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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १९ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (१६९) अगुल, इक्कीस वर्षमें तीन अंगुल, छिद्र क- है और उसपर तेल चुपडकर अच्छी तरह हा गया है । मूल देशका छिद्र इससे अधि। मला जाता है जिससे दृढ और कोमल हो क न होना चाहिये । और आगेके भागका | जाय, इसमें से छिद्र, ग्रन्थि, दुर्गन्नि और छिद्र मूंग, उरद, मटर, भीगी हुई मटर के | शिरादिक दूर कर देने चाहिये । समान और झाडी बेरके बराबर होना चाहि । वस्तिके अभाव में कर्तब्य । ये अर्थात् प्रथम वर्षस छः वर्ष तक मुद्गवाही ( जिसमें होकर मुंग निकल जाय ) सात ___अर्थ-जो उक्त पशुओं को वस्ति न से ग्यारह वर्ष तक माषवाही, बारहसे पंद्रह | मिले तो दूसरे अवयवों को काम में लाना तक मटरवाही, सोलहस वीसतक भीगी हुई चाहिये । अथवा गाढा वत्र उपयोग में मटरवाही, फिर इक्कीस वर्षसे ऊपर ऐसा छि लावै । द होना चाहिये जिसमें झाडीवेरनिकल जाय । निरूहवास्ति की मात्रा। नेत्रमें कणिका आदिकी योजना। मूलच्छिद्रप्रमाणेन प्रांते घटितकर्णिकम् १४ निरूहमात्रा प्रथमे प्रकुंचो वत्सरात्परम् । पाऽपिहित मूले यथास्वं द्वंयगुलांतरम्। प्रकुंचवृद्धिः प्रत्यब्दं यावत्षप्रसृतास्ततः ॥ कर्णिकाद्वितषं नेत्रे कुर्यात्तत्र च योजयेत् ॥ प्रस्तं वर्धयदूर्ध्व द्वादशाऽष्टादशस्य च । मजाविमहिषादीनां, बस्ति सुमृदितं दृढम् । आसप्ततेरिदं मानं दशैव प्रसूताः परम् ॥१९॥ कषायरक्तं निश्छिद्रग्रंथिगंधशिरं तनुम । अर्थ-निरूहणवस्ति की मात्रा इस प्र. ग्रंथितं साधुसूत्रेण सुखसंस्थाप्यभेषजम् । कार है कि एक वर्ष का होने पर एक पल अर्थ-वस्तिका नेत्र गुदामें अधिक न देवै परन्तु जो छः वा नौ महीने का हो घुस जाय इसलिये उस के प्रान्तभागमें छत्र । तो उसी के अनुसार आधा वा पौन पल के आकारके सदृश एक कर्णिका लगाई | देवै । एक वर्ष से ऊपर बारह वर्ष की अजाती है तथा पिचकारी प्रविष्ट गुदामें घाव | वस्था तक प्रतिवर्ष एक पल बढाता न होजाय इसलिये नेत्रके अग्रभाग पर डोरा | रहै अर्थात् बारह वर्षकी अबस्था में वारह लपेट दिया जाता है । वस्तिपुट लगाने के पल देवै । बारह वर्ष से सत्रह वर्ष तक निमित्त नेत्रके मूलदेशमें दो अंगुल के अंतर प्रति वर्ष दो पल वढाना चाहिये । इस तरह पर दो कर्णिका और भी लगाई जाती है। अठारह वर्ष की अवस्था में निरूह की मात्रा यह कर्णिका वकरी, भेड, और महिषादि के चौबीस पल होजायगी । फिर अठारह से मत्राशय के तंतुसे दृढ वांधी जाती है जि- लेकर सत्तर वर्ष की अवस्था तक वहीं ससे जो औषध उसके भीतर डाली जाए | चौबीस पल की मात्रा दी जाती है परन्तु वह सुगमता पूर्वक चलीजाय । वस्तिका च सत्तर वर्ष से ऊपर मात्रा केवल बीस पल में हरीतक्यादि के काथसे रंग दिया जाता की ही दी जाती है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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