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अष्टांगहृदय ।
अ. ३
लीढं निर्वापयेत्पित्तमल्पत्वाद्धति नानलम् । खजेनामथ्य च स्थाप्यं तनिहत्युपयोजितम् आक्रामत्यनिलं पीतमूष्माणं निरुणद्धि च ।। कासहिधमाज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान् । अर्थ-पित्तकी आधिकता में घृत का
उरःसंधानजननं मेधांस्मृतिबलप्रदम् ११६
अश्विभ्यां विहितं हृद्यं कूष्मांडकरसायनम् । अवलेह, वातकी अधिकता में घृतपान कर
अर्थ-पेठेके छिलके और बीज निकालकर ना चाहिये । चाटा हुआ घृत थोडा होने के कारण पित्तको शांत कर देता है, पर
एक तुला लेकर उबाल ले फिर इसको अग्नि का नाश नहीं करता है । पान कि
वस्त्र में निचोडले, इसको एक प्रस्थ धीमें
भूने और कलछी से चलाता रहे । जब या हुआ घी अधिकता के कारण वातको नष्ट कर देता है और जठराग्नि को रोक
इसका वर्ण: शहत के समान होजाय तब
इसमें नीचे लिखे द्रव्य डाल-खांड ता है। वीर्यबर्धक चूर्ण।
१०० पल, पीपल, सोंठ और जीरा प्रत्येक क्षामक्षीणकृशांगानामेतान्येव घृतानि तु । ८ तोले, दालचीनी, इलायची तेजपात, त्वपक्षीरीपिप्पलीलाजचूर्णैः पानानि योज | धनियां, कालीमिरचं, प्रत्येक आधा आधा - वेत् ॥१११॥
पल इन सब द्रव्यों को डालकर अच्छीतरह सर्पिगुंडान्समवंशान् कृत्वा दद्यात्पयो नु च रेतो वीर्य बलं पुष्टिं तैराशुतरमामुयात् ॥
| मिलाकर नीचे उतारले, ठंडा होने पर अर्थ-म्लानतायुक्त, क्षीण और कृशांग |
घी से आधा शहत मिलाकर रई से मथकर रोगियों को ऊपर कहे हुए संपूर्ण घी में
घीकी हांडी में भरदे । इसकी मात्रा एक वंशलोचन, पीपल, और धानकी खीलका
तोले से दो तोले तक दीजाती है । इसके चूर्ण मिलाकर पान करावै । अथवा गुड
सेबन से खांसी, हिचकी, ज्वर, श्वास, और मधु मिला हुआ घी उचित मात्रा में
रक्तपित्त, क्षत, क्षयी, ये रोग दूर सेवन कराके ऊपर से दध पान करावे ।
होजाते है । वक्षःस्थल के घावको जोड़ता 'इसके पान करने से रोगी बहुत ही शीघ्र |
है, मेघा, स्मरणशक्ति और बलको बढाता शुक्र, वीर्य, बल और पुष्टिप्राप्त कर लेता
है, हृदय को हितकारी है, यह कूष्मांड
रसायन अश्विनीकुमार ने लिखी है । है । ( इसमें शर्करा पचास पल और शहद
. नागवलादि कल्प । १६ पल डाला जाता है)।
पिबेनागबलामूलस्यार्धकर्षाभिवर्धितम्।
पलं क्षीरयुतं मासंक्षीरवृत्तिरनन्नभुकू । कूष्मांडाख्य रसायन ।
एष प्रयोगःपुष्टयायुर्बलबर्णकरः परम् ॥ वीतत्वगस्थिकूष्मांडतुलां स्विन्नां पुनःपचेत् मंइकपाःकल्पोऽयं यष्टया विश्वौषधस्यच घट्टयन सर्पिषःप्रस्थे क्षौद्रवर्णेऽत्रच क्षिपेत
अर्थ-नागवला की जड पहिले दिन खंडाच्छतं कणाशुंठ्याोपलं जीरकादपि । त्रिजातधान्यमरिचं पृथगर्धपलांशकम् ॥
चार तोले दूधके संग पावै, फिर प्रतिदिन अवतारितशीते च दत्वा क्षौद्रं वृतार्धकम् । आधा भाधा कर्ष बढाकर एक महिने तक
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