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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (५२४] www. kobatirth.org अष्टांगहृदय । अर्थजो जो - कफज गुल्म और कफज हृद्रोगमें और अनेक प्रकार के क्षार कहे गये हैं, वे सब उपयोग में लाने चाहिये । अन्य उपाय | 'प्रयोजयेच्छिलाव वा ब्राह्मं चात्र रसायनम् तथामलकलेहं वा प्राश्यं वाऽगस्तिनिर्मितम्। अर्थ- कफज हृद्रोग में शिलाजीत, वा रसायन अध्याय में कहे हुए ब्राह्मरसायन और आमलक अवलेह अथवा कासचिकित्सा में कहा हुआ अगस्त्य अवलेह का उपयोग करना चाहिये । शूलयुक्त हृद्रोग में उपाय । स्याच्छूलं यस्य भुक्तेऽन्ने जीर्यत्यल्पं जरांगते शाम्येत्सकुष्टकामजिल्लवणद्वयतिल्वकैः । संदेवदार्वतिविषैश्चूर्णमुष्णांना पिबेत् ॥ अर्थ - जिस मनुष्य के भोजन काल में शूल की अधिकता हो, पाकावस्था में शूल कम होजाय, और अन्न के पच जाने पर शूल बिलकुल न रहै ऐसे रोगी को कूठ, बायविडंग, सेंधानमक, संघलनमक, लोध, देवदारू और अतीस इनका चूर्ण गरमपानी के साथ देना चाहिये | शूल में विरेचन । यस्य जीर्णेऽधिकं स्नेहैः स विरेच्यः फलैः पुनः जीर्यत्यन्ने तथा मूलैस्तीक्ष्णैः शूले सदाधिके ॥ अर्थ - जिस मनुष्य के अन्न के पच जाने पर अधिक शूल होता हो उसको स्नेहयुक्त विरेचन द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ विरेचन देना चाहिये । और जिसके अन्य की प च्यमान अवस्था में अधिक शूल होता हो | अ० ६ उसको फल x विरेचन देना उचित है और जिसको सदा ही शूल रहता हो उसको तणि मूलविरेचन देना चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वायुका अनुलोमन । प्रायोऽनिलो रुद्धगतिः कुप्यत्यामाशयं गतः । तस्यानुलोमनं कार्य शुद्धिलंघनपाचनैः ॥ अर्थ- प्रायः ऐसा होता है कि वायुका मार्ग रुक जाने के कारण वह आमाशय में पहुंच कर कुपित होजाता है तब अवस्थाके अनुसार विरेचनादि शोधन वा लंघन पाचन द्वारा बायुका अनुलोमन करना उचित है ! कृमिज हृद्रोगकी चिकित्सा | कृमिघ्नमौषधं सर्व कृमिजे हृदयामये । + मृीकाथ विडंगानि खर्जूराणि प रूषकस् । आरग्वधोऽथामलकं हरीतक्यो विभीतकं । कंपिल्लकोपचित्रेच त्रपु च विरेचनं । अर्थात् दाख, वायविडंग, खिजूर मुकुलकम् । नीलिका कुबल पीलु भवेत्फल फालसा, अमलतास, आमला, हरड, बहे - डा, कंपिल्ल, मूषकपर्णी, खीरा, दंती, नीलनी, बेर और पीलू इन द्रव्यों के द्वारा जो विरेचन दिया जाता है, उसे फल वि रेचन कहते हैं । x सप्तला, संखिनी देती, द्रबंती गिरिकर्णिकाः । त्रिवृच्छया मोदकीर्या च प्रकीर्या क्षारिणी तथा । छगलांडी गवाक्षी च कुचाक्षी गिरिकर्णिका । मसूरविदला चैब भवेत्सूलविरेवनं । अर्थात् सातला, संखनी, दंती, द्रवती, गिरिकर्णिका, निसोथ, श्यामा निसोथ, उदकीर्य और प्रकीर्य । ये दोनों कंजा के भेद हैं ) खिरनी, वृद्धदारक, इन्द्रायण, कुचाक्षी, श्वेत अपराजिता और मसूर इनकी जड द्वारा जो विरेचन दिया जाता है उसे मूल विरेचन कहते हैं । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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