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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । म. २९ - साथ बढती है। इसके फटने पर ताम्रवर्ण, | देती है । इस में दाह होताहै और खुजली काला वा सफेद गाढा गाढा स्राव होने लगताहै | चलती है इसको ब्रणग्रंथि कहते हैं। अस्थि ग्रंथि के लक्षण ! ___साध्यासाध्य ग्रंथियों का वर्णन । अस्थिभंगाभिघाताभयामुमतावमतं तु यत् साध्यादोषानमदोजानतु स्थूलखराश्चलाः सोऽस्थिप्रथिः ममकंठोदरस्थाश्च . अर्थ-जो हड्डी के टूटने से अथवा उस | अर्थ-इनमें जो ग्रंथियां वाप्तादि दोष, में चोट लगने से वा ऊँची नीची होजाने | रक्त और मेद से उत्पन्न होती हैं वे साध्य से जो गांठपैदा होजाती है उसे अस्थि ग्रंथि | होती है, तथा जो स्थूल, छूने से खरखरी कहते हैं। चलायमान, मर्म स्थान कण्ठ और उदर में सिरा अंथि के लक्षण | | होती है वे असाध्य होती है। पदातेस्तु सहसांभोवगाहनात्। अर्बुद के भेदादि । व्यायामाद्वाप्रतांतस्यसिराजालसशोणितम् वायुःसंपीड्यसंकोच्यवक्रीकृत्यविशोष्यच । महत्तु प्रथितोर्बुदम् १४ निःस्फुर नीरुज ग्रंथि कुरुते स सिराहयः॥ तल्लक्षणं व मेदोतैः षोढादोषादिभिस्तुतत् ... अर्थ-पैदल चलने से, सहसाजल में प्रायोमेदःकफाढयत्वात्स्थिरत्वाचन पच्यते सैरने से, कसरत करने से, जो मनुष्य । अर्थ-गांठ की बड़ी सूजन को अर्बुद म्लान होजाता है उस के वात अद्ध होकर कहते हैं । अर्बुद छः प्रकार का होता है, सरक्त सिराजाल को संपीडित, संकोचित, वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, मांसज और वक्र और विशोषित करके कपी गांड मेदोजायह मेद और कफकी अधिकता तथा पैदा कर देती है जो न स्फुरण करती है स्थिरता होने के कारण प्राय:पकती नहीं है। और न दर्द करती है। रावुद के लक्षण । व्रण ग्रंथि । सिरास्थंशोणितंदोषःसंकोच्यांतःप्रपीडयाच अरूढे रूढमात्रे वा बणे सर्वरसाशिनः।। पाचयेत तदानद्धं सास्राव मांसपिडितम् । 'साढे धाबंधरहिते गात्रेऽश्माभिहतेऽथवा | मांसांकुरैश्चितं याति वृद्धि चाशु स्रषेत्ततः वातालमत्रतं दुष्टं संशोप्य प्रथितं व्रणम् । अजस्रं दुष्टरुधिरं भूरि तच्छोणितार्बुदम् ॥ कुर्यान्सदाहः कंडूमान् व्रणग्रंथिरयं स्मृतः | ___ अर्थ-बातादि किसी दोषसे सिरास्थरक्त ___ अर्थ-घाव के बिना भरे वा भरतेही जो भीतरही भीतरसे संकुचित होकर पकउठतीहै, मनुष्य मधुरादि संपूर्ण रसों को खाने लगजाता है, अथवा जिसका घाव गीला होने | यह पकी हुई सूजन फूलकर मांस के अंकुरों पर भी बिना पट्टी बांधे खुला छोड़ दिया से उपचित मांस का पिण्डासा होजाता है, जाता है, अथवा उस पर पत्थर भादि की | और इसमें स्राव होने लगता है । बढने पर चोट लगजाती है, तब वायु बिना निकले | इसमें से जल्दी २ अधिक साव होने लगता हुए दूषित रक्त को सुखाकर गांठ पैदा कर | है, यही रक्तार्बुद कहलाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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