SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 871
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टांगहृदय । ( ७७४) क्षा करने से वे लाल रेखा वृद्धिको प्राप्त हो कर सरक्त सिराह नामक रोगको पैदा कर देती है | इस रोग में वस्तुओं के देखने की शक्ति नाती रहती है | सिराजाल का लक्षण । सिराजाले सिराजालं वृहद्रक्तं घनान्नतम् | अर्थ-शिराजाल नामक रोग में संपूर्ण शिरावृहत, रक्तवर्ण, धन और उन्नत होजाती है । शोणितार्म के लक्षण | शोणितार्मसमंश्लक्ष्णं पद्माभमधिमांसकम् ॥ अर्थ - नेत्रकी सफेदी में जो समान आ कार वाला, चिकना और कमल के सदृश मांस उत्पन्न होता है उसे शोणितार्म कहते हैं । अर्जुनके लक्षण | नीरुकूलक्ष्णोऽर्जुनर्विदुः शशलोहितलोहितः अर्थ - नेत्रकी सफेदी में जो खरगोश के रक्तके समान लाल, वेदनारहित और चिकने विन्दु होते हैं, उन्हें अर्जुन कहते हैं । प्रस्तार्यर्मके लक्षण | मृद्वाशुवृड्यरुङमांसं प्रस्तारिश्यावलोहितम् | प्रस्तार्यर्म मलैः सानैः अर्थ - नेत्रकी सफेदी में जो फोमल, शीघ्र बढने वाला, फैला हुआ श्याव लोहित वर्ण मांस पैदा होजाता है उसे प्रस्तार्यमें कहते हैं यह त्रिदोष और रक्त से होता है । स्नावा के लक्षण | स्नायार्मस्नावसन्निभम्। अर्थ- जो मांस स्रावकी तरह हो उसे नावा कहते हैं । अधिमासा के लक्षण | 'शुकासुकूपिंडवच्छयावं यन्मासं वहलं पृथु Praniti तद् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म० १० अर्थ - नेत्रकी सफेदी में सफेद, लाल, काला, मोटा, हलका और पिंडके सदृश जो मांस उत्पन्न होजाता है, उसे अधिमासा कहते हैं । सिरासंज्ञकपिटिका | दाहघर्षवत्यः सिरावृताः । कृष्णासन्नाः सिरासज्ञाः पिटिकाः सर्षपोपमाः अर्थ - नेत्रके काले भागमें दाह और वेदना से युक्त, सिराओं से व्याप्त, सरसों के आकार के समान जो फुंसियां उत्पन्न होती है, उन्हें सिरासंज्ञक पिटिका कहते हैं । उक्तेरह रोगों की साधन विधि | शुक्ति हर्ष शिरोत्पातपिष्टकप्रथितार्जुनम् । साधयेदौषधैः षट्कं शेषं शस्त्रेण सप्तकम् ॥ नवोत्थं तदपि द्रव्यः अर्थ शुक्लका हर्ष, शिरोत्पात, पिष्टक प्रथित और अर्जुन, इन छः प्रकार के रोगों की चिकित्सा जो नेत्रके सफेद भागगें होते हैं औषध द्वारा करनी चाहिये । बचे हुए सात रोगों की चिकित्सा अस्त्रद्वारा करनी चाहिये । ये सात रोग यदि नये उठे हुए हों इनकी चिकित्सा भी औषध द्वारा हो सकती है । For Private And Personal Use Only वर्जितरोग | अर्मोक्तं यच्च पंचधा । तच्छेद्यमसित प्राप्तं मांसस्नावसिरावृतम् ॥ चर्मोद्दालवदुच्छ्रायि दृष्टिप्राप्तं च वर्जयेत् । अर्थ- पांच प्रकार के अ अर्थात् शुक्लार्म, शोणितार्म, प्रस्तार्यर्म, स्वावार्म और अधिमांसा का छेदन करना चाहिये । और 1 जो रोग नेत्र के काले भागमें पहुंच जाते हैं
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy