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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । म. २ र्थात् उचित काल में हरडके चूर्ण को कुछ विरेचनमें त्वचा और केसर । सौंठ और सेंधेनमक के साथ मिलाकर घा त्वकेसराम्रातकदाडिमैला सितोपलामाक्षिकमातुर्लिगैः। तिक रोगमें खट्टी कांजी के साथ पान करै । मद्यैश्च तैस्तैश्च मनोनुकूलैपित्तज रोगमे घी, चीनी और शहत मिला युक्तानि देयानि विरेचनानि “ ॥ ६२ ॥ कर दूध के साथ अथवा द्राक्षा, ईख, खंभारी अर्थ-दालचीनी, नागकेसर, आमला, और भूमिकूष्मांड इनमें से किसी एक के दाडिम, इलायची, मिश्री, मधु, बिजौरा, मद्य रसके साथ सेवन करै । तथा मनोनुकूल अन्यान्य द्रव्यों के साथ वि. विरेचन के लिये मोदक । रेचक औषधों का प्रयोग करना चाहिये ऐसा गुडस्याष्टपले पथ्या विंशतिःस्यात्पलं पलम् करने से विरेचन का सम्यक योग होता है । दन्तचित्रकयोः कर्षों पिप्पलीत्रिवृतोदेश ॥ इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीप्रकप्ल्य मोदकानेव दशमें दशमेऽहनि ।। कान्वितायां कल्पस्थाने विरेचनकउष्णांभोऽनुपिबेत्खादेत्तान्सर्वान्विधिना नमुना ॥ ५९॥ ल्पोनाम द्वितीयोऽध्यायः। एते निःपरिहाराः स्युःसर्वव्याधिनिबर्हणाः विशेषादग्रहणीपांडुकडूकोठार्शसां हिताः॥ अर्थ-गुड आठ पल, हरड बीस पल, तृतीयोऽध्यायः । दंती एक पल, चीता एक पल, पीपल एक कर्ष, निसौथ एक कर्ष इन सबको पीसकूटकर अथाऽतो वमनविरेचनब्यापत्सिद्धिदस मोदक बनालेवे । इनमें से एक एक मो व्याख्यास्यामः। दक दसवें दसवें दिन सेवन करें, ऊपर से अर्थ-अव हम यहां से वमन विरेचन गरम जल पावै । इसके सेवन से सब प्रकार | व्यापसिद्धि नामक अध्याय की व्याख्या के रोग और विशेष करके ग्रहणी, पांडुरोग, कंडू, कोठ और अर्श जाते रहते हैं, यह वि ___अधोगत वमन में पुनर्वमन ॥ रचन आपदरहित है । वमनं मृदुकोष्ठेम क्षुद्वताऽल्पकफेन वा। संश्लेषादिमें कर्तव्य । अतितीक्ष्ण हिमस्तोकमाणे दुर्बलेन वा१॥ पीतं प्रयात्यधस्तास्मान्नष्टहानिमलोदयः। अलपत्याऽपि महार्थत्वं प्रभूतस्याऽल्पकामताम् तस्याऽल्पकामताम् वामयेत्तं पुनः स्निग्धं स्मरन् पूर्वमतिक्रमम् ॥ कुर्यात्संश्लेषविश्लषकालसंस्कारयुक्तिभिः॥ अर्थ-जो मनुष्य मदुकोष्ठ, क्षुधाते, अर्थ संयोग, वियोग, काल, संस्कार | अल्पक फयुक्त, दुर्बल वा अजीर्णी हो उसको और युक्ति विशेषद्वारा ये औषध थोडी मात्रा | अति तीक्ष्ण, अति शीतल और अल्प मात्रा में देने पर भी बहुत काम करती हैं । और में वमनकारक औषध दीजाय तो वह बहुत मात्र में देने परभी थोडा काम करती हैं ऊर्धगामी न होकर अर्थात् वमन का काम करेंगे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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