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(१७)
अष्टांगहृदये।
अ० १९
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, अनुवासनवस्ति की मात्रा। . । वस्ति का प्रयोग करना चाहिये । किन्तु यथायथं निरूहस्य पादो मात्राऽनुवासने । धन्वन्तरि के मतावलंबी आचार्यों का तो ___ अर्थ-मिस जिस अवस्था में निरूह की ।
यही कहना है कि रात्रि में तो किसी ऋतु जो जो मात्रा दी जाती है उसी उसी अव- भी शवासन वस्ति का प्रयोग न करे। स्था में अनुवासन की मात्रा निरूह की दुखी मत के अनसार संग्रह में लिखाहै कि मात्रा से चौथाई दी जाती है अर्थात् जिस
'न र त्रौ प्रणयद्वस्ति दोषोत्वलेशा हि रात्रितः। अवस्थामें निरूह की मात्रा एकपल है उसी
स्नेहो वीर्ययुतः कुर्यादाधमानं गौरवं ज्वरम्' । अवस्था में अनुवासन की मात्रा चौथाई पल
अर्थात् रात्रि में वस्ति देने से दोष अपने अर्थात् एक कर्ष है ( आठतोले का एक
स्थान से चलित होजाते हैं और स्नेह वीर्य पल और दो तोले का एक कर्ष होता हैं ) ।
के साथ मिलकर आध्मान, भारापन और अनुवासन का प्रकार । ज्वर उत्पन्न कर देता है। आस्थाप्यं स्नेहितस्विन्नं शुद्धं लब्धबलं पुनः
____ अनुवासनका प्रयोग करने से पहिले अन्वासना विज्ञाय पूर्वमेवाऽनुवासयेत् । ।
रोगी के देहमें तैलादि मर्दन करके स्नान शीते वसंते च दिवा रात्रौ केचित्ततोऽन्यदा अभ्यक्तनातमुचितात्पादनि हितं लधु ।।
करावे और जितना भोजन वह करता हो अस्निग्धरूक्षमशितं सानुपानं द्रवादि च ।२२। उससे चौथाई कम, हलका, न वहुत चिककृतचंक्रमणं मुक्तविण्मूत्रं शयने सुने। । ना न बहुत रूखा x अनुपान सहित, नत्युच्छ्रिते न चोच्छी संविष्टं वामपार्श्वतः पतला ( आदि शब्दसे द्रव, उष्ण, अन. संकोच्य दक्षिण सस्थिप्रसार्य व ततोऽपरम् भिष्यन्दी ) इन गुणों से युक्त भोजन करावे ___ अर्थ-जो मनुष्य निरूहण वस्ति देने
भोजन करने के पीछे थोडा इधर उधर के योग्य हो उसे जब वह स्नेहन और | भ्रमण करै अर्थात् टहलै । फिर मलमूत्रका स्वेदन कर्म द्वारा स्निग्ध और स्विन्न कर परित्याग कर स्वस्थ होने पर रोगी को दिया गया हो, वमन विरेचन देकर ऊपर ऐसे पलंग पर शयन कवि, जिससे उसे नीचे से शुद्ध किया गया हो और फिर सुखका अनुभव होने लगे । यह पलंग बहुत उसमें वस्तिका वेग सहन करने की अति ऊंचा न हो, और शिर के नीचे तकिया आगई हो और अनुवासन के योग्य होगया भी ऊंचा न हो । ऐसे पलंग पर वांये हो उसे निरूहण वस्ति देने से पहिले ही पसवाड लिटाकर दाहिना पांव लंवा कराके अनुवासन वस्ति देनी चाहिये। दाहिने पांव को उस पर रखदे । - किसी किसी आचार्यका मत है कि + संग्रह मे लिखा है-कि अति स्निग्ध शीत और वसंत ऋतुमें दिनमें और जो भोजन करने से दोनों मार्गासे प्रविष्ट हुआ भिन्न ऋतुओं में अर्थात् प्रीष्म, वर्षा और
स्नेहंमद,मच्छी, अग्निमांद्य औरहल्लासादि शरद ऋतुओं में रात्रि के समय अनुवासन | विटभ तथा बल और वर्ण काहानिहाता "
| रोगों को करता है। अति रूखे भोजन से
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