SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८९) अष्ठामहृदये। अ.२० नस्य के अयोग्य रोगी। भी नस्य न देवे । किन्तु यदि कोई विषद तोयमधगरस्नेहपीतानां पातुमिच्छताम् ॥ जनक व्याधि हो गई हो और नस्य देने भुक्तभक्तशिरःस्नातनातुकामसुतासृाम् । नवपनिसवेगातसूतिकाश्वासकासिनाम् ॥ की आवश्यकता ही हो तो नस्य दे देना ही शुद्धानां दत्तवस्तीनां तथा नार्तबदुर्दिने । । चाहिये । अन्यत्राऽत्यायकाव्याधे: नस्यको काल और दोष । __ अर्थ-जिसने जल, मद्य, विष अथवा अथ नस्य प्रयोजयेत् ॥ १३ ॥ • स्नेह पान किया हो अथवा इन में से किसी प्रातः श्लेष्माणमध्याह्ने पित्ते सायनिशोश्चले एक के भी पीने की अत्यन्त इच्छा रखता । अर्थ-श्लेष्मरोग में प्रातःकाल, पित्तरोग हो, जो भोजन करके चुका हो, जिसने में मध्यान्ह, और वात रोग में सायंकाल सिर समेत स्नान किया हो, वा स्नान करने वा रात्रि के समय नस्य देना चाहिये + की इच्छा रखता हो । जिसका फस्द द्वारा बिचिर्चिका रोग, होते हैं । मलमूत्रादि वेग रक्त निकाला गया हो, जिसको नया पीनस में वेग रोकने के जो उपद्रव कहे गये हैं | वे होते हैं । प्रसूती को नस्य देनेसे रक्त वहका रोग हुआ हो, जिसने मलमूत्र का वेग ने के उपद्रव होजाते हैं श्वास और कास रोका हो जिस स्त्रीने हाल ही में बच्चा में इन्ही की वृद्धि अधिक होती हैं वमन जना हो, जिसको श्वास वा खांसी का रोग विरेचनादि से शुद्ध हुए मनुष्य को नस्य हो, जिसका देह वमन विरेचन बा वस्ति देवे से श्वास, खांसी, स्वरभंग इन्द्रियोंकी शक्ति का नाश, शिर में भारापन, कृमि, द्वारा शुद्ध किया गया हो इन रोगियों को कंडू आदि रोग होते हैं । वस्ति देने के नस्य न देवे तथा वषोऋतु को छोडकर जो | पीछे नस्य देने से स्रोतों के मुख खुले रहने किसी दिन वादल विजली हो रहे हों तो | के कारण श्वास कासादिक रोग होते हैं। दुर्दिन में नस्य देने से शिरोवेदना, कंपन, ___ + जलादि पीकर वा पीने की इच्छा | जडता, तालु पाक, नेत्र रोग खुजली, म. 'होने पर नस्य लेने से नासारोग, मुख- न्यास्तंभ, कंठ रोग, श्लेष्मा, और अरूंषका रोग, तिमिर और शिरोरोग होते हैं । भो- नामक रोग होते हैं संग्रह में लिखा है कि जन करके नस्य लेने से ऊपर से स्रोत रुक | गर्भ वती स्त्री को नस्य देने से भोजन में कर वमन, श्वास, खांसी, प्रतिश्याय रोग अरुचि, ज्वर, मृर्छा, और आधा सीसी होते हैं । शिरसमेत स्नान करके नस्य लेने होते हैं और बालक भी व्यंग विकलोन्द्रय, से मस्तक शूल, नेत्र शूल, कर्णशूल, कंठ- उन्माद क्षौर अपस्मार रोगों से युक्त होता रोग, पीनस, हनुस्तंभ अर्दित और शिरकंप औशि है। विशेष करके गर्भवती को रुक्ष नस्य होता है । स्नान करने की इच्छा वाले के | कर्म में सांठ, काकोली और कमाच डा मस्तक में जडता अरुचे और पीनस रोग कर औटाया हुआ दूध पिलावे और होजाते हैं रक्तस्राव में कृशता, अरुचि और पीने मे सब तरह से बृहण उपचार कर। अग्निमांद्य रोग होते हैं । नवीन पीनस में +संग्रहमें विशेष लिखा है कि लालानोतरुक कर दुष्ट श्लेष्मा, कृमि, फंड और साव, सुप्ति, प्रलाप, दांतकडकडाना, प्रथ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy