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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ४ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (३५) इचदीपनभैषज्यसंयोगानुचिपक्तिदैः। त्पन्न होते हैं वे आगन्तुक अर्थात् बाहर से साभ्यंगोद्वर्तनखाननिरूहरेहबास्तभिः ॥३०॥ आनेवाले रोग कहलाते हैं। अर्थ-संशोधन करने वाली दवाइयों के । आगन्तुक रोगों का उपाय । सेवन से जो रोगी क्षीणदेह होजाता है उ- त्यागःप्रज्ञापराधानामिद्रियोपशमस्मृतिः। से शाली चांवल, साठीचांवल, गेहूं की देशकालात्मविशानं सद्वृत्तस्यानुवर्तनम् ३३ रोटी पूरी, मूंगकी दाल, मांसयूष, घृतपक्व अथर्व विहिताशान्तिः प्रतिकूलग्रहार्चनम् । पदार्थ में अच्छी रीतिसे इलायची, दालची भूताद्यस्पर्शनोपायोनिर्दिष्टश्चपृथक्पृथक्३४ अनुत्पत्त्यै समासेन विधिरेष प्रदर्शितः। नी आदि हृदय को हितकारी और अग्नि निजागन्तुविकाराणामुत्पन्नानांचशांतये ३५ संदीपन मसाले डालकर रुचिवर्द्धक और । अर्थ--असात्म्य आचरणों का त्यागना, जाठराग्निको वृद्धि करनेवाले पदार्थ शरीरकी आंखकान आदि इन्द्रियों का संयमन, स्मृति पुष्टि के लिये क्रम क्रम से थोडे थोडे देवै, | ( होनहार आदिका विचार ), देश, काल सथा तैलमर्दन, उबटना, स्नान, निरूहण तथा आत्मविज्ञान,और सदृति का अनुष्ठाचस्ति, अनुवासनवस्ति आदि क्रियाओं की न. अथर्ववेदोक्त शान्ति, प्रतिकुल ग्रहों का यथारीति से व्यवस्था करै । पूजा पाठ, भूतादि के दूर करने का उपाय, पूर्वोक्तक्रम का फल। | जो अलग अलग बताये गये हैं, ये सब तथा स लभते शर्म सर्वपावकपाटवम्। | निज अर्थात वातादि दोषों से उत्पन्न और धीवणेंद्रियवैमल्यं वृषतांदैर्ध्यमायुषः ॥३१॥ अर्थ-उक्त प्रकार से अर्थात् प्रथम सं आग•तु अर्थात् अभिघातादिजन्य रोगों की शोधन, उससे पीछे वृहण और फिर रसा अनुत्पत्ति अर्थात् उत्पन्न ही न होने देना यनिक द्रव्यों का प्रयोग करने से मनुष्य और उत्पन्न हुओं की निवृत्ति के लिये ये स्वास्थ्य, आयुर्वृद्धि, स्त्रीसंगम सामर्थ्य, और सुगम और संक्षिप्त उपाय कहे गये हैं। जठराग्नि, धात्वग्नि आदि सब प्रकार की अध्याय का संक्षिप्त वर्णन । अग्निकावल, इसी तरह बुद्धि, वर्ण और शीतोद्भवं दोषवयं वसंते विशोधयन् ग्रीष्मजमभ्रकाले । इन्द्रियों की प्रसन्नता प्राप्तकर सकता है। घनात्यये वार्षिक माशु सम्यकू . आगन्तुक रोगों का वर्णन। | प्राप्नोति रोगानृतुजानजातु ॥ ३६॥ ये भूतविषवाय्वग्निक्षतभंगादिसंभवाः। । अर्थ- जो मनुष्य शीतकालमें उत्पन्न कामक्रोधभयाद्याश्च तेस्युरागंतवोगदाः ३२ हुए कफके इकठे हुए दोषको बसंतकाल में . अर्थ--स्वास्थ्य रक्षा का विधिपूर्वक पा- | ग्रीष्मकालके संचित वातदोषको वर्षाकाल में, लन करने पर भी भूतग्रह, विषाक्तवायु, और वर्षाकालके संचित पित्तदोष को शरत भग्नि, घाव, चोट आदि से उत्पन्न तथा | कालमें संशोधन द्वारा दूर करदेताहै उसको - काम, कंध, भौर भयादि से जो रोग उ- ऋतुजनित रोग कदापि नहीं होने पाते । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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