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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १२ चिकित्सितस्थान भाषामकासमेत । प्लीहा, वर्भ, अश्मरी, गुल्म तथा अन्य | मधु और बोल के साथ सेवन करता है, कष्टसाध्य रोग दूर होजाते हैं । इसका नाम | अथवा समान भाग घृत के साथ अथवा 'महावजूक घृत है। खैर और अशनके काढे के साथ सेहन वैरेचनिक घृत ॥ करता है तो उसका कोढजाता रहता है दत्याढ क्रमांद्रो पक्त्वातेनवृतपचेत् कोमें पथ्य। धामार्गवपले पीतं तदूर्वाधो विशुद्धिकृत अर्थ- दंती एक आढक को एक द्रोण | शालयो यवगोधूमाः कोरदूषाः प्रियंगमः। मुद्रा मसूरास्तुवरीतिक्तशाकानि जांगलम् । जल में औटावै चौथाई शेष रहने पर उतार | वरापटोलखदिरनिंबारुष्कर?जितम्। कर छानले । फिर इसमें चार तोले कडवी | मद्यान्यौपथगर्भाणि मथितं चेक्षुराजिमत् ॥ तोरई डालकर एक प्रस्थ घी को पकांव। अन्नपान हितं कुष्ठे न त्वम्ललबणोषणम् । इस घी के सेवन से यमन और विरेचन | दधिदुग्धगुड़ानूपातिलमाषांस्त्यजेत्सराम् । द्वारा शुद्धि होजाती है। ____ अर्थ-शाली चांगल, जौ, गेहूं, कोदों, - अन्य उपाय। प्रियंगु, मूंग, मसूर, अरहर, तिक्तशाक आवर्तकीला होणे पचेष्टांशशेषितम् ।। और जांगलमांस इस सव द्रव्योंको त्रिफला, तन्मृलैस्तत्र नि! हे घृतप्रस्थं विधाचयेत् । पर्वल, खैर, नीमकी छाल और भिलाषा पीत्वा तदेकादिवसांतरितं सुजीर्णे | इनसे योजित करके, तथा मद्यको यथायोभुंजीत कोद्रसुसंस्कृतकांजिकेन । कुष्ठं किलासमपची च विजेतुमिच्छन् । ..| ग्य औषधियों से संयुक्त करके, तथा जल इच्छन्प्रज्ञां घ विपुलां ग्रहण स्थति च रहित मथाहुआ घोल नामक तक्रमें बाकुची अर्ध--एक द्रोण जल में एक तुला दंती | मिलाकर सेवन करै तौ कुष्ठ में हित हैं। को पकाव, अष्टमांश शेष रहने पर उतार | और खट ई, नमक, मिरच, दही, दूध, कर छान ले । पर इस काढ़े में दंती की। गुड, आनूपमांस, तिल और उरद ये सब जड का कल्क मिलाकर एक प्रस्थ घी पकावै कुष्ठरोग में त्याज्य हैं। 'इस घी को एक एक दिनका अंतर देकर अन्य औषध । सेवन करे । जब घी पचजाय तब कांजी पटोलमूलत्रिफलाविशाला के साथ कोदों धान्य का सेवन करे । इस पृथत्रिभागापचितत्रिशाणाः। स्युस्त्रायमाणा कटुरोहिणीच से कुष्ठ, किलास, और अपची जाते रहतेहैं भागाधिके नागरपादयुक्ते ॥ २८॥ तथा इससे विपुल संतान और ग्रहणशक्ति एतत्पलं जरितं विपक और स्मरणशक्ति बढती हैं। जले पिहोगविशोधनाय । अन्य उपाय जीर्णे रसैर्धन्बगद्विजानां यतेलेलीतकवसा क्षौद्रजातीरसान्विता।। पुरागशाल्योदनमावीत ॥ २९ ॥ कुष्ठघ्नी समसर्पिा सगायत्र्यसनोदका ॥ कुष्ट किलासं ग्रहणीप्रमाण. अर्थ-ब्रह्मचर्य वृत धारण करके जो मशीलि कृतानि हलीमकंच । षडानियागेने निहातचेतदू लेलीतकवसा ( कालानमक और तेल) को I, हद्वस्तिशूलं विषमज्वरं च ॥ ३० ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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