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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ३ चिकित्सिस्थान भाषाटीकासमेत । (४९३ ) वताओं को अमृत होताहै।इस सुधामृतरसका | मार्गगमन, आदि श्रमपीडित रोगियों के बल सेवन करके अनुपानमें क्षीर और मांसरस का | और मांस का बढानेवालाहै । पथ्य करना चाहिये । यह अमृतप्राश नष्ट- । रक्तगुल्मादि पर समसक्तु घृत । शुक्र, क्षतक्षीण, दुर्वल, व्याधिकर्शित, स्त्री मधुकाष्टपलद्राक्षाप्रस्थक्काथे पचेद्धृतम् । प्रसक्त, कृश, वर्णहीन और स्वरहीनों को पिप्पल्यष्टपले कल्के प्रस्थं सिद्धे च शीतले पृथगष्टपलं क्षौद्रशर्कराभ्यां विमिश्रयेत् । वृंहणकारकहै । खांसी, हिचकी, ज्वर, श्वास, । दाह, तृषा, और रक्तपित्त को नष्ट करदेता | ___अर्थ-मुहलटी आठ पल, दाख एक है, पुत्र देताहै, तथा वमन, हृद्रोग, मूर्छा प्रस्थ इनके काढे में घृत पकावै । ठंडा होने योनिरोग और मूत्र रोगों को दूर करदेताहै । पर आठ पल मधु और आठ पल शर्करा श्वद्रंष्ट्रादिघृत । मिलावै फिर इसी की बरावर सत्तू मिलाकर श्वदंष्टीशीरमंजिष्ठाबलाकाश्मर्यकत्तणम् । सेवन करने से क्षतक्षीण और रक्तगुल्म जादर्भमूलं पृथक्पर्णी पलाशर्षभको स्थिरा ॥ ते रहते हैं। पालिकानि पचेत्तेषां रसे क्षीरचतुर्गुणे । | यक्ष्मादिनाशक घृत । कल्कैः स्वगुप्ताजीवंतीमेदकर्षभजविकैः॥ धात्रीफलविदारीक्षुजीवनयिरसाघृतात् । शतावयाँर्धमृद्वीकाशर्कराश्रावणीबिसैः। । गव्याजयोश्च पयसोःप्रस्थं प्रस्थं विपाचयेत् प्रस्थः सिद्धो धृताद्वातपित्त हृद्रोगशूलनुत् ॥ सिद्धपूते सिताक्षौद्रं द्विप्रस्थं विनयेत्ततः। मूत्रकृच्छ्रप्रमेहाःकासशोषक्षयापहः ।। यक्ष्मापस्मारपित्तामृक्कासमेहक्षयापहम् ॥ धनुस्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानां बलमांसदः॥ वयःस्थापनमायुष्यं मांसशुक्रवलप्रदम् । ___ अर्थ-गोखरू, खस, मजीठ, खरेटी, ____ अर्थ-आमला, बिदारीकंद, ईख, और खंभारी, कत्तृण, डाभकीजड, पृश्नपर्णी, ढाक जीवनीयगण के द्रव्यों का रस, गों और ऋषभक, शालपर्णी, इनमेंसे हरएक को चार वकरी का दूध प्रत्येक एक प्रस्थ, इनमें एक तोले लेकर क्वाथ करले, इस क्वाथमें चौ- प्रस्थ घी को पकावै । जब पकजावे तब गुना दूध डाले । तथा केंचके वीज, जीवंती छानले और दो दो प्रस्थ मिश्री और शहत मेदा, ऋषभक, जीवक, सतावरी, ऋद्धि, मिलाकर सेवन करै । इससे यक्ष्मा, अपमुनक्का दाख, शर्करा, श्रावणी, कमलनाल स्मार, रक्तपित्त, खांसी, प्रमेह और क्षय इन सब द्रव्योंका कल्क उसमें डालदे और जाते रहते हैं । यह वय को स्थापनकर्ता, पाक की विधिसे एक प्रस्थ घी पकावे । आयुवर्द्धक, मांस शुक्र और बलको बढाने इसके सेवनसे बातपित्त, हृदयरोग, शूल, वाला है। मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह, अर्श, खांसी, शोष और पित्ताधिक्य में अबलेह । क्षयीरोग जातेरहते हैं, तथा धनुराक- "तं त पित्तेऽभ्यधिक लिह्याद्वाताधिके र्षण, अतिस्त्रीसेवन, अतिमद्यपान, भारवहन पिवेत् ॥ १०९॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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