
उपदंशादितेईस रोग । त्रिदोषज | स्त्रीव्यवायनिवृत्तस्य सहसा भजसोऽथवा। वातजउपदंश के लक्षण । दोषाध्युषितसंकीर्णमीलनानुरजः पथाम् ॥
अत्र मारुतान् ॥ ५॥ अन्ययोनिमनिच्छंतीमगम्यां नवसूतिकाम् । मेदशोफेरुजश्चित्राः स्तंभस्त्वक्परिपोटनम् दूषितं स्पृशतस्तोयं रतांतेष्वपि नैब वा ॥ |
अर्थ-वातजउपदंश में मेढ़ में सूजन, विवर्धयिषया तक्षिणान् प्रपादीन् प्रयच्छतः
अनेक प्रकार की वेदना,स्तब्धता और त्वचा मुष्टिदतनखोत्पीडाविषवच्छुपातनैः॥
गमिग्रहदीर्घातिखरस्पर्शविघट्टनैः। का फटना ये लक्षण होते हैं। दोषा दुष्टा गता गुह्यं त्रयोविंशतिमामयान्
पित्तजउपदंश । जनयंत्युपदशादीन्
| पक्कोद्वरसंकाशः पित्तेन श्वयथुवरः॥ अर्थ-एक साथ मैथुन करते करते हट अर्थ-पित्तजउपदंश में पके हुए गूलर जाना,अथवा सहसा मैथुनमें प्रवृत्त होजाना, के समान लालवर्ण,सूजन और ज्वर होताहै। अथवा जिसस्त्री की योनि वातादि दोषों से
कफजउपदंश । दूषित, तंग, मलीन वा सूक्ष्ममार्गवाली स्त्री लक्ष्मणाकठिनास्निग्धाकंडूमान्शीतलोगुरुः के साथ गमनकरना,बकंभिंस आदि अन्ययोनि । अर्थ--कफजउपदंश में कठोरता, चिकमें गमन करना, संगमकी इच्छा न रखमे | नाई, खुजली, शीतलता और भारापन पाली स्त्रीके साथ गमन करना, अंगम्या | स्त्रीके साथ गमन करना, नवप्रसूता (हाल
होता है। की जनी ) स्त्रीके साथ गमन करना,रतांत
रक्तजउपदंश । में दूषित जलसे गुह्येन्द्रिय प्रक्षालन वा
| शोणितनासितस्फोटसंभवोऽनमुतिवरः॥ सर्वथा अप्रक्षालन, अथवा गुह्येन्द्रिय को
अर्थ-रक्तज उपदंश में काली काली बढाने के निमित्त तीक्ष्ण प्रलेपादि करना,
कुंसियों की उत्पत्ति, रक्तस्राव और ज्वर कामोन्मत्ता स्त्रीके मुष्टि, दांत, वा नख द्वारा
होता है। लिंग का आहत करना, विषयत् वीर्यपतन. वीर्यका धेग रोकना, दीर्घ और अत्यन्त | त्रिदोषज उपदंश। खरस्पर्शवाली योनि से बहुत कालतक गुह्ये- सर्वजे सींलगत्वं श्वयथुर्मुष्कयोरपि । न्द्रियघर्षण, इत्यादि वातों से वातादिदोष | तीवा रुगाशुपचनं दणं कृमिसभवः॥ . प्रकुपित होकर उपदंशादितेईस प्रकारके रोगों | अर्थ-त्रिदोषज उपदंश में तीनों क्षेषों. को उत्पन्न करदेते हैं।
के मिले हुए लक्षण पाये जाते हैं, तथा अंज
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अष्टांगहृदय ।
अ.. ३३
कोष में सूजन, तीव्र वेदना, आशुपाक, अवमंथ के लक्षण । फटने और क्रिमियों की उत्पत्ति ये लक्षण पिटिका बहवो दीर्घा दीयते मध्यतश्च याः॥ होते हैं।
सोऽवमंथः कफासुग्भ्यां वेदनारोमहर्षवान् । उपदंश में साध्यासाध्यता ।
अर्थ-दीर्घ आकार वाली बहुत सी ऐसी याप्यो रक्तोद्भवस्तषां सत्यवे सन्निपातजः।फुसियां पैदा होजाती है, जो बीचमें फट
अर्थ-इनमें से रक्तजउपदंश याप्य और जाती है, ये कफ और रक्तसे पैदा होती है, त्रिदोषज उपदंश असाध्य होता है। इनमें वेदना और रोमहर्ष होता है । इन्हें
मांसकीलक का वर्णन ! अवमंथ कहते हैं। आयते कुपितैर्दोषैर्गुह्यामृतपिशिताश्रयैः ॥
कुंभीका पिटिका। अंतर्वहिर्वा मेदस्य कंडूला मांसकोलकाः।। कुंभीका रक्तपित्तोत्थाजांववस्थिनिभाऽशुभा पिच्छिलास्रस्रबायोनौ तच छत्रसान्निभाः । ___अर्थ-रक्तपित्त से उत्पन्न हुई फुसियां तेर्मास्युपेक्षया मति मेद्रपुंस्त्वभगार्तवम् । जो जामन की गुठली के सदृश पैदा होती है
अर्थ-कुपित हुए बातादि दोष स्त्री वा उन्हें कुंभीका कहते हैं । ये बहुत जल्दी पुरुष की गुह्येन्द्रिय के मांस वा रक्तके आ- पैदा होजाती है। श्रित होकर मेढ़के बाहर वा भीतर मांसके अलजी के लक्षण । अंकुर उत्पन्न करदेते हैं इनमें बडी खुजली | अलजी मेहवविद्या चलती है और पिच्छिल रक्तका स्राव होताहै अर्थ-जैसी अल जी नामक पिटिका प्रमेह योनि में उत्पन्न होकर ये छत्राकार होजाते हैं में होती है, वैसी ही इसमें भी होती है। इन दोनों प्रकार की चर्मकीलकों को लिं
उत्तमपिटिका। गार्श कहते हैं । इनकी चिकित्सा में उपेक्षा
उत्तमा रक्तपित्तजाम् । करने से ये पुरुष के पुंस्त्व को और स्त्रीके
पिटिकां माषमुन्नाभा रजको नाश करदेते हैं।
___ अर्थ--रक्तपित्त के प्रकोप से जो उरद
का मूंगके समान कुंसियां गुह्यस्थान में होती सर्षपिका पिटिका ।
हैं उन्हें उत्तमा कहते हैं। गुह्यस्य वहिरंतर्वा पिटिकाः कफरक्तजाः ।। सर्वपामामसंस्थाना धनाःसर्षपिकाः स्मृताः।
पुष्करिका के लक्षण । अर्थ-गुह्यस्थान के भीतर वा बाहर कफ-कणिका पुष्करस्येव क्षेया पुष्करिकेति सा।
पिटिका पिटिकाचिता ॥ १४ ॥ रक्तसे ऐसी छोटी छोटी कुंसियां पैदा होजा- अर्थ--जो फुसी और बहुतसी फुसियों ती है जो आकार और परिमाण में सरसों से व्याप्त होती है, तथा जो कमल के बीज के समान और कठोर होती है, इन्हें सर्षपका कोषके आकार वाली होती है, उन्हें पुष्करका कहते हैं।
| कहते हैं।
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भ० ३३
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
-
संब्यूढ पिटिका ॥
निरुद्धमणि रोग ॥ पाणिभ्यां भृशसंव्यूढे संन्यूढपिटिका भवेत् वातेन दषितं धर्म मणौ सक्तं रुणद्धि चेत् ॥
अर्थ-हाथ के द्वारा अत्यन्त रिगडने से | स्रोतोमूत्र ततोभ्येति मंदधारमवेदनम् । जो फुन्सियां होजाती है। उन्हें सव्यूढ मणेविकाशरोधश्च सनिरुद्धमणिर्गदः ॥ पिटिका कहते हैं।
___ अर्थ-वायुके कारण पुरुष की जननेद्रिय मृदित के लक्षण ॥ का चमडा दूषित होकर लिंगमणि से चिपट मृदितं मृदित वस्त्रसंरब्धं वातकोपतः।
कर मूत्र के मार्ग को रोकदे और इससे मूत्र अर्थ-लिंग का मर्दन करने से वा वस्त्र
की धार बहुत धीरे धीरे निकले, परन्तु से घिसनेसे वायु के प्रकोप से मृदित नामक
वेदना न होती हो, चर्मावरुद्ध होने के. रोग होता है।
कारण मणिका मुख न खुलसके तव ऐसी अष्ठीलका के लक्षण ॥
व्याधि को रुद्धमाण कहते हैं। विषमा कठिनाभुग्नावायुनाऽष्ठीलिकास्मृता
ग्रथिताख्य रोग । ___ अर्थ-वायु के प्रकोप से जो फंसियां लिंगं शूकैरिवापूर्ण प्रथिताख्यं कफोद्भयम विषम ( ऊँची नीची ) कठोर और टेढी
___ अर्थ-जिस रोग में पुरुष की गुप्तन्द्रिय होती है। उन्हें अष्टीलिका कहते हैं। यवशूक ( जो के कांटे ) की तरह व्याप्त
निवृत्तसंज्ञक रोग ॥ होजाय उसे प्रथित कहते हैं। बिमर्दनादिदुष्टेन वायुना चर्ममेट्रजम्
स्पर्शहानि रोग। निबतत सरुग्दाह क्वचित्पाकंच गति शूकदूषितरक्तात्था स्पशहानिस्तदाया। पिंडितं ग्रंथितं चर्म तत्प्रलंवमधोमणेः ।। । अर्थ-शूक से दूषित होकर रक्त लिंग निवृत्तसंशं सकर्फ कण्डकाठिन्यवत्त तत् ॥ | में स्पर्शहानि नामक रोगको उत्पन्न करता ___ अर्थ - मर्दन करने से दूषित हुआ वायु
है, इसके होने से लिंग में छूने का अनुभव मेढू की त्वचा को उलट देताहै, इसमें वेदना
| नहीं होता है। और दाह होने लगता है, तथा कभी कभी
शतपोनकके लक्षण । पकाव भी होजाता है, यह चमडा लिंगमणि
छिद्रेरणुमुखैर्यस्तु मेहनं सर्वतश्चितम् । .
वातशोणितकोपेन तं विद्याच्छत्तपोनकम् । ( लोकेसुपारीतिनाम्ना प्रसिद्धः ) के नीच
___ अर्थ-वात रक्त के प्रकोप से लिंग का पिंडाकार और प्रथित अर्थात् इकट्ठा होकर
सम्पूर्ण अवयव छोटे छोटे मुखवाले छिद्रों से लटक पडता है । इस रोग को निवृत्त है।
व्याप्त होजाय तो उसे शतपोनक रोग __ अवपाटिका ॥
कहते हैं। . दुरूढं स्फुटितं चर्म निर्दिष्टमवाटिका । । . अर्थ-यदि मेढ़का चर्म फटकर कठि• पित्तासाभ्यां त्वयः पाकस्त्वक्पाको ज्वर
त्वक पाक रोग । नता से भरै तो उसे अवपाटिका कहते हैं ।
दाहवान्।
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(९१०)
अष्टांगहृदय ।
म.
अर्थ-पित्त रक्त के प्रकोप से लिंग की
वर्जितरोग । त्वचा पकजाती है, इस से इसे त्वक्पाक, मांसोत्थमबुंदं पाकं विधि तिलकालकान रोग कहते हैं । इस में ज्वर और दाह
चतुरो वर्जयेदेतांश्लेषांश्छीघ्रमुपाचरत् ।
___ अर्थ-मांस वुद, मांसपाक, विद्रधि और होता है।
तिलकालक ये चार रोग असाध्य होते हैं । मांसपाक रोग । मांस्पाकः सर्वजः सर्ववेदनो मांसशातनः ।
इनसे अतिरिक्त अन्यरोग साध्य होते हैं, अर्थ-त्रिदोष के प्रकोप से मांस पाक
ये सब चिकित्सा के योग्य हैं। नामक रोग उत्पन्न होता है, इस में तीनों
योनिके बीसभेद ।। दोषों के लक्षणवाली वेदना होती है, और
विंशतिळपदो योनेयिंते दुष्टभोजनात् । मांस सड़ २ कर गिर पड़ता है।
अर्थ-दूषित आहार के करनेसे योनि- रक्तार्बुद ।
संबंधी बीस प्रकारके रोग होते हैं । सरागैरसितैःस्फोटेपिटिकाभिश्चपीडितम योनिसंबंधी वात की व्यापत । मेहनं वेदनाश्चोग्रास्तं विद्यादसुगर्बुदम् ।
विषमस्थांगशयनभृशमैथुमसेवनैः । अर्थ--कुछ ललाई लिये हुए काले रंग
| दुष्टार्तवादपद्रव्यैर्बीजदोषेण देवतः ॥२८॥ के फोड़े और बहुतसी फुसियां लिंगपर पैदा
योनौद्धोऽनिल कुर्याद्रुक्तोदायामसुप्तता होकर कष्ट देने लगती है, इससे गुह्ये
पिपीलिकासप्तिमिव स्तंभं कर्कशतां स्वनम्
फेनिलारुणकृष्णाल्पतनुरुक्षार्तवस्त्रातम् । न्द्रिय में बड़ी प्रखर बेदना होने लगती है,
हान लगता है, | संसं वंक्षणपाश्चांदी व्यथां गुल्म क्रमेण च इसे रक्तार्बुद कहते हैं ।
तांस्तांश्च स्वान्गदान्ब्यापद्वातिकी नाम मांसावुद के लक्षण ।
___सा स्मृता। मांसार्बुद प्रागुदितं विद्रधिश्च त्रिदोषजः । अर्थ-विषमस्थानमें अंग रखने से,ऊंची . अर्थ-ग्रंथ्यादिरोग विज्ञानीयाध्याय में | नीची जगह में सोनेसे , अत्यन्त मैथुनसे,दुष्ट मांसावुद का वर्णन करदिया गया है, यह | मासिक रज के प्रवृत्त होनेसे, अहित पदार्थों सान्निपातिक होते हैं। विद्रधि भी त्रिदोषज के खानेसे,दैवी बीजदोषसे,बायुकुपित होकर है, इसका वर्णन भी विद्रधि विज्ञानीयाध्याय योनिमें वेदना, तोद, आयाम और छूने का में करदिया गया है।
ज्ञान न होना, चींटीसी चलना, स्तब्धता, " तिलकालक के लक्षण ।
कर्कशता, शब्द, झागदार लाल वा काला कृष्णानिभूत्वा मांसानि विशीर्यते समंततः | थोडा थोडा पतला वा रूक्ष आर्तव निकपक्कानिसन्निपातेनता विद्यात्तिलकालकान् । लना, ये सब उपद्रव उपस्थित होते हैं ।
अर्थ-त्रिदोषके प्रकोप से लिंगके चारों तत्पश्चात् वंक्षण और पाश्र्वादिस्थान में और का मांस काला पडकर गल जाता है । शिथिलता और व्यथा तथा क्रमसे गुल्म इस व्याधिको तिल काउक कहते हैं। और अनेक प्रकार की वातज पीडा पैदा
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९११)
होजाती हैं । ऐसी योनि व्यापत् को वातिकी | अंतर्मुखी योनि ॥ व्यापत् कहते है।
अत्याशिताया विषम स्थितायाः सुरते मरुत् अतिचरणा योनि ।
अनेनोत्पीडितोयोनेस्थितःस्रोतसि वक्रयेत्
सास्थिमांसं मुखं तीब्रजमंतर्मुखीति सा। सेवातिचरणा शोफसंयुक्तातिव्यवायतः ।
__ अर्थ-यदि स्त्री बहुत भोजन करके वि___ अर्थ-अत्यन्त मैथुन करने के कारण
षमरीति से बैठकर पुरुषसंगम में प्रवृत हो जिस योनिमें सूजन होजाती है उसे अति
तब वायु मुक्त अन्न से प्रीडित होकर योनि चरणा कहते हैं।
के स्रोतमें अवस्थित होकर योनिके मुखको पाकरणा। मैथुनादतिवालायाः पृष्ठजंघोरुवंक्षणम् ।।
टेढा करदे । ऐसा होने से योनि की हड्डी रुजन्संदूषयेद्योनि वायुः प्राचारणेति सा ।
और मांसमें घोर वेदना होने लगती है । इस अर्थ-अत्यन्त छोटी अवस्थावाली स्त्रीके
रोग का नाग अंतर्मुखी योनिब्यापत् है । साथ अत्यन्त मैथुन करनेसे वायु उसकी
सूचीमुखी योनि ॥
वातलाहारसेविन्यां ममन्यां कुपितोऽनिला पीठ,जांध, ऊरू और वंक्षण में वेदना करता
| स्त्रियोयोनिमणुद्वारांकुर्यात्सूचीमुखीति सा हुआ योनिको दूषित करदेता है । इसरोग
अर्थ-जो गर्भवती स्त्री वातवर्द्धक भोजन को प्राक्करणा कहते हैं।
करती है, उसकी योनि के द्वार को वायु उदावृता ब्यापत् । कुपित होकर बहुत छोटा कर देती है : गोदावर्तनाद्योनि प्रपीडयति मारुतः ।
| ऐसी योनिव्यापत् को सूचीमुखी कहते हैं । सा फेनिलं रजः कृच्छादुदावृत्तं विमुंचति। इयं ब्यापदुदावृत्ता
शुष्का व्यापत् । अर्थ-जब वायु कुपित होकर ऋतुसंबंधी
| वेगरोधाटतो वायुर्दुष्टो विण्मूत्रसंग्रहम् । शोणित को बड़े बेगसे उलटा फिराकर ऊपर
| करोतियोने शोषं च शुष्काख्यासातिबेदना को लेजाती है और ये निको प्रपीडित करती
___अर्थ-ऋतुकाल में मलमुत्रादि का वेग है । तब वात प्रपीडित योनि बेडे कष्टसे
रोकने से वायु कुपित होकर मलमुत्रका रोध उदावृत्ता झागदार रक्तको बाहर निकालती
और योनिका शोषण करती है, इसीको है । इस योनि व्यापत्को उदावृत कहते ह ।
शुष्का योनिब्यापत् कहते हैं । इसमें बडी जातघ्नी व्यापत् ॥
भयंकर बेदना होती है । जातमी तु यदानिलः। वामनी के लक्षण । जातं जातं सुतं हंति रौक्ष्यादुष्टार्तवोद्भवम् षडहात्सप्तरात्राद्वा शुक्र गर्भाशयान्मरुत् । . अर्थ-जब वायु रूक्षता के कारण दुष्ट | वमेत्सरुङ्नीरुजोवायस्याःसावामिनीमता आर्तव से उत्पन्न संतान को पैदा होते होते अर्थ-प्रकुपित वायु छः सात दिन पीछे मार डालती है उसे जातघ्नी व्यापत कहते हैं गर्भाशय से वीर्यको निकाल देती है । ऐसी
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( ९१२)
अष्टांगहृदय)
अ० २६
योनि को वामनी योनि कहते है, इसमें वे |
रक्तयोनि । दना होती भी है और नहीं भी होती है ।
रक्तयोन्याख्यासृगतिनतेः , पंडसंज्ञक योनि ।
अर्थ--योनिसे जो रक्तस्त्राव होता हो तो योनौ वातोपतप्तायां स्त्रीगर्भ वीजदोषतः । उसे रक्तयोनि कहते हैं। नृद्वेषिण्यस्तनी च स्यात्पंढसंज्ञाऽनुपक्रमा।| श्लैष्मिकी व्यापत् ! - अर्थ--वायुसे उपतप्त योनिमें स्त्री के गर्भमें
कफोभिष्यंदिभिः क्रुद्धः कुर्याद्योनिमवेदनाम् बीज के दोषके कारण मनुष्य से द्वेष और स्त-शीतलां कंडुलांपांडुपिच्छिलांतद्विधतिम् नहीनता रोग होता है, इसे षंढ कहते है, | सा व्यापच्छै लष्मिकी यह असाध्य होता है ॥
___ अर्थ --अभिष्यंद कारक भोजनादि हेतुओं महायोनि ।
से कफकुपित होकर योनिको वेदना रहित दुष्टो विष्टभ्य योन्यास्यं गर्भकोष्ट च मारुतः | शीतल, खुजलीयुक्त, पांडुवर्ण और पिच्छिल कुरुते विवृतांसस्तां वातिकीमिवदुःखिताम् | कर देती है, इस रोग में योनि से पीला उत्सन्नमांसां तामाहुमहायोनि महारुजाम् | और गिलगिला साव होताहै । इसे श्लैष्मि___ अर्थ-दुष्ट हुआ वायु योनिके मुख और | की व्यापत् कहते हैं। गर्भाशय को विष्टब्ध करके योनिको विवृत,
लोहितक्षया ॥ शिथिल और वातकीवत् दुखित और उत्सन्न
वातपित्ताभ्यां क्षीयते रजः मांस कर देती है। इसको महायोनि कहते हैं | सदाहकार्यवैवर्य यस्यां सा लोहितक्षया इसमें घोर वेदना होती है ॥
अर्थ-बात और पित्त के प्रकोप से रज पैत्तिकी ब्यापत् ।
क्षीण होकर दाह, कृशता और विवर्णता
उत्पन्न करता है । इसको लोहितक्षया यथास्वैर्दूषणैर्दुष्टं पित्तं योनिमुपाश्रितम् । करोति दाहपाकोषापूतिगंधज्वरान्विताम्
व्यापत् कहते हैं। भृशोष्णाभूरिकुगपनीलपीतांसितार्तवाम् । परिप्लुता व्यापत् ॥ सा व्यापत्पत्तिकी
| पित्तलाया नृसंवासे क्षवथूगारधारणात् । अर्थ-पित्त अपने प्रकुपित करने वाले
पित्तयुक्तेन मरुता योनिर्भवति दूषिता । हेतुओं से प्रकुपित होकर योनि में अवस्थिति |
| शूनास्पर्शासहा सातिर्नीलपीतास्रवाहिनी
वस्तिकुक्षिगुरुत्वातीसारारोचककारिणी । करके उसमें दाह, पाक, उत्ताप और दुर्गधि श्रोणिवक्षणरुक्तोदज्वरकृत्सा परिप्लुता। पैदा कर देता है । इसमें ज्वर भी हो जाता | अर्थ-पित्त प्रकृतिवाली स्त्री पुरुष समाहै । और योनि से अत्यन्त गरम, मुर्दे की सी गम के समय छींक वा उकार को रोक लेती गंधवाला, नीला, पीला और काला आर्तव । है, तब वात और पित्त प्रकुपित होकर योनि अधिकता से निकलता है । इसे पैत्तिकी योनि
निकलता है । इसे पैत्तिकी योनि को प्रदूषित कर देते हैं । इससे योनि फूल व्यापत् कहते हैं ।
| जाती है, हाथ को नहीं सह सकती है और
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मं० ३४
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
दर्द करती है, और योनि से पीला वा नीला | यथास्वोपद्वकापत्सा सान्निपातिकी ॥ रक्त निकलने लगता है। इसके सिवाय अर्थ-योनि और गर्भाशयका आश्रय वस्ति ( पेडू) और कूख में भारापन, अतिसार
लेकर वातादि तीनों दोष अपने अपने उपअरुचि, तथा श्रोणि और वंक्षणमें वेदना,
द्रवों को पैदा कर देते हैं। इसको सान्नितोद, और ज्वर ये सब लक्षण उपस्थित पातिकी योनिव्यापत् कहते हैं । होते हैं । ऐसी योनिको परिप्लुता कहते हैं। गर्भ के ग्रहण करने का कारण । उपप्लुतायोनि ।
इति योनिगदा नारी यैः शुक्रन प्रतीच्छति बातश्लेष्मामयव्याप्ता श्वेतपिच्छिलवाहिनी
ततो गर्भ न गृह्णाति रोगांश्चाप्नोति दारुणान् एपप्लुता स्मृता योनि
असग्दराशेगुल्मादीनावाधाश्चानिलादिभिः अर्थ-वातकफरोग से पीडित योनि जिस
____ अर्थ-ऊपर के कहे हुए योनि रोगों के में से सफेद और गिलगिला स्राव होता है,
कारण स्त्री वीर्य ग्रहण करने में असमर्थ उसे उपप्लुता योनि कहते हैं ।
होजाती है, इस लिये उसके गर्भ की स्थिति विप्लुतायोनि ।
नहीं होने पाती है, तथा ऐसी स्त्री के विप्लुताख्या त्वधावनात्
असग्दर, अर्श, गुल्म और वातादि जनित संजातजंतुः कंडला कंदवा चातिरतिप्रिया अनकानेक रोग उत्पन्न होजाते हैं। अर्थ-योनिको न धोने से उसमें कीडे पैदा | इति अष्टांगहृदयसंहितार्या भाषाटीकाहो जाते हैं, और बडी खुजली चलने लगती वितायां उत्तरस्थाने गुह्यरोगविज्ञानं है, खुजली के कारण पुरुषके संगमकी इच्छा
___ नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ३३॥ बढ जाती है । इसे विप्लुता योनि कहते हैं। कर्णिनी के लक्षण ।
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। अकालवाहनाद्वायुः श्लेष्मरक्तविमूर्छितः। कर्णिकां जनयद्योनौ रजोमार्गनिरोधिनी । सा कर्णिनी
अथाऽतो गुह्यरोगप्रतिषधं व्याख्यास्यामः । __ अर्थ-अधोवायुका बेग उपस्थित न होने अर्थ-अब हम यहांसे गुह्य रोग प्रतिपर बलपूर्वक वायु निकालने से वह वायु षेध नामक अध्यायकी की व्याख्या करेंगे । कुपित होकर तथा कफ और रक्तसे मिलकर नवीन उपदंश की चिकित्सा । योनि के मार्गमें एक कार्णका अर्थात् मांसा- | | मदमध्ये सिरां विध्येदुपदंशे नवोत्थिते। कुर पैदा कर देती है, जिससे योनिका मार्ग |
शीतां कुर्यात् क्रियां शुद्धिविरेकेण विशेषतः रुक जाता है । ऐसी योनिको कर्णिनी योनि
तिलकल्कघृतक्षौ लेपः पक्के तु पाटिते। कहते हैं।
। अर्थ- उपदंश के उत्पन्न होतेही लिंग सान्निपातकी व्यापत।
के वीचवाली सिरा को वेध देना चाहिये । त्रिमिदोषैर्योनिगर्भाशयाश्रितः । इसमें ठण्डे लेप और ठण्डा परिषेक हितहै,
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अष्टांगहृदय ।
( ९१४ )
इसमें विरेचन द्वारा शुद्ध करना परमावश्यक है, उपदेश को पकाने पर फाटकर घी और शहत मिलाकर तिल के कल्क का लेप करना चाहिये ।
धौने का क्वाथ |
tooreमनोमपश्वेतकांवोजिकांकुरान् ॥ शलकीवदरीविल्वपलाशातिर्निशोद्भवाः । त्वचः क्षरिमाणां च त्रिफलां च जले पचेत् से काथः क्षालन तेन पक्कं तैलं च रोपणम् ।
अर्थ- जामन, आम, चमेली, कदम्ब, और सफेद खैर इनके अंकुर, शल्लकी, बेर, बेलगिरी, ढाक, तिनिश और दूधवाल वृक्षों की छाल और त्रिफला सब द्रव्यों को जल में औटाकर उपदेश को धोना चाहिये और इसी कांदे में तेल पकाकर उपदंश के घावों को भरने के लिये यह तेल लगाना चाहिये उपदेश पर लेप |
इस
दि
इन
तुत्थगैरिकलालामनो ह्वालरसांजनैः ॥ हरेणुपुष्पकासीसासौराष्ट्रटीलवणोत्तमैः ।
लेपः क्षौद्रयुतैः सूक्ष्मैरुपदं शत्रणापहः ॥ ५ ॥
अर्थ - नीला थोथा, गेरू, लोध, इलायची मनसिल, रसौत, हरेणु पुष्प कंसीस, मुलतानी मृत्तिका, सैंधानमक इन सब को बारीक पीसकर शहत में मिलाकर लेप करने से उपदंश के घाव जाते रहते हैं ।
उपदेश पर रोपण |
कपाले त्रिफला दग्धा सघृता रोपणं परम् । अर्थ - त्रिफला को खीपड़े में जलाकर पीसकर घी में सानकर लगाने से उपदंश के घाव भरजाते हैं ।
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अ० ३१
प्रतिदोष चिकित्सा ।
सामान्यं साधनमिद प्रतिदोषं तु शोफवत् ॥ अर्थ- जो कुछ अबतक कहा गया है। वह उपदंश की सामान्य चिकित्साह वातादि दोष भेद में इसकी चिकित्सा सूजन के समान करनी चाहिये ।
पाक के अभाव में अतियत्न || न च याति यथा पार्क प्रयतेत तथा भृशम्। पक्कैःस्त्रायुसिरामांसः प्रायो मध्यति हि ध्वजः
अर्थ - उपदेश में जिस तरह पाक न हो वह यत्न विशेष रूप से करना चाहिये क्योंकि स्नायु, सिरा और मांस के पकजाने पर प्राय: लिंगेन्द्रिय का नाश होजाता है ।
छिन्नदग्ध में उपदंशवत् क्रिया ॥ अर्शसां छिन्नदग्धानां क्रिया कार्योपदेशष त् ।
अर्थ-लिंगार्श को काटकर और दग्ध करके उपदेशवत् चिकित्सा करना चाहिये । सर्षपादि में लेखन ॥
सर्षपा लिखिताः सूक्ष्मैः कषायैरवचूर्णयेत् ॥ तैरेवाभ्यंजनं तैलं साधयेद् व्रणरोपणम् ।
अर्थ - शस्त्र से सर्षपादि को खुरचकर ऊपर कहे हुए जामन आदि कषाय द्रव्यों का चूर्ण बनाकर बुरक दे और इन्ही कषाय द्रव्यों के साथ पकाया हुआ तेल घाव के भरने के लिये लगावै
I
अवमंथ की चिकित्सा || freenairs प रक्तं स्राव्यं तथोभयोः ॥ अर्थ - अवमंथ में भी सर्षपका के समान ही चिकित्सा करनी चाहिये । तथा rain और सर्षपका दोनों में रक्तमणि करना हित है ।
कुंभीका की चिकित्सा ॥ कुंभकार्या हरेद्र पकायां शोधते व्रणे ।
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म. ३४
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
(९९)
..........
तिदुकत्रिफलारोघर्लेपस्तैलं च रोपणम् ॥ । आनेवाले बला तेल से परिषेक करे, तथा ___ अर्थ--कुंमिका रोगमें रक्तमोक्षण करना मधुर गणोक्त द्रव्यों का ईषदुष्ण कल्क घी हित है । पकजाने पर व्रण को राध से | में सानकर उपनाहन करे । शुद्ध करके दं, त्रिफला, और लोध का अधीला की चिकित्सा। लेप करै, तथा इन्ही से पकाया हुआ तेल | अष्टोलिका हृते रक्ते श्लेष्मग्रंथिवदाचरेत् । घाव के भरने में लगावै ।
अर्थ-अष्ठीलिका रोगमें रक्तमोक्षण करके अळजी की चिकित्सा ॥
| कफज ग्रंथिरोग के समान चिकित्सा करना अलज्यां तरक्तायामयमेव क्रियाक्रमः। चाहिये।
अर्थ-अलजी में भी रक्तमोक्षण करके निवृत्तरोग की चिकित्सा । कुंभिका के समान ही चिकित्सा करनी | निवृत्तं सर्पिषाऽभ्यज्य स्वेदयित्वोपनाहयेत् चाहिये ।
त्रिरात्रं पंचरात्रंवासुस्निग्धः शाल्वढादिभिः उत्तमाकी चिकित्सा ॥
स्वेदयित्वा ततो भूयास्निग्धंचमसमानयेत्॥
मणि प्रपीड्य शनकै प्रविष्टे चोपनाहनम् । उत्तमाख्यांतुपिटिकांसछिद्यवडिशोद्धृताम् ॥
ताम्" मणौ पुनःपुनःस्निग्धं भोजनं चाऽयशस्वते कल्कैश्चूर्णैः कषायाणां क्षौद्रयुक्तैरुपाचरेत्
__अर्थ-निवृत्तनामक लिंगरोग में घी चुप: अर्थ- उत्तमा नामवाली पिटिका को
डकर स्वेदन करै । फिर अवस्थानुसार तीन बाडिश नामक यंत्र से उद्धृत करके छेदन करे, और इसपर कषाय द्रव्यों का चूर्ण
दिन वा पांच दिन तक सुस्निग्ध शाल्वलादि
द्वारा उपनाहन करे । तदनंतर फिर स्वेदन भौर कल्क मधुमिश्रत करके लगावै ।
करे। इस तरह चमडे के कोमल हो जाने __पुष्करव्यूढ की चिकित्सा ॥ क्रमापित्तविसर्पोक्तः पुष्करव्यूढयोर्हितः ॥
पर उसे उपस्थके अग्रभाग अर्थात् माण पर
धीरे धीरे ले आवै । चर्मके भीतर माण के अर्थ --पुष्कर और व्यूढ में पित्तविसर्प के
प्रविष्ट हो जाने पर बार बार उपनाहन करे समान चिकित्सा करना चाहिये । त्वपाक की चिकित्सा ॥
तथा भोजन के लिये स्निग्ध पदार्थों का त्वयाके स्पर्शहान्यां च सेचयेत् | प्रयोग करे ।
अर्थ-लिंग की त्वचा के पकजाने पर | अवपाटिका में कर्तव्य । और स्पर्श का ज्ञान नष्ट होजाने पर परिषेक | अयमेव प्रयोज्यः स्यादवपाट्यामपि क्रमः। करना चाहिये।
अर्थ-अब पाटिका रोग भी इस क्रम मृदित की चिकित्सा । का अवलंबन करना चाहिये ।
. मृदित पुनः। निरुद्धमणि की चिकित्सा । बलातैलेन कोयोन मधुरैश्चोपनाहयेत् ॥ नाडीमुभयतो द्वारा निरुद्ध जतुमा सृताम् ॥ • भर्थ..मृदितनामक किंग रोग पर भागे | हाका स्रोतासन्यस्य सिंघलेहेश्वलाप
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अष्टांगहृदय ।
भ. ३४
त्र्यहाध्यहात्स्थूलतरां नस्यनाडी विवर्धयेत् | अर्थ-सब प्रकार के लिंगरोगों में रोगकी स्रोतोद्वारमसिद्धौतु विद्वान् शस्त्रेणपाटयेत् | अवस्था के अनुसार अंतःशुद्धि, कषाय, लेप, सेवनी वर्जयन युज्यात्सद्यःक्षतविधि ततः॥ अर्थ-विरुद्वमणि नामक लिंगरोग में एक |
घृत, तैल, रसक्रिया, चूर्ण,शोधन और रोप
णादि द्वारा घावका उपचार करे ॥ लोहे वा काठका बनाहुआ दो मुखवाला नल
योनिव्यापत् में चिकित्सा । लेकर उस पर लाख का लेप करदे और !
