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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६५० अष्टमहदय । अ०१९ . सर्वकुष्ठ चिकित्सा। प्रभंजनस्तथा वस्य न स्थाईहप्रभंजनः । सर्वेषु चारुकरजं तौबरं सार्षपं पिवेत् १२ / - अर्थ-फस्द खोलना और विरेचन देना मेहं घृतंबा कृमिजित्पथ्याभल्लातकैः शृतं इनके बीच बीच में कुष्ठनाशक स्नेहों से अर्थ-सब प्रकार के कुष्टरोगों में मिलावे रोगी को आप्यायित करता रहै । ऐसा कर का तेल, तूर का तेल, सरसों का तेल, ने पर रुधिर के निकलने और विरेचन से. अथवा बायबिडंड, हरड और मिलावे का ? कोष्ठ के खाली होने पर वायु देह को विदीर्ण पकाया हुआ तेल हितकारी है । नहीं कर सकती है। अन्य चिकित्सा। वजूकधृत । आधस्य मूलेन शतकृत्यः शृतं घृतम् ॥ वासामृतानिवघरापटोल व्याघ्रीकरजोदककल्कपक्कम् ॥ 'पिवेत्कुष्ठं जयत्याशु भजन सखदिरं जलम् | सर्पिर्विसर्पज्वरकामलास्त्रअर्थ-अमलतास की जड से सवार मुष्ठापहं वनमामनंति ॥ १८ ॥ पकाया हुआ घी और खैर का जल पीनेसे अर्थ अडूसा, गिलोय, नीमकी छाल, कुष्ठरोग जाता रहता है । | त्रिफला, पर्वल, कटेरी और कंजा इनके कुण्ठ पर अभ्यंजन । काढे और कल्क से पकाया हुआ घी वि. 'एभिरेव यथास्वं च स्नेहैरभ्यजनं हितम् ॥ सर्प, ज्वर, कामटा और स्निग्धकारक तथा. अर्थ-दोषों के अनुसार पूर्वोक्त घृतद्वारा कुष्ठ को दूर करता है, इसका नाम वजूक अभ्यंजन करना भी हित है। घृत है। कुष्ठ में शोधनादि। महावजूक घृत । स्निग्धस्य शोधनं योज्यं विसर्प यदुदाहृतम् त्रिफलात्रिकटुद्धिकंटकारी अर्थ-जब स्नेह सेवन से रोगी स्निग्ध कटुकाकुंभनिकुंभराजवृक्षैः। 'झेजाय तब विसर्प में कहे हुए योगों से सवचातिविषाग्निकै सपाटैः पिचुभागैर्नववज्रदुग्धमुष्टया । १९ ।। विरेचन देना चाहिये। पिटैसिद्धं सर्पिषः प्रस्थमेभिः . कुष्ठ में शिरावेधन । क्रूरे कोष्ठे स्नेहनं रेचनं च। ललाटहस्तपादेषु शिराश्चास्य विमोक्षयेत् कुष्ठश्वित्रप्लीहवाश्मगुल्मान् प्रच्छानमल्पके कुष्ठेशंगाद्याश्चयथायथम् । हन्यात्कृच्छ्रस्तिन्महायजकारयम् २० : अर्थ-रोगी के बल के अनुसार रोगी अर्थ- त्रिफला,त्रिकुटा, बडी कटेरी,छोटी के मस्तक, हाथ वा पांव में फस्द खोले । | कटेरी,कुटकी, निसोथ,दंती,अमलतास,बच, कुष्ठ थोडा होने पर पछना, सींगी आदि से अतीस, चीता और पाठा प्रत्येक एक तोला थोडा थोडा रक्त निकाले । नये थूहर का दूध चार तोला इन सबको कुष्ठ में प्राप्यायन । पीसकर चौगुना जल मिलाकर एक प्राथ स्नेहराप्याययेश्चैनं कुष्टध्नेरंतरांतरा ॥ की पकावै । यह घृत क्रूर कोष्ठ में स्नेहन मुक्तरतावरिक्तस्य रिक्तकोष्ठस्य कुष्टिनः ॥ और विरेचन करता है तथा कुष्ठ, चित्र For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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