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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । अ. ३ लीढं निर्वापयेत्पित्तमल्पत्वाद्धति नानलम् । खजेनामथ्य च स्थाप्यं तनिहत्युपयोजितम् आक्रामत्यनिलं पीतमूष्माणं निरुणद्धि च ।। कासहिधमाज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान् । अर्थ-पित्तकी आधिकता में घृत का उरःसंधानजननं मेधांस्मृतिबलप्रदम् ११६ अश्विभ्यां विहितं हृद्यं कूष्मांडकरसायनम् । अवलेह, वातकी अधिकता में घृतपान कर अर्थ-पेठेके छिलके और बीज निकालकर ना चाहिये । चाटा हुआ घृत थोडा होने के कारण पित्तको शांत कर देता है, पर एक तुला लेकर उबाल ले फिर इसको अग्नि का नाश नहीं करता है । पान कि वस्त्र में निचोडले, इसको एक प्रस्थ धीमें भूने और कलछी से चलाता रहे । जब या हुआ घी अधिकता के कारण वातको नष्ट कर देता है और जठराग्नि को रोक इसका वर्ण: शहत के समान होजाय तब इसमें नीचे लिखे द्रव्य डाल-खांड ता है। वीर्यबर्धक चूर्ण। १०० पल, पीपल, सोंठ और जीरा प्रत्येक क्षामक्षीणकृशांगानामेतान्येव घृतानि तु । ८ तोले, दालचीनी, इलायची तेजपात, त्वपक्षीरीपिप्पलीलाजचूर्णैः पानानि योज | धनियां, कालीमिरचं, प्रत्येक आधा आधा - वेत् ॥१११॥ पल इन सब द्रव्यों को डालकर अच्छीतरह सर्पिगुंडान्समवंशान् कृत्वा दद्यात्पयो नु च रेतो वीर्य बलं पुष्टिं तैराशुतरमामुयात् ॥ | मिलाकर नीचे उतारले, ठंडा होने पर अर्थ-म्लानतायुक्त, क्षीण और कृशांग | घी से आधा शहत मिलाकर रई से मथकर रोगियों को ऊपर कहे हुए संपूर्ण घी में घीकी हांडी में भरदे । इसकी मात्रा एक वंशलोचन, पीपल, और धानकी खीलका तोले से दो तोले तक दीजाती है । इसके चूर्ण मिलाकर पान करावै । अथवा गुड सेबन से खांसी, हिचकी, ज्वर, श्वास, और मधु मिला हुआ घी उचित मात्रा में रक्तपित्त, क्षत, क्षयी, ये रोग दूर सेवन कराके ऊपर से दध पान करावे । होजाते है । वक्षःस्थल के घावको जोड़ता 'इसके पान करने से रोगी बहुत ही शीघ्र | है, मेघा, स्मरणशक्ति और बलको बढाता शुक्र, वीर्य, बल और पुष्टिप्राप्त कर लेता है, हृदय को हितकारी है, यह कूष्मांड रसायन अश्विनीकुमार ने लिखी है । है । ( इसमें शर्करा पचास पल और शहद . नागवलादि कल्प । १६ पल डाला जाता है)। पिबेनागबलामूलस्यार्धकर्षाभिवर्धितम्। पलं क्षीरयुतं मासंक्षीरवृत्तिरनन्नभुकू । कूष्मांडाख्य रसायन । एष प्रयोगःपुष्टयायुर्बलबर्णकरः परम् ॥ वीतत्वगस्थिकूष्मांडतुलां स्विन्नां पुनःपचेत् मंइकपाःकल्पोऽयं यष्टया विश्वौषधस्यच घट्टयन सर्पिषःप्रस्थे क्षौद्रवर्णेऽत्रच क्षिपेत अर्थ-नागवला की जड पहिले दिन खंडाच्छतं कणाशुंठ्याोपलं जीरकादपि । त्रिजातधान्यमरिचं पृथगर्धपलांशकम् ॥ चार तोले दूधके संग पावै, फिर प्रतिदिन अवतारितशीते च दत्वा क्षौद्रं वृतार्धकम् । आधा भाधा कर्ष बढाकर एक महिने तक For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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