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अ० १
कल्पस्थान भाषाडीकासमेत ।
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न देकर अधोगामी होजाता है । अर्थात् | स्निग्धस्विन्नस्य वात्यल्पं दीप्ताग्ने जीर्णमौषधम् विरेचन का काम देती है, इससे वमनकार्य शीतैव स्तव्धमामे वा समुदयहरेन्मलान् ॥ ७ ॥ की हानि और वमनसाध्य कफ का उदेक तानेव जनयेद्रोगानयोगः सर्व एव सः । होता है, इसलिये इस बात का स्मरण करके कि प्रथम दी हुई औषध का कुछ फल नहीं है, रोगी को पुनर्वार स्निग्ध कर के फिर वमनकारक औषध देवै ॥
अर्थ-स्नेहद्वारा स्निग्ध और स्वेदनद्वारास्विन्न किये बिना जिस रोगी को पुरानी और रूक्षी विरेचन औषध दीजाती है, और वह दी हुई औषध दोषों को बाहर नहीं निकाल सकती है, केवल उनको उत्क्लेशित
अजीर्ण में पूर्ववत कर्तव्य |
अतितक्ष्णिोष्णलवणमदृद्यमतिभूरि वातत्र पूर्वोदिता व्यापत्सिद्धिश्च न तथाऽपेि
अजीर्णिनः श्लेष्मवतो ब्रजत्यूर्ध्वं विरेचनम् । करके, अर्थात् अपने स्थान से च्युत करके विभ्रंश, सूजन, हिध्मा, अंधकारदर्शन, तृषा, पिंडिलियों में ऐंठन, खुजली, ऊरुओं में शिथिलता और विवर्णता इन रोगों को उत्पन्न कर देती है । अथवा स्निग्ध और स्विन दीनाग्नि वाला मनुष्य यदि अल्प मात्रा में विरेचन औषध सेवन करे, तो भी वह औषध प्रवल अनि से जीर्ण होकर दोषों को उत्क्लोशत कर देती है परन्तु वाहर नहीं निकाल सकती है, इससे भी पूर्वोक्त विभ्रंशादि रोग पैदा होजाते हैं, अथवा शीतल पदार्थों द्वारा वा आमरस द्वारा सेवन की हुई औषध स्तब्ध होकर केवल दोषोंको उत्क्लेशित कर देती है और बाहर नहीं निकाल सकती है । इस से भी पूर्वोक्त विभ्रंशादि रोग पैदा होजाते हैं । औषधों के इस योग का नामही अयोग है ।
उत्क्लिष्ट दोष में अनुवासन ॥ तं तैलवणाभ्यतं स्विन्नं प्रस्तरशंकरैः ८ ॥ निरूढं जाङ्गलर सैभोजयित्वाऽनुवासयेत् । फलमागधिकादारुसिद्धतैलेन मात्रया ९ ॥ स्निग्धं त्रातहरैः स्त्रहैः पुनस्तीक्ष्णेन शोधयेत्
अर्थ - ऊपर कहे हुए हेतुओं से जिस रोगी के दोष उत्क्कशित होगये हों उसे तेल और नमक से अभ्यक्त करके तथा प्रस्तर
चेत् ॥ ३ ॥ आशये तिष्ठति ततस्तृतीयं नावचारयेत् । अन्यत्र सात्म्याद्धद्याद्वा भेषजान्निरपायतः ॥
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अर्थ- जो रोगी अजीर्ण वा बहुत कफसे युक्त उसको अत्यन्ततीक्ष्ण अत्यन्त उष्ण, त्यन्त नमकीन, अहृद्य वा अधिक परिमाण युक्त विरेचन औषध दी जाती है वह अधोगामी न होकर ऊर्ध्वगामी होजाती है । अर्थात् विरेचन का काम न देकर वमन का काम देती है और इस से विरेचन कार्य की हानि और विरेचनसाध्य रोगों की अधिकता होती है, इसलिये रोगी को पुनर्बार स्निग्ध करके फिर विरेचन औषध देंवें । यदि दुवारा विरेचन से भी विपरीत फल हो तो सात्म्य, हृद्य और निरापद औषध देकर तृतीयवार विरेचन देवै ॥
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बिना स्नेहन स्वेदन के औषधनिषेध । अस्निग्धस्विन्नदेहस्य पुराणं रूक्षमौषधम् । दोषानुत्कृश्य निर्हर्तुमशक्तं जनयेद्वदान् ५ ॥ विभ्रंशं श्वयथु हिध्मं तमसो दर्शनं तृषम् । पिंडिकोद्वेष्टनं कण्डूमूर्योः सारं विवर्णताम् ॥
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