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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।४७२) मष्टांगहृदय । अ० १ घृतसे बमन । | इनकी धूप सब प्रकार के ज्वरोंमें दी जाती सर्पिषो महती मात्रां पीत्वा तच्छर्दयेत्पुनः। है, इसको अपराजिता धूप कहते हैं । । अर्थ-अथवा घृतकी महतीमात्रा पीकर | अन्प धूप । उसको वमन द्वारा निकाल दे । धूपनस्यांजनत्रासा ये चोक्ताश्चित्तवैकृते । अन्य उपाय । - अर्थ-चित्तवैकृत अर्थात् उन्माद और नीलिनामजगंधां च त्रिवृतां कटुरोहिणीम् ॥ अपस्मार में जो जो धूप, नस्य, अंजन और पिवेज्ज्वरस्यागमने नेहस्वदोपपादितः। त्रासप्रदर्शनादि चिकित्सा कही गई है, वही ___ अर्थ-वरके आगमन के दिन रोगीको सन विषमज्वरमें भी करनी चाहिये । स्नेहन स्वेदन करके नीलिनी, अजगंध, नि. देवाश्रय औषध। सोथ और कुटकी का काढा पान करावै । दैवाश्रयं च भैषज्यं ज्वरान्सर्वान्व्यपोहति ॥ विषमज्वमें अंजन॥ विशेषाद्विषमान्मायस्ते ह्यागंत्वनुवंधजाः। मनोखा सैंधवं कृष्णा तैलेन नथनांजनम् ॥ ____ अर्थ- केवल धूपादिसे ही ज्वर नष्ट नहीं योज्यं होता है। किंतु दैवाश्रय औषध (मणि,मंग. __ अर्थ-मनसिल, सेंधानमक और पीपल ल, बलि, उपहार, प्रायश्चित्त, जप, दान, इनको तेलके साथ पीसकर भांखोंमें अंजन स्वस्त्ययन आदि ] सब प्रकार के ज्वरों को की तरह लगावे । विशेष करके विषमज्वर को दूर करदेती है बिषम ज्वरमें नस्य । क्योंकि ये बिषमज्वर प्रायः भूताभिषंगादि हिंगुसमा व्याघ्री वसानस्यं ससैंधवम् । आगन्तुक हेतुओं से उत्पन्न होतेहैं । पुराणसर्पिः सिंहस्य वसा तद्वत्ससैंधवा ॥ विषमज्वर में सिराव्यध । अथे हींगके समान व्याघ्रीकी चर्वी और | यथास्वं च सिरां विध्येदशांती बिषमज्वरे॥ सेंधानमक मिलाकर नस्य लेवै अथवा अथे-विषमज्वर के शांत न होने पर पुराना घृत, सिंहकी चर्वी और सेंधानमक वातादि देष के अनुसार फस्द खोलना मिलाकर सूंघनेसे भी विषमज्वर दूर होजता है । चाहिये । विषमज्वर में धूप । बातजादिज्वरमें सर्पिष्पान। पलंकषा निवपत्रं वचाकुष्ठहरीतकी। केवलानिलवीसपविस्फोटाभिहतज्वरे। सर्षपा सयवा सपिंधूपो विडवा विडालजा सर्पिपानहिमालेपसकमांसरसाशनम् ॥ पुरघ्यामवचासर्जनिबा|गरुदारुभिः। कुर्याद्यथास्वमुक्तं च रक्तमोक्षादिसाधनम् । धूपो ज्वरेषु सर्वेषु प्रयोक्तव्योऽपराजितः ॥ अर्थ-केवल वातज ज्वर में, विसर्प, - अर्थ--गूगल, नीमके पत्ते, बच, कूठ, विस्फोटक वा अभिघात से उत्पन्न ज्वर में हरड, सरसों, और जो इनकी धूप अथवा , घृतपान, शीतल लेप, परिषेक, मांसरस का बिल्लीका विष्टा, गूगल, गंधतृण, बच, राल, | भोजन, रक्तमोक्षादि जो जो उपाय कहे नीमके पत्ते, आककी जड, अगर और देवदारु | गये हैं वे सब करने चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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