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(७९२)
अष्टांगहृदय ।
म. १३
पण्माक्षिक इति योग
| विधानोक्त वस्ति क्रिया, तर्पण, प्रलेप और स्तिमिरामलेदकाचकंडूईता ॥४४॥ परिषकादि द्वारा नेत्ररोगी की चिकित्सा अर्थ-कालीमिरच,आमला,कमल,नीला
करनी चाहिये। थोथा, सुर्मा और सौनामाखी इन छः द्रव्यों को उत्तरोत्तर एक एक भाग बढाकर लेवे।
पृथकचिकित्साका उपदेश।
सामान्य साधनमिदं प्रतिदोषमतः शणु। इसका अंजन बनाकर लगाना चाहिये, यह अर्थ-यहांतक नेत्ररोग की सामान्य षण्माक्षिक योग तिमिर, अर्म, क्लेद, काच चिकित्सा का वर्णन किया गयाहै, अब यहां और कंडू रोगों को दूर करदेता है। से वातादि दोषानुसार चिकित्सा का वर्णन दृष्टिरोगनाशक चूर्ण ।
करते हैं। रत्नानि रूप्यं स्फटिकं सुवर्ण स्रोतोजन ताम्रमयः सशंखम् ।
वातजतिमिर की चिकित्सा। कुचंदन लोहितगैरिकं च ।
वातजे तिमिरे तत्र दशमूलांभसा घृतम् । चूर्णाजनं सर्वगामयनम् ४५
क्षीरे चतुर्गुणे श्रेष्ठाकल्कपक्कं पिबेत्ततः ।
त्रिफलापंचमूलानां कषाय क्षीरसंयुतम् । अर्थ - हीरा, मरकत आदि यथाप्राप्त रत्न
एरंडतैलसंयुक्तं योजयेच विरेचनम् ।। रूपा, स्फटिक, सुवर्ण, सुर्मा, तांबा, लोहा,
___ अर्थ-वातजतिमिर रोगमें दशमूल का शंख, रक्तचंदन, और लाल गेरू, इनको पीसकर अंजन लगाने से संपूर्ण प्रकार के
क्वाथ, चौगुने दूध के साथ त्रिफला का कल्क नेत्ररोग दूर होजाते हैं ।
डालकर पाकविधि के अनुसार घी को पकावै - दृष्टिबलकारक नस्य ।
और पान करने के पीछे विरेचन के लिये तिलतैलमक्षतैलंभंगस्वरसोऽसनाचनियंहः | त्रिफला और पंचमूल के काढे में दूध और
आयसपात्रविपक्कं करोति दृष्टेबलं नस्यम् । अरंडका तेल मिलाकर उपयोग में लावै । ___अर्थ-तिलका तेल,वहेडेका तेल, भांगरे ।
ऊर्ध्वजत्रुरोगनाशक नस्य । का रस, और असन का काथ, इन सबको समलजालजीवतीतुलां द्रोणेऽभसः पचेत् लोहे के पात्रमें पकाकर अंजन लगाने से | अष्टभागस्थिते तस्मिस्तैलप्रस्थ पयः समं । दृष्टि बलवान होजाती है।
बलात्रितयजीवंतीवरीमूलैः पलोन्मितः। नेत्ररोगमें स्नेहादि ।
यष्टीपलैश्चतुर्भिश्च लोहपात्रे विपाचयेत् ।
| लोह एव स्थितं मासं नावनादूर्ध्वजत्रुजान् । दोषानुरोधेन च नैकशस्तं
वातपित्तामयान हंतितद्विशेषाद् द्गाश्रयान स्नेहास्रविनावणरेकनस्यैः। उपाचरेदं जनमूर्धवस्ति
फेशास्यकंधरास्कंधपुष्टिलावण्यकांतिदम् । बस्तिक्रियातर्पणलेपसेकैः ४७ ____अर्थ-जड और जाली सहित जीवंती
अर्थ-दोषके अनुसार बार बार स्नेह सौपल लेकर एक द्रोण जलमें पकाये, आठवां प्रयोग, रक्तमोक्षण, विरेचन, नस्य, अंजन, भाग शेष रहनेपर उतारकर छानले भौर गंडूपादि विधि में कही हुई मूर्धवस्ति, बस्ति इसमें एक प्रस्थ तेल और इतना ही दूध
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