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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थान भाषाटीकासमेत । [२४१) काष्ठका सार होता है वैसेही यह धातुसार | दि कों के आशयभी सातही हैं । जैसे रक्ताका शेष कला संज्ञक * होता है। शय, कफाशय, आमाशय, पित्ताशय, पक्काश__ आशयोंका वर्णन । य, वाय्वाशय, और मूत्राशय तथा आठवां ए ताःसप्त सप्त चाधारारक्तस्याद्यःक्रमात् परे कफामपित्तपक्वानां वायोमूत्रस्य च स्मृताः | क अन्य आशय होता है जो केवल स्त्रियों गर्भाशयोऽष्टमास्त्रीणां पित्तपक्वाशयांतरे ॥ के होता है वह पित्ताशय और पकाशयके बीच कोष्ठांगानि स्थितान्येषुहृदयंक्लोमफुस्फुसम् । यकृत्प्लीहादुकं वृक्षको नाभिर्डिभांत्रबस्तयः | में होता है । इन रक्तादि आश्रयोंमें हृदय, - अर्थ-जैसे कला सात हैं वैसेही धात्वा- | क्लोम, फुस्फुस, यकृत,प्लीहा, उन्दुक, दो बृ. . x ये कला सात होती हैं, जैसे- आद्या मांसधरा यस्यां धमन्यः स्नायवः सिराः । स्रोतांसिच पुरोहंति प्रतानापिभिः कला । द्वितीयाऽसृग्धराऽस्यांत मांसांतः शोणितं स्थितम् । विशेषतः सिराप्लीहयकृत्सु क्षतजं क्षतात्। मांसात्प्रवर्तते क्षारक्षीरिवृक्षादिवक्षतात्। मेदोधरा तृतीयात्र मेदोस्थनमुदरे स्थितम् । भवत्यणुषु मजांतःस्थूलास्थिवथ मूर्धनि मस्तुलुंग कपालान्तश्चतुर्थी तु कफाश्रया । तत्स्थः कफो दृढयति संधीनस्यां शरीरजान् पंचमीस्या विंडाधारा सामपक्वाशयाश्रया । उदुकस्थं विभजते मलं पित्तधरा पुनः । षष्ठी पक्काशयांतस्था वाह्यधिष्ठानभावतः । पक्काशयोन्मुखं कृत्वा वलात्पित्तस्य तेजसा । शोषयंती पचत्यन्नं तदेवचविमुंचति । दोषदुष्टाथदौर्बल्यादाममेवविमुंचति । लभते ग्रहणी संज्ञामस्याश्चाग्निबलं वलं । शरीरं धारयत्यग्निबलोपुष्टंभवृहिता । अत्या कला शुक्रधरा मुत्रमार्गमुपाधिता । द्वथंगुले दक्षिणे पार्श्ववस्तिद्वारस्य चाप्यधः । शरीरं व्याष्य सकलं सा शुक्र वर्तयत्यपि। अर्थात् पहिली कला को मांसधरा कहते हैं,इस में धमनी,स्नाय,सिरा और स्रोतो का जाल फैला हुआ है । दूसरी असृग्धरा है, इसमें मांस के भीतर रुधिर रहता है विशेष करके लिरा, प्लीहा और यकृत में घाव होने से ऐसे निकलने लगता जैसे दूध वाले वृक्षों में छिद्र करने से दूध टपकने लगता है । यह तीसरी कला का नाम मंदोधरा है,यह उदर के भीतर मेदा को धारण करती है यह छोटी हड्डियों में होती है बडीहडियों में इसेमजाकहतेहैं चौथी कफाश्रयाहै यह अस्थिकी संधियों में होती है और कफद्वारा उन संधियों को दृढ रखती है। पांचवीं पुरीषधरा है यह आमाशय और पक्वाशय में रहती है और दुकस्थ मलको अलग अलग कर देती है । छटी का नाम पित्तधरा है यह पक्काशय में रहती है, आमाशय से अनादि को यहां लाकर पित्त के तेज से शोषण करती हुई पकाती है और वही बाहर निकाल देती है। यदि यह किसी दोषसे हो अथवा निर्बल हो तो कच्चे ही अन्न को निकाल देती है। इसी का नाम ग्रहणी है, इसको अग्नि को ही बल है तथा अग्निबल से वृहित होकर शरीर धारण करती है । सातवीं कला का नाम शुक्रधरा है यह मूत्रमार्ग में रहती है यह वस्तिस्थान से नीचे दाहिनी ओर दो अंगुल पर है और सर्वशरीरव्यापी शुक्र-को बाहर निकालती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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