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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
पावे, इससे कामला, प्लीहा, गुल्म, अर्श, अर्थ-पित्तज प्लीहा में जीवनीयगकृमिरोग, प्रमेह और उदररोग नष्ट होजातेहैं! । णोक्त सिद्ध घी, क्षीरवस्ति, रक्तमोक्षण
अन्य प्रयोग। विरेचनादि द्वारा शोधन और दुग्धपान रोहीतकत्वचः कृत्वा पलानां पंचविंशतिम् । हितकारी है। कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत् ॥ पालकैः पंचकोलैस्तु तैः समस्तैश्च तुल्यया |
। पकृत की चिकित्सा । हरीतकत्वचा पिदैर्धतप्रस्थं विपाचयेत॥ यकृति प्लीहवत्कर्म दक्षिणे तु भुजे सिराम् ॥ प्लीहाभिवृद्धिं शमयत्येतदाशु प्रयोजितम् । अर्थ-यकृत रोग में प्लीहा के समान : अर्थ--रोहेडे की छाल २५ पल, बेर दो । सव चिकित्सा करनी चाहिये, इसमें दाहिने प्रस्थ इनका काथ करे फिर इसको छानकर हाथ की नस बेधकर रक्त निकाला जाता है, इसमें पंचकोल प्रत्येक एक पल, बडी हरड | यही विशेषता है। का छिलका पांच पल, घी १ प्रस्थ इनको बद्धोदरकी चिकित्सा । पाकविधिसे पकाकर सेवन करे तो अत्यन्त स्विन्नाय बद्धोदरिणे मूत्रतीक्ष्णौषधान्वितम् । बढीईई प्लीहा शीघ्र नष्ट होजाती है।
सतैलं लवणं दद्यानिसहं सानुवासनम् ॥
परिसंसीनि चान्नानि तीक्ष्णं चास्मैप्लीहा पर तेल ।
विरेचनम्। कदल्यास्तिलनालानां क्षारेण क्षुरकस्य च उदावर्तहरं कर्म कार्य यश्चानिलापहम् तैलं पक्वं जयेत्यानाप्लीहान कफवातजम। अर्थ-बद्धोदररोगी को स्वेदद्वारा स्विन्न
अर्थ केला, तिल की नाल, और। करके गोमूत्र और तीक्ष्ण भौषधों से युक्त तालमखाने का खार डालकर पकाया हुआ , तेल और नमक सहित निरूहण और भ. तेल पीने से कफ और वात से उत्पन्न हुई । नुवासन देवै । पहिले अनुवासन फिर निरूप्लीहा नष्ट होजाती है ।
हण और फिर अनुवासन ऐसे जठररोगी को अन्य प्रयोग।
अनुलोमनकर्ता अन्न और तीक्ष्ण विरेचन अशांतौ गुल्मविधिना योजयेदाग्निकर्म च ॥ | देवै तथा उदावर्तनाशक और वातनाशक अप्राप्तपिच्छास लिले प्लीहि वातकफोल्बणे। क्रिया करै ।
अर्थ-ऊपर लिखे उपाय से वात | छिद्रोदरकी चिकित्सा । कफज प्लीहा का शमन न हो और उस में | छिद्रोदरमृते स्वेदात्श्लेष्मोदरंवदाचरेत् । सेंमर के गोंद के समान, पिच्छिल जल की
जातं जातं जलं नाव्यमेवं तद्यापयोद्भषक्
___ अर्थ-छिद्रोदर में स्वेदन कर्मके अतिरिक्त उत्पत्ति न होतो गुल्म की चिकित्सा के अनुसार अग्निकर्म करै ।
और सब चिकित्सा कफोदर के समान की पैत्तिक प्लीहा का उपाय।
जाती है। परंतु जब आंतोंमें छेद होकर उपैतिके जीवनीयानि सपीषि क्षीरबस्तयः॥ |
न में से जल टपक टपककर पेटको भरै तब रक्ताबसेका संशदिक्षीरपानं च शस्यते।। उस जलको निकाल डाले । जितनी बार
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