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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०१९ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (६४९] अतएव कुष्टरोगी की चिकित्सा करने से दुष्ट नाडत्रिण, अपची, विस्फोटक,विद्रधि, पहिले उसके शरीर को आप्यायन करने के गुल्म, शोफ, उन्माद, मदरोग, हृद्रोग, निमित्त स्नेहपान कराना चाहिये । तिमिर, व्यंग, ग्रहणी, चित्र, कामला, . वातोत्तर कुष्ठ में तैलादि। भगंदर, अपस्मार,उदररोग, प्रदर, गरदोष, तत्र पातोत्तरे तैलं पतं वासाधितं हितम॥ अर्शरोग, रक्तपित्त तथा अन्य अन्य पित्त दशमूलामृतरंडशाझ्यष्ठामेषगिभिः। से उत्पन्न होनेवाले कष्टसाध्यरोग शांत हो __ अर्य-वातप्रधान कुष्ठरोग में दसमूल, जाते हैं। गिलोय, अरंड, महाकरंज और मेढासिंगी महातिक्तक घृत । इनसे सिद्ध किया हुआ तेल वा घी काम में सप्तच्छदः पर्पटक शम्याकः कटुका पचा। लाये। त्रिफला-पद्मकं पाठा रजन्यौ सारिवे कणे॥ निंबचंदनयष्टयाहविशालेद्रयबामृताः। पित्तकोढ का उपाय । किराततिक्तकं सेव्यं वृषो मृर्वा शतावरी ॥ पटोलानबकटुकादाबींपाटादुरालभाः॥२॥ पटोलातिविषामुस्तात्रायतीधन्वयासकम् । पर्पटें त्रायमाणां च पलांशं पाचयेदपाम् । तैर्जळेऽष्टगुणे सपिर्द्विगुणामलकीरसे १०॥ याढकेऽष्टांशशेषेण तेन कन्मितैस्तथा ॥ सिद्धं तिक्तान्महातिक्तं गुणैरभ्यधिकं मतम् बायतीमुस्तभूनियकलिंगकणचंदनैः! अर्थ- सातला, पित्तपापडा, अमलतास, सपिषो द्वादशपलं पंचेत्तत्तिक्तकं जयेत् ॥ जयत् ॥ कुटकी, बच, त्रिफला, पदमाख, पाठा, वित्तकुठपरीसर्पपिटिकादाहतृडूभ्रमान् । कडपांडूबामयान् गंडान् दुष्टनाडीव्रणापचीः । यी हलदी, दारुहलदी, सारिवा, रक्तसारिवा, विस्कोटबिद्रधीगुल्मशोफोन्मादमदानपि । छोटी पीपल, बडी पीपल, नीम की छाल, हृद्रोगतिमिरव्यंगग्रहणीश्चित्रकामलाः ॥६॥ रक्तचंदन, मुलहटी, इन्द्रायण, इन्द्रजौ, भगंदरमपस्मारमुदर प्रदरं गरम। गिलोय, चिरायता, खस, अडूसा, मूर्वा, अर्थोऽस्रपित्तमन्यांच सितावर, पर्वल, मोथा, त्रायमाणा, दुरालभा, सुकच्छार पित्तजान् गदान् ॥ ७॥ इनको समानभाग लेकर अठगुने पानी और ___ अर्थ-पर्वल, नीम, कुटकी, दारुहलदी, दूने आमले के रस में यथोक्तरीति से घृत पाठा, दुरालभा, पर्पटी, त्रायमाणां, प्रत्येक को पकाकर सेवन करे । यह महातितक एक एक पल लेकर दो आढक जल में काढ। करै, अष्टमांश शेष रहने पर उतार घृत उक्तघृत से अधिक गुणकारक है। । कफप्रधान कुष्ठ की चिकित्सा। कर हानले, फिर इसमें त्रायंती, मोथा, कफोत्तरे पतं सिद्धं निबसप्ताहचित्रकैः१२॥ चिरायता, इन्द्रजी, पीपल, और चंदन कुष्ठोषणवचाशालप्रियालचतुरंगुलै। . प्रत्येक एक कर्ष पीसकर डालदे और बारह | अर्थ-कफप्रधान कुष्ठ में नामकी छाल,सातला पल घी डालवार पकावै । इस घृत के चीता,कूठ,कालीमिरच,बच,साल,पियाल और सेवन करने से पैत्तिक कुष्ठ, विसर्प,पिटिका, अमलतास इन सब द्रव्यों के कल्क के साथ दाह, तृषा, भ्रम, कंडू, पांडुरोग, गंड, पकाया हुआ घी सेवन करना चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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