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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
अर्बुद में साध्यासाध्य विचार | तेष्वसृड्यांस जेबज्यैचत्वार्यन्यानि साधयेत्। अर्थ इन छ: प्रकार के अर्बुदों में से रक्तज और मांसज असाध्य होते हैं, शेष सब साध्य होते हैं ।
श्लीपद के लक्षण |
प्रस्थिता वंक्षणोर्वादिमधःकार्य कफोल्वणाः दोषा मागाः पादौ कालेमाश्रित्य कुर्बते शनैः शनैर्धनं शोफं श्लीपदं तत्प्रचक्षते ॥
अर्थ - कफकी अधिकता वाले वातादि दोष मांस और रक्त में आश्रित होकर वंक्षण और ऊरुओं द्वारा नीचे के देह में गमन करते हैं, अथवा काल पाकर पैरों में पहुंच कर धीरे २ घन शोष उत्पन्न कर देते हैं । इसीको श्लीपद कहते हैं । वातज श्लीपद | परिपोटयुतं कृष्णमनिमित्तरुजं खरम् । रूश्चं च वातात्
अर्थ - वातज श्लीपद में देहका चमडा फटा हुआ सा होजाता है, इसका कृष्णवर्ण होता है, इसमें बिना कारण ही वेदना होने लगती है, यह हाथ लगाने से खरदरा और रूखा होता है ।
पित्तज और कफज श्लीपद ।
पितात्तु पीतं दाहज्वरान्वितम् ॥ कफागुरुस्निग्धमरुकुचितं मांसांकुरैर्बृहत् । अर्थ-पित्तज श्लीपद पीतवर्ण, दाह और वर युक्त होता है । कफज श्लीपद भारी, स्निग्ध, वेदनारहित, मांसांकुरों से व्याप्त और बडा होता है ।
श्लीपद का साध्यासाध्य विचार । तत्यजेद्वत्सराततिं सुमहत्सु परिस्रुति ॥
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अर्थ - जिस श्लीपद को बरस दिन बीत गया हो, जो बडा और स्रावयुक्त हो वह असाध्य होता है ।
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हाथ में श्लीपद । पाणिनासौष्टकर्णेषु वदंस्येके तु पादचत् । श्लीपदं जायते तच देशेऽनूपे भृशं भृशम् ॥
अर्थ- कोई कोई कहते हैं कि पांवों की तरह हाथ नाक ओष्ठ और कानों में भी श्लीपद होता है यह आनू देश में अधिकतर होता है ।
गंडमाला की उत्पत्ति । मेrस्थाः कंठमन्याक्षकक्षावंक्षणगा मलाः । सबर्णान् कठिनान् स्निग्धान्
वार्ताका मलकाकृतीन् ॥ २३ ॥ अवगाढान् वहून गंडांविरपाकांश्च कुर्वते पच्यते ऽल्परुजस्त्वन्ये स्रवत्यन्येतिकंडुराः ॥ नश्यत्यन्ये भवत्येते दीर्घ कालानुबंधिनः । गंडमालापची यं दुर्वेव क्षयवृद्धिभाकू ॥
अर्थ- मेदा में स्थित वातादि दोष कंठ, मन्या, अक्ष, कक्षा और वंक्षण में स्थित होकर त्वचा के वर्ण के समान कठोर, स्निग्ध, बेंगन वा आमले के समान आकृति वाले । अवगाढ, बहुत और देर में पकने बाले गंडों को उत्पन्न करदेते हैं । इसीको गंडमाला कहते हैं । इनमें से कितनों ही में I दर्द होकर पकाव पैदा होजाता है कितन झरने लगते हैं और कितनों ही में खुजली चलती है । कितने ही होकर मिटजाते हैं और कितने ही नवीन पैदा होजाते हैं । इसी को अपची भी बोलते हैं, यह दूबकी तरह घटती बढती है और बहुत काल तक रहती है ।
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