। योनिब्यापत्सु भूयिष्ठं शस्यते फर्म वातजित् घी चुपडकर उसको लिंगेन्द्रिय के स्रोत में
| स्नेहनस्वदेवस्त्यादिवातजासु विशेषतः ॥ लगा देवै । फिर इस नलमें होकर वातनाशक । . अर्थ-योनिव्यापत् रोग समूहों में बहुधा बलादि तेलका सेचन करे । तीनदिन पीले । वातनाशिनी क्रिया करनी चाहिये । वातज. और भी मोटा नल लिंगस्रोत में प्रविष्ट करके | नितयोनिव्यापद् में स्नेहन, स्वेदन, और स्रोतका मुख बढावै । इससे भी फलसिद्धि न | वस्ति आदि का प्रयोग विशेषरूप से होने पर बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि करना चाहिये । । । सीमन को छोडकर शस्त्रसे चीर डाले, फिर । उक्त क्रिया में हेतु । तत्काल घावके समान चिकित्सा करने में | नहि वाताहते योनिर्वनितानां प्रदुष्यति । प्रवृत हो ।
मतो जित्वा तमन्यस्य कुर्यादोषस्य भेषजम् 1. ग्रंथित की चिकित्सा।
अर्थ-वात के सिवाय और किसी कारण प्रथित स्वेदितं नाड्या निग्धोष्णरुपनाहयेत् से स्त्री की योनि दृषित नहीं होसकती है। .. अर्थ-ग्रंथित रोगों नाडीस्वेद देकर उस इसलिये प्रथम यातको जीतकर फिर अन्य पर स्निग्ध और उष्ण उपनाह का प्रयोग चिकित्सा में प्रवृत होना चाहिये । करै । नलके द्वारा भाफ पहुंचाकर जो स्वेद वलातलादि का प्रयोग । दिया जाता है उसे नाडीस्वेद कहते हैं। पाययेत वलातैलं मिश्रकं सुकुमारकम् । शतपोनक का उपाय।
स्निग्धस्विनां तथा योनि दुःस्थितां लिपेत्कषायैः सक्षौद्रलिखित्वा शतपोनकम्॥
स्थापयेत्समाम् ।।
पाणिनोनमयेज्जिमां संवृत्तां व्यधयेत्पुनः। अर्थ-शतपोनक नाम लिंगरोग को शस्त्रसे
प्रवेशयेन्निऽस्तां च विवृतां परिवर्तयेत् ॥ छीलकर कपाय द्रव्या के चूर्ण में शहत | स्थानापवृत्ता योनिहि शल्यभूतास्त्रियोभवेत् मिलाकर लेपन करे।
अर्थ-योगिव्यापत् से ग्रस्त स्त्री को - रक्ताद का उपाय । रक्तविद्रधिवत्कार्या चिकित्सा शोणितावंदे
वलातेल, मिश्रक, वा सुकुमार नामक स्नेह
पान कराना चाहिये । तथा दुःस्थित योनि अर्थ- रक्तावुदमें रक्तविद्रधि के समान चिकित्सा करना उचित हैं।
को स्निग्ध और स्विन्न करके समान भाव ( अवस्थानुसार उपचार। |
में स्थापित करे | कुटिल योनिको हाथ से नणोपचारं सर्वेषु यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥ | मवादे । संवृत योनिको प्रसारित करके
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अ० ३४
उत्तरस्थान भाषा टीकासमेत ।
( ९१७)
वेवन करे | बाहर निकली हुई योनि को | अजमोदायवक्षारशर्करा चित्र कान्वितम् । पिष्टवाप्रसन्नयाऽलोडयखादेत्तदूघृतभर्जितम् योनिपश्वाद्रिोग गुल्माशीविनिवृत्तये ।
भीतर कर देवे । निवृत हुई योनि को परिवर्तित करे | क्योंकि अपने स्थान हटी हुई योनि स्त्रियों को शा के समान कष्टकारक होती हैं । इसलिये उसको स्थान पर लगाने का यत्न करे | वमनादि का प्रयोग । कर्मभिर्वमनाद्यैश्च मृदुभिर्योजयेत्त्रियम् ॥ सर्वतः सुविशुद्धायाः शेषं कर्म विधीयते । वस्त्यभ्यंग परीषेकप्रलेप पिचुधारणम् २७ अर्थ - योनिव्यापत् रोग में मृदु वमनादि कर्म का प्रयोग करना चाहिये | वमन और विरेचन द्वारा स्त्रीको ऊपर नीचे से शुद्ध करके वस्ति, अभ्यंग, परिषेक, प्रलेप और पिचुधारण रुई का फोआ लगाना ) की ब्यवस्था करे ।
अर्थ-बच, काला जीरा, सफेद जीरा, पीपल, अडूसा, सेंधानमक, अजमोद, जवाशर्करा, और चीता इन सब औषधों को प्रसन्ना नामक सुरा में पीसकर और आलोडित करके घी में भूनकर खाना चाहिये | इसके सेवन करने से योनिशूल पसली का दर्द, हृद्रोग, गुल्मरोग और अरोरोग नष्ट होजाते हैं ।
|
वृषकादि पान |
'
घृत का प्रयोग | काश्मर्यत्रिफलाद्राक्षा काखमदनिशाद्वयैः । गुहवी सैर्य का भीरुशुकनासा पुनर्नवैः २० परुषकैश्च विपेचत्प्रस्यमक्षसमैर्धृतात् । योनि वातविकारनं तत्पीतं गर्भदं परम् । अर्थ--खंभारी, त्रिफला,दाख, कसौंदी, हल्दी, दारूहल्दी, गिलोय, सैर्यक, शतमूली, श्योना, पुनर्नवा और फालसा प्रत्येक दो तोला | इनका कल्क करके एक प्रस्थ घी पाक की रीति से पकावे । इस घृतके पीने से योनि में होनेवाले संपूर्ण वातरोग नष्ट हो जाते हैं । यह गर्भोत्पादक परमोत्तम औषध है ।
खार,
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वृषकं मातुलुंगस्य मूलानि मद्यांतकाम् । पिवेन्मद्यैः सलवणैस्तथा कृष्णोपकुंचिकैः ।
अर्थ - अडूसा की जड, बिजौरे की जड और मदयंती की जड, इन सब द्रव्यों को अथवा पीपल और काला जीरा इनको पीसकर नमक मिलाकर मद्य के साथ पान करने से योनिशूलादि रोग नष्ट होजाते हैं ।
रास्नादि दुग्ध । रास्नाश्वदंष्ट्रानृषकैः शतं शूलहरं पयः । अर्थ - रास्ना, गोखरू और अडूसा, इनके साथ में औटाया हुआ दूध पान करने से योनिशूल नष्ट होजाता है।
योनिमें परिषेक | गुडूचीत्रिफलादतीकाथैश्च परिषेचनम् ।
अर्थ - गिलोय, त्रिफला और देती इनके काढेका योनि में परिषेक करना हित है ।
योनिमें पिचुप्रयोग |
अन्य औषध ।
नतवार्ता किनी कुष्टर्सधवा मरदारुभिः । वचापकुचिकाजाजीकृष्णावृषकसैंधवम् ।। तैलात्प्रसाधिताद्वार्यः विद्युयोनी रुजापहः
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अष्टागदप।
.. अर्ध-तगर, बेंगन, कूठ, सेंधानमक, | और ठंडा होने पर मधु आठ पल, पीपल और देवदारु इनके साथ सिद्ध किये हुए आठ पल, शर्करा दम पल मिला देवै । तेल में हुई का फोया भिगोकर योनि के इसमें से प्रतिदिन एक तोले सेवन करनेसे भीतर रखदेवे । इससे योनि की वेदना नष्ट | योनिव्यापत, रक्तदोष और शुक्रदोष दूर हो हो जाती है।
जाते हैं यह वृष्य और अत्यन्त पुंसवन है । . पित्तल योनियों का उपाय ।
तथा क्षतरोग, क्षयीरोग, रक्तपित्त, खांसी, पितलानां तु योनीनां सेकाभ्यंगपिचुक्रिया शीताःपित्तजितः कार्यानेहमाघृतानि च
श्वास, हलीमक, कामला, वातरक्त, विसर्प, . अर्थ-पित्त से दूषित हुई योनि में पित्त
हुदप्रह, शिरोग्रह, अपस्मार, अर्दित, आयाम, नाशक शीतगुण से संयुक्त परिषेक,अभ्यंग
मद और उन्माद रोगों को नष्ट कर देता है।
रोगनाशक त । और पिचुप्रयोग करना चाहिये । तथा
एवमेव पयः सपिंजीवनीयोपसाधितम् । स्नेहन के लिये उसमें घी का प्रयोग करना
गर्भदं पित्तजानां च रोगाणां परमं हितम् । चाहिये।
अर्थ इस तरह से जीबनीयगण के साथ योनि दोषपर अवलेह ।
दूध वा घी पकाकर इस दूध वा धी को पीनेसे शतावरीमुलतुलाचतुष्काक्षुण्णपीडितात् । रसेन क्षीरतुल्येन पाचयेत घृताढकम् ।। यानि म हानवाल पित्तज रोग नष्ट हानात ह जीवमीयः शतावर्या मृाकाभिः परूषकैः। वातपित्त योनिरोग। पिष्टैः प्रियाकैश्वाक्षाशैर्मधुकाद्विबळान्वितैः वलाद्रोणद्वयकाथे घृततैलाढकं पचेत् । सिखशीते तु मधुनःपिप्पल्याश्चपलाष्टकम् क्षीरे चतुर्गुणे कृष्णाकाकनासासितान्वितः शर्कराया दशपलं क्षिपेल्लिह्यास्पिचुं ततः । जीवती क्षीरकाकोलीस्थिरावीरद्धिजीरकैः योन्यसृकशुक्रदोषघ्नं वृष्यं पुंसवनं परम् पयस्याश्रावणीमुद्गपीलुगाषाख्यपर्णिभिः । क्षतं क्षयमसृपित्तं कासं श्वासंहलीमकम् वातपित्तामयान्हत्वापानाद्गर्भदधातितत् कामलां बातरुधिरं विसर्प हच्छिरोग्रहम् ।। अर्थ-खरटी के दो द्रोण क्वाथ में एक अपस्मारार्दितायाममदोन्मादांश्च नाशयेत्
आढक घी और तेल तथा चार आढक दूध । अर्थ-सितावर की जड चार तुला लेकर |
मिलाकर पकावै और पीपल, काकजंघा, कूटले और कपडे के द्वारा निचोड कर रस
मिश्री, जीती, क्षीरककोली, शालपर्णी, निकालले । इस रसके समान ही दूध
सितावर, ऋद्धि, जीरा, दूध, गोरखमुण्डी, मिलाकर एक आढक घृत पकावै । तथा इसमें जीवनीय गण के द्रव्य, सितावर,दाख
मुद्गपर्णी, पीलपर्णी, माषपर्णी इनका कल्क फालसा, चिरोंजी, मुलहटी, दोनों खरैटी
| डालदेव । इस घृत को पीने से वात पित्त प्रत्यक एक तोला इन सबको शिला पर
जन्ययोनि रोगों के दूर होजाने पर स्त्री गर्भ
धारण कर लेती है। पीसकर कल्क करले और उसमें पकते
रक्तपोनि की चिकित्सा । समय डालदे । पकने पर उतार कर छानले रक्तयोस्यामसग्वणैरनुबंधमवक्ष्ये च ४४
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म. ३४
उत्तरस्थान भाषालीकासमेत ।
पथादोदय युंज्याद् रक्तस्थापनमौषधम् | अर्थ-कफदूषित योनिमें सब प्रकार के
अर्थ-रक्तयोनि रोग में रुधिर के रंगसे | रूक्ष और उष्णावीर्य औषधों का प्रयोग दोषों का अनुबन्ध देखकर दोषों के अनुसार करना चाहिये । रक्त को स्थापन करने वाली औषधों का योनिशूलनाशक तेल। प्रयोग करे।
धातम्यामलकीपत्रस्रोतोजमधुकोत्पलैः । पुण्यानुग चूर्ण ॥
जंग्याघ्रसारकासीसरोधकट्रफलतिंदुकैः । पाठाजव्याघ्रयोरस्थिशिलोद्भेदं रसांजनम् सौराष्टिकादाडिमत्वगुदुंबरशलाटुभिः । अंबष्ठांशाल्मलीपिच्छांसमंगांवत्सकवचम् मक्षमात्रैरजामूत्रेक्षीरे च द्विगुणे पचेत् । बालीविल्वातिविषारोधतोयदंगैरिकम् तैलप्रस्थं तदभ्यंगपिचुबस्तिषु योजयेत् । शुंठीमधूकमाचीकरक्तचंदनकट्फलम् । तालिबाक्षिणी कट्वंगवत्सकानंताधातकीमधुकार्जुनम् ॥
तथा। पुष्ये गृहीत्वा संचूर्ण्य सक्षौद्रं तंदुलांभसा विप्लुतोपप्लुता योनिः सिद्धयेत्सस्फोटपिबेदर्शःस्वतीसारे रक्तं यश्चोपवेश्यते ।।
शालिनी। दोषाजंतुकृता ये च बालानांतांश्चनाशयेत् अर्थ-धायके फूल, आमले के पत्ते,रसौत, योनिदोषं रजोदोषं श्यावश्वेतारुणासितम्। मुलहटी, नीलकमल, जामन की गुठली, चूर्णपुण्यानुगं नाम हितमात्रेयपूजितम् ।
मामकी गुठली, हीसकसीस, लोध, कायफल, अर्थ-पाठा, जामनकी गुठली, आमकी
| तेंदू, मुलतानी मिट्टी, अनार की छाल, कच्चा गुठली, पाखानभेद, रसौत, अवाडा, सेमर,
गूलर, प्रत्येक एक तोला, दो प्रस्थ दूध, दो मोचरस, मजीठ, कुडाकी छाल, केसर,
प्रस्थ बकरी का मत्र और एक प्रस्थ तेल, बेलगिरी, अतीस, लोध, नागरमोथा, गेस,
इन सब को पाक की रीति से पकावे । इस सोंठ, महुआ, माचीक, रक्तचन्दन, काय.
| तेल का अभ्यंग, पिचुधारण और वस्तिकर्मफल, श्यौना, इन्द्रजौ, अनंतमूल, धाय के फूल, मुलहटी और अर्जुन इन सब द्रव्यों
द्वारा प्रयोग किये जाने पर शून (सूजी हुई) को पुष्यनक्षत्र में इकट्ठी करके महीन पीस
उत्तान, उन्नत, स्तब्ध, गिलगिली, स्वावयुक्त, है। इस चूर्ण को शहत में मिलाकर चांवलों
विप्लुता, उपप्लुता, स्फोटयुक्तामऔर शूलयुक्ता के जल के साथ पान करै । इसके सेवन
योनि रोगरहित होजाती है। करनेसे अर्श,अतिसार,रक्तातिसार,बालकोंका
यवान्नादि प्रयोग।
| यवानमभयारिष्टं सीधुतैलं च शीलयेत । छामराग, पान दाष, रजादाष, पूसर र पिप्पल्ययोरजापथ्याप्रयोगांश्चसमाक्षिकान् सफेदी, ललाई, कालापन ये सब दूर होजाते
... अर्थ-यवान, हरड, अरिष्ट, सीधु और है। यह चूर्ण पुष्यानुग नाम महर्षि मात्रेय का बनाया हुआ है।
तेल तथा पीपल, लोहचूर्ण और हरड इन कफदूषितपोनिका उपाय। को मधुके साथ सेवन करने से योनिरोग पोन्यां बलासदुष्टायां सर्व कशीष्णमौषधम् । पीडित स्त्री निरोग हो जाती है ।
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(९२.)
अष्टांगहृदप ।
प्र. ३४
विशदता कारक चूर्ण। अर्थ-कफदूषित योनियों में कटु द्रव्यों कासीसंत्रिफलाकांक्षीसाम्रजयस्थिधातुकी से युक्त तथा गोमूत्र से युक्त वस्ति देना पैच्छिल्ये क्षौद्रसंयुक्तश्चूर्णो वैशद्यकारका हित है, तथा पित्त दूषित योनि में तेल और
अर्थ-हीराकसीस, त्रिफला, मुलताना- कांजी मिलीहई वस्ति देनी चाहिये । . मिट्टी, आम की गुठली, जामन की गुठली,
सन्निपातज योनिरोग । और धाय के फूल इन सब द्रव्यों के चूर्ण सन्निपातसमुत्थायाः कर्म साधारण हितम में शहत मिलाकर सेवन करने से योनि की । अर्थ-सन्निपात से दूषित योनि में पिच्छिलता दूर हो जाती है ।
वातादि दोषों में कही हुई साधारण चिकिदुगंधादियुक्तयोनि का उपाय। सा करनी चाहिये । पालाशधातकी जंबूसमंगामोचसर्जजः।।
शुद्धयोनि में गर्भाधान । दुर्गधे पिच्छिले क्लेदस्तंभनश्चूर्ण इष्यते ।। आरग्वधदिवर्गस्य कषायः परिषेचनम् ।।
' एवं यानिषु शुद्धासु गर्भ विदंति योषितः ।
| अदुष्टे प्राकृत वीजे जीवोपक्रमणे सति । अर्थ-ढाक के फूल, धाय के फूल,
अर्थ-ऊपर कही हुई चिकित्साओं द्वारा जामन, मजीठ, मोचरस और राल इनका
योनि के शुद्ध होजाने पर तथा दोष रहित दुर्गन्धि, पिच्छिलता और क्लेद में स्तम्भन
गर्भोत्पादन के लिये प्राकृत बीज डालने से कर्ता है । तथा अरग्वधादि गणोक्त द्रव्यों
स्त्री गर्भ को धारण करलेती है। का साथ परिषेचन में हित है।
दुष्टशुक्र की परीक्षा । - मृदुताकारक प्रयोग।
पंचकर्मविशुद्धस्य पुरुषस्याऽपि चेद्रियम् ।। स्तब्धानां कर्कशानां च कार्य मार्दवकारकम् परीक्ष्य वर्णैर्दोषाणां दुष्टं तदघ्नैरुपाचरेत् । धारणं वेसवारस्य कसरापायसस्य च ॥ अर्थ-वातादि दोषों के द्वारा शुक्र के अर्थ-स्तब्ध और कर्कश योनियों में
भेदकी परीक्षा करके प्रथमवमन बिरेचनादि वेमवार, कृसरा वा पायस रखने से उन में
पांच कर्म से पुरुष को संशोधित करके उस मृदुलता होजाती है। .. दुगंधितयोनि में काढा।
दोष को दूर करनेवाली औषधों का प्रयोग
करै । दुर्गधानां कषायः स्यात्तलं वा कल्क पय वा
योनिशुक्र दोष पर घृत । चूर्णो वा सवेंगधानां पूतिगंधापकर्षणः॥ अर्थ -सुगंधित द्रव्यों का क्वाथ, कल्क,
| मंजिष्ठाकुष्ठतगरत्रिफलाशर्कराबचाः॥
द्वे निशे मधुकं भेदा दीप्यकः कटुरोहिणी। चर्ग वा उनसे सिद्ध किया हुआ तेल लगाने
पयस्याहिंगुकाकोलीशीजिगंधाशतावरीः ॥ से योनि की दुर्गन्धि जाती रहती है। पिष्टवाक्षाशैर्घतप्रस्थं पचेत्क्षीराश्चतुर्गुणम् . कफदुष्टयोनि में वस्ति । | योनिशुक्रप्रदोषेषु तत्सर्वेषु च शस्यते । श्लेष्मलानां कटुप्रायाःसम्बापस्तयो हिताः आयुष्यं पौष्टिकं मेध्यं धन्यं पुंसवन परम् पित्ते समधुकधीराः पाते तैलाम्लसंयुताः फलसपिरिति ख्यातं पुष्पे पीतं फलाययत्
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
नियमागप्रजानां च गर्भिणीनांच पूजितम् । | जगद्विषण्णं तं दृष्ट्वातेनाऽसौ विषसंशितः एतत्परं च वालानां प्रहघ्नं देहवर्धनम् ६७ / हुंकृतो ब्रह्मणा मूर्ती ततः स्थावरजंगमे । __अर्थ -मजीठ, कूठ, त्रिफला, शर्करा, वच सोध्यतिष्ठनिज रूपमुज्झित्वा पंचनात्मकम् हलदी, दारुहलदी, मुलहटी, मेदा, अजवायन, ___अर्थ-जन अमृत उत्पन्न करने के लिये कुटकी, दूधी, हींग, काकोली, असगंध और देवता और असुरों ने मिलकर समुद्रको मया सितावर प्रत्येक एक तोला लेकर कल्क करले था तब अमृत के उत्पन्न होने से पहिले एक एक प्रस्थ घी और चार प्रस्थ दूध मिलाकर भयंकर पुरुष उत्पन्न हुआ जिसका तेज बडा इन सब को पाकोक्तविधि से पकावै । यह फल- प्रचंड था उसके चार डाढ और हरे केश घत सब प्रकार के योनि और शुक्रदोषों में थे तथा आंखें अग्निकी शिखा के समान प्रशस्त है । यह घृत आयुवर्द्धक, पौष्टिक, जलती थीं। इस भयंकर पुरुष को देखकर मेधावर्द्धक, और अत्यन्त उत्तम पुंसवन संपूर्ण जगत विषण्ण होगया इस लिये इसका औषध है । इस घी को पुष्य नक्षत्रमें पीनेसे
नाम विष हो गया। यह बंचनस्वभाव पुरुष निश्चय संतान होती है, तथा जिन स्त्रियाँ । ब्रह्मा की हुंकार से अपने स्वरूप को त्याग की संतान होकर मरजाती है और जो गर्भ.
| कर स्थावर और जंगमात्मक दो मूर्तिवाला वती हैं, उनके लिये यह घृत परमोत्तम है । हो गया । यह घृत बालकों के ग्रहों को दूर करने तथा
स्थावर विषका वर्णन । उनकी देहको बढाने में परमोत्तम है। स्थिरमत्युल्वणं वीर्ये यत्कंदेषु प्रतिष्ठितम् । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी- कालकूटेंद्रवत्साख्यशृंगीहालाहलादिकम् । कान्वितायां उत्तरस्थाने गुह्यरोगम
अर्थ-जो विष कंद में रहता है तथा तिषेधोनाम चतुस्विंशोऽध्यायः।।
वीर्य में अति उग्र है वह स्थावर विष होता है स्थावर विष कालकूट, वत्सनाभ, शृंगी और
हालाहलादि नाम से पुकारा जाता है। , पंचत्रिंशोऽध्यायः।
जंगमविष का वर्णन । सर्पलूतादिदष्ट्रासु पारुणं जंगमं विषम् ।
। अर्थ-जो विष सर्प वा मकडी आदि अथाऽतो विषप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः।।
जानवरों की डाढों में रहता है वह जंगमअर्थ-अब हम यहांसे विषप्रतिषेध नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
विष कहलाता है यहां दंष्ट्रा केवल उपलक्षण विषकी उत्पत्ति ।
मात्र है । जंगमविष नख, सींग और मूत्रा
| दिक में भी रहता है। मथ्यमाने जलनिधावमृतार्थ सुरासुरैः। दिक म जातः प्रागस्तोत्पत्तेः पुरुषो घोरदर्शनः।। विष और गर का अन्तर । दीप्ततेजाश्चतुर्दष्टो हरितकेशोऽनलेक्षणः ।। स्थावरं जगमं चेति विषं प्रोक्तमकृत्रिमम् ॥
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( ९२२)
अष्टांगहृदया
अ. ३५
कृत्रिम गरसंक्षं तु क्रियते विविधौषधैः। । है, तदनंतर कफ वात पित्त इन तीनो दोषों ति योगवशेनाशु चिराचिरतराच्च तत् । को तथा इनके स्थानों को भी दूषित कर शोफपांडूदरोन्माददुर्नामादीन् करोति च ।
| देता है, तत्पश्चात् दोषों के साथ हृदय में अर्थ-स्थाबर और जंगम ये दोनों प्रकार के विष अकृत्रिम होते हैं । और
स्थित होकर देह को नष्ट कर देता है । गरविष कृत्रिम होता है, अनेक औषधियों के
प्रथम वेम के लक्षण ।
स्थावरस्यापयुक्तस्य वेगे पूर्व प्रजायते । संयोग से गरविष उत्पन्न होता है, गरबिष
जिह्वायाःश्यावतास्तंभोमूत्रासालमोवमिः योग के वश से वहुत शीघ्र वा वहुत काल अर्थ-स्थ:वर विष के शरीर में स्थित में मारता है, तथा शोफ, पांडुरोग, उदर- होने पर उसके प्रथम बेग में जिहवा में रोग, उन्माद, और अर्शादि रोगों को
कालापन, जकडन, मूर्छा, त्रास, क्वांति और उत्पन्न करता है।
वमन होती है । विष के गुण ।
दूसरा वेग! तीक्ष्णोष्णरूक्षविशदं व्यवाय्याशुकरं लघु ।
द्वितीये वेपथुः स्वेदो दाहः कंठे च वेदना। विकाशि सूक्ष्ममव्यक्तरसं विषमपाकि च ।। अर्थ-सब प्रकार के विष तीक्ष्ण,
| विषं चामाशयं प्राप्तं कुरुते हदि घेदनाम् ।
___ अर्थ-बिष के दूसरे वेग में कम्पन, उष्णवीर्य, रूक्ष, विशद, व्यवायी, आशु
पसीना, दाह और कण्ठ में वेदना होती है, कारी, लघु, बिकाशी, सूक्ष्म, अव्यक्तरस,
तथा आमाशय में पहुँचकर हृदय में वेदना और बिषमपाकी होते हैं।
करता है। विषको प्राणनाशकत्व।।
तीसरा वेग । भोजसो विपरीतं तत् तीक्ष्णायैरन्वितगुणैः वातपित्तोत्तरं नृणां सद्यो हरति जीवितम्
तालुशोषस्तृतीये तु शूलं चामाशये भृशम्
दुर्वले हरिते शूने आयेते चास्य लोचमे । अर्थ-बिष में तीक्ष्णादि दस गुण होते
म ताक्षणादि दस गुण होतं | पक्काशयगते तोदहिध्माकासांत्रकूजनम् । है, इस से यह ओज के विपरीत होता है,
____ अर्थ-विष के तीसरे वेग में ताल का तथा वात और पित्त की अधिकता के कारण | सुखना, आमाशय में शूल छिदने कीसी प्राणों का तत्काल नाश करनेवाला है। | अत्यंत बेदना, तथा दोनों नेत्रों में दुर्बलता
प्राणनाशका हेतु। हरापन और सूजन होती है । इसके पक्काविषं हिदेहं संप्राप्य प्राग दूषयति शोणितम् । शय में पहुँचने पर सुई छिदने कीसी वेदना कफपित्तानिलाश्चानुसमंदोषान्सहाशयान | हिचकी, खांसी और आंतों में कूजन ततो हृदयमास्थाय देहोच्छेदाय कल्प्यते। । होती है।
अर्थ-बिष शरीरमें व्याप्त होकर प्रथम - चौथा वेग। ही सर्वशरीरगामी रक्त को दूषित करदेता चतुर्थे जायते वेगे शिरसश्चातिगौरवम् ।
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( ९२३)
-
अर्थ-विष के चौथे वेग में सिर में तीसरे वेगकी चिकित्सा। ..." अत्यन्त भारापन होजाता है, च शब्द से उक्त तृतीये गदपानं तु हितं नस्य तथाजनम् । तीनों के लक्षण भी होते हैं ।
अर्थ- तीसरेवेग में विषनाशक औषधियों पंचग बेग ।
का पान,नस्य और हितकारक अंजन होताहै। कफपसेको वैवये पर्वभेदश्च पंचमे।।
चौथा बेग । सर्वदोषप्रकोपश्च पक्वाधाने च वेदना। चतुर्थे मेहसंयुक्तमगदं प्रतियोजयेत् ।
अर्थ-विष के पांचवें वेग में कफ का । अर्थ-चौथेवेग में स्नेहसे युक्त औषध गिरना, देह में विवर्णता, सन्धियों में वेदना | प्रयोग करना चाहिये । सम्पूर्ण दोषों का प्रकोप तथा पक्वाशय में
पांचवां वेग। वेदना होती है।
पंचमे मधुककाथमाक्षिकाभ्यां युतं हितम्। छटा वेगा
अर्थ-पांचवेग में मुलहटी का काढा षष्ठे संशाप्रणाशश्च सुभृशं चाऽतिसार्यते और शहत के साथ विषनाशक औषधों का
अर्थ-विष के छटेवेग में बेहोशी तथा पान करावै । अत्यन्त दस्त होने लगते हैं ।
छटा वेग। सातवां वेग
षष्टेऽतिसारवात्सिद्धिः स्कंधपृष्ठकटीभगो भवेन्मृत्युश्च सप्तमे ॥ अर्थ-छटेवेगमें अतिसारके सदश चिकि___ अर्थ-विष के सातवें बेग में कंधे, पीठ | त्सा करना उचित है । और कमर में टूटने कीसी पीडा तथा रोगी
सातवा वेग ॥ की मृत्युभी होजाती है।
अवपीडस्तु सप्तमे। * प्रथम वेगकी चिकित्सा । । मूर्ध्नि काफपदं कृत्वासासृग्वापिशितंक्षिपत् प्रथमे विषयेगे तु वांतं शीतांबुसेचितम् ।। अर्थ-सातवेंवेग में रोगानुत्पादनीय असर्पिर्मधुम्यां संयुक्तमगदं पाययदूद्वतम् ॥ ध्याय में कहा हुआ अवपीडन नाम नस्य अर्थ-स्थावर विषकी प्रथमावस्था में
देना चाहिये अथवा मस्तक पर काकपद रोगीको प्रथम वमन कराकर उसके शरीर
नामक शस्त्रसे चिन्ह करके उसपर रुधिर पर ठंडे जलकी धार डाले। तत्पश्चात् बहुत
साहत मांसको स्थापित करदे । शीघ्र शहत और घी मिलाकर विषनाशक
सर्व विषनाशक यवागू ॥ भौषधियों का पान करावे ।
कोशातक्यग्निकः पाठासूर्यबल्यमृताभयाः। द्वितीय वेगकी चिकित्सा
शेलुः शिरीषः किणिही हरिद्रे क्षौद्रसाहया द्वितीये पूर्ववद्वांतं विरिक्तं चाऽनुपाययेत् पुनर्नवे विकटुकं वृहत्यौ सारिये वला । __ अर्थ-दूसरेवेग में प्रथमवेग की तरह । एषा यषाणूनियूहेऽशीतां सघृतमाक्षिकाम् वमन और शीतल जलका प्रयोग करके युजादेगांतरे सर्वविषनी कृतकर्मणः । विरेचक विषनाशक औषधों का पान करावे। अर्थ- कडबी तोरई, चीता, पाठा, सूर्य
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१९२४)
अष्टांगहृदय ।
म. ३५
बली (कनेर के सदृश पुष्पवाली) गिलोय एष चंद्रोदयो नाम शांतिः स्वस्त्ययनं परम् हरड, शेलु, ( व्हेसुआ ) सिरस, किणही, अर्थ-रसौत, तगर, कूठ, हरिताल, हलदी,दारुहलदी, वटमाक्षिक, दोनों पुनर्नवा मनसिल, प्रियंगु, त्रिकुटा, स्पृक्का, केसरत्रिकुटा, दोनों कटेरी, दोनों सारिवा, खरैटी
सहित नागपुष्प, हरेणु, मुलहटी, जटामांसी, इनके काढमें यवागू पकाकर ठंडा करले ।
। गोरोचन, काकमालिका, सरलकाष्ठ, राल, फिर इस में घी और शहत मिलाकर देवे सोंफ,केसर, खरैटी, तमालपत्र, तालीस पत्र, तथा वा के बीचमें सब प्रकारकी विषनाशनी
भोजपत्र, खस,हलदी और दारुहलदी इन सब क्रिया करै ।
द्रव्यों को संग्रह करले । फिर एक कन्या को पेयाका विधान ॥ उपवास कराके पुष्यनक्षत्र में स्नान कराके तद्वन्मधूकमधुकपाकेसरचंदनैः ॥ २३ ॥
सफेद वस्त्र धारण कराके ब्राह्मणों का अर्थ-महुआ,मुलहटी, कमलकेसर और
पूजन कराके उक्त द्रव्यों को उस कन्या से रक्तचंदन इनके फाढे पेया तयार करके
पिसवाचे, पीसते समय वैद्य जितेन्द्रिय होठंडी होने पर घी और शहत मिलाकर
कर 'नमःपुरुषसिंहाय ' से लेकर स्वाहा
तक प्रथम मंत्र का पाठ करता रहे । पिस चन्द्रोदय औषध ।
जाने पर ' ॐ हरिमावि स्वाहा , इस
दूसरे मंत्र का पाठ करे । इस चन्द्रोदय अंजनं तगरं कुष्टं हरितालं मनः शिला। फलिनी त्रिकटु स्पृक्का नागपुष्पं सकेसरम् ॥
नामक अगद को पान, नस्य, अभ्यंजन हरेणु मधुकं मांसी रोचना काकमालिका।
और आलेपन द्वारा प्रयोग करे तथा पहुँचे श्रीवेष्टकं सरसः शताहा कुंकुम वला ॥ पर वांध दे, यह औषध शांति स्वरूप और तमालपत्रतालीसभूजोशीरे निशाद्वयम् ।
परम स्वस्त्ययन है । इसके सेवन से सब फन्योपवासिनी माता शुलवासामधुदुतैः॥ द्विजानभ्यर्च्य तैः पुष्पैः कल्पयेदगदोत्तमम्
प्रकार के विष, वेतालग्रह, कार्मण क्लेश वैद्यश्चात्र तदा मंत्र प्रयतात्मा पठेदिमम् ॥ मारकरोग, दुर्भिक्ष, युद्ध और बज्रपात का नमः पुरुषार्सहाय नमो नारायणाय च ।
भय ये सब दूर होजाते हैं। यथासौ नाभिजानाति रणे कृष्णपराजयम् एतेन सत्यवाक्येन अगदो मे प्रसिद्यतु । दूषीविष पीडित के लक्षण । नमो पैडूर्यमाते हुलुहलु रक्ष मां सर्वेविषेभ्यः जीर्ण विषघ्नौषधिहितं पा गौरि गांधारि संडालि मातगि स्वाहा । दावाग्निवातातपशोषित वा। पिटे च द्वितीयो मंत्रः
स्वभावतो या सुगुणेन युक्त मो३म्हरिमायि स्वाहा॥ दूषीविषाख्यां विषमभ्युपैति ॥ ३३ ॥ अशेषविषवेतालग्रहकार्मणपाप्मसु।।
वीर्याल्पभावादधिभाव्यमेतमरकव्याधिदुर्भिक्षयुवाशनिभयेषु च ॥ कफावृतं वर्षगणानुवंधि। पाननस्यांजनालेपमणिबंधादियोजितः। । तेनादितो मिनपुरीषवर्णो
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भ० ३५
उत्तरस्थान भाषाकासमेत ।
(९२१ )
दुष्टानरोगी तृडरोचकातः ॥ ३४॥ दषीविष पीडित के लक्षण । मूर्छन् वमन गद्गदवाक् विमुझन् ।
| प्रग्याताजीर्णशीताम्रदिवास्वप्नंहिताशनैः भवेष दूग्योदरलिंगजुष्टः।
| दुष्टं दूषयते धातूनतो दूषीविषं स्मृतम् । आमाशयस्थे कफवातरोगी पकाशयस्थेऽनिलपिसरोगी ॥ ३५ ॥
___ अर्थ-पुरोवात, अजीर्ण, शीतलता, अर्थ-मो विष बहुत पुराना होगया है
| बादल, दिवानिद्रा, अहित भोजन इन वा जो विषनाशक औषधियों के प्रयोग कारणोंसे दूषित होकर वह रसरक्तादि धातुओं द्वारा हतवीर्य होगया है, जो दावाग्नि, वायु
को दूषित कर देता है इससे इसे दूषीविष वा धूप के कारण शोषित होगया है, अथवा
कहते हैं। जो स्वाभाविक सुन्दर गुणोंसे युक्त नहींहै
दूषी बिषपर अवलेह । वह दूषीविष कहलाता है । दूषीविष वीर्य में
दूषीविषार्त सुस्विन्नमूचाधश्चशोधितम
दूषीविषारिमगंद लेयेन्मधुना प्लुतम् । अल्प होता है, इससे देखने में नहीं भाताहै
अर्थ-दूषी विषप्ते पीडित रोगी को स्वेद यह कफ से आवृत होने के कारण देह में
द्वारा स्वेदित और वमन विरेचन द्वारा उपर बहुत काल पर्य्यन्त स्थिर रहता है, दूषी
नीचे के मार्गों से संशोधित करके दूषी विविष से पीडित मनुष्य का पुरीष फट जाताहै और उसके वर्ण में विकृति होनाती है, रक्त
पनाशक औषधों को शहत में मिलाकर देवे में दुष्टि, पिपासा, भरुचि, मूछी, वमन,
दूषीविषनाशक औषध ।
पिप्पल्यो ध्यामकं मांसारोध्रमेला सुवर्चिका बाणी में गद्गदता, मोह, तथा, दूष्योदर
तथा, दूण्यादर कुटनटं मतं कुष्टं यष्टी चंदनगैरिकम् ।। के लक्षणों से जुष्टता ये सब उपद्रव उपस्थित दृषीविषारिनाम्नाऽयं चान्यत्राऽपि बार्यते। होते है । दूषीविषके आमाशय में स्थित होने ___ अर्थ-पीपल, रोहिषतृण, जटामांसी, पर कफ वात रोग तथा पकाशय में स्थित लोध, इलायची, सज्जीस्वार, सौनापाठा, होने पर वात पित्त रोग पैदा होजाते हैं। तगर, कूट, मुलहटी, चन्दन और गेरू,
रसस्थ विष के लक्षण । इन सब द्रव्यों को कूट पीसकर गोलियां भवेत्ररो ध्वस्तशिरोरुहांगो
वना लेवै । इसका नाम दृषीविसारि है विलूनपक्षः स यथा विहंगः । स्थितं रसादिष्वथवा विचित्रान्
अर्थात विषेश करके दूषी विषके दूर करनेमें करोति धातुप्रभवान् विकारान् ॥३६॥
प्रयुक्त होती है, परन्तु अन्य रोगों में भी अर्थ-दूषी विष से पीडित मनुष्यों के । इसका प्रयोग किया जाता है। . सिर के बाल उड़कर यह ऐसा होजाता है, विषलिप्तशस्त्रसे विरके लक्षण । जैसे पंखहीन पक्षी, अथवा रसादि धातों विषदिग्धेन षिद्धस्तु प्रताम्यति माना।
विवर्णभावं भजते विषादं चाशु गच्छति। में स्थित होकर धातु म हानवाल भनक कीटैरिवावृतं चास्य गात्रं चिमिचिमायते प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है। श्रोणिपष्ठशिरः स्कंधसंधयः स्युः सवेदना
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अष्टांगहृदय ।
. अ.
३५
कृष्णदुधानविनावी तृष्मू ज्वरवाहवान् | अथव मोरवा,सफेद कटेरी, सोमकी छाल इधिकालुष्यवमथुश्वासकासकर क्षणात् ।। मजीठ, सिरस और बडवेरी इनमें से किसी आरक्तपातपर्यतः श्यावमध्योतिरुग्वणः ४३ सूयते पच्यते सद्योगत्वामांसं च कृष्णताम्
एकके क्षारसे प्रतिसारणकरे। तथा श्यौनाक प्रक्लिन्नं शीर्यतेऽभीक्ष्णं सपिच्छिलपरिस्रवम् |
की छाल, अतीस और कटेरी की जड़ इन कुर्यादमर्मविद्धस्य हृदयावरणं दुतम्। | का लेप करे । - अर्थ-जो मनुष्य विषलिप्त अर्थात् जहर | विषलिप्तशस्त्रविड की चिकित्सा । के बुझे हुए शस्त्रसे बिद्ध होता है, वह बार | कीटवष्टचिकित्सां च कुर्यात्तस्य यथार्हतः बार मुछित होजाता है, उसका देह विवर्ण ___अर्थ-विषलिप्त शस्त्रसे बिधे हुए रोगी होजाता है, शीघ्रही विषाद को प्राप्त होताहै, | की चिकित्सा कीटदष्ट के सदृश करनी और उसका देह कीडों से व्याप्त की तरह
चाहिये । चिमचिमाहट करता है । कमर, पीठ, सिर
। दुगंधितब्रण का उपाय । कंधा और संधियों में वेदना होने लगती है, (बणे तु,पूतिपिशिते क्रिया पित्ताविसर्पवत् काला और विगडा हआ समिती अर्थ-दुगंधित मांसवाले व्रणकी चिकिलगता है, रोगी को तृषा, मी, ज्वर और
त्सा पित्तविसर्प के समान करनी चाहिये । दाह, पीडित करते हैं, दृष्टिमें कलुषता,वमन विष देनेवालों का वर्णन । श्वास, खांसी ये उपद्रव शीघ्र पैदा होजाते | सौभाग्यास्त्रियोभत्रैराशेवाऽरातिचोदिताः हैं। उसके ऐसे घाव होजाते हैं जो कि
गरमाहारसंपृक्तं यच्छंत्यासमवर्तिनः। नारों पर ललाई लिये हुए पीले होते हैं और
____ अर्थ-कोई कोई स्त्रियां सौभाग्य प्राप्ति बीचमे याववर्ण के होते और इनमें चोर । केलिये अर्थात् स्वामी की आदरिणी होने के वेदना होने लगती है, घाव सूजकर शीघ्र
निमित्त भर्ता को विषमिश्रित भोजन दे देती पकजाता है, और मांस झटपट काला होकर
है, तथा शत्रु से प्रेरित हुए राजा के प्रल्किन होता हुआ गिर. पडता है और निकटवर्ती मनुष्य राजा को बिष देदेते हैं । उसमें से निरंतर पिच्छिल स्त्राव होता रहता
गरके लक्षण ।
नानाप्राण्यंगशमलविरुद्धौषधिभस्मनाम् । है । मर्मस्थान के बिद्ध न होने पर भी हृदय
विषाणांचाल्पवीर्याणां योगो गरइति स्मृतः का आवरण शीघ्रता पूर्वक होजाता है।
अर्थ-अनेक प्रकार के जीवों के अंग शल्याकर्षण में कर्तव्य । शल्यमाकृष्य तप्तने लोहेनानु दहेवणम्।।
और पुरीष, विरुद्ध औषधियों की भस्म और अथवा मुष्ककश्वेतासोमत्वक्ताम्रपाल्लतः। | अल्पवीर्य विष इनके योग को गर अर्थात शिरीपाद गृध्रनख्याश्वक्षारेणप्रतिसारयेत्
संयोगज विष कहते हैं। शुकनासामतिविषाव्याघ्रीमूलश्च लेपयेत् अथे-शल्यको खीचकर लोहे की प्रतप्त
गरपीडित के लक्षण । शलाका से ब्रणको दग्ध कर देना चाहिये ।
तेन पांडुःकृशोल्पानि:कासश्वासज्वरार्दिता १५ घायुना प्रतिलोमेन स्वप्नचितापरायणः ।
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अ. ३५
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९२७)
महोदरयकृत्पलीहीदीनवाग्दुर्वलोऽलसः। । शुद्धहृच्छलियेद्धेम सूत्रस्थानविध स्मरन् । शोफवाम्सतताध्मातः शुष्कपादकरः क्षयी अर्थ-गरपीडित व्यक्ति वमन करने के स्वप्ने गोमायुमारिनकुलब्यालवानरान् ।। पीछे हितकारी पान भोजन करके शुद्ध प्रायः पश्यतिशुष्कांचवनस्पतिजलाशयान् | हृदय होनेपर सूत्रस्थानोक्त विधि के अनुसार मम्यते कृष्णमात्मानं गौरी गौरंच कालकः सुवर्ण की भस्म का अभ्यास करे । विकर्णनासानयनं पश्यत्तदिहतेंद्रियः।।
गरविषपर अवलेह । .. अर्थ-गर विष से पीडित रोगी पांदुवर्ण, शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं चूर्ण ताप्यसुवर्णयोः। कृश,मन्दाग्नियुक्त, खांसी, श्वास और ज्वर से लेहः प्रशमयत्युग्रं सर्वयोगकृत विषम् । पीडित होता है । वायुकी प्रतिलोमता, अर्थ-सौनामाखी और सुवर्ण की भस्म निद्रालुता, निंतापरायणता, महोदर, यकृत | इनको मिश्री और शहत मिलाकर चाटै इस प्लीहा, बचन में दीनता, दुर्बलता, आलस्य, के सेवन से अत्यन्त उग्र और सब प्रकार सजन, निरंतर उदराध्मान, हाथपांव में सूखा का संयोगज दारुण गरविष शांत होजाता है पन, क्षयी, स्वप्नमें गीदड, बिलाव, नकुल गरोपहताग्नि का उपाय । सर्प और वन्दरों का प्रायः दिखाई देना, त
मूर्वामृतानतकणापटोलविव्यचित्रकान् । था सूखी हुई वनस्पति और जलाशयों का
वचामुस्तविडंगानि त कोष्णांबुमस्तुभिः । दिखाईदेना, ये लक्षण होते हैं। और रोगी पिवद्रसेन वाम्लेन गरोपहतपावकः ॥५८॥ गौर वर्ण हो तो अपने ताई कृष्णवर्ण और अर्थ-गरबिष में अग्नि के नष्ट होनेपर कृष्ण वर्ण हो तो गौरवर्ण मानता है, और | मूर्वा, गिलोय, तगर, पीपल, पर्वल, चव्य, गरविष के कारण हतेंद्रिय होकर अपने को | चीता, वच, नागरमोथा, वायविंडग, ये सब नाक, कान और नेत्रहीन देखता है। सम्पूर्ण द्रव्य तक, ईषदुष्ण जल, दही का
गरपीडित का नाश । तोड़ वा अम्लरस के साथ पीने को देवै । एतैरन्यैश्च बहुभिः क्लिष्टो घोरैरुपद्रवैः॥ विषजन्य तृषाका उपाय । गरातों नाशमाप्नोति कश्चित्सद्यो पारावतामिषशठीपुष्कराह शृतं हिमम् ।
ऽचिकित्सितः। गरतृष्णारजाकासश्वासाहयाज्वरापहम् ॥ अर्थ-ऊपर कहेहुए इन उपद्रवों से तथा | अर्थ-कबूतर का मांस, कचूर, पुष्कर. अन्य बिना कहे हुए घोर उपद्रवों से | मूल, इनको डालकर औटाया हुआ जल पीडित हुआ गरविष पीडित कोई २ रोगी ठंडा करके पान कराने से गरविष से उत्पन्न चिकित्सा न किये जाने पर शीघ्रही मर- तृषा, वेदना, श्वास, हिचकी और स्वर जाते जाता है।
रहते है। गरपीडित का कृत्य ।
.. सौ में एकका जीवन । गरातो पांतवान् भुक्त्वा तत्पथ्य- | विषप्रकृतिकालान्नदोषदृप्यादिसंगमे।
पानभोजनम् । विषसंकटमुद्दिष्टं शतस्यैकोऽत्र जीवति ॥ .
