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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (.५४८) अष्टांगहृदय । अ. ८ रीतिसे घडेके भीतर लेपकरके तक वा दही | भूनकर सत्तूमें मिलाकर भोजन करने से भरदे । इनके सेवन से भी अर्श रोग नष्ट । पहिले सेवन करे, यह वायु और मल का हो जाता है। अनुलोमन करनेवाला है। . जठराग्निसंदीपन स्नेहादि । सगुड शुठीपान । पिष्टैगजकणापाठाकारवीपंचकोलकैः। सगुडं नागरंपाठांगुडक्षारघृतानि वा ५४ ॥ तुंबर्वजाजीधनिकाबिल्वमध्यैश्च कल्पयेत्॥ गोमूत्राध्युषितामद्यात्सगुडांवा हरीतकीम् । फलाम्लान्यमकनेहान् पेयायूषरसादिकान् ___ अर्थ-गुडके साथ सोंठ, अथवा पाठा एमिरेवौषधैः साध्यं वारि सर्पिश्च दपिनम् ॥ ५१ ॥ का सेवन करे, अथवा गुड, जवाखार और क्रमोऽयं भिन्नशकृतां वक्ष्यते गाढवर्चसाम् । घृत खाय, अथवा गोमूत्र में भीगी हुई हरडे .. अर्थ-गजपीपल, पाठा, कालाजीरा, को गुडके साथ सेवन करे तो अर्श रोग पंचकोल, धनियां, जीरा, वडा धनियां. और | नष्ट हो जाता है । वेलगिरी इनके करक के साथ घृत, तेल, - अन्य प्रयोग। पेया, यूष रसादि को सिद्ध करके बिजौरे पथ्याशतद्वयं मूत्रद्रोणेनामूत्रजंक्षयात् ५५ ॥ की खटाई डालकर पान करे अथवा उक्त | पक्वान् खादेत्समधुना द्वेढे हन्ति कफोद्भवान् दुर्नामकुष्ठश्वयथुगुल्ममेहोदरकृमीन् ५६ ॥ औषधियों द्वारा सिद्ध किया हुआ जल और ग्रंथ्यर्बुदापचीस्थौल्यपांडुरोगाढयमारुतान्। घी जठराग्निको बढानेवाले हैं। ____अर्थ-दो सौ हरडको एक द्रोण गोमूत्र _ अब तकजो चिकित्सा कही गई है वह | में पकावै, जव सव गोमूत्र जल जाय तव 'उन रोगियों के लिये है जिनका मल पतला | उतार कर दोदो हरड मधुके साथ सेवनकरने होता है । अव उनकी चिकित्सा कहेंगे से कफजनित अर्श, कुष्ट, सूजन, गुल्मरोग जिनका मल गाढा होता है। प्रमेह, उदररोग, कृमि, ग्रंथि, अर्बुद, अप. गाढपुरीषकी चिकित्सा । ची, स्थूलता, पांडुरोग,और आढयवात नष्ट मेहाथैः सक्तुभिर्युक्तां लवणां वारुणी पिवेत्। | हो जाते हैं। लवणा एब वा तक्रसीधुधान्याम्लवारुणीः। | अन्य औषध। ___ अर्थ-घृतादि बहुतसा स्नेह डालकर | अजशृंगीजटाकल्कमजामूत्रेण यः पिबेत् ॥ सत्तू के साथ लवणसंयुक्त वारुणी नामक गुडवार्ताकभुक्तस्य नश्यंत्याशुगुदांकुराः। मद अथवा केवल नमक डालकर तक्र, सीधु । अर्थ-मेढासिंगी की जडको पीसकर जो धान्याम्ल वा वारुणी का पान करे। | बकरी के मूत्रके संग पान करता है तथा अर्शपर कंजेके पत्ते । गुड और बेंगन खाता है उसके मस्से नष्ट प्राग्भक्तं यमकेभृष्टान् सक्तुभिश्चावचूर्णितान् हाजाते है । करंजपल्लवान् खादेद्वातवानुलोमनान् । - अन्य उपाय। अर्थ-कंजे के पत्तोंको घी और तेल में | श्रेष्ठारसेन त्रिवृतां पथ्यां तक्रेण वा सह ५९ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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