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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४८) . अष्टांगहृदय।. प्र. १९ अंथि में रक्त मोक्षण । | होता है और रक्त ही इसका आश्रय है, मोक्षयेद्वहुशश्चाऽस्य रक्तमुत्लशमागतम्। इसलिये इस रोग में बार बार फस्द खोलने पुनश्चाप कृते रक्ते वातश्लेष्मजिदौषधम् ॥ | की आवश्यक्ता है। .. अर्थ-ग्रंथि विसर्प वाले रोगी का रक्त विसर्प में घतका निषेध । यदि उक्लिष्ट अर्थात् विकार करने को उन्मुख | न पतं बहुदोषाय देयं यन्न बिरेचनम् । होगया हो तो उसको बार वार निकालेदना तेन दोषो हुपस्तब्धस्त्वप्रक्तपिशितंपचेत्" चाहिये, रक्त के निकाल देने के पीछे वात- ___ अर्थ-वहुत दोषों से युक्त विसर्प में कफनाशक औषधों का प्रयोग करना | वह घृत नहीं देना चाहिये जो विरेचन करने हित है। वाला न हो, क्योंकि उस घृत से उपस्त- ब्रण के समान चिकित्सा । | भित हुआ दोष त्वचा, रक्त और मांस प्रक्लिन्ने दाहपाकाभ्यां बाह्यांतवणवक्रिया। को पका देता है । विसर्प में पित्त ही की दारूविडंगकंपिल्लैः सिद्धं तैलं व्रणे हितम् दूस्विरससिद्धं तु कफपित्तोत्तरे घृतम् , चिीकत्सा करना !धान है और पित्त की अर्थ-शाह और पाक द्वारा विसर्प के चिकित्सा में विरेचन प्रधान है, इसलिये प्रक्लिन्न होने पर भीतर वा बाहर के घाव विसर्प में वैरेचनिक घृतका प्रयोग ही करना के सदृश चिकित्सा करनी चाहिये । वात | चाहिये। प्रधान विसर्प के घाव में दारुहलदी, बाय- इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा विडंग और कबीला इनसे सिद्ध किया हुआ ___टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने तेल हित होता है । तथा पित्तप्रधान और विसर्पचिकित्सितं नामाकफप्रधान व्रणों में दूर्वा के रसके साथ ष्टमोऽध्यायः ॥१८॥ सिद्ध किया हुआ घत उपयोग में लावै । रक्तहरण में हेतु । एकोनविंशोऽध्यायः। एकतःसर्वकर्मागिरक्तमोक्षणमेकतः॥३६॥ विसर्पो नह्य संसृष्टः सोऽस्रापेत्तेन जायते । रक्त मेवाश्रयश्चास्य बहुशोऽस्र हरेदतः६७ अथाऽतः कुष्ठचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥ अर्थ-विसर्प रोग में एक और संपूर्ण अर्थ-अब हम यहां से कुष्ठांचकित्सत चिकित्सा है और दूसरी ओर रक्तमोक्षण नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । है अर्थात् जो फलप्सिद्वि संपूर्ण चिकित्साओं कुष्ठ में स्नेहपान । से नहीं हो सकती है वह केवल एक रक्त कुष्टिनं स्नेहपानेन पूर्व सर्वम्पाचरेत् । मोक्षण से होसकती है । इसका कारण यह | अर्थ-कुष्टरोग में त्वचा, रक्त और मांहै कि विसर्परो रक्त पितके संसर्ग से र. सादि दपित हो जाते हैं इसलिये इस रोग हित नहीं है, यह रक्तपित्त से ही उत्पन्न । में देहका कुश हो जाना अवश्य होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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