SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८०) अष्टांगहृदये । जगतबंधुता, आदि मानसिक शुद्धि । सत्य | अर्थ-इस देहके उत्पन्न होने में पंच म. वाक्यादि वाक शुद्धि ),आस्तिक्य ( परलोकमें हाभूत प्रधान हैं । यह वात विस्तारपूर्वक ऊ आस्तित्व ), कपटरहित धर्ममें रुचि और बु. पर दिखाई जाचुकी है, अव देहके प्रत्येक दि उत्पन्न होते हैं । तथा शौच, कृतज्ञता, भाग का वर्णन किया जाता है ॥ दाक्षिण्य, व्यवसाय, शौर्य, गांर्भ र्य, स्मृति, ___ जैसे औटते हुए दूधपर मलाई पड नाती मेधा, आदिमी सत्वगुणविशिष्ट हैं । रजोगुण है। वैसेही धातुओंकी ऊष्भासे पच्यमान की अधिकतासे बहुतभाषण, मान, क्रोध, दं रक्त से सात त्वचा उत्पन्न होती हैं । + भ, मत्सरता तथा शौर्य, दुरुपचारता, लोलु. कलाओं का वर्णन । पता, हर्ष और कामादि भी उत्पन्न हैं। धात्वाशयांतरक्लेदो विपक्वःस्वस्वमूप्मणा ॥ तमोगुणको अधिकतासे भय, अशन, नि- | श्लेष्मनाय्वपरिच्छन्नः कलाख्यःकाष्ठ सारवत् । द्रा, आलस्य, विषदिता, प्रमाद और शोक'दि उत्पन्न होते हैं । 1. अर्थ-रसादिक धातुओं के आधार पर | स्थित क्लेद अपनी अपनी धात्वाग्नि द्वारा पक्क रक्तसे सातत्वचाओंकी उत्पत्ति । तथा श्लेष्मा, स्नायु और जरायुद्वारा आइति भूतमयो देहः तत्र सप्त त्वचोऽसजः॥८॥| च्छादित हाकर जा शरार क भावावशष म पच्यमानात्मजायते क्षीरात्संतानिका इव । | बदल जाती है उसे कला कहते हैं । जैसे +भासिनी लोहिनी श्वेता ताम्रा त्वग्यदिनी तथा । स्याद्रोहिणी मांसधरा सप्तमी प. रिकार्तिता। ब्रीहेरष्टादशांशाचा द्वितीया षोडशांशका । द्वादशांशा तृतीया तु चतुर्थ्यष्टां श मात्रिका । पंचमी पंचमांशा तु षष्ठी व्रीहिप्रमाणिका । ब्रीहियप्रमाणा तु सप्तमी भि षजां मता । दीर्घच्छाया पंचकस्य भासिन्याधारतां गता । मन्यते षट् त्वचः केचित्तासां व्याह्योदकाश्रया। द्वितीया सृग्धरा सिमश्वित्राधारा तृतीयका । चतुर्थी सर्वकुष्ठानामधिष्ठानत्वमागता । विद्रध्यलज्याधिष्ठाना पंचमी रोगकारिणी । षष्ठयत्र यस्यां छिन्नायां ताम्य त्यंधं तमो विशेत् । यामधिष्ठाय जायते स्थूलमूलानिपर्वसु । अरूंषिकृष्णारक्तानि दुश्चि कित्स्यतमानिच । अर्थात् भासिनी, लोहिनी, श्वेता, ताम्रा, त्वग्वेदिनी, रोहिणी और मांस धरा ये सात त्वचा हैं। इनमें से पहिली वीहियब के अठारहवें भाग के समान मोटी हो. ती है ।दूसरी सोलहवे भागके समान, तीसरी बारहवें भागके समान, चौथी आठवेभा. ग के समान, पांचवीं पांचवें भागके समान, छटी ब्रीहि के समान और सातवीं दो व्रीहि के समान होती है । भासिनी में पंचमहाभूत की छाया रहती है। चरकमुनि छः ही त्वचा मानते हैं । इनमें सबसे बाहरकी उदकधरा, दूसरी असुग्धरा, तीसरी सिध्मश्वित्रधरा. चौथी सर्वकुष्ठधरा, पांचवीं विद्रध्यलजिधरा, और छटी वह है जिसके छिन्न होजाने से आंखोके आगे अंधेरा आजाता है । इसीके पर्यों में मोटी जडवाली काले वा लालरंग की फुसियां होजाती है । जिनका अच्छा होना कठिन होता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy