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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ.३० उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (८९७ ) वातनाडीमें शस्त्र प्रयोग। बीच में बार बार क्षार सूत्र का प्रयोग कर उपनाधानिसानाडींपाटितांसाधुलेपयेत्। के उस को विदीर्ण करदे । प्रत्यक्षुष्पफिलयुतैस्तैलैः पिटैः ससैंधवैः ।। नाडी का उपाय अर्थ- वातज नाडीमें उपनाह देकर व्रणेषु दुष्टसूक्ष्मास्यगंभीरादिषु साधनम् ॥ अच्छी तरह से चीर देना चाहिये । पश्चात् या वयो यानितैलानि सन्नाडीष्वपि शस्यते ओंगा और मेनफल को तेल और सेंधेनमक | अर्थ-दुष्ट व्रण में, सूक्ष्म मुख वाले के साथ पीसकर नाडी पर लेप कर देखें । व्रण में, गंभीरादि गुणों से युक्त व्रण में, पित्तज नाडी। जो जो शोधन के उपाय, बर्ति प्रयोग तथा पैती तु तिलमंजिष्ठानागदंतीशिलाइयैः। | जो जो तेल कहे गये हैं, वे सब नाहीषण ___ अर्थ--पित्तज नाडीपर तिल, मजीठ, में भी हितकारी होते हैं। नागदंती और शिलाजीत का लेप करना नाडी ब्रण पर लेप ।। चाहिये परन्तु प्रथम इसको उक्त रीति से पिष्टं चंचुफलं लेपानाडीव्रणहरं परम ॥ शस्त्रद्वारा चीर देना चाहिये। अर्थ-चचु के बीजों को पीस कर लेप कफज नाड़ी ॥ करना नाडीव्रण में परमोपयोगी है । श्लैष्मिकी तिलसौराष्ट्रीमिकुंभारिष्टसैधषैः।। नाडी ब्रण पर कल्क । अर्थ- कफज नाड़ी को पूर्ववत् पाटित घोटाफलत्वग्लवणंसलाक्षं करके उस पर तिल, मुलतानी मिट्टी, बूकस्य पत्रं वनितापयश्च । दन्ती, नीम और सेंधानमक इनका लेप स्नगर्कदुग्धान्वित एप कल्को करना चाहिये । वर्तीकृतो हत्यचिरेण माडीम् ॥ ३८ ॥ शल्पजा नाड़ी अर्थ-सुपारी के वृक्ष की छाल, सेंधा शल्यजांतिलमध्याज्यैर्लेपयोच्छिमशोधिताम् नमक, लाख,अरंड के पत्ते, प्रियंगु, स्त्रीका अर्थ-शल्य जा नाड़ी को पाटित और दृत्र, सेंहुंड का दूध, आक का दूध इन को शोधित कर के उस पर तिल शहत और पीस कर बत्ती बनाले इस बत्ती को प्रयोग घी का लेप करे । करने से नाडी ब्रणशीघ्र प्रशमित हो जाता छेदनायोग्य नाडी का दारण है। भशस्त्रकस्यामेषिण्या मित्त्वांते सम्यगोषिताम् गतिनाशक उपाय। क्षारपीतेन सूत्रेण बहुशो दरयेत् गतिम् । अर्थ-जो नाडी शास्त्र से पाटन के सामुद्रसौवर्चलसिंधुजन्म सुपकोटाफलवेश्मधूमाः। योग्य न हो तो उस में एषणी नाम शस्त्र माम्रातगायत्रिजपल्लवाश्य प्रविष्ट कर के नाड़ी के भीतर के भागों कटकटविथ चेतकी च ॥ ३९ ॥ को बिद्ध कर के छिद्र के मार्ग से नाली के करकेऽभ्यंगे चूर्ण ११३ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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