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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६९८ ) अष्टांगहृदय । अ.३ . शंकर स्वेद से स्विन्न करके निरूहण देवै ।। प्रवाहिकादि में पिप्पल्यादि। और जाङ्गल मांसरसके साथ भोजन करके | पिप्पलीदाडिमक्षारहिंगुशुठयम्लवेतसान् । मेनफल, पीपल, और देवदारु इनके साथ ससैधान्पिवेन्मद्यैः सर्पिषोष्णोदकेन वा। सिद्ध किये हुए तेल से अनुवासन करै ।। प्रवाहिकापरिखावे वेदनापरिकर्तने १५ ॥ फिर वातनाशक तेलों से रोगी को स्निग्ध अर्थ-पीपल, अनार, जवाखार, हींग, सोंठ, अम्लवेत और सेंधानमक इनको मद्य, करके तीक्ष्ण विरेचन द्वारा शोधन करै । घी वा उष्णोदक के साथ पीने से प्रवाहिका, ___ आध्मान में कर्तव्य । परिस्राव, वेदना और परिकर्तन रोग दूर बहुदोषस्य रूक्षस्य मंदाग्नेरल्पमौषधम् १० सोदावर्तस्यचोत्लेश्यदोषान्मार्ग निरुपातैः । होजाते हैं। भ्रंशमाध्मापयन्नाभि पृष्ठपार्श्वशिरोरुजम् ॥ | कुपितवात के कर्म । श्वास विण्मूत्रवातानां सङ्गं कुर्याच्च- पीतौषधस्य वेगानां निग्रहान्मारुतादयः। . दारुणम् ।। कुपिता हृदयं गत्वा घोरं कुर्वति दृग्रहम् ॥ अभ्यंगस्वेदवादिसनिरूहानुवासनम् १२ हिमापार्यरुजाकासदैन्यलालादिविभ्रमैः उदावर्तहरं सर्व कर्माध्मातस्य शस्यते। जिहां खादति निःसंशोदतान्कटकटाययन् । 'अर्थ-प्रवल दोषों से आक्रांत, रूक्ष, अर्थ-पीत औषध का वेग रोकने से मन्दाग्नि वाला रोगी जब उदार्वत रोग से | वातादि दोष कुपित होकर और हृदय में भी पीडित हो उसको अल्प मात्रा में विरेचन जाकर हृद्ग्रह, हिमा, पार्श्ववेदना, खांसी, औषध देने से वह दोषों को उत्क्लेशित | दीनता, लालास्राव और नेत्रविभ्रम आदि करके दोषों के निकलनेके मार्ग को रोककर भयंकर रोगों को उत्पन्न कर देते हैं । रोगी नाभिप्रदेश में अत्यन्त अफरा, पीठ पसली बेहोश होकर जिह्वा को चबा जाता है और मस्तक में वेदना, वास तथा मल मूत्र | दांतों को किटकिटाता है । कौर वायु की अत्यन्त विवद्वता उत्पन्न कर उक्तअवस्था में वमनप्रयोग । देती है । इस में अभ्यङ्ग, स्वेद, वादि, | न गच्छेद्विभ्रमं तत्र वामयेदाशु तं भिषक् । निसहरण, अनुबासन तथा सब प्रकार के मधुरैः पित्तमूर्ति कटुभिः कफमूर्छितम् ॥ उदावर्त नाशक उपाय करना उत्तम है। पाचनीयैस्ततश्चास्य दोषशेषं विपाचयेत्। शूलनाशिनी यवागू । कायाऽनि च बलं चास्य. क्रमेणाऽभिप्रवर्तयेत् ॥ १९ ॥ पञ्चमूलयवक्षारवचाभूतिकसैंधवैः ॥१३॥ यवागूः सुकृता शूलविवंधानाहनाशनी । अर्थ-ऐसी अवस्था उपस्थित होने पर अर्थ-पंचमूल,जवाखार, बच, अजवायन | वैद्यको उचित है कि अपने संशय को दूर और सेंधानमक इनके साथ पकाई हुई यवा. कर के शीघ्रही वमन करावै । पित्तमूच्छित गू सेवन करने से शूल, विबंध और आनाह रोगी को मधुर द्रव्यों से और कफमूच्छित रोगों को दूर करदेती है। | रोगी को कटु औषधों से वमन करावै । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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