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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०२० सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत (१८५) ऋतुपरतासे नस्यकाल । । अर्थ--जिसको नस्य देना हो उसको जस्वस्थवृत्ते तु पूर्वाद्धे शरत्कालवसंतयोः॥ ब वह मल मूत्रोत्सा और दंतधावनादि नि. शीते मध्यंदिने ग्रीष्मे सायं वर्षासु सातपे । त्यकर्मसे निश्चिंत हो चुका हो सिरपर तेल अर्थ- स्वस्थावस्था, शरत् और वसंत काल में पूर्वान्ह में, शीतकाल में, मध्यान्ह डालकर स्निग्ध कर और फिर स्वेद द्वारा के समय, प्रीष्मकाल में सायंकाल के समय स्विन्न करके निर्वात स्थानमें लेजाकर पंलग और बर्षा कालमें जिस समय सूर्य अच्छी पर शयन कराके जत्रुसे ऊपर वाले भागका पसीना फिर निकाले । फिर चित्त और सीतरह प्रकाशित हो नस्य देना चाहिये । धा हाथ पांव पसार कर लेट जाय और पां दोषपरत्व से नस्यकाल । व कुछ ऊंचे रखे तथा सिर कुछ नीचा रबाताभिभूते शिरसि हिध्मायामपतान के १ क्खे और नासिका का एक छिद्र बन्द कर मन्यास्तभे स्वर भ्रशे सायंप्रातर्दिने दिने । एकाहांतरमन्यत्र सप्ताहे च तदाचरेत् १६ के दूसरे छिद्रमें नली लगाकर वा रुईकी ब ___ अर्थ-जो सिरमें वात के कारण पीडा त्ती द्वारा गरमजल से संतप्त औषध डालदेवै होता हो, तथा हिचकी, अपतानक, मन्या और फिर दूसरे छिद्र में भी इसी तरह करे स्तंभ और स्वरभंश रोगों में प्रतिदिन प्रातः ____ नस्य देकर पांवों के तलए, कंधो, हाथ काल और सायंकाल दोनों समय नस्य देना और कानों का धीरे धीरे मर्दन करे और. चाहिये । इन से अतिरिक्त अन्य रोगों में मर्दन के पीछे * धीरे धीरे दोनों ओर थूकै एक एक दिन का अंतर देकर सात दिन इसका कारण यह है कि एक तरफ थूकने तक नस्य देवै । सात दिन पीछे नस्य से संपूर्ण शिराऔषध से व्याप्त नहीं होती हैं। नस्यकी मात्रा। मस्यकी विधि। आभषजक्षयादेवं द्विस्त्रिर्वा नस्यमाचरेत् । स्निग्धस्विन्नोत्तमांगस्यप्राक्कृतावश्यकस्य च | अर्थ- पूर्वोक्त क्रमसे नस्य लैनेपर जब निवातशयनस्थस्य जत्रूवं स्वेदयेत् पुनः।१७ तक औषधका क्षय न हो ले तब तक आअथोत्तानर्जदेहस्य पाणिपादे प्रसारिते।। किविदुन्नतपादस्य किंचिन्मूर्धनि नामिते१८ वश्यकतानुसार दो तीन बार नस्य लेवे 'नासापुटं पिधायैकं पर्यायेण निषेचयेत्। अर्थात् नस्यकी जितनी मात्रा दैनीहो उतनी उष्णांवुतप्तं भैषज्यं प्रनाच्या पिचुनाऽथवा१९/दत्ते पादतलस्कंधहस्तकर्णादि मर्दयेत्।। + सुश्रुतमें लिखा है कि रोगीके नेत्रों शनैरुच्छिद्य निष्टीवेत्पार्श्वयोरुभयोस्ततः२० को वस्त्रसे ढककर बांये हाथकी तर्जनी से न, कृच्छोन्मीलन, प्रतिमुख, कर्णनाद, तृषा रोगीके नासापुटको ऊंचा करके दक्षिण हा अर्दित, शिरोरोग, श्वास, खांसी, और उ- | थसे उष्णजलसे संतप्त स्नेह रूपेकी सीपी निद्रा (नींद न आती हो ) रोगों में रात्रिके | अथवा अन्य ऐसेही पात्रद्वारा अखंड धार समयनस्य देनी चाहिये। | बांधकर डालदे। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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