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( ९२८)
अष्टांगहृदय ।
अर्थ-विषसे पीडित रोगी में यदि इन
वैवको उपदेश। ..... सब का समावेश हो अर्थात् उसकी प्रकृति इति प्रकृतिसात्म्यर्तुस्थानवेगवलावलम् । पदि पैत्तिक हो, विषार्त होने का काल वर्षा | आलोच्य निपुण धुम्या कर्मानंतरमाचरेत् । हो, भोजन यदि सर्पपादि हो, दोष यदि पित्त ___ अर्थ-इस तरह प्रकृति, सात्म्य, ऋतु, हो, दूष्य यदि रक्त हो तो इन सब बातोंके स्थान, विषका वेग, रोगी का बलाबल इन होने पर सौ रोगियों में से एक भी बचे वा| सब बातों को बिचारकर चिकित्सा में प्रवृत्त न बचे, यह संदेह है । विषप्रकृत्यादि सब होना चाहिये । योगों को विषसंकट कहते हैं।
कफज विषमें कर्तव्य ।। क्षुधादि द्वारा विषकी वृद्धि। लप्मिकं धमनैरुष्णरूक्षतीक्ष्णैः प्रलेपनः । क्षुत्तष्णाघर्मदौर्बल्यक्रोधशोकभयश्रमैः। कषायकतिक्तैश्च भोजनैः शमयेद्विषम् ॥ अजीर्णव) द्रवतः पित्तमारुतवृद्धिभिः ॥ | अर्थ-कफज विषकी शांति के लिये तिलपुष्पफलाघ्राणभूवाष्पधनगर्जितैः । उष्ण, रूक्ष और तीक्ष्ण द्रव्यों द्वारा यमन, हस्तिमूषिकवादित्रनिःस्वर्विषसंकटैः॥ । पुरोवातोत्पलामोदमदनैर्वधते विषम्।।
तथा इन्हीं के द्वारा लेप और कषाय, कटु ___ अर्थ क्षुधा, तृषा, पसीना, दुर्बलता,क्रोध , तथा तिक्त द्रव्यों के भोजन देवै । शोक, भय, परिश्रम, अजीर्ण, मलकी द्रवता,
पैत्तिक विषमें कर्तव्य । पित्तवात की वृद्धि, तिलके फूल और फलों
पैत्तिकं घसनः सेकप्रदेह शशीतलैः । का सूचना, भूवाष्प ( पृथ्वी की भाप अर्थात्
कषायतिक्तमधुरैर्वृतयुक्तश्च भाजनैः ॥ भबखरे) मेघधनि,हाथी और चूहे की खाल
___ अर्थ-विरेचन, अत्यन्त शीतल परिषेक से मढे हुए बाजों का शब्द, विषसंकट,
और लेप तथा कषाय,तिक्त और मधुर द्रव्य पुरोबात, उत्पल, आमोद और मदनप्रावल्य
घृतयुक्त का आहार कराके पैत्तिक विषको से विष की वृद्धि होती है।
शांत करना चाहिये। ...शरदमें विपकी मंदवीर्यता ।
वातिकविषका उपाय । पर्वासु चांबुयोनित्वात्संक्लेदं गुडवगतम् ॥ धातारमकंजयेत्स्वादुनिग्धाम्ललवविसर्पति घनापाये तदगस्त्यो हिनस्ति च ।
णान्वितैः। प्रयाति मंदवीर्यत्वं विष तस्मादूधनात्यये ॥ | सतै जनतेपैस्तथैव पिशिताशनैः॥ - अर्थ-वर्षाऋतु जल की योनि है, इस माघृतं संसन शस्तं प्रलेपो भोज्यमषिधम् । लिये सब वस्तु क्लिन्न हो जाती हैं । इसलिये अथ-वातिकविषको मधुर, अम्ल और इस ऋतु में विष गुढके समान क्लिन्न होकर लवणरस युक्त वृतसहित भोजन द्वारा, लेप शरीर में फैल जाता है और वर्षा के दूर द्वारा,कषायतिक्त और मधुर रसान्वित मघृत होनेपर शरद ऋतुमें अगस्त्यरूप विषको नष्ट मांसका भोजन देकर शांत करना चाहिये । कर देता है, इसलिये इस ऋतुमें विष को विषरोग में घृतहीन विरेचन, प्रलेप, भोजन मन्दता हो जाती है। ..... ... वा कोई औषध प्रयोग न करनी चाहिये ।
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म. ३६
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९२९)
विर्षे में घृतको उत्तमता। | भेद से विस्तारपूर्वक अनेक प्रकार के होते सर्वेषु सर्वावस्थेषु विषेषु न घृतोपमम् ॥ हैं। विस्तारपूर्वक वर्णन की आवश्यकता विद्यते भेषजं किंचिद्विशेषात्प्रबलेऽमिले।
| न होने के कारण यहां सविस्तर वर्णन नहीं अर्थ-सब प्रकार के विषों में तथा विष
किया गया है। की संपूर्ण अवस्थाओं में घृत के समान और कोई औषध नहीं है । विशेष करके घाता
दीकरादि के विषकेगुण ।
| विशेषाद्क्षकटुकमम्लोणंस्थादुशीतळमू धिक्य विष में घीअत्यन्त फलदायक औषधहै | विष दींकरादीनां क्रमाद्वातादिकोपनम् ।, . विषको साध्यासाध्यत्व ।
____ अर्थ-दर्वीकर, मंडली और राजिमान् अयत्नात्श्लौष्मिकं साध्यं यत्नात् पित्ताशया
इन तीनों प्रकार के साँके विष अतिशय
श्रयम् । सुदुःसाध्यमसाध्यं वा वाताशयगतं विषम्
रूक्ष, कटु, अम्ल, उष्णवीर्य, स्वादु और . अर्थ-कफगतविष अल्पयत्नसे ही साध्य | स्पर्श में शीतल होते है । इनके विष क्रमहोता है, पित्ताशयगत विष यत्नसे साध्य पूर्वक वात, पित्त और कफके प्रकोपक
होते हैं। होता है, तथा वाताशयाश्रित विष अत्यन्त
विषोल्वणता का काल । दुःसाध्य वा असाध्य होता है ।
तारुण्यमध्यवृद्धत्वे वृष्टिशीतातपेषु च ॥ इति अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीका-विषोल्वणा भवस्येते व्यंतरा ऋतुसंधिषु । न्वितायोउत्तरस्थाने विषप्रतिषेधो । । अर्थ-दौकरादि सर्पो के विष तरुणानाम पंचविंशोऽध्यायः॥३१॥ वस्था से मध्यावस्था में और मध्यावस्था से
वृद्धावस्था में वृद्धिको प्राप्त होते हैं । इसी पत्रिंशोऽध्यायः।
तरह वर्षाऋतु की अपेक्षा जाडे में और
जाडेकी अपेक्षा गरमी में इनका विष बढ़ता -(----)
है । तथा विजातियोंका विष ऋतुकी अथाऽतः सर्पविषप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। संधियों में बढ़ता है। ___ अर्थ-अब हम यहांसे सर्पविष प्रतिषेध दवाकर सपों के लक्षण । नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । रथांगलांगलच्छत्रस्वस्तिकांकुशाधारिणः॥ साँके तीन भेद ।
फणिनः शीघ्रगतयः सर्पो दीकराः स्मृताः दीकरा मंडलिनो राजीमंतश्च पन्नगाः।। अर्थ-चक्र, हल, छत्र, स्वस्तिक (सथिया) विधा समासतो भौभा भिद्यते ते त्वनेकधा। और अंकुश के चिन्हवाले, फणवाले, और व्यासतो योनिभेदेन नोच्यतेऽनुपयोगिनः। शीघ्रगामी सर्प दर्वीकर होते हैं। ___ अर्थ-संक्षपसे सर्प तीन प्रकार के कहे ।
मंडली के लक्षण । गये हैं, यथा-दीकर,मंडली और राजि- या मंडलिनोऽभोगा मंडलैर्विविधैश्चिताः मान् इनका स्थान भूमि होता है । ये योनि- प्रांशवा मंदगमना
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अष्टांगहृदप |
( ९३० )
अर्थ- जो सर्प अनेक प्रकार के मंडलाकार चिन्हों से युक्त, छोटे फणवाले, अंशु मान और मंदगामी होते हैं वे मंडली कहलाते हैं !
राजिमान के लक्षण | राजीमतस्तु राजिभिः । स्निग्धाबिचित्रवर्णाभिस्तिर्यगूर्ध्वविचित्रिताः अर्थ-जिन सर्पों के देह पर तिरछी आडी लहरियादार रंगविरंगी रेखा होती हैं उन्हें राजिमान् कहते हैं ।
गोधर के लक्षण | गोधासुतस्तु गौधेरो विषे दर्वीकरैः समः । चतुष्पादू
अर्थ - गोह के बच्चे को गोधेर वा गुहेरा कहते हैं, यह विषमें दबकर के समान और चार पैर वाला होता है ।
व्यंतरा के लक्षण | व्यंतरान्विद्यादेतेषामेव संकरात् ॥ व्यामिश्रलक्षणास्ते हि सन्निपातप्रकोपनाः । अर्थ- दकरादि सर्पों के मेल से जो सर्प पैदा होते हैं, उन्हें व्यंतर कहते हैं । व्यंतर सर्पों के लक्षण मिश्रित होते हैं, इनके विष में त्रिदोष का प्रकोप होता है ।
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करता है । इन सब हेतुओं में उत्तरोत्तर विषकी अधिकता होती है अर्थात् आहारार्थ से भय में, भवदशन से पादस्पर्शदंशन में इत्यादि इत्यादि ।
कारणानुसार चिकित्सा आदिष्टात्कारणं ज्ञात्वा प्रतिकुर्याद्यथायथम् अर्थ- सर्पदंशन के जो हेतु ऊपर कहे गये हैं, उनको जानकर यथायोग्य चिकित्सा में प्रवृत्त होना चाहिये ।
व्यंतर सर्प का मार्ग में बैठना । व्यंतरः पापशीलत्वात्मार्गमाश्रित्य तिष्ठति ॥
अर्थ-व्यंतर भुजंगम का पापाचार शील स्वभाव होता है, इसलिये यह आने जानेके मार्ग में बैठ जाता है ।
दष्टका साध्यासाध्य विचार | यत्र लालापरिक्लेदमात्रं गात्रे प्रदृश्यते । न तु दंष्ट्राकृतं देशं तत्तुंडाहतमादिशेत् ॥ एकं दंष्ट्रपदं द्वे वा व्यालीढाख्यमशोणितम् । दंष्टापदे सरक्ते द्वे व्यालुप्तं त्रीणि तानि तु ॥ मांसच्छेदादाविच्छिन्नरक्तवाहानि दंष्टकम् । दंष्टापदानि चत्वारि तद्वद्दष्टनिष्पीडितम् ॥ निर्विषं द्वयमत्राद्यमसाध्यं पश्चिमं वदेत् ।
अर्थ - शरीर में यदि सर्पकी लार का सर्पके काटने का कारण । चिन्ह दिखाई दे और दांत लगने का चिन्ह आहारार्थ भयात्पादस्पर्शादतिविषात् क्रुधः । दिखाई न दे तो उसे तुंडाहत कहते हैं । यदि पापवृत्तितया वैराद्देवर्षियमचोदनात् । सर्पकी एक वा दो डाढके चिन्ह दिखाई दें दशंति सर्पास्तेषूक्त विषाधिक्यं यथोत्तरम् पर रुधिर न निकला हो तो उसे व्यालीढ कहते हैं । दो डाढों के चिन्ह रुधिर समेत हों तो व्यालुप्त होता है। यदि तीन डाढों के चिन्ह हों और मांसमें छेद होकर निरंतर रक्त बहता हो तो उसे दंष्ट्रक कहते हैं । यदि चारा के चिन्ह हों और दंष्ट्रक
अर्थ - भूख लगने पर, अथवा भय से, अथवा पांव लगाने से, वा विषकी अधिकता से वा क्रोध से सर्प काटा करता है । अथवा पापवृत्ति से, किसी पुरातन बैर से, देवऋषि वा यमकी प्रेरणा से सर्प काटा
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की तरह मांसमें छिद्र होकर निरंतर रुधिर बहता हो उसे दष्टनिपीडित कहते हैं । इनमें से पहिले दो निर्विष होने के कारण साध्य है, बीच दो कष्टसाध्य हैं और पांचवां दष्टनिपीडित असाध्य होता है ।
रक्तमें मिलकर विषका बढना । विषं नायमप्राप्य रक्तं दूषयते वपुः ॥ १४ ॥ रक्तमण्वपि तु प्राप्तं वर्धते तैलमंबुवत् ।
अर्थ- सर्पका विष रक्तसे बिना मिले शरीर में नहीं फैलता है, रक्त से मिलकर ही देह को नष्ट कर देता है, विष किंचिन्मात्र रक्त से मिलजाने पर भी शरीर में चारों और ऐसे व्याप्त हो जाता है, जैसे पानी के संसर्ग से तेल फैलता चला जाता है ।
सर्पा गाभिहत के लक्षण | भरोस्तु सर्प संस्पर्शाद्भयेन कुपितो मिलः ॥ कदाचित्कुरुत शोफ सर्पगाभिहतं तु तत् ।
अर्थ - डरपोक आदमी के सर्पका स्पर्श हो जाने से जो भय उत्पन्न होता है, उससे कभी कभी सूजन पैदा हो जाती है, उसे
गाभिहत कहते हैं ।
शंकाविष के लक्षण | दुरंधकारे विद्धस्य केनचिद्दष्टशंकया विषोद्वेगो ज्वरच्छर्दिर्मूर्छादाहोऽपिवा भवेत् ग्लानिर्मोहोतिसारो वा तच्छंकाविषमुच्यते
अर्थ - यदि अत्यंत अंधकार में कोई जंतु काट खाय और यह मालूम न हो सके कि 'किसने काटा है और सर्प के काटने की शंका हो तो विषोद्वेग, ज्वर, वमन, मूर्च्छा, दाह, ग्लानि, मोह और अतिसार उत्पन्न होता है। इसी को शंकाविष कहते हैं ।
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( ९३१ )
विषनिर्विषदंश के लक्षण | तुद्यते सविषो दंशः कंङ्कशोफरुजान्वितः । दाते प्रथितः किंचिद्विपरीतस्तु निर्विषः ॥
अर्थ - जिस दंशमें सुई छिदने की सी पीडा, खुजली, सूजन, वेदना और दाह होता है तथा कुछ गांठ सी दिखाई देती है, उसे सविषदंश कहते हैं और इसके विपरीत लक्षण हो अर्थात्, तोदादि न हो तो निर्विष समझना चाहिये ।
करादि का प्रथम वेग | पूर्वे दर्वीकृत वेगे दुष्टं स्रावीभवत्यसृक् । श्यावता तेन वक्त्रादौ सर्पतवि च कीटकाः
अर्थ- दर्वीकर सर्पों के विष के प्रथम वेग में श्याववर्ण दूषित रक्तका स्राव होता है । ऐसे विषके कारण काटे हुए व्यक्ति का मुख नासिका आदि श्यावंर्ण हो जाते हैं और सब देहमें चींटियां सी चलने लगती हैं ।
वकरके द्वितीयादि वेग । द्वितीये ग्रंथयो वेगे तृतीये मूर्ध्नि गौरवम् । दुर्गंधो वंशधिक्केदश्चतुर्थे ष्ठीवनं वमिः ॥ संधिविश्लेषणं तंद्रा पंचमे पर्वभेदनम् । दाहो हिष्मा च षष्ठे च हृत्पीड़ा गात्रगौरवम् मूर्छा विपाकोऽतीसारः प्राप्य शुक्रं तु सप्तमे स्कंधपृष्ठकटभिंगः सर्वचेष्टानिवर्तनम् ॥
अर्थ-दवाकर सर्पों के विष के दूसरे वेग में देह में ग्रंथि पैदा होजाती है । तीसरे वेग में मस्तक में भारापन, देह में दुर्गंध और दंश में क्लेद पैदा होजाता है । चौथे वेग में ष्ठीवन, वमन, संधिविश्लेषण और तन्द्रा होती है । पांचवें वेग में संधिविश्लेष तन्द्रा, वमन, पर्वभेद, दाह और हिमा होते हैं । छटे वेग में हृदय पीड़ा, देह में
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मष्टांगहृदय ।
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भारापन, मूळ, अविपाक और अतिसार | जाती है । पांचवें वेग में गात्रभंग, बर होता है । सातवें वेग में विष शुक्र में पहुँच | और शीत, छटे और सातवें वेग में ये सब कर कंधा, पीठ, और कमर में टूटने कीसी | लक्षण उपस्थित होतेहैं, जो दर्वीकार बिषों पीडा पैदा होती है तथा शारीरक और | के छटे सातवें वेग में होते हैं । मानसिक चेष्टाओं का सब प्रकार नाश वेगों का साध्यासाध्यत्व । करदेता है।
कुर्यात्पंचसु वेगेषु चिकित्सां न ततः परम् - मण्डलिदष्ट के वेगों का लक्षण।
अर्थ-प्रथम वेग से पांचवें वेग तक अथ मंडलिदष्टस्य दुष्टं पीतीभवत्यसक्।
चिकित्सा करनी चाहिये । इससे आगे तेन पीतांगता दाहो द्वितीये श्वयथूद्भवः ।
असाध्य समझकर चिकित्सा न करै । तृतीये दंशविक्लेदः स्वेदस्तृष्णा च जायते । चतुर्थे ज्वर्यते दाह पंचमे सर्वगागः ॥ जल के सपों का वर्णन । • अर्थ-मण्डली सर्प के विष के प्रथम | जलाप्लुता रतिक्षीणा भीता नकुलनिर्जिताः वेग में रक्त दूषित और पीतवर्ण हो जाताहै । शीतवातातपव्याधिक्षुत्तष्णाश्रमपीडिताः ।
तूर्ण देशांतरायाता विमुक्तविषकंचुकाः। इसी से देह में पीलापन और दाह पैदा हो
कुशौषधीकंटकबद्ये चरति च काननम् । जाता है, दूसरे वेग में सूजन, तीसरे वेग | देशं च दिव्याध्युषितं सर्पस्तेऽल्पविषामताः में पसीना, तृषा और दंशस्थान में क्ले दता, अर्थ-जल में रहनेवाले, रतिक्रिया से चौथे वेग में ज्वर, और दाह और पांचवें |
क्षीण, डरे हुए, नकुल द्वारा पराजित, शीत वेग में सम्पूर्ण देहं में दाह पैदा होजाता है। वात आतप रोग क्षुधा तृषा और श्रम से - राजिमान के वेगों के लक्षण । पीडित, अन्य देश से शीघ्र आया हुआ, दष्टस्य राजिलैर्दुष्टं पांडुतां याति शोणितम् जिसने काचली छोडदी हो जो कुशा पांडता तेन गात्राणां द्वितीये गुरुताऽति
औषधों और कांटों के बन में घूमते हैं ।
च ॥ २५॥ तृतीये देशविश्लेदो नासिकाक्षिमखन्नवाः। | जो देवताओं के स्थान में निवास करते हैं, चतुर्थे गरिमा मूों मन्यास्तंभश्च पंचमे ॥ | ये सब अल्प विषवाले होते हैं । गात्रभंगो ज्वरः शीतः शेषयोः पूर्ववद्वदेत् | त्याज्य विषदष्ट के लक्षण । . अर्थ-राजिमान सर्प के विष के प्रथम
श्मशानचितिचैत्यादौ पंचमीपक्षसंधिषु । बेग में बिगड़ा हुआ रक्त पीला पड़जाता है |
| भष्टमीनवमीसंध्यामध्यरात्रिदिनेषु च । और इसी से देह भी पांडुवर्ण होनाता है। याम्याग्नयमघालेणविशाखापूर्वनैवते । दूसरे वेग में देह में मारापन, तीसरे वेग में | नैर्ऋताख्ये मुहूर्ते च वष्टं मर्मसु च त्यजेत् दंशस्थान में क्लेद तथा मुख, नाक और | दष्टमा
दष्टमात्रः सितास्याक्षः शीर्यमाणशिरोरुहः नेत्रों से स्राव होने लगताहै । चौथे वेग में |
| स्तब्धजिद्दो मुहुर्मुर्छन् शीतोच्छवासो न
जीवति । मस्तक में भारापन और मन्या स्तंभित हो । अर्थ-मरघट, ईंटों का पंजावा, बौद्धों
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के
पूजास्थान में, पंचमी अष्टमी और नवमी तिथियों में, पक्षकी संधिमें, सायंकाल वां आधीरात वा दुपहर के समय, भरणी, कृत्तिका, मघा, श्लेषा, विशाखा, पूर्वाफाल्गुन और मूल नक्षत्रों में सूर्यास्त और सूर्योदय के समय, तथा मर्म स्थान में सर्प से काटा हुआ मनुष्य असाध्य होता है । काटते ही यदि रोगी का मुख और आंख सफेद पडजांय, सिरके बाल गिरपडें, जिवा अकड जाय, बार बार मूच्छी हो और ठंडा श्वास चलने लगे तो समझलेना चाहिये कि यह रोगी न जीवेगा।
अन्य लक्षण |
हिध्मा श्वासोवमिः कासोदष्टमात्रस्य देहिनः जायंते युगपद्यस्य स हृच्छूली न जीवति ।
अर्थ-सर्प के काटते ही हिचकी, श्वास, वमन, और खांसी जिसके एक साथ उत्पन्न होजांय और हृदय में शूल होने लगे तो वह रोगी नहीं जीता है ।
अन्य लक्षण |
|
फेनं वमति निःसंशः श्यावपादकराननः । 'नाeावसादो मंगोंगे विक्लेदः संधिता विषपीतस्य दष्टस्य दिग्वेनाभिहतस्य च भवत्येतानि रूपाणि संप्राप्ते जीवितक्षये । अर्थ - जिसने विष पान किया हो, जिसको सर्पने काटा हो, जो विष लिप्त शस्त्र से विद्वहो, वह ज्ञाग डालने लगे, वेहोश होजाय उसके हाथ पांव और मुख काले पडजांय, नासिका टेढी पडजाय वा बैठजाय, अंगभंग होजाय, मल फटजाय और संधियां शिथिल होजांय तो जानलेना
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( ९३३ )
चाहिये कि इस मनुष्य की मृत्यु निकट आ पहुंची है ।
अन्य लक्षण | ननस्यैश्चेतना तीक्ष्णैर्न क्षतात्क्षतजागमः दंडाहतस्य नोराजिः प्रयातस्य यमांतिकम् अर्थ- जिस विषपीडित रोगी को तीक्ष्ण नस्य देने से भी हे श न हो, देह में घाव करने से रुधिर न निकले, लकडी से मारने पर देह पर चिन्ह न हो तो जान लेना चाहिये कि इस रोगी की मृत्यु निकट आ पहुंची है।
विषकी शांति में शीघ्रता । अतोऽस्यथा तु त्वरया प्रदीप्तागारवद्भिषक् रक्षन् कंठगतान् प्राणान् विषमाशुशमं नयेत्
अर्थ--इन उक्त लक्षणों से विपरीत लक्षणोंके होनेपर अर्थात तीक्ष्ण नस्य के प्रयोग सेहोश होने पर, घाव से रुधिर निकलने पर लकडी का चिन्ह होने पर कंठगत प्राणों की विषसे ऐसी शीघ्रतापूर्वक रक्षा करनी चाहिये जैसे जलते हुए घर की अग्नि से रक्षा करने के लिये प्रयत्न में शीघ्रता की जाती है ।
विषके फैलने का काल | मात्राशतं विषं स्थित्वा दंशे दष्टस्य देहिनः देहं प्रक्रमते धातून् रुधिरादीन् प्रदूषयत् ।
अर्थ - काटे हुए पुरुषके दंशस्थान में सौ मात्रा काल तक विष ठहर के देह में फैलने लगता है और रुधिरादि धातुओं को दूषित करदेता है ।
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देशका उत्कर्तन | एतस्मिनंतरे कर्म दंशस्योत्कर्तनादिकम् । कुर्याच्छीघ्रं यथा देहेविषवल्ली न रोहति । अर्थ- - इसी अवसर में अर्थात् बिषके
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( ९३४)
माष्टांगहृदय ।
म. ३१
पावै।
दंशस्थान में रहते रहते दंशस्थान को कतर | दंशदहनादि ॥ डाले, इस काममें बहुत शीघ्रता करनी चा-दंश मंडलिना मुक्त्वा पित्तलस्वादथापरम् हिये जिससे विष की बेल देहमें न फैलने
प्रतप्तैमलोहाचैर्द हेदाशूल्मुकेन वा ४५ .
करोतिभस्मसात्सद्योवहिःकिंनाम न क्षणात् दष्टपुरुष का कर्तब्य ॥
अर्थ-मंडली सॉं की प्रकृति पैतिक दष्टमात्रो ददाशु तमेव पवनाशिनम् । । होती है, इनके दंशमें अग्निका प्रयोग करने लोष्टमहीवादशनश्छित्वाचाऽनु ससंभ्रमम् से अनर्थ होजाता है। अन्य सपोके दंशमें मिष्ठोबेन समालिंपेइंशं कर्णमलेन वा। अग्नि से प्रतप्त किये हुए सुवर्ण वा लोहे - अर्थ--जिस सर्पने काटा हो उसी सर्पको | आदि किसी धातुसे अथवा जलते हुए तत्क्षण इसा हुआ आदमी काट खावै ।।
कोयलों से दग्ध करदेना चाहिये । अग्नि अथवा लोष्ट वा भूमिको दंश द्वारा छेदन | संपर्ण बस्तुओं को जलाकर शीघ्र भस्म कर करके शीघ्रही उस थूक से दंशस्थान पर देती है, फिर यह क्षतस्थ विषको शीघ्र लेपन करदे । अथवा घाव पर कान का मैल
भस्मीभूत करदेती है, इसमें आश्चर्य ही लगाने से भी विष नष्ट होजाता है।
क्या है। दंशस्थान पर बंधन ॥ दंशस्योपरि बध्नीयादरिष्टां चतुरंगुले।
अगद से बारबार लेपन । क्षौमादिभिणिकया सिद्धर्मत्रैश्च मंत्रवित् आचूषेत्पूर्णवक्त्रो वा मृद्भस्मागदगोमयैः अंषुवत्सेतुबंधेन बंधन स्तभ्यते विषम् ।। प्रच्छायांतररिष्टायां मांसलं तु विशेषतः । न वहंतिसिराश्चाऽस्यविषं बंधाभिपीठिताः अंगं सहैव दंशेन लेपयेदगदैर्मुहुः ॥४७॥ अर्थ-दंशस्थानके चार अंगुल ऊपर रेशमी
चंदनोशीरयुक्तेन सलिलेन च सेचयेत् । आदि वस्त्रसे वा वेणीसे पट्टी बांधदेवे और सिद
____ अर्थ-जो पित्तकी अधिकतावाले सर्पने मंत्रों को पढ़ पढ कर फंक मारदे । जैसे बंद / काटा हो तो बंधनों के बीचमें पछने लगाबांधने से पानी रुक जाता है वेसेही बंद वां- कर मुखमै मृतिका, भस्म,विषनाशक औषध धनेसे विष भी रुकजाताहैं । बंद लगादेने से | वा गोवर भरकर दंशस्थान को चूसना सिराओं में रुधिरका दौडना बन्द होजाताहै। चाहिये । यदि देशस्थानका मांसपुष्ट हो तो - दंशका उद्धरण || बिशेषकरके चूसना चाहिये, तथा दंशस्थान निष्पीडयानूद्धरेइंशं मर्मसंध्यगतं तथा का बार बार विषनाशक औषधियों से लेपन नजीयंते विषावेगो बीजनाशादिवांऽकुरः | करना चाहिये । तथा चंदन और खसके : अर्थ-तत्पश्चात् चारों ओर से भींचकर
| जलसे देहको सेचन करे। मर्मस्थान को छोडकर अन्यत्र सब जगह से
विषफैलने पर मिराव्यध । शस्त्रद्वारा दंशको निकाल कर फैकदे, ऐसा | विषे प्रविस्ते विध्यत्सिरांसा परमा क्रिया करनेसे विषका आवेग रकजाता है, रक्ते निढियमाणे हि कृत्स्नं निङ्घियते विषम् जैसे बीजका नाश होनेसे अंकुर नहीं जमताहै। अर्थ-विषके देहमें फैलने पर सिराका
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म. ३१
.. उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
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वेधन करके रक्तमोक्षण करना चाहिये ।। स्कन्नरुधिर में शांति । इसमें रक्तमोक्षण उत्तम चिकित्सा है,क्योंकि स्कन्ने तु रुधिरे सद्यो विषवेगः प्रशाम्यति रक्तके निकलने के साथसाथ विषभी निकल अर्थ-रुधिर के निकल जाने पर विषका जाता है।
वेग शीघ्र शांत हो जाता है। सविषरुधिर के लक्षण ।
विषशांत होनेपर घृतपान । दुर्गधं सविषं रक्तमग्नौ चटचटायते ४९।
| विषं कर्षति तीक्ष्णत्वात् हदयं तस्यगुप्तये यथादोषं विशुद्धं च पूर्ववल्लक्षयेदसकू। पिवेघृतं घृतक्षौद्रमगदं वा घृताप्लुतम् ।
अर्थ-सविषरुधिर दुगंधित होता है, हृदयावरणे चाऽस्य श्लेष्मा हृद्यपचीयते ॥. अग्निमें डालने से इसमें से चट चट शब्द । अर्थ--विष तीक्ष्ण होने के कारण हृदय निकलता है। विशुद्धरक्त दोषानुसार पूर्ववत् को खींचता है। इसलिये हृदय की रक्षा सिराव्यधविधि अध्याय में कहे हुए लक्षणों के लिये घी, शहत और घी अथवा घृताळु त द्वारा जाना जाता है।
औषध पान करना चाहिये, इस रोगी के __ अदृश्यसिराओं से रक्तमोक्षण | हृदय का आवरण होने पर हृदय में कर्फ सिरास्वदृश्यमानासु योज्याः शृंगजलौकसः इकट्ठा होजाता है ।
अर्थ-शोथादि द्वारा यदि सिरा दिखाई विषात को वमन । न देती हो तो सींगी वा जोक लगाकर रक्त | प्रवृत्तगौरवोत्क्लेशहलासं वामयेत्ततः। निकालना चाहिये।
द्रवैः कांजिककौलत्थतेलमद्यादिवर्जितः ॥ सुतशेषरक्तका स्तंभन । वमनैर्विषहद्भिश्च नैवं व्यानोति तद्वपुः ।' शोणितं सुतशेषं च प्रविनिं विषोषणा अर्थ-विष पीडित रोगी को गुरुता, लेपसेकैस्तु बहुशः स्तंभयेभृशशीतलैः। उक्लेश और वमन वेग उपस्थित होने पर __ अर्थ-विषकी गरमी के कारण टपकने | कांजी,कुलथी, तेल और मद्यादिको छोड़कर से बचे हुए और प्रवलीन रक्तको बार बार अन्य विषनाशक औषधियों द्वारा वमन शीतल लेप और परिषेक द्वारा रोकना उचित है । कराना चाहिये, बिषनाशक वमनों के कारण _____ अस्कन्नादि रक्तमें मूच्र्छा। विषदेह में व्याप्त नहीं हो सकता है ॥ अस्कन्ने विषवेगाद्धि मू यमदहद्रवाः । मुजंगदोषाचनुसार किया। भवति तान् जयेच्छीत/जेच्चारोमहर्षतः भुजंगदोषप्रकृतिस्थानबगविशेषतः॥५६ ॥
जो रुधिर न निकाला जाय तो विषके | सुसूक्ष्म सभ्यगालोच्य विशिष्ठां चावेग से मुछी, मद और हृदयद्रव उपस्थित
ऽऽचरेक्रियाम् । होते हैं । इसलिये शीतल प्रलेप और परिषे
गरपति अर्थ-सर्प की जाति, दोष, प्रकृति, कादि द्वारा इन सब रोगोंको शांत करके । दष्टस्थान और विषका वेग इन सब बातों जब तक रोमांच खडे न हों तब तक ठंडे पर बहुत सूक्ष्म रूप से विचार करके पंखे से हवा करता रहै ।
| चिकित्सा करनी चाहिये ॥
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( ९३६)
मष्टांगहृदय ।
द कर दष्ट में पानादि ॥ पत्ते, कैथ, बेलगिरी, अनार, प्रत्येक आधा सिंदुबारितमूलानि श्वताच गिरिकर्णिका ॥ भाग । इन सब द्रव्यों को शहत के साथ पानं दर्वीकरैर्दष्टे नस्यं मधु सपाकलम्। । सेवन कराने से मंडली सपों का विष दूर अर्थ-दर्वीकर सर्पद्वारा काटे जाने पर
होजाता है। संभालू की जड और सफेद गिरिकर्णिका,
हिमवान औषध । कूठ और शहत इनसे बनाया हुआ पानक पंचबल्कवरायष्टानागपुष्पैलबालुकम् । देना चाहिये ।
जीवकर्षभकोशीर सितापनकमुत्पलम् ॥ कालेसांप की दवा ।
सक्षौद्रो हिमवान्नाम हंति मंडलिनांविषम् । कृष्णसर्पण दष्टस्य लिपेइंशं हृतेऽसृजि ॥ |
| लेपात्श्वयथुवीसर्पविस्फोटज्वरदाहहा ।। शारटीनाकुलीभ्यां वा तीक्ष्णमूलविषेण वा |
| अर्थ-पंचवल्कलता ( बड, गूलर,पीपल, पानं च क्षौद्रमंजिष्ठागृहधूमयुतं घृतम् ॥
| बेत और सिरसकी छाल), त्रिफला, मुलहटी, .. अर्थ-काले सर्पके काटने पर दंश. नागकेसर, एलुआ, जीवक, ऋषभक, खस, स्थान से रक्त निकालकर चिरमिठी और मिश्री, पनाख, नीलोत्पल, इन सब द्रव्यों नाकुटीको पीसकर लेप करे, अथवा तीक्ष्ण | को पीसकर शहत के साथ मिलाकर चाटने मुल विषका लेप करे अथवा शहद, मजीठ | से मंडली सों का विष दूर हो जाता है, गृहधूम मिलाकर घीका पान करे ।
इसका लेप करने से सूजन, विसर्प, विस्फो- राजिमान सों की दवा ॥
टक, ज्वर और दाह जाते रहते हैं । इस तंदुलीयककाश्मयकिणिहीगिरिकर्णिकाः।
औषधका नाम हिमवान अगद है। मातुलुंगी सिता सेलुः पाननस्यांजनैर्हितः॥
मंडलीदष्ट पर पान। अगदः फणिनां घोरे विषे राजीमतामपि ।
काश्मर्यवटशृंगाणि जीवकर्षभको सिता। अर्थ-चौलाई, खंभारी,किणही, विष्णु-मंजिष्ठा मध चेति दष्टो मंडलिना पिवेत्॥ क्रांता, बिजौरे की जड, मिश्री, और सेलू | अर्थ-खंभारी, बटके अंकुर, जीवक, इन सर्व द्रव्यों को जलमें पीसकर पान, | ऋषभक, मिश्री, मजीठ, मुलहटी, इन सब 'नस्य और अंजनद्वारा प्रयोग करने से | द्रव्यों को जलमें घोटकर पान कराने से फणधारी और राजिमान् सौका दारुण | मंडली साँका विष दूर होजाता है। विष दूर होजाता है।
गौनसविष की औषध ॥ मण्डली सपों की औषध ॥ वंशत्वग्वीजकंटुकापाटलीवीजनागरम् । समाः सुगंधा मृद्धीका श्वताख्या गजदंतिका शिरीषवीजातिविषे मूलं गावेधुकं वचा ॥ अाशं सौरसं पत्रं कपित्थं विल्वदाडिमम | पिष्टो गोवारिणाष्टांगो हंति गोनस विषम लक्षौद्रो मंडलिविषे विशेषादगदो हितः॥ अर्थ-बांस की छाल और बीज,
अर्थ-रास्ना, दाख,श्वेत अपराजिता, और कुटकी, पाटला के बीज, सोंठ, सिरस केगजदंती ये सब समान भाग ले तुलसी के बीज, अतीस, खरैटी की जड़, बच, · इप्स
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(९३७)
अष्टांग औषधको गोमूत्र में पीसकर | भावितं सर्पदष्टानां पाने नस्यांजने हितम् ॥ प्रयोग करने से गुहेरे का विषदर होजाताहै। अर्थ-सिरस के फूल के रस में सफेद मि___राजिमान् सपों की दवा।
रचों को सात दिन तक भावना देकर सर्प कटु कातिविषाकुष्टगृहधूमहरेणुकः॥६॥ से काटे हुए रोगीको पान, नस्य और अंजन सझौद्रव्योषतगरा ध्नति राजीमतां विषम् ।। द्वारा देना हित है। ___ अर्थ-कुटकी, अतीस, कूठ, गृहधूम,
तक्षकदष्ट पर पान । हरेणु, मधु, त्रिकुटा, तार । इन सब द्रव्यों , द्विपलं नतकुष्टाभ्यां घृतक्षौद्रचतुष्पलम् । का सेवन करने से राजिमान् सपोंका विष | अपि तक्षकदष्टानां पानमेतत्सुखप्रदम् ॥ दूर होजाता है।
___अर्थ-तगर, कूठ दो दो पल, घी और . काडचित्रा का दंश । मधु चार चार पल इन से तयार की हुई निखनेकांडवित्राया देशं यामद्वयं भुवि। औषध तक्षकके काटे हुए पर हित है। उद्धत्य प्रथितं सर्पिर्धान्यमृद्भ्यांप्रलेपयत्। दीकर के प्रथमवेग की चिकित्सा। पिवेत्पुराणं च घृतं वराचूर्णावचूर्णितम् ॥ अथ दर्वीकृतां येगे पूर्व विसाव्य शोणितम् । जीणे विरिक्त भुजीत यवान्नं सूपसंस्कृतम्। | अगदं मधुसर्पिा संयुक्त त्वरितं पिवेत् ॥ , अर्थ-कांडचित्रानामक सर्पके काटने पर
___ अर्थ-दर्वीकर के प्रथम वेग में रुधिर काटे हुए स्थान को दोपहर तक धरती में
को निकालकर मधु और घृत से युक्त औषध गाढ दे । पीछे निकाल कर घी और धान्य.
बहुत शीघ्र देनी चाहिये। मृतिका से लेप करे और त्रिफला का चूर्ण द्वितीयवेग की चिकित्सा । मिलाकर पुराना घी पान करावै । इसके द्वितीये वमनं कृत्वा तद्वदेवागदं पिवेत् । पचजाने पर विरेचन होजाने के पीछे दाल
___ अर्थ-दर्वीकरके दूसरे वेगमें वमन कराके से संस्कार किया हुआ जौके अन्नका पथ्य
फिर तद्वत् औषध का प्रयोग करे। .
___ तृतीयादि वेगकी चिकित्सा ।। - व्यंतग्दष्ट की चिकित्सा । विषापहैः प्रयुंजीत तृतीयेऽजननावने ॥ करवीराककुसुममूललांगलिकाकणाः ॥ पिवेश्चतुर्थे पूर्वोक्तां यवागू वमने कृते। कल्कयेदारनालेन पाठामरिचसंयुताः।
षष्ठपंचमयोः शीतैर्दिग्धं सित्तमभीक्ष्णशः ॥ एष व्यंतरदष्टानामगदः सार्वकार्मिकः ॥ पाययेद्वमनं तीक्ष्णं यवागू च विषापाहैः । " अर्थ-कनेर के फूल, आककी जड, अगदं सप्तमे तीक्ष्णं युज्यादजननस्ययोः॥ कल्हारी, पीपल, पाठा और कालीमिरच इन
कृत्वावगाढं शत्रण मूर्ति काफपदं ततः। सबको कांजी के साथ पीसले । यह औषध
मांस सरुधिरं तस्य चर्म वा तत्र निक्षिपेत् ॥
अर्थ-दीकरके तीसरे वेगमें विषनाशक व्यंसरनामक सों के विष दूर करने में
अंजन और नस्य का प्रयोग करे । चौथे परमोपयोगी है।
वेगमें वमन कराके पूर्वोक्त यवागू पान करावे भुजंगदष्ट पर पानादि । शिरीषपुष्पस्वरसे सप्ताह मरिच सितम्। पांचवें और छटे वेग अधिकतर शीतल लेप
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। ९३८)
अष्टांगहृदयः ।
और शीतल परिषेक करके तीक्ष्ण वमन दे | सर्वबिषनाशक पान । कर विषनाशक यवागू पान करीव । सातवें वामनोहानिशे वक्र रसः शालजो नखः । वेगमें तक्षिण अगद की नस्य और अंजन
तमालः केसरं शीतपीतं संदुलवारिणा। देवै । तत्पश्चात् शस्त्रद्वारा मस्तक पर गाढ
हति सर्वविषाण्येतद्वज्रिबज्रमिवासुरान् ॥
___ अर्थ-दालचीनी, मनसिल, हलदी, तर काकपद चिन्ह करके उसमें रुधिर सहित मांस और चमडा लगाये।
दारुहलदी, तगर, गंधरस, . व्याघनख, __ मंडलीसर्पके वेगोंका उपाय ।।
तमाल और नागकेसर इने सबको ठंडे पानी तृतीये वमितः पेयां वेगे मंडलिनां पिवेत्।। में पीसकर तंडुल जल के साथ पान करे। अतीक्ष्णमगद षष्ठे गणं वा पद्मकादिकम् ॥ यह औषध सम्पूर्ण विषों को इस तरह दूर अर्थ-मंडली सर्पके तीसरे वेगमें वमन :
| करदेती है जैसे इन्द्र का वज असुरों का कराके पेया पान करावे । छटे वेगमें अती- | नाश करदेता है । क्ष्ण अगद और पनकादिगण का प्रयोग
आतों का अञ्जन । करना चाहिये ।
विल्यस्य मूलं सुरसस्य पुष्पं राजिमान के वेगों में कर्तव्य । फलं करंजस्य नतं सुराहम् । मायेषगाढं प्रच्छाय वेगे दष्टस्य राजिलैः। फलत्रिकं व्योषनिशाद्वयं च मलाबुना हरेद्रक्तं पूर्ववश्चागदं पिवेत् ॥ चस्तस्य मूत्रेण सुसूक्ष्मापिष्टम् ॥ षष्ठेऽजमं तीक्ष्णतममवपीडं च योजयेत् ।
भुजंगलूतांदुरवृश्चिकाधैअर्थ-राजिमान सोंके प्रथम वेगमें विचिकाजीर्णगरज्वरैश्च । शस्त्रद्वारा दंशस्थान को चीरकर अलाबू यंत्र
आन्निरान् भूतषिधर्षितांश्च
स्वस्थीकरोत्यजनपामनस्यैः ॥ ८५ ॥ द्वारा रक्त. निकाल डालै तदनंतर पूर्ववत्
अर्थ-बेल की जड़, तुलसी की मंजरी, अगद पान करावै । छटे वेगमें अत्यन्त तीक्ष्ण | कंजा, तगर, देवदारु, त्रिफला, त्रिकुटा, अंजन और अयपीडन का प्रयोग करे। दोनों हलदी, इन सबको बंकरी के मूत्र में अनुक्त वेगोंमें कर्तव्य ।
बारीक पीस ले, इसका अंजन, पान और अनुक्तेषु च गेषु क्रियां दर्वीकरोदिताम् । अर्थ-जिन, वेगों का वर्णन नहीं किया
नस्यद्वारा प्रयोग करने से सर्प, मकड़ी, गया है उनमें दर्वीकर सर्पके कहे हुए उन
चूहा, बिच्छू, इनके बिष तथा विसूचिका उन वेगों के सदृश चिकित्सा करे ।
अजीर्ण, विषज्वर और भूतवेग से पीडित
रोगी स्वस्थ होजाते हैं। - गर्भिण्यादि की चिकित्सा ।
प्रलेपादि। गर्भिणीवालवृद्धेषु मृदुं विध्यत्तिरां न च । प्रलेपाश्चि निःशेष दशादप्युद्धद्विषम् । ___ अर्थ-गभिणी स्त्री, बालक वा वृद्ध | भूयो वेगाय जायत शेषं दूषीविषाय वा ॥ को सर्प ने काटा हो तो मद् क्रिया करना अर्थ-प्रलेपादि द्वारा दंशस्थान ही से चाहिये, इनका सिरायाध कदापि न करे। नहीं किंत सब देह से विषको निकालडाले,
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म. ३७
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९३९).
