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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. २९ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत। (८८९) सूजन पैदा कर देते हैं, इसी का नाम ग्रंथि यह सघन, शीतल, त्वचा के वर्ण के सदृश है प्रथन के कारणसे इसे ग्रंथि कहते हैं। और खुजलीयुक्त होती है । पकने पर उस. ग्रंथि के नौ भेद । में से गाढ स्त्राव निकलता है । दोषानमांसदोस्थिसिरावणभवा नब। दोषदुष्ट रक्तकी ग्रंथि। ___ अर्थ -सब प्रकारकी ग्रंथियां वात, पित्त, दोषैर्दु ऽसृजि ग्रंथिभन्मूर्छत्सु जंतुषु ५ कफ, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, सिरा, और सिरामांसंच संचित्य सास्वापापित्तलक्षणः ब्रण से उत्पन्न होती हैं, इससे नौ प्रकार ___ अर्थ-रक्तके वातादि दोषों द्वारा दूषित की कही गई है। | होनेपर ऐसी ग्रंथि उत्पन्न होती है जो सिरा और मांसका आश्रय लेती है । यह प्रथि वातज ग्रंथि । ते तत्र वातादायामतोभेदान्वितो सितः॥२॥ कीडों के उत्पन्न होने से होती है, इसमें छूने स्थानात्स्थानांतरगतिरकस्माद्धानिवृद्धिमान से कुछ भी ज्ञान नहीं होता है और इसमें मृदुस्तिरिवानद्धो विभिन्नोच्छं स्त्रवत्यसक। पित्त की ग्रंथिके समान लक्षण दिखाई देते हैं अर्थ-इन सब ग्रंथियों में से वातजप्रथिमें । दूषित मांसकी ग्रंथि। आयाम, तोद (सूची वेधवत वेदना ),और मांसलैषितं मांसमाहारैथिमावहेतू ६ फटने की सी पीडा होती है। इसका रंग स्निग्धं महांत कठिनं सिरानद्धंकफाकृतिम् काला होता है, और एक स्थान से दूसरे अर्थ-मांसको बढोनवाले आहारों के स्थानमें हटती रहती है, कभी घट जाती है सेवन से मांस दृषित होकर ग्रंथिको उत्पन्न और कभी बढ जाती है । वस्तिके समान करदेता है । यह ग्रंथि चिकनी, बडी,कठोर, मृदु और आनाह युक्त होती है, फटने पर सिराजाल से व्याप्त और कफके आकारवाली इसमें से निर्मल रुधिर झरने लगता है। होती है । पित्तज ग्रंथि। मेदाग्रंथि के लक्षण । पित्तात्सदाहापाताभो रक्तोवापच्यते इतम | प्रवृद्धं मेदुरैमैदोनीतं मांसेऽथवा त्वचि॥ भिन्नोऽनमुष्णं सवति वायुना कुरुते प्रथिं भृशं स्निग्धं मृदु बलम् . अर्थ-पित्तन ग्रंथिमें दाह होता है, इस श्लेष्मतुल्याकृति देहक्षत्रवृद्धिक्षबोदयम् ॥ का वर्ण पीला वा लाल होता है, यह शीघ्र स विभिन्नो घनं मेदस्ताम्राऽसितसितम्रवेत् पक जाती है । इसके फटने पर गरम रुधिर ___ अर्थ-मेदवर्द्धक आहार के सेवने से मेद का स्राव होता है। बढकर वायुद्वारा मांस वा त्वचामें ले जाया कफज ग्रंथि। जाता है, उससे जो ग्रंथि उत्पन्न होती है श्लेष्मणा नाजो धनः। वह अत्यन्त स्निग्ध, मृदु, चलायमान, कफके शीतः सवर्णः कंडूमान् पक्कः पूयंत्रवेद्धनम् | समान आकृतिवाली होती है । यह गांठ देह अर्थ-कफज ग्रंथिमें वेदना नहीं होती है । के घटने के साथ घटती है और बढने के ११२ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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