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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ((३०) www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । जल इकट्ठा हो, उतनी ही बार निकाल डाले । प्रयुंजीत भिषक् शस्त्रमार्तबंधुनृपार्थितः इसतरह वैद्य रोगीको बचाता रहै । अर्थ- बद्धोदर, और छिद्रोदर में यदि उदकोदर की चिकित्सा | ऊपर लिखी चिकित्सा से शांत न हो तो वैद्य अपां दोषहराण्यादौ योजयेदुदकोदरे । रोगी के स्वजन और राजासे पूछकर अस्त्र. मूत्रयुक्तानि तीक्ष्णानि विविधक्षारवंति च प्रयोग करै । दीपनीयैः कफमैश्च तमाहारैरुपाचरेत् । m अर्थ - जलोदर में प्रथम गोमूत्र तथा अन्य विविध क्षारोंसे युक्त जलके दोषनाशक तीक्ष्ण औषधका प्रयोग करना चाहिये । तथा अग्निसंदीपन और कफनाशक आहार का सेवन करावे । पीछे वातादि दोषानुसार चिकित्सा करे | अन्य चिकित्सा || क्षारं छागकरीषाणां शृतं मूत्रेऽग्निना पचेत् घनीभवतितस्मिश्च कर्षांश चूर्णितं क्षिपेत् । पिप्पलीपिप्पलीमूलं शुठीलवणपंचकम् निकुंभकुंभत्रिफला स्वर्णक्षीराविषाणिकाः । स्वर्जिकाक्षारषडग्रंथासातलायवशूकजम् कोलामा गुटिकाः कृत्वा ततः सौवीरकाप्लुताः । पिबेदजरकेशोफे प्रवृद्धे चोदकोदरे अर्थ - anant गनियों के क्षार को गो में घोलकर अग्निमें पावै । जब गाढा मूत्र हो जाय तब नीचे लिखे द्रव्यों का चूर्ण मि लादेवै । वे द्रव्य ये हैं: - पीपल, पीपलामूल, सोंठ, पांचों नमक, दंती, निसोध, त्रिफला, स्वर्णक्षीरी, मेंढासिंगी, सज्जीखार, वच, सातला, और जवाखार, फिर इनकी वेरके वरावर गोलियां वनालेवै । इन गोलियों को कांजी में मिलाकर पीनेसे अजीर्ण, सूजन और वढाहुआ उदररोग शांत होजाते हैं । restदरमें शस्त्रप्रयोग | त्रिषु बोदरादिषु । अ०१५ अप्रयोग बिधि | स्निग्धस्विन्नतनोनीभरधो बद्धक्षतांत्रयोः । पाटयेदुदरं मुक्त्वा वामतश्चतुरंगुलात् चतुरंगुलमानं तु निष्कास्यांत्राणि तेन च निरीक्ष्याऽपनयेद्वालमललेपोपलादिकम् छिद्रे तु शल्यमुधृत्य विशोध्यांत्र परिश्रवम् । मर्कोटदेशयेच्छिंद्र तेषु लग्नेषु चाऽहरेत् कार्य मूर्ध्नोऽनुचचाणि यथास्थानं निवेशयेत् अक्तानि मधुसर्पिभ्यमथ सीव्येद्वहिर्व्रणम् ततः कृष्णामृदाऽऽलिप्य For Private And Personal Use Only बनीयाष्टमिया निवातस्थः पयोवृत्तिः स्नेहद्रोण्यां वसेत्ततः अर्थ- बद्धोदर और छिद्रोदर में रोगी को स्नेह स्वेद्वारा स्निग्ध और स्विन करके ना - भि के नीचे रोमराजी से चार अंगुल हटकर वांई ओर चार अंगुल चीर दे और सब आंतोंको बाहर निकालकर वाल, मल, लेप, पत्थरकी किनकी आदि जो कुछ हो सबको साफ करदे। फिर आंतों को घी और शहत से चुपड़ कर जहां की तहां लगाकर पेट में टांके लगादे | यह बद्धोदर की चिकित्सा है । अव छिद्रोदर में भी आंतों में से शल्यादि निकालकर आंतोंके स्रवनेका शोधन करके कालीचींटियों से आंतों के छिद्रको कट वावै । जव चींटियां आंतमें चिपट जायं तव उनके शरीरको काट काट कर निकालले और सिर आंतों में लगा रहने दे । तदनंतर सब आंतों में घी और मधु चुपडकर यथास्थान स्था
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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