क्योंकि शेष रहजाने पर वह पचाहमा विष तथा द्रोणां महाद्रोणां मानसींसजमणिम् फिर धेग धारण करता है, अथवा दृषी विष | विषया
| विषाणि विषशांत्यर्थ वीर्यवेति च धारयेत् होजाता हैं।
___ अर्थ-कर्केतननामक मणि विशेष, मरविषापगम में कर्तव्य। तकमणि, हीरा, गजमुक्ता, वैदूर्यमाण, विषापायेऽनिलं क्रुद्धं स्नेहादिभिरुपाचरेत्। गर्दभमणि, पिचुक, बिषदूषिका, हिमालय तैलमद्यकुलत्थाम्लवज्यैः पवननाशनैः ८७ पर उत्पन्न हुई सोमराजी, पुनर्नवा, द्रोण, पित्तं पित्तज्वरहरैः कषायस्नेहवस्तिभिः ।। महाद्रोण, मानसी, सर्पमणि आदि उप्रवीर्यसमाक्षिकेण घर्गेण कफमारग्वधादिना । वाली मणियों को विषकी शांति के निमित्त
अर्थ-विष के दर होजाने पर भी विष धारण करे। से कुपित हुए वायु का तेल, मद्य, कुलथी,
छत्रादि धारण । भौर खटाई से रहित वातनाशक स्नेहादि
नहार छत्री जर्जरपाणिश्च चरेद्रात्रौ विशेषतः । के प्रयोग से शमन करे, पित्तज्वर नाशक | तच्छायाशब्दवित्रस्ताः प्रणश्यति भुजंगमाः कषाय, और स्नेहवस्ति द्वारा विष से कुपित अर्थ-सब समय और विषेश करके हुए पित्तका का शमन करे, तथा मधुसयुंक्त रात्रिमें जो छत्री लगाकर और ताली फटआरग्वधादि गणोक्त द्रव्यों के काथ से विष कार कर विचरते हैं. उनकी छत्री की छाया से कुपित हुए कफ का शमन करे ।
से और ताली के शब्दसे डरकर सर्प भाग शंकाविष में कर्तव्य । जाता है। सिता वैगंधिको द्राक्षापयस्या मधुकं मधु । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीपाने समंत्रपूतांबुप्रोक्षणं सांत्वहर्षणम् ८९ कान्विताय उत्तरस्थानेसर्पविषप्रतिसोगाभिरतेयुंज्यात्तथा शंकाविषार्दिते ।। ___ अर्थ-सांगाभिहत ( सर्प के देह से
षेधोनाम षट्त्रिंशोऽध्यायः। चोट लगाहुभा ) रोगी के तथा शंका विष से पीडित रोगी को मिश्री, गोंदी, दाख,
सप्तत्रिंशोऽध्यायः। दूधी, मुलहदी और शहत्त इन सब द्रव्यों से तयार किया जल मंत्र द्वारा अभिमंत्रित अथाऽतः कीटलूतादिविषप्रतिषेधं व्याख्याकरके पान करायै, उसी जल से प्रोक्षण करे, आश्वासन वाक्य कहै और रोगी को
| अर्थ-अब हम यहां से कोटलूतादि प्रसन्न करने का प्रबन्ध करै ।।
| विषप्रतिषेध नामक अध्यायकी व्याख्या कर्केतनादि धारण ।
| करेंगे। फर्केतनं मरकतं यजं पारणमौक्तिकम् ९० . चारप्रकार के कीट। .... पैडूर्यगर्दभमणि पिचुकं विषमूर्षिकाम् । सर्पाणामेव विण्मुत्रशुफ्रांडशवकोथजाः । हिमवनिरिसंभूनां सोमराजी पुनर्नवाम् ९ दोषैर्व्यस्तैःक्षमस्तैश्चयुक्ताःकोटाश्चतुर्विधाः
-
स्यामः।
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.. (९४०)
मष्टांगहृदय ।
अर्थ-सपोंके विष्टा, मूत्र, वीर्य, अंड, | डसने के से वेग होते हैं, इसमें बढनेवाली सडेहुए शबसे जो कीडे पैदा होते हैं, वे | सूजन, रुधिर में दुर्गन्धि, सिरा और नेत्रों चार प्रकार के होते हैं, यथा--~वातज, में भारापन, मूछी, भ्रम, श्वास और वेदना पित्तन, कफज और त्रिदोषज । की अधिकता होती है। वातजकीट के लक्षण ।
सव दंशों में कर्णिकादि । दष्टस्य कीटेर्वायव्यैदेशस्तोदरुजाल्बणः। सर्वेषां कर्णिकाशोफो ज्वरः फंड्रररोचकः ___ अर्थ-इन कीडोंमें से यदि वातज कीडा अर्थ-संपूर्ण देशों में मांसकी कणिका, काट खाय तो काटे हुए स्थानमें तोद और सूजन, ज्वर, कंडू और अरुचि होती है । वेदना की अधिकता होती है।
वृश्चिकदंश के लक्षण । पैत्तिककीटदष्ट के लक्षण ।
| वृश्चिकस्य विषं तीक्ष्णमादी दहति वहिवत् भाग्नेयैरल्पसंमायोदाहरागविसर्पवान २ ऊर्ध्वमारोहति क्षिप्रं दशे पश्चात्त तिष्ठति। पकपीलुफलप्रख्यः खर्जूरसदृशोऽथवा। | वंशःसद्योऽतिरुकूश्यावस्तुद्यतेस्फुटतीव च । अर्थ--पैतिक कीडेके काटने से दंश- अर्थ-बीछू का विष अति तीक्ष्ण होता स्थानमें अत्यन्त नाव, दाह, ललाई, और है, प्रथमही यह अग्नि के समान जलन बिसर्पता होती है, तथा यह पके हुए पीलू
पैदा करता है और शीघ्रही ऊपर को चढ के फल और खिजूर के फल के सदश हो कर फिर दंशस्थान में आकर ठहर जाता जाता है।
है बौछू के डंक में तत्काल बडी वेदना - कफजकीट के दशके लक्षण । होने लगती है । इसमें श्याववर्णता, तोद कफाधिकैर्मदरुजः पक्कोदुंबरसंनिभः॥३॥ और फटने की सी पाडा होती है ।
अर्थ-लैष्मिक कीडेके काटने पर मंद । तीन प्रकार के बिच्छू । वेदना और पके हुए गूलर कासा आकार | ते गवादिशकृत्कोथाद्दिग्धदष्टादिकोथतः । होजाता है।
सर्पकोथाच्च संभूता मंदमध्यमहाविषाः। सानिपातिक कीटका लक्षण। ____ अर्थ- गौ आदि पशुओं के सडे हुए नावादयःसर्वलिंगस्तुविवर्त्य सामिपातिकैः | गोवर से, विषसे लिप्त वा विषधर प्राणियों . अर्थ-त्रिदोषाधिक्य कीडे के काटने पर के काटी हुई वस्तुओं की सडाहटसे अथवा तीनों दोषों के कीडों के काटने के लक्षण | म ए सर्प से जो बीछ पैदा होते हैं वे उपस्थित होते हैं, दंशस्थान में से स्राव अधिक | तीन तरह के होते हैं. यथा-मंदविष.मध्य होता है, यह असाध्य होता है । विष और महाविष।
हीसर के बेगोंका वर्णन । मंदबिष बिच्छूओं के लक्षण । धेमा विछोफो वर्धिष्णुर्पिनरक्तता मंदाः पीताः सिताश्याधारूक्षकर्बुरमेवकाः शिरोडिगौरवं भू भ्रमः श्वासोऽतिवेदना रोमशा बहुपर्वाणो लोहिता पांडुरोदराः ।
अर्थ-कीडों के काटने पर भी सर्प के । . अर्थ-मंदविष वाले निछू सब पीले,
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अ.३७
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९४१)
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सफेद, श्याव, विचित्र, काले वा लाल , उष्ट्र घूमक विच्छू । देह के होते हैं, इनके देह रूक्ष, रोमयुक्त उच्चिर्टिगस्तु वक्त्रेण दशत्यभ्यधिकव्यथः बहुत से जोड वाले और पीले पेट वाले साध्यतोवृश्चिकात्स्तंभशेफसोहष्टरोमताम्
करोति से कमंगानां दशः शीतांबुनेव च । होते हैं।
उष्टधूमः स एवोक्तो रात्रिचाराच्च रात्रिका मध्यमविष बिच्छुओं के लक्षण । अर्थ--उच्चिटिंग नामका बिच्छू मुख धूम्रोदरास्त्रिपर्वाणो मध्यास्तु कपिलारुणाः से काटता है, इस में साध्य विच्छ की पिशंगाः शवलाश्चित्राःशोणितामा अपेक्षा अधिक व्यथा होती है, इससे लिंगे
अर्थ-मध्य विषवाले बिच्छू धूम्रोदर, न्द्रिय में स्तब्धता और रोमहर्षण होता है । तीन जोडवाले, कपिल, अरुण वा पिंगल इसके दंशस्थान में शीतल जल का परिषेक वर्ण होते हैं, ये अनेक प्रकार के वर्षों से
हित है । इस विच्छूका नाम उष्ट्रधूम है,यह चित्रित और रुधिर की रंगत के से होते हैं।
रात्रि में निकलता है इससे इसे रात्रिक भी महाविष बिच्छूओं के लक्षण ।
| कहते हैं। महाविषाः।
कीडों को दोषपरता। भान्यामा द्वयकपर्वाणो रक्तासितसितोदराः
बातपित्तोसरा कीटाश्लैष्मिकाकणभोंदुराः अर्थ-महाविष वाले बिच्छू संपूर्ण अग्नि प्रायो वातोल्पणाविपा वृश्चिका सोष्टधूमका की आभा के सदृश, एक वा दो जोडवाले अर्थ-संपूर्ण कीडे वातपित्त की अधि होते हैं, इनके पेट रक्त, कृष्ण वा सफेद कता वाले होते हैं, इनमें से कर्णभ नामक
चूहे कफकी अधिकतावाले और उष्ट्रधूम महाविष दष्ट लक्षण ।
नामक वृश्चिक वाताधिक्य विष वाले तैर्दष्टः शूनरसमः स्तब्धगात्री ज्वरादितः। होते हैं। खैर्वमन् शोणितं कृष्णमिंद्रियार्थामसंविदन्
___ दोषानुसार चिकित्सा ॥ स्विद्यन्मूर्छन् विशुष्कास्यो विह्वलोवेदनातुरः विशीयमाणमांसश्च प्रायशो विजहात्यसून् । यस्पर
यस्य तस्यैव दोषस्य लिंगाधिक्यं प्रतयेतू अर्थ-इन महाविषवाले बिच्छुओं के डंक
तस्य तस्यौषधैः कुर्याद्विपरीतगुणैः क्रियाम्
___ अर्थ-जिस जिस दोष की अधिकता मारने पर जाम में सूजन, गात्रमें स्तब्धता
के लक्षण दिखाई दें, उस उसकी चिकित्सा ज्वर, मुख नस्यादि द्वारा काले रंग के
उन उनके विपरीत लक्षणवाली औषधों से रुधिर की वमन, इन्द्रियों की रूपरसादि
करनी चाहिये। विषयों के ग्रहण में असामर्थ्य, स्वेद, मूर्छा
वातिक विष के लक्षण ॥ मुख में सूखापन, विह्वलता, वेदना, मांस
हत्पीडोर्धानिलस्तंभः शिरायामोस्थिपर्वक में विशीर्णता, ये लक्षण उपस्थित होते हैं। घर्णनोद्वेष्टनं गानश्यावता वातिके विषे १७ और प्रायः रोगी मर भी जाता है। अर्थ-वातिक विषमें हृदय में पीडा,
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(९४२)
मष्टोगहृदय ।
अ. ३७
ऊर्ध्ववात ( हिचकी डकार आदि ) की | स्वेदन और वमन क्रियाओं का प्रयोग करना सकावट, शिरायाम, हड्डी के जोडों में दर्द, । चाहिये । घूर्णन, उद्वेष्टन, शरीर में श्यावता, ये सच | त्रिविध कीटोंकी चिकित्सा। लक्षण उपस्थित होते हैं।
| कीटानां त्रिःप्रकाराणां वैविध्यन प्रतिक्रिया पित्तोल्वण विष के लक्षण
स्वेदशळेपनसेकांस्तुकोष्णान्प्रायोऽषचारयेत् संशानाशोणनिश्वासौ हहाहः कटुकास्यता
अन्यत्र मूर्छिताहंशपाकतः कोथतोऽथवा । मांसावदरणं शोको रक्तपात्तश्च पैतिके१८ ____ अर्थ-ऊपर कहे हुए तीन प्रकार के - अर्थ-पैत्तिक विष में बेहोशी, गरम कोडौँका प्रतीकार तीन प्रकार से करे । इस निश्वास, हृदय में दाह, मख में कड़वापन में प्रायःईषदुष्ण स्वेद, लेप और परिषेक का मांस में विदीर्णता और लाल पीली सूजन प्रयोग करना उचित है, परन्तु ये क्रिया होती है।
मच्छित रोगी, देशपाक और दंशकोथ में कफाधिक्य विषके लक्षण। नहीं करना चाहिये । छद्यरोचकहलासप्रसेकोलेशपीनसैः ।
| विषम धूपन । सशैत्यमुखमाधुर्विद्याच्छ्लेष्माधिकंविषम् नृकेशाः सर्षपाः पीता गुडोजीर्णश्चधूपनम् - अर्थ-कफाधिक्य विष में वमन,अरुचि विषदंशस्य सर्वस्य काश्यपः परमब्रवीत् । हल्लास, प्रसेक, उत्क्लेश, पीनस, शैत्य अर्थ-संपूर्ण प्रकार के विषदंशों में मनुष्य
और मखमें मीठापन ये सब लक्षण उपस्थित | के बाल, पीली सरसों, और पुराना गुड इन होते हैं।
की धूनी देनी चाहिये, यह कश्यपजी का वातिक बिष का उपाय ॥
बताया हुआ प्रयोग है। पिण्याकेन व्रणालेपस्तैलाभ्यगश्च पातिके
विषनाशक बिधि । नाडीस्वेदः पुलाकाद्यैर्वृहणश्च विधिर्हितः विषन
| विषघ्नं च विधिसर्व कुर्यात्संशोधनानि च
अर्थ-सब प्रकार की विषनाशिनी क्रिया ... अर्थ-वातिक विष में तिलके कल्कका
तथा वमन विरेचनादि संशोधन का प्रयोग दंशस्थान पर लेप, तैलाभ्यंग, पुलाकादि
करना हित है। द्वारा नाडीस्वेद और वृंहणविधि हित है।
कीटवृश्चिक का उपाय । . पैत्तिक विषमें उपाय। पैत्तिकं स्तंभयेत्सेकैः प्रदेहेश्चातिशीतलैः।
साधयेत्सर्पवहष्टान् विषोः कीटवृश्चिकैः
__ अर्थ-उग्र विषवाले की हे और बिच्छ्र के अर्थ-पैत्तिक विषका शीतल परिषेक | और शीतल प्रलेपों द्वारा स्तंभन करे।
काटने पर सर्पवत् चिकित्सा करनी चाहिये।
___ कीटविष में पान । इलोमिक विषमें उपाय। . दलीयकतल्यांशां त्रिवृतां सर्पिषा पिबेत् लेखनच्छेदनस्वेदवमनैः श्लम्भिकं जयेत् । याति कीटविषैः कंपंन कैलास इवानिले.
अर्थ-फफाधिक्य विषमें लेखन, छेदन, । अर्थ-चौलाई और निसोथ को समान
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अ० ३७
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
भाग लेकर घी के साथ पीने से कीटविषद्वारा देह ऐसे सुमित नहीं होता है, जैसे पवन कैलासपर्वत को कंपायमान नहीं कर
सकते हैं ।
कीटविषनाशक लेप | क्षीरिवृक्षत्वगालेपः शुद्धे कीटविषापहः २३ | अर्थ - मन विरेचनादि द्वारा शोधन करके दूधवाले वृक्षोंका लेप करने से कीटविनष्ट हो जाता है |
अन्य लेप |
मुकालेपो वरः शोफ तो ददाहज्वरप्रणुत् । अर्ध-- मोतियों का लेप करने से सूजन, सोद, दाह और वर जाते रहते हैं ।
विषनाशक औषध पान | वचाहिंगुडिंगानि सैंधवं गजपिप्पली । पाठा प्रतिविषा व्योष काश्यपेन विनिर्मितम् दशांग मगरं पीत्वा सर्वकीटविषं जयेत् ।
अर्थ--बच, हींग, बायबिडंग, सेंधानमक, गजपीपल, पाठा, अतीस, त्रिकुटा, इस दशांग औषध को पीने से सब प्रकार के कीटविष जाते रहते हैं, यह कश्यपजी का बताया हुआ प्रयोग है ।
वृश्चिक दंशपर चक्रतैल | सद्यो वृश्चिकज दंशं वक्रतैलेन सेचयेत् । विदारिगंधासिद्धेनं कधोष्णनेतरेण वा ।
अर्थ -- बीछू के डंक पर घानी का तेल तत्काल डालना चाहिये, अथवा विदारीगंध ( शालपर्णी । ) डालकर सिद्ध किया हुआ कुछ गरम तेल डाले ||
घृत परिषेक |
लवणोत्तमयुक्तेन सर्पिषा वा पुनः पुनः सिंचेत्कोष्णारनालेन सक्षीरलवणेन वा ।
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( ९४३ )
अर्थ- सेंधानमक डालकर बार बार घीं का सेवन करे, अथवा दूध और सेंधानमक मिलाकर थोड़ी गरम की हुई कांजी से परिषेक करे ।
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दंश पर उपनाह ॥ उपनाहोघृते भृष्टः कल्कोऽजाज्याः ससैंधवः अर्थ- सेंधानमक और जीरा इनके कल्क को घी में भूनकर लेप करे । चूर्णद्वारा प्रतिसारण | आवंशं स्वेदितं चूर्णैः प्रच्छाय प्रतिसारयेत् रजन िसैंध बग्योषशिरषिफलपुष्प जैः ।
अर्थ- देशस्थान के चारों ओर स्वेदन देकर उसको अस्त्र द्वारा थोड़ा २ खुरचकर हलदी, सेंधानमक, त्रिकुटा, सिरस के फल और फूल इनका चूर्ण करके दंशस्थान पर रिगड़ना चाहिये ।
देश पर लेपादि । मातुलुंगास्लगोमूत्रपिष्टं च सुरसाग्रजम् । लेपःसुखोष्णश्चाहितः पिण्या को गोमयोsपि वा पाने सर्पिर्मधुयुतं क्षीरं वा भूरिशर्करम् ॥
अर्थ --तुलसी की मंजरी को बिजौरे के रस वा गोमूत्र में पीसकर लेपकरे, अथवा तिल के कल्क वा गोवर को कुछ गरम करके लेप करना हित हैं, मधुयुक्त घी वा अधिक शर्करा डालकर दूध पिलाना भी हितकारी है ।
बृश्चिक विषनाशक औषध । पारावतशकृत्पथ्यातगरं विश्वभेषजम् । वीजपूररसोन्मिश्रः परमो वृश्विकागदः । सशैवलोष्टदंष्ट्रा च हंति वृश्चिकजं विषम्
अर्थ - कबूतर की बीट, हरड, लगर और सोंठ इन सबको बिजौरे के रस में
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( ९४४)
अष्टांगहृदय ।
अ. ३७
घोटकर लेप करना चाहिये । यह विच्छ । अर्थ-सब तरह के बीच के दारुण का बिष दूर करने की प्रधान औषध है। बिषों पर दही और घी पान कराना चाहिये। ऊँट का दांत और शैवाल पीसकर लगाने | सिराव्यध,वमन, अंजन और नस्यका प्रयोग से विच्छू का बिष दूर होजाता है ।
करना चाहिये तथा वातनाशक उष्ण, अन्य गोली।
स्निग्ध, अम्ल और मधुर द्रव्य भोजन के हिंगुमा हरितालेन मातुलुंगरसेन च ३५ लोहा लेपांजमाभ्यां गुटिका परमं वृश्चिकापहा अर्थ-हींग और हरिताल को बिजौरे
बीकेविष पर लेप ।
नागरं गृहकपोतपुरीष के रस में घोटकर लेप और अंजन द्वारा वीजपूरकरसो हरितालम् । प्रयोग करे, ये गोलियां बिच्छू का बिष दूर सैंधव च विनिहत्यगदोऽयं करने में परमोत्तम है।
लेपतोलिफुल विषमाशु ॥ ४० ॥ दंशलेपन ।
अर्थ-सोंठ, पालतू कबूतर का विष्टा, करंजार्जुनशैलूनां कटभ्याः कुडजस्य च :| बिजौरे का रस, हरताल, और सेंधानमक शिरीषस्य पुष्पाणि मस्तुना दंशलेपनम् । | इन सब द्रव्यों को पीसकर लेप लगाने से ___ अर्थ-कंजा, अर्जुन, हेसुआ, गोकर्णी, सब प्रकार के बिच्छुओं का विष शीघ्र दूर कुडा और सिरस के फूल इनको दही के | होजाता है । तोड में घोटकर दंशस्थान पर लेप करे ।
- उच्चटिंग की चिकित्सा । दारुण पाड़ा पर लप। अंते वृश्चिकदष्टानां समुदाणे भृशं विषे । यो मुह्यति प्रश्वसिति प्रलपत्युग्रवेदनः ३७
विषेणालेपयेइंशमुच्चिटिंगेऽप्ययं विधिः । तस्य पथ्यानिशाकृष्णामंजिष्ठातिविषोषणम् | सालाबुव॒तं वार्ताकरसषिष्टं प्रलेपनम् ३० |
____ अथ-बिच्छू के काटे हुए के अंतमें जो __ अर्थ-जो बिषरोगी मार्छत होजाताहै,
विष अत्यन्त उदीर्ण हो तो उस स्थान लम्बे २ श्वास लेने लगता है, वृथा प्रलाप
पर विषका ही लेप करदेना चाहिये। उच्चिकरता है और उग्रवेदना से हाय २ करताहै, टिंग के विषमें भी यही उपाय किया उसको हरड, हलदी, पीपल, मजीठ, अतीस, | जाता है । कालीमिरच, तूबी का डण्ठल, इन सवको
अन्य उपाय। बैंगन के रस में पीसकर दंश थान पर |
नागपुरीषच्छत्रं रोहिषमूलं च शेलुतोयेन
कुर्याद्वाटिका लेपादियमलिविषनाशनीश्रेष्ठा लेप करे ॥
___ अर्थ-हाथी के विष्टा से उत्पन्न हुआ उपविष पर घृतान । सर्वत्र चोग्रालिविषे पाययेहधिसर्पिषी।।
छत्र, रोहिषतृण और लिहसोडे को जल में विध्यत्सिरी विदध्याच्च वमनांजननावनम् । उष्णस्निग्धाम्लमधुरं भोजन बानिलापहम् | से विच्छूका विष दूर होजाता है ।
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ब० ३७
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उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत ।
अन्य प्रयोग । अर्कस्य दुग्धेन शिरीषबीजं त्रिर्मावितं पिवलिचूर्णामेश्रम् । एषो गो हंति विषाणि कीटभुजंगतोरवृश्चिकानाम् ॥ ४३ ॥ अर्थ - सिरके वीर्जेको आक के दूध की तीन भावना देकर उसमें पीपल पीसकर मिलादे । इस अगद का प्रयोग करने से कीट, भुजंग, मकडी, चूहा और बिच्छू इनका विष दूर हो जाता है ।
विषसंक्रांतिकृत अगद । शिरीषपुष्पं सकरंजवीजं काश्मीरजं कुष्टमनः शिला च । एषो गदो रात्रिबृश्चिकानां संक्रांतिकारी कथितो जिनेन ॥ ४४ ॥ अर्थ - सिरस के फूल, कंजाके बीज, खंभारी के बीज, कूठ, और मनसिल इन सब द्रव्यों का भगद सेवन करने से रात्रिक बिच्छुओं का विष दूर होजाता है । यह जिन भगवान का बताया हुआ प्रयोग है ।
मकडियों की संख्या ।
कीटेभ्यो दारुणतरा लूताः षोडश ता जगुः अष्टाविंशतिरित्येके ततोऽप्यन्ये तु भूयसीः सहस्त्ररश्म्यनुचरा वदत्यन्ये सहस्रशः । बहुपद्रवरूपा तु तैकैव विषात्मिका ४६
1
अर्थ- - सन प्रकार के कीडों में मकडी बहुत भयानक होती है । कोई इसे सोलह प्रकार की कोई अट्ठाईस प्रकार की और कोई अनेक प्रकार की मानते हैं, कोई यह कहते हैं कि सूर्य की किरणों के साथ साथ विचरनेवाली सहस्रों मकड़ियां हैं । भवतु, ये कितीही हों या कितनेही रूपवाली हों
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( ९४५ )
पर इनमें से सबही विषात्मक और अनेक उपद्रवों से युक्त होती हैं । उक्त विषय में हेतु ।
रूपाणि नामतस्तस्या दुर्ज्ञेयाम्यति संकरात् नास्ति स्थानव्यवस्था च दोषतोऽतः प्रचक्षते
अर्थ - अति संकर के कारण मकडियों . की जाति के भेदों की गिनती कर लेना बहुत कठिन है इनके स्थानकी कोई व्यवस्था भी नहीं है, इसलिये वातादि दोष भेद से इनका वर्णन करते हैं ।
लताविष का साध्यासाध्यत्व | कृच्छ्रसाध्या पृथग्दोषैरसाध्यानिचयन सा
अर्थ - वातादि पृथक् २ दोष वाली. मकड़ी कष्टसाध्य और त्रिदोषज असाध्य होती है।
पैत्तिक देश के लक्षण |
तद्देशः पैत्तिको दाहवस्फोटज्वरमोदवान भृशोष्म रक्तपीताभः क्लेदी द्राक्षाफलोपमः ।
अर्थ- मकड़ी के पैत्तिक देश में दाह, तृषा, स्फोटक, ज्वर, मोह, अत्यन्त गर्मी और द होता है । यह देश रक्तपीत वर्ण से युक्त दवाला और दाख के फलके सदृश होता है ।
कफज देश के लक्षण | लैष्मिकः कठिनः पांडुः परुषकफलाकृतिः निद्राशीतज्वरं कासकं न कुरुते भृशम्
अर्थ-कफज दंश कठोर, पांडुवर्ण, और फालसके फल समान आकृति वाला होता है। तथा इसमें नींद, शीतज्वर, खांसी और खुजली की अधिकता होती है ।
वातिक देश के लक्षण | वातिकः परुषः श्यावः पर्वभेदज्वरप्रदः ।
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( ९४६)
मष्टांगहृदय ।
म. ३७
-
अर्थ-वातिक दंश छने में खरदरा और अर्थ--तीवणादि भेद से मकडी तीन श्याववर्ण होता है इसमें पर्वभेद और घर | प्रकार की होती है, जैसे तीक्ष्ण विष मध्यभी होता है।
| विष और मृदु विष । इसकी चिकित्सा में - दोषानुसार विभाग लक्षण। उपेक्षा करने से काटा हुआ मनुष्य क्रम से तद्विभाग यथास्वं च दोषलिंगैर्विभावयेत् | सात. दस वा पन्द्रहदिन में मरजाताहै ।
अर्थ--वातादि दोषों के लक्षणों के अनु- मकड़ी के श्वास से विश । सार इनके यथायोग्य लक्षणों का विभाग लूताईशश्च सर्वोऽपि ददुमंडलसंनिभः । करना चाहिये।
सितोसितोरणःपीतःश्यावो वा मृदुरुन्नतः असाध्य के लक्षण । मध्ये कृष्णोऽथवा श्यावः पर्यतेजालकावृतः असाध्यायां तु हन्मोहश्वासहिमाशिरोरुजः विसर्पवाश्छोफयुतस्तप्यते बहुवेदनः।.. श्वेताःपीतासितारतापिटिकावयया. ज्वराशुपाकविक्लेदकोथावदरणान्वितः। वेपथुर्वमथुर्दाहस्तृडांध्यं घनासता ५२ र
| क्लेदेन यत्स्पृशत्यंगं तत्राऽपि कुरुते ब्रणम् । श्यावोष्ठयक्त्रदंतत्वं पृष्ठावावभंजनम् ।। अर्थ-सब प्रकारकी मकडियोंसे काटा पकवूसवर्ण च दंशात्रवति शोणितम् । हुआ स्थान दादके चकत्ते के समान होजाताहै ___ अर्थ-असाध्य मकडी के काटने से यह सफेद, काला, लाल पीला वा श्याववर्ण हृदय में मोह, श्वास, हिचकी, शिरोवेदना का होता है, यह कोमल, ऊंचा, बीच में देह में सफेद, पीली, काली वा काले रंग काला वा श्याववर्ण, किनारों पर जाल से की सूजनको उत्पन्न करने वाली फुसियां पैदा होजाती हैं, कंपन, हलास, दाह, तृषा
आवृत, होता है । यह विसर्पवान,शोथयुक्त आंखों के आगे अंधेरी, नाक का टेढापन,
उत्तप्त, वहु वेदनान्वित, तथा ज्वर, शीघ्र भोष्ठ मुख और दांतों में कालापन, पीठ
| पाकता, विक्लेद, सडाहट और अवदरण से और प्रीवा में टूटने कीसी वेदना होती है,
युक्त होता है । लूताके डंकका चेप शरीरमें तथा दंश में से पकी हुई जामन के रंगका
जहां जहां लगता है वहांही व्रण होजाता है।
मकडीकेश्वास से विषवमन । रक्त निकलता रहता है।
श्वासदंष्ट्राशचन्मृत्रशुक्रलालानखार्तवैः ५८ असाध्य के तीन भेद ।
अष्टाभिरुद्धमत्येषा विषं वक्तैर्विशेषतः । सर्वापि सर्वजा प्रायो ब्यपदेशस्तु भूयसा। - अर्थ- सब प्रकारकी मकडियां त्रिदोषज
___ अर्थ-मकडी श्वास, डाढ, विष्टा, मूत्र, होती हैं, परन्तु दोषकी अधिकता से इन
वीर्य, लार, नख और आर्तव इन आठ के तीन भेद होगये हैं, यथा-वातिक,
पदार्थ द्वारा और विशेषकर के मुखसे विष पैत्तिक और कफज ।
का वमन करती है । अर्थात् इन आठ रीति मकडी के दंश के लक्षण।
से मकडी का विष निकला करता है । तीक्ष्णमध्यावरत्वेनसा त्रिधा हत्युपेक्षिता। मकडीआदि के दंशस्थान । सप्ताहेन दशाहेन पक्षेन च परं क्रमात् । । लूता नाभेर्दशत्यूयमूर्घ वाऽधश्च कीटकाः
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म.३७
उत्तरस्थान भाषाटीकासमैत ।
सहूषितं च वस्त्रादिदेहे पृक्तं विकारकत्। | श्वास और भ्रम ये सब लक्षण प्रकाशित ___ अर्थ-मकडी नाभि के ऊपर काटती | होते हैं । है, अन्य कीडे नाभि से ऊपर और नीचे पंचमदिन का प्रकार । दोनों जगह काटते हैं । इनके विषों से विकारान् फुरतेतांस्तानपंचमेविषकोपजान् दूषित हुआ वस्त्र देहके लगजाने पर विकार | अर्थ-पांचवें दिन विषके प्रकोप स
ऊपर कहे हुए सब रोग पैदा होजाते हैं। करता है ।
छटे सातवें दिन का प्रकार । . मकडीके प्रथमदिन का लक्षण ।
षष्ठे व्याप्नोति माणि सप्तमे हंति जीवितम्। दिनार्ध लक्ष्यते नैवं देशो लूताविषोद्भवः ।। सूचीब्यवदाभाति ततोऽसौप्रथमेऽहनि । अथे-छटे दिन सब मर्मस्थानों में विष अध्यक्तवर्णःप्रचलः किंचित्कंडूरुजान्वितः।। फैल जाता है और सातवें दिन रोगी मर __अर्थ-मकडी का विष चार पहर तक जाता है । दिखाई नहीं देता है, फिर उसमें सुईके तीक्ष्णविष के उक्तलक्षण । छिदने कासा चिन्ह अव्यक्तवर्ण, चलायमान | इति तीक्ष्णं विषं मध्यं हीनं च विभजेदतः तथा कुछ खुजली और वेदना से युक्त अर्थ-इन लक्षणों से तीक्ष्ण, मध्यम होता है।
और हीन विष की विवेचना करनी चाहिये। दूसरेदिन का लक्षण।
विषशमनका काल । द्वितीयेऽभ्युनतोतेषु पिटकैरिय पाचितः । एकविंशतिरात्रेण विषं शाम्यति सर्वथा । व्यक्तवर्णो नतो मध्ये कंडूमान् ग्रथिसनिभः अर्थ-इक्कीस दिन में विषकी सर्वया
अर्थ-दूसरे दिन दंशस्थान के किनारे | शांति हो जाती है । बहुत ऊंचे, बीचमें नीचा, फुसियों से मकहीका दंशोधरण । व्याप्त, अव्यक्तवर्ण, खुजली से युक्त और अथाशुलूतादष्टस्य शस्त्रेणादशमुद्धरेत् । गांठके आकार का होता है।
दहेच्च जांववौष्ठाद्यैर्न तु पित्तोत्तरं दहेत् । तीसरे दिन का प्रकार ।
___ अर्थमंगलाचरण करके मकडी के दंशके तृतीये सज्वरो रोमहर्षकृद्रतमंडलः । । चारों ओर काटकर दंशको निकाल डाले। शरावरूपस्तोदाढयो रोमकूपेषु संत्रवः। और जांववाष्ठ यंत्रसे दंशस्थान को दग्ध कर ___अर्थ-तीसरे दिन दंशस्थान लाल,सरवे । देवै किंतु पित्तोत्तर दंश को दग्ध न- करना की आकृति कासा होजाता है, तथा ज्वर चाहिये। रोमांच, सुई छिदने कीसी पीडा, और रोम
दंशछेदनका निषेध । कू से स्राव होने लगता है।
कर्कशं मिन्नरोमाणं मर्मसंध्यादिसंश्रितम् । चतुर्थदिन का मकार । प्रसृतं सर्वतो दंशं न छिंदीत दहेन च । महाश्चतुर्थ श्वयथुस्तापश्वासभ्रमप्रदः। अथे-जो दंश कर्कश, भिन्नरोम, मर्म .. अर्थ-चौथे दिन अत्यन्त सूजन,संताप, । और संधियों में श्रित तथा चारों ओर को
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मष्टांगहृदय ।
म. ३७
-
व्याप्त हो उसे न काटना चाहिये, न दग्ध | अर्थ--गोवर का रस, शर्करा, घी और करना चाहिये ।
शहत, यह औषध पूर्ववत् गुणकारी है । दग्धंदंशका लेप। | मंदर और गंधमादन । लेपयेहग्धमगदैर्मधुसैंधवसंयुतैः ॥ ६८॥ | अपामार्गमनोम्हालादार्याध्यामकंगैरिकैः । सुशीतैः सेचयेच्चानु कषायैः क्षीरिवृक्षः नतैलाकुष्टमरिचयष्टयाधृतमाक्षिकैः॥ __ अर्थ-दग्ध देश पर शहत और सेंधेनमक, अगदी मंदरो नाम तथाऽन्यो गंधमादनः।
नतरोधवचाकद्वीपाडैलापत्रकुंकुमैः ॥७४॥ से मिलीहुई भगद का लेप करे । तत्पश्चात्
___ अर्थ--ओंगा, मनसिल, हरताल, दारुहदूधवाळे वृक्षोंके शीतल कषायका परिषेक करे
लदी, रोहिषतृण, गेरू, तगर, इलायची, कूठ, रक्त हरणादि । सर्वतोपहरेद्रक्तं शृंगाधैः सिरयाऽपि वा।
कालीमिरच, मुलहटी, घी और शहत इनसे सेकालेपास्ततःशीताबोधिश्लेष्मातकाक्षकैः बनाई हुई दवा को मदर कहते हैं। तथा
अर्थ-सींगी आदि लगाकर वा फस्द तगर, लोध, बच, कुटकी, पाठा, इलायची, खोलकर सब तरह से रक्त निकालना चाहिये। भोजपत्र और कुंकुम । इनसे बनाया हुआ तत्पश्चात् पीपल, लिहसोडा और बहेडा इन , अगद गंधमादन कहलाता है। का ठंडा लेप और परिषेक काम में लाना बिषनाशक बिशोधन ॥ चाहिये ।
| विषघ्नं वहुदोषेषु प्रयुजीत विशोधनम्। पद्मक नाम अगद।
अर्थ--बहुत दोषों से व्याप्त विषार्त व्यक्ति फलिनीद्विनिशाक्षौद्रसपिभिः पद्मकाहयः। को विषनाशक वमन विरेचनादि शोधन देना अशेषलूता कीटानामगदः सार्वकार्मिकः ।
चाहिये । __ अर्थ-प्रियंगु, हलदी, दारुहलदी, शहत
कफ में वमन ॥ और घी । यह औषध सब प्रकार की मकडी
यष्टयाहमदनांकोल्लुजालिनीसिंदुवारिकाः॥ और कीडों के विषमें हितकारी है। इसका कफे श्रेष्ठांबुना पीत्वा विषमाशु समुद्धमेत् । नाम पदमक है । यह सेक लेपादि सब प्रकार ___अर्थ-कफ की अधिकता में मुलहटी, से व्यवहार में लाई जा सकती है। मेंनफल, अकोल, देवताड़, सभालू । इन.
