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(८९६)
अष्टांगहृदय ।
अ.
३.
ना
अन्य प्रयोग।
रोग शान्त न हो तो जिधर रोग हो उसके शरपुंखोद्भवं मूलं पिष्टं तंदुलवारिणा। दूसरी ओर पसली और जांघ के आश्रित नस्याल्लेपाच्य दुष्टाहरपचीविषअंतुजित् । पस्तिप्रदेश के ऊपर वा नीचे मेद को काट अर्थ-शरपुंखा ( सरफीका ) की जड
कर उन स्थानको अग्नि से दग्ध करदे । तंडु लोदक के साथ पीसकर नस्य और |
निमिमुनि का मत । प्रलेप द्वारा उपयोग में लाने से दुष्ट व्रण,
स्थितस्योर्ध्व पदं भित्त्वा तन्मानेन च पाणित अपची, विषरोग और कीडे जाते रहते हैं। तत ऊर्ध्वहरे ग्रंथीनित्या र भगवानिमिः । अन्य तैल।
. अर्थ-इस विषय में निमि मुनिका यह मूलैरुत्तमकारुण्या:पीलुवाःसहाचरात् । मत है कि रोगी को बैठाकर उसके ऊर्ध्व सरोधाभययष्टयाह्वां शताहाद्वीपिचारुभिः
पद को भेदकर एडी को भी उसी प्रमाण तैलं क्षीरसमं सिद्धं नस्येऽभ्यंगेच पूजितम् अर्थ-करंभ की जड, पालु की जड,
से भेदकर ऊपर की संपूर्ण गांठको निकाल सहचरी, लोध, हरड, मुलहटी, सौंफ,चीते
देना चाहिये । की जड और देवदारु, इनका कल्क डाल
मुश्रुत का मत । कर समान भाग दूध और तेल मिलाकर पार्षिण प्रति द्वादश चांगुलानि पाकविधि के अनुसार तेल को पकाकर
मुफ्त्येंद्रवस्ति च गदाग्यपार्थे । नस्य और अभ्यंग द्वारा प्रयोग में लाना
विदार्यमत्स्यांडनिभानि मध्या
जालानि कर्षदिति सुश्रतोक्तिः ॥ ३१ ॥ चाहिये ।
अर्थ-इन्द्रवस्ति को छेडकर एडी के तेलका लेप।
सन्मुख बारह अंगुल भेदन करके रोग की गोव्यजाश्वखुरादग्धाकटुतैलेन लेपनम् ।। ऐंगुदेन तु कृष्णाहिर्वायसो वा स्वयं मृतः
दूसरी ओर को विदीर्ण करके बीच में से अर्थ-गौ, मेंढा और घोडे के खुर ।
मछली के अंड के सदृश सब जलको खींचले जलाकर राख करले । इस. राखको कडवे
| यह सुश्रुत का मत है। तेल में मिलाकर अपची पर लेप करे ।
अन्य आचार्यों का मत ।
भागुल्फकात्सुमितस्य जतो. अथवा काल! सर्प या अपने आप मराहुआ
स्तस्याष्टभागं खुडकाद्विभज्य । कौआ इनकी राखको इंगुदी के तेल में घ्राणार्जवेधः सुरराजवस्तेमिलाकर लेप करने से भी विशेष लाभ भित्त्वाक्षमात्र त्यपरे चदंति ॥ ३२॥ होता है।
अर्थ-अन्य आचार्यों का यह मतहै कि
कान से टकने तक जितना देहका परिमाण इत्यशांतीगदस्यान्यपार्श्वजंघासमाश्रितम है उसके नौ भाग करके आठ भाग त्याग बस्तेरूलमधस्ताद्वा मेदो हत्यामिना दहेत् देवे । और इन्द्रवस्ति से नीचे गुल्फ तक
अर्थ-इन उपायों के करने पर भी नवें भाग को विदीर्ण करदे ।।
दाह विधि।
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