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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टोंगहृदय | (२८२ ) क नाभि, त्रि, अंत्र, और वस्ति ये उदर के अवयव के आश्रित हैं | जीवन के दशस्थान | दश जीवितधामानि शिरोरसनबंधनम् । कंठोऽस्रं हृदयं नाभिर्बस्तिः शुक्रौजसी गुदम् अर्थ - सिर, तालु, कंठ, रक्त, हृदय, नाभि, वस्ति, ओज, और गुदनाडी ये दसस्था न जीवन के आधार है | इन्हीं दस आधारों पर जीवन विशेषरूप से आश्रित है । इनके नाशसे जीवनका भी नाश होजाता है | x Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ ३ शरीर में जालादिकीसंख्या । जालानि कंडराश्चान्ये पृथक्पोडशनिर्दिशेत् पटू कुर्चाः सप्त सेवन्यो मेद्र जिवाशिरोगताः शस्त्रेणैताः परिहेरच्चतस्त्रो मांसरज्जवः चतुर्दशास्थिसंघाताः सीमंताद्विगुणा नव ॥ अर्थ - शरीरमें जाल १६ हैं, कंडरा १६, कूर्ची, ६, मेहू, जिहूवा और शिरोगत सीवनी १, इन सेवनियों में नश्तर लगाना न चाहिये । मांसरज्जु ४, अस्थिसंघात १४, सीमं - १८ हैं । * × कफरक्तप्रसादात्स्याद् हृदयं स्थानमोजसः । चेतनानुगभावानां परमंचिंतितस्यच । मां सपेशीचयो रक्तपद्माकारमधोमुखं । तस्य दक्षिणतः कलाम यकृतकुस्कुलमास्थितं । समानवा युध्माताद्रता हो मपाचितात् । किंचिदुच्छ्रितरूपस्तु जायते कोम सक्षितः । ततुल्यहेतुजे कृती भिषजां मते । रक्त किट्टादुं दुकं स्यात्फुस्फुसो रक्तफेनजः । मंदोसृजः पच्यमानात् स्यातां वृक्क प्रसादजी । नाभिः सर्वशिराणां स्यादाधारः शकृतः पुनः । डिबंस्याद्रक्तमांसस्य प्रसादादंश्रसंभवः । सार्वत्रिव्याम मात्राणि पुरुषाणां तु तानि च । स्त्रीणां त्रिग्याममात्राणि बस्तिर्भूत्रस्यचाशयः । अर्थात्हृदय रुधिर और कफ केसारसे बनता है यह ओज और चेतनाका मुख्यस्थान है । विचार का स्थानभी यही है । यह मांसपेशियों का संघात कमलके आकार का है। इसका मुख नीचको होता है। सुश्रुतमें लिखा है कि जानत अबस्थामें यह खुला रहता है और शयनावस्था में बन्द होजाता है । हृदयकी दाहिनी ओर क्लोम, यकृत और फुस्फुस है । समानवायुके प्रधमनसे देहकी ऊष्माद्वारा पकाये हुए रक्तसे कुछ ऊंचापन लिये हुए क्लोम होता है । इन्ही समान हेतुओं से प्लीहा और यकृत की भी उत्पत्ति है । रुधिर के मैलसे उदुक और झागसे फुस्फुस बनता है । भेद और रक्तके सारसे दोनों वृक्क बनते हैं । नाभि संपूर्ण शिरा और विष्ठा का आधार है । रक्त और मांसके सारं से डिव होता है । पुरुषकी अंत्र ( आंत ) तेरह हाथ और ९ अंगुल लंबी और स्त्री की ग्यारह हाथ और छः अंगुल की होती हैं । वस्ति मूत्रका स्थान है । '+ शिरास्नाय्वस्थिपिशितैश्चत्वारि मणिबंधने । एकत्रैकत्र गुल्फे च जालान्येवं तु षोडश अर्थात् शिरा, स्नायु, अस्थि और मांस के चार चार जाल हैं इनमें से हर एक का एक एक जाल दोनों पहुंचे और टकनों में होता है । हस्तयोर्द्वे पादयोर्द्वे ग्रीवाभागोऽथपृष्ठतः । प्रत्येकं तु चतस्रःस्युः कंडरा इति शोडश । अर्थात् दोनों हाथ में दो दो दोनों पावों में दो दो, ग्रीवा में चार, पीठ में चार इस तरह १६ कंडरा है । करयोद्वौ पादयोद्वौ श्रीवायां मेहने तथा । एकैकमिति षट् कूर्चाः सीवन्यः सप्तकीर्तिताः । एका मेद्रेथ जिह्वायां भवेयुः पंचमूर्धनि । अर्थात् दो दोनों हाथों में, दो दोनों पांवों में, एक ग्रीवा में और एक मेठ्र में, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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