चपक नाम औषध । सब द्रव्यों का तंडुल जल के साथ पान हरिद्राद्वयपत्तंगमंजिष्ठानतकेसरैः ॥ ७१॥ | कराके विष की वमन करादेनी चाहिये । सक्षौद्रसर्पिः सवैस्मादधिकश्चंपकावयः।
उक्त रोग में विरेचन ॥ . ___ अर्थ-हलदी, दारुहलदी, पतंग, मजीठ, | शिरीषपत्रत्वङ्मृलफलं घांकोल्लमूलवत् ॥ तगर, केसर, शहत और घी, यह अगदविरेचयेच त्रिफलानीलिनीत्रिवृतादिभिः । पत्रक नाम औषध से भी अधिक गुणकारी है अर्थ-सिरस के पत्ते,छाल, जड़ और फल
अन्य प्रयोग। तथा अंकोल इन द्रव्यों को तंडुल जल के साथ तनोमयनिष्पीडाशर्कराघृतमाक्षिकैः ७२।। पान कराके धमन करावे । अथवा त्रिफला,
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
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नीलनी और निसोत आदि विरेचन द्रव्यों । स्नेहन कर्म घृत द्वारा करनाही उचित्त है, को देकर विरेचन करावे ।
घृत के सिवाय और किसी प्रकार का दाह निवृति में कर्तव्य ॥ स्नेहन न करे । तेल से विष ऐसे वढता है मिवृत्ते दाहशोफादो कर्णिकां पातयेद् व्रणात् जैसे तण के समूह से अग्नि बढती है । ___ अर्थ-दाह और शोमादि के शांत होने
ताविष पर तीन प्रयोग ।। पर व्रण से कर्णिका को दूर करदेना । हीवरचककतगोपकन्याचाहिये।
मुस्ताशमीचंदनटिंटुकानि। । अन्य प्रयोग ।
शैवालनीलोत्पलवक्रयष्टीकुसुभपुष्पं गोदंतः स्वर्णक्षीरी कपोतविट् ।
त्वग्नाकुलीपद्मफराठमध्यम् ॥ ८२॥ त्रिवृतासैंधवं देतीकर्णिकापातनं तथा ॥ रजनीघनसर्पलोचनामूलमुसरवारुण्या वंशनिलेखसंयुतम् ।
कणशुंठीकणमूलाचत्रकाः। . अर्थ-कसूम, गोदंत, स्वर्णक्षीरी, कबूतर
वरुणागुरुबिल्वपाटली
पिचुमदाभयशलुकेसरम् ॥ ८३॥ की वीट, निसोथ, सेंधानमक, दन्ती । इन
विल्वचंदननतोत्पलशुठीदवाओं से फर्णका गिरजाती है । अथवा पिप्पलीनिचुलवेतसकुष्टम् ।। इन्द्रायण की जड़ में बांस का निर्लेख मिला- शुक्तिशाकबरपाटलिभार्गीकर प्रयोग करने से भी कर्णका गिर
सिंदुवारकरघाटवरांगम् ॥ ८४ ॥
पित्तकफानिललूताः पानांजननस्यलेपसेफेन जाती है। सैंधवादि प्रयोग ॥
अगदवरा वृत्तस्थाः कुमतीरिव वारयत्येते ॥
अर्थ-(१) नेत्रवाला, बिकंकत, अनन्त तश्च सैंधव कुष्ट दंतिकटुकदौग्धिकम् ॥
मूल, मोथा, शमी, चन्दन, श्यामा, शैवाल, राजकोशातकीमूलं किणो वा मथितोद्भवः । ___ अर्थ-सेंधानमक, कूठ, दंती, कुटकी,
नीलोत्पल, तगर, मुलहटी, दालचीनी, दुद्धी, राजकोशातकी की जड़, अथवा तक
नाकुली, पदमाख, मेनफल का गूदा, का झाग । इनको लगाने से कर्णिका गिर
(२) हलदी, नागरमोथा, सर्वाक्षी, पीपल पड़ती है।
सोंठ,पीपलामूल, चीता, बरना, अगर, विल्य, कार्णका पात में वृंहण ॥
| पाटली, नीम, हरड, शेलु और केसर । कर्णिकापातसमय वृहयेच विषापहः॥
(३) बेलगिरी, चन्दन, तगर, भाडंगी, अर्थ-कर्णिका के गिरने के समय विष
संभालू, करघाट और दालचीनी, एक एक .
| इलोक में कहेहुए ये तीनों प्रयोग पान, नाशक वृंहण क्रिया का प्रयोग करना
अंजन, नस्य, प्रलेप और परिषेक द्वारा चाहिये। .
प्रयोग कियेजाने पर यथाक्रम, पित्ताधिवय, लताबिष में स्नेहन ।
| कफाधिवय और बाताधिक्य वाले मकड़ी स्नेहकार्यमशेषं च सर्पिषैष समाचरेत् ।। विषस्य वृद्धये तैलमनेरिष तृणोलुपम् ॥ के विष को दूर करते हैं, जैसे सदाचरण
अर्थ-मकड़ी के बिष में सब प्रकार के | वाला मनुष्य कुमति को रोक देता है।
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(९५०)
मष्टांगहृदय ।
प्र० ३८
छूनानाशक पानादि ।
चूहों के विष की प्राप्ति । रोधं सेव्यं पनपारेणुः
शुक्रं पतति यत्रषां शुक्रदिग्धैः स्पृशति वा । कालीयाख्यचंदनं यश्च रक्तम् ।
यदंगमंगैस्तत्राने दूषिते पांडुतां गते ॥३॥ कांतापुष्पं दुग्धिनीका मृणालं
ग्रंथयः श्वयथुः कोथो मंडलानि भ्रमोऽरुचिः ठूताः सर्वा नाते सर्वक्रियाभिः ॥८६॥
शीतज्वरोऽतिरुक्सादो वेपथुः पर्वभेदनम् ॥
| रोमहर्षः सति दीर्घकालानुवंधनम् । अर्थ-लोध, खस, पद्माख, कमल केसर |
श्लेष्मानुबद्धबह्वाखुपोतकच्छदन सतृट् ॥ पीतचन्दन, लालचन्दन, प्रियंगु, लालओंगा
___अर्थ-इन सब चूहों का वीर्य जिस अंग और कमलनाल, ये सब औषधे पानादिद्वारा व्यवहार में लाने से सब प्रकार की मकड़ियों
पर गिरजाता है, और यह शुक्रदिग्ध अंग के विषों को दूर कर देते हैं ।
जिस दूसरे अंग से जा लगता है, उस अंग इतिश्रीअष्टांगहृदयसंहितायभाषाटीका
का रक्त दूषित होकर पांडु वर्ण होजाता है,
उस से देह में गांठ, सूजन, सडाहट, और न्वितायां उत्तरस्थाने कीटलूतादिबिष. प्रतिषेधोनाम सप्तात्रंशोऽध्यायः ।
गोल चकत्ते पड़जाते हैं । तथा अरुचि, शीतज्वर, अतिशय, वेदना, शिथिलता,
कम्पन, पर्वभेद, रोमांच, नाव, मूर्छा, और अष्टत्रिंशोऽध्यायः।
दीर्घकाल तक रोग का अनुबन्ध तथा - - कफानुबन्धी मूषक पोतक नाम कृमियों का अथाऽतो मूषिकालर्कविषप्रतिषेधं. निकलना और तृषा, ये लक्षण उपस्थित
- व्याख्यास्यामः।। होते हैं। अर्थ--अब हम यहां से चूहे और बावले | चूहे के विषका सब देह में फैलना। कुत्ते के विष के रोकने का वर्णन करेंगे । । व्यवाय्याखुविष कृच्छंभूयो भूयश्च कुप्यति चूहों के अठारह भेद । ।
__ अर्थ--चूहे का विष सव शरीर में फैल. लालनश्चपलापु.
जाता है. यह कठिनसाध्य और वारवार मोहसिराश्चकिरोजिरः।। ज कषायदंतःकुलकः कोकिला कपिलोसितः। प्रकुपित होता है। अरुणः शवलःश्वतः कपोतः पालतोंदुरः। मूषक विष के असाध्य लक्षण । छुच्छुदरोरसालाख्यो दशाष्टौ चेति मूषिकाः मूछोगशोफवैवर्ण्यफ्लेदशरदाश्रतिज्वराः॥
अर्थ-चूहे अठारह प्रकार के होते हैं। शिरोगुरुत्वलालासृक्छर्दिश्चासाध्यलक्षणम् यथा- लालन, चपल, पुत्र, हसित, चिकिर, अर्थ-मूर्छा, सूजन, विवर्णता, क्लेद, अजिर, कषायदंत, कुलक, कोफिल, कपिल, | बहरापन, ज्यर, सिर में भारापन, लालाअसित, अरुण, शक्ल, श्वेत, कपोत, साव और रक्त की बमन । ये सव लक्षण पतितोन्दुर, छुछुन्दर और रसाल ।
असाध्य के हैं।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
आखुदूषितव के लक्षण । शून वस्ति विषष्ठमावा भैमैथिभिश्वितम् छुछुवरसगन्धम् च वर्जयेदाखुषितम् ।
अर्थ - चूहे के विष से बस्ति, फूलजाती है, श्रेष्ठ विवर्ण होजाते हैं, गात्र में चूहे की आक्रू ते के समान ग्रंथियों की उत्पत्ति और छछूंदर कीसी दुर्गंधि इन लक्षणों के उपस्थि होनेपर चूहे का विष दुश्चिकित्स्य होता है ।
वावले कुत्ते के लक्षण | शुनः श्लेष्मोल्गा दोषाः संज्ञासंज्ञावहाश्रितः मुष्णंतः कुर्वते क्षोभं धातूनामतिदारुणम् । लालावानधंबधिरः सर्वतः सोऽभिधावति स्रस्तपुच्छहनु स्कंधारीरोदुःखी नताननः ।
अर्थ = कुत्तेके वातादि दोष कफाधिक्य होने के कारण संज्ञावाही धमनियों का आश्रय लेकर उनकी धातुओं को भयानक रीति से क्षुभित करदेते है । इससे कुत्ते की लार गिरने लगती है तथा अंधा, बहरा, ढीलीपूंछका, स्रस्तहनु होजाता है और कंधों को झुकाकर नीचां मुख करके चारों और दौडता है।
वावले कुत्ते के काटने के लक्षण | दशस्तेन विदष्टस्य सुप्तः कृष्णं क्षरत्यक् हच्छिरोरुगूज्वर स्तंभस्तृष्णामूछद्भचोनुच
अर्थ - ऐसे बावले कुत्ते के काटने से वह जगह सुन्न पडजाती है, और दंशस्थान से काला रुधिर झरने लगता है । तत्पश्चात् हृद्रोग, शिरोरोग, स्तब्धता, तृपा और मुर्छा | ये सब उपद्रव उपस्थित होते हैं । 1
वाले शृगालादि । अनेनान्येऽपि बोद्धव्या व्याला दंष्टप्रहारिणः अर्थ-- -- डाढ को मारनेवाले अन्यत्रावले
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( ९५१ )
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शृगालादि के भी ऊपर कहे हुए लक्षण होते हैं ।
सविषदंश के लक्षण | कंडूनिस्तो दवैवर्ण्य सुप्तिक्लेदज्वरभ्रमाः । विदाह रागरुक्पा कशोथग्रांथिविकुंचनम् । दशावदरणं स्फोटाः कर्णिकामंडलानि च । सर्वत्र सविषे लिंगं विपरीतं तु निर्विषे ।
अर्थ - विषयुक्त सत्र प्रकार के दंश में खुजली, निस्तोद, विवर्णता, सुन्नता, छेद, ज्वर, भूम, विदाह, ललाई, वेदना, पाक, सूजन, गांठ, आकुंचन, दंशका विदीर्ण होना, स्फोटक, कर्णिका, और चकत्ते । ये | सब लक्षण उपस्थित होते हैं । विपरीत दशमें इनसे विपरीत लक्षण होते हैं ।
रोगी का मरण ॥
दष्टो येन तु तचेष्ठा रुतं कुर्वन्विनश्यति । पश्यंस्तमेव चाकस्मादादर्शसलिलादिषु ॥
अर्थ- बाबले कुत्ते आदि जो जानवर काटते हैं, रोगी उन्हीं के दृश काम करने लगता है, वैसीही बोली बोलने लगता है, और दर्पण वा जलमें अपनी वैसीही सूरत 'देखता हुआ मरजाता है |
त्राससंज्ञदष्ट का निषेध ॥ योद्भस्येदष्टोऽपि शब्दसंस्पर्शदर्शनैः । जलसंत्रासनामानं दृष्टं यमपि बर्जयेत् ॥
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अर्थ-बिना काटा हुआ मनुष्य भी चांदे बावले शृगालादि के शब्द, स्पर्श और दर्शन से जल को देखकर. भयखाता हो, ऐसे रोग को जलसंत्रास कहते हैं, यह रोग भी वर्जित हैं । काटे हुए मनुष्य को भी जलसंत्रास होने पर याग देना चाहिये |
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( ९५२)
अष्टांगहृदय ।
अ० ३८
आखविष पर दाह ॥
उक्तरोग में वमन । आखुना दयमानस्य देश कांडेन दाहयेत् । छर्दन नीलिनीकाथैः शुकाख्यांकोल्लयोरपि ॥ दर्पणेनाथवा तीब्ररुजा स्यात्कर्णिकान्यथा। अर्थ-नीलिनी का काथ अथवा कौमा
अर्थ-चूहे के काटतही दंशस्थानको तप्त । टोंटी वा अंकोल का काथ पान कराके शलाका वा दर्पण द्वारा दग्ध करदेना । वमन करावै । चाहिये । ऐसा न करने से भयंकर वेदना वमनकारक चूर्ण । कारक कर्णिका पैदा होजाती है । कोशातक्याः शुकाख्यायाः फलं जीमृतकदग्धदंशका विस्राव ।।
स्यच। दग्धं विस्रावयेहंशं प्रच्छिन्नं च प्रलेपयेत् ।
मदनस्य च संचूर्ण्य बध्ना पीत्वा विष वमेत् शिरीषरजनीवत्रकुंकुमामृतवल्लिभिः॥
अर्थ-कडवी तोरई, सिरस, देवताड,इन - अर्थ-दंशको दग्ध और अस्त्रद्वारा
के बीज और मेनफल का चूर्ण दही के साथ
पान कराके वमन करावै । प्रछिन्न अर्थात् थोडा थोडा खुरचकर उसमें
___ अन्य चूर्ण। सिरस के बीज, हलदी, तगर,कुंकुम और वचामदनजीमूतकुष्ट वा मूत्रपेषितम् ।। गिलोय का लेप करना चाहिये || . पूर्वकल्पेन पातव्यं सौंदुरविषापहम् २२
चूहेका विषनाशक लेप। अर्थ-बच, मेनफल, देवदाली, और कूठ अगारधूममंजिष्टारजनीलवणोत्तमैः।। इनको गोमूत्र में पीसकर दहीके साथ पान लेपोजयत्याखुविषं कर्णिकायाश्च पातनः ॥ करावे । इसके पीनेसे सब प्रकारके चूहोंका
अर्थ-गृहधूम, मजीठ, हलदी, सेंधानमक विष दूर हो जाता है । इनका लेप करने से चूहेका विष नष्ट और | उक्त रोगपर विरेचन ।। कर्णिका निपतित हो जाती है । विरेचनं त्रिवृन्नीलीत्रिफलाकल्क इप्यते ।
. दंशका धौना। | अर्थ-इसमें निसोथ, नील और त्रिफला ततोऽम्लैः क्षालायित्वाऽनु तोयैरनु च. का कल्क देकर विरेचन कराना चाहिये ।
लेपयेत् । । उक्तरोग में अंजन । पालिदीश्वतकटभीबिल्बमूलगुडूचिभिः॥ | अंजनं गोमयरसो व्योषसूक्ष्मरजोन्वितः २३ अन्यैश्च विषशोफन्त्रैः सिरांवा मोक्षयद्भुतम् अर्थ-त्रिकुटा के चूर्णको महीन पीस__ अर्थ-तदनंतर पहिले कांजी आदि खट्टे । कर गोवरके रसमें मिलाकर आंखमें लगाना पदार्थ से और फिर जलसे धोकर निसोथ, । चाहिये । इससे चूहेका विष दूर हो जाता है श्वेत अपराजिता, बेटगिरी की छाल, और उक्तरोग पर अवलेह । गिलोय द्वारा अथवा विष और शोथनाशक | कपित्थगोमयरसो मधुमामवलेहनम् ।। अन्य किसी औषधद्वारा लेप करे और शीघ्र । अर्थ-कैथ और गोवर के रसमें शहत ही सिरावेध करके रक्तमोक्षण करना चाहिये मिलाकर पीना चाहिये ।।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९५३)
. पक्वधूतपान
गवांमूत्रेण पयसा मंजरी तिलकस्य वा । तंदुलीयकमूलेन सिद्ध पाने हितं धृतम् ।।
अर्थ-कैथ का गूदा, तुलसी, तिल द्विनिशाकटभीरक्तायष्टयाव्हाऽमृतान्वितैः और अंकोल की जड, इन सब द्रव्यों को आस्फोतमूलसिद्धं वा पंचकापित्थमेव वा गोमूत्र के साथ अथवा तुलसी की मंजरी अर्थ-चौलाई की जड़ के साथ पकाया
को दूध के साथ पीसकर पान करे। हुआ घी पीना हितकारी है । अथवा दोनों
। अन्य उपाय ।। हलदा, सफेद गाकणा, मजाठ, मुलहटा, | अथवासर्यकान्मूलं सक्षौ, तंदुलांबुना। गिलोय से अथवा कैथकी जड, छाल, पत्ते, · अर्थ-सफेद कुरंटा की जड में शहत फल और पुष्प से सिद्ध किया हुआ घी मिलाकर चौलाई के जल के साथ पानकरे । पान करना हित है ॥
अन्य प्रयोग। . अन्यक्काथ ।
कटुकालावुबिन्यस्त पतिं थांबुनिशोषितम् सिंदुवारनतं शिपबिल्वमूलं पुनर्नवा। "
अर्थ-कडवी तोरई को रातभर जल में वचाश्वदंष्टाजीमूतमेषां क्वार्थ समाक्षिकम् । भिगो देव । दूसरे दिन प्रातःकाल उस जल पिवेच्छाल्योदनंदना जानोमूषिकार्दितः ।
को पीनेसे चूहे का विष नष्ट होजाता है । अर्थ-संभाळू, तगर, सहजना, बेलपत्र
___ अन्य प्रयोग। की जड, सांठ, बच, गोखरू और देवताड के काथमें शहत मिलाकर पान करे । इसपर
सिंदुबारस्य मूलानिविडालास्थिविनतम्
जलापष्टो गदो हंति नस्याधैराखुज विषम् ।। दही के साथ शालीचांवलों का पथ्य करना
... अर्थ-संभालू की जड और बिलाव की चाहिये।
अस्थि, मीठा विष और तगर । इन सबको उक्तरोग पर चूर्ण । जल में पीसकर नस्यादि द्वारा प्रयोग करने तकेण शरपुंखाया बीजं संचूर्ण्य वा पिवेत से चूहे का विष नष्ट होजाता है। अथे-सरोंका के बीजों का चूर्ण तक।
- अन्य प्रयोग। के साथ पान करना हित है।
सशेष मूषिकविष प्रकुप्यत्यभ्रदर्शने। - आग्नु विषनाशक कल्क। यथायथं वा कालेषु दोषाणां वृद्धि हेतुषु ॥ अंकोल्लमूलकल्को घा वस्तमूत्रेण कलिकप्तः अर्थ-चूहेका विष जो शेष रहजाता है पानालेपनयोर्युक्तः सर्वानुविषनाशनः २८ वह बादलों के होने पर फिर प्रकुपित हो. अर्थ-अंकोल की जड को बकरे के
जाता है । अथवा जिस चूहे के विषमें जिस मूत्र में पीसकर पान और लेप द्वारा प्रयुक्त
दोष की अधिकता होती है उस दोष के करने से सब प्रकार के चूहों का विष दूर
प्रकोपन काल में वह विष प्रकुपित हो. होजाता है।
जाता है। - अन्य प्रयोग।
चिकित्सा की विधि । कपित्थमध्यतिलकतिलांकोलजदाः पिवेत् तत्र सर्वे यथावस्थ प्रयोज्याः स्युरुपक्रमाः।
१२०
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(९५४)
मष्टांगहृदप । तथास्येच निर्दिष्टास्तथा दूपीविषापहाः रोगी को स्नान ।
अर्थ-चहे के बिष में अबस्थांनुसार समंत्र सौषधीरनं सपन च प्रयोजयेत् ॥ . विबेचमा कस्के सब प्रकार की क्रिया करनी अर्थ-सर्वोषधी, महौषधी, रक्तसंयुक्त चाहिये । तथा दूषी विषनाशक जो जो अभिमंत्रित जल से कुत्ते से काटेहुए रोगीको चिकित्सा कहांमई है वह भी करनी | स्नान करावै । आवश्यकीय है।
चतुष्पदादिकों का दंश । कुत्ते के काटने पर लेप ।
चतुष्पाद्भिदिपाद्भिर्वा नसदसपरिक्षतम् । दशं खलबष्टस्य बग्धमुष्णेन सर्पिषा।।
शंयते पच्यते रागज्वरनापरुजान्वितम्। माविह्यावर्गवैस्तैस्तैः पुराणं च धृतं पिवेत् ॥
___ अर्थ-हाथी घोड़े आदि चौपाये जानवर, मर्थ-कुचे के काटेहुए स्थान पर गरम घी से दग्ध को, पीछे पूर्वोक्त औषधों का
मनुष्य और मुर्गे आदि दो पैरवाले जीव इनके पकरे और पुराने बी को पावै ।
नख और दांत द्वारा जो घाव होजाताहै,
उसमें सूजन और पाक पैदा हो जाता है । ... उक्त रोम पर विरेचन । मर्कक्षारयुतं चाऽस्य योज्यमाशु विरेचनम् तथा ललाई, ज्वर, स्राव और वेदना से ___ अर्थ-इस रोग पर विरेचनादि द्रव्यों में | युक्त होता है । आक का दूध मिलाकर शीघ्र विरेचन देना । उक्त रोगपर लेप । चाहिये।
सोमवल्कोवकर्णश्च गोजिला हंसपादिका अन्य उपाय।
रजम्यो गैरिकं लेपो नखदंतविषापहः ॥ कोलोत्तरमूलाबु धिफला सहविः पलम्॥ अर्थ-सफेद खैर, अश्वकर्ण, गोभी, विवेत्सवत्सरफला श्वतां वाऽपि पुनर्नवाम् । हंसपदी, हलदी, दारुहलदी, और गेरू इन
अर्थ-अंकोल और इन्द्रायण की जडू का लेप करने से नख और दांत के विष का काथ, सीन पल और घी एक पल इन
| दर होजाते हैं। को मिलाकर अथवा धतूरे का फल और
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषायीसफेद भपराजिता अथवा धतूरे का फळ और
कान्वितायो उत्तरस्थानेमूषिकालर्कविषसोक इनको जल में पीसकर पान करै । .
प्रविषेधंनाम अष्टात्रिंशोऽध्यायः । . विषमालर्क भेदक पान । ऐकम्य पललं तैलं रूषिकायाः पयो गुडः॥ भिनाति विषमाल घनदमिवामिळः। ।
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः। अर्थ-भुने हुए तिलों का चूर्ण, तेल, आक का दूध, गुड़, इन सब द्रव्यों को मिलाकर जल के साथ पान कराने से बावले. अथाऽतो रसायनाध्यायं व्याख्यास्यामः । कत्ते का बिष ऐसे नष्ट होजाता है जैसे हवा अर्थ-अब हम यहां से रसायनाध्याय के वेग से बादलों के समूह । की व्याख्या करेंगे।
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म. ३९
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९५५)
रसापन से दीर्घ जीवनादि। । रसायन में स्थान । दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्य तरुणं पयः। निर्वात निर्भये हम्ये प्राप्योपकरणे पुरे । प्रभाषर्णस्वरोदार्य देहेद्रियवलोदयम् ॥ | दिश्युदीच्या शुभेदेशत्रिगर्भासूक्ष्मलोचनाम् वाक्सिविषतांकांतिमयामोतिरसायनात् | धूमातपरजोव्यालखीमूखायापलीघताम् । लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनारसायनम् सजवैद्योपकरणां सुमृष्टां कारयेत्कुटीम् ॥
अथे-रसायन से दीर्घायु, स्मृति, मेधा, अर्थ-उत्तर दिशाकी ओर किसी शुभ आरोग्य, तरुणावस्था, प्रभा, वर्ण, स्वर की स्थान में एक ऐसा स्थान बनवावै, जिसमें निर्मलता, देह, इन्द्रिय और बल की वृद्धि, हवा का प्रवेश न हो सकता हो और किसी वाकसिद्धि, वीर्य की आधिकता और कांति प्रकारका भय भी न हो, इस घरमें संपूर्ण प्राप्त होते हैं, इससे रसरक्तादि श्रेष्ट धातुओं आवश्यकीय सामग्री एकत्रित करदेनी चाहिये की प्राप्ति होती है इस लिये इसे रसायन यह घर त्रिगर्भ अर्थात् घरके भीतर घर और कहते हैं।
फिर उस घर के भीतर घर हो जिसमें छोटे रसायन प्रयोग।
छिद्रवाले जालीदार झरोखे लगे हुए हों, इस पूर्षे वयसि मध्ये वा तत्प्रयोज्यं जितात्मनः।
घरमें सफेदी करादेनी चाहिये । इस कोठरी बिग्धस्य नुतरक्तस्य विशुद्धस्य व सर्वथा
के भीतर वैद्यौपयोमी सव सामान एकत्रित ___ अर्थ-जो मनुष्य स्नेहन और रक्तमोक्षण
करे और ऐमा यत्न करे कि धूआं, धूप, से शुद्ध हो चुका हो और जिसको घमन विरेचन भी देदिया मयाहा, तथा जितेन्द्रि.
धूलि, वा किसी प्रकार का कोई हिंसकजीव, यतासे रहताहो, उसे प्रथमावस्था और मध्या
| स्त्री वा मूर्ख प्रवेश न कर सके । . वस्था में रसायन का सेवन कराना चाहिये ।।
रसायनारंभ में कर्तव्य । । । रसायन का निष्फल होना।
अथ पुण्येऽह्निसपूज्यपूज्यांस्तांप्रविशेच्छषि
तत्र संशोधनः शुद्धःसुखी जातवलः पुनः । भविशुद्ध शरीरे हि युक्तो रासायनो विधिः |
ब्रह्मचारी धृतियुतः श्रधानो जितेंद्रियः । पाजीकरो वा मलिने वस्त्रे रंग हवाफलः ॥
दानशीलदयासत्यव्रतधर्मपरायणः ॥९॥ अर्थ-बमनविरेचनादि से शुद्ध किये । देवतानुस्मृतौ युक्तो युक्तस्वप्नप्रजागरः विना रसायनं पावाजीकरण का सेवन ऐसे | प्रियोषधः पेशलवाकू मारभेत रसायनम् ॥ निष्फल हो जाता है, जैसे मैलेवस्त्र पर रंग अर्थ-शुभदिनमें स्नानादि द्वारा पवित्र चढाना निष्फल होता है।
होकर स्वस्तिवाचनपूर्वक देव द्विज गुरु आदि रसायनके दो प्रयोग।
पूज्यों की पूजा करके उस घरमें प्रवेश करे । रसायनानां द्विविध प्रयोगमपयो बिदुः । कुटीप्रायशिकं मुख्य बातातपिकमन्यथा
तदनंतर विरेचनादि संशोधन क्रिया द्वारा अर्थ-ऋषियों ने स्सायन के दो प्रयोग
शुद्ध देह तथा सर्वरोगनाशक शिलाजीत और कहे हैं, इनमें से कुटीप्रावेशिक मुख्य है। च्यवनप्राशादि औषधों का सेवन करके नि: और पातातपिक अप्रधान है।
रोग होकर बलको प्राप्त करे । तदनन्तर
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९५६)
मष्टांगहृदय ।
ब्रह्मचर्य, धैर्य, श्रद्धा, जितेन्द्रियता, दानशी. ब्राह्मरसायन । लता,सत्स्वभाव, दया, सत्यव्रत, धर्मपरायणता | पथ्यासहस्रं त्रिगुणधात्रीफलसमन्वितम् । देवभक्ति, यथासमय शयन करना और जगना
पंचानां पंचमूलानां साधै पलशतद्वयम् ॥
जले दशगुणे पक्त्वा दशभागास्थिते रसे । औषधप्रियता और मधुरभाषण । इन सब आपोथ्य कृत्वा ब्यस्थीनि विजयामलकान्यथ कामों को रसायन के आरंभके समय करै । विनीय तस्मिनियह योजयेत्कुड़वांशकम् । विरेचन विधि ।
स्वगेलामुस्तरजनीपिप्पल्लथगुरुचंदनम् ॥
मंडूकपर्णीकमफशंखपुष्पीवचाप्लवम् ॥ हरीतकीमामलकं संधर्व नागरं बवाम् । हरिद्रा पिप्पली वेल्लं गुडं चोष्णांवुना पिवेत्
यष्टयाह्वयं विंडगं च चूर्णितं तुलयाधिकम्
सितोपलार्धभारंच पात्राणि त्रीणि सर्पिषः स्निग्धा स्विन्नो मा पूर्व तेन साधु विरिच्यते
द्वे च तेलात् पचेत्सर्व तदनौ लेहतां गतम् ___ अर्थ-स्निग्ध और स्विन्न होकर प्रथम अवतीर्ण हिम युज्याद्विशैः क्षौद्रशतनिभिः ही हरड, आमला, सेंधानमक, सोंठ, बच, ततः सजेन मथितं निदध्यादू घृतभाजने ॥ हलदी, पीपल, बायबिडंग और गुड इन सब
यानोपरुध्यादाहारमेकं मात्रास्य सा स्मृता
षष्ठिकः पयसा चाऽनर्णि भोजनमिप्यते द्रव्यों को गरम जलके साथ पान करे । इस
वैखानसावालखिल्यास्तथाचाऽन्येतपोधनाः से उत्तम विरेचन हो जाता है। ब्रह्मणा विहितं धन्यमिदं प्राश्य रसायमम् ।
_ यावक पयोग। संद्राश्रमक्लमवलीपलितामयर्जिताः। तता शुद्धशरीराय कृतसंसर्जनाय च ॥ मेधास्मृतिबलोपेता वभूखुरमितायुषः ॥ त्रिरात्रं पंचरात्र या सप्ताह वा घृतान्बितम् । अर्थ-हरड एक सहस्त्र, आमला तीन दद्याधावकमाशुद्धः पुराणशकृतोऽथवा ॥ | सहस्र, पांचों प्रकार के पंचमुल २५० पल
अर्थ-विरेचनद्वारा शरीर के अच्छी तरह | इन सबसे दसगुना पानी डालकर औटावे, शुद्ध होने पर संसर्जनकी व्यवस्था करें फिर | जब दसवां भाग शेष रहजाय तव उतार तीन, पांच, वा सातदिन तक अथवा जब | कर छानले । सदनंतर हरड और आमले तक पुराने पलकी शुद्धि न हो तब तक की गुठलियों को दूर करके छिलकों को धृतयुक्त यावक देना चाहिये । सिल पर पीसले । और दालचीनी इलायची रसायन प्रयोग।
मोथा, हलदी, पीपल, अगर, रक्तचंदन, इत्थ संस्कृतकोष्ठस्य रसायनमुपाहरेत्।
मंडूकपर्णी, नागकेसर, शंखपुष्पी, बच,
मडूकपणा, नागकसर २ यस्ययद्योगिकंपश्येत्सर्वमालोच्यसाम्यवित क्षुद्रमोथा, मुलहटी, वायबिडंग । ये सब
अर्थ-इस तरह कोष्ठ का संस्कार कर | द्रव्य प्रत्येक एक कुडब, शर्करा ग्यारह तुला, के सात्म्यवित् वैद्यको उचित है कि संपूर्ण घी तीन पात्र, तेल दो पात्र । इन सबको वातों पर ध्यान देकर ये गिक रसायनों की पूर्वोक्त काढे में मिलाकर फिर पकावे, जब सात्म्यता का विचार करे । और उसीको चाटने के योग्य गढा होजाय तब उतार संग्रह करे ।
. .
| कर रखले और ठंडा होने पर तीनसौ बीस .
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म.३९
. उत्तरस्थान भाषाकासमैत ।
(९५७ )
पल शहत मिलावे । फिर इसको रई से | इस औषधका सेवन करने से मनुष्य निरोग मथ कर घी की हांडी में भग्दे । इसकी। और वृद्धावस्था से रहित होता है । तथा इतनी मात्रा सेवन करनी चाहिये जो सायं- | विशेष करके वल, पुष्टि, आय, स्मृति और काल के भोजन में बाधक न हो । औषध । मेधादि युक्त होकर सौ वर्ष का जीवन लाभ के पचने पर दूधके साथ सांठी चांवलोंका | करता है। भात खाने को दे । ब्रह्मा की बनाई हुई
अन्यरसायन । इस रसायन को सेवन करके बैखानस और निरुजाईपलाशस्थ छिन्ने शिरसि तत्क्षतम
अंतर्द्विहस्तं गभीरं पूर्यमामलकैर्नवैः ॥२८॥ बालखिल्यादि सपोधन मुनि तन्द्रा, श्रम, |
'| आमुलं वेष्टितं दभैः पद्मिनीपंफलेपितम् । क्लान्ति,वली और पलितादि रोगोंसे रहित ! आदीप्य गोमयैर्धन्यनिर्वाते स्वेदयेत्ततः । होगये, तथा उनको मेधा, स्मृति, बल, स्विन्नामि तान्यामलकानि तृप्त्या और दीर्घजीवन का लाभ हुआ था। खादेन्नरः क्षौद्रघृतान्वितानि । अन्य रसायन ।
भीरं शतं चाऽनु पियेत्प्रकामं
तेनैव धर्तत च मासमेकम् ॥ ३०॥ अभयामलकसहस्रं निरामयं पिप्पलीसहस्र |
बानि बानि च तत्र यत्नायुतम् ।
स्पृश्यं च शीतांबु न पाणिनाऽपि । तरुणपळाशक्षारद्रवीकृतं स्थापयेद्भडि॥ ।
एकादशाहेऽस्य ततो व्यतीते उपयुक्त वक्षारेछायासंशुष्कचूर्णितंयोज्यम्
पतंति केशा दशना नखाश्च ॥ ३१॥ पादांशेनसितायाश्चतुर्गुणाभ्यांमधुधृताभ्याम् तघृतकुंभे भूमोनिधायषण्माससंस्थमुद्धृत्य
अथाल्पकैरेव दिनैः सुरूपः
स्त्रीष्वक्षयः कुंजरतुल्यवीर्यः । प्राहे प्राश्ययथानलमुचिताहारोभवेत्सततम् इत्युपयुज्याऽशेषर्षशतमनामयोजराराहितः
विशिष्टमेधावलबुद्धिसत्त्वो जीवति बलपुष्टिवपुः स्मृतिमेधाद्यन्वितो.
भवत्यसौ वर्षसहस्रजीवी ॥ ३२॥ विशेषेण ॥२७॥ अर्थ-कीटादि द्वारा अप्रतिहत एक अर्थ-एक पात्र में नवीन ढाकके क्षार | हरे ढाक के वृक्षका मस्तक दूर करके उस से द्रवीभूत की हुई एक एक हजार हरड में दो हाथका गढा करके उसमें हरे आमामला और पीपल रक्खे । फिर इनको | मले भादे, उसके ऊपर से नीचे तक छाया में सुखाकर वारीक पीसले । फिर कुशा लपेट कर कमलकी कीचड हेसदे । इसमें चौथाई भाग शर्करा मिलाकर एक फिर उसको निवातस्थान में भारने ऊपलों कलश में भरकर छ: महिने तक भूमि में की आग से स्वेदित करे । इन मामलों को गाढदे । तदनन्तर औषधको निकाल करछी भोरं शहत के साथ तृप्तिपर्यन्त खाकर जठराग्नि के अनुसार इसकी मात्रा प्रात:काल | ऊपर से दुग्धपान करे और एक महिने तक के समय सेवन करे । इस पर हितकारी | केवल दूध पीकर रहै । तथा रसायनविधि आहार का पध्य करता रहे। नियमानुसार | में जो क्षारादि निषेध किये गये हैं, उनका
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( ९५८ )
अष्टांगहृदय ।
परित्याग करदेवै । ठंडे जलको हापसे भी । छोष्टीइलायची, अगर, दाख, पुष्करमूल, रक्तचन्दन, कचूर, सांठ, काकोली, काकजंघा, गिलोय, विदारीकंद, और असेकी जड, प्रत्येक एक पल, ढीली पोटली में बंधे हुए ५०० आमले | इन सब द्रव्यों को एक साथ एकद्रोण जल में पकावे | चौथाई शेष 1 रहने पर उतारकर छानले । और उस 1 पोटली में से आमलों को खोलकर उनकी गुठली तो फैकदे और उनको छः छः पछ मिले हुए घी ओर तेलमें भूनकर शिकापर पीसले । फिर ५० पल मिश्री, ऊपरवाला कांट का जल, और पिसे हुए मामलों को मिलाकर पकावे । व्हेई की तरह गाढा होजाने पर वंशलोचन ४ पल, पीपल२पल, दालचीनी, इलायची, तेजपात नागकेसर ४ तोले इन सबका चूर्ण मिलाकर रखले । ठंडा होने पर इसमें छः पल शहत मिलाकर घी की हांडी में भरकर रखदे । इसके सेवन से खांसी, श्वास, ज्वर, शोष, हृद्रोग, वातरक्त, मुत्र और शुक्रगतदोष तथा स्वरविकृति नष्ट हो जाते हैं । इससे मेधा, स्मृति, कांति, स्वास्थ्य, आयुर्वृद्धि, वायुका अमुलोमम, मैथुनशक्ति, इन्द्रियबल और अग्निबल की वृद्धि होती है । जरावस्था से पीडित च्यवनमुनि इस रसायन के सेवन करने से दिव्यमूर्ति होगये थे । इसकी मात्रा दो तोले है । इस पर दूधका अनुपान है । त्रिफला रसायन ।
1
मधुकेन तवीर्या पिप्पल्या सिंधुजन्मना । पृथग्लोहैः सुपर्णेन वचया मधुसर्पिपा ४२ सितयां वा समायुक्ता समायुक्तारसावनम्
छूना वर्जित है । इस तरह ग्यारह दिनतक रहने से केश, नख और दांत सबं गिर पडेंगे । और थोडेही दिन पीछे सुंदर केश, नख और दांत पैदा हो जायगे । इस रसायन के सेवन करने से मनोहर कांति, स्त्रीसंगम की बेष्ट सामर्थ्य, हाथी के समान वीर्य, तथा मेघा बल बुद्धि और सत्वकी अधिकता होती है । इस रसायन का सेवन करनेवाला सहस्रवर्ष की आयुलाभकर सकता है 1 च्यवनमाश ।
दशमूलवास्तविकर्षभकोत्पलम् । पर्णिम्यो पिपली शृंगीदातामलकीत्रुटि: जीवंती जोंग के दासा पोकर चंदनं शठी । पुनर्नवाद्वि काकोलीकाकनासामृताह्वयाः । विदारीवृपमूलं च तदेकभ्यं पलोम्मितम् । जलद्रोणे पवेत्पंच धात्रीफलशतानि च ३५ पादशेष रीतस्माद्वयस्यास्यामलकानि च । गृहीत्वा भर्जयेतैलवृतादृद्वादशभिः पलैः । मत्स्यंडिकालाधन युक्तं तल्लेहवत् पचेत्
हा मधुसिद्धे तु तबक्षीर्याश्चतुष्पलम् पिप्पल्या द्विपदद्याच्चतु जति कणाधितम् । अतोऽबलेहयेन्मात्रां कुटीस्थः पथ्यभोजनः इत्येष च्यवनप्राशो यं प्राश्य व्यषनो मुनिः जराजर्जरितो ऽप्यासीनारीनयननंदनः । कालं श्वासं ज्वरशोषहृद्रोगंवातशोणितम् मूत्रशुक्राशयान् दोषान्वैस्वर्ये च व्यपोहति वालवृद्धक्षत क्षीणकृशानामंगवर्धनः ४०
मेघां स्मृति कांतिमनाभयत्वमायुःप्रकर्षे पवमानुलोम्यम् स्त्रीषु महर्षे वलमिद्रियाणामनेश्च कुर्याद्विधिनेोपयुक्तः ॥ ४१ ॥ अर्थ - दशमूल, खरैटी, मोथा, जीवक, ऋषभक, नीलोत्पल, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, पीपल, काकडालिंगी, मेढा, भूम्यागलकी,
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म० ३९
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५.३९
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९५९)
त्रिफला सर्वरोज्नी मेधायुः स्मृतिद्धिता अर्थ-बालछड,कुटकी, दुग्धका,मुलहटी
अर्थ-मुलहटी,वंशलोचन, पीपल,संघा- चंदन, अनन्तमूल, क्च, त्रिफला, त्रिकुटा, नमक, रूपा, तांबा, सीसा, संग, लोहा, हलदी, दारुहलदी, पर्वल और सेंधानमक । सुर्वण, वच, मिलाहुआ घी शहत शर्करा । इन सब द्रव्यों को समानभाग लेकर अच्छी इसमें से प्रत्येक के साथ त्रिफला का सेवन | तरह से पीसकर इस कल्क से तिगुना करने से सबरोग नष्ट हो जाते हैं । तथा शंखपुष्पीका रस मिलावे । तथा दूध और मेध', आयु, स्मृति और बुद्धि बढती हैं । घी एक एक प्रस्थ मिलाकर पकावे । इस पह रसायन बहुत उत्तम है।
रसायन के सेवन करने से जड मनुष्यभी . अन्य रसायन । .. मंडूकपः स्वरसं यथाग्नि
वाचाल,श्रुतधारी सुनीहुईवातको याद रखने. क्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम् । वाला ) प्रतिभाशाली और रोगरहित होताहै। रसं गुइयाः सहमूलपुष्पयाः
पंचारविंद रसायन। .... कल्कं प्रयुजीत व शंखपुष्प्याः ॥४४॥
पेप्यमृणालविसकेसरपत्रवीत मायुःप्रदान्यामयनाशनानि पलाग्निवर्णस्वरवर्धनानि ।।
सिद्धं सहेमशकलं पयसाच सर्पिः ।
पंचारविंदमिति तत्प्रयितं पृथियां .. मेध्यानि चैतानि रसायनानि
प्रभ्रष्टपौरुषबलप्रतिभैनिषेव्यम् ॥४८॥ मेध्या विशेषेण तु शंखपुष्पी ॥४५॥
. अर्थ-कमलनाल,कमलकंद, कमलकेसर, अर्थ-अग्निवल के अनुसार मंडूकपर्णी का स्वरस । दूध के साथ मुलहटी का चूर्ण
कमलपत्र, कमलबीज, इस पंचांगको अच्छी जड और पुष्पसहित गिलोय का रस ।
तरह पीसकर इसमें सुवर्ण की भस्म, दूध
और घी के साथ पाक करे । यह पंचारतथा. शंखपुष्पी का करक प्रयोग करे ।
विन्द रसायन उसको देनी चाहिये जो इनमें से हर एक आयुको बढानेवाला,रोगनाशक, बल अग्निवर्ण और स्वरको बढ़ाने । पार
| पौरुषबल और प्रतिभा से हीन होगया है ।। वाला और मेघाजनक है । शंखपुष्पी का
- अन्य प्रयोग । करक सो बहुतही मेधावक है।
यत्रालकंददासरवादिपक अन्य प्रयोग।
नीलोत्पकस्य तदपि प्रथितं द्वितीयम् नहद कटुरोहिणी पयस्या
सर्पिश्चतुकुवलयं सहिरण्यपत्र मधुकं चंदनसारिवोग्रगंधा।
मेध्यं गधामपि भवेत् किमु मानुषाणाम् त्रिफला कटुकभयं हरिद
अर्थ-नीलकमल का नाल, कंद, पत्र सपटोलं लवणं च तैः सुपिष्टः ॥४६॥ और केसर इन चारों को अच्छी तरह पास. त्रिगुणेन रसेन-शंखपुया
कर इसमें सौनेकी भस्मको दूध और घीके सपयस्क वृतानलमणं विपकमा । | उपयुज्य भारोऽपि भाग्मी । साथ पकाकर सेवन करनेसे मेधाको अत्यश्रतधारी प्रतिभानधानरोगः ॥४७॥ | न्तवृद्धि होती है।
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मष्टांगहृदय ।
बाक्यिनाशक रसापन ।
| अक्षमा ततो मूलाच्चूर्णितात्पयसापिबेत् ब्राह्मीवचासैंधवशंखपुष्पी
| लियाम्मधुकृताभ्यां वा क्षीरवृत्तिरनन्नभुक्
एवं वर्षप्रयोगेण जीवेद्वर्षशतं पली ।। मत्स्याक्षकब्रह्मसुवर्चलेद्रयः। वैदेहिका व त्रियवाः पृथक्स्यु.
