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उत्तरस्थान भाषाटीका समेत ।
कपोलस्थलवाला गिद्ध जो समय पाकर आप ही मर जाय उसके मस्तक को काटकर आरने ऊपलोंकी आग में भस्म करदे, फिर उसके समान घी और सुरमा मिलाकर मर्दन करके नेत्रों में आजै | इससे गिद्ध के समान दृष्टि | हो जाती है ।
भिन्नतार नेत्रका चूर्ण | कृष्णसर्पवदने सहविष्कं दग्धमंजतमनिःसृतधूमम् । चूर्णितं नलदपत्राविमिश्रं भिन्नतारमपि - रक्षति चक्षुः ॥ ३८ ॥ अर्थ - काले सर्पके मुखमें घी और सौवी रांजन भरकर ऐसी रीति से जलावे कि धूआं बाहर न निकलने पावै । फिर इसमें जटामांसी के पत्ते मिलाकर महीन पीसडाले इसको नेत्रों में आंजने से भिन्नतारक चक्षु भी अच्छे हो जाते हैं ( भिन्नतारक कहने से औपन की परमोत्कृष्टता दिखाई गई है। बास्तवमें भिन्नतारक घक्षु की रक्षा होना असंभव है, ऐसे ही गरुड की सी दृष्टि है। जाना, इत्यादि वाक्यों में जानना चाहिये )। अको भी दृष्टिमदान | कृष्णं सर्प मृतं न्यस्य चतुरश्चापि
वृश्चिकान् ।
क्षीरकुंभे त्रिसप्ताहं क्लेदयित्वाथ
मंथयेत् ॥ ३९ ॥ तत्र यन्नवनीतं स्यात्पुष्णीयात्तेन कुक्कुटम् । अधस्तस्य पुरीषेण प्रेक्षते ध्रुवमंजनात् ॥
अर्थ- मरे हुए काले सर्प और चार बिच्छुओं को दूध के कलश में भरकर तीन सप्ताह तक रहने दे | पीछे इस दुग्ध को मकर माखन निकाल ले | इस माखन को
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एक मुर्गे को खिलावे | इस मुर्गे की बीटका अंजन लगाने से अंधेको दिखाई देने लगता है
अंकी दृष्टिवर्द्धक रसक्रिया | कृष्णसर्पवसा शंखः कतकात् फलमंजनम् । रसक्रियेयमचिरादधानां दर्शनप्रदा ॥
अर्थ- काले सर्पकी वसा, शंख, निर्मलीफल और सुर्मा इनकी रसक्रिया से अंधेकी दृष्टि शीघ्र बढ जाती है ।
अप्रतिसाराख्य अंजन । मरिचानि दशार्धपिचुस्वाप्यात्तत्यात्पलं पिचुर्यष्टयाः ।
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क्षीरादग्धमंजन
मप्रतिसाराख्यमुत्तमं तिमिरे ॥ ४२ ॥ अर्थ- कालीमिरच दस, सौनामाखी आधा पिचु, नीलाथोथा आधा पल, और मुलहटी एक पिचु, इन सब द्रव्यों को दूध में भिगोकर अग्नि में भस्म करले | इस अंजन का नाम अप्रतिसार है, यह तिमिररोग की परमोत्तम औषध है ।
तिमिरनाशक गोली | अक्षबोजमरिचामलकत्वक् तुत्थयष्टिमधुकैर्जल पिष्टैः । छाययैव गुटिकाः परिशुष्का नाशयंति तिमिराण्यचिरेण ॥ ४३ ॥ अर्थ बहेडे का बीज, काली मिरच आमला, दालचीनी, नीलाथोथा, मुलहटी इन को जल में पीसकर गोली बनाकर छाया में सुखाले, इससे तिमिररोग बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
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तिमिरनाशक योग | मरिचामलकजलोद्भव तुजनताप्यधातुभिः क्रमवृद्धैः ।