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विकित्सितस्थान भाषाकासमेत ।
[४७१.
दूसरी वाहुमें रगको बेधकर रुधिर निकाल | अर्थ-विषमज्वर में प्रातःकाल तिल डाले, दोनों वाहुमें एक साथ फस्द न खोले। के साथ ल्हसन खाने को दे अथवा भोजन
विषमज्वर में उक्तविधि। करनेसे पहिले पुराना घत दे, तथा उसी भयमेव विधिः कार्यों विषमेऽपि यथायथम् रीतिसे दही, दूध, वा तक्रदे, अथवा क्षय ज्वरे विभज्य वातादीन् यश्चानंतरमुच्यते ।।
चिकित्सा में कहा हुआ षट्पल घृत भोजन . अर्थ-ज्वरको शांत करने के लिये जो जो
से पहिले दे । अथवा उन्माद प्रतिषेध में उपाय ऊपर लिखे गये हैं वे सततकादि
कहा हुआ कल्याणघृत वा अपस्मार प्रतिविषमज्वर में भी वातादि दोषोंकी विवेचना
षेधमें कहाहुआ पंचगव्यघृत, अथवा कुष्ठपूर्वक करने चाहिये. तथा जो उपाय आगे
चिकित्सितमें का हुआ तिक्तघृत, अथवा लिखे जायगे वे भी करने चाहिये ॥.
रक्तापत्त चिकित्सितमें कहाहुआ वृषसाधित बिषमज्वरनाशक काथादि ।
घृतका प्रयोग भोजन करनेसे पहिले करे । पटोल कटुकामुस्ताप्राणदामधुकैः कृताः॥ त्रिचतुःपंचशः काथा विषमज्वरनाशनाः।
विषमज्वर में त्रिफलादि घृत। , योजयत्रिफलां पथ्यां गुडूचीं पिप्पली पृथक् त्रिफलाकोलतारीकाथदध्ना शृतं घृतम् ॥ __ अर्थ - परवल, कुटकी, मोथा, हरड और तिल्वकत्वकृतावापं विषमज्वराजित्परम् । मुलहटी इनमेंसे कोई तीन वा चार, वा अर्थ-त्रिफला, बेर और अरनी के पांच द्रव्य लेकर काथ बनाकर पीनेसे वि- क्वाथ से चतुर्थीश घृत और घृत के समान षमज्वर जाता रहताहै ।
दही इनको मिलाकर पकावे और इसमें सततकादि विषमज्वर में त्रिफला, हरीतकी लोधकी छाल का प्रतीवाप दे, यह विषम गिलोय, अथवा पीपल इनका अलग अलग, ज्वर के दूर करने में एकही है। . ‘प्रयोग करना चाहिये ।
विषमज्वर में अन्य उपाय । विषमज्वरमें अन्यविधि ।
सुरांतीक्ष्णं च यन्मद्यतैस्तैर्विधानैः सगुडैभल्लातकमथाऽपि वा। शिखितित्तिरिकुक्कुटान् ॥१५६॥ लंघन वृहणं चाऽपि ज्वरागमनवासरे॥ | मांसमध्योष्णवीर्य च सहान्नेन प्रकामतः।
अर्थ-ज्वरके आनेके दिन रसायनविधि सेवित्वा तदहः स्वप्यादथवा पुनखल्लिखत् में कही हुई रीतिसे गुडमें मिलाकर भिलावा | ____ अर्थ--मुरा वा अन्य किसी प्रकार का देवे, अथवा उसदिन प्रथम लंघन वा वृंहण तीक्ष्णमद्य, तथा मोर, तीतर वा मुर्गे का
मांस अथवा और किसी मध्योष्णवीर्य द्रव्यको विषमज्वर में अन्यप्रयोग।
अन्न के साथ बहुत अधिक खाकर सब प्रातः सतेल लशुनं प्राग्भक्तंवा तथा घृतम्।
म्। दिन निद्रा लेवे अथवा खाये पिये हुए को जीर्ण तद्वद्दधिपयस्तकं सर्पिश्च षट्पलम् ।। कल्याणकं पंचगव्यं तिक्ताख्यं वृषसाधितम् | वमन करके निकाल देवै ।
करै।
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