अर्थ-शरत्काल के प्रारंभमें पुष्य नक्षत्र र्यवौ सुवर्णस्य तिलो विषस्य ॥ ५० ॥
के दिन नागबला की जडलाथै । इस जड सर्पिषश्च पलमेकत एत
का चूर्ण करके एक तोला दूध अथवा धी द्योजयेत्परिणते च घृताढयम् । और शहत के साथ सेवन करे । इस पर भोजनं समधु वत्सरमेवं
केवल दूबका पथ्य दे । भन्न न दे । इस निशीलयन्नधिकधीस्मृतिमेधः ॥ ५१॥ अतिक्रांतजराज्याधितंद्रालस्यश्रमलमः।
यम से एक सालतक औषधका सेवन करने जीवत्यदशतं पूर्ण श्रोतेजःकांतिदीप्तिमान् स मनुष्य बल
से मनुष्य बलवान और शतायु होता है। विशेषतः कुष्ठकिलासगुल्म
शक्तिवर्द्धक प्रयोग ॥ विषज्वरोन्मादगरोदराणि
फलोन्मुखो गोक्षुरका समूलअथर्वमंत्रादिकृताश्च कृत्याः
श्छायाविशुष्क सुविचूर्णितांगः। शाम्यत्यनेनातिबलाश्च वाताः
सुभाषितः स्वेन रसेन तस्माअर्थ-ब्राह्मी,बच,सेंधानमक, शंखपुष्पी, मात्रां परां मासूतिकी पिवेद्यः ॥५६॥ पतंग, ब्राह्मी, इन्द्रायण, पीपल प्रत्येक तीन
क्षीरेण तेनैव च शालिमश्नन्
जीणे मवेस्सद्वितुलोपयोगात् । यव, सुर्वण भस्म दो यव, विष एक तिल,
शकः सुरूपः सुभगः शतायुः घृत एक पछ, इन सब द्रव्योंको एकत्रकरके कामी ककुमानिव गोकुलस्थः ॥ ५७ ॥ मात्रानुसार सेवन करे । औषधके पचने अर्थ जिसमें फल निकलने ही को हो पर घृतप्लुत मधुमिश्रित हितकारी भोजन ऐसे गोखरूके वृक्षको जड समेत लाकर छायामें करना चाहिये । नियमपूवर्क एक वर्षतक सुखाकर बारीक पीसले, इस चूर्णको गोखरू इस औषधका सेवन करनेसे बुद्धि, स्मति के रसकी ही भावना देवै और इसमें से एक भौर मेधाकी अधिक वृद्धि होती है। जरा. प्रसूति दूधके साथ सेवन करे । औषधके पचने व्याधि, तंद्रा, आलस्य,थकावट, और क्वांति । पर दूधके साथ शालीचांवलों का भात सेवन जाते रहते है और आयुभी पूरे सौ वर्षकी | करे । इस नियम से जो मनुष्य क्रमसे दो सौ होनाती है, शरीर की श्री. तेज.कांति और | पल इस औषधका सेवन कर लेता है, वह दीप्ति होती है । कुष्ठ, किलास, गुल्म,विष
कार्यपटु, सुरूप, सौभाग्यशाली, शतायु, ज्वर और गरोदर नष्ट होजाता है । अपर्व. और गोकुळस्थ सांदकी तरह कामी हो जाता है मंत्रोद्भूत कृत्या और अति प्रबल वातप्रकोप । अन्य प्रयोग ॥ . शांत होजाते हैं।
पाराहीकरमाद्र क्षीरेण क्षीरपः पिवेत् । अन्य अवलेह ॥ | मासं निरनोमास व मीराबादोजराजयेत् शरन्मुख्ने नागवला पुष्ययोगे समुद्धरेत्। अर्थ-गीले वाराहीफंद को एक महिने
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'म.३९
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९६१)
तक दूधके साथ सेवन करें। इस पर केवल | से काले फूलवाला चीता गुणकारक है । इस दूध पीकर रहै । अन्न का सेवन न करे। का विधिपूर्वक सेवन करने से यह रसायन दूसरे महिने में औषध के सेवन कालमें दूध का काम देता है
और भन्नका सेवन करे तो वुढापा नष्ट हो चीते का प्रयोग। जाता है।
छायाशुभकं ततो मूल मास चूर्णीकृत लिहन अन्य प्रयोग।
सर्पिषा मधुसर्पियो पियन् वा पयसा यति; सत्कंदलणचूणे वा स्वरसेन सुभावितम् मेधावी वलवान् कांतोवपुष्मान् दीप्तपावकः
अंभसा वा हितानाशी शतं जीवति नीरजः घृतक्षौद्रप्लुतं लिह्यासत्पक्कं वा घृतं पिवेत् ।
अर्थ-चीतेकी जडको छायामें सुखाकर ___ अर्थ-बाराहीकंद की जडको महीन पीसकर इसमें इसीके रसकी भावना देखें।
और अच्छी तरह पीसकर एक महिने तक
घीके साथ अथवा घी और शहत के साथ इस औषधको घी और शहतके साथ सेवन
सेवन करे और जितेन्द्रिय होकर दूधके साथ करे | अथवा बाराहीकंद के कल्क के साथ
पीवे । अथवा हितकारी पथ्य करता हुआ घृत पकाकर पान करे।
पानी के संग पीवे । इसके सेवन से मनुष्य अन्य प्रयोग। तद्विदातिवलाबलामधुकवायसी।
निरोग होकर सौ वर्षतक जीता है । तथा प्रेयसी श्रेयसीयुक्तापथ्याधात्रीस्थिराभृताः | मेधा, बल, कांति,सुन्दरता और जठराग्निकी मंडुकीशखकुसुमावाजिगंधाशतावरी। वृद्धि ये भी बढते हैं। उपयुंजीत मेधावी पयायबलप्रदाः ॥
अन्य अवलेह । __ अर्थ-विदारीकंद के सदृश ही अतिबला, | तैलेन लीढो मासेन बातान् हंति सुदुस्तरान् बला, मलहटी, काकमाची, पीपल, हरड, मूत्रेण श्वित्रकुष्ठानि पीतस्तकेण पायुजान् ॥ मामला, शालपी, गिलोय, मंडूकपर्णी, अर्थ-चीते के चूर्ण को एक महिने तक शंखपुष्पी, असगंध, सितावर, इनमें से प्रत्येक तेल के साथ सेवन करने से दारुण वातरोग का चूर्ण घी और दूध के साथ सेवन करे। जाते रहते हैं,गोमूत्र के साथ सेवन करने से इससे मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है, तथा । श्वित्रकुष्ठ और तक के साथ सेवन करने से वयकी स्थिरता और बलकी वृद्धि होती है। अरोग जाता है। चीते का प्रयोग।
भल्लातक प्रयोग। यथास्त्र चित्रकः पुष्पैःयापीतसितासितः। भल्लातकानि पुष्टानि धान्यराशौ निधापयेत् यथोत्तरं स गुणवान् विधिना व रसायनम् प्रीष्मे संगृह्य हेमंते स्वादुस्निग्धहिमैर्वपुः ॥ अर्थ-पीले, सफेद और काले फूलोंसे |
संस्कृत्य तान्यष्टगुणेसलिलेऽष्टौ विपाचयेत्
| अष्टांशशिष्टं तत्काथं सक्षीरं शीतलं पिवेत् चीतेकी पहचान होती हैं, ये उत्तरोत्तर गुण-अर्धयेत्प्रत्यहं चानु तत्रैकैकमरुष्करम् ।। कारी है अर्थात् पाले से सफेद और सफेद | सप्तरात्रत्रय यावत् प्रापि त्राणि ततः परम्
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( ९६२)
अष्टांगहृदय ।
अ०.३९.
भावत्वारिंशतस्तानि हासयवित्तमः। । परिबारित समंतात्पचेत्ततो गोमयामिनासहस्रमुपयुजीत सप्ताहैरिति सप्तभिः॥ ..
मृदुना। यंत्रितारमा घृतक्षीरशालिषाष्टिकभोजनः। तत्स्वरसोयश्च्यवतेगृहीयात्तंदिनेऽन्यस्मिन् तद्वात्रिगुणितं काळं प्रयोगांतेऽपि चाचरेत् ममुमुपयुज्यस्वरसमध्यष्टमभागिकं. आशिषो लभतेऽपूर्वा वर्दीप्ति विशेषतः।
द्विगुणसर्पिः। प्रमेहकमिकुष्टाओं मेदोदोषविवर्जितः ॥ पूर्वविधियंत्रितात्मा प्राप्नोति गुणान्स तानेष .. अर्थ-गर्मी की ऋतु में मोटे ३ भिलाषे
अर्थ- एक पिष्टस्वेदन पात्र जिसमें शालि लाकर नाज के ढेर में गाढ दे. फिर हेमंत
| धान्यका चूर्ण स्वेदित किया जाता है लेये ऋतु में स्वादु, स्निग्ध और शीतल पदार्थों और इसमें दृढ तथा जर्जरतासहित भिलाकों के सेवन से देह को संस्कृत करके उन को भरकर ऊपर काली मृतिका लपेटकर भिलावों मेंसे आठ लेकर भठ गुने जल में पेंदे में छेद करके एक पात्र में रखदे जो पकावे, जब भष्टमांश शेष रह जाय तब भूमिमें गढा हो, और इस पात्रके चारों ओर उतारकर छान ले, इस क्वाथ को ठंडा करके | आरने उपलों की मंदी आग जलादेव। दूध के साथ सेवनकरे, फिर प्रति दिन एक ऐसा करने से उस छेदमें होकर जो रस एक भिलावा वदाता रहै, इक्कीस दिन तक टपके उसको दूसरे दिन लेकर उसमें अठइसी तरह करे, इक्कीस दिन पीछे प्रति गुना शहत और दुगुना घी मिलाकर पूर्वोक्त दिन तीन तीन बढावै. इस तरह ४० रीति से सेवन करने से उक्तफल की प्राप्ति भिलावे पर पहुंचकर जैसे बढाये थे उसी होती है । इसमें नियमपूर्वक रहना भावक्रम से घटावै, इस तरह सात सप्ताह में | श्यीय है। बढाने घटाने के क्रम से १००० मिळायों अमृतरसतुल्य पाक । का प्रयोग करे, तथा संयतात्मा होकर घी, पुष्टानि पाकेन परिच्युतानि दूध,शाली और साठी चांबलों का पथ्य करे। भल्लातकान्याढकसम्मितानि । मिलावे के प्रयोग के पीछे भी २१ सप्ताह घृष्टेष्टिकाचूर्णकगैजेलेन तक इसी तरह से हितकारी भोजनों को मक्षाल्य संशोध्य च मारुतेनं ॥ ५॥
जर्जराणि विपचेजलकुमे करता है, इस भल्लातर्फ रसायन के सेवन
पावशेषधूतगालितशीते। करने से अपूर्व आशीर्वादों को प्राप्त करता तसं पुनरपि श्रपयेत हुआ जठराग्नि की वृद्धि को प्राप्त करताहै क्षीरकुंभसाहतं घरणस्थे ॥ ७६ ॥ तथा प्रमेह, कृमि,कुष्ठ, मर्श और मेदो दोष
सर्पिः पक्कं तेन तुल्यप्रमाणं नष्ट होजाते हैं।
युज्यात्स्वेच्छं शर्कराया रजोभिः ।
एकीभूतं तत्वजक्षोभणेन भल्लातकस्वरस प्रयोग।
स्थाप्यं धान्ये सप्तरात्रं सुगुप्तम् ॥ पिष्टस्वदनमरुजैःपूर्ण भल्लातकैर्विजर्जरितः। तममृतरसपाक यः प्रगे प्राशमनन् भूमिनिखाते कुंभे प्रतिष्टितं कृष्णमृल्लिप्तम् ॥ अनु पिवति यथेष्ट वारिदुग्धं रसंघा।
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उत्तरस्थान भाषार्टीकासमेत ।
स्मृतिमतिबलमेधासत्त्वसारैरुपेतः । | पल मिलावै और इसको पकाले। यह औषध कमकानययगीरः सोऽश्नुते दीर्घमायुः॥
| सब प्रकार के कुष्ठ रोगों को दूर करतीहैं। ___ अर्थ-वे भिलावे जो पेडपर ही लकर
___ अन्य भल्लातक प्रयोग। और पककर अपने आप गिर पडते हैं उन
सहामलकशुक्तिभिदधिसरेण तैलेन वा। को एक आढक लेकर इंटके चूर्ण के साथ
गुड़ेन पयसा धृतेन यवसक्तुभिर्वा सह । घिसकर जलसे धोकर हवामें सुखाले। फिर तिलेन सह माक्षिकेण पळलेन पेन बा . इन भिलायों को पीसकर एक कुंभ जलमें अपुष्करमरुष्करं परममेध्यमायुष्करम् ॥ पकावे चौथाई शेष रहने पर उतार कर
अर्थ-आमले की छाल, दही की मलाई छानले । ठंडा होने पर फिर इस काढेको तेल, गुड, दूध, घी, जौ का सत्तू, तिल, एक कुंभ दूधके साथ पकावे और चौथाई मधु, मांसरस, वा सूप इनमें से किसी के शेष रहने पर उतार कर छानले । फिर
साथ सिद्ध किया हुआ भिलावा सेवन करने इसके साथ समानभाग घीको पकावे फिर
से शरीर में सुन्दरता तथा मेधा और भायु इममें उचित प्रमाण से शर्करा मिलाकर ।
की वृद्धि होती है। हाथ से मथकर किसी पात्रमें भर नानके
. अमृतकल्प मल्लातक।
भल्लातकानितीक्ष्णानिपाकीन्यग्निसमानिय ढेरमें गाढदे । सात दिन पीछे निकाल ले।
| भवत्यमृतकल्पानि प्रयुक्तानि यथाविधि। यह अमृतरसपाक है । इसको प्रात:काल के ___अर्थ-पका हुआ भिलावा तीक्ष्णवीर्य समय सेवन करके यथेष्ट जल, दुग्ध का और अग्नि के समान होता है, इसका विधि मांसरस का भनुपान करे । इससे स्मृति, पूर्वक सेवन करना अमृतकल्प होता है। मति, बल, मेधा, सत्य, सार और दीर्घायुकी | भिलावे की प्रशंसा । प्राप्ति होती है । और शरीर भी सुवर्ण की कफजो न स रोगोऽस्ति न विवंधोऽस्तिशलाका कासा होमाता है।
कश्चन । ये न भल्लातकं हन्याच्छीघ्रमग्निवलप्रदम् ॥ कुष्ठनाशक तैल।
मर्थ-कोई कफज रोग ऐसा नहीं है, द्रोणेऽभसो प्रणकृतां निशताद्विपक्कात् । काथाढके पळसमस्तिलनेलपात्रम् ।
और ऐसी कोई बिबद्धता नहीं है, जो तिकाविषादयवरागिरिजम्मताः । भिलावे से नष्ट न हो सकती हो, यह शीघ्र सिद्धं पर निखिलकुष्ठनियहणाय ॥ ७९॥ अग्निबल को बढानेवाली है।
भर्य-पके हुए तीनसौ मिलाये एक .. भल्लातक में वर्जित द्रव्य । द्रोण जल में पकावे, चौथाई शेष रहने पर बातातपविधानेऽपि विशेषेण विषर्जयेत् । उतार कर छानले, और इसमें एक पात्र कुलत्यधिस्कानि तैलाभ्यंगाग्निसेवनम् ॥ तेल तथा कुटकी, दोनों प्रकार के अतीस, अर्थ-वात और आतप के विधान में त्रिफला, शिलाजीत और रसौत प्रत्येक एक भी विशेष करके कुलथी, दही, शुक्त,
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( ९६४)
.
अष्टांगहृदय।
तैलाभ्यंग, और अग्नि सेवन, ये सब त्याग अंत में हथेली भर इस तेलको पान करे । देने चाहिये।
पान करने से पहिले मज्जासारादि इस मंत्र सर्वकुण्ठनाशक तेल ।
| से उक्त तेलको अभिमंत्रित करे । इस तेल वृक्षास्तुवरका नाम पश्चिमार्णवतीरजाः।। बीचीतरंगविक्षोभमारुतोद्धतपल्लवाः ॥
के सेवन करने से शरीरस्थ दोष बारबार
ऊपर वा नीचे के मार्ग से निकल जाते हैं तभ्यः फलान्यादीत सुप्रकान्यबुदागमे । । मजाफलेभ्यश्चादायशोषयित्वाऽवचूर्णयच सायंकाल के समय चिकनाई और नमक तिलवत पीड़येद् द्रोण्यां क्वाथयेद्वाकुसुंभवत् से रहित ठंडी यवागू का पान करे । इस ततैलं संसृतं भूयः पचेदासलिलक्षयात् ॥
नियम से पांच दिन तक यह तेल पीना अवतार्य करीषेच पक्षमा निधापयेत् ।
| चाहिये तथा वर्जित द्रव्यों का सर्वथा त्याग स्निग्धस्विन्नो हतमल पक्षादुधृत्य तत्ततः॥ चतुर्थभकांतरितः प्रातः पाणितलं पिबेत् ।। करदेना चाहिये । इस तेल के पीने से सब मरणानेन पूतस्य तैलस्य दिवसे शुभे । प्रकार के कुष्ठ जाते रहते हैं। मजासार महापीर्य धातून सर्वान् विशोधय अन्य प्रयोग। शंखचक्रगदापाणिस्त्वामाज्ञापयतेऽच्युतः। तदेव खदिरकाथे त्रिगुणे साधु साधितम् । तेनास्योलमधस्ताच्चदोषा यांत्यसकृत्ततः। निहितं पूर्ववत्यक्षं पिबेन्मासं सुयंत्रितः। सायमस्नेहलवणां यवागू शीतलां पिबेत् । तेनाभ्यक्तशरीरश्च कुशाहारमीरितम् । पंचाहानि पिवेत्तैलमित्थं वानि वर्जयेत् अननाशु प्रयोगेण साधयेत्कुष्ठिनं नरम् । पक्षं मुद्गरसानाशी लबर्षमुच्यते ।। अर्थ-उपर लिखे हुए तेल को खैर के - अर्थ-पश्चिमीय समुद्र के किनारों पर तिगने क्वाथ में उत्तम रीति से पकाकर तुबुर नामक वृक्ष होते हैं, इनके पत्ते समुद्र
पूर्वोक्त रीत के अनुसार सूखे गोवरमें गाढदे की लहरों से क्षुभित हुए वायु द्वारा हिलते
फिर पन्द्रह दिन पीछे निकाल कर नियम रहते हैं । वर्षाऋतु के आगमन काल में
पूर्वक एक महिने तक पान करे, इस तेल इनके पके हुए फलों को एकत्रित करे ।
को देह पर लगाकर पूर्वोक्त मुद्गरस और इनके गूदे को सुखाकर पीसले । और
अन्नादि का भोजन करे । इस औषध से इसको तिलों की तरह द्रोणी में पीडित
कुष्ठरोग शांत होजाता है। करके अथवा कसूमकी तरह काढा करके तेल
द्विशतायुष्कर तेल । निकालले और इस तेलको अग्नि पर पका
| सर्पिर्मधुयुतं पीतं तदेव खदिराद्विना।" कर जलरहित करदें। इस तेलको किसी पक्षं मांसरसाहारं करोति द्विशतायुषम् । पात्र में भरकर सूखे हुए गोवर के ढेर में अर्थ-इस तुवर मज्ज के तेल को खैर पन्द्रह दिनके लिये गाढ देवे । और फिर के कार्य में सिद्ध किये बिना घी और शहत निकाल कर रखछोडे । फिर स्निग्ध और के साथ पन्द्रह दिन तक पान करे, और स्विन्न होकर तथा वमन विरेचन-से शुद्ध । मांसरस का अहार करे, इससे दोसौ वर्षकी होकर किसी शुभदिन में चौथे भोजन के | भायु होजाती है ।
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उत्तरस्थान भाषाकासमेत ।
त्रिशतायुष्कर प्रयोग। । साथ सेवन करे, फिर प्रति दिन दस चढातदेव नस्ये पंचाशदिवसातुपयोजितम् । । कर दसवें दिन सौ का सेवनकर फिर दस पपुष्मतं श्रुतधरं करोति त्रिशतायुषम् ।। दस घटाकर कम करे, इस तरह एक सहस्र अर्थ उक्त तेल का पचास दिन तक |
पीपलके सेवन से रसायन होतीहै, बलवान नस्यकर्म द्वारा प्रयोग करने से शरीर की
मनुष्य इन सब पीपलों को पीसकर और सुन्दरता, स्मृतिशक्ति की वृद्धि, और तीन
मध्य वलवाला सेगी काथ करके सेवनकरे, सौ वर्ष की आयु होजाती है।
औषध पचनेपर घी और दूधके साथ शाली . पिप्पलं प्रयोग।
चांवलों का भात खाने को दे, इस नियम पंचाटौ सप्तदश वा पिप्पलीमधुसर्पिषा।
से बकरी के दूध के साथ दो सहस्र पीपल रसायन गुणान्वेषी समामेकां प्रयोजयेत् । . अर्थ-पांच, माठ, सात या दस पीपल
तक सेवन करने का विधान है।
कासादिनाशक प्रयोग। घी और शहत के साथ एक बरस तक
.
एभिः प्रयोगःपिप्पल्याकासश्वासगलग्रहान् सेवन करे, इससे रासायनिक फलकी प्राप्ति
यक्ष्मामेहग्रहण्यर्शः पांडुत्वविषमज्वरान् । होती है।
धमति शोफंवमिहिमांप्लीहानंवातशोणितम् . अन्य प्रयोग।
___ अर्थ-उक्त नियम से पीपल का सेवन तिमस्तिस्रस्तुपूर्वाण्डेमुक्त्याने भोजनस्यच करने पर खांसी, श्वास, गलग्रह, यक्ष्मा, पिप्पल्या किंशुकक्षारभाषिता घतभर्जिताः प्रमेह, ग्रहणी, अर्श, पांडु, विषमज्वर, प्रयोज्या मधुसंमिश्रा रसायनगुणैषिणा ।
| सूजन, वमन, हिचकी, प्लीहा और वातरक्त अर्थ-कुछ पीपल लेकर पलाशके खारकी
जाते रहते हैं। भावना देकर और घी में भूनकर रखछोड़े,
अन्य प्रयोग। इनमें से तीन पीपल प्रातःकाल, तीन बिल्वार्धमात्रेण च पिप्पलीनां भोजन करने से पहिले और तीन पीछे मधु
पात्रं प्रलिंपेदयसो निशायाम् । मिलाकर प्रति दिन सेवन करे, इससे रसा
प्रातः पिबेत्तत्सलिलांजलिभ्यां
वर्षे यथेष्टाशनपानचेष्टः॥ १०३।। यन गुणों की वृद्धि होती है।
अर्थ-रोत्रि के समय दो तोले पीपलं अन्य प्रयोग।
पीसकर एक लोहे के पात्र पर लीप दे, क्रमवृक्ष्या पशाहानि पुश पैलिक दिमम्
दूसरे दिन प्रातःकाल ये पीपल दो अजलि वर्थयेत्पयसा सार्ध तथैवापनयेत्पुनः। . जीर्णौषधश्च मुंजीत षधि क्षीरसपिंपा। जल के साथ पीसकर यथेच्छ पान भोजनकरें पिप्पलीनां सहस्त्रस्य प्रयोगोऽध रसायनम यह रसायन भी पूर्ववत् मुणकारी है। पिष्टास्ता बलिभिषेयाः तामध्यवलैनरैः मुंठी प्रयोग। तवच्च छागदुग्धेन दे सहने प्रयोजयेत् ।। ठीबिडंगत्रिफलागुहू/
अर्थ-प्रथम दिन दस पीपल दूध के । पष्टीहरिद्रातिवलावलाश्च ।
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मष्टांगहृदय ।
म. ३९
मुस्तासुराव्हागुरुचित्रकाश्च करने से बुढापे के सब रोग जाते रहते हैं सौगंधिक पंकजमुत्पलानि ॥ १०४ ॥ धवाश्वकर्णासनवालपत्र
तथा हितकारी और परंमित भोजन करनेसे सारास्तथा पिपलिवत्प्रयोज्यः। आहार से उत्पन्न हुए सब रोग मिट जाते हैं लोहोपलिताः पृयगेव जीवे.
.. अन्य प्रयोग। स्समाः शतम्याधिजराविमुक्तः १०५ तीब्रेण कृष्ठेन परीतमूर्ति“अर्थ-सोंठ, वायविडंग,त्रिफला,गिलोय, पः सोमराजी नियमेन खादेत् । मुलहटी, हलदी, गंगेरन, खरैटी, नागरमोथा, संवत्सरं कृष्णतिलद्वितीयां देवदारु, भगर, चीता, तथा कल्हार, पद्म,
ससोमराजी वपुषाऽतिशेते ॥ १०८ ।। नीलोत्पल, धायके फूल, साल और असन
अर्थ-नियमपूर्वक एक वर्षतक काले तिलों इनके कोमल पत्तोंका सार । इनसे अलग
के साथ वाकुची का सेवन करने से तीन भलग पीपल की तरह रात्रि के समय लोहे कुष्ठ दूर होकर चन्द्रमा के समान कांतियुक्त के पात्रको लीपदे और प्रातःकाल दो अंजली
हो जाता है। जलके साथ सेवन करे । इससे मनुष्य व्याधि
. अन्य प्रयोग। भौर वृद्धावस्था से रहित होकर सौ वर्षकी
ये सोमराज्या वितुषीकृताया
इचूर्णरुपेतात्पयसः सुजातात् । आयु प्राप्त करता है।
उधृत्य सारं मधुना लिहंति रसायनको द्विगुण प्रकर्ष । तक्रं तदेवानुपिबंति चांते ॥ १.९ ॥ क्षीरांजलिभ्यां च रसायनानि
कुष्ठिन कुथ्यमानांगास्तेजातांगुलिमासिकार युक्तान्यमृन्यायसलेपनानि । भांति वृक्षा इव पुनः प्ररूढनवपल्लवाः। कुर्वति पूर्वोक्तगुणप्रकर्ष
अर्थ-छिली हुई वाकुची को पीसकर मायुःप्रकर्ष द्विगुणं ततश्च ॥ १०६ ॥
दूधमें मिलाकर दही जमादे और इस दही अर्थ-लोहेके पात्रपर लेपित की हुई उक्त
में से निकले हुए माखन को शहत के साथ रसायनों को आठ पल दूधके साथ सेवन
गलितांग कुष्ठरोगी को सेवन करावै और करने से पूर्वोक्त गुणसे अधिक गुण होता है
ऊपर से उसी दही का तक पान करादेवे। और आयु भी दूनी हो जाती है ।
जैसे मलितपत्रवाला वृक्ष फिर नवीन पत्तों - बाकुची अवलेह । .: भखनखदिरयूयितां सोमराजी. के उगने से सुशोभित हो जाता है, वैसेही मधुघृतशिखिपथ्यालोहचूर्णरुपेताम् । । गलितांग कुष्ठरोगी भी इस प्रयोग के सेवन शरदमवलिहानः पारिणामान् विकारां- करने से नई उंगली और नासिका प्राप्त स्त्यजति मितहिताशी तद्वदाहारजातान् | करके फिर सुशोभित हो जाता है । ____ अर्थ-असन और खैर के काथमें भावना
लहसनकीविधि । दी हुई वाकुची को मधु, घृत, चीता, हरड शीतवातहिमदग्धतनूनां और लोहचूर्ण के साथ एक वर्षतफ सेवन स्तम्धभुमकुटिलष्यथितास्थ्माम् ।
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अष्टांगहृदय । :
(९६७)
भेषजस्य पोहतानां वक्ष्यते विधिरतो लशुनस्य ॥ १११ ॥ अर्थ - जिसका देह शीत वा वायु और हिमसे दग्ध हो गया है, जिसकी हड्डियां स्तब्ध, भुग्न, कुटिल, और व्यथित हों, उन वोपहत रोगियों के लिये लहसन के सेवन की विधि यहां से आगे वर्णन करेंगे ।
लहंसनको श्रेष्ठत्व |
रामृतचीर्येण लूनाघे पतिता गलात् । अमृतस्य कणा भूमौ ते रसोनत्वमागताः द्विजा नाश्नंति तमतो दैत्यदेहसमुद्भवम् । साक्षादमृतसंभूतेर्ग्रामणीः स रसायनम् ।
अर्थ - जब राहु चोरी से अमृतपान कर रहा था उस समय भगवानने सुदर्शनचक्र से उसका गला काटा था उस वक्त अमृत के कण निकल निकल कर पृथ्वी पर पडे थे उन्ही से लहसन पैदा हुआ था-दैत्यको देहसे उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण लोग इसे नहीं खाते हैं, परन्तु यह अमृत से उत्पन्न होने के कारण सब रसायनों में उत्तम है ।
लहसन के सेवनका काल ।. शीलवेलशुनं शीते वसंतेऽपि ककोल्बणः श्रमोदयेऽपि वातार्तः सदा वा प्रष्मिकीलया स्निग्ध शुद्रतनुः शीतमधुरोपस्कृताशयः : तदुलावतंसाभ्यां चर्चितानुचराजिरः ।
अर्थ- -लहस न हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में सेवन करना चाहिये । कफाधिक्यवाला रोगीवसंतकाल में भी इसका सेवन करे । वातरोगी वर्षाऋतु में भी सेवन करे । अथवा स्निग्ध और शुद्धदेवाला मनुष्य शीतल और मधुर भोजन द्वारा कोष्ठ को शुद्ध करके सब ऋतुओं में इसका सेवन
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म० ३९
कर सकता है ! इस मनुष्य के अनुचरगण छहसन के कर्णाभूषण धारण करके उसके आंगन में विचरते रहैं ।
लहसन का प्रयोग |
तस्य कंदान वसंतांते हिमवच्छक देशजान् अपनीतत्वचो रात्रौ तीमयेन्मदिरादिभिः तत्कल्कस्वरसं प्रातः शुचितांतवपीडितम् मदिरायाः सुरूढायस्त्रिभागेन समन्वितम् मद्यस्यान्यस्यतैलस्यमस्तुनः कांजिकस्य वा तत्काल एव वा युक्तं युक्तमालोच्य मात्रया तैलसर्पिर्व सामज्जक्षीरमांसैरसैः पृथक् । . काथेन वा यथाव्याधि रसं केवलमेव वा पिबेडूषमात्र प्राकू कंठनाडीविशुद्धये ।
अर्थ - वसंतऋतु में उत्पन्न हुआ वा शीतल देशमें उत्पन्न हुआ मथवा शकदेश पै हुआ लहसन लेकर छीलडाले, फिर इसे मदिरा में वा बिजौरे के रस में भिगोकर क्लेदित करें । फिर इसका कल्क करके धुले हुए वस्त्र में निचोड़कर रस निकाल ले । उस रसको देश काल और पात्र के अनुसार सुरूढ मद्य वा अन्य किसी मधके तीन भाग के साथ अथवा तेल, दहीका तोड़ वा कांजी के साथ मिलाकर तेल, घी, वसा मज्जा, दूध और मांसरस इनमें से प्रत्येक के साथ योग करके व्याधिके अनुसार किसी उपयुक्त द्रव्यके काढके साथ वा केवल इसी बसको कंठकी विशुद्धिके निमित्त प्रथम गंडूष मात्र पान करे ।
वेदना में स्वेदनादि । प्रततं स्वेदनं चानु वेदनायां प्रशस्थते । शतिांबुसेकः सहसा धमिमूर्छाययोर्मुखे । अर्थ- वेदना में निरंतर इसका स्वेदन
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उत्तरस्थान मापाडीकासमेत ।
करना चाहिये । वमन और मुच्छी होनेपर मुखपर शीतल जल सहसा छोटे मारना उत्तम है।
शेषरस का पान | शेषपिवेत्क्रमापायेस्थिरतांगत ओजसि
अर्थ - क्लांति दूर होने पर और ओजो - पदार्थ के स्थिर होनेपर बचा हुआ रसपान करना चाहिये ।
शीतल लेपादि । विवादपरिहाराय परं शीतानुलेपनः । धारयेत्सावुकणिका मुक्ताः कर्पूरमालिकाः ।
अर्थ - विदाह की शांति के निमित्त शीतल लैप, जलसे भीगी हुई मोतियों की माला, और कपूरकी माला धारण करनी चाहिये ।
- हसन की मात्राका परिमाण । कुडवोऽस्य परा मात्रा तदर्थं केवलस्य तु । पलं पिष्टस्य तन्मज्ज्ञः समतं प्राकू च शीलयेत् ॥ १२३ ॥ अर्थ - मदिरा सहित लहसन के रसकी पूर्ण मात्रा एक कुडव है । केवल लहसन के 1 रसकी मात्रा आधा कुडव है । लहसन के कककी परा मात्रा एक पल है । इसका अम्मास भोजन से पहिले करना चाहिये ||
लहसन पर पथ्य । शायादनं जीर्णे शखकुरेदुपांडुरम भुंजीत यूत्रः पयसा रसैर्वा धन्वचारिणाम् अर्थ - लहसन के पचने पर शखकुंद के सम्रान सफेद पुरानेशाली चांवलों का भात
मुद्रादि यूत्र, दूध वा जांगल मांसरस के साथ भोजन करे ।
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( ९६८ )
तृषा मद्यादि सेवन । मद्यमेकं पिवेत्तत्र प्रबंधे जलान्वितम् ॥ अमद्यपसवार नालं फलांबुपरिसिस्थिकाम् ॥
अर्थ-यासकी अधिकतामें जल मिलाकर शराब पिलानी चाहिये । जो रोगी शराब पीने का अभ्यास न रखता हो तो उसे धान्याम्ल और फलांदु की परिसिक्थिका पान कराना चाहिये । (खट्टे फलोंसे जो सट्टक विशेष तयार होता है उसे फलावुपशिसिक्थि का कहते हैं, किसी किसी देशमें इसे किट्टी भी कहते हैं ।
लहसन के कल्का सेवन । तत्कल्क वा समधृतं घृत पात्रे खजाहतम् । स्थितं दशाहादनीयात्तद्वद्वा बसया समम् ॥
अर्थ-लहसन के फल्क के समान घी मिलाकर घी के पात्र में रईसे मथकर रखदे । दस दिन पीछे इसका सेवन करे अथवा वसा मिलाकर पूर्वोक्त विधि से सेवन करे । लहसन सेवनका अन्य प्रकार | विकंचुकप्राज्यरसोनगर्भान सशूल्यमांसान् विविधोपदशान् । विमर्दकान्वा घृतयुक्तान् प्रकाममद्याल्लघु तुत्थंमन् ॥ १२७ ॥ अर्थ - त्वचा से रहित बहुतसा लहसन डालकर शूलपर भुने हुए मसिके साथ अनेक प्रकारकी चटनियां बनाकर अथवा घी और शुक्त मिलाकर तद्वत् अन्य खाद्य पदार्थ के साथ थोडा थोडा भोजन करे ।
लहसन को उत्तमता | पित्तरक्तविनिर्मुक्त समस्ताधरणावृते । शुद्धे वा विद्यते वा यौनद्रव्य लशुभास्परम् ॥
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेव ।
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अर्थ-पित्त और रक्त के सिवाय अन्य | नात्युष्ण, पाक में कटु और अतिशय आवरणों से आवृत बायुमें अथवा आवरण छेदनकर्ता होता है । इन में से लोहज रहित केवल शुद्ध वायुमें लहसन के समान शिलानीत सव से उत्तम होता है । और कोई दूसरी औषध नहीं है।
उत्तम शिलाजीत के लक्षण । - लहसन को विपज्जनकत्व।
| गोमूत्रगंधि कृष्णंगुग्गुल्वाभविशकरमृत्तम् प्रियांबुगुडदुग्धस्य मांसमधाम्लविद्विषः।
| निग्धमनम्लकषांय मृदु गुरु व शिलाजतु. अतितिक्षोरजीर्ण च रसोनोव्यापदे ध्रुवम् ।
श्रेष्ठम् ॥ १३४॥
| अर्थ -जो शिलाजीत गोमुत्र की सी ___ अर्थ-जल, गुड और दूधस प्रेम रखने वाले को तथा मांस, मद्य और अन्न से द्वेष |
गंध से युक्त, काला, देखने में गूगल के रखने वाले को और अजीर्ण रोगीको लहसन । सदृश, शर्करारहित, मिट्टी से मिला हुआ, अवश्य ही व्याधिकारक है।
स्निग्ध, खटाई से रहित, कषायरसयुक्त
मृदु और गुरु होता है, वही श्रेष्ठ होताहै । लहसनके प्रयोगमें विरेचन ।
शिलाजीत की भावना विधि। . पित्तकोपभयादंते युज्यान्मृदु विरेचनम् । रसायनगुणानेवं परिपूर्णान्समश्नुते ॥
व्याधिव्याधितसात्म्य
समनुस्मरन् भावयेदवापारे। अर्थ-पित्तके प्रकोपको दूर करने के निमित्त
प्राक् फेवलजलधौतं लहसन के प्रयोग के पीछे मृदु विरेचन देना । शुष्कं काथैस्ततो भाव्यम् ॥ १३४॥ चाहिये । ऐसा करने से रसायन के संपूर्ण अर्थ--शिलाजीत को लोहे के पात्र में गुणों की प्राप्ति हो जायगी।
रखकर प्रथम जल से धोडाले, फिर इसको शिलाजीत का कल्क। सुखाकर रोग और रोगी दोनों को अनुकूल ग्रीष्मेऽर्कतप्ता गिरयो जतुतुल्यं वमंति यत् | हो उसी तरह से काथ के द्रव्यको स्थिर हेमाविषडधातुरसं प्रोच्यते तच्छिलाजतु ॥
करके उनके काढे की भावना देखें । अर्थ-ग्रीष्मऋतु में पर्वतों के अत्यन्त
भावना की विधि। गरम होजाने से जतु के. समान जो पदार्थ समगिरिजमष्टगुणिते निकाथ्यं भावनौषधं निकलता है, वह सुवर्णादि छ: प्रकार की
तोय। धातुओं का रस होता है । इसी रस को तभिहेऽष्टांशे पूतोष्णे प्रक्षिपेत् गिरिजम् ॥ शिलाजतु कहते हैं।
तत्समरसतां यातं संशुष्क प्रक्षिपेद्रसे भूयः
| स्वैः स्वैरेवं काथर्भाग्यं वारान् भवेत्सप्त। शिलाजीत के लक्षण । सर्वच तिक्तकटुक नात्युष्णं कटुपाकतः।
___ अर्थ-जितना शिलाजीत हो, उतना छेदन च विशेषेण लौह तत्र प्रशस्यते ॥
| ही क्वाथ द्रव्य लेकर उसको अठगुने जल अर्थ-सब शिलाजीत छः प्रकार की में भौटावे, अष्टमांश शेष रहने पर उतार धातुओं से उत्पन्न होने पर भी तितकटु, कर छानले और इस गरम काढ़े में शिला
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जीत डालदे जब शिलाजीत घुलकर एक रस हो जाय तब इसको सुखाकर फिर उक्त काढे में डाल देवै । इस तरह उपयुक्त काढे सात की भावना दे । शिलाजीत का प्रयोग | अथ स्निग्धस्य शुद्धस्यघृततिक्तकसाधितम् त्र्यहं युजीत गिरिजमेकैकेन तथा त्र्यहम् ॥ फलत्रयस्य यूषेण पटोल्या मधुकस्य च । योगयोग्यं ततस्तस्य काळापेक्षं प्रयोजयेत् ॥ शिलाजमेव देहस्य भवत्यत्युपकारकम् । गुणान्समग्रान् कुरुते सहसा व्यापदं न च ॥
अर्थ- उक्त रीति से शिलाजीत को भावना देकर रोगी को स्नेह द्वारा स्निग्ध और विरेचनादि द्वारा शुद्ध करके तिक्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ घी तीनदिन तक पान करावे । तत्पश्चात् तीन दिन तक त्रिफला के काढ़े के साथ, तीन दिन तक पर्व के काढ़े के साथ और तीन दिन तक मुलहटी के काढ़े के साथ, उक्त भा वना दिये हुए शिलाजीत का प्रयोग करे । शिलाजीत का प्रयोग करने के पीछे देशकाठादि की विवेचना करके यथोपयुक्त औषध देना चाहिये । इस नियमसे शिलाजीत का प्रयोग करने पर शरीरको उपकारी होगा, तथा सब प्रकार के गुण करेगा और किसी प्रकार की विपद उपस्थित न होने देगा |
शिलाजीत का त्रिविध प्रयोग | एकत्रिसप्तसप्ताहं कर्षमर्धपलं पलम् । हीनमध्योत्तमो योगः शिलाजस्य क्रमान्मतः
अर्थ - अवस्थानुसार एक, तीन वा सात सप्ताह तक शिलाजीत का प्रयोग करे
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हृदय |
| इसकी हीनमात्रा एक कर्ष की, मध्यमात्रा आधेपल की और उत्तम मात्रा एक पल की होती है ।
शिलाजीत को रसायनत्व |
अ० ३९
संस्कृतं संस्कृते देहे प्रयुक्तं गिरिजाह्वयम् । युक्तं व्यस्तैः समसेर्षा ताम्रायोरूप्यहेमभिः क्षीरेणालोडितं कुर्याच्छीघ्रं रासायनं फलम् कुलत्थां काकमाचच कपोतांश्च सदात्यजेत्
अर्थ-स्नेहन और शोधनद्वारा शरीर को शुद्ध करके वातादि दोषों को नाश करने वाले द्रव्यों से भावना दिये हुए शिलाजीत को दूध में मिलाकर इसको तांवे लोहे, रूपे और सौने इनमें से किसी एक के साथ वा सबके साथ प्रयोग करे । इससे शीघ्रही रसायन का फल होता है । इस पर कुलथी, मकोय और कबूतर का मांस वर्जित है |
शिलाजीत को सर्वरोगनाशकता । ब सोस्ति रोगो भुवि साध्य रूपो जत्वश्मजं यं न जयेत्प्रसहा । तत्कालयोगैर्विधिवत्प्रयुक्तं स्वस्थस्य चोर्जी विपुलां दधाति । १४३ । अर्थ - पृथ्वीपर साध्यलक्षणों से युक्त कोई ऐसा रोग नहीं है, जिसको शिलाजीत शीघ्र पराजय न कर सकता हो, इसका ठीक समय में विधिवत् प्रयोग करने से स्वस्थ मनुष्य अत्यन्त बलशाली होजाता है। कुटी प्रवेश विधि |
कुटीप्रवेशः क्षणिनां परिच्छदवतां हितः। अतोऽन्यथा तु येतेषां सूर्यमारुतिकोषिधिः
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अर्थ- जो मनुष्य कुटी प्रवेश रूप व्यापार के साधन में स्वतंत्र और सकुटुंबी है उनके
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उत्सरस्थान भाषाटीकासमेत ।
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लिये कुटीप्रवेश विधि हित है । इनसे अति- | कार करता है । इसी तरह हरड को घी में रिक्त व्यक्तियों के लिये घातासप विधि | तलकर खानेवाला और उस घी को पीन उत्तम होती है।
वाला सबल और दृढ हो जाता है । वातातपविधि ।
जराविकारनाशकलेह । यातातपसहा योगावक्ष्यतेऽतो विशेषतः । धात्रीरसक्षौद्रसिताघृतानि मुखोपचारा दंशेऽपि ये न देहस्य बाधकाः | हिताशनानां लिहतां नराणाम् । । अर्थ-अब यहांसे वातातप योग की प्रणाशमायांति जराविकारा विधि विशेषरूप से वर्णन की जाती है। ग्रंथा विशाला इव दुगृहीताः॥१४९ ।। इस योग में किसी प्रकार का कष्ट नहीं |
अर्थ-अच्छी तरह न पढे हुए जैसे बडे . होता है । इसमें व्यापत्ति होने परभी शरीर
ग्रंथ भूले जाते हैं वैसे ही पथ्य से रहने को किसी प्रकार की हानि नहीं होती है ।
वाले के वुढापे से उत्पन्न हुई सब व्याधियां ठंडेजल का पीना।
आमले का रस, शहत, चीनी और घी पान शीतोदकं पयः क्षाद्रं घृतमेकैकशी द्विशः।
करने से नष्ट हो जाती है।
तारुण्यादि कारकयोग । विशः समस्तमथवाप्राकू पीतं स्थापयेद्वयः ___ अर्थ-ठंडा जल, दूध, शहत, घी इन
धात्रीकृमिघ्नासनसारचूर्ण ।
सतैलसपिमधुलोहरणु में से एक एक अथवा दो दो अथवा तीन
निषेवमाणस्य भवेन्नरस्य तीन अथवा सब मिलाकर भोजन से पहिले
तारुण्यलावण्यमविप्रणष्टम् ॥ १५० ॥ पीना वय को स्थापन करने वाला है। अर्थ- जो मनुष्य आमला, बायविडंग,
हरीतकी सेवन । असनसार चूर्ण, तेल, घी, शहत और लोह, गुडेन मधुना शुठ्या कृष्णया लवणेन वा। चूर्ण को मिलाकर सेवन करता है उसकी द्वे द्वे खादन् सदा पथ्ये जीवेद्वर्षशतं सुखी॥ गई हई युवावस्था, और नष्ट हुआ लावयय . अर्थ-गुड, शहत, सोंठ, पीपल और
फिर पैदा हो जाता है । सेंधानमक इनमें से किसी के साथ दो दो
बलकारक अबलेह । हरड का प्रतिदिन सेवन करने से मनुष्य
लोहं रजो वेल्लभबं च सर्पिः सुखपूर्वक सौ वर्ष तक जी सकता है।
क्षौद्रद्रुतं स्थापितमन्दमात्रम् । अन्य प्रयोग ।
सामुद्ग के वीजकसारलप्ते हरीतकी सर्पिषि संप्रताप्य
लिहन् बली जीवति कृष्णकेशः ॥ .. समनतस्तत् पिवतो घृतं च।
अर्थ-लोह और वायविडंग के चूर्णको भवेचिरस्थायि वलं शरीरे घी और शहत में सानकर बरस दिन तक सकृत् कृतं साधु यथा कृतज्ञे ॥ १४॥ | बिसार के संपुट में रक्खे, फिर इसके
अर्थ-कृतज्ञ के साथ में उपकार करने | सेवनसे मनुष्य बलवान और काले बालों से जैसे यह बहुत दिन तक कृतज्ञता स्वी- [ वाला होकर दीर्घकाल तक जीता है।
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( ९७२)
अष्टांगहृदय ।
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बिडंग प्रयोग।
मासदयं तत्रिगुणं समां पा .. विडंगभल्लातकनागराणि
जीर्णोऽपि भूयः स पुनर्नवः स्यात् ॥ . येऽभति सर्पिमधुसंयुतानि।
अर्थ-देशकाल और पात्रके अनुसार. जरानदी रोगतरगिणीं ते
| पन्द्रह दिन, दो महिने, छः महिने या बरस लावण्ययुक्ताः पुरुषास्तरंति ॥ १५२ ॥
दिन तक जो मनुष्य आधा पळ नई सांठ अर्थ-जो मनुष्य वायविडंग, भिलावा
पीसकर प्रतिदिन दूध के साथ सेवन करे और सोंठ को पीसकर घी और शहत में
तो जीर्णदेह वाला मनुष्य भी फिर यौवन सानकर सेवन करता है वह लावण्ययुक्त
को प्राप्त करलेता है। होकर जरारूपनदी की रोग रूप लहरों के
मादि प्रयोग। पार विना प्रयास ही हो जाताहै । . मावृहत्यशुमतीबलानाअन्य प्रयोग।
मुशीरपाठासनसारिवाणाम् खदिरासनयूषभाविताया
कालानुसार्यागुरुचंदनानां त्रिफलाया घूतमाक्षिकप्लुतायाः।
घदंति पौनर्नवमेव कल्पम ॥ १५६ ॥ नियमेन नरा निषेवितारो
अर्थ-ऊपर लिखे हुए सांठ के फरक यदि जीवस्यरुजः किमत्र चित्रम् ॥ की तरह मूर्वा, कटेरी, शालपणी, खरैटी,
अर्थ-जो मनुष्य खैर और असनके काथ | खस, पाठा, असन, अनन्तमूल, कालीयक, की भावना दी हुई त्रिफला को घी और अगर और चन्दन इनकी भी कल्पना की शहत्त में मिलाकर सेवन करता है, वह निश्चय निरोगी होकर जीता है।
विकारनाशक घृत । . जरानाशक प्रयोग।
शतावरीकल्ककषायसिवं बीजकस्य रसमगुलिहार्य
ये सर्पिरभंति सिताद्वितीयम् । शर्करामधुघृतं त्रिफलां च ।
तान् जीविताध्वानमभिप्रपन्ना
नविप्रलुपंति विकारचौराः॥ १५७ ॥ शालयत्सु पुरुषेषु जरता स्वागतापि विनिवर्तत एव ॥ १५४ ॥
अर्थ-सितावर के कल्क और कषाय
| के साथ सिद्ध किये हुए धी में चीनी मिला अर्थ-विजैसार के गाढे रसमें शर्करा, घी और शहत मिलाकर जो नित्य सेवन
कर सेवन करने से विकार रूपी चोर मनुष्पों करता है अथवा जो प्रतिदिन त्रिफला खासा |
के जीवन मार्ग का आश्रय लेकर भी नाश है उसका स्वाभाविक वुढापा भी दूर हो
नहीं कर सकते हैं।
असगंध का प्रयोग। जाता है।
पतिाश्वगंधापयसार्धमासं अन्य प्रयोग।
घृतेन तैलेन सुखांबुना था। पुनर्नतस्यार्धपलं नवस्य .
