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(८९२)
अष्टांगहृदय । असाध्य गंडमाला। मुख, विवर्ण, झागदार और पूयस्रावी होती तांत्यजेत्सज्वरच्छार्दपार्श्वस्कूकासपीनसाम है । इसमें से रातके समय अधिक स्राव
अर्थ-जिस गंडमाला में ज्वर, वमन, होता है। पसली में वेदना, खांसी और पीनस होती पित्तजनाडी के लक्षण। है वह असाध्य होती है।
पित्तात्तड्ज्वरदाहकृत् ॥ २९ ॥ नाडीविज्ञान |
पीतोष्णपूतिपूयानदिवा चाऽतिनिषिंचति । अभेदात्पक्कशोफस्य व्रणे चापथ्यसेविनः ॥ अर्थ-पित्तजनाडी तृषा, ज्वर और दाह अनुप्रविश्य मांसादीन दूरं पूयोऽभिधापति उत्पन्न करती है । इसका वर्ण पीला होता गतिःसा दूरगमनानाडी नाडीव समुतेः॥ है इसमें से गरम दुर्गंधयुक्त राध निकला नाड्येकानुजुरन्येषां सैवानेकगतिर्गतिः।।
| करती है । इसमें से दिन के समय अधिक अर्थ-पकेहुए शोफ में चीरा न लगाया | जाय, वा घाव होने पर रोगी अपथ्य सेवन
| राध निकला करती है। करे तो राध बाहर नहीं निकल सकती है ।
कफजनाडी के लक्षण ।
धनपिच्छिलसंसावा कंडूला कटिनाकफात् और भीतर ही मांसादिक में प्रविष्ट होकर whyal दूरतक चली जाती है । दृरतक जाने के
। अर्थ-कफजनाडी में गाढा और गिलकारण इसे गति कहते हैं और नल के छेद | गिला स्राव होता है, इममें खुजली चला की तरह इसमें से राध निकलती है, इससे करती है और कठोरभी होता है । रातके इसे नाडी भी कहते हैं । अन्य ग्रंथकारों | समय इसमें से अधिक क्लेदता निकला का यह मत है कि यदि नाडी वक्र और करती है। एकही हो तो उसे नाडी कहते हैं और त्रिदोषज नाडी। यदि अनेक छिद्रों द्वारा गति हो तो इसे गति
सर्वैः साकृति त्यजेत् । कहते हैं।
___ अर्थ-त्रिदोषनाडी में वातादि तीनों दोषों .
के कहे हुए लक्षण मिले हुए दिखलाई देते .. नादी के भेद ।
हैं । त्रिदोषनाडीरोग असाध्य होता है | सा दोषेः पृथगेकस्थैः शल्यहेतुश्च पंचमी॥ अर्थ-नाडी के पांचभेद होते हैं, यथा
शल्यजनाही। वातज, पित्तज, कफज, सानिपातज और
अंतःस्थितं शल्यमनाहृतं तु
करोति नाडी वहते च साऽस्य । शल्यज।
फेनानुविद्धं. तनुमल्पमुष्णं - वातजनाडी के लक्षण ।
सानंच पूयं सरुजं च नित्यम् ॥ ३१ ॥ पातासरुपसूक्ष्ममुखी विवर्णा फेनिलोद्वमा |
अर्थ-भीतर स्थित हुआ शल्य बाहर सवत्यभ्यधिकं रात्री
न निकल सका हो वह व्रणमें नाडी उत्पन्न अर्थ-वातजनाडी वेदनान्वित, सूक्ष्म- करदेता है । इस शल्यजनाडीमें से पतली,
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