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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) अष्टांगहृदये। . भ. ४ । पाग्य रागी। कूष्मंडादि द्रव्योंसे सिद्ध किया हुआ दूध की हितकामना चाहते हैं उनको उचित है और मनोरमा स्त्रियोंका सेवन उचित है ॥ कि वे जितेन्द्रिय होकर लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, त्यागने योग्य रोगी। मत्सरता, और रागादि के बेगों को रोकें । दरशूलातत्यजेत्क्षीणंविब्वमंवेगरोधिनम्२२ वातादि का यथाकाल शोधन । . अर्थ-ऊपर कहे हुए दोनों प्रकारके बेगो । यतेत च यथाकालं मलानां शोधनं प्रति । को रोकने से उत्पन्न हुए रोर्गो से आक्रान्त अत्यर्थसंचितास्तेहिकुद्धाःस्युर्जीवितच्छिदः रोगी यदि तृषा तथा शूल चुभने की सी दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जितालंघनपाचनैः। वेदना से युक्त, और क्षयीरोगसे पीडित हो येतुसंशोधनैःशुद्धानतेषां पुनरुद्भवः ॥२७॥ तथा विष्टाकी यमन करता हो तो उसकी । ___अर्थ-वायु पित्त कफ और पुरीषादि चिकित्सा नहीं करना चाहिये । मलों का शोधन उचित्त कालमें करना चा हिये ( वमन विरेचनादि में विशेष ध्यान वेगरोधजन्य रोगों में कर्तव्य ।। रोगाः सर्वेऽपि जायंते वेगोदीरणधारणैः। रखना चाहिये अर्थात् जिस मलके शोधनके निर्दिष्टसाधनंतत्रभूयिष्ठयेतुतानप्रति ॥ २३ ॥ योग्य जो काल है उस मलका उसी कालमें ततश्चा नेकधाप्रायः पवनो यत्प्रकुप्यति । शोधन करना चाहिये नहीं तो मल अत्यन्त अन्नपानौषधंतत्रयुंजीतातोऽनुलोमनम् ।२४। इकडे और कुपित होकर अन्तमें प्राणोंका ___ अथे-इसी तरह मलमूत्रादि स्वाभाविक | वेग न होने पर भी जो बलपूर्वक मलमूत्रादि नाश कर देते हैं ) वातादि दोष लंघन | और पाचन द्वारा प्राकृतिक दशा पर पहुंच का उत्सर्ग करते हैं उन मनुष्यों के सब प्रकारके रोग उत्पन्न होजाते हैं । इन बेगों जानेपर भी कदाचित कुपित होजाते हैं परके धारण करने से जो सब प्रकारके रोग न्तु जो संशोधन द्वारा शोधित होतेहैं वे उत्पन्न होते हैं उनकी चिकित्सा और सा कदापि फिर प्रकुपित नहीं होते । धन कहे गये हैं तथा इनके सिवाय जो अ रसायन प्रयोग। यथाक्रमं यथायोगमत ऊर्ध्व प्रयोजयेत् । नेक प्रकार की अन्य व्याधियां उत्पन्न होती रसायनानिसिद्धानि वृष्ययोगांश्चकालवित् हैं उनमें वायु का प्रकोप विशेष दिखाई देता ___ अर्थ-शोधन के पश्चात् देश, काल, है इसलिये इन सब रोगों में वायु का अनु वल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्व और प्र. लोमन करनेवाले अन्नपान और औषधों कृति की परीक्षा करके यथायोग्य प्रत्यक्षफल का प्रयोग कर्तव्य है। दंनेबाली रसायन और पौष्टिक औषधियों रोकने योग्य वेग । का सेवन करै । धारयेत्तु सदा वेगान हितैषी प्रेत्य चेह च। पथ्यादि विधि, लोभेाषमात्सर्यरागादीनांजितेन्द्रियः॥२५॥ भेषजमपिते पथ्यमाहारैर्वृहणं क्रमात् । अर्थ-जो इस लोक भौर परलोक दोनों शालिषष्टिकगोधूममुन्नमांसघृतादिभिः ॥२९॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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