कृशस्य पुष्टिं वपुषो विधत्ते पिटं पिवेद्यः पयसार्धमासम् ।
बालस्य सस्यस्य यथा सुवृष्टिः
जाती है।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमैत ।
__अर्थ-अच्छी वृष्ठिसे जैसे नई खेती हरी । शिलाजतु प्रयोग। भरी रहती है, वैसे ही दूध, घी तेल वा गरम शिलाजतुक्षौद्रविडंगसर्पिजलके साथ असगंध का सेवन करनेसे
लोहाभयापारदताप्यभक्षः। कृश शरीर पुष्ट रहता है।
आपूर्यते दुर्वलदेहधातु
त्रिपंचरात्रेण यथा शशांकः ॥ १६२ ॥ कालेतिलों का प्रयोग।
अर्थ--जिनक देह और धातु दुर्बल होगये दिने दिने कृष्णतिलप्रफुचं
को शिलाजीत. शहत. वायविडंग, समश्नतां शीतजलानुपानम् । । पोषः शरीरस्य भवत्यनल्पो
| घी, लोहचूर्ण, हरड, पारा और रूपा सेवन दृढीभयस्यामरणाश्च दंताः ॥ १५९ ॥ कराने से चन्द्रमा की तरह पन्द्रह दिन में
अर्थ-जो मनुष्य प्रतिदिन एक पल काले | देह और धातु पूर्ण होजाते हैं। तिल चबाकर ऊपर से ठंडा पानी पोलताहै __ अन्य प्रयोग। उसका शरीर अत्यन्त पुष्ट होजाता है और ये मासमेकं स्वरस पिवंति उसके दांत सब मरने तक दृढ रहे आते हैं।
दिने दिने भृगरजःसमुत्थम् । बालों को काला करनेवाला अवलेह ।।
क्षीराशिनस्ते बलवीर्ययुक्ताः
समाः शतं जीवितमाप्नुवंति ॥ चूर्ण श्वदंशामलकामृतागां। लिहन्ससपिमधुभागमिश्रम् ।
अर्थ--जो भांगरे के रसको प्रतिदिन वृषः स्थिरः शांतविकारदुःखः
एक महिने तक पाता है और ऊपर से दूध समाः शतं जीवति कृष्णकेशः॥ पाताह वह बल और वायको प्राप्त करके
अर्थ-गोखरू, आमला और गिलोय | सौ वर्षतक जीता है।। इनका चूर्ण घी और शहत में मिलाकर
अन्य प्रयोग। चाटने से शुक्र की वृद्धि, शरीर की दृढता
मासं वचामप्युपसेषमानाः
क्षीरेण तैलेन घृतेन वाऽपि । रोगजनित केशकी शान्ति, केशोंका काला
भतिरक्षोभिरधृष्यरूपा पन और सौ वर्षकी भायु होती है। मेधाघिनो निर्मलमृष्टवाक्याः ॥ अन्य प्रयोग।
अर्थ--जो मनुष्य दूध, तेल और घी साधै तिलैरामलकानि कृष्णैः के साथ एक महिने तक वच का सेवन रक्षाणि सक्षुध हरीतकार्षा । येऽधुर्मयूरा इव से मनुष्या
करताहै वह राक्षसों के भयसे छूटकर मेधावी रम्य परीणाममवाप्नुषंति ॥ १६१ ॥
और स्वच्छ मिष्टभाषी होजाताहै । अर्थ-जो काले तिलों के साथ आमला
... मंडूकपर्णी प्रयोग। वहेडा और हरड खाताहै वह मोर की तरह
मंडूकपर्णीमपि भक्षयंतो
भृष्टां कृते मासमनन्नभक्ष्याः । दिन प्रतिदिन शरीर की रमणीयता को
जीवंति कालं विपुलं प्रगल्भा प्राप्त होता है।
स्तारण्यलावण्यगुणोदयस्था॥ १६५॥
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( ९७४)
मष्टांगहृदय ।
अर्थ:-जो मनुष्य अन्न का सेवन न | असाध्य रोग से आक्रान्त होनेपर भी रोग करता हुआ घी में भुनी हुई मंडूकपर्णी को | रहित, बुडढा हानेपर भी प्रवल पुरुषार्थ एक महिने तक सेवन करताहै वह पराक्रमी | कारी, और युवा की तरह गठीली देहवाला तथा तरुणाई और लावण्य से युक्त होकर | और कान आंखसे युक्त होकर पांच सौ वर्ष दीर्घ कालतक जीता है।
तक जीता है। अन्य प्रयोग।
नरसिंह घृत। लांगलोत्रिफलालोहपलपंचाशतीकृतम् । | गायत्रीशिखिशिशिपासनशिवायेल्लाक्षका. मार्कवस्वरसे षष्टया गुटिकानां शतत्रयम् ।
रुष्करान् छायाविशुष्कं गुटिकाधमचा- | पिष्टवाष्टादशसंगुणेभसि घतान् खंडेःत्पूर्व समस्तामपि तां क्रमेण ।
सहायोमंयैः ॥ १७०॥ भजेतिरिक्ताः क्रमशश्च मंडं पाने लोहमयेयहरविकरैरालोडयन्पाचये पेयां विलेपी रसकोदनं च ॥ १६७ ॥ दग्नौ वानुमृदौ सलोहशकलं पादस्थितं. सर्पिः निग्धं मासमेकं यतात्मा
तत्पचेत् ॥ १७१ ॥ मासादूर्व सर्वथा स्वैरवृत्तिः ।
पूतस्यांशः क्षीरतोशस्तथांशी वज्यं यत्नात्सर्वकालं त्वजीर्ण ।
भांर्गानिर्यासाद् द्वौ वरायास्त्रोंशाः । वर्षेणैवं योगमेवोपयुंज्यात् ॥ १६८॥
अंशाश्चत्वारश्चह हैयंगवीनाभवति विगतरोगो योऽप्यसाध्यामयातः ।।
देकीकृत्यैतत्साधयेत्कृष्णलौहे १७२ प्रबलपुरुषकारः शोभते योऽपि वृद्धः।।
विमलखंडसितामधुभिः पृथउपचितपृथुगामश्रोत्रनेत्रादियुक्त
ग्युतमयुक्तमिदं यदि वा घृतम् । स्तरुग इव समानां पंच जीवेच्छतानि१६९ /
स्वरुचिभोजनपानविचेष्टितो अर्थ- कलहारी, त्रिफला, लोहा, इनको भवति ना पलशः परिशीलयन् १७३ ५. पल लेकर भांगरे के रसमें पीसकर श्रीमानिधूतपाप्पा वनमहिषबलो ३६० गोलियां बना लेवे । इन सब गोलियों
वाजिवेगः स्थिरांगः
केशै गांगनीलैमधुसुरभिमुखो को छाया में सुखाकर पहिले आधी आधी
नेकयोषिनिषेवी। गोली खाय, फिर पूरी गोली खानेका अभ्यास
पामेधाधीसमृद्धः सपटुहुतबहो करे । इससे विरेचन होनेपर क्रमसे मंड, मासमात्रादयोगाद् पैया, विलेपी, और मांसरस का पथ्य देवे । धत्तेऽसौ नारसिंह वपुरनलशिखा.
तप्तचामीकराभम् ॥ १७५॥ इस तरह एक महिने तक संयतात्मा होकर
अत्सारंनारसिंहस्यव्याधयोनस्पृशत्यपि घृत सहित स्निग्ध अन्नका भोजन करें। एक
चक्रोज्वलभुजंभीतानारसिंहमिवासुराः महिने पीछे इच्छानुसार खाना पीना करै । अर्थ-जावित्री, चीता, शीसम, असन, इसमें अजीर्ण भोजन सदा वर्जित है । इस । हरड, वायविडंग, यहेडा और भिलावा इन तरह एक वर्ष सब गोलियों को खा लेवे। सब द्रव्यों को शिला पर पीसकर अठारह इन गोलियों का सेवन करनेवाला मनुष्य | गुने पानी में घोलकर उम में थोड़े से लोहे
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म. ३९
उत्तरस्थान भाषाकासमेत ।
(९७५५)
के टुकड़े मिलाकर किसी लोहे के पात्र में | दूध पीवै और उसी दूधके साथ अन्न खाय भरकर तीन दिन धूप में रक्खे फिर मृदु | वह निरोग होकर दो सौ वर्ष जीता है । अग्नि पर पकावे, चौथाई शेष रहने पर | और अविलुप्त स्मरण शक्तिवाला होकर उतारकर छान ले । इस क्वाथ के बराबर एकबार कहीहई बात को ग्रहण करलेता है दूध, दूना भांगरे का रस, तिगुना त्रिफला अन्य प्रयोग । का काथ, और चौगुना घी मिलाकर कृष्ण । अनेनैव च कल्पेन यस्तैलमुपयोजयेत् । लोहे के साथ पकावे, पाक समाप्त होनेपर तानेवाप्नोति स गुणान् कृष्णकेशश्चइस घृत में से एक पल खांड, मिश्री, और
जायते ॥ १७८॥ शहत के संग मिलाकर सेवन करे, अथवा
अर्थ-उक्तरूप विधि के अनुसार जो केवल इसी घी का पान करे । इसके सेवन | मनुष्य तेल का सेवन करता है, उसको. से एक महिने के भीतरही देह को सुंदरता
सम्पूर्ण पूर्वोक्त गुणों की प्राप्ति होती है पाप का नाश, अरना भसा के समान वल, और सब बाल काले पडजाते हैं । घोड़े के समान बेग, अंग में दृढता, केशों साध्यासाध्य रसायन ! में कालापन, मुख में मधुवत् सुगंधि, बहु
उक्तानि शक्यानि फलान्वितानि स्त्री संगम में सामर्थ्य, वाकशक्ति और मेधा
युगानुरूपाणि रसायनानि ।
महानुशंसान्यपि चापराणि शक्ति की आधिकता, अग्नि की वृद्धि, नर
प्राप्त्यादिकष्टानि न कीर्तितानि १७९ सिंह के समान दृढ शरीर, और तप्त
अर्थ-जो सव रसायन सुसाध्य, फलकांचन की तरह वपु होजाता है। इस |
| प्रद, और युगानरूप है उनका वर्णन किया नरसिंह नामक घी पीनेवाले को कोई रोग स्पर्श नहीं करसकता है और उसको दैत्यों | गया है यद्यपि वे बहुत फल देनेवाली है। का भय भी नहीं होसकता है।
भृष्ट रसायन में कर्तव्य । . अन्य प्रयोग । रसायनविधिमंशाजायेरन्ब्याधयोयदि . भुंगप्रपालानमुनेव भृष्टान्
यथास्वौषधंतेषांकार्यमुक्त्वारसायनम् घृतेन यः खादति यंत्रितात्मा ।। विशुद्धकोष्ठोऽसनसारसिद्ध
.. अर्थ-रसायन की विधि के भृष्ट होदुग्धानुपस्तत्कृतभोजनार्थः ॥ १७॥ जाने पर यदि कोई रोग पैदा होजाय, तो मासोपयोगात् सुमुखी जीवत्यब्दशतद्वयम् | रसायन क्रियाका त्याग करके जो रोग पैदा गृण्हाति सकृदयुक्तमविलुप्तस्मृतींद्रियः। । होगया है उसी की चिकित्सा सव प्रकार
अर्थ-जो मनुष्य संयतात्मा होकर ऊपर | से करनी चाहिये । वाले नरसिंह घृत में मांगरे के पत्तों को
रसायन रूप पुरुष। भूनकर एक महिने तक खाय और भोजन सत्यवादिनमक्रोधमध्यात्मप्रवणेंद्रियम्।। करके असनसार के साथ सिद्ध किया हुआ | शांतं सत्तानिरतं विद्यानित्यरसायनम् ।
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अष्टांगहृदय ।
अर्थ- जो मनुष्य सत्यवक्ता, कोचरहित, जितेन्द्रिय, शांत और सदाचाररत होता है उसको निरंतर रसायनरूप समझना चाहिये
|
रसायनसेवी के लक्षण ॥ गुणैरेभिः समुदितः सेवते यो रसायनम् । सनिवृत्तात्मा दीर्घायुः परश्रेह व मोदते । अर्थ - उक्त सत्यभाषणादि गुणवाला मनुष्य रसायन सेवन करे तो वह चित्त की वृत्तियों से निवृत्त और दीर्घायु होकर इस लोक और परलोक में परम सुख भोगता है।
शास्त्रानुसारी रसायन । शास्त्रानुसारिणी चर्याचितज्ञाः पाश्र्ववर्तिनः बुद्धिरस्खलितार्थेषु परिपूर्ण रसायनम् ।
अर्थ - रसायन के परिपूर्ण होनेपर चेष्टा शास्त्रानुसारिणी होजाती है, पास बैठने वाले आदमियोंके मन की बात का बोध होजाता है और बुद्धिअर्थों के जानने में अस्खलित होजाती है ।
इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायभाषाटीका न्वितार्या उत्तरस्थाने रसायनाध्यायनाम एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
चत्वारिंशोध्यायः ।
-HOOOK
अथातो वाजीकरणाध्यायं व्याख्यास्यामः अर्थ-अव हम यहां से वाजीकरण नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे
बाजीकरण औषधका फळ । वाजीकरणमन्विच्छेत्सततं विषयी पुमान् तुष्टिः पुष्टिरपत्यं च गुणवतत्र संधितम् । अपत्य संतानकरं यत्सद्यः संप्रहर्षणम् ।
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म० ४०
अर्थ-विषयी पुरुष को उचित्त है कि बाजीकारण औषधों का निरंतर सेवन करता रहै क्योंकि बाजीकरण में तुष्टि, पुष्टि और गुणवान् संतान होती है वाजी कारण औषध संतान को स्थिर करनेवाली और सदा आनन्द देनेवाली होती है ।
बाजीकरण का अर्थ | वाजी वाऽतिबलो येन यात्यप्रतिहतोगनाः भवत्यतिप्रियः स्त्रीणां येन येनोपचीयते । तद्वाजीकरणं तद्धि देहस्योर्जेस्करं परम् ।
अर्थ - जिसके द्वारा पुरुष वलवान् और अप्रतिहत सामर्थ्यवाला होकर घोड़े की तरह स्त्रीसंगम में समर्थ होता है जिसके द्वारा कामिनीगणों का अति प्रियपात्र होजाता है। और जिसके द्वारा शरीर का उपचय होता है। उसीको वाजीकारण कहते हैं बाजीकरण देह को परम ओजस्कर है ।
ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठता | धये यशस्यमायुष्यं लोकद्वयरसायनम् । अनुमोदामहे ब्रह्मचर्यमेकांतनिर्मलम् ॥ ४॥
अर्थ- ब्रह्मचर्य धर्मयुक्त यशस्कर, आयुष्कर, इस लोक और परलोक दोनों में रसायनरूप, और सर्वथा निर्मल है, ऐसे ब्रह्मचर्य का हम अनुमोदन करते हैं । स्वदारा के साथ संतानोत्पत्ति के निमित्त संगमन निर्मल ब्रह्मचर्य कहलाता है । मार्ग दो प्रकार का होता है एक नैश्रयसिक दूसरा आभ्युदयिक | नेश्रेयसिक ब्रह्मचर्य का वर्णन किया गया है अब आभ्युदयिक मार्ग का वर्णन करते हैं ।
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forest fast । अल्पत्वस्य तु क्लेशैर्बाभ्यमानस्य रागिणः
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म०४० उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । शरीरक्षयरक्षार्थ वाजीकरणमुच्यते ॥५॥ | अपि लालाविलमुखं पदयाहादकारक।
अर्थ-जो अल्पसत्ववाले हैं, जो सांसारिक | अपत्यं तुल्यता केन दर्शनस्पर्शनादिषुः९ क्लेशों से पीडित हैं, और जो कामी हैं, किं पुनर्यद्यशोधर्ममानधीकुलवर्धनम ११ उनकी शरीररक्षा के निमित्त वाजीकरण | अर्थ-संतान चलने में बार बार गिर करना चाहिये ।
पडने वाली, तोतली बाणी वाली, धूल में ___ व्यवायकाल । लिपटे हुए अंग वाली तथा मुख से लार कल्पस्योदनवयसो वाजीकरणसेविनः | आदि टपकने वाली इन गुणों से युक्त होने सर्वेष्वृतुष्वहरहर्यवायो न निवार्यते ॥६ | पर भी हृदय में अल्हादोत्पादक होती हैं ।
अर्थ-जो समर्थ, युवावस्था में भरपूर, | ऐसी संतान के संसार में दर्शन स्पर्शनादि और निरंतर वाजीकरण औषधों का सेवन विषयों में किस पदार्थ की तुलना हो सक्ती है करता रहता है उसको सव ऋतुओंमें अहर्निश
अर्थात् उक्त गुणविशिष्ट संतान भी सांसास्त्रीसंगमका निषेध नहीं है।
रिक सब पदार्थों से तुलनीय नहीं हो स्निग्धको निरूहणादि ।
सकती है जिसके द्वारा यश धर्म, मान, मच्छस्निग्धविशुद्धानांनिरूहान्सानुवासनान घृत तैलरसारशकराक्षांद्रसंयुतान् ॥ ७॥
स्त्री और कुल की वृद्धि होती है । उसके योगविद्योजयेत्पूर्व क्षीरमांसरसाशिनम्। | साथ समानता करने के योग्य' संसार में ततोवाजीकरान्योगानशुक्रापत्यविवर्धनान् | कौनसा पदार्थ है। - ___ अर्थ-जिसको वाजीकरण करना हो बाजीकरण के योग्य देह ।। स्निग्ध और विशुद्ध करके प्रथम घी, तेल, शुद्धकाये यथाशक्ति वृष्ययोगान् प्रयोजयेत् मांसरस, दूध, शर्करा और मधुसंयुक्त निरू- अर्थ-शरीर को संशोधित कर के जठराग्नि हण और अनुवासन देना चाहिये । और | के बल के अनुसार आगे आने वाले दूध तथा मांसरसका पथ्य देखें । तत्पश्चात् संपूर्ण वृष्ययोगों का प्रयोग करना चाहिये । योगवित् वैद्य शुक्र और अपत्यवर्द्धक सब बाजीकरण प्रयोग । बाजीकरण योगों का प्रयोग करे। शरेश्चकुशकाशानां विदार्या वीरणस्य च अपत्यहीन की निंदा।
मुलानि कंटकार्याश्च जीवकर्षभको बलाम अच्छायः पूतिकुसुमः फलेन रहितो द्रुमः
मेदे वेदे च काकोल्यौ शूर्पपण्यौ शतावरीम् यथैकश्वैकशाबश्च निरपत्यस्तथा नरः
अश्वगंधामतिबलामात्मगुप्तां पुनर्नवाम् ।
| वीरां पयस्यांजीवंतीमार्द्धरामांत्रिकंटकम् अर्थ- जो मनुष्य संतानरहित होता है
मधुकं शालिपर्णी च भागांत्रिपलिकान् पृथक वह छायाहीन, फलपुष्प रहित और एक
माषाणामाढकं चैतद् द्विद्रोणे साधयेदपाम् शाखा वाले वृक्ष की तरह निंदित होता है । रसेनाटकशेषेण पचेत्तेन घृताढकम् । ।
. अपत्यलाभ का महत्व दत्वा विदारीधात्रीक्षुरसानामाढकाढकम् । स्खलद्गमनमव्यक्तवचनं धूलिधूसरम्। धृताच्चतुर्गुणं क्षीरं पेष्याणीमानि चावपेत्।
१२३
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( ९७८)
मष्टांगहृदय ।
म. ४०
वीरां स्वगुप्तां काकोल्यौ यष्टीं फल्गूनि- घृतमें से प्रतिदिन एक पल सेवन करे और
पिप्पलीम् ॥ १७ ॥ मांसरस तथा दध का अनुपान करे । इस द्राक्षां विदारी खजूरं मधुकानि शतावरीम् तसिद्धपूतं चूर्णस्य पृथक् प्रस्थेन योजयेत् ।
घृत का सेवन करने से घोड़े और चिरोंटेके शर्करायास्तुगायाश्च पिप्पल्याः कुडवेन च सदृश स्त्रीसंगम में प्रवृत्त हो सकता है । मरिचस्य प्रकुंघेन पृथगर्धपलोन्मितैः १९ । ___अन्य चूर्ण । त्वमेलाकेसरैःश्लक्ष्णैःक्षौद्राद् द्विकुडवेन च विदारीपिप्पलीशालिप्रियालेक्षुरकाद्रजः । पक्षमा ततः खादेत् प्रत्यहं रसदुग्धभुक् | पृथक् स्वगुप्तामूलाच्च कुडवांशं तथा मधु तेनासेहति वाजीव कुलिंग इव हृष्यति।। तुलार्धशर्कराचूर्णात् प्रस्थाध नवसर्पिषः । अर्थ-सर, ईख, कुश, काश,विदारी और
सोऽक्षमात्रमतो खाईत् यस्यरामाशतं गहे
अर्थ-विदारीकन्द, पीपल, शालीचावल वीरण ( खस ) इनकी जड, कटेलीकी जड,
| चिरोंजी, तालमखाना और केंच की जड़, जीबक, ऋषभक, खरैटी, मेदा, महामेदा,
| प्रत्येक एक कुडव, शहत एक कुडब, शर्करा काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी,
आधा तुला, ताजा घी आधा प्रस्थ, इन सितावर, असगंध, अतिबला, कोंच, सांठ, द्रव्यों को मिलाकर प्रति दिन दो तोले भूम्यामलक, दुग्धिका, जीवंती, ऋद्धि, रास्ना, । सेवन करने से सौ स्त्रियों के साथ संभोग गोखरू, मुलहटी और शालपर्णी, प्रत्येक तीन को शक्ति हो जाती है। पल, उरद एक आढक, इन सबको दो द्रोण - अन्य प्रयोग । जल में पकावे, एक आढक शेष रहने पर | सात्मगुप्ताफलान् क्षीरे गोधूमान्साधितान् उतार ले, इस क्वाथ में एक आढक घी,
__हिमान् ॥ २३ ॥ विदारीकन्द का रस एक आढक, आमले
माषान्वासघृतक्षाद्रानखादनगृष्टिपयोऽनुपः
जागर्ति रात्रि सकलामखिन्नः खेदयस्त्रियः का रस एक आढक, इख का रस एक । अर्थ-जो मनष्य गेंहं और कंचके बीजों आढक, दूध चार आढक, तथा भूभ्यामलक, | को दूधमें पकाकर ठंडा करके खाय, अथवा कोंच, काकोली, क्षार काकोली, मुलहटी, उरद, घी और शहत मिलाकर खाय । ऊपर काकोडुम्बर, पीपल, दाख, भूमिकूष्माण्ड, से पहिले व्याही हुई गौ का दूध पान करे, खिजूर, महुआ, सितावर इनको पीसकर ऐसा करने से वह मनुष्य रात्रि भर स्वयं छानकर सब एक प्रस्थ मिला देवे, और खेद को अप्राप्त हुए स्त्रियों को खेदित पाकविधानोक्त रीति से पकावै, पाक हो- | करता हुआ रति में प्रवृत्त रहता है । जाने पर घी को छानकर उसमें शर्करा
अन्य प्रयोग। एक प्रस्थ, वंशलोचन एक प्रस्थ, पीपल
वस्तांडसिद्ध पयसि भावितानसकातिलान्
यः खादेत्ससितानगच्छेत्सस्त्रीशतमपूर्ववत् एक कुडव, कालीमिरच एक पल, दालचीनी अर्थ-बकरे के अंडों के साथ दूध का इलायची और नागकेसर प्रत्येक आधा पलं पकाकर उस दध की काले तिलों में वार और शहत दो कुडव इनको मिलादेवै, इस बार भावना देवै । इन तिलोंको जो मनुष्य
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अ. ४०
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९७९)
शर्करा के साथ सेवन करता है उस में | मिलाकर पान करे और शर्करा, घत और शतस्त्री संभोग की शक्ति बढ़ जाती है, दूधके साथ अन्नका भोजन करे, इससे मैथुऔर वह प्रथम समागम कासा सुख अनुभव । नकी अत्यन्त सामर्थ्य वढ जाती है। करता है।
अन्य प्रयोग। अन्य प्रयोग।
यः पयस्यांपयःसिद्धांखादेन्मधुघृतान्विताम् चूर्ण विदार्या बहुशः स्वरसेनैव भावितम् । पिबेद्वाष्कथणं चानु क्षीरं न क्षयमेति संः। क्षौद्रसर्पियुतं लीढ्वा प्रमदाशतमृच्छति । । अर्थ--जो मनुष्य दूधके साथ क्षीर- अर्थ -विदारीकंद के चूर्णको विदारीकंद काकोली को पकाकर घी और शहत के के रससे ही बहुत बार भावना देकर उस | साथ पान करै ऊपर से बहुत दिनकी व्याही चूर्णको घी और शहत्त के साथ चाटने से हुई गौ का दूध पीवै तो उसका शुक्र क्षीण शत- स्त्रीगमन की सामर्थ्य होजाती है। । नहीं होने पाता है । अन्य चूर्ण।
अन्य प्रयोग ।। कृष्णाधात्रीफलरजः स्वरसेन सुभावितम्। स्वयं गुप्तेक्षुरकयो/जचूर्ण सशर्करम् ३१ शर्करामधुसर्पिर्मिीढ्वा योऽनु पयःपिबेत् धारोष्णेन नरः पीत्वा पयसा रासभायते स नरोऽशीतिवर्षोऽपि युवेव परिदृष्यति । अर्थ-*च और तालमखाने के बीजों ___ अर्थ--पीपल और आमले का चूर्ण करके को पीसकर चर्ण करके और शर्करा मिलाउसमें आमले के रसकी भावना दे और कर धारोष्ण दूधके साध पान करने इसको शर्करा, मधु और घी के साथ चाट- वाला मनुष्य गधे की तरह मैथुनोन्मत्त हो कर ऊपर से दूधका अनुपान करे तो अस्सी | जाता है। वर्षका वृद्ध भी तरुण की तरह स्त्री संगम
__ अन्य प्रयोग ॥ में समर्थ होजाता है।
| उच्चटाचूर्णमप्येवं शतावर्याश्च योजयेत्॥ . अन्य प्रयोग ।
अर्थ--उक्त रीतिसे भूम्यामलक और कर्ष मधुकचूर्णस्य घृतक्षौद्रसमन्वितम् ॥ | पयोऽनुपानं योलिह्यानित्यवेगः स नाभवेत् शता
ECH शतावरी के चूर्णका प्रयोग करने से भी अर्थ--मुलहटी का चूर्ण एक कर्ष लेकर । उक्त फल होता है। उसमें घी और शहत मिलाकर चाटे ऊपर दही की मलाई का प्रयोग । से दधका अनुपान करे, उस मनुष्य का चद्रशुभ्रं दाधसरं ससिता षष्टिकोदनम् । मैथुनवेग कभी प्रनष्ट नहीं होता है।
| पटे सुमार्जितं भुक्त्वा वृद्धोऽपि तरुणायते ___ अन्य प्रयोग ॥
अर्थ-चन्द्रमाके समान सफेद वस्त्रमार्जित कुलीरशुंग्या याकल्कमालोडय पयसाबिर दहीकी मलाइके साथ शर्करा मिला हुआ शाली सिताघृतपयोनाशी स नारीषु वृषायते ।। चांवलों का भात ख़ानेसे वृद्ध भी तरुण के
अर्थ-काकडासींगी के कल्क को दूधमें | समान आचरण करने लगता है।
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अष्टांगहृदय ।
अन्य प्रयोग || श्वदंष्ट्रेक्षुरमाषात्मगुप्ता बीजशतावरीः । पिवन् क्षीरेण जीर्णोऽपि गच्छति प्रमदाशतम् अर्थ - गोखरू, तालमखाना, उरद, कैंच के बीज, सितावर इनके चूर्ण को दूध के साथ सेवन करने से वृद्ध भी शतस्त्री संभोग की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है ।
पौष्टिक प्रयोग ||
मधुरं निग्धं वृंहणं बलवर्धनम् । मनसो हर्षण यश्च तत्सर्व वृष्यमुच्यते ॥
अर्थ - जो जो पदार्थ मधुर, स्निग्ध, वृंहण, बलवर्दक और मनमें हर्षोत्पादक है वे सबही होते हैं । वृष्य संभोगविधि | द्रव्यैरेवविधैस्तस्माद्दर्पितः प्रमदां व्रजेत् । आत्मवेगेन चोदीर्णः स्त्रीगुणैश्च प्रहर्षितः अर्थ-- ऊपर कहे हुए पौष्टिक द्रव्यों के सेवन से दर्पित होकर आत्मवेग से उदीर्ण और स्त्रियों के गुणों से प्रहर्षित होकर स्त्री संगम में प्रवृत होना चाहिये ।
शब्द पेशादि का सेवन | सेग्याः सर्वेन्द्रियसुखा धर्मकल्पद्रुमांकुराः । विषयातिशयाः पंच शराः कुसुमधन्वनः ॥
अर्थ - धर्मरूप कल्पवृक्ष का अंकुर, तथा कामदेवका पंचबाणरूप, संपूर्ण इन्द्रियों को सुखदेनेवाले अत्यन्त मनोहर रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का सेवन करना चाहिये । शब्दादियुक्त स्त्रीसेवन | sahasra हर्षप्रीतिकराः परम् । किं पुनः स्त्रीशरीरे ये संघातेन प्रतिष्ठिताः ॥ अर्थ - शब्दादि विषयों का अलग अलग सेवन करने से ही परम हर्ष और प्रीति
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अ० ४०
उत्पन्न होती है । फिर जिस स्त्री के शरीर में ये पांचों ही शब्दादि विद्यमान है. उसका सेवन करने से कितना हर्ष और कितनी प्रीति होती है ।
योग्यत्री के लक्षण | नामापि यस्या हृदयोत्सवाय यांपश्यतां तृप्तिरनाप्तपूर्वा । सवैद्रियाकर्षणपाशभूतां कांतानुवृत्तिव्रत दीक्षिता या ॥ ३९ ॥ कलाविलासांगवयोविभूषा शुचिः सलजा रहसि प्रगल्भा । प्रियंवदा तुल्यमनःशया या सा स्त्री वृषत्वाय परं नरस्य ४० अर्थ - जिस स्त्री का नाम सुनने वा लेने ही से हृदय प्रफुल्लित होजाता है, जिस स्त्री के देखनेसे अपूर्व तृप्ति उत्पन्न होती है, जो स्त्री संपूर्ण इन्द्रियों का आकर्षण करने में रज्जुपाश ( फांसी ) के सदृश है, जिसे स्त्री ने अपने पति का चित्त प्रसन्न करने की दीक्षा पाई है, जिस स्त्री का नृत्यगीतादि ६४ कला, विलास ( हावभाव ), अंगलावण्य और यौवन ही आभूषण है । जो स्त्री भीतर और बाहर से पवित्र है, जो लज्जावती है, जो सुरत में प्रौढ है, जो स्त्री प्रियभाषिणी है, जिस स्त्रीका कामे | दीपन समान है, वह वाम लोचना स्त्री सब प्रकार से पुरुषकी सर्वप्रधान वृष्यकारिणी है ।
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कामशास्त्रोक्त रतिच । आचरेच्च सकलां रतिचर्या कामशास्त्रविहितामनवद्याम् । देशकालबलशक्तयनुरोधाद्वैद्यतंत्रसमयोकयविरुद्धाम् ॥ ४१ ॥
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अर्थ- कामशास्त्र में विहित अनिंद्य, देश | काल बल और शक्ति के अनुसार, वैद्यकशास्त्र कहे हुए आचार से अविरुद्ध रतिचर्या का आचरण करना चाहिये । .
बाजीकरण प्रयोग | अभ्यंजनोद्वर्तन सेकगंधसृक्पत्रवस्त्राभरणप्रकाराः । गांधर्व काव्यादिकथाप्रबणाः समस्वभावा वरागा वयस्याः ।
दीर्घिकास्वभवनांत निविष्टा पद्मरेणुमधुमत्तविहंगा | नीलसानुगिरिकूटनितंबे काननानि पुरकंठगतानि ॥ ४३ ॥ दृष्टिसुखा विविधा तरुजातिः श्रोत्रसुखः कलकोकिलनादः । अंगसुख वशेन विभूषाचित्तसुखः सकलः परिवारः ॥ ४४ ॥ तांबूलमच्छमदिरा
कांता कांता निशा शशांकांका यद्यच्च किचिदिष्टं
मनसो वाजीकरं तत्तत् ॥ ४५ ॥ अर्थ - अभ्यंजन, उद्वर्तन, परिषेक, गंधमाला, पत्र, वस्त्र, आभरण, गान, काव्यादि, उत्तमोत्तम कथा, समान स्वभाववाले वशवर्ती मित्रगण, अपने घर के पास वाली क्रीडापुष्करिणी, पद्मरेणु, मधुमत्त विहंग, नगर के बाहर हरितवर्ण समधरातल भूपृष्ठ, शृंगयुक्त पर्वतों की तलहटी में स्थित कान न समूह, दृष्टि को सुख देनेवाले अनेक प्रकार
-
જે वृक्ष, कानों को सुख देनेवाला कोकिलरब अंगों को सुखदायक और ऋतु के अनुकूल भूषण, चित्तको सुखदेने वाला कुटुंब, तांबूल, अच्छ मदिरा, कमनीय कांता, निर्मल चां
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( ९८१ )
दनी से युक्त रात्रि, तथा मनको प्रसन्न करने वाले अन्यान्य विषय, ये सबही बाजी करण होते हैं ।
कामोत्पादक प्रयोग |
मधुमुखामेव सोत्पलं प्रियायाः कलरणना परिवादिनी प्रियेव । कुसुमचयमनोरमा च शय्या किसलयिनी लतिकेव पुष्पिताग्रा ॥ देशे शरीरे च न काचिदर्तिरथेषु नाल्पोऽपि मनोविघातः । वाजीकराः सन्निहिताश्च योगाः कामस्य कामं परिपूरयति ॥ ४७ ॥ अर्थ- प्रिया के मुखके समान कमल सहित मादक मद, प्रिया के सदृश मधुर ध्वनिवाला बीणा, तथा कुसुमप्रधानकता की तरह फूलों की रमणीय शय्या | ये सब पदार्थ प्रधान बाजीकरण है । इनसे कामदेवकी भी कामना परिपूर्ण होती है । जिस स्थान में इन सबका समावेश होता है वहां उसपुरुष के किसी प्रकार की पीडा उत्पन्न नही होती है, और किसी विषय में कुछ भी मनोविधात नहीं होता है ।
आत्मसंग्रह |
मुस्तापपेटकं ज्वरे तृषि जलं मृद्भृष्टलोष्टोद्भवं लाजाच्छर्दिषु वस्तिजेषु गिरिजं मेहेषुधात्रीनिशे । पांडौ श्रेष्ठमयोभयनिलक फेलीद्दामये पिप्पली संघाने कृमिजा विषे शुक तरु में दे। ऽनिले
गुग्गुलुः ॥ ४८ ॥ वृषोऽत्रपित्ते कुटजोऽतिसारे भल्लातको सुगरेषु हेम । 'स्थषु ता कृमिषु कृमिघ्नं शोषे सुराच्छागपयोऽनुमांसम् ॥
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(९८२)
मष्टांगहृदय ।
अ. ४०
अक्ष्यामयेषु त्रिफला गुडूची । संयोगज विषमें सुवर्णास्थौल्यरोगमें रसौत | वातास्ररोगे मर्थित ग्रहण्याम् । । कृमिरोग में वायबिडंग । शोषरोग में सुरा, कुष्टेषु सेव्यः खदिरस्य सारः । सर्वेषु रोगेषु शिलाह्वयं च ॥ ५० ॥ ।
बकरी का दूध और बकरे के मांस का उन्माद तमनव शोक मद्यविसस्मृतिबाली अनुपान | नेत्ररोग में त्रिफला । वातरक्तनिद्रानाश क्षीरं जयतिरसाला प्रतिश्यायम् रोग में गिलोय । ग्रहणीरोग में निर्जल मांसं काय लशुनः प्रभंजनं स्तब्धगात्रता. | मठा । कुष्ठरोग में खैरसार । सबै प्रकार
स्वेदः।
रोग में शिलाजीत । उन्माद में पुराना घी, गुडमंजर्याः खपुरो नस्यां स्कंधांसवाहुरुजम | नवनीतखंडमर्दितमौष्ट मूत्रं पयश्च हंत्युदरम
शोक और मद्य । अपस्मार में ब्राह्मी शाक, नस्यं मधविकारानविद्रधिमचिरोत्थमनवि
निद्रानाश में दूध । प्रतिश्यायरोग, रसाला, नाबः॥
कशरोग में मांस । वातरोग में लहसन । नस्यकेवलमुखजांनस्यांजनतर्पणानिनेत्ररुजः स्तब्धगात्रता में स्वेद । कंधेकी जकडन बृद्धत्वं क्षीरघूते मूर्थी शीतांवुमारुतच्छायाः |
और वाहुवेदना में काले सेमर के गोंद का समशुक्ताईकमात्रा मंदे वह्रौश्रमेसुरास्नानम् दुःखसहत्वे स्थैर्ये व्यायामो गोक्षुरहितःकृच्छे | नस्याअचिरोत्पन्न विद्रधिरोग में रक्तमोक्षण। कासे निदिग्धिका पार्श्वशूले पुष्करजा जटा। मुखजरोग में नस्य और कवल । नेत्ररोग वयसः स्थापने धात्री त्रिफला गुग्गुलुबणे ॥ में नस्य, अंजन और नेत्रतर्पण । वुढापे में बस्तिर्वातविकारान्
दूध और घी । मूीरोग में शीतलजल, पैत्तान् रेकः कफोद्भवान् बमनम् । क्षौद्रं जयति वलास
| वायु और छाया । अग्निमांद्य में समानभाग सपिः पित्तं समीरणं तैलम् ॥ ५७ ॥ शुक्त और अदरख । परिश्रम में सुरापान इत्यग्यं यत्प्रोक्तं रोगाणामौषधंशमायालम् । स्नान । दुखके सहसकने और स्थिरतामें तद्देशकालवलतो विकल्पनीयं यथायोगम् ॥
व्यायाम । मूत्रकृच्छ्र में गोखरू । खांसी में अर्थ-ज्वरमें नागरमोथा और पित्तपा.
कटेरी । पार्श्वशूलमें पुष्कर मूल । वयःस्थापडा श्रेष्ठ है । तृषारोग में प्रतप्त मिट्टीके
पनमें आमला और त्रिफला । व्रण में गूगला ढेले को डालकर बुझा हुआ पानी पिलाना
वातरोग में वस्ति । पैत्तिकरोग में विरेचन। श्रेष्ठ है । यह तृषारोग की प्रधान औषध
कफजरोग में वमन | कफमें शहत । पित्तमें है । धमनरोग में धानकी खील । वस्ति
घत । और वातमें तेल । ये सबरोग रोगके रोगों में शिलाजीत । प्रमेह में आमला,हलदी और दारुहलदी, पांडुरोग में लोह, वातकफ
प्रति प्रधान औषध है । विज्ञवैद्यको उचित
| है कि देशकाल और बलकी विवेचना करके में हरड़ । प्लीहारोग में पीपल, उर:संधान
यथोपयुक्त योगों की कल्पना करे । लाख । विषरोग में सिरसीमंद और अनिल.
- अग्निवेश का प्रश्न । रोगमें गूगल । रक्तपित्त में अडूसा । अति
इत्यात्रेयादागमय्यार्थसूत्रं सार में कुडा । अशरोग में भिलावा । तत्सूक्तानां पेशलनिर्मितृप्तः ।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमैत ।
(१८३ )
भेडादीनां समतो भक्तिनम्रः । श्चित है और आयुर्वेद शास्त्र क्या आज्ञा पप्रच्छेद संशयानोऽग्निबेशः ॥ ५९॥
देता है । इसलिये काकदंतपरीक्षा शास्त्रवत् अर्थ भक्ति से नम्र अग्निवेशने पुन
इसका आरंभ निष्फल है । ऐसे प्रश्न के र्वसु के शिष्य भेड जातुकर्णादिक की संमति
करनेवाले अग्निवेश प्रमुख संपूर्ण शिष्यों से पूर्वोक्त रीति से भगवान् आत्रेय के मुख
को महर्षि पुनर्वसु ने यथार्थ तत्व का इस से युक्तियुक्त अर्थो से प्रतिपादित मधुर
भांति उपदेश दिया। सूत्रों की व्याख्या से अतृप्त होकर और
प्रश्न का उत्तर । भी अधिक ज्ञान प्राप्ति की कामना से
नचिकित्साऽचिकित्साचतुल्याभवितुमर्हति नीचे लिखा हुआ प्रश्न किया ।
| विनापि क्रिययाऽस्वास्थ्यं गच्छतांषोडशां प्रश्न का स्वरूप ।
शया ॥ दृश्यते भगवन् फेचिदात्मवंतोऽपि रोगिणः अर्थ-चिकित्सा और अचिकित्सा कभी द्रव्योपस्थातृसंपन्ना बृद्धवैद्यमतानुगाः॥ षोडशांश में भी समान नहीं होसकती हैं। क्षीयमाणामयप्राणा विपरीतास्तथापरे।। चिकित्सा के बिना भी जिस जगह रोगकी हिताहितविभागस्य फलं तस्मादनिश्चितम्
शांति देखने में आती है उस जगह भी किं शास्ति शास्त्रमंस्मिनिति कल्पयतोऽग्निवेशमुख्यस्य । चिकित्सा करने पर रोग शीघ्र शांत हो शिष्यगणस्य पुनर्वसु
जाता है। तथा रोहिणीकादि कितने ही राचख्यौ कात्य॑तस्तत्त्वम् ॥६२॥
ऐसे रोग हैं जहां बिना चिकित्साके किसी अर्थ-आग्नि शने पूछा, हे भगवान्
तरह शांति नहीं होसकती है । इसलिय पुनर्वसो ! हमारे देखने में आता है कि
| चिकित्सा और अचिकित्सा कभी बराबर कितने ही लोग हितकारी आहार विहार
नहीं होसकते हैं। करते करते भी रोगग्रस्त होते हैं । अनेक उपयोगी औषध, कार्यकुशल परिचारक,
उक्त उत्तर में दृष्टांत ।
| आतंकपंकमग्नानां हस्तालंवा भिषग्जितम् । और बहुदर्शी सुशिक्षित चिकित्सक उपस्थित
जीवितं म्रियमाणानां सर्वेषामेव नौषधात॥ होने पर भी रोग की शान्ति नहीं होती ___ अर्थ-रोगरूप कीचड में फंसे हुए है । और यह भी देखने में आता है कि मनुष्यों के लिये औषध को हस्तावलंवके कितने ही लोग विपरीत आहार विहार के | के सदश जानना चाहिये अर्थात जैसे कीचड करते रहने पर भी रोग से मुक्त होजाते | में फंसे हुए मनुष्य को हाथका सहारा हैं, कितने ही मर भी जाते हैं। इन सब देकर निकालने का यत्न किया जाता है, बातों के देखने से हिसाहित विभाग का | वैसे ही रोग में फंसे हुए आदमी को भी फल अत्यन्त अनिश्चित और संशयात्मक | औषध देकर उसे रोगमुक्त करने का यत्न प्रतीत होता है। और यदि फल अनि किया जाता है । और मो सब तरह से
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(९८४)
मष्टांगहदप ।
नियमाण अर्थात् असाध्य होचुके हैं उनका | यह षोडशामिका चिकित्सा दैवापराध से जीवन औषध से भी नहीं होसकता है। । कदाचित् सिद्ध नहीं होती है, इस पर भी
उपायसाध्यों को सिद्धत्व । . जो उपाय जहां कहागया है वह वहां अनु. नापायमपेक्षते सर्वे रोगा न चान्यथा। पाय नहीं होसकता है । चिकित्सक, औषध, उपायसाध्या सिध्यति माहेतुहेतुमान् यतः परिचारक और रोगी ये चिकित्साके चार यदुक्तं सर्वसंपत्तियुक्तयापि चिकित्सया । पाद हैं और इनमें से हरएक के चार चार मृत्युभवति तन्नैवं नोपायेऽस्त्यनुपायता ।
गुण होते हैं । इसीको षोडषात्मिका चिकित्सा अर्थ-वे सव रोग जो असाध्य होतेहैं ने चिकित्सा की अपेक्षा नहीं करते हैं,
कहते हैं, इसीको पहिले विस्तारपूर्वक वर्णन अधोत् चिकित्सा द्वारा उनका प्रतीकार | करचुक है ॥ नहीं होसकत्ता । किन्तु रोहिणी आदि रोग
उक्तसिद्धांतका प्रतिपादन ।
कस्यासिद्धाऽग्नितोयादिस्वेदस्तभादिकर्मणि जो चिकित्सासाध्य होते हैं,उनकी चिकित्सा न प्रीणनं कर्शनं वा कस्य क्षीरंगवेधुकम् ॥ न करने पर किसीसे भी उनकी शांति नहीं | कस्य माषात्मगुप्तादौवृष्यत्वेनास्तिनिश्चयः हो सकती है, क्योंकि जो हेतु है वह किसी
विण्मूत्रकरणाक्षेपौ कस्य संशयिती यवे ॥
विष कस्य जरां याति मंत्रतंत्रविवार्जतम् । तरह हेतुमान् नहीं हो सकता है । इसलिये
का प्राप्तः कल्पतो पथ्यातेरोहिणिकादिषु तुम जो यह कहते हो कि चिकित्सा बिना
__ अर्थ-किस पुरुष के स्बेदकर्म में अग्नि भी रोगकी शान्ति देखने में आती है, और स्तंभनादि कार्य में ठंडा जल असिद्ध और सर्वसंपत्तियुक्त चिकित्सा करने पर मृत्यु होते हैं ? दूध किस मनुष्य को पुष्ट नहीं होजाती है । तुम्हारा ऐसा हेतुवाद युक्ति करता है ! गवेधुक धान्य किसको कृश विरुद्ध है,क्योंकि उपायमें अनुपायता नहीं हो नहीं करता है ? उरद और केंचके बीजों सकती है । जिस युक्तिद्वारा जिसका जो | का पौष्टिक गुण किसको धृष्यत्व करने में उपाय कहागया है, वह उपाय किसी तरह । अनिश्चित है ? जौ के भोजन से मलमत्र भी उसका अनुपाय नहीं होसकता है, जैसे
के उत्पादन और प्रवर्तन में किसको संशय
है ? मंत्रतंत्रादि से रहित किसका विष शांत घटके कारणभूत मृतिका, दंड और चक्रादि
होता है ? तथा रोहिणी आदि रोगों में पथ्य सामिग्री कभी घटके अनुपाय नहीं होसकते ।
के विना किसको कल्पता प्राप्त हुई है। हैं। इसी तरह चतुष्पात् चिकित्सा साध्यरोग | इसलिये चिकित्सा को निश्चित फल जानना का उपायही चिकित्सा है, अनुपाय नहींहै। चाहिये । इसका फल किसी तरह अनिश्चित
दैववैगुण्य से सिद्धत्व न होना। नहीं हो सकता है तथा चिकित्साशास्त्र में मप्येवोपाययुक्तस्य धीमतो जातुचिकिया। भी किसी तरह काकदंत परीक्षा शास्त्रवत् न सिध्येहैववगुण्यान त्वियं षोडशात्मिका निष्फलारंभ नहीं है । अवश्यही इसका __ अर्थ-उपाययुक्त बुद्धिमान मनुष्यके भी | आरंभ सफल होता है ।
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९८५)
चिकित्सातंत्रके फलत्वमें हेत् । तथा उत्पन्न हुए ज्वरादिक रोगों से. संत्रस्त अपि चाकालमरणं सर्वसिद्धान्तनिश्चितम् | मनुष्यों के लिये यह चिकित्सा शास्त्रही महतापि प्रयत्नेन वार्यतां कथमन्यथा ॥ सूत्ररहित रक्षासूत्र है । इसलिये चिकित्सा___अर्थ -संपूर्ण सिद्धान्तों से निश्चित अ.
शास्त्रको अवश्य पढ़ना चाहिये । काल मृत्यु भी चिकित्सा के सिवाय किसी
चिकित्साशस्त्र को अमृतत्व । महाप्रयत्न से भी निवारित नहीं हो सकती
एतत्तदमृत साक्षाजगत्यायासर्वर्जितम् । है अर्थात् अकालमृत्यु को भी चिकित्सा ही याति हालाहलस्वं च सद्यो दुर्भाजनसितम् निवारण कर सकता है।
अर्थ-यह चिकित्साशास्त्र मृत्युके जीतने ज्वस्में लंघनादिका शास्त्रसिद्ध होना। के लिये साक्षात् अमृतरूप है । वह अमृत तो चंदनाद्यपि दाहादौ रूढमागमपूर्वकम् । क्षीरसागरके मथनकाल में देवासुरके आयास शास्त्रादेव गतं सिद्ध ज्वरे लंघनवृंहणम् ॥ से उत्पन्न हुआथा यह आयास रहित है।किन्तु
अर्थ-शास्त्रके अनुकूल प्रयुक्त किये अयोग्य चिकित्सक के हाथ में यह अमृत भी जानेपर चंदनादि संपूर्ण औषध दाहादि को
हलाहलत्व को प्राप्त होता है, अर्थात् यह शांत कर देती हैं । इसीतरह आयुर्वेद के
बिषके समान मारात्मक होता है । अनुसार लंघन और वृंहण क्रियाओं से ज्वर. मिषकपाश का त्याग ॥ रोग की निवृत्ति हो जाती है। अक्षातशास्त्रसद्भावान् शास्त्रमात्रपरायणान्
चिकित्सा में संशयत्याग । त्यजेडूराद्भिषपाशान्पाशान्वयस्थतानिच चतुष्पाद्गुणसंपन्ने सम्यगालोच्य योजिते। अर्थ-जो चिकित्सक चिकित्सा शास्त्रके मा कृथा व्याधिनिर्घातं विचिकित्सा- सद्भावों को नहीं जानते हैं, जिन्हों ने शास्त्र ___ अर्थ-आयुष्कामीयाध्याय में कहे हुए |
|| का केवल पाठमात्र किया है और उसका
अनुष्ठान नहीं किया है उन यमपाशस्वरूप चिकित्सा के जो चार पाद वर्णन किये गये
भिषकों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। हैं उन चारों पादों से युक्त चिकित्सा तथा
मुवैद्यों की भद्रता ॥ देश काल और पात्रके अनुसार जो चिकित्सा मिषजां साधुवृत्तानां भद्रमागमशालिनाम प्रयुक्त. की जाती है वह कदापि निष्फल नहीं अव्यस्तकर्मणां भद्रं भद्रं भद्राभिलाषिणाम् हो सकती है । इसमें संशय नहीं करना चाहिये
। अर्थ-शास्त्रार्थ के जाननेवाले, क्रियाकुशस्त्रको अकांडमृत्युषाश छेदनत्व।।
शल, हितकी कामना करनेवाले, साधुवृत एतद्धि मृत्युपाशानामकांडे छेदनं दृढम् । वैद्यों का सर्वदा कुशल होता है अर्थात् वे रोगोत्रासितभीतानां रक्षासूत्रमसूत्रकम् ॥ सर्वत्र कृत्कार्य होकर धन, मान, यश और
अर्थ-अकालमें जो ज्वरादिक मृत्युके | धर्मलाभ करते हैं और जो पुत्रमित्रादिरूप पाशस्वरूप उपस्थित होते हैं उनके छेदन के से संपूर्ण प्राणियों का कल्याण चाहते हैं, लिये यह चिकित्साशास्त्र दृढ छेदन है । उनका भी कल्याण होता है ।
१२४
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मष्टांगहृदय ।
प्र.४०
चिकित्साशास्त्र का मंत्रवत्प्रयोग । निश्चयही दीर्घजीवन, आरोग्य, धर्म, अर्थ, इति तत्रगुणयुक्तं तंत्रदोषविवर्जितम्।
सुख और यशकी प्राप्ति होती है । चिकित्साशास्त्रमाखलं व्यापठ्य परितः । . स्थितम् ॥७७।
इम ग्रंथको श्रेष्ठत्व । विपुलामलविज्ञानमहामुनिमतानुगम् ।
एतत्पठन् संग्रहयोधशक्तः महासागरगंभीरसंग्रहायोपलक्षणम् ।।
स्वभ्यस्तकर्मा भिषगप्रकंप्यः । भष्टांगवैद्यकमहोदधिमंथनेन
आकंपयत्यन्यविशालतंत्र
कृताभियोगान्यदि तम चित्रम् ॥८२॥ योऽष्टांगसंग्रहमहामृतराशिराप्तः। तस्मादनल्पफलमल्पसमुद्यमानां ।
अर्थ-जो वैद्य इस अष्टांगहृदय को पढप्रीत्यर्थमेतदुदितं पृथगेव तंत्रम् ॥ ८०॥ कर इसके विषयों पर गूढ दृष्टि से आलोचना इदमागमसिद्धत्वात्प्रत्यक्षफलदर्शनात् । करके तदनुसार कर्ममें अभ्यास करता है मंत्रवत्संप्रयोक्तव्यं न मीमांस्यं कथंचन ८१ अर्थ-तंत्रके गुणोंसे युक्त और तंत्रके |
वह कभी किसी कार्यमें प्रकंपित नहीं होता दोषोंसे विवर्जित विपुल विमल विज्ञान से
| है । तथा चरकादि बडे बडे ग्रंथों के पढनेसंपन्न आत्रेयादि महामुनियों के मतके अनु
वालों को प्रकंपित करदेता है । इसमें कोई
आश्चर्यकी बात नहीं है। सार, तथा महासागररूप गंभीर संग्रह के निमित्त उपायभूत, अल्प उद्यमवाले मनुष्यों
उक्तकथन में हेतु ॥ को महत् फलका देनेवाला शल्यशालाक्यादि
यदि चरकमधीते ता ध्रुवं सुश्रुतादि
प्रणिगदितगदानां नाममात्रेऽपि बाह्यः अष्टांगसंपन्न आयुर्वेदरूप महासमुद्र के मंथन
अथ चरकविहीनः प्रक्रियायामखिन्न: से समुद्भूत, अमृतराशि स्वरूप इस अष्टां- किमिव खलु फरोतुव्याधितानांवराक: गहृदय नामक पृथक् ग्रंथका अच्छी तरह ___ अर्थ-चरकादि ग्रंथ बडे विशाल हैं पठन पाठन करना चाहिये । यह ग्रंथ | तथापि इनमें संपूर्ण विषयों का समाबेश । आयुर्वेदिक ग्रंथों के मतके अनुकूल है नहीं है। जो केवल चरक को पढताहे वह और प्रत्यक्ष फलको देनेवाला है, इसलिये
सुश्रुत में कहे हुए नेत्र रोगाधिकार में वर्ममंत्रवत् इसका प्रयोग करना चाहिये इसमें
गत, संधिगत, श्वेतमंडलगत, और कृष्णमंकिसी प्रकार का विचार करने का प्रयोजन डलादिगत चक्षरोगों के विशेष वर्णन को नहीं है।
नहीं जान सकता है क्योंकि चरक में इन उक्तांथ का फल । रोगों के केवल नाममात्र दिये गयेहैं, इनके दीर्घजीशितिगारोग्यं धर्ममर्थ सुखं यशः।। हेत, लक्षण और चिकित्सा का विशेषरूप पाठावबोधानुष्ठानैराधिगच्छत्यतो ध्रुवम् । से वर्णन नहीं किया गयाहै । चरफग्रंथ में
अर्थ-इस अष्टांगहृदय नामक ग्रंथका जिस रीतिसे खांसी श्वास आदि रोगों पाठ, अवबोध और अनुष्ठान करने से | का विशेषरूप से वर्णन किया गयाहै,सुश्रुत..
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अ०४०
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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
में वैसा नहीं है, इसलिये जो चरकको न पढकर केवल सुश्रुत को पढता है वह सुश्रुत में कही हुई प्रक्रिया के अनुसार दोष दूष्यकाल शरीर सत्व और सात्म्यादि लक्षणों में पारगामी होकर भी खांसी श्वासादि की चिकित्सा में कुछ भी करने को समर्थ नहीं है । और हमारे इस अष्टांगहृदय ग्रंथ में सभी विषयों का सविस्तर वर्णन किया गया है ।
आद्यग्रथों के पाठ से लाभ न होना । अभिनिवेशवशादाभियुज्यते सुमणितेऽपि न यो दृढमूढकः । पठतु यत्नपरः पुरुषायुषं स खलु वैद्यकमाद्यमनिर्विदः ॥ ८४ ॥ अर्थ- जो मूढमति आद्यवैद्यक ग्रंथों का पक्षपाती होकर इस कचिके बनाये हुए सुभाषित ग्रंथका अनादर करता है वह यत्नपूर्वक निर्वेदरहित होकर यावज्जीवन शतसाहस्त्री ब्रह्मसंहिता को पढता रहे । इसका यह भावार्थ है कि उस ग्रंथको पढ़ते पढते उसकी चुद्धि, मेधा और जीवनशक्ति का नाश हो जाय तब भी उस शास्त्रका चिन्तन, अवबोधन और अनुष्ठानादि कुछ भी न कर सकेगा, इसलिये यह दीर्घ कालका परिश्रम उन के लिये निरर्थक होगा |
उक्तकथन में कारण । वाते पित्ते श्लेष्मशांती च पथ्यं तैलं सर्पिर्माक्षिकं च क्रमेण । एतद् ब्रह्मा भागते ब्रह्मजो वा का निर्मत्रे वक्तभेदोक्तिशक्तिः अर्थ - तैल स्वाभाविकही वातको शमन करने वाला है, घी पित्तको शमन करने
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( ९८७ )
वाला और शहत कफनाशक है । यह बात ब्रह्मा ने कही है और ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमारादि ने भी यही कहा है । तैलादि की जो 1 वातादि प्रशमक ऐसी स्वाभाविक शक्ति है, व्यक्ति विशेष की उक्ति से उसकी कोई भौर शक्ति हो सकती है । ऐसा कभी नहीं हो सकता है । जो जिसकी स्वाभाविक शक्ति है वह अवश्य ही होती है, इसलिये पूर्वषियों के ग्रंथही पढने के योग्य हैं, आधु. निक कवियों के ग्रंथ पढने योग्य नहीं हैं, यह विचारना मुर्खों का काम है | उक्तकथन में अन्य युक्ति अभिधातृवशात् किंवाद्रव्यशक्तिर्विशिष्यते अतो मत्सरमुत्सृज्य माध्यस्थ्यमवलंब्यताम्
अर्थ - जब वक्ताविशेष की उक्ति से तैळादि द्रव्यों में शक्ति विशेष नहीं हो सकती है तो मत्सरता को त्याग कर के माध्यस्थ का अवलंबन करना चाहिये । अर्थात् आर्ष ऋषिप्रणति ग्रंथही पढने चाहियें आधुनिक ऋषियों के ग्रंथ न पढने चाहिये यह कभी मन में न विचारना चाहिये | अपनी बुद्धि से ग्रंथ की उपकारिता वा अनुपकारिता पर ध्यान देकर जो सुभाषित और अल्प परिश्रम से साध्य हो उस को अवश्यही पढना चाहिये ।
सुभाषित ग्रंथका आदर !
ऋषिप्रणीते प्रीतिश्चे
न्मुक्त्वा चरकसुश्रुतौ । भेडाद्याः किं न पठयंते तस्माद् ग्राह्यंसुभाषितम् ॥ ८७ ॥ अर्थ-यदि ऋषिप्रणति प्रथमात्र के पढने
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(९८८)
मष्टांगहृदय ।
अ. ४०
ही में प्रीति हो तो चरकसुश्रुत को छोडकर युर्वेदरूप वाणीमय पयोनिधि का हृदयस्वरूप भेड जातुकर्णादि मुनियों के बनाये हुए है । अर्थात् जैसे हृदय शरीर का एक देश ग्रंथों को वैद्यलोग क्यों नहीं पढ़ते हैं, ये होनेपर भी दशमूल सिराओं के द्वारा संपूर्ण ग्रंथ भी ऋषियोही के बनाये हुएहैं । परन्तु शरीर में व्याप्त होता है, उसी तरह यह . सुभाषित होने के कारण चरकसुश्रुत को भी सूत्रशारीरादि छः स्थानों द्वारा शल्य वाहुल्यभाव से पढतेहैं, भेडजातुकर्णादि | शालाक्यादि अष्टांग से संपन्न वाणीमय कृत ग्रंथाको नहीं पढतेहैं, इसलिये यह | संपूर्ण आयुर्वेद में व्याप्त होकर स्थित है । निश्चयहुआ कि सुभाषित ग्रंथही आदरणीय ऐसे हृदय के विधान द्वारा जो परम कल्याण
और ग्राह्य होते हैं । इसलिये यद्यपि यह प्राप्त हुआ है उस शुभसे जगत का ग्रंथ अनार्ष है तथापि चरकसुश्रुतवत् सुभाषित कल्याण हो। होने के कारण मतिमान्वैद्य इसको अवश्य इतिश्रीसिंहगुप्तसूनुवाग्भट विरचितायां ' ग्रहण करें।
अष्टांगहृदय संहितायां मथुरा निवासंसार की मंगलकामना ॥
सि श्रीकृष्णलाल कृत भाषा हृदयामिव हृदयमेतत्सर्वायुर्वेदवाङ्मयपयोधेः
टीकान्वितायांउत्तरस्थाने दृष्टवा यच्छुभमाप्तंशुभमस्तुपरंततोजगतः वाजीकरणनामचत्वा.
अर्थ-यह हृदय नामक ग्रंथ संपूर्ण आ- | रिंशोऽध्यायः।
BAYAYRURUAUS
समाप्तम् । ตะผงดงละคงลด
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श्रीम
सुश्रुतसंहिता। मूलसंस्कृतटीका भाषाटीका शारीरिकके चित्र और अंगरेजी कोष
सहित छपकर तयार हैं। हे प्रियवरो-आज इम सहर्ष आप लोगों का चित्त इधर खींचते हैं क्योंकि यह कहावत प्रसिद्ध है कि “एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत' चाहै जैसी प्रिय वस्तु क्यों नहो तन्दुरुस्ती के बिगडतही वह अमिय मालूम होने लगतीहै यहांतक तो है कि मनुष्य इस प्यारी से प्यारी देह से भी ग्लानि करके मृत्यु की बाट देखने लगता है अस्तु यह देह रक्षा आयुर्वेद के प्राचीन सद्ग्रन्थों में कहे हुए नियमों का पालन करने सेही होसकती है वे नियम जैसे पूर्णरूप से इस ग्रन्थ में दिये हैं किसी दूसरे ग्रन्थ में दर्शन को भी नहीं है । इसी ग्रन्थका आशय लेले कर अथवा ज्यों के त्यों प्रकरणों को लेकर बहुत से नवीन वैद्यों ने अपने २ नाम से ग्रन्थ रचदिये हैं । वैद्यक के इस अखिल भंडार में चिकित्सा सम्बन्धी कोई भी ऐसा विषय नहीं छोडागया है जिससे दूसरे ग्रन्थों की आवश्यकता हो यदि पांचसौ रुपये की कीमत के अन्य ग्रन्थ खरीदलो तौभी इसकी समता नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह तो स्वयम् धन्वन्तरिजी के मुखका उपदेश है, इसग्रन्थ की अनुक्रमणिका ९० पृष्ठ में है शारीरिक सम्बन्धी चित्र ४० पृष्ठ में हैं सम्पूर्णग्रन्थ १४८० पृष्ठ में समाप्त है कागज पुष्ट अक्षर बम्बई बिलायती कपडे की मुनहरी अक्षरों की जिल्द मूल्य डाकव्यय सहित १०) रु० है ।
प्रतिष्ठापत्र हिन्दीबंगवासी कलकत्ता
१५ जून सन् १८९६ यह ग्रन्थ वैद्यक शास्त्र के प्राचीन प्रामाणिक तथा उत्तम बडे ग्रन्थों में से है। इसके जाने बिना वैद्य वैद्य नहीं होसकता वैद्यक चिकित्सा आदिका यह अगाध समुद्र है। इसके का सुश्रुताचार्य ने जो कुछ किया वह आजतक किसीसे नहीं हुआ । वैच के घरकी यह ग्रन्थ परमनिधि है । आजकल श्रीमथुरापुरी से यह भाषानुवाद सहित छपकर निकला है । अनुवादकर्ता श्रीकृष्णलाल वैश्यहैं। इन्हीं के मित्र श्यामलालजी ने इसे मथुरा में छपवाकर प्रकाशित किया है। मल्य १०) रुपया है।
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(२)
पूरे ९० पृष्ठमें इस पुस्तक की अनुक्रमणिका है । इसके पीछे ४० पृष्ठ में वैद्यक के आचार्य ऋषिमुनियों का तथा कई प्रकार के वैधक शस्त्रसम्बन्धी यन्त्रों की तसवीरें दी हैं यन्त्रों के बनाने की विधि इस देश से लुप्त होगई है, इसीसे इन यन्त्रों की शकल अंगरेजी यन्त्रों से कागज पर सराशी गई है। शायद कोई बुद्धिमान चेष्टा करेगा तो धातु से भी बनाकर दिखा सकेगा। खैर कागज पर यन्त्रों की तसबीर की कल्पना पहिले बंगालियोंने की, पीछ यह और हुई । परन्तु इस महान् ग्रन्थको सम्पूर्ण हिन्दी में अनुवाद सहित छापकर पहिले पहल प्रकाश करने का यश मथुरापुरी के हिस्से में आया है इसके लिये लाला श्यामलालजी बधाई के पात्र हैं । इससे आगे मुख्य ग्रन्थ मूल संस्कृत और भाषानुवाद सहित है । १३४० पृष्ठ में समाप्त हुआ है । इस प्रकार. सारा ग्रन्थ मिलझुल कर १४७० पृष्ठ तक पहुंचता है छापा कागज अच्छे हैं । जिल्द भी खासी बंधी है अनुवाद ठीक शब्दार्थ या भावार्थही करके बस नहीं, की, वरञ्च मौके मौके पर व्याख्या भी अनुवादकर्ता महाशय करते चले आते हैं । यह ब्याख्या संस्कृत जाननेवाले लोग तो अर्थ से अलग पहचान ही लेंगे परन्तु कोरी भाषा का भरोसा रखनेवाले पृथक करने में सहजही समर्थ न होंगे वह उसे भी अनुवाद के अन्तर्गत समझेंगे अनुवाद की भाषा समझने के योग्य है, अच्छी है जहांतही नोटभी ग्रन्थकार ने लगाये हैं । बडा परिश्रम ग्रन्धकर्ता का सब विषयों को पृथक् २ करके उनकी तालिका बना देने में हुआ है । ९० पृष्ठकी लम्बी तालिका ग्रन्थ के सब विषय अलग अलग दिखा देती है । यह न होती तो इतने बड़े ग्रन्थ में कोई बात ढूंढ निकालना बडाही कठिन होता।
अनुवाद ग्रन्थकर्ता ने ध्यानसे किया है। और यह अच्छा किया है, कि जिन दवाओं के हिन्दी नाम में शक है, उनका संस्कृत नाम रहने दिया है। पुस्तक अच्छी हुई है।
राजस्थान समाचार
अजमेर १८ सितम्बर सन् १८९७ .. भगवान् धन्वन्तरजी ने कई शिष्यों सहित सुश्रुत नामक शिष्य को आयुर्वेद
का उपदेश किया और सुश्रुत ने फिर ग्रन्थ रचा उसका नाम मुश्रुत संहिता है जो इस समय तक आय्र्यों के आयुर्वेद का मुख्य ग्रन्थ माना जाता है। हमारे आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक ऐसी बातें लिखी है जो अबतक यूरोप के अत्यन्त
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( ३ )
खोज करने वाले विद्वान् भी नहीं जानसकते । ऐसी अनेक बातें इस सुश्रुतः संहिता में भी हैं । यह ग्रन्थ अत्यंत गंभीर और कठिन है इससे संस्कृतके उत्तम कोटिके विद्वानों के सिवाय दूसरे लोग इससे लाभ नहीं उठा सकते थे। इसी कारण से इसकी भाषाटीका का होना अत्यंत आवश्यक था सो ईश्वर कृपा से मथुरा निवासी श्यामलालजी ने करवाकर बडा उपकार किया । यह ग्रन्थ हमारे पास समालोचना के किये आया है ।
इस ग्रंथ में ऊपर मूल और नीचे पंडित कृष्णलालजी की कीहुई भाषा है । मुम्बई के टाइप और उत्तम कागज में अच्छे ढंग से ग्रंथ छपा है ।
भाषान्तर शुद्ध हिन्दी भाषा में जैसा चाहिये वैसा किया है । केवल सीधा भाषांतर करने से प्रयोजन न खुले ऐसे स्थानों में भले प्रकार से अभिप्राय खोला गया है, वह भी ऐसा कि व्यर्थ ग्रंथ नहीं बढायागया । अनेक स्थलों पर मूल. ग्रंथसे विशेष बातें दूसरे ग्रंथों से भी उठाकर रखदीं और उनका भाषांतर भी करदिया । आवश्यक्तानुसार अनेक स्थानों में नोट अर्थात् टिप्पणी भी की गई है । प्रयोजन यह कि इस बहुमूल्य ग्रंथका सब का एक विद्वान पंडित के हाथ से हुआ है जो इस विषयको भी जानता है कहीं २ भाषांतर करने में
धानी रही प्रतीत होती है परन्तु ऐसे भारी ग्रंथ में होना सम्भव है । मूल• बड़े अक्षरों में और भाषाटीका उससे थोडे छोटे अक्षरों में है ।
ग्रंथ आदि में इससे सम्बन्ध रखनेवाले चित्र दिये हैं जिनमें डाक्टरी चित्रों से सहायता ली जान पडती है । यह कहना कठिन है कि ये चित्र सुश्रुत के कथनसे कितने मिलते हैं। आदि में बहुत बडी और सविस्तर सूची दांगई है जिसमें भब बातों के निकालने में बडी सहायता मिले । बिलायती कपडे की स्वर्णाक्षर सहित उत्तम जिल्द बंधी है । ग्रन्थ सब प्रकार से उत्तम और प्रत्येक के संग्रह करने योग्य है । मोल १०० रुपये |
गर्गसंहिता ।
मूल वृजभाषा टीका सहित ।
यह ग्रंथ श्रीकृष्णचन्द्र महाराज के कुल पुरोहित श्री गर्गाचार्य्यजी का बनाया हुआ है इसमें भगवान के अनेकानेक ऐसे गूढ रहस्य हैं जो श्रीमद्भागवतादिक ग्रंथों में भी नहीं हैं इसका श्रवण और पठन भक्तिशून्य मनुष्य के हृदय में भी भक्तिका संचार करते हैं इसके श्लोकों की रचना ऐसी कर्णप्रिय है कि सुनते सुनते जी नहीं भरता है जो श्रीकृष्णचन्द्र के भक्त हैं वह इम ग्रन्थ को लिये बिना कदापि नहीं रहेंगे मुम्बई के मोटे अक्षरों में छपा हुआ मू० ६) रु०
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( ४ )
'चरक संहिता |
मूल भाषाटीका आयुर्वेदिक इतिहास सहित ।
यह ग्रंथ आयुर्वेद के ग्रंथों में सबसे प्राचीन चिकित्सा का अखिल भंडार और अयवर्त्त का गौरवस्वरूप हैं यदि आकाश के तारागण समुद्र की बालू के कण और मेघ बिंदु किसी प्रकार गणना में आसक्ते हों तो इस ग्रन्थ के गुण भी गिनने में आसक्ते हैं इसकी प्रशंसा से पत्रको भरना वृथा है क्योंकि ऐसा कोई हिन्दू नहीं है जिसने इसका नाम न सुना हो इसके निर्घट भाग में ५०० द्रव्यों के अंग्रेजी, फारसी, अव, बंगला, हिन्दी, गुजराती, मरहटी आदि भाषाओं के नामान्तर हैं जिससे सबको उपयोगी होगा ग्रंथ के प्रारम्भ में आयुर्वेदी इतिहास है जिसमें चरक, सुश्रुतादि सम्पूर्ण आयुर्वेद के ग्रंथकारों का जीवन चरित्र भी है इसके विषयों की अनुक्रमणिका ८० पृष्ठ में है इस तरह इस ग्रंथ में सब मिलाकर १२०० पृष्ठ हैं यह ग्रंथ ३० पौंडके मोटे चिकने विलायती कागज पर मुंबई के अक्षरों में बहुत स्पष्ट छापागया है सुनहरी जिल्द मूल्य डाकव्यय सहित १०) रुपया है ।
पुस्तक मिलने का ठिकानाकिशनलाल द्वारकाप्रसाद
"बंबई भूषण" छापाखाना
मथुरा।
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